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________________ 1146 नैषधमहाकाव्यम् / तमिति / कलिः तुरीययुगम् , तं वृक्षम्, आलम्बनम् आश्रयम्, आसाद्य प्राप्य, वैदर्भीनिषधेशयोः भैमीनलयोः, कलुषं दुष्कृतम् , पापानुष्ठानमित्यर्थः / अन्विष्यन् अनुसन्दधन् , बहून अनेकान् , वत्सरान् वर्षान् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / अवात्सीत् उवास, वसेर्तुङि सिचि, 'सः स्यार्द्धधातुके' इति सस्य तत्वम् , 'वदव्रज-' इत्या. दिना वृद्धिः // 214 // ___ उस ( बहेड़ेके पेड़ ) का आश्रय पाकर दमयन्ती तथा निषधराज ( नल ) के छिद्र ( दोष ) को खोजता हुआ कलि बहुत वर्पोतक निवास किया [ इससे नल दमयन्तीकी अतिशय धर्माचरणपरायणता तथा कलिकी उनको पीडित करनेके अत्यधिक हठशीलता सूचित होती है [ // 214 // यथाऽऽसीत् कानने तत्र विनिद्रकलिका लता | तथा नलच्छलासक्ति-विनिद्रकलिकालता / / 215 // यथेति.। तत्र तस्मिन् , कानने वने, यथा विनिद्रकलिका उन्निद्रकोरका, लता व्रततिः, आसीत् अवर्तत; तथा तद्वदेव, नलस्य वैरसेनेः, छले छलने, रन्ध्रान्वेषणे इत्यर्थः / आसक्त्या अभिनिवेशेन, विनिद्रः जागरूकः, सततमप्रमत्त इत्यर्थः। कलिः कलिरूपः, कालः समयो यस्मिन् तस्य भावः तत्ता, आसीत् इति शेषः। अत्रार्थभेदेऽपि विनिद्रकलिकालतेति शब्दमात्रसाम्यात्तथेति साहश्यमुक्तम् // 215 // ____ उस उद्यानमें जिस प्रकार लता विकसित हुई कलियोंवाली थी, उसी प्रकार नल को वञ्चित करनेमें आसक्त कलि भी जागरूक था / 215 / / दोष नलस्य जिज्ञासुर्बधीज द्वापरः क्षितौ / नौदोषः कोऽपि लोकस्य मुखेऽस्तीति दुराशया // 216 // __दोषमिति / अथ द्वापरः तृतीययुगमपि, नलस्य नैषधस्य, दोषम् अनाचारम् , जिज्ञासुः ज्ञातुमिच्छुः सन् , लोकस्य जनस्य, मुखे वाचि, अदोषः निर्दोषः, कोऽपि कश्चिदपि, नास्ति न विद्यते, इति दुराशया दुष्टवाञ्छया, लोको हि सर्वत्र दोषदृष्टिपरत्वात् सर्वथा दोषलेशं चयति वक्ष्यति चेति दुराग्रहेण इत्यर्थः / तितौ भुवि, बभ्राज रराज, बभ्रामेति यावत् // 216 // नलके दोषको जाननेका इच्छुक द्वापर ( कलियुग सहायक होकर साथमें आया हुआ तृतीय युगका अधिष्ठाता देव-विशेष ) 'लोगों के मुखमें कोई भी निर्दोष नहीं है ( पाठा०कोई ( किसी मनुष्य-विषयक ) दोष नहीं है क्या ? अर्थात् है ही )' इस दुराशाले पृथ्वीपर शोभने विराजमान रहने अर्थात् ठहरने (पाठा०-घूमने) लगा। [ द्वापरने सोचा कि 'सब लोग जिसे निर्दोष मानें ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, अतः नलके दोषको मैं किसीके मुखसे अवश्य सुनूंगा' इसी दुराशासे वह नगरमें घूमने लगा ] // 216 / / 1. 'बभ्राम' इति पाठान्तरम्। 2. 'न दोषः' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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