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________________ 1180 नैषधमहाकाव्यम् / गाढ़ालिङ्गनमें हठवृत्ति हो ( बलात् अर्थात् दमयन्तीकी अनुमतिके बिना ही आलिङ्गन कर ) उस ( अधर ) का स्वाद ले लिया अर्थात् अधरचुम्बन कर लिया। [ अथवा-दमयन्तीके द्वारा केवल एक बार अधरपान करनेकी अनुमति प्राप्तकर नलने एक बारसे अधिक अधरपान तथा आलिङ्गन आदि व्यापारको भी बलात्कारसे ( बिना अनुमतिके ) कर लिया। अथवा - एक बार अधरपान करनेके लिए दमयन्तीसे अनुमति पाकर पहले आलिङ्गन, नखक्षत आदिको हठपूर्वक करके अन्तमें अधरपान कर लिया / 'अन्यदा' पाठा०-'फिर दूसरे समयमें अधरपानकी याचना भी नहीं करूंगा', यह अर्थ करना चाहिये / 'सोऽयमर्द्ध-' पाठा०-वे नल कुछ हठयुक्त आलिङ्गनादि व्यापार किये-ऐसा अर्थ करना चाहिये ] // 56 // (पीततावकमुखासवोऽधुना भृत्य एष निजकृत्यमर्हति / तत्करोमि भवदूरुमित्यसौ तत्र सन्न्यधित पाणिपल्लवम् // 1 // ') पीतेति / असौ नल इत्युक्तिव्याजेन तत्रोरौ पाणिपल्लवं मृदुसुखस्पर्शतया पल्लवतुल्यं पाणिं सन्न्यधित स्प्रष्टुं सन्निवेशितवान् / इति किम् ?-हे भेमि !, एष भृत्यो मल्लक्षणो दासः; पीतस्तावकमुखमेवासवो मद्यं येन, अथ च-पीतस्त्वदीयमुखस्य सुरागण्डूषो येन, एवम्भूतः सन्नधुना निजकृत्यं चरणसंवाहनादिरूपं भृत्यसम्बन्धिकार्य कर्तुमर्हस्युचितो भवति / तत्तस्माद् गृहारामपुष्पावचयादिना खिन्नं भबदूरु त्वदीयमूरुं करोमि संवाहयामि। अथ च-सामर्थ्यादूचं करोमीति / अनेकार्थस्वास्करोति संवाहनार्थः / अन्योऽपि भृत्यो भुक्तमुखोच्छिष्टञ्चरणसंवाहनं करोति // 1 // इस तमय तुम्हारे मुखरूपी ( पक्षा०-मुखोच्छिष्ट अर्थात पीनेसे बचे हुए ) मद्यका पान किया हुआ यह ( मल्लक्षण अर्थात् नलरूप ) दार अपना कार्य ( स्वामिनीरूपिणी तुम्हारे चरणों को दबाना ) करने के योग्य है, ( अथ च-सामर्थ्य होनेसे इससे अधिक कार्य करनेके योग्य है ), यह कहकर इस ( नल ) ने वहांपर ( दमयन्वोके ऊरुद्वयपर सुख-स्पर्श होनेसे) पल्लवोपम हाथको रख दिया। [ लोकमें भी कोई दास मालिकके उच्छिष्टका भोजन कर के उसके पैरको दबाकर उसे पीड़ा-रहित करता है ] // 1 // चुम्बनादिषु बभूव नाम किं ? तवृथा भयमिहापि मा कृथाः / आलपन्निति तदीयमादिम स व्यधत्त रसनावलिव्ययम् / / 57 / / चुम्बनेति / हे प्रिये ! चुम्बनादिषु अधरपानादिषु कृतेषु, किं नाम तव किमनिष्टमित्यर्थः / नाम इति प्रश्ने, बभूव ? सञ्जातम् ? न किञ्चिदपीत्यर्थः / तत् तस्मात् , इह करिष्यमाणे अस्मिन् सुरतेऽपि, वृथा मिथ्या, भयं शङ्काम् , मा कृथाः न कुरु, इति 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'व्याख्यासहित एवात्र मया स्थापितः / 2. 'इत्युदीर्य रसनावलिव्ययं निर्ममे मृगदृशोऽययादिमम्' इति 'प्रकाश' कृता व्याख्यातः पाठः।.
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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