________________ 1208 नैषधमहाकाव्यम् / भैम्याः, विलोकनं साक्षात्कारम् , नेत्रयोः स्वाणोः, अमृतस्य पीयूषस्य, सारेण उस्कृष्टांशेन, पारणाम् उपवासानन्तरमाहारविशेषमिव, अचिन्तयत् अभावयत् / तद्वत् तृप्तिबोधादिति भावः // 106 // नलने उस ( दमयन्ती ) के अङ्गों ( बाह्यङ्गों ) के स्पर्शसे ( अपने ) आभ्यन्तर (बाह्याङ्गसे अस्पर्शनीय ) अङ्गों को भी तृप्त हुआ माना तथा उस ( दमयन्ती ) के देखनेको दोनों नेत्रोंकी अमृतके सारभूत अंशसे पारणा समझा / [ नलने बार-बार दमयन्तीका आलिङ्गन तथा दर्शनकर अतिशय हर्ष प्राप्त किया ] / / 106 / / 'बह्वमन्यत विदर्भजन्मनो भूषणानि स हशा न चेतसा | तैरभावि कियदङ्गदर्शने यत् पिधानमयविघ्नकारिभिः // 107 / / बह्विति / सः नलः, विदर्भजन्मनः वेदाः , भूषणानि आभरणानि, दृशा दृष्टया एव, बहु अमन्यत अत्यर्थ समादृतवान्, दमयन्त्यङ्गस्पर्शसौभाग्यलाभादिति भावः / चेतसा मनसा, न, बहु अमन्यत इति शेषः / कुतः ? यत् यस्मात् , तैः भूषणः, कियताम् अङ्गानां प्रकोष्ठादीनां केषाञ्चिदवयवानाम् , दर्शने विलोकने, पिधानमयं छादनरूपम् , विघ्नं प्रत्यूहम् , कुर्वन्तीति तादृशः, दृष्टिव्याघातोत्पादकैरित्यर्थः / अभावि भूतम् / अतः भूषणबहुमानः नातिपुष्कलः इति भावः // 107 // ___ उस ( नल ) ने विदर्भकुमारी ( दमयन्ती ) के भूषणोंको दृष्टि से ही अतिशय आदर किया, मनसे नहीं (पा०-इस ( नल) ने प्रिया (दमयन्ती) को आश्रित अर्थात् शरीर में पड़ने गये भूषणोंसे पहले सन्तुष्ट हुए, (किन्तु ) बादमें विचार करते हुए खिन्न हुए; क्योंकि ) वे ( भूषण ) दमयन्तीके कुछ अङ्गोंके देखनेमें उन्हें आच्छादित करने ( ढकने-छिपाने ) के कारण विघ्नकारक हो रहे थे। [ दमयन्तीके अंगस्पर्शसे सौभाग्य लाम होनेसे उन भूषणोंको देखकर पहले नलको हर्ष हुआ, किन्तु बादमें 'यदि ये भूषण नहीं होते तो दमयन्तीके उन अंगोंको भी देखनेका मुझे सौभाग्य प्राप्त होता, जिन अंगोंको ये भूषण छिपा रहे हैं। ऐसा विचार करनेसे मानसिक हर्ष नहीं हुआ। रतिकालमें भूषणोंका हटा देना ही कामशास्त्र-सम्मत होनेसे यहां उनके धारण किये रहनेका वर्णन, विलम्बसहनमें अशक्त होने के कारण नल का हठ सुरत करने में प्रवृत्त होना, या-सम्पूर्ण भूषणोंको नहीं हटाना दोषरहित होनेसे किया गया समझना चाहिये। नलने अतिशय सौन्दर्यसम्पन्न दमयन्तीके अंगोंसे हीन सौन्दर्यवाले भूषणोंका अधिक आदर नहीं किया ] // 107 // योजनानि परिरम्भणेऽन्तरं रोमहर्षजमपि स्म बोधतः / / तौ निमेषमपि वीक्षणे मिथो वत्सरव्यवधिमध्यगच्छताम् / / 108 // योजनानीति / तौ भैमीनलौ, परिरम्भणे आलिङ्गनकाले, रोमहर्षात् सात्त्विकभा 1. भूषणैरतुषदाश्रितैः प्रियां प्रागथ व्यषददेष भावयन्' इति पाठं व्याख्याय 'बह्वमन्यत-' इति मूलोक्तपाठं सुगममाह 'प्रकाश'कारः।