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________________ 646 षोडशः सर्गः। श्लथैदलैः स्तम्भयुगस्य रम्भयोश्चकास्ति चण्डातकमण्डिता स्म सा / प्रियासखीवास्य मनः स्थितिस्फुरत्सुखागतप्रश्निततूर्यनिस्वना // 8 // श्लथेरिति / रम्भयोः स्तम्भयुगस्य द्वारशोभाथ स्थापितकदलिस्तम्भयुगलस्य, श्लथैः शिथिलैः, दलैः पर्णैः, तद्रूपेणेत्यर्थः / चण्डातकेन अझैरुकेण, वराङ्गनापरिधेय. वस्त्रविशेषेणेत्यर्थः / 'अझैरुकं वरस्त्रीणां स्याञ्चण्डातकमंशुकम्' इत्यमरः / मण्डिता भूषिता, सा तत्प्रतीहारमही, मनसि नलस्य चित्ते, स्थितिः सर्वदा चिन्तया अव. स्थानं, तया नलमनोगतत्वेनेत्यर्थः / स्फुरन् सर्वदा मनसि अवस्था नात् निगच्छन् , यः सुखागतस्य प्रश्नः सुखेनागमनविषयकप्रश्नः, स कृतः सुखागतप्रश्नितः सुखागमनप्रश्नरूपतासम्पादितः / 'तत् करोतेः-' इति णिजन्तात् कर्मणि क्तः। तूर्यनिस्वनः यया सा सती, अस्य नलस्य, प्रियासखी भमीसखी इव, चकास्ति स्म चकासामास / कदलीदलरूपसुवसना तत्प्रतीहारभूमिः तूर्यनिस्वनयोगात् स्वागतं पृच्छती भैमीसखीव बभौ इत्युत्प्रेक्षा // 8 // केलेके दो खम्भों के शिथिल (नीचे लटकते हुए) पत्तोंसे लहँगा (या बुर्का ) से सुशीभित वह ( द्वारभूमि ) अन्तःकरणमें ( नलके सदा ) रहनेसे उल्लासित होते हुए सुखपूर्वक आगमन के प्रश्नको करनेवाले बाजेके शब्दवाली इस ( नल) की प्रिया ( दमयन्ती) सखीके समान शोभती थी। [ मङ्गलार्थ द्वारके दोनों ओर रखे गये केलेके खम्भों के नीचेतक लटकते हुए पत्तोंसे सुशोभित और बाजाओंकी ध्वनिसे युक्त वह द्वारभूमि ऐसी मालूम पड़ती थी कि लहँगा या बुर्का पहनी हुई दमयन्ती-सखी नलके सुखपूर्वक आनेका कुशल-प्रश्न कर रही हो / यहां खम्भोंको द्वारभूमिरूपिणी सखीकी जङ्घाएं, लटकते हुए पत्तोंको लहँगा या बुर्का, बाजाओं की ध्वनिको कुशल-प्रश्नकी उत्प्रेक्षा की गयी है / बहुत दिनके वाद मिलनेवाले दूरदेशसे आये हुए पतिसे लज्जावश स्वयं सुखपूर्वक आनेके कुशल. प्रश्नको नहीं कर सकनेके कारण स्त्री अपनी सखीको उस कार्यमें नियुक्त करती है और वह लहँगा या बुर्का पहनी हुई द्वारपर आकर कुशल-प्रश्न करती है ] // 8 // विनेतृभर्तद्वयभीतिदान्तयोः परस्परस्मादनवाप्तवैशसः / अजायत द्वारि नरेन्द्रसेनयोः समागमः स्फारमुखारवोद्गमः / / 9 / / विनेत्रिति। विनेत्रोः नियामकयोः, भोः नलभीमरूपयोः स्वामिनोः, द्वयं तस्मात् भीत्या भयेन, दान्तयोः शान्तयोः, नरेन्द्रसेनयोः भोमनलवाहिन्योः, परस्परस्मात् अन्योऽन्यस्मात्, अनवाप्तम् अप्राप्तं, वैशसं हिंसनं यस्मिन् स तादृशः, स्फारः तारः, मुखारवोद्गमः मुखकलकलोदयः यस्मिन् स तादृशः, समागमो मेलनं, द्वारि राजभवनद्वारे, अजायत जातः // 9 // नियामक दोनों स्वामियों ( नल तथा भीम) के भयसे शान्त ( युद्धादि नहीं करती हुई दोनों ) राज-सेनाओं ( नल तथा भीमकी सेनाओं) का आपसमें (आघात प्रत्याघात
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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