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________________ षोडशः सर्गः। 689 'देशे लुबिलचौ च' इति सिकताशब्दादणप्रत्ययः। प्रदत्तपायसोपरिनिक्षिप्तघृतधाराप्रवाहेण द्विधा विभक्तं पायसंशुक्लत्वात् घृतमभितः घृतकुल्यातटसैकतमिव विरेजे इति भावः // 7 // जिस कारणसे कामधेनु या गौ ( अथवा-सुगन्धयुक्त पदार्थ ) उत्पत्तिमें (दूध-दही आदिकी परम्परासे ) मूल कारण है, उस कारणसे ( अथवा-मानों उस कारणसे ) वह धी सुगन्धित होता है ( परोसनेवाली ) स्त्रियोंने इन ( बरातियों ) के लिए उस घीको परोसकर खीरको उस घृतके प्रवाहरूप छोटी नहरके दोनों किनारे रेती-सी बना दिया। [ पहले खीर परोसकर उसके ऊपर घीकी धार गिरायी जिससे घीके चारों तरफ वह खीर नहरके दोनों किनारे रेती-सी बन गयी / वह घी सुगन्धित था, क्योंकि कारणगत गुणका कार्यमें होना उचित ही है ] // 70 // . यदप्यतीता वसुधालयैः सुधा तदप्यदः स्वादु ततोऽनुमीयते / अपि क्रतूषर्बुधदग्धगन्धिने स्पृहां यदस्मै दधते सुधाऽन्धसः / / 71 // यदपीति / यदपि यद्यपि, वसुधालयः भूनिलयः, मनुष्यादिभिरित्यर्थः। सुधा अमृतम्, अपीता न पीता तदपि तथाऽपि, अपोतत्वेऽपोत्यर्थः। अदः आज्यं, ततः सुधातोऽपि, स्वादु मधुरम्, अनुमीयते तय॑ते, यत् यतः, सुधा एव अन्धः अन्नं येषां ते सुधाऽन्धसः देवा, ऋतूषर्बुधदग्धगन्धिने यज्ञाग्निप्लुष्टगन्धवते, अस्मै आज्याय, स्पृहाम् इच्छां, दधते कुर्वते इत्यर्थः। 'स्पृहेरीप्सितः' इति सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी। अस्माकमुभयानुभवाभावेऽपि अमृतभोजिनामपि विशिष्टप्रवृत्तिलिङ्गेन तदुभयरसतारतम्यानुमानं सुकरमित्यर्थः। अग्निदग्धत्वेन विकृतगन्धमपि घृतम् अमृतादपि स्वादुरसंकिमुत सौरभयुक्तमिति भावः। अनुमानन्तु घृतममृतादपि स्वादु अमृतान्नानां देवानां विशिष्टेच्छाविषयत्वादिति अत्रानुमानालङ्कारः // 71 // ____ यद्यपि भूलोकवासी ( मनुष्यों ) ने अमृत नहीं पिया है, तथापि ( अमृत-रसका ज्ञान नहीं होनेपर भी) 'यह (घृत ) उस (अमृत) से अधिक स्वादिष्ट है' ऐसा अनुमान होता है; क्योंकि अमृतभोगी ( देव ) भी यज्ञोंमें अग्निके द्वारा जलाये (दूषित किये ) गये गन्धवाले इस (घृत ) के लिये चाहना करते हैं। [यदि अमृतसे भी अधिक स्वादिष्ट घृत नहीं होता तो जलानेसे विकृत गन्धवाले भी घृतकी अमृतका भोजन करनेवाले देवलोग क्यों इच्छा करते ?, इससे अनुमान होता है कि जले हुए गन्धवाला भी घृतका स्वाद अमृतसे उत्तम है, तो फिर जो बिना जले हुए गन्धवाला घृत है उसके स्वाद के विषय में क्या कहना है, वह तो अमृतसे बहुत ही अधिक स्वादिष्ट होगा ही। अथवा-कुछलोग ( भूलोकवासी ) घृतसे कम स्वादिष्ट अमृतका आस्वादन नहीं करते तथा सर्वदा अमृत भोजन करनेवाले ( देवलोग) भी घृतकी चाहना करते हैं; इन दोनों कारणोंसे अमृतकी अपेक्षा घृतके अधिक स्वादिष्ट होनेका अनुमान होता है ] // 71 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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