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________________ ऊनविंशः सर्गः / . 1273 है, यह मैं नहीं जानता अर्थात अवश्य जानता हूँ कि कालपरिवर्तनकारी ब्रह्माने ही इसे खोला है / पर्वतकी शिलापर स्थित काले पत्थरसे ढकी हुई मणियोंकी अक्षय खानको जैसे कोई भाग्यवान खोल देता है, वैसे उदयाचलकी शिलापर फैलती हुई अभिनवतम होनेसे रक्तवर्ण मणियों के समान काली रात्रिरूपी पत्थरसे आच्छादित सूर्यबिम्बरूपी खानको किसने खोलकर सर्वसाधारणको विदित करा दिया है यह मैं नहीं जानता। अन्धकारयुक्त काली रात्रि नष्ट हो गयी, सूर्योदय हो रहा है। अतः आप निद्रात्याग करें] // 42 / / सुरपरिवृढः कर्णात् प्रत्यग्रहीत किल कुण्डलद्वयमथ खलु प्राच्यै प्रादान्मुदा स हि तत्पतिः / विधुरुदयभागेकं तत्र व्यलोकि विलोक्यते नवतरकरस्वर्णस्रावि द्वितीयमहर्मणिः // 43 // सुरेति / सुराणां देवानाम् , परिवृतः प्रभुः इन्द्रः। 'प्रभौ परिवृढः' इति निपातनात् साधुः / कर्णात् राधेयात् , कुण्डलद्वयं कर्णाभरणयुगलम् , सूर्यप्रदत्तं सहजमक्षयश्चेति भावः / प्रत्यग्रहीत् याचित्वा आदात् , किल इति वार्तायाम् / 'ततो निकृत्य गात्राणि शस्त्रेण निशितेन सः। प्रायच्छदेवराजाय दिव्यं वर्म सकुण्डलम्॥' इति भारतवचनात् / तत्रोस्प्रेक्षते-अथ प्रतिग्रहानन्तरम् , प्राच्य पूर्वस्य दिशे, मुदा प्रीस्या, प्रादात् दत्तवान् , तत् कुण्डलद्वयमिति शेषः, खलु निश्चये / हि यस्मात्, सः इन्द्रः, तस्याः प्राच्याः दिशः, पतिः भर्ता, भार्याय आभरणदानस्य पत्युरौचित्या. दिति भावः / कथं त्वया तबुध्यते ? इत्याह-तत्र तयोः कुण्डलयोः मध्ये, एक कुण्डलम् , उदयं भजतीति उदयभाक उद्यन् , उदयकालिकः इत्यर्थः। 'भजोण्विः' इति ण्विप्रत्ययः / विधुः चन्द्रः, इवेति शेषः / व्यलोकि विलोक्यते स्म, जनैर्गतसायंकाले इति शेषः। नवतरान् अतिशयेन प्रत्यग्रान् , करान् किरणान् एवं, स्वर्णानि सुवर्णानि, तुल्यप्रभासम्पन्नत्वादिति भावः / स्त्रावयति आस्मनो वर्षयतीति तत् तादृशम् , द्वितीयं कुण्डलम्, अहर्मणिः दिनमणिः सूर्यः इवेति शेषः / 'रोऽसुपि' इति रेफादेशः। विलोक्यते इदानीं प्रातः दृश्यते, जनैरिति शेषः / एतदेव पूर्वानुमानस्य कारणमिति भावः // 43 // . देवराज (इन्द्र ) ने कर्णसे (सर्यप्रदत्त सहजात एवं अक्षय ) कुण्डलद्धयको दान लिया और उसे हर्षके साथ पूर्व दिशाके लिए दे दिया, क्योंकि वे उस ( पूर्व दिशा) के पति (स्वामी, अथवा-रक्षक ) हैं / ( पतिको हर्षके साथ पत्नीके लिए अमूल्य कर्णाभरण आदि अलङ्कार देना उचित ही है / इस बातका हम इस कारणसे अनुमान करते हैं कि) उसमें ( पूर्व दिशामें, अथवा-उन दो कुण्डलोंमेंसे सायंकालमें) उदय होते हुए चन्द्ररूप एक कुण्डल तो दिखलायी दिया था और इस प्रातःकालमें सूर्यरूप यह नवीनतम किरणरूप
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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