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________________ सप्तदशः सर्गः। 1127 यतिनां संन्यासिनाम् , आधारे आश्रये, यस्यधिष्ठते इत्यर्थः। अमरागारे देवालये, क्वापि कुत्रापि, स्थानं स्थितिम , न आनशे न लेभे, 'अत आदेः' इत्यभ्यासदीर्घः, 'अश्नोतेश्च' इति नुडागमः // 172 // उस ( कलि ) ने गृहस्थोंके ( पाठा०-गृहस्थोंसे ) परिपूर्ण घरमें, वानप्रस्थोंसे व्याप्त घने ( वनों ) में और यतियों ( संन्यासियों) से आश्रित देवालयों में कहीं भी स्थान (ठहरने का आश्रय ) नहीं पाया // 172 // हिंसागवीं मंखे वीक्ष्य रिरंसुर्धावति स्म सः / सा तु सौम्यवृषासक्ता खरं दूरं निरास तम् / / 173 / / हिंसेति / सः कलिः, मखे गोमेधाख्ययज्ञे, हिंसाया गौः तां हिंसागवीम भालम्भार्था गाम् इत्यर्थः / 'गोरतद्धितलुकि' इति समासान्तष्टच / वीच्य दृष्ट्वा, रिरंसुः चित्तविनोदनेच्छुः सन् इत्यर्थः / निजाधिपत्यसूचकं गोवधोद्यमं दृष्ट्वेति भावः / अन्यत्र-रन्तुम् इच्छुः, विहत्तम इच्छुरित्यर्थः / रमेः सनन्तादुप्रत्ययः / धावति स्म द्वतम् अगात् , सा गौस्तु, सौम्यः सोमदवतो यागः, सः एव वृषःधर्मः, तत्र आसक्ता सङ्गता, धर्माभिलाषिणी सतीत्यर्थः / सुन्दरवृषभाक्रान्ता चेति गम्यते। 'वृषो धर्म बलीवः' इति मेदिनी / बलीवर्दो वृषभः। अत एव खरं रलयोरभेदात् खलम् , क्ररमित्यर्थः, खरं गर्दभच, तं कलिम , दूरं विप्रकृष्टदेशम् , निरास निविक्षेप वृषाक्रान्ताया गोविजातीयत्वात् खरनिराकरणं युक्तमिति भावः॥ 173 // __ वह ( कलि ) 'गोमैध' नामक यशमें हिंसाथै लायी गयी गौको देखकर रमण करने (गो-. वधरूप स्व-मनोऽनुकूल कर्म समझकर प्रसन्न होने) की इच्छा किया, किन्तु सोमदेवता ( यागरूप ) धर्म में आसक्त अर्थात् धर्माभिलाषिणी उस गौने खर ( अतिशय क्रूर, पक्षा'रल' में भेद नहीं होनेसे खल अर्थात् दुष्ट ) उसको अत्यन्त ( पाठा०-दूरसे ही ) तिरस्कृता कर दिया / ( पक्षा०-वह कलि यशमें हिंसार्थ लायी गयी गौको देखकर रमण (मैथुन ) करनेकी इच्छा करता हुआ दौड़ा, किन्तु वृषभ (साँड़) में आसक्त उस (गौ) ने गधे ( के तल्य, या गधारूप ) उस ( कलि ) को अत्यन्त (पाठ।०-दूरसे ही ) तिरस्कृत कर दिया (सुन्दर वृषभासक्त गौका विजातीय गधेको तिरस्कृत करना उचित ही है ) / अथवा पाठा-( याज्ञिक ब्राह्मणों के मुखमें अर्थात मुखसे उच्चारित हिंसार्थक ('अग्नीषोमीयं पशु. मालभेत' इत्यादि ) वाणीको सुनकर रमण करने ( ये पशुहिंसारूप मेरा प्रिय कार्य करने का समर्थन करते हैं, ऐसा समझकर प्रसन्न होने ) की इच्छा करता हुआ दौड़ा, किन्तु सोमदेवताक यज्ञरूप धर्ममें आसक्त अर्थात् उक्त धर्म-सम्बन्धिनी उस वाणीने ( बादमें 'यह पशुहिंसारूप मेरा प्रिय कार्य करनेवाली वाणी नहीं है, किन्तु धर्मसम्बन्धिनी वाणी है। ऐसा जाननेपर ) अखर अर्थात् निस्तेज उस कलिका अत्यन्त (पाठा०-दूरसे ही ) तिरस्कार कर दिया)।। 173 // 1. 'मुखे' इति.पाठान्तरम् / 2. 'दूराधिरास' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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