________________ त्रयोदशः सर्गः। 813 बाधक रहने पर हमें दमयन्ती किस प्रकार ( प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं प्राप्त हो सकती ऐसा नलने विश्वास कर लिया ), जिस प्रकार ( शास्त्रीय ) मतों के अनेक मत रहने पर चार पक्षों ( सत् , असत्, सदसत् और सदसत्से विलक्षण ) के उस बास्तविक प्रतीति ( सम्यग्ज्ञान ) को रोकते रहने पर ( अभेदप्रतिपादक उक्त चार पक्षोंसे विभिन्न ) पञ्चम पक्षमात्रमें स्थित अतिशय सत्य अद्वैत तत्त्वमें लोक ( सामान्य बुद्धिवाला व्यक्ति ) श्रद्धा नहीं करता है / ( अथवा-सभास्थित दर्शकोंने 'यह दमयन्ती इसे वरण करेगी तथा यह वास्तविक नल है' ऐसा निश्चय नहीं किया / ( पाठा०-उस ( दमयन्ती ) ने विविध बुद्धि ( पांच नल होनेसे वास्तविक-नल-विषयक सन्देह ) होने पर उसे ( दमयन्तीको ) पानेके इच्छुक समीपमें बैठे हुए चारो ( इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण ) के उस श्रद्धा ( वास्तविकनल-विषयक विश्वास ) को (असत्य नल-रूप धारणकर ) निषेध करते ( रोकते ) रहनेपर पञ्चम स्थान ( इन्द्रसे पांचवें आसन ) पर स्थित अत्यन्त सत्य भो नलमें उस प्रकार विश्वास नहीं किया; जिस प्रकार अनेकात्मवादी (आत्माको अनेक माननेवाले) साङ्खयादि चार दर्शनों के उस अतिशय सत्य अद्वैत-विषयक विश्वासको निषेध करते रहने पर युक्तायुक्त विचारसे हीन अविद्वान् व्यक्ति अनेक मतों ( साङ्खयादि षड्दर्शनशास्त्रों के विविध सिद्धान्तों ) के रहने पर ( 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, नेह नानाऽस्ति किञ्चन' इत्यादि वेदवचनोंसे ) अत्यन्त सत्य अर्थात् वास्तविक भी तत्पदवाच्य ब्रह्म ) के लाभका प्रतिपादक अद्वैत तत्त्व ( एक ब्रह्म-विषयक ज्ञान ) में श्रद्धा ( विश्वास ) नहीं करता। ( अथवा-उस दमयन्तीने विविध मतों ( सन्देहों ) के रहने पर उन पार्वस्थित चारों ( इन्द्रादि ) के नलविषयक विश्वासको रोकते रहनेपर भी दमयन्तीको पाने के इच्छुल तथा पञ्चम स्थानमें ( पांचवें आसन पर ) स्थित वास्तविक नलमें (वही वास्तविक नल हैं यह ) विश्वास नहीं किया ? अर्थात् 'अविज्ञातेऽपि बन्धौ हि बलात्प्रह्लादते मनः' (किरातार्जुनीय 14 / 35 ) इस कविशिरोमणि भारविकी उक्तिके अनुसार 'यही वास्तविक नल हैं तथा ये दूसरे चार कपटवेषधारी नल हैं। यह जान ही लिया। जिस प्रकार बौद्धादि अनेक दर्शनसिद्धान्तों के विद्यमान रहते वास्तविक अद्वैततत्वविषयक विश्वासमें बाधक होते रहने पर भी वस्तुतत्त्वज्ञ जन पञ्चम-कोटिस्थ अर्थात् आत्मामें विश्वास कर लेता है ) / [ साङ्खथमतानुयायी-प्रत्येक कारीर में भिन्न शुद्धज्ञान स्वभाववाले बहुत आत्माओंको मानते हैं; नैयायिक-प्रत्रे विशरीरमें भिन्न, सर्वव्यापक ज्ञानादि नवविशेष गुणों से युक्त आत्माको मानते हैं; आर्ही प्रत्येक शरीर में भिन्न शरीरके बराबर प्रमाणवाले सङ्कोच तथा विस्तार करनेवाले बहुत आत्माओंको मानते है और बौद्ध-प्रत्येक शरीरमें भिन्न क्षणिक ज्ञान-सन्तानरूप अनेक आत्माओंको मानते हैं / इस प्रकार सत् , असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण-चार पक्ष अद्वैत ब्रह्मके सिद्धान्तके बाधक हैं / विस्तृत विषयशान वेदान्तादि दर्शन शास्त्रोंसे करना चाहिये ] // 35 // कारिष्यते परिभवः कलिना नलस्य तां द्वापरस्तु सुतनूमदुनोत् पुरस्तात् / भैमीनलोपयमनं पिशुनौ सहेते न द्वापरः किल कलिश्च युगे जगत्याम् / /