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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1283 पृथ्वीके अधोमार्ग ( पाताल-मार्ग) से सन्चार ( अभिमव ) करते हुए वेदरूप वृक्ष शरीर ) वाले सूर्यको एक सहस्र सस्वर (कठ, कण्व आदि ) शाखाओं (किरणों) को शेषनाग प्रत्येक रात्रिमें (प्रत्येक फणासे दो-दो नेत्र होनेके कारण सहस्र फणाओंमें स्थित ) दो सहस्र नेत्रोंसे एक साथ सुनता तथा देखता है। [ सूर्य वेदरूपीवृक्ष हैं, उस वेदरूपी वृक्षमें कठ-कण्व आदि एक सहस्र शाखाएँ ( पक्षा०-किरणें ) ( वृक्षमें सहस्रों शाखाओं अर्थात् डालियोंका होना उचित ही है / अथवा-सूर्यका शरीर वेदरूप है, उनकी किरणें उन वेदकी शाखाएं हैं ) / चक्षुःश्रवा शेषकी सहस्र फणाओंमें (प्रति फणामें दो-दो नेत्र होनेसे ) दो सहस्र नेत्र है, अत एव जब रात्रिमें सर्य पृथ्वीके अधोमाग ( पाताल ) में चले जाते हैं, तब उनकी वेदात्मक सूर्यकी शाखाओं के स्वरोंको शब्दरूप और किरणोंको तेजोरूप होनेसे दो सहस्र नेत्रवाला शेष एक साथ ही एक सहस्र नेत्रोंसे शब्दरूप वेदात्मक सूर्यकी उदात्तादि स्वरसहित सहस्र शाखाओं को सुनता तथा एक सहस्र नेत्रोंसे तेजोरूप सूर्यकी सहस्र किरणोंको देखता है, अत एव शेषके दो सहस्र नेत्रोंका होना सर्वथा चरितार्थ होता है। यही व्याख्या 'प्रकाश'कारने की है। विश्वेश्वर भट्टारकके इसी प्रकार की व्याख्याको 'शेषके चक्षुःश्रवा ( नेत्रोंसे सुननेवाला ) होने दो सहस्र दृष्टियों में से प्रत्येक दृष्टिमें दर्शन-श्रवण दोनोंकी शक्ति होने से ग्राह्य शब्द तथा तेज ( शाखा तथा किरण ) का दोनों सहस्र नेत्रोंसे सुनना तथा देखना एक साथ ही उचित है' ऐसी व्याख्या करते हुए 'जीवातु'कारने चिन्त्य बतलाया है, किन्तु उक्त अर्थके स्वीकार करने में दो सहस्र दृष्टियोंका होना सार्थक नहीं होने से उक्त व्याख्यान ही चिन्त्य प्रतीत होता है ] // 52 // बहु नखरता येषामग्रे खलु प्रतिभासते कमलसुहृदस्तेऽमी भानोः प्रबालरुचः कराः। उचितमुचितं जालेष्वन्तः प्रवेशिभिरायतैः कियदवयवैरेषामालिङ्गिताऽङ्गलिवल्गता / / 53 / / बहिति। येषां कराणाम् , अग्रे प्रत्यग्रावस्थायाम, प्रभाते इत्यर्थः / बह्वी प्रभूता, अत्यर्था इत्यर्थः / न-खरता अतीक्ष्णता, अन्यत्र-अग्रे अग्रभागे, बहुनखरता बहुन खत्वम् / 'नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः / खलु निश्चितम्, प्रतिभासते प्रतीयते कमलानां पद्मनाम्, सुहृदः बन्धवः, विकाशकत्वादिति भावः / सुहृत्वेनैव न-खरता बोद्धव्या; अन्यत्र-सौन्दर्यमार्दवाभ्यां तत्सदृशाः / प्रबालरुचः विद्रुमभासः, उभयः त्रापि समानम् ; भानोः सूर्यस्य, ते तादृशाः, अमी परिदृश्यमानाः, कराः अंशवः हस्ताश्च, प्रसर्पन्तीति शेषः / अत एव जालेषु गवाक्षविवरेषु, अन्तःप्रवेशिभिः अभ्यन्तरप्रविष्टेः, आयतैः दीर्घः, एषां कराणाम्, कियदवयवैः किश्चिदंशः। कर्तृभिः। उचि. 1. 'लङ्गिमा' इति पाठं व्याख्याय 'अङ्गुलिचारुता' इति पाठः स्पष्टार्थः इति 'प्रकाश' कार आह।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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