________________ द्वादशः सर्गः। 771 परार्ध ( अन्तिम सङ्खथा ) से भी अधिक सङ्ख्यासे लक्षित अर्थात् गिनी गयी ( अथवा लाखसे गिनी गयो), जन्मसे अन्धे लोगोंसे देखे जाते हुए अन्धकारके तुल्य अर्थात् अत्यन्त काली, इस मगधेश्वरकी अकीर्तिको अष्टम स्वर (षड्ज, मध्यम आदि सात ही स्वरों के होनेपर भी अष्टम स्वर ) को ग्रहण किये हुए, वन्ध्याओंके उदरसे उत्पन्न मूकों (गूंगेलोगों ) के समूह कच्छपीके दूधके समुद्र के तीरपर गाते हैं। [ जिस प्रकार पराईसे अधिक संख्या, जन्मान्धोंकी दर्शनशक्ति, अष्टम स्वर, वन्ध्याके गर्भसे बच्चेकी उत्पत्ति, मूकोंका गाना, कच्छपीका दूध-ये सब सर्वथा असम्भव हैं, उसी प्रकार इस राजाकी अकीर्तिका होना भी सर्वथा असम्भव है, अतएव यह महाकीर्तिमान् है। अथवा-'किलाकीर्तयः' यहांपर 'किल+आकीर्तयः' सन्धिच्छेद करके इस राजाकी आकीर्ति ( समन्तात् व्याप्त कीर्ति ) को उक्त प्रकारसे गाया करते हैं अर्थात् उन परार्द्धसे अधिक सङ्ख्या आदिके सर्वथा नहीं होने के समान इस राजाकी समन्तात् ( सब तरफ ) व्याप्त कीर्ति भी नहीं है, अतः यह राजा कीर्तिमान नहीं होनेसे स्वामिनी दमयन्तीके वरण करने योग्य नहीं है ] // 106 // तदक्षरैः सस्मितविस्मिताननां निपीय तामीक्षणभङ्गिभिः सभाम् | इहास्य हास्यं किमभून्न वेति तं विदर्भजा भूपमपि न्यभालयत् / / 107 / / पर्यवसाने तु निषेधरूपैर्वाक्यैः, सस्मितानि हास्ययुक्तानि, विस्मितानि च इति विरोधः, आश्चर्यरसयुक्तानीति तत्परिहारः, आननानि यस्यास्तादृशी, तां सभाम् ईक्षणभनिभिदृष्टिविशेषः, निपीय सस्पृहं दृष्ट्वा, इह एतद्वाक्ये, अस्य कीकटेश्वरस्यापि, हास्यं स्मितम् , अभूत् किम् ? न वा अभूत् इति तं भूपम् अपि न्यभालयत् आलोकयत् // 107 // दमयन्तीने उस सखीके वचनोंसे स्मितसहित आश्चर्यित मुखवाली उस सभा अर्थात् मुखवाले उस सभाके सदस्योंको दृष्टि भङ्गियोंसे अच्छी तरह पानकर अर्थात् बार-बार देखकर इस सभामें 'इस ( मगधनरेश ) को भी हँसी आयी या नहीं? इस विचारसे उस राजा ( मगधनरेश ) को भी देख लिया। [ सखीके वैसी विचित्र बात कहनेपर सभासद. गण आश्चर्यसे मुस्कुर। दिये, उन्हें देखती हुई दमयन्तीने उस राजाको भी इस विचारसे देखा कि ऐसी विचित्र बात सुनकर भी अन्य सभासदोंके समान इस राजाको भी हंसी आयी या नहीं ? किन्तु अनुरागसे नहीं देखा / इस श्लोकमें स्मितसहित मुखवालेका विस्मित अर्थात् स्मितरहित मुखवाला होना विरुद्ध है, अतः 'विस्मित' शब्दका 'आश्चर्यित' अर्थ करके उक्त विरोधका परिहार करना चाहिये ] // 10 // नलान्यवीक्षां विदधे दमस्वसुः कनीनिकाऽऽगः खलु नीलिमालयः / चकार सेवां शुचिरक्ततोचितां मिलन्नपाङ्गः सविधे तु नैषधे / / 108 // . कीकटेश्वराद्यवलोकनात् दमयन्त्याः पातिव्रत्यभङ्ग परिहरति, नलेति / खलु