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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1503 विस्तृतमास्यं यस्यासी पञ्चास्य इति व्युत्पत्या 'पञ्च'शब्दो यथा विस्तारवाची तथेति / 'व्यासः प्रपञ्चो विस्तारः' इति हलायुधः // 18 // देवों तथा अप्सराओंको मोहित करने के लिए ये ताराएँ कामदेवके द्वारा छोड़े गये बाण हैं, ऐसा मैं समझता हूं। (कामदेवके बाण पांच ही हैं तथा ये ताराएँ असंख्य हैं अतः इन्हें कामबाण समझना किस प्रकार सङ्गत है ? इस शङ्काका उत्तर दे रहे हैं-) 'पञ्चास्य'के समान पञ्चशर (कामदेव ) के नाममें 'पञ्चन्' शब्द विस्तारार्थक है [जिस प्रकार सिंहको पांच मुखवाला नहीं होनेसे सिंहार्थक 'पञ्चास्य' शब्दके आदिवाला 'पञ्चन्' शब्द विस्तारार्थक है, अत एव 'पञ्च अर्थात् विस्तृत है मुख जिसका' वह सिंह 'पञ्चास्य' कहलाता है; उसीप्रकार कामदेवार्थक ‘पञ्चबाण' शब्दके आदिवाला 'पञ्चन्' शब्द भी विस्तारार्थक ही है, अत एव 'पञ्च अर्थात् विस्तृत ( असङ्ख्यात, या विशाल ) हैं बाण जिसके', वह 'पञ्चबाण' कहलाता है / इसप्रकार पांच मुखवाला नहीं होनेपर भी 'पञ्चास्य' कहे जानेवाले सिंहके समान पांच ही बाणोंवाला नहीं होने पर भी कामदेवको 'पञ्चबाण' कहा जाता है। 'पचि विस्तारे' धातुसे सिद्ध 'पञ्च' शब्दका विस्तार अर्थ होता है ] // 18 // नभोनदीकूलकुलायचक्रीकुलस्य नक्तं विरहाकुलस्य | दृशोरपां सन्ति पृषन्ति ताराः पतन्ति तत्संक्रमणानि धाराः / / 16 / / नभ इति / नक्तं विरहेणाकुलस्य पीडितस्य नभोनथा मन्दाकिन्याः कूलमेव कुलायः स्थानं यस्य तस्य चक्रीकुलस्य चक्रवाकीसमूहस्य दृशोनॆत्रयोरपामश्रजलानां पृषन्ति ये बिन्दवः सन्ति त एव तारका अधःस्थितैर्जनदृश्यन्ते / तथा,-तासां ताराणां संक्रमणानि पुण्यक्षयवशाभूमि प्रत्यागमनानि गलद्वाष्पजलानां धारा एव पतन्ति / दृशोः सन्ति चिरस्थितिमन्ति यानि बाष्पपृषन्ति तानि तारा इति वा / तत्संक्रमणानि स्थितताराप्रतिबिम्बभूतानि तत्तल्यानि पतन्ति अधःपातीनि यानि पृषन्ति तानि धारा अश्रप्रवाहाः / तासां ताराणां संक्रमणानि वीथयो मेषादिसंक्रान्तयो वा धारा अभूणां प्रवाहा इति वा / स्त्रियो हि विरहमसहमाना रुदन्ति / सन्ति, पतन्तीति च तिङन्तम्, पृषद्विशेषणं वा // 19 // __रात्रिमें विरहसे व्याकुल, आकाशगङ्गाके तौरपर रहनेवाली चक्रवाकियों के समूहके नेत्रों के अश्रुजलके वहींपर स्थित (नीचे नहीं गिरी हुई ) बूंदे ही ये ताराएँ हैं, तथा उनसे संक्रान्त अश्रु-बिन्दुधाराएँ ( वर्षाजल-प्रवाह ) हैं। [पतिविरहके असह्य होनेपर रोती हुई आकाशगङ्गा सीरनिवासिनी चक्रवाकियोंके उपरिस्थ अश्रुबिन्दु तारारूपमें दीखते हैं, तथा पुण्यक्षयसे अधःपतित वे अश्रुबिन्दु वर्षाकी जलधारारूपमें दीखते हैं ] // 19 // अमूनि मन्येऽमरनिझरिण्या यादांसि गोधा मकरः कुलीरः / तत्पूरखेलत्सुरभीतिदूरमग्नान्यधः स्पष्टमितः प्रतीमः / / 20 // अमूनीति / हे प्रिये ! गोधाख्यास्तारा गोधा, मकरराशिसंबन्धिन्यस्तारा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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