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________________ षोडशः सर्गः। 993 अहर्निशा वेति रताय पृच्छति क्रमोष्णशीतान्नकरार्पणात् विटे। . हिया विदग्धा किल तनिषेधिनी न्यधत्त सन्ध्यामधुरेऽधरेऽङ्गलिम् // 78 // __ अहरिति / विटे कस्मिंश्चित् कामुके, क्रमेण पर्यायानुसारेण, उष्णशीतयोः अन्नयोः भोज्यद्रव्ययोः उपरि, करार्पणात् हस्तस्थापनात् ,तद्रूपसङ्केतविशेषादित्यर्थः, रताय सम्भोगाय, अहः सूर्यसम्पर्केण उष्णोपलक्षितं दिनं वा कालः ? निशा वा चन्द्रसम्पर्केण शैत्योपलक्षिता निशा वा कालः ? इति एवं, पृच्छति जिज्ञासमाने सति, विदग्धा चतुरा, तदभिप्रायाभिज्ञेत्यर्थः, हिया लजया, किल तत् कालद्वयं, निषेधतीति तनिषेधिनी तन्निवारिका सती, सन्ध्यामधुरे सन्ध्यावत् मनोहरे, सन्ध्यारुणवणे इत्यर्थः, अधरे ओष्टे, अङ्गुलिं न्यधत्त स्थापयामाम, सन्ध्यासवर्णाधरस्पर्शन आवयोः सन्ध्यासमये समागमः इति सूचयामास इत्यर्थः / हिया स्त्रीभिरङ्गुल्या अधरमाच्छा. द्यते इति प्रसिद्धम् // 78 // . 'रतिके लिए दिन या रात्रिका समय-दोनों में से कौन ठीक होगा' इस बातको क्रमशः गर्म तथा ठण्डे अन्नपर हाथ रखकर कामुकके पूछनेपर चतुर ( उसके अभिप्रायको समझनेवाली ) स्त्री लज्जासे उन दोनों समयोंका निषेध करती हुई सन्ध्याके समान मनोहर अर्थात् अरुणवर्ण अधरपर अङ्गुलिको रख दिया। [ कामुकने उष्ण अन्नपर हाथ रखकर दिनमें तथा शीत अन्न पर हाथ रखकर रात्रिमें-दोनोंमें-से कौन-सा समय हमदोनों के सम्भोगके लिये अनुकूल होगा ?' ऐसा पूछा तो उसके अभिप्रायको समझनेवाली उस चतुर स्त्रीने दिन तथा रात्रि-दोनों समयमें क्रमशः सूर्य तथा चन्द्रमाका प्रकाश रहनेसे उन दोनों समयोंका निषेध कर अरुण वर्णवाले अधरपर अङ्गुलि रखकर अन्धकार युक्त सन्ध्याकालको सम्भोगके लिये सङ्केतित किया / लज्जित स्त्रीका अबरपर अङ्गुलि रखना स्वभाव होता है]॥७८॥ (क्रमेण कूरं स्पृशताष्मणः पदं सितान शीताञ्चतुरेण वीक्षिता। दधौ विदग्धाऽरुणितेऽधरेऽङ्गुलीमनौचितीचिन्तनविस्मिता किल।।१।।) क्रमेणेति / अयं श्लोकः क्षेपकः / कूरं भक्तम् / सितां शर्कराम्। किमिदमनेनानुचितं क्रियत इत्यनौचितीचिन्तनेन विस्मिता किल विस्मितेव / अरुणिते यावकेनेत्यर्थः / भावः स एव // 1 // ___ क्रमशः गर्म भात तथा ठण्ढे शक्करका स्पर्श करते हुए चतुर (कामी पुरुष ) से देखी गयी विदग्धा ( परभावशानचतुरा स्त्री ) ने अनुचितके चिन्तनसे आश्चर्यित-सी होती हुई ( अलक्तकसे ) लाल अधर पर अङ्गुलिको रख दिया। [ क्रमशः सूर्य तथा चन्द्रमासे प्रकाशमान दिन तथा रात्रिमें सम्भोग करने के लिए निश्चित समयको सङ्केतसे पूछनेपर विदग्धाने 'यह क्या अनुचित समयका सङ्केत करके पूछ रहा है' इस चिन्तासे उस स्त्रीने अपने ओष्ठ. . 1. क्षेपकस्यास्य 'जीवातु' व्याख्यानाभावान्मया 'प्रकाश' व्याख्यैवात्र निहि ते त्यवधेयम् / 2. इयं किल 'प्रकाश' व्याख्या म०म० नारायणभट्टस्येत्यवधेयम्।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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