________________ विशः सर्गः। 1346 योग्यं श्मश्रुलमिवेति भावः / स्वं निजम् , आस्यं मुखम् , हारमणौ हारस्थितरत्नमध्ये, अधास्थितस्य ममेति भावः। दृष्टम् अवलोकितम् , स्मर चिन्तय // 94 // __जिस ( अनिर्वचनीय कामक्रीडा-विपरीत रति ) में कस्तूरीसे युक्त पसीनेसे ठुड्ढीतक नीला होते हुए ( अत एव दाढ़ीके केशयुक्त-सा प्रतीयमान ) उस समय ( अथवा-उत्सव अर्थात् विपरीत रति ) के योग्य (अधःस्थित मेरे ) हारके मणिमें ( प्रतिबिम्बित होनेसे ) स्वयं देखे गये अपने मुखका तुम स्मरण करो। [विपरीत रति करते समय जब तुम्हें पसीना आने लगा, तब तुम्हारे कपोलमें कस्तूरीरचित मकरिकादिचिह्नकी कस्तूरी पसीनेसे आर्द्र होकर ठुडढोतक फैल गयी, जो उपरिस्थ होनेसे पुरुषायित तुम्हारे लिये उचित था, क्योंकि पुरुषकी दाढ़ीमें कृष्णवर्ण बाल होता ही है; ऐसे अपने मुखको तुमने अधःस्थित मेरे हाररत्नमें देखा था, उसे स्मरण करो ] // 94 // ( स्मरं तन्नखमत्रोरौ कस्ते धा (दा) दिति तन्मृषा | हीदवतमलुम्पं यद् व्रतं रतपरोक्षणम् // 1 // ) स्मरेति / अहमत्रास्मिस्ते तवोरो को नखमधा (दा)द् दत्तवानिति मृषा असत्य. भाषी सन् हीरेव दैवतं यस्य तत् , अत एव रतस्य परोक्षणं परोक्षकरणं ब्रह्मचर्यरूपं सुरतप्रतिबन्धकं व्रतं नियमं यदलुम्पं निवर्तितवान् तत्स्मर / परपुरुषसम्बन्धशङ्कोत्पादनार्थ मृषाभाषणेन रसान्तरमुत्पाद्य लज्जाकृतं सुरतप्रतिबन्धकमनुद्योगं यन्निवर्तितवांस्तस्मर / व्रतं सदैवतं भवतीति हीदेवतमित्युक्तम् // 1 // ___ 'तुम्हारे इस ऊरुमें किसने नखक्षत किया ? इस प्रकार मिथ्या भाषण करता हुआ मैं लज्जा ही है देवता जिसका ऐसा, रतको परोक्ष करनेवाला अर्थात् ब्रह्मचर्यरूप व्रतको जो तोड़ा, उसे तुम स्मरण करो / [ परपुरुषकी शङ्का रतिकालमें ही तुम्हारे मनमें उत्पन्न करने के लिए मिथ्याभाषणसे जो रसान्तरको पैदाकर लज्जाकृत सुरतबाधक तुम्हारे ब्रह्मचर्यसुरत नहीं करने के व्रत (प्रबलेच्छा ) को नष्ट किया अर्थात् सुरतकार्यमें प्रवृत्त किया उसे स्मरण करो] // 1 // वनकेलौ स्मराश्वत्थदलं भूपतितं प्रति / देहि मह्यमुदस्येति मगिरा ब्रीडिताऽसि यत् / / 95 / / वनेति / किञ्च, हे चारुशीले ! वनकेलो प्रमदवन विहारकाले, भूपतितं वृक्षात् भूतले च्युतम् , अश्वत्थदलम् , अश्वस्थपत्रम् , प्रति उद्दिश्य, उदस्य उद्धृत्य, एतद. श्वस्थपत्रमिति शेषः / मह्यं नलाय, देहि अर्पय, इति उक्तरूपया, मदिरा ममोक्त्या, यत् वीडिता लजिता, असि भवसि, रहस्याङ्गस्य अश्वत्थपत्राकृतितुल्यतया तद्याचने रहस्याङ्गयाचनाभिप्रायज्ञानादिति भावः / तत् स्मर चिन्तय / अत्र सामुद्रिकाः 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश' व्याख्यया सहैवान मया निहितः /