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________________ षोडशः सर्गः। 657 शोभिनी, करग्रहस्य हस्तेन धारणस्य विवाहस्य च, अहाँ योग्यां, तामसिपुत्रिका छुरिकामपि, तथा असिरूपां कन्याञ्च 'स्याच्छस्त्री चासिपुत्री'च च्छुरिका चासिधेनुका, इत्यमरः / सः भीमः भूपतिः, अस्मै नलाय, ददे / शस्त्रपुत्रिकयोः प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतश्लेषः // 21 // __ अतिशय याचना करनेवाले यमने उस (राजा भीम ) से कुमारी दमयन्तीको मांगने के लिए अपनी जिह्वाके समान जिसे भेजा था, उस ( राजा भीम ) ने परिवार(म्यान, पक्षा०-सखी आदि ) से शोभनेवाली तथा हाथमें लेने (पक्षा०-विवाह ) के योग्य (अथवा-सुन्दर मूठसे योग्य ) उस छुरिका अर्थात् कटारको भी इस (नल) के लिए दिया / [ 'अपि' शब्दसे केवल खड्गको ही राजा भीमने नलके लिए नहीं दिया, अपि तु कटारको भी दिया; अथवा-केवल पुत्री ( दमयन्ती) की ही नहीं दिया अपितु कटारको भी दिया। दमयन्ती सखियोंसे तथा कटार कोष (म्यान) से शोमती थी और दमयन्ती विवाइके तथा कटार हाथमें लेनेके योग्य थी; तथा वह कटार यमराजकी जिह्वाके समान पर प्राणोंका हरण करनेवाली थी ] // 21 // यदङ्गभूमौ बभतुः स्वयोषितामुरोजपत्त्रावलिनेत्रकज्जले / रणस्थलस्थण्डिलशायिताव्रते गृहीतदीक्षैरिव दक्षिणीकृते / / 22 / / यदिति / यस्याः असिपुत्रिकायाः, अङ्गभूमी प्रान्तदेशी, रणस्थलमेव स्थण्डिलमनिम्नोन्नता परिष्कृता भूः, तत्र शेरते इति तच्छायिनः 'व्रते' इति णिनिः। तस्य भावः तच्छायिता, सा एव व्रतं नियमविशेषः तत्र, गृहीतदीक्षः रणस्थले छुरिकाघातेन मृत्युशय्यायां शयनरूपवतदीक्षितैः शत्रुभिरित्यर्थः, दक्षिणीकृते तादृशवतोप. देशिन्यै ऋत्विकस्वरूपायै असिपुत्रिकायै दक्षिणारूपेण प्रदत्ते इत्यर्थः / स्वयोषितां निजस्त्रीणाम, उरोजयोः स्तनयोः, पत्रावलिः मृगमदादिरचितपत्रभङ्गिः नेत्रकज्जलञ्च ते इव, बभतुः विरेजतुः शत्रुस्त्रीभिः वैधव्यवशात् पत्रावलिनेत्रकज्जले परित्यक्ते इति भावः / भाधातो वे लिटि अतुसादेशः / कृष्णवर्णयोश्छुरिकाप्रान्तदेशयोः स्तनपत्र. वल्लीत्वनेत्रकज्जलवाभ्यामुत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षालङ्कारः // 22 // जिस कटारके दोनों भाग ऐसे शोभते थे कि रणस्थलमें भूमिपर सोनेके व्रतकी दीक्षा ग्रहण किये हुए राजाओंने अपनी स्त्रियोंके स्तनोंकी ( कस्तूरी आदिसे रची गयी) पत्ररचना तथा नेत्रों के कज्जलोंको उक्त व्रतकी दीक्षा (मन्त्रोपदेश) देनेवाली उस कटारके लिए दक्षिणा दे दी हो / [ लोकमें दीक्षा देनेवालों ऋत्विक आदि के लिए दक्षिणा दी जाती है, अत एव उस कटारने राजाओंको रणस्थलमें भूमिपर सोनेके व्रतकी दीक्षा (मन्त्रोपदेश ) दिया था, अतएव उन्होंने अपनी स्त्रियोंके स्तनोंकी पत्ररचना तथा नेत्रों के कज्जलोंको उक्त व्रतकी दीक्षा देनेवाली उस कटारके लिये दक्षिणा दे दी थी, अत एव श्यामवर्ण उसके दोनों भाग शोभित होते थे। शत्रुओं के मरनेपर उनकी विधवा स्त्रियां स्तनोंपर पत्ररचना
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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