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________________ 1332 नैषधमहाकाव्यम् / तुम्हारे ( दमयन्तीके ) बचनको सुननेवाला मैंने क्या अपराध किया ? जो मुझसे वीणा परुष ( कठोर ) और कोकिल निष्ठुर बोलती है ? ( यह अपनी सखी दमयन्तीसे ) पूछो / [ रात्रिको सुरतकालमें दमयन्तीके वीणाकी ध्वनि तथा कोकिल के कूजनसे भी मधुर वचन मैंने बहुत सुना, अतः इस समय वीणाकी ध्वनि तथा कोकिलका कूजना हमें अप्रिय मालूम होता है, क्योंकि श्रेष्ठ पदार्थका भोग करने के बाद निकृष्ट पदार्थ प्रिय नहीं होता / प्रकृतमें जो जिसके प्रति अपराध करता है, उसी के प्रति उसे अनुचित व्यवहार करना चाहिये, मैंने तो दमयन्तीका वचन सुनकर उसका, वीणाका या कोकिलाका कोई अपराध नहीं किया जो तुम्हारी सखी दमयन्तीने इस समय मुझसे बोलना छोड़ दिया. और वीणा तथा कोकिल कठोर एवं निष्ठुर वचन कह रही है, इसका क्या कारण है ? यह तुम अपनी सखी से पछो / अथवा-मुझसे वीणा जो परुष ( कठोर ) तथा कोकिल निष्ठुर बोलती है, सो हे कले ! तुम अपनी सखी दमयन्तीसे पूछो कि तुम्हारी ( वीणा तथा कोकिलसे भी मधुर ) वाणीको सुननेवाले मैंने क्या अपराध किया है ? / यह लोकनियम है कि जो दुःखी होता है, वह सुख चाहता है, अत एव दमयन्तीके वचनकी अपेक्षा कटु वीणाकी ध्वनि तथा कोकिलका कूजना सुनकर उससे भी मधुरतम दमयन्तीके वचनको मैंने पीछेसे चुपचाप आकर जो सुन लिया तो क्या अपराध किया, जो यह अब मेरे सामने नहीं बोलती, अत एव अब इसके सामने मुझे निरपराध कहकर बोलने के लिये कहो ] / / 60 // सेयमालिजने स्वस्य त्वयि विश्वस्य भाषताम् / ___ ममताऽनुमताऽस्मासु पुनः प्रस्मयते कुतः ? / / 61 / / सेति / हे कले ! सा इयं प्रिया भैमी, स्वस्य आत्मनः, आलिजने सखीजने, त्वयि भवति, विश्वस्य विनम्म्य, प्रत्ययं कृत्वा इत्यर्थः / भाषतां वदतु, त्वां सखीं विश्वस्य अवश्यमेव एतत् कथयतु इत्यर्थः / किं भाषताम् ? इत्याह-अस्मासु मयि. विषये, अनुमता अङ्गीकृता, ममता आत्मीयता, मम अयम् इत्यभिमानः इत्यर्थः / रजन्यां तदनुकूलाचरणादिति भावः / कुतः कस्मात् हेतोः, पुनः इदानीं, प्रस्मर्यते ? प्रगतस्मरणीक्रियते ? रात्री तथा आत्मीयत्वेन आलप्य दिवा युष्मत्समक्ष दृष्टिनिक्षेप मात्रस्यापि अकरणात् तत् कथं विस्मयते अनयेति पृच्छेत्यर्थः। मयि अनात्मीयाच. रणे कथं जीवेयम् ? इति भावः॥६॥ यह ( दमयन्ती ) सखीजन तुमपर विश्वास करके कहे कि-(रात्रिमें) हमारे विषयमें स्व-सम्मत आत्मीयताको फिर ( इस समय तुम ) क्यों भूल रही हो ? [ रातमें पूर्णतया मेरे साथ अनुकूल बर्ताव करके दमयन्तीने जा आत्मीयताका परिचय दिया था, उसे इस समय असम्भाषण आदि प्रतिकूलाचरण करके क्यों भूल रही है ? इस बातको प्रिय सखी तुममें विश्वासकर बतलावे ] / / 61 // अथोपवदने भैम्याः स्वकर्णोपनयच्छलात् / सन्निधाप्य श्रुतौ तस्या निजास्यं सा जगाद ताम् / / 62 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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