SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधमहाकाव्यम् / प्रभया, सा कज्जलरेखारूपा, स्वपद्धतिः रश्मिमार्गः, अरञ्जि रक्षिता किम् ? अञ्जनैः कज्जलेः, न ? अरञ्जीति सापह्नवोत्प्रेक्षा // 35 // (कटाक्ष-विक्षेपादिरूप ) काम-विलासोंसे नेत्रप्रान्ततक दौड़ने अर्थात् पहुंचनेवाली ( नेत्रकी ) पुतलीरूपी इन्द्रनीलमणिके अन्धकारकुलमें उत्पन्न किरणोंसे अपने ( गमना. गमनका ) मार्ग रंग ( कृष्णवर्ण बना ) लिया है क्या ? अञ्जनोंसे नहीं रंगा है / [ 'दमयन्ती-- की आंखोंकी नीली पुतली कामविलाससे बार-बार कटाक्ष करती हुई नेत्रप्रान्ततक जो गमनागमन करती थी, उसीसे वह कृष्णवाली रेखा बन गयी है, अञ्जनसे नहीं बनी है, ऐसा मानता हूं / नित्य गमनागमन करनेसे कृष्णवर्ण रेखारूप मार्गका बन जाना सर्वविदित है ] // 35 // असेविषातां सुषमा विदर्भजाहशाववाप्याञ्जनरेखयाऽन्वयम् / भुजद्वयज्याकिणपद्धतिस्पृशोः स्मरेण बाणोकृतयोः पयोजयोः / / 3 / / असे विषातामिति / विदर्भजादृशौ वैदर्भीनेत्रे, अञ्जनरेखया सह अन्वयं सम्बन्धम् , अवाप्य प्राप्य, भुजद्वये ये ज्याकिणपद्धती ज्याघातरेखे, तत्स्पृशोः तयुक्तयोः, एतेन स्मरस्य सव्यसाचित्वं गम्यते / स्मरेण वाणीकृतयोः पयोजयोः नीलोत्पलयोः, सुषमामिव सुषमां परमशोभाम , असे विषातां प्राप्नुताम् / साञ्जनरेखे तदृशौ ज्याघातरेखास्पृशौ स्मरसन्धितनीलोत्पलबाणी इव रेजतुरित्यर्थः / असम्भवद्वस्तुसम्बन्धरूपो निदर्शनाभेदः // 36 // (दमयन्तीके दोनों नेत्र अञ्जन-रेखा के सम्बन्धको प्राप्तकर दोनों बाहुओंमें धनुर्गुणके (धनुषकी डोरी) के (निरन्तर आघातसे उत्पन्न ) घट्टेके रेखाओं से युक्त तथा कामदेवके द्वारा ( नलको लक्ष्यकर ) बाण बनाये गये दो कमलोंकी परमोत्कृष्ट शोभाको प्राप्त किये। [नलको लक्ष्यकर कामदेव निरन्तर–दाहिने बायें-दोनों हाथोंसे कमल-पुष्पको वाण बनाकर छोड़ रहा था, अत एव उसके दोनों बाहुओंमें धनुषकी डोरीको कानतक तान-तान कर बाणोको छोड़नेसे काले वर्णके घट्टे ( रेखाकार चिह्नविशेष ) पड़ गये, उनसे युक्त कमलकी जो परमोत्कृष्ट शोभा होती है, वही शोभा अञ्जनरेखाङ्कित दमयन्तीके दोनों नेत्रोंकी हुई / यहांपर दमयन्तीके नेत्रद्वयको कमलतुल्य होनेसे बाण तथा अञ्जनरेखाद्वयको कामबाहुमें सतत ज्याघातले उत्पन्न कृष्णवर्ण घट्टा समझना चाहिये ] // 36 / / तदक्षितत्कालतुलागसा नखं निखाय कृष्णस्य मृगस्य चक्षुषी। विधिर्यदुद्धत्त मियेष तत्तयोरदूरवर्तिक्षतता स्म शंसति / / 37 // तदिति / तस्याः दमयन्त्याः, अक्षिम्यां सह मृगनेत्रापेक्षया श्रेष्ठाभ्यां नेत्राभ्यां सहेति भावः / तत्काले चक्षुःप्रसाधनकाले, तुला मृगनेत्रयोः सादृश्यं, तदेव आगः अपराधः, तेन हेतुना, विधिः वेधा, कृष्णस्य मृगस्य कृष्णसाराख्यहरिणस्य, चक्षुषी नखं निखाय निक्षिप्य, उद्धर्तनखेन उत्पाटयितुम् , इयेष ऐच्छदिति यत् , तत्
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy