________________ अष्टादशः सर्गः। 1166 लिए प्रार्थित उस ( दमयन्ती ) ने उस ( नल ) के उस उद्यम ( कटाक्षदर्शन, आलिङ्गन, चुम्बनादि करने ) को रोक दिया / [ स्वयं चिकीर्षित भी आलिङ्गन आदिको नलके द्वारा करने की चाहना करने पर उन्हें वैसा करनेमे रोक दिया ] // 34 // ह्रीभराद् विमुखग तया भियं सञ्चितामननुरागशङ्किनि / स स्वचेतसि लुलोप संस्मरन दूत्यकालकलितं तदाशयम् // 35 // हीभरादिति / सः नलः, हीभरात् लजातिशयात , विमखया प्रतिकूल या, तया भैम्या, अननुरागशङ्किनि वैमुख्यदर्शनात् अनुरागाभावसन्देहिनि, स्वचेतसि निजमनसि, सञ्चिता पुञ्जीकृताम , भियं विरागसम्भावनाजनितं भयम , दृत्यकाले दूतकर्मसमये, कलितम् अवगतम , तस्याः भैग्याः, आशयं चित्तवृत्तिम् संस्मरन् सञ्चि. न्तयन् , लुलोप विनाशयामास / तदनुरागस्य स्मरणेन भयं नुनोद इत्यर्थः // 35 // ( अपने इन्द्रादिके ) दूतकर्म के समयमें निश्चित दमयन्तीके अभिप्राय ( रव-विषयक दृढतमानुराग) को स्मरण करते हुए उस (नल) ने लज्जाधिक्यसे पराङ्मुखी उस (दमयन्ती) के द्वारा अनुरागका भाव सोचनेवाले अपने चित्र में उत्पन्न हुए भयको दूर कर दिया। [ पहिले तो लज्जासे दमयन्तीको विमुख होती हुई देखकर नलके हृदयमें भय उत्पन्न हुआ कि 'यह मुझसे अनुराग नहीं करती है क्या ? किन्तु इस भयको अपने दूतकालमें देखे गये दमयन्तीके अटल अनुरागको स्मरणकर दूर कर दिया ] // 35 // पार्श्वमागमि निजं सहालिभिस्तेन पूर्वमथ सा तयैकया / क्वापि तामपि नियुज्य मायिना स्वात्ममात्रसचिवाऽवशेषिता // 36 / / पार्श्वमिति / मायिना कपटपटुना, चतुरेणेत्यर्थः / तेन नलेन, सा भैमी, पूर्वम् आदौ, आलिभिः बहीभिः सखीभिः सह, निजं पाश्व स्वसमीपम् , आगमि आगमिता, आनीतेत्यर्थः / गमेय॑न्तात् कमणि लुङ 'मित्त्वात् हस्वत्वम् / अथ अन्यासां सखीनां कार्यव्यपदेशेन प्रस्थापनानन्तरम् , एकया एकमात्रया, तया आल्या सह, अवशेषिता अवशिष्टीकृता / अथ ताम् एकामपि आलिम् , क्वापि ताम्बूलानयनादि. रूपे कस्मिन्नपि कर्मणि, नियुज्य सम्प्रेष्य,स्वात्ममानं केवलं स्वयमेव, सचिवः सहायः, सहचर इत्यर्थः / यस्याः सा तादृशी, चक्रे इति शेषः। विविक्तमकरोदित्यर्थः // 36 // ( भयसे अपने समीप नहीं आती हुई दमयन्तीको पास बुलाने के लिए ) कपट करनेवाले नलने पहले सखियों के साथ उस ( दमयन्ती) को निकट बुलवाया, इसके अनन्तर (व्याजान्तरसे अन्य सखियोंको भेजकर ) एक सखीके साथ उसे अपने पास किया और ( कुछ समय बाद पहलेसे थोड़ा अधिक विश्वास प्राप्त कर लेनेपर ) उस सखीको भी कहीं पर 1. 'चिण्णमुलोदोऽन्यतरस्याम्' इत्यनेन दीर्घ इत्यवधेयम् / अत्र 'विभाषा विष्णमुलोः इति दीर्घविकल्पात्पक्षे हस्व इति वदन् 'प्रकाशः' कारस्तु भ्रान्तस्तेन नुम्विधानाद्दी;विधानाञ्च /