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________________ 768 नैषधमहाकाव्यम् / कुमार युवा आदि अनेक अवस्थाओं) वाला, विकसित (पक्षा०-केसरहित) चन्द्रिका ( चांदनी पक्षा०-खल्वाटपना अर्थात् चण्डुलपना ) से योग्य विलसित संगत ( मैत्री ) वाले ( समुद्रसे उत्पन्न चन्द्र की चांदनीसे समुद्रका योग्य सङ्गत होना उचित ही है ) जल ( पक्षा०-मस्तक) को धारण करता हुआ और स्नान करनेवाले धर्मात्माओंसे ( स्नान करने के समय डुबकी लगानेके लिए ) मस्तक झुकानेसे ( अथवा-नमस्कार करनेसे ) सर्वदा आदर पाया हुआ वृद्ध ( बढ़ा हुआ अर्थात् विशाल, पक्षा०-बूढ़ा ) यह ( इस राजाका खुदवाया हुआ उक्त ) तडाग ( पक्षा० समुद्र) है / [ जिस प्रकार सिकुड़े हुए चमड़ेवाला पके श्वेत वार्लोसे युक्त शरीरवाला, सहारेके लिए छड़ी लिया हुआ, अधिक उम्रवाला केशरहित खल्वाटपनासे युक्त मस्तकवाला बूढ़ा मनुष्य धर्मात्मा पुरुषों के द्वारा नमस्कार करनेसे सदा आदर पाता है, उसी प्रकार टेढ़े तरङ्गोंवाला, हंस-समूहसे श्वेत प्रवाहरूप शरीरवाला, खुदवानेवाले इस राजाके वंशादि-परिचायक कीर्तिस्तम्भ ( जाठ ) वाला, बहुत पक्षियों वाला, श्वेत चांदनीके समान निर्मल जलवाला ( अथवा-श्वेत चांदनीसे चञ्चल जलवाला ) और स्नानार्थी धार्मिकोंसे झुककर प्रणाम कर ( अथवा-डुवकी लगाते समय मस्तक झुकाकर ) सर्वदा आदृत ( इस राजाका ) विशाल तडाग है / पूर्णिमा तिथिको ही समुद्रके स्पर्श एवं उसमें स्नान करनेका शास्त्रीय विधान है, अत एव उस समुद्रकी अपेक्षा भी उक्त तडाग स्नानार्थी धर्मास्माओंसे सर्वदा नमस्कृत होनेके कारण श्रेष्ठ है ] // 102 // तस्मिन्नेतेन यूना सह विहर पयःकेलिवेलासु बाले ! नालेनास्तु त्वदक्षिप्रतिफलनभिदा तत्र नीलोत्पलानाम् / तत्पाथोदेवतानां विशतु तव तनुच्छायमेवाधिकारे तत्फुल्लाम्भोजराज्ये भवतु च भवदीयाननस्याभिषेकः / / 103 / / तस्मिन्निति / बाले ! तस्मिन् तडागे, यूना एतेन राज्ञा सह, विहर क्रीडां कुरु, पयःकेलिवेलासु जलक्रीडाकालेषु, तत्र तडागे, नीलोत्पलानां त्वदणोः प्रतिफलनात् प्रतिविम्बनात् , भिदा भेदः, 'षिद्भिदादिभ्योऽङ' नालेनास्तु नालमेव त्व. न्नेत्रप्रतिबिम्बसदृशनीलोत्पलानां भेदकमस्तु इत्यर्थः, तव तनोः छाया तनुच्छायं कायकान्तिः, शरीरप्रतिबिम्ब वा, 'विभाषा सेना-' इत्यादिना नपुंसकत्वम् , तस्य तडागस्य, पाथोदेवतानां जलदेवतानाम् , अधिकारे आधिपत्ये, विशतु आधिपत्यं करोतु इत्यर्थः, भवदीयाननस्य तस्य तडागस्य, फुल्लाम्भोजानां विकचपद्मानां, राज्ये आधिपत्ये, अभिषेकश्च भवतु, त्वन्नेत्रादिकं तदीयोत्पलादिकम् अतिशय्य वत्तिप्यते इत्यर्थः॥ 103 // हे बाले ( दमयन्ति ) ! उस तडागमें इस युवक (मगधेश्वर ) के साथ विहार करो तथा उसमें जलक्रीडाके समयों अर्थात् प्रत्येक ग्रीष्म ऋतुमें नीलकमलों के नाल ( डण्ठल ) से तुम्हारे नेत्रके प्रतिबिम्बसे भेद हो (नीलकमलोंमें नाल होनेसे तथा तुम्हारे नेत्रोंमें उसके
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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