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________________ 1356 नैषधमहाकाव्यम् / भतरादेशात् कौँ त्यजन्स्या इत्यर्थः / सख्याः भैम्याः, करग्रहात् हस्ताभ्यां धारणात्, कर्णी निजश्रवणद्वयम् , मोचयाञ्चक्रे मोचितवती // 109 // उस 'कला' ने ऐसा ( 20 / 107-108 कहकर ) निरर्थक परिश्रमसे निषेध करनेवाले पति ( नल ) का कहना माननेवाली सखी ( दमयन्ती ) के करग्रहण ( हाथोंसे बन्द करने ) से अपने कानोंको छुड़ा लिया / [ 'जब कान बन्द करनेपर भी यह कला मेरी बातें सुन ही रही है, तब भविष्यमें हस्तपीडाजनक ऐसा काम करना छोड़ दो' ऐसा नलके वचनको मानकर दमयन्तीने कलाके कानोंको छोड़ दिया ] // 109 // अतिसंरोधजध्वानसन्ततिच्छेदतालताम् | जगाम झटिति त्यागस्वनस्तत्कणेयोस्ततः॥ 110 // ___ श्रुतीति / ततः कर्णमोचनानन्तरम् , तस्याः कलायाः, कर्णयोःश्रवणयोः, झटिति सहसा, त्यागेन मोचनेन, यः स्वनः शब्दः, श्रुतिविवरं प्रविष्टः बाह्यशब्द इत्यर्थः / अतिसंरोधेन कर्णावरणेन, जातायाः उत्पन्नायाः, ध्वानसन्ततेः 'धुम धुम्' इत्यादि. रूपध्वनिपरम्परायाः छेदे विरामे, तालतांगीतादिक्रियासमापनकालिकमानरूपताम् , जगाम प्राप / बाह्यशब्देन आभ्यन्तरध्वनिनिवृत्त इत्यर्थः / एतत्त सर्वेषामेवानुभव. सिद्धमिति बोद्धव्यम् // 110 // ____ उस ( दमयन्तीसे कानोंको छुड़ाने ) के बाद ( अथवा-बढ़ा हुआ ), उस 'कला' के कानोंको अतिशीघ्र अर्थात् सहसा छोड़नेसे उत्पन्न ध्वनि ( कर्णविवरों में प्रविष्ट बाहा शब्द ) कानों के बन्द करनेसे उत्पन्न ध्वनि-समूहके विराम अर्थात् बादमें तालमाव [ गीत आदिकी क्रियाके समान प्रमाणता ) को प्राप्त किया / [ कानोंको बहुत बिलम्बतक बन्द रखकर सहसा छोड़ने के बाद उसमें प्रविष्ट हुआ बाह्य ध्वनि गानेके तालके समान कलाको मालूम पड़ा ] / / 110 // सापऽमृत्य कियद् दूरं मुमुदे सिष्मिये ततः / इदं ताश्च सखीमेत्य ययाचे काकुभिः कला // 111 // सेति / ततः मुक्तिप्राप्तेरनन्तरं सा कला तन्नामसखी, कियत् किञ्चित् , दूरं विप्रकृष्टदेशम् , अपसृत्य गत्वा मुमुदे जहर्ष, निजकौशलस्य साफल्यदर्शनादिति भावः / अत एव सिष्मिये च मन्दं जहास च, किन्च, ताम् आहूतां स्वपक्षीयाम् , सखीं वयस्थाम , एत्य आगत्य, काकुभिः अनुनयसूचकविकृतस्वरैः, इदं वक्ष्यमाणं, ययाचे च प्रार्थयामास च // 111 // ___ इस ( कानोंमें सहसा प्रविष्ट ध्वनिको गाने के तालके समान ज्ञात होने ) के बाद वह 'कला' ( दमयन्तीके पाससे ) कुछ दूर हटकर हर्षित हुई तथा मुस्कुरायी और उस ( बुलायी गयी स्वपक्षीया सखी) के पास जाकर काकु (दीनतासूचक विकृत स्वर ) से यह याचना की।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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