________________ ऊनविंशः सर्गः। 1267 सर्य अपनी ( स्वाभाविक ) देदीप्यमान शुभ्रताको क्यों नहीं धारण करता ? और इस समय (इतना दिन चढ़नेपर ) भी सूर्य-किरण-समूह आकाशको अरुण वर्ण क्यों कर रहा है ? [इस प्रकार यहां दो प्रश्न हैं / अथवा-"जिस कारण ये सूर्य-किरण-समूह आकाशको अरुणवर्ण कर रहे हैं, इसी कारण यह सूर्य अपनी ( सहज ) देदीप्यमान शुभ्रताको नहीं धारण कर रहा है क्या ? सूर्य ऊपर आ गया है, कमल विकसित हो गये हैं, फिर भी आकाश लालवर्ण हो रहा है। इस कारण निद्रात्याग करनेका यह उचित समय है ] // 64 // प्रातवर्णनयाऽना निजवपुर्भूषाप्रसादानदाद् देवी वः परितोषितेति निहितामान्तःपुरीभिः पुरः / सूता मण्डनमण्डली परिदधुर्माणिक्यरोचिर्मय क्रोधावेगसरागलोचनरुचा दारिद्रयविद्राविणीम् / / 65 / / प्रातरिति / हे वन्दिनः ! अनया युष्माभिरुक्तया, प्रातवर्णनया प्रभातवर्णनेन, परितोषिता प्रीणिता, देवी महिषी दमयन्ती, वः युष्मभ्यम् , निजवपुषः स्वाङ्गस्य, निजव्यवहार्याणि अत एव बहुमूल्यानीति भावः / भूषाः आभरणानि एव, प्रसादान् पारितोषिकाणि, अदात् दत्तवती / देवी अदात् इत्यनेन पूर्वमेव 'प्रातःसन्ध्याचरणार्थ नलस्य प्रासादात् प्रस्थानं सूचितमिति बोध्यम् / इति इस्थम् , उक्स्वेति शेषः / गम्यमानार्थत्वात अप्रयोगः / आन्तःपुरीभिः अन्तःपुरिकाभिः, अन्तःपुरे नियुक्ताभिः सहचरीमिरित्यर्थः / तत्र नियुक्तः' इति ठक / पुरः अग्रे, वैतालिकानामिति भावः / निहितां स्थापिताम् , माणिक्यरोचिर्मय्या पद्मरागप्रभारूपया, क्रोधावेगेन दारिद्रयं प्रति कोपवशेनैव, सरागया रक्तवर्णया, लोचनरुचा नेत्रभासा, मण्डनमण्डल्या एव प्रभयेति भावः / दारिद्रयस्य निर्धनताया:, विद्राविणीम् उच्चाटनीम् , बलेन दूरीकुर्वतीमिव स्थितामित्यर्थः इत्युत्प्रेक्षा। मण्डनमण्डलीम् आभरणराशिम, सूताः वन्दिनः / 'सूतो मागधवन्दिनोः' इति विश्वः / परिदधुः स्वाङ्गे धारयामासुः // 65 // ( हे वन्दिगण ! ) इस ( 19 / 2-64 ) प्रातवर्णनसे सन्तुष्ट हुई पटरानी दमयन्तीने अपने शरीरके भूषणोंको ( तुमलोगों के लिए ) पारितोषिकस्वरूप दिया है। ऐसा कहकर अन्तःपुर ( रनिवास ) में नियुक्त सहचरियोंसे (वन्दिगणके) सामने रखे गये तथा माणिक्यकी ( लाल-लाल ) कान्तिरूपी क्रोधयुक्त सराग ( लाल वर्ण ) नेत्रों की कान्तिसे दरिद्रताको दूर भगानेवाले भूषण-समूहको वन्दियोंने पहना / [ यहांपर भूपोंमें जड़े गये माणिक्योंकी लाल कान्तिको हे दारिद्रय ! हमारे आनेपर भी तुम अभी तक नहीं दूर हुए मानो इस प्रकार क्रोधसे नेत्रको लाल करके वन्दियों के दारिद्रयको दूर करनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है / दमयन्तीके प्रसन्न होकर पारितोषिक देनेसे वन्दियों के प्रातः वर्णन समाप्त होनेके पहले ही नलका उठकर प्रातः सन्ध्यादिकृस्यके निमित्त चले जानेसे प्रासादपर नहीं रहना, सूचित