SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टादशः सर्गः। 1167 करके ) असूयायुक्त होती हुई सी मानिनी उस ( दमयन्ती) ने उस (दिशा) को थोड़ा भी नहीं देखा / [ यद्यपि लज्जाके कारण दमयन्तीने उस तरफ नहीं देखा, किन्तु कविने उस दिशारूपिणी नायिकाको उस ( दमयन्ती ) के पति (नल ) द्वारा आलिङ्गित होनेसे दमयन्तीने उस दिशाको अपनी सपत्नी मानकर ईष्या की और स्वयं मानिनी होनेसे उस ( सपत्नीरूपिणी ) दिशाको देखातक नहीं ऐसी उत्प्रेक्षा की है। लोकमें भी सभी स्त्रियां पतिके द्वारा आलिङ्गित स्त्रीको सपत्नी मानकर उसके साथ ईष्यालु होती तथा उसकी ओर देखती तक नहीं, अत एव दमयन्तीका वैसा करना उचित ही है ] // 31 // ह्रोसरिन्निजनिमज्जनोचितं मौलिदूरनमनं दधानया / द्वारि चित्र युवतिश्रिया तया भर्तृहूतिशतमश्रुतीकृतम् // 32 // हीति / हीसरिति लज्जानद्याम् , निजस्य आत्मनः, निमज्जनं निमग्नीभवनम् , तस्य उचितं योग्यम् , लज्जाप्रयुक्तत्वात् मौलिनमनस्येति भावः। मौले मूदुजः, दूरम् अत्यर्थम् नमनं नतिम् , दधान या धारयन्त्या, अत एव द्वारि द्वारदेशे, चित्र युवतेः आलेख्यलिखितायाः तरुण्याः, श्रोरिव श्रोः कान्ति : यस्याः तथाभूतया, तद्वन्निश्चलया इत्यर्थः। तथा भैम्या, भतः नलस्य, हूतिशतं पुनः पुनराह्वानम्। 'हूतिराकारणाह्वानम्' इत्यमरः। अश्रुतीकृतं न श्रवणविषयीकृतम् , श्रुतमपि लज्जया प्रत्युत्तराप्रदानात् अगमनाच्च अश्रतमिव कृतमित्यर्थः / हिया प्रियं न किञ्चित् प्रत्युवाच इति निष्कर्षः। अभूततद्भावे विः // 32 // (निरन्तर प्रवाहित होनेसे ) लज्जारूपी नदी में आने डूबने ( स्नान करने) के योग्य अत्यन्त दूरतक नतमुखी तथा द्वारपर चित्रलिखित युवतिके समान हुई उस दमयन्तीने पति ( नल) के सैकड़ों आह्वानों (प्रिये दमयन्ति ! शीघ्र आओ...' इत्यादि नलकृत बुलाने ) को अनसुनी कर दिया। [जिस प्रकार नदीमें स्नान करनेवाला व्यक्ति डुबकी लगाते समय मुखको नाभितक नोचे कर लेता है, उसी प्रकार लज्जावती दमयन्ती ने मुखको अधिक नीचा कर लिया। तथा नलके बार-बार बुलानेपर भी उस प्रकार उस नलके बातको अनसुनी कर दिया और उनके पास न गयी और न कुछ उत्तर ही दिया जिस प्रकार द्वारपर बनायी गयी स्त्रीकी मूर्ति हो / लज्जावती अत एव नम्रमुखी दमयन्ती नलके बार-बार बुलानेपर भी उनकी बातको अनसुनी कर न तो उनके पास गयी और न उनकी बातोंका उत्तर ही दिया ] // 32 / / वेश्म पत्युरविशन्न साध्व साद् वेशिताऽपि शयनं बभाज न | भाजिताऽपि सविधं न साऽस्वपत् स्वापिताऽपि न च सम्मुखाऽभवत् / / वेश्मेति / सा भैमी, साध्वसात् भयात् , पत्युः भत्त:, वेश्म गृहम् , न अविशत् न प्रविष्टवती, वेशिताऽपि सखीभिः कथञ्चित् गृहान्तः प्रापिताऽपि शयनं तल्पम न बभाज न सिषेवे, शय्यायां न अगच्छदित्यर्थः। भाजिताऽपि सखीभिरनुनयादिना
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy