________________ 1565 (चिह) को धारण करता है। [सामान्य मीन ( मछलियां ) .जलके अभावमें मर जाते हैं, किन्तु अमृतपान करनेसे अजर-अमर हुआ यह भी मौन नहीं मरता है ] // 125 // तारास्थिभूषा शशिजह्वजाभृञ्चन्द्रांशुपांशुच्छरितद्युतिद्यौः। छायापथच्छद्मफणोन्द्रहारा स्वं मूर्तिमाह स्फुटमष्टमूर्तेः // 126 / / तारेति / द्यौः स्वमात्मानमष्टमूर्तेर्हरस्य मूर्ति शरीरं स्फुटं व्यक्तमाह ब्रवीति / यतः-किंभूता ? तारा एवास्थीनि भूषा यस्याः। तथा-शशिनमेव जहाजां, चन्द्रं गङ्गां च, बिभर्तीति भृत् / तथा-चन्द्रांशव एव पांसवो भस्मानि तेश्छुरिता कृता. ङ्गरागा द्यतिर्यस्याः / तथा छायापथो गगने दण्डाकारा दक्षिणोत्तरस्था धवला रेखा छम यस्य छायापथच्छद्मरूपः फणीन्द्रो वासुकिः स एव मुक्काहारो यस्याः सा / हरमूर्तिरप्युक्तविशेषणविशिष्टा / धौरप्येताहशीति मूत्यंन्तरापेक्षया व्यक्तमेव महे. शस्य मूर्ति गगनं कथयतीवेत्यर्थः // 126 // ____ तारारूप अस्थि ( हड्डियों ) के भूषणवाली, चन्द्ररूपिणी गङ्गाको धारण करती हुई, चन्द्र-किरणरूप धूलि (भस्म ) से व्याप्त शरीर-कान्तिवाली छायापथ (अँधेरी रातको काशमें दण्डाकार दिखलायो पड़नेवाली स्वच्छ रेखा ) रूप और वासुकिरूप हारवाली यह 'दिव' (आकाश ) अपनेको स्पष्ट हो शिव-मूर्ति व्यक्त कर रही है // 126 // एकैव तारा मुनिलोचनस्य जाता किलैतज्जनकस्य तस्य / ताताधिका सम्पदभूदियं तु सप्तान्विता विंशतिरस्य यत्ताः // 127 // एकेति / एतस्य चन्द्रस्य जनकस्य तस्य प्रसिद्धस्याक्षिमुनिलोचनस्य तारा कनी. निका किलैकैव जाताभूत् किल पुराणादौ / अस्य तत्पुत्रस्य तु पुनरियं दृश्यमाना संपत तातान्निजपितुरत्रिनेत्रासकाशादधिका / यद्यस्मादस्य चन्द्रस्य तास्ताः कनीनिकाः, अथ च-नक्षत्राणि, सप्तभिरन्विता विंशतिरभूदिति छलम् / पितुः सका. शादधिसंपत्तित्वात्सभाग्योऽयमिति भावः / 'सप्तविंशतिमिन्दवे' इति दरः सप्तविंशतिकन्याः अश्विन्यादिकाश्चन्द्राय ददाविति पुराणम् // 127 // इस (चन्द्रमा ) के पिता उस (प्रसिद्धतम, 'अत्रि' नामक ) मुनिके नेत्रकी एक तारा ( चन्द्ररूप नक्षत्र, पक्षा०-कनीनिका = आँखकी पुतली) हुई, किन्तु उसके पुत्र ( चन्द्रमा) की सम्पत्ति तो पिता ( नेत्रसे चन्द्रमाको उत्पन्न करनेसे चन्द्रमाके पितृस्थानीय अत्रिमुनि) से भी अधिक हुई क्योंकि इस ( चन्द्रमा ) की वे (ताराएँ नक्षत्र, पक्षा०-कनीनिकाएँ) सत्ताइस हुई। [चन्द्रमा अपने पिता 'अत्रि' मुनिसे भी अधिक माग्यवान् हैं / दक्षप्रजापतिने अश्विनी आदि तारारूपिणी अपनी सत्ताइस पुत्रियोंको चन्द्रमाके लिए दिया था, यह कथा पुराणों में मिलती है ] // 127 // मृगाक्षि ! यन्मण्डलमेतदिन्दोः स्मरस्य तत्पाण्डुरमातपत्रम् / यः पूर्णिमानन्तरमस्य भङ्गः स च्छत्रभङ्गः खलु मन्मथस्य / / 128 / /