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________________ एकविंशः सर्गः। 1415 मेरी आशा ( निवासस्थानभूत वैकुण्ठ धाम ) को भी पूरा करते हो क्या ? अर्थात् नहीं। अथवा-तुम अपने बल या सेनासे सब दिशाओंको व्याप्त करते हो, उससे मुझे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् उससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि मुझे तो केवल तीनपाद भूमिसे ही प्रयोजन है / अथवा-तुम द्रव्यसे सब आशाओंको पूरा करते हो तो मेरी छोटीसी आशा ( पादत्रयमात्र भूमि ) को नहीं पूरा करोगे क्या ? अर्थात् अवश्य पूरा करोगे। अथवासम्पूर्ण दिशाको मैं अपने विशालरूपसे नहीं पूरा करूँगा ? अर्थात् अवश्य पूरा करूँगा, तुमको इससे क्या ? अर्थात् तुम कुछ नहीं कर सकोगे। अथवा-(तीनपाद भूमि देनेका वचन देकर उसे नहीं पूरा होनेपर ) अपने शरीरसे मेरी सब आशाको नहीं पूरा करोगे क्या ? अर्थात अपने वचनको सत्य करने के लिए अपने शरीरसे भी मेरी आशाको अवश्य पुरा करोगे ) इस प्रकार (इलेषोक्तिद्वारा ) कपटपूर्ण वचनमें अतिशय चतुर ब्रह्मचारीका रूप धारण किये हुए हे वामन ! ( हमारी समस्त कामनाओंको पूरा करनेसे ) हमारे मनके हर्षको दो // 59 // दानवारिरसिकाय विभूतेर्वश्मि तेऽस्मि सुतरां प्रतिपत्तिम् / इत्युदग्रपुलकं बलिनोक्तं त्वां नमामि कृतवामनमायम् / / 60 // दानवारीति / हे वामन ! अस्मि अहम् , अस्मीत्येतदव्ययमहमर्थे / दानस्य त्यागस्य, वारिणः जलस्य, दानार्थकसङ्कल्पसलिलस्येत्यर्थः। रसिकाय अनुरागिणे, प्रतिग्रहवान्छकाय इत्यर्थः / ते तुभ्यम् , विभूतेः सम्पत्तेः, ममेति शेषः। सुतराम् अत्यर्थम् , प्रतिपत्तिं दानम् , वश्मि कामये / वश कान्तावित्यस्य लहुत्तमपुरुषैकव. चनम् / अन्यञ्च-हे वामन ! त्वं दानवानाम् असुराणाम् , अरिः शत्रुः साक्षात् विष्णुः, असि भवसि, अत एव अस्मि अहम् ते तव, कायविभूतेः शरीरसम्पत्तेः, गृही. तत्रिविक्रममूर्तेरिति भावः / सुतराम् अत्यर्थम् , प्रतिपत्ति ज्ञानम् , तव स्वरूपज्ञानेच्छाम् , दर्शनप्राप्ति वा इत्यर्थः / वश्मि कामये / इत्यनेन प्रकारेण, उदग्राः उत्कटाः, भक्त्यातिशय्यात् अत्यर्थमुद्गता इत्यर्थः / पुलका रोमाञ्चा यस्मिन् तत् यथा भवति तथा, बलिना दानवेन्द्रेण, उक्तं कथितम् , कृता विहिता, वामनरूपा वामनाकार• धारणात्मिका, माया छलं येन तं ताहशम् , त्वां भवन्तम् , नमामि नतोऽस्मि॥६०॥ ___ 'मैं दान-सम्बन्धी जलका रसिक ( प्रतिग्रह लेनेका इच्छुक ) .तुम्हारे लिए सम्पत्तिको देने के लिए अत्यन्त इच्छुक हूँ ( अथ च-तुम ) दानवोंके शत्रु (विष्णु) हो, (अत एव ) तुम्हारे शरीरकी विभूतिके ज्ञानका अत्यन्त इच्छुक हूं अर्थात तुम्हारे विराट् शरीरको देखना चाहता हूँ' इस प्रकार अत्यन्त पुलकित हो बलिसे कहे गये वामनरूप धारणकर माया किये हुए तुमको मैं नमस्कार करता हूं' // 6 // भोगिभिः क्षितितले दिवि वासं बन्धमेष्यसि चिरं ध्रियमाणः / पाणिरेष भुवनं वितरेति छद्मवाग्भिरव वामन ! विश्वम् // 61 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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