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________________ षोडशः सर्गः। 685 तदालिङ्गितुकामोऽपि सर्वजनसमक्ष यथेष्टं चेष्टितुमशक्तः सन् शृङ्खलाबद्धपक्षिविभ्रममिवानुबभूवेति निष्कर्षः // 63 // ____ वह युवक ( पंखा करनेवाली ) उस स्त्रीके स्तनोंके स्पर्श करनेकी चेष्टा ( पाठा०'स्पृष्टक' नामक आलिङ्गन करनेकी चेष्टा करने ) वालो बाहुलताके चञ्चल अर्थात् हिलते हुए पत्ते के समान पंखेकी हवासे व्याकुल होकर अर्थात् स्तनको स्पर्श करनेवाले बाहुसे चञ्चल पंखेके देखनेमात्रसे उत्पन्न अनुरागसे व्याकुल होकर अनेक सरपत्तेकी ( अथवा-अनेकविध तृणोंकी ) शृङ्खलामें फंसे हुए पक्षीके विलास ( पक्षा०-तद्रूप पिजड़ेमें ही विशिष्ट भ्रमणबहुत घूमना ) को प्राप्त किया। [ पङ्खा करते समय उस स्त्रोके बाहुसे स्तनके स्पर्श करनेको देख कामातुर होकर उस स्त्रीके आलिङ्गन करनेका इच्छुक होता हुआ भी युवक सब लोगों के सामने वैसा करने में असमर्थ होनेके कारण पिंजड़ेमें फंसे हुए पक्षीके समान व्याकुल हो गया। बाहुरूपिणी लतामें पल्लवका होना तथा पङ्खा करनेके व्याजसे चञ्चल बाहुका 'स्पृष्टक' नामक आलिङ्गन करना उचित ही है ] // 63 // अवच्छटा काऽपि कटाक्षणस्य सा तथैव भङ्गी वचनस्य काचन / यया युवभ्यामनुनाथने मिथः कृशोऽपि दूतस्य न शेषितः श्रमः ||6|| अवच्छटेति / सा तात्कालिकीत्यर्थः, काऽपि अनिर्वचनीया, कटाक्षणस्य, कटाक्षकरणस्य, अपाङ्गदर्शनस्य इति यावत् , 'तत् करोति-' इति ण्यन्तात् ल्युट / अवच्छटा भङ्गी परम्परा वा, तथा वचनस्य परस्परभाषणस्य, काचन एव काऽप्येव, भङ्गी वक्रोक्त्यादिरूपा इत्यर्थः, जाता इति शेषः, यया कटाक्षणच्छटया वचनभङ्गया च का, युवभ्यां युवत्या यूना च, 'पुमान् स्त्रिया' इत्येकशेषः। मिथः अनुनाथने परस्परप्रार्थने, नाथतेर्याचनार्थत्वात् ल्युट / दूतस्य वार्तावहस्य, कृशः अल्पोऽपि, श्रमः प्रयासः, न शेषितः शेषतया न रक्षित इत्यर्थः, स्वयमेव तत्कार्यकारित्वात् परस्परमिलनार्थ दूतो नापेक्षित इति भावः // 64 // ___ उस समयकी कोई अनिर्वचनीय कटाक्ष करनेकी भङ्गी ( या–परम्परा) तथा अनिवचनीय कोई वक्रोक्ति आदि भाषणकी भङ्गी उसी प्रकारकी हुई, जिस ( कटाक्ष तथा वचनकी भङ्गी ) से युवक तथा युवतीने परस्पर प्रार्थना करने में दूतके श्रमको थोड़ा भी बाकी नहीं छोड़ा / [ युवक तथा युवतीने परस्पर कटाक्ष तथा वक्रोक्तिपूर्ण वचनोंसे 'तुम मिलना, मैं आऊंगा' इत्यादि रूपमें स्वयं ही सङ्कत कर लिया और इस प्रकार दूतको उन दोनों की परस्पर कामावस्था कहकर उन्हें मिलानेकी कोई आवश्यकता ही नहीं रह गयी ] // 64 // पपौ न कश्चित् क्षणमास्यमीलितं जलस्य गण्डूषमुदीतसम्मदः / चुचुम्ब तत्र प्रतिबिम्बितं मुखं पुरःस्फुरन्त्याः स्मरकामुकभ्रवः // 6 // पपाविति / उदीतसम्मदः सञ्जातहर्षः, कश्चित् युवा, पुरःस्फुरन्त्याः पुरोवर्त्तिन्याः स्मरस्य कार्मुके धनुषी इव ध्रुवौ यस्याः तारश्याः, कस्याश्चित् जलदायाः इति शेषः,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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