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________________ अष्टादशः सर्गः। 1165 ( अपने ) कर्णभूषण-कमलको ऊपर करती हुई उस ( दमयन्ती ) ने रमण करनेके लिए अपने पति ( नल ) के शरीरधारी कामदेवका मानो पहले पूजन किया। [ फूंककर दीपकके बुझा देने पर भी नलके मुकुटस्थ रत्नसे प्रकाश होता हुआ देखकर दमयन्तीने जब अपने कर्णोत्पलसे उस रत्नको ढक दिया, तब वह ऐसा प्रतीत होता था कि दमयन्ती रमण करनेके लिए नल देहधारी कामदेव की मानो पहले . पूजा की हो। किसी कार्य के आरम्भ में उसके निर्विघ्न समाप्त होनेके लिए तत्सम्बन्धी देवके मस्तकपर फूल चढ़ाकर पूजन करना शास्त्र. सम्मत होनेसे साध्वी दमयन्तीका भी रमण करने के पहले उस रमण-क्रियाको निर्विधन होने के लिए तत्सम्बन्धी देव ( काम ) की पूजा करना उचित ही है ] // 81 // तं पिधाय मुदिताऽथ पार्श्वयोर्वीक्ष्य दीपमुभयत्र सा स्वयोः / चित्तमाप कुतुकाद्भुतत्रपाऽऽतङ्कसङ्कटनिवेशितस्मरम् / / 82 // तमिति / सा भैमी, तं दिगुद्भासकं शिरोमणिम् , पिधाय कर्णोत्पलेन आच्छाद्य, मुदिता अन्धकारसम्भावना हृष्टा, अभूदिति शेषः / अथ अनन्तरम्, स्वयोः स्वकीययोः, उभयत्र उभयोः, पार्श्वयोः दीपं प्रज्वलितप्रदीपद्वयमित्यर्थः / वीक्ष्य दृष्ट्वा, कुतुकम्, अकस्माद्दीपदर्शनात् कौतुकम्, अद्भुतं निर्वापितस्यापि पुनः प्राद. र्भावादाश्चर्यम् , त्रपा पत्या विवस्त्रीकरणात् लज्जा, आतङ्कः कोऽयमदृष्टपूर्वव्यापार इति शङ्का, तेषां सङ्कटे सम्बाधे, परस्परसङ्घर्षे इत्यर्थः / निवेशितः संस्थापितः, निरुद्ध इत्यर्थः / स्मरः कामः यस्मिन् तत् ताहक, चित्तं मनोभावम् , आप प्राप्तवती। तथा प्रवृद्धोऽपि कामः तदा किञ्चित् सङ्कुचितः इव आसीत् इति भावः // 82 // __वह ( दमयन्ती ) उस ( पतिमुकुटजटित रत्न ) को ढककर प्रसन्न हुई, इसके बाद उसने अपने दोनों भागोंमें दीपकोंको देखकर (अकस्मात् दीपकों के देखनेसे ) कौतुक (दीपकके बुझनेपर पुनः दीपकोंके जलनेसे हा ! यह क्या हुआ ? ऐसा ) आश्चर्य, ( पतिके द्वारा वस्त्रहीन किये जानेसे उत्पन्न ) लज्जा, ( यह विचित्र घटना किस प्रकार हो गयी ? ऐसा ) भय-इनके समुदायमें स्थित कामयुक्त चित्तवाली हो गयी अर्थात् उसके देखने पर कौतुक आदिसे दमयन्तीका बढा हुआ भी काम कुछ सङ्कुचित हो गया // 82 // एककस्य शमने परं पुनर्जाग्रतं शमितमप्यवेक्ष्य तम् | जातवह्निवरसंस्मृतिः शिरः सा विधूय निमिमील केवलम् // 3 // एककस्येति / एककस्य तयोरेकस्य, दीपस्य, प्रदीपस्य, शमने निर्वापणे कृते सति, शमितमपि पूर्व निर्वापितमपि, परम् अपरम् , तं दीपम् , पुनः भूयः, जाग्रतं नलमायया प्रज्वलन्तम् , 'नाभ्यस्ताच्छतुः' इति नुमः प्रतिषेधः / अवेक्ष्य विलोक्य, जाता उत्पन्ना, वढेः अग्नेः, वरस्य 'या दाहपाकौपयिकी तनुः' इत्यादिनोक्तवरदानस्य, संस्मृतिः सम्यक् स्मरणं यस्याः सा तादृशी, सा भैमी, शिरः मस्तकम् , 75 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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