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________________ षोडशः सर्गः। 1013 रसिक कामुक-समुदायके भोजनमें छः प्रकार ( मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा, कसैला और चरपरा ) के रसोंने वैसी तृप्ति नही उत्पन्न की जैसी तृप्ति युवती-समूहके विलाससे उत्पन्न अत्यन्त बढ़ते हुए अपरिमित शृङ्गाररूप सातवें रसने की। [ कामुक जनोंकी मधुरादि षड्स भोजनकी अपेक्षा परोसनेवाली युवतियोंकी शृङ्गार चेष्टाओंसे अधिक आनन्द हुआ। प्रकृतमें मधुरादि छः रसोंकी अपेक्षासे 'शृङ्गार' को सातवां रस समझना चाहिये, न कि नाट्यशास्त्र में वर्णित रसोंकी अपेक्षासे अलौकिक एक पदार्थ भी अनेक पदार्थोंसे श्रेष्ठ हो जाता है, अत एव प्रकृतमें छः भोज्य पदार्थके रसोंसे एक शृङ्गार रस ही भोजनकर्ता रसिकों के लिए आनन्द पद होनेसे श्रेष्ठ हो गया ] // 108 // मुखे निधाय क्रमुकं नलानुगैरथौज्झि पर्णालिरवेक्ष्य वृश्चिकम् / दमाप्तिान्तमुखवासनिर्मितं भयाविलैः स्वभ्रमहासिताखिलैः / / 109 / / मुखे इति / अथ करक्षालनानन्तरं, नलानुगैः नलानुयायिभिः, जन्यजनैरिति शेषः क्रमुकं पूगफलं, मुखे वदने, निधाय दत्त्वा, दमेन दमयन्तीभ्रात्रा, अर्पितं दत्तम् , / अन्तःमुखस्य अन्तर्मुखं मुखाभ्यन्तरम्, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः। तद्वासयति सुगन्धी. करोतीति अन्तर्मुखवासं लवङ्गकक्कोलकर्पूरादिवासनाद्रव्यम् , कर्मण्यण / तेन निर्मितं कल्पितं, वृश्चिकं वृश्चिकाकृतिताम्बूलोपकरणसुगन्धिद्रव्यविशेषम् , अवेक्ष्य दृष्ट्वा, भयेन दंशनभीत्या, आविलेः आकुलैः, अत एव स्वभ्रमेण स्वस्य भ्रमेण, अवृश्चिके वृश्चिकज्ञानरूपनिजभ्रान्त्या इत्यर्थः, हासिताः जनितहासाः, अखिलाः समस्तदर्शकवृन्दा यैः तादृशैः सद्भिः, पर्णालिः नागवल्लीदलपङ्क्तिः, औज्झि उज्झिता, परित्यक्ता इत्यर्थः, उज्झ विसर्ग कर्मणि लुङ॥ 109 // इस ( हाथ धोने ) के बाद सुपारीको मुखमें लेकर दमयन्तीके छोटे भाई 'दम' के दाग दी गयी ( कपूर, लवङ्ग, कस्तूरी, कत्था जावित्री आदि ) मुखको सुगन्धित करनेवाले पदार्थों से बनाये गये बिच्छूको देखकर भय ( बिच्छूके 'डंक मारनेके भयसे घबराहट ) से व्याकुल ( अत एव ) अपने भयसे सबोंको हँसानेवाले नलानुगामियों (भोजनकर्ता बरातियों) ने पानके बीड़ेको फेंक दिया // 109 / / अमीषु तथ्यानृतरत्नजातयोविदर्भराट् चारुनितान्तचारुणोः / स्वयं गृहाणैकमिहेत्युदीर्य तवयं ददौ शेपजिघृक्षवे हसन् / / 110 // अमीविति / विदर्भराट विदर्भदेशाधीश्वरः भीमः, चारुनितान्तचारुणोः यथासङ्कचं रम्यातिरमणीययोः, इह अनयोः, तथ्यानृतरत्नजातयोः सत्यासत्यरत्नौघयोः मध्ये 'जातं जात्योधजन्मसु' इति विश्वः / एकं स्वयम् आत्मना, गृहाण स्वीकुरु, अमीषु वारयात्रिकेषु मध्ये, इति एवम् , उदीर्य उक्त्वा, शेषम् असत्यमेव, जिघृक्षवे गृहीतुमिच्छवे, कृत्रिमत्वेन तस्यैवातिचारुत्वादिति भावः / ग्रहः सनन्तात् 'सनाशं. 1. वराटरा' इतिट 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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