________________ 1430 नैषधमहाकाव्यम् / विजयी बनानेसे ( क्रमशः ) अश्रुयुक्त सूर्य तथा विहसित होते हुए चन्द्ररूप ( दक्षिण-वाम ) नेत्रद्वयवाले तुमने एक साथ ही आधे दुःख तथा आधे सुखका अभिनय किया। [ सूर्यपुत्र कर्णके मरनेपर सूर्यका दुःखी होना रोना तथा चन्द्रवंशोत्पन्न अर्जुनके विजयशील होनेसे चन्द्रका हर्षित होकर हंसना उचित ही है, सूर्य-चन्द्र हो विष्णुके दक्षिण-वाम नेत्र हैं ] // 79 // प्राणवत्प्रणयिराध ! न राधापुत्रशत्रुसखता सदृशी ते / श्रीप्रियस्य सहगेव तव श्रीवत्समात्महृदि धत्त मजस्रम् / / 80 // प्राणेति / प्राणवत् जीवनतुल्या, प्रणयिनी प्रेयसी, राधा वृषभानुसुता राधिका यस्य तत्सम्बद्धिः हे प्राणवत्प्रणयिराध ! हे कृष्ण ! ते तव, राधा अधिरथाख्यसूत. जाया, सैव राधा श्रीराधिका वृन्दावनेश्वरी, तस्याः पुत्रः तनयः, कर्णः इत्यर्थः / अन्यः कश्चिदित्यर्थश्च, तस्य शत्रुः अर्जुनः, तस्य सखा मित्र राधापुत्रशत्रुसखः तस्य भावः तत्ता सा, न सहशी न युक्ता, पुत्रशत्रुप्रति शत्रुताया एवौचित्यादिति भावः / परन्तु, श्रीः लचमीः, प्रिया प्रोतिदायिनी भार्या यस्य तादृशस्य,तव भवतः, आत्मनः स्वस्य, हृदि वक्षसि, अजस्रं सर्वदा, श्रीवत्सं रोमावर्तरूपलान्छनविशेषम्, श्रियः लदम्याः, वत्सं पुत्रश्च, धत्त ग्रहीतुम, सहक सहशमेव, योग्यमेवेत्यर्थः / राधाप्रियस्य राधासुत द्वेषिणि सख्यम् अनुचितम्, श्रीप्रियस्य हृदि श्रीवत्सधारणं युक्तमिति राधा. श्रीवत्सशब्दाभ्यां छद्मनोक्तिः // 8 // प्राणतुल्य प्रणयिनी है राधा जिसकी, ऐसे हे कृष्ण भगवान् ! राधापुत्र ( कर्ण ) के शत्रु ( अर्जुन ) की मित्रता तुम्हारे योग्य नहीं है ( प्राणप्रणयिनी राधावालेको राधा पुत्र के वैरो की मित्रता करना उचित नहीं होनेसे विरोध आता है, उसका परिहार 'राधा' नामक गोपकन्या तथा कर्णका पालन करनेवाली 'राधा' नामकी कैवर्त स्त्री करनेसे होता है ) / तथा लक्ष्मीके प्रिय तुम्हें श्रीवत्स (श्रीका पुत्र, पक्षा०-ब्राह्मण चरणका 'श्रीवत्स' नामक हृदयस्थ चिह्न-विशेष ) को अपने हृदयमें निरन्तर धारण करना उचित ही है (श्रीप्रियका श्रीपुत्रको हृदयमें धारण करना योग्य है ) / [ तुम्हारे-जैसा स्वपक्षपातकर्ता एवं ब्राह्मणके चरणचिह्नको सदा हृदयमें धारणकर लोगोंको ब्राह्मण-भक्ति-परायण होनेकी शिक्षा देने वाला दूसरा कोई नहीं है ] // 8 // (तोवकापरतनोः सितकेशस्त्वं हली किल स एव च शेषः / साध्वसाववतरस्तव धत्ते तज्जरच्चिकुरनालविलासः / / 5 / / ) (तावकेति / हे कृष्ण ! हली लाङ्गलधरो बलभद्रः स एव च शेषोऽनन्तस्त्वमेव / 1. '-सखिता' इति पाठान्तरम् / 2. अयं श्लोको मया 'प्रकाश' व्याख्यासहित एवात्र स्थापितः। अत्र 'तावकीपर तनोः' इति पाठः उपेच्यः, पुंवद्भावप्रसङ्गात् / 3. त्वज्जरत्-' इति पाठान्तरम् /