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________________ एकविंशः सर्गः। 1476 पीतो वर्णेति / हे प्रिये ! सः प्रसिद्धः, अयम् एषः, पीतः गौरो नाम, वर्णगुणः वर्णस्वरूपः, अतिमधुरः अतिरमणीयः, यथा येन हेतुना, यं पीतवर्णम् , बिभ्रत् धार• यत् , कनकं हिरण्यम् , कैः जनः, सुवर्ण शोभन: वर्णः यस्य तत् तादृशम् , इति एवंरूपेण, आहत्य आग्रहेणोल्लिख्य, न उत्कीर्त्यते ? न उच्चैः प्रशस्यते ? अपि तु सर्वेरेव उत्कीय॑ते इत्यर्थः / तथा तव भवत्याः, काये शरीरे अपि, अस्ति इति शेषः, अत एव अतिमधुर इति मन्ये इति भावः। वर्णान्तराणां पीतशुक्लव्यतिरिक्तानां नीलादीनां वर्णानाम् , वर्णना प्रसङ्गः, का ? कीदृशी ? दूरे आस्तामिति भावः। यः धवलिमा शुक्लत्वम्, शुभ्रवणं इत्यर्थः / रूपेषु वर्णेषु, राजा एव उत्कृष्ट एव, अमिश्रव. र्णत्वात् वणषु प्रथमोचरितस्वाच्चेति भावः। तस्य धवलिग्नः, योगात् सम्बन्धात् अपि, शुभ्रवर्णधारणादपीत्यर्थः / रजतं रौप्यम , कत / यावत् साकल्येन, दुर्वर्णतादुर्यशः दुष्टः निन्दितः, वर्णः रूपं यस्य तस्य भावः तत्ता, तस्याः दुर्यशः अकीर्तिम् , अपकृ. टवर्णतालक्षणनिन्दामित्यर्थः / दुवर्णम् इति नामधेयं च / कर्म / 'दुर्वर्ण रजतं रूप्यम्' इत्यमरः / एति प्राप्नोति / तथा हि, स्वर्णस्य पीतत्वादेव लोकाः तं सुवर्णमिति वदन्ति, यतः असौ हि पोतो वर्णः तव देहे विद्यते, ततश्च पीतो वर्णः वर्णेषु मुख्यः एव, नीलरक्तादयश्च हीनाः, यस्तु शुभ्रो वर्णः वर्णेषु प्रथमः कीर्यते तद्योगा. दपि रजतं दुर्वर्णमिति निन्दामाप्नोति, अतः शुभ्रवर्णोऽपि पीतात् हीन एव इतिः निष्कर्षः // 137 // (वैशेषिकोंके द्वारा गुणपदार्थसे निर्दिष्ट ) जो पीला वर्ण है, वही अत्यन्त रमणीय है, क्योंकि वह तुम्हारे शरीर में भी है ( अथवा-जिस कारण यह पीला वर्ण तुम्हारे शरीर में है, अत एव अत्यन्त रमणीय है / अथवा-वैशेषिकोंके द्वारा गुणपदार्थ के निर्देश करने में सर्वप्रथम मुख्यतया निर्दिष्ट तथा वर्णान्तरसे अमिश्रित होनेसे अप्रधान भी पोला वर्ण हो अतिशय रमणीय है ) क्योंकि वह तुम्हारे शरीरमें है ( बहुत विशिष्ट के द्वारा गृहीत साधारण भी उत्तम हो जाता है, अतः नारीरत्न तुमसे गृहीत होने के कारण ही अप्रधान भी पीले वर्णका प्रधान होना उचित ही है। ) अथवा-गुण पीला वर्ण ही है और अत्यन्त रमणीय है (दूसरे सब वर्ण तो दोष तथा असुन्दर हैं ), क्योंकि वह पीला वर्ण तुम्हारे शरीर में है। अथवा-तुम्हारे शरीर में स्थित अतिमधुर ( स्वादुतम रस) को मैंने पीया (अधरचुम्बनादि करते समय आस्वादन किया, अथच-पीतवर्णको सादर देखा, इत्यादि प्रकारसे पीले वर्णकी शब्दच्छलसे स्तुतिकर पुनः प्रकारान्तरसे उसीका समर्थन करते हैं-), जिस ( तुम्हारे शरीर. में स्थित ) पीतवर्णको धारण करते हुए चम्पक-पुष्प (अथवा-सोना) को सुवणे (सुन्दर वर्णवाला, पक्षा-सोना) कौन मनुष्य आदरपूर्वक नहीं कहते हैं ? अर्थात् सभी लोक.. चम्पक तथा सोनेको सुवर्ण कहते हैं / अथवा-(नीला, लाल आदि ) दूसरे वर्णो के वर्णन करनेको क्या बात है ? ( श्वेत, नीला, पीला, हरा, कपिश और चित्ररूप छः) रूपोंमें जो श्वेत राजा (प्रधान) है, उनके भी संसर्गसे समस्त रजत (चाँदी धातु) दुर्वर्णत्व (दुष्ट).
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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