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________________ 864 नैषधमहाकाव्यम्। चित्रीकरणक्रियादक्षा, काचित् , पुरन्ध्रीति शेषः, पुरस्कृता आलेपनकर्मणि प्राधान्येननियुक्ता सती, कमपि अवाच्यम, अहङ्कारं गर्वम् ; अगात् / अपूपानां पिष्टकाख्यभक्ष्य: भेदानां निर्माणे विदग्धया दक्षया, कयाचित् पुरन्ध्या इति शेषः / तुङ्गासने उच्चासने सन्निवेशनात् उपवेशनात , पिष्टकमर्जनामिति भावः / आदरः आत्मनि अभिमानः, अलम्भि प्रापि 'लभेश्च' इति नुमागमः // 12 // ___उस समय चौक पुरने ( हल्दीसे मिश्रित चावल के चून अर्थात् चौरठसे आंगनमें बनाये जानेवाले चित्र-विशेषके निर्माण करने ) में चतुर ( अतएव उस कार्यको करने के लिए) नियुक्त की गयी किसी स्त्रीने किसी अनिर्वचनीय अहङ्कारको प्राप्त किया तथा पूआ पकाने में चतुर वि.सी स्त्रीने ऊंचे आसन ( छोटी चौकी या मचिया आदि ) पर बैठनेसे ( अपनेमें ) गौरवको प्राप्त किया। (अथवा-उबटन लगानेमें चतुर कोई स्त्री दमयन्तीको उबटन लगानेमें पुरस्कृतकी ( प्रधान बनायी ) गयी अनिर्वचनीय अहङ्कारको प्राप्त किया..... ) / [ कोई सी चौक पुरने में लग गयी और कोई मचियापर बैठकर पूआ पकाने लगी ] // 12 // मुखानि मुक्तामणितोरणात्तदा मरीचिभिः पान्थविलासमाश्रितैः / पुरस्य तस्याखिलवेश्मनामपि प्रमोवहासच्छुरितानि रेजिरे // 13 // मुखानीति / तदा तत्काले, आसन्न परिणयमहोत्सवे इत्यर्थः। तस्य पुरस्य सम्बधिनाम अखिलवेश्मनाम् अपि सर्वेषामेव गृहाणां, मुखानि द्वाराणि वक्त्राणि च, इति श्लेषः / मुक्तामणीनां तोरणात् तन्मयहि राित् / अपादानात् / 'तोरणोऽस्त्री बहिरिम्' इत्यमरः / पान्थविलासं नित्यपथिकविभ्रमम्, आश्रितैः अधिगतैः, निरन्तरनिःसृतरित्यर्थः / पान्थविलासस्य मरीचिषु असम्भवात् तद्विलास इव विलास इति निदर्शना / मरीचिभिः किरणः। 'द्वयोमरीचिः किरणो भानुस्त्रः करः पदम्' इति शब्दार्णवः / प्रमोदहासच्छुरितानि अट्टहास्यरक्षितानीव, रेजिरे शुशुभे / सुखत्वात् शुभ्रवाच्च इयमुत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या // 3 // उस समय ( विवाह-समयके समीप आ जानेपर ) उस नगर के तथा उस नगर के भवनों के भी मुख अर्थात् मुखस्थानीय द्वार मोतियों तथा मणियोंके तोरणोंसे (निकलकर ) पथिकविलासको प्राप्त किये हुए ( बहुत दूरतक फैलनेवाले किरणोंसे (उक्त विवाहोत्सव. जन्य ) अतिशय हर्षयुक्त ह्राससे युक्त ) के समान शोभने लगे। [नगर तथा महलोंके द्वारों पर लगाये गये मोतियों तथा मणियों के तोरणों की दूरत्क फैलनेवाली कान्ति ऐसी मालूम पड़ती थी कि मानों यह नगर तथा इस नगर के भवन भी अतिशय हर्षसे हंस रहे हो // सर्वत्र मोतियों और मणियों के तोरणोंसे नगर तथा भवनोंको सुसज्जित किया गया ] // पथामनीयन्त तथाऽधिवासनान्मधुब्रतानामपि दत्तविभ्रमाः / वितानतामातपनिर्भयास्तदा पन्छिदाऽकालिकपुष्पजाः स्रजः / / 14 / / 1. 'तोरणोद्गतैः' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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