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________________ 1243 ऊनविंशः सर्गः। नामक प्रासादके प्रवेश-द्वारका आश्रय कर रहा है अर्थात् सूर्य-किरणें पूर्व दिशामें ऊपरकी ओर फैलने लगी हैं और सूर्य उदयाचलपर आगया है ] // 11 // नभसि महसां ध्वान्तध्वाङ्क्षप्रमापणपत्रिणा. मिह विहरणैः श्यैनम्पातां रवेरवधारयन् / शशविशसनत्रासादाशामगाचरमां शशी तदधिगमनात्तारापारावतैरुदडीयत / / 12 // नभसीति / शशी चन्द्रः, ध्वान्तानाम् अन्धकाराणामेव, ध्वाक्षाणां कृष्णवर्णसाम्यात् वायसानाम् / 'ध्वाक्षात्मघोषपरभृद्भलिभुग्वायसा अपि' इत्यमरः। प्रमापणे मारणे, पत्रिणां श्येनानाम् , श्येनस्वरूपाणामित्यर्थः / अथ शशादनः पत्री श्येनः' इत्यमरः। पत्रिणां शराणामिति वा, बाणस्वरूपाणामित्यर्थः। 'कलम्बमार्गणशराः पत्री रोप इषुईयोः' इत्यमरः / महसां तेजसाम् , सूर्यकिरणानामित्यर्थः / इह नभसि आकाशे, विहरणः परिक्रमणः, रवेः सूर्यस्य, श्येनपातः अस्यां क्रियायां वर्त्तते इति श्यैनम्पाता मृगया ताम् / 'घञः साऽस्यां क्रियेति ञः' इति अप्रत्ययः / 'श्येनतिलस्य पाते मे' इति मुमागमः / 'श्यनम्पाता च मृगया' इत्यमरः। अवधा. स्यन् निश्चिन्वन् , इवेति शेषः / शशः स्वाङ्कस्थितमृगविशेषः, तस्य विशसनत्रासात् हिंसाभयात् , मारणभयादित्यर्थः / चरमां पश्चिमाम , आशां दिशम् , अगात् अगमत्, पलायितवानित्यर्थः। तस्य श्यैनम्पातावृत्तान्तस्य, रवेः मृगयाव्यापारस्येत्यर्थः / अधिगमनात् ज्ञानात् , ताराभिः नक्षत्रैरेव, पारावतैः कपोताख्यपक्षिविशेषः। 'पारावतः कलरवः कपोतः' इत्यमरः / उदडीयत उड्डीनम् , उड्डीय पलायितामित्यर्थः / भावे लङ् / रविकिरणा गगने प्रसरन्ति, शशाङ्कः पश्चिमां दिशं यातः, तारकाश्च अलक्ष्यतां गता इति निष्कर्षः। रूपकालङ्कारः॥ 12 // ____ आकाशमें अन्धकार तुल्य ( पक्षा०-अन्धकाररूप ) कौवोंको मारने (पक्षा०-नष्ट करने ) वाले ( 'इयेन'-बाज नामके ) पक्षियों ( पक्षा०-बाणों ) के समान अर्थात् पक्षि. रूप सूर्य-किरणों के भ्रमण करनेसे इस पूर्वदिशा (या आकाश ) में सूर्यके आखेटका निश्चय करता हुआ चन्द्रमा मानो ( अपने अङ्कस्थ ) शशकके भी मारे जानेके भयसे पश्चिम (अन्तिम अर्थात् बहुत दूर ) दिशाको चला गया तथा उस (चन्द्रमाके भागने, या-सूर्यके आखेट करने के समाचार ) के मालूम होने से तारारूपी ( पक्षा०-ताराके समान ) कबूतर भी उड़ गये ( पक्षा०-ऊपर चले गये अर्थात् अस्त हो गये)। [ जिस प्रकार कोई शिकारी आकाश में उड़ते हुए कौवों को बाणोंसे मारकर शिकार करता है तो शशकवाला व्यक्ति भी अपने शशकके शिकारमें मारे जानेके भयसे वहाँसे बहुत दूर चला जाता है और कबूतर भी बहुत ऊंचा उड़कर आकाशमें छिप जाते हैं, उसी प्रकार सूर्य भी आकाशमें फैलती हुई अपनी किरणोंसे ऊपर फैले हुए अन्धकारको नष्ट करने लगा तो 'यह सूर्य अपने किरणोंसे कृष्णवर्ण अन्धकार को नष्टकर उनका शिकार कर रहा है, अतः वह कदाचित् मेरे अङ्कमें स्थित 78 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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