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________________ 1336 नैषधमहाकाव्यम् / भैमी, स्वर्णद्याम् आकाशगङ्गायां मन्दाकिन्याम् , या .स्वर्णपद्मिनी कनकमयकमल. लता तस्याः, पद्मस्य स्वर्णकमलस्य, दानं स्वस्यै अर्पणम्, तथा ते तव, दिवश्व अन्तरीक्षाच्च, आगमनञ्च उपस्थितिञ्च, त्वदिन्द्रत्वे तव वासवस्वसंशये, निदानतां मूलकारणताम् , नयति प्रापयति / मानवे एतदुभयस्यासम्भवत्वादिति भावः // 69 / / आकाशगङ्गाका स्वर्ण-कमल देना तथा स्वर्गसे ( रथद्वारा तुम्हारा यहांपर) आना तुम्हारे ( नलके ) इन्द्र होने में यह ( दमयन्ती) कारण मानती है। मनुष्यका आकाशगङ्गाका स्वर्णकमल लाना तथा स्वर्गसे आना असम्भव हो से यह तुमको मायासे नलका * रूप धारणकर इन्द्र होने में मूल कारण समझती है, क्योंकि तुम स्वर्गसे रथपर चढ़कर आये हो तथा इसके लिए आकाशगङ्गाका स्वर्णकमल दिये हा (2011-4), अत एव इसकी ऐसी शङ्का होना उचित प्रतीत होता है / यहाँपर 'कला' परिहास करनेमें नलसे भी आगे बढ़ गयी है ] // 69 // आषते नैषधच्छाया मायाऽमायि मया हरेः। ___ आह चाहमहल्यायां तस्याकर्णितदुर्णया / / 70 / / ___ भापते इति / हे महाराज ! भाषते भैमी अन्यदपि वदति / किमिति ? हे कले ! मया नैषधच्छाया नलरूपधरा, हरेः इन्द्रस्य, माया छलना, अमायि अनुमिता, स्वयंवरकाले तथाभूतव्यापारदर्शनादिति भावः / माङः कर्मणि लुङ चिणि युगागमः। ननु तदानीं ते कौमार्यात् त्वल्लाभाथं तस्य माया न दूषणीया, इदानीन्तु तव परस्त्रीत्वात् तस्य तथाविधा माया न सम्भवत्येव इत्याह-आह च एतदपि वदतीत्यर्थः / अहं दमयन्ती, अहल्यायां तन्नाम्न्यां गौतमभार्यायाम , तस्य इन्द्रस्य, आकर्णितः श्रतः, पुराणादौ इति शेषः / दुर्णयः दुश्चेष्टितम् , मायया गौतमरूपं धृत्वा सतीत्वना. शरूपदुर्व्यवहार इत्यर्थः / यया सा तादृशी, अस्मीति शेषः / सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः / 'उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य' इति णत्वम् / पारदार्यात् भीतिरप्यस्य नास्ति, अत इदानीमपि तत्कर्तृकनलरूपधारणं नासम्भवः इति भावः // 70 // ( यह दमयन्ती मुझसे यह भी ) कहती है कि- ( मैंने ) इन्द्र के नलकान्ति (को मायासे धारण करने ) के कपटका अनुमान कर लिया। ( उस समय तुम्हें कुमारी रहनेसे उक्त माया द्वारा इन्द्रका तुन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करना अनुचित नहीं कहा जा सकता, किन्तु अब तो तुम नलकी पत्नी होनेसे परस्त्री हो गयी हो, अतः इन्द्र मायासे नलका रूप धारण कर तुम्हें प्राप्त करनेकी चेष्टा कैसे कर सकते हैं। इस शङ्काके उत्तर में यह दमयन्ती) और कहती है कि उस ( इन्द्रकी ) अहल्या ( गौतमपत्नी ) में दुर्नीति (व्यभिचार ) मैंने सुना है ( अत एव इन्द्रका परस्त्री-सम्भोगसे भी डरकर ऐसा करना असम्भव नहीं है ) // 70 // सम्भावयति वैदर्भी दर्भाग्राममतिस्तव | जम्भारित्वं कराम्भोजाइम्भोलिपरिरम्भिणः / / 71 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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