Book Title: Aagam 15 PRAGNAPANA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] श्री प्रज्ञापना (उपांग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद- क्षमा-ललित-सुशील सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “प्रज्ञापना" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः] [आद्य संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 15/12/2014, सोमवार, २०७१ मृगशिर्ष कृष्ण ८ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र- [४] “प्रज्ञापना मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) (१५) पदं 1-1. ---. --. .-- उद्देशक:-1, ----------------- दारं [-, ...........----- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक ARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR अर्हम् । श्रीमच्छ्यामाचार्यटन्धं श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवरणयुत श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् (पूर्वार्द्धम् ) प्रकाशयित्री-कर्पटवाणिज्यपुरीयश्रेष्ठिमीठाभाइकल्याणचंद्राख्यसंस्थाद्वारागतश्रीसङ्घसत्कभगवतासूत्राय२३३१ रूप्यक एकत्रिंशदधिकत्रयोविंशतिशतश्रेष्ठिमगनलालभाइचन्द्रकारितसुधातुमयखमप्रभवसप्तत्यधिकैकादशशत ११७० रूप्यकसाहाय्येनागमोदयसमितिः श्रेष्ठिसुरचन्द्रात्मजवेणीचन्द्रद्वारा मोहमय्यां 'निर्णयसागर' मुद्रणालये रामचंद्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । aRPRASPAPERS दीप अनुक्रम वीरसंवत् २४४४ विक्रमसंवत् १९७४ काईष्ट १९१८. वेतनं ३-१४-० [Rs. 3-14-01 प्रतयः १...] प्रज्ञापना (उपांग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाइका: ३४९ + २३१ प्रज्ञापना (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम - १ दीप-अनक्रमा: ६२२ विषय: विषयः पृष्ठाक: ००५ ४४१ ४४६ ४५२ ४६० ४९५ ५४० ५७१ । ५८२ मूलांक: पृष्ठाक: | मूलाक: विषय: पृष्ठांक: मूलाक: | पद ०१- प्रज्ञापना | पद ०३- बहवक्तव्यता (वर्तते) ३५३ पद ०७- उच्छवास: १९२ | पद ०२- स्थानं १४६ --दवार २०- संज्ञी २८० ३५४ | पद ०८- संज्ञा प .मंजा २५७ | पद ०३- बहवक्तव्यता २३० |-द्वार २१- भवसिद्धिक: २८० ३५६ पद ०९- योनि: -वार ०१- दिशा २३१ -दवार २२- अस्तिकाय: २८३ ३६१ पद १०- चरिमः -द्वार ०२- गतिः २४२ -द्वार २३- चरम: --दवार ०३- इन्द्रियं २४४ -दवार २४- जीव: २९० ३७५ | पद ११- भाषा -द्वार ०४- काय: २४८ -वार २५- क्षेत्र २९१ | पद १२- शरीरं -द्वार ०५- योग: २७१ -वार् २६- बन्धं ३१४ ४०५ | पद १३- परिणाम: -द्वार ०६- वेद: २७२ -द्वार २७- पद्गल, दिशा ४१३ । पद १४- कषाय: --- -द्वार ०७- कषाय: २७३ ___ आदि अल्पबहत्वं । -दवार ०८- लेश्या २४३ ४१९ पद १५- इन्द्रियं -द्वार ०९- द्रष्टि: રાક૬ २९८ पद ०४- स्थितिः ३४० | --उद्देशक: ०१- नामादि -दवार १०- ज्ञानं २७७ ३०७ पद ०५- विशेष ३६१ --उद्देशक: ०२- उपचयादि --दवार ११-अज्ञानं २७७ | पद ०६- व्युत्क्रान्ति: ४१२ ४३८ । पद १६- प्रयोग: -वार १२- दर्शनं २७८ -- -वार ०१- द्वादश: ४१३ |-द्वार १३- संयतः । २७८ -द्वार ०२- चतुर्विंशति: ४१४ ४४२ पद १७- लेश्या -दवार १४- उपयोग: -दवार ०३- सांतरं --उद्देशक: ०१- समाहारादि -द्वार १५- आहारक: ૨૭૮ -द्वार ०४- एकसमयं ४१९ | --उद्देशक: ०२- षड्भेदा: -दवार १६- भाषक: २८० -दवार ०५- आगति: --उद्देशक: ०३- उपपातादि । -दवार १७- परित्त: २८० -द्वार ०६- उद्वर्तना/गति: ४३३ --उद्देशक: ०४- परिणामादि -वार १८- पर्याप्त: २८० -दवार ०७- परभवायः ४३६ | --उद्देशक: ०५- वर्णादि -द्वार १९- सूक्ष्म २८० --द्वार ०८- आकर्ष:/आयुबंध: । ४३७ --उद्देशक: ०६- मनुष्यापेक्षया मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ५८८ ५८९ ६२० ६३८ ६६३ ५१ । ६६४ ६९० ४२१ ७१९ ७४४ ७४८ ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाइका: ३४९ + २३१ प्रज्ञापना (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम - २ दीप-अनुक्रमा: ६२२ विषयः पृष्ठाक: lago 6६० في وای मूलाक: पृष्ठाक: मूलांक: विषय: मुलाक: विषय: पृष्ठाक: ४७१ | पद १८- कायस्थिति: ७५१ | पद १८- बहवक्तव्यता (वर्तते) पद २८-आहार/उद्देशक:२-वर्तते | -दवार ०१- जीव: ७५१ -दवार २१- अस्तिकाय: । ७९० --दवार ०२- भवसिद्धिकत्वं । १०२७ --- -द्वार ०२- गति: ७५१ ---- --द्वार २२- चरिम: --द्वार ०३- संज्ञी १०२७ -वार ०३- इन्द्रियं ७५७ --दवार ०४- लेश्या १०३५ --द्वार ०४- कायः ४९५ | पद १९- सम्यकत्वं ७९४ -द्वार ०५-द्रष्टि: १०३५ -दवार ०५- योग: ७६८ ४९६ | पद २०- अंतक्रिया ७९५ --दवार ०६- संयत: १०३५ -द्वार ०६- वेदं ७६९ ५०९ | पद २१- अवगाहनासंस्थान/शरीर | ८१८ --द्वार ०७- कषाय: १०३५ |-द्वार ०७- कषाय: ७७४ ५२५ पद २२- क्रिया --द्वार ०८-ज्ञानं १०४३ -द्वार ०८- लेश्या ७७६ --द्वार ०९- योग: १०४३ -- -द्वार ०९- सम्यकत्वं ७४८ ५३४ पद २३- कर्मप्रकृत्तिः | ९०९ --द्वार १०- उपयोग: १०४३ _-दवार १०- ज्ञानं ७८१ | --उद्देशक: ०१- अष्टविधा । ९०९ --द्वार ११- वेदः १०४३ ___--- --उद्देशक: ०२- भेद-प्रभेदा: ९३४ --द्वार १२- शरीरं १०४३ -दवार ११-दर्शनं ७८३ | --दवार १३- पर्याप्ति: १०४३ --द्वार १२- संयत: ७८६ ५४६ | पद २४- कर्मबन्धं ९८६ -दवार १३- उपयोग: ७८६ ५४७ | पद २५- कर्मवेदनं ५७२ | पद २९- उपयोग: --द्वार १४- आहार: ७८८ ५४८ | पद २६- कर्मवेदबन्धं ९९३ ५७३ | पद ३०- पश्यता १०६० --दवार १५- भाषक: ७९० ५४९ पद २७- कर्मवेदवेदनं ५०५ | पद ३१- संज्ञी -द्वार १६- परितः ७९० ५७४ पद ३२- संयत: १०४२ -वार १७- पर्याप्त: ७९० ५७० पद २८- आहार: ५७९ पद ३३- अवधि: १०७६ -द्वार १८- सूक्ष्म ७९० | --उद्देशक: ०१- सचित्तादि ५८४ पद ३४- प्रविचारणा १०८९ -वार १९- संज्ञी | ७९० -- --उद्देशक: ०२ १०२६ ५९५ | पद ३५- वेदना १११० -दवार २०- भवसिद्धिक: ७९० - -द्वार ०१- आहारकत्वं १०२७ ५९९-६२२ | पद ३६- समुद्घात: ११२१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ९९१ १०५३ Pof १००० १००० ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['प्रज्ञापना' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “प्रज्ञापना सूत्रम्" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी (सागरानंदसरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर पद, उद्देश, द्वार, और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा पद, उद्देश, द्वार एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक पद, उद्देश, द्वार और मूल लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फुटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-1, ----------------- दारं -1, ---------------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ॥ अहम् ॥ श्रीमदार्यश्यामाचार्यसंकलितम् श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविरचितवृत्तिपरिकरितं श्रीप्रज्ञापनासूत्रम् सूत्राक दीप अनुक्रम जयति नमदमरमुकुटप्रतिविम्बच्छाविहितबहुरूपः । उद्धर्तमिव समस्तं विथं भवपङ्कतो वीरः ॥ १॥ जिनवचनामृतजलधिं वन्दे यद्विन्दुमात्रमादाय । अभवन्ननं सत्त्वा जन्मजराव्याधिपरिहीणाः॥२॥ प्रणमत गुरुपदपङ्कजमधरीकृतकामधेनुकल्पलतम् । यदुपास्तिवशान्निरुपममश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः ॥ ३॥ जडमतिरपि गुरुचरणोपास्तिसमुद्भूतविपुलमतिविभवः । समयानुसारतोऽहं विदधे प्रज्ञापनाविवृतिम् ॥४॥ अथ प्रज्ञापनेति कः शब्दार्थः१, उच्यते, प्रकर्षण-निःशेषकुतीर्थितीर्थकरासाध्येन यथावस्थितखरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धावारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना, इयं च समवायाख्यस चतुथों प्र. onal Lumiarary.org वृत्तिकारकृत् मङ्गल-गाथा:, प्रज्ञापना-शब्दस्य व्याख्या ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १ प्रज्ञाप प्रत प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्तौ. सुत्राक ॥१॥ जस्योपाङ्ग, तदुक्तार्थप्रतिपादनात् , उक्तप्रतिपादनमनर्थकमिति चेत्, न, उक्तानामपि विस्तरेणाभिधानस्य मन्दमति-18 विनेयजनानुग्रहार्थतया सार्थकत्वात् । इदञ्चोपाङ्गमपि प्रायः सकलजीवाजीवादिपदार्थशासनात् शास्त्र, शास्त्रस्य नापदं उचादौ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थमवश्यं प्रयोजनादित्रितयं मङ्गलं च वक्तव्यम्, उक्तं च-"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादि- पोद्धात त्रितयं स्फुटम् । मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥१॥ इति” तत्र प्रयोजनं द्विधा-परमपरं च, पुनरे|कैकं द्विधा-कर्तृगतं श्रोतृगतं च, तत्र द्रव्यास्तिकनयमतपर्यालोचनायामागमस्य नित्यत्वात् कर्तुरभाय एव, तथा-IN चोक्तम्-"एषा द्वादशाङ्गीन कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचिन्न भविष्यति,भुवा नित्या शाश्वती"त्यादि, पर्यायास्तिकनयमतपर्यालोचनायां चानित्यत्वादवश्यंभावी तत्सद्भावः, तत्त्वपर्यालोचनायां तु सूत्रार्थोभयरूपत्वादा-1 गमस्यार्थापेक्षया नित्यत्वात् सूत्रापेक्षया चानित्यत्वात् कथञ्चित् कर्तृसिद्धिः, तत्र सूत्रकर्तुरनन्तरं प्रयोजनं सत्त्वानुग्रहः परम्परं त्वपवर्गप्रासिः, उक्तं च-"सर्वज्ञोकोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम् । करोति दुःखतसानां, स प्राप्नोसचिराच्छिवम् ॥ ११॥" तदर्थप्रतिपादकस्याहतः किं प्रयोजनमिति चेत्, न किञ्चित् , कृतकृत्यत्वात् , प्रयोजन-1॥ मन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासो निरर्थक इति चेत्, न, तख तीर्थकरनामकर्मविपाकोदयप्रभवत्वात्, उक्तं च-"तं च ॥ कहं वेइज्जइ ?, अगिलाए धम्म देसणाए उ" इति, श्रोतृणामनन्तरं प्रयोजनं विवक्षिताध्ययनार्थपरिज्ञानं, परम्परं १ तच्च कथं वेद्यते !, अग्लान्या धर्मदेशनायैव (० देसणाईहिं (माव०नि०)। दीप अनुक्रम ॥१ ॥ 'प्रज्ञापना' पदस्य उपोद्घात: ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक तु निःश्रेयसावासिः, ते हि विवक्षितमध्ययनमर्थतः सम्यगवगम्य संसाराद्विरज्यन्ते, विरक्ताश्च सन्तः संसाराद्विनिर्जिगमिषवः संयमाध्वनि यथाऽऽगमं सम्यक् प्रवृत्तिमातन्वते, प्रवृत्तानां च संयमप्रकर्षवशत उपजायते सकलकर्मक्षयानिःश्रेयसावाप्तिरिति, उक्तं च-"सम्यग्भावपरिज्ञानाद्विरक्ता भवतो जनाः । क्रियाऽऽसक्ता बविलेन, गच्छन्ति परमां गतिम् ॥१॥” इति, अभिधेयं जीवाजीवस्वरूपं, तच प्राक् प्रदर्शितनामव्युत्पत्तिसामर्थ्यमात्रादव-1 गतम् । सम्बन्धो द्वेधा-उपायोपेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च, तत्राद्यस्तकानुसारिणः प्रति, तद्यथा-वचनरूपापन्नं प्रकरणमुपायः तत्परिज्ञानं चोपेयं, गुरुपर्वक्रमलक्षणः केवलश्रद्धानुसारिणः प्रति, तं चाग्ने खयमेव सूत्र-1|| कृदभिधास्यति । इदं च प्रज्ञापनास्यमुपाङ्गं सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादत एव परम्परया मुक्तिंपदप्रापकत्वात् श्रेयोभूतम्, अतो मा भूदत्र विन इति विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्याणां मालबुद्धिपरिग्रहाय खतो मङ्गलभूतस्याप्यस्यादिमध्यावसानेषु मालमभिधातव्यम् , आदिमङ्गलं बविलेन शास्त्रपारगमनार्थ, मध्यमङ्गलमवगृहीतशास्त्रार्थस्थिरीकरणार्थम् , अन्तमङ्गलं शिष्यप्रशिष्यपरम्परया शास्त्रस्याव्यवच्छेदार्थ, उक्तं च-"तं' मङ्गलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय निदिई ॥१॥ तस्सेव यथेजत्थं मज्झिमयं अन्तिमपि तस्सेव । अन्वोच्छित्तिनिमित्त १ तन्मङ्गलमादी मध्ये पर्यन्ते च शास्त्रस्य । प्रथमं शास्त्रार्थी (वस्या ) विघ्नपारगमनाय निर्दिष्टम् ।। १ ।। तस्यैव च (तु) स्थैर्यार्थ | मध्यमन्त्यमपि तस्यैव । अव्युच्छित्तिनिमित्तं + प्रदर्शितमेव व्यु०प्र० दीप अनुक्रम SAREarathimahima 'प्रज्ञापना' पदस्य उपोद्घात: Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक |||| गाथा-१ दीप अनुक्रम [8] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [-] उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [गाथा- १] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सिंस्सप सिस्साइवंसस्स ॥ २ ॥" तत्र प्रथमपदगतेन 'ववगयजरमरणभये' इत्यादिना ग्रन्थेनादिमङ्गलम् इष्टदेवतास्तवस्य परममङ्गलत्वात् उपयोगपदगतेन 'कहविहे णं भन्ते । उयओगे पन्नत्ते' इत्यादिना मध्यमङ्गलम् उपयोगस्य ज्ञानरूपत्वात् ज्ञानस्य च कर्मक्षयं प्रति प्रधानकारणतया मङ्गलत्वात् न च कर्मक्षयं प्रति प्रधानकारणता तस्य न प्रसिद्धा, तस्याः साक्षादागमेऽभिधानात्, तथा चागमः- “जं अन्नाणी कम्मं खवेद बहुवार्हि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ उस्सासमित्तेणं ॥ १ ॥ " तथा समुद्घातपदगतेन केवलिसमुद्घातपरिसमाप्त्युत्तरकालभा विना | सिद्धाधिकारप्रतिबद्धेन - निच्छिन्नसवदुक्खा जाइजरामरणबन्धणविमुक्का । सासयमव्याबाहं चिट्ठन्ति सुही सुहं पत्ता ॥ १ ॥" इत्यादिना अवसानमङ्गलम् ॥ अधुनाऽऽदिमङ्गलसूत्रं व्याख्यायते - ववगयजरमरणभये सिद्धे अभिवन्दिऊण तिविहेणं । बन्दामि जिणवरिन्दं तेलोकगुरु महावीरं ॥ १ ॥ सितं - बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्यातं दग्धं जाज्वल्यमान शुक्रुध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः, अथवा 'विधु गतौ' सेधन्ति स्म - अपुनरावृत्या निरृतिपुरीमगच्छन् यदिवा 'विध संराद्धी' सिध्यन्ति स्म निष्ठितार्थं भवन्ति स्म यद्वा 'पिधु शास्त्रे माङ्गल्ये च' सेधन्ते स्म -शासितारोऽभवन् मङ्गल्यरूपतां वाऽनुभवन्ति स्मेति सिद्धाः, अथवा १ शिष्यप्रशिष्यादिवंशे ॥ २ ॥ २ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्थकोटीमि: । तत् ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्रासमात्रेण ॥ १ ॥ ३ निश्छिन्नसर्वदुःखा जातिजरामरणबन्धन विमुक्ताः । शाश्वतमन्याबाधं तिष्ठन्ति सुखिनः सुखं प्राप्ताः ॥ १ ॥ Education Internationa 'प्रज्ञापना' पदस्य उपोद्घातः, 'प्रज्ञापना' पदस्य मङ्गलम् For Parts Only ~8~ १ प्रज्ञाप नापदं म ङ्गलम्. ॥२॥ hor Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक |||| गाथा-१ दीप अनुक्रम [8] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [-] उद्देशक: [-], दार [-], मूलं [गाथा - १] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः | सिद्धाः - नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् प्रख्याता वा भव्यैरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् उक्तं च- "मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृतिसोधमूर्ध्नि । ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे ॥ १ ॥” सिद्धाश्च नामादिभेदतोऽनेकधा ततो यथोक्तसिद्धप्रतित्त्यर्थं विशेषणमाह-'व्यपगतजरामरणभयान्' जरावयोहानिलक्षणा मरणं - प्राणत्यागरूपम् भयम् - इहलोकादिभेदात्सप्तप्रकारम् उक्तं च- "ईहपरलोगादाणं अकम्हआजीवमरणमसिलोए" इति, विशेषतः - अपुनर्भावरूपतया अपगतानि - परिभ्रष्टानि जरामरणभयानि येभ्यस्ते तथा तान्, 'त्रिविधेन' मनसा वाचा कायेन, अनेन योगत्रयव्यापारविकलं द्रव्यवन्दनमित्याह, 'अभिवन्द्य' अभिमुखं वन्दित्वा, प्रणम्येत्यर्थः । अनेन समानकर्तृकतया पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानान्नित्यानित्यैकान्तपक्षव्यवच्छेदमाह, एकान्तनित्यानित्यपक्षे क्त्वाप्रत्ययस्यासम्भवात् तथाहि अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं नित्यम्, तस्य कथं भिन्नकालक्रियाद्वय कर्तृत्वोपपत्तिः १, आकालमेकखभावत्वेनैकस्या एव कस्याश्चित् क्रियायाः सदा भावप्रसङ्गात् अनित्यमपि प्रकृत्यैकक्षणस्थितिधर्मकम्, ततस्तस्यापि भिन्नकालक्रियाद्वय कर्तृत्वायोगः, अवस्थानाभावादित्यलं विस्तरेण, अन्यत्र सुचर्चितत्वात् क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रिया सापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह - 'बन्दामि जिणवरिन्द' मित्यादि, 'सूर वीर विक्रान्ती' वीरयति स्म कषायादिशत्रून् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः, महांश्वासौ वीरश्च महावीरः, इदं च 'महावीर' १ इहपरलोकादानाकस्मादाजीवमरणाश्लोकाः । 'प्रज्ञापना' पदस्य मङ्गलम् For Parts Only ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [गाथा-१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना- याः मल- वृत्ती. सूत्रांक ||१|| इति नाम न यादृच्छिकम्, किन्तु यथावस्थितमनन्यसाधारणं परीषहोपसर्गादिविषय वीरत्वमपेक्ष्य सुरासुरकृतम्, प्रज्ञापउक्तं च-"अयले भयभेरवाणं खन्तिखमे परीसहोवसग्गाणं । देवेहिं कए महावीर" इति, अनेनापायापगमातिशयोनापदं मध्वन्यते, तं कथंभूतमित्याह-'जिनवरेन्द्रम्' जयन्ति-रागादिशत्रूनभिभवन्ति जिनाः, ते च चतुर्विधाः, तद्यथाश्रुतजिना अवधिजिना मनःपर्यायजिना केवलिजिनाः, तत्र केवलिजिनत्वप्रतिपत्तये वरग्रहणम् , जिनानां वरा-8 उत्तमा भूतभवद्भाविभावखभावावभासिकेवलज्ञानकलितत्वात् जिनवराः, ते चातीर्थकरा अपि सन्तः सामान्यकेव-18 लिनो भवन्ति ततस्तीर्थकरत्वप्रतिपत्त्यर्थमिन्द्रग्रहणम् , जिनवराणामिन्द्रो जिनवरेन्द्रः, प्रकृष्टपुण्यस्कन्धरूपतीर्थ-18 करनामकर्मोदयातीर्थकर इत्यर्थः । अनेन ज्ञानातिशयं पूजातिशयं चाह, ज्ञानातिशयमन्तरेण जिनेषु मध्ये उत्तमस्वस्य पूजातिशयमन्तरेण जिनवराणामपि मध्ये इन्द्रत्वस्यायोगात् , तं पुनः किंभूतमित्याह- त्रैलोक्यगुरुम्' गृणाति यथावस्थितं प्रवचनार्थमिति गुरुः त्रैलोक्यस्य गुरुबैलोक्यगुरुः, तथा च भगवान् अधोलोकनिवासिमवनपतिदेवेभ्यतिर्यगलोकनिवासिव्यन्तरनरपशुविद्याधरज्योतिष्केभ्य ऊर्यलोकनिवासिवैमानिकदेवेभ्यश्च धर्म दिदेश, तम् , अनेन वागतिशयमाह । एते चापायापगमातिशयादयश्चत्वारोऽप्यतिशया देहसौगन्ध्यादीनामतिशयानामुप-14॥३॥ लक्षणम् , तानन्तरेणैषामसम्भवात् , ततश्चतुर्विंशदतिशयोपेतं भगवन्तं महावीरं वन्दे इत्युक्तं द्रष्टव्यम् ॥ आइ-ननु | १ अचलो भयभैरवेषु क्षान्तिक्षमः परीषहोपसर्गाणां देवैः कृतं (श्रमणो भगवान् ) महावीरः (इति)। गाथा-१ 820200 दीप अनुक्रम [१] Relaunasurary.org 'प्रज्ञापना' पदस्य मङ्गलम् ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं -1. -----... ..-- उद्देशक: -1, ----------------- दारं [-], .. .-- मूलं [गाथा-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| 200a0oooo गाथा-२ ऋषभादीन व्युदस्य किमर्थं भगवतो महावीरस्य वन्दनम् ?, उच्यते, वर्तमानतीर्थाधिपतित्वेनासन्नोपकारित्वात् , तदेवासन्नोपकारित्वं दर्शयति। सुपरयणनिहाणं जिणवरेणं भवियजणणिव्वुइकरेणं । उवदंसिया भगक्या पन्नवणा सम्वभावाणं ॥२॥ | अत्र प्रज्ञापनेति विशेष्यं शेष सामानाधिकरण्येन वैय्यधिकरण्येन च विशेषणं, 'जिणवरेण'न्ति जिनाः-सामा-1 न्यकेवलिनः तेषामपि वरः-उत्तमस्तीर्थकृत्त्वात् जिनवरस्तेन सामर्थ्यात् महावीरेण, अन्यस्य वर्तमानतीर्थाधिपति| त्वाभावात् , इह छद्मस्थक्षीणमोहजिनापेक्षया सामान्यकेवलिनोऽपि जिनवरा उच्यन्ते ततस्तत्कल्पं मा ज्ञासीहिनेयजन इति तीर्थकृत्त्वप्रतिपत्तये विशेषणान्तरमाह-'भगवता भगः-समप्रैश्चर्यादिरूपः, उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्वाथ प्रयत्नस्य, पण्णां भग इतीकना ॥१॥" भगोऽस्याऽस्तीति भगवान् , अतिशायने वतुप्रत्ययः, अतिशायी च भगो बर्द्धमानखामिनः शेषप्राणिगणापेक्षया, त्रैलोक्याधिपतित्वात् , तेन भगवता, परमाहन्त्यमहिमोपेतेनेत्यर्थः, पुनः कथंभूतेनेत्याह-भव्यजननितिकरण' भव्यः-तथाविधानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यः स चासौ जनश्च भव्यजनः निर्वृतिः-निर्वाणं सकलकर्ममलापगमनेन खखरूपलाभतः परमं स्वास्थ्य तद्धेतुः सम्यग्दर्शनाद्यपि कारणे कार्योपचारात् नितिखकरणशीलो नितिकरः भव्यजनस्य नितिकरो भव्यजननिर्वृतिकरस्तेन, आह-भव्यग्रहणमभन्यव्यवच्छेदार्थमन्यथा तस्य नैरर्थक्यप्रसङ्गात्, तत इदमापतितं-भव्यानामेय दीप अनुक्रम Receaeरल [२] SAREasatiramaina 'प्रज्ञापना' पदस्य उद्भवः ~11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [गाथा-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक याः मलयवृत्ती. ॥ ४ ॥ गाथा-२ शसम्यग्दर्शनादिकं करोति नामव्यानाम् , न चैतदुपपन्नम्, भगवतो वीतरागत्वेन पक्षपातासम्भवात् , नैतत्सारम् , १प्रज्ञापसम्यकवस्तुतत्यापारिज्ञानात् , भगवान् हि सवितेव प्रकाशमविशेषेण प्रवचनार्थमातनोति, केवलमभन्यानां तथा- नापदं श्रीखाभाच्यादेव तामसखगकुलानामिव सूर्यप्रकाशो न प्रवचनार्थ उपदिश्यमानोऽपि उपकाराय प्रभवति, तथा चाहावीरादुनवादिमुख्यः-"सद्धर्मचीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकवान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेषु हि || तामसेप, सूर्यांशवो मधुकरीचरणाचदाताः ॥१॥" ततो भन्यानामेव भगववचनादुपकारो जायते इति भव्यजन-11 नितिकरणेत्युक्तम् । किमित्याह-उवदंसिय'त्ति उप-सामीप्येन यथा श्रोतॄणां झटिति यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्वावबोधो | भवति तथा, स्फुटवचनैरित्यर्थः, दर्शिता-श्रवणगोचरं नीता, उपदिष्टा इत्यर्थः, काऽसौ १-'प्रज्ञापना' प्रज्ञाप्यन्तेप्ररूप्यन्ते जीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति प्रज्ञापना, किंविशिष्टेत्यत आह-'श्रुतरबनिधानम्' इह रलानि द्विविधानि भवन्ति, तद्यथा-द्रव्यरत्नानि भावरत्नानि (च), तत्र द्रव्यरत्नानि वैडूर्यमरकतेन्द्रनीलादीनि, भावरतानि श्रुतव्रतादीनि, तत्र द्रव्यरत्नानि न तात्त्विकानीति भावरलैरिहाधिकारः, तत एवं समासः-श्रुतान्येव रत्नानि श्रुतरत्नानि न तु श्रुतानि च रखानि च, नापि श्रुतानि रत्नानीवेति, कुत इति चेत् ?, उच्यते, प्रथमपक्षे श्रुतव्यतिरिक्तद्रव्यरबैरिहाधिकाराभावात्, द्वितीयपक्षे तु श्रुतानामेव तात्त्विकरत्नत्वात् , शेषरलैरुपमाया अयोगात्, निधानमिव निधानं श्रुतरलानां निधानं श्रुतरत्ननिधानं, केषां प्रज्ञापनेसत आह-'सर्वभावानाम्' सर्वे च ते भावाश्च सर्वभावा: दीप अनुक्रम [२] amond Juniorary.orm 'प्रज्ञापना' पदस्य उद्भव: ~ 12~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक ||प्र०१ -२|| दीप अनुक्रम [३-४] Etication “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [-], उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [गाथा-२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः | जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाः, तथाहि - अस्यां प्रज्ञापनाया पत्रिंशत्पदानि तत्र प्रज्ञापना बहुतव्यविशेपंचर परिणामसञ्ज्ञेषु पञ्चसु पदेषु जीवाजीवानां प्रज्ञापना प्रयोगपदे क्रियापदे चाश्रवस्य 'कायवाङ्मनः कर्म योगः (स) आश्रवः' (तत्रा० अ० ६ सू०१-२ ) इति वचनात् कर्मप्रकृतिपदे बन्धस्य समुद्यातपदे केवलिसमुद्घातप्ररूपणायां संवरनिर्जरामोक्षाणां त्रयाणां शेषेषु तु स्थानादिषु पदेषु कचित्कस्यचिदिति, अथवा 'सर्वभावाना' मिति द्रव्यक्षेत्रकालभावानाम्, एतद्वषतिरेकेणान्यस्य प्रज्ञापनीयस्याभावात् तत्र प्रज्ञापनापदे जीवाजीवद्रव्याणां प्रज्ञापना स्थानपदे जीवाधारस्य क्षेत्रस्य स्थितिपदे नारकादिस्थितिनिरूपणात् कालस्य शेषपदेषु सङ्ख्याज्ञानादिपर्यायव्युत्क्रान्त्युच्छ्वासादीनां भावानामिति । अस्याश्च गाथाया 'अज्झयणमिणं चित्त' मित्यनया गाथया सहाभिसम्बन्धः ॥ केवलं ४ येनेयं सत्त्वानुग्रहाय श्रुतसागरादुद्धृता असावप्यासन्नतरोपकारित्वादस्मद्विधानां नमस्कारार्ह इति तन्नमस्कारविषय|मिदमपान्तराल एवान्यकर्तृकं गाथाद्वयम् - वागवरसाओ तेवीसरमेण धीरपुरिसेणं । दुद्धरघरेण मुणिणा पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥ १ ॥ सुयसागरा विषेऊण जेण सुयरयणमुत्तमं दिनं । सीसगणस्स भगवओ तस्स नमो अञ्जसामस्स ॥ २ ॥ (प्र०) वाचका:- पूर्वविदः वाचकाश्च ते वराश्च वाचकवराः - वाचकप्रधानाः तेषां वंशः प्रवाहो वाचकवरवंशः तस्मिन् सूत्रे च पञ्चमीनिर्देशः प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि सर्वासु विभक्तिष्वपि सर्वा विभक्तयो यथायोगं प्रवर्त्तन्ते, तथा चाह पाणिनिः खप्राकृतव्याकरणे- 'व्यत्ययोऽप्यासा' मिति, त्रयोविंशतितमेन तथा च सुधर्मस्वामिन आरभ्य भगवा ३६ अध्ययनानि नामानि कर्ता सम्बन्धी गाथा-द्वयम् For Pal Pal Use Only ~13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं -1, ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [गाथा-(प्र०१-२)] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. सूत्रांक नतिः . || प्र०१प्र०२|| नार्यश्यामस्त्रयोविंशतितम एव, किंभूतेन ?-'धीरपुरुषेण धी:-बुद्धिस्तया राजते इति धीरः धीरवासी पुरुषच धीरपुरुषस्तेन, तथा दुर्द्धराणि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि पञ्च महाव्रतानि धारयतीति दुर्द्धरघरस्तेन, तथा नापदं आमन्यते जगतस्विकालावस्थामिति मुनिस्तेन, विशिष्टसंवित्समन्वितेनेत्यर्थः, पुनः कथंभूतेनेत्याह-'पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिना' येश्यामाय पूर्वाणि च तत् श्रुतं च पूर्वश्रुतं तेन समृद्धा-वृद्धिमुपगता बुद्धिर्यस्य स पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिस्तेन, आह-यो वाचकवरवंशान्तर्गतः स पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिरेव भवति, ततः किमनेन विशेषणेन', सत्यमेतत् , किन्तु पूर्वविदोऽपि पट्रस्थानपतिता भवन्ति, तथा च चतुर्दशपूर्व विदामपि मतिमधिकृत्य षट्स्थानकं वक्ष्यति, तत आधिक्यप्रदर्शनार्थमिदं विशेषणमियदोषः, 'समिद्धबुद्धीणे' सत्र णाशब्दस्य इखत्वं द्विशब्दस्य च दीर्घताऽऽर्षत्वात् , तथा श्रुतमनर्वापारत्वात् सुभा|षितरनयुक्तत्वाच सागर इव श्रुतसागरः 'व्याघ्रादिभिर्गौणैस्तद्गुणानुक्ताविति(म० नामप्र० पा०८ सू०३१) समासः, तस्मात् 'विणेऊणन्ति' देशीवचनमेतत् , साम्प्रतकालीनपुरुषयोग्य वीनयित्वेत्यर्थः, येनेदं प्रज्ञापनारूपं श्रुतरल-11 मुत्तम प्रधान, प्राधान्यं च न शेषश्रुतरत्नापेक्षया, किन्तु स्वरूपतः, दत्तं शिष्यगणाय तस्मै, भगवते-ज्ञानेश्वर्यधर्मा-11 दिमते आरात्सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः-प्राप्तो गुणैरित्यार्यः स चासौ श्यामश्च आर्यश्यामः तस्मै, सूत्रे च षष्ठी चतुर्थ्यर्थे । द्रष्टव्या, 'छट्ठिविमत्तीऍ मन्नइ चउत्थी' इति वचनात् ॥ अधुमोक्तसम्बन्धवेयं गाथा१ षष्ठीविभक्त्या भण्यते चतुर्थी। दीप अनुक्रम [३-४] | कर्ता-सम्बन्धी गाथा-द्वयम् ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-], ---------------- उद्देशक: [-1, ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [गाथा-3] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिद्विवायणीसन्दं । जह बचियं भगवया अहमवि तह वनस्सामि ॥३॥ अध्ययनमिदं-प्रज्ञापनाख्यम्, ननु यदीदमध्ययनं किमित्यस्सादावनुयोगादिद्वारोपन्यासो न क्रियते', उव्यते, नायं नियमो यदवश्यमध्ययनादावुपक्रमाद्युपन्यासः क्रियते इति, अनियमोऽपि कुतोऽवसीयते इति चेत्, उच्यते, नन्यध्ययनादिष्वदर्शनात् , तथा चित्रार्थाधिकारयुक्तत्वाचित्रम् , श्रुतमेव रत्नं श्रुतरलं दृष्टिवादस्य-द्वादशा-15 अस्य निष्यन्द इव रष्टिवादनिष्यन्दः, सूत्रे नपुंसकतानिर्देशः प्राकृतत्वात् , यथा वर्णितं भगवता-श्रीमन्महावीर-18 वर्धमानखामिना इन्द्रभूतिप्रभृतीनामध्ययनार्थस्य वर्णितत्वात् अध्ययनं वर्णितमित्युक्तम् , अहमपि तथा वर्णयिष्या-18 मि ॥ आह-कथमस्य छनस्थस्य तथा वर्णयितुं शक्तिः, नैष दोषः, सामान्येनाभिधेयपदार्थवर्णनमात्रमधिकृत्यैवम|भिधानात् , तथा चाहमपि तथा वर्णयिच्यामीति किमुक्तं भवति?-तदनुसारेण वर्णयिष्यामि, न खमनीषिकयेति ॥ अस्खां च प्रज्ञापनायां पत्रिंशत् पदानि भवन्ति, पदं प्रकरणमर्थाधिकार इति पर्यायाः, तानि च पदान्यमूनि पनवणा ठाणाई बहुवतव्व ठिई" बिसेसी य । वन्ती ऊसींसो सभी जोणी ये चरिमाई" ॥४॥ भासा सरीर परिणाम कसीए इन्दिएँ पओगे य । लेसा कायठिई यो सम्मत्वे अन्तकिरियों" य ॥५॥ ओगाहणसण्ठाणा किरियो कम्मे झ्यावरे । [कम्मस्स] बन्धएँ [कम्मस्स] वेर्दै [ए] वेदस्स बन्धए वेयवेयर ॥६॥ हिारे वैओगे पासणया सैनि संजमे चेव । ओही पवियारण वेदणी य तत्तो समुग्धाएं ॥७॥ गाथा-३ दीप अनुक्रम SAMEmirathinX aa mrary.org ३६ अध्ययनानि/(पदानि)-नामानि ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, ---------------- मूलं गाथा ४-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती. ॥४-७|| गाथा तत्र प्रथमं पदं प्रज्ञापनाविषयं प्रश्नमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात् प्रज्ञापना १ एवं द्वितीय स्थानानि २ तृतीयं बहुवक्त- प्रज्ञापव्यम् ३ चतुर्थं स्थितिः ४ पञ्चमं विशेषाख्यं ५ षष्ठं व्युत्क्रान्तिः, व्युत्क्रान्तिलक्षणार्थाधिकारयुक्तत्वात ६ सप्तममु- नापदं पच्वास:७ अष्टम सज्ञा ८ नवमं योनिः ९ दशमं चरमाणि चरमाणीति प्रश्नमुद्दिश्य प्रवृत्तत्वात् १० एकादशं मांषा ११ दाभिधेयद्वादशं शरीरं १२ त्रयोदशं परिणामः १३ चतुर्दशं कषायं १४ पञ्चदशमिन्द्रियं १५ षोडशं प्रयोगः १६ सप्तदशं लेश्या निर्देशः. |१७ अष्टादशं कायस्थितिः १८ एकोनविंशतितमं सम्यक्त्वम् १९ विंशतितममन्तक्रिया २० एकविंशतितममवगाहनास्थानं २१द्वाविंशतितमं क्रिया २२ त्रयोविंशतितमं कर्म २३ चतुर्विंशतितमं कर्मणो बन्धकः, तस्मिन् हि यथाश जीवः कर्मणो वन्धको भवति तथा प्ररूप्यते इति तत्तथानाम २४ एवं पञ्चविंशतितमं कर्मवेदकः २५ षड्विंशतितम विदस्य बन्धक इति, वेदयते-अनुभवतीति वेदस्तस्य बन्ध एव बन्धकः, किमुक्तं भवति ?-कति प्रकृतीर्वेदयमानस्य कतिप्रकृतीनां बन्धो भवतीति तत्र निरूप्यते ततस्तद्वेदस्य बन्ध इति नाम २६ एवं कां प्रकृति वेदयमानः कति प्र-18 कृतीर्वेदयति इत्यर्थप्रतिपादक वेदवेदको नाम सप्तविंशतितमम् २७ अष्टाविंशतितममाहारप्रतिपादकत्वादाहारः २८ एवमेकोनत्रिंशत्तममुपयोगः २९ त्रिंशत्तमं 'पासणय'त्ति दर्शनता ३० एकत्रिंशत्तमं सजा ३१ द्वात्रिंशत्तमं संयमः। ३२ त्रयस्त्रिंशत्तममवधिः ३३ चतुखिंशत्तमं प्रविचारणा ३४ पञ्चत्रिंशत्तम वेदना ३५ पत्रिंशत्तमं समुद्घातः ३६ ॥ तदेवमुपन्यस्तानि पदानि । साम्प्रतं यथाक्रमं पदगतानि सूत्राणि वक्तव्यानि, तत्र प्रथमपदगतमिदमादिसूत्रम् दीप अनुक्रम [६-९] HOM Santaratanamond ३६ अध्ययनानि/(पदानि)-नामानि ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [१]. ---...-. -- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-, . . -- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ne प्रत सूत्राक ||१|| से किं तं पभषणा, पनवणा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपन्नवणा य अजीवपत्रवणा य॥ (मू०१) अथास्य सूत्रस्य का प्रस्तावः१, उच्यते, प्रश्नसूत्रमिदम् , एतवादावुपन्यस्तमिदं ज्ञापयति-पृच्छतो मध्यस्थबुद्धिमतोऽर्थिनो भगवदहेदुपदिष्टतत्त्वप्ररूपणा कायों, न शेषस्य, तथा चोक्तम्-'मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति | स्मृतः', तत्र सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातः तत्रशब्दार्थे, अथवा अथशब्दार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः, किमिति परप्रश्ने, 'तंति तापदिति द्रष्टव्यम् , तच क्रमोद्योतने, तत एष समुदायार्थ:-तिष्ठन्तु स्थानादीनि पदानि प्रष्टव्यानि, वाचः क्रमवर्तित्वात् प्रज्ञापनाऽनन्तरं च तेषामुपन्यस्तत्वात् , तत्रैतावदेव तावत् पृच्छामि-किं प्रज्ञापनेति, अथवा प्राकृतशैल्या 'अभिधेयवलिङ्गवचनानि योजनीयानि' इति न्यायादेवं द्रष्टव्यम्, तत्र का तावत् प्रज्ञापनेति १, एवं सा-2 मान्येन केनचित्प्रश्ने कृते सति भगवान् गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनादरार्थ किश्चित् शिष्योक्तं प्रत्युच्चार्याह-पन्नवणा दुविहा पत्नत्ता' इति, अनेन चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वाचनसूत्रेणैतदाचष्टे न सर्वमेव सूत्रं गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपम् , किन्तु किञ्चिदन्यथाऽपि, बाहुल्येन तु तथारूपम् , यत उक्तम्-'अत्थं भासद अरिहा सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउण'मित्यादि, तत्र प्रज्ञापनेति पूर्ववत् , 'द्विविधा' द्विप्रकारा 'प्रजप्ता' प्ररूपिता, यदा तीर्थकरा एव निर्वक्तार-15 स्तदाऽयमर्थोऽबसेयः-अन्यैरपि तीर्थकरैः, यदा पुनरन्यः कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी तदा तीर्थकरगणधरैरिति, द्वैवि-1|| १ अर्थ भाषतेऽहन सूत्र प्रश्नन्ति गणधरा निपुणम् । दीप अनुक्रम [१०] M arayog अथ पद (०१) "प्रज्ञापना" आरभ्यते मूल-सूत्रस्य आरम्भः, प्रश्नसूत्रम् एवं तस्योत्तरे विशद् विवरणं ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१]. उद्देशक: [-], दारं [-], ----- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना ध्यमेवोपदर्शयति- 'तंजहा जीवपन्नवणा व जजीवपत्रवणा य' 'तयथेति वक्ष्यमाणभेदकथनप्रकाशनार्थः, जीवन्तियाः मल- ४ प्राणान् धारयन्तीति जीवाः, प्राणाश्च द्विधा द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च तत्र द्रव्यप्राणा इन्द्रियादयो भावप्राणा ज्ञानादीय० वृत्तौ. नि, द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः संसारसमापन्ना नारकादयः, केवलभावप्राणैः प्राणिनो व्यपगत समस्त कर्मसङ्गाः सिद्धाः, 8 जीवानां प्रज्ञापना जीवप्रज्ञापना, न जीवा अजीवा जीवविपरीतस्वरूपाः, ते च धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायाद्धासमयरूपास्तेषां प्रज्ञापना अजीवप्रज्ञापना, चकारौ द्वयोरपि प्राधान्यख्यापनार्थी, न खल्विहान्यतरस्याः प्रज्ञापनायाः गुणभावः, एवं सर्वत्राप्यक्षरगमनिका कार्या ॥ तदेवं सामान्येन प्रज्ञापनाद्वयमुपन्यस्य सम्प्रति विशेषस्वरूपावगमार्थ| मादावल्पवक्तव्यत्वा दजीवप्रज्ञापनां प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ॥ ७ ॥ से किं तं अजीव पावणा १, अजीवपत्रवणा दुविहा पद्मत्ता, तंजहारूविअजीवपत्रवणा य अरूचिअजीवपत्रवणा य (सू०२) अथ किं तत् अजीवप्रज्ञापनेति १, अथवा का साऽजीवप्रज्ञापना १, सूरिराह - ' अजीवपन्नबणा दुविधा पन्नता, तंजा' इत्यादि, अजीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-रूप्यजीवप्रज्ञापना च अरूप्यजीवप्रज्ञापना च, रूपमेषामस्त्रीति रूपिणः, रूपग्रहणं गन्धादीनामुपलक्षणम्, तद्व्यतिरेकेण तस्यासम्भवात्, तथाहि प्रतिपरमाणु रूपरसगन्धस्पर्शाः, उक्तं च- "कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यटिङ्ग ॥ १ ॥” १ परमश्चासावणुश्चेति, वर्णगन्धरसस्पर्शादिकारणमेव तदन्त्यमित्यादि, सूक्ष्मो नित्यश्च परमाणुर्भवति, सर्वेभ्यः पुनलेभ्योऽतिसूक्ष्म इत्यर्थः, Jan Education अजीव-सम्बन्धी प्रज्ञापना For Parts Only ~18~ १ प्रज्ञाप नापदे अजीवप्र. (सू. २) ॥ ७ ॥ ayor Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [११] Jan Emuratur “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१]. उद्देशक: [-], दारं [-], ----- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१५] उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तस्मादव्यतिरेकः परस्परं रूपादीनामिति, अथवा रूपं नाम-स्पर्शरूपादिसम्मूर्च्छनात्मिका मूर्त्तिस्तदेषामस्तीति रूपिणः, रूपिणश्च तेऽजीवाश्च रूप्यजीवाः तेषां प्रज्ञापना रूप्यजीवप्रज्ञापना, पुद्गलखरूपाजीवप्रज्ञापनेतियावत्, पुद्गलानामेव रूपादिमत्त्वात्, रूपिव्यतिरेकेणारूपिणो धर्मास्तिकायादयस्ते च तेऽजीवाश्वारूप्यजीवाः तेषां प्रज्ञापना अरूप्यजीवप्रज्ञापना, चशब्दौ प्राग्वत् ॥ तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथमतोऽरूप्यजीवप्रज्ञापनां चिकीर्षुरिदमाह से किं तं अरूविअजीवपत्रवणा १, अरूविअजीवपन्भवणा दसविहा पन्नत्ता, तंजहा- घम्मत्थिकार धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पदेसा अधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकायस्त देसे अधम्मत्थिकायस्थ पदेसा आगासत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासत्थिकायस्स पदेसा अद्धासमए १०, सेचं अरूविअजीवपत्रवणा ॥ ( सू०३ ) अरुपिअजीव प्रज्ञापना शब्दोऽथशब्दार्थः अथ का सा अरूप्यजीवप्रज्ञापना १, सूरिराह-अरूप्यजीव प्रज्ञापना 'दशविधा' दशप्रकारा पर्यायार्थतयाऽनित्यत्वेपि द्रव्यार्थतया तु नित्यः पुनः कीदृशः परमाणुः १ एकरसवर्णगन्धः' एक एव वर्णो गन्धो रसध परमाणौ यस्मिन् सः, पुनः की ०१- 'द्विस्पर्शः' द्वौ स्पर्शो यस्मिन् स शीतोष्णस्त्रिग्धरुक्षाख्यानां चतुर्णा स्पर्शानां मध्यादविरुद्धस्पर्शद्वयोपेत इत्यर्थः पुनः कीदृशः परमाणुः ?- 'कार्यलिङ्गः' कार्य घटपटादिवस्तुजातं तहि ज्ञापकं यस्य स कथमित्याह यतः, तत्परमाण्वाख्यं सर्वेषां पदार्थानामन्त्यं कारणं वर्त्तते, अयमत्र भावार्थ:- सर्वेऽपि द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः, तथा सङ्घयातप्रदेशा असङ्ख्यातप्रदेशा अनन्तप्रदेशाश्च ये स्कन्धास्तेषां सर्वेषां पदार्थानामन्त्यं कारणं परमाणरस्तीत्यर्थः. For Parts Only ~ 19~ rary or Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ----- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. सूत्रांक (३) दीप अनुक्रम [१२] प्रज्ञप्ता, अरूप्यजीवानां दशविधत्वात् तत्प्ररूपणाऽपि दशविधोक्ता, तदेव दशविधत्वं दर्शयति-तंजहे' त्यादि, तद्य ६, घ १ प्रज्ञापथेति वक्ष्यमाणभेदकथनोद्योतनार्थः, 'तद्'दशविधत्वम् , यदिवा 'तदि'त्यव्ययं सर्वलिङ्गवचनेषु सा दशविधाऽरूप्य नापदे अजीवप्रज्ञापना यथा भवति तथा दर्श्यते-'धम्मत्यिकाए'त्ति जीवानां पुद्गलानां च खभावत एव गतिपरिणामपरि-19 रूप्यजीणतानां तत्वभावधरणात्-तत्वभावपोषणाद्धर्मः अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां काय:-सवातः, 'गण काए य निकाए खन्धे वग्गे तहेव रासी य' इतिवचनात् ,अस्तिकायः प्रदेशसङ्घात इत्यर्थः, धर्मश्चासौ अस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः, अनेन (सू. ३) च सकलमेव धर्मास्तिकायरूपमवयविद्रव्यमाह, अवयवी च नामावयवानां तथारूपसङ्घातपरिणामविशेष एव, न पुनरवयवद्रव्येभ्यः पृथगोन्तरं द्रव्यम्, तथाऽनुपलम्भात्, तन्तव एव हि आतानवितानरूपसङ्घातपरिणामविशेषमापन्ना लोके पटव्यपदेशभाज उपलभ्यन्ते, न तदतिरिक्तं पटाख्यं नाम, उक्तं चान्यैरपि-'तन्वादिव्यतिरेकेण, न पटाद्युपलम्भनम् । तन्त्वादयो विशिष्टा हि, पटादिव्यपदेशिनः ॥१॥" कृतं प्रसङ्गेन, अन्यत्र चिन्तितत्वादेतद्वादस्य, तथा 'धर्मास्तिकायस्य देश' इति तस्यैव धर्मास्तिकायस्य बुद्धिविकल्पितो धादिप्रदेशात्मको विभागः, 'धम्मत्थिकायस्स पदेसा' इति प्रकृष्टा देशाः प्रदेशाः-निर्विभागा भागा इति भावः, ते चासङ्ख्ययाः, लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्। तेषाम् , अत एव बहुवचनम् , धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतोऽधर्मास्तिकायः, किमुक्तं भवति ?-जीवपुद्गलानां स्थिति| १ गणः कायो निकायः स्कन्धो वर्गः तथैव राशिश्च । Seeseseee अरूपिअजीवस्य दश-भेदा: ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१२] Educator “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१]. उद्देशक: [-], दारं [-], ------ मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः परिणामपरिणतानां तत्परिणामोपष्टम्भको मूर्त्तोऽसंख्यातप्रदेशसंघातात्मकोऽधर्मास्तिकायः 'अधर्मास्तिकायस्य देश' इत्यादि पूर्ववत् । तथा 'आङि' ति मर्यादया खस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते-खरूपेण प्रतिभासन्ते अस्मिन् व्यवस्थिताः पदार्था इत्याकाशम्, यदा त्वभिविधावाङ् तदा 'आङिति सर्वभावाभिव्याप्या काशते इत्याकाशम्, अस्तयः| प्रदेशास्तेषां कायोऽस्तिकायः आकाशं च तदस्तिकायश्चाकाशास्तिकायः, 'आकाशास्तिकायस्य देश' इत्यादि पूर्ववत्, नवरं प्रदेशा अनन्ता द्रष्टव्याः, अलोकस्यानन्तत्वात् । 'अद्धेति' कालस्याख्या, अद्धा चासौ समयश्राद्धासमयः, अथवाऽद्धायाः समयो निर्विभागो भागः, अयं च एक एव वर्त्तमानः परमार्थः सन्, नातीता नानागताः समयाः, तेषां यथाक्रमं विनष्टानुत्पन्नत्वेनासश्वात्, ततः कायत्वाभाव इति देशप्रदेश कल्पनाविरहः, आवलिकादयस्तु पूर्वसमयनिरोधेनैवोत्तरसमयसद्भाव इति ततः समुदय समित्याद्यसम्भवेन व्यवहारार्थमेव कल्पिता इति द्रष्टव्यम् । तथा अमीषामित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनम् १, उच्यते, इह धर्मास्तिकाय इति पदं मङ्गलभूतम्, आदौ धर्मशब्दान्वितत्वात्, पदार्थप्ररूपणा सम्प्रति प्रथमत उत्क्षिता वर्त्तते, ततो मङ्गलार्थमादौ धर्मास्तिकायस्योपादानम्, धर्मास्तिकायप्रतिपश्चभूतश्चाधर्मास्तिकाय इति तदनन्तरमधर्मास्तिकायस्थ, द्वयोरपि चानयोराधारभूतमाकाशमिति तदनन्तरमाकाशास्तिकायस्थ, ततः | पुनरजीव साधर्म्यादद्धासमयस्य, अथवेह धर्माधर्मास्तिकायौ विभू न भवतः, तद्विभुत्वे तत्सामर्थ्यतो जीवपुद्गलाना| मस्स्वलितप्रचारप्रवृत्तौ लोकालोकव्यवस्थाऽनुपपत्तेः, अस्ति च लोकालोकव्यवस्था, तत्र तत्र प्रदेशे सूत्रे साक्षादर्शनात्, For Parts Only ~ 21~ Sundary or Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१]. उद्देशक: [-], दारं [-], ------ मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः याः मल य० वृत्ती. प्रज्ञापना- ४ ततो यावति क्षेत्रेऽवगाढौ तावत्प्रमाणो लोकः शेषस्त्वलोक इति सिद्धम् उक्तं च- "धर्माधर्मविभुत्वात् सर्वत्र च जीवपुद्गलविचारात् । नालोकः कश्चित्स्यान्न च सम्मतमेतदार्याणाम् ॥ १ ॥ तस्माद्धर्माधर्माववगाढी व्याप्य लोकखं ४ सर्वम् । एवं हि परिच्छिन्नः सिध्यति लोकस्तदविभुत्वात् ॥ २ ॥” ततः एवं लोकालोकव्यवस्थाहेतु धर्माधर्मास्तिका४ यावित्यनयोरादावुपादानम्, तत्रापि माङ्गलिकत्वात् प्रथमतो धर्मास्तिकायस्थ, तत्प्रतिपक्षत्वात् ततोऽधर्मास्तिकायस्य, ततो लोकालोकव्यापित्वादाकाशास्तिकायस्थ, तदनन्तरं लोके समवासमयक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वादद्धासमयस्य, एवमागमानुसारेणान्यदपि युक्त्यनुपाति वक्तव्यम् इत्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतोपसंहारमाह- 'सेत्तं अरुविअजीवपन्न - वणा' सैषा अरूप्यजीवप्रज्ञापना | पुनराह विनेयः- ॥ ९ ॥ से किं तं रूविअजीवपत्रवणा ?, रूविअजीवपन्नवणा चउन्विहा पन्नत्ता, तंजहा - खन्धा खन्धदेसा खन्धपरसा परमाणुपोम्गला, ते समासओ पञ्चविधा पत्रचा, तंजहा-वष्णपरिणया गन्धपरिणया रसपरिणया फासपरिणया सण्ठाणपरिणया । अथ का सा रूप्यजीव प्रज्ञापना १, सूरिराह-रूप्यजीवप्रज्ञापना चतुर्विधा प्रज्ञता, तद्यथा-'स्कन्धाः स्कन्दन्ति शुव्यन्ति धीयन्ते च पुष्यन्ते पुद्गलानां विघटनेन चटनेन चेति स्कन्धाः, 'पृषोदरादय इति रूपनिष्पत्तिः, अत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामानन्त्यख्यापनार्थम्, न चानन्त्यमनुपपन्नम्, आगमेऽभिधानात् तथा च वक्ष्यति - 'दवओ णं पुग्गलत्थिकाए' इत्यादि, 'स्कन्धदेशाः' स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहतो बुद्धिपरिकल्पिता बादिप्रदेशात्मका अत्र रूपी - अजीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते For Palsta Use Only ~ 22~ १ प्रज्ञाप नापदे अ. रूप्यजी वप्रज्ञा. (सू. ३) ॥ ९ ॥ nary org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ........---- उद्देशकः [-], ---------------- दारं [-1, --- --- मूलं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक (४) विभागाः, अत्रापि बहुवचनमनन्तानन्तप्रादेशिकेपु तथाविधेषु स्कन्धेषु देशानन्तत्वसम्भावनार्थम् , स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणामपरिणतानां बुद्धिपरिकल्पिताः प्रकृष्टा देशा निर्विभागा भागाः परमाणव इत्यर्थः स्कन्धप्रदेशाः, अत्रापि बहुवचनं प्रदेशानन्तत्वसम्भावनार्थम् , 'परमाणुपुद्गला इति' परमाश्च तेऽणवश्च परमाणको निर्विभागद्रव्यरूपाः तेच ते पुद्गलाच परमाणुपुद्गलाः, स्कन्धत्वपरिणामरहिताः केवलाः परमाणन इत्यर्थः । ते समासओ' इत्यादि, ते स्कन्धादयो यथासम्भवं 'समासतः' सझेपेण पञ्चविधाः प्रज्ञसाः, तद्यथा-'वर्णपरिणताः' वर्णतः परिणताः, वर्णपरिणामभाज इत्यर्थः, एवं गन्धपरिणता रसपरिणताः स्पर्शपरिणताः संस्थानपरिणताः, परिणता इत्यतीतकालनिर्देशो वर्तमाना-15 |नागतकालोपलक्षणं, वर्तमानानागतत्वमन्तरेणातीतत्वस्थासम्भवात्, तथाहि-यो वर्तमानत्वमतिक्रान्तः सोऽतीतो। भवति, वर्तमानत्वं च सोऽनुभवति योऽनागतत्वमतिक्रान्तवान् , उक्तं च-"भवति स नामातीतो यः प्राप्तो नाम वर्तमानत्वम् । एयश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम् ॥१॥" ततो वर्णपरिणता इति वर्णरूपतया परि-1 गणताः परिणमन्ति परिणमिष्यन्तीति द्रष्टव्यम् , एवं गन्धरसपरिणता इत्याद्यपि परिभावनीयम् । II जे वण्णपरिणया ते पञ्चविहा पन्नता, तंजहा-कालवण्णपरिणया णीलवण्णप० लोहियवण्णप० हालिद्दवण्णप० सुकिल्लवण्ण-18 परिणया,जे गन्धपरिणता ते दुविहा पं००-सुम्भिगन्धपरिणता य दुन्भिगन्धपरिणता य,जे रसपरिणता ते पञ्चविहा पं०त-तित्तरसपरिणता कडुयरसपरिणता कसायरसपरिणया अम्बिलरसपरिणता महुरसपरिणया, जे फासपरिणता ते अहविहा पं०० दीप अनुक्रम [१३] Tharma sincitaram.org ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. --------.-...-- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], .... ........-- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. सूत्राक [४] कक्खडफासपरिणया मउयफासपरिणया गुरुयफासपरिणता लहुयफासपरिणया सीयफासपरिणया उसिणफासपरिणया णिद्धफास-1 |१प्रज्ञापपरिणया लुक्खफासपरिणया, जे सण्ठाणपरिणया ते पञ्चविहा पं०२०-परिमण्डलसण्ठाणपरिणया वट्टसण्ठाणपरि० ससण्ठाणप० नापदे रूचउरंससं०प० आयतसण्ठाणपरिणया । प्यजीवप्र। ये वर्णपरिणतास्ते पञ्चविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-कृष्णवर्णपरिणताः कजलादिवत् , नीलवर्णपरिणता नील्यादिवत् , ज्ञा.(सू.४) लोहितवर्णपरिणता हिङ्गुलकादिवत् , हारिद्रवर्णपरिणता हरिद्रादिवत्, शुक्लवर्णपरिणताः शङ्खादिवत् । ये गन्धपरिणतास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सुरभिगन्धपरिणताश्च दुरभिगन्धपरिणताश्च, चशब्दौ परिणामभवनं प्रति वि-18 |शेषाभावख्यापनार्थी, तथाहि-यथा कथञ्चिदवस्थिताः सामग्रीवशतः सुरभिगन्धपरिणामं भजन्ते तथा कथञ्चिदवस्थिता एव सामग्रीवशतो दुरभिगन्धपरिणाममपीति, सुरभिगन्धपरिणताश्च यथा श्रीखण्डादयः, दुरभिगन्धपरिणता लसुनादिवत् । ये रसपरिणतास्ते पञ्चविधाः प्रजासाः, तद्यथा-तिक्तरसपरिणताः कोशातक्यादिवत्, कटुकरसपरिणताः सुण्ठ्यादिवत्, कषायरसपरिणता अपक्ककपित्थादिवत् ,अम्लरसपरिणता अम्लकेतसादिवत्, मधुररसपरिणताः शर्करादिवत् । ये स्पर्शपरिणतास्तेऽष्टविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कर्कशस्पर्शपरिणताः पाषाणादिवत् , मृदुस्पर्शपरिणता ॥१०॥ | हंसरुतादिवत् ,गुरुकस्पर्शपरिणताः वज्रादिवत् , लघुकस्पर्शपरिणता अर्कतूलादिवत् ,शीतस्पर्शपरिणता मृणालादिवत् ,13 उष्णस्पर्शपरिणता वह्नयादिवत्, स्निग्धस्पर्शपरिणता घृतादिवत् , रूक्षस्पर्शपरिणता भस्मादिवत् । ये संस्थानप दीप अनुक्रम [१३] ~ 24 ~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१] ................... उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, .. - मूल [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक (४) परिणतास्ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-परिमण्डलसंस्थानपरिणता वलयवत्, वृत्तसंस्थानपरिणताः कुलालचक्रा दिवत् , त्र्यससंस्थानपरिणताः शृङ्गाटकादिवत्, चतुरस्रसंस्थानपरिणताः कुम्भिकादिवत्, आयतसंस्थानपरिणता दण्डादिवत्, एतानि च परिमण्डलादीनि संस्थानानि घनप्रतरभेदेन द्विविधानि भवन्ति, पुनः परिमण्डलमपहाय शेषाणि ओजःप्रदेशजनितानि युग्मप्रदेशजनितानीति द्विधा, तत्रोत्कृष्टं परिमण्डलादि सर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसङ्खयेयप्रदेशावगाढं चेति प्रतीतमेव, जघन्यं तु प्रतिनियतसञ्जयपरमाण्वात्मकम् , अतो नानिर्दिष्टं ज्ञातुं शक्यते इति विनेयजनानुग्रहाय तदुपदश्यते-तत्रीज प्रदेशप्रतरवृत्तं पञ्चपरमाणुनिष्पन्नं पश्चाकाशप्रदेशावगाढंच, तद्यथा-एकः परमाणुर्मध्ये स्थाप्यते, चत्वारः क्रमेण पूर्वोदिषु चतसृषु दिक्षु, स्थापना युग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं द्वादशपरमाण्वात्मकं द्वादशप्रदेशावगाढं च, तत्र निरन्तरं चत्वारः परमा-16 णवश्चतुष्कोकाशप्रदेशेषु रुचकाकारेण व्यवस्थाप्यन्ते, ततस्तत्परिक्षेपेण शेषा अष्टौ गम II ओजःप्रदेशं घनवृत्तं सप्तप्रदेशं ससप्रदेशावगाढंच, तचैवं-तत्रैव पञ्चप्रदेशे प्र-मनन । तरवृत्ते मध्यस्थितस्य परमाणोरुपरिष्टादधस्ताच एकैकोऽणुरवस्थाप्यते, तत एवं गगन सप्तप्रदेशं भवति । युग्मप्रदेशं घनवृत्तं द्वात्रिंशत्प्रदेशं द्वात्रिंशत्प्रदेशावगार्ड च, तचैव-पूर्वोक्तद्वा-00 दशप्रदेशात्मक४ स्य प्रतरवृत्तस्योपरि द्वादश,तत उपरिष्टादयश्चान्ये चत्वारश्चत्वारः परमाणव इति ॥ओजःप्रदेश प्रतरत्र्यसं त्रिप्रदेश दीप अनुक्रम [१३] ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ....---- उद्देशकः [-], ---------------- दारं [-1, --- --- मूल [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मल प्रत सुत्रांक ॥११॥ त्रिप्रदेशावगाडं च, तचैवं-पूर्व तिर्यगणुद्वयं न्यस्यते, तत आद्यस्वाध एकोऽणुः, स्थापना- म, युग्मप्रदेशं 81 प्रज्ञापप्रतरत्र्यसं पदपरमाणुनिष्पन्नं पदप्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यग निरन्तरं त्रयः परमाणवः स्था- प्यन्ते, तत नापदे रूआवस्याध उपर्यधोभावेनाणुद्वयं द्वितीयस्वाध एकोऽणुः, स्थापना V ३ ओजः-18 | प्यजीवप्रप्रदेशं घनत्र्यसं पञ्चत्रिंशत्परमाणुनिष्पन्नं पञ्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढं च, तचैव-तिर्यग् निरन्तराः ज्ञा.(सू.४) पञ्च परमाणवः स्थाप्यन्ते, तेषां चाधोऽधः क्रमेण तिर्यगेव चत्वारखयो। द्वावेकश्चेति पञ्चदशात्मक प्रतरो जातः, स्थापना- अस्यैव च प्रतरस्योपरि सर्व परिष्वन्त्यान्त्यपरित्यागेन दश१०,तथैव तदुपर्युप-०009 रिपट त्रय एकश्चेति क्रमेणाणवः स्थाप्यन्ते, स्थापना-गगन दीप ood अनुक्रम [१३] INilnaturanorm ~26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [१३] पदं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education h ० ००० एते मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति युग्मप्रदेशं घनत्र्यखं चतुष्परमाण्वात्मकं चतुष्प्रदेशावगाढं च प्रतरज्यखस्यैव त्रिप्रदेशात्मकस्य सम्बन्धिन एकस्याणोरुपर्ये कोऽणुः स्थाप्यते, ततो मीलिताश्च त्वा भवन्ति २ ॥ ओजः प्रदेशं प्रतरचतुरस्रं नवपरमाण्वात्मकं नवप्रदेशावगाढं च तत्र तिर्यग् निरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः पङ्कयः स्थाप्यन्ते, स्थापना13 युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरस्त्रं चतुष्परमाण्वात्मकं चतुष्प्रदेशावगाढं च तत्र तिर्यग द्विप्रदेशे द्वे पडी स्थाप्येते, 11⁄2, ओजःप्रदेशं घनचतुरस्त्रं सप्तविंशतिपरमाण्वात्मकं सप्तविंशतिप्रदेशा ० ० वगाढं च तत्र नवप्रदेशात्मकस्यैव पूर्वोक्तस्य प्रतरस्याध उपरि च नव नव प्रदेशाः स्थाप्यन्ते, ० ० ० ततः सप्तविंशतिप्रदेशात्मकमोजः प्रदेशं धनचतुरस्रं भवति है, अस्यैव युग्मप्रदेशं धनचतुरस्रमष्टपरमाण्वात्मक| मष्टप्रदेशावगाढं च, तचैवं चतुष्पदेशात्मकस्य पूर्वोक्तस्य प्रतरस्योपरि चत्वारोऽन्ये परमाणवः स्थाप्यन्ते ३ || ओजःप्रदेशं श्रेण्यायतं त्रिपरमाणु त्रिप्रदेशावगाढं च तत्र तिर्यग् निरन्तरं त्रयः स्थाप्यन्ते, युग्मप्रदेशं श्रेण्यायतं द्विपरमाणु द्विप्रदेशावगाढं च, तथैवाणुद्वयं स्थाप्यते न, ओजःप्रदेशं प्रतरायतं पञ्चदशपरमाण्वात्मकं पञ्चदशप्रदेशावगाढं च तत्र पञ्चप्रदेशात्मिकास्तिस्रः ० ० ० ० ० ० “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-], --- उद्देशक: [-], मूलं [...४] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ० ० ० ० For Parts Only ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ....---- उद्देशकः [-], ---------------- दारं [-1, --- --- मूल [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: त्र प्रत प्रज्ञापना मलय. वृत्ती . सूत्राक [४] ॥१२॥ दीप पजयस्तिर्यक् स्थाप्यन्ते-नग र, युग्मप्रदेशं प्रतरायतं पट्परमाण्यात्मकं षट्प्रदेशावगाढंच, तत्र त्रिप्र १ प्रज्ञापदेशं पतिद्वयं स्थाप्यते,००० स्थापना-TAT , ओजःप्रदेश घनायतं पञ्चचत्वारिंशत्-1॥ नापदे रूपरमाण्वात्मकं तावत्-0000 प्रदेशाव -गाढं च, तत्र पूर्वोक्तस्यैव प्रतरायतस्य पञ्च- प्यजीवप्रदशप्रदेशात्मकस्याध उपरि तथैव पञ्चदश परमाणवः स्थाप्यन्त युग्मप्रदश घनायत द्वादश ज्ञा.(सू.४) परमाण्वात्मकं द्वादशप्रदेशावगाढंच, तत्र प्रागुक्तस्य षट्प्रदेशस्य प्रतरायतस्योपरि तथैव तावन्तः परमाणवः स्था-IN प्यन्ते ॥ प्रतरपरिमण्डलं विंशतिपरमाण्वात्मकं विंशतिप्रदेशावगाढंच, तचैवं-प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु प्रत्येक चत्वारश्चत्वारोऽणवः स्थाप्यन्ते, विदिक्षु च प्रत्येकमेकैकोऽणुः स्थाप्यते, घनपरिमण्डलं चत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं | चत्वारिंशत्परमाण्वात्मकं च, तत्र तस्या एवं विंशतरुपरि तथैवान्या विंशतिरवस्थाप्यते ३५॥ इत्थं चैषां प्ररूपणमि-IN तोऽपि न्यूनप्रदेशतायां यथोक्तसंस्थानाभावात् , एतत्सङ्घाहिकाश्चेमा उत्तराध्ययननियुक्तिगाथा:-"परिमण्डले य बढे तसे चउरंस आयए चेव । घणपयर पढमबजं ओजपएसे य जुम्मे य ॥१॥ पञ्चगवारसगं खलु सत्तगवत्तीसगं च। चट्टम्मि । तिय छकपणगतीसा चत्तारि य होन्ति तंसम्मि॥२॥ नव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे। १ परिमण्डलं च वृत्तं व्यत्रं चतुरसमायतं चैव । धनपतरौ प्रथमवर्जेषु ओजःप्रदेशानि युग्मानि च ॥१॥ पञ्चकं द्वादशकं खलु सप्तक द्वात्रिंशच वृत्ते । त्रिकं पटु पञ्चविंशत् चत्वारश्च भवन्ति व्यस्रे ॥२॥ नव चैव तथा चत्वारः सप्तविंशतिवाष्टी चतुरक्ष। अनुक्रम [१३] ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. ---------. ..-- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], ... ........-- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक (४) ॥ तिगद्गपचरसेव य छन्चेव य आयए होन्ति॥३॥पणयाला वारसगं तह चेव य आययम्मि सण्ठाणे । वीसा पत्तालीसा SI परिमण्डलए य सण्ठाणे ॥४॥" इत्यादि । सम्प्रत्येतेषामेव वर्णादीनां परस्परं संवेधमाह। जे वण्णओ कालवण्णपरिणता ते गन्धओ सुम्भिगन्धपरिणतावि दुन्भिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयाचि फासओ कक्खडफासपरिणयावि भउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि सिद्धफासपरिणयावि लुक्खफास-1 परिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि चट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसण्ठाणपरिणयावि २०, जे वण्णओ नीलवण्णपरिणता ते गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि रसओ |तित्तरसपरिणयावि कडयरसपरिणतावि कसायरसपरिणताबि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासओ कक्खडफास-IN परिणतावि मउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीतफासपरिणतावि उसिणफासपरिणतावि निद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयापि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसण्ठाणपरिणयावि २०, जे वण्णाओ लोहियवण्णपरिणया ते गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणयावि दुब्भि| त्रिकं द्विकं पञ्चदशैव च षटू चैवायते भवन्ति ॥३॥ पञ्चचत्वारिंशत् द्वादशक तथा चैव चायते भवन्ति । विंशतिश्चत्वारिंशत् परिमण्डले च संस्थाने ॥४॥ दीप अनुक्रम [१३] 999 .३ N arary ou ~29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. --------.-...-- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], .... ........-- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मल eratoer प्रत सूत्राक [४] दीप गन्धपरिणयापि रसओ तित्तरसपरिणतावि कइयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणतावि१ प्रज्ञापफासओ कक्खडफासपरिणतावि भउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणताबि सीतफासपरिणतापि उसिण-181 नापदे रूफासपरिणतावि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठागओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणताबि बट्टसण्ठाणपरिणतावि तंस-18|प्यजीवप्र. |सण्ठाणपरिणयापि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसण्ठाणपरिणतावि २०, जे वण्णी हालिद्दवण्णपरिणया ते गन्धओ सुम्भिग- (सू. ४) न्धपरिणयावि दुग्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणताबि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि णिद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बट्टस-श ण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणतावि आयतसण्ठाणपरिणतावि २०, जे वण्णओ सुकिल्लवण्णपरिणता । ते गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणतावि दुम्भिगन्धपरिणतावि रसओ वित्तरसपरिणतावि कडयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणताबि फासओ कक्खडफासपरिणतानि मउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणतावि लहुय-1 फासपरिणताबि सीयफासपरिणतावि उसिणफासपरिणतावि णिद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वहसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससष्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि २०,१००11 जे गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणया ते वणओ कालवण्णपरिणयावि णीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्यापरिणयावि हालिद्दवण्णपरिण-18 यावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि रसओ तिचरसपरिणयावि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि महुररस अनुक्रम [१३] Thinnasurare.org ~ 30 ~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [१३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१], उद्देशक: [-], दारं [-], ---- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Int परिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणतावि मउयफासपरिणताबि गरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीतफासपरिण| तावि उसिणफासपरिणयावि द्धिफासपरिणयावि लुक्खकासपरिणयात्रि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बसण्ठाणपरिणयादि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसष्ठाणपरिणयादि २३, जे गन्धओ दुब्भिगन्धपरिणया ते विष्णओ कालवण्णपरिणयावि गीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयादि हारिदवण्णपरिणयाचि सुकिल्लवष्णपरिणयावि रसओ | तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयकासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासप० गिद्धफासप० लक्खफास परिणयाचि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वट्टसण्ठाणपरिणयाचि तंससष्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाण परि णयावि आययसण्ठाणपरिणयावि २६, ४६ । जे रसओ तित्तरसपरिणया ते बण्णओ कालवण्णपरिणतावि गीलवष्णपरिणयावि | लोहियवण्णपरिणयावि हालिद्दवष्णपरिणयावि सुकिल्लचण्णपरिणयावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीतफा सपरिणतावि उसिणफासपरिणतावि निद्धफासपरिणयावि लुक्खकासपरिणयावि सष्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वहसष्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठ।णपरिणयावि२०, जे रसओ क इयरसपरिणता ते वष्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवष्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धप रिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफास परिणयाचि सीतफासपरिणयावि For Parts Only ~ 31~ waryara Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. -...--------------- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], ... . .- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना याः मलयवृत्ती. प्यजीवप्र. सुत्राक ॥१४॥ [४] उसिणफासपरिणयावि णिद्धफासपरिणयापि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि पट्टसण्ठाणपरिणयावि |१मज्ञापतससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसण्ठाणपरिणयावि२०,जे रसओ कसायर सपरिणता ते वष्णओ कालवण्णप नापदे - रिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवण्णपरिणतावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि || दुभिगन्धपरिणयावि फासओकक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफास-8| परिणतावि उसिणफासपरिणयावि पिद्धफासपरिणयाविलुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणताचि चट्टसपठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि२०,जे रसओ अम्बिलरसपरिणया ते वण्णओ कालवण्यपरिणयावि नीलवष्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भि-181 गन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुपफासपरिणयावि लहुयफासप-I रिणयावि सीतफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निदफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयाचि आययसण्ठाणपरिणयावि २०, जे रसओ महुररसपरिणया ते वष्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिहवष्णपरिणयाविश॥१४॥ सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ मुबिभगन्धपरिणयाचि दुब्भिगन्धपरिणयावि कासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिण-18 यावि गुरुयफासपरिणतावि लहुवफासपरिणतावि सीतफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफास-| रिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि वट्टसण्ठाणपरिणतावि तंससण्ठाणपरिणतावि चउरंससण्ठाणपरिणताकि आय दीप अनुक्रम [१३] एयरट For P OW ~ 32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. ---------. ..-- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], ... ........-- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक (४) यसण्ठाणपरिणयावि २०,१०० जे फासतो कक्खडफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवणपरिणसावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिदवण्णपरिणतावि सुफिलवण्णापरिणतावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि भिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणतावि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासओ गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीतफासपरिणतावि उसिणकासपरिणतावि णिद्धफासपरिणताबि लुक्खफासपरिणतावि सण्ठाणतो परिम-| 8ण्डलसण्ठाणपरिणतावि बहसण्ठाणपरिणतावि तंससण्ठाणपरिणतावि चउरंससण्ठाणपरिणवावि आयतसण्ठाणपरिणयावि २३, जे फासओ मउयफासपरिणता ते वणओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवण्णपरिणतावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुम्भिगन्धपरिणतावि दुभिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणतावि कड्यरसपरिणतावि कसायरसपरिणताचि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासओ गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफासपरिणयावि उसिणकासपरिणयावि गिद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वट्ट| सण्ठाणपरिणवावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसष्ठाणपरिणयाचि २३, जे फासओ गुरुयफासपरिगता ते वणओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवण्णपरिणतावि हालिद्दवण्णपरिणवावि सुकिल्लवण्णपरिणताविKI गन्धओ सुभिगन्धपरिणताबि दुभिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणताबि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिल-II रसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासओ कक्खडफासपरिणतावि मउयफासपरिणताबि सीयफासपरिणतावि उसिणफासपरि-18 Mणतारि गिद्धफासपरिणतापि लुक्खफासपरिणतापि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतादि वट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणप-| दीप एeratheiseseeeeee अनुक्रम [१३] Mond ~ 33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [१३] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥ १५ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-], दारं [ - ], ----- पदं [१], मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः |रिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयाचि २३, जे फासओ लहुयफासपरिणता ते वष्णओ कालवण्णपरिणताचि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिदवष्णपरिणतावि सुकिल्लवष्णपरिणतावि गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणताबि कयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासओ कक्खडफासपरिणताचि मउयफास परिणयावि सीयफासपरिणयाचि उसिणफासपरिणयावि णिद्धफासपरिणतावि लुक्खफा सपरिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणताचि वट्टसण्ठाणपरिणयाचि वंससष्ठाणपरिणयाचि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिगयावि २३, जे फासओ सीयफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवष्णपरिणयादि हालिवष्णपरिणतावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुग्भिगन्धपरिणतावि दुभिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कयरसपरिणयावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरस परिणतावि महुररसपरिणतावि कासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिण यावि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणयावि निद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणयावि सष्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससष्ठाणपरिणयावि चउरंससष्ठाणपरिणयावि आयतसष्ठाणपरिणयादि २३, जे फासओ उसिणफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवष्णपरिणयावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयाचि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयाबि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफास परिणयावि लहुयफास परिणयावि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयाचि बहसष्ठाण परिणयाचि Education Internationa For Pernal Use On ~34~ १ प्रज्ञाप नापदे रू प्यजीवम. (सू. ४) ।। १५ ।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. -...--------------- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], ... . .- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक (४) Sadabase ससण्ठाणपरिणयावि चउरैससण्ठाणपरिणयावि आयतसण्ठाणपरिणतावि २३, जे फासओ निद्धफासपरिणता ते वष्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिइवष्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुभिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफासपरिणतावि उसिणफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंस-1 सण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि २३, जे फासओ लुक्खफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्यापरिणतावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालियण्णपरिणयाचि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धो सुम्भिगन्धपरिणयावि दभिगन्धपरि-1 णयावि तित्तरसपरिणयाचि कडुयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्ख| डफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि वहसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणप आययसण्ठाणप०२३,१८४|| जे सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवष्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिद्दवप्रणपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुम्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयाधि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिण यावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयाचि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफास दीप अनुक्रम [१३] SAMEnirahini ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. -...--------------- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], ... . .- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४] प्रज्ञापना- परिणयावि २०, जे सण्ठाणओ वट्टसण्ठाणपरिणता ते वणओ कालवण्णपरिणयावि नीलवण्णपरिणयाविलोहियवण्णपरिणयावि १प्रज्ञापयाः मल- हालिवण्णपरिणयावि मुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणतावि नापदे रूय० वृत्ती. कद्वयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणतावि फासओ कक्खडफासपरिणताबि मउपफास-| प्यजीवप्र. परिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि २०, जे सण्ठाणओ तंससण्ठाणपरिणता ते वष्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धो सुब्भिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरेसपरिणयावि कडुयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि गिद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि २०, जे सण्ठाणओ चउरंससग्ठाणपरिणता ते वणो कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतापि लोहिय-1 वण्णपरिणतावि हालिवष्णपरिणवावि सुकिल्लवणपरिणयात्रि गन्धो सुबिभगन्धपरिणयावि दुम्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयापि कडुपरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररस्त्रपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिण-INI तावि मउयफासपरिणताबि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निद्धफासप- I I IS रिणयावि लुक्खफासपरिणयावि २०, जे सण्ठाणओ आयतसण्ठाणपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिदवण्णापरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि दुम्भिगन्धपरिणयापि रसओ दीप अनुक्रम [१३] orvastaram.org ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१] .................- उद्देशक: -1, ----------------- दारं [-1, .... ...- मूल [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक (४) तित्तरसपरिणतावि कडुपरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपकरणयावि मउपफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणवावि उसिणफासपरिणयावि णिफा-| सपरिणयावि लुक्खफासपरिणतावि २०, १०० । सेचं रूविअजीवपन्नवणा, सेचं अजीवपण्णवणा । (सू०४) ये स्कन्धादयो 'वर्णतो' वर्णमाश्रित्य कालवर्णपरिणता अपि भवन्ति ते 'गन्धतो' गन्धमाश्रित्य सुरभिगन्धपरिणता अपि भवन्ति, दुरभिगन्धपरिणता अपि, किमुक्तं भवति-गन्धमधिकृत्य ते भाज्याः, केचित् सुरभिगन्धपरिणता भवन्ति केचिदुरभिगन्धपरिणताः, न तु प्रतिनियतैकगन्धपरिणामपरिणता एवेति,एवं च रसतः स्पर्शतः संस्थानतश्च | वाच्याः, तत्र द्वौ गन्धौ पञ्च रसा अष्टौ स्पर्शाः पञ्च संस्थानानीति, एते च मीलिता विंशतिरिति कृष्णवर्णपरिणता| एतावतो भङ्गालभन्ते २०,एवं नीलवर्णपरिणता अपि २०,लोहितवर्णपरिणता अपि २०,हारिद्रवर्णपरिणता अपि २०, शुक्लवर्णपरिणता अपि २०, एवं पञ्चभिर्वर्णेलेब्धं शतम् १००। गन्धमधिकृत्याह-'ये गन्धतो' इत्यादि, ये 'गन्धतो गन्धमधिकृत्य सुरभिगन्धपरिणामपरिणतास्ते वर्णतः कालवर्णपरिणता अपि नीलवर्णपरिणता अपि लोहितवर्णपरिणता अपि हारिद्रवर्णपरिणता अपि शुक्लवर्णपरिणता अपि ५, एवं रसतः ५ स्पर्शतः ८ संस्थानतः ५, एते च मीलितास्त्रयोविंशतिः २३ इति सुरभिगन्धपरिणतात्रयोविंशतिभङ्गालभन्ते, एवं दुरभिगन्धपरिणता अपि २३,18 ततो गन्धपदेन लब्धा भङ्गानां षट्चत्वारिंशत् ४६ारसमधिकृत्याह-ये 'रसतो' रसमधिकृत्य तिक्तरसपरिणतास्ते वर्णतः दीप अनुक्रम [१३] REaanand N arayara ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. -...--------------- उद्देशक: -1, ------------------ दारं [-], ... . .- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना- याः मल- २० वृत्ताः ॥१७॥ सूत्रांक (४) ५ गन्धतः २ स्पर्शतः ८ संस्थानतः ५ एते सर्वेऽप्येकत्र मीलिता विंशतिः इति तिक्तरसपरिणता विशातभङ्गाल- १ प्रज्ञापमन्ते, एवं कटुकरसपरिणताः २० कषायरसपरिणताः२० अम्लरसपरिणताः २० मधुररसपरिणताश्च २०, एवं रस- नापदे रूपञ्चकसंयोगे लब्धं भङ्गकानां शतम् १०० [इत्यादि] । स्पर्शमधिकृत्याह-जे फासप्तो कक्खडफासपरिणया' इत्यादि, प्यजीवप्र. ये स्पर्शतः कर्कस्पर्शपरिणतास्ते वर्णतः ५ गन्धतः २ रसतः ५ स्पर्शतः ६ प्रतिपक्षस्पर्शयोगाभावात् संस्थानतः ५, (सू. ४) एते सर्वेऽप्येकत्र मीलितास्त्रयोविंशतिः २३, एतावतो भङ्गान् कर्कशस्पर्शपरिणता लभन्ते २३, एतावत एव मृदु-18 स्पर्शपरिणताः २३ गुरुस्पर्शपरिणताः २३ लघुस्पर्शपरिणताः २३ शीतस्पर्शपरिणताः २३ उष्णस्पर्शपरिणताः २३ ।। स्निग्धस्पर्शपरिणताः २३ रूक्षस्पर्शपरिणताः २३, एतेषामेकत्र मीलने जातं भड़कानां चतुरशीत्यधिकं शतं १८४| [इत्यादि]। संस्थानमधिकृत्याह-जे सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणया' इत्यादि,ये संस्थानतः परिमण्डलसंस्थानपरिणतास्ते वर्णतः ५ गन्धतः२ रसतः ५ स्पर्शतः ८ एते सर्वेऽप्येकत्र मीलिताः विंशतिः२० एतावतो भङ्गान् परिमण्डलसंस्थानपरिणता लभन्ते, एवं वृत्तसंस्थानपरिणताः २० व्यस्रसंस्थानपरिणताः २० चतुरस्रसंस्थानपरिणताः २० १७॥ आयतसंस्थानपरिणताः २०, अमीषां चैकत्र मीलने लब्धं भङ्गकानां शतम् , एतेषां च वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानानां सकलभङ्गसङ्कलने जातानि पञ्च शतानि त्रिंशदधिकानि ५३०॥ इह यद्यपि बादरेषु स्कन्धेषु पञ्चापि वर्णा द्वावपि गन्धौ पञ्चापि रसाः प्राप्यन्ते, ततोऽवधिकृतवर्णादिव्यतिरेकेण शेषवर्णादिभिरपि भनाः सम्भवन्ति, तथापि तेष्वेव वाद दीप हरहरaee अनुक्रम [१३] ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१] ................... उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, .. - मूल [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक रेषु स्कन्धेषु ये व्यवहारतः केवलकृष्णवर्णाद्युपेता अपान्तरालस्कन्धा यथा देहस्कन्ध एव लोचनस्कन्धः कृष्णस्तदन्तगत एव कश्चिलोहितोऽन्यस्तदन्तर्गत एव शुक्ल इत्यादि ते इह विवक्ष्यन्ते, तेषां चान्यद्वर्णान्तरादि न सम्भवति, स्पर्शचिन्तायां त्ववधिकृतस्पर्श प्रति प्रतिपक्षव्यतिरेकेणान्ये स्पर्शा लोकेऽप्यविरोधिनो दृश्यन्ते ततो यथोक्तैव भङ्गस- या, साऽपि च परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्याभिहिता, अन्यथा प्रत्येकमप्येषां तारतम्येनानन्तत्वादनन्ता भङ्गाः संभवन्ति, एतेषां च वर्णादिपरिणामानां जघन्यतोऽवस्थानमेकं समयमुत्कर्षतोऽसङ्खयेयं कालम् , सम्प्रत्युपसंहारमाह'सेतं रूविअजीवपन्नवणा, सेत्तं अजीवपन्नवणा' सैषा रूप्यजीवप्रज्ञापना, सैषाजीवप्रज्ञापना ॥ साम्प्रतं जीवप्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रं चा(त्रमा)हसे कि तंजीवपन्नवणा,२ दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संसारसमावण्णजीवपन्नवणा य असंसारसमावण्णजीवपष्णवणा य (सू०५)। अथ का सा जीवप्रज्ञापना, सूरिराह-जीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-संसारसमापनजीवप्रज्ञापना चासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च, तत्र संसरणं संसारो-नारकतिर्यगनरामरभवानुभवलक्षणतं सम्यग्-एकीभा-| विनापन्नाः संसारसमापन्नाः, संसारवर्तिन इत्यर्थः, तेच ते जीवाश्च तेषां प्रज्ञापना संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, न संसारोऽसंसारो-मोक्षस्तं समापन्ना असंसारसमापना मुक्ता इत्यर्थः, ते च ते जीवाब तेषां प्रज्ञापनाऽसंसारसमाप1. एवं वर्णस्य भेदाः १००, गन्धस्य भेदाः ४६, रसस्य भेदाः १००, स्पर्शस्य भेदाः १८४, संस्थानस्य भेदाः-१००, एवं च ५३०. 72020302929322000202 (४) दीप अनुक्रम [१३] Santauraton . अत्र 'जीव-प्रज्ञापना' आरभ्यते ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .................-- उद्देशक: -1, ---------------- दारं [-], ----------- मूलं [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक (५) प्रज्ञापना-RI अजीवप्रज्ञापना, चशब्दो प्राग्वत् । तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतोऽसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विषयं रा १ प्रज्ञापयाः मल- प्रश्नसूत्रमाह नापदे सियवृत्ती. से कि तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा?, असंसारसमावण्णजीवषण्णवणा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-अणन्तरसिद्धअसंसार- प्रज्ञाप. समावण्णजीवपण्यावणा य परम्परसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा य (सू०६) से किं तं अणन्तरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णा॥१८॥ वणा, अणन्तरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पण्णरसविहा पण्णता,तंजहा-तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतिस्थगरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा इत्थीलिङ्गसिद्धा पुरिसलिङ्गसिद्धा नपुंसकलिङ्गासिद्धा सलिङ्गसिद्धा अनलिङ्गसिद्धा गिहिलिङ्गसिद्धा एगसिद्धा अणेमसिद्धा (सू०७) अथ का सा असंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-असंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता,तद्यथा-IN अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च, तत्र न विद्यतेऽन्तर-व्यवधानमात्समयेन येषां तेऽनन्तराते च ते सिद्धाश्चानन्तरसिद्धाः, सिद्धत्वप्रथमसमये वर्तमाना इत्ययः, ते च तेऽ-13 संसारसमापन्नजीवाश्चानन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवास्तेषां प्रज्ञापनाऽनन्तरसिद्धाऽसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः, तथा विवक्षिते प्रथमे समये यः सिद्धस्तस यो द्वितीयसमयसिद्धः स परतस्यापि यस्तृतीयसमयसिद्धः स परः, एवमन्येऽपि वाच्याः, परे च परे चेति वीप्सायां 'पृषोदरादय' इति परम्पर दीप अनुक्रम [१४] eveloCA wiralauneurary.org अत्र असंसारसमापन्न (सिद्ध) जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .............--- उद्देशक: [-], ----------------दार [-], ---------------- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६-७] 200Craba909aparaadhe शब्दनिष्पत्तिः, परम्पराश्च ते सिद्धाश्च परम्परसिद्धाः विवक्षितसिद्धस्य प्रथमसमयात् प्राग द्वितीयादिषु समयेष्वनतामतीताद्धां यावर्त्तमाना इति भावः, तेच तेऽसंसारसमापन्नाश्च परम्परसिद्धासंसारसमापन्नास्ते च ते जीवाश्च तेषां प्रज्ञापना परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, अत्रापि चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः ॥ 'से किन्त'मि-8 त्यादि, अथ का सा अनन्तरसिद्धासंसारसमापनजीवप्रज्ञापना १, सूरिराह-अनन्तरसिद्धासंसारसमापनजीवप्रज्ञापना पञ्चदशविधा प्रज्ञप्ता, अनन्तरसिद्धानामुपाधिभेदतः पञ्चदशविधत्वात् , तदेव पञ्चदशविधत्वं तेषामाह-'तंजहे'त्यादि, तद्यथेति पञ्चदशभेदोपदर्शनसूचक, तीर्थसिद्धाः तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ-यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम् , तच निराधार न भवति इति सङ्घः प्रथमगणधरो वा वेदितव्यः, उक्तं च-"तित्थं भन्ते ! तित्थं तित्थकरे तित्थं ?, गोयमा !, अरिहा ताव (नियमा) तित्थकरे, तित्थं पुण चाउब्वणो समणसको पढमगणहरो वेति, तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः, तथा तीर्थस्थाभावोऽतीर्थ, तीस्थाभावश्चानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो वा तस्मिन् ये सिद्धास्तेऽतीर्थसिद्धाः, तत्र तीर्थस्थानुत्पाद सिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः, न हि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत् , तथा तीर्थस्य व्यवच्छेदः सुविधिखाम्याय १ तीर्थ (शासनं ) भदन्त ! तीर्थ (तरणसाधनं ) तीर्थकरस्तीर्थम् !, गौतम ! अर्हन सावत् नियमातीर्थकरः, तीर्थ पुनश्चतुर्वर्णः श्रम-15|| णसङ्कः प्रथमगणधरो वा। दीप अनुक्रम [१५-१६] प्र. ४ ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६-७] दीप अनुक्रम [१५-१६] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥ १९ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [६,७] पदं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पान्तरालेषु तत्र ये जातिस्मरणादिनाऽपवर्गमार्गमवाप्य सिद्धास्ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः २ तथा तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धाः ३ सामान्यकेवलिनः सन्तो ये सिद्धास्तेऽतीर्थकर सिद्धाः ४ तथा खयंबुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते खयम्बुद्धसिद्धाः ५, प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते प्रत्येकबुद्धसिद्धाः ६, अथ स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि - स्वयम्बुद्धा बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, खयमेव - वाप्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः स्वयम्बुद्धा इति व्युत्पत्तेः ते च द्विधा - तीर्थकरास्तीर्थकरव्यतिरिक्ताश्च, इह तीर्थकरव्यतिरिक्तैरधिकारः, आह च नन्यध्ययन चूर्णिकृत् - 'ते दुविधा सयंबुद्धा-तित्थयरा तित्थयरवइरित्ता य, इह वहरितेहिं अहिगारो' इति । प्रत्येकबुद्धास्तु वायप्रत्ययमपेक्ष्य, प्रत्येकं वा वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धा इति व्युत्पत्तेः तथा च श्रूयते वाह्यप्रत्ययसापेक्षा करकण्ड्वादीनां बोधिः, वहिः प्रत्ययमपेक्ष्य च ते बुद्धाः सन्तो नियमतः प्रत्येकमेव विहरन्ति, न गच्छ्वासिन इव संहताः, आह च नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत्-पत्तेयं वाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः, बहिष्प्रत्ययं प्रति बुद्धानां च पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धा' इति, स्वयम्बुद्धानामुपधिर्द्वादशविध एव पात्रादिकः, प्रत्येकबुद्धानां तु द्विधा - जघन्यतस्तथोत्कर्षतश्च तत्र जघन्यतो द्विविधः, उत्कर्षतो नवविधः प्रावरणवर्जः, उक्तं च- "पत्तेयबुद्धाणं जहन्त्रेणं दुबिहो उक्कोसेणं नवविहो नियमा पाउरणवज्जो भवइ" इति, तथा स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधीतं श्रुतं भवति वा न वा, यदि For Parts Only ~42~ १ प्रज्ञाप नापदे न्तरसि जपज्ञा. (सू. ७) ॥ १९ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. --------...--- उद्देशक: [-]. ----------------- दारं [-], ........--- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६-७] भवति ततो लिङ्गं देवता वा प्रयच्छति गुरुसन्निधौ वा गत्वा प्रतिपद्यते, यदि च एकाकिविचरणसमर्थः इच्छा वार तस्य तथारूपा जायते तत एकाकी विहरति, अन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठते, अथ पूर्वाधीतं श्रुतं तम्य न भवति तहि। नियमादरुसन्निधौ गत्वा लिङ्गं प्रतिपद्यते गच्छं चावश्यं न मुञ्चति, तथा चोक्तम्-"पुच्चाहीयं सूर्य से हवइया ना वा, जइसे नत्थि तो लिङ्गं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ गच्छे य विहरइत्ति, अह पुचाधीयसुयसम्भवोऽत्थि तो से लिदेवया पडियच्छा गरुसन्निहे वा पडिवजह, जइ य एगविहारविहरणसमत्थो इच्छा वा से तो एको चेव विहरह, अन्यथा गच्छे विहरद"त्ति प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति, तच जघन्यत एकादशाङ्गानि, उत्कर्षतः किञ्चिच्यूनानि दश पूर्वाणि, तथा लिङ्गं तस्मै देवता प्रयच्छति लिकरहितो वा कदाचिद्भवति, तथा |चोक्तम्-"पत्तेयबुद्धाणं पुबाहीयं सुयं नियमा हवइ, जहन्नेणं इक्कारस अशा, उकोसेणं भिन्नदसपुचा,लिङ्गं च से देव-1 या पयच्छइ, लिङ्गवजिओ वा भवइ, जओ भणियं-रुप्पं पत्तेयबुद्धा" इति । तथा बुद्धा-आचार्यास्तैबाधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धाः। एते च सर्वेऽपि केचित्खीलिङ्गसिद्धाः, स्त्रिया लिङ्गं स्त्रीलिङ्गं,स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः, तच त्रिधा, तद्यथा-वेदः शरीरनिवृत्तिर्नेपथ्यं च, तत्रेह शरीरनिवृत्त्या प्रयोजनम् , न वेदनेपथ्याभ्यां, वेदे सति | सिद्धत्वाभावात् , नेपथ्यस्य चाप्रमाणत्वात् , आह च नन्यध्ययनचूर्णिकृत्-"इत्थीए लिङ्गं इथिलिङ्गं,इत्थीए उवल-1 क्खणंति वुत्तं भवइ, तं च तिविह-वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च, इह सरीरनिबत्तीए अहिगारो, न वेयनेवत्थेहिति ।। दीप अनुक्रम [१५-१६] ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ........--- उद्देशक: [-], ---------------- दारं -1, ....--- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६-७] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥२०॥ 829292009eases दीप अनुक्रम ततस्तस्मिन् खीलिओ वर्तमानाःसन्तो ये सिद्धास्ते स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, एतेन यदाहुराशाम्बराः-'न खीणां निर्वाण'मिति, १प्रज्ञापतदपास्तं द्रष्टव्यं. स्त्रीनिर्याणस्य साक्षादनेन सूत्रेणाभिधानात , तत्प्रतिषेधस्य युत्तया अनुपपन्नत्वात् ,तथाहि-मुक्तिपथो हाप. ज्ञानदर्शनचारित्राणि 'सम्यगदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति वचनात् (तत्त्वार्थे अ०१ सू०१), सम्यगदर्श- नन्तरसिनादीनि च पुरुषाणामिव स्त्रीणामप्यविकलानि, तथाहि-दृश्यन्ते स्त्रियोऽपि सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचवमानाः, प्रज्ञा. जानते च पडावश्यककालिकोत्कालिकादिभेदभिन्नं श्रुतं, परिपालयन्ति ससदशप्रकारमकलकं संयम, धारयन्ति च (सू. ७) देवासुराणामपि दुर्घरं अमचर्य, तप्यन्ते च तपांसि मासक्षपणादीनि, ततः कथमिव न तासां मोक्षसम्भवः ?, स्यादे-18 तत्-अस्ति स्त्रीणां सम्यग्रदर्शनं ज्ञानं वा, न पुनचारित्रं, संयमाभावात् , तथाहि-त्रीणामवश्यं बसपरिभोगेन 8 भवितव्यमन्यथा विकृताङ्गयस्तास्तिर्यकत्रिय इव पुरुषाणामभिभवनीया भवेयुः, लोके च गोपजायते, ततोऽवश्य RI ताभिर्वखं परिभोक्तव्यं, वस्त्रपरिभोगे च सपरिग्रहता, सपरिग्रहत्वे च संयमाभाव इति, तदसमीचीनम् , सम्यक सिद्धान्तापरिज्ञानात्, परिग्रहो हि परमार्थतो माऽभिधीयते. 'मुच्छा परिग्गहो बुत्तो' इतिवचनात् , तथाहि| मूर्छारहितो भरतचक्रवर्ती सान्तःपुरोऽप्यादर्शकगृहेऽवतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते, अन्यथा केवलोत्पादासम्भवात्, RIME SIअपि च-यदि मूर्छाया अभावेऽपि वस्वसंसर्गमात्रं परिग्रहो भवेत् ततो जिनकल्प प्रतिपन्नस्य कस्यचित्साधोस्तुपार-1 १ आशाम्बरकृतगोमटसारे-अडयाला पुया, इत्थीवेया हवन्ति चालीसा । बीस नपुंसकया, समएणेगेण सिझन्ति ।। १ ॥ [१५-१६] ~44~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .............--- उद्देशक: [-], ----------------दार [-], ---------------- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६-७] celeceaeeksee कणानुषक्ते प्रपतति शीते केनाप्यविषयोपनिपातमय शीतमिति विभाव्य धर्मार्थिना शिरसि बस्ने प्रक्षिप्ते तस्य सपरिणहता भवेत् , न चैतदिष्टं, तस्मान्न वस्त्रसंसर्गमात्रं परिग्रहः, किन्तु मूळ, सा च स्त्रीणां वस्त्रादिषु न विद्यते, धर्मोपकरण| मात्रतया तस्योपादानात् , न खलु ता वस्त्रमन्तरेणात्मानं रक्षयितुमीशते, नापि शीतकालादिषु व्यग्रदशायां खाध्यायादिक कतु, ततो दीर्घतरसंयमपरिपालनाय यतनया वस्त्रं परिभुजाना न ताः परिग्रहवत्यः, अथोच्येत-सम्भवति नाम खीणामपि सम्यग्दर्शनादिकं रनत्रयं.परं न तत सम्भवमात्रेण मुक्तिपदप्रापकं भवति,किन्तु प्रकषेप्राप्तम् ,अन्यथा | दीक्षानन्तरमेव सर्वेषामप्यविशेषेण मुक्तिपदप्राप्तिप्रसक्तिः, सम्यग्रदर्शनादिरलत्रयप्रकर्षश्व स्त्रीणामसम्भवी, ततोन निवाणमिति, तदप्ययुक्तम् , स्त्रीषु रखत्रयप्रकर्षासम्भवे ग्राहकप्रमाणस्थाभावात् ,न खलु सकलदेशकालन्यात्या स्त्रीषु| रत्नत्रयप्रकोसम्भवग्राहकं प्रमाणं विज़म्भते, देशकालविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षस्थाप्रवृत्तेः, तदप्रवृत्ती चानुमानस्याप्यसम्भवात्, नापि तासु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवप्रतिपादकः कोऽप्यागमो विद्यते, प्रत्युत सम्भवप्रतिपादकः स्थाने स्थानेऽस्ति,यथेदर्भव प्रस्तुतं सूत्रं, ततो न तासां रतत्रयप्रकर्षासम्भवः, अथ मन्येथाः-स्वभावत एवातपेनेव छाया विरुध्यते स्त्रीत्वेन सह रत्नत्रयप्रकर्षः, ततस्तदसम्भवोऽनुमीयते, तदयुक्तमुक्तं, युक्तिविरोधात् , तथाहि-रत्नत्रयप्रकर्षः स उच्यते यतोऽन नन्तरं मुक्तिपदप्राप्तिः, स चायोग्ययस्थाचरमसमयभावी, अयोग्यवस्था चास्माशामप्रत्यक्षा, ततः फर्थ विरोधगतिः, न हि अदृष्टेन सह विरोधः प्रतिपतुं शक्यते, मा प्रापत्पुरुषेष्वपि प्रसङ्गः, ननु जगति सर्वोत्कृष्टपदप्राप्तिः सर्वोत्कृष्टेना दीप अनुक्रम [१५-१६] Directorary.com ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ........---- उद्देशक: [-], ---------------- दारं -1, ... --- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञा. [६-6] दीप अनुक्रम प्रज्ञापना- ध्यवसायेनावाप्यते, नान्यथा, एतयोभयोरप्यावयोरागमप्रामाण्यवलतः सिद्धं, सर्वोत्कृष्टे च द्वे पदे-सर्वोत्कृष्टदुःख-IN १ प्रज्ञापया: मल-10 स्थानं सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं च, तत्र सर्वोत्कृष्टदुःखस्थानं ससमनरकपृथ्वी, अतः परं परमदुःखस्थानस्थाभावात् , सर्वो नापदे अय. वृत्ती. कष्टसखस्थानं त निःश्रेयसं, तत्र खीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनमागमे निषिद्धं, निषेधस्स च कारणं तद्गमनयोग्यतथा-1 नन्तरसिविधसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः, ततः सप्तमपृथिवीगमनवत्त्वाभावात् ,सम्मूर्छिमादिवत् ,अपि च-यासां वादलब्धौ । विकुर्वणत्वादिलब्धौ पूर्वगतश्रुताधिगतौ च न सामर्थ्यमस्ति तासां मोक्षगमनसामर्थमित्सतिदुःश्रद्धेयं, तदेतदयुक्तं, यतो यदि नाम स्त्रीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनं प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः,तत एतावता कथमवसीयते-नि:श्रेयसमपि प्रति तासां सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावो, न हि यो भूमिकर्षणादिकं कर्मकर्तुं न शक्नोति स शास्त्राण्यप्यवगाहुं न शक्नोतीति प्रत्येतुं शक्यम् , प्रत्यक्षविरोधात्, अथ सम्मूर्छिमादिषभयत्रापि सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभा-1 वो दृष्टः ततोऽत्राप्यवसीयते, ननु यदि तत्र दृष्टस्तर्हि कथमत्रावसीयते ?, न खलु बहियाप्तिमात्रेण हेतुर्गमको भवति, किन्त्वन्तात्या, अन्तर्व्याप्तिश्च प्रतिवन्धवलेन, न चात्र प्रतिबन्धो विद्यते, न खलु सप्तमपृथिवीगमनं निर्वाणगमनस्य कारणं, नापि सप्तमपृथिवीगमनाविनामाथि निर्वाणगमनं, चरमशरीरिणां सप्तमपृथिवीगमनमन्तरेणैव निर्वाण-15 गमनभावात् , न च प्रतिबन्धमन्तरेणैकस्याभावेऽन्यस्यावश्यमभावः, मा प्रापत् यस्य तस्य वा कस्यचिदभावे सर्वस्था-18 भावप्रसङ्गः, यद्येवं तर्हि कथं सम्मूर्छिमादिषु निर्वाणगमनाभाव इति ?, उच्यते, तथाभवस्खाभाब्यात् , तथाहि [१५-१६] MSMarayam ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .............--- उद्देशक: [-], ----------------दार [-], ---------------- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६-७] ते सम्मठिमादयो भवखभावत एव न सम्यगदर्शनादिकं यथावत्प्रतिपत्तुं शक्यन्ते, ततो न तेषां निर्वाणसम्भवः, त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण यथावत्सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसम्पद्योग्याः, ततस्तासां न निर्वाणगमनाभावः, अपि च-भुज-18 परिसा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति न परतः, परपृथिवीगमनहेतुतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात् , तृतीयां या-18 वत्पक्षिणश्चतुर्थी चतुष्पदाः पञ्चमीमुरगाः, अथ च सर्वेऽप्यूर्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति,तन्नाधोगतिविषये मनो-13 वीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनादूर्ध्वगतावपि च तद्वैषम्यम् , आह च-"विषमगतयोऽप्यधस्तादुपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारम् ।। गच्छन्ति च तियश्चस्तदधोगत्यूनताऽहेतुः ॥१॥" तथा च सति सिद्धं स्त्रीपुंसानामधोगतिवैषम्येऽपि निर्वाणं सम, यदप्युक्तम्-'अपि च यासां यादलब्धावित्यादि' तदप्यश्लीलं, वादविकुर्वणत्वादिलब्धिविरहेऽपि विशिष्टपूर्वगतश्रुताभावेऽपि माषतुषादीनां निःश्रेयससम्पदधिगमश्रवणात्, आह च-"वादविकुर्वणत्वादिलब्धिविरहे श्रुते कनीयसि च। जिनकल्पमनःपर्यवविरहेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति॥१॥"अपि च-यदि वादादिलब्ध्यभाववनिःश्रेयसाभावोऽपि स्त्रीणामभविष्यत् ततस्तथैव सिद्धान्ते प्रत्यपादयिष्यत्, यथा जम्बूयुगादारात् केवलज्ञानाभावो, न च प्रतिपाद्यते कापि खीणां निर्वाणाभाव इति,तस्मादुपपद्यते स्त्रीणां निर्वाणमिति कृतं प्रसङ्गेन । तथा पुंल्लिङ्गे-शरीरनिवृत्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुंलिङ्गसिद्धाः, एवं नपुंसकलिङ्गसिद्धाः, तथा खलिङ्गे-रजोहरणादिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते खलिङ्गसिद्धाः,तथाऽन्यलिङ्गे-परित्राजकादिसम्बधिनि वल्कलकाषायादिरूपे द्रव्यलिङ्गे व्यवस्थिताः सन्तो दीप अनुक्रम [१५-१६] REaratammanmona ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .......---- उद्देशक: [-], ---------------- दारं -1, ....---- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- याः मल- य. वृत्ती. प्रत सूत्रांक [६-७] ॥२२॥ दीप अनुक्रम ये सिद्धास्तेऽन्यलिङ्गसिद्धाः, गृहिलिङ्गे सिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धाः मरुदेवीप्रभृतयः, तथैकसिद्धा एकस्मिन् २ समये एकका १ प्रज्ञापएव सन्तः सिद्धा एकसिद्धाः, 'अणेगसिद्धा' इति एकस्मिन समयेऽनेके सिद्धा अनेकसिद्धाः, अनेके चैकस्मिन्समयेनापदे असिध्यन्त उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसङ्ख्या बेदितव्याः, यस्मादुक्तम्-"वत्तीसा अडयाला सट्टी बावत्तरी य बोद्धच्या । चुल-18 नन्तरसिसीई छनउइ उ दुरहियमहत्तरसयं च ॥१॥" अस्या विनयजनानुग्रहाय व्याख्या-अष्टौ समयान् यावनिरन्तरमेकाद-18 द्धप्रज्ञा. यो द्वात्रिंशत्पर्यन्ताः सिध्यन्तः प्राप्यन्ते, किमुक्तं भवति -प्रथमे समये जघन्यत एको द्वो बोत्कपतो द्वात्रिशसिध्य (सू.७) न्तःप्राप्यन्ते, द्वितीयेऽपि समये जघन्यत एको द्वौ बोत्कर्षतो द्वात्रिंशत् , एवं यावदष्टमेऽपि समये जघन्यत एको द्वी वोत्कर्षतो द्वात्रिंशत्, ततः परमवश्यमन्तरं, तथा त्रयशिदादयोऽष्टचत्वारिंशत्पर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः सप्त समयान् यावत्पाप्यन्ते, परतो नियमादन्तरं, तथा एकोनपञ्चाशदादयः षष्टिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतः षट् | समयान् वावदवाप्यन्ते परतोऽवश्यमन्तरं तथैकषष्ट्यादयो द्विसप्ततिपर्यन्ता निरन्तर सिध्यन्त उत्कर्षतः पञ्च समयान्। | यावदवाप्यन्ते ततः परमन्तरं,त्रिसप्तत्यादयश्चतुरशीतिपर्यन्ता निरन्तर सिध्यन्त उत्कर्षतश्चतुरःसमयान् यावत्तत ऊध्र्व|मन्तरं, तथा पञ्चाशीत्यादयः षण्णवतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतस्त्रीन् समयान् यावत्परतो नियमादन्तरं, तथा सतनवत्यादयो धुत्तरशतपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतो द्वौ समयौ परतोऽवश्यमन्तरं, तथा युत्तरशतादयोऽष्टोतरशतपर्यन्ताः सिध्यन्तो नियमादेकमेव समयं यावदवाप्यन्ते, न द्विवादिसमयान् , तदेवमेकस्मिन् समये उत्कर्ष कर [१५-१६] ॥२२॥ ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. --------...--- उद्देशक: [-1, ---------------- दारं [-], .. . .-- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६-७] दीप अनुक्रम तोऽष्टोत्तरशतसङ्ख्याः सिध्यन्तः प्राप्यन्ते इत्यनेकसिद्धा उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतप्रमाणा वेदितव्याः । आह-तीर्थसिद्धा-11 तीर्थसिद्धरूपभेदद्वय एव शेषभेदा अन्तर्भवन्ति तत्किमर्थ शेषभेदोपादानम् , उच्यते, सत्यमन्तर्भवन्ति परं न तीर्थ-1| सिद्धातीर्थ सिद्धभेदद्वयोपादानमात्राच्छेषभेदपरिज्ञानं भवति,विशेषपरिज्ञानार्थं च एष शास्त्रारम्भप्रयास इति शेषभेदोपादानम् , उपसंहारमाह-'सेत्तमित्यादि, सैषा अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ॥ से किं तं परम्परसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा?,२ अणेगविहा पण्णाचा, तंजहा-अपढमसमयसिद्धा दुसमयसिद्धा तिस-1 |मयसिद्धा चउसमयसिद्धा जाब सजिजसमयसिद्धा असजिजसमयसिद्धा अणन्तसमयसिद्धा, सेतं परम्परसिद्धासंसारसमावण्ण-18 जीवपण्णवणा, सेत्तं असंसारसमावण्णज्जीवपण्णवणा (सू०८) अथ का सा परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनाऽनकेविधा प्रजप्सा, परम्परसिद्धानामनेकविधत्वात् , तदेवानेकविधत्वमाह-'तंजहे'त्यादि, 'तद्यथे'त्यनेकविधत्वोपदर्शने, IS 'अप्रथमसमयसिद्धा' इति, न प्रथमसमयसिद्धा अप्रथमसमयसिद्धाः-परम्परसिद्धविशेषणप्रथमसमयवर्तिनः, सिद्ध-13 त्वसमयाद्वितीयसमयवर्तिन इत्यर्थः, व्यादिषु तु समयेषु द्वितीयसमयसिद्धादय उच्यन्ते, यद्वा सामान्यतः प्रथममप्रथमसमयसिद्धा इत्युक्तं,तत एतद्विशेषतो याचष्टे-द्विसमयसिद्धानिसमयसिद्धाश्चतुःसमयसिद्धा इत्यादि यावच्छ-13 [१५-१६] Santaratiniand ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ----- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. सूत्रांक ॥२३॥ दीप ब्दकरणात् पश्चमसमयसिद्धादयः परिगृह्यन्ते । 'सेत्त'मित्यादि निगमनद्वयं सुगम, तदेवमुक्ता असंसारसमापनजी-1|| १प्रज्ञापविप्रज्ञापना ॥ सम्प्रतिसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विपयं प्रश्नसूत्रमाह नापदप| से किं तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा, संसारसमावण्णजीवपन्नवणा पश्चविहा पणत्ता, संजहा-एगेंदियसंसारसमावण्ण-IN रम्परसि द्धप्रज्ञा. जीवपण्णवणा बेइन्दियसंसारसमावण्णजीवषण्णवणा तेइन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा चउरिन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा जापान पश्चिन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा(मू०९) संसारसअथ का सा संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना पञ्चविधा प्रज्ञसा,तद्यथा-एके- मापन्न. न्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनेत्यादि, तत्रैकं स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः-पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतयो वक्ष्यमाणस्वरूपास्ते च ते संसारसमापन्नजीवाश्च तेषां प्रज्ञापना एकेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, एवं सर्वपदेष्वक्षरघटना कार्या, नवरं द्वे स्पर्शनरसनालक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः शशशुक्तिकादयः, त्रीणि-स्पर्शनरस-11 नाप्राणलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः-यूकामत्कुणादयः, चत्वारि स्पर्शनरसनामाणचक्षुर्लक्षणानीन्द्रियाणि ॥ येषां ते चतुरिन्द्रियाः-दंशमशकादयः, पञ्च स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः-मत्स्य-19 मकरमनुजादयः । अमीषां चैकादिसञ्जयानामिन्द्रियाणां स्पर्शनादीनामसंव्यवहारराशेरारभ्य प्रायोऽनेनैव क्रमेण लाभ इति सम्प्रत्ययार्थमित्थं क्रमेणैकेन्द्रियाधुपन्यासः । इन्द्रियाणि च द्विधा, तद्यथा-द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि अनुक्रम [१७] ॥२३॥ SARERatunintentiational wralundurary.org अत्र संसारसमापन्न/संसारी-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~ 50 ~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [१८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१]. उद्देशक: [-], दारं [-], ----- मूलं [९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः च, तत्र द्रव्येन्द्रियाणि निर्वृत्त्युपकरणरूपाणि तानि च सविस्तरं नन्द्यध्ययनटीकायां व्याख्यातानीति न भूयो व्याख्यायन्ते, भावेन्द्रियाणि क्षयोपशमोपयोगरूपाणि तानि चानियतानि, एकेन्द्रियाणामपि क्षयोपशमोपयोगरूपभावेन्द्रियपञ्चकसम्भवात् केषाञ्चित्तत्फलदर्शनात्, तथाहि त्रकुलादयो मत्तकामिनीगीतध्वनिश्रवणसविलासकटाक्षनिरीक्षणमुखक्षिप्तसुरागण्डूषगन्धा घ्राणरसाखादस्तनाद्यवयव स्पर्शनतः प्रमोदभावेनाकालक्षेपमुपलभ्यन्ते पुष्कफलानि प्रयच्छन्तः, उक्तं च- "जं किर बउलाईणं दीसह सेसिन्दिओवलम्भोऽवि । तेणऽत्थि तदावरणक्खओवसमसम्भवो तेसिं ॥ १ ॥" ततो न भावेन्द्रियाणि लौकिकव्यवहारपथावतीर्णै केन्द्रियादिव्यपदेशनिबन्धनं, किन्तु द्रव्येन्द्रियाणि, तथाहि येषामेकं बाह्यं द्रव्येन्द्रियं स्पर्शनलक्षणमस्ति ते एकेन्द्रियाः येषां द्वे ते द्वीन्द्रियाः एवं यावद्येषां पञ्च ते पञ्चेन्द्रियाः, आह च-"पंञ्चिदिओवि बउलो नरोध सङ्घविसयोवलम्भाओ । तवि न भण्णइ पञ्चिन्दिओत्ति बज्झिन्दिया भावा ॥ १ ॥ " सेकिन्तं एगेन्दियसंसार समावण्णजीवपण्णवणा ?, एगेन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पञ्चविद्या पन्नत्ता, तंजहा पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया ( सू०१०) अथ का सा एकेन्द्रिय संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-एकेन्द्रियसंसारसमापन्न जीवप्रज्ञापना पञ्चविधा १ यत्किल बकुलादीनां दृश्यते शेषेन्द्रियोपलम्भोऽपि । तेनास्ति तदावरणक्षयोपशमसंभवस्तेषाम् ॥ १ ॥ २ पञ्चेन्द्रियोऽपि वकुलो नर इव सर्वविषयोपलम्भात् । तथापि न भण्यते पञ्चेन्द्रिय इति बाह्येन्द्रियाभावात् ॥ १ ॥ For Parts Only ~ 51~ nary or Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ................-- उद्देशक: [-],---------------- दार [-], --------------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] पृथ्वीका यप्रज्ञा. दीप प्रज्ञापना- प्रज्ञप्ता, एकेन्द्रियाणां पञ्चविधत्वात् , तदेव पञ्चविधत्वमाह-'तंजहे'त्यादि, पृथिवी-काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता प्रज्ञापया: मल- सैय कायः-शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः, खार्थे इकप्रत्ययः, आपो-द्रवास्ताच नापदे एय. वृत्ती. प्रतीता एव ताः काय:-शरीरं येषां तेऽप्कायाः अप्काया एवाप्कायिकाः, तेजो-वह्निः तदेव कायः-शरीरं येषां ते केन्द्रिय॥ २४ ॥ तेजस्काया तेजस्काया एव तेजस्कायिकाः, वायुः-पवनः स एव कायो येषां ते वायुकायाः वायुकाया एच वायुका-IN यिकाः, बनस्पतिः-लतादिरूपः स एव काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः वनस्पतिकाया एव वनस्पतिका (सू.१०) |यिकाः । इह सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः पृथिवीकायिकानां प्रथममुपादानं, तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितत्वादप्कायिकानां, अप्कायिकाथ तेजःप्रतिपक्षभूतास्तत्तदनन्तरं तेजस्कायिकानामुपादानं, तेजश्च वायुसम्पर्कतः प्रवृद्धिमुपयाति तत (सू.११) ISI एतदनन्तरं वायुकायिकग्रहणं, वायुध दूरस्थितो वृक्षशाखादिकम्पनतो लक्ष्यते ततस्तदनन्तरं वनस्पतिकायिकोपा-15॥ दानं ॥ सम्प्रति पृथिवीकायिकमनवबुध्यमानस्तद्विषयं शिष्यः प्रश्नं करोति| से किं तं पुढविकाइया, पुढविकाइया दुविहा पण्णचा, तंजहा-सुहुमपुडविकाइया य वादरपुढविकाइया य । (सू० ११) अघ के ते पृथिवीकायिकाः, सूरिराह-पृथिवीकायिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकाधिकाथा ॥ २४ ॥ बादरपृथिवीकायिकाच, सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माः बादरनामकर्मोदयाद्वादराः, कर्मोदयजनिते खल्वेते सूक्ष्मबादरत्वे नापेक्षिके बदरामलकयोरिव, सूक्ष्माश्च ते पृथिवीकायिकाश्च सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, चशब्दः खगतपर्या अनुक्रम [१९] | अत्र पृथ्विकाय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~ 52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२०] प्र. ५. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दार [-], मूलं [११] पदं [१], उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सापर्यासभेदसूचकः, बादराश्च ते पृथिवीकायिकाश्च वादरपृथिवीकायिकाः, अत्रापि चशब्दः शर्करवालुकादिभेदसूचकः, तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः समुद्गकपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत्सकललोकव्यापिनो, बादराः प्रतिनियतदेशचारिणः, तच्च प्रतिनियतदेशचारित्वं द्वितीयपदे प्रकटयिष्यते ॥ तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां स्वरूपं जिज्ञासुरिदमाह- से किन्तं सुहुमढविकाइया १, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तसुडुमपुढविकाइया य अपचसुहुमपुढविकाइया य, से तं सुहुमपुढविकाइया । ( स. १२ ) अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः १, सूरिराह-सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा- पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाञ्चापर्यातसूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च तत्र पर्याप्तिर्नाम आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयादुपजायते, किमुक्तं भवति ? - उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतः तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेषः आहारादिपुद्गलख लर सरूपताऽऽपादान हेतुर्यथोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखल र सरूपतापरिणमनहेतुः, सा च पर्याप्तिः पोढा आहारपर्याप्सिः शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिर्भाषापर्याप्तिर्मनः पर्याप्तिश्च तत्र यया वाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः, यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जा शुक्रलक्षणससधातुरूपतया For Parts Only ~ 53~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. --------.. -..-- उद्देशक: -]. ----------------- दारं [-], .............-- मुलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती. सूत्रांक [१२] ॥२५॥ दीप परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः, यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः, १ प्रज्ञापतथा चायमर्थोऽन्यत्रापि भङ्ग्यन्तरेणोक्ता, पञ्चानामिन्द्रियाणां प्रायोग्यान् पुगलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिवर्तितेन नापदे सूवीर्येण तद्भावनयनशक्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरिति, यया पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यान् पुद्गलानादायोच्छ्वासरूपतया परिणम क्ष्मपृथ्वी कायपु. य्यालम्च्य च मुञ्चति सा उच्छासपर्याप्तिः, यया तु भाषाप्रायोग्यान पुद्गलानादाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्च्य च (सू.१२) मुञ्चति सा भाषापर्यासिः, यया पुनर्मनःप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मन:पर्यासिः, एताच यथाक्रममेकेन्द्रियाणां संज्ञिवर्जानां द्वीन्द्रियादीनां सजिनां चतुःपञ्चषट्सङ्ख्या भवन्ति, उक्तं च । प्रज्ञापनामूलटीकाकृता-“एकेन्द्रियाणां चतस्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च सजिना पट" इति, उत्पत्तिप्रथमसमय एव | एता यथायथं सर्वा अपि युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते, क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति, तद्यथा-प्रथममाहारपर्याप्तिस्ततः18 शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि, आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पत्तिमुपपद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तर्मु-18 न कालेन, अथाहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यते इति कथमवसीयते ?, उच्यते, यत आहारपदे द्वितीयोद्देशके सूत्रमिदम्-आहारपजत्तिए अपज्जत्तए णं भंते ! किं आहारए अणाहारए ?, गोयमा ! नो आहारए अणाहारए ॥२५॥ इति. तत आहारपर्याप्त्याऽपर्याप्सो विग्रहगतावेयोपपद्यते, नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रमागतस्य प्रथमसमय एवाहारकत्वात् , तत एकसामयिकी आहारपर्याप्तिनिवृत्तिः, यदि पुनरुपपातक्षेत्रमागतोऽप्याहारपर्याप्त्याऽपर्याप्तः अनुक्रम [२१] स Santaura n d murary.org ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [२१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दार [-], मूलं [१२] पदं [१], उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः स्यात् तत एवं सति व्याकरणसूत्रमित्थं भवेत् -"सिय आहारए सिय अणाहारए' यथा शरीरादिपर्याप्तिपु 'सिय आ हारए सिय अणाहारए" इति, सर्वासामपि च पर्यातीनां परिसमाप्तिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ता "अश्रादिभ्य' इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः, पर्याप्तकाश्च ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च पर्याप्तकसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, चशब्दो लब्धिपर्याप्तकरणपर्याप्त रूपवगत भेदद्वयसूचकः, ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमातिविकलास्तेऽपर्या साः अपर्याप्ताश्च ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्चापर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, चशब्दः करणलब्धिनिबन्धनस्वगतभेदद्वयसूचकः, तथाहि - द्विविधाः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्तास्तद्यथा-लब्ध्या करणैश्च तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो म्रियन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निर्वर्त्तयन्ति अथचावश्यं निर्वर्त्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः, उपसंहारमाह- 'सेत' मित्यादि, त एते सूक्ष्मपृथिवी कायिकाः ॥ तदेवं सूक्ष्मपृथिवीकायिकानभिधाय सम्प्रति बादरपृथिवीकायिकानभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह से किं तं बादरपुढचिकाइया ?, बादरपुढविकाइया दुविहा पनचा, तंजहा सण्हबादरपुढविकाइया य खरबादरपुढविका(इया य (सू. १३) अथ के ते वादरपृथिवीकायिकाः १, सूरिराह - पादरपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाच खरवादरपृथिवी कायिकाच, तत्र श्लक्ष्णा नाम चूर्णितलोष्ठकल्पा मृदुपृथिवी तदात्मका जीवा अध्युपचा For Parts Only ~55 ~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१]. --------...-...--- उद्देशक: [-]. ------------------ दारं [-], ...........-- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ese प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१३] E २६॥ दीप अनुक्रम [२२] रतः श्लक्ष्णास्ते च ते वादरपृथिवीकायिकाश्च श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, अथवा श्लक्ष्णा च सा बादरपृथिवी च २ सा १ प्रज्ञापकायः-शरीरं येषां ते श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायाः त एव स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात् श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, चशब्दो नापदे श्लवक्ष्यमाणस्वगतानेकभेदसूचकः, खरा नाम पृथिवीसङ्घातविशेष काठिन्यविशेष चापना तदात्मका जीवा अपि खरा क्ष्णपृथ्वी. |स्ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरवादरपृथिवीकायिकाः, अथवा पूर्ववत्प्रकारान्तरेण समासः, चशब्दः खगतषक्ष्यमाणचत्वारिंशद्भेदसूचकः॥ से किं तं सहबायरपुढचिकाइया ?, सहबायरपुढविकाइया सत्चविहा पन्नता, तंजहा-किण्हमत्तिया नीलमत्तिया लो-11 हियमत्तिया हालिहमत्तिया सुकिल्लमत्तिया पाण्डुमत्तिया पणगमत्तिया, सेत्तं साहबादरपुढविकाइया । (स. १४). अथ के ते श्लक्षणवादरथिवीकायिकाः, सरिराह-श्शक्षणवादरपृथिवीकायिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तदेव सप्तवि-1 धत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति, कृष्णमृत्तिकाः-कृष्णमृत्तिकारूपा एवं नीलमृत्तिका लोहितमृत्तिका हारिद्रमृत्तिका शुक्लमृत्तिकाः, इत्थं वर्णभेदेन पञ्चविधत्वमुक्तं, पाण्डुमृत्तिका नाम देशविशेपे या धूलीरूपा सती पाण्डू इति प्रसिद्धा, ISI तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात् पाण्डुमृत्तिकेत्युक्ताः, 'पणगमट्टियत्ति' नद्यादिपूरप्लाविते देशे नद्यादिपूरेऽपगते यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो जलमलापरपर्यायः पङ्कः स पनकमृत्तिका तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात्पनकमृत्तिकाः, निगमनमाह-सेत्तं सहवायरपुढविकाइया, सुगमम् ॥ ॥२६ ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-1, ---------------- दारं [-1, --- ------- मूलं [१५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] गाथा: से कि तं खरवायरपुढविकाइया ?, खरवायरपुढविकाइया अणेगविहा पण्णता, तंजहा-पुढवी य सकरा वालुया य उवले || [सिला य लोणूसे । अय तंब तय सीसय रुष्प सुषन्ने य वइरे य १४ ॥१॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले । अन्मपडलन्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा ८॥२॥ गोमेजए य रुपए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इन्दनीले य९॥३॥ चंदण गेरुय हंसगब्भ पुलए सोगन्धिए य बोद्धच्चे | चन्दप्पमवेरुलिए जलकंते सरकते य९॥४॥४०॥ 18 जेयावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुषिहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपञ्जत्तगा य, तत्थणं जे ते अपजत्चगा ते णं असंपत्ता | तत्थ णं जे ते पजत्तगा एतेसिं वन्नादेसेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, सझे आई जोणिप्पमुहसत| सहस्साई, पजत्तगणिस्साए अपजत्तमा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असखेजा, से सं खरवायरपुढविकाइया, से वायर| पुढविकाइया, सेनं पुढविकाइया। (मू०१५) __अथ के ते खरवादरपृथिवीकायिकाः १, सूरिराह-खरवादरपृथिवीकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, चत्वारिंश झेदा मुख्यतया प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, तानेव चत्वारिंशद्भेदानाह-'तंजहा पुढवी य'इत्यादि गाथाचतुष्टयं, पृथिवीति |भामा सत्यभामावत् शुद्धपृथिवी च नदीतटभित्त्यादिरूपा, चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुचये १ शर्करा-लघूपलशकलरूपा २ वालुका-सिकताः ३ उपलः-टकाधुपकरणपरिकर्मणायोग्यः पाषाणः ४ शिला-घटनयोग्या देवकुलपीठाधुपयोगी महान् पापाण विशेषः ५ लवणं-सामुद्रादि ६ ऊषो-यद्वशादूपरं क्षेत्रम् ७ अयस्तामत्रपुसीसकरूप्यसुव aso900000000000000000 दीप अनुक्रम [२४-२९] Sectro Santaratinidio ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [११] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत १ प्रज्ञापनापदे खरपृथ्वी सूत्रांक [१५] काय. गाथा: प्रज्ञापना- नि प्रतीतानि १३ बज्रो-हीरकः १४ हरितालहिङ्गुलकमनःशिलाः प्रतीताः १७ सासगं-पारदः १८ अञ्जनं- याः मल सौवीराअनादि १९ प्रवालं-विद्रुमः २० अभ्रपटलं-प्रसिद्धम् २१ अभ्रवालुका-अभ्रपटलमिश्रा वालुका २२ 'वायरकाये यवृत्ती. इति बादरपृथिवीकायेऽमी भेदा इति शेषः, मणिविहाणा'इति चशब्दस्य गम्यमानत्वान्मणिविधानानि च-मणिभेदाश्च बादरपृथिवीकायभेदत्वेन ज्ञातव्याः। तान्येव मणिविधानानि दर्शयति-'गोमिज्जए'इत्यादि, गोमेजकः २३ चः समुचये रूचकः २४ अङ्क: २५ स्फटिकः २६ चः पूर्ववत् लोहिताक्षः २७ मरकतः २८ मसारगलुः २९ भुजमो-1 चक: ३० इन्द्रनीलश्च ३१ चन्दनो ३२ गैरिको ३३ हंसगर्भः ३४ पुलकः ३५ सौगन्धिकश्च ३६ चन्द्रप्रभो ३७ वैडूर्यो ३८ जलकान्तः ३९ सूर्यकान्तश्च ४०, तदेवमाद्यगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदा उक्ताः, द्वितीयगाथयाष्टी हरितालादयः, तृतीयगाथया गोमेज्जकादयो नव, तुर्यया गाथया नवेति सङ्ख्यया चत्वारिंशत् ४०, 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा मणिभेदाः-पद्मरागादयस्तेऽपि खरवादरपृथिवीकायत्वेन वेदितव्याः 'ते समासओ'इत्यादि, 'ते' सामान्यतो बादरपृथिवीकायिकाः 'समासतः' सङ्केपेण द्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाच, तत्र येऽपर्याप्तकाते खयोग्याः पर्याप्सीः साकल्येनासंप्राप्ता अथवाऽसंप्राप्ता इति-विशिष्टान् वर्णादी ननुपगताः, तथाहि-वर्णादिभेदविवक्षायामेते न शक्यन्ते कृष्णादिना वर्णभेदेन व्यपदेष्टुं, किं कारणमिति चेद्, 18 उच्यते, इह शरीरादिपर्यासिषु परिपूर्णासु सतीषु वांदराणां वर्णादिविभागः प्रकटो भवति नापरिपूर्णासु, ते चाप दीप अनुक्रम [२४-२९] ॥ २७॥ For P OW ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) ཝཱ + རྫལླཱ ཡྻ 骂 [२४-२९] “प्रज्ञापना” पदं [१], उद्देशक: [-], मूलं [१५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) दारं [-] Education an यता उच्छासपर्याप्त्याऽपर्याप्ता एव म्रियन्ते, ततो न स्पष्टतरवर्णादिविभाग इत्यसंप्राप्ता इत्युक्तं, ननु कस्मादुच्छ्वासपर्याप्त्यैवापर्याता म्रियन्ते नार्वाक् शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यामपर्याप्ता अपि ?, उच्यते यस्मादागामिभवायुर्वद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनो नावद्धा, तच शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायाति नान्यथेति, अन्ये तु व्याचक्षते - सामान्यतो वर्णादीनसंप्राप्ता इति, तच न युक्तं, यतः शरीरमात्रभाविनो वर्णादयः शरीरं च शरीरपर्याप्त्या सतमिति । 'तत्थ णं जे ते पञ्चत्तगा' इत्यादि, तत्र ये ते पर्याप्तकाः- परिसमाप्तखयो ग्यसमस्त पर्याप्तयः, एतेषां 'वर्णादेशेन' वर्णभेदविवक्षया एवं गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन 'सहस्राग्रश: ' सहस्रसङ्खवया विधानानि भेदाः, तद्यथा-वर्णाः कृष्णादिभेदात्पञ्च गन्धौ सुरभीतरभेदाद्वौ रसाः तिक्तादयः पञ्च स्पर्शा मृदुकर्कशादयोऽष्टी, एकैकस्मिंश्च वर्णादी तारतम्यभेदेनानेकेऽवान्तरभेदाः, तथाहि - भ्रमरकोकिलकज्जलादिषु तरतमभावात् कृष्णकृष्णतरकृष्णतमेत्यादिरूपतया अनेके कृष्णभेदाः, एवं नीलादिष्वप्यायोज्यं, तथा गन्धरसस्पर्शेष्यपि, तथा परस्परं वर्णानां संयोगतो धूसरकरत्वादयोऽनेकसङ्ख्या भेदाः, एवं गन्धादीनामपि परस्परं गन्धादिभिः समायोगाद्, अतो भवन्ति वर्णाद्यादेशैः सहस्राग्रशो भेदाः, 'सतेजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई ति सङ्खधेयानि योनिप्रमुखाणि -- योनिद्वाराणि शतसहस्राणि, तथाहि एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्शे च संवृता योनिः पृथिवीका विकानां सा पुनस्त्रिधा - सचित्ता अचिता मिश्रा च, पुनरेकैका त्रिधा - शीता उष्णा शीताष्णा, शीतादीनामपि प्रत्येकं तारतम्यभेदादनेकभेदत्वं केवलमेवं विशि For Praise Only ---------------- ~59~ nary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [११] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मज्ञापना PH. सूत्रांक य० वृत्ती. [१५] ॥२८॥ गाथा: टवर्णादियुक्ताः सङ्ख्यातीता अपि खस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयो जातिमधिकृत्यैकैव योनिर्गण्यते, ततः सङ्खयेयानि १ प्रज्ञापपृथिवीकायिकानां योनिशतसहस्राणि भवन्ति, तानि च सूक्ष्मवादरगतसर्वसङ्ख्यया सप्त, 'पज्जत्तगनिस्साए'इत्यादि, नापदे खपर्याप्तकनिश्रयाऽपर्याप्तका व्युत्क्रामन्ति-उत्पद्यन्ते, कियन्त इत्याह-यत्रैकः पर्याप्तकसत्र नियमात्तन्निश्रयाऽसङ्खये- रपृथ्वी. या:-सङ्गयातीता अपर्याप्तकाः, उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि निगमनत्रयं सुगमम् ॥ तदेवमुक्ताः पृथिवीकायिकाः, सम्प्रत्यपकायिकप्रतिपादनार्थमाह अप्काय • से किं तं आउकाइया, आउकाइया दुविहा पण्णता, तंजहा-सुहुमआउकाइया य बादरआउकाइया य । से किं तं सुहुमाउ- (सू.१६) काइया, मुहुमाउका० दुविहा पत्रचा, तंजहा-पजत्तसुहुमाउकाइया य अपज्जत्तमुहुमआउकाइया य, सेत्तं सुहुमआउकाइया । से किं तं बादराउकाइया',२ अणेगविहा पत्रचा, तंजहा-उस्सा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए सीतोदए उसिणोदए खारोदए खट्टोदए अम्बिलोदए लवणोदए वारुणोदए खीरोदए घओदए खोतोदए रसोदए, जे यावने तहप्पगारा ते समासओ विहा पण्णत्ता तं०-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पजत्तमा एतेसि वण्णादेपा सेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेजाई जोणिप्पमुहसयसहसाई, पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा। वकर्मति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखिजा, से तं बादरआउकाथिया, सेतं आउकाइया (सू०१६). | सुगमम् , 'उस्सा' इत्यवश्यायः हः 'हिम'स्त्यानोदकं 'महिका' गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षः करको-घनोपलः हरतनुर्यो भुवमुद्भिद्य गोधूमाङ्कुरतृणाग्रादिषु बद्धो बिन्दुरुपजायते 'शुद्धोदकं' अन्तरिक्षसमुद्भवं नद्यादिगतं च, तच स्पर्शरसादि-15 दीप अनुक्रम [२४-२९] anandurary.orm अत्र अप्काय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [१], ................-- उद्देशक: -,----------------- दार [-], --------------- मूल [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] भेदादनेकभेदं, तदेवानेकभेदत्वं दर्शयति-शीतोदक' नदीतडागावटयापीपुष्करिण्यादिपु शीतपरिणामं 'उष्णोदका स्वभावत एव क्वचिन्निर्झरादाबुष्णपरिणामं 'क्षारोदक' ईपलवणखभावं यथा लाटदेशादी के चिदवटेषु 'खट्टोदकम्' ईषदम्लपरिणामं 'अम्लोदकं' खभावत एवाम्लपरिणाम काजिकवत् लवणोदकं लवणसमुद्रे वारुणं वारुणसमुद्रे क्षीरोदकं क्षीरसमुद्रे क्षोदोदकं इक्षुसमुद्रे रसोदकं पुष्करवरसमुद्रादिपु, येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः-रसस्पर्शादिभेदभिन्ना घृतोदकादयो बादरा अप्कायिकाः ते सर्वे चादराप्कायिकतया प्रतिपत्तव्याः, ते समासओ इत्यादि प्राग्वत् , नवरं सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि इत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि ॥ उक्ता अप्कायिकाः, सम्प्रति तेजस्कायिकान् प्रतिपिपादयिपुराह से किं तं तेऊकाइया?, २ दुविहा पन्नता, तंजहा-सुहमतेऊकाइया य बादरतेऊकाइया य । से किन्तं सुहुमतेऊकाइया, २ दुविहा पन्नता, संजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, सेत्तं सुहुमतेऊकाइया । से किं तं बादरतेऊकाइया',२ अणेगविहा पण्णत्ता, जहा-इङ्गाले जाला मुम्मुरे अच्ची अलाए सुद्धागणी उका विजू असणी णिग्याए संघरिससमुट्टिए सूरकन्तमणिणिस्सिए, जे यावन्ने वहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णता, तं-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्व गंजे ते पजत्तमा एएसिणं वनादेसेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई सद्देआई जोणिप्पमुहसयसह8|स्साई, पजत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखिजा, सेनं चादरतेऊकाइया, से तेउकाइया सू०१७ दीप अनुक्रम [३०] SAREmiratna onasurary.com अत्र तेउकाय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥२९॥ [१७] सुगम, नवरमगारो-विगतधूमः 'ज्वाला' जाज्वल्यमानखादिरादिज्वाला अनलसम्बद्धा दीपशिखेत्यन्ये 'मुर्मुर १ प्रज्ञापकुम्फकादी भसमिश्रितामिकणरूपः 'अर्चिः' अनलाप्रतिवद्धा ज्याला 'अलातं' उल्मुकं 'शुद्धाग्निः' अयःपिण्डादौ नापदे ते'उल्का' चुडल्ली विद्युत् प्रतीता 'अशनिः' आकाशे पतन् अग्निमयः कणः निर्घातो-क्रियाशनिप्रपातः सर्षसमुत्थि- | जस्काय. त:-अरण्यादिकाष्ठनिर्मथनसमुद्भूतः सूर्यकान्तमणिनिसृतः-सूर्यखरकिरणसम्पर्क सूर्यकान्तमणेर्यः समुपजायते, 'जे (सू. १६) यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः-एवंप्रकारास्तेजस्कायिकास्तेऽपि बादरतेजस्कायिकतया वेदि | वायुकाय. तव्याः, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वत् , नवरमत्रापि सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि सप्स वेदितव्यानि ॥ उक्ताः तेजस्कायिकाः, वायुकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किन्तं बाउकाइया , २ दुषिहा पत्रचा, तंजहा-मुहमवाउकाइया य पादरवाउकाइया य । से किन्तं सुहुमवाउकाइया , २ दुविहा पण्णचा, तंजहा-पजत्तगमुहुमवाउकाइया य अपज्जत्तगसुहुमवाउकाइया य, सेनं सुहमवाउकाइया । से किन्तं बादर-1 वाउकाइया', २ अणेगविहा पण्णत्ता, संजहा पाइणवाए पडीणवाए दाहिणवाए उदीणवाए उहुवाए अहोवाए तिरियवाए। विदिसीवाए बाउन्मामे बाउकलिया वायमंडलिया उकलियावाए मंडलियावाए गुंजावाए झंझावाए संवट्टवाए घणवाए तणुवाए । सुद्धवाए, जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पत्रचा, तंजहा-पञ्जतगाय अपजत्तगाय, तत्थ पंजे ते अपजत्तमा ते णं ॥२९॥ असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पजत्तगा एतेसिणं वण्णादेसेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेजाई अनुक्रम JanEaratha FridaIMAPIVAHauWORK INHETamurg अत्र वायकाय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [३२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दार [-], मूलं [१८] पदं [१], उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जोणिप्पमुहसयसहस्साई, पजत्तगनिस्साए अपजत्तया वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज, से तं बादरवाउकाइया, से तं वाउकाइया ( सू० १८ ) प्रतीतं, नवरं 'पाईणवाए' इति यः प्राच्या दिशः समागच्छति वातः स प्राचीनवातः एवमपाचीनवातः दक्षिणवातः उदीचीनवातश्च वक्तव्यः, ऊर्ध्वमुद्गच्छन् यो वाति वातः स ऊर्ध्ववातः, एवमधोत्राततिर्यग्वातावपि परिभावनीयौ, 'विदिग्वातो' यो विदिग्भ्यो वाति 'वातोद्रामः' अनवस्थितवातः वातोत्कलिका - समुद्रस्येव वातोत्कलिका 'वातमण्डली' वातोली 'उत्कलिकावात' उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रितो यो वातो 'मण्डलीकावातो' मण्डलिकाभिर्मूलत आरभ्य प्रचुरतराभिः समुत्थो यो बातः 'गुआवातो' यो गुञ्जन् शब्दं कुर्वन् वाति 'झन्झावातः सवृष्टिरशुभनिष्ठुर इत्यन्ये, 'संवर्त्तकवातः' तृणादिसंवर्तनखभावः 'घनवातो' धनपरिणामो रत्नप्रभा पृथिव्याद्यधोवर्त्ती 'तनुवातो' बिरलपरिणामो घनवातस्याधः स्थायी 'शुद्ध वातो' मन्दस्तिमितो बस्तिदृत्यादिगत इत्यन्ये, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वत्, अत्रापि सङ्घपेयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि सप्तावसेयानि ॥ उक्ता वायुकायिकाः, सम्प्र|तिवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं वणस्सइकाइया ?, वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - सुहुमवणस्सइकाइया य बायरवणस्सइकाइया य (सू०१९) से किन्तं सुहुमवणस्सइकाइया १, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-पअत्तगमुहुमवणस्सइकाइया य अपजत्तग सुडुमवणस्सइकाइया य, अत्र वनस्पतिकाय जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते For Parts Only ~63~ org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं ।-, ---------------- मूलं [१९-२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२२] याः मल वृत्ती. य० २२) गाथा: से सहमवणस्सहकाहया (मु०२०) से किन्तं चादरवणस्सइ०१,२ दुविहा पन्नता, तंजहा-पत्तेयसरीरवादरवणस्सइ० साहा १प्रज्ञापरणस० बादरवणस्सइ० (मू० २१) से किन्तं पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइया', २ दुवालसविहा पनत्ता, तंजहा-रुक्खा गुच्छा। नापदे - गुम्मा लता य बल्ली य पञ्चगा चेव । तणवलयहरियओसहिजलरुहकुणा य योद्धया ॥१॥ (सू०२२) नस्पति. । सुगमं यावत् 'सेत्तं मुहुमवणस्सइकाइया, "से किन्त'मित्यादि, अथ के ते बादरवनस्पतिकायिकाः१, २ द्विविधाः (सू. १९ २०-२१ प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाश्च साधारणशरीरवादरवनस्पतिकायिकाच, तत्रैकमेकं जीवं प्रति गतं प्रत्येकं प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः तेच ते वादरवनस्पतिकायिकाश्च प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः, चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः, समानं-तुल्यं प्राणापानाधुपभोगं यथा भवति एवमा-समन्तादेकीमावेनानन्तानां| जन्तूनां धारणं-सङ्ग्रहणं येन तत्साधारणं साधारणं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः ते च ते बादरवनस्पतिकायिकाश्च साधारणवादरवनस्पतिकायिकाः, चशब्दोऽत्रापि खगतानेकभेदसूचकः । 'से किन्त' मित्यादि, अथ के ते प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-11 |'रुक्खे'सादि, 'वृक्षाः' चूतादयः 'गुच्छा' वृन्ताकीप्रभृतयः 'गुल्मानि' नवमालिकाप्रभृतीनि 'लताः' चम्पकलता-1 दयः, इह येषां स्कन्धप्रदेशे विवक्षितोर्ध्वगतेकशाखाव्यतिरेकेणाऽन्यच्छाखान्तरं परिस्थूरं न निर्गच्छति ते लता विज्ञेयास्ते च चम्पकादय इति, 'वल्यः' कूष्माण्डीत्रपुषीप्रभृतयः, 'पर्वगा' इत्यादयः, 'तृणानि' कुशजंजुकाऽर्जुनादीनि दीप अनुक्रम [३३-३७] Santaratinian For P OW ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९-२२] + गाथा दीप अनुक्रम [३८-४२] पदं [१], प्र. ६ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [ २३...] + गाथा: (१२-१४ ) आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित 'वलयानि' केतकीकदल्यादीनि तेपां हि त्वचा वलयाकारेण व्यवस्थितेति, 'हरितानि' तण्डुलीयकवास्तुलप्रभृतीनि 'औषध्यः ' फलपाकान्ताः ते च शाल्यादयः, जले रुहन्तीति जलरुहाः- उदकावकपनकादयः 'कुहणा' भूमिस्फोटाभिधानाः ते चाण्कायप्रभृतयः । सेकिन्तं रुक्खा १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - एगडिया य बहुबीयगा य से किं तं एगहिया १, २ अणेगविहा पन्नत्ता, तंजा --- 'णिबंबजंबुकोसंबसालअंकुछ पीलु सेलू य । सल्लइमोयहमालय बउल पलासे करंजे य ॥ १२ ॥ पुचंजीवय रिद्वे लिए हरिड य मिलाए । उबेभरिया खीरिणि बोद्ध धायह पियाले ।। १३ ।। पूयनिंबकरओ सुण्डा तह सीसचा य असणे य । पुनागनागरुक्खे सीवण्णि तहा असोगे य ॥ १४ ॥ जे यावण्णे तहप्पगारा, एएसि णं मूलावि असंखेजजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालादि पत्ता पत्तेयजीविया पुण्फा अणेगजीविया फला एगद्विया, से तं एगडिया । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इतिन्यायात् प्रथमतो वृक्षप्रतिपादनार्थमाह-'से किं तमित्यादि, अथ के ते वृक्षाः १, सूरिराह-वृक्षा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा एकास्थिकाश्च बहुबीजकाथ, तत्र फलं फलं प्रति एकमस्थि येषां ते एकास्थिकाः, चशब्दो वक्ष्यमाणखगतानेकभेदसूचकः, तथा प्रायोऽस्थिबन्धमन्तरेणैवमेव फलान्तर्वर्त्तीनि बहूनि बीजानि येषां ते बहुबीजकाः, 'शेषाद्वे' ति कप्रत्ययः, अत्रापि चशब्दो वक्ष्यमाणखगतानेकभेदसूचकः ॥ तत्रैकास्थिकप्रतिपादनार्थमाहअथ के ते एकास्थिकाः १, २ अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- 'णिबंबे'त्यादि गाथात्रयं तत्र निम्वाग्रजम्बुकोश For Palsta Use On ~65~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९-२२] + गाथा दीप अनुक्रम [३८-४२] पदं [१], प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. 8 8 ॥ ३१ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दारं [-], मूलं [२३...] + गाथा: (१२-१४) आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः स्वाः प्रतीताः शालः-सर्जः 'अङ्कोल' त्ति अङ्कोठः प्राकृतत्वात्सूत्रे ठकारस्य छादेशः, 'अङ्कोठे ल' इति वचनात्, पीलु:प्रतीतः शेलुः- श्लेष्मातकः सल्लकी - गजप्रिया मोचकीमालुको देशविशेषप्रतीतौ बकुलः - केसरः पलाशः - किंशुकः करञ्जो - नक्तमालः पुत्रजीवको - देशविशेषप्रसिद्धः अरिष्टः- पिचुमन्दः विभीतकः - अक्षः हरीतकः - कोङ्कणदेशप्रसिद्धः कषायवहुलः भल्लातको यस्य महातकाभिधानानि फलानि लोकप्रसिद्धानि उम्बेभरिकाक्षीरणीधातकीप्रियालपूति(निम्ब) करञ्जश्लक्ष्णाशिंशपाऽशन पुन्नागनाग श्रीपर्ण्यशोका लोकप्रतीताः । 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः - एवंप्रकारास्तत्तद्देशविशेषभाविनः ते सर्वेऽप्येकास्थिका वेदितव्याः, एतेषाम् - एकास्थिकानां मूलान्यप्यसङ्घषेयजीव कानि-असङ्ख्येयप्रत्येकशरीरजीवात्मकानि एवं कन्दा अपि स्कन्धा अपि त्वचोऽपि शाखा अपि प्रवाला अपि प्रत्येकमसङ्घयेयप्रत्येक शरीरजीवकाः, तत्र मूलानि यानि कन्दस्याधस्ताद् भूमेरन्तः प्रसरन्ति तेषामुपरि कन्दास्ते च लोकप्रतीताः, स्कन्धाः स्थुडाः, त्वचः - छल्लयः शाला:- शाखाः प्रबालाः - पलवाङ्कुराः 'पत्ता पत्तेयजीवय'त्ति पत्राणि प्रत्येकजीविकानि-एकैकं पत्रमे (कै) केन जीवेनाधिष्ठितमिति भावः, 'पुप्फा अणेगजीविय' ति पुष्पाण्यनेकजीवानि, प्रायः प्रतिपुष्पपत्रं जीवभावात्, फलान्येकास्थिकानि, उपसंहारमाह-' से तं एगट्टिया' सुगमं ॥ बहुवीजकप्रतिपादनार्थमाह For Parts On ~66~ १ प्रज्ञापनापदे बा दरपुत्ये कवन. (सू. २३) ॥ ३१ ॥ way org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-1, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१५-१७) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] से किं तं बहुबीयगा ?, बहुवीयगा अणगविहा पं० त०-अत्थिय तेंदु कविढे अंबाडगमाउलिंग बिल्ले या। आमलग फणिस दालिम आसोठे उंबर बडे य ॥१५।। णग्गोह गदिरुक्खे पिप्परी सयरी पिलुक्खरुक्खे य । काउंवरि कुत्धुंभरि बोबा देवदाली य ॥१६॥ तिलए लउए छत्तोह सिरीस सत्तवन्न दहि बन्ने । लोद्धवचंदणज्जुणणीमे कुडए कयंबे या॥१७॥ जे यावन्ने तहप्पगारा, एतेसि णं मूलावि असंखेजजीविया कंदावि खंधावि सालावि पत्ता पत्तेयजीविया पुण्फा अणेगजीविया फला बहुवीयगा । से तं बहुबीयगा, से तं रुक्खा । अथ के ते बहुबीजकाः १, सूरिराह-बहुबीजका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'अत्थिये'त्यादि गाथात्रय, एते IIच अर्थिकतिन्दुककपित्थअम्बाडकमातुलिबिल्वामलँकपनसदाडिमअश्वत्थउदुम्बरवटैन्यग्रोधनन्दिवृक्षपिप्पलीशत-1 रीप्लक्षकादुम्बरिकुस्तुम्मैरिदेवदालिसिलकैलयकच्छेत्रोपगशिरीषससर्पर्णदधिर्णलोद्रे (ड)धर्वचन्दनोर्जुननीपकुटैजकद-1 सम्बकानां मध्ये केचिदतिप्रसिद्धाः केचिद्देशविशेषतो वेदितव्याः, नवरमिहामलकादयो न लोकप्रसिद्धाः प्रतिपत्तव्याः, तेषामेकास्थिकत्वात्, किन्तु देशविशेषप्रसिद्धा बहुवीजका एव केचन, “जे यावन्ने तहप्पगार'त्ति, येऽपि चान्ये । तथा-प्रकाराः-एवंप्रकारास्तेऽपि च बहुवीजका मन्तव्याः, एतेषामपि मूलकन्दस्कन्धत्वशाखाप्रवालाः प्रत्येकमस-1 हयेयप्रत्येकशरीरजीवकाः, पत्राणि प्रत्येकजीवकानि, पुष्पाण्यनेकजीवकानि, फलानि बहुवीजकानि, उपसंहारमाह-19 सेत्तमित्यादि निगमनद्वयं सुगमं ॥ सम्प्रति गुच्छप्रतिपादनार्थमाह गाथा: दीप अनुक्रम [४२-४६] ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [४६-८१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-] पदं [१], उद्देशक: [-] मूलं [... २३] + गाथा: ( १८-४२ ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ३२ ॥ Jaraton ১৩৬ से किं गुच्छ, गुच्छा अणेगविहा पन्नत्ता, तं वागणिसथुण्डई य तह कत्थुरी य जीमणा । रूबी आढइ गीली तुलसी तह माउलिंगीय || १८|| कच्छुभरि पिप्पलिया अतसी बिल्ली य काइमाईया । बुधू पडोलकंदे विउब्वा वत्थलंदेरे ॥ १९ ॥ पत्तर सीयर हवति तहा जबसए य बोद्धवे । णिग्गुमिअंकतवर अत्थई चैव तलउदाडा ||२०|| सणपाणका समुहग अघाडग साम सिंदुवारे य । करमद्दअद्दह्नसग करीर एरावणमहित्थे ॥२१॥ जाउलगमीलपरिली गयमारिणि कुब्वकारिया भंडा । जीवइ केयह तह गंज पाडलादासिअंकोले ||२२|| जे यावचा तहप्पगारा, सेतं गुच्छा । से किं तं गुम्मा १, गुम्मा अणेगविहा पत्ता, तं० सेणयए णोमालिय कोरंटय बंधुजीवगमणोजे । पिइयं पाणं कणयर कुजय तह सिंदुवारे य ||२३|| जाई मोग्गर तह जूहिया य तह मल्लिया य वासंती । वत्थुल कत्थुल सेवाल गंठी मगदंतिया चेव ||२४|| चंपगजीइ णीइया कुंदो (कन्दो) तहा महाजाई । एवमणेगागारा हवंति गुम्मा मुणेयव्वा, से तं गुम्मा ॥ से किं तं लगाओ ?, लयाओ अणेगविहाओ पन्नताओ, तं० – पउमलया गागलया असोग चंगलया व चूतलता । वणलय वासंतिलया अइमुत्तय कुंदसामलया ।। २५ ।। जे यावने तहप्पगारा, से तं लगाओ ।। से किं तं बल्लीओ ?, बल्लीओ अणेगविहाओ पन्नत्ताओ, ० - सफली कालिंगी तुंबी तउसी य एलवालुंकी। घोसाडह पंडोला पंचंगुलि आयणीली या ॥ २६ ॥ कंगूया कंडा ककोडई कारियलई सुभगा । कुयवाय बागली पाव बल्ली तह देवदाली य ॥ २७ ॥ अष्फेया अहमुत्तगणागलया कण्हसुरवल्ली य | संघट्टसुमणसावि व जासुवण कुविंदवल्ली य ॥ २८॥ मुद्दिय अंबावली किण्हछीरालि जयंति गोवाली । पाणी मासावली जीवल्ली य विच्छाणी ॥ २९ ॥ ससिवी दुगोचफुसिया गिरिकण्ण मालुया य अंजणई । दहिफोछ कागलि मोगली For Palata Use Only ~68~ १ प्रज्ञाप नापदे वादरपुत्ये कवन. (सू. २३) ॥ ३२ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-1, ------------ दारं -1, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१८-४२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] गाथा: Recene य तह अकबोंदी या॥३०॥जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं वल्लीओ।।से किं तं पश्चगा, पञ्चगा अणेगविहा पन्नता, तं०-इक्खू य इक्खुवाडी धीरुणी तह एकडे य मासे य। सुंठे सरेयवेत्ते तिमिरे सतपोरग णले य॥३शावंसे वेच्छू कणए कंकावंसे य चावबसे य। उदए कुडए विसए कंडा वेल्ले य कल्लाणे॥३२॥ जे यावना तहप्पगारा, से तं पञ्चगा ।। से किं तं तणा?, तणा अणेगविहा पन्नत्ता, तं-संडिय मंतिय होतिय दम्भकुसे पच्चए य पोडइला । अज्जुण असाढएरोहियंसे सुयवेयखीरभुसे॥३३शाएरंडे कुरुविंदे करजर सुंठे तहा विभंगू य । महुरतण छुरय सिप्पिय चोद्धचे संकलितणे य ॥३४॥ जे यावचे तहप्पगारा, से तं तणा ।। से कि तं वलया, वलया अणेगविहा पन्नत्ता,ता-ताल तमाले तकलि तोयली साली व सारकत्ताणे । सरले जावति केतह कदली तह धम्मरुक्खे य ॥३५।। मुयरुक्स हिंगुरुक्खे लवंगुरुक्खे य होह बोद्धये । पूयफली खजुरी चोद्धव्वा णालिएरी य॥३६॥जे यावचा तहप्पगारा, से तं बलया।से कि तं हरिया, हरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तं०-अजोरुह वोडाणे हरितग तह तंदुलेजगतणे य । वत्थल पोरग मजारयाइ पिल्ली य पालक्का ॥३७॥ दगपिप्पली य दब्बी सोचिय साए तहेव मंडुकी । मूलग सरिसव अंबिल साएय जियंतए चेव ॥३८॥ तुलस कण्ह उराले फणिजए अजए य भूयणए । वारगदमणग मखरुयग सतपुफीदीवरे य तहा ॥३९|| जे यावना तहप्पगारा, सेनं हरिया।। से किं तं ओसहिओ, ओसहिओ अणेगविहाओ पन्नताओ, तं०साली वीही गोहुम जब जवजवा कलममूरतिलमुग्गमासणि फावकुलत्थआलिसंदसतीणपलिमंधा अयसीकुसुंभकोद्दव कंगूरालगमासकोदंसा सणसरिसवमूलिगवीया, जे यावन्ना तहप्पगारा, से चं ओसहीओ से कितं जलरुहा ?, जलरुहा अणेगविहा पन्नचा, त-उदए अवए पणए सेवाले कलंचुया हढे कसेरुया कच्छभाणी उप्पले पउमे कुमुदे णलिणे सुभए सुगंधिए दीप अनुक्रम [४६-८१] esed ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-1, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१८-४२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती सूत्रांक [२३] ॥३३॥ गाथा: पोण्डरीयए महापुंडरीयए सयपत्ते सहस्सपत्ते कल्हारे कोकणदे अरविंदे तामरसे मिसे भिसमुणाले पोक्खले पोक्खलत्थिभुए, १प्रज्ञापजे यावबा तहप्पगारा, से च जलरुहा।से किं तं कुहुणा ?, कुहुणा अणेगविहा पचत्ता,-आए काए कुहणे कुणके दव्बह- नापदे बालिया सफाए सज्झाए छत्तोए वंसीण हिताकुरए, जे यावन्ना तहप्पगारा, से चं कुहुणा ।। णाणाविह संठाणा रुक्खाणं दरपुत्वेएगजीविया पत्ता। खंधावि एगजीवा तालसरलणालिएरीणं ॥४०॥जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वटिया वि- कवन० ही। पत्तेयसरीराणं तहेति सरीरसंघाया ॥४१ ।। जह वा तिलपप्पडिया पहुएहिं तिलेहि संहता संती । पत्तेयसरीराणं (सू. २३) तह हॉति सरीरसंधाया ॥ ४२ ॥ से तं पचेयसरीरवादरवणफइकाइया । मू०२३॥ एते गुच्छादिभेदाः प्रायः खरूपत एव प्रतीताः, केचिद्देशविशेषादवगन्तव्याः, अत्र वृक्षादिषु यस्सैकस्य नाम | गृहीत्वाऽपरत्रापि तन्नाम गृहीतं तत्रान्यो भिन्नजातीयः सरनामा प्रतिपत्तव्यः, अथवा एकोऽपि कचिदनेकजातीयको भवति, यथा-नालिकेरीतरुरेकास्थिकत्वादेकास्थिकः, त्वचो वलयाकारत्वाच वलयः, ततोऽनेकजातीयत्वादपि | तन्नाम निर्दिश्यमानं न विरुध्यते । साम्प्रतमुक्तानुक्तार्थसंग्रहार्थमिदमाह-'नाणाविहेत्यादि' नानाविध-नानाप्रकारं संस्थान-आकृतियेषां तानि नानाविधसंस्थानानि, 'वृक्षाणा'मिति वृक्षग्रहणमुपलक्षणं, तेन गुच्छगुल्मादीनामपि द्रष्टव्यं, पत्राणि एकजीवकानि-एकजीवाधिष्ठितानि वेदितव्यानि, स्कन्धोऽपि एकजीवाधिष्ठितः, किं सर्वेषामपि ?, नेत्याह-तालसरलनालिकेरीणां, तालसरलनालिकेरीग्रहणमुपलक्षणं, तेनान्येषामपि यथाऽऽगममेकजीवाधिष्ठितत्वं दीप अनुक्रम [४६-८१] AREauratonintnhatkana ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-1, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१८-४२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] स्कन्धस्य प्रतिपत्तव्यं, अन्येषां तु स्कन्धाः प्रत्येकमनेकप्रत्येकशरीरजीवात्मका इति सामर्थ्यादबसेयं, 'खंधावि अणेगजीविया' इति पूर्वमभिधानात् । अथ यदि प्रत्येकमनेकशरीरजीचाधिष्ठितास्ततः कथमेकखण्डशरीराकारा उपलभ्यन्ते इति ?, तदवस्थानखरूपमाह-'जह सगले त्यादि, यथा सकलसर्पपाणां 'श्लेष्ममिश्राणां श्लेष्मद्रव्यविमिश्रितानां वलिता वर्तिरेकरूपा भवति, अथ ते सकलसर्षपाः परिपूर्णशरीराः सन्तः पृथक्खस्वावगाहनयाऽवतिष्ठन्ते 'तथा' अनयेवोपमया प्रत्येकशरीराणां जीवानां शरीरसहाताः पृथक्पृथक्खखावगाहना भवन्ति, बहश्लेषद्रव्यस्थानीयं रागद्वेषोपचितं तथाविधं कर्म सकलसर्षपस्थानीयाः प्रत्येकशरीराः, सकलसर्षपग्रहणं सर्पपवैविक्त्यप्रतिपत्त्या पृथक्खखावगाहकप्रत्येकशरीरवैविक्त्यप्रतिपत्त्यर्थं। अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह-'जह वे'त्यादि, वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसूचने, यथा तिलशष्कुलिका-तिलप्रधाना पिष्टमयी अपूपिका बहुभिस्ति लैमिश्रिता सती यथा पृथक् २ खस्वावगाहतिला|त्मिका भवति कथञ्चिदेकरूपा च 'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसङ्घाताः कथञ्चिदेकरूपाः पृथक्खखावगाहनाच भवन्ति । उपसंहारमाह-सेत्तमित्यादि सुगम ॥ 'सेत्त'मित्यादि सुगम । सम्प्रति साधारणवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाहसे किं तं साहारणसरीरवादरवणस्सइकाइया, साहारणसरीरवादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पन्नता, तं०-अवए पणए सेवाले लोहिणी मिहुत्यु हुत्थिभागा(य)। अस्सकनि सीहकन्नी सिंउढि तनो मुसुंढी य ।। ४३ ।। रुरु कुण्डरिया जीरु छीर गाथा: 200rasasaraeneradorabar दीप अनुक्रम [४६-८१] REaratimallama aurary.com ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-1, ---------- मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना सूत्रांक १प्रज्ञापनापदेसाधारणवन. (सू.२४) [२४] यवृत्ती. गाथा: विराली तहेव किट्टीया । हालिद्दा सिंगबेरे य आतूलुगा भूलए इय ॥४४॥ कंबूयं कन्नुक्कड सुमत्तओ क्लइ तहेव महुसिंगी। नीरुह सप्पसुबंधा छिबरुहा चेव बीयरुहा ॥४५॥ पाढामियबालुंकी महुररसा चेव रायवत्ती य । पउमा माढरि दंतीति चंडी किडीति यावरा॥४६॥ मासपण्णि मुग्गपण्णी जीवियरसहे य रेणुया चेव । काओली खीरकाओली वहा भंगी नहीं इस ॥४७॥ किमिरासि भद मुच्छा जंगलई पेलुगा इय । किण्ह पउले य हढे हरतणुया चेव लोयाणी ॥४८॥ कण्हे कंदे बजे सूरणकंदे तहेच खलूरे । एए अर्णतजीचा जे यावने तहाविहा ॥४९॥ तणमूल कंदमूले, वसीमलेत्ति आवरे । संखिजमसंखिञ्जा, बोद्धवाणंतजीवा य ॥ ५० ॥ सिंघाडगस्स गुच्छो अणेगजीवो उ होइ नायब्बो । पत्ता पत्त्यजीया दोनिय जीवा फले भणिया ॥५१॥जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ । अर्णतजीवे उ से मूले, जे यावन्ने तहाविहा॥५२॥ जस्स कंदस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ । अणंतजीवे उ से कंदे, जे यावन्ने वहाविहा ॥५३॥ जस्स खंधस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसह । अणंतजीवे उ से खंधे, जे यावन्ने तहाविहा ॥५४॥ जीसे तयाए भग्गाए, समो मंगो पदीसए । अणंतजीवा तया सा उ, जे यावने तहाविहा ।।५५।। जस्स सालस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अणतजीवे य से साले, जे यावने तहाविहा ।।५६।। जस्स पवालस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अणंतजीवे पवाले से, जे यावन्ने तहाविहा ।।५७।। जस्स पत्तस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अर्णतजीवे उ से पत्ते, जे यावन्ने तहाविहा ॥५८॥ जस्स पुफस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अर्णतजीवे उ से पुफे, जे यावने तहाविहा ।। ५९ ॥ जस्स फलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अर्णतजीवे फले से उ, जे यावन्ने तहाविहा ।। ६०॥ जस्स बीयस्स भग्गस्स, सभी भंगो पदीसए । अणंतजीवे उ से बीए, जे यावने वहाविहा ।। ६१।। दीप अनुक्रम एeeeeeese [८२ ॥३४॥ SAREnatummitimtana Munmurary.au ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-1, ---------- मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] गाथा: ceaeeeeeeeeeeeeee जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगो(गे) पदीसए । परित्तजीवे उ से मूले, जे यावन्ने तहाविहा॥६२।। जस्स कंदस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उ से कंदे, जे यावन्ने तहाविहा ।।६३।। जस्स खंधस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उसे खंधे, जे यावन्ने तहाविहा॥६४॥ जीसे तयाए भग्गाए, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवा तया साउ,जे यावन्ने तहाविहा ॥६५॥ जस्स सालस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परिचजीवे उ से साले, जे यावन्ने तहाविहा ॥६६॥ जस्स पवालस्स भग्गस्स, हीरोभंगो पदीसए। परित्तजीवे पवाले उ, जे यावने तहाविहा ।।६७।। जस्स पत्तस्स भग्गस्स, हीरो मंगो पदीसए । परित्तजीवे उ से पत्ते, जे यावन्ने तहाविहा ॥६८।। जस्स पुष्फस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उसे पुफे, जे यावन्ने तहाविहा ॥६९॥ जस्स फलस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे फले से उ, जे यावन्ने तहाविहा ||७०।। जस्स बीयस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उसे बीए, जे यावन्ने तहाविहा ।।७१।। जस्स मूलस्स कट्ठाओ, छल्ली बहुलतरी भवे । अणंतजीवा उ सा छल्ली, जे यावने, तहाविहा ।।७२।। जस्स कंदस्स कहाओ, छल्ली चहलतरी भवे । अणंतजीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ने तहाविहा ।।७३।। जस्स खंधस्स कहाओ, छल्ली बहलतरी भवे । अणतजीवा उ सा छाली, जे यावन्ना तहाविहा ||७| जीसे सालाए कहाओ, छल्ली बहलतरी भवे । अणंतजीवा उ सा छल्ली. जे यावना वहाबिहा ||७५।। जस्स मूलस्स कहाओ, छल्ली तणुययरी भवे । परित्तजीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ना तहाविहा ।।७६।। जस्स कंदस्स कहाओ, छल्ली वणुययरी भवे। परिचजीवा उ सा छल्ली, जे यावना तहाविहा ।।७७॥ जस्स खंधस्स कहाओ, छल्ली दीप अनुक्रम [८२ SHARERIEatinuinformal For P OW ~ 73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) ž༞ཡྻོཝཱ ཝཱ + རྫཡྻཱཡྻ प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥ ३५ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तणुययरी भवे । परित्तजीवा उ सा छली, जे यावना तहाविहा ॥७८॥ जीसे सालाए कट्ठाओ, छल्ली तणुययरी भवे । परितजीवा उ सा छछी, जे यावना तहाविहा ।। ७९ ।। ( ० २४ ) 'से किं तमित्यादि, अथ के ते साधारणशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह- साधारणशरीरवादरवनस्प तिकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'अवए' इत्यादि, एते च केचिदतिप्रसिद्धत्वात्केचिद्देशविशेषतः स्वयमवगन्तव्याः । 'जे यावन्ने तहाविहा' इति, येऽपि चान्ये-उक्तव्यतिरिक्तास्तथाप्रकारा उक्तप्रकारास्तेऽपि अनन्तजीया ज्ञातव्याः । 'तणे त्यादि, तृणमूलं कन्दमूलं यच्चापरं वंशीमूलं, एतेषां मध्ये क्वचिज्जातिभेदतो देशभेदतो वा सङ्ख्याता जीवाः कचिदसङ्ख्याता अनन्ताश्च ज्ञातव्याः । 'सिंघाडगस्से'त्यादि, शृङ्गाटकस्य यो गुच्छः सोऽनेकजीवो भवति ज्ञातव्यः, त्वक्शाखादीनामनेकजीवात्मकत्वात्, केवलं तत्रापि यानि पत्राणि तानि प्रत्येकजीवानि, फले पुनः प्रत्येकमेकैकस्मिन् द्वौ द्वौ जीवो भणिती । 'जस्स मूलस्से'त्यादि, यस्य मूलस्य भग्नस्य सतः - समः - एकान्तसदृशरूपः चक्राकारो भङ्गः प्रकर्षेण दृश्यते तन्मूलमनन्तजीवमवसेयं । 'जे यावन्ने तहाविहा' इति, यान्यपि चान्यानि अभग्नानि तथाप्रकाराणि अधिकृत मूलभग्नसमप्रकाराणि तान्यप्यनन्तजीवानि ज्ञातव्यानि । एवं कन्दस्कन्धत्यशाखामवा लपत्रपुष्पफलवीजविषया अपि नव गाथा व्याख्येयाः ॥ सम्प्रति प्रत्येकशरीरलक्षणाभिधानार्थं गाधादशकमाह - Education Internationa For Parts Only ~74~ १ प्रज्ञाप नापदे साधारणवन. (सू. २४) ॥ ३५ ॥ nary org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-], ----------- मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] गाथा: 'जस्से'त्यादि, यस्य मूलस्स भन्मस्य सतो भङ्गे-भङ्गप्रदेशे तु हीरो-विषमच्छेदमुद्दन्तुरं वा अदृश्यते-प्रकर्षण स्पष्टरूपतया लक्ष्यते ततो मूलं 'परित्तजीय' प्रत्येकशरीरजीवात्मकं ज्ञातव्यं, 'जे यावन्ने तहाविहा' इति, यान्यपि चान्यानि भग्नानि तथाप्रकाराणि अधिकृतसहीरभन्नमूलसदृशानि मूलानि तान्यपि प्रत्येकशरीरजीवात्मकानि मन्त-IM व्यानि । एवं कन्दादिविषया अपि नव गाथा भावनीयाः, यत्र कुत्रापि लिङ्गव्यत्ययः स प्राकृतलक्षणादवसेयः ।। अधुना मूलादिगतानां वल्कलरूपाणामनन्तजीवत्वपरिज्ञाना) लक्षणमाह-यस्य मूलस्य काष्ठात्-मध्यसारात् छल्लीवल्कलरूपा बहुलतरा भवति सा अनन्तजीवा ज्ञातव्या, 'जे यावन्ना तहाविह'त्ति याऽपि चाम्या अधिकृतया अनन्तजीवत्वेन निश्चितया छाया समानरूपा छल्ली सापि तथाविधा-अनन्तजीवात्मिका ज्ञातन्या, एवं कन्दस्कन्धशाखाविषया अपि तिस्रो गाथाः परिभावनीयाः, अधुना तासामेव छलीनां प्रत्येकजीवत्वपरिज्ञानाय लक्षणमाह-'जस्स मूलस्से'त्यादि गाथाचतुष्टयं, यस्य मूलस्य काष्ठात्-मध्यसारात् छल्ली-वल्कलरूपा तनुतरा भवति सा 'परित्तजीवा' प्रत्येकशरीरजीवात्मिका द्रष्टव्या, 'जे यावन्ना तहाविहा' इति यापि चान्या अधिकृतया प्रत्येकशरीरजीवात्मकत्वेन नि|श्चितया छखया समानरूपा छली सापि तथाविधा-प्रत्येकशरीरजीवात्मिका अवगन्तव्या, एवं कन्दादिविषया अपि तिस्रो गाथा भावनीयाः॥ यदुक्तम्-'जस्स मूलस्स भग्गस्स समो भको पदीसई' इत्यादि, तदेव लक्षणं स्पष्टं प्रतिपिपादयिपुरिदमाह सररRESERectatoesesese दीप अनुक्रम [८२ ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२५...] + गाथा: (८०-९२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] १ प्रज्ञापनापदे अ. नन्तप्रत्लेकलक्षणं. (सू.२५) गाथा: प्रज्ञापना चक्कागं भजमाणस्स, गंठी चुन्नधणो भवे | पुढविसरिसेण भेएण, अणंतजीव वियाणाहि ॥८०॥ गूढसिरार्ग पत्तं सच्छीर जं याः मल-श च होइ निच्छीरं । जंपिय पणहसन्धि अणंतजीवं वियाणाहि ॥८१।। पुष्फा जलया थलया य बिटबद्धा य नालबद्धा य । य. वृत्ती. संखिजमसंखिआ बोद्धवाऽणतजीवा य ॥८२॥ जे केइ नालियाबद्धा पुष्पा संखिञ्जजीविया भणिया । निहुया अणंतजीवा जे यावन्ने तहाविहा ॥८३॥ पउमुप्पलिणीकंदे अंतरकंदे तहेव झिल्ली य । एए अणंतजीवा एगो जीवो बिसमुणाले ॥४॥ ॥३६॥ पलंड्रल्हसुणकंदे य, कंदली य कुसुंबए । एए परित्तजीवा, जे यावन्ने तहाविहा ।।८५।। पउमुप्पलनलिणाण, सुभगसोगंधियाण य । अरविंदकुंकणाणं, सयवत्तसहस्सपत्ताणं ॥८६॥.बिट बाहिरपत्ता य, कनिया चेव एगजीवस्स । अम्भितरगा पत्ता पत्तेयं केसरा मिजा ।।८७|| वेणुनल इक्खुवाडिय समासइक्खू य इकडे रंटे । करकर सुठि विहंगू तणाण तह पन्चगाणं च ।।८८ अछि पन्वं बलिमोडओ य एगस्स हाँति जीवस्स । पत्तेयं पत्ताई पुष्फाई अणेगजीवाई ॥८९॥ पूसफलं कालिंगं तुंबं तउसेल एलवालुकं । घोसाढय पंडोलं तिंयं चेव तेंदूसं ॥९॥ विंटसमं सकडाई एयाई हवंति एगजीवस्स । पनेयं पत्ताई सकेसरं केसरं मिंजा ।। ९१ ।। सप्काए सज्झाए उव्वेहलिया य कुहणकंदुके । एए अणंतजीवा कंदुके होइ भयणा उ॥१२॥ (सू० २५) 'चकाग'मित्यादि, चक्रक-चकाकारं एकान्तेन समं भङ्गस्थानं यस्य भज्यमानस्य मूलकन्दस्कन्धत्वशाखापत्रपुष्पादेर्भवति तन्मूलादिकमनन्तजीवं विजानीहि इति सम्बन्धः, तथा 'गंठी जुन्नघणो भवे' इति प्रन्थिः पर्व सामान्यतो भास्थानं या स यस्य भज्यमानस्य चूर्णेन-जसा घनो-व्याप्तो भवति ॥ अथवा यस पत्रादेभेज्यमानस्य दीप अनुक्रम [१२०१३२]] ceedeseservestselmelan ॥३६॥ ~76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२५...] + गाथा: (८०-९२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] गाथा: चक्राकारं भकं प्रन्थिस्थाने रजसा व्याप्तिं च विना पृथिवीसशेन भेदेन भास्थानं भवति, सूर्यकरनिकरप्रतप्तकेदारतरिकाप्रतरखण्डस्येव समो भङ्गो मवतीतिभावः तमनन्तकार्य विजानीहि ॥ ८॥ पुनरपि लक्षणान्तरमाह-यत्पत्रं सक्षीरं निःक्षीरं वा गूढशिराक-अलक्ष्यमाणशिराविशेषं यदपि च प्रनष्टसन्धि-सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणपत्रार्द्धद्वयसन्धि तदनन्तजीवं विजानीहि ॥ ८१ ॥ सम्प्रति पुष्पादिगतं विशेषमभिधित्सुराह-पुष्पाणि चतुर्विधानि, तद्यथा-जलजानि-सहस्रपत्रादीनि स्थलजानि-कोरण्टकादीनि, एतान्यपि च प्रत्येकं द्विधा, तद्यथा-कानिचिहृन्तबद्धानि अतिमुक्तकप्रभृतीनि कानिचिन्नालबद्धानि जातिपुष्पप्रभृतीनि, अत्र एतेषां मध्ये कानिचित्पत्रादिगतजीवापेक्षया सञ्जयजीवानि कानिचिदसङ्ख्येयजीवानि कानिचिदनन्तजीवानि यथाऽऽगमं बोद्धव्यानि ॥ ८२॥ अत्रैव कश्चिद्विशेषमाह-यानि कानिचित् नालिकाबद्धानि पुष्पाणि जात्यादिगतानि तानि सर्वाण्यपि सङ्ख्यातजीवकानि भणितानि तीर्थकरगणधरैः, निहु:-लिहूपुष्प (योहरपुष्पं) पुनरनन्तजीवं, यान्यपि चान्यानि निहूपुष्पकल्पानि तान्यपि तथाक्विानि-अनन्तजीवात्मकानि ज्ञातव्यानि ॥ ८३॥ पद्मिनीकन्दः-उत्पलिनीकन्दः, अन्तरकन्दो-जलजवनस्पति[विशेषकन्दः, झिल्लिका-बनस्पतिविशेषरूपा, एते सर्वेऽप्यनन्तजीवाः, नवरं पमिन्यादीनां विसे (नाले) मृणाले च IS किमिति ? (एको जीवः) एकजीवात्मके बिसमृणाले इति भावः ॥८॥ पलण्डुकन्दो लसुनकन्दः कन्दलीकन्दको वनस्पतिविशेषः, कुस्तुम्बकोऽप्येवमेव, एते सर्वेऽपि परित्तजीया' प्रत्येकशरीरजीवात्मकाःप्रतिपत्तव्याः, येऽपि चान्ये दीप अनुक्रम [१२०१३२] म. ७ Jurasurary.com ~77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२५...] + गाथा: (८०-९२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मल- [२५] गाथा: एवंप्रकारा अनन्तजीवात्मकलक्षणविरहितास्तेऽपि तथाविधा:-प्रत्येकशरीरजीवात्मका वेदितव्याः॥८५॥ पद्मानाम् १ प्रज्ञापउत्पलानां नलिनानां सुभगानां सौगन्धिकानां अरविन्दानां कोकनदाना शतपत्राणां सहस्रपत्राणां प्रत्येकं यत् वृन्तं- नापदे साप्रसवबन्धनं यानि च बाबपत्राणि प्रायो हरितरूपाणि या च कर्णिका-पत्राधारभूता एतानि श्रीण्यपि एकजीवा- धारणप्रत्मकानि, यानि पुनरभ्यन्तराणि पत्राणि यानि च केसराणि याश्च मिञ्जाः-फलानि एतानि प्रत्येकमेकैकजीवाधिष्ठि-18 स्येकवितानि ॥८६-८७ ॥ वेणुः-वंशो नड:-तृणविशेषः इक्षुवाटिकादयो लोकतः प्रत्येतव्याः, तृणानि दूर्वादीनि यानि च शेषाः पर्वगानि-पर्वोपेतानि एतेषां यदक्षि यच पर्व यच 'बलिमोडउ'त्ति पर्वपरिवेष्टनं चक्राकारं, एतानि एकजीवस्य सम्ब-18 (सू.२५) धीनि भवन्ति, एकजीवात्मकानि भवन्तीति भावः, पत्राणि एतेषां प्रत्येकमेकजीवाधिष्ठितानि पुष्पाण्यनेकजीवात्म-| कानि ॥८८-८९ ॥ पुष्पफलं एवं कालिङ्गं तुम्बं पुषं 'एलवालु'त्ति चिर्भटविशेषरूपं, वालुकं-चिर्भर्ट, तथा घोषातक पटोलं तेन्दुकं तिन्दुसं च यत्फलं, एतेषु प्रत्येकं वृन्तसमं 'सकडाई' ति समांसं सगिरं तथा कटाह एतानि । त्रीण्येकस्य जीवस्य भवन्ति, एकजीवात्मकान्येतानि त्रीणि भवन्तीत्यर्थः । तथा एतेषामेव पुष्पफलादीनां तिन्दुकपयन्तानां पत्राणि पृथक् 'प्रत्येक' मिति प्रत्येकशरीराधिष्ठितानि, एकैकजीवाधिष्ठितानीत्यर्थः । तथा सकेसरा अकेसरा वा मिजा-बीजानि प्रत्येकमेकैकजीवाधिष्ठितानि ॥९०-९१॥ एते कुहनादिवनस्पतिविशेषा लोकतः प्रत्येतन्याः, एते चानन्तजीवात्मकाः, नवरं कंदुके भजना, स हि कोऽपि देशविशेषादनन्तः-अनन्तजीवात्मको भवति, कोऽप्य दीप अनुक्रम [१२०१३२]] REaamand ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [...२५] + गाथा: (९३-९४) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] गाथा: सङ्खधेयजीवात्मक इति ॥ ९२ ॥ आह-किं बीजजीव एव मूलादिजीवो भवति उतान्यस्तस्मिन्नपक्रान्ते उत्पद्यते । इति परप्रश्नमाशङ्कयाहबीए जोणिम्भूए जीवो वक्कमइ सो व अनो वा । जोऽविय मूले जीवो सोविय पत्ते पढमयाए ।१३।। सबोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ भणिओ । सो चेव विवहृतो होइ परित्तो अणंतो वा ।। ९४॥ बीजे योनिभूते-योन्यवस्था प्राप्ते, योनिपरिणाममजहतीति भावः, बीजस्य हि द्विविधाऽवस्था, तद्यथा-योन्य-| वस्था अयोन्यवस्था च, तत्र यदा बीजं योन्यवस्था न जहाति अथ च उज्झितं जन्तुना तदा तत् योनिभूतमित्यभिधीयते, उज्झितं च जन्तुना निश्चयतो नावगन्तुं शक्यते ततोऽनतिशायिना सम्प्रति सचेतनमचेतनं वा अविध्वस्तयोनि योनिभूतमिति व्यवह्रियते, विध्वस्तयोनि तु नियमादचेतनत्वादयोनिभूतमिति, अथ योनिरिति किमभिधीयते ?, उच्यते, जन्तोरुत्पत्तिस्थानं अविध्वस्तशक्तिक-तत्रस्थजीवपरिणमनशक्तिसम्पन्नमिति भावः, तस्मिन् बीजे योनिभूते जीवो 'व्युत्क्रामति' उत्पद्यते ' स एव' पूर्वको बीजजीवः अन्यो वा आगत्य तत्रोत्पद्यते, किमुक्त। भवति ?-यदा बीजजीवनिर्वर्तकेन जीवेन खायुषः क्षयात् बीजपरित्यागः कृतो भवति, तस्य च बीजस्य पुनरम्बु-18 कालावनिसंयोगरूपसामग्रीसंभवस्तदा कदाचित्स एव प्राक्तनो वीजजीवो मूलादिनामगोत्रे उपनिवध्य बीजे उत्पद्यते-तत्रागत्य परिणमति, कदाचिदन्यः पृथिवीकायिकादिजीवः, 'योऽपि च मूले जीव इति' य एव मूलतया परि दीप अनुक्रम [१३३१३४] Dininesturary.com ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [...२५] + गाथा: (९३-९४) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] प्रज्ञापना- याः मलय० वृत्ती. ॥३८॥ गाथा: णमते जीवः सोऽपि च पत्रे प्रथमतयेति-स एवं प्रथमपत्रतयाऽपि परिणमते इत्येकजीवकर्सके मूलप्रथमपत्रे इति, प्रज्ञापआह-ययेवं 'सवोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ मणिो ' इत्यादि वक्ष्यमाणं कथं न विरुध्यते ?, नापदे वीउच्यते, इह बीजजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तदुत्सूनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरभाविनी किसलयावस्था जाद्यपत्रनियमतोऽनन्ता जीवाः कुर्वन्ति, पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेषु असावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतर्नु खशरीरतया किशलयपरिणमय्य तावद्वर्द्धते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः, अन्ये तु व्याचक्षते-प्रथमपत्रमिह याऽसौ बीजस्य समुच्छ्र स्वरूपं नावस्था, तेन एकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति, किमुक्तं भवति -मूलसमुच्छूनावस्थे एकजीवकर्तृके, एतच निय-18 मप्रदर्शनार्थमुक्तं-मूलसमुच्छूनावस्थे एकजीवपरिणामिते एव, शेषं तु किसलयादि नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावि-1 तमिति, ततः 'सव्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ मणिओ' इत्याद्यपि वक्ष्यमाणमविरुद्धं, मूलसमुच्छूनावस्थानिर्वर्तनारम्भकाले किसलयत्वाभावादिति, आह-प्रखेकशरीरवनस्पतिकायिकानां सर्वकालं शरीरावस्थामधिकृत्य किं प्रत्येकशरीरत्वमुत कस्मिंश्चिदवस्थाविशेषे अगन्तजीवत्वमपि सम्भवति ?, तथा साधारणवनस्पतिकायि-| कानामपि किं सर्वकालमनन्तजीवत्वमुत कदाचित् प्रत्येकशरीरत्वमपि भवति ?, तत आह-सव्वोऽवी'त्यादि, इह ॥३८॥ सर्वशब्दोऽपरिशेषकाची, सर्वोऽपि बनस्पतिकायः प्रत्येकशरीरः साधारणो वा किसलयावस्थामुपगतः सन् अनन्तकायस्तीर्थकरगणधरैर्भणितः, स एव किसलयरूपोऽनन्तकायिकः प्रवृद्धिं गच्छन् अनन्तो वा भवति परीत्तो वा, कथम् ?, दीप अनुक्रम [१३३१३४] ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [...२५] + गाथा: (९३-९४) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] गाथा: उच्यते, कति साधारणं शरीर निर्वय॑ते तदा साधारण एव भवति, अथ प्रत्येकशरीर ततः प्रत्येक इति, कियतः काला प्रत्येको भवति इति चेत्, उच्यते, अन्तर्मुहूर्त्तात्, तथाहि-निगोदानामुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त कालं यावलियतिरुक्का स्तोऽन्तर्मुहूर्तात्परतो विवर्द्धमानः प्रत्येको भवतीति ॥ ९३-९४ ॥ सम्प्रति साधारणलक्षणमाह समयं चकताणं समयं तेसिं सरीरनिवत्ती । समय आणुग्गहणं समयं ऊसासनीसासो ॥ ९५ ॥ इफस्स उजं गहणं बहूण साहारणाण तं चेव । जे बहुयाणं गहणं समासओ तंपि इक्कस्स ॥ ९६ ॥ साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एवं ॥ ९७॥ जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवणिजसंकासो । सबो अगणिपरिणी निगोयजीवे तहा जाण ॥ ९८ ।। एगस्स दोण्ह तिण्ह व संखिजाण व न पासिउं सका । दीसंति सरीराई निगोयजीवाणणताणं ॥ ९९ ॥ लोगागासपएसे निगोयजीवं ठवेहि इकिकं । एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंता उ ॥१०॥ लोगामासपएसे परित्तजीवं ठवेहि इकिक । एवं मविजमाणा हवंति लोगा असंखिजा ॥१०१॥ पत्तेया पजत्ता पयरस्स असंखभागमिता उ । लोगाऽसंखा पजत्तयाण साहारणमणता ॥ १०२।। एएहिं सरीरेहि पञ्चक्खं ते परुविया जीवा । सुंहुमा आणागिशा चक्खुफास न ते इति (१ प्र०)जे यावने तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पन्नता, ते.-पजत्तगा व अपचगा य, संस्थ थे जे ते अपजतगा ते णं असंपत्ता, तत्व णं जे ते पज्जत्तगा तेसिणं वनाएसेणं मंधाएसेणं रसाएसेणं फारसाएसेणं सहस्ससंगसो विहाणाई, संखिजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई, पजचगनीसाएं अपञ्जत्तमा वकमंति, जत्थ एगो दीप अनुक्रम [१३५ १३४] ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२६] + गाथा: (९५-१०५+प्र०१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. [२६] ॥३९॥ गाथा: + प्र० तत्य सिय संखिजा सिय असंखिजा सिय अणंता । एएसिणं इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ, तंजहा-कंदा य कंदमूला य, 1 १प्रज्ञाप नापदे सारुक्खमूला इयावरे । गुच्छा य गुम्मवल्ली य, वेणुयाणि तणाणि य ॥ १०३ ।। पउमुप्पल संघाडे हढे य सेवाल किथए धारणलपणए । अवए य कच्छभाणी कंदुकेगूणवीसइमे ॥ १०४॥ तय छल्लि पवालेसु य पत्तपुफफलेसु य । मूलग्गमज्झवीएस, क्षणं जोणी कस्सवि कित्तिया ॥ १०५ ॥ से तं साहारणसरीवायरवणस्सइकाइया, [से तं साहरणसरीखणस्सइकाइया ] से सं वायरवणस्सइकाइया, से तं वणस्सइकाइया, से तं एगिदिया ।। (मू०२६) 'समय' युगपद् व्युत्क्रान्तानां-उत्पन्नानां सतां तेषां साधारणजीवानां समकम्-एककालं शरीरनिवृत्तिर्भवति, |समकं च प्राणापानग्रहणं-प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादानम् ततः समकम्-एककालं तदुत्तरकालभाविनाच्छासनिःश्वासो |॥९५॥ तथा एकस्य यत् आहारादिपुद्गलानां ग्रहणं तदेव बहनामपि साधारणजीवानामवसेयं, किमुक्तं भवति -यत् आहारादिकमेको गृह्णाति शेषा अपि तच्छरीराश्रिता बहवोऽपि तदेव गृह्णन्तीति, तथा च यबहूनां ग्रहणं तत्संक्षेपादे- कत्र शरीर समावेशात् एकस्यापि ग्रहणम् ॥ ९६॥ सम्प्रत्युक्तार्थोपसंहारमाह-सर्वेषामप्येकशरीराश्रिताना जीवा नामुक्तप्रकारेण यत् साधारणं साधारणः, सूत्रे नपुंसकतानिर्देशः आपत्वात् , आहारः आहारयोग्यपुद्गलोपादानम् । हायव साधारणं प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादानं उपलक्षणमेतत् यौ साधारणासनिःश्वासी या च साधारणा शरीरनिवृत्तिः एतत्साधारणजीवानां लक्षणम् ॥९७॥ सम्प्रति यथैकस्मिन् निगोदशरीरे अनन्ता जीवाः परिणताः दीप अनुक्रम [१३५ ececeaeeehate -१४८] ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२६] + गाथा: (९५-१०५+प्र०१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूत्रांक [२६] गाथा: + प्र० प्रतीतिपथमवतरन्ति तथा प्रतिपादयन्नाह-यथा अयोगोलो ध्मातः सन् तप्ततपनीयसंकाशः सर्वोऽग्निपरिणतो भयति तथा निगोदजीवान् जानीहि, निगोदरूपेऽप्येकैकस्मिन् शरीरे तच्छरीरात्मकतया अनन्तान् जीवान् परिणतान् जानीहि ॥९८॥ एवं च सति-एकस्य द्वयोत्रयाणां यावत्संख्येयानां पाशब्दादसंख्येयानां वा निगोदजीवानां शरीराणि द्रष्टुं न शक्यानि, कुत इति चेत् ?, उच्यते-अभावात् , न हि एकादिजीवगृहीतानि अनन्तवनस्पतिशरीराणि सन्ति, अनन्तजीवपिण्डात्मकत्वात्तेषाम् , कथं तर्हि उपलभ्यानि?, इत्यत आह-'दीसंती' त्यादि, दृश्यन्ते शरीराणि निगोदजीवानां-बादरनिगोदजीवानां अनन्तानां न तु सूक्ष्मनिगोदजीवानां, तेषां शरीराणामनन्तजीवसङ्घातात्मकत्वेऽप्यनुपलभ्यखभावत्वात् , तथासूक्ष्मपरिणामपरिणतत्वात् , अथ कथमेतदवसीयते-निगोदरूपशरीरं नियमादनन्तजीवपरिणामाविर्भावितं भवति ?, उच्यते-जिनवचनात्, तचेदम् 'गोला य असंखेजा होति निगोया असंखया गोले । एकेको य निगोओ अणंतजीवो मुणेयव्यो॥१॥ ॥ ९९ ॥ सम्प्रति एतेषामेव निगोदजीवानां प्रमाणमभिधित्सुराह-एकैकस्मिन् लोकाकाशप्रदेशे एकैकं निगोदजीवं स्थापय, एवमेकैकस्मिन् आकाशप्रदेशे एकैकजीवरचनया मीयमानाः 'अनन्तलोका' अनन्तलोकाकाशप्रमाणा निगोदजीवा भवन्ति ॥ १०० ।। सम्प्रति प्रत्येकवनस्पतिजीवनमाणमाह-एककस्मिन् लोकाकाशप्रदेशे एकैकं प्रत्येकवनस्पतिजीवं स्थापय, एवमुक्तप्रकारेण मीयमानाः प्रत्ये१ गोलाश्चासंख्येया भवन्ति निगोदा असंख्येया गोलके । एकैकश्च निगोदोऽनन्तजीवो ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१३५ -१४८] ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२६] + गाथा: (९५-१०५+प्र०१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती. ॥४०॥ गाथा: + प्र० कतरुजीया असहयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा भवन्ति ॥१०१ ॥ सम्प्रति पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकसाधारणवनस्प-12 १प्रज्ञापतिजीवानां प्रमाणमाह-पर्यासाः प्रत्येकवनस्पतिजीवाः धनीकृतस्य सम्बन्धिनः प्रतरस्य असहयेयतमे मागे थावन्त नापदे साआकाशप्रदेशातावत्प्रमाणा भवन्ति, अपर्यासानी पुनः प्रत्येकतरुजीवानामसङ्ख्यया लोकाः परिमाणे, पोसानी धारणलअपर्याप्तानां च साधारणजीवानां अनन्तलोकाः, किमुक्त भवति ?-असायेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा अपयांसाः क्षणं प्रत्येकतरवः, अनन्तलोंकाकाशप्रदेशप्रमाणाः पर्याप्ता अपर्यासाश्च साधारणजीवा इति ॥ १०२ ।। 'जे यावन्ने तह- (सू.२६) प्पमारा' इति, येवि चान्ये-नुक्तरूपालथाप्रकाराः प्रत्येकतरुरूपा साधारणरूपाश्च, तेऽपि वनस्पतिकायत्वेन प्रतिषसव्याः, ते समासों इखादि प्राग्वत् , नेवरं यत्रैको बादरपर्याप्तस्तत्र तनिश्रया अपर्यासाः कदाचित् समयेयाः, कदाचिदसङ्ख्येया कदापिनन्ता, प्रत्येकतरवः सङ्ख्यया असहया वा, साधारणास्तु नियमादनन्ता इति भावः॥ 'एतेषां' साधारणप्रखेकतरुरूषार्णा वनस्पतिविशेषाणां वक्ष्यमाणानामिमाः-विशेषप्रतिपादिका वक्ष्यमाणा गाथा अनुगन्तव्याः-प्रतिपत्तव्याः, ता एवाह-'तंजहा' तद्यथा-'केदा येत्यादि गायात्रय 'कन्दा सूरणकन्दादयः कन्दमूलानि वृक्षमूलानि च साधारणवनस्पतिविशेषाः 'गुच्छा' गुल्मा, वत्यश्च प्रतीताः 'येणुका' वंशास्तृणानि-18॥४०॥ अर्जुनादीनि ॥१३॥ पद्मोत्पलशृङ्गाटकानि प्रतीतानि 'हढो' जलजवनस्पतिविशेषः सेवालेः-प्रसिद्धः कृष्णकपनकावककच्छभाणिकन्तुका:-साधारणयनस्पतिविशेषाः॥१०४॥ एतेषामेकोनविंशतिसयानां त्वगादिषु मध्ये दीप अनुक्रम [१३५ -१४८] REarathimulemand INI mumtaram.org ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६] + गाथा: + प्र० दीप अनुक्रम [१३९ -१४८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [१], उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [२६] + गाथा: (९५- १०५+प्र०१ ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Fearfu कापि योनि, किमुक्त मवति १-कस्वार्षि व योनिः कस्यापि ली यावत्कस्यापि मूलं कस्याप्ययं कस्यापि मध्ये कस्मापि नीजमिति ॥ १०५ ॥ 'सेस' मित्यादि निगमनचतुष्टयं सुगमं ॥ तदेवमुक्ता एकेन्द्रि याः, सम्प्रति द्वीन्द्रियप्रतिपादनार्थमाह- से किं तं बेईदिया, वेइंदिया अणेगविहा पन्नता, तंजहा- पुलाकिमिया कुच्छिकिमिया मंडयलगा गोलोमा नेउरा सोमंगलगा सीमा सुमुहा गोजलीया जलोया जालाउया संखा संखणगा घुल्ला खुल्ला गुलया संघा बराडा सोत्तिया मुत्तिया कलयावासा एमओवता दुहओवत्ता नंदियावता संयुक्का मारवाहा सिप्पिसपुडा चंदणा समुहलिक्खा, जे यावने तहप्पारा, सबे ते समुच्छिमा नपुंसगा, ते समासओ दुबिहा पत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजसंगा य, एएसिणं एवमाइयाणं बेदियाणं पापञ्जाणं सत्त जाइकुलकोडिजणीपमुहस्यसहस्सा भवतीति मक्लाय से से बेईदियसंसारसमावअजीवपणा (सू २७ ) अथ के ते द्वीन्द्रियाः १, सूरिराह- द्वीन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा- “पुठाकिमिया' इत्यादि, पुलाकिमिया नाम पायुप्रदेशोत्पन्नाः कृमयः कुक्षिक्रमयः- कुक्षिप्रदेशौत्पन्नाः शङ्खा:-समुद्रोद्भवाः प्रतीताः शङ्खनकाः त एव उपयः घुला:-धुलिकाः खुल्ला - उपयः शङ्खाः-सामुद्रशङ्खाकाराः वराटा:- कपर्दकाः 'सिप्पिसपुड' ति संपुटरूपाः शुक्रूमः चन्दनका - अक्षाः, शेषास्तु यथासम्प्रदाय वाच्याः, 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपिचान्ये अत्र दविइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते For Parts Only ~ 85~ yog Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [१४९ ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-] पदं [१], मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल ॥ ४१ ॥ तथाप्रकारा- एवंप्रकारा मृतककडेवरसम्भूतकृम्यादयस्ते सर्वे द्वीन्द्रिया ज्ञातव्याः, ते संमुर्छिमत्वादेव च नपुंसकाः, संमुर्छिमानामवश्यं नपुंसकत्वात् 'नारकसंमुर्हिमा नपुंसका' (० नि नपुंसकानि तत्त्वा - अ - २ - ५० ) इतिवचनात्, 'ते य० वृत्तौ समासओ' इत्यादि, ते द्वीन्द्रियाः समासतः - संक्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्च अपर्याप्तकाश्च, चशब्दौ योनिकुलमेदेन स्वगतानेकभेदसूचकी, एतेषां द्वीन्द्रियाणामेवमादीनां पुलाकृम्यादीनां द्वीन्द्रियाणां पर्याप्तापर्यासादीनां सर्वसङ्ख्यया सर्वजातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि - योनिप्रयहाणि योनिशतसहस्राणि भवन्ति, सप्त जातिकुलकोटिलक्षा भवन्तीति भावः, इत्याख्यातं तीर्थकृद्भिः, मकारोऽलाक्षणिकः, इयमंत्र भावना - इद्द जातिकुलयोनीनां परिज्ञानार्थमिदं परिस्थूरमुदाहरणं पूर्वाचार्यैरुपदर्शितम्, तद्यथा-जातिरिति किल तिर्यग्गतिः तस्याः कुलानि - कृमिकीटवृश्चिकादीनि, इमानि च कुलानि योनिप्रमुखाणि, तथाहि एकस्यामेव योनौ अनेकानि कुलानि भवन्ति, यथा छगणयोनौ कृमिकुलं कीटकुलं वृश्चिककुलमित्यादि, अथवा जातिकुलमित्येकं पदम् जातिकुलयोन्योश्च परस्परं वि| शेषः, एकस्थामपि योनौ अनेकजातिकुलसम्भवात् यथा एकस्यामेव योनौ कृमिजातिकुलं कीटकजातिकुलं वृश्चिकजातिकुलमित्यादि, एवं च एकस्यामेव योनाववान्तरजातिभेदभावादनेकानि योनिप्रवहाणि जातिकुलानि सम्भवन्तीत्युपपद्यन्ते, द्वीन्द्रियाणां सप्त जातिकुलकोटीनां शतसहस्राणाम्, उपसंहारमाह-'सेत्त' मित्यादि, सैषा द्वीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ॥ सम्प्रति त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनार्थमाह Education International For Parts Only ~ 86~ १ प्रज्ञाप नापदे द्वीन्द्रियप्र ज्ञाप. (सू. २७) ॥ ४१ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ..............-- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-], ---------- मूलं २८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] से किं तं तेइंदियसंसारसमावनजीवपनवणा ?, तेईदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा अणेगविहा पन्नता, त-ओवइया रोहिणिया कुंथ पिपीलिया उसगा उद्देहिया उक्कलिया उप्पाया उप्पडा तणहारा कहहारा मालुया पत्चाहारा तणवेंटिया पत्तबेटिया पुप्फबेटिया फलबेंटिया बीयाटिया तेवुरणमिजिया तओसिमिजिया कप्पासहिमिजिया हिल्लिया झिल्लिया झिंगिरा किंगिरिडा बाहुया लहुया सुभगा सोवस्थिया सुयबेटा इंदकाइया इंदगोवया तुरुतुंबगा कुच्छलवाहगा जूया हालाहला पिसुया सयवाइया गोम्ही हत्यिसोंडा, जे यावबे तहप्पगारा, सचे ते संमुच्छिमा नपुंसगा, ते समासओ दुविहा पन्नता, त-पजत्नगा य अपजत्तगा य, एएसिणं एवमाझ्याणं तेइंदियाणं पजत्तापजत्ताणं अह जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, सेत्तं तेइंदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा । (मू०२८) . 'अथ का सा त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, भगवानाह-त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना अनेकविधा प्रज्ञप्ता, तामेव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति, एते च औपयिकप्रभृतयस्त्रीन्द्रिया देशविशेषतो लोकतश्चावगन्तव्याः, नवरं | गोम्ही-कर्णसियालिया 'जे यावन्ने सहप्पगारा' येऽपि चान्ये तथाप्रकारास्ते सर्वे त्रीन्द्रिया ज्ञातव्या इति शेषः, सब्वे 'ते संमुच्छिमानपुंसका' इत्यादि पूर्ववत् , 'एतेसिण'मित्यादि, एतेषां-त्रीन्द्रियाणामेवमादिकानाम्-औपयिकप्र-II भृतीनां पर्याप्तापर्याप्सानां सर्वसङ्ख्यया अष्टौ जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि-योनिप्रवाहाणि शतसहस्राणि भवन्ति, अष्टौ कुलकोटिलक्षा भवन्तीति भावः, इत्याख्यातं तीर्थकृद्भिः, उपसंहारमाह-'सेत्त मित्यादि । तदेवमुक्ता त्रीन्द्रिय दीप accesadagaseerage300 अनुक्रम [१५०] अत्र त्रिइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूत्रांक प्रज्ञापना- या:मल-10 य० वृत्ती. [२९] १ प्रज्ञापनापदे त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपु.(सू. २८-२९) ॥४२॥ गाथा संसारसमापनजीवप्रज्ञापना, सम्पत्ति चतुरिन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनामाहसे किं तं चउरिदियसंसारसभावनजीवपनवणा , २ अणेगविहा प०, त-अंधिय पत्तिय मच्छिय मसगा कीडे तहा पयंगे य। ढेकुथा कुकट कुकुह नंदावचे व सिंगिरडे ॥१०६॥ किण्हपत्ता नीलपत्ता लोहियपत्ता हालिदपत्ता सुकिल्लपत्ता चित्तपक्खा विचित्तपक्खा ओहंजलिया जलचारिया मंभीरा णीणिया तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंमा नेउरा दोला भमरा भरिली जरूला तोहा विषा पत्तविच्छ्या छाणविच्छुया जलविच्छ्या पियंगाला कणगा गोमयकीडा, जे यावचे तहप्पगारा, सोते संमच्छिमा नपुंसगा, ते समासओ दुविहा पन्नत्ता, त०-पञ्जत्तगा य अपअत्तगा य, एपसिणं एवमाझ्याण चरिदियाणं पजत्तापजत्ताणं नव जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्साई भवंतीतिमक्खायं, से सं चरिंदियसंसारसमावमजीवपभरणा ।। (०२९) एतेऽपि चतुरिन्द्रिया लोकतः प्रस्खेतम्याः, एतेषां च पर्याप्तापर्याप्तानां सर्वसचथया जातिकुलकोटीनां नव लक्षा भवन्ति, शेषा अक्षरगमनिका प्राग्वत्, उपसंहारमाह-'सेत्त' मिलादि । उक्ता चतुरिन्द्रियसंसारसमापन्नजीवनज्ञापना, सम्प्रति पञ्चेन्द्रियसंसारसमापनजीवप्रज्ञापनामाह से कि ते पंचेदियसंसारसमावनजीवपावणा १,२ चउबिहा पं०,०-नेरइयपंचिदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा, तिरिक्खजोणियपंचिंदियसंसारसमावनजीवपनवणा मणुस्सपचिदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा देवपंचिदियसंसारसमावसजीवपनवणा (१.१०) दीप अनुक्रम [१५१ S ॥४२॥ -१५३] SAREarathiAR Imliumstaram.org | अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१1, ----- .--- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], ..... ...- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक अथ का सा पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना १, सूरिराह-पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-'नैरयिके' त्यादि, अयम्-इष्टफलं कर्म निर्गतमयं येभ्यस्ते निरया-नरकावासास्तेषु भवा नैरयिकास्ते |च ते पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवाश्च नैरयिकपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवास्तेषां प्रज्ञापना, तथा 'अञ्च गती' तिरोऽश्चन्तीति तिर्यश्चः, 'तिरसस्तिर्यतीति' तिरसस्तिर्यादेशः, तेषां योनिः-उत्पत्तिस्थानं तिर्यग्योनिस्तत्र भवास्तैर्यग्योनिकास्ते च ते पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवाश्च तेषां प्रज्ञापना तैर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, तथा मनुशब्दो मनुष्ययाची यथा राजशब्दो राजन्याभिधायकः, मनोरपत्यानि मनुष्याः, 'मनोर्यणौ यश्चेति' यः प्रत्ययः पकारश्चागमः, अयं च यः प्रत्ययो जाताविति मनुष्यशब्दोजातिवाची राजन्यशब्दवत्,ते च ते पश्चेन्द्रियसंसारसमा| पन्नजीवाश्च तेषां प्रज्ञापना मनुष्यपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना. तथा दीव्यन्ति-खेच्छया क्रीडन्तीति देवाः% भवनपत्यादयः ते च ते पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवाश्च तेपांप्रज्ञापना देवपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ॥ तत्र | नरयिकप्रतिपादनार्थ प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह से किं ते नेरइया ?, नेरइया सत्तविहा पञ्चत्ता, सं०-यणप्पभापुढविनेरहया १ सकरप्पभापुढविनेरइया २ वालुयप्पभापुढविनेरहया ३ पंकप्पभापुढचिनेरइया ४ धूमप्पभापुढविनेरइया ५ तमप्पभापुढविनेरइया ६ तमतमप्पभापुढविनेरइया ७, ते समासओ दुविहा पन्नत्ता, तं०-पज्जतगा य अपजत्तगा य, से तं नेरहया ।। (मू०३१) दीप अनुक्रम [१५४] deeeease290eroe80saseassa प्र.८ antaram.org | अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये नैरयिक-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [१५५] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ४३ ॥ Jan Education “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-], मूलं [३१] पदं [१]. उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः १ प्रज्ञाप नापदे नै सप्तविधत्वं नैरयिकाणां पृथिवीभेदेन अन्यथा प्रभूतभेदत्वमपि घटते, ततः पृथिवीभेदत एव सप्तवि - धत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति-रत्नानि वज्रवैडूर्यादीनि, प्रभाशब्दोऽत्र सर्वत्रापि खभाववाची रत्नानि प्रभा - स्वरूपं यस्याः सा रत्नप्रभा - रलबहुला रत्नमयीति भावार्थः, सा चासौ पृथिवी च २ तस्यां नैरयिका रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः, एवं ' सकरप्पहा पुढविनेरइया' इत्यादि भावनीयम्, उपसंहारमाह- 'सेतं नेरइया ' ॥ अधुनोद्देशक्रमप्रामाण्यानुसर- ६ श्वेन्द्रिय तस्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियान् प्रतिपिपादयिपुराह रविकप (सू. ३१३२) से किं तं पंचिदियतिरिक्खजोणिया ?, पंचिदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नत्ता, तं०-१ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य १ थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य २ खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य ३ । ( सू० ३२ ) अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः १, सूरिराह-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका स्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथेत्यादि, 'जलयरे-' त्यादि, जले चरन्ति पर्यटन्तीति जलचराः, 'आधारादिति' दृप्रत्ययः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, स्थले चरन्तीति स्थलचराः, खे-आकाशे चरन्तीति खचराः, प्राकृतत्वादात्वाच्च ' खहचरा' इति सूत्रे पाठः, तत उभयत्रापि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकशब्देन सह विशेषणसमासः । से किं तं जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ?, जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पन्नत्ता, तं०-१ मच्छा २ कच्छभा ३ गाहा ४ मगरा ५ सुसुमारा ॥ से किं तं मच्छा ?, मच्छा अणेगविहा पन्नता, तं सहमच्छा खवल्लमच्छा For Pal Use Only अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये तिर्यञ्चयोनिक-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~90~ sereststrea ॥ ४३ ॥ Brary org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ...............-- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] toerscreeeesekse जंगमच्छा विज्झडियमच्छा हलिमच्छा मगरिमच्छा रोहियमच्छा हलीसागरा गागरा वडा वडगरा गन्भया उसगारा तिमितिभिंगिला णका तंदुलमच्छा कणिकामच्छा सालि सत्थियामच्छा लंभणमच्छा पडामा पडागाइपडागा जे यावनेतहप्पगारा, सेत्तं मच्छा ।। से किं तं कच्छमा?, कच्छभा दुविहा पन्नचा, तं०-अहिकच्छमा य मंसकच्छभा य, से तं कच्छमा ॥ से किं तं गाहा, गाहा पंचविहा पन्नता, तं०-१दिली २ वेढगा ३ मुद्धया ४ पुलया ५ सीमागारा, से तंगाहा ।।से किं तं मगरा?, मगरा दुविहा पन्नत्ता,त-१ सोंडमगरा य र महमगरा य, से तं मगरा ।। से किं तं सुसुमारा?, सुसुमारा एगागारा पबत्ता, से चं मुमुमारा । जे यावन्ने तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा प०२०-समुच्छिमा य गम्भवकंतिया य. तत्व ण जेते संमच्छिमा ते सत्वे नपुंसगा, तत्थ णं जे ते गब्भवतिया तें तिचिहा प०, तं०-इत्थी पुरिसा नपुंसगा | एएसिणं एवमाइयाणं जलयरपचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पञ्जचापञ्जताणं अद्भुतेरसजाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं । सेतं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ॥ (मू०३३) अथ के ते जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ?, सूरिराह-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञाप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति १ मत्स्याः २ कच्छपाः, सूत्रे पकारस्य भकारः प्राकृतत्वात् ३ ग्राहा ४ मकराः ५ शिशुमाराः, प्राकृतत्वात्सूत्रे 'सुसुमारा' इति पाठः । मत्स्यादीनां च विशेषा लोकतो वेदित-18 व्याः, नवरमस्थिकच्छपा मांसकच्छपा इति-ये अस्थिवदुलाः कच्छपास्ते अस्थिकच्छपाःये मांसबहुलास्ते मांसकच्छपाः। दीप अनुक्रम [१५७-१६०] ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------ ..-- उद्देशक: -1, --------------- दारं [-], .. .मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती प्रत सूत्रांक [३३] ॥४४॥ ते समासओ' इत्यादि, ते जलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः समासतः-संक्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञासाः, तद्यथा-समू-18|| ञ्छिमाश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकाच, "मूर्छा मोहसमुच्छ्राययोः" अस्मात् संपूर्वात् संमूर्च्छनं संमूर्छ।, "अकर्तरि" इति नापदे जभावे घजप्रत्ययः, गर्भोपपातव्यतिरेकेण एवमेव प्राणिनामुत्पाद इति भावः, तेन निर्वृत्ताः संमूच्छिमाः "भावादिम"ISH लचरपञ्चे. इति इमप्रत्ययः । गर्भे व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते, व्युत्क्रान्तिशब्दोऽत्रोत्पत्तिवाची, तथा पूर्वाचार्यप्रसिद्धेः, यदिवा (सू. ३३) |'गर्भात्' गर्भावासाद् व्युत्क्रान्तिः-निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः “शेषाद्वा" इति कच्समासान्तः। चशब्दो प्रत्येकं खगतानेकभेदसूचकौ । तत्र येते संमूछिमास्ते सर्वे नपुंसकाः, संमूछिमभावस्य नपुंसकत्वाविनामावित्वात् । ये तु गर्भव्युत्क्रान्तिकास्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्त्रियः पुरुषा नपुंसकाः। एतेषां चोभयेषामपि शरीरावगाहKIनादिषु द्वारेषु यचिन्तनं यच्च गर्भव्युत्क्रान्तिकानां स्त्रीपुंसनपुंसकानां परस्परमल्पबहुत्वचिन्तनं तज्जीवाभिगमटीकायां कृतमिति ततोऽवधार्यम् । 'एएसिणं' इत्यादि, एतेषामेवमादिकानामुपदर्शितप्रकारादीनां जलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यगयोनिकानां पर्याप्सापर्याप्तानां सर्वसंख्ययाऽर्धत्रयोदशजातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि-योनिप्रवहाणि शतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं भगवद्भिस्तीर्थकरैः । उपसंहारमाह-'सेत्तं' इत्यादि, तदेवमुक्ता जलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः॥ सम्प्रति स्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकानभिधित्सुराहसे किं तं थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?, थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा प०, ०-चउप्पयथलयरपंचिं दीप अनुक्रम [१५७-१६०] ॥४४॥ saramorg ~ 92~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ...............-- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दियतिरिक्खजोणिया य परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य । से किं तं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिवखजोणिया ?, चउपयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया चउब्विहा प०, तं०-एगखुरा चिखुरा गंडीपदा सणफदा । से किं तं एगखुरा, एगखुरा अणेगविहा प०,०-अस्सा अस्सतरा घोडगा गद्दमा गोरक्खरा कंदलगा सिरिकंदलगा आवत्तगा जे यावने तहप्पगारा, सेत् एगखुरा । से किं तं दुखुरा, दुखुरा अणेगविहा प०,०-उट्टा गोणा गव्या रोज्झा पसुया महिसा मिया संबरा बराहा अया एलगरुरुसरभचमरकुरंगगोकनमादि जे यावचे तहप्पगारा, सेत्तं दुखरा । से कितं गंडीपया, गंडीपया अणेगविहा पं०, तं०-हत्थी हत्थीपूयणया मंकृणहत्थी खगा (ग्गा) गंडा जे यावने, सेत्तं गंडीपया । से किं तं सणफया?, अणेगविहा पं०, तं-सीहा वग्घा दीविया अच्छा मरच्छा परस्सरा सियाला बिडाला सुणगा कोलसुणगा (अं-५००) कोकंतिया ससगा चित्तगा चिल्लगा जे यावन्ने०, सेत्तं सणप्फया । ते समासओ दुविहा पं०, २०-समुच्छिमा य गम्भवकन्तिया य, तत्थ णं जे ते समुच्छिमा ते सत्वे नपुंसगा, तत्व णजे ते गम्भवतिया ते तिविहा पं०, तं०इत्थी पुरिसगा नपुंसगा। एएसिणं एवमाइयाण थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजत्तापजताणं दस जाइकुलकोडि. जोणिप्पमुहसयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं । सेत्तं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया । (मू०३४) चत्वारि पदानि येषां ते चतुष्पदा:-अश्वादयः ते च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाश्च चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः, उरसा भुजाभ्यां वा परिसर्पन्तीति परिसर्पाः-अहिनकुलादयः, ततः पूर्ववत् स्थलचरपञ्चेन्द्रियतै-18 दीप अनुक्रम [१६१] REarathishmond anditurary.com ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------ ..-- उद्देशक: -1, --------------- दारं [-], .. .मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥४५॥ [३४] Saee0adraseasesrae200a0rae दीप यंग्योनिकपदेन सह विशेषणसमासः, चशब्दौ प्रत्येक खगतानेकभेदसूचकौ, तदेवानेकभेदत्वं क्रमेण प्रतिपिपादयि-६१ प्रज्ञापपुरिदमाह-से किंत' इत्यादि, अथ के ते चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्रयोनिकाः, सूरिराह-चतुष्पदस्थलचर-18 नापदे चपञ्चेन्द्रियतैर्यगयोनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'एगखुरा' इत्यादि, तत्र प्रतिपदमेकः खुर:-शफो येषां ते एक- तुष्पदपञ्चे. खुराः-अश्चादयः, द्वौ द्वौ खुरौ प्रतिपदं येषां ते द्विखुराः-उष्ट्रादयः, तथा चैकैकस्मिन् पदे द्वौ द्वौ शफी दृश्येते, गण्डी-18(सू. व-सुवर्णकाराधिकरणीस्थानमिव पदं येषां ते गण्डीपदाः-हस्त्यादयः, तथा सनखानि-दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां ते सनखपदा:-श्वादयः, प्राकृतत्वाच सणप्फया इति सूत्रे निर्देशः । अधुना एतानेव एकखुरादीन् भेदतः क्रमेण प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-से किं तं' इत्यादि, सुगमम् , नवरं ये केचिज्जीवभेदाः प्रतीताते लोकतो बेदितव्याः। 'ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' इत्यादि सूत्रं प्राग्वद भावनीयम् , नवरमत्र जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि दश भवन्तीति वेदितव्यम् । अत्रापि च संमूच्छिमानां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां च प्रत्येकं यत् शरीरादि-14 द्वारेषु चिन्तनं यच्च स्त्रीपुंनपुंसकानां परस्परमल्पवहुत्वं तज्जीवाभिगमटीकातो वेदितव्यम् , सेत्तं चउप्पया' इत्यादि। से किं तं परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?, परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पं०, तं०-उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य । से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ?, उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया चउन्विहा पं०, तं०-अही अयगरा आसालिया अनुक्रम [१६१] Donaturary.com ~ 94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ...............-- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-], ----------- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५] महोरगा ।। से किं तं अही?, अही दुविहा पं०, तं०-दवीकरा य मउलिणो य, से किं तं दध्वीकरा, दबीकरा अणेगविहा पं०,०-आसीविसा दिहीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाविसा लालाविसा उस्सासविसा नीसासविसा कण्हसप्पा सेदसया काओदरा दज्झपुफा कोलाहा मेलिमिंदा सेसिंदा जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं दबीकरा । से किं तं मउलिणो?, मउलिणो अणेगविहा पं० सं०-दिवागा गोणसा कसाहीया वइउला चित्तलिणो मंडलिणो मालिणो अही अहिसलागा वासपडागा जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं मउलिणो, सेतं अही। से किं ते अयगरा, अयगरा एगागारा प०, सेनं अयगरा । से किं तं आसालिया?, कहिणं भंते ! आसालिया संमुच्छति', गोयमा! अंतो मणुस्सखिने अड्डाइजेस दीवेसु निहाषाएणं पन्नरससु कम्मभूमिसु वाघायं पडच्च पंचसु महाविदेहेसु चक्कवट्टिखंधावारेसु वासुदेवखंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावारेसु महामंडलियखंधावारेसु गामनिवेसेसु णगरनिवेसेसु णिगमनिवेसेसु खेडनिवेसेसु कब्बडनिवेसेसु मडंबनिवेसेसु दोणमुहनिवेसेसु पट्टणनिवेसेसु आगरनिवेसेसु आसमनिवेसेसु संचाहनिवेसेसु रायहाणीनिवेसेसु एएसिणं चेव विणासेसु एत्थ णं आसालिया संमुच्छति । जहनेणं अंगुलस्स असंखेजहभागमित्ताए ओगाहणाए उकोसेणं बारसजोयणाई तयणुरूवं चणं विक्खंभवाहल्लेणं भूमींदालिचा णं समुद्देइ, असन्नी मिच्छदिट्टी अण्णाणी अंतोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ, सेत्तं आसालिया । से किं तं महोरगा?, महोरगा अणेगविहा पं०, तं०-अत्थेगहा अंगुलंपि अंगुलपुहुत्तियावि वियस्थिपि वियत्थिपुहुतियावि रयणिपि रयणिपुहुत्तियावि कुञ्छिपि कुच्छिपुहुत्तियावि ध[पि धणुपुहुत्तयावि गाउयपि गाउयाहुत्तयावि जोयणपि जोयणपुहुत्यावि जोयणसयंपि जोयणसयपुहुत्तयावि जोयणसहस्संपि, ते णं थले जाता जलेवि दीप अनुक्रम [१६२] andinasaram.org ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [१६२ ] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्तौ. ॥ ४६ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१]. उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चरंति थलेऽविचरन्ति ते णत्थि इहें, बाहिरएसु दीवेसु समुदयसु इवन्ति, जे यावने तहप्पगारा, सेतं महोरगा । ते समासओ दुविहा पं० तं० समुच्छिमा य गन्भवतिया य, तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सबै नपुंसगा, तत्थ णं जे ते गम्भवकंतिया ते णं तिविहा पं० तं० - इत्थी पुरिसगा नपुंसगा। एएसिणं एवमाइयाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं उरपरिसप्पार्ण दस जाइकुलको डिजोणिप्पमुहस्यसहस्सा भवन्तीतिमखायं, सेत्तं उरपरिसप्पा से किं तं भुयपरिसप्पा, भुयपरिसप्पा अणेगविहा प० ० नउला सेहा सरडा सल्ला सरंठा सारा खोरा घरोइला विस्संभरा मूसा मंगुसा पयलाइया छीरविरालिया जहा चउप्पादया, जे यावने तहप्पगारा, ते समासओ दुबिहा प० सं०-संमुच्छिमा य गन्भवतिया य, तत्थ णं जे ते मुच्छिमा ते सधे नपुंगा, तत्थ णं जे ते गम्भवकंतिया ते णं तिविहा पं० तं० इत्थी पुरिसा नपुंसगा। एएसिणं एवमाझ्याणं पत्ता अत्ताणं भ्रुयपरिसप्पाणं नब जाइकुलकोडिजोणिपमुहसयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, सेतं भुयपरिसपथलयरपंचिदियतिरिक्खजोगिया, सेतं परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया । (सू० ३५ ) अथ के ते परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रिय तैर्यग्योनिकाः १, सूरिराह – परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिका द्विविधाःद्विप्रकाराः प्रज्ञताः, तद्यथा - 'उरपरिसप्प' इत्यादि, उरसा परिसर्पन्तीति उरः परिसर्पाः ते च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्| योनिकाः उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः, भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिसर्पाः ते च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाश्च भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, चशब्दौ प्रत्येकं स्वगतानेक भेदसूचकौ, तत्रोरः परिसर्पस्थल Education International For Parts Only ~96~ १ प्रज्ञाप नापदे परिसर्पपश्चन्द्रि. (सू. ३५) ॥ ४६ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ..............-- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-], ---------- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५] चरपञ्चेन्द्रियतैर्यगूयोनिकभेदानुपदिदर्शयिपुरिदमाह-से कितं उरपरिसप्प' इत्यादि, अथ के ते उर परिसर्पस्थलचरपञ्चे-18 न्द्रियतैयंग्योनिकाः?, सूरिराह-उर परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यगूयोनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अहयोऽजगरा आसालिगा महोरगाः॥ एतेषामेव भेदानामवगमाय प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह-से किं तं' इत्यादि, अथ के तेऽहयः ?, गुरुराह-अहयो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दीकराश्च मुकुलिनश्च, तत्र दर्वीय दर्वी-फणा तत्करणशीला दर्वीकराः, मुकुलं-फणाविरहयोग्या शरीरावयवविशेषाकृतिः सा विद्यते येषां ते मुकुलिनः, फणाकरणशक्तिविकला इत्यर्थः, | अत्रापि चशब्दौ खगतानेकभेदसूचकौ । तत्र दीकरभेदानभिधित्सुराह-से किं तं' इत्यादि, आश्यो-दंष्ट्राः। तासु विष येषां ते आशीविषाः, उक्तं च-"आसी दाढा तग्गयविसा य आसीविसा मुणेयवा" इति, दृष्टौ विष येषां ते दृष्टिविपाः उग्रं विषं येषां ते उपविषाः भोगः-शरीरं तत्र विषं येषां ते भोगविषाः त्वचि विषं येषां ते 8 त्वगूविषाः प्राकृतत्वाच 'तयाविसा' इति पाठः लाला-मुखात् सावः तत्र विषं येषां ते लालाविषाः निःश्वासे विषं येषां ते निःश्वासविषाः कृष्णसर्पादयो जातिभेदा लोकतः प्रतिपत्तव्याः, उपसंहारमाह-'सेत्तं दधीकरा' । मुकु-18 लिनः प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-'से किं तं' इत्यादि, एतेऽपि लोकतोऽवसेयाः । अजगराणामवान्तरजातिभेदा न विद्यन्ते तत उक्तम्-एकाकारा अजगराः प्रज्ञप्ताः । आसालिगामभिधित्सुराह-से किं तं आसालिया' अथ का सा आसालिगा ?, एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सति भगवान् आर्यश्यामो यदेव ग्रन्थान्तरेषु आसालिगाप्रतिपादकं गौ दीप अनुक्रम [१६२] oraturary.com ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ...............-- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-], ----------- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलया वृत्ती. ॥४७॥ [३५] दीप तमप्रश्नभगवनिर्वचनरूपं सूत्रमस्ति तदेवागमबहुमानतः पठति-'कहिणं भंते!' इत्यादि, क्व'ण' इति वाक्याल- १ प्रज्ञापकारे भदन्त!-परमकल्याणयोगिन् ! आसालिगा संमूर्छति ?, एषा हि गर्भजा न भवति किन्तु संमूछिमैव तत नापदे पउक्तं संमूर्च्छति, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, गौतम ! अन्तः-मध्ये मनुष्यक्षेत्रे-मनुष्यक्षेत्रस्य न बहिः, एतावता रिसर्प. मनुष्यक्षेत्राद् बहिरस्या उत्पादो न भवतीति प्रतिपादितं, तत्रापि मनुष्यक्षेत्रे सर्वत्र न भवति किन्वर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु | (सू. ३५) अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽद्धतृतीयाः, अवयवेन विग्रहः, समुदायः समासार्थः, तेषु, एतावता लवणसमुद्रे कालोदसमुद्रे वा न भवतीत्यावेदितमित्यर्थः 'निवाघाएणं' इत्यादि, निर्व्याघातेन-व्याघातस्थाभावो नियाघातं तेन यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चसु ऐरवतेषु सुषमसुषमादिरूपो दुष्यमदुष्षमादिरूपश्च कालो व्याघातहेतुत्वाद् व्याघातो न भवति तदा पञ्चदशसु कर्मभूमिषु संमूर्च्छति, व्याघातं प्रतीत्य, किमुक्तं भवति ?-यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चखैरवतेषु यथोक्तरूपी व्याधातो भवति ततः पञ्चसु महाविदेहेषु संमूर्छति, एतावता त्रिंशत्यप्यकर्मभूमिषु नोपजायते इति प्रतिपादितम् , पञ्चदशसु कर्मभूमिषु पञ्चसु वा महाविदेहेषु न सर्वत्र संमूर्च्छति, किन्तु चक्रवर्तिस्कन्धावारेषु, वाशब्दः सर्वत्रापि विकल्पार्थो द्रष्टव्यः, बलदेवस्कन्धावारेषु वासुदेवस्कन्धावारेषु, माण्डलिक:-सामान्यराजाऽल्पर्धिकः, महामाण्डलिकः। स एवानेकदेशाधिपतिः तत्स्कन्धावारेषु, 'गामनिवेसेसु' इत्यादि, असति बुद्धयादीन् गुणानिति ग्रामः, यदिवा गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशकराणामिति ग्रामः, निगमः-प्रभूततरवणिग्वर्गावासः, पांसुप्राकारनिबद्धं खेटं, क्षुल-18 अनुक्रम [१६२] ॥४७॥ SAREaratunintimond HTinastaram.org ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१1, ----- .--- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], ..... ...- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५] प्राकारवेष्टितं कर्बटम्, अर्द्धतृतीयगन्यूतान्तामान्तररहितं मडम्बम्, 'पट्टणत्ति' पट्टनं पत्तनं चा, उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात् , तत्र यन्नौभिरेव गम्यं तत् पट्टनं, वत्पुनर्शकटै?टकैनौभिर्वा गम्यं तत् पत्तनं, यथा भृगुकच्छं, उक्तं च-"पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौंभिरेव च । नौभिरेव तु यद् गम्यं, पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥१॥"N द्रोणमुखं-बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेशम् , आकरो हिरण्याकरादिः, आश्रमः-तापसावसथोपलक्षित आश्रयः, संवाघोयात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः, राजधानी-राजाधिष्टानं नगरं । 'एएसिणं' इत्यादि, एतेषां चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामेव विनाशेषूपस्थितेषु 'एत्थ अंति' एतेषु चक्रवर्तिस्कन्धावारादिषु स्थानेषु आसालिका संमूर्च्छति, सा च जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयमागमात्रयाऽवगाहनया समुत्तिष्ठतीति योगः, एतयोत्पादप्रथमसमये वेदितव्यं, उत्कर्षतो द्वादश योजनानि, तदनुरूपं-द्वादशयोजनप्रमाणानुरूपं विक्खंभवाहलेणं' ति विष्कम्भश्च बाहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं समाहारो द्वन्द्वः तेन, विष्कम्भो-विस्तारः बाहल्यं-स्थूलता, भूमी 'दालित्ता गं' विदार्य समुपतिष्ठति, चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामधस्ताद् भूमेरन्तरुत्पद्यते इति भावः, सा चासंज्ञिनी-अमनस्का, संमूर्छिमत्वात् , मिध्यादृष्टिः, साखादनसम्यक्त्वस्यापि तस्या(अ)संभवात् , अत एवाज्ञानिनी अन्तर्मुहूर्तायुरेव कालं करोति, तदेवं ग्रन्थान्तर्गतं सूत्रं पठित्वा सूत्रकृत् सम्प्रति उपसंहारमाह-से आसालिया' ॥ सम्प्रति महोरगानभिधित्सुराह'से किं तं' इत्यादि सुगम, नवरं वितस्तिौदशाङ्गुलप्रमाणा, रनिहस्तः, कुक्षिद्धिहस्तमानः, धनुश्चतुर्हस्तं, गव्यूतं दीप अनुक्रम Santosecac000000000 [१६२] Obsurary ou ~ 99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक:-1, --------------- दारं [-1, --- --- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम प्रज्ञापना-श द्विधनुःसहस्रप्रमाणं, चत्वारि गव्यूतानि योजनं, इदं च वितस्त्यादि उच्छ्याङ्गुलापेक्षया द्रष्टव्यं, शरीरप्रमाणस्य १ प्रज्ञापयाः मल- परिचिन्त्यमानत्वात् , तथा अस्तीति निपातोऽत्र बहुत्वाभिधायी प्रतिपदं च संबध्यते, ततोऽयमर्थः-सन्येके के- नापदे पय. वृत्ती . चन महोरगा अङ्गुलमपि शरीरावगाहनया भवन्ति, तथा सन्त्येके केचन येङ्गुलपृथक्त्विका अपि, अङ्गुलपृथक्त्वं | रिसर्प. विद्यते येषां ते अङ्गुलपृथक्त्विकाः, “अतोऽनेकखरात्" इति इकप्रत्ययः, तेऽपि शरीरावगाहनया भवन्ति, अङ्गुल- (सू.३५) ॥४८॥ पृथक्त्वमानशरीरावगाहना अपि भवन्तीति भावः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि । 'ते णं' इत्यादि, ते अनन्तरो[दितस्वरूपा महोरगाः स्थलचरविशेषत्वात् स्थले जायन्ते. स्थले च जाताः सन्तो जलेऽपि स्थल इव चरन्ति स्थलेऽपि |चरन्ति, तथाभवखाभाब्यात् , ययेवं ते कस्मादिह न दृश्यन्ते इत्याशङ्कायामाह-'ते नधि इहं' इत्यादि, 'ते' यथोक्तखरूपा महोरगा 'इह' मानुषे क्षेत्रे 'नस्थिति'न सन्ति, किन्तु बायेषु द्वीपसमुद्रेषु भवन्ति, समुद्रेवपि च | पर्वतदेवनगयोंदिषु स्थलेषूत्पद्यन्ते न जलेषु, स्थूलतरत्वात् , तत इह न दृश्यन्ते । जे यावन्ने तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये अङ्गुलदशकादिशरीरावगाहनमानास्तधाप्रकाराः सन्ति तेऽपि महोरगा ज्ञातव्याः । उपसंहारमाह-'से' इत्यादि, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वद्भावनीयम् । एतेषामपि दश जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि ॥४८॥ एतेषामपि च यत् शरीरादिषु द्वारेषु चिन्तनं यच्च स्त्रीनप्रसकानामल्पबहुत्वं तज्जीवाभिगमटीकातो भावनीयम् । उरःपरिसर्पवक्तव्यतोपसंहारमाह-'सेचं उरपरिसप्पा'। अधुना भुजपरिसनभिधित्सुराह-सुगम, नवरं ये भुज रseeeeeeeee [१६२] AREauratonintennational ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ...............-- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-], ----------- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५] ess परिसविशेषा अप्रतीतास्ते लोकतोऽवसेयाः । अमीषां च नव जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि भवन्ति, यत्पुनः शरीरादिषु द्वारेषु चिन्तनं यश्च खीपुंनपुंसकानामल्पबहुत्वं तज्जीवाभिगमटीकातो वेदितव्यं 'सेत्तं'। इत्यादि । सम्प्रति खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानभिधित्सुराहसे कि त खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?, खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया चउबिहा पं०, ०-चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विययपक्खी, से किं तं चम्मपक्खी, चम्मपक्खी अणेगविहा प०,०-वग्गुली जलोया अडिल्ला भारंडपक्खी जीवंजीवा समुदवायसा कण्णनिया पक्खिविरालिया, जे यावने तहप्पगारा, सेनं चम्मपक्खी। से किं तं लोमपक्खी, लोमपक्खी अणेगविहा प०, तं-ढंका कंका कुरला वायसा चकागा हंसा कलहंसा रायहंसा पायहंसा आडा सेडी बगा बलागा पारिप्पवा कोंचा सारसा मेसरा मसूरा मयूरा सत्तहत्था गहरा पोंडरिया कागा कामिंजुया बंजुलगा तित्तिरा वगा लावगा कवोया कविजला पारेवया चिडगा चासा कुकुडा सुगा बरहिणा मयणसलागा कोइला सेहा परिलगमाइ, सेत्तं लोमपक्खी । से किं तं समुग्गपक्खी, समुग्गपक्खी एगागारा पत्रचा, ते णं नत्थि इई, बाहिरएसु दीवसमुदेसु भवन्ति, सेत्तं समुग्गपक्खी । से किं तं विययपक्खी ?, विययपक्खी एगागारा पन्नत्ता, ते णं नत्थि इह, पाहिरएसु दीवसमुदेसु भवन्ति, सेतं विययपक्खी । ते समासओ दुविहा प०,०-समुच्छिमा य गम्भवतिया य, तत्थ ण जे वे समुच्छिमा ते सो नपुंसगा,तत्थ णं जे ते गम्भवकंतिया ते णं तिविहा प०, तं०-इत्थी पुरिसा नपुंसगा। एएसिणं एवमाइ दीप अनुक्रम [१६२] प्र.10 ARTinmararyorg ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], -------------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३६] + गाथा(१०७) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती. [३६] ॥४९॥ गाथा याणं खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजतापजनाणं बारस जाइकुलकोडिजोणिपमुहसयसहस्सा भवन्तीति मक्खाय। प्रज्ञापसत्तहजाइकुलकोडिलक्स नव अद्धतेरसाई च । दस दस य होन्ति नवगा तह पारस चेष बोद्धवा ॥ १०७ ।। सेचं नापदे खेखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, सेत्तं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया । (सू० ३५) चरपश्चे न्द्रियपु. अथ के ते खचरपञ्चेन्द्रियतैर्यगयोनिकाः १, सूरिराह-खचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञसाः, तद्यथा (सू.३५) RAT'चम्मपक्खी' इत्यादि, चर्मात्मको पक्षौ चर्मपक्षौ तौ विद्यते येषां ते चर्मपक्षिणः, लोमात्मको पक्षौ लोमपक्षी तद्वन्तो लोमपक्षिणः, तथा गच्छतामपि समुद्गकवत् स्थिती पक्षी समुद्गकपक्षी तद्वन्तः समुद्गकपक्षिणः, वितती नित्यमनाकुञ्चिती पक्षी येषां (तो) विततपक्षी तद्वन्तो विततपक्षिणः। 'से कि तं' इत्यादि, अथ के ते चर्मपक्षिणः १, |चर्मपक्षिणोऽनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वल्गुली इत्यादि, एते च भेदा लोकतोऽवसेयाः, 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति,येऽपि चान्ये तथाप्रकारा:-एवंरूपास्ते चर्मपक्षिणो द्रष्टव्याः, उपसंहारमाह-'सेत्तं चम्मपक्खी' लोमपक्षिप्रति||पादनार्थमाह-'से कि तं' इत्यादि, एते च लोमपक्षिभेदा लोकतो वेदितव्याः।समुद्गकपक्षिप्रतिपादनार्थमाह-18 से किंत' इत्यादि पाठसिद्धं, एवं विततपक्षिसूत्रमपि। 'ते समासओ' इत्यादि प्रागवद् भावनीयं, एतेषां द्वादश जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि।अमीषामपि शरीरादिषु द्वारेषु चिन्तनं स्त्रीपुंनपुंसकानामल्पबहुत्वं । च जीवाभिगमटीकातः प्रतिपत्तव्यं, इह तु ग्रन्थगौरवभयान लिख्यते । अधुना विनयजनानुग्रहाय द्वीन्द्रियप्रभृति दीप अनुक्रम [१६३ ॥४९ -१६५] ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३६] + गाथा दीप अनुक्रम [१६३ -१६५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [१]. उद्देशक: [-], मूलं [३६] + गाथा (१०७) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जातिकुलकोटिशतसहस्रसंख्याप्रतिपादिका संग्रहिणीगाथामाह-अत्र द्वीन्द्रियेभ्य आरभ्य यथासंख्येन संख्यापद - योजना, सा चैवं द्वीन्द्रियाणां सप्त जातिकुलकोटि लक्षाणि त्रीन्द्रियाणामष्टी, चतुरिन्द्रियाणां नव, जलचरपञ्चेन्द्रियाणामर्द्धत्रयोदशानि, चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणां दश, उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणां दश, भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणां नव, खचरपञ्चेन्द्रियाणां द्वादशेति । उपसंहारमाह-'सेतं' इत्यादि । तदेवमुक्ताः पञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः । सम्प्रति मनुष्यानभिधित्सुराह - Education Internation से किं तं मणुस्सा ?, मणुस्सा दुविहा पं० तं०-संमुच्छिममणुस्सा य गन्भत्रकंतियमणुस्सा य, से किं तं संमुच्छिममणुस्सा ?, कहि णं भन्ते ! समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखित्ते पणयालीसाए जोयणसय सहस्सेसु अाइओ दीवसमुद्देसु परससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छपनाए अंतरदीवरसु गम्भवतियमणुस्साणं चैव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएस वा बंतेसु वा पित्तेसु वा पूपसु वा सोणिएस वा सुकेसु वा सुकपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएस वा नगरनिद्धमणेसु वा सबैसु चैव असुइद्वाणेसु, एत्थ णं संमुच्छिममस्सा संमुच्छंति, अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्ताए ओगाहणाए असनी मिच्छदिट्टी अभाणी साहिं पजचीहिं अपजतगा अंतोमुडुताउया चैव कालं करेंति से तं संमुच्छिममणुस्सा । से किं तं गन्भवकंतियमणुस्सा १, गम्भवकंतियमणुस्सा ति विहा प०, तं० कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अन्तरदीवगा, से किं तं अन्तरदीवगा ?, अंतरदीवगा अट्ठावीसविहा प०, For Pernal Use On | अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये मनुष्य जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मज्ञापनायाः मलयवृत्ती. सूत्रांक ॥५०॥ [३७]] दीप तं-एगोरुया आहासिया वेसाणिया गंगोली हयना गर्यकन्ना गोकना संकुलिकन्ना आयसमुहा मेंटमुंही अयोमुहा गोमुही १प्रज्ञापआँसमुहा हत्यिमुंहा सीह हा वैधमुहा आँसकन्ना हरिकन्ना अंकना कोणपाउरणा उक्कामुहा मेहमुंहा विजुमुहा विजुदता नापदे मघणदंता लहदंता गूढ्दता सुद्धदंता । सेत्तं अन्तरदीवगा । से किं तं अकम्मभूमगा?, अकम्मभूमगां तीसविहा प०, ० नुष्यप्रज्ञा. पंचहि हेमवएहि पंचहिं हिरण्णवएहिं पंचहि हरिवासेहिं पंचहि रम्भगवासेहिं पंचहिं देवकुरूहि पंचहिं उत्तरकुरूहिं । से अकम्मभूमगा। अत्रापि संमूछिममनुष्यविषये प्रवचनबहुमानतः शिष्याणामपि च साक्षाद् भगवतेदमुक्तमिति बहुमानोत्पादनाथेमनान्तर्गतमालापकं पठति-'कहि णं भन्ते' इत्यादि, सुगम, नवरं 'सबेसु चेव असुइटाणेसुत्ति' अन्यान्यपि यानि कानिचिद् मनुष्यसंसर्गवशादशुचिभूतानि स्थानानि तेषु सर्वेष्विति । उक्ताः संमूछिममनुष्याः, अधुना गर्भव्युत्का|न्तिकमनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-'कम्मभूमगा' इति कर्म-कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते कर्मभूमाः आर्षत्वात् समासान्तोऽन्प्रत्ययः कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः, एवमकर्मा-यथोक्तकर्मविकला भूमिर्येषां ते अकर्मभूमाः ते एव अकर्मभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यबाची, अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः तद्गता अन्तरद्वीपगाः, “अस्ति पश्चानुपूर्वी" इय॑पी)ति न्यायख्यापनार्थ प्रथमतोऽन्तरद्वीपगान् प्रतिपादयति-से किं तं इत्यादि सुगर्म, नवरमष्टाविंशतिविधा इति याशा एव यावत्प्रमाणा यावदपान्तराला यन्नामानो हिमवत्पर्वतपूर्वाप-18 अनुक्रम [१६६] -10 ॥ ५ ॥ ~104 ~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [१६६ ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [ - ], दारं [-], मूलं [३७...] पदं [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः रदिग्व्यवस्थिताः अष्टाविंशतिविधा अन्तरद्वीपास्तादृशा एव तावत्प्रमाणा तावदपान्तरालास्तन्नामान एवं शिखरिपवैत पूर्वापरदिग्व्यवस्थिता अपि ततोऽत्यन्तसदृशतया व्यक्तिभेदमनपेक्ष्यान्तरद्वीपा अष्टाविंशतिविधा एव विवक्षिता इति तज्जातमनुष्या अप्यष्टाविंशतिविधा उक्ताः । तानेव नामग्राहमुपदर्शयति-' तंजहा एगोरुया' इत्यादि, एते सप्त चतुष्काः, अष्टाविंशतिसंख्यत्वात् एते च प्रत्येकं हिमवति शिखरिणि च तत्र हिमबद्तास्तावद् भाव्यन्ते - इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिनिममपञ्चविंशतियोजनो योजनशतोच्छ्रयपरिमाणो भरतक्षेत्रापेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयश्वीन पट्टवर्णो नानावर्णविशिष्टद्युतिमणिनिकरपरिमण्डितोभयपार्श्वः सर्वत्र तुल्यविस्तारो गगनमण्डलोले खिग्नमयैकादशकूटोपशोभितो वज्रमयत लविविधमणिकनकमण्डित तदभागदशयोजनावगाढपूर्वपश्चिमयोजन सहस्रायामदक्षिणोत्तरपञ्चयोजनशत विस्तारः पद्महदशोभितशिरोमध्यभागः सर्वतः कल्पपादप श्रेणिरमणीयः पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणोदार्णवजलसंस्पर्शी हिमवन्नामा पर्वतः, तस्य लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य पूर्वस्यां पश्चि मायाञ्च दिशि प्रत्येकं द्वे द्वे गजदन्ताकारे दंष्ट्रे विनिर्गते, तत्र ऐशान्यां दिशि या विनिर्गता दंष्ट्रा तस्यां हिमवतः पर्यन्तादारभ्य श्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे योजनशतत्रयायामविष्कम्भः किञ्चिश्यूनैकोनपञ्चाशदधिकनवयोजनशतपरिश्य एकोरुकनामा द्वीपो वर्तते, अयं च पञ्चधनुःशतप्रमाणविष्कम्भया द्विगव्यूतोच्छ्रितया पद्मवरवेदिकया सर्वतः परिमण्डितः, तस्याश्च पद्मवरवेदिकाया वर्णको जीवाभिगमटीकायामिव वेदितव्यः साऽपि च Education Internationa For Parts Only ~ 105 ~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- प्रत य. वृत्ती. सूत्रांक [३७]] ॥५१॥ दीप पद्मवरवेदिका सर्वतः सामस्त्येन बनखण्डपरिक्षिप्ता, बनाच वनखण्डस्यायं विशेषः-प्रायो बहूनां समानजातीयाना- १ प्रज्ञापमुत्तमानां महीरुहाणां समुदायो वनं, यथा अशोकवनं चम्पकवनमिति, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणांनापदे मसमूहो वनखण्डः, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकायाम्-"एगजाइएहि खण्डेहिं वणं, अणेगजाइएहिं उत्तमेहि वण- नुष्यप्रज्ञा. संडे" इति, तस्य च वनखण्डस्य चक्रवालतया विष्कम्भो देशोने द्वे योजने, परिक्षेपः पद्मवरवेदिकाप्रमाणः, अस्य च वनखण्डस्य वर्णकः प्रतिपादितोऽस्ति, स चातीय गरीयानिति नोपदर्शितः, केवलं जीवाभिगमटीकातोऽवसेयः, तस्यैव हिमवतः पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाय द्वितीयदंष्ट्राया उपरि एकोरुकद्वीपप्रमाण आभासिकनामा द्वीपो वर्तते, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य दक्षिणप|श्चिमायां-नैतकोण इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाव दंष्ट्राया उपरि यथोक्तप्रमाणो वैषाणिकना-IN मा द्वीपः, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरस्यां दिशि-वायव्यकोणे इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमध्ये दंष्ट्रामतिक्रम्यात्रान्तरे पूर्वोक्तप्रमाणो नाङ्गोलिकनामा द्वीपः, एवमेते चत्वारो द्वीपा हिमवतश्चतसृष्वपि विदिक्षु तुल्यप्रमाणा अवतिष्ठन्ते, उक्तं च-"चुलहिमवंतपुवावरेण विदिसासु सागरं तिसए। गंतूर्णतरदीवा तिण्णि सए हुन्ति विच्छिन्ना ॥१॥ अउणापन्ननवसए किंचूर्ण परिहि तेसिमे नामा। एगोरुयगाभा-IN सिय वेसाणिय चेव नंगूली ॥२॥" तत एषामेकोरुकादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु अनुक्रम [१६६] Panditurary.com ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि योजनशतान्यतिक्रम्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भाः किञ्चिन्न्यूनपञ्चषष्टिसहितद्वादशयोजनशतपरिक्षेपाः यथोक्तपमवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसराः जम्बूद्वीपवेदिकातश्चतुर्योजनशतप्रमाणान्तरा हयकर्णगजकर्णगोकर्णशष्कुलीकर्णनामानश्चत्वारो द्वीपाः,तद्यथा-एकोरुकस्य परतो हयकर्णः आभासिकस्य परसो गजकर्णः वैपाणिकस्य परतो गोकर्णः नाङ्गोलिकस्य परतो शष्कुलीकर्ण इति । तत एतेषामपि हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतः। पुनरपि यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं पञ्च पञ्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा एकाशी-ISI त्यधिकपञ्चदशयोजनशतपरिक्षेपाः पूर्वोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितवायप्रदेशा जम्बूद्वीपवेदिकातः पञ्चयो-1 जनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुख १ मेण्डमुख २ अयोमुख ३ गोमुख ४ नामानश्चत्वारोद्वीपाः, तद्यथा-हयकर्णस्य परत आदर्शमुखः गजकर्णस्य परतो मेण्ढमुखः गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः शष्कुलीकर्णस्य परतो गोमुख इति । एवमग्रेऽपि भावना कार्या, एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं षट् सापट योजनशतान्यतिक्रम्य षड़योजनशतायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाटादशयोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपम वरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातः षड्योजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुखव्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एतेषामप्यश्चमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं सप्त २ योजनशतान्यतिक्रम्य सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशतियोजनशतपरिरयाः पूर्वोक्तप्रमाणपझ दीप अनुक्रम [१६६] HTOnmurary.au ~107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ae प्रत सूत्राक [३७]] ॥५२॥ दीप प्रज्ञापना Iवरवेदिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकातः सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णहरिकर्णाकर्णकर्णप्रावरणनामा- प्रज्ञापयाः मल- नश्चत्वारो द्वीपाः। तत एतेषामश्वकर्णादीनां चतुर्णी द्वीपानां परतो यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टावष्टौ यो- नापदे मय० वृत्ती. जनशतान्यतिक्रम्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपावरवे-18 नुष्यप्रज्ञा. दिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातोऽष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुखमेघमुखविद्युन्मुखविद्युद्दन्ताभिधानाचत्वारो द्वीपाः । ततोऽमीषामपि उल्कामुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक नव नव योजनशतान्यतिक्रम्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टाविंशतियोजनशतपरिक्षेपा। यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकातो नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एवमेते हिमवति पर्वते चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसंख्ययाऽष्टाविंशतिः, एवं हिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणे पद्महदप्रमाणायामविष्कम्भावगाहपुण्डरीकहूदोपशोभिते शिखरिण्यपि पर्वते लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तरासु चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिता एकोरुकादिनामानोऽक्षणापान्तरालायामवि ५२॥ कम्भा अष्टाविंशतिसंख्या दीपा वक्तव्याः, सर्वसंख्यया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः, एतद्गता मनुष्या अप्येतनामानः उपचारात्, भवति च तात्स्थ्यात् तद्ववपदेशः, यथा पञ्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पश्चाला इति, ते च मनुष्या वज्रशिर्षभनाराचसंहननिनः कङ्कपक्षिपरिणामा अनुलोमवायुवेगा समचतुरस्रसंस्थानाः, तद्यथा-सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणाः अनुक्रम [१६६] ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [१६६ ] Education “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [ - ], मूलं [३७...] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... - सुकुमारश्चक्ष्णप्रविरलरोमकुरुविन्दवृत्तजङ्घायुगला निगूढसुबद्धसंधिजानुप्रदेशाः करिकरसमवृत्तोरवः कण्ठीरवसदृशकटीप्रदेशाः शक्रायुधसममध्यभागाः प्रदक्षिणावर्तनाभिमण्डलाः श्रीवत्सलाञ्छित विशालमांसलवक्षःस्थलाः पुरपरिघाऽनुकारिदीर्घबाहवः सुष्टिमणिबन्धा रक्तोत्पलपत्रानुकारिशोणपाणिपादतलाः चतुरङ्गुलप्रमाणसमवृत्तकम्बुग्रीवाः शारदशशाङ्कसौम्यवदनाः छत्राकारशिरसोऽस्फुटितखिग्धकान्तिश्लक्ष्णमूर्द्धजाः कमण्डलु कलशं यूपस्तूप वापी ध्वज पताकी सौवस्तिक यवै मत्स्य मकर 'कूर्म रथेवर स्थलांशुकाष्टापदाश सुप्रतिष्टकं मयूरे श्रीदांमाभिषेक तोरण मे | दिनी जलधि वरभवनादर्श पर्वत गर्जवृषभ सिंहच्छत्र व मिररूपप्रशस्तोत्तमद्वात्रिंशलक्षण धराः । स्त्रियोऽपि सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्यः समस्त महेलागुणसमन्विताः संहताङ्गुलिपद्मदलवत्सुकुमारकूर्मसंस्थान मनोहारिचरणा रोमरहितप्रशस्तलक्षणोपे|तजङ्घायुगला निगूढमांस लजानुप्रदेशाः कदलीस्तम्भनिभसंहतसुकुमारपीवरोरुका वदनायामप्रमाण त्रिगुणमांसल विशालजघनधारिण्यः त्रिग्धकान्तिसुविभक्तश्लक्ष्णरोमराजयः प्रदक्षिणावर्ततरङ्गभङ्गुरनाभिमण्डलाः प्रशस्तलक्षणोपेतकुक्षयः संगतपार्श्वाः कनककलशोपमसंहितात्युन्नतवृत्ता कृतिपीवरपयोधराः सुकुमारबाडुलतिकाः सौवस्तिकशङ्खचक्राथाकृतिलेखालङ्कृतपाणिपादतलाः वदनत्रिभागोच्छ्रितमांसल कम्बुग्रीवाः प्रशस्तलक्षणोपेतमांसलहनुविभागा दाडिमपुष्पानुका| रिशोणिमाधरौष्ठा रक्तोत्पलतालुजिह्वा विकसितकुवलय पत्रायतकान्तलोचना आरोपितचापपृष्ठाकृति सुसंगत लतिकाः प्रमाणोपपन्नललाटफलकाः सुस्निग्धकान्तश्लक्ष्णशिरोरुहाः पुरुषेभ्यः किञ्चिदूनोच्छ्रायाः खभावत उदारशृङ्गारचारुषेषाः For Parts Only ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] दीप प्रज्ञापना- प्रकृत्यैव हसितमणितविलासविषयपरमनैपुण्योपेताः। तथा मनुष्या मानुष्यश्च खभावत एव सुरभिवदनाः प्रतनुक्रो-18 १प्रज्ञापयाः मल-धमानमायालोभाः संतोषिणो निरौत्सुक्या मार्दवार्जवसंपन्नाः सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादौ ममत्वका-18 नापदे मय. वृत्ती- रणे ममत्वाभिनिवेशरहिताः सर्वथाऽपगतवैरानुबन्धा हस्त्यश्चकरभगोमहिण्यादिसद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाः नुष्यप्रज्ञा. पादविहारिणो ज्वरादिरोगयक्षभूतपिशाचादिग्रहमारिव्यसनोपनिपातविकलाः परस्परप्रेष्यप्रेषकभावरहितत्वादहमि- (सू. ३६) न्द्राः, तेषां पृष्ठकरण्डकानि चतुःषष्टिसंख्याकानि चतुर्थातिक्रमे चाहारग्रहणं, आहारोऽपि च न शाल्यादिधान्यनिप्पन्नः किन्तु पृथ्वीमृत्तिका कल्पद्रुमाणां पुष्पफलानि च, तथाहि-जायन्ते खलु तत्रापि विस्रसात एव शालिगोधूम|माषमुद्गादीनि धान्यानि, परं न तानि मनुष्याणामुपभोगं गच्छन्ति, या तु पृथ्वी सा शर्करातोऽप्यनन्तगुणमाधुर्या, [यश्च कल्पद्रुमपुष्पफलानामाखादः स चक्रवर्तिभोजनादप्यधिकगुणः,तथा चोक्तम्-"तेसिणं भंते! पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पन्नते ?,गोयमा ! से जहानामए रनोचाउरंतस्स चक्कवहिस्स कलाणे भोयणजाए सयसहस्सनिष्फन्ने वन्नोवए IS रसोबए फासोबए आसायणिज्जे दप्पणिजे मयणिज्जे बिहणिजे सदियगायपल्हायणिजे आसाएणं पन्नत्ते, एत्तोवि ISI इतराए चेव पन्नत्ते"। ततः पृथ्वी कल्पद्रुमपुष्पफलानि च तेषामाहारः, तथाभूतं चाहारमाहार्य प्रासादादिसंस्थाना १ तेषां भदन्त ! पुष्पफलाना कीटश आस्वादः प्रज्ञप्तः ,गौतम!स यथानामकः राज्ञश्चातुरन्तस्य चक्रवर्तिनः कल्याणं भोजनजातं शतसहस्रनिष्पन्न वर्णोपगं रसोपगं स्पर्शोपगं आस्वादनीयं दर्पणीयं मदनीयं बृंहणीयं सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादुनीयमास्वादेन प्रज्ञप्त, इतोऽपीष्टतरक एवं प्रज्ञाप्तः। अनुक्रम [१६६] whaturanorm ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] ccescaseseleceae ये गृहाकाराः कल्पवृक्षास्तेषु यथासुखमवतिष्ठन्ते, न च तत्र क्षेत्रे दंशमशकयूकामत्कुणमक्षिकादयः शरीरोपद्रवकारिणो जन्तव उपजायन्ते, येऽपि च जायन्ते भुजगव्यामसिंहादयतेऽपि मनुष्याणां न बाधायै प्रभवन्ति, नापि ते परस्परं हिस्सहिंसकभावे वर्तन्ते, क्षेत्रानुभावतो रौद्रानुभावरहितत्वात् , मनुष्ययुगलानि च पर्यवसानसमये युगल प्रसुवते, तच युगलमेकोनाशीतिदिनानि पालयन्ति, तेषां शरीरोच्छ्योऽष्टौ धनुःशतानि, पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणमायुः, उक्तं च-"अन्तरदीवेसु नरा धणुसयमद्रुसिया सया मुइया । पालंति मिहुणधम्म पल्लस्स असंखभागाक IN |॥१॥ चउसहि पिट्ठकरंडयाणि मणुयाण तेसिमाहारो। भत्तस्स चउत्थस्स य गुणसीइदिणाणि पालणया ॥२॥"IN स्तोककषायतयां स्तोकप्रेमानुबन्धतया च ते मृत्वा दिवमुपसर्पन्ति, मरणं च तेषां जृम्भिकाकासक्षुतादिमात्रब्यापारपु-1 रस्सरं भवति, न शरीरपीडारम्भपुरस्सरमिति । तदेवमुक्ता अन्तरद्वीपगाः ॥ साम्प्रतमकर्मभूमकप्रतिपादनार्थमाहअथ के तेऽकर्मभूमकाः, सूरिराह-अकर्मभूमकाविंशद्विधाः प्रज्ञप्ताः, तच त्रिंशद्विधत्वं क्षेत्रभेदात् , तथा चाह'तंजहा-पंचर्हि हेमवएहिं' इत्यादि, पश्चभिहमवतैः पञ्चभिहरण्यवतैः पञ्चभिर्हरिवः पञ्चभी रम्यकवः पञ्चभिदेवकुरुभिः पञ्चभिरुत्तरकुरुभिर्भिद्यमाना त्रिंशद्विधा भवन्ति, षण्णां पञ्चानां त्रिंशत्संख्यात्मकत्वात् । तत्र पञ्चसु हैमवतेषु पंचसु हैरण्यवतेषु मनुष्या गब्यूतप्रमाणशरीरोच्छ्रयाः पल्योपमायुपो वर्षभनाराचसंहननाः समचतुरस्रसंस्थानाः चतुःपष्टिपृष्ठकरण्डकाश्चतुर्थातिक्रमभोजिन एकोनाशीतिदिनान्यपत्यपालकाः, उक्तं च-“गाउअमुचा पलि दीप अनुक्रम [१६६] ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] दीप प्रज्ञापना. ओवमाउणो बजरिसहसंघयणा । हेमवएरनवए अहमिदनरा मिहुणवासी ॥१॥ चउसट्ठी पिट्ठकरंडयाण मणुयाण १ प्रज्ञापयाः मल- तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स य गुणसीदिणऽवचपालणया ॥२॥" पञ्चसु हरिवर्षेषु पञ्चसु रम्यकेषु द्विपल्योप-IN नापदे मय. वृत्ती. मायुषो द्विगव्यूतप्रमाणशरीरोच्छ्या वज्रर्षभनाराचसंहननाः समचतुरस्रसंस्थानाः षष्ठभक्तातिकमे आहारग्राहिणोनुष्यप्रज्ञा. ॥ ५४॥ अष्टाविंशत्यधिकशतसंख्यपृष्ठकरण्डकाश्चतुःपष्टिदिनान्यपत्यपालकाः, आह च-"हरिवासरम्मएK आउपमाणं सरीरमुस्सेहो । पलिओवमाणि दोन्नि उ दोन्नि उ कोसुस्सिया भणिया ॥१॥छहस्स य आहारो चउसद्विदिणाणि पालणार तेसिं । पिट्ठकरंडाण सयं अट्ठावीसं मुणेयचं ॥२॥" पञ्चसु देवकुरूषु पञ्चसूत्तरकुरुषु त्रिपल्योपमायुपो गब्यूतत्रयप्र-18 माणशरीरोच्छ्या: समचतुरस्त्रसंस्थाना वज्रर्षभनाराचसंहननिनः षट्पञ्चाशदधिकशतयप्रमाणपृष्ठकरण्डका अष्टमभक्ता-18 &ातिकमाहारिण एकोनपश्चाशदिनान्यपत्यपालकाः, तथा चोक्तम्-"दोसुवि कुरूम मणुया तिपलपरमाउणो तिको सुचा । पिढिकरंडसयाई दो छप्पन्नाई मणुयाणं ॥१॥ सुसमसुसमाणुभावं अणुभवमाणाणऽवचगोषणया । अउणापण्णदिणाई अट्ठमभत्तस्समाहारो ॥२॥" एतेषु सर्वेष्वपि क्षेत्रेष्वन्तरद्वीपेषिव मनुष्याणामुपभोगाः कल्पद्मसंपादिताः, नवरमन्तरद्वीपापेक्षया पञ्चसु हैमवतेषु पञ्चसु हैरण्यवतेषु मनुष्याणामुत्थानबलवीर्यादिकं कल्पपादपफलानामाखादो भूमेर्माधुर्यमित्येवमादिका भावाः पर्यायानधिकृत्यानन्तगुणा द्रष्टव्याः, तेभ्योऽपि पञ्चसु हरिवर्षेषु पञ्चसु अनुक्रम [१६६] nternational Rainasurary.orm ~ 112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ece प्रत सूत्रांक [३७]] | रम्यकवर्षेषु अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि पञ्चसु देवकुरुषु पञ्चसूत्तरकुरुषु अनन्तगुणाः, तदेवमुक्का अकर्मभूमकाः ॥ संप्रति कर्मभूमकप्रतिपादनार्थमाह से कि तं कम्मभूमगा?, कम्मभूमगा पन्नरसविहा पं०,०-पंचहिं भरहेहिं पंचहिँ एवएहि पंचहि महाविदेहेहिं, ते समासओ दुविहा पं०,०-आ [य]रिया व मिलिक्खु य, से किं तं मिलिक्खू, मिलिक्खू अणेगविहा पं०,०-सगा जवणा चिलाया सबरबम्बरमुरंडोहभडगनिष्णगपकणिया कुलक्खगोंडसिहलपारसगोधा कोंचअंबडइदमिलचिल्ललपुलिंदहारोसदाबवोकाणगन्धा हारवा पहलियअझलरोमपासपउसा मलया य बंधुया य सूयलिकोंकणगमेयपल्हवमालव मग्गर आभासिआ कणवीर लहसिय खसा सासिय णदर मौढ डॉबिल गलओस पओस ककेय अक्खाग हणरोमग एणरोमग भरु मरुय चिलाय वियवासी य एवमाइ, से मिलिक्खू । अथ के ते कर्मभूमकाः १. सरिराह कर्मभूमकाः पञ्चदशविधाः प्रज्ञसाः, तच पञ्चदशविधत्वं क्षेत्रभेदात्, तथा|| चाह-'पञ्चहि भरहेहिं' इत्यादि, पञ्चभिर्भरतः पञ्चभिरैरवतैः पञ्चभिर्महाविदेहैर्भिद्यमानाः पञ्चदशविधा भवन्ति त च पञ्चदशविघा अपि समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आर्या म्लेच्छाश्च, तत्र आराद् हेयधर्मेभ्यो याता:प्राप्ता उपादेयधर्मरित्यार्याः, "पृषोदरादयः" इति रूपनिष्पत्तिः, म्लेच्छा:-अव्यक्तभाषासमाचाराः, "म्लेच्छ अव्यकायां वाचि" इति वचनात्, भाषाग्रहणं चोपलक्षणं. तेन शिष्टाऽसंमतसकलव्यवहारा म्लेच्छा इति प्रतिपत्तव्यं । दीप अनुक्रम [१६६] प्र.१. M ind ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया:मलथ. वृत्ती. सूत्रांक [३७]] ॥५५॥ दीप तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथमतो म्लेच्छवक्तव्यतामाह-से कि तं' इत्यादि, अथ के ते म्लेच्छाः ?, 'मिलिक्खू' इति प्रज्ञाप नापदे मनिर्देशः प्राकृतत्वाद् आपत्वाच, सूरिराह-म्लेच्छा अनेकविधाः प्रज्ञताः, तचानेकविधत्वं शक-यवन-चिलात नुष्यप्रज्ञा. शबर-बर्बरादिदेशभेदात् , तथा चाह-'तंजहा सगा' इत्यादि, शकदेशनिवासिनः शकाः, यवनदेश निवासिनो यव-181 | (सू.३७) नाः, एवं सर्वत्र, नवरममी नानादेशा लोकतो विज्ञेयाः ॥ आर्यप्रतिपादनार्थमाहसे कि त आयरिया, आ[य]रिया दुविहा पं०, तं०-इहिपत्ता योरिया य अणिहिपत्ता[य]रिया य, से कि त इहिपत्ता[य]रिया ?, इहिपचा[य]रिया छबिहा पं०, तं०-अरहता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा चारणा विजाहरा, सेनं इहिपत्ता[य]रिया । से कितं अणिहिपत्ता [य]रिया, अणिढिपत्ता[य रिया नवविहा प०, तं०-खेता[य]रियो जातिआ[य]रियों कुलारिओं कम्मारियों सिप्पारिओं भासारियाँ नाणारियाँ दसणारियाँ चारित्तारियो । से किं तं खेत्तारिया, खेत्तारिया अद्धछबीसतिविहाणा पं०, ०-रायगिह मगह चंपा अंगा तह तामलित्ति वंगा य । कंचणपुरं कलिंगा वाणारसी चेव कासी य॥१०८॥ साएय कोसला गयपुरं च कुरु सोरियं कृसट्टा य । कपिल्लं पंचाला अहिछेचा जंगला चेव।।१०९।। बारवई सोरडा मिहिले विदेहा य बच्छ कोसंबी। नंदिपुरं संडिल्ला महिलपुरमेव मलया य॥११॥ वैराड वच्छ वरणा अँच्छा तह मचियावह दसण्णा । सोलियबई य चेदी वीर्यमयं सिंधुसोचीरा ॥१११।। महुरा य मूरसेणा पौवा भंगी य मौस पुरिवहा । सावत्थी य कुणाला कोडीवरिसंच लाटा य ॥११२॥ सेयवियाविय णयरी केकयअद्धं च आरियं भणियं । इत्थुप्पची अनुक्रम [१६६] व्यछeee ~ 114 ~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] 800reaseerepearera900 गाथा: जिणाणं चकीर्ण रामकण्हाणं ।। ११३ ।। से तं खेत्तारिया ॥ से किं तं जाइआरिया ?, जाइआरिया छबिहा पं०, तं.अंबहा य कलिंदा य, विदेहा वेंदगाइया । हरिया चुचुणा चेव, छ एया इन्भजाईओ॥११॥ सेत्तं जाइआरिया । से कित कुलारिया , कुलारिया छबिहा पं०, तं--उग्गा भोगा राइना इक्खागा णाया कौरवा, सेर्त कुलारिया । से किं ते कम्मारिया , कम्मारिया अगविहा प०, तं०-दोसिया सुचिया कप्पासिया मुत्तवेयालिया मंडवेयालिया कोलालिया नरवाहणिया जे यावन्ने तहप्पगारा, से कम्मारिया । से किं तं सिप्पारिया ?, सिप्पारिया अणेगविहा प०,०-तुण्णागा तंतुवाया पट्टामा देयडा वरुट्टा छविया कहपाउयारा मुंजपाउयारा छत्तारा वज्झारा पुच्छारा लेप्पारा चित्तारा संखारा दंतारा भंडारा जिज्झगारा सेल्लारा कोडिगारा, जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं सिप्पारिया ।। से किं भासारिया, भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासें ति, तथावि यणं जत्थ बंभी लिवी पबत्तइ, बंभीए णं लिवीए अद्वारसविहे लेक्खविहाणे प०,०--भी जवणार्णिया दोसापुरिया खरोही पुक्खरसारियो भोगवइयां पहराइयाँ अंतक्सरियाँ अक्खरपुडियां वेणइयाँ निण्हइया अंकलिवी गणियलिवी गंवलिवी आयंसलिवी माहेसरी दोमिलिवी पोलिन्दी, से भासारिया। से किं तं नाणारिया, नाणारिया पंचविहा प०, तं०-आभिणियोहियनाणारिया सुयनाणारिया ओहिनाणारिया मणपजवनाणारिया केवलनाणारिया, सेत्तं नाणारिया । से किं तं दसणारिया , दंसणारिया दुविहा पं०, तं०-सरागर्दसणारिया य वीयरायदंसणारिया य, से कि तं सरागदसणारिया?, सरागंदसणारिया दसविहा प०, तं-निसंग्गुवएसई आणरुई सुत्तबीयेरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेवेधम्मरुई ॥११५।। भूपत्थेणाहिगया जीवाजीवे य पुण्णपावं च । SAB202eeraoe3929020302820 दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] SAREaratunintamanna Turasurary.org ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना मलयवृत्ती प्रज्ञापनापदे मनुष्यप्रज्ञा. [३७] BCCORE गाथा: सहसंमुइया आसवसंवरे य रोएइ उ निसग्गो ॥११६।। जो जिणदिवे भावे चउबिहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नहतिय निसग्गरुइत्ति नायबो ॥११७। एए चेव उ भावे उवदिहे जो परेण सद्दहह । छउमत्येण जिणेण व उपएसरुइति नायबो॥ ॥११८।। जो हेउमयाणतो आणाए रोयए पवयणं तु । एमेव नन्नहत्ति य एसो आणाई नाम ॥११९।। जो सुत्तमहिअन्तो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण वाहिरेण व सो सुत्तरुइत्ति गायत्रो॥१२०॥ एगपएणेगाई पदाई जो पसरई उ सम्म । उदएच तिल्लविंदू सो बीयरुइति नायबो ॥१२१॥ सो होइ अभिगमरुई सुयनाणं जस्स अत्यओ दिई । इकारस अंगाई पइनगा दिहिवाओ य ॥१२२।। दवाण सबभावा सबपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सबाहिं नयविहीहिं वित्थाररुइति नायबो ॥१२३शादसणनाणचरिते तवविणए सबसमिगतीस । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम ।।१२।।। अणभिगहियकुदिही संखेवरुदति होइ नायचो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु॥१२५।जो अस्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरिचधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइति नायवो ॥१२६॥ परमत्वसंथवो वा सुदिपरमत्थसेवणा बावि । बावनकुदंसणवजणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ १२७॥ निस्संकिय निकंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिही य । उवव्हथिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ट ॥१२८॥ से सरागर्दसणारिया। से किं तं वीयरायदंसणा [य] रिया ?, वीयरायदसणा [य] रिया दुविहा प०, तं०-उवसंतकसायवीयरायदसणा [यरिया य खीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य । से किं तं उपसंतकसायवीयरायदसणा [य] रिया ?, उपसंतकसायवीयरायदंसणा [य] रिया दुविहा प०, तं०-पढमसमयउवसंतकसायवीयरायदसणा [य] रियाय अपढमसमयउवसंतकसायवीयरायदसणा [य] रिया य, अहवा चरिमसमयउवसंतकसायवी दीप अनुक्रम [१६६-१९०]] । ~ 116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] - - गाथा: यरायदसणा [य] रियाय अचरिमसमवउपसंतकसायवीयरायदसणा यारिया य । से कितं खीणकसायवीयरायदंसणा[रिया , खीणकसायवीयरायदंसणा [वरिया दविडा प०.०-छउमस्थखीणकसायवीयरायदसणा[य]रिया य केवलिखीणकसायवीयरायदसणा [यरिया य । से कितं छउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया, छउमत्थखीणकसायवीयरायदसणायरिया दुविहा प०, तं०-सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य पुरोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा[य] रिया य, से कितं सर्यबुद्धछउमत्थखीणकसायचीयरायदसणा[य] रिया, सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया दुविहा प०, तं०-पढमसमयसयबुद्धछउमत्थखीणकसायचीयरायर्दसणा [य] रिया य अपढमसमयसयंबद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा[य] रिया य, अहवा चरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा या रिया य अचरिमसमयसर्यबुद्धछउमथखीणकसायवीयरायदसणा [य] रियाय, से २ सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा यरिया । से किं तं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया ?, बुद्धचोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा[य] रिया दुविहा प०,तं--पढमसमयबुद्धबोहियखीणकसायवीयरायदंसणारिया य अपढमसमयबुद्धचोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया य, अहवा चारमसमयबुद्धयोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य अचरिमसमयबुद्धचोहियछउमत्थखीणकसायचीयरायदंसणा [य] रिया य, सेनं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा[य] रिया, सेत्तं छउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया । से कितं केवलिखीणकसायवीयरायदसणा [ रिवा, केवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया दुविहा प०, दीप अनुक्रम Recenessee - [१६६ - -१९०] Mainrary.org ~ 117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .. -- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. [३७] n५७॥ गाथा: तं०-सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदसणा[य] रिया य अजोगिकेबलिखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य । से कित १प्रज्ञापसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य]रिया ?, सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया दुविहा प०, तै:- नापदे मपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य अपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] नुष्यप्रज्ञा. रिया य, अहवा चरिमसमयसजोगिकेबलिखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवी- (सू.३७) यरायदंसणा [य] रिया य । सेत्तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया । से किं तं अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया ?, अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया दुविहा प०, तं-पढमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायचीयरायदंसणा [य] रिया य अपढमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायचीयरायदंसणा [य रिया य, अहवा चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदसणा [यरिया य अचरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदसणा [य]रिया य, सेतं अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया, सेचं केवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [4] रिया, से खीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया, सेत्तं दसणा [य] रिया ।।। सुगम, नवरं 'रायगिहमगह' इत्यादि, राजगृहं नगरम् , मगधो जनपदः, एवं सर्वत्रापि अक्षरसंस्कारो विधेयः ॥५७ ॥ भावार्थस्त्वयम्-१ मगधेषु जनपदेषु राजगृह नगरम् , २ अङ्गेषु चम्पा ३ वनेषु तामलिप्ती ४ कलिङ्गेषु काञ्चनपुरं । ५ काशिषु वाराणसी ६ कोसलासु साकेतं ७ कुरुषु गजपुरं ८ कुशावर्तेषु सौरिफ ९ पाञ्चालेषु काम्पिल्यं, १० जङ्गलेषु दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] AREauratonintamarana ~ 118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .. -- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] गाथा: अहिच्छत्रा ११ सुराष्ट्रेषु द्वारावती १२ विदेहेषु मिथिला १३ वत्सेषु कौशाम्बी १४ शाण्डिल्येषु नन्दिपुर, १५ मलयेषु भद्दिलपुरं १६ वत्सेषु वैराटपुरं १७ वरणेषु अच्छापुरी १८ दशाणेषु मृत्तिकावती १९ चेदिषु शौक्तिकावती २० वीतभयं सिन्धुपु सौवीरेषु २१ मथुरा शूरसेनेषु २२ पापा भङ्गेषु २३ मास(सा)पुरिवट्टा( यां) २४ कुणालेषु श्रावस्ती २५ लाटासु कोटिवर्ष २६ ताम्बिकानगरी केकयजनपदार्ट्स एतावदर्द्धषड्विंशतिजनपदात्मक क्षेत्रमार्य भणितं, कुतः? इत्याह-'इत्थुप्पची' इत्यादि, यस्मादत्र-एषु अर्द्धषड्विंशतिसंख्येषु जनपदेषु उत्पत्तिर्जिनानां-तीर्थकराणां चक्रवर्तिनां रामाणां-बलदेवानां कृष्णानां-बासुदेवानां तत आर्य, एतेन क्षेत्रार्यानार्यव्यवस्था दर्शिता-यत्र तीर्थकरादी-IN नामुत्पत्तिस्तदार्य शेषमनार्यमिति । उक्ताः क्षेत्रार्याः, सम्प्रति जात्यार्यप्रतिपादनार्थमाह-सुगम, नवरं यद्यपि शाखान्तरेष्यनेका जातय उपवर्ण्यन्ते तथाऽपि लोके एता एव अम्बष्ठ-कलिन्द-बैदेह-वेदंग-हरित-चुंचुणरूपा इभ्यजातयोऽभ्यर्चनीया जातयः प्रसिद्धाः, तत एताभिर्जातिभिरुपेता जात्यार्या न शेषजातिभिः। 'तुण्णागा' इत्यादि, तुन्नाकाः-सूच्याजीविनः तन्तुवायाः-कुविन्दाः पट्टकाराः-पट्टकूलकुविन्दाः, देयडा-दृतिकाराः वरुट्टा:-पिच्छिकाः छर्विका:-कटादिकाराः कट्ठपाउरा-काष्ठपादुकाकाराः, एवं मुंजपाउयारा, 'छत्तारा' छत्रकाराः, एवं शेषापयपि पदानि भावनीयानि । अाही यवनानीत्यादयो लिपिभेदास्तु संप्रदायादवसेयाः । उक्ता भाषाः , सम्प्रति ज्ञानायांनाह-से किं तं' इत्यादि सुगमम् । दर्शनार्यानाह-अथ के ते दर्शनार्याः, सूरिराह-दर्शनार्या द्विविधाः प्रज्ञप्ता, दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] ~ 119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], -- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाःमलय.वृत्ती . [३७] ॥५८॥ गाथा: तद्यथा-सरागदर्शनार्या वीतरागदर्शनार्याच, तत्र सराग-सकपायं यदर्शनं तेनायाः सरागदर्शनार्याः वीतराग १प्रज्ञापउपशान्तकषायं क्षीणकषायं वा यद्दर्शनं तेनार्या वीतरागदर्शनार्याः । तत्र सरागदर्शनार्यप्रतिपादनार्थमाह-से किंत' नापदे मइत्यादि, अथ के ते सरागदर्शनार्याः १, सूरिराह-सरागदर्शनार्या दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'निसरगुवएस'- नुष्यमज्ञा. इत्यादि, अत्र रुचिशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, ततो निसर्गरुचिरिति द्रष्टव्यं, तत्र निसर्गः-खभावः तेन रुचिः-जिनप्रणीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः, उपदेशो--गुर्वादिना यस्ततत्वकथनं तेन रुचिः-उक्तखरूपा यस्य स॥ उपदेशरुचिः, आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तस्यां रुचिः-अभिलापो यस्य स आज्ञारुचिः, जिना व मे तत्त्वं न शेष युक्तिजातमिति योऽभिमन्यते स आज्ञारुचिरिति भावार्थः, 'सुत्तबीयरुइमेवत्ति' अत्रापि रुचिशब्दः प्रत्येकमभिसं-11 बध्यते, सूत्रम्-आचाराङ्गाद्यङ्गप्रविष्टं अजवायम्-आवश्यकदशवकालिकादि तेन रुचिर्यस्य स तथा, सूत्रमाचारा-1 रादिकमाविष्टमङ्गवाखमावश्यकादिकमधीयानो यः सम्यक्त्वमवगाहते प्रसन्नप्रसन्नतराध्यवसायच भवति स सूत्ररु चिरिति भावार्थः, बीजमिव बीजं-यदेकमप्यनेकार्थप्रबोधोत्पादकं वचः तेन रुचिर्यस्य स चीजरुचिः, अनयोश्च । हा पदयोः समाहारद्वन्द्वः तेन नपुंसकनिर्देशः, एवेति समुच्चये, 'अहिगमवित्थाररुइत्ति' अत्रापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकम- ॥५८॥ [भिसंवन्धः, अधिगमरुचिर्विस्ताररुचिश्च, तत्राधिगमो-विशिष्ट परिज्ञानं तेन रुचिर्यस्यासावधिगमरुचिः, विस्तारो-11 व्यासः सकलद्वादशाकस्य नयैः पर्यालोचनमिति भावः, तेनोपबृंहिता रुचिर्यस्य स विस्ताररुचिः, 'किरियासंखेव-18 दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] गाथा: धम्मरुइत्ति' रुचिशब्दस्यात्रापि प्रत्येकं संबन्धात् क्रियारुचिः संक्षेपरुचिधर्मरुचिरिति द्रष्टव्यं, तत्र क्रिया-सम्यक-18 |संयमानुष्ठानं तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः, संक्षेपः-संग्रहः तत्र रुचिर्यस्य विस्तरार्थापरिज्ञानात् स संक्षेपरुचिः धर्मअस्तिकायधर्मे श्रुतधर्मादी वा रुचिर्यस्य स धर्मरुचिरिति गाथासंक्षेपार्थः ॥ व्यासार्थ तु सूत्रकृदेव खत आह-'भूय-13 त्थेण' इत्यादि, 'भूयत्थेण' इति भावप्रधानो निर्देशः, ततोऽयमर्थः-भूतार्थत्वेन-सद्भता अमी पदार्था इत्येवंरूपेण [यस्याधिगताः-परिज्ञाता जीवाजीयाः पुण्यं पापमाश्रवं संवरः चशब्दाद् बन्धादयश्च, कथमधिगताः इत्याह-'सहसम्मुइआ' इति आपस्वाद विभक्तिलोपाय सहसंमत्या सह-आत्मना या संगता मतिः सा सहसंमतिः तया, किमुक्त भवति-परोपदेशनिरपेक्षया जातिसरणप्रतिभादिरूपया मल्या, न केवलमधिगताः, किन्तु तान् जीवादीन् पदा-18 र्थान् वेदयतेऽनुरोचयति च तत्त्वरूपतयाऽऽत्मसात्परिणामयति चेति भावः, एष निसर्गरुचिर्विज्ञेय इति शेषः । अमुमेवार्थ स्पष्टतरमभिधित्सराह-जो जिणदिटे भावे' इत्यादि, यो जिनदृष्टान् भावान् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतो। नामादिभेदतो वा चतुर्विधान् स्वयमेव-उपदेश निरपेक्षः श्रद्दधाति, केनोलेखेन श्रद्दधाति , तत आह-'एवमेव एतत्-जीवादि यथा जिनष्टं नान्यथा इति, चः समुच्चये, एष निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ उपदेशरुचिमाह-एए चेव' इत्यादि, एतानेव जीवादिभावान् परेण छद्मस्थेन जिनेन वोपदिष्टान् श्रद्दधाति एष उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः। आज्ञारुचिमाह-'जो हेउमयाणतो' इत्यादि, यो हेतु-विवक्षितार्थगमकमजानानः प्रवचनमाज्ञयैव तुशब्द एवकारार्थः दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] SAMEnirahumal atunaturary.org ~ 121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], -- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥ ५९॥ गाथा: केवलया रोचते, कथम् ? इत्याह-एवमेतत् प्रवचनोक्तमर्थजातं नान्यथेति एष आज्ञारुचिर्नाम । सूत्ररुचिमाह-'जो प्रज्ञापसुत्तं' इत्यादि, यः सूत्रम्-अङ्गप्रविष्टमङ्गवायं वा अधीयानतेन श्रुतेनाङ्गप्रविष्टेनाबाह्येन वा सम्यक्त्वमवगाहते स नापदे मसूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः । वीजरुचिमाह-'एगपएणेगाई' इत्यादि, एकेन पदेन प्रक्रमाज्जीवादीनामनेकानि पदानि- नुष्यप्रज्ञा. प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययादनेकेषु जीवादिषु पदेषु यः सम्यक्त्वमिति धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् सम्यक्त्ववान् आत्मा (सू.३७) प्रसरति तुशब्दोऽवधारणार्थः प्रसरत्येव, कथम् ? इत्याह-उदक इव तैलबिन्दुः, किमुक्तं भवति ?-यथा उदकैकदेशगतोऽपि तैलबिन्दुः समस्तमुदकमाकामति तथैकदेशोत्पन्नरुचिरप्यात्मा तथाविधक्षयोपशमभावादशेषेषु तत्त्वेषु रुचिमान् भवति स एवंविधो बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः । अधिगमरुचिमाह-'सो होइ' इत्यादि, यस्य श्रुतज्ञानमघेतो दृष्टमेकादशाहानि, प्रकीर्णकमित्यत्र जातायेकवचनं, ततोऽयमर्थः-प्रकीर्णकानि उत्तराध्ययनादीनि दृष्टिवादः चशब्दादुपाङ्गानि च स भवत्यधिगमरुचिः । विस्ताररुचिमाह-'दवाण' इत्यादि, द्रव्याणां-धर्मास्तिकायादीनामशे-IN पाणामपि सर्वे भावा:-पर्याया यथायोग सर्वप्रमाणेः-प्रत्यक्षादिभिः सर्वैश्च नयविधिभिः-नैगमादिनयप्रकारैः उपलब्धाः स विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः, सर्ववस्तुपर्यायप्रपञ्चायगमेन तस्या रुचेरतिनिर्मलरूपतया भावात् । क्रियारुचिमाह-दसण' इत्यादि, दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनज्ञानचारित्रं समाहारो द्वन्द्वः तस्मिन् तथा तपसि विनये च तथा सर्वासु समितिधु-ईर्यासमित्यादिषु सर्वासु च गुप्तिपु-मनोगुप्तिप्रभृतिषु यः क्रियाभावः स क्रियारु दीप अनुक्रम ॥ ५९॥ [१६६ -१९०] ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ------------ मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] गाथा: चिः, किमुक्तं भवति ?-यस्य भावतो दर्शनाद्याचारानुष्ठाने रुचिरस्ति स खलु क्रियारुचिर्नाम । संक्षेपरुचिमाह|'अणभिग्गहिय' इत्यादि, नाभिगृहीता कुत्सिता दृष्टियेनासायनभिगृहीतकुदृष्टिः, अविशारदः प्रवचने जिनप्रणीते शेषेषु च कपिलादिप्रणीतेषु प्रवचनेषु अनभिगृहीतो-न विद्यते आभिमुख्येनोपादेयतया गृहीतं-ग्रहणमय इत्यन|भिगृहीतः, पूर्वमनभिगृहीतकुदृष्टिरित्यनेन दर्शनान्तरपरिग्रहः प्रतिषिद्धः अनेन परदर्शनपरिज्ञानमात्रमपि निषिद्धमिति विशेषः, स इत्थंभूतः संक्षेपरुचिरिति ज्ञातव्यः॥ धर्मरुचिमाह-'जो अस्थिकाय' इत्यादि, यः खलु जीवोऽस्तिकायानां-धर्मास्तिकायादीनां धर्म-गत्युपष्टम्भकत्यादिरूपं खभावं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च जिनाभिहितं श्रद्दधाति स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ तदेवं निसर्गाद्युपाधिभेदाद् दशधा रुचिरूपं दर्शनमुक्तं, सम्प्रति यैर्लिअरिदमुत्पन्नमस्ति & इति निश्चीयते तानि लिङ्गान्युपदर्शयन्नाह–'परमत्थसंथवो वा' इत्यादि, परमाच-तात्त्विकाश्च तेऽर्थाश्च-जीवाद यस्ते परमार्थाः तेषु संस्तवः-परिचयः, तात्पर्येण बहुमानपुरस्सरं जीवादिपदार्थावगमायाभ्यास इतियावत् , वाशब्दः समुच्चये, सुष्टु-सम्यग्रीत्या दृष्टाः परमार्था-जीवादयो यैस्ते सुदृष्टपरमार्थाः तेषां सेवना-पर्युपास्तिः सुदृष्टपर|मार्थसेवनं, स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , वाशब्दोऽनुक्तसमुच्चये, यथाशक्ति तद्वैयावृत्यप्रवृत्तिश्च, अपिः समुच्चये, तथा 'वाव-1 बकुदसणत्ति' दर्शनशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, व्यापन्नं-विनष्टं दर्शनं येषां ते व्यापन्नदर्शनाः-निहवादयः तथा कु-11 18|त्सितं दर्शनं येषां ते कुदर्शनाः-शाक्यादयस्तेषां वर्जनं व्यापन्नकुदर्शनवर्जनम् , अत्रापि स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , 'सम्मत्त-श दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] SAREairaum ond ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३७] + गाथा: दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१]. उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [... ३७] + गाथा: ( १०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्तौ. ॥ ६० ॥ सहणा' इति सम्यक्त्वश्रद्धानं, एतैः परमार्थसंस्तवादिभिः सम्यक्त्वमस्तीति श्रद्धीयते इत्यर्थः । अस्य च दर्शनस्याचारा अष्टौ, ते च सम्यक् परिपालनीयाः, तदतिक्रमेण दर्शनस्याप्यतिक्रमभावात्, अतस्तानुपदर्शयितुमाह-'निस्संकिय' इत्यादि, शङ्कनं शङ्कितं, देशशङ्का सर्वशङ्का चेत्यर्थः, निर्गतं शङ्कितं यस्मादसौ निःशङ्कितः, देशसर्वशङ्कारहित इति भावार्थ:, तत्र देशशङ्का - समाने जीवत्वे कथमेको भव्यः अपरस्त्वभव्य इति ?, सर्वशङ्का - प्राकृतनिबन्धत्वात्सकलमेवेदं प्रवचनं परिकल्पितं भविष्यतीति, न चेयं देशशङ्का सर्वशङ्का वा युक्ता, यत इह द्विविधा भावाः, तद्यथा-हेतुग्राह्या अहेतुप्राश्वाश्च तत्र हेतुग्राह्या जीवास्तित्वादयः, तत्साधकप्रमाणसद्भावात्, अहेतुग्राह्या अभव्यत्वादयः, अस्मदाद्यपेक्षया तत्साधक हेतूनामसंभवात् प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति, प्राकृतोऽपि च निबन्धः प्रवचनस्य वालाद्यनुग्रहार्थः, उक्तं च- "बालश्रीमूढमूर्खाणां नृणां चारित्रकाङ्क्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ १ ॥" अपि च- प्राकृतोऽपि निबन्धः प्रवचनस्य दृष्टेष्टाविरोधी अतः कथमवान्तरपरिकल्पनाशङ्का ?, सर्वज्ञमन्तरेणान्यस्य दृष्टेष्टाविरोधिवचनासंभवात् निःशङ्कित इति जीव एवार्हच्छासनप्रतिपन्नो दर्शनाचरणात् तत्प्राधान्यविवक्षायां दर्शनाचार उच्यते एतेन दर्शनदर्शनिनोः कथंचिदभेदमाह, एकान्तभेदे तु अदर्शनिन इव तत्फलायोगतो मोक्षाभावप्रसङ्गः, एवमुत्तरेष्वपि त्रिषु पदेषु भावना कार्या, तथा 'निष्काङ्क्षित' इति, काङ्क्षणं काह्नितं निर्गतं काङ्क्षितं यस्मादसौ निष्काङ्क्षितः, देशसर्वकाङ्क्षारहित इत्यर्थः, तत्र देशकाङ्क्षा-एक दिगम्बरादिदर्शनम Educatin internation For Parts Only ~124~ १ प्रज्ञाप नापदे मनुष्यप्रज्ञा. (सू.३७) ॥ ६० ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], .. -- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] गाथा: भिकालते सर्वकाहा-सर्वाण्येव दर्शनानि शोभनानीत्येवमनुचिन्तनं, इयं च द्विधाऽप्ययुक्ता, शेषदर्शनेषु षड्जीवनिकायपीडाया असत्प्ररूपणायाश्च भावात् । तथा विचिकित्सा-मतिविभ्रमः फलं प्रति संशय इतियावत् निर्गता विचिकित्सा यस्मादसौ निर्विचिकित्सा, 'साध्वेवं जिनशासनं, किन्तु प्रवृत्तस्य सतो ममास्मात् फलं भविष्यति । नवा , क्रियायाः कृषिवलादिषु उभयथाऽप्युपलब्धेः' इतिविकल्परहितः, न विकल उपाय उपेयवस्तुप्रापको न भवतीति संजातनिश्चयो निर्विचिकित्स इति भावः, एतावताशेन निःशङ्किता भिन्नः, यद्वा 'निविदुगुंछो' इति । निर्विद्वज्जुगुप्सः साधुजुगुप्सारहित इत्यर्थः, उदाहरणं च विद्वजुगुप्सायां श्रावकदुहिता । तथा 'अमूढदिट्टी यत्ति' वालतपखितपोविद्यातिशयदर्शननं मुढा-खभावाचलिता दृष्टिः सम्यगदर्शनरूपा यस्पासावमूढदृष्टिः, अत्रोदाहरणं । सुलसाश्राविका, सा सम्बङपरित्राजकसमृद्धीरुपलभ्यापि न संमोहं गता । तदेवं गुणिप्रधान आचार उक्तः, सम्प्रति गुणप्रधानमाह-'उपवूह' इत्यादि, उपबृंहणं च स्थिरीकरणं च उपबृंहणस्थिरीकरणे, तत्रोपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तदृद्धिकरणं, स्थिरीकरणं धर्माद् विषीदतां तत्रैव स्थापनं । वात्सल्यं च प्रभावना च वात्सल्यप्रभावने, तत्र वात्सल्यं समानधार्मिकाणां प्रीत्योपकारकरणं, प्रभावना धर्मकथादिभिस्तीर्थप्रख्यापना । अयं च गुणप्रधाननिर्देशो गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदरूयापनार्थः, अन्यथा एकान्ताभेदे गुणनिवृत्ती गुणिनोऽपि निवृत्तः दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] Baitaram.org ~ 125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३७] + गाथा: दीप अनुक्रम [१६६ -१९०] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [१]. उद्देशक: [-], मूलं [... ३७] + गाथा: ( १०८-१२८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ६१ ॥ प्रज्ञापना- १ शून्यतापत्तिः । एतेऽष्टौ दर्शनाचाराः ॥ तदेवमुक्ताः सरागदर्शनभेदाः, तदभिधानाञ्चाभिहिताः सरागदर्शनार्यभेदाः ॥ याः मल- ४ सम्प्रति वीतरागदर्शनार्यादिभेदानाह - ( से किं तमित्यादि, तदेवं दर्शनार्थभेदानुक्त्वा चारित्रार्थमे दानाह - ) थ० वृत्तौ . से किं तं चरिता [य]रिया १, चरितारिया दुविहा प०, तं० सरागचरिचारिया य बीयरागचरितारिया य से किं तं सरागचरिचारिया ?, सरागचरितारिया दुविहा प०, तं० - सुदुमसंपरायसरागचरितारिया य वायरसंपरायसरागचरित्तारिया य से किं तं सुहुमसंपरायसरागचरितारिया, सुडुमसंपरायसरागचरितारिया दुबिहा प०, तं० पढमसमयसुदुमसंपरायसरागचरितारिया य अपढमसमय सुडुमसंपरायसरागचरितारिया य, अहवा चरिमसमयसुडुमसंपरायसरागचरितारिया य अचरिमसमयसुहुमसंपरायसरागचरिचारिया य, अहवा सुहुम संपरायसरागचरितारिया दुबिहा पर, तं ० - संकिलिस्समाणा य विमुज्झमाणा य, सेतं सुडुमसंपरायसरागचरितारिया । से किं तं बादरसंपरायसरागचरितारिया १, बादरपरायसरागचरितारिया दुबिहा प०, तं० – पढमसमयबाद रसंपरायसरागचरितारिया अपढमसमयचादरसंपरायसरागचरितारिया य, अह्वा चरिमसमयबादरसंपरायसरागचरितारिया य अचरिमसमयवादर संपरायसरागचरितारिया य, अहवा बादरसंपरायसरामचरितारिया दुबिहा प०, तं० – पडिवाई य अपडिवाई य, सेतं बादरसंपरायसरागचरितारिया, सेतं सरागचरितारिया । से किं तं वीयरायचरितारिया ?, बीयरायचरितारिया दुबिहा प०, तं ० -- उवसंत कसायवीयरायचरिचारिया य खीणकसायवीयरायचरितारिया य से किं तं उवसंतकसायवीयरायचरितारिया ?, उवसंतकसायवीयरायचरितारिया दुविहा प०, तं पढमसमय उवसंत कसायचीयरायचरितारिया य अपढमसम Education Internationa For Parts Only ~126~ १ प्रज्ञाप है नापदे क मकर्मानार्यजा त्याद्यार्य मनुष्यसूत्रं ३७ ॥ ६१ ॥ yor Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१] ... ....- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ---- मूल [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] यउवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया य,अहवा चरिमसमयउपसंतकसायवीयरायचरित्तारिया य अचरिमसमयउवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया य, सेतं उवसंतकसायचीयरायचरिचारिया । से किं तं खीणकसायवीयरायचरित्तारिया, खीणकसायवीयरायचरिचारिया दुविहा प०,०-छउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य केवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया य । से किं तं छउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया ?, छउमत्वखीणकसायवीयरायचरित्तारिया दुविहा प०, तं.-सयंयुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायचरिचारिया य बुद्धबोहियछउमस्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य । से कि तं सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया ?, सबबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया दुविहा प०,०पढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायचीयरायचरित्तारिया य अपढमसमयसयंयुद्धछउमस्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य, अहबा चरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायचरिचारिया य अचरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायचीयरायचरित्तारिया य । सेत्तं सयंबुद्धखीणकसायवीयरायचरिचारिया ।से कितं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरिचारिया ?, बुद्धघोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरिचारिया दुविहा प०, तं-पढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायचीयरायचरिचारिया य अपढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयबुबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य अचरिमसमयबुद्धयोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य, से बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरिचारिया, सेतं छउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया । से कित केवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया ?, केवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया दुविहा प०, . सजोगिकेचलिखीणक aatha92999999999999 दीप अनुक्रम [१९०] SAREnaturnitunational ~ 127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १मज्ञाप प्रत प्रजापनायाः मलयावृत्ती. सूत्रांक [३७] ॥६२॥ दीप अनुक्रम [१९०] सायवीयरायचरिचारिया य अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य । से किं तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया, सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया दुबिहा प०, तं-पढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायधीयरायचरिचारिया य अपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, अहवा चरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, सेत्तं सजोगिकेवलिखीणकसायपीयरायचरिचारिया । से किं तं अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया, अजोगिकेवलिखीणकसाय- त्याचार्यवीयरायचरिचारिया दुविहा प०,०-पढमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्नारिया य अपढमसमयअजोगि मनुष्यसूत्र केवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, अहवा चरिमसमयअजोगिकेबलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य अचरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, सेत्तं अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया, से केवलिखी. णकसायवीयरायचरित्तारिया, सेनं खीणकसायवीयरायचरित्नारिया सेत्तं वीयरायचरित्नारिया । अहवा चरित्तारियापंचविहा प०,०-सामाइअचरित्तारिया छेदोवडावणीयचरित्तारिया परिहारविसुद्धिचरिचारिया मुहुमसंपरायचरित्तारिया अहक्खायचरिचारिया य । से कितं सामाइयचरित्तारिया, सामाइयचरित्तारिया दुविहा प०,०-इत्तरियसामाइयचरिचारिया य आवकहियसामाइयचरिचारिया य, सेत्तं सामाइयचरिचारिया । से किं तं छेदोवद्वावणियचरिचारिया , छेदोवढावणियचरित्तारिया दुविहा प०,०-साइयारछेदोवडावणियचरिचारिया य निरइयारछेदोवहावणियचरिचारिया य, सेतं छेदोवद्यावणियचरित्तारिया । से किं तं परिहारविमुद्धियचरित्तारिया, परिहारविसुद्धियचरिचारिया 18 aeroeacher ॥६२॥ AREauratonintamational ~ 128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] दुविहा प०, तं०-निविस्समाणपरिहारपिसुद्धियचरिचारिया य निधिहकाइयपरिहारविसुद्धियचरित्तारिया य, से तं परिहारविसुद्धियचरित्तारिया । से किं तं मुहमसंपरायचरित्तारिया ?, मुहुमसंपरायचरित्तारिया दुविहा प०, तं0संकिलिस्समाणसुहमसंपरायचरित्तारिया य विसुज्झमाणसहमसंपरायचरित्तारिया य, सेतं सुहमसंपरायचरित्तारिया । से किं तं अहक्खायचरितारिया ?, अहक्खायचरिचारिया दुविहा प०, तं०-छउमस्थअहक्खायचरित्तारिया य केवलिअहक्खायचरिचारिया य, से अहक्खायचरितारिया, सेत्तं चरित्तारिया, से अणिहिपत्तारिया, से कम्मभूमगा, सेवं गन्भवतिया, सेत्र मणुस्सा । (सू० ३७) 'से किं तं' इत्यादि सुगर्म, यावद् 'अहवा चरित्तारिया पंचविहा पन्नत्ता तंजहा-सामाइअचरित्तारिया' इत्यादि, | नवरं पढमसमय अपढमसमय इति, ये तेषामेवोपशान्तकषायत्वादीनां विशेषाणां प्रथमे समये वर्तन्ते ते प्रथमस- मयाः, ततो द्वितीयादिषु समयेषु वर्तमाना अप्रथमसमया, तथा 'चरिमसमय अचरिमसमय' इति ये तेषामेवोपशान्तकषायत्वादीनां विशेषाणामन्त्यसमये वर्तन्ते ते चरमसमयाः, ये ततोऽर्वागू द्विचरमत्रिचरमादिषु समयेषुवर्तन्ते ते अचरमाः।सामायिकादिचारित्राणां स्वरूपमिदम्-समो रागद्वेषरहितत्वाद् आयो गमनं समायः एष चान्यासाम[पि साधुक्रियाणामुपलक्षणं, सर्वासामपि साधक्रियाणांरागद्वेषरहितत्वात् , समायेन निर्वृत्तं समाये भवं वा सामायिकं, यद्वा समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो-लाभः समायः समाय एव सामायिक विनयादेराकृतिगणतया "विन दीप अनुक्रम [१९०] Halaunciarary.org ~129~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], -------------- उद्देशकः [-], -------------- दारं [-1, ------------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मल- यवृत्ती. मकर्मा सूत्रांक [३७]] त्याचार्य दीप |यादिभ्यः" (पा०५-४-३४) इत्यनेन स्वार्थिक इकण, तथ सर्वसावद्यविरतिरूपं, यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतःप्रज्ञापसामायिक तथाऽपि छेदादिविशेषैर्विशेष्यमाणमर्थतःशब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते,प्रथमं पुनरविशेषणात् सामान्यशब्द | नापदे कएचावतिष्ठते सामायिकमिति,तच द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च,तत्त्वरं भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेवनारोपितमहात्रतस्य शैक्षकस्य विज्ञेयं,यावत्कथिकं प्रवज्याप्रत्तिपत्तिकालादारभ्याप्राणोपरमात्,तच्च भरतैरावतभाबिमध्यद्वा नार्यजाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तरगतानां विदेहतीर्थकरतीर्थान्तरगतानां च साधूनामवसेयं,तेषामुपस्थापनाया अभावात् , उक्तं मनुष्यसूत्रं च-"सबमिणं सामाइय छेयाइविसेसियं पुण विभिन्नं। अविसेसं सामाइय चियमिह सामन्नसनाए ॥१॥ सावज्जजो- ३७ गविरइत्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहंति य पढमं पढमंतिमजिणाणं ॥२॥ तित्थेसु अणारोवियवयस्स सहस्स थोवकालीयं । सेसाणमावकहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥३॥" ननु च इत्वरमपि सामायिकं करोमि भदन्त ! सामायिकं यावज्जीवमिसेवं यावदायुरागृहीतं, तत उपस्थापनाकाले तत्परित्यजतः कथं न प्रतिज्ञाभङ्गः, उच्यते, ननु प्रागेवोक्तं-सर्वमेवेदं चारित्रमविशेषतः सामायिक, सर्वत्रापि सावद्ययोगविरतिसद्भावात् , केवलं छेदादिविशुद्धिविशेपैविशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, ततो यथा यावत्कथिक सामायिकं छेदोपस्थापनं च परमविशुद्विविशेषरूपसूक्ष्मसंपरायादिचारित्रावाप्तौ न भङ्गमास्कन्दति तथेत्वरमपि सामायिकं विशुद्धिविशेषरूपच्छेदोपस्थापनावाप्ती, यदि हि प्रत्रज्या परित्यज्यते तर्हि तद् भङ्गमापद्यते, न तस्यैव विशुद्धिविशेषावाप्ती, उक्कं च-"उन्निक्स अनुक्रम [१९०] ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] 0900200 मओ भंगो जो पुण तं चिय करेइ सुद्धयरं । सन्नामेत्तविसिष्टं सुहुमंपिव तस्स को भंगो ? ॥१॥” तथा छेदः पूर्वपर्या-18 यस्य उपस्थापना च महाव्रतेषु यस्मिन् चारित्रे तच्छेदोपस्थापनं, तच द्विधा-सातिचारं निरतिचारं च, तत्र निरति-18 चारं यदित्वरसामायिकवतः शैक्षकस्यारोप्यते तीर्थान्तरसंक्रान्ती वा, यथा पार्श्वनाथतीर्थाद् बर्द्धमानतीर्थ संक्रामतः पञ्चयामप्रतिपत्ती, सातिचारं यन्मूलगुणघातिनः पुनर्बतोचारणं, उक्तं च-सेहस्स निरइयारं तित्थन्तरसंकमे वतं होजा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे ॥१॥" 'उभयं चेति' सातिचारं निरतिचारं च 'स्थितकल्पे' इति प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थकाले । तथा परिहरणं परिहारः-तपोविशेषः तेन विशुद्धिर्यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिकं, तच्च द्विधा-निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विशमानका विवक्षितचारित्रासेवकाः, निर्विष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायाः, तदन्यतिरेकाचारित्रमप्येवमुच्यते । इह नयको गणः-चत्वारो निर्षिशमानकाच-| स्वारश्चानुचारिणः एकः कल्पस्थितो वाचनाचायें, यद्यपि च सर्वेऽपि श्रुतातिशयसंपन्नाः तथाऽपि कल्पत्वात् तेषा-1 मेकः कश्चित् कल्पस्थितोऽवस्थाप्यते । निर्विशमानकानां चायं परिहारः-परिहारियाण उ तवो जहन्न मज्झो तहेव | | उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणिओ धीरेहि पत्तेयं ॥१॥ तत्थ जहन्नो गिम्हे चउत्थ छटुं तु होइ मज्झिमओIN १ परिहारिकाणां तु तपः जघन्यं मध्यमं तथैवोत्कृष्टं । शीतोष्णवर्षाकाले भणितं धीरैः प्रत्येकम् ॥ १ ॥ तत्र जघन्यं श्रीष्मे चतुर्थ षष्टं तु भवति मध्यम। दीप अनुक्रम [१९०] Seeeeeseci SAMEnirahini ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल प्रत | नापदे क य.वृत्ती . सूत्रांक [३७]] ॥६४॥ दीप अनुक्रम [१९०] अट्ठममिह उक्कोसो एत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥२॥ सिसिरे उ जहन्नाई छट्ठाई दसमचरिमगो होइ । वासासु अट्ठमाई | १प्रज्ञापवारसपज्जन्तगो नेओ ॥३॥ पारणगे आयाम पंचसु अगहो दोसुऽभिग्गहो भिक्खे । कप्पट्ठिया पइदिणं करेन्ति || एमेव आयाम ॥४॥ एवं छम्मासतवं चरिउ परिहारगा अणुचरन्ति । अणुचरगे परिहारियपयट्टिए जाव छम्मा- कर्मा|सा ॥५॥ कप्पट्टिएवि एवं छम्मासतवं करेइ सेसा उ । अणुपरिहारिगभावं वयंति कप्पट्ठियत्तं च ॥६॥ एवेसो नार्यजाअट्ठारसमासपमाणो उ चण्णिओ कप्पो । संखेवओ विसेसो बिसेससुत्ताउ नायवो ॥७॥ कप्पसमत्तीएँ तयं जिणक-1 | त्याद्यार्यप्पं या उदिति गच्छं वा । पडिबजमाणगा पुण जिणस्सगासे पबजति ॥ ८॥ तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व नो उप अन्नस्म । एएसि जं चरणं परिहारविसद्धियं तं तु ॥९॥ अथ एते परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे काले वा भव-11 अष्टमं तु उत्कृष्टमितः शिशिरे प्रवक्ष्यामि ॥२॥ शिशिरे तु जघन्यादि षष्ठादि दशमचरमकं भवति । वर्षासु अष्ठमावि || द्वादशपर्वतक क्षेयं ।। ३॥ पारणके आचाम्लं भिक्षायां च पञ्चानां महः द्वयोरभिग्रहः । कल्पस्थिता अपि प्रतिदिनं कुर्वन्ति एवमेवाचाम्ल ।। ४ ।। एवं षण्मासान् तपाचरिखा परिहारिका अनुचरन्ति । अनुचरकाः परिहारिकपदविता यावत्षण्मासान् ॥ ५॥ कल्पस्थि ॥६४॥ तोऽप्येवं पण्मासांस्तपः करोति शेषाश्च । अनुपरिहारिकभावं ब्रजन्ति कल्पस्थितत्वं च ॥६॥ एवं एषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु वर्णितः कल्पः । सतपतो विशेषो बिशेषसूत्रात् ज्ञातव्यः ॥७॥ कल्पसमाप्तौ (परिहारं) जिनकल्पं वोपयन्ति गच्छं वा। प्रतिपद्यमानकाः पुन[र्जिनसकाशात्प्रपद्यन्ते ॥ ८॥ तीर्थकरसमीपासेवकस्य पार्श्वे न पुनरन्यस्य । एतेषां यधरणं परिहारविशुद्धिकं तत्तु ॥ ९॥ ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१] .... ...- उद्देशक: [-], ----------- दारं [-], -- -- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] |न्ति ?, उच्यते, इह क्षेत्रादिनिरूपणार्थ विंशतिद्वाराणि, तद्यथा-१ क्षेत्रद्वारं २ कालद्वारं ३ चारित्रद्वारं ४ तीर्थद्वार ५ पर्यायद्वारं ६ आगमद्वारं ७ वेदद्वारं ८ कल्पद्वारं ९ लिङ्गद्वारं १० लेश्याद्वारं ११ ध्यानद्वारं १२ गणद्वारं १३ अभिग्रहद्वारं १४ प्रव्रज्याद्वारं १५ मुण्डापनद्वारं १६ प्रायश्चित्तविधिद्वारं १७ कारणद्वारं १८ निष्प्रतिकर्मताद्वारं १९ भिशाद्वारं २० बन्धद्वारम् । तत्र क्षेत्रे द्विधा मार्गणा-जन्मतः सद्भावतश्च, यत्र क्षेत्रे जातस्तत्र जन्मतः मार्गणा, यत्र च कल्पे स्थितो वर्तते तत्र सद्भावतः, उक्तंच-"खेत्ते दुहेह मग्मण जम्मणओ चेव संतिभावे य । जम्मणओ जहि जातो संतीभावो य जहि कप्पो ॥१॥" तत्र जन्मतः सभावतश्च पञ्चसु भरतेषु पञ्चखेरावतेषु, न तु महाविदेहेषु, न चैतेषां संहरणमस्ति, येन जिनकल्पिक इव संहरणतः सर्वासु कर्मभूमिषु अकर्मभूमिपुवा प्राप्येरन् , उक्त च-"खत्ते भरहेरखएसु होन्ति संहरणबजिया नियमा"१कालद्वारे-अवसर्पिण्यां तृतीये चतुर्थे वारके जन्म, सद्भावः पञ्चमेऽपि, उत्सर्पिण्यां द्वितीये तृतीये चतुर्थे वा जन्म, सद्भावः पुनः तृतीये चतुर्थे वा, उक्तं च--"ओसप्पिणीए दोसु जम्मणओ तीसु संतीभावेण । उस्सप्पिणि विवरीओ जम्मणओ संतिभावेण ॥१॥" नोत्सर्पि-18 ण्यवसर्पिणीरूपे तु चतुर्थारकप्रतिभागकाले न संभवन्ति, महाविदेहक्षेत्रे तेषामसंभवात् २॥ चारित्रद्वारे-संयमस्था-18 II १ क्षेत्रे वियह मार्गणा जन्मतश्चैव सद्भावे च । जन्मतो यत्र जातः सद्भावतश्च यत्र कल्पः ॥१॥२ क्षेत्रे भरतैरापतेषु भवन्ति |% सहरणवर्जिता नियमात् । ३ अवसर्पिण्या द्वयोर्जन्मतः तिसृषु सद्भावतः । उत्सर्पिण्यां विपरीतो जन्मतः सद्भावेन ॥१॥ दीप अनुक्रम [१९०] SAREaratunmmona Hinduranorm ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [१९०] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१], उद्देशक: [-], दार [-], मूलं [... ३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ६५ ॥ नद्वारेण मार्गणा, तत्र सामायिकस्य छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जघन्यानि संयमस्थानानि तानि परस्परं तुल्यानि, समानपरिणामत्वात्, ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिक्रम्योर्द्ध यानि संयमस्था - नानि तानि परिहारविशुद्धिकयोग्यानि तान्यपि च केवलिप्रज्ञया परिभाव्यमानानि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि तानि प्रथमद्वितीयचारित्राविरोधीनि तेष्वपि संभवात् तत ऊर्ध्वं यानि संख्यातीतानि संयमस्थानानि ४ तानि सूक्ष्मसंपराययथाख्यात चारित्रयोग्यानि, उक्तं च- "तुला जहन्नठाणे संजमठाणाणि पढमबिइयाणं । तत्तो ४ असंखलोए गंतुं परिहारियद्वाणा ॥ १ ॥ तेऽवि असंखा लोगा अविरुद्धा चैव पढमबियाणं । उवरिंपि तर असंखा संजमठाणा उ दोपहंपि ॥ २ ॥” तत्र परिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्तिः खकीयेष्वेव संयमस्थानेषु वर्तमानस्य भवति न शेषेषु, यदा त्वतीतनयमधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेषेष्वपि संयमस्थानेषु भवति, परिहारविशुद्विकल्पसमाप्यनन्तरमन्येष्वपि चारित्रेषु संभवात् तेष्वपि च वर्तमानस्यातीतनयमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नत्वाविरोधात्, उक्तं च - "संहाणे पडिवत्ती अन्नेसुवि होज्ज पुत्रपडिवन्नो । तेसुवि वट्टन्तो सो तीतनयं पप्प बुधति उ ॥ १ ॥ ३॥ " १ तुल्यानि जघन्यस्थाने संयमस्थानानि प्रथमद्वितीययोः । ततोऽसंख्यलोकान् गत्वा परिहारिकस्थानानि ॥ १ ॥ तान्यपि असंख्या लोका अविरुद्धा एव प्रथमद्वितीययोः । उपर्यपि ततोऽसंख्येयानि संयमस्थानानि द्वयोस्तु || २ || २ स्वस्थाने प्रतिपत्तिरन्येष्वपि भवेत् पूर्वप्रतिपन्नः । तेष्वपि वर्त्तमानः सोऽतीतनयं प्राप्योच्यते तु ॥ १ ॥ Education internationa For Park Lise Only ~ 134~ १ प्रज्ञाप नापदे क मकर्मा नार्यजा त्याचार्य मनुष्यसूत्र ३७ ॥ ६५ ॥ www.rary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] तीर्थद्वारे परिहारविशुद्धिको नियमतस्तीर्थे प्रवर्तमाने एव सति भवति, न तच्छेदे नानुत्पत्त्यां वा तदभावे जातिस्मरणादिना, उक्तं च-"तित्यत्ति नियमतोचिय होइ स तित्थंमि न उण तदभावे । विगएऽणुप्पन्ने वा जाइसरणाइएहितो॥१॥" पर्यायद्वारे-पर्यायो द्विधा-गृहस्थपर्यायो यतिपर्यायश्च, एकैकोऽपि द्विधा-जघन्यत उत्कृतश्च, तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्यत एकोनत्रिंशद् वर्षाणि,यतिपर्यायो विंशतिः, द्वावपि च उत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटिप्रमाणी, उक्तं च-"एयस्स एस नेओ गिहिपजाओ जहन्निगुणतीसा । जइपजाओ वीसा दोसुवि उकोस देसूणा ॥१॥५॥" आगमद्वारे-अपूर्वमागर्म स नाधीते,यस्मात् तं कल्पमधिकृत्य प्रगृहीतोचितयोगाराधनत एव स कृतक-II त्यतां भजते, पूर्वाधीतं तु विस्रोतसिकाक्षयनिमित्तं नित्यमेवैकाग्रमनाः सम्यक् प्रायेणानुस्मरति, आह च-"अप्पुवं नाहिजइ आगममेसो पडुच्च तं कप्पं । जमुचियपगहिअजोगाराहणओ चेव कयकिच्चो ॥१॥ पुवाहीयं तु तयं पायमणुसरइ निचमेवेस । एगग्गमणो सम्मं विस्सोयसिगाइखयहेऊ ॥२॥६॥" वेदद्वारे-प्रवृत्तिकाले वेदतः पुरुष १ तीर्थमिति नियमत एव भवति स तीथें न पुनस्तभावे । विगतेऽनुत्पन्ने वा जातिस्मरणादिमिः ॥ १॥ २ एतस्वैप ज्ञातव्यो गृहिपर्यायो जघन्यत एकोनत्रिंशत् । यतिपर्यायो विंशतिः योरप्युत्कर्षतो देशोना (पूर्वकोटी) ॥१॥ ३ अपूर्व नाधीते आगममेष प्रतीय तं कल्पम् । यदुचितप्रगृहीतयोगाराधनतश्चैव कृतकृत्यः ॥ १॥ पूर्वाधीतं तु तत् प्रायोऽनुस्मरति नित्यमेवैषः । एकापमनाः सम्यक् विश्रोतसिकादिश्यहेतोः ॥२॥ दीप अनुक्रम [१९०] SNEniaNP ~ 135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- याः मलय. वृत्ती. प्रत सूत्रांक [३७]] ॥६६॥ वेदो वा भवेत् नपुंसकवेदो वा, न स्त्रीवेदः, स्त्रियाः परिहारविशुद्धिकल्पप्रतिपत्त्यसंभवात् , अतीतनयमधिकृत्य पुनः १ प्रज्ञापपूर्वप्रतिपन्नचिन्त्यमानः सवेदो वा भवेत् अवेदो वा, तत्र सवेदः श्रेणिप्रतिपत्त्यभावे उपशमश्रेणिप्रतिपत्ती वा, क्षप-11 नापदे ककश्रेणिप्रतिपत्ती त्ववेद इति, उक्तं च-"वेदो पवित्तिकाले इत्थीवजो उ होइ एगयरो । पुषपडिवनगो पुण होज। किर्मासवेदो अवेदो वा ॥२॥" कल्पद्वारे-स्थितकल्पे एवायं नास्थितकल्पे, “ठियकप्पमि य नियमा" इति वचनात्, नार्यजातत्राचेलक्यादिषु दशखपि स्थानेषु ये स्थिताः साधवः तत्कल्पः स्थितकल्प उच्यते, ये पुनश्चतुर्यु शय्यातरपिण्डादि त्याद्यार्य मनुष्यसूत्रं वस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाचेलक्यादिषु षट्खस्थिताः तत्कल्पोऽस्थितकल्पः, उक्तं च-"ठिययाठियओय कप्पो आचेलक्काइएसु ठाणेसु । सधेसु ठिया पठमो चउ ठिय छसु अट्ठिया बीओ॥१॥" आचेलक्यादीनि च दश स्थानान्यमूनि-"आचेलकुदेसियसेजायररायपिंडकिइकम्मे । वयजेट्टपडिकमणे मासं पजोसवणकप्पो ॥१॥ चत्वारश्चा-11 वस्थिताः कल्पा इमे-"सेजायरपिडम्मी चाउजामे य पुरिसजेट्टे य। किइकम्मस्स य करणे चत्तारि अवट्टिया कप्पा ॥१॥८" लिङ्गद्वारे-नियमतो द्विविधेऽपि लिङ्गे भवति, तद्यथा-द्रव्यलिङ्गे भावलिङ्गे च, एकेनापि विना ॥६६॥ १ वेदः प्रवृत्तिकाले श्रीवर्जस्तु भवत्येकतरः । पूर्वप्रतिपन्नकः पुनर्भवेत् सवेदोऽवेदो वा ॥१॥२ खितासितव कल्प आचेलक्यादिकेषु स्थानेषु । सर्वेषु स्थिताः प्रथमः चतुर्यु स्थिताः षट्स्वस्थिता द्वितीयः ॥ १॥ ३ आचेलक्यमाधाकर्मिकं शय्यातरः राजपिण्डः कृति-1 कर्म । प्रतानि ज्येष्ठः प्रतिक्रमणं मासः पर्युषणाकल्पः ॥१॥ दीप अनुक्रम [१९०] ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [१९० ] प्र.१२. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दार [-], मूलं [... ३७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. विवक्षितकल्पोचितसामाचार्ययोगात् ९ । लेश्याद्वारे - तेजःप्रभृतिकासूत्तरासु तिसृषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहार - विशुद्धिकं कल्पं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वाखपि कथञ्चिद् भवति, तत्रापीतराखविशुद्धलेश्यासु नात्यन्तसंक्तिशसु वर्तते, तथाभूतासु वर्तमानो (ऽपि न प्रभूतकालमवतिष्ठते, किंतु स्तोकं, यतः खवीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्तते, अथ प्रथमत एव कस्मात् प्रवर्तते १ उच्यते, कर्मवशात् उक्तं च- "लेसासु विसुद्धा पडिवजह तीसु न उण सेसासु । पुवपडिवन्नओ पुण होज्जा सदासुवि कहंचि ॥ १ ॥ णऽयंतसंकिलिद्वासु थोत्रं कालं स हंदि इयरासु । चित्ता कम्माण गई तहा विवरीयं (वि विरियं) फलं देव || २ ||” १० । ध्यानद्वारे - धर्मध्यानेन प्रवर्धमानेन परिहारविशुद्धिकं कल्पं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनरार्त्तरौद्रयोरपि भवति, केवलं प्रायेण निरनुबन्धः, आह च"झाणंमिवि धम्मेणं पडिवज्जर सो पत्रमाणेणं । इयरेसुवि झाणेसुं पुवपवन्नो न पडिसिद्धो ॥ १ ॥ एवं च झाणजोगे उद्दामे तिवकम्मपरिणामा । रोद्दऽसुवि भावो इमस्स पायं निरणुबन्धो ॥२॥” ११ । गणनाद्वारे - जघन्यतः त्रयो गणाः प्रतिपद्यन्ते, उत्कर्षतस्तु शतसंख्याः, पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यत उत्कृष्टतो वा शतशः, पुरुषगणनया जघन्यतः प्रतिपद्यमानाः सप्तविंशतिः उत्कर्षतः सहस्रं, पूर्वप्रतिपन्नकाः पुनर्जघन्यतः शतशः उत्कर्षतः सहस्रशः, आह च - "गणओ तिन्नेव गणा जहन्न पडिवत्ति सहस उक्कोसा । उकोस जद्दन्नेणं सयसोचिय पुचपडिवन्ना ॥ १ ॥ सत्तावीस जहन्ना सदस्समुकोसओ य पडिवत्ती । सयसो सहस्ससो वा पडिबन्न जहन्नउकोसा ॥ २ ॥ " अन्यथ For Par Lise Only ~ 137~ andrary c Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना- ५० वृत्ती. ॥१७॥ सूत्रांक [३७]] दीप अनुक्रम [१९०] यदा पूर्वप्रतिपन्नः कल्पमध्यादेको निर्गच्छति अन्यः प्रविशति तदोनप्रक्षेपे प्रतिपत्तौ कदाचिदेकोऽपि भवति पृथक्त्वं प्रज्ञापवा, पूर्वप्रतिपन्नोऽप्येवं भजनया कदाचिदेकः प्राप्यते पृथक्त्वं वा, उक्तं च-“पैडिवजमाण भयणाएँ होज एकोवि नापदे म. ऊणपक्खेवे । पुवपडिवनयाचि य भइआ एको पुहुत्तं वा ॥१॥" १२ । अभिग्रहद्वारे--अभिग्रहाश्चतुर्विधाः, तद्यथा नुष्यप्रज्ञाद्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहाः भावाभिग्रहाश्च, एते चान्यत्र चर्चिता इति न भूयश्चय॑न्ते, तत्र परि पना. हारविशुद्धिकस्यैतेऽभिग्रहा न भवन्ति, यस्मादेतस्य कल्प एव यथोदितरूपोऽभिग्रहो वर्तते, उक्तं च-"दवाईअअभिग्गह विचित्तरूवा न होन्ति पुण केइ । एअस्स जीअकप्पो कप्पोचियऽमिग्गहो जेणं ॥१॥ एयमि गोयराई। नियया नियमेण निरववादा य । तप्पालणं चिय परं एअस्स विसुद्धिठाणं तु ॥२॥" १३ । प्रत्रज्याद्वारे-नासावन्यं प्रत्राजयति, कल्पस्थितिरेषेतिकृत्वा, आह च-"पवावेइन एसो अन्नं कप्पटिइत्ति काउणं" इति, उपदेशं पुनर्यथाशक्ति प्रयच्छति १४ । मुण्डापनद्वारेऽपि नासावन्यं मुण्डयति, अथ प्रव्रज्यानन्तरं नियमतो मुण्डनमिति प्रव्रज्याग्रहणेनैव तद् गृहीतमिति किमर्थं पृथगद्वारं ?. तदयक्तं. प्रव्रज्याद्वारे नियमतो मुण्डनस्थासंभवात्, अयोग्यस्य कश्चिदत्तायामपि प्रव्रज्यायां पुनरयोग्यतापरिज्ञाने मुण्डनायोगात्, अतः पृथगिदं द्वारमिति १५। प्रायश्चित्तविधि-8॥७॥ द्वारे-मनसाऽपि सूक्ष्ममप्यतिचारमापन्नस्य नियमतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमस्थ, यत एष कल्प एकाग्रताप्रधानः, ततस्तद्भङ्गे गुरुतरो दोष इति १६ । कारणद्वारे-तथा कारणं नामालम्बनं तत्पुनः सुपरिशुद्धं ज्ञानादिकं तचास्य न अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोष: वर्तते- 'सू० ३७' स्थाने 'सू० ३८' इति मुद्रितं ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] विद्यते येन तदाश्रित्यापवादसेविता स्यात् , एप हि सर्वत्र निरपेक्षः क्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तं प्रारब्धमेव खं कल्पं यथोक्तविधिना समापयन् महात्मा वर्तते, उक्तं च-कारणमालंबणमो तं पुण नाणाइ सुपरिसुद्धं । एअस्स तं न विजइ उचियं तवसाहणो पायं ॥ १ ॥ सवत्थ निरवयक्खो आढत्तं चिय दई समाणतो । बट्टा एस महप्पा किलिट्टकम्मक्खयनिमित्तं ॥२॥" १७ । निष्प्रतिकर्मताद्वारे-एष महात्मा निष्प्रतिकर्मशरीरः अक्षिमलादिकमपि कदाचिन्नापनयति, न च प्राणान्तिकेऽपि समापतिते व्यसने द्वितीयं पदं सेवते, उक्तं च-"निप्पडिकम्मसरीरो अच्छिमलाई वि नावणेइ सया । पाणन्तिएऽविय महावसणंमि न वट्टए बीए ॥१॥ अप्पबहुत्तालोयणविसयातीओ उN होइ एसत्ति । अहवा सुहभावाओ बहुगं एयं चिय इमस्स ॥२॥"१८ । भिक्षाद्वारे-भिक्षा विहारक्रमच तृतीयस्या पीरुभ्यां भवति, शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सर्गः, निद्राऽपि चास्याल्पा द्रष्टव्या, यदि पुनः कथमपि जवाबलमस्सी परिक्षीणं भवति तथाऽप्येषोऽविहरन्नपि महाभागो न द्वितीयपदमापद्यते, किन्तु तत्रैव यथाकल्पमात्मीयं योगं विदधातीति, उक्तं च-"तइयाए पोरसीए भिक्खाकालो बिहारकालो उ । सेसासु उस्सग्गो पायं अप्पा य निद्दत्ति ॥१॥ जंघावलंमि खीणे अविहरमाणोऽपि न परमावजे । तत्थेव अहाकप्पं कुणइ उ जोग महाभागो ॥२॥" १९ । (पन्धे|ऽष्ट सस वा २०) एते च परिहारविशुद्धिका द्विविधाः, तद्यथा-इत्वरा यावत्कथिकाश्च, तत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं | तमेव कल्पं गच्छं वा समुपयास्यन्ति ते इत्वराः, ये पुनः कल्पसमात्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्प प्रतिपत्स्यन्ते ते दीप अनुक्रम [१९०] amana K aranora ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: कापना प्रत मल. सूत्रांक [३७]] दीप यावत्कथिकाः, उक्तं च "इत्तरिय थेरकप्पे जिणकप्पे आवकहियत्ति" अत्र स्थविरकल्पग्रहणमुपलक्षणं, खकल्पे चेति द्रष्टन्यं, तत्त्वराणां कल्पप्रभावाद् देवमनुष्यतैर्यग्योनिकृता उपसर्गाः सद्योघातिन आतका अतीवाविषयाश्च वेदना न प्रादुष्पन्ति, यावत्कथिकानां संभवेयुरपि, ते हि जिनकल्पं प्रतिपत्स्यमाना जिनकल्पभावमनुविदधति, नापदे म मनुष्यार्य जिनकल्पिकानां चोपसर्गादयः संभवन्तीति, उक्तं च-"इत्तरियाणुवसग्गा आतंका वेयणा य न हयन्ति । आवक मज्ञापना. हियाण भइआ०" इति । तथा सूक्ष्मो लोभांशावशेषः संपरायः कषायोदयो यत्र तत् सूक्ष्मसंपरायं, तच द्विधा ३८ विशुध्यमानक संक्लिश्यमानकं च, तत्र विशुध्यमानक क्षपकश्रेणिमुपशमणि चा समारोहतः, संक्लिश्यमानकं तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य । 'अथाख्यात'मिति अथशन्दो यथार्थे आर अभिविधौ याथातथ्येनाभिविधिना वा यत्ख्यातं-कथितं अकपार्य चारित्रमिति तदयाख्यातं, उक्तं च-"अहसद्दो(उ) जहत्थे आलोऽभिविहीऍ कहिय-1॥ मक्खायं । चरणमकसायमुइयं तमहक्खायं जहक्वायं ॥१॥" 'यथाख्यात'मिति द्वितीयं नाम, तस्यायमन्वर्थ:यथा सर्वस्मिन् लोके ख्यातं-प्रसिद्ध अकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यद् तद् यथाख्यातं, तच द्विधा-छामस्थिकं कैवलिकं च, तत्र छानस्थिकमुपशान्तमोहगुणस्थानके क्षीणमोहगुणस्थानके वा कैवलिकं सयोगिकेवलिभवमयोगिकेवलिभवं च । 'सेत्' इत्यादि उपसंहारकदम्बसूत्रं सुगम ॥ तदेवमुक्ता मनुष्याः, सम्प्रति देवप्रतिपादनार्थमाह अनुक्रम [१९०] अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोष: वर्तते- 'सू० ३७' स्थाने 'सू० ३८' इति मुद्रितं ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], --------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक Voo9999999092e [३८] से कि तं देवा !, देवा चउबिदा प०,०-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिआ चेमाणिआ । से किं तं भवणवासी ?, भवणवासी दसविहा प०, तं०--असुरकुमारा नागकुमारा सुवनकुमारा विजुकुमारा अग्गिकमारा दीवकुमारा उदहिकुमारा दिसाकुमारा बाउकुमारा थणियकुमारा, ते समासओ दुबिहा प०, तं-पजत्तगा य अपअत्तगा य, सेतं भवणवासी। से किं तं वाणमंतरा, वाणमंतरा अहविहा प०,०-किन्नरा किंपरिसा महोरगा गंधवा जक्खा रक्खसा भूया पिसाचा, ते समासओ दुविहा प०, तं०-पजतगा य अपञ्जत्तया य, सेनं वाणमन्तरा । से किं तं जोइसिया, जोइसिया पंचविहा प०,०-चंदा सूरा गहा नक्खचा तारा, ते समासओ दुविहा प०,०-पजचगा य अपजत्तगाय, सेतं जोइसिया ॥ से कि तं वेमाणिया, माणिआ दुविहा प०,०-कप्पोवगा य कप्पाईया य, से किं तं कप्पोवगा, कप्पोवगा वारसविहा प०, तं०-सोहम्मा ईसाणा सणंकुमारा माहिंदा बंभलोया लतया महासुका सहस्सारा आणया पाणया आरणा अक्षुया, ते समासओ दुबिहा प०, तं०-पजत्चगा य अपजत्तगा य, से तं कप्पोवगा । से कि कप्पाईया, कप्पाईया दुविहा प०, ०-विजगा य अणुत्तरोववाइया य, से किं तं गेविअगा, गेविजगा नवविहा प०, ०-हिद्विमहिहिमगेविनगा हिहिममझिमगेविजगा हिहिमउवरिमगेविजगा मज्झिमहेहिमगेविजगा मज्झिममज्झिमगेविजगा मज्झिमउवरिमगेविजगा उवरिमहेहिमोविजगा उवरिममझिमगेविजगा उवरिमउचरिममेविजगा, ते समासओ दुविहा प०, त-पजत्तगा य अपजचगा य, सेचं गेचिजगा । से किं ते अशुत्तरोषवाइया , अशुत्तरोववाइया पंचविहा ५०, ०-- विजया वेजयन्ता जयन्ता अपराजिता सबसिद्धा, ते समासओ दुविहा प०,०-पजतगा य अपजचया य,,सेचं seeeeeeeeeee दीप अनुक्रम [१९१] SIXhunaturamom अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये देवयोनिक-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [१९१] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ६९ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [३८] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. अणुत्तरोववाह, सेत्तं कृप्पाईया, सेत्तं वेमाणिआ, सेतं देवा, सेत्तं पंचिंदिया, सेत्तं संसारसमावन्नजीवपन्नत्रणा, से चं जीवपणा, सेतं पद्मवणा ।। (सू० ३८ ) पत्रवणाए भगवईए पढमपयं सम्मतं । 'से किं तं' इत्यादि, अथ के ते देवाः १, सूरिराह देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाः, तत्र भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिनः, एतद् बाहुल्यतो नागकुमाराद्यपेक्षया द्रष्टव्यं, ते हि प्रायो भवनेषु वसन्ति कदाचिदावासेषु, असुरकुमारास्तु प्राचुर्येणावासेसु कदाचिद् भवनेषु, अथ भवनानामावासानां च कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, भवनानि वहिर्वृत्तान्यन्तः समचतुरस्राणि अधः पुष्करकर्णिकासंस्थानानि, आवासाः कायमानस्थानीया महामण्डपा विविधम णिरत्नप्रदीपप्रभासितसकलदिक्चक्रवाला इति । अन्तरं नामाव काशः, तबेहाश्रयरूपं द्रष्टव्यं विविधं भवननगरावासरूपमन्तरं येषां ते व्यन्तराः । [ तत्र भवनानि रत्नप्रभायाः प्रथमे रत्नकाण्डे उपर्यधश्च प्रत्येकं योजनशतमपहाय शेषे अष्टयोजनशतप्रमाणे मध्यभागे भवन्ति, नगराण्यपि तिर्यग्लोके, तत्र तिर्यग्लोके यथा जम्बूद्वीपद्वाराधिपतेर्विजयदेवस्यान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजन सहस्रप्रमाणा नगरी, आवासाः त्रिष्वपि लोकेषु तत्रोर्ध्वलोके पण्डकवनादाविति ] अथवा विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः तथाहि - मनुष्यानपि चक्रवर्तिषासुदेवप्रभृतीन् नृत्यवदुपचरन्ति केचिद् व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः, यदिवा विविधमन्तरं - शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे 'वाणमन्तरा' For Pale One ~ 142~ १ प्रज्ञाप नापदे देवप्रज्ञापना सू. ३८ ॥ ६९ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [१९१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१], उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः इति पाठः, यदिवा 'वानमन्तराः' इति पदसंस्कारः, तत्रेयं व्युत्पत्तिः वनानामन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवाः वानमन्तराः, पृषोदरादित्वाद् उभयपदान्तरालवर्तिमकारागमः, तथा द्योतयन्ति - प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतींषिविमानानि, औणादिकी शब्दव्युत्पत्तिः तेषु भवा ज्योतिष्काः “अध्यात्मादिभ्यः" इति इकण्, तत “इवर्णोवर्णदोसिसः" इति इकण आदेरिकारस्य लोपः, अनभिधानाच्च वृद्ध्यभावः, यदिवा द्योतयन्ति - शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभामण्डलकल्पैः सूर्यादिमण्डलैः प्रकाशयन्तीति ज्योतिषो देवाः सूर्यादयः, तथाहि सूर्यस्य सूर्याकारं मुकुटाग्रमागे चिह्नं चन्द्रस्य चन्द्राकारं नक्षत्रस्य नक्षत्राकारं ग्रहस्य ग्रहाकारं तारकस्य तारकाकारं तैः प्रकाशयन्तीति, आह च तस्वार्थ भाष्यकृत् - " द्योतयन्तीति ज्योतींषि - विमानानि तेषु भवा ज्योतिष्काः, यदिवा ज्योतिषो देवाः ज्योतिष एव ज्योतिष्काः, मुकुटैः शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभामण्डलैरुज्वलैः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाणां मण्डलैर्यथाखं चिहेर्विराजमाना द्युतिमन्तो ज्योतिष्का भवन्तीति । तथा विविधं मान्यन्ते - उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः ॥ सम्प्रति एतेषामेव क्रमेण भेदानभिधित्सुराह— 'से किं तं भवणवासी' इत्यादि, असुराश्च ते कुमाराश्च असुरकुमाराः, एवं नागकुमारा इत्याद्यपि भावनीयम्, अथ कस्मादेते कुमारा इति व्यपदिश्यन्ते १, उच्यते, कुमारवच्चेष्टनात्, तथाहि — कुमारा इवैते सुकुमारा मृदुमधुरललितगतयः शृङ्गाराभिप्रायकृत विशिष्टविशिष्टतरोत्तररूपक्रियाः कुमारवबोद्धतरूपवेष भाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवचोल्व For Pale Only ~143~ nerary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥७ ॥ दीप णरागाः क्रीडनपराब ततः कुमारा इव कुमारा इति ॥ 'किंनरा' इत्यादि किन्नरा दशविधाः, तद्यथा-किन्नरः। १प्रज्ञापकिंपुरुषाः किंपुरुषोत्तमाः किंनरोत्तमाः हृदयङ्गमी रूपशालिनः अनिन्दिताः मनोरा रतिप्रियां रतिश्रेष्ठाः । किंपु-IN नापदे देरुषा दशविधाः, तद्यथा-पुरुषाः सत्पुरुषां महापुरुषाः पुरुषवृषभाः पुरुषोत्तमो अतिपुरुषर्षां महादेवा मरुतः मेरु वप्रज्ञापप्रभोः यशस्वन्तः । महोरगा दशविधाः, तद्यथा-भुजगा भोगशालिनः महाकायर्या अतिकार्याः स्कन्धशालिनी ना सू.३० मनोरा महावेगा महे(हा)या मेरुकान्ता भावन्तः । गन्धर्षा द्वादशविधाः, हाहाः हः तुम्बरवः नारदोः ऋषि-18 वादिका भूतिवादिकाः कादम्बा महाकादम्बा रैवताः विश्वावसवः गीतरतयः गीतयशसः । यक्षास्त्रयोदशविधाः, तद्यथा-पूर्णभद्रा माणिभद्रा वेतभद्रो हरितभद्रोः सुमनोभद्रो व्यतिपातिकभीः सुभद्राः सर्वतोभद्रा मनुष्यपक्षी बनाधिपतयः पनाहारी रूपयक्षी यक्षोत्तमाः । राक्षसाः सप्सविधाः, तद्यथा-भीमो महामीमा विना विनायको जलराक्षसो राक्षसराक्षा जसराक्षसाः। भूता नवविधाः, तद्यथा-मुरूपाः प्रतिरूपो अतिरूपी भूतोत्तोः स्कन्दो महास्का महावेगाः प्रतिच्छा आकाशगा। पिशाचाः षोडशविधाः, तद्यथा-कूष्माण्डाः पटकाः सुजा(जो)पा आहिको कालो महाकाला चोक्षा अचोाः तालपिशाचा मुखरपिशाची अधस्तारका देही विदेही महादेही ॥ ७० ॥ तूष्णीको वनपिशाचों इति । 'कप्पोवगा कप्पाईय'चि कल्प:-आचारः स चेह इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिन्यवहाररूपः तमुपगाः-प्राप्ताः कल्पोपगाः सौधर्मेशानादिदेवलोकनिवासिनः, यथोक्तरूपं कल्पमतीता:-अतिका अनुक्रम [१९१] AREautatin international ~144 ~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], --------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक न्ताः कल्पातीताः-अधस्तनापस्तनौवेयकादिनिवासिनः ते हि सर्वेऽप्यहमिन्द्राः ततो भवन्ति कल्पातीताः।। कल्पोपगान् दर्शयति-'सोहम्मा ईसाणा' इत्यादि, सौधर्मदेवलोकनिवासिनः सौधर्माः ईशानदेवलोकनिवासिन ईशानाः एवं सवेत्रापि भावनीयं, भवति च तात्स्थ्यात् तबपदेशः, यथा 'पञ्चालदेशनिवासिनः पश्चाला हात ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां प्रथमं प्रज्ञापनाख्यं पदं समर्थितमिति ॥ (ग्रन्था१८८७) [३८] eeeeeeeeeeeeee 0000 दीप - अनुक्रम [१९१] See अत्र पद (०१) "प्रज्ञापना" परिसमाप्तम् ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मशापनाया मलयवृत्ती. सूत्रांक कळ08 [३९] ॥७१॥ दीप तदेवं व्याख्यातं प्रथमपदं, सम्प्रति द्वितीय पदमारभ्यते, तस्य चायममिसंबन्धः-प्रथमपदे पृथ्वीकायादयः प्ररू-181 पिताः, इह तु तेषामेव स्थानानि प्ररूप्यन्ते, तत्र चेदमादिसूत्रम् पदे पृ. कहिणं भंते। बादरपुढवीकाइयाणं पत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा! सहाणेणं अहसु पुढवीसु, तं०-यणप्पमाए व्यशेजः सकरप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पमाए तमप्पभाए तमतमप्पभाए ईसीप्पम्भाराए, अहोलोए पायालेसु भव स्थानानि णेसु मवणपत्थडेसु निरएसु निरयावलियासु निरयपत्थडेसु, उहलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए टंके कूडेसु सेलेसु सिहरीसु पन्भारेसु विजएमु वक्खारेसु वासेसु वासहरपवएसु वेलासु वेड्यासु दारेसु तोरणेसु दीवेसु समुद्देसु, एत्थ णं वायरपुढवीकाइयाणं पञ्जत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेअभागे समुग्धायेणं लोयस्स असंखेखभागे सहाणेणं लोगस्स असंखेअभागे । कहि ण मंते ! बादरपुढवीकाइयाणं अपनत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! जत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नता तत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं सबलोए समुग्धाएणं सचलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेञ्जइमागे । कहि णं भंते ! सुहुमपुढषीकाइयाणं पज्जतगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा प०१, गोयमा ! सुहुमपुढचीकाइया जे पज्जत्तगा जे अपजत्तगा ते सत्वे एगविहा अविसेसा ॥७१ ।। अणाणचा सबलोयपरियावनगा प० समणाउसो! । कहि णं भन्ते ! बादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा! सहाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलयेसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु उहलोए कप्पेसु विमा अनुक्रम [१९२] अथ पद (०२) "स्थानं" आरभ्यते अत्र पृथ्वि-अप-तेजस्कायिक जीवानाम स्थानानि कथ्यते ~ 146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१९२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [३९] उद्देशक: [-] दारं [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. विमाणावलिया विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगडेसु तलायेसु नदीसु दहेसु बावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलेसु विलपतियासु उज्झरेषु निज्झरेसु चिल्ललएसु पल्ललएसु वप्पणेसु दीवेसु समुद्देसु सधेसु चैव जलासएसु जलट्ठाणेसु एत्थ णं बादरआउकायाणं पज्जत्तगाणं ठाणा ५०, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्धायेणं लोयस्त असंखेज्जहभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । कहि णं भंते! बादरआउकाइयाणं अपज्जतगाणं ठाणा प० १, गोयमा ! जत्थेव वादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा प० तत्वेव बादरआउकाश्याणं अपज्जतगाणं ठाणा प० उपवाएणं सबलोए समुग्धायेणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । कहि णं भंते । सुदुमआउकाइया पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा प० १, गोयमा । सुडुमआउकाइया जे पज्जत्तमा जे अपज्जतगा ते सवे गविदा अविसेसा अणाणत्ता सबलोयपरियावन्नगा प० समणाउसो ! कहि णं भंते ! वायरतेडकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा प०, गोषमा ! सहाणेणं अंतोमणुस्सखेते अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु निदाघायेणं पनरससु कम्मभूमीसु वाघायं पच पंचसु महाविदेहेसु एत्थ णं चादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा प० उबवाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्धारणं लोगस्स असंखेज्जइभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । कहि णं मन्ते । वामरतेजकाइयाणं अपज्जतगाणं ठाणा ५०, गोयमा ! जत्थेव वायर उकाइयाणं पज्जतगाणं ठाणा तत्थेव वायरतेडकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा प०, उववारणं लोयस्स दोसु उकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य सम्मुग्धाएणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । कहि णं मंते । सुडुमतेउकाइयाणं For Pasta Use Only ~ 147~ ৫৯১ ১৫ले ary org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१९२] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥ ७२ ॥ Eticatur “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [३९] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... पज्जतगाण य अपअतगाण थ ठाणा प० १, गोयमा ! सुडुमते काइआ जे पअत्तगा जे अपअत्तगा ते सबे एगविहा अविसेसा अणाणता सबलोयपरियावनगा प० समणाउसो ! (सू० ३९) 'कहिं'ति कस्मिन्, शब्दो वाक्यालङ्कारे, भदन्तेति परमगुर्वामन्त्रणे, बादरपृथ्वी कायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि - खस्थानादीनि 'प्रज्ञप्तानि ?' प्ररूपितानि, एवं गौतमखामिना प्रश्ने कृते भगवानाह वर्धमानखामी - 'गोयमा । सट्टाणेणं' इत्यादि, ननु गौतमोऽपि भगवानुपचितकुशलमूलो गणधरः तीर्थकर भाषितमातृकापदश्रवणमात्रावासप्रकृष्टश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमश्चतुर्दश पूर्ववित् सर्वाक्षरसन्निपातीति विवक्षितार्थप्रतिज्ञानसमन्वित एव ततः किमर्थं पृच्छति ? न हि चतुर्दशपूर्वविदः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसमन्वितस्य किञ्चित्प्रज्ञापनीयमविदितमस्ति यत उक्तम्- "संखाईए विभवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेजा । न य णं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥ १ ॥” सत्यमेतत्, केवलं जानन्नेव गौतमखामी भगवानन्यत्र विनेयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्संप्रत्ययनिमित्तं विवक्षितमर्थ पृच्छति, यदिवा प्रायः सर्वत्र गणधरप्रश्नतीर्थकर निर्वचनरूपं सूत्रमतो भगवानार्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति, अथवा संभवति तस्यापि गणभृतो गौतमखामिनोऽनाभोगः, छद्मस्थत्वात् उक्तं च न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिद् नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥ १ ॥ ततो जातसंशयः सन् पृच्छतीति न कश्चिद् १ संख्यातीतानपि भवान् कथयति यं वा परः पृच्छेत्। नैवेनं अनतिशायी विजानात्येष छद्मस्थः ॥ १ ॥ For Park Use Only ~148~ २ स्थान पदे पृव्यतेजः स्थानानि सू. ३९ ॥ ७२ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दोषः, 'गोयमा' इति लोकप्रथितमहाविशिष्टगोत्राभिधायकोऽयमामणध्वनिः,हे गौतमगोत्रेति भावार्थः । 'सट्ठा-18॥ गणं' इति खस्थानं यत्रासते बादरपृथ्वीकायिकाः पर्यासाः आसीनाश्च वर्णादिविभागेनादेष्टुं शक्यन्ते तत्वस्थान-18 मिति भावः, स्वस्थानग्रहणमुपपातसमुदूपातस्थाननिवृत्त्यर्थ, तेन खस्थानेन खस्थानमङ्गीकृत्येति भावः। अष्टासु |पृथ्वीपु सर्वत्र चादरपृथ्वीकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानीति योगः, ता एव अष्टौ पृथ्वी मग्राहमाह-'तंजहा' इत्यादि, रत्नप्रभायां यावदष्टम्यामीपत्प्राग्भारायाम् , तथाऽधोलोके पातालेषु पातालकलशेपु-वलयामुखप्रभृतिषु भवनेषु-भवनपतिनिकायावासरूपेषु, भवनप्रस्तटेषु-भवनभूमिकारूपेषु, इह भवनग्रहणेन भवनानामेव केवलानां ग्रहणं, भवनप्रस्तटग्रहणेन तु भवनानामपान्तरालस्यापि । तथा नरकेपु-प्रकीर्णकरूपेषु नरकावासेपु, नरकावलिकासु-आवलिकाव्यवस्थितेषु नरकावासेषु, नरकप्रस्तटेपु-नरकभूमिरूपेषु, अत्रापि नरकनरकावलिकाग्रहणेन केवला एव नरकावासाः परिगृह्यन्ते, नरकप्रस्तटग्रहणेन तु नरकापान्तरालमपि । ऊ लोके कल्पेषु-सौधर्मिकादिकल्पेषु, अनेन द्वादशदेवलोकपरिग्रहः, विमानेषु-अवेयकसंबन्धिषु प्रकीर्णकरूपेषु, विमानावलिकासु-आवलिकाप्रविष्टेषु । वयकादिविमानेपु, विमानप्रस्तटेषु विमानभूमिकारूपेषु, अत्रापि प्रस्तटग्रहणं विमानापान्तरालभाविनामपि यथासंभवभाविनां पादरपर्याप्तपृथ्वीकायिकानां स्थानपरिग्रहार्थ, तथा तिर्यग्लोके टङ्केषु-छिन्नटङ्केषु कूटेपु-सिद्धायतनकूटप्रभृतिषु शैलेषु-शिखरहीनपर्वतेषु शिखरिषु-शिखरयुक्केषु पर्वतेषु प्राग्भारेषु-ईपत्कुलेषु विजयेपु-कच्छादिषु दीप अनुक्रम [१९२] म.१३ REmbriend albumtaram.org ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१९२] प्रज्ञापनायाः मल५० वृत्ती. ॥ ७३ ॥ “प्रज्ञापना” उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [३९] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. aratoni - वक्षस्कारेषु विद्युद्यमादिषु मर्मतेषु वर्षेषु भरतादिषु वर्षधरेषु - हिमवदादिपर्वतेषु वेलासु- समुद्रादिपानी रमणभू| मिथु वेदिकासु जम्बूद्वीषजगत्यादिसंबन्धिनीषु द्वारेषु विजयादिषु तोरणेषु - द्वारादिसंबन्धिषु किं बहुना १, सामस्त्येन सर्वेषु द्वीपेषु सर्वेषु समुद्रेषु, 'एत्थ णं' इत्यादि, अत्रैतेषु स्थानेषु वादरपृथ्वीकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि मया अन्यैश्व तीर्थकृद्भिः, 'उवधारणं' इत्यादि, उपपतनमुपपातः, वादरपृथ्वीकायिकानां पर्यासानां यदनन्तरमुक्तं स्थानं तत्प्रात्याभिमुख्यमिति भावः तेनोपपातेन, उपपातमङ्गीकृत्येति भावः, लोकस्य - चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्यासंख्येये भागे, अत्रैके व्याचक्षते - ऋजुसूत्रनवो विचित्रः ततो यदा परिस्थूरऋजुसूश्रनयदर्शनेन बादरपृथ्वीकायिकाः पर्याप्ताश्चिन्त्यन्ते तदा ये स्वस्थानप्राप्ता आहारादिपर्याप्तिपरिसमात्या विशिष्टविपाकतो बादरपर्याप्तपृथ्वीकायिकायुर्वेदयन्ते ते एव द्रष्टव्याः, नापान्तरालगतावपि तदानीं विपाकायुर्वेदनासंभवात्, खस्थानं च तेषां रत्नप्रभादिकं समुदितमपि लोकस्यासंख्येयभागे वर्तते, तत उपपातेनापि लोकस्यासंख्येयभागता वेदितव्या, अन्ये त्वभिदधति-पर्याप्ता हि नाम बादरपृथ्वीकायिकाः सर्वस्तोकाः, ततस्तेऽपान्तरालगतावपि परिगृक्षमाणा लोकस्यासंख्येयभागे एषेति न कश्चिद्दोषः, तथा च समुद्घातेनापि लोकस्यासंख्येयभागे एव वक्ष्यन्ते, अन्यथा समुद्रयातावस्थायामपि स्वस्थानातिरेकेण क्षेत्रान्तरवर्तित्वसंभवादसंख्येयभागवर्तिता नोपपद्यते इति, तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति विशिष्टश्रुतविदो वा । तथा 'समुग्धाएणं लोगस्स जसंखेजभागे' इति समुद्घातेन - समुद्रघातमधिकृत्य For Parts Only ~ 150~ २ स्थान पदे पृ व्यतेजः स्थानानि सू. ३९ ॥ ७३ ॥ rary or Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] celerate erserseasesesed लोकस्यासंख्येयभागे, इयमत्र भावना-पदा चादरपर्याप्ताः पृथ्वीकायिकाः सोपक्रमायुषो निरुपक्रमायुषो वा त्रिभा-11 गाद्यवशेषायुषः पारभषिकमायुर्षदा मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहन्यन्ते तदा ते विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डा अपि लोकस्यासंख्येयतमे एव भागे वर्तन्ते, स्तोकत्वाद् , बादरपृथ्वीकायिकपर्याप्तायुश्चाद्याप्यक्षीणमिति पर्याप्तवादरपृथ्वीकायिका अपि लभ्यन्ते । इह पूर्व पृथच्यादिषु खस्थानमात्रमुक्तम् , इदानी खस्थानेनापि कियति लोकस्य भागे वतन्ते इति निरूपयति-सट्टाणेणं लोगस्स असंखिज्बे मागे' इति, खस्थानं रत्नप्रभादि, तच समुदितमपि लोकस्यासंख्येयभागवर्ति, तथाहि-लप्रभा अशीतियोजनसहस्राधिकलक्षप्रमाणपिण्डमावा, एवं शेषा अपि पृथ्व्यः खखधन|भावेन वक्तव्याः पातालकलशा अपि योजनलक्षावगाहा नरकावासाः त्रिसहस्रयोजनोच्छ्याः विमानान्यपि द्वात्रिंशद्योजनशतवाहल्यानि ततः सर्वेषामपि परिमितभावात् समुदितानामप्यसंख्येयभागवर्तितेवेति । बादरापर्याप्तपृथ्वीकायिकसूत्रे 'उववाएणं सबलोए समुग्धाएणं सबलोए' इति, इहापर्याप्ता बादरपृथ्वीकायिका अपान्तरालगतावपि स्वस्थानेऽपि चापर्यासवादरपृथ्वीकायिकायुर्विशिष्टविपाकतो वेदयन्ते तथा देवनैरयिकवर्जेभ्यः शेषसर्वकायेभ्यश्थोत्पद्यन्ते, उद्वृत्ता अपि च देवनैरपिकवर्जेषु शेपेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु गच्छन्ति, ततोऽपान्तरालगतावपि वर्तमाना अमी गृह्यन्ते, अतिप्रभूताश्च खभावतोऽपी(तोऽमी इ)त्युपपातेन समुद्घातेन (च) सर्वलोके वर्तन्ते । अन्ये त्वभिदधति-खभावत एवामी बहव इति उपपातेन समुद्घातेन च सर्वलोकव्यापिनः, तत्रोपपातः केपांचिदू ऋजुगत्या दीप अनुक्रम [१९२] SAREaratimantiational Tanasurary.org ~ 151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापचायाः मल वृत्ता . [३९] दीप केषांचिद् वक्रगत्या । तत्र ऋजुगतिः सुप्रतीता, वक्रस्थापना चैवम् , जत्र यदैव प्रथमं वक्रमेके संहरन्ति तदैवापरे २ स्थानतद्वक्रदेशमापूरयन्ति, एवं द्वितीयवक्रदेशसंहरणेऽपि वक्रोत्पत्तावपि प्रवाहतो निरन्तरमापूरणं भावनीयम् । 'सट्टा- पदे पृ. णणं लोगस्स असंखेजहभागे' इति यथा पर्याप्सानां भावितं तथाऽपर्याप्तानामपि भावनीयम् , तन्नित्रया तेषामु- व्यतेजः त्पादभावात् । सूक्ष्मपृथिवीकायिकपर्याप्तापर्याससूत्रे 'जे पज्जत्ता अपज्जता ते सके एगविहा अविसेसा अणाणत्ता | स्थानानि सबलोयपरियावन्नगा' इति सूक्ष्मपृथिवीकायिका ये पर्याप्सा ये चापर्याप्ताः ते सर्वेप्येकविधा:-एकप्रकाराः, प्राकृतं । स्वस्थानादिविचारमधिकृत्य भेदाभावात् , अविशेषा-विशेषरहिताः, यथा पर्याप्तास्तथेतरेऽपीति भावः 'अनानात्वा । नानात्ववर्जिताः, देशभेदेनालक्षितनानात्वा इत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-एण्याधारभूतेष्वाकाशप्रदेशेषु एके तेष्वेव इतरेऽपीति, सर्वलोकपर्यापन्नाः-सर्वलोकव्यापिनः, उपपातसमुद्घातस्वस्थानः प्रज्ञप्ताः मया अन्यैश्च ऋषभादि-131 भिस्तीर्थकदूभिः, अनेन आगमस्य कथंचिद् नित्यत्वमावेदितम्, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! आमन्त्रणमिदं भगववयुक्त गौतमस्य । एवमप्कायिकसूत्राण्यपि बादरसूक्ष्मविषयाणि । नवरं-पर्याप्तवादराकायिकसूत्रे 'सत्तसु पणोदहिवल-18 एसुत्ति' सप्त घनोदधिवलयानि खखपृथिवीपर्यन्तबेष्टकानि वलयाकाराणि । 'अहोलोए पायालेसुत्ति' पातालकल ||॥ ७४॥ शेषु वलयामुखप्रभृतिषु, तेष्वपि द्वितीये त्रिभागे देशतः, तृतीये त्रिभागे सर्वात्मना जलभावात् । भवनेषु कल्पेषु विमानेषु च जलं बाप्यादिषु, विमानादीनि चात्र कल्पगतानि वेदितव्यानि, अवेयकादिषु वापीनामसंभवतो जला-18 अनुक्रम [१९२] HOLama SAREBIEathrilledonel ~ 152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] संभवात् । अवटाः कृपाः । तडागानि प्रतीतानि । नद्यो गासिन्धुप्रभृतयः। हृदाः पाहदादयः । पाप्यश्चतुरस्राकाराः । ता एव वृत्ताकाराः पुष्करिण्यः, यदिवा पुष्कराणि पनानि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः । दीर्घिका ऋजुलघुनद्यः । ता एव वक्रा गुंजालिका । बहूनि केवलकेवलानि पुष्पावकीर्णानि सरांसीत्युच्यन्ते । तथा बहूनि| सरांसि एकपलया व्यवस्थितानि सरपकिस्ता बद्धयः सरपक्तयः । तथा येषु सरःसु पश्या व्यवस्थित कूपोदक प्रणालिकया संचरति सा सरासर-पक्तिः, ता बहवः सरःसरपक्यः । बिलानीव बिलानि खभावनिष्पन्ना जगत्यादिषु कूपिकास्तेषां पतयो पिलपतयः । उज्झरा गिरिष्वम्भसा प्रस्रवाः । ते एव सदावस्थायिनो निर्झराः। छिलराणि-अखाताः स्तोकजलाश्रयभूता भूप्रदेशा गिरिप्रदेशा वा । पल्बलानि अखातानि सरांसि । वप्राः केदाराः। किं बहुना १, सर्वेष्वेव जलाशयेषु, एतदेव व्याचष्टे-जलस्थानेषु । शेषभावना प्राग्वत् । अधुना बादरपर्याप्ततेजाकायिकस्थानानि पृच्छति-'कहिणं भंते ! बादरतेउकाइयाणं' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-'गोयमा!' इत्यादि, गीतम | 'खस्थानेन' खस्थानमङ्गीकृत्य अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे-मनुष्यक्षेत्रमध्ये इत्यर्थः, अर्द्ध तृतीयं येषां ते अद्धतृतीयाः। तत्रान्तर्मनुष्यक्षेत्रस्थाई तृतीयं समुद्राणां न विद्यते इतीदं विशेषणं द्वीपानां द्रष्टव्यं, द्वीपाश्च समुद्रौ च द्वीपसमुद्रास्तेषु 'नियाघातेन' ब्यापातस्याभावो निर्व्याघातं तेन निर्व्याघातेन "वा तृतीयायाः" इति पाक्षिकोऽमादेशाभावः, व्याघाताभावेनेत्यर्थः, 'पञ्चदशसु कर्मभूमिषु' पञ्चभरतपश्चरावतपञ्चमहाविदेहरूपासु 'व्याघावं प्रतीत्य' व्याघाते दीप अनुक्रम [१९२] SMEsamanand ANmurary.org ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २स्थान प्रत मज्ञापनायाः मल सूत्रांक [३९] सू. ३९ दीप सतीति भावः पञ्चसु महाविदेहेषु, इयमत्र भावना-व्याघातो नाम अतिस्निग्धोऽतिरूक्षो वा कालः, तस्मिन् सत्यग्निव्यवच्छेदात् , ततो यदा पञ्चसु भरतेषु पञ्चखरावतेषु सुषमसुषमासुपमासुषमदुष्पमा वा वर्तते तदाऽतिनि-1 ग्धः कालः दुष्पमदुष्षमायां चातिरूक्ष इत्यस्ति व्यवच्छेदः तस्मिन् सति पञ्चसु महाविदेहेषु, शेषकालं पश्चदशखपि कर्मभूमिपु, 'एत्थ णं' इत्यादि, अत्र-एतेषु स्थानेषु बादरतेजःकायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि, 'उपवाएणं' इत्यादि. RI'उपपातेन' यथोक्तस्थानप्राप्त्याऽऽभिमुख्येन, अपान्तरालगतावपीति भावः, चिन्त्यमाना लोकस्यासंख्येये भागे, स्तोकत्वात् , समुद्घातेनापि चिन्त्यमाना लोकस्यासंख्येये भागे, मारणान्तिकसमुद्घातवशतो विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डानामपि स्तोकतया लोकासंख्येयभागमात्रव्यापित्वात् , स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे, मनुष्यक्षेत्रस्य पञ्चच-18 त्वारिंशयोजनलक्षप्रमाणायामविष्कम्भतया लोकासंख्येयभागमात्रत्वात् । अपर्याप्तवादरतेजःकायिकस्थानानि पृच्छति–'कहि णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं गतार्थ, भगवानाह-'गोयमा।' इत्यादि, गौतम ! यत्रैव वादरतेजःकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि तत्रैव बादरतेजःकायिकानामपर्याप्तानामपि स्थानानि प्रज्ञसानि, पर्याप्तनिश्रयैवापर्याप्तानामवस्थानात् , 'उववाएणं लोगस्स दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य' इति, इहार्धतृतीयद्वीपसमुद्रनिःमृते अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रप्रमाणबाहल्ये पूर्वापरदक्षिणोत्तरखयम्भूरमणपर्यन्ते ये कपाटे केवलिसमुद्घातकपाटवत् ऊर्द्धमपि लोकान्तं स्पृष्टे ते अधोऽपि च लोकान्तं स्पृष्टे ते ऊर्द्धकपाटे तयोः ऊर्द्धकपाटयोः, तथा 'तिरियलोयतहे| अनुक्रम [१९२] FarPurwanaBNamunoonm ~ 154 ~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१९२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [३९] उद्देशक: [-] दारं [-], ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. य' इति, तद्वं स्थालं तिर्यग्लोके तट्टमिव तिर्यग्लोकतङ्कं तर्सिंश्च स्वयम्भूरमणसमुद्रवेदिकापर्यन्ते अष्टादशयोजनशतबाहल्ये, समस्ततिर्यग्लोके चेत्यर्थः, उपपातेन वादरतेजः कायिकानामपर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञतानि, केचित् 'तिरियलोयतट्ठे य' इत्येवं व्याचक्षते - तयोः - कपाटयोः स्थितः तत्स्थः तिर्यग्लोकश्वासौ तत्स्थः, तयोरूर्द्धकपाटयोरन्तर्वर्तितिर्यग्लोक इत्यर्थः तस्मिंश्च, किमुक्तं भवति ?- द्वयोरूर्द्धकपाटयोर्यथोक्त खरूपयोस्तिर्यग्लोकेऽपि च तयोरेव कपाटयोरन्तर्गते नान्यत्र, शेषतिर्यग्लोकव्यवच्छेदपरमेतद् वाक्यं, न विधानपरं, विधानस्य कपाट ग्रहणेनैव सिद्धत्वात्, तत्त्वं पुनः केवलिना विशिष्टश्रुतविदा वा गम्यं, इयमत्र भावना - इह त्रिविधा वादरपर्यासतेजः कायिकाः, तद्यथाएकभविका बद्धायुषोऽभिमुखनामगोत्राश्च तत्र ये एकस्माद् विवक्षिताद् भवादनन्तरं वादरापर्याप्ततेजः कायिकत्वेनोत्पत्स्यन्ते ते एकभविकाः, ये तु पूर्वभवत्रिभागादिसमयैर्वद्धवादरापर्याप्ततेजः कायिकायुपस्ते बद्धायुषः, ये पुनबदरापर्यासतेजः कायिकायुर्नामगोत्राणि पूर्वभवमोचनानन्तरं साक्षाद् वेदयन्ते तेऽभिमुखनामगोत्राः, तत्रैकभविका बद्धायुपश्च द्रव्यतो बादरापर्यासतेजः कायिका न भाषतः, तदाऽऽयुर्नामगोत्रवेदनाभावात्, ततो न तैरिहाधिकारः, किन्तु अभिमुखनामगोत्रैः, तेषामेवोपपातस्य स्वस्थानप्रात्याभिमुख्यलक्षणस्य लभ्यमानत्वात्, तत्र यद्यपि ऋजुसूत्रनयदर्शनेन वादरापर्याप्ततेजः कायिकायुर्नामगोत्रवेदनाद् यथोक्तकपाटद्वयतिर्यग्लोकवासव्यवस्थिता अपि वादरापर्यासतेजः कायिकव्यपदेशं लभन्ते तथाप्यत्र व्यवहारनयदर्शनाभ्युपगमाद् ये स्वस्थानसम श्रेणिकपाटद्वयव्यव For Parts Only ~ 155 ~ wrary.org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती. सूत्रांक [३९] दीप स्थिताः ये च स्वस्थानानुगते तिर्यग्लोके प्रविष्टास्ते एव बादरापर्याप्सतेजःकायिका व्यपदिश्यन्ते न शेषाः कपाटापान्तरालव्यवस्थिताः, विषमस्थानवर्तित्वात् , तेन येऽद्यापि कपाटद्वयं न प्रविशन्ति नापि तिर्यग्लोकं ते किल पूर्व- पदे - भवावस्था एवेति न गण्यन्ते, उक्तं च-"पणेयाललक्खपिडुला दुन्नि कवाडा य छहिसिं पुट्ठा । लोगन्ते तेसितो जे ब्यतेजः तेऊ ते उ धिप्पन्ति ॥१॥" तत उक्तं-'उववाएणं दोसु उहकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य' इति, स्थापना स्थानानि तदेवमिदं सूत्रं व्यवहारनयप्रदर्शनेन व्याख्यातं, तथासंप्रदायात, युक्तं चैतत् "विचित्रा सूत्राणां गतिः"_-_s इति वचनादिति । 'समुग्घाएणं सबलोए' इति, इह द्वयोः कपाटयोर्यथोक्तखरूपयोर्यान्यपान्तरालानि तेषु । ये सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयो बादरापर्याप्ततेजःकायिकेषुत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहताः ते किल विष्कम्भवाहल्याभ्यां शरीरप्रमाणमात्रानायामत उत्कर्षतो लोकान्तं यावदात्मप्रदेशान् विक्षिपन्ति, तथा चावगाहनासंस्थानपदे वक्ष्यते-"पुढवीकाइअस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोदयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा प०१, गोयमा ! सरीरपमाणमेचविखंभबाहल्लेणं आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागे उक्कोसेणं लोगंतो" इति, ततस्ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकादय उत्पत्तिदेशं यावद् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डा अपान्तरालगतौ वर्त-11॥७६ माना बादरापर्याप्ततेजाकायिकायुर्वेदनाद् लन्धबादरापर्याप्ततेजःकायिकव्यपदेशाः समुद्घातगता एवापान्तराल १ पचचत्वारिंशलक्षपृथू द्वौ कपाटौ च षटुसु दिक्षु स्पृष्टौ । लोकान्तान तयोरन्तर्वे तेज:कायिकासे तु गृह्यन्ते ॥१॥ अनुक्रम [१९२] Sarasitaram.org ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] गती वर्तमाना इति, समुद्घातगताथ सकललोकमापूरयन्ति, उक्तं च-'समुद्घातेन सर्वलोके' इति, अन्ये त्यभि-18 दषति-अतिबहवः खलु बादरापर्यासतेजःकायिकाः, एकैकपर्याप्त निश्रया असंख्येयानामपर्याप्तानामुत्पादात्, तेच सूक्ष्मेष्वपि समुत्पद्यन्ते, सूक्ष्माश्च सर्वत्र विद्यन्ते इति, बादरापर्याप्सतेजःकायिकाः खखभयपर्यन्ते कृतमारणान्तिकसमुद्घाताः सन्तः सकलमपि लोकमापूरयन्ति इति न कश्चिद्दोषः, अपि तु निरुपचरिततेजाकायिकसमुद्घातप्ररू-19 पणागुणः, स्थापना-खस्थानेन लोकस्यासंख्येये भागे इति, पर्याप्तनिश्रयाऽपर्याप्सानामुत्पादात्, पर्याप्तानां च स्थान मनुष्यक्षेत्रं, तच लोकासंख्येयतमभागमात्रमिति । सूक्ष्मपर्यासापोसतेजःकायिकसूत्रं सूक्ष्मपर्याप्सापर्यासपृथिवीकायिकसूत्रवद् भावनीयमिति । कहिणं भंते ! वादरखाउकाइयाणं ठाणा प०१, मोयमा ! सहाणेणं सत्तसु पणवाएसु सत्तसु घणवायवलएसु सत्तसु तणुवाएमु सत्तसु तणुवायवलयेसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु भवणछिद्देसु भवणनिक्खुडेसु निरएसु निरयावलियासु निरयपत्थडेसु निरयछिद्देसु निरयनिक्खुडेसु उडलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु विमाणछिदेसु विमाणनिक्खुडेसु तिरियलोए पाईणपईणदाहिणउदीण सबेसु चेव लोगागासछिद्देसु लोगनिक्खुडेसु य, एत्थणं बादरवाउकाइआणं पजत्तगाणं ठाणा प०, उबवाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु, सहाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु । कहि णं भंते ! अपजचबादरखाउकाइयाणं ठाणा प०१, गोयमा! जत्थेव दीप अनुक्रम [१९२] 2090seasasages90K Lce SAMEauraton . अत्र वायु-वनस्पतिकायिक जीवानाम् स्थानानि कथ्यते ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मल प्रत सूत्रांक २ स्थानपदे वायुवनस्पति स्थान [४०] Boticersedecessettes दीप अनुक्रम [१९३] बादरबाउकाइयाण पजत्तगाणं ठाणा तत्व पादरखाउकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं सधलोए समुग्धारण सबलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु । कहि गं भंते! सुहुमवाउकाइयाण पज्जत्तगाणं अपजतगाणं ठाणा प०१, गोयमा! सुहमवाउकाइया जे पजत्तगाजे य अपञ्जत्तगा ते सके एगविहा अविसेसा अणाणता सबलोयपरियावनगा प० समणाउसो! । कहिणं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पञ्जतगाणं ठाणा प०१, गोयमा! सहाणेणं सत्तसु षणोदहिसु सत्सु घणोदहिवलयेसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपस्थडेसु, उड्डलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए अगडेसु तडागेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियास विलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिट्ठलेसु पल्ललेसु वप्षिणेसु दीवेसु समुद्देसु सवेसु चेव जलासएसु जलठाणेसु, एत्थ णं चादरवणस्सइकाइयाणं पजत्तमाणं ठाणा प०, उववाएवं सबलोए समुग्धाएणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेञ्जहभागे । कहिण भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं अपात्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! जत्थेष बादरखणस्सइकाइयाणं पजचगाणं ठाणा सत्थेव मादरवणस्सइकाइयागं अपजसगाणं ठाणा प०, उपवाणं सवलोए समुग्धाएणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेजइमागे । कहिणं भंते ! सुहुमवणस्सइकाइयाण पजसगाणं अपञ्जत्तगाण य ठाणा प०१, गोयमा ! सुहुमवणस्सइकाइया जे य पजतगा जे य अपजतगा ते सो एगविहा अपिसेसा अणाणता सबलोयपरियावनगा ५० समणाउसो! ।। (मू०४०) ७७ ॥ ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक tdese [४०] दीप एवं बादरवायुकायिकवनस्पतिकायिकसूत्राण्यपि प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि भावनीयानि, नवर बादरपर्याप्तवायुकायिकसूत्रे भवनच्छिद्राणि-भवनानामवकाशान्तराणि भवननिष्कुटा-गवाक्षादिकल्पाः केचन भवनप्रदेशाः नरकच्छिद्राणि नरकनिष्कुटा-गवाक्षादिकल्पा नरकावासप्रदेशाः, एवं विमानच्छिद्राणि विमाननिष्कुटाश्च प्रतिपत्तव्याः, 'उववाएणं लोगस्स असंखेजेसु भागेसु' इत्यादि, वायवो हि पर्याप्ता अतिवहवः, यतो यत्र सुषिरं तत्र वायुः, सुषिरबहुलश्च लोक इति त्रिवप्युपपातादिषु लोकस्यासंख्येयेषु भागेष्वित्युक्तं । अपर्याप्तबादरवायुकायिकसूत्रे 'उबवाएणं समुग्धारण य सबलोए' इति, इह देवनारकवर्जेभ्यः शेषकायेभ्यः सर्वेभ्यो बादरापर्याप्तवायुकायेषु समुत्पधन्ते, बादरापर्याप्ताश्चापान्तरालगतावपि लभ्यन्ते, बहूनि च खस्थानानि बादरपर्याप्तापर्याप्तवायुकायिकानां, ततो व्यवहारनयमतेनाप्युपपातमधिकृत्य सकललोकव्यापिता घटते इति न काचित् क्षतिः, समुद्घातेन च सकल| लोकव्यापिता सुप्रतीतैव, सर्वेषु सूक्ष्मेषु सर्वत्र च लोके तेषां समुत्पादसंभवात् । बादरपर्याप्तवनस्पतिकायिकसूत्रे 'उववाएणं सबलोए' इह पर्यासवादरवनस्पतिकायिकानां खस्थानं घनोदध्यादि, तत्र वादरनिगोदानां शैवालादीनां संभवात् , सूक्ष्मनिगोदानां भवस्थितिरन्तर्मुहूर्तं ततस्ते बादरनिगोदेषु पर्याप्तेषु समुत्पद्यमाना पादरनिगोदपर्याप्तायुरनुभवन्तः सुविशुद्धऋजुसूत्रनयदर्शनाभ्युपगमेन लब्धवादरपर्यासवनस्पतिकायिकव्यपदेशा उपपातेन सकलकालं सर्वलोकं व्यामुवन्ति, तत उक्तम्-'उपपातेन सर्वलोके' इति । 'समुग्घाएणं सबलोए' इति, यदा बादरनिगोदाः। L अनुक्रम [१९३] SAREairanा ~ 159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मल- य० वृत्ती. स्थानपदे विकलेन्द्रियस्थान ॥७८॥ [४०] दीप सूक्ष्मनिगोदेषु आयुर्वदा पर्यन्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता आत्मप्रदेशानुत्पत्तिदेशं यावद् विक्षिपन्ति तदा वादरनिगोदपर्याप्तायुरयाप्यक्षीणमिति बादरपर्यासनिगोदा एव समुद्घातगताश्च सकललोकव्यापिनश्चेति समुद्घा- तेन सर्वलोके, खस्थानेन लोकस्यासंख्येयतमे भागे, घनोदध्यादीनां सर्वेषामपि समुदितानां लोकस्यासंख्येयभागमात्रवर्तित्वात् , शेषं सुगमं ॥ (ग्रन्थाग्रं २०००) कहि णं भंते 1 बेइंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा! उढलोए तदेकदेसभागे अहोलोए तदेकदेसभागे तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु बावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु ससु चेव जलासयेसु जलठाणेसु एत्य गं बेइंदियाण पजतापजत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोगस्स असंखेजहभागे, समुग्धाएणं लोगस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे । कहिणं भंते ! तेइंदियाणं पजतापजतगाणं ठाणा प०१, गोयमा! उहुलोए तदेकदेसभाए अहोलोए तदेकदेसभाए तिरियलोए अगडेसु तलाएम नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु विलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिद्धलेसु पल्ललेसु बप्पिणेसु दीवेसु ॥ समुदेसु सवेसु चेव जलासएसु जलठाणेसु एत्थ णं तेइंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा प० उववाए लोयस्स असंखेअहभागे समुग्धारण लोयस्स असंखेजइमागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजाभागे । कहिणं भंते! चरिदियाणं पज्जत्ता अनुक्रम [१९३] 33000082920 । ।। ७८॥ अत्र द्वि-त्रि-चतु: इन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] SeRA पज्जत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! उहलोए तदेकदेसभागे अहोलोए तदेकदेसभागे तिरियलोए अगडेसु तलाएमु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियाम गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेमु चप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सबेमु चेव जलासएमु जलठाणेसु एत्थ णं चरिंदियाणं पजत्तापक्षत्ताणं ठाणा प० उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे । कहि णं भंते ! पंचिंदियाण पज्जत्तापज्जतगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! उडलोयस्स तदेकदेसमाए अहोलोयस्स तदेकदेसभाए तिरियलोए अगडेसु तलाएस नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेमु समुद्देसु सबेसु चेव जलासपसु जलठाणेसु एत्थ णं पंचिंदियाण पज्जचापजत्ताणं ठाणा प०, उववाएण लोयस्स असंखेजहभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजहभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे ॥ (सू०४१) एवं द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसामान्यपञ्चेन्द्रियसूत्रावपि भावनीयानि, नवरं द्वीन्द्रियादयो वहयो जलसंभूताः शङ्खप्रभृतय इति सर्वेष्वपि सूत्रेषु स्थानान्यवटादीन्युक्तानि, तथा ऊर्द्ध लोके तदेकदेशभागे-मन्दरादिवाप्यादिषु, अधोलोके तदेकदेशे(शभागे)-अधोलौकिकयामकूपतडागादिपु, शेषमुपयुज्य खयं परिभाषनीयम् ॥ अधुना पर्यासापर्याप्सनैरयिकस्थानप्ररूपणार्थमाह दीप अनुक्रम [१९४] प्र.१४ ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥७९॥ २ स्थानपदे विकलेन्द्रियसामान्यपञ्चेन्द्रियनारकस्था [४२] "कहि णं भंते ! नेरइयाणं पज्जतापजचाणं ठाणा प०१, कहि णं भंते ! नेरइया परिवसन्ति ?, गोयमा ! सहाणेणं सत्तमु पुढवीसु, तं०-रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए तमप्पभाए तमतमपभाए, एत्य - ण नेरइयाणं चउरासीह निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं नरगा अंतो वट्टा वाहि चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमांसचिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुब्भिगंधा काउयअगणिवन्नामा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा अमुभा नरगेसु वेयणाओ एत्थ ण नेरइयाणं पजचापजनगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्याएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे, एत्य णं यहवे नेरझ्या परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्चासणगा परमकण्हा बनेणं प० समणाउसो !, ते णं तत्व निचं भीता निचं तत्था निचं तसिया निचं उबिग्गा निचं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति (मू०४२) 'कहिणं भंते ! नेरइयाण' इत्यादि, कस्मिन् प्रदेशे भदन्त ! नैरयिकानां पर्याप्तापर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञतानि ? एतदेव व्यक्तं पृच्छति यथा अन्येऽप्यवबुध्यन्ते–'कहि णं' इति कस्मिन् प्रदेशे 'ण' इति वाक्यालंकृती नैरयिकाः परिवसन्ति ?, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गौतम ! खस्थानेन सप्तसु पृथिवीपु, ता एवं नामग्राहमाह-'त०रयणप्पभाए' इत्यादि, गतार्थे, 'एत्थ गं' इत्यादि, अत्र-एतासु सप्तसु पृथिवीपु नरयिकाणां सर्वसंख्यया चतु ने (सू. दीप अनुक्रम [१९५] ४१-१२ अत्र नैरयिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते ~162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] दीप रशीतिर्नरकावासशतसहस्राणि भवन्ति, तथाहि-रत्नप्रभायां त्रिंशन्नरकाबासशतसहस्राणि भवन्ति, शर्कराप्रभायां पञ्चविंशतिः शतसहस्राणि, वालुकाप्रभायां पञ्चदश लक्षाः, पङ्कप्रभायां दश लक्षाः, धूमप्रभायां त्रीणि लक्षाः, तमः प्रभायामेकं शतसहस्रं पञ्चोनं, तमस्तमःप्रभायां पञ्चेति, सर्वसंख्यया चतुरशीतिरीक्षा नरकावासानामित्याख्यातं मया प्राशेपेस्तीर्थभिः (थ), 'तेणं नरकाबासा' इत्यादि, ते नरकाचासाश्चतुरशीतिर्लक्षप्रमाणाः सर्वेऽपि प्रसेकमन्तः-18 मध्यभागे (वृत्ता) वृत्ताकारा बहिर्भागे चतुरस्त्रा:-चतुरस्राकाराः, इदं च पीठोपरिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्य प्रोच्यते, सकलपीठाद्यपेक्षया त्वापलिकाप्रविष्टा वृत्तव्यस्रचतुरस्त्रसंस्थानाः, पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थानाः प्रतिपत्तव्याः, 'अहे खुरप्पसंठाणसंठिया' इति अधो-भूमीतले क्षुरप्रस्थेव-प्रहरणविशेषस्य यत्संस्थानम्-आकारविशेषस्तीक्ष्णतालक्षणस्तेन संस्थिताः, तथाहि-तेषु नरकावासेषु भूमितले मसृणत्वाभावतः शर्क रिले पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करामात्रसंस्पर्शेऽपि क्षुरप्रेणेव पादाः कृत्यन्ते, 'निबंधयारतमसा' इति तमसा नित्यान्धकाराः-उद्योताभावतो यत्तमः तदिह तम उच्यते तेन तमसा नित्यं-सर्वकालमन्धकाराः, त(अ)त्रापवरकादिष्वपि तमोऽन्धकारोऽस्ति केवलं बहिः सूर्यप्रकाशे मन्दतमो भवति, नरकेषु तु तीर्थकरजन्मदीक्षादिकालव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमप्युद्योतलेशस्याप्यभावतो जात्यन्धस्खेव मेघच्छन्नकालार्धरात्र इवातीव बहलतरो वर्तते तत उक्तं-तमसा नित्यान्धकाराः, तमश्च तत्र सदा-IM ऽवस्थितं, उद्योतकारिणामसंभवात् , तथा चाह-'यवगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा' व्यपगतः-परिभ्रष्टो । अनुक्रम [१९५]] SAREmiranLATLond ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [१९५ ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [४२] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ६ ग्रह चन्द्रसूर्यनक्षत्ररूपाणा उपलक्षणमेतत् तारारूपाणां च ज्योतिष्काणा पन्था — मार्गों येभ्यस्ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपथाः, तथा 'मेयवसापूयरुधिरमांसचिक्खिहलित्ताणुलेवणतला' इति स्वभाव संपन्नैर्मदोवसापू-तिरुधिरमांसैर्यश्चिक्खिलः - कर्दमः तेन लिसं- उपदिग्धमनुलेपनेन–सकुलिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं -- भूमिका येषां ते मेदोवसापूतिरुधिरमांस चिक्खिल लिप्सानुलेपनतलाः, अत एवाशुचयः - अपवित्रा बीभत्साः दर्शनेऽ॥ ८० ॥ व्यतिजुगुप्सोत्पत्तेः क्वचिद् 'बीसा' इति पाठः, तत्र विस्रा-आमगन्धिकाः परमदुरभिगन्धा सृतगवादिकडेवरेभ्यो ऽव्यतीवानिष्टदुरभिगन्धाः । 'काउयअगणिवन्नाभा' इति, लोहे घम्यमाने या कपोतो बहुकृष्णरूपोऽमेर्वर्णः, २४ किमुक्तं भवति ? - यादृशी बहुकृष्णवर्णभूता अग्निज्वाला विनिर्गच्छतीति तादृश्याभा - आकारो येषां ते कपोताशिवर्णामाः, धम्यमानलोहाग्निज्वालाकल्पा इति भावः, नारकोत्पत्तिस्थानव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्राप्युष्णरूपत्वात्, ४ एतच षष्ठससमपृथ्वीवर्जमवसेयं, तथा च वक्ष्यति — 'नवरं छट्टसत्तमी णं काउअगणिवन्नाभा न भवन्ति' तथा कर्कशः- अतिदुःसहोऽसिपत्रस्येव स्पर्शो येषु ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव 'दुरहियासा' इति, दुःखेनाध्यास्यन्ते - सह्यन्ते दुरध्यासा अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा गन्धरसस्पर्शशब्दैरशुभा - अतीवासातरूपा नरकेषु वेदना, 'एत्थ णं' इत्यादि, यावत् तत्थ णं बहवे निरया परिवसन्ति' 'काला' इत्यादि, कालाः- कृष्णाः, तत्र कोऽपि निष्प्रभतया मन्दकृष्णोऽपि भवति ततस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थं विशेषणान्तरमाह- कालावभासाः कालः कृष्णोऽवभासः - प्रभाविनिर्गमो For Parts Only ~ 164~ २ स्थानपदे नैरविकस्था नं सू. ४२. ॥ ८० ॥ Mantrary or Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -1, -------------- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] येभ्यस्ते कालावभासाः, कृष्णप्रभापटलोपचिता इति भावः, अत एव गम्भीरलोमहर्षाः-गम्भीरः-अतीवोत्कटो |लोमहर्षो-लोमोद्धर्षो भयवशाद् येभ्यस्ते गम्भीरलोमहर्षाः, किमुक्तं भवति -एवं नाम कृष्णाः कृष्णावभासा यद् दर्शनमात्रेऽपि शेषनारकजन्तूनां भयसंपादनेन मात्रातिर्ग लोमहर्षमुत्पादयन्तीति, अत एव 'भीमाः' भयानकाः, भीमत्वादेव उनासनकाः-उत्रास्यन्ते शेषनारकजन्तव एभिरित्युत्रासनाः उत्रासना एवोत्रासनकाः, किंबहुना ?ला'वर्णेन' वर्णमधिकृत्य परमकृष्णाः, यत ऊर्च न किमपि कृष्णमस्ति भयानकं वा, पत्कर्षप्राप्त कृष्णवर्णाः प्रज्ञता मया शेषश्च तीर्थकरैः हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! 'ते णं निचं भीया' इत्यादि, ते नैरयिकाः 'णं' इति वाक्यालङ्कारे 'नित्यं सर्वकालं क्षेत्रखभावजनितमहानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः 'नित्य' सर्वकाल त्रस्ताः परमाधार्मिकपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयादग्रेऽपि त्रास(स)मुपपन्नाः 'निर्स' सर्वकालं परमाधार्मिकैः परस्परं वा त्रासिताः-त्रासं ग्राहिताः तथा 'नित्यं सर्वकालं यथायोग परमदुःसहशीतोष्णवेदनानुभवतः परमाधार्मिकपरस्परोदीरितदुःखानुभवतश्वोदिमाः-तद्गतवासपराङ्मुखचित्ताः एवं 'नित्यं सर्वकालं परममशुभं-एकान्तेनाशुभं संबद्धम्-अनुवर्द्धन तु जातुचिदपि मनागप्यपान्तराले व्यवच्छिन्नसंतानं 'नरकभयं' नरकदुःखं 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येक वेदयमाना 'बिहरन्ति' अवतिष्ठन्ते। | कहि णं भंते ! रयणप्पभापुढवीनेरइयाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा प०१, कहि णं भंते ! रयणप्पमापुढवीनेरहआ परिव दीप अनुक्रम [१९५]] REaamana anmarary.org ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [१९६] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ८१ ॥ पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [४३] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Intention सन्ति ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एवं जोयणसहस्समोगाहित्ता हेडा चेगं जोयणसहस्सं वज्जिता मज्झे अइहुतरे जोयणसयस हस्से एत्थ णं रयणप्पभापुढवीनेरइयाणं तीसं निरयावासससहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निबंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसप्पहा मेदवसापूयपडलरुहिरमांस चिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असुइबीसा परमदुब्भिगंधा काउअगविनाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा परगा असुभा णरगेसु वेयणाओं, एत्थ णं रवणप्पभापुढचीनेरइयाणं पज्जताजा ठाणा प०, उववारणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे रयणप्पभापुढवीनेरइया परिवसन्ति, काला कालोमासा गंभीर लोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिडा बन्नेणं प० समणाउसो !, ते णं निबं भीता नियं तत्था निचं तसिया निचं उद्विग्गा निचं परमममुहसंबद्धं णरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहि णं भंते ! सकरप्पभापुढवीनेरइयाणं परत्तापञ्जत्ताणं ठाणा प० १, कहि णं ते! सरप्पभापुढवीनेरइया परिवसन्ति ?, गोयमा । सकरप्पभापुढवीए बत्तीमुत्तरजोयणसयस हस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेडा चेगं जोयणसहस्सं वज्जिता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं सकरप्पभापुढatteri पणवीसं निरयावासस्यसहस्सा हवन्तीति मक्खायं, ते णं णरगा अंती वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठासंठिया निबंधयार तमसा ववगयगह चंदसूरनक्खतजोइसिय पहा मेदवसापूयपडलरूहि रमांस चिक्खिललिताणुलेवणतला असुदवीसा परमदुब्भिगंधा काउअगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा परगा असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ For Parts Only ~166~ sezenzeroverenenns २ स्थान पदे रलमभाद्यनार कस्थानं सू. ४३ ॥ ८१ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] णं सक्करप्पभापुढवीनेरइयाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०, उववाएणं समुग्धाएणं सहाणेणं लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे सकरप्पभापुढवीनेरइआ परिवसन्ति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा बन्नेणं प० समणाउसो! ते णं निश्च भीता निचं तत्था निचं तसिया निचं उबिग्गा निचं परममसुहसंबद्धं नरमभयं पवणुभवमाणा विहरन्ति । कहिणं भंते । वालुयप्पभापुढवीनेरइयाणं पजत्तापज्जत्ताणं ठाणा 4०१, कहि ण भंते । वालयप्पभापुढवीनेरइया परिवसंति ?, गोयमा ! वालुयप्पभापुढवीए अहावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेडा चेगं जोयणसहस्सं बजित्ता मज्झे छवीसुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं वालुयप्पभापुढवीनेरइयाणं पारसनरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते गं णरगा अंतो वट्टा बाहि चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदमूरनक्खत्तजोइसप्पहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुइबीसा परमदुभिगंधा काउअगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ एत्थ बालुयप्पभापुढवीनेरइयाणं पञ्जतापज्जत्ताणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजहभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे वालुयप्पभापुढवीनेरइया परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा बनेणं प० समणाउसो, ते णं निचं भीता निषं तत्था निचं तसिआ निच्चं उबिग्गा निचं परमममुह संबद्धं परगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहि णं मंते ! पंकप्पभापुढयीनेरइयाणं पञ्जतापजत्ताणं ठाणा प०, कहि णं भंते ! पंकप्पभापुढवीनेरइया परिवसंति, मोयमा! पंकप्पभापुढवीए पीसुत्तरजोय दीप अनुक्रम [१९६] cिeaeseseaesese टटपटseroelecE4 Punasaramorg ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक मज्ञापनायाः मलम.वृत्ती . २ स्थानपदे रत्नप्रभादिनारकस्थानं [४३]] दीप णसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता मज्झे अहारसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं पंकप्पभापुढवीनेरइयाणं दस निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खाप, ते ण णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा बवगयगहचंदमूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुन्मिगंधा काउअगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ एत्थ णं पंकप्पभापुढवीनेरइयाणं पात्तापञ्जत्ताणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजड़भागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं यहवे पंकप्पभापुढवीनेरइआ परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा बनेणं प० समणाउसो, ते णे निचं भीया णिच्च तत्था णिचं तसिया णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहिणं भन्ने ! धूमप्पभापुढवीनेरइयाण पजचापजत्ताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते। धूमप्पभापुढषीनेरइआ परिवसन्ति, गोयमा धूमप्पमापुढवीए अहारसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेहा चेगं जोयणसहस्सं वजिचा मज्झे सोलमुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं धूमप्पभापुढवीनेरइयाणं तिनि निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असइवीसा परमदुब्मिगंधा काउअगणिवत्रामा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगसु वेयणाओ एत्थ णं धूमप्पमापुढवीनेरइयाणं पञ्जत्तापजताणं ठाणा प०, उववाएणं अनुक्रम [१९६] ॥८२॥ ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] लोयस्स असंखेजहभागे समुग्याएणं लोयस्स असंखेजइभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे, तत्थ बहवे धूमष्पभापुढवीनेरइया परिवसन्ति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणमा परमकिण्हा वनेणं प०समणाउसो!, ते ण णरगा निचं भीता नि तत्था निश्चं तसिया निचं उबिग्गा निचं परममसुहसंबद्धं नरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहिणं भंते ! तमापुढवीनेरइयाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! तमापुढवीनेरइया परिवसंति', गोयमा! तमाए पुढवीए सोलसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहिता हिहा चेग जोयणसहस्सं वजित्ता मझे चउदसुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं तमप्पभापुढवीनेरइयाणं एगे पंचूणे परगावाससयसहस्से हवन्तीति मक्खायं, ते गं गरगा अंतो वट्टा चाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्षत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिविखल्ललित्ताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुन्भिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं तमापुढवीनेरहयाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजहभागे समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे तमप्पभापुढवीनेरइया परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वन्नेणं प० समणाउसो, ते णं निञ्च भीता निश्चं तत्था निचं तसिया निचं उबिग्गा निचं परममसुहसंबद्धं नरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहि णं भंते ! तमतमापुढवीनेरहयाणं पञ्जचापञ्जचाणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! तमतमापुढपीनेरइया परिवसति', गोयमा! तमतमाए पुढवीए अहोत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं अद्धतेवन्नं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता हेहावि अखतेवनं जोयणसहस्साई वञ्जिता मो दीप अनुक्रम [१९६] 9929890099999999900 Ramanara ~ 169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. २ स्थानपद रलप्रभादिनारकस्थानं [४३] तीसु जोयणसहस्सेसु एत्थ गं तमतमापुढवीनेरइयाणं पजत्तापजत्ताणं पंचदिसि पंच अणुचरा महइमहालया महानिरया प०,०–काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइहाणे, ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिआ निचंधयारतमसा ववगवगहचंदमूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुभिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं तमतमापुढवीनेरइयाणं ठाणा प०, उपवाएणं लोयस्स असंखेजइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजहभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे तत्थ णं बहवे तमतमापुढवीनेरहमा परिवसति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वन्नेणं प० समणाउसो, ते णं निचं भीता निच्च तत्था निर्थ तसिया निचं उविग्गा निचं परमममुहसंबद्धं गरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति ॥ आसीय बत्तीस अट्ठावीसं च ९ति वीसं च । अहारससोलसर्ग अहुत्तरमेव हिडिमिया ॥१॥ अहत्तरं च तीसं छपीसं चेव सयसहस्सं तु । अहारस सोलसर्ग चउद्दसमहियं तु छडीए ॥ २॥ अद्धतिबन्नसहस्सा उबरिमहे वनिऊण तो भणियं । मज्झे तिसहस्सेसु होन्ति उ नरगा तमतमाए ॥३॥ तीसा य पन्नवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई । तिनि य पंचूणेगं पंचेव अणुत्तरा नरगा ॥४॥ (मू०४३) तदेवं सामान्यतो नैरयिकसूत्र व्याख्यातं, एवं रलप्रभादिविषयाण्यपि सूत्राणि यथायोगं परिभावनीयानि, प्राय उक्तव्याख्यानुसारेण सुगमत्वात् , केवलं षष्ठपृथिव्यां सप्तमपृथिव्यां च नरकावासाः कपोताग्निवर्णाभा न वक्तव्याः, दीप अनुक्रम [१९६-२००] ॥८३ ।। ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -1, -------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 100 प्रत सूत्रांक [४३] नारकोत्पत्तिस्थानव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रापि तेषां शीतपरिणामत्वात् , तथा चाह-"नवरं छटुसत्तमीसु णं काउअअगणिवन्नाभा न भवन्ति"। सम्प्रति यथोक्तपृथिवीवाहल्यपरिमाणप्रतिपादिका संग्रहणीगाथामाह-आसीयं बत्तीसं' इत्यादि, आशीतं-अशीतिसहस्राधिकं शतसहस्रं रत्नप्रभाया बाहल्यं द्वात्रिंशं-द्वात्रिंशत्सहस्राधिकं शर्कराप्रभायाः 'अष्टाविंशं' अष्टाविंशतिसहस्राधिकं वालुकाप्रभायाः विंशतिसहस्राधिकं पङ्कप्रभायाः अष्टादशसहस्राधिक धूमप्रभा-IN याः षोडशसहस्राधिकं तमनभायाः अष्टोत्तरम्-अष्टसहस्राधिकं लक्ष 'हेटिमिया' सर्वाधस्तन्यास्तमस्तमःप्रभाया इति । संप्रति उपर्यधश्चैकैक योजनसहस्रं मुक्त्वा यावत्प्रमाणं नरकावासयोग्यं पृथिवीवाहल्यं तापसंग्रहीतुकाम आहअट्टत्तरं च' इत्यादिगाथाद्वयं, रत्नप्रभाया हि अशीतिसहस्राधिकं लक्षं पाहल्यपरिमाणं तस्योपरितनमेकं योजनसहस्रमेकं चाधो योजनसहनं वर्जयित्वा शेषं नरकावासाधारभूतं, अतो रत्नप्रभाया नरकावासयोग्य बाहल्यपरिमाणमष्टसप्ततिसहस्राधिकं लक्षं भवति, एवं सर्वत्राप्युपयुज्य भावनीयं । साम्प्रतं नरकावाससंख्याप्रतिपादनाय संग्रहणीगाथामाह-'तीसा य' इत्यादि, गतार्था ॥ कहि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०१, गोयमा ! उहुलोए तदेकदेसभाए अहोलोए तदेकदेसभाए तिरियलोए अगडेसु तलायेसु नदीसु दहेसु वाचीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु पिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुदेसु ससु चेव जलासएसु दीप अनुक्रम [१९६-२००] SAREairatuRKI B imaram.org अत्र तिर्यञ्च-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- प्रत सूत्रांक याः मलयवृत्ती. ॥८४॥ सू.४४ मनुष्याणां [४४] जलठाणेसु एत्थ णं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजत्तापञ्जताणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्धा- २ स्थानएणं सबलीयस्स असंखेअइभागे सहाणेणं सबलोयस्स असंखेजइभागे ॥ (सू०४४) पदे पञ्चेतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रं प्राग्वत् , नवरमूर्ध्वलोके तदेकदेशे-तिर्यपञ्चेन्द्रिया मत्स्यादयो मन्दराद्रिवाप्यादिषु, अधो-1 न्द्रियाणां लोके तदेकदेशे-अधोलौकिकयामादिष्वित्यर्थः । कहिणं भंते ! मणुस्साणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा प०१, गोयमा ! अंतो मणुस्सखेने पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु सू.४५भअड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पन्चरससु कम्मभूमीसुतीसाए अकम्मभूमीसु छप्पनाए अंतरदीवेसु एत्थ णं मणुस्साणं पजत्ताप वनपतीना अचाणं ठाणा प०, उववाएण लोयस्स असंखेजहभागे, समुग्घाएणं सबलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे ॥ (सू०४५) मनुष्यसूत्रमपि सुगम, नवरं 'समुग्धाएणं सबलोए' इति केवलिसमुद्रपातमधिकृत्य ॥ सम्प्रति भवनपतिस्थानप्रतिपादनार्थमाह कहिणं भंते ! भवणवासीणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति', गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उपरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जिता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकभियासंठाणसंठिया उकिनंतर दीप सू. ४६ अनुक्रम [२०१] ॥८४ अत्र मनुष्य एवं देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये भवनवासीदेवानाम स्थानानि कथ्यते ~ 172 ~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४६ ] गाथा दीप अनुक्रम [२०३ -२०४] प्र.१५ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [२], उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [ ४६... ] + गाथा ( १२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ১৬৬১৬৯৬৯৩ faraiभीरखात लिहा पागारहालयकवाडतोरणपडिदुबारदेसभागा जंतसयग्धिम्मसंदिपरियारिया अउज्झा सदाजया सदागुता अडयालकोहगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिया लाउलोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणददरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुबारदेस भागा आसत्तोसच विउलबबग्वारियमल्लदामकलावा पंचवन्न सरससुरभिमुकपुष्कपुंजोवयारकलिया ( ग्रंथाग्रं १००० ) कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविभिन्ना दिचतुडियसदसंपणातिया सहरयणामया अच्छा सहा लहा घट्टा मट्ठा णीरया निम्मला निष्का निकंकडच्छाया सप्पदा ससिरिया समिरिया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरुवा, एत्थ णं भवणवासिदेवाणं पजताप ताणं ठाणा पं०, उचवाएणं लोयस्स असंखेअभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेजड़भागे, तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति, तं० असुरा नाग सुवन्ना विज्जू अग्गी य दीव उदही य। दिसिपवणथणियनामा दसहा एए भवणवासी ।। १२९ ।। चूडामणिमउडरवणभूसणणा गफ डेंगरु लेबइ रेपुन्न कलर्स के उप्फेसा सीहमगरंगयंकअस्सेवर वर्द्धमाणनिज्जुन चित्तविधगता सुरूवा महट्टिया महज्जुआ महम्बला महायसा महाणुभावा महासोक्खा हारविराइअवच्छा कडगतुडियर्थभिभुआ अंगदकुंडलम गंडतलक अपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कलाणगपवरमलावणधरा भासुरबोंदिपलंबवणमालधरा दिवेणं वनेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिखाए इडीए दिखाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अचीए दिवेणं तेषणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ For Pernal Use On ~ 173 ~ nary or Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४६] + गाथा दीप अनुक्रम [२०३ -२०४] प्रज्ञापना याः मलय० वृत्ती. ॥ ૮॥ ॥ Eticatur “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [२], उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [ ४६... ] + गाथा ( १२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः उजोवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं भवणावासस्यसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीगं साणं साणं तायतीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिमाणं साणं साणं अणिआणं साणं साणं अणिआहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महताहतनादृगीयवाइयतंतितलतालतु डियघणमुइंगपटुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति । 'कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं' इत्यादि, 'असी उत्तरजोयण सय सहस्सवाहलाए' इति अशीत्युत्तरं - अशी - तिसहस्राधिकयोजनशतसहस्रं वाइल्यं यस्याः सा तथा तस्याः 'सत्त भवणकोडीओ बायत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं' इति असुरकुमाराणां हि चतुःषष्टिशतसहस्राणि भवनानां ततः सर्वसंख्यया यथोक्तं भवनसंख्यानं भवति, 'ते णं भवणा' इत्यादि, तानि 'णं' इति वाक्यालङ्कारे, पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् भवनानि वहिर्वृत्तानिवृत्ताकाराणि अन्तः समचतुरस्राणि अधस्तनभागे पुष्करकर्णिकासंस्थान संस्थितानि कर्णिका नाम उन्नतसमचित्रबिन्दुकिनी 'उकिन्नंतर विउलगंभीरखातफलिहा' इति उत्कीर्णमियोत्कीर्णमतीव व्यक्तमित्यर्थः, उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखाणां ता उत्कीर्णान्तराः, किमुक्तं भवति ? - खातानां च परिखाणां च स्पष्टवैविक्योन्मीलनार्थमपान्तराले महती पाली समस्तीति, खातानि च परिखाश्च खातपरिखाः उत्कीर्णान्तरा विपुला - विस्तीर्णा For Parts Only ~ 174~ २ स्थान पदे भवनवासिस्था नं सू. ४६ ॥ ८५ ॥ www.landbrary or Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------- उद्देशक: [-1, ----------- दारं [-], ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा गम्भीरा-अलब्धमध्यभागा खातपरिखा येषा भवनाना परितस्तानि उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखानि, खातपरिखानां चायं प्रतिविशेषः-परिखा उपरि विशाला अधः संकुचिता, खातं तु उभयत्रापि सममिति, 'पा-1 गारद्यालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा' इति, प्रतिभवनं प्राकारेषु-सालेषु अट्ठालककपाटतोरणप्रतिद्वाराणि-अट्टा-1 लककपाटतोरणप्रतिद्वाररूपा देशभागा-देशविशेषा येषु तानि प्राकाराहालककपाटतोरणप्रतिद्वारदेशभागानि, तत्राहालकाः-प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः कपाटानि-प्रतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोल्यः सर्वत्र सूचिताः, अन्यथा कपाटानामसंभवात् , तोरणानि प्रतोलीद्वारेषु प्रतिद्वाराणि-स्थलद्वारापान्तरालवर्तीनि लघुद्वाराणि, तथा 'जंतस- यग्घिमुसलमुसंढिपरिवारिया' इति यत्राणि-नानाप्रकाराणि शतध्यो-महायष्टयो महाशिला वा याः पातिता सत्यः पुरुषाणां शतानि प्रन्ति मुशलानि-प्रतीतानि मुसण्ढ्यः-प्रहरणविशेषाः तैः परिवारितानि-समन्ततो वेष्टितानि, अत एवायोध्यानि-परेर्योद्धमशक्यानि, अयोध्यत्वादेव च 'सदाजयानि' सदा-सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि, सर्वकालं जयवन्तीत्यर्थः, तथा सदा-सर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुषैश्च योद्धृभिः सर्वतः-समन्ततो निरन्तरं, परिवारिततया परेपामसहमानानां मनागपि प्रवेशासंभवात् , 'अडयालकोटगरइया' इति अष्टचत्वारिंशभेदभिन्नवि-1 च्छित्तिकलिताः कोष्ठका-अपवरका रचिताः-खयमेव रचनां प्राप्ता येपु तानि अष्टचत्वारिंशत्कोष्ठकरचितानि, सुखादिदर्शनात् पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा अष्टचत्वारिंशभेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला ये दीप अनुक्रम [२०३-२०४] ececece Turasurary.org ~ 175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४६] + गाथा दीप अनुक्रम [२०३ -२०४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [२], उद्देशक: [-], दारं [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] Education Intention प्रज्ञापनायाः मल ॥ ८६ ॥ ४ तानि अष्टचत्वारिंशत्कृतवनमालानि, अन्ये त्वभिदधति — अडवालशब्दो देशीवचनत्वात् प्रशंसावाची, ततोऽयमर्थः- प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति, तथा क्षेमाणि-परकृतोपद्रवरहितानि, शिवानि - सदा मङ्गय० वृत्ती. लोपेतानि, तथा किङ्कराः - किङ्करभूता येऽमरास्तैर्दण्डैः कृत्वोपरक्षितानि सर्वतः समन्ततो रक्षितानि किङ्करामरद४ ण्डोपरक्षितानि, 'लाउलोइयमहिया' इति लाइयं नाम-यद भूमेर्गोमयादिनोपलेपनं उल्लोइयं कुड्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः संसृष्टीकरणं, लाउलोइयाभ्यां महितानि -- पूजितानि लाउछोइयमहितानि तथा गोशीर्षेण-गोशीनामकचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन च दर्दरेण-बहलेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला - हस्तका येषु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दन दर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलानि, तथा उपचिता- निवेशिताः चन्दनकुलशा-माङ्गल्यकलशा येषु तानि उपचितचन्दनकलशानि, 'चन्दन घडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा' इति चन्दनघटैः- चन्दनकलशैः सुकृतानि - सुकृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थः यानि तोरणानि तानि चन्दनपटसुकृततोरणानि प्रतिहारदेशभागे येषु तानि चन्दनपटसुकृत तोरणप्रतिद्वारदेशभागानि तथा 'आसत्तोसत्तविलबट्टवग्वारियमछदामकलावा' इति आ-अवाद अधोभूमी सक्त आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्ध्वं सक्त उत्सक्तः उलोचतले उपरि संबद्ध इत्यर्थः विपुला - विस्तीर्णः वृत्तो- वर्तुलः 'वग्धारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलापः - पुष्पमालासमूहो येषु तान्यासकोत्सक्तविपुलवृत्तप्रलम्बितमाल्यदामकलापानि, तथा पञ्चवर्णेन सुरभिणा मुक्तेन- क्षितेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण-पूजया कठितानि For Parts Only मूलं [ ४६... ] + गाथा ( १२९) “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ~ 176~ २ स्थानपदे भवनवासिस्थानं सू. ४६ ॥ ८६ ॥ www.andray org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४६ ] + गाथा दीप अनुक्रम [२०३ -२०४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [२], दारं [-], उद्देशक: [-] मूलं [ ४६... ] + गाथा ( १२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पञ्चवर्णसुरभिमुक्तपुष्पपुञ्ज पचारकलितानि, 'कालागुरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगन्धुद्धूयाभिरामे' इति काला| गुरुः प्रसिद्धः प्रवरः - प्रधानः कुन्दुरुकः- चीडा तुरुष्कं - सिल्हकं कालागुरुथ प्रवरकुन्दुरुक्कतुरुष्के च कालागुरुप्रवरकुन्दुरुक्कतुरुष्काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उद्भूत - इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाणि - रमणीयानि कालागुरुप्रवरकुन्दुरुक्कतुरुष्क धूप मघमघायमानगन्धोद्भूताभिरामाणि तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धाः ते च ते वरगन्धाश्च - वासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः स एष्यस्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिकानि, “अतोऽनेकस्वरात् " इति इकप्रत्ययः, अत एव गन्धवर्तिभूतानि – सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिका कल्पानीति भावः, तथा अप्सरोगणानां संघः-समुदायः तेन सम्यक् - रमणीयतया विकीर्णानि व्याप्तानि अप्सरोगणसङ्घविकीर्णानि, तथा दिव्यानां त्रुटितानाम् - आतोद्यानां वेणुवीणामृदङ्गादीनां ये शब्दास्तैः संप्रणदितानि सम्यक् - श्रोतृमनोहारितया प्रकर्षेण | सर्वकालं नदितानि - शब्दवन्ति, 'सर्वरत्नमयानि' सर्वात्मना - सामस्त्येन न त्वेकदेशेन रत्नमयानि समस्तरत्वमयानि वा, अच्छानि - आकाशस्फटिकवदतिखच्छानि श्रक्ष्णानि - श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नानि श्४क्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, 'लण्डानि' मसृणानि घुष्टितपटवत्, 'घट्टा' इति घृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमावत्, 'मट्ठा' इति, मृष्टानि, सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेत्र, अत एव नीरजांसि खाभाविकरजोरहितत्वाद् निर्मलानि आगन्तुकमलाभावात् निष्पक्ङ्कानि - कलङ्कविकलानि कर्दमरहितानि वा 'निकंकडच्छाया' इति निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा For Parata Lise Only ~ 177 ~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------- उद्देशक: [-1, ----------- दारं [-], ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक याः मल- य० वृत्ती. [४६] ॥८ ॥ गाथा निरुपघातेति भावार्थः छाया-दीप्तिर्येषां तानि निष्कङ्कटच्छायानि, समभाणि-खरूपतः प्रभावन्ति, समरीचीनिवहिर्विनिर्गतकिरणजालानि, सोद्योतानि-बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशनकराणि, 'प्रसादीयानि' प्रसादाय-मन-II पदे भवनप्रसत्तये हितानि प्रसादीयानि-मनःप्रसत्तिकारीणीति भावः, तथा दर्शनीयानि-दर्शनयोग्यानि यानि पश्यतः वासिस्था नं सू.४६ |चक्षुषी न श्रमं गच्छत इति तात्पर्याधः 'अभिरूपा' इति अभि-सर्वेषां द्रष्ट्रणां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं येषां तानि अभिरूपाणि अत्यन्तकमनीयानीत्यर्थः, अत एव 'पडिरूवा' इति प्रतिविशिष्टं रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवं रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि । 'एते भवणवासी' इत्यादि, एते अनन्तरोक्ता असुरकुमारादयो भवनवासिनो यथाक्रमं चूडामणिमुकुटरत्नभूषणनियुक्तनागस्फटादिचित्रचिह्नधराश्च, तथाहि-असुरकुमारभवनवासिनश्च चूडामणिमुकुटरत्नाः, चूडामणि म मुकुटे रत्नं चिह्नभूतं येषां ते तथा, नागकुमारा भूपणनियुक्तनागरुफटारूपचिह्नधराः, सुवर्णकुमारा भूषणनियुक्तगरुडरूपचिह्नधराः, विद्युत्कुमारा भूषणनियुक्तवज्ररूपचिह्नधराः, वनं नाम शक्रयायुधं, अग्निकुमारा मुकुटनियुक्तपूर्णकलशरूपचिह्नधराः, द्वीपकुमारा भूषणनियुक्तसिंहरूप-1 (चिह्न) धराः, उदधिकुमारा भूषणनियुक्तहयवररूपचिह्नधराः दिक्कुमारा भूषणनियुक्तगजरूपचिह्नधराः, वायुकु-19 मारा भूषणनियुक्तमकररूपचिह्नधराः, स्तनितकुमारा भूषणनियुक्तवरवर्द्धमानरूपचिह्नधराः, बर्द्धमानक-शरायसंपुटं। अक्षरगमनिका त्वेवम्-भूषणेपु नागस्फटागरुडवज्राणि येषां ते भूषणनागस्फटागरुडवत्राः, पूर्णकलशेनाङ्कित उप्फे ॥ ७ दीप अनुक्रम [२०३-२०४] ॥ REatinniturthatana Jumitaram.org ~ 178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [-1, ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा |सो-मुकुटो येषां ते पूर्णकलशाङ्कितोप्फेसाः, तथा सिंहहयवरगजा अङ्का अर्थाद् भूषणेषु येषां ते सिंहहयवरगजाकाः, तथा मकरवर्द्धमानके नियुक्त-भूपणेषु नियोजिते चित्रे-आश्चर्यभूते चि गते-स्थिते येषां ते मकरवर्द्धमानकनियुक्तचित्रचितगतास्ततः पूर्वपदैर्द्वन्द्वसमासः । पुनः सर्वे कथंभूताः ? इत्याह-सुरूपाः' शोभनं रूपं येषां ते तथा, असन्तकमनीयरूपा इत्यर्थः, तथा 'महिहिया' इति महती ऋद्धिः-भवनपरिवारादिका येषां ते महर्द्धिकाः, तथा महती युतिः-शरीरगता आभरणगता च येषामिति महाद्युतयः, तथा महद् बलं-शारीरः प्राणो येषां ते महाबलाः, तथा महद् यशः-ख्यातिर्येषां ते महायशसः, तथा महाननुभागः-सामर्थ्य शापानुग्रहविषयं येषां ते महानुभागाः, तथा 'महेसक्या' इति महान ईश-ईश्वर इत्याख्या-प्रसिद्धिर्येषां ते महेशाख्याः, अथवा ईशनमीशो भावे घजन-1 त्ययः ऐश्चर्यमित्यर्थः 'ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात् तमीशम्-ऐश्वर्यमात्मानं ख्यान्ति-अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयन्तिप्रथयन्ति इति ईशाख्याः महान्तश्च ते ईशाख्याश्च महेशाख्याः, क्वचिद् 'महासोक्खा' इति पाठः तत्र महत् सौख्यं प्रभूतसवेद्योदयवशादू येषां ते महासौख्याः, अन्ये पठन्ति-'महासक्खा' इति, तत्रायं शब्दसंस्कारो-महाथाक्षाः, इयं चात्र पूर्वसूरिप्रदर्शिता व्युत्पत्तिः-आशुगमनादश्वो-मनः अक्षाणि-इन्द्रियाणि वसविषयव्यापकत्वात् अश्वश्च अक्षाणि चेत्यश्वाक्षाणि महान्त्यश्वाक्षाणि येषां ते महाश्वाक्षाः, 'हारविराइयवच्छा' इति हारविराजितं पक्षो येषां 8 Mते हारविराजितवक्षसः, 'कडगतुडियचंभियभुया' इति कटकानि-कलाचिकाऽऽभरणानि त्रुटितानि-बाहुरक्षकाः रस्टल टरटरटकर दीप अनुक्रम [२०३-२०४] manditurary.com ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------- उद्देशक: -1, ----------- दारं [-], ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. [४६] गाथा स्तम्भितौ इव स्तम्भिती भुजौ येषां ते कटकत्रुटितस्तम्भितभुजाः, तथा अन्नदानि-बाहुशीर्षाऽऽभरणविशेषरूपाणि कुण्डले-कर्णाभरणविशेषरूपे तथा सृष्टी-मृष्टीकृती गण्डौ-कपोलौ यस्तानि मृष्टगण्डानि, कर्णपीठानि-कर्णाभरण-18 पदे भवनविशेषरूपाणि धारयन्तीत्येवंशीला अगदकुण्डलमृष्टगण्डकर्णपीठधारिणः, तथा विचित्राणि-नानारूपाणि हस्ताभर- वासिस्थाणानि येषां ते विचित्रहस्ताभरणाः, तथा 'विचित्तमालामउलिमउडा' विचित्रा माला-कुसुमस्रग् मौलौ-मस्तके नं सू.४६ मुकुटं च येषां ते विचित्रमालामौलिमुकुटाः, तथा कल्याणक-कल्याणकारि प्रवरं वखं परिहितं यैस्ते कल्याणकावरवस्त्रपरिहिताः, सुखादिदर्शनादू निष्ठान्तस्यात्र पाक्षिकः परनिपातः, तथा कल्याणकं-कल्याणकारि यत् प्रवरं माल्यं-पुष्पदाम यच्चानुलेपनं तद् धरन्तीति कल्याणकावरमाल्यानुलेपनधराः, तथा भाखरा-देदीप्यमाना बो|न्दिः-शरीरं येषां ते भाखरबोन्दया, तथा प्रलम्ब इति-प्रलम्बा या बनमाला ता घरन्तीति प्रलम्बवनमालाधराः, | 'दिवेणं संघयणेणं'ति शक्तिविशेषमपेक्ष्य संहननेनेव संहननेन न तु साक्षात् संहननेन, देवानां संहननासंभवात्, संहननं हि अस्थिरचनात्मकं, न च देवानां अस्थीनि सन्ति, तथा चोक्तं जीवाभिगमे-“देवा असंघयणी, जम्हा तेसि नेवट्ठी नेव सिरा" इत्यादि, 'दिवाए इबीए' दिव्यया-प्रधानया ऋया-परिवारादिकया दिव्यया धुत्सा-इष्टाथसंप्रयोगलक्षणया 'धु अभिगमने' इति वचनात् , दिव्यया प्रभया-भवनावासगतया, दिव्यया छायया-समुदाय-15 शोभया, दिव्येनार्चिषा-शरीरस्थरतादितेजोवालया, दिव्येन तेजसा शरीरप्रभवेन, दिव्यया लेश्यया-देहवर्णसुन्दर दीप अनुक्रम [२०३-२०४] For P OW PRTsurary.org ~ 180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [-1, ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा तया दश दिश उद्योतयन्तः-प्रकाशयन्तः 'पभासेमाणा' शोभमानास्ते भवनवासिनो देवा 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, 18 तत्र स्वस्थाने 'साणं साणं' इति खेषां खेषामात्मीयात्मीयानामित्यर्थः ‘आहेवचं पोरेव' इत्यादि अधिपतेः कर्म| आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकेणेव क्रियते तत आह-पुरस्य पतिः पुरपतिः तस्य कर्म पौरपित्यं सर्वेषामात्मीयानामग्रेसरत्वमिति भावः, तच्चाप्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि खनायकनियुक्ततथाविधगृहचिन्त कसामान्यपुरुषस्येव भवति ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह-खामित्वं-स्वमस्खास्तीति खामी तभावः स्वामित्वं नायकत्यमित्यर्थः, तदपि च नायकत्वं कस्यचित् पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणाधिपतेर्हरिणस्य तत माहभर्तृत्वं-पोषकत्वं, अत एव महत्तरकत्वं, तदपि महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञायिकलस्थापि भवति बचा कस्खचिद्र वणिजः खदासवर्ग प्रति तत आह-आणाईसरसेणावचं' आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरचासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म आशेश्वरसेनापत्यं खखसैन्यं प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भाषः, कारयन्तोऽन्यनियुक्तकैः पुरुषैः पालयन्तः खयमेव महता वेणेति योगः, 'अहयत्ति' आख्यानकप्रतिब-1 द्धानि यदिवा अहतानि-अव्याहतानि नित्यानुवन्धीनीति भावः ये नाट्यगीते-नाट्य-नृत्वं गीत-गानं यानि च वादितानि-तत्रीतलतालत्रुटितानि तत्र तत्री-बीणा तलौ-हस्ततली ताल:-कंसिका त्रुटितानि-वादित्राणि तथा यश्च घनमूदमा पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र घनमृदको नाम घनसमानध्वनिों मृदङ्गः, तत एतेषां | दीप अनुक्रम [२०३-२०४] ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ....--- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-, ---- मूल [...४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. प्रत सूत्रांक [४६] दीप अनुक्रम द्वन्द्वः, तेषां रवेण दिव्यान्-दिवि भवान् प्रधानानिति भावः, भोगार्हाः भोगाः-शब्दादयो भोगभोगास्तान् भुज-3 | २ स्थान|माना 'विहरन्ति' आसते ॥ पदे भवन बासिस्थाकहि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोय- 0 नंसू.४६ मा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सयाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्ो अहहुत्तरे जोयणसवसहस्से एत्य पं असुरकुमाराणं देवाणं चउसहि भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं । ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकनियासंठाणसंठिया उकिनंतरविउलगंभीरखायफलिहा पागारट्टालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा अंतसयग्घिमुसलमुसंढिपरियारिया अउज्झा सदाजया सदागुत्ता अडयालकोहगरड्या अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरतचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचितचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्वारियमछदामकलावा पंचवमसरसुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकडझंतधूवमघमतगंधुदुयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवटिभूया अच्छरगणसंघसंविगिना दिवतुडियसद्दसंपणादिया सत्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घडा महा णीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया समिरीया सउओया पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइमागे, समु. [२०५] walaunciurary.orm ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ---- --------- मूलं [...४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: रबरबट प्रत सूत्रांक ट [४६] ग्यायेणं लोयस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइमागे, तत्थ णं बहवे असुरकुमारा देवा परिवसंति, काला लोहियक्खबिंबोडा धवलपुष्पदंता असियकेसा वामे एगकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलित्तपत्ता इसीसिलिंधपुष्फपगासाई असंकिलिहाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिया वयं च पढम समइकंता विइयं च वयं असंपत्ता भद्दे जोवणे वट्टमाणा तलभंगयतुडियपवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडितभुया दसमुद्दामंडियन्गहत्था चूडामणिविचित्तचिंधगया सुरूवा महिहिया महजुइया महायसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडलमट्ठगंडयलकबपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगमल्लाणुलेवणधरा मामुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं वन्नेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अचीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोत्रमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिबईणं साणं साणं आयरवखदेवसाहस्सीर्ण अबसि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवषं सामि भट्टित्तं महत्तरगर्त आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महताहतनहगीतबाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगमोगाई भुंजमाणा विहरंति ॥ चमरचलिणो इत्य दुवे असुरकुमारिंदा असुरकुमाररायाणो परिवसंति, काला महानीलसरिसा णीलगुलिअगवलअयसिकुसुमपगासा वियसियसयवत्वणिम्मलईसिसिवरचतंवणयणा गरुकाययउज्जुतुंगनासा उब दीप अनुक्रम [२०५] SARERatininatinatand ~ 183 ~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल प्रत २ स्थानपदेभवनवासिस्थानंसू.४७ य० वृत्ती. सूत्रांक [४६] दीप चियसियप्पवालविंबफलसंनिहाहरोहा पंडरससिसगलविमलनिम्मलदहिषणसंखगोक्खीरकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी हुयवहनिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा अंजणघणकसिणगरुयगरमणिजणिद्धकेसा वामेयकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलितगत्ता ईसिसिलिंधपुप्फपगासाई असंकिलिहाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिया वयं च पढमं समइक्ता बिइयं तु असंपत्ता भद्दे जोवणे वट्टमाणा तलभंगयतुडियपवरभूसणणिम्मलमणिरयणमंडियभुया दसमुद्दामंडियग्गहत्था चूडामणिचित्तचिंधगया सुरूवा महड्डिया महजुईआ महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियर्थभियभुया अंगदकुंडलमहगंडतलकन्नपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं वन्नेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इडीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ सार्ण साणं भवणाबाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं वायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं सार्ण साणं अणियाहिबईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नर्सि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महयाहयनदृगीयवाइयतंतीतलतालतुडियषणमुइंगपढप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई झुंजमाणा विहरति । अनुक्रम [२०५] IN ॥९ ॥ Alainturary.orm अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोष: वर्तते-सू० ४६ स्थाने सू०४७ इति मुद्रितं ~ 184 ~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] असुरकुमारसूत्रे काला:-कृष्णवर्णाः 'लोहियक्खाबिम्बोहा' लोहिताक्षरनयर विम्बीफलषच्च ओष्ठौ येषा ते लोहि-1 |ताक्षविम्बोष्ठाः, आरक्कोष्ठा इति भावः, धवलपुष्पषत्सामात् कुन्दकलिका इव दन्ता येषां ते धवलपुष्पदन्ताः, असिताः-कृष्णाः केशा येषां ते असितकेशाः, दन्ताः केशाचामीषां चैक्रिया द्रष्टव्याः, न खाभाविकाः, पैक्रियशरीरस्वात् 'वामेय (एग) कुंडलधरा' एककर्णावसक्तकुण्डलधारिणः, तथा ऑर्द्रण-सरसेन चन्दनेनानुलिसं गात्रं यस्ते आर्द्रचन्दनानुलिप्सगात्राः, तथा ईषद्-मनाक शिलिन्ध्रपुष्पप्रकाशानि-शिलिन्ध्रपुष्पसदशवर्णानि ईपद्रक्तानीत्यर्थः असंक्लिष्टानि-अत्यन्तसुखजनकतया मनागपि संक्लेशानुत्पादकानि सूक्ष्माणि-मृदुलघुपर्शानि अच्छानि चेति भावः वस्त्राणि प्रवराणि अत्र सूत्रे विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् 'परिहिताः' परिहितवन्तः, तथा वयःप्रथम-कुमारत्वलक्षणमतिक्रान्तास्तत्पर्यन्तवर्तिन इति भावः द्वितीयं च-मध्यमलक्षणं वयोऽसंप्राप्ताः, एतदेव व्यक्तीकरोति-भद्रे-अतिप्रशस्वे, यौवने वर्तमानाः 'तलभंगयतुडियवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडियभुजा' इति तलभङ्गका-वाहाभरणविशेषाः तुटितानि-वाहुरक्षिकाः अन्यानि च यानि वराणि भूषणानि बाह्वाभरणानि तेषु ये निर्मला मणयः-चन्द्रकान्ताद्या यानि रत्नानि च-इन्द्रनीलादीनि तैर्मण्डितौ भुजौ-हस्तानी येषां ते तथा, तथा दशभिर्मुद्राभिर्मण्डिती अग्रहती। येषां ते दशमुद्रामण्डिताग्रहस्ताः, 'चूडामणिविचित्तचिंधगया' इति चूडामणिनामकं चित्रम्-अद्भुतं चिहं गतंस्थितं येषां ते चूडामणिचित्रचिह्नगताः ॥ चमरवलिसामान्यसूत्रे काला:-कृष्णवर्णाः, एतदेयोपमानतः प्रतिपाद दीप Kaesesesesesesese 666 अनुक्रम [२०५] Minmuraryom ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४६ ] दीप अनुक्रम [२०५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२], उद्देशक: [-], दार [-], मूलं [... ४६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्तौ ॥ ९१ ॥ यति- 'महानीलसरिसा' महानीलं यत् किमपि वस्तुजातं लोके प्रसिद्धं तेन सहशाः, एतदेव व्याचष्टे -- नीलगुटिका - नील्या गुटिका गवलं - माहिषं शृङ्गं अतसीकुसुमं प्रतीतं तेषामिव प्रकाशः - प्रभा येषां ते नीलगुटिकागवलातसीकुसुमप्रकाशाः, तथा विकसितशतपत्रमिव निर्मले ईषद् - देशविभागेन मनाक् सिते रक्ते ताम्रे च नयने येषां ते विकसितशतपत्रनिर्मलेष सितरक्तताम्रनयनाः, गरुडस्येवायता - दीर्घा ऋज्वी अकुटिला तुङ्गा-उन्नता नासा-नाॐ सिका येषां ते गरुडायतर्जुतुङ्गनासाः, तथा उबचियं-तेजितं यत् शिलाप्रवाल- विद्रुमरलं यच विम्बफलं विम्याः ॐ सत्कं फलं तत्सन्निभोऽधरोष्ठो येषां ते तथा, तथा पाण्डुरं न तु सन्ध्याकालभाव्यारक्तं शशिशकलं- चन्द्रखण्ड ॐ तदपि च कथंभूतमित्याह-विमलं रजसा रहितं कलङ्कविकलं वा तथा निर्मलो यो दधिधनः शङ्खो गोक्षीरं यानि ॐ कुन्दानि - कुन्दकुसुमानि दकरजः - पानीयकणाः मृणालिका च तद्रवद् धवला दन्तश्रेणिर्येषां ते तथा, विमलशब्दस्य विशेष्यात् परनिपातः प्राकृतत्वात्, तथा हुतवहेन वैश्वानरेण निमतं सद् यज्जायते धौतं निर्मलं तप्तम् उत्तप्तं तपनीयमारकं सुवर्ण तद्वद् रक्तानि हस्तपादतलानि तालुजिह्वे च येषां ते हुतवहनिर्मातधौ ततस तपनीय रक्तत लतालुजिह्वाः, तथा अञ्जनं-सौवीराञ्जनं घनः - प्रावृट्कालभावी मेघस्तद्वत्कृष्णा रुचकरलवद् रमणीया स्निग्धाश्च केशा येषां ते अअनघन कृष्णरुचकरमणीय स्निग्धकेशाः ॥ कहिं णं भंते! दाहिणिला असुरकुमाराणं देवाणं पत्ता पत्ताणं ठाणा प० १, कहि णं भंते! दाहिणिल्ला असुरकु ४ Education International For Parts Only ~ 186~ २ स्थान | पदे असु रादिस्थानं सू. ४६ ॥९१॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], .... ...- उद्देशक: [-], ----------- दारं [-], -- -- मूल [...४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] eeeeeeeeeयरल मारा देवा परिवसंति', गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्टा चेगं जोयणसहस्सं बज्जित्ता मज्झे अहहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं चउत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते गं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा सो चेव वण्णओ जाव पडिरूवा, एत्थ गं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पजचापजत्ताणं ठाणा पन्नता, तीसुवि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा देवीओ परिवसति, काला लोहियक्खा तहेव जाव भुंजमाणा विहरंति, एएसिणं तहेब तायतीसगलोगपाला भवन्ति, एवं सव्वत्थ भाणियई। भवणवासी णं चमरे इत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ चउतीसाए भवणावाससयसहस्साणं चउसट्टीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं अणियाहिबईणं चउण्ह य चउसहीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं नाव विहरति । कहि णं भंते । उत्चरिलाणं असुरकुमाराणं देवाणं पञ्जचापजत्ताणं ठाणा पन्नचा?, कहिणं भंते ! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति, गोयमा ! जंबूद्दीचे दीवे मंदरस्स पच्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहिता हिडा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे अहहुत्तरे जोषणसयसहस्से एत्थ गं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते भवणा बाहिं बट्टा अंवो चउ• दीप अनुक्रम [२०५] SHARERIEatini ~187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ---- --------- मूलं [...४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: करटकर भज्ञापनायाः मल प्रत सूत्रांक २ स्थानपदे असुरादिस्थान य०वृत्तौ. | ॥ ९२॥ itter [४६] दीप रंसा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाब विहरति, बली एस्थ वइरोमणिदे बहरोयणराया परिवसति काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे । से णं तत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं सहीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं अणियाहियईणं चउण्ह य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूणं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आदेवचं पोरवेचं कुछमाणे विहरइ ।। कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं पजचापज्जताणं ठाणा पन्नचा, कहिणं भंते ! नागकुमारा देवा परिवसंति , गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं जोगाहित्ता हिहा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जिचा मज्झे अहहुचरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं नागकुमाराणं देवाणं पजत्तापलत्ताणं चुलसीह भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरसा जाव पडिरूवा, वत्थ ण णागकुमाराणं पजचापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तीमुवि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे नागकुमारा देवा परिवसंति महिहिया महसुईआ सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरति । धरणभूवाणंदा एत्थ गं दुबे नागकुमारिंदा णागकुमाररायाणो परिवसति महडिया सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरति । कहि णं मंते ! दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं पञ्जचापञ्जताणं ठाणा पनत्ता', कहिणं मंते ! दाहिणिल्ला नागकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! जंबूहीवे दीवे मदरस्स पवयस्स दाहिणणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उपरि एग जोयणसहस्सं ओगाहिता हिहा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मञ्झे अट्टहुचरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं चउया अनुक्रम [२०५] G ॥१२॥ ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ----- --------- मूलं [...४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] सीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खाय, ते पं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकमाराणं पजत्तापअचाणं ठाणा पनत्ता, तीसुवि लोयस्स असंखेजइभागे, एत्थ णं दाहिणिल्ला नागकुमारा देवा परिवसंति महिहिया जाब विहरंति, धरणे इत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसइ महड्डिए जाव पभासेमाणे, से णं तत्य चउयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छह सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायचीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं छाई अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं अणियाहिवईणं चउबीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवच्चं कुबमाणे विहरइ । कहिणं भंते उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पमचा?, कहि प भंते ! उचरिल्ला नागकुमारा देवा परिवसति', गोयमा! जम्बुद्दीचे दीवे मन्दरस्स पञ्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे अद्वहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं उत्तरिल्हाण नागकुमाराणं देवाणं चत्तालीस भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं भवणा बाहि वहा सेसं जहा दाहिणिल्लागं जाव विहरंति, भूयाणंदे एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसइ, महिडीए जाव पभासेमाणे, से गं तत्थ चत्तालीसाए भवणावाससयसहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरइ ।। कहि ण भंते ! सुवनकुमाराणं देवाणं पजत्तापक्षचाणं ठाणा पन्नता ?, कहि णं भंते ! सुवनकुमारा देवा परिवसंति, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाच एत्थ णं सुवनकुमाराणं देवाणं वावतार भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं । ते गं भवणा चाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, तस्थ दीप रseeeeeeasee अनुक्रम [२०५] SAREairat-AVM ~ 189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...४६] + गाथा:(१३०-१४०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना या:मलयवृत्ती. २ स्थानपदे असुरादिस्थानं सू. ४६ सूत्रांक [४६]] ॥१३॥ दीप अनुक्रम [२०५-२१६] णं सुवन्नकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, जाव तिसुवि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे सुवनकुमारा देवा परिवसंति महिडिया सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति, वेणुदेवे वेणुदाली य इत्थ दुवे सुवण्णकुमारिंदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति, महहिया जाव विहरति । कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमारार्ण पजत्तापञ्जनाणं ठाणा पन्नता ?, कहिणं भंते ! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति', गोयमा इमीसे जाच मझे अहहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्य णं दाहिणिलाणं सुवष्णकुमाराणं अत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं । ते णं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, एस्थ णं दाहिणिल्वाणं सुवण्णकुमाराणं पजचापजचाणं ठाणा पत्ता, तिसुबि लोगस्स असंखेजहभागे, एत्थ णं पहवे सुवष्णकुमारा देवा परिवसंति, वेणुदेवे य इत्थ सुवन्चिंदे सुवनकुमारराया परिवसइ, सेसं जहा नागकुमाराणं ॥ कहि णं भंते ! उत्तरिलाणं सुवनकुमाराणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पबत्ता', कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला सुवनकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए जाव एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवनकुमाराणं चउतीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं भवणा जाव एत्थ णं वहवे उत्तरिल्ला सुवनकुमारा देवा परिवसंति महिहिया जाब विहरंति, वेणुदाली इत्थ मुवनकुमारिंदे सुवनकुमारराया परिवसइ महिडीए सेसं जहा नागकुमाराणं ॥ एवं जहा मुवनकुमाराणं वत्तवया भणिया तहा सेसाणवि चउदसण्हं इंदाणं भाणियचा, नवरं भवणणागचं इंदणाणत्तं वनणाणत्तं परिहाणणाणत्रं च इमाहिं गाहाहि अणुगंतवं-चउसहि असुराणं चुलसीतं चेव होति नागाणं । बावत्तरि सुवने बाउकुमाराण छन्नउई ॥१३०॥ दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदथणियमग्गीणं । छण्हंपि जुअलयाणं यावत्तरिमो सयसहस्सा ॥१३१॥ ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४६] दीप अनुक्रम [२०५ -२१६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [२], उद्देशक: [-], मूलं [... ४६ ] + गाथा: (१३०-१४०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तीसा चयाला अत्तीसं च सयसहस्साई । पन्ना चत्तालीसा दाहिणओ हुंति भवणाई ॥ १३२॥ तीसा चत्तालीसा चउतीसं चैव समसहस्साई | छायाला छत्तीसा उत्तरओ हुंति भवणाई ॥ १३३ ॥ चउसद्वी सट्ठी खलु छच्च सहस्साई असुरबजाणं । सामाणिआ उ एए चउग्गुणा आयरक्खा उ || १३४ ॥ चमरे धरणे तह वेणुदेवे हरित अम्मिसीहे य । पुन्ने जलकंते या अमिय विलम्बे य घोसे य ॥ १३५ ॥ | बलि भूयाणंदे वेणुदालि हरिस्सहे अग्गिमाणव विसिट्टे । जलपह तह मियंवाहणे पजणे य महाघोसे || १३६ ॥ उत्तरिल्ला णं जाव विहरंति । काला असुरकुमारा नागा उदही य पंडरा दोषि । वरकणगनिहसगोरा हुंति सुबत्रा दिसा थगिया || १३७ || उत्तत्तकणगवन्ना विज्जू अग्गी य होंति दीवा य । सामा पिरंगुवन्ना बाउकुमारा मुणेया || १३८|| असुरेस हुंति रत्ता सिलिंधपुष्फष्पभा य नागदही। आसासगवसणधरा होंति सुवन्ना दिसा थणिया ॥ १३९ ॥ नीलाणुरागवसणा विज्जू अग्गी य हुंति दीवा य। संझाणुरागवसणा वाउकुमारा मुणेयता ॥ १४०॥ ( मू. ४६ ) 'तीवि लोगस्स असंखेजइभागे' इति स्वस्थानोपपातसमुद्घातरुपेषु त्रिष्वपि स्थानेषु लोकत्या संख्येयतमे भागे वक्तव्यानि । 'चउसट्ठि असुराणं' इत्यादिगाथाद्वयं सामान्यतोऽसुर कुमारादीनां भवनसंख्याप्रतिपादकं सुगमं । 'चउतीसा चउयाला' इत्यादिका गाधा दाक्षिणात्यानामसुरकुमारादीनां भवनसंख्याऽभिधायिका, तस्या व्याख्या -द|क्षिणतोऽसुरकुमाराणां भवनानि चतुस्त्रिंशच्छतसहस्राणि, नागकुमाराणां चतुश्चत्वारिंशत्, सुवर्णकुमाराणामष्टात्रिंशत्, वायुकुमाराणां पञ्चाशत्, द्वीपदिगुदधि विद्युत्स्तनिताद्मिकुमाराणां पण्णां प्रत्येकं चत्वारिंच्छतसहस्राणि भव For Parts Only ~ 191 ~ 999999৬৬ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...४६] + गाथा:(१३०-१४०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवत्ता. सूत्रांक [४६] ॥१४॥ दीप अनुक्रम [२०५-२१६] |नाना ॥ 'तीसा चत्तालीसा' इत्यादि, उत्तरतः-उत्तरस्यां दिशि असुरकुमाराणां भवनानि त्रिंशच्छतसहस्राणि, नाग-II कुमाराणां चत्वारिंशत् , सुवर्णकुमाराणां चतुर्विंशत् , वायुकुमाराणां षट्चत्वारिंशत्, द्वीपदिगुदधिविद्युत्स्तनितामि | पदे असुकुमाराणां प्रत्येक पत्रिंशत् भवनशतसहस्राणि । सम्प्रति सामानिकात्मरक्षकदेवसंख्यासंग्रहार्थमाह-'चउसही रादिस्थानं सट्ठी खलु' इत्यादि, दाक्षिणात्यस्थासुरकुमारेन्द्रस्य सामानिका देवाः चतुःषष्टिसहस्राणि, उत्तराहस्य पष्टिसहस्राणि, सू. ४६ असुरवर्जानाम्-असुरकुमारेन्द्रवर्जानां शेषाणां सर्वेषामपि दाक्षिणात्यानामौत्तराहाणां च पद पद सहस्राणि प्रत्येकं | सामाणिआ उ एए' इति एतेऽनन्तरोक्तसंख्याका देवाः सामानिका ज्ञातव्याः, आत्मरक्षकाः पुनः सर्वत्रापि सामानिकचतुर्गुणाः प्रतिपत्तव्याः॥ इदानीं दाक्षिणात्यानामौत्तराहाणां चासुरकुमारादीनां यथाक्रममिन्द्रादीन निर्दिशति-'चमरे धरणे' इत्यादि, दाक्षिणात्यानामसुरकुमाराणामधिपतिश्चमरः, नागकुमाराणां धरणः, सुवर्णकु-IN |माराणां वेणुदेवः, विद्युत्कुमाराणां हरिकान्तः, अग्निकुमाराणामनिसिंहः, द्वीपकुमाराणां पूर्णः, उदधिक्कुमाराणां जलकान्तः, दिकुमाराणाममितः, वायुकुमाराणां वेलम्बः, स्तनितकुमाराणां घोषः। 'बलिभूयाणंदे' इत्यादि, उत्त-1. रदिग्वर्तिनामसुरकुमाराणामिन्द्रो वलिः, नागकुमाराणां भूतानन्दः, सुवर्णकुमाराणां वेणुदालिः, विद्युत्कुमाराणां हरिस्सहः, अग्निकुमाराणामग्निमाणवः, द्वीपकुमाराणां विशिष्टः, उदधिकुमाराणां जलप्रभा, दिक्कुमाराणाममित|वाहनः, वायुकुमाराणां प्रभञ्जनः, स्तनितकुमाराणां महाघोषः ॥ सम्प्रति वर्णसंग्रहार्थमाह-'काला असुरकुमारा' T asurary.com ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...४६] + गाथा:(१३०-१४०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] दीप अनुक्रम [२०५-२१६] इत्यादि गाथाद्वयं, असुरकुमाराः सर्वेऽपि काला:-कृष्णवर्णाः, नागकुमारा उदधिकुमाराश्चैते उभयेऽपि पाण्डराः-श्वेतवर्णाः, परं-जासं यत्कनकं तस्य निघर्षः-कषपट्टके रेखा तद्वद् गौरा भवन्ति सुवर्णकुमारा दिकुमाराः स्तनितकुमाराच, तथा विद्युत्कुमारा अग्निकुमारा द्वीपकुमारा भवन्त्युत्तप्तकनकवर्णाः, ईषद्रक्तवर्णा इति भावः, वायुकुमाराः श्यामाः, श्यामत्वमेव स्पष्टयति-प्रियनुवर्णाः ॥ सम्प्रति वस्त्रगतवर्णप्रतिपादनार्थमाह-'असुरेसु हुंति रत्ता' इत्यादि गाथाद्वयं, असुरेषु-असुरकुमारेषु भवन्ति वस्त्राणि रक्तानि, नागकुमारेपूदधिकुमारेषु च शिलिन्धपुष्पप्रभाणि नीलवर्णानीत्यर्थः, सुवर्णकुमारा दिकुमाराः स्तनितकुमाराचावास्यगवसनधराः-अश्वस्थासं-मुखं | अश्वास्यं तत्र गतो यः फेनः सोऽवास्यगतः तद्वद् धवलं यद् वस्त्रं तद् धरन्तीयवास्थगवसनधराः, बाहुल्येन श्वेतवस्त्रपरिधानशीला इत्यर्थः, विद्युत्कुमारा द्वीपकुमारा अभिकुमाराश्च नीलानुरागवसनाः, वायुकुमाराः सन्ध्यानुरागवसनाः ॥ कहिणं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं पजत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पत्रचा, कहिणं भंते ! वाणमंतरा देवा परिवसति', गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सपाहल्लस्स उवरिं एग जोयणसयं ओगाहिता हिहावि एगे जोयणसयं वजिचा मज्झे अहसु जोयणसएम एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेज्जनगरावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं भोमेज्जा णगरा वाहिं वहा अंतो चउरसा अहे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिया careesheesecestaecsea SAREmiratorNMana अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये देवानाम् स्थानानि कथ्यते ~ 193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [२१७] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ९५ ॥ पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [४७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education T उक्किन्नंतरविउलगंभीरखायफलिहा पागारहालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्धिमुसलमु संढिपरिवारिया अउज्झा सदाजया सदागुत्ता अडयालकोट्ठगरड्या अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरविखया लाउलोइयमहिया गोसीसस रसरत्तचंदणद हरदिन पंचगुलितला उवचियचंद कलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविलवडबग्घारियमलदामकलावा पंचवण्णसर ससुर हिमुकपुष्कपुंजीवयारकलिया कालागुरुपवर कुंदुरुकतुरुक धूवमघमचंतगंधुन्याभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिन्ना दिवतुडियसद्दसंपणाइया पडागमालाउलाभिरामा सवरयणामया अच्छा सण्हा लम्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निष्यंका निकंकडच्छाया सप्पहा सस्सिरिया समिरीया सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा एत्थ णं दाणमंतराणं देवाणं पज्जत्तापजचाणं ठाणा पत्रता, तिमुवि लोयस्स असंखे अभागे, तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा परिवसंति, तंजहा- पिसाया भूया जक्खा रक्खसा किंनरा किंपुरिसा गवइणो महाकाया गन्धवगणा य निउणगंधगीयरइणो अणवन्नियपणवन्नियइसिवाइयभूयवाइयकंदियमहाकंदिया य कुहंडपयंगदेवा चंचलचलचलचित्तकीलणदवप्पिया गहिरहसियगीयणञ्चर वर्णमाला मेलमउडकुंडलसच्छंद विउबियाभरणचारुभूसणधरा सवोउयसुरभिकुसुम सुरइय पलंब सो इंत कंत विहसंतचित्तवणमालरइयवच्छा कामकामा कामरूवदेहधारी णाणाविहवण्णरागवरवत्थ ललंतचित्तचिल्ल (लल) गनियंत्रणा विविदेसिने वत्थगहियवेसा पमुइयकं दप्पकलह के रिकोलाहपिया हासबोलबहुला असिमुग्गरसतिकुंतहत्था अणेगमणिरयणविविहनिज्जुत्तवि चित्तचिधगया महिडिया महज्जुझ्या महायसा महाबला महाणुभागा महासुक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियर्थभियञ्ज्या संगय कुंडलमट्टगंडयल कन्नपीढधारी For Parts Only ~ 194~ ১৬১৩, ১, ১৩ ১৩৯9,900 999 में २ स्थान पदे व्य न्तरस्थानं सू. ४७ ॥ ९५ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] eeeeee दीप अनुक्रम विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्यपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवणं वन्नेणं दिवणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिश्वर्ण संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेस्साए दस दिसाओ उओवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं असंखेजभोमेञ्जनगरावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणीयाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसि च बहूर्ण वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेबच्चं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेगावचं कारेमाणा पालेमाणा महयाहयनहगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुईगपडुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति । (सू०४७) वानमन्तरसूत्रे 'तिसुधि लोगस्स असंखेजइभागे' इति, स्वस्थानोपपातसमुद्घातरूपेषु त्रिष्वपि स्थानेषु लोकस्यासं-18 ख्येय(तमे)भागे वक्तव्यानि, तथा 'भुयगवइणो महाकाया महोरगा' किंविशिष्टास्ते ? इत्याह-भुजगपतयः गन्धर्वग णाः-गन्धर्वसमुदायाः, किंविशिष्टास्ते ? इत्याह-निपुणगन्धर्वगीतरतयः' निपुणाः-परमकौशलोपेता ये गन्धर्याः-गन्धविजातीयाः देवास्तेषां यद गीतं तत्र रतिर्येषां ते तथा. एते व्यन्तराणामष्टौ मूलभेदाः, इमे चान्येऽवान्तरभेदा अष्टौ-| 'अणपन्निय' इत्यादि, कथंभूता एते पोडशापि ? इत्यत आह-चंचलचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया' चञ्चलाःअनवस्थितचित्तास्तथा चलचपलम्-अतिशयेन चपलं यत्क्रीडनं यश्च चित्ते द्रवः-परिहासः तौ प्रियो येषां ते [२१७] JMEnirahan ~ 195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [२१७] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [४७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Educator पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ॥ ९६ ॥ प्रज्ञापनाचलचपलचित्तक्रीडनद्रवप्रियाः ततश्च चञ्चलशब्देन विशेषणसमासः, तथा 'गहिरहसियगीयणचणर' गम्भीरेषु याः मल- हसितगीत नर्तनेषु रतिर्येषां ते तथा, 'वणमाला मेलमउडकुंडलसच्छंदवि उधियाभरणचारुभूसणधरा' इति वनमालाय० वृत्तौ मयानि यानि आमेलमुकुटकुण्डलानि 'आमेल' इति आपीडशब्दस्य प्राकृतलक्षणयशात् आपीडः - शेखरकः, तथा स्वच्छन्दं विकुर्वितानि यानि आभरणानि तैर्यत चारु भूषणं मण्डनं तद् घरन्तीति वनमालापीडमुकुटकुण्डलखच्छन्द विकुर्विता भरणचारुभूषणधराः, तथा सर्वर्तुकैः सर्वर्तुभाविभिः सुरभिकुसुमैः सुरचिता- सुष्ठु निर्वर्तिता तथा प्रलम्बते इति प्रलम्बा शोभते इति शोभमाना कान्ता - कमनीया विकसन्ती-अमुकुलिता अम्लानपुष्पमयी चित्रानानाप्रकारा वनमाला रचिता वक्षसि यैस्ते सर्वर्तुकसुर भिकुसुमसुरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविक सच्चित्रवनमालारचितवक्षसः, तथा कामं खेच्छया गमो येषां ते कामगमाः खेच्छाचारिणः, कचित् 'कामकामा' इति पाठः, तत्र कामेन खेच्छया कामो--मैथुनसेवा येषां ते कामकामा अनियतकामा इत्यर्थः, तथा कामं खेच्छया रूपं येषां ते कामरूपास्ते च ते देहाच कामरूपदेहास्तान् धरन्तीत्येवंशीलाः कामरूपदेहधारिणः खेच्छाविकुर्वितनानारूपदेहधारिण इत्यर्थः तथा नानाविधैर्वर्णे रागो-रक्तता येषां तानि नानाविधवर्णरागाणि वराणि-प्रधानानि चित्राणि - नानाविधानि अद्भुतानि वा चिखलगानि देशीवचनत्वात् देदीप्यमानानि वस्त्राणि निवसनं परिधानं येषां ते नानाविधवर्णरागवरवस्त्र चित्र चिह्न लगनिवसनाः, तथा विविधैर्देशीनेपथ्यैर्गृहीतो वेषो येस्ते विविधदेशीनेपथ्यगृहीतवेषाः, तथा 'पमुइयकंदष्पकलहकेलिकोलाहलप्पिया' इति कन्दर्पः - कामोद्दीपनं वचनं चेष्टा च कलहो-राटी केलि:-क्रीडा For Parts Only ~ 196~ २ स्थान पदे व्यन्तरस्थानं सू. ४७ ॥ ९६ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४७] दीप अनुक्रम [२१७] प्र. १७ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-], पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उद्देशक: [-] मूलं [४७] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः कोलाहलो - बोलः कन्दर्प कलह केलि कोलाहलाः प्रिया येषां ते कन्दर्पकलहकेटिकोलाहल प्रियाः, ततः प्रमुदितशच्देन सह विशेषणसमासः, 'हासबोलबहुला' इति हासनोठी बहुली - अतिप्रभूतौ येषां ते हासबोलबहुलाः, तथा असिमुद्गरशक्तिकुन्ता हस्ते येषां ते असिमुद्गरशक्तिकुन्तहस्ताः, 'अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तचित्तविधगया' इति मणयश्च - चन्द्रकान्ताद्या रत्नानि – कर्केतनादीनि अनेकैर्मणिरले र्विविधं नानाप्रकारं नियुक्तानि विचित्राणि - नानाप्रकाराणि चिह्नानि गतानि स्थितानि येषां ते तथा, शेषं सुगमम् । कहि णं भंते! पिसायाणं देवराणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पत्रचा ?, कहि णं भंते! पिसाया देवा परिवसंति १, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसय सहस्सबाहलस्स उचरिं एवं जोवणसयं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वजिता मज्झे अहसु जोयणसएसु एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेज्जनगरावाससय सहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं भोमेज्जनगरा बाहिं वहा जहा ओहिओ भवणवनओ तहा भाणियो जाव पडिरूवा, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पजत्तापज्जत्ताणं ठाणा पत्रता, तिसुवि लोगस्स असंखेज्जइभागे । तत्थ रहने पिसाया देवा परिवसंति, महिड्डिया जहा ओहिया जाव विहरन्ति । कालमहाकाला इत्थ दुवे पिसाविंदा पिसायरायाणो परिवसंति, महिडिया महज्जुइया जाव विहरंति । कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं ठाणा पत्रतां १, कहि णं भंते 1 दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति १, गोयमा ! जंबूदीवे दीवे मन्दरस्त पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए For Par Lise Only ~ 197~ andrary org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-1, ----------- मूलं [४८,४९] + गाथा:(१४०-१४५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्तौ. २स्थानपदे व्यन्तरस्थानं सू. ४८ वान [४८-४९] ॥९ ॥ मन्तरस्था नंसू.४९ गाथा: रवणामयस्स कंडस्स जोयणसयसहस्सबाहल्लस्स उरि एग जोयणसहस्सं ओगादिचा हेडा चेगं जोयणसयं वशिचा मो अहसु जोयणसएसु एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेखा भोमेज्जनगरावाससहस्सा भक्तीतिमक्खायं, ते णं भवणा जहा ओहिओ भवणवमओ सहा भाणियहो जाव पडिरूवा, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पनतापमत्ताणं ठाणा पबत्ता, तिसुवि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्व णं वहवे दाहिणिल्ला पिसाया देया परिचसंति, महिहिया जहा ओहिया जाव विहरति । काले एत्थ पिसायिंदे पिसापराया परिवसइ, महिहीए जाव पभासेमाणे । से तत्थ तिरियमसंखेजाणं भोमेजनयरावाससयसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य अग्गमहिसीणं सपरिवारागं तिण्द परिसाणं सत्तण्हं अणियाण सत्तण्डं अणियादिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसि च महणं दाहिणियाणं पाणमंतराणं देवाण य देवीण य आदेवचं जाव विहराइ । उत्तरिल्लाणं पुच्छा, गोयमा ! अहेव दाहिणिल्लाण वत्तवया तहेच उत्तरिल्लाणंपि, णपरं मन्दरस्स पञ्चयस्स उत्तरेणं महाकाले एत्थ पिसाथिदे पिसायराया परिवसह, जाप विहरह । एवं जहा पिसायाण तहा भूपाणपि, जाव गंधवाणं, नवरं ईदेसुणाण माणियई इमेण विहिणा-भूयाणं सुरुवपढिरूवा, जक्खाणं पूनमद्दमाणिभदा, रक्खसाणं भीममहामीमा, किराणं किनारकिंपुरिसा, किंशुरिसाणं सपरिसमहापुरिसा, महोरगाणं आइकायमहाकाया, गंधवाणं गीयरइगीयजसा, जाव विहरह । काले य महाकाले सुरूव पडिरूव पुनम य । तह चेव माणिभदे भीमे य तहा महाभीमे ॥१४॥ किन्नर किंपुरिसे खलु सपूरिसे खलु तहा महापुरिसे । आइकायमहाकाए गीयरचेव गीयजसे ॥१४२शा (मू०४८)। कहिणं भंते ! अणवनियाणं देवाणं ठाणा पत्रचा, कहिणं मैते! अणवधिया देवा परिवसतिी, दीप अनुक्रम [२१८-२२४] ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [४८,४९] + गाथा:(१४०-१४५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक e eserate [४८-४९] गाथा: गोयमा! हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसयसहस्सपाहल्लस्स उवरि जाव जोयणसएसु एत्थ णं अणवधियार्ण देषाणं तिरियमसंखेसा णगरावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते गं जाब पडिरूवा, एस्थ णं अणवत्रियाण देवाणं ठाणा, उववाएणं लोयस्स असंखेनइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेशामागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे अणवनिया देवा परिचसति महिड्डिया जहा पिसाया जाब विहरंति, समिहियसामाणा इत्थ दुवे अणवमिंदा अणवत्रियकुमाररायाणो परिवसति महिहीया, एवं जहा कालमहाकालाणं दोण्हंपिदाहिणिल्डाणं उत्तरिष्ठाण य मणिया तहा सभिहियसामाणाणपि भाणियथा । संगहणीगाहा-अणवाभियपणवनियइसिवाइयभूयवाझ्या चेव । कंदियमहाकदियकोहंडा पयगए चेव ॥१४३॥ इमे इंदा-'संनिहिया सामाणा धायविधाए इसी य इसिवाले । ईसरमहेसरा (पिय) हवा सुवच्छे विसाले य ॥१४४॥ हासे हासरई विय सेए य तहा भवे महासेए । पयए अपयगवई य नेयवा आणुपुषीए ॥१४५।।(सू०४९) 18 नपरं 'काले य महाफाले' इत्यादि, दक्षिणोत्तराणां पिशाचानां यथाक्रममिन्द्रौ कालमहाकाली, भूतानां सुरूप प्रतिरूपी, यक्षाणां पूर्णभद्रमाणिभद्री, राक्षसानां भीममहाभीमौ, किन्नराणां किरकिंपुरुषी, किंपुरुषाणां सत्पुरुष-1 8 महापुरुषी, महोरगाणामतिकायमहाकायौ, गन्धर्वाणां गीतरतिगीतयशसी ॥ कहिणं भंते ! जोइसियाणं पजत्तापजसाणं ठाणा पन्नत्ता, कहि गं भंते ! जोइसिया देवा परिवसति 1, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्तणउइजोयणसए उहं उप्पहत्ता दसुत्तरजोयणसयवाहल्ले दीप अनुक्रम [२१८-२२४] cecreaeee Saniauratoninment Imrasaram.org अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये ज्योतिष्कदेवानाम् स्थानानि कथ्यते ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०] मज्ञापनायाः मलयवृत्ती. २ स्थानपदे ज्योतिष्कस्थानंसू.५० दीप तिरियमसंखेजे जोइसविसए एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेजा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा अद्धकविगसंठाणसंठिया सवफालिहमया अन्नग्गयमूसियपहसिया इव विविहमणिकणगरयणभत्तिचित्ता वाउन्यविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमहिलंघमाणसिहरा जालंतररयणपंजलुम्मिलियन मणिकणगधूभियागा वियसियसयवत्तपुंडरीया तिलयरयणडचंदचित्ता नाणामणिमयदामालंकिया अंतो बहिं च सहा तवणिजाहलवालुयापत्थडा मुहफासा सस्सिरिया सुरूवा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा एत्थ ण जोइसियाण देवाण पजत्तापजचाणं ठाणा पन्नचा तिसुवि लोगस्स असंखेजइभागे । तस्थ णं बहवे जोइसिया देवा परिचसंति, तंजहावहस्सई चंदा भूरा सुका सणिच्छरा राहू धूमकेऊ बुधा अंगारगा तचतवणिजकणगवन्ना जे य गहा जोहसम्मि चार चरति केऊ य गइरहया अहावीसहबिहा नक्खत्तदेवतगणा णाणासंठाणसंठियाओ पंचवनाओ वारयाओं ठियलेसाचारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयनामंकपागडियचिंधमउडा महिहिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसिं च बहूर्ण जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव विहरति । चंदिमसूरिया इत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसंति, महिड्डिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं जोइसिय विमाणावाससयसहस्साणं चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं चउण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं अनुक्रम [२२५]] ~ 200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०] तिहं परिसाणं सत्ताह अणीयाणं सचण्ह अणीयाहिबईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीण जाव अनेसिं च बहूर्ण जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव विहरति ॥ (सू०५०) ज्योतिष्कसूत्रे 'अद्धकविहगसंठाणसंठियाई' अर्द्ध कपित्थस्य अर्द्धकपित्थं तस्य संस्थानं तेन संस्थितानि, अत्रा-1 |क्षेपपरिहारौ चन्द्रपज्ञप्सिटीकायां सूर्यप्रज्ञप्सिटीकायां चाभिहिताविति ततोऽवधायौँ, 'सवफालिहमया' इति सात्मना स्फटिकमयानि, तथा अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृष्टा-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या |प्रभा-दीप्सिस्तया सितानि-धवलानि अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितानि, तथा विविधानां मणिकनकरताना या भक्तयों|विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्राणि-आचर्यभूतानि विविधमणिकनकभक्तिचित्राणि, 'वाउयविजययेजयंतीपडागाछ-18 चाइछत्तकलिया' वातोद्भूता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तसंसूचिका बैजयन्त्यभिधाना या पताका अथवा विजय इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिकोच्यते तत्प्रधाना वैजयन्य:-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्यः पताकाः छत्रातिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितानि छत्राणि तैः कलितानि वातोद्तविजयवैजयन्तीपताकाग्छत्रातिच्छत्रकलितानि तुझानि-उच्चानि, तथा गगनतलम्-अम्बरतलं अनुलिखद्-अतिलक्ष्यत् शिखरं येषां तानि गगनतलानुलिखच्छिखराणि, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तानि तथा, पञ्जरादुन्मीलितमिव-बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितवद्, तथाहि-किल किमपि वस्तु पजरात Feeeeeeeeeseseaeoes दीप अनुक्रम [२२५]] MEnamINI murary.au ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक s [५०] प्रज्ञापना- वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् वहिष्कृतमत्यन्ताविनष्टच्छायत्वात् शोभते तथा तान्यपि विमानानीति भावः, तथा 1 स्थानयाः मल-INमणिकनकानां संवन्धिनी स्तूपिका-शिखरं येषां तानि मणिकनकस्तूपिकानि, ततः पूर्वपदाभ्यां सह विशेषणस- पदे ज्योय० वृत्ती. मासः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाम-मियादिषु तिष्कस्था॥१९॥ पुण्ड्राणि रत्नमयाश्चार्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैश्चित्राणि विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरना चन्द्रचित्राणि, तथा माना-1नं सू. ५० रामणिमयीभिर्दामभिरलच्कृतानि नानामणिमयदामालकृतानि, तथा अन्तर्वहिश्च श्लक्ष्णानि-मसृणानि तथा सपनीयं-1ST सुवर्णविशेषस्तन्मय्या रुचिरायाः पालुकाया:-सिकतायाः प्रस्तटः-प्रस्तरो येषु तानि तपनीयरुचिरवालुकाप्रस्तटानि, तथा सुखस्पर्शानि शुभस्पशोनि वा, शेषं प्राग्वत् यावत् 'वहस्सई चंदा' इत्यादि, बृहस्पसिचन्द्रसूयेशुक्रशनैश्वररादुधूमकेतुषुधाकारकाः, कथंभूता ? इत्याह-तसतपनीयकनकवर्णा-ईषदूरक्तवर्णाः, तथा ये च प्रहा-पुक्त-13 व्यतिरिक्ता ज्योतिश्चक्रे चारं चरन्ति केतयो ये च गतिरतिकाः ये चाष्टाविंशतिविधा नक्षत्रदेवगणाले सर्वऽपि नानासंस्थानसंस्थिताः, चशब्दात् तपनीयकनकवर्णाः, तारकाः पञ्चवर्णाः एते च सर्वेऽपि स्थितलेश्या-अवस्थितते-18 जोलेश्याकाः तथा ये चारिणः-चाररतास्तेऽविश्राममण्डलगतिकाः, तथा सर्वेऽपि प्रत्येकं नामाङ्कन-खखनामाइन! प्रकटितं चिदं मुकुटे येषां ते प्रत्येक[ख]नामाङ्कप्रकटितचिह्नमुकुटाः, किमुक्तं भवति-चन्द्रस्य मुकुटे चन्द्रमण्डललाग्छनं खनामाप्रकटितं सूर्यस्य सूर्यमण्डलं ग्रहस्य प्रहमण्डलं नक्षत्रस्य नक्षत्राकारं तारकस्य तारकाकारमिति । दीप अनुक्रम [२२५]] eceiseoescraese ९९॥ Auditurary.com ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ----------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] कहिणं मते ! बेमाणियाणं देवाणं पजत्तापजनाणं ठाणा पन्नत्ता, कहिणं मंते ! बेमाणिया देवा परिवसति, गोयमा ! हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उहुं चैदिमसूरियगहनक्खचतारारूवाणं बहर जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उहं दूरं उप्पादत्ता एत्थ णं सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदबंभलोयलंतगमहासुफसहस्सारआणयपाणयआरणयगेवेज्जणुत्तरेसु एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं चउरासीइ विमाणावाससयसहस्सा सचाणउई च सहस्सा तेवीसंच विमाणा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सवरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरिया सउलोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं पजत्तापजचाणं ठाणा पचत्ता, तिसुवि लोयस्स असंखेजहभागे, तत्थ ण बहवे चेमाणिया देवा परिवसंति , तं०-सोहम्मीसाणसणंकमारमाहिदमलोगलतगमहासुफसहस्सारआणयपाणयआरणयगेवेअणुत्तरोववाइया देवा, ते गं मिगमहिसवराहसीहछगलदहुरहयगयवइयगखग्गउसमषिटिमपागडियचिंधमउडा पसिढिलवरमउडकिरीडधारिणो वरकुंडलुओहयाणणा मउडवित्तसिरिया रत्तामा पउमपम्हगोरा सेया सुहवनगंधफासा उत्तमवेउविणो पवरवत्थगंधमल्लाणुलेवणधरा महिहिया महज्जुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कढयतुडियर्थभियभुया अंगदकुंडलमगंडतलकनपीढधारी विचित्तहस्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवस्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेषणा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं यमेणं दिवेणं गंघण दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दियेणं संठाणेणं दिवाए इडीए दिवाए जुईए दिखाए पभाए दिखाए छायाए दीप अनुक्रम [२२६] अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये वैमानिकदेवानाम् स्थानानि कथ्यते ~ 203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, ------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अज्ञापना प्रत सूत्रांक [५१] यवृत्ती. eselseatsete ॥१०॥ दीप दिवाए अञ्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावास- २ स्थानसयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायचीसगाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं पदे वैमा निकस्थासपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं सार्थ अणियाणं साणं साणं अणियाहिबईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं नं सू.५१ अन्नेसिं च बहूर्ण वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव दिवाई भोगभोगाई अंजमाणा विहरति । (सू०५१) वैमानिकसूत्रे चतुरशीतिर्विमानलक्षाणि सप्तनवतिर्विमानसहस्राणि त्रयोविंशतिर्विमानानीति, 'बत्तीसट्ठावीसा बारसहचउरो सयसहस्सा' इत्यादिसंख्यामीलनेन परिभावनीयानि, 'ते णं मिगमहिस' इत्यादि, सौधर्मदेवा मृगरूपप्रकटितचिह्नमुकुटाः ईशानदेवा महिपरूपप्रकटितचिह्नमुकुटाः सनत्कुमारदेवा वराहरूपप्रकटितचिहमुकुटाः माहेन्द्रदेवा सिंहरूपप्रकटितमुकुटचिहाः ब्रह्मलोकदेवाः छगलरूपप्रकटितमुकुटचिहाः लान्तकदेवा दर्दुररूपप्रकटितमुकुटचिह्नाः शुक्रकल्पदेवा हयमुकुटचिह्नाः सहस्रारकल्पदेवा गजपतिमुकुटचिह्नाः आनतकल्पदेवा भुजगमुकुटचिह्नाः प्राणतकल्पदेवाः खड्गमुकुटचिह्नाः खगः-चतुष्पदविशेष आटव्यः आरणकल्पदेवा वृषभमुकुटचिह्नाः अच्युत-1 ॥१०॥ कल्पदेवा विडिममुकुटचिहाः, 'वरकुंडलुज्जोइआणणा' इति वराभ्यां कुण्डलाभ्यामुद्दयोतितं-भाखरीकृतमाननं येषां I ते तथा, शेषं सुगमं ॥ अनुक्रम [२२६] ~ 204 ~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, --------------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [५२] कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवाणं पञ्जचापजताण ठाणा पन्नता, कहि भंते ! सोहम्मगदेवा परिवसंति, गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पढवीए बहसमरमणिजाओ भूमिभागाओ जाव उह दूर उप्पइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पबचे पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिन्ने अद्धचंदसंठाणसंठिए चिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेजाओ जोयणकोडीओ असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखेजाओ जोयगकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं सबरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे, तत्थ णं सोहम्मगदेवाणं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया जाव पडिरूवा, तेसिणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभागे पंच वडिसया पत्रता, तंजहा-असोगवडिंसए सत्तवण्णवडिसए चंपगवडिंसए चूयवडिंसए मझे इत्थ सोहम्मवार्डिसए, ते णं वडिसया सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एत्थ णं सोहम्मगदेवाणं पञ्जत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तिसुवि लोगस्स असंखिअइभागे, तत्थ णं यह सोहम्मगदेवा परिवसति महिडिया जाब पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं एवं जहेव ओहियाण तहेव एएसिपि भाणिय जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूणं सोहम्मगकप्पवासीणं बेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाब विहरति । सके इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, वञ्जपाणी पुरंदरे सयकतू सहस्सखे मघवं पागसासणे दाहिणड्डुलोगाहिबई बत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिबई एरावणवाहणे सुरिंदे अयरंबरवत्यधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिजमाणगंडे महिडिए जाव पभासेमाणे से पां तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं दीप अनुक्रम [२२७] REaraturd ~ 205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [५२] दीप अनुक्रम [२२७] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥१०१॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [५२] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. तायतीसाए तायत्तीसगाणं चउन्हं लोगपालाणं अहण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिन्हं परिसार्ण सत्तन्हं अणीयार्थ सत अणीयाहिवईणं चउन्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं कुठेमाणे जाव विहरह || ( सू० ५२ ) सौधर्मकल्पसूत्रे 'अचिमालिभासरासिवन्नाभे' इति (अर्चिषां मालावत् भासां राशियत् वर्णकान्तिर्यस्य ) 'वजपाणी' इति वज्रं पाणावस्य इति वज्रपाणिः, ('पुरंदरे त्ति) असुरादिपुरदारणात् पुरन्दरः । 'सयकतू' इति शतं क्रतूनां - प्रतिमानामभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्यासौ शतक्रतुः 'सहस्सक्खे' इति सहस्रमणां यस्यासौ सहस्राक्षः, इन्द्रस्य हि किल मत्रिणां पश्च शतानि सन्ति, तदीयानां चाणामिन्द्रयोजनव्यापृततया इन्द्रसंबन्धित्वेन विवक्षणात् सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य 'मधर्व' इति मघा महामेघास्ते यस्य पशे सन्ति स मघवान् तथा ( 'पागसासणे'त्ति ) पाको नाम बलवान् रिपुः स शिष्यते-निराक्रियते येन स पाकशासनः, 'भरयंबरवत्थधरे' अरजांसि - रजोरहितानि खच्छतया अम्बरबदम्बराणि वस्त्राणि धारयति अरजोऽम्बरवस्त्रधरः, 'जालहयमालमउडे' इति माला च मुकुटश्च मालामुकुटं आलगितम् - आषिद्धं मालामुकुटं येन स आलगितमालामुकुटः 'नवहेम चारुचित्तचंचल कुंडल विलिहिज्ज माणगंडे' इति नवमिव --- अत्युकटचारुवर्णतया प्रत्यग्रमिव हेम यत्र ते नवहेमनी नवहेमभ्यां चारुचित्राभ्यां चञ्चलाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानो गण्डौ यस्य स तथा ॥ Ja Eucation Internationa For Parts Only ~206~ २ स्थान पदे सौधर्मस्थानं सू. ५२ ॥१०१॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] C2392e2eae गाथा: कहिण भंते ! ईसाणाणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता ?, कहि ण मते ! ईसाणगदेवा परिवसति !, गोषमा ! जंघूद्दीवे दीवे मंदरस्स पश्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिमागाओ उहं चंदिमसूरियगहुनक्खत्ततारारूवाणं पहुई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई जाव उहुं उप्पाचा एत्य ईसाणे णाम कप्पे पमते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे एवं जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे, तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया जाव पडिरूवा, तेसिणं बहुमझदेसभागे पंच बडिसया पञ्चचा, तंजहा-अंकवर्डिसए फलिहबडिसए रयणवडिसए जातरूववडिंसए मज्झे इत्थ ईसाणवडिसए, ते गं बडिसया साधरयणामया जाव पडिरूवा, एत्थ णं ईसाणगदेवाणं पज्जत्तापञ्जताणं ठाणा पाचा, तिमुवि लोगस्स असंखेजइभागे, सेस जहा सोहम्मगदेवाणं जाव विहरंति, ईसाणे इत्थ देविदे देवराया परिवसइ, सूलपाणी वसहवाहणे उत्तरहुलोगाहिवई अहावीसविमाणावाससयसहस्साहिबई अरयंवरवस्थधरे सेसं जहा सकस्स जाव पभासेमाणे, से ण तत्थ अहावीसाए विमाणावाससयसहस्साणं असीईए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीर्ण सपरिवरााणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सचण्हं अणियाहिवईणं चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसि च बहूर्ण ईसाणकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव विहरह । कहि णं मंते । सर्णकुमारदेवार्ण पजचापजताणं ठाणा पनत्ता, कहिणं भंते । सर्णकुमारा देवा परिवसति ?, गोयमा सोहम्मस्स कप्पस्स उम्पि सपक्खि सपडिदिसि बहुई जोयणाई बहूई जोयणसयाई गहुई जोयणसहस्साई बहई जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ दीप अनुक्रम [२२८-२३४] Reserce - SARERatantnasana ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ----------- उद्देशक: [-], ---------- दारं-, ----------- मूलं [१३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. २ स्थानपदे सन कुमारा| दिस्थान [१३] ॥१०॥ गाथा: जोयणकोडाकोडीओ उहुं दूरं उप्पइत्ता एत्थ ण सर्णकुमारे णामं कप्पे प० पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे, तत्थ णं सर्णकुमाराणं देवाणं वारस विमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया जाव पडिरूवा, तेसिणं विमाणाणं बहुमझदेसभागे पंच वडिंसगा पत्रचा, तंजहा–असोगवडिंसए सत्तवनवडिंसए चंपगवडिसए चूयवडिसए मज्झे एत्थ सणकुमारवडिंसए, ते णं बडिंसया सवरयणामया अच्छा जाव पहिवा, एत्थ णं सर्णकुमारदेवाणं पञ्जसापज्जचाणं ठाणा पनत्ता, तिसुवि लोगस्स असंखेअइभागे, तत्थ णं बहवे सणकुमारदेवा परिवसंति, महिहिया जाव पभासेमाणा विहरंति, नवरं अग्गमहिसीओ णत्थि, सर्णकुमारे इत्थ देविदे देवराया परिवसइ, अरयंबरवत्थधरे, सेसं जहा सकस्स, से णं तत्थ वारसण्हं विमाणावाससयसहस्साणं वावचरीए सामाणियसाहस्सीणं सेसं जहा सकस्स अग्गमहिसीवजं, नवरं चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव विहरइ ।। कहिणं मंते । माहिंददेवाणं पजत्तापजनाणं ठाणा पबत्ता, कहि णं भंते ! माहिंदगदेवा परिवति', गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव बहुयाओ जोयणकोडाकोडीओ उडे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं माहिदे नामं कप्पे प० पाईणपडीणायए, जाव एवं जहेव सर्णकुमारे, नवरं अह विमाणावाससयसहस्सा, वडिंसया जहा ईसाणे, नवरं मज्झे इत्थ माहिंदवडिंसए, एवं जहा सर्णकुमाराणं देवाणं जाव विहरंति, माहिंदे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सर्णकुमारे जाव विहरइ, नवरं अट्टहँ विमाणावाससयसहस्साणं सत्चरिए सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव विहरइ ॥ कहि णं मेंते ! भलोगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं दीप अनुक्रम [२२८-२३४] ॥१०२॥ For P OW ~208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत CASSE सूत्रांक [५३] गाथा: ठाणा पबत्ता, कहि णं भंते ! बंभलोगदेवा परिवसंति, गोयमा ! सणकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं उपि सपक्खि सपडिदिसि पहुई जोयणाई जाव उप्पइचा एत्थ णं बंभलोए नाम कप्पे पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पडिपुनर्चदसंठाणसंठिए अचिमालीभासरासिप्पभे, अबसेसं जहा सणकुमाराणं, नवरं चत्वारि विमाणावाससयसहस्सा वडिंसया जहा सोहम्मवडिंसया नवरं मज्झे इत्थ भलोयवडिंसए, एत्थ णं बंभलोगदेवाणं ठाणा पचत्ता, सेसं तहेव जाव विहरति, बंमे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ अरयंचरवत्थधरे एवं जहा सणकुमारे जाब विहरइ, नवरं चउण्हं विमाणावाससक्सहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्डं सट्ठीए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूर्ण जाव विहरइ ।। कहि णं भंते। लतगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नता, कहिणं भंते! लतगदेवा परिवसंति ?, गोयमा! बंभलोगस्स कप्पस्स उप्पि सपक्पि सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डे दूरं उप्पहत्ता एत्थ णं लंतए नाम कप्पे पत्रचे पाईणपडीणायए जहा बंभलोए, नवरं पण्णासं विमाणावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, बर्डिसगा जहा हेसाणवडिंसगा नवरं मज्झे इत्थ लंतगवडिसए देवा तहेब जाब विहरंति, लतए एत्थ देविदे देवराया परिवसइ, जहा सर्णकुमारे, नवरं पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं पण्णासाए सामाणियसाहस्सीणं चउणह य पण्णासाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसिं च बहूर्ण जाव विहरइ । कहिणं भंते ! महासुकाणं देवाण पजत्तापञ्जचाणं ठाणा पनत्ता, कहि णं भंते! महामुका देवा परिवसंति, गोयमा! लंतगस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि जाब उप्पइत्ता एत्थ णं महासुके नाम कप्पे पत्रने पाईणपडीणायए उदाणदाहिणविच्छिण्णे, जहा बंभलोए, नवरं चत्तालीसविमाणावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खार्य, वडिंसगा जहा सो दीप अनुक्रम [२२८-२३४] 992800900200 MEnational SHunmuramom ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना सूत्रांक पार मल. वृत्ती . र स्थानपदे ईशानादिस्थानं सू.५३ [१३] गाथा: हम्मवडिंसगा, नवरं मज्झे इत्थ महासुकबडिसए जाब विहरति, महामुक्के इत्थ देविंदे देवराया जहा सणंकुमारे, नवर चचालीसाए विमाणावाससहस्साणं चत्तालीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य चत्तालीसाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव विहरइ । कहि गं भते! सहस्सारदेवाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताण ठाणा पन्नत्ता ?, कहि णं भंते ! सहस्सारदेवा परिवसति ?, गोयमा! महासुक्कस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि जाव उप्पइत्ता एत्थ सहस्सारे नाम कप्पे पन्नते पाईणपडीणायए, जहा बंभलोए, नवरं छश्चिमाणावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, देवा तहेब, जाव वडिंसगा जहा ईसाणस्स चडिंसगा, नवरं मज्झे इत्थ सहस्सावडिंसए जाब विहरंति, सहस्सारे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ जहा सणकुमारे, नवरं छण्हं विमाणावाससहस्साणं तीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य तीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव आहेवचं कारेमाणे विहरइ । कहि णं भंते ! आणयपाणयाणं देवाणं पञ्जत्तापजत्ताणं ठाणा पत्रत्ता, कहि णं भंते ! आणयपाणया देवा परिवसंति, गोयमा ! सहस्सारस्स कप्पस्स उपि सपक्खि सपडिदिसिं जाव उप्पहत्ता एत्थ णं आणयपाणयनामा दुवे कप्पा पबचा पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिष्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया अचिमालीभासरासिप्पभा, सेसं जहा सणंकुमारे जाव पडिरूवा, तत्थ णं आणयपाणयदेवाणं चत्वारि विमाणावाससया भवन्तीतिमक्खायं जाव पडिरूवा, बडिंसगा जहा सोहम्मे कप्पे, नवरं मज्झे इत्थ पाणयवडिंसए, ते णं वडिंसगा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एत्य णं आणयपाणयदेवाणं पजत्तापजचाणं ठाणा पन्नता, तिसुवि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं वहवे आणयपाणयदेवा परिवसंति महिड्डिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयाणं जाव चिहरंति, पाणए इस्थ देविंदे देवराया दीप अनुक्रम [२२८-२३४] 909890 | ॥१०॥ ~210 ~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] गाथा: earSASSISTANT20 परिवसइ जहा सणंकुमारे, नवरं चउण्हं विमाणावाससयाणं वीसाए सामाणियसाहस्सीणं असीईए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसि च बहणं जाव विहरइ । कहि णं भंते ! आरणञ्चुयाणं देवाणं पज्जत्तापञ्जचाणं ठाणा पनचा, कहि णं भंते ! आरणजुया देवा परिवति', गोयमा ! आणयपाणयाणं कप्पाणं उपि सपक्खि सपडिदिसि एत्थ णं आरणचुया नाम दुवे कप्पा पन्नचा, पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया अचिमालीभासरासिवण्णाभा असंखिजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखिजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवणं सबरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा महा नीरया निम्मला निप्पका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरिया सउओया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं आरणचुयाण देवाणं तिनि विमाणावाससया भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पमा सस्सिरिया सउज्जोया पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा, तेसिणं विमाणाणं कप्पाणं बहमज्झदेसमाए पंच बर्टिसया पन्नत्ता, तंजहा-अंकवार्डिसए फलिहवर्डिसए रयणवडिंसए जायरूवबार्डिसए मज्झे एत्थ अचुयवडिसए, ते ण वडिसया सवरयणामया जाव पडिरूवा, एत्थ णं आरणचुयाणं देवाणं पज्जतापजत्ताणं ठाणा पन्नता, तिसुवि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं यह आरणजुया, देवा परिवसति, अचुए इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, जहा पाणए जाव विहरइ, नवरं तिहं विमाणावाससयाणं दसण्ह सामाणियसाहस्सीणं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं आहेबच्चं कुबमाणे जाव विहरइ । बत्तीसअट्ठवीसा वारसअचउरो (य)सयसहस्सा । पन्ना चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥१४६॥ आणयपाणयकप्पे चचारि सयारणचुए तिनि । सत्त दीप अनुक्रम [२२८-२३४] SARERatanimasharana ~ 211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ----------- उद्देशक: [-], ---------- दारं-, ----------- मूलं [१३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] अज्ञापनाया:मलयवृत्ती. २ स्थानपदे ईशानादिस्थानंसू.५३ ॥१०॥ गाथा: विमाणसयाई चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥१४७॥ सामाणियसंगहणीगाहा-चउरासीई असीई चावचरी सत्तरी य सट्ठी य । पन्ना चचालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥१४८॥ एए चेव आयरक्खा चउग्गुणा ।। कहिण भंते ! हिडिमगेविजगार्ण पज्जत्तापअत्ताणं ठाणा पत्रचा?, कहि णं भंते ! हिहिमगेविजगा देवा परिवसंति?, गोयमा! आरणचुयाणं कप्पाणं उप्पि जाव उहुं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं हिहिमोविजगाणं देवाणं तओ गेविज्जगविमाणपत्थडा पन्नत्ता पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिमा पडिपुत्रचंदसंठाणसंठिया अचिमालीभासरासिवण्णाभा सेसं जहा बंभलोगे जाव पडिरूवा, तत्थ णं हेट्ठिमगेविजगाणं देवाणं एकारसुत्तरे विमाणावाससए भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सवरयणामया जाव पडिरूवा, एत्थ णं हेहिमोविज्जगाणं देवाणं पजचापज्जचाणं ठाणा पन्नता, तिसुवि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे हेद्विमगेविज्जगा देवा परिवसंति, सो समिडिया सवे समजुइया सबे समजसा सवे समचला सवे समाणुभावा महामुक्खा अजिंदा अपेस्सा अपुरोहिया अहमिंदा नाम ते देवगणा पन्नत्ता समणाउसो! । कहिणं भंते! मशिमगाणं गेविज्जगाणं देवाणं पज्जत्तापज्जचाणं ठाणा पन्नचा?, कहि णं भंते ! मज्झिमगेविजगा देवा परिवसंति, गोयमा । हेडिमगेविनगाणं उप्पि सपरिख सपडिदिसि जाव उप्पइत्ता एत्थ ण मज्झिमगेविजगदेवाणं तओ गेविजगाणं पस्थढा पनत्ता, पाइणपडीणायया जहा हेहिमगेविजगाण, नवरं सत्तुत्तरे विमाणावाससए हवन्तीतिमक्खाय, ते णं विमाणा जाव पटिरूवा, एत्थ णं मझिमगेविज्जगाणं जाव तिसुषि लोगस्स असंखिज्जहभागे, तत्थ णं बहवे मजिझमगेविज्जगा देवा परिवसति जाव अहमिंदा नाम ते देवगणा पन्नता समणाउसो ! । कहिणं भंते ! उवरिमगेविजगाणं देवाणं पजत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्न दीप अनुक्रम [२२८-२३४] ॥रण्टा REarati Muna ~ 212 ~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ----------- उद्देशक: [-], ---------- दारं-, ----------- मूलं [१३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 28005 BesCatee सूत्रांक [५३] गाथा: चा?, कहि णं भंते ! उवरिमगेविज्जए देवा परिवसति?, गोयमा! मज्झिमगेविजगाणं उप्पि जाव उप्पाचा एत्थ णं उवरिमगेविनगाणं तओ गेविजगविमाणपत्थडा पन्नता पाईणपडीणायया सेसं जहा हेद्विमगेविअगाणं, नवरं एगे विमागावाससए भवन्तीतिमक्खायं, सेसं तहेव भाणियई जाव अहमिंदा नामं ते देवगणा पन्नत्ता समणाउसो!| एकारसुत्रं हेडिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए। सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुचरविमाणा ॥१४९॥ कहिणं भंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पजत्तापञ्जताणं ठाणा पत्रचा?, कहिण भंते ! अणुत्तरोवाइया देवा परिवसंति',गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उड्डे चंदिममूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं चहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहुई जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उहंदूर उप्पहत्ता सोहम्मीसाणसणंकुमार जाव आरणअधुयकप्पा तिनिअट्ठारसुत्तरे गेषिजगषिमाणावाससए वीइवहत्ता तेण पर दूरंगया नीरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसि पंच अणुचरा महइमहालया महाविमाणा पन्नता, तंजहा--विजए वेजयंते जयंते अपराजिए सबट्टसिद्धे, ते ण विमाणा सबरयणामया अच्छा सोहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पं का निकंकडच्छाया सप्पमा सस्सिरिया सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्तापजसाणं ठाणा पन्नता, तिसुपि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं वहवे अणुचरोववाइया देवा परिवसंति, सल्वे समिडिया सधे समवला सो समाणुभावा महासुक्खा अजिंदा अप्पेस्सा अपुरोहिया अहमिदा नामं ते देवगणा पन्नत्ता समणाउसो! ॥ (सू०५३) दीप अनुक्रम [२२८-२३४] SAREaranMOM mararyorg ~ 213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [43] + गाथा: दीप अनुक्रम [२२८ -२३४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [-], पदं [२], उद्देशक: [-] मूलं [ ५३ ] + गाथा : (१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना सनत्कुमारकल्पे 'सपक्खि सपडिदिसं'ति समानाः पक्षाः - पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः पार्श्वा यस्मिन् दूरमुत्पतने तत्सपक्षं 'समानस्य धर्मादिषु चे' ति समानस्य सभावः 'सपडिदिसिं 'ति समानाः प्रतिदिशो - विदिशो यत्र तत् य० वृत्ती. ॐ सप्रतिदिक् ॥ सामानिकसंग्रहणीगाथा 'चउरासीद्द' इत्यादि, सौधर्मेन्द्रस्य चतुरशीतिः सामानिकसहस्राणि ईशाने याः मल ॥१०५॥ Jan Educator न्द्रस्याशीतिः सनत्कुमारेन्द्रस्य द्वासप्ततिः माहेन्द्र देवराजस्य सप्ततिः त्रह्मलोकेन्द्रस्य षष्टिः लान्तकेन्द्रस्य पञ्चाशत् ११ महाशुक्रेन्द्रस्य चत्वारिंशत् सहस्रारेन्द्रस्य त्रिंशत् आनतप्राणतेन्द्रस्य विंशतिः आरणाच्युतेन्द्रस्य दश सामानिकसह४ साणि, अवतंसकाश्चातिदेशेनोक्ता इति दुरवबोधाः ततो विनेयजनानुग्रहार्थं वैवितयेन मूलत आरभ्योपदर्श्यन्ते - सौधर्मे पूर्वस्यामशोकावतंसकः दक्षिणतः सप्तपर्णावतंसकः पश्चिमायां चम्पकावतंसकः उत्तरतभूतावतंसकः मध्ये सौधर्मावतंसकः एवं पूर्वादिक्रमेण ईशाने अङ्कावतंसकः स्फटिकावतंसको स्लावतंसको जातरूपावतंसकः मध्ये ईशानावतंसकः, सनत्कुमारे अशोकसप्तपर्णचंपक चूतसनत्कुमारावतंसकाः, माहेन्द्रे अङ्कस्फटिकरलजातरूपमाहेन्द्रावतंसकाः, ब्रह्मलोके अशोकसप्तपर्णचम्पक चूतत्रह्मलोकावतंसकाः, लान्तके अङ्कस्फटिकरलजातरूपलान्तकावतंसकाः, महाशुक्रे अशोकसप्तपर्णचम्पकचूत महाशुक्रावतंसकाः, सहस्रारे अङ्कस्फटिकरत्नजातरूपसहस्रारावतंसकाः, प्राणते अशोकसप्तपर्णचम्पकचूतप्राणतावतंसकाः, अच्युते अङ्कस्फटिकरत्नजातरूपअच्युतावतंसका इति ॥ ग्रैवेयकसूत्रे 'खमिहिया' समा ऋद्धिर्येषां ते समर्द्धिकाः, एवं 'समज्जुइया' इत्याद्यपि भावनीयं, 'अनिंदा' इति न विद्यते इन्द्रः- For Park Use Only ~ 214~ २ स्थान पदे ईशा'नादिस्था नं सू. ५३ ॥१०५॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] गाथा: यसseeeeeeeeeeeers अधिपतिर्येषां ते अनिन्द्राः 'अपेस्सा' इति न विद्यते प्रेष्यः-प्रेष्यत्वं येषा ते अप्रेष्याः 'अपुरोहि या इति न विद्यते पुरोहितः-शान्तिकर्मकारी येषां अशान्तेरभावात् ते अपुरोहिताः, किंरूपाः पुनस्ते ? इत्याह-अहमिन्द्रार नाम ते देवगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ॥ कहि णं मंते ! सिद्धाणं ठाणा प० कहिणं मंते ! सिद्धा परिवसंति, गोयमा ! सबढसिद्धस्स महाविमाणस्स उवरिल्लाओ धूभियग्गाओ दुवालस जोयणे उहुं अबाहाए पत्थ णं ईसीपन्भारा गाम पुढवी पत्रचा, पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई तीसं च सहस्साई दोनि य अउणापने जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं पनत्ता, ईसिपब्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अहजोयणिए खेते अट्ठ जोयणाई चाहल्लेणं पन्नते, तओ अणंतरं च णं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणी परिहायमाणी सबेसु चरमंतेसु मच्छियपत्ताओ तणुययरी अंगुलस्स असंखेजइभार्ग बाहल्लेणं पत्रचा, ईसीपन्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधिज्जा पत्रचा, तंजहा-ईसि इ वा ईसीपन्भारा इ वा तण इ वा तणुतण इ वा सिद्धिति वा सिद्धालए वा मुत्तित्ति वा मुत्तालए इवा लोयग्गेत्ति वा लोयग्गधूभियत्ति वा लोयग्गपडिवुज्झणा इ वा सबपाणभूयजीवसत्तमुहावहा इवा, इसीपब्भाराणं पुढवी सेया संखदलविमलसोस्थियमुणालदगरयतुसारगोक्खीरहारवण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सबज्जुणसुवनमई अच्छा. सण्हा लण्हा पहा महा नीरया निम्मला नियंका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरिया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा दीप अनुक्रम [२२८-२३४] - Santairatoriand अथ सिद्ध-जीवानाम् स्थानानि कथ्यते ~ 215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ene प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती. ॥१०॥ २ स्थानपदे सिद्धस्थानादि [५४] गाथा: अभिरूवा पडिरूवा, ईसीपब्भाराए णं पुढवीए सीआए जोयणम्मि लोगंतो तस्स ण जोयणस्स जे से उबरिल्ले गाउए तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे एत्थ पंसिद्धा भगवंतो साइया अपज्जवसिया अणेगजाइजरामरणजोणिसंसारकलंकलीभावपुणब्भवगम्भवासवसहीपवंचसमइकंता सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति, तत्थवि य ते अवेया अवेयणा निम्ममा असंगा य संसारविष्पमुक्का पएसनिव्वत्तसंठाणा । कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइडिया । कहिं बोंदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ? ॥१५०॥ अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइद्विया । इह बोदि चहत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झइ ॥१५१|| दीहं वा हस्सं वा जे चरिमभवे हविज संठाणं । तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥१५२ ॥ जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि । आसी य पदेसघणं तं संठाणं तर्हि तस्स ॥१५३।। तिमिसया तित्तीसा धणुविभागो य होइ नायबो। एसा खलु सिद्धार्थ उकोसोगाहणा भणिया ॥१५४॥ चत्तारिय रयणीओ रयणी विभागूणिया य बोद्धया। एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया॥१५५||एगाय होइ रयणी अद्वेव य अंगुलाई साहि (य) या । एसा खलु सिद्धाणं जहअओगाहणा भणिया ॥१५६॥ ओगाहणाइ सिद्धा भवचिभागेण होंति परिहीणा । संठाणमणित्थंध (ग्रन्था० १५००) जरामरणविप्पमुकाणं ॥१५७।। जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अन्नोऽनसमोगाढा पुट्ठा सबेवि लोगते ॥१५८॥ फुसइ अणते सिद्धे सबपएसेहिं नियमसो सिद्धा। तेऽवि य असंखिज्जगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥१५९॥ असरीरा जीवघणा उवउचा दंसणे य नाणे य । सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥१६०॥ केवलनाणुवउत्ता जाणता सवभावगुणभावे । पासंता सबओ खलु केवलदिहीहिणताहिं ।। १६१ ॥ नवि अस्थि माणुसाणं तं सुक्खं नवि य सबदेवाणं । जं सिद्धार्ण दीप अनुक्रम [२३५-२५६] ॥१०६॥ SARERainintenmarana ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [५४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] गाथा: सुक्खं अबाबाह उवगयाणं ॥१६२॥ सुरगणमुहं समत्तं सबद्धवापिंडियं अणतगुणं । नवि पावद मुत्तिसुहं गताहिं चग्गवग्गृहि ॥१६३॥ सिद्धस्स सुहोरासी सबद्धवापिंडिओ जइ हवेजा । सोऽयंतवग्गभइओ सबागासे न माइजा ॥१६४ ॥ जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। न चएइ परिकहेउं उबमाएँ तर्हि असंतीए ॥१६५॥ इस सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं नत्थि तस्स ओवम्मं । किंचि विसेसेणिचो सारिक्खमिणं सुणह बोच्छं ।। १६६ ॥ जह सबकामगुणियं पुरिसो भोत्तण भोयणं कोई । ताहाछुहाविमुक्को अच्छिज जहा अमियतित्तो ।। १६७॥ इय सबकालतिता अतुलं निवाणमुवगया सिद्धा। सासयमवाबाहं चिट्ठति सुही मुहं पत्ता ।।१६८॥ सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य पारगयत्ति । य परंपरगपति उम्मुक्तकम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥ १५९ ॥ निच्छिन्नसबदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अबाबाह सोक्खं अणुहौती सासर्य सिद्धा॥ (मू०५४) इति बितीयं ठाणपयं सम्मत्तं ॥२॥ सिद्धसूत्रे 'एगा जोयणकोडी' इत्यादि परिरयपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुण.' इत्यादिकरणवशात् खयमानेतन्यं, सुगमत्वात् , क्षेत्रसमासटीका वा परिभावनीया, तत्र पञ्चचत्वारिंशलक्षप्रमाणविष्कम्भमनुष्यक्षेत्रपरिरयस्य एतावत्प्रमाणस्य सविस्तरंभावितत्वात् , तस्याश्च ईपत्प्राग्भारायाः पृथिव्याः बहुमध्यदेशभागे अष्टयोजनिकम्-आयामविष्कम्भाभ्यामष्टयोजनप्रमाणं क्षेत्रं च, अष्टौ योजनानि बाहल्येन चोचत्वेन-उच्चस्त्वेनेति भावः, प्रज्ञप्ता, तदनन्तरं सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च मात्रया स्तोकया स्तोकया प्रदेशपरिहान्या परिहीयमाना सर्वेषु चरमान्तेषु मक्षिकापत्रतोऽप्यतितन्वी अङ्गुला दीप अनुक्रम [२३५-२५६] ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती. [५४] ॥१०७॥ गाथा: संख्येयभागं बाहल्येन प्रज्ञप्ता, स्थापना-ईसि इ वा' इति, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् १ ईषत्पागमाराइति वार | २ स्थान'तणु इत्ति वा' तन्वी वा शेपपृथिव्यपेक्षयातितनुत्वात् ३ 'तणुतणूइत्ति वा' इति तनुभ्योऽपि जगत्प्रसिद्धेभ्यस्तन्वी पदे सिद्धमक्षिकापत्रतोऽपि पर्यन्तदेशेऽतितनुत्वात् तनुतन्वी ४'सिद्धिरिति वा' सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नत्वात् ५'सिद्धालय इति स्थानादिवा' सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नतयोपचारतः सिद्धानामालयः सिद्धालयः६ एवं मुक्तिरिति वा मुक्तालय इति वेत्यपि परि- सू. ५४ भावनीयं तथा लोकाने वर्तमानत्वात् लोकाग्रमिति ९ लोकाग्रस्य स्तूपिकेच लोकाग्रस्तूपिका १० तथा लोकाग्रेण प्रत्यूबते इति लोकाग्रप्रतिवाहिनी ११'सबपाणभूयजीवसत्तसुहावहां' इति प्राणा-द्वित्रिचतुरिन्द्रिया इति भूताः-तरवः। जीवाः-पञ्चेन्द्रियाः शेषाःप्राणिनः सत्त्वाः, उक्तं च-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सरवा उदीरिताः॥१॥" सर्वेषां प्राणभूतजीवसत्त्वानां सुखावहा उपद्रवकारित्वाभावात् सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसु खावहा १२॥सा च ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी श्वेता.श्वेतत्वमेवोपमया प्रकटयति-'संखदलविमल' इत्यादि। शङ्खदलस्य-शवदलचूर्णस्य विमलो-निर्मला खस्तिकः शङ्खदलविमलखस्तिकः स च मृणालं च दकरजश्च तुषारं च | हिमं च गोक्षीरं च हारश्च तेषामिव वर्णो यस्याः सा तथा, उत्तानकं-उत्तानीकृतं यत् छत्रं तस्य यत्संस्थानं तेन सं- १०७॥ |स्थिता उत्तानकच्छत्रसंस्थानसंस्थितत्वं च प्रागुपदर्शितस्थापनातो भावनीयं । 'सबज्जुणसुवन्नमयी' सर्वात्मना श्वेतसु-1 वर्णमयी 'ईसीपभाराए णं' इत्यादि ईपत्प्राग्भारायाः पृथिव्या ऊवं 'सीयाए' इति निःश्रेणिगत्या योजने लोका दीप अनुक्रम [२३५-२५६] INTharoo ~218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] गाथा: तो भवति, तस्य च योजनस्य यदुपरितनं गच्यूतं चतुर्थे तस्य च गन्यूतस्य यः सर्वोपरितनो षड्भागो अत्र 'ण'N इति वाक्यालङ्कारे सिद्धा भगवन्तः सादिकाः कर्मक्षयानन्तरं सिद्धत्वभावात्, एतेन अनादिशुद्धपुरुषप्रवादप्रतिक्षेप आवेदितो द्रष्टव्यः, अपर्यवसिता रागाद्यभावेन प्रतिपातासंभवात्, रागादयो हि सिद्धत्वाच्यावयितुं प्रभविष्णवः, न च ते भगवतां सन्ति, तेषां निर्मूलकापंकषितत्वात्, न च निर्मूलकाकपिता अपि भूयः प्रादुर्भवन्ति, बीजाभावादिति, तथा अनेकैर्जातिजरामरणैः-जन्मजरामृत्युभिर्यश्च तासु तासु योनिषु संसारः-संसरणं तेन च यः कलं-18 कलीभावः-कदर्यमानता यश्च दिव्यसुखमनुप्राप्तानामपि पुनर्भवे--संसारे गर्भवसतिप्रपञ्च ती समतिक्रान्ता अत। एव शाश्वतमनागतं कालं तिष्ठन्ति, 'तत्ववि य ते अवेया' इत्यादि, तत्रापि च-सिद्धक्षेत्रे गताः सन्तस्ते-भगवन्तः 'अवेदाः' पुरुषवेदादिवेदरहिताः 'अवेदना' सातासातवेदनाभावात् 'निर्ममा' ममत्वरहिताः 'असंगा' बायाभ्यन्तरसकरहिताः, कस्मादेवम् ? अत आह-'संसारविप्रमुक्ताः' हेतौ प्रथमा, यतः संसाराद विप्रमुक्तास्तस्मादवेदा अवेदना निर्ममा असङ्गाथ, पुनः कथंभूताः' इत्याह 'पएसनिवत्तसंठाणा' प्रदेशैः-आत्मप्रदेशैने तु बायपुद्गलैः शरीरपञ्चकस्यापि सर्वात्मना त्यक्तत्वात् निवृत्त-निष्पन्न संस्थानं येषां ते प्रदेशनिवृत्तसंस्थानाः, अत्र शिष्यः पृच्छन्नाह'कहिं पडिहया सिद्धा' इत्यादि कहि' इत्यत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् , यथा 'तिसु तेसु अलंफिया पुढवी' इत्यादि, ततोऽयमर्थः-केन प्रतिहताः-केन स्खलिताः सिद्धा:-मुक्ताः, तथा क-कस्मिन् स्थाने सिद्धाः प्रतिष्ठिताः eeeeeseseseseesrises दीप अनुक्रम [२३५-२५६] SAREairaum ond ए ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] गाथा: प्रज्ञापना Nअवस्थिताः, तथा क-कस्मिन् क्षेत्रे बोन्दिस्तनुः शरीरमित्यनान्तरम् तां त्यक्त्वा क गत्वा सिद्ध्यन्ति !-निष्ठि-२ स्थानयाः मल- तार्था भवन्ति ?, 'सिज्झई' इत्यत्रानुखारलोपो द्रष्टव्यः, अथवा एकवचनोपन्यासोऽपि सूत्रशैल्या न विरोधभार, पदे सिद्धयवृत्ती. तथा चान्यत्राऽप्येयं प्रयोगः-“वस्थगन्धमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति स्थानादि वुचइ ॥१॥” इति, एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सूरिराह-'अलोए पडिहया सिद्धा' इत्यादि, अत्रापि सप्तमी तृती- सू. ५४ ॥१०८ यार्थे, अलोकेन-केवलाकाशास्तिकायरूपेण प्रतिहताः-स्खलिताः सिद्धाः, इह तत्र धर्मास्तिकायाद्यभावात् तदानस्तवृत्तिरेव प्रतिस्खलनम्, न तु संबन्धे सति विघातः, अप्रतिघत्वात् , सप्रतिघानां हि संबन्धे सति विघात, नान्येपामिति, तथा लोकस्य-पश्चास्तिकायात्मकस्याग्रे-मूर्धनि प्रतिष्ठिता:-अपुनरागत्या व्यवस्थिताः, तथा इह मनुप्यलोके बोन्दी-तनुं त्यक्त्वा तत्र-लोकाग्रे समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेन गत्वा सिध्यन्ति-निष्ठितार्थी भवन्ति ।। सम्प्रति तत्रगतानां यत्संस्थानं तदभिधित्सुराह-दीहं या हस्सं वा' इत्यादि, दीघ वा-पञ्चधनुःशतप्रमाणं इखं वा-हस्तद्वयप्रमाणं वाशब्दाद् मध्यम वा विचित्रं यचरमभवे-पश्चिमभवे भवेत् संस्थानं ततः-तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना-बदनोदरादिरन्धपूरणेन तृतीयभागेन हीना सिद्धानामवगाहना, अवगाहन्तेऽस्यामित्यवगाहना-खा- 1 १०॥ वस्थैव भणिता तीर्थकरगणधररिति, अत्रगतसंस्थानप्रमाणापेक्षया त्रिभागहीनं तत्र संस्थानमिति भावः ॥ एतदेव स्पष्टतरमुपदर्शयति-'जं संठाणं तु इहं' इत्यादि, यत्संस्थानं-यावत्प्रमाणं संस्थानं इह-मनुष्यभवे आसीत् तदेव | दीप अनुक्रम [२३५-२५६] ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: -, ---------- दारं -, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] Searedeceaeseanesences गाथा: भवन्ति प्राणिनः कर्मवववर्तिनोऽस्मिन्निति भव-शरीरं त्यजतः-परित्यजतः, काययोगं परिजिहानस्येति भावः, चरमसमये सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानवलेन बदनोदरादिरन्धपूरणात् त्रिभागेन हीनं प्रदेशधनमासीत् , 'तं संठाणं तहि तस्स' इति तदेव च प्रदेशपनं मूलप्रमाणापेक्षया त्रिभागहीनप्रमाणं संस्थानं तत्र-लोकाग्रे तस्य-सिद्धस्य,|| नान्यदिति ॥ साम्प्रतमुत्कृष्टायगाहनादिभेदभिन्नामवगाहनामभिधित्सुराह-'तिनि सया तेत्तीसा' इत्यादि, त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशानि-प्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुविभागश्च भवति बोद्धव्या, एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टावगाहना भणिता तीर्थकरगणधरैः, सा च पञ्चधनु शततनुकानामवसेया, ननु मरुदेवी नाभिकुलकरपली, नाभेष पञ्चविशत्यधिकानि पञ्चधनुशतानि शरीरप्रमाणं. यदेव च तस्य शरीरमानं तदेव मरुदेवाया अपि, 'संघयणं संठाणं उच्चत्तं चेव कुलगरेहिं सम' इति वचनात् , मरुदेवी भगवती च सिद्धा, ततस्तस्या देहमानस्य त्रिभागे पातिते सिद्धावस्थायाः सार्धानि त्रीणि धनुःशतान्येवावगाहना प्राप्नोति, कथमुक्तप्रमाणा उत्कृष्टावगाहना घटते १ इति, नैप दोषः, मरुदेवाया नाभेः किञ्चिदूनप्रमाणत्वात् , खियो युत्तमसंस्थाना उत्तमसंस्थानेभ्यः पुरुषेभ्यः खस्खकालापक्षया किञ्चिदूनप्रमाणा भवन्ति, ततो मरुदेवाऽपि पञ्चधनुःशतप्रमाणेति न कश्चिद्दोपः, अपिच-हस्तिस्कन्धा-13/ (धिरूढा संकुचिताङ्गी सिद्धा ततः शरीरसंकोचभावाद् नाधिकावगाहनासंभव इत्यविरोधः, आह च भाष्यकृत-18 RI"कह मरुदेवामाणं ? नाभीतो जेण किश्चिदूणा सा । तो किर पंचसयचिय अहया संकोचओ सिद्धा ॥१॥" दीप अनुक्रम [२३५-२५६] La una म.१९M ureurary.orm ~ 221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती. [५४] ॥१०॥ गाथा: चत्तारि रयणीओं' इत्यादि, चतस्रो रत्नयो रनिश्च त्रिभागोना च सा बोद्धव्या एषा खलु सिद्धानामवगाहना र स्थानभणिता मध्यमा । आह-जघन्यपदे सप्तहस्तोच्छूितानामागमे सिद्धिरुक्ता, तत एषा जघन्या प्राप्नोति, कथं। मध्यमा ?, तदयुक्तं, वस्तुतचापरिज्ञानात् , जघन्यपदे हि ससहस्तानां सिद्धिरुका तीर्थकरापेक्षया, सामान्यकेव द्धाधिका शरःसू.५४ लिनां तु हीनप्रमाणानामपि भवति, इदमपि चावगाहनामानं चिन्त्यते सामान्यसिद्धापेक्षया, ततो न कश्चिदोषः। 'एगा य होई' इत्यादि, एका रतिः परिपूर्णा अष्टौ चाङ्गुलान्यधिकानि एषा भवति सिद्धानामवगाहना जघन्या.18 सा च कूर्मापुत्रादीनां द्विहस्तानामवसेया, यदिवा सप्तहस्तोच्छूितानामपि यन्त्रपीलनादिना संवर्तितशरीराणां, आह च भाष्यकृत-"जेट्ठा उ पंचधणुसयतणुस्स मज्झा य सत्तहत्वस्स । देहत्तिभागहीणा जहनिया जा बिहत्थस्स ॥१॥ सत्तूसियएसु सिद्धी जहन्नओ कहमिहं बिहत्थेसु । सा किर तित्थयरेसुं सेसाणं सिज्झमाणाणं ॥२॥ ते पुण होज बिहत्था कुम्मापुत्तादयो जहन्नेणं । अन्ने संवट्टियसत्तहत्थसिद्धस्स हीणत्ति ॥ ३॥" साम्प्रतमुक्तानुवादेनैव संस्थानलक्षणं सिद्धानामभिधित्सुराह-ओगाहणाओ' इत्यादि, सुगम, नवरं 'अनित्थंध' इति इदंप्रकारमापन्नमित्थं इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थं अनित्थंस्थं-वदनादिशुषिरप्रतिपूरणेन पूर्वाकारान्यथाभावतोऽनियताका-17 ॥१०९॥ रमिति भावः, योऽपि च सिद्धादिगुणेषु 'सिद्धे न दीहे न हस्से' इत्यादिना दीर्घत्वादीनां प्रतिषेधः कृतः सोऽपि पूर्वाफारापेक्षया संस्थानस्यानित्थंस्थत्वात् प्रतिपत्तव्यो, न पुनः सर्वथा संस्थानस्याभावतः, आह च भाष्यकृत् दीप अनुक्रम [२३५-२५६] For P OW ~ 222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: -, ---------- दारं -, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] गाथा: मुंसिरपरिपूरणाओ पुषागारनहाववत्थाओ । संठाणमणियंत्थं जं भणियमणिययागारं ॥१॥ एतोचिय पडिसेहो । सिद्धाइगुणेसु दीहयाईणं । जमणित्थंथं पुवागाराविक्खाए नाभावो ॥२॥" नन्वेते सिद्धाः परस्परं देशभेदेन 81 व्यवस्थिता उत नेति !, नेति तद् ब्रूमः, कस्मादिति चेत्, 'जत्थ य' इत्यादि, यत्रैव देशे चशब्दस्य एवकारार्थत्वात् एकः सिद्धो-निवृतस्तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ताः, अत्र भवक्षयग्रहणेन खेच्छया भवावतरणशक्तिमसिद्धग्यवच्छेदमाह, अन्योऽन्यसमवगाढाः, तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वात् , धर्मास्तिकायादिवत्, तथा स्पृष्टा-लग्नाः सर्वेऽपि लोकान्ते । 'फुसई' इत्यादि, स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसंवन्धिभिनियमशः सिद्धः, तथा तेऽपि सिद्धाः सर्वप्रदेशस्पृष्टेभ्योऽसंख्येयगुणा वर्तन्ते ये देशप्रदेशैः स्पृष्टाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इहैकस्य सिद्धस्य । यदवगाहनक्षेत्र तत्रैकस्मिन्नपि परिपूर्णेऽवगाढा अन्येऽप्यनन्ताः सिद्धाः प्राप्यन्ते, अपरे तु ये तस्य क्षेत्रसैकैकं प्रदेशमाक्रम्यावगादास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिप्रदेशवृया येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, तथा तस्य मूलक्षेत्रस्यैकैकं प्रदेशं परित्यज्य येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिप्रदेशहान्या येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं सति प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां ये समयगाढास्ते परिपूर्णैकक्षेत्रावगाढेभ्योऽसंख्येयगुणा १ शुषिरपरिपूरणात् पूर्वाकारान्यथाव्यवस्थातः । संस्थानमनित्यवं यद्भणितमनियताकारात् ॥ १॥ इत एव प्रतिषेधः सिद्धादिगुणेषु दीर्घत्वादीनाम् । यदनिधंस्थं पूर्वाकारापेक्षया नाभावः ॥ २॥ दीप अनुक्रम [२३५-२५६] SAREairature d Insaramorg ~ 223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. [५४] ॥११॥ गाथा: भवन्ति, अवगाढप्रदेशानामसंख्यातत्वात् , आह च-"एगखेत्तेऽणता पएसपरिहिहाणिओ तत्तो । हुँति असंखेजगुणाऽसंखपएसो जमवगाढो ॥१॥" सम्प्रति सिद्धानेव लक्षणतः प्रतिपादयति-'असरीरा' इत्यादि, अवि- पदे सिद्यमानशरीरा अशरीरा औदारिकादिपञ्चविधशरीररहिता इत्यर्थः, जीवाश्च ते धनाश्च पदनोदरादिशुषिरपूरणात् द्धाधिकाजीवधना उपयुक्ता दर्शने केवलदर्शने ज्ञाने च-केवलज्ञाने यद्यपि सिद्धत्वप्रादुभीषसमये केवलज्ञानमिति ज्ञान रसू.५४ प्रधान तथाऽपि सामान्य सिद्धलक्षणमेतदिति ज्ञापनार्थमादौ सामान्यावलम्बनं दर्शनमुक्तं, तथा च सामान्यविषय दर्शनं विशेषविषयं ज्ञानमिति, ततः साकारानाकार सामान्यविशेषोपयोगरूपमित्यर्थः, सूने मकारोऽलाक्षणिको, लक्षणं-तदन्यव्यावृत्तिखरूपमेतत्-अनन्तरोक्तं, तुशब्दो वक्ष्यमाणनिरुपमसुखविशेषणार्थ, सिद्धानां-निष्ठितार्थानामिति । सम्प्रति केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरशेपविषयतामुपदर्शयति-'केवलनाणुवउत्ता' इत्यादि, केवलज्ञानेनोपयुक्ता न त्वन्तःकरणेन तदभावादिति केवलज्ञानोपयुक्ता जानन्ति-अवगच्छन्ति सर्वभावगुणभावान् सर्वपदार्थ-13 गुणपर्यायान् , प्रथमो भावशब्दः पदार्थवचनः द्वितीयः पर्यायवचनः, गुणपर्याययोस्त्वयं विशेषः-सहवर्तिनी गुणाः क्रमवर्तिनः पर्याया इति, तथा पश्यन्ति सर्वतः खलु-सलुशब्दस्थावधारणार्थत्वात् सर्वत एव, केवलरष्टिमि-II ॥११॥ ४ारनन्ताभिः, अनन्तः केवलदर्शनैरित्यर्थः, केवलदर्शनानां चानन्तता सिद्धानामनन्तत्वात् , इहादी ज्ञानमहर्ण प्रथम-1 ! १ एकक्षेत्रेऽनन्ताः प्रदेशपरिवृद्धिहानितस्तस्मात् । भवन्त्यसंख्येयगुणाः असंख्यप्रदेशो यदवगाढः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [२३५-२५६] ~ 224 ~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] गाथा: Receneersekeseरयर तया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थ ॥ सम्प्रति निरुपमसुखभाजस्ते इति दर्शयति-'नवि अत्थि' इत्यादि, नैवास्ति मनुष्याणां चक्रवादीनामपि तत्सौख्यं, नैवास्ति सर्वदेवानामनुत्तरपर्यन्तानामपि यत् सिद्धानां सौख्यमव्यावाधामुपगतानां न विविधाऽऽवाधा अन्यावाधा तां उप-सामीप्येन गतानां प्राप्तानां ॥ यथा नास्ति तथा भङ्गयोपदर्शयति-'सुरगणसुह' इत्यादि, 'सुरगणसुखं' देवसंघातसुखं 'समस्तं' संपूर्णमतीतानागतवर्तमानकालोद्भयमित्यर्थः, पुनः 'सर्वाद्धापिण्डितं' सर्वकालसमयगुणितं तथाऽनन्तगुणमिति, तदेवंप्रमाणं किलासत्कल्पनया एकैका-18 | काशप्रदेशे स्थाप्यते इत्येवं सकलाकाशप्रदेशपूरणेन यद्यप्यनन्तं भवति तदनन्तमप्यनन्तैगर्गितं तथाऽप्येयं प्रकर्षगतमपि मुक्तिसुख-सिद्धिसुखं न प्राप्नोति ॥ एतदेव स्पष्टतरं भजयन्तरेण प्रतिपादयति-'सिद्धस्स सुहो रासी इत्यादि, सुखानां राशिः सुखराशि:-सुखसंघातः सिद्धस्य सुखराशिः सिद्धसुखराशिः 'सर्वाद्धापिण्डितः' सर्वयासायपर्यवसितया अद्धया, यत्सुखं सिद्धः प्रतिसमयमनुभवति तदेकर पिण्डीकृतमिति भावः, सोऽनन्तवर्गभक्तःअनन्तैर्वर्गमूलरपवर्तितः, अनन्तैर्वर्गमूलैः तावदपवर्तितो यावत् सर्वाद्धालक्षणेन गुणकारेण गुणने यदधिकं जातं तस्य सर्वस्याप्यपवर्तनः सिद्धत्वाद्यसमयभाविसुखमात्रता प्राप्त इति भावः, सर्वाकाशे न माति-एतावन्मात्रोऽपि सर्वाकाशे न माति सर्वस्तु दुरापास्तप्रसर एवेति ज्ञापनार्थ पिण्डयित्वा पुनरपवर्तनं सुखराशेः, इयमत्र भावना-इह किल विशिष्टाहादरूपं सुखं परिगृह्यते, ततश्च यत आरभ्य शिष्टानां सुखशब्दप्रवृत्तिस्तमाहादमवधिकृल्प एकैकगुण दीप अनुक्रम [२३५-२५६] Ivanorammam ~ 225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] + गाथाः दीप अनुक्रम [२३५ -२५६] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [-], पदं [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५४ ] + गाथा: (१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल ॥१११ ॥ वृद्धितारतम्येन तावदसावाहादो विशिष्यते यावदनन्तगुणवृद्ध्या निरतिशय निष्ठामुपगतः सोऽयमत्यन्तोपमातीतका न्तौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपस्तिमिततमकल्पः चरमाहादः सदा सिद्धानां तस्माच्चारतः प्रथमाच्चोर्ध्वमपान्तरालवर्तिनो ये य० वृत्ती. ४ गुणास्तारतम्येनाहादविशेषरूपास्ते सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽप्यतिभूयांसः, ततः किलोक्तं- 'सबागासे न माइज्जा' इति, अन्यथा यत् सर्वाकाशे न माति तत् कथमेकस्मिन् सिद्धे मायादू ? इति पूर्वसूरि संप्रदायः ॥ साम्प्रतमस्य निरुपमतां प्रतिपादयति- 'जह नाम' इत्यादि, यथा नाम कश्चिद् म्लेच्छो नगरगुणान् गृहनिवासादीन् बहुविधान् - अनेकप्रका| रान् विजानन् अरण्यगतः सन् अन्यम्लेच्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुं, कस्मान्न शक्नोति ? इत्यत आह-उपमायां तत्रासत्यां "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति न्यायाद् हेतौ सप्तमी, तत उपमांया अभा वादिति द्रष्टव्यं, एप गाथाऽक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तथेदं-- एगो महारन्नवासी मिच्छो रने चिट्ठति, इत्तो य एगो राया आसेण अवहरितो तं अडविं पवेसिओ तेण दिट्ठो, सकारिऊण जणवयं नीतो, रन्नावि सो नगरं नीओ, पच्छा उत्रनारिति गाढमुपचरितो, जहा राया तहा चिट्ठा, धवलघराइभोगेण विभासा, कालेण रनं १ एको महारण्यवासी म्लेच्छोऽरण्ये तिष्ठति, इतञ्च एको राजा अश्वेनापहृतस्तामटवीं प्रवेशितः तेन दृष्टः, सत्कार्य जनपदं नीतः, राज्ञाऽपि स नगरं नीतः, पश्चादुपकारीति गाढमुपचरितो, यथा राजा तथा तिष्ठति, धवलगृहादिभोगेन विभाषा, कालेन अरण्यं Internationa For Parts Only ~ 226~ २ स्थानपदे सिजाधिका रः सू. ५४ ॥१११॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] + गाथाः दीप अनुक्रम [२३५ -२५६] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], मूलं [ ५४ ] + गाथा: (१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२], दारं [-], संरिउमारढो, रन्ना विसजिओ, तत्तो रन्निगा पुच्छंति — 'केरिसं नयरंति' १, सो वियाणंतोऽवि तत्थोवमाभावा न सकइ नयरगुणे परिकहेउँ। एस दिडंतो, अयमर्थोपनयः - 'इय सिद्धाणं' इत्यादि, इत्येवं सिद्धानां सौख्यमनुपमं वर्तते, किमिति ?, तत आह— यतो नास्ति तस्योपम्यं, तथाऽपि बालजनप्रतिपत्तये किञ्चिद् विशेषेण 'इतो' इति आर्पत्वाद् अस्येत्यर्थः, सादृश्यमिदं वक्ष्यमाणं शृणुत-- 'जह सन्च' इत्यादि, यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, भुज्यते इति भोजनं 'सर्वकामगुणितं सकलसौन्दर्यसंस्कृतं कोऽपि पुरुषो भुक्त्वा क्षुत्तृद्र विप्रमुक्तः सन् यथा अमूततृप्तस्तथा तिष्ठति, 'इय' इत्यादि, एवं निर्वाणं - मोक्षमुपगताः सिद्धाः सर्वकालं - साद्यपर्यवसितं कालं तृप्ताः - सर्वथीत्सुक्य विनिवृत्तिभावतः परम संतोषमधिगता अतुलम् - अनन्यसदृशमुपमाऽतीतत्वात् शाश्वतं प्रतिपाताभावात् अव्याबाधं लेशतोऽपि व्यावाधाया असंभवात् सुखं प्राप्ता अत एव सुखिनः तिष्ठन्तीति ॥ एतदेव सविशेषतरं भावयति'सिद्धति य' इत्यादि, सितं - बद्धमष्टप्रकारं कर्म ध्यातं भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः “पृषोदरादयः" इति रूपनिष्पत्तिः, | निर्दग्धानेकभव कर्मेन्धना इत्यर्थः, ते च सामान्यतः कर्मादिसिद्धा अपि भवन्ति, यत उक्तम्- 'कम्मे सिप्पे य विजाए, मंते जोगे य आगमे । अत्थजत्ताअभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ॥ १ ॥ " ततः कर्मादिसिद्धव्यपोहाय १ स्मर्तुमारब्धः, राज्ञा विसृष्टः, तत आरण्यकाः पृच्छन्ति कीदृशं नगरमिति, स विजानन्नपि वत्रोपमाभावाद् न शक्नोति नगरगुणान् परिकथयितुं एष दृष्टान्तः ॥ २ कर्मणि शिल्पे च विद्यायां मन्त्रे योगे चागमे । अर्थे यात्रायामभिप्राये तपसि कर्मक्षये इति ॥ १ ॥ For Parts Only ~ 227 ~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: -, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] याः मलय० वृत्ती. गाथा: आह-'बुद्धा' इति, अज्ञाननिद्राप्रसुप्ते जगत्यपरोपदेशेन जीवादिरूपं तत्त्वं बद्धवन्तो बुद्धाः, सर्वज्ञसर्वदर्शिखभा- २ स्थानवबोधरूपा इति भावः, एतेऽपि च संसारनिर्वाणोभयपरित्यागेन स्थितवन्तः कैथिदिष्यन्ते-"संसारे न च निर्वाणे, स्थितो भुवनभूतये । अचिन्त्यः सर्वलोकानां, चिन्तारत्नाधिको महान् ॥१॥" इति वचनात् , ततस्तन्नि-M रासार्थमाह-पारगता' इति, पारं-पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनवातस्य वा गताः पारगताः, तथाभव्यत्याक्षिप्तसक-| लप्रयोजनसमाप्त्या निरवशेषकर्तव्यशक्तिविप्रमुक्ता इति भावः, इत्थंभूता अपि कैश्चिद् यदृच्छावादिभिरक्रमसिद्धत्वेनापि गीयन्ते, तथोक्तम्-"नकादिसंख्याक्रमतो, वित्तप्राप्तिर्नियोगतः । दरिद्रराज्यासिसमा, तद्वन्मुक्तिः कचिन्न | किम् ? ॥१॥" ततस्तन्मतव्यपोहाय 'परम्परागता' इति परम्परया-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपया मिथ्यारष्टिसासादनसम्यमिथ्यादृष्टयअविरतसम्यग्रष्टिदेशविरतिप्रमत्ताप्रमत्तनिवृत्त्यनिवृत्तिबादरसंपरायसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहक्षीण- | मोहसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिगुणस्थानभेदभिन्नया गताः परम्परागताः, एते च कैश्चित् तत्त्वतोऽनुन्मुक्तकमेकवचा अभ्युपगम्यन्ते 'तीर्थनिकारदर्शनादिहागच्छन्ति' इति वचनतः पुनः संसारावतरणाभ्युपगमात्, अतस्तन्म-IKI ॥११२॥ तापाकरणार्थमाह-'उन्मुक्तकर्मकवचाः' उत्-प्राबल्येनापुनर्भवरूपतया मुक्तं-परित्यक्तं कर्म कवचमिव कर्मकवचं यैस्ते उन्मुक्तकर्मकवचाः, अत एवाजराः शरीराभावतो जरसोऽभावात् अमरा अशरीरत्वादेव प्राणत्यागासंभवात् , दीप अनुक्रम [२३५-२५६] Januarte ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: -, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: On प्रत सूत्रांक [५४] उक्तं च-"वयसो हाणीह जरा, पाणचाओ यमरणमादिडं। सइ देईमि तदुभयं तदभावे तं न कस्सेव ॥१॥"S असङ्गा बायाभ्यन्तरसरहितत्वात् 'निच्छिन्न' इत्यादि, निस्तीर्ण-लचितं सर्वदुःखं वैस्ते निस्तीर्णसर्वदुःखाः, कुतः ? इत्याह-जातिजरामरणबंधणविमुक्का' जातिः-जन्म जरा-पयोहानिलक्षणा मरणं-प्राणत्यागरूपं बन्धनानि-तन्निबन्धनरूपाणि कर्माणि तैर्विशेषतो-निशेषापगमनेन मुक्का जातिजरामरणबन्धनविमुक्ताः, हेतावियं प्रथमा, यतो जातिजरामरणबन्धनविप्रमुक्तास्ततो निस्तीर्णसर्वदुःखाः, कारणाभावात् , ततोऽन्याचा सौख्यं शाश्वतं सिद्धा अनुभवन्ति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां द्वितीय स्थानपदं समाप्तम् ॥ गाथा: westereotatoesee १ वयसो हानिरिह जरा प्राणत्यागच मरणमादिष्टम् । सति देहे तभयं तदभावे तन्न कस्यैव ॥१॥ दीप अनुक्रम [२३५-२५६] SARERatininainama अत्र पद (०२) "स्थानं" परिसमाप्तम् ~ 229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४...] + गाथा:(१-२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५..] 2200000 गाथा: प्रज्ञापनाअथ तृतीयमल्पबहुत्वपदम् । ३ अल्पया:मल बहुत्वपदे य.वृत्ती . दिगादिव्याख्यातं द्वितीयं पदं, अधुना तृतीयपदमारभ्यते, तस्स चायमभिसम्बन्धः-इह प्रथमे पदे पृथिवीकायिका- भेदाः२७ ॥११३॥ दयः प्रज्ञताः द्वितीये ते एव स्वस्थानादिना चिन्तिताः अस्मिंस्तु तेषां दिग्विभागादिनाऽल्पबहुत्वादि निरूप्यते, तत्रेदमादौ द्वारसङ्ग्रहगाथाद्वयम्दिसि गई इंदिय काएं जोएँ वेएँ कसाय लेसा य । सम्मत्तै नाणदसण संजयेउवओगआहरि ॥१७१।। भासँगपरिर्तपज्जत्तै मुहुमसन्नी भवंथिए चरिमे । 'जीवे य खिंचवन्धे पुग़लमहदंडए चेव ॥ १७२ ॥ | प्रथम दिग्द्वारं १, तदनन्तरं गतिद्वारं, २, तत इन्द्रियद्वारं ३, ततः कायद्वारं ४, ततो योगद्वारं ५, तदनन्तरं । वेदद्वारं ६, ततः कषायद्वारं, ७, ततो लेश्याद्वारं ८, ततः सम्यक्त्वद्वारं ९, तदनन्तरं ज्ञानद्वारं १०, ततो दर्शनIN द्वारं ११, ततः संयतद्वारं १२, तत उपयोगद्वारं १३, तत आहारद्वारं १४, ततो भाषकद्वारं १५, ततः 'परित्त ॥११॥ इति परित्ताः-प्रत्येकशरीरिणः शुक्लपाक्षिकाश्च तद्वारं १६, तदनन्तरं पर्याप्तद्वारं १७, ततः सूक्ष्मद्वारं १८, तदनअन्तरं सब्जिद्वारं १९, ततो 'भव'त्ति भवसिद्धिकद्वारं २०, ततोऽस्तीति अस्तिकायद्वारं २१, ततश्वरमद्वारं २२, तद-1 दीप अनुक्रम [२५७ -२५८] anlinesirary.orm अथ पद (०३) "बहुवक्तव्यता । (अल्पबहुत्वं)" आरभ्यते अत्र अल्पबहुत्व-पदे सप्तविंशति: द्वाराणि नामानि प्ररुप्यते ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [१], ----------- मूलं [१५] + गाथा:(१-२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५] गाथा: नन्तरं जीवद्वारं, २३, ततः क्षेत्रद्वारं २४, ततो बन्धद्वारं २५, ततः पुद्गलद्वारं २६, ततो महादण्डकः २७, इति सर्वसशयया सप्तविंशतिः द्वाराणि । तत्र प्रथमं द्वारमभिधित्सुराहदिसाणुवाएणं सबथोवा जीवा पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । (सू०५५) इह दिशः प्रथमे आचाराख्ये अझे अनेकप्रकारा व्यावर्णिताः, तत्रेह क्षेत्रदिशः प्रतिपत्तव्याः, तासां नियतत्वात्, इतरासां च प्रायोऽनवस्थितत्वात् अनुपयोगित्वाच, क्षेत्रदिशां च प्रभवस्तिर्यग्लोकमध्यगतादष्टप्रदेशकाद्रुचकात् , यत उक्तम्-"अट्टपएसो रुयगो तिरियलोयस्स मज्झयारम्मि । एस पभवो दिसाणं एसेव भये अणुदिसाणं ॥१॥" इति, दिशामनुपातो दिगनुपातो-दिगनुसरणं तेन दिशोऽधिकृत्येति तात्पर्यार्थः, सर्वस्तोका जीवाः पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इदं खल्पबहुत्वं बादरानधिकृत्य द्रष्टव्यं, न सूक्ष्मान् , सूक्ष्मा-18॥ णां सर्वलोकापन्नानां प्रायः सर्वत्रापि समत्वात् , बादरेष्वपि मध्ये सर्वबहवो वनस्पतिकायिकाः, अनन्तसङ्ख्याकतया तेषां प्राप्यमाणत्वात् , ततो यत्र ते बहवस्तत्र बहुत्वं जीवानां, यत्र त्वल्पे तत्राल्पत्वं, वनस्पतयश्च तत्र बहवो यत्र प्रभूता आपः, 'जस्थ जलं तत्थ वर्ण' इति वचनात् तत्रावश्यं पनकसेवालादीनां भावातू, ते च पनकसेवालादयो बादरनामकर्मोदये वर्तमाना अपि अत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात् अतिप्रभूतपिण्डीभावाच सर्वत्र सन्तोऽपि १ अष्टप्रदेशो रुचकस्तिर्यग्लोकस्य मध्ये । एष प्रभवो दिशामेष एव भवेद्विदिशाम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२५९] ITamaa तृतीय-पदे (०१) "दिशा" द्वारम् आरब्ध: ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], -------------- उद्देशक: -], --------------- दारं [१], --------- मूलं [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मल- य० वृत्ती. [५५] ॥११४॥ गाथा: न चक्षुषा प्राधाः, तथा चोकमनुयोगद्वारेषु-"'ते णं घालग्गा सुटुमपणगजीवस्स सरीरोगाहणाहितो असंखेजगुणा"NI अल्पइति, ततो यत्रापि नैते दृश्यन्ते तत्रापि ते सन्तीति प्रतिपत्तव्याः, आह च मूलटीकाकार:-"इह सर्वबहवो बन- बहुत्वपदे स्पतय इतिकृत्वा यत्र ते सन्ति तत्र बहुत्वं जीवानां, तेषां च बहुत्वं “जत्थ आउकाओ तत्थ नियमा बणस्सइका दिग्द्वार सामान्येन इया इति पणगसेवालहढाई वायरावि होति सुहुमा आणागेज्झा न चक्खुणा" इति, उदकं च प्रभूतं समुद्रादिष, द्वीपात् द्विगुणविष्कम्भत्यात्, तेष्वपि च समुद्रेषु प्रत्येकं प्राचीप्रतीच्योर्दिशोर्यथाक्रमं चन्द्रसूर्यद्वीपाः, याचति च प्रदेशे चन्द्रसूर्यद्वीपा अवगाढास्तावत्युदकाभावः, उदकाभावाच्च वनस्पतिकायिकाभावः, केवलं प्रतीच्यां दिशि लब-1 णसमुद्राधिपसुस्थितनामदेवावासभूतो गौतमद्वीपो लवणसमुद्रेऽभ्यधिको वर्त्तते, तत्र चोदकाभावानस्पतिकायिकानामभावात् सर्वस्तोका जीवाः पश्चिमायां दिशि, तेभ्यो विशेषाधिकाः पूर्वस्यां दिशि, तत्र हि गौतमद्वीपो न विद्यते, ततस्तायता विशेषणातिरिच्यते इति, तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यतस्तत्र चन्द्रसूर्यद्वीपा न| विद्यन्ते, तदभावात्तत्रोदकं प्रभूतं, तत्प्राभूत्याच वनस्पतिकायिका अपि प्रभूता इति विशेषाधिकाः, तेम्बोऽप्युदी-13 च्यां दिशि विशेषाधिकाः, किं कारणमिति चेत् १, उच्यते, उदीच्यां हि दिशि सङ्खयेवयोजनेषु द्वीपेषु मध्ये कस्सिं-॥११॥ १ ते वालापाः सूक्ष्मपनकजीवसा शरीरावगाहनाभ्योऽसजायेयगुणाः । २ यत्राकायस्ता नियमावनस्पतिकायिका इति पनकशैवालहठादयो बादरा अपि भवन्ति सूक्ष्मा आमाप्रायाः । न चक्षुषा । दीप अनुक्रम [२५९]] attest SAREnaturintantational ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [१], --------------- मूलं [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] चित् द्वीपे आयामविष्कम्भाभ्यां सङ्खयेययाजनकोटीप्रमाणं मानसं नाम सरः समस्ति, ततो दक्षिणदिगपेक्षया अस्यां प्रभूतमुदकम् , उदकबाहुल्याच प्रभूता वनस्पतयः, प्रभूता द्वीन्द्रियाः शङ्खादयः प्रभूतास्तटलमशङ्खादिकलेबराश्रितास्वीन्द्रियाः पिपीलिकादयः प्रभूताः पद्मादिषु चतुरिन्द्रियाः भ्रमरादयः प्रभूताः पञ्चेन्द्रिया मत्स्यादय इति विशेषा-13 [धिकाः ॥ तदेष सामान्यतो दिगनुपातेन जीवानामल्पबहुत्वमुक्तम् ॥ इदानीं विशेषेण तदाह दिसाणुवाएणं सब्बत्थोवा पुढविकाइया दाहिणेणं उत्तरेणं विसेसाहिया पुरच्छिमेणं विसेसाहिया पच्छिमेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोवा आउक्काइया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया ।। दिसाणुवाएक सबथोवा तेउकाइया दाहिणुत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेजगुणा, पच्छिमेणं विसेसाहिया ।। दिसाणुवाएणं सवत्थोवा बाउकाइया पुरच्छिमेणं, पच्छिमेणं विसेसाहिया, उच्चरेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया ।। दिसाणुवाएणं सच्चत्थोवा वणस्सइकाइया पच्छिमेणं पुरच्छिमेणं विसेसाहिया दाहिणेणं विसेसाहिया उचरेणं विसेसाहिया ।। दिसाणुवाएणं सवत्थीवा बेईदिया पच्छिमेणं पुरच्छिमेणं विसेसाहिया दक्षिणेणं विसेसाहिया उत्तरेण विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा तेइंदिया पचस्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएर्ण सञ्बत्थोवा चउरिंदिया पञ्चत्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुचाएणं सबथोवा नेरइया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं EPeeroeceiverseeeeeeedeem दीप अनुक्रम [२६०] ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [१], -------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती. प्रत सूत्रांक [१६] ३ अल्प| बहुत्वपदे | पृथ्च्याद्यलाबहुत्वं ॥११॥ सब्बत्थोवा रयणप्पभापुढवीनेरइया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेण असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोवा सकरप्पभापढपीनेरया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोवा पालुयप्पभापुढवीनेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउचरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा पंकप्पभापुढषीनेरहया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा धूमप्पभापुढवीनेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा तमप्पहापुढवीनेरइया पुरछिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा अहे सत्तमापुढवीनेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दाहिहितो अहेसत्तमापुढवीनेरइएहिंतो छहाए तमाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहिंतो तमाए पुढवीनेरदपहिंतो पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहिंतो धूभष्पभापुढवीनेरइएहितो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणिल्लेहितो पंकप्पभापुढवीनेरइएहितो तहयाए बालुयप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहितो वालुयप्पभापुढवीनेरइएहिंतो दुइयाए सकरप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहितो सकरप्पभापुढचीनेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा पंचिंदिया तिरिक्खजोणिया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं दीप अनुक्रम [२६०] ॥११५॥ SAMEmirathura ~ 234 ~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], -------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [१], ------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सवत्थोवा मणुस्सा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेनगुणा पञ्चत्थिमेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा भवणवासी देवा पुरच्छिमेणं पञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा वाणमंतरा देवा पुरच्छिमेणं, पञ्चत्थिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा जोइसिया देवा पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा सोहम्मे कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोबा देवा ईसाणे कप्पे पुरच्छिमपचत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोबा देवा सर्णकुमारे कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा देवा माहिदे कप्पे पुरच्छिमपन्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा बंभलोए कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा लंतए कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा देवा महासुके कप्पे पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा सहस्सारे कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । तेण परं बहुसमोववनगा समणाउसो! ॥ दिसाणुवाएणं सवत्थोवा सिद्धा दाहिणेणं उत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेजगुणा, पञ्चत्थिमेणं विसेसाहिया । दारं ।। (सू०५६) दिगनुपातेन-दिगनुसारेण दिशोऽधिकृत्येतिभावः, पृथिवीकायिकाश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोका दक्षिणस्यां दिशि, दीप अनुक्रम [२६०] Reseree24 ~235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगम प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [२६०] पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [१], मूलं [ ५६ ] उद्देशक: [], ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल ॥ ११६॥ कथमिति चेद् ?, उच्यते, इह यत्र घनं तत्र बहवः पृथिवीकायिकाः यत्र सुषिरं तत्र स्तोकाः, दक्षिणस्यां दिशि बहूनि भवनपतीनां भवनानि बहवो नरकावासास्ततः सुषिरप्राभूत्यसंभवात् सर्वस्तोका दक्षिणस्यां दिशि पृथिवीयo वृत्तौ कायिकाः, तेभ्य उत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यत उत्तरस्यां दिशि दक्षिणदिगपेक्षया स्तोकानि भवनानि स्तोका नरकावासाः, ततो घनप्राभूत्यसंभवात् वहवः पृथिवीकायिका इति विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि पूर्वस्यां दिशि विशेपाधिकाः, रविशशिद्वीपानां तत्र भावात्, तेभ्योऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, किं कारणमिति चेत् ?, उच्यते, यावन्तो रविशशिद्वीपाः पूर्वस्यां दिशि तावन्तः पश्चिमायामपि न तु एतावता साम्यं परं लवणसमुद्रे गौतमनामा द्वीपः पश्चिमायामधिकोऽस्ति, तेन विशेषाधिकाः, अत्र पर आह— ननु यथा पश्चिमायां दिशि गौतमद्वीपोऽभ्यधिकः समस्ति तथा तस्यां पश्चिमायां दिशि अधोलौकिकग्रामा अपि योजनसहस्रावगाहाः सन्ति, ततः खातपूरितन्यायेन तत्र तुल्या एव पृथिवीकायिकाः प्राप्नुवन्ति न विशेषाधिकाः, नैतदेवं यतोऽघोलौकिकग्रामाबगाहो योजनसहस्रं, गौतमद्वीपस्य पुनः षट्सप्तत्यधिकं योजन सहस्रमुच्चैस्त्वं, विष्कम्भस्तस्य द्वादश योजनसहस्राणि यच्च मेरोरारभ्याधोलौकिकग्रामेभ्योऽर्वाक हीनत्वं हीनतरत्वं तत् पूर्वस्यामपि दिशि प्रभूतगर्त्तादिसंगवात् समानं, ततो यद्यधोलौकिकप्रामच्छिद्रेषु बुद्ध्या गौतमद्वीपः प्रक्षिप्यते तथापि स समधिक एवं प्राप्यते न तुल्य इति तेन समधिकेन विशेषाधिकाः पश्चिमायां दिशि पृथिवीकायिकाः ॥ उक्तं दिगनुपातेन पृथिवीकायि Education Internation For Parts Only ~236~ ३ अल्प बहुत्वपदे पृथ्व्याद्य पबहुत्वं सू. ५६ ॥ ११६ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [१], -------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] कानामल्पबहुत्वं, इदानीमकायिकानामल्पबदुत्वमाह-सर्वस्तोका अकायिकाः पश्चिमायां दिशि, गौतमद्वीप-IM स्थाने तेषामभावात् , तेभ्योऽपि विशेषाधिकाः पूर्वस्यां दिशि, गौतमद्वीपाभावात् , तेभ्योऽपि विशेषाधिका दक्षिणस्यां दिशि, चन्द्रसूर्यद्वीपाभावात् , तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, मानससरःसद्भावात् ॥ तथा दक्षिण-13 स्थामुत्तरस्यां च दिशि सर्वस्तोकास्तेजाकायिकाः, यतो मनुष्यक्षेत्रे एव वादरास्तेजःकायिका नान्यत्र, तत्रापि यत्र बहवो मनुष्यास्त त्रैते बहया, बाहुल्येन पाकारम्भसम्भवात् , यत्र स्वल्पे तत्र स्तोकाः, तत्र दक्षिणयां दिशि पञ्चसु भरतेषु उत्तरस्यां दिशि पञ्चखैरावतेषु क्षेत्रस्याल्पत्वात् स्तोका मनुष्याः, तेषां स्तोकत्वेन तेजाकायिका अपि स्तोकाः, अल्पपाकारम्भसम्भवात्, ततः सर्वस्तोका दक्षिणोत्तरयोर्दिशोस्तेजःकायिकाः, खस्थाने तु प्रायः समानाः, तेभ्यः पूर्वस्वां दिशि सङ्ग्येयगुणाः, क्षेत्रस्य सङ्खयेयगुणत्वात् , ततोऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु मनुष्यवाहुल्यात् ॥ इह यत्र सुपिरं तत्र वायुः यत्र घनं तत्र वाय्वभावः, तत्र पूर्वस्यां दिशि प्रभूतं घनमित्यल्पा वायवः, पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामसम्भवात् , उत्तरवां दिशि विशेषाधिकाः, भव-13 ननरकावासबाहुल्येन सुषिरवाहुल्यात् , ततोऽपि दक्षिणखां दिशि विशेषाधिकाः, उत्तरदिगपेक्षया दक्षिणस्यां दिशि भवनानां नरकायासानां चातिप्रभूतत्वात् ॥ तथा यत्र प्रभूता आपस्तत्र प्रभूताः पनकादयोऽनन्तकायिका बनस्प-14 तयः प्रभूताः शङ्खादयो द्वीन्द्रियाः प्रभूताः पिण्डीभूतसेवालाबाश्रिताः कुन्थ्वादयस्त्रीन्द्रियाः प्रभूताः पद्माद्याश्रिता दीप अनुक्रम [२६०] JAMEauraton unaturary.com ~237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१], -------------- मूलं [५६] अज्ञापनायाः मल- यवृत्ती. ॥११७॥ प्रत सूत्रांक [१६] भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रिया इति हेतोर्यनस्पत्यादिसूत्राणि चतुरिन्द्रियसूत्रपर्यन्तानि अप्कायिकसूत्रवद् भावनीयानि । अल्पनरयिकसूत्रे सर्वस्तोकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिगविभागभाविनो नैरयिकाः, पुष्पापकीर्णनरकावासानां तत्राल्पत्वात् , बहूनां || बहुत्वपदे प्रायः सङ्खयेययोजनविस्तृतत्वाच, तेभ्यो दक्षिणदिग्विभागभाविनोऽसहयगुणाः, पुष्पावकीर्णनरकावासानां पृथ्व्याद्यतत्र बाहुल्यात, तेषां च प्रायोऽसङ्ख्येययोजनविस्तृतत्वात् , कृष्णपाक्षिकाणां तस्यां दिशि प्राचुर्येणोत्पादाच, तथा-18 ल्पबहुत्वं हि-द्विविधा जन्तवः, शुक्लपाक्षिकाः कृष्णपाक्षिकाच, तेषां लक्षणमिदं-येषां किश्चिदूनपुद्गलपरावर्धिमात्रसं-18 सारस्ते शुक्लपाक्षिकाः, अधिकतरसंसारभाजिनस्तु कृष्णपाक्षिकाः, उक्तं च-"जेसिमबडो पुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो । ते सुकपक्खिया खलु अहिए पुण कण्हपक्खी उ ॥१॥" अत एव च स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः, अल्पसंसारिणां स्तोकत्वात् , बहवः कृष्णपाक्षिकाः, प्रभूतसंसारिणामतिप्रचुरत्वात्, कृष्णपाक्षिकाच प्राचुर्यण दक्षि-13 (णयां दिशि समुत्पद्यन्ते, न शेषासु दिक्षु, तथास्वाभाव्यात्, तच तथाखाभाव्यं पूर्वाचायरेवं युक्तिभिरुपबृंखते, तद्यथा-कृष्णपाक्षिका दीर्घतरसंसारभाजिन उच्यन्ते, दीर्घतरसंसारमाजिनश्च बहुपापोदयाद् भवन्ति, बहुपापोदयाश्च क्रूरकर्माणः, क्रूरकर्माणश्च प्रायस्तथास्वाभाब्यात् तद्भवसिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, न दीप अनुक्रम [२६०] १ येषामपाधः पुद्गलपरावर्तः शेषकश्च संसारः । ते शुक्लपाक्षिकाः खलु अधिके पुनः कृष्णपक्षास्तु ॥ १ ॥ ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [१], -------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] शेषासु दिक्षु, यत उक्तं-"पाय मिह कूरकम्मा भवसिद्धियावि दाहिणिलेसुं । नेरइयतिरियमणुयासुराइठाणेसु गच्छन्ति Mu१॥" ततो दक्षिणस्यां दिशि बहूनां कृष्णपाक्षिकाणामुत्पादसम्भवात् पूर्वोक्तकारणयाच सम्भवन्ति पूर्वोत्तरप-| श्चिमदिग्विभागभाविभ्यो दाक्षिणात्या असङ्खयेयगुणाः। यथा च सामान्यतो नैरयिकाणां दिग्विभागेनाल्पबहुत्व मुक्तं, एवं प्रतिपृथिव्यपि वक्तव्यं, युक्तेः सर्वत्रापि समानत्वात् । तदेवं प्रतिपृथिव्यपि दिग्विभागेनाल्पवहुत्वमभि-| Mहितं, इदानीं सप्तापि पृथिवीरधिकृत्य दिग्विभागेनाल्पबहुत्वमाह-सप्तमपृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविभ्यो| नरयिकेभ्यो ये सप्तमपृथिव्यामेव दाक्षिणात्यास्तेऽसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः षष्ठपृथिव्यां तमःप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपपश्चिमदिग्भाविनोऽसङ्खधेयगुणाः, कथमिति चेद् ?, उच्यते, इह सर्वोत्कृष्टपापकारिणः सजिपञ्चेन्द्रियतिग्मनुष्याः सप्तमनरकपृथिव्यामुत्पद्यन्तै, किश्चिदहीनहीनतरपापकर्मकारिणश्च षष्ठयादिषु पृथिवीषु, सर्वोत्कृष्टपापकर्मकारिणश्च । सर्वस्तोकाः बहवश्च यथोत्तरं किश्चिद्धीनहीनतरादिपापकर्मकारिणः ततो युक्तमसङ्ख्येयगुणत्वं सप्तमपृथिवीदाक्षिणात्यनारकापेक्षया षष्ठपृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमनारकाणां, एवमुत्तरोत्तरपृथिवीरप्यधिकृत्य भावयितव्यम् , तेभ्योऽपि तस्यामेव पष्ठपृथिव्यां दक्षिणस्यां दिशि नारका असङ्खयेयगुणाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता, तेभ्योऽपि पञ्चमपृथिव्यां धूमप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनोऽसङ्घयेयगुणाः, तेभ्योऽपि तस्यामेव पञ्चमपृथिव्यां दाक्षिणात्या असङ्खये१ प्राय इह क्रूरकर्माणो भवसिद्धिका अपि दाक्षिणात्येषु । नैरविकतिर्यग्मनुष्यासुरादिस्थानेषु गच्छन्ति ॥ १ ॥ tiseeeeeeeeeeeeeer दीप अनुक्रम [२६०] Halauncurary.org ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [२६०] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥११८॥ पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [१], मूलं [ ५६ ] उद्देशक: [], ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः यगुणाः, एवं सर्वाखपि क्रमेण वाच्यम् ।। तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसूत्रं त्वप्कायसूत्रवद् भावनीयम् ॥ सर्वस्तोका मनुष्या दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च पञ्चानां भरतक्षेत्राणां पञ्चानामैशवत क्षेत्राणामल्पत्वात्, तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य सङ्घयेयगुणत्वात्, तेभ्योऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, स्वभावत एवाधोलौकिक ग्रामेषु मनुष्यबाहुल्यभावात् ॥ 'दिसाणुवाएणं सवत्थोवा भवणवासी' इत्यादि, सर्वस्तोका भवनवासिनो देवाः पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि तत्र भवनानामल्पत्वात्, तेभ्य उत्तरदिग्भाविनोऽसङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थानतया तत्र भवनानां बाहुल्यात्, तेभ्योऽपि दक्षिणदिग्भाविनोऽसङ्खयेयगुणाः, तत्र भवनानामतीच बाहुल्यात्, तथाहि-निकाये निकाये चत्वारि चत्वारि भवनशतसहस्राण्यति रिच्यन्ते, कृष्णपाक्षिकाच बहवस्तत्रोत्पद्यन्ते, ततो भवन्त्यसङ्ख्येयगुणाः । व्यन्तरसूत्रे भावना-यत्र सुषिरं तत्र व्यन्तराः प्रचलन्ति, यत्र घनं तत्र न, ततः पूर्वस्यां दिशि घनत्वात् स्तोका व्यन्तराः, तेभ्योऽपरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु सुषिरसंभवात्, तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, स्वस्थानतया नगरावास बाहुल्यात्, तेभ्योऽपि | दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, अतिप्रभूतनगरायासबाहुल्यात् । तथा सर्वस्तोका ज्योतिष्काः पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि, चन्द्रादित्यद्वीपे पूयानकल्पेषु कतिपयानामेव तेषां भावात्, तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः ॥११८॥ | विमानबाहुल्यात् कृष्णपाक्षिकाणां दक्षिणदिग्भावित्वाञ्च तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यतो मानसे सरसि बहवो ज्योतिष्काः क्रीडास्थानमिति क्रीडनव्यापृता नित्यमासते, मानससरसि च ये मत्स्यादयो जलचरास्ते आस Education Internation For Parts Only ~ 240~ ३ अल्प बहुत्वपदे पृथ्वीका - याद्यल्प सू. ५६ waryra Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [१], -------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] विमानदर्शनतः समुत्पन्नजातिस्मरणाः किश्चिद् व्रतं प्रतिपद्यानशनादि च कृत्वा कृतनिदानास्तत्रोत्पद्यन्ते ततो भवन्ति उत्तराहा दाक्षिणात्येभ्यो विशेषाधिकाः ॥ तथा सौधर्मे कल्पे सर्वस्त्रोकाः पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि वैमा-M निका देवाः, यतो यान्यावलिकाप्रविष्टानि विमानानि तानि चतसृप्यपि दिव तुल्यानि, यानि पुनः पुष्पावकीणोनि तानि प्रभूतानि असाययोजनविस्तृतानि, तानि च दक्षिणस्यामुत्तरस्यां दिशि नान्यत्र, ततः सर्वस्तोकाः पूर्वस्खा पश्चिमायां च दिशि, तेभ्य उत्तरस्यां दिनि असङ्ख्यगुणाः, पुष्पावकीर्णकविमानानां बाहुल्यात् असङ्खयेययोजनविस्तृतत्वाच, तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, कृष्णपाक्षिकाणां प्राचुर्येण तत्र गमनात् । एवमीशानसनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पसूत्राण्यपि भावनीयानि । ब्रह्मलोककल्पे सर्वस्तोकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनो देवाः, यतो वहवः कृष्णपाक्षिकातिर्यग्योनयो दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते शुक्लपाक्षिकाच स्तोका इति पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भा-19 विनः सर्वस्तोकाः, तेभ्यो दक्षिणस्यां दिशि असङ्ख्येयगुणाः, कृष्णपाक्षिकाणां बहूनां तत्रोत्पादात् । एवं लान्तक-191 शुक्रसहस्रारसूत्राण्यपि भावनीयानि । आनतादिषु पुनर्मनुष्या एवोत्पद्यन्ते, तेन प्रतिकल्पं प्रतिवेयकं प्रत्यनुत्त-10 रविमानं चतसृषु दिक्षु प्रायो बहुसमा पेदितव्याः , तथा चाह-'तेण परं बहुसमोषवनगा समणाउसो!' इति ॥ सर्वस्तोकाः सिद्धा दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च दिशि, कथमिति चेत् , उच्यते, इह मनुष्या एव सियन्ति, नान्ये, मनुष्या अपि सियन्तो येष्वाकाशप्रदेशेष्विह चरमसमयेऽवगादास्तेष्वेवाकाशप्रदेशेषूर्ध्वमपि गच्छन्ति तेष्वेय चोप दीप अनुक्रम [२६०] SAREarathi ma Alumionarmera ~ 241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [२६०] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥११५॥ पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [१], मूलं [ ५६ ] उद्देशक: [], ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः र्यवतिष्ठन्ते न मनागपि वक्रं गच्छन्ति, सिद्ध्यन्ति च तत्र दक्षिणस्यां दिशि पञ्चसु भरतेषु उत्तरस्यां दिशि पञ्चस्खेरावतेषु मनुष्या अल्पाः, क्षेत्रस्याल्पत्वात् सुषमसुषमादौ च सिद्ध्यभावादिति तत्क्षेत्रसिद्धाः सर्वस्वोकाः, तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि सङ्ख्येयगुणाः, पूर्वविदेहाना भरतैरावतक्षेत्रेभ्यः सङ्ख्येयगुणतया तद्गतमनुष्याणामपि समयेयगुणत्वात् तेषां च सर्वकालं सिद्धिभावात्, तेभ्यः पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, अघोलौकिकप्रामेषु मनुष्यबाहुल्यात् । गतं दिग्द्वारं ॥ इदानीं गतिद्वारम्, तत्रेदमादिसूत्रम् - एएसि णं भंते! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं देवाणं सिद्धाण य पंचगति समासेणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला या विसेसाहिया वा १, गोयमा सबत्थोवा मणुस्सा नेरइया असंखेजगुणा देवा असंखेजगुणा सिद्धा अनंतगुणा तिरिक्खजोणिया अनंतगुणा || एएसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणीणीणं मणुस्साणं मणुस्तीणं देवाणं देवीणं सिद्धाण य अद्वगति ० समासेणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवाओ मणुस्सीओ, मणुस्सा असंखेज्जगुणा, नेरइया असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ, देवा असंखेअगुणा, देवीओ संखेज्जगुणाओ, सिद्धा अनंतगुणा, तिरिक्खजोणिया अर्णतगुणा ॥ दारं २ ॥ ( सू० ५७ ) सर्वस्तोका मनुष्याः, षण्णवतिच्छेदन कच्छेद्यराशिप्रमाणत्वात्, स च पण्णवतिच्छेदन कदायी राशिरत्रे दर्शयिष्यते, तेभ्यो नैरयिका असङ्ख्येयगुणाः, अङ्गुलमात्र क्षेत्र प्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गमूले द्वितीय वर्गमूलेन गुणिते यावान् तृतीय-पदे (०२) "गति” द्वारम् आरब्धः For Parts Only ~ 242~ ३ अल्पबहुत्वपदे नारका दीनां पशानामष्टानां चा रूप. सू. ५७ ॥११९॥ nary org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] दीप अनुक्रम [२६१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [], दारं [२], पदं [३], मूलं [५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रदेशरा शिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभः प्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्, तेभ्यो देवा असङ्ख्येयगुणाः, व्यन्तराणां ज्योतिषकाणां च प्रत्येकं प्रतरासङ्ख्धेय भागवर्तिश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, अभव्येभ्योऽनन्तगुणत्वात्, तेभ्यस्तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । तदेवं नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवसिद्धरूपाणां पञ्चानामल्पबहुत्वमुक्तम्, इदानीं नैरयिकतियग्योनिकतैर्यग्योनिकी मनुष्य मानुषीदेवदेवीसिद्धलक्षणानामष्टानामल्पबहुत्वमभिधित्सुरिदमाह - सर्वस्तोका मानुष्यो -मनुष्यस्त्रियः, सङ्घयेय कोटीकोटीप्रमाणत्वात्, ताभ्यो मनुष्या असङ्खधेयगुणाः, इह मनुष्या इति संमूर्च्छनजा अपि गृह्यन्ते वेदस्थाविवक्षणात् ते च संमूर्च्छनजा वान्तादिषु नगर निर्द्धमनान्तेषु जायमाना असङ्खयेयाः प्राप्यन्ते, तेभ्यो नैरयिका असङ्खयेयगुणाः, मनुष्या हि उत्कृष्टपदेऽपि श्रेण्यसङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा लभ्यन्ते नैरथि - | कास्त्वङ्गुलमात्र क्षेत्र प्रदेशराशिसत्कतृतीय वर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रमाण श्रेणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाणाः ततो भवन्त्यसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः स्त्रियोऽसङ्ख्येयगुणाः, प्रतरासङ्घषेयभागवयैसङ्खवेय श्रेणिनभः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, ताभ्योऽपि देवा असधेयगुणाः, असङ्ख्ये यगुणप्रतरासङ्घयेय भाग वर्त्त्य सङ्ख्पेय श्रेणिगत प्रदेशराशिमानत्वात्, तेभ्योऽपि देव्यः सङ्खधेयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात्, ताभ्योऽपि सिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता ॥ गतं गतिद्वारम् ॥ इदानीं इन्द्रियद्वारमधिकृत्याह Eucation Internationa For Parts Only ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [3], -------------- मूलं [५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ३ अल्पबहुत्वपदे एकेन्द्रियाद्यल्प प्रत सूत्रांक ॥१२॥ [५८] एएसि णं भंते ! सईदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचिंदियाणं आणि दियाणं कपरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोवा पंचिंदिया चउरिदिया बिसेसाहिया तेईदिया विसेसाहिया बेइंदिया विसेसाहिया अणिदिया अणंतगुणा एगिदिया अर्णतगुणा सइंदिया विसेसाहिया ॥ एएसिणं भंते । सइंदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाण चउरिदियाणं पंचिंदियाणं अपज्जत्तगाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया चा, गोयमा ! सबथोवा पंचिंदिया अपजत्तगा चउरिदिया अपजत्तगा बिसेसाहिया तेइंदिया अपजत्तमा विसेसाहिया बेईदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया एगिदिया अपजत्तगा अणंतगुणा सइंदिया अपजतगा विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! सईदियाणं एगिदियाणं वेईदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाण पंचिंदियाणं पजत्ताणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबत्थोवा चउरिंदिया पज्जत्तगा पंचिंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया बेइंदिया पज्जत्तया विसेसाहिया तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया एगिदिया पज्जत्तगा अनंतगुणा सइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! सइंदियाणं पज्जनापज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सवत्थोवा सइंदिया अपज्जत्तगा सइंदिया पज्जचगा संखेज्जगुणा ।। एएसिणं भंते ! एगिदियाणं पज्जत्तापज्जचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा । सव्वत्थोवा एगिदिया अपज्जत्तगा एगिदिया पज्जत्तगा संखेजगुणा || एएसिणं भंते ! इंदियाणं पज्जत्तापजचाणं क्यरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा! सबथोवा बेइंदिया पज्जचगा बेइंदिया अपज्ज Seeeeeeeesरयल दीप अनुक्रम [२६२] ॥१२०॥ तृतीय-पदे (०३) "इन्द्रिय" द्वारम् आरब्ध: ~ 244 ~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: H, -------------- दारं [३], -------------- मूलं [५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] तगा असंखेजगुणा । एएसिणं भंते ! तेइंदियाणं पञ्जचापञ्जचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा ! सबथोवा तेइंदिया पजत्तगा तेईदिया अपजत्तगा असंखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! चरिंदियाणं पजत्तापजत्ताण कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिता वा ?, गोयमा ! सबथोवा चरिंदिया पज्जत्तगा चउरिदिया अपज्जतगा असंखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! पंचिंदियाणं पजत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा ! सबथोवा पंचेंदिया पजत्चगा पंचेंदिया अपजत्तगा असंखेजगुणा ।। एएसि णं भंते सइंदियाण एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचिंदियाणं पजत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला चा विसेसाहिआ वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा चरिंदिया पञ्जत्तगा पंचिंदिया पजत्तगा विसेसाहिआ बेइंदिया पजत्तगा विसेसाहिआ तेइंदिया पजत्तगा विसेसाहिआ पंचिदिया अपजत्तगा असंखेजगुणा चउरिदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिआ तेइंदिया अपजत्तगा विसेसाहिआ बेइंदिया अपजत्तमा विसेसाहिआ एगिदिया अपजत्तगा अर्णतगुणा सइंदिआ अपजत्तमा विसेसाहिआ एगिदिया पज्जत्तगा संखेजगुणा सइंदिआ पज्जत्तगा विसेसाहिआ सइंदिया विसेसाहिआ। दारं ३ ॥ (सूत्रं ५८) सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः सत्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमितप्रतरासयेयभागवर्त्य सङ्ग्येयश्रेणिग-| ताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूच्यास्तेषां प्रभूतसोययोजनकोटीको दीप अनुक्रम [२६२] ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [३], -------------- मूलं [५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक ॥१२॥ [५८] टीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषा विष्कम्भसूच्या प्रभूततरसोययोजनकोटीकोटीप्रमाण-18 ३ अल्पत्वात्, तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्या प्रभूततमसोययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, बहुत्वपदे तेभ्योऽपि अनिन्द्रिया अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽपि एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां इन्द्रियासिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात, तेभ्योऽपि सेन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । तदेवमुक्तमेकमी-| ल्पब घिकानामल्पबहुत्वम् , इदानीं तेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रिया अपर्याप्ताः, एक- सू. ५८ स्मिन् प्रतरे यावन्त्य मुलासङ्ख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अपर्याप्ता विशे-R पाधिकाः, प्रभूताङ्गुलासययभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्यस्त्रीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततरप्रतराङ्गुलासहयेयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततमप्रतराङ्गुलासङ्ग्वेयभागखण्ड-% प्रमाणत्वात् , तेभ्य एकेन्द्रिया अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपर्याप्तानामनन्ततया सदा प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि सेन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, वीन्द्रियाद्यपर्यासानामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम् , अधुना एतेषामेव पर्याप्तानामल्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोकाश्चतुरिन्द्रियाः पर्याप्साः, यतोऽल्पायुषश्चतुरिन्द्रिया 10॥१२॥ स्ततः प्रभूतकालमवस्थानाभावात् पृच्छासमये स्तोका अवाप्यन्ते, ते च स्तोका अपि प्रतरे यावन्त्यङ्गुलसनेयमा-N गमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणा वेदितव्याः, तेभ्यः पञ्चेन्द्रियाः पयोंसा विशेषाधिकाः, प्रभूतप्रतराङ्गुलसाधेयमा दीप अनुक्रम [२६२] ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [3], --- ------------ उद्देशक: -, -------------- दारं [3], ------------- मूलं [५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] गखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियाः पर्याप्सा विशेषाधिकाः, प्रभूततरप्रतरामुलसङ्ख्येयभागखण्डमानत्वात, तेभ्योऽपि त्रीन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, स्वभावत एव तेषां प्रभूततमप्रतराङ्गुलसङ्ख्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्य एकेन्द्रियाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां पर्यासानामनन्तमानत्वात् , तेभ्यः सेन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् । (गतं) तृतीयमल्पबहुत्वं, सम्प्रत्येतेषामेव सेन्द्रियादीनां प्रत्येकं पर्याप्सापर्यासगतान्यल्पबहुत्वान्याह-सर्वस्तोकाः सेन्द्रिया अपर्याप्तकाः, इह सेन्द्रियेषु मध्ये एकेन्द्रिया एव बहवः तत्रापि च सूक्ष्माः तेषां सर्वलोकापन्नत्वात् सूक्ष्माश्चापर्याप्ताः सर्वस्तोकाः पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणा इति सेन्द्रिया अपर्याप्साः सर्वस्तोकाः, पर्याप्ताः सङ्ख्यगुणाः, एवमेकेन्द्रिया अपि अपर्याप्साः सर्वेस्तोकाः, पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणा भावनीयाः । तथा सर्वस्तोका द्वीन्द्रियाः पर्याप्तकाः, यावन्ति प्रतरेऽङ्गुलस्य सङ्ख्येयभागमा-N त्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्योऽपर्याप्ताः असङ्ख्येयगुणाः, प्रतरगतालासयभागखण्डप्रमाणत्वात् , एवं त्रिचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाल्पबहुत्वान्यपि वक्तव्यानि । गतं पडल्पबहुत्वात्मकं चतुर्थमल्पबहुत्वम् । सम्प्रत्येतेषां सेन्द्रियादीनां समुदितानां पर्याप्सापर्याप्तानामल्पबहुत्वमाह-'एएसि णं भंते' इत्यादि । इदं प्रागु-N तद्वितीयतृतीयाल्पबहुत्वभावनानुसारेण खयं भावनीयं, तत्त्वतो भावितत्वात् । गतमिन्द्रियद्वारम् , इदानीं कायद्वारमधिकृत्याह दीप अनुक्रम [२६२] wiralamurary.org ~247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [४], -------------- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मज्ञापनायाः मलयवृत्ती. teeo प्रत सूत्रांक [५९] ३ अल्पबहुत्वपदे कायाल्प. सू.५९ ॥१२२॥ एएसि मंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं बाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अकाइयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया चा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा । सात्योवा तसकाइया तेउकाइया असंखेजगुणा पुढविकाइया विसेसाहिया आउकाइया विसेसाहिया वाउकाइया विसेसाहिया अकाइया अणंतगुणा वणस्सइकाइया अणंतगुणा सकाइया विसेसाहिया ॥ एएसिणं मंते! सकाइयाणं पुढचिकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं बाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अपजतगाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोषमा ! सवत्थोवा तसकाइया अपजचगा तेउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा पुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया वाउकाइया अपज्जत्तगा बिसेसाहिया वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा सकाइया अपअत्तगा विसेसाहिया । एएसिणं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाण आउकाइयाणं तेउकाइयाणं बाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं पज्जत्तगाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्थोवा तसकाइया पज्जचगा तेउकाइया पञ्जत्तगा असंखेजगुणा पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया आउकाइया पजत्तगा विसेसाहिया वाउकाइया पज्जतगा विसेसाहिया वणस्सइकाइया पज्जतमा अणंतगुणा सकाइया पजतगा विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! सकाइयाण पज्जचापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया पा, गोयमा ! सबथोवा सकाइया अपज्जत्तगा सकाइया पञ्जत्तगा संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोचा पुढ विका दीप अनुक्रम [२६३] keeeeeee 38923207 ॥१२॥ तृतीय-पदे (०४) "काय" द्वारम् आरब्ध: ~ 248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [४], -------------- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] इया अपज्जत्तगा पुढवीकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा ।। एएसि णं भंते ! आउकाइयाणं पज्जत्तापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा! सबथोवा आउकाइया अपज्जत्तगा आउकाइया पजचगा संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! तेउकाइयाण पज्जतापज्जत्तार्ण कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सबथोवा तेउकाइया अपजत्तगा तेउकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा | एएसि ण भंते! बाउकाइयाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया चा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा वाउकाइया अपज्जत्तगा वाउकाइया पजतगा संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! वणस्सइकाइयाणं पजचापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा, गोयमा । सबथोवा वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा पणस्सइकाइया पन्जतगा संखेज्जगुणा ।। एएसिणं भंते ! तसकाइयाणं पज्जत्तापज्जचाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, सवत्थोवा तसकाइया पज्जतगा अपज्जत्तगा असंखेजगुणा । एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइआणं आउकाइआणं तेउकाइआणं वाउकाइआणं वणस्सइकाइआणं तसकाइयाण य पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, मोयमा! सत्वत्थोवा तसकाइआ पज्जचगा तसकाइआ अपज्जतगा संखेजगुणा तेउकाइआ अपज्जत्तगा असंखेजगुणा पुढविकाइआ अपज्जता विसेसाहिया आउकाइ अपज्जत्तगा विसेसाहिआ बाउकाहा अपजत्तगा विसेसाहिआ तेउकाइआ पज्जत्तगा संखेजगुणा पुढ चिकाइमा पज्जत्ता विसेसाहिआ आउकाइआ पजत्ता विसेसाहिया वाउकाइआ पज्जता विसेसाहिआ वणस्सइकाइआ अपज्जत्ता अर्णतगुणा सका दीप अनुक्रम [२६३] Deerestincene लटकरaeseseksee ~ 249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल बहुत्वपदे प्रत सूत्रांक यवृत्ती. ॥१२॥ [५९] दीप इआ अपज्जत्तगा विसेसाहिया वणस्सइकाइआ पज्जत्तगा संखेजगुणा सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिआ सकाइया |३ अल्पविसेसाहिया ॥ (सू०५९) सर्वस्तोकाखसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव प्रसकायिकत्वात् , तेषा च शेषकायापेक्षया अल्पत्वात् , तेभ्यस्ते-18 कायाल्प जकायिका असङ्ख्येयगुणाः, असयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतास-8 ब०सू.५९ श्वेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽप्कायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासपेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासयेयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात, तेभ्योऽकायिका अनन्तगुणाः, | सिद्धानामनन्तत्वात, तेभ्यो बनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सकायिका विशेषाधिकाः, पृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । उक्तमौधिकानामल्पबहुत्वम्, इदानीमतेषामे-12 वापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! सकाइयाणं' इत्यादि सुगमं ॥ सम्प्रत्येतेषामेव पर्याप्सानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-'एएसि णं भंते ! सकाइयाणं' इत्यादि सुगम, साम्प्रतमेतेषामेव सकायिकादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तगतमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते । सकाइयाणं पजत्तापज्जत्ताणं' इत्यादि सुगमम् ॥ सम्प्रत्येतेषामेव सकायिकादीनां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानामल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! सकाइयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः पर्याप्तकाः, तेभ्यस्त्रसकायिका एवापर्याप्तका असमषेयगुणाः, द्वीन्द्रियादीनामपर्याप्तानां पर्याप्तद्वीन्द्रिया अनुक्रम [२६३] ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] दिभ्योऽसवेयगुणत्वात्, ततः तेजःकायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, असोयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, ततः पृथिव्यम्बुवायवोऽपर्याप्तकाः क्रमेण विशेषाधिकाः, ततः तेजःकायिकाः पर्याप्ताः सोयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्या सेभ्यः पर्याप्तानां सोयगुणत्वात् , ततः पृथिव्यच्वायवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः, ततो वनस्पतयोऽपर्यासा 8| अनन्तगुणाः, पर्याप्ताः सोयगुणाः ॥ तदेवं कायद्वारे सामान्येन पञ्च सूत्राणि प्रतिपादितानि, सम्प्रत्यस्मिन्नेव द्वारे सूक्ष्मवादरादिभेदेन पञ्चदश सूत्राण्याह एएसिणं भंते ! सुहुमाण सुहमपुढविकाइयाणं सुहमआउकाइआणं सुहुमतेउकाइआणं सुहमवाउकाइआणं सुहमवणस्सहकाइयाणं सुहुमनिओयाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा ?, गोयमा ! सबत्थोवा सुहुमतेउकाइया मुहुमपुढविकाइआ विसेसाहिया सुटुमाउकाइआ विसेसाहिया मुहुमवाउकाइआ विसेसाहिआ सुहुभनिगोदा असंखेज्जगुणा सुहुमवणस्सइकाइया अगंतगुणा सुहुमा विसेसाहिया ।। एएसि यं भंते ! सुहुमअपजत्तगाणं सुहुमपुढविअपज्जतगाणं सुहुमाउअपज्जचयाणं मुहुमतेउअपज्जत्तयाणं सुहुमवाउअपज्जचयाणं सुहुमवण अपज्जत्तयाणं सुहुमनिगोदाअपजत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सबत्थोवा सुहुमतेउअपजत्तया मुहुमपुढवि० अप० विसे० सुहुमाउ० अप० विसे० मुहुमवाउ०अप० विसे० सुहुमनिगोदा अप० असंखे० सुहुमवण अपज्जत्तया अर्णतगुणा मुहुमा अपज्जत्तया विसेसा० । एएसि ण भंते ! सुहुमपज्जत्त० मुहुमपुढविका० पज्जच० सुहुमाउका पज्जत्त. दीप अनुक्रम [२६३] mitaram.org ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [२६४] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥ १२४ ॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [४], मूलं [६०] पदं [३], उद्देशक: [], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Ja Eucation Internation सुडुमतेउका पज्जत सुमवाउका पज्जतगाणं सुहुमवणस्सइका० पज्जत्त० सुहुमाने गोदपज्जतगाण य कमरे कपरेहिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा । सवत्थोवा सुहुमतेउका० पज्जतगा सुहुमपुढविका० पज्जतगा विसेसा सुहुमआउका० पज्जतगा विससा० सुदुमवाउका पज्जत० विसेसा० सुहुमनिगोया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा सुद्दमवण० पज्जत० अनंत• मुहुमपज्जत विसेसा । एएसि णं भंते ! सुहुमाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कमरेहिंतो अप्पा वा ४ १, गोमा ! सवत्थोवा सुमअपज्जतगा सुहुमपज्जत्तमा संखे० । एएसि णं भंते ! सुहुमपुढवि० पजचापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ १, गोयमा ! सहत्थोवा हुमपुढविकाइया अपज्जत्तया सुहुमपुट विकाइया पज्जत्तया संखेज्जगुणा । एएसि णं भंते ! सुहुमआउ० पज्जत्तापज्जत्तगाणं कथरे कथरेहिंतो अप्पा वा ४ १, गोयमा ! सवत्थोवा मुहुम आउका अपजस सुमाआउका पज्जतगा संखेज्जगुणा। एएसि णं भंते! सुडुमतेउ० पजत्तापजत्ताणं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा ४ १, गोयमा ! सवत्थोवा सुडुमतेउका• अपज्जत • सुडुमतेङका पज्जता संखे० । एएसि णं भंते! सुमवाउका पज्जतापज्जचाणं कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सबत्थोवा सुडुमवाउका अपजत वाउका पज्जतः संखेज्ज० । एएसि णं भंते ! सुहुमवण० पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा । सवत्थोवा सुडुमवण ० अपज्ज • सुदुमवणस्सइपज्जत्त० संखे० । एएसि णं भंते! सुहमनिगोयाणं कयरे करेहिंतो अप्पा वा ४ १, गोयमा ! सवत्थोवा सुमनिगोया अपज्जत सुहुमनिगोया पज्जत्त० संखेज्जगुणा । एएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुदुमपुढ० सुहुमआउ० सुमते सुहुमवाड० सुहुमवण० सुद्दमनिगोदाण य पत्ता पत्ताणं कथरे कपरेहिंतो अप्पा वा ४ १, गोयमा ! For Parts Only ~ 252~ ३ अल्प बहुत्वपदे सूक्ष्मबादरास्पब० सू. ६० ॥ १२४ ॥ waryra Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [२६४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [४], पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उद्देशक: [], मूलं [६०] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः सवत्थोवा सुमते काइया अपजतया सुहुमपुढवी अपज० विसेसा० सुहुमआउ० अपज० विसेसा सुहुमवाउ० अपज्ज० विसेसा॰ सुहुमतेउ० अपज० संखेजगुणा सुदुमपुढवीपञ्जत्त० विसेसा० सुदुमआउ० पञ्जत० विसेसा० सुहुमवाउ ० पज्जत० विसेसा० सुहुमनिगोदा अपज असंखे० सुहुमनिगोदा पजत संखे० सुहुमवण० अपज अनंतगुणा सुहुमअपज• विसेसा • सुदुमवण० पास० संखेअ० सुहुमपजत विसेसा सुहुमा विसेसाहिया । (सूत्रम् ६० ) सर्वस्तोकाः सूक्ष्माः तेजःकायिकाः, असङ्ख्य लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका विशेपाधिकाः, प्रभूतासश्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्माप्कायिका विशेषाधिकाः प्रभूततरासश्लेयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासत्येय लोक काशप्रदेशराशिमानत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा असोयगुणाः, [ प्रन्थाग्रं० ३००० ] सूक्ष्मग्रहणं वादव्यवच्छेदार्थ, द्विविधा हि निगोदा:सूक्ष्मा बादराथ, तत्र बादराः सूरणकन्दादिषु, सूक्ष्माः सर्वलोकापन्नाः, ते च प्रतिगोलकमसयेया इति सूक्ष्मवायुकायिकेभ्योऽसयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां जीवानां भाषात्, तेभ्यः सामानिकाः सूक्ष्मजीवा विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमौधिकानामिदमल्पबहुत्वम्, इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानामाह - 'एएसि णं भंते ! सुहुमअपज्जत्तगाणं' इत्यादि, सर्व प्राग्वद्भावनीयम् । सम्प्रत्येतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-'एएसि णं भंते! सुहुमपचत्तगाणं' इत्यादि, इदमपि प्रागुक्तक For Praise Only ~ 253 ~ nary.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [२६४] पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [४], मूलं [६०] उद्देशक: [], ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल ॥१२५॥ मेणैव भावनीयं । अधुना अभीषामेव सूक्ष्मादीनां प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्त गतान्यल्पबहुत्वान्याह - 'एएसि णं भंते! सुदु माणं पज्जत्तापजत्ताणं' इत्यादि, इह बादरेषु पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्ता असश्येयगुणाः, एकैकपर्याप्तनिश्रयाऽसश्येयानाय० वृत्ती. ४ मपर्याप्तानामुत्पादात्, तथा चोक्तं प्राक् प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पदे – “पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति, जत्थ है एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति सूक्ष्मेषु पुनर्नायं क्रमः, पर्याप्ताश्चापर्यासापेक्षया चिरकालावस्थायिन इति ७ सदैव ते बहवो लभ्यन्ते तत उक्तं सर्वस्तोकाः सूक्ष्मा अपर्याप्ताः, तेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्तकाः सत्येयगुणाः, एवं पृथि वीकायिकादिष्वपि प्रत्येकं भावनीयम् । गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम्, इदानीं सर्वेषा समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तगतं पञ्चममल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णं भंते ! सुदुमाणं सुदुमपुढविकाइयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोकाः सूक्ष्मतेजःकायिका अपर्याप्ताः, कारणं प्रागेवोक्तं, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्माय्कायिका अपर्याप्सा विशेपाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, अत्रापि कारणं प्रागेवोक्तं, तेभ्यः सूक्ष्मतेजः कायिकाः पर्याप्ताः सोयगुणाः, अपर्याप्तेभ्यो हि पर्याप्ताः सत्येयगुणा इत्यनन्तरं भावितं, तत्र सर्वस्तोकाः सूक्ष्मतेजःकायिका अपर्याप्ता उक्ताः इतरे च सूक्ष्मापर्याप्तपृथिवीकायिकादयो विशेषाधिकाः, विशेषाधिकत्वं च मनागधिकत्वं न द्विगुणत्वं न त्रिगुणत्वं वा, ततः सूक्ष्मतेजः कायिकेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः सूक्ष्मतेजः कायिकाः सत्येयगुणाः सन्तः सूक्ष्म वायुकायिकापर्याप्तेभ्योऽपि सत्येयगुणा भवन्ति, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः विशेषाधिकाः तेभ्यः Educatuny Internationa For Par Lise On ~ 254~ ३ अल्प बहुत्वपदे सूक्ष्काल्पव० सू. ६० ॥१२५॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [२६४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [४], मूलं [६०] उद्देशक: [], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. सूक्ष्माण्कायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः तेभ्योऽपि सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्म निगोदाः अपर्याप्ता असश्येयगुणाः, तेषामतिप्राचुर्यात्, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः सत्येयगुणाः, सूक्ष्मेध्वपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानामोघतः सश्येयगुणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्तका अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां तेषां भाषात्, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्तकाः सत्येयगुणाः, सूक्ष्मेषु ह्यपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तकाः सश्वेयगुणाः, यच्चापान्त| राले विशेषाधिकत्वं तदल्पमिति न सोयगुणत्वव्याघातः, तेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिव्यादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् तेभ्यः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् । तदेवमुक्तानि सूक्ष्माश्रितानि पञ्च सूत्राणि, सम्प्रति वादराश्रितानि पञ्चोक्तक्रमेणाभिधित्सुराह एएसि णं भंते ! बादराणं बादरपुढविकाइयाणं वादरआउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गोमा ! सवत्थोवा बादरतसकाइया बादरतेउकाइया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइया असंखेअगुणा वादरनिगोदा असंखेजगुणा चादरा पुढवी० असंखे० बादरा आउकाइया असं० बादरा बाउकाइया असंखे० बादरा वणस्स० अनंतगुणा बादरा विसेसाहिया। एएसि णं भंते । बादरपुढविकाश्यअपजत्तगाणं बादरआउअपजत्तगाणं बादरतेउअपन For Parts Only ~ 255 ~ Enerary org Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [२६५ ] प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥ १२६ ॥ “प्रज्ञापना उपांगसूत्र ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं (४). पदं (३). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........... Eaton Internationa उद्देशक: L मूलं [ ६९ ] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चगाणं बादरवाउअपज्जचगाणं बादरवणस्सइअपज्जतगाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्सइअपज्जचगाणं बादरनिगोदजपज्जतगाणं बादरतसकाइ अपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सबत्थोवा चादरतसकाइया अपजतगा बादरतेउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखेज्जगुणा बादरनिगोदा अपत्तगा असंखेजगुणा बायरपुढ़वीकाइया अपजत्तगा असंखेखगुणा बादरआउकाइया अपजतगा असंखेअगुणा बादरवाउकाइया अपजतगा असंखेअगुणा बादरवणस्सइकाइया अपजत्तगा अनंतगुणा वादरअपअत्तगा विसेसाहिया । एएसि णं भंते ! बायरपजत्तयाणं वादरपुढवीकाइयाणं पञ्जत्तयाणं बायरआउकाइयाणं पजतयाणं वायरलेउकाइयाणं पजचयाणं वायरबाउकाइयाणं पञ्जत्तयाणं पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइयाणं पत्तियाणं वायरनिगोदपज्जत्तयाणं वायरस काइयपज्जतगाण य कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा बिसेसाहिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवा वायर उकाइया पज्जतया वायरतसकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा पत्तेयसरीरवा यरवणस्सइकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा वायरनिगोदा पज्जत्तया असंखेज्जगुणा बादरपुढवीकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा वायरआउकाइया पज्जतया असंखेज्जगुणा वायरवाउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा वायरवणस्सइकाइया पज्जत्तया अनंतगुणा बायरपज्जतया विसेसाहिया । एएसि णं भंते ! वायराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा १, गोमा ! हत्थोवा बायरपज्जतया वायरअपज्जतया असंखेजगुणा। एएसि णं भंते! बायरपुढवीकाइयाणं पञ्जत्तापत्ताणं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुद्धा वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवा बायर पुढची काइया पजतया वायर For Parts Only ~ 256 ~ ३ अल्पबहुपदे बादराल्पब०सू. ६१ ॥ १२६॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूचांक [६१] दीप अनुक्रम [२६५ ] “प्रज्ञापना उपांगसूत्र ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं (४). - पदं (३). उद्देशक: L मूलं [ ६९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........... ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पुढविकाइया अपज्जतया असंखेजगुणा। एएसि णं भंते! वायरआउकाइयाणं पञ्जचापअत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुचा वा तुला वा विसेसाहियावा ?, गोयमा ! सवत्थोवा वायरआउकाइया पञत्तया वायरआउकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते! बायर उकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?, गो० सबत्थोवा बायर उकाइया पञत्तया अपजत्तया असंखेज्जगुणा। एएसि णं भंते! बायरवाउकाइयाणं पतापज्ज चाणं कयरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्थोवा बादरवाउकाइया पचत्तया बायरवाउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा । एएसि णं भंते ! वायरवणस्सइकाइयाणं पञ्जत्तापजचाणं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिआ वा १, गोयमा ! सबत्थोवा वायरवणस्सइकाइया पत्तिया बायरवणस्सइकाइया अपतया असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते! पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइयाणं पञ्जचापज्जत्ताणं कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा सवत्थोवा पतेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पजत्तया पतेयसरीरमायरवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते । चायर निगोयाणं पञ्जचापत्ताणं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसा हिया वाई, गोयमा सवत्थोवा वायर निगोया पज्जत्ता वायरनिगोया अपजत्ता असंखेअगुणा। एएसि णं भंते । वायरतसकाइयाणं पजचापज्जत्ताणं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वाई, गोयमा ! सवत्थोवा वायरतसकाइया पज्जत्ता बायरतसकाइया अपज्जता असंखेजगुणा । एएसि णं भंते! बायराणं वायरपुढवीकाइयाणं बायरआउकाइयाणं वायरलेउकाड्याणं बायरवाउ काइयाणं वायरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरचामरवणस्सइकाइयाणं वायर निगोयाणं वायरतसकाइयाणं पज्जचापञ्जत्ताणं For Parts Only ~ 257 ~ -2009999999999.93979 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [४], -------------- मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [२६५] प्रज्ञापना कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोवा वायरतेउकाइया पजत्तया वायरतस- ३ अल्पयाः मल काइया पज्जचया असंखेजगुणा बायरतसकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पज्जत्तया बहुत्वपदे यवृत्ती. असंखेजगुणा पायरनिगोया पजत्तया असंखेजगुणा बादरपुढवीकाइया पजत्तया असंखेजगुणा पायरआउकाइया पज- बादराणा तया असंखेजगुणा पायरखाउकाइया पञ्जत्तया असंखेजगुणा बायरतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरव- मल्पब० ॥१२७॥ णस्सइकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा पायरनिगोया अपज्जत्तया असंखेजगुणा बायरपुढवीकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा बायरआउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा बायरवाउकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा बायरवणस्सइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा पायरवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा बायरअपज्जपया विसेसा० वायरा विसेसा०। (सू०६१) 'एएसि णं भंते ! बायराणं वायरपुढवीकाइयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरत्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव बाद-18 रत्रसत्वात् , तेषां च शेषकायेभ्योऽल्पत्वात. तेभ्यो बादरतेजःकायिका असोयगुणाः, असक्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमा-1 पणत्वात् , तेभ्योऽपि प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिका असङ्ख्येयगुणाः, स्थानस्यासयेयगुणत्वात् , वादरतेजःकायिका हि मनुष्यक्षेत्रे एव भवन्ति, तथा चोक्तं द्वितीय स्थानाख्ये पदे-“कहि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं पज्जत्त-18 ॥१२७॥ गाणं ठाणा पन्नत्ता ?, गोयमा! सट्ठाणेणं अंतो मणुस्सखित्ते अडाइजेसु दीवसमुद्देसु निवाघाएणं पन्नरसस् कम्मभूमीसु वाघाएणं पंचसु महाविदेहेसु, एत्थ णं बायरतेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता" तथा "जत्थेव वायर-2 ~ 258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] तेउकाइयाणं पजत्लगाणं ठाणा तत्धेव बायरतेउकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता" इति, बादरवनस्पतिकायि-18 कास्तु विष्वपि लोकेषु भवनादिषु, तथा चोक्तं तस्मिन्नेव द्वितीय स्थानाख्ये पदे-"कहिणं भंते ! वायरवणस्सइ-18 काइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, गोयमा ! सहाणेणं सत्तसु घणोदहिसु सत्तसु घणोदहिवलयेसु अहोलोए पाया-18 लेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु उडलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगडेसु तलाएस नदीसु दहेसु बाविसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिललेसु पल्ललेसु बप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सबेसु चेव जलासएसु जलठाणेसु, एत्थ णं वायरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता" तथा "जत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणं पजतगाणं ठाणा तत्थेव वायरवणस्सइकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नता" इति, ततः क्षेत्रस्यासोयगुणत्वादुपपद्यन्ते बादरतेजाकायिकेभ्योऽसयगुणाः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः, तेभ्यो बादरनिगोदा असोयगुणाः, तेपामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्विात्, जलेषु सर्वत्रापि च भावात्, पनकसेवालादयो हि जलेऽवश्यंभाविनः ते च बादरानन्तकायिका इति, तभ्योऽपि बादरपृथिवीकायिका असश्वेयगुणाः, अष्टासु पृथिवीषु सर्वेषु विमानभवनपर्वतादिषु भावात् , तेभ्योऽ-18 सषयगुणा बादराप्कायिकाः, समुद्रेषु जलप्राभूत्यात् , तेभ्यो बादरवायुकायिका असोयगुणाः, सुषिरे सर्वत्र वायुसंभवात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात्, तेभ्यः सामा-15) दीप अनुक्रम [२६५] ofiastaram.org ~259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥१२८॥ [६१] न्यतो बादरा जीवा विशेषाधिकाः, बादरत्रसकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमेकमौधिकानां बादराणामल्प-IN |३अल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाह-एएसि णं भंते ! बायरापज्जत्तगाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादर- बहुत्वपदे सकायिका अपर्याप्तकाः, युक्तिरत्र प्रागुक्कैव, तेभ्यो बादरतेजःकायिका अपर्यासा असङ्ख्येयगुणाः, असायेयलोका बादराणा काशप्रदेशप्रमाणत्वात् , इत्येवं प्रागुक्तक्रमेणेदमप्यल्पबहुत्वं भावनीयं । गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम्, इदानीमतेषामेव मल्पना पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! वायरपज्जत्तगाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजाकायिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गस्य कतिपयसमयन्यूनरावलिकासमयैर्गुणितस्य यावान्समयराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वात्तेषा, उक्त च-"आवलियवग्गो ऊणावलिए गुणिओ टु वायरा ते उ" इति तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यालसम्लेयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेपा, तेभ्यः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः पर्यासाः असङ्ग्येयगुणाः,प्रतरे याचन्त्यकुलासवेयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, उक्कं च-"पत्तेयपजवणकाइयाओ पयरं हरंति लोगस्स । अङ्गुलअसंखभागेण भाइय"मिति तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्यासका असपेयगुणाः, तेषा-K मत्सन्तसूक्ष्मावगाहनवाजलाशयेषु च सर्वत्र भावात्, तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः असोयगुणाः, अतिप्र ॥१२८॥ भूतसक्यप्रतरामुलासयेयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि वादराप्कायिकाः पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, अतिप्रभूततरसमयप्रतरामुलासङ्ख्येयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्सा असोयगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यासये दीप अनुक्रम [२६५] ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 2800 [६१] येषु सङ्ख्याततमभागवर्तिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकै कनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यः सामान्यतो बादरपर्याप्तका विशेषाधिकाः, बादर-19 तेजःकायिकादीनामपि पर्यासानां तत्र प्रक्षेपात् । गतं तृतीयमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेव पर्याप्तापर्याप्तगतान्यल्प-19॥ बहुत्वान्याह-एएसि णं भंते ! पायराणं पजत्तापज्जत्ताणं' इत्यादि, इह बादरैकैकपर्यासनिश्रया असलोया बादरा अपर्याप्ता उत्पद्यन्ते, 'पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा बकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा' इति वचनात, ततः सर्वत्र पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणा वक्तव्याः, प्रसकायिकसूत्रं प्रागुक्तयुक्त्या भावनीयं । गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम्, सम्प्रत्येतेषामेव समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानां पञ्चममल्पबहुत्वमाह-'एएसि णं भंते ! बायराणं वायरपुढवीकाइ-18 याणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजाकायिकाः पर्याप्तकाः तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्सा असपेयगुणाः तेभ्यो । वादरत्रसकायिका अपर्यासा असावेयगुणाः तेभ्यो बादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः तेभ्यो। बादरनिगोदाः पर्याप्सका असङ्ख्येयगुणाः तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्तका असङ्ख्यगुणाः तेभ्यो बादराप्कायिकाः पर्याप्तका असङ्खयेयगुणाः तेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, एतेषु पदेषु युक्तिः प्रागुताऽनुसरणीया, तेभ्यो वादरतेजाकायिका अपर्यासका असङ्ख्येयगुणाः, यतो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ताः असोयेषु प्रतरेषु । यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, बादरतेजःकायिकाश्चापर्याप्ता असयेयलो काकाशप्रदेशप्रमाणाः, ततो भवन्त्यस-18] दीप अनुक्रम [२६५] ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: H], -------------- दारं [४], ------------- मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना याः मलयवृत्ती. ३ अल्पबहुत्वपदे बादराणा मल्प. सू.६१ [६१] ॥१२९॥ दीप अनुक्रम [२६५] येयगुणाः, ततः प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः ततो वादरनिगोदा अपर्याप्सका असत्येयगुणाः ततो बादरपृथिवीकायिका अपर्याप्सका असोयगुणाः ततो बादराकायिका अपर्याप्सका असङ्ख्येयगुणाः बादरवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसोयगुणाः वक्तव्याः, यद्यपि चैते प्रत्येकमसङ्ग्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणातथाप्यसङ्ख्यातस्यासयातभेदभिन्नत्वात् इत्थं यथोत्तरमसक्वेयगुणत्वं न विरुध्यते, तेभ्यो बादरवायुकायिकापर्यासेभ्यो वादरवनस्पतिकायिका जीवाः पर्यासा अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यः सामा-18 न्यतो बादराः पर्याप्तका विशेषाधिकाः, वादरतेजाकायिकादीनां पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात , तेभ्यो बादरवनस्पतिका-18 यिका अपर्याप्सका असवेयगुणाः, एकैकपर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकनिगोदनिश्रयाऽसोयानामपर्याप्तबादरवनस्प-18 तिकायिकनिगोदानामुत्पादात्, तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्सा विशेषाधिकाः, बादरतेजःकायिकादीनामप्यपर्या-18 सानां तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः पर्यासापर्याप्त विशेषणरहिताः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्ततेजःकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ।। गतानि बादराश्रितान्यपि पञ्च सूत्राणि, सम्प्रति सूक्ष्मवादरसमुदायगतां पासूत्रीमभिधित्सुः प्रथमत औधिक सूक्ष्मवादरसूत्रमाहएएसिणं मंते ! सुहुमाणं सुहुमपुढवीकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुमतेउकाइयाणं मुहुमवाउकाइयाणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं मुहुमनिगोयाणं बायराणं पायरपुढवीकाइयाणं बायरआउकाइयाणं वायरतेउकाइयाण बायरखाउकाइयाणं पाय ॥१२॥ ~2624 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [२६६] Educator “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], दारं [४], पदं [३], मूलं [६२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ১৬৩৯৩ ৯৩১৩১৬১৬,৯৩ ১৬৩ रवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरी वायरवणस्सइकाइयाणं वायरनिगोयाणं तसकाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहियावा ?, गोयमा ! सवत्थोवा बायरतसकाइया वायर उकाड्या असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया असंखेज्जगुणा बायरनिगोया असंखेज्जगुणा वायरपुढवीकाइया असंखेज्जगुणा बायर आउकाइया असंखेजगुणा बायरवाउकाइया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया असंखेअगुणा सुहुमपुढवीकाइया विसेसाहिया मुहुम आउकाइया विसेसाहिया सुहुमवाउकाइया विसेसाहिया मुहुमनिगोया असंखेजगुणा वायरवणस्सइकाइया अनंतगुणा बायरा विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया अणतगुणा सुहमा विसेसाहिया । एएसि णं भंते ! सुहुमअपअत्तयाणं सुदुमपुढवीकाइयाणं अपचयाणं सुहुमआउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं सुहुमतेउकाइयाणं अपजत्तयाणं सुहुमवाउकाइयाणं अपज्जतया सुमवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तयाणं मुहुमनिगोयाणं अपजत्तयाणं बायरअपजत्तयाणं वायरपुढवीकाइयाणं अपजतयाणं वायरआउकाइयाणं अपअत्तयाणं वायरतेउकाइयाणं अपजत्तयाणं बायरवाउकाइयाणं अपजत्तयाणं वायरवणस्सइकाइयाणं अपतयाणं पत्तेयसरीरवायश्वणस्सइकाइयाणं अपअत्तयाणं बायरनिगोयाणं अपअत्तयाणं बायरतसकाइयाणं अपत्ताणं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवा बायरतसकाइया अपक्षता बायर उकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा वायरनिगोया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा बायरपुढवीकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा वादरआउकाइया अपजतया असंखेअगुणा बायरवाकाइया अपजचया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा सुदुमपुढवीकाइया अपन For Pale Only ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना याः मल ३ अल्पबहुत्वपदे सूक्ष्मवादराणामस्ससू.६२ प्रत सूत्रांक [६२] यवृत्ती. ॥१३॥ त्तया विसेसाहिया सुहुमआउकाइया अपञ्जत्तया विसेसाहिया सुहुमवाउकाइया अपजत्नया विसेसाहिया सुहुमनिगोया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा पायरवणस्सइकाइया अपञ्जत्तया अणंतगुणा बायरा अपजत्तया विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया अपत्तजया असंखेजगुणा सुहुमा अपञ्जत्तया बिसेसाहिया ।। एएसि गं भंते ! सुहुमपजत्तयाणं सुहुमपुढविकाइया पजत्तयाणं सुहुमआउकाइया पजत्तयाणं सुहुमतेउकाइया पजत्तयाणं मुहुमवाउकाइया पजत्तयाणं सुहुमवणस्सइकाइया पजत्तयाणं सुहुमनिगोया पजत्तयाणं वायरपजत्तयाणं बायरपुढवीकाइया पजत्तयाण बायरआउकाइया पजत्तयाणं वायरसेउकाइया पञ्जतयाणं वायरबाउकाइया पजत्तयाणं वायरवणस्सइकाइया पजत्तयाण पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पञ्जत्तयाणं वायरनिगोया पजत्तयाणं वापरतसकाइयपअत्तयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विससाहिया वा, गोयमा। सबत्योवा बायरतेउकाइया पजत्नया वायरतसकाइया पजचया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरवायरवणस्सइकाइया पजत्तया असंखेजगुणा वायरनिगोया पजत्तया असंखेजगुणा बायरपुढविकाइया पजत्तया असंखेजगुणा पायरआउकाइया पजचया असंखेजगुणा पायरवाउकाझ्या पजत्तया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया पजत्तया असंखेनगुणा मुहुमढवीकाइया पजचया विसेसाहिया सुहमआउकाइया पजत्तया विसेसाहिया मुहुमवाउकाइया पञ्जत्तया विसेसाहिया सुहुमनिगोया पजत्तया असंखेज्जगुणा वायरवणस्सइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा बायरपज्जत्तया विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया पजत्तया असंखेजगुणा सुहुमपञ्जत्तया विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! मुहुमाणं बायराण य पजत्तापजचाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोवा बायरा पज्जत्तया वायरअपज्जतया असंखेजगुणा दीप अनुक्रम [२६६] ॥१३ SARERainintamanna Arunaturary.com ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२] Pटर मुहुमअपजत्तया असंखेंजगुणा सुहुमपज्जत्तया संखेजगुणा ।। एएसि णं भंते ! मुहुमपुढचिकाइयाणं वायरषुढविकाइयाण य पज्जचापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सबथोवा वायरपुढविकाइया पज्जतया बायरपुढविकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा मुहुमपुढवीकाइया अप्प० असं० सुहुमपुढषिकाइया पञ्जतया संखेजगुणा॥ एएसिगं भंते ! सुहुमआउकाइयाणं वायरआउकाइयाण य पज्जत्तापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा वायरआउकाइया पज्जत्तया बायरआउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा मुहुमाउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा मुहुमआउकाइया पज्जचया संखेजगुणा ॥ एएसि गं भंते ! मुहुमतेउकाइयाणं पायरतेउकाइयाण य पजचाजपज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवा वायरतेउकाइया पज्जत्तया वायरतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया पजत्तया संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते सुहुमवाउकाइयाणं बायरवाउकाइयाण य पअचापजताणं कयरे कयरेहितो अप्पा या बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबत्थोवा वायरवाउकाइया पअत्तया बायरखाउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमबाउकाइया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमवाउकाइया पजत्तया संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! मुहुमवणस्सइकाइयाणं वायरवणस्सइकाइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोवा वायरवणस्सइकाइया पजत्तया बायरवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेनगुणा सुहुमवणस्सइकाइया पजत्नया संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! मुहमनिगोयाणं वायरनिगो दीप 90020209080928202929092aera अनुक्रम [२६६] Santaratani JNLama ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [२६६] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥१३१॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [४], पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education t उद्देशक: [], मूलं [६२] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः याण य पत्ता पत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवा बायरनगोयया पत्तया वायर निगोयया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमनिगोयया अपजत्तया असंखेअगुणा मुहुमनिगोयया पजतया संखेजगुणा ॥ एएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुदुमपुढवीकाइयाणं सुहुनआउकाइयाणं मुहुमते काइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुमवणस्सइकाइयाणं मुहमनिगोयाणं बायराणं वायरपुढविकाइयाणं वायरआउकाइयाणं वायर उकाइयाणं बायरबाउकाइयाणं वायरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइयाणं बायरनिगोयाणं बायरतसकाइयाण य पञ्जत्तापञ्जाणं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्योवा बादरतेडकाया पज्जत्तया बायरतसकाइया पजत्तया असंखेज्जगुणा बायरत सकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरत्रायरवणस्सइकाइया पजत्तया असंअगुणा बायरनिगोया पजचया असंखेअगुणा नायरपुढवीकाइया पजत्तया असंखेजगुणा बायरआउकाइया पअसया असंखेजगुणा बायरवाउकाइया पञ्जत्तया असंखेजगुणा वायर उकाइया अपजतया असंखेञ्जगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया अपअत्तया असंखेअगुणा चायरनिगोया अपजत्तया असंखेजगुणा चायरपुढवीकाइया अपजत्तया असंखेअगुणा बायरआकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा वायरबाउकाइया अपजत्तया असंखेखगुणा सुहुमतेउकाइया अपजतया असंखेजगुणा सुडुमपुढचीकाइया अपजत्तया विसेसाहिया सुहुमआउकाइया अपजतया विसेसाहिया सुडुमवाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिया सुहुमतेउकाइया पञतया असंखेअगुणा सुहुमपुढवीकाइया पजत्तया विसेसाहिया सुडुम आउकाइया पत्तया विसेसाहिया मुहुमवाउकाइया पजत्तया विसेसाहिया सुहुमनिगोया अपजत्तया असंखेअगुणा सुडुमनिगोया पतया संखेजगुणा For Parts Only ~266~ ३ अल्पबहुत्वपदे सूक्ष्मवादराणामल्प सू. ६२ ॥ १३१ ॥ rary.org Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [२६६] Educator “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [४], पदं [३], उद्देशक: [-], मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः वायरवणस्सइकाइया पजत्तया अनंतगुणा बायरपअत्तया विसेसाहिया बायरवणस्सइकाइया अपअत्तया असंखेअगुणा वायर अपअत्तया विसेसाहिया बायरा विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमअपजत्तया विसेसाहिया सुडुमवणस्सइकाइया पजत्तया संखेजगुणा सुहुमपजत्तया विसेसाहिया सुहुमा विसेसाहिया । दारं । (मू०६२) 'एएसि णं भंते!' इत्यादि, इह प्रथमं बादरगतमल्पबहुत्वं वादरपञ्चसूत्र्यां यत्प्रथमं सूत्रं तद्वद्भावनीयं यावद्वादरवायुकायपदं, तदनन्तरं यत्सूक्ष्मगतमल्पबहुत्वं तत्सूक्ष्मपञ्चसूत्रयां यत्प्रथमं सूत्रं तद्वत्तावद् यावत्सूक्ष्मनिगोदचिन्ता, तदनन्तरं बादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात्, तेभ्यो बादरा विशेषाधिकाः, वादरतेजःकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका असश्वेयगुणाः, बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसङ्ख्येयगुणत्वात्, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजः कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमेकमल्पबहुत्वम्, इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाह - 'एएसि णं भंते ।' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्ताः ततो बादरतेजः कायिकवादरप्रत्येक वनस्पतिकायिकबादरनिगोदबादरपृथिवीकायिकबादशष्कायिकचादर वायुकायिका अपर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरमसोयगुणाः, अत्र भावना बादरपञ्चसूयां यद्वितीयमपर्याप्तकसूत्रं तद्वत्कर्तव्या, ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽपर्याप्तेभ्योऽसोयगुणाः सूक्ष्मतेजः कायिका अपर्याप्ताः, अतिप्रभूतास श्यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवी कायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकसूक्ष्म निगोदा For Parts Only ~267~ rary org Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाचा:मल4. वृत्ती . सूत्रांक [६२] ॥१३२॥ अपर्याप्ता यथोत्तरमसाधेयगुणाः, अत्र भावना सूक्ष्मपञ्चसूयां यद् द्वितीयं सूत्रं तद्वत्, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवा अपर्याप्ताः अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां सद्भावात् । तेभ्यः सामान्यतो बादरापर्यासका विशेषाधिकाः, वादरत्रसकायिकापर्याप्तादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मव-IN सूक्ष्मवादनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असङ्ग्येयगुणाः, बादरनिगोदापर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानामसषेयगुणत्वात् , तेभ्यः राणामपसामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजःकायिकापर्याप्तादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम् , अधुना एतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते ! मुहुमपजत्तयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजःकायिकाः पर्याप्ताः तेभ्यो बादरत्रसकायिकवादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकवादरनिगोदवादरपृथिवीकायिक-11 बादराप्कायिकबादरवायुकायिकाः पर्याप्सा यथोत्तरमसोयगुणाः, अत्र भावना बादरपञ्चसूत्र्यां यत्तृतीयं पर्याप्तसूत्रं तद्वत् कर्त्तव्या, बादरपर्याप्तवायुकायिकेभ्यः सूक्ष्मतेजःकायिकाः पर्यासा असक्वेयगुणाः, बादरवायुकायिका हि असोयप्रतरप्रदेशराशिप्रमाणाः सूक्ष्मतेजःकायिकास्तु पर्याप्ता असो यलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणास्ततोऽसतोयगुणाः, ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरं विशेषाधिकाः ततः। ॥१३२॥ सूक्ष्मवायुकायिकेभ्यः पर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तका असोयगुणाः, तेषामतिप्रभूततया प्रतिगोलकं भावात् , तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्तका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां भावात्, तेभ्यः दीप अनुक्रम [२६६] ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२] सामान्यतो वादराः पर्याप्सका विशेषाधिकाः, बादरतेजःकायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मव-| नस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, बादरनिगोदपर्यासेभ्यः सूक्ष्मनिगोदपर्याप्सानामसङ्ख्येयगुणत्वात्, तेभ्यः | सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजाकायिकादीनामपि पर्याप्सानां तत्र प्रक्षेपात् । गतं तृतीयमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेव सूक्ष्मबादरादीनां प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्सानां पृथग् पृथगल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते! सुहुमाणं वायराणं पजत्तापजत्ताणं' इत्यादि, सर्वत्रेयं भावना-सर्वस्तोका बादराः पर्याप्साः, परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् , तेभ्यो बादरा अपर्याप्ताः असोयगुणाः, एकैकवादरपर्याप्तनिश्रया असख्येयानां बादरापर्याप्सानामुत्पादात्, तेभ्यः सूक्ष्मा अपर्याप्साः असोयगुणाः, सर्वलोकापन्नतया तेषां क्षेत्रस्यासलेयगुणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्तकाः। सोयगुणाः, चिरकालावस्थायितया तेषां सदैव सङ्ख्येयगुणतयाऽवाप्यमानत्वात् । गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेव सूक्ष्मसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनां बादरवादरपृथिवीकायिकादीना च प्रत्येकं पर्याप्तापर्यासानां च समुदायेन पञ्चममल्पवदुत्वमाह-सर्वस्तोका बादरतेजाकायिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गे कतिपयसमयन्यूनरावलिकासमय-18 गुणिते यावान्समयराशिस्तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, प्रतरे यावत्यकुलसङ्ख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्यो बादरत्रसकायिका अपर्याप्सा असङ्खयेयगुणाः, प्रतरे । यावत्सगुलासङ्ख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्यःप्रसेकबादरवनस्पतिकायिकबादरनिगोदवा दीप अनुक्रम [२६६] प्र.२३nd INImurary.orm ~269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: H], -------------- दारं [४], ------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना प्रत सूत्रांक [६२] ॥१३॥ दीप अनुक्रम [२६६] ३अल्प. दरपृथिवीकायिकबादराकायिकवादरवायुकायिकाः पर्याप्सा यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, यद्यप्येते प्रत्येकं प्रतंरे यावत्यनु-II लासक्वेयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणास्तथाप्यनुलासोयभागस्थासङ्ख्येयमेदभिन्नत्वात् इत्थं यथोत्तरमसत्वे-18 बहुत्वपदे सूक्ष्मेतरायगुणत्वमभिधीयमानं न विरुध्यते, तेभ्यो बादरतेजःकायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेश- प.सू.१२ प्रमाणत्वात्, ततः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकबादरनिगोदबादरपृथिवीकायिकबादराकायिकबादरवायुकायिका अपर्याप्सा यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मतेजाकायिका अपर्याप्सा असश्वेयगुणाः ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माष्कायिकसूक्ष्मवायुकायिका अपर्यासा यथोत्तरं विशेषाधिकाः ततः सूक्ष्म-10 पर्याप्तास्तेजःकायिकाः सङ्ख्यातगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां ओघत एव सपेयगुणत्वात् , ततः सूक्ष्मपृथिवी-1 कायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्यासाः यथोत्तरं विशेषाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्यासका असयेयगुणाः, तेषामतिप्राभूत्येन सर्वलोकेषु भावात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकाः सोयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्यासेभ्यः पर्यासानामोघत एव सदा सङ्ग्येयगुणत्वात् , एते च बादरापर्याप्ततेजःकायिकादयः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदपर्यवसानाः। ॥१३॥ पोडश पदार्था यद्यप्यन्यत्राविशेषेणासत्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया संगीयन्ते तथाप्यसङ्ख्येयत्वस्यासंख्येयभेद-| |भिन्नत्वाद् इत्थमसङ्ख्येयगुणत्वं विशेषाधिकत्वं सोयगुणत्वं च प्रतिपाद्यमानं न विरोधभागिति, तेभ्यः पोससू-18 मनिगोदेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , 18 ~ 270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [२६६] Je Eticatio “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [४], पदं [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. तृतीय-पदे (०५) "योग" द्वारम् आरब्धः उद्देशक: [-], मूलं [६२] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः | तेभ्यः सामान्यतो वादराः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्ततेजः कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्तका असश्वेयगुणाः, एकैकपर्यासवादर निगोदनिश्रया असङ्ख्येयानां बादरनिगोदापर्याप्तानामुत्पादात्, तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, वादरतेजः कायिकादीनामप्यपर्यासाना तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, पर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असश्वेयगुणाः, वादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामपर्यासानामप्यसश्येयगुणत्वात्, ततः सामान्यतः सूक्ष्मा२) पर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामप्यपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, सूक्ष्म वनस्पतिकायिकापर्याप्तेभ्यो हि सूक्ष्मवनस्पतिकायिकपर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, सूक्ष्मेबोघतोऽपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां सङ्ख्येयगुणत्वात् ततः सूक्ष्मापर्यासेभ्योऽपि सत्येयगुणाः, विशेषाधिकत्वस्य सङ्ख्येयगुणॐ त्वबाधनायोगात्, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, ततः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्तापर्यासविशेषणरहिता विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतं सूक्ष्मवादरसमुदायगतं पञ्चममल्पबहुत्वं तद्गतौ समर्थितानि पञ्चदशापि सूत्राणीति ॥ गतं कायद्वारम् इदानीं योगद्वारमाह एएसि णं भन्ते ! जीवाणं सयोगीणं मणजोगीणं वद्दजोगीणं कायजोगीणं अयोगीण य कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया For Parts Only ~ 271~ binsibrary o Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ..-- उद्देशक: [-, -------------- दारं [५,६], - -- मूलं [६३,६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३-६४] मज्ञापनायाः मलयवृत्ती. योरल्पसू. ॥१३४॥ दीप अनुक्रम [२६७-२६८] वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सबथोवा जीवा मणयोगी वययोगी असंखेजगुणा अयोगी अणंतगुणा काय ३ अरूपयोगी अणतगुणा सयोगी विसेसाहिया । दारं ॥ (सू.६३) एएसिणं भन्ते ! जीवाणं सवेयगाणं इत्थीवेयगाणं पुरिसवेषगाणं नपुंसकवेयगाणं अवेयगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोचा जीवा बहुत्वपदे योगवेदपुरिसवेयगा इत्थीवेयगा संखेज्जगुणा अवेयगा अणंतगुणा नपुंसकवेयगा अणंतगुणा सवेयगा विसेसाहिया । दारं ।। (सू.६४) । सर्पस्तोका मनोयोगिनः, सब्जिनः पर्याप्ता एव हि मनोयोगिनः ते च स्तोका इति, तेभ्यो वाग्योगिनोऽसोय-11 गुणाः, द्वीन्द्रियादीनां वाग्योगिनां सज्ञिभ्योऽसङ्ग्यातगुणत्वात् , तेभ्योऽयोगिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यः काययोगिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनामनन्तत्वात् , यद्यपि निगोदजीवानामनन्तानामेकं शरीरं तथापि तेनै-18 केन शरीरेण सर्वेऽप्याहारादिग्रहणं कुर्वन्तीति सर्वेषामपि काययोगित्वान्नानन्तगुणत्वव्याघातः, तेभ्यः सामान्यतः सयोगिनो विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि वाग्योगादीनां तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं योगद्वारम् , इदानीं वेदद्वारमाहसर्वस्तोकाः पुरुषवेदाः, सजिनामेव तिर्यग्मनुष्याणां देवानां च पुरुषवेदभावात, तेभ्यः स्त्रीवेदाः सोयगुणाः, यत उक्तं जीवाभिगमे-"तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो तिरिक्खजोणियइत्थीओ तिगुणीओ तिरूवाहियाओ य, तहान ॥१३४॥ मणुस्सपुरिसेहितो मणुस्सइत्थीओ सत्तावीसगुणाओ सत्तावीसरूवुत्तराओ य, तथा देवपुरिसेहिंतो देवित्थीओ १ महणयोगापेक्षया तेनैकेनेति, तैजसकार्मणयोगरूपकाययोगापेक्षया तेनैकेनेति । Salinmarary.orm तृतीय-पदे (०६) "वेद" द्वारम् आरब्ध: ~ 272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३]. ----.............. उद्देशक: [-1, -------------- दारं [७,८], .. .-- मूल [६५,६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३-६४] esesese दीप अनुक्रम [२६७-२६८] बत्तीसगुणाओ बत्तीसरूखुत्तराओ" इति, वृद्धाचार्यैरप्युक्तं-'तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयधा।। सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव ॥१॥ बत्तीसगुणा पत्तीसरूवअहिया य तहय देवाणं । देवीओ पन्नत्ता जिणेहिं जियरागदोसेहिं ॥२॥" अवेदका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात, तेभ्यो नपंसकवेदा अन-1 न्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्, सामान्यतः सवेदकाः विशेषाधिकाः, स्त्रीवेदकपुरुषवेदकानामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं वेदद्वारम् , इदानी कपायद्वारमाहएएसि णं भंते ! सकसाईणं कोहकसाईणं माणकसाईणं मायाकसाईणं लोहकसाईणं अकसाईण व कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्योवा जीवा अकसाई माणकसाई अणतगणा कोडकसाई विसेसाहिया मायाकसाई विसेसाहिया लोहकसाई विसेसाहिया सकसाई विसेसाहिया। दारं (म.६५) एएसिण भते जीवाणं सलेसाणं किण्हलेसाणं नीललेस्साण काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुकलेस्साणं अलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सचत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सा संखेजगुणा तेउलेस्सा संखे १शिरचा नियनिरूपाधिकात्रिगुणा ज्ञातव्याः । मनुजानां सप्तविंशतिगुणाः सप्तविंशत्यधिका एव पुनः ॥ १॥ देवानां द्वात्रिंशवणा द्वात्रिंबपाधिकाच देव्य: प्रज्ञता जितरागद्वेषैर्जिनैः ॥ २॥ तृतीय-पदे (०७) "कषाय" एवं (०८) "लेश्या" द्वारम् आरब्ध: ~ 273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ..-- उद्देशक: [-, -------------- दारं [७.८], - -- मूलं [६५,६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना या: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [६५-६६] ॥१३५॥ दीप अनुक्रम [२६९-२७०] स्टहरररहटकटटटर जगुणा अलेस्सा अर्णतगुणा काउलेस्सा अणंतगुणा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया सलेस्सा विसेसा- ३ अल्पहिया । दारं ।। (म.६६) बहुत्वपदे सर्वस्तोका अकषायिणः, सिद्धानां कतिपयानां च मनुष्याणामकषायित्वात् , तेभ्यो मानकषायिणो-मानकषा-1 कपायलेयपरिणामवन्तोऽनन्तगुणाः, पदस्खपि जीवनिकायेषु मानकषायपरिणामस्थावाप्यमानत्वात् , तेभ्यः क्रोधकषायिणोर श्ययोर प.सू. विशेषाधिकाः तेभ्योऽपि मायाकपायिणो विशेषाधिकाः तेभ्योऽपि लोभकपायिणो विशेषाधिकाः, मानकषायपरि-1 ६५-६६ णामकालापेक्षया क्रोधादिकषायपरिणामकालस्य यथोत्तरं विशेषाधिकतया क्रोधादिकषायाणामपि यथोत्तरं विशेपाधिकत्वभावात् , लोभकषायिभ्यः सामान्यतः सकषायिणो विशेषाधिकाः, मानादिकपायिणामपि तत्र प्रक्षेपात्, सकपायिण इत्यत्रैवं व्युत्पत्तिः-कषायशब्देन कषायोदयः परिगृह्यते, तथा च लोके व्यवहारः-सकषायोऽयं कपायोदयबानित्यर्थः, सह कपायेण-कषायोदयेन ये वर्तन्ते ते सकषायोदयाः-विपाकावस्थां प्रासाः खोदयमुपदर्श-181 यन्तः कषायकर्मपरमाणवतेषु सत्सु जीवस्यावश्यं कषायोदयसम्भवात् , सकपाया विद्यन्ते येषां ते सकपायिणः181 कपायोदयसहिता इति तात्पर्यार्थः ॥ गतं कषायद्वारम् , इदानीं लेण्याद्वारम्-सर्वस्तोकाः शुक्ललेश्या, लान्तका-18 |दिष्वेवानुत्तरपर्यवसानेषु वैमानिकेषु देवेषु कतिपयेषु च गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु कर्मभूमिकेषु सङ्ग्येयवर्षायुष्केषु मनुष्येषु || तिर्यस्त्रीपुंसेषु च कतिपयेषु सधेयवर्षायुष्केषु तस्याः संभवात् , तेभ्यः पनलेश्याकाः सज्ञषयगुणाः, सा हि पद्म ॥१३५॥ ~ 274 ~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३]. ----.............. उद्देशक: [-1, -------------- दारं [७,८], .. .-- मूल [६५,६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६५-६६] दीप अनुक्रम [२६९-२७०] लेश्या सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोककल्पवासिषु देवेषु तथा प्रभूतेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु कर्मभूमिजेषु सङ्ख्येयवर्षायुष्केषु मनुष्यत्रीपुंसेषु तथा गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्योनिकस्त्रीपुंसेषु सफेयेयवर्षायुष्केष्ववाप्यते, सनत्कुमारादिदेवादयश्च समु|दिता लान्तकादिदेवादिभ्यः सञ्जयगुणा इति भवन्ति शुक्ललेश्याकेभ्यः पनलेश्याकाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यस्तेजोले-18 श्याकाः सोयगुणाः, सर्वेषां सौधर्मशानज्योतिष्कदेवानां कतिपयानां च भवनपतिव्यन्तरगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यप|श्चेन्द्रियमनुष्याणां बादरपर्याप्तकेन्द्रियाणां च तेजोलेश्याभावात्, नन्वसोयगुणाः कस्मान्न भवन्ति ?, कथं भवन्तीति चेत् , उच्यते, इह ज्योतिष्काः भवनवासिभ्योऽप्यसोयगुणाः किं पुनः सनत्कुमारादिदेवेभ्यः, ते च ज्योतिष्कास्तेजोलेश्याकाः तथा सौधर्मेशानकल्पदेवाश्थ, ततः प्राप्नुवन्त्यसलयेयगुणाः, तदयुक्त, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, लेश्यापदे हि गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्योनिकानां संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां च कृष्णलेश्याद्यल्पबहुत्वे सूत्र वक्ष्यति-'सवत्थोवा गम्भवतियतिरिक्खजोणिया सुकलेसा तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ, पम्हलेसा गभवतियतिरिक्खजोणिया संखेजगुणा तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ, तेउलेसागभवतियतिरिक्खजोणिया संखेजगुणा तेउलेसाओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ" इति, महादण्डके च तिर्यग्योनिकखीभ्यो व्यन्तरा ज्योतिष्काश्च सोयगुणा वक्ष्यन्ते, ततो यद्यपि भवनवासिभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणा ज्योतिष्काः तथापि पद्मलेश्याकेभ्यस्तेजोलेश्याकाः सवेयगुणा एव, इदमत्र तात्पर्य-यदि केवलान् देवानेव पमलेश्यानधिकृत्य देवा एवं Escoercise REaratantalond INamrary.org ~ 275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [७.८], -------------- मूलं [६५,६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: CA प्रत सूत्रांक [६५-६६] ३ भल्पबहुत्वपदे दृष्टिज्ञानानानामल्प. सू. ६७-६८ ॥१३॥ दीप अनुक्रम [२६९-२७०] प्रज्ञापना-1 तेजोलेश्याकाश्चिन्त्यन्ते ततो भवन्त्यसोयगुणाः यावता तिर्यसम्मिश्रतया पालेश्याकेभ्यस्तिर्यसम्मिश्रा एवं या: मल तेजोलेश्याकाश्चिन्त्यम्से तिर्यश्चश्च पचलेश्या अपि अतिवहवस्वतः सोयगुणा एवं लभ्यन्ते नासल्येयगुणा इति, यवृत्ती. तेभ्योऽलेश्याका अनन्तगुणाः, सिद्धानाभनन्तत्वात्, तेभ्यः कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपि कापोतलेश्यायाः संभवात्, बनस्पतिकायिकानां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषा|धिकाः, प्रभूततराणां नीललेश्यासंभवात् , तेभ्योऽपि कृष्णलेश्याका विशेषाधिकाः, प्रभूततमानां कृष्णलेश्याकत्वात् , तेभ्यः सामान्यतः सलेश्या विशेषाधिकाः, नीललेश्याकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं लेश्याद्वारम् , इदानीं सम्यक्त्वद्वारमाहएएसिणं भंते ! जीवाणं सम्मदिहीणं मिच्छादिहीणं सम्मामिच्छादिट्ठीणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्लावा विसेसाहिया वा, गोयमा सबथोवा जीवा सम्मामिच्छदिट्ठी सम्मदिट्ठी अणंतगुणा मिच्छादिट्ठी अर्णतगुणा । दार (सू.६७) एएसिणं मते ! जीवाणं आमिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं ओहिणाणीणं मणपज्जवणाणीणं केवलणाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोषा जीवा मणपज्जवणाणी ओहिनाणी असंखेजगुणा आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया केवलनाणी अणंतगुणा । एएसिगं भंते ! जीवाणं महअनाणीणं सुयअमाणीणं विभंगणाणीण य कपरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! accerseroticerseeesercenserverse ॥१३६॥ esesee Tundinrary.org तृतीय-पदे (०९) "द्रष्टि | सम्यक्त्व" द्वारम् आरब्धः ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६७-६८] दीप अनुक्रम [२७१ -२७२] Education! “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], दारं [१०] पदं [३], मूलं [६७,६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः हत्था जीवा नगनाणा महअनाणी सुबजलाणी दोनि मुल्ला अनंतगुणा। एएसि णं भंते! जीवाणं आभिणिषोहियणणणं सुयवाणीणं ओहिनाणीणं मषपज्जवनाणीणं केवलनाणीणं महअभाणीणं सुयजनाणीणं विभंगणाणीण म कपरे करेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसादिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी ओहिनाणी असंखेज्जगुणा आभिणिबोहियनाणी सुमनाणी दोवि तुला बिसेसाहिया विभंगनाणी असंखेज्जगुणा केवलनाणी अनंतगुणा महअनाणी सुयअन्नाणी य दोषि तुल्ला अनंतगुणा । दारं ॥ ( सू० ६८ ) सर्वस्तोकाः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः, सम्यग्मिथ्यादृष्टिपरिणामकालस्यान्तर्मुहूर्त्त प्रमाणतयाऽतिस्तोकत्वेन तेषां पृच्छासमये स्तोकानामेव लभ्यमानत्वात्, तेभ्यः सम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात्, तेभ्योऽपि मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् तेषां च मिध्यादृष्टित्वादिति ॥ गतं सम्यक्त्वद्वारम् अधुना ज्ञानद्वारमाह - सर्वस्तोका मनः पर्यवज्ञानिनः, संयतानामेवामपपध्यादिऋद्धिप्राप्तानां मनः पर्यवज्ञानसंभवात्, तेभ्योऽसशपेयगुणा अवधिज्ञानिनः, नैरविकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानामप्यवधिज्ञानसंभवात्, तेभ्य आभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिकाः, सन्चितिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेवावधिज्ञानविकलानामपि | केपाथिदाभिनिवोधिकश्रुतज्ञानभावात्, स्वस्थाने तु इयेऽपि परस्परं तुल्याः, “जत्थ महनाणं तत्थ सुयनाणं जत्थ सुयनाणं तस्थ महनाणं" इति वचनात्, तेभ्यः केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् ॥ उक्तं ज्ञानिना तृतीय- पदे (१०) "ज्ञान", (११) "अज्ञान" द्वारम् आरब्धः For Parts Only ~277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [९,१०], -------------- मूलं [६७,६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मज्ञापनाया मलयवृत्ती. सूत्रांक cceeeerse अपबहुत्वपदे दर्शनसंयताहारकाल्प.सू.६९ ७०-७१ [६७-६८] ॥१३७॥ sekci दीप अनुक्रम [२७१-२७२ मल्पबहुत्वम् , इदानीं तत्प्रतिपक्षभूतानामज्ञानिनामल्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोका विभङ्गज्ञानिनः, कतिपयानामेव नैर- यिकदेवतिर्यपश्चेन्द्रियमनुष्याणां विभङ्गभावात् , तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनामपि | मत्यज्ञानश्रुताज्ञानभावात् तेषां चानन्तत्वात् स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः "जत्थ मइअन्नाणं तत्थ सुयअन्नाणं जत्थ सुयअन्नाणं तत्थ मइअन्नाणं" इति वचनात् ॥ सम्प्रत्युभयेषां ज्ञान्यज्ञानिनां समुदायेनाल्पबहुत्वमाह-सर्षस्तोका मनापर्ययज्ञानिनः तेभ्योऽसोयगुणा अवधिज्ञानिनः तेभ्य आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिकार, खस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, अत्र भावना प्रागेवोक्ता, तेभ्योऽसङ्खयेयगुणा विभङ्गज्ञानिनः, यस्मात्सुरगती निरयगतौ च सम्यग्राष्टिभ्यो मिथ्यादृष्टयोऽसषयगुणाः पठ्यन्ते, देवनैरयिकाश्च सम्यग्दृष्टयोऽवधिज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयो विभङ्गज्ञानिन इत्यसबेयगुणाः, तेभ्यः केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनवानन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् , तेषां च मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानित्वात्, खस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः ॥ गतं ज्ञानद्वारम् , इदानी दर्शनद्वारमाह एएसिणं भंते ! जीवाणं चक्खुदंसणीणं अचखुदसणीणं ओहिदंसणीणं केवलदसणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा । सबथोवा जीवा ओहिदसणी चक्खुदंसणी असंखेजगुणा केवलदसणी अर्णतगुणा अचक्खुदंसणी अर्णतगुणा । दारं। (सू०६९) एएसिणं भंते जीवाणं संयताणं असंयताणं संजयासंजयाण नोसं स्ट ॥१३७॥ हरake तृतीय-पदे (१२) "दर्शन", (१३) "संयत", (१४) "उपयोग", (१५) "आहारक" दद्वारम् आरब्ध: ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१२-१५], -------------- मूलं [६९-७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९-७२] दीप अनुक्रम [२७३-२७६] अयनोअसंजयनोसंजयासंजयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा संजया संजया संयता असंखेजगुणा नोसंयतानोअसंजयानोसंयतासंयता अणंतगुणा असंजया अणंतगुणा ॥ दारं । (१०७०)। एएसिणं मंते! जीवाणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउचाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसा हिया वा?, गोयमा सवत्थोवा जीवा अणागारोवउचा सागारोवउत्ता संखेजगुणा । दारं । (सू०७१) । एएसिणं भंते ! जीवाणं आहारगाणं अणाहारगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा जीवा अणाहारगा आहारगा असंखेजगुणा दारं ॥ (सू०७२)। सर्वस्तोका अवधिदर्शनिनः, देवनैरयिकाणां कतिपयानां च सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामवधिदर्शनभावात्, तेभ्यश्चक्षुर्दर्शनिनोऽसक्वेयगुणाः, सर्वेषां देवनैरयिकगर्भजमनुष्याणां सजितिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां असज्ञितिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणां च चक्षुर्दर्शनभावात् , तेभ्यः केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽचक्षुदेशनिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् ॥ गतं दर्शनद्वारम् , अधुना संयतद्वारमाहसर्वस्तोकाः संयताः, उत्कृष्टपदेऽपि तेषां कोटीसहस्रपृथक्त्वप्रमाणतया लभ्यमानत्वात् , "कोडिसहस्सपुहुत्तं मणुयलोए संजयाण" इति वचनात् , तेभ्यः संयतासंयताः-देशविरता असोयगुणाः, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामसखातानां देशविरतिसद्भावात् , तेभ्यो नोसंयतनोऽसंयतनोसंयतासंयता अनन्तगुणाः, प्रतिषेधत्रयवृत्ता हि सिद्धास्ते चानन्ता ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [६९-७२] दीप अनुक्रम [२७३ -२७६] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥१३८॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [३], उद्देशकः [-], दार [१२-१५], मूलं [६९-७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः इति, तेभ्योऽसंयता अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् ॥ गतं संयतद्वारम् सम्प्रत्युपयोगद्वारमाहइहानाकारोपयोगकालः सर्वस्तोकः साकारोपयोगकालस्तु समेयगुणः ततो जीवा अप्यनाकारोपयोगोपयुक्ताः सर्वस्तोकाः, पृच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात्, तेभ्यः साकारोपयोगोपयुक्ताः सत्येयगुणाः, साकारोपयोगकालस्य दीर्घतया तेषां पृच्छासमये बहूनां प्राप्यमाणत्वात् ॥ गतमुपयोगद्वारम् इदानीमाहारद्वारमाह - सर्व स्तोका जीवा अनाहारकाः, विग्रहगत्यापन्नादीनामेवानाहारकत्वात् उक्तं च-- “विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अयोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ १ ॥” तेभ्यः आहारका असश्वेयगुणाः, नमु वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् तेषां चाहारकतयापि लभ्यमानत्वात् कथमनन्तगुणा न भवन्ति १, तदयुक्तं, वस्तुतश्वापरिज्ञानात्, इह सूक्ष्मनिगोदाः सर्वसत्याप्यसङ्ख्येयाः, तत्राप्यन्तर्मुहूर्त्त समयराशितुल्याः सूक्ष्मनिगोदाः सर्वकालं विग्रहे वर्त्तमाना लभ्यन्ते, ततोऽनाहारका अप्यतिवहवः सकलजीवराश्य सत्येयभागतुल्या इति तेभ्यः आहारका असश्वयगुणा एव नानन्तगुणाः ॥ गतमाहारद्वारम् इदानीं भाषकद्वारमाह एसि णं भंते! जीवाणं भासगाणं अभासगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा १, गोमा ! सवत्थोवा जीवाभासगा अभासगा अनंतगुणा । दारं । (०७३) । एएसि णं भंते! जीवाणं परत्ताणं अपरीचाण य १ विप्रगति मापन्नाः केवलिनः समुद्धताञ्चायोगिनश्च । सिद्धाश्चानाद्दाराः शेषा बाहारका जीवाः ।। १ ।। Ecation into For Park Use Only तृतीय-पदे (१६) "भाषक”, (१७) "परित्त", (१८) "पर्याप्त", (१९) "सूक्ष्मं", (२०) "संज्ञी", (२१) "भवसिद्धिक" द्वारम् आरब्धः ~280~ ३ अल्प बहुत्वपदे भाषकप रीताल्प. सू. ७३ ७४ ॥१३८॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१६-२१], .mmm.--- मूलं [७३-७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७३-७८] रीसनोअपरीताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा जीवा परीत्ता नोपरीत्तानोअपरीचा अणंतगुणा, अपरीचा अणंतगणा । दारं (मू०७४) । एएसिणं भंते। जीवाणं पजत्ताणं अपअत्ताणं नोपजत्तानोअपजत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा सबथोवा जीवा नोपजत्तानोअपजत्तगा अपज्जत्तगा अर्णतगुणा पञ्जतगा संखिजगणा। दारं। (मू०७५)। एएसि णे भत। जीवाणं सुहमाणं चायराणं नोमुहुमनोवायराण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा जीवा नोसुहमानोबायरा बायरा अर्णतगुणा महमा असंखेजगणा दारं।(मू०७६) । एएसि र्ण भते। जीवाणं समीणं असबीण नोसन्नीनोअसनीणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला या विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवथोवा जीवा सन्नी नोसन्नीनोअसनी अर्णतगुणा असनी अर्णतगुणा । दारं । (सू०७७)। एएसि गं भते ! जीवाणं भवसिद्धियाणं अभवसिद्धियाणं नोभवसिद्धियानोअभवसिद्धियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोषमा! सबथोवा जीवा अभवसिद्धिया णोभवसिद्धियाणोअभवसिद्रिया अर्णतगुणा भवसिद्धिया अणंतगुणा । दारं । (मु०७८)। सर्वस्तोका भाषका-भाषालब्धिसम्पन्नाः, द्वीन्द्रियादीनामेव भाषकत्वात्, अभाषका-भाषालब्धिहीना अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामनन्तत्वात् ॥ गतं भाषकद्वारं, सम्प्रति परीत्तद्वारमाह-इह परीत्ता द्विविधाः दीप अनुक्रम [२७७-२८२] प्र.२४ ~281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१६-२१], -------------- मूलं [७३-७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मल-1 यवृत्ती. सूत्रांक [७३-७८] ॥१३९॥ दीप अनुक्रम [२७७-२८२] भवपरीताः कायपरीत्ताच, तत्र भवपरीत्ता येषां किश्चिदूनोऽपापुद्गलपरावर्त्तमात्रसंसारः, कायपरीत्ता:-प्रत्येकश- ३ अल्परीरिणः, सत्रोभयेऽपि परीत्ताः सर्वस्तोकाः, शुक्लपाक्षिकाणां प्रत्येकशरीरिणां चाशेषजीवापेक्षयाऽतिस्तोकत्वात् , ततो बहुवपद नोपरीत्तानोअपरीत्ता अनन्तगुणाः, उभयप्रतिषेघवृत्ता हि सिद्धाः ते चानन्ता इति, तेभ्योऽपरीत्ता अनन्तगुणाः, रीत्तपर्याप्त कृष्णपाक्षिकाणां साधारणवनस्पतीनां वा सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ॥ गतं परीत्तद्वारं, सम्प्रति पर्याप्तद्वारमाह | सूक्ष्मसंसर्वतोका नोपर्याप्तकनोअपर्याप्तकाः, उभयप्रतिषेधवर्तिनो हि सिद्धाः ते चापर्यासकादिभ्यः सर्वस्तोका इति, यातेभ्योऽपर्याप्तका अनन्तगुणाः, साधारणवनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणानां सर्वकालमपर्याप्तत्वेन लभ्य-18 नामल्पसू. मानत्वात, तेभ्यः पर्याप्ताः सक्येयगुणाः, इह सर्वबहवो जीवाः सूक्ष्माः, सूक्ष्माश्च सर्वकालमपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः ७३.७८ सोयगणा इति समवेयगुणा उक्ताः ॥ गतं पयोप्सद्वारं, सम्प्रति सूक्ष्मद्वारमाह-सर्वस्तोका जीवा नोसूक्ष्मनोबादराः सिद्धा इत्यर्थः, तेषां सूक्ष्मजीवराशेबोदरजीवराशेश्वानन्तभागकल्पत्वात् , तेभ्यो बादरा अनन्तगुणाः, वादरनिगोदजीवानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मा असोयगुणाः, बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसयेय गुणत्वात् ॥ गतं सूक्ष्मद्वारम् , इदानी सज्ञिद्वारम्-सर्वस्तोकाः सम्झिनः, समनस्कानामेव सञ्जित्वात् , तेभ्यो नोसन्जिनो]नोअसज्ञिनः अनन्तगुणाः, उभयप्रतिषेधवृत्ता हि सिद्धाः ते च सजिभ्योऽनन्तगुणा एवेति, ॥१३९॥ तेभ्योऽसज्ञिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ॥ गतं सन्निद्वारम् , इदानीं भवसिद्धिकद्वा Baitaram.org ~282 ~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१६-२१], -------------- मूलं [७३-७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७३-७८] हररररररन्टesesear दीप रमाह-सर्यस्तोका जभवसिद्धिका:-अभव्याः, जघन्ययुक्तानन्तकपरिमाणत्वात् , उक्तं चानुयोगद्वारेपु-"उकोसए परित्ताणतए रूवे पक्खित्ते जहन्नयं जुत्ताणतयं होइ, अभवसिद्धियावि तत्तिया चेवे"ति, तेभ्यो नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, यत उभयप्रतिषेधवृत्तयः सिद्धाः ते चाजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तकपरिमाणा इत्यनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि भवसिद्धिका अनन्तगुणाः यतो भव्यनिगोदस्सैकस्यानन्तभागकल्पाः सिद्धाः भव्यजीवराशिनिगोदाथासपेया लोके इति ॥ गतं भवसिद्धिकद्वारं, साम्प्रतमस्ति कायद्वारमाह एएसि णं भंते ! धम्मत्थिकायअधम्मत्थिकायागासत्यिकायजीवत्थिकायपोग्गलस्थिकायअद्धासमयाणं दवट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए एए णं तिथिवि तल्ला दवद्वयाए सवत्थोवा, जीवस्थिकाए दबट्टयाए अर्णतगुणे, पोग्गलस्थिकाए दबट्टयाए अर्णतगुणे, अद्धासमए दबयाए अणंतगुणे । एएसिणं भंते ! धम्मत्थिकायअधम्मस्थिकायआगासत्थिकायजीवस्थिकायपोग्गलस्थिकायअद्धासमयाणं पएसट्टयाए कबरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वार, गोयमा! धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए एए णं दोवि तुल्ला पएसहयाए सबत्थोवा, जीवस्थिकाए पएसट्टयाए अणंतगुणे, पोग्गलस्थिकाए पएसट्टयाए अणंतगुणे, अद्भासमए पएसट्टयाए अणंतगुणे, आगासस्थिकाए पएसद्वयाए अर्णतगुणे। एएयस्स णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स दबदुपएसद्वयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुलावा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवे एगे अनुक्रम [२७७-२८२] SAREairama P incieraryaru तृतीय-पदे (२२) "अस्तिकाय" द्वारम् आरब्धः ~283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], -- -- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२२], -- ----- मूल [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती. ३ अल्पबहुत्वपदे अस्तिका सुनाक [७९] ॥१४॥ सूत्र.७९ दीप अनुक्रम [२८३] धम्मत्थिकाए दबट्टयाए से चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणे । एयस्स गंभंते ! अधम्मत्थिकायस्स दबहुपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सव्वत्थोवे एगे अधम्मस्थिकाए दबट्टयाए से चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणे । एयस्स णं भंते ! आगासस्थिकायस्स दबटुपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सबथोवे. एगे आगासत्थिकाए दवट्ठयाए से चेव पएसद्वयाए अर्णतगुणे । एयरस णं भंते ! जीवत्थिकायस्स दबट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, मोयमा! सवत्थोवे जीवस्थिकाए दबट्ठयाए से चेव पएसहयाए असंखेनगुणे, एयस्स णं भंते ? पोग्गलस्थिकायस्स दबट्टपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सबथोवे पोग्गलत्थिकाए दवट्टयाए से चेव पएसहयाए असंखेजगुणे । अद्धासमये न पुच्छिाइ पएसाभावा । एएसिणं भंते ! धम्मस्थिकायअधम्मत्थिकायगासस्थिकायजीवस्थिकायपोग्गलस्थिकायअद्धासमयाणं दवट्ठपएसड्याए य कयरे कयरहितो अप्पा या बहुया वा तुल्ला चा विसेसाहिया वा, गोयमा ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए एए तित्रिवि तल्ला दवद्वयाए सवत्थोबा, धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए य एएसिणं दोनिवि तुला पएसहयाए असंखेजगुणा, जीवत्थिकाए दबयाए अणंतगुणे से चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणे, पोग्गलस्थिकाए दबट्ठयाए अणतगुणे से चेव पएसहयाए असंखेजगुणे, अद्धासमए दबट्टपएसहयाए अणंतगुणे, आगासस्थिकाए पएसट्टयाए अणंतगुणे । दारं । (मू० ७९) 925209829erage ॥१४॥ ~284 ~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशकः [-], -------------- दारं [२२], -------------- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [७९] दीप अनुक्रम [२८३] धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय एते त्रयोऽपि द्रव्यार्थतया-द्रव्यमेवार्थो द्रव्यार्थः तस्य भावो द्रव्यार्थता तया द्रव्यरूपतया इत्यर्थः तुल्याः-समानाः, प्रत्येकमेकसङ्ग्याकत्वात् , अत एव सर्वस्तोकाः, तेभ्यो जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतया अनन्तगुणः, जीवानां प्रत्येकं द्रव्यत्वात् तेषां च जीवास्तिकाये अनन्तत्वात् , तस्मादपि । पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, कथमिति चेत् , उच्यते, इह परमाणुद्विप्रदेशकादीनि पृथक पृथक् द्रव्याणि, तानि च सामान्यतखिधा, तद्यथा-प्रयोगपरिणतानि मिश्रपरिणतानि विश्रसापरिणतानि च, तत्र प्रयोगपरिणतान्यपि तावज्जीवेभ्योऽनन्तगुणानि, एकैकस्य जीवस्यानन्तैः प्रत्येक ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयादिकर्मपुद्गलस्कन्धैरावेष्टित(परिवेष्टित) त्वात् , किं पुनः शेषाणि ?, ततः प्रयोगपरिणतेभ्यो मिश्रपरिणतान्यनन्तगुणानि, तेभ्यो विश्र|सापरिणतान्यनन्तगुणानि, तथा चोक्तं प्रज्ञप्ती-"सबथोवा पुग्गला पयोगपरिणया मीसपरिणया अनंतगुणा वीससापरिणया अनंतगुणा" इति ततो भवति जीवास्तिकायात् पुदलास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, तस्माद-10 प्यद्धासमयो द्रव्धार्थतयाऽनन्तगुणः, कथमिति चेत् , उच्यते, इहैकस्यैव परमाणोरनागते काले तत्र द्विप्रदेशिकत्रिप्रदेशकयावत्दशप्रदेशिकसङ्ख्यातादेशिकासयातप्रदेशिकानन्तप्रदेशिकस्कन्धान्तःपरिणामितया अनन्ता भाविनः |संयोगा पृथक्पृथक्कालाः केवलवेदसोपलब्धाः, यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां प्रत्येकं द्विप्रदेशादिस्कन्धानां || चानन्ताः संयोगाः पुरस्कृताः पृथक्पृथक्काला उपलब्धाः, सर्वेषामपि मनुष्य लोक क्षेत्रान्तर्वर्तितया परिणाम 92629020302023293rase SAREarathinhalatana Hainmurary.om ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशकः [-], -------------- दारं [२२], -------------- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुनाक [७९] दीप अनुक्रम [२८३] प्रज्ञापना- संभवात, तथा क्षेत्रतोऽप्ययं परमाणुरमुष्मिनाकाशप्रदेशे अमुष्मिन् कालेऽवगाहिष्यते इत्येवमनन्ता एकस्य परमा-18 ३ अल्पयामल णो विनः संयोगाः, यथैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां, तथा द्विप्रदेशकादीनामपि स्कन्धानामनन्तप्रदेश- बहुत्वपदे य० वृत्तौ. स्कन्धपर्यन्तानां प्रत्येकं तत्तदेकप्रदेशाधवगाहभेदतो भिन्नभिन्नकाला अनन्ता भाविनः संयोगाः, तथा कालतो-18 अस्तिका प्ययं परमाणुरमुष्मिनाकाशप्रदेशे एकसमयस्थितिको द्विसमयस्थितिक इत्येवमेकस्यापि परमाणोरेकस्मिनाकाशप्रदे-13 यद्वारं ॥१४॥ शेऽसोया भाथिनः संयोगाः एवं सर्वेष्वपि आकाशप्रदेशेषु प्रसेकमसमषेया भाविनः संयोगाः ततो भूयो भूयस्तेष्वा सूत्रं. ७९ काशप्रदेशेषु परावृत्ती कालस्यानन्तत्वादनन्ताः कालतो भाविनः संयोगाः, यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च प्रत्येकं द्विप्रदेशिकादीनां स्कन्धानां, तथा भावतोऽप्ययं परमाणुरमुष्मिन् काले एकगुणकालको भवतीत्येवमेकस्यापि परमाणोभिन्नभिन्नकाला अनन्ताः संयोगाः, यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेपी परमाणूनां सर्वे-10 Nषां च द्विप्रदेशिकादीनां स्कन्धानां पृथक् पृथक अनन्ता भावतः पुरस्कृतसंयोगाः, तदेवमेकस्यापि परमाणोद्रव्य क्षेत्रकालभावविशेषसम्बन्धयशादनन्ता भाविनः समया उपलब्धाः, यथैकस्य परमाणोतथा सर्वेपां परमाणूनां सर्वेषां । च प्रत्येकं द्विप्रदेशिका(दी)नां स्कन्धानां, न चैतत् परिणामिकालवस्तुव्यतिरेके परिणामिपुद्गलास्तिकायादिन्यतिरेके ॥१४॥ चोपपद्यते, ततः सर्वमिदं तात्त्विकमवसेयं, उक्तं च--"संयोगपुरस्कारश्च नाम भाविनि हि युज्यते काले। न हि संयोगपुरस्कारो बसतां केषांचिदुपपन्नः॥१॥” इति, यथा च सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च द्विप्रदेशिकादीनां स्कन्धानां Mara ~ 286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [७९] दीप अनुक्रम [ २८३] “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [३], उद्देशक: [-], |--------------- दारं [२२], मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत्येकं द्रव्यक्षेत्र कालभावविशेषसम्बन्धवशादनन्ता भाविनोऽद्धासमयाः तथा अतीता अपीति सिद्धः पुद्गलास्तिकायादनन्तगुणोऽद्धासमयो द्रव्यार्थतयेति । उक्तं द्रव्यार्थतया परस्परमल्पबहुत्वम्, इदानीमेतेषामेव प्रदेशार्थ तया तदाह-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय एतौ द्वावपि परस्परं प्रदेशार्थतया तुल्यौ, उभयोरपि लोकाकाशप्रदेश परिमाणप्रदेशत्वात् शेषास्तिकायाद्धासमयापेक्षया च सर्वस्तोकौ, ततो जीवास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, जीवास्तिकाये जीवानामनन्तत्वात् एकैकस्य च जीवस्य लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशत्वात् तस्मादपि पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः कथमिति चेत्, उच्यते, इह कर्मस्कन्धप्रदेशा अपि तावत् सर्वजीवप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः, एकैकस्य जीव प्रदेशस्यानन्तानन्तैः कर्मपरमाणुभिरावेष्टितपरिवेष्टितत्वात् किं पुनः सकलपुद्गलास्तिकाय प्रदेशाः १, ततो भवति जीवास्तिकायात् पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, तस्मादप्यद्धा समयः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, एकैकस्य पुद्गलास्तिकाय प्रदेशस्य प्रागुक्तक्रमेण तत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषसम्बन्धभावतोऽनन्तानामतीताद्धासमयानामनन्तानामनागतसमयानां भावात् तस्मादाकाशास्तिकायः प्रदेशार्थ तयाऽनन्तगुणः, अलोकस्य सर्वतोऽप्यनन्तताभावात् ॥ गतं प्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वम् इदानीं प्रत्येकं द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमाह - सर्वस्तोको धर्मास्तिकायो द्रव्यार्थतया एकत्वात्, प्रदेशार्थतया ऽसङ्ख्येयगुणः, लोकाकाशप्रदेश परिमाणप्रदेशात्मकत्वात् एवमधर्मास्तिकायसूत्रमपि भावनीयम्, आकाशास्तिकायो द्रव्यार्थतया सर्वस्तोकः, एकत्वात्, प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, अपरिमि For Pale Only ~ 287 ~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [68] दीप अनुक्रम [ २८३] “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [३], उद्देशक: [-], |--------------- दारं [२२], मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः या: मल ॥१४२॥ प्रज्ञापना-तत्वात् जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतया सर्वस्तोकः, प्रदेशार्थतयाऽसत्यगुणः, प्रतिजीवं लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशभावात् तथा सर्वस्तोकः पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतया द्रव्याणां सर्वत्रापि स्तोकत्वात् स एव पुद्गलास्तिकाय० वृत्तौ २४ यस्तत्तद्द्रव्यापेक्षया प्रदेशार्थतया चिन्त्यमानोऽसङ्ख्येयगुणः, ननु बहवः खलु जगत्यनन्तप्रदेशका अपि स्कन्धा विद्यन्ते ततोऽनन्तगुणाः कस्मान्न संभवन्ति ?, तदयुक्तं, वस्तुतच्यापरिज्ञानात्, इह हि खल्पा अनन्तप्रदेशकाः स्कन्धाः परमाण्वादयस्त्वतिबद्दचः तथा च वक्ष्यति सूत्रम् — “सबत्थोवा अणतपएसिया खंधा दघट्टयाए, परमाणुपोग्गला दबट्टयाए अनंतगुणा, संखेज्जयएसिया संघा दबट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा दबट्टयाए असंखेजगुणा" इति, ततो यदा सर्व एव पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थतया चिन्त्यते तदाऽनन्तप्रदेशकानां स्कन्धानामतिस्तोकत्वात् परमाणूनां चातिवहुत्वात् तेषां च पृथक् पृथक् द्रव्यत्वात् असत्येयप्रदेशकानां च स्कन्धानां परमाण्वपेक्षयासयेयगुणत्वादसत्येयगुण एवोपपद्यते नानन्तगुण इत्यर्थः, 'अद्धासमए न पुच्छिज्जइ' इति, अद्धासमयो द्रव्यार्थ - प्रदेशार्थतया न पृच्छयते, कुतः ? इत्याह-प्रदेशाभावात्, आह-कोऽयमद्धासमयानां द्रव्यार्थतानियमो ?, यावता | प्रदेशार्थताऽपि तेषां विद्यते एव, तथाहि —यथाऽनन्तानां परमाणूनां समुदायः स्कन्धो भण्यते स च द्रव्यं तदवयवाश्च प्रदेशाः तथेहापि सकलः कालो द्रव्यं तदवयवाश्च समयाः प्रदेशा इति, तदयुक्तं दृष्टान्तदार्शन्ति कबैपम्यात्, परमाणूनां समुदायः तदा स्कन्धो भवति यदा ते परस्परसापेक्षतया परिणमन्ते, परस्परनिरपेक्षाणां केव For Park Use Only ~ 288~ ३ अल्पबहुत्वपदे अस्तिकायद्वारं सूत्रं. ७९ ॥ १४२ ॥ Wor Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशकः [-], -------------- दारं [२२], -------------- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [७९] दीप अनुक्रम [२८३] लपरमाणूनामिव स्कन्धत्वायोगात् , अद्धासमयास्तु परस्परनिरपेक्षा एव, वर्तमानसमयभावे पूर्यापरसमययोरभावात् , ततो न स्कन्धत्वपरिणामः, तद्भावाच नाद्धासमयाः प्रदेशाः, किंतु पृथग् द्रव्याण्येवेति ॥ सम्प्रत्यमीषां |धर्मास्तिकायादीनां सर्वेषां युगपत् द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमाह-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय आकाशा|स्तिकाय एते प्रयोऽपि द्रव्यार्थतया तुल्याः सर्वस्तोकाश्च, प्रत्येकमेकसयाकत्वात् , तेभ्यो धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय एती द्वावपि प्रदेशार्थतयाऽसोयगुणी, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यौ, ताभ्यां जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, अनन्तानां जीवद्रव्याणां भावात् , स एव जीवास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽसक्वेयगुणः, प्रतिजीवमसालेयानां| प्रदेशानां भावात् , तस्मादपि प्रदेशार्थतया जीवास्तिकायात् पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, प्रतिजीवप्रदेश ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलस्कन्धानामप्यनन्तानां भावात् , स एव पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽसधेयगुणः, अत्र |भावना प्रागिय, तस्मादपि प्रदेशार्थतया पुद्गलास्तिकायात् अद्धासमयो द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, अत्रापि भावना प्रागिव, तस्मादष्याकाशास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, सर्वाखपि दिक्षु तस्यान्ताभावात् , अद्धासमयस्य च मनुष्यक्षेत्रमात्रभावात् ॥ गतमस्तिकायद्वारम् , इदानी चरमद्वारमाह एएसि गं भंते ! जीवाणं चरिमाणं अचरिमाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबत्थोवा जीवा अचरिमा चरिमा अणंतगुणा । दारं । (०८०) Murasurary.com तृतीय-पदे (२३) "चरम" द्वारम् आरब्ध: ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [२३], --------------- मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. सूत्रांक [८०] ॥१४॥ ८०-८१ दीप अनुक्रम [२८४] 9999999 इह येषा चरमो भवः संभवी योग्यतयाऽपि ते चरमा उच्यन्ते, ते चार्थात् भव्याः, इतरे अचरमा-अभव्याः | अल्पसिद्धाश्च, उभयेषामपि चरमभवाभावात् , तत्र स्तोका अचरमाः, अभव्यानां सिद्धाना च समुदितानामप्यजघन्यो बहुत्वपदे स्कृष्टयुक्तानन्तकपरिमाणत्वात् , तेभ्योऽनन्तगुणाश्चरमाः, अजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तकपरिमाणत्वात् ॥ गतं चरमद्वारम् , चरमजीअधुना जीवद्वारमाह वद्वारे सू. एएसिणं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं अद्धासमयाणं सबदवाणं सबपएसाणं सबपञ्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा पोग्गला अणंतगुणा अद्धासमपा अर्णतगुणा सबदबा विसेसाहिया साचपएसा अर्थतगुणा सबपञ्जवा अणंतगुणा । दारं । (मू०८१) सर्वस्तोका जीयाः, तेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणाः, तेभ्योऽद्धासमया अनन्तगुणाः, अत्र भावना प्रागेव कृता, तेभ्योऽद्धासमयेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, कथमिति चेत्, उच्यते, इह येऽनन्तरमद्धासमयाः पुद्गलेभ्योऽनन्तगुणा उक्तास्ते प्रत्येक द्रव्याणि ततो द्रव्यचिन्तायां तेऽपि परिगृह्यन्ते तेषु च मध्ये सर्वजीवद्रव्याणि सर्वपुद्गलद्रव्याणि धमाधम्मोकाशास्तिकायद्रव्याणि च प्रक्षिप्यन्ते तानि च समुदितान्यप्यद्धासमयानामनन्तभागकल्पानीति ला॥१४॥ तेषु प्रक्षिप्तेष्यपि मनागधिकत्वं जातं इत्यद्धासमयेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, तेभ्यः सर्वप्रदेशा अनन्तगुणाः, RELIAtunintentiational Tinaurary.com तृतीय-पदे (२४) "जीव" वारम् आरब्ध: ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [२४], --------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: Ratoesसन प्रत सूत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [२८५] आकाशानन्तत्वात् , तेभ्यः सर्वपर्यवा अनन्तगुणाः, एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्तानामगुरुलधुपर्यायाणां भावात् ॥ गतं जीवद्वारम् , अधुना क्षेत्रद्वारमाह खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखेजगुणा तेलुके असंखेजगुणा उडलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया (मू०८२) क्षेत्रस्यानुपातः-अनुसारः क्षेत्रानुपातः तेन चिन्त्यमाना जीवाः सर्वस्तोका ऊ लोकतिर्यग्लोके, इह ऊर्द्धलोकस्य यदधस्तनमाकाशप्रदेशप्रतरं यच तिर्यग्लोकस्य सर्वोपरितनमाकाशप्रदेशप्रतरमेष ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकः, तथाप्रवचनप्रसिद्धेः, इयमत्र भावना-इह सामस्त्येन चतुर्दशरज्वात्मको लोकः, स च त्रिधा भिद्यते, तद्यथा-उर्दू लोकः तिर्यग्लोकोऽधोलोकश्च, रुचकाचैतेषां विभागः, तथाहि-रुचकस्याधस्तान्नव योजनशतानि रुचकस्योपरिKष्टान्नवयोजनशतानि तिर्यग्लोकः, तस्य च तिर्यग्लोकस्याधस्तादधोलोकः उपरिष्टादू लोकः, देशोनसप्तरज्जुप्रमाण ऊ लोकः समधिकसप्तरज्जुप्रमाणोऽधोलोकः मध्येऽष्टादशयोजनशतोच्छ्यस्तिर्यग्लोकः, तत्र रुचकसमाद्भूतलभागानवयोजनशतानि गत्वा यज्योतिश्चक्रस्योपरितनं तिर्यग्लोकसम्बन्धि एकप्रादेशिकमाकाशप्रतरं तत्तिर्यग्लोकप्रतरं तस्य चोपरि यदेकप्रादेशिकमाकाशप्रतरं तदूर्द्धलोकप्रतरं ते वे अप्यू लोकतिर्यग्लोक इति व्यवहियते, तथानादिप्रवचनपरिभाषाप्रसिद्धेः, तत्र वर्तमानाः जीवाः सर्वस्तोकाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह ये ऊर्द्धलोकातिर्यग्लो SAG888325600-390393 READILAna D omarary.org तृतीय-पदे (२५) "क्षेत्र द्वारम् आरब्ध: ~291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], --------------- मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [२८६] प्रज्ञापना- के तिर्यग्लोकादुर्द्धलोके (च) समुत्पधमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ये च तत्रस्था एव केचन तत्प्रतरद्वयाध्या-R३ अल्पयाः मल- सिनो वर्तन्ते ते किल विवक्षिते प्रतरद्वये वर्तन्ते, नान्ये, ये पुनरूद्धलोकादधोलोके समुत्पद्यमानास्तत्प्रतरद्वयं स्पृ-18 बहुत्वपदे यवृत्ती. शन्ति ते न मण्यन्ते, तेषां सूत्रान्तरविषयत्वात् , ततः स्तोका एवाधिकृतप्रतरद्वयवर्त्तिनो जीवाः, ननूद्ध लोकगता क्षेत्रानुसा वल्पब नामपि सर्वजीवानामसपेयो भागोऽनवरतं म्रियमाणोऽवाप्यते, ते च तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं ॥१४४॥ स्पृशन्तीति कथमधिकृतप्रतरद्वयसंस्पर्शिनः तोका?, तदयुक्त, वस्ततत्त्वापरिज्ञानात्, तथाहि-यद्यपि नामोईKलोकगतानां सर्वजीवानामसङ्ख्येयो भागोऽनवरतं नियमाणोऽवाप्यते तथापि न ते सर्व एव तिर्यग्लोके समुत्पद्यन्ते, प्रभूततराणामधोलोके ऊईलोके च समुत्पादात् , ततोऽधिकृतप्रतरद्वयवर्तिनः सर्वस्तोका एव, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके विशेषाधिकाः, इह यदधोलोकस्योपरितनमेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरं यत्र तिर्यग्लोकस्य सर्वाधस्तनमेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरमेतद्वयमप्यधोलोकतिर्यग्लोक इत्युच्यते, तथाप्रवचनप्रसिद्धः, तत्र ये विग्रहगत्या तत्रस्थतया वा वर्तन्ते ते विशेषाधिकाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह येऽधोलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके । ईलिकागत्या समुत्पद्यमाना अधिकृतप्रतरद्वयं स्पृशन्ति ये च तत्रस्था एव केचन तत्प्रतरद्वयमध्यासीना वत्तेन्ते ते ॥१४॥ विवक्षितप्रतरद्वयवर्तिनो, ये पुनरधोलोकादू लोके समुत्पद्यमानास्तत्ततरद्वयं स्पृशन्ति ते न परिगृह्यन्ते, तेषां सूत्रा-IN |न्तरविषयत्वात्, केवलमूर्द्धलोकादधोलोके विशेषाधिका इत्यधोलोकात्तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना ऊर्द्धलोकापेक्षया SAREautatinal A amraryorg ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [ २८६] २. २५ “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [३], उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः विशेषाधिका अवाप्यन्ते ततो विशेषाधिकाः, तेभ्यस्तिर्यग्लोक वर्त्तिनोऽसपेयगुणाः, उक्तक्षेत्राद्विकात्तिर्यग्लोक क्षेत्रस्वासत्रेयगुणत्वात्, तेभ्यस्त्रैलोक्ये -- त्रिलोकसंस्पर्शिनोऽसयेयगुणाः, इद्द ये केवले ऊर्द्धलोकेऽधोलोके तिर्यग्लो के या वर्त्तन्ते ये च विग्रहगत्या ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकौ स्पृशन्ति ते न गण्यन्ते, किं तु ये विग्रहगत्यापन्नास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति ते परिप्रायाः, सूत्रस्य विशेषविषयत्वात्, ते च तिर्यग्लोकवर्त्तिभ्योऽसोयगुणा एव, कथमिति चेत्, उच्यते, इह बहवः प्रतिसमयमूर्द्ध लोकेऽधोलोके च सूक्ष्मनिगोदा उद्वर्त्तन्ते, ये तु तिर्यग्लोकवर्त्तिनः सूक्ष्मनिगोदा उद्वर्त्तन्ते अर्थादघोलोके ऊर्द्धलोके वा केचित्तस्मिन्नेव वा तिर्यग्लो के समुत्पद्यन्ते ततो न ते लोकत्रय संस्पर्शिन इति नाधिकृत सूत्रविषयाः, तत्रोईलोकाधो लोकगतानां सूक्ष्मनिगोदानामुद्वर्त्तमानानां मध्ये केचित् स्वस्थाने एवोर्द्धलोकेऽघोलोके वा समुत्पद्यन्ते केचित्तिर्यग्लोके, तेभ्योऽसयेयगुणा अधोलोकगता ऊर्द्धठोके ऊर्द्धलोकगता अधोलोके ४ समुत्पद्यन्ते, ते च तथोत्पद्यमानास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ती त्यसश्येयगुणाः, कथं पुनरेतदवसीयते यदुत एवंप्रमाणा 8 बहवो जीवाः सदा विग्रहगत्यापन्नाः लभ्यन्ते इति चेत् १, उच्यते, युक्तिवशात्, तथाहि - प्रागुक्तमिदमत्रैव सूत्रं पर्याप्तद्वारे "सबत्थोवा जीवा नोपज्जत्तानो अपजत्ता अपज्जत्ता अनंतगुणा पज्जत्ता संखेज्जगुणा" इति, त एवं नामापर्याप्ता बहवः येनैतेभ्यः पर्याप्ताः सहोयगुणा एव नासश्लेयगुणा नाप्यनन्तगुणाः, ते चापर्यासा बहवोऽन्तरगती वर्त्तमाना लभ्यन्ते इति, तेभ्य ऊर्द्धलोके – ऊर्द्धलोकावस्थिता असत्येयगुणाः, उपपातक्षेत्रस्वातिषडुत्वात्, असो For Parts Only ~ 293 ~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], --------------- मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [२८६] प्रज्ञापना-याना च भागानामुद्वर्तनायाश्च संभपात , तेभ्योऽधोलोके-अधोलोकवर्त्तिनो विशेषाधिकाः, ऊर्द्धलोकक्षेत्रादधो-18 लोकक्षेत्रस्य विशेषाधिकत्वात् । तदेवं सामान्यतो जीवानां क्षेत्रानुपातेनाल्पबहुत्वमुक्तम् , इदानीं चतुर्गतिदण्डक-| बहुत्वपदे याः मलय. वृत्ती. । क्रमेण तदभिधित्सुः प्रथमतो नैरयिकाणामाह गत्यपेक्ष याऽल्प० ॥१४५॥ खेत्ताणुवाएणं सबत्थोवा नेरइया तेलोके अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा, अहोलोए असंखेजगुणा ॥ खेत्ताणुचाएणं सूत्र. ८३ सवत्थोवा तिरिक्खजोणिया उहलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए बिसेसाहिया तिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके असंखेज्जगुणा उहलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवाओ तिरिक्खजोणिणीओ उडलोए उहुलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ ।।खेत्ताणुवाएणं सत्वत्थोवा मणुस्सा तेलोके उद्दलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा अहोलीयतिरियलोए संखेज्जगुणा उड्डलोए संखेजगुणा अहोलोए संखेज्जगुणा तिरियलोए संखेज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा मणुस्सीओ तेलोके उड्डलोयतिरियलोए संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणाओ उड्डलोए संखेजगुणाओ अहो ॥१४५॥ लोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ ॥ खेत्ताणुवाएणं सत्वत्थोवा देवा उड्ढलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणा अहोलोए संखेजगुणा तिरियलोए संखेजगुणा । खेत्ताणुवा ~ 294 ~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], --------------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [२८७]] एणं सत्वत्थोवाओ देवीओ उड्डलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेजगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेज्जगुणाओ (मू०८३) 'क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण नैरयिकाश्चिन्त्यमानाः सर्वतोकाबैलोक्ये-लोकत्रयसंस्पर्शिनः, कथं लोकत्रयसंस्पर्शिनो नैरयिकाः कथं वा ते सर्वस्तोकाः इति चेत् ?, उच्यते, इह ये मेरुशिखरे अञ्जनदधिमुखपर्वतशिखरा-18 दिषु वा वापीषु वर्तमाना मत्स्यादयो नरकेत्पित्सव ईलिकागत्या प्रदेशान् विक्षिपन्ति ते किल त्रैलोक्यमपि स्पृशन्ति नारकव्यपदेशं च लभन्ते तत्कालमेव नरकेपुत्पत्तेनारकायुष्कप्रतिसंवेदनात्, ते चेत्थंभूताः कतिपये इति सर्वस्तोकाः, अन्ये तु व्याचक्षते-नारका एव यथोक्तवापीषु तिर्यपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानाः समुद्घातवशतो विक्षिसनिजात्मप्रदेशदण्डाः परिगृह्यन्ते, ते हि किल तदा नारका एव निर्विवाद, तदायुष्कप्रतिसंवेदनात् , त्रैलोक्यसंस्पििनश्च, यथोक्तवापीर्यावदात्मप्रदेशदण्डस्य विक्षिप्तत्वादिति, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-अधोलोकतिर्यग्लोकसञ्जप्रागुक्तपतरद्वयस्य संस्पर्शिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, यतो बहवोऽसङ्ख्येयेषु द्वीपसमुद्रेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नरकेषुत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततो भवन्ति पूर्वोक्तेभ्योऽसोयगुणाः, क्षेत्रस्यासमातगुणत्वात्, मन्दरादिक्षेत्रादसोयद्वीपसमुद्रात्मक क्षेत्रमसोयगुणमित्यतो भवन्त्यसङ्ख्येयगुणाः, अन्ये त्वभिदधति-नारका एवासयेयेपु द्वीपसमुद्रेषु तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घातेन विक्षिप्तनिजात्मप्रदेशदण्डा द्रष्टव्याः, ते हि नार Anataram.org ~ 295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], --------------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ना- या। मलय०वृत्ती. सूत्रांक [८३] ॥१४६॥ दीप अनुक्रम [२८७]] Sa02938092002020882009 कायुःअतिसंवेदनानारका उद्वर्तमाना अपि असोयाः प्राप्यन्ते इति प्रागुक्तेभ्योऽसयेयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकेऽस- N३अल्पयेयगुणाः, तस्य तेषां स्वस्थानत्वात् । उक्तं नारकगतिमधिकृत्य क्षेत्रानुपातेनाल्पबहुत्वम् , इदानीं तिग्मतिमधि- बहुत्वपदे कृत्याह-इदं सर्वमपि सामान्यतो जीवसूत्रमिव भावनीयं, तदपि तिरश्च एव सूक्ष्मनिगोदानधिकृत्य भावितम् , गत्यपेक्षअधुना तिर्यग्योनिकस्त्रीविषयमल्पबहुत्वमाह-क्षेत्रानुपातेन तिर्यग्योनिकत्रियश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः ऊईलोके, याऽल्प. इह मन्दराद्रिवापीप्रभृतिष्वपि हि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियो भवन्ति, ताश्च क्षेत्रसाल्पत्वात् सर्पस्तोकाः, ताभ्य सूत्रं. ८३ ऊलोकतिर्यग्लोके-ऊईलोकतिर्यग्लोकसब्जे प्रतरद्वये वर्तमानाः असोयगुणाः, कथमिति चेत् १, उच्यते, यावत्सहस्रारदेवलोकतावद्देवा अपि गर्भव्युत्क्रान्तिकतियपञ्चेन्द्रिययोनिपूत्पद्यन्ते किं पुनः शेषकायाः, ते हि यथासंभवमुपरिवर्तिनोऽपि तत्रोत्पद्यन्ते, ततो ये सहस्रारान्ता देवा अन्येऽपि च शेषकाया ऊर्द्धलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यक्पश्चेन्द्रियस्त्रीत्वेन तदायुः प्रतिसंवेदयमाना उत्पद्यन्ते यास्तिर्यग्लोकवर्सिन्यस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्त्रिय ऊईलोके देवत्वेन शेषकायत्वेन चोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुघातेनोत्पत्तिदेशे निजनिजात्मप्रदेशदण्डान् विक्षिपन्ति ता यथोकं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति तिर्यग्योमिकस्त्रियश्च तास्ततोऽसोयगुणाः, क्षेत्रस्यासयेयगुणत्वात्, ताभ्यसैलोक्ये १४६॥ सोयगुणाः, यस्मादधोलोकात् भवनपतिव्यन्तरनारकाः शेषकाया अपि चोईलोकेऽपि तिर्यपञ्चेन्द्रियस्त्रीत्वेनोत्पधन्ते ऊ लोकाद् देवादयोऽप्यधोलोके च ते समवहता निजनिजात्मप्रदेशदण्डैखीनपि लोकान् स्पृशन्ति प्रभूताश्च । alunmurary.om ~ 296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [ २८७] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [३], उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ते तथा तिर्यग्योनिकख्यायुः प्रतिसंवेदनात् तिर्यग्योनिकस्त्रियश्च ततः सङ्ख्येयगुणाः, साभ्योऽघोलोकति ग्लोके - अधोलोकतिर्यग्लोकसज्ञे प्रतरद्वये वर्त्तमानाः सत्येयगुणाः, वहको हि नारकादयः समुद्घातमन्तरेणापि तिर्यलोके तिर्यक्पचेन्द्रिय स्त्रीत्वेनोत्पद्यन्ते तिर्यग्लोकवर्त्तिनश्च जीवास्तिर्यग्योनिकस्त्रीत्वेनाधोलौकिक ग्रामेष्वपि च ते तथोत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति तिर्यग्योनिकरुयायुः प्रतिसंवेदनाथ तिर्यग्योनिक लियोऽपि तथाऽघोलौकिकप्रामा योजनसहस्रावगाहाः पर्यन्तेऽर्वाक् क्वचित्प्रदेशे नवयोजनशतावगाहा अपि तत्र काश्चित्तिर्यग्योनिकस्त्रियोऽवस्थानेनापि यथोक्तप्रतरद्वयाध्यासिन्यो वर्त्तन्ते ततो भवन्ति पूर्वोक्ताभ्यः सधेयगुणाः, ताभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, यतोऽघोलौकिकग्रामाः सर्वेऽपि च समुद्रा योजनसहस्रावगाहाः ततो नवयोजनशतानामधस्तात् या वर्त्तन्ते मत्सीप्रभृतिकास्तिर्यग्योनिक स्त्रियस्ताः स्वस्थानत्वात् प्रभूता इति सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य सशवेयगुणत्वात्, ताभ्यस्तिर्य ग्लोके सङ्ख्येयगुणाः । उक्तं तिर्यग्गतिमप्यधिकृत्याल्पबहुत्वम् इदानीं मनुष्यगति विषयमाह- क्षेत्रानुपातेन मनुष्याश्चिन्त्यमानास्त्रैलोक्ये - त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सर्वस्तोकाः, यतो ये ऊर्द्धलोकादधोलौकिक ग्रामेषु समुत्पित्सवो मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता भवन्ति ते केचित् समुद्घातवशाद् वहिर्निर्गतैः खात्मप्रदेशैखीनपि लोकान् स्पृशन्ति येऽपि चान्ये वैक्रियसमुद्घातमाहारक समुद्घात का गताः [प्राप्ताः ] तथाविधप्रयत्नविशेषात् दूरतरमूर्द्धाधोविक्षिप्तात्मप्रदेशाः ये च केवलिसमुद्घातगतास्तेऽपि त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति स्तोकाचेति सर्वस्तोकाः, For Parts Only ~ 297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], --------------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [२८७]] प्रज्ञापना तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-ऊ लोकतिर्यग्लोकसम्झकप्रतरद्वयसंस्पर्शिनोऽसयेयगुणाः, यत इह वैमानिकदेवाः शेषयाः मल-कायाश्च यथासंभवमू लोकात्तिर्यग्लोके मनुष्यत्वेन समुत्पद्यमाना यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिनो भवन्ति विद्याधराणा- बहुत्वपदे गत्यपेक्षयवृत्ती. मपि च मन्दरादिषु गमनं तेषां च शुक्ररुधिरादिपुद्गलेषु संमूछिममनुष्याणामुत्पाद इति ते विद्याधरा रुधिरादि याऽल्प.. पुद्गलसम्मिश्रा यदा गच्छन्ति तदा संमूछिममनुष्या अपि यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शवन्त उपजायन्ते ते चातिवहव। ॥१४७॥ सूत्रं. ८३ इत्यसोयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-अधोलोकतिर्यग्लोकसम्जे प्रतरद्वये सत्येयगुणाः, यतोऽधोलौकिकयामेषु खभावत एव बहवो मनुष्याः, ततो ये तिर्यग्लोकात् मनुष्येभ्यः शेषकायेभ्यो वाऽधोलौकिकग्रामेषु गर्भव्युक्रान्तिकमनुष्यत्वेन संमूछिममनुष्यत्वेन वा समुत्पित्सवो ये चाधोलोकादधोलौकिकग्रामरूपात् शेषाद्वा मनुष्येभ्यः शेषकायेभ्यो वा तिर्यग्लोके गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यत्वेन वा संमूछिममनुष्यत्वेन वा समुत्पत्तुकामास्ते यथोकं किला प्रतरद्वयं स्पृशन्ति बहुतराच ते तथा खस्थानतोऽपि केचिदधोलौकिकयामेषु यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिन इति ते प्रागुक्तेभ्यः सोयगुणाः, तेभ्यः ऊर्बलोके सोयगुणाः, सौमनसादिक्रीडा) चैत्यवन्दननिमित्तं वा प्रभूततराणां विद्याधरचारणमुनीनां (गमनागमन) भावात् तेषां च यथायोगं रुधिरादिपुद्गलयोगतः संमूछिममनुष्यसंभवात्,18 ॥१४७॥ तेभ्योऽधोलोके सङ्ख्येयगुणाः, खस्थानत्वेन बहुत्वभावात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोके सोयगुणाः, क्षेत्रस्य सोयगुणत्वात् स्वस्थानत्वाच । सम्प्रति क्षेत्रानुपातेन मानुषीविषयमल्पबहुत्यमाह-क्षेत्रानुपातेन मानुष्यश्चिन्त्यमानाः सर्वेसोकाः ~ 298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [२८७]] त्रैलोक्यस्पर्शिन्यः, ऊर्द्धलोकादधोलोके समुत्पित्सूना मारणान्तिकसमुद्घातवशविनिर्गतदूरतरात्मप्रदेशानामथवा वैक्रियसमुद्घातगतानां केवलिसमुद्घातगतानां वा त्रैलोक्यसंस्पर्शनात् तासां चातिस्तोकत्वमिति सर्वस्तोकाः,8 ताभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-ऊलोकतिर्यग्लोकसम्झे प्रतरद्वये सोयगुणाः वैमानिकदेवानां शेषकायाणां चोर्द्धलोकात् तिर्यग्लोके मनुष्यस्त्रीत्वेनोत्पद्यमानानां तथा तिर्यग्लोकगतमनुष्यस्त्रीणामूर्द्धलोके समुत्पित्सूनां मारणान्तिकसमुद्घातवशात् दूरतरमूर्द्धविक्षिप्तात्मप्रदेशानामद्यापि कालमकुर्वन्तीनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शनभावात् तासां चोभयासामपि बहुतरत्वात् , ताभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-प्रागुक्तखरूपे प्रतरद्वयरूपे सोयगुणाः, तिर्यग्लोकाद् मनुष्यस्त्रीभ्यः शेषेभ्यो वाऽधोलौकिकग्रामेषु यदिवाऽधोलौकिकग्रामरूपात् शेषाद्वा तिर्यग्लोके मनुष्यत्रीत्वेनोस्पि-11 सूनां कासाश्चिदधोलौकिकग्रामेष्यवस्थानतोऽपि यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शसंभवात् तासां च प्रागुक्ताभ्योऽतिबहुत्वात् , ताभ्योऽपि ऊलोके सोयगुणाः, क्रीडाथ चैत्यवन्दननिमित्तं वा सौमनसादिषु प्रभूततराणां विद्याधरीणां (गमन)संभवात् , ताभ्योऽप्यधोलोके सपेयगुणाः, खस्थानत्वेन तत्रापि बहुतराणां भावात् , ताभ्यस्तिर्यग्लोके सद्ध्येय-13 गुणाः, क्षेत्रस्य समवेयगुणत्वात् स्वस्थानत्वाच । गतं मनुष्यगतिमधिकृत्याल्पबहुत्वम् , इदानी देवगतिमधिकृत्याहक्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना देवाः सर्वस्तोकाः ऊर्द्धलोके, वैमानिकानामेव तत्र भावात् तेषां चाल्पत्वात् , येऽपि भवनपतिप्रभृतयो जिनेन्द्रजन्ममहोत्सवादी मन्दरादिषु गच्छन्ति तेऽपि खल्पा एवेति सर्वस्तोकाः, तेभ्य ऊर्द्धलोकति-18 ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [३], ---. --.-- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] मज्ञापनाया: मलय.वृत्तौ. ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [२८७]] यंग्लोके-ऊईलोकतिर्यग्लोकसब्जे प्रतरद्वयेऽसयेयगुणाः, तद्धि ज्योतिष्काणा प्रत्यासन्नमिति स्वस्थानं, तथा भव-1| ३ अल्पनपतिव्यन्तरज्योतिष्का मन्दरादौ सौधर्मादिकल्पगताः खस्थाने गमागमेन तथा ये सौधादिषु देवत्वेनोत्पित्सवो बहुत्वपदे देवायुः प्रतिसंवेदयमानाः खोत्पचिदेशमभिगच्छन्ति ते यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततः सामस्त्येन यथोक्तप्रतरद्वय-| गत्यपेक्षसंस्पर्शिनः परिभाग्यमाना अतिवहब इति पूर्वोक्तभ्योऽसोयगुणाः, तेभ्यस्त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सोयगुणाः, यतो।। याऽल्प. भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाः तथाविधप्रयत्नविशेषवशतो वैक्रियसमुद्घातेन समवहताः सन्तः त्रीनपि। सूत्रं. ८३ लोकान् स्पृशन्ति ते चेत्थं समवहताः प्रागुक्तप्रतरद्वयस्पर्शिभ्यः सत्येयगुणाः केवलवेदसोपलभ्यन्ते इति सक्येय-121 गुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-अधोलोकतिर्यग्लोकसजे प्रतरद्वये वर्तमानाः सोयगुणाः, तद्धि प्रतरद्विका भवनपतिव्यन्तरदेवानां प्रत्यासन्नतया खस्थान तथा बहवो भवनपतयः खमवनस्थाः तिर्यग्लोकगमागमेम तथोद्वत्तमानाः तथा क्रियसमुद्घातेन समवहतास्तथा तिर्यग्लोकवर्त्तिनस्तिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्या वा भवनपतित्वेनोत्पद्यमाना भवनपत्यायुरनुभवन्तो यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिनोऽतिबहव इति सङ्ग्येयगुणाः, तेभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, भवनपतीनां स्वस्थानमितिकृत्वा, तेभ्यस्तिर्यग्लोके सोयगुणाः, ज्योतिष्कव्यन्तराणां स्वस्थानत्वात् । अधुना देवी-1॥१४८॥ रधिकृत्याल्पबहुत्वमाह-'खेत्ताणुवाएणं' इत्यादि, सर्व देवसूत्रमिवाविशेषेण भावनीयं । तदेवमुकं देवविषयमीपिकमल्पबहुत्वम् , इदानीं भवनपत्यादिविशेषविषयं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतो भवनपतिविषयमाह ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत eceपरत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [२८८] eeeeeररहन्छ खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा भवणवासी देवा उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तिरियलोए असंखेजगुणा अहोलोए असंखेजगुणा । खेत्ताणुवाएणं सत्वत्थोवाओ भवणवासिणीओ देवीओ उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तिरियलोए असंखेजगुणाओ अहोलोए असंखेजगुणाओ॥ खेचाणुवाएणं सबत्थोवा वाणमंतरा देवा उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके संखेजगणा अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा अहोलोए संखेजगुणा तिरियलोए संखेजगुणा । खेचाणुवाएणं सवत्थोवाओ चाणमंतरीओ देवीओ उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ ॥खेचाणुबाएणं सबथोवा जोइसिया देवा उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा अहोलोए संखेजगुणा तिरियलोए असंखेजगुणा । खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवाओ जोइसिणीओ देवीओ उड्डलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ अहोलोए संखेअगुणाओ तिरियलोए असंखेजगुणाओ॥ खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा वेमाणिया देवा [अन्याय०२०००] उड्डलोयतिरियलोए तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखेजगुणा उडलोए असंखिजगुणा । खिचाणुवाएणं सत्वत्थोवाओ वेमाणिणीओ देवीओ उड्डलोयतिरियलोए तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेजगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ उडलोए असंखेजगुणाओ (मु०८४) ~301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) --------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८४] दीप अनुक्रम [२८८] अज्ञापना क्षेत्रानुपातेन भवनवासिनो देवाश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोका ऊर्बलोके, तथाहि-केषाञ्चित्सौधर्मादिष्वपि कल्पेषु अल्पया: मल पूर्वसंगतिकनिश्रया गमनं भवति, केषाश्चिन्मन्दरे तीर्थकरजन्ममहिमानिमित्तमञ्जनदधिमुखेष्वष्टाहिकानिमित्तमप- बहुत्वपदे यवृत्ती. रेषां मन्दरादिषु क्रीडानिमित्तं गमनमेते च सर्वेऽपि खल्पा इति सर्वस्तोका ऊर्द्धलोके, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोक-18 विशेषेण सम्झे प्रतरद्वये असोयगुणाः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह तिर्यग्लोकस्था बैंक्रियसमुद्घातेन समवहता ऊर्द्ध॥१४९॥ देवानामलोकं तिर्यग्लोकं च स्पृशन्ति तथा ये तिर्यग्लोकस्था एव मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता ऊर्द्धलोके सौधर्मा ल्प.सू.८४ दिषु देवलोकेषु बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकतया बादरपर्याप्ताप्कायिकतया बादरपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायिकतया च । शुभपु मणिविधानादिषु स्थानेषूत्पनुकामा अद्यापि खभवायुः प्रतिसंवेदयमानाः, न पारभविकं पृथिवीकायिकाद्यायुः, द्विविधा हि मारणान्तिकसमुद्घातसमवहता:-केचित्पारभविकमायुः प्रतिसंवेदयन्ते केचिन्नेति, तथा चोक्तं प्रज्ञसी-"जीये णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे भविए मंदरस्स पवयस्स पुरच्छि-1 मे णं वायरपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! किं तत्वगए उववजेजा उयाहु पडिनियत्तित्ता उववजह IN गोयमा ! अत्गइए तत्थगए चेव उववजह अत्यंगइए ततो पडिनियत्तित्ता दोचंपि मारणतियसमुग्घाएणं समो- १४९॥ शाहणति, समोहणित्ता तओ पच्छा उववज्जइ" इति, खभवायुःप्रतिसंवेदनाच ते भवनवासिन एव लभ्यन्ते, ते इत्थंभूता उत्पत्तिदेशे विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डाः तथोड़लोके गमनागमनतस्तत्प्रतरद्वयप्रत्यासन्नक्रीडास्थानतश्च यथोक्तं ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [२८८] प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततः प्रागुक्तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यस्बैलोक्ये-त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सङ्ख्येयगुणाः, यतो ये ऊर्द्धलोके तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया भवनपतित्वेनोत्पत्तुकामा ये च खस्थाने वैक्रियसमुद्घातेन मारणान्तिकप्रथमसमुद्घातेन वा तथाविधतीव्रप्रयत्नविशेषेण समवहतास्ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिन इति सक्येयगुणाः, परस्थानसमवहतेभ्यः खस्थानसमवहतानां सङ्ग्येयगुणत्वात् , तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-अधोलोकतिर्यग्लोकसज्ञे प्रतरद्वयेऽसङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थानप्रसासन्नतया तिर्यग्लोके गमनागमनभावतः खस्थानस्थितक्रोधादिसमुद्घातगमनतश्च बहूनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शभावात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसोयगुणाः, समवसरणादौ वन्दननिमित्तं द्वीपेषु च रमणीयेषु क्रीडानिमित्तमागमनसं-IN भवात् आगतानां च चिरकालमप्यवस्थानात्, तेभ्योऽधोलोकेऽसोयगुणाः, भवनवासिनामधोलोकस्य स्वस्थान-M त्वात् । एवं भवनवासिदेवीगतमप्यल्पबहुत्वं भावनीयं । सम्प्रति व्यन्तरगतमल्पबहुत्वमाह-क्षेत्रानुपातेन चिन्त्य-15 माना व्यन्तराः सर्वस्तोका ऊईलोके, कतिपयानामेव पण्डकवनादौ तेषां भावात् , तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसयेयगुणाः, केषांचित् स्वस्थानान्तर्वर्णितया अपरेषां स्वस्थानप्रत्यासन्नतया अन्येषां बहूनां मन्दरादिषु | गमनागमनभावतो यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शात् , तेषां समुदायेन चिन्त्यमानानामतिबदुत्वभावात् , तेभ्यस्खैलोक्ये सङ्ख्येयगुणाः, यतो लोकत्रयवर्त्तिनोऽपि व्यन्तरास्तथाविधप्रयत्नविशेषवशतो वैक्रियसमुद्घातेन समवहताः सन्तस्त्रीनपि लोकानात्मप्रदेशैः स्पृशन्ति, ते च प्रागुक्तेभ्योऽतिबहव इति सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतर Celeseलरक ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) --------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. विशेषेण सूत्रांक [८४] ॥१५॥ दीप अनुक्रम [२८८] ernerseseeseiserseasesesएटा द्वयरूपे असोयगुणाः, तद्धि बहूनां व्यन्तराणां खस्थानं ततस्तत्संस्पर्शिनो वहब इत्यसङ्ख्येयगुणाः, अधोलोके सलये- अल्प| यगुणाः, अधोलौकिकामेषु तेषां स्वस्थानभावात् बहूनामधोलोके क्रीडार्थ गमनभावात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोके सङ्ग्येय- बहुत्वपदे गुणाः, तिर्यग्लोकस्य तेषां स्वस्थानत्वात्। एवं व्यन्तरदेवीविषयमप्यल्पबहुत्वं वक्तव्यं । सम्प्रति ज्योतिष्कविषयमल्पब देवानामहुत्वमाह-क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना ज्योतिष्काः सर्यस्तोका ऊर्द्धलोके, केषाश्चिदेव मन्दरे तीर्थकरजन्ममहोत्सव ल्प.सू.८४ निमित्तमजनदधिमुखेष्यष्टाहिकानिमित्तं च परेषां केपाश्चिन्मन्दरादिषु क्रीडानिमित्तं गमनसंभवात् , तेभ्य ऊईलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपे असोयगुणाः, तद्धि प्रतरद्वयं केचित् स्वस्थानस्थिता अपि स्पृशन्ति, प्रत्यासन्नत्वात् , अपरे पैक्रियसमुद्घातसमवहताः, अन्ये ऊर्द्धलोकगमनागमनभावतः, ततोऽधिकृतप्रतरदयस्पर्शिनः पूर्वोक्तभ्योऽ|सोयगुणाः, तेभ्यसैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सहयगुणाः, ये हि ज्योतिष्कास्तथाविधतीव्रप्रयल क्रियसमुद्घा| तेन समवहतास्त्रीनपि लोकान् खप्रदेशः स्पृशन्ति ते स्वभावतोऽप्यतिबहव इति पूर्वोक्तभ्यः सवेयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वये वर्तमाना असोयगुणाः, यतो बहवोऽधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादिनिमित्तमधोलोके क्रीडानिमित्तं गमनागमनभावतो बहवचाधोलोकात् ज्योतिष्कप समुत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ॥१५०॥ ततो घटन्ते पूर्वोक्तभ्योऽसोयगुणाः, तेभ्यः सोयगुणा अधोलोके, बहूनामधोलोके क्रीडानिमित्तमधोलीकिक-TRI ग्रामेषु समवसरणादिषु चिरकालावस्थानात् , तेभ्योऽसोयगुणास्तिर्यग्लोके, तिर्यग्लोकस्य तेषां स्वस्थानत्वात् । एवं ~ 304 ~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [ २८८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [३], उद्देशक: [-], ------ दारं [२५], मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ज्योतिष्कदेवीसूत्रमपि भावनीयं । सम्प्रति वैमानिकदेव विषयमल्पबहुत्वमाह – 'क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमाना वैमानिका देवाः सर्वस्तोकाः ऊर्द्धलोकतिर्यग्लो के ऊर्द्ध लोकतिर्यग्लो क सज्जे प्रतरद्वये, यतो येऽधोलोके तिर्यग्लोके वा वर्तमाना जीवा वैमानिकेपूत्वयन्ते ये च तिर्यग्लोके वैमानिका गमनागमनं कुर्वन्ति ये च विवक्षितत्रतरद्वयाध्यासितं क्रीडास्थानं संश्रिता ये च तिर्यग्लोकस्थिता एव वैक्रियसमुद्घातं मारणान्तिकसमुद्घातं वा कुर्वाणास्तथाविधप्रयत्न विशेषादूर्द्धमात्मप्रदेशान् निसृजन्ति ते विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ते चाल्पे इति सर्वस्तोकाः, | तेभ्यस्त्रैलोक्ये सत्येयगुणाः, कथमिति चेत् १, उच्यते, इद्द येऽघोलौकिकप्रामेषु समवसरणादिनिमित्त मधोलोके वा क्रीडानिमित्तं गताः सन्तो वैक्रियसमुद्घातं मारणान्तिकसमुद्घातं वा कुणास्तथाविधप्रयत्नविशेषाद् दूरतरमूर्द्ध विक्षितात्मप्रदेशदण्डा ये च वैमानिकमवादीलिकागत्या व्यवमाना अधोलौकिकग्रामेषु समुत्पद्यन्ते ते किल त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति बहवश्च पूर्वोक्तेभ्य इति सत्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यधो लोकतिर्यग् लोके - अधोलोकतिर्यग्लोकसम्झे प्रतरद्वये सवेयगुणाः, अधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादौ गमनागमनभावतो विवक्षितप्रतरद्वयाध्यासितसमवसरणादौ चावस्थानतो बहूनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्श भावात्, तेभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, अघोलौकिकप्रामेषु बहूनां समवसरणादाववस्थानभावात्, तेभ्यस्तिर्यग्लोके सश्येयगुणाः, बहुषु समवसरणेषु बहुषु च क्रीडास्था For Parts Only ~ 305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [२५], ----------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८४] दीप अनुक्रम [२८८] प्रज्ञापना- नेषु बहनामवस्थानभावात् , तेभ्य ऊवलोकेऽसल्येयगुणाः, ऊईलोकस्य खस्थानत्वात् , तत्र च सदैव बहुतरमायाः मल- वात् । एवं वैमानिकदेवीविषयं सूत्रमपि भावनीयं ॥ सम्प्रत्येकेन्द्रियादिगतमल्पवहुत्वमाह बहुत्वपदे यवृत्ती. खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा एनिदिया जीवा उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखि- क्षेत्रानुपाजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवाएणं सबथोवा एगिदिया तेन देवा॥१५॥ जीवा अपञ्जत्तमा उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिनगुणा तेलोके असंखेज ल्प, एकेगुणा उङ्गलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्ताणुवाएणं सबथोवा एगिदिया जीवा पजत्तगा उडलोयति शन्द्रिया.सू. रियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा ८४-८५ अहोलोए बिसेसाहिया (मु०८५) क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना एकेन्द्रिया जीवाः सर्वस्तोका ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-अईलोकतिर्यग्लोकसम्झे प्रतर-8 द्वये, यतो ये तत्रस्था एव केचन ये चोर्द्धलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकादुईलोके समुत्पित्सवः कृतमारणान्तिकसमु-18 शा॥१५॥ घातास्ते किल विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति खल्पाश्च ते इति सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके विशेषाधिकाः, यतो ये अधोलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके ईलिकागत्या समुत्पद्यमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति पतत्रस्थाश्च ऊर्द्धलोकाचाधोलोके विशेषाधिकास्ततो बहबोऽधोलोकात्तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना अवाप्यन्ते इति । ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [८५] दीप अनुक्रम [ २८९] Educator “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [३], उद्देशक: [-], ------ दारं [२५], मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः | विशेषाधिकाः, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसक्यगुणाः, उक्तप्रतरद्विकक्षेत्रात्तिर्यग्लो कक्षे त्रस्या सोयगुणत्वात्, तेभ्यखेलोक्येऽसश्लेयगुणाः, बहवो बुर्द्धलोकादधोलोके अधोलोकादूर्द्धलोके च समुत्पद्यन्ते तेषां च मध्ये बहवो मारणा|न्तिकसमुद्घातवशाद्विक्षिसात्मप्रदेशदण्डा स्त्रीनपि ठोकान् स्पृशन्ति ततो भवत्यसश्येयगुणाः, तेभ्य ऊर्द्धलोकेऽसयगुणाः, उपपातक्षेत्रस्याति बहुत्वात्, तेभ्योऽधोलोके विशेषाधिकाः, ऊर्द्धलोकक्षेत्रादधोलोकक्षेत्रस्य विशेषाधिकत्यात् । एवमपर्याप्तविषयं पर्याप्तविषयं च सूत्रं भावयितव्यम् ॥ अधुना द्वीन्द्रियविषयमल्पबहुत्वमाह खेत्ताणुवाणं सवत्थोवा विइंदिया उडलोए उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलुके असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिञ्जगुणा तिरियलोए संखिजगुणा । खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा बेइंदिया अपअत्तया उड्डलए उडलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलोके असंखेज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखेअगुणा अहोलोए संखिअगुणा तिरियलोए संखिञ्जगुणा । खित्ताणुवाएणं सङ्घत्थोवा बेइंदिया पजता उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिज्जगुणा ॥ खिचाणुवाणं सवत्थोवा तेइंदिया उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलोके असंखिञ्जगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरिथलोए संखिज्जगुणा । खित्ताणुवारणं सवत्थोवा तेइंदिया अपज्जसया उलोए उडलोगतिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलोके असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखि For Parts Only ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२५], --------------- मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ३ अल्पबहुत्वपदे सुत्रांक विकले. क्षेत्रानु. न्द्रिया० [८६] ॥१५२॥ दीप अनुक्रम [२९०] जगुणा तिरियलोए संखिजगुणा । खित्ताणुवाए सवयोवा तेइंदिया पजत्तया उड्डलोए उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए संखिज्जगुणा । खिताणुवाएर्ण सबथोवा चउरिंदिया जीवा उडलोए उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोर संखिजगुणा। खिचाणुवाएणं सबथोवा चाउरिदिया जीवा अपजत्तया उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिजगुणा । खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा चउरिदिया जीवा पञ्जत्तया उडलोए उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिजगुणा (सू०८६) क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमाना द्वीन्द्रियाः सर्वस्तोका ऊलोके, ऊर्द्धलोकस्यैकदेशे तेषां संभवात् , तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसङ्ख्यगुणाः, यतो ये ऊर्द्धलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकादूई लोके वीन्द्रिय-1 त्वेन समुत्पत्तुकामास्तदायुरनुभवन्त ईलिकागत्या समुत्पद्यते ये च द्वीन्द्रिया एव तिर्यग्लोकादू लोके ऊईलोकाङ्का तिर्यग्लोके द्वीन्द्रियत्वेनान्यत्वेन वा समुत्पत्कामाः कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाताः अत एव द्वीन्द्रियायुः प्रतिसंवेदयमानाः समुद्घातयशाच दूरतरविक्षिप्सनिजात्मप्रदेशदण्डा ये च प्रतरद्वयाध्यासितक्षेत्रसमासीनास्ते यथोक्त PAREnatantamanena ~308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [२५], --------------- मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 229098382 सूत्रांक [८६] प्रतरद्वयसंस्पर्शिनःवहवश्चेति पूर्वोक्तभ्योऽसख्येयगुणाः, तेभ्यस्त्रैलोक्येऽसोयगुणाः, यतो द्वीन्द्रियाणां प्राचुर्येणोत्पत्तिस्थानान्यधोलोके तस्माचातिप्रभूतानि तिर्यग्लोके, तत्र ये वीन्द्रिया अधोलोकालोके द्वीन्द्रियत्वेनान्यत्वेन वा समुत्पनुकामाः कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाताः समुद्घातवशाञ्चोत्पत्तिदेशं यावत् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्ते द्वीन्द्रियायुः प्रतिसंवेदयमानाः ये चो लोकादधोलोके द्वीन्द्रियाः शेषकाया वा यावद् द्वीन्द्रियत्वेन समुत्पद्यमाना द्वीन्द्रियायुरनुभवन्ति ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः ते च बहव इति पूर्वोक्तभ्योऽसत्ये यगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोकप्रतरद्वयरूपेऽसोयगुणाः, यतो येऽधोलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके द्वीन्द्रियत्वेन समुत्पत्तुकामास्तदायुरनुभवन्त ईलिकागत्या समुत्पद्यन्ते ये च द्वीन्द्रियास्तिर्यग्लोकादधोलोके द्वीन्द्रियत्वेन शेषकायत्वेन बोत्पित्सवः कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाता द्वीन्द्रियायुरनुभवन्तः समुद्घातवशेनोत्त्पत्तिदेशं यावद् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्ते यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति प्रभूताश्चेति पूर्वोक्तभ्योऽसोयगुणाः, तेभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, तत्रोत्पसिस्थानानामतिप्रचुराणां भावात् , तेभ्योऽपि तिर्यग्लोके सोयगुणाः, अतिप्रचुरतराणां योनिस्थानानां तत्र भावात्, यदमौधिकं द्वीन्द्रियसूत्रं तथा पर्याप्तापर्याप्तद्वीन्द्रियसूत्रौधिकत्रीन्द्रियपर्याप्सापासौधिकचतुरिन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तसूत्राणि भावनीयानि ॥ साम्प्रतमौधिकपञ्चेन्द्रियविषयमल्पबहुत्वमाहखिताणुचाएणं सवत्थोवा पंचिंदिया तेलुके उड्डलोयतिरियलोए संखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उडलोए दीप अनुक्रम [२९०] । seete ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) ------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना प्रत याःमल-18 सूत्रांक [८७]] य० वृत्ती. ॥१५॥ sececeneseseeeeeeeer दीप अनुक्रम [२९१] संखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा | खित्ताणुवाएणं सत्वत्थोवा पंचिंदिया अपनत्तया तेलोके | ३ अल्पउडलोयतिरियलोए संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उड्डलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरिय बहुत्वपदे लोए असंखिजगुणा । खित्ताणुवाएणं सबथोवा पंचिंदिया पजत्ता उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके क्षेत्रानु संखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा (मू०८७) पञ्चेन्द्रिक्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः सर्वस्तोकाखैलोक्ये-त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः, यतो येऽधोलोकार्द्वलोके | याल्प. ऊलोकाद्वाऽधोलोके शेषकायाः पश्चेन्द्रियायुरनुभवन्त ईलिकागल्या समुत्पद्यन्ते ये च पञ्चेन्द्रिया ऊर्द्धलोकादधो सूत्र.८७ लोके अधोलोकादूर्द्धलोके शेषकायत्वेन पञ्चेन्द्रियत्वेन वोत्पित्सवः कृतमारणान्तिकसमुद्घाताः समुपातपशाचो-11 त्पत्तिदेशं यावत् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डाः पञ्चेन्द्रियायुरद्याप्यनुभवन्ति ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः ते चाल्पे इति सर्वस्तोकाः, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपे असोयगुणाः, प्रभूततराणामुपपातेन समुद्घातेन वा यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शसंभवात् , तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके सङ्ख्येयगुणाः, अतिप्रभूततराणामुपपातसमुद्घाताभ्यामधोलोकतिर्यग्लोकसञ्जप्रतरद्वयसंस्पर्शभावात्, तेभ्य ऊर्द्धलोके समवेयगुणाः, वैमानिकानामवस्थानभावात् , तेभ्योऽधोलोके ॥१५३॥ सङ्ख्येयगुणाः, वैमानिकदेवेभ्यः सोयगुणानां नैरयिकाणां तत्र भावात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, संमूछिमजलचरखचरादीनां व्यन्तरज्योतिष्काणां संमूछिममनुष्याणां तत्र भावात् । एवं पञ्चेन्द्रियापर्याप्तसूत्रमपि भाव ~310 ~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], ------------ मूलं [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८७]] दीप अनुक्रम [२९१] नीयं । पञ्चेन्द्रियपर्याससूत्रमिदम्-'खेत्ताणुवाएणं' इत्यादि, क्षेत्रानुपातेन चिन्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः पर्याप्ताः सर्वस्तोका ऊलोके, प्रायो वैमानिकानामेव तत्र भावात् , तेभ्य ऊईलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसङ्ख्येयगुणाः, विवक्षि-18 तप्रतरद्वयप्रत्यासन्नज्योतिष्काणां तदध्यासितक्षेत्राश्रितव्यन्तरतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां वैमानिकव्यन्तरज्योतिष्कविद्याधर-18 चारणमुनितिर्यक्पश्चेन्द्रियाणामु लोके तिर्यग्लोके च गमनागमने कुर्वतामधिकृतप्रतरद्वयसंस्पर्शात्, तेभ्यत्रैलोक्ये-| त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सोयगुणाः, कथमिति चेत्, उच्यते, यतो ये भवनपतिभ्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः विद्याधरा वाऽधोलोकस्थाः कृतवैक्रियसमुद्घातास्तथाविधप्रयल विशेषादूर्वलोके विक्षिसात्मप्रदेशदण्डास्ते त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति इति सोयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपे सोयगुणाः, बहवो हि व्यन्तराः खस्थानप्र-II स्यासन्नतया भवनपतयस्तिर्यग्लोके ऊर्द्धलोके या व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा अधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादौ अधोलोके क्रीडादिनिमित्तं च गमनागमनकरणतः तथा समुद्रेषु केचित्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः खस्थानप्रत्यासन्नतया अपरे । तदध्यासितक्षेत्राश्रिततया यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततः सोयगुणाः, तेभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, नैरयिकाणां भवनपतीनां च तत्रावस्थानात्, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्काणामवस्थानात्। तदेवमुक्तं पञ्चेन्द्रियाणामल्पबहुत्वम् , इदानीमेकेन्द्रियभेदानां पृथिवीकायिकादीनां पञ्चानामौधिकपर्याप्तापर्यासभेदेन प्रत्येकं त्रीणि त्रीण्यल्पबहुत्वान्याह Runciurary.orm ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) ལླཱ ཡྻ [८७] अनुक्रम [२९१] प्रज्ञापनाया: मल य० वृसौ. ॥१५४॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [३]. उद्देशक: [-], ------ दारं [२५], मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः खितानुवाणं सवत्थोवा पुढविकाइया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलोके असंखिज्जगुणा उडलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्ताणुवारणं सवत्थोवा पुढविकाइया अपजत्तया उडलोयतिरियलोए अहोलोपतिरियलोए बिसेसाहिया तिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलोके असंखिज्जगुणा उड्डलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा पुढविकाइया पजत्तया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलुके असंखिजगुणा उडलोए असंखिञ्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया || खिचाणुवारणं सङ्घत्थोवा आउकाइया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलुके असंखिज्जगुणा उडलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा आउकाइया अपज्जत्तया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिगुणा उडलो असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा आउकाइया पज्जतया उडलोयतिरिलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया || खिचाणुवाएणं सवत्थोवा तेउकाइया उगलोयतिरियलोए अहोलोयति रियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिञ्जगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खिचाणुवा सङ्घत्योवा उकाइया अपजत्तया उडलोयतिरियलोए अहोलोयविरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिञ्जगुणा उडलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खिचाणुवाएणं सवत्थोवा तेउन्हाइया पज्जत्तया उडलो Eucation Internationa For Parts Only ~312~ १ अल्प बहुपदे क्षेत्रानुपा. पृथ्व्यादी नामल्प. सूत्रं. ८८ ॥ १५४॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२५], ------------- मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८८] दीप यतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया ॥ खिचाणुवाएणं सबत्थोवा वाउकाइया अपञ्ज तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया। खिताणुवाएणं सबथोवा बाउकाइया पञ्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उड्डलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया ॥ खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा वणस्सहकाइया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खिताणुवाएणं सबथोरा वणस्सइकाइया अपज्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उङ्गलोए असंखिजगुणा अहोलोए बिसेसाहिया । खिचाणुवाएणं सबथोवा वणस्सइकाइया पजत्तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया (सू०८८) इमानि पञ्चदशापि सूत्राणि प्रागुक्तकेन्द्रियसूत्रवद्भावनीयानि । साम्प्रतमौधिकत्रसकायापर्याप्तपर्यासत्रसकायसूत्राण्याहखित्ताणुवाएणं सबथोवा तसकाइया तेलोके उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उड अनुक्रम [२९२] ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया। मलयवृत्ती. सूत्रांक ३ अल्पबहुत्वपदे क्षेत्रानुपा. वसकायिका०बन्धकाधल्प. [८९] ॥१५५॥ दीप अनुक्रम [२९३] लोए संखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा | खित्ताणुवाएणं सत्थोवा तसकाइया अपजत्तया तेलोके उद्दलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिज्जगुणा उहुलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा । खिचाणुवाएम सबथोवा तसकाइया पजत्चया तेलोके उडलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उडलोए संखिज्जगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा ।। (मू०८९) इमानि पञ्चेन्द्रियसूत्रबद् भावनीयानि । गतं क्षेत्रद्वारम् , इदानी बन्धद्वारं वक्तव्यं-बन्धोपलक्षितं द्वारं, तदाहएएसिणं भंते ! जीवाणं आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं पञ्जनाणं अपञ्जत्ताणं सुत्ताण जागराणं समोहयाणं असमोहयाणं सायावेयगाणं असायावेयगाणं इंदिओवउत्ताणं नोइंदिओवउत्ताणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सबथोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स बंधगा १ अपञ्जतया संखेजगुणा २ सुत्ता संखेनगुणा ३ समोहया संखेजगुणा ४ सायावेयगा संखेजगुणा ५ इंदिओवउत्ता संखेजगुणा ६ अणागारोक्उत्ता संखेजगुणा ७ सागारोवउत्ता संखेजगुणा ८ नोइंदिओवउत्ता विसेसाहिया ९ असायावेयगा विसेसाहिया १० असमोहया विसेसाहिया ११ जागरा विसेसाहिया १२ पञ्जत्तया विसेसाहिया १३ आउयस्स कम्मस्स अबधया विसेसाहिया १४ (मू०९०) ॥१५५॥ तृतीय-पदे (२६) "बन्ध" द्वारम् आरब्ध: ~314 ~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२६], -------------- मूलं [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] दीप अनुक्रम [२९४] इहायुःकर्मबन्धकावन्धकानां पर्याप्तापर्याप्तानां सुप्तजाग्रतां समवहतासमवहतानां सातवेदकासातवेदकानां | इन्द्रियोपयुक्तनोइन्द्रियोपयुक्तानां साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्तानां समुदायेनाल्पबहुत्वं वक्तव्यं, तत्र प्रत्येक तावद् ब्रूमः येन समुदायेन सुखेन तदवगम्यते, तत्र सर्व स्तोकाः आयुषो बन्धका अवन्धकाः सङ्ख्येयगुणाः, यतोऽ-18 नुभूयमानभवायुषि त्रिभागावशेषे पारभविकमायुर्जीवा बभन्ति त्रिभागत्रिभागाद्यवशेषे वा ततो द्वौ त्रिभागावबन्धकाल एकत्रिभागो बन्धकाल इति बन्धकेभ्योऽवन्धकाः सङ्ख्येयगुणाः । तथा सर्वस्तोका अपर्याप्तकाः पर्याप्तकाः सङ्घयेयगुणाः, एतच सूक्ष्मजीवानधिकृत्य वेदितव्यं, सूक्ष्मेषु हि बायो व्याघातो न भवति ततस्तद्भावाद् बहूनां निष्पत्तिः स्तोकानामेव चानिष्पत्तिः । तथा सर्वस्तोकाः सुप्ताः, जागराः सङ्ख्येयगुणाः, एतदपि सूक्ष्मानेकेन्द्रियान-1 अधिकृत्य येदितव्यं, यस्मादपर्यासाः सुप्ता एव लभ्यन्ते, पर्याप्सा जागरा अपि, [उक्तं च मूलटीकाया-"जम्हा अप-18 जत्ता सुत्ता लम्भंति, केइ अपजत्तगा जेसिं संखिज्जा समया अतीता ते य थोवा इयरेऽवि थोवगा घेव सेसा,ISI जागरा पजत्ता ते संखिजगुणा" इति ] जागराः पर्याप्तास्तेन सहयेयगुणा इति । तथा समवहताः सर्वस्तोकाः, यत इह समवहता मारणान्तिकसमुद्घातेन परिगृह्यन्ते, मारणान्तिकश्च समुद्घातो मरणकाले न शेषकालं, तत्रापि न 8 सर्वेषामिति सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽसमवहता असलयेयगुणाः, जीवनकालस्यातिबहुत्यात् । तथा सर्वस्तोकाः सातवेदकाः, यत इह बहवः साधारणशरीरा अल्पे च प्रत्येकशरीरिणः, साधारणशरीराश्च बहवोऽसातवेदकाः खल्पाः सातवेदिनः ~315~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२६], -------------- मूलं [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [९०] दीप अनुक्रम [२९४] प्रत्येकशरीरिणस्तु भूयांसः सातवेदकाः स्तोका असातवेदिनः, ततः स्तोकाः सातवेदकाः तेभ्योऽसातवेदकाः ३ अल्पया: मल- सङ्ख्येयगुणाः । तथा सर्वस्तोका इन्द्रियोपयुक्ताः तेभ्यो नोइन्द्रियोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, इन्द्रियोपयोगो हि प्रत्यु बहुत्वपदे यवृत्ती. त्पन्नकालविषयः ततस्तदुपयोगकालस्य स्तोकत्वात् पृच्छासमये स्तोका अवाप्यन्ते, यदा तु तमेवार्थमिन्द्रियेण दृष्ट्वा आयुर्वेविचारयत्योघसज्ञयाऽपि तदा नोइन्द्रियोपयुक्तः स व्यपदिश्यते ततो नोइन्द्रियोपयोगस्यातीतानागतकालविष न्धकाच ल्प.सू.९० यतया बहुकालत्वात् सङ्ख्येयगुणा नोइन्द्रियोपयुक्ताः । तथा सर्वस्तोका अनाकारोपयुक्ताः, अनाकारोपयोगकालस्य सस्तोकत्वात् , साकारोपयुक्ताः सङ्ख्ययगुणाः, अनाकारोपयोगकालात् साकारोपयोगकालस्य सङ्ख्ययगुणत्वात् ॥ इदानी समुदायगतं सूत्रोक्तमल्पबहुत्वं भाव्यते-सर्वस्तोका जीवा आयुःकर्मणो बन्धकाः, आयुर्वन्धकालस प्रति|नियतत्वात् , तेभ्योऽपर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, यस्मादपर्याप्ता अनुभूयमानभवत्रिभागाद्यवशेषायुषः पारभविकमायुर्षअन्ति ततो द्वी त्रिभागावबन्धकाल एको बन्धकाल इति बन्धकालादवन्धकालः सङ्ख्ययगुणः तेन सवयगुणा | एवापर्याप्ता आयुर्वन्धकेभ्यः, तेभ्योऽपर्याप्सेभ्य सुप्ताः समवेयगुणाः, यस्मादपर्यासेषु पर्यासेषु च सुप्ता लभ्यन्ते, पर्यासाश्चापोंसेभ्यः सोयगुणा इत्यपर्याप्तेभ्यः सुप्ताः सोयगुणाः, तेभ्यः समवहताः सोयगुणाः, बहूनां पर्या-1 सेष्वपर्याप्तेषु मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः सातवेदकाः सञ्जयगुणाः, आयुबन्धकापर्याससुसेष्वपि सातवेदकानां लभ्यमानत्वात् , तेभ्य इन्द्रियोपयुक्ताः सधेयगुणाः, असातवेदकानामपि ॥१५6॥ ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२६], --------------- मूलं [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] दीप अनुक्रम [२९४] इन्द्रियोपयोगस्य लभ्यमानत्वात् , तेभ्योऽनाकारोपयोगोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, इन्द्रियोपयोगेषु नोइन्द्रियोपयोगेषु चानाकारोपयोगस्य लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः साकारोपयुक्ताः सञ्जयेयगुणाः, इन्द्रियोपयोगेषु नोइन्द्रियोपयोगेषु च साकारोपयोगकालस्य बहुत्वात् , तेभ्यो नोइन्द्रियोपयोगोपयुक्ता विशेषाधिकाः, नोइन्द्रियानाकारोपयुक्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् , अत्र विनेयजनानुग्रहार्थमसभावस्थापनया निदर्शनमुच्यते-इह सामान्यतः किल साकारोपयुक्ता द्विनवत्यधिकं शतं १९२, ते च किल द्विधा-इन्द्रियसाकारोपयुक्ता नोइन्द्रियसाकारोपयुक्ताच, तत्रेन्द्रियसाकारोपयुक्ताः किलातीव स्तोका इति विंशतिसङ्ख्याः कल्प्यन्ते, शेषं द्विसप्तत्युत्तरशतं १७२ नोइन्द्रियसाकारोपयुक्ताः,8 नोइन्द्रियानाकारोपयुक्ताश्च द्विपञ्चाशत्कल्पाः, ततः सामान्यतः साकारोपयुक्तेभ्यः इन्द्रियसाकारोपयुक्तेषु विंशतिक-I ल्पेष्वपनीतेषु द्विपञ्चाशत्कल्पेषु अनाकारोपयुक्तेषु तेषु मध्ये प्रक्षिप्तेषु द्वे शते चतुर्विशत्यधिके भवतः, ततः साकारो-18 पयुक्तेभ्यो नोइन्द्रियोपयुक्ता विशेषाधिकाः, तेभ्योऽसातवेदका विशेषाधिकाः, इन्द्रियोपयुक्तानामप्यसातवेदकत्वात् , तेभ्योऽसमवहता विशेषाधिकाः, सातवेदकानामप्यसमवहतत्वभावात, तेभ्यो जागरा विशेषाधिकाः, सम-18 वहतानामपि केषांचिजागरत्वात्, तेभ्यः पर्याप्ताः विशेषाधिकाः, सुप्तानामपि केपाश्चित्पर्याप्तत्वात् , सुप्ता हि पर्याप्सा अपि भवन्ति जागरास्तु पर्याप्सा एवेति नियमः, तेभ्योऽपि पर्याप्तेभ्यः आयुःकर्मबन्धकाः विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामप्यायुःकर्मबन्धकत्वभावात्, इदमेवाल्पबहुत्वं विनेयजनानुग्रहाय स्थापनाराशिभिरुपदश्यते-इह द्वे ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२६], --------------- मूलं [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत याः मलयवृत्ती. सुत्रांक [९०] ॥१५७॥ दीप अनुक्रम [२९४] पडी उपर्यधोभावेन न्यस्येते, तत्रोपरितन्या पत्रावायुःकर्मबन्धका अपर्यासाः सुप्ताः समवहताः सातवेदका इन्द्रि-18 योपयुक्ताः अनाकारोपयुक्ताः क्रमेण स्थाप्यन्ते, तस्या अधस्तन्यां पकी तेषामेव पदानामधस्तात् यथासङ्ग्यमायुर- बहुत्वपदे बन्धकाः पर्याप्ता जागरा असमबहता असातवेदका नोइन्द्रियोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः । स्थापना चेयं आयुबेआयुर्वन्धकाः १ अपर्याप्ताः २ सुप्ताः ४ समवहताः न्धकाद्य८ सातवेदकाः १६ इन्द्रियोपयुक्ताः ३२ अनाकारोपयुक्ताः ६० आयुरबन्धकाः २५५ पर्याप्ताः २५४ जागराः २५२ असमवहताः २४८ असातवेदकाः २४० नोइन्द्रियोपयुक्ताः २२४ साकारोपयुक्ताः १९२ ल्पसू९० अनोपरितम्यां पडी सर्वाण्यपि पदानि सञ्जयेयगुणानि, आयुःपदं सर्वेषामाद्यमिति तत्परिमाणसङ्ग्यायामेकः स्थाप्यते, |ततः शेषपदानि किल जघन्येन सङ्ख्येयेन सङ्ग्येयगुणानीति द्विगुणद्विगुणाङ्कः तेषु स्थाप्यते, तद्यथा-द्वौ चत्वारः अष्टौ | षोडश द्वात्रिंशत् चतुष्पष्टिः, सर्वोऽपि जीवराशिरनन्तानन्तखरूपोऽप्यसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपरिमाणः | परिकल्प्यते, ततोऽस्माद् राशेरायुर्वन्धकादिगताः सङ्ख्याः शोधयित्वा यद्यत् शेषमवतिष्ठति तत्तदायुरवन्धकादीनां परिमाणं स्थापयितव्यं, तद्यथा-आयुरबन्धकादिपदे वे शते पञ्चपञ्चाशदधिके, शेषेषु यथोक्तक्रमं द्वे शते चतुःपञ्चा- ॥१५७॥ शदधिके द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके द्वे शते चत्वारिंशदधिके द्वे शते चतुर्विंशत्यधिक द्विनवत्यधिकं शतं, एवं च सत्युपरितनपक्लिगतान्यनाकारोपयुक्तपर्यन्तानि पदानि सोयगुणानि द्विगुणद्विगुणा HTurmurary.org ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [२६], --------------- मूलं [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] रsesed दीप अनुक्रम [२९४] धिकत्वात् , ततः परं साकारोपयुक्तपदमपि सोयगुणं त्रिगुणत्वात् , शेषाणि तु नोइन्द्रियोपयुक्तादीनि प्रतिलोमं विशेषाधिकानि, द्विगुणत्वस्यापि कचिदभावात् ॥ तदेवं गतं बन्धद्वारम् , इदानीं पुद्गलद्वारमाहखित्ताणुवाएणं सबथोवा पुग्गला तेलोके उद्दलोयतिरियलोए अर्णतगुणा अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सबथोवा पुग्गला उडदिसाए अहोलोए विसेसाहिया उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपञ्चस्थिमेण य दोवि तुल्ला असंखिजगुणा दाहिणपुरच्छिमेण उत्तरपञ्चत्थिमेण य दोवि विसेसाहिया पुरच्छिमेणं असंखिजगुणा पञ्चस्थिमेणं विसेसाहिया दाहिणेणं विसेसाहिया उत्तरेणं विसेसाहिया ।। खित्ताणुवाएणं सबथोवाई दवाई तेलोके उडलोयतिरियलोए अणंतगुणाई अहोलोयतिरियलोए विसेसाहियाई उहलोए असंखिजगुणाई अहोलोए अर्णतगुणाई तिरियलोए संखिजगुणाई ॥ दिसाणुवाएणं सबथोवाई दबाई अहोदिसाए उहृदिसाए अर्णतगुणाई उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपञ्चत्थिमेण य दोवि तुल्लाई असंखिजगुणाई दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपचत्थिमेण य दोषि तुलाई विसेसाहियाई पुरच्छिमेणं असंखिजगुणाई पञ्चस्थिमेणं विसेसाहियाई दाहिणेणं विसेसाहियाई उत्तरेणं विसेसाहियाई (मू०९१) इदमल्पबहुत्वं पुद्गलानां द्रव्यार्थत्वमङ्गीकृत्य व्याख्येयं, तथासम्प्रदायात्, तत्र क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमानाः पुद्गलाबैलोक्ये-त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सर्वस्तोकाः, सर्वस्तोकानि त्रैलोक्यव्यापीनि पुगलद्रव्याणीति Cameroeseiseserceleratoerce seocoea श jaundinrary.orm तृतीय-पदे (२७) "पुद्गल, दिशा-आदि" द्वारम् आरब्ध: ~ 319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. face सत्राक [९१] ॥१५८॥ दीप अनुक्रम [२९५] भावः, यस्मात् महास्कन्धा एव त्रैलोक्यच्यापिनः ते चाल्पा इति, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकेऽनन्तगुणाः, यतस्ति- | ३ अल्पयंग्लोकस्य यत्सर्वोपरितनमेकप्रादेशिकं प्रतरं यचो लोकस्य सर्वाधस्तनमेकप्रादेशिकं प्रतरमेते द्वे अपि प्रतरे ऊर्द्ध- वहुत्वपदे लोकतियेग्लोक उच्यते ते चानन्ताः सज्ञयेयप्रादेशिकाः अनन्ता असहयेयप्रादेशिकाः अनन्ता अनन्तप्रादेशिकाः क्षेत्रदिस्कन्धाः स्पृशन्तीति द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रागुक्तप्रकारेण प्रतरद्वयरूपे विशेषाधिकाः, ग्भ्यां पुन |क्षेत्रस्याऽऽयामविष्कम्भाभ्यां मनाग विशेषाधिकत्वात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्थासङ्ख्येयगुणत्वात्, ते लद्रव्याभ्यऊर्द्धलोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, यतस्तिर्यग्लोकक्षेत्रादूर्द्धलोकक्षेत्रमसङ्ख्येयगुणमिति, तेभ्योऽधोलोके विशेषाधिकाः, ऊर्द्ध ल्प.सू.९१ लोकादधोलोकस्य विशेषाधिकत्वात. देशोनसप्तरजप्रमाणो बईलोकः समधिकसप्तरजप्रमाणस्त्वधोलोकः ॥ सम्प्रति दिगनुपातेनाल्पबहुत्वमाह-'दिगनुपातेन दिगनुसारेण चिन्त्यमानाः पुद्गलाः सर्वस्तोकाः ऊर्द्धदिशि, इह रत्नप्रभा-1 समभूतलमेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकस्तस्माद्विनिर्गता चतुःप्रदेशा ऊदिर यावलोकान्तस्ततस्तत्र सर्वस्तोकाः पुद्गलाः, तेभ्योऽधोदिशि विशेषाधिकाः, अधोदिगपि रुचकादेव प्रभवति चतुष्प्रदेशा यावल्लोकान्तस्ततस्तस्या विशेषाधिकत्वात् तत्र पुद्गला विशेषाधिकाः, तेभ्य उत्तरपूर्वस्या दक्षिणपश्चिमायां च प्रत्येकमसलयेयगुणाः, खस्थाने तु पर-1॥१५॥ स्परं तुल्याः, यतस्ते द्वे अपि दिशौ रुचकाद्विनिर्गते मुक्तावलिसंस्थिते तिर्यग्लोकान्तमधोलोकान्तमू लोकान्तं पर्यवसिते, तेन क्षेत्रस्थासङ्ख्येयगुणत्वात्तत्र पुद्गला असङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रं तु स्वस्थाने सममिति मुद्गला अपि स्वस्थाने ४ ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सत्राक [९१] sestaelaeraesesereectrsesenes दीप अनुक्रम [२९५] तुल्याः, तेभ्योऽपि दक्षिणपूर्वस्यामुत्तरपश्चिमाया च प्रत्येकं विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, कथं विशे-19 पाधिका इति चत् ?, उच्यते, इह सौमनसगन्धमादनेषु सप्त सप्त कटानि विद्युत्प्रभमाल्यवतोनेव नव, तेषु च कूटेपु धूमिका अवश्यायादिसूक्ष्मपुद्गलाः प्रभूताः संभवन्ति ततो विशेषाधिकाः, खस्थाने तु क्षेत्रस्य पर्वतादेव समा-1| नत्वात् तुल्याः, तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि असावेयगुणाः, क्षेत्रस्यासळयेयगणत्वात. तेभ्यः पश्चिमायाँ विशेषाधिकाः। अधोलौकिकग्रामेषु शुपिरभावतो बहूनां पुद्गलानामवस्थानभावात. दक्षिणेन विशेषाधिकाः, बहुभुवन पिरभावात्, तेभ्य उत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यत उत्तरस्यामायामविष्कम्भाभ्यां समवेययोजनकोटीकोटीप्रमाणं मानर्स सरस्तत्र ये जलचराः पनकसेवालादयश्च सत्त्वास्ते अतिवहव इति तेषां ये तैजसकार्मणपुद्गलास्तेऽधिकाः प्राप्यन्ते इति पूर्वोक्तभ्यो विशेषाधिकाः ॥ तदेवं पुद्गलविषयमल्पवहुत्वमुक्तम , इदानी सामान्यतो द्रग्यविषयं क्षेत्रानुपातेनाह-11 क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानानि द्रव्याणि सर्वस्तोकानि त्रैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शानि, यतो धर्मास्तिकायाधम्मास्तिकायाकाशास्तिकायद्रव्याणि पुद्गलास्तिकायस्य महास्कन्धा जीवास्तिकायस्य मारणान्तिकसमुद्घातेनातीय समयहता जीवाः त्रैलोक्यव्यापिनः ते चाल्पे इति सर्वस्तोकानि, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-प्रागुक्तखरूपप्रतरद्वयात्म| केऽनन्तगुणानि, अनन्तैः पुद्गलद्रव्यैरनन्तैर्जीवद्रव्यस्तस्य संस्पर्शात् , तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके विशेषाधिकानि, ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकादधोलोकतिर्यग्लोकस्य मनाग् विशेषाधिकत्वात् , तेभ्य ऊर्द्धलोकेऽसोयगुणानि, क्षेत्रस्थासययगुण ~321~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२७], ------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मज्ञापना- या:मल-1 यवृत्ती. सत्राक [९१] ॥१५९॥ दीप अनुक्रम [२९५] त्वात् , तेभ्योऽधोलोकेऽनन्तगुणानि, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इहाधोलौकिकग्रामेषु कालोऽस्ति, तस्य च कालस्य | ३ अल्पतत्तत्परमाणुसङ्ख्यासवे यानन्तप्रादेशिकद्रव्यक्षेत्रकालभावपर्यायसम्बन्धवशात् प्रतिपरमाण्वादिद्रव्यमनन्तता ततो बहुत्वपदे भवन्त्यधोलोकेऽनन्तगुणानि, तेभ्यस्तिर्यग्लोके सङ्ग्येयगुणानि, अधोलौकिकग्रामप्रमाणानां खण्डानां मनुष्यलोके । क्षेत्रदिकालद्रव्याधारभूते सङ्खयेयानामवाप्यमानत्वात् ॥ सम्प्रति दिगनुपातेन सामान्यतो द्रव्याणामल्पबहुत्वमाह-'दिग-18 नुपातेन' दिगनुसारेण चिन्त्यमानानि सामान्यतो द्रव्याणि सर्वस्तोकान्यधोदिशि-प्राग्व्यावर्णितखरूपायां, तेभ्य ऊई-181 लद्रव्यादिश्यनन्तगुणानि, किं कारणमिति चेत् ?, उच्यते, इहोर्द्धलोके मेरोः पञ्चयोजनशतिकं स्फटिकमयं काण्डं, तत्र चन्द्रादित्यप्रभाऽनुप्रवेशात् द्रव्याणां क्षणादिकालप्रतिभागोऽस्ति, कालस्य च प्रागुक्तनीत्या प्रतिपरमाण्वादिद्रव्यमा-18 नन्त्यात् तेभ्योऽनन्तगुणानि, तेभ्य उत्तरपूर्वस्वामीशान्यां दक्षिणपश्चिमायां नैऋतकोणे इत्यर्थः असङ्ख्येयगुणानि, क्षेत्रस्थासङ्ख्येय गुणत्वात् , खस्थाने तु द्वयान्यपि परस्परं तुल्यानि, समानक्षेत्रत्वात् , तेभ्यो दक्षिणपूर्वस्याम्-आमेय्यामुत्तरपश्चिमायां-वायव्यकोणे इति भावः विशेषाधिकानि, विद्युत्प्रभमाल्यवत्कूटाश्रितानां धूमिकाऽवश्यायादिश्लक्ष्णपुद्गलद्रव्याणां बहूनां संभवात् , तेभ्यः पूर्वस्यां दिश्यसङ्ख्येयगुणानि, क्षेत्रस्थासङ्ख्ययगुणत्वात् , तेभ्यः पश्चि-18॥१५९॥ मायां विशेषाधिकानि, अधोलौकिकयामेषु शुषिरभावतो बहूनां पुद्गलद्रव्याणामवस्थानसंभवात, ततो दक्षिणस्यां । दिशि विशेषाधिकानि, बहुभुवनशुषिरभावात् , तत उत्तरस्यां विशेषाधिकानि, तत्र मानससरसि जीवद्रव्याणां सदा Deceae ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२९५] Jin Eucator “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [३]. उद्देशक: [-], ------ दारं [२७], मूलं [९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ***99090923 श्रितानां तैजस कार्मणपुद्गलस्कन्धद्रव्याणां च भूयसां भावात् ॥ सम्प्रति परमाणुपुद्गलानां सोयप्रदेशानामसङ्ख्येयप्रदेशानामनन्तप्रदेशानां परस्परमल्पबहुत्वमाह एएसि णं भंते! परमाणुषोग्गलाणं संखेज्जपएसियाणं असंखेअपएसियाणं अणतपएसियाण य खंधाणं दबट्टयाए पएसयाए दबपएस याए करे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवा अणतपएसिया खंधा दवद्वयाए परमाणुपोग्गला दबट्टयाए अनंतगुणा संखेजपएसिया खंधा दबट्टयाए संखेअगुणा असंखपएसिया खंधा दवाए असंखेजगुणा परसहयाए सबत्थोवा अणतपएसिया संधा पएसइयाए परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए अनंतगुणा संखेज्जपएसिया खंधा पएस ट्टयाए संखेज्जगुणा असंखपएसिया खंधा परसहयाए असंखेजगुणा दवद्वपregate सवत्थोवा अनंतपएसिया खंधा दट्टयाए ते चेत्र पएसट्टयाए अनंतगुणा परमाणुपोम्गला दबढपएस याए अनंतगुणा संखेअपएसिया खंधा दबट्टयाए संखेजगुणा ते चैव पएसट्ट्याए संखेज्जगुणा असंखपएसिया खंधा दवयाए असंखेजगुणा ते चैव परसट्टयाए असंखेजगुणा ॥ एएसिणं भंते! एगपएसोगाढाणं संखेज्जपरसोगाढाणं असंअपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दवहयाए पएसइयाए दडपएसइयाए कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा एगपएसोगाढा पोम्गला दबट्टयाए संखेजपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए संखेज्जगुणा असंखेजपएसोगाढा पोग्गला दवट्टयाए असंखेज्जगुणा पएसइयाए सवत्थोवा एगपएसोगाढा पोम्गला For Parts Only ~ 323~ statatatata andrary org Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥१०॥ 9939790 apers ३ अल्पबहुत्वपदे द्रव्यक्षेत्रकालभावाल्प.सू. [९२] पएसट्ठयाए संखिजपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए संखिजगुणा असंखिजपएसोगाढा पुग्गला पएसहयाए असंखेजगुणा दबहपएसट्टयाए सवथोवा एगपएसोगाढा पुग्गला दबट्ठपएसढयाए संखिजपएसोगाढा पुग्गला दबट्टयाए संखिजगुणा ते चेव पएसद्वयाए संखिजगुणा असंखिजपएसोगाढा पुग्गला दबट्टयाए असंखिजगुणा ते चेव पएसट्टयाए असं खिजगुणा । एएसि णे भन्ते! एगसमयठियाणं असंखिजसमयठिइयाणं पुग्मलाणं दबयाए पएसट्टयाए दबढपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सवत्थोवा एगसमयठिइया पुग्गला दबट्ठयाए संखिजसमयठिझ्या पुग्गला दबट्ठयाए संखिजगुणा असंखिजसमयठिइया पुग्गला दबट्टयाए असंखिजगुणा पएसहयाए सबथोवा एगसमयठिया पुग्गला पएसट्टयाए संखिजसमयठिड्या पुग्गला पएसहयाए संखेजगुणा असंखिजसमयठिइया पुग्गला पएसट्टयाए असंखेजगुणा दबट्टपएसट्टयाए सव्वत्थोवा एगसमयठिइया पुग्गला दबहपएसट्टयाए संखिजसमयठिया पुग्गला दबट्ठयाए संखिजगुणा ते चेव पएसद्वयाए संखिजगुणा असंखिजसमयठिझ्या पुग्गला दबट्टयाए असंखिजगुणा ते चेव पएसद्वयाए असंखिजगुणा । एएसि णं भंते एगगुणकालगाणं संखिजगुणकालगाणं असंखिजगुणकालगाणं अर्णतगुणकालगाण य पुग्गलाणं दबट्टयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्टयाए य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! जहा पुग्गला तहा भाणियहा, एवं संखिजगुणकालगाणवि, एवं सेसावि वण्णा मंधा रसा फासा भाणियबा, फासाणं कक्खडमउयगुरुपलहुयाणं जहा एगपएसोगाढाणं भणियं तहा भाणिया । अवसेसा फासा जहा बना तहा भाणियबा ॥ दारं (सू०९२) दीप अनुक्रम [२९६] टायट ॥१६॥ ~324 ~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९२] दीप अनुक्रम [२९६] 'एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेजपएसियाणं' इत्यादि पाठसिद्ध, नवरमत्राल्पबहुत्वभावनायां सर्वत्र तथाखाभाव्यं कारणं वाच्यं । सम्प्रत्येतेषामेव क्षेत्रप्राधान्येनाल्पबहुत्वमाह-इह क्षेत्राधिकारतः क्षेत्रस्य प्राधान्यात परमाणुकाधनन्ताणुकस्कन्धा अपि विवक्षितकप्रदेशावगाढा आधाराधेययोरभेदोपचारादेकद्रव्यत्वेन व्यवाहियन्ते. ते इत्थंभूता एकप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः-पुद्गलद्रव्याणि सर्वस्तोकानि, लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानीत्यर्थः, न हि स कश्चिदे-II |वंभूत आकाशप्रदेशोऽस्ति य एकप्रदेशावगाहनपरिणामपरिणतानां परमाण्वादीनामवकाशदानपरिणामेन परिणतो ना वर्तते इति, तेभ्यः सञ्जयेयप्रदेशावगाढाः पुद्गला द्रव्यार्थतया समवेयगुणाः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इहापि क्षेत्रस्य प्राधान्यात् यणुकाद्यनन्ताणुकस्कन्धा द्विप्रदेशावगाढा एकद्रव्यत्वेन विवक्ष्यन्ते, तानि च तथाभूतानि पुद्गलद्रव्याणि पूर्वोक्तेभ्यः सवधेयगुणानि, तथाहि-सर्वलोकप्रदेशातत्त्वतोऽसत्येया अपि असत्कल्पनया दश परिकल्प्यन्ते, तेच प्रत्येकचिन्तायां दर्शवेति दश एकप्रदेशावगाढानि पुद्गलद्रव्याणि लब्धानि, तेष्वेव च दशसु प्रदेशेषु अन्यग्रहणान्यमोक्षणद्वारेण बहवो द्विकसंयोगा लभ्यन्ते इति भवन्त्येकप्रदेशावगाढेभ्यो द्विप्रदेशावगाढानि पुद्गलद्रव्याणि सङ्ख्येयगुणानि एवं तेभ्योऽपि त्रिप्रदेशावगाढानि एवमुत्तरोत्तरं यावदुत्कृष्टसङ्खयेयप्रदेशावगाढानि, ततः स्थितमेतत्-एकप्रदेशावगाढेभ्यः सङ्खयेयप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः द्रव्यार्थतया सङ्ख्येयगुणा इति, एवं तेभ्योऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाढाः। पुद्गला द्रव्यार्थतया असङ्ख्येयगुणाः, असङ्ख्यातस्थासङ्ख्यातभेदभिन्नत्वात् , द्रव्यार्थतासूत्रं प्रदेशार्थतासूत्रं द्रव्यपर्याया 202229032953 ~325~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) ------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [९२] दीप अनुक्रम [२९६] प्रज्ञापना- तासूत्रं च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयं, कालभाषसूत्राण्यपि सुगमत्वात् वयं भावयितव्यानि, नवरं जहा पर जहाअल्पयाः मल-1 पोग्गला तहा भाणियबा' इति यथा प्राक सामान्यतः पुद्गला उक्तास्तथा एकगुणकालकादयोऽपि वक्तव्याः, ते बहुत्वपदे यवृत्ती. चैवम्-यतः 'सवत्थोवा अणंतपएसिआ खंधा एगगुणकालगा, परमाणुपुग्गला दबट्टयाए एगगुणकालगा अणंत- द्रव्यक्षेत्र॥१६॥ गुणा, संखिजपएसिया खंधा एगगुणकालगा संखिजगुणा, असंखिजपएसिआ खंधा एगगुणकालगा असंखिज-8 कालभागुणा । पएसठ्ठयाए सबथोवा अणंतपएसिआ खंधा एगगुणकालगा, परमाणुपुग्गला एगगुणकालगा अर्णतगुणावाल्प.सू. इत्यादि' एवं सोयगुणकालकानामसहयगुणकालकानामनन्तगुणकालकानामपि चाय, एवं शेषवर्णगन्धरसा अपि वक्तव्याः, कर्कशमृदुगुरुलघवः स्पर्शी यथा एकप्रदेशाद्यवगाढा भणितासथा वक्तव्याः, ते चैवम्-'सबथोवा एगपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा दबट्टयाए, संखिजपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा पोग्गला दबट्टयाए |संखिजगुणा, असंखिजपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा दवट्ठयाए असंखिजगुणा' इत्यादि, एवं सक्येयगुणकर्कशस्पर्शा असक्वेयगुणकर्कशस्पर्शा अनन्तगुणकर्कशस्पर्शा वाच्याः, एवं मृदुगुरुलघवः, अवशेषाश्चत्वारः शीतादयः स्पशों यथा वर्णादय उक्तास्तथा वक्तव्याः, तत्र पाठोऽप्युक्तानुसारेण खयं भावनीयः । गतं पुद्गलद्वारम् , इदानीं ॥१६॥ | महादण्डक विवक्षुर्गुरुमापृच्छति अहं भंते ! सबजीवप्पबहुं महादण्डयं वनस्सामि-सव्वत्थोवा गम्भवतिया मणुस्सा १ मणुस्सीओ संखिजगुणाओ २ Seat.ceseseksee ~ 326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], -- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], ------- मूल [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [२९७] Feeeeeeoटटटट बायरतेउकाइआ पजत्तया असंखिजगुणा ३ अणुत्तरोववाइया देवा असंखिजगुणा ४ उपरिमगेविजगा देवा संखिजगुणा ५ मज्झिमगेबिजगा देवा संखिजगुणा ६ हिहिमगेविजगा देवा संखिजगुणा ७ अशुए कप्पे देवा संखिजगुणा ८ आरणे कप्पे देवा संखिजगुणा ९ पाणए कप्पे देवा संखिजगुणा १० आणए कप्पे देवा संखिजगुणा ११ अहे सत्तमाए पुढवीए नेरइया असंखिजगुणा १२ छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइया असंखिजगुणा १३ सहस्सारे कप्पे देवा असंखिजगुणा १४ महासुके कप्पे देवा असंखिजगुणा १५ पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइआ असंखिजगुणा १६ लंतए कप्पए देवा असंखिजगुणा १७ चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरदा असखिजगुणा १८ भलोए कप्पे देवा असंखिजगुणा १९ तचाए वालुयप्पभाए पुढवीए नेरइआ असंखिजगुणा २० माहिदे कप्पे देवा असंखिजगुणा २१ सणकुमारे कप्पे देवा असंखिजगुणा २२ दोच्चाए सकरप्पभाए पुढवीए नेरझ्या असंखिजगुणा २३ समुच्छिमा मणुस्सा असंखिजगुणा २४ ईसाणे कप्पे देवा असंखिजगुणा २५ ईसाणे कप्पे देवीओ संखिजगुणाओ २६ सोहम्मे कप्पे देवा संखिजगुणा २७ सोहम्मे कप्पे देवीओ संखेजगुणाओ २८ भवणवासी देवा असंखेजगुणा २९ भवणवासिणीओ देवीओ संसेजगुणाओ ३० इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइआ असंखिजगुणा ३१ खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा असंखिजगुणा ३२ खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिजगुणाओ३३ थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ पुरिसा संखिजगुणा ३४ थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिजगुणाओ ३५जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ पुरिसा संखिजगुणा ३६ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिअगुणाओ ३७ वाणमंतरा देवा संखिजगुणा ३८ वाणमंतरीओ देवीओ संखिजगुणाओ ३९ ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [२७], --------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती ३अल्पबहत्वपदे महादण्डकासू.९३ सत्राक [९३] ॥१६॥ दीप अनुक्रम [२९७] Recenese जोइसिया देवा संखिजगुणा ४० जोइसिणीओ देवीओ संखिजगुणाओ ४१ खयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ नपुंसगा संखिजगुणा ४२ थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ नपुंसगा संखिजगुणा ४३ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ नपुंसगा संखिजगुणा ४४ चउरिंदिया पजत्तया संखिजगुणा ४५ पंचिंदिया पजत्तया विसेसाहिया ४६ बेइंदिया पञ्जत्तया विसेसाहिया ४७ तेइंदिया पञ्जत्तया विसेसाहिया ४८ पंचिंदिया अपजत्तया असंखेजगुणा ४९ चउरिंदिया अपञ्जचया विसेसाहिया ५० तेइंदिया अपजत्तया विसेसाहिया ५१ बेइंदिया अपञ्जत्तया विसेसाहिया ५२ पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पजत्तया असंखिजगुणा ५३ वायरनिगोया पन्जत्तया असंखिजगुणा ५४ वायरपुढवीकाझ्या पजत्तगा असंखिजगुणा ५५ बायरआउकाइया पञ्जत्तया असंखिजगुणा ५६ वायरवाउकाइया पजचगा असंखिजगुणा ५७ वायरतेउकाइया अपजत्तगा असंखिजगुणा ५८ पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखिजगुणा ५९ वायरनिगोया अपजत्तया असंखिजगुणा ६० वायरपुढवीकाइया अपजचया असंखिजगुणा ६१ वायरआउकाइया अपजत्तया असंखिजगुणा ६२ वायरवाउकाइया अपजत्तया असंखिजगुणा ६३ सुहुमतेउकाइया अपजत्तया असंखिजगुणा ६४ सुहुमपुढवीकाइया अपञ्जत्तया । विसेसाहिया ६५ सुहुमाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिआ ६६ सुहुमवाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिआ ६७ सुहुमतेउकाइया पजत्तया संखिजगुणा ६८ मुहुमपुढवीकाइया पज्जत्तया विसेसाहिआ ६९ मुहुमआउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिआ ७० सुहुमवाउकाइया पजत्तया बिसेसाहिआ ७१ सुहुमनिगोया अपज्जत्तया असंखिजगुणा ७२ सुहुमनिगोया पज्जत्तया संखिजगुणा ७३ अभवसिद्धिआ अणतगुणा ७४ परिवडियसम्मदिहि अर्णतगुणा ७५ सिद्धा अणंतगुणा ७६ ॥१६॥ ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [२७], --------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [२९७] पायरवणस्सइकाइया पज्जतगा अणंतगुणा ७७ वायरपजचा विसेसाहिआ ७८ बायरवणस्सइकाइया अपज्जतगा असखिजगुणा ७९ वायरअपज्जतगा विसेसाहिआ ८० बायरा विसेसाहिआ ८१ सुहुमवणस्सइकाइया अपजत्तया असखिजगुणा ८२ सुहुमअपजत्तया विसेसाहिया ८३ सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तया संखिजगुणा ८४ सुहुमपज्जत्तया विसेसाहिआ ८५ मुहुमा बिसेसाहिया ८६ भवसिद्धिया विसेसाहिया ८७ निगोयजीवा विसेसाहिया ८८ वणस्सइजीवा विसेसाहिआ ८९ एगिदिया विसेसाहिया ९०तिरिक्खजोगिया बिसेसाहिया ९१ मिळादिही विसेसाहिआ ९२ अविरया विसेसाहिया ९३ सकसाई विसेसाहिआ ९४ छउमत्था विसेसाहिआ ९५ सजोगी विसेसाहिआ ९६ संसारत्था विससाहिआ ९७ सबजीवा विसेसाहिआ ९८ ॥ (सू० ९३ ) ॥ पनवणाए भगवईए बहुवत्तत्यपर्य समत्तं । तइयं पयं समत्तं । अथ भदन्त ! सर्वजीवाल्पबहुत्वं-सर्वजीवाल्पबदुत्ववक्तव्यतात्मकं महादण्डकं वर्त(ण)यिष्यामि-रचयिष्यामीति तात्पर्योः , अनेन एतद् ज्ञापयति-तीर्थकरानुज्ञामात्रसापेक्ष एव भगवान् गणधरः सूत्ररचनां प्रति प्रवर्तते न पुनः श्रुताभ्यासपुरःसरमिति, यद्वा एतद् ज्ञापयति-कुशलेऽपि कर्मणि विनेयेन गुरुमनापृच्छय च न प्रवर्तितव्यं, किंतु तदनुज्ञापुरःसरं, अन्यथा विनेयत्वायोगात्, विनेयस्य हि लक्षणमिदम्-'गुरोनिवेदितात्मा यो, गुरुभावानुवर्तकः । मुक्त्यर्थ चेष्टते नित्यं, स विनेयः प्रकीर्तितः॥१॥"गुरुरपि यः प्रच्छनीयः स एवंरूप-"धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते ॥१॥" इति, महादण्डक वर्तयिष्यामि Secseeरटायर ~ 329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ---. --.-- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना प्रत ३ बहुवकव्यतापदे महादण्डका याः मलयवृत्ती. ॥१६॥ सुत्रांक [९३] reaecseenetwenese दीप अनुक्रम [२९७] इत्युक्तं ततः प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-'सवत्थोवा गम्भवकंतिया मणुस्सा' इत्यादि, सर्वस्तोका गर्भव्युत्क्रान्तिक- मनुष्याः, सङ्ग्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् १, तेभ्यो मानुष्यो-मनुजत्रियः सोयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात्, उक्तं च-"सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिआ चेव" २, ताभ्यो बादरतेजःकायिका पर्याप्सा असंख्येयगुणाः, कतिपयवर्गन्यूनाबलिकाधनसमयप्रमाणत्वात् ३, तेभ्योऽनुत्तरोपपातिनो देषा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ४, तेभ्य उपरितनौवेयकत्रिकदेवाः संख्येयगुणाः, वृहत्तरपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , एतदपि कथमवसेयं इति चेत्, उच्यते, विमानषाहुल्यात्, तथाहि-अनुत्तरदेषाना पञ्च विमानानि विमानशतं तूपरितनबेयकत्रिके प्रतिविमानं चासोया देवाः यथा यथा चाधोऽधोवर्तीनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लम्यन्ते ततोऽवसीयते-अनुत्तरोपपातिकदेवेभ्यो बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमासक्वेयभागवा. काशप्रदेशराशिप्रमाणा उपरितनषेयकत्रिकदेवाः (संख्येयगुणाः)५, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या यावदानतकल्पः, तेभ्योऽप्युपरितनदेयकत्रिकदेवेभ्यो मध्यमवेयकत्रिकदेवाः सङ्ग्येयगुणाः ६ तेभ्योऽप्यधस्तनौवेयकत्रिकदेवाः सोयगुणाः ७ तेभ्योऽप्यच्युतकल्पदेवाः समवेयगुणाः ८ तेभ्योऽप्यारणकल्पदेवा सोयगुणाः ९, यद्यप्यारणाच्युतकल्पी समणिको समविमानसङ्ख्याको च तथाऽपि कृष्णपाक्षिकास्तथाखाभाब्यात् प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पयन्ते नोत्तरस्यां यहयश्च कृष्णपाक्षिकाः स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः ततोऽच्युतकल्पदेवापेक्षया आरणकल्पदेवाः ॥११॥ स्ट ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] रहदesereersea दीप अनुक्रम [२९७] सोयगुणाः, तेभ्योऽपि प्राणतकल्पदेवाः सङ्ख्येयगुणाः १० तेभ्योऽप्यानतकल्पदेवाः सत्येयगुणाः, भावना आरणकल्पवत्कर्तव्या ११, तेभ्योऽधःसप्तमनरकपृथिव्यां नैरयिका असत्यगुणाः, श्रेण्यसयभागगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १२, तेभ्यः षष्ठपृथिव्यां नैरयिका असक्येयगुणाः, एतच प्रागेव दिगनुपातेन नैरयिकाल्पबदुत्वचिन्तायां भावितं १३ तेभ्योऽपि सहस्रारकल्पदेवा असायेयगुणाः, षष्ठपृथिवीनरयिकपरिमाणहेतुश्रेण्यसोयमागापेक्षया सहस्रारकल्पदेवपरिमाणहेतोः श्रेण्यसश्वेयभागस्य असञ्जयगुणत्वात् १४ तेभ्यो महाशुक्रे कल्पे देवा असोयगुणाः, विमानवाहुल्यात् षट् सहस्राणि विमानानां सहस्रारे कल्पे चत्वारिंशत्सहस्राणि महाचक्रे, अन्यच्चाधोऽधोविमानवासिनो देवा बहुबहुतराः स्तोकाः स्तोकतराश्वोपरितनोपरितनविमानवासिनः तत् सहस्रारदेवेभ्यो महाशुक्रकल्पदेवा असन्यगुणाः १५ तेभ्योऽपि पञ्चमधूमप्रभाभिधाननरकपृथिव्यां नैरयिका असत्येयगुणाः, बृहत्तमश्रेण्यसअमेयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १६ तेभ्योऽपि लान्तककल्पे देवा असङ्ख्येयगुणाः, अतिबृहत्तमश्रेण्यसवेयभागगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १७ तेभ्योऽपि चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असोयगुणाः, युक्तिः प्रागिव भावनीया १८ तेभ्योऽपि ब्रह्मलोककल्पे देवा असल्येयगुणाः, युक्तिः प्रागुक्तब १९ तेभ्योऽपि तृतीयस्थां वालुकाप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असोयगुणाः २० तेभ्योऽपि माहेन्द्रे कल्पे देवा असोयगुणाः २१ तेभ्योऽपि सनत्कुमारकल्पे देवा असोयगुणाः युक्तिः सर्वत्रापि प्रागुक्तैव २२ तेभ्यो द्वितीयस्यां शर्कराप्रभायां पृथिव्यां नैर-N AN ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [२७], --------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत बहुव सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [२९७] प्रज्ञापना-यिका असोयगुणाः २३, एते च सप्तमपृथिवीनारकादयो द्वितीयपृथिवीनारकपर्यन्ताः प्रत्येकं खस्थाने चिन्त्यया: मल- मानाः सर्वेऽपिघनीकृतलोकश्रेण्यसलयेयभागवर्तिनमःप्रदेशरा शिप्रमाणा द्रष्टव्याः, केवलं श्रेण्यसोयभागोऽसयेय-TAI कव्यताय०वृत्ती. भेदभिन्नः तत इत्थमसवयेयगुणतया अल्पबदुत्वमभिधीयमानं न विरुध्यते, तेभ्योऽपि द्वितीयनरकपृथिवीनारकेभ्यः | पदे महा संमूछिममनुष्या असङ्ख्येयगुणाः २४ ते हि अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि द्वितीयवर्गमूले तृतीयवर्गमूलेन दण्डका ॥१६४॥ गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणाः, तेभ्योऽपि ईशाने कल्पे देवा असङ्ख्येयगुणाः यतो घनीकृतस्य लोक- सू. ९३ स्मैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभा प्रदेशाः तावत्प्रमाण ईशानकल्पगतो देवदेवीसमुदायः, तद्गतकिंचिदूनवात्रिंशद्भागकल्पा ईशानदेवाः, ततो देवाः संमूछिममनुष्येभ्योऽसङ्ख्यगुणाः २५, तेभ्य ईशानकल्पे देव्यः सङ्ख्येय-1 गुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् “वत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिआउ होन्ति देवीओ” इति वचनात् २६, ताभ्यः सौधर्मे कल्पे देवाः सङ्ख्येयगुणाः, तत्र विमानबाहुल्यात् , तथाहि-तत्र द्वात्रिंशच्छतसहस्राणि विमानानां अष्टाविंशतिशत १ ते हि अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि तृतीये वर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान्प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणानि खंडानि यावन्त्येकस्यामेव प्रादेशिक्या श्रेणी भवंति तावत्प्रमाणस्तेभ्य ईशाने कल्पे देवा असंख्येयगुणाः यतोऽङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि | T॥१६॥ द्वितीये वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान्प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्सैकप्रादेशिकीषु यावंतो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाण ईशानकल्पगतो देवदेवीसमुदायः प्र० erceree सरeeeeeek ~332 ~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [२९७] सहस्राणि ईशाने कल्पे, अपिच-दक्षिणदिग्वर्ती सौधर्मकल्पः ईशानकल्पस्तूत्तरदिग्वर्ती दक्षिणस्यां च दिशि बहवः कृष्णपाक्षिकाः समुत्पद्यन्ते तत ईशानदेवीभ्यः सौधर्मदेवाः सङ्ख्ययगुणाः, नन्धियं युक्तिर्माहेन्द्रसनत्कुमारकल्पयोरप्युक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकल्पे देवा असङ्खयगुणा उक्ताः, इह तु सौधर्मे कल्पे सोयगुणाः तदेतत् कथम् ?, उच्यते, बचनप्रामाण्यात्, न चात्र पाठभ्रमः, यतोऽन्यत्राप्युक्तम्-"ईसाणे सवत्थवि बत्तीसगुणाओ होंति देवीओ । संखिजा सोहम्मे तओ असंखा भवणवासी॥१॥" इति २७, तेभ्योऽपि तस्मिन्नेव सौधर्म कल्पे देव्यः सङ्ख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , "सबथवि बत्तीसगुणाओ हुंति देवीओ" इति वचनात् २८ ताभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणा भवनवासिनः, कथम् ? इति चेत्, उच्यते, इह अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संवन्धिनि प्रथमवर्ग|मूले तृतीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभ-प्रदेशास्तावत्प्रमाणो भवनपतिदेवदेवीसमुदायः, तद्गतकिञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पाश्च भवनपतयो देवाः ततो घटन्ते सौधर्मदेवीभ्यस्तेऽसळययगणाः २९ तेभ्यो भवनवासिन्यो देव्यः सङ्ग्यगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात्। ३० ताभ्योऽप्यस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असङ्ख्येयगुणाः अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि प्रथमवर्गमूले। द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् ३१ तेभ्योऽपि खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पुरुषा असङ्ख्येयगुणाः प्रतरासङ्ख्येयभागवहँसत्येयश्रेणिनभःप्रदेशराशिप्र TATurasurary.com ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) -------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२७], --------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती. हटलब सत्राक [९३] ॥१६५॥ दीप अनुक्रम [२९७] ces 262MEReserocolat माणत्वात् ३२ तेभ्योऽपि खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियः सख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात् , “तिगुणा तिरूवाहिया बहुवतिरिआणं इथिओ मुणेयवा" इति वचनात् ३३ ताभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पुरुषाः सोयगुणाः, कव्यताबृहत्तरप्रतरासश्वेयभागवर्त्यसोयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ३४ तेभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पदे महास्त्रियः सोयगुणाः त्रिगुणत्वात् ३५ ताभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पुरुषाः सोयगुणाः वृहत्तमप्रतरा दण्डका समयभागवय॑सोयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ३६ तेभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियः सोयगुणाः त्रिगुणत्वात् ३७ ताभ्योऽपि व्यन्तरा देवा पुंवेदोदयिनः सचेयगुणाः, यतः सधेययोजनकोटीकोटीप्रमाणानि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावन्तः सामान्येन व्यन्तराः, केवलमिह पुरुषा विव|क्षिता इति ते सकलसमुदायापेक्षया किञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा वेदितव्याः, ततो घढन्ते जलचरयुवतिभ्यः सोयगुणाः ३८ तेभ्यः व्यन्तर्यः सोयगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ३९ ताभ्यो ज्योतिष्का देवाः सङ्ख्यगुणाः, ते हि सामान्यतः पदपञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गलप्रमाणानि सचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति ताव- I n ॥१६५॥ त्प्रमाणाः, परमिह पुरुषा विवक्षिता इति ते सकलसमुदायापेक्षया किश्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पाः प्रतिपत्तव्याः,श तत उपपद्यन्ते व्यन्तरीभ्यः समवेयगुणाः ४० तेभ्यो ज्योतिष्कदेव्यः सधेयगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ४१ ताभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नपुंसकाः सोयगुणाः, क्वचित् 'असोयगुणाः' इति पाठः, स न समीचीनः, यत ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], -- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], ------- मूल [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [२९७] इत ऊ ये पर्यासचतुरिन्द्रिया वक्ष्यन्ते तेऽपि ज्योतिष्कदेवापेक्षया सङ्ख्येयगुणा एवोपपद्यन्ते, तथाहि-पट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलप्रमाणानि सूधिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा ज्योतिष्काः, । उक्तं च-"छपन्नदोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइयं पयरं । जोइसिएहिं हीरइ" इति, अङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्राणि च सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणाश्चतुरिन्द्रियाः, उक्तं च-"पज्जत्तापज्जत्तबितिचउरअ-IN सन्निणो अवहरंति । अङ्गुलसंखासंखप्पएसभइयं पुढो पयरं ॥ १॥" अङ्गुलसङ्ख्येयभागापेक्षया च षट्पञ्चाशदधिकमकुलशतद्वयं सङ्ख्येय गुणं, ततो ज्योतिष्कदेवापेक्षया परिभाव्यमानाः पर्याप्तचतुरिन्द्रिया अपि सोयगुणा एव घटन्ते किं पुनः पर्याप्तचतुरिन्द्रियापेक्षया सक्थेयभागमात्राः खचरपञ्चेन्द्रियनपुंसका इति ? ४२ तेभ्योऽपि स्थलचरपञ्चन्द्रियनपुंसकाः सोयगुणाः ४३ तेभ्योऽपि जलचरपञ्चेन्द्रियनपुंसकाः सक्वेयगुणाः ४४ तेभ्योऽपि पर्याप्तचतुरिन्द्रियाः सोयगुणाः ४५ तेभ्योऽपि पर्यायाः संझ्यसंज्ञिभेदभिन्नाः पञ्चेन्द्रिया विशेषाधिकाः ४६ तेभ्योऽपि पर्याप्ता द्वीन्द्रिया || विशेषाधिकाः ४७ तेभ्योऽपि पर्याप्तास्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, यद्यपि च पर्यासचतुरिन्द्रियादीनां पर्याप्तत्रीन्द्रियपर्य-1|| शान्तानां प्रत्येकमङ्गुलसनेयभागमात्राणि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणत्वमविशेपेणान्यत्र वर्ण्यते तथाऽप्यङ्गुलसङ्ख्येयभागस्य सङ्ख्येयभेदभिन्नत्वाद् इत्थं विशेषाधिकत्वमुच्यमानं न विरुद्धं, उक्तं चेत्थमल्पबहुत्वमन्यत्रापि-तत्तो नपुंसग खहयरा संखेज्जा थलयरजलयरनपुंसगा चउरिदिय तो पणबितिपज्जत desercedesese For P OW imlanaurary.org ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [83] दीप अनुक्रम [२९७] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥१६६॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-], ------ दारं [२७], मूलं [९३] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [३]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. किंचि अहिआ" इति ४८ तेभ्योऽपि पर्याप्त त्रीन्द्रियेभ्योऽपर्याप्ताः पञ्चेन्द्रिया असत्यगुणाः अङ्गुलासवेयभागमात्राणि खण्डानि सूचिरूपाणि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणत्वात् ४९ तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अपर्याप्ता विशेपाधिकाः ५० तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ५१ तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, यद्यपि चापर्याप्ताः चतुरिन्द्रियादयो अपर्याप्तद्वीन्द्रियपर्यन्ताः प्रत्येकमङ्गुलस्यासयेय भागमात्राणि खण्डानि सूचीरूपाणि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्राविशेषेणोक्तास्तथाप्यङ्गुला संख्येयभागस्य विचित्रत्वादित्थं विशेपाधिकत्वमुच्यमानं न विरोधमास्कन्दति ५२, तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया पर्याप्तेभ्यः प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ताः असंख्येयगुणाः, यद्यपि चापर्यासद्वीन्द्रियादिवत् पर्याप्सबादरवनस्पतिकायिका अपि अङ्गुला संख्येयभागमात्राणि सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्रोक्तास्तथापि अङ्गुलायेयभागस्यासोयभेदभिनत्वाद् वादरपर्यास प्रत्येक वनस्पतिपरिमाणचिन्तायामङ्गुलायेय भागोऽसङ्ख्येय गुणहीनः परिगृह्यते ततो न कश्चिद विरोधः ५२ तेभ्योऽपि वादरनिगोदा अनन्तकायिकशरीररूपाः पर्याप्ता असत्येयगुणाः ५४ तेभ्योऽपि वादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः ५५ तेभ्योऽपि पर्याप्ता बादराकायिका असङ्ख्येयगुणाः, यद्यपि च पर्याप्तत्रादरप्रत्येक वनस्पतिकायिकपृथिवीकायिकाकायिकाः प्रत्येकमङ्गुला सङ्ख्येयभागमात्राणि सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्राविशेषेणोक्ताः तथाप्यङ्गुला सोयभागस्यासङ्ख्ये यभेदभिन्नत्वाद् इत्थम Education Internationa For Parts Only ~ 336~ ३ बहुव कव्यता पदे महा दण्डकः सू. ९३ ॥१६६॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], ---------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] sersesesearceraelae. दीप अनुक्रम [२९७] समवेयगुणत्वाभिधाने न कश्चिद्दोषः ५६ तेभ्यो बादरपयाप्ताप्कायिकेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः.. घनीकृतलोकासङ्ख्येयभागव_सञ्जयेयप्रतरगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ५७ तेभ्यो बादरतेजःकायिका अपर्याप्ता | असङ्ख्येयगुणाः, असङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ५८ तेभ्यः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः ५९ तेभ्योऽपि बादरनिगोदा अपर्याप्तका असहयगुणाः ६० तेभ्यो चादरपृथिवीकायिका अपर्या सका असङ्खयेयगुणाः ६१ तेभ्यो बादराप्कायिका अपर्याप्तका असङ्ख्यगुणाः ६२ तेभ्यो बादरवायुकायिका अपपायोसा असङ्ख्ययगुणाः ६३ तेभ्यः सूक्ष्मतेजःकायिका अपर्याप्तका असमवेयगुणाः ६४ तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ६५ तेभ्यः सूक्ष्माप्कायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ६६ तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका अपयोप्सा विशेषाधिकाः ६७ तेभ्यः सूक्ष्मतेजःकायिकाः पर्याप्तकाः सङ्ख्येयगुणाः ६८ अपर्याप्तकसूक्ष्मेभ्यः पर्यासकसूक्ष्माणां खभावत एव प्राचुर्येण भावात् , तथा चाह अस्या एच प्रज्ञापनायाः संग्रहणीकार:-"जीवाणमपजत्ता बहुतरगा बायराण विन्नेया । सुहुमाण य पजत्ता ओहेण य केवली विति ॥१॥" तेभ्योऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्तका विशेषाधिकाः ६९ तेभ्योऽपि सूक्ष्माप्कायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः ७० तेभ्योऽपि सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः ७१ तेभ्योऽपि सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः ७२ तेभ्योऽपि पर्याप्ताः सूक्ष्मनिगोदाः सङ्गयेयगुणाः ७३ यद्यपि चापर्यासतेजःकायिकादयः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदपर्यन्ता अविशेषेणान्यत्रास ट ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [२७], --------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. सत्राक [९३] ॥१६७॥ दीप अनुक्रम [२९७] व्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा उक्तास्तथाऽपि लोकासयेयत्वस्थासङ्ख्येयभेदभिन्नत्वाद इत्थमल्पवदुत्वमभिधीयमा-18| बहननमुपपन्नं द्रष्टव्यं, तेभ्योऽभवसिद्धिका अनन्तगुणाः जघन्ययुक्तानन्तकप्रमाणत्वात् ७४ तेभ्यःप्रतिपतितसम्यग- तव्यतारष्टयोऽनन्तगुणाः ७५ तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः ७६ तेभ्योऽपि बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः पदे महा७७ तेभ्योऽपि सामान्यतो वादरपर्याप्सा विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ७८ दण्डकः तेभ्यो बादरापर्याप्तवनस्पतिकायिका असङ्ख्येयगुणाः, एकैकबादरनिगोदपर्यासनिश्रया असङ्ख्येयगुणानां बादरापर्या- सू. ९३ सनिगोदानां संभवात् ७९ तेभ्यः सामान्यतो बादरापर्यासा विशेषाधिकाः, बादरापर्याप्सपृथिवीकायिकादीनामपि। तत्र प्रक्षेपात् ८० तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः पर्याप्सापर्यासानां तत्र प्रक्षेपात् ८१ तेभ्यः सूक्ष्मवनस्प|तिकायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः ८२ तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्सका विशेषाधिकाः सूक्ष्मापर्याप्तधृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ८३ तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्साः सङ्ख्येयगुणाः, पर्याप्तसूक्ष्माणामपर्याप्सेभ्यः। सूक्ष्मेभ्यः स्वभावतः सदैव सचोयगुणतया प्राप्यमाणत्वात् , तथा केवलवेदसोपलब्धेः ८४ तेभ्योऽपि सामान्यतः सूक्ष्मपर्याप्सा विशेषाधिकाः, पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ८५ तेभ्यः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणरहिताः। M ॥१६७॥ सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिव्यतेजोपायुवनस्पतिकायिकानामपि तत्र प्रक्षेपात् ८६ तेभ्योऽपि भवसिद्धिका' भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिका-भव्या विशेषाधिकाः, जघन्ययुक्तानन्तकमात्राभव्यपरिहारेण सर्वजी FarPurwanaBNamunoonm ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [२९७] वानां भव्यत्वात् ८७ तेभ्यः सामान्यतो निगोदजीवा विशेषाधिकाः, इह भन्या अभव्याश्चातिप्राचुर्येण सूक्ष्मवाद-IN रनिगोदजीवराशावेव प्राप्यन्ते नान्यत्र अन्येषां सर्वेषामपि मिलितानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , अभव्याश्च युक्तानन्तकसंख्यामात्रपरिमाणास्ततो भव्यापेक्षया ते किश्चिन्मात्राः भव्याच प्रागमव्यपरिहारेण चिन्तिताः इदानीं तु बादरसूक्ष्मनिगोदचिन्तायां तेऽपि प्रक्षिप्यन्ते इति विशेषाधिकाः ८८ तेभ्यः सामान्यतो वनस्पतिजीवा विशेषाधिकाः, प्रत्येकशरीराणामपि वनस्पतिजीवानां तत्र प्रक्षेपात् ८९ तेभ्यः सामान्यत एकेन्द्रिया विशेपाधिकाः, बादरसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात ९० तेभ्यः सामान्यतस्तिर्यग्योनिका विशेषाधिकाः.18 पर्याप्तापर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियाणामपि तत्र प्रक्षेपात् ९१ तेभ्यश्चतुर्गतिभापिनो मिथ्यादृष्टयो विशेषा8|धिकाः, इह कतिपयाविरतसम्यग्दृष्ट्यादिसंज्ञिव्यतिरेकेण शेषाः सर्वेऽपि तिर्यञ्चो मिथ्यादृष्टयः, चातुर्गतिकमिथ्या रटिचिन्तायां चासंख्येया नारकादयस्तत्र प्रक्षिप्यन्ते ततस्तिर्यगजीवराश्यपेक्षया चतुर्गतिकमिथ्यादृष्टयचिन्त्यमाना विशेषाधिकाः ९२ तेभ्योऽप्यविरता विशेषाधिकाः, अविरतसम्यग्दृष्टीनां तत्र प्रक्षेपात् ९३ तेभ्यः सकपायिणो विशेषाधिकाः, देशविरतादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९४ तेभ्यः छद्मस्था विशेषाधिकाः, उपशान्तमोहादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९५ तेभ्यः सयोगिनो विशेषाधिकाः, सयोगिकेवलिनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९६ तेभ्यः संसारस्था विशेषा-18 धिकाः, अयोगिकेवलिनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९७ तेभ्यः सर्वजीवा विशेषाधिकाः, सिद्धानामपि तत्र प्रक्षेपात् ९८ ॥ इति श्रीमलयगिरिसूरिचर्यविरचितायां प्रशापनावृत्तौ तृतीयं पदं समाप्तम् । | अत्र पद (०३) "अल्पबहत्वं" परिसमाप्तम् ~339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [२९८ ] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥१६८॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [९४] पदं [४], उद्देशक: [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internationa श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गे चतुर्थं स्थितिपदं । 101 नेरइयाणं ते! केवइयं कालं टिई पन्नता ? गोयमा ! जहनेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई | अपअत्तनेरइयाणं भंते ! केत्रइयं कालं ठिई पनता ? गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहूर्त्त उक्कोसेणचि अंतोमुहुत्तं । पज्जतगनेरइयाणं hari कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहनेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तूगाई, उकोसेणं तेतीसं सागरोपमाई अंतोतूणाई | रयणप्पापुढविनेरयाणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा ! जहन्त्रेणं दसवाससहस्साई उकोसेर्ण सागरोवमं, अपज्जत्तरयणप्पभापुढ विनेरयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पत्ता १, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उकोसेणचि अंतोमुहुतं, पज्जत्तरयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता १, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाईं उकोसेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तूर्णं ।। सकरप्पभापुढविनेरइयाणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा ?, गोयमा ! जहनेणं एवं सागरोवमं उकोसेणं तिन्नि सागरोवमाई, अपज्जत्तय सकरप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुहुतं उकोसेणवि अंतीमुडुतं, पज्जत्तयसकरप्पभापुढ विनेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पनचा ?, गोयमा ! जहनेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तूणं उकोसेणं तिनि सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई | वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता १, गोयमा ! जहनेणं तिन्नि सागरोवमाई उकोसेणं सत सागरोवमाई, अपज्जत्तयवालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता १, गोयमा ! जहनेणं अंतो मुहु उकोसेणवि | नारकाणां स्थिति: / (आयुः) For Parts Only अथ पद (०४) "स्थिति" आरभ्यते ~340~ ४ स्थिति पदे पर्या० अ. नारकाणां स्थितिः सू. ९४ ॥१६८॥ yor Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशकः [-], --------------- दारं [-], --------- -- मूलं [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४] रटरटseeneerseaxe दीप अनुक्रम [२९८] अंबोतं, पजन्यवालुयप्पभापुढविनेरायाण मंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा ! जहणं तिनि सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं सत्त सागरोबमाई अंतोमुहुतूणाई ॥ पंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाई उकोसेणं दस सागरोवमाई, अपज्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरहयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहरेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतीमुहुर्त, पञ्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पमता, गोयमा जहनेणं सत्त सागरोचमाई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं दस सागरोवमाई अंतोमहत्तूणाई ।। धूमप्पभापुढविनेरहयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनत्ता?, गोयमा! जहनेणं दस सागरोवमाई उकोसेणं सत्तरससागरोवमाई, अपज्जत्तयधूमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रता , गोयमा! जहन्नेणवि अंतोमुहुर्त उक्कोसेणवि अंतोमुत्तं, पज्जत्तगमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पाता, गोयमा । जहनेणं दस सागरोचमाई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेण सत्तरससागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ तमप्पभापुढविनेरहयाण मंते ! केवइयं कालं ठिई पभत्ता, गोयमा ! जहनेणं सत्तरससागरोवमाई उकोसेणं बावीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयतमप्पभापुढविनेरइयाणं भते । केवइयं कालं ठिई पत्ता, गोषमा । जहनेणवि अंतोमुहुर्च उकोसेणवि भंतोमुहतं, पजत्तगतमप्पभापुढविनेरइयाण भंते ! फेवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा ! जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुराणाई ।। अहेसत्तमापुढविनेरइयाण मंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रता, गोयमा ! जहनेणं बावीसं सागरोवमाई उकोसेणं तित्तीस सागरोवमाई अपजत्तगहेसत्तमपढविनेरझ्याणं भंते ! केवयं कालं ठिई पत्रचा, गोषमा! जहने Lotsecticesette ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [२९८ ] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥१६९॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [९४] पदं [४], उद्देशक: [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अंतोतंउकोसेच अंतीमुडुतं, पज्जत्तगआहेस त्तमपुढविनेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पत्ता १, गोयमा जहन्त्रेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई अंतोहुणाई ( सू० १४ ) इदानीं चतुर्थमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे दिगनुपातादिनाऽल्पबहुत्वसङ्ख्या निर्दारिता, अस्मिंस्तु तयाऽल्पबहुत्वसङ्ख्यया निर्धारितानां सत्त्वानां जन्मतः प्रभृत्यामरणात् यन्नारकादिपर्यायरूपेणाव्यवच्छि - ४ नमवस्थानं तचिन्त्यते अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम् -- 'नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' इति, नैरयिकाणां भदन्त । कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, तत्र स्थीयते-अवस्थीयते अनया आयुः कर्म्मानुभूत्येति स्थितिः, स्थितिरायुःकम्र्मानुभूतिर्जीवनमिति पर्यायाः, यद्यप्यत्र जीवेन मिध्यात्वादिभिरुपात्तानां कर्मपुद्गलानां ज्ञानावरणीयादिरूपतया परिणतानां यदवस्थानं सा स्थितिरिति प्रसिद्धं तथापि नारकादिव्यपदेशहेतुरायुःकर्म्मानुभूतिः, तथाहि--यद्यपि नरकगतिपञ्चेन्द्रियजात्यादिनामक म्र्मोदयाश्रयो नारकत्वपर्यायस्तथापि नारकायुः प्रथमसमय संवेदन| काल एव तन्निबन्धनं नारकक्षेत्रमप्राप्तोऽपि नारकस्य (त्व) व्यपदेशं लभते, तथा च मौनीन्द्रं प्रवचनम् - "नेरंइए णं भंते 1 नेरइएस उववज्जर अनेरइए नेरइएस उबवज्जर १, गोयमा ! नेरइए नेरइएस उववज्जद नो अनेरइए नेर१ नैरविको भदन्त | नैरयिकेषु उत्पद्यतेऽनैरयिको नैरयिकेषु उत्पद्यते ?, गौतम ! नैरयिको नैरयिकेषु उत्पद्यते नो अनैरयिको नैरविकेषु उत्पद्यते । Educatin internation For PalPrata Use Only ~342~ ४ स्थिति पदे सामा न्यपर्या तापयांस रलप्रभा दीनां स्थितिः सू. ९४ ॥ १६९॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशकः [-], --------------- दारं [-], --------- -- मूलं [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४] दीप अनुक्रम [२९८] इएसु उववजह" इत्यादि, ततः सैवायुःकर्मानुभूतिरिह यथोक्तव्युत्पत्त्या स्थितिरभिधीयते, अत्र निर्वचनमाह'गोयमे त्यादि, एतच पर्याप्तापर्याप्तविभागाभावेन सामान्यतः उक्तं यदा तु पर्याप्तापर्याप्तविभागेन चिंता, तदेदं सूत्रम्-'अपज्जत्तनेरइयाणं भंते !' इत्यादि, इह अपर्याप्ता द्विविधाः-लब्ध्या करणैश्च, तत्र नैरयिकदेवा असङ्खयेयव Cयुषस्तिर्यग्मनुष्याः करणैरेवापर्याप्ताः, न लघ्या, लब्ध्यपर्याप्तकानां तेषु मध्ये उत्पादासंभवात् , तत एते उपपा|तकाल एव करणैः कियन्तं कालमपर्याप्सा द्रष्टव्याः, शेषास्तु तिर्यग्मनुष्या लब्ध्याऽपर्याप्साः उपपातकाले च, उक्तंच-"नारंगदेवा तिरिमणुयगम्भजा जे असंखवासाऊ । एए अप्पजत्ता उववाए चेव बोद्धधा ॥१॥सेसा य तिरिमणुया लद्धिं पप्पोववायकाले य । दुहओविय भयइयचा पज्जत्तियरे य जिणवयणं ॥ २॥" अपर्याप्तकाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त, अत उक्तम्-'गोयमा! जहन्नेणपि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं' अपर्याप्ताद्धाऽपगमे च शेषकालःपर्याप्साद्धा. तत उक्तं पर्याप्तसूत्रे-गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीस-1 सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई" एतच पृथिव्यविभागेन चिन्तितं, सम्प्रति पृथिवीविभागेन चिन्तयति-'रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते !' इत्यादि सुगम, शेषमपि सुगममापदपरिसमासेः॥ १ नारकदेवाः तिर्यग्मनुष्या गर्भजा येऽसंख्यवर्षायुषः । एतेऽपर्याप्ता उपपाते चैव बोद्धव्याः ॥१॥ शेषाश्च तिर्यग्मनुष्या लब्धि IM प्राप्योपपातकाले च । द्विधातोऽपि च भक्तव्याः पर्याप्ता इतरे च जिनवधनात् ॥ २॥ Lasterstoerestatestatserse ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक मज्ञापनाया: मलय०वृत्ती. स्थितिपदे सामान्यविशेपतो देवा [९५ ॥१७॥ १०१ नां स्थितिः देवाणं मंते ! केवयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, अपक्षसयदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनना, गोयमा ! जहन्त्रेणवि अंतोमुहत्तं उकोसेणवि अंतोमुहुच, पजनयदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पबत्ता, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता?, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं पणपन्न पलि ओवमाई, अपजत्तयदेवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पबत्ता, गोयमा ! जहणवि अंतोमुहुत्तं उकोसेणवि अंतीमुहुर्त, पज्जत्तयदेवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा?, गोयमा ! जहनेणं दस बाससहस्साई अंतोमुहुजूणाई उकोसेणं पणपत्र पलिओचमाई अंतोमुहुतूणाई ।। भवणवासीणं देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पचना, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं साइरेग सागरोवमं, अपञ्जत्तयभवणवासीणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा! जहनेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयभवणवासीणं देवाणं मंते ! केवायं कालं ठिई पनना , गोयमा! जहणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं साइरेग सागरोवमं अंतोमहत्तर्ण ॥ भवणवासिणीणं भंते ! देवीर्ण केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा । जहनेणं दसवाससहस्साई उकोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई, अपञ्जत्तयभवणवासिणीणं देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा! जहनेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतीमुहुर्त, पज्जत्तियाणं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहतूणाई उकोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई अंतोमुहतूणाई । असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नचा, गोपमा! दीप अनुक्रम [२९९-३०५] 930 देवानाम् स्थिति:/(आयुः) ~344 ~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-1, ------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५ १०१॥ जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं साइरेग सागरोवर्म, अपञ्जत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवायं कालं ठिई पत्रता, गोयमा ! जहणवि अंतोमुहु उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पमत्ता ?, गोयमा जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं अंतोमुत्तूर्ण ॥ असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पत्रचा?, गोयमा । जहणं दस वाससहस्साई उकोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई, अपञ्जत्तियाणं असुरकुमारीण भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा! जहनेणवि अंतोमुहुत्तं उकोसेणवि अंतोमहत्तं, पज्जरियाणं असुरकुमारीणं देवीर्ण भंते ! केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई अंतो हुत्तूणाई ॥ नागकुमाराणं देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनत्ता ?, गोयमा ! जहनेणं दस बाससहस्साई उकोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई, अपजत्तयाण भंते ! नागकुमाराणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा। जहनेणवि अंतोमुह उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्च, पञ्जत्तयाणं भंते! नागकुमाराणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा ! जहानेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुजूणाई उकोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई अंतोमुत्तूणाई ॥ नागकुमारीण भैते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नचा, गोयमा ! जहणं दस वाससहस्साई उकोसणं देसूर्ण पलिओचम, अपञ्जनियाण मंते ! नागकुमारीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा ! जहनेणवि अंतोमुह उकोसेणवि अंतोमुहुर्च, पजत्तियाणं भंते ! नागकुमारीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहत्तणाई उकोसेणं देसूर्ण पलिओवम अंतोमहत्तणं । सुवष्णकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं दीप अनुक्रम [२९९-३०५] एयरन Tuesturary.com ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: se प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती. ४ स्थितिपदे सामान्यविशेषतो देवानां स्थितिः [९५ १०१ ॥१७॥ कालं ठिई पनत्ता, गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई, अपनत्तयाणं पुच्छा, गोयमा! जहणवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई अंतोमुहुत्तूणाई। सुबण्णकुमारीणं देवीणं पुच्छा, गोषमा! जहबेणं दस बाससहस्साई उक्कोसेणं देसूर्ण पलिओवमं, अपजत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि अंतीमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमूहुत्तूणाई उक्कोसेणं देसूर्ण पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं । एवं एएणं अभिलावेणं ओहियअपज्जत्तयपजत्तयसुत्तत्तयं देवाण य देवीण य नेयई जाव थणियकुमाराणं जहा नागकुमाराणं (मू०९५) पुढविकाइयाणं भंते! केवायं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं बाबीसं वाससहस्साई, अपनत्तयपुटविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयपुढविकाइयाण पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं बाषीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, मुहुमपुढविकाइयाण पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, अपजत्तयसुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहवेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुने, पञ्जत्तय सुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, बायरपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहमेणं अंतोमुहुर्च उकोसेणं बावीसं बाससहस्साई, अपञ्जत्तयवायरपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्च, पजत्तयबायरपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुतूणाई । आउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत् उकोसेणं सत्त वाससहस्साई, अपजत्तयआउका पृथ्व्यादीनां स्थितिः सू. ९६ अनुक्रम [२९९-३०५] ॥१७॥ पृथ्विकायिकादिनाम् स्थिति:/(आयु:) ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-1, ------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक eseseseseses [९५ १०१॥ इयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि अंतोमुहृत्तं उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयआउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, मुहुमाउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्ताणं पञ्जताण य जहा सुहमपुढविकाइयाणं तहा भाणिया, बायरआउकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं सत्त वाससहस्साई अपजत्तयवायरआउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्स, पजत्तयाण य पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमुत्तं उकोसेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई । तेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं तिन्नि राईदियाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाण य पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमहत्तं उकोसेणं तिनि राईदियाई अंतोमुहुत्तूणाई, सुहुमतेउकाइयाणं ओहियाण अपजत्ताणं पञ्जत्ताण य पुच्छा गोयमा ! जहन्नेगवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, बायरतेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिनि राइंदियाई, अपज्जत्तयवायरतेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं, पजचाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमहर्न उकोसेणं तिनि राइंदियाई अंतोमुत्तूणाई । वाउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिनि वाससहस्साई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेगवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्स, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तित्रि वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, सुहुमबाउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उफोसेणचि अंतोमुहुतं, पजत्नयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेगवि अंतोमुहुर्त, वायरयाउकाइयाणं पुच्छा गोय दीप अनुक्रम [२९९-३०५] ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [९५ १०१] दीप अनुक्रम [२९९ -३०५] प्रज्ञापना याः मलय० वृत्ती. ॥ १७२ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-], पदं [४]. मूलं [ ९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Eaton Internation मा ! जहणं अतो उकोसेणं तिनि वाससहस्साई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणयि उकोसेणवि अंतोमहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिनि बाससहस्साई अंतोनुहुत्तूणाई । वणष्फइकाइयाणं मंते ! इयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुडुतं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई, अपजचयाणं पुच्छा गोययमा ! जहत्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुडुत्तं उक्कोसेणं दस बाससहस्साई अंतोमुडुत्तूणाई, सुडुमवणप्फइकाइयाणं ओहियाणं अपजत्ताणं पत्ताण य पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुडुतं, वायरवणप्फइकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं दस वाससहस्साई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोमा ! जहणवि उपोसेणवि अंतोमुडुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुडुतं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई अंतोमुडुत्तूणाई ।। (सू०९६) । बेइंदियाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पत्ता १, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुडुतं उफोसेणं बारसंवच्छराई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा । जहस्रेणवि उकोसेणवि अंतोनुडुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोनुडुतं उकोसेणं बारस संचच्छराई अंतीमुत्तूणाई । तेइंद्रियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता १, गोयमा ! जहनेणं अंतो कोसेणं एगुणवनं राईदियाई, अवजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणवि उकोसेणवि अंतोमुडुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतमहुतं उकोसेणं एगुणवनं राईदियाई अंतोमुहुत्तूणाई चउरंदियाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पत्ता १, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहूतं उफोसेणं छम्मासा, अपजत्तमाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणच अंतोमुडुतं, पजचयाणं पुच्छा गोयमा ! जमेणं अंतोनुहुत्तं उकोसेणं छम्मासा अंतीमुत्तूना || ( मू०९७) पंचिदियतिरि द्वि-इन्द्रियादिनाम् स्थितिः/ (आयुः) For Park Use Only ~348~ 100000 ४ स्थितिपदे द्वीन्द्रियादीनां स्थितिः सू. ९७ ॥१७॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-1, ------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५ १०१॥ एesercederatiseeeeerwececene क्खजोणियाणं भते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता, गोयमा ! जहमेणं अंतोमहनं उकोसेणं तिनि पलिओवमाई, अपज्जतयाण पुच्छा गोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुरी, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमहत्तं उकोसेणं विनिपलिओबमाई अंतोमुहलूणाई, समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा । जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुबकोडी, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहतं, पज्जत्तयाणं पुरछा गोयमा ! जहणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तूणा । गम्भवकंतियपंचिदियतिरिक्खजोणियाण पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं तित्रि पलिओवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमहत्त, पजत्तयाणं पुरछा गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नचा ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहवं उकोसेणं पुखकोडी, अपज्जयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पनत्तयाण पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं पुषकोडी अंतोमुहत्तूणा, संमुच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुरी, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा । जहण अंतोमुह उकोसेणं पुषकोडी अंतोमुटुतूणा, गम्भवतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणे पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुनकोडी, अपज्जयाण पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहतं, पजचयाणं पुच्छा गोयमा! जहणं अंतोमुहुतं उकोसेणं पुनकोडी अंतोमहत्तूणा । चउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतीमुहु उकोसेणं तिनि पलिओवमाई, दीप अनुक्रम [२९९-३०५] Seceaeeeeeeeeeeees ~ 349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५ प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥१७॥ १०१]] अपजत्तयचउपयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुरछा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमहलूणाई, संमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणे पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं चउरासीवाससहस्साई, अपजत्तयाण पुच्छा गोयमा ! जहवेणविउकोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं चउरासीवाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, गम्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहश्रेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! जहणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं पुवकोडी, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पञ्जत्तयाण पुच्छा गोयमा । जहमेणं अंतोमहत्तं उकोसेणं पुत्वकोडी अंतोमुत्तूणा, समुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्सजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुने उक्कोसेणं तेवनं वाससहस्साई, अपज्जत्तयाण पुच्छा गोयमा! जहन्त्रेणवि उकोसेणचि अंतोमुहु, पजत्तयाण पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं तेवनं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, गम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमहु उकोसेणं पुवकोडी, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहवेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुतूणा । भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतो स्थितिपदे जलस्थलखरा सामान्यविशेषतः पञ्चेन्द्रियाणां स्थितिः सू. ९८ अनुक्रम [२९९-३०५] ॥१७॥ ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत [९५ १०१] दीप अनुक्रम [२९९ -३०५] Eticati “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [-], मूलं [ ९५-१०१] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [४]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उक्कोण पुढकोडी, अपअत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणवि उक्कोसेणचि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोतंउकोसेणं पुढकोडी अंतोमुहुत्तूणा, संमुच्छिमभूयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणवि उकोसेपवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुडुत्तं उकोसेणं बायालीसं बाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, गन्भवकंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुनकोडी, अपजतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं पुत्रकोडी अंतोना । खयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा जहस्रेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पजचयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणं अंतोमुहुचं उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं अंतोहुचूर्ण, संमुच्छिमखयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणं अंतोमुहतं उकोसेणं बावतरी वाससहस्साई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुडुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं बाबत्तरी वाससहस्साई अंतोमुहुत्तणाई, गम्भवकंतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं पलिओनमस्स असंखेज्जइमागं, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणविउकोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं अंतोमुहुत्तूर्ण (सू०९८ ) । मणुस्साणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा ! जत्रेणं अंतो For Par Lise Only ~351~ 22029990 ଏକକ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५ प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती. ४स्थितिपदे मनु ध्यव्यन्त| रज्योति प्कस्थितिःसू.९८ ४-९९-१०० ॥१७४॥ १०१ दीप अनुक्रम [२९९-३०५] मुहुर्त उकोसेणं तिनि पलिओवमाई, अपज्जत्तमणुस्साणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणवि उकोसेणपि अंतोमहुतं, पजत्तमपुस्साणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्च उक्कोसेणं तिमि पलिओवमाई अंतोमुहत्तणाई, संमच्छिममणुस्साणं पुरछा गोयमा ! जहनेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहु, गम्भवतियमणुस्साणं पुच्छा गोषमा ! जहणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं तिमि पलिओक्माई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहण अंतोमुहुरी उकोसेणं तिनि पलिओक्माई अंतोमुहत्तृणाई।। (सू०९९)। वाणमंतराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पनचा ?, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं पलिओचम, अपजत्नयवाणमंतराणं देवाणं पुच्छा गोयमा! जहश्रेणघि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमहुत्तूणाई, उकोसेणं पलिओवमं अंतोमुत्तूर्ण । वाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं अद्धपलिओवर्म, अपजत्तियार्ण देवीणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहु, पज्जत्तियाणं वाणमंतरीणं पुच्छा गोयमा ! जहझेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहलणाई उकोसेणं अपलिओवमं अंतोमहत्तण । (१०१००)।जोइसियाणं देवाणं पुच्छा गोयमा! जहणं पलिओवमट्ठभागो उकोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं, अपज्जतजोइसियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुच, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमट्ठभागो अंतोमुद्दत्तूणो उकोसेणं पलिओवर्म वाससयसहस्समन्भहियं अंतोमुहुत्तूर्ण । जोइसिणीणं देषीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमट्ठभागो उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासवाससहस्समम्भहियं, अपजतजोइसियदेवीणं पूच्छा गोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पज्ज ॥१७४॥ ज्योतिष्क-देवानाम् स्थिति:/(आयु:) ~ 352 ~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५ १०१॥ दीप अनुक्रम [२९९-३०५] चयजोइसियदेवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमट्ठभागो अंतोमुहुत्तूणो उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासवाससहस्समब्भहियं अंतोमुहुत्तू गं । चंदविमाणेणं मंते ! देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्सममहियं, अपज्जत्तयाणं चंददेवाणं पुच्छा मोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुन, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुजूणं उकोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं अंतोमुहुत्तूर्ण, चंदविमाणे णं देवीणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं चउभागपलिओवमं उकोसेणं अद्धपलिओवमं पन्नासवाससहस्समभहियं, अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पन्नासवाससहस्समब्भहियं अंतोमुहुनूणं । सूरविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवर्म उकोसेणं पलिओयम वाससहस्समभहियं, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुनं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहत्तूणं उकोसेणं पलिओवमं वाससहस्समभहियं अंतोमुहुत्तूणं, भूरविमाणे णं भंते ! देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं चउभागपलिओवमं उकोसेणं अद्धपलिओचमं पंचहिं वाससएहिमब्भहियं, अपज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्ग, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तर्ण उकोसेणं अद्धपलिओवर्म पंचहिं वाससएहिमब्भहियं अंतोमुहुजूर्ण । महविमाणे गं भंते ! देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्भेणं चउभागपलिओवर्म उकोसेणं पलिओवर्म, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुन्, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जह ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत IND सूत्रांक प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती. ४स्थितिपदे ज्योतिष्कस्थितिः सू. १०१ [९५ ॥१७५॥ १०१ श्रेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उकोसेणं पलिओवमं अंतोमुहुनृणं, गहविमाणे देवीणं पुरछा गोयमा ! जहमेणं चउभागपलिओवम उकोसेणं अदपलिओवर्म, अपजत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्ग, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुर्ण उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं अंतोमुहुतूणं । नक्खत्तविमाणे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उकोसेणं अद्धपलिओवमं अंतोमुत्तूणं, नक्खत्तविमाणे देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणं चउभागपलिओवम उक्कोसणं साइरेग चउभागपलिओक्म, अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जचियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहत्तणं उकोसेणं साइरेग चउभागपलिओवमं अंतोमुहत्तूणं । ताराविमाणे देवाणं पुरछा गोयमा! जहणं अट्ठमागपलिओवर्म उकोसेणं चउभागपलिओवम, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा जहन्नेणं पलिओवमट्टमार्ग अंतोमुहत्तूणं उकोसेण चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण, ताराविमाणे देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमद्वभार्ग उकोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिओवर्म ताराविमाणे अपज्जत्तियाणं देवीण पुच्छा मोयमा ! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्च, पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं पलिओवमट्ठभागं अंतोमुहुजूर्ण उक्कोसेणं साइरेगं पलिओवमट्ठभागं अंतोमुत्तूर्ण (सू०१०१) नवरं 'चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं' इत्यादि, चन्द्रविमाने चन्द्र उत्पद्यते शेषाच तत्परिवारभूताः, तत्र तत्परि अनुक्रम [२९९-३०५] ||१७५॥ ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [९५-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक Sesesese [९५ १०१॥ वारभूतानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपमप्रमाणं उत्कर्षतः केपाश्चिदिन्द्रसामानिकादीनां वर्षलक्षाभ्यधिकं पल्योपम, चन्द्रदेवस्य तु यथोक्तमुत्कृष्टमेव, एवं सूर्यादिविमानेष्वपि भावनीयमिति ॥ वेमाणियाणं देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?, गोषमा ! जहन्नेणं पलिओवम उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाई, अपञ्जतयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोवमा! जहनेणं पलिओचम अंतोमुहत्तणं उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । वेमाणियाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता गोयमा ! जहनेणं पलिओवम उक्कोसेणं पणपन्न पलिओवमाई, अपजत्तियाण पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं पलिओवम अंतोमुहुत्तूर्ण उक्कोसेणं पणपत्रं पलिओवमाई अंतोमुहुणाई ।। सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवम उकोसेणं दो सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवम अंतोमुहुत्तूर्ण उक्कोसेणं दो सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, सोहम्मे कप्पे देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवम उकोसेण पन्नास पलिओवमाई, अपअत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोपमा जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्त, (ग्रन्थाग्र२५००) पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उक्कोसेणे पन्नास पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाण देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेण पलिओवम उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई, अपञ्जत्तियपरिग्गहियदेवीणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि दीप अनुक्रम [२९९-३०५] coccecers ( REsamanna Sunauranorm | वैमानिक-देवानाम् स्थिति:/(आयुः) ~355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाबा. मलयवृत्ती. ४ स्थितिपदे वैमानिकस्थि तिः सू. प्रत सूत्रांक [१०२] ॥१७६॥ १०२ उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, परिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेण पलिओवर्म अंतोमुहुत्तूणं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई, अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहश्रेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवम उकोसेणं साइरेगाई दो सागरोक्माई, अपञ्जत्तदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमहत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहत्तणं उकोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूगाई, ईसाणे कप्पे देवीर्ण पुच्छा मोयमा ! जहन्नेणं साइरेग पलिओवमं उक्कोसेणं पणपन्न पलिओवमाई, ईसाणे कप्पे देवीणं अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं, ईसाणे कप्पे पजत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उफोसेणं पणपन्न पलिओवमाई अंतीमुहुजूणाई, ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं साइरेग पलिओवम उक्कोसेणं नव पलिओवमाई, अपज्जचियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्त, ईसाणे कप्पे पज्जचियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं साइरेग पलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उक्कोसेणं नव पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियदेवीणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं साइरेगं पलिओवम उकोसेर्ण पणपन्नाई पलिओवमाई, अपज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमहत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उकोसेणं पणपन्नं पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। सणंकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा दीप अनुक्रम [३०६] ॥१७६॥ ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------- ------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२] गोयमा ! जहन्नेणं दो सागरोवमाई उकोसेणं सत्त सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं दो सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई ।। माहिदे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई उक्कोसेणं साइरेगाई सत्त सागरोवमाई, अपज्जतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि कोसेणवि अंतोमुहुनं, पञ्जत्तयाण पुरछा गोयमा! जहनेणं दो सागरोषमाइं साइरेगाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं सत्त सागरोबमाई साइरेगाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। बंभलोए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाई उक्कोसेणं दस सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाण पुच्छा गोयमा! जहनेणं सच सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं दस सागरोवमाई अंतोमुहुजूणाई ।। लंतए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं दस सागरोवमाई उकोसेणं चउद्दस सागरोक्माई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं दस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाई अंतोमुहुतूणाई ।। महासुके कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउद्दस सागरोबमाई उक्कोसेणं सत्तर सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा: जहन्नेणं चउद्दस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं सत्तर सागरोवमाई अंतोमुहुनूणाई ॥ सहस्सारे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं सत्तर सागरोचमाई उकोसेणं अहारस सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्ग, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं सत्तर सागरोवमाई अंतोमूहुतूणाई उकोसेणं अद्वारस सागरोवमाई दीप अनुक्रम [३०६] aureuniorary.om ~357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: स्थितिपदे वैमा प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१०२] ॥१७७॥ अंतोमुहुत्तूणाई ।। आणए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमाई उकोसण एगणवीस सागरोबमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुन, पजतयाण पुच्छा गोयमा! जहनेणं अट्ठारस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं एगृणवीस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ पाणए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्ने] एगृणवीसं सागरोवमाई उकोसेणं पीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जानेणविउकोसेणवि अंतोमुहत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहणं एगणवीसं सागरोकमाई अंतोमुहत्तणाई उकोसणं बीस सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ आरणे कप्पे देवाण पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं बीस सागरोवमाई उकोसेणं एकवीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्स, पजचयाणं पुरछा गोयमा! जहन्नेणं वीसं सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं एगवीसं सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। अचुए कप्पे देवाण पुच्छा गोयमा! जहन्भेणं एगषीसं सामरोबमाई उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्स, पजत्तयाण पुच्छा गोयमा । जहणं इकवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं पायीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । हेहिमहेद्विमगविज्जगदेवाणं पुच्छा गोषमा! जहनेणं बावीसं सागरोबमाई उक्कोसेणं तेवीसं सागरोबमाई, अपअत्तयाणे पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं बावीसं सागरोबमाई अंतीमुहुत्तूणाई उकोसेणं तेवीसं सागरोबमाई अंतोमुत्तूणाई ॥ हेडिममज्झिमगेवेज्जगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं तेवीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणषि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं seeeeeeeeeeeeace दीप अनुक्रम [३०६] | ॥१७७॥ ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२] पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं तेवीसं सागरोबमाइं अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं चउवीस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ हेहिमउवरिमगेविजगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउचीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं चउवीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई उकोसेणं पणषीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई ।। मज्झिमहेडिमगेविअगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं पणवीसं सागरोवमाई उकोसेणं छबीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं पणवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तुणाई उक्कोसेणं छबीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई। मज्झिममज्झिमगेविज्जगदेवाणे पुच्छा गोयमा ! जहनेणं छहीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोपमा ! जहणं छबीसं सागरोवमाई अंतीमुहुत्तूणाई उकोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई ॥ मज्झिमउवरिमगेविजगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहबेणं सत्तावीस सागरोवमाई उकोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुन, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं सत्तावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई ॥ उवरिमहेट्ठिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई उकोसेणं एगणतीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अट्ठावीस सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं एगणतीस सागरोक्माई अंतोमुहुत्तूणाई ।। उपरिममझिमगेवेजगदेवाणं पुच्छा दीप अनुक्रम [३०६] ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [४], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. ४स्थितिपदे बैमानिकस्थि प्रत सूत्रांक [१०२] तिः 2003809 सू. ॥१७॥ गोयमा ! जहन्नेणं एगुणतीसं सागरोक्माई उक्कोसेणं तीसं सागरोबमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्स, पज्जत्तयाणं पुरछा गोयमा! जहन्नेणं एगृणतीसं सागरोबमाई अंतोमुहुजूणाई उकोसेणं तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । उवरिमउवरिमगेवेजगदेवाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं तीसं सागरोवमाई उकोसेणं एकतीसं सागरोवमाई, अपजचयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहतं, पजत्तयाणं पुरछा गोयमा ! जहन्नेणं तीस सागरोक्माई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई ।। विजयवेजयंतजयंतअपराजितेसु णं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्चत्ता', गोयमा! जहनेणं एकतीस सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एकतीस सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं तेतीसं सागरोधमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। सबद्दसिद्धगदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा ! अजहन्नमणुकोसं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पनत्ता, सबट्टसिद्धगदेवाणं अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतो हुत्तं, सबसिद्धगदेवाणं पजत्तयाणं केवइयं कालं ठिई पत्रचा?, गोयमा ! अजहन्नमणुकोस तेत्तीस सागरोपमाई अंतोमहुत्तूणाई ठिई पण्णचा ।। (सू० १०२) पन्नवणाए भगवईए चउत्थं ठिएपदं समत्तं ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां चतुर्थ स्थित्याख्यं पदं समाप्तम् ।। १०२ दीप अनुक्रम [३०६] ॥१७८॥ taesesea अत्र पद (०४) "स्थिति" परिसमाप्तम् ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [१०३] श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गे पञ्चमं पर्यायपदं । प्रत सूत्रांक [१०३] दीप अनुक्रम [३०७]] तदेवं व्याख्यातं चतुर्थ पदं, इदानीं पञ्चममारभ्यते-तस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तरपदे नारकादिपर्यायरूपेण सवानामवस्थितिरुक्ता, इह त्यौदयिकक्षायोपशमिकक्षायिकभावाश्रयपर्यायावधारणं प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कइविहाणे भंते ! पजवा पनत्ता, गोयमा दुविहा पञ्जवा पञ्चचा, तंजहा-जीवपजवाय अजीवपलवा य । जीवपञ्जवाणं भंते! किं संखेजा असंखेजा अणंता?, गोयमा! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता, से केणडेणं भंते! एवं बुधइ-जीवपजवा नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता ?, गोयमा! असंखिज्जा नेरइया असंखिज्जा असुरकुमारा असंखिज्जा नागकुमारा असंखिजा सुवण्णकुमारा असंखिजा विज्जुकुमारा असंखिज्जा अगणिकुमारा असंखिज्जा दीवकुमारा असंखिज्जा उदहिकुमारा असंखिज्जा दिसीकुमारा असंखिज्जा बाउकुमारा असंखिज्जा थणियकुमारा असंखिजा पुढविकाहया असंखिज्जा आउकाइया असंखिज्जा तेउकाइया असंखिज्जा वाउकाइया अणता वणप्फइकाइया असंखेजा बेईदिया असंखेजा तेइंदिया असंखेजा चउरिदिया असंखेजा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया असंखेजा मणुस्सा असंखेजा वाणमंतरा असंखेजा जोइसिया असंखेआ पेमाणिया अर्णता सिद्धा, से एएणद्वेणं गोयमा! एवं बुचइ-ते पंनो संखिज्जा नो असंखिज्जा अणंता॥(सूत्र१०३) JABERatinintamational Swlanniorary.org अथ पद (०५) "विशेष" आरभ्यते पर्यायपदे जीव-पर्याय: ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०३] याः मल प्रत सूत्रांक [१०३] प्रज्ञापना 'कइपिहाणं भंते ! पजवा पन्नत्ता? इति, अथ केनाभिप्रायेण गौतमखामिना भगवाने पृष्टः १, उच्यते. ५ पर्याय उक्तमादी प्रथमे पदे प्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-जीवप्रज्ञापना अजीवप्रज्ञापना चेति, तत्र जीवाश्चाजीवाथापदे जीवय०वृत्ती. द्रव्याणि, द्रव्यलक्षणं चेदम्-'गुणपर्यायवद्दव्य'मिति (तत्त्वा० अ०५ सू० ३१) ततो जीवाजीवपर्यायभेदावगमार्थ-181 पर्यायाः | मेवं पृष्टवान् , तथा च भगवानपि निर्वचनमेवमेवाह-'गोयमा! दुविहा पज्जवा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपज्जवाय ॥१७९॥ अजीवपजवा य' इति, तत्र पर्याया गुणा विशेषा धर्मा इत्खनन्तरं, ननु सम्बन्ध प्रतिपादयतेदमुक्तम्-दहन त्यौदयिकादिभावाश्रयपर्यायपरिमाणावधारणं प्रतिपाद्यत इति, औदयिकादयश्च भावा जीवाश्रयाः, ततो जीवपINोया एप गम्यन्ते अथ चास्मिन्निर्वचनसूत्रे यानामपि पर्याया उक्तास्ततो न सुन्दरः सम्बन्धः, तदयुक्तम् , अभि प्रायापरिज्ञानात् , औदयिको हि भावः पुद्गलवृत्तिरपि भवति, ततो जीवाजीवभेदेनौदयिकभावस्य द्वैविध्यान सम्बन्धकथननिर्वचनसूत्रयोर्विरोधः । सम्प्रति सम्बन्ध(पर्याय परिमाणावगमाय प्रच्छति-'जीवपजया णं भंते! किं संखेजा' इत्यादि, इह यस्माद्वनस्पतिसिद्धवर्जाः सर्वेऽपि नैरयिकादयः प्रत्येकमसोयाः मनुष्येष्वसङ्खयेयत्वं संमूINछिममनुष्यापेक्षया वनस्पतयः सिद्धाश्च प्रत्येकमनन्ताः ततः पर्यायिणामनन्तत्वाद् भवन्त्यनन्ता जीवपर्यायाः ॥ ॥१७९॥ तदेवं गौतमेन सामान्यतो जीवपर्यायाः पृष्टाः भगवानपि सामान्येन निर्वचनमुक्तवान्, इदानीं विशेषविषयं प्रश्नं गौतम आह दीप अनुक्रम [३०७]] ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [३०८] resetsee Education intimation नैरयिकस्य पर्याय: पदं [५], “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-], नेरयाणं भंते ! केवइया पजवा पद्मता १, गोयमा ! अनंता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं मंते ! एवं वृच्चइ-नेरइयाणं अनंता पजवा पत्ता १, गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स दवहयाए तुल्ले पएसइयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्महिए जह हीणे असंखिजड़भागहीणे वा संखिजर भागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा असंखिखगुणहीणे वा अह अन्भहिए असंखिज्जइभागमन्महिए वा संखिज्जइ भागमम्भहिए वा संखिजगुणमन्भहिए वा असंखिज्जगुणमन्महिए वा, ठिईए सिय ही सिय तुले सिय अन्महिए जह हीणे असंखिअड़भागहीणे वा संखिञ्जइभागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा असंखिअगुणही वा अह अभहिए असंखिञ्जभागमम्भहिए वा संखिञ्जभागमन्भहिए वा संखिज्जगुणमन्भहिए वा असंखिजगु भहिए वा, कालवण्णपञ्जवेहिं सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए, जद हीणे अनंतभागहीणे वा असंखेज्जभागहीणे संखेज्जभागहीणे वा संखेअगुणहीणे वा असंखेजगुणहीणे वा अनंतगुणहीणे वा अह अन्भहिए अनंतभागम भहिए वा असंखेजभागमन्महिए वा संखेजभागमन्भहिए वा संखेजगुणमन्भहिए वा असंखे अगुणमन्भहिए वा अनंतगुणमन्महिए वा, नीलवन्नपञ्जवेहिं लोहियवन्नपञ्जवेहिं पीयवनपज्जवेहिं हालियनपअवेहिं सुकिल्लवनपज्जवेहिं छट्टाणवडिए, सुभिगंधपजवे हिं दुभिगंधपज्जवेहिय छट्ठाणचडिए, तित्तरसपजवेहिं कडुयरसपञ्जवेहिं कसायरसपज्जवेहिं अंबिलरसपज्जवेहिं महुररसपजवेहिं छट्ठाणवडिए, कक्खडफासपज्जवेहिं मउयफासपज्जवेहिं गरुयफा सपजवेहिं लहुयफासपज्जवेहिं सीयफासपञ्जवेहिं उसिणफासपञ्जवेहिं निद्धफासपजहिं लुक्खफासपजवेहिं छट्टाणवडिए, आभिणियोहियनाणपञ्जवेहिं सुयनाणपअवेहिं ओहिनाणपअवेहिं महअन्नाणपज्जवेहिं सुयअनाणपञ्जवेहिं विभंगनाणपञ्जवेहिं चक्खुदंसणपज्जवेहिं अश्वक्खुदंसणपञ्जवेहिं ओहिदंसणपञ्ज For Full मूलं [ १०४] ~ 363~ ରେ 339392929200222902029 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] प्रज्ञापनाया। मल ॥१८॥ प्रत सूत्रांक [१०४] ल बेहिं छहाणवडिए, से तेणवणं मोयमा ! एवं बुच्चइ नेरइयाणं नो संखेजा नो असंखेचा अणंता पञ्जवा पन्नत्ता । (सूत्रं १०४) ५ पर्याय'नेरइयाणं भंते ! केवइया पजया पन्नत्ता' इति, अथ केनाभिप्रायेणेवं गौतमः पृष्टवान् ?, उच्यते, पूर्व किलापदे नारसामान्यप्रने पर्यायिणामनन्तत्वात् पर्यायाणामानन्त्यमुक्तं, यत्र पुनः पर्यायिणामानन्त्यं नास्ति तत्र कथमिति पृच्छति-'नेरइयाण' इत्यादि, तत्रापि निर्वचनमिदम् 'अनन्ता' इति, अत्रैव जातसंशयः प्रश्नयति-से केणद्वेणं भंते ! इत्यादि, अथ केनार्थेन-केन कारणेन केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाणां पर्याया एवम्-अनन्ता इति ?, भगवानाह-'गोयमा ! नेरइए नेरदयस्स दबट्टयाए तुल्ले, इत्यादि, अथ पर्यायाणामानन्त्यं कथं घटते इति पृष्टे तदेव पर्यायाणामानन्त्यं यथा युक्त्युपपन्नं भवति तथा निर्वचनीयं नान्यत् ततः केनाभिप्रायेण भगवतैवं निर्वच-1 नमवाचि-नैरयिको नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्य इति ?, उच्यते, एकमपि द्रव्यमनन्तपर्यायमित्यस्य न्यायस्य प्रद-1 शनार्थ, तत्र यस्मादिदमपि नारकजीवद्रव्यमेकसङ्ख्याऽवरुद्धमिति नैरयिको नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, द्रव्यमे-15 वार्थो द्रव्यार्थः तद्भावो द्रव्यार्थता तया द्रव्यातया तुल्यः, एवं तावत् द्रव्यार्थतया तुल्यत्वमभिहितं, इदानी प्रदे-18 शार्थतामधिकृत्य तुल्यत्वमाह-'पएसट्ठयाए तुले' इदमपि नारकजीवद्रव्यं लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशमिति प्रदे-1ST शार्थतयाऽपि नैरयिको नैरयिकस्य तुल्यः, प्रदेश एवार्थ प्रदेशार्थः तद्भावः प्रदेशार्थता तया प्रदेशार्थतया, कस्मादभिहितमिति चेत्, उच्यते, द्रव्यद्वैविध्यप्रदर्शनार्थ, तथाहि-द्विविधं द्रव्यं-प्रदेशवत् अप्रदेशवच, तत्र परमाणुरप्र दीप अनुक्रम [३०८] ॥१८॥ ~364~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] प्रत सूत्रांक [१०४] देशः, द्विप्रदेशत्रिप्रदेशादिकं तु प्रदेशवत् , एतच्च द्रव्यद्वैविध्यं पुद्गलास्तिकाय एव भवति, शेषाणि तु धर्मास्तिकायादीनि द्रव्याणि नियमात् सप्रदेशानि, ओगाहणट्टयाए सिय हीणे' इत्यादि, नेरयिकोऽसङ्ग्यातप्रदेशोऽपरस्य नैरयिकस्य तुल्यप्रदेशस्य अवगाहनमवगाहः-शरीरोच्छ्यः अवगाहनमेवार्थोऽवगाहनार्थस्तद्भावोऽवगाहनार्थता तया अवगाहनार्थतया 'सिय हीणे' इत्यादि, स्थाच्छन्दः प्रशंसाऽस्तित्वविवादविचारणाऽनेकान्तसंशयप्रश्नादिष्वर्थेषु, अत्रानेकान्तद्योतकस्य ग्रहणं, स्थाद्धीनः अनेकान्तेन हीन इत्यर्थः, स्वाक्षुल्यः-अनेकान्तेन तुल्य इत्यर्थः, स्वादभ्यधिका-अनेकान्तेनाभ्यधिक इति भावः, कथमिति चेत् , उच्यते, यस्माद्वक्ष्यति रत्नप्रभापृथिवीनरयिकाणां भवधारणीयस्य वैक्रियशरीरस्य जघन्येनावगाहनाया अङ्गुलस्यासपेयो भागः उत्कर्षतः सप्त धषि त्रयो हस्ताः पट चाङ्गुलानि, उत्तरोत्तरासु च पृथिवीपु द्विगुणं द्विगुणं यावत् सप्तमनरकपृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतोऽवगाहनाऽङ्गुलस्यासोयो भागः उत्कर्षतः पञ्चधनु शतानीति,8 तत्र 'जइहीणे इत्यादि, यदि हीनस्ततोऽसोयभागहीनोवा स्यात् सजयेयभागहीनो वा सोयगुणहीनो पा स्यात् अस-18 मेयगुणहीनो वा, अथाभ्यधिकस्ततोऽसङ्ख्येयभागाभ्यधिको वा स्यात्सपेयभागाभ्यधिको वा सङ्ग्येयगुणाभ्यधिको वाड-18 सङ्ख्येयगुणाभ्यधिको वा, कथमिति चेत् ?,उच्यते, एकः किल नारक उच्चस्त्वेन पञ्च धनु शतानि अपरस्तान्येवानुलासाये, यभागहीनानि, अङ्गुलासययभागश्च पञ्चानां धनुःशतानामसङ्ग्येये भागे वर्तते, तेन सोऽङ्गुलासयभागहीनपञ्चधनु:शतप्रमाणः अपरस्थ परिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणस्थापेक्षयाऽसत्येयभागहीनः, इतरस्त्वितरापेक्षयाऽसक्वेयभागाभ्यधिक: दीप अनुक्रम [३०८] ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] पदे नार प्रत सूत्रांक [१०४] प्रज्ञापना- तथा एकः पञ्चधनुःशतान्युचस्त्वेन अपरस्तान्येव द्वाभ्यां त्रिभिर्वा धनुर्भिन्यूनानि ते च द्वे त्रीणि वाधषि पञ्चाना धनः18 ५ पर्याययाः मल-18 शतानां सोयभागे वर्तन्ते ततः सोऽपरस्य परिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणस्यापेक्षया सख्येयभागहीनः, इतरस्तु परिपूर्णप-1 यवृत्ती. श्वधनु शतप्रमाणस्तदपेक्षया समवेयभागाभ्यधिकः, तथा एकः पञ्चविंशं धनुःशतमुच्चस्त्वेनापरः परिपूर्णानि पञ्चधनुःश-18 काणां प तानि, पञ्चविंशं च धनुःशतं चतुर्मिगुणितं पञ्च धनुःशतानि भवन्ति ततः पञ्चविंशत्यधिकधनुःशतप्रमाणोचैस्त्वेऽप्यपरथायोयाः द्र॥१८॥ परिपूर्णपञ्चधनु शतप्रमाणस्यापेक्षया सोयगुणहीनो भवति तदपेक्षया वितरः परिपूर्णपञ्चधनु शतप्रमाणः सश्येय व्यप्रदेशयगुणाभ्यधिकः, तथा एकोऽपर्याप्तावस्थायामङ्गुलस्थासङ्ख्येयभागावगाहे वर्तते अन्यस्तु पञ्चधनुःशतान्युस्त्वेन. स्थितिभाअङ्गलासयभागश्वासयेयेन गुणितः सन् पश्चधनुःशतप्रमाणो भवति, ततोऽपयोप्तावस्थायामगुलासययभागप्रमा-II णेऽवगाहे वर्तमानः परिपूर्णपश्चधनुःशतप्रमाणापेक्षया असोयगुणहीनः, पञ्चधनुःशतप्रमाणस्तु तदपेक्षयाऽसोयगुणाभ्यधिकः । 'ठिईए सिय हीणे इत्यादि, यथाऽवगाहनया हानी वृद्धी च चतुःस्थानपतित उक्तस्तथा स्थित्यापि वक्तव्य इति भावः, एतदेवाह-'जब हीणे' इत्यादि, तत्रैकस्य किल नारकस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः। |अपरस्य तु तान्येव समयादिन्यूनानि, तत्र यः समयादिन्यूनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणस्थितिकः स परिपूर्णत्रयस्त्रि-11 ॥१८॥ शत्सागरोपमस्थितिकनारकापेक्षयाऽसङ्ख्येयभागहीनः परिपूर्णत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकस्तु तदपेक्षयाऽसोयभागाभ्यधिकः, समयादेः सागरोपमापेक्षयाऽसवेयभागमात्रत्वात् , तथाहि-असङ्ख्येयैः समयरेकाऽऽवलिका सङ्ख्या दीप अनुक्रम [३०८] ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] प्रत सूत्रांक [१०४] ताभिरावलिकाभिरेक उच्छासनिश्वासकालः सप्तभिरुच्छासनिःश्वासैरेकः स्तोकः सप्तभिः स्तोकैरेको लयः सप्तसप्तत्या लवानामेको मुहूर्तः त्रिंशता मुहूर्तेरहोरात्रः पञ्चदशभिरहोरात्रैः पक्षः द्वाभ्यां पक्षाभ्या मासः द्वादशभिर्मासैः संवत्सरः असङ्ख्येयैः संवत्सरैः पल्योपमसागरोपमाणि, समयाऽऽवलिकोच्छासमुहूर्त दिवसाहोरात्रपक्षमाससंवत्सरयुगैः हीनः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षयाऽसोयभागहीनो भवति तदपेक्षया वितरोऽसङ्ख्येयभागाभ्यधिकः, तथा एकस्य 18 त्रयविंशत्सागरोपमाणि स्थितिः परस्य तान्येव पल्योपमैन्यूनानि, दशभिश्च पल्योपमकोटीकोटीभिरेकं सागरोपमं 18|निष्पद्यते, ततः पल्योपमैन्यूनस्थितिकः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षया सोयभागहीनः परिपूर्णस्थितिकस्तु तदपे क्षया सोयभागाभ्यधिका, तथैकस्य सागरोपममेकं स्थितिः अपरस्य परिपूर्णानि प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तत्रैकसागरोपमस्थितिकः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षया सोयगुणहीनः, एकस्य सागरोपमस्य त्रयस्त्रिंशता गुणने परिपूस्थितिकत्वमासेः, परिपूर्णस्थितिकस्तु तदपेक्षया सोयगुणाभ्यधिकः, तथैकस्य दश वर्षसहस्राणि स्थितिः अपरस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, दश वर्षसहस्राण्यसवेयरूपेण गुणकारेण गुणितानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भवन्ति, ततो दशवर्षसहस्रस्थितिकः त्रयविंशत्सागरोपमस्थितिकनारकापेक्षयाऽसक्वेयगुणहीनः तदपेक्षया तु प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकोऽसत्येयगुणाभ्यधिक इति, तदेवमेकस्य नारकस्यापरनारकापेक्षया द्रव्यतो द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया च तुल्यत्वमुक्त क्षेत्रतोऽयगाहनं प्रति हीनाधिकत्वेन चतुःस्थानपतितत्वं कालतोऽपि स्थितितो हीनाधिकत्वेन दीप अनुक्रम [३०८] ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] e net प्रत सूत्रांक [१०४] चतुःस्थानपतितत्वं, इदानीं भावाश्रयं हीनाधिकत्वं प्रतिपाद्यते यतः सकलमेव जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं या परस्परतो प्रज्ञापना ५ पर्यायया: मल- द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्विभज्यते यथा घटः, तथाहि-द्रव्यत एको मार्तिकः अपरः काञ्चनो राजतादि क्षेत्रत एक पदे नारयवृत्ती. इहत्यः अपरः पाटलिपुत्रकः कालत एकोऽद्यतनः अन्यस्त्वैषमः परुत्तनो वा भावत एकः श्यामः अपरस्तु रक्तादिः । काणां पएवमन्यदपि । तत्र प्रथमतः पुद्गलविपाकिनामकर्मोदयनिमित्तं जीवीदयिकभावाश्रयेण हीनाधिकत्वमाह-कालव- र्यायाः द्र॥१८॥ अपजयहिं सिय होणे सिय तुले सिय अभहिए' अस्वाक्षरघटना पूर्ववत् , तत्र यथा हीनत्वमभ्यधिकत्वं च तथा प्रति ब्यप्रदेशपादयति-'जइ हीणे' इत्यादि, इह भावापेक्षया हीनत्वाभ्यधिकत्वचिन्तायां हानी वृद्धौ च प्रत्येकं षट्स्थानपतित-| स्थितिभा। त्वमवाप्यते, पदस्थानके च यद्यदपेक्षयाऽनन्तभागहीनं तस्य सर्वजीवानन्तकेन भागे हते यल्लभ्यते तेनानन्ततमेन भागेन हीन, यच यदपेक्षयाऽसबेयभागहीनं तस्यापेक्षणीयस्थासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हते। १०४ हायलभ्यते तावता भागेन न्यून, यच यदधिकृत्य सङ्ख्येयभागहीनं तस्यापेक्षणीयस्योत्कृष्टसञ्जयकेन भागे हते यलभ्यते | तावता हीनं, गुणनसङ्ख्यायां तु यद्यतः सङ्ख्येयगुणं तदवधिभूतमुत्कृष्टेन सङ्ख्येयकेन गुणितं सद्यावद् भवति तावत्प्रमाणमवसातव्यं, यच यतोऽसोयगुणं तदवधिभूतमसङ्ग्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन गुणकारेण गुण्यते गुणितं सद्यावद्भवति तावदवसेयं, यच यस्मादनन्तगुणं तदवधिभूतं सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यते गुणितं सघाः ॥१८॥ कावद्भवति तावत्प्रमाण द्रष्टव्यं, तथा चैतदेव कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहिण्यां पदस्थानकप्ररूपणाऽवसरे भागहारगुणकारखरूप दीप semersedesese अनुक्रम [३०८] wwjanatarary.om ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] प्रत सूत्रांक [१०४] मुपवर्णितं 'सबजियाणतमसंखलोगसंखेजगस्स जेटस्स । भागो तिसु गुणणातिसु' इति, सम्प्रत्यधिकृतसूत्रोक्तपटस्थानपतितत्वं भाव्यते-तत्र कृष्णवणेपयायपरिमाणं तत्त्वतोऽनन्तसश्यात्मकमप्यसद्भावस्थापनया किल दश सहस्राणि १००००, तस्य सर्वजीवानन्तकेन शतपरिमाणपरिकल्पितेन भागो हियते लब्धं शतं १००, तत्रैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं दश सहस्राणि, अपरस्य तान्येव शतेन हीनानि ९९००, शतं च सर्वजीवानन्तमागहारलब्धत्वादनन्ततमो भागः, ततो यस्य शतेन हीनानि दश सहस्राणि सोऽपरस्य परिपूर्णदशसहस्रप्रमाणकृष्णव-1 पर्यायस्य नारकस्यापेक्षयाऽनन्तभागहीनः तदपेक्षया तु सोऽपरः कृष्णवर्णपर्यायोऽनन्तभागाभ्यधिकः, तथा कृष्ण-18 वर्णपर्यायपरिमाणस्य दशसहस्रसबाकस्यासयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणपरिकल्पितेन पञ्चाशत्परिमाणेन भागहारेण भागो हियते लब्धे द्वे शते एपोऽसङ्ख्येयतमो भागः, तत्रैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्याया दशसहस्राणि शत-18 येन हीनानि ९८.० अपरस्य परिपूर्णानि दश सहस्राणि १००००, तत्र यः शतद्वयहीनदशसहस्रप्रमाणकृष्णवर्णप-8 पर्यायः स परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया असत्यभागहीनः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायस्तु तदपेक्षयाऽसनेयमा-14 गाभ्यधिकः, तथा तस्यैव कृष्णवर्णपर्यायराशेर्दशसहस्रसङ्ख्याकस्योत्कृष्ट साधेयकपरिमाणकल्पितेन दशकपरिमाणेन भागहारेण भागो हियते तलुब्धं सहस्रं एष किल सझ्याततमो भागः, तत्रैकस्य नारकस्य किल कृष्णवर्णपर्यायपरि-18 माणं नव सहस्राणि ९००० अपरस्य दश सहस्राणि १००००, नव सहस्राणि तु दशसहस्रेभ्यः सहस्रेण हीनानि 20000000000000000000 दीप अनुक्रम [३०८] Ranatarary.om ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] प्रत सूत्रांक [१०४] र्यायाःद्रव्यप्रदेश प्रज्ञापना- सहस्रं च सोयतमो भाग इति नवसहस्रप्रमाणकृष्णवर्णपर्यायः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया सङ्ख्येयभाग- पर्याययाः मल- हीनः तदपेक्षया वितरः सङ्ख्येयभागाधिकः, तथैकस्य नारकस्य किल कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं सहस्रं अपरस्य दशपदे नारय. वृत्तो. सहस्राणि, तत्र सहस्रं दशकेनोत्कृष्टसङ्ग्यातककल्पेन गुणितं दशसहस्रसङ्ख्याक भवति इति सहस्रसमकृष्णवर्णप- काणां प. सोयो नारको दशसहस्रसङ्ग्याककृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया सोयगुणहीनः तदपेक्षया परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायः सवे-18 यगुणाभ्यधिकः, तथैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायानं वे शते परस्य परिपूर्णानि दश सहस्राणि, द्वे च शते असोयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रकल्पितेन पञ्चाशत्परिमाणेन गुणकारेण गुणिते दश सहस्राणि जायन्ते, ततो स्थितिभा वैः सू. द्विशतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारकः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षयाऽसयेयगुणहीनः तदपेक्षया वितरोऽस १०४ पश्येयगुणाभ्यधिकः, तथैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं शतमपरस्य दश सहस्राणि शते च सर्वजीवानन्त-| परिमाणपरिकल्पितेन (शत) गुणकारेण गुणिते जायन्ते दश सहस्राणि, ततः शतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारकः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया अनन्तगुणहीनः इतरतु तदपेक्षयाऽनन्तगुणाभ्यधिकः, यथा कृष्णवर्णपर्यायानधिकृत्य [8 हानौ वृद्धौ च षट्स्थानपतितत्वमुक्तमेवं शेषवर्णगन्धरसस्पर्शेरपि प्रत्येकं षट्रस्थानपतितत्वं भावनीयं, । तदेवं पुद्गल-18 ॥१८॥ विपाकिनामकर्मोदयजनितजीवौदयिकभावाश्रयेण पदस्थानपतितत्वमुपदर्शितं, इदानी जीवविपाकिज्ञानावरणीया-13 दिकर्मक्षयोपशमभावाश्रयेण तदुपदर्शयति-'आभिणियोहियणाणपजयहिं' इत्यादि, पूर्ववत् प्रत्येकमाभिनिबोधि दीप अनुक्रम [३०८] ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] प्रत सूत्रांक [१०४] कटर एका कादिषु पट्स्थानपतितत्वं भावनीयं, इह द्रव्यतस्तुल्यत्वं वदता संमूछिमसर्वप्रभेदनिर्भेदचीज मयूराण्डकरसवदनभिव्यक्तदेशकालक्रम प्रत्ययबद्धविशेषभेदपरिणतेोग्यं द्रव्यमित्यावेदितं, अवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वमभिवदता क्षेत्रतः सङ्कोचयिकोचधा आत्मा न तु द्रव्यप्रदेशसमाया इति दर्शितं, उक्तं चैतदन्यत्रापि-"विकसनसङ्कोचनयोन स्तो द्रव्यप्रदेशसङ्ख्यायाः। वृद्धिहासौ स्तः क्षेत्रतस्तु तावात्मनस्तस्मात् ॥१॥" स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वं वदताऽऽयुःकर्मस्थितिनिर्वर्तकानामध्यवसायस्थानानामुत्कर्षापकर्षवृत्तिरुपदर्शिता, अन्यथा स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वायो|गात् , आयुःकर्म चोपलक्षणं तेन सर्वकर्मस्थितिनिर्वर्तकेष्वप्यध्यवसायेपूत्कर्षापकर्षवृत्तिरवसातव्या, कृष्णादिपर्यायः षट्स्थानपतितत्वमुपदर्शयता एकस्यापि नारकस्य पर्याया अनन्ताः किं पुनः सर्वेषां नारकाणामिति दर्शितं, अथ नार-19 | काणां पर्यायानन्त्य पृष्टेन भगवता तदेव पर्यायानन्त्यं वक्तव्यं न त्वन्यत् ततः किमर्थं द्रव्यक्षेत्रकालभावाभिधान-12 | मिति ?, तदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह न सर्वेषां सर्वे खपर्यायाः समसयाः किं तु पदस्थानपतिताः, एत-1 चानन्तरमेव दर्शितं, तच पदस्थानपतितत्वं परिणामित्वमन्तरेण न भवति, तच परिणामित्वं यथोक्तलक्षणस्व द्रव्य| स्पेति द्रव्यतस्तुल्यत्वमभिहितं, तथा न कृष्णादिपर्यायरेव पर्यायवान् जीवः किं तु तत्तत्क्षेत्रसङ्कोचविकोचधर्मतवाऽपि तथा तत्तदध्यवसायस्थानयुक्ततयाऽपीति ख्यापनार्थ क्षेत्रकालाभ्यां चतुःस्थानपतितत्वमुक्तमिति कृतं प्रस-1 झेन । तदेवमवसितं नैरयिकाणां पर्यायानन्त्यं, इदानीमसुरकुमारेषु पर्यायानं पिपृच्छिपुराह दीप अनुक्रम [३०८] ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१०५ -११०] दीप अनुक्रम [३०९ -३१४] प्रज्ञापना या मल य० वृत्तौ. ॥ १८४॥ 99299292৩ tatoesesesex पदं [५], Education intimation “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-], असुरकुमार आदीनाम् पर्याय: असुरकुमाराणं भंते ! केवइया पजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अनंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेगं भंते! एवं बुच्चइ-असुरकुमाराणं अता पज्जवा पद्मत्ता १, गोयमा ! असुरकुमारे असुरकुमारस्स दबट्टयाए तुले परसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए उाणडिए ठिईए चउद्वाणवडिए कालवनपजवेहिं छट्टाणवडिए एवं नीलवन्नपअवेहिं लोहियवमपज्जवेहिं हालहवनपञ्जवेहिं सुकिल्लवनपज्जवेर्हि सुभिगंधपज्जवेहिं दुग्भिगंधपजवेहिं तित्तरसपज्जवेहिं कडुयरसपज्जवेहिं कसायरसपज्जवेहिं अंबिलरसपज्जवेहिं महुररसपज्जवेहिं कक्खडफासपज्जवेहिं मउयफासपज्जवेहिं गरुयफासपज्जवेहिं लहुयफासपज्जचेहिं सीयफासपञ्जवेहिं उसिणफासपज्जवेहिं निद्धफासपजवेहिं लुक्खफासपज्जवेहिं आभिणिबोहियणाणपञ्जवेहिं सुयनाणपञ्जवेहिं ओहिनाणपज्जवेहिं मइअन्नाणपज्जवेहिं सुयअन्नाणपञ्जवेहिं विभंगनाणपज्जवेहिं चक्खुदंसणपञ्जवेहिं अचक्षुदंसणपञ्जवेर्हि ओहिदंसणपञ्जवेहिं छाणवडिए, से एएणद्वेगं गोयमा ! एवं बुबइ- असुरकुमाराणं अनंता पजवा पन्नत्ता एवं जहा नेरइया, जहा असुरकुमारा वहा नागकुमारावि जाव थणियकुमारा ( ०१०५) | पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया पजवा पत्ता?, गोमा 1 अनंता पवा पन्नत्ता, से केणट्ठेणं भंते! एवं बुच्चाइ पुढविकाइयाणं अनंता पजवा पत्ता ?, गोयमा ! पुढविकाइए पुढविकाइयस्स दबाए तुल्ले पएसझ्याए तुल्ले ओगाहणडयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए, जड़ हीणे असंखिज्जइभागहीणे या संखिञ्जइभागहीणे वा संखिञ्जइगुणहीणे वा असंखिञ्जइगुणहीणे वा, अह अग्भहिए असंखिजरभागअन्महिए वा संखिजइभागअन्भहिए वा संखिज्जगुणअब्भहिए वा असंखिज्जगुणअन्भहिए वा, ठिईए तिद्वाणवडिए सिय हीणे सिय तुले सिय अम्भहिए, जइ हीणे असंखिज्जभागहीणे वा संखिजभागहीणे वा संखिज्जगुणहीणे वा अह For Fans at Use Only मूलं [१०५-११०] ~372~ ५ पर्याय पदे असुरादीनां पर्यायानन्त्यं खू. १०५-११० ॥ १८४॥ www.pinbrary.org Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०५-११०] (१५) प्रत सूत्रांक [१०५-११०] Poeaeesemestre esercedees अभहिए असंखिजइभागअन्भहिए वा संखिज्जइभागअब्भहिए वा संखिजगुणअब्भहिए वा वहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहि मइअनाणपञ्जवेहिं सुयअनाणपजवेहिं अचक्खुदंसणपजवेहिं छट्ठाणवडिए |आउकाइयाणं भंते ! केवइया पजवा पवना, गोयमा ! अणंता पञ्जवा पन्नता, से केणटेणं मंते ! एवं बुबह आउकाइयाण अपंता पञ्जवा पचत्ता, गोयमा! आउकाइए आउकाइयस्स दवद्वयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए बनगंधरसफासमहअनाणसुअअचाणअचक्खुर्दसणपज्जवेहिं छहाणवडिए ॥ तेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा! अर्णता पजवा पनचा, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-तेउकाइयाणं अर्णता पजवा पन्नत्ता, गोयमा ! तेउकाइए तेउकाइयस्स दबट्टयाए तुच्छे पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए, ठिईए तिहाणवडिए, वनगंधरसफासमइजनाणसुयअन्नाणअचक्खुदंसणपजवेहि य छहाणवडिए । वाउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! वाउकाइयाण अर्णता पञ्जवा पन्नचा, से केण?णां भंते ! एवं बुचइ-बाउकाइयाणं अर्णता पञ्जवा पनत्ता, गोयमा ! वाउकाइए वाउकाइयस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए चउहाणवडिए ठिईए तिट्ठाणवडिए वनगंधरसफासमइअन्नाणसुयअन्नाणअचक्खुदंसणपजवेहिं छहाणवडिए । वणस्सइकाइयाणं पुच्छा गीयमा ! अर्णता पजवा पबचा, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ-वणस्सइकाइयाण अणंता पञ्जवा पन्नचा ?, गोयमा ! वणस्सइकाइए वणस्सइकाइयस्स दबयाए तल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए वनगंधरसफासमइअन्नाणसुयअन्नाणअचक्खुदसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, से एएणडेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-वणस्सइकाइयाणं अणंता पजवा पन्नत्ता ।। (सू०१८६) बेइंदियाणं पुच्छा गोयमा! अर्णता पजवा लक दीप अनुक्रम [३०९-३१४] S ajaneiorary.org ~373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०५-११०] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१०५-११०] ५ पर्यायपदे असुरादीनां पर्यायान ॥१८५॥ न्य सू. १०५-११० पन्नत्ता, से केणद्वेणं मंते ! एवं वुच्चइ-बेइंदियाणं अर्णता पज्जवा पन्नत्ता !, गोयमा ! येईदिए बेईदियस्स दचट्ठयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए, जइ हीणे असंखिज्जहभागहीणे या संखिज्जइभागहीणे चा संखिजइगुणहीणे वा असंखिजइगुणहीणे वा, अह अम्महिए असंखिजभागअन्भहिए या संखिजहभागअब्भहिए वा संखिजगुणमम्भहिए वा असंखिजइगुणमब्भहिए वा, ठिईए तिहाणवडिए, वनगंधरसफासआभिणियोहियनाणसुयनाणमइअनाणसुयअन्नाणअचक्खुदंसणपजवेहि य छहाणवडिए, एवं तेइंदियापि, एवं चरिंदियावि नवरं दो दसणा चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं (मू०१०७) पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पञ्जवा जहा नेरइयाणं वहा भाणियहा (सू०१०८) मणुस्साणं भंते । केवइया पज्जवा पन्नत्ता, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पनत्ता, से केणडेणं मंते ! एवं वुच्चइ-मणुस्साणं अणंता पञ्जवा पाता, गोयमा! मासे मणूसस्स दबट्ठयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए बन्नगंधरसफासआभिणियोहियनाणसुयनाणओहिनाणमणपजवनाणकेवलनाणपजवेहिं तुल्ले तिहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिए केवलदसणपज्जवेहि तुल्ले (मू०१०९) वाणमंतरा ओगाहणट्ठयाए ठिईए चउट्ठाणचडिया वण्याइहिं छट्ठाणवडिया जोइसिया बेमाणियावि एवं चेव नवरं ठिईए तिहाणवडिया (मू०११०) 'असुरकुमाराणं भंते ! केवइया पजवा पत्नत्ता ?' इत्यादि, उक्त एवार्थः प्रायः सर्वेष्वप्यसुरकुमारादिषु, ततः शासकलमपि चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रं प्राग्वद् भावनीयं, यस्तु विशेषः स उपदयते, तत्र यत्पृथिवीकायिकादीनामवगा दीप अनुक्रम [३०९-३१४] ॥१८५॥ wwjanatarary.om ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०५-११०] (१५) प्रत सूत्रांक [१०५-११०] शहनाया अकुलासोयभागप्रमाणाया अपि चतुःस्थानपतितत्वं तदङ्गलासङ्ग्येयभागप्रमाणस्यासपेयभेदभिन्नत्वादव सेयं, स्थित्या हीनत्वमभ्यधिकत्वं च त्रिस्थानपतितं न चतुःस्थानपतितं, असङ्ख्येयगुणवृद्धिहान्योरसंभवात् , कथं तयोहरसंभव इति चेत्, उच्यते, इह पृथिव्यादीनां सर्वजघन्यमायुः क्षुल्लकभवग्रहणं, क्षुलकभवग्रहणस्य च परिमाणमा वलिकानां द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके, मुहर्ते च द्विपटिकाप्रमाणे सर्वसङ्ख्यया क्षुल्लकभवग्रहणानां पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षट्त्रिंशदधिकानि ६५५३६, उक्तं च-"दोन्नि सयाई नियमा छप्पन्नाई पमाणओ टुति । आवलियपमा ण खुड्डागभवग्गहणमेयं ॥१॥ पन्नहिसहस्साई पंचेव सयाई तह य छत्तीसा । खुड्डागभवग्गहणं भवंति एते मुहुतणं ॥२॥" पृथिव्यादीनां च स्थितिरुत्कर्षतोऽपि सङ्ख्येयवर्षप्रमाणा ततो नासक्वेयगुणवृद्धिहान्योः संभवः, शेष-1 तिहानित्रिकभावना त्वेवं-एकस्य किल पृथिवीकायस्थ स्थितिः परिपूर्णानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि अपरख तान्येव समयन्यूनानि ततः समयन्यूनद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकापेक्षयाऽसङ्ख्येयभाग-1 हीनः तदपेक्षया वितरोऽसधेयभागाधिकः, तथैकस्य परिपूर्णानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिरपरस्य तान्येवान्त-18 मुह दिनोनानि, अन्तर्मुह दिक(च) द्वाविंशतिवर्षसहस्राणां सङ्ख्येयतमो भागः, ततोऽन्तर्मुहूतादिन्यूनद्वाविंशतिवर्ष-18 सहस्रस्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकापेक्षया सहयेयभागहीनः तदपेक्षया परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकः सङ्खयेयभागाभ्यधिकः, तथैकस्य द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिरपरस्थान्तमुहूर्त मासो वर्ष वर्षसहस्रं वा, दीप अनुक्रम [३०९-३१४] JABERahim intamational wwwjanatarary.om ~375~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं -, -------------- मूलं [१०५-११०] (१५) प्रत सूत्रांक [१०५-११०] प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. ॥१८॥ अन्तर्मुह दिकं(च)नियतपरिमाणया सरूपया गुणितं द्वाविंशतिवर्षसहसप्रमाणं भवति तेनान्तर्मुह दिप्रमाणस्थितिकः५पर्यायपरिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकापेक्षया सोयगुणहीनः तदपेक्षया तु परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकः साये पदे असु| यगुणाभ्यधिकः, एवमकायिकादीनामपि चतुरिन्द्रियपर्याप्तानां खखोत्कृष्टस्थित्यनुसारेण स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं रादीनां पयायानभावनीयं । तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च चतुःस्थानपतितत्वं, तेषां बुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः, पल्यो न्त्यं सू. रापमं चासङ्ग्येयवर्षसहस्रप्रमाणमतोऽसोयगुणवृद्धिहान्योरपि संभवादुपपद्यते चतुःस्थानपतितत्वं, एवं व्यन्तराणा १०५-११० मपि, तेषां जघन्यतो दशवर्षसहस्रस्थितिकत्वादुत्कर्षतः पल्योपमस्थितिः (तेः), ज्योतिष्कवैमानिकानां पुन स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं, यतो ज्योतिष्काणां जघन्यमायुः पल्योपमाष्टभागः उत्कृष्टं वर्षलक्षाधिकं पल्योपमं, वैमा|निकानां जघन्यं पल्योपमं उत्कृष्टं त्रयविंशत्सागरोपमाणि, दशकोटीकोटीसहयपल्योपमप्रमाणं च सागरोपममतस्तेषामप्यसोयगुणवृद्धिहान्यसंभवात् स्थितितखिस्थानपतिता, शेषसूत्रभावना तु सुगमत्वात् खयं भावनीया ॥ तदेवं सामान्यतो नैरयिकादीनां प्रत्येकं पर्यायानन्त्यं प्रतिपादितं, इदानीं जघन्याद्यवगाहनाधधिकृत्य तेषामेव प्रत्येकं पर्यायानं प्रतिपिपादयिषुराह जहन्नीगाहणगाणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पजवा पन्नता ?, गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचड, गोयमा ! जहन्नोगाहणए नेरइए जहन्नोगाहणस्स नेरइयस्स दबट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए तुल्ले दीप अनुक्रम [३०९-३१४] ॥१८६ नैरयिकाणां पर्याया: ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१११] (१५) प्रत सूत्रांक 192eroeosraseeneraee2009 [१११] ठिईए चउढाणवडिए वनगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहि तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं देसणेहिं छहाणवडिए, उकोसोगाहणगाणं भंते । नेरइयाणं केवइया पजवा पनचा?, गोयमा! अर्णता पज्जवा पन्चासे केणडेणं भंते! एवं बुचई उकोसोगाहणयाणं नैरइयाण अर्णता पञ्जवा पनता ?, गोयमा ! उकोसोमाहणए नेहए उकोसोगाहणस्स नेरइयस्स दाहयाए तुळे पएसहयाए तुले ओगाहणट्टयाए तुल्ले, ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्महिए, जइ हीणे असंखिजभागहीणे वा संखिज्जभागहीणे वा अह अन्भहिए असंखिसभागअन्महिए वा संखिअभागअब्भहिए वा, वनगंधरसफासपज्जवाह तिहि नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दसणेहि छट्ठाणवडिए, अजहन्नमणुकोसोगाहणाणं नेरइयाण केवइया पजवा पन्नता, गोयमा!, अणंता पज्जवा पचचा, से केणटेणं भंते ! एवं बुबइ अजहन्नमणुक्कोसोगाहणाणं अणता पञ्जवा पनत्ता, गो यमा! अजहन्नमणुकोसोगाहणए नेरइए अजहबमणुकोसोगाहणस्स नेरइयस्स दबट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओमाहण?याए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अभहिए जइ होणे असंखिजभागहीणे वा संखिजभागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा असखिजगुणहीण वा अह अब्भहिए असंखिजभागअन्भहिए वा संखिजभागअब्भहिए वा संखिजगुणअब्भहिए वा असंखिजगुणअन्भहिए वा, ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्महिए, जह हीणे असंखिजभागहीणे वा संखिजभागहीण वा संखिजगुणहीणे वा असंखिजगणहीणे वा अह अब्भहिए असंखिजभागअन्महिए वा संखिअभागअन्भहिए वा साखजगुणअन्महिए वा असंखिजगुणअम्महिए वा, बनगंधरसफासपजवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अनाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छहाणवडिए, से एएणद्वेणं गोयमा एवं बुचद अजहन्नममुक्कोसोगाहणाणं नेरइयाणं अर्णता पजवा पनसा । जहनाठियाणं enerao202888899295 दीप अनुक्रम [३१५] ~377~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१११] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. cिeceNDA ५ पर्यायपद जघन्यावगाहनादीनां नैरयिका प्रत सूत्रांक ॥१८७॥ णांपर्यायाः [१११] सूत्रं १११ भंते! नेरइयाणं केवइया पज्जवा पन्नता ?, गोयमा! अर्णता पज्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ जहठियाण नेरइयाणं अणंता पजवा पनत्ता, गोयमा! जहन्नठिइए नेरइए जहन्नठिइयस्स नेरइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए ठिईए तुल्ले वनगंधरसफासपञ्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दसणेहिं छहाणवडिए एवं उक्कोसठिइएचि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि, नवरं सट्टाणे चउढाणवडिए । जहन्नगुणकालगाणं भंते ! नेरइयाण केवइया पज्जवा पन्नता, गोयमा! अर्णता पज्जवा पन्नचा, से केणटेणं भंते! एवं चुच्चइ-जहन्नगुणकालगाणं नेरइयाण अर्णता पज्जवा पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नगुणकालए नेरइए जहन्नगुणकालगस्स नेरइयस्स दवयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए चउहाणबडिए कालवन्नपञ्जवेहिं तल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपजचेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं ईसणेहिं छटाणवडिए, से एएणटेणं गोयमा! एवं वुचइ जहनगुणकालगाणं नेरइयाणं अर्णता पजवा पन्नत्ता, एवं उक्कोसगुणकालरवि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं कालबन्नपजवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं अवसेसा चत्तारि बना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा भाणियहा । जहन्नाभिणियोहियनाणीणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पअवा पन्नत्ता, गोयमा! जहन्नाभिणियोहियनाणीण नेरइयाणं अणंता पज्जवा पनत्ता, से केणडेणं भंते ! एवं वुचइ जहनाभिणियोहियनाणी] नेरहयाणं अणंता पज्जवा पन्नता, गोयमा! जहन्नाभिणिचोहियनाणी नेरहए जहनाभिणिवोहियस्स नाणिस्स नेरइयस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए चउहाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए बन्नगंधरसफासपञ्जवेहिं छहाणवडिए आभिणियोहियनाणपञ्जवेहिं तुल्ले सुयनाण० ओहिनाणपज्जवेहिं छहाणवडिए तिहिं दसणेहिं छहा दीप अनुक्रम [३१५] secescaceae ॥१८७॥ ~378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं -], ------------- मूलं [१११] (१५) प्रत सूत्रांक [१११] णवडिए, एवं उकोसाभिणियोहियनाणीवि, अजहन्नमणुकोसामिणिबोहियणाणीवि एवं चेव, णवरं आभिणियोहियनाणपजयहिं सहाणे छहाणवडिए, एवं सुयनाणी ओहिनाणीवि, नवरं जस्स नाणा तस्स अन्नाणा नत्थि, जहा नाणा तहा अनाणावि भाणियवा, नवरं जस्स अन्नाणा तस्स नाणा न भवंति । जहन्नचक्खुर्दसणीणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पजवा पञ्चा, गोयमा ! अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं चुच्चइ जहन्नचक्खुदसणीर्ण नेरइयाणं अणंता पज्जवा पन्नता, गोयमा ! जहन्नचक्खुदंसणीण नेरइए जहन्नचक्खुदंसणिस्स नेरइयस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए वनगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अनाणेहिं छहाणवडिए चक्खुदसणपअवेहिं तुल्ले अचक्खुदंसणपजवेहि ओहिदंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसचक्खुदंसणीवि, अजहन्नमणुकोसच खुदंसणीवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्टाणवडिए, एवं अचक्खुदंसणीवि ओहिदंसणीवि । (सूत्र १११) 'जहन्नोगाहणाणं भंते ! इत्यादि, सुगम नवरं 'ठिईए चउट्ठाणवडिए' इति जघन्यावगाहनो हि दशवर्षसहस्राणि-IN स्थितिकोऽपि भवति रजप्रभायां उत्कृष्टस्थितिकोऽपि सप्तमनरकपृथिव्यां, तत उपपद्यते स्थित्या चतुःस्थानपतितता, 'तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिति इह यदा गर्भव्युत्क्रान्तिकसज्ञिपञ्चेन्द्रियो नरकेपुत्पद्यते तदा स नारकायुःसंवेदनप्रथमसमय एवं पूर्वगृहीतीदारिकशरीरपरिशाटं करोति तस्मिन्नेव समये सम्यग्दृष्टेखीणि ज्ञानानि मिथ्यादृष्टेखीण्यज्ञानानि समुत्पद्यन्ते, ततोऽविग्रहेण विग्रहेण वा गत्वा वैक्रियशरीरसंघातं करोति, यस्तु संमूञ्छिमासजिपञ्चेन्द्रियो दीप अनुक्रम [३१५] ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं -], ------------- मूलं [१११] मज्ञापना प्रत याः मल- य वृत्ती. ॥१८॥ सूत्रांक [१११] नरकेपूत्पद्यते तस्य तदानी विभङ्गज्ञानं नास्तीति जघन्यावगाहनस्यास्याज्ञानानि भजनया द्रष्टव्यानि वे त्रीणि वेति, पर्यायउत्कृष्टावगाहनसूत्रे स्थित्या हानी वृद्धी च द्विस्थानपतितत्वं, तद्यथा-असत्येयभागहीनत्वं वा सत्यभागहीनत्वं वापदे जघतथा असत्येयभागाधिकत्वं वा सोयभागाधिकत्वं वा न तु सोयासमवेयगुणवृद्धिहानी, कस्मादिति चेत्, उच्यते, न्यावगाउत्कृष्टावगाहना हि नरयिकाः पञ्चधनुःशतप्रमाणाः, तेच सप्तमनरकथिव्यां तत्र जघन्या स्थितिः द्वाविंशतिःहनादीनां सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, ततोऽसङ्ख्येयसोयभागहानिवृद्धी एव घटेते न त्वसङ्ख्येवसोयगु- नरयिकाराणहानिवृद्धी, तेषां चोत्कृष्टावगाहनानां त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि वा नियमाद्वेदितव्यानि, न भजनया, भजनाडे-णापर्याया। तो समूच्छिमासज्ञिपञ्चेन्द्रियोत्पादस्य तेषामसंभवात् , अजघन्योत्कृष्टावगाहनसूत्रे यदवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वंब१११ तदेव-अजघन्योत्कृष्टावगाहनो हि सर्वजघन्याकुलासययभागात्परतो मनाक वृहत्तरामुलासयेयभागादारभ्य वाचदलासयभागन्यूनानि पश्चधनुःशतानि ताबदवसेयः, ततः सामान्यनैरयिकसूत्रे इवात्राप्युपपद्यते अवगाहनातचतु:स्थानपतितता, स्थित्या चतुःस्थानपतितता सुप्रतीता, दशवर्षसहस्रेभ्य आरभ्योत्कर्षतखयविंशत्सागरोपमाणामपि तस्यां लभ्यमानत्वात् , जघन्यस्थितिसूत्रे अवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वं तस्थामवगाहनायां जघन्यतोऽहुला ॥१८॥ सक्वेयभागादारभ्योत्कर्षतः सप्तानां धनुपामवाप्यमानत्वात, अत्रापि त्रीण्यज्ञानानि केषांचित्कादाचित्कतया द्रष्टव्यानि, संमूर्छिमासजिपञ्चेन्द्रियेभ्य उत्पन्नानामपर्याप्तावस्थायां विभायाभावात् , उत्कृष्टस्थितिचिन्तायामवगा दीप अनुक्रम [३१५] ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१११] प्रत सूत्रांक [१११] हनया चतुःस्थानपतितत्वमुत्कृष्टस्थितिकस्वावगाहनाया जघन्यतोऽङ्गुलासययभागादारभ्योत्कर्षतः पञ्चानां धनुः-11 शतानामवाप्यमानत्वात् , 'अजहन्नुकोसठिइएवि एवं चेव' इत्यादि, अजघन्योत्कृष्टस्थितावपि तथा वक्तव्य यथा जघन्यस्थितिसूत्रे उत्कृष्टस्थितिसूत्रे च, नवरमयं विशेषः-जघन्यस्थितिसूत्रे उत्कृष्टस्थितिसूत्रे च स्थित्या तुल्पवमभिहितं अत्र तु 'स्वस्थानेऽपि' स्थितावपि चतुःस्थानपतित इति वक्तव्यं, समयाधिकदशवर्षसहस्रेभ्य भारभ्योत्कर्षतः समयोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणामवाप्यमानत्वात् , जघन्यगुणकालकादिसूत्राणि सुप्रतीतानि, नवरं जस्सा नाणा तस्स अन्नाणा नस्थिति यस्य ज्ञानानि तस्याज्ञानानि न संभवन्तीति, यतः सम्यग्दृष्टानानि मिथ्यारष्टेरज्ञानानि, सम्यग्रष्टित्वं च मिथ्याष्टित्वोपमर्दैन भवति मिथ्यादृष्टित्वमपि सम्यग्रष्टित्वोपर्दैन भवति, ततो ज्ञानसद्भावेऽज्ञानाभावः एवमज्ञानसद्भाये ज्ञानाभावः, तत उक्तं-'जहा नाणा तहा अन्नाणावि भाणियबा, नवरं जस्स अन्नाणा तस्स नाणा न संभवन्ति' इति शेष पाठसिद्धं । जहन्नोगाहगाणं भंते ! असुरकुमाराणं केवइया पञ्जवा पन्नता?, गोयमा! अणंता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चई जहन्नीगाहगाणं असुरकुमाराणं अणता पजवा पन्नत्ता!, गोयमा! जहमोगाहणए असुरकुमारे जहनोगाहणस्स असुरकुमारस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए चउट्ठाणवडिए वनाईहिं छहाणवडिए आभिणियोहियनाण. सुयनाण० ओहिनाणपजवेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं देसणेहि य छटाणवडिए, एवं उकोसोगाहणएवि, एवं अजहन्नमणुक्कोसो दीप अनुक्रम [३१५] JABERatinintamational असुरकुमारादिना पर्याया: ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [११२ -११७] दीप अनुक्रम [३१६ -३२१] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥ १८९॥ पदं [५], “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - उद्देशक: [-], दारं [-], गाहणएचि, नवरं उकोसोगाहणएवि असुरकुमारे ठिईए चउट्ठाणवडिए, एवं जाव थणियकुमारा। (सूत्रं ११२) जहलो गाहणार्ण भंते! पुढविकाइयाणं केवइया पावा पत्ता १, गोयमा ! अनंता पखवा पन्नत्ता, से केणट्टेणं भंते! एवं बुचर जहनोगाहणाणं ढविकाइयाणं अता पजा पन्नता ? गोयमा ! जहन्न्रोगाहणए पुढविकाइए जहन्रोगाहणस्स पुढविकाइयस्स दबट्टयाए तुल्ले परसट्टयाए तुले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए तिट्ठाणवडिए वन्नगंधरस फासपजवेहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छाणवडिए, एवं उकोसोमाहणएवि, अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि एवं चैव, नवरं सट्टाणे चउद्वाणवडिए, जहन्नठियाणं पुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पजवा पन्नत्ता से केणद्वेगं भंते! एवं बुचइ जहनठियाणं पुढ विकाइयाणं अनंता पज्जवा पनचा !, गोयमा ! जहन्नटिहए पुढविकाइए जहन्नटिइयस्स पुढविकाइयस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसझ्याए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चाणवडिए ठिईए तुल्ले वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं मतिअन्नाण० सुयअन्राण • अचक्खुदंसणपज्जवेर्हि Education intol raise, एवं उकोसहियवि, अजहन्नमणुकोसटिइएवि एवं चैव, नवरं सट्टाणे तिद्वाणवडिए, जहन्नगुणकालयाणं भंते! पुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचर जहन्नगुणकालयाणं पुढविकाइयाणं अणंता पञ्जवा पद्मत्ता, गोयमा ! जहन्नगुणकालए पुढविकाइए जहन्नगुणकालगस्स पुढविकाइयस्स दबाए तुझे एसया तुले ओगाहणट्टयाए चउट्टाणवडिए ठिईए तिद्वाणवडिए कालवन्नपजवेहिं तुले अवसेसेहिं बन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छट्ठावडिए दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपञ्जवेहि य छट्टाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकालएचि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चैव, नवरं सहाणे छट्टाणवडिए, एवं पंच बना दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा भाणियवा । जहन्नमतिअन्नाणीणं भंते! पुढ मूलं [११२-११७] Forsy ~382~ ५ पर्याय४ पदे अस१ रकुमारादीनां सू. ११२ पृव्यादीनां सू. ११३ 8 द्वीन्द्रिया* दीनां सू. ११४ resentesseste १॥ १८९ ॥ www.ncbrary.org Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं -, -------------- मूलं [११२-११७] (१५) Rece है प्रत सूत्रांक [११२-११७] विकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते! एवं बुचइ जहन्नमतिअन्नाणीणं पुढविकाइयाणं अर्णता पजवा पन्नता, गोयमा ! जहन्नमतिअनाणी पुढ विकाइए जहन्नमतिअनाणिस्स पुढविकाइयस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए वनगंधरसफासपज्जवेहि छहाणवडिए मइअन्नाणपजवेहिं तुल्ले सुयअन्नाणपञ्जवेहिं अचखुदसणपजवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उकोसमइअन्नाणीवि, अजहन्नमणुकोसमइअन्नाणीवि एवं चेव, नवरं सहाणे छहाणवडिए, एवं सुयअनाणीवि अचक्खुदंसणीवि एवं चेव जाव वणफइकाइया (सूत्र०११३) जहबोगाणगाणं भंते ! बेइंदियाणं पुच्छा गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नचा, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ जहमोगाहणगाणं बेइंदियाणं अणंता पजवा पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नोगाहणए बेइंदिए जहन्नोगाहणस्स बेइंदियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए तुल्ले ठिईए तिहाणवडिए वन्नगंधरसफासपजवेहिं दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदसणपजवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसोगाहणएवि, णवरं णाणा णस्थि, अजहन्नमणुक्कोसोगाहणए जहा जहयोगाहणए, णवरं सट्टाणे ओगाहणाए चउढाणवडिए, जहन्नठिइयाणं भंते ! बेइंदियाणं पुच्छा गोयमा! अणंता पज्जवा पन्नचा, सेकेणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ जहन्नठियाणं बेइंदिइयाणं अणंता यञ्जवा पन्नता ?, गोयमा! जहन्नठिइए वेइंदिए जहन्नठिइयस्स बेइंदियस्स दबयाए तुल्ले पएसयाए तल्ले ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठितीए तुल्ले वनगंधरसफासपञ्जबेहिं दोहिं अन्नाणेहि अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छहाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, नवरं दो णाणा अम्महिया, अजहन्नमणुकोसठिइए जहा उकोसठिइए णवरं ठिईए तिहाणवडिए । जहन्नगुणकालगाणं बेइंदियाणं पुच्छा गोयमा ! अर्णता पजवा पत्रचा, से केणद्वेणं दीप अनुक्रम [३१६-३२१] ~ 383 ~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) 380 प्रत सूत्रांक [११२-११७] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥१९॥ 9929293 न्द्रियतिरश्चांसू. ११५ भंते । एवं बुच्चइ-जहन्नगुणकालगाणं वेईदियार्ण अर्णता पजवा पन्नचा , गोयमा! जहन्नगुणकालए बेईदिए जहमगुणकालगस्स बेइंदियस्स दयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए छटाणवडिए ठिईए तिढाणवडिए कालवनपज्जवेहिं तुल्ले अबसेसेहिं वनगंधरसफासपअवेहि दोहि नाणेहिं दोहिं अनाणेहिं अचक्खुदंसणपञ्जवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उ. कोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चव, णवरं सट्ठाणे छट्ठाणबडिए, एवं पंच बना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा भाणियवा, जहन्नाभिणियोहियनाणीणं भंते ! बेइंदियाणं केवइया पजवा पनत्ता!, गोथमा ! अर्णता पज्जया पन्नत्ता, से केणट्टेणं भंते । एवं बुच्चइ-जहन्नाभिणियोहियनाणीणं बेइंदियाणं अर्णता पजवा पन्नचा!, गोयमा! जहमाभिणियोहियणाणी बेईदिए जहनाभिणियोहियणाणिस्स बेइंदियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्छे ओगाहणट्टयाए चडद्वाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए बन्नगंधरसफासपनवेहिं छट्ठाणबडिए आभिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले सुयणाणपञ्जदेहि छवाणवडिए अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छहाणवडिए, एवं उकोसाभिणियोहियणाणीवि, अजहन्नमणुकोसामिणिचोहियणाणीषि एवं चेव, नवरं सहाणे छटाणवडिए, एवं सुयनाणीवि सुयअनाणीवि अचकखुर्दसणी वि, णवरं जत्थ णाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि जत्थ अनाणा तत्व णाणा नस्थि, जत्थ दंसणं तत्थ णाणावि अन्नाणावि, एवं तेइंदियाणवि, चरिंदियाणवि एवं चेव णवरं चक्खुदंसणं अम्भहियं (सूत्र.११४) जहबोगाहणगाणं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवड्या पजवा पबत्ता, गोयमा ! अणंता पज्जवा पनत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं बुबह जहमोगाहणगाणं पंचिंदियतिरिक्खोणियाणं अर्णता पज्जवा पत्रचा, गोयमा ! जहन्नीगाहणए पंचिंदियतिरिक्खजोगिए जहनोगाहणयस्स पंबिंदियतिरि दीप अनुक्रम [३१६-३२१] 18॥१९॥ wwwsainatorary.om ~384 ~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) प्रत सूत्रांक [११२-११७] क्खजोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए तिढाणवडिए पन्नगंधरसफासपनवेहिं दोहि नाणेहिं दोहिं अनाणेहिं दोहि सणेहिं छहाणबडिए, उकोसोगाहणएवि एवं चेव, गवरं तिहिं नाणेहिं तिहिं दसणेहिं छद्वाणवडिए, जहा उकोसोगाहणए तहा अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि, णवरं ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिए चउडाणयदिए, जहन्नठिइयाणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पज्जवा पचत्ता, गोयमा । अणंता पजवा पत्रता, से केणटेणं भंते ! एवं बुबह जहन्नठिइयाण पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण अणंता पञ्जवा पत्रचा, गोषमा! जहमठिइए पंचिंदियतिरिक्खजोगिए जहाठियस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबट्ठयाए तुझे पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चजवाणवडिए ठिईए तल्ले पनगंधरसफासपजवेहिं दोहिं अन्नाणेहिं दोहिं दंसणेहि छहाणपडिए, उकोसठिइएवि एवं व णवरं दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा, अजहन्नमणुक्कोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउडाणवडिर तिनि गाणा तिभि अनाणा तिनि दंसणा । जहन्नगुणकालगाणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! अणंता पजवा पनता, से केणद्वेणं भंते । एवं बुचइ, गोयमा! जहन्नगुणकालए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नगुणकालगस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबयाए तुल्ले पएसटवाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए कालवनपज्जदेहि तुल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपजवेहि तिहिं नाणेहिं तिहिं अनाणेहिं तिहिं दसणेहि छहाणवडिए, एवं उफोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्टाणवडिए, एवं पंच बना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा, जहन्नाभिणिरोहियणाणीण भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पजवा पचत्ता, गोयमा! अर्णता पजवा पत्र दीप अनुक्रम [३१६-३२१] ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) e प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [११२-११७] ५पर्याय२ पदे पञ्चे|न्द्रियतिरश्चांसू. ११५ ॥१९शा ता, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नाभिणिबोहियणाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नाभिणिवोहियणाणिस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए चउट्ठाणवडिए वनगंधरसफासपञ्जवेहिं छट्ठाणवडिए आमिणियोहियनाणपञ्जवहिं तुल्ले सुयनाणपञ्जवेहिं छट्ठाणवडिए चक्खुदसणपजवेहिं छहाणवडिए अचक्खुर्दसणपज्जवेहि छट्ठाणवडिए, एवं उकोसाभिणिबोहियनाणीवि, णवरं ठिईए तिहाणवडिए, तिन्नि नाणा तिन्नि दसणा सहाणे तुल्ले सेसेसु छहाणवडिए, अजहन्नमणुकोसामिणिबोहियनाणी जहा उक्कोसाभिणिबोहियनाणी णवरं ठिईए चउहाणवडिए, सट्टाणे छहाणवडिए, एवं सुयनाणीवि, जहन्नोहिनाणीणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा । अणता पजवा पन्नत्ता, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ, गोयमा !, जहबोहिनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहमोहिनाणिस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए चउहाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए बनगंधरसफासपज्जवेहिं आभिणियोहियनाणसुयनाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए ओहिनाणपजवेहि तुल्ले, अनाणा नत्थि, चक्खुदंसणपज्जवेहिं अचवखुदंसणपजवेहि य ओहिदंसणपजहिं छट्ठाणवडिए, एवं उकोसोहिनाणीवि अजहनोकोसोहिनाणीवि एवं चेव, गवरं सहाणे छद्वाणवडिए, जहा आभिणिबोहियनाणी तहा मइअन्नाणी सुयअनाणी य, जहा ओहिनाणी तहा विभंगनाणीवि, चक्खुदसणी अचखुदसणी य जहा आभिणियोहियनाणी, ओहिदंसणी जहा ओहिनाणी, जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि जत्थ अन्नाणा तत्थ नाणा नत्थि, जत्थ दसणा तत्थ णाणावि अन्नाणावि अथिचि भाणिय (सूत्रं० ११५) जहन्नीगाहणगाणं भंते ! मणुस्साणं केवड्या पजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अर्णता पजवा पत्र दीप अनुक्रम [३१६-३२१] ॥१९॥ मनुष्याणाम् पर्याया: ~386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [११२ -११७] दीप अनुक्रम [३१६ -३२१] पदं [५], Education intemational “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - उद्देशक: [-], दारं [-], ता से केणणं भंते! एवं बुनाइ – जहलो गाहणगाणं मणुस्साणं अनंता पजवा पनता ? गोयमा ! जहनोगाहणए मणूसे जहनोगाहणगस्स मणूसस्स दवट्टयाए तुल्ले पएसइयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए तिद्वाणवडिए वन्नगंधरसफासपञ्जवेहिं तिहिं नाणेहिं दोहिं अचाहिं तिहिं दंसणेहिं छट्टाणवडिए, उकोसोगाहणएवि एवं चैव, नवरं ठिईए सिय हीणे सियतुल्ले सिय अम्भहिए, जब हीणे असंखिञ्जहभागहीणे अह अम्भहिए असंखेजइभागअन्महिए, दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा, अजहन्नमणुको सो ग्राहणएवि एवं चेव, णवरं ओगाहणट्टयाए चउडाणवडिए, ठिईए चउद्वाणवडिए आइले हिं चउहिं नाणेहिं छाणवडिए, केवलनाणपञ्जवेहिं तुले, तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्टाणवडिए, केवलदंसणपञ्जवेहिं तुल्ले, जहन्नटिइयाणं भंते! मणुस्साणं केवइया पञ्जवा पत्ता १, गोयमा ! अनंता पखवा पन्नत्ता, से केणट्टेणं भंते! एवं बुचर १, गोयमा ! जहनटिइए मणुस्से जहनटिइयस्स मणुस्सस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसइयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउट्टाण aise ठिईए तुले बनगंधरस फासपञ्जवेहिं दोहिं अन्नाणेहिं दोहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, नवरं दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा अजहन्नमणुकोसठिहएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउडाणवfire आइलेहिं चउहिं नाणेहिं छाणवडिए केवलनाणपज्जवेहिं तुले तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्टाणवडिए केवलदंसणपजवेहिं तु । जहनगुणकालयाणं मंते ! मणुस्साणं केवइया पज्जवा पनत्ता ? गोयमा ! अनंता पजवा पत्ता, से केणद्वेण भंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा ! जहन्नगुणकालए मणूसे जहन्नगुणकालगस्स मणुस्सस्स दवढयाए तुल्ले पएसयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउद्वाणवडिए कालवनपज्जवेहिं तुले अवसेसेर्हि वनगंधरसफासपञ्जवेहिं For Parts Only मूलं [११२-११७] ~387~ tigeststhenesise www.jancibrary.org Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं -1, -------------- मूलं [११२-११७] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. INI पदे मनुINष्याणां सू. प्रत सूत्रांक [११२-११७] ॥१९॥ Seces छट्ठाणबडिए चउहिं नाणेहिं छहाणवडिए केवलनाणपज्जबेहिं तुल्ले तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए केवलदंसणपञ्जवेहिं तुल्ले, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणबडिए, एवं पंच वन्ना दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा भाणियबा । जहन्नाभिणियोहियनाणीण मणुस्साणं केवइया पज्जवा पनत्ता, गोषमा ! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नाभिणियोहियणाणी मनसे जहन्नाभिणियोहियणाणिस्स मणुस्सस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वनन्धरसफासपअवेहि छट्ठाणवडिए आभिणिबोहियनाणपजवेहिं तुल्ले सुयनाणपज्जवेहिं दोहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उकोसाभिणिचोहियनाणीवि नवरं आभिणिचोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले ठिईए तिहाणवडिए तिहिं नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छटाणवडिए, अजहन्नमणुकोसाभिणियोहियनाणी जहा उकोसामिणिबोहियनाणी, नवरं ठिईए चउहाणवडिए सहाणे छट्ठाणवडिए, एवं सुयनाणीवि, जहन्नोहिनाणीणं भंते ! मणुस्साणं केवइया पञ्जवा पन्नचा ?, गोषमा ! अणंता पजवा पाचा, से केणटेणं भंते । एवं बुचइ, गोयमा ! जहनोहिनाणी मणुस्से जहरोहिनाणिस्स मणूसस्स दवयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तिहाणबडिए ठिईए तिहाणवडिए वनगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं नाणेहि छहाणवडिए ओहिनाणपक्षवेहिं तुल्ले मणनाणपज्जवेहिं छट्ठाणबडिए तिहिं दसणेहि छहाणवडिए, एवं उक्कोसोहिनाणीवि, अजहन्नमणुकोसोहिनाची एवं चेव, नवरं ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए, सटाणे छट्ठाणवडिए, जहा ओहिनाणी तहा मणपजवनाणीवि भाषिया, नवरं ओगाहणद्वयाए तिढाणवडिए, जहा आभिणियोहियणाणी तहा मइअनापी सुयअवाणीवि भाणियो, जहा ओहि दीप अनुक्रम [३१६-३२१] ॥१९॥ ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) प्रत सूत्रांक [११२-११७] रएeacaeeeeeeeeeee नाणी तहा विभंगनाणीवि भाणियवे चक्खुदंसणी अचक्खुदसणी य जहा आभिणियोहियणाणी ओहिदसणी जहा ओहिनाणी । जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि जत्थ अन्नाणा तत्व नाणा नत्थि, जत्थ दसणा तत्थ णाणावि अन्नाणावि । केवलनाणीण भंते ! मणुस्साणं केवड्या पजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नता, से केणडेणं भंते ! एवं बुचाकेवलनाणीण मणुस्साणं अणता पजवा पन्नता, गोयमा! केवलनाणी मणूसे केवलनाणिस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए चउढाणवडिए ठिईए तिढाणवडिए वनगंधरसफासपजवेहिं छहाणवडिए केवलनाणपज्जवेहि केवलदसणपअवेहि य तुल्ले एवं केवलदसणीवि मणूसे भाणियचे ॥ (सूत्र ११६) वाणमंतरा जहा असुरकुमारा । एवं जोइसियवेमाणिया, नवरं सहाणे ठिईए तिहाणवडिए भाणियो, सेत्तं जीवपजवा । (सूत्र ११७) एवमसुरकुमारादिसूत्राण्यपि भावनीयानि प्रायः समानगमत्वात् , जपन्यावगाहनादिपृथिव्यादिसूत्रे स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं सोयवर्षायुष्कत्वात्, एतच प्रागेव सामान्यपृथिवीकायिकसूत्रे भावितं, पर्यायचिन्तायामज्ञाने एव मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणे वक्तव्ये न तु ज्ञाने, तेषां सम्यक्त्वख तेषु मध्ये सम्यक्त्वसहितस्य चोत्पादासंभवात् 'उभ-18 याभावो पुढवाइएसु' इति वचनात् , अत एवैतदेवोक्तमत्र 'दोहिं अन्नाणेहि' इति । जघन्यावगाहनहीन्द्रियसूत्रे 8 'दोहि नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं' इति, द्वीन्द्रियाणां हि केषाश्चिदपर्याप्तावस्थायां साखादनसम्यक्त्वमवाप्यते सम्य-18 दृष्टेश्च ज्ञाने इति द्वे ज्ञाने लभ्यते शेषाणामज्ञाने तत उक्तं द्वाभ्यां ज्ञानाभ्यां द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामिति, उत्कृष्टाव-8 दीप अनुक्रम [३१६-३२१] rajaniorary.org ~ 389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [११२-११७] ॥१९॥ सू. ११७ गाहनायां त्वपर्याप्तावस्थाया अभावात् साखादनसम्यक्त्वं नावाप्यते ततस्तत्र ज्ञाने न वक्तव्ये, तथा चाह-एवं पर्यायउक्कोसितोगाहणाए वि नवरं नाणा नत्वि'त्ति, तथाऽजघन्योत्कृष्टावगाहना किल प्रथमसमयादूई भवति इत्यपर्या- पदे नारतावस्थायामपि, तस्याः संभवात् सासादनसम्यक्त्ववतां ज्ञाने अन्येषां चाज्ञाने इति ज्ञाने चाज्ञाने च वक्तव्ये, तथा कादिजी वपर्यायाः चाह-'अजहन्नमणुकोसोगाइणए जहा जहन्नीगाहणए' इति, तथा जघन्यस्थितिसूत्रे हे अज्ञाने एवं वक्तव्ये न तु| ज्ञाने, यतः सर्वजघन्यस्थितिको लब्ध्यपर्याप्तको भवति न च लब्ध्यपर्याप्तकेषु मध्ये साखादनसम्यग्दृष्टिरुत्पद्यते, किं कारणमिति चेत्, उच्यते, लब्ध्यपर्याप्तको हि सर्वसक्लिष्टः सासादनसम्यग्दृष्टिश्च मनाक् शुभपरिणामस्ततः स तेषु मध्ये नोत्पद्यते तेनाज्ञाने एव लभ्येते न ज्ञाने, उत्कृष्टस्थितिषु पुनर्मध्ये सासादनसम्यक्त्वसहितोऽप्युत्पद्यते इति || तत्सूत्रे ज्ञाने अज्ञाने च वक्तव्ये, तथा चाह-एवं उक्कोसठिइएवि, नवरं दो नाणा अमहिया' इति, एवमेवाजघन्योत्कृष्टस्थितिसूत्रमपि वक्तव्यं, भावसूत्राणि पाठसिद्धानि, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि वक्तव्याः, नवरं चतुरिन्द्रियाणां चक्षुर्दर्शनमधिकं अन्यथा चतुरिन्द्रियत्वायोगादिति तेषां चक्षुर्दर्शनविषयमपि सूत्रं वक्तव्यं, जघन्यावगाहनतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'ठिईए तिवाणवडिए' इति, इह तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियः सङ्ग्येयवर्षायुष्क एव जघन्यावगाहनो ॥१९॥ भवति, नाऽसङ्ख्येयवर्षायुष्कः, किं कारणं इति चेत् , उच्यते, असङ्ख्येयवर्षायुषो हि महाशरीराः कङ्ककुक्षिपरिणामत्वात् पुष्टाहाराः प्रबलधातूपचयाः ततस्तेषां भूयान् शुक्रनिपेको भवति शुक्रनिकानुसारेण च तिर्यग्मनुष्याणामुत्पत्तिस दीप अनुक्रम [३१६-३२१] ~390~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], ---------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं -, -------------- मूलं [११२-११७] (१५) प्रत सूत्रांक [११२-११७] नमयेऽवगाहनेति न तेषां जघन्यावगाहना लभ्यते किं तु सत्येयवर्षायुषां, सक्वेयवर्षायुषश्च स्थित्या त्रिस्थानपतिताः, एतच्च भावितं प्राक्, तत उक्तं स्थित्या त्रिस्थानपतिता इति, 'दोहि नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं' इति जघन्यावगाहिनो हि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियः सङ्ग्येयवर्षायुष्कोऽपर्याप्तो भवति सोऽपि चाल्पकायेषु मध्ये समुत्पद्यमानस्ततस्तस्यावधि विभङ्गज्ञानासंभवात् द्वे ज्ञाने द्वे अज्ञाने उक्ते, यस्तु विभङ्गज्ञानसहितो नरकादुदृत्य सयवर्षायुष्केषु तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पद्यमानो वक्ष्यते स महाकायेषूत्पद्यमानो द्रष्टव्यः नाल्पकायेषु, तथाखाभाव्यात् , अन्यथाऽधिकृतसूविरोधः, उत्कृष्टावगाहनतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहि' इति त्रिभिनिखिभिरज्ञानश्च षट्स्थानपतिताः, तत्र त्रीणि अज्ञानानि कथमिति चेत्, उच्यते, इह यस्य योजनसहस्रं शरीरावगाहना स उत्कृष्टावगाहनः स च साधेयवर्षायुष्क एव भवति पर्याप्तश्च, तेन तस्य त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि च संभवन्ति, स्थित्या|ऽपि चासावुत्कृष्टायगाहनः त्रिस्थानपतितः, सोयवर्षायुष्कत्वात् , अजघन्योत्कृष्टावगाहनसूत्रे स्थित्या चतुःस्थानप. |तितः, यतोऽजघन्योत्कृष्टायगाहनोऽसङ्ख्येयवर्षायुष्कोऽपि लभ्यते, तत्रोपपद्यते प्रागुक्तयुक्त्या चतु:स्थानपतितत्वं, जघन्यस्थितिकतिर्यपश्शेन्द्रियसूत्रे द्वे अज्ञाने एव वक्तव्ये न तु ज्ञाने, यतोऽसौ जघन्यस्थितिको लब्ध्यपयोप्सक एवं भवति न च तन्मध्ये सासादनसम्यग्दृष्टरुत्पाद इति, उत्कृष्टस्थितिकतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'दो नाणा दो अन्नाणा' इति, उत्कृष्टस्थितिको हि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियस्त्रिपल्योपमस्थितिको भवति, तस्य च द्वे अज्ञाने तावनियमेन यदा पुनः 929899390009087 दीप अनुक्रम [३१६-३२१] S wjanmiorary.org ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) प्रत सूत्रांक [११२ -११७] प्रज्ञापना षण्मासावशेषायुर्वैमानिकेषु बद्धायुष्को भवति तदा तस्यद ज्ञाने लभ्येते अत उक्तं वे ज्ञाने द्वे अज्ञाने इति, अज-IN५पर्याययाः मल घन्योत्कृष्टस्थितिकतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'ठिईए चउट्ठाणचडिए' इति अजघन्योत्कृष्ट स्थितिको हि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियः पदे नारय०वृत्तौ. सवयवर्षायुष्कोऽपि लभ्यते असपेयवर्षायुकोऽपि समयोनत्रिपल्योपमस्थितिकः ततश्चतुःस्थानपतितः, जघन्या कादिजीभिनिबोधिकतियपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'ठिईए चउट्ठाणवडिए' इति, असयेयवर्षायुषोऽपि हि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियस्य खभूमि वपर्यायाः ॥१९॥ IS कानुसारेण जघन्ये आभिनिवोधिकश्रुतज्ञाने लभ्येते ततः सफेयवर्षायुपोऽसयवर्षायुपश्च जघन्याभिनियोधिकश्रु सू. ११७ तज्ञानसंभवाद् भवन्ति स्थित्या चतुःस्थानपतिताः, उत्कृष्टाभिनियोधिकज्ञानसूत्रे स्थित्या च त्रिस्थानपतिता वक्तव्याः, यत इह यस्योत्कृष्टे आमिनिबोधिकश्रुतज्ञाने स नियमात् सोयवर्षायुष्कः सोयवर्षायुष्कश्च स्थित्यापि त्रिस्थानपतित एव यथोक्तं प्राक्, अवधिसूत्रे विभङ्गसूत्रेऽपि स्थित्या त्रिस्थानपतितः, किं कारणम् इति चेत्, उच्यते, असायेयवपोंयुषोऽवधिविभकासंभवात् , आह च मूलटीकाकारः 'ओहिविमङ्गेस नियमा तिढाणवडिए, किं कारणं , भन्नइ, ओहिविभङ्गा असंखेजबासाउयस्स नत्थिति जघन्यावगाहनमनुष्यसूत्रे 'ठिईए तिहाणवडिए' इति तियेंपञ्चेन्द्रियवत् , मनुष्योऽपि जघन्यावगाहनो नियमात् सयेयवर्षायुष्कः, सयवर्षायुष्कश्च स्थित्या त्रिस्थानपतित एवेति 'तिहिं नाणेहिं' इति, यदा कश्चित् तीर्थकरोऽनुत्तरोपपातिकदेवो वा अप्रतिपतितेनावधिज्ञानेन जघन्याया[मवगाहनायामुत्पद्यते तदाऽवधिज्ञानमपि लभ्यते इतीह त्रिभिनिरित्युक्तं, विभाज्ञानसहितस्तु नरकादुत्तो जघ दीप अनुक्रम [३१६-३२१] ecene armyanmararyorg ~392~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] प्रत सूत्रांक [११२-११७] टएeseroeseseseraelaeroen न्यायामपगाहनायां नोत्पद्यते तथाखाभाब्यात् अतो विभङ्गज्ञानं न लभ्यते इति द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामित्युक्तं, उत्कृ-18 टायगाहनमनुष्यसूत्रे 'ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अभहिए जइ हीणे असंखेजभागहीणे जइ अभहिए। असंखेजभागअन्महिए' इति, उत्कृष्टावगाहना हि मनुष्यास्निगन्यूतोच्छ्रयाः त्रिगन्यूतानां च स्थितिर्जघन्यतः पल्योपमासस्येयभागहीनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षतस्तान्येव परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, उक्तं च जीवाभिगमे'उत्तरकुरुदेवकुराए मणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं तिनि पलिओवमाई पलिओवमस्सासंखिज्जइभागहीणाई उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई' त्रिपल्योपमासङ्ख्येयभागश्च त्रयाणां पल्योपमानामसझषेयतमो माग इति पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनपल्योपमत्रयस्थितिकः परिपूर्णपल्योपमत्रयस्थितिकापेक्षयाऽसस्पेयभागहीनः, इतरस्तु तदपेक्षयाऽसधेयभागाधिकः, शेषा वृद्धिहानयो न लभ्यन्ते, 'दो नाणा दो अन्नाणा' इति उत्कृष्टा-K वगाहना हि असक्येयवर्षायुषः, असयवर्षायुषां चावधिविभङ्गासंभवः, तथाखाभाव्यात्, अतो वे एव ज्ञाने द्वे चाज्ञाने इति, तथाऽजघन्योत्कृष्टावगाहनः सोयवर्षायुष्कोऽपि भवति असचेयवर्षायुष्कोऽपि भवति, असत्येयवपोयुकोऽपि गव्यूतद्विगन्यूतोच्छ्यः ततोऽवगाहनयाऽपि चतुःस्थानपतितत्वं स्थित्याऽपि तथा, आद्यैश्चतुर्भिर्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायरूपानः षट्स्थानपतिताः, तेषां चतुर्णामपि ज्ञानानां तत्तद्व्यादिसापेक्षतया क्षयोपशमवैचित्र्य|तस्तारतम्यभावात्, केवलज्ञानपर्यवैस्तुल्यता, निःशेषखावरणक्षयतः प्रादुर्भूतस्य केवलज्ञानस्य भेदाभावात, शेष दीप अनुक्रम [३१६-३२१] ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) प्रत सूत्रांक [११२ -११७] प्रज्ञापना सुगम, जघन्य स्थितिकमनुष्यसूत्रे 'दोहिं अन्नाणेहि' इति द्वाभ्यामज्ञानाभ्यां मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपाभ्यां षट्स्थानप-18 पर्यायया मल- तितता वक्तव्या, न तु ज्ञानाभ्यां, कस्मादिति चेत् ?, उच्यते, जघन्यस्थितिका मनुष्याः संमूर्छिमाः, संमूछिम- पदे नारय०वृत्तो. मनुष्याश्च नियमतो मिथ्यादृष्टयः, ततस्तेषामज्ञाने एव न तु ज्ञाने, उत्कृष्टस्थितिकमनुष्यसूत्रे 'दो नाणा दो अनाणा' कादिजी वपर्यायाः ॥१९५॥ इति, उत्कृष्टस्थितिका हि मनुष्यास्निपल्योपमायुषः, तेषां च तावदज्ञाने नियमेन यदा पुनः षण्मासावशेषायुषो वैमानिकेपु बद्धायुपस्तदा सम्यक्त्वलाभात् द्वे ज्ञाने लभ्येते अवधिविभङ्गो चासयेयवर्षायुषां न स्त इति त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानीति नोक्तं, अजघन्योत्कृष्टस्थितिकमनुष्यसूत्रमजघन्योत्कृष्टावगाहनमनुष्यसूत्रमिव भावनीयं, जघन्याभिनिबोधिकमनुष्यसूत्रे द्वे ज्ञाने वक्तव्ये द्वे दर्शने च, किं कारणं इति चेत् ?, उच्यते, जघन्याभिनिबोधिको हि जीवो नियमादवधिमनःपर्यवज्ञानविकलः, प्रबलज्ञानावरणकर्मोदयसद्भावात् , अन्यथा जघन्याभिनिवोधिकज्ञा नत्वायोगात् , ततः शेषज्ञानदर्शनासंभवादाभिनिबोधिकज्ञानपर्यवस्तुल्यः श्रुतज्ञानपर्याभ्यां दर्शनाभ्यां च षट्-18 18 स्थानपतिततोक्ता, उत्कृष्टाभिनिवोधिकसूत्रे 'ठिईए तिट्ठाणवडिए' इति उत्कृष्टाभिनिवोधिको हि नियमात्सये यवर्षायुः, असवेवर्षायुषः तथाभवस्वाभाव्यात् सर्वोत्कृष्टाभिनिबोधिकज्ञानासंभवात् , सत्येयवर्षायुषश्च प्रागुक्तयुक्तेः। 8 स्थित्या त्रिस्थानपतिता इति, जघन्यावधिसूत्रे उत्कृष्टावधिसूत्रे चावगाहनया त्रिस्थानपतितो वक्तव्यः, यतः सर्वज धन्योऽवधिर्यथोक्तखरूपो मनुष्याणां पारभविको न भवति, किं तु तद्भवभावी, सोऽपि च पर्याप्तावस्थायां, अपर्या-N दीप अनुक्रम [३१६-३२१] 99999999 ae2020908993929 JABERatinintamational ~ 394 ~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११२-११७] (१५) प्रत सूत्रांक [११२-११७] 200aereasasaragao2020 सावस्थायां तद्योग्यविशुद्ध्यभावात् , उत्कृष्टोऽप्यवधिर्भावतश्चारित्रिणः, ततो जघन्यावधिरुत्कृष्टावधिर्वाऽवगाहनया | त्रिस्थानपतितः, अजघन्योत्कृष्टस्त्ववधिः पारभविकोऽपि संभवति ततोऽपर्याप्तावस्थायामपि तस्य संभवात् अजघन्योत्कृष्टावधिरवगाहनया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या तु जघन्यावधिरुत्कृष्टावधिरजघन्योत्कृष्टावधिर्वा त्रिस्थानपतितः, | असवेयवर्षायुषामवधेरसंभवात् , सोयवर्षायुषां च त्रिस्थानपतितत्वात् , जघन्यमनःपर्यवज्ञानी उत्कृष्टमनःपर्यवज्ञानी अजघन्योत्कृष्टमनःपर्यवज्ञानी च स्थित्या त्रिस्थानपतितः, चारित्रिणामेव मनःपर्यायज्ञानसद्भावात् , चारित्रिणां च सोयवोयुष्कत्वात् , केवलज्ञानसूत्रे तु 'ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणबडिए' इति केबलिसमुद्रपातं प्रतीत्य, तथाहि-IN केवलिसमुद्घातगतः केवली शेषकेवलिभ्योऽसङ्ख्येयगुणाधिकावगाहनः, तदपेक्षया शेषाः केवलिनोऽसये यगुण-15।। हीनावगाहनाः, खस्थाने तु शेषाः केवलिनस्विस्थानपतिता इति स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं, सङ्ख्येयवर्षायुष्कत्वात् ॥ व्यन्तरा यथाऽसुरकुमाराः, ज्योतिष्कवैमानिका अपि तथैव, नवरं ते स्थित्या त्रिस्थानपतिता वक्तव्याः, एतच प्रागेव भावितं । उपसंहारमाह-[अन्धाग्रं ५०००] 'सेत्तं जीवपजवा' एते जीवपर्यायाः। सम्प्रत्यजीवपर्यायान् पृच्छति अजीवपञ्जवाणं भंते ! कइविहा पनत्ता, गोयमा! दुविहा पनत्ता, तंजहा-रूविअजीवपञ्जवा य अरूविअजीवपजवा MI य, अरूविअजीवपजवा णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता, गोयमा दसविहा पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स eteaceaeeeescaceaek दीप अनुक्रम [३१६-३२१] JAMERMA Homjanorary.om अथ अजीवस्य पर्यायाः ~ 395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] (१५) प्रत सूत्रांक [११८-१२१] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥१९६॥ देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा अहम्मत्थिकाए अहम्मत्थिकायस्स देसे अहम्मस्थिकायस्स पएसा आगासस्थिकाए आगासस्थिकायस्स देसे आगासस्थिकायस्स पएसा अद्धासमए (मू०११८) रूविअजीवपज्जया णं भंते ! काविहा पन्नता, गोयमा! चउबिहा पचना, तंजहा खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपुग्गला, तेणं भंते ! किं संखेजा असंखेजा अणता, गोयमा! नो संखेजा नो असंखेज्जा अणंता, से केणटेणं भंते ! एवं चुचइ नो संखेज्जा नो असंखेजा अर्णता ?, गोयमा! अर्णता परमाणुपुग्गला अणंता दुपएसिया खंधा जाव अर्णता दसपएसिया खंधा अणंता संखिजपएसिया खंधा अर्णता असंखिजपएसिया खंधा अणंता अणंतपएसिया खंधा, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचइ ते शं नो संखिज्जा नो असंखिज्जा अणंता । (सू०११९) परमाणुपोग्गलाणं भंते ! केवड्या पज्जया पन्नत्ता, गोयमा ! परमाणुपोग्गलाणं अणंता पजवा पन्नचा, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-परमाणुपुग्गलाणं अणंता पजवा पन्नत्ता, गोयमा ! परमाणुपुग्गले परमाणुपोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुले ओगाहणट्ठवाए तुल्ले ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ हीणे असंखिज्जहभागहीणे वा संखिजहभागहीणे वा संखिज्जइगुणहीणे वा असंखिज्जइगुणहीणे वा अह अन्महिए असंखिज्जइभागअन्महिए वा संखिज्जइभागअम्महिए वा संखिजगुणअब्भहिए वा असंखिजगुणअब्भहिए वा, कालवनपञ्जवेहि सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए जहहीणे अर्णतभागहीणे वा असंखिजहभागहीणे वा संखिजइभागहीणे वा संखि- ' जगुणहीणे वा असंखिज्जगुणहीणे वा अर्णतगुणहीणे वा अह अब्भहिए अर्णतभागअब्भहिए वा असंखिज्जइभागअन्भहिए वा संखिज्जभागअन्भहिए वा संखिजगुणअब्भाहिए वा असंखिजगुणअन्महिए वा अर्णतगुणमभहिए वा एवं अब ५पर्यायपदे अरूपिरूप्यजीवपर्यायाः परमाण्यादीनां द्रव्यादिभिः सू. ११८ दीप अनुक्रम [३२२-३२५] ॥१९६॥ ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] (१५) प्रत सूत्रांक [११८ Generseksee -१२१] सेसवनगंधरसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिए, फासाणं सीयउसिणनिद्धलुक्खेहि छहाणवडिए, से तेणद्वेणं गोपमा ! एवं बुचा-परमाणुपोग्गलाणं अर्णता पजवा पन्नत्ता । दुपएसियाणं पुच्छा गोयमा ! अणंता पजवा पन्नता, से केणडेणं भंते ! एवं बुच, गोयमा! दुपएसिए दुपएसियस्स दबयाए तुले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणहयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ हीणे पएसहीणे अह अम्भहिए पएसमन्भहिए ठिईए चउठाणवडिए वनाईहिं उवरिल्लेहिं चउफासेहि य छहाणवडिए, एवं तिपएसेवि, नवरं ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ हीणे पएसहीणे वा दुपएसहीणे वा अह अब्भहिए पएसमन्महिए वा दुपएसमन्भहिए वा, एवं जाच दसपएसिए, नवरं ओगाहणाए पएसपरिवुड्डी कायवा जाव दसपएसिए, गवरं नवपएसहीणत्ति, संखेजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पचत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुबह-गोयमा ! संखेजपएसिए संखेजपएसियस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए, जह हीणे संखेजभागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा अह अन्भहिए एवं चेव ओगाहणद्वयाएवि दुहाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए वण्णाइउवरिल्लचउफासपज्जवेहि य छट्टाणवडिए, असंखिज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता पजवा पन्नता, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-गोयमा! असंखिज्जपएसिए खंधे असंखिज्जपएसियस्स खंधस्स दवयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउढाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउढाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए वण्णाइउवरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिए, अणंतपएसियाण पुच्छा गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचडी, गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे अणंतपएसियस्स खंधस्स दबद्वयाए तुल्ले पएसट्टयाए छटाणवडिए ओमाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए दीप अनुक्रम [३२२-३२५] Saralanmiorary.org ~397~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [११८ -१२१] दीप अनुक्रम [३२२ -३२५] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥१९७॥ पदं [५], “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-1, Education intimation चउट्टाणवडिए वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छाणवडिए । एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अनंता पवा वत्ता, सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! एगपएसोगाडे पोम्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दवइयाए तुले पएसद्वयाए छट्टाणवडिए ओगाहणडयाए तुल्ले टिईए चउट्टाणवडिए वण्णाइउवरिल उफासेहिं छट्ठाणचडिए, एवं दुपएसोगादेवि, संखिअपएसोगाढाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुझइ १, गोयमा ! संखेअपएसोगाढे पोगले संखिजपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दवट्टयाए तुले परसट्टयाए छाणवडिए ओगाहणट्टयाए दुट्ठाजवडिए ठिईए चउडाणवडिए वण्णाइवरिलचउफासेहि य छट्ठाणचडिए, असंखेज्जपएसोगादाणं पुच्छा, गोयमा ! अनंता पजवा पत्ता, से केणणं भंते ! एवं बुच्चर १, गोयमा ! असंखेज्जपएसोगाढे पोग्गले असंखेज्जपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुले पसट्टयाए छट्टाणवर्डिए ओगाहणट्टयाए चउट्टाणवडिए ठिईए चट्टाणवडिए वण्णाइअट्ठफासेहिं छट्टाणवडिए । एगसमयठियाणं पुच्छा, मोयमा ! अनंता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ १, मोयमा ! एमसमयfore पोरग एगसमय हियस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुले पएसइयाए छट्टाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउद्दाणवडिते ठितीए तुल्ले वण्णा अफासेहिं छट्टाणवडिए एवं जाव दससमयठिहए, संखेज्जसमयठियाणं एवं चैव, णवरं ठिईए दुट्टावडिए, असंखेजसमयठियाणं एवं चैव, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए, एकगुणकालगाणं पुच्छा, गोयमा ! अनंता पखवा पत्ता, सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा ! एकगुणकालए पोग्गले एकगुणकालगस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुले पट्टयाए छट्टाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए टिईए चउट्ठाणवडिए कालवनपज्जवेहिं तुले अवसेसेर्हि वनगंध For Fun & Only मूलं [११८-१२१] ~398~ ५ पर्यायपदे अरूपिरूप्यजी पर्यायाः परमाण्वा दीनां द्र * व्यादिभिः स. ११८ ४ ॥१९७॥ www.ncbayor Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत esea सूत्रांक [११८ eseseerserse e -१२१] दीप अनुक्रम [३२२-३२५] रसफासपजवेहि छहाणवडिए अट्टफासेहिं छट्ठाणवडिए, एवं जाव दसगुणकालए, संखेजगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे दुट्टाणवडिए, एवं असंखिजगुणकालएवि, नवरं सहाणे चउहाणवडिए, एवं अनंतगुणकालएवि नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं जहा कालवनस्स बताया भणिया तहा सेसाणवि वन्नगंधरसफासाणं बत्तवया माणियचा जाच अणंतगुणलुक्खे । जहओगाहणगाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता पजवा पन्नचा, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचह, गोयमा ! जहन्नोगाहणए दुपएसिए खंधे जहनोगाहणस्स दुपएसियस्स खंघस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए तुल्ले ठिहए चउहाणपडिए कालबन्नपज्जवेहि छट्ठाणवडिए सेसवनगंधरसपज्जवेहि छट्ठाणवडिए सीयउसिणणिद्धलुक्खफासपनवेहि छवाणवडिए, से तेणडेणं गोयमा ! एवं चुच्चइ जहन्नोगाहणाणं दुपएसियाणं पोग्गलाणं अणंता पजवा पनत्ता, उकोसोगाहणएवि एवं चेव, अजहन्नमणुकोसोगाहणओ नत्थि, जहन्नीगाहणयाण भंते ! तिपएसियाणं पुच्छा, मोयमा ! अर्णता पज्जवा पचत्ता, से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! जहा दुपएसिए जहन्नीगाहणए उकोसोगाहणएवि एवं चेव, एवं अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि, जहनोगाहणयाणं भंते ! चउपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहा जहमोगाहणए दुपएसिए तहा जहमोगाहणए चउप्पएसिए एवं जहा उकोसोगाहणए दुपएसिए तहा उकोसोगाहणए चउप्पएसिएवि, एवं अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि चउप्पएसिए, णवरं ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सियमम्भहिए जह हीणे पएसहीणे अह अब्भहिए पएसअम्भहिए एवं जाव दसपएसिए णेय, गवरं अजहनुकोसोगाहणए पएसपरिवही कायदा जाव दसपएसियस्स सत्त पएसा परिवडिअंति, जहमोगाहणगाणं भंते ! संखेजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता पजवा पत्ता, से Receaeeee ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती. [११८ ॥१९८॥ N५ पर्याय पदे अरूपिरूप्यजीवपर्यायाः परमाण्वादीनां द्रब्यादिभिः सू. ११८ -१२१] केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा! जहन्नोगाणए संखेजपएसिए जहनोगाहणगस्त संखिज्जपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए दुहाणवडिए ओगाहणढयाए तुल्ले ठिईए चउट्ठाणवडिए वष्णाइचउफासपजवेहि य छट्ठाणवडिए एवं उकोसोगाहणएवि, अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि एवं चेव, गवरं सहाणे दुट्ठाणबडिए, जहनीगाहणगाणं भंते ! असंखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजबा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचद, गोयमा ! जहन्नोगाहणए असंखिज्जपएसिए खंधे जहबोगाहणगस्स असंखिज्जपएसियस्स खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउहाणवडिए ओगाहणट्ठयाए तुल्ले ठिईए चउहाणवडिए वण्णाइउवरिल्लफासेहि य छहाणवडिए, एवं उकोसोगाहणएवि, अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं सट्टाणे चउहाणपडिए । जहन्बोगाहणगाणं भंते ! अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पजवा पत्रचा, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुधइ ?, गोयमा ! जहन्नीगाहणए अर्णतपएसिए खंधे जहनोगाहणगस्स अणंतपएसियस्स संघस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए छटाणवडिए ओगाहणयाए तल्ले ठिईए चउहाणवडिए बण्णाइउवरिल्लचउफासेहिं छट्ठाणवडिए उकोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं ठिएवि तुल्ले, अजहन्नमणुकोसोगाहणगाणं भंते ! अर्णतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पबत्ता, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुबह, गोयमा! अजहन्नमणुकोसोगाहणए अर्णतपएसिए खंधे अजहन्नमणुकोसीगाहणगस्स अर्णतपएसियस्स खंधस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउहाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वाणाइअहफासेहिं छहाणवडिए, जहन्नठिइयाणं भंते ! परमाणुपुग्गलाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं बुधइ, गोयमा ! जबठिइए परमाणुपोग्गले जहनठियस्स परमाणुपोग्गलस्स दबयाए दीप अनुक्रम [३२२-३२५] ॥१९८० ~400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ -१२१] तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए तुल्ले ठिईए तुल्ले वण्णाइ दुफासेहि य छवाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव नवरं ठिईए चउहाणवडिए, जहन्नठिइयाणं दुपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नता, से केणटुणं भंते! एवं बुच्चइ, गोयमा! जहन्नठिइए दुपएसिए जहन्नठिइयस्स दुपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए जइ हीणे पएसहीणे अह अम्भहिए पएसअन्महिए ठिईए तुल्ले वष्णाइ चउफासेहि य छटाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउद्दाणवडिए, एवं जाव दसपएसिए, नवरं पएसपरिखुड्डी कायदा, ओगाहणट्टयाए तिसुवि गमएसु जाव दसपएसिए एवं पएसा परिवडिजंति, जहन्नठिइयाणं भंते ! संखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ !, गोयमा जहन्नठिइए संखिजपएसिए बंधे जहन्नठिइयस्स संखिज्जपएसियस्स खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसहयाए दुहाणवडिए ओगाहणट्टयाए दुवाणवडिए ठिईए तुल्ले वण्णाइ चउफासेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउहाणवडिए, जहन्नठिइयाणं असंखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नत्ता, से केणवणं भंते ! एवं बुचद, गोयमा! जहन्नठिहए असंखिजपएसिए जहभाठिइयस्स असंखिजपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउढाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउहाणवडिए ठिइए तुल्ले वण्णाइ उवरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोसठिइए एवं चेव नवरं ठिईए चउढाणवडिए, जहभाठियाणं अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पत्रचा, से केणडेणं भंते । एवं बुचड़, गोयमा ! जहन्नाठिइए अणंतपएसिए जहन्नठिड्यस्स दीप अनुक्रम [३२२-३२५] ~ 401~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मल पदे परमा यवृत्ती. [११८ ॥१९॥ -१२१] अणतपएसियस्स दवद्वयाए तुल्ले पएसट्टयाए छवाणघडिए ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए तुल्ले वण्णाइ अट्टकासेंहि य ५पर्यायछटाणवदिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहभ्रमणुक्कोसठिइएषि एवं चेव, नवरं ठिईए चउहाणवडिए, जहमगुणकालयाण परमाणुपुग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चा , गोयमा ! जहन्नगुणकालए Aण्वादीनां परमाणुपुग्गले जहन्नगुणकालगस्स परमाणुपुग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए चउढाण- द्रव्यप्रदेपडिए कालवनपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसा वण्णा नत्थि, गंधरसदुफास पज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, शावगाहएवमजहब्रमणुकोसगुणकालएवि, णवरं सहाणे छट्ठाणवडिए, जहन्नगुणकालयाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा, गोयमा अर्णता स्थितिगुपञ्जबा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं बुचड, गोयमा! जहनगुणकालए दुपएसिए जहन्नगुणकालयस्स दुपएसियस्स णःपर्यायाः दवद्वयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ हीणे पएसहीणे अह अमहिए सू.१२० पएसअब्भहिए ठिईए चउट्ठाणबडिए कालवनपज्जवेहिं तुले अबसेसवण्णाइउवरिलचउफासेहि य छटाणवडिए, एवं उक्कोसगुणका लएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएविएवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं जाब दसपएसिए नवरं परसपरिवुड्डी ओगाहणाए तहेव, जहबगुणकालयाणं भंते ! संखिज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणदृर्ण भंते ! एवं वुथइ, गोयमा ! जहनगुणकालए संखिजपएसिए जहन्नगुणकालगस्स संखिजपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए दुट्ठाणवडिए ओगाहणट्टयाए दुहाणवडिए ठिईए चउहाणबडिए कालवनपज्जवेहिं तुले अवसेसेहिं वण्णाइ उवरिल्लचउफासेहि ॥१९९॥ य छहाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, एवं अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि, नवरं सहाणे छहाणवडिए, जहबगुणकालयाणं दीप अनुक्रम [३२२-३२५] ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ -१२१] दीप अनुक्रम [३२२-३२५] भंते ! असंखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नगुणकालए असंखिजपएसिए जहन्नगुणकालगस्स असंखिजपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए कालवनपञ्जयहिं तुले अवसेसेहिं वण्णादि उवरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउढाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सहाणे छहाणवडिए, जहागुणकालयाणं भंते ! अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अणता पञ्जवा पन्नता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचाइ, गोयमा ! जहन्नगुणकालए अणंतपएसिए जहन्नगुणकालयस्स अर्णतपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउढाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए कालवनपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनादि अट्ठफासेहि य छहाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहबमणुकोसगुणकालगवि एवं चेव, नवरं सट्टाणे छहाणवडिए, एवं मीललोहियहालिदमुकिल्लसब्मिगंधदुभिगंधतितकडकसायअंबिलमहुररसपञ्जदेहि य बत्तवया भाणियब्वा, नवरं परमाणुपोग्गलस्स सुन्भिगंधस्स दुब्भिगंधो न भण्णइ दुन्मिगंधस्स सुभिगंधो न भण्णइ, तित्तस्स अबसेसं न भण्णति एवं कडुयादीणवि, अवसैसं तं चेव, जहन्नगुणकक्खडाणं अणंतपएसियाणं खंधाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पन्नचा, से केपटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहनगुणकक्खडे अणंतपएसिए जहन्नगुणकक्खडस्स अणंतपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए छहाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउडाणव- ' डिए ठिईए चउहाणवडिए वनगंधरसेहिं छट्ठाणबडिए कक्खडफासपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं सत्तफासपज्जवेहि छहाणडिए, एवं उकोसगुणकक्खडेवि, अजहन्नमणुकीसगुणकक्खडेवि एवं चेव नवरं सवाणे छट्ठाणवडिए, एवं मउपगुरुयलहु ~ 403~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८-१२१] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. N५ पर्याय पदे परमाReण्वादीनां द्रव्यप्रदेशावगाहगैःपर्यायाः सू. १२० ॥२०॥ स्थितिगु एवि भाणियचे, जहन्नगुणसीयाणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता पञ्जवा पन्नचा, से केणडेणं मंते ! एवं वुच, गोयमा! जहन्नगुणसीए परमाणुपोग्गले जहन्नगुणसीतस्स परमाणुपुग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए तुल्ले ठिईए चउढाणवडिए वनगंधरसेहिं छटाणवडिए सीयफासपज्जवेहि य तुल्ले उसिणफासो न भण्णति निद्धलुक्खफासपजवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसगुणसीएवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेब, नवरं सट्टाणे छट्टाणवडिए, जहन्नगुणसीताणं दुपदेसियाणं पुच्छा, गोयमा! अगंता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ, गोयमा! जहबगुणसीते दुपएसिए जहन्नगुणसीतस्स दुपदेसियस्स दबट्टयाए तल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणड्डयाए सिय हीणे सिय तल्ले सिय अन्महिए जइ हीणे पएसहीणे (अह) अब्भहिए पएसअम्भहिए ठिईए चउहाणबडिए वनगंधरसपञ्जवहिं छहाणव. डिए सीयफासपज्जवहिं तुल्ले उसिणनिद्धलुक्खफासपज्जवेहिं छटाणवडिए, एवं उकोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सटाणे छट्ठाणवडिए, एवं जाव दसपएसिए, गवरं ओगाहणट्टयाए पएसपरिखुड्डी कायचा जाव दसपएसियरस नव पएसा बुडिजंति, जहनगुणसीयाणं संखेजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता पञ्जवा पन्नता, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, गोयमा ! जहनगुणसीते संखिजपएसिए जहनगणसीतस्स संखिञ्जपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए दुहाणवडिए ओगाहणट्टयाए दुबाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए वण्णादीहिं छट्ठाणवडिए सीयफासपज्जवाह तुल्ले उसिणनिद्धलुक्खेहिं छहाणवडिए, एवं उकोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सहाण छहाण. बडिए, जहन्नगुणसीयाणं असंखिज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं चुच्चद, दीप अनुक्रम [३२२-३२५] ॥२०॥ ~404 ~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ -१२१] गोयमा ! जहनगुणसीते असंखिजपएसिए जहन्नगुणसीयस्स असंखिजपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउढाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउट्टाणवडिए बण्याइपञ्जबेहिं छहाणबडिए सीयफासपज्जवेहिं तुल्ले उसिणनिदलुक्खफासपञ्जवहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए, जहन्नगुणसीताणं अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं चुचह, गोयमा! जहन्नगुणसीते अणंतपएसिए जहनगुणसीतस्स अणंतपएसियस्स दबयाए तुले पएसट्टयाए छट्टाणवडिए ओगाहणहयाए चउवाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए वण्णाइपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए सीयफासपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं सत्तफासपज्जवेहिं छटाणवडिए, एवं उकोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्टाणवडिए, एवं उसिणनिद्धलुक्खे जहा सीते परमाणुपोग्गलस्स तहेब पडिवक्खो सन्वेसि न भण्णइ ति भाणियब ।। (सूत्रं १२०)[साम्प्रतं सामान्यसूत्रमारभ्यते ] जहन्नपएसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता, से केणडेणं भंते! एवं बुच्चइ , गोयमा! जहन्नपपासए खंध जहन्नपएसियरस खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए जह हीणे पएसहीणे अह अम्भहिए पएसमन्भहिए ठिईए चउवाणवडिए बनगंधरसउवरिल्लचउफासपजवेहिं छट्ठाणवडिए, उकोसपएसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता०, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुबह, गोयमा! उकोसपएसिए खंधे उकोसपएसियस्स खंधस्स दबयाए तुले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए चउहाणवडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए वण्णाइअडफासपजवेहि य छट्ठाणबडिए, अजहन्नमणुकोसपएसियाणं भंते ! खंधाणं केवइया पञ्जवा पन्नत्ता, दीप अनुक्रम [३२२-३२५] herest ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ प्रज्ञापना याः मलयवृत्ती. ॥२०॥ ५पर्याय|पदे जघन्यप्रदेशादीनां पर्याया: सूत्र १२१ -१२१] दीप अनुक्रम [३२२-३२५] गोयमा ! अर्णता०, से केणद्वैर्ण ०१, गौयमा ! अजहन्नमणुकीसपएसिए खंधे अजहन्नमणुकीसपएसियस्स संघस्स दवयाए तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवडिए औगाहणद्वयाए चउढाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वष्णाइ अफासपजदेहि य छट्टाणवडिए । जहनीगाहणगाणं मते 1 पोग्गलाण पुच्छा, गोयमा ! अर्णता०, से कणद्वेणं ०१, गोयमा ! जहमोगाहणए पोग्गले जहन्नोगाहणगस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणयाए तुल्ले ठिईए चउहाणवडिए वष्णाद उवरिल्लफासेहि य छहाणवडिए, उक्कोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं ठिईए तुल्ले, अजहन्नमणुकोसीगाहणगाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता०, से केणटेणं०, गोयमा! अजहन्नमणुकोसोगाहणए पोग्गले अजहन्नमणुकोसोगाहणगस्स पोग्गलस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वण्णाइ अहफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, जहन्नठिइयाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता०, से केणढण०१, गोयमा! जहमठिइए पोग्गले जहन ठिइयस्स पोग्गलस्स दाद्वयाए तले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए औगाहणट्टयाए उहाणवड़िए ठिईए तुल्ले वणाइ अट्ठफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसठिइएचि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईएवि चउहाणवडिए, जहचगुणकालयाणं भंते ! पोग्गलाण केवइया पज्जवा पचत्ता, गोयमा अर्णता०,से केणवण०१, गोयमा जहन्नगुणकालए पोग्गले जहन्नगुणकालयस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए कालवनपज्जवहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपनवेहि य छट्ठाणवडिए, से तेणडेणं गोयमार एवं बुच्चइ-जहबगुणकालयाण पोग्गलाणं अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहश्रमणुकीसगुणकालएवि एवं २०१॥ ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ लढerce -१२१] चव, नवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिए, एवं जहा कालवन्नपजवाणं वत्तवया भणिया तहा सेसाणवि वनगंधरसफासाणं वत्तवया भाणियवा जाव अजहन्नमणुकोसलुक्खे सहाणे छटाणवडिए । सेत् रूविअजीवपज्जवा, सेत्तं अजीवपज्जवा । (सूत्रं १२१) इति पनवणाए भगवईए विसेसपयं समत्तं । 'अजीवपजवा गं' इत्यादि, रूविअजीवपज्जवा य अरूविअजीवपजवाय' इति रूपमिति उपलक्षणमेतत् गन्धरसस्पविश्व विद्यन्ते येषां ते रूपिणः ते च ते अजीवाश्च रूप्यजीवाः तेषां पर्याया रूप्यजीवपर्यायाः (पुद्गलपर्याया) इत्यर्थः, तद्विपरीता अरूप्यजीवपर्यायाः, अमूर्त्ताजीवपर्याया इति भावः, 'धम्मत्थिकाए' इत्यादि, धर्मास्तिकाय इति परिपूर्णमवयवि द्रव्यं, धर्मास्तिकायस्य देशः-तस्यैवा दिरूपो विभागः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः-तस्यैव निविभागाःभागाः, एवं त्रिकमधर्मासिकाये आकाशास्ति काये च भावनीय, एतावता चान्योऽन्यानुगमात्मकावयवावयविखरूपं धर्मास्तिकायादिकं वस्त्विति प्रतिपादितं, दशमोऽद्धासमयः, नन्वत्र पर्याया वक्तुमुपक्रान्तास्तत्कथं द्रव्यमात्रोपन्यासः कृतः ?, उच्यते, पर्यायपर्यायिणोः कथंचिदभेदख्यापनार्थः, एवमुत्तरोऽपि ग्रन्थः, आह च मूलटीकाकार:-"अत्र सर्वत्र पर्यायपर्यायिणोः कथंचिदभेदस्थापनार्थमित्थं सूत्रोपन्यास" इति, परमार्थतस्त्वेतद्रष्टव्यं-धर्मास्तिकायत्वं धर्मास्तिकायदेशत्वं धर्मास्तिकायप्रदेशत्वं इत्यादि, 'ते णं भंते ! किं संखेजा' इत्यादि, ते स्कन्धादयः प्रत्येकं किं सङ्ख्येया असक्वेया अनन्ताः, भगवानाह-अनन्ताः, एतदेय भावयति-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि पाठसिद्धं । सम्प्रति दीप अनुक्रम [३२२-३२५] 992929292eosaeras बलरse ~407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ -१२१] प्रज्ञापना दण्डकक्रमेण परमाणुपुद्गलादीनां पर्यायाश्चिन्तनीयाः, दण्डकक्रमश्चायं-प्रथमतः सामान्येन परमाण्वादयश्चिन्त- ५ पय या: मल- नीयाः तदनन्तरं ते एव एकप्रदेशाधवगाढाः तत एकसमयादिस्थितिकाः तदनन्तरमेकगुणकालकादयः ततो जघ- पदं यवृत्ती. न्यायवगाहनाप्रकारेण तदनन्तरं जघन्यस्थित्यादिभेदेन ततो जघन्यगुणकालकादिक्रमेण तदनन्तरं जघन्यप्रदेशा॥२०॥ दिना भेदेनेति, उक्तं च-"अणुमाइओहियाणं खेत्तादिपएससंगयाणं च । जहनाऽवगाहणाइण चेव जहन्नादिदेसाणं| ॥१॥" अस्वाक्षरगमनिका-प्रथमतोऽण्यादीनां-परमाण्वादीनां चिन्ता कर्तव्या, तदनन्तरं क्षेत्रादिप्रदेशसङ्गतानां. अत्रादिशब्दात्कालभावपरिग्रहः, ततोऽयमर्थः-प्रथमतः क्षेत्रप्रदेशेरेकादिभिः सङ्गतानां चिन्ता कर्तव्या, तदनन्तरं IS कालप्रदेशैः-एकादिसमयस्ततो भावप्रदेशैः-एकगुणकालकादिभिरिति, तदनन्तरं जघन्यावगाहनादीनामिति, अत्रादि शब्देन मध्यमोत्कृष्टावगाहनाजघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिजघन्यमध्यमोत्कृष्टगुणकालकादिवर्णपरिग्रहः, ततो जघन्यादिप्रदेशानां-जघन्यप्रदेशानामुत्कृष्टप्रदेशानामजघन्योत्कृष्टप्रदेशानामिति ॥ तत्र प्रथमतः क्रमेण परमाण्वादीनां चिन्ता कुर्वन्नाह-'परमाणुपोग्गलाणं भंते !' इत्यादि, स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वं, परमाणोः समयादारभ्योत्कतोऽसावेयकालमवस्थानभावात् , कालादिवर्णपर्यायैः षट्स्थानपतितत्वं एकस्यापि परमाणोः पर्यायानन्त्याविरोधात्, ननु परमाणुरप्रदेशो गीयते ततः कथं पर्यायानन्त्याविरोधः, पर्यायानन्ये नियमतः सप्रदेशत्वप्रसक्के, तदयुक्त, वस्तु-1|| तत्त्वापरिज्ञानात्, परमाणुहि अप्रदेशो गीयते द्रव्यरूपतया सांशो न भवतीति, न तु कालभावाभ्यामिति, 'अपएसो दीप अनुक्रम [३२२-३२५] ~408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ -१२१] दवट्ठयाए' इति वचनात् , ततः कालभावाभ्या सप्रदेशत्वेऽपि न कश्चिद्दोषः, तथा परमाण्वादीनामसमातप्रदेशस्कन्धपर्यन्तानां केषांचिदनन्तप्रादेशिकानामपि स्कन्धानां तथैकप्रदेशावगाढानां यावत् सङ्ख्यातप्रदेशावगाढानां शीतोष्णस्निग्धरूक्षरूपाश्चत्वार एव स्पर्शा इति तैरेव परमाण्यादीनां षट्स्थानपतितता वक्तव्या, न शेषः, द्विप्रदेशस्कन्धसूत्रे 'ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए' इत्यादि, यदा द्वावपि द्विप्रदेशिको स्कन्धौ द्विप्रदेशावगाढावेकप्रदेशावगाढौ वा भवतस्तदा तुल्यावगाहनौ, यदा त्वेको द्विप्रदेशावगाढोऽपरस्त्वेकप्रदेशावगाढस्तदा एकप्रदेशावगाढो द्विप्रदेशावगाढापेक्षया प्रदेशहीनो द्विप्रदेशावगाढस्तु तदपेक्षया(प्रदेशा)ऽभ्यधिकः शेषं प्राग्वत् , त्रिप्रदेशस्कन्धसूत्रे 'ओगाहणट्टयाए सिय हीणे' इत्यादि, यदा द्वावपि त्रिप्रदेशको स्कन्धौ त्रिप्रदेशावगाढी द्विप्रदेशावगाढी एकप्रदेशावगाढी वा तदा तुल्यौ यदा त्वेकस्त्रिप्रदेशावगाढो वा द्विप्रदेशावगाढो वा अपरस्तु द्विप्रदेशावगाढ एकप्रदेशावगाढो वा तदा द्विप्रदेशावगाढेकप्रदेशावगाढी यथाक्रम त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेशावगाढापेक्षया एकप्रदेशहीनी त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेशावगाढी तु तदपेक्षया एकप्रदेशाभ्यधिको, यदा त्वेकत्रिप्रदेशावगाढोऽपर एकप्रदेशावगाढस्तदा एकप्रदेशावगाढस्त्रिप्रदेशावगाढापेक्षया द्विप्रदेशहीन त्रिप्रदेशावगाढस्तु तदपेक्षया द्विप्रदेशाभ्यधिकः, एवमेकैकप्रदेशपरिवृघ्या चतुःप्रदेशादिषु स्कन्धेष्ववगाहनामधिकृत्य हानिर्वृद्धिर्वा तावद् वक्तव्या यावद्दशप्रदेशस्कन्धः, तस्मिंश्च दशप्रदेशके स्कन्धे एवं वक्तव्यं 'जइ हीणे पएसहीणे वा दुपएसहीणे वा जाव नवपएसहीणे वा अह अब्भहिए। दीप अनुक्रम [३२२-३२५] Song ~ 409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ य० वृत्ती. -१२१] दीप अनुक्रम [३२२-३२५] प्रज्ञापना- कपएसमभहिए वा दुपएसमभहिए वा जाव नवपएसमभहिए वा' इति भावना पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं कर्तव्या,81५पर्यायया मल सङ्ग्यातप्रादेशिकस्कन्धसूत्रे 'ओगाहणट्टयाए दुहाणवडिए' इति सपेयभागेन सझवेयगुणेन चेति, असङ्ग्यातप्रदेशक-1 पद स्कन्धे 'ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए' इति असहयातभागेन सङ्ख्यातभागेन समयातगुणेनासङ्ख्यातगुणेनेति, अनन्त-18 प्रादेशिकस्कन्धेऽप्यवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितता, अनन्तप्रदेशावगाहनाया असंभवतोऽनन्तभागानन्तगुणाभ्यां ॥२०॥ | वृद्धिहान्यसंभवात् , 'एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं भंते ! इत्यादि, अत्र 'दबट्टयाए तुले पएसट्ठयाए छट्ठाणपडिए' इति, इदमपि विवक्षितकप्रदेशावगादं परमाण्वादिकं द्रव्यं इदमप्यपरैकप्रदेशावगाढं द्विप्रदेशादिकं द्रव्यमिति द्रव्या तया तुल्यता, प्रदेशार्थतया पदस्थानपतितता. अनन्तप्रदेशकस्यापि स्कन्धस्यैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहनासंभवात् , शेष सुगम, एवं स्थितिभावाश्रयाण्यपि सूत्राण्युपयुज्य भावनीयानि, 'जहन्नोगाहणगाणं भंते ! दुपएसियाण' इत्यादि, जघन्यद्विप्रदेशकस्य स्कन्धस्यावगाहना एकप्रदेशात्मिका उत्कृष्टा द्विप्रदेशात्मिका अत्रापान्तरालं नास्तीति मध्यमा न लभ्यते तत उक्तं 'अजहन्नमणुकोसोगाहणओ नत्थि' इति, त्रिप्रदेशकस्य स्कन्धस्य जघन्यावगाहना एकप्रदेशरूपा मध्यमा द्विप्रदेशरूपा उत्कृष्टा त्रिप्रदेशरूपा, चतुःप्रदेशस्य जघन्या एकप्रदेशरूपा उत्कृष्टा चतुःप्रदेशात्मिका मध्यमा ॥२०३॥ द्विविधा-द्विप्रदेशात्मिका त्रिप्रदेशात्मिका च, एवं च सति मध्यमावगाहनश्चत प्रदेशको मध्यमावगाहनचतुःप्रदे-15 शकापेक्षया यदि हीनस्तर्हि प्रदेशतो हीनो भवति अथाभ्यधिकस्ततः प्रदेशतोऽभ्यधिका, एवं पञ्चप्रदेशादिषु ~ 410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [११८-१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८ -१२१] स्कन्धेषु मध्यमावगाहनामधिकृत्य प्रदेशपरिवृद्ध्या वृद्धिोनिश्च तावत् वक्तव्या यावद्दशप्रदेशके स्कन्धे सप्तप्रदेशपरिवृद्धिः, सा चैवं वक्तव्या-'अजहन्नमणुकोसोगाहणए दसपएसिए अजहन्नमणुक्कोसोगाहणस्स दसपएसियस्स। खंधस्स ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुखे सिय अभहिए जइ हीणे पएसहीणे दुपएसहीणे जाव सत्तपएसहीणे | अह अभहिए पएसजभहिए दुपएसअन्भहिए जाव सत्तपएसअब्भहिए' इति, शेषं सूत्रं स्वयमुपयुज्य परिभावनीयं सुगमत्वात्, नवरमनन्तप्रदेशकोत्कृष्टावगाहनाचिन्तायां 'ठिईएवि तुले' इति उत्कृष्टावगाहनः किलानन्तप्रदेशकः स्कन्धः स उच्यते यः समस्तलोकव्यापी स चाचित्तमहास्कन्धः केवलिसमुद्घातकर्मस्कन्धो वा, तयोश्चोभयोरपि। दण्डकपाटमन्थान्तरपूरणलक्षणचतुःसमयप्रमाणतेति तुल्यकालता, शेष सूत्रमापदपरिसमासेः प्रागुक्तभावनाऽनुसा-1 रेण खयमुपयुज्य परिभावनीयं सुगमत्वात् , नवरं जघन्यप्रदेशकाः स्कन्धाः द्विप्रदेशका उत्कृष्टप्रदेशकाः सर्वोत्कृष्टानन्तप्रदेशाः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां विशेषाख्यं पदं समाप्त । TAMIRATRAITRA..Set -Tama.TA.PATRA-ATRA इति श्री प्रज्ञा सूत्र श्रीमन्मलयगिरिमूरिवर्य विशेषापरपर्यायं पर्यायाण्यं पदं समाप्त eaeserserserserseeeeesersearceae दीप अनुक्रम [३२२-३२५] SAREarattin international अत्र पद (०५) "विशेष" परिसमाप्तम् ~ 411~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१], -------------- मूलं [१२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ६उपपा अथ षष्टमुपपातोद्वर्त्तनापदं । प्रत सूत्रांक [१२२] प्रज्ञापनाया:मलय०वृत्ती. तोद्वत्तेना ॥२०॥ गाथा दीप अनुक्रम [३२६-३२७] तदेवं व्याख्यातं पञ्चमं पदम् ॥ सम्प्रति पष्ठमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे औदयिकक्षायोपशमिकक्षायिकभावाश्रयं पर्यायपरिमाणावधारणं प्रतिपादितं, इह त्वौदयिकक्षायोपशमिकविषयाः सत्वानामुपपातविरहादयश्चिन्त्यन्ते, तत्रादावियमधिकारसङ्ग्रहणिगाथा वारस चउवीसाई सअंतरं एगसमय कत्तो य । उबट्टण परभवियाउयं च अदेव आगरिसा ॥१॥ निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा । जहन्नेणं एक समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । तिरियगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । मणुयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता ?, गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । देवगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं बारस मुटुत्ता । सिद्धिगई णं मंते ! केवइयं कालं विरहिया सिझणाए पनचा?, गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं छम्मासा । निरयगई णं भंते ! NIR०४॥ केवइयं कालं विरहिया उबट्टणाए पन्नता, गोयमा! जहन्नेणं एकं समयं उकोसेणं चारस मुहुत्ता । तिरियगई णं भंते ! I केवइयं कालं विरहिया उबट्टणीए पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । मणुयगई णं मंते ! अथ पद (०६) "व्युत्क्रान्ति/ (उपपात-उद्वर्तना)" आरभ्यते *अस्य 'पदस्य' मूलगाथा-दत्त नाम 'व्युत्क्रान्ति' अस्ति, परन्तु वृत्तिकारेण अत्र पदारम्भे उपपात-उद्वर्तना लिखितं, तत्कारणात् मया द्वे अपि नाम्ने अत्र लिखितं ~ 412~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [१], -------------- मूलं [१२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२२] गाथा seases केवइयं कालं विरहिया उबट्टणाए पन्नता ?, गोयमा ! जहनेणं एगं समयं उकोसेणं वारस मुहुत्ता । देवगई णं मत। केवइयं कालं विरहिया उबट्टणाए पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । दार । ( सूत्र १२५) 'बारस चउवीसाई' इत्यादि, प्रथमं गतिषु सामान्यतः उपपातविरहस्य उद्वर्तनाविरहस्य च द्वादश मुहूताः प्रमाणं वक्तव्यं, तदनन्तरं नैरयिकादिपु भेदेषु उपपातविरहस्योद्वर्तनाविरहस्य च चतुर्विशतिर्मुहूत्तोः गतिषु प्रत्येकमादा वक्तव्याः, ततः 'संतति सान्तरं नैरयिकादयः उत्पद्यन्ते निरन्तरं चेति वक्तव्यं, तदनन्तरमेकसमयेन नैरयिकादयः प्रत्येकं कति उत्पद्यन्ते कति वोद्वर्तन्ते इति चिन्तनीयं, ततः कुत उत्पद्यन्ते नारकादय इति चिन्त्यत, तत 'उच्चपाहणा' इति नरयिकादय उदृत्ताः सन्तः कुत्रोत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं, तदनन्तरं कतिभागावशेषेऽनुभूयमानभवायुपि जीवाः पारभषिकमायुर्वेभन्तीति वक्तव्यं, तथा कतिभिराकषैरुत्कर्पतः आयुषन्धका इति चिन्तायां अष्टावाका वक्तव्याः । एष सङ्ग्रहणिगाथासङ्ग्रेपार्थः। एनमेव क्रमेण विवरीपराह-निरयगईणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता' इत्यादि, निरयगतिनाम-नरकगतिनामकम्मोदयजनितो जीवस्यौदयिको भावः, स चेकः सप्तपृथिवीव्यापी चेति एकवचनं, सप्तानां च पृथिवीनां परिग्रहः, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्तेति गुमित्रणे परमकल्याण-18 योगिन् ! 'केवाइय'ति कियन्तं कालं विरहिता-शून्या 'उपपातेन' उपपतनमुपपातः तदन्यगतिकानां सत्वानां नारकत्वेनोत्पाद इति भावः तेन 'प्रज्ञसा' प्ररूपिता भगवताऽन्यैश्च ऋषभादिभिस्तीर्थकरैः, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह दीप अनुक्रम [३२६-३२७] षष्ठं पदे द्वार-(१) "द्वादश" ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [१], --------------- मूलं [१२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. [१२२] ॥२०५॥ गाथा गौतम ! जघन्यत एक समयं यावत् उत्कर्षतो द्वादश मुहूर्तान् , अत्र मुग्धप्रेरक आह-नन्वेकस्यामपि पृथिव्यामग्रे ६ उपपा द्वादशमुहर्तप्रमाण उपपातविरहो न वक्ष्यते, चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिप्रमाणस्य वक्ष्यमाणत्वात् , ततः कथं सर्वपृथिवी- तोद्वर्तनासमुदायेऽपि द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणं, 'प्रत्येकमभावे समुदायेऽ(प्य)भावादिति न्यायस्य श्रवणात्, तदयुक्तं, वस्तुतत्त्वा- पदे उपपापरिज्ञानात् , यद्यपि हि नाम रत्नप्रभादिष्वेकैकनिर्धारणेन चतुर्विंशतिमुहूर्तादिप्रमाण उपपातविरहो वक्ष्यते तथापि ते विरही यदा सप्तापि पृथिवीः समुदिताः अपेक्ष्योपपातविरहश्चिन्त्यते तदास द्वादशमुहूर्तप्रमाण एव लभ्यते, द्वादशमुहूर्त्तानन्तरं। गतिषु सू. १२२ रत्नअवश्यमन्यतरस्यां पृथिव्यामुत्पादसंभवात् , तथा केवलवेदसोपलब्धेः, यस्तु प्रत्येकमभावे समुदायेऽप्यभाय' इति न्यायः प्रभादिभेस कारणकार्यधर्मानुगमचिन्तायां नान्यत्रेत्यदोषः, यथा नरकगतिर्द्वादश मुहूर्तानुत्कर्षतः उपपातेन विरहिता एवं तिर्यग्मनुष्यदेवगतयोऽपि, सिद्धिगतिस्तूत्कर्षतः षड्र मासान् उपपातेन विरहिता, एवमुद्वर्तनाऽपि, नवरं सिद्धा नोद्वर्त्तन्ते, तेषां साद्यपर्यवसितकालतया शाश्वतत्वादिति सिद्धिरुद्वर्त्तनया विरहिता वक्तव्या । गतं प्रथमं द्वारम् , इदानीं चतुर्विंशतिरिति द्वितीयं द्वारमभिधित्सुराहरयणप्पभापुढविनेरझ्या णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समय उक्कोसेणं चउच्चीसं मुहुत्ता, सक्करप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं एगं २०५॥ समयं उक्कोसेणं सत्चराइंदियाणि, वालुयप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवचाएणं पन्नचा ?, गोयमा! दीप अनुक्रम [३२६-३२७] षष्ठं पदे द्वार-(२) "चतुर्विंशति" ~ 414 ~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२], -------------- मूलं [१२३-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३ -१२४] जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं अद्भमासं, पंकप्पभापुढविनेरड्या णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवयाएणं पता, गोयमा! जहनेणं एगं समयं उकोसेणं मासं, धूमप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उबवाएणं पनत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं दो मासा, तमापुढविनेरड्या ण भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं चत्तारि मासा, अहेसचमापुडविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएण पन्नता, गोयमा! जहनेणं एग समयं उक्कोसेणं छम्मासा, असुरकुमारा णं भंते ! केवइयं कालं बिरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं चउनीसं मुहुत्ता, नागकुमारा पं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं चञ्चीसं मुहुत्ता, एवं सुवनकुमाराणं विज्जुकुमाराणं अग्गिकुमाराणं दीवकुमाराणं दिसाकुमाराणं उदहिकुमाराणं वाउकुमारार्ण थणियकुमाराणं पत्तेयं जहनेणं एग समय उक्कोसेणं चउबीसं मुहुत्ता, पुढविकाइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता ?, गोयमा! अणुसमयमविरहियं उववाएणं पनत्ता, एवं आउकाइयाणवि तेउकाइयाणवि वाउकाइयाणवि वणस्सइकाइयाणवि अणुसमयं अविरहिया उववाएगं पन्नत्ता । बेइंदिया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसणं अंतोमुहत्तं एवं तेइंदियचउरिदिया । समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता?, गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं अंतोमुहुर्त, गम्भवकतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्सा णं भंते ! केवइयं कालं विर दीप अनुक्रम [३२८-३२९] 25 ~ 415~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२३ -१२४] दीप अनुक्रम [३२८ -३२९] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥ २०६ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [२], पदं [६], मूलं [१२३-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१५] उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः seatstateses हिया उचवाएणं पद्मत्ता ?, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं चरबीसं मुहुत्ता, गन्भवतियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेगं एगं समर्थ उकोसेणं वारस मुहुत्ता, वाणवंतराणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एगं समयं उकोसणं चउबीसं मुडुत्ता, जोइसियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेणं एगं समयं उकोसेणं चवीस मुहुत्ता, सोहम्मे कप्पे देवा णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवाएणं पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उकोसेणं चउवीसं मुहुत्ता, ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं चतीसं मुत्ता, सगँकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं णव राईदियाई, माहिंदे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेगं एवं समयं उक्कोसेणं बारस राईदियाणं दस ता, मो देवाच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं अद्धतेवीस राईदियाई, लंगदेवाणं पुच्छा, गोमा ! जहणं एवं समयं उकोसेणं पणतालीस राईदियाई, महासुकदेवाणं पुच्छा, गोषमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं असीई राईदियाई, सहस्सारे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं राईदियसयं, आणयदेवपुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उहोसेणं संखेज्जमासा, पाणयदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेणं एगं समयं उकोसेण संखेमासा, आरणदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं संखिजवासा, अच्चुयदेवाणं पुच्छा, गोमा ! जहणं एवं समयं उकोसेणं संखिज्जवासा, हिट्टिमगेविजाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं संखिञ्जाई बाससयाई, मज्झिमगेविखाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं संखिजाई वाससहस्ताई, उपरिमगेविञ्जाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं संखिजाई वासस्य सहरसाई, विजयवेजयंत जयंत अपराजितदेवाणं Eucation International For Park Use Only ~ 416~ ६ उपपातोद्वर्त्तना पदे रलमभादिभेदे रुपपात विरहः सू. १२३ ॥ २०६॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२], -- ---- मूलं [१२३-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३ -१२४] पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एग समय उकोसेणं असंखेज कालं, सबसिद्धगदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणं एग समयं उकोसेणं पलिओवमस्स संखिजइभाग । सिद्धा पे भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिझणाए पन्नत्ता?, गोयमा जहनेणं एगं समयं उफोसेणं छम्मासा।। (सूत्रं १२३) रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उचट्टणाए पनत्ता, गोयमा ! जहरेण एग समय उक्कोसेणं चउनीसं मुहुत्ता, एवं सिद्धवजा उबट्टणावि भाणियवा जाव अणुचरोषवाइयत्ति, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणति अहिलावो कायचो । दारं ॥ (सूत्रं १२४) 'श्यणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उपवाएणं पन्नत्ता ?' इत्यादि पाठसिद्ध, नवरमत्रो-18 त्कर्षविपया इमाः संग्रहणिगाथा:-'चउयीसयं मुहुत्ता, सत्त य राईदियाई पक्खो य । मासो एको दुनि उ चउरोध छम्मास नरएसु ॥१॥ कमसो उकोसेणं चउबीसमुहुत्त भवणवासीसुं । अविरहिया पुढवाई विगलाणऽन्तोमुहुत् | तु॥२॥ [स]मुच्छिमतिरियपणिदिय एवं चिय गम्भ बारस मुहुत्ता । संमुच्छगम्भमणुया, कमसो चउवीस वारस || य॥३॥ पणजोइससोहम्मीसाणकप्प चउवीसई मुहत्ता उ । कप्पे सर्णकुमारे दिवसा णव वीसई मुहुत्ता ॥४॥ माहिंदे राइंदिय बारस दस मुहुत्त बंभलोगम्मि । राइंदिअद्धतेबीस खंतर होति पणयाला ॥५॥ महसुकमि असीई सहसारि सयं ततो उ कप्पदुगे । मासा संखेज्जा तह वासा संखेज उवरिदुगे ॥६॥ हिहिममज्झिमउपरिम। जहसंखं सयसहस्सलक्खाई। वासाणं विनेो उकोसेणं विरहकालो ॥७॥ कालो संखाईतो विजयाइनु चउसु | दीप अनुक्रम [३२८-३२९] ~417~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [३], -------------- मूलं [१२५-१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५-१२६] प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती. ॥२०७॥ होइ नायचो । संखेजो पलस्स उ भागो सबट्टसिद्धमि ॥ ८॥ गतं द्वितीयं द्वारं । अधुना तृतीयद्वारमाह नेरइया णं भंते ! कि संतरं उबवजंति निरंतरं उववजंति ?, गोयमा! संतरपि उववजंति निरंतरपि उववजंति, तिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि संतरं उववअंति निरंतरं उबवजंति, मोयमा! संतरंपि उववअंति निरंतरपि उववअंति । मणुस्सा णं भंते ! कि संतरं उववअंति निरंतरं उववअंति?, गोयमा ! संतरपि उववजंति निरंतरंपि उववजति । देवाणं भंते ! कि संतरं उपवजति निरंतर उववज्जति ?, गोयमा ! संतरपि उववज्जति निरंतरपि उवबज्जति । रयणप्पभापुढविनेरहया णं भंते । किं संतरं उववजंति निरंतरं उववज्जति , गोयमा ! संतरपि उवयज्जति निरंतरपि उववज्जति एवं जाब अहेसत्तमाए संतरपि उववज्जति निरंतरंपि उववज्जति । असुरकुमारा णं देवा णं भंते ! किं संतरं उबवज्जति निरंतर उववजति ?, गोयमा ! संतरपि उववजति निरंतरपि उचवज्जति, एवं जाव थणियकुमाराणं संतरपि उवयजति निरंतरंपि उववअंति । पुढविकाइया णं भंते ! किं संतरं उववजंति निरंतरं उववञ्जति ?, गोयमा! नो संतरं उवयअंति निरंतरं उववअंति, एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं उववजंति निरंतरं उववअंति । बेइंदिया णं भंते ! किं संतरं उववअंति निरंतरं उववअंति ?, गोयमा ! संतरंपि उबवजंति निरंतरंपि उववजंति, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया । मणुस्सा णं भंते ! किं संतरं उववर्जति निरंतरं उववअंति', गोयमा ! संतरपि उववनंति निरंतरपि उववति । एवं वाणमंतरा जोइसिया सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदवंभलोयलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणचुयहिडिमगेविजगमज्झिमगेवि उपपातोद्वर्तनापदे ७दतैनाविरहः सू.२४ सान्तरेतरोपपातो इतने सू. १२५ सू. १२६ दीप अनुक्रम [३३० -३३१] SeSCA 11२०७॥ षष्ठं पदे द्वार-(३) “सान्तर ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [३], -------------- मूलं [१२५-१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५-१२६] ececeneseneel अगउपरिमगेविजगविजयवेजयंतजयंतअपराजितसबद्दसिद्धदेवा य संतरपि उबवजंति निरंतरपि उववजंति । सिद्धाणं भंते! किं संतरं सिझंति निरंतरं सिझंति ?, गोयमा ! संतरंपि सिझंति निरंतरपि सिझंति ।। (सूत्रं १२५) नेरइया णं भंते! किं संतरं उपद्दति निरंतर उच्चट्टति ?, गोयमा ! संतरंपि उबद्दति निरंतरपि उबट्टति, एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उबट्टणापि सिद्धवजा भाणियबा जाव बेमाणिया, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणति अहिलाबो कायो । दारं ॥ (मत्र १२६) 'नेरहया णं भंते ! किं संतरं उववर्जति' इत्यादि, पाठसिद्धं, प्रागुक्तसूत्राथानुसारेण भावार्थस्य सुप्रतीतत्वात् । गतं तृतीयं द्वारं । अधुना चतुर्थमाह नेरइया णं भंते ! एगसमएणं केवइया उबवअंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि वा उफोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववज्जति एवं जाव अहेसत्तमाए । असुरकुमारा णं भंते ! एगसमएणं केवइया उववजंति, गोयमा ! जहनेणं एको वा दो वा तिनि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा, एवं नागकुमारा जाव थणियकुमारावि भाणियबा । पुढविकाइया णे भंते ! एगसमएणं केवइया उववज्जति', गोयमा ! अणुसमयं अविरहियं असंखेजा उबवजंति, एवं जाव वाउकाइया । वणस्सइकाइया णं भंते ! एगसमएणं केवइया उववज्जति ?, गोयमा! सट्टाणुववाइयं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया अणंता उववजति, परठाणुववाइयं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया असंखेजा उवयजति । बेइंदिया ण भंते ! केवइया एगसमएणं उववजंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगो बा दो वा तिन्निवा उकोसेणं संखेजा वा असंखेजावा, एवं तेइंदिया चउरि दीप अनुक्रम [३३० -३३१] Panastaram.org षष्ठं पदे द्वार-(४) "एकसमय" ~ 419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [४], --------------- मूलं [१२७-१२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती. सूत्रांक [१२७-१२८] ६ उपपातोद्वर्तनापदे उपपातसंख्या तथा उद्धनसंख्या ॥२०८॥ दिया । समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया समुच्छिममणुस्सा वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदवंभलोयलंतगमहामुकसहस्सारकप्पदेवा ते जहा नेरइया, गम्भवकं तियमणूसआणयपाणयआरणअचुअगेवेजगअणुत्तरोववाइया य एते जहन्नेणं इको वा दोवा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखिजा [वा] उबवजति । सिद्धा णं भंते! एगसमएणं केवड्या सिझंति , गोयमा ! जहन्नेणं एक वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं अट्ठसयं ।। (मूत्रं १२७) नेरइया ण भंते ! एगसमएणं केवइया उबदृति !, गोयमा ! जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा उबटुंति, एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उच्वट्टणावि भाणियत्वा जाय अणुत्तरोववाइया, गबरं जोइसियवेमाणियाणं चयणेणं अहिलावो कायवो । दारं । (मूत्रं १२८) 'नेरइया णं भंते ! एगसमइएणं केवइया उपवति ' इत्यादि. निगदसिद्ध, नवरं वनस्पतिसूत्र 'सट्टाणुषवार्य पडुच अणुसमयमविरहिया अनंता' इति खस्थान-वनस्पतीनां वनस्पतित्वं, ततोऽयम-यघनन्तरभववनस्पतय एव वनस्पतित्पद्यमानाचिन्त्यन्ते तदा प्रतिसमयमविरहितं सर्वकालमनन्ता विज्ञेयाः, प्रतिनिगोदमसहययभागस्य | निरन्तरमुत्पद्यमानतया उद्वर्त्तनमानतया च लभ्यमानत्वात् , 'परठाणुववाइयं पडुच अणुसमयमविरहियमसंखेजा, इति परस्थान-पृधिव्यादयः, किमुक्तं भवति ?-यदि पृथिव्यादयः खभवाददुत्य वनस्पतिपूत्पद्यमानाश्चिन्त्यन्ते तदाऽनुसमयमविरहितमसजयया वक्तव्या इति, तथा गर्भव्युत्क्रान्तिका मनुष्या उत्कृष्टपदेऽपि सङ्ख्या एव नासयेयाः, तत सू.१२७ दीप अनुक्रम [३३२-३३३] 1204 SAREauraton international ~420~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ---------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [४], ----- ------ मूलं [१२७-१२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७-१२८] तत्सत्रे उत्कर्पतः सङ्ख्यया वक्तव्याः, आनतादिषु देवलोकेषु मनुष्या एवोत्पद्यन्ते न तिर्यशोऽपि मनुष्याश्च | सबेया एवेत्यानतादिसूत्रेष्वपि सङ्ख्यया एव वक्तव्याः नासङ्ख्येयाः, सिद्धिगताबुत्कर्पतोऽष्टशतं, एवमुद्वर्तनासूत्रमपि वक्तव्यं, नवरं 'जोइसवेमाणियाणं चयणेणं अहिलावो कायषों' इति ज्योतिष्कवैमानिकानां हि सभवादुद्वर्तनं च्यवनमित्युच्यते, तथाऽनादिकालप्रसिद्धेः, ततः तत्सूत्रे च्यवनेनाभिलापः कर्त्तव्यः, स चैवं-'जोइसिया णं भंते। एगसमयेणं केवइया चयंति !, गोयमा ! जहन्नेणं एगो वा दो वा' इत्यादि, गतं चतुर्थद्वारम् । इदानीं पञ्चमद्वारम-18| भिधित्सुराह नेरइया ण भंते ! कतोहितो उववजति ?-कि नेरइएहितो उपयज्जति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति मणुस्सेहिंतो उववजंति देवेहितो उपयजति ?, गोयमा ! नो नेरइएहितो उवबजति तिरिक्खजोणिएहितो उबवजति मणुस्से हिंतो उववज्जति नो देवेहितो उबवजति, जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उपयजति बेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति तेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति चउरिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उवबजति पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उबवति ?, गोयमा ! नो एगिदिय नो बेइंदियनो तेईदियनो चउरिदियतिरिक्खजोणिएहितो उबवजति पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपयज्जति, जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति किं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उचबजति थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उवबजति खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए दीप अनुक्रम [३३२-३३३] | षष्ठं पदे द्वार-(५) “आगति" ~ 421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. -१३७]] ६ उपपातोद्वर्तनापदे नारकादीनामागतिः सू. १२९ ॥२०॥ लटरट SecemeResearceloenercedesee गाथा: हिंतो उचवजति ?, गोयमा! जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, जइ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति गम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवनति ?, गोयमा! संमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति गम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, जइ समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं पञ्जत्तयसमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं अपजत्नसमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववर्जति ?, गोयमा! पञ्जत्तयसमुच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति नो अपजत्तगसमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, जइ गम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववति किं पञ्जत्तगगम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति अपजतयगम्भ० जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ?, गोयमा पजत्तयगम्भ० जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववर्जति नो अपज्जत्तगगम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवनंति, जइ थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववधति किं चउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उपयजंति परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजीणिएहिंतो उववअंति', गोयमा ! चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवअंति परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितोऽवि उववजंति, जड़ चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उबवज्जति किं समुच्छिमेहितो उपवजंति गम्भवकतिएहितो उपवर्जति ?, गोयमा! समुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितोऽपि उबवज्जति गम्भवतियच दीप अनुक्रम [३३४-३४४] ॥२०॥ ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------ उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितोऽवि उववअंति, जइ समुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं पअचगसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति अपजत्तगचउप्पयथलयरसमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवअंति ?, गोयमा! पजत्तसमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववर्जति नो अपज्जत्लगसमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति, जइ गब्भवतियच उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजति किं संखेजवासाउअगम्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति असंखेजवासाउयगन्भवतियचउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति, गोयमा ! संखेजवासाउ एहितो उववजंति नो असंखेजवासाउएहिंतो उववअंति, जइ संखेजवासाउयगम्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववति किं पजत्तगसंखेज्जवासाउयगम्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवजंति अपजत्तगसंखेजवासाउयगम्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवअंति, गोयमा ! पजत्तेहिंतो उववजति नो अपजनसंखेजवासाउएहिंतो उववअंति, जइ परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति', गोयमा! दोहिंतोवि उववअंति, जइ उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति किं संमच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति गम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति', गोयमा ! समुच्छिमेहिंतो उबवजंति गम्भवकतिएहितोवि उववअंति, जइ समुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणि दीप अनुक्रम [३३४-३४४] Celeese ~423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------ उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. -१३७]] ६ उपपातोद्वर्त्तनापदे नारकादीनामागतिः सू. १२९ ॥२१ ॥ गाथा: एहितो उववअंति किं पञ्जत्तरहितो उववजंति अपजत्तगेहिंतो उववअंति ?, गोयमा ! पञ्जत्तमसमुच्छिमेहिंतो उववअंति नो अपजत्तगसमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिएहिंतो उपवजंति, जइ गम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उबव अंति किं पञ्जत्तएहिंतो उ० अपजत्तएहिंतो उ०१, गोयमा! पजत्तगगम्भवातिएहिंतो उववअंति नो अपञ्जत्तगगम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवजंति, जइ भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववर्जति किं समुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति गम्भवकतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उघवजंति?, गोयमा ! दोहितोऽपि उबवजंति, जइ समुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं पञ्जत्तयसमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोगिए. हिंतो उपवजंति अपजत्यसमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति', गोयमा पजत्तएहिंतो उववर्जति नो अपजत्तएहितो उपवअंति, जइ गम्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिती उववजति किं पजत्तएहिंतो उबवजंति अपजत्तएहिंतो उववअंति, गोयमा! पजत्नएहिंतो उववअंति नो अपञ्जत्तएहितो उववअंति, जइ खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति किं समुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिती उबवति गम्भवतियखयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति?, गोयमा! दोहितोऽवि उववअंति, जइ समुच्छिमखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पजत्तएहितो उववजंति अपजत्तएहितो उववज्जति , गोयमा ! पजचएहितो उववअंति नो अपजत्तएहिंतो उववअंति, जइ पजत्नगगम्भवतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववर्जति कि संखे. दीप अनुक्रम [३३४-३४४] ॥२१०॥ ~ 424 ~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: अवासाउएहितो उववअंति असंखेजबासाउएहिंतो उववज्जति', गोयमा! संखिजवासाउएहितो उवबअंति नो असंखिजवासाउएहिंतो उववजंति, जइ संखिजवासाउयगन्भवतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवजति किं पजतपहिंतो उववज्जति अपजत्तपहिंतो उववज्जति ?, गोयमा ! पजचएहिंतो उववजति नो अपजत्तएहिंतो उववज्जति । जइ मणुस्सेहितो उववर्जति किं समुच्छिममणुस्सेहितो उववज्जति गम्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववर्जति ?, गोयमा ! नो समुच्छिममणुस्सेहितो उववज्जति गम्भवतियमणुस्सेहिंतो उववनंति, जइ गन्भवतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति किं कम्मभूमिगगब्भवतियमणुस्सेहितो उपवजंति अकम्मभूमिगम्भवतियमणुस्सेहितो उववज्जति अंतरदीवगगम्भवतियमणुस्सहिंतो उववज्जति , गोयमा ! कम्मभूमिगगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उबवजंति नो अकम्मभूमिगगम्भवतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति नो अंतरदीवगगब्भवतियमणुस्सहिंतो उववजति, जइ कम्मभूमिगगब्भवतियमणुस्सहिंतो उववअंति किं संखेजवासाउएहिंतो उ० असंखेजवासाउएहिंतो उ०१, गोयमा! संखेजवासाउयकम्मभूमिगगम्भवतियमणूसेहितो उववजति नो असंखिजवासाउयकम्मभूमिगगम्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति, जइ संखेअवासाउयकम्मभूमिगगब्भवकतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति किं पञ्जत्तेहिंतो उववअंति अपजत्तेहिंतो उवरजंति, गोयमा! पजत्तएहिंतो उववजंति नो अपजत्तएहिंतो उववअंति, एवं जहा ओहिया उववाइया तहा रयणप्पभापुढविनेरहयावि उववाएपबा, सकरप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा! एतेवि जहा ओहिया तहेवोक्वाएयचा नवरं समुच्छिमेहिंतो पडिसेहो कायचो, वालुयप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! कतोहिंतो उववजंति ?, गोयमा ! जहा सकरप्पमापुढविनेरइया नवरं भुयपरिसप्पेहितो पडिसेहो 202999999999999 दीप अनुक्रम [३३४-३४४] ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ६ उपपातोद्वर्तनापदे नारकादीनामुपपातः -१३७]] ॥२१॥ etseseeeeee कायचो, पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहा बालुयप्पभापुढविनेरझ्या नवरं खहयरेहितो पडिसेहो कायद्यो, धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा गोयमा! जहा पंकप्पभापुढविनेरइया नवरं चउप्पएहितोचि पडिसेहो कायबो, तमापुढविनेरहया णं भंते ! कओहिंतो उववजति गो०! जहा धूमप्पभापुढविनेरइया नवरं थलयरहितोवि पडिसेहो कायद्दो, इमेज अभिलावणं जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं जलयरपंचिदिएहिंतो उबवजंति थलपरपंचिदिएहितो उववर्जति खयरपंचिंदिएहिंतो उववअंति, गोयमा! जलयरपंचिंदिएहिंतो उवबअंति नो थलयरेहिंतो नो खयरेहितो उववजंति, जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति किं कम्मभूमिएहितो उपवजति अकम्मभूमिपहिंतो उववअंति अंतरदीवएहितो उववअंति, गोयमा! कम्मभूमिपहिंतो उववअंति नो अकम्मभूमिएहिंतो उववर्जति नो अंतरदीवहिंतो उबवजति, जह कम्मभूमिपहिंतो उववज्जति किं संखेजवासाउएहिंतो उववजंति असंखेजवासाउएहितो उववज्जति ?, गोयमा! संखेजवासाउएहिती उववज्जति नो असंखेजवासाउएहिंतो उवषजति, जड संखेजवासाउएहिंतो उववअंति किं पजचएहिंतो उवषअंति अपअत्तएहितो उवयअंति, गोयमा! पजचएहिंतो उववजति नो अपजत्तरहिंतो उववअंति, जइ पजत्तगसंखेअवासाउयकम्भभूमिएहितो उववअंति किं इस्थिरहितो उवचजति पुरिसेहिंतो उववजंति नपुंसरहिंतो उववर्जति , गोवमा! इत्थीहिंतो उववअंतिपुरिसहिंतो उववअंति नसएहितोवि उववजंति, अहेसनमापुढविनेरइया णं भंते ! कतोहिंतो उववअंति', गोयमा । एवं चेव नवरं इत्थीहिंतो पडिसेहो कायबो,-'अस्सची खलु पढभं दोचंपि सिरीसवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउस्थि उरगा पुण पंचमिं पुढचं ॥१॥छट्टिच इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तर्मि गाथा: दीप अनुक्रम [३३४-३४४] ॥२१॥ E ~ 426~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: पुढवि । एसो परमोवाओ चोद्धच्चो नरगपुढवीण ॥२॥(स्त्रं १२९) । असुरकुमारा ण भंते ! कतोहिंतो उववअंति, गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति मणुस्सेहिंतो उवरजति नो देवेहितो उववजंति, एवं जेहिंतो नेरइयाणं उववाओ तेहितो असुरकुमाराणवि भाणियहो, नवरं असंखेजवासाउयअकम्मभूमगअंतरदीवगमणुस्सतिरि खजोणिएहितोवि उववअंति, सेसंत चेव, एवं जाव थणियकुमारामाणियबा।। (सूत्रं१३०) पुढविकाइया भंते ! कतोहितो उववअंति किं नेरदपहिंतो जाव देवेहितो उववअंति, गोयमा ! नो नेरहएहिंतो उववअंति तिरिक्खजोणिएहिंतो मणुस्सेहिंतो देवेहिंतोवि उववजंति, जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवजंति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियहिंतो उववञ्जति ?, मोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिएहितोचि जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतोषि उवबज्जति,जइ एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पुढविकाइएहिंतो जाव वणस्सइकाइएहिंतो उववअंति?, गोयमा! पुढविकाइपहिंतोवि जाव वणस्सइकाहपहिंतोवि उ०, जइ पुढविकाइएहितो उववअंति कि सुहमपुढविकाइएहितो उववर्जति बायरघुढविकाइएहिंतो उववजंति ?, गोयमा!दोहिंतोवि उववअंति, जइ सुहमपुडविकाइएहितो उवयति किं पजत्तपुढवीकाइएहिंतो उववअंति अपजत्तपुढवीकाइएहिंतो उववजंति !, गोयमा! दोहिंतोवि उपवजंति, जइ बायरपुढविकाइएहितो उववअंति किं पजत्तएहितो उ० अपज्जत्तपहिंतो उववज्जति ?, गोयमा ! दोहितोवि उववअंति, एवं जाव वणस्सइकाइया चउकएणं भेदेण उववाएयच्या, जइ बेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं पजत्तयवेइंदिएहितो उववअंति अपजत्तयबेईदिएहितो उववज्जति !, गोयमा! दोहितोवि उववजंति, एवं तेइंदियचउरिदिएहितोवि उववजंति, जा पंचिंदिय दीप अनुक्रम [३३४-३४४] ease ~ 427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती. -१३७]] ॥२१२॥ कादीनामुपपातः तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति एवं जेहिंतो नेरइयाणं उववाओ भणिओ तेहिंतो एतेसिंपि भाणियहो नवरं पजसगअपञ्जनगेहिंतोवि उववजंति, सेसं तं चेक, जइ मणुस्सहिंतो उववजति किं संमुच्छिममणुस्सेहिंतो उववज्जति गम्भवक्कतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति', गोयमा! दोहिंतोवि उववनंति, जब गम्भवतियमणुस्सहिंतो उववजति किं कम्मभूमगगन्भवतियमणुस्सेहिंतो उबरजति अकम्मभूमगगम्भवतियमणुस्सेहितो उववजंति सेसं जहा नेरइयाणं नवरं अपजचएहितोवि उववज्जति, जइ देवेहितो वि] उबवजंति किं भवणवासिवाणमंतरजोइसवेमाणिएहितो उववजति , गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतोचि उचव अंति जाव चेमाणियदेवेहिंतोवि उववअंति, जइ भवणवासिदेवेहिंतो उबवजंति किं असुरकुमारदेवहितो जाब थणियकुमारेहिंतो उचवअंति', गोयमा ! अमरकुमारदेवहिंतोवि उववअंति जाव थणियकुमारदेवेहिंतोवि उपपजंति, जइ वाणमंतरदेवेहिंतो उववअंति किं पिसाएहिंतो जाव गंधचेहितो उववअंति !, गोयमा! पिसाएहितोवि जाव गंधयेहितोवि उववअंति, जइ जोइसियदेवेहितो उववजंति किं चंदविमाणेहिंतो उववजंति जाव ताराविमाणेहिंतो उववजंति !, गोयमा! चंदविमाणजोइसियदेवेहितोवि जाव ताराविमाणजोइसियदेवेहितोवि उववजति,जह बेमाणियदेवेहिंतो उववजंति किं कप्पोवगवेमाणियदेवेहितो उववज्जति कप्पातीतवेमाणियदेवहिंतो उववअंति, गोयमा ! कप्पोवगवेमाणियदेवेहिंतो उववजंति नो कप्पातीतवेमाणियदेबेहितो उववजंति, जइ कप्पोवगवेमाणियदेवेहिंतो उववजंति किं सोहम्महितो जाव अचुएहिंतो उववज्जति , गोयमा ! सोहम्मीसाणेहिंतो उववजति नो सर्णकुमारजावअचुएहिंतो उववज्जति एवं आउकाइयावि, एवं तेउवाउकाइयावि, नवरं 900992938890 गाथा: दीप अनुक्रम [३३४-३४४] ॥२१॥ For P OW ~ 428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: दीप अनुक्रम [ ३३४ -३४४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - दारं [५], पदं [६], उद्देशक: [-], मूलं [ १२९- १३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः देववजेहिंतो उवबजंति, वणस्सइकाइया जहा पुढविकाइया ॥ ( सूत्रं १३१) बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया एते जहा तेउबाऊ देववजेहिंतो भाणिया । (सूत्रं १३२) पंचिदियतिरिक्ख जोगिया णं भंते! कओहिंतो उववज्र्जति १, किं नेरइएहिंतो उ० जाय किं देवेहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! नेरइएहिंतो वि तिरिक्खजोणिएहिंतोवि मणुस्सेहिंतोवि देवेहिंतोवि उववअंति, जह नेरइएहिंतो उबवति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो जाव आहेसत्तमापुढविनेरइएहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरहितोवि उववज्जंति जाव आहेसचमापुढ विनेरहएहिंतोवि उबवअंति, जड़ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं एगिदिएहिंतो उति जाब पंचिदिएहिंतो उनवअंति१, गोयमा ! एगिदिएहिंतोवि उववज्रंति जाब पंचिदिएहिंतोवि उबवअंति, जइ एगिंदिएहिंतो उपवअंति किं पुढविकाइएहिंतो उवबजंति एवं जहा पुढचिकाइयाणं उदवाओ भणिओ तहेव एएसिंपि भाणियवो नवरं देवेहिंतो जाच सहस्सारकप्पोबगवेमाणियदेवेहिंतोवि उबवजंति नो आणयकप्पोबगवेमाणियदेवेहिंतो जाय अच्चुएहिंतोचि उववअंति (सूत्रं १३३ ) मणुस्सा णं भंते ! कओहिंतो उववति किं नेरइएहिंतो उचबअंति जाव देवेहिंतो उववअंति १, गोयमा ! नेरहएहिंतोवि उववज्जंति जाव देवेहिंतोवि उववअंति, जह नेरइएहिंतो उबवर्जति किं रयणप्पभापुढविनेर एहिंतो उबवअंति किं सकरप्पभापुढविनेरइएहिंतो उबवजंति किं वालुयभापुढविनेरइएहिंतो पंकप्पभा०हिंतो धूमप्पभा०हिंतो तमप्यभा०हिंतो आहेसतमा पुढ विनेरइएहिंतो उबवअंति ?, गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेर एहिंतोवि जाव तमापुढ विनेरइएहिंतोचि उबवअंति, नो अहेसतमा पुढविनेरह एहिंतो उवबअंति, जह तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववर्जति एवं जेहिंतो पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं Euraft Internationa For Par Lise Only ~ 429~ ARREALALALALALALASa Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------ उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक मज्ञापनाया मल यवृत्ती. [१२९-१३७] उपपातोद्वर्तनापदे नारकादीनामुपपातः ॥२१॥ गाथा: उववाओ भणिओ सेहितो मणुस्साणवि निरवसेसो भाणियबो, नवरं आहेसत्तमापुढविनेरइएहितो तेउवाउकाइएहितो ण उघवजंति, सबदेवेहितो व उबवाओ कायबो जाव कप्पातीतबेमाणियसबढसिद्धदेवहितोवि उववजावेयवा (सूत्र १३४) वाणमंतरदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववअंति किं नेरइएहितो तिरिक्खजोणिय०मणुस्स० देवेहितो उववजंति ?, गोयमा! जेहिंतो असुरकुमारा तेहिंतो भाणियबा (सूत्र १३५) जोइसिया णं भंते । देवाण कओहिंतो उववजंति, गोयमा! एवं चेव नवरं समुच्छिमअसंखिजवासाउयसहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियबजेहिंतो अंतरदीवमणुस्सवअहिंतो उववआवेयवा (मूत्र १३६) वैमाणिया यं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं नेरइएहितो किं तिरिक्खजोणिएहितो मणुस्सेहितो देबेहितो उववनंति ?, गोयमा ! णो णेरइएहितो उववजति पंचिदियतिरिक्खजोणिपहितो उपवनति मणुस्सहिंतो उबवज्जति णो देवेहिंतो उपद्धति एवं सोहम्मीसाणगदेवाऽवि भाणियबा, एवं सर्णकुमारदेवावि भाणियबा नवरं असंखञ्जवासाउयअकम्मभूमगवजेहिंतो उववअंति, एवं जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवा भाणियबा, आणयदेवाणं भंते ! कओहितो उववति किं नेरइएहितो कि पंचिदियतिरिक्खजोणिय०मषुस्स०देवेहितो उवयजति , गोयमा ! णो रहएहितो उववअंति नो तिरिक्खजोणिएहितो उववर्जति मणुस्सेहितो उववअंति णो देवेहितो उववजंति, जइ मणुस्सेहितो उववअंति किं समुग्छिममणुस्सेहितो मम्भवतियमणुस्से हिंतो उववजंति, गोयमा! गम्भवकंतियमणुस्सेहिंतो नो संम्च्छिममणुस्सेहितो उववअंति, जइ गम्भवतियमणुस्सेहिंतो उववअंति किं कम्मभूमिगेहिंतो अकम्मभूमिगेहितो अंतरदीवगेहितो उववअंति !, गोयमा ! नो अकम्मभूमिगेहितो णो अंतरदीवगेहिंतो उबवअंति कम्मभूमिगगम्भवतियमणुस्से दीप अनुक्रम [३३४-३४४] esesents ॥२१॥ ~ 430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------ उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: हिंतो उववजति, जइ कम्मभूमगगन्भवतियमणूसहितो उववज्जति किं संखेजवासाउएहितो असंखेसवासाउएहितो उ०१, गोयमा! संखेजवासाउएहिंतो नो असंसिञ्जवासाउएहिंतो उववज्जति, जइ संखिजवासाउयकम्मभूमगगम्भवकतियमसेहिंतो उववजति किं पञ्जत्तएहितो उववज्जंति अपजत्तएहितो उपवजति ?, गोयमा ! पजत्तएहितो उववजति नो अपजत्तएहिंतो उववज्जति, जइ पजत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति किं सम्मदिहीपअत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमीहितो उपवनंति मिच्छद्दिहिपञ्जतगेहिंतो उववजति सम्मामिच्छद्दिहिपञ्जत्तरोहितो उववजति ?, गोयमा! सम्मद्दिछिपञ्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमसेहिंतो उबवजंति मिच्छद्दिटिपजतगेहिंतो उववजति णो सम्मामिच्छद्दिविपञ्जत्तएहिंतो उववजंति, जइ सम्मद्दिवीपजत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगगम्भवकंतियमणूसेहिंतो उववजति किं संजतसम्मदिट्ठीहितो असंयतसम्मदिट्टीपजत्तएहितो संजयासंजयसम्मद्दिट्ठीपञ्जत्तसंखेअहिंतो उववजंति , गोयमा ! तीहिंतोवि उववजंति, एवं जाव अचुगो कप्पो, एवं चेव गेविजगदेवावि नवरं असंजतसंजतासंजता एते पडिसेहेयवा, एवं जहेब गेविजगदेवा तहेब अणुत्तरोववाइयावि, णवरं इमं नाणतं संजया चेव, जइ सम्मदिहीसंजतपअत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगगन्भवतियमणूसेहिंतो उववअंति किं पमत्तसंजयसम्मदिट्टीपज्जत्तएहिंतो अपमत्तसंजयसम्मदिद्वि०एहिंतो उववज्जति ?, गोयमा अपमत्तसंज०एहितो उपयजति नो पमत्तसंज०एहितो उववअंति, जइ अपमत्तसंज०एहितो उववअंति किं इड्डिपत्तसंजएहितो अणिपित्तसंजएहितो, गोयमा! दोहितो उबवअंति । दारं । (मूत्र १३७) दीप अनुक्रम [३३४-३४४] ces ~ 431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: प्रज्ञापना 'नेरइया णं भंते ! कओहितो उववजंति' इत्यादि पाठसिद्धं नवरमेष संक्षेपार्थः-सामान्यतो नरकोपपातचि-IN याः मल Sन्तायां रत्नप्रभोपपातचिन्तायां च देवनारकपृथिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकाणां तथाऽसङ्ख्येयवर्षायुश्चतुष्पदखचराणांतोद्वर्त्तनायवृत्ती. शेषाणामपि चापर्याप्सकानां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां तथा मनुष्याणां संमूछिमानां गर्भव्युत्क्रान्तिकानामप्यकर्मभूमि-पदे नारजानां अन्तरद्वीपजानां कर्मभूमिजानामप्यसङ्ख्येयवर्षायुषां सङ्ख्येयवर्षायुषामपि अपर्याप्तकानां प्रतिषेधः शेषाणां निषेधशेषाणकादीना॥२१॥ विधानं, शराप्रभायां संमूछिमानामपि प्रतिषेधः वालुकाप्रभायां भजपरिसर्पाणामपि पप्रभायां खचराणामपिमुपपातः धूमप्रभायां चतुष्पदानामपि तम:प्रभायां उर-परिसर्पाणामपि सप्तमपृथिव्यां स्त्रीणामपि । भवनवासिषूपपातचिKान्तायां देवनारकपृथिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकापर्यासतिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूछिमापर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां प्रतिषेधः शेषाणां विधानं, पृथिव्यवनस्पती सकलनैरयिकसनत्कुमारादिदेवानां तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सर्वनारकसर्यदेवानां तिर्यक्पश्चेन्द्रियेष्वानतादिदेवानां मनुष्येषु सप्तमपृथिवीनारकतेजोवायूनां व्यन्तरेषु देवनारक|थिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकापर्याप्ततिर्यपञ्चेन्द्रियसंमूछिमापर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां ज्योतिषकेषु संमूछिमतिर्यक्पश्चेन्द्रियासङ्खयेयवर्षायुष्कखचरान्तरद्वीपजमनुष्याणामपि प्रतिषेधः, एवं सौधर्मेशानयोरपि सनत्कुमारादिषु सहस्रारपर्यन्तेष्वकर्मभूमिजानामपि प्रतिषेधः आनतादिपु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामपि विजयादिषु मिथ्याष्टिमनुष्याणामपीति । गतं पञ्चमद्वारं, इदानीं षष्ठं द्वारमभिषित्सुराह दीप अनुक्रम [३३४-३४४] AREauratonintamational ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [६], --------------- मूलं [१३८-१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८ -१४३] नेरया गं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जति किं नेरइएसु उववजति तिरिक्खजोणिएसु उबवजति मणुस्सेसु उववज्जति देवेसु उववजति ?, गोयमा ! नो नेरइपसु उववज्जति तिरिक्खजोणिएसु उववजति मणुस्सेस उवयजति नो देवेसु उववजति, जइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति किं एगिदिएसु उपवज्जति जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति , गोयमा ! णो एगिदिएसु जाव नो चउरिदिएसु उववजंति, एवं जेहिंतो उववाओ भणिओ तेसु उबट्टणावि भाणियवा, नवरं समुच्छिमेसु न उववज्जति, एवं सबपुढवीसु भाणियई, नवरं अहेसत्तमाओ मणुस्सेसु ण उववज्जति । (सूत्रं १३८)। असुरकुमारा णं भंते ! अणंतरं उबहित्ता कहिं गच्छति कहिं उववज्जति किं नेरइएसु जाव देवेसु उ०१, गोयमा ! नो नेरइएमु उववज्जति तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति मणुस्सेसु उववजति णो देवेसु उववजति, जइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति किं एगिदिएसु उववज्जति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उववज्जति !, गोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिएसु उववअंति नो बेइंदिरासु जाव नो चउरिदिएमु उववअंति पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उववअंति, जइ एगिदिएसु उववज्जति कि पुढविकाइयएगिदिएसु जाव वणस्सइकाइयएगिदिएसु उववजंति', गोयमा ! पुढविकाइयएगिदिएसुवि आउकाइयएगिदिएसुवि उववजंति नो तेउकाइएसु नो बाउकाइएसु उववजंति वणस्सइकाइएसु उववअंति, जइ पुढविकाइएसु उबवजंति किं सुहुमपुढविकाइएसु बायरपुढविकाइएमु उववअंति, गोयमा ! बायरपुढविकाइएसु उववजंति नो सुहुमपुढविकाइएसु उववजंति, जइ वायरपुढविकाइएसु उववअंति किं पञ्जत्तगवायरपुढविकाइएसु उववजति अपजत्तवायरपुढविकाइएसु उववजति , गोयमा! पजचएसु उववअंति नो अपजत्तएसु उबव दीप अनुक्रम [३४५-३५०] eeseseeeee imlunaurary.org षष्ठं पदे द्वार-(६) "उद्वर्तना/गति" ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------ उद्देशक: [-], ------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [६], ------- मूलं [१३८-१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. सूत्रांक [१३८ ६ उपपातोद्वर्तनापदे नारकादीनामुद्वर्त्तना ॥२१५॥ -१४३] अंति, एवं आउवणस्सइसुधि भाणिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणियमण्सेसु व जहा नेरइयाणं उपट्टणा समुच्छिमवा तहा माणियवा एवं जाव थणियकुमारा (सूत्रं१३९)। पुढविकाइया णं भंते ! अणंतरं उबट्टित्ता कहिं गच्छति किं नेरइएमु जाव देवेसु, गोयना! नो नेरइएसु तिरिक्खजोणियमसेसु उववजति नो देवेसु उववअंति एवं जहा एतेसि चेव उववाओ तहा उपट्टणावि देववजा भाणियबा, एवं आउवणस्सइवेइंदियतेइंदियचउरिदियावि एवं तेउवाउ० नवरं मणुस्सबजेसु उववजंति (सूत्रं१४०) पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! अणंतरं उज्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जति', गोयमा ! नेरइएसु जाव देवेसु उववजति, जइ नेरइएसु उववजति किं स्यणप्पभापुढविनेरइएसु उववअंति जाव अहेसतमापुढविनेरइएसु उववजंति ?, गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववअंति जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएसु उववअंति, जइ तिरिक्खजोणिएसु उववअंति किं एगिदिएसु जाव पंचिदिएमु उ०१, गोयमा। एगिदिएसु जाव पंचिदिएम उववजंति, एवं जहा एतेसिं चेव उवषाओ उपटणावि तहेव भाणियचा नवरं असंखेजवासाउएसुवि एते उववअंति, जह मणुस्सेसु उववर्जति किं समुच्छिममणुस्सेसु उववर्जति गम्भवकंतियमसेसु उववजति ?, गोयमा ! दोसृवि, एवं जहा उववाओ तहेव उवणावि भाणियबा, नवरं अकम्मभूमग अंतरदीवग० असंखेजवासाउएसुवि एते उववअंतित्ति माणियई, जइ देवेसु उववर्जति किं भवणवईसु उववअंति जाव किं वेमाणिएसु उववअंति, गोयमा ! सधेसु चेव उववर्जति, जइ भवणवईसु किं असुरकुमारसु उववजंति जाव थणियकुमारेसु उववजंति , गोयमा ! सबेसु चेव उववअंति, एवं वाणमंतरजोइसियवमाणिएसु निरंतर उववजंति जाव सहस्सारो कप्पोत्ति । (सूत्र१४१) । मणुस्सा णं भंते! अणंतरं उघट्टित्ता दीप अनुक्रम [३४५-३५०] eesesesecesrce ॥२१॥ ~434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [६], -- ---- मूलं [१३८-१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८ -१४३] एeeeeeeeeeeeर कहिं गच्छंति कहिं उववअंति किं नरइएसु उववर्जति जाव देवेसु उवघजंति !, गोषमा! नेरइएसुवि उववअति जाव देवेसुचि उववजंति, एवं निरंतरं सक्वेसु ठाणेसु पुच्छा, गोयमा ! सवेसु ठाणेसु उववअंति न किंचेवि पडिसेहो कायबो, जाब सबट्टसिद्धदेवेसुवि उववजंति, अत्थेगतिया सिझंति बुमति मुचंति परिनिहायति सबदुक्खाणं अंतं करेंति । (मु०१४२)। चाणमंतरजोइसियवेमाणियसोहम्मीसाणा य जहा असुरकुमारा नवरं जोइसियाणय वेमाणियाण य चयंतीति अभिलावो कायचो, सणंकुमारदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहा असुरकुमारा नवरं एगिदिएसुण उववअंति, एवं जाव सहस्सारगदेवा, आणय जाव अणुत्तरोववाइयादेवा एवंचेव, नवरं नो तिरिक्खजोणिएमु उववर्जति मणुस्सेसु पञ्जत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूसेसु उववजंति । दारं । ( सूत्रं १४३)। 'नेरइया णं भंते ! अणंतर उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जंति' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरमत्राप्येष संक्षेपार्थ:नरयिकाणां खभवादुदृत्तानां गर्भजसद्धयेयवर्षायुष्कतिर्वक्पञ्चेन्द्रियमनुष्येपूत्पादः अधःसप्तमपृथिवीनारकाणां गर्भ|जसञ्जयेयवर्षायुष्कतिर्यक्पश्चेन्द्रियेष्वेव असुरकुमारादिभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां बादरपर्याप्तपृथिव्य वनस्पतिगर्भजसङ्ख्येयवर्षायुष्कतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु पृथिव्यवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तिर्यग्गतौ मनुष्यगती च तेजोवायूनां तिर्यग्गती एव तिर्यक्पश्चेन्द्रियाणां नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिषु नवरं वैमानिकषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्याणां सर्वेष्वपि स्थानेषु, सनत्कुमारादिदेवानां सहस्रारदेवपर्यन्तानां गर्भजसङ्ख्येयवर्षायुष्कतिर्यक्पश्चेन्द्रियमनु दीप अनुक्रम [३४५-३५०] Tarainrary.org ~ 435~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], ------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [६], ------- मूलं [१३८-१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत cenese सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥२१॥ ६ उपपातोद्वर्त्तनाकादीनामुद्वर्तना पद नार [१३८-१४३] येषु, आनतादिदेवानां गर्भजसङ्ख्येयवर्षायुष्कमनुष्येष्वेवेति । गतं पष्ठं द्वारं, इदानीं सप्तमं द्वार, तस्य चायमभिस- म्बन्धः-येषां जीवानां नारकादिषु गतिषु विविध उपपातो वर्णितस्तै वैः पूर्वभवे एव वर्तमानैरायुर्वद्धं ततः पश्चा- दुपपातः, अन्यथोपपातायोगात् , तत्र कियति पूर्वभवायुपि शेषे पारभविकमायुर्वद्धमिति संशयानः पृच्छति नेरइया णं भंते ! कतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति ?, गोयमा! नियमा छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं, एवं असुरकुमारावि, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया गं भंते ! कतिभागावसेसाउया परमवियाउयं पकरेंति', गोयमा! पुढविकाइया दुविहा पनचा, तंजहा सोवकमाउया य निरुवकमाउया य, तत्थ गंजे ते निरुवकमाउया ते नियमा तिभागावसेसाउया परभषियाउयं परति, तत्थ णं जे ते सोवकमाउया ते सिय विभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेति सिय तिभागतिभागावसेसाउया परभचियाउयं पकरेंति सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेति, आउतेउवाउवणफइकाइयाणं वेइंदियतेइंदियचउरिंदियाणवि एवं चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति, गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पबत्ता, तंजहा-संखेजबासाउया य असंखेजवासाउया य, तत्थ णं जे ते असंखेजवासाउया ते नियमा छम्मासाबसेसाउया परभषियाउर्य पकरेंति, तत्थ णं जे ते संखिजवासाउया ते दुपिहा पबत्ता, तंजहा-सोवकमाउया य निरुवकमाउया य, तत्थ गंजे ते निरुवकमाउया ते नियमा तिमागावसेसाउया परमवियाउयं पकरेंति, तत्य णं जे ते सोवकमाउया ते णं सिय तिभागे परम दीप अनुक्रम [३४५-३५०] ॥२१॥ | षष्ठं पदे द्वार-(७) "परभवायु ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [७], --------------- मूलं [१४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४४] वियाउयं पकरेंति सिय तिभागतिभागे परमवियाउयं पकरेंति सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति, एवं मणूसावि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया । दारं । (सूत्र १४४) ला 'नेरझ्या णं भंते ! कइभागाचसेसाउया परभवियाउयं बंध (पकरें)ति' इत्यादि पाठसिद्धं । गतं सप्तमं द्वार, इदाMIनीमष्टमं द्वार, तदेवं यद्भागावशेषेऽनुभूयमानभवायुषि पारभविकमायुर्वन्ति तत्प्रतिपादित, सम्प्रति यत्प्रकार बनन्ति तत्प्रकारं नैरयिकादिदण्डकक्रमेण प्रतिपादयति काविहे थे भंते ! आउयबंधे पन्नते ?, गोयमा ! छविहे आउयबंधे पभत्ते, जहा-जातिनामनिहत्ताउए गतिनामनिहताउए ठितीणामनिहत्ताउए ओगाहणनामनिहत्ताउए पएसनामनिहत्ताउए अणुभावनामनिहत्ताउए, नेरइयाणं भंते ! काविहे आउयबंधे पन्नते, गोयमा ! छबिहे आउयचंधे पनते, तंजहा-जातिनामनिहत्ताउए गतिणामनिहत्ताउए ठितीणामनिहत्ताउए ओगाहणणामनिहत्ताउए पदेसणामनिहत्ताउए अणुभावणामनिहत्ताउए एवं जाव वेमाणियाणं | जीवा णं भंते ! जातिनामनिहचाउयं कतिहिं आगरिसेहिं पगरेंति ?, गोयमा! जहरेण एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं अट्ठहिं, नेरइया णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पगरेति !, गोयमा ! जहणं एकेण वा दोहिं वा तीहि वा उकोसेणं अहहिं एवं जाव बेमाणिया, एवं गतिनामनिहत्ताउएवि ठितीणामनिहत्ताउएवि ओगाहणानामनिहत्ताउएवि पदेसनामनिहत्ताउएवि अणुभावनामनिहत्ताउएपि, एतेसिं थे मंते ! जीवाणं जातिनामनिहत्ताउयं जहणं एफेण वा दीप अनुक्रम [३५१] wirejaratirary.org षष्ठं पदे द्वार-(८) "आकर्ष/आयुबन्ध" ~ 437~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [८], --------------- मूलं [१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक ॥२१७॥ Reserseseelocisesentisera [१४५] दोर्हि वा तीहिं वा उक्कोसेणं अहिं आगरिसेहिं पकरेमाणाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सबथोवा जीवा जातिणामनिहत्ताउयं अट्टहिं आगरिसेहिं पकरमाणा सत्ताहि आगरिसेहि पकरे- न्तपदे माणा संखेज्जगुणा छहिं आगरिसेहिं पकरेमाणा संखेजगुणा एवं पंचहिं संखिजगुणा चउहिं संखिज्जगुणा तीहिं संखिज भेदाः अगुणा दोहिं संखिजगुणा एगेणं आगरिसेणं पगरेमाणा संखेजगुणा, एवं एतेणं अभिलावणं जाव अणुभागनामनिहत्वाउयं, एवं एते छप्पिय अप्पाबहुदंडगा जीवादीया भाणियब्वा । (सूत्रं १४५) इति पन्नवणाए वर्कतियपर्य छई समत्तं ६॥ |ल्पबहुत्वं ॥ 'नेरइयाणं भंते ! कइविहे आउयवंधे पन्नते' इत्यादि, 'जाइनामनिहत्ताउए' इति जातिः--एकेन्द्रियजात्यादिः। पञ्चप्रकारा सैव नाम-नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषरूपं जातिनाम तेन सह निधत्तं-निषितं यदायुस्तजातिनाम-181 निधत्तायुः१, निषेकश्च कर्मपुद्गलानामनुभवनार्थ रचना, सा चैवं लक्षणा-'मोत्तण सगमवाहं पढमाइ ठिईएँ बहुतरं दवं । सेसे विसेसहीणं जावुक्कोसंति उकोसा ॥१॥'गतिनामनिहत्ताउए' इति गतिर्नरकगत्यादिभेदाचतुओं सेव नाम गतिनाम तेन सह निधत्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः २, स्थितियत्तेन भवेन स्थातव्यं तत्प्रधानं नाम स्थितिनाम १ मुक्त्वा स्वकीयामवाधा [ अबाधाकाले नानुभव इति न तत्र दलिकरचना ] प्रथमायां [ जपन्यायामन्तर्मुहूर्तरूपायां ] खिती बहुतरं द्रव्यं [ एकाकर्षगृहीतेष्वपि दलिकेषु बहूनां जघन्यस्थितीनामेव भावात् शेषायां [ समयाद्यधिकान्तमुहर्तादिकायां ] विशेषहीनं, एवं 18| २१७॥ यावदुत्कृष्टां स्थिति उत्कृष्टतो [ विशेषहीनं सर्वहीनं दलिकं [॥१॥ दीप अनुक्रम [३५२] ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [३५२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [६], उद्देशक: [-], ------ दारं [८], मूलं [१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः यद्यस्मिन् भवे उदयमागतमवतिष्ठते तद् गतिजा तिशरीरपञ्चकादिव्यतिरिक्तं स्थितिनामावसेयमिति भावः, गत्यादीनां वर्जनं तेषां खपदेः 'गइनामनिहत्ताउए' इत्यादिभिरुपात्तत्वात् तेन सह निघत्तायुः स्थितिनामनिधत्तायुः ३, तथा अवगाहते यस्यां जीवः साऽवगाहना - शरीरं औदारिकादिः तस्य नाम - औदारिकादिशरीरनामकर्म अवगाहनानाम शेषं तथैव ४, 'पएसनामनिहत्ताउए' ति प्रदेशा:- कर्मपरमाणवः ते च प्रदेशाः संक्रमतोऽप्यनुभूयमानाः परिगृह्यन्ते तत्प्रधानं नाम प्रदेशनाम, किमुक्तं भवति ? - पद्यस्मिन् भवे प्रदेशतोऽनुभूयते तत्प्रदेशनामेति, अनेन विपाकोदयमप्राप्तमपि नाम परिगृहीतं, तेन प्रदेशनाम्ना सह निघत्तमायुः प्रदेशनामनिधत्तायुः ५, तथाऽनुभावो - विपाकः, स चेह प्रकर्षप्राप्तः परिगृह्यते तत्प्रधानं नाम अनुभावनाम - यद्यस्मिन् भवे तीत्रविपाकं नामकमनुभूयते त (य) था नारकायुषि अशुभवर्णगन्धरस स्पर्शोपघातानादेयदुःखरायशः कीर्त्त्या दिनामानि तदनुभावनाम तेन सह निघत्तमायुरनुभावनामनिषत्तायुः ६, अथ कस्माज्जात्यादिनाम कर्मभिरायुर्विशेष्यते १, उच्यते, आयुः कर्मप्राधान्यख्यापनार्थ, तथाहि नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति नान्यथेति भवत्यायुषः प्रधानता इति, अथ जात्यादिनामविशिष्टमायुः कियद्भिराकर्षैर्वभातीति जिज्ञासुजीवादिदण्डकक्रमेण पृच्छति - 'जीवा णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउयं कहहिं आगरिसेहिं पगरंति' इत्यादि, आकर्षो नाम तथाविधेन प्रयत्लेन कर्मपुद्गलोपादानं यथा गौः पानीयं पिचन्ती भयेन पुनः पुनराघोटयति एवं जीवोऽपि यदा तीत्रेणायुर्वन्धाध्यवसायेन जातिनामनिधत्तायुः अन्यद्वा बनाति Education Internationa For Pasta Use Only ~ 439~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [८], --------------- मूलं [१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- तदा एकेन मम्देन द्वाभ्यां त्रिभिर्चा मन्दतरेण त्रिभिश्चतुर्भिर्वा मन्दतमेन पञ्चभिः पद्दभिः ससभिरभिर्वा, ह व्युत्काया मल- जासादिनाम्नामाकर्षनियम आयुपा सह वध्यमानानामवसातव्यो न शेषकालं, कासांचित् प्रकृतीनां ध्रुवन्धिनीत्वान्तपदे दिपरासा परावर्तमानत्वात् प्रभूतकालमपि बन्धसम्भवेनाकर्षानियमात् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रजापना- युवा टीकायां व्युत्क्रान्त्याख्यं षष्ठं पदं समाप्तम् । भेदाः अ॥२१८॥ वसू.१४५ प्रत सूत्रांक [१४५] यावृत्ती. दीप AAAAAEE अनुक्रम इति श्रीप्रज्ञापनासूत्रे श्रीमन्मलयगिरिसरिवर्यविरचितं व्युत्कान्त्याख्यं षष्ठं पदं समासम्॥ ॥२१॥ [३५२] अत्र पद (०६) "व्युत्क्रान्ति/ (उपपात-उद्वर्तना)" परिसमाप्तम् ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [७], ------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], --------------- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अथ सप्तममुच्छ्वासाख्यं पदं । प्रत सूत्रांक [१४६]] दीप व्याख्यातं षष्ठं पदं, इदानीं सप्तममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे सत्त्वानामुपपातविरहादयोऽभिहिताः, अस्मिन् पुनर्नारकादिभावनोत्पन्नानां प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तानां यथासंभवमुच्छासनिःश्वासक्रियाविर-5 काहाविरहकालपरिमाणमभिधेयं, इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्पेदमादिसूत्रम् नेरइया णं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा?, मोयमा! सततं संतयामेव आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ।। असुरकुमारा गंभंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंसि वा नीससंति वा ,गोयमा! जहणं सत्तण्डं थोवाणं उकोसेणं सातिरेगस्स पक्खस्स आणमंति या जाव नीससंति ।। नागकुमारा ण भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा?, गोयमा! जहन्नेणं सत्तहं थोवाणं उकोसेणं मुहुनपुहुत्तस्स, एवं जाव थणियकुमाराणं ।। पुढविकाइया णं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा, मोयमा ! वेमायाए आणमंति वा जाव नीससंति वा ॥ एवं जाव मणूसा ॥ वाणमंतरा जहा नागकुमारा ॥ जोइसिया णं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा,गोयमा ! जहनेणं मुहुत्त हुत्तस्स उकोसेणवि मुहुत्त हुत्तस्स जाव नीससंति वा । माणिया णं भंते! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ?, गोयमा! जहणं मुहुत्पुहुचस्स उकोसेणं अनुक्रम [३५३] अथ पद (०७) "उच्छवास" आरभ्यते ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [७], ------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], --------------- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: याःमल प्रत सूत्रांक [१४६] ७उच्छासपदे उघवासविरहः सू. १४६ दीप प्रज्ञापना-II सेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, सोहम्मदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्नेणं मुहुच हुत्तस्स उकोसेणं दोण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, ईसाणगदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा यवृत्ती. जाब नीससंति या ?, गोयमा! जहन्नेणं सातिरेगस्स मुहुत्त हुत्तस्स उकोसेणं सातिरेगाणं दोहं पक्खाणं जाव नीससंति वा, सर्णकुमारदेवाण भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंतिवा?, गोयमा! जहणं दोहं पक्खाणं उक्कोसेणं सत्तण्हं ॥२१९॥ पक्खाणं जाव नीससंति वा, माहिंदगदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स आणगंति वा जाब नीससंति वा,गोयमा ! जहनेणं साइरेगं दोहं पक्खाणं उकोसेणं साइरेगं सचण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, बंभलोगदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा?, गोयमा जहन्त्रेण सत्तव्हं पक्खाणं उकोसेणं दसहं पक्खाणं जाव नीससंति वा, लंतगदेवाणं भंते! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंतिवारी,गोयमा! जहनेणं दसहं पक्खाणं उकोसेणं चउदसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, महासुकदेवाणं भंते केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ?, गोयमा! जहनेणं चउदसण्हं पक्खाणं उकोसेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं जाव नीससंतिवा, सहस्सारगदेवाणं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाप नीससंति वार, गोयमा! जहन्नेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं उक्कोसेणं अट्ठारसहं पक्खाणं जाव नीससंति वा, आणयदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा १ गोयमा ! जहन्त्रेणं अट्ठारसह पक्खाणं उक्कोसेणं एगणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, पाणयदवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा?, गोयमा ! जहन्नेणं एग्रणवीसाए पक्खाणं उकोसेणं पीसाए.पक्खाणं जाव नीससंति वा, आरणदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्नेणं वीसाए पक्खाणं उको अनुक्रम [३५३] Recene ॥२१९॥ ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [३५३] “प्रज्ञापना” उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४६ ] उद्देशक: [-] दारं [-], ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ১ ১৬১ ১৬99999১৬১৩ ১৩% - से एगवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, अच्चुयदेवा णं भंते! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा?, गोयमा ! जहनेणं एगवीसाए पक्खाणं उकोसेणं बावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । हिट्टिमहिट्टिमगेविज्जगदेवा णं भंते! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहमेणं बावीसाए पक्खाणं उकोसेणं तेवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, हिद्विममज्झिमगेचिज्जगदेवा णं भंते! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहत्रेणं तेवीसाए पक्खाणं उकोसेणं चडवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, हिद्विमउवरिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा जहन्नेणं चउवीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं पणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, मज्झिमहिट्टिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते! के वइकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहत्रेणं पणवीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं छब्बीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । मज्झिममज्झिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहणं छत्तीसाए पक्खाणं उफोसेणं सत्तावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, मज्झिमउवरिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते! केवइकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहनेणं सत्तावीसाए पक्खाणं उकोसेणं अट्ठावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उबरिमहेट्टिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते! केवइकालस्स जाव नीससंति वा?, गोयमा ! जभेणं अट्ठावीसाए पक्खाणं उकोसेणं एगूणतीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उबरिममज्झिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइकालस्स जाब नीससंति वा १, गोयमा ! जहनेणं एगुणतीसाए पक्खाणं उकोसेणं तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उचरिमउवरिमगेविज्जगाणं देवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहत्रेणं तीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं For Park Use Only ~ 443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [७], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६] रहः सू. दीप एकतीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । विजयविजयंतजयंतअपराजितविमाणेसु णं देवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाकर प्रज्ञापना नीससंति वा, गोयमा! जहन्नेणं एकतीसाए पक्खाणं उकोसेणं तेतीसाए पक्खाणं जाव नीससंकि वा, सबट्ठमसिद्धयाः मलयवृत्ती. देवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा! अजहन्नमणुकोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाब नीससंक्ति च्छासविKARI वा ॥ (सूत्रं १४६) इतिः पन्नवणाए भगवईए सत्तमं ऊसासपर्य समत्तं ७॥ ॥२२०॥ नेरइया णं भंते !' इत्यादि, नैरयिका णमिति वाक्यालयारे भदन्त ! 'केवाइकालस्स' इति प्राकृतशैल्या NH १४६ पञ्चम्यर्थे वा तृतीयार्थे वा पष्ठी ततोऽयमर्थः-कियतः कालात् कियता वा कालेन 'आणमंति' आनम्ति 'अन्न प्राणने' इति धातुपाठात् मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्रापि यथायोगं परिभावनीयं, 'पाणमंति वा प्राणन्ति वा-INI शब्दी समुपयार्थों, एतदेव पदद्वयं क्रमेणार्थतः स्पष्टयति-'ऊससंति वा नीससंति वा' यदेवोक्तमानन्ति तदेवोक्तमुच्छुसन्ति तथा यदेवोक्तं प्राणन्ति तदेवोक्तं निःश्वसन्ति, अथवा आनमन्ति प्राणमन्ति इति ‘णम् प्रदत्वे' इत्यस्य द्रष्टव्यं, धातूनामनेकार्थतया श्वसनार्थत्वस्याप्यविरोधः, अपरे आचक्षते-आनन्ति प्राणन्तीत्यनेनान्तः स्फुरन्ती उम्झासनिःश्वासक्रिया परिगृह्यते उच्सन्ति निःश्वसन्तीत्यनेन तु वाया, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-गीतम! K ॥२२॥ सततमविरहितं, अतिदुःखिता हि नरयिकाः, दुःखितानां च निरन्तरमुच्छासनिःश्वासी, तथा लोके दर्शनात् , तच्च सततं प्रायोवृत्त्याऽपि स्थादत आह-संतयामेव' सततमेव-अनवरतमेव, नेकोऽपि समयस्तद्विरहकालः, दीर्घत्वं अनुक्रम [३५३] ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [७], ------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], --------------- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६]] दीप प्राकृतस्वात् , अममम्तीलादेः पुनरुच्चारणं शिष्यवचने आदरोपदर्शनार्थ, गुरुभिराद्रियमाणवाचना हि शिष्याः सन्तोपवनसो भवन्ति, तथा च सति पौनःपुन्येन प्रश्नश्रवणार्थनिर्णयादिषु घटन्ते लोके चाऽऽदेयवचना भवन्ति एवं प्रभूतभव्योपकारस्तीर्थाभिवृद्धिश्च । असुरकुमारसूत्रे 'उकोसेणं सातिरेमस्स पक्खस्स इति, इह देवेषु यस्य यावन्ति सागरोपमाणि स्थितिस्तस्य तावत्यक्षप्रमाण उच्छ्रासनिःश्वासक्रियाविरहकालः, असुरकुमासणां चोत्कृष्टा स्वितिरेक सातिरकं सागरोषमं 'चमरबलि सारमहिय'मिति वचनात् ततः 'सातिरेगस्स पक्खस्स' इत्युक्तं, सातिरेकात्पक्षासु च्वसन्तीत्यर्थः, पृथिवीकायिकसूत्रे 'मायाए' इति विषमा मात्रा विमात्रा तया, किमुक्तं भवति ?-अनियतविरहPR कालप्रमाणा तेषामुच्छासनिःबासक्रिया, तथा देवेषु यो यथा महायुः स तथा सुखी, सुखितानां च यथोत्तरं महा नुच्छ्वासनिःश्वासक्रियाविरहकालः, दुःखरूपत्वादुच्छासनिःश्वासक्रियायाः, ततो यथा यथाऽऽयुपः सागरोपमवृद्धि-18 स्था तथोष्ठासनिश्वासक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां सप्त-18 मयुष्यासाख्यं पदं समासं ॥ IVIUMVVMVYINIZAWIENTIZAN NUVY ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविरचितवृत्तियुतं सप्तममुछ्वासपदं समाप्तम् ।। PNUNAZANANNVARAUAKAUNATNZUNAWANAMUZI अनुक्रम [३५३] - | अत्र पद (०७) "उच्छवास" परिसमाप्तम् ~ 445~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४७-१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७ प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. e tenese -१४८] ॥२२॥ दीप अनुक्रम [३५४-३५५] अथ अष्टमं संज्ञाख्यं पदं प्रारभ्यते । 18 संज्ञापदं दश संज्ञाः तदेवं व्याख्यातं सप्तमं पदं, इदानीमष्टममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे सत्त्वानामुच्छासपर्या-1 सू. १४७ पदण्डकभेप्तिनामकर्मयोगाश्रया क्रिया विरहाविरहकालप्रमाणेनोक्ता, सम्प्रति वेदनीयमोहनीयोदयाश्रयान् ज्ञानावरणदर्शना- नावरणक्षयोपशमाश्रयांश्चात्मपरिणामविशेषानधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह रसंज्ञादिकइ णं भंते ! सन्नाओ पन्नताओ?, गोयमा ! दस सबाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आहारसन्ना भयसन्ना मेहुणसन्ना परिग्ग- मतामल्प. हसना कोहसन्ना माणसमा मायासन्ना लोहसन्ना लोयसन्ना ओघसना | नेरइयाणं भंते ! कति सनाओ पन्नत्ताओ', बहुता सू. गोयमा ! दस सन्नाओ पनत्ताओ, जहा-आहारसन्ना जाब ओघसना । असुरकुमाराणं भंते ! कइ सनाओ पनत्ताओ', गोयमा ! दस सन्नाओ पत्रचाओ, जहा आहारसना जाव ओघसना, एवं जाव थणियकुमाराणं । एवं पुढविकाइयाणं जाव माणियावसाणाणं नेतई (सूत्र १४७)। नेरइयाण भंते ! किं आहारसन्नोव उत्ताभयसनोवउत्ता मेहुणसभोवउत्ता परिग्गहसनोवउत्ता?, गोयमा ओसर्व कारणं पहुच भयसन्नोवउत्ता, संतइभावं पडुच्च आहारसभोवउत्तावि जाव परिग्गहसनोवउत्तादि । ॥२२॥ एएसिणं भंते ! नेरइयाणं आहारसनोवउत्ताणं भयसबोवउचाणं मेहुणसन्नोवउत्ताणं परिग्गहसमोवउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सवत्थोवा नेरइया मेहुणसनोवउचा आहारसबो ectsersese अथ पद (०८) "संज्ञा" आरभ्यते संज्ञाया: दश भेदस्य वर्णनं ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४७-१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७ -१४८] दीप अनुक्रम [३५४-३५५] LAMPA वउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता संखिजगुणा भयसन्नोवउत्ता संखिजगुणा । तिरिक्खजोणियाणं भंते ! किं आहारसन्नोवउता जाव परिग्गहसनोवउत्ता?, गोयमा ! ओसन्न कारणं पहुच आहारसभोवउत्ता संतदभावं पडुच आहारसनोवउचावि जाव परिग्गहसनोवउत्तावि, एएसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं आहारसबोवउत्ताणं जाव परिग्गहसन्नोवउत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा चा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया चा?, गोयमा ! सवत्थोषा तिरिक्खजोणिया परिग्गहसनोवउत्ता मेहुणसनोवउत्ता संखिज्जगुणा भयसन्नोवउत्ता संखिजगुणा आहारसन्नोवउत्ता संखिजगुणा ।। मणुस्सा णं भंते ! किं आहारसन्नोवउत्ता जाव परिग्गहसनोवउत्ता, गोयमा ! ओसन्न कारणं पडुच्च मेहुणसबोवउत्ता संततिभावं पडुच्च आहारसन्नोव उत्तावि जाव परिग्गहसनोवउत्तावि, एएसिणं भंते ! मणुस्साणं आहारसन्नोवउत्ताणं जाव परिग्गहसन्नोवउत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, मोयमा ! सवत्थोवा मणूसा भयसबोवउत्ता आहारसनोवउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता संखिजगुणा मेहुणसन्नोवउत्ता संखिजगुणा ॥ देवाणं भंते ! किं आहारसन्नोवउत्ता जाव परिग्गहसनोवउत्ता, गोयमा ! ओसन्नं कारणं पहुच्च परिग्गहसनोवउत्ता संततिभावं पडुच्च आहारसबोवउत्तावि जाव परिग्गहसन्नोवउचावि, एएसिणं भंते ! देवाणं आहारसन्नोवउचाणं जाव परिग्गहसन्नोवउताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सवत्थोवा देवा आहारसमोवउत्ता भयसनोवउत्ता संखिजगुणा मेहुणसनोवउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता संखेजगुणा (मूत्रं १४८) । इति पत्रवणाए भगवईए अट्टमं सन्नापदं समत्तं । seksee ~ 447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४७ -१४८] दीप अनुक्रम [३५४ -३५५] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥२२२॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - पदं [८], उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [१४७-१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 'कर णं भंते ! साओ पन्नत्ताओ' इति कति कियत्सङ्ख्या णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! सञ्ज्ञाः प्रज्ञताः, तत्र संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः यदिवा सज्ज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति सज्ञा उभयत्रापि वेदनीयमोहोदयाश्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्राऽऽहारादिप्राप्तिक्रिया, सा चोपाधिभेदाद्दशविधा, तथा चाहगौतम । दशविधाः प्रज्ञताः, तदेव दशविधत्वं नामग्राहमाह - ' आहारसन्ना' इत्यादि, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयात् या कवलायाहारार्थं तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया साऽऽहारसंज्ञा, तस्या आभोगात्मिकत्वात्, यदिवा संज्ञायते जीवोऽनयेति, एवं सर्वत्रापि भावना कार्या, तथा भयमोहनीयोदयात् भयोद्धान्तस्य दृष्टिवदनविकाररोमाञ्चोद्भेदादिक्रिया भयसंज्ञा, पुंवेदोदयान्मैथुनाय ख्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपनप्रभृतिलक्षणक्रिया मैथुनसज्ञा, तथा लोभोदयात् प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसन्ज्ञा, तथा क्रोधवेदनीयोदयात् तदावेशगर्भा पुरुषमुखबदनदन्तच्छदस्फुरणचेष्टा क्रोधसज्ञा, तथा मानोदयादहङ्कारात्मिका उत्सेकादिपरिणतिर्मानसञ्ज्ञा, मायावेदनीयेनाशुभसंक्लेशादनृतसंभाषणादिक्रिया मायासंज्ञा, तथा लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभसज्ज्ञा, तथा मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमनात् शब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया ओषसंज्ञा, | तथा तद्विशेषावबोधक्रिया लोकसञ्ज्ञा, एवं चेदमापतितं - दर्शनोपयोग ओघसज्ञा ज्ञानोपयोगो लोकसन्जा, अन्ये त्वभिदधति- सामान्यप्रवृत्तिर्यथा वल्या कृत्यारोहणमोघसज्ञा लोकस्य हेया प्रवृत्तिर्लोकसञ्ज्ञा, तदेषमेताः सुखप्र For Parts Only ~448~ ८संज्ञापदं दश संज्ञाः सू. १४७ दण्डकभे दिन आहारसंज्ञादि मतामस्य बहुता सू. १४८ wor Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [८], ----------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४७-१४८] (१५) प्रत सूत्रांक [१४७ -१४८] तिपत्तये स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य व्याख्याताः, एकेन्द्रियाणां त्वेता अव्यक्तरूपा अवगन्तव्याः, नैरयिकसूत्रे 'ओसन्नकारणं पडुप भयसन्नोवउत्ता' इति, तत्रोत्सन्नशब्देन बाहुल्यमुच्यते कारणशब्देन च बाखं कारणं, ततोऽयमर्थःबायकारणमाश्रित्य नैरयिका बाहुल्येन भयसन्जोपयुक्ताः, तथाहि-सन्ति तेषां सर्वतः प्रभूतानि परमाधार्मिकाय:कवल्लीशक्तिकुन्तादीनि भयोत्पादकादीनि, 'संतइभावं पडुच' इति इहानन्तरोऽनुभवभावः सन्ततिभाव उच्यते, तत। आन्तरमनुभवभावमपेक्ष्य नैरयिका आहारसजोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अपि । अस्पबदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः, नैरयिका हि चक्षुर्निमीलनमात्रमपि न मुखिनः केवलमनवरतमतिप्रबलदुःखाग्निना संतप्यमानशरीराः, उक्तं च-"अच्छिनिमीलणमेत्तं नथि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । नरए नेरइयाणं अहोनिसंपञ्चमाणाणं ॥१॥" ततो मैथुनेच्छा नैतेषां भवतीति, यदि परं क्वचित्कदाचित्केषांचित् भवति साऽपि च स्तोककाला इति प्रच्छासमये स्तोका मैथुनसजोपयुक्ताः, तेभ्यः सोयगुणा आहारसम्जोपयुक्ताः, दु:खितानामपि प्रभूतानां| प्रभूतकालं चाहारेच्छाया भावतः पृच्छासमये अतिप्रभूतानामाहारसज्ञोपयुक्तानां संभवात् , तेभ्यः सङ्ख्येयगुणाः परिग्रहसम्जोपयुक्ताः, आहारेच्छा हि देहायमेव भवति परिग्रहेच्छा तु देहे प्रहरणादिपु च, प्रभूततरकालावस्थायिनी च परिग्रहेच्छा, ततः पृच्छासमयेऽतिप्रभूततराः परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अवाप्यन्ते इति भवन्ति पूर्वेभ्यः सहयेयगुणाः, १ अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखं दुःखमेव प्रतिबद्धम् । नरके नैरयिकाणामहर्निशं पच्यमानानाम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [३५४-३५५] ~449~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४७-१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७ प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. -१४८] ॥२२३॥ दीप अनुक्रम [३५४-३५५] तेभ्यो भयसझोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, नरकेषु हि नैरयिकाणां सर्वतो भयमामरणान्तभावि ततः पृच्छासमयेऽति- संज्ञापदे प्रभूततमा भयसनोपयुक्ताः प्राप्यन्ते इति सङ्घयेयगुणाः ॥ तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिया अपि बाझं कारणं प्रतीस वाहुल्येनाहारसज्ञोपयुक्का भवन्ति न शेषसज्ञोपयुक्ताः, तथा प्रत्यक्षत एवोपलब्धेः, आन्तरमनुभवभावमाश्रित्याहारसजो- यासंज्ञा पयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अपि, अल्पबदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः परिग्रहसज्ञोपयुक्ताः, परिग्रहसजायाः दण्डका स्तोककालत्वेन पृच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात् , तेभ्यो मैथुनसज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः मैथुनसज्ञो | अल्पबहुपयोगस्थ प्रभूततरकालत्वात् , तेभ्योऽपि भयसञोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, सजातीयात्परजातीयाच तेषां भयसंभवतो १४९ भयोपयोगस्य च प्रभूततमकालत्वात् पृच्छासमये भयसम्ञोपयुक्तानामतिप्रभूततराणामवाप्यमानत्वात् , तेभ्यः सङ्ख्ये-1|| गुणाः आहारसझोपयुक्ताः,प्रायः सततं सर्वेषामाहार(संज्ञा)संभवात्। मनुष्या बार्य कारणमधिकृत्य बाहुल्येन मैथुनसज्ञोपयुक्ताः स्तोका शेषसंज्ञोपयुक्ताः, सन्ततिभावमान्तरानुभवभावरूपं प्रतीत्याहारसज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अपि, अल्पबदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका भयसञोपयुक्ताः, स्तोकान स्तोककालं च भयसंज्ञासंभवात् , तेभ्य आहारसज्ञोपयुक्ताः सोयगुणाः, आहारसझोपयोगस्य प्रभूततरकालभावात् , अत एव हेतोः तेभ्यः सजबयगुणाः परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः, तेभ्यो मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्येवगुणाः, मैथुनसंज्ञाया अतिप्रभूततरकालं यावद् भाष-18|| तः पृच्छासमये तेषामतिप्रभूततराणामवाप्यमानत्वात् ॥ तथा बाह्यं कारणमधिकृत्य बाहुल्येन देवाः परिग्रहसम्मो ~ 450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], ------------ उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४७-१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७ |पयुक्ताः, मणिकनकरत्नादीनां परिग्रहसंज्ञोपयोगहेतूनां तेषा सदा सन्निहितत्वात् , संततिभावं यथोक्तरूपं प्रतीत्य । पुनराहारसंज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्ता अपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका आहारसंज्ञोषयुक्ताः, आहारेच्छाविरहकालस्यातिप्रभूततया आहारसंज्ञोपयोगकालस्य चातिस्तोकतया तेषा पृच्छासमये सर्वस्तोकानां तेषामवाप्यमानत्वात् , ततो भयसंज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्यगुणाः, भयसंज्ञायाः प्रभूतानां प्रभूतकालं च भावात् , तेभ्योऽपि मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः सञ्जयेयगुणाः, तेभ्यः परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, जीवापेक्षया बहवो वक्तव्यास्ते च तथैव भाविता इति । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामष्टमं संज्ञाख्यं पदं समाप्त । राम -१४८] दीप अनुक्रम [३५४-३५५] ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतमष्टमं संज्ञापदं समाप्तम् ।। | अत्र पद (०८) "संज्ञा" परिसमाप्तम् ~ 451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [९], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४९-१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९ प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. -१५०] ॥२२४॥ | सू.१५० दीप अनुक्रम [३५६-३५७] अधुना नवमपदं प्रारभ्यते । |९योनिप दे शीतातदेवं व्याख्यातमष्टमं पदं, अधुना नवममारभ्यते, तस्य चायमभिसंवन्धः-दहानन्तरपदे सत्त्वाना संज्ञापरि-बायोनयः णामा उक्ताः, इह तु तेषामेव योनयः प्रतिपाद्यन्ते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कतिविहा णं भंते ! जोणी पं०, गोयमा ! तिविहा जोणी पं०, ०-सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी । (मूत्रं १४९)। नेरइयाणं भंते ! किं सिता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा! सीतावि जोणी उसिणावि जोणी णो सीतोसिणा जोणी । असुरकुमाराणं भंते ! किं सिता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा! नो सीता जोणी नो उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, एवं जाव थणियकुमाराणं | पुढविकाइयाणं भंते ! किं सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा ! सितावि जोणी उसिणावि जोणी सीतोसिणावि जोणी, एवं आउकाउवणस्सइबेईदियतेइंदियचउरिदियाणवि पत्तेयं भाणियत्वं । तेउकाइयाणं णो सीता उसिणा णो सीउसिणा ।। पंचिं | ॥२२४॥ दियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा! सीयावि जोणी उसिणावि जोणी सीतोसिणावि जोणी।। समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणवि एवं चेव ।। गम्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाण भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा! णो सीता जोणी नो उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी ॥ रास्टरसरee. Coceaeoe JIRERucatinintentiational wwwjaancinrary.org अथ पद (०९) "योनि" आरभ्यते विविध जीवानाम् योनि (उत्पत्तिस्थानं) प्ररुप्यते योनि एवं तस्या शीत-उष्ण-शीतोष्ण भेदाः ~ 452 ~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [९], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४९-१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ace सूत्रांक [१४९ -१५०] दीप अनुक्रम [३५६-३५७] मणुस्साणं भंते ! किं सिता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा ! सीयावि जोणी उसिणावि जोणी सीतोमिणावि जोणी ।। समुच्छिममणुस्सागं भंते ! किं सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा! तिविहा जोणी ॥ गम्भवतियमणुस्साणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा ! णो सीता०णो उसिणा० सीतोसिणा।। वाणमंतरदेवाणं भंते ! किं सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा! णो सीताणो उसिणा, सीतोसिणा जोणी ।। जोइसियवेमाणियाणवि एवं चेव । एएसि णं भंते ! सीतजोणियाणं उसिणजोणियाणं सीतोसिणजोणियाणं अजोणियाण य कयरेशहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवा जीवा सीतोसिणजोणिया उसिणजोणिया असंखेजगुणा अजोणिया अपंतगुणा सीतजोणिया अणंतगुणा ॥ (मूत्रं १५०)। 'कतिविहा णं भंते ! जोणी' इत्यादि, कतिविधा-कतिप्रकारा णमिति पूर्ववत् भदन्त ! योनिः प्रज्ञप्ता, अथ योनिरिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, “यु मिश्रणे" युवन्ति तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकादिशरीरप्रायोग्य-18 पुद्गलस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनिः--उत्पत्तिस्थानं, औणादिको निप्रत्ययः, भगवानाह-गौतम!18 त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-शीता उष्णा शीतोष्णा, तत्र शीतस्पर्शपरिणामा शीता उष्णस्पर्शपरिणामा उष्णा शीतोष्णरूपोभयस्पर्शपरिणामा शीतोष्णा, तत्र नैरयिकाणां द्विविधा योनि:-शीता उष्णा च, न तृतीया शीतोष्णा, कस्यां पृथिव्यां का योनिरिति चेत् , उच्यते, रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां च यानि नैरयिकाणामुपपा reseeeesec ~ 453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [९], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४९-१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९ -१५०] दीप अनुक्रम [३५६-३५७] प्रज्ञापना-19 तक्षेत्राणि तानि सर्वाण्यपि शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि, उपपातक्षेत्रव्यतिरेकेण चान्यत्सर्वमपि तिसृष्वपि पृथिवी-18 याः मल- खूष्णस्पर्शपरिणामपरिणतं तेन तत्रत्या नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदनां वेदयन्ते, पङ्कप्रभायां बहुन्युपपातक्षेत्राणि योनिपदे यावृत्ती. शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि स्तोकान्युष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकावासेषु शीत शीताद्या योनयः स्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि तेषु तयतिरेकेणान्यत्सर्पमुष्णस्पर्शपरिणाम येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकाबासेषु ॥२२५|| उष्णस्पर्शपरिणामानि उपपातक्षेत्राणि तेषु तव्यतिरेकेणान्यत्सर्व शीतस्पर्शपरिणामं तेन तत्रत्या बहवो नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदनां वेदयन्ते स्तोका उष्णयोनिकाः शीतवेदनामिति । धूमप्रभायां बहून्युपपातक्षेत्राणि उष्ण-20 स्पर्शपरिणामपरिणतानि स्तोकानि शीतस्पर्शपरिणामानि, येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकावासेषु चोष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि उपपातक्षेत्राणि तेषु तयतिरेकेणान्यत्सर्वं शीतपरिणाम, येषु च शीतस्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि तेष्वन्यदुष्णस्पर्शपरिणाम, तेन तत्रत्या बहवो नारका उष्णयोनिकाः शीतवेदनां वेदयन्ते स्तोकाः शीतयोनिका उष्णवेदनामिति । तमःप्रभायां तमस्तमःप्रभायां चोपपातक्षेत्राणि सर्वाण्यप्युष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि, तव्यतिरे-15 केण चान्यत्सर्वं तत्र शीतस्पर्शपरिणाम, तेन तत्रत्या नारका उष्णयोनिकाः शीतवेदनां वेदयितार इति । भवनवा- २२५ सिनां गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां चोपपातक्षेत्राणि || शीतोष्णरूपोभयस्पर्शपरिणतानि तेन तेषां योनिरुभयखभावा न शीता नाप्युष्णा । एकेन्द्रियाणामकायिकर्जानां For P OW ~ 454~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४९ -१५०] दीप अनुक्रम [ ३५६ -३५७] पदं [९], दारं [-] मूलं [१४९-१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - उद्देशक: [-], द्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूच्छिम तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूच्छिम मनुष्याणां चोपपातस्थानानि शीतस्पर्शान्युष्णस्पर्शान्युभयस्पर्शान्यपि भवन्तीति तेषां त्रिविधा योनिः । तेजःकायिका उष्णयोनिकाः ( तथा अप्कायिकाः शीतयोनिकाः ) तथा प्रत्यक्षत उपलब्धेः । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः शीतोष्णयोनयः शीतोष्णरूपो भययोनिकाः, भवनवासिगर्भजतिर्यक्पञ्चेन्द्रियगर्भजमनुष्यष्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामेवोभययोनिकत्वात्, तेभ्योऽसत्येयगुणा उष्णयोनिकाः, सर्वेषां सूक्ष्मबादरभेदभिन्नानां तेजः कायिकानां प्रभूततराणां नैरमिकाणां कतिपयानां पृथिव्यन्यायुप्रत्येक वनस्पतीनां चोष्णयोनिकत्वात्, अयोनिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् तेभ्यः शीतयोनिका अनन्तगुणाः, अनन्तकाविकानां सर्वेषामपि शीतयोनिकत्वात् तेषां च सिद्धेभ्योऽपि अनन्तगुणत्वात् । भूयः प्रकारान्तरेण योनीः प्रति| पिपादयिषुराह Education International कतिविहाणं भंते! जोणी पं० १. गोयमा ! तिविहा जोणी ५० सं०- सचित्ता अचित्ता मीसिया । नेरइयाणं भंते ! किं सचिता जोणी अचित्ता जोणी मीसिया जोणी १, गोयमा ! नो सचित्ता जोणी अचित्ता जोणी नो मीसिया जोणी । असुरकुमाराणं भंते! किं सविता जोणी अचित्ता जोणी मीसिया जोणी १, गोषमा ! नो सचित्ता जोणी अचिता जोणी नो मीसिया जोणी, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढवीकाइआणं भंते! किं सचित्ता जोणी अचित्ता जोणी मीसिया जोणी ?, गोमा ! सविता जोणी अचित्ता जोणी मीसियावि जोणी, एवं जाब चउरिंदियाणं ॥ संमुच्छिमपंचेंदिय तिरिक्ख योनि एवं तस्या सचित्त-अचित्त-मिश्र भेदा: For Park Use Only ~455~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [३५८] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२२६॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [९], उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य एवं चैव । गम्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं गन्भवदंतियमणुस्साण य नो सचित्ता नो अचित्ता मीसिया जोणी । वाणमंतरजोइसियवेमा णियाणं जहा असुरकुमाराणं । एतेसि णं भंते ! जीवाणं सचित्तजोगीणं अचित्तजोणीणं मीसजोणीणं अजोणीण य कयरे २ हिंतो अ० ब० तु० वि० १, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा मीसजोगिया अचित्तजोणिया असंखेज्जगुणा, अजोणिया अनंतगुणा, सचित्तजोणिया अनंतगुणा । ( सूत्रं १५१ ) 1 'कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता' इत्यादि, सचित्ता जीवप्रदशसंवद्धा, अचित्ता सर्वथा जीवविप्रमुक्ता, मिश्रा | जीवविप्रमुक्ताविप्रमुक्तख रूपा । तत्र नैरयिकाणां यदुपपातक्षेत्रं तन्न केनचिज्जीवेन परिगृहीतमिति तेषामचित्ता योनिः, यद्यपि सूक्ष्मैकेन्द्रियाः सकललोकव्यापिनस्तथाऽपि न तत्प्रदेशैरुपपातस्थानपुद्गला अन्योऽन्यानुगमसंबद्धा इत्यचित्चैव तेषां योनिः । एवमसुरकुमारादीनां भवनपतीनां व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां चाचित्ता योनिर्भावनीया । पृथिवीकायिकादीनां संमूहिम मनुष्यपर्यन्तानामुपपातक्षेत्रं जीवैः परिगृहीतमपरिगृहीतमुभयखभावं च संभवतीति त्रिवि | धाऽपि योनिः, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां (च) यत्रोत्पत्तिस्तत्राचित्ता अपि शुक्रशोणितादिपुद्गलाः सन्तीति मिश्रा तेषां योनिः । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका जीवा मिश्रयोजिकाः, गर्भव्युत्क्रा|न्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव मिश्रयोनिकत्वात्, तेभ्योऽचित्तयोनिका असङ्ख्येयगुणाः, नैरयिकदेवानां कतिपयानां च प्रत्येकं पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येक वनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूर्च्छिम तिर्यक् पञ्चेन्द्रियसंमूच्छिममनुष्याणामचि Eucation International For Parts Only ~456~ ९ योनिपदे सचित्ताया योनयः सू. १५१ ॥२२६॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५१] meरररseelesesesesesea दीप चयोनिकत्वात् , तेभ्योऽप्ययोनिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यः सचित्तयोनिका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानां सचित्तयोनिकत्वात् तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । भूयोऽपि प्रकारान्तरेण योनीः प्रतिपादयितुकाम आहकइविहा गं भंते ! जोणी पं०१, गोयमा! तिविहा जोणी प०,०-संबुडा जोणी वियडा जोणी संखुडवियडा जोणी । नेरइयाणं भंते ! कि संवुडा जोणी वियडा जोणी संबुडवियडा जोणी, गोयमा! संबुडजोणी, नो वियडजोणी नो संवुडवियडजोणी, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । बेइंदियाणं पुच्छा , गोयमा! नो संयुडजोणी वियडजोणी नो संवुडवियडजोणी । एवं जाव चउरिदियाणं । समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं समुच्छिममणुस्साण य एवं चेय । गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिय गन्भवतियमणुस्साण य नो संबुडा जोणी नो वियडा जोणी संवुडवियडा जोणी । चाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । एतेसिणं भंते ! जीवाणं संवुडजोणियाणं वियडजोणियाणं संचुडवियडजोणियाणं अजोणियाण य कयरे २ हिंतो अ० ब० तु. वि०१, गोयमा! सवत्थोवा जीवा संबुडवियडजोणिया वियडजोणिया असंखिजगुणा अजोणिया अणंतगुणा संवुडजोणिया अणंतगुणा ।। (सूत्र १५२) 'काविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता' इत्यादि, तत्र नारकाणां संवृता योनिः, नरकनिष्कुटानां नारकोत्पत्ति| स्थानानां संवृतगवाक्षकल्पत्वात् , तत्र च जाताः सन्तो नैरयिकाः प्रबर्द्धमानमूतेयस्तेभ्यः पतन्ति, शीतेभ्य उष्णेषु अनुक्रम [३५८] योनि एवं तस्या संवृत-विवृत-संवृतविवृत भेदा: ~ 457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५२] दीप अनुक्रम [३५९] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२२७॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [९], उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [१५२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः उष्णेभ्यः शीतेष्विति, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामपि संवृता योनिः तेषां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिते उत्पादात् "देवसयणिज्जंसि देवदूतरिए अंगुलासंखेज्जइ भागमेत्ताए सरीरोगाहणाए उववज्जइ" इति वचनात् एकेन्द्रिया अपि संवृतयोनिकाः, तेषामपि योगेः स्पष्टमनुपलक्ष्यमानत्वात्, द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रियपर्यन्तानां संमूच्छिम तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूच्छिममनुष्याणां च विष्टता योनिः तेषामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयादेः स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात्, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां च संवृतविता योनिः गर्भस्य संवृतविवृतरूपत्वात्, गर्भो ह्यन्तः खरूपतो नोपलभ्यते बहिस्तृदरवृज्यादिनोपलक्ष्यते इति । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः संवृतविवृतयो निकाः, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव संवृतविवृतयोनिकत्वात्, तेभ्यो विद्युतयोनिका असंख्येयगुणाः, द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रियपर्यवसानानां संमूर्च्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूर्च्छिममनुष्याणां च विवृतयोनिकत्वात्, तेभ्योऽयोनिका अनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तत्वात्, तेभ्यः संवृत्तयोनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां संतयोनिकत्वात् तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ॥ सम्प्रति मनुष्ययोनिविशेषप्रतिपादनार्थमाह कइविहा गं भंते ! जोणी पं० १, गोयमा ! तिविहा जोणी पं० तं कुम्मुष्णया संखावत्ता वंसीपत्ता, कुम्मुण्णया णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं, कुम्मुण्णयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गन्भे वकमंति तं० – अरहंता चकवट्टी बलदेवा वासु योनि एवं तस्या कुर्मोन्नत्त- शङ्खावत - वंसीपत्र भेदाः For Panalyse On ~458~ ९ योनिपदे संवृताया योनयः सू. १५२ ॥२२७॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५३] दीप अनुक्रम [ ३६० ] पदं [९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [१५३] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः देवा । संखायचा णं जोणी इत्थीरयणस्स, संखावतार जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला व बकमंति विकर्मति चयंति उबचयंति, नो चेवणं णिष्फज्र्ज्जति । वंसीपचा णं जोणी पिहुजणस्स, वसीपत्ताए णं जोगीए पिहुजणे मन्ये वकमंति । (सूत्रं १५३) पद्मवणाए नवमं जोगीवदं समतं ९ ॥ 'कविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता' इत्यादि, कूर्मपृष्टमिवोन्नता कूर्मोन्नता, शङ्खस्येवावर्तो यस्याः सा शावर्ता, संयुक्तवंशीपत्रद्वयाकारत्वाद् वंशीषत्रा, शेषं सुगमं, नवरं शङ्खावर्तायां योनौ बहवो जीवा जीवसंबद्धा पुलाबावक्रमन्ते - आमच्छन्ति व्युत्क्रामन्ति - गर्भतषोत्पद्यन्ते, तथा चीयन्ते – सामान्यतभयमागच्छन्ति, उपचीयन्तेविशेषत उपचयमायान्ति परं न निष्पद्यन्ते, अतिप्रबलकामाग्निपरितापती ध्वंसगमनादिति वृद्धप्रवादः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां योन्याख्यं नवमं पदं समाप्तम् ! Education International अत्र पद (०९) "योनि" परिसमाप्तम् ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं नवमं योनिपदं समाप्तम् ॥ For Parts Only ~459~ ९ योनिपदे कूर्मोनता या योजाः सू. १५३ arra Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [३६१] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२२८॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [१०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Ja Eucation Internation उद्देशक: [ - ], मूलं [ १५४ ] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः दशमं चरमाचरमपदम् । तदेवं व्याख्यातं नवमं पदं, इदानीं दशममारभ्यते, तस्य चायमभिसंबन्धः -- इहानन्तरपदे सत्त्वानां योनयः प्रतिपादिताः, अस्मिंश्च यदुपपातक्षेत्रं रत्नप्रभादि तस्य चरमाचरमविभागप्रदर्शनं क्रियते, तत्र चेदमादिसूत्रम् - कति णं भंते! पुढवीओ पं० १, गोयमा ! अट्ट पुढवीओ पं० तं० रयणप्पभा सकरप्पभा वालुयप्पभा पंकष्पभा धूमप्पभा तमप्यमा तमतमप्पभा ईसीपन्भारा ।। इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं चरमा अचरमा चरमाई अचरमाई चरमंतपदेसा अचरमंतपदेसा ?, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी नो चरमा नो अचरमा नो घरमातिं नो अचरमाति नो चरमंतपदेसा नो अचरमंतपदेसा नियमा चरमं चरमाणि य चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य, एवं जाव अधेसत्तमा पुढवी, सोहम्माती जाव अणुत्तरविमाणाणं, एवं चेव ईसीपन्भारावि, एवं चैव लोगेवि, एवं चैव अलोगेवि । (सूत्रं १५४ ) 'कति णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ' इत्यादि सुगमं, नवरमीपत्प्राग्भारा पञ्चचत्वारिंशयोजनलक्षायामविकम्भप्रमाणा शुद्धस्फटिकसंकाशा सिद्धशिला । 'इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं चरमा अचरमेत्यादि पृच्छा, अथ केयं चरमाचरमपरिभाषा १, उच्यते, चरमं नाम पर्यन्तवर्ति, तच्चरमत्वमापेक्षिकं, अन्यापेक्षया तस्य भावात्, यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमशरीरमिति, अचरमं अप्रान्तं मध्यवर्तीतियावत्, तदपि चापेक्षिकं, तस्य चरमापेक्षया For Parts Only १० चरनाचरमपदे पृथ्वीना चरमाचर ~ 460 ~ मता सू. १५४ ॥२२८|| अथ पद (१०) "चरिम" आरभ्यते | ***अस्य अध्ययनस्य (पदस्य ) 'चरिम' इति मूलसूत्र (गाथा) '८' दत्त नाम. तत्स्थाने वृत्तिकारेण 'चरमाचरम' नाम दत्तवान् | Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [१५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [३६१] भावात् , यथा तथाविधान्यशरीरापेक्षया मध्यशरीरमचरमशरीरं, तदेवं चरमाउचरमेत्येकवचनान्तः प्रश्नः कृतः, सम्प्रति बहुवचनान्तमाह-'चरमा अचरमाई' इति, एतानि चत्वारि प्रश्नसूत्राणि तथाविधैकत्वपरिणामविशिष्टद्रव्यविषयाणि कृतानि, सम्प्रति प्रदेशानधिकृस्य प्रश्नसूत्रद्वयमाह-'चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य इति, चर-N माण्येवाम्तवर्तित्वात् अन्ताक्षरमान्तासात्प्रदेशाब चरमान्तप्रदेशाः, अचरममेव कस्याप्यपेक्षयाऽनन्तवर्तित्वादन्तः अच-N रमान्तस्तत्प्रदेशा अचरमान्सप्रदेशाः। तदेवं पदसु प्रश्भेषु कृतेषु भगवानाहगौतम! सा रत्नप्रभा पृथिवी न घरमा, चरमत्वं सापेक्षिकमित्युक्तं, न चानान्यदपेक्षणीयमस्ति, केवलाया एव तदन्यनिरपेक्षायाः पृष्टत्वात्, नाप्यचरमा, सत एव हेतोः, तथाहि-अचरमत्वमपि आपेक्षिकं, न पात्रान्वदपेक्षणीयमस्तीति, किमुक्तं भवति-यं रत्नप्रभा पृथिवी न पश्चिमा नापि मध्यमा, तदन्यस्यापेक्षणीयस्याविवक्षणादिति, अत एव न चरमाणि, चरमत्वन्यपदेशखेवासंभवतस्तद्विषयवहुवचनासंपवात्, तथाहि-यदा तस्याश्चरमत्वन्यपदेश एवोक्तयुक्तर्नोपपद्यते तदा कथं तद्विपयं बहुवचनमुपपचुबईतीति १, एवमचरमाण्वपि प्रतिषेधनीयानि, प्रागुक्तयुक्तरचरमत्वव्यपदेशस्यासंभवात् , तथा न च चरमान्तप्रदेशा नाप्यचरमान्तप्रदेशाः, उक्तयुक्सा चरमत्वस्याचरमत्वस्य चासंभवतस्तत्प्रदेशकल्पनाया अप्यसंभवात्, विवेवं तर्हि किंखरूपा सा इत्यत माह-नियमाद्' नियमेनाचरमं चरमाणि च, किमुक्तं भवति ?-यदीवमख-11 डरूपा विवक्षितत्वात् (ख) पृच्छयते सरायोक्तभज्ञानामेकेनापि भक्केन व्यपदेशो न भवति, यदा त्वसोव-N ~ 461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [१५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना- या: मल२०१त. ॥२२९॥ सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [३६१] प्रदेशावगाढेत्यनेकावयवविभागात्मिका विवक्ष्यते तदा यथोक्तनिर्वचनविषया भवति, तथाहि-रत्नप्रभा पृथिवी १०चरमा. तावदनेन प्रकारेण व्यवस्थिता, स्थापना चेयं । एवमवस्थिताया अस्या यानि प्रान्तेष्ववस्थितानि खण्डानि प्रत्येक तथाविधविशिष्टैकत्वपरिणामपरिणतानि तानि चरमाणि, यत्पुनर्मध्ये महद्रनप्रभायाः खण्डं तत्तथाविधैकत्वपरिणाम रत्नप्रभावादेकत्येन विवक्षितमित्यचरमं, उभयसमुदायरूपा चेयं, अन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, तदेवमवयवावयविरूपतया म दीना चरचिन्तायामचरमं चरमाणि चेत्यखण्डकनिषेचनविषया प्रतिपादिता, यदा पुनः प्रदेशचिन्ता क्रियते तदेवं निर्वेच-15 मतादिस: १५४ नम-चरमान्तप्रदेशाच अचरमान्तप्रदेशाच, तथाहि-ये बायखण्डेषु गताः प्रदेशास्ते चरमान्तप्रदेशाः, ये पुनमेंध्यैकखण्डगताः प्रदेशास्ते अचरमान्तप्रदेशाः, अन्ये तु ब्याचक्षते-चरमाणि नाम तथाविधप्रविष्टेतरप्रान्तैकग्रादेशिकणिपटलरूपाणि, मध्यभागोऽचरम इति, तदपि समीचीनं, दोषाभावात्, चरमान्तप्रदेशा यथोक्तरूपप्रान्तैकग्रादेशिकश्रेणिपटलगताः प्रदेशाः, अचरमान्तप्रदेशा मध्यभागगताः प्रदेशाः, अनेन निर्वचनसूत्रेण एकान्त-|| दुर्नयनिरोधप्रधानेन अवयवावयविरूपरलप्रभादिकं वस्तु तयोश्चावयवावयविनोर्मेदाभेद इत्यावेदितं, यथा चावयवावयविरूपतायां न परोक्तदूषणावकाशस्तथा धर्मसंग्रहणिटीकायां बाह्यवस्तुप्रतिष्ठाऽवसरे प्रतिपादितमिति ततोऽ- ॥२२९॥ विधाय। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवी'त्यादि, यथा रत्नप्रभा पृथिवी प्रश्ननिर्वचनाभ्यामुक्ता एवं शर्कराद्या अपि पृथिव्यः सौधर्मादीनि च विमानानि अनुत्तरविमानपर्यवसानानि ईपत्प्रारभारा लोकश्च वक्तव्यः । सूत्रपाठोऽपि ~ 462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [३६१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [ - ], मूलं [ १५४ ] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. | सुगमत्वात्खयं परिभावनीयः, स चैवम्- 'सकरप्पभा णं भंते! पुढवी किं चरमा अचरमा चरमाणि अचरमाणि' इत्यादि । एवं 'अलोगेचि' इति, एवम् उक्तेन प्रकारेणालोकोऽपि वक्तव्यः, स चैवम् - "अलोए णं भंते! किं चरमे अचरमे" इत्यादि प्रश्नसूत्रं तथैव निर्वचनसूत्रं 'गोयमा! अचरमे चरमाणि य चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य' तत्र चरमाणि यानि खण्डानि लोकनिष्कुटेषु प्रविशनि शेषमन्यत्सर्वमचरमं चरमखण्डगताः प्रदेशाः चरमान्तप्र| देशाः अचरमखण्डगताः प्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाः ॥ सम्प्रत्येतेषु रत्नप्रभादिषु प्रत्येकं चरमाचरमादिगतमल्पबहुत्वमभिधित्सुरिदमाह Education Internation इसीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए अचरमस्स व चरमाण य चरमंतपरसाण य अचरमंतपरसाण य दबट्टयाए पएसट्टयाए दसट्टयाए कयरे २ हिंतो अ० ० तु० वि० १, गोयमा ! सवत्थोवा इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए दबट्टयाए एगे अचरमे चरमाई असंखिज्जगुणाई, अचरमं चरमाणि य दोवि विसेसाहिआ, परसट्टयाए सबत्थोवा इमीसे रयणभाए पुढची चरमन्तपदेसा, अचरमंतपदेसा असंखेजगुणा, चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य दोवि विसेसाहिआ, दबट्ठपएसइयाए सवत्थोवा इमीसे रयणप्यभाए पुढवीए दट्टयाए एगे अचरिमे, चरिमाई असंखेज्जगुणाई, अचरिमं चरिमाणि य दोवि विसेसाहिआ, चरमंतपएसा असंखेज्जगुणा, अचरमंतपएसा असंखिज्जगुणा, चरमंतपएसा य अचरमंतपसा य दोषि विसेसाहिआ, एवं जाव अहेसत्तमाए सोहम्मस्स जाव लोगस्स एवं चैव । (सूत्रं १५५ ) अलोगस्स गं For Penal Use Only ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५५-१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५ प्रज्ञापनायाः मलय.वृत्ती. ॥२३॥ १०चरमाचरमपदे रत्नप्रभादिचरमादीनामल्पबहुत्वं सू. ५५-५६ -१५६] 9829082929 भंते ! अचरमस्स पचरमाण य चरमन्तपदेसाण य अचरमन्तपदेसाण य दबट्टयाए पएसट्टयाए दबट्टपएसट्टपाए कयरे २ हितो अब.तु.वि०१, गोयमा ! सबत्यो अलोगस्स दवट्टयाए एगे अचरम चरमाई असंखिजगुणाई अचरम चरमाणि य दोवि विसेसाहियाई, पएसट्टयाए सवत्थोवा अलोगस्स चरमन्तपदेसा अचरमन्तपएसा अणन्तगुणा चरमन्तपदेसा प अचरमन्तपदेसा य दोषि विसेसाहिया, दबदुपएसट्टयाए सबथोवे अलोगस्स एगे अचरमे परमाई असंखेअगुणाई अचरमं च चरमाणि य दोषि विसेसाहियाई, चरमन्तपएसा असंखेजगुणा, अचरमन्तपएसा अणन्तगुषा, चरमन्तपएसा य अचरमन्तपएसा य दोवि विसेसाहिया ॥ लोगालोगस्स गं भंते! अचरमस्स य चरमाण य चरमन्तपएसाण य अचरमन्तपएसाण य दबट्टयाए पएसद्वयाए दबट्टपएसट्टयाए कयरे २ हिंतो अ५००वि०१, गोयमा! सबथोवे लोगालोगस्स दबट्टयाए एगमेगे अचरमे, लोगस्स चरमाई असंखेजगुणाई, अलोगस्स चरमाई विसेसाहियाई, लोगस्स (य) अलोगस्स य अचरम य चरमाणि य दोवि विसेसाहियाई, पएसट्टयाते सव्वत्थोवा लोगस्स चरमन्तपदेसा, अलोगस्स चरमन्तपदेसा विसेसाहिला, लोगस्स अचरमन्तपएसा असंखेजगुणा, अलोगस्स अचरमन्तपएसा अणन्तगुणा, लोगस्स य अलोमस्स प चरमन्तवदेसा च अचरमन्तपदेसा य दोवि विसेसाहिया । दादुपएसट्टयाए सबथोवे लोगालोगस्स दवट्टयाए एगमेगे अचरमे, लोगस्स परमाई असंखेजगुणाई, अलोगस्स चरमाई विसेसाहियाई, लोगस्स य अलोगस्स य अचरम परमाविष दोषि विसेसाहियाई, लोगस्स चरमन्तपदेसा असंखेजगुणा, अलोगस्स य चरमन्तपएसा विसेसाहिया, लोगस्स दीप अनुक्रम [३६२-३६३] ॥२३ ॥ ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५५-१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५ -१५६] दीप अनुक्रम [३६२-३६३] अचरमसपएमा असंखेनगुणा, अलोमस्स अचरमंपरसा अणंतमुणा, लोमस व अलोगस्स प चरमन्तपएसा य अचरमन्तपएसा य दोरि बिसेसाहिया, साधा विसेसाहिया, सबपएसा अणंतगुणा, सबपजवा अणंतगुणा । (सूत्र १५६) 'दमीसे गं बसे । विषयवाए पुढवीए पचरमस्स व चरमाणय' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, निर्वचनसूत्रे सर्वस्सोका द्रव्यातया बस्या रसप्रभायाः पृथिव्या अचरमखण्ड, कस्मात् इति चेत्, अत आह-एक, "निमिसकारणतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति न्यायादत्र हेती प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यस्मात्तथाविधैकस्कन्धपरियामपरिषसत्वादेकं ततः खोकं, तथा बानि चरमाणि सण्डानि तान्यसंख्येयगुणानि, तेषामसङ्ग्यातत्वात् , अथाचर चरमाणिव समुदिताविचरमाणां सुल्यानि विशेषाधिकानिषा ? इति शङ्कायामाह-अचरमं चरमाणि च समुदितानि विशेषाधिकानि, तथाहि यदपरमं द्रव्यं तत् चरमद्रव्येषु प्रक्षिप्तं, ततश्वरमेभ्य एकेनाधिकत्वात् विशे-18 पाधिकसमुदायो भवति । प्रदेशार्थत्वचिन्तायां सस्तोकावरमान्तप्रदेशाः, यतश्चरमखण्डानि मध्यखण्डापेक्षयाऽति-19 सूक्ष्माणि, ततस्तेषामसोयगुणानामपि ये प्रदेशाते मध्यखण्डगतप्रदेशापेक्षया सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽचरमप्रदेशा असहयगुणाः, अचरमखण्डसकस्थापि चरमखण्डसमुदायापेक्षया क्षेत्रतोऽसोयगुणत्वात् , चरमान्तप्रदेशा अच-1 रमान्तप्रदेशाच हवेऽपि समुदिता अचरमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिकाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह चरमान्तप्रदेशा बचरमान्तप्रदेशापेक्षवा असङ्ख्येवभागप्रमाणाः, ततोऽचरमान्तप्रदेशेषु चरमान्तप्रदेशप्रक्षेपेऽपि तेऽचरमान्तप्रदेशेभ्यो ~ 465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५५-१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५ -१५६] दीप अनुक्रम [३६२-३६३] प्रज्ञापनाविशेषाधिका एव भवन्ति, द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तायां 'अचरमं चरमाणि य दो विसंसाहियाई चरमन्तपएसा असंखेज |१०चरमायाः मल- ISगुणा' इति अचरमचरमसमुदायाचरमान्तप्रदेशा असङ्ग्येयगुणाः, कथं ?, उच्यते, इह यदचरमखण्डं तदसङ्ख्येयप्रदेशा- चरमपदे य. वृत्ती. वगाढमपि द्रव्यार्थतया एकं, चरमेषु पुनः खण्डेषु प्रत्येकमसङ्ख्येयाः प्रदेशाः, ततो भवन्ति चरमाचरमद्रव्यसमुदाया |दिचरमा॥२३॥ दसवेयगुणावरमान्तप्रदेशाः, तेभ्योऽप्यचरमान्तप्रदेशा असोयगुणाः, तेभ्योऽपि चरमाचरमप्रदेशाः समुदिता इति पूर्ववत् । अलोकसूत्रे प्रदेशार्थतायां सर्वस्तोका अलोकस्य चरमान्तप्रदेशाः, लोकनिष्कुटेप्वेवान्तस्तेषां भावात् , दीनामल्पतेभ्योऽचरमान्तप्रदेशा अनन्तगुणाः, अलोकस्यानन्तत्वात् , चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाश्च समुदिता विशेषा- बहुत्व सू. Iधिकाः, चरमान्तप्रदेशा बचरमान्तप्रदेशापेक्षया अनन्तभागकल्पाः , ततस्तेषामचरमान्तप्रदेशराशी प्रक्षेपेऽपि ते अच-18 १५५-१५६ परमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिका एव भवन्ति । सम्प्रति लोकालोकसमुदायविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'लोगालोगस्स | भंते ! अचरमस्स य चरमाण य' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, निवर्चनमाह-'गोयमे स्यादि, गौतम ! लोकस्य अलो-18 कस्य च यदेकैकं चरमखण्डं तत्स्तोकं, एकत्वात् , तेभ्यो लोकस्य चरमखण्डद्रव्याण्यसबेयगुणानि, तेषामसङ्ख्यात-181 त्वात् , तेभ्योऽप्यलोकस्य चरमखण्डानि विशेषाधिकानि, कथमिति चेत् , उच्यते, इह यद्यपि लोकस्य चरमख- ॥२३॥ ण्डानि तत्त्वतोऽसङ्ख्येयानि तथापि प्रागुपदर्शितपृथिवीन्यासपरिकल्पनया तान्यष्टौ परिकल्प्यन्ते, तद्यथा-एकै चितसृषु दिक्षु एकैकं च विदिविति, अलोकचरमखण्डानि तभ्यासपरिकल्पनया परिगण्यमानानि द्वादश, तद्यथा ~ 466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५५-१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५ -१५६] दीप अनुक्रम [३६२-३६३] एकैक चतसपु दिक्ष द्वे द्वे विदिविति, द्वादश चाष्टभ्यो न द्विगुणानि न त्रिगुणानि च, किन्तु विशेषाधिकानि, | तेभ्योऽलोकस्य चरमखण्डेभ्यो लोकालोकस्य चरमाचरमखण्डानि समुदितानि विशेषाधिकानि, तथाहि-लोकस्य चरमखण्डानि प्रागुक्तपरिकल्पनया अष्टौ एकमचरमखण्ड मित्युभयमीलने नव, अलोकस्यापि चरमाचरमखण्डानि समुदितानि त्रयोदश, उभयेषामेकत्र मीलनेन द्वाविंशतिः, सा च द्वादशभ्यो न द्विगुना नापि त्रिगुणा किन्तु विशेषाधिकेति अलोकस्य चरमखण्डेभ्यो लोकालोकचरमाचरमखण्डानि समुदितानि विशेषाधिकानि । प्रदेशार्थताचिन्तायां सर्वस्तोका लोकस्य चरमान्तप्रदेशाः, अष्टखण्डसत्कानामेव प्रदेशानां भावात् , तेभ्योऽलोकस्य चरमान्तप्रदेशा विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि लोकस्य अचरमान्तप्रदेशा असङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यातिप्रभूततया तत्प्रदेशानामप्यति-13 प्रभूतत्वात् , तेभ्योऽप्यलोकस्याचरमान्तप्रदेशा अनन्तगुणाः, क्षेत्रस्यानन्तगुणत्वात् , तेभ्योऽपि लोकस्य चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशा अलोकस्यापि चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाः समुदिता विशेषाधिकाः, कथमिति चेत्, | उच्यते, इहालोकस्याचरमान्तप्रदेशराशी लोकस्य चरमाचरमान्तप्रदेशा अलोकस्य चरमान्तप्रदेशाश्च प्रक्षिप्यन्ते, तेच | सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्येया(ऽसंख्यया)थानन्तराश्यपेक्षयाऽतिस्तोका इति प्रक्षेपेऽपि तेऽलोकस्याचरमान्तप्रदेशेभ्यो| विशेषाधिका एव । एतदनुसारेण द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तासूत्रमपि स्वयं परिभावनीयं, नवरं लोकालोकचरमाचरम-18 खण्डेभ्यो लोकस्य चरमान्तप्रदेशा असाहयेयगुणा इति, लोकस्य किल चरमाणि खण्डान्यष्टी, एकैकस्मिंश्च खण्ड-18 ~ 467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५५-१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना सूत्रांक [१५५ यवृत्ती. ॥२३॥ -१५६] दीप अनुक्रम [३६२-३६३] देशे खण्डप्रदेशा असङ्ख्यया लोकालोकयामाचरमखण्डानि च समुदितानि द्वाविंशतिः, ततो घटन्ते लोकालोकचरमा- १०चरमाचरमखण्डेभ्यो लोकस्य चरमान्तप्रदेशा असोयगुणाः, शेषपदभावना प्राग्वत्, 'सबदबा विसेसाहिया' इति चरमपदे लोकालोकचरमाचरमानप्रदेशेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, अनन्तानन्तसङ्ग्यानां जीवानां तथा परमाण्वादी परमाणोनामनन्तपरमाण्वात्मकस्कन्धपयेन्तानां प्रत्येकानामनन्तसङ्ख्यानां पृथक पृषक द्रव्यत्वात् , तेभ्योऽपि सर्वेप्रदेशा अन-NIA दिविचारः तगुणाः, तेभ्योऽपि सर्वपर्याया अनन्तगुणाः, प्रतिप्रदेशं खपरभेदभिन्नानां पर्यायाणामानन्यात् । तदेवं रत्नप्रभा-1 सू.१५७ दिकं चरमाचरमभेदतथिन्तितं, इदानीं परमाण्बादिकं चिन्तयन्नाह परवाशुपोग्गले में भवे । किं चरिमे १ अचरिमे २ अवचवए ३ चरमाई ४ अचरमाई ५ अवत्तबयाई ६ उदाहु चरिमे य अपरिमे व ७ उदाहु परमे य अचरमाई ८ उदाहु चरमाई अचरमे २९ उदाहु चरमाई च अचरमाई च १० पढमा चउमंगी। उदाहु परिमे व अवत्सबए य ११ उदाहु चरमे य अवनश्चयाई च १२ उदाहु चरमाई च अवचाए य १३ उदाहु परमाईच अवचाबाई च १५ वीवा पाउमंगी उदाहु अचरिमे व अवलबए य १५ उदाहु अचरमे व अवत्तदयाई च १६ उदाहु अचरमाइंच अबचाए य १७ उदाहु बबरमाई च अवजयाई च १८ तहबा चउभंगी उदाहु चरमे य अचरमेय अवत्तबए य १९ उदाहुचरमे २३२॥ यअगर य अबचायाई १२० उदाह परमेच अचरमाई च अवचबए य २१ उदाहु चरमे य अचरमाई च अवताबाईच २२ उदाहुपामाई च बघरमे य अवचवर य२३ उदाहु घरमाईच अचरमे य अवत्तायाई (च)२४ उदाहु चरमाई चबचरमाईच ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] अवचवर य२५ उदाहु घरमाईच अचरमाई व अवचाबाई च २६, एते छबीसं अंगा, गोयमा! परमाशुपोम्पले बो चरये नो अचरम नियमा अवनबए, सेसा भमा पडिसेहेयवा ।। (मत्रं १५७) दुपएसिए पं भंते ! संधे पुच्छा, गोषमा! दुपएसिए खंथे सिय चरमे नो अचरमे सिय अवचचए, सेसा भंगा पडिसेहेयवा । निपएसिए पं भंते ! खंधे पुच्छा, मोपमा ! तिपएसिए बंधे सिर चरमे, नो अचरमे, सिय अवतए, नो चरमाई, नो अचरमाई, नो अवतवयाई, नो चरमे व अचरमे य, नो चरमे य अचरमाई, सिय चरमाई च अचरमे य, नो चरमाई च अधरमाई च, सिय चरमे य अवचवए य, सेसा भंगा पडिसेहेयवा । चउपएसिए पं भवे । खंधे पुच्छा, गोयमा ! चउपएसिए पं खंधे सिय चरमे १ नो अचरमे २ सिय अवचबए ३ नो चरमाई ४ नो अचरपाई ५ नो बच्चबयाई ६नो चरमे प अचरमे १७ नो चरमे व अचरमाई च८ सिय चरमाई अचरिमे य ९सिय चरमाई च अचरमाईच १० सिय घरमे य अवताए य ११ सिय चरमे य अवचनयाई च १२ नो चरमाई च अवत्तवए य १३ नो चरमाई च अवचाबाई म १४ नो अचरम य अवसथए । १५ नो अचरमे य अवत्तायाई च १६ मो अचरमाई च अवचार थ१७ नो अचरिबाई च अवचवयाई १८ नो चरमेय अचरिमे य अवचाए य १९ नो चरिमेय अचरिमे य अवचबमाई च २०नो चरमे व अचरमाई च अबचाए य २१ नो चरमे य अचरमाई च अवचबयाई च २२ सिय चरमाहं च अचरिमे व धरमबए य २३ । सेसा भमा पडिसेहेयथा ।। पंचपएसिए पं भंतेसिंघे गुच्छा, गोयमा| पंचपएलिए खंधे सिय चरखे१नो अचरमे २ सिव अवचबए ३णो चरमाई ४ णो अचरमाई ५ नो अवत्तबयाई ६ सिय चरमे य अचरमे य ७ नो चरमे य अचरमाई च८सिव चर eceaeeeeee गाथा: दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ए ~ 469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ - १५८] गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] पदं (१०) उद्देशक: [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२३३॥ tweetnessese “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र- ४ उपांगसूत्र- ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1. मूलं [११४-१५८] + गाथा: (१-५) ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internation ............................... माई च अचरमे य ९ सिय चरमाई च अचरमाई च १० सिय घरमे य अवत्तवए य ११ सिय चरमे य अवतवयाई च १२ सिय चरमाई व अवचवए य १३ नो चरमाई च अवत्तहयाई च १४ नो अचरमे य अवत्तवर य १५ नो अचरमे य अवयाई च १६ नो अचरमाई च अवतवए य १७ नो अचरमाई च अवत्तवयाई च १८ नो चरमे य अचरमे य अवत्तएय १९ नो चरमे य अचरमे य अवसबयाई च २० नो चरमे य अचरमाई च अवसइए य २१ नो चरमे य अचरमाई च अवत्तया च २२ सिय चरमाई च अचरमे य अवतवए य २३ सिय चरमाई च अचरमे य अवत्तवयाई च २४ सिय चरमाई च अचरमाई च अवतार य २५ नो चरमाई च अचरमाई च अवत्तहयाई च २६ । छप्पएसिए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! छप्पएसिए गं खंधे सिय चरमे १ नो अचरमे २ सिय अवतार ३ नो चरमाई ४ नो अचरमाई ५ नो अवत्तवयाई ६ सय चरमे य अचरमे य ७ सिय चरमे य अचरमाई च ८ सिय चरमाई च अचरमे य ९ सिय चरमाई च अचरमाई च १० सिय चरमे य अवतवए अ ११ सिय चरमे य अवत्सयाई च १२ सिय घरमाई च अवत्तवए अ १३ सिय चरमाई च अवत्तद्वयाई च १४ नो अचरमे य अवत्वए य १५ नो अचरमे य अवत्तवयाई च १६ नो अचरमाई च अबताए य १७ नो अचरमाई च अवत्तवयाई च १८ सिय चरमे य अचरमे य अवत्तवए य १९ नो चरमे य अचरमेय अवत्तवयाई च २० नो चरमे य अचरमाई च अवतार य २१ नो चरमे य अचरमाई च अवत्तया च २२ सिय चरमाई च अचरमेय अवत्वए य २३ सिय चरमाई च अचरमे य अवत्तवयाई च २४ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तवए य २५ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तवया च २६ । सतपएसिए णं भंते! संधे पुच्छा, गोयमा ! सचपएसिए णं खंधे For Parts Only ~ 470 ~ १० चरमाचरमपदे द्विप्रदेशादीनां चरमादितासू १५८ ॥२३३॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: TAAS प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: eeeeeeeeeeeeeesh सिय चरिमे १ णो अचरिमे २ सिय अवत्तबए ३ णो चरिमाई ४ णो अचरिमाई ५ णो अवत्तव्बयाई ६ सिय चरमे य अचरमे य ७ सिय चरमे य अचरमाइं च ८ सिय चरमाई च अचरमे य ९ सिय चरमाइं च अचरमाई च १०सिय चरमे य अवत्तवए य ११ सिय चरमे य अवत्तवयाई च १२ सिय चरमाई च अवत्तवए य १३ सिय चरमाई च अवत्तवयाई च १४ णो अचरमे य अवत्तवए य १५ णो अचरमे य अवत्तवयाई च १६ णो अचरमाई च अवत्तबए य १७ पो अचरमाई च अवत्तवयाई च १८ सिय चरमे य अचरमे य अवत्तवए य १९ सिय चरमे य अचरमे य अवत्तवयाई च २०सिय चरमे य अचरिमाई च अवत्तबए अ२१ णो चरिमे य अचरिमाई च अवत्तवयाई च २२ सिय घरमाई च अचरमे य अवत्तबए य २३ सिय चरमाई च अचरमे य अवत्तवयाई च २४ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तहए य २५ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तबयाई च २६ । अट्ठपएसिए गं भंते ! खंधे पुच्छा, गोषमा ! अट्टपएसिए खंधे सिय चरमे १ नो अचरमे २ सिय अवत्तवए ३ नो चरमाई ४ नो अचरमाई ५ नो अबत्तत्वयाई ६ सिय चरिमे य अचरिमे य ७ सिय चरिमे य अचरिमाईच ८ सिय चरिमाई च अचरिम य ९सिय चरमाई च अचरमाई च १० सिय चरमे य अवत्तवए य ११ सिय चरमे य अवचबयाई च १२ सिय चरिमाइं च अवत्तवए य १३ सिय चरिमाई च अवत्तवयाई च १४ णो अचरिमे य अवत्तवए य १५ णो अचरिमे य अवत्तवयाई च १६ णो अचरिमाई च अवत्तवए य १७ णो अचरिमाइं च अवतत्वयाई च १८ सिय चरिमे य अचरिमेय अवत्तबए य १९ सिय चरिमे य अचरिमे य अबत्तत्वयाई च २० सिय चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तबए अ२१ सिय चरिमे य अचरिमाई च अवत्तवयाई च २२ सिय चरिमाई च अचरिमेय दीप अनुक्रम [३६४-३७१] 24sese ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १०चरमा प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापनाथाः मलय० वृत्ती. ॥२३४॥ गाथा: अवत्तबए अ २३ सिय चरिमाई च अचरिमे य अवत्तवयाई च २४ सिय चरिमाइं च अचरिमाई च अवचाए य २५ सिय चरिमाई च अचरिमाई च अवत्तबयाई च २६ । संखेजपएसिए असंखेञ्जपएसिए अणंतपएसिए खंधे०, जहेव अट्ठपएसिए चरमपदे तहेव पत्तेयं भाषिया । परमाणुम्मि य तइओ पढमो तइओ य होति दुपएसे । पढमो तइओ नवमो एकारसमो य तिप द्विप्रदेशाएसे ॥१॥ पढमो तइओ नवमो दसमो एकारसो य वारसमो । भंगा चउप्पएसे तेवीसहमो य पोद्धवो ॥२।। पढमो सइओ दीनां चरसचमनवदसइकारचारतेरसमो । तेषीसचउबीसो पणवीसइमो य पंचमए ॥३॥ विचउत्थपंचछर्ट पनरस सोलं च सत्तरद्वारं । मादितासू. वीसेकयीस बावीसगं च बजे छ₹मि ॥४॥ विचउत्थपंचछर्ट पण्णर सोलं च सत्तरद्वारं । बावीसहमविहगा सत्तपदेसंमि ला १५८ बंधम्मि ॥५॥ विचजत्य पंचछद्रं पण्णर सोलं च सन्चरहारं । एते वजिय भंगा सेसा सेसेसु खंधेमु ॥ (सूत्रं १५८), 'परमाणुपोग्गलेणं भंते । इत्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रे पडूविंशतिर्भङ्गाः, यतस्त्रीणि पदानि चरमाचरमावक्तव्यलक्षणानि | तेषां पैकैकसंयोगे प्रत्येकमेकवचनाखयो भङ्गाः, तद्यथा-चरमोऽचरमोऽवक्तव्यकः, त्रयो पहुवचनेन, तद्यथा-चर-15 माणि १ अचरमाणि २ अवक्तव्यानि ३, सर्वसत्यया पटू, द्विकसंयोगात्रयः, तद्यथा-चरमाचरमपदयोरका चरमावक्तव्यकपदयोंद्वितीयः अचरमावक्तन्यकपदयोस्तृतीयः, एकैकस्मिन् चत्वारो भङ्गाः, तत्र प्रथमे द्विकसंयोग एवं-IN२३४॥ चरमयाचरमश्च, चरमधाचरमाथ, चरमाथाचरमच, चरमाश्चाचरमाथ, स्थापना । एवमेव चतुर्भशी चरमावतव्य-| पदयोः, पत्रमेवाचरमावतव्यपदयोः, सर्वमायया द्विकसंयोगे द्वादश भङ्गाः, त्रिकसंयोगे एकवचनबहुवचनाभ्यामष्टी, दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -1, ----------- दारं [-], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] + गाथा: स्थापना-सर्वसंकलनया पडूविंशतिः । अत्र निर्वचनमाह-'परमाणुपोग्गले नो परमे' इत्यादि, परमाणुपुद्गलचरमो न भवति, चरमत्वं मन्यापेक्षं. न चान्यदपेक्षणीयमस्ति तस्य, अविवक्षणात्, न च सांशः परमाणुयेनांशापेक्षया चरमत्वं प्रकल्प्येत, निरवयवत्वात् (तस्य), तस्मान्न चरमो, नाप्यचरमः, निरचयवतया मध्यत्वायोगात्, किन्त्ववक्तव्यः, चरमाचरमव्यपदेशकारण[तः] शून्यतया चरमशब्देनाचरमशब्देन वा व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् , वक्तुं शक्यं हि वक्तव्यं, यत्तु चरमशब्देन अचरमशब्देन वा खखनिमित्तशून्यतया वक्तुमशक्यं तदवक्तव्यमिति स्थापना-शेपास्तु मङ्गाः प्रतिषेध्याः, परमाणौ तेषामसंभवात् , वक्ष्यति च-"परमाणुमि य तइओ" अस्थायमर्थः-परमाणी-परमाणुचिन्तायां तृतीयो भङ्गः परिग्रायः, शेषास्तु निरवयवत्वेन प्रतिषेध्याः । 'दुपएसिए णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनमाह-'सिय चरमे नो अचरमे सिय अवत्तवए' इत्यादि, द्विप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् चस्मः, कथमिति चेत् , उच्यते, इह यदा द्विप्रदेशिकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोरवगाढो भवति समश्रेण्या व्यवस्थिततया, स्थापना तदा एकोऽपि परमाणुरपरपरमाण्यपेक्षया चरमः, अपरोऽप्यपरपरमाण्यपेक्षया चरम इति चरमः, अचरमस्तु न भवति, सर्वद्रव्याणामपि केवलाचरमत्वस्यायोगात्, यदा तु स एव द्विप्रदेशिकः स्कन्धः एकस्मिन्नाकाश-2 प्रदेशे अवगाहते तदा स तथाविधैकत्वपरिणामपरिणततया परमाणवत चरमाचरमव्यपदेशकारणशून्यत्वान्न चरम-181 शब्देन व्यपदेष्टुं शक्यते नाप्यचरमशब्देनेति अवक्तव्यः, शेषास्तु भङ्गाः प्रतिषेध्याः, तथा च वक्ष्यति "पढमो दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: प्रज्ञापना तइओ य होइ दुपएसे" अस्थायमर्थः-द्विप्रदेशिके स्कन्धे प्रथमो भङ्गः-चरम इति, तृतीयः-अबक्तव्य इति भवति,१०चरमा शेषास्तु प्रतिषेध्याः, असंभवात् , स चासंभवः सुप्रतीत एव । 'तिपएसिए णं भंते ! खंधे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्यत् | चरमपदे य. वृत्ती. निर्वचनं 'गोयमा ! सिय चरमे' इत्यादि, इह यदा त्रिप्रदेशिकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थित योरेवमवगाढो भवति, स्थापना-,तदाऽसौ चरमः, सा चरमत्वभावना द्विप्रदेशिकस्कन्धवद् भावनीया, अचरम-दानाचर ॥२३५॥ प्रतिषेधः प्राग्वत् , 'स्यादवक्तव्य' इति यदा स एव त्रिप्रदेशिकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते तदा परमा 18मात्वादि णुवत चरमाचरमव्यपदेशकारणशून्यतया चरमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेष्टमशक्यत्वात् अवक्तव्यः, चतुथोदयोऽष्टमप-12 यन्ताः प्रतिषेध्याः, असंभवात् , असंभवस्तु सुप्रतीतत्वात् खयमुपयुज्य वक्तव्यः, नवमस्तु ग्राह्यः, तथा चाह'सिय चरमाई च अचरमे य' प्राकृते द्वित्वेऽपि बहुवचनं, ततोऽयमर्थः-स्थात्-कदाचिदयं भङ्गः-चरमो अचर|मश्च, तत्र यदा स त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते, स्थापना-,तदाऽऽदि|मान्तिमौ द्वौ परमाणू पर्यन्तवर्तित्वाचरमौ मध्यमस्तु मध्यवर्तित्यादचरम इति, दशमस्तु प्रतिषेध्यः, स्कन्धस्य त्रिप्रदेशिकतया चरमाचरमशब्दयोर्वहुवचननिमित्तासंभवात् , एकादशस्तु ग्राह्यः, तथा चाह-'सिय चरमे य अवत्तबए य' स्यात्-कदाचिदयं भङ्गश्चरमश्चायक्तव्यश्च, तत्र यदा स त्रिप्रदेशिकः समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते स्थापना-,तदा द्वौ परमाणू समश्रेण्या व्यवस्थिताविति द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरमव्यपदेशकारणभावतश्च ।।२३५॥ दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -1, ----------- दारं [-], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: रमः, एकश्च परमाणुर्विश्रेणिस्थश्चरमाचरमशब्दाभ्या व्यपदेष्टुमशक्य इत्यवक्तव्यः, शेषास्तु भङ्गाः सर्वेऽपि प्रतिषेध्याः, वक्ष्यति च “पढमो तइओ नवमो इकारसमो य तिपएसे” अस्थायमर्थः-त्रिप्रदेशे स्कन्धे प्रथमो भङ्गश्चरम इति, तृतीयोऽवक्तव्य इति, नवमचरमौ चाचरमश्च, एकादशश्चरमश्चावक्तव्यश्चेति भवति, शेषा भक्का न घटन्ते ॥ 'चउ-101 पएसिए णं मंते ! खंधे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनमाह-गोयमा ! सिय चरमे' इत्यादि, अन प्रथमत-1 पतीयनवमदशर्मकादशद्वादशत्रयोविंशतितमरूपाः सप्त भङ्गा प्रायाः, शेषाः प्रतिषेध्याः, तत्र प्रथमभकोऽयम्-'स्थाच-11 रम' इति, इह यदा चतुष्प्रदेशकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समवेण्या व्यवस्थितयोरेवमवगाहते स्थापना-, तदा चरमः, सा च चरमत्वभावना समश्रेण्या व्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धव भावनीया, तृतीयो भगः स्यादवक्तव्य इति, स चैवं यदा स एव चतुष्प्रदेशकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते स्थापना-तदा परमाणुवदवक्तव्यः, नवमः 'स्याचरमौ चाचरमश्च स चैवं-यदा स चतुष्प्रदेशात्मकः स्कन्धः त्रिष्वाकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते, स्थापना-,तदा आद्यन्तप्रदेशावगाढौ चरमौ मध्यप्रदेशावगाढस्त्वचरमः, दशमः स्थाचरमौ चाचरमौ च, तत्र यदा चतुष्प्रदेशात्मकः स्कन्धः समश्रेण्या व्यवस्थितेषु चतुयोकाशप्रदेशेषु एवमवगाहते, स्थापना-तदाऽऽद्यन्तद्विप्रदेशावगाढी द्वौ परमाणू चरमौ द्वयोस्तु मध्यमयोराकाशप्रदेशयोरवगाढौ द्वौ परमाणू अचरमाविति, एकादशः स्थाचरमश्वावक्तव्यश्च, स चै-,यदा स चतुष्प्रदेशकः स्कन्धः त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमयगाहते दीप अनुक्रम [३६४-३७१] Karee ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥२३६॥ गाथा: स्थापना-, तदा समश्रेणिव्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढात्रयः परमाणयो द्विप्रदेशायगाढद्विप्रदेशस्कन्धवत् चरमः एकवचरमाविश्रेणिस्थः परमाणुरिव घरमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् अवक्तव्य इति, द्वादशः स्याचरमश्वावक्तव्यौ च, सी चरमपदे चैवं--,यदा स चतुष्पदेशात्मकः स्कन्धश्चतुषाकाशप्रदेशेषु एवमवगाहते-द्वी परमाणू द्वयोः समश्रेण्या व्यवस्थित- परमाण्वायोराकाशप्रदेशयोः द्वौ परमाणू द्वयोर्विश्रेण्या व्यवस्थितयोः, स्थापना--, तदा द्वौ परमाणू समश्रेण्या व्यवस्थितौ द्वि- दीनां चरप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धयत् चरमः द्वौ च परमाणू विश्रेणिव्यवस्थितौ केवलपरमाणुक्चरमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेष्टुम- मात्वादि शक्यायित्यवक्तव्यो, प्रयोविंशतितमः स्थाचरमी चाचरमश्चावक्तव्यश्च, कथमिति चेद्, उच्यते, इह या स यनु प्रदेशकः स्कन्धः चतुर्थाकाशप्रदेशेष्येवमवगाहते-त्रयः परमाणवस्त्रिषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वाकाशप्रदेशेषु एको विश्रेणिस्थे प्रदेशे, स्थापना--- तदा त्रिषु परमाणषु समथेणिव्यवस्थितेषु मध्ये आद्यन्ती परमाणू पर्यन्तवर्सित्याचरमी मध्यमस्त्वचरमः विश्रेणिस्थस्त्ववक्तव्य इति, वक्ष्यति च-पढमो तइओ नवमो दसमो इकारसो य पारसमो । भका चउप्पएसे तेवीसइमो य बोद्धचो ॥१॥" गतार्था । 'पंचपएसिए 'णं मंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्यम्, ॥२३६॥ निर्यचनमाह-गोयमा! सिय चरमे इत्यादि, इह प्रथमतृतीयसप्तमनवमदशमैकादशद्वादशत्रयोदशत्रयोविंशतितमचतुर्विंशतितमपञ्चविंशतितमरूपा एकादश भङ्गा ग्राहाः, शेषाः प्रतिषेध्याः, वक्ष्यति च-"पढमो तइओ सत्तम नवदसइक्कारबारसेरसमो । तेवीसचउच्चीसा पणयीसइमो य पंचमए ॥१॥"सायं प्रथमो मङ्गः-स्वाधरम दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -1, ----------- दारं [-], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: इति, इह यदा पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समवेण्या व्यवस्थितयोरेवमवगाहते, त्रयः परमाणन एक-II स्मिनाकाशप्रदेशे द्वौ द्वितीये, स्थापना--, सदा द्विप्रदेशामयाद्विप्रदेशकस्कन्धपचरमः, तृतीयोऽयक्तव्यः, स -- यदा स पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धः एकस्मिन् आकाशप्रदेशे अनगाहने, स्थापना- तदा स परमाणुवदवक्तव्यः, सममः स्वाथरमश्चाधरमच, स चैक्म्-यदान पश्चप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेष्येक्मवगाहसे, स्थापना-सदा ये चरमाश्चत्वारः परमाणन पामेकसंबन्धिपरिणामपरिणतत्वादेकवर्णत्वादेकगन्यत्वादेकरसत्वादेकस्पर्शत्वाचकत्यव्यपदेशे चरम इति व्यपदेशः, मध्यस्तु परमाणुमध्यवर्तित्वाद चरम इति, नवमः चरमौ चाचरमञ्च, तत्र यदा स पञ्चप्रदेशकः स्कन्धस्त्रिध्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमबगाहते द्वौ-परमाणू आये आकाशप्रदेशे द्वाक्ले एको मध्ये, स्थापना-,तदाऽऽद्यप्रदेशावगाढी वौ चरमो द्वावन्त्यप्रदेशावगाढौ चस्म इति चरमो मध्यस्तु मध्यकर्त्तित्वादचरमः, दशमः चरमी चाचरमी च, तत्र यदा स पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धश्च काशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थिसेवेयमयगाहते-त्रयः परमाणयस्त्रिप्वाकाशप्रदेशेषु एकस्मिन् द्वाविति, स्थापना-, सदा आयप्रदेशवर्ती परमाणुश्चरमः, ही चान्त्यप्रदेशवर्तिनी चरम इति चरमौ द्वौ च मध्यवर्तित्वादचरमो, एकादशः चरमश्चायतव्यः, कथमिति चेत् 2, उच्यते, यदा स पञ्चप्रदेशात्मकखिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चेयमवगाहते-द्वी द्वौ परमाणू द्वयोसकाश-18 प्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोः एको विश्रेणिस्था, स्थापना-, तदा चत्वारः परमाणवो द्विप्रदेशावगाहित्यात्।। दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 477~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: प्रज्ञापना द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरम एकश्च विश्रेणिस्थः परमाणुरवक्तव्यः, द्वादशः चरमश्चावक्तव्यो च, तत्र यदा स||१०चरमायाः मल- पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धश्चतुळकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-दौ परमाणू द्वयोराकाशप्रदेशयोः सम- चरमपदे य. वृत्ती. श्रेण्या व्यवस्थितयोरेको विश्रेणिस्थे द्वौ चान्यस्मिन् विश्रेणिस्थे, स्थापना-, तदा द्वौ परमाणू समश्रेणिव्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढौ द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरमःएको द्वौ च विश्रेणिस्थपृथगेकैकाकाशप्रदेशावगाढी चावक्तव्यौ, त्रयो IN मात्वादि दशः चरमौ चायक्तव्यश्च, तत्र यदा स पञ्चप्रदेशावगाढः पञ्चखाकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते-द्वी परमाणू उपरि द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरवगाढी द्वौ च द्वयोस्तथैवाधः एकः पर्यन्ते मध्यसमे, स्थापना-तदा द्वावुप-18 रितनौ द्विप्रदेशावगाढवणुकस्कन्धवचरमः द्वौ चाधस्तनी चरम इति चरमौ एकश्च केवलः परमाणुरिवावक्तव्य इति, |त्रयोविंशतितमः चरमी चाचरमवावक्तव्यथ, स चैवं-यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धथताकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रे-IN ण्या चैवमवगाहते-त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वाद्ये एकः परमाणुः मध्ये द्वौ अन्ते एकः चतुर्थेऽपि विश्रेणिस्थ एकः, स्थापना-तदा त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु मध्ये आद्यन्तप्रदेशावगाढौ चरमौ मध्यप्रदेशवी तु घणुको बामध्यवर्तित्वादचरमो विश्रेणिस्थश्चावक्तव्य इति, चतुर्विशतितमः चरमी चाचरमश्रावक्तव्यौ च, कथमिति चेत्, उच्यते ॥२३॥ स एव यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-त्रयः परमाणवस्त्रियाकाशप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेषु द्वयोराकाशप्रदेशयोः परमायोर्विश्रेणिस्थयोः, स्थापना-,तदा त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु मध्ये दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -1, ----------- दारं [-], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: द्वावाद्यन्तप्रदेशवर्तिनी चरमी मध्यश्चाचरमो द्वौ च विश्रेणिस्थाववक्तब्यौ, पञ्चविंशतितमः चरमौ चाचरमौ चावक्तव्य|श्च, स चै-यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-चत्वारश्चतुर्वाकाशनप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेषु एको विश्रेणिस्थः, स्थापना-तदा चतुर्धाकाशप्रदेशेषु मध्ये द्वावाधन्तप्रदेशवर्तिनी चरमो | द्वौ च मध्यवर्तिनावचरमौ एको विश्रेणिस्थोऽवक्तव्यः। 'छप्पएसिए णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनं । गोयमा ! सिय चरमे' इत्यादि, इह द्वितीयचतुष्पञ्चमपष्ठपञ्चदशषोडशसप्तदशाष्टादशविंशतितमैकविंशतितमद्वावि-1 शशतितमरूपा एकादश भज्ञाः प्रतिषेध्याः, वक्ष्यति च-"विचउत्थपञ्चमुटुं पन्नरसोल सत्तरद्वारं । बीसेकवीस बावी सगं च बजेज छटुंमि ॥१॥"शेपास्त्वेकादयः परिग्रायाः, घटमानत्वात् , तत्र यथा द्यादयो न घटन्ते एकादयस्तु घटन्ते तथा भाग्यन्ते-इह यदा पट्प्रदेशकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरेबमवगाहते-एकस्मिन्नाकाशप्रदेशे त्रयः परमाणवोऽपरस्मिन्नपि त्रय इति, स्थापना-तदा द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवश्वरमः, अचरमलक्षणस्तु द्वितीयो भो न घटते, चरमरहितस्य केवलस्थाचरमस्यासंभवात्, न खलु प्रान्ताभावे मध्यं भवतीति भावनीयमेतत्, तृतीयोऽवक्तव्यलक्षणः, स चैवं यदा स षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते, स्थापना-तदा परमाणुवश्चरमाचरमशब्देन व्यपदेष्टुमशक्यत्वादवक्तव्यः, चतुर्थश्चरमाणीति पञ्चमो|ऽचरमाणीति पष्ठोऽवक्तव्यानीति पञ्चदशोऽचरमश्चावक्तव्यश्च षोडशोऽचरमश्चावक्तव्यानि च सप्तदशोऽचरमाणि चावक्त दीप अनुक्रम [३६४-३७१] mational ~ 479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥२३८॥ गाथा: व्यश्च अष्टादशोऽधरमाणि चावक्तव्यानि चेत्येते सप्त भङ्गा ओघत एवन संभवन्ति, तथाप्रकाराणा द्रयाणामेवासम-१०चरमावात्, न ह्येवं जगति केवलानि चरमादीनि द्रव्याणि संभवन्ति, असंभवश्च प्रागुक्तभावनानुसारेण सुगमत्वात्स्वयं भाव-IN चरमपदे परमावानीयः, सप्तमश्च चरमश्चाचरमश्चेत्येवरूप एच, यदा स षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः पञ्चस्वाकाशप्रदेशेष्वेकपरिक्षेपेण व्यवस्थि-INI दीनां चरतेष्वेवमवगाहते, स्थापी-,द्वौ परमाणू मध्यप्रदेशे एकैकः शेषेषु, तदा तेषां चतुर्णा परमाणूनामेकसंबन्धिपरिणाम-NE मात्वादि परिणतत्वादेकषर्णत्वादेकगन्धत्वादेकरसत्वादेकस्पर्शत्वाच्चैकत्वव्यपदेशः एकत्वव्यपदेशत्वाचरम इति व्यपदेशः, यो तु द्वी परमाणू मध्ये तावेकत्वपरिणामपरिणतावित्यचरमः, अष्टमश्चरमश्चाचरमौ च, तत्र यदा स एव पट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः पदसु प्रदेशेषु एकपरिक्षेपेणैकाधिकमेवमवगाहते, स्थापना-तदा पर्यन्तवर्तिनः परिक्षेपेणावस्थिताश्चत्वारः परमाणयः प्रागुक्तयुक्तरेकश्वरमः, द्वौ मध्यवर्तिनावचरमाथिति, अन्ये त्वभिदधति-चतुर्णा परमाणूनां क्षेत्रप्रदेशान्तरव्यवहिता|धिकत्वपरिणामो न भवति तदभावाच नैष भङ्ग उपपद्यते, प्रतिषिद्धश्च सूत्रे, यतो वक्ष्यति-"विचउत्थपंचछट्ट"मिति प्राकृतशैल्या 'छ?' 'अह' इत्येतयोः पदयोर्निर्देशः, ततोऽयमर्थः-षष्ठमष्टमं च वर्जयित्वेति, अथ नामैवंरूपोऽपि | भो भवति तदैवं गम्यते-ये एकवेष्टका अव्यवधानेन चत्वारः परमाणबस्ते तथाविधैकत्वपरिणामपरिणतत्वाच-18 ॥२३॥ | रमः, तस्मादधिकोऽपि समश्रेण्यैव प्रतिबद्धत्वान्न तदतिरिक्त इति सोऽपि तस्मिन्नेव चरमे गण्यते इत्येकं चरम, पुनश्च योऽधिकमध्ये व्यवस्थित इति स मध्यवर्तित्वादनेकपरिणामित्वाच वस्तुनोऽचरमोऽपि ततोऽ( तश्वरमा) दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ -१५८] गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [१०], उद्देशक: [-] मूलं [१५७-१५८] + गाथा : (१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चरमावित्यपि भवति, अत्रापि न कश्चिदू विरोधः, तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति नवमबरमौ चाचरम् दा स एव षट्पदेशकः स्कन्धस्त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते- एकैकस्मिनाकाशप्रदेशे द्धो को पस्माथ् इति, स्थापना, तदाऽऽद्यप्रदेशवर्तिनौ द्वौ परमाणू चरमः द्वायन्त्यप्रदेशवर्तिनी चरम इति चरमो, द्वौ तु मध्यप्रदेश| वर्तिनी एकोऽचरम इति, दशमश्वरमौ चाचरमौ च स चैवं यदा स षट्प्रदेशकः स्कन्धश्चतुर्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेव मगाइते - द्वावाद्ये प्रदेशे द्वौ द्वितीये एकस्तृतीये एकचतुर्थे इति, स्थापना, तदा द्वौ परमाणु प्रथमप्रदेशवर्तिनावेकश्चरमः एकोऽन्त्यप्रदेशवर्ती चरम इति चरमौ द्वौ परमाणू द्वितीयप्रदेशवर्तिनाचेकोऽचरमः एकस्तृतीयप्रदेशवर्ती अचरम इत्यचरमावपि द्वौ, एकादशश्चरमश्वावक्तव्यश्थ, स चैवं -- यदा स एव यप्रदेशात्मकः स्कन्धस्त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते - द्वावाद्ये प्रदेशे द्वौ समश्रेण्या व्यवस्थिते द्वितीये प्रदेशे द्वौ विश्रेणिस्थे तृतीये प्रदेशे, स्थापना, तदा द्विप्रदेशावगाढाश्चत्वारः परमाणवः समश्रेणिव्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढद्यकस्कन्धवदेकश्चरमः द्वौ च विश्रेणिस्थप्रदेशावगाढी परमाणुवदेकोऽवक्तव्यः, द्वादशश्वरमश्चावकन्यौ च तत्र यदास पट्प्रदेशात्मकः स्कन्धचतुर्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते- द्वौ परमाणु प्रथमे प्रदेशे द्वौ समश्रेणिव्यवस्थिते द्वितीये प्रदेशे एकः ततः परमुपरि तृतीये प्रदेशे एकश्चाधश्चतुर्थे इति, स्थापना —तदा चत्वारः परमावो द्विप्रदेशावगाढाः पूर्ववदेकश्वरमः द्वौ च विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयावगाढाववक्तव्याविति त्रयोदशश्चरमौ चावकव्यश्व, Eucation International For Penal Use On ~ 481~ www.landbrary.org Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. ॥२३९॥ गाथा: यदा स एव पदप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चस्थाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-द्वी परमाणू द्वयोराकाशप्र-181१०चरमादेशयोः समश्रेणिव्यवस्थितयोः द्वौ तयोरेवाधः समश्रेणिव्यवस्थितयोराकाशप्रदेशयोः श्रेणिद्वयमध्यभागसमश्रेणिस्थेचरमपदे आकस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वाविति, स्थापना-,तदा द्विप्रदेशाचगाढवणुकस्कन्धवदुपरितनद्विप्रदेशाषगाढी ही परमाणपरमाण्याएकश्चरमो द्वावधस्तनाविति चरमी, द्वावेकप्रदेशावगाढी परमाणुवदेकोऽवक्तव्यः, चतुर्दशश्वरमी चायक्तव्यौ च, दीनांचरतत्र यदा स एव षट्प्रदेशकः स्कन्धः पट्खाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-द्वी परमाणु द्वयोरा-INI मात्वादि काशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोः द्वौ तयोरेवाधः समश्रेणिव्यवस्थितयोराकाशप्रदेशयोः एकः श्रेणिद्वयमध्यभा-1| गसमणिस्थे प्रदेशे. एक उपरितनयोयोर्षिश्रेणिस्थे, स्थापना-तदा द्वावपरितनावेकथरमो द्वावधस्तनाविति चरमौ द्वी चावक्तव्यापिति, एकोनविंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यः, स चवं-यदा स षट्रप्रदेशकः स्कन्धः पट्खाका-11 शप्रदेशेषु एकपरिक्षेपेण विश्रेणिस्थैकाधिकमवगाहते, स्थापना-तदा एकवेष्टकाश्चत्वारः परमाणवः प्रागुक्तयुक्तरेकश्वरम एकोऽचरमो मध्यवर्ती एकोऽवक्तव्यः, यश्च विंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यौ च, स्थाना-स सप्तप्रदेशकस्यैवोपपद्यते न षट्प्रदेशकस्य, योऽप्येकविंशतितमश्चरमश्चाचरमौ चाबक्तव्यश्च, स्थाना-सोऽपि सप्तप्रदेशकस्यैव ॥२३९॥ न षट्प्रदेशकस्य, यस्तु द्वाविंशतितमश्चरमश्चाचरमौ चावक्तव्यौ च, स्थापना-सोऽष्टप्रदेशकस्यैवेति, त्रयोऽप्येते विंशत्यादयोऽत्र प्रतिषिद्धाः, यश्च त्रयोविंशतितमश्चरमौ चाचरमश्चावक्तव्यः, स एवं-यदा स एव षट्प्रदेशकः स्कन्ध दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] + गाथा: शताकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते-द्वी ही परमाणू द्वयोराकाशप्रदेशयोः एकस्तयोरेव समश्रेणिस्थे तृतीये आकाशप्रदेशे एको विश्रेणिस्थे इति, स्थापना-,तदा आद्यप्रदेशावगाढौ द्वौ परमाणू चरमस्तृतीयप्रदेशावगाढश्चरम इति द्वौ चरमौ द्वितीयप्रदेशावगाढौ द्वौ परमाणू घरमो विश्रेणिस्थोऽवक्तव्यः, चतुर्विंशतितमः चरमौ चाचरमश्चावक्तव्यौ च, तत्र यदा स एव षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-त्रिप्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वाये एकः द्वितीये एकः तृतीये द्वौ द्वयोर्विश्रेणिस्थयोरेकैक इति, स्थापना-,तदा आद्यन्तप्रदेशावगाढी चरमो मध्यावगाढोऽचरमः विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयाचगाढौ अवक्तव्यौ, पञ्चविंशतितमः चरमी चाचरमौ चावक्तव्यश्च, यदा स एव पट्रप्रदेशात्मकः स्कन्धः पञ्चसु प्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-चतुर्णाकाशप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेष्वाद्यप्रदेशत्रये एकैकश्चतुर्थे द्वौ पञ्चमे विश्रेणिस्थे एकः, स्थापना-, तदा आद्यन्तप्रदेशवर्तिनी चरमी मध्यप्रदेशद्वयवर्तिनी द्वावचरमी विश्रेणिप्रदेशस्थ एकोऽवक्तव्यः, पडूविंशतितमः चरमौ चाचरमौ चावक्तव्यौ च, स चैवं-यदा स षट्रप्रदेशकः स्कन्धः षट्स्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते18 स्थापना-तदा आयन्तप्रदेशावगाढौ द्वौ चरमी द्वौ मध्यप्रदेशावगाढायचरमौ द्वौ च विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयायगाढावव क्तव्याविति । 'सत्तपएसिए णं भंते ! खंधे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनमाह-'गोयमा! सत्तपएसिए णं खंधे सिय चरमे नो अचरम' इत्यादि, इह द्वितीय चतुर्थपञ्चमषष्ठपञ्चदशषोडशसप्तदशाष्टादशद्वाविंशतितमरूपा नव दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 483 ~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ - १५८] गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] पदं] [१०] उद्देशक: [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ........... प्रज्ञापना-: याः मल य० वृत्ती. ॥२४०॥ पत्र २३५ पृष्ठे १ चरमं १ एक बहुत्वे ६ ४ चरमाणि २ अचरमं ५ अचरमाणि ३ अवकव्यं ६ अवक्तव्यानि ड्रिंके १२ चरमाचरमयोः चतुर्भङ्गी चरमं अचरमं चरमं अचरमाणि चरमाणि अचरमं चरमाणि अधरमाणि “प्रज्ञापना" उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्तिः ) दारं [-1. मूलं [११४-१५८] + गाथा: (१-५) ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चरमाषकन्ययोः ४ ari resi चरमं अवक्तव्यानि चरमाणि अथकव्यं Eaton Internationa - * चिह्नात् परतोऽङ्कानुक्रमेण स्थापनाः प्राग् निर्दिष्टाः । चरमाणि अवक्तव्यानि सर्वानं २६ १४ १५ १६ अचरमावतव्ययोः ४ अचरमं अवरूव्यं अचरमं अवतव्यानि अचरमाणि अवक्तव्यं अचरमाणि अवक्तव्यानि बिके ८ च. १ च. १ च. १ अच १ अव. १ अब. ३ अय. १ अ. १ अ. ३ च. १ अच. ३ व. ३ अव १ च. ३ अच १ च. ३ अच. ३ च. ३ अच ३ अव. ३ अय. १ अव. ३ अ. १ अव. ३ २ ~484~ ९ १० ११ | १२ ११३ ०० jos/0 Ro 000028 For Pernal Use Only ००००० २६ ००० ०३७ ०००२७ ००० ००२८ ०० ०० ००३८ १७००,००० २९ ०० ००० ०३२ १८००००० ३०000000 ४० ००००० १९ 100 ३२ ३३ २०२२०००० ३४ २५ 10:01 000000 1000 10001 ३६... lola 100/00४१ 1000/ | GO १० चरमाचरमपदे परमाण्वादीनां चरमात्यादि ॥२४०॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ -१५८] + गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [१०], उद्देशक: [-], मूलं [१५७-१५८] + गाथा : (१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भङ्गाः प्रतिषेध्याः, शेषा उपादेयाः, वक्ष्यति च - “विचउत्थपंचछटुं पन्नरसोलं च सत्तरट्टारं । वज्जिय बाबीसइमं सेसा भंगा उ सत्तम ॥ १ ॥” तत्र व्यादीनामष्टादशपर्यन्तानां प्रतिषेधकारणं प्रागुक्तमनुसर्तव्यं न केवलमत्र किन्तु सर्वेव्यप्युत्तरेषु स्कन्धेषु यस्तु द्वाविंशतितमः सोऽष्टप्रदेशकस्यैव घटते न सप्तप्रदेशकस्येत्युक्तं प्राक्, तत इह प्रतिषेधः, शेपास्तु प्रथमादयः षड्विंशतितमपर्यन्ताः सप्तदश भङ्गाः पप्रदेशकस्कन्धस्येव भावनीयाः, केवलं विनेयजनानुग्रहाय | स्थापनामात्रेणोपददर्शन्ते---प्रथमो भङ्गश्वरमभङ्गः ॥ तृतीयोऽवक्तव्यः सप्तमश्वरमश्चाचरमश्च न अष्टमश्चरमथाचरमीच 10 नवमथरमौ चाचरमश्च |:::. | दशमधरमी चाचरमौ च । एकादशश्वरमश्वावक्तव्यश्च ||•| द्वादशश्चरमश्चावक्तव्यौ च त्रयोदशश्चरमौ चावक्तव्यश्च :: चतुर्दशश्चरमौ चाबक्तव्यो च! एकोनविंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यश्थ : विंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यौ च एकविंशतितमश्वरमथाचरमौ चावक्तव्यश्च त्रयोविंशतितमश्वरमौ चाचरमश्चायक्तव्यश्च :::/-/ चतुवैिशतितमश्वरमौ चाचरमश्चावक्तव्यश्च पञ्चविंशतितमश्वरमौ चाचरमौ चावक्तव्यश्थ :::: पविंशतितमश्वरमाँ चाचरमौ चावक्तव्यौ च |oo|| । इह यस्मात्सप्तप्रादेशिकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते द्वयोरपि त्रिष्वपि Education Internation For Parts Only ~ 485 ~ wor Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥२४॥ गाथा: eseacoticerserceneselaeococcere यावत्सप्तखपि तत एवं भङ्गाः संभवन्ति ॥ 'अट्टपएसिए णं भंते ! खंधे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनसूत्र १०चरमाश'अट्ठपएसिए णं बंधे सिय चरमे' इत्यादि, अत्र द्वितीयचतुर्थपञ्चमपष्टपञ्चदशषोडशससदशाष्टादशरूपा अष्टीचरमपदं भङ्गाः प्रतिषेध्याः, शेषा प्रायाः, वक्ष्यति च-बिचउत्थपंचछर्ट पन्नर सोलं च सत्तरष्ट्रारं । एए बजिय भंगा सेसा सेसेसु खंधेसु ॥१॥" सगमा, नवरं 'सेसा सेसेसु खंधेसु' इति शेषाः भवाः शेषेषु सप्तप्रदेशकात् स्कन्धादितरेषु-अष्टप्रदेशादिकेषु सर्वेषु स्कन्धेषु द्रष्टव्याः, अन्ये त्यमुत्तरार्द्धं पठन्ति-"एए वज्जिय भंगा तेण | |परमवट्ठिया सेसा" सुगम, तेच प्रथमादयो भङ्गाः षड्विंशतिपर्यन्ता अष्टादश भावनातः स्थापनातश्च प्रारबद्र |भावनीयाः, नवरं 'चरमश्चाचरमौ चावक्तव्यौ च' इत्येवंरूपो द्वाविंशतितमो भगः स्थापनात एवं नान! । अथ || द्विप्रदेशकादिषु स्कन्धेषु अवक्तव्यौ इत्येवंरूपः षष्ठो भङ्गः कस्मात्प्रतिषिध्यते ?, तस्यापि युक्तितः संभवभावात्, तथाहि-यदैकः परमाणुरेकस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वितीयो विश्रेणिस्थे प्रदेशे, स्थापना- तथा एकोऽप्यवक्तव्यो द्वितीयोऽप्यवक्तव्य इति भवत्यवक्तव्याविति भङ्गः, त्रिप्रदेशकचिन्तायामेकस्मिन्नेकः परमाणुः अपरस्मिन् द्वौ Jool" चतुष्प्रदेशकचिन्तायां प्रत्येकं द्वौ द्वौ परमाणू ! इत्यादि, सत्यमेतत् , केवलमेवरूपं जगति द्रव्यमेव नास्ति, कथमेतदवसितम् ? इति चेत्, उच्यते, अत एव प्रतिषेधवचनात् , यदि हि तथारूपं द्रव्यं संभवेद् नाचार्यः प्रतिषेध कुर्यादिति, यदिवा संभवेऽपि जातिपरनिर्देशात् तृतीयभङ्गक एवान्तर्भावो वेदितव्यः । यथा चाष्टप्रदेशके स्कन्धे ॥२४शा दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -1, ----------- दारं [-], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: 9090saceaepene3870 भङ्गाः प्रतिषेध्या विधेयाश्चोक्तास्तथा संख्यातप्रदेशके असंङ्ख्यातप्रदेशके च प्रत्येकं वक्तव्याः, तथा चाह-संखेजपए-18 सिए असंखेजपएसिए' इत्यादि, पाठसिद्धं, नवरमियं सर्वत्र भावना-यस्मादेकादिष्वप्याकाशप्रदेशेष्वष्टप्रदेशकादीनां स्कन्धानामवगाहो भवति तथा(तो)घटन्ते यथोक्ताः सर्वेऽपि भङ्गाः, नन्वसंख्यातप्रदेशात्मकस्यानन्तप्रदेशात्मकस्य |च स्कन्धस्य कथमेकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहः १, उच्यते, [तथा] तथामाहात्म्यात् , न चैतदनुपपन्नं, युक्तितः सम्भाव्यमानत्वात् , तथाहि-अनन्तानन्ता द्विप्रदेशकाः स्कन्धा यावदनन्तानन्ताः संख्येयप्रदेशात्मकाः अनन्तानन्ता असंख्येयप्रदेशात्मकाः स्कन्धा अनन्तानन्ता अनन्तप्रदेशात्मकाः, लोकश्च सर्वात्मनाऽप्यसंख्येयप्रदेशात्मकस्ते च सर्वेऽपि लोक एवायगाढा नालोके, ततोऽवसीयते सन्त्येकस्सिन्नप्याकाशप्रदेशेऽवगाढा बहवः परमाणवो बहवो। द्विप्रदेशकाः स्कन्धाः यावद्वहवोऽनन्तप्रदेशात्मकाः स्कन्धाः, तथा चात्र पूर्वसूरयः प्रदीपदृष्टान्तमुपवर्णयन्ति-यथैकस्य प्रदीपस्य गृहमध्ये प्रज्वलितस्य प्रभापरमाणवः सर्वमेव गृहं प्रामुवन्ति तथा प्रत्येक प्रदीपसहस्रस्थापि, न च । प्रतिप्रदीपं प्रभापरमाणवो न भिन्नाः, प्रतिप्रदीपे पुरुषस्य मध्यस्थितस्य छायादिदर्शनात् , ततो यथते स्थूला अपि प्रदीपप्रभापरमाणवः एकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे बहवो मान्ति तथा परमाण्वादयोऽपीति न कश्चिद्दोषः, आकाशस्य तथा तथाऽवकाशदानखभावतया वस्तूनां च विचित्रपरिणमनखभावतया विरोधाभावात् , सम्प्रति परमाण्वादिषु ये भङ्गा ग्रायाः ये च षष्ठादिषु न पाह्यास्तत्सङ्घाहिकाः संग्रहणिगाथा आह-'परमाणुंमि य तइओ' इत्यादि, दीप अनुक्रम [३६४-३७१] CEScenetटिकटहर ~ 487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापना-पाठसिद्धं, भावितार्थत्वात् , नपरं षट्प्रदेशादिचिन्तायां प्रतिषेच्या भङ्गाः स्तोका इति लाघवार्थ त एष संगृहीताः चरमायाः मल- इहानन्तरं स्कन्धाना चरमाचरमादिवक्तव्यतोक्ता, स्कन्धाश्च यथायोगं परिमण्डलादिसंस्थानवन्तो भवन्ति इत्यतःचरमपदं यवृत्ती. संस्थानवक्तव्यतामाह॥२४॥ कह णं भंते ! संठाणा पं०, गो० पंच संठाणा पं०, तं०-परिमंडले बट्टे तसे चउरंसे आयते य । परिमंडला पं भंते ! संठाणा किं संखेजा असंखेजा अर्णता, गो! नो संखिज्जा नो असंखेजा अर्णता, एवं जाव आयता । परिमंडले ण भंते ! संठाणे किं संखेञ्जपएसिए असंखेञ्जपदेसिए अणंतपदेशिए, गो०! सिय संखेजपएसिए सिय असंखेञ्जपएसिए सिय अणंतपदेसिए एवं जाव आयते । परिमंडले णं भंते ! संठाणे संखेजपएसिए कि सैखेजपएसोगाढे असंखे अपएसोगाढे अणंतपएसोगाढे, गो०! संखेजपएसोगाढे नो असंखेजपएसोगाढे नो अर्णतपएसोगाढे, एवं जाव आयते, परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेजपएसिए कि संखेजपएसोगाढे असंखेजपएसोगाढे अर्थतपएसोगाढे, गो! सिय संखेजपएसोगाढे सिय असंखेजपएसोगाढे नो अर्णतपएसोगाढे एवं जाव आयते, परिमंडलेणं भंते ! संठाणे अणंतपए ॥२४२॥ सिए कि संखेजपएसोगाढे असंखेजपएसोगाढे अर्णतपएसोगाढे, गो.! सिय संखेजपएसोगाढे सिय असंखेजपएसोगाढे नो अर्थतपएसोगाडे, एवं जाव आयते । परिमंडलेणं भंते ! संदाणे संखेजपएसिए संखेजपएसोगाढे किं चरमे अचरमे चस्माई अचरमाई चरमंतपएसा अचरमंतपएसा, गो.! परिमंडले ण संठाणे संखेजपएसिए संखेजपएसोगाडे Oper28290399 गाथा: दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५९] दीप अनुक्रम [३७२] Educator “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [१०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. resesesesesenteseses मूलं [१९५९] उद्देशक: [ - ], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः नो चरमे नो अचरमे नो चरमाई नो अचरमाई नो चरमंतपरसा नो अचरमंतपएसा, नियमं अचरमं चरमाणि य चरमंतपसा य अचरतपसा य, एवं जाब आयते, परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेज्जपएसिए संखेज्जपएसोगाटे किं. चरमेव पुच्छा, गो० ! असंखेज्जपएसिए संखेज्जपएसोगाढे जहा संखेज्जपएसिए, एवं जाव आयते, परिमंडले णं भंते ! ठाणे असंखेजपएसए असंखेजपएसोगाढे किं चरमे पुच्छा, गो० ! असंखिजपएसिए असंखिअपएसोगाढे नो चरमे जहा संखेज्जपदेशोगाडे एवं जाव आयते, परिमंडले णं भंते! संठाने अणतपएसिए संखिज्जपएसोगाढे किं चरमे ० पुच्छा, गो० ! तहेव जाव आयते, अणतपएसिए असंखेज्जपरसोगाढे जहा संखेज्जपएसोगाढे, एवं जाव आयते । परिमंडलसणं भंते! संठाणस्स संखेजपए सियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स अचरिमस्स व चरिमाण य चरमंतपदेसाण य अचरमंतपएसाण य दबट्टयाए परसट्टयाए दबटुपए सट्टयाए कयरेरहिंतो अ० ० ० वि० १, गो० ! सहत्थोवे परिमंडलस्स संठाणरस संखेज्जपएसियस्स संखेअपएसोगाढस्स दवट्टयाए एगे अचस्मेि चरिभाई संखेजगुणाई अचरमं चरमाणि य दोऽकि विसेसाहियात पदेसट्टयाए सवत्थोवा परिमंडलस्स संठाणस्स संखिजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स चरमंतपएसा अचरतपरसा संखेज्जगुणा चरमंतपएसा य अचरमंतपरसा य दोऽषि विसेसाहिया दट्ठपएसट्टयाए सहत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स संखेज्जपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स दबट्टयाए एगे अचरिमे चरिमाई संखेज्जगुणाति अचरमं च चरमाणि य दोवि विसेसाहियातिं चरमंतपसा संखेजगुणा अचरिमंतपएसा संखेजगुणा चरिमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया एवं वहतंसचउरंसायएसुवि जोएयवं । परिमंडलस्स पं. भंते!. संठाणस्स असंखेज्जपएसियस्स संखेज्जपर For Parts Only ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना याः मलयवृत्ती. १०चरमाचरमपदं प्रत सूत्रांक [१५९] ॥२४॥ दीप अनुक्रम सोगाढस्स अचरमस्स चरमाण य चरमंतपएसाण य अचरमंतपएसाण य दवट्टयाए पएसहयाए दबहुपएसट्टयाए कयरे२ हितो अ०० तु० वि०१, गो०! सवत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेजपएसिअस्स संखेजपएसोगाढस्स दवट्ठयाए एगे अपरमे परमार्ति संखेजगुणातिं, अचरमं च चरमाणि य दोषि विसेसाहियाति पदेसहयाते सबथोवा परिमडलसंठागरस असंखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स चरमंतपएसा अचरमंतपएसा संखिजगुणा चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया दबहपएसद्वयाए सव्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स दबयाए एगे अचरिमे चरमाति संखेजगुणाति अचरमं च चरमाणि य दोवि विसेसाहियाति चरमंतपएसा संखेजगुणा अचरमतपएसा संखेनगुणा चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया, एवं जाव आयते । परिमंडलस्स णं भंते! संठाणस्स असंखेजपएसियस्स असंखेजपएसोगाढस्स अचरमस्स चरमाण य चरमंतपएसाण य अचरमंतपएसाण य दबट्टयाए पएसद्वयाए दबदुपएसट्टयाए कपरेशहितो अ००तु०वि०, गो! जहा रयणप्पभाए अप्पावहुयं तहेब निरवसेस भाणिया, एवं जाव आयते । परिमंडलस्स ण भंते ! संठाणस्स अणंतपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स अचरिमस्स य ४ दबट्टयाए ३ कयरेशहितो अब तु०वि०१, गो० जहा संखेजपएसिअस्स संखेजपएसोगाढस्स, नवरं संकमेणं अणंतगुणा, एवंजाब आयए, परिमंडलस्स णं भंते । संठाणस्स अणंतपएसियस्स असंखेअपएसोगाढस्स अचरमस्स य जहा रयणप्पभाए, नवरं संकमे अणतगुणा, एवं जाव आयते (सूत्रं १५९)॥ [३७२] ॥२४॥ ~ 490~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] दीप अनुक्रम | 'कह णं भंते ! संठाणा पं०' इत्यादि सुगम, परिमण्डलादीनां संस्थानानां खरूपस्याधः प्रथमपद एव सविस्तरं प्ररूपितत्वात् शेष पाठसिद्धं, नवरं 'परिमंडले णं भंते ! संठाणे संखेजपएसिए कि संखेजपएसोगाढे पुच्छा, गो० ! संखेजपएसोगाढे नो असंखेजपएसोगाढे नो अणंतपएसोगाढे' इति यस्मात् तस्य सङ्ख्येया एव प्रदेशास्ततः कथमसङ्ख्येयेष्वनन्तेषु वा प्रदेशेष्ववगाहते इति, असङ्ख्यातप्रदेशात्मकमनन्तप्रदेशात्मकं वा पुनः परिमण्डलसंस्थान सङ्ख्ययेष्वसद्धयेयेषु वा प्रदेशेष्ववगाहते विरोधाभावान्नानन्तप्रदेशेषु असङ्ख्यातप्रदेशात्मकस्थानन्तेषु प्रदेशेष्यवगाहनाविरोधात्, अनन्तप्रदेशात्मकस्यापि विरोध एव, यस्मालोकोऽप्यसलयातप्रदेशात्मक एव, लोकादन्यत्र च पुद्गलानां गत्यसम्भवः, तस्मादनन्तप्रदेशिकमप्यसङ्ख्येयेषु प्रदेशेष्ववगाहते नानन्तेषु, एवं वृत्तादीन्यपि संस्थानानि प्रत्येक भावनीयानि, सङ्घवातप्रदेशासङ्ख्यातप्रदेशानन्तप्रदेशपरिमण्डलादिसंस्थानचरमाचरमादिचिन्तायां निर्वचनसूत्राणि रत्नप्रभाया इव प्रत्येतव्यानि, अनेकावयवाविभागात्मकत्वविवक्षायामचरमं च चरमाणि चेति निर्वचनं प्रदेशविवक्षायां चरमान्तप्रदेशाचाचरमान्तप्रदेशाश्च । सम्प्रति सङ्ख्यातप्रदेशस्य सङ्ख्यातप्रदेशावगाढस्य परिमण्डलादेश्वरमाचरमादिविषयमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह-'परिमंडलस्स णं भंते !' इत्यादि, सुगमं नवरं द्रव्यार्थताचिन्तायां 'चरमाणि संखे. जगुणाई' इति सर्वात्मना परिमण्डलसंस्थानस्य सङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वात् , असङ्ख्यातप्रदेशस्थासङ्ख्यातप्रदेशावगाढस्याल्पवहुत्वं रत्नप्रभाया इस भावनीयं, अनन्तप्रदेशकस्याप्यसङ्ख्यातप्रदेशावगाढस्य, नवरं 'सङ्कमे अनन्तगुणा' इति [३७२] ~ 491~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलय. वृत्ती. १०चरमाचरमपदं INI प्रत सूत्रांक [१५९]] ॥२४४॥ दीप अनुक्रम क्षेत्रचिन्तातो यदा द्रव्यचिन्तां प्रति सङ्क्रमणं तदा तानि चरमाण्यनन्तगुणानि वक्तव्यानि, तद्यथा-'सवत्थोवे एगे अचरम चरमाई खेत्ततो असंखेजगुणाई दवओ अणंतगुणाई अचरमं चरमाणि य दोषि विसेसाहियाई' इति तदेवं संस्थानान्यपि घरमाचरमादिविभागेन चिन्तितानि, सम्प्रति जीवादीन् चरमाचरमविभागेन चिन्तयति, जीवे णं भंते ! गतिचरमेणं किं चरमे अचरमे ?, गो! सिय चरमे सिय अचरमे, नेरइए ण भंते ! गतिचरमेणं किं चरिमे अचरिमे ?, गो! सिय चरमे सिय अचरम एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! गतिचरमेणं किं चरिमा अचरिमा, गो० चरिमावि अचरिमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए णं भंते! ठितीचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो०! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! ठितीचरमेणं किं चरमा अचरमा, गो०! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव येमाणिया । नेरइया णं भंते ! भवचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो01 सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! भवचरमेणं किं चरमा अचरमा, गो! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरहए णं भंते ! भासाचरमेणं किं चरमे अचरमे, गो. सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतर जाव बेमाणिए, नेरइया मते ! भासाचरमेणं किं चरमा अचरमा, मो.! चरमावि अचरमावि, एवं जाव एगिदियवजा, निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! आणापाणुचरमेणं किं चरमे अचरमे, गो! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरहया ण भंते ! आणापाणुचरमेणं किं चरमा अच [३७२] | ॥२४४॥ For P OW ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [१६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६०] रसद गाथा रमा ?, गो.! चरमावि अचरमाचि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! आहारचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो। सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरझ्या णं भंते ! आहारचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गोचरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! भावचरमेणं किं चरमे अचरमे, मो.! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरंजाब माणिए, नेरइया णं भंते! भावचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए णं भंते ! वष्णचरमेणं किं चरमे अचरमे 1, गो! सिय चरमे सिव अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! वण्णचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो! चरिमावि अचरिमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरदए णं भंते! गंधचरमेणं किं चरमे अचरमे, मो०! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव बेमाणिए, नेरइया णं भंते ! गंधचरमेणं किं चरमा अचरमा', गो.! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए ण भंते ! रसचरमेणं किं चरमे अचरमे, गो.! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतर जाव येमाणिए, नेरइया पं भंते । रसचरमेणं कि चरमा अचरमा , गो०। चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! फासचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो०! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव बेमाणिए, नेरइया णं भंते ! फासचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो०! चरमावि अचरमावि एवं जाव वेमाणिया । संगहणिगाहा-"गतिठिइभवे य भासा आणापाणुचरमे य बोद्धबा । आहारभावचरमे वण्णरसे गंधफासे य ॥१॥" दसमं चरमपदं समनं (मूत्रम् १६०)॥ दीप अनुक्रम [३७३ -३७४] Saintairatunacha ~ 493~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-1, ------------ मूलं [१६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६०] गाथा प्रज्ञापना- 'जीवे णं भंते ! गइचरमेणं किं चरमे?' इत्यादि, गतिपर्यायरूपं चरमं गतिचरमं तेन जीवो भदन्त ! चिन्त्यमानः किं या: मल- चरमः अचरमः, भगवानाह-हे गौतम । स्यात् चरमः स्थादचरमः, कधिचरमः कश्चिदचरम इत्यर्थः, तत्र यः १०चरमाय०वृत्ती. चरमपदं पृच्छासमये सामर्थ्यान्मनुष्यगतिरूपे पर्याये वर्तमानोऽनन्तरं न किमपि गतिपर्यायमवाप्स्यति, किन्तु मुक्त एव ॥२४॥ भविता स गतिचरमः, शेषस्त्वगतिचरम इति, नेरइए णं भंते ! गइचरमे' इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! गतिचरमेण सामर्थ्यान्नरकगतिपर्यायरूपेण चरमेण चिन्त्यमानः किं चरमः अचरमो वा ?, भगवानाह-गौतम ! स्याचरमः स्थादचरमो, नरकगतिपर्यायादुद्धृतो न भूयोऽपि नरकगतिपर्यायमनुभविष्यति स चरमः शेषस्त्वचरमः, एवं चतु विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद् वक्तव्यं यावद् वैमानिको-बैमानिकसूत्रं, बहुवचनदण्डकसूत्रे निर्वचनं 'चरमावि || IM अचरमावि' इति, पृच्छासमये ये केचन नैरयिकास्तेषां मध्येऽवश्यं केचन नरयिकगतिपर्यायेण चरमा इतरे त्वचरमा स्तत एकमेवेदमत्र निर्वचनं-चरमा अपि अचरमा अपि, एवं सर्वस्थानेष्वपि तां तां गतिमधिकृत्य भावनीयं । 'नेरइए भिंते ! ठिइचरमेणं' इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! तत्रैव नरकेषु चरमसमये स्थितिपर्यायरूपेण चरमेण चिन्यमानः किं चरमोऽचरमो वा ?, भगवानाह-स्याचरमः स्यादचरमः, किमुक्तं भवति ?-यो भूयोऽपि नरकमागत्य स्थितिच- २४५॥ रमसमयं प्राप्स्यति सोऽचरमः शेषस्तु चरमः, एवं निरन्तरं यावद् वैमानिकः, बहुत्वदण्डकचिन्तायां 'चरमावि -अचरमावि' इति, इह ये पृच्छासमये स्थितिचरमसमये वर्तन्ते, ते चिन्त्यन्ते इत्येतन्न, अन्यथा उद्वर्तनाया विरह दीप अनुक्रम [३७३ -३७४] ~ 494 ~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६० ] + गाथा दीप अनुक्रम [३७३ -३७४] पदं [१०], मूलं [१६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] उद्देशकः [-], स्यापि सम्भवात् एकादीनामपि चोद्वर्त्तनाया भावात् 'चरमावि अचरमावी'त्युभयत्राप्यवश्यंभाविना बहुवचनेन निर्वचनं नोपपद्यते, किन्तु ये पृच्छासमये वर्त्तन्ते ते क्रमेण स्ववस्थितिचरमसमयं प्राप्ताः सन्तस्तेन रूपेण चरमा अचरमा वा इत्येतचिन्तनेन उपपद्यते यथोक्तं निर्वचनमिति भवचरमसूत्रं गतिचरमसूत्रवत्, 'नेरइए णं भंते ! भासाचरमेण' मित्यादि, भाषाचरमं चरमभाषा, ततोऽयमर्थः नैरयिको भदन्त ! चरमया भाषया किं चरमोऽचरमो वा?, शेषं सुगमं, बहुवचनसूत्रे प्रश्नभावार्थों-ये पृच्छासमये नारका ते स्वकालक्रमेण चरमां भाषां प्राप्ताः सन्तः तया चरमया भाषया चरमा अचरमा वा इति, ततो निर्वचनसूत्रमप्युपपन्नं, एवमुच्छ्वासाहारसूत्रे अपि भावनीये, भाव औदयिकः, शेषं सुगमं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां दशमं चरमाख्यं पदं समाप्तम् ॥ १० ॥ एकादशं भाषापदम् । तदेवं व्याख्यातं दशमं पदं, इदानीमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे सत्त्वानां यदुपपातक्षेत्रं रत्नप्रभादि तस्य चरमाचरमविभागः प्रतिपादितः, इह [सत्या १ मृषा २ सत्यामृषा ३ असत्यामृषा ४] भाषापर्याप्तानां सत्यादिभाषाविभागोपदर्शनं क्रियते, तत्र वेदमादिसूत्रम् Jucaton Internation अत्र पद (१०) "चरिम" परिसमाप्तम् For Pernal Use Only अथ पद (११) "भाषा" आरभ्यते ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया:मलय. वृत्ती . [१६१ ॥२४॥ दीप अनुक्रम [३७५] से पूर्ण मते ! मण्णामीति ओहारिणी भासा चिंतेमीति ओहारिणी भासा अह मण्णामीति ओधारिणी भासा अह चिंते- ११भाषामीति ओधारणी भासा तह मण्णामीति ओधारिणी भासा तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा !, हंता गो० मण्यामीति ओधारिणी भासा चिंतेमीति ओधारिणी भासा अह मण्णामीति ओधारिणी भासा अह चिंतेमीति ओधा तह मण्णामीति ओधा० तह चिंतेमीति ओधा०, ओहारिणी णं भंते ! भासा किं सच्चा मोसा सच्चामोसा असञ्चामोसा, गो! सिय सचा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असचामोसा, से केणडेणं भंते ! एवं पति-ओधारिणी णं भासा सिय संचा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असचामोसा?, गो.! आराहिणी सच्चा विराहिणी मोसा आराहणविराहिणी सञ्चामोसा जाणेव आराहणी व विराहिणी गेवाराहणविरहिणी सा असच्चामोसा णाम सा चउत्थी भासा, से तेणटेणं गोषमा! एवं बुञ्चति-ओहारिणी णं भासा सिय सच्चा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असच्चामोसा (सूत्रं १६१)॥ 'से णूणं भंते ! मण्णामि इति ओहारिणी भासा' इत्यादि, सेशब्दो अधशब्दार्थः, स च वाक्योपन्यासे, नून-12 मुषमानावधारणतर्कप्रश्नहेतुषु इहावधारणे, भदन्त ! इत्यामन्त्रणे, मन्ये-अवबुध्ये इति-एवं, यदुत अवधारणी भाषा अवधार्यते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेत्यवधारणी-अवबोधबीजभूता इत्यर्थः, भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया ॥२४॥ परिणामितनिसृज्यमानद्रव्यसंहतिः, एष पदार्थः, वाक्यार्थः पुनरयं-अथ भदन्त ! एवमहं मन्ये, यदुतावश्यम-1 वधारणी भाषेति, न चैतत् सकृत् अनालोच्यैव मन्ये, किन्तु चिन्तयामि युक्तिद्वारेणापि परिभावयामीति-एवं Saa भाषाया: विविध-भेदा: ~ 496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [ ३७५] पदं [११], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [१६१] उद्देशक: [ - ], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः यदुत अवधारणीयं भाषेति, एवमात्मीयमभिप्रायं भगवते निवेद्याधिकृतार्थविनिश्चयनिमित्तमेवं भगवन्तं पृच्छति - 'अह मण्णामी इइ ओहारिणी भासा' इति, 'अथ - प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्ग लोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु' इह प्रश्ने, | काका चास्य सूत्रस्य पाठस्ततोऽयमर्थः - अथ - भगवन्नेवमहं मन्ये एवमहं मननं कुर्या, यथा- अवधारणी भाषेति, द्वितीयाभिप्रायनिवेदनमधिकृत्य प्रश्नमाह - 'अह चिंतेमी ओहारिणी भासा' इति, अथ भगवन् ! एवमहं चिन्तयामि ? – एवमहं चिन्तनं कुर्यां यदुतावधारिणी भाषेति निरवद्यमेतदित्यभिप्रायः सम्प्रति पृच्छासमयात् यथा पूर्व मननं चिन्तनं वा कृतवानिदानीमपि पृच्छासमये तथैव मननं चिन्तनं वा करोमि नान्यथेति भगवतो ज्ञानेन | संवादयितुकामः पृच्छति- 'तह मन्नामी इति ओहारिणी भासा तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा' इति, 'तथेति | समुच्चयनिर्देशावधारण सा दृश्यप्रभेषु' इह निर्देशे, काका चास्यापि पाठः, ततः प्रश्नार्थत्वावगतिः, भगवन् ! यथा पूर्व मतवानिदानीमप्यहं तथा मन्ये इति — एवं यदुत अवधारिणी भाषेति किमुक्तं भवति १ – नेदानीन्तनमननस्य पूर्वमननस्य च मदीयस्य कश्विद्विशेषोऽस्त्येतत् भगवन्निति, तथा यथा पूर्व भगवन् ! चिन्तितवान् इदानी| मप्यहं तथा चिन्तयामि इति एवं यदुत अवधारणी भाषेति, अस्त्येतदिति १, एवं गौतमेनाभिप्रायनिवेदने प्रश्ने च कृते भगवानाह 'हंता गोयमा ! मन्नामी इति ओहारिणी भासा' इति, 'हन्तेति सम्प्रेषणप्रत्यवधारणविवादेषु' इह प्रत्यवधारणे, मन्नामी इत्यादीनि क्रियापदानि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च युष्मदर्थेऽपि प्रयुज्यन्ते, ततोऽ Internationa For Parts Only ~ 497 ~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. पदं [१६१ ||२४७॥ दीप अनुक्रम [३७५] यमर्थ:-हन्त गौतम! मन्यसे त्वं यदुत अवधारणी भाषेति जानाम्यहं केवलज्ञानेनेदमियभिप्रायः, तथा चिन्तयसि भाषात्वमित्येवं यदुतावधारणी भाषेति इदमप्यहं वेनि केवलित्वात् , 'अह मन्नामी इति ओहारिणी भासा' इति अथेत्या-11 नन्तर्ये, मत्सम्मतत्वात् , ऊर्दू निःशकं मन्यख, इति-एवं यदुतावधारिणी भाषेति, अथ इत ऊ निःशकं चिन्तयः । इति-एवं यदुतावधारणी भाषेति, अतीवेदं साध्वनवद्यमित्यभिप्रायः, तथा तथा-अविकलं परिपूर्ण मन्यख इतिएवं यदुतावधारणी भाषेति यथा पूर्व मतवान् , किमुक्तं भवति ?-यथा त्वया पूर्व मननं कृतमिदानीमपि मत्सम्म-1 तत्वात् सर्व तथैव मन्यख मा मनागपि शङ्का कार्षीरिति, तथा तथा-अविकलं परिपूर्ण चिन्तय इति-एवं यदुत अवधारिणी भाषेति, यथा पूर्व चिन्तितवान् , मा मनागपि शतिष्ठा इति, तदेवं भाषा अवधारणीति निर्णीतमि-18 दानीमियमवधारिणी भाषा सत्या उत मृषेत्यादिनिर्णयार्थ पृच्छति-'ओहारिणी ण भंते !' इत्यादि, अवधारिणीअवबोधवीजभूता, णमिति प्राम्बत् , भदन्त ! भाषा किं सत्या मृषा सत्यामृषा असत्यामृपा ? इति, तत्र सन्तोमुनयस्तेषामेव भगवदाज्ञासम्यगाराधकतया परमशिष्टत्वात् सभ्यो हिता-इहपरलोकाराधकत्वेन मुक्तिप्रापिका सत्या, युगादिपाठाभ्युपगमात् यः प्रत्ययः, यद्वा यो यस्मै हितः स तत्र साधुरिति सत्सु साध्वी सत्या, 'तत्र साधा-8॥२७॥ विति यः प्रत्ययः, यदिवा सन्तो-मूलोत्तरगुणास्तेषामेव जगति मुक्तिपदप्रापकतया परमशोभनत्वात् अथवा सन्तो-विद्यमानास्ते च भगवदुपदिष्टा एव जीवादयः पदार्थाः अन्येषां कल्पनामात्ररचितसत्ताकतया तत्त्वत्तोऽस ~ 498~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [३७५] त्वात् तेभ्यो हिता तेषु साध्वी वा यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणेन सत्या, विपरीतखरूपा मृषा, उभयखभावा सत्या-18 मृषा, या पुनस्तिसृष्वपि भाषाखनधिकृता-तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्त विनी सा आमन्त्रणाज्ञापनादिविषया असत्यामृषा, उक्तंच-"सचा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्या वा । तबिवरीया मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ॥१॥ अणहिगया जा तीसुवि सद्दो चिय केवलो असचमुसा" इति, भगवानाह-गौतम ! सिय सञ्चा' | इत्यादि, स्थात् सत्या सत्याऽपि भवतीत्यर्थः, एवं स्यादसत्या स्यात्सत्यामृषा स्वादसत्यामृषेति, अत्रैवार्थे प्रश्नमाहRAIसे केणट्रेणं भंते ! इत्यादि, सुगम, भगवानाह-गौतम! आराधनी सत्या, इह विप्रतिपत्ती सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाप नबुद्ध्या या सर्वज्ञमतानुसारेण भाष्यते अस्त्यात्मा सदसन्नित्यानित्याधनेकधर्मकलापालिङ्गित इत्यादि सा यथावस्थिशतबरुत्वभिधायिनी आराध्यते मोक्षमार्गोऽनयेत्याराधनी, आराधिनीत्वात् ससेति, विराधिनी मृषेति, विराध्यते मुक्तिमार्गोऽनयेति विराधिनी, विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतप्रातिकूल्येन या भाष्यते यथा नास्त्यात्मा एकान्तनित्यो वेत्यादि तथा सत्याऽपि परपीडोत्पादिका सा विपरीतवस्त्यभिधानात् परपीडाहेतुत्वाद्वा मुक्तिविराधनाद्विराधनी विराधिनीत्वाच मृषेति, या तु किञ्चन नगरं पत्तनं वाऽधिकृत्य पञ्चसु दारकेषु जातेष्वेवमभिधीयते, यथाऽस्मिन् अथ दश दारका जाता इति सा परिस्थूरव्यवहारनयमतेन आराधनविराधिनी, इयं हि पञ्चानां दारकाणां यजन्म तावताऽशेन संवादनसम्भवादाराधिनी, दश न पूर्यन्ते इत्येतावताशेन विसंवादसम्भवात् विरा For P OW ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१६१] ११भाषापद ॥२४८॥ Reseatseeeee दीप अनुक्रम [३७५] धिनी, आराधिनी चासौ पिराधिनी च आराधनविराधिनी, कर्मधारयत्वात् पुंवभावः, आराधनविराधिनीत्वाच सत्यामृपा, या तु नैवाराधनी तलक्षणविगमात् नापि विराधिनी विपरीतवस्त्वभिधानाभावात् परपीडाहेतुत्वाभावा- च नाप्याराधनविराधिनी एकदेशसंवादविसंवादाभावात् , हे साधो ! प्रतिक्रमणं कुरु स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षखेत्या|दिव्यवहारपतिता आमन्त्रिण्यादिभेदभिन्ना सा असत्यामृषा नाम चतुर्थी भाषा, से एएण?ण मित्याद्युपसंहारवाक्यं ॥ इह यथावस्थितवस्तुतत्त्वाभिधायिनी भाषा आराधिनीत्वात् सत्येत्युक्तं, ततः संशयापनस्तदपनोदाय पृच्छति अह भंते! गाओ मिया पमू पक्खी पण्णवणीणं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो! जा य गाओ मिया पम् पक्खी पण्णयणी णं एसा भासा, [पण्णवणी] ण एसा भासा मोसा, अह भंते ! जा य इत्थीवऊ जा य पुरिसबऊ जा यणपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो०! जा य इत्थीवऊ जा य पुमवऊ जा य नपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा, अह भंते ! जा य इथिआणमणी जा य पुमआणवणी जा य नपुंसगआणमणी पणवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो०जा य इथिआणवणी जा य पुमआणवणी जा य नपुंसगआणवणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा । अहं भंते ! जा य इस्थिपण्णवणी जा य पुमपण्णवी जाय नपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो! जा य इत्थिपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी जा य नपुंसगपण्णवणी, पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, अह भंते ! जा जायीति इथिवऊ एecenecenesences ॥२४८॥ ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] जातीइ पुमवऊ जातीति णपुंसमवऊ पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हता! गो.! जातीति इस्थिवऊ जाईति पुमवऊ जातीति गपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा । अह भंते ! जा जातीइ इत्थियाणमणी जाइनि पुमआणवणी जातीति गपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा, हता! गो.! जातीति इस्थिआणमणी जातीति पुमआणवणी जातीति णपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा । अह भंते ! जातीति इस्थिपण्णवणी जातीति पुमपण्णवणी जातीति णापुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा ?, हंता ! गो० ! जातीति इत्थिपण्णवणी जाईति घुमपण्णवणी जाईति गपुंसगपण्णवणी पाणवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा (सूत्र १६२) 'अह भंते ! गाओ मिया' इत्यादि. अथ भदन्त! गावः प्रतीताः, मृगा अपि प्रतीताः, पशवः-अजाः, पक्षिणोऽपि प्रतीताः, प्रज्ञापनी प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, किं अर्थप्रतिपादनी?,प्ररूपणीयेतियावत् , णमिति वाक्यालङ्कारे, एषा भाषा सत्या नैषा भाषा मृति, इयमत्र भावना-गाव इति भापा गोजाति प्रतिपादयति, जातौ च त्रिलिङ्गा अप्यथा अभिधेयाः, लिङ्गत्रयस्यापि जाती सम्भवात्, एवं मृगपशुपक्षिष्वपि भावनीयं, न चैते शब्दास्त्रिलिङ्गाभि-18 धायिनस्तथाप्रतीतेरभावात् किन्तु पुंलिङ्गगर्भास्ततः संशयः किमियं प्रज्ञापनी किंवा नेति', भगवानाह-'हंता गोयमा !' हन्तेत्यवधारणे, गौतम ! इत्यामन्त्रणे, गाव इत्यादिका भाषा प्रज्ञापनी, तदर्थकथनाय प्ररूपणीया, यथा ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] प्रज्ञापना-वस्थितार्थप्रतिपादकतया सत्यत्वात् , तथापि जात्यभिधायिनीय भाषा, जातिश्च त्रिलिङ्गार्थसमवायिनी, ततो जास्य ११भाषायाः मल-भिधानेन त्रिलिङ्गा अपि यथासम्भवं विशेषा अभिहिता भवन्तीति भवति यथावस्थितार्थाभिधानादियं प्रज्ञापनी य०वृत्ती. भाषेति, यदप्युक्तम्-किन्तु पुंलिङ्गगर्भा इति, तत्र शब्द लिङ्गव्यवस्था लक्षणवशात् , लक्षणं च 'स्त्रीपुंनपुंसकसहोती। परं' तथा 'ग्राम्याशिशुद्विखुरसचे स्त्री प्राय' इत्यादि, ततो भवेत् कचित् शब्दे लक्षणवशात् स्त्रीत्वं कचित् पुंस्त्वं कचित्र ॥२४॥ नपुंसकत्वं घा, परमार्थतः पुनः सर्वोऽपि जातिशब्दस्त्रिलिङ्गानप्यर्थान् तत्तद्देशकालप्रस्तावादिसामर्थ्यवशादभिधत्ते इति न कश्चिदोषः, न चेयं परपीडाजनिका नापि विप्रतारणादिदुष्टविवक्षासमुत्था ततो न मृषेति प्रज्ञापनी । 'अह भिंते ! जा य इत्थिवऊ' इत्यादि, अथेति प्रश्ने भदन्त ! इत्यामन्त्रणे, या च खीवाक्-बीलिङ्गप्रतिपादिका भाषा खट्टा लतेत्यादिलक्षणा या पुरुषवाक् घटः पट इत्यादिरूपा या च नपुंसकवाक कुड्यं काण्डमित्यादिलक्षणा प्रज्ञापनीय भाषा नेपा भाषा मृषेति ?, किमत्र संशयकारणं येनेत्थं पृच्छति ? इति चेत् , उच्यते, इह खवाघटकुख्यादयः शब्दाः यथाक्रमं स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गाभिधायिनः, स्त्रीपुंनपुंसकानां च लक्षणमिदम्-“योनिर्मंदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता क्लीयता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सस स्त्रीत्वे प्रचक्षते॥१॥मेहनं खरता दाय, शौण्डीय श्मश्रु धृष्टता। स्वीकामितेति लिङ्गा-1 | नि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥२॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम्॥३॥" तथाऽन्यत्राप्युक्तम्-"स्तनकेशवती स्त्री स्यालोमशः पुरुषः स्मृतः । उभयोरन्तरं यच, तत्र भावे नपुंसकम् ॥१॥" टहरटceneraee XT॥२४९॥ seब्ल ~502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] Hasseasee92828890090 न चैवरूपाणि ख्यादिलक्षणानि खटादिषूपलभ्यन्ते, तथाहि-योकैकावयवपृथकरणेन सम्यग् निभालनं क्रियते । तथापि न तेषां ख्यादिलक्षणानां तत्रोपलम्भोऽस्ति ततः प्रज्ञापनीयं भाषा न वेति जातसंशयः तदपनोदाय पृच्छति, |अत्र भगवानाह-'हंता गोयमे'त्यादि अक्षरगमनिका प्राग्वत् , भावार्थस्त्वयं-नेह शब्दप्रवृत्तिचिन्तायां यथोक्तानि स्यादिलक्षणानि स्त्रीलिङ्गादिशब्दाभिधेयानि किन्त्वभिधेयधर्मा इयमयमिदंशब्दव्यवस्थाहेतवः गुरूपदेशपारम्पर्यगम्याः स्त्रीलिङ्गादिशब्दाभिधेयाः, न चैते कल्पनामात्र, वस्तुतस्तत्तच्छब्दाभिधेयतया परिणमनभावात् , तेषामभिधेयधर्माणां तत्त्वतस्तात्त्विकत्वात् , आह च शकटसूनुरपि-"अयमियमिदमितिशब्दव्यवस्थाहेतुरभिधेयधर्म उपदेशगम्यः खीनपुंसकत्वानी"ति, व्यवस्थापितश्चायमों विस्तरकेण खोपज्ञशब्दानुशासनविवरण इति, ततः शाब्दब्यवहारापेक्षया यथावस्थितार्थप्रतिपादनात् प्रज्ञापनीयं भाषा, दुष्टविवक्षातः समुत्पत्तेरभावात् परपीडाहेतुत्वाभावाचन मृषेति । 'अह भंते।' इत्यादि, अथ भदन्त ! या च ख्याज्ञापनी आज्ञाप्यते-आज्ञासम्पादने प्रयुज्यतेऽनया सा आज्ञापनी स्त्रिया आज्ञापनी ख्याज्ञापनी, खिया आदेशदायिनीत्यर्थः, या च पुमाज्ञापनी नपुंसकाज्ञापनी, प्रज्ञापनी भाषा नैषा भाषा मृषेति ?, अत्रेदं संशयकारणं-किल सत्या भाषा प्रज्ञापनी भवति, इयं च भाषा आज्ञासम्पादनक्रियायुक्ताभिधायिनी, आज्ञाप्यमानश्च ख्यादिः तथा कुर्यान्न वा?, ततः संशयमापन्नो विनिश्चयाय पृच्छति, अब भगवानाह-हंता गोयमा!' इत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, भावार्धस्त्वयं-आज्ञापनी भाषा द्विधा-परलोका एयरटररएesee ~ 503~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. पदं ॥२५०॥ दीप अनुक्रम [३७६] बाधिनी इतरा च, तत्र या खपरानुग्रहबुया शाठ्यमन्तरेण आमुष्मिकफलसाधनाय प्रतिपन्नैहिकालम्बनप्रयोजना१भाषाविवक्षितकार्यप्रसाधनसामर्थ्ययुक्ता विनीतस्यादिविनेयजनविषया सा परलोकाबाधिनी एव च साधूना प्रज्ञापनी परलोकानाधनात्, इतरा वितरविषया, सा च स्वपरसङ्क्लेशजननात् मृत्यप्रज्ञापनी साधुवर्गस्य, उक्तं च-"अविणी-1 यमाणवतो किलिस्सई भासई मुसं तह य । घंटालोह नाउं को कडकरणे पवत्तेजा? ॥१॥" क्रिया हि द्रव्यं । विनमयति नाद्रव्यमित्यभिप्रायः । 'अह भंते ! जा य इत्थिपण्णवणी' इत्यादि अथ भदन्त ! या च भाषा स्त्रीप्रज्ञापनी-स्त्रीलक्षणप्रतिपादिका, 'योनिर्मंदुत्वमस्थैर्य मुग्धते'त्यादिरूपा, या च पुंप्रज्ञापनी-पुरुषलक्षणप्रतिपादिका | मेहनं खरता दाय' इत्यादिरूपा या च [.६...] नपुंसकमज्ञापनी-नपुंसकलक्षणाभिधायिनी 'स्तनादि-15 श्मश्रुके शादिभावाभावसमन्वितमित्यादिलक्षणा प्रज्ञापनीयं भाषा नेपा भाषा मृषेति !, कोऽत्राभिप्राय इति चेत्, उच्यते, इह स्त्रीलिङ्गादयः शब्दाः शान्दव्यवहारवलादन्यत्रापि प्रवर्तन्ते, यथा खटाघटकुव्यादयः खद्वादिष्वर्थेषु, न खलु तत्र यथोक्तानि ख्यादिलक्षणानि सन्ति यथोक्तं प्राक, ततः किमियमव्यापकत्वात् ख्यादिलक्षणप्रतिपादिका भाषा न वक्तव्या आहोश्चित् वक्तव्येति संशयापन्नः पृष्टवान्, अत्र भगवानाह-'हंता गोयमे त्यादि, अक्षरगम ॥२५॥ निका सुप्रतीता, भावार्थस्त्वयं-इह ख्यादिलक्षणं द्विधा-शाब्दव्यवहारानुगतं वेदानुगतं च, तत्र यदा शाब्दव्य १ अविनीतमाशापवन विश्यति भाषते मृषा तथा च । घण्टालोहं च ज्ञात्वा कः कटकरणे प्रवर्तेत ॥१॥ ~ 504 ~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] वहाराश्रितं प्रतिपादयितुमिष्यते तदैवं न वक्तव्यमव्यापकत्वात् , यथा चाव्यापकता तथा प्रागेव लेशतो दर्शिता, विस्तरतस्तु खोपज्ञशब्दानुशासनविवरणे, तत इयं तदधिकृत्य प्रज्ञापनी, यदा तु बेदानुगतं प्रतिपादयितुमिप्यते । तदा यथावस्थितार्थाभिधानात् प्रज्ञापन्येव, न मृषेति । 'अह भंते ! जा जातीति इत्थिवऊ' इत्यादि, अथ भदन्त ।। या जातिः स्त्रीवाक् जातौ स्त्रीवचनं सत्तेति, या जातौ पुंवाक् पुवचनं भाव इति, या च जातौ नपुंसकवाक् सामान्यमिति, प्रज्ञापनी एपा भाषा नैषा भाषा भूषेति !, कोऽत्राभिप्राय इति चेत्, उच्यते, जातिरिह सामान्यमुच्यते, सामान्यस्य च न लिङ्गसमयाभ्यां योगो, वस्तूनामेव लिङ्गसङ्ख्याभ्यां योगस्य तीर्थान्तरीयैरभ्युपगमात् , ततो यदि परं। जातावौत्सर्गिकमेकवचनं नपुंसकलिङ्गं चोपपद्येत न त्रिलिङ्गता, अथ च त्रिलिङ्गाभिधायिनोऽपि शब्दाः प्रवर्त्तन्ते । यथोक्तमनन्तरं ततः संशयः-किं एषा भाषा प्रज्ञापनी उत नेति ?. अथ भगवानाह-हता गोयमा ' इत्यादि.IN अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-जाति म सामान्यमुच्यते, सामान्यं च न परिकल्पितमेकमनवयवमक्रियं, तस्य प्रमाणबाधितत्वात् , यथा च प्रमाणबाधितत्वं तथा तत्त्वार्थटीकायां भावितमिति ततोऽवधार्य, किन्तु समानः परिणामो 'वस्तुन एव समानः परिणामो यः स एव सामान्य' मिति वचनात्, समानपरिणामश्चानेकधर्मात्मा, धर्माणां परस्परं धर्मिणोऽपि च सहान्योऽन्यानवेधाभ्युपगमात् तथा प्रमाणेनोपलब्धेः, ततो घटते जातेरपि त्रिलिङ्गतेति || प्रज्ञापन्येपा भाषा, नैपा भाषा मृषेति । 'अह भंते !' इत्यादि, अथ भदन्त ! या जातिरुयाज्ञापनी-जातिमधिकृत्य ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मल प्रत सूत्रांक [१६२] यवृत्ती. ॥२५॥ दीप अनुक्रम [३७६] [खिया आज्ञापनी, यथा अमुका जायणी क्षत्रिया वा एवं कुर्यादिति, एवं जातिमधिकृत्य पुमाज्ञापनी नपुंसकाज्ञा-1 पनी, प्रज्ञापनी एषा भाषा नेपा भाषा मृषेति ?, अत्रापि संशयकारणमिदं-आज्ञापनी हि नाम आज्ञासम्पादन|क्रियायुक्तख्याद्यभिधायिनी, सयादिश्चाज्ञाप्यमानस्तथा कुर्यान्न वेति संशयः, किमियं प्रज्ञापनी किं वाऽन्येति ?, अत्र निर्वचनमाह-'हंता ! गोयमा' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-आज्ञापनी हि नाम परलोकावाधिनी |सा प्रोच्यते या स्वपरानुग्रहबुद्ध्या विवक्षितार्थसम्पादनसामोपेतविनीतल्यादिविनेयजनविषया, यथा अमुका। ब्राह्मणी साध्वी शुभ नक्षत्रमद्येत्यमुकमहं श्रुतस्कन्धं च पठेत्यादि सा प्रज्ञापन्येव, दोषाभावात् , शेषा तु खपरपी-18 | डाजननान्मृषेत्राप्रज्ञापनीति । 'अह भंते।' इत्यादि, अथ भदन्त ! या जाप्तिखीप्रज्ञापनी जातिमधिकृत्य खियाखीलक्षणस्य प्रतिपादिका, यथा स्त्रीः खभावात् तुच्छा भवति गौरवबहुला चलेन्द्रिया दुर्वेला च धृत्येति, उक्तं च"तुच्छा गारवबहुला चलिंदिया दुबला य धीईए' इत्यादि, या च जातिमधिकृत्य पुम्प्रज्ञापनी-पुरुषलक्षणस्य खरूं|पनिरूपिका, यथा पुरुषः खभावात् गम्भीराशयो भवति महत्यामपि चापदि न क्लीयतां भजते इत्यादि, या च जाति-| मधिकृत्य नपुंसकप्रज्ञापनी नाम-नपुंसकजातिप्ररूपिका, यथा नपुंसकः खभावात् क्लीवो भवति, प्रवलमोहानलज्वा- |लाकलापज्वलितश्चेत्यादि प्रज्ञापन्येषा भाषा नैषा भाषा मृषेति, अत्रापीदं संशयकारणं वर्यते-खलु जातिगुणाः एवंरूपाः परं कचित्कदाचिद् व्यभिचारोऽपि रश्वते, तथाहि-रामाऽपि काचित् गम्भीराशया भवति धृत्या चातीच ॥२५१॥ ~ 506~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६२ ] दीप अनुक्रम [३७६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [११], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education International उद्देशक: [ - ], मूलं [१६२ ] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः वलवती, पुरुषोऽपि च कश्चित्तुच्छप्रकृतिरूपो लभ्यते स्तोकायामपि चापदि क्लीवतां भजते, नपुंसकोऽपि कश्चिन्मन्दमोहानलो दृढसवश्व, ततः संशयः -- किमेषा प्रज्ञापनी किं वा नेति ?, अत्र भगवानाह - 'हंता ! गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः परं भावार्थस्त्वयं - इह जातिगुणप्ररूपणं वाहुल्यमधिकृत्य भवति न समस्तव्यक्त्याक्षेपेणात एवं जातिगुणान् प्ररूपयन्तो विमलधियः प्रायः शब्दं समुच्चारयन्ति, प्रायेणेदं द्रष्टव्यं यत्रापि न प्रायः शब्दश्रवणं तत्रापि स द्रष्टव्यः प्रस्तावात् ततः क्वचित्कदाचिद् व्यभिचारेऽपि दोषाभावात् प्रज्ञापन्येषा भाषा न मृषेति ॥ इह भाषा द्विधा दृश्यते—एका सम्यगुपयुक्तस्य द्वितीया त्वितरस्य, तत्र यः पूर्वापरानुसन्धानपाटवोपेतः श्रुतज्ञानेन पर्यालोच्यार्थान् भाषते स सम्यगुपयुक्तः, स चैवं जानाति - अहमेतद्भाषे इति, यस्तु करणापटिष्टतया वातादिनोॐ पहतचैतन्यकतया वा पूर्वापरानुसन्धानविकलो यथाकथंचित् मनसा विकल्प्य विकल्प्य भाषते स इतरः, स | चैवमपि न जानाति यथा अहमेतत् भाषे इति वालादयोऽपि च भाषमाणा दृश्यन्ते, ततः संशयः किमेते जानन्ति यद्वयमेतत् भाषामहे इति किं वा न जानन्तीति पृच्छति अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति बुयमाणा अहमेसे बुयामीति ?, गो० ! नो इणट्टे समट्टे, णष्णत्थ सण्णिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ आहारं आहारेमाणे अहमेसे आहारमाहारेमित्ति १, गो० ! नोहण समट्टे, गण्णत्थ सजिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अम्मापियरो ?, गी० ! For Parts Use One ~ 507~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६३] RSee दीप अनुक्रम प्रज्ञापना- णो इणढे समहे, णण्णत्थ सणिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अतिराउलो अयं मे ११भाषाया: मल- अइराउलेत्ति ?, गो०! णो तिणढे समहे, णण्णस्य सणिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं यवृत्ती. मे भटिदारए अयं मे भट्टिदारियति ?, गो०! जो इणढे समढे, णणत्थ सणिणो, अह भंते ! उद्धे गोणे खरे धोडए अए एलते जाणति चुयमाणे अहमेसे बुयामि , गो० णो इणढे समढे, गण्णत्थ सणिणो, अह भंते ! उट्टे जाव एलते जाणति ॥२५॥ आहारं आहारेमाणो अहमेसे आहारेमि, गो! णो इणहे समढे जाव णण्णत्थ सणिणो, अह मंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणति, अयं मे अम्मापियरो', गो०! गो इणहे समढे जाव णण्णत्थ सणिणो, अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति, अयं मे अतिराउलेत्ति', गो०! णो इणढे समढे जाव णण्यात्थ सणिणो, अह भंते! उट्टे जाव एलए जाणति अयं मे भटिदारए २१, गोयमा! णो इणढे समढे जाव णण्णत्थ सणिणो (मूत्र १६३) 'अह भंते! मंदकुमारए या' इत्यादि, अथ भदन्त ! मन्दकुमारकः-उत्तानशयो वालको मन्दकुमारिका-उत्तान-1 शिया बालिका भाषमाणा-भाषायोग्यान् पुद्गलानादाय भाषात्वेन परिणमय्य विसृजती एवं जानाति-यथाऽहमेतद् इब्रवीमि इति ?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थः-युक्त्युपपन्नो, यद्यपि मनःपर्याप्त्या पर्याप्तस्तथापि तस्याया-TA ॥२५॥ कापि मनःकरणमपटु अपद्धत्वाच मनःकरणस्य क्षयोपशमोऽपि मन्दः, श्रुतज्ञानावरणस्य हि क्षयोपशमः प्रायो मनः करणपटिष्टतामवलम्ब्योपजायते, तथा लोके दर्शनात् , ततो न जानाति मन्दकुमारो मन्दकुमारिका वा भाषमाणा सस्टरseeeeeeee [३७७] ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम यथाऽहमेतत् प्रवीमीति, किं सर्वोऽपि न जानातीत्यत आह-नण्णत्व सण्णिणो' इति, अन्यत्रशब्दोऽत्र परिवर्ज-18 नार्थः, रष्टचाम्यत्रापि परिवर्जनाओं यथा-'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां, सर्वे योधाः पराङ्मुखा' इति. द्रोणभीष्मी वर्जयित्वा इत्यर्थः, संज्ञी-अवधिज्ञानी जातिस्परः सामान्यतो विशिष्टमनःपाटवोपेतो वा तस्मादन्यो न जानाति, संज्ञी तु यथोक्तखरूपो जानीते । एवमाहारादिविषयाण्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, नवरमतिराउले इति देशीपदं, एतत् खामिकुलमित्यर्थः, 'भट्टिदारए' इति भर्त्ता-खामी तस्य दारक:-पुत्रो भर्तृदारका, एवमुदादिविषयाण्यपि पश्च सूत्राणि भावयितव्यानि, नवरमुष्टादयोऽप्यतिवालावस्थाः परिग्राखाः न जरठा, जरठावस्थायां हि परिज्ञानस्य सम्भयात् ॥ सम्प्रत्येकवचनादिभाषाविषयसंशयापनोदार्थ पृच्छति अह भंते ! मणुस्से महिसे आसे हत्थी सीहे वग्धे विगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोईतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सवासा एगवऊ, हंता गो०! मणुस्से जाव चिल्ललए जे यावन्ने त० सवा सा एगवऊ । अह भंते! मणुस्सा जाव चिल्ललगा जे याव० तहप्पगारा सव्वा सा बहुवऊ, हंता गो० मणुस्सा जाय चिल्ललगा सवा सा बहुवऊ। अह भंते ! मणुस्सी महिसी बलवा हत्थिणिया सीही बग्धी विगी दीविया अच्छी तरच्छी परस्सरा रासभी सियाली बिराली सुणिया कोलसुणिया कोकंतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया जे यावन्ने तह सबा सा इत्विवऊ?, इंता गो० मणुस्सी जाव चिल्लालिगा जे यावन्ने तहप्पगारा सबा सा इत्थिवऊ । अह भंते ! मणुस्से जाव चिल्ललये जे 22012 [३७७] 0 38 ~509~ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [३७८] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥२५३॥ पदं [११], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Internation “प्रज्ञापना” मूलं [ १६४ ] उद्देशक: [ - ], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) दारं [-], या तप्पगारा वा ा नव?, हंता गोο! मस्से महिसे जाब चिललए जे यात्र में तहप्पारा सा सा पुनवऊ । अह से कंसं सोपं परिमंडल सेलं धूमं जालं बालं तारं रूपमं दुद्धं दहिंगणीतं असणं सवर्ण भवणं माणं छतं म भिंगारं अंगणं गिरंगण आमरणं स्यणं जे यावने तहप्पगारा सर्व तं पुंसगवऊ, हंस गो० ! कंसं जान रयणं जे याने तहपणारा तं सकं णपुंसमवऊ । अह भंते! पुढवी इत्थिवऊ आउत्ति पुमचऊ घण्णित्ति नपुंसगचऊ पनवणी णं एसा भासा एसा भासा मोसा ?, हंता गो० ! पुढवित्ति इस्थिवऊ आउति पुमक्ऊ धण्णित्ति नपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा यह एसा भासा मोसा । अह भंते ! पुढषीति इत्थिआणमणी आउति पुमआणमणी घण्णेति नपुंसगाणमणी पण्णवणीणं एसा भासा ण एसा भासा मोसा ?, हंता गो० ! पुढवित्ति इत्थिआणमणी आउत्ति पुमआणमणी घण्णेति नपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा। अह भंते! पुढवीति इत्थिपण्णवणी आउचि पुमपoraणी धणेति णपुंसगपण्णवणी आराहणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा १, हंता ! गो० ! पुढवीति इरिथपण्णवणी आउति पुमपण्णवणी धण्णेति नपुंसगपण्णवणी आराहणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा । [ ग्रं० ४००० ] इचेवं भंते इत्थवयणं वा पुमवयणं वा नपुंसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी वं एसा भासा ण एसा भासा मोसा ?, हंता गो० ! इत्थिवयणं वा पुमवयणं वा णपुंसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा ।। (सूत्रं १६४ ) अथ भदन्त ! मनुष्यो महिषोऽवो हस्ती सिंहो व्यात्रो वृक एते प्रतीताः, द्वीपी— चित्रकविशेषः ऋक्षः For Park Use Only ~ 510~ ११ भाषापदं ॥२५३॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [३७८] NGSTONARSaaa अच्छभल्लः तरक्षो-व्याघ्रजातिविशेषः परस्सरो-गण्डः शृगालो-गोमायुः बिडालो-मार्जारः शुनको-मृगदंशः कोलशुनको-मृगयाकुशलः वा शशक:-प्रतीतः कोकंतिया-लुडी चित्रका-प्रतीतः चिल्ललका| आरण्यः पशुविशेषः, 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा एकवचनान्ता इत्यर्थः, सर्वा सा एकवाक्-एकत्वप्रतिपादिका वाणी, अयमत्र प्रश्नहेतुरभिप्रायः-इह वस्तु धर्माधर्मिमसमुदायात्मकं धर्माश्च प्रतिव-18 स्त्वनन्ताः मनुष्य इत्यांद्युक्तौ च सकलं वस्तु धर्मधर्मिसमुदायात्मकं परिपूर्ण प्रतीयते, तथा व्यवहारदर्शनात् , एकस्मिंश्चार्थे एकवचनं बहुषु बहुवचनं, अत्र बहवो धम्मा अभिधेयाः ततः कथमेकवचनं ?, अथ च दृश्यते लोके एकवचनेनापि व्यवहार इति पृच्छति-सर्वा सा एकत्वप्रतिपादिका वाग् भवति ?, काका चेदं पठ्यते ततः प्रश्चार्थत्वावगतिः, भगवानाह-हंता गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-शब्दप्रवृत्तिरिह विवक्षाधीना, विवक्षा च तत्तत्प्रयोजनवशात् वक्तुः क्वचित् कदाचित् कथञ्चित् भवतीत्यनियता, तथाहि-स एवैकः पुरुषो |यदाऽयं मे जनक इति पुत्रेण विवक्ष्यते तदा जनक इत्यभिधीयते, स एव यदा तेनैव मामध्यापयतीति विवक्ष्यते तदा तूपाध्याय इति, तत्र यदा उपसर्जनीभूतधर्मा धर्मी प्राधान्येन विवक्ष्यते तदा धम्मिण एकत्यात् एकवचन, धर्माश्च धमिण्यन्तर्गता इति परिपूर्णवस्तुप्रतीतिर्यथा त्वमिति, यदा तूपसर्जनीभूतधर्मिणो धर्माः पाण्डित्यपरोपकारित्वमहादानदातृत्वादयः प्राधान्मेन विवक्ष्यन्ते तदा धर्माणां बहुत्वादेकस्मिन्नपि बहुवचनं यथा यूवमिति, तत 200428292920299292020129293 ~511~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [३७८] प्रज्ञापना नाइहापि मनुष्य इत्यादाबुपसर्जनीकृतधौ धौ प्राधान्येन विवक्षित इति भवति सर्वाप्येवंजातीया एकत्वप्रतिपा-११भाषायाः मल- दिका वाक् । 'अह भंते ! मणुस्सा' इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत्, अत्रापीदं संशयकारणं-मनुष्यादयः शब्दापर्द यवृत्ती. जातिवाचकाः, जातिश्च सामान्य सामान्यं चैक 'एक निसं निरवयवमक्रियं सर्वगं च सामान्य मितिवचनात्, ततः कथमत्र बहुवचनं १, अथ च दृश्यते बहुवचनेनापि व्यवहार इति पृच्छति-सर्वा सा बहुत्वप्रतिपादिका वाक ॥२५४|| भवति ?, काका पाठात् प्रश्नार्थत्वावगतिः, अत्र भगवानाह-'हंता गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-यद्यपि नामैते जातिवाचकाः शब्दाः तथापि जातिरभिधीयते समानपरिणामः, समानपरिणामश्चासमान-IN परिणामाविनाभावी, अन्यथैकत्वापत्तितः समानत्यायोगात्, ततो यदा समानपरिणामोऽसमानपरिणामसंलुलितः प्राधान्येन विवक्ष्यते तदाऽसमानपरिणामस्य प्रतिव्यक्ति भिन्नत्वात् तदभिधाने बहुवचनं, यथा घटा इति, यदा तु स एव एकः समानपरिणामः प्राधान्येन विवक्ष्यते इतरस्त्वसमानपरिणाम उपसर्जनीभूतस्तदा सर्वत्रापि समानप-18 रिणामस्थ एकत्वात् तदभिधाने एकवचनं, यद्वा सर्वोऽपि घटः पृथुवृनोदराद्याकार इति, अत्रापि मनुष्या इत्यादौ । समानपरिणामोऽसमानपरिणामसंलुलितः प्राधान्येन विवक्षित इति, तस्थानेकत्वभावात् बहुवचनं । 'अह भंते ITBIR५४॥ मणुस्सी'त्यादि, अत्रेदं संशयकारणं-इह सर्व वस्तु त्रिलिङ्गं, तथाहि-मृद्रूपोऽयमिति पुंल्लिङ्गता मृत्परिणतिरियं । घटाकारा परिणतिरियमिति स्त्रीलिङ्गता, इदं वस्त्विति नपुंसकलिङ्गता, तत्रैवं शबलरूपे वस्तुनि व्यवस्थिते कथमे ~512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [३७८] कलिकमात्राभिधायी शब्दस्तदभिधायी भवति, न खलु नरसिंहे सिंहशब्दो नरशब्दो वा केवलस्तदभिधायी भवति. अथ च दृश्यते तदभिधायितयाऽपि लोके व्यवहारस्ततः पृच्छति 'सवा सा इत्थिवऊ' इति, सर्वा सा एवंप्रकारा। | स्त्रीवाक-स्त्रीलिङ्गविशिष्टार्थप्रतिपादिका वाक् भवति ?, काका पाठात् प्रश्नार्थत्वावगतिः, भगवानाह-'हंता ! गोयमे'I त्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं यद्यपि नाम शबलरूपं वस्तु तथाऽप्येप शाब्दो न्यायः-येन धर्मेण| । विशिष्टः प्रतिपादयितुमिष्यते स तं प्रधानीकृत्य तेन विशिष्टं न्यग्भूतशेषधर्माणं धर्मिणं प्रतिपादयति, यथा पुरुषत्वे शास्त्रज्ञत्वे दातृत्वे भोक्तृत्वे जनकत्वेऽध्यापयितृत्वे च युगपद् व्यवस्थितेऽपि पुत्रः समागच्छन्तमवलोक्य पिता आग-11 च्छतीति ब्रूते, शिष्यस्तु उपाध्याय इति, एवमिहापि यद्यपि मानुषीप्रभृतिकं सर्व त्रिलिङ्गात्मकं तथापि योनिदृदुत्वमस्थैर्यादिलक्षणं स्त्रीत्यमत्र प्रतिपादयितमिष्टमिति ततः प्रधानीकृत्य तेन विशिष्टं न्यग्भतशेषधाणं धमिण प्रति-1|| पादयतीति भवति सवों सा खीवाक, एवं पुंवागनपुंसकवाचावपि भावनीये । 'अह भंते ! पुढवी' इत्यादि सुगम, नवरं 'आऊ' इति पुंलिङ्गता प्राकृतलक्षणवशात्, संस्कृते तु खीत्वमेव, 'अह भंते ! पुढवीति इत्थीआणवणी' इत्यादि, अथ भदन्त ! पृथिवीं कुरु पृथ्वीमानयेत्येवं खियां-खीलिङ्गे पृथिच्या आज्ञापनी एवमाऊ इति पुमाज्ञा|पनी धान्यमिति नपुंसकाज्ञापनी प्रज्ञापन्येषा भाषा नैषा भाषा मृषेति !, भगवानाह-'हंता गो! इत्यादि| सुगम, 'अह भंते' इत्यादि, अथ भदन्त ! पृथिवी इति स्वीप्रज्ञापनी-खीत्वखरूपस्य प्ररूपणी एवं आऊ इति पुंग-1 9009092eoroene ~513~ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ---------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ११भाषा प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [३७८] मज्ञापना- ज्ञापनी धान्यमिति नपुंसकप्रज्ञापनी आराधनी-मुक्तिमार्गाप्रतिपन्धिनी एषा भाषा नैषा भाषा सृषेति ?, किमुक्त याः मल- भवति?-नैवं वदतो मिथ्याभापित्वप्रसङ्गः, भगवानाह-आराधनी एषा भाषा, नेपा भाषा मृषेति, शान्यवय.वृत्ती. हारापेक्षया यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणात् , इह कियत् प्रतिपदं प्रष्टुं शक्यते ततोऽतिदेशेन पृच्छति-'इवेवं भते । इत्यादि, इतिः-उपदर्शने एवंशब्दः प्रकारे उचदर्शितेन प्रकारेणान्यदपि स्त्रीवचनं पुंवचनं नपुंसकवचनं का वदति ॥२५५॥ साधुस्तदा तस्मिन्नेवं वदति या भाषा सा प्रज्ञापनी भाषा नैषा भाषा मृषेति , गगवानाह-प्रज्ञापनी एपा भाषा, शाब्दव्यवहारानुसरणतो दोषाभावात् , अन्वयास्थिते हि वस्तुन्वन्यथा भाषणं दोषः, बदा तु यस्तु स्थावस्थित तत् तथा भाषते, तदा को दोष इति ? ॥ तदेकं भाषाप्रतिपादनविषया ये केचन सन्देहास्ते सर्वेऽप्यपनीताः, सम्प्रति सामान्यतो भाषायाः कारणादि पिच्छिकुराहभासा गं भंते ! किमादीया किंपवहा किंसंठिया कि पज्जवसिया, गो. भासा णं जीवादीया सरीरप्पभका वजसंठिया लोगंतपञ्जवसिया पण्णता,-'भासा कओ य पभवति, कतिहि व समएहि भासती भासं । भासा कतिप्पगारा कति वा मासा अणुमया उ॥१॥ सरीरणमवा भासा दोहि य समएहि भासती भासं । भासा चउप्पगारा दोणि य भासा अणुमता उ॥२॥ कतिविहानं मंते ! भासा पणता, मो०! दुविहा भासा पं००-जत्तिया य अपजतिया य, पजत्तिया के भंते ! भासा कतिविहा पं०१, मो! दुविहा ,तर-सचा मोता य, सवा मते ! भासा पजत्तिया CeRERece ॥२५ ॥ ~ 514 ~ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [१६५] गाथा: कतिविहा पं०, गो०! दसपिहा, पं०,०-जणवक्सचा १ सम्मयसमा २ ठवणसचा ३ नामसच्चा ४ रूवसचा ५ पडुच्चसच्चा ६ वबहारसचा ७ भावसाचा जोमसचा ९ ओवम्मसचा १०, जनक्य १ संमत २ ठक्या ३नामे ४ सये ५पापसोय। ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओचम्मसच्चे व १०॥१॥मोसाणं भंते भासा पजत्तिया कतिषिहा पं०१, गो! दसविहा पं०,०-कोहणिस्सिया १मापनिस्सिया २ मायानिस्सिया ३ लोदनिस्सिया ४ पेज्जणिस्सिया ५ दोसनिस्सिया ६हासणिस्सिया ७ भयणिस्सिया ८ अक्खाइयाणिस्सिया ९ उवघाइयणिस्सिया १०–'कोहे माणे माया लोभे पिज्जे तहेव दोसे य । हास भए अक्खाइय उवघाइयणिस्सिया दसमा ॥१॥ अपञ्जत्तिया णे भंते ! कइविहा भासा पं०१, मो०! दुविहा पं०, तं०-सच्चामोसा असचामोसा य, सच्चामोसा णं भंते ! भासा अपजतिया कतिविहा पं०१, गो० दसविहा पं० २०, उप्पण्णमिस्सिया १ विगतमिस्सिया २ उप्पण्ण विगतमिस्सिया ३ जीवमिस्सिया ४ अजीवमिस्सिया ५ जीवाजीवमिस्सिया ६ अर्णतमिस्सिया ७ परिचमिस्सिया ८ अद्धामिस्सिया ९ अद्धद्वामिस्सिया १० । असञ्चामोसा णं भंते ! भासा अपजत्तिया कइविहा पं०, गो० ! दुवालसविहा, पं०, त०-आमंतणि १ आणमणी २ जायणि ३ तह पुच्छणी य४ पण्णवणी ५। पञ्चक्खाणी ६ भासा भासा इच्छाणुलोमा, ७ य ॥१॥ अणभिग्गहिया भासा ८ भासा य अभिग्गहीम बोद्धवा ९ । संसयकरणी भासा १० बोगड ११ अयोगडा चेव १२ ॥२॥ (सूत्र १६५) 'भासा णं भंते ! किमाइया' इत्यादि, भाषा अवबोधवीजभूता, णमिति वाक्यालङ्कारे, किमादिका-उपादा दीप अनुक्रम [३७९-३८८] oces भाषाया: दशविध-भेदा: ~ 515~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५]] ११भाषा गाथा: प्रज्ञापना नकारणच्यतिरेकेण किमादिः-मौलं कारणं यस्याः सा किमादिका, तथा किंप्रभवा-कस्मात् प्रभव-उत्पादो या मल यस्याः सा किंप्रभवा, सत्यपि मौले कारणे पुनः कस्मात् कारणान्तरादुत्पद्यते इति भावः, तथा किंसंस्थितेतिम. वृत्ती. केनाकारेण संस्थिता किंसंस्थिता, कस्पेव संस्थानमस्या इति भावः, तथा किंपर्यवसिता इति-कस्मिन् स्थाने पर्यवसिता-निष्ठां गता किंपर्यवसिता ?, भगवानाह-गौतम ! 'जीवादिका' जीव आदिः-मौलं कारणं यस्याः सा ॥२५॥ जीवादिका जीवगततयाविधप्रयत्नमन्तरेणावबोधवीजभूतभाषाया असम्भवात् , आह च भगवान् भद्रबाहुखामी|"तिविहमि सरीरंमि जीवपएसा हवंति जीवस्स । जेहि उ गेण्हइ गहणं तो भासद भासओ भासं ॥१॥" "किंप-I भवा' इत्यस्य निर्वचनमाह-शरीरप्रभवा' औदारिकवैक्रियाहारकान्यतमशरीरसामर्थ्यादेव भाषाद्रव्यविनिर्गतेः, तथा IS सिंस्थिता इत्यस्य निर्वचनं 'वजसंस्थिता' बज्रस्येव संस्थानं यस्याः सा वज्रसंस्थिता, भाषाद्रव्याणि हि तथाविधप्र यत्ननिसृष्टानि सन्ति सकलमपि लोकमभिव्यामवन्ति, लोकश्च वज्राकारसंस्थित इति सापि बज्रसंस्थिता, 'किंपयेव-1 |सिते'त्यत्र निर्वचनं लोकान्तपर्यवसिता, परतो भाषाद्रव्याणां गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावतो गमनासम्भवात्, प्रज्ञप्ता मया शेषेव तीर्थकृद्भिः॥ पुनरपि प्रश्नमाह-'भासा कतो य पभवा' इत्यादि, भाषा कुतो-योगात् प्रभव १ त्रिविधे शरीरे (औदारिकवैक्रियाहारकेषु ) जीवप्रदेशाः भवन्ति जीवस्य ( संबद्धा इति ज्ञापनाय) यैस्तु गृह्णाति ग्रहणं (भाषाद्रव्यं ) ततो भाषते भाषकः (प्राहक एव ) भाषा ( भाषणसमय एवं भाषात्वज्ञापनाय ) ॥ १॥ 702090805 दीप अनुक्रम [३७९-३८८] २५६॥ ~516~ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] गाथा: ति-उत्पद्यते काययोगाद्वाग्योगाद्वा?, तथा कतिभिः समयैर्भाषा भाषते ?, किमुक्तं भवति ?-कतिभिः समयैर्निसृज्यमानद्रव्यसंहत्यात्मिका भाषा भवति, तथा भाषा कतिप्रकारा-कतिप्रभेदा ? कति वा भाषाः साधूनां वक्तुमनुमता-अनुज्ञाता ? । अत्र निर्वचन-'सरीरप्पभवा' इत्यादि, अत्र शरीरग्रहणेन शरीरयोगः परिगृखते, शरीरमात्र-M प्रभवत्वस्य प्रागेव निर्णीतत्वात्, शरीरप्रभवा इति कोऽर्थः -काययोगप्रभवा, तथाहि-काययोगेन भाषायोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्य वाग्योगेन निसृजति, ततः काययोगवलाद्भाषा उत्पद्यते इति काययोगप्रभवेत्युक्तं, आह च भगवान् भद्रबाहुखामी-"गिण्हइ य काइएणं निसरइ तह बाइपण जोगण'मिति, 'कइहि व समएहिं भासई भास'मित्यस्य निर्वचनं द्वाभ्यां समयाभ्यां भाषते भाषां, तथाहि-एकेन समयेन भाषायोग्यान्| | पुद्गलान् गृह्णाति द्वितीय समये भाषात्वेन परिणमय्य विसृजतीति, भासा कइप्पगारा' इत्यस्य निर्वचनं भाषा 18 | सत्यादिभेदाच्चतुःप्रकारा ते च सत्यादयो भेदाः प्रागेव भाविता इति, 'कइ वा भासा अणुमया य' इत्यस्य निर्वचनं सत्यादी द्वे भाषे साधूनां वक्तुमनुमते, तद्यथा-सत्या असत्यामृपा च, अर्थात् ये मृषासत्यामृषे ते नानुज्ञाते, तयोरयधावस्थितार्थप्रतिपादनपरतया मुक्तिप्रतिपन्धित्वात्, पुनः प्रश्नयति-'कइविहा णमित्यादि, 'पजत्तिया अपज्ज-18 त्तिया' इति पयोप्ता नाम या प्रतिनियतरूपतया अवधारयितुं शक्यते सा पर्यासा, सा च सत्या मृषा वा द्रष्टव्या, उभयोरपि प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यत्वात् , या तु मिश्रतया उभयप्रतिषेधात्मकतया वा न प्रतिनियत दीप अनुक्रम [३७९-३८८] ~ 517~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५]] प्रज्ञापनाया:मल ११भाषा य०वृत्ती. ॥२५७॥ गाथा: रूपतयाऽवधारयितुं शक्यते सा अपर्याप्ता, सा च सत्यामृषा असत्यामृषा वा द्रष्टव्या, उभयोरपि प्रतिनियतेन रूपे- (णावधारयितुमशक्यत्वात् । 'पज्जत्तिया णं भंते ! इत्यादि भावितं, नवरं सत्या मृषा चेत्युक्तमतः सत्याभेदावगमाय प्रश्नमाह-सच्चा णं भंते ! भासा पजत्तिया कइविहा पण्णत्ता' इति पाठसिद्धं, भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि 'जणवयसञ्चा' इति तं तं जनपदमधिकृत्येष्टार्थप्रतिपत्तिजनकतया व्यवहारहेतुत्वात् सत्सा जनपदसल्या यथा कोक-1 णादिषु पयः पिचमित्यादि १, सम्मतसत्या या सकललोकसाम्मत्येन सत्यतया प्रसिद्धा कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पसंभवत्वे गोपालजना अरविन्दमेव पङ्कजं मन्यन्ते न शेपमित्यरविन्दे पकूजमिति सम्मतसत्या २ स्थाप-| नासत्या या तथाविधमकादिविन्यासं मुद्राविन्यासं चोपलभ्य प्रयुज्यते यथा एककं पुरतो बिन्दुदयसहितमुपलभ्य शतमिदमिति, बिन्दुप्रयसहितं सहस्रमिदमिति, तथा तथाविधं मुदाविन्यासमुपलभ्य मृत्तिकादिषु मापोऽयं कार्पोप-1 णोऽयमिति, तथा नामतः सत्या नामसत्या यधा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलबर्द्धन इति, तथा रूपतः सत्या रूपसत्या, यथा दम्भतो गृहीतप्रजितरूपः प्रत्रजितोऽयमिति, तथा प्रतीय-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसत्या यथा अना मिकाया कनिष्ठामधिकृल्प दीर्घत्वं मध्यमामधिकृत्य इखत्वं, न च वाच्यं कथमेकस्यां हखत्वं दीर्घत्वं च तात्त्विकं !, परस्परविरोधादिति, भिन्ननिमित्तत्वेन परस्परविरोधासम्भवात् , तथाहि-तामेव यदि कनिष्ठां मध्यमा वा एकामङ्गुलिमङ्गीकृत्य इखत्वं दीर्घत्वं च प्रतिपाद्येत ततो विरोधः सम्भवेत् , एकनिमित्तपरस्परविरुद्धकार्यद्वयासम्भवात् , दीप अनुक्रम [३७९-३८८] Eccidence ॥२५७ ~518~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] गाथा: शायदा त्वेकामधिकृत्य इस्वत्वमपरामधिकृत्य दीर्घत्वं तदा सत्त्वासत्त्वयोरिव भिन्ननिमित्तत्वान्न परस्परं विरोधः, अथ | यदि तात्त्विके इखत्वदीर्घत्वे तत ऋजुत्ववक्रत्वे इव कस्मात्ते परनिरपेक्षे न प्रतिभासते ?, तस्मात् परोपाधिकत्वात् । काल्पनिके इमे इति, तदयुक्तं, द्विविधा हि वस्तुनो धर्माः-सहकारिव्ययरूपा इतरे च, तत्र ये सहकारिव्यङ्ग्यरूपास्ते सहकारिसम्पर्कवशात् प्रतीतिपथमायान्ति, यथा पृथिव्यां जलसम्पर्कतो गन्धः, इतरे स्वेवमेवापि यथा कर्पूरादिगन्धः, इखत्वदीर्घत्वे अपि च सहकारियङ्ग्यरूपे, ततस्ते तं सहकारिणमासायाभिव्यक्तिमायात इत्यदोषः, तथा व्यवहारो-लोकविवक्षा, व्यवहारतः सत्या व्यवहारसत्या, यथा गिरिदयते गलति भाजन अनुदरा कन्या अलोमिका एडका, लोका हि गिरिगततृणदाहे तृणादिना सह गिरेरभेदं विवक्षित्वा गिरिर्दयते इति ब्रुवन्ति, भाजनादुदके श्रवति उदकभाजनयोरभेदं विवक्षित्वा गलति भाजनमिति, संभोगवीजप्रभवोदराभावे अनुदरा इति, लवनयोग्यलोमाभावे अलोमिकेति, ततो लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तयात्रुवतो भाषा ब्यवहारसत्या भवति, तथा भावो वर्णादिर्भावतः सत्या भावसत्या, किमुक्तं भवति ?-यो भाषो वर्णादिवस्मिन्नुत्कटो भवति तेन या सत्या भाषा (सा)भावसत्या, यथा सत्सपि पञ्चवर्णसम्भये बलाका शुक्लेति, तथा योगः-सम्बन्धः तस्मात् सत्या योगसला, तत्र छत्रयोगात् विवक्षितशब्दप्रयोगकाले छत्राभावेऽपि छत्रयोगस्य सम्भवात् छत्री एवं दण्डयोगात् दण्डी, औपम्यसत्या यथा समुद्रवत्तडागः, अश्रेया पिनेयजनानुग्रहाय सङ्गणिगाथामाह-'जणमयसम्मवठवणा' इत्यादि भाविता दीप अनुक्रम [३७९-३८८] ~ 519~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५]] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥२५८॥ गाथा: मृषाभाषा दशविधा, तद्यथा-'कोहनिस्सिया' इत्यादि, क्रोधानिःसृता क्रोधाद्विनिर्गता इत्यर्थः, एवं सर्वत्रापि ११भाषाभावनीयं, तत्र क्रोधाभिभूतो विसंवादनबुद्ध्या परप्रत्यायनाय यत्सत्यमसत्सं वा भाषते तत्सर्व मृषा, तस्य हि आशयोऽतीव दुष्टस्ततो यदपि घुणाक्षरन्यायेन सत्यमापतति शाठ्यबुद्ध्या वोपेत्य सत्वं भाषते तदाऽप्याशयदोषदुष्टमिति मृति १, माननिःसृता यत् पूर्वमननुभूतमप्यैश्चर्यमात्मोत्कर्षख्यापनायानुभूतमस्माभिस्तदानीमैश्चर्यमित्यादि वदतः । २ मायानिःसृता यत् परवञ्चनाधभिप्रायेण सत्यमसत्यं वा भाषते लोभनिःसृता यल्लोभाभिभूतः कुटतुलादि कृत्वा । | यथोक्तप्रमाणमिदं तुलादीति वदतः ४ प्रेमनिःसृता यदतिप्रेमवशाहासोऽहं तवेत्यादि वदतः ५ द्वेषनिःसृता यत्प्रतिनि-11 | विष्टः तीर्थकरादीनामप्यवर्ण भापते ६ हास्यनिःसृता यत्केलिवशतोऽनृतभाषणं ७ भयनिःसृता तस्करादिभयेनास मञ्जसभाषणं ८ आख्यायिकानिःसृता यत्कथाखसम्भाव्याभिधानं ९ उपघातनिःसृता चौरस्त्वमित्याद्यभ्याख्यानं |१०, अत्रापि सङ्ग्रहणिगाथामाह-कोहे माणे' इत्यादि, भावितार्था । सत्यामृषा दशविधा, तद्यथा-'उप्पण्णमि-1 स्सिया' इत्यादि, उत्पन्ना मिश्रिता अनुत्पन्नैः सह सङ्ख्यापूरणार्थ यत्र सा उत्पन्नमिश्रिता, एवमन्यत्रापि यथायोग भावनीय, तत्रोत्पन्नमिश्रिता यथा कस्मिंश्चित् ग्रामे नगरे वा ऊनेष्वधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका अस्मिन्नद्य जाता इत्यादि १, एवमेव मरणकथने विगतमिश्रिता २, तथा जन्मतो मरणस्य च कृतपरिमाणस्याभिधाने विसंवादेन चोत्पन्नविगतमिश्रिता ३, तथा प्रभूतानां जीवतां स्तोकानां च मृतानां शङ्खशङ्खनकादीनामेकत्र राशौ दृष्टे यदा दीप अनुक्रम [३७९-३८८] २५८H For P OW ~520~ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६५] + गाथा: दीप अनुक्रम [३७९ -३८८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशकः [-], दारं [-], पदं [११], मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः कश्चिदेवं वदति - अहो महान् जीवराशिरयमिति तदा सा जीवमिश्रिता, सत्यामृषात्वं चास्या जीवत्सु सत्यत्वात् मृतेषु मृषात्वात् ४, तथा यदा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शङ्खादिष्वेवं वदति - अहो महानयं मृतो जीवराशिरिति तदा सा अजीवमिश्रिता, अस्या अपि सत्यामृषात्वं मृतेषु सत्यत्वात् जीवत्सु मृषात्वात् ५, तथा तस्मिन्नेव राशौ एतावन्तोऽत्र जीवन्त एतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयतो विसंवादे जीवाजीवमिश्रिता ६, तथा मूलकादिकमनन्तकायं तस्यैव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित्प्रत्येक वनस्पतिना मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येपोऽनन्तकायिक इति वदतोऽनन्तमिश्रिता ७ तथा प्रत्येक वनस्पतिसङ्घातमनन्तकायिकेन सह राशीकृतमवलोक्य प्रत्येक वनस्पतिरयं सर्वोऽपीति वदतः प्रत्येकमिश्रिता ८, तथा अद्धा -- कालः, स चेह प्रस्तावात् दिवसो रात्रिर्वा परिगृह्यते, स मिश्रितो यया साऽद्धामिश्रिता, यथा कश्चित् कञ्चन त्वरयन् दिवसे वर्त्तमान एव वदति - उत्तिष्ठ रात्रिर्यातेति, रात्रौ वा वर्त्तमानायामुत्तिष्ठोद्गतः सूर्य इति ९, तथा दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशोऽद्धाद्धा सा मिश्रिता यया सा अद्धाद्धामिश्रिता, यथा प्रथमपौरुष्यामेव वर्त्तमानायां कश्चित् कञ्चन त्वरयन् एवं वदति - चल मध्याहीभूतं इति । असत्यामृषा द्वादशविधा, तद्यथा - 'आमंतणि' इति तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त इत्यादि, एषा हि प्रागुक्तसत्यादिभापात्रयलक्षणविकलत्वान्न सत्या नापि मृषा नापि सत्यामृषा केवलं व्यवहारमात्रप्रवृत्तिहेतुरित्यसत्यामृषा १ एवं सर्वत्र भावना कार्या, आज्ञापनी कार्ये परस्य प्रवर्त्तनं, यथेदं कुर्विति २ याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणं ३ Eucation International For Park Use Only ~ 521~ yor Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], ------------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. Relocceroe ॥२५॥ गाथा: पृच्छनी अविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्थे चोदना ४ प्रज्ञापनी विनीतविनयस्य विने-1 ११भाषावजनस्योपदेशदानं यथा प्राणिवधान्निवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुष इत्यादि, उक्तं च-"पाणिवहाउ नियत्ता हवंति दीहाउया अरोगा य । एमाई पण्णता पण्णवणी वीयरागेहि ॥१॥"५ याचमानस्य प्रतिषेधवचनं प्रत्याख्यानी ६इच्छानुलोमा नाम यथा कश्चित्किश्चित्कार्यमारभमाणः कञ्चन पृच्छति, स प्राह-करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति ७ अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा बहुकार्येष्ववस्थितेषु कश्चित् कञ्चन पृच्छति-किमिदानी करोमि ?, स पाह-यत्प्रतिभासते तत्कुर्विति ८ अभिगृहीता प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा इदमिदानीं कर्तव्यमिदं नेति ९ संशयकरणी या वाक् अनेकार्थाभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति, यथा सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दो लवणवखपुरुषवाजिषु १. व्याकृता या प्रकटार्थी ११ अव्याकृता अतिगम्भीरशब्दाथों अव्यक्ता-12 क्षरप्रयुक्ता वा अविभावितार्थत्वात् १२ । शेषं सुगर्म, यावत् 'कइ णं भंते ! भासज्जाया' इत्यादि। जीवा णं मंते ! किं भासगा अभासगा, मो०! जीवा भासगावि अभासगावि, से केणटेणं भंते ! एवं बुचतिजीवा भासगावि अभासगावि, गो०! जीवा दुविहा पं०,०-संसारसमावष्णगा य असंसारसमावण्णगा य, तत्व २५९॥ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा सिद्धाणं अथासगा, तत्व णं जे ते संसारसमावण्णमा ते दुविहा पं०, तं-- १ प्राणिवधानिवृत्ता भवन्ति दीर्घायुषोऽरोगाश्च । एवमाद्या प्रज्ञाप्ता प्रज्ञापनी धीतरागैः ॥१॥ दीप अनुक्रम [३७९-३८८] 8956 SARERatininemarana भासाक-अभाषक सम्बन्धी प्ररुपणा ~522 ~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६६-१६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६६ esersercene -१६७] e दीप अनुक्रम [३८९-३९०] सेलेसीपडिवण्णगा य असेलेसीपडिवण्णगा य, तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं अभासगा, तत्थ पंजे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते दुविहा पं० त०-एगिदिया य अणेगिंदिया य, तत्थ णं जे ते एगिदिया ते णं अभासगा, तत्थ णं जे ते अणेगेंदिया ते दुविहा पं०, ०-पज्जनगा य अपज्जत्तमा य, सस्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते गं अभासगा, तत्थ णं जे ते पज्जतगा ते णं भासगा, से एएणटेणं गोयमा! एवं चुचति-जीवा भासगावि अभासगावि । नेरइया णं भंते ! किं भासगा अभासगा, गो! नेरइया भासगावि अभासगावि, से केणटेणं मंते ! एवं चुचति-नेरइया भासगावि अभासगावि ?, गो.! नेरइया दुविहा, पं०, तं०--पज्जनगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं अभासगा, तत्थ णं जे ते पजत्तगा ते णं भासगा, से एएणद्वेणं गो! एवं वुच्चति-नेरइया भासगावि अभासगावि, एवं एगिदियवजाणं निरंतर भाणिया ।। (मूत्र १६६)॥ कति णं भंते ! भासज्जाया पण्णता, गो! चत्तारि भासज्जाया पं०, तं०-सच्चमेगं भासजाय वितिय मोसं ततियं सच्चामोसं चउत्थं असचामोसं, जीवा णं भंते! किं सचं भासं भासंति मोसं भासं भासंति सचामोसं भासं भासंति असच्चामोसं भासं भासंति, गो०! जीवा सञ्चपि भासं भासंति मोसंपि भासं भासंति सच्चामोसंपि भासं भासंति असञ्चामोसंपि भासं भासंति, नेरइया णं भंते ! कि सचं भासं भासंति जाव असञ्चामोसं भासं भासंति', गो०! नेरइया णं सचंपि भासं भासंति जाव असचामोसंपि भासं भासंति, एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा, बेईदियतेइंदियचउरिदिया य नो सच्चं नो मोसं नो सच्चामोसं भासं भासंति असच्चामोसं भासं भासंति, पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! किं सच भासं भासंति जाब किं असच्चामोसं भासं भासंति?, गो. पंचिंदियतिरिक्त everse ~523~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं -, ------------ मूलं [१६६-१६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६६-१६७]] प्रापनायाःमलयवृत्ती. ea ॥२६॥ PART20393023800ra 4862 जोणिया णो सचं भासं भासंति णो मोसं भासं भासंति णो सञ्चामोसं भासं भासंति एर्ग असचामोसं भासं भासंति णण्णत्थ ११भाषासिक्खापुवर्ग उत्तरगुणलदि वा पडुच सबंपि भासं भासंति मोसंपि सचामोसपि असञ्चामोसपि भासं भासंति, मणुस्सा जाव वेमाणिया, एते जहा जीवा तहा भाणियहा ।। (मत्रं १६७) कति भदन्त ! भाषाजातानि-भाषाप्रकाररूपाणि प्रज्ञप्तानि ?, इदं प्रागुक्तमपि भूयोऽप्युपात्तं सूत्रान्तरस-1 म्बन्धनार्थ, तान्येव सूत्रान्तराणि दर्शयति-'जीवा णं भंते ! किं सच्चं भासं भासंति?' इत्यादि सुगम, नवरं द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सत्यादिभाषात्रयप्रतिषेधस्तेषां सम्यक्परिज्ञानपरवञ्चनाधभिप्रायासम्भवात् , तिर्यपञ्चेन्द्रिया अपि न सम्यग्यथावस्थितवस्तुप्रतिपादनाभिप्रायेण भाषन्ते नापि परविप्रतारणबुड्या किन्तु यदा भाषन्ते तदा कुपिता अपि परं मारयितुकामा अप्येवमेव भाषन्ते ततस्तेषामपि भाषा असत्यामृषा, किं सर्वेपामपि तेषामसत्यामृषा ?, नेत्याह'नन्नत्थेत्यादि, सत्यादिकां भाषां न भाषन्ते शिक्षादेरन्यत्र, शिक्षापूर्वकं पुनः शुकसारिकादयः संस्कारविशेषात् तथा कुतचित्तथाविधक्षयोपशमविशेषाजातिस्मरणरूपां विशिष्टव्यवहारकौशलरूपां वा लब्धि प्रतीत्य सत्यादिकां चतुर्वि-IR धामपि भाषां भाषन्ते, शेष सुगमं । सम्प्रति भाषाद्रव्यग्रहणादिविषयसंशयापनोदार्थमाह ॥२६॥ जीये णं भंते ! जातिं ददाति भासत्ताए गिण्हति ताई किं ठियाई गेण्हति अठियाई गेहति ?, गो! ठियाई गिण्हति नो अठियाई गिण्हति, जाई भंते ! ठियाई गिण्हति ताई किं दबतो गिण्हति खेत्ततो गिण्हति कालतो गिण्हति भावतो दीप अनुक्रम [३८९-३९०] अत्र भाषाद्रव्यग्रहण-आदि विषय प्ररुप्यते ~ 524 ~ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८-१६९] Poeseccise elesese See गाथा गिण्डति ?, गो! दबओवि गिण्हति खेतओवि कालओवि भावओवि गिण्हति, जाति भंते ! दवओ गेण्हति ताई कि एगपदेसिताई गिण्डति दुपदेसियाई जाव अणंतपदेसियाई गेण्हति , गो० नो एगपदेसियाई गेहति जाव नो असंखिजपदेसियाई, गिण्हह अणंतपदेसियाई गेहति, जाई खेतओ गेहति ताई कि एगपएसोगाढाई गेण्हति दुपएसोगाढाई गेण्हति जाव असंखेज्जपएसोगाढाई गेण्हति', गो.1 नो एगपएसोगाढाई गेण्हति जाव नो संखेजपएसोगाढाई गेहति असंखेजपएसोगाढाई गेण्हति, जाई कालतो गेहति ताई कि एगसमयठिइयाई गेहति दुसमयठिड्याई गिण्हति जाव असंखिजसमयठिइयाई गेण्हति ?, गो० एगसमयठितीयाईपि गेण्हति दुसमयठितीयाईपि गेण्हति जाव असंखेजसमयठितीयाईपि गेण्हति, जाई भावतो गेण्हति ताई किं षण्णमंताई गेहति गंधमंताई रसमंताई फासमंताई गेण्हति , गो.! वण्णमंताईपि जाब फासमंताईपि गेहति, जाई भावओ वण्णमंताईपि गेण्हति ताई कि एगवण्णाई मेण्हति जाव पंचवण्णाई गेहति !, गो! गहणदवाई पहुच एगवण्याईपि गेण्हति जाव पंचवण्णाईपि गेहति, सबग्गहणं पडच णियमा पंचषणाई गेण्हति, तंजहा–कालाई नीलाई लोहियाई हालिद्दाई सुकिल्लाई, जाई वष्णतो कालाई गेण्हति ताई कि एगगुणकालाई गेण्हति जाव अणंतगुणकालाई गिण्हति , गो! एगगुणकालाईपि गिण्हति जाव अणंतगुणकालाईपि गेण्हति, एवं जाव सुकिलाईपि, जाई भावतो गंधमंताई गिण्हति ताई कि एगगंधाई गिण्हति दुगंधाई गिण्हति , गो०! गहणदखाई पडुन एगगंधाईपि दुगंधाइपि गिणहति, सहग्गहणं पड़प नियमा दुगंधाई गिहति, जाई गंधतो सुम्मिगंधाई गिण्हति ताई कि एगगुणसुब्भिगंधाई गिण्हति जाव अर्णतगुणमुभिगंधाईपि गिण्हति ?, गो०! एगगुणसुब्भिगंधाईपि जाव अणंतगुणसुब्भि दीप अनुक्रम [३९१-३९३] ~525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ११भाषा सूत्रांक [१६८-१६९] प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. पद ॥२६शा गाथा गंधाईपि गेण्हइ, एवं दुब्भिगंधाईपि गेण्हइ, जाई भावतो रसमंताई गेहति ताई कि एगरसाई गेण्हति जाव किं पंचरसाई गेण्हति ?, गो०! गहणदबाई पडुच्च एगरसाईपि गेहति जाव पंचरसाईपि गेहति सम्बग्गहणं पडुच्च नियमा पंचरसाई गेहति, जाई रसओ तित्तरसाई गेहति ताई कि एगगुणतित्तरसाई गिण्हति जाव अणंतगुणतित्तरसाई गिण्हति ?, मो०। एगगुणतिताइपि मिण्हइ जाव अणंतगुणतित्ताइपि गिण्हति, एवं जाच मधुररसो, जाई भावतो फासमंताई गेण्हति ताई कि एगफासाई गेहह जाव अट्ठफासाई गिण्हति , गो०! गहणदवाई पडुच्छ णो एगफासाई गण्हति, दुफासाई गिहा जाब चउफासाई गेण्हति, णो पंचफासाई मेण्हति, जाव नो अट्ठफासाई गेहति, सबगहणं पहुच नियमा चउफासाई गेण्हति, तंजहासीतफासाई गेहति उसिणफासाई निद्धफासाई लुक्खफासाई गेहति, जाई फासतो सीताई गिण्हति ताई कि एगगुणसीताई गेण्हति जाव अणतगुणसीताई गेहति , गो! एगगुणसीताईपि गेहति जाव अणंतगुणसीताईपि गेहति, एवं उसिणणिद्धलुक्खाई जाव अणंतगुणाईपि गिण्हति, जाई भंते ! जाव अर्णतगुणलुक्खाई गेण्हति ताई किं पुढाई गेण्हति अपहाई गेण्हति !, गोपुट्टाई गेहति नो अपुट्ठाई गेण्हति, जाई भंते ! पुट्ठाई गेण्हति ताई किं ओगाढाई गेण्हति अणोगाढाई गेण्हति ?, गो० ओगाढाई गेण्हति नो अणोगाढाई गेण्हति, जाई भंते ! ओगाढाई गेहति ताई कि अणंतरोगाढाई गेहति परंपरोगाढाई गेहति , गो०! अणंतरोगाढाई गिण्हति नो परंपरोगाढाई मेहति, जाई मते ! अर्णतरोगाढाई गेण्हति ताई भंते ! किं अणूई गेण्हति वायराई गेहति', गो! अणूईपि गेहति बायराइपि गेण्हति, जाई भंते ! अणूई मेण्हति ताई कि उड्डे गेहति अधे गेहति तिरियं गेहति ?, गो। उ९पि गेहति अधेवि गेहति तिरियपि गेहति, दीप अनुक्रम [३९१-३९३] Relaeseioeseener SURFEN ~526~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८-१६९] गाथा हरररररररर जाई भैते ! उहुंपि गेहति अधेवि गेष्हति तिरियपि गेण्हति ताई कि आदि गेहति मज्झे गेहति पजवसाणे गेण्हति , गो! आदिपि गेहति मोवि गेण्हति पञ्जवसाणेवि मेहति, जाई मंते ! आदिपि गिण्हति मोवि गेहति पज्जबसाणेवि गिण्हति ताई कि सविसए गिष्हति अविसए गिण्हति', गो! सविसए गेण्हति नो अविसए गेहति, जाई मंते ! सविसए गेहति ताई किं आणुपुर्वि गेण्हति अणाणुपुरि गेण्हति ?, गो! आणुपुत्विं गेहति, नो अणाणुपुष्विं गेण्हति, जाई भंते ! आणुपुर्वि गेण्हति ताई किं तिदिसिं गेहति जाव छद्दिसिं गेहति ?, गो! नियमा छदिसिं गेहति, "पुढोगाढअणंतर अणू य तह वायरे य उहुमहे । आदिविसयाणुपुर्वि णियमा तह छद्दिसि चेव ।। १।।" (सूत्रं १६८) जीवे छ भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गेहति ताई कि संतरं गेहति निरंतरं गेहति , गो.! संतरंपि गेण्हति, निरंतरंपि गेहति, संतरं गिण्हमाणे जहष्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जसमए अंसरं कटु गेण्हति, निरंतरं गेण्हमाणे जहण्णेणं दो समए उकोसेणं असंखेजसमए अणुसमयं अविरहियं निरंतरं गेहति, जीवे गं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गहियाई णिसिरह ताई किं संतरं निसरह निरंतर निसरह?, गो०१ संतरं निसरह नो निरंतरं निसरह, संतरं निस्सरमाणे एगेणं समएणं गेहति एगेणं समएणं निसरइ, एतेणं गहणनिसरणोवाएणं जहणं दुसमइयं उक्कोसेणं असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तिगं गहणनिसरणोचायं करेति, जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासचाए गहियाई णिसिरति ताई किं भिण्णाई णिसरति अभिण्णाई णिसरति ?, मो० भिन्नाइपि निस्सरइ अभिनाईपि निस्सरइ, जाई भिन्नाई णिसरति ताई अर्णतगुणपरिडीएणं परिखुमाणाई लोयंत फसन्ति, जाई अभिण्याई निसरइ ताई असंखेज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता भेदमावअंति दीप अनुक्रम [३९१-३९३] Page ~ 527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ११भाषा सूत्रांक [१६८-१६९] अज्ञापनाया मलय० वृत्ती. ॥२६शा sekese गाथा संखेजाति जोअणाति गंता विद्धंसमागच्छंति ॥ (सूत्रं १६९) 'जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गिण्हई' इत्यादि, सुगर्म नवरं 'ठियाई स्थितानि न गमनक्रियावन्ति । द्रव्यतश्चिन्तायामनन्तप्रादेशिकानि-अनन्तपरमाण्वात्मकानि गृह्णाति, नैकपरमाण्वाद्यात्मकानि, तेषां खभावत एच जीवाना ग्रहणायोग्यत्वात् , क्षेत्रचिन्तायामसङ्ख्यातप्रदेशावगाडानि, एकप्रदेशाद्यवगाढानां तथाखभावतया ग्रहणायोग्यत्वात् , कालतश्चिन्तायामेकसमयस्थितिकान्यपि याषदसङ्ख्येयसमयस्थितिकान्यपि गृह्णाति, पुद्गलानामसवेयमपि कालं यावदवस्थानसम्भवात् , तथा चोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ सैजनिरेजपुद्गलावस्थानचिन्तायां-'अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे केवइकालं सेए १. गो.! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं आवलियाए असोजतिभाग, निरेए जह-1॥ नेणं एक समयं उकोसेणं असंखेजं कालमिति, तेषां च गृहीतानां ग्रहणानन्तरसमये अवश्यं निसर्ग इति स्वभावस्थानन्तरसमये ग्रहणं प्रतिपत्तव्यं, अन्ये तु व्याचक्षते-एकसमयस्थितिकान्यपीति आदिभाषापरिणामापेक्षया द्रष्टव्यं, विचित्रो हि पुद्गलानां परिणामः, तत एकप्रयत्नगृहीतमुक्ता अपि ते केचिदेकं समयं भाषात्वेनावतिष्ठन्ते केचिद् द्वौ समयौ यावत् केचिदसङ्ख्येयानपि समयानिति, तथा 'गहणदबाई' इति गृह्यन्ते इति ग्रहणानि प्रह-TARI णानि च तानि द्रव्याणि च ग्रहणद्रव्याणि, किमुक्तं भवति? -यानि ग्रहणयोग्यानि द्रव्याणि तानि कानिचित् वर्णपरिणामेन एकेन वर्णेनोपेतानि कानिचित् द्वाभ्यां कानिचित् त्रिभिः कानिचित् चतुर्मिः कानिचित्पञ्चभिः, यदा दीप अनुक्रम [३९१-३९३] weekeseser Halwaitaram.org ~528~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६८ -१६९] गाथा दीप अनुक्रम [३९१ -३९३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [११] . उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [ १६८ - १६९ ] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पुनरेकप्रयत्नगृहीतानामपि सर्वेषां द्रव्याणामपि समुदायो विवक्ष्यते तदा नियमात् पञ्चवर्णानि गृह्णन्ति (हृति), एवं गन्ध| रसेष्वपि भावनीयं, स्पर्शतः चिन्तायामेकस्पर्शप्रतिषेध एकस्यापि परमाणोरवश्यं स्पर्शद्वयभावात्, तथा चोक्तम्- “कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः। एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १ ॥ द्विस्पर्शानि - मृदुशीतानि मृदूष्णानीत्यादि, 'जाब चउफासा' इति यावच्छन्दकरणात् त्रिस्पर्शपरिग्रहः, तत्र त्रिस्पर्शान्येवं कानिचित् द्रव्याणि किल मृदुशीतस्पर्शानि कानिचित् मृदुखिग्धस्पर्शानि, तत्र मृदुस्पर्शो मृदुस्पर्श एवान्तर्भूत इत्येकस्पर्शः शीतस्निग्धरूपौ तु द्वावन्यौ स्पर्शाविति समुदायमधिकृत्य त्रिस्पर्शानि, एवं स्पर्शान्तरयोगेऽपि त्रिस्पर्शानि भावनीयानि कानिचिचतुःस्पर्शानि तत्र चतुःस्पर्शेषु मृदुलघुरूपौ द्वौ स्पर्शाववस्थिती सूक्ष्मस्कन्धेषु तयोरवश्यंभावात्, अन्यौ तु द्वौ स्पर्शो खिग्धोष्णौ त्रिग्धशीत रुक्षोणी रूक्षशीती, सर्वसमुदायमपेक्ष्य नियमात्तानि चतुःस्पर्शानि गृह्णाति, तत्र यौ द्वौ मृदुलघुरूपौ स्पर्शाववस्थितौ ताववस्थितत्वादेव व्यभिचाराभावान्न गण्येते ये त्वन्ये स्निग्धादयश्चत्वारस्ते किल वैकल्पिका इति तानधिकृत्य सूत्रमाह, तद्यथा - 'सीयफासाहं गेण्हर' इत्यादि सुगमं, यावत् 'जाई भंते! अनंतगुणलुक्खाई गेण्डइ' इह किल चरमं सूत्रमनन्तरमिदमुक्तं 'अनंतगुणलुक्खाईपि गिण्हइ' ततः सूत्रसम्बन्धवशादिदमुक्तं, जाई भंते! जाव अनंतगुणलुक्खाई गेण्हइ', इति 'यावता जाई भंते! एगगुणकालवण्णाई' इत्याद्यपि द्रष्टव्यं, 'ताई भंते । किं पुट्टाई' इत्यादि, तानि भदन्त ! किं स्पृष्टानि - आत्मप्रदेशसंस्पृष्टानि गृह्णाति, उतास्पृष्टानि ?, भगवानाह - गौतम ! स्पृष्टानि - Ja Eucation International For Parka Lise Only ~ 529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८-१६९] गाथा प्रज्ञापना- आत्मप्रदेशैः सह संस्पर्शमागतानि गृह्णाति नास्पृष्टानि, इहात्मप्रदेशैः संस्पर्शनमात्मप्रदेशावगाहक्षेत्रावहिरपि सम्भवति ११भाषाया मल- ततः प्रश्नयति-'जाई भंते !' इत्यादि, अवगाढानि-आत्मप्रदेशैः सह एकक्षेत्रावस्थितानि गृह्णन्ति नानवगा-8 पर्द य० वृत्ती. ढानि, 'जाई मते ! इत्यादि, अनन्तरावगाढानि-अव्यवधानेनावस्थितानि गृह्णाति न परम्परावगाढानि, किमुक्तं ॥२६॥ भवति ?-येष्वात्मप्रदेशेषु यानि भाषाद्रव्याण्यवगाढानि तैरात्मप्रदेशैस्तान्येव गृह्णाति न त्वेकद्विव्यात्मप्रदेशव्यवहितानि, 'जाई भंते ! अणंतरोगाढाई' इत्यादि, अणून्यपि-स्तोकप्रदेशान्यपि गृह्णाति बादराण्यपि-प्रभूतप्रदेशोपचितान्यपि, इहाणुत्ववादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्सोकबाहुल्यापेक्षया व्याख्याते, मूलटीका-12 कारेण तथाव्याख्यानात् , 'जाई भंते ! अणूइंपि गेण्हई' इत्यादि, ऊर्द्धमपि अधोऽपि तिर्यगपीति, इह जीवस्य यावति क्षेत्रे ग्रहणयोग्यानि भाषाद्रव्याण्यवस्थितानि तावत्येव क्षेत्रे ऊधस्तियक्त्वं द्रष्टव्यं, 'जाई मंते ! उहृषि मेण्हइ' इत्यादि, यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहुर्त यावत् ग्रहणोचितानि तानि ग्रहणोचितकालस्य उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूशाप्रमाणस्थादावपि-प्रथमसमये गृह्णाति मध्येऽपि-द्वितीयादिष्वपि समयेषु गृह्णाति, पर्यवसानेऽपि-पर्यवसा नसमयेऽपि गृह्णाति, 'जाई भंते ! आईपि गेहई' इत्यादि, खविषयान्-स्वगोचरान् स्पृष्टावगाढानन्तराचगाढा-| ॥२६॥ ख्यान् गृह्णाति, न त्वविषयान् स्पृष्टादिव्यतिरिक्तान् , 'जाई भंते ! सचिसए गेहई' इत्यादि आनुपूर्वी नाम ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं तद्विपरीता अनानुपूर्वी, तत्रानुपूर्व्या गृह्णाति न त्वनानुपूया, 'जाई भंते ! आणु eroenoticerserseenetweeeeee दीप अनुक्रम [३९१-३९३] ~ 530~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८-१६९] गाथा SIपुर्वि गेण्हइ' इत्यादि तिदिसिं'ति त्रिदिशि गृह्णाति तिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि गृह्णाति एवं चतुर्दिशि पञ्चदिशि पदिशि च, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम ! नियमात् षड्दिशि गृह्णाति-षड्भ्यो दिग्भ्यः आगतानि गृह्णाति, भाषको हि नियमात् प्रसनाब्यां अन्यत्र प्रसकायासम्भवात् , सनायां च व्यवस्थितस्य नियमात् पड्दिगाग-15 तपुद्गलसम्भवात् । एतेषामेवार्थानां सङ्ग्रहणिगाथामाह-'पुट्ठोगाढअणंत'रमित्यादि प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्रं तदनन्तरमवगाढसूत्रं ततोऽनन्तरावगाढसूत्रं ततोऽणुवादरविषयं सूत्रं तदनन्तरमूर्वाधःप्रभृतिविषयं सूत्रं तत 'आई' इति उपलक्षणमेतत् आदिमध्यावसानसूत्रं ततो विषयसूत्र तदनन्तरमानुपूर्वीसूत्रं ततो नियमात् पड्दिशीतिसूत्रं, 'जीवाणं भंते ! जाई दबाई' इत्यादि, जीवा 'ण'मिति वाक्यालकारे, भदन्त ! यानि द्रव्याणि भाषकत्वेन गृह्णाति तानि किं सान्तरं-सन्यवधानं गृह्णाति किं वा निरन्तरं-निर्व्यवधानं?, भगवानाह–सान्तरमपि गृह्णाति निरन्तरमपि, उभयथापि ग्रहणसम्भवात् , तत्र सान्तरनिरन्तरग्रहणयोः प्रत्येकं कालमानं प्रतिपादयति-'संतरं गिण्हमाणे' इत्यादि, सान्तरं गृह्णन् जघन्यतः एकं समयं अन्तरं कृत्वा गृण्हाति, एतच जघन्यत एक समयमन्तरं सततं भापाप्रवृत्तस्य | भापमाणस्थावसेय, तचैवं-कश्चिदेकस्मिन् समये भाषापुद्गलान् गृहीत्वा तदनन्तरं मोक्षसमये अनुपादानं कृत्वा पुन-1 स्तृतीये समये गृह्णात्येव न मुञ्चति द्वितीये समये प्रथमसमयगृहीतान् पुद्गलान् मुञ्चति अन्यानादत्ते, अथान्येन प्रयत विशेषेण ग्रहणमन्येन च प्रयत्नविशेषेण [च निसर्गः तौ च परस्परं विरुद्धौ परस्परविरुद्धकार्यकरणात् ततः दीप अनुक्रम [३९१-३९३] ~531~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ཎྜཎྜ ཝཱ ཝཱ + ཊྛིཊྚལླཱཡྻ་ आगम प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ २६४॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] पदं [११] . उद्देशक: [-] • मूलं [१६८- १६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः कथमेकस्मिन् समये तौ स्यातां ?, तदयुक्तं, जीवस्य हि तथाखाभान्यात् द्वावुपयोगावेकस्मिन् समये न स्यातां, ये तु क्रियाविशेषास्ते बहवोऽप्येकस्मिन् समये घटन्त एव तथादर्शनात्, तथाहि - एकापि नर्तकी भ्रमणादिनृत्तं विदधाना एकस्मिन्नपि समये हस्तपादादिगता विचित्राः क्रियाः कुर्वती दृश्यते, सर्वस्यापि वस्तुनः प्रत्येकमेकस्मिन् समये उत्पादव्ययानुपजायेते, एकस्मिन्नेव च समये सङ्घातपरिशादावपि ततो न कश्चिद्दोषः, आह च भाष्यकृत् - " गहणंनिसग्गपयत्ता परोप्परविरोहिणो कहं समये ? । समए दो उबओगा न होज्ज किरियाण को दोसो ? || १॥" इति, तृतीये पुनः समये तानेव द्वितीयसमयोपात्तान् पुद्गलान् मुञ्चति न पुनरन्यानादत्ते, उत्कर्षेण त्वसवेयान् यावन्निरन्तरं गृह्णाति तथा चाह - उत्कर्षेणासङ्ख्येयान् समयान् गृह्णाति इति योगः कदाचित्परोऽसङ्ख्येयैः समयेरेकं ग्रहणं मन्येत तत आह— 'अनुसमर्थ' प्रतिसमयं गृह्णाति तदपि कदाचिद्विरहितमपि व्यवहारतोऽनुसमयमित्युच्येत ततस्तदाशङ्कय व्यवच्छेदार्थमाह--अविरहितं, एवं निरन्तरं गृह्णाति, तत्राद्ये समये ग्रहणमेव न निसर्गः, अगृहीतस्य निसर्गाभावात् पर्यन्तसमये च मोक्ष एव, भाषाभिप्रायोपरमतो ग्रहणासम्भवात् शेषेषु द्वितीयादिषु समयेषु ग्रहणनिसर्गों युगपत्करोति स्थापना चेयम् — प्र प्र प्र प्र प्र । । 'जीवा णं भंते! जाई दबाई भासताए गहियाई निसरह' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं । नि । नि । नि । नि । नि। निर्वचनमाह - सान्तरं निसृजति १ ग्रहणनिसर्गप्रयत्नौ परस्परविरोधिनौ कथं समये ? । समये द्वानुपयोगी न भवेतां क्रिययोस्तु को दोषः १ ।। १ ।। Education internationa For Park Use Only ~ 532~ ११ भाषापदं ॥ २६४॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८-१६९] गाथा ASIनो निरन्तरं, इयमत्र भावना-इह तावत् ग्रहणं निरन्तरमुक्तं, तथा चानन्तरसूत्र 'अणुसमवमविरहियं निरंतर गण्हइ' इति ततो निसर्गोऽपि प्रथमवर्जेषु शेषेषु समयेषु निरन्तरं प्रतिपत्तव्यो, गृहीतस्यावश्यमनन्तरसमये | निसर्गात् , ततो यदुक्तं 'सान्तरं निसृजति नो निरन्तर मिति, तत्र ग्रहणापेक्षया द्रष्टव्यं, तथाहि-यस्मिन् समये | यानि भाषाद्रव्याणि गृह्णाति न तानि तस्मिन्नेव समये मुञ्चति, यथा प्रथमसमये गृहीतानि न तस्मिन्नेव प्रथम-19 समये मुशति किन्तु पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन् समये गृहीतानि उत्तरस्मिन् समये, ततो ग्रहणपूर्वो निसर्गोऽगृहीत निसर्गायोगात् इति सान्तरं निसर्ग उक्तः, आह च भाष्यकृत्-"अणुसमयमणंतरियं गहणं मणिवं ततो विमोक्खोऽपि । जुत्तो निरन्तरोवि य भणइ कहं संतरो भणिओ? ॥१॥ गहणावेक्खाएँ तओ निरंतरं मि जाई गहियाई । नउ तम्मि चेक निसरइ जह पढमे निसिरणं नत्थि ॥ २॥ निसिरिजइ नागहियं गहणंतरियंति संतरंग तेण।" इति, एतदेव सूत्रकृदपि स्पष्टयति-'संतरं निसरमाणो एगेणं समएवं गेण्हइ एगेणं समएणं निस्सरह इति, एकेन-पूर्वपूर्वरूपेण समयेन गृह्णाति एकेन-उत्तरोत्तररूपेण समयेन निसृजति, अथवा ग्रहणापेक्षं निसर्ग-11 भावात् एकेन-आयेन समयेन गृहात्येव न निसृजत्यगृहीतस्य निसर्गाभावात् , तथा एकेन-पर्यवसानसमयेन निसजसेव न गृहाति, भाषाभिप्रायोपरमतो ग्रहणासम्भवात् , शेषेषु तु द्वितीयादिषु समयेषु युगपद् ग्रहणनिसर्गाह करोति, तौ च निरन्तरं जघन्यतो द्वौ समयौ उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयान् समयान्, एतदेवाह-'एतेयं महबनिसरणो-14 दीप अनुक्रम [३९१-३९३] ~ 533~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ཎྜཎྜ ཝཱ ཝཱ + ཊྛིཊྚལླཱཡྻ་ आगम प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥२६५॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [११] . उद्देशक: [-], दारं [-] • मूलं [१६८- १६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः वाएणं जहणणेणं दुसमइयं उकोसेणं असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तिगं गहणनिसिरणं करेइ' इति, 'जीवेणं जाई दबाई' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! भिन्नान्यपि निसृजति अभिन्नान्यपि इयमत्र भावना - इह द्विविधो वक्ता - मन्दप्रयत्नस्तीत्रप्रयत्नश्च तत्र यो व्याधिविशेषतोऽनादरतो वा मन्दप्रयत्नः स भाषाद्रव्याणि तथाभूतान्येव स्थूलखण्डात्मकानि निसृजति, यस्तु नीरोगतादिगुणयुक्तस्तथाविधादरभावतस्तीत्रप्रयत्तः स भाषाद्रव्याणि आदाननिसर्गप्रयताभ्यां खण्डशः कृत्वा निसृजति, आह च भाष्यकृत् - "कोई मंदपयत्तो निसिरइ सकलाई सबदवाई । अन्नो तिम्रपयत्तो सो मुंबई मिंदिउं ताई ॥ १ ॥ " तत उक्तं- 'भिन्नापि निसिरह अभिन्नापि निस्सरइ, जाई भिन्नारं निसरह' इत्यादि, यानि तीव्रप्रयत्नो बक्ता प्रथमत एव भिन्नानि निसृजति तानि सूक्ष्मत्वात् बहुत्वाच प्रभूॐ तान्यन्यानि द्रव्याणि वासयन्ति, तदन्यद्रव्यवासकत्वादेव चानन्तगुणवृद्ध्या परिवर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तं स्पृशन्ति, लोकान्तं प्रामुवन्तीत्यर्थः, उक्तं च--" भिन्नाई सुहुमयाए अनंतगुणवद्धियाई लोगंतं । पार्वति पूरयंति य भासाऍ निरंतरं लोगं ॥ १ ॥ " यानि पुनर्मन्दप्रयतो वक्ता यथाभूतान्येव प्राक् भाषाद्रव्याण्यासीरन् तथाभूतान्येव सकलान्यभिन्नानि भाषात्वेन परिणमय्य निसृजति तान्यसङ्ख्येया अवगाहनावर्गणा गत्वा, अवगाहनाः- एकै कस्य भाषाद्रव्यस्याधारभूता असङ्ख्येयप्रदेशात्मकक्षेत्रविभागरूपास्तासामवगाहनानां वर्गणाः समुदायास्ता असङ्ख्या अतिक्रम्य भेदमापद्यन्ते, विशरारुभावं विभ्रतीत्यर्थः, विशरारुभावं विभ्राणानि च सङ्ख्येयानि योजनानि गत्वा विध्वं For Parts Only ~534~ ११ भाषा पर्द ॥२६५॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८-१६९] समागच्छन्ति, शब्दपरिणामं विजहतीत्यर्थः, उक्तं च-"गंतुमसंखेजाओ अवगाहणवग्गणा अभिन्नाई । भिजति 18| धंसमेंति य संखिजे जोयणे गंतुं ॥१॥" भिन्नान्यपि निसृजतीत्युक्तं, तत्र कतिविधः शब्दद्रव्याणां भेद इति 18 पृच्छति गाथा दीप अनुक्रम [३९१-३९३] तेसिणं भंते ! दवाणं कतिविहे भए पण्णत्ते, गो.! पञ्चविधे भेदे ५०,०-खंडाभेदे पयरभेदे चुणियाभेदे अणुतडियाभेदे उकरियाभेदे, से किं तं खंडामेदे, २ जण्णं अयखंडाण वा तउखंडाण वा तंबखंडाण वा सीसखंडाण वा स्ययखंडाण वा जातरूवखंडाण वा खंडएण भेदे भवति से तं खंडाभेदे ११ से किं ते पयराभेदे १,२ जणं वसाण वा वेत्ताण वा नलाण वा कदलीथंभाण वा अन्भपडलाण वा पयरेणं भेदे भवति, से तं पयराभेदे २ से कितं चुणियाभेदे १, २ जण्णं तिलचुण्णाण वा मुग्गचुण्णाण वा मासचुण्णाण वा पिप्पलीचुण्णाण वा मिरीयचुण्णाण वा सिंगबेरचुण्णाण वा चुणियाए भेदे भवति से तं चुणियाभेदे ३ । से किं तं अणुतडियाभेदे १, २ जणं अगडाण वा तडागाण वा दहाण वा नदीण वा वावीण वा पुक्खरिणीण वा दीहियाण वा गुंजालियाण चा सराण वा सरसराण वा सरपंतियाण वा सरसरपंतियाण वा अणुतडियाभेदे भवति, से तं अणुतडियामेदे ४ । से किं तं उक्करियाभेदे , २ जण मूसाण वा मंहसाण वा तिलसिंगाण वा मुग्गसिंगाण वा माससिंगाण वा एरंडबीयाण वा फूडिता उकरियाभेदे भवति, से ते उकरियामेदे ५। एएसि ण भंते ! दवाणं खंडाभेएणं पयराभेदेणं चुणियाभेदेणं अणुतडियाभेदेणं उकरियाभेदेण 99 अन्न द्रव्यस्य पञ्च-भेदा: प्ररुप्यते ~535~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७०-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ११भाषा प्रत सूत्रांक [१७०-१७३]] प्रज्ञापनाया: भलयवृत्ती. Cote ॥२६६॥ दीप अनुक्रम [३९४-३९७] य भिज्जमाणाणं कयरेशहितो अ०० तु.वि., गो.! सक्वत्थीबाई दबाई उकारियाभेदेणं भिजमाणाई अगुतडियाभेएणं भिजमाणाई अणंतगुणाई चुणियाभेदेणं भिजमाणाई अर्णतगुणाई पयराभेदे मिजमाणाई अणंतगुमाई खंडाभेदेणं भिजमाणाई अर्णतगुणाई ॥ (सूत्र १७०) नेरइएवं भंते ! जाई दबाई मासचाए मेहति ताई कि ठियाई गेण्हति अठियाई गेण्हति !, गो01 एवं चेव जहा जीवे दत्तवया भणिया सहा नेरझ्यस्सवि जाव अप्पाबडुयं । एवं एगिंदियवजो दंडतो जान वैमाणिता ॥ जीवाणं भंते ! जाई दबाई भासचाए गेहंति ताई किं ठियाई मेहति अठियाई गेहति ?, गो! एवं चेव पुदुत्तेपविणेतवं, जाब वेमाणिया २। जीवे ज भंते ! जाई दवाई सबभासताए मेण्हति ताई किं ठियाई गेहति अठियाई गेहति ?, गो! जहा ओहियदंडओ तहा एसोवि, गावरं विगलिंदिया ण पुच्छिजति, एवं मोसाभासाएवि, सच्चामोसाभासाएवि, असामोसाभासाएवि एवं चेव, नवरं असञ्चामोसामासाए विगलिंदिया पुचिजति इमेणं अमिलावणं-विगलिदिए भंते ! जाई दबाई असञ्चामोसामासाए गिण्हइ ताई किं ठिवाई गेण्हइ अठियाई मेव्हइ , गो ! जहा ओहिवदंडओ, एवं एए एगत्तपत्तेणं दस दंडगा भाणियबा (त्र १७१) जीवे णे भंते ! जाई दवाई सचभासचाए गिण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए निसिरइ मोसमासत्ताए निसरइ सच्चामीसभासचाए निसरति असन्चामोसभासत्ताए निसरह, गो! सचभासत्ताए निसरह नो मोसमासत्ताए निसरति नो सचामोसभासत्ताए निसरति नो असचामोसमासत्ताए निसरह, एवं एगिदियविगलिंदियवसओ दंडतो जाव वेमाणिया, एवं पुहुचेणचि । जीवे णं भंते ! जाई दबाई मोसमासत्ताए गिण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए निसरति मोसमासचाए सचामोसमा SUREN ~536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७०-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७०-१७३]] एलटea86 दीप अनुक्रम [३९४-३९७] Receneedesesesese सत्ताए असच्चामोसमासत्ताए निसरह १, गो० नो सच्चभासत्ताए निसरति मोसमासत्ताए निसरति णो सलामोस० णो असच्चामोसभासचाए निसरति । एवं सचामोसमासत्ताएवि, असच्चामोसभासत्ताएवि एवं चेव, नवरं असञ्चामोसमासत्ताए विगलिंदिया तहेव पुच्छिअंति, जाए चेव गिण्हति ताए चेव निसरति, एवं एते एगत्तपुहुत्तिया अट्ट दंडमा भाणियबा (सूत्र १७२) कतिविहे भंते ! वयणे पं०१, गो०! सोलसविहे वयणे पं०,०-एगवयणे दुवयणे पहुक्यणे इत्थिवयणे पुमवयणे णपुंसगवयणे अज्झत्थवयणे उवणीयवयणे अवणीयवयणे उवणीयावणीयवयणे अवणीयोवणीयवयणे तीतवयणे पडप्पनवयणे अणागयवयणे पचक्खवयणे परोक्खवयणे । इच्चेइतं भंते ! एगवयणं वा जाव परोक्खवयर्ण वा वदमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा मासा मोसा, हता! गो० इन्चेइतं एगवयणं वा जाब परोक्खवयणं वा बदमाणे पण्णवणी ण एसा मासा ण एसा भासा मोसा (मूत्रं १७३) 'तेसि णं भंते ! दवाण मित्यादि, तत्र खण्डभेदो लोहखण्डादिवत् प्रतरभेदोऽभ्रपटलभूर्यपत्रादिवत् चूर्णिकाभेदः क्षिसपिष्टवत् अनुतटिकाभेद इवत्वगादिवत् उत्कटिकाभेदः स्त्रयाघर्षवत् । एतानेव भेदान् व्याख्यातुकामः प्रश्ननिवैचनसूत्राण्याह-से किं तं खंडभेदे ?' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरमनुतटिकामेदे अवटाः-कृपाः तडागानि-प्रतीतानि, हूदा अपि प्रतीताः, नद्यो-गिरिनद्यादयः, वाप्य:-चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ताकारा पुष्करिण्यः दीर्घिका:ऋज्व्यो नयः वक्रा नद्यो गुजालिकाः बहूनि केबलकेवलानि पुष्पप्रकरवत् विप्रकीर्णानि सरांसि तान्येव एकैक-18 ~537~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७०-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७०-१७३]] etsekse n दीप अनुक्रम [३९४-३९७] प्रज्ञापना-पल्या व्यवस्थितानि सरःपतयः येषु सरस्सु पकथा व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया सञ्चरति सा सरःसरस्पतिः ११भाषायाः मल- अप्रतीता भेदा लोकतः प्रत्येतन्याः, अल्पबहुत्वं सूत्रप्रामाण्यात् तथेति प्रतिपत्तव्यं, युक्तरविषयत्वात्, शेष सूत्रं पदं यवृत्ती. सर्वमपि पाठसिद्धं, 'जाव कतिविहे गं भंते ! वयणे पण्णत्ते' इति, एकवचनं पुरुष इति द्विवचनं पुरुषाविति बहु-18 ॥२६७॥ वचनं पुरुषा इति, खीवचनमियं स्त्री, पुरुषवचनमयं पुमान् , नपुंसकवचनमिदं कुण्डं, अध्यात्मवचनं यदन्यचेतसि निधाय विप्रतारकबुद्ध्याऽन्यद् विभणिपुरपि सहसा यच्चेतसि तदेव ब्रूते, उपनीतवचन-प्रशंसावचनं यथा रूपवतीयं स्त्री, अपनीतवचनं-निन्दावचनं यथेयं कुरूपा स्त्री, उपनीतापनीतवचनं यत्प्रशस्य निन्दति, यथा रूपवतीयं स्त्री परं दुःशीला, अपनीतोपनीतवचनं-यनिन्दित्वा प्रशंसति यथेयं कुरूपा परं सुशीलेति, अतीतवचनमकरोदित्यादि प्रत्युत्पन्नवचनं-वर्तमानकालवचनं करोतीत्यादि अनागतकालवचनं करिष्यतीत्यादि, प्रत्यक्षवचनंअयमित्यादि परोक्षवचनं-स इत्यादि ॥ एतानि च षोडशापि बचनानि यथावस्थितवस्तुविषयाणि न काल्पनिकानि, ततो यदैतानि सम्यगुपयुज्य वदति तदा सा भाषा प्रज्ञापनी द्रष्टव्या, तथा चाह-इचेइयं भंते ! एगवयर्ण दुवयण मित्यादि, भावितार्थमक्षरार्थः प्रतीत एव ॥ सम्प्रति प्रागुक्तमेव सूत्रं सूत्रान्तरसम्बन्धनार्थ भूयः पठति, २६७॥ कति गं भंते ! भासजाया पण्णता, गो! चत्वारि भासआया पं०, ०-सच्चमेगं भासजायं वितियं मोसं भासजातं तइयं सच्चामोसं भासज्जातं चउत्थं असच्चामोसं भासज्जातं, इच्चेइयाई भंते ! चत्वारि भासआयाई भासमाणे Caesee ~ 538~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१७४ -१७५] दीप अनुक्रम [३९८ -३९९] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [-], मूलं [ १७४- १७५] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [११], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Ja Eucation Interation किं आराहते विराहते ?, गो० ! इचेइयाई चत्तारि भासज्जायाई आउतं भासमाणे आराहते नो विराहते, तेण परं असंजतअविरयअपडितहत अपचक्खायपावकम्मे सचं भासं भासतो मोसं वा सच्चामोसं वा असच्चामोस वा भासं भासमाणे नो आराहते विराहते (सूत्रं १७४ ) एतेसि णं भंते ! जीवाणं सबभासगाणं मोसभासगाणं सच्चामोसभासगाणं असचामोसभासगाणं अभासगाण य कयरेरहिंतो अ० ब० तु० वि० १, गो० ! सहत्थोवा जीवा सचभासगा सच्चामोसभासमा असंखिज्जगुणा मोसभासगा असंखेज्जगुणा असच्चामोसभासगा असंखेजगुणा अभासगा अनंतगुणा (सूत्रं १७५) ॥ पण्णवणाए भगवईए भासापदं समत्तं ॥ ११ ॥ 'कर णं भंते ! भासज्जाया पण्णत्ता' इत्यादि सुगमं नवरं 'आउत्तं भासमाणे' इति सम्यक् प्रवचनमालिन्यादिरक्षणपरतया भाषमाणः, तथाहि--प्रवचनोड्डाहरक्षणादिनिमित्तं गुरुलाघवपर्यालोचनेन मृषापि भाषमाणः साधुराराधक एवेति, 'तेण पर' मित्यादि, तत आयुक्तभाषमाणात्परोऽसंयतो - मनोवाक्कायसंयमविकलोऽविरतोविरमति स्म विरतो न विरतोऽविरतः सावद्यव्यापारादनिवृत्तमना इत्यर्थः अत एव न प्रतिहतं - मिध्यादुष्कृतदानप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना न नाशितमतीतं तथा न प्रत्याख्यातं भूयोऽकरणतया निषिद्धमनागतं पापकर्म येनासावप्रतिहताप्रत्याख्यातपापकर्मा, शेषं पाठसिद्धं । अल्पवदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः सत्यभाषकाः, इह यः सम्यगुपयुज्य सर्वज्ञमतानुसारेण वस्तुप्रतिष्ठानबुद्ध्या भाषते स सत्यभाषकस्ते च पृच्छाकाले कतिपया एव लभ्यन्ते इति सर्व For Parts Only ~ 539~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७४-१७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ११भाषा प्रत सूत्रांक [१७०-१७३]] प्रज्ञापना- सस्तोकाः, तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः सत्यमृषाभाषकाः, बहूनां प्रायो यथा तथा वा सत्यामृपाभाषणसम्भवात् , लोके याः मल- तथा दर्शनात् , तेभ्योऽसङ्ख्येय गुणा मृषाभाषकाः, क्रोधाभिभूतानां परवञ्चनाधभियुक्तानां च प्रभूततराणामुपलय. वृत्ती. म्भात् तेषां च मृषाभाषकत्वात् , तेभ्योऽसद्धयेयगुणाः असत्सामृषाभाषकाः द्वीन्द्रियादीनामप्यसत्यामृषाभाषकत्वात् , तेभ्योऽनन्तगुणाः अभाषकाः, सिद्धानामेकेन्द्रियाणां चानन्तत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटी॥२६८॥ कायां भाषाख्यमेकादशमं पदं समाप्तम् ॥ ११ ॥ अथ द्वादशं प्रारभ्यते। दीप अनुक्रम [३९४-३९७] ॥२६॥ तदेवं व्याख्यातमेकादशं पदं, इदानी द्वादशममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बधः-दहानन्तरपदे जीवानां सत्यादिभाषाविभागोपदर्शनं कृतं, भाषा च शरीरायचा, 'शरीरप्रभवा भाषे'त्यत्रैव प्रतिपादितत्वात् , अन्यत्राप्युकं-गिबहइ य काइएणं निस्सरइ तह वाइएण जोएण'मिति, तत्र शरीरप्रविभागप्रदर्शनार्थमिदमारभ्यते, तत्र चेदमादि सूत्रम्II कति णं भने ! सरीरा पण्णता, मोपंच सरीरा पं०,०-ओरालिए वेउदिए आहारए तेयए कम्मए, नेरइयाण | अत्र पद (११) "भाषा" परिसमाप्तम् अथ पद (१२) "शरीर" आरभ्यते ~540~ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४-१७५] भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता, गो ! तओ सरीरया पं ० -वेउबिए तेयए कम्मए, एवं असुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं | पुढविकाइयाणं भंते ! कति सरीरया पं०१, गो ! तओ सरीरया पं०,०-ओरालिए तेयए कम्मए, एवं वाउकाइयवज जाव चउरिदियाणं, वाउकाइयाण मंते ! कति सरीरया पं०१, गो. चत्तारि सरीरया, पं०,०ओरालिए वेउविते तेथए कम्मए, एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणवि, मणुस्साणं भंते ! कति सरीरया पं०१, गो०! पंच सरीरया पं०, त-ओरालिए बेउविते आहारए तेयए कम्मए, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं, जहा नारगाणं (सूत्र १७६) 'कह णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता' इत्यादि, उत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिक्षणं शीर्यन्ते इति शरीराणि, तानि भदन्त ! कति–कियत्सङ्ख्याकानि, णमिति वाक्यालकारे, प्रज्ञसानि, भगवानाह-पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तान्येव नामत आह-'ओरालिए' इत्यादि, अमीषां शब्दार्थमात्रमने वक्ष्यामस्तथाऽपि स्थानाशून्याय किश्चिदुच्यते-उदारं-प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनत्वात् , अथवा ओरालं नाम विस्तरवत्, विस्तरवत्ता चास्यावस्थितखभावस्य सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात् , वैक्रियं चैतावदवस्थितप्रमाणं न लभ्यते, उत्कर्षतोऽप्यवस्थितप्रमाणस्य पक्षधनुःशतप्रमाणत्वात् , तच तावत्प्रमाणं सप्तम्यां नान्यत्र, यत्तूत्तरवे-18 क्रिय योजनलक्षप्रमाणं न तदवस्थितमाभववर्तित्वाभावात्, ततो न तदपेक्षा, आह च चूर्णिकृत्-“ओरालं नाम वित्थरालं विसालंति जं भणिय होइ, कहं १, साइरेगजोयणसहस्समवटियप्पमाणमोरालियं अन्नमेहहमे नस्थिति, दीप अनुक्रम [३९८-३९९] शरीरस्य पञ्च-भेदा:, नैरयिक-आदीनाम् शरीरस्य भेदा: ~541~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] प्रज्ञापनाया मलब० वृत्ती. ॥२६॥ विउवियं होजा तं तु अणवट्टियप्पमाणं, अवडियं पुण पंच धणुसयाई अहेसत्तमाए, इमं पुण अवट्ठियप्पमाणं साइरेग । १२ शरीजोयणसहस्सं वनस्पतीना"मिति, अथवा उरलं-विरलप्रदेश न तु घनं स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच भेण्ड- रपदं वत् , यदिवा ओरालं-समयपरिभाषया मांसास्थित्रावाद्यवबद्धं, सर्वत्र खार्थिक इकप्रत्ययः, इहोदारमेव औदारिक, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, प्राकृतत्वात् ओरालियमिति, उक्तं च-तत्थोदारमुरालं उरलं ओरालमेव विष्णेयं । ओरालियति पढम पहुच तित्थेसरसरीरं ॥१॥ भण्णइ य तहोरालं वित्थरवंत वणस्सई पप्प । पगईऍ नत्थिी अण्णं एहमित्तं विसालंति ॥ २॥ उरलं वपएसोचियंति महलगं जहा भिण्डं । मंसटिहारुबद्धं ओरालं सम-IN यपरिभासा ॥३॥" ११ तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रिय, उक्तं च-"विविहा विसिहगा चा किरिया तीए उजं भवं तमिह । वेउवियं तयं पुण नारगदेवाण पगईए ॥१॥" अथवा वैकुर्विकमिति शब्दसंस्कारः, तत्र विकुर्य इति सिद्धान्तप्रसिद्धोऽयं धातुः, विकुर्वणं विकुर्वः विविधा क्रिया इत्यर्थः, तेन निर्वृत्तं बकुर्विकं २, तथा चतुर्दशपूर्वविदा कार्योत्पत्ती योगबलेनाहियते इत्याहारकं ३, तेजसो विकारस्तैजसं ४, कर्मणो जातं कर्मजमिति ५। नन्वौदारिकादीनां शरीराणामित्थमुपन्यासे किञ्चिदस्ति प्रयोजनमुत यथाकथञ्चिदेप प्रवृत्त इति !, ॥२६॥ उच्यते, अस्तीति ब्रूमः, किं तदिति चेत्, उच्यते, परम्परप्रदेशसौक्ष्म्यं परम्परं वर्गणासु प्रदेशवाहुल्यं (च), तथा हि-औदारिकात् वैक्रियस्य प्रदेशसौक्ष्म्यं वैक्रियादप्याहारकस्य आहारकादपि तैजसस्य तैजसादपि कार्मणस्य, तथा CO20292920203028202Ratara दीप अनुक्रम [४००] eseartese4 ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] एerseaseerceaeee दीप अनुक्रम [४००] औदारिकात् वैक्रियस्य वर्गणासु प्रदेशवाहुल्यं वैक्रियादाहारकस्याहारकादपि तैजसस्य तैजसादपि कार्मणस्येति, एतान्येव शरीराणि नैरयिकादिषु सम्भवतश्चिन्तयति-'नेरइयाणं भंते ! केवइया सरीरा पण्णत्ता' इत्यादि, पाठसिद्ध, शरीराणि च जीवानां द्विविधानि, तद्यथा-बद्धानि मुक्तानि च, तत्र यानि चिन्ताकाले जीयैः परिगृहीतानि वर्तन्ते तानि बद्धानि, यानि च पूर्वभवेषु परित्यक्तानि तानि मुक्तानि, तेषां बद्धानां मुक्तानां च परिमाणमिदानीं द्रव्यक्षेत्रकालैः प्ररूपणीय, तत्र द्रव्यैरभव्यादिभिः क्षेत्रेण श्रेणिप्रतरादिना कालेनाबलिकादिना, तत्रौदारिकशरीरमधिकृत्याहकेवड्या णं भंते ! ओरालियसरीरया पं०१, गो० दुविहा पं०,०---बद्धिल्लया य मुकिल्लया य, तत्थ ण जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजा लोगा, तत्थ णं जे ते मुकेल्लया ते गं अर्णता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो खेत्तओ अर्णता लोगा अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणा सिद्धा(ण)णतभागो। केवतियाणे भंते ! वेउवियसरीरया पं०१, गो! दुविहा पं०, तर-बद्धेल्लया य मुकेल्लगा य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्गा तेणं असंखेज्जा असंखे जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरति कालतो खेत्ततो असंखेज्जातो सेढीओ पयरस्स असंखेजतिभागो, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो जहा ओरालियस्स मुफेल्लया तहेव वेउवियस्सवि भाणियबा । केवतिया णं भंते ! आहारगसरीरया पण्णता, | औदारिक-आदि शरीराणां स्वरुपम् ~543~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. रपदं प्रत सूत्रांक [१७७] ॥२७॥ गो! दुविहा, पं०, तं-बधेल्लया य मुफेल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं सिय अस्थि सिय नस्थि, जद अत्यि १२ शरीजहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उकोसेणं सहस्सपुहुर्त, तत्थ णं जे ते मुकेल्लया ते णं अणंता जहा ओरालियस्स मुकिल्लया तहेव भाणितबा । केवइया णं मंते ! तेयगसरीरया पण्णता, मो०! दुबिहा पण्णता, तं०-बदेल्लगा य मुकेल्लगा य, तत्थ पं जे ते बद्धेष्ठगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो खेतओ अणंता लोगा दवओ सिद्धेहितो अणतगुणा सबजीवाणंतभागुणा, तत्व गंजे ते मुकेल्लगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो खेत्ततो अर्णता लोगा दडओ सबजीवेहितो अणंतगुणा जीववग्गस्साणतभागे । एवं कम्ममसरीराणिवि भाणितबाणि ।। (सूत्र १७७) 'केवइया णं भंते ! ओरालियसरीरया पण्णत्ता' इत्यादि, इह प्राकृतलक्षणवशादिलप्रत्ययः कप्रत्ययश्च खार्थे ततो 'वद्धिलया' इति बद्धानीत्यर्थः, 'मुकिलया' इति मुक्तानीत्यर्थः, तत्र वद्धान्यसायेयानि, असङ्ख्येयत्वमेव प्रथमतः कालतो निरूपयति-'असंखिजाहि' इत्यादि, प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारेण असङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसप्पिणीभिरनवयवशो:पहियन्ते, किमुक्तं भवति? असोयासु उत्सर्पिण्ययसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि बद्धान्यौदारिकशरी-॥२७॥ राणि वर्तन्ते, इदं कालतः परिमाणं, क्षेत्रत आह–'खेत्तओ असंखेजा लोगा' इति, क्षेत्रतः परिसञ्चयानमसझोया लोकाः, एतदुक्तं भवति–सर्वाण्यपि बद्धान्यौदारिकशरीराणि आत्मीयात्मीयावगाहनाभिराकाशप्रदेशेषु परस्परम दीप अनुक्रम [४०१] AREauratonintamational Wrnaturary.org ~ 544~ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] पिण्डीभावेन क्रमेण स्थाप्यन्ते तदानीं तैरेवमास्तीर्यमाणैरसङ्ख्येया लोका अवाप्यन्ते, इह एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे।। |एकैकौदारिकशरीरस्थापनया असङ्ख्यया लोका व्याप्यन्ते परं पूर्वाचार्या आत्मीयावगाहनास्थापनया प्ररूपणां कुर्व-1 ||न्ति ततोऽपसिद्धान्तदोषो मा प्रापदित्यस्माभिरपि तथैव प्ररूपणा क्रियते, आह च चूर्णिकारोऽपि-"जइवि इकेके |पएसे सरीरमेगं ठविजइ तोऽवि असंखेज्जा लोगा भवंति किंतु अवसिद्धंतदोसपरिहरणथमप्पप्पणियाहिं ओगाहणाहिं ठविजंति" इति, आह-नन्वनन्ता जीवास्ततः कथमसङ्ख्ययान्यौदारिकशरीराणि ?, उच्यते, इह द्विविधा जीवा:प्रत्येकशरीरिणोऽनन्तकायिकाश्च, तत्र ये ते प्रत्येकशरीरिणस्तेषां प्रतिजीवमेकैकौदारिकशरीरमन्यथा प्रत्येकशरीरत्वायोगात् , ये त्वनन्तकायिकास्तेषामनन्तानामनन्तानामेकैकमौदारिकशरीरमतः सर्वसङ्ख्ययापि असङ्ख्येयान्यौदारिकश-18| रीराणि, मुक्तान्यीदारिकशरीराणि अनन्तानि, तच्चानन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यैर्निरूपयति-'अर्णताहिं' इत्यादि, कालतः परिमाणं प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारेऽनन्ताभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्वात्मनाऽपहियन्ते, किमुक्तं भवति ?अनन्तासु उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति, क्षेत्रतः परिमाणमनन्ता लोकाः, अनन्तेषु । लोकप्रमाणेष्वाकाशखण्डेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः, द्रव्यतः परिमाणमभवसिद्धिकेभ्यः-अभव्येभ्योऽनन्तगुणानि, यद्येवं तर्हि सिद्धराशिप्रमाणानि भविष्यन्ति तत आह-सिद्धानामनन्तभाग:-अनन्तभागमात्राणि, ननु द्वयोरपि राश्योरभवसिद्धिकसिद्धिरूपयोर्मध्ये पठ्यन्ते प्रतिपतितसम्यग्दृष्टयः तत् किं तद्राशिप्रमाणानि ~545~ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलम. वृत्ती. रपदं प्रत सूत्रांक [१७७] ॥२७॥ दीप अनुक्रम [४०१] भवेयुः, उफ्यते, यदि तरत्रमाणानि स्पुतर्हि तथेष निर्देशः क्रियेत, सुखप्रतिपत्तिकृतप्रतिज्ञा हि भगवन्त मार्यश्या- १२ शरीमाः, ततस्तथा निर्देशाभावादपसीयतेन सदाशिप्रमाणानि, ननु तर्हि तेषां प्रतिपतितसम्बग्रष्टीनामधस्ताद् भवेयु-18 रुपरिवा, उच्यते, कदाचिदयस्तात्कदाचिदुपरि कदाचितुल्यान्यपि अनियतप्रमाणत्वात्, नतु सर्वकालं तत्प्रमाणानीति, आह च चूर्णिकृत्-"तो किं परिवडियसम्महिहिरासिप्पमाणाई होजाते, तेसिं दोण्हवि रासीणं, मझे। पढिजंतित्तिकाउं?, मण्णा, जह तप्पमाणाई होता तो तेर्सि चेव निदेसो होतो तम्हा न तप्पमाणाई, तो किं तमिडिदा होजा उवरि होजा, मन्नइ, कयाइ हेहा कयाइ उरि होंति कयाइ तल्लाई न निकालं तप्पमाणाई इति, अपरः प्राह-कथं मुक्तानि यथोक्तानन्तसङ्ख्यापरिमाणान्युपपद्यन्ते ?, यतो यदि तावदौदारिकादिशरीराणि यावदविकलानि तावद् गृखन्ते ततस्तेषामनन्तकालमवस्थानामावादनन्तत्वं न घटते, यदि बनन्तमपि कालमवस्थान भवेत् ततोऽनन्तेन कालेन तत्तच्छरीरगणनादनन्तानि भवेयुः, यावताऽनन्तं कालमवस्थानं नास्ति, पुद्गलानामुत्कर्ष-N तोऽप्यसयेयकालावस्थानाभिधानात्, अथ च ये पुद्गला जीवैरौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ता अतीताद्धायां तेषां ग्रहणं तर्हि सर्वेऽपि पुद्गलाः सर्वैरपि जीवैः प्रत्येकमौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ता इति सर्वपुद्गलग्रहणमापन्नं, तथा च सति R ॥२७॥ यदुक्तम्-अभवसिद्धिकेभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागमात्राणीति तद् विरुध्यते, सर्वजीवेभ्योऽनन्तानन्तगुयाणकारेणानन्तगुणत्वस्य प्रसक्तत्वादिति चेत्, उच्यते, इह मुक्तानामौदारिकशरीराणां नाविकलानामेव केवलानां ग्रहणं | ~546~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] नाप्यौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ताः पुद्गलाः, तेषामुक्तदोषप्रसङ्गात् , किन्तु यच्छरीरमौदारिक जीवेन गृहीत्वा मुक्त तत् विशरारुभावं बिभ्राणमनन्तभेदभिन्नं भवति ते चानन्ता भेदा भवन्तो यावत्ते पुद्गला औदारिकपरिणामं न जहति तावत्प्रत्येकमौदारिकशरीरव्यपदेशं लभन्ते, ये पुनरौदारिकपरिणामं त्यक्तवन्तस्ते न गण्यन्ते, तत एवमेकस्थापि शरीरस्थानन्तानि शरीराणि जातानि, एवं सर्वशरीरेष्वपि भावनीयं, तथा च सत्येकैकस्य शरीरस्थानन्तभेदभिन्नत्वादेकस्मिन्नपि समये प्रभूतान्यनन्तानि शरीराण्यवाप्यन्ते, तेषां चासत्येयकालमवस्थानं, तेन चासङ्ग्येयेन कालेनान्यानि जीवैर्विप्रमुक्तान्यसङ्ग्येयान्यवाप्यन्ते, तान्यपि च प्रत्येकमनन्तभेदभिन्नानि, तेषु च मध्ये तावता कालेन यान्यौदारिकशरीरपरिणामं विजहति तानि परित्यज्यन्ते शेषाणि गण्यन्ते, तत एवं मुक्कानि यथोक्तप्रमाणानन्तस याकान्यौदारिकशरीराण्युपपद्यन्ते इति, न चैतत्खमनीषिकाविजृम्भितं, यत आह चूर्णिकृत्-"नवि अषिगलाणमेNR केवलाणंपि गहणं एयं न य ओरालियगहणमुक्काणं सबपुग्गलाणं, किन्तु जं सरीरमोरालिकं जीवेण मुकं तं चेव अणंतभेयभिन्नं [च] होइ जाव ते पुग्गला तं जीवनिवत्तियं ओरालियसरीरकायप्पओगं न मुंचंति न ताव अण्णपरिणामेण परिणमंति ताई पत्तेयं सरीराई भण्णंति, एवमेकेकस्स ओरालियसरीरस्स अणंतभेयभिन्नत्तणओ अणंताई चेच ओरालियसरीराई भवति" इत्यादि, आह-कथमेकैकशरीरद्रव्यदेशः शरीरत्वेन व्यवहियते ?, उच्यते, लवणदृष्टान्तेन, तथाहि खार्यपि लघणमुच्यते द्रोणोऽपि लवणमाढकोऽपि लवणं यावदेकापि शर्करा लवणमेवमिहापि सकलमप्यो SASA ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [ ४०१ ] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२७२॥ “प्रज्ञापना” उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [ - ], दारं [-1, मूलं [ १७७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Ja Eucation Internationa - | दारिकशरीरमुच्यते तदर्द्धमपि तदेकदेशोऽपि यावदनन्तभागोऽपि शरीरमिति, कोऽत्राभिप्राय इति चेत् ?, उच्यते, इह यथा लवणपरिणामपरिणतः स्वोको बहुर्वा पुद्गलसङ्घातो लवणमुच्यते तथैौदारिकशरीरयोग्यपुद्गल सङ्घातोऽपि औदारिकत्वेन परिणतः स्तोको वा बहुर्षा औदारिकशरीरव्यपदेशं लभते, अथवा भवति समुदायैकदेशेऽपि समुदायशब्दोपचारो, यथा - अङ्गुल्यये स्पृष्टे स्पृष्टो मया देवदत्त इत्यादी, तत उपचारान्न कश्चिद्दोषः, ननु यद्येवं कथं तान्यनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यौदारिकशरीराण्येकस्मिन् लोकेऽवगाढानि १, उच्यते, प्रदीपप्रकाशवत्, तथाहि| यथैकस्यापि प्रदीपस्यापि सकलभवनावभासीनि भवन्ति, अन्येषामनेकेषां प्रदीपानामचपि तत्रैवानुप्रविशन्ति, परस्परमविरोधात्, तथौदारिकाण्यपि, एवं शेषशरीरेष्वपि मुक्तेष्वायोज्यं, ननु द्रव्यक्षेत्रे विहाय किमिति प्रथमतः कालेन प्ररूपणा कृता १, उच्यते, कालान्तरावस्थायितया पुद्गलेषु शरीरोपचारो नान्यथा ततः कालो गरीयान् इति प्रथमतस्तेन प्ररूपणा । उक्तान्यौदारिकाणि, सम्प्रति वैक्रियसूत्रमाह- 'केवइया णं भंते!' इत्यादि, बद्धान्यसङ्ख्येयानि, तत्र कालतः परिमाणं प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्त्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्य वसर्पिणीभिरप हियन्ते, किमुक्तं भवति ? - असङ्ख्येयासूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयाः श्रेणयस्तासां | श्रेणीनां परिमाणं प्रतरस्यासङ्ख्येयो भागः, किमुक्तं भवति ? - प्रतरस्यासङ्ख्येयतमे भागे यावत्यः श्रेणयस्तासु च श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि बद्धानि वैक्रियशरीराणीति, अथ श्रेणिरिति किमभिधीयते ?, उच्यते, घनीकृ For Parts Only ------------ ~ 548~ १२ शरीरपदं ॥२७२|| Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] तस्य लोकस्य सर्वतः सप्तरजुप्रमाणस्थायामतः सत्वरज्जुप्रमाणा मुक्तावलिरिवैकाकाशप्रदेशपक्लि, कथं पुनर्लोको घनीI क्रियते ?, कथं वा सप्तरज्जुप्रमाणो भवति इति चेत् ?, उच्यते, इह लोक ऊर्ध्वाधश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणोऽधस्ताद्विस्तरतो देशोनसप्तरज्जुप्रमाणः एकरज्जुर्मध्यभागे ब्रमलोकप्रदेशे बहुमध्यदेशभागे पञ्चरज्जुरुपरि एका रज्जुर्लोकान्ते, रजोश्च परिमाणं खयम्भूरमणसमुद्रस्य पूर्ववेदिकान्तादारभ्यापरवेदिकान्तं यावत्, एवंप्रमाणस्य लोकस्य वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य बुद्धा त्रसनाच्या दक्षिणभागवय॑धोलोकखण्डमधो देशोनत्रिरज्जुविस्तारमतिरिक्तससरज्जूच्छूयं परिगृह्य प्रसनाच्या उत्तरपार्थे ऊ धोभागविपर्यासेन सङ्कायते-ऊर्श्वभागोऽधः क्रियते अधोभाग| स्तू मिति सङ्घात्यते इति, तत ऊईलोके त्रसनाख्या दक्षिणभागवर्तिनी ये द्वे खण्डे कूर्पराकारसंस्थिते प्रत्येकं देशोISI नार्द्धचतुष्टयरज्जूच्छ्ये ते बुद्धा समादाय वैपरीत्येनोत्तरपार्थे सहायेते, एवं च किं जातम् ?, अधस्तनं लोकार्थे देशोनचतुरज्जुविस्तारं सातिरेकसप्तरज्जूच्छयं उपरितनमर्द्ध त्रिरज्जविस्तारं देशोनसप्तरज्जूच्छयं, तेन उपरितनमद्धे ॥ बुद्ध्या गृहीत्वाऽधस्तनस्वार्द्धस्योत्तरपार्थे सङ्घात्यते, तथा च सति सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्यो देशोनसप्तरज्जुविस्तारो घनो जातः, अतः सप्तरज्जूनामुपरि यदधिकं तत्परिगृह्य ऊर्दाध आयतमुत्तरपार्थे सङ्घात्यते, ततो विस्तरतोऽपि परिपूणों सप्त रज्जवो भवन्ति, एवमेष लोको घनीक्रियते, घनीकृतश्च सप्तरज्जुप्रमाणो भवति, यत्र च वचन घनत्वेन सप्तरज्जुप्रमाणता न पूर्यते तत्र बुद्ध्या परिपूरणीयं, एतच्च पट्टिकादो लिखित्वा दर्शयितन्यं, सिद्धान्ते च यत्र कचनापि ~549~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] प्रज्ञापनाया मल य०वृत्तौ. ॥२७३॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [ - ], मूलं [ १७७] दारं [-] ...आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१२]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eucation International श्रेणे ः प्रतरस्य वा ग्रहणं तत्र सर्वत्राप्येवं घनीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुप्रमाणस्यावसातयं, मुक्तान्यौदारिकवद् भावनीयानि । आहारकविषयं सूत्रं 'केवइया णं भंते ! आहारगसरीरगा इत्यादि, 'बद्धानि सिय अस्थि सिय नत्थि' इति अस्तीति निपातो बहुवचनगर्भः कदाचित्सन्ति कदाचित् न सन्तीत्यर्थः यस्मादन्तरमाहारकशरीरस्य जघन्यत एकः समयः उत्कर्षतः षण्मासाः उक्तं च- "आंहारगाई लोए छम्मासे जा न होंतिवि कयाइ । उक्कोसेणं नियमा एकं समयं जहणं ॥ १ ॥” इति यदापि भवन्ति तदाऽपि जघन्यतः एकं द्वे वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, मुक्तान्यौदारिकवत् । तैजसविषयं सूत्रमाह – 'केवइया णं भंते ! तेयगसरीरया' इत्यादि, तत्र बद्धान्यनन्तानि, अनन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यैर्निरूपयति- 'अनंताहिं' इत्यादि, कालतः परिमाणमनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमय प्रमाणानि क्षेत्रतोऽनन्तलोकप्रमाणाकाशखण्डप्रदेशपरिमाणानि, द्रव्यतः परिमाणं सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि, तैजसं हि शरीरं सर्वसंसारिजीवानां प्रत्येकं, संसारिणश्च जीवाः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः, ततस्तैजसशरीराण्यपि सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि भवन्ति, 'सजीव अनंतभागूणा' इति सर्वजीवानां योऽनन्ततमो भागस्तेनोनानि इयमत्र भावना - सिद्धानां तैजसशरीरं न विद्यते, सर्वशरीरातीतत्वात् तेषां, सिद्धाश्च सर्वजीवानामनन्तभागे, ततस्तेनोनानि सर्वजीवानामनन्तभागोना नि भवन्ति, मुक्तानि अनन्तानि, तदेवानन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यैः प्ररूपयति- 'अणंताहिं' इत्यादि, कालक्षेत्रसूत्रे प्राग्वत्, १ आहारकाणि लोके पण्मासान् यावन्न भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कृष्टतो नियमादेकः समयो जघन्येन ॥ १ ॥ For Parts Only ------------ ~ 550 ~ १२ शरीरपदं ॥२७३ ॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] Satra29082908 392008 दीप अनुक्रम [४०१] द्रव्यतः परिमाणं सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह एकैकस्य संसारिजीवस्य एकैकं तैजसशशरीरं, तानि च जीवैविप्रमुक्तानि सन्ति प्रागुक्तयुक्तरनन्तभेदभिन्नानि भवन्ति, तेषां चासङ्ख्येयं कालं यावदवस्थानं, तावता च कालेन जीवैषिप्रमुक्तान्यन्यानि तैजसशरीराणि प्रतिजीवमसङ्ख्येयानि अवाप्यन्ते, तेषामपि प्रत्येकं प्रागुशक्तयुक्त्या अनन्तभेदभिन्नतेति भवन्ति सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि, तत्ति जीववर्गप्रमाणानि भवेयुरत आह-'जीव वग्गस्स अर्णतभागे' इति, जीववर्गस्यानन्तभागप्रमाणानि, जीववर्गप्रमाणानि कस्मान्न भवन्तीति चेत्, उच्यते, यदि एकैकस्य जीवस सर्वजीवराशिप्रमाणानि किश्चित्समधिकानि वा भवेयुर्यन सिद्धानन्तभागपूरणं भवति ततो जीववर्गप्रमाणानि भवन्ति, वर्गो हि तेनैव राशिना तस्य राशेर्गुणने भवति, यथा चतुष्कस्य चतुष्केन गुणने षोडशात्मको वर्ग इति, न चैकैकस्य जीवस्य सर्वजीवप्रमाणानि किश्चित्समधिकानि वा तैजसशरीराणि किन्त्यति|स्तोकानि, तान्यपि असङ्ख्येयकालावस्थायीनीति, तावता कालेन यान्यप्यन्यानि भवन्ति तान्यपि स्तोकानि, कालस्य स्तोकत्वात् , ततो जीववर्गप्रमाणानि न भवन्ति, किन्तु जीववर्गस्थानन्तभागमात्राणि, अनन्तभागप्रमाणतायां च पूर्वाचार्यप्रदर्शितमिदं निदर्शनं-सर्वजीवास्तत्त्ववृत्त्या अनन्ता अपि असत्कल्पनया दश सहस्राणि, तेषां च दशसहखाणां वर्गो दश कोट्यः, तैजसशरीराणि च मुक्तान्यसत्कल्पनया दशलक्षप्रमाणानि, ततः सर्वजीवेभ्यः किल शतगुणानीति सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान्युक्तानि, जीववर्गस्य च शततमे भागे वर्तन्ते, ततो जीववर्गस्यानन्तभागमात्राणि 8292 ~551~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १२ शरी प्रज्ञापनायाः मल- य.वृत्ती. प्रत सूत्रांक [१७८] ॥२७॥ दीप अनुक्रम [४०२] एवं कार्मणशरीराण्यपि बद्धानि मुक्तानि च भावनीयानि, तैजसैः सह समानसङ्ख्यत्वात् । उक्तान्यौधिकानि पञ्चापि शरीराणि, सम्प्रति नैरयिकादिविशेषणविशषितानि चिन्त्यन्ते नेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पं०१, गो! दुविहा पं०, तबहेल्लमा य मुकेल्लगा य, तत्थ ण जे ते बद्धेल्लगा ते णं णत्थि, तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते णं अणंता जहा ओरालियमुकेल्लगा तहा भाणियचा | नेरइयाणं भंते ! केवइया वेउबियसरीरा पं०१, गो. दु०, तं०--बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणिहिं अबहीरंति कालतो, खेचतो असंखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजहभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभमूई अंगुलपढमवग्गमूलं वितीयवग्गमूलपडप्पण्णं अहवर्ण अंगुलवितीयवग्गमूलघणप्पमाणमेचाओ सेढीतो, तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते णं जहा ओरालियस्स मुक्केलगातहा भाणियचा । नेरइयाणं भंते ! केवइआ आहारगसरीरा पं०१, गो. दु० त०-बद्धे० मुक्के, एवं जहा ओरालिए बद्धेल्लगा मुकेल्लया य भणिया तहेव आहारगावि भाणियबा, तेयाकम्मगाई जहा एएसिं चेव बेउवियाई (सूत्र १७८)। 'नेरइयाणं भंते !' इत्यादि, नैरयिकाणां बद्धान्यौदारिकशरीराणि न सन्ति, भवप्रत्ययतस्तेषामौदारिकशरीरास- म्भवात् , मुक्कान्यौधिकमुक्तौदारिकशरीरवत्, वैक्रियाणि बद्धानि यावन्तो नैरयिकास्तावत्प्रमाणानि, तानि चास-II येयानि, तदेवासङ्ख्येयत्वं कालक्षेत्राभ्यां प्ररूपयति-'असंखेजाहि' इत्यादि, कालतः परिमाणं प्रतिसमयमेकैकश २७en ~ 552 ~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------ उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------ मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] रीरापहारे सामस्त्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, किमुक्तं भवति ?-असङ्ख्येयासूत्सर्पिण्यवसाप्पि-15 णीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि, क्षेत्रतोऽसलबेयाः श्रेणयः, असलयेयासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावप्रमाणानीति भावः, अथ प्रतरेऽपि सकले असङ्ख्येयाः श्रेणयो भवन्ति प्रतरस्यार्द्धभागे त्रिभागादौ च ततः कियसङ्ख्याकास्ताः श्रेणय इलाशङ्कायां विशेषनिर्धारणार्थमाह-प्रतरस्थासङ्ख्येयभागः, किमुक्तं भवति ?-प्रतरस्यासयेयतमे भागे यावत्यः श्रेणयस्तावत्यः परिगृह्यन्ते, इदमन्यद्विशेषतरपरिमाणं-'तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई' इत्यादि, तासां श्रेणीनां विष्कम्भतो-विस्तारमधिकृत्य सूचिः-एकप्रादेशिकी श्रेणिरङ्गुलप्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलगुणितं, ॥ इयमत्र भावना-इह प्रज्ञापकेन घनीकृतः सप्तरज्जुप्रमाणो लोकः पट्टिकादौ स्थापनीयः, श्रेणिश्च रेखाकारेण दर्श|नीया, दर्शयित्वा चैवं प्रमाण वक्तव्य-अलप्रमाणमात्रस्य प्रदेशस्य क्षेत्रस्य यावान् प्रदेशराशिस्तस्यासोयानि वर्गमूलानि भवन्ति, तद्यथा-प्रथम वर्गमूलं तस्यापि यद्वर्गमूलं तद् द्वितीयं वर्गमूलं तस्यापि यद् वर्गमूलं तत् तृतीयं वर्गमूलं एवमसङ्ख्येयानि वर्गमूलानि भवन्ति, तत्र प्रथमं यद्वर्गमूलं तद् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुण्यते, गुणिते च सति यावन्तः प्रदेशा भवन्ति तावत्प्रदेशात्मिका सूचिर्बुद्धया क्रियते, कृत्वा च विष्कम्भतो दक्षिणोत्तरायततया स्थापनीया, तया च स्थाप्यमानया यावत्यः श्रेणयः स्पृश्यन्ते तावत्यः परिगृधन्ते, तत्रेदं निदर्शनम्-अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिस्तत्त्वतोऽसङ्ख्यातोऽप्यसत्कल्पनया पट्रपञ्चाशदधिके द्वे शते कल्प्येते, तयोः प्रथम वर्गमूलं षोडश द्वितीयं दीप अनुक्रम [४०२] ~553~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------ उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------ मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना या: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१७८] ॥२७५॥ S चत्वारस्तृतीयं द्वी, तत्र द्वितीयेन वर्गमूलेन चतुष्कलक्षणेन प्रथम वर्गमूलं पोडशलक्षणं गुण्यते जाताः चतुःषष्टिः, एतावत्यः श्रेणयः परिगृह्यन्ते, अमुमेवार्थ प्रकारान्तरेण कथयति-'अहवण'मित्यादि अथवेति प्रकारान्तरे णमिति पदं वाक्यालङ्कारे अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेर्द्वितीयस्य वर्गमूलस्थासत्कल्पनया चतुष्कलक्षणस्य यो घनस्तावत्प्रमाणाः, इह यस्य राशेयों वर्गः स तेन राशिना गुण्यते ततो घनो भवति, यथा द्विकस्याष्टी, तथाहि-द्विकस्य वर्गश्चत्वारस्ते विकेन गुण्यन्ते जाता अष्टाविति, एवमिहापि चतुष्कस्य वर्गः षोडश ते चतुष्केन गुण्यन्ते ततश्चतुष्कस्य घनो भवति, IS तत्रापि सैव चतुःषष्टिरिति, प्रकारद्वयेऽप्यर्थाभेदः, इहायं गणितधर्मो यहु स्तोकेन गुण्यते, ततः सूत्रकृता प्रकारद्वयमेवोपदार्शतं, अन्यथा तृतीयोऽपि प्रकारोऽस्ति 'अंगुलविइयवग्गमूलं पढमवग्गमूलपडुप्पण्ण'मिति अन्ये त्वभिदधति- अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेः खप्रथमवर्गमूलेन गुणने यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणया सूच्या यावत्यः स्पृष्टाः श्रेणयस्तापतीषु श्रेणिपु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि नैरयिकाणां बद्धानि क्रियशरीराणीति, मुक्तान्यौदारिकवत् । आहारकाणि बद्धानि न सन्ति, तेषां तलुध्यसम्भवात् । मुक्तानि पूर्ववत्, तैजसकामणानि बद्धानि वैक्रियवत् , मुक्तानि पूर्ववत् । ||२७५॥ असुरकुमाराणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पं० १, गो० ! जहा नेरइयाणं ओरालियसरीरा भणिता तहेच एतेसि भाणितहा, असुरकुमाराणं भंते ! केवइया वेउवियसरीरा पं०१, गो०! दुविहा पं०, तं०---बट्टेल्लगा य मुकेल्लगा य, तत्थ णं दीप अनुक्रम [४०२] SC -A ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१७९ -१८०...] दीप अनुक्रम [४०३ -४०४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [ १७९-१८०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Beesents Eucation International जे ते बलगा ते णं असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो खेचतो असंखेज्जाओ सेढीतो • पयरस्स असंखेज्जतिभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपटमबम्गमूलस्स संखेजतिभागो, तत्थ णं जे ते सुकेलगा ते णं जहा ओरालियस्स मुकेलगा तहा भाणियचा, आहारसरीरगा जहा एतेसिं चेव ओरालिया सहेव दुबिहा भाणियचा, तेयाकम्मगसरीरा दुबिहावि जहा एतेसिं चैव विउडिया, एवं जाव थणियकुमारा ( सूत्रं १७९) पुढषिकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरमा पं० १, गो० ! दुविहा, पं० तं० बलगा व मुलगा य, तत्थ णं जे ते लगा ते णं असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेचतो असंखेजा लोगा, तस्थ णं मुलगा ते अनंता अनंताहिं उस्सप्पिणिओस्सप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेसतो अनंता लोगा, अभवसि - जिहिंतो अनंतगुणा सिद्धाणं अनंतभागी, पुढविकाइयाणं भंते! केवतिया वेडवियसरीरगा पण्णत्ता, गो० ! दु० पं०, ० - बद्धे० मु०, तत्थ णं जे ते बद्धेलगा ते णं णत्थि, सत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते णं जहा एएसिं चैव ओरालिया तब भाणिया, एवं आहारगसरीरावि, तेथाकम्मगा जहा एएसिं चैव ओरालिया, एवं आउकाइयतेउकाइयादि, बाउकाइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पं० १, गो० ! दु० पं० तं० - बद्धे० मुके०, दुविहावि जहा पुढविकाइयाणं ओरालिया, बेबियाणं पुच्छा, गो० ! दु० तं० – बद्धेलगा व मुलगा य, तत्थ णं जे ते बद्वेल्लागा ते णं असंखेज्जा समए समय अबहीरमाणा २ पलितोबमस्स असंखेज्जइभागमेचेणं कालेणं अवहीरंति नो वेव णं अवहिया सिया, मुलगा जहा पुढविकाइयाणं, आहारयतेयाकम्मा जहा बुढवीकाइयाणं, वणण्फइकाइयाणं जहा पुढविकाइयाणं णवरं तेयाकम्मगा जहा For Pernal Use On ~555~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [१७९-१८०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १२ शरी प्रत सूत्रांक [१७९ प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. रपदं ॥२७६॥ -१८०... ओहिया तेयाकम्मगा। बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालिया सरीरगा पं० १, गो०! दु० त०-बद्धे० मुके०, तत्व गंजे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरति कालतो खेत्ततो असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, वासिणं सेढिणं विक्खंभमुई असंखेजाओ जोयणकोडाकोडिओ असंखेजाई सेढिवग्गमूलाई । असुरकुमाराणामौदारिकशरीराणि नैरयिकवत् , वैक्रियाणि बद्धान्यसङ्खयेयानि, तदेवासङ्ख्येयत्वं कालक्षेत्राभ्यां | प्ररूपयति, तत्र कालसूत्रं प्राग्वत् , क्षेत्रतोऽसङ्ख्याः श्रेणयः, असङ्खयेयासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशातावत्प्रमा-18 णानीत्यर्थः, ताश्च श्रेणयः प्रतरस्थासक्यो भागः, प्रतरासङ्ख्ययभागप्रमिता इत्यर्थः, तत्र नारकचिन्तायामपि प्रतरासङ्खयेयभागप्रमिता उक्ताः, ततो विशेषतरं परिमाणमाह-'तासि ण'मित्यादि, तासां श्रेणीनां परिमाणाय या विष्कम्भसूचिः सा अङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनः प्रथमवर्गमूलस्य सहयेयो भागः, किमुक्तं भवति -अङ्गु-18 लमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेरसत्कल्पनया षट्पञ्चादशदधिकशतदयप्रमाणस्य यत्प्रथमवर्गमूलं षोडशलक्षणं तस्य सक्वेयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशा असत्कल्पनया पञ्च पड़ बा तावत्प्रदेशात्मिका श्रेणिः परिमाणाय विष्कम्भसूचिरवसा-1 तच्या, एवं च नैरयिकापेक्षयाऽमीपां विष्कम्भसूचिरसोयगुणहीना, तथाहि नैरयिकाणां श्रेणिपरिमाणाय विष्कम्भसूचिरगुलप्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नं यावद् भवति तावत्प्रदेशात्मिका द्वितीयं च वर्गमूलं तत्त्वतो|ऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मकं ततोऽसञ्जयगुणप्रथमवर्गमूलप्रदेशात्मिका नैरयिकाणां च सूचिरमीषा त्वकुलप्रथमवर्गमूलसवे दीप अनुक्रम [४०३-४०४] ॥२७॥ ~5564 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [१७९-१८०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९ 2999 -१८०... यभागप्रदेशात्मिकेति, युक्तं चैतत् , यस्मान्महादण्डके सर्वेऽपि भवनपतयो रवप्रभानैरयिकेभ्योऽप्यसयेय गुणहीना उक्तास्ततः सर्वनैरयिकापेक्षया सुतरामसङ्ख्येयगुणहीना भवन्ति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवैक्रियवत् मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, यथा चासुरकुमाराणामुक्तं तथा शेषाणामपि भवनपतीनां वाच्यं, यावत्स्तनितकुमाराणां । पृथिव्यप्तेजःसूत्रेषु बद्धान्यौदारिकशरीराणि असह्मवेयानि, तत्रापि कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्त्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतः परिमाणचिन्तायामसङ्ख्येयालोका:-आत्मीयावगाहनाभिरसङ्ख्येया लोका व्याप्यन्ते, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, वातकायस्याप्यौदारिकशरीराणि पृथिव्यादिवत्, वैक्रियाणि बद्धान्य|सङ्ख्ययानि, तानि च प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे पल्योपमासङ्ख्येयभागेन निःशेषतोऽपहियन्ते, किमुक्तं भवति ?पल्योपमासङ्ख्येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति न पुनरभ्यधिकानि स्युः, तथाहि-वायुकायिकाश्चतुर्विधाः, तद्यथा-सूक्ष्मा बादराश्च, एकैके द्विधा-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, तत्र बादरपर्याप्तव्यतिरिक्ताः शेषाखयोऽपि प्रत्येकमसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, ये तु वादरपर्याप्तास्ते प्रतरासङ्ख्येयभागप्रमाणाः, तत्र त्रयाणां राशीनां वैक्रियलब्धिव नास्ति, बादरपर्याप्तानामपि सङ्ख्येयभागमात्राणां लब्धिः न शेषाणां, आह च चूर्णिकृत्-"तिण्हं ताव रासीणं बेचियलद्धी चेव नस्थि, वायरपज्जत्ताणपि संखेजइभागमेत्ताणं लद्धी अथिति, ततः पल्योपमासङ्खयेयभागसमयप्र दीप अनुक्रम [४०३-४०४] 909203929202 ~557~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१७९ -१८०...] दीप अनुक्रम [४०३ -४०४] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥२७७॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [ १७९-१८०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः माणा एव पृच्छासमये वायवो वैकियवर्त्तिनोऽवाप्यन्ते नाधिका इति, इह केचिदाचक्षते ---सर्वे वायवो वैक्रियवर्त्तिन एव, अवैक्रियाणां चेष्टाया एवासम्भवात्, तदसमीचीनं, वस्तुगतेरपरिज्ञानात्, वायवो हि स्वभावाचलास्ततोवैक्रिया अपि ते वान्ति इति प्रतिपत्तव्यं, वाताद्वायुरिति व्युत्पत्तेः, आह च चूर्णिकृत् - "जेण ससु चैव लोगागासेसु चला वायवो वायंति तम्हा अयेउधियावि वाया वायंतीति वित्तव”मिति, मुक्तानि वैक्रियाण्यौधिकमुक्तवत्, तेजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् मुक्तान्यधिकमुक्तवत्, मनस्पतिकायिक चिन्तायामौदारिकाणि पृथिष्यादिवत्, तैजसकार्मणान्यौधिक तैजस कार्मणयत् । द्वीन्द्रियसूत्रे बद्धान्यौदारिकशरीराणि असङ्ख्येयानि ततः कालतः परिमाणचिन्तायामसङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते – असङ्ख्यातासूत्सपिण्यवसर्पिणीषु यायन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति भावः, क्षेत्रतोऽसङ्गेयाः श्रेणयोऽसङ्ख्यातासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः, तासां श्रेणीनां परिमाण विशेष निर्द्धारणार्थमाह- प्रतरासङ्ख्येयभागः प्रतरस्यासङ्ख्येय भागप्रमिता असलेया श्रेणयः परिगृह्यन्ते इति भावः । प्रतरासङ्ख्येयभागो नैरयिकभवनपतीनामपि प्रतिपादितस्ततो विशेषतरपरिमाणनिरूपणार्थं सूचीमानमाह - 'तासि णं सेढीण' मित्यादि, तासां श्रेणीनां परिमाणावधारणाय या विष्कम्भसूची सा असल्या योजन कोटी कोट्यः अस येययोजनकोटी कोटिप्रमाणा इत्यर्थः, अथवेदमन्यद्विशेषतः परिमाणं - 'असंखेज्जाएं सेढिवग्गमूलाई' इति, एकस्याः परिपूर्णायाः श्रेणेर्यः प्रदेशराशिस्तस्य प्रथमं वर्गमूलं द्वितीयं तृतीयं च वर्गमूलं यावदसत्येयतमं Education International For Par Use Only ~ 558 ~ १२ शरीरपदं ॥२७७| Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [१७९-१८०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९-१८०... वर्गमूलं एतानि सर्वाण्यप्येकत्र सङ्कल्प्यन्ते, तेषु च सङ्कल्पितेषु यावान् प्रदेशराभिर्भवति तावत्प्रदेशात्मिका विष्कम्भसू-13 चिरवसेया, अत्र निदर्शनं-श्रेणी किल प्रदेशा असङ्ख्याता अप्यसत्कल्पनया पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षटत्रिंशदधिकानि ६५५३६, तेषां प्रथमं वर्गमूलं वे शते षट्पश्चाशदधिके २५६ द्वितीयं षोडश १६ तृतीयं चत्वारः४ चतुर्थ द्वौ २, एतेषां च सङ्कलने जाते वे शते अष्टसप्तत्यधिके २७८, एतावता किलासत्कल्पनया प्रदेशानां सूचिरिति, अर्थते द्वीन्द्रियाः किंप्रमाणाभिरवगाहनाभिरास्तीर्यमाणाः कियता कालेन सकलं प्रतरमापूरयन्ति ?, उच्यते, अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणाभिरवगाहनाभिः प्रत्यावलिकाऽसङ्ख्येयभागमेकैकावगाहनारचनेनासङ्ख्ययाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरापूयन्ते, इयमत्र भावना-एकैकस्मिन्नावलिकायाः असङ्ख्येयतमे भागे एकैका अङ्गुलासङ्ख्येयप्रमाणा अवगाहना रयते, 18 ततोऽसङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिः सकलमपि प्रतरं द्वीन्द्रियशरीरैरापूर्यते, एतदेवापहारद्वारेण सूत्रकृदाहबेइंदियाण ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लगेहिं पयरो अवहीरति, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालतो, खेत्ततो अंगुलपयरस्स आवलियाते य असंखेजतिभागपलिभागेणं, तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते अहा ओहिया मोरालियमुकेल्लगा, वेउविया आहारगा य बदिल्लगा पत्थि, मुकिल्लगा जहा ओहिया ओरालियमुकेल्लगा, तेयाकम्मगा जहा एतेसिं चेव ओहिया ओरालिया, एवं जाव चरिंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव, नवरं वेउवियसरीरएसु इमो विसेसो पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवड्या बेउवियसरीरया पं०, गो०! दु०५०-बद्धे मुके०, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं दीप अनुक्रम [४०३-४०४] ~ 559~ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [... १८०] दीप अनुक्रम [ ४०४] प्रज्ञापनायाः मल य०वृत्ती. ॥२७८॥ पदं [१२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], ------------- दारं [-] मूलं [... १८० ] आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education International असंखजा, जहा असुरकुमाराणं, णवरं तासि णं सेढीणं विक्खभमू अंगुलपदमवग्गमूलस्स असंखेज्जइभागो, मुलगा तव । मणुस्साणं भंते ! केवड्या ओरालियसरीरगा पं० १, गो० ! दु०, ० लगा य मुके, तत्थ णं जे ते बद्धेखाते णं सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा जहण्णपदे संखे संखेज्जाओ कोडाकोडीओ तिजमलपयस्स उचरिं चउजमलपयस्स हिट्ठा, अब णं छट्टो वग्गो अहव णं छष्णउईछेयणगदाइरासी, उक्कोसपए असंखिजा, असंखिजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो खेचओ रूवपक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरद्द, तीसे सेढीए आकासखे तेहिं अवहारो मग्गिज्जइ असंखेज असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालतो खेततो अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं, तरथ णं जे ते मुलगा ते जहा ओरालिया ओहिया मुकेलगा, बेडब्बियाणं भंते! पुच्छा, गो० ०, ० मुके, तत्थ णं जे ते बल्लगा ते णं संखिजा, समए २ अबहीरमाणे २ संखेजेणं कालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहीरिया सिया, तत्थ णं जे ते मुलगा ते णं जहा ओरालिया ओहिया, आहारगसरीरा जहा ओहिया, तेयाकम्मगा जहा एतेसिं चैव ओरालिया । वाणमंतराणं जहा नेरइयाणं ओरालिया आहारगा य, वेउब्वियसरीरगा जहा नेरइयाणं, नवरं तासि णं संढीणं चिक्वंभसूई संखेजजोअणसयवग्गपलिभागो पयरस्स, मुकिल्लया जहा ओरालिया, आहारगसरीरा जहा असुरकुमाराणं तेयाकम्मया जहा एतेसि णं चेत्र वेउन्विता । वासिणं सेढीणं विक्खभई विछप्पनं गुल व पयरस्स, वेमाणियाणं एवं चेव, नवरं तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलवितीयवग्गमूलं तइयवग्गमूल पडुप्पनं अहवणं अंगुलतइयवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ, सेसं तं चैव ॥ (सूत्रं १८० ) सरीरपयं समत्तं ॥ १२ ॥ ० For Pernal Use On ~ 560~ १२ शरीरपर्द ॥२७८॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [...१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [...१८० 'बेईदियाण'मित्यादि, द्वीन्द्रियाणा सम्बन्धिमिरौदारिकशरीरर्वद्धैः प्रतरमसङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियते, अत्र प्रतरमिति क्षेत्रतः परिमाणं उत्सलिण्यवसर्पिणीभिरिति कालतः, किंप्रमाणेन पुनः क्षेत्रेण कालेन वा अपहरणमत आह-'अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभागपलिभागेण ति, अङ्गुलमात्रस्य प्रतरस्य-एकप्रा-18 देशिकश्रेणिरूपस्य असङ्ख्येयभागप्रतिभागप्रमाणेन खण्डेन, इदं क्षेत्रविषयं परिमाणं, कालपरिमाणमावलिकाया असङ्खयेयभागप्रतिभागेनासंख्येयतमेन प्रतिभागेन, किमुक्तं भवति ?-एकेन द्वीन्द्रियेणाकुलासंख्येयभागप्रमाणे खण्डमावलिकाया असङ्ख्येयतमेन भागेनापहियते, द्वितीयेनापि तावत्प्रमाणं खण्डं तावता कालेन, एवमपहियमाणं प्रतरं वीन्द्रियैः सर्वैरसङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सकलमपहियते इति, मुक्तान्यौषिकमुक्तवत् , तेजसकामणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् , वैक्रियाणि पुनर्बद्धानि तेयां न सन्ति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, एवं त्रिचतुरिन्द्रियाणामपि । तिर्यकपञ्चेन्द्रियाणां बद्धानि मुक्तानि चौदारिकाणि द्वीन्द्रियवत. वैक्रियाणि बद्धानि असाधेयानि, तत्र कालतः18 परिमाणचिन्तायामसङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयासु श्रेणिषु यावन्तः आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि, तासां च श्रेणीनां परिमाणं प्रतरस्थासङ्घयेयो भागः, तथा चाह-'जहा असुरकुमाराण'मिति, यथा असुरकुमाराणां तथा वक्तव्यं, नवरं विष्कम्भसूचिपरिमाणचिन्तायां तत्राङ्गुलप्रमाणवर्गमूलस्य सङ्ख्ययो भाग उक्त इह त्वसङ्ख्ययो भागो वक्तव्यः, किमुक्तं भवति ?-अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः यत्प्रथमं वर्गमूलं तस्थासङ्खये यतमे दीप अनुक्रम [४०४] ~561~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [...१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १२ शरीरपद प्रत सत्राक ॥२७९॥ [...१८०] दीप अनुक्रम [४०४] भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रदेशात्मिका सूचिः परिगृह्यते, तावत्या च सूच्या याः श्रेणयः स्पृष्टास्तासु श्रेणिषु या मल- AA यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां बद्धानि चैक्रियशरीराणि, उक्तं च-"अङ्गुलमूलासंख- य.वृत्ती. यभागप्पमियाउ होंति सेढीओ । उत्तरविउधियाणं तिरियाणं सन्निपजाणं ॥१॥" मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् , मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , मनुष्याणां बद्धान्यौदारिकशरीराणि स्यात्-कदाचित सङ्ख्येयानि कदाचिदसोयानि, कोऽत्राभिप्रायः इति चेत् ।, उच्यते, इह द्वये मनुष्या-गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सम्मूछिमाश्च, तत्र गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सदावस्थायिनो, न स कश्चित्कालोऽस्ति यो गर्भव्युत्क्रान्तिकममुण्यरहितो भवति, सम्मूछिमाश्च कदाचिद्विद्यन्ते कदाचित्सर्वथा तेषामभावो भवति, तेषामुत्कर्षतोऽन्तर्मुहर्त्तायुष्कत्वात् , उत्प-18 स्यन्तरस्य चोत्कर्षतश्चतुर्विंशतिमुहूर्तप्रमाणत्वात् , ततो यदा सर्वथा सम्मूछिममनुष्या न विद्यन्ते किन्तु केपला गर्भव्युत्क्रान्तिका एव तिष्ठन्ति तदा स्यात् सङ्ख्ययाः, सङ्ख्येयानामेव गर्भव्युत्क्रान्तिकानां भावात् , महाशरीरत्वे प्रत्येकशरीरत्वे च सति परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् , यदा तु सम्मूछिमास्तदा असङ्ख्येयाः, सम्मूछिमानामुत्कर्षतः श्रेण्यसङ्ग्येयभागवर्जिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तथा चाह-जहन्नपदे संखेजा' इत्यादि, जघन्यपदं नाम यत्र सर्वस्तोकाः मनुष्याः प्राप्यन्ते, आह-किमत्र सम्मूञ्छिमाणां ग्रहणमुत गर्भव्युत्कान्तिकानां ?, उच्यते, गर्भव्युत्क्रा-18 न्तिकानां, तेषामेव सदाऽवस्थायितया सम्मूछिमविरहे सर्वस्तोतया प्राप्यमाणत्वात् , उत्कृष्टपदे तूमयेषामपि Teeeeeesesese ~562~ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [... १८०] दीप अनुक्रम [४०४] Education “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], मूलं [... १८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ग्रहणं, यदाह मूलटीकाकारः-- "सेतराणां ग्रहणमुत्कृष्टपदे, जघन्यपदे गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव केवलानां ग्रहण"मिति, अस्मिन् जघन्यपदे सङ्ख्या मनुष्याः, तत्र सङ्ख्येयकं सत्येयभेदभिन्नमिति न ज्ञायते कियन्तस्ते इति विशेषसङ्ख्यां निर्द्धारयति - सङ्ख्येयाः कोटीकोव्यः, अथवा इदमन्यत् विशेषतरं परिमाणं- 'तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलपयस्स हेट्ठा' इति, इह मनुष्यसङ्ख्याप्रतिपादिकान्येकोनत्रिंशदङ्कस्थानानि वक्ष्यमाणानि, तत्र समयपरिभाषया अष्टानां अष्टानामङ्कस्थानानां यमलपदमिति संज्ञा, चतुविंशत्या चाङ्कस्थानैः त्रीणि यमलपदानि लब्धानि, उपरि पञ्चाङ्कस्थानानि तिष्ठन्ति, अथ च यमलपदमष्टभिरङ्कस्थानैस्ततश्चतुर्थे यमलपदं न प्राप्यते तत उक्तं त्रयाणां यमलपदानामुपरि - पञ्चभिरङ्कस्थानैर्वर्द्धमानत्वात् चतुर्थस्य च यमलपदस्याधस्तात् - त्रिभिरङ्कस्थानैर्हीनत्वात्, अथवा द्वौ द्वौ वर्गों समुदितौ एकं यमलं चत्वारो वर्गाः समुदिता द्वे यमले पड् वर्गाः समुदितास्त्रीणि यमलपदानि अष्टौ वर्गाः समुदिताश्चत्वारि यमलपदानि, तत्र यस्मात् षण्णां वर्गाणामुपरि वर्त्तन्ते सप्तमस्य च वर्गस्याधस्तात् तत उक्तंत्रियमलपदस्योपरि चतुर्यम लपदस्याधस्तादिति, त्रियमलपदस्येति - त्रितवानां यमलपदानां समाहारस्त्रियमलपदं तस्य, तथा चतुर्णां यमलपदानां समाहारश्चतुर्यमलपदं तस्य, सम्प्रति स्पष्टतरं सङ्ख्यानमुपदर्शयति- 'अहव णं छट्ट 'वग्गो पंचमवग्गपप्पण्णो' इति अथवेति पक्षान्तरे णमिति वाक्यालङ्कारे षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गेण प्रत्युत्पन्नो-गुणितः सन् यावान् भवति तावत्प्रमाणा जघन्यपदे मनुष्याः, तत्र एकस्य वर्ग एक एव स च वृद्धिं न गत इति वर्गो न For Parts Only ~ 563~ [nary or Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [...१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. eses सत्रांक [...१८०] ॥२८॥ दीप अनुक्रम [४०४] गण्यते, द्वयोर्वर्गश्चत्वारः एष प्रथमो वर्गः४, चतुगी वर्गः षोडश एष द्वितीयो वर्गः १६, षोडशानां वर्ग द्वे शते १२ शरी पट्पञ्चाशदधिके एप तृतीयो वर्गः २५६, द्वयोः शतयोः षट्रपञ्चाशदधिकयोर्वर्गः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानिरपदं शपत्रिंशदधिकानि, एष चतुर्थी वर्गः ६५५३६, एतस्य वर्गश्चत्वारि कोटिशतानि एकोनत्रिंशत्कोट्यः एकोनपञ्चा-13 शलक्षाः सप्तपष्टिः सहस्राणि द्वे शते षण्णवत्यधिके एष पञ्चमो वर्गः ४२९४९६७२९६, उक्तं च-"चत्तारि य कोडिसया अउणत्तीसं च होन्ति कोडीओ। अउणावन्नं लक्खा सत्तट्ठी चेव य सहस्सा ॥१॥दो य सया छण्णा-14 उया पंचमवग्गो समासओ होइ । एयस्स कतो वग्गो छट्ठो जो होइ तं वोच्छं ॥२॥” एतख पञ्चमस्य वर्गस्य यो वर्गः स पष्ठो वर्गः, तस्य परिमाणमेकं कोटीकोटीशतसहस्रं चतुरशीतिः कोटीकोटीसहस्राणि चत्वारि सप्तषष्टय|धिकानि कोटीकोटीशतानि चतुश्चत्वारिंशत्कोटिलक्षाणि ससकोटीसहस्राणि त्रीणि सप्तत्यधिकानि कोटिशतानि पञ्चनवतिक्षाः एकपञ्चाशत्सहस्राणि पद शतानि पोडशोत्तराणि, १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ एप षष्ठो वर्गः, उक्तं च-"लक्खं कोडाकोडी चउरासीइ भवे सहस्साई। चत्तारि य सत्तट्ठा होंति सया कोडीकोडीणं ॥२॥ चउयालं लक्खाई कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा । तिणि सया सत्तयरी कोडीणं इंति नायबा ॥ २॥ पंचाणउई ISH||२८00 लक्खा एकावन्नं भवे सहस्साई । छसोलसुत्तरसया एसो छट्ठो हवइ वग्गो ॥३॥” इति, एष षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गेण गुण्यते, गुणिते च सति यावान् राशिर्भवति तावत्प्रमाणा जघन्यपदे मनुष्याः, ते च एतावन्तो भवन्ति, ~564~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [...१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [...१८० दीप अनुक्रम [४०४] | ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ एतान्येकोनत्रिंशदङ्कस्थानानि, एतानि च कोटीकोव्यादिद्वारेण कथमपि अभिधातुं न शक्यन्ते ततः पर्यन्तवर्तिनोऽङ्कस्थानादारभ्य अङ्कस्थानसङ्ग्रहमात्र पूर्वपुरुषप्रणीतेन गाथाद्वयेASI नाभिधीयते-'छत्तिषिण तिण्णि सुण्णं पंचेव य नव यतिण्णि चत्तारि । पंचेव तिण्णि नव पंच सत्त तिषणेव (तिण्णि) |ति चउ छटो ॥१॥ दो चउ इको पंच दो छक्कगेकग(गं च )छेव । दो दो णव सत्तेव य ठाणाई उवरि हुंताई ॥२॥" (छत्तिनि तिनि सुन्न पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारि । पंचेव तिण्णि नव पञ्च सत्त तिन्नेव तिन्नेव ॥१॥चउ छद्दो || चउ एको पण छोकगो य अटेव । दो दो नव सत्तेव य अंकहाणा पराहुंता ॥२॥ इत्यनुयोगद्वारवृत्ती) अथवाऽयमकस्थानप्रथमाक्षरसङ्ग्रहः 'छत्तितिसु पण नव ति च पति ण प स ति ति चउ छंदो। च एप दो छ ए अबे बेण स पढमक्खरसन्तियट्टाणा ॥१॥ एतेषामेव एकोनत्रिंशदङ्कस्थानानां पूर्वपुरुषैः पूर्वाहैः परिस-8 बानं कृतं तदुपदर्शयति, तत्र चतुरशीतिर्लक्षाणि पूर्वाङ्ग चतुरशीतिर्लक्षाश्चतुरशीतिर्लक्षैर्गुण्यन्ते ततः पूर्व भवति, तस्य परिमाणं-ससतिः कोटिलक्षाणि पटपञ्चाशत्कोटिसहस्राणि ७०५६००००००००००, एतेन भागो हियते | तत इदमागतं,एकादश पूर्वकोटीकोट्यो द्वाविंशतिः पूर्वकोटीलक्षाणि चतुरशीतिः पूर्वकोटीसहस्राणि अष्टादशोत्त राणि पूर्वकोटीशतानि एकाशीतिः पूर्वलक्षाणि पञ्चनवतिः पूर्वसहस्राणि त्रीणि षट्पञ्चाशदधिकानि पूर्वशतानि, 18 अत ऊ पूर्वैर्भागो न लभ्यते ततः पूर्वाङ्गर्भागहरणं, तत्रेदमागतं-एकविंशतिः पूर्वाङ्गलक्षाणि सप्ततिः पूर्वाङ्गस ~565~ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [...१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल य०वृत्ती. प्रत सूत्रांक [...१८०] ॥२८॥ हस्राणि षट् एकोनषश्यधिकानि पूर्वाङ्गशतानि, तत ऊ च इदमन्यत् उद्धरितमवतिष्ठते-त्र्यशीतिर्लक्षाणि पञ्चा- १२ शरीशत् सहस्राणि त्रीणि शतानि पत्रिंशदधिकानि मनुष्याणामिति ११२२८४११८८१९५३५६ ॥ २१७०६५९ । तथा I |च पूर्वाचार्यप्रणीता अत्र गाथा-"मणुयाण जहन्नपदे एक्कारस पुवकोडिकोडीउ । बावीस कोडिलक्खा कोडिस-18 हस्साई नुलसीई ॥१॥ अद्वैव य कोडिसया पुषाण दसुत्तरा तओ होति । एकासीई लक्खा पंचाणउई सह-18 स्साई ॥२॥ छप्पण्णा तिन्नि सया, पुवाणं पुछवणिया अण्णे । एचो पुवंगाई इमाई अहियाई अण्णाई ॥३॥ लक्खाई एगवीसं पुर्वगाण सयरी सहस्सा य । छच्चेवेगूणहा पुधंगाणं सया होति ॥४॥ तेसीइ सयसहस्सा पण्णासं खलु भवे सहस्साई । तिणि सया छत्तीसा, एवइया अविगला मणुया ॥५॥” इति, इमामेव सङ्ख्या विशेषोपलम्भनिमित्तं प्रकारान्तरेणाह-अहव णं छण्णउईछेयणगदायी रासी' इति, 'अहवणे'ति प्राग्वत्, पण्णवतिच्छेदनकानि यो राशिर्ददाति स षण्णवतिछेदनकदायी राशिः, किमुक्तं भवति ?-यो राशिरर्द्धनार्दैन छिद्यमानः पण्णवतिं वारान् छेदं सहते पर्यन्ते च सकलमेकं रूपं पर्यवसितं भवति स पण्णवतिछेदनकदायी राशिरिति, का पुनरेवंविध इति चेत्, उच्यते, एष एव षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गगुणितः, कोऽत्र प्रत्यय इति चेत् ', उच्यते, इह ॥२८१॥ प्रथमवर्गश्छिद्यमानो वे छेदनके ददाति, तद्यथा-प्रथमच्छेदनकं द्वौ द्वितीयमेकमिति, द्वितीयो वर्गश्चत्वारि छेदन-1 कानि, तत्र प्रथममष्टी द्वितीयं चत्वारस्तृतीयं द्वौ चतुर्थमेक इति, एवं तृतीयवर्गोऽष्टौ छेदनकानि प्रयच्छति, रब्यकरeceoe दीप अनुक्रम [४०४] ~566~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -, ------------- मूलं [...१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [...१८० दीप अनुक्रम [४०४] चतुर्थः पोडश पञ्चमो द्वात्रिंशतं षष्ठश्चतुःषष्टिं, स चैवं पञ्चमवर्गेण गुणितः षण्णवतिः, कथमेतदवसेयमिति चेत्, उच्यते, इह यो यो वर्गो येन येन वर्गेण गुण्यते तत्र तत्र तयोईयोरपि छेदनकानि प्राप्यन्ते, यथा प्रथमवर्गेण गुणिते द्वितीयवर्गे षट्, तथाहि-द्वितीयो वर्गः पोडशलक्षणः प्रथमवर्गेण चतुष्करूपेण गुण्यते जाता। चतुःषष्टिः, तस्याः प्रथमं छेदनकं द्वात्रिंशत् द्वितीयं षोडश तृतीयमष्टी चतुर्थ चत्वारः पञ्चमं वो षष्ठं एक इति, एवमन्यत्रापि भावनीयं, तत्र पञ्चमवर्गे द्वात्रिंशच्छेदनकानि षष्ठे चतुःषष्टिः, ततः पञ्चमवर्गण षष्ठे वर्गे गुणिते। षण्णवतिछेदनकानि प्राप्यन्ते, अथवा एकं रूपं स्थापयित्वा ततः षण्णवतिवारान् द्विगुणद्विगुणीक्रियते, कृतं च। Sसत यदि तावत्प्रमाणो राशिर्भवति ततोऽयसातव्यं एष षण्णवतिच्छेदनकदायी राशिरिति, तदेवं जघन्यपदम-18 भिहितम् , इदानीमुत्कृष्टपदमाह-'उकोसपए असंखेज्जा' इत्यादि, उत्कृष्टपदे ये मनुष्या भवन्ति ते असङ्ख्ययाः, तत्रापि कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमयमेकैकमनुष्यापहारे सामस्त्सेनासोयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतो रूपे प्रक्षिप्ते मनुष्यरेका श्रेणिः परिपूर्णाऽपहियते, किमुक्तं भवति-उत्कृष्टपदे ये मनुष्यास्तेषु। मध्ये एकस्मिन्नसत्कल्पनया रूपे प्रक्षिप्से सकलाऽपि श्रेणिरेकाऽपहियते, तस्याश्च श्रेणेः क्षेत्रकालाभ्यामपहारमार्गणा कालतस्तावदसङ्ख्ययाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः क्षेत्रतोऽङ्गुलप्रथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नं, किमुक्तं भवति-अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्तस्य यत्प्रथमं वर्गमूलमसकल्पनया ~567~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [... १८०] दीप अनुक्रम [४०४] प्रज्ञापनाया: मल य० वृत्ती. ॥२८२॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], मूलं [... १८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः षोडशलक्षणं ततस्तृतीयेन वर्गमूलेनासत्कल्पनया द्विकलक्षणेन गुण्यते, गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति असत्कल्पनया द्वात्रिंशत् एतावत्प्रमाणैः खण्डैरपहियमाणा यावत् श्रेणिर्निष्ठामियर्त्ति तावत् मनुष्या अपि निष्ठामुपयान्ति, आह-- कथमेकस्याः श्रेणेर्यथोक्तप्रमाणैः खण्डैरपहियमाणायाः असङ्ख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो लगन्ति ? उच्यते, क्षेत्रस्यातिसूक्ष्मत्वात् उक्तं च सूत्रेऽपि - "सुहुंमो य होइ कालो तत्तो सुद्दमयरथं हवइ खेत्तं । अंगुल| सेढीमेत्ते उस्सप्पिणीओ असंखेजा ॥ १ ॥” इति, मुक्तान्यधिकमुक्तवत्, वैक्रियाणि वद्धानि सङ्ख्येयानि, गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव केषांचित् वैक्रियलब्धिसंभवात्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, आहारकाण्यौधिकाहारकवत्, तेजसकार्मणानि वद्धानि बद्धौदारिकवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, व्यन्तराणामौदारिकाणि यथा नैरयिकाणां, वैक्रियाणि बद्धान्यसङ्ख्येयानि तत्र कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमय मेकैकापहारे असङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यव सर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयाः श्रेणयः, असङ्ख्यातासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीति भावः, ताश्च श्रेणयः कियत्य इति चेत् , उच्यते, प्रतरस्यासङ्ख्येयो भागः, प्रतरासङ्ख्येयभागप्रमिता इत्यर्थः, तथा चाह - 'वेउवि - यसरीरा जहा नेरइयाण' मिति, वैक्रियशरीराणि व्यन्तराणां यथा नैरथिकाणां, केवलं सूच्यां विशेषः, तथा चाहू'नवर' मित्यादि, नवरं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्वक्तव्येति शेषः, सा च सुप्रसिद्धत्वान्नोक्ता, कथं सुप्रसिद्धेति १ सूक्ष्मञ्च भवति कालस्ततः सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्र । अङ्गुलमात्रायां श्रेणात्सर्पिण्योऽसङ्ख्येयाः ॥ १ ॥ Education Intention For Parts Only ~ 568~ १२ शरीरपदं મારકા Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [...१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [...१८० दीप अनुक्रम [४०४] चेत् ? उच्यते, इह महादण्डके पञ्चेन्द्रियतिर्यमपुंसकेभ्योऽसङ्ख्येयगुणहीना व्यन्तराः पठ्यन्ते, तत एषां विष्कम्भसूचिरपि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियविष्कम्भसूचेरसङ्ग्येयगुणहीना वक्तव्या इति, आह च मूलटीकाकारोऽपि,-"जम्हा महादंडए पंचिंदियतिरियनपुंसएहितो असंखेजगुणहीणा वाणमंतरा पढि जंति, तम्हा विक्खंभसूईवि तेहितो असंखेजगुणशहीणा चेव भाणियचा' इति, सम्प्रति प्रतिभाग उच्यते-प्रतिभागो नाम खण्डं, 'संखेजजोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स' इति सल्ययोजनशतवर्गप्रमाणः प्रतिभागः प्रतरस्य पूरणे अपहरणे वा इति वाक्यशेषः, इयमत्र भावना-1 असङ्ख्येययोजनशतवर्गप्रमाणे श्रेणिखण्डे यदि एकैको व्यन्तरः स्थापते ततस्ते सकलमपि प्रतरमापूरयन्ति, यदिवा योकैकन्यन्तरापहारे एकै सङ्ख्येययोजनशतवर्गप्रमाणं श्रेणिखण्डमपहियते तत एकत्र ब्यन्तरा निष्ठां यान्ति परतः। सकलं प्रतरमिति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवैक्रियवत् , मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् । ज्योतिष्काणामौदारिकाणि नैरयिकवत्, वैक्रियाणि बद्धान्यसयेयानि, तत्र कालतो मार्गणायां प्रतिसमयमेकैकापहारे सामस्त्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसयेयाः श्रेणयः, ताश्च श्रेण|यः प्रतरासङ्ख्येयभागप्रमिताः, तथा चाह-'जोइसियाणं एवं चेव' इति, नवरमित्यादिना विशेष दर्शयति, नवरं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्वक्तव्येति शेषः, इयमपि सुप्रसिद्धत्वानोक्ता, कथमियं सुप्रसिद्धेति चेत् ?, उच्यते, यस्मान्महादण्डके व्यन्तरेभ्यो ज्योतिकाः सङ्खयेयगुणा उक्तास्तत एतेषां विष्कम्भसूचिरपि तेषां विष्कम्भसूचेः सङ्ख्ये ~ 569~ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [... १८०] दीप अनुक्रम [ ४०४] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥२८३॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], उद्देशक: [-], ------------- दारं [-] मूलं [... १८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः यगुणा द्रष्टव्या, तथा चाह मूलटीकाकार:- 'जम्हा वाणमंतरेहिंतो जोइसिया संखिजगुणा पढिज्जंति, तम्हा विक्भसूईवि तेसिं तेहिंतो संखेज्जगुणा चैव भवति' इति नवरं प्रतिभागे स्पष्टतरो विशेषस्तमेवाह - 'बिछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स' इति षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणः प्रतिभागः प्रतरस्य पूरणेऽपहरणे च, अत्रापीयं भावना - षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणे श्रेणिखण्डे यद्येकैको ज्योतिष्कोऽवस्थाप्यते ततस्ते सकलमपि प्रतरमापूरयन्ति, यदिवा यद्येकैकज्योतिष्कापहारेण एकैकं षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणं श्रेणिखण्डमपहियते तत एकत्र ज्योतिष्काः परिसमाप्तिमुपयान्ति अपरत्र सकलं प्रतरमिति, एवं च ज्योतिष्काणां व्यन्तरेभ्यः सङ्ख्येयगुणहीनः प्रतिभागः सङ्ख्येयगुणाभ्यधिका सूचिः, पञ्चसङ्ग्रहे पुनः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाण एव प्रतिभाग उक्तो नतु षट्पञ्चाशदधिकशतद्वय वर्गप्रमाणः, तथा च तद्ग्रन्थः - "छप्पन्न दोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइयं पयरं । जोइसिएहिं हीरइ" इति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि वैक्रियवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् । वैमानिकानामौदारिकाणि नैरयिकवत्, वैक्रियाणि बद्धानि असङ्ख्येयानि, तत्र कालतो मार्गणा ज्योतिष्कवत्, क्षेत्रतो मार्गणाऽसङ्ख्येयाः श्रेणयः, किमुक्तं भवति १ – असोयासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीति, तासां च श्रेणीनां परिमाणं प्रतरस्यासङ्ख्येयो भागः, प्रतरासङ्ख्येयभाग प्रमिता प्राह्मा इत्यर्थः, तत्र प्रतरासङ्ख्येयभागो नैरयिकादिमार्गणायामपि गृहीत इति विशेषतरं परिमाणं प्रतिपादयति- 'तासि ण' मित्यादि, Education International For Pernal Use On ~570~ १२ शरीरपदं ॥२८३॥ www.landbrary or Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [... १८०] दीप अनुक्रम [४०४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], ------------- दारं [-] मूलं [... १८० ] आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित | तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिरङ्गुलद्वितीयवर्गमूलं तृतीय वर्गमूलप्रत्युत्पन्नं, एतदुक्तं भवति - अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्य यत् द्वितीयं वर्गमूलं असत्कल्पनया चतुष्कलक्षणं तत्तृतीयेन वर्ग - मूलेन, असत्कल्पनया द्विकरूपेण गुण्यते, गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति, असत्कल्पनया अष्टी, तावत्प्रदेशात्मिकया विष्कम्भसूच्या परिमिताः श्रेणयः परिग्राह्माः, तत्रापि ता एव अष्टौ श्रेणय इति प्रकारद्वयेऽप्यर्थाभेदः, आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवैक्रियवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् ॥ इति श्रीमलयगिरिवि| रचितायां प्रज्ञापनाटीकायां द्वादशमं पदं समासम् ॥ १२ ॥ अथ त्रयोदशं प्रारभ्यते । अत्र पद (१२) "शरीर" परिसमाप्तम् J तदेवं व्याख्यातं द्वादशमं पदं, सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः -- इहानन्तरपदे औदारिकादिशरीरविभाग उक्तः, तानि पुनः शरीराणि तथा परिणामे भवन्ति नान्यथा, ततः परिणामस्वरूपप्रतिपादनार्थमिदमारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रं -- कतिविधे षणं भंते! परिणामे पण्णत्ते ?, गो० ! दुविहे परिणामे पं० तं० जीवपरिणामे य अजीव परिणामे य ( सूत्रं १८१ ) For Pale On अथ पद (१३) "परिणाम" आरभ्यते ~ 571~ $ or Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८१-१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १३ परि पामपदं प्रत सूत्रांक [१८१-१८२] ॥२८॥ जीवपरिणामेण भते! कति विधे पं०१, गोदस विधे पं०, त-गतिपरिणामे १ इंदियपरिणामे २ कसायपरिणामे ३ लेसापरिणामे ४ जोगपरिणामे ५ उचओगपरि० ६णाणपरि० ७ देसणपरि०८ चरित्तपरि० ९ वेदपरिणामे १०(सूत्रं १८२) | 'कइविहे णं भंते ! परिणामे पं०?' इत्यादि, कतिविधः-कतिप्रकारो, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! परिराणामः प्रज्ञसः, परिणमनं परिणामः, 'अकर्तरी ति भावे घञ्प्रत्ययः, परिणमनं च नयभेदेन विचित्र, नयाश्च नैगमा-15 दयोऽनेके, तेषां च समस्तानामपि सङ्ग्राहकी प्रवचने द्वौ नयौ, तद्यथा-द्रव्यास्तिकनयः पर्यायास्ति कनयश्च, तथा चाहुः श्रीमलवादिनः-"तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणा । दबढिओ य पजवनओ य सेसा विगप्पा । सिं ॥१॥" तत्र द्रव्यास्तिकनयमतेन परिणमनं नाम यत्कथञ्चित् सदेयोत्तरपर्यायरूपं धर्मान्तरमधिगच्छति, न च KIपूर्वपयोयस्यापि सर्वेथाऽवस्थानं नाप्येकान्तेन विनाशः, तथा चोक्तम्-"परिणामो बर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥" पर्यायास्तिकनयमतेन पुनः परिणमनं पूर्वसत्पयोयापेक्षया विनाश उत्तरेण चासता पर्यायेण प्रादुर्भावः, तथा चामुमेय नयमधिकृत्यान्यत्रोक्तं-'सत्पयोयेण विनाशः [प्रादुभावोऽसद्भावपर्ययतः। द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य ॥१॥" भगवानाह-गौतम 1 द्विविधः १ शीर्थकरवचनसामान्यविशेषप्ररूपणामूलव्याकर्तारौ । द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च शेषा भेदा अनयोः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [४०५-४०६] ॥२८॥ Mi 'परिणाम'स्य भेदा:, 'जीवपरिणाम'स्य दशविध-प्रकारा: ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) "प्रज्ञापना" - पदं [१३], ------------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८१-१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८१-१८२] परिणामः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जीवपरिणामश्चाजीवपरिणामश्च, तत्र जीवस्य परिणामो जीवपरिणामः, स प्रायोगिक. अजीवस्य परिणामोऽजीवपरिणामः, स वैश्रसिकः, चशब्दौ खगतानेकभेदसूचकी, तांश्च भेदान् अग्रे सूत्रकृदेव वक्ष्यति, तथा चाह-'जीवपरिणामे णं भंते !' इत्यादि, दशविधो जीवपरिणामः, तद्यथा-गतिपरिणाम इत्यादि.IN तत्र गम्यते नैरयिकादिगतिकर्मोदयवशादयाप्यते इति गतिः-नैरयिकत्वादिपर्यायपरिणतिः गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः १, तथा इन्दनादिन्द्रः-आत्मा ज्ञानलक्षणपरमैश्चर्ययोगात् तस्येदं, 'इन्द्रिय'मिति निपातनादिन्द्रशब्दा|दियप्रत्ययः, इन्द्रियाण्येव परिणाम इन्द्रियपरिणामः २, तथा कर्षन्ति-हिंसन्ति परस्परं प्राणिनोऽस्मिन्निति कषः-संसारस्तमयन्ते-अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् गमयन्ति प्रापयन्ति ये ते कषायाः 'कर्मणोऽणि'त्यण् प्रत्ययः, कषाया| Kएव परिणामः कपायपरिणामः ३, लेश्यादिशब्दार्थों वक्ष्यमाणः, लेश्या एव परिणामो लेश्यापरिणामः ४ योग एव परिणामो योगपरिणामः ५ उपयोग एव परिणाम उपयोगपरिणामः ६ एवं ज्ञानपरिणाम ७ दर्शनपरिणाम ८चारित्रपरिणाम ९ वेदपरिणामेष्वपि भावनीयं । सम्प्रत्यमीषां पदानामित्थं क्रमेणोपन्यासे कारणमभिधीयते-तत्र सर्वे भावास्तत्तद्भावाश्रिता गतिपरिणामं विना न प्रादुषष्यन्ति ततः प्रथमं गतिपरिणामः १ गतिपरिणामे च सत्यवश्यमिन्द्रियपरिणाम इति तदनन्तरमिन्द्रियपरिणाम उक्तः २ इन्द्रियपरिणामे च सति इष्टानिष्टविषयसम्बन्धाद्राग-1 द्वेषपरिणतिरुपजायते इति तदनन्तरं कपायपरिणामः ३ कषायपरिणामश्वावश्यं लेश्यापरिणामाविनाभावी, तथाहि दीप अनुक्रम [४०५-४०६] ~573~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८१ -१८२] दीप अनुक्रम [४०५ -४०६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दार [-], मूलं [१८१-१८२] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥ २८५॥ | लेश्यापरिणामः सयोगिकेवलिनमपि यावद्भवति, यतो लेश्यानां स्थितिनिरूपणावसरे लेश्याध्ययने शुक्ललेश्याया जघन्या उत्कृष्टा च स्थितिः प्रतिपादिता--"मुदुत्तद्धं तु जहन्ना उकोसा होइ पुत्रकोडी उ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायचा सुकलेसाए ॥ १ ॥” इति सा च नववर्षोनपूर्वकोटिप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिः शुक्ललेश्यायाः सयोगिकेव8 लिन्युपपद्यते, नान्यत्र, कषायपरिणामस्तु सूक्ष्मसम्परायं यावद्भवति, ततः कषायपरिणामो लेश्यापरिणामाऽविनाभूतो लेश्यापरिणामश्च कषायपरिणामं विनापि भवति, ततः कषायपरिणामानन्तरं लेश्यापरिणाम उक्तः, नतु लेश्यापरिणामानन्तरं कषायपरिणामः ४, तथा लेश्यापरिणामो योगपरिणामात्मको 'योगपरिणामो लेश्या' इति वचनात्, उपपादयिष्यते चायमर्थो लेश्यापदे सविस्तरमतो लेश्यापरिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः ५ संसारिणां योगपरिणतानामुपयोगपरिणतिस्ततो योगपरिणामानन्तरमुपयोगपरिणामः ६ सति चोपयोगपरिणा मे ज्ञानपरिणाम इति तदनन्तरं ज्ञानपरिणाम उक्तः ७ ज्ञानपरिणामश्च द्विधा - सम्यग्ज्ञानपरिणामो मिथ्याज्ञानपरिणामश्च, तौ च न सम्यक्त्वमिध्यात्वव्यतिरेकेण भवत इति तदनन्तरं दर्शनपरिणाम उक्तः ८ सम्यग्दर्शनपरिणामे जीवानां जिनवचनाकर्णनतो नवनवसंवेगाविर्भावतश्चारित्रावरणकर्मक्षयोपशमतः चारित्रपरिणाम उपजायते ततो दर्शनपरिणामानन्तरं चारित्रपरिणाम उक्तः ९ चारित्रपरिणामवशाचे वेदपरिणामं प्रलयमुपनयन्ति महासत्त्वास्तत १ जघन्या मुहूर्खान्वरेव भवति उत्कृष्टा पूर्वकोयेव । नवभिर्वर्षैरूना ज्ञातव्या शुकुलेश्यायाः (स्थितिः) ॥ १ ॥ For Parts Only ~574~ १३ परिणामपदं ॥ २८५ ॥ waryra Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] चारित्रपरिणामानन्तरं वेदपरिणाम उक्तः१०॥ तदेवमुक्ता जीवस्य गत्यादयः परिणामविशेषाः, सम्प्रत्येतेषामेव यथाक्रम भेदान् दर्शयति गतिपरिणामे पं भंते ! कतिविषे. पं०१, गो०! चउबिहे पन्नते, तं-नरयगतिपरिणामे तिरियगतिप० मषुयगतिपरिणामे देवगतिप०११ इंदियपरिणामे गं भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! पंचविधे पं०, तं०-सोर्तिदिवपरि० पक्विदियप० घाणिदियप० जिम्मिदियपरिणामे फासिदियपरिणामे २। कसायपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! चउबिधे पं०, तं.--कोहकसायप० माणकसायप० मायाकसायप० लोभकसायप० ३। लेस्सापरिणामे गं भंते ! कतिविधे ५०१, गो.! छबिहे पं०, तं-कण्हलेसाप नीललेसाप. काउलेसाप० तेउलेसाप० पम्हलेसाप० सुकलेसाप०४ाजोगपरिणामे गं भंते ! कइविहे पं०१, गो! तिविधे पं०, तं०-मणजोगप० वइजोगप० कायजोगप० ५। उवओगपरिणामे गं भंते ! कइविहे पं०१, गो०! दुविहे पं०, तं०-सागारोवओगप० अणागारोवओगप०६॥ गाणपरिणामे पो भते! कइविहे पं०१, गो! पंचविहे पं०,०-आमिणिबोहियणाणप० सुयणाणप० ओहिनाणप० मणपज्जवणाणप० केवलणाणप०, अण्णापरिणामे णं भंते ! काविहे पं०१, मो०! तिबिहे पं०, तं०-मइअण्णाणप० सुयअण्णाणप० विभंगणाणप०७ देसणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पं०१, गो०! तिविधे पं०, तं०-सम्मईसणपरि० मिच्छादसणप० सम्ममिच्छादसणप०८॥ चारित्तपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! पंचविहे पं०, तं०-सामाइयचारित्तप० छेदोवट्ठावणियचारित्तप० परिहारविसुद्धियचारित्तप० सुहुमसंपरायचरित्तप० अहक्खायचरित्नप० । वेदपरिणामे पं भंते ! कइविहे पं०१, गो०। दीप अनुक्रम [४०७] स्टटटटट Turasurary.org गति आदि परिणामस्य प्रभेदाः ~575~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १३ परि णामपर्द प्रत सूत्रांक [१८३] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥२८॥ दीप अनुक्रम [४०७] तिविहे पं०, तं०-इस्थिवेदप पुरिसवेदप० णपुंसगवेदप०१०॥ नेरइया गतिपरिणामेण निरयगतीया इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया कसायपरिणामेणं कोहकसाईवि जाव लोभकसायीवि, लेसापरिणामेणं कण्हलेसाचि नीललेसावि काउलेसावि, जोगपरिणामेणं मणजोगीवि वयजोगीवि कायजोगीवि, उवओगपरिणामेणं सागारोबउनावि अणागारोवउत्तावि, णाणपरिणामेणं आभिणिचोहियणाणीवि सुयणाणीवि ओहिणाणीवि, अण्णाणपरिणामेणं मइअण्णाणीवि सुयअण्णाणीवि विभंगणाणीवि, देसणपरिणामेणं सम्मादिट्ठीवि मिच्छादिट्टीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि, चरित्तपरिणामेणं नो चरिती नो चरित्चाचरित्ती अचरित्ती, वेदपरिणामेणं नो इत्थीवेदगा नो परिसवेदगा नपुंसगवेदगा । असुरकुमारावि एवं चेव, णवरं देवगतिया कण्हलेसावि जाव तेउलेसावि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेदगावि पुरिसवेदगावि नो नपुंसगवेदगा, सेसं तं चेव, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया इंदियपरिणामणं एगिदिया, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं लेसापरिणामेणं तेउलेसावि, जोगपरिणामेणं कायजोगी णाणपरिणामे णत्थि अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी दसणपरिणामेणं मिच्छदिट्टी, सेसं तं चेव, आउवणफइकाइयावि, तेऊवाऊ एवं चेव, णवरं लेसापरिणामेणं जहा नेरहया, बेइंदिया गतिपरिणामेण सिरियगतिया इंदियपरिणामेणं वेईदिया, सेसं जहा नेरइयाण, गवरं जोगपरिणामेणं वयजोगी कायजोगी, णाणपरिणामेणं आभिणियोहियणाणीवि सुअणाणीवि अण्णाणपरिणामेणं महअण्णाणीवि सुअअण्णाणीवि नो विभंगणाणी देसणपरिणामेणं सम्मदिट्टीवि मिच्छदिद्वीवि नो सम्मामिच्छादिट्ठी [वि.] सेसं तं चेव, एवं जाव चउरिदिया, गवरं इंदियपरिवुड्डी कायवा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, सेसं जहा नेरइयाणं, णवरं लेसापरि ecemenetise S२८६॥ ~ 576~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [४०७] णामेणं जाव सुक्कलेसाथि, चरितपरिणामेणं नो चरित्ती अचरित्तीवि चरित्ताचरितीवि, वेदपरिणामेणं इथिवेदगावि पुरिसवेदगावि नपुंसगवेदगावि । मणुस्सा गतिपरिणामेणं मणुयगतिया इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया अणिदियावि कसायपरिणामेणं कोहकसाईवि जाव अकसाईवि, लेसापरिणामेणं कण्हलेसावि जाव अलेसावि, जोगपरिणामेणं मणजोगीवि जाव अजोगीवि, उपओगपरिणामेण जहा नेरइया, णाणपरिणामेण आभिणिचोहियणाणीवि जाव केवलणाणीवि, अण्णाणपरिणामणं विण्णिवि अण्णाणा, देसणपरिणामेणं तिण्णिवि दंसणा, चरित्तपरिणामेणं चरित्तीवि अचरित्तीवि चरिचाचरिचीचि, बेदपरिणामेणं इत्थीवेयगावि पुरिसवेदगावि नपुंसगवेयगावि अवेयगावि । वाणमंतरा गतिपरिणामेणं देवगतिया, जहा अमुरकुमारा एवं जोइसियावि नवरं तेउलेसा, वेमाणियावि एवं चेव, नवरं लेसापरिणामेणं तेउलेसावि पम्हलेसावि सुक्कलेसाबि, से तं जीवपरिणामे (मूत्र १८३) 'गइपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' इत्यादि, पाठसिद्धं सम्प्रति नैरयिकादयो यैः परिणामविशेषैर्विशिष्टास्तान तथा प्रतिपादयति-'नेरइया' इत्यादि, सुगम, नवरं नैरयिकाणां कृष्णनीलकापोतरूपास्तिन एव लेश्या न शेषाः, Iता अपि तिस्रः पृथिवीक्रमेणैवं-आद्ययोर्द्वयोः पृथिव्योः कापोतलेश्या तृतीयस्यां कापोतलेश्या नीललेश्या च चतुर्थ्या नीललेश्या पञ्चम्यां नीललेश्या कृष्णलेश्या च षष्ठीसप्तम्योः कृष्णलेश्यैव, तत उक्तम्-'कण्हलेसावि नीललेसावि काउलेसावि' तथा तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यतिरेकेणान्यत्र चारित्रपरिणामः सर्वथा न भवति भवस्वाभाव्यात्, ततः sect ~577~ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मलय० वृत्ती. प्रत सूत्रांक [१८३] ॥२८७॥ कृतश्चारित्रपरिणाम निषेधः, वेदपरिणामचिन्तायां च नैरयिका नपुंसका एव न स्त्रियो नापि पुरुषाः, "नारकसम्मू-181१३ परिछिनो नपुंसकानी" (तत्त्वा० अरसूत्रं ५०)तिवचनात्, एवमसुरकुमाराणामपि, नवरं गतिमधिकृत्य देवगतिका-रणामपर्द तेषां च महर्द्धिकानां तेजोलेश्या अपि भवति, तत उक्तम्-'तेउलेस्साधि' इति, वेदपरिणामचिन्तायां लियः पुरुषा वा न नपुंसकाः, देवानां नपुंसकत्वस्थासम्भवात् , तथा पृथिवीकायिकसूत्रे, नवरं 'लेसापरिणामेण मित्यादि, इह पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां तेजोलेश्यापि सम्भवति येन सौधर्मेशानपर्यन्तानां देवानामेतेपूत्पादसम्भवात् (वः), तत उक्तम्-'तेउलेसाबि' इति, एतेषां च पृथिव्यादीनां पञ्चानामपि सासादनसम्यक्त्वमपि न भवति, आगमे निषेधात् , ततो ज्ञाननिषेधः सम्यक्त्वनिषेधश्च कृतः, सम्यग्मिध्यात्वपरिणामस्तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव भवति, न शेषाणामतस्तन्निषेधः, द्वीन्द्रियादीनां पुनः केषाञ्चित् करणापर्याप्तावस्थानां सासादनसम्यक्त्वमवाप्यते ततस्ते ज्ञानपरिणता अपि सम्यग्दृष्टयोऽप्युक्ताः, तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां च षडपि लेश्याः सम्भवन्ति, ततः सूत्रे उक्तम्-'जाव सुफलेसावि' इति, तथा देशतश्चारित्रपरिणामोऽपि तेषामुल्लसति तत उक्तम्-'चरित्चाचरित्तीवि' इति, तथा ज्योति|काणां तेजोलेश्यैव केवला न शेषा लेश्याः, ततोऽभिहितम्-'लेसापरिणामेणं तेउलेस्सा'। | ॥२८॥ अजीवपरिणामे थे भंते ! कतिविधे पं० १, गो०! दसविधे ५०, ०-बंधणपरिणामे १ मतिपरिणामे २ संठाणपरिणामे ३ भेदपरिणामे ४ वष्णपरिणामे ५ गंधपरिणामे ६ रसपरि०७ फासपरिणामे ८ अगुरुलहुयपरिणामे ९ सदपरिणामे १० 249092e दीप अनुक्रम [४०७] SAREILLEGunintentiaTATE | 'अजीवपरिणामस्य दशविध-भेदा: ~578~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ---------- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-1, ---------- मूलं [१८४-१८५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८४-१८५] गाथा: (मर्च १८४) बंधणपरिणामेण भंते! कतिविधे पं०१, गो! दुविहे पं०, तं०-णिबंधणपरिणामे लुक्खबंधणपरिणामे य,-'समणिद्धयाए बंधो न होति समलुक्खयाएवि ण होति । वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंघो उ खंधाणं ॥१॥ गिद्धस्स णिद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहण्णवज्जो विसमो समो वा ।। २॥2, गतिपरिणाम ण भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! दुविहे पं०, तं०-फुसमागगतिपरिणामे य अफुसमाणगतिपरिणामे य, अहवा दीहगइपरिणामे य हस्सगइपरिणामे य २, संठाणपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! पंचविधे पण्णचे, तं-परिमंडलसंठाणपरि० जाप आयतसंठाणपरिणामे ३, भेदपरिणामे ण भंते ! कतिविधे पं०१, गो०। पंचविधे पं०,०-खंडभेदपरि० जाव उकरियाभेदपरि०४, वग्णपरिणामे थे भंते ! कतिविधे पं०१, गो.1 पंचविधे पं०, त-कालवण्णप० जाव सुकिलवण्णपरि० ५, गंधपरिणामे णं भंते ! कतिविधे प०१, गो! दुविहे पं०,०सुब्भिगंधपरि० दुभिगंधपरिणामे य ६, रसपरिणामे ण भंते ! कतिविधे पं०१, गो० ! पंचविहे पं०, ०-तित्तरसपरिणामे जाव महुररसपरिणामे ७, फासपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, मो०! अविधे पं०, तं०-कक्खडफासपरिणामे य जाव लुक्खफासपरिणामे य ८,अगुरुलहुयपरिणामेणं भंते कतिविहे पं०१, मो० एगागारे पं०१, सहपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पं०१, मो० दुविहे पं० तंजहा-सुन्भिसद्दपरिणामे य दुन्भिसहपरिणामे य १० सेचं अजीवपरिणामे य (सूत्रं १८५) परिणामपदं समनं ॥ १३॥ 'बंधणपरिणामे णं भंते !' इत्यादि, स्निग्धवन्धनपरिणामश्च रूक्षबन्धनपरिणामश्च, तत्र स्निग्धस्य सतो बन्धनप-18 दीप अनुक्रम [४०८-४१२] SAREauratonintenariand 'बन्ध' आदि परिणामस्य प्रभेदाः ~ 579~ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ...------- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-1, ----------- मूलं [१८४-१८५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मलय० वृत्ती. [१८४ -१८५] ॥२८८॥ गाथा: Lekटरलरse रिणामः स्निग्धबन्धनपरिणामः, तथा रूक्षस्य सतो बन्धनपरिणामः रूक्षबन्धनपरिणामः, चशब्दी खगतानेकभे-1| १३ परिदसूचकी, अथ कथं स्निग्यस्य सतो बन्धनपरिणामो भवति कथं वा रूक्षस्य सत इति बन्धनपरिणामस्य लक्षण णामपदं माह-समनिद्धयाए' इत्यादि, परस्परं समस्निग्धतायां समगुणस्निग्धतायां तथा परस्परं समरूक्षतायांसमगुणरूक्षतायां बन्धो न भवति, किन्तु यदि परस्परं त्रिग्धत्वस्य रूक्षत्वस्य च विषममात्रा भवति तदा बन्धः | स्कन्धानामुपजायते, इयमत्र भावना-समगुणस्निग्धस्य परमाबादेः समगुणखिग्धेन परमाण्यादिना सह सम्बन्धी न भवति, तथा समगुणरूक्षस्यापि परमाण्वादेः समगुणरूक्षेण परमाण्वादिना सह सम्बन्धो न भवति, किन्तु यदि स्निग्धः स्निग्धेन रूक्षः रूक्षेण सह विषमगुणो भवति तदा विषममात्रत्वात् भवति तेषां परस्परं सम्बन्धः । विषममात्रया बन्धो भवतीत्युक्तं ततो विषममात्रानिरूपणार्थमाह-णिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिएणे'त्यादि, यदि स्निग्धस्य परमायादेः स्निग्धगुणेनैव सह परमाग्वादिना बन्धो भवितुमर्हति तदा नियमात् धादिकाधिकगुणेनैव परमापवादिनेति भावः, रूक्षगुणस्यापि परमाबादेः रूक्षगुणेन परमावादिना सह यदि बन्धो भवति तदा तखापि तेन । यायधिकादिगुणेनेच नान्यथा, यदा पुनः स्निग्धरूक्षयोर्वन्धस्तदा कथमिति चेत् ?, अत आह-'णिद्धस्स लुक्खेणे'-1 त्यादि, स्निग्धस्य रूक्षेण सह बन्ध उपैति–उपपद्यते जघन्यवों विषमः समो वा, किमुक्तं भवति?-एकगुण|निग्धं एकगुणरूक्षं च मुक्त्वा शेषस्य द्विगुणस्निग्धादिद्विगुणरूक्षादिना सर्वेण बन्धो भवतीति । उक्तो बन्धनप दीप अनुक्रम [४०८-४१२] eroen ~580~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ...-------- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-1, ----------- मूलं [१८४-१८५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८४-१८५] गाथा: रिणामोऽधुना गतिपरिणाममाह-'गइपरिणामे णं भंते' इत्यादि, द्विविधो गतिपरिणामः, तद्यथा-स्पृशद्गति-19 |परिणामोऽस्पृशद्गतिपरिणामश्च, तत्र वस्त्वन्तरं स्पृशतो यो गतिपरिणामः स स्पृशद्गतिपरिणामो, यथा-'ठिकरि-18 काया जलस्योपरि प्रयत्नेन तिर्यप्रक्षिप्तायाः, सा हि तथा प्रक्षिप्ता सती अपान्तराले जलं स्पृशन्ती २ गच्छति, बालजनप्रसिद्धमेतत् , तथाऽस्पृशतो गतिपरिणामोऽस्पृशतिपरिणामः, यद्वस्तु न केनापि सहापान्तराले संस्पर्शनमनुभवति तस्यास्पृशतिपरिणाम इति भावः, अन्ये तु व्याचक्षते-स्पृशद्गतिपरिणामो नाम येन प्रयत्नविशेषात् |क्षेत्रप्रदेशान् स्पृशन् गच्छति, अस्पृशद्गतिपरिणामो येन क्षेत्रप्रदेशानस्पृशन्नेव गच्छति, तन्न बुद्धामहे, नभसः सर्वKाच्यापितया तत्प्रदेशसंस्पर्शव्यतिरेकेण गतेरसम्भवात् , बहुश्रुतेभ्यो वा परिभावनीयं, अत्रैव प्रकारान्तरमाह 'अहवा दीहगतिपरिणामे य रहस्सगइपरिणामे य' इति, अथवेति प्रकारान्तरे अन्यथा वा गतिपरिणामो द्विविधः, तद्यथा-दीर्घगतिपरिणामो इस्वगतिपरिणामश्च, तत्र विप्रकृष्टदेशान्तरप्राप्तिपरिणामो दीर्घगतिपरिणामस्तद्विपरीतो। इखगतिपरिणामः २, परिमण्डलादिसंस्थानविशेषाः खण्डभेदादयश्च प्रागेव व्याख्याता इति न भूयो व्याख्यायन्ते, ३, अगुरुलघुपरिणामो भाषादिपुद्गलानां 'कम्मगमणभासाई एयाई अगुरुलहुयाई' [कर्ममनोभाषाद्रव्याण्येतान्यगुरुलघू-10 नि] इति वचनात्, तथा अमूर्तद्रव्याणां वाऽऽकाशादीनां, अगुरुलघुपरिणामग्रहणमुपलक्षणं तेन गुरुलघुपरिणामोMऽपि द्रष्टव्यः, स चौदारिकादिद्रव्याणां तैजसद्व्यपर्यन्तानामयसेयः, "ओरालियवेउविय आहारगतेय गुरुलहू दवा" दीप अनुक्रम [४०८-४१२] ~581~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ...-------- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-1, ----------- मूलं [१८४-१८५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [१८४ प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. १४ कषायपदं औदारिकवक्रियाहारकतेजांस्यगुरुलघूनि द्रव्याणि ] इति वचनात् , 'सुन्भिसद्दे' इति शुभशब्दः, 'दुम्भिसद्दे' इति अशुभशब्दः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां त्रयोदशं पदं समाप्तम् ॥ १३ ॥ अथ चतुर्दशं पदं ॥१४॥ -१८५] ॥२८९॥ गाथा: दीप अनुक्रम [४०८-४१२] तदेवं व्याख्यातं त्रयोदशं पदमिदानी चतुर्दशमारभ्यते-तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गत्यादिलक्षणो जीवपरिणाम उक्तः सामान्येन, सामान्यं च विशेषनिष्ठम् , अतः स एव विशेषतः कश्चित् कचित् प्रतिपाद्यते, तत्रैकेन्द्रियाणामपि क्रोधादिकपायभावात् 'सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते (तत्त्वा० अ०९सू०२) इति वचनात् प्रधानबन्धहेतुत्वाचादावेव विशेषतः कषायपरिणामप्रतिपादनार्थमिदमारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कति भंते ! कसाया पण्णचा, मो० चत्तारि कसाया पं०, ०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए, नेरहयाण भंते ! कतिकसाया पं०१, गो० चत्वारि कसाया पं०१, ०-कोहकसाए जाव लोभकसाए, एवं जाव वेमाणियाणं । (मत्र १८६) कतिपतिहिए णं भंते ! कोहे पं०१, गो० चउपतिहिए कोहे पं०, तं०-आयपतिहिए परपतिहिए तदुभयपतिहिए अप्पइद्विते, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं दंडतो, एवं माणेणं दंडतो मायाए दंडओ लोभेणं ॥२८॥ अत्र पद (१३) “परिणाम" परिसमाप्तम् अथ पद (१४) "कषाय" आरभ्यते **. 'कषाय'स्य चतुर्विध-भेदाः, क्रोध-आदीनाम् प्रतिष्ठितता-उत्पत्ति-भेदस्य वर्णनं ~582~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], ----------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८६-१८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६ -१८८] दीप अनुक्रम [४१३-४१५]] दंडओ। कति(हि) भंते ! ठाणेहिं कोहुप्पत्ती भवति ?, गो० चउहि ठाणेहिं कोहुप्पत्ती भवति, तं०-खेत्तं पडुच्च वधु पहुच सरीरं पडुच्च उवहिं पडुच्च, एवं नेरइयाणं जाव बेमाणियाणं । एवं माणेणवि मायाएवि लोभेणवि, एवं एतेवि चत्तारि दंडगा। (मत्र १८७) कतिविधे णं भंते ! कोधे पष्णते?, मो०! चउबिहे कोहे पं०, तं-अणंताणुबंधि कोहे अपञ्चक्खाणे कोहे पचक्खाणावरणे कोहे संजलणे कोहे, एवं नेरइयाणं जाब वेमाणियाणं । एवं माणेणं मायाए लोभेणं, एएवि चत्तारि दंडगा (सूत्रं १८८) 'कइ णं भंते ! कसाया' इत्यादि, कति-कियत्सङ्ख्याकाः [कषायाः,]णमिति पूर्ववत् , भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् | कपायाःप्रज्ञप्ताः, 'कृप विलेखने' कृपन्ति-विलिखन्ति कर्मरूपं क्षेत्र सुखदुःखशस्त्रोत्पादनायेति कषायाः, ओणादिक। आयप्रत्ययो निपातनाच ऋकारस्य अकारः, यदिवा कलुषयन्ति-शुद्धसभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति । कपायाः पूर्ववत् आयप्रत्ययः निपातनाच कलुपशब्दस्य णिजन्तस्य कषायादेशः, उक्तं च-"सुहदुक्खबहुस्सइयं कम्मक्खेतं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जं च जीवं तेण कसायत्ति बुचंति ॥१॥" निर्वचनसूत्रं क्षुण्णाये, नरयिकादिदण्डकसूत्रमपि सुगम, 'कइपइटिए णं भंते ! इत्यादि, कतिषु-कियत्प्रकारेषु स्थानेषु प्रतिष्ठितो भदन्त ! क्रोधः?, भगवानाह-चतुष्प्रतिष्ठितः, तद्यथा-आत्मप्रतिष्ठित इत्यादि, आत्मन्येव प्रतिष्ठितः आत्मप्रतिष्ठितः, किमुक्तं भवति ?-खयमाचरितस्य ऐहिकं प्रत्सपायमयबुद्ध्य कश्चिदात्मन एवोपरि कुध्यति तदा आत्मप्रतिष्ठितः क्रोध ~583~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], ----------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८६-१८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: R प्रत सूत्रांक [१८६-१८८] दीप अनुक्रम पना- इति, यदा पर उदीरयति आक्रोशादिना कोपं तदा किल तद्विषयः क्रोध उपजायते इति स परप्रतिष्ठित इति, १४ कषायाः मल- नगमनयदर्शनमेतत् , नैगमनयो हि तद्विषयमात्रेणापि तत्प्रतिष्ठितं मन्यते यथा जीवे सम्यग्दर्शनमजीवे सम्यग्दर्शन-- | यपदं यावृत्ती. मित्यादयोऽष्टौ भङ्गाः सम्यग्दर्शनस्याधिकरणचिन्तायामावश्यके, तदुभयप्रतिष्ठितः-आत्मपररूपोभयप्रतिष्ठितः, यदा कश्चित् तथाविधापराधवशादात्मपरविषयं क्रोधमाधत्ते इति, अप्रतिष्ठितो नाम यदैप स्वयं दुश्चरणमाक्रोशादिकं च ॥२९ ॥ कारणं विना निरालम्बन एव केवलक्रोधवेदनीयादुपजायते, स हि नात्मप्रतिष्ठितः वयं दुश्चरणाभावतः खात्मविषयत्वाभावात्, नापि परप्रतिष्ठितः परस्यापि निरपराधतया अपराधसम्भावनाया अभावतः क्रोधालम्बनत्वायोगात्, (तथा नोमयप्रतिष्ठितोऽपि) दृश्यते च कस्यापि कदाचिदेवमेव केवलक्रोधवेदनीयोदयादुपजायमानः क्रोधः, तथा च स पश्चात् ब्रूते-अहो मे निष्कारणः कोपो नैव (कोऽपि) विरूपं भाषते न च किश्चिद्विनाशयति, अत एवोक्तं पूर्वमहर्षिभिः-'सापेक्षाणि निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रम निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम् ASI॥१॥" इति, एवं मानमायालोमा अपि आत्मपरोभयप्रतिष्ठिता अप्रतिष्ठिताश्च भावनीयाः । तदेवमधिकरणभेदेन भेद उक्तः, सम्प्रति कारणभेदतो भेदमाह-कति (हिं) णं भंते ! ठाणेहि कोहुप्पत्ती हवई' इत्यादि, तिष्ठन्त्येभिरिति स्थानानि-कारणानि कतिभिः-कियत्सङ्ख्याकैः स्थानः-कारणैः क्रोधोत्पत्तिर्भवति?, भगवानाह-चतुर्भिः स्थानः, तान्येव स्थानान्याह-'खेत्तं पडुच्च' इत्यादि, तत्र नैरयिकाणां नैरयिकक्षेत्रं प्रतीत्य तिरश्च तिर्यक्षेत्रं प्रतीत्य मनुष्याणां [४१३ -४१५]] ~584 ~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], ----------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८६-१८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६-१८८] दीप अनुक्रम मनुष्यक्षेत्रं देवानां देवक्षेत्रं 'वत्थु पडुचेति वस्तु सचेतनमचेतनं वा शरीरं प्रतीत्य-दुःसं स्थितं विरूपं वा 'उपधि प्रतीसेति यत् यस्योपकरणं तस्य तत् चौरादिनाऽपहियमाणमन्यथा वा प्रतीत्य, एवं नैरयिकादिदण्डकसूत्रमपि, सम्प्रति सम्यग्दर्शनादिगुणविघातित्वेन भेदमाह-काविहे णं भंते' इत्यादि, अनन्तानुबन्ध्यादिशब्दार्थमने कर्म-13 प्रकृतिपदे वक्ष्यामो, भावार्थस्त्वयं-सम्यक्त्वगुणविघातकृदनन्तानुबन्धी देशविरतिगुणविघाती अप्रत्याख्यानः सर्व|विरतिगुणविघाती प्रत्याख्यानावरणः यथाख्यातचारित्रविघातकः संज्वलनः, एतांश्चतुरोऽपि नैरयिकादिदण्डकक्रमेण |चिन्तयति, एवं मानमायालोमा अपि प्रत्येकं चतुर्विधाः सामान्यतो दण्डकक्रमेण च भावनीयाः। सम्प्रत्येतेषामेव K क्रोधादीनां निर्वृतिभेदतोऽवस्थाभेदतश्च भेदमाह कतिविधे णं भंते ! कोधे पं० १, गो० चउधिहे कोहे पं०, तंजहा-आभोगनिवत्तिए अणाभोगनिवत्तिए उनसते अणुवसते, एवं नेरइयाणं जाव चेमाणियाणं । एवं माणेणवि, मायाएवि, लोभेणवि, चचारि दंडगा । (सूत्रं १८९)जीवा पं भंते! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु, गो० चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडिओ चिणि तं--कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जीवा णं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिर्णति, गो०! चउहि ठाणेहि, तं०-कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं नेरइया जाव वेमाणिया । जीवाणं भंते! कतिहिं ठाणेहिं अट्ट कम्मपगडीओ चिणिस्संति ?, गो! चउहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसंति, तं०-कोहणे माणेणं भायाए [४१३ -४१५]] | क्रोधस्य चत्वारः भेदा: (अन्य-प्रकारेण), अष्ट-कर्मप्रकृतेः उपादानं ~585~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८९ -१९०] + गाथा दीप अनुक्रम [४१६ -४१८] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ . ॥२९१॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [-] पदं [१४], ---------- उद्देशक: [-], मूलं [१८९-१९०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः लोणं, एवं नेरइया जाव वैमाणिया । जीवा णं भंते! कतिहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडिओ उवचिर्णिसु १, गो० । चउहिं ठाणेहिं अट्ट कम्मपगडीओ उवचिर्णिसु, तं०- कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं नेरइया जाव वेमाणिया, जीवा णं भंते! पुच्छा, गो० ! चउहिं ठाणेहिं उवचिणंति जाव लोभेणं, एवं नेरइया जाय बेमाणिया, एवं उवचिणिस्संति । जीवा णं ते! कतिहि ठाणेहिं अह कम्मपगडीओ बंधिसु ?, गो० ! चउहिं ठाणेहिं, अट्ट कम्मपगडिओ बंधिसु तं ० कोहेणं माणे जाव लोभेणं, एवं नेरइया जाव वैमाणिया, बंधि बंति बंधिस्संति, उदीरंसु उदीरंति उदीरिस्संति, वेदिंसु वेति वेदसंति, निज्जरंसु निज्जरेंति निज्जरिस्संति, एते जीवाइया वैमाणियपज्जवसाणा अट्ठारस दंडगा जाव वेमागिया, निज्जरिंसु निज्जरैति निअरिस्संति, - आतपतिट्टिय खेतं पच्चर्णताणुबंधि आभोगे । चिण उवचिण बंध उदीर वेद तह निजरा चैव ॥ १ ॥ ( सूत्रं १९० ) इति पण्णवणाए भगवईए कसायपयं समत्तं ॥ १४ ॥ Eaton Into 'कविहे णं भंते!" इत्यादि, यदा परस्यापराधं सम्यगवबुद्ध्य कोपकारणं च व्यवहारतः पुष्टमवलम्ब्य नान्यथाऽस्य | शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं विधत्ते तदा स कोप आभोगनिर्वर्तितः, यदा त्वेवमेव तथाविधमुहूर्त्तवशाद्गुणदोपविचारणाशून्यः परवशीभूय कोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोग निर्वर्त्तितः २ उपशान्तः - अनुयावस्थः ३ अनु- 8 पशान्तः - उदयावस्थः ४, एवमेतद्विषयं दण्डकसूत्रमपि भावनीयं, एवं मानमायालोभाः प्रत्येकं चतुष्प्रकाराः सामान्यतो दण्डकक्रमेण च वेदितव्याः । सम्प्रति फलभेदेन कालत्रयवर्तिनां भेदमभिधातुकाम आह— 'जीवा णं ॥२११॥ For Penal Use Only १४ कषा यपदं ~ 586~ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८९-१९०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९-१९०] गाथा estoeroeicceedee भंते ! कहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु' इत्यादि, जीवा भदन्त ! कतिभिः स्थानैरष्टौ कर्मप्रकृतीश्चितयन्तः, चयनं नाम कपायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रं, भगवानाह-गौतम! चतुर्भिः स्थानस्तद्यथा-क्रोधेन मानेन मायया लोभेन, एवं नैरयिकादिदण्डकेऽपि वक्तव्यं, एष दण्डकोऽतीतकालविषयः, एवं वर्तमानकालभविष्यत्कालविषयावपि वाच्यो, एवमुपचयबन्धोदीरणावेदननिर्जराविषयाः प्रत्येकं त्रयस्त्रयो दण्डका वाच्या इति सर्वसङ्ख्यया अष्टादश दण्डकाः, तत्र उपचयो नाम खस्यावाधाकालस्योपरि ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानां वेदनार्थ निषेकः, स चैव-प्रथमस्थिती सर्वप्रभूतं, द्वितीयस्यां स्थिती विशेषहीनं, ततोऽपि तृतीयस्यां विशेषहीन, एवं विशेषहीनं २ ताबद्वाच्यं यावत्तत्तत्कालबध्यमानायाः स्थितेश्चरमा स्थितिरेतच सविस्तरं कर्मप्रकृतिटीकायां पञ्चसंग्रहटीकायां । चाभिहितमिति ततोऽवधार्य, बन्धनं नाम-ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानां यथोक्तप्रकारेण खखाबाधाकालोत्तरकालं निषिक्तानां यद्भूयः कषायपरिणतिविशेषानिकाचनं, उदीरणं-उदीरणाकरणयशतः कर्मपुद्गलानामनुदयप्रासानामुदयावलिकायां प्रवेशनं, तदपि हि किञ्चित्तथाविधकपायपरिणतिवशाद्भवतीति 'चउहि ठाणेहिं उदीरेंसु उदीरन्ति उदीरिस्संती'त्युक्तम् , अन्यथा कषायव्यतिरेकेणापि क्षीणमोहोदये ज्ञानावरणादीनामुदीरका वर्त्तन्ते इति, वेदना-खखाबाधाकालक्षयादुदयप्राप्तस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य कर्मण उपभोगः, निर्जरा-कर्मपुद्गलानामनुभूय २ अकर्मत्वापादनं, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टानां ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानामनुभूय २ शातनमिति भावः, दीप अनुक्रम [४१६-४१८] For P OW ~ 587~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१८९-१९०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९-१९०] मज्ञापनायाःमलय. वृत्ती. उक्तं च-"पुवकयकम्मसाडण निजरा" इति, इयं च देशनिर्जरा द्रष्टव्या, कषायजनितत्वात् , न सर्वनिर्जरा, साहि१५ इन्द्रिनिष्कषायस्य सर्वनिरुद्धयोगस्य मोक्षप्रासादमधिरोहतो भवति, न शेषस्य, अत एव चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रमपि अवि- यपदं रुद्धं, देशनिर्जरायाः सर्वकालं सर्वेषामपि भावात् , सम्प्रति यत् यत् पदमधिकृत्य प्राक् सूत्राण्युक्तानि तानि विनेय- उद्देशः १ जनानुग्रहाय संग्रहणिगाथया निर्दिशति-'आयपतिट्टिय' इत्यादि, प्रथम सामान्यसूत्रं सुप्रतीतमिति न संगृहीतं, द्वितीयमात्मप्रतिष्ठितपदोपलक्षितं सूत्रं ततोऽनन्तानुबन्धिपदोपलक्षितं तदनन्तरमाभोगपदोपलक्षितं ततश्चयोपचयबन्धोदीरणवेदनानिर्जराविषयाणि क्रमेण सूत्राणि, अत्र चिणेति उपचयसूत्रोपलक्षणम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां चतुर्दशं पदं समाप्तम् ॥ १४ ॥ ॥२९२॥ गाथा अथ पंचदशं पदं ॥१५॥ nama दीप अनुक्रम [४१६-४१८] 11२९२॥ तदेवं व्याख्यातं चतुर्दशं, सम्प्रति पञ्चदशमारभ्यते-इहानन्तरपदे प्रधानवन्धहेतुत्वात् विशेषतः कषायपरिणाम उक्तः, तदनन्तरमिन्द्रियवतामेव लेश्यादिसद्भाव इति विशेषत इन्द्रियपरिणामनिरूपणार्थमिदमारभ्यते, अत्र च द्वावुद्देशकौ, तत्र च प्रथमोद्देशके येऽर्थाधिकारास्तत्संग्राहकमिदं गाथाद्वयं अत्र पद (१४) "कषाय" परिसमाप्तम् अथ पद (१५) "इन्द्रिय" आरभ्यते ~ 588~ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], ------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९०...] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक Prasad2030292 ||गाथा| संठाणं बाहल्लं पोहत्तं कतिपदेस ओगाढे । अप्पाबहु पुट्ठ पविट्ठ विसय अणगार आहारे ॥१॥ अदाय असी य मणी दुद्ध पाणे तेल फाणिय वसा य । कंबल धूणा धिग्गल दीवोदहि लोगल्लोगे य ॥२॥ 'संठाणं वाहलं' इत्यादि, प्रथममिन्द्रियाणां संस्थानं, संस्थानं नाम आकारविशेषः, ततो बाहल्यं वक्तव्यं, बाहल्य नाम पहलता पिण्डत्वमिति भावः, तदनन्तरं पृथुत्वं वक्तव्यं, पृथुत्वं-विस्तारः, तदनन्तरं 'कतिपदेस'त्ति कतिप्रदेशमिन्द्रियमिति वक्तव्यं, तत ओगाढमिति–कतिप्रदेशाचगाढमिन्द्रियमिति वाच्यं, तदनन्तरमवगाहनाविषयं कर्कशादिगुणविषयं चाल्पबहुत्वं, ततः 'पुत्ति स्पृष्टग्रहणमुपलक्षणं तेन स्पृष्टास्पृष्टविषयं सूत्रं वक्तव्यं तदनन्तरं 'पविद्र'त्ति प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्ताविषयं ततो विषयपरिमाणं ततोऽनगारविषयं सूत्रं तदनन्तरमाहारविषयं ततो लोकविषयं ] तत 'अहाय'ति आदर्शविषयं तदनन्तरमसिविषयं ततो मणिविषयं ततो दुग्धोपलक्षितं ततः पानकविषयं ततस्तैलविषयं ततः फाणितविषयं तदनन्तरं वसाविषयं ततः कम्बलविषयं ततः स्थूणाविषयं तदनन्तरं 'थिम्गल ति आकाशथिग्गलविषयं ततो द्वीपोदधिविषयं ततो लोकविषयं तदनन्तरमलोकविषयं इति । तत्र संस्था-18 नादिकमिन्द्रियाणां वक्तव्यमिति प्रथमत इन्द्रियविषयसूत्रमाहकति णं मंते ! इंदिया पं०१, गो.! पंच इंदिया पं०,०-सोविदिए चक्खिदिए धाणिदिए जिभिदिए फासिदिए, सोर्तिदिए णं भंते ! किंसंठिए पं०१, गो! कलंबुयापुप्फसंठाणसंठिते पं०, चक्खिदिए णं भंते ! किंसंठिते पं०१, गो! दीप अनुक्रम [४१९-४२०] अथ (१५) इन्द्रिय-पदे उद्देशक- (१) आरभ्यते ++ ईन्द्रियस्य भेदः, संस्थानं, बाहल्यं आदि ~589~ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मलय० वृत्ती. १५ इन्द्रियपदं उद्देशः१ प्रत सूत्रांक [१९१] ॥२९॥ दीप अनुक्रम [४२१] ममूरचंदसंठाणसंठिते पं०, पाणिदिए णं भंते! पुच्छा, मो०! अइमुत्तगचंदसंठाणसंठिते, जिभिदिए ण पुच्छा, गो०! खुरप्पसंठाणसंठिते पं०, फासिदिए णं पुच्छा गो०! णाणासंठाणसंठिते पं०१। सोइंदिए णं मते! केवइयं बाहल्लेणं पं०1, गो! अंगुलस्स असंखेजहभागे बाहल्लेणं पं० २, एवं जाव फासिदिए । सोतिदिए णं भंते! केवइतं पोहत्तेणं पण्णत्ते, गो०! अंगुलस्स असंखेजइभागं पोहत्तेणं पं०, एवं चक्खिदिएवि पाणिदिएवि, जिभिदिए छ पुच्छा मो०! अंगुलपुहुतेणं पं०, फासिदिए णं पुच्छा गो०! सरीरपमाणमेचे पोहचणं पं०३। सोतिदिए णं भंते ! कतिपदेसिते पं०१, गो०! अणंतपदेसिते पं०, एवं जाव फासिदिए । (सूत्रं १९१) 'कइ णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता' इत्यादि, कति-कियत्सङ्ख्याकानि, गमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! इन्द्रियाणि प्राविरूपितशब्दार्थानि प्रज्ञप्तानि!, भगवानाह-गौतम ! पञ्चेन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि, तान्येव नामत आह–'सोईदिए' इत्यादि, एतानि च पञ्चापीन्द्रियाणि द्विधा, तद्यथा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो निर्वृत्युपकरणरूपाणि भावतो लब्ध्युपयोगात्मकानि, आह च तत्त्वार्थसूत्रकृत्-निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रिय (तत्त्वार्थे अ०२ सू०१७-१८) मिति, तत्र नितिन म प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः, सापि द्विधा-वाया अभ्यन्तरा च, तत्र बाबा पपेटिकादिरूपा, सा च विचित्रा, न प्रतिनियतरूपतयोपदेष्टुं शक्यते, तथाहि-मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्थतो भाविनी, भ्रुवौ चोपरितनश्रवणबन्धापेक्षया समे, वाजिनो नेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादि, जातिभेदान्ना ॥२९॥ ~590~ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ------ ---------- मूलं [१९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९१] दीप अनुक्रम [४२१] नाविधा, अभ्यन्तरा तु निर्वृतिः सर्वेषामपि जन्तूनां समाना, तामेव चाधिकृत्य वक्ष्यमाणानि संस्थानादिविषयाणि सूत्राणि, केवलं स्पर्शेन्द्रियस्य निर्वृतेर्वाह्याभ्यन्तरभेदो न प्रतिपत्तव्यः, पूर्वसूरिभिनिषेधाद्, अत एव च बायसंस्थाISI नविषयमेव तत्सूत्रं वक्ष्यति-‘फासिदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते' इति, उपकरणं खड्गस्थानीयाया बाह्यनिर्वृता खाधारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिका, अभ्यन्तरा निर्वृतिस्तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमान्तरनिवृतेः कथञ्चिदर्थान्तरं, शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिद्भेदात् , कथञ्चिद्भेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तरनिर्वृतौ द्रव्यादिनोपकरणस्य विधातसम्भवात् , तथाहि-सत्यामपि कदम्बपुष्पाधाकृतिरूपायामान्तरनिर्वृता-18 वतिकठोरतरघनगर्जितादिना शक्त्युपधाते सति न परिच्छेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति, भावेन्द्रियमपि द्विधालब्धिः उपयोगश्च, तत्र लब्धिः-श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगः-खखविषये लब्ध्यनुसारेणात्मनो व्यापारः प्रणिधानमाह । साम्प्रतमाभ्यन्तरां निर्वृतिमधिकृत्य संस्थानादि विचिन्तयिपुः प्रथमतः संस्थानं चिन्तयति-'सोइंदिए णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते' इत्यादि पाठसिद्धं, अधुना बाहल्यं चिन्तयति-'सोईदिए णं भंते ! केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' इत्यादि, इदमपि पाठसिद्धम् , उक्तश्थायमर्थोऽन्यत्रापि-"बाहलतो य सबाई अंगुलअसंखभाग"मिति [वाहल्यतश्च सर्वाणि अङ्गुलासङ्ख्यभागमानानि । अत्राह-यद्यङ्गुलस्यासययभागो बाहल्यं स्पर्शनेन्द्रियस्य ततः कथं खड्गारिकाद्यभिघाते अन्तः शरीरस्य वेदनानुभवः ?, तदेतदसमीचीनं, सम्यग्वस्तुतत्त्वा ~591~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलय.वृत्ती. प्रत सूत्रांक [१९१] ॥२९४॥ दीप अनुक्रम [४२१] se ROERecemener परिज्ञानात् , त्वगिन्द्रियस्य विषयः शीतादयः स्पर्शा यथा चक्षुषो रूपं गन्धो भ्राणस्य, न च खगक्षुरिकाद्यभिघाते १५ इन्द्रिअन्तः शरीरस्य शीतादिस्पर्शवेदनमस्ति, किन्तु केवलं दुःखवेदनं, तच दुःखरूपवेदनमात्मा सकलेनापि शरीरेणा-18 यपद नुभवति न केवलेन त्वगिन्द्रियेण ज्वरादिवेदनवत् ततो न कश्चिद्दोपः, अथ शीतलपानकादिपाने अन्तः शीतस्पर्शवे उद्देशः १ दनाप्यनुभूयते ततः कथं सा घटामटाट्यते इति ?, उच्यते, इह त्वगिन्द्रियं सर्वत्रापि प्रदेशपर्यन्तवर्ति विद्यते, तथा पूर्वसूरिभिर्व्याख्यानात् , तथा चाह मूलटीकाकार:-"सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्तित्वात् त्वचोऽभ्यन्तरेऽपि शुषिरस्योपरि त्वगिन्द्रियस्य भावादुपपद्यतेऽन्तः शीतस्पर्शवेदनानुभवः" । अधुना पृथक्त्वविषयं सूत्रमाह-'सोइंदिए णं भंते !! केवाइयं पोहत्तेणं पण्णत्ते" इत्यादि, इह पृथुत्वं स्पर्शनेन्द्रियव्यतिरेकेण शेषाणां चतुर्णामिन्द्रियाणामात्मागुलेन प्रतिपत्तव्यं, स्पर्शनेन्द्रियस्य उच्छ्याङ्गलेन, ननु देहाश्रितानीन्द्रियाणि देहश्चोच्छ्याङ्गुलेन प्रमीयते 'उस्सेहपमाणतो मिणसु देह'मिति वचनात् [ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणेन मिनुहि देहं] तत इन्द्रियाण्यप्युच्छ्याङ्गुलेन मातुं युज्यन्ते नात्माहुलेनेति, तदयुक्तम् , जिहादीनामुच्छ्याङ्गुलेन पृथुत्वप्रमित्यभ्युपगमे त्रिगन्यूतादीनां मनुष्यादीनां रसाभ्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः, तथाहि-त्रिगन्यूतानां मनुष्याणां पड्गव्यूतानां च हस्त्यादीनां खखशरीरानुसारितया अतिविशालानि || ॥२९ ॥ मुखानि जिह्वाश्च, ततो यधुच्छ्याङ्गुलेन तेषां क्षुरप्राकारतयोक्तस्याभ्यन्तरनिर्वयात्मकस्य जिहेन्द्रियस्याङ्गुलपृथक्त्वलक्षणो विस्तारः परिगृह्यते तदाऽल्पतया न तत्सर्वां जिह्वां व्याप्नुयात् , सर्वव्यापित्वाभावे च योऽसौ बाहल्येन सर्वा G ~592~ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ------ ---------- मूलं [१९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९१] IS त्मना जिह्वाया रसवेदनलक्षणः प्रतिप्राणि प्रसिद्धो व्यवहारः स व्यवच्छेदमानुयाद् , एवं प्राणादिविषयेऽपि यथायोग| गन्धादिव्यवहारोच्छेदो भावनीयः, तस्मादात्माङ्गुलेन जिह्वादीनां पृथुत्वमवसेयं नोच्छ्याङ्गुलेनेति, आह च भाष्यकृत्| "इंदियमाणेवि तयं भयणिज्जं जं तिगाउयाईणं । जिभिदियाइमाणं संववहारे विरुज्झज्झा ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-'तत्' उच्छ्याङ्गुलमिन्द्रियमानेऽपि आस्तामिन्द्रियविषयपरिमाणचिन्तायामित्यपिशब्दार्थः, 'भजनीयं विकल्पनीयं, कापि न गृह्यते इत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-स्पर्शनेन्द्रियपृथुत्वपरिमाणचिन्तायां प्रायमन्येन्द्रियपृथुत्वपरिमाणचिन्तायां न प्राचं, तेषामात्माङ्गुलेन परिमाणकरणात् इति, कथमेतदवसेयं इति चेत् ? अतआह–'यत्' यस्मात् सर्वेषामपि इन्द्रियाणां उच्छ्याङ्गुलेन परिमाणकरणे त्रिगव्यूतादीनामादिशब्दात् द्विगन्यूता दिपरिग्रहो जिहेन्द्रियादिमानं सूत्रोक्तं संव्यवहारे विरुध्येत, यथा च विरुध्यते तथाऽनन्तरमेव भाषितमिति । सम्प्रति कतिप्रदेशावगाहनाद्वारं प्रतिपादयति सोईदिए णं भंते ! कतिपदेसोगाढे पं०१, गो! असंखेजपएसोगाढे पं०. एवं जाव फासिदिए । एएसिण भंते ! सोतिदियचक्खिदियघाणिदिय जिभिदियफासिंदियाणं ओगाहणट्ठयाए पएसट्टयाए ओगाहणपएसट्टयाए कतरेशहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गो। सवयोवे चक्खिदिते ओगाहणद्वयाते सोतिदिए ओमाहणट्ठयाते संखेजगुणे धाणिदिए ओगाहणद्वयाते संखेजगुणे जिभिदिए ओगाहणयाए असंखेजगुणे फासिदिए ओगाहणट्टयाए celeseeeee दीप अनुक्रम [४२१] Reace ईन्द्रियस्य प्रदेश-अवगाहना ~593~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. | १५इन्द्रियपदे उद्देशः१ प्रत सूत्रांक [१९२] ॥२९५॥ Caenewesenरस्टारseners दीप अनुक्रम [४२२] संखेजगुणे पदेसट्टयाते सबत्थोवे चक्खिदिए पदेसट्टयाए सोतिदिए पएसट्टयाए संखेजगुणे पाणिदिए पएसहयाए संखिजगुणे जिभिदिए पएसट्टयाए असंखेजगुणे फासिदिए पएसट्टयाए संखेजगुणे ओगाहणपदेसट्टयाए सवत्थोवे चक्खिदिए ओगाहणट्टयाए सोतिदिए ओगाहणद्वयाए असंखेजगुणे घाणिदिए ओगाहणट्ठयाए संखिजगुणे जिभिदिए ओगाहण याए असंखेजगुणे फासिदिए ओगाहणट्टयाए संखिजगुणे फार्सिदियस्स ओमाहणट्टयाहिंतो चक्खिदिए पएसट्टयाए अणंतगुणे सोत दिए पएसट्टयाए संखेजगुणे पाणिदिए पएसट्टयाए संखिजगुणे जिभिदिए पएसट्टयाए असंखेजगुणे फासिंदिए पदेसद्वयाते संखेजगुणे, सोतिदियस्सणं भंते ! केवइया कक्खडगुरुयगुणा पं०१, गो! अणंता कक्खडगुरुयगुणा पं०, एवं जाव फासिंदियस्स, सोर्ति दियस्स णं भंते ! केवइया मउयलहुयगुणा पं०१, गो01, अणंता मउयलहुयगुणा पं०, एवं जाव फासिं दियस्स । एतेसिणं भंते! सोइंदियचक्खिदियघाणिदियजिम्भिदियफासिंदियाणं कक्खडगुरुयगुणाणं मउयलहुपगुणाण य कयरेशहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबत्थोवा चक्खिदियस्स कक्खडगरुपगुणा सोतिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा पाणिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा जिम्मिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा, मउयलहुयगुणाणं सवत्थोवा फार्सिदियस्स मउयलहुयगुणा जिभिदियस्स मउयलहुयगुणा अनंतगुणा पाणिदियस्स मउयलहुयगुणा अर्णतगुणा सोतिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा चक्खिदियस्स मउयलहुयगुणा अर्णतगुणा, कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाण य सबस्थोवा चक्खिदियस्स कक्खडगुरुयगुणा सोर्तिदियरस कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा पाणिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा जिभिदियस्स कक्खडगुरुयगुणा अणंत N२९५॥ ~594 ~ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२] गुणा फासिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा फासिंदियस्स कक्खडगुरुयगुणहितो तस्स घेच मउयलहुयगुणा अणंतगुणा जिम्भिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा घाणिदिवस मउयलहुयगुणा अणंतगुणा सोतिंदियस्स मउपलहुयगुणा अणंतगुणा चविखदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा (सूत्रं १९२) 'सोइंदिए गं भंते !' इत्यादि निगदसिद्धं, अल्पबहुत्वद्वारमाह-'एएसिणं भंते ।' इत्यादि, सर्वस्तोकं चक्षुरि-N |न्द्रियमवगाहनार्थतया, किमुक्तं भवति?-सर्वस्तोकप्रदेशावगाढं चक्षुरिन्द्रियं, ततः श्रोत्रेन्द्रियमवगाहनार्थतया संख्येयगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यावगाहनाभावात् , ततोऽपि माणेन्द्रियमवगाहनार्थतया सङ्ख्येयगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु । तस्यावगाहनोपपत्तेः, ततोऽपि जिद्धेन्द्रियमयगाहनार्थतया असङ्ख्येयगुणं, तस्याकुलपृथक्त्वपरिमाणविस्तारात्मकत्वात्,18 यस्तु दृश्यते पुस्तकेषु पाठः सङ्ख्येयगुणं इति सोऽपपाठो, युक्त्यनुपपन्नत्वात् , तथाहि-चक्षुरादीनि त्रीण्यपीन्द्रियाणि प्रत्येकमङ्गुलासङ्ख्येयभागविस्तारात्मकानि, जिह्वेन्द्रियं अङ्गुलपृथक्त्वविस्तारमतोऽसङ्खवेयगुणमेव तदुपपद्यते न तु सङ्ख्येयगुणमिति, ततः स्पर्शनेन्द्रियं सहयेयगुणं, तथाहि-अङ्गुलपृथक्त्वप्रमाणविस्तारं जिह्वेन्द्रियं, पृथक्त्वं द्विप्रभृत्यानवभ्यः स्पर्शनेन्द्रियं तु शरीरप्रमाणमिति सुमहदपि तदुपपद्यते सयेयगुणमिति, यस्तु बहुपु पुस्तकेषु दृश्यते पाठोडसङ्ख्येयगुणमिति सोऽपपाठो, युक्तिविकलत्वात् , तथाहि-आत्माङ्गुलपृथक्त्वपरिमाणं जिद्धेन्द्रियं शरीरपरिमाणं तु स्पर्शनेन्द्रियं शरीरं तूत्कर्षतोऽपि लक्षयोजनप्रमाणं ततः कथमसङ्ख्येयगुणमुपपद्यते इति ?, अनेनैव च क्रमेण प्रदेशार्थ दीप अनुक्रम [४२२] टcentee SAREauratonintenmarkomal ~595~ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. १५इन्द्रियपदे उद्देशः१ प्रत सूत्रांक [१९२] ॥२९॥ दीप अनुक्रम [४२२] तयाऽपि सूत्रं भावनीयं, उक्तप्रकारेणैव चोभयसूत्रमपि, यानि कर्कशगुरुगुणादिसूत्राणि तानि पाठसिद्धानि, नवरमल्पबहुत्वसूत्रे चक्षुःश्रोत्रप्राणजिह्वास्पर्शनेन्द्रियाणां यथोत्तरं कर्कशगुरुगुणा अमीषामेव पश्चानुपूर्ध्या यथापूर्व मृदुलघु- गुणा अनन्तगुणास्तथैवो(वयथो)त्तरं कर्कशतया यथापूर्व चातिकोमलतयोपलभ्यमानत्वात् , युगपदुभयाल्पबहुत्वसूत्रे फासिंदियकक्खडगुरुयगुणेहितो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा' इति, शरीरे हि कतिपया एवं प्रदेशा उपरिवर्तिनः शीतातपादिसम्पर्कतः कर्कशा वर्तन्ते अन्ये तु बहवस्तदन्तर्गता अपि मृदव इति घटन्ते स्पर्शनेन्द्रियस्य कर्कशगुरुगुणेभ्यो मृदुलघुगुणा अनन्तगुणा इति । अमून्येव संस्थानादीन्यल्पबदुत्वपर्यन्तानि द्वाराणि नैरयिकेषु चिन्तयतिनेरइयाणं भंते ! कइ इंदिया पं० १, गो०! पंच, तं०-सोर्तिदिए जाव फासिदिए, नेरइयाणं भते! सोतिदिए किसलिए पं०१, गो! कलंबुयासंठाणसंठिते पं०१, एवं जहा ओहियाणं बत्तवया भणिता तहेव नेरइयागंपि जाव अप्पाबहुयाणि दोष्णि, नवरं नेरइयाणं भंते ! फासिदिए किंसंठिए पं०१, गो०! दुविधे पं०, तं-भवधारणिजे य उत्तरवेउविते य, तत्थ णं जे से भवधारणिजे से णं इंडसंठाणसंठिते पं०, तत्थ पंजे से उत्तरवेउविते सेवि तहेव, सेसं तं चेव ।। असुरकुमाराणं भंते ! कइ इंदिया पं०१, गो०1 पंच, एवं जहा ओहिवाणिजार अप्पाबहुगाणि दोणिवि, नवरं फासिदिए दुविधे - पण्णते, तं०-भवधारणिजे य उत्तरउबिते य, तत्व ण जे से भवधारणिजे से णं समचउरससंठाणसंठिते पं०, तत्थ ॥२९६॥ ~596~ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९३] दीप अनुक्रम [ ४२३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, मूलं [१९३] उद्देशक: [१], आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Eucation Internationa णं जेसे उत्तरउचित से णं णाणासंठाणसंठिते, सेसं तं चैव एवं जाव थणियकुमाराणं ॥ पुढविकाइयाणं भंते ! कति इंदिया पं० १, गो० एगे फार्सिदिए पं०, पुढविकाइयाणं भंते! फासिदिते किंसंठाणसंठित पं० १, गो० ! मसूरचंदसंठाणसंठित पण्णत्ते, पुढविकाइयाणं भंते! फासिंदिते केवइयं वाहल्लेणं पं० १, गो० ! अंगुलस्स असंखेज्जइभागं बाहल्लेणं पं०, विकाइयाणं भंते! फार्सिदिए केवतितं पोहणं पं० ?, गो० ! सरीरप्पमाणमेते पोहणं, पुढविकाइयाणं भंते! फार्सिदिए कतिपदेसिते पं० १, गो० ! अणतपदेसिते पं०, पुढविकाइयाणं भंते ! फार्सिदिते कतिपदेसोगाढे पं० १, गो० ! असंखेज्जपएसोगाढे पं० । एतेसि णं भंते! पुढविकाइयाणं फासिंदियस्स ओगाहणद्वयाए पएसट्टयाए ओगाहणपएसट्टाए कयरे२हिंतो अप्पा वा ४१, गो० ! सवत्थोवे पुढविकाइयाणं फार्सिदिए ओगाहणट्टयाते ते चैव पदेसट्टयाते अनंतगुणे, पुढविकाइयाणं भंते! फार्सिदियस्तं केवइया कक्खडगरुयगुणा पं० १, गो० । अनंता, एवं मउयलयगुणावि, एतेसि णं भंते ! विकायाणं फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणार्ण मउयल हुयगुणाण य कयरेरहिंतो अ० ४१, गो० ! सवत्थोवा पुढविकाइयाणं फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा तस्स चैव मउयलडुयगुणा अनंतगुणा । एवं आउकाइयाणवि जाव वणष्फइकाइयाणं, णवरं संठाणे इमो विसेसो दट्ठबो- आउकाइयाणं थिबुगबिंदुठाणसंठिते पं० तेउकाइयाणं सहकलावसंठाणसंठिते पं०, चाउकाइयाणं पडागाठाणसंठिते पं०, वणण्फइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिते पं० । बेइंदियाणं भंते ! कति इंदिया पं० १, गो० ! दो इंदिया पं० तं० जिम्भिदिए फार्सिदिए, दोपि इंदियाणं संठाणं बाल्लं पोहत्तं पदेसं ओगाद्दणा य जहा ओहियाणं भणिता तहा भाणियवा, नवरं फार्सिदिए इंडसठाणसंठिते पण्णत्तेति इमो विसेसो, एतेसि णं For Parts Only ~ 597 ~ wrary.org Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मलय. वृत्ती. १५इन्द्रियपदे उद्देशः १ प्रत सूत्रांक [१९३] ॥२९॥ दीप अनुक्रम [४२३] 99090095799999 भंते ! बेईदियाणं जिभिदियफासिंदियाणं ओगाहणद्वयाते पदेसहयाते ओगाहणपदेसद्वयाते कयरेशहितो अ०४१, गो०! सत्वत्थोवे बेइंदिया जिभिदिए ओगाहणद्वयाते फासिदिए ओगाहणहयाते संखेजगुणे पदेसहयाते सवस्थोवे बेइंदियाणं जिम्भिदिते पएसहयाए फासिदिए संसेजगुणे ओमाहणपएसद्वयाते सवत्थोवे बेइंदियस्स जिभिदिए ओगाहणहयाते फासिदिए ओगाहणट्ठयाते संखेजगुणे कासिदियस्स ओगाहणट्ठयातहितो जिम्मिदिए पएसट्टयाते अणंतगुणा फासिदिए पएसयाए संखेजगुणा, बेइंदियाणं भंते ! जिम्भिदियस्स केवइया कक्खडगरुयगुणा पं०१ गो०! अणंता, एवं फार्सिदियस्सवि, एवं मउयल हुयगुणावि, एतेसिणं भंते! बेइंदियाणं जिभिदियफासिदियाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाण कक्खडगुरुयगुणमउयलहुयगुणाण य कतरे हितो अ०४१, गो! सबथोवा बेइंदियाण जिभिदियरस कक्खडगरुयगुणा फासिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासिंदियरस कक्खडगरुयगुणेहिंतो तस्स चेव मउयलहुय० अणंतगुणा जिभिदियस्स मउयलहुयगुणा अर्णतगुणा, एवं जाव चउरिदियत्ति, नवरं इंदियपरिवुड्डी कातबा, तेइंदियार्ण धार्णिदिए थोवे चरिंदियाणं चक्विंदिए थोवे, सेसं तं चेव ।। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मनसाण य जहा नेरइयाणं, गवरं कासिदिए छविहसंठाणसंठिते पं० सं०-समचउरंसे निग्गोह परिमंडले सादी खुजे चामणे हुंडे ।। वाणमंतरजोइसियचेमाणियाणं जहा अमुरकुमाराणं (सूत्रं १९३) 'नेरइयाणं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'नेरइयाणं भंते ! फासिं दिए किंसंठिए पण्णत्ते' इत्यादि, द्विविधं हि नैर-1 यिकाणां शरीर-भवधारणीयमुत्तरक्रियं च, तत्र भवधारणीयं तेषां भवखभावत एव निर्मूलविलुप्तपक्षोत्पाटितस-1 करeerce २१७॥ ~598~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३] रिस्टcerseseeeeeee दीप अनुक्रम [४२३] कलग्रीवादिरोमपक्षिशरीरवत् अतिवीभत्ससंस्थानोपेतं, यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि हुंडसंस्थानमेव, तथाहि-ययपि ते वयमतिसुन्दरं शरीरं विकुर्विष्याम इत्यभिसन्धिना शरीरमारभन्ते तथापि तेषामत्सन्ताशुभतथाविधनामकर्मोदयादतीवाशुभतरमेवोपजायते इति । असुरकुमारसूत्रे भवधारणीयं समचतुरस्रसंस्थानं तथाभवखाभाब्यात् , उत्तरक्रिय तु नानासंस्थितं, खेच्छया तस्य निष्पत्तिभावात् । पृथिव्यादिविषयाणि तु सूत्राणि सुप्रतीतान्येव । सम्प्रति स्पृष्टद्वारमाहपुट्ठाई भंते ! सद्दाई सुणेति अपुढाई सद्दाई सुणेति ?, गो० ! पुढाई सद्दाई सुणेति नो अपुट्ठाई सद्दाई सुणेति, पुट्ठाई भंते ! रूवाई पासति अपुट्ठाई पासति ?, गो०! नो पुढाई रुवाई पासति, अपुट्ठाई रूवाई पासति, पुट्ठाई मते ! गंधाई अग्पाइ अपुट्ठाई गंधाई अग्घाइ, गो० पुटाई गंधाई अग्याइ नो अपुढाई अग्धाइ, एवं रसाणवि फासाणवि, णवरं रसाई अस्साएति फासाई पडिसंवेदेतित्ति अभिलावो कायदो। पविट्ठाई भंते ! सद्दाई सुणेति अपचिट्ठाई सदाई सुणेति ?, गोपविहाई सदाई सुणेति नो अपविट्ठाई सदाई सुणेति, एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविटाणिवि । (मूत्रं १९४) 'पुट्ठाई भंते । सद्दाई सुणेति' इत्यादि, प्राकृतत्वात् सूत्रे शब्दस्य नपुंसकत्वं, अन्यथा पुंस्त्वं प्रतिपत्तव्यं, स्पृष्टान् । भदन्त ! श्रोत्रेन्द्रियमिति कर्तृपदं सामर्थ्यालभ्यते शब्दान् शृणोति, तत्र स्पृश्यन्ते इति स्पृष्टास्तान तनौ रेणुमिवालिङ्गितमात्रानित्यर्थः, 'पुढे रेणुं व तणुंम' [स्पृष्टं तनौ रेणुरिव] इति वचनात्, शब्द्यन्ते-प्रतिपाद्यन्ते अर्था। ~599~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक याः मलयवृत्ती. ॥२९८॥ [१९४] एभिरिति शब्दाः तान् शृणोति-गृह्णाति उपलभते इतियावत् , किमुक्तं भवति ?-स्पृष्टमात्राण्येव शब्दद्रव्याणि श्रोत्रे-१५ इन्द्रि[न्द्रियमुपलभते न तु प्राणेन्द्रियादिवत् बद्धस्पृष्टानीति, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह शब्दद्रव्याणि प्राणेन्द्रियादिवि- यपदे षयभूतेभ्यो द्रव्येभ्यः सूक्ष्माणि तथा बहूनि तथा तत्क्षेत्रभाविशब्दयोग्यद्ध्यवासकानि च, ततः सूक्ष्मत्वादतिप्रभूत-| उद्देशाः त्वात्तदन्यद्रव्यवासकत्वाच्चात्मप्रदेशैः स्पृष्टमात्राण्यपि निवृतीन्द्रियमध्ये प्रविश्य झटित्युपकरणेन्द्रियमभिव्यञ्जयन्ति, श्रोत्रेन्द्रियं च घाणेन्द्रियाद्यपेक्षया खविषयपरिच्छेदे पटुतरं, ततः स्पृष्टमात्राण्यपि तानि श्रोत्रेन्द्रियमुपलभते, नास्पृष्टान्-सर्वधाऽऽत्मप्रदेशः सम्बन्धमप्राप्तान , श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्सविषयपरिच्छेदखभावत्वात् , यथा च श्रोत्रेन्द्रियस्य प्रास-18 कारिता तथा नन्द्यध्ययनटीकादौ चर्चितमिति ततोऽवधार्य, 'पुट्ठाई भंते ! रूवाई' इत्यादि सुगमं, निर्वचनमाह-गौतम! न स्पृष्टानि रूपाणि पश्यति चक्षः किन्त्वस्पृष्टानि, चक्षुयोऽप्राप्तकारित्वात् , तचाप्राप्तकारित्वं तत्वाधेटीकादी| सविस्तरेण प्रसाधितमिति ततोऽवधारणीयं, गन्धादिविषयाणि सूत्राणि सुप्रसिद्धानि, नवरं स्पृष्टान् गन्धान आजिप्रति इत्यादि यद्यप्युक्तं तथापि बद्धस्पृष्टानिति द्रष्टव्यम् , यत उक्तमावश्यकनियुक्ती-"पुढं सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढे | तु ।गंध रसं च फासं च बद्धपुट वियागरे॥॥" [स्पृष्ट शृणोति शब्दं रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टमेव । गन्धं रसं च स्पर्श च me बद्धस्पृष्टं व्याकुर्यात् ॥१॥] इति, तत्र स्पृष्टानिति पूर्ववत् बद्धानिति आत्मप्रदेशैरात्मीकृतान् ‘बद्धमप्पीकयं पएसेहिं' [बद्धमात्मीकृतं प्रदेशः] इति वचनात्, विशेषणसमासश्च, बद्धाच ते स्पृष्टाश्च बद्धस्पृष्टास्तान , इह स्पृष्टाः दीप अनुक्रम [४२४] ~600~ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९४] दीप अनुक्रम [४२४] स्पर्शमात्रेणापि भवन्ति यथा शब्दस्ततः स्पर्शमात्रव्यवच्छेदेन स्पर्शविशेषप्रतिपत्तिरव्याहता स्थादिति बद्धग्रहणं, बद्ध-10 रूपा ये स्पृष्टास्तान् परिच्छिनत्ति, नान्यानि, कस्मादेवमिति चेत् १, उच्यते, गन्धादिद्रव्याणां वादरत्वात् अल्पत्वादभावुकत्वाच प्राणादीन्द्रियाणामपि च श्रोत्रेन्द्रियापेक्षया मन्दशक्तिकत्वादिति । सम्प्रति प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्तां कुर्वन्नाह-'पविहाई भंते ! सद्दाई' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरं स्पर्शस्तनी रेणुरिवापि भवति प्रवेशो मुखे कवलस्येवेति शब्दार्थस्य भिन्नत्वात् भिन्नविषयता स्पृष्टप्रविष्टसूत्राणामिति । सम्प्रति विषयपरिमाणनिरूपणार्थमाहसोतिदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते?, गो०। जहण्ययेणं अंगुल स्स असंखेजतिभागो उक्कोसेणं पारसहिं जोअणेहितो अच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविद्वाति सद्दाति सुणेति, चक्विंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पं०१, गो! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजतिभागो उकोसेणं सातिरेगाओ जोयणसतसहस्साओ अच्छिण्णे पोग्गले अपुढे अपविट्ठातिं रूबाई पासइ, पाणिदियस्स पुच्छा, गो० जहष्णेणं अंगुलअसंखेज्जतिभागो उकोसेणं णवहिं जोयणेहितो अच्छिष्णे पोग्गले पूढे पविट्ठाति गंधाति अग्धाइ, एवं जिभिदियस्सवि फासिदियस्सवि (सूत्रं १९५) 'सोइंदियस्सणं भंते ! केवइए विसए पं०'इत्यादि, इह श्रोत्रादीनि प्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वात् अहुलासययभा-11 गादप्यागतं शब्दादिद्रव्यं परिच्छिन्दन्ति, नयनं चाप्राप्तकारीति तत् जघन्यतोऽझुलसङ्ख्येयभागादव्यवहितं परिच्छिनत्ति, किमुक्तं भवति?-जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रे व्यवस्थितं पश्यति न तु ततोऽप्यक्तिरमिति, प्रतिप्राणि अथ श्रोत्रेन्द्रिय आदि पञ्च-इन्द्रियस्य विषय-परिमाणस्य निरूपणं क्रियते ~601~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१९५]] ॥२९॥ दीप अनुक्रम [४२५] eeteeeeeeee प्रसिद्धचायमर्थः, तथा च नातिसनिकृष्टमअनरजोमलादिकं चक्षुः पश्यतीति, उक्तं च-"अवरमसंखेचंगुलभागातो १५ इन्द्रिनयणवजाणं ॥ संखेजंगुलभागो नयणस्स" [जघन्यमसोयाङ्गुलभागात् नयनवर्षाणां सङ्ख्येयो भागो नयनस्य]इति, यपदे उत्कर्षतस्तु थोत्रेन्द्रियं द्वादशभ्यो योजनेभ्यः आगतान् अग्छिन्नान्-अव्यवहितान् नान्यैः शब्दान्तरर्वातादिकोशः प्रतिहतशक्तिकानित्यर्थः पुद्गलान् , अनेन पौगलिकः शब्दो नाम्बरगुण इति प्रतिपादितं, यथा च शब्दस्य पौगलिकता तथा तत्त्वार्थटीकायां प्रपञ्चितमिति न भूयः प्रपश्यते, स्पृष्टान्-स्पृष्टमात्रान् शब्दान् प्रविष्टान्-निर्दृतीन्द्रि-1 यमध्यप्रविष्टान् शृणोति न परतोऽप्यागतान्, कस्मादिति चेत् !, उच्यते, परत आगतानां तेषां मन्दपरिणामत्वभावात् , तथाहि-परत आगताः खलु ते शब्दपुद्गलास्तथाखामाव्यान्मन्दपरिणामास्तथोपजायन्ते येन खविषयं श्रोत्र-18 ज्ञानं नोत्पादयितुमीश्वराः, श्रोत्रेन्द्रियस्यापि च तथाविधं अद्भुततरं बलं न विद्यते येन परतोऽपि आगतान् शम्दान् शृणुयादिति, चक्षुरिन्द्रियमुत्कर्षतः सातिरेकात् योजनशतसहस्रादारभ्याच्छिन्नान् कटकुट्यादिभिरव्यवहितान् पुगलान् अस्पृष्टान् दूरस्थितान् अत एवाप्रविष्टान 'रूवाईति रूपात्मकान् पश्यति, परतोऽव्यवदितस्थापि परिच्छेदे चक्षुषः शक्यभावात् , तत्वङ्गुलमिह विधा, तद्यथा-आत्मानुलमुच्छ्याङ्गलं प्रमाणालंच, तत्र "जे णं जया मणूसा ॥२९९।। तेसिं जं होइ माणरूवं तु तं भणियमिहायंगुलमणिययमाणं पुण इमं तु ॥१॥"ये यदा मनुष्यास्तेषां यद्भवति मानरूपं तु । तदेव भणितमिहात्मागुलमनियतमानं पुनरिदं तु ॥१॥] इत्येवंरूपमात्माकुलं "परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं Receiseरर ~602~ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९५] दीप अनुक्रम [४२५] पदं [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, मूलं [१९५] उद्देशक: [१], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः च बालस्स । लिक्खा जूया य जवा, अट्ठगुणविवद्धिया कमसो ॥ १ ॥” [ परमाणुत्रसरेणू रथरेणुरग्रकं च वालस्य । लिक्षा यूका च यवोऽष्टगुणविवृद्धाः क्रमशः ॥ १ ॥ ] इत्यादिरूपमुच्छ्रयाल, तृतीयं - 'उस्सेहंगुल मेगं हबह पमाणंगुलं सहस्सगुणं । तं चैव दुगुणियं खलु वीरस्सायंगुलं भणियं ॥ १॥ [ उत्सेधाङ्गुलादेकस्मात् भवति प्रमाणाङ्गुलं सहस्रगुणम् । तदेव द्विगुणितं वीरस्यात्माङ्गुलं भणितम् ॥ १ ॥ इत्येवं प्रमाणाङ्गुलं, तत्रात्माङ्गुलेन मीयते तत्काले वापीकूपादिकं वस्तु उच्छ्रयाङ्गुलेन नरतिर्यग्देवनेर विकशरीराणि प्रमाणाङ्गुलेन पृथिवीविमानानि, उक्तं च- " आयंगुलेण वत्युं उस्सेहपमाणतो मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥ १ ॥ [ आत्माङ्गुलेन वस्तु उत्सेधप्रमाणतो मिनु देहम् । नगपृथ्वीविमानानि मिनु प्रमाणाङ्गुलेनैव ॥ १ ॥ ] तत्रेदमिन्द्रियविषयपरिमाणं किमात्माङ्गुलेनाहोश्चित् उच्छ्रयाङ्गुलेन उत प्रमाणाङ्गुलेन १, उच्यते, आत्माङ्गुलेन, तथा चाह चक्षुरिन्द्रियविषयपरिमाणचिन्तायां भाष्यकृत् - "अप्पत्तकारि नयणं मणो य नयणस्स विसयपरिमाणं । आयंगुलेण लक्खं अइरित्तं जोअणाणं तु ॥ १ ॥” [ अप्राप्तकारि नयनं मनश्च नयनस्य विषयपरिमाणम् । आत्माङ्गुलेन लक्षमतिरिक्तं योजनानां तु ॥ १ ॥ ] ननु देहप्रमाणमुच्छ्रयाङ्गुलेन तु क्रियते देहाश्रितानि चेन्द्रियाणि ततस्तेषां विषयपरिमाणमपि उच्छ्रयाङ्गुलेन कर्त्तुमुचितं, कथमुच्यते आत्मानुलेनेति १, नैष दोषः, यद्यपि हि नाम देहाश्रितानीन्द्रियाणि तथापि तेषां विषयपरिमाणमात्माङ्गुलेनैव देहादन्यत्वाद्विषयपरिमाणस्य, तथा चामुमेवार्थमाक्षेपपुरस्सरं भाष्यकृदप्याह - "नणु भणियमुस्सयंगुलपमाणतो Education Internationa For Pernal Use Only ~603~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१९५] ॥३०॥ दीप अनुक्रम Reterotoes जाय देहमाणाइ । देहपमाणं तं चिय नउ इंदियविसयपरिमाणं ॥१॥"[ ननु भणितमुच्छ्याङ्गुलप्रमाणतो यावत् १५ इन्द्रि(जीव) देहमानानि। देहप्रमाणमेव तत् , नत्विन्द्रियविषयपरिमाणं ॥१॥] अत्र 'देहपमाणं तं चिय' इति यत्तत्र उच्छु- यपदे याङ्गुलमेयत्वेनोक्तं तद् देहप्रमाणमात्रमेव, नत्विन्द्रियविषयपरिमाणं, तस्यात्माङ्गुलप्रमेयत्वादिति,अथ यदि विषयप-18 उद्देशः १ रिमाणमिन्द्रियाणामुच्छ्रयाङ्गुलेन स्यात्ततः को दोष आपद्येत ', उच्यते, पञ्चधनुःशतादिमनुष्याणां विषयव्यवहारव्यवच्छेदः, तथाहि-यरतस्यात्माङ्गुलं तत्किल प्रमाणाङ्गुलं,तच प्रमाणाङ्गुलमुच्छ्याङ्गुलसहस्रेण भवति “उस्सेहंगुलमेग हवह पमाणंगुलं सहस्सगुण"मिति वचनात् [उच्छ्रयाङ्गुलादेकस्मात् भवति प्रमाणांगुलं सहस्रगुणम् ] ततो भरतसगरा-1 दिचक्रवर्तिनां या अयोध्यादयो नगर्यो ये तु स्कन्धावारा आत्माङ्गुलेन द्वादशयोजनायामतया सिद्धान्ते प्रसिद्धास्ते उच्छ्याङ्गुलप्रमिता अनेकानि योजनसहस्राणि स्युः, तथा च सति तत्रायुधशालादिषु ताडितभेर्यादिशब्दश्रवणं न | सर्वेषामापोत, "बारसहिं जोयणेहिं सोयं अभिगेहए सद्द"मिति वचनात् [द्वादशभ्यो योजनेभ्यः श्रोत्रमभिगृह्णाति|| शब्दम् ॥] अथ समग्रनगरव्यापी समस्तस्कन्धाचारव्यापी च विजयढकादिशब्द आगमे प्रतिपाद्यते तथैव च जन-11 व्यवहारः, तत एवमागमप्रसिद्धः पञ्चधनुःशतादिमनुष्याणां विषयव्यवहारोच्छेदो मा प्रापदित्यात्मालेनेन्द्रियाणां ॥३०॥ विषयपरिमाणमवसातव्यं नोच्छ्याङ्गुलेन, तथा चाह भाष्यकृत्-"ज तेणं पंच(पण)धणुसयनरादिविसयववहारबोच्छेओ। पावइ सहस्सगुणियं जेण पमाणंगुलं तत्तो ॥१॥"[यत्तेन पञ्चधनुःशतनरादिव्यवहारब्युच्छेदः । प्राप्नोति [४२५] ~604 ~ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 8sa प्रत सूत्रांक [१९५] सहस्रगुणितं येन प्रमाणाडलं ततः॥१॥] अत्र तस्मादात्माङ्गुलेनैवेन्द्रियाणां विषयपरिमाणं नोत्सेधाजलेनेति उपसंहारवाक्यं स्वतः परिभावनीयं, यदप्युक्तं प्राक् 'देहाश्रितानीन्द्रियाणीति तेषां विषयपरिमाणमुच्छ्याएलेने'ति, सदप्ययुक्तं, इन्द्रियाणामपि केषाश्चित् पृथुत्वस्य आत्मामुलेन मीयमानत्वाभ्युपगमात् , भावितं चैतत्प्रागपि इन्द्रियप्र|माणचिन्तायां 'भयणिज्ज'मित्यादिभाष्यकारवचनावष्टम्भनेनेति, तस्मात् सर्वमिन्द्रियविषयपरिमाणमात्मानुलेनैवेति स्थितं, ननु भवत्वात्माङ्गुलेन विषयपरिमाणं तथाप्यधिकृतसूत्रोक्तं चक्षुरिन्द्रियविषयपरिमाणं न घटते, अधिकस्यापि तद्विषयपरिमाणस्थागमान्तरे प्रतिपादनात्, तथाहि-पुष्करवरद्वीपार्द्ध मानुषोत्तरपर्वतसमीपवर्तिनो मनुष्याः कर्कसङ्क्रान्ती प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नः सातिरेकैरेकविंशतियोजनलक्षैर्व्यवस्थितमादित्यमयलोकमानाः प्रतिपाद्यन्ते शास्त्रान्तरे, तथा च तद्ग्रन्थः-"इगवीसं खलु लक्खा चउतीसं चेव तह सहस्साई। तह पंचसया भणिया सत्तत्तीसाए अतिरित्ता ॥१॥ इइ नयणविसयमाणं पुक्खरदीवद्धवासिमणुयाणं । पुत्रेण य अवरेण य पिहं पिहं होइ मणुयाणं |॥२॥"इत्यादि [ एकविंशतिः खलु लक्षाश्चतुर्विशतिश्चैव तथा सहस्राणि । तथा पञ्च शतानि भणितानि सप्तविंशतिचातिरिक्तानि ॥१॥ इति नयनविषयमानं पुष्करवरद्वीपार्धवासिमनुष्याणां । पूर्वस्यामपरस्यां च पृथक् पृथक् भवति मनुष्याणां॥२॥ ततः कथमधिकृतसूत्रमात्माङ्गुलेनापि घटते ?,प्रमाणाङ्गुलेनापिव्यभिचारभावात् , उक्तं च--"लक्खेहि एकवीसाए साइरेगर्हि पुक्खरद्धंमि। उदये पेच्छति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे ॥१॥णयर्णिदियस्स तम्हा विसयपमाणं दीप अनुक्रम [४२५] mesesencesses Hiralandarary.org ~605~ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९५] दीप अनुक्रम [४२५] प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ॥१०२॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [१], दारं [-1, मूलं [१९५] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eucation Th जहा सुए भणियं । आउस्सेहपमाणंगुलाण एक्केणचि न जुत्तं ॥ २ ॥ [ लक्षेष्वेकविंशती सातिरेकेषु पुष्करार्धे । उदये प्रेक्षन्ते नराः सूर्ये उत्कृष्टे दिवसे ॥ १ ॥ नयनेन्द्रियस्य तस्मात् विषयप्रमाणं यथा श्रुते भणितं । आत्मोत्सेधप्रमाणाङ्गुलानामेकेनापि न युक्तं ॥ २ ॥] सत्यमेतत्, केवलमिदं सूत्रं प्रकाश्यविषयं द्रष्टव्यं न तु प्रकाशकविषयं ततः प्रकाशकेऽधिकतरमपि विषयपरिमाणं न विरुध्यते इति न कश्चिद्दोषः, कथमेवंविधोऽर्थोऽवसीयते इति चेत् ?, उच्यते, पूर्वसूरिकृत व्याख्यानात् सकलमपि हि कालिकश्रुतं पूर्वसूरिकृतव्याख्यानानुसारेणैव व्याख्यानयन्ति महाधियो, न यथाऽक्षरमात्रसन्निवेशं, पूर्वगत सूत्रार्थस परतया कालिकश्रुतस्य कचित्सङ्क्षिप्तस्याप्यर्थस्य महता विस्तरेण कचिद्विस्तरवतोऽप्यतिसङ्क्षेपेणाभिधाने अर्वाक्तनैः स्वमतियथावस्थितार्थतया ज्ञातुमशक्यत्वादत एवोक्तमिदमन्यत्र - " जं जह भणियं सुत्ते तहेब जइ तं चियालणा नत्थि । किं कालियाणुओगो दिट्ठो दिद्विप्पहाणेहिं १ ॥ १ ॥” [यद्यथा भणितं सूत्रे तथैव यदि तद्विचालना नास्ति । किं कालिकानुयोगो दृष्टः प्रधानदृष्टिभिः १ ॥ १] तस्मात् पूर्वसूरिकृतव्याख्यानान्नाधिकृतग्रन्थविरोधः, आह च भाष्यकृत् -- "सुत्ताभिप्पाओऽयं पयासणिज्जे तयं नउ पयासे । वक्खाजाउ विसेसो नहि संदेहादलक्खणया ॥१॥” इति [ सूत्राभिप्रायोऽयं प्रकाशनीये तकत् नतु प्रकाशके । व्याख्यानाद्विशेषो नैव संदेहादलक्षणता ॥ १ ॥] तथा प्राणेन्द्रियजिह्वेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रियाणि गन्धादीनुत्कर्षतो नवयोजनेभ्य आगतान् अच्छिन्नान् द्रव्यान्तरैरप्रतिहतशक्तिकान् परिच्छिन्दन्ति न परत आगतान्, परत आगतानां मन्दपरिणा For Parts Only ~909~ १५ इन्द्रयपदे उद्देशः १ ॥३०१ ॥ waryra Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९५] दीप अनुक्रम [ ४२५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, मूलं [१९५] उद्देशक: [१], आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मत्वभावात् प्राणेन्द्रियादीनां च तथारूपाणामपि [दूरागतानां गन्धादिरूपाणामपि ] तेषां परिच्छेदं कर्त्तुमशक्यत्वात् : आह च भाष्यकृत् - "वारसहिंतो सोत्तं सेसाणं नवहि जोयणेहिंतो । गिण्हंति पत्तमत्थं एतो परतो न गिति ॥ १ ॥ दवाण मंदपरिणामियाऍ परतो न इंदियवलंपि” इति [ द्वादशभ्यः श्रोत्रं शेषाणां नवभ्यो योजनेभ्यः । गृह्णन्ति प्राप्तमर्थ अस्मात् परतो न गृह्णन्ति ॥ १॥ द्रव्याणां मन्दपरिणामितया परतो नेन्द्रियबलमपि ] । इन्द्रियविषयाधिकारे इदमपि सूत्रम् - Eucation International अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणी मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स जे चरमा णिज्जरापोग्गला सुडुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सबै लोगंपि य णं ते ओगाहित्ता णं चिर्हति ?, हंता ! गो० अणगारस्स भावियप्पणी मारणांतियसमुग्धाएणं समोहयस्स जे चरमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोम्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सवं लोगंपि य णं ओगाहित्ताणं चिति । छउमत्थे णं भंते! मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किं आणतं वा नाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणति पासति १, गो० ! णो इणट्टे समट्ठे से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ छउमत्थे णं मणूसे तेसिं पिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि आणतं वा णाणत्तं वा ओमतं वा तुच्छतं वा गरुयत्तं वा लहूयतं वा जाणइ पासद ?, देवेवि य णं अत्थेगतिए जे णं तेसिं निज्जरापोग्गलाणं नो किंचि आणतं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयतं वा लहुयत्तं वा जाणति पासति से तेणट्टेणं गो० ! एवं बुञ्चति छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं नो किंचि आणतं वा For Parts Only ~607~ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १५ इन्द्रियपदे उद्देशः१ प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती. प्रत सूत्रांक [१९६] P ॥३०२॥ aedeceace दीप अनुक्रम [४२६] जाव जाणति पासति, एवं सुहुमा णं ते पोग्गला पणता समणाउसो', सबलोगपि य णं ते ओगाहिताणं चिट्ठति । नेरइया ण भंते ! निजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारति उदाहु न याति न पासंति आहारैति', गो०! नेरइया णिजरापोग्गले न जाणंति न पासंति आहारेंति, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, मण्सा णं भंते! ते निजरापोग्गले किं जाणति पासंति आहारंति उदाहु न याणंति न पासंति आहारंति ?, गो! अत्थेगतिया जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगतिया न याणंति न पासंति आहारेति, से केणटेणं भंते ! एवं वुञ्चति-अस्थेगतिया जाणंति पासंति आहारति अत्धेगतिया न जाणंति न पासंति आहारति , गो! मनसा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-सण्णिभूया य असण्णिभूया य, तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं न याति नपासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते दुविहा पं०, तं0-उपउत्ता य अणुवउत्ता य, तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं न याति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एएणद्वेणं गो०! एवं चुचइ-अत्थेगतिया न याति न पासंति आहारॅति, अत्थेगतिया जाणंति पासंति आहारैति । वाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया । वेमाणिया ण भंते ! ते निजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेति , जहा मासा, पवरं वेमाणिया दुविहा पं०,०-माइमिच्छदिट्ठीउववण्णमा य अमायिसम्मदिहीउबवण्णगा य, तत्थ णे जे ते माहमिच्छदिट्ठीउववण्णगा ते णं न याणति न पासंति न आहारैति, तत्थ ण जे ते अमायिसम्मदिद्विउवचण्णमा ते दुविहा पं०, ०-अणंतरोववण्णमा य परंपरोपवण्णगा य, तत्थ णं जे ते अर्णतरोववण्णगा ते णं न याति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते परंपरोक्वणगा ते दुविहा पं०,०-पञ्जनगा य अपज्जतगा य, तत्थ णं जे ते अप Bercere INT॥३०॥ ~608~ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ------ ---------- मूलं [१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] teesectioesese जत्तगाते गं न जाणंति न पासंति आहारैति, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा पं०, तं०-उवउत्ता य अणुवउत्ता य, तत्थ णजे ते अणुवउत्ता ते णं न याति न पासंति आहारैति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एतेणडेणं गो० ! एवं वुच्चति–अत्थेगतिया थाणंति जाव अत्यंगतिता आहारेति (सूत्रं १९६) 'अणगारस्स णं भंते !' इत्यादि, न विद्यते अगारं-गृहं द्रव्यतो भावतश्च यस्यासावनगारः-संयतस्ततस्तस्य, णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! 'भावियप्पणों' इति भावितो-बासित आत्मा ज्ञानदर्शनचारित्रैस्तपोविशेषैश्च येन स भावितात्मा तस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समबहतस्य ये चरमा:-शैलेशीकालान्त्यसमयभाविनो निर्जरापुद्गला:-अप-1 गतकर्मभावाः परमाणवः 'सुहुमा णे ते पोग्गला' इतिणमिति निश्चये निपातानामनेकार्थत्वात् निश्चितमेतत् 'सूक्ष्माः' चक्षुरादीन्द्रियपथमतिक्रान्तास्ते पुद्गलाः प्रज्ञप्ता भगवद्भिः हे श्रमण ! आयुष्मन् , गौतमकृतं भगवतः सम्बोधनमेतत् , तथा निश्चितमेतत् सर्वलोकेऽपि पुद्गलाः स्पृष्ट्वा णं वाक्यालङ्कृतौ तिष्ठन्ति !, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह'हंता! गोयमा । हन्तेति प्रत्यवधारणे एवमेवैतत् गौतमः 'अणगारस्त णं भावियप्पणों इत्यादि तदेवं पुनरपि प्रश्नः, 'छउमत्थे णं भंते इत्यादि । अथ कोऽस प्रश्नस्थावकाशः!, उच्यते, इह प्रागुक्तं स्पृष्टानि प्रविष्टानि च शब्दद्रव्याणि शृणोतीत्यादि, निर्जरापुद्गला अपि सर्वलोकस्पर्शिन इति तेषामपि श्रोत्रादिषु स्पर्शनप्रवेशौ न स्तः ? इति संशयस्तत्र प्रश्नः-छमस्थो भदन्त ! मनुष्यः, छद्मस्थग्रहणं केवलिब्युदासाथै, केवली हि सर्वैरप्यात्मशरीरप्रदेशः सर्वे जानाति दीप अनुक्रम [४२६] । Sesesesese SAREauraton international ~609~ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] प्रज्ञापना- या मल- य. वृत्तौ. Rec ॥३०॥ दीप अनुक्रम [४२६] पश्यति च, यथोक्तम्-"सवतो जाणइ केवली सच्चतो पासइ केवली" [ सर्वतो जानाति केवली सर्वतः पश्यति ||१५इन्द्रिकेवली ] स्तुतिकारोऽप्याह-"समन्ततः सर्वगुणं निरक्ष"मिति, छमस्थस्त्वकोपाङ्गनामकर्मविशेषसंस्कृतैरेवेन्द्रियद्वा- यपदे रैर्जानाति पश्यति चेति छद्मस्थग्रहणं, अत एवेह छमस्थो विशिष्टावधिज्ञानविकलः परिगृह्यते, तेषां निर्जरापुद्गलानां उद्देशः १ 'आणत्त'मिति अन्यत्वं, द्वयोरनगारयोः सम्बन्धिनोर्ये निर्जरापुद्गलाः तेषां परस्परं भिन्नत्वमिति भावः 'नानात्वं परनिरपेक्षमेकस्यैव वर्णादिकृतं वैचित्र्यं 'ओमत्वं' अवमता हीनत्वमितियावत् 'तुच्छत्वं' निःसारता 'गुरुलघुत्वे'प्रतीते, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, नायमों युक्त्युपपन्नः, छपस्थमनुष्यस्तेषां निर्जरापुद्गलानामन्यत्वादिकं जानाति पश्यति, अत्रैवार्थे प्रश्नमाह-से केणटेणं भंते' इत्यादि, सुगर्म, भगवानाह-देवेवि य णमित्यादि, देवोऽप्यस्त्येकः कश्चित्कर्मपुद्गलविषयावधिज्ञानविकलो यस्तेषां निर्जरापुद्गलानां न किञ्चिदप्यन्यत्वादिकं जानाति पश्यति वा, किमुक्त भवति?-देवानां किल मनुष्येभ्यः पटुतराणि इन्द्रियाणि विद्यन्ते, तत्र देवोऽपि तावन्न जानाति न पश्यति | या किमुत मनुष्य इति ?, 'से एएण'मित्याद्युपसंहारवाक्यं सुगर्म, 'सुहुमा णं ते'इत्यादि, एतावन्मानेन सूक्ष्मास्ते पुद्गलाः निर्जरापुद्गलाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, गौतमस्य भगवत्कृतं सम्बोधनमेतत् , सर्वलोकमपि ते एवंरूपाः अत्यन्तसूक्ष्माः पुद्गलाः अवगाव तिष्ठन्ति पुद्गलाः न तु बादररूपाः, अन्यथा सांव्यवहारिकप्रत्यक्षविरोधप्रसक्तः, सर्वलोकस्पर्शिनस्ते पुद्गलास्ततोऽयमपि प्रश्न:-'नेरइया णं भंते ! इत्यादि, नैरयिकास्तावत्तान् निर्जरापुद्गलानाहारय ॥३०॥ ~610~ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम [४२६] न्तीति सिद्धं, पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीवशतो विचित्रपरिणमनखभावतया आहाररूपतयाऽपि तेषां परिणमनसम्भवात् , केवलमेतद् प्रष्टव्यं ते नैरयिका जानन्तीत्यादि, प्राकृतत्वात् क्रियाहेतुत्वेऽपि वर्तमाना, ततोऽयमर्थ:-जानन्तः । पश्यन्त आहारयन्ति उताजानन्तोऽपश्यन्त इति , भगवानाह-अजानन्तोऽपश्यन्त इति, कस्मादिति चेत्, उच्यते, तेषामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादिपथातीतत्वात् नैरयिकाणां च कार्मणशरीरपुद्गलालम्बनावधिज्ञानविकलत्वात् ।। एवमसुरकुमारादिविषयाण्यपि सूत्राणि तावद् वाच्यानि यावत्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियसूत्रं । मनुष्यसूत्रे 'सन्निभूया य' इति संझिनो भूताः संज्ञिभूताः संज्ञित्वं प्राप्ता इत्यर्थः, तद्यतिरिक्ताः असंज्ञिभूताः, संझी चेह विशिष्टावधिज्ञानी परिगृह्यते यस्य ते कार्मणशरीरपुद्गला विषयमा विनति, शेषं सुगमं । वैमानिकसूत्रे 'मायीमिच्छदिट्टी'इत्यादि, माया-तृतीयः कषायः साऽन्येषामपि कषायाणामुपलक्षणं माया विद्यते येषां ते मायिन उत्कटरागद्वेषा इत्यर्थः ते च ते मिध्यादृ-IN ष्टयश्च मायिमिथ्यादृष्टयस्तथारूपा उपपन्नका-उपपन्ना मायिमिथ्यादृष्टपुपपन्नकास्तद्विपरीता अमायिसम्यग्दृष्टयुपप-1 नकाः, इह मायिमिथ्याटपपन्नकग्रहणेन नवमवेयकपर्यन्ताः परिगृह्यन्ते, यद्यप्यारातीयेष्वपि कल्पेषु वेयकेषु च सम्यग्दृष्टयो देवाः सन्ति तथापि तेषामवधिन कार्मणशरीरपुद्गल विषय इति तेऽपि मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नका इब मायिमिथ्यारष्टयुपपन्नका इत्युपमानतो मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकशब्देनोच्यन्ते, ये त्वमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नकास्तेऽनुत्तरसुराः, तेऽपि द्विविधा-तद्यथा-अनन्तरोपपन्नकाः परम्परोपपन्नकाश्च, अनन्तरम्-अव्यवधानेनोपपन्नकाः अनन्तरो ~611~ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम [ ४२६] प्रज्ञापनायाः मल ५० वृत्ती. ॥२०४॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, मूलं [१९६] उद्देशक: [१], ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. पपन्नकाः उपपत्तिप्रथमसमयवर्तिन इत्यर्थः, परम्परया उपपन्नकाः परम्परोपपन्नकाः, उत्पत्त्यनन्तरं द्वित्रादिसमयवर्त्तिन इत्यर्थः, तत्रानन्तरोपपन्नका न जानन्ति न पश्यन्ति तेषां एकसामयिकोपयोगासम्भवादपर्यासित्वाच परम्परोपपन्नका अपि द्विधा - पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च तत्रापर्यासा न जानन्ति न पश्यन्त्यपर्याप्तत्येन सम्यगुपयोगासम्भवात् पर्याप्ता अपि द्विधा - उपयुक्ताः अनुपयुक्ताश्च, तत्रानुपयुक्ता न जानन्ति न पश्यन्ति, सामान्यरूपतया विशेपरूपतया वा परिच्छेदस्य प्रणिधानमन्तरेण कर्त्तुमशक्यत्वात्, ये तूपयुक्तास्ते जानन्ति पश्यन्ति च कथमिति चेत् ?, उच्यते-दहावश्यके अवधिज्ञानविषयचिन्तायामिदमुक्तं "संखेज कम्मदवे लोगे घोवूणगं पलियं' अस्थायमर्थः - कर्मद्रव्याणि कर्मशरीरद्रव्याणि पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य सङ्ख्येयान् भागान् पश्यति, अनुत्तरमुराश्च सम्पूर्ण लोकनाडी पश्यन्ति, "सम्भिन्न लोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा" [पश्यन्त्यनुत्तरा देवाः संपूर्णा लोकनाडीं ] इति वचनात्, ततस्ते उपयुक्ता जानन्ति पश्यन्ति चावधिज्ञानेन तान्निर्जरापुद्गलानिति, आहारयन्तीति च सर्वत्रापि लोमाहारेणेति प्रतिपत्तव्यं । इन्द्रियाधिकारादयमपि प्रश्नः - Eucation Internation अहायं पेहमाणे मणूसे अदायं पेहति अत्ताणं पेहर पलिभागं पेहति १, गो० ! अद्दायं पेइति नो अप्पाणं पेहति पलिभागं पेहति, एवं एतेणं अभिलावेणं असं मणि दुद्धं पाणं तेलं फाणियं वसं (सूत्रं १९७ ) 'अदायं पेहमाणे' इत्यादि, 'अहाय'मिति आदर्श 'पेहमाणे' इति प्रेक्षमाणो मनुष्यः किमादर्श प्रेक्षते आहोश्विदा For Parts Only ~612~ १५ इन्द्रियपदे | उद्देशः १ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९७] - दीप अनुक्रम [४२७] त्मानं १, अत्रात्मशब्देन शरीरमभिगृह्यते, उत 'पलिभाग'मिति प्रतिभागं प्रतिविम्ब ?, भगवानाह-आदर्श तावत प्रेक्षत एव, तस्य स्फुटरूपस्य यथावस्थिततया तेनोपलम्भात् , आत्मानं-आत्मशरीरं पुनर्न पश्यति, तस्य तत्राभावात् , खशरीरं हि स्वात्मनि व्यवस्थितं नादर्श ततः कथमात्मशरीरं च तत्र पश्येदिति ?, प्रतिभागं-खशरीरस्य प्रतिबिम्ब पश्यति, अथ किमात्मकं प्रतिबिम्ब ?, उच्यते, छायापुद्गलात्मकं, तथाहि-सर्वमैन्द्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचयधर्मक रश्मिवच, रश्मय इति छायापुद्गलाः, व्यवहियन्ते च छायापुद्गलाः प्रत्यक्षत एव सिद्धाः, सर्वस्यापि स्थूलवस्तुनः छाया, अध्यक्षतः प्रतिप्राणि प्रतीतेः, अन्यच्च यदि स्थूलवस्तु व्यवहिततया दूरस्थिततया वा नादर्शादिश्ववगाढरश्मिर्भवति ततो न तत्र तदृश्यते तस्मादवसीयते सन्ति छायापुद्गला इति, ते च छायापुद्गलास्तत्तत्सामग्रीवशाद्विचित्रपरिणमनखभावास्तथाहि-ते छायापुद्गला दिवा वस्तुन्यभाखरे प्रतिगताः सन्तः खसंबंधिद्रव्याकारमाविनाणाः श्यामरू-1 पतया परिणमन्ते निशि तु कृष्णाभाः, एतच प्रसरति दिवसे सूर्यकरनिकरे निशि तु चन्द्रोद्योते प्रत्यक्षत एव सिद्धं, त एव छायापरमाणवः आदर्शादिभाखरद्रव्यप्रतिगताः सन्तः स्वसंबंधिद्रव्याकारमादधानाः यारा वर्णः स्वसम्बन्धिनि द्रव्ये कृष्णो नीलः शितः पीतो वा तदाभाः परिणमन्ते, एतदप्यादर्शादिष्वध्यक्षतः सिद्ध, ततोऽधिकृतसूत्रेऽपि ये मनुसध्यस्य छायापरमाणव आदर्शमुपसंक्रम्य स्खदेहवर्णतया खदेहाकारतया च परिणमन्ते तेषां तत्रोपलब्धिर्न शरीरस्य, ते च प्रतिविम्वशब्दा वाच्या अत उक्त-न शरीरं पश्यति किन्तु प्रतिभागमिति, नैवैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, यत | ~613~ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मलय० वृत्ती. प्रत सूत्रांक [१९७]] a ccerse उक्तमागमे-सामा उ दिया छाया अभासुरगता निसिं तु कालाभा।सा चेव भासुरगया सदेहवण्णा मुणेयवा ॥१॥ १५ इन्द्रिजे आदरिसस्सन्तो देहावयवा हवंति संकेता। तेसिं तत्थुवलंभो पगासजोगा न इयरेसिं ॥२॥" मूलटीकाकारोऽ-18 यपदे - प्याह-“यस्मात् सर्वमेव हि ऐन्द्रियकं स्थूलं द्रव्यं चयापचयधर्मिकं रश्मिवच्च भवति, यतश्चादर्शादिषु छाया स्थू- उद्देशः१ लस्य दृश्यते अवगाढरश्मिनः ततः स्थूलद्रव्यस्य कस्यचिद्दर्शनं भवति, न चान्तरितं दृश्यते किञ्चित् अतिदूरस्थं वा अतः पलिभार्ग' प्रतिभागं 'पेहति' पश्यतीति । एवमसिमण्यादिविषयाण्यपि षट् सूत्राणि भावनीयानि, सूत्रपाठोऽप्येवम्"असि देहमाणे मणूसे किं असिं देहद अत्ताणं देहइ पलिभागं देहइ ?" इत्यादि, गोयमा ! असिं देहइ नो अत्ताणं देहद पलिभागं देहइ" इत्यादि। इह निर्जरापुद्गलाः छद्मस्थानामिन्द्रियविषये न भवन्ति तेषामतीन्द्रियत्यादित्युक्तमतोउतीन्द्रियप्रस्तावादिदमप्यतीन्द्रियविषयं प्रश्नमाहकंबलसाडे णं भंते ! आवेढिवपरिवेढिते समाणे जावतियं उवासंतरं फुसित्ता गं चिद्वति विरल्लिएवि समाणे तावइयं चेव उवासंतरे फूसित्ता पं चिट्ठति , हता गो०! कंबलसाडए णं आवेढियपरिवेढिते समाणे जावतियं तं चेव । धूणाणं भंते ! उहुं ऊसिया समाणी जावइयं खेत्तं ओगाहइचा णं चिट्ठति, तिरियपिअ णं आयता समाणी ताबइयं चेव खेतं ओगाहइ- ॥३०॥ १ श्यामा तु दिवा छाया अभाखरगता निशि तु कालाभा । सैव भाखरगता वदेहवर्णा ज्ञातव्या ॥१॥ ये आदर्शस्त्रान्तर्देशावयवा भवन्ति संक्रान्ताः । तेषां तत्रोपळम्भः प्रकाशयोगात् नेतरेषां ॥२॥ । दीप अनुक्रम [४२७] Beatheesec ~614 ~ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] गाथा: चाणं चिट्ठति तिरियंपिणं आयता समाणी तावइयं चेव खे ओगाहित्ता चिट्ठति, हता गो०! धूणा णं उर्ल्ड ऊसिया तं चेव चिट्ठति । आगासथिग्गले णं भंते ! किंणा फुडे कइहिं वा कारहिं फुडे-किं धम्मस्थिकारणं फुडे धम्मस्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मस्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, एवं अधम्मत्थिकारणं आगासस्थिकारणं, एएणं भेदेणं जाव पुढविकाएक फुडे जाव तसकाएणं अद्धासमएणं फुडे, मो० धम्मत्थिकाएक फुडे नो धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मस्थिकायस्स पदेसेहि फुडे, एवं अधम्मत्थिकारणवि, नो आगासस्थिकाएणं फुडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आगासस्थिकायस्स पदेसेहिं जाव वणस्सइकाएक फुडे तसकाएक सिय फुडे अद्धासमएणं देसे फूडे देसे णो फूडे । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे किंणा फुडे काहिं वा कारहिं फुडे, किं धम्मस्थिकाएणं जाव आगासस्थिकारणं फुडे !, गो०! णो धम्मस्थिकाएक फुडे धम्मस्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मस्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, एवं अधम्मस्थिकायस्सवि आगासस्थिकायस्सपि, पुढविकाइएणं फुडे, जाव वणस्सइकाएणं फुडे, तसकाइएणं फुडे सिय णो फुडे, अद्धासमएणं फुडे, एवं लवणसमुद्दे धायतिसंडे दीवे कालोए समुद्दे अम्भितरघुक्खरद्धे, बाहिरपुक्खरद्धे एवं चेव, णवरं अद्धासमएणं नो फुडे, एवं जाव सयंभूरमणसमुद्दे, एसा परिवाडी इमाहिं गाहाहिं अणुगंतवा तं०-"जंबुद्दीवे लवणे धायति कालोय पुषखरे वरुणो । खीरघयखोयणंदिय अरुणवरे कुंडले रुयते ॥१॥ आभरणवत्थगंधे उप्पलतिलए य पउमनिहिरयणे । वासहरदहनईओ विजया वक्खारकप्पिदा ॥२॥ कुरु मंदर आवासा कूडा नक्षत्तचंदसूरा य । देवे णागे जक्खे भूए य सयंभुरमणे य ।।३॥ एवं जहा बाहिरपुक्खरद्धे भणिए तहा जाव सयंभूरमणसमुदे जाव अद्धासमएणं नो फूठे । लोगे गं भंते ! किंणा फुडे कहहि वा दीप अनुक्रम [४२८-४३२] ~615~ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ----- ---- मूलं [१९८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. काएहिं जहा आगासथिग्गले । अलोएणं भंते ! किंणा फुडे कतिहिं वा कारहिं पुच्छा, गो! नो धम्मस्थिकाएक फुडे जाव नो आगासत्थिकारणं फुडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे, जाव नो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदयदेसे अगुरुलहुए अणतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासअर्णतभागूणे ॥ (सूत्र १९८)॥१६१ ॥ इंदियपयस्स पढमो उद्देसो ।। १५ इन्द्रियपदे | उद्देशः१ [१९८] ॥३०६॥ गाथा: दीप अनुक्रम [४२८-४३२] 'कंबलसाडए णं भंते !' इत्यादि, कम्बलशाटकः-कम्बलरूपः शाटकः कम्बलशाटक इति व्युत्पत्तेः आवेष्टितपरिवेष्टितः-गाढतरं संवेलितः, एवंभूतः सन् यायदवकाशान्तरं, यावत आकाशप्रदेशानित्यर्थः, 'स्पृष्ट्वा' अवगाय तिष्ठति 'विरलिएवी'ति विरलितोऽपि विरलीकृतोऽपि तावदेवावकाशान्तरं-तावत एवाकाशप्रदेशान् स्पृष्ट्वा तिष्ठति ?, भगवानाह-हंता गोयमा!'इत्यादि, हंतेति प्रत्यवधारणं, एवमेतत् गौतम ! यत् 'कम्बलसाडए णं' इत्यादि, तदेवं एषोऽत्र सोपार्थः-यावत एवाफाशप्रदेशान् संवेलितः सनू कम्बलशाटकोऽवगाबावतिष्ठते तावत एवाकाशप्रदेशान् ततोऽप्यवगाद्यावतिष्ठते, केवलं घनप्रतरमात्रकृतो विशेषः, प्रदेशसङ्ख्या तूभयत्रापि तुल्या, उक्तश्चायमर्थोऽन्यत्रापि नेत्रपटमधिकृत्य-"जह खलु महप्पमाणो नेत्तपडो कोडिओ म(न)हग्गमि । तंमिवि तावइए चिय फुसइ परसे, (विरलिएवि)” [यथैव महाप्रमाणो नेत्रपटः संकुचितो नभोभागे । तावत एव स्पृशति विततोऽपि प्रदेशान् ~616~ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] गाथा: तदीयान् ॥१॥] इति । एवं स्थूणासूत्रमपि भावनीयं । 'आगासथिग्गले णे भंते !' इत्यादि, आकाशथिग्गलंलोकः, स हि महतो बहिराकाशस्य विततपटस्थ थिग्गलमिव प्रतिभाति, भदन्त ! केन 'स्पृष्टो' व्याप्तः, एतत्सामस्थेन । पृष्टमेतदेव विशेषतः प्रश्चयति-'कतिभिः' कियत्सङ्ख्याकः कार्यः स्पृष्टः, पाशब्द: पक्षान्तरद्योतनार्थः, प्रकारान्तर च सामान्याद्विशेषतः, तान् कायान् प्रत्येकं पृच्छति-किं धम्मत्थिकाएणं फुडे !' इत्यादि सुगम, भगवानाह-गौतम ! धर्मास्तिकायेन स्पृष्टः, धर्मास्तिकायस्य सर्वात्मना तत्रावगाढत्वात् , अत एव नो धर्मास्तिकायस्य देशेन स्पृष्टो, यो हि येन सर्वात्मना व्याप्तो नासौ तस्यैव देशेन व्याप्तो भवति, विरोधात् , प्रदेशैस्तु व्याप्तः, सर्वेषामपि धर्मास्तिकायप्रदेशानां तत्रावगाढत्वात् , एवमधर्मास्तिकायविषयेऽपि निर्वचनं वाच्यं, तथा नो आकाशास्तिकायेन सकलेन द्रव्येण स्पृष्टः, आकाशास्तिकायदेशमात्रत्वाल्लोकस्य, किन्तु देशेन व्याप्तः, प्रदेशैश्च पृथिव्यादयोऽपि सूक्ष्माः सकललोकापन्ना वर्तन्ते ततस्तैरपि सर्वात्मना व्याप्तः, 'तसकाएक सिय फुडे' इति, यदा केवली समुद्घातं गतः सन् चतुर्थे समये वर्तते तदा तेन खप्रदेशैः सकललोकपूरणात् त्रसकायेन स्पृष्टः, केवलिनखसकायत्वात् , शेषकालं तु न स्पृष्टः, सर्वत्र त्रसकायानामभाषात् , एवं जम्बूद्वीपादिविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं बहिःपुष्करार्द्धचिन्तायां 'अद्धासमएण न फुडे' इति, अद्धासमयो बर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वी न बहिः, एतच धर्मसहणिटीकायां भावितं, ततो बहिद्वीपसमुद्राणामद्धासमयस्पर्शनप्रतिषेधः, 'जंबुद्दीवे लवणे' गाहा, सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरवती जम्बूद्वीपस्तत्परिक्षेपी दीप अनुक्रम [४२८-४३२] ~617~ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. [१९८] ॥३०७॥ गाथा: लवणसमुद्रस्तदनन्तरं धातकीखण्डाभिधानो द्वीपस्ततः कालोदः समुद्रः तदनन्तरं पुष्करबरो द्वीपः, अत ऊज़ द्वीप- १५इन्द्रिसदशनामानः समुद्राः, ततः पुष्करवरसमुद्रः तदनन्तरं वरुणवरो द्वीपो वरुणवरः समुद्रः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदःयपद समुद्रः, घृतबरो द्वीपो घृतोदः समुद्रः, इक्षुवरो द्वीपो इक्षुवरः समुद्रः, नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः समुद्रः, एतेऽष्टा उद्देशः १ वपि च समुद्रा एकप्रत्यवताराः, एकैकरूपा इति भावः, अत ऊर्व द्वीपाः समुद्राश्च त्रिप्रत्यवताराः, तद्यथा-अरुण इति अरुणोऽरुणवरो अरुणवरावभासः कुण्डलः कुण्डलबरः कुण्डलवरावभासः रुचको रुचकवरो रुचकवरावभास | इत्यादि, एष चात्र क्रमः-नन्दीश्वरसमुद्रानन्तरं अरुणो द्वीपोऽरुणः समुद्रः, ततोऽरुणवरो द्वीपोऽरुणवरः समुद्र इत्यादि, कियन्तः खलु नामग्राहं द्वीपसमुद्राः वक्तुं शक्यन्ते? ततस्तन्नामसङ्ग्रहमाह-'आभरणवत्थे'त्यादिगाथाद्वयं, यानि कानिचिदाभरणनामानि-हारार्द्धहाररत्नावलिकनकावलिप्रभृतीनि यानि च वस्त्रनामानि-चीनांशुकप्रभृतीनि यानि च गन्धनामानि-कोठपुटादीनि यानि चोत्पलनामानि-जलरुहचन्द्रोद्योतप्रमुखानि यानि च तिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि यानि च पद्मनामानि-शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथिवीनामानि-पृथिवीरत्नशर्करावालुकेत्यादीनि यानि च नवानां निधीनां चतुर्दशानां चक्रवर्तिरजानां चुल्लहिमवदादिकानां वर्षधरपर्वतादीनां पनादीनां इदानां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां कच्छादीनां विजयानां माल्यवदादीनां वक्षस्कारपर्वतानां सौधर्मादीनां कल्पानां शक्रा-३०॥ दीनामिन्द्राणां देवकुरुउत्तरकुरुमन्दराणामावासानां-शक्रादिसम्बन्धिनां मेरुप्रत्यासन्नादीनां कूटानां क्षुल्लहिमवदा दीप अनुक्रम [४२८-४३२] 394 ~618~ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९८] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ४२८ -४३२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१५], ---------- उद्देशक: [3], दारं [-1, मूलं [१९८ ] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः दिसम्बन्धिनां नक्षत्राणां कृत्तिकादीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानि तद्यथा-- हारो द्वीपो हारः समुद्रः हारवरो द्वीपो हारवरः समुद्रः हारवरावभासो द्वीपो हारवरावभासः समुद्र इत्यादिना प्रकारेण त्रिप्रत्यवतारास्तावद् वक्तव्याः यावत् सूर्यो द्वीपः सूर्यस्समुद्रः सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरस्समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभासः समुद्रः, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णो – “अरुणाई दीवसमुद्दा तिपडोयारा यावत् सूर्यवरावभासः समुद्रः " ततः सूर्यवरावभासपरिक्षेपी देवो द्वीपस्ततो देवः समुद्रः, तदनन्तरं नागो द्वीपो नागः समुद्रः, ततो यक्षो द्वीपो यक्षः समुद्रः, ततो भूतो द्वीपो भूतः समुद्रः, स्वयम्भूरमणो द्वीपः स्वयम्भूरमणः समुद्रः, एते पञ्च देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्राः एकरूपाः, न पुनरेषां प्रत्यवतारः, उक्तं च जीवाभिगम चूर्णो- 'एते पञ्च द्वीपाः पञ्च समुद्रा एकप्रकारा' इति, जीवाभिगमसूत्रेऽप्युक्तम् - "देवे नागे जक्खे भूए ४ सयंभूरमणे य एक्केको चैव भाणियचो, तिपडोयारं नत्थित्ति" इति । पूर्वमाकाशथिग्गलशब्देन लोकः पृष्टोऽधुना लोकशब्देनैव तं पिपृच्छिपुराह— 'लोए णं भंते! किंणा फुडे' इत्यादि, पाठसिद्धं, अलोकसूत्रमपि पाठसिद्धं, नवरं 'एगे अजीवदधदेसे' इति अलोक एकोऽजीवद्रव्यदेशः, आकाशास्तिकायस्य देश इत्यर्थः, परिपूर्णस्त्वाकाशास्तिकायो न भवति, लोकाकाशेन हीनत्वात्, अत एवागुरुलघुकोऽमूर्त्तत्वात्, अनन्तैरगुरुलघुकगुणैः संयुक्तः, प्रतिप्रदेशं खपर| मेदभिन्नानामनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां भावात् किंप्रमाणः सोऽलोक इति चेत्, अत आह— सर्वाकाशमनन्त Ja Eucation International For Parts Only ~619~ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९९] + गाथा: दीप अनुक्रम [४३३ -४३५] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ३०८ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [-1, पदं [१५], --------- उद्देशकः [२], मूलं [१९९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भागोनं-लोकाकाशमात्र खण्डहीनं सकलाकाशप्रमाणं इति भावः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीका - यामिन्द्रियपदस्योद्देशकः प्रथमः समाप्तः ॥ १ ॥ व्याख्यातः प्रथमः उद्देशकः, सम्प्रति द्वितीय आरभ्यते - तत्रेदमादावर्थाधिकारसग्राहकं गाथाद्वयंइंदियवचय १ वित्तणा २ य समया भवे असंखेज्जा ३ । लद्धी ४ उवओगद्धं ५ अप्पाबहुए विसेसहिया ॥ १ ॥ ओगाहणा ६ अवाए ७ ईहा ८ तह वंजणोग्गहे ९-१० चेव । दबिंदिय ११ भाविंदिय १२ तीया वृद्धा पुरक्खडिया ॥ २ ॥ कतिविहे णं भंते! इंदियउवचए पं०, गो० ! पंचविहे इंदियउवचए पं० १, तं० - सोर्तिदिए उबचते चक्खिदिए उवचते घाणिदिए उवचते जिभिदिए उवचते फार्सिदिए उवचते । नेरइयाणं भंते! कतिविहे इंदिओवचए पं० १, गो० ! पंचविहे इंदिओवच पं० ० – सोसिंदिओवचए जाब फासिंदिओवचए, एवं जाव वैमाणियाणं जस्स जइ इंदिया तस्स ततिविहो चैव इंदिओवचओ भाणियवो १ । कतिविहा गं भंते! इंदियनिवत्तणा पं० १, गो० पंचविहा इंदियनिवत्तणा, पं० ०-सोर्तिदियनित्तणा जाव फासिंदियानिवत्तणा, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि २ । सोविंदयणिवत्ताणं भंते! कइसमइया, पं० १, गो० ! असंखिज्जइसमया अंतोमुहुत्तिया पं०, एवं जाव फासिंदियनिवत्तणा, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ३ । कदविद्या णं भंते! इंदियलद्वी पं० १, गो० ! पंचविहा इंदियलद्धी पं०, Education Intention अथ (१५) इन्द्रिय-पदे उद्देशक- (२) आरभ्यते •••ईन्द्रियउपचय आदि द्वादश-विषयस्य प्ररूपणा For Pasta Use Only ~ 620 ~ १५ इन्द्रि यपदे उद्देशः २ ॥२०८॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति पदं [१५], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] गाथा: serseaseseaeeeeeeo तं-सोतिदियलद्धी जाव फासिदियलद्धी, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं जस्स जब इंदिया अस्थि तस्स तावइया भाणियबा ४। कतिविहाणं भंते ! इंदिय उवओगद्धा पं०१, गो०! पंचविहा इंदियउवओगद्धा पं०, तं०-सोतिदियउबओगद्धा जाव फासिदियउवभोगद्धा, एवं नेरइयाणं जान बेमाणियाणं, णवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि । एतेसि णं भंते ! सोतिदियचक्खिदियघाणिदियजिम्भिदियफासिंदियाणं जहण्णयाए उवओगद्धाए उफोसियाए उवओगद्धाए जहनुकोसियाए उवओगद्धाए कयरेशहितो अप्पा वा०४१, गो०! सबत्थोवा चक्खिदियस्स जहणिया उवोगद्धा सोतिंदियस्स जहणिया उपोगद्धा विसेसाहिया पाणिदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसे० जिम्भिदियस्स जहणिया उपओगद्धा विसे० फासिदियरस जहणिया उवओगद्धा विसे० उक्कोसियाए उवओगवाए सबथोवा चविखदियस्स उकोसिया उवओगद्धा सोर्तिदियस्स उकोसिया उवओगद्धा विसे० घाणिदियस्स उको उव० विसे० जिम्भिदियस्स उको उनविसे फासिदियस्स उको० उव० विसे० जहण्याउकोसियाए उवओगद्धाए सवत्थोवा चक्खिदियस्त जहणिया उबोगद्धा सोर्तिदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया घाणिदियस्स जह० उव०विसे जिभिदियस्स ज उव०वि० फासिदियस्स जह उव०वि० फासिदियस्स जहणियाहिंतो उवओगद्धाहिंतो चक्खिदियस्स उकोसिया उवओगद्धा विसे० सोतिदियस्स उको० उव०वि० पाणिदियस्स उको उव०वि० जिभिदियस्स उक्को० उ. विसे० फासिंदियस्स उकोसिया उव० विसे०५ । कतिविहा णं भंते ! इंदियओगाहणा पं० १, गो ! पंचविहा इंदियओगाहणा पं०, त- सोतिदियोगाहणा जाव फासिंदियओगाहणा, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि ६ (सूत्रं १९९) SCCCCCCCC दीप अनुक्रम [४३३-४३५] FarPurwanaBNamunoonm ~621 ~ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति पदं [१५], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] यपदे प्रज्ञापनया मलयवृत्ती. ॥३०॥ गाथा: 'इंदियंउवचय'इत्यादि, प्रथमत इन्द्रियाणामुपचयो वक्तव्यः, उपचीयते-उपचयं नीयते' इन्द्रियमनेनेत्युपचय:- १५इन्द्रिइन्द्रियप्रायोग्यपुद्गलसङ्ग्रहणसम्पत् , इन्द्रियपर्याप्तिरित्यर्थः, तदनन्तरं निवर्त्तना वक्तव्या, निर्वर्तना नाम बाह्याभ्य-15 न्तररूपा या निवृत्तिः-आकारमात्रस्य निष्पादनं, तदनन्तरं सा निर्वर्त्तना कतिसमया भवतीति प्रश्नेऽसङ्ख्येयाः उद्देशः २ समयास्तस्या भवेयुरिति निर्वचनं वाच्यं, तत इन्द्रियाणां लब्धिः-तदावरणकर्मक्षयोपशमरूपा वक्तव्या, तत उपयोगाद्धा, तदनन्तरमल्पबहुत्वे चिन्त्यमाने पूर्वस्याः पूर्वस्याः उत्तरोत्तरा उपयोगाद्धा विशेषाधिका वक्तव्या, 'ओगाहणा' इति अवग्रहणं-परिच्छेदो वक्तव्यः, स च परिच्छेदोऽपायादिभेदादनेकधेति तदनन्तरमपायो वक्तव्यः, तत ईहा, तदनन्तरं व्यञ्जनायग्रहः, चशब्दस्यानुक्तार्थसमुचायकत्वादावग्रहश्च वक्तव्यः, तदनन्तरं द्रव्येन्द्रियमावेन्द्रियसूत्रं, ततोऽतीतवद्धपुरस्कृतानि द्रव्येन्द्रियाणि तदनन्तरंभावेन्द्रियाणि च चिन्तनीयानि । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश'इति न्यायात् प्रथमत इन्द्रियोपचयसूत्रमाह-'कइविहे णं भंते ! इंदियउवचए पण्णत्ते' इत्यादि सुगम,नवरं 'जस्स जहदिया इत्यादि, यस्य नैरयिकादेर्यति-यावन्ति इंद्रियाणि सम्भवन्ति तस्य ततिविधः-तावत्प्रकार इन्द्रियोपचयो वक्तव्यः, तत्र नैरयिकादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां पञ्चविधः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीनामेकविधो द्वीन्द्रियाणां द्विविधः त्रीन्द्रियाणां त्रिवि-| घश्चतुरिन्द्रियाणां चतुर्विधः, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यन्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां पञ्चविधः, क्रमवं-स्पर्शनरसन-18 घाणचक्षुःश्रोत्राणीति, एवमिन्द्रियनिर्व-नादिसूत्राण्यपि वेदितव्यानि, प्रायः सुगमत्वात् , नवरं 'इंदियउचओगद्धा' दीप अनुक्रम [४३३ -४३५] ~622~ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति पदं [१५], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] गाथा: ६ इति यावन्तं कालमिन्द्रियरुपयुक्त आस्ते तावत्काल इन्द्रियोपयोगाद्धा । 'कतिविहा णं भंते ! ओगाहणा पण्णत्ता' | इति कतिविध-कतिप्रकारं भदन्त ! इन्द्रियैरवग्रहण-परिच्छेदः प्रज्ञप्तः। एतत्सामान्यतः पृष्टं, सामान्यं च विशेपनिष्ठमतोऽपायादिविशेषविषयाणि सूत्राण्याह कतिविधे णं भंते ! इंदियअवाए पं०१, गो०! पंचविधे इंदियअवाए पं०, तं०-सोतिदियअवाए जाव फार्सिदियअवाए, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि । कतिविहा णं भंते ! ईहा पं०१, गो! पंचविहा इहा पं०,०-सोतिदियईहा जाव फासिंदियईहा, एवं जाव वेमाणियाणं, गवरं जस्स जइ इंदिया ८ । कतिविधे मंते ! उग्गहे पं०१, गो०! दुविहे उग्गहे पं०, तं०-अत्थोग्गहे ये बंजणोग्गहे य । वंजणोग्गहे पं भंते! कतिविधे पं०१, गो०1 चउविधे पं०, ०–सोतिदियवंजणोग्गहे पाणिदियवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे फासिंदिय० । अत्योग्गहे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! छविहे पं०, तं०-सोतिदियअत्थोवग्गहे चक्खिदिया जिभिदियअ० फासिंदियअ० नोइंदियअत्थो । नेरइयाणं भंते ! कतिविहे उम्गहे पण्णत्ते ?, गो०! दुविहे पं०, ०-अत्थोग्गहे य बंजगोग्गहे य, एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविधे उग्गहे, पं०१, गो०! दुविधे उग्गहे पं०-अत्थोग्गहे य वंजणोवग्गहे या पुढविकाइयाणं भंते! वंजणोग्गहे कतिविधे पं०१ गो० एगे फासिंदियबंजणोग्गहे पं० । पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविधे अत्थोग्गहे पण्णचे ?, गो! एगे फासिंदियअयोग्गहे पं०, एवं जाव दीप अनुक्रम [४३३-४३५] SARERatininemarana ईन्द्रियस्य अपाय एवं अवग्रहस्य प्ररुपणा ~623~ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२००] प्रज्ञापनायाःमलय० वृत्ती. ॥३१॥ दीप अनुक्रम [४३६] वणस्सइकाइयाणं, एवं बेइंदियाणवि, नवरं बेइंदियाणं वंजणोग्गहे दुविहे पं० अत्थोग्गहे दुविहे पं०, एवं तेइंदियचरिदियाणवि, णवरं इंदियपरिवुही कायदा, चउरिदियाणं वंजणोग्गहे तिविधे पं० अत्थोग्गहे चउविधे पं०, सेसाणं जहा यपदे नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ९-१० (मूत्रं २००) उद्देशः२ 'कतिविहे णं भंते ! इंदियअवाए पं०' इत्यादि, तत्रावग्रहज्ञानेनावगृहीतस्य ईहाज्ञानेन ईहितस्वार्थस्य निर्णयरूपो। योऽध्यवसायः सोऽपायः, शाङ्खएवायं शाई एव वायं इत्यादिरूपोऽवधारणात्मको निर्णयोऽवाय इति भावः।ईहा इति, ईह चेष्टायां' ईहनमीहा, सद्भूतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-अवग्रहादुत्तरकालमवायात् पूर्व सद्भतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखःप्रायोऽत्र मधुरत्वादयः शङ्खादिशब्दधा दृश्यन्ते न-18 कर्कशनिष्ठुरतादयः शादिशब्दधा इत्येवंरूपो मतिविशेष ईहा, आह च भाष्यकृत-"भूयाभूयविसेसादाणचायाभिमुहमीहा" । [भूताभूतविशेषादानत्यागाभिमुख्यमीहा] 'दुविहे ओग्गहे पं०,०-बंजणोग्गहे य अत्थोग्गहे य'इति, मवग्रहो द्विविधः-अर्थावग्रहो व्यअनावग्रहश्च, तत्र अवग्रहणमवग्रहः अर्थस्वावग्रहोऽर्थावग्रहः, अनिर्देश्यसामान्यरू-18 पाद्यर्थग्रहणमिति भावः, आह च नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत्-"सामन्नस्स रूवाइविसेसणरहियस्स अनिद्देस्सस्समवग्गहणं ॥३१०॥ अवग्गह" इति, तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं, तच उपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्रव्याणां |च यः परस्परं सम्बन्धः, सम्बन्धे हि सति सोऽर्थः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यजितुं शक्यते नान्यथा ततः सम्बन्धो व्यजनं, 292909200000 ~624 ~ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], ---------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --- ---------- मूलं [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२००] दीप अनुक्रम [४३६] आह च भाष्यकृत्-"बंजिज्जइ जेणत्यो घडोब दीवेण वंजणं तं च । उवगरणिदियसदाइपरिणयद्दवसंबधो ॥१॥" ISI[व्यज्यते येनार्थो घट इय दीपेन व्यअनं, तच्चोपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धः ॥१॥] व्यजनेन-सम्बन्धेISनावग्रहणं-सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यअनावग्रहः, अथवा व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि 'कृद्धहुल'मिति वचनात् कर्मण्यनद , व्यअनानां-शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्प्राप्तानामबग्रहः-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, आह-प्रथमं व्यजनावग्रहो भवति ततोऽर्थावग्रहस्ततः कस्मादिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्तः ?, उच्यते, स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात् , तथाहि-अर्थावग्रहः स्पष्टरूपतया सर्वैरपि जन्तुभिः । संवेद्यते, शीघ्रतरगमनादौ सकृत्सत्त्वरमुपलभ्यते, किश्चिद् दृष्टं न परिभावितं सम्यगिति व्यवहारदर्शनात् , अपिचका अर्थावग्रहः सन्द्रियमनोभावी व्यञ्जनावग्रहस्तु नेति प्रथममर्थावग्रह उक्तः । सम्प्रति व्यअनावग्रहाय अर्थावग्रह इति क्रममाश्रित्य प्रथमं व्यअनावग्रहखरूपं प्रतिपिपादयिषुः प्रश्नं कारयति शिष्यं-'जणोग्गहे गं भंते ।। कविहे पं.' इत्यादि, इह व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्व्याणां च परस्परं सम्बन्ध इत्युक्तं प्राक्, ततचतुर्णामेव श्रोत्रादीनामिन्द्रियाणा व्यञ्जनावग्रहो न नयनमनसोः, तयोरप्राप्यकारित्वात् , सा चाप्राप्यकारिता नन्धध्ययनटीकायां प्रदर्शितेति नेह प्रदर्श्यते, अर्थाचप्रहः षविधः, तद्यथा-'सोइंदियअत्थुग्गहे' इत्यादि, श्रोत्रेन्द्रियेणा-11 विग्रहो न्यानावग्रहोत्तरकालमेकसामयिकमनिर्देश्य सामान्यमात्रार्थग्रहणं श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः, एवं प्राणजिता-14 ~625~ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२००] स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहेष्यपि वाच्यं, चक्षुर्मनसोस्तु व्यञ्जनावग्रहो न भवति, ततस्तयोः प्रथममेव स्वरूपद्रव्यगुणक्रिया-१५ इन्द्रिप्रज्ञापनाया: मल कल्पनातीतमनिर्देश्यसामान्यमात्रखरूपार्थावग्रहणमर्थावग्रहोऽवसेयः, 'नोइंदियअत्थावग्गहो' इति नोइन्द्रियं-मनः, यपदे २० वृत्ती. तथ द्विधा-द्रव्यरूपं भावरूपं च, तत्र मनःपर्याप्सिनामकमोदयतो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन 8 उद्देशः २ परिणमनं तद् द्रव्यरूपं मनः, तथा चाह नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत्-'मणपजत्तिनामकम्मोदयओ जोग्गे मणोदचे घिनुं ॥३१॥ मणतेण परिणामिया दवा दधमणो भन्नई"इति, तथा द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जीवस्य यो मनःपरिणामः स भावमनः, तथा चाह नन्धध्ययनचूर्णिकदेव-"जीवो पुण मणपरिणामकिरियावंतो भावमणो, किं भणियं होइ ?-मणद-18 घालवणो जीवस्स मणवावारो भावमणो भण्णइ" इति, तत्रेह भावमनसा प्रयोजनं, तद्ग्रहणे ह्यवश्यं द्रव्यमनसो-| पि ग्रहणं भवति, द्रव्यमनोऽन्तरेण भावमनसोऽसम्भवात् , भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति यथा भवस्थकेवलिनां, तत उक्तं भावमनसा प्रयोजनं, तत्र नोइंद्रियेण-भावमनसाऽर्थावग्रहो-द्रव्येन्द्रियव्यापारनिरपेक्षघटाद्य र्थखरूपपरिभावनाभिमुखः प्रथममेकसामयिको रूपाधूर्खाकारादिविशेषचिन्ताविकलोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रचिन्तात्मिको बोधो नोइंद्रियार्थावग्रहः, अवग्रहग्रहणं चोपलक्षणं तेन नोइंद्रियार्थावग्रहस्य साक्षादितरयोस्तु (ईहापाययोः) 18 उपलक्षणत उपादानं, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरित्यदोषः । कतिविहा णं भंते ! इंदिया पं०?, गो० ! दुविहा पं०, तं०-दबिंदिया य भाबिंदिया य, कति णं भंते ! ददिदिया. 300 Saee0297020202os दीप अनुक्रम [४३६] ॥३१॥ RELIGunintentATHREE अथ ईन्द्रियस्य द्रव्य एवं भाव-रूप भेद-प्रभेदा: ~626~ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-1, --- ---------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [४३७] पं०१, गो.! अह दबिंदिया पं०, तं०-दो सोत्ता दो नेता दो घाणा जीहा फासे । नेरइयाणं भंते ! कति दविंदिया पं०१, गो.! अट्ठ एते चेव, एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणचि । पुढविकाइयाणं भंते ! कति दबिंदिया, पं०१, गो.1 एगे फासिदिए पं०, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । बेइंदियाणं भंते ! कति दबिंदिया पं०१, गो०! दो दबिंदिया पं० त०-फासिदिए य जिभिदिए य, तेइंदियाणं पुच्छा, गो! चत्तारिदबिंदिया पं०, तं०-दो घाणा जीहा फासे, चरिंदियाणे पुच्छा, गो०! छ दबिंदिया पं० त०-दो णेत्ता दो घाणा जीहा फासे, सेसाणं जहा नेरइयाणं जाब वेमाणियाणं । एगमेगस्स पं भंते ! नेरइयस्स केवइया दबिंदिया अतीता ?, गो.! अणंता, केवइया बद्धेल्लगा !, गो. ? अट्ठ, केवड्या पुरेक्खडा, गो०! अट्ट वा सोल वा सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेसा वा अणंता वा । एगमेगस्स गं भंते ! असुरकुमारस्स केवइया दविंदिया अतीता?, गो! अणंता, केवइया बद्धेल्लगा, अह, केवड्या पुरेक्खडा, अट्ट वा नव वा सत्तरस वा संखेजा वा असंखेजा वा अर्णता वा, एवं जाब थणियकुमाराणं ताव भाणियई । एवं पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइकाइयावि, नवर केवइया बद्धेल्लगत्ति पुच्छाए उत्तरं एके फासिदियदविदिए, एवं तेउकाइयवाउकाइयस्सवि, नवरं पुरेक्खडा नव वा दस वा, एवं बेईदियाणवि, गवरं बद्धेल्लगपुच्छाए दोष्णि, एवं तेइंदियस्सवि, णवरं बद्धेल्लगा चचारि, एवं चरिंदियस्सवि नवरं बद्धेल्लगा छ, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा बाणमंतरा जोइसियसोहम्मीसाणगदेवस्स जहा असुरकुमारस्स, नवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सत्थि अट्ठ वा नव वा संखेजा वा असंखेजा वा अणता वा, सर्णकुमारमाहिंदबंभलंतगसुकसहस्सारणयपाणयारणअशुयगेवेजगदेवस्स य delice SHARERIEatin Animal Hunmurary.om ~627~ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: INI प्रत सूत्रांक [२०१] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥३१॥ १५ इन्द्रियपदे उद्देशः २ eceircelo दीप अनुक्रम [४३७] R जहा नेरइयस्स, एगमेगस्स णं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवस्स केवइया दबिंदिया अतीता ?, गो० अणंता, केवड्या बद्धेल्लगा ?, अह, केवइया पुरेक्खडा ?, अट्ट वा सोलस वा चउदीसा वा संखेजा था, सबसिद्धगदेवस्स अतीता अणंता बद्धेल्लगा अढ पुरेक्खडा अट्ठ । नेरइयाणं भंते! केवइया दविंदिया अतीता, गो०! अणता, केवड्या बढेगा, गो० असंखेजा, फेवइया पुरेक्खडा, गो० अणंता, एवं जाव मेवेज्जगदेवाणं, नवरं मणसाणं बद्धेल्लगा सिय संखेज्जा सिय असंखेजा, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवाणं पुच्छा, गो०! अतीता अर्णता बद्धेल्लगा असंखेजा पुरेक्खडा असंखेज्जा, सबढसिद्धगदेवाणं पुच्छा, गो ! अतीता अर्णता, बदल्लगा संखेज्जा, पुरेक्खडा संखेजा। एगमेगस्स णं नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता ?, गो! अर्णता, केवइया बद्धेल्लगा, गो० ! अह, केवइया पुरेक्खडा, गो.! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । एगमेगस्सणं नेरइयस्स असुरकुमारते केवइया दविदिया अतीता, गो०! अणंता, केवइया बहेल्लगा, गो०! णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि अह वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं जाव थणियकुमारत्ति । एगमेगस्स ण नेरइयस्स पुढविकाइयचे फेवड्या दविदिया अतीता, गो! अणंता, केवड्या बद्धेल्लगा, गो०! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सइ नस्थि, जस्सस्थि एको वादो वा तिण्णि वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता चा, एवं जाव वणस्सइकाइयत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! नेरदयस्स बेइंदियत्ते केवइया दविदिया अतीता, गो०! अणंता, केवइया बद्धेल्लगा, गोपत्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो. कस्सइ eveeeeeeee ॥३१२।। ~628~ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] taeseseeररररर दीप अनुक्रम [४३७] अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि दो वा चत्वारि वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवं तेईदियनेवि, नवरं पुरेक्खडा चत्वारि अट्ट वा बारस वा संखेजा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं चउरिंदियत्तेवि, नवरं पुरेक्खडा छ वा बारस वा अट्ठारस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ते जहा असुरकुमारते मणसत्तेवि एवं चेब, नवरं केवइया पुरेक्खडा, अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, सोसि मणसवजाणं पुरेक्खडा मणूसने कस्सह अस्थि कस्सइ नत्थि एवं ण बुचति, चाणमंतरजोइसियसोहम्मग जाव मेवेजगदेवत्ते अतीता अणंता बग्रेल्लगा नत्थि, पुरेक्खडा कस्सई अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अत्थि अट्ट वा सोलस वा चउचीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एगमेगस्स णं मंते ! नेरइयस्स विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, णस्थि, केवड्या पुरेक्खडा, कस्सद अत्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि अट्ट वा सोलस वा, सबसिद्धगदेवते अतीता नस्थि, बद्धलगा णस्थि, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि जस्स अस्थि अह। एवं जहा नेरइयदंडओ नीतो तहा असुरकुमारेणवि नेतबो, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं, नवरं जस्स सट्टाणे जइ बद्धेल्लगा तस्स तइ भाणियबा। एगमेगस्सणं भंते ! मणूसस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो० अर्णता, केवइया बद्धेल्लगा, णस्थि, केवड्या पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्सत्थि अट्ठ वा सोलस वा चउचीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अर्णता वा, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ते, णवरं एगिदियविगलिंदिएम जस्स जइ पुरेक्खडा तस्स तचिया भाणियवा, एवमेगस्स गं भंते ! मासस्स मणूसत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो! अणंता, केवड्या बद्धेल्लगा, गो०! अट्ट, केवइया पुरेकक्खडा, ब्य ~629~ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १५ इन्द्रियपदे उद्देशः २ प्रज्ञापनाया मलय.वृत्ती . प्रत सूत्रांक [२०१] ॥३१॥ दीप अनुक्रम [४३७] कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि अट्ट वा सोलस वा उषीसा वा संखेचा वा असंखेजा वा अर्णता वा, वाणमंतरजोइसिया जाच गेवेज्जगदेवचे जहा नेरइयचे, एगमेगस्स णं भंते ! मासस्स विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दकिंदिया अतीता ?, गो! कस्सइ अस्थि कस्सह नस्थि, जस्स अत्थि अट्ट वा सोलस वा, केवड्या बबेल्लगार, नथि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा, एगमेगस्सणं भंते! मणूसस्स वा सबट्टसिदुगदेवत्ते केवतिता दहिंदिया अतीता', गो! कस्सइ अत्थि कस्सइ नस्थि, जस्सत्थि अह, केवइया बद्देल्लगा, णत्थि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्यि, जस्स अस्थि अट्ट, वाणमंतरजोतिसिए जहा नेरतिए । सोहम्मगदेवेवि जहा नेरइए, नवरं सोहम्मगदेवस्स विजयवेजयंतजयंतापराजियत्ते केवइया अतीता, गो! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्वि, जस्स अस्थि अट्ट, केवइया बद्धेल्लगा, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सति पत्थि, जस्स अस्थि अट्टचा सोलस था, सबसिद्धगदेवत्ते जहा नेरइयस्स, एवं जाव गेवेअगदेवस्स, सबढसिद्धग ताव णेत । एगमेगस्स णं भंते! विजयवेजयंतजयंतापराजितदेवस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो! अर्णता, केवइया बद्धेल्लगा, पत्थि, केवइया पुरेक्खडा, पत्थि, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ते मणसत्ते अतीता अर्णता, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा, वाणमंतरे जोइसियत्ते जहा नेरइयत्ते, सोहम्मगदेवतेऽतीता अर्णता, बद्धेल्लगा णस्थि, पुरेक्खडा कस्सह अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि अट्ट वा सोलस वा पउधीसा वा संखेजा बा, एवं जाव गेवेजगदेवते, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते अतीता कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि अह, केवतिया बद्धे 2202929892220291-2002 ॥३१३॥ ~630~ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [४३७] कछeseeeee ल्लगा?, अट्ठ, केवतिया पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि अह, एगमेगस्स णं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवस्स सबट्ठसिद्धगदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो०! णत्यि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्स अस्थि अह, एगमेगस्स णं भंते ! सबढसिद्धगदेवस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो०! अर्णता, केवइया बद्देल्लगा ?, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, णस्थि, एवं मणसवजं जाव गेवेजगदेवत्ते, नवरं मणूसते अतीता अणंता, केवइया पद्धेल्लगा, णस्थि, केवड्या पुरेक्खडा, अट्ठ, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवते अतीता कस्सति अस्थि कस्सति नस्थि, जस्स अस्थि अट्ठ, केवइया बद्दलगा, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, णस्थि, एगमेगस्स णं भंते! सबढसिद्धगदेवस्स सबसिद्धगदेवचे केवइया दबिंदिया अतीता, गो! गत्थि, केवइया बद्धेल्लगा, अह, केवड्या पुरेक्खडा, णस्थि । नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिता दर्विदिया अतीता, गो० अर्णता, केवइया बढ़ेलगा?, असंखेजा, केवड्या पुरेक्खडा?, अर्णता, नेरइयाणं भंते ! असुरकुमारत्ते केवइया दविदिया अतीता?, गो०! अर्णता, केवइया बद्धेल्लगा, पत्थि, केवड्या पुरेक्खडा, अणंता, एवं जाव गेवेजगदेवते, नेरइयाणं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता?, नस्थि, केवइया बद्धेल्लगा, पत्थि, केवइया पुरेक्खडा, असंखिज्जा, एवं सबद्दसिद्धगदेवतेवि, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सबसिद्धगदेवचे भाणिया, नवरं वणस्सइकाइयाणं विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते सबद्दसिद्धगदेवत्ते य पुरेक्खडा अर्णता, सन्वेसि मणुससबद्दसिद्धगवजाणं सहाणे बद्धेल्लगा असंखेजा, परहाणे बद्धेल्लगा णत्थि, वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगा अणंता, भणसाणं नेरइयत्ते अतीता अणंता ब लगा णस्थि . ~6314 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती. १५इन्द्रियपदे उद्देशः २ ॥३१४॥ दीप अनुक्रम [४३७] पुरेक्खडा अणंता, एवं जाव मेवेञ्जगदेवत्ते, नवरं सवाणे अतीता अर्णता बद्धेल्लगा सिय संखेजा सिय असंखेज्जा पुरेक्खडा अणंता, मण्साणं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, संखेजा, केवइया बद्धेल्लगा?, पत्थि, केवइया पुरेक्खडा, सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं सबढसिद्धगदेवचे अतीता णस्थि बद्धेल्लगा णत्थि पुरेक्खडा असंखेजां, एवं जाव गेजगदेवाणं, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो० अर्णता, केवड्या पद्धेल्लगा, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, णस्थि, एवं जाव जोइसियत्तेषि, णवरं मणूसत्ते अतीता अर्णता, केवइया बद्धलगा ?, णस्थि, पुरेक्खडा असंखिज्जा, एवं जाव गवेजगदेवत्ते सट्ठाणे अतीता असंखेजा, केवइया बद्धेल्लगा ?, असंखिज्जा, केवइया पुरेक्खडा, असंखेजा, सबट्ठसिद्धगदेवचे अतीता नस्थि बद्धेल्लगा नत्थि पुरेक्खडा असंखेजा, सबढसिद्धगदेवाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया दविंदिया अतीता?, गो० ! अणंता, केवतिया बद्धेल्लगा, नत्थि, केवतिया पुरेक्खडा, णस्थि, एवं मणूसवजं ताव गेवेजगदेवत्ते, मणुसत्ते अतीता अणंता, बद्धेल्लगा नत्थि, पुरेक्खडा संखेजा, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, संखेजा, केवइया बद्धल्लगा, पत्थि, केवड्या पुरेक्खडा, णत्थि, सबद्दसिद्धगदेवाणं भंते ! सबढसिद्धगदेवत्ते केवइया दविंदिया अतीता, णत्थि, केवड्या बद्धलगा, संखिज्जा, केवइया पुरेक्खडा, णत्थि, दार ११ । कति णं भंते ! भाबिंदिया, पं०१, गो! पंच भाविंदिया, पं०, तं०-सोतिदिए जाव फासिदिए, नेरइयाणं भंते ! कति भाबिंदिया पं०१, गो०। पंच भाविदिया पं०, तं०-सोर्तिदिते जाव फासिंदिते, एवं जस्स जइ इंदिया तस्स तइ भाणितबा, जाव बेमाणियाणं, एगमेगस्स Seeococotae ॥३१४॥ ~632 ~ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] Preeceaeserofer णं भंते ! नेरहयस्स केवइया भाविंदिया अतीता ?, गो०! अर्णता, केवइया बद्देल्लगा, पंच, केवइया पुरेक्खडा १, पंच वा दस वा एकारस वा संखेजा वा असंखेआ वा अर्णता वा, एवं असुरकुमारस्सवि, नवरं पुरेक्खडा पंच या छ वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणता वा, एवं जाव थणियकुमारस्सवि, एवं पुढविकाइयाउकाइयवणस्सइकाइयस्सवि, बेईदियतेइंदियचउरिदियस्सवि, तेउकाइयवाउकाइयस्सवि एवं चेव, नवरं पुरेक्खडा छ वा सत्त वा संखेजा वा असंखेजा वा अर्णता वा, पचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जाब ईसाणस्स जहा असुरकुमारस्स, नवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थिति भाणियवं, सर्णकुमार जाव गेवेञ्जगस्स जहा नेरइयस्स, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवस्स अतीता अणता, बद्धेल्लगा पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेजा वा, सबद्दसिद्धगदेवस्स अतीता अर्णता, बदेल्लगा पंच, केवइया पुरेक्खडा, पंच । नेरइयाणं भंते ! केवइया भाबिंदिया अतीता, मो०! अर्णता, केवइया बदल्लगा', असंखेजा, केवइया पुरेक्खडा, अर्णता, एवं जहा दर्विदिएसु पोहणं दंडतो भणितो तहा भाविदिएसुवि पोहत्तेणं दंडतो भाणियबो, नवरं वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगा अणंता, एगमेमस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया भाविंदिया अतीता?, गो०! अणंता, बद्धेल्लगा, पंच, पुरक्खडा कस्सवि अस्थि कस्सवि नत्थि, जस्स अस्थि पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं, नवरं बद्धेल्लगा नस्थि, पुढविकाइयत्ते जाव येइंदियने जहा दबिंदिया, तेइंदियत्ते तहेव नवरं पुरेक्खडा तिणि वा छ वा णव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं चरिंदियाचेवि, नवरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा eceedees दीप अनुक्रम [४३७] el62626 ~633~ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मज्ञापन प्रत सूत्रांक या:मलयवृत्ती. [२०१] ॥३१५॥ दीप अनुक्रम [४३७] Deseiseaseseseene अणंता वा, एवं एए चेच गमा चत्तारि जाणेतवा जे चेव दविदिएस, णवरं तइयगमे जाणितवा जस्स जइ इंदिया ते १५इन्द्रिपुरेक्खडेसु मुणेतबा, चउत्थगमे जहेच दविंदिया, जाव सबसिद्धगदेवाणं सबढसिद्धगदेवत्ते केवतिया भाविदिया अतीता', यपदे INउद्देशः २ नत्थि, बद्धेल्लगा ?, संखिजा, पुरेक्खडा, णत्थि ( सूत्र २०१) ॥ इंदियपयं समतं ॥ १६ ॥ 'कतिविहा णं भंते ! इंदिया पं०' इति द्रव्येन्द्रियसूत्रं सुगम, प्राग्भावितत्वात् , 'कइ णं भंते ! दबिंदिया पर इत्यादि, द्रव्येन्द्रियसङ्ख्याविषयं दण्डकसूत्रं च पाठसिद्धं, एकैकजीवविषयातीतबद्धपुरस्कृतद्रव्येन्द्रियचिन्तायां 'पुरक्खडा अट्ट वा सोल वा सत्तरस वा संखिज्जा वा असंखिज्जा वा अणंता वा' इति, यो नैरयिकोऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य मानुषभवसम्बन्धीन्यष्टी, यः पुनरनन्तरभवे तिर्यपञ्चेन्द्रियत्वमवाप्य तत उद्धृत्तो मनुष्येषु । गत्वा सेत्स्यति तस्याष्टौ तिर्यपञ्चेन्द्रियभवसम्बन्धीन्यष्टौ मनुष्यभवसम्बन्धीनीति षोडश, यः पुनरनन्तरं नरकादुत्तस्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियत्वमवाप्य तदनन्तरमेकं भवं पृथिवीकायादिको भूत्वा मनुष्येषु समागत्य सेत्स्यति तस्थाष्टी| तिर्यपञ्चेन्द्रियभवसम्बन्धीनि एकं पृथिवीकायादिभवसम्बन्धि अष्टौ च मनुष्यभवसम्बन्धीनीति सप्तदश सङ्ख्येयकालं संसारावस्थायिनः सोयानि असंङ्ख्येयं कालमसङ्ख्ययानि अनन्तं कालमनन्तानि । असुरकुमारसूत्रे 'पुरक्खडा | ॥१५॥ अट्ट वा नव वा' इत्यादि, तत्रासुरभवादुत्त्यानन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यतोऽष्टी, असुरकुमारादयस्त्वीशानपर्य-| न्ताः पृथिव्यवनस्पतिषूत्पद्यन्ते ततोऽनन्तरभवे पृथिव्यादिषु गत्वा तदनन्तरं मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तख नव, For P OW ~634~ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [४३७] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, मूलं [ २०१] उद्देशक: [२], आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सङ्ख्येयादिभावना प्राग्वत् पृथिव्यव्वनस्पतिसूत्रे 'पुरक्खडा अट्ठ वा नवेति पृथिव्यादयो धनन्तरमुद्वृत्त्य मनुष्येषु उत्पद्यन्ते सिय्यन्ति च तत्र योऽनन्तरभवे मनुष्यत्यमवाप्य सेत्स्यति तस्य मनुष्य भवसम्बन्धीन्यष्टौ यस्त्वनन्तरमेकं पृथिव्यादिभवमवाप्य तदनन्तरं मनुष्यो भूत्वा सेत्स्यति तस्य नव, तेजोवायवोऽनन्तरमुद्वृत्ता मनुष्यत्वमेव न प्राप्नुवन्ति द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्त्वनन्तरं मनुष्यत्वमवामुवन्ति परं न सिद्ध्यन्ति ततस्तेषां सूत्रेषु जघन्यपदे नव नवेति वक्तव्यं, शेषभावना प्रागुक्तानुसारेण कर्त्तव्या, मनुष्यसूत्रे पुरस्कृतानि द्रव्येन्द्रियाणि कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्तीति, तद्भव एव सिद्ध्यतो न सन्ति शेषस्य सन्तीति भावः, यस्यापि सन्ति सोऽपि यद्यनन्तरभवे भूयोऽपि मनुष्यो भूत्वा सेत्स्यति तस्याष्टौ यः पुनः पृथिव्याद्येकभवान्तरितो मनुष्यो भूत्वा सिद्धिगामी तस्य नव, शेषभावना प्राग्वत्, सनत्कुमारादयो देवा अनन्तरमुद्वृत्ताः न पृथिव्यादिष्वायान्ति किन्तु पञ्चेन्द्रियेषु ततस्ते नैरयिकब द्वक्तव्याः, तथा चाह“सणंकुमारमाहिं दबंभ लोयलंतग सुकसह स्सारआणय पाणयआरणअचुयगेविजदेवरस य जहा नेरइयस्स” विजयादिदेव चतुष्टयसूत्रेषु योऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्याष्टी, यः पुनरेकवारं मनुष्यो भूत्वा भूयोऽपि मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य षोडश, यस्त्वपान्तराले देवत्वमनुभूय मनुष्यो भूत्वा सिद्धिगामी तस्य चतुर्विंशतिः, मनुव्यभवे अष्टौ देवभवेऽष्टौ भूयोऽपि मनुष्य भये अष्टाविति, सङ्ख्येयानि सङ्ख्येयं कालं संसारावस्थायिनः, इह विजयादिषु चतुर्षु गताः प्रभूतमस वेयमनन्तं वा कार्य संसारे नावतिष्ठन्ते ततः संखेजा वा इत्येवोक्तं, 'नासंखेजा वा अनंता Ja Education International For Parts Only ~635~ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [४३७] पदं [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [२], दारं [-1, मूलं [२०१] आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल ॥३१६॥ वा' इति, सर्वार्थसिद्धस्त्वनन्तरभवे नियमतः सिद्ध्यति ततस्तस्याजघन्योत्कृष्टं पुरस्कृता अष्टाविति । बहुवचन चिन्तायां नैरविकसूत्रे बद्धानि द्रव्येन्द्रियाण्यसङ्ख्येयानि, नैरयिकाणामसङ्ख्यातत्वात् एवं शेषसूत्रेष्वप्युपयुज्य वक्तव्यं, नवरं य० वृत्ती. मनुष्यसूत्रे 'सिय संखेज्जा सिय असंखेजा' इह सम्मूर्च्छिममनुष्याः कदाचित् सर्वथा न सन्ति तदन्तरस्य चतुविंशतिमुहूर्त्त प्रमाणस्य प्रागभिधानात् तत्र यदा पृच्छासमये सर्वथा न सन्ति तदा सङ्ख्येयानि, गर्भजमनुष्याणां सङ्ख्येयत्वात् यदा तु सम्मूर्च्छिमा अपि सन्ति तदा असङ्ख्येयानि, सर्वार्थसिद्धमहाविमानदेवाः सङ्ख्येयाः, वादरत्वे महाशरीरत्वे च सति परिमितक्षेत्रवर्त्तित्वात् ततो वद्धानि पुरस्कृतानि वा तेषां द्रव्येन्द्रियाणि सङ्ख्येयानि, 'एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स नेरइयत्ते' इत्यादि, 'कस्सइ अत्थि कस्सर नत्थि' इति यो नरकादुदृत्तो भूयोऽपि नैरथिकत्थं नावाप्स्यति तस्य न भवन्ति, यस्त्ववाप्स्यति तस्य सन्ति, सोऽपि यद्येकवारमागामी ततोऽष्टौ द्वौ वारौ चेत् तर्हि पोडश यदि त्रीन् वारान् ततश्चतुर्विंशतिः सङ्ख्येयान् वारान् आगामिनः सङ्ख्येयानीत्यादि, मनुष्यत्यचिन्तायां 'कस्सइ अस्थि कस्सइ गत्थि' इति न वक्तव्यं, मनुष्येष्यागमनस्यावश्यंभावित्वात्, ततो जघन्यपदेऽष्टौ उत्कर्षतोऽनन्तानीति वक्तव्यं, विजयवैजयंतजयन्तापराजित चिन्तायां अतीतानि द्रव्येन्द्रियाणि न सन्ति, कस्मादिति चेत् ?, उच्यते, इह विजयादिषु चतुर्षु गतो जीवो नियमात् तत उद्वृत्तो न जातुचिदपि नैरयिकादिपञ्चेन्द्रियतिर्यक्पर्यवसानेषु तथा व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु च मध्ये समागमिष्यति तथाखाभान्यात्, मनुष्येषु सौधर्मादिषु चागमिष्यति, तत्रापि - Ja Education International For Penal Use On ~636~ १५ इन्द्रियपदे | उद्देशः २ ॥३१६॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] जघन्यत एक द्वौ (चीन) वा भवानुत्कर्षतः सङ्ख्येयान् न पुनरसङ्ख्येयान् अनन्तान् वा, ततो नैरयिकस्य विजयादित्वेऽतीतानि द्रव्येन्द्रियाणि न सन्तीत्युक्तं, पुरस्कृतानि अष्टौ षोडश वा, विजयादिषु द्विरुत्पन्नस्यानन्तरभवे नियमतो मोक्षगमनात्, एवं यथा नैरयिकस्य नैरयिकत्वादिषु चतुर्विशती स्थानेषु चिन्ता कृता तथा असुरकुमारादीनामपि प्रत्येक कर्तव्या, पूर्वोक्तभावनाऽनुसारेण च खयमुपयुज्य परिभावनीया, भावेन्द्रियसूत्राण्यपि सुगमान्येव, केवलं द्रव्येन्द्रियगतभावनानुसारेण तत्र भावना भावयितव्या ॥१५॥ दीप अनुक्रम [४३७] इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां पञ्चदश मिन्द्रियाख्यं पदं समाप्तम् ॥ BSITE24 अत्र पद (१५) "इन्द्रिय" परिसमाप्तम् ~637~ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अथ षोडशं पदं ॥१६॥ १६ प्रयोगपदं प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥३१॥ [२०२ दीप तदेवं व्याख्यातं पञ्चदशमधुना षोडशमारभ्यते-तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे प्रधानपदहेतुत्वादिन्द्रियवतामेव लेश्यादिसद्भावात् विशेषत इन्द्रियपरिणाम उक्तस्ततस्तदनन्तरमिह परिणामसाम्यात् प्रयोगपरिणामः प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कतिविहे णं भंते ! पओगे पं० १, गो! पण्णरसबिहे पओगे पं०, त--सच्चमणप्पओगे १ असच्चमणप्पओगे २ सच्चामोसमणप्पओगे ३ असचामोसमणप्पओगे ४ एवं वइप्पओगेबि चउहा ८ ओरालियसरीरकायप्पओगे ९ ओरालियमीससरीरकायप्पओगे १० वेउवियसरीरकायप्पओगे ११ वेउब्वियमीससरीरकायप्पओगे १२ आहारकसरीरकायप्पओगे . १३ आहारगमीससरीरकायप्पओगे १४ (तेया) कम्मासरीरकायप्पओगे १५ (मूत्रं २०२) 'कइविहे णं भंते ! इत्यादि, कतिविधः कतिप्रकारः, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! प्रयोगः प्रज्ञप्तः ?, प्रयोग| इति प्रपूर्वस्य 'युजिरायोगे' इत्यस्य घान्तस्य प्रयोगः, परिस्पन्द क्रिया आत्मव्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्पण युज्यते-व्यापार्यते क्रियासु सम्बन्ध्यते वा साम्परायिकर्यापथकर्मणा सहात्मा अनेनेति प्रयोगः ''नानी'ति करणे घन्ध अनुक्रम [४३८] | ॥३१७॥ अथ पद (१६) "प्रयोग" आरभ्यते ... अत्र 'प्रयोग'स्य पञ्चदश भेदा: प्ररुप्यते ~638~ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०२] त्ययः, भगवानाह–पञ्चदशविधः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चदशविधत्वं दर्शयति-'सच्चमणप्पओगे' इत्यादि, सन्तो-मुनयः पदार्था वा तेषु यथासङ्ख्यं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थितवस्तुखरूपचिन्तनेन च साधु सत्यं-अस्ति जीवः सदसद्रूपो । देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुचिन्तनपरं, सत्यं च तत् मनश्च सत्यमनः तस्य प्रयोगो-व्यापारः सत्यमनप्रयोगः, 'असचमणप्पओगे' इति, सत्यविपरीतमसत्यं, यथा-नास्ति जीवः एकान्तसद्रूपो वेत्यादिकुविकल्पनपरं, तब तन्मनच तस्य प्रयोगोऽसत्यमनःप्रयोगः, 'सच्चमोसमणप्पओग' इति सत्यमृपा-सत्यासले यथा धवस-11 |दिरपलाशादिमिश्रेषु बहुप्पशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनपरं, तत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावातू सत्यता अन्येषामपि धवस्खदिरादीनां सद्भावादसत्यता, व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, यथाविकल्पितार्थायोगात् , तच तन्मनश्चेत्यादि प्राग्वत् , तथा 'असचामोसमणप्पओगे' इति यन्न सत्यं नापि | मृषा तदसत्यामृषा, इह चिनतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते यथा अस्ति जीवः सदस-१ Nद्रूप इति तत्किल सत्यं परिभाषितमाराधकत्वात् , यत्पुनर्विप्रतिपत्ती सत्यां यद्वस्तुप्रतिष्ठाशयाऽपि सर्वज्ञमतोत्तीर्ण |विकल्प्यते यथा नास्ति जीवः एकान्तनित्यो वेत्यादि तदसत्सं विराधकत्वात् , यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठासामन्तरेण खरूपमात्रपोलोचनपरं यथा-देवदत्तात् ३ घट आनेतन्यो गौर्याचनीया इत्यादिचिन्तनपरं तन् असत्यामृषा, इदं हिH खरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वात् न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषा, एतदपि व्यवहारनयमतापेक्षया द्रष्टव्यं, अन्यथा Sectionistraesearcinetelescene दीप अनुक्रम [४३८] ~639~ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥३१॥ [२०२ yaee दीप विप्रतारणबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति अन्यत्तु सत्ये, तच तन्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्याऽमृपामनःप्रयोगः । एवं 'वइ- १६ प्रयोप्पओगोवि चउहा' इति, यथा मनःप्रयोगश्चती तथा वाक्प्रयोगोऽपि चतुर्दा, तद्यथा-सत्यवाक्प्रयोगो मृपा- गपर्द वाक्प्रयोगः सत्यामृपावाप्रयोगः असत्यामृषावाक्प्रयोगः, एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनःप्रभृतिवद्भावनीया इति । 'ओरालियसरीरकायप्पओगे' इति औदारिकादिशब्दार्थमने वक्ष्यामः, औदारिकमेव शरीरं तदेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वात् उपचीयमानत्वाय कायः औदारिकशरीरकायः तस्य प्रयोगः औदारिकशरीरकायप्रयोगः, अयं च तिरथो मनुष्यस्य च पर्याप्तस्य १, 'औदारिकमिश्रकायशरीरप्रयोग' इति औदारिकं च तन्मियं च औदारिकमिश्र, केन सह मिश्रितमिति चेत् ?, उच्यते, कार्मणेन, तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण शस्त्र (आहार) परिज्ञाध्ययने-'जोएणं कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ॥१॥[योगेन कार्मणेनाहारयत्यनन्तरं जीवः। ततः परं मिश्रेण यावत् शरीरस्य निष्पत्तिः ॥१॥] ननु मिश्रत्वमुभयनिष्ठं, तथाहि-यथा औदारिक कार्मणेन मिथ तथा कार्मणमपि औदारिकेण मिश्र ततः कस्मादौदारिकमिश्रमेव तदुच्यते न कार्मणमिश्रमिति !, उच्यते, इह व्यपदेशः स प्रवर्तनीयो येन विवक्षितार्थप्रतिपत्तिनिष्प्रतिपक्षा श्रोतॄणामुपजायते, अन्यथा संदेहापत्तितो विवक्षि-||१८|| तार्थाप्रतिपच्या न तेषामुपकारः कृतः स्यात्, कार्मणं च शरीरमासंसारमविच्छेदेनाव स्थितत्वात् सकलेवपि शरी-TRI रेषु सम्भवति, ततः कार्मणमिश्रमित्युक्ते न ज्ञायते कि तिर्यग्मनुष्याणामपर्याप्तावस्थायां तद्विवक्षितमुत देवनारका अनुक्रम [४३८] 26tice ~640~ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ecector प्रत सूत्रांक [२०२] णामिति १, तत उत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रधानत्वात् कादाचित्कत्वाच निप्रतिपक्ष विचक्षितार्थप्रतिपयर्थमौदारिकेण व्यपदिश्यते-औदारिकमिश्रमिति, तथा यदीदारिकशरीरो वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यस्तिर्यपश्चेन्द्रियः पर्याप्तकवादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदा किलौदारिकशरीरप्रयोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुगलानुपादाय वैक्रियशरीरपर्याप्त्या यावन पर्याप्तिमुपगच्छति तावत् यद्यपि वैक्रियेण मिश्रतोदारिकस्योभयनिष्ठा तथाप्यौदारिकस्य प्रारम्भकतया प्रधानत्वात् तेन व्यपदेश औदारिकमिश्रमिति, न वैक्रियेणेति, तथा आहारकमपि शरीरं यदा कश्चिदाहारकलब्धिमान् पूर्वधरः करोति तदा यद्यप्याहारकेण मिश्रत्वमौदारिकस्योभयनिष्ठं तथाप्यौदारिकमारभकतया प्रधानमिति तेन व्यपदेशप्रवृत्तिरौदारिकमिश्रमिति, न त्वाहारकेणेति, औदारिकमिश्रं च तत् शरीरं चेत्यादि पूर्ववत् २, वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य ३, वैक्रिहायमिश्रशरीरकायप्रयोगो देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां, मिश्रता च तदानीं कार्मणेन सह वेदितव्या, अत्राक्षेपप-1 रिहारी प्राग्वत् , तथा यदा मनुष्यस्तिर्यपञ्चेन्द्रियो वायुकायिको वा वैक्रियशरीरी भूत्वा कृतकार्यों वैक्रियं परिजि-11 हीर्घरौदारिके प्रवेष्टुं यतते तदा किल वैक्रियशरीरबलेनौदारिकोपादानाय प्रवर्त्तते इति वैक्रियस्य प्राधान्यात्तेन व्यपदेशो नौदारिकेणेति वैक्रियमिश्रमिति ४, तथा आहारकशरीरकायप्रयोगः आहारकशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य ५, आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः आहारकादौदारिकं प्रविशतः, एतदुक्तं भवति यदा आहारकशरीरी भूत्वा दीप अनुक्रम [४३८] ~641~ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- या: मल२०वृत्ती. १६ प्रयोगपदं प्रत सूत्रांक ॥३१९॥ [२०२ कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदा यद्यपि मिश्रत्वमुभयनिष्ठं तथाप्यौदारिके प्रवेश आहारकबलेनेत्याहारकस्य प्रधानत्वात तेन व्यपदेशो नौदारिकेणाहारकमिश्रमिति ६ । एतच सिद्धान्ताभिप्रायेणोक्तं, कार्मग्रन्थिकाः पुनक्रि- यस्य प्रारम्भकाले परित्यागकाले च वैक्रियमिश्रमाहारकशरीरस्य प्रारम्भकाले परित्यागकाले च आहारकमिश्र, न त्वेकस्यामप्यवस्थायामौदारिकमिश्रमिति प्रतिपन्नाः, तैजसकामणशरीरप्रयोगो विग्रहगती समुद्घातावस्थायां वा सयोगिकेवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु, इह तैजसं कार्मणेन सहाव्यभिचारीति युगपत्तैजसकार्मणग्रहणं, अमूनेव पञ्चदश प्रयोगान् जीवादिषु स्थानेषु चिन्तयन्नाह जीवाणं भंते ! कतिविधे पओगे पणते ?, गो! पण्णरसविधे पण्णते, सञ्चमणप्पओगे जाव कम्मासरीरकायप्पओगे, नेरयाणं भंते । कतिविधे पओगे पष्णते, गो! एकारसविधे पओगे पं०, तं0---सञ्चमणप्पओगे जाव असचामोसवयप्पओगे बेउवियसरीरकायप्पओगे वेउवियमीससरीरकायप्पओगे (तेया) कम्मासरीरकायप्पओगे, एवं असुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो० तिविहे पओगे पं०, ०-ओरालियसरीरकायप्पओगे ओरालियमीससरीरकायप्पओगे कम्मासरीरकायप्पओगे य, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, णवरं वाउकाइयाणं पंचविहे पओगे पं०, तं ओरालियकायप्पओगे ओरालि यमीससरीरकायप्पओगे य वेउबिए दुविधे कम्मासरीरकायप्पओगे य, बेईदियाणं पुरुछा, गोचिबिहे पओगे पं०, तं०--असञ्चामोसवइप्पओगे ओरालियसरीरकायप्प० ओरालियमीससरीरकायप्प० कम्मा 05020393929 दीप अनुक्रम [४३८] ॥३१॥ 'कस्य जीवस्य कतिविधा प्रयोगा वर्तते?' तत् प्ररुपणा क्रियते ~642~ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०३] दीप अनुक्रम [४३९] “प्रज्ञापना” उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [-], दारं [-1, मूलं [२०३] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eucation International - सरीरकायप्प० एवं जाव चरिदियाणं, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो० ! तेरसविधे पओगे पं० तं० - सचमणप्पओगे मोसमणप्पओगे सच्चामोस० असचामोसमणप्प०, एवं वइप्पओगेबि, ओरालियसरीरकायप्प० ओरालियमीससरीरकाय प० वेउब्वियसरीरकायप्प० वेउब्वियमीससरीरकायप्य० कम्मासरीरकायप्पओगे, मणूसाणं पुच्छा, गो० ! पण्णरसविधे पओगे पं० तं० सचमणप्प० जाव कम्मासरीरकायप्प०, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरड्याणं ( सूत्रं २०३ ) 'जीवाणं भंते ! कतिविधे पओगे पं०' इत्यादि, तत्र जीवपदे पञ्चदशापि प्रयोगाः, नानाजीवापेक्षया सदैव पञ्चदशानामपि योगानां लभ्यमानत्वात्, नैरयिकपदे एकादश, औदारिकौदारिकमि श्राहारकाहारकमिश्रप्रयोगांणां तेषामसम्भवात् एवं सर्वेष्वपि भवन पतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयं पृथिव्यादिषु वायुकायवर्जेष्वेकेन्द्रियेषु प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयस्त्रयः प्रयोगाः औदारिकौदारिकमिश्रकार्मणलक्षणाः, वायुकायिकेषु पञ्च, वैक्रियवैक्रियमिश्रयोरपि तेषां सम्भवात्, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं चत्वारः औदारिकमौदारिकमिश्रं कार्मणमसत्यामृषाभाषा च, शेषास्तु सत्यादयो भाषास्तेषां न सम्भवन्ति 'विगलेसु असच मोसेव' [ विकलेषु असत्यामृषैव ] इति वचनात्, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां त्रयोदश आहारकाहारकमिश्रयोस्तेषामसम्भवादसम्भवश्चतुर्दशपूर्वाधिगमासम्भवात्, मनुव्येषु पञ्चदशापि, मनुष्याणां सर्वभावसम्भवात् । अधुना जीवादिषु पदेषु नियतप्रयोगभावं विचिन्तयिषुरिदमाह - जीवाणं भंते! किं सच्चमणप्पओगी जाब किं कम्मसरीरकायप्पओगी १, जीवा सवेवि ताव होज सचमणप्पओगीवि For Parts Only ~643~ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. १६ प्रयोगपदं ॥३२001 दीप अनुक्रम [४४०] जाव वेउदियमीससरीरकायप्पओगीचि कम्मासरीरकायप्पओगीवि १३, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी यर अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य ३, अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पोगिणो य ४, चउमंगो, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पोगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, एए जीवाणं अह१। नेरइयाण मंते ! कि सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मसरीरकायप्पओगी १११, नेरइया सवेवि ताव होआ सच्चमणप्पओगीवि जाव वेउदियमीसासरीरकायप्पओगीवि, अहवेगे य कम्मसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पोगिणो य २, एवं असुरकुमारावि, जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं भंते ! किं ओरालियसरीरकायप्पओगी ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी कम्मासरीरकायप्पयोगी?, गो! पुढविकाइया ओरालियसरीरकायप्पओगीवि ओरालियमीससरीरकायष्पओगीवि कम्मासरीरकायप्पओगीवि, एवं जाव वणफइकाइयाणं, णवरं बाउकाइया वेउवियसरीरकायप्पओगीवि वेउवियमीसासरीरकायप्पओगीवि, बेईदियाण मंते ! कि ओरालियसरीरकायप्पओगी जाव कम्मासरीरकायप्पओगी, गो! बेइंदिया सबेवि ताव होजा असच्चमोसवइप्पओगीवि ओरालियसरीरकायप्पओगीवि ओरालियमीससरीरकायप्पओगीषि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगीवि, अहवेगे य कम्मासरीरकायपओगिणो य, एवं जाव चउरिदियावि, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, नवरं ओरालियसरीरकायप्पओगीवि एecestaese. 32oll ~644 ~ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] ओरालियमीसासरीकायप्पओगीवि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणी य, मणूसाणं भंते ! किं सबमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी?, गो०! मणूसा सवेचि वाव होजा सश्चमणप्पओगीवि जाव ओरालियसरीरकायप्पओगीवि, वेउवियसरीरकायप्पओगीवि वेउबियमीससरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २, अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगीय अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगी य अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २, एते अह भंगा पत्तेयं, अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य ४ एवं एते चत्तारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, चत्वारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २, अहवेगे ओरालियमीसासरीरकाय ~645~ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनया:मलयवृत्ती. १६प्रयोगपदं प्रत सूत्रांक [२०४] ॥३२॥ प्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३, अहवेगे ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य४, एते चत्वारि भंगा, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, चत्तारि भंगा, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगीय कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य४, चउरो भंगा, अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे व आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी. य ३ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४, चउरो भंगा, एवं चउच्चीसं भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरका यप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, अहवेगे य ओरालियमीसा-' 392009 दीप अनुक्रम [४४०] ॥३२॥ ~646~ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] सरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायपओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ७, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारकसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ८, एते अट्ट भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य१, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ८ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरी ~647~ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १६ प्रयोगपदं ॥३२२॥ रकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायपओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ अहयेगे य ओरालियमीसासरीस्कायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पजोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायपओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ५अहवेगे य ओरालियमीसासरी रकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ८, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्पासरीरकायपओगी य ७ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मसरीरकायप्पओगिणो य ८॥ एवं एए तियसंजोएणं चत्तारि अह भंगा, सबेवि मिलिता बचीसं भंगा रएecentatiseDEOS दीप अनुक्रम [४४०] ॥३२२॥ ~648~ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] जाणितथा ३२ ॥ अहवेगे य ओरालियमिस्सासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पयोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्प ओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७ अहबेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ९ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्यओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १० अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ११ अहवेगे ~649~ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १६ प्रयोगपर्द प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] प्रज्ञाफ्ना- य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मा- या मल सरीरकायप्पओगिणो य १२ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहायवृत्ती. रगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य १३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहा॥३२॥ रगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य १५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पजोगिणो य आहारगसरीरकायप्पजोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १६, एवं एते चउसंजोएणं सोलस भंगा भवंति, सद्देऽवि यणं संपि ढिया असीति भंगा भवंति । वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमारा (सूत्रं २०४) INT 'जीयाणं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रे सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सत्यमनःप्रयोगिण इत्यादिरेको भङ्गः, किमुक्तं भवति ?-सदैव जीवा बहन एव सत्यमनःप्रयोगिणोऽप्यसत्यमनःप्रयोगिणोऽपि यावद्वैक्रियमि शरीरकायप्रयोगिणोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगिणोऽपि लभ्यन्ते, तत्र सदैव वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिणो नार- कादीनां सदैवोपपातोत्तरवैक्रियारम्भसम्भवात् , सदैव कार्मणशरीरकायप्रयोगिणः सर्वदेव वनस्पत्यादीनां विग्रहेणावान्तरगतौ लभ्यमानत्वात्, आहारकशरीरी च कदाचित्सर्वथा न लभ्यते, षण्मासान् यावदुत्कर्षतोऽन्तरसम्भ secreseकर ३२३॥ ~650~ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] treeserveeeeeeesecca वात् , यदापि लभ्यते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, उक्तं च-"आहारगाई लोए छम्मासे जा न होतिवि कयाई । उक्कोसेणं नियमा एकं समयं जहन्नेणं ॥१॥ होताई जहन्नेणं इकं दो तिण्णि पंच व हवंति । उकोसेणं जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं ॥२॥ [आहारकाणि लोके षण्मासान् यावत् न भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कृष्टतो नियमात् एकं समयं जघन्येन ॥१॥ भवन्त्यपि जघन्येन एकं द्वे त्रीणि पञ्च वा भवन्ति । उत्कृष्टेन युगपत् पृथक्त्वमा सहस्राणां ॥२॥ ततो यदा आहारकशरीरकायप्रयोगी आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी चैकोऽपि न लभ्यते तदा बहुवचन विशिष्टत्रयोदशपदात्मक एको भङ्गः, त्रयोदशपदानामपि सदैव बहुत्वेनावस्थितत्वात् , यदा त्वेक आहारकशरीरकायप्रयोगी लभ्यते तदा द्वितीयः, तेऽपि यदा बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयः, एवमेव आहारकमिशरीरकायप्रयोगिपदेनापि द्वौ भङ्गो लभ्येते इत्येकयोगे चत्वारो भङ्गाः, द्विकसंयो-18 गेऽपि प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वार इति सर्वसायया जीवपदेन नव भङ्गाः, नैरपिकपदे सत्यमनःप्रयोगिप्रभृतीनि क्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिपर्यन्तानि सदैव बहुवचनेन दश पदान्यवस्थितानीसेको भङ्गः, अथ वैक्रियमि-TR शरीरकायप्रयोगिणः सदैव कथं लभ्यन्ते !, द्वादशमीहर्तिकगत्युपपातविरहकालभावात् , उच्यते, उत्तरवैक्रियापेक्षया, तथाहि-यद्यपि द्वादशमी हूर्तिको गत्युपपातविरहकालस्तथापि तदानीमपि उत्तरवैक्रियारम्भिणः संभवन्ति, उत्तरवैक्रियारम्भे च भवधारणीयं वैक्रियमिश्र, तबलेनोत्तरवैक्रियारम्भात्, भवधारणीयप्रवेशे चोत्तरक्रिय-14 ~651~ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] प्रज्ञापना- मिश्र, उत्तरवैक्रियवलेन भवधारणीये प्रवेशात् , तत एवमुत्तरक्रियापेक्षया भवधारणीयोत्तरवैक्रियमिश्रसम्भवात् । १६ प्रयोया मल- तदानीमपि वैक्रियशरीरमिश्रकायप्रयोगिणो नैरयिका लभ्यन्ते, कार्मणशरीरकायप्रयोगी च नैरयिकः कदाचिदेकोऽपि गपदं यवृत्ती. न लभ्यते, द्वादशमौहूर्तिकगत्युपपातविरहकालभावात्, यदापि लभ्यते तदापि जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्ष॥३२४॥ तोऽसङ्ख्येयाः, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते तदा प्रथमो भगो यदा पुनरेकस्तदा द्वितीयो यदा बहवस्तदा तृतीय इति, अत एव त्रयो भनाः भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयाः, पृथिव्य जोवायुवनस्पतिषु औदारिकशरीरकायप्रयोगिणोऽपि औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयो|गिणोऽपि सदा बहव एव लभ्यन्ते इति पदत्रयबहुवचनात्मकः प्रत्येकमेक एवं भक्तः, वायुकायिकेप्यौदारिकद्विक-18 विक्रियद्विककार्मणशरीरलक्षणपदपञ्चकबहुवचनात्मक एको भङ्गः, तेषु वैक्रियशरीरिणां वैक्रियमिश्रशरीरिणां च सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , द्वीन्द्रियेषु यद्यप्यान्तर्मुहर्तिक उपपातविरहकालस्तथाप्युपपातविरहकालोऽन्तर्मुहते लघु औदारिकमिश्रगतमन्तर्मुहर्तमतिबृहत्प्रमाणमत औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपि तेषु सदैव लभ्यन्ते, कार्मणशरीरकायप्रयोगी तु कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते, आन्तर्मुर्तिकोपपातविरहकालभावात्, यदापि लभ्यते ॥३ ॥ तदापि जघन्यत एको द्वी वा उत्कर्षतोऽसङ्खबेयाः, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते तदा प्रथमो भङ्गः, यदा पुनरेकः कार्मणशरीरी लभ्यते तदा द्वितीयः, यदा ववस्तदा तृतीय इति, एवं त्रिचतुरिन्द्रिये ~652 ~ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] easeDasn2009 प्यपि भावनीय, 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका यथा नैरपिकास्तथा वक्तव्याः, नवरं वैक्रियमिश्रवैक्रियशरीरकायप्रयोगिस्थाने औदारिकऔदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणो वक्तव्याः, किमुक्तं भवति ?-सत्यमनःप्रयोगिणोऽपीत्यादि तावद्द्वक्तव्यं यावदसत्यामृपावाग्योगिनोऽपि तत औदारिकशरीरकायप्रयोगिणोऽपि औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपीति वक्तव्यं, एतानि दश पदानि बहुवचनेन सदाऽवस्थितानि, यद्यपि च तिर्यपञ्चेन्द्रियाणामप्युपपातविरहकाल आन्तर्मुहूर्तिकस्तथाऽप्युपपातविरहकालान्तर्मुहूर्त लघु औदारिकमिश्रान्त - मुहूर्तमतिबृहदित्यत्राप्यौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदा लभ्यन्ते, यस्तु द्वादशमीहूर्तिक उपपातविरहकाल: स गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिरश्चां न सामान्यपञ्चेन्द्रियतिरथामिति, कार्मणशरीरकायप्रयोगी तु तेष्वपि कदाचिदे-16 कोऽपि न लभ्यते, आन्तर्मुहूर्तिकोपपातविरहकालभावात् , ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरी न लभ्यते तदा प्रथमो भाः यदा पुनरेको लभ्यते तदा द्वितीयः यदा बहवस्तदा तृतीयः, मनुष्येषु मनश्चतुष्टयवाक्चतुष्टयीदारिक-161 क्रियद्विकरूपाण्येकादश पदानि सदैव बहुवचनेन लभ्यन्ते, वैक्रियमिश्रशरीरिणः कथं सदैव लभ्यन्ते इति चेत् । |उच्यते, विद्याधरायपेक्षया, तथाहि-विद्याधरा अन्येऽपि केचिन्मिथ्यारष्ट्यादयो वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः अन्यान्यभासावन सदैव विकुर्वणायां लभ्यन्ते, आह च मूलटीकाकार:-"मनुष्या क्रियमिश्रशरीरप्रयोगिणः, सदैव विद्याधपरादीनां विकुर्षणाभावा"दिति, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी कार्मणशरीरकायप्रयोगी च कदाचित्सर्वथा न दीप अनुक्रम [४४०] ~653~ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] प्रज्ञापना- लभ्यते, द्वादशमौहर्तिकोपपातविरहकालभावात् , आहारकशरीरी आहारकमिश्रशरीरी च कादाचित्कः प्रागेवोक्तः, १६ प्रयो. या: मल- तत औदारिकमिभायभावे पदैकादशबहुवचनलक्षण एको भङ्गः, तत औदारिकमिश्रपदेन एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ गपदं यवृत्ती. INभी , एवमेव द्वौ भनी आहारकपदेन द्वौ चाहारकमित्रपदेन द्वौ कार्मणपदेनेत्येकैकसंयोगे अष्टौ भङ्गाः, द्विकसंयोगे| ॥३२५॥ प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यामौदारिकमिश्राहारकपदयोश्चत्वारः, एवमेव औदारिकमिश्राहारकमिश्रपदयोश्चत्वारः। जौदारिकमिश्रकार्मणयोश्चत्वारः आहारकआहारकमिश्रयोश्चत्वारः आहारककार्मणयोश्चत्वारः आहारकमिश्रकार्मणयोश्चत्वार इति सर्वसङ्ग्यया द्विकसंयोगे चतुर्विंशतिर्भहाः, त्रिकसंयोगे औदारिकमिश्राहारकाहारकमिश्रपदानामेकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गाः, अष्टौ औदारिकमिश्राहारककामणानामष्टौ औदारिकमिश्राहारकमिश्रकार्मणानामष्टा-IN वाहारकाहारकमिश्रकामणानामिति सर्वसङ्ख्यया त्रिकसंयोगे द्वात्रिंशद्भङ्गाः, औदारिकमिश्राहारकाहारकमिश्रकार्मणरूपाणां तु चतुर्णा पदानामेकवचनबहुवचनाभ्यां षोडश भङ्गाः, सर्वसङ्कलनया भङ्गानामशीतिरिति । उक्तः प्रयोगः, प्रयोगवशाच जीवानामजीवानां च गतिर्भवति, ततो गतिनिरूपणार्थमाह काविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णते ?, गो! पंचविहे गइप्पवाए पं०, तं०-पओगगती १ ततगती २ बंधणछेदण- K ॥३२५॥ गती ३ उववायगती ४ विहायगती ५, से किं तं पओगगती?, २ पण्णरसविहा पं०, तं०-सच्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगो भणितो तहा एसावि भाणितबा जाव कम्मगसरीरकायपओगगती । जीवाणं भंते ! कतिचिहा पओगगती SAREastainintennational अत्र 'गतिप्रपात'स्य भेदा: आदि विषय कथ्यते ~654~ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] दीप अनुक्रम [४४१] पं० १, गो०- पण्णरसविहा पं०, ०–सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगत्ती, नेरइयाणं भंते! कइविहा पओगगती पं०१, गो०-एकारसविहा पत्रचा, तं०-सच्चमणप्पओगगती, एवं उपउज्जिऊण जस्स जतिविहा तस्स ततिविहा भाणितवा जाब बेमाणियाणं, जीवाणं भंते ! सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती, गो! जीवा सोवि ताव होज सच्चमणप्पओगगतीवि, एवं तं चेव पुत्ववणितं भाणितई भंगा तहेव जाव वेमाणियाणं, से तं पओगगती १ । से किं तं ततगती?, २जे गं जं मामं वा जाव सण्णिवेसं वा संपडिते असंपत्ते अंतरापहे वद्दति, से तं ततगती २ । से किं तं बंधणछेदणमती, २ जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ, से तं बंधणछेदणगती ३ । से कि तं उबवायगती ?, २ तिविहा पं०, तं०-खेचोवपायगती भवोववायगती नोभवोवचायगवी, से किं तं खेतोववायगती !, २पंचविहा पं०,०-नेरइयखेचोववायगती १तिरिक्खजोणियखेचोववायगती २ मणसखेचोववायगती ३ देवखेतोववायगती ४ सिद्धखेतोववायगती ५से फैि त नेरइयखेलोक्वायगती ?, २ सत्तविहा पं०,०-यणप्पभापुढपिनेरइयखेतोववायगती जाव अधेसत्तमापुढचिनेरइयखेतोचवायगती, से तं नेरइयखेतोववायगती १, से किं तं तिरिक्खजोणियखेचोववायगती ?, २पंचविहा पं०, तं०-एगिदियातरिक्खजोणियखेनोववायगती जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियखेत्तोवायगती, से तं तिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती २, से किं तं मणूसखेचोववायगती, २ दुविहा पं० त०-समुच्छिममणूस गम्भवतियमणूसखेतोक्वायगती, से तं मणसखेत्तोवयायगती ३, से किं तं देवखेत्तोववायगती,२ चउबिहा पं०, ०-भवणवति. जाव वेमाणियदेवखेचोववायगती, से तं देवखेत्तोववायगती ४, से कि तं सिद्धखेत्तोववायगवी, ~655~ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०५ ] दीप अनुक्रम [४४१] प्रज्ञापनायाः मल य०वृत्ती. ॥३२६ ।। पदं [१६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [-], दारं [-1, मूलं [२०५] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Eucation International अणेगविहा पं० तं० जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवयवासे सपक्खसपडिदिसि सिखेत्तोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे जुलु हिमवंतसिहरिवास हर पढतपक्सपडिदिसिं सिद्धखेोववायगती, जंबुद्दीवे दीव हेमवतरण्णवास सपक्खस पडिदिसिं सिद्धखेतोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे सहावर वियडावश्ववेय सपकखसपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववायगती अंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंतरुप्पिचासहरपञ्च तसप क्खुसपडिदिसिं सिद्धखेतो० जंबुद्दीचे दीवे हरिवासरम्मगवासस पक्खिसपडिदिसिं सिद्धखे जंबुद्दीवे दीवे गंधावातिमालवंतपचयवट्टवेयडुस पक्खसपडिदिसं सिद्ध० जंबुद्दीचे दीवे णिसहणीलवंतवासहरपञ्चतसपर्विखसपडिदिसिं सिद्धखे० जंबुद्दीवे दीत्रे पुर्व विदेहावर विदेहस पक्खिसपडिदिसिं सिद्धखे० जंबुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरुस पक्खिसपडिदिसिं सिद्ध० जंबुद्दीवे दीवे मंदरपवयस्स सपक्खिसपडिदिसिं सिद्धखे० लवणे समृद्दे सपखि सपडिदिसिं सिद्ध० धायसंडे दीवे पुरत्थिमद्ध पच्छिम मंदरपञ्च तसपर्विखसपडिदिसिं सिद्धखित्तो० कालोय समुदसपक्खिसपडिदिसिं सिद्ध० पुक्खरवरदीवद्धपुरत्थिमद्धभर हेरवयवासस पक्खि सप डि दिसिं सिद्ध० एवं जाव पुक्खरखरदीपच्छिममंदरपचतसपक्खिसपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववायगती से तं सिद्धखेत्तोववायगती ५ से किं तं भयोववायगती १, २ चउबिहा पं०, तं० - नेरइय० जाव देवभवोववायगती से किं तं नेरहयभवोववायगती १, २ सत्तविहा पं० तं०, एवं सिद्धवज्जो भेदो भाणितवो जो खेत्तोयवायगतीए सो चेच, से तं देवभवोववायगती, से तं भवोववायगती से किं तं नोभवोववायगती १, २ दुविहा पं० तं० - पोग्गलणोभवोचवायगती सिद्धनोभवोववायगती, से किं तं पोग्गलनोभवोववायगती १, २ जणं परमाणुपोग्गले लोगस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ पचत्थिमिद्धं चरमंतं एगसमएणं गच्छति पचत्थि - For Parts Only ~656~ १६ प्रयोगपदं ॥ ३२६ ॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] दीप अनुक्रम [४४१] मिल्लाओ वा चरमंताओ पुरथिमिल्लं चरमंतं एगसमएणं गच्छति दाहिणिल्लाओ वा चरमंताओ उत्तरिलं परमंतं एगसमएणं गच्छति एवं उत्तरिल्लाओ दाहिणिल्लं उवरितातो हेदिल्लं हिडिल्लाओ उवरिलं, से तं पोग्गलणोभवोववायगती. से किं तं सिद्धणोभवोववायगती, २ दुविहा पं०, त०-अणंतरसिद्धणोभवोचवाय परंपरसिद्धणोभवोववायगती य, से किं तं अणंतरसिद्धणोभवोववायगती, २ पण्णरसबिहा पं० त०-तित्थसिद्धअणंतरसिद्धणोभवोववायगती य जाव अणेगसिद्धणोभवोववायगती य, से कि तं परंपरसिद्धणोभवोक्वायगती १,२ अणेगविहा पं०, तं०-अपढमसमयसिद्धणोभवोववायगती एवं दुसमयसिद्धणोभवोववायगती जाव अणंतसमयसिद्धणोभवोचवायमती, से सिद्धणोभवोववायगती, से तंणोभवोववायगती, से तं उबवायगती ४ । से किं तं विहायगती, २ सत्तरसविहा पण्णत्ता, तं०-फुसमाणगती १ अफुसमाणगती २ उवसंपज्जमाणगती ३ अणुवसंपज्जमाणगती ४ पोग्गलगती ५ मंयगती ६ णावागती ७ नयगई ८ छायागती ९ छायाणुवातगती १० लेसागई ११ लेसाणुवातमती १२ उहिस्सपविभत्तगती १३ चउपुरिसपविभत्तगती १४ वंकगती १५ पंकगती १६ बंधणविमोयणगती १७, से किं तं फुसमाणगती, २ जण्ण परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं अण्णमणं फुसंताणं गती पवत्तइ सेत्तं फुसमाणगती १, से कितं अफुसमाणगती, २ जणं एतेर्सि चेव अफुसंताणं गती पवत्तति से तं अफुसमाणगती २, से किं तं उपसंपजमाणगती,२ जणं रायं वा जुवरायं वा ईसरं वा तलवरं वा माडंवितं वा कुटुंवितं वा इन्भ वा सिद्धि वा सेणावति वा सत्थवाहं वा उपसंपजिचा णं गच्छति, से ते उपसंपज्जमाणगती ३, से किं तं अणुवसंपज्जमाणगती, २ जणं एतेसिं चेव अण्णमणं अणुवसंपन्जिता गं गच्छति, से तं अणुय ~657~ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनया मलय. वृत्ती. १६ प्रयोगपदं प्रत सूत्रांक [२०५]] ॥३२७॥ दीप अनुक्रम [४४१] संपज्जमाणगती ४, से कि तं, पोग्गलगती?, २ जणं परमाणुपोग्गलाणं जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं गती पवत्तति से तं पोग्गलगती ५, से किं तं मंडूयगती १,२ जणं मंडओ फिडिसा गच्छति, से तं महूयगती ६, से किं तं णावागती, जणं णावा पुत्ववेतालीमो दाहिणवेयालि जलपहेणं गच्छति, दाहिणवेतालिओ वा अवरवेतालिं जलपहेणं गच्छति, से तं णावागती ७, से किं तं गयगती १, २ जणं णेगमसंगहववहारउज्जुसुयसहसमभिरूढएवंभूयाणं नयाणं जा गती अहवा सबणयावि जं इच्छंति, से तं नयगती ८,से किं तं छायागती!,२ णं हयलार्य वा गयछायं वा नरछायं वा किण्णरछायं वा महोरगछायं वा गंधबछायं वा उसहछायं वा रहछायं वा छत्तछायं वा उपसंपज्जिताणं गच्छति, से तं छायागती ९, से कितं छायाणुवायगती १,२ जेणं पुरिसं छाया अणुगच्छति नो पुरिसे छायं अणुगकछति, से तं छायाअणुवायगती १०, से किस लेस्सागती, २ जणं किण्हलेसा नीललेस पप्प तारूवचाए तावण्णचाए तागंधत्ताए तारसताए ताफासत्ताते भुजोरपरिणमति, एवं नीललेसा काउलेसं पप्प तालवत्ताए जाव ता कासत्ताए परिणमति, एवं काउलेसावि तेउलेस तेउलेसावि पम्हलेसं पम्हलेसावि सुकलेसं पप्प तारूवत्ताते जाव परिणमति, से तं लेसागती ११, से किसे लेसाणुवायगती, २ जल्लेसाई दबाई परियाइता कालं करेह तल्लेसेसु उववज्जति, तं०किण्हलेसेसु वा जाच सुकलेसेसु वा से तं लेसाणुवायगती १२, से किं तं उदिस्सपविभत्तगती, २ जणं आयरियं वा उवज्शायं वा थेरं वा पवति वा गणि वा गणहरं वा गणावच्छेदं या उदिसिय २ गच्छति, से तं उदिस्सियपविभत्तगती १३, से किं तं चउपुरिसपविभचमती, से जहानामए चत्वारि पुरिसा समग पज्जवहिया समग पहिता १ समर्ग पञ्जवष्टिया aeeee ॥३२७॥ ~658~ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] दीप अनुक्रम [४४१] विसमग पहिया २ विसमं पज्जवहिया विसमं पहिया ३ विसमं पज्जवट्ठिया समग पहिया ४, से तं चउपुरिसपषिभसगती १५, से किं तं वंकगती १,२ चउबिहा पं०,०-घट्टनया भणया लेसणया पवडणया, से तं वंकगती १५, से किं तं पंकगती १,२ से जहाणामते केह पुरिसे पंकसि वा उदयंसि वा कार्य उबिहिया गच्छति, से तं पंकगती १६, से किं तं बंधणविमोयणगती,२ जण्णं अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुंगाण वा बिल्लाण वा कविद्वाण वा [भवाण वा] फणसाण वा दालिमाण वा पारेवताण वा अक्खोलाण वा चाराण वा वोराण घा तिडुयाण वा पकाणं परियागयाणं बंधणातो विप्पमुकाणं निवापातेणं अधे पीससाए गती पवत्तइ, से तं बंधणविमोयणगती (सूत्रं २०५) (से तं विहायोगती) १७ ॥ पण्णवणाए भगवईए पओगपदं समतं ॥ १६ ॥ 'कइविहे णं भंते ! गइप्पवाए' इत्यादि, गमनं गतिःप्रासिरित्यर्थः, प्राप्तिश्च देशान्त रविषया पर्यायान्तरविषया च, उभयत्रापि धात्वर्थोपपत्तेः गतिशब्दप्रयोगदर्शनाच, तथाहि-क मतो देवदत्तः?, पत्तनं गतः, तथा वचनमात्रेणाप्यसौ गतः कोपमिति, लोकोत्तरेऽप्युभयथा प्रयोगः-परमाणुरेकसमयेन एकस्मालोकान्तादपरं लोकान्तं गच्छति, तथा तानि तान्यध्यवसायान्तराणि गच्छन्तीति, गतेः प्रपातो गतिप्रपातः, स कतिविधः प्रज्ञसः ?, कुत्र कुत्र गतिशब्दप्रवृत्तिरुपनिपततीत्यर्थः, भगवानाह-पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं दर्शयति-'प्रयोगगति रित्यादि, प्रयोगः प्रागुक्तः पश्चदशविधः स एव गतिः प्रयोगगतिः, इयं देशान्तरप्राप्तिलक्षणा द्रष्टव्या, सत्समनःप्रभृतिपुडूलानां seeeeeee ~659~ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना-1 प्रत सूत्रांक [२०५] य. वृत्ती. ॥३२८॥ दीप अनुक्रम [४४१] जीवेन ब्यापार्यमाणानां यथायोगमल्पबहुदेशान्तरगमनात् १ । 'ततगई' इति तता-विस्तीर्णा सा चासौ गतिश्च | १६ प्रयोततगतिः, तथाहि-यं ग्राम सन्निवेशं वा प्रति प्रतिष्ठितो देवदत्तादिस्तं ग्रामादिकं यावदद्यापि न प्राप्नोति ताव-18 गपदं दन्तरा पथि एकैकस्मिन् पदन्यासे तत्तद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणा गतिरस्तीति ततगतिः, इयं विस्तीर्णत्वविशेषणात् पृथगुपात्ता, अन्यथा प्रयोगगताववेयमन्तर्भवति, पादन्यासस्य शरीरप्रयोगात्मकत्वात् , एवमुत्तरत्रापि यथायोगं परि-IN भावनीयं २ तथा 'बंधणछेयणगई' इति, बन्धनस्य छेदनं बन्धनच्छेदनं तस्मात् गतिर्वन्धनच्छेदनगतिः, सा च | जीवेन विमुक्तस्य शरीरस्य शरीराद्वा विच्युतस्य जीवस्यावसातव्या, न तु कोशसम्बन्धविच्छेदादेरण्डवीजादेः, तथा विहायोगतिभेदत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् ३। 'उबवायगई' इति, उपपातः-प्रादुर्भावः, स च क्षेत्रभवनोभवभेदात् त्रिविधः, तद्यथा-क्षेत्रोपपातो भवोपपातो नोभवोपपातश्च, तत्र क्षेत्रं-आकाशं यत्र नारकादयो जन्तवः सिद्धाः पुद्गला वा अवतिष्ठन्ते, भवः-कर्मसम्पर्कजनितो नैरयिकत्वादिकः पर्यायः, भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भव इति व्युत्पत्तेः, नोभवः-भवव्यतिरिक्तः कर्मसम्पर्कसम्पाद्यनैरयिकत्वादिपर्यायरहित इति भावः, स च पुद्गलः सिद्धो वा, उभयस्यापि यथोक्तलक्षणभवातीतत्वात् , उपपात एवं गतिरुपपातगतिरिति ४ । विहायसा-आकाशेन ॥२८॥ गतिर्विहायोगतिः, सा चोपाधिभेदात् सप्तदशविधा, तद्यथा-स्पृशद्गतिरित्यादि, तत्र परमाण्वादिकं यदन्येन परमाण्वादिकेन परस्परं संस्पृश्य संस्पृश्य-सम्बन्धमनुभूयानुभूयेत्यर्थः इति भावः गच्छति सा स्पृशद्गतिः, स्पृशतो ~660~ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] दीप अनुक्रम [४४१] गतिरिति व्युत्पत्तेः, तद्विपरीता अस्पृशद्गतिः, यत्परमाण्यादिकमन्येन परमाण्यादिना सह परस्परसम्बन्धमननुभूय ग-18 च्छति यथा परमाणुरेकेन समयेन एकस्मालोकान्तादपरं लोकान्तमिति, उपसंपद्यमानगतिर्यदन्यमुपसम्पद्य-आश्रित्य तदवष्टम्भेन गमनं यथा धनसार्थवाहावष्टम्भेन धर्मघोपसूरीणां, अनुपसम्पद्यमानगतिर्यत् परस्परमुषष्टम्भरहितानां पथि गमनं, मण्डूकगतिर्यत् मण्डूकस्येवोत्प्लुत्य गमनं, नावागतियनावा महानद्यादौ गमनं, नयगतिर्यनयानां नैगमादीनां खखमतपोषणं अथवा यनयानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यवस्थापनं सा नयगतिः, छायागतिः-छायामनुसृत्य तदुपष्टम्भेन या समाधयितुं गतिः छायागतिः, छायानुपातगतिरिति छायायाः खनिमित्तपुरुषादेरनुपातेन-अनुसरणेन गतिः छायानुपातगतिः, तथाहि-छाया पुरुषमनुसरति न तु पुरुषः छायामतरच्छायाया अनुपातगतिः, लेश्यागतियत्तिर्यध्वनुष्याणां कृष्णादिलेश्याव्याणि नीलादिलेश्याद्रव्याणि सम्प्राप्य | तद्रूपादितया परिणमन्ति सा लेश्यागतिरिति, लेश्यानुपातगतिरिति लेश्याया अनुपातः-अनुसरणं तेन गतिलेश्यानुपातगतिः, लेश्याया इत्यत्र विग्रहवेलायां कर्मणि पष्ठी, यतो वक्ष्यति–'यानि लेश्याद्रव्याणि पर्यादाय जीवः कालं करोति तलेश्येषूपजायते न शेषलेश्येषु' ततो जीवो लेश्याद्रव्याण्यनुसरति, न तु तानि जीवमनुसरन्तीति, 'उद्दिश्यप्रविभक्तगति रिति प्रविभक्त-प्रतिनियतमाचार्यादिकमुद्दिश्य यत्तत्वार्थे गच्छति सा उद्दिश्यप्रविभक्तगतिः, 'चतुःपुरुषप्रविभक्तगतिरिति चतुर्दा पुरुषाणां प्रविभक्तगतिः चतुःपुरुषप्रविभक्तगतिः, तचतुर्द्धात्वं 'समग पज्जवट्ठिया' raeeeeeeeeeeeeeeeeeeeese ~6614 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०५ ] दीप अनुक्रम [४४१] प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ॥ ३२९ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२०५] उद्देशक: [-], दारं [-1, ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. इत्यादिना ग्रन्थेन खयमेव वक्ष्यति, तथा वंका-चक्रा सा चासौ गतिश्च वंकगतिः, सा च चतुर्द्धा तथथा-घट्ट नता स्तम्भनता लेषणता पतनता, तत्र घट्टनशब्दस्य भावः- प्रवृत्तिनिमित्तं घट्टनमेव वेति, एवं शेषपदशब्दार्थोऽपि भावनीयः, तत्र घट्टनं - खक्षा गतिः स्तम्भनं श्रीवायां धमण्यादीनां तिष्ठतो वाऽऽत्मनोऽङ्गप्रदेशानां श्लेषणं - ऊर्जादीनां जानुप्रभृतिभिः सम्बन्धः पतनं- तिष्ठत एव गच्छतो वा यल्लुटनं, एतानि च घट्टनादीनि जीवस्थानीप्सि तत्वादप्रशस्यत्वाच वंकगतिशब्दवाच्यानि, तथा पङ्के गतिः पङ्कगतिः पङ्कग्रहणमुदकस्याप्युपलक्षणं, तेन पके उदके वाऽतिदुस्तरं यदात्मीयं कार्य केनापि सहोद्वध्य तद्बलेन गच्छति सा पङ्कगतिः, बन्धनविमोचनगतिरिति बन्धमाद्विमोचनं बन्धनविमोचनं तेन गतिर्बन्धन विमोचनगतिः — यदा ग्रादिफलानामतिपरिपाकगतान।मत एव बन्धनाद्विच्युतानां यदधो विश्रसया - निर्व्याघातेन गमनं सा बन्धनविमोचनगतिरिति भावः, एतदेव सूत्रकृदुपदर्शयति'से किं तं पयोगगई' इत्यादि सुगममापदपरिसमाप्तेः, नवरं 'जंबुद्दीचे दीये भरहेरवयवासस्स सपक्खं सपडिदिसिं सिद्धिखेत्तोववायगई' इति जंबूद्वीपे द्वीपे यत् भरतवर्ष ऐरावतवर्षे च तयोरुपरि सिद्धिक्षेत्रोपपातगतिर्भवति, कथमित्याह-- 'सपक्षं सप्रतिदिक् च' तत्र सह पक्षाः पार्थाः पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः यस्मिन् सिद्धिक्षेत्रोपपातगतिमवने ॥ ३२९ ॥ तत् सपक्षं सह प्रतिदिशो - विदिश जाय्यादयो यस्मिन् तत्सप्रतिदिक्, क्रियाविशेषणमेतत् एषोऽत्र भावार्थ:जंबूद्वीपे द्वीपे भरतैरावतवर्षयोरुपरि सर्वासु दिक्षु विदिधु च सर्वत्र सिद्धिक्षेत्रोपपातगतिर्भवतीति, एवं शेषसूत्रे Internationa For Park Use Only ~662~ १६ प्रयोगपदं Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] प्वपि भावनीय, उपसंपद्यमानगतिसूत्रे 'जण्णं रायं या' इत्यादि, राजा-पृथिवीपतिः युवराजो-राज्यचिन्ताकारी राजप्रतिशरीरं ईश्वर:-अणिमाद्यैश्वर्ययुक्तस्तलवरः-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टवन्धविभूषितो राजस्थानीयः माडम्बिकः-छिन्नमडम्बाधिपः कौटुम्बिक:-कतिपयकुटुम्बखामी इभमहतीतीभ्यो-धनवान् श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमानः सेनापतिः-नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकः सार्थवाहः-सार्थनायकः, नौगतिसूत्रे 'पुवक्तालिओं' इत्यादि वैतालीशब्दोऽत्र देशीवचनत्वाद्वेतालातटवाची ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां षोडशं प्रयोगपदं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [४४१] अथ सप्तदशं पदं ॥१७॥ तदेवमुक्तं षोडशं प्रयोगपदं, सम्प्रति सप्तदशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे प्रयोगपरिणाम || उक्तः, सम्प्रति परिणामसाम्यालेश्यापरिणाम उच्यते-अथ लेश्येति कः शब्दार्थः, उच्यते, लिष्यते-लिप्यते आत्मा कर्मणा सहानयेति लेश्या, कृष्णादिद्रव्यसाचिन्यादात्मनः परिणामविशेषः, उक्तं च-"कृष्णादिद्रव्यसा अत्र पद (१६) "इन्द्रिय" परिसमाप्तम् अथ पद (१७) "लेश्या" आरभ्यते ~663~ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --- -------- मूलं [२०५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] प्रज्ञापना-चिच्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥१॥" अथ कानि कृष्णादीनि १६ प्रयोयाः मल-द्रव्याणि ?, उच्यते, इह योगे सति लेश्या भवति, योगाभावे च न भवति, ततो योगेन सहान्वयव्यतिरेकदर्शनात् ॥ गपदं य. वृत्ती. योगनिमित्ता लेश्येति निधीयते, सर्वत्रापि तन्निमित्तत्वनिश्चयस्यान्वयव्यतिरेकदर्शनमूलत्वात् , योगनिमित्तताया मपि विकल्पद्वयमवतरति-किं योगान्तर्गतद्रव्यरूपा योगनिमित्तकर्मद्रव्यरूपा वा ?, तत्र न तावद्योगनिमित्तकर्मክንያዘ द्रव्यरूपा, विकल्पद्वयानतिक्रमात्, तथाहि-योगनिमित्तकर्मद्रव्यरूपा सती घातिकर्मद्रव्परूपा अधातिकर्मद्रव्यरूपा वा !, न तावद् घातिकर्मद्रव्यरूपा, तेषामभावेऽपि सयोगिकेवलिनि लेयायाः सद्भावात, नापि अघा|तिकर्मरूपा, तत्सद्भावेऽपि अयोगिकेवलिनि लेश्याया अभावात् , ततः पारिशेष्यात योगान्तर्गतद्रव्यरूपा प्रत्येया, तानि च योगान्तर्गतानि द्रव्याणि यावत्कपायास्तावत्तेषामप्युदयोपबृंहकाणि भवन्ति, दृष्टं च योगान्तर्गतानां द्रव्याणां कपायोदयोपबृंहणसामर्थ्य, यथा पित्तद्रव्यस्य, तथाहि-पित्तप्रकोपविशेषादुपलक्ष्यते महान् प्रवर्द्धमानः कोपः, अन्यच याह्यान्यपि द्रव्याणि कर्मणामुदयक्षयोपशमादिहेतव उपलभ्यन्ते, यथा-बाहयौपधिर्ज्ञानावरण[स्य क्षयोपशमस्य सुरापानं ज्ञानावरणोदयस्य, कथमन्यथा युक्तायुक्तविवेकविकलतोपजायते, दधिभोजनं निद्रारूपदर्श-11 नावरणोदयस्य, तत्किं योगद्रव्याणि न भवन्ति ?, तेन यः स्थितिपाकविशेषो लेश्यावशादुपगीयते शास्त्रान्तरे स सम्यगुपपन्नः, यतः स्थितिपाको नामानुभाग उच्यते, तस्य निमित्तं कषायोदयान्तर्गतकृष्णादिलेश्यापरिणामाः, eeseseccc दीप अनुक्रम [४४१] SAREauratonintamational अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (१) आरभ्यते ...'लेश्या' शब्दस्य व्याख्या ~664~ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------- उद्देशक: -], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] दीप अनुक्रम [४४१] ते च परमार्थतः कषायखरूपा एव, तदन्तर्गतत्वात् , केवलं योगान्तर्गतद्रव्यसहकारिकारणभेदवैचित्र्याभ्यां ते कृष्णादिभेदर्भिन्नाः तारतम्यभेदेन विचित्राश्चोपजायन्ते, तेन यद् भगवता कर्मप्रकृतिकृता शिवशर्माचार्येण शतकाख्ये ग्रन्थेऽभिहितं “ठिइअणुभागं कसायओ कुणाई" इति तदपि समीचीनमेव, कृष्णादिलेश्यापरिणामानामपि कषायोदयान्तर्गतानां कषायरूपत्वात् , तेन यदुच्यते कैश्चिद्-योगपरिणामत्वे लेश्यानां "जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभार्ग कसायो कुणइ" इति वचनात् प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वमेव स्यान्न कर्मस्थितिहेतुत्वमिति, तदपि न समीचीनं, यथोक्तभावार्थापरिज्ञानात्, अपि च-न लेश्याः स्थितिहेतवः, किंतु कषायाः, लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गताः अनुभागहेतवः, अत एष च 'स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण' इत्यत्रानुभागप्रतिपत्त्यर्थ पाकग्रहणं, एतच सुनिश्चितं कर्मप्रकृतिटीकादिषु, ततः सिद्धान्तपरिज्ञानमपि न सम्यक् तेषामस्ति, यदप्युक्तम्-'कम्र्मनिप्यन्दो लेश्या, निष्यन्दरूपत्वे हि यावत् कषायोदयः तावन्निष्यन्दस्थापि सद्भावात् कर्मस्थितिहेतुत्वमपि युज्यते || एवे'त्यादि, तदप्यश्लीलं, लेश्यानामनुभागवन्धहेतुतया स्थितिवन्धहेतुत्वायोगात् , अन्यञ्च-कर्मनिष्यन्दः कि कर्मकल्क उत कर्मसारः, न तावत्कर्मकल्कः, तस्यासारतयोत्कृष्टानुभागबन्धहेतुत्वानुपपत्तिप्रसक्तः, कल्को हि असारो भवति असारश्च कथमुत्कृष्टानुभागवन्धहेतुः, अथ चोत्कृष्टानुभागवन्धहेतयोऽपि लेश्या भवन्ति, अथ कर्मसार इति पक्षस्तहि कस्य कर्मणः सार इति वाच्यं , यथायोगमष्टानामपीति चेत् अष्टानामपि कर्मणां । ~665~ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०६-२०७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] पदम् गाथा प्रज्ञापना-शाने विपाका वर्ण्यन्ते, न च कस्यापि कर्मणो लेश्यारूपो विपाक उपदर्शितः, ततः कथं कर्मसारपक्षमझीकर्महे .१७लेश्याया: मल तस्मात् पूर्वोक्त एष पक्षः श्रेयानित्यङ्गीकर्त्तव्यः, तस्य हरिभद्रसूरिप्रभृतिभिरपि तत्र (तत्र) प्रदेशे अङ्गीकृतत्वादिति ।। यवृत्ती. अस्मिंश्च लेश्यापदे पटू उद्देशकाः, तत्रेयं प्रथमोद्देशकार्थसङ्ग्रहगाथा॥३३॥ आहार समसरीरा उस्सासे कम्म्मवन लेसासु । समवेदण समकिरिया समाउया चेव बोद्धया ॥१॥णेरड्या ण मंते ! सबे समाहारा सबे समसरीरा सवे समुस्सासनिस्सासा, गो०। णो इणद्दे समहे, से केणडेणं भैते! एवं बुच्चह-रहया नो सचे समाहारा जाव णो सचे समुस्सासनिस्सासा, गोयमा! णेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-महासरीरा य अप्पसरीरा य, तत्थ णं जे ते महासरीरा ते गं बहुतराए पोग्गले आहारेंति बहुतराए पोग्गले परिणामेति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले नीससंति अभिक्खणं आहारेंति अभि० परिणामेंति अभि० ऊससंति अभि० नीससंति, तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पो. आहा० अप्प. पो० परि० अप्प० पो० ऊससंति अप्प० पो० नीससंति आहछ आहारैति आहच परिणामेंति आहच ऊससंति आहच्च नीससंति, से एएणटेणं गो! एवं वुच्चइ-नेरइया नो सवे समाहारा नो सबे समसरीरा णो सबे समुस्सासनिस्सासा (सूत्र २०६) नेरइया णं भंते ! सच्चे समकम्मा ?, गो० नो इणढे समडे, से ॥३१॥ केणटेणं भंते । एवं बुबह-नेरइया नो सके समकम्मा, गो० नेरइया दुविहा पत्ता, तंजहा-पुचोववनगा य पच्छोववनगा य, तत्थ णं जे ते पुबोववनगा ते णं अप्पकम्मतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववनगा ते णं महाकम्मतरागा, से दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~666~ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०६-२०७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूत्रांक [२०६-२०७] गाथा तेणणं गो एवं घुच्चइ-नेरइया णो सवे समकम्मा । नेरइया णं भंते! सवे समवन्ना, गो० णो इणद्वे सभडे, से केण?ण भंते ! नेरइया नो सके समवचा, गो०! मेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुढोववनगा य पच्छोववनगा य, तत्व पंजे ते पुत्बोचवन्नगा ते णं विसुद्धवनतरागा, तत्थ ण जे ते पच्छोचवन्नगा ते णं अविसुद्धवनतरागा, से एएणडेणं गोल! एवं वुच्चइ-नेरइया नो सच्चे समवना । एवं जहेव वन्नेण मणिया तहेब लेसासु विसुद्धलेसतरागा अविसुद्धलेसतरागा य माणियत्वा । नेरइया गं भंते ! सके समवेदणा, गो० नो इणहे समडे, से केण एवं वुञ्चति नेरइया णो सवे समवेयणा, गो. नेरइया दुविहा पत्रचा, संजहा-सन्निभूया य असत्रिभूया य, तत्थ पंजे ते सभिभूता ते ण महावेदणतरागा, सत्य जे ते असन्निभूता ते णं अप्पवेदणतरागा, से तेणद्वेणं गो०। एवं बुचह-नेरइया नो सबै समवेयणा (सूत्र २०७) समशब्दः पूर्वार्द्ध प्रत्येकमपि सम्बध्यते, उत्तरार्द्ध प्रतिपदं साक्षात्सम्बन्धित एवास्ति, ततोऽयमर्थः-प्रथमोऽधिकारः सर्वे समाहाराः सबै समशरीराः सर्वे समोच्छ्रासा इति प्रश्नोपलक्षितः, द्वितीयः समकाण इति, तृतीयः समवर्णा इति, चतुर्थः समलेश्याका इति, पञ्चमः समवेदनाका इति, षष्ठः समक्रिया इति, सप्तमः समायुष इति । 18 अथ लेश्यापरिणामविशेषाधिकारे कथममीषामर्थानामुपन्यासोपपत्तिः, उच्यते, अनन्तरप्रयोगपदे उक्तं-'कतिविहेणं भिंते ! गइप्षयाए इति (पं०)१, गोयमा! पंचविहे, पयोगगई ततगई बंधणछेदणगई उववायगई विहायोगई, तत्य जा सा उपवायगई सा तिविहा-खित्तोववायगई भवोववायगई नोभवोचवायगई, तत्थ भवोववायगई चउचिहा cekceechacheesewelerservee दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~667~ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०६ -२०७] + गाथा दीप अनुक्रम [४४२ -४४४] "प्रज्ञापना" उपांगसूत्र- ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [१७], उद्देशक: [१], दारं [-], मूलं [ २०६ २०७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ३३२ ॥ - नेरदयभवोववायगई देवभवो० तिरिक्खजोणियभवो० मणुस्सभवोववायगई' इति, तत्र नारकत्वादिभवत्वेनोत्पन्नानां जीवानामुपपातसमयादारभ्य आहाराद्यर्थसम्भवोऽवश्यंभावी ततो लेश्याप्रक्रमेऽपि तेषामुपन्याससूत्रं । 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमं समाहारा इत्यादिप्रश्नोपलक्षितमर्थाधिकारमाह – 'नेरइया णं भंते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, नायमर्थः समर्थः -- नायमर्थो युक्त्युपपन्न इति भावः, पुनः प्रश्नयति - 'से केणट्टेणमित्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, अथ केनार्थेन – केन प्रयोजनेन केन प्रकारेणेति भावः भदन्त । एवमुच्यतेनैरयिकाः सर्वे समाद्दारा इत्यादि १, भगवानाह - 'गोयमे' त्यादि, इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिकं तत्र जघन्यमल्पत्वं अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रत्वं उत्कृष्टं महत्त्वं पञ्चधनुःशतमानत्वं एतच भवधारणीयशरीरापेक्षया, उत्तरवैक्रियापेक्षया जघन्यमल्पत्वं अङ्गुलसङ्ख्यातभागमात्रत्वं इतरद्धनुः सह समानत्वं एतावता च किं समशरीरा इत्यस्य प्रश्नस्योत्तरमुक्तं । अथ शरीरप्रश्नो द्वितीयस्थानोक्तः तत्कथमस्य प्रथमत एवं निर्वचनमुक्तं १, उच्यते, शरीर विषमताभिधाने सति आहारोच्छ्रासयोर्वैषम्यं सुप्रतिपादितं भवतीति द्वितीयस्थानोत्तस्थापि शरीरप्रश्नस्य प्रथमं निर्वचनमुक्तं इदानीं जहारोच्छ्रासयोर्निर्वचनमाह - 'तत्थ ण' मित्यादि, 'तत्र' अल्पशरीरमहाशरीररूपराशिद्वयमध्ये 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति महाशरीरत्वादेव, दृश्यते हि लोके वृहच्छरीरो बद्धाशी यथा हस्ती, अल्पशरीरोऽल्प भोजी शशकवत्, बाहुल्यापेक्षं चेदमुदाहरणमुपन्यस्यते, अन्यथा कोऽपि Eucation International For Pernal Use Only ~899~ १७लेश्यापदम् ॥१३२॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०६ -२०७] + गाथा दीप अनुक्रम [४४२ -४४४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१७], उद्देशक: [१], दारं [-], मूलं [ २०६ २०७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः बृहच्छरीरोऽप्यस्पमश्नाति कश्चिदल्पशरीरोऽपि भूरि भुङ्क्ते, तथाविधमनुष्यवत्, नारकाः पुनरुपपातादिसदूवेद्यानुभावादन्यत्रासद्वेद्योदय वर्त्तित्वादेकान्तेन यथा महाशरीराः दुःखितास्तीत्राहाराभिलाषाश्च भवन्ति तथा नियमाद् बहुतरान्पुद्गलानाहारयन्ति तथा बहुतरान् पुद्गलान् परिणामयन्ति, आहारपुद्गलानुसारित्वात् परिणामस्य, परिणामश्रापृथेऽप्याहारकार्यमित्युक्तः, तथा 'बहुतराए पुग्गले उस्ससंति' इति बहुतरान् पुद्गलान् उच्छ्रासतया गृह्णन्ति 'नीससंति' इति निःश्वासतया मुञ्चन्ति महाशरीरत्वादेव, दृश्यन्ते हि बृहन्छरीरास्तज्जातीयेतरापेक्षया बहुच्छासनिःश्वासा इति, दुःखिता अपि तथैव दुःखिताश्च नारका इति । आहारस्यैव कालकृतं वैषम्यमाह -- 'अभिक्खण' मित्यादि, अभीक्ष्णं - पौनःपुन्येनाहारयन्ति, ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया श्री शीघ्रतराहारग्रहणस्वभावा इत्यर्थः, अभीक्ष्णं उच्चसन्ति अभीक्ष्णं निःश्वसन्ति, महाशरीरत्वेन दुःखिततरत्वादनवरतमुच्छ्वासादि कुर्वन्तीति भावः, 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि, 'जे ते' इति इह ये इत्येतावतैवार्थसिद्धौ ये ते इति (यद्) उच्यते तद्भाषामात्रमेव, अल्पशरीरास्ते अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, ये यतोऽल्पशरीरास्ते तदाहरणीयपुद्गलापेक्षया अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, अल्पशरीरत्वादेवेति भावार्थ:, 'आहच आहारयन्ति' इति कदाचिदाहारयन्ति कदाचिन्नाहारयन्ति, महाशरीराहारग्रहणान्त|रालापेक्षया बहुतरकालान्तरतयेत्यर्थः 'आहच्च ऊससंति आहच नीससंति' एते हि अल्पशरीरत्वेनैव महाशरीरापेक्षया | अल्पतरदुःखत्वादाहच - कदाचित् सान्तरमित्यर्थः, उच्छ्वासादि कुर्वन्तीति भावः, अथवा अपर्यातिकाले अल्पश Education Intiation For Penal Use On ~669~ nirary org Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०६-२०७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] या मल गाथा प्रज्ञापन-रीराः सन्तो लोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति उच्छासापर्याप्तकत्वेन च नोच्चसन्ति, अन्यदा त्वाहारयन्ति उच्चसन्ति १७लेश्या चेत्यत [आह]-'आहच आहारयन्ति आहथ कससंती'त्युक्तं । 'से एएण?ण'मित्यादि निगमनबाक्यं सुगम । संप्रतिपदम् यवृत्ती. समकर्मत्वाधिकारमाह-'नेरइयाण'मित्यादि 'पुचोववन्नगा व पच्छोववनगा य' इति पूर्व-प्रथमं उपपन्नाः पूर्बो॥३३॥ त्पन्नाः त एव 'खार्थिकः क' इति कप्रत्ययविधानात् पूर्वोत्पन्नकाः, एवं पश्चादुत्पन्नकाः, तत्र पूर्वोत्पन्नपश्चादुत्पन्नानां 18 मध्ये ये पूर्वोत्पन्नास्तैनरकायुर्नरकगल्यसातवेदनीयादिकं प्रभूतं निर्जीणमल्पं विद्यत इति अल्पकर्मतरकाः, इतरे तद्विपर्ययात् महाकर्मतरकाः, एतच समानस्थितिका ये नारकास्तानधिकृस्य प्रणीतमवसेयं, अन्यथा हि रखाप्रमायां | उत्कृष्टस्थिते रकस्य बहुम्यायुषि क्षयमिते पल्योपमावशेषे च तिष्ठति तस्यामेच रसप्रभायां दशवर्षसहनस्थितिारकोINऽन्यः कश्चिदुत्पन्नः स किं प्रागुत्पन्नं पल्योपमावशेषायुषं नारकमपेक्ष्य वक्तुं शक्यो यथा महाकम्र्मेति १, वर्णसूत्रे विशुद्धवर्णतरका' इति विशुद्धतरवर्णा इत्यर्थः, कथमिति चेद् , उच्यते, इह यस्मा रयिकाणामप्रशस्तवर्णनामकर्म मोऽशुभस्तीत्रोऽनुभागोदयो भवापेक्षः, तथा चोक्तम्-"कालभवखेत्तवेक्खो उदओ सविवागअविवागो" [कालभविक्षेत्रापेक्ष उदयः सविपाकोऽविपाकः] नन्वायूंषि तत्र भवविपाकानि उक्तानि तत्कथमप्रशस्तवर्णनामकर्मण उदयो । ॥३३३॥ भवापेक्षो वर्ण्यते ?, सत्यमेतत् , तथाप्यसौ वर्णनामकर्मणोऽप्रशस्तखोदयस्तीत्रानुभागो ध्रुवश्च भवापेक्षः पूर्वाचायैव-10 हतः, स पूर्वोत्पन्नःप्रभूतो निर्जीर्णः स्वोकः शेषोऽवतिष्ठते, पुद्गल विपाकि च वर्णनाम, तेन पूर्वोत्पन्ना विशुद्धतर दीप अनुक्रम [४४२ -४४४] ~670~ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०६ -२०७] + गाथा दीप अनुक्रम [४४२ -४४४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१७], दारं [-], उद्देशक: [१], मूलं [ २०६ २०७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 8 वर्णाः, पश्चादुत्पन्नैस्तु नाद्यापि प्रभूतो निर्जीर्ण इति ते अविशुद्धतरवर्णाः, एतदपि समानस्थितिनैरविकविषयमवसेयं, अन्यथा पूर्वोक्तरीत्या व्यभिचारसंभवात्, 'एवं जहेव बन्ने भणिया' इत्यादि, एवम् उक्तेन प्रकारेण पथैष वर्णे भणितास्तथैव लेश्याखपि वक्तव्याः, तद्यथा— 'नेरइया णं भंते । सचे समलेस्सा १, गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे' इत्यादि, सुगमं चैतत्, नवरं पूर्वोत्पन्ना विशुद्धलेश्याः यस्मात्पूर्वोत्पन्नैः प्रभूताम्यप्रशस्तलेश्याद्रव्याणि अनुभूव अनुभूय क्षयं नीतानि तस्मात्ते विशुद्धलेश्याः, इतरे पश्चादुत्पन्नतया विपर्ययादविशुद्धलेश्याः, एतदपि लेश्यासूत्रं समानस्थिति कनैरयिकापेक्षमवसेयं । समवेदनपदोपलक्षितार्थाधिकारप्रतिपादनार्थमाह- 'नेरइया णं भंते !' इत्यादि, सम| वेदना: --- समानपीडाः 'सन्निभूया य' इति संज्ञिनः- संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूता-नारकत्वं गताः संज्ञिभूताः ते महावेदनाः, तीत्राशुभाध्यवसायेनाशुभतर कर्म्मबन्धनेन महानरकेषूत्पादात्, असज्ञिनः - असन्जिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूता असज्ञिभूताः, असज्ञिनो हि चतसृष्वपि गतिषूत्पद्यन्ते, तद्योग्यायुर्वन्धसंभवात्, तथा चोक्तम्- “कशविहे गं भंते! असन्निआउए पन्नत्ते १, गोयमा । चउबिहे असन्निभाउए पन्नत्ते, तंजहा— नेरइयअसन्निजाउए तिरिक्खजोणिय सन्निआउ मणुस्सजोणिय असन्निभाउए देवअसन्निभाउए" इति, तत्र देवेषु नैरविकेषु च असञ्ज्या युषो जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपमासयेवभागः, तिर्यक्षु मनुष्येषु च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षतः पल्योपमासयेयभागः, एवं चासञ्ज्ञिनः सन्तो ये नरकेषूत्पद्यन्ते तेऽतितीनाशुभाध्यवसायाभावात् रक्षत्र Jan Euraturintentional For Pernal Use On ~671~ www.landbrary org Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०६-२०७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: भजापना प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] मल गाथा भायामनतितीवेदनेषु नरकेषूत्पद्यन्ते अल्पस्थितिकाश्चेत्यल्पवेदनाः, अथवा सञीभूता:-पर्याप्तकीभूतास्ते महा- लेश्यावेदनाः, पर्याप्तत्वादेव, असब्जिनस्तु अल्पवेदनाः, अपर्याप्ततया प्रायो वेदनाया असंभवात् , यदिवा 'सन्निभूय'त्ति पदम् सम्ज्ञा-सम्यग्दर्शनं सा एषामस्तीति सजिनः सन्जिनो भूताः-याताः सज्ञीभूताः सन्जित्वं प्राप्ता इत्यर्थः ते महावेदनाः, तेषां हि यथावस्थितं पूर्वकृतकर्मविपाकमनुस्मरतामहो महहुःखसंकटमिदमस्माकमापतितं न कृतो भगवदहत्प्रणीतः सकलदुःखक्षयंकरोऽतिविषमविषयविषपरिभोगविप्रलुब्धचेतोभिर्धर्म इत्येवं महदुःखं मनस्युपजायते || ततो महायेदनाः, असज्ञिनस्तु मिथ्यादृष्टयः, ते तु खकृतकर्मफलमिदमित्येवं न जानते, अजानानाश्चानुपतसमानसा अल्पवेदना इति । अधुना 'समकिरिया' इत्यधिकारं विभावयिषुराह रइया गं भंते ! सो समकिरिया ?, गो.! नो इणढे समडे, से केणटेणं मंते ! एवं बुञ्चति ? नेरहया णो सवे समकिरिया, गोका नेरइया तिविहा पत्रचा, तंजदा-सम्मट्टिी मिच्छद्दिट्ठी सम्ममिच्छदिही, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी तेसि णं चचारि किरियाओ कजति तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपचक्खाणकिरिया, तत्थ ण जे ते मिच्छदिट्ठी जे सम्मामिच्छट्टिी तेसि ण नियताओ पञ्च किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावचिया ॥३४॥ अपचक्खाणकिरिया मिच्छादसणवत्तिया, से तेणढे णे गो०! एवं बुचइ-नेरइया नो सबै समकिरिया । नेरहया णं भंते ! सो समाउआ , गोणो इणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ, गो! नेरदया चउविहा पाचा, तंजहा दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~672 ~ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [४४५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eucation International उद्देशक: [१], मूलं [२०८] ..आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अत्थेतिया समाउआ समोववन्नगा अत्थंगतिया समाउया विसमोजवनमा अत्थेगतिया विसमाउया समोव वनगा अत्येगतिया विसमाउया विसमोववन्नगा, से तेणडेणं गो० ! एवं वृचइ-नेरइया नो सबै समाउया नो सबे समोववन्नगा (सूत्रं २०८ ) 'नेरइया णं मंते ! सबै समकिरिया' इत्यादि, समाः तुल्याः क्रियाः- कम्र्मनिबन्धनभूता आरम्भिक्यादिका येषां ते समक्रियाः 'चत्तारि किरियाओ कज्वंति' इति क्रियन्ते इति कर्म्म कर्त्तरिप्रयोगः तेन भवन्तीत्यर्थः, आरम्भः - पृथिव्याद्युपमर्दनं स प्रयोजनं - कारणं यस्याः सा आरंभिकी 'परिग्गहिय'त्ति परिग्रहो — धम्र्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारः धर्मोपकरणमूर्च्छा स च प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी 'मायावत्तिया' इति माया -अनार्जवमुपलक्षणत्वात् क्रोधादिरपि स च प्रत्ययः - कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया 'अपश्चक्खाणकिरिया' इति अप्रत्याख्यानेन - | निवृत्त्यभावेन क्रिया-कर्मबन्धकारणं अप्रत्याख्यानक्रियेति, 'नियइयाओ' इति नैयतिक्यो नियता इत्यर्थः अवश्यंभावित्वात् सम्यग्दृष्टीनां त्वनियताः संयतादिषु व्यभिचारात्, 'मिच्छादंसणवत्तिय'त्ति मिथ्यादर्शनं प्रत्ययः - कारणं यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, ननु मिध्यात्वाविरतिकषाययोगाः कर्म्मबन्धहेतव इति प्रसिद्धिः, इह तु आरम्भिक्यादयस्तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः १, उच्यते, दहारम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योगः परिगृहीतो, योगानां तद्रूपत्वात् शेषपदैस्तु शेषा बन्धहेतव इत्यदोषः, 'सधे समाउआ' इत्यादेः प्रश्नस्य या निर्वचनचतुर्भङ्गी तद्भावना क्रियते - निबद्धदशवर्षसहस्रप्रमाणायुषो युगपश्चोत्पन्ना इति प्रथमो भङ्गः तेषु एव दशवर्षसहस्र स्थितिषु नरकेषु एके For Pernal Use On ~673~ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [४४५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, मूलं [२०८] उद्देशक: [१], ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... प्रज्ञापना प्रथमतरमुत्पन्नाः अपरे पश्चादिति द्वितीयः, अन्यैर्विषममायुर्निबद्धं कैश्चिद्दशवर्षसहस्रस्थितिषु कैश्चिच पञ्चदशवर्षसह- १४१७ लेश्या. या मल-त्रस्थितिषु उप्तत्तिः पुनर्युगपदिति तृतीयः, केचित् सागरोपमस्थितयः केचित्तु दशवर्षसहस्रस्थितय इत्येवं विषमायुषी ४ पदम् य० वृत्ती. विषममेव चोत्पन्ना इति चतुर्थः ॥ सम्प्रति असुरकुमारादिषु आहारादिपदनवकं विभावयिषुरिदमाह ॥ ३३५॥ असुरकुमारा णं भंते! सबे समाहारा एवं सवेवि पुच्छा !, गो० नो इणट्टे समहे, से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ-जहा नेरइया । असुरक्कुमारा णं मंते ! सर्व्वे समकम्मा ?, गो० ! णो इणट्टे समट्ठे, से केण० एवं बुच्चइ ?, गो० ! असुरकुमारा दुबिहा पत्ता, तंजहा- पुढोववन्नगाय पच्छोवचनमा य, तत्थ णं जे ते पुचो ते णं महाकम्म० तत्थ णं जे ते पच्छोववनमा ते गं अप्पक, से तेणद्वेणं गो० ! एवं वृचति - असुरकुमारा णो सधे समकम्मा एवं वनलेस्साए पुच्छा, तत्थ णं जे ते सुचोववअगा अविसुद्ध नतरागा तत्थ णं जे ते पच्छोचवनगा ते णं विसुद्धबन्नतरागा से तेणद्वेगं गो० ! एवं बुचर असुरकुमारा णं सच्चे णो समवन्ना, एवं लेस्साएवि, बेयणाए जहा नेरइया, अबसेसं जहा नेरहयाणं, एवं जाब थणियकुमारा ।। (सूत्रं २०९) 'असुरकुमारा णं भंते! सच्चे समाहारा' इत्यादि, तत्रास्मिन् सूत्रे नारकसूत्रसमानेऽपि भावना विशेषेण लिख्यतेअसुरकुमाराणामल्पशरीरत्वं भवधारणीयशरीरापेक्षया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागमानत्वं महाशरीरत्वं तूत्कर्षतः सप्तहस्तप्रमाणत्वं, उत्तरवैक्रियापेक्षया तु अल्पशरीरत्वं जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येय भागमानत्वं उत्कर्षतो महाशरीरत्वं योजनलक्षमानत्वमिति, तत्रैते महाशरीरा बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, मनोभक्षणलक्षणाहारापेक्षया देवानां हि जसौ Ja Eucation International For Parts Only ~674~ ॥ ३३५॥ waryra Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०९ ] दीप अनुक्रम [४४६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) ------- पदं [१७], उद्देशकः [१], दारं [-], ------ • मूलं [२०९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. . आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः संभवति प्रधानश्च, प्रधानापेक्षया च शास्त्रे निर्देशो वस्तूनां ततोऽल्पशरीरमा चाहारपुद्गलापेक्षया ये पुद्गला बहुतराते तानाहारयन्ति, बहुतरान्परिणामयन्तीत्यादिपदत्रयव्याख्यानं प्राग्वत्, तथाऽभीक्ष्णमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुसन्ति, अत्र ये चतुर्थादेरुपर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादेश्चोपर्युच्छ्रसन्ति तानाश्रित्याभीक्ष्णमुच्यते, ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योपर्याहारयन्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युपवसन्ति तानङ्गीकृत्यैतेषामल्पकालीनाहारोच्छ्वासत्वेन पुनः पुनराहारयन्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वात्, तथाऽल्पशरीरा अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति उच्छुसन्ति च अल्पशरीरत्वादेव, यत्पुनस्तेषां कादाचित्कत्वमाहारोच्छ्वासयो स्तन्महाशरीराहारोच्छ्वासान्तरालापेक्षया बहुतमान्तरालत्वात् तत्र हि अन्तराले ते आहारादि न कुर्वन्ति तदन्यत्र ते कुर्वन्तीत्येवंविवक्षणान्महाशरीराणामप्याहारोच्छ्वासयोरन्तराक्रमस्ति किं तु तदल्पमित्यविवक्षितत्वादभीक्ष्णमित्युक्तं, सिद्धं च महाशरीराणां तेषामाहारोच्छ्रासयोरल्पान्तरत्वं अल्पशरीराणां तु महान्तरत्वं यथा सौधर्मादिदेवानां सप्तहस्तमानतया महाशरीराणां तयोरन्तरं वर्षसहस्रद्वयं पक्षद्वयं च अनुत्तरसुराणां च हस्तमानतयाऽल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्राणि त्रयस्त्रिंशदेव च पक्षा इति एषां च महाशरीराणामभीक्ष्णाहारोच्छ्रासाभिधानेनाल्पस्थितिकत्वमवसीयते इतरेषां तु विपर्ययः वैमानिकवदेवेति, अथवा लोमाद्दारापेक्षयाऽभीक्ष्णम् — अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्याप्तकावस्थायां उच्छासस्तु यथोक्तमानेनापि भवन् परिपूर्णभवापेक्षया पुनः पुनरित्युच्यते, अपर्याप्त कावस्थाय स्वल्पशरीरा लोमाहारतो नाहारयन्ति ओजा ( ज आ ) हारत एवाहर Education international ------ For Parts Only ~ 675 ~ nary org Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०९ ] दीप अनुक्रम [४४६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उद्देशक: [१], मूलं [२०९] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥२३६॥ प्रज्ञापना- २ णात् ततस्ते कदाचिदाहारयन्तीत्युच्यते, अपर्याप्तकावस्थायां च नोच्छ्वसन्ति अन्यदा तुच्छ्वसन्ति तत उच्यते आहयाः मल- चोच्डसन्तीति ॥ कर्म्मसूत्रमाह - 'असुरकुमारा णं भंते ! सधे समकम्मा' इत्यादि, अन्त्र नैरयिकसूत्रापेक्षया विपय० वृत्ती. र्यासः, नैरयिका हि पूर्वोत्पन्ना अल्पकर्माण उक्ता इतरे तु महाकर्माणः असुरकुमारास्तु ये पूर्वोत्पन्नास्ते महाकर्माणः इतरेऽल्पकर्माणः, कथमिति चेद्, उच्यते, इहासुरकुमाराः स्वभवादुद्धृतास्तिर्यक्षत्पद्यन्ते मनुष्येषु च, तिर्यक्षुत्पद्यमानाः केचिदेकेन्द्रियेषु पृथिव्यववनस्पतिपूत्पद्यन्ते केचित् पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येष्वपि चोत्पद्यमानाः कर्म्मभूमिकगर्भच्युत्क्रान्तिकमनुष्येपूत्पद्यन्ते न शेषेषु, पण्मासावशेषायुषश्च सन्तः पारभविकमायुर्वन्ति, पारभविकायुर्वन्धकाले च या एकान्ततिर्यग्योनिकयोग्या एकान्तमनुष्ययोग्या वा प्रकृतयस्ता उपचिन्वन्ति, ततः पूर्वोत्पन्ना महाकर्म्मतराः, ये तु पश्चादुत्पन्नास्ते नाद्यापि पारभविकमायुर्वन्ति नापि तिर्यग्मनुष्ययोग्याः प्रकृतीरुपचिन्वन्ति ततस्तेऽल्पकर्म्मतराः, एतदपि सूत्रं समानस्थितिकसमानभवपरिमिता सुरक्कुमारविषयमवसेयं, पूर्वोत्पन्नका अपि बद्धपारभविकायुषः पश्चादुत्पन्ना अपि अबद्धपारभविकायुषः स्तोककालान्तरिता प्रायाः, अन्यथा तिर्यग्मनुष्ययोग्यप्रकृतिबन्धेऽपि पूर्वोत्पन्नकात् पश्चादुत्पन्न उत्कृष्टस्थितिकोऽभिनवोत्पन्नोऽनन्तसंसारिकश्च महाकर्म्मतर एव भवति । वर्णसूत्रे ये ते पूर्वोत्पन्नकास्ते अविशुद्धवर्णतराः, कथमिति चेदुच्यते-- एतेषां हि भवापेक्षः प्रशस्तवर्णनाम्नः शुभस्तीत्रानुभाग उदयः, स च पूर्वोत्पन्नानां प्रभूतः क्षयमुपगत इति ते अविशुद्ध तरवर्णाः, इतरे तु पश्चादुत्पन्नतया नाद्यापि For Parts Only ~676~ १७लेश्यापदम् ॥३३६ ॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०९] दीप अनुक्रम [४४६] प्रभूतो निर्जीर्ण इति विशुद्धवर्णाः, एतच समानस्थितिकासुरकुमारविषयं सूत्रं, एवं लेस्साएऽवी'ति एवं वर्णसूत्र-| वत् लेश्यासूत्रमपि वक्तव्यं, पूर्वोत्पन्नाः अविशुद्धलेश्या वक्तव्याः पश्चादुत्पन्ना विशुद्धलेश्या इति भावः, कात्र भावनेति चेदुच्यते-इह देवानां नैरयिकाणां च तथाभवखाभाव्यात् लेश्यापरिणाम उपपातसमयात् प्रभृत्याभवक्षयाद् भवति, यतो वक्ष्यति तृतीये लेश्योद्देशके-से नूणं भंते ! कण्हलेसे नेरइए कण्हलेसेसु नेरइएसु उववजइ कण्हलेसे || उबट्टइ ?, जल्लेसे उबजइ तलेसे उबट्टइ ?' इति, अस्थायं भावार्थः-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको मनुष्यो वा नरकेषुत्पद्यमानो यथाक्रमं तिर्यगायुषि मनुष्यायुषि वा क्षीणे नैरयिकायुः संवेदयमान ऋजुसूत्रनयदर्शनेन विग्रहेऽपि वर्तमानो नारक एव लभ्यते तस्य च कृष्णादिलेश्योदयः पूर्वभवायुषि अन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्के एव वर्तमानस्य भवति, तथा 18चोक्तम्-“अन्तमुत्तम्मि गए अन्तमुहुत्तम्मि सेसए चेव । लेस्साहि परिणयाहिं जीवा वचंति परलोयं ॥१॥" [अन्तर्मुहूर्ते गतेऽन्तर्मुहूर्ते शेष एव । लेश्यायाः परिणामे जीवा ब्रजन्ति परलोकम् ॥१॥] एवं देवेश्वपि भावनीयं, तथा लेश्याध्ययने नैरयिकादिषु कृष्णादिलेश्यानां जघन्योत्कृष्टा च स्थितिरियमुक्ता-"दस वाससहस्साई काऊऍ ठिई जहनिया होइ । उक्कोसा तिन्नुदही पलियस्स असंखभागं च ॥१॥ नीलाएँ जहन्नठिई तिन्नुदहि असंखभाग पलियं च । दस उदही उकोसा पलियस्स असंखभागं च ॥२॥ कण्हाए जहनलिई दस उदही असंखभाग पलियं च ।। |तित्तीससागराई मुहुत्तअहियाई उक्कोसा ॥३॥ एसा नेरइयाणं लेसाण ठिई उ वनिया इणमो । तेण परं चोच्छामि emoraeraaeeeeee9900 ~677~ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १७लेश्या१७ पदे उद्देशः प्रत सूत्रांक [२०९] प्रज्ञापना- या: मलय. वृत्ती . ॥३३७॥ दीप अनुक्रम [४४६] तिरियाण मणुस्सदेवाणं ॥४॥ [दश वर्षसहस्राणि कापोत्याः स्थितिजैपन्या भवति । उत्कृष्टा त्रय उदधयः पल्यस्या- सङ्ख्यभागच ॥१॥नीलाया जघन्या स्थितिखय उदधयोऽसङ्ख्यभागः पल्यस्य । दशोदधय उत्कृष्टा पल्यस्यासङ्ख्यभागश्च |॥२॥ कृष्णाया जघन्या स्थितिर्दशोदधयोऽसयभागः पल्यस्य । त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि मुहूर्त्ताधिकान्युत्कृष्टा ॥३॥ एषा नैरयिकाणां लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णितेयं । ततः परं वक्ष्ये तिरश्चां मनुष्यदेवानां ॥ ४॥] अंतोमुहुत्तमद्धा लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ । तिरियाण नराणं वा बज्जित्ता केवलं लेसं ॥५॥" अस्या अक्षरगमनिका-अन्तमुहूर्त कालं यावत् लेश्यानां स्थितिर्जघन्योत्कृष्टा च भवति, कासामित्याह-'जहिं जहिं जा उ' यस्मिन् यस्मिन्पृथिवीकायिकादी संमूछिममनुष्यादौ च याः-कृष्णाद्या लेश्यास्तासां, एता हि कचित् काश्चिद् भवन्ति, पृथिव्यवनस्पतीनां कृष्णनीलकापोततेजोरूपावतस्रो लेश्याः, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूछिमतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुप्याणां कृष्णनीलकापोतरूपास्तिस्रः, गर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां गर्भजमनुष्याणां च षडपीति, नन्वेयं शुक्ललेश्याया अपि अन्तर्मुहूर्तमेव स्थितिःप्राप्नोतीत्याशङ्कायामुक्त-वर्जयित्वा केवला शुद्धलेश्या-शुक्ललेश्यामिति भावः, तस्या इयं स्थितिः "मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुषकोडी उ । नवहिं बरिसेहिं ऊणा नायचा सुकलेस्साए ॥१॥ एसा तिरियनराणं लेसाण ठिई उ बनिया होइ । तेण परं वोच्छामि लेसाण ठिई उ देवाणं ॥२॥ दस वाससहस्साई कण्हाइ ठिई जहनिया होइ । पल्लासंखियभागो उक्कोसा होइ नायबा ॥३॥ जा कण्हाइ ठिई खलु उकोसा चेव समय ॥३३७॥ se अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश: २" इति मुद्रितं ~678~ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०९ ] दीप अनुक्रम [४४६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, मूलं [२०९ ] उद्देशक: [१], आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित | मम्भहिया । नीलाइ जहन्त्रेणं पलियासंखं च उक्कोसा ॥ ४ ॥ जा नीलाइ ठिई खलु उक्कोसा चैव समय मम्भहिया । काऊह जहन्त्रेणं पलियासंखं च उक्कोसा ॥ ५ ॥ तेण परं वोच्छामि तेउलेस्सं जहा सुरगणाणं । भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणियाणं च ॥ ६ ॥ दस वाससहस्साई तेऊऍ ठिई जहन्निया होइ। उक्कोसा दो उदही पलियम्स असंखभागं च ॥ ७ ॥ जा तेऊर ठिई खलु उक्कोसा चैव समयमम्भहिया । पम्हाइ जहनेणं दसमुहुत्तहियाइं उक्कोसा ॥ ८ ॥" [ मुहूर्त्तान्तस्तु जघन्योत्कृष्टा भवति पूर्वकोट्येव । नवभिर्वर्षैरूना ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः ॥ १ ॥ एषा नरतिरश्चां लेश्यानां स्थितिर्वर्णिता तु भवति । ततः परं वक्ष्ये लेश्यानां स्थितस्तु देवानां ॥ २ ॥ दश वर्षसहस्राणि कृष्णायाः स्थितिर्जघन्या भवति । पल्यासङ्ख्यभाग उत्कृष्टा भवति ज्ञातव्या ॥ ३ ॥ या कृष्णायाः स्थितिः खलूउत्कृष्टा समयाभ्यधिकैव । नीलाया जघन्येन पल्यासङ्ख्यश्व भाग उत्कृष्टा ॥ ४ ॥ या नीलायाः स्थितिः खलु समयाभ्यधिकैवोत्कृष्टा । कापोत्याः स्थितिर्जघन्येन पल्यासङ्ख्यश्वोत्कृष्टः ॥ ५ ॥ ततः परं वक्ष्ये तेजोलेश्यां यथा सुरगणानां । भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां च ॥ ६ ॥ दशवर्षसहस्राणि तेजस्याः स्थितिर्जघन्या भवति । उत्कृष्टा द्वौ उदधी पल्यस्यासङ्ख्यो भागश्च ॥ ७ ॥ वा तैजस्याः स्थितिः खलु उत्कृष्टा समयाभ्यधिका । पद्मायाः जघन्येन दश (सागरोपमाणि) मुहुर्त्ताभ्यधिकान्युत्कृष्टा ॥ ८ ॥ ] दश सागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकान्युत्कृष्टेतिभावः, अन्तर्मुहूर्त्त चाभ्यधिकं यत्प्रागभवभाव्यन्तर्मुहूर्त्त यचोत्तरभवभावि तद्द्वयमप्येकं विवक्षित्वोक्तं, देवनैरथिकाणां हि खखलेश्या Education Internation For Parts Only ~679~ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०९] दीप अनुक्रम [४४६] प्रज्ञापना याः मल य०वृत्ती. ॥ ३३८ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... उद्देशक: [१], मूलं [२०९ ] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रागुत्तर भवान्तर्मुहूर्त्तद्वय निजायुः कालप्रमाणावस्थाना भवति, तथा "जा पन्हाइ ठिई खलु उक्कोसा चैव समयमम्भहिया । सुकाऍ जहन्त्रेण तेत्तीसकोस [ मुहुत्त ] मन्महिया ॥ १ ॥” इति [ या पद्मायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा समयाभ्यधिकैव । शुक्लाया जघन्येन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि मुहूर्त्ताभ्यधिकानि उत्कृष्टा ॥ १ ॥ ] ततोऽस्माल्लेश्यास्थितिपरिमाणात् प्रागुक्ताय तृतीयलेश्योद्देशवक्ष्यमाणसूत्रादवसीयते देवानां नैरयिकाणां च लेश्याद्रव्यपरिणाम उपपातसमयादारभ्याभवक्षयात् भवति इति । पूर्वोत्पन्नैश्च सुरकुमारैः प्रभूतानि तीत्रानुभागानि लेश्या द्रव्याणि अनुभूयानुभूय क्षयं नीतानि स्तोकानि मन्दानुभावान्यवतिष्ठन्ते ततस्ते पूर्वोत्पन्ना अविशुद्धलेश्याः पश्चादुत्पन्नास्तु तद्विपर्ययाद्विशुद्ध लेश्याः । 'बेयणाए जहा नेरइया' इति वेदनायां यथा नैरयिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, तत्राप्यसन्जिनोऽपि लभ्यमानत्वात्, तत्र यद्यपि वेदनासूत्रं पाठतो नारकाणामिवासुरकुमाराणामपि तथापि भावनायां विशेषः, स चायं ये सज्जीभूतास्ते सम्यग्रदृष्टित्वात् महावेदनाः चारित्रविराधनाजन्यचित्तसन्तापात् इतरे तु असञ्जीभूता मिध्यादृष्टित्वादल्पवेदना इति, 'अवसेसं जहा नेरइयाणं' ति अवशेषं क्रियासूत्रमायुःसूत्रं च यथा नैरयिकाणां तथा वक्तव्यं, एतच सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयं 'एव' मित्यादि, एवमसुरकुमारोक्तेन प्रमाणेन नागकुमारादयोऽपि तावद्वक्तव्याः यावत्स्वनित कुमाराः ॥ पुढ विकाइया आहारकम्मवन्नलेस्साहिं जहा नेरइया, पुढविकाइया सबै समवेयणा [१०] १, हंता गो० ! सबै समवेदणा, से For Penal Lise Only अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र "उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश: २" इति मुद्रितं ~680~ १७लेश्यापदे उद्देशः २ ॥ ३३८ ॥ war Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०] Seedeossaseasee दीप अनुक्रम [४४७] केणडेणं ?, गो! पुढविकाइया सवे असन्नी असन्निभूयं अणिययं वेयणं वेयन्ति, से तेणटेणं गो०! पुढविकाइया सच्चे समवेदणा । पुढविकाइयाणं भंते ! सो समकिरिया, हंता गो. पुढविकाइया सवे समकिरिया, से केणद्वेणं ?, गो! पुढविकाइया सवे भाइमिच्छादिट्टी तेसिं णियझ्याओ पंच किरियाओ कजंति, तं०-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपचक्खाणकिरिया मिच्छादसणवत्तिया य, से तेणडेणं गो०! एवं०, जाव चरिंदिया, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया नवरं किरियाहिं सम्मदिही मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते दुविहा पन्नचा, तंजहाअसंजता य संजयासंजता य, तत्थ ण जे ते संजयासंजया तेसि पं तिन्नि किरियाओ कजति, तं०-आर० परि० माया०, तत्थ गंजे अस्संजता तेसिणं चत्तारि किरिया कजति, तं०-आरं० परि० माया० अपच०, तत्थ णं जे ते मिच्छादिट्ठी जे य सम्मामिच्छदिट्ठी तेसि णं णियहयाओ पंच किरि० कज्जति, तं०-आरंभिक परि० माया० अपच० मिच्छा०, सेसं तं चेव (मूत्र २१०) 'पुढविकाइया' इत्यादि, पृथिवीकायिका आहारकर्मवर्णलेश्याभिर्यथा नैरविका उक्तास्तथा वाच्याः, पृथिवीकायिकानामाहारादिविषयाणि चत्वारि सूत्राणि नैरयिकसूत्राणीव पृथिवीकायिकाभिलापेनाभिधातव्यानीति भावः, केवलमाहारसूत्रे भावनैवं-पृथिवीकायिकानामनुलासययभागमात्रशरीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वमहाशरीरत्वे आगमवचनादवसेये, स चायमागमः-"पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहणट्टयाए चउटाणवडिए" इत्यादि, तत्र महाश 22029290920202000903929 ~681 ~ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०]] प्रज्ञापनया मलयवृत्ती. ॥३३॥ दीप अनुक्रम [४४७] रीरा लोमाहारतो बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्त्युच्चसन्ति च अभीक्ष्णमाहारयन्त्यभीक्ष्णं चोच्छसन्ति, महाशरीरत्वा-१५लेश्यादेव, अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छ्वासत्वं अल्पशरीरत्वादेव, कादाचित्कत्वं चाहारोच्छासयोः पर्यासेतरावस्थापेक्षमिति। पदमा वेदनासूत्रमाह-'पुढविकाइया णं भंते ! सवे समवेयणा' इत्यादि, असन्नीति-मिथ्यादृष्टयोऽमनस्का वा 'असन्निभूय'ति असजीभूता असजिनां या जायते तामित्यर्थः, एतदेव व्यनक्ति-'अणिपर्य'ति अनियताम्-अनिर्धारितां वेदयन्ते, बेदनामनुभवन्तोऽपि न पूर्वोपात्ताशुभकर्मपरिणतिरियमित्यवगच्छन्ति, मिथ्यारष्टित्वादमनस्कत्वाद्वार मत्तमूञ्छितादिवदितिभावः, क्रियासूत्रे 'माइमिच्छद्दिष्टित्ति मायावन्तो हि तेषु प्रायेणोत्पद्यन्ते, यदाह शिवशाचार्य:-"उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ गूढहियय माइलो। सढसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधई जीवो॥१॥" [उन्माप्रदेशको मार्गनाशको गूढहृदयो मायावी । शठता(शठोड) शीलश्च सशल्यस्तिर्यगायुर्वनाति जीवः ॥१॥] ततस्ते मायिन। उच्यन्ते, अथवा माया यह समस्तानन्तानुबन्धिकषायोपलक्षणं ततो मायिन इति किमुक्तं भवति-अनन्तानु बन्धिकषायोदयवन्तः अत एव मिथ्यादृष्टयः, 'ताणं णियइयाओं' इति तेषां-पृथिवीकायिकानां नैयतिक्यो-नि४ यताः पञ्चैव न तु त्रिप्रभृतय इत्यर्थः 'से एएणटेण'मित्यादि, निगमनं 'जाव चउरिदिया' इति इह महाशरीरत्वा-8॥३३९॥ ल्पशरीरत्वे खखावगाहनानुसारेणावसेये, आहारश्च द्वीन्द्रियादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽपीति, 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' इति प्रतीतं, नवरमिह महाशरीरा अभीक्ष्णमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्छसन्तीति यदुच्यते तत्सङ्ख्यात अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश: २" इति मुद्रितं ~682~ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०] दीप अनुक्रम [४४७] वर्षायुषोऽपेक्ष्य तथैव दर्शनात् , नासङ्ख्यातवर्षायुषः, तेषां प्रक्षेपाहारस्य षष्ठस्योपरि प्रतिपादितत्वात् , अल्पशरीराणां वाहारोच्छ्रासयोर्यत् कादाचित्कत्वं तदपर्यासावस्थायां लोमाहारोच्छ्वासयोरभवनेन पर्यासावस्थायां तद्भवनेन चावसेवं, कर्मसूत्रे यत्पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्वं इतरेषां तु महाकर्मत्वं तदायुष्कादितद्भवेबद्यकांपेक्षं, वर्णलेश्यासूत्रयोरपि यत्पूर्वोत्पन्नानां शुभवर्णाधुक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नानां चाशुद्धवर्णादि बाल्यादबसेयं, लोके तथादर्शनादिति, तथा 'संजयासंजया' इति देशविरताः स्थूलात् प्राणातिपातादेर्निवृत्तत्वात् इतरस्मादनिवृत्तत्वात् ॥ मनुष्यविषयं सूत्रमाह मणुस्सा णं भंते ! सवे समाहारा ?, गो० णो इणढे समढे, से केण०१, गो! मणुस्सा दुविहा पं० त०-महासरीरा य अप्पसरीरा य, तत्थ णं जे ते महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले आहारति जाव बहुतराए पोग्गले नीससंति आहब आहारति आहच नीससंति तत्थ ण जे ते अप्पसरीरा ते ण अप्पतराए पोग्गले आहारति जाव अप्पतराए पोग्गले नीससंति अभिक्खणं आहारेंति जाव अभिक्खणं नीससंति, से तेणढेणं गो०! एवं बुचति-मणुस्सा सवे णो समाहारा, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं किरियाहिं मणूसा तिबिहा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मद्दिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छदिडी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्टी ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-संयता असंयता संयतासंयता, तत्थ पंजे ते संयता ते दु. ५०, तं-सरागसंयता वीयरागसंयता य, सत्य ण जे ते चीयरागसंयता ते णं अकिरिया, तत्थ ण जे ते सरागसंयता ते दु.५०,०-- ~683~ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १७लेश्या प्रज्ञापनाया:मलय० वृत्ती. पदे उद्देशः प्रत सूत्रांक [२११] ॥३४॥ पमत्तसंयता य अपमत्तसंयता य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसि एगा मायावतिया किरिया कजति, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसिं दो किरियाओ कजंति-आरंभिया मायावत्तिया य, तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिं तिन्नि किरियाओ कजंति तं-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया, तत्थ णं जे ते अस्संजया तेसिं चत्तारि किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावचिया अपञ्चक्खाणकिरिया, तत्थ पंजे ते मिच्छदिट्ठी जे सम्मामिच्छदिट्टी तेसिं नियझ्याओ पंच किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपचक्खाणकिरिया मिच्छादसणवत्तिया, सेसं जहा नेरइयाणं ॥ (सूत्रं २११) 'मणुस्सा ण भंते ! सबे समाहारा' इत्यादि, सुगमं नवरं 'आहच आहारेंति आहच्च ऊससंति आहच नीससंति' इति, महाशरीरा हि मनुष्या देवकुर्धादिमिथुनकास्ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण “अट्ठमभत्तस्स आहारो" [अष्टमभक्तेनाहारः] इति वचनात् उच्छ्वासनिःश्वासावपि तेषां शेषमनुष्यापेक्षया अतिसुखित्वात् कादा| चित्की, अल्पशरीरास्त्वभीक्ष्णमल्पं चाहारयन्ति, बालानां तथादर्शनात्, संमूछिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसंभवाच, उच्छासनिःश्वासावप्यल्पशरीराणामभीक्ष्णं प्रायो दुःखबहुलत्वात् , 'सेसं जहा नेरइयाण'मिति शेषकर्मवर्णादिविषयं सूत्रं यथा नैरयिकाणां तथाऽवसेयं, नवरमिह पूर्वोत्पन्नानां शुद्धवर्णादित्वं तारुण्याद् भावनीयं, क्रियासूत्रे विशेषमाह-नवरं 'किरियाहिं मणुया तिविहा' इत्यादि, तत्र सरागसंयता-अक्षीणानुपशान्तकषाया दीप अनुक्रम [४४८] ॥३४॥ अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश: २" इति मुद्रितं ~684~ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ------ ---------- मूलं [२११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२११] वीतरागसंयता-उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्च 'अकिरिया' इति वीतरागत्वेनारम्भादीनां क्रियाणामभावात् ,।।। 'एगा मायावत्तिया' इति अप्रमत्तसंयतानामेकैव मायाप्रत्यया क्रिया 'कजई'त्ति क्रियते भवति, कदाचिदुडाहरक्ष-N णप्रवृत्तानाम् , अक्षीणकपायत्वात् , 'आरंभिया मायावत्तिया' इति प्रमत्तसंयतानां हि सर्वः प्रमत्तयोग आरम्भ इति | भवत्यारम्भिकी क्रिया अक्षीणकषायत्वाच मायाप्रत्ययेति, 'सेसं जहा नेरइयाण'मिति शेषमायुर्विषयं सूत्रं यथा नैरयिकाणां तथा वक्तव्यं, तञ्च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयं । | वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं, एवं जोइसियमाणियाणवि, नवरं ते वेदणाए दु० ५००-माइमिच्छदिट्ठीउवव- | नगा य अमाइसम्मदिहीउववनगा य, तस्थ णं जे ते माईमिच्छदिट्टीउववनगा ते णं अप्पवेदणतरागा तत्थ णं जे ते । अमाईसम्मदिट्ठीउववनगा ते णं महावेदणतरागा, से तेण० गो०! एवं बु०, सेसं तहेब (सूत्र २१२) 'वाणमन्तराणं जहा असुरकुमाराण' मित्यादि, यथा असुरकुमारा 'सन्निभूया य असन्निभूया य, तत्थ णं जे सन्निभूया ते महायणा असन्निभूया अप्पवेयणा' इत्येवमधीता व्यन्तरा अपि तथैवाध्येतव्याः, यतोऽसुरादिषु व्यन्तरान्तेषु देवेवसजिन उत्पद्यन्ते, तथा चोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ प्रथमशते द्वितीयोद्देशके-"असन्नी णं जहनेणं भवणवासीसु उकोसेणं वाणमंतरेसु" इति [असंज्ञिनो जघन्येन भवनवासिषु उत्कृष्टेन व्यन्तरेषु] ते चासुरकुमारप्रकरणोक्तयु-1 तरल्पवेदना भवन्तीत्यवसेयं, यत्तु प्रार व्याख्यानं कृतं सञ्जिनः सम्यग्दृष्टयोऽसब्जिनस्त्वितरे इति, तदेवमपि दीप अनुक्रम [४४८] emedeseटहरbeseenet ~685~ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१२] दीप अनुक्रम [४४९] प्रज्ञापना- घटते इति वृद्धव्याख्यानुसरणतः कृतमित्यदोषः 'एव' मित्यादि, एवमसुरकुमारोक्तप्रकारेण ज्योतिष्कबैमानिकाना-१७ लेश्याया:मल- IN मपि वक्तव्यं, नवरं ते वेदनायामेवमध्येतव्या-'दुविहा जोइसिया पन्नत्ता, तंजहा-मायिमिच्छदिट्टीउपवनगा यापदे उद्देशः य० वृत्ती. इत्यादि, अथ कस्मादेवमधीयते यावता असुरकुमारवत् 'असन्निभूया य' इति किन्नाधीयते ?, उच्यते, तेष्वसजिन उत्पादाभावात् , एतदपि कथमवसेयं इति चेत् ?, उच्यते, युक्तिवशात् , तथाहि-असञ्ज्यायुष उत्कृष्टा स्थितिः ॥३४॥ |पल्योपमासययभागः, ज्योतिष्काणां च जघन्यापि स्थितिः पल्योपमसङ्ख्येयभागः, वैमानिकानां पल्योपम, ततोऽ-18 वसीयते नास्ति तेष्वसजी, तदभावाञ्चोपदर्शितप्रकारेणैवाध्येतव्या नासुरकुमारोक्तप्रकारेणेति, तत्र मायिमिथ्या|दृष्टयोऽल्पवेदना इतरे महावेदनाः शुभवेदनामाश्रित्येति । अथ चतुर्विंशतिदण्डकमेव सलेश्यपदविशेषितमाहारादिपदैनिरूपयति सलेसाणं भंते । नेरइया सबे समाहारा समसरीरा समुस्सासनिस्सासा सवेबि पुच्छा, गो! एवं जहा ओहिगमओ तहा सलेसागमओवि निरवसेसो भाणियबो जाच वेमाणिया । कण्हलेसा णं भंते ! नेरहया सवे समाहारा पुच्छा, गो० जहा ओहिया, नवरं नेरइया वेयणाए माइमिच्छदिट्ठीउववनगा य अभाइसम्मदिट्ठीउववनगा य भाणियबा, सेसं तहेब जहा ॥३४॥ ओहियाण, असुरकुमारा जाव वाणमंतरा, एते जहा ओहिया, नवरं मणुस्साणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्थ पंजे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-संजया अस्संजया संजयासंजया य, जहा ओहियाणं, जोइसियवेमाणिया आइल्लियासु अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश: २" इति मुद्रितं ~686~ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ------ ---------- मूलं [२१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१३] तिसु लेसासु ण पुच्छिज्जंति, एवं जहा किण्हलेसा विचारिया तहा नीललेस्सा विचारेयवा, काउलेसा नेरइएहितो आरम्भ जाव वाणमंतरा, नवरं काउलेस्सा नेरइया वेदणाए जहा ओहिया । तेउलेसा गं भंते ! असुरकुमाराणं ताओ चेव पुच्छाओ, गो.! जहेब ओहिया तहेव नवरं वेयणाए जहा जोइसिया, पुढविआउवणस्सइपंचेदियतिरिक्खमणुस्सा जहा ओहिया तहेव भाणियबा, नवरं मणूसा किरियाहिं जे संजता ते पमत्ता य अपमचा य भाणियवा सरागवीयरागा नथि, वाणमंतरा तेउलेसाए जहा असुरकुमारा एवं जोइसियवेमाणियावि, सेसं तं चेव, एवं पम्हलेसावि भाणियबा, नवरं जेसि अस्थि, सुकलेस्सावि तहेब जेसिं अस्थि, सई तहेव जहा ओहियाणं गमओ, नवरं पम्हलेस्समुफलेस्साओ पंचेदियतिरिक्खजोणियमणूसवेमाणियाणं चेव, न सेसाणंति (सूत्रं २१३) । पन्नवणाए भगवईए लेस्साए पढमो उद्देसओ समत्तो। 'सलेसा णं भंते ! नेरहया' इत्यादि, यथा अनन्तरमौधिको-विशेषणरहितःप्राक् गम उक्तस्तथा सलेश्वगमोऽपि निरवशेषो वक्तव्यः यावद्वैमानिका:-वैमानिकविषयं सूत्रं, सलेश्यपदरूपविशेषणमन्तरेणान्यस्य विशेषणस्य कचिदष्यभावात् । अधुना लेश्याभेदकृष्णादिविशेषितान षडू दण्डकानाहारादिपदैविभणिपुराह-'कण्हलेसा णं भंते ! नेरइया'। इत्यादि, यथा औधिका-विशेषणरहिताः आहारशरीरोच्छ्रासकर्मवर्णलेश्यावेदनानियोपपाताख्यैनवभिः पदैः प्राय | नरयिका उक्तास्तथा कृष्णलेश्याविशेषिता अपि वक्तव्याः, नवरं वेदनापदे नैरयिका एवं वक्तव्याः-'माइमिच्छदिट्ठीउववन्नगा य अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नगाय' इति, न चौधिकसूत्रे इव 'सन्निभूया य इति, कस्मादिति चेद् , उच्यते, दीप अनुक्रम [४५०] CeRecenese 2920228808808330 For P OW ~687~ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१३] प्रज्ञापना- इहासन्जिनः प्रथमपृथिव्यामेवोत्पद्यन्ते "अस्सन्नी खलु पढम"मिति [असंज्ञिनः खलु प्रथमां ] वचनात् , प्रथमायां |१७लेश्याया: मल- 18च पृथिव्यां न कृष्णलेश्या यत्र च पञ्चम्यादिषु पृथिवीषु कृष्णलेश्या न तत्रासचिन इति, तत्र मायिनो मिथ्या'य.वृत्ती. दृष्टयश्च महावेदना भवन्ति, यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी स्थितिमशुभां ते निर्वतयन्ति, प्रकृष्टायां च तस्यां महती वेदना ॥३४२॥ इतरेषु विपरीतेति । असुरकुमारादयो यावत् व्यन्तरास्तावद्यथा ओधिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, नवरं मनुष्याणां क्रियाभिर्विशेषः, तमेव विशेष दर्शयति-तत्थ णं जे ते' इत्यादि, तत्र-तेषु सम्यगष्टयादिषु मध्ये ये ते सम्यग्द-11 ष्टयस्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संयता असंयताः संयतासंयताश्च, 'जहा ओहियाण'मिति एतेषां यथौधिकानामुक्तं तथा कृष्णलेश्यापदविशेषितानामपि वक्तव्यं, तद्यथा-संयतानां द्वे क्रिये आरम्भिकी मायाप्रत्यया च,N कृष्णलेश्या हि प्रमत्तसंयतानां भवति नाप्रमत्तसंयताना, तेषां तु यथोक्तरूपे एव द्वे क्रिये, संयतासंयतानां तिस्रःआरम्भिकी पारिग्रहिकी मायाप्रत्यया च, असंयतानां चतस्रः-आरम्भिकी पारिग्रहिकी मायाप्रत्यया अप्रत्याख्यानक्रिया चेति । ज्योतिष्कवैमानिकास्तु आद्यासु तिसूषु लेश्यासु न पृच्छयन्ते, किमुक्तं भवति ?-तद्विषयं सूत्र न वक्तव्यं, तासां तेष्वभावात् , यथा च कृष्णलेश्याविपर्य सूत्रमुक्तं तथा नीललेश्याविषयमपि वक्तव्यं, नानात्वाभावा ॥३४॥ द्, एतदेवाह-एवं जहा किण्हलेसा विचारिया तहा नीललेस्सा विचारेयवा' नीललेश्याविषयोऽपि सूत्रदण्डक एवमेव, केवलं कृष्ललेश्यापदस्थाने नीललेश्यापदमुच्चरितव्यमिति भावः, 'कापोतलेस्सा' इत्यादि, कापोतलेश्या हि दीप अनुक्रम [४५०] एeeeeeeeeeroesयलट अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश: २" इति मुद्रितं ~688~ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१३] दीप अनुक्रम [ ४५० ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Internationa उद्देशक: [१], मूलं [२१३] ..आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूत्रतो नीललेश्येव नैरयिकेभ्य आरभ्य यावद्यन्तरास्तावद्वक्तव्या, नवरं कापोतलेश्यायां नैरयिका वेदनासूत्रे यथौधिकास्तथा वक्तव्याः - 'नेरइया दुबिहा पन्नत्ता-सन्निभूया य जसन्निभूया य' इत्येवं वक्तव्या इति भावः, असज्ञिनामपि प्रथमपृथिव्यामुत्पादात् तत्र च कापोतलेश्याभावात्, तेजोलेश्याविषयं सूत्रमाह- 'तेउलेस्सा णं भंते ! असुरकुमारा' इत्यादि, इह नारकतेजोवायुविकलेन्द्रियाणां तेजोलेश्या न संभवति ततः प्रथमत एवासुरकुमारविषयं सूत्रमुक्तं, अत एव तेजोवायुविकलेन्द्रियसूत्रमपि न वक्तव्यं, असुरकुमारा अपि यथा प्रागोषत उक्तास्तथा वक्तव्याः, नवरं वेदनापदे यथा ज्योतिष्कास्तथा वक्तव्याः, 'सन्निभूया य असन्निभूया य' इति न वक्तव्याः, किंतु 'माइमिच्छदिट्टिउववन्नगा अमाइसम्मदिट्टिउवंवन्नगा' इति वक्तव्या इति भावः, असब्ज्ञिनां तेजोलेश्यावत्सूत्पादाभावात् पृथिव्यव्वनस्पतयः तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्च यथा प्रागोधिकास्तथा वक्तव्याः, नवरं मनुष्याः क्रियाभिर्ये संयतास्ते प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च भणनीयाः, उभयेषामपि तेजोलेश्यायाः संभवात्, 'सरागा बीबरागा य नत्थि'त्ति | सरागसंजया वी अरागसंजया य इति न वक्तव्या इत्यर्थः, वीतरागाणां तेजोलेश्याया असंभवेन वीतरागपदोपन्यासस्य तेजोलेश्यायाः सरागत्याव्यभिचारात् सरागपदोपन्यासस्य चायोगात्, 'वाणमंतरा तेउलेसाए जहा असुरकुमारा' इति तेऽपि 'माइमिच्छदिहिउवपन्नगा अमाइसम्मछिट्टिउपवनगा य' इत्येवं वक्तव्याः न तु 'सन्निभूया य असन्नि भूया य' इति, तेष्वपि तेजोलेश्यावत्सु मध्येऽसब्ज्ञिनामुत्पादाभावात् 'एवं पम्हलेसावि भाणियचा' इति, एवं - For Penal Use On ~689~ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलबावृत्ती. १७लेश्यापदे उद्देश प्रत सूत्रांक [२१३] तेजोलेश्योक्तप्रकारेण पालेश्याऽपि वक्तव्या, किमविशेषेण सर्वेष्वपि ?, नेत्याह-'नवरं जेसिं अत्थि' इति नवरम्- अयं विशेषः येषां पालेश्याऽस्ति तेष्वेव वक्तव्या, न शेषेसु तत्र पञ्चेन्द्रियतिरश्चा मनुष्याणां वैमानिकानां चास्ति न शेषाणामिति तद्विषयमेवैतस्याः सूत्रं, शुक्ललेश्याऽपि तथैव वक्तव्या यथा पालेश्या, साऽपि येषामस्ति तेषां वक्तव्या सर्वमपि सूत्रं तथैव यौघिकानां गम उक्तः, पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च येषामस्ति तान् साक्षादुपदर्शयति-'नवरं पम्हलेससुक्कलेसाओ' इत्यादि सुगम ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥ ॥२४॥ दीप अनुक्रम [४५०] उक्तः पद्वाराद्यर्थाभिधायी प्रथम उद्देशकः, अधुना द्वितीय उद्देशक उच्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् करणं भंते ! लेसाओ पनत्ताओ, गोयमा ! छल्लेसाओ पन्नताओ, तंजहा-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा मुकलेस्सा (सूत्र २१४) नेरइयाणं भंते ! कद लेसाओ पन्नताओ, गो! तिनि, तं०-किण्ह नील. काउलेसा । तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कर लेस्साओ पत्रचाओ?, गो! छल्लेसाओ पं०,०-कण्हलेस्सा जाव मुक्कलेसा । एगिदियाणं भंते ! कइ लेसाओ पं०१, गो. चत्वारि लेसाओ प०,०-कण्ह० जाव तेउलेसा । पुढविकाइयाणं भैते ! कइ लेसाओ पं०१, गो! एवं चेव, आउवणस्सइकाइयाणवि एवं चेच, तेउवाउनेईदियतेइंदियचउरिदियाणं जहा ॥३४३॥ SAREauratonintamational अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (२) आरभ्यते ...लेश्याया: षड् भेदा:, अत्र 'कस्य कतिविधा लेश्या: वर्तते?' तस्य निरूपणं ~690~ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१४-२१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१४ -२१६] दीप अनुक्रम Feereeeeeeeeeeeeee नेरइयाणं । पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो०! छल्लेस्सा-कण्ह० जाव सुक्कलेसा, समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो० ! जहा नेरइयाणं, गन्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो.! छल्लेसा कण्ह० जाब सुक्कलेसा, तिरिक्खजोगिणीणं पुच्छा, गो०! छल्लेसा एयाओ चेव । मण्साणं पुच्छा, गो०1 छल्लेसा एयाओ चेव, संमुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गो. जहा नेरइयाणं, गन्भवतियमणुस्साणं पुच्छा, गो० छल्लेसाओ तं०- कण्ह० जाव सुक्कलेसा, मणुस्सीणं पुच्छा, गो! एवं चेव । देवाणं पुच्छा, गोछ एयाओ चेव, देवीणं पुच्छा, गो! चत्तारि कण्ह जाव तेउलेस्सा, भवणवासीणं भंते ! देवाणं पुच्छा, गो० एवं चेव, एवं भवणवासिणीणवि, वाणमंतरदेवाणं पुच्छा, गो! एवं चेव, वाणमंतरीणवि, जोइसियाण पुच्छा, गो०! एगा तेउलेसा, एवं जोइसिणीणवि । वेमाणियाण पुच्छा, गो! तिन्नि, त-उ० पम्ह सुक्कलेस्सा, वेमाणिणीणं पुच्छा, गो०! एगा तेउलेस्सा (सूत्र २१५) एतेसि णं भंते ! जीवाणं सलेस्साणं कण्हलेसाणं जाव सुकलेस्साणं अलेस्साण य कयरे २ अप्पा वा ४१, गो०! सबत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सा संखेजगु तेउलेस्सा संखेजगु० अलेस्सा अणंतगु० काउलेसा अर्णतगु० नीललेसा विसेसाहिया कण्हलेसा विसेसाहिया सलेस्सा विसेसाहिया (सूत्र २१६) 'कइ गं भंते ! लेसाओ' इत्यादि, कः पुनरस्य सूत्रस्य सम्बन्ध इति चेद् ?, उच्यते, उक्तं प्रथमोद्देशके 'सलेसाणं भंते ! नेरइया' इत्यादि इह तु ता एव लेश्याश्चिन्त्यन्ते 'कद लेसा' इति, तत्र लेश्याः प्राग्निरूपितशब्दार्थाः 'कइति [४५१ -४५३] ~691~ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१४ -२१६] दीप अनुक्रम [ ४५१ -४५३] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥ ३४४॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], उद्देशक: [२]. दारं [-], मूलं [२१४-२१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः किंपरिमाणाः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम ! पड़, ता एव नामतः कथयति - ' कण्हलेसा' इत्यादि, कृष्णद्रव्यात्मिका कृष्णद्रव्यजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्या एवं नीललेश्येत्यादिपदेष्वपि भावनीयं । 'नेरइयाणं भंते!' इत्यादि, सूत्रमल्पबहुत्ववक्तव्यतायाः प्राक् सकलमपि सुगमं, नवरं वैमानिकसूत्रे यद्वैमानिकानामेका तेजोलेश्योक्ता तत्रेदं कारण- त्रैमानिक्यो हि देव्यः सीधम्र्मेशानयोरेव तत्र च केवला तेजोलेश्येति, सामान्यतः सङ्ग्रहणिगाथा अत्रेमाः-- " किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसाण तेउलेसा मुणेयचा ॥ १ ॥ कप्पे सकुमारे माहिंदे चैव बंभलोए य । एएस पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसा उ ॥ २ ॥ पुढवी आउ वणस्सह वायर | पत्तेय लेस चत्तारि । गन्भयतिरियन रेसुं छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥ ३ ॥” [ कृष्णा नीला कापोती तेजसी च लेश्या भवनव्यन्तराणां । ज्योतिष्क सौधर्मेशानाः तेजोलेश्याका ज्ञातव्याः ॥ १ ॥ कल्ले सनत्कुमारे माहेन्द्रे चैव ब्रह्मलोके च । एतेषु पद्मलेश्या ततः परं शुक्ललेश्यैव ॥ २ ॥ पृध्यभ्यनस्पतिवा दरप्रत्येकानां चतस्रो लेश्याः । गर्भजतिर्यशरेषु षड् लेश्याः शेषाणां तिस्रः ॥ ३] सम्प्रति लेश्या दीनामष्टानामल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णं भंते! जीवाणं सलेस्साण'मित्यादि, अमीषामष्टानां मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पाः कतरे कतरेभ्यो बहवः कतरे कतरैः सह तुल्याः, इह प्राऊ तत्वात् तृतीयायामपि कतरेहिंतो निर्देशोऽयं भवतीत्येवं व्याख्यायामदोषः, तथा कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिकाः ?, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह — गौतम | सर्वस्तोकाः शुक्कलेश्याः, शुक्ला शुक्लद्रव्यजनिता वा वेश्या येषां ते Ja Eucation Internation For Parts Only ~692~ १७लेश्यापदे उद्देशः * ॥ ३४४॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१४ -२१६] दीप अनुक्रम [ ४५१ -४५३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], उद्देशकः [२], दारं [-], मूलं [२१४-२१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः | शुक्ललेश्याः, एवं शेषपदेष्वपि विग्रहभावना कार्या, सर्वस्तोकाः, कतिपयेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु मनुष्येषु च लान्तकादिदेवेषु च तस्याः सद्भावात्, तेभ्यः पद्मलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः सङ्ख्येयगुणेषु तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोक कल्पवासिषु च देवेषु पद्मलेश्याभावात्, अथ लान्तकादिदेवेभ्यः सनत्कुमारादिकल्पत्रयवासिनो देवा असङ्ख्यातगुणाः ततः शुक्ललेश्येभ्यः पद्मलेश्याः असङ्ख्येयगुणाः प्राप्नुवन्ति कथं सङ्ख्येयगुणा उक्ताः १, उच्यते, इह जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्यातानां सनत्कुमारादिकल्पन्त्रयवासिदेवेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां शुक्ललेश्या ततः पद्मलेश्या चिन्तायां सनत्कुमारादिदेवप्रक्षेपेऽप्यसङ्ख्येयगुणत्वं न भवति किं तु यदेव तिर्यक्पञ्चेन्द्रियापेक्षयैव सङ्ख्येयगुणत्वं | तदेवास्तीति सङ्ख्येयगुणाः शुक्ललेश्येभ्यः पद्मलेश्याः, तेभ्योऽपि सङ्ख्येयगुणाः तेजोलेश्याः, बादरपृथिव्यपप्रत्येकवनस्पतिकायिकेषु सङ्ख्येयगुणेषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्येषु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क सौ धम्र्मेशान देवेषु च तेजोलेश्याभावात् भावना सङ्ख्येयगुणत्वे प्राग्वदत्रापि कर्त्तव्या, तेभ्योऽप्यनन्तगुणा अलेश्याः, सिद्धानामलेश्यानां प्राक्तनेभ्योऽनन्तगुणत्वात्, तेभ्योऽपि कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणानां वनस्पतिकायिकानां कापोतलेश्यावतां सद्भावात्, तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, क्लिष्टक्लिष्टतराष्यवसायानां प्रभूततराणां सद्भावात्, कृष्णलेश्येभ्योऽपि सलेश्या विशेषाधिकाः, नीललेश्यादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ तदेवं सामान्यतोऽल्पबहुत्वं चिन्तितं, सम्प्रति नैरयिकेषु तदल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाह - Ja Eucation Internation For Parts Only ~693~ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१७-२१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मल प्रत सूत्रांक [२१७-२१८] १७ लेश्यापदे उद्देशः AAH ॥३४५॥ दीप अनुक्रम [४५४-४५५] एएसिणं मंते ! नेरहयाणं कण्हलेसाणं नीललेस्साणं काउलेस्साण य कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, मो० ! सबथोवा नेरइया कण्हलेसा नीललेसा असं काउले. असं० (सूत्र २१७) एतेसि गं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेसाण य कयरे २१, अप्पा वा ४ गो० स० तिरिक्खजोणिया सुकलेसा एवं जहा ओहिया नवरं अलेस [सलेस बज्जा, एएसि एगिदियाणं कण्ह० नील काउ० तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबत्थोवा एगिदिया तेउलेस्सा काउले० अणं नीलले. विसेसा कण्हलेसा० (विसेसा०)। एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं कण्हलेसाणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गो०! जहा ओहिया एगिदिया नवरं काउलेस्सा असंखेनगुणा, एवं आउकाइयाणवि, एतेसि भंते ! तेउकाइयाणं कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा बा ४१, गो०। सबथोवा तेउकाइया काउलेस्सा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया, एवं वाउकाइयाणवि, एतेसि ण मंते ! वणस्सइकाइयाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य जहा एगिदिय० ओहियाणं, बेइंदियाणं तेइंदियाणं चरिंदियाणं जहा तेउकाइयाणं, एएसिणं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेसाणं एवं जाव सुक्कलेसाण य कयरे कयरेहिती अप्पा वा ४१, गो०! जहा ओहियाणं तिरिक्खजोणियाणं नवरं काउलेस्सा असंखेजगुणा, समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण जहा तेउकाइयाण, गम्भवतियपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं जहा ओहियाण तिरिक्खजोणियाणं नवरं काउलेस्सा संखेजगुणा, एवं तिरिक्खजोणिणीणवि, एएसिणं भंते ! संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य कण्ह० जाव मुकलेसाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबथोवा गम्भवफंतियपंचेदियतिरि० मुक्का I४॥३४५॥ SAREauratonintamarnama लेश्या विषयक अल्प-बहुत्वं ~694 ~ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], ---- ------- मूलं [२१७-२१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७-२१८] दीप अनुक्रम [४५४-४५५] पम्ह० संखेनगुणा तेउले० संखे० काउ० संखे० नीललेस्सा विसेसा कण्हसा विसेसा० काउलेसा समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया असंखेज० नीललेसा विसेसा० कण्हलेसा विसेसा०, एएसिणं भंते ! समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेजाव मुक्कलेसाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गो०। जहेव पंचमं तहा इम छ₹ भाणिया, एएसिणं भंते ! गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गो०! सवत्थोवा गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया सुकलेसा सुकलेसाओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ पम्हलेसा गम्भवकंतियपंचेदियतिरिक्खजोणिया संखे० पम्हलेसाओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेज० तेउले०तिरिक्खजोणिया संखे० तेउलेसा तिरिक्खजोणिणीओ सं० काउले० सं० नीलले० विसेसा० कण्हले० विसेसा० काउलेसाओ सं० नीललेसाओ विसेसाहियाओ कण्हलेसाओ विसेसाहियाओ, एएसिणं भंते ! समुच्छिमपंचें० तिरिक्खजोणि गब्भवतियपंचेंतिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेसाणं जाव सुकलेस्साण य कयरे कयरेहिती अप्पा वा ४१, गो! सबथोषा गम्भ० तिरिक्खजोणिया मुक्कलेसा सुक्कलेसाओ संखेजगुणाओ पम्हलेसा गम्भव० संखेज. पम्हलेसाओ तिरिक्ख० संखेजगुणाओ तेउलेसा गम्भव०तिरिक्ख० संखेजगु० तेउलेसाओ तिरि० संखेजगुणाओ काउलेसाओ सं० नीललेसा विसे० कण्हले. विसे० काउले० सं० नीललेसा वि० कण्हलेसाओ विसेसाहियाओ कण्हले० संमु० पंचेंदि० तिरिअ०सं० नीलले० विसे० कण्हले. विसेसाहिया । एएसिणं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण तिरिक्खजोणिणीण य कहलेस्साणं जाव मुकलेसाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गो.1 सबथोवा पंचेंदियतिरिक eeseeeeeeeeeee ~695~ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१७ -२१८] दीप अनुक्रम [ ४५४ -४५५] प्रज्ञापनाया: मल य० वृत्ती. ॥ २४६॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], उद्देशक: [२]. दारं [-], मूलं [२१७-२१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सुकलेस्सा सुकलेसाओ संखि ० पम्हलेसा सं० पम्हलेसाओ संखेञ्जगुणाओ तेउलेसा सं० तेउलेस्साओ संखिजगुणाओ काउले० संखे० नीललेसाओ विसेसाहिआओ कण्हलेसा विसेसा काउले० असंखेज्जगुणा नीलले० विसे० कण्हले ० विसेसाहियाज, एएसि णं भंते । तिरि० तिरिक्खजोगिणीण य कण्हले० जाव सुक० कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ १, गो० ! जहेब नवमं अप्पा बहुगं तहा इमंपि, नवरं काउले तिरि० अनं०, एवं एते दस अप्पाबहुगा तिरिक्खजोणियाणं (सूत्रं २१८ ) । 'एएसि णं भंते! नेरइयाण' मित्यादि, नैरयिकाणां हि तिस्रो लेश्याः, तद्यथा - कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या, उक्तं च "काउय दोसु तईयाऍ मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मिस्सा कण्हा ततो परमकण्हा ॥ १॥" [कापोती द्वयोस्तृतीयस्यां मिश्रा नीला चतुर्थ्यां । पञ्चम्यां मिश्रा कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥ १ ॥ ] ततोऽत्र त्रयाणामेव पदानां परस्परमल्पबहुत्वचिन्ता, तत्र सर्वस्तोकाः कृष्णलेश्यानैरयिकाः, कतिपयपञ्चमपृथिवीगतनरकावासेषु पष्ठयां सप्तम्यां च पृथिव्यां नैरयिकाणां कृष्णलेश्यासद्भावात्, ततोऽसवेयगुणा नीललेश्याः, कतिपयेषु तृतीयपृथिवीगतनरकाचासेषु चतुर्थ्यां समस्तायां पृथिव्यां कतिपयेषु च पञ्चमपृथिवीगतनरकावासेषु नैरयिकाणां पूर्वोकेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां नीललेश्याभावात्, तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, प्रथमद्वितीयपृथिव्योस्तृतीयपृथिवी गतेषु च कतिपयेषु नरकावासेषु नारकाणामनन्तरोकेम्पोऽसङ्ख्येयगुणानां कापोतदेश्य सद्भावात् । अधुना तिर्यक् Eaton International For Pale Only ~696~ १७लेश्यापदे उद्देशः ॥३४६ ॥ waryra Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१७-२१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७-२१८] 889 दीप अनुक्रम [४५४-४५५] पञ्चेन्द्रियेवल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! इत्यादि, ‘एवं जहा ओहिया' इति एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण -S यथा प्रागोषिकास्तथा वक्तव्याः, नवरमलेश्यावर्जाः, तिरश्चामलेश्यानामसंभवात्, ते चैवं-सर्वस्तोकाः तिर्यग्योनिकाः शुक्ललेश्याः, ते च जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्याता द्रष्टव्याः, तेभ्य सङ्घवेयगुणाः पद्मलेश्याः, तेभ्योऽपि सजयेयगुणास्तेजोलेश्याः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः कापोतलेश्याः, तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णेलश्या विशेपाधिकाः, तेभ्योऽपि सलेश्या विशेषाधिकाः। साम्प्रतमेकेन्द्रियेष्वल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! एगिदियाण'मित्यादि, सर्वस्तोका एकेन्द्रियास्तेजोलेश्याः, कतिपयेषु बादरपृथिव्यवनस्पतिकायिकेष्वपर्याप्तावस्थायां तस्याः सद्भावात् , तेभ्यः कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, अनन्तानां सूक्ष्मवादरनिगोदजीवानां कापोतलेश्यासद्भावात् , तेभ्यो|ऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अत्र भावना प्रागेवोक्का । सम्प्रति पृथिवी| कायिकादिविषयमल्पबहुत्वं वक्तव्यं, तत्र पृथिव्यवनस्पतिकायानां चतस्रो लेश्याः तेजोवायूनां तिस्र इति तथैव सूत्रमाह-एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाण' मित्यादि, सुगम, द्वित्रिचतुरिन्द्रियविषयमपि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रे कापोतलेश्या असङ्ख्यातगुणा नत्वनन्तगुणाः, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्यातत्वात् , संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिरश्यां यथा तेजस्कायिकानामुक्तं तथा वक्तव्यं, तेजस्कायिकानामिव तेषामप्यायलेश्यात्रयमात्रसद्भावात् , गर्भव्युक्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रे तेजोलेश्याभ्यः कापोतलेश्या असहयगुणा वक्तव्याः, तावतामेव तेषां केवलवे SCACate ScidicSEEM ~697~ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१७-२१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७-२१८] प्रज्ञापना- या मल- य० वृत्ती. ॥३४७॥ दीप दसोपलब्धत्वात् , शेपमौषिकसूत्रबद् वक्तव्यं, एवं तिर्यग्योनिकीनामपि सूत्रं वक्तव्यं, तथा चाह-एवं तिरिक्ख-18 १७ लेश्याजोणिणीणवि' । अधुना संमूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियतिर्यस्त्रीविषयं सूत्रमाह-एएसिणं भंते पदे उद्देश: इत्यादि सुगम, एतच प्राग्वदू भावनीयं, इदं किल पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाधिकारे षष्ठं सूत्रमनन्तरोक्तं च पञ्चममत उक्तं 'जहेब पंचमं तहा इमं छटुं भाणियचं,' अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियतिर्यस्त्रीविषयं सप्तमं सूत्र-18 माह-एएसि णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं सर्वाखपि लेश्यासु स्त्रियः प्रचुराः, सर्वसङ्ख्ययापि च तिर्यक पुरुष- भ्यस्तिर्यकत्रियस्त्रिगुणाः “तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयवा" [ त्रिगुणाविरूपाधिकास्तिरां त्रियो ज्ञातव्याः] इति वचनात्, ततः सङ्ख्यातगुणा उक्ताः, नपुंसकास्तु गर्भव्युत्क्रान्तिकाः कतिपय इति न ते यथोक्तमल्पब हुत्वं व्यामुवन्ति, सम्प्रति संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकगर्भव्युत्क्रान्तिकपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकतिर्यकुखीविषयमष्टमं सामान्यतः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकतिर्यकत्रीविषयं नवमं सामान्यतस्तिर्यग्योनिकतिर्यस्वीविषयं दशमं सूत्रमाह । एवं मणुस्साणवि अप्पाबहुगा भाणियच्वा, नवरं पच्छिमगं अप्पाबहुगं नत्थि (सूत्र २१९) एएसि णं भंते ! देवाणं ॥३४७॥ कण्हलेसा जाव सुफलेसाण य कयरे कयरेहितो?, अप्पा वा ४ गो! सवत्थोवा देवा सुकले० पम्हलेस्सा असं० काउले. असं० नीललेस्सा विसेसा० कण्ह. विसेसा० तेउलेसा संखेजगुणा, एएसि गं भंते । देवीणं कण्हले. जाव तेउलेसाण य अनुक्रम [४५४-४५५] INI ~698~ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१९ -२२१] दीप अनुक्रम [ ४५६ -४५८] उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः) पदं [१७], उद्देशक: [२]. दार [-] मूलं [२१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः “प्रज्ञापना” Education Internationa - कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गो० ! सङ्घत्थोवा देवीओ काउले० नीललेसाओ विसे० कण्हले बिसेसा० तेउले ० संखे० एवं एएसि णं भंते ! देवाणं देवीण य कण्हले० जाव सु० कवरे २ अप्पा वा ४१, गो० ! सहत्थोवा देवा सुकले० पम्हले. असं० काउले० असं० नीलले० विसे० कण्हले० विसे० काउले० देवीओ संखे० नीलले० विसे० कण्हले० विसे० तेउले ० देवा संखे० तेउ० देवीओ संखे०, एएसि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं कण्हले० जाब तेउलेस्साण य कयरे २ अप्पा वा ४, गो० ! सङ्घ० भवणवासी देवा तेडले० काउलेसा० असं० नीललेसा विसे० कण्हलेसा विसेसा । एतेसि णं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं कण्हले जाव तेउले कतरे कतरेर्हितो अप्पा वा ४१, गो० ! एवं चैिव, एएसि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं देवीण य कण्हलेसाणं जाब तेउलेसाण य कयरे २१ अप्पा वा ४१, गो० ! सवत्थो भवणवासी देवा तेउलेसा भवणवासिणीओ तेउलेसाओ संखे० काडले० भवणवासीओ असंखे० नीललेसा विसे० कण्हलेसा विसे० काउलेसाभवणवासिणीओ देवीओ संखेजगु० नीलले० विसे० कण्हलेसाओ विसेसाहियाओ, एवं वाणमंत तिभेव अप्पाबहुया जहेव भवणवासिणं तदेव भा० । एतेसि णं भंते! जोइसि० देवाणं देवीण य तेउलेसाणं कयरे २१ अप्पा वा ४१, मो० ! सबत्थो० जोइसिया देवा तेउले० जोइसिणीओ देवीओ० तेउले० संखेजाओ। एएसि णं भंते! बेमाणियाणं देवाणं तेउले० पम्हलेसाणं सुकलेसाण य कयरे २१ अप्पा वा ४१, गो० ! सहत्थो० वैमाणिया देवा सुकलेस्सा पम्हलेसा असं० तेउलेसा असं०, एतेसि णं भंते! वेमाणियाणं देवाणं देवीण य तेउलेसा० पम्हसुकलेस्साण य कयरे २ अप्पा वा ४१, गो० ! सवत्थोवा बेमाणिया देवा सुकलेस्सा पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा तेउलेस्सा असं For Pasta Lise Only ~699~ waryra Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: लेण्यापदे उद्देशः प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] अज्ञापनायाः मलय. वृत्ती . ॥३४॥ easerselence दीप अनुक्रम [४५६-४५८] aeeeeeeoरयल खेज्जगुणा तेउलेसाओ चेमाणिणीओ देवीओ संखेजगुणाओ, एएसिप भंते ! भवणवासीदेवाणं पाणमंतराणं जोइ- सियाण वेमाणियाण य देवाण य कण्हलेसाणं जाव सुक्कलेसाणं कयरे २ अपा वा ४१, गो.1, सवत्थोवा वेमाणिया देवा मुकलेस्सा पम्हलेस्सा असंखेजगुणा तेउलेस्सा असंखेजगुणा तेउलेसा भवणवासीदेवा असं० काउलेस्सा असं० नीलले० विसेसा० कण्हले० विसेसा० तेउलेसा वाणमंतरा देवा असं० काउले. असं० नीलले. विसेसा कण्हले. विसेसा तेउलेसा जोइसिया देवा संखे०, एएसिणं भंते ! भवणवासिणीण वाणमंतरीणं जोइसिणीणं बेमाणिणीण य कण्हलेसाणं जाव तेउलेस्साण य कयरे २१, गो! सबथोवाओ देवीओ वेमाणिणीओ तेउलेसाओ भवणवासिणीओ तेउलेसाओ असं० काउलेसाओ असं० नीललेसाओ विसेसा० कण्हले० विसेसा० तेउलेसाओ वाणमंतरीओ देवीओ असं० काउले० असं नीललेसाओ विसेसा० कण्हलेसाओ विसेसा० तेउलेसाओ जोइसिणीओ देवीओ संखेजगुणाओ। एएसि णं भंते! भवणवासीण जाव येमाणियाणं देवाण य देवीण य कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कयरे २ अप्पा चा ४१, गो०! सवत्थोवा वेमाणिया देवा मुकलेसा पम्हलेसा असंखे तेउलेसा असंखे० तेउलेसाओ वेमाणियदेवीओ संखे० तेउले० भवणवासीदेवा असं० तेउलेसाओ भवणवासीदेवीओ संखे० काउलेसा भवणवासी असं नीलले० विसेसा० कण्हले०विसेसा काउलेसाओ भवणवासिणिओ संखेनीलले. विसेसाहियाओ कण्हलेसाओ घिसे० तेउलेसा वाणमतरा सं० तेउलेसाओ वाणमंतरीओ संखे० काउले० वाणमंतरा असं० नीलले० विसेसा० कण्हले० विसेसा काउले. बाणमं. संखेनीललेसाओ विसे० कण्हलेसा विसेसा० तेउले०जोइसिया संखे० तेउले०जोइसिणीओ संखिजगुणाओ । (सूत्र २२०) ॐ00202 ॥३४८॥ ~700~ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] ReceDesenceRECENTRE दीप अनुक्रम [४५६-४५८ एएसि णं भंते ! कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कयरे २ अप्पड्डिया वा महहिया वा?, गो०! कण्हलेसेहितो नीललेसा महड्डिया नीललेसेहितो काउलेसा महड्डिया एवं काउलेस्सहिंतो तेउलेसा महहिया तेउलेसेहितो पम्हलेसा महडिया पम्हलेसेहिंतो सुक्कलेसा महड्डिया, सबप्पहिया जीवा कण्हले० सवमहड्डिया सुकलेसा ।। एएसिणं भंते ! नेरइयाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउलेसाण य कयरे २ अप्पड्डिया वा महहिया वा, गो० कण्हलेसेहितो नीलले. महड्डिया नीललेसेहितो काउलेसा महड्डिया, सबप्पड्डिया नेरइया कण्हले०, सल्बमहड्डिया नेरइया काउले०॥ एएसिणं भंते! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्प मह०१, गो०!, जहा जीवाणं । एएसि भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणि कण्हलेजाव तेउलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पड्डिया वा महड्डिया वा, गो०, कण्हलेसेहिंतो एगिदियतिरिक्खजो नीलले. महड्डिया नीलले तिरि० काउले. मह काउले. तेउले. महड्डिया, सहप्पड्डिया एगेंदियतिरिक्खजोणिया कण्हले. सबमहड्डिया तेउले । एवं पुढविकाइयाणवि, एवं एएणं अभिलावणं जहेब लेस्साओ भावियाओ तहेव नेय जाव चरिंदिया । पंचेंदियतिरिक्खजोणितिरिक्खजोणिणीणं समुच्छिमाणं गम्भवतियाण य सबेसि भाणि जाप अप्पहिया वेमाणिया देवा तेउले. सचमह० मा० सुकलेसा । केई भणति-चउनीसं दंडएणं इड्डी माणि०(सूत्र २२१) बीओ उद्देसओ समचो । 'एएसिणं भते । इसादि भावना प्रागुक्तानुसारेण कर्तव्या, तिर्यग्योनिकविषयसूत्रसंकलनामाई-एवमेए AN ~ 701~ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१९ -२२१] दीप अनुक्रम [ ४५६ -४५८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], उद्देशक: [२]. दारं [-], मूलं [२१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना १७ लेश्या पदे उद्देशः ॥ ३४९ ॥ दस अप्पा बहुगा तिरिक्खजोणियाण' मिति सुगमं, नवरमिहेमे पूर्वाचार्यप्रदर्शिते सङ्ग्रहणिगाथे- " ओहिय पर्णिदि १ याः मल-मुच्छिमा २ य गन्भे ३ तिरिक्खइत्थीओ ४ । संमुच्छगन्भतिरिया ५ मुच्छतिरिक्खी य ६ गर्भमि ७ ॥ १॥ सम्मु- २ य० वृत्तौ च्छिमगच्भ इत्थी ८ पणिदिति रिगित्थीया ९ य ओहित्थी १० । दस अप्पबहुगभेया तिरियाणं होंति नायचा ||२|| " 8 यथा तिरश्चामल्पबहुत्वान्युक्तानि तथा मनुष्याणामपि वक्तव्यानि, नवरं पश्चिमं दशममल्पबहुत्वं नास्ति, मनुष्याणामनन्तत्वाभावात् तदभावे काउलेसा अनंतगुणा इति पदासम्भवात् । अधुना देवविषयमल्पबहुत्वमाहू - 'एएसि णं भंते! देवाण' मित्यादि, सर्वस्तोका देवाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिदेव लोकेष्वेव तेषां सद्भावात्, तेभ्यः पद्मलेश्याः असङ्ख्येयगुणाः, सनत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मलोक कल्पदेवेषु पद्मलेश्याभावात् तेषां च लान्तकादिदेवेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वात्, तेभ्यः कापोत लेश्याः असङ्ख्येयगुणाः, भवनपतिव्यन्तरदेवेषु सनत्कुमारादिदेवेभ्योऽसङ्ख्येयगुणेषु कापोतलेश्यासद्भावात्, तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, प्रभूततराणां भवनपतिभ्यन्तराणां तस्याः सम्भवात्, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषा|धिकाः प्रभूततमानां तेषां कृष्णलेश्याकत्वात्, तेभ्योऽपि तेजोलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः, कतिपयानां भवनपतिव्यन्तराणां | समस्तानां ज्योतिष्कसौधर्मेशान देवानां तेजोलेश्याभावात् ॥ अधुना देवीविषयं सूत्रमाह-'एएसि णं भंते । देवीण' मित्यादि देव्यश्च सौधम्र्मेशानान्ता एव न परत इति तासां चतस्र एवं लेश्यास्ततस्तद्विषयमेवाल्पबहुत्वमभिधित्सुना 'जाव तेउलेस्साण य' इत्युक्तं सर्वस्तोका देव्यः कापोतलेश्याः कतिपयानां भवनपतिव्यन्तरदेवीनां कापोतले Education Internationa For Parts Only ~702~ ॥ ३४९ ॥ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] दीप अनुक्रम [४५६-४५८ श्याभावात् तेभ्यो विशेषाधिका नीललेश्याः प्रभूतानां भवनपतिन्यन्तरदेवीनां तस्याः संभवात् तेभ्योऽपि कृष्णले-19 श्या विशेषाधिकाः प्रभूतानां तासां कृष्णलेश्याकत्वात् , ताभ्यस्तेजोलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः, ज्योतिष्कसौधर्मेशानदेबीनामपि समस्तानां तेजोलेश्याकत्वात् । सम्प्रति देवदेवीविषयं सूत्रमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका देवाः शुक्ललेश्याः, तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः पद्मलेश्याः, तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, तेभ्यो नीललेश्या विशेपाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, एतावत्प्रागेव भावितं, तेभ्योऽपि कापोतलेश्याका देव्यः सङ्ख्ययगुणाः, ताथ भवनपतिभ्यन्तरनिकायान्तर्गता वेदितव्याः, अन्यत्र देवीनां कापोतलेश्याया असंभवात् , देव्यश्च । देवेभ्यः सामान्यतः प्रतिनिकायं द्वात्रिंशद्गुणाः ततः कृष्णलेश्येभ्यो देवेभ्यः कापोतलेश्या देव्यः सङ्ग्येयगुणा अपि पटन्ते, ताभ्यो नीललेझ्या विशेषाधिकाः, ताभ्यः कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अत्रापि प्राग्वद् भावना, ताभ्योऽपि तेजोलेश्या देवाः सञ्जयेयगुणाः, कतिपयानां भवनपतिव्यन्तराणां समस्तानां ज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां तेजो8 लेश्याकत्वात् , तेभ्योऽपि तेजोलेश्याका देव्यः सबेयगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । सम्प्रति भवनवासिदेवविषयं सूत्रमाह-एएसिणं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोकास्तेजोलेश्या महर्द्धयो हि तेजोलेश्याका भवन्ति महर्द्धयश्चापे इति ते सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽसङ्खयेयगुणाः कापोतलेश्याः, अतिशयेन प्रभूतानां कापोतलेश्यासंभवात् , तेभ्यो । ~ 703~ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] प्रज्ञापना-नीललेश्या विशेषाधिकाः, अतिप्रभूततराणां तस्याः संभवात्, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अतिप्रभूत-11 या: मल- समानां कृष्णलेश्याभावात् । एवं भवनपतिदेवीविषयमपि सूत्रं भावनीयं । अधुना भवनपतिदेवदेवीविषयं सूत्र-जायदे उदेशः यवृत्ती. माह-एएसि ण' मित्यादि, सर्वस्तोका भवनवासिनो देवाः तेजोलेश्याकाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता, तेभ्यस्तेजो लेश्याका भवनवासिन्यो देव्यः सङ्ग्येयगुणाः, देवेभ्यो हि देव्यः सामान्यतः प्रतिनिकायं द्वात्रिंशद्गुणास्तत उपपद्यते ॥३५॥ सोयगुणत्वमिति, तेभ्यः कापोतलेश्या भवनवासिनो देवा असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, युक्तिरत्र प्रागुक्ताऽनुसरणीया, तेभ्यः कापोतलेश्या भवनवासिन्यो देव्यः सङ्ख्येयगुणाः, भावना प्रागुक्तभावनानुसारेण भावनीया, ताभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकार, ताभ्यः कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, एवं वानमन्तरविषयमपि सूत्रत्रयं भावनीयं, ज्योतिष्कविषयमेकमेव सूत्र, तनिकाये तेजोलेश्याव्यतिरेकेण लेश्यान्तरासम्भवतः पृथग् देवदेवीविषयसूत्रद्वयासम्भवात्, वैमानिकदेव विषयं सूत्रमाह-'एएसिणं भंते ! वेमाणियाण'मित्यादि, सर्वस्तोका वैमानिका देवाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिदेवानामेव शुक्ललेश्यासम्भवात्, तेषां चोत्कर्षतोऽपि श्रेण्यसङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्यः पद्मलेश्या असङ्ग्येयगुणाः, सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रयलोककल्पवासिनां सर्वेषामपि देवानां पालेश्यासम्भवात्, तेषां चातिवृहत्तमश्रेण्यसबेयभागवार्तिनाप्रदे-18॥३५०॥ शराशिप्रमाणत्वात् , लान्तकादिदेवपरिमाणहेतुश्रेण्यसङ्ख्येयभागापेक्षया बबीषां परिमाणहेतुः शेण्यसवेयभागो-18 Catest4 रहान दीप अनुक्रम [४५६-४५८ ~ 704 ~ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] दीप अनुक्रम [४५६-४५८ so90008090680 उसङ्ख्येयगुणः, तेभ्योऽपि तेजोलेश्या असङ्ख्येयगुणाः, तेजोलेश्या हि सौधर्मेशानदेवाना, ईशानदेवाश्चाङ्गुलमाप्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि द्वितीयवर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नमःप्रदेशाः तावत्प्रमाण ईशानकल्पगतदेवदेवीसमुदायः, ततकिश्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा देवाः, तेभ्योऽपि च सौधर्मकल्प देवाः सङ्ख्ययगुणाः, ततो भवन्ति पालेश्यभ्यस्तेजोलेश्या असङ्ग्येयगुणाः, देव्यश्च सौधर्मेशानकल्पयोरेप, तत्र च केवला तेजोलेश्या, ततो लेश्यान्तरासम्भवान तद्विषयं पृथग्सूत्रं अतः । सम्प्रति देवदेवीविषयं सूत्रमाह-'एएसिणं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं देवीण य' इत्यादि सुगम, नवरं 'तेउलेसाओ वेमाणिणीओ देवीओ संखेजगुणाओ' इति, देवेभ्यो देवीनां द्वात्रिंशगुणत्वात् ॥ अधुना भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकविषयं सूत्रमाह-एएसिणं भंते ! भवणवासीय'मित्यादि, तत्र सर्वस्तोका वैमानिका देवाः शुक्ललेश्याः, पद्मलेश्या असङ्ख्येयगुणाः, तेजोलेश्या असोयगुणा इत्यत्र भावनाऽनन्तरमेव कृता, तेभ्योऽपि भवनवासिनो देवास्तेजोलेश्याका असङ्ख्येयगुणाः, कथमिति चेद् , उच्यते, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गमूले तृतीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिभवति तावत्प्रमाणासु धनीकृतस्य लोक|स्पैकप्रादेशिकीपु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणो भवनपतिदेवदेवीसमुदायः, तद्तकिंचिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा भवनपतयो देवाः, तत इमे प्रभूता इति घटन्ते सौधर्मेशानदेवेभ्यस्तेजोलेश्याका असोयगुणाः, तेभ्यः ~ 705~ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं २१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] ॥३५॥ दीप अनुक्रम [४५६-४५८ प्रज्ञापना- कापोतलेश्या भवनपतय एवासङ्ख्येयगुणाः, अल्पर्धिकानामप्यतिप्रभूतानां कापोतलेश्यासम्भवात्, तेभ्योऽपि भव-१७ लेश्याया मल- नयासिन एवं नीललेश्या विशेषाधिकाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता, तेभ्योऽपि वानमन्तरास्तेजोलेश्याका असोयगुणाः, पदे य० वृत्ती. कथमिति चेद, उच्यते, इह सङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणानि सचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन्प्रतरे भवन्ति । तावान् ग्यन्तरदेवदेवीसमुदायः, तद्भूतकिंचिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा व्यन्तरदेवाः, तत इमे भवनपतिभ्योऽतिप्र-2 भूततमा इत्युपपद्यते, कृष्णलेश्येभ्यो भवनपतिभ्यो वानमन्तरास्तेजोलेश्याका असङ्ख्यगुणाः, तेभ्योऽपि वानमन्तरा एव कापोतलेश्याका असहयगुणाः, अल्पर्धिकानामपि कापोतलेश्याभावात्, तेभ्योऽपि वानमन्तरा नील-11 लेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अत्रापि युक्तिः प्रागुक्ताऽनुसरणीया, तेभ्यस्तेजोलेश्या I ज्योतिष्का देवाः सङ्ख्येयगुणाः, यतः षट्पञ्चाशदधिकाङ्गुलशतद्वयप्रमाणानि सूचिरूपाणि यावन्ति खण्डान्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणो ज्योतिष्कदेवदेवीसमुदायः, तद्तकिश्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा ज्योतिष्कदेवाः, ततः कृष्णलेश्येभ्यो वानमन्तरेभ्यः सङ्ख्येयगुणा एव घटन्ते ज्योतिष्कदेवा न त्वसङ्ख्येयगुणाः, सूचिरूपखण्डप्रमाणहेतोः सयेययोजनकोटीकोट्यपेक्षया षट्पञ्चाशदधिकाङ्गुलशतद्वयस्य सङ्गवेयभागमात्रवर्त्तित्वात् ॥ सम्प्रति भवनयास्यादि- ॥३५॥ देवदेवीविषयं तदनन्तरं भवनवास्यादिदेवदेवीसमुदायविपर्य सूत्रमाह-एतच्च सूत्रद्वयमपि प्रागुक्तभावनानुसारेण भावनीयं । सम्प्रति लेश्याविशिष्टानामल्पर्द्धिकत्वमहर्द्धिकत्ये प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-'एएसि णं भंते ! जीवाणं coercedeseceserce ~ 706~ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], ---- ------- मूलं [२१९-२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] कण्हलेसाण'मित्यादि, सुगम, नवरं लेश्याक्रमेण यथोत्तरं महर्दिकत्वं यथाऽर्वाक अल्पर्द्धिकत्वं भावनीयं, एवं नरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यवैमानिकविषयाण्यपि सूत्राणि येषां यावत्यो लेश्यास्तेषां तावतीः परिभाब्य भावनीयानि ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः eeeeeeeeecenese दीप अनुक्रम [४५६-४५८ उक्तो द्वितीय उद्देशकः, सम्प्रति तृतीय-आरभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जइ अनेरइए नेरइएसु उववज्जा, गो०1, नेरदए नेरइएसु उववजह नो अनेरइए नेरद्दएसु उववज्जइ, एवं जाव वेमाणियाण । नेरइए णं भंते ! नेरइएहिंतो उबबट्टइ अनेरइए नेरइएहितो उववदृति !, गो, अनेरइए नेरइएहिंतो उवबद्दति णो नेरइए नेरइएहितो उववइ, एवं जाव वेमाणिए, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयर्णति अभिलावो कायहो । से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे नेरहए कण्हलेसेसु नेरइएसु उववजति कण्हलेसे उववइ, जल्लेसे उववजइ तल्लेसे उबवट्टइ, हंता गो01, कण्हलेसे नेरइए कण्हलेसेसु नेरइएमु उववज्जति कण्हलेसे उववइ, जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ, एवं नीललेस्सेचि, एवं काउलेस्सेवि । एवं असुरकुमाराणवि जाव थणियकुमारा, नवरं लेस्सा अब्भहिया, से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु पुढविकाइएमु उववज्जति कण्हलेसे उच्चद्वइ जल्लेसे उववजति तल्लेसे उनबद्दति ?, RELIERtunintentation अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (३) आरभ्यते ~ 707~ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १७लेश्यापदे उद्देश: प्रत सूत्रांक सररररर ॥३५२॥ [२२२] हंता गो!, कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु पुढविकाइएमु उववजति, सिय कण्हलेसे उवषट्टइ सिय नीललेसे उचवट्टा सिय काउलेसे उववह सिप जल्लेसे उववजति सिय तल्लेसे उववइ, एवं नीलकाउलेस्सामुवि से नूर्ण भंते ! (तेउल्लेसे पुढवीकाइए ) तेउलेस्सेसु पुढविकाइएसु उववज्जइ पुच्छा, हंवा गो01, तेउलेस्सेसु पुढविकाइएसु उववजइ, सिव काहलेसे उववहह सिय नीललेसे उववर सिय काउलेसे उववइ तेउलेसे उववाह नो चेव पं तेउलेसे उबबट्टइ, एवं उकाइया वणस्सइकाइयावि, तेऊवाआ एवं चेव, नवरं एतेसि तेउलेस्सा नत्थि, वितियचउरिदिया एवं चेव तिसु लेसासु, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा पुढविकाइया आदिल्लिया तिसु लेसासु मणिया तहा छसुवि लेसासु भा०, नवरं छप्पि लेस्साओ पारेयवाओ । वाणमं० जहा असुरकु० से नूर्ण भंते ! तेउलेस्से जोइसिए तेउलेस्सेसु जोइसिपसु उवव० जहेब असुरकु०, एवं वेमाणियावि, नवरं दोहंपि चयंतीति अमिलायो । से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे नीललेसे काउ. लेसे नेरइए कण्हलेसेसु नीललेसेसु काउलेसेसु नेरइएसु उबब. कण्ह नील० काउले० उववइ जल्लेसे उवव० तल्लेसे उववाह, हंता गो०1, कण्हनीलकाउलेसे उववजइ जल्ळेसे उववजइ तल्लेसे उववइ, से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे जाव तेउकेस्से असुरकुमारे कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु असुरकुमारेसु उववजइ, एवं जहेब नेरइए तहा असुरकुमारावि जाच थणियकुमारावि, से नूर्ण मते ! कण्हलेसे जाप तेउलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु पुढविकाइएसु उववजा, एवं पुच्छा जहा असुरकुमाराण, हंता गो.1, कण्हलेसे जाव तेउलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु पुढविकाइएसु सिय कण्हलेसे उवबइ सिय नीललेसे सिय काउलेसे उबट्टइ सिय ज से उववजइ त से उववर उलेसे उपवर नो दीप अनुक्रम [४५९] ~708~ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [४५९ ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], उद्देशक: [३], दारं [-1, मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चेवणं तेउलेसे उबवह एवं आउकाइया वणस्सइकाइयावि भाणियवा से नूणं भंते! कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे तेउकाइए कण्हलेसेसु नीललेसेस काउलेसेस तेउकाइएस उववज्जइ कण्हले से नीललेसे काउलेसे उबबहह जल्छेसे उबबाद तसे उबबहह ?, हंता गो० 1, कण्ह० नील० काउलेसे तेउकाइए कण्ह० नील० काउलेसेसु तेउकाइएस उबवजह सिय कण्डलेसे उच्चट्टइ सिय नीललेसे उववहति सिय काउलेसे उबबहह सिय जल्लेसे उचवजह तल्लेसे उववहह, एवं वाउकायबेदियतेइंदियचउरिंदियावि भाणियता से नूणं भंते ! कण्हलेसे जान सुफलेसे पंचेंदियतिरिक्खजोणिया कण्हलेसेसु जाव सुकलेसेसु पंचेंदियतिरिक्खजोगिएसु उबवजह १, पुच्छा, हंता गोयमा !, कण्हलेसे जाव सुकलेस्से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु जाव सुक्कलेसेसु पंचदियतिरि० उबव० सिय कण्हलेसे उववहह जाब सिय सुकलेसे उचबट्टद सिय जल्लेसे उचवज्जइ तल्लेसे उबबहह । एवं मणूसेवि । वाणमंतरा जहा असुरकुमारा जोइसियवैमाणियावि एवं चेष, नवरं जस्स जल्लेसा, दोन्हचि चयणंति भाणियां (सूत्रं २२२ ) 'नेरहए णं भंते ! नेरह उबवजद्द' इत्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः -- द्वितीयोदेशके नारकादीनां लेश्यापरिसङ्ख्यानं अल्पबहुत्वं महर्द्धिकत्वं चोक्तं, इह तु तेपामेव नारकादिजीवानां तास्ता लेश्याः किमुपपातक्षेत्रोपपन्नानामेव भवन्ति उत विग्रहेऽपि इत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थे प्राक् नयान्तरमाश्रित्य नारकादिव्यपदेशं पृच्छति 'नेरइए 8 भंते! नेरइपसु उबवजह अनेरइए नेरइएस उबवज्जर' इति, इदं च प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह गौतम ! अथ लेश्याया: उपपातक्षेत्रम् प्ररुप्यते For Parts Only ~709~ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [3], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना प्रत सूत्रांक [२२२] दीप नरविको नैरयिकेपूत्पद्यते नो अनैरयिका, कथमिति चेद् , उच्यते, इह यस्मानारकादिभवोपनाहकमायुरेव न.१७लेश्याशेष, तथाहि-नारकायुषि उदयमागते नारकभयो भवति मनुष्यायुपि मानुषभव इत्यादि, ततो नारकाद्यायुर्वेदन- पद प्रथमसमये एव नारकादिव्यपदेशं लभते, एतच ऋजुसूत्रनयदर्शनं, तथा च नयविद्भिः ऋजुसूत्रनयखरूपनिरूपणं कुर्वद्भिरिदमुक्तं-"पलालं न दहत्यनिर्भियते न घटः क्वचित् । नाशून्ये निष्क्रमोऽस्तीह, न च शून्यं प्रविश्यते ॥१॥ नारकव्यतिरिक्तश्च, नरके नोपपद्यते । नरकान्नारकश्चास्य, न कश्चिद्विप्रमुच्यते ॥२॥” इत्यादि, 'एवं जाव। वेमाणिए' एवं-नैरयिकोतप्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिको-वैमानिकविषयं सूत्र, तच सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयं ॥ अधुना उद्वर्त्तनाविषयं नैरयिकेषु सूत्रमाह-'नेरइए णं भंते।' इत्यादि, एतदपि ऋजुसूत्रनयदर्श-18 नेन वेदितव्यं, तथाहि-परभवायुषि उदयमागते तत उद्वर्त्तते यद्भवायुश्चोदयमागतं तेन भवेन व्यपदेशः, यथा नारकायुपि उदयमागते नारकभवेन नारक इति, ततो नैरयिकेभ्योऽनैरयिक एवोद्वर्त्तते न नैरयिक इति । एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण तावत्सूत्रं वक्तव्यं यावद्वैमानिकविषयं, नवरं ज्योतिष्कवैमानिकविषये च्यवनं इत्यभि-N लापः कर्तव्यः, तेभ्य उद्वर्तनस्य च्यवनमिति प्रसिद्धेः, तथा चाह-एवं जाव बेमाणिए नवर'मित्यादि । अधुना ॥३५॥ कृष्णलेश्याविषयमुत्पत्ती सूत्रमाह-'से नूर्ण भंते !' इत्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः स चेह प्रश्ने नूनं-निश्चितमेतत् भदन्त ! कृष्णलेश्यो नैरयिकः कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषु मध्ये उत्पद्यते तेभ्यश्च कृष्णले श्येभ्यो नैरयिकेभ्य उद्ध अनुक्रम [४५९] ~ 710~ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] र्तमानः कृष्णलेश्य एवोद्वर्तते, एतदेव निश्चयदायोत्पादनार्थ प्रकारान्तरेणाह-यल्लेश्य उत्पद्यते तल्लेश्य उद्वर्त्तते । न लेश्यान्तरगत इति ?, भगवानाह-'हंता गोयमा ! इत्यादि, हन्तेत्यनुमतौ अनुमतमेतत् मम गौतम ! 'कण्हलेसेसु नेरइए' इत्यादि, अथ कथं कृष्णलेश्यः सन् कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषुत्पद्यते न लेश्यान्तरोपेतः, उच्यते, इह तिर्यपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा बद्धायुष्कतया नरकेपुत्पत्ति(तितु)कामो यथाक्रम तिर्यगायुपि मनुष्यायुषि च साकल्येनाक्षीणेऽन्तर्मुहुर्तशेपे यलेश्येषु नरकेषुत्पत्स्यते तद्गतलेश्यया परिणमति, ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन परिणामेन नरकायुः। प्रतिसंवेदयते, तत उच्यते कृष्णलेश्यः कृष्णलेश्येषु नैरयिकेपूत्पद्यते न लेश्यान्तरयुक्तः, अथ कथं कृष्णलेश्याक एवोद्व ते ?, उच्यते, देवनैरयिकाणां हि लेश्यापरिणाम आभवक्षयाद् भवति, एतच प्रागेव प्रपञ्चत उपपादितं, एवं नीललेश्याविषयं कापोतलेश्याविषयं च सूत्रं वक्तव्यं, एवं असुरकुमारादीनामपि सनत्कुमारपर्यवसानानां वक्तव्यं, नवरं तेजोलेश्यासूत्र तत्राभ्यधिकमभिधेयं, तेजोलेश्याया अपि तेषां भावात् ॥ अधुना पृथिवीकायिकेषु कृष्णलेश्याविषयं सूत्रमाह-से नूणं भंते ! इत्यादि, इह तिरवां मनुष्याणां च लेश्यापरिणाम आन्तमुहर्तिकस्ततः कदाचित् | यल्लेश्य उद्वर्त्तते कदाचिलेश्यान्तरपरिणतोऽपि उद्वर्त्तते, एष पुनर्नियमो यो यद्देश्येषूत्पद्यते स नियमतस्तलेश्य एवोत्पद्यते, "अंतमुहुत्तम्मि गए अंतमुडुत्तम्मि सेसए आउं (चेव)। लेसाहिं परिणयाहिं जीवा वचंति परलोयं ॥१॥" दीप अनुक्रम [४५९] ~711~ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] प्रज्ञापना- INI अन्तर्मुहः गतेऽन्तर्मुहुः शेष आयुषि (एव) । लेश्यापरिणामे जीवा ब्रजन्ति परलोकम् ॥१॥] इति वचनात् , १७लेश्या तत उक्तं 'गोयमा ! कण्हलेसे पुढपिकाइए कण्हलेसेसु पुढयिकाइएसु उववज्जइ सिय कण्हलेसे उघट्टा' इत्यादि, पदे उद्देश: यवृत्ती. एवं नीललेश्याविषयं कापोतलेश्याविषयं च सूत्रं वक्तव्यं, तथा यदा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवाः तेजोलेश्यावन्तः खभवाफ्युत्वा पृथिवीकायिकेषूत्पद्यन्ते तदा कियत्कालमपर्याप्तावस्थायां तेषु तेजोलेश्याऽपि लभ्यते तत ऊ तु न भवति, तथा भवखभावतया तेजोलेश्यायोग्यद्रव्यग्रहणशक्त्यसम्भवात्, ततस्तेजोलेश्यासूत्रे उक्तंश'तेउल्लेसे उववजइ नो चेव णं तेउलेसे उबवट्टई' इति, यथा च पृथिवीकायिकानां चत्वारि सूत्राण्युक्तानि तथाऽ कायिकवनस्पतिकायिकानामपि वक्तव्यानि, तेषामप्यपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्यासंभवात् , तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियविषयाणि प्रत्येकं त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि, तेषां तेजोलेश्याया असम्भवात् ॥ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुप्याथ यथाऽऽद्यासु तिसृषु लेश्यासु पृथिवीकायिका उक्काः तथा षट्खपि लेश्यासु वक्तव्याः, षण्णामप्यन्यतमया लेश्यया तेषामुत्पत्तिसम्भवात् , उत्पत्तिगतैकैकलेश्याविपये चोद्वर्तनायां पण्णां विकल्पानां सम्भवात्, सूत्रपाठ-13 श्चैवं-से नूणं भंते ! कण्हलेसे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उवयज्जइ कण्हलेसेसु उबवह जलेसे उववजई तल्लेसे उबबट्टा, हंता गोयमा!, कण्हलेसे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए कण्डलेसेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जइ सिय कण्हलेसे उववट्टर सिय नीललेसे उववइ सिय काउलेसे उच्च दीप अनुक्रम [४५९] एeseब्रलर ॥३५४॥ SAREauratonintamational ~712~ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] दीप वट्टा सिय तेउलेसे उवषट्टर सिय पम्हलेसे उपवट्टर सिय सुकलेसे उबबट्टइ सिय जलेसे उववज्जइ तलेसे उवयह' एवं नीलकापोततेजःपद्मशुक्ललेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि 'चाणमंतरा जहा असुरकुमारा' इति | 'जलेसे उववजह तलेसे उबवट्टई' इति वक्तव्या इति, सर्वदेवानां लेश्यापरिणामस्याऽऽभवक्षयाद् भावात् , एवं| लेण्यापरिसङ्ख्यानं परिभाव्य ज्योतिष्कवैमानिकविषयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि, नवरं तत्र 'चयन्ती'सभिलपनीयं, तदेवमेकैकलेश्याविषयाणि चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण नैरयिकादीनां सूत्रापयुक्तानि तत्र कश्चिदाशङ्केत-प्रविरलैककनारकादिविषयमेतत् सूत्रकदम्बकं यदा तु बहवो भिन्नलेश्याकास्तस्यां गतायुत्पद्यन्ते तदाऽन्यथाऽपि वस्तुगतिर्भवेत्, एकैकगतधर्मापेक्षया समुदायधर्मस्य कचिदन्यथाऽपि दर्शनात्, ततस्तदाशङ्काऽपनोदाय येषां यावत्यो लेश्याः सम्भवन्ति तेषां युगपत्तावलेश्याविषयमेकैकं सूत्रमनन्तरोदितार्थमेव प्रतिपादयति-'से नूणं भंते ! कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे नेरइए कण्हलेसेसु नीललेसेसु काउलेसेसु नेरइएसु उववजई' इत्यादि, समस्तं सुगमं । सम्प्रति कृष्णलेश्यादिनरयिकसत्कावधिज्ञानदर्शनविषयक्षेत्रपरिमाणतारतम्यमाह कण्हलेसे णं भंते ! नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाए ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणे केवतियं खेनं जाणइ केवइयं खेर्स पासइ, गो.1, णो बहुयं खेनं जाणइ णो बहुयं खेत्तं पासइ णो दूर खेत्तं जाणइ णो दूरं खेतं पासह इत्तरियमेव खितं जाणइ इत्तरियमेव खेनं पासइ, से केणडेणं भंते ! एवं बुचइ कण्हलेसे गं नेरइए तं चेव जाव इत्तरियमेव खेतं अनुक्रम [४५९] अथ लेश्याया: सम्बन्धे अवधिज्ञान-दर्शनस्य विषयक्षेत्र प्ररुप्यते ~713~ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२३] दीप अनुक्रम [४६०] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्तौ. ॥३५५॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [३], दारं [-1, मूलं [२२३] आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Internationa पास १, गो० !, से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जंसि भूमिभागंसि ठिच्चा सबओ समंता समभिलोएज्जा, तर गं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाए सबओ समता समभिलोएमाणे जो बहुयं खेतं जाव पासह जाब इत्तरियमेव खेचं पासह, से तेणद्वेण गोयमा ! एवं बुच्चइ कण्हले से गं नेरइए जाव इसरियमेव खेचं पासइ, नीललेसे गं भंते । नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाय ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणे २ केवतियं खेतं जाणइ केवतियं खेत्तं पासह १, गो० 1, बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासह दूरतरखेचं जाणइ दूरतरखेत्तं पासइ वितिमिरतरगं खेत्तं जाणइ वितिमिरतरगं खेत्तं पासइ विसुद्धतरागं खेत्तं जाणइ विसुद्वतरागं खेत्तं पासह, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नीललेसे णं नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेतं जाणइ विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ?, से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पवयं दुरुहिता सबओ समता समभिलोएजा वर णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय सबओ समता समभिलोमाणे २ बहुतरागं खेतं जाणइ जाव विशुद्धवरागं खेतं पासइ, से वेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चद--- नीललेस्से नेरइए कण्हलेस जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ, काउलेस्से णं भंते ! नेरइए नीललेस्स नेरइयं पणिहाय ओहिणा सओ समंता समभिलोएमाणे २ केवतियं खेतं जाणइ पासह ?, गो० ! बहुतरागं खेतं जाणइ पासइ जाव विमुद्वतरागं खेतं पासति, से केणद्वेणं भंते ! एवं ० काउलेस्से णं नेरइए जाव बिसुद्ध तरागं खेतं पासइ ?, गो० ! से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पञ्चयं दुरूहइ २ दोवि पाए उच्चाविया (वइत्ता) सओ समंता समभिलोएजा तए णं से पुरिसे पचयगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय सबओ समंता समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं For Parts Only ~714~ १७लेश्या२ पदे उद्देश ३ ॥ ३५५॥ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं -1, ------ ---------- मूलं [२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२३] जाणइ बहुतराग खेतं पासइ जाब वितिमिरतरागं पासइ, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-काउलेस्से णं नेरइए नीललस्सं नेरइयं पणिहाय तं चेव जाच वितिमिरतरागं खेत्तं पासइ ॥ (सूत्र २२३) 'कण्हलेसे णं भंते ! इत्यादि, कृष्णलेश्यो भदन्त कश्चिन्नैरयिकोऽपरं कृष्णलेश्याकं प्रणिधाय-अवेक्ष्यावधिनाअवधिज्ञानेन सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सर्वासु विदिक्षु समभिलोकमानो-निरीक्षमाणः कियत्-किंपरिमाणं क्षेत्र जानाति कियद्वा क्षेत्रमवधिदर्शनेन पश्यति !, भगवानाह-गौतम ! न बह क्षेत्रं जानाति नापि बहार क्षेत्रं पश्यति, किमुक्तं भवति-अपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्य न विवक्षितः कृष्णलेश्याको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धोऽपि नैरयिकोऽतिप्रभूत क्षेत्रमवधिना जानाति पश्यति, एतदेवाह-न दूरम्-अतिविप्रकृष्ट क्षेत्रं जानाति | 1 नाप्यतिविप्रकृष्ट क्षेत्रं पश्यति, किं तु इत्वरमेय-खल्पमेवाधिक क्षेत्रं जानाति इत्वरमेवाधिक क्षेत्रं पश्यति, एतच्च सूत्रं समानपृथिवीककृष्णलेश्यनैरयिकविषयमवसेयमन्यथा व्यभिचारसम्भवात् , तथाहि-सप्तमपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको नैरयिको जघन्यतो गव्यूतार्द्ध जानाति उत्कर्षतो गन्यूतं, षष्ठपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको जघन्यतो गब्यूतमुत्कर्षतः सार्द्ध, पञ्चमपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको जघन्यतः सार्द्ध गव्यूतमुत्कर्षतः किश्चिदूने द्वे गव्यूते, ततो द्विगुणत्रिगुणाधिकक्षेत्रसंभयाद् भवत्यधिकृतसूत्रस्य व्यभिचारः, यथा समानपृथिवीकमपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्यातिविशुद्धोऽपि कृष्णलेश्याको नैरविको भनागधिकं पश्यति नातिप्रभूतं तथा दृष्टान्तेनोपपिपादयिषुराह-से केण? दीप अनुक्रम [४६०] Mercedees ~715~ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२३] दीप अनुक्रम [४६०] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥ ३५६ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [३], दारं [-1, मूलं [२२३] आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित णं भंते । इत्यादि, इयमत्र भावना -- यथा समभूभागव्यवस्थित एव कश्चित् विवक्षितः पुरुषः चक्षुर्नैर्मल्यवशात् मनागधिकं पश्यति न प्रभूततरं तथा विवक्षितोऽपि कश्चित् कृष्णलेश्याको नैरयिकः खभूमिकानुसारेणातिविशुद्धोऽपि समानपृथिवीकमपरं कृष्णलेश्या कं नैरयिकमपेक्ष्य यदि परमवधिना मनागधिकं पश्यति न तु प्रभूततरं, अन्न समभूभागस्थानीया समाना पृथिवी स्वभूमिकासमाना च कृष्णरूपा लेश्या चक्षुः स्थानीयमवधिज्ञानमेतावता चैतदपि ध्वनितं यथा समभूभागव्यवस्थितः पुरुषः सर्वतः समन्तादभिलोकमानो गर्त्तागतं पुरुषमपेक्ष्यातिप्रभूततरं | पश्यति तथा पञ्चमपृथिवीगतः स्वभूमिकानुसारेणातिविशुद्धः कृष्णलेश्याको विवक्षितोऽपि नैरयिकः सप्तमपृथिवीगतं कृष्णलेश्या कमतिमन्दानुभागावधिनैरयिकमपेक्ष्यातिप्रभूतं पश्यति, मनागधिकत्रिगुणक्षेत्रसम्भवात् ॥ सम्प्रति | नीललेश्याकविषयं सूत्रमाह- 'नीललेसे णं भंते! नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाए' इत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, नवरं 'वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ' इति विगतं तिमिरं-- तिमिरसम्पाद्यो भ्रमो यत्र तद्वितिमिरं, इदं वितिमिरमिदं वितिमिरमनयोरतिशयेन वितिमिरं वितिमिरतरं 'द्वयोर्विभज्ये तरवि'ति तरप्प्रत्ययः, ततः प्राकृतलक्षणात् खार्थे कप्रत्ययः पूर्वस्य च दीर्घत्वं अत एव विशुद्धतरं निर्मलतरं अतीव स्फुटप्रतिभासमितियावत्, भावना वियंयथा धरणितलगतं पुरुषमपेक्ष्य पर्वतारूढः पुरुषोऽतिदूरं क्षेत्रं पश्यति तदपि प्रायः स्फुटप्रतिभासं तथा विवक्षितोऽपि नीललेश्याको नैरयिको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धावधिः कृष्णलेश्याकं नैरविकमपेक्ष्यातिदूरं वितिमिर Education International For Parts Only ~716~ १७लेश्यापदे उद्देशः ।।३५६।। wor Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२३] 18 तरं स्फुटप्रतिभासं च क्षेत्र जानातीति, अत्र पर्वतस्थानीया उपरितनी तृतीया पृथिवी अतिविशुद्धा च खभूमिकानु सारेण नीललेश्या धरणितलस्थानीया अधस्तनी कृष्णलेश्या चक्षुःस्थानीयमवधिज्ञानमिति ॥ सम्प्रति नीललेश्याकमपेक्ष्य कापोतलेश्याविषयं सूत्रमाह-'काउलेस्से णं भंते ! नेरइए नीललेस्सं नेरइयं पणिहायेत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, नवरं 'दोवि पाए उच्चावइत्ता' इति द्वावपि पादौ उचैः कृत्वा, द्वावपि पाणी उत्पादयेत्यर्थः, भावना त्वियं-यथा पर्वतस्योपरि वृक्षमारूढः सर्वतः समन्तादवलोकमानो बहुतरं पश्यति स्पष्टतरं च तथा कापोतलेश्यो। नरयिकोऽपरं नीललेश्याकमपेक्ष्य प्रभूतं क्षेत्रमवधिना जानाति पश्यति च तदपि च स्पष्टतरमिति, इह वृक्षस्था-8 नीया कापोतलेश्या उपरितनी च पृथिवी पर्वतस्थानीया नीललेश्या तृतीया च पृथिवी चक्षुःस्थानीयमवधिज्ञानहामिति ॥ सम्प्रति का लेश्याः कतिषु ज्ञानेषु लभ्यन्ते इति निरूपयितुकाम आह दीप अनुक्रम [४६०] कण्हलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा, मो०! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा, दोसु होमाणे आभिणियोहियसुयनाणे होजा, तिसु होमाणे आभिणियोहियसुयनाणओहिनाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आभिथिचोहियसुयनाणमणपजवनाणेसु होजा, चउसु होमाणे आभिणियोहियसुयओहिमणपजवनाणेसु होजा, एवं जाव पम्हलेसे, सुकलेसेणं भैते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा?, गो! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होज्जा, दोसु होमाणे rera ~717~ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२४] ३५७॥ दीप प्रज्ञापना-IN आभिणियोहियनाण एवं जहेब कण्हलेसाणं तहेव भाणियचं जाव चउहि, एगमि नाणे होजा, एगमि केवलनाणे १७ लेश्यायाः मल- होजा (सूत्र २२४ ) पन्नवणाए भगवईए लेस्सापए तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ पदे उद्देशः य. वृत्ती. 'कण्हलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! योखिषु चतुर्प च ज्ञानेषु भवति, तत्र द्वयोराभिनिबोधिकश्रुतज्ञानयोः त्रिषु आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानेषु यदिवाऽऽमिनिबोधिकश्रुतमनःपर्यायज्ञानेषु, इहाबधिरहितस्यापि मनःपर्यवज्ञानमुपजायते, सिद्धप्राभृतादावनेकशस्तथा प्रतिपादनात्, अन्यच विचित्रा प्रतिज्ञानं तदावरणक्षयोपशमसामग्री, तत्र कस्यापि चारित्रिणोऽप्रमत्तस्यामापध्याद्यन्यतमकतिपयलब्धिसमन्वितस्य मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ता सामग्री तथारूपाध्यवसायादिलक्षणा सम्पद्यते न त्ववधिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ता ततस्तस्य मनःपर्यवज्ञानमेव भवति, ननु मनःपर्यवज्ञानमतिविशुद्धस्योपजायते कृष्णलेश्या च संक्लिष्टाध्यवसायरूपा ततः कथं कृष्णलेश्याकस्य मनःपर्यायज्ञानसम्भवः', उच्यते, इह लेश्यानां प्रत्येकासयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसायस्थानानि प्रमत्त-18 | संयतस्यापि लभ्यन्ते, अत एव कृष्णनीलकापोतलेश्या अन्यत्र प्रमत्तसंयतान्ता गीयन्ते, मनःपर्यवज्ञानं च प्रथम-18|| ॥३५७|| तोऽप्रमत्तसंयतस्योत्पद्यते ततः प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यते इति सम्भवति कृष्णलेश्याकस्यापि मनःपर्यवज्ञानं, चतुशोभिनिबोधिकश्रुतावधि मनःपर्यवज्ञानेषु, "एवं जाव पम्हलेसे' इति एवं-कृष्णलेश्योक्तेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं । अनुक्रम [४६१] ~718~ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं -1, ---- ---------- मूलं [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: करeedeo प्रत सूत्रांक [२२४] यावत् पद्मलेश्या, किमुक्तं भवति ?-नीललेश्यः कापोतलेश्यः तेजोलेश्यः पनलेश्यश्च उक्तप्रकारेण द्वयोनिषु चतुर्प वा ज्ञानेषु भणनीयः, स च एवं 'नीललेस्से णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा?, गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होजा' इत्यादि, शुक्ललेश्येषु विशेष इति तं पृथक् वक्ति-'सुक्कलेसे णं भंते ।' इत्यादि, इह शुक्ललेश्यायामेव केवलज्ञानं न लेश्यान्तरे ततः शेषलेश्याकेभ्योऽस्य शुक्ललेश्यस्य विशेषः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य तृतीयोद्देशकः।। 00000उक्तस्तृतीयोद्देशकः, सम्प्रति चतुर्थ आरभ्यते, तत्र चेयमादावधिकारगाथाप्रथमं परिणामाधिकारः द्वितीयो वर्णाधिकारः तृतीयो रसाधिकारः चतुर्थो गन्धाधिकारः पञ्चमः शुद्धाशुद्धाधिकारः षष्ठः प्रशस्ताप्रशस्ताधिकारः सप्तमः संक्लिष्टासंक्लिष्टाधिकारः अष्टम उष्णशीताधिकारः नवमो गत्यधिकारः दशमः परिणामाधिकारः एकादशोऽप्रदेशः प्रदेशप्ररूपणाधिकारः द्वादशोऽवगाहाधिकारः त्रयोदशो वर्गणाधिकारः |चतुर्दशः स्थानप्ररूपणाधिकारः पञ्चदशोऽल्पबहुत्वाधिकारः । तत्र प्रथमं परिणामलक्षणमभिधित्सुर्यासां परिणामो वक्तव्यः ता एव लेझ्याः प्रतिपादयतिपरिणामवनरसगंधसुद्धअपसस्थसंकिलिट्ठण्हा । गतिपरिणामपदेसोगाढवग्गणठाणाणमप्पबई ॥१॥ कह गं भंते ! लेसाओ दीप अनुक्रम [४६१] अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (४) आरभ्यते ~719~ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [२२५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५]] १७लेश्या प्रज्ञापनायाःमलय०वृत्ती. पदे उद्देशः ॥३५८॥ गाथा करार पन्नचाओ, गो.! छल्लेसाओ पत्रत्ताओ, तंजहा-कह जाव सुकलेसा, से नूणं भंते ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए तावण्णचाए तागंधत्ताए तारसचाए ताफासत्ताए भुञ्जो २ परिणमति, हंता गो०! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूबताए जाव भुञ्जो २ परिणमति, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ-कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो २ परिणमति ?, गो० ! से जहा नामए खीरे दूर्सि पप्प सुद्धे वा वत्ये रागं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुजो २ परिणमइ, से तेणतुणं गो०! एवं बुचद-कण्हलेसा नीललेसं पाप वारूवत्ताए जाव भुजो २ परिणमइ, एवं एतेणं अभिलावेणं नीललेसा काउलेसं पप्प का उले. तेउलेसं पप्प तेउले० पम्हलेसं पप्प पम्हले० सुकलेसं पप्प जाव भुञ्जो २ परिणमद, से नूर्ण भंते ! कण्हलेसा नीललेस काउलेसं तेउलेसं पम्हलेसं सुकलेसं पप्प तारूचाए तावणचाए तागंधत्ताए तारसचाए ताफासचाए भुज्जो २ परिणमइ १, हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प जाव सुकलेस पप्प तारूव० तागंध० ताफा भुओ २ परिणमइ, से केणडेगं भंते! एवं बुचह-कण्हले० नीलले जाव सुकलेसं पप्प तारूबत्ताए जाव भुओ २ परिणमइ, गोयमा ! से जहा नामए बेरुलियमणी सिया कण्हसुत्तए वा नीलसुत्तए वा लोहिय हालिद सुकिल्ल० आइए समाणे तारूव० जाब भुजो २ परिणमइ, से तेणटेणं एवं बुचइ-कण्हलेसा नीललेसं जाव सुक्कलेस पप्प तारूवत्ताए भुजओ २ परिणमति । से नूणं भंते ! नीललेसा किण्हलेसं जाच सुकलेसं पप तारूवत्ताए जाय भुओ २ परिणमइ, हंता गोयमा! एवं चेव, काउलेसा किण्हलेसं नील. तेउ० पम्ह० मुकलेस, एवं तेउलेसा किण्ह नील. काउ० पम्ह० मुफलेसं, एवं पम्हलेसा किण्ह० नील० काउ० तेउ• सुकलेसं पप्प जाव भुज्जो २ परिणमइ, हन्ता दीप अनुक्रम [४६२ ॥३५॥ -४६३] | अथ लेश्याया: भेदा: एवं परिणमनं प्ररुप्यते ~720~ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ༀ༞ ཡཱ ཟླ - ལྕལླཱཡྻ ཏྠཱ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [-] मूलं [२२५] + गाथा पदं [१७]. उद्देशकः [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः गोयमा ! तं चैव से नूणं भंते ! सुकलेसा किण्ह० नील० काउ० तेउ० पम्ह० लेसं पप्प जाव भुजो २ परिणम १, हंता गोयमा ! तं चैव ( सू २२५ ) 'कर णं भंते! लेसाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, इदं सूत्रं प्रागप्युक्तं परं परिणामाद्यर्थप्रतिपादनार्थ भूय उपन्यस्तं 'से नृणं भंते' इत्यादि, अथ भदन्त कृष्णलेश्या - कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि नीललेश्यां- नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि प्राप्य - अन्योऽन्यावयवसंस्पर्शमासाद्य तद्रूपतया - नीललेश्यारूपतया, रूपशब्दोऽत्र स्वभाववाची, नीललेश्याखभावतयेत्यर्थः भूयो भूयः परिणमतीति योगः, तत्खभावश्च तद्वर्गणा (द्वर्णा) दिरूपतया भवति तत आह- तद्वर्णतया तद्सतया तद्गन्धतया तत्स्पर्शतया, सर्वत्रापि तच्छब्देन नीललेश्या योग्यानि द्रव्याणि परामृशन्ति भूयो भूयः -- अनेकवारं तिर्यग्मनुष्याणां तत्तद्भवसङ्क्रान्तौ शेषकालं वा परिणमते, इदं हि तिर्यगमनुष्यानधिकृत्य वेदितव्यं, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह 'हंता गो० !' इत्यादि, हन्तेत्यनुमती अनुमतमेतत् गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्येत्यादि प्राग्वत्, इयमत्र भावना-यदा कृष्णलेश्यापरिणतो जन्तुस्तिर्यग्मनुष्यो वा भवान्तरसङ्क्रान्तिं चिकीर्षुनललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृह्णाति तदा नीललेश्यायोग्यद्रव्य सम्पर्कतस्तानि कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि तथा - रूपजीव परिणामलक्षणं सहकारिकारणमासाद्य नीललेश्याद्रव्यरूपतया परिणमन्ते, पुद्गलानां तथातथापरिणमनस्वभावत्वात् ततः स केवलनीललेश्यायोग्यद्रव्यसाचिन्यान्नीललेश्या परिणतः सन् कालं कृत्वा भवान्तरे समुत्प Education Intention For Parts Only ~ 721 ~ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [२२५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५]] पटे उद्देश: प्रज्ञापना- या: मलय. वृत्ती. ॥३५॥ गाथा द्यते, उक्तं च-जलेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे उववजई' इति, तथा स एव तिर्यग्मनुष्यो वा १७ लेश्यातस्मिन्नेव भवे वर्तमानो यदा कृष्णलेश्यापरिणतो भूत्वा नीललेश्याभावेन परिणमते तदापि कृष्णलेश्यायोग्यामि न्याणि तत्कालगृहीतनील लेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतो नीललेश्यायोग्यद्रव्यरूपतया परिणमन्ते, अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन विभावयिपुः प्रथमं प्रश्नसूत्रमाह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि, सुगमं भगवानाह-गौतम ! 'से जहानामए खीरे' इत्यादि, ततः लोकप्रसिद्धं यथानामकं गोक्षीरम् अजाक्षीरं महिषीक्षीरमित्यादिनामकं क्षीर 'दूसि'मिति देशीवचनाष्यमेतत् मथितं तकं प्राप्यान्योऽन्यावयवसंस्पर्शनाविभागं गत्वा यथा च शुद्धं-मलरहितं समले हि रागः।। सम्पद्यमानोऽपि न तथारूपो लगति तत उक्तं शुद्धं वखं-चेलं रज्यतेऽनेनेति रागः 'करणे पञ्' तं-मजिष्ठादिकं प्राप्य तद्रूपतया-मञ्जिष्ठादिरागद्रव्यस्वभावतया, एतदेव ब्याचष्टे-'तद्वर्णतये'त्यादि, सुगमं, तथा कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि प्राप्य तद्रूपतया परिणमन्ते, इयमत्र भावना-यथा क्षीरलक्षणकारणगता रूपादयस्तकरूपादिभावं प्रतिपद्यन्ते यथा वा शुद्धवस्त्रकारणगता रूपादयो मअिष्ठादिरागद्रव्यरूपादिभावं प्रतिपद्यन्ते तथा कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्यरूपकारणगता रूपादयो नीललेश्यायोग्यद्रव्यरूपादिभावं प्रतिपद्यन्ते, 'से ॥३५९॥ तेणटेण'मित्याद्युपसंहारवाक्यं सुगम, एवं नीललेश्या कापोतलेश्यां प्राप्येत्यादीन्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, तदेवं पूर्वस्याः पूर्वस्या लेश्याया उत्तरामुत्तरां लेश्यां प्रतीत्य तद्रूपतया परिणमनमुक्तं, इदानीमेकैकस्याः लेश्याया Sec tseleseseserce दीप अनुक्रम [४६२ -४६३] Sesea ~722~ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [२२५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५]] गाथा यथायोगं क्रमेण शेषसमस्तलेश्यापरिणमनमाह से नूर्ण भंते ! कण्हलेसा नीललेस्सं काउलेस्स'मित्यादि, वाशब्दोऽत्र सर्वत्राप्यनुक्तो द्रष्टव्यः, नीललेश्यां वा कापोतलेश्यां वा यावत् शुक्ललेश्यां वा, एकस्सा लेश्यायाः परस्प-1 रविरुद्धतया युगपदनेकलेश्यापरिणामासंभवात् , शेषाऽक्षरगमनिका प्राग्वत् , अत्रैवार्थे दृष्टान्तमभिधित्सुरिदमाहसे केगडेणं भंते ! इत्यादि सुगम, नवरं यथा वैडूर्यमणिरेक एव तत्तदुपाधिद्रव्यसम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणमते तथैव तान्यपि कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि तत्तन्नीलादिलेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्तत्तद्रूपतया परिणमन्ते इति, एतावताउंशेन दृष्टान्तो नतु पुनर्यथा वैडूर्यमणिः खखरूपमजहानस्तत्तदुपाधिद्रव्यसम्बन्धतस्तत्तदाकारमात्रभाजितया तत्तद्रूपतया परिणमते तथैतान्यपि कृष्णलेश्यायोग्यानि खखरूपमजहानान्येव द्रव्याणि तत्तन्नीलादिलेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्तत्तदाकारमात्रधारितया तत्तद्रूपतया परिणमन्ते इत्यनेनांशेन, तिरश्चां मनुष्याणां च लेश्याद्रव्याणां | सामस्त्वेन तद्रूपतया परिणामाभ्युपगमात्, अन्यथा नैरयिकदेवसत्कलेश्याद्रव्याणामिव तिर्यग्मनुष्याणामपि लेश्याद्रव्याणां सर्वथा स्वरूपापरित्यागेन चिरकालमवस्थानसंभवात् , यत उत्कर्षतोऽप्येषामन्तर्मुहूर्तलक्षणं स्थितिपरिमाणमन्यत्रोक्तं तद्विरुध्येत, पल्योपमत्रयमपि यावत् उत्कर्षतः स्थितिसंभवात् , तदेवं तदन्यलेश्यापश्चकपरिणाममधि-15 कृत्य कृष्णलेश्याविपर्य सूत्रमुक्त, एवं नीलादिलेश्याविषयाण्यपि प्रत्येकं तदन्यलेश्यापञ्चकपरिणाममधिकृत्य पञ्च सूत्राणि वक्तव्यानि, तदेवं तिर्यमनुष्याणां भवसङ्क्रान्ती शेषकालं च लेण्याद्रव्यपरिणाम उक्तः, देवनैरयिकसत्कानि दीप अनुक्रम [४६२ -४६३] ~723~ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [२२५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५] १७लेश्यापदे उद्देशः गाथा प्रज्ञापना- तु लेण्याद्रव्याणि आभवक्षयमवस्थितानि यत्तदन्यलेश्याद्रव्यसंपर्कत आकारमात्रं तदत्रैव वक्ष्यते । तत उक्तः परि- याः मल-Nणामलक्षणाधिकारः, अधुना वर्णाधिकारमभिधित्सुराहय० वृत्ती. कण्हलेसा ण मंते ! वन्नेणं केरिसिया पन्नत्ता ?, गो०! से जहा नामए जीमूते इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कजले ॥३६॥ इ वा गवले इ वा मवलए इ वा जंबूफले इ वा अद्दारिटपुष्फेड वा परपुढेइ वा भमरेइ वा भमरावली इ वा गयकलमे इ वा किण्हकेसरे इ वा आगासथिग्गले इ वा किण्हासोए इ वा कण्हकणवीरए इ वा कण्हर्बधुजीवए इवा, भवे एतारूवे, गो! णो इणहे समहे, कण्हलेस्सा ण इत्तो अणियरिया चेव अकंतयरिया चेव अप्पियतरिया चेव अमणुन्नतरिया चेव अमणामतरिया चेव वन्ने पन्नत्ता, नीललेस्सा णं भंते ! केरसिया बन्नेणं पन्नत्ता?, गोयमा! से जहा नामए भिगए इ वा भिंगपत्ते इ वा चासे इ वा चासपिच्छए इ वा सुए इ वा सुयपिछे इ वा सामा इ वा वणराइ इ वा उच्चतए इ वा पारेक्यगीवा इ वा मोरगीवा इ वा हलहरबसणे इ वा अयसिकुसुमे इ वा वणकुसुमे इ वा अंजणकेसिया [इ वा कुसुमे इवा नीलुप्पले इ वा नीलासोए इ वा नीलकणवीरए इ वा नीलबंधुजीवे इ वा, भवेयारूवे, गोयमा! णो इणढे समडे, एत्तो जाब अमणामयरिया चेव बनेणं पन्नत्ता, काउलेस्सा ण मं! केरिसिया बनेणं पत्रता , गोयमा से जहानामए खदिरसारए दवा कइरसारए इ वा धमाससारे इ वा तंबे इ वा तंबकरोडे इ वा तेवच्छिवाडियाए इ वा वाइंगणिकुसुमे इ वा कोहलच्छदकुमुमे इ वा जवासाकुसुमेह वा, भवेयारूवे, गोयमा ! णो इणढे समहे, काउलेस्सा everelesed erce दीप अनुक्रम [४६२ ॥३६॥ -४६३] SAREauratonintinthiational अथ लेश्याया: वर्ण-परिणामं वर्ण्यते ~724 ~ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] णं एतो अणिद्वयरिया चेव जाव अमणामयरिया चेव, तेउलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वन्नेणं पन्नत्ता, गोयमा ! से जहानामए ससरुहिरए इ वा उरूभरुहिरे इवा वराहरुहिरे इ वा संवररुहिरे इ वा मणुस्सरुहिरे इ वा इंदगोपे इ वा बालेंदगोपे हवा बालदिवायरे इ वा संझारागे इ वा गुंजद्धरागे इ वा जातिहिंगुले इ वा पवालंकरे इ वा लक्खारसे इ वा लोहितक्खमणी इ वा किमिरागकंबले इ वा गयतालुए इ वा चीणपिहरासी ह वा परिजायकुसुमे इ वा जासुमणकुसुमे इ वा किंसुयपुप्फरासी इ वा रत्तुष्पले इ वा रचासोगे इ वा रचकणवीरए इ वा रत्तबंधुपजीवए । वा, भवेयारूवे, गोयमा ! णो इणढे समढे, तेउलेसा णं एत्तो इट्टतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव वनेण पत्रचा, पम्हले. भंते ! केरिसिया बनेणं पन्नता, गोयमा ! से जहानामए चंपे इ वा चंपयछल्ली हवा चंपयभेदे इ वा हालिदा इ या हालिगुलिया हवा हालिद्दभेदे इ वा हरियाले इ वा हरियालगुलिया इ वा हरियालभेदे इ वा चिउरे इ वा चिउररागे इ वा सुवनसिप्पी हवा बरकणगणिहसे हवा वरपुरिसवसणे इ वा अल्लइकुसुमे इ वा चंपयकुसुमे इ वा कणियारकुसुमे इ वा कुहंडयकुसुमे या सुवण्णजुहिया इवा सुहिरनियाकुसुमे इ वा कोरिंटमल्लदामे हवा पीतासोगेह वा पीतकणवीरे दवा पीतबंधुजीवए इवा, भवेयारूबे, गोयमा ! णो इणढे समढे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया जाच मणामयरिया चेव वनेणं पचता, सुकलेस्सा णं भंते ! केरिसिया बनेण पत्रता, गोयमा! से जहानामए अंके इ वा संखे हवा चंदे इ वा कुंदे इ वा दगे इ वा दगरए इ वा दधी हवा दहिपणे ह वा खीरे इवा खीरपूरए इधा सुकच्छिवाडिया इ या पेहुणमिंजिया इ वा धंतधोयरुप्पपट्टे इ वा सारदवलाहए इ वा कुमुददले इ वा पोंडरीयदलेवा सालिपिहरासीति वा कुड Reaekseenerce दीप अनुक्रम [४६४] बररररर ~725~ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥३६॥ दीप अनुक्रम [४६४] गपुष्फरासीति वा सिंदुवारमलदामे इ वा सेपासोए इ वा सेयकणधीरे इ वा सेतबंधुजीवए इवा, भवेयारूपे, गो.! १७लेश्यानो इणढे समडे, सुकलेसा णं एसो इद्वतरिया चेव मणुण्णयरिया चेव बन्नेणं पन्नत्ता, एयाओ ण भंते ! छल्लेसाओ कइस पदे उद्देशः वनेसु साहि जति , गोयमा ! पंचसु वनेसु साहिति, तंजहा-कण्हलेसा कालए गं बनेणं साहि जति नीललेस्सा नीलवनेणं साहिजति काउलेस्सा काललोहिएणं वमेणं साहिजति तेउलेस्सा लोहिएणं वनेणं साहिजति पम्हलेस्सा हालिद्दएणं बनेणं साहिजइ सुकलेस्सा सुकिल्लपणं वनेणं साहिति (सूत्र २२६) 'कण्हलेसा भंते ! वण्णेणं केरिसिया पन्नत्ता' इत्यादि, कृष्णद्रन्यात्मिका लेश्या कृष्णलेश्या, कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि इत्यर्थः, तेषामेव वर्णादिसंभवात् न तु कृष्णद्रव्यजनिता भावरूपा कृष्णलेश्या, तस्या वर्णाद्ययोगात्, भदन्त ! कीदृशी वर्णेन प्रज्ञसा ?, भगवानाह-गौतम ! स लोकप्रसिद्धो यथानामको 'जीमूत इति वा' जीमूतोबलाहका, स चेह प्रावृप्रारम्भसमयभावी जलभृतो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसंभवात्, इतिशब्द उपमानभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतका, बाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुचये, एवं सर्वत्र इतियाशब्दी द्रष्टव्यो, अञ्जनं-सौवीराञ्जनं रत्नविशेषो वा खञ्जनं-दीपमल्लिकामलः स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षघर्षणोद्भवमित्यपरे कजलं-प्रतीतं, ॥३६१॥ गवलं-माहिषं शृङ्गं तदपि च उपरितनत्वग्रभागापसारणे द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य कालिनः सम्भवात् , जम्बूफलं प्रतीतं, अरिष्ठफं-फलविशेषः परपुष्टः-कोकिलः अमरः-चंचरिकः भ्रमरावलिः-भ्रमरपशिः गजकलभः-करि-1 ~726~ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [४६४] पोतः कृष्णकेशरः-कृष्णबकुलः आकाशथिग्गलं--शरदि मेघापान्तरालवाकाशखण्ड, तदपि हि अतीव उष्णं प्रतिभाति इत्युक्तं, कृष्णाशोककृष्णकणवीरकृष्णबन्धुजीवाः-अशोककणवीरवन्धुजीवाः वृक्षविशेषाः, अशोकादयो हि जातिभेदेन पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासार्थ कृष्णग्रहणं, एतावत्युक्ते गौतम आह-'भवे एयारूवा? भगवन् ! भवेत् कृष्णलेश्या वर्णेन एतद्रूपा १, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः-नायमर्य उपपन्नः, एतदूपा कृष्णलेश्येति, किंतु !, सा कृष्णलेश्या इतो जीमूतादेः कृष्णेन वर्णेन अनिष्टतरिका चैव इयमनिष्टा २ इयमनयोर्मध्येऽतिशयेनानिष्टा अनिष्टतरा अनिष्टतरैवानिष्टतरिका अनिप्सिततरिका एवेति भावः, इह किञ्चिदनिष्टमपि खरूपतः कान्तं भवति ततः कान्तताब्युदासार्थमाह-अकान्ततरिकैव, किञ्चित्केषाश्चिदनिष्टमपि खरूपतोऽकान्तINमपि अपरेषां प्रियं भवति ततः सर्वथा प्रियताब्युदासार्थमाह-अप्रियतरिकैव, अत एवामनोज्ञतरिकैव, वस्तुतः सम्यक् परिज्ञाने सति मनागप्युपादेयतया तत्र मनसः प्रवृत्त्यसंभवात् , अमनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भवति ततः प्रकृष्टतरप्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-अमनआपतरिकैव, मनांसि आमोति-आत्मवशतां नयतीति मनापा न मनपा अमनआपा ततो द्वयोः प्रकर्षे तरप एवंभूता वर्णन प्रज्ञप्ता, 'नीललेस्सा गंभंते।' इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरं भृङ्गः-पक्षिविशेषः पश्मलः भृङ्गपत्रं-तस्यैव पक्षिविशेषस्य पक्ष्म चासः-पक्षिविशेषः 'चासपिच्छं' चासस्य पतत्रं शुकः-कीरः 'शुकपिर्छ' शुकस्य पतत्रं श्यामा-प्रियनुः वनराजी-प्रतीता उच्चन्तको-दन्तरागः ~727~ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [४६४] प्रज्ञापना- INआह च मूलटीकाकार:-"उचंतगो दन्तरागो भन्नई" पारापतग्रीवा मयूरग्रीवा च सुप्रतीता, हलधरो-बलदेवः तस्य १७लेश्यायाः मल-IN वसनं-वस्त्रं हलधरवसनं, तद्धि नीलं भवतीत्युपातं, अतसीकुसुमं वणवृक्षकुसुमं च प्रतीतं, अजनकेसिका-बन-उपदे उद्देश: यवृत्ती. स्पतिविशेषः तस्याः कुसुमं अञ्जनकेसिकाकुसुमं नीलोत्पलं–कुवलयं नीलाशोकनीलकणवीरनीलबन्धुजीवा-अशो कादिवृक्षषिशेषाः, 'काउलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, अत्राप्यक्षरगमनिका प्राग्वत्, खदिरसारो धमासासारख लोक-1 ॥३६२॥ प्रतीतः 'तंबे इ वा तंबकरोडए इ वा तंबछेवाडिया इवा' इति सम्प्रदायादवसेयं वृन्ताकीकुसुमं प्रतीत कोइलच्छदकुसुमए वेति-कोकिलच्छदः-तैलकंटकः, तथा च मूलटीकाकृत्-'वन्नाहिगारे जो एत्थ कोइलच्छदो सो तिलकंटओ भन्नई' इति, तस्य कुसुमं प्रतीतं 'तेउलेस्सा णं भंते । इत्यादि, शशकोरभ्रवराहमनुष्यरुधिराणि शेषरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं, बालेन्द्रगोपकः-सद्योजातः इन्द्रगोपका, स हि प्रवृद्धः सन् ईषत्पाण्डुरक्तो भवति ततो बालग्रहणं, इन्द्रगोपकः-प्रावृप्रथमसमयभावी कीटविशेषः, बालदिवाकरःप्रथममुद्रच्छन् सूर्यः, गुजा-लोकप्रतीता तस्या अर्धरागो गुआर्धरागः, गुआया हि अर्धमतिरक्तं भवति अधै।। 1 चातिकृष्णमिति अर्धग्रहणं, जात्यः-प्रधानो हिङ्गुलको जासहिङ्गुलकः प्रवालः-शिलादलं तस्याङ्करः प्रवालाङ्करः, 113 स हि प्रथममुद्गच्छन् अत्यन्तरको भवति ततस्तदुपादान, लाक्षारसः-प्रतीतः, लोहिताक्षमणिः-लोहिताक्षनामा रनविशेषः कृमिरागेण रक्तः कम्बलः कृमिरागकम्बलः, शाकपार्थिवादिदर्शनान्मध्यमपदलोपी समासः, गजतालुचीनपि-1 eesecseera ~ 728~ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [४६४] राशिपारिजातकुसुमजपाकुसुमकिंशुकपुष्पराशिरक्तोत्पलरक्ताशोकरक्तकणवीररक्तबन्धुजीवा लोकप्रतीताः भवे एयारूबा' इति पदयोजना प्राग्वत्, भगवानाह-गौतम ! णो इणढे समढे' यतस्तेजोलेश्या इतः-शशकरुधिरादिभ्यो लोहितेन वर्णनेष्टतरिकैव, तत्र किञ्चिदकान्तमपि केषांचिदिष्टतरं भवति ततः कान्ततरताप्रतिपादनार्थमाह-कान्ततरिकैव, केषाश्चिदिष्टतरमपि खरूपतः कान्ततरमप्यपरेषामप्रियं भवति ततः प्रियतरताप्रतिपत्त्यर्थमाह-प्रियतरिकैव, अत एव मनोज्ञतरिका, मनोज्ञतरमपि किश्चिन्मध्यमं संभवेदतः प्रकृष्टतरप्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-मनापत-18| रिकव वर्णेन प्रज्ञप्ता, 'पम्हलेस्सा गं भंते !' इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरं चम्पकः-सामान्यतः सुवर्णचम्पको-वृक्षविशेषः 'चम्पकछली इवा' इति सुवर्णचम्पकत्वक 'चम्पकमेए इवा' इति सुवणेचम्पकस्य भेदोद्विधाभावः, भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षों भवति ततो भेदग्रहणं, हरिद्रा इह पिण्डहरिद्रा हरिद्रागुटिका-हरिद्रानिर्ति ता गुटिका हरिद्राभेदो-हरिद्राया द्वैधीभावः हरितालो-धातविशेषः हरितालगुटिका-हरितालमयी गुटिका| दाहरितालभेदो-हरितालच्छेदः चिकुरः-पीतद्रव्यविशेषः चिकुररागः-तन्निष्पादितो वस्त्रादौ रागः 'सुवन्नसिप्पीकाइ वा' इति सुवर्णमयी शुक्तिका, वर-प्रधानं यत्कनकं तस्य निकषः-कपपट्टके रेखारूपः बरकनकनिकषः वरपु-| रुषः-पासुदेवस्तस्य वसनं-वखं वरपुरुषवसनं तद्धि पीतं भवतीत्युपातं अलकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं चम्पककुसुम| सुवर्णचम्पकवृक्षपुष्पं 'कन्नियारकुसुमेह वा' इति काञ्चनारककुसुमं कूष्माण्डिकाकुसुमं-पुष्पा(पुंस्फ)लिकापुष्पं सुव Recent ~ 729~ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] प्रज्ञापना- या मलय०वृत्ती. ॥३६॥ दीप अनुक्रम [४६४] यूधिकाकुसुमं प्रतीतं सुहिरण्यिका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं कोरण्टकमास्यदामपीताशोकपीतकणवीरपी- १७ लेश्यातबन्धुजीवाः प्रतीताः, 'सुकलेसा णं भंते' इत्यादि, अत्राप्यक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरमडो-रत्नविशेषः शचन्द्रौपदे उद्देशः प्रतीतौ कुन्दं-कुसुमं दकं-उदकं उदकरजः-उदककणाः, ते हि अतिशुभ्रा भवन्तीत्युपात्ताः, दधि-प्रतीतं दधि नो-दधिपिण्डः क्षीरं-प्रतीतं क्षीरपूर-कथ्यमानं अतितापादूर्ध्व गच्छत् क्षीरं 'सुक्कच्छिवाडियाइ वा' इति छिवाडि:-पलादिफलिका सा च शुष्का सति किलातीय शुक्ला भवतीत्युपाता 'पेहुणमिजिया इवे ति पेहुणं-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिआ पिहुणमिआ सा चातीव शुक्लेत्यभिहिता 'धंतधोयरुप्पपट्टेवा' इति ध्माता-अग्निसम्पर्कतो निर्मलीकृतः धौतो-भूतिखरण्टितहस्तसम्माजनेनातिनिशितीकृतो यो रूप्यमयः पट्टः स ध्मातधौतरूप्यपट्टः, 'सारइयबलाहगे इ वा' इति शारदिकः-शरत्कालभावी बलाहकः पुण्डरीकं-सिताम्बुर्ज तस्स दसं-पत्रं पुण्डरीकदलं शालिपिष्टराशिकुटजपुष्पराशिसिन्दुवारमाल्यदामवेताशोकश्वेतकणवीरतवन्धुजीवाः प्रतीताः ॥ इह वर्णाः पश्च भवन्ति, तबधा-कृष्णो नीलो लोहितो हारिद्रः शुक्लश्च, लेश्याच पट्र, तत उपमानतो पर्णमिदेशे कृतेऽपि संशयः का लेश्या कस्मिन्वर्णे भवति , ततः पृच्छति-'एयाओणं भंते ! इत्यादि, एता अनन्तरोदिता भदन्त ! ॥३६शा षड् लेश्याः 'कइसु बन्नेसु'त्ति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी यथा-"तिसु सेसु अलंकिया पुडवी' [त्रिभिस्सैरलंकृता | पृथ्वी] इत्यत्र, ततोऽयमर्थः-कतिभिर्वणः 'साहि जंति' कथ्यते प्ररूप्यते इतियावत् , भगवानाह-गौतम ! 'पंचसु estors ~ 730~ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] Katkesek esernerce दीप अनुक्रम [४६४] बनेसु' इति पञ्चभिर्वर्णैः शिष्यते यथा शिष्यते तथा तथया इत्यादिना दर्शयति । उक्तो वर्णपरिणामः, सम्प्रति रसपरिणाममभिधित्सुराह कण्हलेस्सा णं भंते ! केरिसिया आसाएणं पन्नता, गोयमा से जहानामए निचे हवा मिबसारे इ वा निघाल्ली हवा निंबफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफलए इ वा कुडगछल्ली इ वा कुडगफाणिए इवा कडुगतुंबीइ वा कडुगतुंविफले हवा खारतउसी इवा खारतउसीफले इ वा देवदालीति वा देवदालीपुष्के इ वा भिगवालुंकी हवा मियवालुंकीफले हवा घोसाडए इ या घोसाडिफले इ वा कण्हकंदए इ वा वजकंदए इवा, भवेयारूवे 1, गो. जो इणहे समढे, कण्हलेसा एतो अणिहतरिया चेव जाव अमणामयरिया चेव आँसाएणं पनत्ता, नीललेसाए पुच्छा, गोयमा ! से नहानामए भगीति वा भंगीरए हवा पाढा इवा [चरिया इवा] चित्तामूलए इ वा पिप्पली इ वा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पलीसुण्णे हया मिरिए इ वा मिरियचुण्णए इवा सिंगवेरे दवा सिंगवेरचुण्णे इवा, भवेयारूवे, गोयमा! णो इणढे समढे, नीललेस्सा एचो जाय अमणामतरिया चेव आसाएणं पत्ता, काउलेस्साए पुच्छा, गोपमा 1 से जहानामए अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलिंगाण वा बिल्लाण वा कविद्वाण वा [भजाण वा] फणसाण का दाडिमाण वा पारे बताण वा अपखोडयाण या चोराण वा तियाण वा अपकाणं अपरिवागाणं वनेणं अणुववेयाणं गंधेणं अणुववेयाणं फासेणं अणु०, भवेयारूवे , गोणो इणडे समढे, जाव एत्तो अमणामयरिया चेव काउलेस्सा अस्साएणं पन्नत्ता, तेउलेस्सा णे पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए अंबाण वा पकाणं परियावनेणं उववेयाणं पसत्येणं जाप फासेणं जाव एत्तो | अथ लेश्याया: रस-परिणामं वर्ण्यते ~ 731~ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२७] प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती. ॥३६॥ दीप अनुक्रम [४६५] मणामयरिया चेव तेउलेस्सा आसाएणं पन्नता, पम्हलेस्साए पुच्छा, मोयमा! से जहानामए चंदप्पभा इ वा मणसिला १७लेश्याइ वा वरसी इवा चरवारुणी इ वा पत्तासवे इ वा पुष्फासवे इ वा फलासवे इ वा चोयासवे इ वा आसचे इ वा महूइ वा पदे उद्देश मेरएइ वा कविसाणए इ या खजूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ वा सुपकखोतरसे हवा अडपिणिद्विया इवा जंबुफलकांलिया इ वा चरप्पसचाइ वा [आसला ] मंसला पेसला ईसि ओढवलंबिणी इसि वोच्छेदकहुई ईसि तंवच्छिकरणी उक्कोसमदपत्ता वनेणं उववेया जाव फासेणं आसायणिजा वीसायणिज्जा पीणणिजा विहणिज्जा दीवणिज्जा दप्पणिज्जा मदणिजा सर्वेदियगायपलहायणिज्जा, भवेयारूवा?, गो. जो इणद्वे समढे पम्हलेस्सा एनो इद्वतरिया चेव जाव मणामयरिया चेव आसारण पनत्ता, सुकले० मते ! केरिसिया आस्साएणं पन्नता, गोयमा ! से जहानामए गुले इवा खंडे इवा सकराइ वा मच्छंडिया इ वा पप्पडमोदए इ वा भिसकंदए इ वा पुप्फुचरा इ वा पउमुत्तरा हवा आदंसिया हवा सिद्धत्थिया हवा आगासफालितोवमा इ वा उवमा इ वा अणोवमा हवा, भवेतारूवे, गोयमा ! णो इणढे समहे, सुकलेस्सा एत्तो इद्वतरिया चेव पियतरिया चेव मणामयरिया चेव आसाएर्ण पत्रचा (सूत्र २२७) 'कण्हलेसा गं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! स लोकप्रतीतो यथानामको निम्बो वृक्ष-II |विशेषः निम्बसारो-निम्बमध्यवर्त्यवयव विशेषः 'निम्बछली' निम्बत्वक निम्बफाणितं-निम्बकाथः कुटजोवृक्षविशेषः तस्यैव फलं कुटजफलं तस्यैव त्वक् कुटजछली तस्यैव काथं-कुटजफाणितं कटुकतुम्पी प्रसिद्धा तस्या ~ 732 ~ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२७] दीप अनुक्रम [४६५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [४], दारं [-], मूलं [२२७] ..आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Internationa एव फलं कटुकतुम्बीफलं, खारतउसीति खारशब्दः कटुकवाची तथाऽऽगमे अनेकथा प्रसिद्धेः, ततः कटुका त्रपुषी क्षारत्रपुपी तस्या एव फलं क्षारत्रपुपीफलं देवदाली - रोहिणी तस्या एव पुष्पं देवदालीपुष्पं मृगवालुडी-लोकतोऽवसेया तस्या एव फलं मृगवालुकीफलं घोपातकी प्रसिद्धा तस्या एव फलं घोषात कीफलं कृष्णकन्दो - वज्रकन्दश्चानन्तका यवनस्पतिविशेषौ लोकतः प्रत्येतव्यौ, एतावति उक्ते गौतमः पृच्छति - भगवन् ! भवेत् रसतः कृष्ण| लेश्या एतद्रूपा -- निम्बादिरूपा १, भगवानाह गौतम । नायमर्थः समर्थः, यतः कृष्णलेश्या इतो - निम्बादिरसमधिकृत्या निष्टतरिकैवेत्यादि प्राग्वत् । 'नीललेसाए' इत्यादि, भङ्गी - वनस्पतिविशेषः तस्या एव रजो भङ्गीरजः पाठाचित्रमूलके लोकप्रतीते पिप्पलीपिप्पलीमूलपिप्पली चूर्णमरिचमरिचचूर्णशृङ्गवेरशृङ्गवेर चूर्णान्यपि प्रसिद्धानि । 'काउलेस्साए' इत्यादि, आम्राणां फलानामेवं सर्वत्रापि भावनीयं 'अंबाडयाण वा' इति आम्राटका :फलविशेषाः मातुलिङ्गविल्वक पित्थपनसदाडिमानि प्रतीतानि पारापताः फलविशेषाः अक्षोडवृक्षफलानि अक्षोडानि बोरवृक्षफलानि बोराणि - बदराणि तिन्दुकानि च प्रतीतानि, एतेषां फलानामपक्कानां तत्र सर्वथापि अपक्कं फलमुच्यते तत आह—अपरिपाकानां न विद्यते परिपाकः – परिपूर्णः पाको येषां तान्यपरिपाकानि तेषामीषत्पकानामित्यर्थः, एतदेव वर्णादिभिः कथयति वर्णेनातिविशिष्टेन गन्धेन प्राणेन्द्रियनिर्वृतिकरेण स्पर्शेन विशिष्टपरिपाका विनाभाविना अनुपपेतानां - असम्प्राप्तानां यादृशो रसः, अत्र गौतमः पृच्छति - एतद्रूपा - एवंरूपरसोपेता For Parts Only ------------- ~733~ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२७] दीप अनुक्रम [४६५ ] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ३६५॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [२२७] उद्देशकः [४], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. पदे उद्देशः ४ भवेत् कापोतलेश्या ?, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थः, किं तु इतः - अपरिपक्का फलादेरनिष्टतरिकैवेत्यादि ४ १७ लेश्याप्राग्वत् ॥ 'सेउलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, तेषामेव जाम्रफलादीनां पक्कानां तत्रेषयत् किमपि पक्कं लोके पक्कं व्यवहियते तत आह--पर्यायापन्नानां परिपूर्णपाक पर्याय प्राप्तानां एतदेव वर्णादिभिर्निरूपयति-वर्णेन प्रशस्तेनएकान्ततः प्रशस्येन तथा प्रशस्तेन गन्धेन प्रशस्तेन स्पर्शनोपेतानां वादग्रसः, एतावत्युक्ते गौतम आह-रसमधिकृत्य एतद्रूपा --- पक्कानादिफलरूपा तेजोलेश्या भवेत् १, भगवानाह - नायमर्थः समर्थः, किंतु परिपक्कान्रफलादेरिष्टतरिके| देवादि प्राग्वत् 'पम्हलेसाए पुच्छा' सूत्रपाठोऽक्षरगमनिका च प्राग्वत्, नवरं 'से जहानामए' इति सा - लोकप्र सिद्धा 'यथा' येन प्रकारेण नाम यस्याः सा यथानामिका पुंस्त्वं सूत्रे प्राकृतलक्षणवशात्, प्राकृते हि लिङ्गमनियतं, वदाह पाणिनिः खप्राकृतलक्षणे - 'लिङ्गं व्यभिचार्यपी'ति 'चन्द्रप्रभा इति वे 'ति चन्द्रस्येव प्रभा - आकारो बस्याः सा चन्द्रप्रभा मणिशिलाकेव मणिशिलाका वरं च तत् सीधु च बरसीधु वरा चासी वारुणी च वरवारुणी पत्रैः - धातकीपत्रैर्निष्पाद्य आसवः पत्रासवः एवं पुष्पासवः फलासवश्च परिभावनीयः चोओ – गन्धद्रव्यं तन्निष्पाद्य आतवः चोयासवः, पत्रादिविशेषेण व्यतिरिक्त आसव आसव इति गीयते, मधुमेरककापिशायनानि मद्यविशेषाः, मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्न आसवः खर्जूरसारः मृद्वीका - द्राक्षा तत्सारनिष्पन्नो मृद्वीकासारः सुपकेक्षुरसमूलदलनिष्पन्नःसुपक्के रसः अष्टभिः शास्त्रप्रसिद्धैः पिष्टैः निष्ठिता अष्टपिष्टनिष्ठिता जम्बूफलवत् कालेव कालिका जम्बूफलकालिका Education International For Parts Only ~734~ ॥ ३६५॥ wor Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२७] दीप अनुक्रम [४६५ ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशकः [४], दारं [-], मूलं [२२७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. वरा चासौ प्रसन्ना च वरप्रसन्ना, एते सर्वेऽपि मद्यविशेषाः पूर्वकाले लोकप्रसिद्धा इदानीमपि शास्त्रान्तरतो लोकतो व यथाखरूपं वेदितव्याः, वरप्रसन्नाविशेषणान्याह -- मांसला — उपचितरसा पेशला - मनोज्ञा मनोज्ञत्वादेव ईषत् - मनाकु ततः परम्परमाखादतया झटित्येवाग्रतो गच्छति ओष्ठेऽवलम्बते – लगतीत्येवंशीला ईषदोष्ठाबलस्विनी तथा ईषत् - मनाक् पानव्यवच्छेदे सति तत ऊर्ध्वं कटुका एलादिद्रव्यसम्पर्कतः उपलक्ष्यमाणतिक्तवीर्येतियावत् तथा ईषत् - मनाक् ताम्रे अक्षिणी क्रियेते अनयेति ईपत्ताश्राक्षिकरणी मद्यस्य प्रायः सर्वस्यापि तथाखभावत्वात् 'उकोसमयपत्ता' इति उत्कर्षतीति उत्कर्षः स चासौ मदश्च उत्कर्षमदः तं प्राप्ता उत्कर्षमदप्राप्सा, एतदेव वर्णादिभिः समर्थयते-वर्णेनोत्कृष्टमदाविनाभाविना प्रशस्येन गन्धेन प्राणेन्द्रियनिर्वृतिकरण रसेन परमसुखासिकाजनकेन स्पर्शेन मदपरिपाकाव्यभिचारिणा अत एवास्वादनीया विशेषतः खादनीया विस्वादनीया प्रीणयतीति प्रीणनीया 'कृदू बहुल' मिति वचनात् कर्त्तर्यनीयप्रत्ययः, एवं दर्पयतीति दर्पणीया मदयतीति मदनीया सर्वाणीन्द्रियाणि सर्व च गात्रं प्रह्लादयति इति सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीया, एतावत्युक्ते भगवान् गौतम आह-' भवेयारूवा !' भगवन् !एतद्रूपा - एवंरूपरसोपेता पद्मलेश्या भवेत् !, भगवानाह - 'नो इणट्टे समट्ठे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'सुकलेल्सा णं भंते!' इत्यादि, गुडखण्डे प्रसिद्धे शर्करा - काशादिप्रभवा मत्स्यण्डी - खण्डशर्करा पर्पटमोदकादयः सम्प्रदायादवसेयाः, शेषं सुगमं । तदेवमुक्तो लेश्याद्रव्याणां रसः, सम्प्रति गन्धमभिधित्सुराह Education International For Pernal Use On ~ 735~ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मज्ञापनायाः मल प्रत सूत्रांक [२२८] ॥३६॥ काइ ण भंते ! लेस्साओ दुन्भिगंधाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा! तओ लेस्साओ दुभिगंधाओ पं०१, तं-कहलेस्सा नील. १७लेश्याकाउलेस्सा। कइ णं भंते ! लेस्साओ सुभिगंधाओ पचत्ताओ?, गोयमा! तओ लेस्साओ मुभिगंधाओ पं०, तं० तेउ० पदे उद्देशः पम्ह० सुक०, एवं तओ अविसुद्धाओ तओ बिसुद्धाओ तओ अप्पसत्थाओ तओ पसत्थाओ तओ संकिलिट्ठाओ तो असंकिलिट्ठाओ तओ सीतलुक्खाओ तओ निदुण्हाओ तओ दुग्गतिगामियाओ तओ सुगतिगामियाओ (सूत्र २२८) 'कइ णं भंते !' इत्यादि, सुगम, नवरं कृष्णनीलकापोतलेश्या दुरभिगन्धाः मृतगवादिकडेवरेभ्योऽप्यनन्तगुणदुरभिगन्धोपेतत्वात् तेजःपद्मशुक्ललेश्याः सुरभिगन्धाः पिथ्यमाणगन्धवाससुरभिकुसुमादिभ्योऽनन्तगुणपरमसुरभिगन्धोपेतत्वात् , उक्तं चोत्तराध्ययनेषु लेश्याध्ययने-"जह गोमडस्स गंधोणागमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तो उ अणंतगुणो लेस्साणं अप्पसत्थाणं ॥१॥ जह सुरभिकुसुमगंधो गंध वासाण पिस्समाणाण । एत्तो उ अणंतगुणो पसस्थलेसाण तिण्डंपि ॥२॥"[यथा गोमृतकस्य गन्धो हस्तिमृतकस्य वा यथाऽहिमृतकस्य । इतोऽनन्तगुण एवं लेश्यानामप्रशस्तानां ॥१॥ यथा सुरभिकुसुमगन्धो गन्धो वासानां पिष्यमाणानां । इतोऽनन्तगुण एव प्रशस्तानां लेश्यानां तिसृणामपि ॥२॥] उक्तो गन्धपरिणामः, अधुना शुद्धाशुद्धत्वप्रतिपादनार्थमाह-एवं तओ अविसु- ॥६॥ द्धाओ ततो विसुद्धाओं' इति, एवम्-उक्तेन प्रकारेण आद्यास्तिस्रो लेश्या अविशुद्धा वक्तव्याः, अप्रशस्तवणेगन्ध-131 रसोपेतत्वात्, उत्तरास्तिस्रो लेश्या विशुद्धाः, प्रशस्तवर्णगन्धरसोपेतत्वात् , ततश्चर्य वक्तव्याः-'कइ णं भंते ! eace-CEle दीप अनुक्रम [४६६] अथ लेश्याया: गन्ध-परिणामं वर्ण्यते ~ 736~ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२८] दीप अनुक्रम [४६६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशकः [४], मूलं [२२८] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. लेस्साओ अविसुद्धाओ पं० १, गोयमा ! तओ लेस्साओ [अप्पसत्थाओ] अविसुद्धाओ पं० तंजा - कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा, कह णं भंते! लेस्साओ विसुद्धाओ पं०१, गोयमा ! तओ लेस्साओ विसुद्धाओ पं०, तंजहातेउ० पउम० सुकलेसा' इति, उक्के शुद्धत्याशुद्धत्वे, सम्प्रति प्राशस्त्याप्राशस्त्ये प्रतिपादयति- 'तभी अप्पसत्थाओ तओ पसत्थाओ' आयास्तिस्रो लेश्या अप्रशस्ता वक्तव्याः, अप्रशस्तद्रव्यत्वेनाप्रशस्ताध्यवसायहेतुत्वात्, उत्तरास्तिस्रो लेश्याः प्रशस्ताः, प्रशस्तद्रव्यतया प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् सूत्रपाठः प्राग्वदवसेयः 'कर णं भंते । लेस्साओ अप्पसत्थाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, उक्ते प्राशस्त्याप्राशस्त्ये, अधुना संक्लिष्टासंक्लिष्टत्वे प्रतिपादयति – 'तओ संकिलिट्टाओ तओ असंकिलिट्टाओ' इति, आद्यास्तिस्रो लेश्याः संक्लिष्टाः, संक्लिष्टार्त्तरौद्रध्यानानुगताध्यवसायस्थानहेतुत्वात्, उत्तरास्तिस्रो लेश्या असंक्लिष्टाः, असंक्लिष्टधर्मशुक्लध्यानानुगताध्यवसायकारणत्वात्, अत्रापि पाठः प्राग्वत्'कइ णं भंते । लेस्साओ संकिलिट्ठाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, अधुना शीतोष्णस्पर्शप्रतिपादनार्थमाह- 'तओ सीयलुक्खाओ तओ निदुण्डाओ' इति, आद्यास्तिस्रो लेश्याः शीतरूक्षाः - शीत रूक्षस्पर्शोपेताः, उत्तरास्तिस्रो लेश्याः स्त्रिग्धोष्णस्पर्शाः, इहान्येऽपि लेश्याद्रव्याणां कर्कशादयः स्पर्शाः सन्ति यत उक्तं लेश्याध्ययने – “जह करवयस्स फासो गोजि भाए व सागपत्ताणं । एत्तोवि अनंतगुणो लेस्साणं अप्पसत्थाणं ॥ १ ॥ जह बूरस्स व फासो नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । एतोवि अनंतगुणो पसत्थलेस्साण तिण्हंपि ॥ २ ॥” इति [ यथा क्रकचस्व स्पर्शो गोजिह्वाया Education International For Parts Only ~737~ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १७लेश्या प्रत सूत्रांक [२२८] प्रज्ञापनाया: मल वृत्ती. ॥३६॥ दीप अनुक्रम [४६६] वा सागपत्राणां । इतोऽनन्तगुणो लेश्यानामप्रशस्तानाम् ॥ १॥ यथा दूरस्य वा स्पर्शे नवनीतस्य वा शिरीषकुसुमानांइतोऽप्यनन्तगणः प्रशस्तलेश्यानां तिसूणामपि ॥२॥] तथापि शीतरूक्षी स्पशी आद्यानां तिसणां लेल्यानां पद उद्दशः चित्तास्वास्थ्यजनने स्निग्धोष्णस्पी उत्तरासां तिसृणां लेश्यानां परमसन्तोपोत्पादने साधकतमाविति तावेव पृथका पृथक साक्षादुक्तावित्सदोषः, सूत्रपाठः प्राग्वत् , 'कइणं भंते! लेस्साओ सीयलुक्खाओ पन्नताओ' इत्यादि । सम्प्रति गतिद्वारमभिधित्सुराह-तओ दुग्गइगामिणीओ तओ सुगइगामिणिओ' इति, आद्यास्तिस्रो लेश्या दुर्गतिगामि-18 न्यः-दुर्गतिं गमयन्तीत्येवंशीला दुर्गतिगामिन्यः, संक्लिष्टाध्यवसायहेतुत्वात् , उत्तरास्तिस्रो लेश्याः सुगतिं गमय-12 न्तीत्येवंशीलाः सुगतिगामिन्यः, प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् , उभयत्रापि गमेय॑न्तादिन्प्रत्ययः, सूत्रपाठः प्राग्वत् 'कइ णं भंते ! लेस्साओ दुग्गइगामिणीओ पन्नताओ' इत्यादि । अधुना परिणामद्वारमभिधित्सुराहकण्हलेस्सा गं भंते ! कतिविहं परिणामं परिणमति ?, गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसविहं वा एक्कासीतिविहं वा बेतेयालीसतविहं वा बहुयं वा बहुविहं वा परिणाम परिणमइ, एवं जाव सुकलेसा । कण्हलेसा गं भंते! कतिपदेसिया पत्रचा, गोयमा! अणंतपदेसिया पन्नचा, एवं जाव सुकलेसा | कण्हलेस्सा णं भंते ! कइपएसोगाढा पनत्ता, ॥३६७॥ गोयमा! असंखेजपएसोगाढा पत्रचा, एवं जाव सुकलेस्सा । कण्हलेस्साए पा भंते ! केवतियाओ वग्गणाओ पन्नचाओ, गोयमा ! अणंताओ वग्गणाओ, एवं जाव सुक्कलेस्साए ॥ (मूत्र २२९) SAREarattunintamatkarma | अथ लेश्याया: परिणाम-द्वारम् वर्ण्यते ~ 738~ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९] दीप अनुक्रम [४६७] 'कण्हलेसा णमित्यादि, अत्र 'कइविहं परिणाम' इत्यत्र प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे द्वितीया द्रष्टच्या यथाऽऽचाराओं "अगणि(च खलु) पुट्ठा" इत्यत्र, ततोऽयमर्थः-कृष्णलेश्या णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! कतिविधेन परिणामेन परिणमति ?, भगवानाह-गोयमा । तिविहं वा' इत्यादि, इह त्रिविधो-जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन नवविधो यदैSपामपि जघन्यादीनां खस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येकं जघन्यादित्रयेण गुणना, एवं पुनः पुनखिकगुणनया सप्तवि-H शतिविधत्वं एकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशदधिकशतद्वयविधत्वं बहुत्वं बहुविधवं भावनीयं, सर्वत्र च तृतीयाथै द्वितीया, ततत्रिविधेन वा परिणामेन परिणमति नवविधेन वा इत्येवं पदानां योजना कर्तव्या, 'एवं जाव सुकलेसा' इति एवं-कृष्णलेश्यागतेन प्रकारेण नीलादयोऽपि लेश्यास्तावद्वक्तव्याः यावत् शुक्ललेश्या, सूत्रपाठस्तु सुगमत्वात् खयं परिभावनीयः ॥ सम्प्रति प्रदेशद्वाराभिधित्सया प्राह-'कण्हलेसा णं मंते ! कइपएसिया' इत्या-1 दि सुगम, नवरमनन्तप्रादेशिकेति-अनन्तानन्तसङ्ख्योपेताः प्रदेशा:-तद्योग्याः परमाणवो यस्याः कृष्णलेश्यायाःकृष्णलेश्याद्रव्यसंघातस्य साऽनन्तप्रादेशिका, अन्यथा-अनन्तप्रदेशव्यतिरेकेण स्कन्धस्य जीवग्रहणयोग्यताया एवा-18 भावात् , एवं नीलादयोऽपि लेश्या वक्तव्याः , तथा चाह-एवं जाव मुक्कलेसा' इति ॥ अवगाहनाद्वारमाह-कण्ह-18 लेस्सा णं भंते !' इत्यादि, इह प्रदेशाः-क्षेत्रप्रदेशाः प्रतिपत्तव्याः, तेष्वेवावगाहप्रसिद्धेः, ते चानन्तानामपि वर्गणानामाधारभूता असङ्ख्या एव द्रष्टव्याः, सकलस्यापि लोकस्य प्रदेशानामसङ्ख्यातत्वात् ॥ वर्गणाद्वारमाह-'कण्ह ~739~ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९]] दीप अनुक्रम [४६७] प्रज्ञापना लेस्सा गंभंते ! केवइयाओ वग्गणाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, इह वर्गणा-औदारिकादिशरीरप्रायोग्यपरमाणुवर्गयाः मल-IMणावत कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्यपरमाणुवर्गणा गृह्यन्ते, ताश्च वणोदिभेदेन समानजातीयानामेक(व)सद्भावात् अनन्ताः पदे अशा यवृत्ती. प्रत्येतव्याः, एवं नीललेश्यादीनामपि वर्गणाः प्रत्येकं वक्तव्याः, तथा चाह 'एवं जाव सुक्कलेस्साए' इति ॥ अधुनाSI स्थानद्वारा भिघित्सया आहकेवतिया ण भंते ! कण्हलेस्साणं ठाणा पन्नत्ता ?, गोयमा! असंखेजा कण्हलेस्साणं ठाणा पन्नत्ता, एवं जाच सुकलेस्सा । एएसिणं भंते ! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुकलेस्साठाणाण य जहन्नगाणं दबयाए पएसट्टयाए दबट्टपएसट्टयाए कतरे २ हिंतो अणा वा ४१, गोयमा ! सवत्योवा जहनमा काउलेस्साठाणा दबढ० जहन्नगा नीललेसाठाणा दबट्टयाए असंखेजगुणा जहन्नगा कण्हलेसाठाणा दबढ० असं० जहनतेउलेसाठाणा द० असं० जहन्नगा पम्हलेसाठाणादव० असं० जहभगा० सुकलेसाठाणा दबढ० असं० पएस. सबथो जहन्नमा काउलेसाठाणा पएस० जहन्नगा नीललेसाठाणा पएस० असं० जहभगा कण्हलेसाठाणा पएस० असं० जहबतेउलेस्साए ठाणा पएसट्ट० असं० जहन्नगा पम्हलेसाठाणा पएसट्ठ० असं० जहन्नगा सुकलेसाठाणा पएस० असं० दबट्टपएसट्टयाए सवत्थोवा जहन्नगा काउलेसाठाणा दबढ० जहन्नगा नीललेसाठाणा दब० असं० ॥१६॥ एवं कण्हलेस्सा तेउ० पम्ह जहन्नगा सुकलेसाठाणा दव. असं जहन्नएहिंतो सुकलेस्साठाणेहितो दवह जहन्नकाउलेसठाणा पएस० असं० जहन्नया नीललेसाठाणा पएस० असं० एवं जाव सुक्कलेस्साठाणा । एतेसिणं कण्हलेस्साठाणाणं event-66ccess | अथ लेश्याया: स्थान-द्वारम् वर्ण्यते ~740~ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३०] दीप अनुक्रम [४६८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], उद्देशक: [४], ------------- दारं [-] मूलं [२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internationa जाव सुकलेसाठाणाण य उकोसगाणं दद्दट्ट० पएस० दाढपएस० कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा । सवत्थीवा उक्कोसगा काउलेस्साटाणा दट्ट्याए उक्कोसगा नीललेसाठाणा दबट्टयाए असंखेजगुणा एवं जहेब जहनगा तहेब उकोसमावि, नवरं उक्कोसत्ति अभिलावी, एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्सठाणाणं जाव मुकलेस्सठाणाण य जहनउकोसगाणं दवट्टयाए पएसट्टयाए दबट्टपएसट्टयाए कतरे २हिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सवत्थोवा जहन्नगा काउलेसठाणा दवट्टयाए जहन्नया नीललेसठाणा दव० असं० एवं कण्हते उपम्हलेस्स० जह० सुक्कलेसठाणा दव० असं० जहनहिंती सुकलेसठाणेहिंतो दद्द० उकोसा काउलेसठाणा दवट्टयाए असं० उकोसा नीललेसाठाणा दव० असं० एवं कण्हतेउपन्ह उकोसा सुकलेसाठाणा दव० असं० पएसइयाए सहत्थोवा जहन्नमा काउलेसठाणा पएसट्टयाए जहन्नगा नीललेसठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा एवं जहेब दट्टयाए तहेव पसट्टयाएव भाणियां, नवरं पएसट्टयाएति अभिलावविसेसो, दबट्टपएस हयाए सवत्थोवा जहन्नगा काउलेसठाणा दट्टयाए जहन्नगा नीललेसठाणा वट्टयाए असं० एवं कण्हते उपम्ह० जहन्नया सुकलेसठाणा दवहयाए असं०, जहन्नएहिंतो सुकलेसाठाणेहिंतो दबट्टयाए उकोसा काउलेसठाणा दबट्टयाए असं० उफोसा नीललेस्सठाणा दव० असं०एवं कण्हते उपम्ह० उकोसगा सुकलेसठाणा दव० असं०, उकोस एहिंतो सुकलेसठाणे दद्दट्ट० जहनगा काउलेसठाणा पएसट्टयाए अनंतगुणा, जहन्नगा नीललेसठाणा पएस० असं०, एवं कण्हते उपम्ह० जहन्नगा सुकलेसठाणा असं०, जहन्नएहिंतो सुकलेसाठाणे हिंतो एस० उको काउलेसाठाणा पएस० असं० उकोसया नीललेसाठाणा पएस० असं०, एवं कण्हतेउपम्ह० उकोसया सुकलेसाठाणा पएसट्टयाए असं० (मूत्रं २३०) पनवणाए भगवईए लेस्सापदस्स चउत्थओ उद्देसओ समत्तो ॥ For Penal Use Only ~741~ 2029297979900 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३०] दीप अनुक्रम [४६८] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥३६९॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [४], दारं [-], मूलं [२३०] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. 'केवइयाणं भंते! कण्हलेसा टाणा पन्नत्ता' कियन्ति भदन्त ! कृष्ण लेश्यास्थानानि - प्रकर्षापकर्षकृताः स्वरूपभेदाः प्रज्ञप्तानि १, सूत्रे च पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् इह यदा भावरूपाः कृष्णादयो लेश्याश्चिन्त्यन्ते तदा एकैकस्या लेश्यायाः प्रकर्षापकर्षकृत स्वरूप भेदरूपाणि स्थानानि कालतोऽसङ्ख्येयोत्सपिण्यव सर्पिणीसमयप्रमाणानि क्षेत्रतोऽसयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, उक्तं च- "असंखेजाणुस्सप्पिणीण अवसप्पिणीण जे समया । संखाईया लोगा लेस्साणं होंति ठाणाई ॥ १॥" [असङ्ख्येयानामुत्सर्पिणीनामवसर्पिणीनां च ये समयाः (तत्प्रमाणानि) सङ्ख्यातीता लोका लेश्यानां भवन्ति स्थानानि ॥ १ ॥ ] नवरमशुभानां संक्लेशरूपाणि शुभानां च विशुद्धरूपाणि, एतेषां च भावलेश्यागतानां स्थानानां यानि कारणभूतानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दानि तान्यपि स्थानान्युच्यन्ते तान्येव चेह प्राह्माणि, कृष्णादिद्रव्याणामेवेहोद्देश के चिन्त्यमानत्वात्, तानि च प्रत्येकमसङ्ख्येयानि, तथाविधैकपरिणाम निबन्धनानामनन्तानामपि द्रव्याणामेकाध्यवसाय हेतुत्वेनैकत्वात्, तानि च प्रत्येकं द्विविधानि तद्यथा— जघन्यान्युत्कृष्टानि च, जघन्य लेश्यास्थानपरिणामकारणानि जघन्यानि उत्कृष्टलेश्यास्थानपरिणामकारणान्युत्कृष्टानि यानि तु मध्यमानि तानि जघन्यप्रत्यासन्नानि जघन्येष्वन्तर्भूतानि उत्कृष्टप्रत्यासन्नानि तुत्कृष्टेषु एकैकानि च स्वस्थाने परिणामगुणभेदतोऽसये२४ यानि, अत्र दृष्टान्तो—यथा स्फटिकमणेरलक्तकवशेन रक्तता भवति, सा च जघन्यरक्ततागुणालक्तकवशेन जघन्यरक्तता एकगुणा (धिका) लक्तकवशेनैकगुणाधिकजघन्या, एवमेकैकगुणवृद्ध्या जघन्यायामेव रक्ततायामसयेयानि स्थानानि For Parts Only ~ 742~ १७ लेश्यापदे उद्देश ॥३६९॥ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], --------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३०]] कटहररररर दीप अनुक्रम [४६८] भवन्ति, तानि च व्यवहारतः स्तोकगुणत्वात् सर्वाण्यपि जघन्यान्येवोच्यन्ते, एवमात्मनोऽपि जघन्यैकगुणाधिकद्विगुणाधिकलेश्याद्रव्योपधानवशतो लेश्यापरिणामविशेषा असङ्ख्यया भवन्ति, ते च सर्वेऽपि व्यवहारतोऽल्पगुणत्वात् जघन्यव्यपदेशं लभन्ते, तत्कारणभूतानि च द्रव्याणामपि स्थानानि जघन्यानि, एवमुत्कृष्टान्यपि स्थानान्यसयेयानि भावनीयानि ॥ सम्प्रत्यल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते !' इत्यादि, इह त्रीणि अल्पबहुत्यानि, तद्यथाजघन्यस्थानविषयं उत्कृष्ट स्थानविषयं उभयस्थानविषयं च, एकैकमपि त्रिविधं, तद्यथा-द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया |उभयार्थतया च, तत्र जघन्यस्थानविषये द्रव्यार्थतायां प्रदेशार्थतायां च प्रत्येक कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि, उभयार्थतायां प्रथमतो द्रव्यार्थतया कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि, ततः शुक्ललेश्यास्थानानन्तरं प्रदेशार्थतया कापोतलेश्यास्थानानि अनन्तगुणानि वक्तव्यानि तदनन्तरं नीलकृष्णतेजःपमशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण प्रदेशार्थतया । | यथोत्तरमसहयगुणानि, एवमुत्कृष्टान्यपि स्थानानि द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया उभयार्थतया च चिन्तयितव्यानि, तथा चाह-एवं जहेब जहन्नगा तहेव उक्कोसगावि नवरमुक्कोसत्ति अभिलावो' इति ॥जघन्योत्कृष्ट स्थानसमुदायविषये त्वल्पबहुत्वे प्रथमतो जघन्यानि द्रव्यार्थतया कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि, तदनन्तरं जघन्य शुक्ललेश्यास्थानेभ्य उत्कृष्टानि कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्था ~743~ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [४], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२३०]] . ॥३७०॥ नानि क्रमेण द्रव्यार्थतयैव यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वाच्यानि, एवं प्रदेशार्थतयापि जपन्योत्कृष्टस्थानविषयमल्पबद्धुत्व | लेश्याभावनीयं, तथा चाह-एवं जहेव दषट्टयाए तहेव पएसट्टयाएवि भाणियवं, नवरं पएसट्टयाएत्ति अभिलावेपदे उद्देशः विसेसो' इति, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतायां प्रथमतो द्रन्यार्थतया जघन्यानि कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि ततो जघन्येभ्यः शुक्ललेश्यास्थानेभ्य उक्तक्रमेणैव चोत्कृष्टानि स्थानानि द्रव्यार्थतया यथोत्तरमसोयगुणानि वाच्यानि तत उत्कृष्टेभ्यः शुक्ललेश्यास्थानेभ्यो जघन्यानि कापोतलेश्यास्थानानि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि वक्तव्यानि ततः प्रदेशार्थतयैव जघन्यानि नीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि यथोत्तरमसद्धयेयगुणानि एवमुत्कृष्टस्थानान्यपि उक्कक्रमेणैव यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानीति ॥ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य चतुर्थ उद्देशकः परिसमासः ॥ दीप अनुक्रम [४६८] Secela उक्तश्चतुर्थोद्देशकः सम्प्रति पञ्चम आरभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् करणं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ, गोयमा! छ लेसाओ पन्नत्ताओ, जहा-कण्हलेसा जाब सुक्कलेसा, से नूर्ण भंते ! कण्हलेस्सा नीललेसं पप्प वारूवत्ताए तावन्नत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासचाए भुजो भुजो परिणमति, इत्तो आढतं जहा चउत्थओ उद्देसओ नहा भाणियवं जाव वेरुलियमणिदिहतोचि ॥ से नूर्ण भंते ! कण्हलेसा नीललेस पप्प अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (१) आरभ्यते ~ 744 ~ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१] दीप अनुक्रम [४६९] णो तारूवत्ताए जाब णो ताफासत्ताए भुजो भुञ्जो परिणमइ ?, हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेस्सं पप्प णो तारूबचाए णो तावनचाए णो तागंधचाए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुजो २ परिणमति, से केणढे भंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा ! आगारभावमायाए पा से सिया पलिभागभावमायाए वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा णो खलु नीललेसा तत्थ गया ओसकइ उस्सकहवा, से तेणढे मोयमा एवं बुच्चइ कण्हलेसा नीललेसं पप्पणो तारूवत्ताए जाव भुजोर परिणमति, से नूगं भंते ! नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो २ परिणमति , हंता गोयमा! नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूबताए जाव भुजो २ परिणमति, से केणढे० भंते! एवं खुबह-नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूवत्ताए. जाव शुओ २ परिणमति, गोयमा आगारभावमायाए वा सिता पलिभागभावमायाए वा सिता मीललेस्सा णं सा णो खलु सा काउलेसा तत्थगया ओसकइ उस्सकति वा, से एएणढे०.१, गोयमा! एवं बुचद-नीललेसा काउलेसं पप्प जो तारूवचाए जाव भूजओ२परिणमति, एवं काउलेसा तेउलेसं पप्प तेउलेसा पम्हलेसं पप्प पम्हलेसा मुक्कलेसं पप्प, से नूर्ण भैते ! सुकलेसा पम्हलेसं पण णो तारूवत्ताए जाव परिणमति, हता गोयमा सुक्कलेसा चेव से केण२० मते! एवं बुचति-सुकलेसा जाव णो परिणमति ?, गो०! आगारभावमायाए वा जाव सुकलेस्सा णं सा षो खल सा पम्हलेसा तत्थगया ओसकइ, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं चुच्चइ जावणो परिणमइ (सूत्र २३१)पण्णवणाए भगवईए लेसापदे पंचपदेसो। 'कइ णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, चतुर्थोद्देशकवत् तावद्वक्तव्यं यावद्वैडूर्यमणिदृष्टान्तः, व्याख्या च ~745~ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३१] दीप अनुक्रम [४६९] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [५], मूलं [२३१] ..आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. प्रज्ञापना ॥३७॥ प्राग्वदेवं निरवशेषा कर्त्तव्या प्रागुपन्यस्तस्याप्यस्य सूत्रस्य पुनरुपन्यासोऽयेत नसूत्रसम्बन्धार्थः, तदेव सूत्रमाह- 'से याः मल- 8 नूणं भंते !' इत्यादि, इह तिर्यष्यनुष्यविषयं सूत्रमनन्तरमुक्तं, इदं तु देवनैरयिक विषयमवसेयं, देवनैरयिका हि पूर्वय० वृत्ती. भवगतचरमान्तर्मुहुर्त्तादारभ्य यावत् परभवगतमाद्यमन्तर्मुहूर्त्त तायदवस्थितलेश्याकाः ततोऽमीषां कृष्णादिलेश्या- है द्रव्याणां परस्परसम्पर्केऽपि न परिणम्यपरिणामकभावो घटते ततः सम्यगधिगमाय प्रश्नयति- 'से नूणं भंते !" इत्यादि, शब्दोऽथशब्दार्थः, स च प्रश्ने, अथ नूनं - निश्चितं मदन्त ! कृष्णलेश्या - कृष्णलेश्याद्रव्याणि नीललेश्यानीललेश्याद्रव्याणि प्राप्य, प्राप्तिरिह प्रत्यासन्नत्वमात्रं गृह्यते नतु परिणम्यपरिणामकभावेनान्योऽन्यसंश्लेषः, तद्रूपतथा - तदेव - नीललेश्या द्रव्यगतं रूपं - स्वभावो यस्य कृष्णलेश्यास्वरूपस्य तत्तद्रूपं तद्भावस्तद्रूपता तथा एतदेव व्याचष्टेन तद्वर्णतया न तद्गन्धतया न तद्रसतया न तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमते, भगवानाह - हन्तेत्यादि, हन्त गौतम ! कृष्णलेश्येत्यादि, तदेव ननु यदि न परिणमते तर्हि कथं सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्व - लाभः, स हि तेजोलेश्यादिपरिणामे भवति सप्तमनरकपृथिव्यां च कृष्णलेश्येति कथं चैतत् वाक्यं घटते ? 'भाव|पराबत्तीए पुण सुरनेरइयाणंपि छल्लेसा' इति [ भावपरावृत्तेः पुनः सुरनैरयिकाणामपि षड् लेश्याः ] लेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणामासंभवेन भावपरावृत्तेरेवायोगात्, अत एव तद्विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह- 'से केणट्ठेणं भंते!' इत्यादि, तत्र प्रश्नसूत्रं सुगमं निर्वचनसूत्रं - आकारः - तच्छायामात्रं आकारस्य भावः -- सत्ता आकारभावः स Education International For Parata Use Only ~746~ १७ लेश्या पदे उद्देशः ५ ॥३७॥ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१] दीप अनुक्रम [४६९] एच मात्रा आकारभावमात्रा तयाऽऽकारभावमात्रया मात्राशब्द आकारभावातिरिक्तपरिणामान्तरप्रतिपत्तिव्युदा|सार्थः, 'से' इति सा कृष्णलेश्या नीललेश्यारूपतया स्यात् यदिवा प्रतिभागः-प्रतिबिम्बमादर्शादाषिव विशिष्टः प्रतिविम्ब्यवस्तुगत आकारः प्रतिभाग एव प्रतिभागमात्रा तया, अत्रापि मात्राशब्दः प्रतिबिम्बातिरिक्तपरिणामान्तरव्युदासार्थः स्यात् कृष्णलेश्या नीललेश्यारूपतया, परमार्थतः पुनः कृष्णलेश्यैव नो खलु नीललेश्या सा, खखरूपापरित्यागात्, न खल्वादर्शादयो जपाकुसुमादिसन्निधानतस्तत्प्रतिबिम्बमात्रामादधाना नादर्शादय इति परिभावनीयमेतत् , केवलं सा कृष्णलेश्या तत्र-खस्वरूपे गता-अवस्थिता सती उत्स्यष्कते तदाकारभावमात्रधारणतस्तत्प्रतिबिम्बमात्रधारणतो वोत्सर्पतीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या विशुद्धा ततस्तदाकारभावं तत्प्रतिबिम्बमानं वा दधाना सती मनाक विशुद्धा भवतीत्युत्सर्पतीति व्यपदिश्यते, उपसंहारवाक्यमाह-से एएणद्वेण'मित्यादि, सुगम । एवं नीललेश्यायाः कापोतलेश्यामधिकृत्य कापोतलेश्यायास्तेजोलेश्यामधिकृत्य तेजोलेश्यायाः पद्मलेश्याम-18 धिकृत्य पालेश्यायाः शुक्ललेश्यामधिकृत्य सूत्राणि भावनीयानि, सम्प्रति पमलेश्यामधिकृत्य शुक्ललेश्याविषयं सूत्रमाह-'से नूणं भंते ! सुकलेसा पम्हलेसं पप्प' इत्यादि, एतच्च प्राग्वद् भावनीयं, नवरं शुक्ललेश्यापेक्षया पालेश्या हीनपरिणामा ततः शुक्ललेश्या पद्मलेश्याया आकारभावं तत्प्रतिबिम्बमात्रं वा भजन्ती मनागविशुद्धा भवति ततोऽववष्कते इति व्यपदिश्यते, एवं तेजःकापोतनीलकृष्णलेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, ततः पद्मलेश्या-1 ~747~ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- याः मलय० वृत्ती. १७लेश्यापदे उद्देश प्रत सूत्रांक मधिकृत्य तेजःकापोतनीलकृष्णलेश्याविषयाणि तेजोलेश्यामधिकृत्य कापोतनीलकृष्णविषयाणि कापोतलेश्यामधिकृत्य नीलकृष्णलेश्याविषये नीललेश्यामधिकृत्य कृष्णलेश्याविषयमिति, अमूनि च सूत्राणि साक्षात् पुस्तकेषु न दृश्यन्ते केवलमर्थतः प्रतिपत्तव्यानि, तथा मूलटीकाकारेण व्याख्यानात् , तदेवं यद्यपि देवनैरयिकाणामवस्थितानि लेण्याद्रव्याणि तथापि तत्तदुपादीयमानलेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतः तान्यपि तदाकारभावमात्रां भजन्ते इति भावपरावत्तियोगतः षडपि लेश्या घटन्ते, ततः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाम इति न कश्चिदोषः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य पञ्चमोद्देशकः समाप्तः॥ [२३१] ॥३७२॥ दीप अनुक्रम [४६९] Ceelee तदेवमुक्तः पञ्चमोद्देशकः, सम्प्रति षष्ठ उच्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्कति णं भंते ! लेसा पनत्ता ?, गोयमा ! छ लेसा पन्नत्ता, तंजहा-कण्ह० जाव सुकलेसा, मणुस्साणं भंते ! कइ लेसा पं०१, गो! छ लेस्साओ पं०, ०-कण्हलेसा जाब सुकलेसा । मणुस्सी पं भंते! पुच्छा, गो० छल्लेस्साओ पं०,०कण्हा जाव सुका । कम्मभूमयमणुस्साणं भंते ! कह लेसाओ पं०१, गो०1 छले०५०,०कहा जाव सुक्का, एवं कम्मभूमयमणुस्सीणवि । भरहेरवयमणुस्साणं भंते ! कति लेसाओ पं०१, गो! छले०५०,०-कण्हा जाव सुका, एवं अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (६) आरभ्यते ...अथ कस्य कति लेश्या: वर्तते? तस्य प्ररुपणा ~748~ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [६], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२३१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१R] मणुस्सीणवि, अकम्मभूमयमणुस्साणं पुच्छा, गो! चचारि लेसाओ पं०,०-कण्हा जाव तेउ०, एवं अकम्मभूमिगमणुस्सीणवि, एवं अंतरदीवमणुस्साणं मणुस्सीणवि, एवं हेमवयएरनवयअकम्मभूमयमणुस्साणं मणस्सीण य कह लेसाओ पं०, गो! चत्तारि, तं०-कण्हा जाव तेउ०, हरिवासरम्मयअकम्मयभूमयमणुस्साणं मणुस्सीण य पुच्छा, गो.! चत्वारि, तं०-कण्हा जाव तेउ०, देवकुरुउत्तरकुरुकम्मभूमयमणुस्सा एवं चेव, एतेसिं चेव मणुस्सीणं एवं चेव, धायइसंडपुरिमद्धेवि एवं चेच, पच्छिमद्धेवि, एवं पुक्खरदीवेवि भाणिया । कण्हलेसे ण भंते ! मणुस्से कण्हलेसं गम्भ जणेजा, इंता गो! जाणेजा, कहले० मणुस्से नीलले० गम्भं जणेज्जा', हंता गो! जाणेजा, जाव सुकलेसं गम्भ जणेजा, नीलले. मणुस्से कण्हले० गम्भं जाणेजा, हंता गो! जाणेजा, एवं नील• मणुस्से जाव सुकले० गम्भं जणेजा, एवं काउलेसेणं छप्पि आलाचगा भाणियवा, तेउलेसाणवि पम्हलेसाणवि सुकले०, एवं छत्तीसं आलावगा भा०1 कण्ह. इत्थिया कण्ह० गन्भं जणेजा, हंता गोयमा! जणेज्जा, एवं एतेवि छत्तीसं आलावगा माणि । कण्हले० भंते! मणुस्से कण्हलेसाए इत्थियातो कण्हले० गम्भं जणेज्जा हंता गोयमा! जणेज्जा, एवं एते छत्तीस आलावगा, कम्मभूमगकण्हलेसे मं भंते ! मणुस्से कण्ह. इत्थियाए कण्हले० गम्भ जणेज्जा', हंता गोयमा! जणेजा, एवं एते छत्तीस०, अकम्मभूमयकण्ह० मणु० अ० कण्ह० इस्थियार अकम्मभूमयकण्हलेस गम्भ जणेज्जा', हेता गोयमा ! जणेज्जा, नवरं चउसु लेसासु, सोलस आलावगा, एवं अंतरदीवगाणवि । (सत्र २३१) । इति पनवणाए भगवईए लेस्सापदं समत्तं ।। सचरसं पर्य च समचं ॥ दीप अनुक्रम [४७०] मूल-संपादने अत्र सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोषात् (सूत्रं २३१) इति '२३१' क्रम द्विवारान् मुद्रितं ~ 749~ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३१R] दीप अनुक्रम [४७०] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ३७३ ॥ “प्रज्ञापना” उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [६], दारं [-] मूलं [२३१-R] ...आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education International - 'कइ णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, सुगमं उद्देशकपरिसमाप्तिं यावत्, नवरमुत्पद्यमानो जीवो जन्मान्तरे लेश्याद्रव्याण्यादायोत्पद्यते तानि च कस्यचित्कानिचिदिति । कृष्णलेश्यापरिणतेऽपि जनके जन्यस्य विचित्रलेश्यासंभवः, एवं शेषलेश्या परिणतेऽपि भावनीयं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां सप्तदर्श लेश्यापदं समाप्तमिति ॥ wwwwwwwwwwwwwwwww ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीमत्प्रज्ञापनोपाने सप्तदशपदमयं पूर्वार्धं समाप्तम् ॥ NAWAWALAKKKKKKKAAMA For Parts Only अत्र पद (१७) "लेश्या" परिसमाप्तम् ~ 750 ~ AAAA १७ लेश्या पदं Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], ------------ उद्देशक: [-1, ------------- दारं [१,२], -------- ----- मूलं [२३२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२] अथ अष्टादशपदं कायस्थितिनामकं प्रारभ्यते ॥१८॥ गाथा: तदेवमुक्तं सप्तदर्श पदं, अधुनाऽष्टादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे लेश्यापरिणाम उक्तः, सम्प्रति परिणामसाम्यात् कायस्थितिपरिणाम उच्यते, तत्र चेदमधिकारगाथाद्वयं जीव गइंदिय काए जोए वेए कसायलेसा य । सम्मत्तणाणदंसण संजय उवओग आहारे ॥१॥ भासगपरित्त पज्जत सुहूम सनी भवास्थि परिमे य । एतेसि तु पदाणं कायटिई होइ णायचा ॥२॥ जीवे णं भंते ! जीवेत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा ! सबद्धं । दारं १ नेरइए गंभंते ! नेरइएत्ति कालओ केचिरं होई , भोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं तेचीसं सागरोबमाई ॥ तिरिक्खजोणिए णं भंते ! तिरिक्खजोणिएत्ति कालओ केचिर होइ !, गोपमा ! जह० अंतोमुहुतं उकोसेणं अर्थतं कालं अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्तओ अणंता लोगा असंखेजपोग्गलपरियहा ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखिजहभागे । तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! तिरिक्खजोणिणिति कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा। जहन्नेणं अंतोमुहु उक्कोसेणं तिनि पलिओचमाई पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियाई ॥ एवं मणुस्सेवि मणुस्सीवि एवं चेव ॥ देवे णं भंते । देवत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहेब नेरइए, देवी णं भंते । देवित्ति कालतो केनचिरं होई, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं पणवर्ष पलिओवमाई । सिद्धे णं भंते ! सिद्धेचि Se25895 दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] अथ पद (१८) "कायस्थिति" आरभ्यते अत्र (१८) कायस्थिति-पदे वारे (९ एवं २)-"जीव एवं गति आरब्धे ~ 751~ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१,२], --------- ----- मूलं [२३२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२] प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती ॥७४॥ गाथा: कालतो केवगिर होर ?, गोयमा ! सादिए अपजवसिए । नेरइए ण मंते ! नेरइयजपजचएत्ति कालतो केवचिरं होइ', १८ कायगोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, एवं जाव देवी अपज्जत्तिया । नरइयपजत्तए ण मैते । नेरहयपजत्त Mस्थितिपदं एत्ति कालतो केवचिरं होई , गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोषमाई अंतोमहनणाई । तिरिक्खजोणियपज्जत्तए णं भंते ! तिरिक्खजोणियपजत्तएत्ति कालतो केवचिरं होह, गोयमा ! जहश्रेणं अंतोमहतं उकोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमुत्तूणाई, एवं तिरिक्खजोणिणिपज्जतियावि, एवं मणुस्सेवि मणुसीचि, एवं चेव देवपत्तए जहा नेरइयपत्तए, देवीपअचिया णं भंते । देवीपज्जत्तियत्ति कालतो केवचिरं होइ १. गोयमा ! जहरेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं पणपनं पलिओवमाई अंतोमुहुजूणाई । दारं २ (सूत्रं २३२) 'जीवगइंदियकाए' इत्यादि, प्रधर्म जीवपदं, किमुक्तं भवति -प्रथम जीवपदमधिकृत्य कायस्थितिर्वक्तव्या इति १ ततो गतिपदं २ तदनन्तरमिन्द्रियपदं ३ ततः कायपदं ४ ततो योगपदं ५ तदनन्तरं वेदपदं ६ ततः कपायपदं ७ ततो लेश्यापदं८ तदनन्तरं सम्यक्त्वपदं ९ ततो ज्ञानपदं १० तदनन्तरं दर्शनपदं ११ ततः संयतपदं १२ तत उपयोगपदं १३ तदनन्तरमाहारपदं १४ ततः परीत्तपदं १५ ततो भाषकपदं १६ ततः पर्याप्तपदं ॥३७४॥ १७ ततः सूक्ष्मपदं १८ संक्षिपदं १९ ततो भवसिद्धिकपदं २० तदनन्तरमस्तिकायपदं २१ ततश्चरमपदं २२ । एतेषां द्वाविंशतिसङ्ख्यानां पदानां कायस्थितिर्भवति ज्ञातव्या-यथा च भवति ज्ञातव्या तथा यथोद्देशं निर्देष्यते, अथ || दीप अनुक्रम [४७१-४७३] veer ~752~ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१,२], -------------- मूलं [२३२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२] गाथा: कायस्थितिरिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, काय इह पर्यायः परिगृह्यते, काय इव काय इत्युपमानात् , स च द्विधासामान्यरूपो विशेषरूपश्च, तत्र सामान्यरूपो निर्विशेषणो जीवत्वलक्षणः विशेषरूपो नैरयिकत्वादिलक्षणः तस्य स्थितिः-अवस्थानं कायस्थितिः, किमुक्तं भवति ?-सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा पर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य यदव्यवच्छेदेन भवनं सा कायस्थितिः, ततः प्रथमतः सामान्यरूपेण पर्यायेणादिष्टस्याव्यवच्छेदेन यद भवनं तचिचिन्त-18 यिषुराह-'जीवे णं भंते!' इत्यादि, इह जीवनपर्यायविशिष्टो जीव उच्यते, ततः प्रश्नयति-जीवा 'ण' इति वाक्या-1 लङ्कारे भदन्त ! जीव इति जीवनपर्यायविशिष्टतया इत्यर्थः 'कालतः कालमधिकृत्य 'कियश्चिरं कियन्तं कालं यावद्भवति !, भगवानाह-गौतम ! 'सर्वाद्धां' सर्वकालं यावत्, कथमिति चेत् , उच्यते, इह जीवनमुच्यते प्राणधारणं, प्राणाथ द्विधा-द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च, द्रव्यप्राणा इन्द्रियपञ्चकवलत्रिकोच्छ्रासनिःश्वासायुःकर्मानुभ-10 विलक्षणाः, भावप्राणाः ज्ञानादयः, तत्र संसारिणामायुःकर्मानुभवलक्षणप्राणधारण सदैवावस्थितं, न हि सा का-18 चिदवस्था संसारिणामस्ति यस्खामायुःकर्मानुभवनं न विद्यते इति, मुक्तानां तु ज्ञानादिरूपप्राणधारणमवस्थितं, मुक्कानामपि हि ज्ञानादिरूपाः प्राणाः सन्ति, यैर्मुक्तोऽपि द्रव्यप्राणैः जीवतीति व्यपदिश्यते, ते च ज्ञानादयो । मुक्तानां शाश्वतिकाः, अतः संसार्यवस्थायां मुक्तावस्थायां च सर्वत्र जीवनमस्तीति सर्वकालभावी जीवनपर्यायः ॥ सम्प्रति तस्यैव जीवस्य नैरयिकत्वादिपर्यायैरादिष्टस्य तैरेव पर्यायैरव्यवच्छेदेनावस्थानं चिन्तयन्नाह-'नेरइए णं भंते। दीप अनुक्रम सत्र [४७१ -४७३] ~753~ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१,२], --------- ----- मूलं [२३२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२] गाथा: प्रज्ञापना- इत्यादि, सुगम, नवरं नैरयिकास्तथामवखाभाब्यात् खभवाच्युत्वा अनन्तरं न भूयो नैरयिकत्वेनोत्पद्यन्ते, ततोM याः मल यदेव तेषां भवस्थितः परिमाणं तदेव कायस्थितेरपि इत्युपपद्यते जघन्यत उत्कर्पतश्च यथोक्तपरिमाणा कायस्थितिः। | स्थितिपदं यवृत्ती. तिरिक्खजोणिए णं भंते !' इत्यादि, तत्र यदा देवो मनुष्यो नैरयिको वा तिर्यक्षुत्पद्यते तत्र चान्तमुहूर्त स्थित्वा भूयः खगतो गत्यन्तरे या सामति तदा लभ्यते जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा कायस्थितिः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावत् , तस्य चानन्तस्य कालस्य प्ररूपणा द्विधा, तद्यथा-कालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः, उत्सर्पिण्यवसर्पिणीपरिमाणं च नन्द्यध्ययनटीकातोऽवसेयं, तत्र सविस्तरमभिहितत्वात् , क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, किमुक्तं भवति ?-अनन्तेषु लोकाकाशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे क्रियमाणे यावत्योऽनन्ता उत्सप्पिSण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावतीर्यावत् तिर्यक् तिर्यक्त्येनावतिष्ठते, एतदेव कालपरिमाणं पुद्गलपरावर्त्तसङ्ख्यातो निरू पयति-अस येयाः पुद्गलपरावर्ताः, पुद्गलपरावर्तखरूपं च पञ्चसङ्ग्रहटीकायां विस्तरतरकेणाभिहितमिति ततोऽवधाय, इह तु नाभिधीयते, ग्रन्थगौरवभयात्, असङ्ख्याता अपि पुद्गलपरावर्ताः कियन्त इति विशेषसङ्ग्यानिरूपणा र्थमाह-'ते णं' इत्यादि, ते पुद्गलपरावर्त्ता आवलिकाया असलयेयभागः, किमुक्तं भवति ?-आवलिकाया अस-IIM३७५ कायतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणा असत्ययाः पुदलपरावी इति, एतचैवं कायस्थितिपरिमाणं वन-1 स्पत्यपेक्षया द्रष्टव्यं न शेषतिर्यगपेक्षया, बनस्पतिव्यतिरेकेण शेषविरश्चामेतावत्कालप्रमाणकायस्थितेरसंभवात् , दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] ~ 754~ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३२] + गाथा: दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [१२], पदं [१८], उद्देशक: [-], मूलं [२३२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 'तिरिक्खजोगिणी णं भंते!' इत्यादि, इहोत्तरत्र च जघन्यान्तर्मुहूर्त्त भावना प्रागुक्तान्तर्मुहूर्त्त भावनानुसारेण स्वयं भावनीया, उत्कर्षतस्त्रीणि पत्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि कथं इति चेत् ?, उच्यते, इह तिर्यचानुष्याणां सन्जिपञ्चेन्द्रियाणामुत्कर्षतोऽप्यष्टौ भवाः कार्यस्थितिः "नरतिरियाण सत्तट्ठ भवा" [नरतिरक्षा सप्ताष्टौ (वा) भवाः ] इति वचनात् तत्रोत्कर्षस्य चिन्त्यमानत्वात् अष्टावपि भवा यथासंभवमुत्कृष्टस्थितिकाः परिगृल्लन्ते, असयेय वर्षायुष्कस्तु मृत्वा नियमतो देवलोके पूत्पद्यते न तिर्यक्षु, ततः सप्त भवाः पूर्वकोट्यायुषो वेदितव्याः अष्टमस्तु |पर्यन्तवर्त्ती देवकुर्वादिष्विति त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि भवन्ति ' एवं मणुस्सेवि मणुस्सीवि' इति, एवं तिर्यक्त्रीगतेन प्रकारेण मनुष्योऽपि मानुष्यपि च वक्तव्या, किमुक्तं भवति १ – मनुष्यसूत्रे मानुषीसूत्रे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्याभ्यधिकानि वक्तव्यानीति, सूत्रपाठस्त्वेवं- 'मणुस्से णं भंते ! मणुस्सत्ति कालओ केव चिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं तिन्नि पलिओ माई पुत्रकोडी पुदुत्तमम्भहियाई, मणुस्सी णं भंते ! मणुस्सित्ति कालओ केवश्चिरं होइ' इत्यादि, देवसूत्रे 'जहेब नेरइए' इति, यथैव नैरयिकः प्रागुक्तः तथैव देवोऽपि वक्तव्यः, देवस्यापि जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्साग रोपमाणि वक्तव्यानीति भावः, देवा अपि हि खभवाच्युत्वा न भूयोऽनन्तरं देवत्वेनोपपद्यन्ते " नो देवे देयेसु उचवजह" [न देवो देवेषूत्पद्यते ] इति वचनात् ततो यदेव देवानामपि भवस्थितेः परिमाणं तदेव कायस्थितेरपि, Education Internation For Parts Only ~ 755 ~ Sinerary org Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [१,२], ----------- ----- मूलं [२३२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२]] मज्ञापनाया मलय. वृत्ती. ॥३७६॥ गाथा: देवीसूत्रे उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानीति, देवीनां भवस्थितरुत्कर्षतोऽप्येतावत्प्रमाणत्वात् , एतञ्चेशानदेव्यपे- १८ कायक्षया द्रष्टव्यं, अन्यत्र देवीनामेतावत्याः स्थितेरसंभवात् । सिद्धसूत्रे साद्यपर्यवसित इति, सिद्धत्वस्य क्षयासंभवात् , स्थितिपदं सिद्धत्वाद्धि च्यावयितुं ईशा रागादयो, न च ते भगवतः सिद्धस्य संभवन्ति, तन्निमित्तकर्मपरमाण्वभावात् , तदभा-1 वश्च तेषां निर्मूलकार्षकषितत्वात् ॥ सम्प्रत्येतावतो नैरयिकादीन् पर्याप्सापासविशेषणद्वारेण चिन्तयन्नाह-'नेरइ- एणं भंते !' इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! अपर्याप्त इति-अपर्याप्तत्वपर्यायविशिष्टोऽविच्छेदेन कालतः कियन्तं कालं || यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम ! इत्यादि, इहापर्याप्तावस्था जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तप्रमाणा, तत ऊर्द्ध नरयिकाणामवश्यं पर्याप्तावस्थाभावात् , तत उक्तं जहन्नेणवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । 'एवं जाव देवी अपजत्तिया' इति, एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेणापर्यासास्तिर्यगादयस्तावद्वक्तव्याः यावद्देव्यपर्याप्तिका, अपर्याप्तकदेबीसूत्रं यावदित्यर्थः, तत्र तिर्यञ्चो मनुष्याश्च यद्यप्यपर्याप्तका एव मृत्वा भूयो भूयोऽपर्यासत्वेनोपपद्यन्ते तथापि तेषा मपर्याप्तावस्था नैरन्तर्येणोत्कर्षतोऽपि अन्तर्मुहूर्तप्रमाणैव लभ्यते, यद्वक्ष्यति 'अपज्जत्तए णं भंते ! अपज्जत्तएत्ति कालMIतो केवचिरं होद१. गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमहत्त' इति, देवदेवीसत्रे अन्तर्मुहर्तभावना ॥३७॥ नैरयिकवत् वक्तव्या । 'नेरइयपज्जत्तए णं भंते !' इत्यादि, नैरयिकपर्याप्त इति-पर्याप्तो नैरयिक इत्येवमविच्छेदेन कालतः कियचिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम ! जघन्यतो दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्तोनानि, अन्तर्मुहूर्त्तखाद्यथा दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] ~756~ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-1, --------------- दारं [१,२], ----------- ----- मूलं [२३२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२] गाथा: पर्याप्तावस्थायां गतत्वात् , अत एवोत्कर्षतोऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्तोनानि, तिर्यसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तभावना प्रागिव, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमान्यन्तर्मुहूर्तोनानि, एतच्चोत्कृष्टायुषो देवकुर्वादिभाविनस्तिरश्वोऽधिकृत्य |वेदनीयं, अन्येषामेतावत्कालप्रमाणायाः पर्याप्सायस्थाया अविच्छेदेनाप्राप्यमाणत्वात् , अत्राप्यन्तर्मुहूर्तोनत्वमन्तर्मुहूसंस्थावस्यापर्याप्तावस्थायां गतत्वात्, एवं तिर्यकस्त्रीमनुष्यमानुषीसूत्रेष्वपि भावनीयं । देवदेवीसूत्रयोस्तु जघन्यत उत्कर्षतश्च कायस्थितिपरिमाणं प्रागुक्तमेव अपर्याप्तावस्थाभाविनाऽन्तर्मुहूर्तेन हीनं परिभावनीयं । गतं गतिद्वारं, इदानीमिन्द्रियद्वारमभिधित्सुराह सईदिए णं मंते ! सईदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सईदिए दुविहे पन्नते, तंजहा-अणाइए वा अपजबसिए अणाइए सपज्जवसिए । एगिदिए णं भंते ! एगिदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! जहनेणं अंतोमहत्तं उफोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो ॥ बेईदिए णं भंते ! बेईदिएत्ति कालतो केवचिरं होह, गोयमा! जहमेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं संखेनं कालं । एवं तेइंदियचउरिदिएवि । पंचिंदिए णं भंते ! पंचिंदिएति कालतो केवचिरं होइ ?, मोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेग । अणिदिए णं पुच्छा, गोयमा ! साइए अपजवसिए । सईदियपज्जचए गं भंते ! सइंदियपज्जत्तएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं । एगिदियपज्जचए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजाई दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] SAREauratanA ma अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (३)- "इन्द्रिय" आरब्धम् ~ 757~ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [४७४] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥३७७॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१८], उद्देशक: [-], दारं [३], मूलं [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चाससहस्साई । वेइंदियपज्जत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उकोसेणं संखेज्जवासाई, तेइंदियपज्जतए णं - पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उकोसेणं संखेजाई राईदियाई, चउरिदियपत्तए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं संखेजा मासा | पंचिदियपजचए णं भंते ! पंचिंदियपज्जतएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहणं अंतोतं उकोसेणं सागरोबमसयपुहुत्तं । सइंदियअपज्जचए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहत्रेणवि उको सेवि अंतोमुहुत्तं, एवं जाव पंचिदियअपज्जत्तए । दारं ३ ( सू २३३ ) 'सदिए णं भंते!' इत्यादि, सहेन्द्रियं यस्य येन वा स सेन्द्रियः, इन्द्रियं च द्विधा - लब्धीन्द्रियं द्रव्येन्द्रियं च, तत्रेह लब्धीन्द्रियमवसेयं तद्विग्रहगतावप्यस्ति इन्द्रियपर्याप्तस्यापि च ततो निर्वचनसूत्रमुपपद्यते, अन्यथा तदघटमानकमेव स्यात्, निर्वचनसूत्रमेवाह — गौतम ! इत्यादि, इह यः संसारी स नियमात् सेन्द्रियः, संसारश्वानादिः इत्यनादिः सेन्द्रियः, तत्रापि यः कदाचिदपि न सेत्स्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः, सेन्द्रियत्व पर्यायस्य कदाचिदप्यव्यवच्छेदात्, यस्तु सेत्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, मुक्तत्यवस्थायां सेन्द्रियत्वपर्यायस्याभावात् । एकेन्द्रियसूत्रे यदुक्तं - 'उकोसेणं अणतं कालं' इति तमेवानन्तकालं सविशेषं निरूपयति- 'वणस्सइकालो' इति, यावान् वनस्पतिकालोऽग्रे | वक्ष्यते तावन्तं कालं यावदित्यर्थः, वनस्पतिकायश्चैकेन्द्रियः, एकेन्द्रियपदे तस्यापि परिग्रहात्, स च वनस्पतिकालः एवंप्रमाणः - 'अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते Education International ------------- For Pernal Use Only ~758~ १८ काय स्थितिपद ॥३७७॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [३], -------------- मूलं [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [४७४] | पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजहभागो' इति द्वीन्द्रियसूत्रे 'संखे कालं ति सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणीत्यर्थः, 'विगलिंदियाण य वाससहस्सा संखेजा' [विकलेन्द्रियाणां वर्षसहस्राणि संख्येयानि ] इति वचनात्, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिययोरपि सूत्रे वक्तव्ये, तत्रापि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः सङ्ख्येयकालमिति वक्तव्यमिति भावः, सञ्जयेयश्च कालः सङ्ग्यानि वर्षसहस्राणि प्रत्येतव्यानि । पञ्चेन्द्रियसूत्रे उत्कर्षतः सातिरेक सागरोपमसहस्रं, तच नैरयिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवभवनमणेन द्रष्टव्यं, अधिकं तु न भवति, एतावत एव कालस्य केवलवेदसोपलब्धत्वात् । अनिन्द्रियो द्रव्यभावेन्द्रियविकलः स च सिद्ध एव सिद्धश्च साद्यपर्यवसितः तत उक्तं 'साइए अपज्जवसिए' इति । 'सइंदियअपजत्तए णं' इत्यादि, इहापर्याप्सा लब्ध्यपेक्षया करणापेक्षया च द्रष्टव्याः, उभयथापि तत्पर्यायस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणत्वात् , एवं तावद्वाच्यं यावत्पञ्चेन्द्रियापर्याप्तकः-पञ्चेन्द्रियापर्याप्तकसूत्रं, तच सुगमत्वात् खयं परिभावनीयं, अनिन्द्रियोऽत्र न वक्तव्यः, तस्य पर्याप्तापर्यासविशेषणरहितत्वात् । 'सइंदियपज्जत्तए णं भंते !' इत्यादि, इह पर्याप्तो लब्ध्यपेक्षया वेदितव्यः, स हि विग्रहगतावपि संभवति, करणैरपर्याप्तस्यापि, तत उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमशतपृथक्त्वमिति यन्निर्वचनं तदुपपद्यते, अन्यथा करणपर्याप्तत्वस्योत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूत्तोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणतया लभ्यमानत्वात् यथोक्तं निर्वचनं नोपपद्यते, एवमुत्तरसूत्रेऽपि पर्याप्तत्वं लब्ध्यपेक्षया द्रष्टव्यं । एकेन्द्रियपर्याससूत्रे सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणीति, एकेन्द्रियस्य हि पृथिवीकायस्योत्कर्षतो ~ 759~ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [३], --------------- मूलं [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. [२३] ॥३७८॥ दीप अनुक्रम [४७४] Deet द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि भवस्थितिः अप्कायस्य सप्त वर्षसहस्राणि वातकायस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायस्य ||१८ कायदश वर्षसहस्राणि ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवसंकलनया सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणि घटन्ते इति । द्वीन्द्रियपर्या-8 स्थितिपदं ससूत्रे सोयानि वर्षाणि, द्वीन्द्रियस्य हि उत्कर्षतो भवस्थितिपरिमाणं द्वादश संवत्सराणि, म च सर्वेष्वपि भषेपूत्कृष्टस्थितिसंभवः, ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसंकलनयापि सजयेयानि वर्षाण्येव लभ्यन्ते न तु वर्षशतानि वर्षसहस्राणि या । त्रीन्द्रियपर्याससूत्रे सोयानि रात्रिन्दिवानि, तेषां च भवस्थितेरुत्कर्पतोऽप्येकोनपञ्चाशदिनमानतया कतिपयनिरन्तरपर्यासभवसंकलनायामपि सङ्ख्येयानां रात्रिन्दिवानामेव लभ्यमानत्वात चतुरिन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सङ्ख्यया मासाः, तेषां भवस्थितरुत्कर्षतः षण्मासप्रमाणतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवकालसंकलनायामपि सङ्ख्ये-IN यानां मासानां प्राप्यमाणत्वात् । पञ्चेन्द्रियसूत्रं सुगमं । गतमिन्द्रियद्वारं, इदानी कायद्वारमभिधित्सुराहसकाइए णं भंते ! सकाइएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सकाइए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा—अणाइए वा अपज्जबसिए अणाइए वा सपज्जवसिए जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवाससमन्भहियाई, अकाइए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! अकाइए सादिए अपज्जवसिए, सकाइयअपजत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि ॥३७८॥ अंतोमुहुत्तं, एवं जाव तसकाइयअपज्जत्तए । सकाइयपज्जचए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेग, पुढविकाइए णं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्स अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (४)- "काय" आरब्धम् ~ 760~ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [४७५] pasa92e909200e0a929 प्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा, एवं आउतेउवाउकाइयावि, वणस्सइकाइया णं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणिओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेजा पुग्गलपरियहा ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइमागो । पुढचिकाइए पञ्जत्तए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं संखेन्जाई वाससहस्साई, एवं आउवि, तेउकाइए पज्जत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्च उकोसेणं संखेज्जाई राईदियाई, बाउकाइयपज्जतए णं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं संखेआई वाससहस्साई, वणस्सइकाइयपज्जत्तए पुच्छा, गोयमा! जहनेणं अंतोमुहु उक्कोसेणं संखेजाई वाससहस्साई, तसकाइयपजत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं दार ४ । (सूत्र २३४) 'सकाइए णं भंते ।' इत्यादि, सह कायो यस्य येन या स सकायः सकाय एव सकायिकः आपत्वात् खार्थे इकप्रत्ययः, कायः-शरीरं, तचौदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदात् पञ्चधा, तह कार्मणं तैजसं वा द्रष्टव्यं, तस्यैवाऽऽसंसारभावात् , अन्यथा विग्रहगतौ वर्तमानस्य शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य च शेषशरीरासंभवादकायिकत्वं स्यात् , तथा च सति निर्वचनसूत्रप्रतिपादितं वैविध्यं नोपपद्यते, अथ निर्वचनसूत्रमाह-'सकाइए दुविहे पन्नत्ते' इत्यादि, तत्र यः संसारपारगामी न भविष्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः कदाचिदपि तस्य कायस्य व्यवच्छेदासंभवात् यस्तु मोक्षमधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः तस्य मुक्त्यवस्थासंभवे सर्वात्मना शरीरपरित्यागात्, पृथिव्यसेजोवायुवनस्प HO2929202322920292e ~ 761~ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३४] Tas दीप अनुक्रम [४७५] प्रज्ञापना-तिसूत्राणि सुगमानि, अन्यत्रापि तदर्थस्य प्रतीतत्वात् , तथा चोक्तं-'असंखोसप्पिणिओसप्पिणीओ एगिदियाण १८ काय उ चउण्हं । ता चेव उ अणंता वणस्सईए उ बोद्धचा ॥१॥ [असंख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य एकेन्द्रियाणां चतु- स्थितिपदं य० वृत्ती. माँ । ता एवानन्ता वनस्पती बोद्धव्याः॥१॥] ननु यदि वनस्पतिकालप्रमाणं असङ्ख्ययाः पुद्गलपरावर्तास्ततो। ॥३७९॥ यद्गीयते सिद्धान्ते-मरुदेवाजीवो यावज्जीवभावं वनस्पतिरासीदिति, तत्कथं स्यात् १, कथं वा वनस्पतीनामनाआदित्वं, प्रतिनियतकालप्रमाणतया वनस्पतिभावस्थानादित्वविरोधात्, तथाहि असावेयाः पुद्गलपरावत्तास्तेषाम-IN वस्थानमानं, तत एतावति कालेऽतिक्रान्ते नियमात् सर्वेऽपि कायपरावत्त कुर्वते, यथा खस्थितिकालान्ते सुरादयः, उक्तं च-"जइ पुग्गलपरियट्टा संखाईया वणस्सईकालो। तो अबंतवणस्सईणमणाइयत्तमहेतूओ ॥१॥ न य मरुदेवाजीवो जावजी वणस्सई आसी । जमसंखेजा पुग्गलपरियट्टा तत्वऽवस्थाणं ॥२॥ कालेणेवइएणं जम्हा कुवंति कायपलई । सधेवि वणस्सइणो ठिइकालंते जह सुराई ॥३॥ [यदि पुद्गलपरावर्ताः संख्यातीता वनस्प-| तिकालः । तदाऽऽस्यन्तवनस्पतीनामनादित्वमहेतुकं ॥ १॥ न च मरुदेवीजीवो यावज्जीवं वनस्पतिरासीत् ।। यदसंख्ययाः पुद्गलपरावस्तित्रावस्थानं ॥२॥ कालेनैतावता यस्मात् कुर्वन्ति कायपरावत । सर्वेऽपि वनस्पतयः ॥३७९॥ स्थितिकालान्ते यथा सुराद्याः ॥३॥] किं च-एवं यद्वनस्पतीनां निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं तदपीदानी प्रसक्तं, कथमिति चेद् ?, उच्यते, इह प्रतिसमयमसङ्ख्यया बनस्पतिभ्यो जीया उद्वर्तन्ते, वनस्पतीनां च कायस्थितिपरि . ~762~ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [४७५] माणमसङ्ख्ययाः पुद्गलपरावर्त्तास्ततो यावन्तोऽसङ्ख्ययेषु पुद्गलपरावर्तेषु समयास्तैरभ्यस्ता एकसमयोवृत्ता जीवा यावन्तो भवन्ति तावत्परिमाणमागतं वनस्पतीनां, ततः प्रतिनियतपरिमाणतया सिद्धं निर्लेपनं, प्रतिनियतपरिमाणत्वादेव च गच्छता कालेन सिद्धिरपि सर्वेषां भव्यानां प्रसक्ता, तत्प्रसक्ती च मोक्षपथव्यवच्छेदोऽपि प्रसक्तः, सर्वभव्यसि|द्धिगमनानन्तरमन्यस्य सिद्धिगमनायोगात्, आह च-"कायट्ठिइकालेणं तेसिमसंखेज्जयावहारेणं । निलेवणमावन्नं सिद्धीवि य सबभवाणं ॥१॥ पइसमयमसंखेजा जेणुवटुंति तो तदभत्था । कायट्टिइऍ समया वणस्सईणं च परिमाणं ॥२॥[कायस्थितिकालेन तेषामसंख्येयकापहारेण । निर्लेपनमापन्नं सिद्धिरपि च सर्वभन्यानां ॥१॥ प्रतिसमयमसंख्यया येनोद्वर्त्तन्ते ततस्तदभ्यस्ताः । कायस्थितेः समयाः वनस्पतीनां च परिमाणं ॥२॥] न चैतदस्ति. वनस्पतीनामनादित्वस्य निर्लेपनप्रतिषेधस्य सर्वभव्यासिद्धर्मोक्षपथाव्यवच्छेदस्य च तत्र तत्र प्रदेशे सिद्धान्तेऽभिधा-18 नात्, उच्यते, इह द्विविधा जीवाः-सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाधेति, तत्र ये निगोदावस्थात उद्धृत्त्य पृथि-8 वीकायिकादिभेदेषु वर्तन्ते ते लोकेषु दृष्टिपथमागताः सन्तः पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते, ते च यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति तथापि ते सांच्यवहारिका एव, संव्यवहारे पतितत्वात्, ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपथातीतत्वादसांव्यवहारिकाः, कथमेतदवसीयते । द्विविधाः जीवाः सांव्यवहारिकाः असांव्यवहारिकाश्चेति, उच्यते, युक्तिवशात्, इह प्रत्युत्पन्नवन ~ 763~ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल व०वृत्ती. प्रत सूत्रांक [२३४] ॥३८०॥ दीप अनुक्रम [४७५] स्पतीनामपि निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं, किं पुनः सकलवनस्पतीना, तथा भव्यानामपि, य(त) ययसांव्यवहारि- १८ कायकराशिनिपतिता असन्तवनस्पतयो न स्युः ततः कथमुपपद्येत ?, तस्मादवसीयते अस्त्यसांव्यवहारिकराशिरपिस्थितिपदं यद्तानां बनस्पतीनामनादिता, किं चेयमपि गाथा गुरूपदेशादागता समये प्रसिद्धा-"अस्थि अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो । तेवि अणताणता निगोयवासं अणुवसंति ॥ १॥" [सन्त्यनन्ता जीवा यैर्न प्रास-11 खसादिपरिणामः । तेऽप्यनन्तानन्ता निगोदवासमनुवसन्ति ॥१॥] तत इतोऽप्यसांव्यवहारिकराशिः सिद्धः, उक्तं च-"पचुप्पन्नवणस्सईण निल्लेवर्ण न भवार्ण । जुत्तं होइन तं जइ अचंतवणस्सई नत्थि ॥ २॥ एव मणादिवणस्सईणमस्थित्तमत्थओ सिद्धं । भण्णइ [य] इमावि गाहा गुरूवएसागया समये ॥२॥ अत्थि अर्णता हाजीवा" प्रत्युत्पन्नवनस्पतीनां तथा भव्यानां निर्लेपनं न । युक्तं भवति न तद् यद्यत्यन्तवनस्पतिनोति ॥१॥ एवमनादिवनस्पतीनामस्तित्वमर्थतः सिद्धं । भण्यते चैषाऽषि गाथा गुरूपदेशागता समये ॥२॥] इत्यादि, तत्रेदं । सूत्र सांव्यवहारिकानधिकृत्यावसेयं, न चासांव्यवहारिकान् , अविषयत्वात् सूत्रस्य, न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, |यत आहुः जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादा:-"तह कायट्ठिइकालादओ विसेसे पडुच्च किर जीवे । नाणाइवणस्स- ॥३८०॥ इणो जे संववहारवाहिरया ॥१॥"[तथा कायस्थितिकालादयो विशेषान् प्रतीत्य किल जीवान् । नानादिवनस्पतीन् ये संव्यवहारबाहाः ॥१॥] अत्रादिशब्दात् सर्वेरपि जीवैः श्रुतमनन्तशः स्पृष्टमित्यादि यदस्यामेव प्रज्ञाप ~ 764~ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [४७५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [४], मूलं [२३४] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Educator International नायां वक्ष्यति प्रागुक्तं च तत्परिग्रहः, ततो न कश्चिद्दोषः । त्रसकायसूत्रं सुप्रतीतं ॥ एतानेव जसकायिकादीन् पर्यासापर्याप्त विशेषणविशिष्टान् चिन्तयन्नाह - 'सकाश्यअपचत्तर णं भंते !' इत्यादि, सुगमं, नवरं तेजःकायसूत्रे उत्क तः सङ्ख्येयानि रात्रिन्दिवानीति, तेजःकायस्य हि भवस्थितिरुत्कर्षतोऽपि श्रीणि रात्रिन्दिवानि, ततो निरन्तरक8 तिपयपर्याप्तभवकालसंकलनायामपि सङ्ख्येयानि रात्रिन्दिवान्येव लभ्यन्ते, न तु वर्षाणि वर्षसहस्राणि वा । सम्प्रति कायद्वारान्तः प्रवेशसंभवात् सूक्ष्मकायिकादीन्निरूपयितुकाम आह— ------------- सुहुमे णं भंते ! सुहुमेति कालतो केवचिरं होति १, गो० ! जह० अंतो० उ० असंखेजं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणिओप्पणीतो कालतो खेतो असंखेजा लोगा, सुहुमपुढविकाइते सुहुमआउका मुहुमतउका सुहुमबाउका सुहुमवणप्फइकाइते॰ सुहुमनिगोदेवि ज० अंतोमुडुतं उको० असंखेनं कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा, सुहुमे णं भंते! अपजत्तपत्ति पुच्छा, गो० ! ज० उ० अंतोमुहुत्तं, पुढविकाइय आउकायते - कायवाउकायवणण्फइकाइयाण य एवं चैव, पज्जत्तियाणवि एवं चेत्र जहा ओहियाणं । बादरे णं भंते ! बादरेत्ति कालतो केवचिरं होति १, गो० ! जह० अंतो० उको० असंखेखं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालओ खेचओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं, बादरपुढविकाइए णं भंते ! पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उको० सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो, एवं चादरआउकाइएवि जाव बादरते उकाइएवि बादरवाउकाइएवि, बादरवणप्फइकाइते बादर० पुच्छा, गो० ! For Parks Use Only ~765~ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [9], -------------- मूलं [२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत १८ काय प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. स्थितिपदं सूत्रांक [२३५] ॥३८॥ दीप अनुक्रम [४७६] Seleseaeiserseseseseलय ज० अंतो० उको. असंखजं कालं जाव खेसओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं, पत्तेयसरीखादरव गफइकाइर णं भंते ! पुच्छा, गो०! जह. अंतो० उको सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो । निगोदे गं भंते । निगोएति केवञ्चिर होति ?, मो०! जह० अंतो. उकोसेणं. अर्णताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अड्डाइजा पोग्गलपरियट्टा, बादरनिगोदे णं भंते ! बादर० पुच्छा, गो.! जह• अंतो० उको सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो। बादरतसकाइया गं भंते ! बादरतसकाइयचि काल केवचिरं होई, गो! जह० अंतो. उको दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, एतेसिं चेव अपज्जत्तगा सवेवि जह० उको. अंतो०, बादरपजते णं भंते ! बादरपञ्जत्त० पुच्छा, गो० ! जह. अंतो० उको० सागरोवमसतपुहुचं सातिरंग, बादरपुढविकाइयपजचए णं भंते ! बादर पुच्छा, गो० जह० अंतो० उको संखिजाई वाससहस्साई, एवं आउकाइएवि, तेउकाइयपज्जत्तए णं भंते ! तेउकाइयपज० पुच्छा, गो० ज० अंतो० उक्को० संखिज्जाई राईदियाई, वाउकाइयवणस्सइकाइयपत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइते पुच्छा, गो! ज. अंतो० उ० संखेज्जाई वाससहस्साई, निगोयपजत्तते चादरनिगोदपजत्तए पुच्छा, गो! दोहवि ज. अन्तो० उको अंतो। बादरतसकाइयपज्जत्तए णं भंते। बादरतसकाइयपज्जत्तएत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गो० ज० अंतो० उ० सागरोवमसतपुडुत्तं सातिरेगं । दारं ४ (सूत्रं २३५) 'सुहुमे णं मंते !' इत्यादि 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मकायिको भदन्त ! सूक्ष्म इति सूक्ष्मत्वपर्यायविशिष्टः सन्नव्यवच्छेदेन का-18 20262902030203028829202 ॥३८॥ ~ 766~ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [9], -------------- मूलं [२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३५] दीप अनुक्रम [४७६] लतः कियचिरं भवति, भगवानाह-गौतम ! 'जहन्नेण मित्यादि, एतदपि सूत्रं सांव्यवहारिकजीवविषयमवसातव्यं, अन्यथा उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालमिति यन्निर्वचनमुक्तं तन्नोपपद्यते, सूक्ष्म निगोदजीवानामसांव्यवहारिकराशिनिपति| तानाम नादितायाः प्रागुपपादितत्वात् , 'खेत्ततो असंखेजा लोगा' इति, असङ्ख्येयेषु लोकाकाशेपु प्रतिसमयमेकैकप्र| देशापहारे यावत्य उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्प्रमाणा असङ्ख्येया उत्सपिण्यवसर्पिण्य इत्यर्थः । सूक्ष्मवन स्पतिकायसूत्रमपि प्रागुक्तयुक्तिवशात् सांव्यवहारिकजीवविषयं व्याख्येयं । तथा सूक्ष्माः सामान्यतः पृथिवीकायि| कादिविशेषणविशिष्टाश्च पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च निरन्तरं भवन्तो जघन्यतः उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् न पर-18 मपि, ततस्तद्विषयसूत्रकदम्बके सर्वत्रापि जघन्यतः उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहुर्तमुक्तं, बादरसामान्यसूत्रे यदुक्तम् 'असंखेजकालं' तस्य विशेषनिरूपणार्थमाह-असङ्ख्यया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, इदं कालतः परिमाणमुक्तं, क्षेत्रत आह'अंगुलस्स असंखेज्जइभागों' इति, अङ्गलस्थासक्येयभागः, किमुक्तं भवति-अमुलस्थासङ्ख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशातेषां प्रतिसमयं एकैकप्रदेशापहारे यावन्त्योऽसङ्ख्यया उत्सपिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति, अथ कथं अङ्गुलासङ्घवेयभागमात्रस्यापि प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे असङ्खबेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो लगन्ति ?, उच्यते, क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् , उक्तं च-"सुहुमो य होइ कालो तत्तो सुहुमयरयं हवइ खिच"मित्यादि, [ सूक्ष्मश्च भवति कालस्ततः सूक्ष्मतरकं भवति क्षेत्रं ] एतच बादरवनस्पतिकायापेक्षयाऽवसातव्यं, अन्यस्य बादरस्यैतावत्का SCCCCee CatC.८वट ~767~ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [9], -------------- मूलं [२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मज्ञापना या: मल प्रत सूत्रांक [२३६] ४ यवृत्ती. ॥३८॥ दीप अनुक्रम [४७७] | यस्थितेरसम्भवात् , शेषसूत्राणि द्वारसमाप्ति यावत् सुगमानि । गतं कायद्वारम् , इदानीं योगद्वारमभिधित्सुराह १८कायसजोगी णं भंते ! सजोगित्ति काल०१, मो०! सजोगी दुविहे पं०, तं-अणादीए वा अपज्जवसिते अणादीए का स्थितिपदं सपज्जवसिते, मणजोगी णं भंते ! मणजोगीति कालतो, गो.ज. एक समयं उक्को अंतो०, एवं वइजोगीवि, कायजोगी णं भंते ! काल ?, गो! जहन्नेणं अंतो० उको० वणफइकालो, अजोगी गं भंते ! अजोगिति कालो केवचिरं होति ?, गो० ! सादीए अपञ्जवसिते । दारं ५ (सूत्र २३६) 'सजोगी णं भंते !' इत्यादि, योगाः-मनोवाकायच्यापाराः, योगा एषां सन्तीति योगिनः मनोवाकायाः सह योगिनो यस येन चा स सयोगी, अत्र निर्वचनं 'सजोगी दुविहे पं.' इत्यादि, अनाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि। मोक्षं गन्ता स हि सर्वकालमवश्यमन्यतमेन योगेन सयोगी ततोऽनाद्यपर्यवसितो, यस्तु यास्यति मोक्षं सोऽनादिसपर्यवसितः, मुक्तिपर्यायप्रादुर्भावे योगस्य सर्वथापगमात् , मनोयोगिसूत्रे जघन्यतः एक समयमिति-यदा कश्चिदौदारिककाययोगेन प्रथमसमये मनोयोग्यान पुद्गलानादाय द्वितीयसमये मनस्त्वेन परिणमय्य मुञ्चति तृतीयसमये चोपरमते | | म्रियते वा तदा एकं समयं मनोयोगी लभ्यते, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, निरन्तरं मनोयोग्यपुद्गलानां ग्रहणनिसर्गों कुर्वन् ॥३८२॥ तत ऊ सोऽवश्यं जीवखाभाब्यादुपरमते, उपरम्य च भूयोऽपि ग्रहणनिसगौं करोति, परं कालसीक्ष्म्यात् कदा-1 चिन्न खसंवेदनपथमायाति, तत उत्कर्षतोऽपि मनोयोगोऽन्तर्मुहूर्तमेव, एवं 'वयजोगीवि' इति, एवं मनोयोगीय 20282920000000000 SAREautatunintimational अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (५)- "योग" आरब्धम् ~768~ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [9], -------------- मूलं [२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३६] दीप अनुक्रम [४७७] वाग्योग्यपि वक्तव्यः, तद्यथा-'वइजोगी भंते ! वइजोगीति कालओ केवचिरं होति?, मो.! जह. एक समय। उको. अंतोमुहुत्त'मिति तत्र यः प्रथमसमवे काययोगेन मापायोग्यानि द्रव्याणि गृह्णाति द्वितीयसमये तानि भाषात्वेन परिषमय्य मुञ्चति तृतीयसमये चोपरमते म्रियते वा स एकं समयं वाग्योगी लभ्यते, आह च मूलटीकाकास-पढमसमये कायजोगण गहियाणं भासादवाणं बिइयसमये वइजोगेण निसर्ग काऊय उवरमंतस्स मरंतस्स वा एगसमओ लम्भई' इति, अन्तर्मुहूर्त निरन्तरं ग्रहणनिसगौं कुर्वन् तदनन्तरं चोपरमते, तथाजीवखामाव्यात् , काययोगी जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति, इह द्वीन्द्रियादीनां वाग्योगोऽपि लभ्यते, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोयोगोऽपि ततो यदा वाग्योगो भवति मनोयोगो वा तदान काययोगप्राधान्यमिति सादिसपर्यवसितत्वभावात् जघन्यतोऽन्तर्मुहूचे काययोगी लभ्यते, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः, वनस्पतिकायिकेषु हि काययोग एव केवलो न वाग्योगो मनोयोगो वा, ततः शेषयोगासम्भवात्तेष्वाकायस्थितेः सततं काययोग इति मतं, A अयोगी च सिद्धः, स च साचपर्यवसित इत्ययोगी साद्यपर्यवसित उक्तः । गतं योगद्वारमिदानी वेदद्वार प्रतिपि-IA पादयिषुराह सवेदए णं भंते ! सवेदएचि०१, गो! सवेदए तिविधे पं०,०-अणादीए वा अपज्जवसिते अणादीए वा सपञ्जबसिए सादीए वा सपञ्जवसिए, तस्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जह• अंतो उको० अर्णतं कालं अणंताओ उस्स अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (६)- "वेद" आरब्धम् ~ 769~ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना PM प्रत सूत्रांक [२३७]] यवृत्ती. ॥३८॥ दीप अनुक्रम [४७८] प्पिणिओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो अबढे पोग्गलपरियट्टू देसूर्ण, इथिवेदे ण मंते ! इत्थिवेदेत्ति काल० ?, गो०! एगेणं कायआदेसेणं जह० एक समयं उको दसुत्तरै पलिओवभसतं पुडकोडिपुहुत्तमन्भहियं १, एमेणं आदेसेणं जह० एग समयं स्थितिपद उको० अट्ठारसपलितोवमाई पुवकोडिपुहुत्तमभहियाई २, एगेणं आदेसेणं ज० एग समयं उको चउद्दस पलिओवमाई पुबकोडिपुत्तमम्महियाई ३, एमेणं आदेसेणं ज० एग समयं उको० पलिओवमसतं पुचकोडिपूहुत्तमभहियं ४, एगेर्ण आदेसेणं जह० एग समयं उको० पलितोवमपुहुत्तं पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियं ५, पुरिसवेदे णं भंते !२१, गो०! जह अंतो० उको० सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेग, नपुंसगवेए णं भंते ! नपुंसगवेदेति, पुच्छा, गो० ज० एगं समयं उको० वणस्सइकालो, अवेदए णं भंते ! अवेदएति पुच्छा, गो! अवेदे दुविधे पं०, तं०-सादीए वा अपञ्जवसिए साइए वा सपअवसिते, तत्थ णं जे से साइए सपजवसिते से जहण्ोणं एग समयं उको अंतो०। दारं ६ (सूत्र २३७) 'सवेदए णं मंते' इत्यादि, सह वेदो यस्य येन वा स सवेदकः, 'शेषाद्वेति कप्रत्ययः, स च त्रिविधः, तद्यथाअनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः उपशमश्रेणि क्षपक श्रेणि वा जातु-कदाचिदपि न प्राप्स्यति सोऽनाथपर्यवसितः, कदाचिदपि तस्य वेदोदयव्यवच्छेदासम्भवात् , यस्तु प्राप्स्यति उपशमश्रेणि क्षपक-II ॥३८३॥ श्रेणिं वा सोऽनादिसपर्यवसितः, उपशमश्रेणिप्रतिपत्ती क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तौ वा वेदोदयव्यवच्छेदस्य भाबित्वात्, यस्तूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तत्र चावेदको भूत्वा भूय उपशमश्रेणीतः प्रतिपतन् सवेदको भवति स सादिसपर्यवसितः, टरटsescarceaeoccccccero ~770~ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७]] स च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, कथमिति चेत्?, उच्यते, इह यदा कोऽपि उपशमश्रेणि उपपय त्रिविधमपि वेदमुपशम| प्यावेदको भूत्वा पुनरपि श्रेणीतः प्रतिपतन् सवेदकत्वं प्राप्य झटित्युपशमश्रेणि कामपन्धिकाभिप्रायेण क्षपक श्रेणि वा प्रतिपद्यते प्रतिपद्य च वेदत्रयमुपशमयति क्षपयति वा अन्तर्मुहूर्तेन तदा जघन्येनान्तर्मुहूर्त सवेदकः उत्कर्षतोऽपार्द्धपद्गलपरावर्त देशोनं, अपगतमद्धे यस्य सोऽपार्द्धः देशोनः-किञ्चिदूनः, उपशमश्रेणितो हि प्रतिपतित एतावन्तं कालं संसारे पर्यटति, ततो यथोक्तमुत्कर्षतः सादिसपर्यवसितस्य सवेदकस कालमानमुपपद्यते । स्त्रीवेदविषये च पश्चादेशास्त्रान् क्रमेण निरूपयति-'एगेणं आदेसेण'मित्यादि, तत्र सर्वत्रापि जघन्यतः समयमात्रभावनेयं-का-IN [चित् युवतिरुपशमश्रेण्यां वेदत्रयोपशमेनावेदकत्वमनुभूय ततः श्रेणेः प्रतिपतन्ती स्त्रीवेदोदयमेकसमयमनुभूय द्वितीयसमये कालं कृत्वा देवेपूत्पद्यते, तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव न स्त्रीत्वं तत एवं जघन्यतः समयमात्रं खीवेदः, उत्कपचिन्तायामियं प्रथमादेशभावना-कश्चिज्जन्तु रीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पञ्चषान् भवान् अनुभूय ईशाने कल्पे पञ्चपञ्चाशत्प्रमाणपल्योपमोत्कृष्टस्थितिष्वपरिगृहीतासु देवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नस्ततः खायु:क्षये च्युत्वा भूयोऽपि नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये स्त्रीत्वेनोत्पन्नस्त तो भूयोऽपि द्वितीयं वारं ईशाने देवलोके पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नस्ततः परमवश्यं वेदान्तरमेव गच्छति, एवं दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते, अत्र पर आह-जनु यदि देवकुरूत्तरकुयों Pos20302669200000 दीप अनुक्रम [४७८] ~771~ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७]] प्रज्ञापना- याःमलय० वृत्तो. ॥३८॥ दीप अनुक्रम [४७८] 20299999999 दिषु पल्योपमत्रयस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये समुपपद्यते ततोऽधिकाऽपि स्त्रीवेदस्य स्थितिरवाप्यते, ततः किमिलेता-8|१८ कायचित्येयोपदिष्टा, तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात्, तथाहि-इह तावद्देवीभ्यश्युत्वा असह्मवेयवायुष्कासु खीषु मध्ये स्थितिपदं नोत्पद्यते, देवयोनेश्श्युतानां असङ्ख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये उत्पादप्रतिषेधात्, नाप्यसङ्ख्येयवर्षायुष्का सती योषित उत्कृष्टासु देवीपु जायते, यत उक्तं मूलटीकाकृता-"जत्तो असंखेजवासाउया उक्कोसटिई न पायेई" इति, ततो यथोक्तप्रमाणवोत्कृष्टा स्थितिः स्त्रीवेदस्यावाप्यते, द्वितीयादेशवादिनः पुनरेवमाहुः-नारीषु तिरश्चीषु पाM | पूर्वकोव्यायुष्कासु मध्ये पञ्चपान् भवान् अनुभूय पूर्वप्रकारेणेशानदेवलोकेषु वारद्वयमुत्कृष्टस्थितिकासु देवीषु मध्ये उत्पद्यमाना नियमतः परिगृहीताखेवोत्पद्यते नापरिगृहीतासु ततस्तन्मतेनोत्कृष्टमवस्थानं स्त्रीवेदस्याष्टादश पल्योप-15 मानि पूर्वकोटिपृथक्त्वं च, तृतीयादेशवादिनां तु सौधर्मदेवलोके परिगृहीतासु ससपल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कासु वारद्वयं समुत्पद्यते, ततस्तन्मतेन चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि श्रीवेदस्य स्थितिः, चतुर्थादेश-| वादिनां तु मतेन सौधर्मदेवलोके पञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीष्वपि पूर्वप्रकारेण वारद्वयं देवीत्वेनोत्पद्यते, ततस्तन्मतेन पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकमवाप्यते, पञ्चमादेशवादिनः पुनरिदमाहुः-नाना- ॥३८४॥ भवभ्रमणद्वारेण यदि स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चिन्त्यते तर्हि पल्योपमपृथक्त्वमेव पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते न ततोऽधिकं, कथमेतदिति चेत् १, उच्यते, नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाष्टमभये ~772 ~ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [४७८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [६], उद्देशक: [-], मूलं [२३७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Internationa देवकुर्वादिषु त्रिपल्योपमस्थितिषु स्त्रीमध्ये स्त्रीत्वेन समुत्पद्यते, ततो मृत्वा सौधर्मे देवलोके जघन्यस्थितिकासु देवीषु मध्ये देवीत्वेनोपजायते, तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमभिगच्छति इति, अमीषां पञ्चानामादेशानामन्यतमादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसम्पन्नैर्वा कर्त्तुं शक्यते, ते च भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ नासीरन्, केवलं तत्कालापेक्षया ये पूर्वतमाः सूरयस्तत्कालभाविग्रन्थपौर्वापर्यपर्यालोचनया यथास्वमति स्त्रीवेदस्य स्थितिं प्ररूपितवन्तस्तेषां सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवानार्यश्याम उपदिष्टवान्, तेऽपि च प्रावचनिकसूरयः स्वमतेन सूत्रं पठन्तो गौतमप्रश्नभगवन्निर्वचनरूपतया पठन्ति, ततस्तदवस्थान्येव सूत्राणि लिखता गोतमा ! इत्युक्तं, अन्यथा भगवति गौतमाय निर्देष्टरि न संशयकथनमुपपद्यते, भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् पुरुषवेदसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति, यदा कश्चिदन्यवेदेभ्यो जीवेभ्य उद्धृत्य पुरुषवेदेपूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त्त सर्वायुर्जीवित्वा गत्यन्तरे अन्यवेदेषु मध्ये समुत्पद्यते तदा पुरुषवेदस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमयस्थानं लभ्यते, उत्कृष्टमानं कण्ठ्यं [ग्रन्थानं १०००० ], नपुंसकवेदसूत्रे जघन्यतः एकः समयः स्त्रीवेदस्येव भावनीयः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः, एतच सांव्यवहारिकजीवानधिकृत्य यदा चिन्ता क्रियते यदा त्वसव्यवहारिकजीवानधिकृत्य चिन्ता क्रियते तदा द्विविधा नपुंसकवेदाद्धा, कांश्चिदधिकृत्यानाद्यपर्यवसाना, ये न जातुचिदपि सांव्यवहारिकराशी निपतिष्यन्ति, कांश्चिदधिकृत्य पुनरनादिसपर्यवसाना, ये असांव्यवहारिकराशेरुहृत्य सांव्यवहारिकराशावागमिष्यन्ति, For Penale On ------------- ~ 773~ jandrary org Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [४७८] प्रज्ञापना- अथ किमसांच्यवहारिकराशेरपि विनिर्गत्य सांव्यवहारिकराशावागच्छन्ति येनैवं प्ररूपणा क्रियते ?, उच्यते, आग ति, आग- १८कायया:मल- ४च्छन्ति, कथमेतदवसेयमिति चेत् ?, उच्यते, पूर्वाचार्योपदेशात्, तथा चाह दुष्यमान्धकारनिमनजिनप्रवचनप्र-8 स्थितिपद यवृत्ती. दीपो भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-"सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासीओ। एंति अणाइवण॥३८५॥ |स्सहरासीओ तत्तिया तंमि ॥१॥" [सिध्यन्ति यावन्तः किल इह सांव्यवहारिकजीवराशेः। आयान्ति अनादिवन-% स्पतिराशितस्तावन्तस्तस्मिन् ॥१॥ अवेदको द्विधा-साद्यपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः क्षपकश्रेणिं प्रतिपद्यावेदको भवति स साद्यपर्यवसितः, क्षपकणेः प्रतिपातासम्भवात् , यस्तूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यावेदको जायते स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनैकं समयं, कथमेकं समयमिति चेत् ?, उच्यते, यदा एकसमयमवेदको भूत्वा द्वितीयसमये पञ्चत्यमुपागच्छति तदा तस्मिन्नेव पञ्चत्वसमये देवेषुत्पन्नः पुरुषवेदोदयेन सवेदको भवति, तत एवं जघन्यत एक समयमवेदकः, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, परतोऽवश्यं श्रेणीतः प्रतिपाते वेदोदयसद्भावात् इति । गतं वेदद्वारमिदानीं कषायद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम्सकसाई णं भंते ! सकसादिति काल० १, गो० ! सकसाती तिविधे पं०, तं०--अणादीए वा अपज्जवसिते अणादीए IN ॥३८५॥ वा सपञ्जवसिते सादीए वा सपञ्जवसिते जाव अवर्ल्ड पोग्गलपरियÉ देसूर्ण, कोहकसाई णं भंते ! पुच्छा, गो.! जह उक्को अंतोमुहुत्तं, एवं जाव माणमायकसाती, लोभकसाई णं भंते ! लोभ० पुच्छा, गो०! जह. एकं समयं उक्को awaatenessa990sassa अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (७)- “कषाय" आरब्धम् ~774~ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [७], -------------- मूलं [२३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [२३८] दीप अनुक्रम [४७९] अंतोसु०, अकसाई णं भंते ! अकसादिति काल. १, गो० ! अकसादी दुविहे पं०, त०-सादीए वा अपज्जवसिते सादीए का सपज्जवसिते, तस्थ णं जे से सादीए सपञ्जवलिते से जह० एग समयं उको अंतो । दारं ७ । (सूत्र २३८) ST 'सकसाई णं भंते !' इत्यादि, सह कषायो येषां यैर्वा ते सकषाया-जीवपरिणामविशेषास्ते विद्यन्ते यस्य स| सकपायी, इदं सकलमपि सूत्र सवेदसूत्रबदविशेषेण भाचनीयं, समानभावेनोक्तत्वात् , 'कोहकसाई णं भंते!' इत्यादि, जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त इति उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमिति-क्रोधकपायोपयोगस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् , तथाजीवखाभाब्यात्, इदं च सूत्रचतुष्टयमपि विशिष्टोपयोगापेक्षमिति, लोभकषायी जघन्येनेकं समय[मिति, यदा कश्चिदुपशमक उपशमश्रेणिपर्यवसाने उपशान्तवीतरागो भूत्वा श्रेणीतः प्रतिपतन् लोभाणुप्रथमसमयसंवेदनकाल एव कालं कृत्वा देवलोकेषुत्पद्यते, तत्र चोत्पन्नः सन् क्रोधकषायी मानकषायी मायाकपायी वा भवति तदा एकं समयं लोभकषायी लभ्यते, अथैवं क्रोधादिप्वप्येकसमयता कस्मान्न लभ्यते ?, उच्यते, तथाखाभाव्यात् , तथाहि-श्रेणीतः प्रतिपतन् मायाणुवेदनप्रथमसमये मानाणुवेदनप्रथमसमये क्रोधाणुवेदनप्रथमसमये या यदि कालं करोति कालं च कृत्वा देवलोकेषत्पद्यते तथापि तथाखाभाब्यात् येन कपायोदयेन कालं कृतवान् तमेव कषायोदयं तत्रापि गतः सन्जन्तर्मुहूर्तमनुवर्जयक्ति, एतच्चावसीयते अधिकृतसूत्रप्रामाण्यात्, ततोऽनेकसमयता क्रोधा-16 दिष्विति । अकषायसूत्रं वेदसूत्रमिव भावनीयं । गतं कषायद्वारमधुना लेश्याद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् SAREarattinintamanand | अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (८)- "कषाय" आरब्धम् ~775~ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [८], -------------- मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलय.वृत्ती. १८ कायस्थितिपदं प्रत सूत्रांक [२३९]] ॥२८॥ दीप अनुक्रम [४८०] सलेसे णं भंते ! सलेसेचि पुच्छा, गो! सलेसे दुविधे पं०, ०–अणादीए या अपज्जवसिते अणादीए वा सपज्जवसिते, कण्हलेसे गंभंते ! कण्हलेसेत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गो० ! जह• अंतो० उक्को० तेत्तीसं सागरोचमाई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, नीललेसे णं भंते ! नीललेसेति पुच्छा, गो० ! जह• अंतो० उको० दस सागरोवमाई पलितोत्रमासंखिज्जइभागमभहियाई, काउलेसे गं पुच्छा, गो० ! जह• अंतो० उको तिण्णि सागरोवमाई पलितोवमासंखिजतिभागमभहियाई, तेउलेसे णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतोमुहुचं उक्को दो सागरोक्माई पलितोवमासंखिञ्जतिभागमभहियाई, पम्हलेसे णं पुच्छा, गो.जह अंतो उको दस सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई, सुकलेसे णं पुच्छा०, गो० ! जह• अंतो० उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, अलेसे गं पुच्छा, गो! सादीए अपज्जवसिते । दारं ८ (सूत्र २३९) 'सलेसे णं भंते' इत्यादि, सह लेश्या यस्य येन वा स सलेश्यः, स द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनादिरपर्यवसितो यो न जातुचिदपि संसारव्यवच्छेदं कर्ता अनादिसपर्यवसितो यः संसारपारगामी, 'कपहलेसे णं भंते ! इत्यादि, इह तिरश्था मनुष्याणां च लेश्याद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्तिकानि, ततः परमवश्यं लेश्यान्तरपरिणाम भजन्ते, देवनेरयिकाणां तु पूर्वभवचरमान्तर्मुहूर्त्तादारभ्य परभवाद्यमन्तर्मुहूर्त यावत् अवस्थितानि ततः सर्वत्र जघन्यमन्तर्मुहूर्त तिर्यग्मनुष्याअपेक्षया द्रष्टव्यमुत्कृष्टं देवनैरयिकापेक्षया, तच्च विचित्रमिति भाव्यते, तत्र यदुक्तं-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मु ॥३८॥ RELIGunintentiational अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (८)- "लेश्या" आरब्धम् ~776~ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३९ ] दीप अनुक्रम [४८०] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [८], मूलं [२३९] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... हूर्त्ताभ्यधिकानीति तत्सप्तमनर कपृथिव्यपेक्षया द्रष्टव्यं तत्रत्या हि नैरयिकाः कृष्णलेश्याकाः, तेषां च स्थितिरुत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, यत्तु पूर्वोत्तरभवगते यथाक्रमं चरमाद्ये अन्तर्मुहूर्त्ते ते द्वे अप्येकं, अन्तर्मुहूर्त्तस्यासङ्ख्यात भेदभिन्नत्वात्, तथा चान्यत्राप्युक्तम्- “मुहुत्तद्धं तु जहन्ना तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उनकोसा होइ ठिई नायवा कण्हलेसाए ॥१॥ [ मुहूर्त्ता तु जघन्या त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा । मुहर्त्ताधिका भवति स्थितिः कृष्णलेश्यायाः ॥ १ ॥ ] अत्र 'मुहुत्तहिया' इति चूर्णिकृता व्याख्यातमन्तर्मुहूर्त्ताधिकेति, नीललेश्यासूत्रे यानि दश सागरोपमाणि |पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिकान्युक्तानि तानि पञ्चमपृथिव्यपेक्षया वेदितव्यानि, तत्र हि प्रथमप्रस्तटे नीललेश्या 'पंचमियाए मीसा' [पञ्चम्यां मिश्रा ] इति वचनात् तस्मिंश्च प्रथमप्रस्तटे स्थितिरुत्कर्षत एतावती, ये तु पूर्वोत्तरभवगते अन्तर्मुहूर्चे ते पल्योपमासङ्ख्येयभागे एवान्तर्गते इति न पृथग्विवक्षिते, एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यं कापोतलेश्यासूत्रे त्रीणि सागरोपमाणि पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिकानि तृतीयनरकपृथिव्यपेक्षयाऽवसातव्यानि तृतीयपृथिव्यामपि प्रथमप्रस्तटे कापोतलेश्याया भावात्, 'तईयाए मीसिया' [ तृतीयस्यां मिश्रा ] इति वचनात् तत्र चोत्कृष्टस्थितेरेतावत्याः सम्भवात्, तेजोलेश्या सूत्रे द्वे सागरोपमे पत्योपमासत्येयभागाभ्यधिके ईशान देवलोक देवापेक्षया वेदितव्ये, ते हि तेजोलेश्याका उत्कर्षत एतावस्थितिकाः, पद्मलेश्यासूत्रे दश सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधि| कानि ब्रह्मलोकापेक्षया भावनीयानि, तत्र हि देवानां स्थितिरुत्कृष्टा दश सागरोपमाणि लेश्या च पद्मलेश्या, ये च For Penal Use On ~ 777 ~ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [४८०] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥३८७॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [८], मूलं [२३९] उद्देशक: [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. पूर्वोत्तरभवगते अन्तर्मुहुर्त्ते ते किलैकमन्तर्मुहूर्त्तमिति अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानीत्युक्तं, शुक्कलेश्यासूत्रे त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि अनुत्तरसुरापेक्षया, तेषामुत्कर्षतः स्थितेः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वात्, अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकत्व भावना च प्राग्वत्, अलेश्यः -- अयोगिकेवली सिद्धश्व, ततो न तस्यामप्यवस्थायामलेश्यत्वव्या घात इति साद्यपर्यवसितः । गतं लेश्याद्वारम् इदानीं सम्यक्त्वद्वारं तत्रेदमादिसूत्रम् - Education Internation सम्मदिट्ठी णं भंते ! सम्मदि० काल० १, गो० ! सम्मद्दिट्टी दुविहे पं० तं० – सादीए वा अपजवसिते सादीए वा सपअवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपअवसिते से जह० अंतो० उको० छावहिं सागरोबमाई साइरेगाई, मिच्छादिट्ठी णं भंते! पुच्छा०, गो० ! मिच्छादिट्टी तिविधे पं० तं० - अणाइए अपञ्जवसिए वा अणादीए वा सपजवसिए सादीए वा सपजबसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जह० अंतो० उको० अनंतं कालं अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अवङ्कं पोग्गलपरियहं देसूणं, सम्मामिच्छादिट्ठी णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० को ० तो ० । दारं ९ । (सूत्रं २४० ) 'सम्मदिडी णं भंते!' इत्यादि, सम्यग् - अविपर्यस्ता दृष्टिः- जिनप्रणीतवस्तु तत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः, स चान्तरकरणकालभाविना औपशमिकसम्यक्त्वेन सासादनसम्यक्त्वेन विशुद्धदर्शन मोहपुओदयसम्भविक्षायोपश- मिकसम्यक्त्वेन सकलदर्शनमोहनीयक्षयसमुत्थक्षायिक सम्यक्त्वेन वा द्रष्टव्यो, निर्वचनं --- सम्यग्दृष्टिर्द्विविधः प्रज्ञप्तः, अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् ( ९ ) - "सम्यक्त्व" आरब्धम् For Pale One ~778~ १८ कायस्थितिपदं ॥३८७ ॥ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [९], -------------- मूलं [२४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०]] दीप अनुक्रम [४८१] । तद्यथा-'साधपर्ववसितः एष क्षायिक सम्यक्त्वे उत्पादिते सति वेदितव्यः, तस्य प्रतिपाताभावात् , 'सादिसपशायेवसितः' एष क्षायोपशमिकादिसम्यक्त्वापेक्षया, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितः सम्यग्रष्टिः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, I परतो मिथ्यात्वगमनात् , उत्कर्षतः षट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तत्र यदि वारद्वयं विजयादिषु चतुःप्र-IN रातिपतितसम्यक्त्व उत्कृष्टस्थितिको देव उत्पद्यते बलात्रयं घाऽच्युतदेवलोके ततो देवभवरेव पटूपष्टिः सागरोपमाणि परिपूर्णानि भवन्ति, ये तु मनुष्यभवाः सम्यक्त्वसहितास्तेऽधिका इति तैः सातिरेकाणीति, उक्तं च-"दो बारे विजयाइसु गयस्स तिन्निऽचुए अहव ताई। अइरेग नरभावियं" इति [द्वे वारे विजयादिपु गतस्य तिस्रो वारा अच्युतेISऽथवा तानि । अतिरेकं नरभविकं] 'मिच्छादिट्ठीणं भंते!' इत्यादि, मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः-जीवारदिवस्तुतत्त्वप्ररातिपत्तिर्यस्य भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तियत् स मिथ्यारष्टिः, ननु मिथ्याष्टिरपि कश्चिद् भक्ष्य भक्ष्यतया जानाति पेयं पेयतया मनुष्यं मनुष्यतया पशुं पशुतया ततः स कथं मिथ्याष्टिः १, उच्यते, भगवति सर्वज्ञे तस्य [प्रत्ययाभावात् , इह हि भगवदईत्प्रणीतं सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गतमेकमप्यक्षरं न रोच-1 [यति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सबैज्ञे प्रत्ययनाशतः, उक्तं च-"सूत्रोक्तस्सैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यारष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" किं पुनः शेषो भगवदहेंदभिहितं यथावद् जीवाजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिविकलः, ननु सकलप्रवचनार्थाभिरोचनात् तद्गतकतिपयार्थानां चारोचना ~779~ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [९], --------------- मूलं [२४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०]] प्रज्ञापना- याः मल- य. वृत्ती. ॥३८॥ दीप अनुक्रम [४८१] देष न्यायतः सम्यग्मिध्यादृष्टिरेव भवितुमर्हति कथं मिथ्याष्टिः ?, तदसत्, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , इह यदा १८कायसकलं वस्तु जिनप्रणीततया सम्यक् श्रद्धते तदानीमसौ सम्यग्दृष्टियंदा त्वेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा मतिदौर्व स्थितिपदं |ल्यादिना एकान्तेन सम्यकपरिज्ञानमिथ्यापरिज्ञानाभावतो न सम्यकश्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः तदा सम्य-10 मिथ्यादृष्टिः, उक्तं च शतकबृहचूणों-"जहा नालिकेरीदीववासिस्स खुहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स पुरिसस्स ओयणाइए अणेगविहे ढोइए तस्स आहारस्स उवरिं न रुई न य निंदा, जेण तेण सो ओयणाइओ आहारो ण कयाइ दिवो नावि सुओ, एवं सम्मामिच्छद्दिहिस्सवि जीवाइपयत्थाणं उवरिं न य रुई नावि निंद"त्ति, यदा पुनरे-18 कस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा एकान्ततो विप्रतिपद्यते तदा मिथ्यादृष्टिरेवेत्यदोषः, स च त्रिविधः, तद्यथा-अना| चपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः कदाचनापि सम्यक्त्वं नावाप्स्यति सोऽनाथपर्यवसितः, यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु सम्यक्त्वमासाद्य भूयोऽपि मिथ्यात्वं याति स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं कस्यापि भूयः सम्यक्त्वावाः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं द्विधा प्ररूपयति-कालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्यावत् , क्षेत्रतोऽपाढे पुद्गलपरापसे देशोनं, अत्र क्षेत्रत इति निर्देशात् क्षेत्रपुरलपरावतः परिग्राह्यो, नतु द्रव्यपुगलपरावदियः, एवं पूर्वोत्तरत्रापि च । भावनीयं, 'सम्मामिच्छादिट्ठी 'मित्यादि, सम्यग्मिथ्या दृष्टियस्यासी सम्यग्मिध्यादृष्टिः स जघन्यत उत्कर्षतो For P OW ~780~ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [९], -------------- मूलं [२४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०]] दीप अनुक्रम [४८१] aaeeeeee eseseel वा अन्तर्मुहूर्त, परतोऽवश्यं तत्परिणामविध्वंसात् , तथा जीवखाभाब्यात् । गतं सम्यक्त्वद्वारमिदानी ज्ञानद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् णाणी गं भंते ! णाणित्ति काल०, गो०! णाणी दुविधे पं०,०-सातीते वा अपञ्जवसिते साइए वा सपञ्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जहण्णेणं अंतो० उको छावढि सागरोवमाई साइरेगाई, आभिनिवोहियणाणी णं पुच्छा, गो०! एवं चेव, एवं सुयणाणीवि, ओहिनाणीवि एवं चेव, नवरं जहण्णेणं एग समयं, मणपजवणाणी णं भंते ! [पुच्छा] मणपज्जवणाणिचि कालतो०, गो०!जह एग समय उको० देसूणा पुषकोडी, केवलणाणी णं पुच्छा, गो! सातिए अपञ्जवसिते । अण्णाणी मतिअण्णाणी मुतअण्णाणी पुच्छा, गो०! अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी विविधे पं०, तं०-अणाइए वा अपजवसिए अणादीए वा सपञ्जवसिते सादीए वा सपञ्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जह० अंतो० उको० अणतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेतओ अवडपोग्गलपरियडू देसूर्ण, विमंगणाणी णं भंते ! पुच्छा, गो०! जहण्णेणं एग समयं उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाते पुचकोडीते अब्भहिताई । दारं १० ॥ (सूत्रं २४१) । 'नाणी णं भंते' इत्यादि, ज्ञानमस्यास्तीति 'अतोऽनेकखरा दितीन् , स द्विधा साद्यपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र केवलज्ञानापेक्षया सायपर्यवसितः, प्रतिपाताभावात् , शेषज्ञानापेक्षया सादिसर्पयवसितः, शेपज्ञानानां प्रतिनि Receneleoclaces अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (१०)- "ज्ञान" आरब्धम् ~ 781~ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१०], -------------- मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [४८२] प्रज्ञापना यतकालभावित्वात् , स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, परतो मिथ्यात्वगमनेन ज्ञानपरिणामापगमात् , उत्कर्षतः षट्पष्टिसागया मल-18रोपमाणि सातिरेकाणि यावत् , तानि सम्यग्दष्टेरिव भावनीयानि, सम्यग्रष्टरेव ज्ञानित्वात् , आभिनिवोधिकज्ञानि- स्थितिपदं यवृत्ती. सूत्रे 'एवं चेव'त्ति यथा सामान्यतो ज्ञानी सादिसपर्यवसितो जघन्यत उत्कर्षतश्चोक्तस्तथाऽऽभिनिवोधिकज्ञान्यपि वक्तव्यः, स चैवं-'जह. अंतो० उक्को० छावट्ठी सागरोवमाई सातिरेगाई' एवं श्रुतज्ञान्यपि, अवधिज्ञान्यप्येवं ॥३८९॥ नवरं स जघन्यत एकं समयं वक्तव्यः, कथमेकसमयताऽवधिज्ञानस्येति चेत् ?, उच्यते, इह तिर्यपञ्चेन्द्रियो मनु-1 प्यो देवो वा विभङ्गज्ञानी सन् सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, तस्य च सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसमये एव सम्यक्त्वभावतो विभङ्गज्ञानमवधिज्ञानं जातं, तञ्च यदा देवस्य च्यवनेन मरणेनान्यस्यान्यथा वाऽनन्तरसमये प्रतिपतति तदा भवत्यवधिज्ञानस्यैकसमयता, उत्कर्षतः सातिरेकाणि षट्पष्टिं सागरोपमाणि यावत् , तानि चाप्रतिपतितावधिज्ञानस्य वारद्वयं [विजयादिषु गमनेन वारत्रयमच्युतदेवलोकगमनेन वा वेदितव्यानि, मनःपर्यवज्ञानिन एकसमयता संयतस्याप्रमताद्धायां वर्तमानस्य मनःपर्यायज्ञानमुत्पाद्यानन्तरसमये कालं कुर्वतो भावनीया, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, तत ऊई संयमाभावेन मनःपर्यवज्ञानस्याप्यभायात्, केवलज्ञानी साद्यसपर्यवसितः, प्रतिपाताभावात् । अज्ञानी त्रिविधः, ॥ ८ प तद्यथा-अनावपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च तत्र यस्य कदाचनापि ज्ञानलाभो न भावी सोऽ-I" नाद्यपयेवसितो, यस्तु ज्ञानमासादयिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यः पुननिमासाद्य भूयो मिथ्यात्वगमनेनाज्ञानि ~782~ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [४८२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], ------------- दारं [१०], मूलं [२४१] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. त्वमधिगच्छति स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त, परतः सम्यक्त्वस्यासादनेनाज्ञानित्व परिणामापगमसम्भवात् उत्कर्षतोऽनन्तं कालमित्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्द्धमवश्यं सम्यक्त्वावामेरज्ञानित्वापगमात् एवं मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी च त्रिविधो भावनीयः, विभङ्गज्ञानी जघन्यत एकं समयं कथमिति चेत् ?, उच्यते, कश्चित्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियो मनुष्यो देवो वा सम्यग्दृष्टित्वादवधिज्ञानी सन् मिध्यात्वं गतस्तस्मिंश्च मिथ्यात्वप्रतिपत्तिसमये मिथ्यात्वप्रभावतोऽवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानीभूतं, “आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तमिति वचनात् ततोऽनन्तरसमये देवस्य ध्ययनेनान्यस्य मरणेनान्यथा वा तद्विभङ्गज्ञानं परिपतति, तत एवमेकसमयता विभङ्गज्ञानस्य, उत्कर्षतस्त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनपूर्वको व्यभ्यधिकानि, तथाहि-- यदि कश्चिन्मिथ्यादृष्टिस्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा पूर्वको व्यायुः कतिपयवर्षातिक्रमे विभङ्गज्ञानी जायते, जातश्च सन्नप्रतिपतितविभङ्गज्ञान एवाविग्रहगत्या सप्तमनरकपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिको नैरयिको जायते तदा भवति यथोक्तमुत्कृष्टं मानं, तत ऊर्द्ध तु सम्यक्त्वप्रतिपत्त्याऽवधिज्ञानभावतः सर्वथाऽपगमाद्वा तद्विभङ्गज्ञानमपगच्छति । गतं ज्ञानद्वारम् इदानीं दर्शनद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् - Education internati चक्खुदंसणी णं भंते! पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं, अचक्खुदंसणी णं भंते ! अचखुदंसणित्ति काल०, गो० ! अचक्खुदंसणी दुविहे पं० तं० - अशादीए वा अपअवसिते अणादीए वा सपजबसिए, अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (११) - "दर्शन" आरब्धम् For Panalyse On ~783~ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [११], -- ----- मूलं [२४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १८ काय प्रत सूत्रांक [२४२]] प्रज्ञापनायामलयवृत्ती. ॥३९०॥ दीप अनुक्रम [४८३] ओहिदसणी णं पुच्छा, गो! जह० एगं समयं उको दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं साइरेगाओ, केवलदसणी णं पुच्छा, गो! सातीए अपञ्जवसिते ।। दारं ११। (२४२) स्थितिपर्द 'चक्खुर्दसणी णं भंते !' इत्यादि, इह यदा त्रीन्द्रिया दिश्चतुरिन्द्रियादिषूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि त्रीन्द्रियादिषु मध्ये उत्पद्यते तदा चक्षुर्दर्शनी अन्तर्मुहूर्त लभ्यते, उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमसहस्रं, तच्चतुरिन्द्रियतिर्यपश्चेन्द्रियनैरयिकादिभवभ्रमणेनावसातव्यम् , अचक्षुर्दर्शनी अनाद्यपर्यवसितो यो कदाचिदपि न सिद्धिभावमधिगमिष्यति, यस्त्वधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः, तथा तिर्यक्पञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा तथाविधाध्यवसायादवधि-IN दर्शनमुत्पाद्यानन्तरसमये यदि कालं करोति तदाऽवधिदर्शनं प्रतिपतति, तदाऽवधिदर्शनिन एकसमयता, उत्कर्षतो|ऽवधिदर्शनी द्विषट्पष्टी सागरोपमाणि सातिरेकाणि, कथमिति चेत् !, उच्यते, इह कश्चिद्विभङ्गज्ञानी तिर्यपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वाऽप्रतिपतितविभङ्गज्ञान एवाविग्रहगयाऽधःसप्तमनरकपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रयिको जातः, तत्र चोद्वर्तनाप्रत्यासत्तिकाले सम्यक्त्वमुत्पाद्य ततः परिभ्रष्टस्ततोऽप्रतिपतितेन विभङ्गज्ञानेन पूर्वकोट्यायुकेषु तिर्य-18 पञ्चेन्द्रियेषु समुत्पन्नस्तत्र च परिपूर्ण खायुः प्रतिपाल्य पुनरप्रतिपतितविभङ्ग एवाधःसप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरो- ३९०॥ पमस्थितिको नैरयिको जातस्तत्रापि चोवृत्तिप्रत्यासत्तौ सम्यक्त्वमासाद्य परित्यजति, ततो भूयोऽप्यप्रतिपतितविभङ्ग एव पूर्वकोट्यायुष्केषु तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु जातस्तदेवमेका षट्षष्टिः सागरोपमाणामभून् , सर्वत्र च तिर्यक्षुत्पद्यमानो ~784 ~ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [११], -------------- मूलं [२४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] |ऽविग्रहेणोत्पद्यते, विग्रहे विभङ्गस्य तिर्यक्षु मनुष्येषु च निषेधात्, यद्वक्ष्यति-"विभंगनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा आहारगाणो अणाहारगा" इति, आह-किं सम्यक्त्वमेयोऽपान्तराले प्रतिपाद्यते, उच्यते, इह विभङ्गस्य स्थितिरुत्कर्षतोऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकानि, तथा चोक्तं प्राक्-"विभंगणाणी जह. एग समयं उको तेत्तीस सागरोवमाई देसूणाए पुषकोडीए अमहियाई" इति, तत एतावन्तं कालमविच्छेदेन विभवस्थाप्राप्यमाणत्वात् अपान्तराले सम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते, ततोऽप्रतिपतितविभङ्ग एव मनुष्यत्वमवाप्य संयम पालयित्वा द्वौ वारी विजयादिपूत्पद्यमानस्य द्वितीया पट्रपष्टिः सागरोपमाणां सम्यग्दष्टेर्भवति, एवं द्वे पट्टषष्टी | सागरोपमाणामवधिदर्शनस्वं, अथ विभावस्थायामवधिदर्शनं कर्मप्रकृत्यादिषु प्रतिषिद्धं ततः कथमिह विभङ्गेर तद्भाव्यते?, नैष दोषः, सूत्रे विभङ्गेऽप्यवधिदर्शनस्य प्रतिपादितत्वात् , तथा ह्ययं सूत्राभिप्रायः-विशेषवि पयं विभ ज्ञानं सामान्यविषयमवधिदर्शनं, यथा सम्यग्दृष्टेः विशेषविषयमवधिज्ञानं सामान्यविषयमवधिदर्शनमुच्यते केवलं विभङ्गज्ञानिनोप्यवधिदर्शनमनाकारमात्रत्वेनाविशिष्टत्वात् अवधिज्ञानिनोऽवधिदर्शनतुल्यमिति तदप्यवधिदर्शनमुच्यते, न विभङ्गदर्शन मिति, आह च मूलटीकाकारोऽप्येतद्भावनायाम्-"दसणं च विभंगोहीणं जतो तुलमेव, अतो चेव दो छावट्ठीओ साइरेगाओ' इति, ततोऽस्माभिरपि विमलेऽवधिदर्शनं भावितं, कार्मग्रन्थिकाः पुनराहु:यद्यपि साकारतरविशेषभावेन विभङ्गज्ञानमवधिदर्शनं च पृथगस्ति तथापि न सम्यग्निश्चयो विभङ्गज्ञानेन, मिथ्यात्व 2020908829202 दीप अनुक्रम [४८३] ~785~ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [११], ----- ---------- मूलं [२४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] प्रज्ञापना-18|रूपत्वात् नाप्यवधिदर्शनेन तस्यानाकारमात्रत्वादतः किं तेन पृथग्विवक्षितेनापीति तदभिप्रायेण न विभङ्गावस्था- १८ कायया: मल- यामवधिदर्शनं, न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, पूर्वसूरिभिरप्येवं मतविभागस्य व्यवस्थापितत्वात् , उक्तं च विशे-8 स्थितिपद य. वृत्ती. पणवत्यां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादैः–“सुत्ते विभंगस्सवि परूवियं ओहिदंसणं बहुसो । कीस पुणो पडि॥३९॥ सिद्धं कम्मष्पगडीपगरणंमि ॥१॥ विमंगेवि दरिसणं सामण्णविसेसविसयओ सुत्ते । तं चऽविसिट्ठमणागारमेत्तं तोऽवहिविभंगाणं ॥२॥ कम्मपगडीमयं पुण सागारेयरविसेसमावेवि । न विभंगनाणदंसणविसेसणमणिच्छयत्तणओ ॥३॥” इति, [ सूत्रे विभङ्गस्यापि प्ररूपितमवधिदर्शनं बहुशः । कथं पुनः प्रतिषिद्धं कर्मप्रकृतिप्रकरणे ॥१॥ विभङ्गेऽपि दर्शनं सामान्यविशेषविषयतः सूत्रे । तचाविशिष्टमनाकारमात्रं ततोऽवधिविभङ्गयोः ॥२॥ कर्मप्रकृतिमतं पुनः साकारतरविशेषभावेऽपि।न विभङ्गज्ञानदर्शनविशेषोऽनिश्चयत्वात् ॥३॥] अन्ये तु व्याचक्षते-किं सप्तमनरकपृथिवीनिवासिनारककल्पनया ?, सामान्येनैव नारकतिर्यग्नरामरभवेषु पर्यटतः खलवधिविभङ्गो एतावन्तं कालं भवतस्तत ऊर्द्धमपवर्ग इति । केवलदर्शनिनः सूत्रं केवलज्ञानिनः सूत्रबद्भावनीयं,। गतं दर्शनद्वारम् , इदानीं संयतद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् | ॥३९॥ । संजए णं भंते ! संजतेत्ति पुच्छा, गो० ज० एग समयं उको० देसूर्ण पुवकोडिं, असंजते णं भंते ! असंजएति, पुच्छा, गो! असंजते तिविधे पं०, तं०-अणातीए वा अपञ्जवसिते अणातीए वा सपजवसिते सातीए वा सपञ्जब e occeroeae दीप अनुक्रम [४८३] cred अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारे (१२ एवं १३) “संयत एवं उपयोग" आरब्धे ~ 786~ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [१२,१३], -------------- मूलं [२४३-२४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३ २४४] seeeeeeeeera दीप सिते, तत्थ णं जे से सावीए सपज्जवसिते से जह. अं० उको० अणं० अर्णताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालओ खेत्ततो अवई पोग्गलपरियह देसूर्ण , संजतासंजते णं पुच्छा, गो० जह• अंतो उको० देसूर्ण पुत्रकोडिं, नोसंजतेनोअसंजतेनोसंजतासंजते णं पुण्छा, गो! सादीए अपञ्जवसिते । दारं १२ (सूत्र २४३) सागारोवओगोवउने गं भंते ! पुच्छा , गो.! जह. उ० अं० । अणागारोवउत्तेवि, एवं चेव । दारं १३ (सूत्र २४४) 'संजए णं भते' इत्यादि, जघन्यत एकसमयता संयतस्य चारित्रपरिणामसमय एव कस्यापि कालकरणात् , | असंयतस्तु विधा-अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः संयमं कदाचनापि न प्राप्स्यति | सोऽनावपर्यवसितो, यस्तु प्राप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितो, यस्तु संयमं प्राप्य ततः परिभ्रष्टः स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, ततः परं कस्यापि पुनरपि संयमप्रतिपत्तिभावात् , उत्कर्पतोऽनन्त कालमित्यादि प्राग्वत् |तत ऊर्द्धमवश्यं संयमप्राप्तिः, संयतासंयतो-देशविरतः, स च जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त देशविरतिप्रतिपत्त्युपयोगस्य, जघन्यतोऽप्यान्तमौहूर्तिकत्वात् , देशविरतिर्हि द्विविधत्रिविधादिभङ्गबहुला ततस्तत्प्रतिपत्तो जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त लगति, सर्वविरतिस्तु सर्व सायद्यमहं न करोमीसेघरूपा ततस्तत्प्रतिपत्त्युपयोग एकसामयिकोऽपि भवतीति प्राक् संयतस्य एकसमयतोक्का, यस्तु न संयतो नाप्यसंयतो नापि संयतासंयतः स सिद्ध इति साद्यपर्यवसित इति । गत |संयतद्वारम्, इदानीमुपयोगद्वारं, तत्रेदमादिसत्रम्-'सागारोवओगोवउत्ते णं भंते।' इत्यादि, इह संसारिणामुप अनुक्रम [४८४-४८५] ~787~ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [१८], ----------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१४], ------ ----------- मूलं [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती. ॥३९॥ सूत्रांक [२४५] योगः साकारोऽनाकारो वा, जघन्यतोऽप्यान्तर्मुर्तिकः उत्कर्षतोऽपि, ततः सूत्रद्वयेऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्त-18 १८ कायमुहूर्त्तमुक्तं, यस्तु केवलिनामुक्तः एकसामयिक उपयोगः स इह न विवक्षित इति । गतं उपयोगद्वारं, इदानीमा- स्थितिपदं हारद्वार, तत्रेदमादिसूत्रम् आहारए ण भंते ! पुरछा, गो! आहारए दुविधे०५०,०-छउमस्थआहारए य केवलिआहारए य, छउमत्थआहारए णं भंते । छउमत्थाहारएत्ति काल०१, गो० ज० खुट्टागभवग्गहणं दुसमयऊणं उको० असंखेनं कालं असंखेआओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो अंगुलस्स असंखेजतिभागं, केवलिआहारए णं भंते ! केवलिआहारपति कालतो०१, गो.! जह० अंतो० उ० देमूणं पुब० । अणाहारए णं भंते ! अणाहारएत्ति०१, गो ! अणाहारए दु. पं०, तं०-छउमत्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य, छउमत्थअणाहारए णं भंते ! पुच्छा, गो०जह एगं समयं उको दो समया, केवलिअणाहारए णं भंते । केवलि०, गो०! केवलिअणाहारए दुविधे पं०, तं०-सिद्धकेवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य, सिद्धकेवलिअणाहारए णं पुच्छा, गो० सादीए अपञ्जवसिए, भवत्थकेवलिअ ||३९२॥ णाहारए णं भंते । पुच्छा, गो.! भवत्थकेवलिअणाहारए दुविधे पं०, तं०-सजोगिभवत्थकेयलिअणाहारए अजोगिभवत्थकेव लिअणाहारए य, सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते ! पुच्छा, गो! अजहण्णमणुकोसेणं तिणि समया, अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं पुच्छा, गो!जह उको. अंतो० । दारं १४ । (सूत्र २४५) दीप अनुक्रम [४८६] अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (१४)- "आहार" आरब्धम् ~788~ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२४५] दीप अनुक्रम [४८६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], ------------- दारं [१४], मूलं [२४५] ..आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. 'आहारगे णं भंते!' इत्यादि सुगमं, नवरं 'जहण्णेणं खुडागभवग्गहणं दुसमऊण' मिति इह यद्यपि चतुःसामविकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिर्भवति, आह च - "उजुया य एगवंका, दुहतोवंका गती विणिद्दिद्वा । जुज्जह तिचउवंकावि नाम चउपंचसमयाओ ॥ १ ॥” इति [ ऋज्वी चैकवा द्विधावका गतिश्च विनिर्दिष्टा । युज्यते त्रिचतुर्वक्रे अपि नाम चतुःपञ्चसमये ॥ १ ॥ ] तथापि बाहुल्येन द्विसामयिकी त्रिसामयिकी वा प्रवर्त्तते न चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी वा प्रवर्तते ततो न ते विवक्षिते, तत्रोत्कर्षत स्त्रिसामयिक्यां विग्रहगतौ द्वावाद्यौ समयावनाहारक इत्याहारकत्व चिन्तायां क्षुल्लकभवग्रहणं ताम्यां न्यूनमुक्तं, ऋजुगतिरकेवक्रगतिश्च न विवक्षिता, | सर्वजघन्यस्य परिचिन्त्यमानत्वात्, उत्कर्षतोऽसङ्ख्ये यकालमित्यादि सुगमं, नवरं एतावतः कालादूर्द्धमवश्यं विग्रहगतिर्भवति, तत्र चानाहारकत्वमित्यनन्तं कालमिति नोक्तं । केवलिसूत्रं सुगमं, छद्मस्थानाहारकसूत्रे 'उफोसेणं दो समया' इति त्रिसामयिकी विग्रहगतिमधिकृत्य, चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिर्न विवक्षितेत्यभिहितमनन्तरं, सयोगिभवस्थ केवलिअनाहारकसूत्रे त्रयः समया अष्टसामयिकस्य केवलिसमुद्घातस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमरूपाः, उक्तं च-" दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ १ ॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्धानमथ तथा पष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ २ ॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रीदारिकयोक्ता सप्तमपष्ठद्वितीयेषु ॥ ३ ॥ कार्मणशरीर योगी Education Internation For Parts Only ~789~ nary org Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], .....--- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१४], - ---- मूल [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १८ कायस्थितिपदं प्रत सूत्रांक [२४५] चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ ४॥” इति । गतमाहारद्वार, | अधुना भाषाद्वारमाह भासए णं पुच्छा, गो! जहनेणं एग समयं उको० अंतो, अभासए णं पुच्छा, गो! अभासए तिविधे पं०, तंअणाइए वा अपञ्जवसिए अणाइए वा सपअवसिए साइए वा सपञ्जवसिए, तत्थ णं जे से साइए वा सपञ्जवसिते से जहपणेणं अं० उ० वणप्फहकालो । दारं १५ (सूत्र २४६) परित्तएणं पुच्छा, गो०! परिचे दुविहे पं०, तं०-कायपरित्ते य संसारपरिते य, कायपरिने णं पुच्छा, गो०। जह• अंतो० उक्को असं० पुढविकालो असंखेज्जाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो, संसारपरिते णं पुच्छा, गो.ज. अंतो० उ० अणतं कालं जाव अवह पोग्गलपरियडू देसूर्ण । अपरिते णं पुच्छा, गो! अपरिचे दु. ५०,०-कायअपरित्ते य संसारअ०, कायअपरित्ते णं पुच्छा, गो.ज. अंतो० उ० वणस्सइकालो, संसारअपरित्ते णं पुच्छा, गो! संसारअपरिने दु. ५०, तं०-अणादीए वा सपअवसिते अणादीए वा अपञ्जवसिते, नोपरित्तेनोअपरिते णं पुच्छा, गो०! सादीए अपजवसिते, दारं १६ (सूत्र २४७) पञ्जत्तए णं. पुच्छा, गो० ज० अं० उ० सागरोवमसतहत्तं सातिरेग, अपज्जत्तए णं पुच्छा, गो० ज० उ० अंतो०, नोपजत्तएनोअपजत्तए णं पृच्छा, गो! सादीए अपञ्जवसिते । दारं १७ (सूत्र २४८) सुहुमे णं मते ! सुहुमित्ति पुच्छा, गो! ज. अंतो० उ० पुढविकालो, बादरे ण पुच्छा, गो.ज. अं० उ० असंखेनं कालं जाव खेचओ अंगुलस्स असंखेजति teaeeee दीप अनुक्रम [४८६] celeel ॥३९॥ अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वाराणि (१५-२२)- "आहार, भाषा, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संजी, भवसिद्धिक, अस्ति, चरिम" आरब्धानि ~ 790~ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] हरdeseeeee भामं, नोमुहुमनोवादरे णं पुच्छा, गो० सादीए अपजवसिते।दार १८(सूत्र २४९) सण्णी णं भंते ! पुच्छा, गो० ज० अंतो० उ० सागरोचमसतपुहुत्तं सातिरेगं, असणी णं पुच्छा, गो० ज० अंतो० उको० वणस्सइकालो, नोसणीनोअसयी णं पुच्छा, गो० सादीए अपजवसिते । दारं १९ (सूत्रं २५०) भवसिद्धिए णं पुच्छा, गो० अणादीए सपञ्जवसिते, अभवसिद्धिए णं पुच्छा, गो०! अणादीए अपञ्जवसिते, नोभवसिद्धिएनोअभवसिद्धिए णं पुच्छा, मो०! सादीए अपअवसिते । दारं २० । (सूत्र २५१) धम्मस्थिकाए ण पुच्छा, मो०! सबद्धं, एवं जाव अद्धासमए । दारं २१ (सूत्र २५२) चरिमे णं पुच्छा, गो० ! अणादीए सपञ्जवसिते, अचरिमे गं पुच्छा, गो०, अचरिमे दुविधे पं०, तं०-अणादीए वा अपञ्जवसिते सादी वा अपज्जवसिते । दारं २२ । (सूत्र २५३ ) पण्णवणाए भगवईए अहारसमं कायट्टिइनामपर्य समत्तं ॥१८॥ 'भासए णं भंते !' इत्यादि, इह जघन्यत एकसमयता उत्कर्षत आन्तर्मुहर्तिकता च वाग्योगिन इवावसातव्या,181 अभाषकत्रिविधस्तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यो न जातुचिदपि भाषकत्वं प्राप्स्यति सोऽनाथपर्यवसितो यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु भाषको भूत्वा भूयोऽप्यभाषको भवति स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, भाषित्वा कश्चित्कालमवस्थाय पुनर्भाषकत्वोपलब्धेः, अथवा दीप अनुक्रम [४८७-४९४] Receesesesedeseete ~ 791~ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] मज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥३९४॥ दीप द्वीन्द्रियादिभाषक एकेन्द्रियादियभाषकेपूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त जीवित्वा पुनरपि यदा द्वीन्द्रियादिरेवोत्पयते तदा १८ कायजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमभाषकः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्त इति नोपदयते । गतं भाषकद्वारं, इदानी स्थितिपर्द परीतद्वारं, परीतो द्विविधः-कायपरीतः संसारपरीतच, तत्र यः प्रत्येकशरीरी स कायपरीतो, यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसारः स संसारपरीतः, कायपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, स च यदा कथिन्निगोदादुत्य प्रत्येक शरीरिषु समुत्पद्य च तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि निगोदेपूत्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कर्षतोऽसयेयं कालं, सब चासङ्ख्येयः कालः पृथिवीकालो, यावान् पृथिवीकायिककायस्थितिकालस्तावान् वेदितव्य इत्यर्थः, तमेव कालतो निरूपयति-असोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, संसारपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तत ऊर्द्धमन्तकृत्केवलित्वयोगेन मुक्तिभावात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेव निरूपयति-'अणंताओ' इत्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्द्धमवश्यं मुक्तिगमनात्, | कायापरीतोऽनन्तकायिकः, संसारापरीतः सम्यक्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः, कायापरीतो जघन्येनान्तर्मुहुः,81 स च यदा कश्चित्प्रत्येकशरीरिभ्य उद्धृत्य निगोदेषु समुत्पद्यते तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि प्रत्येकशरीरिघूत्पद्यते तदाऽवसातव्यंः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालो वाच्यः, स च प्रागेवोपदर्शितः, तत ऊर्दू नियमात्तत उवृत्तेः, ३९४॥ संसारापरीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि संसारव्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, नोपरीतोनोअपरीतश्च सिद्धः, स च सायपर्यवसित एव । पर्यासद्वारे पर्याप्तो जघन्येनान्तमुह, तत अनुक्रम [४८७-४९४] ~ 792 ~ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] दीप अनुक्रम [४८७-४९४] ऊर्द्धमपर्याप्तत्यप्रसक्तेः, उत्कर्षतः सातिरेक सागरोपमशतपृथक्त्वं, एतायन्तं कालं पर्याप्सलब्ध्यवस्थानसम्भवात् , अपर्यासो जपन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त, तत ऊईमवश्यं पर्याप्सलब्ध्युत्पत्तेः, नोपर्याप्सोनोअपर्याप्तश्च सिद्धः, स च साद्यपर्यवसितः, सिद्धत्वस्याप्रच्युतेः । सूक्ष्मद्वारे सूक्ष्मसूत्रे उत्कर्षतः पृथिवीकाल इति, यावान् पृथिवीकायिककायस्थितिकालस्तावान् वक्तव्यः । वादरसूत्र सुगम, अनयोश्च भावना प्रागेव कृता, नोसक्ष्मोनोवादरश्च सिद्धस्ततः साद्यपर्यवसितः । संजिद्वारे संज्ञिसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति, यदा कश्चिजन्तुरसंज्ञिभ्य उदृत्त्य संज्ञिषु समुत्पद्यते । तत्र चान्तर्मुहुर्त जीवित्वा भूयोऽपि असंज्ञित्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कृष्टं सुगम । असंज्ञी जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, सस चवं-कश्चित् संज्ञिभ्य उद्धृत्त्यासंज्ञित्पद्यते, तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि संज्ञिपु मध्ये समागच्छति, उत्कपतो वनस्पतिकालो, वनस्पतिकायस्थाप्यसंज्ञिग्रहणेन ग्रहणात् नोसंझिनोअसंज्ञी च सिद्धः, स च साधपर्यवसितः। भवसिद्धिकद्वारे 'भवसिद्धिए ण'मित्यादि, भवे सिद्धिर्यस्थासौ भवसिद्धिको भव्य इत्यर्थः, स चानादिसपर्यवसितः, अन्यथा भव्यत्वायोगात्, अभवसिद्धिकोऽभव्यः, स चानाद्यपर्यवसितः, अन्यथाऽभव्यत्वायोगात्, नोभव्योनोअभव्यश्च सिद्धः, ततः साद्यपर्यवसितः । अस्तिकायाः पश्चापि सर्वकालभाविनः, अद्धासमयोऽपि प्रवाहापेक्षया, तत उक्तं 'एवं जाव अद्धासमए,' चरमो भवो भविष्यति यस्य सोऽभेदाचरमो-भव्यस्त द्विपरीतोऽचरमः स चाभव्यस्तस्य चरमभवाभावात् , सिद्धच, तस्यापि चरमत्वायोगात्, तत्र चरमोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा चरमत्वायोगात्, ~ 793~ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलय.वृत्ती . प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] १९सम्यक्वपदं See अचरमो द्विविधोऽनाद्यपर्यवसितः साद्यपर्यवसितश्च, तत्रानादिअपर्यवसितोऽभव्यः, साद्यपर्यवसितः सिद्धः । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनावृत्तौ अष्टादशं पदं समाप्तम् ॥ एकोनविंशतितमं सम्यक्त्वपदं प्रारभ्यते ॥ १९ ॥ ॥३९५॥ दीप अनुक्रम [४८७-४९४] तदेवं व्याख्यातमष्टादशं पदं, साम्प्रतमेकोनविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-दहानन्तरपदे काय-18 स्थितिरुक्ता, अत्र तु कस्यां कायस्थितौ कतिविधाः सम्यग्दृष्ट्यादिभेदेन जीवा भवन्तीति चिन्त्यते, तनेदं सूत्रम् जीवा गं भंते ! किं सम्मदिही मिच्छादिही सम्मामिच्छादिट्ठी, गोयमा! जीवा सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि । एवं नेरइयादि । असुरकुमारादि एवं चेव जाव चणियकुमारा | पुढवीकाइया णं पुच्छा, गोयमा ! पुढवीकाइया णो सम्मदिही मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिही, एवं जाच वणस्सइकाइया । बेईदियाणं पुच्छा, गोयमा । बेइंदिया सम्मदिही मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्टी, एवं जाव चरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिहीवि सम्मामिच्छादिहीवि, सिद्धा णं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा सम्मदिही, णो मिच्छादिही णो सम्मामिच्छादिट्ठी । (सूत्र २५४) पनवणाभगवईए सम्मचपदं समर्च ॥ १९ ॥ sesese ॥३९५॥ अत्र पद (१८) “कायस्थिति" परिसमाप्तम् अथ पद (१९) “सम्यक्त्व" आरब्धम् ~ 794 ~ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२५४] दीप अनुक्रम [४९५] पदं [१९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [२५४] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 'जीवाणं भंते ! किं सम्मदिट्ठी' इत्यादि सुगमं आपदपरिसमाप्तेः, नवरं सासादनसम्यक्त्वयुक्तोऽपि सूत्राभिप्रायेण पृथिव्यादिषु नोत्पद्यते, “उभयाभावो पुढवाइएसु" [ उभयाभावः पृथ्व्यादिषु ] इति वचनात् द्वीन्द्रियादिषु सासादनसम्यक्त्वयुक्त उपपद्यते, ततः पृथिव्यादयः सम्यग्रदृष्टयः प्रतिषिद्धाः, द्वीन्द्रियादयोऽभिहिताः, सम्यमिध्यादृष्टिपरिणामः पुनः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां भवति, न शेषाणां, तथाखामान्यात, अत उभयेऽपि सम्यग्मिथ्यादृष्टयः प्रतिषिद्धाः । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामेकोनविंशतितमं पदम् समाप्तम् ॥ अथ विंशतितममन्तक्रियापदं प्रारभ्यते ॥ व्याख्यातमेकोनविंशतितमं पदं, अधुना विंशतितमं आरभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तरपदे सम्यक्त्वपरिणाम उक्तः, अत्र तु परिणामसाम्याद् गतिपरिणाम विशेषोऽन्तक्रियाऽभिधीयते, तत्रेयमादी अधिकार द्वारगाथा नेरइय अंतकिरिया अणन्तरं एगसमय उद्यट्टा । तित्थगरचक्किवलदेव वासुदेवमंडलियरयणा [य] ॥ १ ॥ दारगाहा । जीवे Education internation अत्र पद (१९) "सम्यक्त्व" परिसमाप्तम् For Penal Use Only अथ पद (२०) "अन्तक्रिया" आरब्धम् ~ 795 ~ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५५-२५६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५५ २०अन्तक्रियापदम् -२५६] मज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥३९॥ गाथा ण भंते ! अंतकिरियं करेजा, गोयमा! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगतिए णो करेजा । एवं नेरइए जाव माणिए । नेरइए णं भंते ! नेरइएसु अंतकिरियं करेजा ?, गोयमा 1 नो इणढे समढे । नेरइया णं भंते ! असुरकुमारसु अंतकिरियं करेजा, गोयमा ! नो इणढे समढे । एवं जाव वेमाणिएसु । नवरं मणसेसु अंतकिरियं करेजत्ति पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए करेजा अत्थेगतिए. णो करेजा । एवं असुरकुमारा जाच वेमाणिए । एवमेव चउवीसं २ दंडगा भवन्ति । (सूत्र २५५) नेरइया णं भंते ! कि अणंतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतकिरियं करेंति, गोयमा ! अणंतरागयावि अंतकिरियं करेंति परंपरागयावि अंतकिरियं करेंति । एवं रयणप्पभापुढविनेरइयावि जाय पंकप्पभापुढवीनेरइया, धूमप्पभापुढपीनेरइयाण पुच्छा, गोयमा ! णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरेति, एवं जाव अहेसत्तमापुढवीनेरइया । असुरकुमारा जाच थणियकुमारा पुढवीआउवणस्सइकाइया य अणन्तरागयावि अंतकिरियं पकरेंति परंपरागयावि अंतकिरियं पकरेंति, तेउवाउबेईदियतेईदियचउरिदिया णो अणंतरागया अंतकिरिय पकरेंति परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति । सेसा अणंतरागयावि अंतकिरियं पकरेंति परंपरागयावि अंतकिरिय पकरेंति । (सूत्र २५६) 'नेरइय अंतकिरिया' इत्यादि, प्रथमतो नैरयिकोपलक्षितेषु चतुर्विंशतिस्थानेषु अन्तक्रिया चिन्तनीया । ततोऽनन्तरागताः किमन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता वा ? इत्येवमन्तरं चिन्तनीय, ततो नैरयिकादिभ्योऽनन्तरमागताः दीप अनुक्रम [४९६-४९८] ॥३९६॥ ~ 796~ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५५-२५६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५५-२५६] एराटceceneseseekerseceserce गाथा कियन्त एकसमयेनान्तक्रियां कुर्वन्तीति चिन्त्यते, तत 'उचट्टा' इति उदृत्ताः सन्तः कस्यां योनावुत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं, तथा यत उदृत्तातीर्थकराश्चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवा माण्डलिकाचक्रवर्तिनो रत्नानि च-सेनापतिप्रमुखाणि भवन्ति ततस्तानि क्रमेण वक्तव्यानि इति द्वारगाथासंक्षेपार्थः । विस्तरार्थे तु सूत्रकृदेव वक्ष्यति, तत्र प्रथमतोऽन्तक्रियामभिधित्सुराह-'जीवे णं भंते !' इत्यादि, जीवो 'ण'मिति वाक्यालङ्कृतौ भदन्त ! 'अन्तक्रिया मिति अन्तः-अवसानं, तच प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यं, अन्यत्रागमेऽन्तक्रियाशब्द (वाच्यतया त)स्य रूढत्वात् , तस्य क्रिया-करणमन्तक्रिया-कर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थः, “कृत्सकर्मक्षयान्मोक्षः" इति वचनात् , तां कुर्याद् ?, भगवानाह-गौतम! अस्येकको यः कुर्यात्, अस्त्येकको यो न कुर्यात्, इयमत्र भावना-यस्तथाविधभव्यत्वपरिपाकवशतो मनुष्यत्वादिकामविकलो सामग्रीमवाप्य तत्सामर्थ्यसमुद्भूतातिप्रबलवीर्योल्लासवशतः क्षपकश्रेणिसमारोहणेन केवलज्ञानमासाद्याघातीन्यपि कर्माणि क्षपयेत् स कुर्यात्, अन्यस्तु न कुर्यात्, विपर्ययादिति । एवं नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् भावनीया यावद् वैमानिकाः, सूत्रपाठस्त्येवम्-'नेरइएणं भंते ! अंतकिरियं करेजा, गोयमा ! अत्थेगइए करेजा अत्थेगइए नो करेजा' इत्यादि । इदानी नैरयिकेषु मध्ये वर्तमानोऽन्तक्रियां करोति किं वा न करोति । इति पिपृच्छिपुरिदमाह-'नेरइए णं भंते' इत्यादि, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः । नायमों युक्त्युपपन्न इत्यर्थः । कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह कृत्स्नकर्मक्षयः प्रकर्षप्राप्तात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमु-18 అంతరించి दीप अनुक्रम [४९६-४९८] ~ 797~ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२५५ -२५६] + गाथा दीप अनुक्रम [४९६ -४९८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२०], --------------- उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [२५५-२५६ ] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना- १ याः मल य० वृत्तौ. ॥१९७॥ २० अन्त दायाद् भवति, न च नैरयिकावस्थायां चारित्रपरिणामः, तथा भवखाभाव्यादिति । एवमसुरकुमारादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः । मनुष्येषु तु मध्ये समागतः सन् कश्विदन्तक्रियां कुर्यात्, यस्य परिपूर्णा चारि- 8 क्रियापदम् त्रादिसामग्री स्यात्, कश्चिन्न कुर्यात्, यस्तद्विकल इति । एवमसुरकुमारादयोऽपि वैमानिकपर्यवसानाः प्रत्येकं नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्याः, तत एवमेते चतुवैिशतिदण्डकाश्चतुवैिशतयो भवन्ति ॥ अथैते नैरयिकादयः खखनैरयिकादिभवेभ्योऽनन्तरं मनुष्य भवे समागताः सन्तोऽन्तक्रियां कुर्वन्ति किंवा तिर्यगादिभवव्यवधानेन परंपरागता इति निरूपयितुकाम आह— 'नेरइया णं भंते!' इत्यादिप्रश्वसूत्रं सुगमं, भगवानाह गौतम ! अनन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता अपि तत्र रत्नशर्करावालुकापक प्रभाभ्योऽनन्तरागता अपि परम्परागता अपि, धूमप्रभापृथिव्यादिभ्यः पुनः परम्परागता एव, तथाखाभान्यात्, एनमेव विशेषं प्रतिपिपादयिषुः सूत्रसप्तकमाह - ' एवं श्यणप्पभापुढवीनेरइयावि' इत्यादि, सुगमं । असुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसानाः पृथि व्यच्चनस्पतयश्चानन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता अप्यन्तक्रियां कुर्वन्ति, उभयथाऽप्यागतानां तेषामन्तक्रियाकरणाविरोधात्, तथा केवलचक्षुषोपलब्धेः । तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः परम्परागता एव, न त्वनन्तरागताः, तत्र तेजोवायूनामानन्तर्येण मनुष्यत्वस्यैवाप्राप्तेः, द्वीन्द्रियादीनां तु तथाभवखाभाव्यादिति । शेषास्तु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियादयो वैमानिकपर्यवसाना अनन्तरागता अपि परम्परागता अपि । अथ नैरयिकादिभवेभ्योऽनन्तर Education Internation For Parts Only ~798~ ||३९७॥ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५७]] eseroeseseseekerserseas दीप अनुक्रम [४९९] मागताः कियन्त एकसमयेऽन्तक्रियां कुर्वन्ति इत्येवरूपं तृतीयं द्वारमभिधित्सुराह अणंतरागया नेरइया एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा ! जहनेणं एगो वादो या तिनि वा उकोसेणं दस, रयणप्पभापुढवीनेरइयावि एवं चेव, जाव वालुयप्पभापुढवी०, अणंत मंते! पंकपभापुढवीनेरइया एगसमयेणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं चत्वारि, अणन्तरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमये केवतिआ अंत. पकरेंति , गोयमा! जह• एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारीओ एगस० केव० अंत पकरति ?, गोयमा! जह• एको वा दो चा तिनि वा उकोसेणं पंच, एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव थणिअ० । अणंतरागया णं भंते ! पुढवि० एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा ! जहएको वा दो वा तिनि वा, उकोसेणं चत्तारि, एवं आउकाइयापि चत्वारि, वणस्सइकाइया छच्च, पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस, तिरिक्खजोणिणीओ दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओ वीस, वाणमंतरा दस, वाणमंतरीओ पंच, जोइसिआ दस, जोइसिणीओ वीसं, वेमाणिआ अहसयं, वेमाणिणीओ पीसं । (सूत्र २५७) 'अणंतरागया णं भंते ! इत्यादि, नैरयिकभवादनन्तरं-अव्यवधानेन मनुष्यभवमागता अनन्तरागताः, नैर-18 यिका इति प्राग्भवपर्यायेण व्यपदेशः सुरादिप्राग्भवपर्यायप्रतिपत्तिव्युदासार्थः, एवमुत्तरत्रापि तत्तत्माग्भवपर्यायेण Tassa9829899 A ~ 799~ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५७] क्रियापदे उद्धृत्ते धर्मश्रवणादि सू. २५८ दीप अनुक्रम [४९९] प्रज्ञापना-18व्यपदेशे प्रयोजनं चिन्तनीयमिति । शेषं कण्ठ्यं । सम्प्रति तत उद्धृताः कस्यां योनावुत्पद्यन्ते ? इति चतुर्थं द्वारमयाः मल भिधित्सुराहयवृत्ती. ॥३९॥ नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उच्चहित्ता नेरइएसु उववजेजा, गोयमा! नो इणढे समढे, नेरइए णं मंते ! नेरइ- । एहितो अर्णतरं उदहित्ता असुरकुमारेसु उबवजेजा, गोयमा! नो इणढे समढे । एवं निरंतरं जाव चउरिदिएसु पुण, गोयमा ! नो इणढे समढे । नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उबहिता पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उपवजेआ7, अत्थेगतिए उववजेजा अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा, जे णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उवव० से गं भंते ! केवलिपन्नत्तं धर्म लभेज्जा सवणयाए ?, गोयमा! अत्धेगतिए लभेजा अत्थेगतिए णो लभेजा, जेणं भंते ! केवलिपबत्तं धर्म लभेजा सवणयाए से णं केवलं बोहिं बुझेजा, गोयमा! अत्थेगतिए बुझेजा अत्धेगतिए णो बुज्झेजा । जेणं भंते ! केवलं बोहिं बुझेजा से णं सदहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा, गोयमा! सदहेज्जा पतिएज्जा रोएजा, जे ण मंते ! सदहेजा पत्तिएज्जा रोएजा से णं आभिणिबोहियनाणमुयणाणाई उप्पाडेजा, हंता गोयमा ! उप्पाडेजा, जेणं भंते ! आभिणियोहियनाणमुयनाणाई उप्पाडेजा से णं संचाएज्जा सील वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा पच्चक्खाणं वा पोसहोववास वा पडिवज्जित्तए, गोयमा ! अत्थेगतिए संचाएजा अत्थेगतिए णो संचाएजा, जेणं भंते ! संचाएजा सीलं वा जाब पोसहोयवासं वा पडिवञ्जत्तए से णं ओहिनाणं उप्पाडेजा, गोयमा ! अत्यंगतिए Scotetocococotelocceroeceae 25000reer02003 IN९८॥ ~800~ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 25000 cotapeeceaetoes [२५८] दीप अनुक्रम [५००] उप्पाडेजा अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जेणं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चदसए?, गोयमा ! नो इणटे समढे ॥ नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता मणुस्सेसु उक्वज्जेआ, गोयमा ! अत्थेगतिए उववजेजा अत्यंगतिए जो उचवजेना, जेणं भंते ! उवयजेजा से णं केवलिपन्न धम्म लभेजा सवणयाए , गोयमा ! जहा पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु जाव जे णं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चइत्तए, गोयमा! अत्थेगतिए संचाएजा अत्थेगतिए णो संचाएजा, जे पं भंते ! संचाएजा मुण्डे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइत्तए से ण मणपजवनाणं उप्पाडेजा, गोयमा ! अत्थेगतिए उप्पाडेजा अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जेणं भंते ! मणपजवनाणं उप्पाडेजा से णं केवलनाणं उप्पाडेआ, मोयमा! अत्थेगतिए उप्पाडेजा अस्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जेणं भंते ! केवलनाणं उप्पाडेजा से गं सिझेजा बुज्झेजा मुन्चेज्जा सबदुक्खाणं अंतं करेज्जा ?, गोयमा! सिझेजा जाब सत्बदुक्खाणमंतं करेजा। नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उन्नहित्ता वा भतरजोइसियवेमाणिएसु उववजेजा ?, गोयमा ! नो इणढे समढे । (सूत्र २५८) नेर भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'केवलिपन्नतं धम्मं लभेज़ा सवणयाए' इति केवलिना-सबैज्ञेन प्रज्ञसो-देशितः केवलिप्रज्ञप्तो धर्मः-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च तं लभेत श्रवणतया-श्रूयते इति श्रवणं भावे अनट्प्रत्ययः श्रवणस्य-श्रवणशब्दस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं श्रुतिरेव प्रवणता श्रवणमेवेत्यर्थः, "यावे त्वतलो" इत्यत्र हि 'तस्पेति ~801~ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥३९९॥ दीप अनुक्रम [५००] शब्दरूपस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं' इत्यपि व्याख्यानमस्ति, तया श्रवणतया , भगवानाह-'अत्थेगतिए' इत्यादि, २०अन्तपुनरपि प्रश्नयति-यस्तु भदन्त ! केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभेत श्रवणतया 'से णं केवलं वोहिं बुझेजा' इति, इह क्रियापदे बोधिः-धोवाप्तिरुच्यते, तस्या निमित्तभूतो यः शब्दसंदर्भः सोऽपि कारणे कार्योपचाराद् बोधिः, स च केवलिना उदृत्ते धर्मसाक्षात्परम्परया वोपदिष्ट इति कैवलिकः, स केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रोता णमिति पूर्ववत् केवलिकी बोधि श्रवणादि यथोक्तरूपां बुध्येत तदर्थ जानीयादित्यर्थः ?, भगवानाह-'अत्थेगतिए' इत्यादि । पुनरपि प्रश्नयति-यो भदन्त! सू.२५८ केवलिकी बोधिमर्थतोऽवगच्छति सोऽर्थतस्तां श्रद्दधीत-श्रद्धाविषयां कुर्यात् , तथा प्रत्ययेत्-प्रतीतिविषयां कुर्यात, रोचयेत्-चिकीर्षामि इत्येवमध्यवस्खेत् ?, भगवानाह-अत्धेगइए' इत्यादि, पुनः प्रश्नयति-यस्तु भदन्त ! श्रद्दधीत प्रत्ययेत् रोचयेत् स आभिनिवोधिकश्रुतज्ञाने उत्पादयेत् , भगवानाह-'हन्ते'त्यादि, [अनुमती] हंता| गौतम ! उत्पादयेत् , केवलिप्रज्ञप्तधर्मश्रवणश्रद्धानादवश्यं तयोर्भावात् , भूयः प्रश्चयति-यो भदन्त ! आभिनिचोधिकश्रुतज्ञाने उत्पादयति स 'संचाएजा' शक्नुयात् 'शीलं' ब्रह्मचर्य 'व्रतं' चित्रं द्रव्यादिविषयनियमरूपं गुणं-उत्तर-11 गुणं भावनादिरूपं विरमणं-विरतिरतीतस्थूलप्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं अनागतस्य स्थूलप्राणातिपातादेव, ॥३९९॥ पोष-धर्मपोषं दधाति-करोतीति पोषधं-अष्टम्यादिपर्व तस्मिन्नुपवासः पोषधोपवासः तं प्रतिपत्तुं शकुयात्। भगवानाह-'अत्थेगइए' इत्यादि, इह तिरश्चां मनुष्याणां च भवप्रत्ययतोऽवधिर्नोपजायते किन्तु गुणतः, गुणाश्च For P OW ~802~ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२५८] दीप अनुक्रम [५०० ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [२५८] उद्देशक: [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [२०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. शीलतादयोऽस्यापि विद्यन्ते ततः किमस्यावधिज्ञानमुत्पद्यते किंवा न ? इति प्रश्नयति, 'जे णं भंते!' इत्यादि, यस्य शीलत्रतादिविषयविप्रकृष्टपरिणामभावात् अवधिज्ञानावरण कर्मणः क्षयोपशम उपजायते स उत्पादयेत्, शेषस्तु नेत्यर्थः ॥ अवधिज्ञानानन्तरं च मनः पर्यवज्ञानं द्रष्टव्यं मनःपर्यवज्ञानं चानगारस्य भवति "तं संजयस्स सचप्प मायरहियस्स विविहरिद्धिमतो" [ तत् संयतस्य सर्वप्रमादरहितस्य विविधर्द्धिमतः ] इति वचनात्, ततोऽनगारतामेव प्रश्नयति- 'जे णं भंते !' इत्यादि, मुण्डो द्विधा - द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यंतः केशाद्यपनयनेन भावतः सर्वसङ्गपरित्यागेन, तत्रेह द्रव्यमुण्डत्वासंभवाद् भावमुण्डः परिगृह्यते, मुण्डो भूत्वा अगारात् खाश्रयरूपाद् विनिर्गत्य न विद्यते अगारं गृहं द्रव्यतो भावतश्च यस्यासी अनगारः तद्भावोऽनगारता तां प्रत्रजितुं शक्नुयात् १, भगवानाह - नायमर्थः समर्थः, तिरथां भवस्वभावतः तथारूपपरिणामासंभवात्, अनगारताया अभावे मनःपर्यवज्ञानस्य चाभावः सिद्ध एव । यथा च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियविषयं सूत्रकदम्बकमुक्तं तथा मनुष्यविषयमपि वक्तव्यं, नवरं मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञानसूत्रे अधिके प्रतिपादयति- 'जे णं मंते । संचाएजा मुंडे भवित्ता' इत्यादि सुगमं, नवरं 'सिज्झेज्जा' इत्यादि, सिध्येत - समस्ताणिमैश्वर्यादिसिद्धिभाक् भवेत् बुध्येत -- लोकालोकखरूपमशेषमवगच्छेत् मुच्येत — भवोपग्राहि कर्मभिरपि किमुक्तं भवति ? --- सर्वदुःखानामन्तं कुर्यात् । वानमन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः, नैरयिकस्य भवस्वा भाव्यान्नैरयिकदेव भवयोग्यायुबन्धासंभवात् For Parts Only ~803~ nirary or Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २०अन्तक्रियापदे उद्धृत्ते धर्म प्रत सूत्रांक [२५८] श्रवणादि सू. २६० दीप अनुक्रम [५००] प्रज्ञापना- तदेवं नैरयिका नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तिताः, साम्प्रतमसुरकुमारारयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक- या: मल- मेण चिन्तयतियवृत्ती. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारहितो अर्थतरं उघट्टित्ता नेरइएसु उवक्जेजा, गोयमा ! नो इणहे समहे । असुरकुमारे ॥४०॥ णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उबट्टित्ता असुरकुमारेसु उक्वजेजा, गोयमा! नो इणढे समढे, एवं जाव थणिय कुमारेसु । असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उबहित्ता पुढवीकाइएसु उववजेजा ?, हन्ता गोयमा ! अस्थेगइए उववजेजा अत्यंगतिए णो उववज्जे जा । जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलियं धम्मं लभेजा सवणयाए, गोयमा! नो इणडे समझे । एवं आउवणस्सइसुवि । असुरकुमाराणं मंते ! असुरकुमारहितो अणंतरं उबट्टित्ता तेउवाड़बेइंदियतेइंदियचउरिदिएम उववज्जेआ, गोयमा! नो इमढे समहे, अवसेसेसु पंचसु पंचिदियतिरिक्खजोणिइसु असुरकुमारेमु जहा नेरइओ, एवं जाव थणियकुमारा (मूत्र २५९) 'असुरकुमारा णं भंते ! इत्यादि प्राग्वत् , नवरमेते पृथिव्यवनस्पतिष्वप्युत्पद्यन्ते, ईशानान्तदेवानां तेषूत्पादाविरोधात् , तेषु चोत्पन्नान केबलिप्रज्ञसं धर्म लभन्ते श्रवणतया, श्रवणेन्द्रियस्थाभावात्, शेष सबै नेरयिकवत् , एवं 'जाव थणियकुमारा' इति एवमसुरकुमारोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमाराः। II पुढषीकाइए णं भंते ! पुढवीकाइएहितो अणंतरं उघट्टित्ता नेरइएसु उक्वजेजा, मोयमा ! नो इणढे समढे, पवं असुर ४ ||४००॥ ~804 ~ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६०] दीप अनुक्रम [५०२] Jan Eucator “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [२६०] उद्देशक: [-] आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [२०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. senesectstressee कुमारेसुवि, जाव थणियकुमारेसुबि । पुढषीकाइए णं भेते ! पुढबीकाइएहिंतो अनंतरं उघट्टित्ता पुढचीकाइए उनके खा ?, गोयमा ! अत्थेगतिए उववजेजा अस्थेगतिए जो उघबजे से णं भंते! उवषजेआ से णं केवलिपचत्तं धम्मं लभेआ सवणयाए ?, गोयमा ! नो इणट्टे समट्टे । एवं आउकाइआदिसु निरंतर भाणियवं जाव चउरिदिएसं । पंचिदिनतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु जहा नेरहए। वाणमंतरजोहत्स्यवमाणिएस पडिसेहो । एवं जहा पुडवीकाइओ भणिओ तहेव आउकाइओवि, जव वणस्सइकाइओवि भाणियचो ।। तेउकाइए णं भंते! तेउकाइएहिंतो अनंतरं उघट्टित्ता नेरइएस उबवजेज १, गोयमा ! जो इणट्टे समहे, एवं असुरकुमारेसुवि, जान थणियकुमारेसु, पुढवीफाइअआउचाउ उवणवेदियतेइंदियचउरिंदिए अत्थेगतिए उववजेज अत्थेगतिए जो उबवजेज्जा, जे भंते । उववजेजा से णं केवलिपचर्स धम्मं लभेजा सवणयाए ?, गोषमा ! नो इणडे समहे । तेउकाइए णं भंते! तेउकाइएहिंतो अनंतरं उच्चहिता पंचदियतिरिक्खजोगिएसु उवनज्जेजा १, गोयमा ! अत्थेगइए उनवज्जेज अत्थेगइए णो उववज्जेजा, से णं केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सणयाए ?, गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा अत्थेगइए णो लभेज्जा, जे णं भंते! केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए से णं केवलिं बोहिं बुज्झेआ ?, गोयमा ! णो इणद्वे समहे ।। मणुस्सवाण मंतर जोइसियवेमाणिएसु पुच्छा, गोयमा ! णो इणडे समड़े एवं जदेव तेउकाइए निरंतरं एवं वाउकाइएवि ( सू २६० ) पृथिवीकायिका नैरयिकेषु देवेषु च प्रतिषिध्यन्ते तेषां विशिष्टमनोद्रव्यासंभवतस्तीत्र संक्लेशविशुद्धाध्यवसायाभा For Par Use Only ~805~ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६०] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. २० अन्तक्रियापदे उद्धृत्ते धर्मश्रवणादि सू. २६२ ॥४०॥ दीप अनुक्रम [५०२] वात् , शेषेषु तु सर्वेष्वपि स्थानेषु उत्पद्यन्ते, तद्योग्याध्यवसायस्थानसंभवात् , तत्रापि च तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु च नैरयिकवद् वक्तव्यं, एवमष्कायिका वनस्पतिकायिकाथ वक्तव्याः। तेजस्कायिका वायुकायिकाश्च मनुष्येष्वपि प्रतिषेधनीयाः, तेषामानन्तर्येण मनुष्येपूत्पादासंभवात् , असंभवश्च क्लिष्टपरिणामतया मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीमनु- प्यायुर्वन्धासंभवात् , तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषूत्पन्नाः केवलिप्रज्ञसं धर्म श्रवणतया लभेरन्, श्रवणेन्द्रियस्य भावात्, पुनस्तां केवलिकी बोधि नावबुध्येरन् , संक्लिष्टपरिणामत्वात् । बेइंदिए ण भंते ! बेईदिएहितो अणंतरं उत्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेजा, गोयमा ! जहा पुढवीकाइआ । नवरं मणुस्सेसु जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा। एवं तेइंदिया चउरिदियावि जाव मणपज्जवनागं उप्पाडेजा । जे णं मणपजवनाणं उप्पाडेजा से णं केवलनाणं उप्पाडेजा, गोयमा ! नो इणढे समढे। (सूत्रं २६१) पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो [अणंतरं] उबहिता नेरइएसु अर्णतरं उववज्जेज्जा, गोयमा! अत्थेगइए उववजेजा अत्यंगइए णो उववज्जेजा, से णं केवलिपण्णतं धर्म लभेा सवणयाए ?, गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लमेजा, जे णं केवलिपन धर्म लभेज्जा सवणयाए से णं केवलिं बोहि बुझेजा, गोयमा! अत्थेगतिए पुज्झेजा अत्थेगतिए णो बुज्झेजा, जे णं भंते ! केवलिं चोहिं बुझेज्जा से गं सदहेजा पत्तिएजा रोएज्जा, हंता गोयमा ! जाव रोएजा, जेणं भंते ! सद्दहेजा० से णं आभिणियोहियनाणसुयनाणओहिनाणाई उप्पाडेजा, हंता गोयमा जाच उप्पा ॥४०॥ esese ~806~ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६१ -२६२] दीप अनुक्रम [५०३- ५०४] पदं [२०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. teresteeseseses “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दार [-], मूलं [२६१-२६२] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Eucation International डेजा !, जे णं भंते! आभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणाई उप्पाडेजा से णं संचाएजा सीलं वा जाव पडिवज्जितए ?, गोयमा ! णो इणद्वे समट्टे । एवं असुरकुमारेसुवि, जाव धणियकुमारेसु । एगिंदियविगलिदिएस जहा पुढवीकाइआ । पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइए। वाणमंतरजोहसियवेमाणिएसु जहा नेरइएस [ उववज्जह ] पुच्छा भणिया एवं मणुस्सेवि, वाणमंतरजोइसियवेमाणि एसु जहा असुरकुमारे । ( सू २६२ ) द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पृथिवीकायिकवत् देवनैरयिकवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषूत्पद्यन्ते, नवरं पृथिवीकायिका मनुष्येष्वागता अन्तक्रियामपि कुर्युः ते पुनरन्तक्रियां न कुर्वन्ति, तथाभवखभावात् मनःपर्यवज्ञानं पुनरुत्पादयेयुः । तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्च सर्वेष्वपि स्थानेषूत्पद्यन्ते, तद्वक्तव्यता च पाठसिद्धा । धानमन्तरज्योतिष्कवैमानिका असुरकुमारवद् भावनीयाः । गतं चतुर्थ द्वारं । इदानीं पञ्चमं तीर्थकरत्ववक्तव्यतालक्षणं द्वारमभिधित्सुराहरयणप्पभापुढवीनेरइए णं भंते ! रयणप्पभापुढवीनेरइएहिंतो अनंतरं उबट्टिचा तित्थगरचं उभेजा १, गोयमा ! अत्थेगar मेजा अत्थे णो लभेज्जा, से केणद्वेगं भंते । एवं बुध-अत्थेगइए लभेज्जा अत्थेगहए णो लभेजा १, गो० ! जस्स णं रयणप्पभापुढवीनेर अस्स तित्थगरनामगोयाई कम्माई बढाई पुढारं निधचाई कडाई पडवियाई निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई उदिना णो उवसंताई हवंति से गं रयणप्पभापुढचीनेरइए रयणप्पभापुढवीनेरइएहिंतो अनंतरं उपहिता तित्थगरचं लभेजा, जस्स णं रयणप्पभापुढवीनेरइयस्स तित्थगरनामगोयाई णो बढाई जाव णो उदिनाई For Parta Use Only ~807~ war Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [५०५ ] मज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥४०२|| पदं [२०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ २६३ ] उद्देशक: [-] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः उताई हति से रयणप्पभापुढवीनेरइए रयणप्पभाषीनेरइएर्हितो अनंतरं उघट्टित्ता तित्थगरसं णो लमेज, से ते गोयमा ! एवं बुच्चइ- अत्येगतिए लमेआ अत्थेगतिए गो लभेजा । एवं सकरप्पभाजाववालुयप्पभापुढषीनेरइएहिंतो तिस्थगरसं लभेजा। पंकप्पभापुढवीनेरइए णं भंते! पंकप्पभा०हिंतो अनंतरं उट्टिता तिस्थगरतं लभेजा १, गोयमाणो इट्टे सम, अंतकिरियं पुण करेज्जा, धूमप्पभापुढवी० पुच्छा, गोयमा ! जो इणट्टे समद्वे, सहविरहं पुण लभेज्जा, तमप्पभापुढषीपुच्छा, विरयाचिरई पुण लभेज्जा, अहेससमढवीपुच्छा, गोयमा ! णो णट्टे समट्टे, सम्पतं पुण लभेजा । असुरकुमारस्त पुच्छा, णो इणट्ठे समट्टे, अंतकिरियं पुण करेजा एवं निरंतरं जाव आउकाइए । तेडकाइए णं भंते! ते काइएहिंतो अनंतरं उद्यट्टित्ता उववज्जेजा ( तित्थगरचं ल० ), गो० ! गो० ति०, केवलिपन्नत्तं धम्मं भेजा सवणया, एवं वाउकाइएवि, वणस्सइकाइए णं पुच्छा, गो० ! गो० ति०, अंतकिरियं पुण करेज्जा, बेइंदियतेईदियचउरिंदिए णं पुच्छा, गो० ! नो० ति०, मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, पंचिदियतिरिक्खजो नियमणूसवाणमंतरजोइसिए णं पुच्छा, गो० ! गो० ति०, अंतकिरियं पुण करेज्जा, सोहम्मगदेवे णं भंते । अनंतरं चयं चहत्ता तिस्थगरतं लज्जा, गो० ! अत्थे० ल० अत्थे० नो ल०, एवं जहा रयणप्पभापुढविनेरइए एवं जाब सबट्टसिद्धगदेवे || (सूत्रं २६३ ) 'रणभापुढवीनेरइया णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'बद्धानि' सूचीकलाप इव सूत्रेण प्रथमतो बद्धमात्राणि, तदनन्तरमभिसंपर्कानन्तरं सकृत् घनकुट्टित सूचीकलापवत् स्पृष्टानि 'निधत्तानि' उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकर Eucation International For Penal Use On ~808~ २० अन्त क्रियापदे तीर्थकर - त्वाप्तिः सू. २६३ ॥ ४०२ ॥ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [५०५] Sणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीति भावार्थः 'कृतानि' निकाचितानि सकलकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । 'प्रस्थापितानि' मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसवादरपर्याप्ससुभगादेययशःकीर्तिनामसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीति भावः 'निविष्टानि' तीब्रानुभावजनकतया स्थितानि 'अभिनिविष्टानि विशिष्टविशिष्टतराध्यवसायभावतोऽतिती-15 भानुभाषजनकतया व्यवस्थितानि 'अभिसमन्वागतानि' उदयाभिमुखीभूतानि 'उदीर्णानि' विपाकोदयमागतानि 'नोपशान्तानि' न सर्वथाऽभावमापन्नानि निकाचिताद्यवस्थोद्रेकरहितानि या न भवन्ति, शेषं समस्तमपि कण्ठ्यं, एवं शर्कराप्रभावालुकाप्रभाविषये अपि सूत्रे वक्तव्ये । पङ्कप्रभापृथिवीनरयिकस्ततोऽनन्तरमुद्धृत्तः तीर्थकरत्वं न लभते, अन्तक्रियां पुनः कुर्यात् , धूमप्रभापृथिवीनैरयिकोऽन्तक्रियामपि न करोति, सर्वविरतिं पुनर्लभते, तमःप्रभापृथिवीनरयिकः सर्वविरतिमपि न लभते, पिरत्यविरति-देशविरतिं पुनर्लभते, अधःसप्तमपृथिवीनरयिकः पुन|स्तामपि देशविरतिं न लभते, यदि परं सम्यक्त्वमात्र लभते । असुरादयो यावर्नस्पतिकाया अनन्तरमुवृत्ताः तीर्थ करत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः कुर्युः । वसुदेवचरिते पुनर्नागकुमारेभ्योऽप्युवृत्तोऽनन्तरमैरावतक्षेत्रेऽस्यामेवावस18 पिण्यां चतुर्विशतितमस्तीर्थकर उपदर्शितः, तदत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्ति । तेजोवायवोऽनन्तरमुवृत्ताः अन्तक्रिNयामपि न कुर्वन्ति, मनुष्येषु तेषामानन्तर्येणोत्पादाभावाद्, अपि च ते तिर्यक्षुत्पन्नाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म श्रवणतया लभेरन्, न तु बोधत इत्युक्तं प्राक, वनस्पतिकायिका अनन्तरमुद्दृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अंतक्रियां पुनः कुर्युः ~809~ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [५०५ ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ २६३ ] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. प्रज्ञापना- 8 द्वित्रिचतुरिन्द्रिया अनन्तरमुदृत्तास्तामपि न कुर्वन्ति, मनःपर्यायज्ञानं पुनरुत्पादयेयुः, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तयाः मल- 8 रज्योतिका अनन्तरमुदृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः कुर्युः, सौधर्मादयः सर्वार्थसिद्धिपर्यवसाना नैरय० वृत्तौ विरुवद्वक्तव्याः । गतं तीर्थकरद्वारं सम्प्रति चक्रवर्त्तित्वादीनि द्वाराण्युच्यन्ते ॥४०३ ॥ रयणप्पभापुढविनेरइए णं भंते! अनंतरं उद्यट्टिसा चकवट्टित्तं लभेज्जा, गो० ! अत्थे० लभेज्जा अत्थे० नो लभेआ, से केणणं भंते ! एवं ० १, गो० ! जहा रयणप्पभापुढचिनेरइयस्स तित्थगरतं । सकरप्पभानेरइए अनंतरं उवद्वित्ता चकवहितं लभेजा !, गो० नी० ति०, एवं जाव अधेसत्तमापुढ विनेरइए, तिरियमणुएहिंतो पुच्छा, गो० ! गो० ति०, भवणपतिवाणमंतरजोतिसियवे माणिएहिंतो पुच्छा, गो० ! अत्थे० ल० अत्थे० नो लभेजा, एवं बलदेवचंपि, णवरं सकरप्पभापुढविने रहएव लभेज्जा, एवं वासुदेवतं दोहिंतो पुढवीहिंतो वेमाणिएहिंतो य अणुत्तरोववाइयनजेहिंतो, सेसेसु नो ति०, मंडलियतं अधेसत्तमा तेउवाऊन जेहिंतो, सेणावहरयणचं माहावहरयणचं वडतिरयणतं पुरोहियरयणतं इत्थिरयणं (सं) च एवं चैव, णवरं अणुत्तरोववाइयव अहिंतो, आसरयणतं हत्थिरयणतं रयणप्पभाओ गिरंतरं जाव सहस्सारो, अत्ये० लभेज्जा अस्थे० नो लभेज्जा, चकरयणत्तं छत्तरयणतं चम्मरयणतं दंडरयणतं असिरयणतं मणिरयणत्तं कागिणिरयतं एतेसिणं असुरकुमारेहिंतो आरद्ध निरंतरं जाव ईसाणाओ उबवाओ, सेसेहिंतो नो तिणट्टे समट्ठे (सूत्रं २६४ ) तत्र चक्रवर्त्तित्वं रवप्रभानैरयिकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकेभ्यो न शेषेभ्यो, बलदेववासुदेवत्वे शर्करातोऽपि, Eaton International For Panalyse On ~ 810~ २० अन्त क्रियापदे चक्रवर्त्ति त्वाद्याप्तिः सू. २६४ ॥ ४०३ ॥ wor Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६४] eaeएन्टर दीप अनुक्रम [५०६] नवरं वासुदेवत्वं वैमानिकेभ्योऽनुत्तरोपपातवर्जेभ्यः, मण्डलिकत्वमधःसप्तमतेजोवायुवर्जेभ्यः शेषेभ्यः सर्वेभ्योऽपि| स्थानेभ्यः, सेनापतिरनत्वं गाथापतिरलत्वं वार्द्धकिरनत्वं पुरोहितरनत्वं स्त्रीरलत्वं चायःसप्तमपृथिवीतेजोवायुअनु|त्तरोपपन्नदेववर्जेभ्यः शेषेभ्यः स्थानेभ्यः, अश्वरत्नत्वहस्तिरनत्वे रत्नप्रभात आरभ्य निरन्तरं यावदासहस्रारात्, चक्ररत्नत्वं छत्ररत्नत्वं चर्मरत्नत्वं दण्डरनत्वमसिरत्नत्वं मणिरत्नत्वं काकणिरत्नत्वं चासुरकुमारादारभ्य निरन्तरं यावदीशा-19 नात् , सर्वत्र विधिवाक्ये 'अत्थेगइए लभेजा अत्वेगइए नो लभेजा' इति वक्तव्यं, प्रतिषेधे 'णो इण? समडे' इति । तदेवमुक्तानि द्वाराणि, सम्प्रति उपपातगतं किश्चिद्वक्तव्यमस्तीति तदभिधित्सुराह अह भंते ! असंजयभवियदबदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाण अचिराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमासंजमाणं असणीण तायसाणं कंदप्पियाणं चरगपरिवायगाणं किविसियाणं तिरिच्छियाणं आजीवियाणं आभिओगियार्ण सलिंगीणं देसणवावण्णगाण देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्स कहि उववाओ पण्णतो, गो! असंजयभविषदबदेवाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उको० उवरिमगेवेजएम, अविराहियसंजमाणं जह० सोहम्मे कप्पे उको सबट्टसिद्धे, विराहियर्सजमार्ण जह० भवणवासीसु उको सोहम्मे कप्पे, अबिराहियसंजमासंजमाणं जह सोहम्मे कप्पे उको अचुए कप्पे, विराहितसंजमासंजमाणं ज. भवणवासीसु उको जोतिसिएसु, असमीणं जहन्नेणं भवणवासीसु उ० वाणमंतरेसु, तावसाणं ज० भवणवासीसु उको जोइसिएसु, कंदप्पियाणं ज० भवणवासीसु उ० सोहम्मे कप्पे, चरगपरिवायगाणं ज० ~811~ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] संयतादेः Mसू. २६५ दीप अनुक्रम [५०७] प्रज्ञापना भवणवासीसु उ० बमलोए कप्पे, किच्चिसियाणे जह• सोहम्मे कप्पे उ० लतए कप्पे, तिरिच्छियाणं जह० भषणकासीसु IN२०अन्तया: मल- उ० सहस्सारे कप्पे, आजीवियाणं ज० भवणवासीसु उ० अञ्चुए कप्पे, एवं आमिओगाणवि, सलिंगीणं दसणवावणा- क्रियापदे यवृत्त. गाणं ज० भवणवासीसु उ० उवरिमगेवेजएमु (सूत्र २६५) उपपातोअह भंते !' इत्यादि, अथेति परप्रश्ने 'असंजयमवियदवदेवाण मिति असंयताः-चरणपरिणामशून्या भव्या1४०४|| देवत्वयोग्याः अत एव द्रव्यदेवाः, समासश्चैव-असंयताच ते भव्यद्रव्यदेवाश्चासंयतभन्यद्रव्यदेवास्तेषां, तत्रैके प्रादु:एते किलासंयतसम्यग्दृष्टयो देवेषूत्पादात्, उक्तं च किलैवमागमे-"अणुचयमहबएहि य बालतयोकामनिजराए । देवा निबंधा सम्मट्टिी य जो जीवो ॥१॥" [अणुव्रतमहानतालतपोऽकामनिर्जरया च । देवायुष्का निवनाति सम्यग्दृष्टिश्च यो जीवः ॥१॥] तदयुक्तम् , यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरितनौवेयकेषूपपातो वक्ष्यते, सम्यग्दटीनां तु देशविरतानामपि न तत्रोपपातोऽस्ति, देशविरतश्रावकाणामप्यच्युतादुर्द्धमगमनात् , नाप्येते निवास्तेषामिहैव भेदेनाभिधानात् , तस्मान्मिभ्यादृष्टय एवाभव्या भव्या वा श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणोऽसंयतभव्यद्रव्यदेवाः प्रतिपत्तव्याः, तेऽपीहाखिलकेवलक्रियाप्रभावत उपरितनदेयकेषूत्पद्यन्त एवेति, ४०४ असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात् , 'अविराहियसंजमाण मिति प्रव्रज्याकालादारभ्याभमचारि-19 त्रिपरिणामानां संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकवशाद्वा खल्पमायादिदोषसम्भवेनापि अनाचरितसर्वथाच-17 920930 ~812~ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] दीप अनुक्रम [५०७] एewelescence रणोपघातानामित्यर्थः, तथा 'विराहियसंजमाणं'ति विराधिता-सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्रायश्चिचप्रतिपत्ता भूयः सन्धितः संयमो यैस्ते विराधितसंयमास्तेषां 'अविराहियसंजमासंजमाणं'ति प्रतिपत्तिकालादारभ्याखण्डितदेशविरतिपरिणामानां श्रावकाणां 'विराहियसंजमासंजमाण मिति पिराधितः-सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्राय चित्तप्रतिपत्त्या पुनर्नवीकृतः संयमासंयमो यैस्ते विराषितसंयमासंयमास्तेषां, असंजिनां-मनोलन्धिरहितानामकामनिर्जरावतां तथा 'तावसाण'ति परिशटितपत्राद्युपभोगवतां बालतपखिना, तथा 'कंदप्पियाति कन्दप्पः-परिहामास पणामति सेन वा ये चरन्ति ते कान्दर्षिकाः, कान्दर्पिका व्यवहारतश्चरणावन्त एव कन्दर्पकौकुच्यादि-11 कारकाः, उक्तं च-"कंदप्पे कुक्कुइए दवसीले यावि हासणकरे य । विम्हावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ॥१॥ कहकहकहस्स हसणं कंदप्पो अणिहुया य उल्लावा। कंदप्पकहाकहणं कंदप्पुवएस संसा य ॥२॥ मुमनयणवयणदसणच्छदेहिं करपायकण्णमाईहिं । तं तं करेइ जह जह हसइ परो अत्तणा अहसं ॥३॥ वायाइ कुक्कुओ पुणतं | | जंप जेण हस्सए लोओ। णाणाविहजीवरुते कुबइ मुहतूरए चेव ॥४॥ भासह दुयं २ गच्छए य दरिओ(य)गो-| व सो सरए । सचं दवं कुणइ [कारी] फुट्टइ वहि(भरि)ओ य दप्पेणं ॥५॥ वेसवयणेहिं हास जणयंतो अप्पणो परेसिं च । अह हासणोत्ति भण्णइ घयणोच छले नियच्छंतो ॥६॥ सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कुणइ तबिहजणस्स । तेसु न विम्हद य सयं आहडकहठएसुं च ॥७॥ जो संजओबि एयासु अप्पसत्यासु भावणं कुणइ । सो SAREaratundMilona Lunaturanorm ~813~ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] दीप अनुक्रम [५०७] तविहेसु गच्छद सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥८॥"[कन्दर्प कौकुच्ये द्रवशीलवापि हास्यकरश्च । विस्मापयन् परंI प्रज्ञापना २०अन्तया: मल कान्दपी भावनां करोति ॥१॥ कहकहकहेतिहसनं कन्दर्पः अनिभृताश्चोल्लापाः। कन्दर्पकथाकथनं कन्दर्पोपदेशप्रशंसे किया यवृत्ती. च ॥२॥ भ्रूनयनवदनदशनच्छदैः करपादकर्णादिभिः । तत्तत्करोति यथा यथा हसति पर आत्मनाऽहसन् ॥३॥ उपपातो वाचा कुकुचः पुनस्तत् जल्पति येन हसति लोकः । नानाविधजीवरुतान् करोति मुखतूर्याण्येव ॥४॥ भाषन्। ॥४०५॥ द्रुतं २ गच्छति च दृप्सो गौरिव सरति सः । सर्वं द्रव्यं करोति स्फुटति च भृतो दर्पण ॥ ५॥ वेषवचनाभ्यां हास सू. २१५ जनयन् आत्मनः परेषां च । असौ हसन इति भण्यते धृतन इव छलानि गवेषयन् ॥ ६॥ इन्द्रजालादिभिस्तु विस्मयं करोति तथाविधजनानां । न विस्मयते खयं आहत्योत्कथनेन स्थगकश्च ॥७॥ यः संयतोऽप्येतावप्रशवास्तासु भावनां करोति । स तद्विधेपु गच्छति सुरेषु भक्तश्चरणहीनः ॥८॥ तेषां कान्दर्घिकाणां, 'चरगपरिवाय-13 ISयाण'ति चरकपरिबाजका-धाटिभैक्षोपजीविनखिदण्डिनः, अथवा चरकाः-कच्छोटकादयः परित्राजकाःIS कपिलमुनिसूनवः, चरकाश्च परिव्राजकाच तेषां, तथा 'किषिसियाण'ति किल्बिर्ष-पापं तदस्ति येषां ते किल्वि पिकास्ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव ज्ञानाद्यवर्णवादिनः, उक्तं च-"नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स सबसाहूर्ण । माई अवण्णवाई किषिसियं भावणं कुणइ ॥१॥ काया क्या य ते चिय ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहि-16|| गारियाणं जोइसजोणीहि किं कर्ज? ॥२॥ एगंतरमुप्पाए अण्णोण्णावरणया दुवेण्हंपि । केवलदसणनाणाणमे ॥४०५॥ For P OW ~814 ~ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] दीप अनुक्रम [५०७] wesesesesea गकाले व एगत्तं ॥३॥ जच्चाईहि अयण्णं विहसइ वट्टइ नयावि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही पगासवाई अणणुकूलो॥४॥ अविसहणातुरियगई अणाणुवत्ती य अवि गुरूणंपि । खणमेत्तपीइरोसा गिहवच्छलगा य संजइया |॥५॥ गृहइ आयसहावं घायइ य गुणे परस्स संतेवि । चोरोच सबसंकी गूढायारो वितहभासी ॥६॥ [ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्यसर्वसाधूनां । माय्यवर्णवादी किल्बिषिकी भावनां करोति ॥१॥ काया व्रतानि च तान्येव तावेव प्रमादाप्रमादौ । मोक्षाधिकारिणां ज्योतियोनिभिः किं कार्य ॥२॥ एकान्तरोत्पादे अन्योऽन्यावरणता द्वयोरपि । केवलज्ञानदर्शनयोरेककालत्वे चैकत्वं ॥ ३ ॥ जात्यादिभिरवर्ण (वदति) वर्त्तते न चाप्युपपाते । अहित|श्छिद्रप्रेक्षी प्रकाशवादी अननुकूलः ॥४॥ अविषहना मन्दगतयो अननुवृत्तयो गुरूणामपि । क्षणमात्रप्रीतिरोषा गृहवत्सलकाश्च संयतकाः॥५॥ गृहत आत्मखभावं घातयति च गुणान् परेषां सतोऽपि । चौर इव सर्वशङ्की गूढाचारो वितथभापी॥६॥] तेषां, "तिरिच्छियाणं ति तिरश्चा-गयादीनां देशविरतिभाजां 'आजीवियाणीति आजीविकाः-पाखण्डविशेषाः गोशालमतानुसारिणः अथवाऽज्जीवन्ति ये अविवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिश्चरणादीनि इत्याजीविकाः तेषां, तथा 'आभियोगियाणं'ति अभियोजन-विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि अभियोगः, स च द्विधा, यदाह-"दुविहो खलु अभिओगो दवे भावे य होइ नायचो । दमि होति जोगा [विज्जा मंता य भावम्मि ॥१॥" [द्विविधः खलभियोगो द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्ये भवन्ति योगा Rescecenessettooय anditurary.com ~815~ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] प्रज्ञापनाया: मलय. वृत्ती . क्रियापदेउपपातोसंयतादेः सू. २५५ ॥४०६॥ दीप अनुक्रम [५०७] विद्या मन्त्राश्च भाये ॥१॥] सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति ये ते अभियोगिका आभियोगिका या, ते च व्यवहा-1 रतश्चरणवन्त एव मन्त्रादिप्रयोक्तारः, उक्तं च-"कोउय भूईकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीयी । इद्धिरससायगरुओ अभिओगं भावणं कुणइ ॥१॥" कौतुकं-सौभाग्याद्यर्थ स्वपनं भूतिकर्म-ज्वरितादिभूतिदानं प्रश्नाप्रश्न:खानविद्यादि, 'सलिंगीण'मिति रजोहरणादिसाधुलिङ्गवतां, किंविधानामित्याह-'दसणवावण्णगाणं'ति दर्शनसम्यक्त्वं व्यापन्नं-भ्रष्टं येषां ते तथा तेषां, निह्नवानामित्यर्थः, 'देवलोगेसु उववजमाणाणं'ति अनेन देवत्वाद- न्यत्रापि यथाऽध्यवसायमुत्पादो भवतीति प्रतिपादितं, 'चिराहियसंजमाणं जहणणं भवणवासीसु उकोसेणं सोहम्मे' इति, अत्र कश्चिदाह-विराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं तत्कथं घटते , द्रौपद्याः सुकुमालिकाभये विराधितसंयमाया अपि ईशानकल्पे उत्पादश्रवणात् , नैष दोषः, तस्या हि संयमविराधना उत्तरगुणविषया बकुशत्वमात्रकारिणी न मूलगुणविराधना, सौधर्मोत्पादश्च प्रभूततरसंयमविराधनायां भवति, यदि पुनविराधनामात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारणं स्यात् तदा बकुशादीनामुत्तरगुणादिप्रतिसेवावतां कथमच्युतादिषूत्पत्तिरुपपद्यते?, कथश्चिद्विराधकत्वात्तेषामिति । असंज्ञी देवेघूत्पद्यते इत्युक्तं, स चायुषा इति तदायुनिरूपयतिकतिविहे थे भंते ! असण्णियाउए पण्णत्ते ?, गो.! चउविधे असण्णिआउए पं०, तं०-नेरइयअसण्णियाउए जाव देवअसण्णियाउए । असणी भंते ! जीवे किं नेरइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं पकरेति', गो.! नेरइयाउयं पकरेति ॥४०६॥ ~816~ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६६] दीप अनुक्रम [५०८] जाव देवाउयं पकरेति, नेरइयाउं पकेरमाणे जह• दस वाससहस्साई उ० पलिओवमस्स असंखेजइभार्ग फरेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जह० अंतो० उक्को० पलितोवमस्स असंखेजइभागं करेति, एवं मणुस्साउयंपि, देवाउयं जहा नेरइयाउयं । एयरस णं भंते ! नेरइयअसण्णिआउयस्स जाव देवअसण्णिआउयस्स कतरे२ हिंतो अप्पा वा ४ १, गो० ! सबत्थोवे देवअसण्णियाउए मणसअसण्णिाउए असंखेजगुणे तिरिक्खजोणियअसण्णिआउए असंखे० नेरइयअसण्णिआउए असंखे । (सूत्रं २६६) पण्णवणाए वीसहमं पदं समत्तं ॥२०॥ 'कइविहे 'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'असण्णिआउएत्ति असंज्ञी सन् यत्परभवयोग्यमायुर्वनाति तदसंघ्यायुः, |'नेरइयअसन्नियाउए'इति नैरयिकप्रायोग्यमसंख्यायुरयिकासंघ्यायुरेवमन्यान्यपि, इहासंघ्यायुरसंझ्यवस्थानुभूयमानम-12 प्युच्यते न चेदमत्र प्रकृतमतस्तत्कृतलक्षणसम्बन्धविशेषनिरूपणार्थमाह-'असण्णी' इत्यादि, व्यक्तं नवरं 'पकरेइ' इति बनाति, 'दस वाससहस्साई' इति रत्नप्रभाप्रथमप्रस्तटमधिकृत्य 'उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभार्ग' इति एतत् रत्नप्रभाचतुर्थप्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमधिकृत्य, प्रथमप्रस्तटे हि जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टा नवतिः सहस्राणि, द्वितीये दश लक्षाणि जघन्या उत्कृष्टा नवतिर्लक्षाणि, एव तृतीये जघन्या उत्कृष्टा पूर्वकोटी, एषैव चतुर्थे जघन्या उत्कृष्टा सागरोपमस्य दशभागः, ततोऽत्र पल्योपमासयेयभागो मध्यमा स्थितिति, तिर्यक् सूत्रे पल्योपमासङ्ख्येयभागो मिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्य, 'एवं मणुयाउयंपि' इति जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्क ~817~ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २१शरीर प्रत सूत्रांक [२६६] पद प्रज्ञापमा- या मलयवृत्ती. ॥४०७॥ पतः पल्योपमासङ्ख्येयभागमित्यर्थः, अत्रापि पल्योपमासङ्खयेयभागो मिथुनकनरानाश्रित्य प्रतिपत्तव्यः, 'देवाउयं जह नेरइयाउय'मिति देवासंघ्यायुस्तथा वक्तव्यं यथा नैरयिकासंघ्यायुर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपमासययभागप्रमाणं वक्तव्यमिति भावः, 'एयस्सणं भंते । इत्यादिना यदसंश्यायुपोऽल्पबहुत्वं तदस्य इखदीर्घत्वे प्रतीस ॥ इति श्रीमलयगिर्याचार्यविरचितायां श्रीप्रज्ञापनावृत्ती विंशतितमं पदं समाप्तम् ॥२०॥ अथ एकविंशतितमं शरीरपदं प्रारभ्यते ॥ २१ ॥ दीप अनुक्रम [५०८] व्याख्यातं विंशतितम पदं, इदानीमेकविंशतितममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषोऽन्तक्रियारूपपरिणाम उक्तः, इहापि गतिपरिणामविशेष एव शरीरस्य संस्थानादिर्नरकादिगतिपूत्पन्नानां प्रतिपाद्यते, अत्र चेयमधिकारगाथाविहिसंठाणपमाणे पोग्गलचिणणा सरीरसंजोगो। दवपएसऽप्पबहु सरीरोगाहणऽप्पबई ॥१॥ कति णं भैते ! सरीरया पणचा? गो.! पंच सरीरया पं०, तं०-ओरालिए १ वेउबिए २ आहारए ३ तेयए ४ कम्मए ५, ओराछियसरीरेणं 9288900 ॥४०७॥ अत्र पद (२०) "अन्तक्रिया" परिसमाप्तम् अथ पद (२१) "अवगाहनासंस्थान (शरीर)" आरब्धम् ...अस्य अध्ययनस्य आगम-गाथा (मूल-८) दर्शित-नाम “अवगाहनासंस्थान" अस्ति, किंतु अत्र मूल-संपादकेन "शरीर" इति नाम लिखितम् ~818~ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६७] + गाहा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] गाथा cenesesecticesentence भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! पंचविधे पं०, त-एगिदियओरालियसरीरे जाव पंचिंदियओरालियसरीरे, एगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! पंचविहे पं०, तं-पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे जाव वण'फइकाइयएगिदियओरालियसरीरे, पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पं०१, गो०! दुविहे पं०, तं०-सुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे बादरपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे य, सुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे गं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दु.५०,०-पज्जत्तगसुद्मपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे य अपजत्तगसुहमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे , बादरपुटविकाइयावि एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालियत्ति, बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दुविधे पं०, तं०-पञ्जतचेईदियओरालियसरीरे य अपजत्चगबेइंदियओरालियसरीरे य, एवं तेइंदिया चउरिदियादि । पंचिंदियओरालियसरीरे गं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दुविधे, पं० त०-तिरिक्खजोणियपंचिदियओरा०मणुस्सपंचिंदियओरा०,तिरिक्खजोणियपर्चिदियओरालियसरीरे णे भंते ! कतिविधे पं०१, गो! तिविधे पं०,०-जलयरतिरिक्खजोणियपंचिं० ओरालियों थलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियओरा० खयरति. पंचिं० ओरा०, जलयरतिरि०पं० ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०, गो! दुविधे, पं०, तं०-संमुच्छिमजल.५०तिरि० ओरालि० गब्भवतिजलयरपंचि० तिरि० ओरालियसरीरे य, समुच्छिमजल. तिरि० पंचिंदियओरालियसरीरेणं भंते ! कति विधे पं०१, गो! दुविहे पं०, तं०पजत्तगसंमुच्छिमपंचिं० तिरि०ओरा० अपजत्तगसमुच्छिम पं०ति ओरालि., एवं गम्भवतिएवि, थलयरपंचिं. दीप अनुक्रम [५०९ -५१०] Areasurary.org अथ औदारिकशरीरस्य भेद-प्रभेदा: आरभ्यते ~819~ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६७] + गाहा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] प्रज्ञापनाया: मल २१शरीर पदं य० वृत्ती. eceaee गाथा तिरिक्ख ओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविधे, पं०१, गो! दुविहे ५०,०-चउप्पयथलयर०तिरि० पंचिं० ओरा परिसप्पथल तिरि०५० ओ०, चउप्पयथल तिरि० पंचि. ओरालियसरीरे भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! दुविहे 40, तं०-समु० थल०चउप्पयतिरि० पं०ओरा० गम्भवतिय चउपयथल ति०५०ओरा०, समुच्छिमचउ० ओरालियसरीरे काबिहे पं०१, गो०! दुविधे पं०,०-पजत्तसंमु० चउ० थल० तिरि० पंचिक ओरा० अपज्जतसमुच्छिमचंउ० थल तिरि० पंचिं० ओरा०, एवं गन्भवतिएवि, परिसप्पथलयरतिरि० पंचि० ओरा० भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दु०५०, तं०-उरपरिसप्पथल पं० तिरि० ओरा० भुवपरिसप्पथलपं० तिरि० ओरालियसरीरे य, उरपरिसप्पथल पंचिं० तिरि० ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०1, गो०! दु०प०,०-संमुग्छिमउर० थल पंचिक तिरि० ओरा० गम्भवकंतियउर० थल० तिरि० पंचिं० ओरा०, समुच्छिमे दुविहे पं०,०-अपजत्तसंमु० उर० थल तिरि० पंचिं० ओरालियसरीरे य पजत्तसमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरि०पंचिक ओरालि०, एवं गमवतियउरपरिसप्पे चउकतो भेओ, एवं भुयपरिसप्पावि समुच्छिमगम्भवतियपञ्जत्ता अपजत्ता य, खहयरा दुविधा, पं०,०-समुच्छिमा य गम्भवकंतिया य, समुच्छिमा दुविधा पं०१, पज्जना अपज्जचा य, गम्भवतियाषि पञ्जता अपजता य । मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो. दुबिहे पं०,०-संमृच्छिममणूसर्पचिं. ओरा० य गन्भवतियमणूसपंचिं० ओरालि०, गम्भवतियम० पंचिं० ओरालियसरीरेण भंते ! कतिविधे पं०१, मो०! दु०५०, तं०-पअत्तगगम्भवकंतियमणूसपंचिंदियओरा० अपञ्जत्तगगम्भ० मणूसपंचिंदियोरा० (सूत्र २६७) दीप अनुक्रम censesee Recee [५०९ ॥४०८। -५१०] ~820~ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६७] + गाहा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] गाथा 'विहिसंठाणपमाणे' इत्यादि प्रथमं विघयो-भेदाः शरीराणां वक्तव्याः, तदनन्तरं संस्थानानि, ततः प्रमाणानि, तदनन्तरं कतिभ्यो दिग्भ्यः शरीराणां पुद्गलोपचयो भवतीत्येवं पुद्गलचयनं वक्तव्यं, ततः कस्मिन् शरीरे सति किं शरीरमवश्यंभावीत्येवंरूपः परस्परसंयोगो वक्तव्यः, ततो द्रव्याणि च प्रदेशाश्च द्रव्यप्रदेशाः ते च द्रव्याणि च प्रदेशाश्च द्रव्यप्रदेशाः 'समानानामेकशेषः' इत्येकशेषस्तैरल्पबहुत्वं वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया| द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया च पञ्चानामपि शरीराणामल्पबहुत्वमभिधातव्यमिति, ततः पञ्चानामपि शरीराणामवगाहना-18 विषयमल्पबहुत्वं वाच्यमिति गाथासक्षेपार्थः । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमतो विधिद्वारमभिधित्सुरादौ शरी-13 रमूलभेदान् प्रतिपादयति,–'कद णं भंते ! इत्यादि, कति-किंपरिमाणानि णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त । शीर्यन्ते-प्रतिक्षणं विशरारुभावं विनतीति शरीराणि, शरीराण्येव शरीरकाणि, तथा स्वार्थे कप्रत्ययः, भगवानाहगौतम ! पश्च शरीराणि प्रज्ञप्सानि मया अन्यैश्च शैपैस्तीर्थकृद्भिः, तान्येव नामत आह-ओरालिए' इत्यादि, उदारं| प्रधान, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीराण्यधिकृत्य, ततोऽन्यस्यानुत्तरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारंसातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं, बृहत्ता चास्य वैक्रियं प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथा उत्तरवैक्रिय योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेव औदारिकं विनयादिपाठादिकण् , तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भयं वैक्रियं, तथाहि-तदेकं भूत्वा अनेकं भवति अनेकं. भूत्वा एकं दीप अनुक्रम [५०९ -५१०] SAREauratonintemational Baitaram.org ~821~ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], --------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं - , ---------- दार [-], ------------ मूलं [२६७] + गाहा --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] प्रज्ञापनायाःमलय० वृत्ती. 1४०९॥ गाथा तथा अणु भूत्वा महद्भवति महच भूत्वा अणु तथा खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति भूमिचरं भूत्वा खचरं तथा दृश्यं शरीरभूत्वा अदृश्यं भवति अदृश्यं भूत्वा दृश्यमित्यादि, तच द्विविधं-औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च, तत्रौपपातिकमुपपा-18 पदं |तजन्मनिर्मितं, तच देवनारकाणां, लब्धिप्रत्ययं तिर्यग्मनुष्याणां, तथा 'आहारए' इति आहारकं चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्ती सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाहियते-निवर्त्यते इत्याहारकं, 'कृद्धहुल'[मिति वचनात् कर्मणि वु, यथा पादहारक इत्यत्र, उक्तं च-"कजंमि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए। जं एत्थ आहरिजइ भणितं आहारगं तं तु ॥१॥"[कार्ये समुत्पन्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलब्ध्या । यदत्राहियते भणितमाहारकं तत् ॥१॥] कार्य चेदम्-"पाणिदयरिद्धिदंसणसुदुमपयत्वावगणहेउं वा। संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपायमूलंमि ॥२॥" [प्राणिदयर्द्धिदर्शनसूक्ष्मपदार्थावगाहनहेतोश्च । संशयव्यवच्छेदार्थ गमनं जिनपादमूले ॥१॥] तच वैक्रियशरीरापेक्षया अत्यन्तशुभं खच्छस्फटिकशिलेव शुभ्रपुद्गलसमूहघटनात्मकं, तेज इति-तेजसं तेजसः-तेजःपुद्गलानां विकारस्तैजसं 'विकार' इत्यण, तत् ऊष्मलिङ्गं भुक्ताहारपरिणमनकारणं, तद्बशाच विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः, उक्तं च-"सच्चस्स उम्हसिद्धं रसाइआहारपाकजणगं च .॥ तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयग होइ नायचं ॥१॥" [सर्वस्योष्मसिद्धं रसाद्याहारपाकजनकं च । तेजोलब्धिनिमित्र च तैजसं भवति ज्ञातव्यम् ॥१॥] 'कम्मएं' इति कर्मणो जातं कम्मंज, किमुक्तं भवति-कर्मपरमाणव एवा दीप अनुक्रम [५०९ -५१०] ~822~ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६७] + गाहा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] SODE गाथा आत्मप्रदेशैः सह ये क्षीरनीरवत् अन्योऽन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणतास्ते कर्मजं शरीरमिति, अत एवैतद न्यत्र कार्मणमित्युक्तं, कर्मणो विकारः कार्मणमिति, तथा चोक्तम्-“कम्मविगारो कम्मणमट्ठविहविचित्तकम्म। |निप्फन । सबेसि सरीराणं कारणभूतं मुगेयवं ॥१॥" [कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नं । सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं मुणितव्यं ॥१॥] अत्र 'सबेसिमिति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीजभूतं कार्मणशरीरं, न खल्वामूलसमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहवीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः, इदं च कर्मज शरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसङ्क्रान्तौ साधकतमं करणं, तथाहि-कर्मजेनैव वपुषा तैजससहितेन परिकरितो जन्तुमरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति, ननु यदि तैजससहितकार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं सामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् वा कस्मान दृष्टिपथमवतरति ?, उच्यते, कर्मपुद्गलानां चातिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् , तथा च परतीर्थिकरप्युक्तम्-"अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन् वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥" इति । सम्प्रति औदारिकशरीरस्य जीवजातिभेदतोऽवस्थाभेदतश्च भेदानभिधित्सुराह-'ओरालिय| सरीरे णं भंते !' इत्यादि, औदारिकशरीरमेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदात् पञ्चधा, एकेन्द्रियौदारिकशरीरमपि पृथिव्यपूतेजोवायुषनस्पतिएकेन्द्रियभेदात् पञ्चविधं, पृथिवीकायिकैकेन्द्रियौदारिकशरीरमपि सूक्ष्मेतरभेदाद् द्विधा, पुनरेकैकं द्विधा पर्याप्तापर्याप्तभेदात् , एवमतेजोवायुवनस्पत्ये केन्द्रियौदारिकशरीराण्यपि प्रत्येकं चतुर्विधानीति सर्वसङ्घय दीप अनुक्रम [५०९ -५१०] ~823~ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६७] + गाहा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] 9 य०वृत्ती. गाथा प्रज्ञापना यकेन्द्रियौदारिकशरीराणि विंशतिधा, द्वित्रिचतुरिन्द्रियौदारिकशरीराणि प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तभेदात् द्विभेदानि, २१ शरीरया मल- पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं द्विविधं-तिर्यग्मनुष्यभेदात् , तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं त्रिधा, जलचरस्थलचरखचरभे- पदं दात् , जलचरतिर्यपश्चेन्द्रियौदारिकशरीरं द्विविधं-सम्मूर्छिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् , एकैकमपि पुनर्द्विभेद पर्याप्तापर्याप्तभेदात्, स्थलचरतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि द्विधा-चतुष्पदपरिसर्पभेदात् , चतुष्पदस्थलचरति-N ॥४१०॥ पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि द्विधा-सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात्, पुनरेकैकं द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदात्, परिसर्पस्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि उरःपरिसर्पभुजपरिसर्पभेदतो द्विभेद, पुनरेकैकं द्विधासम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् , तत्रापि पुनः प्रत्येकं द्वैविध्यं पर्याप्तापर्याप्तभेदात् , सर्वसङ्ख्ययाऽटभेदं परिसर्पस्थ लचरतिर्यक्पश्चेन्द्रियौदारिकशरीरं, खचरतिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं सम्मूच्छिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् द्विभेदं, 18| पुनरेकै द्विधा-पर्याप्सापर्याप्तभेदादिति, सर्वसङ्ख्यया तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं विंशतिभेदं, मनुष्यपञ्चेन्द्रियी-1 दारिकशरीरं सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् द्विभेदं, पुनरेकैकं द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् । एवमौदारिकस्य | भेदा उक्ताः, सम्प्रत्येतेषामेव यथाक्रमं संस्थानान्याह ४१०॥ ओरालियसरीरेणं भंते ! किंसंठिते पन्नने, गो! णाणासंठाणसंठिते पं०, एगिदियओरा० किंसंठिते पं०१, । गो० ! णाणासंठाणसंठिते पं०, पुढविकाइयएगिदियओरा. किंसंठिते पं०१, गो०! मसूरचंदसंठाणसंठिते पं०, एवं दीप अनुक्रम 82920292820252825a [५०९ -५१०] SAREauratonintentiational अथ औरादिकशरीरस्य संस्थानानि आरभ्यते ~824 ~ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६८] Receimeroeserveenese seiseree दीप अनुक्रम [५११] सुहुमपुढविकाइयाणवि चादराणवि, एवं चेव पज्जत्तापज्ज चाणवि, [एवं चेव] आउक्काइयएगिदियओरा० भंते ! किंसंठिते पं०१, गो.! थियुकबिंदुसठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादरपञ्जत्तापज्जत्ताणवि, तेउकाइयएगि० उरा० भंते ! किंसंठिते पं०१,गो! सूईकलावसंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादपज्जत्तापज्जत्ताणवि, वाउकाइयाणवि पडागासंठाणसंठिते, एवं सुहुमवादरपजचापज्जत्ताणवि, वणफइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादरपजचापजत्ताणवि । बेइंदियओरा० भंते ! किंसं०५०१, गो०! हुंड संठाणसंठिते पं०, एवं पजत्तापजचाणवि, एवं तेइंदियचउरिंदियाणावि । पंचिंदियतिरिक्खजोणियपंचिक ओरा भंते ! किंसंठा०५०१, गो.! छबिहसंठाणसं० पं०, तं.---समचउससंठाणसं० जाव हुंडसंठाणसंठितेवि, एवं पञ्जत्तापजत्ताणवि ३, समुच्छिमतिरिक्खजी० पंचिक ओरा० भंते 1 किसं०५०१, गो०! हुंडसंठाणसंठिते पं०, एवं पजत्तापज्जताणवि, गब्भवकं तिरिक्ख. पंचिंदिय० ओरा० भंते ! किंसंठा०पं०१, गो० छबिहसंठाणसं०५०, तं०-समचउरंसे जार हुंडसंठा०, एवं पजत्तापजत्ताणवि ३, एवमेते तिरिक्खजोणियाणं ओहियाणं णव आलावगा, जलयरपं० तिरि० ओरा० भंते! किंसंठाणसंठिते पं०१, गो०1 छबिहसंठाणसं०५०, तं०-समचउरंसे जाव हुंडे, एवं पज्जत्तापजत्ताणवि, समुच्छिमजलयरा हुंडसंठाणसंठिता, एतेसिं चेव पज्जत्तावि अपज्जत्तगावि एवं चेव, गब्भवतियजलयरा छबिहसंठाणसंठिता, एवं पजत्तापजत्ताणवि, एवं थलयराणवि णव सुत्ताणि एवं चउपयथलयराणवि उरपरिसप्पथलयराणवि भुयपरिसप्पथलयराणवि, एवं खहयराणवि णव सुत्ताणि, नवरं सहत्य संमुच्छिमा हुंड संठाणसंठिता भाणितवा, इयरे छसुवि । मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते! किंसंठाणसं Sareedias ~825~ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: IN प्रत सूत्रांक [२६८] दीप अनुक्रम प्रज्ञापना-31 ठिते पं० १, गो! छविहसंठाणसंठिते पं०, त-समचउरंसे जाव हुंडे, पजत्तापज्जत्ताणवि एवं चेव, गम्भवतिया- २१शरीरयाः मल- णवि एवं चेच, पजत्तापज्जत्ताणवि एवं चेव, समुच्छिमाणं पुच्छा, गो० ! हुंडसंठाणसंठिता पण्णता (सूत्र २६८) पद यवृत्ती. 'ओरालियसरीरे णं भंते !' इत्यादि, नानासंस्थानसंस्थितं जीवजातिभेदतः संस्थानभेदभावात् , एकेन्द्रियौदारि॥४१॥ कशरीरे नानासंस्थानसंस्थितता पृथिव्यादिषु प्रत्येकं संस्थानभेदात् , तत्र पृथिवीकायिकानां सूक्ष्माणां वादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि मसूरचन्द्रसंस्थानसंस्थितानि, मसूरो-धान्यविशेषः तस्य चन्द्र:-चन्द्राकारमर्द्धदलं तसेव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि, अष्कायिकानां सूक्ष्मादिभेदतः चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि |स्तिबुकबिन्दुसंस्थानसंस्थितानि, स्तिबुकाकारो यो बिन्दुन पुनरितस्ततो वातादिना विक्षिप्तः स्तिबुकबिन्दुस्तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि, तैजसकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि सूचीकलापसंस्थानसंस्थितानि, शवायुकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि पताकासंस्थानसंस्थितानि, वनस्पतिकायिकानां सूक्ष्मा-19 गां बादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां च प्रत्येकमौदारिकशरीराणि नानासंस्थानसंस्थितानि, देशकालजातिभेदतः तेषां संस्थानानामनेकभेदभिन्नत्वात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येक पर्याप्तानामपर्याप्तानामौदारिकशरीराणि हुंडसंस्थानसं ॥४१शा स्थितानि, तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं सामान्यतः षड्विधसंस्थानसंस्थितं, तदेवोपदर्शयति-'समचउरंससंठाणसंठिए' इत्यादि, यावत्करणात् 'नग्गोहपरिमंडलसंठाणसंठिए साइसं० वामणसं० खुजसंठाणसंठिए हुंडसंठाणसं ~826~ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६८] दीप अनुक्रम [५११] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ २६८ ] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ठिए' इति परिग्रहः, तत्र समाः - सामुद्रिकशास्त्रोक्त प्रमाणलक्षणा विसंवादिन्यश्वतस्रोऽस्रयः -- चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्रं, समासान्तो ऽत्प्रत्ययः, समचतुरस्रं च तत्संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थितं समचतुरस्र संस्थानसंस्थितं, तथा न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य तत् न्यग्रोधपरिमण्डलं यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णप्रमाणं अधस्तु न तथा तन् न्यग्रोधपरिमण्डलं, तथा | आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्त्तते इति सादि, यद्यपि सर्वे शरीरमादिना सह वर्त्तते तथापि सादित्वंविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमालक्षणोपपन्न आदिरिह लभ्यते, तत उक्तं यथोक्तप्रमाणलक्षणेनेति, इदमुक्तं भवति - यत्संस्थानं नाभेरधः प्रमागोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादीति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र साचीं प्रवचनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचिसंस्थानं, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धः काण्डमतिपुष्टमुपरितना तदनुरूपा न महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधोभागः परिपूर्णो भवति उपरितनभागस्तु नेति, तथा यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उरउदरादि च मडभं तत्कुब्जसंस्थानं, यत्र पुनरुरउदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं हीनं तद्वामनसंस्थानं, यत्र तु सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तद् हुण्डसंस्थानं, समासः सर्वत्रापि पूर्ववत्, एवं 'पज्जत्तापज्जत्ताणवि' इति, एवं उक्तप्रकारेण सामान्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामिव पर्याप्तानां अपर्याप्तानां For Pale Only ~827~ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६८] दीप अनुक्रम [५११] प्रज्ञापना- च प्रत्येकं सूत्रं वक्तव्यं, तदेवमेतानि त्रीणि सूत्राणि, एवमेव च सामान्यतः सम्मूछिमतिर्यपञ्चेन्द्रियाणामपि२१शरीरयाः मल- त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि, नवरं तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु हुण्डसंस्थानसंस्थितमिति वक्तव्यं, सम्मूछिमाणामविशेषेण पर्द य० वृत्ती. सर्वेषामपि हुण्डसंस्थानभावात् , त्रीणि सामान्यतो गर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियाणामपि, नवरं तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु 'छबिह संठाणसंठिए पण्णत्ते' इत्यादि वक्तव्यं, गर्भजेपु समचतुरस्रादिसंस्थानानामपि सम्भवात् , तदेवमेते सामान्यतस्ति॥४१॥ कार्यपञ्चेन्द्रियविषया नव आलापकाः, अनेनैव क्रमेणैव जलचरतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां सामान्यतः स्थलचराणां चतुष्प दस्थलचराणामुर परिसर्पस्थलचराणां भुजपरिसर्पस्थलचराणां खचरतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां च प्रत्येकं नव २ सूत्राणि || वक्तव्यानि, सर्वसषया तिर्यक्रपश्चेन्द्रियाणां त्रिषष्टिः ६३ सूत्राणि मनुष्याणां नव सर्वत्र सम्मूर्षिकमेषु हुण्डसंस्थान च वक्तव्यमितरत्र पडपि संस्थानानि । तदेवमुक्तान्यौदारिकमेदानां संस्थानानि, साम्प्रतमवगाहनामानमाह ओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उको सातिरेगं जोयणसहस्स, एगिदियओरालियस्स वि एवं चेव जहा ओहियस्स, पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरस्स णं भैते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१ गो! ज० उ० अंगुलस्स असंखेजतिभागं, एवं अपज्जत्तयाणवि पजत्तयाणवि, ॥४१२॥ एवं मुहुमाणं पजत्तापञ्जत्ताणं, बादराणं पजत्तापञ्जत्ताणवि, एवं एसो नवओ भेदो जहा पुढविकाइयाणं तहा आउकाइयाणवि तेउकाइयाणवि बाउकाइयाणवि, वणस्सइकाइयओरालियसरीरस्स प भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, seeee अथ औरादिकशरीरस्य अवगाहनानि आरभ्यते ~828~ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६९] गाथा: दीप अनुक्रम [५१२ -५१५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [-], पदं [२१], उद्देशक: [-], मूलं [ २६९ ] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः गो० ज० अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उको० सातिरेगं जोअणसहस्सं, अपज त्तगाणं जह० उक्को० अंगुलस्स असंखेजतिभागं, पजतगाणं जह० अंगुलस्स असं० उको० सातिरेगं जोयणसहस्सं, बादराणं जह० अंगुलस्स असं० उक्को० जोअणसहस्सं सातिरेगं, पत्ताणवि एवं चेन, अपअत्ताणं जह० उको० अंगुलस्स असं०, सुहुमाणं पञ्जत्तापअत्ताण य तिहवि जह० उको अंगुलस्स असं० । बेइंदियओरा० भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो० ! जह० अंगुलस्स असं० उको बारस जोअणाई, एवं सवत्थवि अपजत्तयाणं अंगुलरस असंखे० जहण्णेणवि उक्कोसेणवि, पञ्जत्तगाणं जहेब ओरालियस्स ओहियस्स, एवं तेइंदियाणं तिण्णि गाउयाई, चउरिंदियाणं चत्तारि गाउयाई, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं कोसेणं जोयणसहस्सं ३, एवं समुच्छिमाणं ३, गम्भवतियाणवि ३ एवं चैव नवओ भेदो भाणियवो, एवं जलयराणवि जोयणसहस्सं, नवओ भेदो, थलयराणचि णत्र भेदा ९, उको० छ गाउयाई पज्जत्तगाणवि, एवं चैव संमुच्छिमार्ण पत्तगाण यउको गाउयहुतं ३, गम्भवतियाणं उको० छ गाउयाई पत्ताण य २ ओहियच उप्पयपज सगभवकंतियपजत्तयाणवि उको छ गाउबाई, संमुच्छिमार्ण पत्ताण य गाउयपुहुतं उको, एवं उरपरिसप्पाणवि ओहियगम्भवर्कतियपञ्जतगाणं जोयणसहस्सं, संबुद्धिमाणं पञ्जत्ताग य जोयणपुहुतं भूयपरिसप्पाणं ओहियगम्भवतियाणवि उक्को० गाउयहुतं, संमुछिमाणं धणुपुहुतं, खहयराणं ओहियगन्भवतियाणं संमुच्छिमाण य तिन्हवि उक्कोसेणं धणुपुहुतं, इमाओ संगहणिगाहाओ - 'जोयणसहस्स छम्गाउयाई तत्तो य जोअणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयए धणुहपुडुतं च पक्खीसु ॥ १ ॥ जोयणसहस्स गाउयपुहुत तत्तो य जोअणपुहुतं । दोहं तु धणुतं समुच्छिमे होति उच्चतं ॥ २ ॥ मणूसो For Pale Only ~829~ ৬৯200৯999৩১0:0১0৯৬ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २१शरीर प्रत सूत्रांक [२६९] अज्ञामनाया:मलयवृत्ती पदं ॥४१॥ गाथा: रालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाइणा पं०१, गो ! जह• अंगु० उको तिष्णि गाउयाई, एवं अपञ्जताणं जह• उक्को० अंगुलस्स असं०, समुच्छिमाणं जह० उक्को अंगुलस्स असं०, गम्भवतियाणं पज्जत्ताण य जह अंगुलस्स असं० उक्को तिण्णि गाउयाई (सूत्रं २६९) 'ओरालियस्स णं भंते !' इत्यादि, औदारिकस्य जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासङ्ख्येयभागः, सा चोत्पत्तिप्रथमसमये पृथिवीकायिकादीनां चावसातव्या, उत्कर्षतः सातिरेक योजनसहस्रं, एषा लवणसमुद्रगोतीर्थादिषु पद्मनालायधिकृत्यावसातव्या, अन्यत्रैतावत औदारिकशरीरस्यासम्भवात् , एवमेकेन्द्रियसूत्रेऽपि, तथा चाह-एगिदियओरालियस्स एवं चेव जहा ओहियस्स' इति पृथिव्यप्तेजोवायूनां सूक्ष्माणां बादराणां प्रत्येक पर्याप्तानामपर्यासानां चौदारिकशरीरस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चावगाहना अनुलासमयेयभागः प्रत्येकं च नव सूत्राणि, तेषां औषिकसूत्रमौधिकापयाप्तसूत्रमौधिकपर्याप्तसूत्र तथा सूक्ष्मसूत्र सूक्ष्मपर्याससूत्रं सूक्ष्मापर्याप्तकसूत्रं एवं वादरेऽपि सूत्रत्रिकमिति, एवं वनस्पतिकायिकानामपि नव सूत्राणि, नवरमौधिकवनस्पतिसूत्रे औधिकवनस्पतिपर्याप्तकसूत्रे बादरसूत्रे वादरपर्या-18 सकसूत्रे च जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्ययभाग उत्कर्षतः सातिरेकं योजनसहस्रं, तच्च पद्मनालाद्यधिकृत्य वेदितव्यं, शेषेषु तु पञ्चसूत्रेषु जघन्यत उत्कर्षतो वाऽङ्गुलासययभागः, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं त्रीणि २ सूत्राणि, तद्यथा-औषिकसूत्रमपर्याससूत्रं पर्याप्तसूत्रं च, तत्रौधिकसूत्रे पर्याप्तसूत्रे च द्वीन्द्रियाणामुत्कर्षतो द्वादश योजनानि, त्रीन्द्रियाणां दीप अनुक्रम [५१२-५१५] ॥४१॥ ~830~ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६९]] गाथा: श्रीणि गव्यूतानि, चतुरिन्द्रियाणां चत्वारि गव्यूतानि, अपर्याप्तसूत्रे तु जघन्यत उत्कर्षतश्चाङ्गुलासङ्ख्येयभागः, तथा सामान्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां जलचराणां सामान्यतः स्थलचराणां चतुष्पदानामुरःपरिसर्पाणां भुजपरिसर्पाणां । खचरपञ्चेन्द्रियतिरथां च प्रत्येकं नव २ सूत्राणि, तद्यथा-त्रीणि औधिकानि त्रीणि संमूछिमविषयाणि त्रीणि गर्भव्युत्क्रान्तिकविषयाणि, तत्रापर्यासेषु स्थानेषु सर्वेष्वपि जघन्यत उत्कर्षतो वा अङ्गुलासङ्ख्येयभागः, शेषेषु तु स्थानेषु जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः सामान्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु जलचरेषु चोत्कर्षतो योजनसहस्रं, सामान्यतः स्थलचरेषु चतुष्पदस्थलचरेषु चौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु च षट् गव्यूतानि, सम्मूछिमेषु गब्यूतपृथक्त्वं, उरम्परिसर्पष्वौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु च योजनसहस्रं सम्मूछिमेषु योजनपृथक्त्वं, भुजपरिसवौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तेषु च गन्यूतपृथक्त्वं, सम्मूछिमेषु धनुःपृथक्त्वं, खचरेबौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु सम्मूछिमेषु च सर्वेषु स्था|नेषु धनुःपृथक्त्वं, अत्रेमे सङ्ग्रहगाथे-"जोअणसहस्स"मित्यादि, गर्भव्युत्क्रान्तिकानां जलचराणामुत्कर्षतः शरीरा| वगाहनाया मानं योजनसहस्रं, चतुष्पदस्थलचराणां पड़ गव्यूतानि, उरःपरिसर्पस्थलचराणां योजनसहस्र, भुजपरिसर्पस्थ लचराणां गव्यूतपृथक्त्वं, पक्षिणां धनुःपृथक्त्वं, तथा सम्मूच्छिमानां जलचराणामुत्कर्पतः शरीरावगाहनायाः प्रमाणं योजनसहस्र, चतुष्पदस्थलचराणां गन्यूतपृथक्त्वं, उरःपरिसर्पस्थलचराणां योजनपृथक्त्वं, भुजपरिसर्पस्थलचराणां पक्षिणां च धनुःपृथक्त्वमिति । उक्तं तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहनामानमिदानीं मनुष्यप दीप अनुक्रम [५१२-५१५] janataram.org ~831~ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६९]] गाथा: प्रज्ञापना-1ञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहनामानमाह-'मणुस्सोरालियसरीरस्स ण'मित्यादि, कण्ठ्यं, नवरं त्रीणि गब्यूतानि देव-18|२१शरीरयाः मल-18|कुर्वाद्यपेक्षया, तदेवमौदारिकशरीरस्य विधयः संस्थानानि प्रमाणानि चोक्तानि, सम्प्रति तानि क्रमेण वैक्रियस्या- पदं य० वृत्ती. भिधित्सुराह॥४१४ा उबियसरीरे णं भंते । कतिविधे पं० १, गो०। दुविधे पं०, ०–एगिदियवे उच्चियसरीरे य पंचिंदियवेउवियस०, जति एगिदियवेउब्वियसरीरे किं वाउक्काइयरगिदियवेउवियसरीरे अबाउक्काइयएगिदियवेउवियसरीरे ?, गो० ! वाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे नो अवाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे, जइ वाउकाइयवेउब्वियसरीरे किं सुहुमवाउकाइयवेउवियसरीरे बायरवाउकाइयवेउवियसरीरे?, गो०! नो सुहुमवाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे बादरखाउकाइयएगिदियवेउबियस०, जह बादरवाउकाइयएगिदियवेडबियसरीरे किं पञ्जत्ववादरखाउकाइयरगिदियबेउवियसरीरे अपजत्तबादरवाउकाइयएगिदियवेउबियसरीरे, मो01 पञ्जत्तवादरखाउकाइयएगिदियवेउबियसरीरे नो अपजत्तबादरवाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे, जति पंचेंदियवेउवियसरीरे कि नेरइयपंचिंदियवेउवियसरीरे जाव किं देवपंचिदियवेउवियसरीरे ?, गो०! नेरदयपंथिंदियवेउबियसरीरेवि जाव देवपंचिंदियवेउधियसरीरेवि, जइ नेरइयपंचिंदियवेउबियसरीरे किं रयणप्पभापुढविपंचिंदियवेउविष० जाब ॥४१४॥ किं अधेसत्तमापुढविनेरहय० वेउवियसरीरे, गो. रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिदियवेउबियसरीरेवि जाव अधेसचमापुढविनेरइयपंचिं० वेउवियसरीरेऽवि, जइ रयणप्पभापुढविनेरइयविउवियसरीरे कि पजत्तगरय० नेरइयवेउ०स० अपजत्तगरय दीप अनुक्रम [५१२-५१५] अथ वैक्रियशरीरस्य शरीर-संस्थान-अवगाहना सम्बन्धी वक्तव्यता ~832~ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: sesea प्रत सूत्रांक [२७०] णप्पभाषु० नेरइ० ५०० सरीरे ?, गो०! पजत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं० अपजत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं०, एवं जाव अधेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणितयो, जइ तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउवियसरीरे किं समुच्छिमपं०तिरि बेउ०स० गम्भवकंतियपंचिंति वे०स०१, गो ! नो समुच्छिमपं० ति०० सरीरे गम्भवकंतियतिबेउविषसरीरे, जति गम्भवकं० पचितिबेउब्वियसरीरे किं संखेजवासाउयगन्भवतियपंचि० वे०सरी० असंखिजवासाउयग०प०तिवे०सरीरे?, गो! संखेजवासाउयगम्भ०५०तिवे० स० नो असं० गम्भ० पंचिं० तिरि० बेउ० स०, जड संखिज० गम्भ० पंचिंतिवेउ सरीरे किं पजत्तगसं० गम्भ०५०ति०० सरीरे अपजत्तगसं० ग०५०ति०० सरीरे, गो! पज० सं० ग. पं०ति०० सरीरे नो अप० सं० गभ०५० ति० वे० सरीरे, जइ संखेञ्जवासा० किं जलयरगम्भ०५०तिवे० सरीरे थलयरसं० ग०५०तिवे० सरीरे खहयरसं० ग०५०तिवे० सरीरे, मो०! जल. सं० ग.पं.ति०० सरीरेवि थलयरसंगपं० ति० ० सरीरेवि खहयरसं० गम्भ० पं०तिवे० सरीरेषि, जह जल सं०कि पजत्तगजल० सं०म० पं० ति वे० सरीरे अपजत्तगजल० सं० म०पं० ति० उ० सरीरे य:, गो! पज. जल संगम०पंतिरिवे० स० नो अपज० सं०जलग०५०ति०० स०, जति थलयरपंचिक जाव सरीरे किं चउप्पय जाव सरीरे किं परिसप्प जाव०१, गो! चउप्पयजावसं० परिसप्पजाव स०, एवं सबेसि या जाव खहयराणं पजताणं नो अपजसाणं, जति मणूसपंचि० वेउ० सरीरे किं समुच्छिममणूस० पं०० सरीरे गम्भ० म०पं० वेउबियसरीरे, गो०! णो संमु०म० पं० देउ० सरीरे गम्भ० म० पंचिं० दे० सरीरे, जइ गभ० दीप अनुक्रम [५१६] nidanauranorm ~833~ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २१शरीर प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२७० ॥४१५| दीप म०५०० स० किं कम्मभूमग ग० म०५०० स० अकम्मभूमग ग० म०प०० स० अंतरदीवगग. म.पं०० सरीरे, गो! कम्मभूमगगन्भ० म०पं० बे० स०णो अकम्भूमग णो अंतरदीवग०, जइ कम्मभूमगगम्भ० मणूस पंचिं० वे० सरीरे किं संखेजवासाउयकम्म० ग० म० वे० स० असं० कम्म० ग०म० पं०वे. स०, गो० संखे कम्म०म० म.पं. वे० सानो असं० कम्म० ग० म०५०वे. सरीरे, जति संखे० कम्म ग०म०५०० सरीरे किं पञ्जत्तयसंखे०क०म०पं० वे० स० अपजत्तग० सं० क. ग०म०५० वे सरीरे, गो! पज्ज० सं० क० ग०म०५०० सरीरे नो अपज० सं० क० ग० म०पं0वेसरीरे । जइ देव पंचिंदियवेउवियसरीरे किं भवणवासिदेव० ५०० सरीरे जाव वेमाणियदेव वे०स०१, गो! भवणवासीदेव० ५०० सरीरेवि जाव माणियदेव पंचि० बेउ० सरीरेवि, जइ भवणवासिदेव० ५०० सरीरे किं असुरकुमारभव० देव पं० ० स० जाव थणियकुमारभव. देव०५० ० सरीरे, गो०! असुरकु० जाब थणियकुमार० वेउ सरीरेचि, जइ असुरकुमारदेव० ५०० स० किं पज्जतगअसुर० भ० देव०पं० वे० सरीरे अपजत्तग० असुरकुमारभ० देव० पं० वे० स०, गो! पज्ज असुर० भ० देव०५० वे सरीरेवि अपञ्जत्तगअमु० भ० देव० ५० वे० सरीरेवि, एवं जाव थणियकुमाराणं दुगतो भेदो, एवं वाणमंतराणं अहविहाणं जोतिसियाणं पंचविहाणं, वेमाणिया दुविहा-कप्पोवगा कप्पातीता य, कप्पोवगा वारसविहा, तेसिपि एवं चेव दुहतो भेदो, कप्पातीता दुविहा गेवेजगा य अणुत्तरोववाइया य, गेषेजगा गवपिहा अणुत्तरोबवाइया पंचविहा, एतेसिं पज्जत्तापञ्जत्ताभिलावेणं दुगतो भेदो भाणि (मूत्र २७०) अनुक्रम [५१६] शिश॥४१५॥ " ~834 ~ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७०] ल्टएeoes 'बेउवियसरीरेणं भंते !' इत्यादि, चैक्रियशरीरं मूलतो द्विभेद-एकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात् , तत्रैकेन्द्रियस्य वात|कायस्य तत्रापि बादरस्य तत्रापि पर्याप्तस्य, शेषस्य वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् , उक्तं च-"तिण्हं ताव रासीणं येउबियलदी चेव नथि, वायरपजत्ताणंपि संखेजइभागमेत्ताणं' अत्र 'तिण्हं ति त्रयाणां पर्यासापर्याससक्ष्मापर्याप्तबादररूपाणां । पञ्चेन्द्रियचिन्तायामपि जलचरचतुष्पदोरम्परिसर्पभुजपरिसप्पंखचरान् मनुष्यांश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकान् सङ्ख्येयवर्षायुषो मुक्त्वा शेषाणां प्रतिषेधो, भवखभावतया तेषां वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् । उक्ता भेदाः, संस्थानान्यभिधित्सुराहवेउवियसरीरेण मंते ! किंसंठिते ५०१, गो० णाणासंठाणसंठिते पं०, वाउकाइयएगिदियवेउ० सरीरे णं भंते ! किंसंठिते पं०१. गो.! पड़ागासंठाणसंठिते पं०, नेरइयपंचिदियवेउब्वियसरीरेण भंते ! किंसंठाणसंठिते पं०१, गोनेरदयर्पचिदियवेउवियसरीरे दुविधे पं०, तं०-भवधारणिजे य उत्तरखेउबिए य, तत्थ पंजे से भवधारणिजे से ण हुंडसंठाणसंठिते पं०, तत्थ णं जे से उत्तरवेउविते सेवि हुंडसंठाणसंठिते पं०, स्यणप्पभापुढविनेरइयपचि० वेउ० सरीरे ण भंते ! किंसंठाणसंठिते पं०१, गो! रयणप्पभापुढविनेरइयाणं दुविधे सरीरे पं०, तं०-भवधारणिजे य उत्तरखेउविए य, तत्थ णं जे से भवधारणिजे से णं हुं०, जे से उत्तरवेउचिते सेवि हुंडे, एवं जाव अधेसत्तमापुढविनरइयवेउबियसरीरे । तिरिक्खजोणियपं० वे सरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिते पं०१, गो० णाणासंठाणसंठिते पं०, एवं जलयस्थलयरख mercotice दीप अनुक्रम [५१६] WERE ~835~ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती IN प्रत सूत्रांक [२७१] ॥४१६॥ हयराणवि, थलयराणवि चउप्पयपरिसप्पाणवि परिसप्पाणवि उरपरिसप्पभुयपरिसप्पाणपि । एवं मणूसपचिंदियवे० सरी २१शरीररेवि । असुरकुमारभवणवासी देव पंचि०० सरीरे णं भंते ! किंसंठिते पं०, गो! असुरकुमाराणं देवाणं दविहे सरीरे पं०, ०-भवधारणिजे य उत्तरखेउविते य, तत्थ णं जे से भवधारणिले से णं समचउरंससंठाणसं०५०, तत्थ णं जे से उत्तरवेउविए से णं णाणासंठाणसं०६०, एवं जाव थणियकुमारदेवपंचिंदियवेउबियसरीरे, एवं वाणमंतराणवि, णवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति, एवं जोतिसियाणवि ओहियाण, एवं सोहम्मे जाव अच्चुयदेवसरीरे, गेवेजगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिदियवेउबियसरीरेण भंते ! किंसंठिवे पं०१, गो०! गेवेञ्जगदेवाणं एगे भवधारणिजे सरीरे, से पं समचउरंससंठाणसंठिते पं०, एवं अणुत्तरोबवाइयाणवि (सूत्र २७१) 'येउपियसरीरेणं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं नैरयिकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थानमत्यन्तक्लिष्ट-11 कर्मोदयवशात् , तथाहि तेषां भवधारणीयं शरीरं भवखभावत एव निर्मूलविलुप्तपक्षोत्पाटितसकलग्रीवादिरोमपक्षिसंस्थानवदतीव बीभत्स हुण्डसंस्थानं, यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि वयं शुभं करिष्याम इत्यभिसन्धिना कर्जुमारब्धमपि तथाविधात्यन्ताशुभनामकर्मोदययशादतीवाशुभतरमुपजायते इति हुण्डसंस्थानं । तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च क्रियं नानासंस्थानसंस्थितमिच्छावशतः प्रवृत्तेः, दशविधभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्माद्यच्युतपर्यवसानवैमानिकानां भवधारणीयं भवस्वभावतया तथाविधशुभनामकर्मोदयवशात् प्रत्येकं सर्वेषां समचतुरस्रसंस्थान, उत्तरक्रियं । दीप Catee.store अनुक्रम [५१७] See ~836~ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७१] बिछानरोधतः प्रवृत्तेनानासंस्थानसंस्थितं, अवेयकानामनुत्तरोपपातिनां चोत्तरक्रियं न भवति, प्रयोजनाभावाद, उत्तरवैक्रिय खत्र गमनागमननिमित्तं परिचारणानिमित्तं वा क्रियते, न चैतेपामेतदस्ति, यत्तु भवधारणीयमेतेषां | तत्समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितमिति । उक्तानि संस्थानानि, सम्प्रत्यवगाहनामानमाह बेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरावगाहणा पं०१, गो.! जह० अंगुलस्स असं० उको सातिरेगं जोयणसयसहस्सं । वाउकाइयएगिदियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०, गो! जह० अंगुलस्स असं० उकोसेणवि अंगुलस्स असं०, नेरइयपंचिंदियवेउबियसरीरस्सणं भंते ! केमहा०५०१, गो०! दुविहा पं०,०-भवधारणिजा य उत्तरवेउबिया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जह० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उको पंचधणुसयाई, तत्थ णं जा सा उत्तरखेउविया सा जह० अंगुलस्स संखेजतिभागं उक्को घणुसहस्सं । रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केमहापं०१, गो०! दुविहा पं०,०-भवधारिणिआ य उत्तरवेउविता य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जह अंगु० असं० उको सत्त धणई तिणि रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ पं जा सा उत्तरवेउविता सा जह• अंगु० असं० उको० पण्णरस धणूति अहाइजाओ रयणीओ। सकरप्पभाए पुच्छा, गो० जाव तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जह० अंगु० असं० उको० पण्णरस धणूई अड्डाइजातो रयणीओ, तत्थ णं जा सा उत्तरखेउविता सा जह० अंगु० संखे० उको एकतीसं धाई एका य रयणी । वालुयप्पभाए पुच्छा, भवधारणिज्जा एकतीसं धाई एका रयणी उत्तरवे 20203039939300930/29 दीप अनुक्रम [५१७] ~837~ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: NR R२१शरीर प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया मलब०वृत्ती. ॥४१७॥ [२७२ दीप अनुक्रम [५१८] उविया छावटि धपतिं दो रयणीओ। पंकप्पभाए भवधारणिजा चावट्रि धाई दो रयपीओ. उत्तरखेउविया पणवीस धणुसयं । धूमप्पभाए भवधारणिज्जा पणवीसं धणुसयं, उत्तरवेउविया अड्डातिज्जाई धणुसयाई । तमाए भवधारणिजा अड्डाइजाई धणूसताई उत्तरवेउत्विया पंच धणुसताई । अधेसत्तमाए भवधारणिजा पंच धणुसयाई उत्तरवेउविता धणुसहस्सं, एवं उकोसेणं । जहनेणं भवधारणिज्जा अंगुलस्स असंखेजतिभागं उत्तरखेउविता अंगुलस्स संखिजतिभागं | तिरिक्खजोणियपचिदियवेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो। जह० अंगु० सं० उत्कोसेगं जोगणसतपुडुत्तं । मणुस्सपंचिंदियवेउवियसरीरस्स गं भंते ! केमहा०, गो०! जह० अंगुल० सं० उको सातिरेगं जोत्रणसतसहस्सं । असुरकुमारभवणवासिदेव पंचि० वेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहा०१, गो०! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहा सरीरोगाहणा पं०, तं०-भवधारणिज्जा य उच्चरखेउविया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा साज. अंगु० असं० उको सत्त रयणीओ, तत्थ पंजा सा उत्तरवेउविता सा जह• अंगु० संखे० उको जोअणसतसहस्सं, एवं जाब थणियकुमाराणं, एवं ओहियाणं वाणमंतराणं, एवं जोइसियाणवि सोहम्मीसाणदेवाणं, एवं चेव उत्तरवेउविता, जाव अबुओ कप्पो, नवरं सर्णकुमारे भवधारणिजा जह• अंगु० अ० उको छ रयणीओ, एवं माहिदेवि, बंभलोयलंतगेसु पंच रयणीओ महासुक्सहस्सारेसु चत्तारि रवणीओ, आणयपाणयआरणचुएमु तिणि रयणीओ गेविजगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियवेउ० स० केम० १, गो.! गेवेजगदेवाणं एमा भवधारणिजा सरीरोगाहणा पं० सा जह• अंगुल. असं० उको दो रयणी, एवं अणुचरोववाइयदेवाणवि, णवरं एका रयणी (सूत्र २७२) ॥४१७॥ ~838~ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: r sercera प्रत सूत्रांक [२७२] । 'वेउवियसरीरस्स णमित्यादि, जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागं नैरयिकादीनां भवधारणीयस्यापर्याप्तावस्थायां वातकायस्य वा, उत्कर्षतः सातिरेकं योजनशतसहस्रं देवानामुत्तरवैक्रियस्य मनुष्याणां वा, 'एगिदियवेउधियसरीरस्स | 'मित्यादि, अत्र एकेन्द्रियो वातकायोऽन्यस्य वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् , तस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽवगाहनामानमनुलासङ्ख्ययभागप्रमाणं, एतावत्प्रमाणविकुर्वणायामेव तस्य शक्तिसम्भवात् , सामान्यनैरयिकसूत्रे 'भवधारणीया' भवो धार्यते यया सा भवधारणीया 'कृद्धहुल'मिति वचनात् करणे अनीयप्रत्ययः, उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, उत्तस्वैक्रिया धनुःसहस्रं सप्तमनरकपृथिव्यपेक्षया, अन्यत्रैतावत्या भवधारणीयाया उत्तरवैक्रियाया वा शरीरावगाहनाया अप्राप्यमाणत्वात् , अधुना प्रतिपृथिव्यवगाहनामानमाह-'स्यणप्पभे'त्यादि, अङ्गुलाबजयेयभागप्रमाणता प्रथमोप|त्तिकाले वेदितव्या, उत्कर्षतः सप्त धनूंषि प्रयो हस्ताः षट् चाङ्गुलानि पर्याप्तावस्थायां, इदं चोत्कर्षतः शरीरावगाहनामानं त्रयोदशे प्रस्तटे द्रष्टव्यं, शेषेषु त्वक्तिनेषु प्रस्तटेषु स्तोकं स्तोकतरं, तचैवम्-रत्नप्रभायाः प्रथमप्रस्तटे त्रयो हस्ता उत्कर्षतः शरीरप्रमाणं, द्वितीये प्रस्तटे धनुरेकमेको हस्तः सार्द्धानि चाष्टावङ्गुलानि, तृतीये प्रस्तटे धनुरेकं ।। |त्रयो हस्ताः सप्तदशानुलानि, चतुर्थे वे धनुषी द्वौ हस्ती सार्द्धमेकमनुलं, पञ्चमे त्रीणि धनूंषि दशाङ्गुलानि, पष्ठे | |त्रीणि धनूंषि द्वौ हस्तौ सार्वान्यष्टादशाङ्गुलानि, सप्तमे चत्वारि धषि एको हस्तः त्रीणि चामुलानि, अष्टमे चत्वारि धपि त्रयो हस्ताः सान्येिकादशाङ्गुलानि, नवमे पञ्च धनूंषि एको हस्तो विंशतिरङ्गुलानि, दशमे षट् ॥ दीप अनुक्रम [५१८] टिळesercerceive SAREaratininternational HRIandiarary.org ~839~ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक यवृत्ती. [२७२ प्रज्ञापना धनूंषि सार्दानि चत्वारि अङ्गुलानि, एकादशे षट् धनूंषि द्वौ हस्तौ त्रयोदशाङ्गुलानि, द्वादशे सप्त धनूंषि साख़्न्ये-1 कविंशतिरकलानि, प्रयोदशे सप्त धपि त्रयो हस्ताः षट्र परिपूर्णान्यङ्गलानि, अत्र चायं तात्पर्यार्थ:-प्रथमप्रस्तटे। यच्छरीरावगाहनापरिमाणं त्रयो हस्ता इति तस्योपरि प्रस्तटक्रमेण सार्दानि षट्पञ्चाशदङ्गुलानि प्रक्षिप्यन्ते, ततो ॥४१८॥ यथोक्तं प्रस्तटेषु शरीरावगाहनापरिमाणं भवति, उक्तं च-रयणाएँ पढमपयरे हत्थतिय देहउस्सओ भणिओ। छप्पन्नंगुल सहा पयरे २ हवइ बुही ॥१॥[रलायाः प्रथमे प्रतरे हस्तत्रयं देहोच्छ्यो भणितः । पट्पञ्चाशदा-1 लानि सार्धानि प्रतरे प्रतरे भवति वृद्धिः॥१॥] 'तत्थ णं जा सा उत्तरवेउचिया' इत्यादि, जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येयभार्ग, प्रथमसमयेऽपि तस्या अङ्गलसवेयभागप्रमाणाया एवं भावात्, न खसधेयभागप्रमाणायाः, आह च। सङ्गदणिमूलटीकाकारो हरिभद्रसूरि:-"उत्तरक्रिया तु तथाविधप्रयत्नभावादाद्यसमयेऽप्यनुलसङ्खयेयभागमात्रैव, Pउत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि अर्धतृतीया हस्ताः" इदं च उत्तरवैक्रियशरीरावगाहनापरिमाणं त्रयोदशे प्रस्तरेऽवसातव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु प्रागुक्तभवधारणीयमानापेक्षया द्विगुणं प्रत्येतव्यं १ शर्कराप्रभायां भवधारणीया उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि अर्द्धतृतीया हस्ताः, इदं चोत्कर्षतो भवधारणीयावगाहनापरिमाणमेकादशे प्रस्तटेऽवसातव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेविदं शर्करायाः प्रथमे प्रस्तटे सप्त धषि त्रयो हस्ताः षट्र चाङ्गलानि, द्वितीये प्रस्तटे अष्टौ धनूंषि द्वौ हस्ती नव |चाङ्गुलानि, तृतीये नव धषि एको हस्खो द्वादश चाङ्गुलानि, चतुर्थे दश धनूंषि पञ्चदशाङ्गुलानि, पञ्चमे दश दीप अनुक्रम [५१८] SAREauratonintamational ~840~ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] | धनूंषि त्रयो हस्ता अष्टादशाङ्गुलानि, षष्ठे एकादश धनूंषि द्वौ हस्तावेकविंशतिरङ्गुलानि, सप्तमे द्वादश घनषि द्वीप हस्तौ, अष्टमे त्रयोदश धनूंषि एको हस्तः त्रीणि अङ्गुलानि, नवमे चतुर्दश धनूंषि पद चाङ्गुलानि, दशमे चतुर्दश धनंषि त्रयो हस्ता नव चागलानि, एकादशे सूत्रोक्तमेव परिमाणं, अत्रापीदं तात्पर्य-प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटक्रमेण त्रयो हस्तास्त्रीणि चाङ्गुलानि प्रक्षेप्तव्यानि, ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु परीमाणं भवति, M“सो चेव य बीयाए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । हत्थतिय तिन्नि अंगुल पयरे पयरे य वुहीए ॥१॥ एकारसमे पयरे पण्णरस धणूणि दोण्णि रयणीओ । वारस य अंगुलाई देहपमाणं तु विनेयं ॥२॥" गाथाद्वयस्थापीयमक्षरगमनिका-य एव प्रथमपृथिव्यां त्रयोदशे प्रस्तटे उत्कर्षत उत्सेधो भणितः-सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पट्र चाङ्गुलानि इति, स एव द्वितीयस्यां-शर्कराप्रभायां पृथिव्यां प्रथमे प्रस्तटे उत्सेधो भवति ज्ञातव्यः, ततः प्रतरे प्रतरे वृद्धिरवसेया त्रयो हस्तास्त्रीणि चाङ्गुलानि, तथा च सत्येकादशे प्रस्तटे उत्कर्षतो भवधारणीयशरीरपरिमाणमायाति पञ्चदश धपि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि इति, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणमाह-एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, इदं | च एकादशे प्रस्तटे वेदितव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमवसेयं २ । तथा तृतीयस्यां वालुकाप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, एतच नवमं प्रस्तटमधिकृत्योक्कमबसेयं, शेषेषु प्रस्तटेष्वेवं-तत्र प्रथमप्रस्तटे भवधारणीया पश्चदश धनूंपि द्वौ हस्तौ द्वादशाङ्गुलानि, द्वितीये प्रस्तटे सप्तदश दीप अनुक्रम [५१८] రాంతంలో ~841~ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [५१८] प्रज्ञापनायाः मद य० वृत्तौ. ॥४१९ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [२७२] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. धनूंषि द्वौ हस्तौ सार्द्धानि सप्ताङ्गुलानि तृतीये एकोनविंशतिर्धनूंषि द्वौ हस्तौ त्रीण्यङ्गुलानि, चतुर्थे एकविंशतिः धनूंषि एको हस्तः सार्द्धनि द्वाविंशतिरङ्गुलानि पञ्चमे त्रयोविंशतिर्धनूंषि एको हस्तोऽष्टादश चाङ्गुलानि षष्ठे पञ्चविंशतिर्धनूंषि एको हस्तः सार्द्धानि त्रयोदशाङ्गुलानि सप्तमे सप्तविंशतिर्धनूंषि एको हस्तो नव चाङ्गुलानि, अष्टमे | एकोनत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः सार्द्धनि चत्वार्यङ्गुलानि, नवमे यथोक्तरूपं परिमाणं भवति, अत्रापि चायं भावार्थ:प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे सप्त हस्ताः सार्द्धनि च एकोनविंशतिरकुलानि क्रमेण प्रक्षेप्तव्यानि ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु परिमाणं भवति, उक्तं च- "सो चैव य तझ्याए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । सत्त रयणीउ अंगुल उणवीसं सहबुद्धी य ॥ १ ॥ पयरे पयरे य तहा नवमे पयरंमि होइ उस्सेहो । धणुयाणि एगतीसं एका रयणी य नायवा ॥ २ ॥ अस्यापि गाथाद्वयस्येयमक्षरगमनिकाय एवं द्वितीयस्याः शर्करप्रभाया एकादशे प्रस्तटे भवधारणीयाया उत्कर्षत उत्सेध उक्तः - पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि, स एव तृतीयस्याः वालुकाप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे प्रस्तटे उत्सेधो भवति, ततः प्रतरे २ वृद्धिरवसेया सप्त हस्ताः सार्द्धनि चैकोनविंशतिरङ्गुलानि, तथा च सति नवमे प्रस्तटे यथोक्तं भवधारणीयावगाहनामानं भवति - एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्त इति, उत्तरवैक्रियोत्कृष्टपरिमाणमाह – द्वापष्टिर्धनूंषि द्वौ हस्तौ एतच नवमप्रस्तटापेक्षमवसेयं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु निजनिजभवधारणीयप्रमाणापेक्षया द्विगुणद्विगुणमिति ३ । चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया Etication Internation For Penal Use Only ~842~ २१ शरीरपर्द ॥४१९॥ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] 930203098292eya0930 द्वाषष्टिधनूंषि द्वौ हस्ती, इदं च ससमे प्रस्तटे प्रत्येयं, शेषेषु प्रस्तटेष्वेवं-पङ्कप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे एकत्रिंशद्धनूंपि।। |एको हस्तः, द्वितीये षट्त्रिंशद्धनूंषि एको हस्तो विंशतिरङ्गुलानि, तृतीये एकचत्वारिंशद्धपि द्वौ हस्तौ पोडश अङ्गुलानि, चतुर्थे पट्चत्वारिंशद्धनूंषि त्रयो हस्ता द्वादशाङ्गुलानि, पञ्चमे द्विपश्चाशद्धनूंषि अष्टावकुलानि, पष्ठे सप्तपचाशद्धनूंषि एको हस्तः चत्वार्यङ्गलानि, सप्तमे यथोक्तरूपं परिमाणं, अत्रापि चेष भावार्थ:-प्रथमे प्रस्तटे यत्परि-18 माणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे क्रमेण पञ्च धषि विंशतिरङ्गुलानीत्येवंरूपा वृद्धिरवगन्तव्या, ततः प्रथमे प्रस्तटे | सूत्रोक्तं परिमाणं भवति, उक्तं च-"सो चेव चउत्थीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । पंच धणु बीस अंगुल पयरे | पयरे य वुड्डी य ॥१॥ जो सत्तमए पयरे नेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। बासट्ठी धणुयाणं दोण्णि रयणी य बोद्धवा ॥२॥" अस्यापि गाथाद्वयस्याक्षरगमनिका प्राग्वत् भावनीया, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पञ्चविंशं धनुःशतं, तब | सप्तमे प्रस्तटे, शेषेषु तु प्रस्तटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमिति ४ । पञ्चम्यां धूमप्रभायां पृथिव्यां भवधारणीयोत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, तच पञ्चमं प्रस्तटमधिकृत्योक्तमवसेयं, शेषेषु प्रस्तटेविद-प्रथमप्रतटे द्वापष्टिषि द्वौ हस्ती, द्वितीयेऽटसप्ततिधषि एका वितस्तिः, तृतीये त्रिनवतिधषि त्रयो हस्ताश्चतुर्थे नवोत्तरं धनु शतं एको हस्तः एका च वितस्तिः, पञ्चमे सुत्रोक्तं परिमाणं, अत्रापि चायं तात्पर्यार्थः-यत्प्रथमे प्रस्तटे परिमाणमुक्तं तदुपरि प्रस्तटे २ क्रमेण पञ्चदश धपि सार्द्धहस्तद्वयाधिकानि प्रक्षेप्तव्यानि, तथा च सति यथोक्तं पञ्चमे प्रस्तटे परिणाम दीप अनुक्रम [५१८] mitaram.org ~843~ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥४२०॥ [२७२ दीप भवति, उक्तं च-“सो चेव य पंचमीए पढमे पयरमि होइ उस्सेहो । पनरस धणूणि दो हत्थ सह पयरेसु बुही|२१शरीरय॥१॥ तह पंचमए पयरे उस्सेहो धणुसयं तु पणवीसं ॥" अस्याः सार्द्धगाथाया अक्षरगमनिका प्राग्वत् कर्त- पदं ब्या, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं अर्द्धतृतीयानि धनु शतानि, एतानि च पञ्चमे प्रस्तटे बेदितव्यानि, शेषेषु प्रसटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमिति । षष्ठयां तमःप्रभायां पृधिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, तानि च तृतीये प्रस्तटे प्रत्येतव्यानि, प्रथमे तु प्रस्तटे पञ्चविंशं धनुःशर्त, द्वितीये सार्द्धससाशीत्यधिकं धनुःशर्त, तृतीये तु सूत्रोक्तमेव परिमाणं, अत्राप्ययं तात्पर्यार्थः-प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे सार्द्धानि द्वाषष्टिर्घनूंषि प्रक्षेसव्यानि, तथा च सति तृतीये प्रस्तटे यथोक्तं परिमाणं भवति, उक्तं च-"सो चेव य छट्ठीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । बावट्टि धणुय सहा पयरे पयरे य बुट्टीओ॥१॥छट्ठीऍ तइयपयरे दोसय पण्णासया होंति ॥” अस्थाप्युत्तरार्द्धपूर्षिकाया गाथाया अक्षरगमनिका प्राग्वत् कर्त्तव्या, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पश्च धनुःशतानि, तानि च तृतीयप्रस्तटे वेदितव्यानि, आद्ययोस्तु द्वयोः प्रस्तटयोः स्वस्वभवधारणीयापेक्षया द्विगुणं द्विगुणमवबोद्धव्यं ६। अथ सप्तम्यां तु पृथिव्यां भवधारणीया उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया धनुःसहस्रं, सर्वत्र भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा उत्तरवैक्रिया सङ्ख्येयभागप्रमाणेति । तिर्यपश्चेन्द्रियस्य वैक्रियशरीरावगाहना उत्कर्षतो योजनशतपृथक्त्वं, तत ऊर्दू करणशक्तेरभावात् , मनुष्याणां सातिरेक योजनशतसहस्रं, अनुक्रम [५१८] ~ 844~ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२]] विष्णुकुमारप्रभृतीनां तथाश्रवणात् , जघन्या तूभयेषामप्यनुलसहयेयभागप्रमाणा, न त्वसयेयभागमाना, तथारूप-14 प्रयत्नासम्भवात् । असुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां सौधर्मेशानदेवानां प्रत्येकं जघन्या भवधारणीया वैक्रियशरीराबगाहना अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा, सा चोत्पत्तिसमये द्रष्टव्या, उत्कृष्टा सप्त रत्नयः, उत्तरवैक्रिया जघन्या अङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रा, उत्कृष्टा योजनशतसहस्रं, 'उत्तरवेउबिया जाव अक्षुओ कप्पो त्ति उत्तरक्रिया तावद् वक्तव्या यावदच्युतः कल्पः, परत उत्तरवैक्रियासम्भवात् , एतच प्रागेवोक्तं, सर्वत्र जघन्यतोऽझुलसवेयभागमाना उत्कर्षतो योजनलक्षं, भवधारणीया तु विचित्रा ततस्तां पृथगाह-'नवर'मित्यादि, नवरमयं भवधारणीयां प्रति विशेषः-सनत्कुमारे कल्पे जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः षड् रत्नयः, 'एवं माहिंदेवि इति एवं-उक्तेन प्रकारेण जपन्या उत्कृष्टा च भवधारणीया माहेन्द्रकल्पेऽपि वक्तव्या, एतच सप्तसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तमबसेयं, धादिसागरोपमस्थितिष्वेवं-येषां सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयो? सागरोपमे स्थिति|स्तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया परिपूर्णसप्तहस्त प्रमाणा, येषां त्रीणि सागरोपमाणि तेषां पडू हस्ताः चत्वारश्च हस्तस्यैकादशभागाः, येषां चत्वारि सागरोपमाणि तेषां षड् हस्तात्रयो हस्तस्यैकादशभागाः, येषां पञ्च सागरोपमाणि तेषां पड़ हस्ताः द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी, येषां षट्र सागरोपमाणि तेषां पट्ट हस्ताः एकश्च हस्तस्यैकादशभागः, येषां तु परिपूर्णानि सप्त सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा पड हस्ता भवधारणीया, उक्तं च-"अयरतिगं ठिइ दीप अनुक्रम [५१८] mation ~845~ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ese [२७२ दीप अनुक्रम [५१८] प्रज्ञापना- जेसि सर्णकुमारे तहेव माहिंदे । रयणीलकं तेसिं भागचउकाहियं देहो ॥१॥ तत्तो अयरे अयरे भागो एकेकओ18/२१शरीरयाः मल- पडइ जाव । सागरसत्तठिईणं रयणीछकं तणुपमाणं ॥२॥" इह जघन्या भवधारणीया सर्वत्राप्यनुलासङ्ख्ययभा- पदं य० वृत्ती. गप्रमाणा, सा च प्रतीतेति तामवधीर्योत्कृष्टां प्रतिपादयति-'बंभलोगलंतगेसु पंच रयणीओ' इति, इह यद्यपि ॥४२ahan ब्रह्मलोकस्योपरि लान्तको न समश्रेण्या तथापीह शरीरप्रमाणचिन्तायामिदं द्विकं विवक्ष्यते, द्विकपर्यन्त एव हस्तस्य त्रुटिततया लभ्यमानत्वात् , एवमुत्तरत्रापि द्विकचतुष्कादिपरिग्रहे कारणं वाच्यं, तत्र ब्रह्मलोकलान्तकयोरुत्कर्ष-। तया भवधारणीया पश्च रत्नयः, एतच लान्तके चतुर्दशसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्य प्रतिपादितमबसेयं, शेष-12 |सागरोपमस्थितिष्वेवं-येषां ब्रह्मलोके सप्त सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां पढ़ रत्नयः परिपूर्णा भवधारणीया, येपामष्टी |सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताः पडू हस्तरकादशभागाः, येषां नव सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताः पञ्च हस्तस्यैकादशभागाः, येषां दश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताश्चत्वारश्चैकादशभागाः हस्तस्य, लान्तकेऽपि येषां दश साग-1 रोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया उत्कर्पतो, येषामेकादश सागरोपमाणि लान्तके स्थितिस्तेषां पञ्च हस्तास्त्रयो हस्तस्यैकादशभागाः, येषां द्वादश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता द्वौ च हस्तैकादशभागी, येषां त्रयो-NIR॥ दश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता एको हस्तस्सैकादशभागो, येषां चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा | पश्चहस्ता भवधारणीया, 'महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ' महाशुक्रसहस्रारयोश्चतस्रो रत्नय उत्कर्षतो भवधार. 2 Secemerserate ~846~ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२]] णीया, एतच्च सहस्रारगतान् अष्टादशसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तं वेदितव्यं, शेषसागरोपमस्थितिवेयेषां महाशुक्रे कल्पे चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया परिपूर्णाः पञ्च हस्ताः, येषां पञ्चदश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्तात्रयश्च हस्तस्यैकादशभागाः, येषां षोडश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्ताद्वीच हस्तस्सैकादशभागी, येषां ससदश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्ता एको हस्तस्यैकादशभागः, सहस्रारेऽपि येषां सप्तदश सागरोपमाणि तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनः सहस्रारे परिपूर्णान्यष्टादश सागरोपमाणि स्थितिस्तेपां परिपूर्णाश्चत्वारो हस्ताः भवधारणीया, "आणयपाणयारणथुएसु तिन्नि रयणीओ' इति आनतप्राणतारणाच्युतेषु तिस्रो रलय उत्कृष्टा भवधारणीया, एतचाच्युते कल्पे द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तं द्रष्टव्यं, शेषसागरोपमस्थितिब्वे-येषामानतेऽपि कल्पे परिपूर्णानि किञ्चित्समधिकानि चाष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः का तेषां परिपूर्णाश्चत्वारो हस्ता उत्कृष्टा भवधारणीया, येषां पुनरेकोनविंशतिः सागरोपमाणि तेषां प्रयो हस्ताखयश्च । का हस्तस्यैकादशभागाः, प्राणतेऽपि कल्पे येषामेकोनविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनः प्राणते कल्पे विंशतिः सागरोषमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी, येषामारणेऽपि कल्पे विंशतिः सांगरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनरारणेऽपि कल्पे एकविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता एकस्य हस्तस्यैकादशभागो मवधारणीया, अच्युतेऽपि कल्पे येषामेकविंशतिः सागर दीप अनुक्रम [५१८] रिटायoeserces ला ~847~ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक य०वृत्ती. [२७२ प्रज्ञापना-INIरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनरच्युते कल्पे द्वाविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामुक-२१शरीरयाः मल- र्षतो भवधारणीया परिपूर्णास्त्रयो हस्ताः, 'गवेजकप्पातीते'त्यादि भावितं, नवरं 'उकोसेणं दो रयणीओ'त्ति एतन्न- पद शवमयेयके एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् देवान् प्रति द्रष्टव्यं, शेषसागरोपमस्थितिष्वेवं-प्रथमे |येयके येषां द्वाविं॥२२॥ शतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता भवधारणीया, येषां पुनस्तत्रैव त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि स्थिति|स्तेषां वो हस्तावष्टी हस्तस्यैकादशभागाः, द्वितीयेऽपि वेयके येषां प्रयोविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ सप्त च हस्तस्यैकादशभागा। भवधारणीया, तृतीयेऽपि अवेयके येषां चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतायत्येव भवधारणीया, येषां पुनः पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि तत्र स्थितिस्तेषां वो हस्ती पट् हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, चतुर्थेऽपि अवेयके येषां पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र पडूविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ पञ्च हस्तस्यैकादशभागाः, पञ्चमेऽपि अवेयके येषां पविशतिः सागरोपमाणि तेषामेतावती भयधारणीया, येषां तु तत्र सप्तविंशतिः सागरोपमाणि तेषां द्वौ हस्ती चत्वारो हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, ४२२| षष्ठेऽपि प्रैबेयके येषां सप्तविंशतिः सागरोपमाणि तेषामेतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनस्तत्राष्टाविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ त्रयो हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, सप्तमेऽपि अवेयके येषामष्टाविंशतिः सागरो eacsekesesesenterseces desesector दीप अनुक्रम [५१८] ~848~ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [५१८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-] मूलं [२७२] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. पमाणि ( स्थितिः) तेषामेतावती, येषां पुनस्तत्र एकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि तेषां भवधारणीया द्वौ हस्तौ द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी, अष्टमेऽपि मैवेयके येषां स्थितिरेकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेतावत्प्रमाणा, येषां पुनस्तत्र त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्ती एकश्च हस्तस्यैकादशो भागो भवधारणीया, नवमे ग्रैवेयके येषां स्थितित्रिंशत्सागरोपमाणि तेषां भवधारणीया एतावत्प्रमाणा, येषां पुनरेकत्रिंशत्सागरोपमाणि तत्र स्थितिस्तेषां परिपूर्णौ द्वौ हस्तौ भवधारणीया, 'एवं अणुत्तरे' इत्यादि, एवं ग्रैवेयकोक्तेन प्रकारेण अनुत्तरोपपातिकदेवानामपि सूत्रं वक्तव्यं, नवरमुत्कर्षतो भवधारणीया एका रत्नि:-हस्तो वक्तव्यः, एतच त्रयत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् प्रति ज्ञातव्यं, येषां पुनर्विजयादिषु चतुर्षु विमानश्वेक त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णौ द्वौ हस्तौ भवधारणीया, येषां पुनस्तत्रैव मध्यमा द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेको हस्त एकश्च हस्तस्यैकादशभागो भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र सर्वार्थसिद्धमहा विमाने त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेको हस्तो भवधारणीया, जघन्या सर्वत्राङ्गुला सङ्ख्येय भागमात्रा ॥ तदेवमुक्तानि वैक्रियशरीरस्यापि विधिसंस्थानावगाहनाप्रमाणानि, सम्प्रत्याहारकस्य प्रतिपिपादयिषुराह-आहरगसरीरे णं भंते! कतिविधे पद्मते ?, गो० ! एगागारे पं०, जइ एगागारे किं मणूस आहारगसरीरे अमणूस आहारगसरीरे १, गो० ! मणूस आहारगसरीरे नो अमणूसआ०, जइ मणूसआहा० किं संमुच्छिममणूस आहा० गन्भवतियसणूस आहा० ?, गो० 1 नो संमुच्छिममणूस आहा० गन्भवकंतियमणूस आहा०, जइ गन्भव० म० आ० किं कम्मभूमगग ० अथ आहारकशरीर संस्थान- अवगाहना सम्बन्धी वक्तव्यता For Penal Use On ~ 849~ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७३] टीप अनुक्रम [५१९ ] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥४२३॥ “प्रज्ञापना" उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्तिः ) पदं [२१], उद्देशक: [-1. दार [-1. मूलं [ २७३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......... ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education intentiona - • म० आ० अकम्मभूमगग० म० आ० अंतरद्दीवगग० म० आ० १, गो० ! कम्मभूमग० नो अकम्मभूमगग० नौ अंतरदीवग०, जड़ कम्भभूमगग० म० आ० किं संखेजवासाउय० क० ग० म० अ० असंखेजवासाउंक० ग० म० आ०१, गो० ! संखिजवा० क० गम० म० आहारगसरीरे नो असं० क० ग० म० आ०, जति संखे० क० ग० म० आहा सरीरे किं पजचसं० वा० क० ग० म० आ० सरीरे अपज्जतसं० वा० क० ग० म० आ० १, गो० 1 पञ्जतसं० वासा०क०म०म० आ० नो अपजतं क० ग० मणू० आ०, जह पजत्त० सं० क० ग० म० आ० किं सम्महिट्ठीपज्जत्तगसं० क० ग० म० आ० मिच्छद्दट्टीप० सं० क० ग० म० आ० सम्मामिच्छद्दिट्ठिपज० सं० क० ग० म० आ० १, गो० ! सम्म० पज्ज० सं० क० ग० म० आ० नो मिच्छद्दिट्टि० नो सम्मामिच्छद्दिद्विप० सं० कम्म० ज०म० आ०, जइ सम्मदिट्ठिपअतसं० वा० क० ग० म० आ० किं संजयस० म० सं० क० ग० म० अ० असंजतसम्म० प० सं० क० ग०म० आ० संजया संजयस० प० सं० क० ग० म० ओ० १, गो० ! संजयसम्म० पं० [सं० क० ग० म० आ० नो असंजतसम्म० प० आहा० नो संजतासंजतसम्म० आहा०, जइ संजतसम्म० पं० सं० क० गं० म० आ० किं पमत्तसंजतसम्म० म० अ० अपमत्तसंजतसम्म० सं० क० ग०म० आ०१, गो० ! पमचसं० सम्मद्दि डिप० सं० क० ग० म० आ० नो अपमत्तसं० स० प० सं० क० ग० म० आ०, जइ अपमत्तसं० स ० सं० क०म० आ० किं इडिपत्तप्पमतसं० स० क० सं०ग०म० आ० अणिपित्तसं० प० क० सं० म० आ० १, गो० ! इडिपस स० प० सं० क० ग०म० आ० नो अणिडिप० स० प० सं० क० ग० म० आहा० । आहारगसरीरे णं भंते 1 For Parts Only ~ 850 ~ २१ शरीरपदं ॥४२३॥ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७३] 2200020502 दीप अनुक्रम [५१९] किंसंठिते पं०१, गो.! समचउरंससंठाणसंठिते पं०, आहारगसरीरस्स पं मंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०1, मो० ! जह० देसूणा रयणी उ० पडिपुण्णा स्यणी । (सूत्र २७३) 'आहारकसरीरे णं भंते ! कइविहे पं०' इत्यादि सुगमं, नवरं 'संजय'त्ति 'यमू उपरमें संयच्छन्ति स्म-सर्वसावघयोगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति स्मेति संयताः, 'गत्यर्थनित्याकर्मका'दिति कतरिक्तप्रत्ययः, सकलचारित्रिणः, असंयताअविरतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयता-देशविरतिमन्तः, तथा 'पमत्त'त्ति प्रमाद्यन्ति स्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः सज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्म प्रमत्ताः, पूर्ववत्कर्तरि क्तप्रत्ययः, ते च प्रायो गच्छवासिनस्तेषां क्वचिदनुपयोगसम्भवात् , तद्विपरीता अप्रमत्ताः, ते चप्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिकप्रतिमाप्रतिपन्नास्तेषां सततोपयोगसम्भवात् , इह जिनकल्पिकादयो लब्धि नोपजीवन्ति, तेषां तथाकल्पत्वात्, येऽपि च गच्छवासिन आहारकशरीरं कुर्वन्ति तेऽपि तदानीं लब्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादवन्तो, मोचनेऽपि |च प्रमादवन्त आत्मप्रदेशानामौदारिकशरीरे सर्वात्मनोपसंहरणेन व्याकुलीभावात् , आहारकशरीरे चान्तर्मुहर्तावस्थानं, ततो यद्यपि तन्मध्यभागे कियत्कालं मनाक विशुद्धिभावतः कार्मग्रन्थिकैरप्रमत्ततोपवयेते तथापि स लम्ध्युपजीवनेन प्रमत्त एवेत्यप्रमत्तस्य 'नो अपमत्तसंजए' इत्यादिना प्रतिषेधः कृतः, 'इहिपत्त'त्ति द्धी:-आमोषध्यादिलक्षणाः प्राप्त ऋद्धिप्राप्तस्तद्विपरीतोऽनृद्धिप्राप्ता, ऋद्धीश्च प्राप्नोति प्रथमतो विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापूर्वार्थप्रतिपादक 020 ~851~ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- याः मल- प्रत सूत्रांक [२७३] ॥४२४॥ श्रुतमवगाहमानः श्रुतसामर्थ्यतस्तीव्रतीव्रतरशुभभावनामधिरोहन अप्रमत्तः सन् , उक्तं च-"अवगाहते च स श्रुतज- २१शरीर पदं लाधि प्राप्नोति चावधिज्ञानम् । मानसपर्यायं वा ज्ञानं कोष्टादिबुद्धीर्वा ॥१॥ चारणवैक्रियसौषधिताद्या वाऽपि लब्धयस्तस्य । प्रादुर्भवन्ति गुणतो बलानि वा मानसादीनि ॥२॥" अत्र 'स' इत्यप्रमत्तसंयतः, मानसपर्यायमिति-मानसाः-मनसः सम्बन्धिनः पर्याया-विषया यस्य तन्मानसपर्यायं मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः, कोष्ठादिबुद्धीर्वा इत्यत्रादिशब्दात् पदानुसारिवीजपरिग्रहः, तिस्रो हि बुद्धयः परमातिशयरूपाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते, तद्यथाकोष्ठबुद्धिः १ पदानुसारिबुद्धिः २ बीजबुद्धि ३ श्व, तत्र कोष्ठक इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गतौ तदव-18 स्थानी च सूत्रार्थों धारयति न किमपि तयोः कालान्तरे गलति सा कोष्ठबुद्धिः१, या पुनरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तदयस्थमेव श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी २, या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि । यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजवुद्धिः ३, सा च सर्वोत्तमप्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां, ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशाक्षात्मकं प्रवचनमभिसूत्रयन्ति, तथा चारणाश्च वैक्रियं च सर्वोषध्यश्च तद्भावश्च । चारणवैक्रियसौषधिता, तत्र चरणं-गमनं तद्विद्यते येषां ते चारणाः 'ज्योत्स्वादिभ्योऽणि'ति मत्वर्थीयोऽण् प्रत्ययः, तत्र गमनमन्येषामपि मुनीनां विद्यते ततो विशेषणान्यथानुपपत्त्या चरणमिह विशिष्टं गमनमभिगृह्यते, अत एव । चातिशायने मत्वर्थीयो, यथा रूपवती कन्या इत्यत्र, ततोऽयमर्थ:-अतिशायिचरणसमर्थाश्चारणाः, आह च भाष्य दीप अनुक्रम [५१९] ॥४२४॥ ~852~ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७३] दीप अनुक्रम [५१९] Education “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-] मूलं [२७३] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. कृत् स्वकृतभाष्यटीकायां “अतिशयचरणाचारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः,” ते च [ ते ] द्विविधा - जङ्घाचारणाः विद्याचारणाश्च तत्र ये चारित्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयलब्धिविशेषास्ते जङ्घाचारणाः, ये पुनर्विद्यावशतः समुत्पन्नगमनलब्ध्यतिशयास्ते विद्याचारणाः, जङ्घाचारणाश्च रुचकबरद्वीपं यावत् गन्तुं समर्थाः विद्याचारणा नन्दीश्वरं तत्र जङ्घाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छवस्तत्र रविकरानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति, विद्याचारणास्त्वेवमेव, जद्दाचारणश्च रुचकबरद्वीपं गच्छन् एकेनैवोत्पातेन गच्छति, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनोत्पातेन नन्दीश्वरमायाति द्वितीयेन स्वस्थानं, यदि पुनर्मेरुशिखरं जिगमिषुस्तर्हि प्रथमेनैवोत्पातेन पण्डकवनमधिरोहति प्रतिनिवर्त्तमानस्तु प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छति द्वितीयेन स्वस्थानमिति, जङ्घाचारिणो हि चारित्रातिशयप्रभावतो भवन्ति, ततो लब्ध्युपजीवने औत्सुक्यभावतः प्रमादसम्भवाचारित्रातिशयनिबन्धना लब्धिः परिहीयते, ततः प्रतिनिवर्त्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभ्यां खभुवमायाति विद्याचारणः पुनः प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीश्वरं, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन खस्थानमायातीति, तथा स एवोर्द्ध गच्छन् प्रथमोत्पातेन नन्दनवनं गच्छति द्वितीयेनोत्पातेन पण्डकवनं, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायातीति, विद्याचारणो विद्यावशतो भवति, विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते, अतः प्रतिनिवर्त्तमानस्य शक्त्यतिशयसम्भवादेकेनोत्पातेन स्वस्थानागमनमिति, उक्तं च - "अइसय चरणसमत्था जंघाविज़ाहि चारणा मुणओ। जंचाहि जाइ For Parts Only ~853~ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. ॥४२॥ [२७३] दीप पढमो नीसं काउं रविकरेवि ॥१॥ एगुप्पाएण गओ रुयगवरंमि उ तओ पडिनियत्तो । विइएणं नंदिस्सरमिह शरीरतओ एइ तइएणं ॥२॥ पढमेणं पंडगवण विइउप्पाएण नंदणं एइ । तइउप्पारण तओ इह जंघाचारणो एक ॥३॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं तु विइएण । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहई॥४॥ पढमेणं नंदणवणे विअउप्पाएण पंडगवणमि । एइ इहं तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥५॥" तथा सर्व-विमूत्रादिकमौषधं यस्य स सौंषधः, किमुक्तं भवति ?-यस्य मूत्रं विट् श्लेष्मा शरीरमलो वा रोगोपशमसमर्थों भवति स सर्वोषधः, आदिशब्दादामोषध्यादिलब्धिपरिग्रहः, एताश्च ऋद्धीरप्रमत्तः सन् प्राप्य पश्चात् प्रमत्तो भवति, तेनै-11 वह प्रयोजनं तत उक्तम्-'इडिपत्तपमत्तसंजयेत्यादि, आह-मनुष्यस्याहारकशरीरमित्युक्ते सामर्थ्यादमनुष्यस्य नाहारकशरीरमित्सवसीयते ततः कस्मादुच्यते-'नो अमणुस्साहारगसरीरे' इत्यादि ?, निरर्थकत्वात् , उच्यते, इह त्रिविधा विनेयाः, तद्यथा-उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयः प्रपञ्चितज्ञाश्च, तत्र ये उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयो वा ते यथोक्तं सामर्थ्यमयबुध्यन्ते, ये पुनरद्याप्यव्युत्पन्नत्वात् न यथोक्तसामर्थ्यावगमकुशलास्ते प्रपश्चितमेवाचगन्तुमीशते । ॥४२५॥ नान्यथा, ततस्तेषामनुग्रहाय सामर्यलब्धस्यापि विपक्षनिषेधस्याभिधानं, महीयांसो हि परमकरुणापरीतत्वात् अविशेषेण सर्वेषामनुग्रहाय प्रवर्तन्ते, ततो न कश्चिदोषः, 'जहण्णेणं देसूणा रवणी' इति आहारकशरीरस्य जघन्यतो अनुक्रम [५१९] ~854~ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७३] eatseloccesecenesepeceaersese विगाहना देशोना-किञ्चिदूना रतिः-हस्तः तथाविधप्रयत्नभावतः प्रारम्भसमयेऽपि तस्या एतावत्या एव भावात् ।। तदेवमुक्तान्याहारकशरीरस्य विधिसंस्थानावगाहनामानानि, सम्प्रति तैजसस्य तान्यभिधित्सुराहतेयगसरीरेण भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! पंचविहे पं०, तं०-एगिदियतेयगसरीरे जाव पंचिंदियतेयगसरीरे, एगिदियतेयगसरीरेणं भंते ! कइविधे पं०१, गो०! पंचविधे पं०, ०-पुढविकाइय० जाव वणस्सइकाइयएगिदियसरीरे, एवं जहा ओरालियसरीरस्स भेदो भणितो तहा तेयगस्सवि जाव चउरिदियाणं । पंचिंदियतेयगसरीरेण भंते ! कतिविधे पं०१, गो० चउबिहे पं०,०-नेरइयतेयगसरीरे जाव देवतेयगसरीरे, नेरइयाणं दुगतो भेदो भाणितबो, जहा घेउवियसरीरे । पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं मसाण य जहा ओरालियसरीरे भेदो भाणितो तहा भाणियहो । देवाणं जहा बेउवियसरीरभेदो भाणितो तहा भाणियबो, जाव सबसिद्धदेवत्ति । तेयगसरीरे णं भते ! किंसंठिए पं० १, गो! णाणासंठाणसंठिए पं०, एगिदियतेयगसरीरेण भंते ! किंसंठिए पण्णते, गो! णाणासंठाणसंठिए पं०, पुढविकाइयएगिदियतयगसरीरेणं भंते । किंसंठिए पं०१, गो०! मसूरचंदसंठाणसंठिते पं०, एवं ओरालियसंठाणाणुसारेण माणितचं जाव चउरिदियाणवि, नेरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किंसंठिए पं०१, गो०! जह बेउबियसरीरे, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाणं जहा एतेसिं चेव ओरालियन्ति, देवाणं भंते ! किंसंठिते तेयगसरीरे ५०, गो.! जहा देउवियस्स जाब अणुत्तरोववाइयत्ति । (सूत्र २७४)। जीवस्स गं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहवस्स तेयासरीरस्स 299928292029020302 दीप अनुक्रम [५१९] अथ तैजस शरीर-संस्थान-अवगाहना सम्बन्धी वक्तव्यता ~855~ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७४ -२७५] दीप अनुक्रम [५२० -५२१] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥४२६॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [-], मूलं [२७४-२७५] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education internation महालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो० ! सरीरपमाणमेचा विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असं० उको ० लोगंताओ लोगंते, एगिंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तैयासरीरस्स केमहालिया सरीरो० १, गो० ! एवं चैव, जाव पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणफइकाइयरस, बेइंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमु० समो० यासरीरस्स केमहा० १, गो० ! सरीरप्यमाणमेत्ता विक्खंभवा हल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखे० उको० तिरिलोगाओ लोगंते, एवं जाव चउरिंदियस्स, नेरइयस्स णं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स केमहा० १, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जह० सातिरेकं जोयणसहस्सं उक्को० अधे जाव असत्तमा पुढवी तिरियं जाव सरमणे समुद्दे उद्धुं जाव पंडगवणे पुक्खरिणीतो, पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स णं भंते । मार० समु० समो० तेयासरीरस्स य केमहा० १, गो० ! जहा बेईदियसरीरस्स, मणुस्सस्स णं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स केमहा० १, गो० ! समयखेत्ताओ लोगंतो असुरकुमारस्स णं भंते! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तैया० केम० १, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखे उक्को० अधे जाव तच्चाए पुढवीए हिद्विल्ले चरमंते तिरियं जाव सरमणसमुहस्स बाहिरिल्ले वेइयंते उहूं जाव इसीप भारा पुढवी, एवं जाव थणियकुमारतेयगसरी रस्स, वाणमंतरजोइसिय सोहम्मीसाणगा य एवं चेव, सणकुमारदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालि० १, गो० ! सरीरप्यमाणमेत्ता विक्खभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगु० असं० उक्को० अधे जाव महापातालाणं दोघे तिभागे, तिरियं जाय सरमणे समुद्दे उ जाव अच्चुओ कप्पो, एवं जाव सहस्सारदेवस्स अभ्चुओ कप्पो, आण For Pale Only ~856~ २१शरीरपदं ॥४२६ ॥ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७४-२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] यदेवरस भंते ! मार० समु० समो० तेयास. केम?, गो! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जहरू अंगु० असं० उक्को० जाव अधोलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेचे उड्रं जाव अच्चुओ कप्पो, एवं जाव आरणदेवस्स अञ्चुअदेवस्स एवं चेब, णवरं उर्दु जाय सयाई विमाणाति, विज्ञ्जगदेवस्स ण भंते ! मारणंतियसमु० समो० तेयग० केम०१, गो०! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० विजाहरसेढीतो उको० जाव अहोलोइयगामा तिरियं जाव मणूसखेत्ते उड्डे जाव सगार्ति विमाणाति, अणुत्तरोववाइयस्सवि एवं चेव । कम्मगसरीरेणं भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! पंचविधे,पं० १०-एगिदियकम्मगसरीरे जाव पंचिंदिय० य, एवं जहेब तेयगसरीरस्स भेदो संठाणं ओगाहणा य भणिता तहेच निरवसेसं भाणितवं जाव अणुत्तरोवाइयत्ति (सूत्र २७५) 'तेयगसरीरे गं भंते ! इत्यादि, इह तैजसशरीरं सर्वेषामवश्यं भवति ततो यथा एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियगत औदारिकशरीरभेदो भणितस्तथा चतुरिन्द्रियान् यावत् तैजसशरीरभेदोऽपि वक्तव्यः, पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरचिन्तायां । चतुर्विधं पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरं, नैरयिकतिर्यग्मनुष्यदेवभेदात्, तत्र नैरयिकतैजसशरीरचिन्तायां यथा प्राक् वैक्रियशरीरे पर्यासापर्याप्तविषयतया द्विगतो भेद उक्तस्तथाऽत्रापि वक्तव्यः, स चैवं-'जद नेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे किं रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे जाव किं अहेसत्तमापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे ?, गो.! रयणप्पभापुढविनेरइयपं०तेयगसरीरेवि जाव अहेसत्तमापुढविनेरइयपं०तेयगसरीरेषि, जइ रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिं दीप अनुक्रम [५२०-५२१] seeeeeee I ndianarmera ~857~ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७४-२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप प्रज्ञापना-1 दियतेयगसरीरे किं पजत्तगरयणप्पभे'त्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां च यथा प्रागौदारिकशरीरभेद ||२१शरीर. याः मल- उक्तस्तथा अत्रापि वक्तव्यः, स चैवम्-'तिरिक्खजोणियपंचिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ?' इत्यादि, पदं य० वृत्ती. देवानां यथा वैक्रियशरीरभेद उक्तस्तथा भणितव्यः, स चैवम्-'जइ देवपंचिंदियतेयगसरीरे किं भवणवासिदेवर्ष-1 ॥४२७|| चिंतेयगसरीरे' इत्यादि, यावत्सर्वार्थसिद्धदेवसूत्र । उक्तो भेदः, सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'तेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पं.?' इत्यादि, सुगमं, इह जीवप्रदेशानुरोधि तैजसं शरीरं ततो यदेव तस्यां २ योनाचौदा-18 रिकशरीरानुरोधेन वैक्रियशरीरानुरोधेन च जीवप्रदेशानां संस्थानं तदेव तैजसशरीरस्यापि इति प्रागुक्तमेकद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यगतमौदारिकसंस्थान नैरयिकदेवेषु वैक्रियसंस्थानमतिदिष्टमिति । गतं संस्थानमधुना अय-| गाहनामानमाह-'जीवस्स णं भंते !' इत्यादि, जीवस्य नैरयिकत्वादिविशेषणाविवक्षायां सामान्यतः संसारिणो णमिति वाक्यालङ्कारे मारणान्तिकसमुद्घातेन वक्ष्यमाणलक्षणेन समबहतस्य सतः 'केमहालिया' इति किंमहती। |किंप्रमाणमहत्वा शरीरावगाहना?, शरीरमौदारिकादिकमप्यस्ति तत आह-तैजसशरीरस्य, प्रजसा १, भगवानाहशरीरप्रमाणमात्रा विष्कम्भवाहल्येन, विष्कम्भश्च बाहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं समाहारो द्वन्द्वरतेन, विष्कम्भेन पाह-IN४२७॥ ल्येन चेत्यर्थः, तत्र विष्कम्भ उदरादिविस्तारः वाहल्यमुरःपृष्ठस्थूलता आयामो देय, तत्रायामेन जघन्यतोऽजुलस्थासङ्ख्येयभागः-अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा, इयं च एकेन्द्रियस्यैकेन्द्रियेष्यत्यासन्नमुत्पद्यमानस्य द्रष्टव्या, उत्कर्षतो अनुक्रम [५२०-५२१] ~858~ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७४-२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] CSC0846 दीप लोकान्तात् लोकान्तः, किमुक्तं भवति ?-अधोलोकान्तादारभ्य यावदूर्द्धलोकान्त ऊर्द्धलोकान्तादारभ्य यावदधोलोकान्तस्तावत्प्रमाण इति, इयं च सूक्ष्मस्य वादरख या एकेन्द्रियस्य वेदितव्या, न शेषस्यासम्भवात् , एकेन्द्रिया। हि सूक्ष्मा बादराश्च यथायोगं समस्तेऽपि लोके वर्तन्ते न शेपास्ततो यदा सूक्ष्मो बादरो वा एकेन्द्रियोऽधोलोके वर्तमान ऊर्द्धलोकान्ते सूक्ष्मतया बादरतया चोत्पचुमिच्छति ऊर्द्ध लोकान्ते वा वर्तमानः सूक्ष्मो बादरो वा अधोलोकान्ते सूक्ष्मतया बादरतया वोत्पत्स्यते तदा तस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य यथोक्तप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना भवति, एतेन पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसूत्राण्यपि भाषितानि द्रष्टव्यानि, तथाहि-सूक्ष्मपृथिवीकायि| कोऽधोलोके ऊर्द्वलोके वा वर्तमानो यदा सूक्ष्मपृथिवीकायिकादितया बादरवायुकायिकतया चा ऊर्द्वलोके अधोलोके वा समुत्पनुमिच्छति तदा भवति तस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्योत्कर्षतो लौकान्तात् लोकान्तं यावत् तैजसशरीरावगाहना, एवमष्कायिकादिष्वपि भाव्य, द्वीन्द्रियसूत्रे आयामेन जघन्यतोऽनुलासययभागप्र|माणा यदा अपर्यासो द्वीन्द्रियोऽङ्गुलासययभागप्रमाणौदारिकशरीरः खप्रत्यासन्नप्रदेशे एकेन्द्रियादितयोत्पद्यते तदा अवसेया, अथवा यस्मिन् शरीरे स्थितः सन् मारणान्तिकसमुद्घातं करोति तस्मात् शरीरात् मारणान्तिकसमुद्घात-131 विशात् बहिर्विनिर्गततैजसशरीरस्यायामविष्कम्भविस्तारैरवगाहना चिन्यते न तत् शरीरसहितस्य, अन्यथा भवनप-18 त्यादेयजघन्यतोऽङ्गुलासङ्खबेयभागत्वं वक्ष्यते तद्विरुध्येत, भवनपत्यादिशरीराणां सप्तादिहस्त प्रमाणत्वात् , ततो महा अनुक्रम [५२०-५२१] ~859~ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७४-२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप प्रज्ञापना- कायोऽपि द्वीन्द्रियो यदा खप्रत्यासन्नदेशे एकेन्द्रियतयोत्पद्यते तदाप्यनुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा वेदितव्या, उत्कर्षत-२१ शरीया: मलस्तिर्यग्लोकालोकान्तः, किमुक्तं भवति ?-तिर्यग्लोकादधोलोकान्तो ऊर्द्धलोकान्तो वा यावता भवति तावत्प्रमाणा| पदं य. वृत्ती. IN इत्यर्थः, कथमेतावत्प्रमाणेति चेत्, उच्यते, इह वीन्द्रिया एकेन्द्रियेष्यप्युत्पद्यन्ते, एकेन्द्रियाश्च सकललोकव्यापिनः, ॥४२८॥ ततो यदा तिर्यग्लोकस्थितो द्वीन्द्रिय ऊर्द्वलोकान्ते अधोलोकान्ते वा एकेन्द्रियतया समुत्पद्यते तदा भवति तस्य । मारणान्तिकसमुद्घातसमवहतस्य यथोक्तप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, तिर्यग्लोकग्रहणं च प्रायस्तेषां तिर्यग्लोकः स्वस्थानमिति कृतमन्यथा अधोलोकैकदेशेऽप्यघोलौकिकग्रामादौ ऊर्द्धलोकैकदेशेऽपि पण्डकवनादौ द्वीन्द्रियः सम्भवतीति तदपेक्षयाऽतिरिक्ताऽपि तैजसशरीरावगाहना द्रष्टव्या, एवं त्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये । नैरयिकसूत्रे आयामेन जघन्यतो यत्सातिरेकं योजनसहस्रमुक्तं तदेयं परिभावनीयम्-इह बलया मुखादयश्चत्वारः पातालकलिशाः लक्षयोजनावगाहा योजनसहस्रबाहल्यठिक्करिकाः, तेषामधस्त्रिभागो वायुपरिपूर्ण उपरितन त्रिभाग उदकपरि पूर्णो मध्यस्त्रिभागो वायूदकयोरुत्सरणापसरणधर्मा, तत्र यदा कश्चित्सीमन्तकादिषु नरकेन्द्रकेषु वर्तमानो नैरयिकः । पातालकलशप्रत्यासन्नवर्ती च खायुःक्षयादुदृत्य पातालकलशकुख्य योजनसहस्रबाहल्यं भित्त्वा पातालकलशमध्ये द्वितीय तृतीये वा त्रिभागे मत्स्य तयोत्पद्यते तदा भवति सातिरेकयोजनसहस्रमाना नैरयिकस्य मारणान्तिकसमु अनुक्रम [५२०-५२१] ~860~ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७४-२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप घातसमवहतस्य जघन्या तैजसशरीरावगाहनो, उत्कर्षतो यावदधः सप्तमपृथिवी तिर्यक् यावत्स्वयम्भूरमणसमुद्र-18 | पर्यन्त ऊर्दू यावत्पण्डकवने पुष्करिण्यस्तावद् द्रष्टव्या, किमुक्तं भवति ?-अधः सप्तमपृथिव्या आरभ्य तिर्यग् यावत् | खयम्भूरमणपर्यन्त ऊर्दू यायत् पण्डकवनपुष्करिण्यस्तावत्प्रमाणा, एतावती च तदा लभ्यते यदाऽधः सप्तमपृथिवीनारकः खयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्ते मत्स्यतयोत्पद्यते पण्डकवने पुष्करिणीषु चेति, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियस्योत्कर्षतस्तिर्यग्लोकालोकान्तोऽत्रापि भावना द्वीन्द्रियवत्कर्त्तव्या, तिर्यपञ्चेन्द्रियस्यैकेन्द्रियेपूत्पादसम्भवात् । मनुष्यस्योत्कर्षतः |समयक्षेत्रात् , समयप्रधानं क्षेत्रं समयक्षेत्रं मयूर यसकादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, यस्मिन् अर्द्धतृतीयद्वीपप्रमाणे | सूर्यादिक्रियाध्यायः समयो नाम कालद्रव्यमस्ति तत्समयक्षेत्रं मानुषक्षेत्रमिति भावस्तस्मात् , यावदध ऊर्द्व वा लोकान्तस्तावत्प्रमाणा, मनुष्यस्याप्येकेन्द्रियेपूत्पादसम्भवात् , समयक्षेत्रग्रहणं समयक्षेत्रादन्यत्र मनुष्यजन्मनः संहर-II णस्य चासम्भवेनातिरिक्ताया अवगाहनाया असम्भवात् । असुरकुमारादिस्तनितकुमारपर्यवसानभवनपतिव्यन्तरज्यो-14 |तिष्कसौधर्मशानदेवानां जघन्यतोऽङ्गुलासङ्घवेयभागः, कथमिति चेत्, उच्यते, एते होकेन्द्रियेपूत्पद्यन्ते ततो यदा ते । १.गेरझ्याणं आयामेणं जहन्नेणं सातिरेग जोयणसहस्सं, कहं ? नरकादुद्भत्स पातालकुड्यं भिदेत्ता मच्छेमु पातालाओ वा मच्छस्स नरगेसु उबवजमाणस्स, अन्ये तु व्याचक्षते नरकाणां योजनसहसं, कथं !, सीमन्तको नाम नरकः सर्वोपरिवर्ती बनमयो योजनसहस्रबाहुल्यकुड्य इतो योजनसहरूमवगाह्य तत्र ये नारका मत्स्या भवितुकामास्ते तदासन्नं समुद्घातं गतास्तत्र सहस्रं लभते ॥ (श्रीहरि०वृत्तौ) अनुक्रम [५२०-५२१] ~861~ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७४ -२७५] दीप अनुक्रम [५२० -५२१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [-], उद्देशक: [-], मूलं [२७४-२७५] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. प्रज्ञापनायाः मल ॥४२९॥ खाभरणेष्वङ्गदादिषु कुण्डलादिषु वा ये मणयः पद्मरागादयस्तेषु गृद्धा मूर्च्छितास्तदध्यवसायिन तेष्वेव शरीरस्थेष्वाभरणादिषु पृथिवी कायिकत्वेनोत्पद्यन्ते तदा भवति जघन्यतोऽङ्गुलायेय भागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, अन्ये यवृत्तौ त्वन्यथाऽत्र भावनिकां कुर्वन्ति सा च नातिश्लिष्टेति न लिखिता न च दूषिता, 'कुमार्ग न हि तित्यक्षुः, पुनस्तमनुधावती'ति न्यायानुसरणात् उत्कर्षतो यावदधस्तृतीयस्याः पृथिग्या अधस्तन श्वरमान्तः तिर्यक् यावत्स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य बाह्यो वेदिकान्त ऊर्द्ध यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथिवी तावत् द्रष्टव्या, कथमिति चेत्, उच्यते, यदा भवनपत्यादिको देवस्तृतीयस्याः पृथिव्या अधस्तनं चरमान्तं यावत् कुतश्चित्प्रयोजनवशाद् गतो भवति, तत्र च गतः सन् कथमपि स्वायुःक्षयान्मृत्वा तिर्यक् स्वयम्भूरमणसमुद्राद्यवेदिकान्ते यदिवा ईषत्प्राग्भाराभिधपृथिवीपर्यन्ते पृथिवीकायिकतयोत्पद्यते तदा भवत्युत्कर्षतो यथोक्ता तथा तैजसशरीरावगाहना, सनत्कुमारदेवस्यापि जघन्यतोऽहुलासङ्ख्येय भागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, कथमिति चेत्, उच्यते, इद्द सनत्कुमारादय एकेन्द्रियेषु विकलेन्द्रि येषु वा नोत्पद्यन्ते, तथा भयस्वाभाव्यात्, किन्तु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु वा ततो यदा मन्दरादिपुष्करिण्यादिषु १. तुपूज्याः खल्वेवं भावार्थ अभिवर्णयति यथोपपातदेशागतजी व प्रदेशापेक्षया एतदुच्यते, कुतः ?, मणेः तदुपपातक्षेत्रस्य वा तच्छरीरविष्कंभ बाहल्या योगात्, तच तत्र गतोऽपि तत्र संघातमधिकृत्य तदाहारकः तदा भवति तदाविष्कंभवाद्दत्वं चोपसंहृत्य सर्वात्मना तत्र प्र विष्ठो भवतीति, अयं च स्वाभरणादायुत्पद्यमान एवं द्रष्टव्य इति ॥ ( श्रीहरि० वृत्तौ ) Jan Eucatury International For Penal Use On ~862~ २१ शरीरपदं ॥४२९|| Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७४ -२७५] दीप अनुक्रम [५२० -५२१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [-], ----- मूलं [२७४-२७५] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. जलावगाहं कुर्वतां स्वभवायुःक्षयात् तत्रैव स्वप्रत्यासन्ने देशे मत्स्यतयोत्पद्यन्ते तदा अङ्गुलासङ्ख्येय भागप्रमाणा द्रष्टव्या, अथवा पूर्वसम्बन्धिनीं मनुष्यस्त्रियं मनुष्येणोपभुक्तामुपलभ्य गाढानुरागादिहागत्य परिष्वजते परिष्वज्य च तदवाच्यप्रदेशे स्वावाच्यं प्रक्षिप्य कालं कृत्वा तस्या एव गर्ने पुरुषबीजे समुत्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कर्षतोऽधः पातालकलशानां लक्षयोजनप्रमाणावगाहानां द्वितीयत्रिभागं यावत् तिर्यग् यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्त ऊर्द्ध यावदच्युतकल्पस्तावदवगन्तव्या, कथमिति चेत्, उच्यते, इह सनत्कुमारादिदेवानामन्यदेवनिश्रया अच्युतकल्पं यावद् गमनं भवति, न च तत्र वाप्यादिषु मत्स्यादयः सन्ति तत इह तिर्यग्मनुष्येषूत्पत्तव्यं तत्र यदा सनत्कुमारदेवोऽन्यदेवनिश्रया अच्युतकल्पं गतो भवति तत्र च गतः सन् खायुःक्षयात्कालं कृत्वा तिर्यक् स्वयंभूरमणपर्यन्ते यदिवाऽधः | पातालकलशानां द्वितीयत्रिभागे वायूदकयोरुत्सरणापसरणभाविनि मत्स्यादितयोत्पद्यते तदा भवति तस्य तिर्यगधो वा यथोक्तक्रमेण तेजसशरीरावगाहनेति, एवं जाव सहस्सारदेवस्स त्ति एवं- सनत्कुमारदेवगतेन प्रकारेण जघन्यत उत्कर्षतश्च तैजसशरीरावगाहना तावद्वाच्या यावत्सहस्रारदेवेभ्यः, भावना [ऽपि ] सर्वत्रापि समाना, आनतदेव| स्यापि जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, नन्यानतादयो देवा मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते मनुष्याश्च मनुष्यक्षेत्र एवेति कथमङ्गुलासङ्ख्येय भागप्रमाणा १, उच्यते, इह पूर्वसम्बन्धिनीं मनुष्यस्त्रियमन्येन मनुष्येणोपभुक्ता|मानतदेवः कश्चनाप्यवधिज्ञानत उपलभ्यासन्नमृत्युतया विपरीतस्वभावत्वात् सत्त्वचरितवैचित्र्यात् कर्मगतेरचिन्त्य Education Internation For Penal Use On ~863~ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७४-२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २१शरीपदं प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप प्रज्ञापना- त्वात् कामवृत्तमलिमत्वाच, उक्तं च-"सत्यानां चरितं चित्रं, विचित्रा कर्मणां गतिः । मलिनत्यं च कामानां, या मल- वृत्तिः पर्यन्तदारुणा ॥१॥” इति, गाढानुरागादिहागत्य नकुलोपगृहं तां परिष्वज्य तदवाच्यप्रदेशे खावाच्यं । २. वृत्ती. प्रक्षिप्यातीय मूच्छितः खायुःक्षयात् कालं कृत्वा यदा तस्या एव गर्ने मनुष्यबीजे मनुष्यत्वेनोत्पद्यते, मनुष्यबीजं च ॥४३०॥ जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त्तमुत्कर्षतो द्वादश मुहूर्तान् यावदवतिष्ठति, उक्तं च-"मणुस्सबीए णं भंते ! कालतो केवचिरं! होइ?, गो01जह अंडोउकोसेणं बारस मुहुत्ता" इति, ततो द्वादशमुहूर्ताभ्यन्तर उपभुक्तां परिष्वज्य मृतस्य | & तत्रैवोत्पत्तिर्मनुष्यत्वेन द्रष्टव्या, उत्कर्षतोऽधो यावदधोलौकिका प्रामास्तिर्यग् यावन्मनुष्यक्षेत्रं ऊर्दू यावदच्युतः कल्पस्तावदयसेया, कथमिति चेत् , उच्यते, इह यदाऽऽनतदेवः कस्याप्यन्यस्य देवस्य निश्रया अच्युतकल्पं गतो | भवति, स च तत्र गतः सन् कालं कृत्वाऽधोलौकिकग्रामेषु यदिवा मनुष्यक्षेत्रपर्यन्ते मनुष्यत्वेनोत्पद्यते तदा लभ्यते, एवं प्राणतारणाच्युतकल्पदेवानामपि भावनीयं, तथा चाह-'एवं जाव आरणदेवस्स, अधुयदेवस्स एवं | चेव, नवरं उर्दु जाव सयाई विमाणाई' इति, अच्युतदेवस्थापि जघन्यतः उत्कर्षतश्च तेजसशरीरावगाहना एवमेवएवंप्रमाणैव, परं सूत्रपाठे 'उहूं जाव सयाई विमाणाई' इति वक्तव्यं, नतु 'उहं जाव अचुओ कप्पो' इति, अच्यु-I तदेवो हि यदा चिन्त्यते तदा कथमूर्द्ध यावदच्युतः कल्प इति घटते, तस्य तत्र विद्यमानत्वात् , केवलमच्युतदेवोऽपि कदाचिदै खविमानपर्यन्तं यावद् गच्छति तत्र च गतः सन् कालमपि करोति तत उक्तम्-'उड्डे जाव अनुक्रम [५२०-५२१] ४३०॥ ~864~ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७४-२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप |सयाई विमाणाई' इति, अवेयकानुत्तरसुरा भगवद्वन्दनादिकमपि तत्रस्था एवं कुर्वन्ति तत इहागमनासम्भवात् अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणता न लभ्यते, किन्तु यदा वैताठ्यगतासु विद्याधरश्रेणिपूत्पद्यन्ते तदा खस्थानादारभ्याधो यावद्विद्याधरश्रेणयस्तावत्प्रमाणा जघन्या तैजसशरीरावगाहना, अतोऽपि मध्ये जघन्यतराया असम्भवात् , उत्कृष्टा । यावदधोलौकिका ग्रामास्ततोऽप्यध उत्पादासम्भवात् , तिर्यग्यावन्मनुष्यक्षेत्रपर्यन्तस्त तः परं तिर्यगप्युत्पादाभावात् , यद्यपि हि विद्याधरा विद्याधर्यश्च नन्दीश्वरं यावद् गच्छन्ति अाक् सम्भोगमपि कुर्वन्ति तथापि मनुष्यक्षेत्रात् परतो | गर्भ मनुष्येषु नोत्पद्यन्ते ततस्तिर्यग्यावत् मनुष्यक्षेत्रमित्युक्तं । तदेवमुक्तानि तेजसशरीरस्य विधिसंस्थानावगाहना| मानानि, सम्प्रति कार्मणस्य वक्तव्यानि, कार्मणं च तैजससहाविनाभावि तैजसवच जीवप्रदेशानुरोधि संस्थानं ततो यथैव तैजसशरीरस्योक्तानि तथैव कार्मणस्यापि वक्तव्यानि, तथा चाह-एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणमोगाहणा य भणिता तहेव निरवसेसं भाणितचं जाव अणुत्तरोववाइय'ति । उक्तानि पञ्चानामपि शरीराणां विधिसंस्थानावगाहनामानानि, सम्प्रति पुगलचयनमाह ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिजंति ?, गो! निवाधाएणं छदिसि वाघायं पड्डुच सिय तिदिसिं सिय चउद्दिसिं सिय पंचदिसिं, बेउबियसरीरस्सणं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिजंति, गो०1णियमा छद्दिसिं, एवं आहारगसरीरस्सवि, तेयाकम्मगाणं जहा ओरालियसरीरस्स । ओरालियसरीरस्स पं भंते ! कतिदिसि पोग्गला उवचि 2200020909200000 अनुक्रम [५२०-५२१] औदारिक आदि शरीर द्वारा पुद्गलस्य चयनं ~865~ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २१ शरी प्रत सूत्रांक रपदं प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. ॥३१॥ [२७६] दीप अनुक्रम [५२२]] जंति ?, गो.! एवं चेव जाव कम्ममसरीरस्स, एवं उवचिअंति, अवचिजति । जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स वेउडियसरीरं जस्स वेउवियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं ?, गो० ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउवियसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स वेउवियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं?, गो० जस्स ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण आहारगसरीरं तरस ओरालियसरीरं णियमा अस्थि, जस्स णं भंते । ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं जस्स तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं?, गो! जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं नियमा अत्थि जस्स पुण तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, एवं कम्मगसरीरंपि, जस्स णं भंते ! वेउबियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स आहारगसरीरं तस्स वेवियसरीरं, गो.! जस्स बेउवियसरीरं तस्स आहारगसरीरं णस्थि, जस्सवि आहारगसरीरं तस्सपि वेउवियसरीरं णत्थि, तेयाकम्मातिं जहा ओरालिएण समं तहेव आहारगसरीरेणवि समं तेयाकभ्मगात चारेयवाणि, जस्स णं भंते ! तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयगसरीरं?, गो० जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं णियमा अस्थि, जस्सवि कम्मगसरीरं तस्सवि तेयगसरीरं णियमा अस्थि (मूत्र २७६ ) 'ओरालियसरीरस्स णं भंते !' इत्यादि, औदारिकशरीरस्य 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! 'कइदिर्सि' इति पञ्चम्यर्थे द्वितीया बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , ततोऽयमर्थः-कृतिभ्यो दिग्भ्यः समागत्य पुद्गलाश्चीयन्ते, कर्म ॥४३१॥ ~866~ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७६] दीप अनुक्रम [५२२ ] "प्रज्ञापना" उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) उद्देशक: [-] दारं [-] मूलं [ २७६ ] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Dish - कर्त्तर्ययं प्रयोगः, स्वयं चयनमागच्छन्तीत्यर्थः, भगवानाह – निर्व्याघातेन व्याघातस्याभावो निर्व्याघातमव्ययीभावः 'तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पेनाम्विधानान्नाश्राम्भावः 'छद्दिसिं' ति षड्भ्यो दिग्भ्यः किमुक्तं भवति ?यत्र सनाढ्या मध्ये बहिर्वा व्यवस्थितस्यादारिकशरीरिणो नैकापि दिग् अलोकेन व्याहता वर्त्तते तत्र निर्व्याघाते व्यवस्थितस्य नियमात् षड्भ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं व्याघातं - अलोकेन प्रतिस्खलनं प्रतीत्य 'सिय तिदिसिं'ति स्यात् - कदाचित्तिसृभ्यो दिग्भ्यः स्याच्चतसृभ्यः स्यात् पञ्चभ्यः, कथमिति चेत्, उच्यते, सूक्ष्मजीवस्यीदारिकशरीरिणो यत्रो लोकाकाशं न विद्यते नापि तिर्यक् पूर्वदिशि नापि दक्षिणदिशि तस्मिन् सर्वोर्ध्वप्रतरे आनेयकोणरूपे लोकान्ते व्यवस्थितस्याधः पश्चिमोत्तररूपाभ्यस्तिसृभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलोपचयः शेषदित्रयस्यालोकेन व्यासत्वात् पुनः स एव सूक्ष्मजीव औदारिकशरीरी पश्चिमां दिशमनुसृत्य तिष्ठति तदा पूर्वदिगस्याधिका जातेति चतसृभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, यदा पुनरधी द्वितीयादिप्रतरे गतः पश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदा ऊर्द्ध| दिगप्यधिका लभ्यते केवला दक्षिणैव दिगलोकेन व्याहतेति पञ्चभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, वैक्रियशरीरमाहारकशरीरं च श्रसनाच्या मध्य एव सम्भवति नान्यत्रेति तयोरपि पुद्गलचयो नियमात् पद्भ्यो दिग्भ्यः, तैजसकार्मणे सर्वसंसारिणां ततो यथौदारिकस्य निर्व्याघातेन पद्भ्यो दिग्भ्यो व्याघातं प्रतीत्य पुनः स्यात् त्रिदिग्भ्यः स्याच्चतुदिग्भ्यः स्यात् पञ्चदिग्भ्यः तथा तैजसकार्मणयोरपि द्रष्टव्यः, यथा चयस्तथा उपचयोऽपचयश्च वक्तव्यः, तत्र उप For Parts Only ~867~ andrary org Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७६] दीप अनुक्रम [५२२]] प्रज्ञापना- चयः-प्राभूत्येन चयः अपचयो-हासः शरीरेभ्यः पुद्गलानां विचटनमितियावत् । उक्तं पुद्गलचयनमिदानीं शरी-18|२१ शरीया मल- रसंयोगमाह-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, यस्यौदारिक तस्य वैक्रियं स्यादति स्यान्नास्ति, य औदारिकशरीरी सन्र पदं य० वृत्ती. वैनियलब्धिमान् वैक्रियमारभ्य तत्र वर्तते तस्यास्ति शेषस्य नास्तीति भावः, यस्य क्रियशरीरं तस्यौदारिकशरीरं ॥४३२॥सालाना स्यादस्ति स्यान्नास्ति, देवनारकाणां वैक्रियशरीरवतामौदारिकशरीरं नास्ति तिर्यग्मनुष्याणां तु वैक्रियशरीरवतामस्तीति भावार्थः, आहारकशरीरेणापि सह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीरं तस्याहारकशरीरं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, शय औदारिकशरीरी चतुर्दशपूर्वधर आहारकलब्धिमान् आहारकशरीरमारभ्य वर्तते तस्यास्ति शेषस्य नास्तीत्यर्थः, यस्य पुनराहारकशरीरं तस्यौदारिकशरीरं नियमादस्ति, औदारिकशरीरविरहे आहारकलब्धेरप्यसम्भवात् , तैजसशरीरेण सह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीरं तस्य नियमात्तैजसशरीरं, तेजसशरीरविरहे औदारिकशरीरासम्भवात् , यस्य पुन जसशरीरं तस्खौदारिकं स्यादस्ति स्वान्नास्ति, देवनैरयिकाणां नास्ति तिर्यग्मनुष्याणामस्तीति भावः, एवं कार्मणशरीरेणापि सह चिन्ता कर्त्तव्या, तैजसकार्मणयोः सहचारित्वात् , सम्प्रति क्रियशरीरस्याहारकशरीरादिभिः सह संयोगचिन्तां कुर्वन्नाह-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, यस्य वैक्रियशरीरं न तस्याहारकशरीरं यस्याहारकशरीरं न ४३२॥ तस्य वैक्रियशरीरं, समकालमनयोरेकस्यासम्भवात् , तैजसकामणे यथौदारिकशरीरेण सह चिन्तिते तथा वैक्रियशरीरेणापि सह चिन्तयितव्ये, आहारक शरीरेणापि सह तथैव, तैजसकार्मणयोस्तु परस्परमविनामावित्वात् यस्य ~868~ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: @ प्रत सूत्रांक [२७६] दीप अनुक्रम [५२२]] तेजसं तस्य नियमात् कार्मणं यस्य कार्मणं तस्य नियमात् तैजसम् । गतं संयोगद्वारम् , इदानीं द्रव्यप्रदेशोभयैरल्पबहुत्वमभिधित्सुराहएतेसि णं भंते ! ओरालियचेउवियआहारगतेयगकम्मगसरीराणं दवट्टयाए पदेसट्टयाए दबट्ठपएसट्टयाते कयरे हितो अप्पा वा ४१, गो! सबत्थोवा आहारगसरीरा दवहयाते वेउवि यसरीरा दबट्टयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा दबहयाते असं० तेयाकम्मगसरीरा दोवि तुल्ला दबट्टयाते अर्णतगुणा, पदेसद्वयाए सबथोवा आहारगसरीरा पदे० बेउवियसरीरा पदे० असं० ओरालियसरीरा पदे० असं० तेयगसरीरा पदे० अणं कम्मगसरीरा पदे० अणं, दवट्ठपदेसट्टयाते सवत्थोवा आहारगसरीरा दवट्ठयाते वेउवियसरीरा दवट्ठयाए असं० ओरालियसरीरा दवद्वयाए असं० ओरालियसरीरेहितो दबट्टयाएहितो आहारगसरीरा पदेसट्टयाए अणं० वेउबियसरीरा पदे० असं० ओरालियसरीरा० पदे० असंखेजगुणा तेयाकम्मा दोषि तुल्ला दबट्टयाए अणं० तेयगसरीरा पदे० अर्णतगुणा कम्मगसरीरा पदे० अणं० (सूत्र २७७) एतेसिणं भंते ! ओरालियवेउवियाहारगतेयगकम्मगसरीराणं जहणियाए ओगाहणाए उकोसियाए ओगाहणाए जहण्णुकोसियाए ओगाहणाए कतरेशहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबथोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा, तेयाकम्मगाणं दोहवि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसे वेउबियसरीर स्स जहणिया ओगाहणा असं० आहारगसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असं०, उकोसियाए ओगाहणाए सवत्थोवा आहारगसरीरस्स उकोसिया ओगाहणा ओरालियस 3930002030202000908 | औदारिक आदि पञ्चविध-शरीरस्य अल्पबहुत्वं ~869~ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७७-२७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] प्रज्ञापना-1 याः मलयवृत्ती. ॥४३३॥ Sectroclge दीप अनुक्रम [५२३-५२४] रीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखे वेउवियसरीरस्स उकोसिया ओगाहणा संखि० तेयाकम्मगाणं दोवि तुल्ला उक्कोसिया २१ शरीओगाहणा असं०, जहण्णुकोसियाते ओगाहणाते सवत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा तेयाकम्भाणं दोण्हवि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसे वेउवियसरीरस्स जहणिया ओगा० असं• आहारगसरीरस्स जहणियाहिंतो ओगाहणाहितो तस्स चेव उकोसिया ओगाविसे ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगा० संखे० वेउवियसरीरस्स णं उक्कोसिया ओगाहणा संखि० तेयाकम्मगाणं दोण्हवि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखिजगुणा ।। (मूत्र २७८) पण्णवणाए भगवईए एगवीसइमं पयं समर्च ॥ २१ ॥ 'एएसि णं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि द्रव्यार्थतया, शरीरमात्रद्रव्यसङ्ख्यया इत्यर्थः, उत्कृष्टपदेऽपि तेषां सहस्रपृथक्त्वस्य प्राप्यमाणत्वात् , 'उक्कोसेण उ जुगवं पुडुत्तमेत्तं सहस्साण'मिति वचनात् [ उत्कृष्टेन तु युगपत् सहस्राणां पृथक्त्वमा ] तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि द्रव्यार्थतया असमवेयगुणानि, सर्वेषां नैरयिकाणां सर्वेषां च देवानां कतिपयतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यवादरवायुकायिकानां च क्रियशरीरसम्भवात् , तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि द्रव्यार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्याणामीदारिक-N४३॥ शरीरभावात् , पृथिव्यसेजोवायुवनस्पतिशरीराणां च प्रत्येकमसयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि तेजसकामणशरीराणि द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणानीति, सूक्ष्मवादरनिगोदजीवानामनन्तानन्तानां प्रत्येकं तैजसकामणशरीरमावान्, ~870~ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७७-२७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] दीप eneraceaeserverseaseserseera खस्थाने तु परस्परं तुल्यानि, परस्पराविनाभावित्वादेकस्याभावेऽन्यस्याप्यभावात् , प्रदेशार्थचिन्तायां सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि सहस्रपृथक्त्वमात्रशरीरप्रदेशानामल्पत्वात् , तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि प्रदेशाथतया असोयगुणानि, इह यद्यपि वैक्रियशरीरयोग्यवर्गणाभ्य आहारकशरीरवर्गणाः परमाण्वपेक्षया अनन्तगुणास्तथापि स्तोकाभिवर्गणाभिराहारकशरीर निष्पद्यते हस्तमात्रत्वादतिप्रभूताभिक्रियशरीरवर्गणाभिक्रियं उत्कर्षतः सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणत्वात् अतिस्तोकानि चाहारकशरीराणि सहनपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् अतिप्रभूतानि वैक्रियशरीराणि असङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् तत उपपद्यन्ते आहारकशरीरेभ्यः प्रदेशार्थतया वैक्रियशरीराण्यसङ्खयेयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया तेषां लभ्यमानत्वेन तत्प्रदेशानामतिप्रभूतानां सम्भवात् , तेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, द्रव्याघेतयाऽपि तेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात्, तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, तैजसवर्गणाभ्यः कार्मणवर्गणानां परमाण्यपेक्षयाऽनन्तगुणत्वात् , द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तायां 'सबत्थोवा आहारगसरीरा दवट्टयाए । विउवियसरीरा दबट्टयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा दब० असं०' इत्यत्र भावना प्रागुक्ताऽनुसतव्या, तेभ्यो द्रव्यार्थतयौदारिकशरीरेभ्य आहारकशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, औदारिक शरीराणि सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, आहारकशरीरयोग्यवर्गणायां त्वेकैकस्यामप्यभव्येभ्योऽनन्तगुणाः परमाणय इति, तेभ्यो अनुक्रम [५२३-५२४] ~871~ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७७-२७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] प्रज्ञापना- हऽपि वैक्रियशरीराणि प्रदेशार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असत्यगुणानि, २१ शरीयाः मल- अत्र भावना प्रागेव कृता, तेभ्योऽपि तैजसकार्मणानि द्रन्यार्थतया अनन्तगुणानि अतिप्रभूतानन्तसञ्जयोपेतत्वात् , | रपदं सू. प.वृत्ती . वेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, अनन्तपरमाण्वात्मिकाभिरनन्ताभि(वर्गणाभि)रेकैकस्य तैज २७८ ॥४३४॥ सशरीरस्य निष्पाद्यत्वात् , तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, अत्र कारणं प्रागेवोत । तदेवं पञ्चानामपि शरीराणां द्रव्यप्रदेशोभयरल्पबहुत्वमुक्तम् , इदानीं जघन्योत्कृष्टोभयावगाहनाविषयमल्पबहुत्वमाह'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका औदारिकशरीरस्य जघन्यावगाहना, अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रप्रमाणत्वात्, तैजसकामणयोर्जघन्यावगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या, औदारिकजघन्यावगाहनातो विशेषाधिका, कथमिति चेत्, उच्यते, इह मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य पूर्वशरीरात् यदहिर्विनिर्गतं तैजसशरीरं तस्यायामबाहल्यविस्तारैवगाहना चिन्यते इत्युक्तं प्राक, तत्र यस्मिन् प्रदेशे उत्पत्स्यन्ते सोऽपि प्रदेश औदारिकशरीरावगाहनाप्रमितोऽहुलासयेयभागप्रमाणो व्यासो यदप्यपान्तरालमतिस्तोकं तदपि व्याप्तमित्यौदारिकजघन्यावगाहनातो विशेषाधिका, ततोऽपि वैक्रियशरीरस्य जघन्यावगाहना असङ्ख्येयगुणा, अङ्गुलासययभागस्थासङ्ख्ययभेदभिन्नत्वात्, ततोऽ-11 ॥४३४॥ प्याहारकशरीरस जघन्यावगाहनाऽसङ्खयेयगुणा, देशोनहस्तप्रमाणत्वात्, उत्कृष्टावगाहनाचिन्तायां सर्वेस्तोका आहारकशरीरस्योत्कृष्टाऽवगाहना, हस्तमात्रत्वात् , ततोऽप्यौदारिकशरीरस उत्कृष्टावगाहना सोयगुणा, सातिरे Selectrserseerserseaseseseseब्रन्ट दीप अनुक्रम [५२३-५२४] Rece ~872 ~ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७७-२७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] कयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् , ततोऽपि वैक्रियशरीरस्वोत्कृष्टावगाहना सङ्ख्येयगुणा, सातिरेकयोजनलक्षमानत्वात् , तेज-1, सकार्मणयोरुत्कृष्टावगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या वैक्रियशरीरोत्कृष्टायगाहनातोऽसङ्ख्येयगुणा, चतुर्दशरज्वात्मकत्वात् , जघन्योत्कृष्टावगाहनचिन्तायां आहारकशरीरस्य 'जहणियाहिंतो ओगाहणाहिंतो तस्स चेव उक्कोसिया ओगाहणा बिसेसाहिया' इति, देशेन समधिकत्वात् , शेषं सुगम, अनन्तरमेव भावितत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामेकविंशतितममवगाहनासंस्थानपदं समर्थितम् ॥ २१ ॥ अथ द्वाविंशतितमं क्रियाख्यं पदं ॥ २२ ॥ eeees HD दीप अनुक्रम [५२३-५२४] तदेवं व्याख्यातमेकविंशतितमं पदं, अधुना द्वाविंशतितममारभ्यते, तस्स चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषरूपं शरीरावगाहनादि चिन्तितं, इह तु नारकादिगतिपरिणामेन परिणतानां जीवानां प्राणातिपातादिरूपाः क्रियाविशेषाश्चिन्त्यन्ते, तत्रेदमादिसूत्रम् कति णं भंते । किरियाओ पण्णताओ',गो! पंच किरियाओ पण्णताओ, त०-काइया १ अहिगरणिया २ पादोसिया ३ पारियावणिया ४ पाणाहवायकिरिया, काइया णं भंते ! किरिया कातेविहा पं०१, मो01 दुविहा पं०, तं-- | अत्र पद (२१) "अवगाहनासंस्थान/(शरीर)" परिसमाप्तम् अथ पद (२२) "क्रिया" आरब्धम ~873~ Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. ॥४३५॥ Seate प्रत सूत्रांक 9000 [२७९] अणुवस्यकाइया य दुप्पउत्तकाइया य, अहिंगरणिया णं भंते । किरिया काविहा पं०१, गो० दुविहा पं०,० २२ क्रियासंजोयणाहिकरणिया य निवत्तणाधिगरणिया य, पादोसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पं०१, मो० ! तिविहा ५०, पदेतभेदाः तं. जेणं अपणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभ मणं संपधारेति, सेतं पादोसिया किरिया, पारियावणिया णं सू. २७९ भंते ! किरिया कतिविहा पं०१, मो०! तिवि० ५०, तं०-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अस्सायं वेदणं उदीरेति, सेनं पारियावणिया किरिया, पाणातिवायकिरिया णं भंते ! कति विहा पं०१, गो.1 ति०५०,०-जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियाओ ववरोवेइ, से तं पाणाइ वायकिरिया (सूत्रं २७९) 'कइ णं भंते ! किरियाओ पं०' इत्यादि, करणं क्रिया, कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा इत्यर्थः, सा पञ्चधा, तद्यथा'काइया' इत्यादि, चीयते इति कायः-शरीरं, काये भवा कायेन निवृत्ता वा कायिकी १, तथा अधिक्रियतेस्थाप्यते नरकादिष्यात्माऽनेनेति अधिकरणं-अनुष्ठानविशेषो बाचं वा वस्तु चक्रखगादि तत्र भवा तेन वा निर्मूत्ता आधिकरणिकी, 'पाउसिया' इति प्रद्वेषो-मत्सरः कर्मबन्धहेतुरकुशलो जीवपरिणामविशेष इत्यर्थः तत्र भवाN तेन वा निवृत्ता स एव वा प्राद्वेषिकी ३, 'पारियावणिया' इति परितापनं परितापः पीडाकरणमित्यर्थः तस्मिन् ॥३५॥ भवा तेन वा निवृत्ता परितापनमेव वा पारितापनिकी ४, 'पाणाइवायकिरिया' इति प्राणा-इन्द्रियादयस्तेषामतिपातो-विनाशस्त्रद्विषया प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया, तत्र कायिकी द्विभेदा, तद्यथा-अनुप दीप अनुक्रम [५२५] अथ क्रियायाः भेद-प्रभेदा: कथ्यन्ते ~874~ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७९]] रतकायिकी दुष्प्रयुक्तकायिकी च, उपरतो-देशतः सर्वतो वा सावद्ययोगाद्विरतः नोपरतोऽनुपरतः कुतश्चिदप्यनि-1 वृत्त इत्यर्थः तस्य कायिकी अनुपरतकायिकी क्रियेति वर्तते, इयं प्रतिप्राणिनि वर्तते, इयमविरतस्य वेदितम्या, नN देशविरतस्य सर्वविरतस्य वा, तथा दुष्ट प्रयुक्तं-प्रयोगः कायादीनां यस्य स दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायिकी दुष्प्रयुक्तका-IN यिकी, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, प्रमत्ते सति कायदुष्प्रयोगसम्भवात् । आधिकरणिक्यपि विभेदा, तद्यथा-N संयोजनाधिकरणिकी निवर्तनाधिकरणिकी च, तत्र संयोजन-पूर्वनिर्वर्तितानां हलगरविषकूटयन्त्राधङ्गानां मीलनं तदेव संसारहेतुत्वादाधिकरणिकी संयोजनाधिकरणिकी, इयं हलायङ्गानि पूर्वनिर्वर्जितानि संयोजयितुर्भवति, तथा |निर्वर्तनं-असिशक्तिकुन्ततोमरादीनां मूलतो निष्पादनं तदेवाधिकरणिकी निवनाधिकरणिकी, पञ्चविधस्य वा| शरीरस्य निष्पादनं निर्वनाधिकरणिकी, देहस्यापि दुष्प्रयुक्तस्य संसारवृद्धिहेतुत्वात् । प्रा।पिकी त्रिभेदा, तद्यथा'जेण अप्पणो'इत्यादि, येन प्रकारेण जीवा आत्मनो वा-खस्य वा अन्यस्य वा-आत्मव्यतिरिक्तस्य उभयस्य वा-| खपरलक्षणस्योपरि अशुभ-अकुशलं मन:-अन्तःकरणं प्रधारयति-प्रकर्षण धारयति करोतीत्यर्थः तेन कारणेन | विषयस्य त्रैविध्यात् त्रिविधा प्राद्वेषिकी क्रिया, तथाहि-कश्चित् कस्मिन् प्रयोजने खयमनुष्ठिते पर्यन्ते विपाकदाAणे संवृत्ते सति अविवेकादात्मन एवोपरि अकुशलं मनः सम्प्रधारयति, एवं कश्चित् परस्य, कश्चित् खपरयोरपीति। पारितापनिक्यपि त्रिविधा, तद्यथा-'जेणं अप्पणो' इत्यादि, येन प्रकारेण कश्चित् कुतश्चित् हेतोरविवेकत आत्मन टाseeeeeeeeee दीप अनुक्रम [५२५] ~875~ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७९]] प्रज्ञापना- एवासात-दुःखरूपां वेदनामुत्पादयति, कश्चित्परस्य कश्चित्तदुभयस्य, ततः खपरतदुभयभेदात् भवति त्रिधा क्रियायाः मल- पारितापनिकी क्रिया, आह-एवं सति लोचाकरणतपोऽनुष्ठानाकरणप्रसङ्गः, यथायोगं खपरोभयासातवेदनाहेतुत्वात् ,पदेत दा। य. वृत्ती.तिदयुक्तं, विपाकहितत्वेन चिकित्साकरणवत् लोचकरणादरसातवेदनाहेतुत्यायोगात् अशक्यतपोऽनुष्ठानप्रतिषेधाश, सू. २७९ उक्तं च-“सो हु तवो कायबो जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा न हायति ॥१॥" ॥४३६॥ तदेव तपः कर्त्तव्यं येन मनोऽशोभनं न चिन्तयति । येन नेन्द्रियहानिर्येन च योगा न हीयन्ते ॥ १॥] तथा"कायो न केवलमयं परिपालनीयो, मृष्टै रसैर्वहुविधैर्न च लालनीयः । चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यथोत्पथेषु, वश्यानि येन च तथाऽऽचरितं जिनानाम् ॥१॥" इति, प्राणातिपातक्रियाऽपि त्रिविधा, तद्यथा-'जेण अप्पणो' इत्यादि, येन प्रकारेण कश्चिदविवेकी भैरवप्रपातादिनाऽऽत्मानं जीविताद् व्यपरोपयति कश्चित् प्रद्वेषादिना परं कश्चि-18 दुभयमपीत्यतः प्राणातिपातक्रियाऽपि त्रिविधा, अत एव कारणाद्भगवद्भिरकालमरणमपि प्रतिषिद्धं, प्राणातिपात-18 क्रियादोषसम्भवात् । तदेवमुक्ताः क्रियाः, सम्प्रत्येताः किमविशेषेण सर्वेषां जीवानां सन्ति किं वा नेति जिज्ञा-18 सुरिदमाह ॥४३६॥ जीवा णं भंते ! कि सकिरिया अकिरिया , गो० ! जीवा सकिरियावि अकिरियावि, से केणडेणं भंते ! एवं बु०-जीवा सकिरियावि अकिरियावि, गो० ! जीवा दुविहा पं० त०-संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य, तत्थ णं दीप अनुक्रम [५२५] ~876~ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८० जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अकिरिया, तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पं०, ०सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिव०, तत्थ णं जे ते सेलेसिप० ते णं अकिरिया, तत्थ णं जे ते असेलेसिपडि० ते णं सकिरिया, से तेणद्वेणं गो.1 एवं बु०-जीवा सकिरियावि अकिरियावि । अस्थि णं मंते ! जीवाणं पाणाइवाएण किरिया कजति', हंतागो! अस्थि, कम्हिणं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया कजति ,गो छस जीवनिकाएसु, अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति , गो! एवं चेव, एवं जाव निरंतरं वेमाणियाण, अस्थि णं मंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कजति , हता! अस्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया काति?, गो.! सबदवेसु, एवं निरंतर नेरझ्याण जाव वेमाणियाणं, अस्थि णं भंते ! जीवाणं अदिनादाणेणं किरिया कअति , हता अस्थि, कम्हि ण भंते जीवाणं अदिबादाणेणं किरिया कति , गो० गहणधारणिजेस दवेस, एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव वेमाणियाण, अस्थि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कजति ,हंता अस्थि, कम्हि ण मंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कजति ?, गोरूवेसु वा रूबसहगतेसु वा दवेसु, एवं नेर निर० जाच वेमाणियाण, अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजति !, हंता अत्थि, कम्हि णं भंते ! परिग्गहेणं किरि०१, गो! सबदबेसु, एवं नेर० जाव वेमाणियाणं, एवं कोहेणं माणेणं-मायाए लोभेणं पेजेणं दोसेणं कलहेणं अभक्खाणेणं पेसुन्नेणं परपरिवाएणं अरतिरतीते मायामोसेणं मिच्छादसणसल्लेणं, ससु जीवा नेरइयभेदेणं भाणितबा, निरंतरं जाव वेमाणियाणति, एवं अट्ठारस एते दंडगा १८ (सूत्र २८०) eceaeococrateelerselverse दीप अनुक्रम [५२६] L ~877~ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८०] ॥४३७० प्रज्ञापना- 'जीवाणं भंते ! इत्यादि सुगम, नवरं 'संसारसमावण्णगा' इति संसार-चतुर्गतिभ्रमणरूपं सम्यग-एकीभा- २२ क्रियाया: मल- वेनापन्नाः संसारसमापन्नाः संसारसमापन्ना एवं संसारसमापन्नकाः, प्राकृतत्वात् खार्थे कप्रत्ययः, तद्विपरीता असं-18 पदे प्राणायवृत्ती. सारसमापन्नकाः, चशब्दो खगतानेकभेदसूचकौ, तत्र ये असंसारसमापनकास्ते सिद्धाः, सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभाव तिपाता दिना क्रितोऽक्रियाः, ये तु संसारसमापन्नकास्ते द्विविधाः-शैलेशीप्रतिपन्नका अशैलेशीप्रतिपन्नकाच, शैलेशी नामायोग्यवस्था याः सू. तां प्रतिपन्नाः शैलेशीप्रतिपन्नाः, ततः पूर्ववत् खार्थिकः कप्रत्ययः, शैलेशीप्रतिपन्नकाः, तव्यतिरिक्ताः अशैलेशीप्र-8 २८. तिपन्नकाः, तत्र ये शैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सूक्ष्मवादरकायवाल्मनोयोगनिरोधादक्रियाः, ये त्वशैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सयोगित्वात् सक्रियाः, 'से एएणटेण'मित्याद्युपसंहारवाक्यं । तदेवं ये सक्रिया ये चाक्रियास्ते उक्ताः, सम्प्रति यथा| प्राणातिपातक्रिया न भवति तथा दर्शयति-'अस्थि णं भंते ! इत्यादि, अस्त्येतत्, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ।। जीवानां प्राणातिपातेन-प्राणातिपाताध्यवसायेन क्रिया सामर्थात् प्राणातिपातक्रिया क्रियते ?, कर्मकर्ययं ॥ प्रयोगो, भवतीत्यर्थः, अनतीतनयाभिप्रायात्मकोऽयं प्रश्नः, कतमोऽत्र नयो यमध्यवसाय पृष्टमिति चेत् , उच्यते, ऋजु सूत्रस्तथाहि-ऋजुसूत्रस्य हिंसापरिणतिकाल एव प्राणातिपातक्रियोच्यते, पुण्यपापकर्मोपादानानुपादानयोरध्यवसा-IN ||४३७॥ वयानुरोधित्वात्, न अन्यथा परिणताविति, भगवानपि तं ऋजुसूत्रनयमधिकृत्य प्रत्युत्तरमाह-'हंता ! अस्थि हन्तेति प्रेपणप्रत्यवधारणविषादेषु, अत्र प्रत्यवधारणे, अस्त्येतत्प्राणातिपाताध्यवसायेन प्राणातिपातक्रिया भवति, दीप अनुक्रम [५२६] ~878~ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८० 'परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाण' [पारिणामिकं प्रमाण निश्चयमवलम्बयतां ] मित्याद्यागमवचनस्य | स्थितत्वाद्, अमुमेव वचनमधिकृत्याऽऽयश्यकेपीदं सूत्रं प्रावर्त्तिष्ट-'आया चेर अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एस' इति, तदेवं यथा प्राणातिपातक्रिया भवति तथोक्तम् , सम्प्रति कस्मिन् विषये सा प्राणातिपातक्रिया भवतीत्येतन्निरूपयति-'कम्हि णं भंते' इत्यादि सुगमम् , नवरं मारणाध्यवसायो जीवविषयो भवति नाजीवविषयो, योऽपि रज्वादी सप्पादिबुद्ध्या मारणाध्यवसायः सोऽपि सर्पोऽयमिति बुला प्रवर्त्तमानत्वात् जीवविषये एव, न खलु रज्वादी रजवादितया परिच्छिन्ने कश्चित्तद्विषयं मारणाध्यवसायं विदधाति, ततः प्राणातिपातक्रिया पदसु जीवनिIN कायेपूक्ता, एतामेव प्राणातिपातक्रियामुक्तप्रकारेण नैरयिकादिकं चतुर्विंशतिदण्डकमधिकृत्य चिन्तयति-'अस्थि णं भंते' इत्यादि, नवरमेवं सूत्रपाठः 'अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाड्याएणं किरिया कजह?, हंता अस्थि. कम्हि णं भंते ! पाणाइवाएणं किरिया कजइ ?, गोयमा ! छसु जीवनिकाएसु', एवं तावद् वाच्यं यावद्वैमानिकविपयं सूत्रं । तदेवं यथा प्राणातिपातक्रिया भवति यद्विषया च तत्प्रतिपादितं, सम्प्रति एवमेव मृषावादादिविषयाग्यपि सूत्राण्याह-'अस्थि ण भंते । मुसावाएण'मित्यादि सुगम, नवरं 'किरिया कजई' इति यथायोग प्राणातिपातादिक्रिया भवतीत्यर्थः, तथा सतोऽपलापोऽसतश्च प्ररूपणं मृषावादः, स च लोकालोकगतसमस्तवस्तुविषयोपि घटते, तत उक्तं मृपावादसूत्रम्-'सबदवेसु' इति, द्रव्यग्रहणमुपलक्षणं तेन पर्योयेष्वपीत्यपि द्रष्टव्यं, तथा दीप अनुक्रम [५२६] AREauratonintenational ~879~ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८०] प्रज्ञापना- यद्वस्तु ग्रहीतुं धारयितुं वा शक्यते तद्विषयमादानं भवति न शेषविषयमतोऽदत्तादानसूत्रे 'गहणधारणिज्जेसु दवेसु' २२ क्रियाया मल- इत्युक्तम् , मैथुनाध्यवसायोऽपि चित्रलेपकाष्ठादिकर्मगतेषु रूपेषु रूपसहगतेषु वा-ख्यादिषु ततो मैथुनसूत्रे उक्त- पदे प्राणाय. वृत्तौ. म्-'रूवेसु वा स्वसहगएसु वा' इति, तथा परिग्रहः-खखामिभावेन मूर्छा, सा च प्राणिनामतिलोभात्सकलव- तपातासुविषयाऽपि प्रादुर्भवति ततः परिग्रहसूत्रे उक्तम्-'सच्चदवेसु' इति, अत एवान्यत्रापि प्रथमव्रतं सर्वजीवविषय दिना क्रि॥४३॥ मुक्तं द्वितीयचरमे सर्ववस्तुविषये तृतीयचतुर्थे तदेकदेशविषये इति, उक्तं च-"पढमम्मि सघजीवा बीए चरिमे या याः सू. सबदबाई । सेसा महत्वया खलु तदेकदेसम्मि नायबा ॥१॥" क्रोधादयः सुप्रतीता, नवरं कलहो-राटिः, अभ्या ख्यान-असहोपारोपणं यथा-अचौरेऽपि चौरस्त्वमपारदारिकेऽपि पारदारिकस्त्वमित्यादि, इदं मृषावादेऽप्यन्त-IN Nगैतं परमुत्कृष्टोऽयं दोष इति पृथगुपातं, पैशून्यं-परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनं, परपरिवादः प्रभूतजन समक्षं परदोषविकत्थनं, अरतिरती प्रतीते, इदमेकं समुदितं पापस्थानं, 'मायामोसेण मिति माया च मृषा च समाहारो द्वन्द्वः, द्वन्द्वैकत्वे नपुंसकत्वमिति 'क्लीचे' इति इखत्वं तेन इह समुदायो विवक्षितो, महाकर्मबन्धहेतुश्चेति Nमृषावादमायाभ्यां पृथगुपातं, 'मिच्छादसणसल्लेणं ति मिध्यादर्शन-मिध्यात्वं तदेव शल्यं मिथ्यादर्शनशल्यं तेन, ४३८॥ अहारस एए दंडगा' इति एतेऽनन्तरोदितपदोल्लेखोपदर्शिताः सर्वसङ्ख्ययाऽष्टादश दण्डका भवन्ति । प्राणातिपातादीनां पापस्थानानामष्टादशत्वात्तदेवमष्टादशपापस्थानान्यधिकृत्य जीवानां क्रिया विषयश्चोपदर्शितः, साम्प्रतं तान्ये दीप अनुक्रम [५२६] ~880~ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], --------------- मूलं [२८१-२८१R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: Pos प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] वाधिकृत्य जीवानामेकपृथक्त्वाभ्यां कर्मवन्धत्वमुपदिदर्शयिषुराह जीवे णं भंते ! पाणातिवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति', गो! सचविहबंधए वा अढविधबंधए वा, एवं नेरइए जान निरंतर वेमाणिते, जीवा णं भंते ! पाणातिवाएणं कति कम्मषगडीओ बंधति ?, गो० । सत्तविहबंधगावि अविहबंधगावि, नेरइया णं भंते ! पाणातिवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० सवि ताव होज्जा सत्तविहवंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधए य अहवा सत्तविहबंधगा य अवविहबंधगा य, एवं असुरकुमारावि जाव थणियकुमारा पुढविआउतेउवाउवणप्फइकाइया य, एए सब्वेवि जहा ओहिया जीवा, अवसेसा जहा नेरइया, एवं ते जीवेगिंदियवज्जा तिण्णि तिण्णि भंगा सबत्थ भाणियबत्ति, जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं एगत्तपोहचिया छत्तीसं दंडगा होति । (सूत्र २८१) जीवे णं भंते! णाणावरणिज कम्मं बंधमाणे कति किरिए, गो०1 सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, एवं नेरइए जाव घेमाणिए, जीवाणं भंते ! णाणावरणिज बंधमाणा कतिकिरिया०१, गो! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरियावि, एवं नेरइया निरंतरं जाव वेमाणिया, एवं दरिसणावरणीयं वेदणिजं मोहणिज आउयं नामं मोतं अंतराइयं च अढविहकम्मपगडीतो माणितवाओ, एगचपोहत्तिया सोलस दंडया भवन्ति, जीवे गं भंते ! जीवातो कतिकिरिए, गो। सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए, जीवे णं मंते ! नेरइयाओ कतिकिरिए, गो! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए, एवं जाव थणियकुमाराओ, पुढविकाइयातो आउकाइयातो तेउकाइयातो चाउकाइयवणफइकाइयवेइंदियतेईदियचउरिदियपंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सातो जहा Desentatistatemesesercence दीप अनुक्रम [५२७-५२८] मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक '२८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ... जीवेण/जीवाभ्याम् वा विविध कारणात् कर्मप्रकृत्तिबन्ध: ~881~ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८१-२८१R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २२ क्रिया प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] या मलब. वृत्ती. ॥४३९॥ पदे प्राणातिपातादि जीयातो, वाणमंतरजोइसियवेमाणियातो जहा नेरइयातो, जीवेणं भंते ! जीवेहितो कतिकिरिए ?, गो। सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिते सिय अकिरिए, जीवेणं भंते ! नेरइएहितो कतिकिरिए, गोसिय तिकिरिए सिय चउकिरिते सिय अकिरिए, एवं जहेब पढमो दंडतो तहा एसो वितिओ भाणितबो जाव माणियत्ति, जीवा णं भंते ! जीवातो कतिकिरिया , गो. ! सिय तिकिरियावि सिय चउकिरियाविसिय पंचकिरियावि सिय अकिरियावि, जीवा गं भंते ! नेरहयातो कति किरिया, गो! जहेब आदिल्लदंडतो तहेव भाणितबो, जार वेमाणियत्ति, जीवाणं भंते ! जीवहिंतो कतिकिरिया, गो. तिकिरियावि चउकिरियापि पंचकिरियावि अकिरियावि, जीवा गं भंते ! नेरइएहितो कतिकिरिया, गो! तिकिरिया चउकिरिया अकिरिया, असुरकुमारेहितोवि एवं चेव जाब वेमाणिहितो, ओरालियसरीरेहितो जहा जीवेहितो । नेरइए णंमते! जीवातो कतिकिरिए, गो०! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंच०, नेरइए णं मंते ! नेरइयातो कतिकिरिए, गो! सिय तिकिरिए सिय.च०, एवं जाव वेमाणिएहितो, नवरं नेरइयस्स नेरदपहिंतो देवेहिंतो य पंचमा किरिया नस्थि, नेरइया णं भंते ! जीवातो कतिकिरिया, गोसिय तिकि० सिय चउकि० सिय पंचकि०, एवं जाव चेमाणियातो, नवरं नेरइयाओ देवाओ य पंचमा किरिया नथि, नेरइया णं भंते ! जीवहिंतो कतिकिरिया, गो! तिकिरियावि चउकि० पंचकि०, नेरइया गं.भंते ! नेरइएहितो कतिकिरिया, गो। तिकि० चउकि०, एवं जाव बेमाणिएहितो, नवरं ओरालियसरीरोहिंतो जहा जीवेहि, असुरकुमारे ण भंते । जीवातो कतिकिरिए, गो! जहेब नेरइए चत्तारि दंडगा तहेव असुरकुमारेवि चत्वारि दंडगा sesses भ्यः कमेवन्धः नारकादिभ्यः क्रियाश्च सू.२८१ दीप अनुक्रम [५२७-५२८] ॥४३९॥ मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~882~ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] estoecticeae भाणितबा, एवं च उवउञ्जिऊणं भावयत्वंति, जीवे मासे य अकिरिए बुच्चति सेसा अकिरिया न बुचंति, सहजीवा ओरालियसरीरेहितो पंचकिरिया नेरइय देवेहितो पंचकिरिया ण वुगंति, एवं एक्वेकजीवपदे चत्वारि २ दंडगा भाणितबा, एवं एतं दंडगसयं सवेवि य जीवादीया दंडगा (सूत्र २८१) 'जीवे णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं सप्तविधवन्धकत्वं आयुर्वन्धविरहकाले आयुर्वन्धकाले चाष्टविधवन्धकत्वं, पृथक्त्वचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे ससविधवन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपि सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते तत उभयत्रापि बहुवचनमिसेवंरूप एक एव भनाः, नैरयिकसूत्रे सप्तविधवन्धका अवस्थिता एव, हिंसापरिणामपरिणतानां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानानां सप्तविधवन्धकत्वस्यावश्यंभावित्वात् , ततो यदा एकोऽप्यष्टविधवन्धको न लभ्यते तदेष भङ्गः सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्तविधवन्धका इति, यदा पुनरेकोऽष्टविधवन्धकः शेषाः सर्वे सप्तविधवन्धकास्तदा द्वितीयो भगः सतविधवन्धकाच अष्टविधवन्धकश्च, यदा त्वष्टविधवन्धका अपि बहवो लभ्यन्ते तदा उभयगतबहुवचनरूपस्तृतीयो भङ्गः सप्तविधवन्धकाश्च अष्टविधवन्धकाथ, एवं भङ्गत्रयेणासुरकुमारादयोऽपि तावद्वक्तव्याः यावत् स्खनितकुमाराः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिका यथा सामान्यतो जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, उभयत्रापि बहुवचनेनैक एव भङ्गो वक्तव्य इति भावः, पृथिव्यादीनां हिंसापरिणामपरिणतानां प्रत्येक सप्तविधवन्धकानामष्टविधवन्धकानां च सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्, शेषा द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्य दीप अनुक्रम [५२७-५२८] SANSP Re अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकन-स्थाने एका स्खलना दृश्यते- (सूत्र २८२) स्थाने (सूत्र २८१) द्वि-वारान् मुद्रितं ~883~ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८१२८१] दीप अनुक्रम [५२७ -५२८] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥४४०॥ Education “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - दारं [-] पदं [२२], उद्देशक: [-], मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः न्तरज्योतिष्क वैमानिका यथा नैरयिका भङ्गत्रिकेणोक्तास्तथा वक्तव्याः, यथा च प्राणातिपातेनैकत्वपृथक्त्वाभ्यां | द्वौ दण्डका कायेवं सर्वपापस्थानैरपि प्रत्येकं द्वौ द्वौ दण्डको वक्तव्यौ, तथा चाह--" जाव मिच्छादंसणस लेणं' ति सर्वसङ्ख्यया कियन्तो दण्डका भवन्तीति चेत्, अत आह— ' एवं एगत्तपोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होति' अष्टादशानां द्वाभ्यां गुणने पत्रिंशद्भावात् । 'जीये णं भंते' इत्यादि, अथ कोऽस्य सूत्रस्यापि सम्बन्धः १, उच्यते, इह प्रागुक्तं जीवः प्राणातिपातेन सप्तविधमष्टविधं या कर्म बनाति स तु तमेव प्राणातिपातं ज्ञानावरणीयादि कर्म वन् कतिभिः क्रियाभिः समापयतीति प्रतिपाद्यते, अपिच कार्येण ज्ञानावरणीयाख्येन कर्मणा कारणस्य प्राणातिपाताख्यस्य निवृत्तिभेद उपदर्श्यते, तद्भेदाच बन्धविशेषोऽपीति, उक्तं च- "तिसृभिश्चतसृभिरथ पञ्चभिश्च [क्रियाभिः ]हिंसा समाप्यते क्रमशः । बन्धोऽस्य विशिष्टः स्याद्योगप्रद्वेषसाम्यं चेत् ॥ १ ॥” इति, तमेव प्राणातिपातस्य निवृत्तिभेदं दर्शयति- 'सिय तिकिरिए' इत्यादि, स्यात् कदाचित्रिक्रियः कदाचिचतुष्क्रियः कदाचित् पञ्चक्रियः, तत्र त्रिक्रियता कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीभिः क्रियाभिः, कायिकी नाम हस्तपादादिव्यापारणं अधिकरणिकी खङ्गादिप्रगुणीकरणं प्राद्वेषिकी मारयाम्येनमित्यशुभमनः सम्प्रधारणमिति, चतुष्क्रियता कायिक्याधि- ४ ॥४४०॥ करणिकाद्वेषिकीपारितापनि कीभिः पारितापनिकी नाम खङ्गादिघातेन पीडाकरणं, पञ्चक्रियता यदा | प्राणातिपातक्रियाऽपि पञ्चमी भवति, प्राणातिपातक्रिया जीविताद् व्यपरोपणं, एवं नैरयिकादारभ्य चतुर्विंशति For Parts Only मूल - सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र क्रमांक '२८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-२' इति संज्ञा दत्वा सूत्र क्रमांक लिखितं ~884~ २२ क्रिया पदे सूत्रं २८१ waryru Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] 9688003889390 दण्डकक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, सूत्रपाठस्त्वेवम्-'नेरहए णं भंते ! नाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे - कइकिरिए पं०' इत्यादि, तदेवमेकत्वेन दण्डक उक्तः, सम्प्रति बहुत्वेनाह-'जीवा णं भंते !' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं |सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जीवास्त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि, किमुक्तं भवति ?-जीवा ज्ञानावरणीयं कर्म बान्तः सदैव बहव इति त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि लभ्यन्ते इत्येक एव भङ्गः, यथा च सामान्यतो जीवपदेऽभङ्गक तथा नैरयिकादिषु चतुर्विशतौ खस्थानेषु प्रत्येकमभङ्गक द्रष्टव्यं, नैरयि-18 कादीनामपि ज्ञानावरणीयकर्म बनतां सदैव त्रिक्रियाणामपि चतुष्क्रियाणामपि पञ्चक्रियाणामपि बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , यथा च ज्ञानावरणीयं कर्माधिकृत्य एकत्वपृथक्त्वाभ्यां द्वौ दण्डकावुक्तौ तथा दर्शनावरणीयादीन्यपि कर्माण्यधिकृत्य प्रत्येकं द्वौ द्वौ दण्डको वक्तव्यो, तत एवं सति, सर्वसङ्ख्यया पोडश दण्डका । 'जीवे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए पं०' इति, अथ कोऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धः', उच्यते, इह न केवलं वर्तमानभववर्तिनो जीवस्थ ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धभेदप्ररूपणे कायिक्यादिक्रियाविशेषणः प्राणातिपातभेदो भवति, किन्त्वतीतभवकायसम्बन्धः कायिक्यादिक्रियाविशेषणोऽपि, तत एतस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम् , अस्स चेयं पूर्वाचार्योपद र्शिता भावना-'इह संसारअडवीए परिभमंतेहिं सबजीवहिं तेसु तेसु ठाणेसु सरीरोवहाइणो विप्पमुक्का तेहि य । Mसस्थभूएहि जया कस्सइ खतः परितापनादयो भवंति तथा तस्सामिणो भवंतरगयस्सवि तत्रानिवृत्तत्वात् किरि-1 दीप अनुक्रम [५२७-५२८] SAREILLEGunintentiaTATE मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~885~ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] ॥४४॥ यासम्भव इति, प्युत्सृष्टेषु तु न भवति निवृत्तत्वात्, एत्थ उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे अजियसेणस्स रण्णो पडि-IM२२ क्रियाचारगा दुवे कुलपुत्तगा, तत्थेगो समणसहो इयरो मिच्छद्दिही, अण्णया रयणीए रण्णो निस्सरणं संभमतुरंताण पदे सूत्रं तेर्सि घोडगारूढाणं खग्गा पन्भट्ठा, सहेण जणकोलाहलो मम्गिओ न लहइ, इयरेण हसियं-किमण्णं ण होहि ?, २८१ सड्डेण अहिगरणंतिकटु बोसिरियं, इयरे च खग्गग्गाहिणो बंदिग्गहसाहसिएहिं लद्धा, गहिओ अण्णेहिं रायव-N लहो पलायमाणो वावाइओ, तओ आरक्खिएहिं गहिऊण रायसमीवं नीया, कहिओ वुत्तंतो, कुविओ राया, पच्छियं चणेण-कस्स तुम्भे? तेहिं कहियं-अणाहा, कलं चिय, कप्पडिया, एए तम्ह खग्गा कर्हि लद्धत्ति.। पुच्छिएहिं कहियं पडिया इति, तओ सामरिसेण रण्णा भणियं-गवेसह तुरियं मम अणबद्धवेरिणं ईसरपुत्ताणं महापमत्ताणं केसि इमे खग्गेत्ति !, तओ तेहिं निउणं गबेसिऊण विण्णत्तं रणो-सामि ! गुणचंदवालचंदाणमिति, ततो रण्णा पिहं पिहं सद्दावेऊण भणिया-लेह नियखग्गे, एक्केण गहियं, पुच्छिओ रण्णा-कहं ते पणटुंति ?, तेण कहियं जहावितं, कीस न गबिट्ट, भणइ-सामि! तुम्ह पसारण एहमेत्तमवि गवेसामि , सहो नेच्छा, रण्णा पुच्छिओ-कीस न गेण्हसि ?, तेण भणियं-सामि ! अम्हाणमेस ठिई चेव नत्थि जमेवं गेण्हिज्जइ अहिग-1 ४४२॥ रणतणओ, परं संभमेण मग्गंतेणवि न लद्धंति वोसिरियं अतो न कप्पइ मे गिहिउं, तओ रण्णा पमायकारी अणुसासिओ, इयरो विमुक्को, एस दिलुतो इमो य से अत्थोषणओ-जहा सो पमायगम्भेण अघोसिरियदोसेण दीप अनुक्रम [५२७-५२८] SARERatunintennational मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक '२८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~886~ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८१ २८१] दीप अनुक्रम [५२७ -५२८] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - दारं [-] उद्देशक: [-], पदं [२२], मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अवराहं पत्तो एवं जीवोवि जम्मंतरत्थं देहोवहाइ अवोसिरंतो अणुमयभावतो पावेइ दोसं १, श्रूयते च जाति| स्मरणादिना विज्ञाय पूर्वदेहमतिमोहात् (केचित् ) सुरनदीं प्रत्यस्थिशकलानि नयन्तीति । इदानीं सूत्रव्याख्याजीवो मदन्त ! जीवमधिकृत्य कतिक्रियः प्रज्ञप्तो ?, भगवानाह - गौतम ! स्यात् क्वचित् त्रिक्रियः कायिकयाधिकरणिकीप्राद्वेषिकीभावात्, तत्र वर्त्तमानभवमधिकृत्य भावना प्राग्वत् भावनीया, अतीतभवमधिकृत्यैवं कायिकी तत्सम्बन्धिनः कायस्य कायैकदेशस्य वा व्याप्रियमाणत्वात्, अधिकरणिकी तत्संयोजितानां हलगरकूटयत्रादीनां तन्निर्वर्त्तितानां वा असिकुन्ततोमरादीनां परोपघाताय व्याप्रियमाणत्वात् यदिवा देहोऽप्यधिकरणमित्याधिकरणिक्यपि, प्राद्वेषिकी तद्विषयाऽकुशलपरिणामप्रवृत्तेरप्रत्याख्यातत्वात् स्याच्चतुष्क्रियः पारितापनिक्यपि कायेन कायैकदेशेनाधिकरणेन वा तत्सम्बन्धिना क्रियमाणत्वात् स्यात्पञ्चक्रियो यदा तेन जीवितादपि व्यपरोपणमाधीयते, स्यादक्रियो यदा पूर्वजन्मभावि शरीरमधिकरणं वा त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृष्टं भवति, न चापि तज्जन्मभाविना शरीरेण काञ्चिदपि क्रियां करोति, इदं चाक्रियत्वं मनुष्यापेक्षया द्रष्टव्यं तस्यैव सर्वविरतिभावात्, सिद्धापेक्षया वा, तस्य देहमनोवृत्त्यभावेनाक्रियत्वात्, अमुमेवार्थ चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति- 'जीवे णं भंते! नेरइयाओ कइ किरिए' इत्यादि सुगमं, नवरमयं भावार्थ:- देवनारकान् प्रति चतुष्क्रिय एव तेषां जीविताद् व्यपरोपणस्यासम्भवाद 'अनपवर्त्त्यायुषो नारकदेवा' इति वचनात् शेषान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति पञ्चक्रियोऽपि तेषामपवर्त्यायु For Palata Use On मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र क्रमांक '२८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-२' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~ 887 ~ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८१२८१] दीप अनुक्रम [५२७ -५२८] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥४४२॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - दारं [-] उद्देशक: [-], पदं [२२], मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ष्कतया जीविताद् व्यपरोपणस्यापि सम्भवात्, तदेषमेकस्य जीवस्य एक जीवं प्रति क्रियाश्चिन्तिताः, सम्प्रत्येकस्यैव जीवस्य बहून् जीवान् प्रति क्रियाश्चिन्तयति - 'जीवे णं भंते ! जीवेहिंतो कइकिरिए पण्णत्ते' इत्यादि, एषोऽपि दण्डकः प्राग्वद्भावनीयः, अधुना बहूनां जीवानामेकं जीवमधिकृत्य क्रियाश्चिन्तयति - 'जीवा णं भंते ! जीवातो कइकिरिया पं०' इत्यादि, एषोऽपि दण्डकः प्रथमदण्डकवदवसेयः, अधुना बहूनां जीवानां बहून् जीवानधिकृत्य है सूत्रमाह- 'जीवा णं भंते ! जीवेहिंतो कइकिरिया पं० १' इत्यादि, अत्र प्रश्नः पाठसिद्धो, निर्वचनमिदं गौतम ! त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि अक्रिया अपि, कस्यापि जीवस्य कमपि जीवं प्रति त्रिक्रियत्वात् कस्यापि चतुष्क्रियत्वात् कस्यापि पञ्चक्रियत्वात् कस्यापि मनुष्यस्य सर्वोत्तमचारित्रिणः सिद्धस्य वा शेषस्याक्रियत्वात् इति सर्वत्र बहुवचनरूप एक एव भङ्गः, एवं नैरयिकादिक्रमेण तावद वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, नवरं नैरविकान् देवांश्व प्रति त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि अक्रिया अपीति वक्तव्यं, शेषान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति पञ्चक्रिया अपीति, तदेवं सामान्यतो जीवपदमधिकृत्य दण्डकचतुष्टयमुक्तं, सम्प्रति नैरयिकपदमधिकृत्याह - 'नेरइए णं भंते! जीवातो कतिकिरिए पं०' इत्यादि 'एवं जाव वैमाणिएहिंतो' इति, अत्र यावत्करणात् 'नैरयिको जीवान् प्रति कतिक्रिय' इति इत्यादिरूपो द्विर्तीयोऽपि दण्डक उक्तो द्रष्टव्यः, सर्वत्र औदारिकशरीरान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुष्क्रियः स्यात् पञ्चक्रिय इति वक्तव्यं, नैरयिकस्य देवान् प्रति पञ्चमी जीविताद् For Pale Only २२ क्रिया. पदे सूत्रं २८१ ~ 888~ ॥४४२॥ www.r मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र क्रमांक '२८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-२' इति संज्ञा दत्वा सूत्र- क्रमांक लिखितं Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] व्यपरोपणरूपा क्रिया नास्ति, तेषामनपयायुष्कत्वात् , ततस्तान् प्रति स्यात् त्रिक्रियः स्थाचतुष्क्रिय इति वक्तव्यं, | नरयिको देवान् प्रति कथं चतुष्क्रिय इति चेत् , उच्यते, इह भवनवास्थादयो देवास्तृतीयां पृथिवीं यावत् गता गमिष्यन्ति च, किमर्थं गता गमिष्यन्तीति चेत् ?, उच्यते, पूर्वसाङ्गतिकस्य वेदनामुपशमयितुं पूर्ववैरिणो वेदनामुदीरयितं (वा) तत्र गच्छन्ति, तदानीमनन्तकालादेतदपि भवति (यद्) तद्गताः सन्तो नारकैर्वध्यन्ते इति, आहा च मूलटीकाकारोऽपि-"तत्र मता नारकैर्वध्यन्ते इत्यप्यनन्तकाल एव कथञ्चित्सम्भवमात्र"मिति, अत्रापर आहननु नारकस्य द्वीन्द्रियादीनधिकृत्य कथं कायिफ्यादिक्रियासम्भवः, उच्यते, इह नारकैर्यस्मात् पूर्वभवशरीरं न व्युत्सृष्टं विवेकाभावात् , तदभावश्च भवप्रत्ययात् , ततो यावत् शरीरं तेन जीवेन निर्वर्तितं सत् तं शरीरप-| |रिणामं सर्वथा न परित्यजति तावद् देशतोऽपि तं परिणाम भजमानं पूर्वभावप्रज्ञापनया तस्येति व्यपदिश्यते घृतघटवत् , यथा हि धृतपूर्णो घटो घृते अपगतेऽपि घृतघट इति व्यपदिश्यते, तथा तदपि शरीरं तेन निर्वर्त्तितमिति तस्येति व्यपदेशमर्हति, ततस्तस्य शरीरस्य एकदेशेनास्थ्यादिना योऽन्यः प्राणातिपातं करोति, ततः पूर्वनिर्वर्तितशरीरजीवोऽपि कायिक्यादिक्रियाभियुज्यते, तेन तस्याव्युत्सृष्टत्वात् , तत्रेयं पञ्चानामपि क्रियाणां भावनातत्कायस्य व्याप्रियमाणत्वात् कायिकी कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक् तत आधिकरणिकी, प्राद्वेषिक्यादयस्त्वेवं-यदा तमेव शरीरैकदेशं अभिघातादिसमर्थमन्यः कश्चनापि प्राणातिपातोद्यतो दृष्ट्वा तस्मिन् घासे द्वीन्द्रियादी Resercedesemeलरालिटलटाएर दीप अनुक्रम [५२७-५२८] मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~889~ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२८१-२८१-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: संवेधः सू. प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] प्रज्ञापना समुत्पन्नक्रोधादिकारणोऽभिषातादिसमर्थमिदं शस्त्रमिति चिन्तयन् अतीवक्रोधादिपरिणामं भजते पीडां चोत्पा-8/२२ क्रियाया: मल-18दयति जीविताच व्यपरोपयति तदा तत्सम्बन्धिप्राद्वेषिक्यादिक्रियाकारणत्वान्नैगमनयाभिप्रायेण तस्यापि प्राद्वेषिकीपदे क्रियाया वृत्ती. पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिया च यथायोगं, यथा च नैरयिकपदे चत्वारो दण्डका उक्ताः तथा असुरकुमारा-RI |दिष्वपि शेषेषु त्रयोविंशती स्थानेषु चत्वारः चत्वारो दण्डका वक्तव्याः, नवरं जीवपदे मनुष्यपदे चाक्रिया इत्यपि २८२ ॥४४॥ वक्तव्यं, विरतिप्रतिपत्ती व्युत्सृष्टत्वेन तन्निमित्तक्रियाया असम्भवात् , शेषा अक्रिया नोच्यन्ते, विरत्यभावतः खशशारीरस्य भवान्तरगतस्याव्युत्सृष्टत्वेनावश्यं क्रियासम्भवात् , तदेवं सामान्यतो जीवपदे एक शेषाणि तु नैरयिकादीनि | स्थानानि चतुर्विंशतिरिति सर्वसङ्ख्यया पञ्चविंशतिरेकैकस्मिंश्च स्थाने चत्वारो दण्डका इति सर्वसङ्कलनया दण्डकशतं । अथ केषां जीवानां कति क्रिया इति निरूपणाथै प्रागुक्तमेव सूत्रं पठति कति गं भंते । किरियाओ पण्णताओ?, गोयमा! पंच किरियाओ पण्णचाओ. त-कातिया जाव पाणातिवातकिरिया, नेरइया णं भंते ! कति किरियातो पण्णचाओ, गो! पंच किरियातो पण्णताओ, तं-कातिया जाव पाणातिवायकि०, एवं जाच माणियाणं, जस्स ण भंते! जीवस्स कातिया किरिया काह तस्स अहिगरणिया किरिया ॥४४३॥ कजति जस्स अहिगरणिया किरिया कजति तस्स कातिया कजति ?, गो०! जस्स णं जीवस्स कातिया किरिया कति | तस्स अहिगरणी किरिया नियमा क०, जस्स अहिगरणी किरिया क० तस्सवि काइया किरिया नियमा काति, जस्स दीप अनुक्रम [५२७-५२८] eaccersersesesesecene मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक '२८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ..."केषां जीवानाम् कति क्रिया:?" इति प्रदर्श्यते ~890~ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] esesemeseseseaeta णं भंते ! जीवस्स काइया कि० तस्स पादोसिया कि० जस्स पादोसिया कि० तस्स काइया किं. क०, गो! एवं चेव, जस्स पं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स पारियावणिया किरिया काइ जस्स पारियावणिया किरिया कजइ तस्स कातिया किरिया कज्जा, गो०! जस्स णं जीवस्स काइया कि० क० तस्स पारितावणिया सिय कज्जइ सिय नो कज्जइ, जस्स पुण पारियावणिया कि०क० तस्स काइया नियमा कजति, एवं पाणाइवायकिरियावि, एवं आदिल्लाओ परोप्परं नियमा तिषिण कजंति, जस्स आइल्लाओ तिनि कति तस्स उवरिल्लाओ दोनि सिय कज्जति सिय नो कअंति, जस्स उवरिल्लाओ दोणि कति तस्स आइलाओ नियमा तिणि कज्जति, जस्स गं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति तस्स पाणातिवायकिरिया काति, जस्स पाणातिवायकिरिया कञ्जति तस्स पारियावणिया किरिया कजति', गो! जस्स णं जीवस्स पारियावणिया कि० तस्स पाणातिवातकिरिया सिय कजति सिय नो काति, जस्स पुण पाणातिपात किरिया कजति तस्स पारियापणिया किरिया नियमा काति, जस्सणं भैते ! नेरहयस्स काइया किरिया कजति तस्स अधिगरणिया किरिया कजति', गो०! जहेब जीवस्स तहेव नेरइयस्सवि, एवं निरंतरं जाव चेमाणियस्स । जं समयं णं भंते ! जीवस्स काइया कि० क० तं समयं अधिगरणिया कि० जं समयं अधिगरणिया कि० क तं समयं काइया कि, एवं जहेब आइलओ दंडओ तहेव भाणितबो, जाव वेमाणियस्स । जंदेसेणं भंते! जीवस्स काइया कि० तंदेसेणं अधिगरणिया कि तहेव जाच वेमाणियस्स । जंपएसेणं भंते ! जीवस्स काइया कि० तं पदेसं आधिगरणिया कि० एवं तहेव जाव वेमाणियस्त, एवं एते जस्स समयं जंदेस जंपएसेणं चत्वारि दंडगा होति । दीप अनुक्रम [५२९] ~891~ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल-1 यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२८२] ॥४४॥ कति गं भंते ! आतोजितातो किरियाओ पण्ण तातो?, गो! पंच आओजियाओ किरियाओ पण्णताओ, तं०-काइया २२क्रियाजाव पाणातिवातकिरिया, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया आतोजिया किरिया अस्थि पदे क्रियातस्स अधिगरणिया किरिया आतोजिता अस्थि जरस अधिगरणिया आतोजिता किरिया अस्थि तस्स काइया आतो संवेधः सू. जिया किरिया अस्थि , एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणितबा, जरस समयं देसं जं जाव वेमा- २८२ णियाणं । जीवे णं भंते ! समयं काइयाए अधिगरणियाए पादोसियाते किरियाए पुढे तंसमयं पारियावणियाते पुढे पाणातिवातकिरियाते पुढे,गोअस्थगतिते जीवे एगतियाओ जीवाओ समयं काइयाए अधिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुढे तं समय पारियावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए पुढे १ अत्यंगतिते जीवे एगतियाओ जीवाओं समय काइयाए अधिगरणियाए पादोसियाते किरियाए पुढे तं समयं पारितावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए अपुढे २ अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जैसमयं काइयाए अहिंगरणियाए पाओसियाए पुढे समयं पारि० किरि० अपुढे पाणाइवायकि० अपुढे ३ (मत्र २८२) 'कइ णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि प्राग्वत् , एता एव क्रियाः चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया णं भंते !' इत्यादि पाठसिद्धं, सम्प्रत्यासामेव क्रियाणामेकजीवाश्रयेण परस्परमविनाभावित्वं चिन्त-शा ॥४४४॥ यति-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, इह कायिकी क्रिया औदारिकादिक्रियाश्रिता प्राणातिपातनिर्वर्तनसमर्था प्रतिविशिष्ट परिगृह्यते न या काचन कार्मणकायाश्रिता वा, तत आद्यानां तिसृणां क्रियाणां परस्परं नियम्यनिया eesecseeectsesesentce दीप अनुक्रम [५२९] ~892 ~ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: eeseses प्रत सूत्रांक [२८२] |मकभावः, कथमिति चेत् , उच्यते, कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक, ततः कायस्याधिकरणत्वात् कायिक्या सत्सामवश्यमाधिकरणिकी आधिकरणिक्यामवश्यं कायिकी, सा च प्रतिविशिष्टा कायिकी क्रिया प्रद्वेषमन्तरेण न भवति ततः प्राद्वेषिक्याऽपि सह परस्परमविनाभावः, प्रद्वेषोऽपि च काये स्फुटलिङ्ग एव वक्ररूक्षत्वादेस्तदविना भाविनः प्रत्यक्षत एवोपलम्भात्, उक्तं च-"रूक्षयति रुष्यतो ननु चक्रं लियति च रज्यतः पुंसः । औदारिकोऽपि || देहो भाववशात् परिणमत्येवम् ॥१॥" परितापनस्य प्राणातिपातस्य चाद्यक्रियात्रयसम्भवेऽप्यनियमः, कथमिति चेत् , उच्यते, यद्यसौ घात्यो मृगादिर्घातकेन धनुषा क्षिसेन बाणादिना विध्यते ततस्तस्य परितापनं मरणं वा भवति, नान्यथा, ततो नियमाभावः, परितापनस्य प्राणातिपातस्य च भावे पूर्व क्रियाणामवश्यं भायस्तासामभावे तयोरभावात् , ततोऽमुमेयार्थ परिभान्य कायिकी शेषाभिश्चतसृभिः क्रियाभिः सह आधिकरणिकी तिसृभिः क्रियाभिः सह प्राद्वेषिकी द्वाभ्यां सूत्रतः सम्यक चिन्तनीया, पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिययोस्तु सूत्रं साक्षा-1 दाह-'जस्स णं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति' इत्यादि, पारितापनिक्याः सद्भावे प्राणातिपातक्रिया स्याद् भवति स्थान भवति, यदा बाणाद्यभिघातेन जीवितात् च्याव्यते तदा भवति शेषकालं न भवतीत्यर्थः, यस्ख पुनः प्राणातिपातक्रिया तस्य नियमात् पारितापनिकी, परितापनमन्तरेण प्राणव्यपरोपणासम्भवात् । सम्प्रति नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण परस्परमविनाभावं चिन्तयति-'जस्स णं भंते ! नेरदयस्स काइया दीप aesed अनुक्रम [५२९] act ~893~ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] दीप अनुक्रम [५२९] प्रज्ञापना किरिया कजति' इत्यादि प्रतीतं, भावितत्वात् । तदेवमेको दण्डक उक्तः, सम्प्रति कालमधिकृत्योक्तप्रकारेणैव द्विती-२२ क्रियाया: मल- कायदण्डकमाह-जं समयं णं भंते । जीवस्स काइया किरिया कजह तं समयं अहिंगरणिया कजह जं समयं अहि- पदे क्रियायवृत्ती. गरणिया कजई' इत्याद्यारभ्य सर्वं पूर्वोक्तं तदवस्थं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, तथा चाह-'एवं जहेब आइ-18 ॥४४५॥ ४लतो दंडओ तहेव भाणियबो जाय वेमाणियस्स' इति, समयग्रहणेन चेह सामान्यतः कालो गृह्यते, न पुनः पर|मनिरुद्धो यथोक्तखरूपो नैश्चयिकः समयः, परितापनस्य प्राणातिपातस्य वा बाणादिक्षेपजन्यतया कायिक्याः प्रथमसमये एवासम्भवात्, एप द्वितीयो दण्डकः, सम्प्रति द्वौ दण्डको क्षेत्रमधिकृत्याह-जंदेसेणं भंते ! जीवस्सा इत्यादि, अत्रापि सूत्रं पूर्वोक्तं तदवस्थं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्र, तथा चाह-'तहेब जाव बेमाणियस्स' एष तृतीयदण्डका, 'जंपएसेर्ण भंते । जीवस्स काइया किरिया कजई' इत्यादिकश्चतुर्थः, अत्रापि सूत्रं प्रागुक्तकमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, तथा चाह-एवं तहेव जाव बेमाणिए' इति, दण्डकसकलनामाह-एवमेते इत्यादि, एताश्च यथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धकारणं तथा संसारकारणमपि, ज्ञानावरणीयादिकमेवन्धस्य संसारकारणतया तद्धेतुत्वेन तासामपि संसारकारणत्योपचारात्, तथा चाह-कडणं भंते ! आजोजियाओ किरियाओ ॥४४५॥ पण्णत्ताओ' इत्यादि, आयोजयन्ति जीवं संसारे इत्यायोजिका:-कायिक्यादिकाः शेषं सर्व सुगम, सूत्रपाठस्तु पूर्वो-| इतप्रकारेण तावद् वक्तव्यो यावत् यस्येति यं समयमिति यं देशमिति यं प्रदेशमिति परिपूर्णाश्चत्वारो दण्डकाः, AREauratonintentiational ~894 ~ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८२] दीप अनुक्रम [५२९] पदं [२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ २८२] उद्देशक: [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 'यं समय' मित्यादौ तु 'कालाध्वनोर्व्याप्ता' वित्यधिकरणे द्वितीया, ततो यस्मिन् समये यस्मिन् देशे यस्मिन् प्रदेशे इति व्याख्येयं, 'जीवे णं भंते ! जं समयं काइयाए अहिगरणियाए' इत्यादि, अत्रापि समयग्रहणेन सामान्यतः कालो गृह्यते, प्रश्नसूत्रं सुगमं, निर्वचनसूत्रे भङ्गत्रयी- कञ्चिज्जीवमधिकृत्य कश्चिज्जीवो यस्मिन् समये-काले क्रियात्रयेण स्पृष्टस्तस्मिन् समये पारितापनिक्याऽपि स्पृष्टः प्राणातिपातक्रियया चेत्येको भङ्गः, पारितापचिक्या स्पृष्टः प्राणातिपातेनास्पृष्ट इति द्वितीयः, पारितापनिक्या प्राणातिपातक्रियया चास्पृष्ट इति तृतीयः एष च तृतीयो भङ्गो वाणादेर्लक्षात्परिभ्रंशेन घात्यस्य मृगादेः परितापनाद्यसम्भवे वेदितव्यः, यस्तु यस्मिन् समये यं जीवमधिकृत्याद्यक्रियात्रयेणास्पृष्टः स तस्मिन् समये तमधिकृत्य नियमात् पारितापनिक्या प्राणातिपातक्रियया चास्पृष्टः, कायि| क्याद्यभावे परितापनादेरभावात् । तदेवमुक्ताः क्रियाः, साम्प्रतं प्रकारान्तरेण क्रिया निरूपयति Education Internation कतिणं ते! किरियाओ पण्णत्ताओ १, गो० ! पंच किरियाओ पं० तं० आरंभिया परिग्गहिया मायावतिया अपचक्खाणकिरिया मिच्छादंसणवत्तिया, आरंभिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति १, गो० ! अण्णयरस्सवि पमचसंजयस्स, परिग्गहिया णं भंते! किरिया कस्स कजइ ?, गो० 1 अण्णयरस्सवि संजया संजयस्स, मायाबत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ?, गो० । अण्णयरस्सावि अपमतसंजयस्स, अपच्चक्खाणकिरिया णं भंते ! कस्स कजति ?, गो०! अण्णय रस्सवि अपश्चक्खाणिस्स, मिच्छादंसणवत्तिया णं मंते! किरिया कस्स कजति ?, गो० ! अण्णयरस्सावि मिच्छादंसणिस्स । *** अथ क्रियाया: भेदाः अन्य प्रकारेण कथ्यते For Parts Only ~895~ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२८४] २२कियापदे क्रियाणांसह भावः सू. २८४ ॥४४६॥ Paseases नेहयार्ण भंते ! कति किरियातो पं०१, गो! पंच किरियातो पं०,०-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया, एवं जाव वेमाणियाणं । जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया क० तस्स परिग्गहिया किं कजति ? जस्स परिग्गहिया कि० तस्स आरंभिया कि०, गो० जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० तस्स परिग्गहिया सिय कजति सिय नो कजति, जस्स पुण परिग्गहिया किरिया क० तस्स आरंभिया कि०णियमा क०, जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया कि० क. तस्स मायावत्तिया कि० क० पुच्छा, गो० ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० क तस्स मायावत्तिया कि० नियमा क० जस्स पुण मायावत्ति० कि० क तस्स आरंभिया कि० सिय कजति सिय नोक०, जस्स ण भंते । जीवस्स आरंभिया कि० तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया पुच्छा, गोजस्स जीवस्स आरंभिया कि० तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया सिय कजति सिय नोक० जस्स पुण अपचक्खाणकिरिया का तस्स आरंभिया किरिया णियमा क०, एवं मिच्छादंसणवत्तियाएवि समं, एवं पारिग्गहियावि तिहिं उचरिल्लाहिं समं संचारेतबा, जस्स मायावत्तिया कि० तस्स उवरिल्लाओ दोषि सिय कति सिय नो कअंति, जस्स उवरिल्लाओ दो कअंति तस्स मायावत्तिया णियमा कजति, जस्स अपचक्साणकि० क० तस्स मिच्छादसणवचिया किरिया सिय कज्जति सिय नो कजति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया कि० तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया णियमा कअति । नेरइयस्स आइल्लियातो चत्तारि परोप्पर नियमा काति, जस्स एताओ चत्तारि कति तस्स मिच्छादसणवत्तिया कि० भइञ्जति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजति तस्स एतातो चत्वारि नियमा कति, एवं जाव थणियकुमारस्स, पुढविकाइयस्स जाव चउरिदियस्स पंचवि परोप्परं नियमा कजंति, Selecteoटेन्टर दीप अनुक्रम [५२९] ॥४४६॥ अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकन-स्थाने पुन: एका स्खलना दृश्यते- (सूत्र २८३) स्थाने (सूत्र २८४) द्वि-वारान् मुद्रितं ~896~ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८४] पंचिंदियतिरिक्सजोणियस्स आतिल्लियातो तिपिणवि परोप्परं नियमा कजंति, जस्स एयाओ कजति तस्स उवरिल्लिया दोषिण भइजंति, जस्स उवरिल्लातो दोणि कर्जति तस्स एतातो तिण्णिवि णियमा कजंति, जस्स अपञ्चक्खाणकिरिया तस्स मिच्छादसणवचिया सिय कजति सिय नो क०, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया का तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया नियमा क०, मणूसस्स जहा जीवस्स, वाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स जहा नेरयस्स, समयणं भंते ! जीवस्स आरंभिया कि०कतं समयं पारिग्गहिया कि००१, एवं एते जस्स जं समयं जं देसं जं पदेसेण य चत्वारि दंडगा णेयवा, जहा नेरइयाणं तहा सबदेवाणं नेतवं जाब वेमाणियाणं (सूत्र २८४) 'कइणं भंते।' इत्यादि, आरम्भः-पृथिव्याधुपमईः, उक्तं च-"संरंभो संकप्पो परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवतो सुद्धनयाणं तु सबेसि ॥१॥" [संरम्भः संकल्पः परितापक्रिया भवेत् समारम्भः । आरम्भ उपद्रवका शुद्धनयानां तु सर्वेषां (मतं)॥१॥] आरम्भः प्रयोजनं-कारणं यस्याः सा आरम्भिकी, 'परिग्गहिय'त्ति परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुखीकारः धर्मोपकरणमूर्छा च परिग्रह एव पारिग्रहिकी परिग्रहेण निर्वृत्ता वा पारिग्राहिकी, 'मायावत्तिया' इति माया-अनार्जवमुपलक्षणत्वात् क्रोधादेरपि परिग्रहः माया प्रत्ययः-कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया 'अपचक्खाणकिरिया' इति अप्रत्याख्यानं-मनागपि विरतिपरिणामाभावस्तदेव क्रिया अप्रत्या- ख्यानक्रिया, 'मिच्छादसणवत्तिया' इति मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो-हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, एतासां क्रियाणां attestereoccerserseatta दीप अनुक्रम [५२९] अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकन-स्थाने पुन: एका स्खलना दृश्यते- (सूत्रं २८३) स्थाने (सूत्रं २८४) द्वि-वारान् मुद्रितं ~897~ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८४] प्रज्ञापना-नामध्ये यस्य या सम्भवति तस्य तां निरूपयति-'आरंभिया णं भंते !' इत्यादि, 'अन्नयरस्सवि पमत्तसंजयस्स' इति क्रिया अत्रापिशब्दो भिन्नक्रमः प्रमत्तसंयतस्थाप्यन्यतरस्य-एकतरस्य कस्यचित् प्रमादे सति कायदुष्प्रयोगभावतः पृथि- पदे किय.वृत्ती. यादेरुपमईसम्भवात् , अपिशब्दोऽन्येपामधस्तनगुणस्थानवर्तिनां नियमप्रदर्शनार्थः, प्रमत्तसंयतस्याप्यारम्भिकी क्रिया याणां सह भवति किं पुनः शेषाणां देशविरतिप्रभृतीनामिति १, एवमुत्तरत्रापि यथायोगमपिशब्दभावना कर्तव्या, पारिन-INभावः सू. ॥४४७॥ हिकी संयतासंयतस्यापि देशविरतस्थापीत्यर्थः, तस्यापि परिग्रहधारणात् , मायाप्रत्यया अप्रमत्तसंयतस्यापि, कथमिति चेत् , उच्यते, प्रवचनोडाहप्रच्छादनार्थ वल्लीकरणसमुद्देशादिषु, अप्रत्याख्यानक्रिया अन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः, अन्यतरदपि-न किश्चिदपीत्यर्थः यो न प्रत्याख्याति तस्येति भावः, मिथ्यादर्शनक्रिया अन्यतरस्यापि सूत्रो-18 क्किमेकमप्यक्षरमरोचयमानस्वेत्यर्थः मिश्यादृष्टेभवति । एता एव क्रियाश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-'नेरहयाणं भंते' इत्यादि सुगम । सम्प्रत्यासां क्रियाणां परस्परमविनाभावं चिन्तयति-तद्यथा-यस्थारम्भिकी क्रिया तस्य पारिमहिकी स्याद्भवति स्थान भवति, प्रमत्तसंयतस्य न भवति शेषस्य भवतीत्यर्थः, तथा यस्यारम्भिकी क्रिया तस्य मायाप्रत्यया नियमाद्भवति, यस्य मायाप्रत्यया तस्यारम्भिकी क्रिया स्याद्भवति स्थान भवति, 'अप्रम ४४७॥ संयतस्य न भवति शेषस्य भवतीत्यर्थः, तथा यस्खारम्भिकी क्रिया तस्याप्रत्याख्यानक्रिया स्थाद्भवति स्थान भवति, प्रमत्तसंयतस्य देशविरतस्य च न भवति, शेषस्य अविरतसम्यग्दृष्ट्यादेर्भवतीति भावः, यस्य पुनरप्रत्याख्यान दीप अनुक्रम [५२९] eesececre Facraccisesences अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकन-स्थाने पुन: एका स्खलना दृश्यते- (सूत्र २८३) स्थाने (सूत्रं २८४) द्वि-वारान् मुद्रितं ~898~ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------ मूलं [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८४] क्रिया तस्यारम्भिकी नियमात्, अप्रत्याख्यानिनोऽवश्यमारम्भसम्भवात् , एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यययापि सहाविनाभावो भावनीयः, तथाहि-यस्थारम्भिकी क्रिया तस्य मिथ्यादर्शनप्रत्यया स्याद्भवति स्थान भवति, मिथ्यादृष्टे - वति शेषस्य न भवतीत्यर्थः, यस्य तु मिथ्यादर्शनक्रिया तस्य नियमादारम्भिकी, मिथ्यादृष्टेरविरतत्वेनावश्यमारम्भ-11 सम्भवात् , तदेवमारम्भिकी क्रिया पारिवाहिक्यादिभिश्चतसृभिरुपरितनीभिः क्रियाभिः सह परस्परमविनाभावेन चिन्तिता, एवं पारिवाहिकी तिसृभिर्मायाप्रत्यया द्वाभ्यामप्रत्याख्यानक्रिया एकया मिथ्यादर्शनप्रत्ययया चिन्तनीया, तथा चाह-एवं पारिग्गहियावि तिहिं उपरिल्लाहिं समं संचारेयवा' इत्यादि सुगम, भावनायाः सुप्रतीतत्वात् । अमुमेवार्थ चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-'नेरइयस्स आइलातो चत्तारि' इत्यादि, नैरयिकायु-1 कर्पतोऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकं यावन्न परतः ततो नैरयिकाणामाद्याश्चतस्त्रः क्रियाः परस्परमविनाभाविन्यः, मिथ्यादर्शनक्रियां प्रति स्याद्वादः, तमेवाह-'जस्स एयाओ चत्तारि' इत्यादि, मिथ्यारष्टेर्मिध्यादर्शनक्रिया भवति शेषस्य न भवतीति भावः, यस पुनर्मिथ्यादर्शनक्रिया तस्याद्याश्चतस्रो नियमात्, मिथ्यादर्शने सत्यारम्भिक्यादी-1 नामवश्यंभावात् , एवं तावद्वक्तव्यं यावत्स्वनितकुमारस्य । पृथिव्यादीनां चतुरिन्द्रियपर्यवसानानां पञ्च क्रियाः परस्परमविनाभाविन्यो वक्तव्याः, पृथिव्यादीनां मिथ्यादर्शनक्रियाया अप्यवश्यंभावात् , तिर्यपञ्चेन्द्रियस्यायास्तिस्रः परस्परमविनाभूता देशविरतिं यावदासामवश्यंभावात् , उत्तराभ्यां तु द्वाभ्यां स्थाद्वादः, तमेव दर्शयति-'जस्स दीप अनुक्रम [५२९] Reacticeaeoes ForParmanasambuonm ~899~ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २२ क्रिया यदे हिंसा प्रज्ञापना बा: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२८४] ॥४४८॥ एयाओ कजंति' इत्यादि, देशविरतस्य न भवतः शेषस्य भवत इति भावः, यस्य पुनः उपरितन्यौ । क्रिये तस्सायास्तिस्रो नियमाद्भवन्ति, उपरितन्यो हि क्रिये अप्रत्याख्यानक्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया च, तत्राप्रयाण्यानक्रिया अविरतसम्यग्दृष्टिं यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया मिथ्यादृष्टेः आद्याश्चतस्रो देशविरतिं यावत् अत उपरितन्योर्भावेऽ हेतुः बन्ध|वश्यमाद्यानां तिसृणां भावः, सम्प्रति अप्रत्याख्यानक्रियया मिथ्यादर्शनक्रियायास्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियस्य परस्परमविनाभावं चिन्तयति-'जस्स अपचक्खाणकिरिया' इत्यादि भावितं, मनुष्ये यथा जीवपदे तथा वक्तव्यं, व्यन्तर- २८५-२८६ ज्योतिष्फवैमानिकानां यथा नैरयिकस्य, एवमेष एको दण्डकः, 'एवमेव जं समयं णं भंते ! जीवस्से'त्यादिको |द्वितीयः, 'ज देसण्ण'मित्यादिकः तृतीयः, 'जं पएसपण'मित्यादिकश्चतुर्थः । अथ पट कायाः प्राणातिपातक्रिया-18 हेतव एव भवन्ति किंवा तद्विरमणहेतवोऽपीति पृच्छति अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणातिवायवेरमणे कजति ?, हता! अस्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणातिपातवेरमणे क० १, गो! छसु जीवनिकाएसु, अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणातिवातवेरमणे क०, गो० नो इणढे समडे, एवं जाव ४४८॥ वेमाणियाणं, गवरं मणूसाणं जहा जीवाणं, एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं, जीवस्स य भणूसस्स य, सेसाणं नो तिणढे समढे, णवरं अदिनादाणे गहणधारणिज्जेसु दबेसु, मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दवेसु, सेसाणं सवेसु दवेसु, अस्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कजति , हता! अस्थि, कम्हिण भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसवेरमणे दीप अनुक्रम [५२९] ~900~ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८५-२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] 28 दीप अनुक्रम [५३१-५३३] eesesee कजति ?, गो! सवदत्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिदियविमलेदियाण नो तिणढे समहे (सू०२८५) पाणातिपातविरए णं भंते ! जीवे कइ कम्मपगडीतो बंधति !, मो०! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए चा अबंधए वा, एवं मणूसेवि भाणितो, पाणातिपातविरया ण भंते ! जीवा कति कम्मपगडीतो बंधति', गो०! सवेवि तार होजा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबं० एगविहवं अहविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहवं. एगविहवं. अट्टविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविह० एगविहबं० छपिहधगे य ४, अहवा. सत्तविहव० एगवि० छबिहबंधगा य ५ अहवा सत्तविह० एगविहवं० अबंधए य ६ अहवा सचविहवं० एगविहर्ष० अबंधगा य७ अहवा सत्तवि० एगवि० अढविधर्वधगे य छबिहबंधए य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहवं अहविहबंधए य छविबंधगा य २ अहवा सत्तविहवं० एगवि० अद्वविहवंधगा य छविहबंधए य ३ अहवा सत्तविहधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छबिहबंधगा य ४ अहवा सत्तविहवंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधए य अबंधए य १ अहवा सत्तविहर्ष० एगविहर्ष० अट्ठविहबंधए य अबंधगा य २ अहवा सत्तविहवं० एगवि० अढविहबंधगा य अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य अबंधगा य ४, अहवा सत्तविहवंधगा य एगविहवंधगा य छविहवंधगे य अबंधए य १ अहवा सत्तविहर्ष० एगविहबंधगा य छबिहबंधए य अबंधगा य २, अहवा सत्तविहवंधगा य एगवि० छविह० अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० छविहरू अबंधगा य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अङ्कविहबंधगे य छबिहबंधए य अबंधए य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अढविहबंधए य छबिहबंधए.य अब seseselselcere ~901~ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८५-२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. 3929 २२क्रियापदे हिंसादिविरमणे तुः बन्धश्च सू. २८५-२८६ ॥४४९॥ धगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह. अविहबंधए य छविहबंधगा य अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह० अढविधबंधए य छबिहबंधगा ये अबंधगा य४, अहवा सचवि० एमवि० अट्ठवि० छबिहबंधगे य अबंधए य ५, अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अट्ठविह० छबिहबंधगे य अबंधगा य ६, अहवा सत्तवि० एगविह० अट्ठवि० छविहबंधगा य अबंधए य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य एग. अडवि० छविहवं. अबंधगा य ८ एवं एते अट्ठभंगा, सब्वेवि मिलिया सत्तावीसं भंगा भवंति, एवं मण्साणवि एते चेव सत्तावीसं भंगा भाणितबा, एवं मुसावायविरयस्स जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स य मणूसस्स य, मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीतो पंधति , गो! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगवि० अबंधए वा, मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! नेरइए कति कम्मपगडीतो बंधति', गो० सत्तविहवंधए वा अढवि० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिय०, मणसे जहा जीवे, वाणमंतरजोड़सितवेमाणिते जहा नेरइते, मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो० ते चेव सत्तावीसं भंगा भाणितवा, मिच्छादसणसल्लविरया भंते ! नेरड्या कति कम्मपगडीतो बंधति, गो! सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगे य अहवा सचविबंधगा य अढवि० एवं जाव वेमाणिया, णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं । (सूत्र २८६) पाणातिवायविरयस्स भंते ! जीवस्स किंआरंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजति ?, गो! पाणातिवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कजति सिय नो काति, पाणातिवायविरयस्स णं भंते जीवस्स परिग्गहिया किरिया कजति , गो! णो इण समढे, पाणातिवाय दीप अनुक्रम [५३१-५३३] Scene V ४४९॥ ~902~ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८५-२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] दीप अनुक्रम [५३१-५३३] विरयस्स णं भंते ! जीवस्स मायावत्तिया किरिया कज्जति ?, गो०! सिय कन्जति सिय नो कज्जति, पाणातिपातविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अपचक्खाणवत्तिया किरिया कज्जति ?, गो०! णो इणढे समढे, मिच्छादसणवत्तियाए पुच्छा, गो! णो इणढे समहे, एवं पाणातिपातविरयस्स मणूसस्सवि, एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य, मिच्छादसणसहाविरयस्सणं भंते! जीवस्स किं आरंभिया किरिया क. जाब मिच्छादसणवतिया कि० क..,गो! मिच्छादसणसल्लविरतस्स जीवस्स आरंभिया कि० सिय क. सिय नोक०, एवं जाव अपञ्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया नक, मिच्छादसणसल्लविरयस्स ण भंते ! नेरझ्यस्स किं आरंभिया किरिया क० जाव मिच्छादसणवचिया कि० क०१, गो ! आरंभिया कि० क० जाव अपञ्चक्खाणकिरियावि क०, मिच्छादसणवत्तिया किरिया नो क०, एवं जाब थणियकुमारस्स, मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा, गो! आरंभिया कि० क. जाव मायावत्तिया कि० क०, अपचक्खाणकि० सिय कसिय नोक०, मिच्छादसणवत्तिया कि० नो कमणसस्स जहा जीवस्स । वाणमंतरजोइसियवेमा० जहा नेरहयस्स । एतासि णं मंते ! आरंभियाणं जाव मिच्छादसणवत्तियाण य कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गो० सवत्थोवाओ मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ, अपचक्खाणकिरियाओ विसे०, | परिग्गहियातो विसे०, आरंभियातो किरियातो विसे०, मायावत्तियातो विसेसाहियातो (सूत्र २८७ ) ।। पण्णवणाए बावीसतिमं पयं समत्तं ॥ २२ ॥ ~903~ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८५ -२८७] दीप अनुक्रम [५३१ -५३३] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥४५०॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [-], उद्देशक: [-], मूलं [ २८५-२८७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. 'अत्थि णं मंते !' इत्यादि, सर्वत्र क्रियते कर्मकर्त्तरिप्रयोगः ततो भवतीति द्रष्टव्यः प्राणातिपातादिविरमणविषयाश्च षट् कायादयः प्रागेव भाविता इति न भूयो भाव्यन्ते, विरतिश्च प्राणातिपातादीनां मायामृषापर्यन्तानां जीवपदे मनुष्यपदे वक्तव्या, शेषेषु स्थानेषु नायमर्थः समर्थ इति वक्तव्यं तेषां भवप्रत्ययतः सर्वविरत्यसम्भवात्, मिथ्यादर्शन विरमणविषयचिन्तायां सर्वद्रव्येष्यिति उपलक्षणमेतत् सर्वपर्यायेष्वपि, अन्यथा एकस्मिन् द्रव्ये पर्याये वा मिध्यात्वभावे मिथ्यादर्शनविरमणासम्भवात्, 'सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥ १ ॥” इति वचनात्, मिथ्यादर्शनशल्यविरमणं च एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जेषु स्थानेषु, शेषेषु एकेन्द्रियादिषु न भवति, कस्मादिति चेत्, उच्यते, पृथिव्यादिषु 'उभयाभावो पुढवाइसु' [ प्रतिपद्यमानप्रतिपन्नाभावः पृथिव्यादिषु ] इति वचनात्, द्वीन्द्रियादीनां तु यद्यपि करणापर्याप्तावस्थायां केषांचित् सासादनसम्यक्त्वं भवति तथापि तत् मिथ्यात्वाभिमुखानां तत्प्रतिकूलानामतस्तेषामपि मिथ्यादर्शनशल्यविरमणप्रतिषेधः, आह च- 'अत्थि गं भंते ! जीवाणं मिच्छादंसणसलयेरमणे कज्जह' इत्यादि, अथवा प्राणातिपात विरतस्य कर्मबन्धो भवति किं वा नेति चेत्, उच्यते, भवत्यपि न भवत्यपि, तथा च एतदेव प्रश्नसूत्रपूर्व| कमाह - 'पाणाइवावविरए णं मंते ! जीवे' इत्यादि सुगमं, बहुवचने प्रश्नसूत्रं सुगमं, निर्वचनसूत्रे सर्वेऽपि ताबद्रवेयुः सप्तविधबन्धकाश्च एकविधबन्धकाश्च, इह प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्त वादर सम्परायाः सप्तविधबन्धकाः Eucation International For Pernal Use On ~904~ २२ क्रिया पदे विरतानां क्रियाभावः सू. २८७ ॥४५० ॥ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८५ -२८७] दीप अनुक्रम [५३१ -५३३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [-], पदं [२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Ja Eucation intention उद्देशक: [-], मूलं [ २८५-२८७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः प्रमत्ता अप्रमत्ताश्चायुर्वन्धकालेऽष्टविधबन्धकाः, आयुषोऽपि बन्धनात्, आयुर्वन्धश्च कादाचित्क इति कदाचित्सवथा न लभ्यतेऽपि प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते, अपूर्वकरणा अनिवृत्तिवादराश्च कदाचिन्न भवन्त्यपि, विरहस्यापि तेषामागमे प्रतिपादनात् एकविधबन्धका उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनः, तत्र उपशान्तिमोहाः क्षीणमोहाश्च कदाचिल्लभ्यन्ते कदाचिन्न लभ्यन्ते तेषामन्तरस्यापि सम्भवात्, सयोगिकेवलिनस्तु सदा प्राप्यन्तेऽन्यान्यभावेन तेषामव्यवच्छेदात् ततः सप्तविधबन्धका एकविधबन्धकाश्चावस्थिता इत्यष्टविधवन्धकाद्यभावे एको भङ्गः, अथवा सप्तविधबन्धका एकविधबन्धकाश्च बहव एकोऽष्टविधबन्धक इति द्वितीयः, अष्टवि धवन्धकानां बहुत्वे तृतीयः, षडूबिधबन्धका अपि कदाचिलभ्यन्ते कदाचिन्न, उत्कर्षतः षण्मासविरहभावात्, यदापि लभ्यन्ते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षपदेऽष्टोत्तरं शतं ततोऽष्टविधबन्धकपदाभावे पडूविधबन्धकपदेनापि द्वौ भङ्गौ, अबन्धका अयोगिकेवलिनस्तेऽपि कदाचिदवाप्यन्ते कदाचिन्न, तेषामप्युत्कर्षतः पण्मासविरह भावात्, | यदाऽप्यवाप्यन्ते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतं, ततोऽष्टविधबन्धकपदाभावेऽबन्धकपदेनापि द्वौ भङ्गो, तदेवमेक आयो भङ्ग एककसंयोगे च पडिति सप्त भङ्गाः, इदानीं द्विक्संयोगे भङ्गा दर्श्यन्ते, तत्र सप्तविधबन्धका एकविधवन्धकाश्चावस्थिताः, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् ततोऽष्टविधबन्धकपदे पविधबन्धकपदे च प्रत्येकमेकवचनमिति एको भङ्गः, अष्टविधबन्धकपदे एकवचनं पद्विधबन्धकपदे बहुवचनं इति For Parts Only ~905~ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८५-२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती ॥४५॥ avesercene दीप अनुक्रम [५३१-५३३] द्वितीयः, एतौ द्वौ भावष्टविधवन्धकपदस्पैकवचनेन लब्धौ, एतावेव द्वौ भङ्गो बहुवचनेनेति चत्वारः, एवमेव २२ क्रियाचत्वारो भङ्गाः अष्टविधवन्धकाबन्धकपदाभ्याम् , एवमेव चत्वारः षड्विधवन्धकाबन्धकपदाभ्यामिति, सर्वसङ्ख्ययापदे विरद्विकसंयोगे द्वादश भनाः, त्रयाणामष्टविधवन्धकषविधवन्धकाबन्धकरूपाणां पदानां संयोगे प्रत्येकमेकवचनवदव- ताना किचनाभ्यामष्टी भङ्गाः, सर्वसङ्कलनया सप्तविंशतिर्भशाः, अत्रापर आह-ननु विरतस्य कथं बन्धो, न हि पिरतिष-18 SINयाभावः धहेतुर्भवति, यदि पुनर्विरतिरपि बन्धहेतुः स्यात् ततो निर्मोक्षप्रसङ्गः, उपायाभावात् , उच्यते, न हि विरतिब-18 सू. २८७ न्धहेतुः, किन्तु विरतस्य ये कपाययोगास्ते बन्धकारणं, तथाहि-सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकेष्वपि । संयमेषु कपायाः संज्वलनरूपा उदयप्राप्ताः सन्ति योगाश्च, ततो विरतस्यापि देवायुष्कादीनां शुभप्रकृतीनां तत्प्रत्ययो वन्धः, यथा च प्राणातिपातविरतस्य सप्तविंशतिर्भका उक्ताः तथा मृषावादविरतस्य यावत् मायामृपाविरतस्य, मिथ्यादर्शनशल्यविरतमधिकृत्य सूत्रमाह-'मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते!' इत्यादि सुगम, नवरं सप्तविधबन्धकत्वमएविधवन्धकत्वं षविधबन्धकत्वमेकविधमन्धकत्वमवन्धकत्वं च, मिथ्यादर्शनशल्यविरतेरविरतसम्यग्दृष्टेरारभ्यायोगिकेवलिनं यावद्भावात् , नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकचिन्तायां मनुष्यवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु सप्तविधव-IN ॥४५॥ न्धकत्वं अष्टविधवन्धकत्वं वा, न पडूविधवन्धकत्यादि, श्रेणिप्रतिपत्त्यसम्भवात् , मनुष्यपदे च यथा जीवपदे तथा वक्तव्यं, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् , बहुवचनेनैतद्विषयं सूत्रमाह-'मिच्छादसणसलविरया णं भंते! जीवा' इत्यादि, ~906~ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८५-२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] atemeseResomeरकर दीप अनुक्रम [५३१-५३३] अत्रापि त एवं पूर्वोक्ताः सप्तविंशतिर्भङ्गाः, नैरयिकपदे भङ्गत्रिकं, तत्र सर्वेऽपि तावद्भवेयुः ससविधवन्धका इत्येको भक्तः, अयं च यदेकोऽप्यष्टविधवन्धको न लभ्यते तदा भवति, यदा पुनरेकोऽष्टविधवन्धको लभ्यते तदाऽयं द्विती-17 यो भङ्गः सप्तविधवन्धकाचाष्टविधवन्धकश्च, यदा पुनरष्टविधवन्धका अपि वहयो लभ्यन्ते तदा तृतीयः सप्तविध-11 |वन्धकाचाष्टविधबन्धकाच, एवं भात्रिकं तावद् वाच्यं यायद्वैमानिकसूत्रं, नवरं मनुष्यपदे सप्तविंशतिर्भकका यथा जीवपदे इति । अथारम्भिक्यादीनां क्रियाणां मध्ये का क्रिया प्राणातिपातविरतस्येति चिन्तयति-पाणावायवि-1 रयस्स पं भंते ।' इत्यादि, आरम्भिकी क्रिया स्थाद्भवति स्थान्न भवति, प्रमत्तसंयतस्य भवति शेषस्य न भवतीति भावः, पारिप्रहिकी निषेध्या, सर्वथा परिग्रहान्निवृत्तत्वात् , अन्यथा सम्यक्प्राणातिपातविरत्यनुपपत्तेः, मायाप्रत्यया। स्थाद्भवति स्थान भवति, अप्रमत्तस्थापि हि कदाचित् प्रवचनमालिन्यरक्षणार्थ भवति, शेषकालं तु न भवति, अप्र-16 त्याख्यानक्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया च सर्वथा निषिध्यते, तद्भावे प्राणातिपातविरत्ययोगात्, प्राणातिपातविरतेश्वर वे पदे, तद्यथा-जीवो मनुष्यश्च, तत्र यथा सामान्यतो जीवमधिकृत्योकं तथा मनुष्यमधिकृत्य वक्तव्यं, तथा चाह-एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्सवि' इति, एवं तावद्वाच्यं यावन्मायामृषाविरतस्य जीवस्य मनुष्यस्य च. मिथ्यादर्शनशल्यविरतमधिकृत्य सूत्र 'मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते । जीवस्स' इत्यादि, आरम्भिकी स्थाद्भवति स्थान्न भवति, प्रमत्तसंयतान्तस्य भवति शेषस्य न भवतीति भावार्थः, पारिग्रहिकी देशविरतिं यावद्भवति, परतो ~907~ Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८५-२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. ॥४५॥ secever न भवति, मायाप्रत्ययाऽप्यनिवृत्तवादरसम्परायं यावद्भाविनी परतो न भवति, अप्रत्याख्यानक्रियाऽपि अविरतसम्यग्दृष्टिं यावन्न परतः, तत एता अपि क्रिया अधिकृत्य 'सिय कजइ सिब नो कजई' इति वक्तव्यं, तथा चाह'एवं जाव अपचक्खाणकिरिया' इति, मिथ्यादर्शनप्रत्यया पुनर्निषेध्या, मिथ्यादर्शनविरतस्य तस्या असम्भवात्, चतुर्विशतिदण्डकचिन्तायां नैरयिकादीनां स्तनितकुमारपर्यन्तानां चतस्रः क्रिया वक्तव्याः, मिथ्यादर्शनप्रत्यया निषेध्या, तिर्यपञ्चेन्द्रियस्थाचास्तिस्रः क्रिया नियमतो वक्तव्याः, अप्रत्याख्यानक्रिया भाज्या, देशविरतस्य न भवति शेषस्य भवतीत्यर्थः, मिथ्यादर्शनप्रत्यया निषेध्या, मनुष्यस्य यथा सामान्यतो जीवस्य, व्यन्तरादीनां यथा नैरविकस्य । सम्प्रत्यासामेवारम्भिक्यादीनां क्रियाणां परस्परमल्पबहुत्त्वमाह-'एएसिणं भंते । इत्यादि, सर्वस्तोका मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया, मिथ्यादृष्टीनामेव भावात् , ततोऽप्रत्याख्यानक्रिया विशेषाधिका, अविरतसम्यग्दृष्टीनां मिथ्यारष्टीनां च भावात् , ताभ्योऽपि पारिवाहिक्यो विशेषाधिकाः, देशविरतानां पूर्वेषां च भावात् , आरम्भिक्यो विशेषाधिकाः, प्रमत्तसंयताना पूर्वेषां च भावात् , ताभ्योऽपि मायाप्रत्यया विशेषाधिकाः, अप्रमत्तसंयतानामपि भावात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां द्वाविंशतितमं क्रियापदं समाप्तम् ॥२२॥ २२क्रियापदं विरतानामार| म्भिक्यादिः क्रियाणामल्पवहुत्वं सू. दीप अनुक्रम [५३१-५३३] ॥४५२॥ SARERatunintamatara अत्र पद (२२) "क्रिया" परिसमाप्तम् ~908~ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८८-२८९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अथ त्रयोविंशतितमं कर्मप्रकृतिपदं ॥ २३ ॥ सूत्रांक [२८८-२८९] गाथा तदेवमुक्तं द्वाविंशतितमं पदं, सम्प्रति त्रयोविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे नारकादिगतिपरिणामेन परिणतानां जीवानां प्राणातिपातादिक्रियाविशेषश्चिन्तितः, सम्प्रति पुनः कर्मबन्धादिपरिणामविशेषश्चिन्त्यते-तत्र चेयमधिकारद्वारगाथा- . कति पगडी १ कह बंधति २ कइहिवि ठाणेहिं बंधए जीवो । कति वैदेह य पयडी ४ अणुभावो कइविही कस्स ५॥१॥ कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णताओ, गो! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णचाओ, तं०-णाणावरणिज १५सणावरणिजं २ वेदणिज ३ मोहणिजं ४ आउयं ५ नाम ६ गोयं ७ अंतराइयं ८, नेरइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पं०१, गो०। एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं ॥१(सूत्र २८८) कहणं मते । जीवे अट्ट कम्मपगडीतो बंधति , गो०। नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्ज कम्मं णियच्छति, सणावरणिअस्स कम्मरस उदएणं दसणमोहणिज्ज कम्मं णियच्छति, दंसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्वं नियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिएणं गो०! एवं खलु जीवो अट्ठ कम्मपगडीतो बंधति, कहष्णं भंते ! नेरइए अट्ठ कम्मपगडीओ बंधति ?, गो०। एवं चेक, एवं जाव वेमाणिते । कहणं भंते ! जीवा अट्ठ कम्मपगडीतो बंधंति, गो० एवं चेच जाव वेमाणिया ।। २ (सूत्र २८९) दीप अनुक्रम [५३४-५३६] Purasurare.org अथ पद (२३) "कर्मप्रकृति" आरब्धम अथ (२३) कर्मप्रकृति-पदे उद्देशकः (१) आरब्धः, अत्र (२३) कर्मप्रकृति-पदे प्रथमे उद्देशके अधिकार: (१, २) आरब्धः, ~909~ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८८-२८९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: meroeA प्रत सूत्रांक [२८८-२८९] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥४५॥ गाथा 'कइ पगडी' इत्यादि, कति प्रकृतयो भवन्तीत्यादि प्रथमोऽधिकारः, तथा कथं-केन प्रकारेण ताः प्रकृतीब- २३कर्मप्रमातीति द्वितीयः, कतिभिः स्थानबंधातीति तृतीयः, कति प्रकृतीवेदयते इति चतुर्थः, कस्य कर्मणः कतिविधोऽनुभागः पञ्चमः । तत्र प्रथमाधिकारनिरूपणार्थमाह-'कति णं भंते ! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओं' इति, ननूक्तमेव प्रकृतिक्रियापदे कति कर्मप्रकृतय इति ततः किमर्थमिह प्रकृतिसङ्ख्यार्थः प्रश्नः ।, उच्यते, विशेषप्रतिपादनार्थः, स चायं न्धश्च सू. विशेष:-पूर्व ज्ञानावरणीयादि कर्म बझन् कतिमिः क्रियाभियुज्यते इत्युक्त, क्रियाश्च प्राणातिपातहेतवः, प्राणाति-11 |२८८-२८९ पातश्च बायं ज्ञानावरणीयादिकर्मवन्धकारणं, कर्मवन्धः कार्य, इह तु ज्ञानावरणीयादिकर्म एवान्तरं कर्मबन्धका-18 शरणं प्रतिपाद्यमिति, भगवनिर्वचनमाह-गौतम ! अष्टौ कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, एता एव नामग्राहं दर्शयति'ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीय' इत्यादि, ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः, आनियते-आच्छाधते अमेनेत्यावरणीयं 'कृद्धहुल'मिति वचनात् करणेऽनीयप्रत्ययः, ज्ञानस्यावरणीयं ज्ञानावरणीय, दृश्यतेऽनेनेति दर्शन-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधः, । उक्तं च-"जं सामन्नग्गहणं भावाणं नेय कटु आगारं । अविसेसिऊण अत्ये दसणमिइ वुचए समए ॥१॥"RIशा यत् सामान्यग्रहणं भावानां नैव कृत्वाऽऽकारम् । अर्थानविशेष्य दर्शनमित्युच्यते समये ॥१॥] तस्यावरणीय दर्शनावरणीयं, तथा वेद्यते-आहादादिरूपेण यदनुभूयते तद्वेदनीयं, अत्र कर्मण्यनीयः, यद्यपि च सर्व कर्म वेधते दीप अनुक्रम [५३४-५३६] wirelunurary.org ~910~ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८८ -२८९] + गाथा दीप अनुक्रम [५३४ -५३६] “प्रज्ञापना” उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) पदं [२३], दारं [-], ----------- उद्देशकः [१]. मूलं [ २८८-२८९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - तथापि पङ्कजादिशब्दवत् वेदनीयशब्दस्य रूढिविषयत्वात् सातासातरूपमेव कर्म वेदनीयमित्युच्यते, न शेषं, तथा मोहयति - सदसद्विवेकविकलं करोति आत्मानमिति मोहनीयं, अत्र बहुलवचनात् कर्त्तर्य्यनीयः, तथा एतिआगच्छति प्रतिबन्धकतां खकृतकर्मबद्धनरकादिकुगतेर्निष्क्रमितुमनसो जन्तोरित्यायुः, अथवा आ समन्तादेतिगच्छति भवाद भवान्तरसङ्क्रान्तौ विपाकोदयमित्यायुः, उभयत्राप्यौणादिक उस्प्रत्ययः, तथा नामयति - गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम, तथा ग्रूयते - शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैर्यत् तद् गोत्रं - उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रं, कार्ये कारणोपचारात्, यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा गूयते - शच्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयाद् गोत्रं, तथा जीवं दानादिकं चान्तरा व्यवधानापादनाय एति गच्छत्यन्तरायं, जीवस्य दानादि कर्त्तुमुद्यतस्य विघातकृद् भवतीत्यर्थः, अत्राह - नन्वित्यं ज्ञानावरणीयाद्युपन्यासे किञ्चिदस्ति प्रयोजनमुत यथाकथञ्चिदेव प्रवृत्तिरिति ?, अस्तीति ब्रूमः, किं तदिति चेत्, उच्यते, इह ज्ञानं दर्शनं च जीवस्य खतत्त्वभूतं, तदभावे जीवत्वस्यैवाभावात् चेतनालक्षणो हि जीवस्ततः स कथं ज्ञानदर्शनाभावे भवेत् ?, ज्ञानदर्शनयोरपि च मध्ये प्रधानं ज्ञानं, तद्वशादेव सकलशास्त्रादिविषय विचारसन्ततिप्रवृत्तेः, अपिच - सर्वा अपि लब्घयो जीवस्य साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायन्ते, न दर्शनोपयोगोपयुक्तस्य, 'सधाओ लद्धीओ सागरोवउत्तस्स नो अणागारोवओगोवउत्तस्से' [ सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य नानाकारोपयोगोपयुक्तस्य ] Eaton International For Park Use Only ~911~ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८८-२८९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८८-२८९] प्रज्ञापनाया:मलयवृत्तौ. ॥४५४॥ गाथा ति वचनप्रामाण्यात् , अन्यत्र-यस्मिन् समये सकलकर्मविनिर्मुक्तखरूपो जीवः सम्पद्यते तस्मिन् समये ज्ञानोप पशाना२३कर्मप्रयोगोपयुक्त एव न दर्शनोपयुक्तो, दर्शनोपयोगस्य द्वितीयसमये भावात् , ततो ज्ञानं प्रधानं, तदावारकं च ज्ञानावर-|| | कृतिपदे. शणीयं कर्म ततस्तत्प्रथममुक्तं, ततस्तदनन्तरं दर्शनावरणीयं ज्ञानोपयोगाच्युतस्य दर्शनोपयोगेऽवस्थानात् , एते च ज्ञान-18| दर्शनावरणीये खविपाकमुपदर्शयतो यथायोगमवश्यं सुखदुःखरूपवेदनीयकर्मविपाकोदयनिमित्ते भवतः, तथाहि- न्धश्च सू. ज्ञानावरणमुपचयोत्कर्षमधिरूढं विषाकतोऽनुभवन् सूक्ष्म २ तरवस्तुविचारासमर्थमात्मानं जानानः खिद्यते भूरि- २८८-२८२ लोकः, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमपाटयोपेतश्च सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि वस्तूनि निजप्रज्ञया भिन्दानो बहुजनातिशायिनमा-N त्मानं पश्यन् सुखं वेदयते, तथाऽतिनिविडदर्शनावरणविपाकोदये जात्पन्धादिरनुभवति दुःखमद्भुतं, दनाचरणक-1|| मक्षयोपशमपटिष्टतापरिकरितश्च स्पष्टचक्षुराद्युपेतो यथावद् वस्तूनि पश्यन् वेदयते प्रमोदम्, तत एतदथेप्रतिपत्त्य] दर्शनावरणीयानन्तरं वेदनीयग्रहणं, वेदनीयं च सुखदुःखे जनयत्सभीष्टानभीष्टविषयसम्बन्धात् ,अभीष्टानभीष्टविषयस-11 म्बन्धे चावश्यं संसारिणां रागद्वेषौ तौ च मोहनीयहेतुकौतत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ वेदनीयानन्तरं मोहनीयग्रहणं, मोह-11 नीयमूढाथ जन्तयो बरारम्भपरिग्रहाद्यासक्ता नरकाद्यायुष्कमावनन्ति ततो मोहनीयानन्तरमायुष्कग्रहणं, बरका- ४५४॥ द्यायुष्कोदये चावश्यं नरकगत्यादीनि नामान्युदयमायान्ति तत आयुष्कानन्तरं नामग्रहणं, नामकर्मादये च निय-1॥ मादुच्चनीचान्यतरगोत्रकर्मविपाकोदयेन भवितव्यमतो नामग्रहणानन्तरं गोत्रग्रहणं, गोत्रोदये. चोचःकुलोत्पन्नस्य दीप अनुक्रम [५३४-५३६] ~912~ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८८-२८९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूत्रांक [२८८-२८९] Sece गाथा eeeeeeeeee प्रायो दानलाभान्तरायादिक्षयोपशमो भवति, राजप्रभृतीनां प्राचुर्येण दानलाभादिदर्शनात् , नीचैःकुलोत्पन्नस्य हैं। दानलाभान्तरायायुदयोऽन्त्यजातीनां तथादर्शनात, तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ गोत्रानन्तरमन्तरायग्रहणं । तदेवमुक्तं प्रथम द्वारम् , अधुना कथं वनातीति द्वितीयद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहण्णं भंते।' इत्यादि, कथं-केन प्रकारेण णमिति वाक्यालङ्कारे जीवोऽष्टौ प्रकृतीनाति ?, भगवानाह-गौतम ! ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनावरणीय कर्म निर्गच्छति-निश्चयेन गच्छति, विशिष्टोद्यापनमासादयति, किमुक्तं भवति ?-जानावरणीयमुत्कर्षप्रासमुदयेन अनुभवन् दर्शनावरणीयमुदयेन वेदयते, दृश्यन्ते हि खलु शून्यवादिप्रभृतयः कुवादिनः कुज्ञानवासितान्तःकरणा विपरीतं पश्यन्त इति, दर्शनावरणीयस्य च कर्मण उदयेन दर्शनमोहनीय कर्म निर्गच्छति, विपाकावस्थोदयेन प्रतिपद्यते इति भावः, तस्य दर्शनमोहनीयस्य कर्मण उदयेन मिथ्यात्वं निर्गच्छति, अतत्त्वं तत्वमध्यवस्थति तत्त्वं चातत्त्वमिति भावः, तत एवं मिथ्यात्वोदयेन जीवोऽष्टौ प्रकृतीबंधाति, खलुशब्दः प्रायोवृत्तिदर्शनार्थः, प्रायस्तावदेवमन्यथा सम्यग्दृष्टिरपि कश्चिदष्टौ प्रकृतीनाति, केवलं कश्चित् न बनात्यपि वथा सूक्ष्मसम्परायादिरिति स प्रकारो नोक्तः, एष चात्र तात्पर्याथैः-पूर्वकर्मपरिणामसामर्थ्यात् उत्तरकर्मणः सम्भवो, यथा बीजादरपत्रना-18 लादीनां, उक्तं च-"जीवपरिणामहेउं कम्मत्ता पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मनिमित्तं जीवोवि तहेच परिणमइ ॥१॥” इति [ जीवपरिणामहेतोः पुद्गलाः कर्मतया परिणमन्ति । कर्मपुद्गलहेतोर्जीवोऽपि तथैव परिणमति | दीप अनुक्रम [५३४-५३६] 2299999900 ~913~ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८८ -२८९] + गाथा दीप अनुक्रम [५३४ -५३६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [२३], दारं [-], ----------- उद्देशकः [१]. मूलं [ २८८-२८९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापनाया मल ॥ १ ॥] उक्तमेवार्थे चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति- 'कहण्णं भंते! नेरइए' इत्यादि सुगमं तदेवमुक्त एकत्वेन दण्डकः, सम्प्रति बहुत्वेनाह- 'कहण्णं भंते ! नेरइया' इत्यादि पाठसिद्धं । उक्तं द्वितीयद्वारमपि, अधुना य० वृत्ती. ४ कतिभिः स्थानैर्वभातीति तृतीयद्वारमभिधित्सुराह ॥४५५॥ Educator Inte जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं कतिहि ठाणेहिं बंधति १, गो० ! दोहिं ठाणेहिं, तं० - रागेण य दोसेण य, रागे दुविहे पं० [सं० – माया य लोभे य, दोसे दुविधे पं० [सं० कोहे य माणे य, इचेतेहिं चउहिं ठाणेहिं विरितोवाहिएहिं एवं खलु जीवे गाणावरणिजं कम्मं बंधति, एवं नेरतिते जाव बेमाणिते, जीवा णं मंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं कतिहिं ठाणेहिं बंधंति ?, गो० । दोहिं ठाणेहिं एवं चैव, एवं नेरइया जाव वैमाणिया, एवं दंसणावरणिजं जाव अंतराइजं, एवं एते एमपोहत्तिया सोळस दंडगा ॥ ३ (सूत्रं २९० ) 'जीवे णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह द्वाभ्यां स्थानाभ्यां त एव स्थाने नामग्राहमाह - तद्यथारागेण द्वेषेण च, अथ कोऽसौ रागः को वा द्वेष इति १, उच्यते, प्रीतिलक्षणो रागोऽप्रीत्यात्मको द्वेषः, एतौ च प्रीत्यप्रीत्यात्मको रागद्वेषी नात्यन्तं क्रोधादिभ्यो व्यतिरिच्येते, किन्तु तेष्वेवान्तर्भवतः स चान्तर्भावो नयभेदाद्विचित्र इति विनेयजनानुग्रहाय प्रदर्श्यते, तत्र सङ्ग्रहो मन्यते - क्रोधोऽप्रीत्यात्मकः प्रतीत एव, मानोऽपि परगुणासहनात्मकत्वादप्रीत्यात्मकः, ततोऽप्रीत्यात्मकत्वादेतौ द्वावपि द्वेषः, लोभोऽभिष्वङ्गात्मकत्वात् प्रीतिरूपः सुप्रसिद्धो, अत्र (२३) कर्मप्रकृति-पदे प्रथमे उद्देशके अधिकारः (३) आरब्धः, For Pasta Use Only ~914~ २३ कर्मप्र कृतिपदे स्थानानि सू. १९० ॥४५५|| wor Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९०] मायामपि परवञ्चनात्मिका किञ्चिदभिलषन् प्रयुक्ते अभिलाषश्च प्रीतिखभाव इति साऽपि प्रीत्यात्मिका, तत एतौ मायालोभी प्रीत्यात्मकत्वात् रागः, उक्तं च-"कोहं माणं चापीइजाइतो बेइ संगहो दोसं । मायाए लोभेण य स पीइसामण्णतो रागं ॥१॥" अत्र उत्तरार्द्धस्याक्षरयोजना-मायया लोभेन सह प्रीतिजातिसामान्यात् स मानप्रीतिजातिभावात् द्वावपि मायालोभौ स सङ्ग्रहो रागमाचष्टे इति । व्यवहारः पुनते-माया खलु परोपघाताय प्रयुज्यते परोपघातपरिणामश्च द्वेष इति मायाया अपि द्वेषेऽन्तर्भावः, या तु न्यायोपादानेनार्थे मूर्छा स परोपपातरहितः शुद्धो लोम इति रागः, एवं चेदमस्य मतेन वस्तु व्यवस्थितं-क्रोधमानमाया द्वेपो लोगो राग इति, आहा। च-मायपि दोसमिच्छइ ववहारो जं परोवघायाय । नायोवायाणे चिय मुच्छा लोभेत्ति तो रागो ॥१॥" ऋजुसूत्रः पुनराह-क्रोधो नियमादप्रीत्यात्मकः, ततः स परोपघातात्मकत्वात् द्वेषः, ये तु मानमायालोभास्ते द्विधाऽपि सम्भवन्ति-प्रीत्यात्मका अप्रीत्यात्मकाच, तथाहि-मानः स्वाहङ्कारोपयोगकाले प्रीत्यात्मकः स्वगुणव| हुमानभावात् , परगुणद्वेषोपयोगवेलायामप्रीत्यात्मको मात्सर्यादिभावात्, मायाऽपि परवञ्चनोपयोगप्रवृत्तौ परोपघातरूपत्वात् अप्रीत्यात्मिका परगतद्रव्योपादानचिन्तायां त्वभिष्वनात्मकत्वात् प्रीतिरूपा, लोभोऽपि क्षत्रियादीनां परिचिन्त्यमानः प्रीत्यप्रीत्यात्मकः सुप्रतीतः, तथाहि-क्षत्रिया एवं मन्यन्ते परविषयापहारोऽस्माकं न्यायो 'वीर-3 भोग्या वसुन्धरा' इति न्यायात्, ततो यदा परविषयापहाराय तेषामत्यर्थमभियोगस्तदाऽसौ अप्रीत्यात्मकः, परोप-15 दीप aeaasaradasesaore8929 अनुक्रम [५३७] ~ 915~ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २३कर्मप्र प्रत सूत्रांक [२९०] प्रज्ञापना- घातहेतुत्वात् , यदा तु परविषयजिघृक्षोपयोगस्तदा सोऽभिष्वात्मकत्वात् प्रीत्यात्मकः, तत एवं मानमायालोमा । याः मल- उभयरूपा अपि संवेद्यन्ते, यदा च प्रीत्युपयोगो न तदाऽप्रीत्युपयोगः, यदा चाप्रीत्युपयोगो न तदा प्रीत्युपयोगः, पुषवामः कृतिपदे एकस्मिन् समये उपयोगद्वयाभावात् , तत्तो मानमायालोभाः प्रीत्युपयोगकाले रागोऽप्रीत्युपयोगकाले देषा, ॥४५॥ च-"उजुसुयमयं कोहो दोसो सेसाणमयमणेगंतो । रागोत्ति य दोसोति य परिणाम वसेण उ बिसेसो ॥१॥ सू,२९० माणो रागोत्ति मओ साहंकारोवओगकालंमि । सो चेव होइ दोसो परगुणदोसोवयोगमि ॥२॥ मायालोमा चेवं परोवघाओवओगतो दोस्रो । मुच्छोवओगकाले रागोऽभिस्संगलिंगोत्ति ॥३॥" शब्दादयस्त्रयः पुनरेवमाहुःइह हादेव कषायो-क्रोधो लोभश्च, ये तु मानमाये ते कोषलोभयोरन्तर्भवतः, तथाहि-माने मायायां च ये परोपघातहेतवोऽध्यवसायास्ते क्रोधोऽप्रीत्यात्मकत्वात् ये तु खगुणोत्कर्षपरद्रव्यमूर्छात्मकास्ते लोभोऽभिष्वनरूपत्वालू लोभोऽपि च लोकप्रसिद्धो द्विधा-परोपघातात्मको मूत्मिकथ, तत्र परोपघातात्मको यथा क्षत्रियाणां परायाIS पहारे, मूच्छोत्मको न्यायोपात्ते निजद्रव्ये, तत्र यः परोपघातात्मकः स क्रोधो भवति, क्रोधश्च सर्वोऽपि यायोकख-1 रूपो द्वेषोप्रीत्यात्मकत्वात् , केवलस्तु मूर्छात्मकोऽध्यवसायो लोभः सच रागः, तथा चोक्तम्-“सद्दाइमय माणे ४५६॥ KIमायाए व सगुणोवरागा य 1 उचओगो लोहो चिय जतोस तत्थेव उवरद्धो॥१॥ सेसंसा कोहो चिय सपरोक्षा-1 यमइओत्ति तो दोसो । तल्लक्षणो य लोभो अह मुच्छा केवलो रागो ॥२॥" इति, तत्र सङ्गहनयमतेनाह-18 दीप ररररररररdesese अनुक्रम [५३७] ~916~ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९०] रागे दुविहे पण्णत्ते' इत्यादि सुगम, भावितत्वात् , उपसंहारमाह-इखेतेहिं चउहि ठाणेहिं' इत्यादि, एवं खलु | इसेतैरनन्तरोकेश्चतुर्भिः स्थानः, कथंभूतैरित्याह-वीर्योपगृहीतर्जीववीर्योपस्थापितरित्यर्थः, ज्ञानावरणीयं कर्म जीवो वनाति, अमुमेवाएं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'एवं नेरइए जाव वेमाणिए' सुगम, नवरमेवं सूत्रपाठः 'नेरहए णं भंते ! नाणावरणिज कम्मं कहहिं ठाणेहिं बंधई' इत्यादि । तदेवमेकत्वेन चिन्ता कृता, सम्प्रति बहुत्वेन हातां कुर्वनाह-'जीवाणं भंते । इत्यादि सुगम, यथा च ज्ञानावरणीयमेकत्ववहत्वाभ्यां दण्डकद्वयेन चिन्तितं तथा|४|| दर्शनावरणीयादीन्यपि चिन्तनीयानि, सर्वसङ्ख्यया पोडश दण्डकाः। तदेवमुक्तं तृतीयं द्वारम् , सम्प्रति कति प्रकृतीदयते इति चतुर्थ द्वारमभिधित्सुराहजीवे णं भंते । णाणावरणिज कम्मं वेदेति, गो! अत्थेमइए वेदेति अत्येमइए नो बेएछ, मेरइए णं भंते। णाणावरणि कम्मं वेदेति, गो। नियमा वेदेति, एवं जाव वेमाणिते, गवरं मासे जहा जीवे । जीवा गं मैते । णाशावरणिज कम्मं चेदेति, गो. वेदेति एवं चेव, एवं जाव बेमाणिया, एवं जहा भाणावरणिअंतहा दंसणावरणिजं मोहणिजं अंतराइयं च, वेयणिज्जाउनामगोताई एवं चेव, नवरं माणसेवि नियमा वेदेति, एवं एते एगचपोहत्तिया सोलस दंडगा ॥ ४ (सत्र २९१) 'जीवे णं भंते !' इत्यादि, अस्त्येककः कश्चित् यो वेदयतेऽस्त्येककः कश्चित् यो न वेदयते अक्षीणघातिकर्मा वेद-IS दीप अनुक्रम [५३७] Raccessocceae SAREairabiAnand a uranmarg अत्र (२३) कर्मप्रकृति-पदे प्रथमे उद्देशके अधिकार: (४) आरब्धः, ~917~ Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९१ दीप प्रज्ञापना-रायते क्षीणपातिकर्मा तु न वेदयते इति भावः, अमुमेवार्थ चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइए गंभंते २३कर्मप्रयाः मल-1 इत्यादि सुगम, मनुष्यं मुक्त्वा शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु नियमावेदयते इति वक्तव्यं, सर्वेषामक्षीणघातिकर्मत्वात्, कृतिपदे यवृत्ती. मनुष्ये यथा जीवपदेऽभिहितं तथाऽभिधातव्यं, क्षीणघातिकर्मणोऽपि मनुष्यस्य लभ्यमानत्वात् , एवमेष एकत्वेन दण्डक उक्तः, एवं बहुत्वेनापि वक्तव्यः, यथा च ज्ञानावरणीयमेकत्वपृथक्त्वाभ्यां भावितं एवं दर्शनावरणीयमोह-18 भावी सू. ॥४५७॥ नीयान्तरायाण्यपि भावनीयानि, वेदनीयायुर्नामगोत्राणि तु जीवपदे भजनीयानि, यतः-सिद्धा न वेदयन्ते शेषा २९१-२९२ वेदयन्ते इति, शेषास्तु नैरयिकादयो मनुष्या अपि च नियमावेदयन्ते, आसंसारचरमसमयमवश्यममीषामुदयसम्भवात्, सर्वसझाया चास्मिन्नप्यधिकारे एकत्वपृथक्त्वाभ्यां पोडश दण्डका भवन्ति । गतं चतुर्थेद्वारम्, इदानीं तु अनुभावः कस्य कर्मणः कतिविध इति पञ्चमद्वारमभिधित्सुराह णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्धफासपुट्ठस्स संचियस्स चियस्स उवचियस्स आवागपचस्स विवागपत्स्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कयरस जीवेणं निवत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिPणस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिजमाणस्स गति पप्प ठिति पप्प भवं पप्प पोग्गलपरिणामं पप कति શકયા विधे अणुभावे पण्णते, गोणाणावरणिजस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पप दसविषे अणुभावे पं०, तं०-सोतावरणे सोयविण्णाणावरणे नेचावरणे नेचविण्णाणावरणे पाणावरणे घाणविण्णाणावरणे रसावरणे रस अनुक्रम [५३८] eese SARELatun international अत्र (२३) कर्मप्रकृति-पदे प्रथमे उद्देशके अधिकारः (५) आरब्धः, ~918~ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९२] दीप अनुक्रम [५३९ ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [१], दारं [-], मूलं [२९२] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Ecatur International विष्णाणावरणे फासावरणे फासविष्णाणावरणे, जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोम्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेर्सि वा उदरणं जाणियां ण जाणति जाणिउकामे ण याणति जाणितावि न याणति उच्छन्नणाणी यावि भवति णाणावरणिज्जस्स कंम्मस्स उदएणं, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जे कम्मे एस णं गोयमा ! णाणावरणिअस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाब पोग्गलपरिणामं पप्प दसविधे अणुभावे पं० । दरिसणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोम्गलपरिणामं पप्प कतिविधे अणुभावे पं० १, गो० ! दरिसणावरणिअस्स कम्मस्त जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविधे अणुभाषे पं० तं०विदा गिद्दा २ पयला पयला २ थीणद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवलदंसणावरणे, जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा बीससा वा पोन्गलाणं परिणामं तेर्सि वा उदरणं पासियमं वा ण पासति पासिउकामेवि ण पासति पासिता विण पासति, उच्छन्नदंसणी याचि भवति दरिसणावरणिअस्स कम्मस्स उदएणं, एस णं गो० ! दरिसणावरणिओ कम्मे एस 'गं गोयमा ! दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविधे अणुभावे पण्णत्ते, सायावेयणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाब पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविधे अणुभावे पं० १, गो० ! सातावेद• णिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अट्टविधे अणुभावे पं० तं०- मणुण्णा सहा १ मणुष्णा रुवा २ मणुष्णा गंधा ३ मणुष्णा रसा ४ मजुष्णा फासा ५ मणोसुहता ६ वयसुया ७ कायसुहता ८ जं वेदेति पोरगलं वा पोग्गले वा पोरापरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेर्सि वा उदरणं सातावेदणिज्जं कम्मं वेदेति, एस णं गो० ! सायावेय For Park Use Only ------------- ~919~ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: S प्रज्ञापना प्रत सूत्रांक या मलयवृत्ती. ॥४५॥ २३ कर्मप्रकृतिपदे कर्मानुभावः सू. २९२ [२९२] दीप मिजे कम्मे एस 4 गौ० ! सासायणिजस्स जाव अहविचे अणुभाव पं० । असातावेयणिजस्स में भंते ! कम्मस्स जीवेष बहेव पुच्छा, उपरं च, नवरं अमणुष्णा सदा जाव कायदुहया एस गं गो.1 असायावेयणिजे कम्मे एस पं. गी.असातावेदणिजस्स जान अढविधे अणुभावे पं० । मोहणिज्जस्स पं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव कतिविषे अणुभावे पं०१, मो०। मोहणिअस्स कम्मस्स जीवेषं बद्धस्स जाव पंचविधे अणुभावे पं०,०-सम्मत्तवेचणिजे मिच्छरवेणिजे सम्मामिच्छत्तवेयणिजे कसायवेयणिजे नोकसायवेयणिजे जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिजाम वा बीससा वा पोग्गलाण परिणाम तेसि वा उदएणं मोहणिज्ज कम्मं वेएर वा एसणं गोयमा मोहणिजस्स कम्म स्स जाब पंचविधे अणुभावे पं० । बाउस्स गं मंते ! कम्मस्स जीवेणं तहेव पुच्छा, गो० आउपस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पडबिहे अणुभाव पं० सं०-नेरहमाउते तिरियाउने मणुयाउए देवाउए, जं वेदेति पोग्मलं वा पोग्मले का पोन्मलपरिणाम यावीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेसिंवा उदएणं जाउयं कम्मं वेदेति वा एसणं गो ! आउए कम्मे एसगं गो० आउकम्मस्स जाब चउबिहे अणुभावे पण्णते। मुहणामस्सणं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुरुछा, मो०! सुहणामस्स कम्मस्स जीवेर्ण घउद्दसविषे अणुभाव पं०२०-इट्ठा सदा १ इटारूवार इट्टा गंधा ३ इटारसा ४ इट्टा फासा ५५हागती ६ट्ठा ठिती हे लावण्णे ८ इट्टा जसोकिची ९ इट्टे उट्ठाणकम्मबलबीरियपुरिसकारपरकमे १० इहस्सरया ११कंवस्सस्था १२ पियस्सरया १३ मणुष्णस्सरया १४ जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा बीससा वा पोम्गला परिणाम तेसि या उदएणं मुभणाम कर्म वेएद एस गं गो! सुहनामकम्मे एस गं गो. सुभणामस्स कम्मस्स जाब अनुक्रम [५३९] o880882008 R४५८॥ ~920~ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] पउदसविषे अनुमाचे पं०, दुहमामस्स में भंते! पुच्छा, गो० एवं चेव, गवर अभिट्ठा सहा जाव हीणस्सरया दीणस्तरमा अतस्सरपा जं वेदेति सेस ते चेच जाव चउपसविषे अणुभावे पण्णचे । उच्चागोतस्स णं मंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा, मो०! उच्चायोवस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अविहे अशुभावे ० त०-जातिविसिट्टया १ कुलविसिट्टया २ बलविसिट्ठया ३ रुखवि०४ तववि.५ सुयवि०६ लामवि०७इस्सरियवि०८ वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणाम वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेर्सि वा उदएणं जाव अढविधे अणुमावे पं०, णीयागोयस्स पं भंते! पुच्छा, गो! एवं चेच, णवरं जातिविहीणया जाव इस्सरियविहीणया जं वेदेति पुम्मलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणाम वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेसिं वा उदएणं जाव अविधे अणुभावे पण्णते, अंतरायस्स शं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा, गो.! अंतराइयस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविधे अणुभावे पं०, ०-दाणंतराए लाभतराए भोगतराए उवभोगतराए बीरियंतराए, जं वेदेति पोग्गल जाव वीससा वा० तेसिं वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदेति, एस गं गो. अंतराइए कम्मे, एस गं गो.! जाव पंचविधे अणुभावे पं० (सूत्र २९२)॥ पण्णवणाए तेवीसतितमस्स पयस्स पढमो उद्देसो २३-१॥ 'नाणावरणिजस्सगं भंते ! इत्यादि, ज्ञानावरणीयख गमिति वाक्यालकारे भदन्त ! जीवेन बद्धस्य-राग-12 द्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पृष्टस्य-आत्मप्रदेशैः सह संश्लेषमुपगतस्य 'बद्धफासपुहस्से ति पुन-11 दीप अनुक्रम [५३९] Recccccesceटा ~921 ~ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] प्रज्ञापचाया मल- बावृत्ती. ॥४५॥ रपि गाढतरं बद्धस्थातीव स्पर्शन स्पृष्टस्य च, किमुक्तं भवति ?-आवेष्टनपरिवेष्टनरूपतयाऽतीव सोपचयं गाढतरं२३कर्मप्रच बद्धस्पेति, 'सञ्चितस्य' आवाधाकालातिक्रमेणोत्तरकालवेदनयोग्यतया निषिक्तस्य 'चितस्य' उत्तरोत्तरस्थिति कृतिपदे प्रदेशहान्या रसवृयाऽवस्थापितस्य 'उपचितस्य' समानजातीयप्रकृत्यन्तरदलिकसमेणोपचयं नीतख 'आपाकप्रा- कमोनुमासस्य' ईषत्पाकाभिमुखीभूतस्य 'विपाकप्राप्तस्य' विशिष्टपाफमुपगतस्य अत एव 'फलप्रासस' फलं दातुमभिमुखीभू- वसू. २९२ तस्य ततः सामग्रीवशादुदयप्राप्तस्य, एते चापाकप्राप्सत्वादयः कर्मधर्माः यथा आम्रफलस्य, तथाहि-आम्रफलं प्रथमत ईषत्पाकाभिमुखं भवति, ततो विशिष्टं पाकमुपागतं तदनन्तरं तृप्तिप्रमोदादि फलं दातुमुचितं ततः सामग्रीवशा-II दुपभोगप्रासं भवति, एवं कर्मापीति, तत् पुनर्जीवन कथं बद्धमित्यत आह-जीवेण कयस्स' जीवेन कर्मवन्धनबद्धेनेति गम्यते 'कृतस्य' निष्पादितस्य जीवो छुपयोगखभावस्ततोऽसौ रागादिपरिणतो भवति, न शेषो, रागादिपरिणतश्च सन् कर्म करोति, सा च रागादिपरिणतिः कर्मवन्धनवद्धस्य भवति, न तद्वियोगे, अन्यथा मुक्ताना-1 मप्यवीतरागत्वप्रसक्तः, ततः कर्मबन्धनबद्धेन सता जीवेन कृतस्येति द्रष्टव्यं, उक्तं च-'जीवस्तु कर्मबन्धनबद्धो वीरस्य भगवतः कर्ता । सन्तत्याऽनायं च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः॥१॥" इति, तथा जीवेन निवर्तितस्य, इह ४५९॥ बन्धसमये जीवः प्रथमतोऽविशिष्टान् कर्मवर्गणान्तःपातिनः पुद्गलान् गृह्णन् अनाभोगिकेन वीर्येण तस्मिन्नेव बन्धस-II मये ज्ञानावरणीवादितया व्यवस्थापयत्याहारमिव रसादिसप्तधातुरूपतया यच ज्ञानावरणीयादितया व्यवस्थापन दीप अनुक्रम [५३९] ~922~ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] तन्निर्वर्तनमित्युच्यते, तथा जीवेन परिणामितस्य-विशेषप्रत्ययः प्रद्वेषनिहवादिभिस्तं तमुत्तरोत्तरं परिणाम प्रापितस्य, खयं वा विपाकप्राप्ततया परनिरपेक्षमुदीर्णस्य-उदयप्राप्तस्य परेण वा उदीरितस्य-उदयमुपनीतस्य तदुभयेन-खपररूपेणोभयेन उदीर्यमाणस्य-उदयमुपनीयमानस्य गति प्राप्य किञ्चिद्धि कर्म काश्चिद् गति प्राप्य तीब्रा-11 |नुभावं भवति, यथा नरकगति प्राप्यासातवेदनीय, असातोदयो हि यथा नारकाणां तीत्रो भवति न तथा तिर्यगादीनामिति, तथा स्थिति प्राप्य सर्वोत्कृष्टामिति शेषः, सर्वोत्कृष्ट हि स्थितिमुपगतमशुभं कर्म तीत्रानुभावं भवति, यथा मिथ्यात्वं भवं प्राप्य, इह किमपि कर्म कश्चिद्भवमाश्रित्य स्खविपाकदर्शनसमर्थ यथा निद्रा मनुष्यभवं तिर्य-18 भयं वा प्राप्य ततो भवं प्राप्येत्युक्तं, एतावता किल स्वत उदयस्य कारणानि दर्शितानि, कर्म हि तां तां गतिं स्थितिं भवं वा प्राप्य खयमुदयमागच्छतीति, सम्प्रति परत उदयमाह-पुद्गलं काष्ठलेष्णुखशादिलक्षणं प्राप्य, तथाहिपरेण क्षिसं काष्ठलेष्टुखहादिकमासाद्य भवत्यसातवेदनीयक्रोधादीनामुदयः, तथा पुद्गलपरिणाम प्राप्य-इह किञ्चिस्कर्म कमपि पुद्गलमाश्रित्य विपाकमायाति, यथाऽभ्यवहतस्याहारस्थाजीर्णत्वपरिणाममाश्रित्य असातवेदनीयं ज्ञानावरणीयं सुरापानमिति, ततः पुद्गलपरिणाम प्राप्येत्युक्तं, कतिविधोऽनुभावः प्रज्ञप्त इत्येष प्रश्नः, अत्र निर्वचनंदशविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेव दशविधमनुभावं दर्शयति-'सोयावरणे' इत्यादि, इह श्रोत्रशब्देन श्रोत्रेन्द्रियविषयः क्षयोपशमः परिगृखते 'सोयविण्णाणावरणे' इति श्रोत्रविज्ञानशब्देन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगो, यत्तु निर्यच्युपकरणलक्षणं दीप अनुक्रम [५३९] ~923~ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९२] दीप अनुक्रम [५३९ ] पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [२९२] उद्देशक: [१], दारं [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education International प्रज्ञापना याः मल ॥४६०॥ द्रव्येन्द्रियं तदङ्गोपाङ्गनामकर्मनिर्वत्यै न ज्ञानावरणविषय इति न श्रोत्रशब्देन गृमते, एवं नेत्रावरणे इत्याद्यपि भावनीयं तचैकेन्द्रियाणां रसनत्राणचक्षुः श्रोत्रविषयाणां लब्ध्युपयोगानां प्राय आवरणं, प्रायोग्रहणं च बकुलाय० वृत्तौ ४ दिव्यवच्छेदार्थ, वकुलादीनां हि यथायोगं पञ्चानामपीन्द्रियाणां लब्ध्युपयोगाः फलतोऽस्पष्टा उपलक्ष्यन्ते, आग१४ मेऽपि च प्रोच्यन्ते – “पंचिंदियोवि बउलो नरोब पंचिंदिओवओगाओ । तहवि न भण्णइ पंचिंदिओत्ति दविं दियाभावा ॥ १ ॥” तथा “जह मुहमं भाविंदियनाणं दबिंदियावरोहेवि । दवसुयाभावंमिवि भावसुर्य पत्थिवाईणं ॥ २ ॥” इति [ पञ्चेन्द्रियोऽपि बकुलो नर इव पञ्चेन्द्रियोपयोगात् । तथापि न भण्यते पञ्चेन्द्रिय इति द्रव्येन्द्रि याभावात् ॥ १ ॥ यथा सूक्ष्मं मावेन्द्रियज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि । द्रव्यश्रुताभावेऽपि भावश्रुतं पार्थिवादीनां ॥ २ ॥ ] ततः प्राय इत्युक्तं, द्वीन्द्रियाणां प्राणचक्षुः श्रोत्रेन्द्रियविषयाणां लब्ध्युपयोगानां त्रीन्द्रियाणां चक्षुःश्रोत्रविषयाणां चतुरिन्द्रियाणां श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्युपयोगावरणं सर्वेषामपि स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्युपयोगावरणं कुष्ठादिव्याधिभिरुपहृतदेहस्य द्रष्टव्यं पञ्चेन्द्रियाणामपि जात्यन्धादीनां पश्चाद्वा अन्धवधिरीभूतानां चक्षुरादीन्द्रियलब्ध्युपयोगावरणं भावनीयं कथमेवमिन्द्रियाणां लब्ध्युपयोगावरणमिति चेत्, उच्यते, स्वयमुदीर्णस्य परेण वा उदीरितस्य ज्ञानावरणीयकर्मण उदयेन, तथा चाह- 'जं वेएइ' इति, यद्वेदयते परेण क्षिप्तं काष्ठलेष्टुखङ्गादिलक्षणं पुद्गलं तेनाभियातजननसमर्थेन 'पुग्गले वा' इति यावद्वहून् पुद्गलान् काष्ठादिलक्षणान् परेण क्षिसान् वेदयते, तैरभिघातजननस For Parts Only ------------- ~924~ २३ कर्मप्रकृतिपदे कर्मानुभावः सू. २९२ ॥४६०॥ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९२] दीप अनुक्रम [५३९ ] पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [२९२] उद्देशक: [१], दारं [-], ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internation मर्यैः, 'पुद्गलषरिणामं वा' इति यं वा पुद्गलपरिणाममभ्यवहताहारपरिणामरूपं पानीयरसादिकमतिदुःखजनकं वेदयते तेन वा ज्ञानपरिणत्युपहननात् तथा— 'बीससा वा पोग्गलाणं परिणाम मिति विवसया यः पुद्गलानां परिणामः शीतोष्णातपादिरूपस्तं वेदयते यदा तदा तेनेन्द्रियोपघातजननद्वारेण ज्ञानपरिणतालुपहतायां ज्ञातव्यमेवैन्द्रियकमपि सङ्कस्तु न जानाति, ज्ञानपरिणतेरुपहतत्वात्, अयं सापेक्ष उदय उक्तो, निरपेक्षस तु विषये सूत्रमिदम्— 'तेसिं वा उदपणं 'ति तेषां वा ज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलानां विपाकप्राप्तानामुदयेन ज्ञातव्यं न जानाति 'जाणिउकामेचि न याण' इति ज्ञानपरिणामेन परिणंतुमिच्छन्नपि ज्ञानपरिणत्युपघातान्न जानाति, 'जाणित्तावि न याणइ' इति, प्राक् ज्ञात्वाऽपि पश्चान्न जानीते, तेषामेव ज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानामुदयात्, 'उच्छन्ननाणी यावि भवइ' इत्यादि, ज्ञानावरणीयख कर्मण उदयेन जीव उच्छन्नज्ञान्यपि भवति, उच्छन्नं च तद् ज्ञानं च उच्छन्नज्ञानं तदस्यास्तीति उच्छन्नज्ञानी, सर्वधनादिपाठाभ्युपगमादिन्, यावत्शक्तिप्रच्छादितज्ञान्यपि भवतीत्यर्थः, 'एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्ये कम्मे' इत्याद्युपसंहारवाक्यं कण्ठ्यं, 'दंसणावरणिजस्स णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं पूर्ववत्, निर्वचनमाह-गौतम ! नवविधः प्रज्ञप्तः, तदेव नवविधत्वं दर्शयति- 'निद्रा' इत्यादि, निद्राशब्दार्थम वक्ष्यामो, भावार्थस्त्वयम् - "सुहपडिवोहा निद्दा दुहपडिबोहा य निद्दनिद्दा य । पयला होइ ठियस्स उ पयलपयला व चकमतो ॥ १ ॥ थीणगिद्धी पुण अइकिलिट्ठकम्माणुवेयणे होइ । महणिद्दा दिणचिंतियवावारपसाहणी For Pale Onl ------------- ~925~ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] २९२ दीप प्रज्ञापना- पायं ॥२॥"[सुखप्रतिबोधा निद्रा दुःखप्रतिबोधा च निद्रानिद्रा च । प्रचला भवति स्थितस्य तु प्रचलाप्रचला च २३कर्मणया मल- चमतः ॥ १॥ स्त्यानर्द्धिः पुनरतिसंक्लिष्टकर्माणुवेदने भवति । महानिद्रा दिनचिन्तितव्यापारप्रसाधनी प्रायः कृतिपदे यवृत्ती.RImammy 18॥२॥] चक्षुर्दर्शनावरणं-चक्षुःसामान्योपयोगावरणं, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, 'जं वेयई' इत्यादि, यं वेदयते पुद्- कर्मानुभा॥४६॥ गलं मृदुशयनादिकं 'पुग्गले वा' इति यान् पुदलान् बहून् मृदुशयनीयादीन् वेदयते पुद्गलपरिणामं माहिपदध्याद्य- वः सू. भ्यवहृताहारपरिणाममित्यर्थः, 'वीससा पोग्गलाण परिणाम मिति वर्षाखभ्रसम्भृतनभोरूपं धाराम्बुनिपातरूपं वा यं वेदयते तेन निद्रायुदयापेक्षया दर्शनपरिणत्युपघाते एतावता परत उक्तः, सम्प्रति खत उदयमाह-'तेसिं वा। उदएणं'ति तेषां वा दर्शनावरणीयकर्मपुद्गलानामुदयेन परिणतिविघातेन द्रष्टव्यं न पश्यति, तथा कश्चित् दर्शनपरिणामेन परिणन्तुमिच्छन्नपि जात्यन्धत्वादिना दर्शनपरिणत्युपघातान्न पश्यति, प्राय दृष्ट्वापि पश्चान्न पश्यति, दर्शना| वरणीयकर्मपुद्गलानामुदयात् , किंबहुना ?, दर्शनावरणीयस्य कर्मण उदयेन जीव उच्छन्नदर्शन्यपि यावच्छतिप्रच्छादितदर्शन्यपि भवति, 'एस णं गोयमा ! दरिसणावरणिजे कम्मे' इत्याधुपसंहारवाक्यं । 'सायावेयणिजस्स णं भंते! कम्मस्स' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनमाह-गौतम ! अष्टविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, अष्टविधत्वमेव दर्शयति ॥४६॥ 'मणुन्ना सहा' इत्यादि, मनोज्ञाः शन्दा आगन्तुका वेणुवीणादिसम्बन्धिनः, अन्ये आत्मीया इत्याहुस्तदयुक्तं, आ-18 त्मीयशब्दानां वासुखेनेत्यनेनैव गृहीतत्वात् , मनोज्ञा रसा-इक्षुरसप्रभृतयः, मनोज्ञा गन्धा:-कपूरादिसम्बन्धिनः, अनुक्रम [५३९] ~926~ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] मनोज्ञानि रूपाणि-खगतखस्त्रीगतचित्रादिगतानि मनोज्ञाः स्पर्शा-हंसतूल्यादिगता 'मणोसुहया' इति मनसि सुखार यस्खासौ मनःसुखस्तस्य भावो मनःसुखता, सुखितं मन इत्यर्थः, वाचि सुखं यस्यासी वाकसुखस्तस्य भावो वाक्-| सुखता, सर्वेषां श्रोत्रमनःप्रल्हादकारिणी वागिति तात्पर्यार्थः, काये सुखं यस्यासौ कायसुखस्तद्भावः कायसुखता, सुखितः काय इत्यर्थः, एते चाष्टी पदार्थाः सातावेदनीयस्खोदयेन प्राणिनामुपतिष्ठन्ते तत उक्तोऽष्टविधः सातवेदनीयस्यानुभावः, परतः सातावेदनीयस्योदयमुपदर्शयति-जं वेएइ पुग्गल'मित्यादि, यवेदयते पुद्गलं सकचन्दनादि। यान् वेदयते पुद्गलान् बहून् स्रक्चन्दनादीन् यं वा वेदयते पुद्गलपरिणाम देशकालवयोऽवस्थानुरूपाहारपरिणाम, 'वीससा वा पुग्गलाण परिणाम विस्रसया वा यं पुद्गलानां परिणामं कालेऽभिलषितं शीतोष्णादिवेदनाप्रतीकार-1 रूपं, तेन मनसः समाधानसम्पादनात् सातवेदनीयं कर्मानुभवति, सातवेदनीयकर्मफलं सातं वेदयते इत्यर्थः, उक्तः परत उदयः, सम्प्रति खत उदयमाह-'तेसिं वा उदएणंति तेषां या सातवेदनीयकर्मपुद्गलानामुदयेन मनोज्ञशब्दादिव्य तिरेकेणापि कदाचित् सुखं वेदयते, यथा नैरयिकास्तीर्थकरजन्मादिकाले 'एस णं गोयमा ।' इत्याधुपसंहारवाक्यं, 'असायावेयणिजस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनं पूर्ववत्, तथा चाह-'तहेच पुच्छा उत्तरं च' नवरमित्यादिना पूर्वसूत्रादस्य विशेषमुपदर्शयति, 'अमणुण्णा सहा' इत्यादि, अमनोज्ञाः शब्दाः-खरोष्ट्राश्वादिस|म्बन्धिन आगन्तुका अमनोज्ञा रसाः-खस्याप्रतिभासिनो दुःखजनकाः अमनोज्ञा गन्धा-गोमहिपादिमृतकडेवरा दीप अनुक्रम [५३९] ~ 927~ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] दीप प्रज्ञापना दिगन्धा अमनोज्ञानि रूपाणि-खगतखस्त्रीगतादीनि अमनोज्ञाः स्पर्शा:-कर्कशादयः, 'मणोदुहिया' इति दुःखितं ।२३कर्मप्रया। मल- |मन इति 'वइदुहिया' इति अभव्या वाक् इति भावार्थः, 'कायदुहिया' इति काये दुःखं यस्यासी कायदुःख- कृतिपदे यवृत्ती. झावः कायदुःखिता दुःखितकाय इत्यर्थः, "जं वेएई' इत्यादि, यं वेदयते पुद्गलं-विषशस्त्रकण्टकादि 'पुग्गले वा कर्मानुभा || इति यान् वा पुर्लान् बहून् विषशस्त्रकण्टकादीन् वेदयते पुद्गलपरिणाममपथ्याहारलक्षणं, विस्रसया या वं वेदयते। वः सू. ॥४६॥ लापुद्गलपरिणाम अकालेऽनमिलषितं शीतोष्णादिपरिणाम, तेन मनसोऽसमाधानसम्पादनात् , असातवेदनीयं कर्मानुभ-II २९२ वति, असातवेदनीयकर्मफलमसातं वेदयते इति भावः, एतेन परत उदय उक्ता, सम्प्रति खत उदयमाह-'तेसिं वा IS उदएणं'ति तेषां वा असातवेदनीयकर्मपुद्गलानामुदयेनासातं वेदयते, 'एस णं गोयमा ! इत्याधुपसंहारवाक्यं मोहणिजस्स गं भंते । इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनं पञ्चविधोज्नुभाकः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं दर्शयति'सम्यक्त्यवेदनीय'मित्यादि, सम्यक्त्वरूपेण यद्वेयं तत्सम्यक्त्ववेदनीयं, एवं शेषपदेष्यपि शब्दार्थों भाषनीयः, भावार्थस्त्वयं-यदिह वेधमानं प्रशमादिपरिणामं करोति तत्सम्यक्त्ववेदनीय, यत्पुनरदेवादिबुद्धिहेतुस्तन्मिथ्यात्व-11 वेदनीयं, मित्रपरिणामहेतुः सम्यग्मिभ्यात्ववेदनीयं, क्रोधादिपरिणामकारणं कषायवेदनीय हास्यादिपरिणामकारणं नोकपायवेदनीयं, 'जं वेएइ पुग्गल'मित्यादि, यं वेदयते पुद्गलविषयं प्रतिमादिकं पुद्गलान् वा यान् वेदयते पान || प्रतिमादीन् वा पुद्गलपरिणाम देशाधनुरूपाहारपरिणाम कर्मपुद्गलविशेषोपादानसमर्थ भवति, आहारपरिणाम-11 अनुक्रम [५३९] ~928~ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 42020 प्रत सूत्रांक [२९२] दीप विशेषादपि कदाचित्कर्मपुदलविशेषो, यथा माझ्यौपच्याथाहारपरिणामात् ज्ञानावरणीयकर्मपुरलानां प्रतिविशिष्टः क्षयोपशमः, उक्तं च-"उदयखबखओवसमोवसमावि व जंच मुणो मणिया। वर्ष खेतं कालं भावं च मवं च संपप्प ॥१॥" पिस्रसया का यं पुतलानां परिणाम अनविकारादिकं यदर्शनादेव विवेक उपजायते, "आयुः शरजलयरप्रतिम नराणां, सम्पत्तयः कुसुमितछमसारतुल्याः । खोपभोगसरशा विषयोपमोगाः, सङ्कल्पमात्ररमणीयमिदं हि सर्वम् ॥ १॥" इलादि, अन्यं वा प्रशमादिपरिणामनिवन्धनं वेदयते तत्सामर्थ्यात् मोहनीवं सम्यक्ववेदनीयादिकं वेदयते, सम्यक्त्ववेदनीयादिकर्मफलं प्रशमादि वेदयते इति भावः, एतावता परत उदय उक्त, सम्प्रति खतस्तमाह-'तेसि वा उदएणं ति तेषां च सम्यक्त्ववेदनीवादिकर्मपुद्गलामामुदयेन प्रशमादि वेदयते, 'एस। ' इत्याधुपसंहारवाक्यं । 'आउस्स मंते ! इत्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राम्वत् , निर्वचनं चतुर्विधोऽनुभावः प्रज्ञासः, तदेव चतुर्विधत्वं दर्शयत्ति-'नेरझ्याउए' इत्यादि सुगम, 'जं वेएर पुम्गलं वा' इत्यादि, वं वेदयते पुद्गलं शस्त्रादिकमायुरपवर्तनसमर्थ बहून् पुदलान् शखादिरूपान् यान् वेदयते यं वा पुद्गलपरिणाम विषान्नादिपरिणामरूपं विलसया वा यं पुद्गलपरिणामं शीतादिकमेवायुरपवर्तनक्षमं, तेनोपयुज्यमानभषावुपोऽपवर्तमात्, नारकाधायुःकर्म वेदयते, एतावता परत उदयोऽमिहिता, सत उदयख सूत्रमिदं-तेर्सि वा उदएणति तेषां वा नारकाधायुःपुद्गलानामुदयेन नारका १ उदयचयक्षयोपशमोपशमा अपि च कर्मणो यद्भणिताः । द्रव्यं क्षेत्र कालं भावं भवं च संप्राप्य ।। १ ।। अनुक्रम [५३९] ~929~ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] पना- चायुर्वेदयते 'एस ण'मित्यायुपसंहारवाक्यं । नामकर्म द्विधा-शुभनामकर्म अशुभनामकर्म च, तत्र शुभनामकर्माधि- २३कर्मप्रया: मल कृत्य सूत्रमाह-'सुभनामकम्मस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् ,निर्वचनं चतुर्दशविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेव कृतिपदे य० वृत्ती. च चतुर्दशविधत्वं दर्शयति-'इटा सहा' इत्यादि, एते शब्दादय आत्मीया एव परिगृह्यन्ते, नामकर्मविपाकस्य चिन्त्य-कर्मानुभा॥४३॥ मानत्वात् , तत्र वादित्राद्युत्पादिता इत्येके, तदयुक्तं, तेषामन्यकर्मोदयनिष्पाद्यत्वात् , इष्टा गतिमत्तवारणाधनुका|रिणी शिविकाद्यारोहणतश्चेत्येके, इष्टा स्थितिः सहजा सिंहासनादौ चान्ये, इष्ट लावण्यं-छायाविशेषलक्षणं कुङ्कुमाद्य- २९२ नुलेपनजमित्यपरे इष्टा यशःकीर्तिः यशसा युक्ता कीर्तिः२, यशःकीयोश्चायं विशेषः-'दानपुण्यकृता कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः' 'इट्टे उट्ठाणकम्मवलवीरियपुरिसक्कारपरकमें' इति उत्थानं-देहचेष्टाविशेषः कर्म-आरेचनभ्रमणादि। बलं-शारीरसामर्थ्यविशेषः वीर्य-जीवप्रभवः स एव पुरुषकारः-अभिमानविशेषः स एव निष्पादितखविषयः परा-1 कमः इष्टवरता-बल्लभखरता, तत्र इष्टाः शब्दा इति सामान्योक्तावियं विशेषोक्तिस्तदन्यबहुतमत्यापेक्षाऽवगन्तव्या, 'कांतखरते'ति कान्तः-कमनीयः सामान्यतोऽभिलषणीय इत्यर्थः, कान्तः खरो यस्य स तथा तद्भावः कान्तखरता, 'प्रियखरते ति प्रियो-भूयोऽभिलपणीयः प्रियः खरो यस्य स तथा तद्भावः प्रियखरता, 'मणुण्णस्सरता' इति उप-15 करतभावोऽपि खालम्बनप्रीतिजनको मनोज्ञः स खरो यस्य स मनोज्ञखरस्तद्भायो मनोज्ञखरता, 'जं वेएइ' इत्यादि, ये वेदयते पुद्गलं वीणावर्णकगन्धताम्बूलपट्टशिविकासिंहासनकुङ्कुमदानराजयोगगुलिकादिलक्षणं, तथा च वीणादिसं दीप अनुक्रम [५३९] ॥४६॥ रव ~930~ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] म्बन्धाद् भवन्तीष्टाः शब्दादय इति परिभावनीयमेतत्सूक्ष्मधिया मार्गप्रहर्षमनसोऽनुसारिण्या, 'पुग्गले वा' इति यतो बहून् पुद्गलान् वेणुवीणादिकान् वेदयते यं पुद्गलपरिणामं बायोषध्याहारपरिणामं विस्रसया या यं पुद्गलानां परिणाम-शुभजलदादिकं तथा चोन्नतान् कजलसमप्रभान् मेघानवलोक्य गायन्ति मत्तयुवतयो रेलुकानिष्टखरानित्यादि, तत्प्रभावात् शुभनामकर्म वेदयते, शुभनामकर्मफलमिष्टखरतादिकमनुभवतीति भावः, एतावता परत उक्तः, इदानी खतस्तमाह-'तेसि वा उदएणं'ति तेषां वा शुभानां कर्मपुद्गलानामुदयेन इष्टशब्दादिकं वेदयते, 'एस'णं गो | | इत्याधुपसंहारवाक्यं, 'दुहनामस्स णं भंते ! इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनसूत्रं प्रागुक्तार्थपरीत्येन भावनीयं,18 गोत्रं द्विधा-उचैर्गो नीचैर्गोत्रं च, तत्रोथैर्गोत्रविषयं सूत्रमाह-'उच्चागोयस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्र प्राग्वत,8 निर्वचनमष्टविधोऽनुभावःप्रज्ञप्तः, तदेवाष्टविधत्वं दर्शयति-जाइविसिट्टया' इत्यादि, जात्यादयः सुप्रतीताः, शब्दार्थ-18 स्त्वेवम्-जात्या विशिष्टो जातिविशिष्टस्तद्भावो जातिविशिष्टता इत्यादि ज वेएइ पुग्गलं वा' इत्यादि यं वेदयते पुद्गलंगर वाघद्रव्यादिलक्षणं, तथाहि-द्रव्यसम्बन्धाद्राजादिविशिष्टपुरुषसम्परिग्रहाद्वा नीचजातिकुलोत्पन्नोऽपि जात्या दिस[म्पन्न इव जनस्य मान्य उपजायते, बलविशिष्टताऽपि मल्लानामिव लकुटिभ्रमणवशात् रूपविशिष्टता प्रतिविशिष्टतादृ-IN |ग्वनालङ्कारसम्बन्धात् तपोविशिष्टता गिरिकूट्याचारोहणेनातापनां कुर्वतः श्रुतविशिष्टता मनोज्ञभूदेशसम्बन्धात् खाध्यायं कुर्वतः लाभविशिष्टता प्रतिविशिष्टरलादियोगात् ऐश्वर्यविशिष्टता धनकनकादिसम्बन्धादिति, 'पुग्गले वाग दीप अनुक्रम [५३९] secene For P OW ~931~ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: | उद्देशः१ प्रत सूत्रांक [२९२] दीप प्रज्ञापना-18| इति यान् बहून् पुद्गलान् वेदयते पुद्गलपरिणाम-दिव्यफलाद्याहारपरिणामरूपं विनसया वा यं पुद्गलानां परिणाम-18|२३कर्मप्रया: मल- अकस्मादभिहितजलदागमसंवादादिलक्षणं तत्प्रभावादुच्चैर्गोत्रं वेदयते-उच्चैर्गोत्रकर्मफलं जातिविशिष्टत्वादिकं वेदयते, कृतिपदे यवृत्ती. एतेन परत उदय उक्तः, सम्प्रति खतस्तमाह-'तेर्सि वा उदएणं' तेषां वा उच्चैर्गोत्रकर्मपुद्गलानां उदयेन जातिविशिष्टत्वादिकं भवति, 'एस णं गोयमा' इत्याद्युपसंहारवाक्यं, 'नीयागोयस्स णं भंते । इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, सू. २९२ ॥४६॥ Nनिर्वचनमश्टविधोऽनुभावः, तमेवाष्टविधमनुभावं दर्शयति-'जाइविहीणया' इत्यादि, सुप्रतीतं, 'जं वेएइ पुग्गल'मि ति यं वेदयते पुद्गलं नीचकर्मासेवनरूपंनीचपुरुषसम्बन्धलक्षणं वा, तथाहि-उत्तमजातिसम्पन्नोऽपि उत्तमकुलोत्पन्नोNऽपि यदि नीचैःकर्मयशात् यथा (अधम) जीविकारूपमासेवते चाण्डाली वा गच्छति तदा भवति चाण्डालादिरिव जनस्य निन्यः, बलहीनता सुखशयनीयादिसम्बन्धतः रूपविहीनता कुत्सितवस्त्रादिसम्बन्धात् तपोविहीनता पार्थIS स्थादिसंसर्गात् श्रुतविहीनता विकथापरसाध्वाभासादिसंसर्गात् लाभविहीनता देशकालानुचितकुक्रयाणकुसम्पर्कतः। ऐश्वर्यविहीनता कुग्रहकुकलत्रादिसम्पर्कत इति 'पुग्गले' इति यान् बहून् पुद्गलान् वेदयते यं वा पुद्गलपरिणाम वृन्ताकीफलाद्याहारपरिणामरूपं, वृन्ताकीफलं मभ्यवहृतं कण्ड्रत्युत्पादनेन रूपविहीनतामापादयतीत्यादि, विश्र-180४६४॥ सया वा पुद्गलानां परिणाम अभिहितजलदागमविसंवादलक्षणं वेदयते, तत्प्रभावात् नीचैःकर्म वेदयते, नीचैःकर्म-| [फलं जात्यादिविहीनतारूपं वेदयते इत्यर्थः, एतावता परत उदय उक्तः, सम्प्रति खत उदयमाह-'तेसिं वा उदए अनुक्रम [५३९] Ser ~932 ~ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९२] 'ति तेषां वा-नीचैर्गोत्रकर्मपुद्गलानामुदयेन जासादिविहीनतामनुभवति, 'एस णं गोयमा!' इत्याधुपसंहारवाक्यं, | अंतरायस्स णं भंते !" इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनं पञ्चविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं दर्शयति-दा-1 1 गंतराए' इत्यादि, दानस्यान्तरायो-विघ्नः दानान्तरायः, एवं सर्वत्र भावनीयं, तत्र दानान्तरायो दानान्तरायस्य कर्म-18 णः फलं लाभान्तरायादयो लाभान्तरायादिकर्मणामिति 'जं वेएइ पुग्गलं वा' इत्यादि, यं वेदयते पुद्गलं तथाविध-18 विशिष्टरत्नादिलक्षणं, तथाहि-प्रतिविशिष्टरत्नादिसम्बन्धात् दृश्यते तद्विपये एव दानान्तरायोदयः, सन्धिच्छेदनायु पकरणसम्बन्धाल्लाभान्तरायकर्मोदयः प्रतिविशिष्टाहारसम्बन्धादन(र्थसम्बन्धाद्वा लोभतो भोगान्तरायोदयः एवIN मुपभोगान्तरायकर्मोदयोऽपि भावनीयः, तथा लकुटादिअभिघाताद्वीर्यान्तरायकर्मोदय इति, 'पुग्गले या' बहून् | तथाविधान् यान पुद्गलान् वेदयते यं वा पुद्गलपरिणामं तथाविधाहारौषध्यादिपरिणामरूपं, तथाहि-दृश्यते तथाविधाहारीषधपरिणामाद्वीयर्यान्तरायकर्मोदयः मन्त्रापसिक्तवासादिगन्धपुद्गलपरिणामात् भागान्तरायादयो यथा सुबन्धुसचिवस्य, विस्रसया या यं पुद्गलानां परिणामं चित्रं शीतादिलक्षणं, तथाहि-रश्यन्ते वखादिकं दातुकामा अपि शीतादि निपतन्तमालोक्य दानान्तरायादयात् तस्यादातार इति तत्प्रभावात् , एप परत उदय उक्तः, खतस्त-IN माहू-तेर्सि वा उदएणं ति तेषां वा-अन्तरायकर्मपुद्गलानामुदयेन अन्तरायकर्मफलंदानान्तरायादिकं वेदयते-'एस णमित्याद्युपसंहारवाक्यम् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायांप्रत्रयाविंशतितमस्य कर्मप्रकृतिपदस्य प्रथमाद्देशकः ॥१॥ दीप अनुक्रम [५३९] 929899 ~933~ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९३] दीप अनुक्रम [ ५४० ] प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ॥४६५|| “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [ २९३] उद्देशक: [२], ...आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. व्याख्यातः प्रथमोदेशकः, इदानीं द्वितीयो व्याख्येयः, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके ज्ञानावरणीयादीनामनुभाव उक्तः, इह तु तेषामेव ज्ञानावरणीयादीनामुत्तरप्रकृतिविभाग उच्यते, तत्र विशेषपरिज्ञानार्थं भूयोऽपि मूलप्रकृतिविषयं प्रश्ननिर्वचनसूत्रमाह Eucation Internation कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, गो० ! अट्ठ कम्मपगडीओ पं० तं० णाणावरणिजं जाव अंतराइयं, णाणावरणिज्ने णं भंते! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविधे पं० तं०-आभिणिवोहियनाणावरणिजे जाय केवलनाणांवरणिजे, दंसणावरणि णं भंते । कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! दु० पं० सं० - निदापंचए य दंसणचउकए य, निदाएँचणं भंते! कतिविधे पं० १, गो० 1 पंचविहे पं० तं निहा जाव चिणद्धी, दंसणचउकए णं पुच्छा, गो० ! चउविधं पं० तं० - चक्खुदंसणावरणिजे जाब केवलं सणावरणिजे, बेयणिओ णं भंते! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० दुविहे पं० [सं० – सामावेयणिजे य असावावेयणिओ य, सातावेयणिजे णं भंते! कम्मे पुच्छा, गो० ! अट्टविधे पं०, ० मणुण्णा सा जाब कायसुहया, असायावेदणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० अट्ठविधे पं० तं अण्णा सहा जाव कायदुहया, मोहणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! दु० पं० तं० - दंसण मोहणिजे य चरितमोहणिज्जे य, दंसणमोहणिजे णं भंते! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ॥ तिविहे पं० तं० सम्मत्तवेदणिजे मिच्छत्तवेयणि जे सम्मामिच्छत्तवेयणिजे, चरितमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! दुविधे पं० तं० - कसायवे ० अथ (२३) कर्मप्रकृति-पदे उद्देशकः (२) आरब्धः For Penal Use On ~934~ २३ कर्मप्रकृतिपदे २. उद्देशः सू. २९३ | ॥४६५|| Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 020129202 प्रत सूत्रांक [२९३] नोकसायवेद०, कसायवेदणिजे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो. सोलस विधे पं०, तं-अणताणुबंधी कोहे अर्णताणुबंधी माणे अ० माया अ० लोमे, अपञ्चक्खाणे कोहे एवं माणे माया लोभे, पञ्चक्खाणावरणे कोहे एवं माणे माया लोभे, संजलणकोहे एवं माणे माया लोमे, नोकसायवेयणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! णवविहे पं०, ०इत्थीवेयवेयणिजे पुरिसवे० नपुंसगवे हासे रती अरती भए सोगे दुगुंछा, आउए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं०१, गो०! चउविधे पं०,०- नेरइयाउए जाव देवाउए, णामे गं भंते ! कम्मे कतिविधे पं०१, गो० ! बायालीसतिविहे पण्णचे, तं०-गतिनामे १ जातिनामे २ सरीरनामे ३ सरीरोवंगनामे ४ सरीरबंधणनामे ५ सरीरसंघयणनामे ६ संघायणनामे ७ संठाणनामे ८ वणणामे ९ गंधणामे १० रसणामे ११ फासणामे १२ अगुरुलघुनामे १३ उवधायणामे १४ परामायणामे १५ आणुपुषिणामे १६ उस्सासणामे १७ आयवणामे १८ उजओयणामे १९ विहायगतिणामे २० तसनामे २१ थावरणामे २२ सुहुमनामे २३ बादरणामे २४ पज्जतणामे २५ अपजसणामे २६ साहारणसरीरणामे २७ पत्तेयसरीरणामे २८ थिरणामे २९ अथिरणामे ३० सुमगामे ३१ असुभणामे ३२ सुभगगामे ३३ दुमगणामे ३४ मूसरनामे ३५ दूसरनामे ३६ आदेजनामे ३७ अणादेजनामे ३८ जसोकिचिगामे ३९ अजसो किरिणामे ४० जिम्माणणा० ४१ तित्थगरणा० ४२ । गतिनामे णं मंते ! कम्मे कतिविहे पं० १, गो! चउबिहे पं०, ०-निरय तिरिय० मणु० देवमतिणामे, जातिगामे णं भंते ! कम्मे पुच्छा, गो! पंच०५० त० एगिदियजातिणामे जाव पंचिंदियजातिणा०, सरीरनामे णं भंते! कम्मे कतिविधे पं०१, गोरीपंच००,०-ओरालियसरीरनामे जाव कम्मगसरीरणामे, सरीरो दीप अनुक्रम [५४०] 2000 munasurary.org ~935~ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 9 प्रज्ञापना या:मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९३] २३कर्मप्र कृतिपदे M२ उद्देशः सू. २९३ ॥४६६॥ दीप अनुक्रम [५४०] वंगनामेणं भंते ! कति विधे ५०१, गो!तिविधे पं० त०-ओरालियसरीरोवंगणामे वेउबियसरीरोवंग आहारगसरीरोव०सरीखंधणनामेण भंते! कतिविहे पण्णते, गो.! पंचविधे पं० सं०-ओरालियसरीरबंधणणामे जाव कम्मगसरीरबंधणनामे, सरीरसंघायणामे गं भंते ! कति०१, गो०! पंचविधे पं०, तं०-ओरालियसरीरसंघायनामे जाव कम्मगसरीरसंघायनामे, संघयणनामे गं भंते ! कतिविधे पं०, गो०! छविहे पं०, तं-वइरोसभनारायसंघयणनामे उसहनारायसं० नारायसंघ० अद्धनारायसं० कीलियासंघ० छेवट्ठसंघयणनामे, संठाणनामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! छबिहे पं०, तं०-समचउरंससंठाणनामे निग्गोहपरिमंडलसंठा साइसं० धामणसं० खुअसं० इंडसंठाणनामे, वण्णनामे ण भंते ! कम्मे कति विधे पं०१, गो०! पंचविधे पं०,०-कालवण्णनामे जाव सुकिल्लवण्णनामे, गंधनामे णं भंते ! कम्मे पुच्छा, मो०! दु० ५०, तं०-सुरभिगंधनामे दुरभिगंधनामे, रसनामे थे पुच्छा, गो०! पंचविधे पं०, तक-तित्तरसनामे जाव महुररसनामे, फासनामे णं पुच्छा, गो०! अट्टविहे पं०, तं०-कक्खडफासनामे जाव लहुयफासनामे, अगुरुलहुयनामे एगागारे पं०, उवधायनामे एगागारे ५०, पराघातनामे एगागारे पं०, आणुपुविणामे चउबिहे पं०, ०-नेरइयआणुपुषीणामे जाव देवाणुपुरीणामे, उस्सासनामे एगागारे ५०, सेसाणि सवाणि एगागाराई पण्णाचाई जाव तित्थगरनामे, णवरं विहायगतिनामे दुविधे पं० सं०-पसस्थविहायगइनामे अपसत्थविहायगतिनामे य । गोए णं भंते ! कम्मे काविहे पं०१, गो० दुविहे पं०, तं०-उच्चागोए य नीयागोए य, उचागोए णं भंते । कइविधे पं०, गो० अढविधे पं०, ०-जाइनिसिया जाव इस्सरियविसिया, एवं नीयागोएवि, णवरं जातिविहीणता 999990928 ॥४६६॥ ~ 936~ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] जाव इस्सरियविहीणया । अंतराए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं०१, गो.! पंचविधे पं० त०-दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए । (सूत्र २९३) 'कइ णं भंते !' इत्यादि पूर्ववत् , सम्प्रति 'यथोद्देशं [तथा] निर्देश' इति न्यायात् ज्ञानावरणीयोत्तरप्रकृतिविषयं । सूत्रमाह-'नाणावरणिजे णं भंते !' इत्यादि, इह आभिनिबोधिकादि इत्यादिशब्दार्थ उपयोगपदे वक्ष्यते, विनभावना त्वियम्-आभिनिवोधिकज्ञानस्यावरणीयं आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयं, एवं श्रुतज्ञानावरणीयमित्यादिप्वपि भावनीयं । दर्शनावरणीयोत्तरप्रकृतीराह-'दरिसणावरणिज्जे णं भंते !' इत्यादि, 'द्रा कुत्सायां' नियतं द्राति-। कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यस्यां खापावस्थायां सा निद्रा, यदिवा 'नै खप्ने' निद्राणं निद्रा, नखच्छोटिकामात्रेण यस्यां प्रबोध उपजायते सा खापावस्था निद्रा, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रा कारणे कार्योपचा-1 रात् , 'निहानिद्द'त्ति निद्रातोऽतिशायिनी निद्रानिद्रा, शाकपार्थिवादिदर्शनात् 'मयूरज्यसकादय' इति मध्यमपदलो-11 पी समासः, तस्यां हि चैतन्यस्यात्यन्तमस्फुटीभूतत्वात् बहुभिर्घोलनाप्रकारैः प्रबोधो भवति, ततः सुखप्रबोधहेतुनिद्रातोऽस्या अतिशायिनीत्वं, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रा उपचारात्, तथा उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलयति-घूर्णयति यस्यां खापावस्थायां सा प्रचला, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला, 'पयलापयला' इति । प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचलाप्रचला, पूर्ववत् मध्यमपदलोपी समासः, सा हि चक्रमणादिकमपि कुर्षत उदयमधि दीप अनुक्रम [५४०] ~937~ Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] दीप प्रज्ञापना- गच्छति, ततः स्थानस्थितखतृप्रभवप्रचलोपक्षया तस्या अतिशायिनीत्वं, 'थीणद्धी' इति स्त्याना-पिण्डीभूता|कर्मप्रयाः मल-18ऋद्धिः-आत्मशक्तिरूपा यस्यां खापावस्थायां सा स्त्यानर्द्धिः, तद्भावे हि प्रथमसंहननस्य केशवाईवलसदृशी श- कृतिपदे य. वृत्ती. शक्तिरुपजायते, तथा च श्रूयते प्रवचने-कचित् प्रदेशे कोऽपि प्राप्तः क्षुल्लकः स्त्यानर्द्धिनिद्रासहितो द्विरदेन दिवा उद्देशः ॥४६७॥ खलीकृतः, ततस्तस्मिन् द्विरदे बद्धाभिनिवेशो रजन्यां स्त्यानध्र्युदये प्रवर्तमानः समुत्थाय तद्दन्तमुशलमुत्पाठ्य खोपा- सू. २९३ श्रयद्वारि च प्रक्षिप्य पुनः प्रसुप्तवानित्यादि, तथा चक्षुषा दर्शनं चक्षुर्दर्शनं तस्यावरणीयं चक्षुर्दर्शनावरणीयं अचक्षु-IN पा-चक्षुर्वजशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणीयमचक्षुर्दर्शनावरणीय अवधिरेव दर्शनमवधिदर्शनं तस्खावरणीयमवधिदर्शनावरणीयं केवलमेव दर्शनं केवलदर्शनं तस्यावरणीयं केवलदर्शनावरणीयं, इह निद्रापञ्चकं प्राप्साया दर्शनलब्धेरुपघातकृद् दर्शनावरणचतुष्टयं तु मूलत एव दर्शनलब्धिमुपहन्ति, आह च गन्धहस्ती-“निद्रादयः समधिगताया दर्शनलब्धेरुपघाते वर्तन्ते, दर्शनावरणचतुष्टयं तदुद्गमोच्छेदित्वात् समूलपातं हन्ति दर्शनल-18 ब्धि"मिति, वेदनीयं द्विधा-सातवेदनीयमसातवेदनीयं च, सातरूपेण यद्यते तत्सातवेदनीय, तद्विपरीतमसातवे-18॥ दनीयं, किमुक्तं भवति ?-यस्योदयात् शारीरं मानसं च सुखं वेदयते तत्सातवेदनीय, यसोदयात् पुनः शरीरे ४६७|| मनसि च दुःखमनुभवति तदसातवेदनीयं, एकैकमष्टविध, मनोज्ञामनोजशब्दादिविषयभेदात, मोहनीयं द्विधादर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च, दर्शन-सम्यक्त्वं तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयं, चारित्रं-पावद्येतरयोगनिवृत्तिप्र अनुक्रम [५४०] ~938~ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९३] दीप अनुक्रम [ ५४० ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ २९३] उद्देशक: [२], दारं [-], ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Internation वृत्तिगम्यं शुभात्मपरिणामरूपं तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयं चशब्दौ खगतानेकभेदसुचकौ दर्शन मोहनीयं त्रिविधं तद्यथा सम्यक्त्ववेदनीयं मिध्यात्ववेदनीयं मिश्रवेदनीयं तत्र जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानात्मकेन सम्यक्त्वरूपेण यद्वेद्यते तत्सम्यक्त्ववेदनीयं यत्पुनर्जिन प्रणीततत्त्वा श्रद्धानात्मकेन मिध्यात्वरूपेण वैद्यते तन्मिथ्यात्ववेदनीयं, यत्तु मिश्ररूपेण - जिनप्रणीततस्त्रेषु न श्रद्धानं नापि निन्देत्येवंलक्षणेन वेद्यते तन्मिश्रवेदनीयं, आह-सम्यक्त्व वेदनीयं कथं दर्शनमोहनीयं ?, न हि तद्दर्शनं मोहयति, तस्य प्रशमादिपरिणामहेतुत्वात्, उच्यते, इह सम्यक्त्ववेदनीयं मिथ्यात्वप्रकृतिः, ततोऽतिचारसम्भवात् औपशमिक क्षायिकदर्शन मोहनाचेदं दर्शनमोहनीयमित्युच्यते, चारित्रमोहनीयं द्विविधं - कषायवेदनीयं नोकपायवेदनीयं च तत्र यत्क्रोबादिकवायरूपेण वेद्यते तत्कषायवेदनीयं यत्पुनः स्त्रीवेदादिनोकपायरूपेण वेद्यते तन्नोकषायवेदनीयं, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ, तत्र कषायवेदनीयं षोडशविधं क्रोधमानमायाठोभानां प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसअवलन रूपत्वात्, तत्रानन्तं संसारमनुबभन्ती येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः उक्तं च – “अनन्तान्यनुवन्ति यतो जन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्धाख्या, क्रोधाद्येषु नियोजिता ॥ १ ॥ एषां संयोजना इति द्वितीयमपि नाम, तत्रायमन्वर्थः — संयुज्यन्ते सम्ब ध्यन्तेऽनन्तसङ्ख्यैर्भवेर्जन्तवो वैस्ते संयोजनाः, उक्तं च- 'संयोजयन्ति यन्नरमनन्तसङ्ख्यैर्भवैः कपायास्ते । संयोजनताऽनन्तानुवन्धिता वाध्यतस्तेषाम् ॥ १ ॥” सर्वे प्रत्याख्यानं देशप्रत्याख्यानं च येषामुदये न लभ्यते ते भवन्त्यप्रत्या For Pernal Use On ------------- ~939~ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: कृतिपदे प्रत सूत्रांक [२९३] प्रज्ञापना- ख्यानाः, सर्वनिषेधवचनोऽयं नञ्, उक्तं च-'खल्पमपि नोत्सहेयेषां, प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञा २३कर्मप्रया: मल- तो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥१॥" तथा प्रत्याख्यान-सर्वविरतिरूपमात्रियते यैस्ते प्रत्याख्यानावरणाः, आह चय० वृत्ती. “सर्वसावधविरतिः, प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥१॥" तथा परीषहोपसर्गनिपाते २ उद्देशः ॥४६॥ |सति चारित्रिणमपि सम्-ईषत् ज्वलयन्तीति सज्वलनाः, उक्तं च-"संज्वलयन्ति यति यत्संविझं सर्वपापविरत-1 सू. २९३ 18 मपि । तस्मात् सज्वलना इत्यप्रशमकरा निरुध्यन्ते ॥१॥" अन्यत्राप्युक्तम्-"शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, सज्वल-18 यन्ति यतो मुहुः । ततः सख्यलनाहान, चतुर्थानामिहोच्यते ॥१॥" स्वरूपं च पश्चानपाऽमीपामिदं जलरेणुपुढविपचयराईसरिसो चउबिहो कोहो । तिणिसलयाकट्टडियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ मायावलेहीगोमुत्ति| मिढसिंगघणवंसमूलसमा । लोहो हलिहखंजणकद्दमकिमिरागसारित्यो ॥२॥ पक्खचउम्मासवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो कमसो । देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो भणिया ॥३॥" [जलरेणुपृथ्वीपर्वतराजीसदृशश्चतुर्विधः क्रोधः । तिनिशलताकाष्ठास्थिशैलस्तम्भोपमो मानः॥१॥ मायावलेखिकामेण्ढशृङ्गधनवंशमूलसमा । लोभो हरिद्राखञ्जनकर्दमकृमिरागसदृशः ॥२॥ पक्षचतुर्मासवत्सरयावजीवानुगामिनः क्रमशः। देवनरतिर्यग्नरकगतिसा- ४६८॥ धनहेतबो भणिताः ॥३॥] 'इत्थीवेए' इति वेद्यते इति वेदः स्त्रिया वेदः स्त्रीवेदः, खियाः पुमांसं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि स्त्रीवेदः, पुरुषस्य वेदः पुरुषवेदः, पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं क दीप अनुक्रम [५४०] ~940~ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] मापि पुरुषवेदः, नपुंसकस्य वेदो नपुंसकवेदः, नपुंसकस्य स्त्रियं पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकवेदः, तथा यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति स्म हासयते वा तत् हास्यमोहनीयं, यदुदयाद्बाथाभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रमोदमाधत्ते तत् रतिमोहनीयं, यदुदयवशात् पुनर्वाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिं करोति तदरतिमोहनीयं, यदुदयात् प्रियविप्रयोगादौ सोरस्ताडमाक्रन्दति परिदेवते भूपीठे च लुठति दीर्घ च निःश्वसिति तत् शोकमोहनीयं, यदुदयवशात् सनिमित्तमनिमित्तं वा तथारूपस्वसङ्कल्पतो बिभेति तद्भयमोहनीयं, यदुदयवशात् पुनः शुभमशुभं वा वस्तु जुगुप्सते तत् जुगुप्सामोहनीयं, जुगुप्साजनकं मोहनीयं जुगुप्सामोहनीयं, एवं सर्वपदेध्वपि विग्रहो भावनीयः, नोकषायता चामीषां हास्यादीनां कषायसहचारित्वात् , कैः कषायैः सहचारितेति चेत्, उच्यते, आद्यैादशभिः, तथाहि-नायेषु द्वादशकषायेषु क्षीणेषु हास्यादीनामवस्थानसम्भवस्तदनन्तरमेव तेषामपि क्षपणाय प्रवृत्तिः, अथवा पते प्रादुर्भवन्तोऽवश्यं कषायादीनुद्दीपयन्ति ततः कषायसहचारिणः, एवं नोशब्दः साह|चर्ये द्रष्टव्यः, कषायैः सहचारिणो नोकपाया इति, उक्तं च-"कपायसहवर्तित्वात् , कषायप्रेरणादपि । हास्यादिन|वकस्योक्ता, नोकषायकषायता ॥१॥" आयुःकर्मसूत्रं पाठसिद्धं, नामकर्म द्विचत्वारिंशद्विधं, तानेव द्वाचत्वारिंशतं भेदानाह-'गतिनामे'त्यादि, गम्यते-तथाविधकर्मसचिवैः प्राप्यते इति गतिः-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः, सा. चतुर्धा, तद्यथा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिस्तजनकं नाम गतिनाम, तदपि चतुर्की, 'नरकगतिनामें-18 दीप अनुक्रम [५४०] AREauratonintahational ~941~ Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥४६॥ दीप स्वादि, तथा एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियत्वादिरूपसमानपरिणामलक्षणमेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेशभान यत्सामान्वं साकर्मप्रजातिस्तजनकं नाम जातिनाम, इदमत्र तात्पर्य-द्रव्यरूपमिन्द्रियमहोपाङ्गनामेन्द्रियपोसिनामसामर्थ्यसिद्ध, भा- कृतिपदे वरूपं तु स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमसामयात्, 'क्षायोपशमिकाणीन्द्रियाणीति वचनात्, यत्पुनरेकेन्द्रियादिश- २ उद्देशः ब्दप्रवृत्तिनिवन्धनं तथारूपसमानपरिणतिलक्षणं सामान्यं तदनन्यसाध्यत्वाजातिनिबन्धनमिति, तब जातिनामसू. २९३ पञ्चधा, तद्यथा-एकेन्द्रियजातिनाम यावत्पश्चेन्द्रियजातिनाम, तथा शीर्यते इति शरीरं, तत्पञ्चधा, तद्यथा-औदारिक क्रियमाहारकं तैजसं कार्मणं, एतानि प्रागेव व्याख्यातानि, तन्निबन्धनं नामापि पञ्चधा, तद्यथा-औदारिकनाम वैक्रियनाम इत्यादि, तत्र यदुदयादौदारिकशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति परिणमथ्य च जीवप्रदेशः सह परस्परानुगमरूपतया सम्बन्धयति तदौदारिकशरीरनाम, एवं शेषशरीरनामान्यपि भावनीयानि, 'सरीरोपाङ्गनामेति शरीरस्याङ्गान्यष्टौ शिरप्रभृतीनि, उक्तं च-'सीसमुरोयरपिट्ठी दो वाहू ऊरुया य अटुंगा [शीर्षमुदरं पृष्ठिद्वौं वाहू उरुणी चाष्टाङ्गानि] इति, उपाहानि अङ्गावयवभूतान्यङ्गुल्यादीनि शेषाणि । तत्प्रत्यक्यवभूतान्यङ्गुलिपपरेखादीनि अझोपाङ्गानि अङ्गानि च उपाङ्गानि च अङ्गोपाङ्गानि च २ अङ्गोपाङ्गानि “स्था- ४६९॥ दावसङ्घयेय" इत्येकशेषः, तन्निमित्तं नाम शरीरोपाङ्गनाम, तच त्रिधा, तद्यथा-औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम बैंक्रियाजोपा-11 अनाम आहारकाङ्गोपाङ्गनाम, तत्र यदुदयवशादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणति अनुक्रम [५४०] ~942~ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९३] दीप अनुक्रम [ ५४० ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ २९३] उद्देशक: [२], दारं [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eaton International रुपजायते तदौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम, एवं वैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गनानी अपि वाच्ये, तैजसकार्मणयोस्तु जीवप्रदेशसंस्थानानुरोधित्वान्नास्त्यङ्गोपाङ्गसम्भवः, तथा बध्यतेऽनेनेति बन्धनं, यदौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तेजसादिपुद्गलैर्वा सह सम्बन्धजनकं तद्बन्धननाम, आह च मूलटीकाकारः- “विद्यते तत्कर्म यन्निमित्ता व्यादिसंयोगापत्तिराविर्भवति, यथा काष्ठद्वयभेदैक्यस्य करणे जतु कारण मिति, तब पञ्चधा, तद्यथा - औदारिकबन्धननाम वैक्रियबन्धननाम आहारक बन्धननाम तैजसवन्धननाम कार्मणबन्धननाम, तत्र यदुदयवशात् औदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुद्गलैश्च सह सम्बन्ध उपजायते तदौदारिकबन्धनं, यदुदयाद्वैक्रियपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तेजसकार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धः तद्वैक्रियबन्धनं, यदुदयादाहारकशरीरपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तेजसकार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धस्तदाहारकचन्धनं, यदुदयात्तैजसपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं कार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धस्तत्तैजसबन्धननाम, | यदुदयात् कार्मणपुद्गलानां गृहीतानां गृहमाणानां च परस्परं सम्बन्धस्तत्कार्मणवन्धननाम, तथा सङ्घात्यन्ते - पिण्डीक्रियन्ते औदारिकादिपुद्गला येन तत्सङ्घातं तच तन्नाम च सङ्घातनाम, तदपि पञ्चधा, तद्यथा - औदारिकसङ्घातनाम वैक्रियसङ्घातनाम आहारकसङ्घातनाम तैजससङ्घातनाम कार्मणसङ्घातनाम, तत्र यदुदयवशादौदारिकशरी|ररचनाऽनुकारिसङ्घातरूपा जायते तदौदारिकसङ्घातनाम, एवं वैक्रियादिशरीरसङ्घातनामखपि भावनीयं, 'संघयण For Park Use Only ------------- ~943~ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २३कर्मप्र प्रत सूत्रांक [२९३] प्रज्ञापना नामे' इति संहनननाम, संहननं-अस्थिरचनाविशेषः, आह च मूलटीकाकार:-"संहननमस्थिरचनाविशेषः" इति, याः मल- तेन यः प्राह सूत्रे शक्तिविशेष एव संहननमिति, तथा च तद्वन्धः-'सुत्ते सत्तिविसेसो संघयण मिति स भ्रान्तः, कृतिपदं य०वृत्ती. मूलटीकाकारेणापि सूत्रानुयायिना संहननस्सास्थिरचनाविशेषात्मकस्य प्रतिपादितत्वात् , यत्त्वेकेन्द्रियाणां सेवार्तसं-1 पहननमन्यत्रोक्तं तत् टीकाकारेण समाहितं, औदारिकशरीरत्वादुपचारत इदमुक्तं द्रष्टव्यं न तु तत्त्ववृत्त्येति, यदि । ॥४७॥ पुनः शक्तिविशेषः स्यात् ततो देवानां नैरयिकाणां च संहननमुच्येत अथ च ते सूत्रे साक्षादसंहननिन उक्ता इत्खलं11 | उत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु, स चास्थिरचनाविशेष औदारिकशरीर एव नान्येषु तेषामस्थिरहितत्वात् , तथ पोढा, १ मतमिदं जिनवल्लभीयं यतस्ततो न श्रीमद्धरिभद्रसूरिसूत्रितायां वृत्तौ कश्चिदप्युल्लेखः, न पानुक्तोपालम्भसंभावना यतः तेन जिनव-| कमेन विहिते तदनुसारिनिश्च विवृते सूक्ष्मार्थसार्धशतके स्पष्टमवलोक्यते चतुर्दश्यां गाथायां "सुन्ते सत्तिविसेसो संघयणमिहविनिचउचि सूत्रे, व्याख्याने घ--तथा सूत्रे-आगमे शक्तिविशेषः संहननमुच्यते, कोऽभिप्रायः वर्षभनाराचादिशब्दस्य संहननाभिधायकस्य शक्तिविशेपाभिधायकतया व्याख्यात्तत्वात् शक्तिविशेषः संहननमागमे प्रोच्यते । ईशं च संहननं देवनारकयोरपीष्यत एव, तेन देवा वर्षभनारा-18 ॥४७॥ |चसंहननिनो नारकाः सेवार्तसंहननिन इत्यागमाभिप्रायतो बोद्धव्यं । इह तु अन्येऽस्थिनिचयकीलिकाविरूपाणामस्थामेव रचनाविशेषः संहनन । बोद्धव्यं, एतथास्थिनिचयरूपं संहननमीदारिकशरीर एव, नान्येषु शेषाणामरख्याधभावादिति गाथार्थः॥ व्याख्याकारः पञ्चदश्यामपि। गाथायां साक्षेपममिदधौ यथा अत्राह-ननु "नरतिरियाणं छप्पिय, हवंति विगलिंदियाण छेवटु"मिति वचनात् यो विकलेन्द्रियाणां पि बरekeeseisercedeotice दीप अनुक्रम [५४०] ~944 ~ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९३] दीप अनुक्रम [ ५४० ] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र- ४ उपांगसूत्र- ४ ( मूलं + वृत्तिः) - पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... Education Inman उद्देशकः [२] दारं [-], मूलं [२९३] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः .............................. - पीलिकादीनां छेदवृत्त संहननोदयोऽभ्युपगतः सोऽस्थ्यभावे कथं संगच्छते ? इत्यत्रोच्यते - योऽयमस्थिविन्यासप्रयत्नोऽभिहितोऽसौ बलप्रकपंख्यापकोऽत एव सूत्रे शक्तिविशेषः संहननमुक्तं, अन्यथोभयमर्कटमहपट्टकीलिकाप्रयत्ने सति गात्रसंकोचविकाशाभावो भाव्येत । अतः पिपीलिकादीनां क्षुद्रसत्त्वानां यद्यप्यस्थीनि न संभाव्यन्ते तथापि कायवलमधिकृत्य संहननमुच्यते, तथाहि – लोकेऽस्थिसद्भावेऽप्यल्पवलः पुरुषोऽसंहनन एव व्यपदिश्यते । ततः शक्तिमपेक्ष्य तेषां संहननं वेदितव्यं । अथवा शङ्खादीनां द्वीन्द्रियाणामपि दृश्यन्ते एवास्थीनि पिपीलिकादीनां तु सूक्ष्मत्वात्केवलगम्यानीति न कश्चिद्विरोध इति पञ्चसङ्ग्रहामिप्रायः । इतीदं षड्विधं संहननमस्थिसंनिचयात्मकं यदुदयाद्भवति शरीरे तदपि तत्संज्ञितं षडिधं संहनननामकर्मेति गाथार्थः ॥ प्रसारकसभा मुद्रिते प्रस्तावनाकर्तृभिर्विवेचितं च तत्र “संहननव्याख्याधिकारे यदुक्तं - "सुत्ते सत्तिविसेसो" तत्र समयविद्भिः समालोचनीयं समयेध्वस्थिरचनात्मकस्यैव स्वीकृतत्वात्, यदुक्तं विवाहप्रज्ञप्तिवृत्ती सूक्ष्मसूक्ष्मतरपदार्थसार्थवर्णनोद्वेधानादिकालसंबद्धमिध्यात्वाविरतकषायाद्यन्तरारातिवर्गस्वान्तत्र्यापारार्जितमूलककर्माष्टकम हामलापनयनक्षमनाना| विधयमनियमव्रातोर्मियुक्तचारित्रभुवनापूर्णगाढतरदुःखदसमर्थकपायतापभीत्यागतचिरंतनमुनिपुङ्गवजीवनच रनिर्भय क्रीडोपशोभिते सिद्धान्तरत्नाकरे दुष्धमारकराक्षसेन कवलीयमानमेधायुबैलानामैदंयुगीनजनानां प्रवेशाय सरलनवायादित्या बद्धतटैः विबुधेनार्चनीयक्रमकजैः श्रीमदभयदेवसुरिपादैः – “इह संहननं अस्थिरचनाविशेषः" । तथा चरणसंस्पर्शिरजोभिः पवित्रितभूमण्डलैः श्रीमद्देवभद्रसूरिपादैः त्रैलोक्यदीपिकावृत्तावपि तथैवाभिधानात् । तत्पाठश्चायम् – “संहन्यन्ते संहतिविशेषं प्राप्यन्ते शरीरास्थ्यवयवाः यैस्तानि संहननानि दृढदृढत रादयः शरीरबंधाः"। मनु तर्हि एकेन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननं जीवाभिगमोपा विबुधानां च वज्रर्षभनाराचं प्रज्ञापनादौ प्रोक्तमस्ति तत्र भवतां का गतिरिति चेत् न, एकाक्षाणां सुधाशिनां च शक्तिमपेक्ष्यौपचारिकमुक्तं, तथाहि एकाक्षाणामत्यन्ताल्पीयसी शक्तिरेतदृशक्तिविषय For Parts Only ~ 945 ~ waryra Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९३] टीप अनुक्रम [ ५४० ] प्रज्ञापनायाः मल थ० वृत्ती. ॥४७१ ॥ “प्रज्ञापना" उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्तिः ) दारं - - पदं [२३], उद्देशकः [२] मूलं [ २९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......... ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internation अ सेवार्तसंहननस्य तददारिकशरीरसंबंधमात्रमपेक्ष्य द्रष्टव्यं निर्जराणामपि चक्रवर्तिभ्योऽप्यत्यन्तमहती शक्तिः सा च प्रथमसंहननविषया इति । न चैतत्प्रथद्धिः सूत्रे शक्तिविशेषं (प) संहननमुक्त, वृत्तिकृता तु तदभिप्रायः प्रकटीकृतः, तत् किमर्थं भवद्भिः समालोचनीयमुच्यत इति वाच्यं, मंथकृद्भिस्तु "सुते सत्तिविसेसो" इत्यनेन सूत्रे शक्तिविशेषं (पः) संहननं संस्थापितं वृत्तिकारेणापि तदेवातिरडीकृतं न लौप चारिकमुक्तं, ननूपचारोऽपि सद्वस्तुन एवं क्रियते, नत्वसद्वस्तुन इति चेत्, सत्यं परम्- "अतस्मिन् तदध्यवसायः उपचारः” इति वचनात् उपचारोऽप्यसत्येव सद्वस्तुनो न तु सहस्तुनि सद्वस्तुनः । अपि च सूत्रे शक्तिविशेषः संहननं स्यात् तर्हि जीवाभिगमसूत्रे कथं देवनारका असंहननाः प्रोक्ताः तथा च तद्वन्थ:-- “सुरनेरइया छं संघयणाणं असंघयणा" इति, पुनः तत्रैव हेतुमद्भावेनोक्तं- 'नेवट्ठी नेव सिरा नेव हारू नेव संघयणमट्टी 'ति । किं च सूत्रे शक्तिविशेषः संहननं तर्हि गर्भजनरतिरश्यामपि प्रथकृदभिप्रायेण सूत्रे शक्तिविशेषः संहननमुक्तं स्यात् तथ कुत्रचिदागमे नोपलभ्यते इति एतन्न स्वमनीषिकाया विजूभितं किं तुत्पत्तिविनाशादिजीवनापूर्णभवाब्धिनिमात्सत्योद्धरणपोतायमानैः श्रीमन्मलयगिरिसूरिपादैः जीवाभिगमायुपांगवृत्तिषु तथैवोल्लेखः कृतः । सद्यश्चायम् - "अस्थिनिचयात्मकं च संहननमयोऽ-रथ्याद्यभावादसंहननानि शरीराणि इयमंत्र भावना-इह तत्त्ववृत्त्या संहननमस्थिनिचयात्मकं यत्तु प्रागेकेन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननमभ्यधायि तदौदारिकशरीरसंबंधमात्रमपेक्ष्यौपचारिकं देवा अपि यदन्यत्र प्रज्ञापनादौ वर्षभनाराचसंहननिनः उच्यन्ते तेऽपि गौणवृत्त्या, तथाहि इह यादृशी मनुष्यलोके चक्रवर्त्यदेर्विशिष्टवर्षभनाराचसंहनानिनः सकलशेषमनुष्यजनासाधारणी शक्तिः दो सोला बत्तीसा सबबलेणं तु संकलनिबद्ध' मित्यादिका, ततोऽप्यधिकतरा देवानां पर्वतोत्पाटनादिविषया श्रूयते न च शरीरपरिक्लेश इति तेऽपि वार्षभनाराचसंहननिनः उक्ताः, न पुनः परमार्थतस्ते संदननिनः, ततो नारकाणामस्थ्यभावात् संहननाभावः । एतेन योऽपरिणत भगक्त्सिद्धान्तसारो For Parts Only ~ 946 ~ | २३ कर्मप्रकृतिपदं ॥४७१ ॥ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] 20209080sease दीप बाबदूकः सिद्धान्तबाहुल्यमात्मनः ख्यापयन्नेवं प्रललाप "सुत्ते सत्चिविसेसो संघयणमिटिनिचों"त्ति इति सोऽपाकीर्णो द्रष्टव्यः । साक्षा। दत्रैव सूत्रेऽस्थिनिधयात्मकस्य संहननस्याभिधानात् । अस्थ्यभावे संहननप्रतिषेधात् इति (जीवाभिगमसू० ३२) एवमेव त्रैलोक्यदीपिकावृत्तावप्युहेखितं । तत्वं पुनः कलहंसा जानन्ति" || अन्न नैवं वाच्यं यदुतोपसर्जनानुपसर्जनकृत एष विशेषो यतः श्रीमद्भिरिभद्रसूरिपाच-18 रपि आवश्यकद्वत्तौ "इह चेत्थम्भूतास्थिसंचयोपमितः शक्तिविशेषः संहननमुच्यते न स्वस्थिसंचय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वातू" इति वचनेन शक्तिविशेषरूपस्यैव तस्याङ्गीकारादिति, आदौ तावत् क एष तावचेत् गणनां विबुधेषु यो मुख्यं सूर्य ज्योतिरिङ्गणमाख्याय ज्योतिरिङ्गणमेव ज्योतिष्पतितया व्याहरेत् ।, नैव चेत् कश्चित् कथमिव व्याकृतं सूत्रेऽस्थिनिचयस्य संहननवाच्यतानिषेधाय 'गुत्ते सत्तिविसेसो' इत्यावि, भवदर्शितोक्तावपि अस्थिनिचयस्यैव संहननवाच्यता स्पष्टैव, यत उदितं यह चेत्यादि अन्यथाभियुक्तमतं तु केवलमेवास्थिनिचर्य संहननशब्दवाच्यतयाऽपेक्षितमपाकुर्यात् न तु शास्त्रसिद्ध संहननस्पास्थिवाच्यतापक्षं, तथा च देवानामाघसंहननिता शक्तिविशेषापेक्षिणी एकेन्द्रियाणामन्त्यसंहननितौदारिकशरीरसत्ताऽपेक्षिणीत्येवं भवत्यौपचारिकी नतु अस्थिनिचयस्यौपचारिकत्वं संहननशब्दवाच्यतायां लेशवोऽपि, ततो युक्तमेवोक्तं श्रीमद्दिष्टीकाकद्भिर्मलयगिरिसूरिचरणैरुररीकृत्य जिनवल्लभगणिसत्कं 'सुत्ते सत्तिविसेसो' इति वचनं 'इत्यलमुत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु' इत्येवं कुमार्गगमृगसिंहनाधीयं वचनं, एवं च 'साइणा परिनिब्बुढे' इति वचनस्य | कल्याणकपरतया व्याख्यानं गर्भापहारस्य षष्ठकल्याणकतया व्यक्तीकृतिश्च तस्यैव मुखमलकुर्वाणा शोभते न सूत्रानुसारिणां श्रीमहरिभद्राचार्याभयदेवसूरिन्याख्यातवीरवरश्रीमद्वर्धमानस्वामिकल्याणपश्चकवादिनामिस्पलं चसूर्या। अनुक्रम [५४०] ifaltaina ~947~ Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मल यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९३] ॥४७२॥ 02 दीप एecerseeeeeeeee तद्यथा-वजर्षभनाराचं ऋषभनाराचं नाराचं अर्द्धनाराचं कीलिका सेवाः च, तत्र वर्ज-कीलिका ऋषभः-परि-२३कर्मप्रवेष्टनपट्टः नाराचं-उभयतो मर्कटवन्धः, उक्तं च-"रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण कीलिया मुणेयचा । उभो कृतिपद मकडवंधो नारायं तं वियाणाहि ॥१॥ऋषभश्च भवति पट्टो वजं पुनः कीलिका ज्ञातव्या। उभयतो मर्कटबन्धो यस्तं नाराचं विजानीहि ॥१॥] ततश्च द्वयोरस्नोरुभयतो मर्कटवन्धनबद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्था परिवे-18 टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकास्यं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद्ववर्षभनाराचसंहननं, यत्पुनः कीलिकारहितं संहननं तत् ऋषभनाराचं, यत्र त्वस्थनां मर्कटवन्ध एवं केवलो भवति तत्संहननं नाराचं, यत्र त्वेकपान मर्कटबन्धो द्वितीयपार्थे च कीलिका तदर्द्धनाराचसंहननं, यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत्संहनन कीलिकाख्यं, यत्र पुनः परस्परपर्यन्तमात्रसंस्पर्शलक्षणां सेवामागतानि अस्थीनि नित्यमेव नेहाभ्यङ्गादिरूपां परि-1 शीलनामाकान्ति तत्सेवार्तसंहननं, एतन्निवन्धनं संहनननामापि षोढा, तद्यथा-वर्जर्षभनाराचसंहनननाम ऋषभनाराचनाम नाराचनाम अर्द्धनाराचनाम कीलिकानाम सेवार्तनाम, तत्र यदुदयात् वज्रर्षभनाराचसंहननं भवति । तत् वर्षभनाराचसंहनननाम, एवं शेषसंहनननामखपि भावनीयं. तथा संस्थान-आकारविशेषस्तेष्येव गृहीतसवाति- ४७२|| तबद्धेषु औदारिकादिषु पुद्गलेषु संस्थानविशेषो यस्य कर्मण उदयाद्भवति तत्संस्थान, एतच पोढा, तद्यथा-समचतुर-| संस्थाननाम न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम सादिसंस्थाननाम वामनसंस्थाननाम कुब्जसंस्थाननाम हुण्डसंस्थान अनुक्रम [५४०] mmona ~948~ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 920302 प्रत सूत्रांक [२९३] नाम च, तत्र यदुदयादसुमतां समचतुरस्त्रसंस्थानमुपजायते तत्समचतुरस्रसंस्थाननाम, यदुदयात्तु न्यग्रोधपरिमKण्डलं संस्थानं तन्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम, एवं शेषाण्यपि वाच्यानि, तथा वर्ण्यते-अलकियते शरीरमनेनेति। वर्णः, स च पश्चप्रकारः श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णभेदात् , तन्निबन्धनं नामापि पञ्चधा, तद्यथा-वेतवर्णनाम पीतवर्णनाम रक्तवर्णनाम नीलवर्णनाम कृष्णवर्णनाम, तत्र यदुदयाजन्तुशरीरेषु श्वेतवर्णप्रादुर्भावो यथा विशकण्ठिकानां तत् श्वेतवर्णनाम, एवं शेषवर्णनामान्यपि भावनीयानि, तथा 'गन्ध अईने' गन्ध्यते-आणायते इति गन्धः, स द्विधा-सुरभिगन्धो दुरभिगन्धश्च, तन्निबन्धनं गन्धनामापि द्विधा, तद्यथा-सुरभिगन्धनाम दुरभिगन्धनाम च, तत्र यदुदयाजन्तुशरीरेषु सुरभिगन्ध उपजायते यथा शतपत्रमालतीकुसुमादीनां तत्सुरभिगन्धनाम, यदुदयाद् दुर| भिगन्धः शरीरेधूपजायते यथा लशुनादीनां तत् दुरभिगन्धनाम, तथा 'रस आखादनखेहनयोः' रखते आखाद्यते । इति रसः, स पञ्चधा, तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात्, तन्निबन्धन रसनामापि पञ्चधा, तद्यथा-तिक्तनाम कटु-1. नाम कपायनाम अम्लनाम मधुरनाम, तत्र यदुदयात् जन्तुशरीरपु तिक्तो रसो भवति यथा मरिचादीनां तत्तिक्तरसनाम, एवं शेषापयपि रसनामानि भावनीयानि, तथा 'स्पृश संस्पर्शे' स्पृश्यते इति स्पर्शः, 'अकर्तरी ति घञ्प्रत्ययः, स च कर्कशमृदुल घुगुरुखिग्धरूक्षशीतोष्णभेदादष्टप्रकारः, तनिवन्धनं स्पर्शनांमाप्यष्टप्रकार, तत्र यदुदयाजन्तु-18| शरीरेषु कर्कशः स्पर्शो भवति यथा पाषाणविशेषादीनां तत्कर्कशस्पर्शनाम, एवं शेषाण्यपि स्पर्शनामानि भावनी दीप अनुक्रम [५४०] seeeeee ~949~ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २३कर्मय प्रत सूत्रांक [२९३] 2009 प्रज्ञापना-18 यानि, तथा यदुदयात् प्राणिनां शरीराणि न गुरूणि नापि लघुनि किन्त्वगुरुलघुरूपाणि भवन्ति तदगुरुलघुनाम, या:मल- तथा यदुदयात् खशरीरावयवैरेव शरीरान्तः परिवर्द्धमानैः प्रतिजिहागलवृन्दलम्बकचोरदन्तादिभिरुपहन्यते यद्वा । कृतिपदं यवृत्ती खयंकृतोद्वन्धनभैरवप्रपातादिभिस्तदुपघातनाम, यदुदयात् पुनरोजखी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महानृपसभा॥४७॥ मपि गतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति प्रतिवादिनश्च प्रतिभाविघातं करोति तत्पराघातनाम, तथा कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाकारेण यथाक्रम द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी आनुपूर्वी, तद्विपाकवेद्यं नामकर्मापि कारणे कार्योपचारात् आनुपूर्वी नाम, तच्च चतुर्की, तद्यथानरयिकानुपूर्वीनाम तिर्यगानुपूर्वीनाम मनुष्यानुपूर्वीनाम देवानुपूर्वी नाम, तथा यदुदयवशादात्मन उच्चासनिःवासलब्धिरुपजायते तदुच्छासनाम, आह-यद्येवमुच्छासपर्याप्तिनाम्नः कोपयोगः ?, उच्यते, उच्छासनान उच्छासनिःश्वासयोग्य पुद्गलग्रहणमोक्षविषया लन्धिरुपजायते, सा च लब्धिःच्छासपर्याप्तिमन्तरेण खफलं साधयति, न । खलुइपुक्षेपणशक्तिमानपि धनुग्रहणशक्तिमन्तरेण क्षेमुमलं, तत उच्छासपर्याप्तिनिष्पादनार्थमुच्छ्वासपर्याप्सिनान उपयोगः, एवमन्यत्रापि यथायोगं भिन्नविषयता सूक्ष्मधिया भावनीया, तथा यदुदयात् जन्तुशरीराणि खरूपे-N४७॥ णानुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम, तद्विपाकश्च भानुमण्डलगतेषु पृथिवीकायिकेष्वेव न यही, प्रवचनेऽपि निषेधात्, तत्रोष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् उत्कटलोहितवर्णनामोदयाच प्रकाशकत्वमिति, तथा दीप Recededesesedese अनुक्रम [५४०] e ~ 950~ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९३] दीप अनुक्रम [५४० ] Eticatin “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [-], मूलं [२९३] उद्देशक: [२], ...आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. यदुदया जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशकरूपमुद्योतं कुर्वन्ति यथा यतिदेवोत्तरवैक्रिय चन्द्रनक्षत्रतारविमानरत्तौषधयस्तदु-द्योतनाम, तथा विहायसा गतिः - गमनं विहायोगतिः, ननु सर्वगतत्वात् विहायसस्ततोऽन्यत्र गतिर्न सम्भवतीति किमर्थ विशेषणं १, व्यवच्छेद्याभावात्, सत्यमेतत्, किन्तु यदि गतिरेवोच्यते ततो नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्तीति पौनरुक्तत्याशङ्का स्यात्, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थ विहायसा गतिः, न तु नारकादिपर्यायपरिणतिरूपेति विहायोगतिः, सा द्विविधा-प्रशस्ता अप्रशस्ता च, तत्र प्रशस्ता इंसगजवृपभादीनां अप्रशस्ता खरोष्ट्रमहिषादीनां तद्विपाकवेद्यं विहायोगतिनामकर्म द्विधा - प्रशस्त विहायोगतिनाम अप्रशस्तविहायोगतिनाम चेति, तथा त्रसन्ति-उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाद्यासेवनायें स्थानान्तरमिति प्रसा - द्वीन्द्रियादयस्तत्पर्याय परिणतिवेद्यं नामकर्मापि त्रसनाम, तथा यदुदयादुष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थान परिहारासमर्थाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा जायन्ते तत् स्थावरनाम, तथा वादरनाम यदुदयाज्जीया वादरा भवन्ति, वादरत्वं परिणामविशेषः, यद्वशात् पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुर्याद्यत्वाभावेऽपि बहूनां समुदाये चक्षुषा ग्रहणं भवति, तद्विपरीतं सूक्ष्मनाम, यदुदयाद्वहूनामपि समुदितानां जन्तुशरीराणां चक्षुर्ब्राझता न भवति, उक्तं च श्रावकप्रज्ञप्ति - मुलटीकायां- "सूक्ष्मनाम यदुदयात् सूक्ष्मो भवति, असन्तसूक्ष्मोऽतीन्द्रिय इत्यर्थः” इति, पर्यातकनाम यदुदयात् स्वयोग्यपर्याप्तिनिर्वर्त्तनसमर्थो भवति तत्पर्यासिनाम - आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, For Parts Only ------------- ~951~ wor Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. ॥४७॥ [२९३] SO90090922 दीप एतच प्रागेवोक्तमिति, तद्विपरीतमपर्यासकनाम, तथा यदुदयात् जीवं जीवं प्रति भिन्नं शरीरं तत्प्रत्येकनाम, यदु- २३कर्मप्र| दयवशात् पुनरनन्तानां जीवानामेकं शरीरं भवति तत्साधारणनाम, तथा यदुदयवशात् शरीरावयवानां शिरोऽस्थि- कृतिपदं दन्तानां स्थिरता भवति तत्स्थिरनाम, तद्विपरीतमस्थिरनाम, यदुदयवशाजिहादीनामवयवानामस्थिरता भवति तद-IN स्थिरनाम, तथा यदुदयान्नाभेरुपरितना अवयवाः शुभा जायन्ते तत् शुभनाम, यदुदयवशात् नाभरधस्तना पादाद-IN योऽवयवा अशुभा भवन्ति तदशुभनाम, तथाहि-शिरसा स्पृष्टस्तुष्यति पादेन तु रुष्यति, कामिन्या पादेनापि स्पृष्टः । तोपमुपयाति ततो व्यभिचार इति चेत्, न, तस्य परितोषस्य मोहनीयनिवन्धनत्वात् , वस्तुस्थितिथेह चिन्त्यते | इत्यदोषः, तथा यदुदयवशादनुपदपि सर्वस्य मनःप्रियो भवति तत्सुभगनाम, तद्विपरीतं दुर्भगनाम, यदुदयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यो भवति, उक्तं च-"अणुवकएवि बहूणं जो पिओ तस्स सुभगनामुदओ। उबगारकारगो-1 वि हुन रुचए दुग्भगस्सुदए ॥१॥ सुभगुदएवि हु कोई किंची आसज दुब्भगो जइवि । जायइ तहोसाओ। जहा अभवाण तित्थयरो ॥२॥" [अनुपकृतेऽपि बहूनां यः प्रियस्तस्य सुभगनास उदयः । उपकारकारकोऽपि न रोचते दौर्भाग्यस्योदये ॥१॥ सुभगस्योदयेऽपि कश्चित्कञ्चिदासाद्य दुर्भगो यद्यपि । जायते तदोषात् यथाऽभव्यानां ४७४|| तीर्थकरः ॥२॥] तथा यदुदयवशात् जीवस्य स्वरः श्रोतृणां प्रीतिहेतुरुपजायते तत्सुस्वरनाम, तद्विपरीतं दुःखरनाम यदुदयात् खरः श्रोतृणामप्रीतये भवति, तथा यदुदयवशात् यचेष्टते भाषते वा तत्सर्व लोकः प्रमाणीकरोति ! अनुक्रम [५४०] ~952 ~ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] दर्शनसमनन्तरमेव च जनोऽभ्युत्थानादि समाचरति तदादेयनाम, तद्विपरीतमनादेयं, यदुदयवशादुपपन्नमपि त्रुवाणो नोपादेयवचनो भवति नाप्युपक्रियमाणोऽपि जनस्तस्याभ्युत्थानादि समाचरति, तथा तपःशौर्यत्यागादिना समुपार्जितेन यशसा कीर्तनं-संशब्दनं यशःकीर्तिः, यद्वा यशः-सामान्येन ख्यातिः कीर्तिः-गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा अथवा सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यशः एकदेशगामिनी पुण्यकृता वा कीर्तिः ते यदुदयवशाद्भवतस्तद्यशःकीर्तिनाम, यदुदयवशात् मध्यस्थस्थापि जनस्याप्रशस्यो भवति तदयशःकीर्तिनाम, तथा यदुदयवशाजन्तुशरीरेषु खखजात्यनुसारेणाप्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानयतिता भवति तन्निर्माणनाम, तच सूत्रधारकल्पं, तदभावे हि तद्भूतककल्पैरङ्गोपाङ्गनामादिभिर्निवर्तितानामपि शिरउरउदरादीनां स्थानवृत्तेरनियमः स्थात् , तथा यदुदयक्शात् अष्टमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतुस्विंशदतिशयाः प्रादुष्यन्ति तत्तीर्थकरनाम, तदेवमुक्ताः नामकर्मणो द्विचत्वारिंशद्भेदाः, सम्प्रत्येतेषामेव गत्यादीनामवान्तरभेदप्रतिपादनार्थमाह-गइनामे णं भंते ! कम्मे | कइविहे पं०' इत्यादि, समस्तमपि निगदसिद्धम् , उक्ता नामकर्मणो भेदाः, सम्प्रति गोत्रकर्मभेदानाह–'गोए णं भंते !' इत्यादि, यदुदययशादुत्तमजातिकुलबलतपोरूपैश्चर्यश्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाअलिपग्रहादिसम्भवस्तद्-1 चैर्गोत्रं, यदुदयवशात् पुनर्ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि निन्दा लभते हीनजात्यादिसम्भवं च तत् नीचैर्गोत्रं, उक्तौ गोत्रभेदी, सम्प्रति तयोरेव भेदानाह-'उच्चगोए णं भंते ! कम्मे कइविहे पं०' इत्यादि सुगम, सम्प्रति अन्तरायभेदानाह Seeeeeeepeech दीप अनुक्रम [५४०] 19 ~953~ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९३] ॥४७५॥ दीप | 'अंतराए णं भंते ! कम्मे कइविहे' इत्यादि, तत्र यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रे दत्तमम ||२३कर्मप्रमहाफलमिति जाननपि दातुं नोत्सहते तद्दानान्तरायं, तथा यदुदयवशाहानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुर्गहे विद्यमानम-18 कृतिपदं पि देयमर्थजातं याच्जाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते तलाभान्तरायं, तथा यदुदयवशात् सत्यपि विशि-18 टाहारादिसम्भवेऽसति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा केवलकार्पण्यानोत्सहते भोक्तुं तद्भोगान्तरायमेवमुपभोगान्तरायमपि भावनीयं, नवरं भोगोपभोगयोरयं विशेषः-सकृद् भुज्यते इति भोगः-आहारमाल्यादि, पुनः पुनर्भुज्यते इत्युपभोगो-वस्त्रालङ्कारादि, उक्तं च-"सइ भुजइत्ति भोगो सो पुण आहारपुप्फमाईओ। उवभोगो उरी पुणो पुण उवभुज्जइ वत्थपिलयाइ ॥१॥"[ सकृद्भुज्यते इति भोगः स पुनराहारपुष्पादिकः । उपभोगस्तु पुनः पुनरुपभुज्यते वस्त्रवनितादिः॥१॥] तथा यदुदयात् सत्यपि नीरुजि शरीरे यौवनिकायामपि वर्तमानोऽल्पप्राणो भवति यद्वा बलवत्सपि शरीरे साध्येऽपि प्रयोजने हीनसत्त्वतया न प्रवर्त्तते तवीर्यान्तरायं, उक्तो मूलोचरप्रकृतिविभागः, सम्प्रति उत्तरप्रकृतीनां जघन्योत्कृष्टस्थितिप्रतिपादनं चिकीर्षः प्रथमतो ज्ञानावरणीयस्य पञ्चप्रकारस्थापि विषये प्रश्नसूत्रमाह ॥४७५॥ णाणावरणिजस्स पं भंते ! कम्मरस केवतितं कालं ठिती पं०१, गो! जहण्णेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीतो तिणि य वाससहस्साई अचाहा, अचाहूणिया कम्मठिती कम्मनिसेगो, निदापंचगस्स णं मंते ! कम्पस्स अनुक्रम [५४०] sers ~954~ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९४] केवतितं कालं ठिती पं०१, गो! जह० सागरोवमस्स तिष्णि सत्तभागा पलितोबमस्स असंखेजतिभागेणं उणिया, उकोसेणं तीस सागरोवमकोडाकोडीतो, तिण्णि व वाससहस्साई अचाहा, अबाहूणिया कम्महिती कम्मनिसेनो, देसणचउकस्स गं भंते ! कम्मरस केवइयं कालं ठिती पं०१, गो०! जहने० अंतो० उ० तीस सागरोषमकोडाकोडीतो, तिणि य वाससहस्साई अवाहा०, सायावेयणिजस्स ईरियावहियं बंधगं पडच अजहण्णमणुकोसेणं दो समया संपरायबंधगं पडच ज० वारस मुहुत्ता, उ० पण्परस सागरोबमकोडाकोडीतो, पण्णरस वाससयाई अवावा, असातादणिअस्स जह सागरोवमस्स तिणि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उ० तीस सागरोवमकोडाकोडीतो, तिणि य वाससहस्साई अवाहा, सम्मत्तवेयषिजस्स पुच्छा, मो० ज० अंतो० उ० छावहि सागरोवमाई सातिरेगाति, मिच्छत्वेषणिजस्स जह. सागरोवमै पलितोवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणगं उ० सत्चरि कोडाकोडीतो, सत्त य चाससहस्साई अवाहा, अचाहूणिया०, सम्मामिच्छत्तवेयणिजस्स ज. अंतो० उ० अंतो०, कसाक्चारसगस्स ज. सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्को० चवालीसं सागरोगनकोडाकोडीतो, पत्तालीसं वाससताई अचाहा जाब निसेगो, कोहसंजलणे पुच्छा, गो०! जहदो मासा उको० पचालीस सामरोवमकोडाकोडीतो चचालीसं वाससताई अचाहा जाव निसेगो, माणसंजलगाते पुच्छा, गो! ज०मासं उ० जहा कोहस्स, मायासंजलणाते पुच्छा, गो०! अखं मासं उ० जहा कोहस्स, लोहसंजलणाए पुच्छा, गो० अ० अंतो० उ० जहा कोहस्स, इथिवेयस्स पुच्छा, गो०! जहणं सागरोवमस्स दिवट्ट सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेजइभानेण अनयं 39292020302920200507 दीप अनुक्रम [५४१] ~ 955~ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. २३कर्मबन्धपदे क६ मंस्थितिः सू. २९४ प्रत सूत्रांक [२९४] ॥४७६॥ उक्को. पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीतो पण्णारस वाससताई अबाहा०, पुरिसवेदस्स णं पुच्छा, गो! जह० अट्ठ संवच्छराति उको० दस सागरोवमकोडाकोडीतो दस वाससताई अवाहा जाव णिसेगो, णपुंसमवेदस्स में पुच्छा, गो०! जह० सागरोवमस्स दोणि सचभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उकोसेणं पीसं सागरोवमकोडाकोडीतो बीस य वाससताई अवाहा०, हासरतीणं पुच्छा गो! जह. सागरोवमस्स एकं सत्तभार्ग पलितोवमस्स असंखेजतिभागणं ऊर्ण उको दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस वाससताई अबाहा, अरतिभयसोगदुगुंछाणं पुच्छा, गो०। जह० सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलितोबमस्स असंखेजतिभागेणं उणया, उको बीस सागरोवमकोडाकोडीतो बीसं वाससताई अबाहा०, नेरइयाउयस्स णं पुच्छा, गो.! जह० दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई उको तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीतिभागमभहियाति, तिरिक्खजोणिवाउयस्स पुच्छा, गो! जह० अंतो० उको तिष्णि पलितोवमाई पुवकोडितिभागमभहियाई, एवं मणसाउयस्सवि, देवाउयस्स जहा नेरइयाउयस्स ठितित्ति, निरयगतिनामए ण पुच्छा गो०। जह० सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलितोवमस्स असंखिजतिभागेणं ऊगया, उकोसेणं वीर्स सागरोवमकोडाकोडीतो वीसं वाससताई अवाहा। तिरियगतिनामए जहा नपुंसगवेदस्स, मणुयगतिनामते पुच्छा, ज. सागरोवमस्स दिवर्द्ध सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणगं उको. पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीतो पण्णरसवाससताई अवाहा । देवगतिनामए णं पुच्छा, गो! जह० सागरोवमसहस्सस्स एणं सचभाग पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणयं उको जहा पुरिसवेदस्स, एगिदियजातिनामए गं पुच्छा, गो! जह० सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलि secene दीप अनुक्रम [५४१] ॥४७६॥ ~956~ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९४] तोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीतो बीसति वाससताई अवाहा, बेइंदियजातिनामेणं पुच्छा, गो०!जहसागरोवमस्स नव पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेर्ण ऊणया उ० अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस य वाससयाई अवाहा, तेइंदियजातिनामए णं जहण्णेणं एवं चेव, उको अट्ठारससायरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस वाससताई अवाहा, चउरिदियजातिनामाए पुच्छा, गो! जह० सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया उको० अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस वाससताई अबाहा, पंचिंदियजातिनामाए पुच्छा, गो.जह सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा पलितोचमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उकोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीतो बीस य वाससताई अबाहा, ओरालियसरीरएवि एवं चेव, वेउवियसरीरनामाए णं भंते ! पुच्छा, गो! जह. सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजहभागेणं ऊणया, उको० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ वीसह वाससयाई अवाहा, आहारगसरीरनामए जह. अंतोसागरोषमकोडाकोडीओ उको. अंतोसागरकोडाकोडीओ, तेयाकम्मसरीरनामाए जहण्णेणं दोण्णि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उको बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ वीस य वाससताई अवाहा, ओरालियवेउबियाहारगसरीरोवंगनामाए तिण्णिवि एवं चेव, सरीरबंधणनामाएषि पंचण्हवि एवं चेव, सरीरसंघायनामाए पंचण्हवि जहा सरीरनामाए कम्मस्स ठिइत्ति, वइरोसभनारायसंघयणनामाए जहा रइनामाए, उसभनारायसंघयणनामाए पुच्छा, गो! सागरोवमस्स छ पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजाभागेणं ऊगया, उको वारस सागरोवमकोडाकोडीओ, पारस वाससताई अवाहा०, नारा दीप Caeeeeeee अनुक्रम [५४१] ~957~ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९४] दीप अनुक्रम [५४१] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥४७७॥ पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [२९४] उद्देशक: [२], दारं [-], ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Eaton International avaणनामस्स जह० सागरोवमस्स सत्त पणतीसतिभागा पलितोत्रमस्स असंखेज विभागेगं ऊणया उको० चोदस सागरोवमकोडाकोडीतो चउद्दस वाससताई अवाहा, अद्धनारायसंघयणनामस्स जह० सागरोचमस्स अट्ट पणतीसत्तिभागा पलितोबमस्स असंखेज्जतिभागेगं ऊणया उक्को० सोलस सागरोदमकोडाकोडीतो सोलस वाससताई अवाहा०, खीलियासघणे णं पुच्छा, गो० ज० सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊगया, उकोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ अट्ठारस वाससताई अवाहा, छेवट्ठसंघयणनामस्स पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पालितो मस्स असं० ऊणया, उक्को० बीसं सागरोवमको० बीस य वाससताई अवाहा, एवं जहा संघयणनामा छम्भणिया एवं संठाणावि उन्माणितवा, सुकिल्लवण्णणामते पुच्छा, गो० जह० सागरोवमस्स एर्ग सप्तभागं पलितो० असं० ऊणगं, उको० दस सागरोवमकोडाकोडीतो, दस वाससताई अबाहा, हालिवण्णणामए णं पुच्छा, गो० ! ज० सागरोवमस्स पंच अट्ठावीसतिभागा पलितोवमंस्स अ० भा० ऊ० उ० अद्धतेरससागरोवमकोडाकोडी, अद्धतेरस वाससयाई अाहा, लोहितवण्णणामए णं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स छ अट्ठावीसतिभागा पलितोवमस्स असं० भागेहिं ऊणया, उ० पण्णरस सागरोवमको डाकोडीओ पण्णरस वासस्याति अवाहा, नीलवण्णनामाए पुच्छा, गो० ! ज० सागरोवमस्स सत अट्ठावीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणया, उको० अद्धद्वारस सागरीवमकोडाकोडीवो अद्धद्वारस वाससताई अवाहा, कालवण्णनामाए जहा छेवट्टसंघय०, सुभिगंधणामाते पुच्छा, गो० ! जह सुकिलवण्णनामस्त, दुभिगंधणामाए जहा छेवट्टसंघयणस्स, रसाणं महुरादीणं जहा वण्णाणं भणितं वहेब परिवाडीते माणितई, फासा For Penal Use Only ------------- ~958~ Care 2020 202020202 २३ कर्मवन्धपदे क मंस्थितिः सू. २९४ ॥४७७॥ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९४] दीप अनुक्रम [५४१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [२], दारं [-], मूलं [२९४] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eat Intemation जे अपसत्था तेसिं जहा छेवट्ठस्स, जे पसत्था तेसिं जहा सुकिल्लवण्णनामस्स, अगुरुलहुनामाते जहा छेवट्ठस्स, एवं उबघातनामाएवि, पराघायनामाएवि एवं चैव, निरयाणुपुद्दीनामाए पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमसहस्सस्स दो सचभागा पलितोत्रमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणया, उक्को० बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, वीसं वाससताई अवाहा०, तिरियाणुपुवीए पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स दो सतभागा परितोषमस्स असंखेज्जविभागेणं ऊगया उक्कोसेणं वीसं सागमोडाकोडीओ वीसति वाससताई अबाधा, मणुयाणुपुवीनामाए णं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स दिव सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणयं, उको० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ पण्णरस वाससताई अवाहा०, देवापुढीनामाते पुच्छा, गो० जह० सागरोवमसहस्सस्स एवं सतभागं पलितोवमस्स असंखेअतिभागेणं ऊणयं, उको • 'दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस य वाससताई अवाहा, ऊसासनामाते पुच्छा, गो० ! जहा तिरियाणुपुडीए, आयवनाare वि एवं चैव, उज्जोयनामाएवि, पसत्थविहायोगतिनामाएचि पुच्छा, गो० ! जह० एवं सागरोवमस्स सतभागं उ० दस सागरोवमकोडाकोडीओ, दस वाससताई अवाहा०, अपसत्थविहायोगतिनामस्त पुच्छा, गो० ! ज० सागरोवमस्स दोणि सचभागा पलितोवमस्य असंखेजतिभागेणं ऊणया उ० बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पीस य वाससवाई अवाहा०, तसनामाए थावरनामाए म एवं चैव सुदुमनामाए पुच्छा, गो० जह० सागरोषमस्स णव पणतीसतिभागा पलितोबमस्स असंखेजतिभागेण ऊगया, उक्को० अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस य वाससताई अवाहा, बादरनामाए जहा अप्पसत्थविहायोगतिनामस्स, एवं पञ्जत्तनामाएषि, अपजतनामाए जहा सुडुमनामस्स, परोयसरीर For Parts Only ~959~ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया:मलय० वृत्ती. मस्थितिः सूत्रांक [२९४] ॥४७८॥ दीप नामाएवि दो सत्तभागा, साहारणसरीरनामाए जहा सुहुमस्स, थिरनामाए एग सत्तभागं अधिरनामाए दो सुमनामाए N२३ कर्मवएगो असुभनामाए दो सुभगनामाए एगो दूभगनामाए दो सूसरनामाए एगो दूसरनामाए दो आदिजनामाए एगो । अणाइजनामाए दो जसोकित्तिनामाए जह० अट्ठ मुहुत्ता उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीतो दस वाससताई अबाहा०, अजसोकित्तिनामाए पुच्छा, गो०! जहा अप्पसस्थविहायोगतिनामस्स, एवं णिम्माणनामाएवि, तित्थगरणामाए णं सू. २९४ पुच्छा, गो०! जह० अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ उकोसेणवि अंतो० कोडाकोडीओ, एवं जत्थ एगो सत्तभागो तत्य उक्कोसेणं दस सागरोबमकोडाकोडीओ दस बाससताई अबाहा०, जत्थ दो सत्तभागा तत्थ उको० वीसं सागरोवमकोडा- कोडीओ वीस य वाससयांइ अबाहा, उच्चागोयस्स णं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अट्ठ मुहुत्ता उ० दस सागरोवमकोडाकोडीओ, दस य वाससताई अवाहा०, णीयागोत्तरस पुच्छा, गो०! जहा अप्पसत्थविहायोगतिनामस्स, अंतराए णे पुच्छा, गो!जह अंतो० उको तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तिष्णि य वाससहस्साई अवाहा, अबाहूणिया कम्महिती कम्मनिसेगो। (सूत्रं २९४) 'णाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पं.' इति ज्ञानावरणीयस्य मतिश्रुतापधिमनःपर्याय- ॥४७८॥ | केवलावरणभेदतः पञ्चप्रकारस्य कर्मणो भदन्त ! कियन्तं कालं यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता १, एवमुक्त भगवानाहगौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तच सर्वलघु सूक्ष्मसम्परायस क्षपकस्य खगुणस्थानकचरमसमये वत्तेमानस्स वेदितव्यं, अनुक्रम [५४१] ~960~ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९४] दीप अनुक्रम [५४१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२३], उद्देशक: [२], मूलं [२९४] दारं [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः उत्कर्षत त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः, सा च मिथ्यादृष्टेरुत्कृष्टे सङ्केशे वर्त्तमानस्यावसातव्या, तदेवं नियता प्रागुक्तस्य प्रश्नोत्तरसिद्धिः, इदम पृष्टव्याकरणं त्रीणि वर्षसहस्राणि अवाधा अबाधोना कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेक इति, किमर्थमिति चेत्, उच्यते, स्थितिद्वैविध्यप्रदर्शनार्थ, तथाहि - द्विविधा स्थितिः कर्मरूपतावस्थानलक्षणा अनुभवयो ग्या च तत्र कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणां स्थितिमधिकृत्येदमुक्तं त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोटय इति, अनुभवयोग्या च वर्षसहस्रत्रयोना यतः, आह च- 'त्रीणि वर्षसहस्राणि अवाधा' किमुक्तं भवति ? - ज्ञानावरणीयं कर्म उत्कृष्टस्थितिकं बद्धं सत् बन्धसमयादारभ्य त्रीणि वर्षसहस्राणि यावत् न किञ्चिदपि खोदयतो जीवस्य बाधामुत्पादयति, तावत्कालमध्ये दलिकनिषेकस्याभावात्, तत ऊर्ध्वं हि दलिकनिषेकः, तथा चाह— अबाधोना- अबाधाकालपरिहीना अनुभवयोग्या कर्मस्थितिः, किमुक्तं भवति ?-कर्मनिषेकः, स चैवं प्रथमस्थितौ प्रभूतो द्वितीयस्थितौ विशेषहीनः तृतीयस्थिती विशेषहीनः एवं विशेषहीनो विशेषहीनश्च तावद् वक्तव्यो यावत्स्थितिचरमसमयः, एतावता च यदुक्तमप्रायणीयाख्ये द्वितीयपूर्वे कर्मप्रकृतिप्राभृते बन्धविधाने स्थितिबन्धाधिकारे - " चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, तद्यथास्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा अवाधाकण्डकप्ररूपणा उत्कृष्टनिषेकप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा चे "ति, तत्रोत्कृष्टाऽवाधाकण्डक प्ररूपणा उत्कृष्टनिषेकप्ररूपणा च दर्शिता भवति, अबाधाकालपरिज्ञानोपायश्चायं यस्य यावत्यः सागरोपमकोटी कोट्यस्तस्य तावन्ति वर्षशतान्यवाधा, यस्य पुनः सागरोपमकोटी कोट्या मध्ये स्थितिस्तस्यायुर्वर्जस्यान्तर्मु Education Internation For Park Lise Only ------------- ~961~ narra Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९४] ॥४७९॥ हर्तमायुषस्तु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमवाधा उत्कर्षतः पूर्वकोटीत्रिभागः, तत एबमबाधाकालं परिभाष्यावाधाविषया-18|२३कर्मब|णि सूत्राणि खयं भावनीयानि, निद्रापञ्चकविषयं सूत्रमाह-'निहापंचगस्स गं भंते । इत्यादि, जत्र जघन्यतः स्थितिः त्रयः सागरोपमस्य ससभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः, काऽत्र भावनेति चेत्, उच्यते, पञ्चानां ज्ञानावर-मास्थतिः णप्रकृतीनां चतसृणां दर्शनावरणप्रकृतीनां चक्षुर्दर्शनावरणादीनां सज्वलनलोभस्य पञ्चानामन्तरायप्रकृतीनां च जघ-IN सू. २९४ न्या स्थितिरन्तर्मुहूर्त, सातवेदनीयस्य सकषायिकस्य द्वादश मुहूर्ता, इतरख तु द्वौ समयौ, प्रथमसमये बन्धो द्वितीयसमये वेदनं तृतीयसमये त्वकर्मीभवन मिति, यशःकीयुचैर्गोत्रयोरष्टौ मुहूर्ताः, पुरुषवेदस्याष्टौ संवत्सराणि, सज्वलनकोधस्य द्वौ मासी, सबलनमानस्यैको मासः, सज्वलनमायाया अर्द्धमासः, शेषाणां तु प्रकृतीनां वा यात्रा खकीया उत्कृष्टा स्थितिस्तस्या उत्कृष्टायाः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणाया मिथ्यात्वस्थित्या भागे हते यब-IN भ्यते तत्पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनं जघन्यस्थितिपरिमाणं, तत्र निद्रापञ्चकस्योत्कृष्टा स्थितिविंशत्सागरोपमकोटी-11 कोट्यः, तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्सतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हियमाणे 'शून्यं शून्पेन पातयेदिति वचनात् लब्धात्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः, ते पल्पोपमासङ्ख्येयभागहीनाः क्रियन्ते, ततो भवति यथोकं जघन्य-S४७९॥ स्थितिपरिमाणमिति, 'सायावेयणिजस्स ईरियावहियवंधगं पडुच अजहण्णमणुकोसेणं दो समया संपराइयवंधगं पडुच जहण्णेणं चारस मुहुत्ता' इति प्रागेव भावितं, असातावेदनीयस्य जघन्यतस्त्रयः सप्तभागाः पल्योपमासमवेय दीप अनुक्रम [५४१] For P OW ~962~ Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९४] भागोना निद्रापञ्चकवद् भावनीयाः, तस्याप्युत्कर्षतः स्थितेस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , सम्यक्त्ववेदनी-11 यस्य यत् जघन्यतः स्थितिपरिणाममन्तर्मुह उत्कर्षतः षट्षष्टिःसागरोपमाणि सातिरेकाणि तवेदनमधिकृत्य वेदितव्यं न बन्धमाश्रित्य, सम्यक्त्वसम्यग्मिध्यात्वयोवन्धाभावात् , मिथ्यात्वपुद्गला एव हि जीवेन सम्यक्त्वानुगुणविशोधिवलतखिधा क्रियन्ते, तद्यथा-सर्वविशुद्धाः अर्द्धविशुद्धाः अविशुद्धाश्च, तत्र ये सर्वविशुद्धास्ते सम्यक्त्ववेदनीयव्यपदेशं लभन्ते येऽर्द्धविशुद्धास्ते सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयव्यपदेशं अविशुद्धा मिथ्यात्ववेदनीयव्यपदेशसतोच तयोर्बन्धस म्भवः, यदा तु तेषां सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वपुद्गलानां खरूपतः स्थितिश्चिन्त्यते तदाऽन्तर्मुहोबसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा वेदितव्या, सा च तायती यथा भवति तथा कर्मप्रकृतिटीकायां समकरणे भावितेति ततो अवधार्य, मिथ्यात्ववेदनीयस्य जघन्या स्थितिरेक सागरोपमं पल्योपमासङ्ख्ययभागोनमुत्कर्षतस्तस्पोत्कृष्टस्थितेः सप्त|तिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , सम्बग्मिथ्यात्ववेदनीयस्य जघन्यत उत्कर्षतो वा अन्तर्मुः वेदनापेक्षया, पुद्गलानां त्ववस्थानमुत्कर्षतः प्रागेवोक्तं, कषायद्वादशकस्खानन्तानुबन्धिचतुष्टयाप्रत्याख्यानचतुष्टयप्रसाख्यानावरणचतुष्टयरूपस्य प्रत्येकं जघन्या स्थितिश्चत्वारः सागरोपमसप्तभागा पल्योपमासयभागोनाः, उत्कर्षतस्तेषां स्थिते-1 चत्वारिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, सज्वलनानां च जघन्या स्थितिर्मासद्वयादिप्रमाणा क्षपकस खबन्धचरमसमयेऽवसातव्या, खीवेदस्य जघन्या स्थितियेद्धसागरोपमख सप्तभागाः पल्पोपमासययभागोनाः कथमिति चेत्, दीप अनुक्रम [५४१] ~963~ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९४] दीप अनुक्रम [५४१] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥४८०॥ पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [२९४] उद्देशक: [२], दारं [-], ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Ja Education International उच्यते, त्रैराशिककरणवशात्, तथाहि यदि दशानां सागरोपमकोटीकोटीनां एकः सागरोपमसप्तभागो लभ्यते ततः पञ्चदशभिः सागरोपमकोटीकोटीभिः किं लभ्यते १, राशित्रयस्थापना - १० । १ । १५ । अत्रान्त्येन राशिना पञ्चदशलक्षणेन मध्यो राशिरेकलक्षणो गुण्यते, जाताः पञ्चदशैय, 'एकस्य गुणने तदेव भवतीति वचनात् तेषामाद्येन राशिना दशकलक्षणेन भागहरणं लब्धा सार्द्धाः सप्तभागा इति 'हासरइअरइभयसोगदुगुंछाणं जहण्णुकोसठिई भाणियचा' इति हास्यरतिअरतिभयशोकजुगुप्सानां जघन्या उत्कृष्टा च स्थितिर्वक्तव्या, सा च सुप्रसिद्धत्वान्नोक्ता, कथं वक्तव्येति चेत्, उच्यते, 'हासरईणं पुच्छा गो० ! जहण्णेणं एगो सागरोषमस्स सत्तभागो पलिओवमस्स असंखेज्जभागेण ऊणो उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस वाससयाई अवाहा जाव निसेगो, अरइभयसोगदुगुंछाणं पुच्छा, गो०! जहणेणं सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा पठिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगा उक्कोसेणं वीसं सागरोवम फोडाकोडीओ बीससयाई अवाहा जाव निसेगो' इति ज्ञेयं, तिर्यगायुषि मनुष्यायुषि च त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि इति यदुक्तं तत् पूर्वकोव्यायुषस्तिर्यग्मनुष्यान् बन्धकानधिकृत्य वेदितव्यं अन्यत्रैतावत्याः स्थितेः पूर्व कोटित्रिभागरूपाया अवाधायाश्चालभ्यमानत्वात्, 'तिरियगइनामाए जहा नपुंसगवेयस्स' इति, जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पत्योपमासङ्ख्येयभागहीनी, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोव्य इत्यर्थः, मनुष्यगतिनानि 'जहणणेणं सागरोपमस्स दिवसत्तभागं पलिओ मस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगं ति अत्र For Pasta Use Only ------------- ~ 964~ २३ कर्मचन्धपदे कस्थितिः सू. - २९४ ||४८०॥ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९४] दीप अनुक्रम [५४१] “प्रज्ञापना” उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) उद्देशक: [२], दारं [-], मूलं [२९४] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education International - भावना स्त्रीवेदवद् भावनीया, 'दिवद्धसत्तभाग' मित्यादौ तु नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात्, नरकगतिनाम्नो जघन्यतः सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ, किमुक्तं भवति १ - सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागी सहस्रेण गुणिताविति, तदुत्कृष्टस्थितेर्विंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणत्वात्, तद्बन्धस्य च सर्वजघन्यस्यासंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य भाषात्, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियकर्मबन्धस्य च जघन्येनै केन्द्रियजघन्य कर्मबन्धापेक्षया सहस्रगुणत्वात्, भावयिष्यते चायमर्थो वैक्रियचिन्तायां, देवगतिनानो जघन्यतः सागरोपमसहस्रस्यैकः सप्तभागः, एकः सागरोपमस्य सप्तभागः सहस्रगुणित इति भावः, तस्य हि उत्कृष्टा स्थितिर्दश सागरोपम कोटी कोटयः, ततः प्रागुक्तकरणवशादेकः सागरोपमस्य सप्तभागो लब्धः, बन्धोऽपि चास्य जघन्यतोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्येति सहस्रगुणितः, देवगतिनामसूत्रे 'उक्कोसेणं जहा पुरिसवेयस्स' इति 'दस सागरोवमकोडीओ दसवाससयाई अवाहा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मनिसेगो' इति वक्तव्यमिति भावः, द्वीन्द्रियजातिनामसूत्रे 'जहनेणं नव पणतीसहभागा पलिओचमस्स असंखेजइभागेण ऊणगा' इति, द्वीन्द्रियजातिनाम्रो युत्कृष्टा स्थितिरष्टादश सागरोपमकोटीकोटयः, 'अट्ठारस सुडुमविगलतिगे' त्ति [सूक्ष्मा विकलेन्द्रियाश्चाष्टादश ] वचनात्, ततोऽष्टादशानां सागरोपमकोटीकोटीनां मिध्यात्वस्योत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटा कोटीप्रमाणया भागो हियते, भागश्च न पूर्यते, ततः शून्यं शून्येन पात्यते, जाता उपरि अष्टादश अधस्तात् सप्ततिस्तयोर नापवर्त्तनालब्धा नव पञ्चत्रिंशद्भागास्ते पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः क्रियन्ते, आगतं सूत्रोक्तं परिमाणमिति, एवं त्रिचतुरिन्द्रियजातिनामसूत्रे For Parts Only ~965~ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- या मल- २०वृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९४] ॥४८॥ अपि भावनीये, वैक्रियशरीरनामसूत्रे 'जहाणेणं सागरोवमस्स दो सत्तभागा पलिओयमस्स असंखेजइभागेणं ऊण- २३कर्मबगा' इति, इह बैंक्रियशरीरनाम्न उत्कृष्टा विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयः स्थितिस्ततः प्रागुक्तकरणवशेन जघन्यस्थि- न्धपदे क|तिचिन्तायां तस्यां द्वौ सागरोपमस्स सप्तभागौ लभ्येते, परं वैक्रियपटुमेकेन्द्रिया विकलेन्द्रियाश्च न बन्नन्ति, किन्त्वसं-मस्थितिः ज्ञिपञ्चेन्द्रियादयः, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाच जघन्यतोऽपि बन्धं कुर्वाणा एकेन्द्रियबन्धापेक्षया सहस्रगुणं कुर्वन्ति. 'पणवी- सू. २९४ सा पण्णासा सयं सहस्सं च गुणकारो' [ पञ्चविंशतिःपञ्चाशत् शतं सहस्रं च गुणकारः ] इति वचनात्, ततो यो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी प्रागुक्तकरणवशालब्धौ तौ सहस्रेण गुण्येते ततः सूत्रोक्तं परिमाणं भवति, सागरोपमस्य | द्वी सहस्री सप्तभागानां सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागाविति सेकोऽर्थः, आहारशरीरनाम्नो जघन्यतोऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटी उत्कर्षतोऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटी, नवरं जघन्यादुत्कृष्टं सोयगुणं द्रष्टव्यं, अन्ये त्वाहारकचतुष्कस्थ जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहर्गमिच्छन्ति, (तथा च) तद्वन्धः-"पुंयेयअट्ठवासा, अट्ठमुहुत्ता जसुधगोयाणं । साए पारस आहारविग्धावरणाण किंचूणं ॥१॥" [पुंवेदेऽष्टी वर्षाण्यष्टमुहूर्ता यशउच्चगोत्रयोः । साते द्वादश वर्षाणि आहारक[विनावरणानां किञ्चिदूनं ॥१॥] अत्र 'किंचूणमिति अन्तर्मुहूर्त्तमित्यर्थः, तदत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्ति, यथा शरी- ४८१॥ रिपञ्चकरस जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिपरिमाणमुक्तं तेनैव क्रमेण शरीरबन्धनपश्चकस्स शरीरसंघातपञ्चकस्य च वक्तव्यं, तथा चाह-'सरीरबन्धननामाएवि पंचण्हवि एवं चेव, सरीरसंघायणनामाए पंचण्हवि' इति 'बहरोसपनारायसंचय दीप अनुक्रम [५४१] ~966~ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९४] णनामाए जहाहनामाए इति, वर्षभनाराचसंहनननाम्रो यथा प्राक्रतिनासो मोहनीयस्थोक्तं तथा वक्तव्यं, तद्यथाIST'वइरोसभनारायसंघयणनामाए भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पं०१, गो० जहरू एकं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजहभागेण ऊणं, उक्को दस सागरोवमकोडाकोडीओ' इति, ऋषभनाराचसूत्रे 'सागरोवमस्स छप्पण्णतीसभागा पलिओवमस्स असंखिजइभागेण ऊणगा' इति, ऋषभनाराचसंहननस धुत्कृष्टा स्थिति दश सागरोपमकोटीकोटयः, तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागो हियते, तत्र भागहारासम्भवात् शून्य शून्येन पातयित्वा छेद्यच्छेदकराश्योर?नापवर्तनालब्धाः सागरोपमस्य षट् पञ्चत्रिंशभागाः, तेपल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः क्रियन्ते, एवं नाराचसंहनननासो जघन्यस्थितिचिन्तायां सप्त पञ्चत्रिंशद्भागाः|पल्योपमासयभा-11 गहीनाः, उत्कृष्टस्थितेश्चतुर्दशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , अर्द्धनाराचसंहनननामः अष्टौ पञ्चत्रिंशद्भागाः६। पल्योपमासयभागोनाः, उत्कृष्टस्थितेः पोडशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , कीलिकासंहनननानो नव पञ्चत्रिशहागाः | पल्योपमासयेयभागहीनाः, उत्कृष्टस्थितेरष्टादशसागरोपमकोटीकोष्टीप्रमाणत्वात् परिभावनीयाः, सेवार्तसंहननसूत्रं तु सुगम, यथा संहननषष्टकस्य स्थितिपरिमाणमुक्तं तेनैव क्रमेण संस्थानयटकस्यापि वक्तव्यं, तथा 18 चाह-एवं जहा संघयणनामा छन्भणिया एवं संठपणा छम्माणियवा' उक्तवायमर्थोऽन्यत्रापि 'संघयणे संठाणे पढमे दस उपरिमेसु दुगबुट्टीं' इति [ संहनने संस्थाने प्रथमे दश उपरितनेषु विकवृद्धिः] झरिद्रवर्णनामसूत्रे 'जह-1 2000000002020 दीप अनुक्रम [५४१] ectseisex ~967~ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मज्ञापनाया: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९४] ॥४८॥ नेणं सागरावमस्स पंच अट्ठावीसहभागा पलिओवमस्स असंखेजहभागेण ऊणगा' इति, हारिद्रवर्णनानो हि साा|२३कर्मवद्वादशसागरोपमकोटीकोटयः, तथा चोक्तमन्यत्रापि-"सुकिलसुरभिमहुराण दस उ तहा सुभगउपहफासाणं ।। महापरफासान्धपदे कअट्ठाइजपवुही अंबिलहालिद्दपुवाणं ॥१॥" [ शुक्लसुरभिमधुराणां दशैव तथा सुभगोष्णस्पर्शयोः सार्धद्बयप्रय | मस्थितिः द्धिरम्लहारिद्रपूर्वाणाम् ॥१॥] तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्सतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागो हियते, तत्र सू. २९४ शून्येन शन्यस्य पातनात्तेन उपरितनो राशिः सांश इति सामस्त्येन चतुर्भागकरणार्थ चतुर्भिर्गुण्यते जाताः पञ्चाशत्, | अधस्तनोऽपि सप्ततिलक्षणच्छेदराशिचतुर्मिर्गुण्यते जाते द्वे शते अशीत्यधिके, ततो भूयोऽपि शून्यं शन्येन पातनाल|ब्धाः पञ्च अष्टाविंशतिभागाः | ते पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः क्रियन्ते, आगतं सूत्रोक्तं परिमाणं, अनेनैव |गणितक्रमेण लोहितवर्णनानो जघन्यस्थिती पट अष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्घयेयभागहीनाः, उत्कर्षतस्तस्य स्थितेः पञ्चदशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , नीलवर्णनानः ससाष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासवेयभागहीनाः, |उत्कर्षतस्तस्य स्थितेः सार्द्धसप्तदशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , 'कालवण्णनामाए जहा सेवटुसंघयणस्से'ति | सेवात्तेसंहननस्येव जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनी उत्कर्षतो विंशतिसागरोपमको- ४८२॥ टीकोटयः कृष्णवर्णनानोऽपि वक्तव्या इति भावः, सुरभिगन्धनानः शुक्लवर्णनाम इव, 'सुकिलसुरभिमहुराण दस उ' इति वचनात् , दुरभिगम्धनानो यथा सेवार्तसंहननस्य तथानन्तरमेवोक्तमिति न पुनरुच्यते, 'रसाणं महुरादीणं दीप अनुक्रम [५४१] ~968~ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९४] दीप अनुक्रम [५४१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [२], दारं [-], मूलं [२९४] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. जहा वण्णाणं भणियं तहा परिवाडीए भाणियच' मिति, रसानां मधुरादीनां परिपाट्या - क्रमेण तथा वक्तव्यं यथा वर्णानामुक्तं तथैवं- मधुररसनाम्नो जघन्या स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्तभागः पत्योपमा सङ्ख्येयभागहीनः, | उत्कर्षतो दश सागरोपमकोटीकोटयी दश वर्षशतान्यवाधा, अवाधारहिता कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेकः, अम्लरसनाम्नो जघन्यतः पञ्च सागरोपमस्याष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येय भागहीनाः, उत्कर्षतोऽर्द्धत्रयोदशसागरोपमको- १४ टीकोटयो अर्द्धत्रयोदश शतान्यवाधा, कषायरसनाम्नो जघन्यतः षट्र अष्टाविंशतिभागाः सागरोपमस्य पल्योपमासङ्घयेयभागोनाः, उत्कर्षतः पञ्चदश सागरोपमकोटीकोटयः, पञ्चदश वर्षशतान्यवाधा, कटुकरसनाम्रो जघन्यतः सागरोपमस्य सप्ताष्टाविंशतिभागाः पल्योपमा सङ्ख्येयभागहीनाः, उत्कर्षतः सार्द्धससदश सागरोपमकोटी कोटयः सार्द्धससदश शतान्यबाधा, तिक्तरसनानो जघन्यतः सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनी, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयो विंशतिर्वर्षशतान्यवाधा अबाधाकालहीना च कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेक इति, स्पर्शा द्विविधाः, तद्यथा- प्रशस्ता अप्रशस्ताश्च तत्र प्रशस्ता मृदुल पुस्त्रिग्धोष्णरूपाः अप्रशस्ताः कर्कशगुरुरुक्षशीत रूपाः, प्रशस्तानां जघन्यतः स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्तभागः पत्योपमासङ्ख्येयभागहीनः, उत्कर्षतो दश सागरोपमकोटीकोटयो दश वर्षशतान्यवाधा अबाधाकालहीना कर्मस्थितिः कर्मदलिक निषेकः, अप्रशस्तानां जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य | सप्तभागौ पल्योपमासत्येय भागहीनौ उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयो विंशतिर्वर्षशतान्यवाधां अबाधा For Parts Only ------------- ~969~ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९४] ॥४८॥ प्रज्ञापना-18 कालोना कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेकः, तथा चाह-'फासा जे अप्पसत्था तेसिं जहा सेवट्ठस्स जे पसत्था तेसि २३ कर्मबयाः मल- जहा सुकिल्लवपणनामस्स' इति, नरकानुपूर्वीनाम्रो जघन्यतः सागरोपमसहस्रस्य द्वी सप्तभागी, द्वौ सागरोपमस्यधपदे कय०वृत्ती. सप्तभागी सहस्रगुणिताविति भावः, भावना नरकगतिवद् भावयितव्या, मनुष्यानुपूर्वीनामसूत्रे "जहण्णणं साग-मस्थितिः रोवमस्स दिपहुं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखिजहभागेण ऊणगं'ति, तद्वत्कृष्टस्थितेः पञ्चदशसागरोपमकोटीकोटी-Mसू. २९४ प्रमाणत्वात् , उक्तं चान्यत्रापि-"तीस कोडाकोडी असायआवरणअंतरायाणं । मिच्छे सयरी इत्थीमणुदुगसायाण पन्नरस ॥१॥"[त्रिंशत् सागरोपमकोटीकोटयोऽसातावरणान्तरायाणाम् । मिथ्यात्वे सप्ततिः स्त्रीमनुष्यद्विकसातानां पञ्चदर्श ॥१॥ देवानुपूर्वीनाम्रोऽपि जघन्यतः एकः सागरोपमस्य ससभागः सहस्रगुणितः पल्योप-IN मासङ्घयेयभागहीनः, उत्कर्षतो हि तत्स्थितेः दशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तथा चोक्तम्-"पुंहासरईउच्चे IS सुभखगतिथिराइछक्कदेवदुगे । दस सेसाणं वीसा एवइयाऽवाह वाससया ॥१॥॥" [ पुंवेदहास्यरत्युचर्गोत्रशु भविहायोगतिस्थिरादिषटूदेवद्विकेषु । दश शेषाणां विंशतिः एतावन्त्यबाधा वर्षशतानि ॥१॥] बन्धश्चास्स जघन्यतोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु इति, तथा सूक्ष्मनामसूत्रे जघन्यतो नव सागरोपमस्य पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासयेयभागही- ४८॥ ना द्वीन्द्रियजातिनाम्न इव भावनीया, सूक्ष्मनाम्रो घुत्कर्षतः स्थितेरष्टादशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , 'अट्ठारस सुहुमविगलतिगे' इति वचनात् , एवमपर्याससाधारणनासोरपि भावनीयं, कादरपर्याप्त प्रत्येकनाम्नां तु जघन्यतो दीप अनुक्रम [५४१] accederaee ~970~ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९४] दीप दो सागरोपमस सप्तभागी पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनी, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटवा, तथा चाह'बायरनामाए जहा अपसत्थविहायोगइनामाए, एवं पज्जत्तनामाएवि' इत्यादि, स्थिरशुभसुमगसुखरादेयरूपाणां पञ्चानां नानां जघन्यतः स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासङ्ख्येयभागोनः, यश-कीर्तिनामस्तु जघन्य तोऽष्टौ मुहूर्ताः, अट्ट मुहुत्ता जसुचगोयाण'मिति वचनात् , उत्कृष्टा पुनः षण्णामपि दश सागरोपमकोटीकोटयः ISI'थिराइछक्कदेवदुगे दसे'ति वचनात् , अस्थिराशुभदुर्भगदुःखरानादेयायशःकीर्तिनामां तु जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनी, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयः, एवं निर्माणनामोऽपि वक्तव्यं, तीर्थकरनाम्नो जघन्यतोऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटी उत्कर्षतोऽप्यन्तःसागरोफ्मकोटीकोटी, ननु यदि जघन्यतोऽपि तीर्थकरनाम्रोऽन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा स्थितिः तर्हि तावत्याः स्थितेः तिर्यग्भवभ्रमणमन्तरेण पूरयितुमशक्यत्वात् कियन्तं कालं तीर्थकरनामसत्कर्मापि तियग्भवेत् , अथ चासावागमे निषिद्धः, तथा चोक्तम्-"तिरिएसु नथि तित्थयरनाम संतंति देसियं समए । कह य तिरिओ न होही अयरोवमकोडीकोडीओ ॥ १॥" तिर्वक्षु नास्ति तीर्थकरनाम सत्तायां इति देशितं समये । कथं च तिर्यक् न भविष्यति अतरोपमकोटीकोटीखितिकत्वात् ? ॥१॥] इति , ततः कथमेतदिति चेत्, उच्यते, इह यन्त्रिकाचितं तीर्थकरनामकर्म तत्तिर्यग्गतौ सत्तायां निषिद्धं, यत्पुनरुदर्शनापवर्तनासाध्यं तद्भवेदपि तिर्यग्गती न विरोधमास्कन्दति, तथा चोक्तम्-"जमिह । अनुक्रम [५४१] 292906 ~971~ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायामलयवृत्ती. णां कर्म सूत्रांक [२९४] ॥४८४॥ २३ कर्मचनिकाइय तित्थं तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरंमि नत्थि दोसो उच्चट्टणवणासज्झे ॥१॥" [यदिह निकाचितं न्धपदे एतीर्थनाम तिर्यगभवे तन्निषिद्धं सत्तायाम् । इतरस्मिन् नास्ति दोषः उद्वर्तनापवर्तनासाध्ये ॥१॥] इति, गोत्रान्तरा-1|| यसूत्राणि सुप्रतीतानि, नवरं 'अंतराइयस्स णं पुच्छा' इति, पञ्चप्रकारस्थापीति वाक्यशेषः, निर्वचनमपि पञ्चप्रकारस्यापि द्रष्टव्यं । तदेवमुक्तं जघन्यत उत्कर्षतश्च सामान्यतः सर्वासां प्रकृतीनां स्थितिपरिमाणं, साम्प्रतमेकेन्द्रियान-18 स्थितिःसू. |धिकृत्य तासां तदभिधित्सुराह २९५ एगिदिया णं भंते ! जीवा णाणावरणिअस्स कम्मस्स किं बंधति ?, गो!जह सागरोवमस्स तिण्णि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजहभागेणं ऊणया उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति, एवं निद्दापंचगस्सवि, देसणचउकस्सवि, एगिदिया णं भंते ! सातावेदणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधति, गो!ज. सागरोवमदिवढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेअतिभागेणं ऊणयं उतं चेव पडिपुणं बंधति, असायवेयणिजस्स जहा णाणावरणिजस्स, एगिदिया णं भंते जीवा सम्मत्तवेयणिजस्स कम्मरस किंबंधति ?, गोत्थि किंचि बंधति, एगिदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेदणिजस्स कम्मस्स ला॥४८४॥ किंबंधति , गो!ज. सागरोवमं पलितोवमस्स असंखेअतिभागेणं ऊणं उ० चेव पडिपुष्णं बंधति, एगिदिया णं भंते ! जीवा सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जस्स किं बंधंति , गो.! णत्थि किंचि बन्धंति, एगिदिया णं भंते, जीवा कसायवारसगस्स किंबंधति, गोयमा ! जह० सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागे पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणते उ० दीप अनुक्रम [५४१] JMEauratani ~972 ~ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९५ ] दीप अनुक्रम [५४२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [२], दारं [-], मूलं [ २९५ ] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education International ते चैव पडिपुणे बंधंति, एवं जाव कोहसंजलणाएव जाव लोभसंजलणाएवि, इत्थवेदस्स जहा सातावेदणिअस्स, एगिंदिया पुरिसवेदस्स कम्मरस जह० सागरोवमस्स एवं सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणयं उक्को० तं चैव परिपुष्णं बंधंति, एगिंदिया नपुंसगवेदस्स कम्मस्स जह० सागरोवमस्स दो सत्तभागे पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊगए उपो० ते चेन परिपुष्णं बंधंति, हासरतीते जहा पुरिसवेदस्स, अरतिभयसोगदुगुंछाए [उको० ते चैव पडिपुण्णे बंधंति, हासरतीते जहा पुरिसवेदस्स अरतिभयसोगदुर्गुछाए ] जहा नपुंसगवेयस्स, नेरइयाऊ देवाऊ य निरयगतिनाम देवगतिनाम वे उदियसरी रनाम आहारगसरीरनाम नेरइयाणुपुविनाम देवाणुपुच्विनाम तित्थगरणाम एताणि पदाणि ण बंधंति, तिरिक्खजोणियाउयस्स जह० अंतो० उकोसेणं पुढकोडी सत्तहिं वाससहस्सेहिं वाससहस्सतिभागेण य अहियं बंधंति, एवं मणुस्ताउस्सवि, तिरियगतिनामाए जहा नपुंसगवेदस्स, मणुयगतिनामाए जहा सातावेदणिज्जस्स, एर्गिदियनामाए पचिदियजातिनामाए य जहा नपुंसगवेदस्स, बेईदियतेईदियजातिनामाए पुच्छा, जह० सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागे पलितो मस्स असंखेजतिभागेणं ऊणए उको० ते चेत्र पडिपुष्णे बंधंति, चउरिदियनामाएवि जह० सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊगए उ० ते चैव पडिपुण्णे बंधन्ति, एवं जत्थस्थि जहण्णगं दो सत्तभागा तिनि वा चत्तारि या सत्तभागा अट्ठावीसतिभागा भवति, तत्थ णं जहण्णेणं ते चेव पलितोत्रमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणगा भाणितवा, उ० ते चैव पडिपुण्णे बंधंति, तत्थ णं जहणेणं एगो वा दिवो वा सत्तभागो तत्थ जह० तं चैत्र भाणित उ० तं चैव पडिपुण्णं बंधंति, जसोकितिउच्चागोताणं ज० सागरोवमस्स एवं सत्तभागं पलितोत्रमस्स For Pernal Use On ------------- ~973~ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९५] दीप अनुक्रम [५४२ ] प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥४८५ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ २९५] उद्देशक: [२], दारं [-], ..आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. असं० ऊणं उ० तं चेव पडिपुण्णं बंधंति, अंतराइयस्स णं भंते । पुच्छा, गो० ! जहा णाणावरणिजं उ० ते चैव पडिपुणे बंधेति । (सूत्रं २९५ ) 'एििन्दया णं भंते ! जीवा णं नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ?' इत्यादि, अत्रेयं परिभाषा - यस्य यस्य कर्मणो या या उत्कृष्टा स्थितिः प्रागभिहिता तस्याः २ मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरो कोटी कोटीप्रमाणया भागे हते यलभ्यते तत्पल्योपमास येयभागहीनं जघन्या स्थितिः, सैव पल्योपमा सङ्घयेयभागसहिता उत्कृष्टेति एतत्परिभाव्य सकलमप्येकेन्द्रियगतं सूत्रं स्वयं परिमावनीयं, तथापि विनेयजनानुग्रहाय किञ्चिल्लिख्यते- ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरनवकासात वेदनीयान्तरायपञ्चकानां जघन्यत एकेन्द्रियाणां स्थितिबन्धस्त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः पल्योपमासयेयभागहीनाः, उत्कृष्टतस्त एव परिपूर्णास्त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः, सातवेदनीयस्त्री वेदमनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्षीणां जघन्यतः सार्द्धः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमा सङ्ख्येयभागहीनः, उत्कर्षतस्तु स एव सार्द्धः सप्तभागः परिपूर्णः, मिध्यात्वस्य जघन्यत एकं सागरोपमं पल्योपमासङ्ख्येव भागहीन मुत्कर्षतः तदेव परिपूर्ण, सम्यक्त्ववेदनीयस्य सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्य च न किञ्चिदपि वनन्ति न किञ्चिदपि वेद्यमानतयाऽऽत्मप्रदेशैः सम्बन्धयन्तीति भावः, एकेन्द्रियाणां सम्यक्त्ववेदमीयस्य सम्यग्मिथ्यात्ववेदनस्य चासम्भवात्, यस्तु साक्षाद्वन्धः स सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्न घटत एवेति प्रागेवाभिहितं कषायषोडशकस्य जघन्यतश्चत्वारः सागरोपमस्य सप्तभागाः फ्ल्यो For Parts Only ------------- ~974~ २३ कर्मव न्धपदे ए केन्द्रियाणां कर्मस्थितिः सू. २९५ ॥४८५ ॥ ra Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९५]] पमासङ्ग्येयभागोना उत्कर्षतस्त एव परिपूर्णाः, पुरुषवेदहास्यरतिप्रशस्तविहायोगतिस्थिरादिषटूप्रथमसंस्थानप्रथमसंहन-11 नशुक्लवर्णसुरभिगन्धमधुररसोचैर्गोत्राणां जघन्यत एकः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनः उत्कर्षतः स एव परिपूर्णः, द्वितीयसंस्थानसंहननयोः जघन्यतः षट् पश्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासकोयभागहीना उत्कर्षतस्त एव । परिपूर्णाः, तृतीयसंस्थानसंहननयोर्जघन्यतः सप्त सागरोपमस्य पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासययभागहीना उत्कर्षतस्त | एव परिपूर्णाः, लोहितवर्णकषायरसयोर्जघन्यतः षद सागरोपमस्याष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीना उत्कपंतस्त एव परिपूर्णाः, हारिद्रवर्णाम्लरसयोर्जघन्यतः पञ्च सागरोपमस्याष्टाविंशतिभागाः फ्ल्योपमासळधेयभागहीनाः। उत्कर्षतस्त एष परिपूर्णाः, नीलवर्णकटुरसयोः सप्त सागरोपमस्याष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासमवेयभागोनाः उत्कपतस्त एव परिपूर्णाः, नपुंसकवेदभयजुगुप्साशोकारतितिर्यगौदारिकद्विकचरमसंस्थानचरमसंहननकृष्णवर्णतिक्तरसागुरुलघुपराधातोच्छासोपघातत्रसवादरपर्याप्सप्रत्येकास्थिराशुभदुर्भगदुःखरानादेयायशःकीर्तिस्थावरातपोद्योताशुभवियोगतिनिर्माणन्द्रियजातिपञ्चेन्द्रियजातितजसकार्मणानां जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्स ससमागी पल्योपमास यभागहीनी उत्कर्षतस्तायेव परिपूर्णाविति, नरकद्विकदेवद्विकवैक्रियचतुष्टयाहारकचतुष्टयतीर्थकरनानां त्वेकेन्द्रि-1 याणां न बन्धः, आयुश्चिन्तायामपि एकेन्द्रिया देवायु रयिकायुवा न बनन्ति, तथा भवखाभाव्यात, किन्तु तिर्यगायुर्मनुष्यायुक, तदपि वान्तो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त बन्नन्ति, उत्कर्षतः पूर्वकोटिप्रमाणं साधिकं, केवलमुत्कृष्टं चि-1॥ दीप अनुक्रम [५४२] ~975~ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९५] प्रज्ञापना या: मलयवृत्ती. ॥४८॥ M स्थितिःसू. दीप न्यते इत्येकेन्द्रिया द्वाविंशतिर्वर्षसहस्रप्रमाणायुषः खायुषश्च त्रिभागावशेषे परभवायुर्वघ्नन्तः परिगृह्यन्ते इति सप्त-18|२३कर्मचवर्षसहस्राणि वर्षसहस्रत्रिभागोत्तराण्यधिकानि लभ्यन्ते, ततो भवति तिर्यगायुमनुष्यायुश्चिन्तायां सूत्रोक्तं न्धपदेदीपरिमाणमिति । उक्तमेकेन्द्रियबन्धकानधिकृत्य जघन्यत उत्कर्षतच स्थितिपरिमाणं, सम्प्रति द्वीन्द्रियानधिकृत्य। न्द्रियादीतमभिषित्सुराह नां कर्मबेइंदिया णं भंते ! जीवा गाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधति ?, गो.! जह० सागरोवमपणवीसाते तिणि सत्तभागा २९५ पलितोवमस्स असं ऊणया उ० ते चेव पडिपुण्णे बंधति, एवं निदापंचगस्सवि, एवं जहा एगिदियाणं भणितं तहा बेइंदियाणवि भाणितई, नवरं सागरोवमपणवीसाए सह भाणितबा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणा सेसा (उ०) तं चेव पडिपुणं बंधति, जत्थ एगिदिया न बंधंति तत्थ एतेविन बंधति, बेइंदिया णं भंते ! जीवा मिच्छत्तवेयणिजस्स किं बंधंति , गो01, जह. सागरोवमपणुवीसं पलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणय उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति, तिरिक्खजोणियाउयस्स जह० अंतो० उको पुषकोडिं उहि वासेहिं अहियं बंधंति, एवं मणुयाउयस्सवि, सेसं जहा एगिदियाणं जाव अंतराइयस्स । तेइंदिया णे भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स किं बंधति !, गो! जह. सागरोवमपण्णासाए तिण्णि सत्त- HT४८६॥ भागा पलितोवमस्स असंखेजहभागेणं ऊणया उ० ते चेव पडिपुण्णे बंधंति, एवं जस्स जतिभागा ते तस्स सागरोवमपण्णासाए सह भाणितबा, तेइंदिया णं भंते ! मिच्छत्तवेदणिजस्स कम्मरस किंबंधति, गो01 ज० सागरोवमपण्णासं अनुक्रम [५४२] ~976~ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९६] दीप अनुक्रम [५४३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], उद्देशक: [२], मूलं [ २९६ ] ...आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Internationa पलितोवमस्सा संखेञ्जतिभागेणं ऊणयं उ० तं चैव पडिपुष्णं बंघंति, तिरिक्खजोणियाउयस्स जह० अंतो० उको० पुद्दकोर्डि सोलसेहिं राईदियतिभागेण य अहियं बंधंति, एवं मणुस्साउयस्सवि, सेसं जहा मेहंदियाणं जाव अंतराइयस्स । चाउरिंदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिअस्स किं बंधेति १, गो० ! जह० सागरोवमसयस्स तिष्णि सत्तभागे पलितोत्रम - स्स असंखेजतिभागेणं ऊणए उको० ते चैव परिपुण्णे बंधंति, एवं जस्स जति भागा तस्स सागरोवमसतेण सह भागिता, तिरिक्खजोणियाउयस्स कम्मस्स जह० अंतो० उ० पुडकोडिं दोहिं मासेहिं अहियं, एवं मणुस्साउयस्सवि, सेसं जहा बेइंदियाणं, णवरं मिच्छत्तवेदणिअस्स जह० सागरोवमसतं पलितोक्मस्स असंखेअतिभागेणं ऊणयं उ० तं चैव परिपूण्णं बंधति, सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स । असण्णी णं भंते! जीवा पंचिंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधति १, गो० जह० सागरोवमसहस्सस्स तिष्णि सत्तभागे पलितोवमस्मासंखेजति भागेणं ऊणए उको० ते चैव पडिपुण्णे, एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं, णवरं सागरोवमसहस्सेण समं भाणित जस्स जति भागति, मिच्छत्तवेदणिजस्स जह० सागरोवमसहस्सं पलितोवमासंखेअतिभागेणं ऊणयं उ० तं चैव पडिपुण्णं, नेरइयाउयस्स जह० दस वाससहस्साई अंतोमुडुत्तमम्भहियाई उकोसेणं पलितोवमस्स असंखेजतिभागं पुत्रकोडितिभागन्भहियं बंधंति, एवं तिरिखजोणियाउयस्सवि, णवरं जह० अंतो०, मणुयाउयस्सवि देवाउयस्स जहा नेरइयाउयस्स, असण्णी णं भंते! जीवा पंचिदियनिरयगतिनामाए कम्मस्स किं बंधंति ?, गो० जह० सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलितोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणया उको० ते चैव पडिपुण्णे, एवं तिरियगतितेवि, मणुयगतिनामाएवि एवं चैव, णवरं जह० सागरो For Partise Only ~977 ~ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: पनामाकनवरत २३कमंत्र प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९६] पदे द्वी. न्द्रियादीनां कर्म ॥४८७॥ स्थितिःसू. वमसहस्सस्स दिवसत्तभागं पलितोवमस्सासंखेजइभागेण ऊणं उको तं चेच पडिपुण्णं बंधंति, एवं देवगतिनामाए, नवरं ते सागरोवमसहस्सस्स एग सत्तभागं पलिओवमस्सासंखे० ऊर्ग उ० तं चेव पडिपुण्णं, वेउवियसरीरनामाए पुच्छा, गो०। ज० सागरोजमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलितोवमस्सासंखेजतिभागेण ऊणे उको दो पडिपुण्णे बंधति, सम्मत्तसम्मामिच्छत्तआहारगसरीरनामाते तित्थगरनामाए ण किंचि बंधति, अचसिर्दु जहा बेइंदियाण, णवरं जस्स जत्तिया भागा तस्स सा सागरोवमसहस्सेण सह भाणितबा, सन्वेसि आणुपुबीए जाव अंतराइयस्स । सण्णी णं भंते ! जीवा पंचिंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किंबंधंति , गो! ज. अंतोमु० उ० तीसं सा० कोडाकोडीओ तिणि वाससहस्साई अवाहा, सण्णी णं भंते ! पंचिंदिया णिहापंचगस्स किं बंधति , गो० जह• अंतो० सागरोवमकोटाकोडीओ उ० तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तिणि य वाससहस्साई अवाहा, दंसणचउक्करस जहा गाणावरणिज्जरस, सायावेदणिजस्स जहा ओहिया ठिती भणिता तहेव माणितवा, ईरियावहियवंधयं पडुच्च संपराइयबंधयं च, असायावेयणिजस्स जहा णिदापंचगस्स, सम्मत्तवेदणिजस्स सम्मामिच्छत्तवेदणिजस्स जा ओहिया ठिती भणिता तं बंधति, मिच्छावेदणिजस्स ज० अंतोसागरोवमकोडाकोटीओ उको सत्चरिं सागरोबमकोडाकोडीओ, सत्तरिय वाससहस्साई अवाहा, कसायपारसगस्स जह एवं चेव उको० चचालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, चत्तालीस य वाससयाति अबाहा, कोहमाणमायालोभसंजलणाए यदो मासा मासो अद्धमासो अंतोमुहतो, एवं जहन्नगं, उक्कोसग पुण जहा कसायबारसगस्स, चउण्हवि आउयाणं जा ओहिया ठिती भणिता तं बंधति, आहारमसरीरस्स तित्थगरनामाए य जहण्योणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीतो उ० अंतोसागरोक्मकोडा Taa02020-2020020201203 २९५ दीप अनुक्रम [५४३] ॥४८७॥ ~978~ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९६] कोडीओ, पुरिसवेदणिजस्स ज. अह संवच्छराई उ० दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस य वाससताई अबाहा, जसोकिचिणामाए उचागोत्तस्स एवं चेव, नवरं जह• अह मुहुत्ता, अंतराइयस्स जहा गाणावरणिजस्स, सेसएसु सबेसु ठाणेसु. संघयणेमु संठाणेसु वण्णेसु गंधेसु य जह० अंतोसागरोबमकोडाकोडीओ उक्को जा जस्स ओहिया ठिती भणिता तं बंधति, णवरं इमं नाणतं अबाहा अबाहणिया ण बुचति, एवं आणुपुबीते सबेसि, जाव अंतरायस्स ताब भाणितवं (सूत्र २९६) 'बेइंदिया णं भंते ! जीवा' इत्यादि, अत्रेयं परिभाषा-यस्य २ कर्मणो या या स्थितिरुत्कृष्टा प्रागभिहिता | तस्याः तस्याः मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हते यलभ्यते तत्पञ्चविंशत्या गुण्यते गुणितं च सत् यावद्भवति तावत्पल्योपमासङ्घवेयभागहीन द्वीन्द्रियाणां बन्धकानां जघन्यस्थितिपरिमाणं तदेव परिपूर्णमुत्कृष्ट स्थितिपरिमाणं, तद्यथा-ज्ञानावरणपश्चकदर्शनावरणनवकासातवेदनीयान्तरायपश्चकानां त्रयः सागरोपमस्य॥ सप्तभागाः पञ्चविंशत्या गुणिताः, वस्तुवृत्त्या पञ्चविंशतः सागरोपमाणां त्रयः सप्तभागाः पल्योपमासययभागहीना जघन्यस्थितिबन्धपरिमाणं, त एव परिपूर्णा उत्कृष्टमित्यादि। त्रीन्द्रियवन्धचिन्तायां तदेव भागलग्धं पञ्चाशता गुण्यते चतुरिन्द्रियबन्धचिन्तायां शतेन असंज्ञिपञ्चेन्द्रियचिन्तायां सहस्रेण, आह च कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिकार:-"पण-1 वीसा पन्नासा सयं सहस्सं च गुणकारो। कमसो विगलअसनीण"मिति [पञ्चविंशतिः पञ्चाशत् शतं सहस्रं च गुण-16) cिecaci दीप अनुक्रम [५४३] Nirajastaram.org ~979~ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मज्ञापना २३कर्मप्रकृतिपर्द मल. यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९६] I૪૮૮ दीप कारः । क्रमेण विकलासंजिनाम् । ततः एतमुसारेण सूत्रं खयं भिगमनीयं सुगमत्मात् नवरं 'सागरोक्मयाणवीसा- ए तिणि सत्तभागा पलिजोवमस्स असंखेजाभागेणं ऊणगा' इति, अत्रेयं गणितभाषमा-पञ्चविंशतः सागरोपमा- णां ससमिर्मागे हियमाणे यल्लभ्यते तत्रिगुणीकृत्य पस्योषमासयभामहीनं क्रियते इति, एवं सर्चत्रापि यथायो गणितभाषना कर्तव्या । संज्ञिपश्चेन्द्रियषम्धकसूत्रेशनावरणीयादिकर्मणां जघन्यतः स्थितिबन्धोऽन्तरादिपरिमाराणाक्षपकस खखबन्धचरमसमये प्रतिपत्तन्या, निद्रापञ्चकासातवेदनीयमिथ्यात्वकषायद्वादशकादीनां तु धावादीकबन्ध इति तेषां जघन्यतोऽप्यन्तासागरोपमकोटीकोटीप्रमाणः उत्कृष्टो मिथ्यारष्टेः सर्वसक्लिष्टस्य, नई तिर्थग्मनुष्यदेवायुषां स्वस्थवन्याव्यतिषिखुखेति । इह संज्ञिपञ्चेन्द्रियसूत्रे झानावरणीयादिकर्मणां जघन्यस्थितिषन्धोऽन्तर्मुद दिपरिमाण उक्तः स कस्मिन् स्वामिनि लभ्यते इति जिज्ञासुः पृच्छतिनामावणिजस्स पं मंते ! कम्मस्स जहण्णाद्वितीबंधए के०१, गो० अण्णयरे सुहुमसंपरायते उवसामए वा खवगे वा एस गोणाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जहमठितीपंचते, साहरिते अजहणे, एवं एएणं अभिलाषेणं मोहाउपपज्जाणं सेप्तकम्माणं माणितवं, मोहणिजस्स ण मंते । कम्मरस अहमठितीबंधते के,गो० अगषरे वादरसंपराए उक्सामए का खवए वा एस णे मो. मोहणिज्जस्स कम्मस्स जहण्याठितीबंधते, तहतिरिने अजहण्णे, आउयस्स भंते ! कम्मरस जहष्णठितीबंधते के०१, गो.जेणं जीवे असंखेप्पशापविष्टे सबमिरुधे से आउने, सेसे सबमहतीए आयवसापा अनुक्रम [५४३] ॥४८॥ ~ 980~ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९७]] तीसे में आउयघद्धार चरिमफालसमर्थसि साजहण्वियं ठिई अपज्जत्तापज्जतियं निवत्तेति, एस गं गोयमा ! आउयकमस्स जहण्णठितीबंधते, तपरित्ते अजहण्णे (सूत्र २९७), 'नाणावरणिजस्स गं मैते ! कम्मस्स जहण्णठिइबंधए के? इत्यादि सुगम, नवरमन्यत्तरसूक्ष्मसंपराय इति यदुक्तमस्य व्याख्यानं क्षपक उपशमको वा सूक्ष्मसम्परायः, इह ज्ञानापरणस्य बन्धः क्षपकरस उपशमकस्य च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्ततोऽन्तर्मुहूर्तत्वाविशेषात् उपशमको वा क्षपको वा इत्युक्तम्, अन्य(बाड)प्रापि क्षपकापेक्षया उपशमकस्य बन्धो द्विगुणो येदितव्यो, यत आह कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिकार:-'खवगुवसाममपडिवयमाणो दुगुणो तहिं तर्हि बंधों' [क्षपकोपशमकप्रतिपततां द्विगुणसत्र तत्र बन्धः] इति, ततो वेदनीवस्य साम्परायिकबन्धचि-IN न्तायां जघन्यः स्थितिवन्धः क्षपकस्य द्वादश मुहूर्ता उपशमकस्य चतुर्विंशतिः, नामगोत्रयोर्जघन्यतः क्षपकस्साष्टी मुहू-N तो उपशमकस्य षोडश, परं उपशमकस्यापि जघन्यतो बन्धः शेषयन्धापेक्षया सर्वजघन्य इति तत्सूत्रेष्वपि 'अन्नवरे पुहुमसंपराए उवसामए वा खरगे वा' इति वक्तव्यं, तथा च वक्ष्यति-'एएणं अभिलावेणं मोहाउवज्जाणं सेसकम्माणं माणियचंति उपसंहारसूत्रे 'तवारिते अजहन्ने' इति तद्व्यतिरिक्त:-क्षपकोपशमकसूक्ष्मसम्परायव्यतिरिक्तो जनो-18 जघन्यस्थितिवन्धकः, आयुर्वन्धकसूत्रे 'जेणं जीवे असंखिप्पद्धापषिढे' इत्यादि, इह द्विविधा जीवा:-सोपक्रमायुषो निरुपक्रमायुपश्च, तत्र देवा नैरयिका असायघर्षायुषस्तिर्यग्मनुष्याः सङ्ग्येयवर्षायुषोऽप्युत्तमपुरुषाश्चक्रवादयश्चर दीप अनुक्रम [५४४] ~981~ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२९७]] ॥४८९॥ रामशरीरिणश्च निरुपक्रमायुष एव, शेपास्तु सोपक्रमा अपि निरुपक्रमा अपि, उक्तं च-"देवाँ नेरइया वा असंखवा- २३कर्मप्र साउया य तिरिमणुया । उत्तमपुरिसा य तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ॥१॥ सेसा संसारत्था भइया सोवमा व कृतिपदं इयर वा। सोवक्कमनिरुवकमभेओ भणिओ समासेणं ॥२॥"देवा नैरयिका वा असंख्यवर्पायुष्काश्च नरतियश्चः। उत्तमपुरुषाच तथा चरमशरीराश्च निरुपक्रमाः॥१॥ शेषाः संसारस्था भक्ताः सोपक्रमा वेतरे वा । सोपक्रमनिरुपक्रमभेदो भणितः समासेन ॥२॥] तत्र देवा नैरयिका असङ्लेयवर्षायुपस्तिर्यग्मनुष्याश्च पण्मासावशेषायुपः पारम| विकायुर्वन्धका एव, ये पुनतिर्यग्मनुष्याः संख्येयवर्षायुषोऽपि निरुपक्रमायुपस्ते नियमात्रिभागावशेषायुषः परभवायुर्वन्ति, ये तु सो पक्रमायुषस्ते स्यात्रिभागावशेषायुषविभागत्रिभागावशेषायुषो यावदसङ्केप्याद्धाप्रविष्टा इति, तत आह-जेणं जीवे' इत्यादि, यो णमिति वाक्यालङ्कारे जीवोऽसक्षेप्याद्धाप्रविष्टः त्रिभागादिना प्रकारेण या सङ्केतुं न शक्यते सा असङ्केप्या सा चासौ अद्धा च असङ्केप्याद्धा तां प्रविष्टः असोप्याद्धाप्रविष्टः, अत आह-से तस्यासक्षेप्यादाप्रविष्टस्य जीवस्यायुः सर्वनिरुद्धं उपक्रमहेतुभिरतिसकिसीकृतं, आयुर्वन्धनिवर्तनमात्र एव कालः तस्यास्ति न परतो जीवनकाल इति भावः, एतदेव स्पष्टतरमाह-ससे सबमहंतीए आउयबंधद्धाए' इह सर्वमहती ४८९॥ आयुन्धाद्धा अष्टाकर्षप्रमाणा तस्याः शेषः-एकाकर्षप्रमाणा तावन्मात्रं सर्वनिरुद्धं तस्यायुवेत्तेते इति भावः, ततो-1॥ सोप्यादाप्रविष्टः, स इत्थंभूतः तस्या-आयुर्वन्धाद्धायाश्चरमकालसमये-चरमकालावसरे एकाकर्षप्रमाणे, इह दीप अनुक्रम [५४४] ~ 982 ~ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९७]] चरमसमयकालग्रहणेन न परमनिरुद्धः समयः परिगृह्यते किन्तु यथोक्तरूपः कालस्ततो हीनेन कालेनायुबन्धस्यास-II म्भवात् , यत उक्तं प्राक व्युत्क्रान्तिपदे “जीवा णं भंते ! ठिइनामनिहत्ताउयं कहहिं आगरिसेहिं पकरेइ ?, गोना जह एकेणं उक्कोसेणं अहहिं आगरिसेहि' इति, एकेन चाकर्षणायुनिवर्त्तयति सर्वजघन्यं, यत आह-'सघजहनियमिति, सर्वजघन्या-सर्वलक्ष्यी स्थितिमिति गम्यते, निवर्तयति वनातीति भावः, किंविशिष्टामित्याह'पर्यासापर्याप्तिका' शरीरेन्द्रियपर्याप्तिनिर्वर्तनोच्छासपर्यायनिवर्तनसमर्थी, कथमेतत् अबसेयं यत्सर्वजघन्यामपि स्थिति निर्वर्तयति जीयः शरीरेन्द्रियपर्यासिनिर्वर्तनसमाँ न ततो हीनतरां इति चेत्, उच्यते, युक्तिवशातू, तपाहि-ह सर्व एव देहिनः परभवायुपवा म्रियन्ते नान्यथा, परभवायुषश्च पन्ध औदारिके क्रिये आहारके या योगे वर्तमानस्य न कार्मणे औदारिकादिमिश्रे वा, तथा चाह मूलटीकाकार:-"जेणोरालियाईणं तिण्हं सरीराणं कायजोगे वट्टमाणो आउयबंधगो, न कम्मए ओरालियाइमिस्से वा” इति, औदारिकादिकाययोगश्च विशिष्टो भवति शरीरे न्द्रियपर्याप्त्या, न केवल शरीरपर्याच्या पर्याप्तस्य, तत एतत्सिद्धं शरीरपर्याप्त्या इन्द्रियपर्यात्या च पर्याप्तस्य मरणं नान्यथेति, सर्वजघन्यामपि स्थिति नियति शरीरेन्द्रियपर्याप्तिनिवर्तनसमर्थो न ततोऽपि हीनतरामिति, II एस णं गोयमे त्याघुपसंहारवाक्यम् । तदेवमुक्तो जघन्यस्थितिबन्धकः, सम्प्रत्युत्कृष्टस्थितिबन्धके पृच्छति उकोसकालद्वितीयं णं भंते ! णाणावरणिज्ज किं नेरइओ बंधति विरिक्खजोणिओ बंधइ तिरिक्खजोगिणी बंधद मणुस्सो दीप अनुक्रम [५४४] ~ 983~ Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती . प्रत सूत्रांक [२९८] ॥४९॥ दीप संघह मस्सिणी बंघइ देवो बंधइ देवी बंधइ ?, मो०! नेरइओवि बंधइ जाप देवीवि बंधइ, केरिसए ण मते ! ए २३कर्ममउकोसकालठियं णाणावरणिज कम्म बंधइ १, गो० सणी पंचिंदिए सबाहिं पज्जचीहिं पजते सागारे जागरे सुतो(तो)वउत्ते -TRI मिच्छादिही कण्हलेसे य उकोससंकिलिङ्कपरिणामे ईसिमज्झिमपरिणामे वा, परिसए गं गो. नेरइए पोसकालद्वितिवं णाणावरणिकं कर्म बंधति, केरिसए थे भंते ! तिरिक्खजोणिए उकोसकालठितीयं णाणावरणिज्ज कम्मं बंधति, गो! कम्मभूमए वा कम्ममगपलिभागी वा सण्णी पंचेंदिए सबाहिं पजतीहिं पक्षनए सेस तं चेव जहा नेरइमस्स, एवं तिरिक्सजोणिणीवि मणसेवि मणूसीवि, देवदेवी जहा नेरइए, एवं आउयवाणं सत्तण्डं कम्माणं । उनोसकालठितीय णं मंते । आउयं सम्म कि नेरहओ बंधति जाव देवी ०१, मो० नो नेइओ बंधह, तिरिक्खजोणिो बंधति, नोतिरिक्खजोणिणी बंधति, मस्सेवि बंधति मणुस्सीवि बंधति, नो देवो बंधह नो देवी बंधइ, केरिसए ण भंते! तिरिक्खजोणिते उकोसठितीयं आउयं कम्मं बंधति', गो! कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा सण्णी पंचिदिए सबाहिं पजचीहिं पत्तए सागारे जागरे सुत्तोवउचे मिच्छट्ठिी परमकण्हलेसे उकोससंकिलिङपरिणामे, एरिसए णं गो। तिरिक्खजोणिते उकोसकालद्वितीयं आउर्य कर्म बंधति, केरिसए ण मते ! मासे उकोसकालद्वितीयं बाउर्य कम्मं बंधति', गो कम्मभूमए का कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुत्तो(तो)वउने सम्मदिही वा मिच्छादिही वा कण्हलेसे वा सुफलेसे वा णाणी वा अण्णाणी या उ० संफिलिट्ठपरिणामे का असंकिलिहपरिणामे वा तप्पाउपगविसुक्षमाणपरिणामे का एरिसए णं गोमासे उकोसकालद्वितीयं आउयं कम्म गंधति, केरिसयाण मंते ! मणुसी उकोसकालाहियं भार अनुक्रम [५४५] 99999 रहिटलर ॥४९॥ ~984 ~ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], --------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९८] कम्मं बंधह, गो! कम्मभूमिया वा कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुत्तोवउच्चा सम्मद्दिष्टी सुक्कलेसा तप्पाउम्पविसुज्झमाणपरिणामा, एरिसिया गं गोतमा! मणूसी उकोसकालहिइथं आउयं कम्मं बंधति, अंतराइयं जहा भाणावरणि (सूत्र २९८ ) ॥ पण्णवणाए तेवीसमं पर्व समत्तं ॥ २३ ॥ . 'उकोसकालठिइयं णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं किं नेरइओ बंधई' इत्यादि, सुगम, नैरयिकसूत्रे 'सागार' इति साकारोपयुक्तः, 'जागर' इति जाग्रत् नारकाणामपि कियानपि निद्रानुभवोऽस्ति तत उक्तम्-'जान'दिति 'सुत्तो(तो) वउत्ते' इति श्रुतोपयुक्तः साभिलापज्ञानोपयुक्त इति भावः। तिर्यग्योनिकसूत्रे 'कम्मभूमगपलिभागी 'कर्मभुमगा:-K कर्मभूमिजातास्तेषां प्रतिभागः-सादृश्यं तदस्यास्तीति कर्मभूमगप्रतिभागी कर्मभूमगसदृश इत्यर्थः, कोऽसाविति चेत्, उच्यते, या कर्मभूमिजा तिर्यकत्री गर्भिणी सती केनाप्यपहत्याकर्मभूमौ मुक्ता तस्या जातः कर्मभूमगसदृश इत्यर्थः, अन्ये तु व्याचक्षते-कर्मभूमग एव यदा केनाप्यकर्मभूमौ नीतो भवति तदा स कर्मभूमगप्रतिभागी व्यपदिश्यते इति । उत्कृष्टस्थितिकायुबन्धचिन्तायां नैरयिकतिर्यग्योनिकस्त्रीदेवदेवीनां प्रतिषेधः, तासामुत्कृष्टस्थितिघु नरकादिषूत्पत्त्वभावात् , मनुष्वसूत्रे 'सम्मदिट्ठी पा मिच्छादिट्ठी वा' इति, इह द्वे उत्कृष्टे आयुषी, तद्यथा-सप्तमनरकपृथिव्यायुर्वभाति तदा मिथ्यादृष्टिः, यदा पुनरनुत्तरसुरायुस्तदा सम्यग्दृष्टिः, 'कण्हलेसे वा' नारकायुर्वन्धकः 'सुक्कलेसे वा' इति अनुत्तरसुरायुर्वन्धकः सम्यग्दृष्टिरप्रमत्तयतिः, उस्कृष्टसङ्क्लिष्टपरिणामो नारकायुर्वन्धकस्तत्त्रा दीप अनुक्रम [५४५] keeeeeee ~985~ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२३], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. योग्यविशुज्यमानपरिणामोऽनुत्तरसुरायुर्वन्धकः, मानुषी तु सप्तमनरकपृथिवीयोग्यमायुन बध्नाति अनुत्तरसुरायुस्तु बनातीति तत्सूत्रे सर्व प्रशस्तं ज्ञेयं, इह अतिविशुद्ध आयुर्वन्धमेव न करोतीति तत्प्रायोग्यग्रहणं, शेषं कण्ठ्यम् ॥ इतिश्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां त्रयोविंशतितम कर्मप्रकृत्याख्यं पदं परिसमाप्तम् ॥ Rel२४कर्म न्धपद प्रत सूत्रांक [२९८] ॥४९॥ अथ चतुर्विंशतितमं कर्मप्रकृतिबन्धपदं ॥ २४ ॥ दीप अनुक्रम [५४५] व्याख्यातं प्रयोविंशतितमं पदं, सम्प्रति चतुविशतितममारभ्यते-तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे कर्मवधादिरूपः परिणामविशेषश्चिन्तितः, स एव वक्ष्यमाणेष्वपि चतुर्पु पदेषु कचित् चिन्त्यते, तत्र चतुर्विशतितमस्य | पदस्सेदमादि सूत्रम् कति णं मंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, गो०! अढ कम्मपगडीओ पण्णताओ, तं०-णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं, एवं नेरइयाणं जाव बेमाणियाणं । जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीतो बंधह, गो०1 सत्तविहबंधए वा अवविह० छबिहबंधते वा, नेरइए णं मंते ! गाणावरणिज कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीतो बंधति, गो! सचविहबंधए वा अवविहरू, एवं जाव वेमाणिते, णवर मणुस्से जहा जीवे, जीवा णं भंते ! णाणावरणिज कम्म ॥४९॥ अत्र पद (२३) "कर्मप्रकृति" परिसमाप्तम् अथ पद (२४) "कर्मप्रकृतिबन्ध" आरब्धम् ~986~ Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९९] दीप अनुक्रम [५४६] RaeeC6CO बंधमाणा कति कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० सवेषि ताव होज सत्तविहबंधगा य अङ्कविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहवंधगा य छविहबंधगे य अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य छविहबंधगा य, णेरइया ण मैते ! णाणावरणिज कर्म बंधमाणा कति कम्मपगडीतो बंधति ? गो० सदेवि ताव होजा सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहर्वधगा य अढविहबंधगे य, अहवा सचविहबंधगा य अद्वविहबंधगा य तिणि भंगा, एवं जाव थणियकुमारा, पुढविकाइया णं पुच्छा, गो! सत्तविहबंधगावि अट्टविहबंधगावि एवं जाव वणफइकाइया, विगलाणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तियभंगो सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य, मणसा णं भंते ! णाणावरणिज्जस्स पुच्छा, गो! सवेवि ताव होज्जा सचविहवंधगा १ अहया सत्तविहवंधगा य अढविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य ३ अहवा सचविहबंधगा य छबिहबंधए य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य छबिहबंधगा य ५ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगे य छबिहबंधगे य ६ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहवंधगे य छबिहबंधगा य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहवंधगा य छबिहबंधगे य ८ अहवा सत्चविहबंधगा य अढविहबंधगा य छबिहबंधगा य ९ एवं एते नव भंगा, सेसा वाणमंतरादिया जाव बेमाणिता जहा नेरइया सचविहादिबंधगा भाणिता सहा भाणितवा, एवं जहा णाणावरणं बंधमाणा जहिं भणिता दसणावरणपि बंधमाणा तहिं जीवादीया एगत्तपोहुचेहिं भाणितत्वा, बेयणिजं बंधमाणे जीवे कति०, गो०! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए वा, एवं मासेवि, सेसा नारगादीया सचवि० अढविहबंधगा जाव येमाणिते, जीवा ] AREarathinintimational ~987~ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९९ ] दीप अनुक्रम [५४६] प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ॥૪૨॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ २९९] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Ja Eucation Intention भंते! वेदणिज्जं कम्म पुच्छा, गो० ! सबेवि ताव होआ सत्तविहगंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधया य छविहवंघर म अहवा सत्तविहबंघमा य अट्ठविहबंधगा य एमविहगंधगा य छविहबंधना य अबसेसा, नारगादीया जाब वेमाणिता जहिं णाणावरणं बंधेति तहिं भाणिता, एवं मणूसा णं भंते ! वेदणिजं कम्मे बंधमाणा कति कम्मपगडीतो बंधवि १, गो० ! सवेवि ताव होऊ सत्तविहबंघगा य एगवि० १ अहवा सतविहबंधगा य एगवि० अट्टविहबंध प २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठवि० ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंध य ४ अहवा सविहगंधगा य एगविह० छविह० ५ अहवा ससविहबंधगा य एगवि० अट्टविहबंधते य छविबंधते य ६ अहवा सचविहबंधगा य एगविहगंधगा य अडविहबंधते य छविदबंघगा य ७ अहवा ससविहबंधगा य एगवि० गा व अट्ठविहनं० विषय ८ अषा सत्तविहबंधगा य एगवि० अट्टवि० छविह० ९ एवं एए नव भंगा भाणिया, मोहणिअं बंधमाणे जीवे कति० १, गो० जीवेगिंदियवओ तियमंगो, जीवेगिंदिया सत्तविहबंधगावि अद्वविहबंधनावि, जीवे नं भंते! आउ कम्मं बंघमा कति कम्म० १, मो० ! नियमा अट्ठ एवं नेरहए जाव वैमाणिए एवं पुहुत्तेणवि, जम्मगोयअंतराइयं बंघमाणे जीवे कति० १, गो० ! जीवा णाणावरणिज्जं बंघमाणे जाहिं बंघति ताहिं माणितवो, एवं नेरइएन, जाव वैमाणिए, एवं विभाणि ॥ ( सूत्रं २९९ ) पण्णवणाए भगवईए चउवीसतिमं पयं समत्तं ॥ 'करणं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ' इत्यादि, प्रागुपन्यस्तस्यालापकत्वे होपन्नासो विशेषाभिधानार्थः, एवमुत्तरे For Parts Only ~988~ २४ कर्मच न्धपदं ॥४९२ ॥ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२९९ ] दीप अनुक्रम [५४६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-] मूलं [ २९९] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. व्वपि पदेषु भावनीयं, संप्रति किं कर्म बशन् कानि कर्माणि बनातीति भन्थसम्बन्धं चिचिन्तयिषुः प्रथमतो ज्ञानावरणीयेन सह सम्बन्धं चिन्तयति- 'जीवे णं भंते ! णाणावरणियं कम्मं बंधमाणे कर कम्मपगडीओ बंध' इत्यादि सुगमं, नवरं सप्तविधबन्धक आयुर्वन्धकाभावकाले अष्टविधबन्धक आनुरपि बञ्जन् पथिकन्धको मोहा युर्वन्धाभावे, स च सूक्ष्मसम्परायः उक्तं च-- "सत्तविहबंधना होंति पाणिणो आउवज्जगाणं तु । तह मुहुमसंपराया छविहर्षधा विणिदिट्ठा ॥ १ ॥ मोहाउयवज्जाणं पवडीणं ते उ बंधना मणिवा ॥" [ सप्तविधयन्धका भवन्ति प्राणिन आयुर्वर्जानाम् । तथा सूक्ष्मसंपरायाः षडिधबन्धा विनिर्दिष्टाः ॥ १ ॥ मोहायुर्वर्णानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः ] इति, एकविधबन्धकस्तु न लभ्यते, एकविधबन्धका हि उपशान्तकषायादयः, तथा चोक्तम्- 'उघसंतखीयमोहा केवलिणो एगविहनंधा । ते पुणदुसमयद्विहयस्स बंधका न उण संपरायस्स ॥" [ उपशान्तक्षीणमोहाः केवलिन एकविधबन्धाः । ते पुनर्द्विसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः संपरायस्य ]न चोपशान्तकपायादयो ज्ञानावरणीयं कर्म बभन्ति तद्वन्धस्य सूक्ष्मसम्परायचरमसमय एव व्यवच्छेदात्, किन्तु केवलं सातावेदनीयमिति ॥ एतदेव नैरयिकादिदण्डकक्रमेण चिन्तयति- 'नेरहए णं मंते' इत्यादि, इह मनुष्यवर्जेषु शेषेषु पदेषु सर्वेष्वपि द्वावेव भङ्गको द्रष्टव्यो सप्तविधबन्धको वा अष्टविधबन्धको वा इति, न तु तृतीयः षड्विधबन्धक इति, तेषु सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानासम्भवात्, मनुष्यपदेषु त्रयोऽपि वक्तव्याः, तत्र सूक्ष्मसम्परायत्वसम्भवात् तथा चाह- 'एवं जाव बेमाणिए, नवरं For Pale Only ~989~ nirary org Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९९] प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती. ॥४९॥ दीप अनुक्रम [५४६] मणूसे जहा जीये' इति । उक्त एकत्वेन दण्डकः, सम्प्रति बहुत्वेनाह-'जीवा णं भंते' इत्यादि, इह जीवाः सप्तवि- २४कर्मबधबन्धकाः अष्टविधवन्धकाश्च सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते, षडूक्धिबन्धकस्तु कदाचित्सर्वथा न भवति, पण्मासान् या-1 वत् उत्कर्षतस्तदन्तरस्य प्रतिपादनात् , यदापि लभ्यते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतं, तत्र यदैकोऽपि न लभ्यते तदा प्रथमो भगः, यदा त्वेको लभ्यते तदा द्वितीयो, बहूनां लाभे तु तृतीय इति, नैरयिकाः पड्विधबन्धका न भवन्ति अष्टविधवन्धका अपि कादाचित्काः, तत्र यदेकोऽप्यष्टविधवन्धको न लभ्यते तदा सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सप्तविधबन्धका इति प्रथमो भगः, यदा त्वेकोऽष्टविधबन्धकस्तदा द्वितीयो यदा तु बहव|स्तदा तृतीय इति, एतदेव भजत्रिकं दशखपि भवनपतिषु भावनीयं, पृथिव्यादिषु पञ्चस सप्तविधबन्धका अपि अष्ट-IN विधवन्धका अपीत्येक एव मङ्गोऽष्टविघबन्धकानामपि सदैव तेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यक-IN पञ्चेन्द्रियसूत्रेषु भङ्गत्रिकं नैरयिकवत् , मनुष्यसूत्रे भङ्गनवकमष्टविधवन्धकस्य षड्डिधवन्धकस्य च कदाचित् सर्वथाप्यभावात् , तत्राष्टविधषविधवन्धकाभावे सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सप्तविधबन्धका इति प्रथमो भङ्गः, सप्तविधबन्धकानां सदैव बहुत्वेन प्राप्यमाणत्वात् , एकाष्टविधवन्धकभावे द्वितीयः सप्तविधवन्धकाश्चाष्टविधबन्धकश्च, बद्दष्टविधबंधक-N ॥४९॥ भावे तृतीयः सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबंधकाश्च, एवमेवाष्टविधवन्धकाभावे षइविधवन्धकपदेनाप्येकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ भङ्गाविति द्विकसंयोगे चत्वारो भङ्गाः, त्रिकसंयोगेऽप्यष्टविधबन्धकषविधवन्धकपदयोः प्रत्येकमेकवचनबहुवचना ~990~ Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९९] e neKE भ्यां चत्वार इति सर्वसङ्ख्यया नव, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका नैरयिकवत् , यथा ज्ञानावरणीयं चिन्तितं तथा दर्शनावरणीयमपि चिन्तयितव्यं, वेदनीयचिन्तायां एकविधवन्धक एव इति उपशान्तमोहादि, शेषं प्राग्वत्, मनुष्यपदविषयचिन्तायामपि त एवं प्रागुक्ता नव भङ्गाः, सप्तविधबन्धकानामेकविधबन्धकानां च सदैव बहुत्वेनायस्थिततया भङ्गान्तरासम्भवात् , मोहचिन्तायां जीवपदे पृथिव्यादिषु पदेषु च प्रत्येकं एक एव भङ्गा-सप्तविधवन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपीति, उभयेषामपि सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , पहविधवन्धकस्तु मोहनीयबन्धको न | भवति, मोहनीयबन्धो बनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानकं यावत्, पविधवन्धकस्तु सूक्ष्मसंपराय इति, आयुर्वन्धकस्तु नियमादष्टविधवन्धक इति तचिन्तायामेकवचने बहुवचने च सर्वत्राभाकं, नामगोत्रान्तरायसूत्राणि ज्ञानावरणीयसूत्रवत् ।। इति श्रीमलयगिरिविर० कर्मबन्धाख्यं चतुविशतितमं पदं समाप्तम् ॥ २४ ॥ अथ पञ्चविंशतितमं कर्मवेदाख्यं पदं ॥२५॥ सम्प्रति पञ्चविंशतितममारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पं०१, गो० अट्ट कम्मपगडीतो पण्णचाओ तं०-णाणावरणिशं जाब अंसराइयं एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्म बंधमाणे कति कम्मपगडीतो वेदेति ?, गोनिय Ststreeseae दीप अनुक्रम [५४६] traNP se KER अत्र पद (२४) "कर्मप्रकृतिबन्ध" परिसमाप्तम् अथ पद (२५) “कर्मवेद" आरब्धम् ~991~ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ece प्रत सूत्रांक [३००]] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. २५कर्मवे. देपदं ॥४९४॥ दीप अनुक्रम [५४७] मा अट्ट कम्मपगडीतो वेदेति, एवं नेरइए जाव वेमाणिए, एवं पुहुनेणवि, एवं वेदणिज्जवज जाव अंतराइयं । जीवे गं भंते ! वेदणिजं कर्म बंधमाणे कति कम्मपगडीतो वेदेति !, गो! सत्तविहवेदए वा अढविहवेदए वा चउबिहवेदए वा, एवं मणूसेवि, सेसा नेरहयाति एगचेण पुहुत्तेणवि नियमा अट्ठ कम्मपगडीओ वेदंति जाव वेमाणिया, जीवाणं मंते ! वेदणिजं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीतो घेदेति , गो०1 सबेवि ताव होजा अढविहवेदगा य चउबिहवेदगा य? अहवा अढविहवेदगा य चउविह० सत्तविहवेद्गे य २ अहवा अट्टविहवेदगा ब चउवि० सत्तवि० ३, एवं मसावि भाणियबा ॥ (सूत्रं ३०.) पण्णवणाए भगवईए कम्मवेदणार्म पणवीसविमं पर्य समतं ॥ २५॥ 'कइ णं भंते कम्मपगडीओ' इत्यादि गतार्थ, सम्प्रति किं कर्म बनन् कति कर्मप्रकृतीवेदयते इति चिन्तयतिजीवे गंभंते !' इत्यादि सुगम, वेदनीयसूत्रे 'सत्तविहवेयए वा अट्टविहवेयए(या) वा चउविहवेयए(या) वा इति, सस-Pel विधवेदक उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा, तयोर्मोहनीयोदयाभावात् , अष्टविधवेदका मिथ्यारयादयः सूक्ष्मसम्परायान्ताः, तेषामवश्यमष्टानामपि कर्मणामुदयभावात् , चतुर्विधवेदकः सयोगिकेवली, तस्य घातिकर्मचतुष्टयोदयाभावात्, बहुवचने सप्तविधवेदकाः कादाचित्का इति भनत्रयम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां पञ्चविंशतितम | कर्मवेदाख्यं पदं समासम् ॥ २५ ॥ ॥४९४॥ अत्र पद (२५) "कर्मवेद" परिसमाप्तम् ~992 ~ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०१] दीप अनुक्रम [५४८] पदं [२६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. isesesesenteen “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३०१] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः can Internationa अथ षडूविंशतितमं कर्मवेदबन्धाख्यं पदं ॥ २६ ॥ - 20 अधुना पविंशतितममारभ्ये, तत्र चेदमादिसूत्रम् - कति णं. भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, गो० ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं०- णाणा० जाव अंतराइयं, एवं नेरयाणं जाव वैमाणियाणं, जीवे णं भंते ! गाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छविबंधए वा एगविहबंधए वा, नेरइए णं भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्म० बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अट्ठवि०, एवं जाव वैमाणिते, एवं मणूसे जहा जीवे, जीवा णं भंते ! णाणावरणिॐ कम्मं वेदेमाणा कति० । कम्मपगडीतो बंधंति !, गो० ! सवेवि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अट्ठविह० १ अहवा सतविबंधगाय अट्टविहबंधगा य छविबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छविबंधगाय ३ अह वा सत्तविहबंधना य अट्ठचिह्नबंधगा य एगविहबंधए य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य ५ अहवा सत्तविधगाय अट्ठवि० छविबंधए य एगविहबंधए य ६ अहवा सत्तविधगा य अट्ठवि० छबिहबंधए य एगविधगाय ७ अहवा सत्तविधगा य अट्ठवि० छविह० एगविहबंधए य ८, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठ० For Parts Only अथ पद (२६) "कर्मवेदबन्ध" आरब्धम् ~993~ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०१] दीप अनुक्रम [५४८] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥४९५ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३०१] उद्देशक: [-] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eucation International छवि एगविह० ९, एवं एते नव भंगा, अवसेसाणं एनिंदियमणूसवज्जाणं तियभंगो जाव वैमाणियाणं, एगिंदियाण सतविधगाय अट्टविहवं, मणूसाणं पुच्छा, गो० ! सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहगंधगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य छविहबंधए य४, एवं छविहबंधएणवि समं दो गंगा, एगविहधरणवि समं दो भंगा, अहवा सत्तविहबंधगा व अट्ठविहबंधए य छविहबंधए य चउभंगो १ अहवा सत्तविधगा य अट्टविहबंधए य एगविहबंधगे य उमंगो २, अहवा सत्तविहबंधगा य छविबंध य विबंध यचभंगो ३ अहवा सत्तविहबंधगा य अविबंध य छविबंध व एगविहबंधए य मंगा अङ्क, एवं एते सत्तावीसं भंगा, एवं जहा जाणावरणिअं तहा दंसणावरणिअंपि अंतराइयंपि, जीवे णं भंते ! वेदणिजं कम्मं वेदेमाकति कम्मपगडीतो बंधति १, गो० 1 सत्तविहबंधते वा अट्ठविहांघते वा छविहबंधए वा एगविहबंधए वा अधए वा, एवं मणूसेवि, अवसेसा णारयादीया सत्तविह० अद्वविह० एवं जाव वैमाणिता । जीवा णं भंते । वेदणिजं कम्मं वेदेमाणा कति ० ति १, गो० ! सबेवि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य अहवा सत्तविबंधगाय अवि एगवि० छबिहबंधगे य, अहवा सत्तविधगा य अविबंध० एगविहबंध० छविहबंधगा य, अबंधगेणवि समं दो मंगा भाणितवा, अहवा सचविहबंधगा य अहिबंध एगविहबंध • छविबंध य अबंधगे य चभंगो, एवं एए नव भंगा, एगिंदियाणं अभंगतं, नारगादीणं तियभंगा जाव वेमाणियाणं, नवरं मणूसाणं पुच्छा, सविताब हो सचविधगा एगविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधना य एगविहबंधगा य छविबंधते य अट्टविहवं For Parts Only ~994 ~ 2039302029 20202 २६ कर्मवेदबन्धपदं सू. ३०१ ॥४९५|| Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०१] दीप अनुक्रम [५४८] धते य अबंधते य, एवं एते सत्तावीसं भंगा भाणितत्वा, एवं जहा वेदणिज्जं तहा आउयं नाम गोयं च भाणितई, मोहI णिशं वेदेमाणे जहा णाणावरणि सहा भाणियई ॥ (मूत्र ३०१)पण्ण छवीसतिम पर्य समत्तम् ॥ २६ ॥ 'कति णं भंते । इत्यादि गतार्थ, सम्प्रति किं कर्म वेदयमानः काः कर्मप्रकृतीभातीत्युदयेन सह बन्धस्य सम्बन्ध चिचिन्तयिषुरिदमाह-'जीवे णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं वेएमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधई' इत्यादि सुगम, नवरं ज्ञानावरणीयं कर्म वेदयमान एकविधबन्धकः उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा न तु सयोगिकेवली, तस्य ज्ञानावरणीयोदयाभावात् , बहुवचनचिन्तायां षड्विधवन्धकाः सूक्ष्मसम्पराया एकविधवन्धका उपशान्तमोहक्षीणमो हाः कादाचित्का एकत्वादिना च भाज्या इत्युभयेषामप्यभावे सप्तविधवन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपीत्येको IN भङ्गो, द्वयानामपि सदेव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , ततः षडविधवन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ भको, एवमेव द्वौ भङ्गावेक विधवन्धकप्रक्षेपेऽपि, उभयोरपि युगपत् प्रक्षेपे पूर्ववञ्चत्वार इति सर्वसाक्षया नव, नैरयिकादिषु तु पदेग्वेकेन्द्रियमनुष्यवर्जेषु बहुवचनचिन्तायां भङ्गत्रिक, अष्टविधबन्धकानां कादाचित्कतया एकत्वादिना भाज्य-19 तया च लभ्यमानत्वात् , एकेन्द्रियेष्वभङ्गक, सप्तविधबन्धका अष्टविधबन्धका अपीति, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन प्राप्यमाणत्वात् , मनुष्येषु तु सप्तविंशतिर्भङ्गाः, अष्टविधवन्धकपड्डिधवन्धकएकविधबंधकानां कादाचित्कतया एकवादिना भाज्यमानतया लभ्यमानत्वात् , तत्रामीपामभावे सप्तविधवन्धका इसेको मङ्गः, ततोऽष्टविधवन्धकपदप्र-R semeseseseaeseseceaeededese ~995~ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०१] प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती . ॥४९६॥ दीप अनुक्रम [५४८] क्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ द्वौ, षड्विवन्धकप्रक्षेपे द्वौ, एकविधबन्धकप्रक्षेपे सति सप्त, ततोऽष्टविधवन्धक- २६कमेवेषड्विधवन्धकपदप्रक्षेपे चत्वारः, अष्टविधवन्धकैकविधवन्धकपदप्रक्षेपे चत्वारः, षड्विधबन्धकएकविधवन्धकपदप्र | दवन्धपद क्षेपेऽपि चत्वारः, एकोनविंशतिः, ततोऽष्टविधवन्धकषड्विघबन्धकैकविधबन्धकपदानां युगपत् प्रक्षेपेऽष्टाविति सप्त-IN विंशतिः, वेदनीयसूत्रे एकविधवन्धकः सयोगिकेवल्यपि, तस्यापि वेदनीयोदयबन्धसम्भवात् , अबन्धकोऽयोगिकेवली, तस्य योगाभावतो वेदनीयं वेदयमानस्यापि तद्वन्धासम्भवाद्, वेदनीयसूत्रे एकवचनबहुवचनचिन्तायां जीवपदे । नव भकाः तत्र सप्तविधवन्धकाष्टविधवन्धकैकविधबन्धकानां सदैव बद्दत्वेन लभ्यमानत्वात् बहुवचनात्मके इतरप-1 दद्वयाभावे एकः, ततः षड्विधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ एवमेव द्वावेकविधवन्धकपदप्रक्षेपे चत्वार उभयपदप्रक्षेपे इति । मनुष्यपदे सप्तविंशतिः, तत्र हि सप्तविधबन्धका एकविधबन्धका एकेन बहुत्वेन सदावस्थिता इतरे तु त्रयोऽप्यष्टविधबन्धकाः षड्विधवन्धकाः अवन्धकाश्च कादाचित्का एकत्यादिना च भाज्याः, ततस्तेषामभावे | |सप्तविघबन्धका अप्येकविधवन्धका अपीसेको भना, ततोऽष्टविधवन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां दो द्वौ पविधबन्धकपदप्रक्षेपे द्वावेकविधबन्धकपदप्रक्षेपे इति षट्, तथा त्रयाणां पदानां त्रयो द्विकसंयोगा एकैकस्मिन् द्विकसंयोगे एकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वार इति द्विकसंयोगे द्वादश त्रिकसंयोगेऽष्टाविति सर्वसङ्ख्यया सप्तविंशतिः, एवमायुनामगोत्रसूत्राण्यपि भावनीयानि, मोहवेदनीयं कर्म वेदयमानो जीवः सप्सविधबन्धकोष्ष्टविधबन्धकः षड़ iye ~996~ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०१] दीप अनुक्रम [५४८] विधवन्धको वा, सूक्ष्मसम्परायावस्थायामपि मोहनीयवेदनसम्भवात् , एवं मनुष्यपदेऽपि वक्तव्यं, नरकादिषु तु पदेषु सप्तविधवन्धकोऽष्टविधवन्धको वेत्येवं वक्तव्यं, सूक्ष्मसम्परायत्वाभावतः षड्विधबन्धकत्वासम्भवात्, बहुवचनचिन्तायां जीवपदे भात्रिकं, तत्र सूक्ष्मसम्परायाः कादाचित्का इतरे च द्वये सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते इति षड्विधबन्धकपदाभावे सप्तविधवन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपीत्येको भङ्गः, ततः षविधवन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वावेतो भङ्गाविति, नैरयिकादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु सप्तविधबन्धकाः सदा बहुत्वेनावस्थिताः, अष्टविधवन्धकास्तु कादाचित्का एकत्वादिना च भाज्या इति, अष्टविधबन्धकपदाभावे सप्तविघबन्धका इत्येको भङ्गः, ततोऽष्टविधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वाविति, पृथिव्यादिषु तु पञ्चखप्यभङ्गक सप्तविधवन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपीति, उभयेषामपि तेषु सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियेषु न्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु च नैरयिकवत् भङ्गत्रिकं, मनुष्येषु नव भकाः, तत्र सप्तविधबन्धका इत्येको भङ्गस्ततोऽष्टविधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ द्वौ षड्विधबंधकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वारः उभयपदप्रक्षेपे इति, तथा चाह-"मोहणिजं वेएमाणे जहा [बंधे] णाणावरणिज तहा भाणियब'मिति ॥ इति |श्रीमलयगिरिविरचितायां षड्विंशतितमं वेदवन्धाख्यं पदं समाप्तम् ।। anhebra awranasurary.orm अत्र पद (२६) "कर्मवेदबन्ध परिसमाप्तम् ~997~ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३०२] दीप अनुक्रम [५४९] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥४९७॥ पदं [२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [ ३०२] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internation अथ सप्तविंशतितमं कर्मप्रकृतिवेदवेदपदं ॥ २७ ॥ 699600 संप्रति सप्तविंशतितममारभ्यते, तत्रेदमादिसूत्रम् - कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पं० १, गो० ! अट्ठ - पाणा० जाव अंतराइयं, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं, जीवे भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीतो वेदेति १, गो० ! सत्तविहवेयए वा अट्ठविह्वेयए वा, एवं सेवि, अवसेसा एगतेवि पुडुचेणवि णियमा अट्ठ कम्मपगडीतो वेदेति जाव वैमाणिया, जीवा णं भंते ! णाणावरणि वेदेमाणा कति कम्मपगडीतो वेदेति ?, गो० ! सबेचि ताब होज्जा अट्ठविहवेदगा, अहवा अडविहवेदगाय सतबिहवेदगे य अहवा अविवेदगा य सतवि०, एवं मणूसावि, दरिसणावरणिज्जं अंतराइयं च एवं वेब भाणितवं वेदणिज्जं आउयनामगोतातिं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेएति १, गो० ! जहा बंधगवेदगस्स वेयणिजं तहा भाणितवाणि, जीवे णं भंते ! मोहणिज्जं वेदेमाणे कति कम्मपगडी तो वेदेति १, गो० ! नियमा अट्ठ कम्मपगडीतो वेदेति, एवं नेरतिए जाव बेमाणिते, एवं पुडुत्तेवि ( सूत्रं ३०२ ) ।। पण्णवणाए भगवईए सत्तावीसइमं पयं समचं ॥ २७ ॥ 'कई णं भंते!' इत्यादि गतार्थ, सम्प्रति किं कर्म वेदयमानः कति कर्मप्रकृतीर्वेदयते इत्युदयस्योदयेन सह सम्ब न्धं चिन्तयति - 'जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेएमाणे कद कम्मपगडीओ वेएर' इत्यादि, तत्र सप्तविधत्रे For Penal Use Only अथ पद (२७) "कर्मप्रकृतिवेदवेद" आरब्धम् ~998~ २७ कर्मवेदवेदपर्द सू. ३०२ ॥४९७॥ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०२] दीप अनुक्रम [५४९] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३०२] उद्देशक: [-] . आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दक उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा तयोर्मोहनीयोदयासम्भवात् शेषस्तु सूक्ष्मसंपरायादिरष्टविधवेदकः, एवं मनुष्यपदेऽपि वाच्यं, नैरयिकादयस्तु नियमादष्टविधवेदकाः, बहुवचनचिन्तायां जीवपदे मनुष्यपदे च भङ्गत्रिकं, तत्र सर्वेऽपि तावद् भवेयुः अष्टविधवेदका इत्येको भङ्गः, ततः सप्तविधवेदकस्यैकस्य भावे द्वितीयो बहूनां भावे तृतीयः, शेषेषु तु नैरविकादिषु पदेषु अभङ्गमष्टविधवेदका इति, सप्तविधवेदकत्वस्य तत्रासम्भवात् एवं दर्शनावरणीयान्तरायसूत्रेऽपि वक्तव्यं, वेदनीयसूत्रे जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकमष्टविधवेदको वा सप्तविधवेदको वा चतुविधवेदको वेति वक्तव्यं, शेषेषु तु नैरयिकादिषु अष्टविधवेदक इत्येकः, तेषामुपशान्तमोदत्याद्यवस्थासम्भवात्, तत्रैव वेदनीयसूत्रे बहुवचनचिन्तायां जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकं भङ्गत्रिकं तत्राष्टविधवेदका खेलेको भङ्गः, एष सर्वथा सप्तविधवेदकानामभावे, ततः सप्तविधवेदकपदप्रक्षेवे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ भङ्गाविति, शेषेषु तु नैरयिकादिषु स्थानेष्यभङ्गकं अष्टविधवेदका इति एवमायुर्नामगोत्रसूत्राण्यपि भावनीयानि, मोहनीयं कर्म वेदयमानो नियमादष्टविधवेदक इति, जीवादिषु पञ्चविंशती पदेष्वेकवचनचिन्तायां बहुवचनचिन्तायां च सर्वत्रापि अभङ्गकं अष्टौ कर्मप्रकृतीर्वेदयते वेदयन्ते वा ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्र० वेदवेदाख्यं सप्तविंशतितमं पदं समाप्तम् ॥ २७॥ Education Intention अत्र पद (२७) "कर्मप्रकृतिवेदवेद" परिसमाप्तम् For Parts Only ~ 999~ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३०३ -३०४] + गाथा: दीप अनुक्रम [५५० -५५३] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥ ४९८ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - दार [-1, मूलं [ ३०३] + गाथा: पदं [२८]. उद्देशक: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अथ अष्टविंशतितमं आहारपदं ॥ २८ ॥ तदेवमुक्तं वेदवेदाख्यं सप्तविंशतितमं पदं, सम्प्रत्यष्टाविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे | नारकादिगतिसमापन्नानां कर्मवेदनापरिणाम उक्तः, इह त्वाहारपरिणाम इति, तत्र चेमे सङ्ग्रहणिगाथेसच्चित्ता १ हारट्ठी २ केवति ३ किं वावि ४ सङ्घतो चेव ५ । कतिभागं ६ सबै ७ खलु परिणामे ८ चैव बोद्धवे ॥ १ ॥ एर्गिदियसरी रादी लोमाहारो तहेव मणभक्खी । एतेसिं तु पदाणं विभावणा होंति कातवा || २ || नेरइया णं भंते! किं । सचिताहारा तिहारा मीसाहारा १, गो० ! नो सचिताहारा अचित्ताहारा नो मीसाहारा, एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया, ओरायिसरीरा जाव मणूसा सचिताहारावि अचिचाहारावि मीसाहारावि । नेरइया णं मंते ! आहारट्ठी १, हन्ता आहारडी, नेरइयाण मंते ! केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जति १, गो० ! नेरइयाणं दुविधे आहारे पण्णत्ते, तं०-आभोगनिद्यतिते य अणाभोगनिवत्तिते य, तत्थ णं जे से अणाभोगनिवत्तिते से णं अणुसमयमविरहिते आहार समुप्पञ्जति, तत्थ णं जे से आभोगनिवत्तिते से णं असंखिज्जसमतिए अंतोमुहुत्तिते आहारट्टे समुप्पज्जति, नेरइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति, गो० ! दवतो अणतपदेसियातिं खेचओ असंखेजपदेसोगाढातिं कालतो अष्णयरद्वियाति भावओ वण्णमंतातिं गंधमंताई रसमंताई फासमंताई, जाई भावतो वण्णमंताई आहारेति ताई किं एगवण्णातिं आहारेति जाव किं पंचवण्णाई Education International अथ (२८) आहार पदे उद्देशक: (१) आरब्धः For Pasta Lise Only अथ पद (२८) "आहार" आरब्धम् ~1000~ ১৬১৬/৩ 20 २८आहा रपदे उहे शः १नारकाणामा४ हारादि सू. ३०३ ॥ ४९८ ॥ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] A गाथा: आहारैति ?, गो०1 ठाणमम्गणं पहुच एगवणाईपि आहारेंति जाव पैचवष्णाईपि आहारैति, विहाणमम्गणं पडुच्च कालवण्णाईपि आहारैति जाव सुकिल्लाईपि आहारेंति, जातिं वण्णतो कालवणाति आहारेति ताई कि एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आ० संखिज्ज असंखिजगुणकालाई आ. जाव अर्णतगुणकालाई आ०,गो०! एगगुणकालाईपि आ० जाव अर्णतगुणकालाईपि आ० एवं जाव मुकिल्लाई, एवं गंधतोवि रसतोवि, जाई भावओ फासमंताई ताई नो एगफासाई आoनो दुफासाई आoनो तिफासाई आहारैति चउफासाई आहारैति, जाव अट्ठफासाइपि आ०, विभागमग्गणं पडुछ कक्खडाइपि आ० जाव लुक्खाई, जाति फासतो कक्खडातिं आ० ताई कि एगगुणकक्खडाई आ० जाव अणंतगुणकक्खडाई आ०१, गो०! एगगुणकक्खडाईपि आ० जाव अणंतगुणकक्खडाईपि आ०, एवं अहवि फासा माणितबा, जाब अणतगुणलुक्खाइपि आ०, जाति भंते ! अर्णतगुणलुक्खाई आ० ताई किं पुट्ठाई आ० अपुट्ठाई आ०१, गो! पुढाई आ० नो अपुढाई आ०, जहा भासुद्देसए जाव णियमा छद्दिसि आ०, ओसणं कारणं पडच वण्णओ कालनीलातिं गंधओ दभिगंधाति रसओ तित्तरसकड्डयाई फासओ कक्खडगुरुयसीयलुक्खाई तेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विपरिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसदत्ता अण्णे अपुवे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाइता आयसरीरखेनोगाढे पोग्गले सबप्पणयाए आहारं आहारैति । नेरइया णं भंते ! सबओ आहारति सबओ परिणामंति सबओ ऊससंति सबओ नीससंति अभिक्खणं आहारैति अभिक्खणं परिणामंति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति आहच आहारैति आहच्च परिणामेति आहच ऊससंति आहच नीससंति , हंता! गो। णेरहया सब दीप अनुक्रम [५५०-५५३] Cocotnese ~ 1001 ~ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३ Mor प्रज्ञापनाया:मलय० वृत्ती. २८आहारपदे उद्दे| शः१असुरादीनामाहारादि सू. ३०४ -३०४ ॥४९९॥ तो आहारैति एवं तं चेव जाव आहच्च नी। नेरइया णं भंते ! पोग्गले आहारचाते गिण्हति ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारेति कतिभागं आसाएंति ?, गो! असंखेजतिभागं आ० अणंतभागं अस्साएंति, नेरझ्या णं भंते ! जे पोग्गले आहारचाते गिण्हंति ते किं सत्वे आहारेंति नो सवे आहारैति?, गो. ते सत्वे अपरिसेसए आहारैति । नेरइया णं भंते जे पोग्गला आहारत्ताए गिण्हंति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो २ परिणामेति !, गो०! सोतिदियत्ताते जाव फार्सिदियचाते अणिहत्ताले अकंतत्ताए अण्यिाहत्ताए अमणुण्णचाए अमणामत्ताते अणिच्छियचाते अभिज्झित्ताए अहत्वाते नो उद्धचाए दुक्खचाते नो सुहत्ताते एतेसि भुज्जो२ परिणमंति (सूत्रं ३०३) असुरकुमारा णं भंते ! आहारट्ठी!, हंता ! आहारट्टी, एवं जहा नेरइयाणं तहा असुरकुमाराणवि भाणितवं, जाब तेसिं भुञ्जो २ परिणमंति, तत्थ गंजे से आभोगनिवचिते से णं जहण्णेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं सातिरेगवाससहस्सस्स आहारट्टे समुप्पजद, ओसणं कारणं पदुच वण्णतो हालिहसुकिल्लातिं गंधतो सुम्भिगंधाति रसतो अंबिलमहुराति फासओ मउयलहुयनिझुण्हार्ति, तेर्सि पोराणे वण्णगुणे जाव फासिदियचाते जाव मणामताते इच्छियचाते भिज्झियचाते उद्धृत्ताते नो अहत्ताए सुहचाए नो दुहत्ताए एतेसि भुजओ २ परिणमंति, सेसं जहा नेरहयाण, एवं जाब थणियकुमाराणं, गवरं आभोगनिवत्तिते उकोसेणं दिवसपुहुत्तस्स आहारट्टे समुप्पजति (सूत्रं ३०४) . गाथा: CSEASESee R४९९॥ दीप अनुक्रम [५५०-५५३] 'सचित्ताहारट्ठी' इत्यादि प्रथमोऽधिकारः सचिचपदोपलक्षितः, स चैवम्-'नेरइया णं भंते! किं सचिचाहारा ~ 1002~ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३०३ -३०४] + गाथा: दीप अनुक्रम [५५० -५५३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, पदं [२८], उद्देशक: [१], मूलं [ ३०३ ३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अचित्ताहारा इत्यादि १, द्वितीय आहारार्थिन इति २, तृतीयः 'केवइय'त्ति कियता कालेन आहारार्थः समुत्पद्यते इत्यादिरूपः ३, चतुर्थः किमाहारमाहारयन्तीतिपदोपलक्षितः ४ पञ्चमः सर्वत इतिपदोपलक्षितः, स चैवम्'नेरइया णं सबतो परिणामंती'त्यादि ५ चेवशब्दः समुच्चये, 'कइभागं'ति गृहीतानां पुद्गलानां कतिभागमाहारयन्तीत्येवमादिः षष्ठोऽधिकारः ६, 'तथा सवे' इति यान् पुद्गलान् आहारतया गृह्णन्ति तान् किं सर्वान् अपरिशेषान् आहारयन्ति उतासर्वान् इत्येवमुपलक्षितः सप्तमोऽधिकारः ७, तथाऽष्टमोऽधिकारः परिणामः- परिणामरूपो बोद्धव्यः स चैवम् 'नेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पुग्गला कीसत्ताए भुज्जो २ परिणामंती' त्यादिरूपः ८, नवमोऽर्थाधिकारः एकेन्द्रियादीनि शरीराणि स चैवम्- 'नेरइया णं भंते । किं एगिंदियसरीराई आहारैति जान पंचिंदियसरीराई आहारैति ? ९, दशमोऽधिकारो लोमाहारो-लोमाहारवतव्यतारूपः एकादशी मनोभक्षितवक्तव्यतारूपः ११, 'एएसिं तु' इत्यादि, एतेषां सामान्यतोऽनन्तरमुद्दिष्टानां पदानां - अर्थाधिकाराणां विभावना-विस्तरतः प्रकाशना नाम भवति कर्त्तव्यता, सूत्रकारवचनमेतत् । प्रतिज्ञातमेत्र निर्वाहवितुका- है मो 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमाधिकारं विभावयति - 'नेरइया णं भंते!' इत्यादि, नैरधिका भदन्त किं सचित्ताहाराः -- सचित्तमाहारयन्तीति सचिताहाराः, एयमचित्ताहारा मिश्राहारा इत्यपि भावनीयं भगवानाह - 'गौतमे 'त्यादि, इह वैक्रियशरीरिणो वैक्रियशरीरपरिपोषयोग्यान् पुद्गलानाहारयन्ति, ते चाचित्ता एवं सम्भवन्ति न १०, Eaton International For Parts Only ~1003~ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] | रपदे उद्दे शः१असु गाथा: प्रज्ञापना- जीवपरिगृहीता इत्यचित्ताहारान सचित्ताहारा नापि मिश्राहाराः, एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भव-18 २८आहाया मल नपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाच वेदितव्याः, औदारिकशरीरिणः पुनरौदारिकशरीरपरिपोषयोग्यान् पुद्गला-18 य.वृत्ती . नाहारयन्ति, ते च पृथिवीकायिकादिपरिणामपरिणता इति सचित्ताहारा अचित्ताहारा मिश्राहाराश्च घटन्ते, तथा रादीना॥५० चाह-ओरालियसरीरा जाव मणूसा' इत्यादि, औदारिकशरीरिणः पृथिवीकायिकेभ्य आरभ्य यावन्मनुष्याः, कि॥ का मुक्तं भवति ?-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपा एकेन्द्रिया द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया मनुष्याच एते प्रत्येकं सचित्ताहारा माहारादि अप्यचित्ताहारा अपि मिश्राहारा अपि वक्तव्याः। उक्तः प्रथमाधिकारः, सम्प्रति द्वितीयादीनष्टमपर्यन्तान् सप्ताधि |कारान् चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण युगपदभिधित्सुः प्रथमतो नैरयिकाणामभिदधाति-'नेरइया 'मित्यादि, नैरयिका Iणमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! आहारार्थिनः, काकाऽभिधानतः प्रश्नार्थत्वावगतिः, भगवानाह-हंते'त्यादि, ह-1 न्तेत्यनुमती अनुमतमेतत्, गौतम ! आहारार्थिनो नैरयिका इति, यदि आहारार्थिनस्ततो भदन्त ! नैरयिका गमिति पूर्ववत् 'केवइकालस्स'त्ति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी, कियता कालेन आहारार्थ:-आहारलक्षणं प्रयोजनं आहाराभिलाष इतियावत् समुत्पद्यते ?, भगवानाह-'गौतम ! इत्यादि, नैरयिकाणां द्विविधो-द्विप्रकारः आहारः, ॥५०॥ तद्यथा-आभोगनिर्त्तितोऽनाभोगनिवर्तितश्च, तत्र आभोगनमाभोगः-आलोचनमभिसन्धिरित्यर्थः आभोगेन निर्वर्जितः-उत्पादित आभोगनिवर्तित आहारयामीतीच्छापूर्व निर्मापित इतियावत् , तद्विपरीतोऽनाभोगनिवर्तितः, दीप अनुक्रम [५५०-५५३] ~ 1004 ~ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] गाथा: आहारयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेण यो निष्पाधते प्राब्ट्रकाले प्रचुरतरमूत्राद्यभिव्यङ्ग्यशीतपुद्गलाद्याहारवत् सोऽनाभोगनिर्वर्तित इति भावः, 'तत्थ णमित्यादि, तत्र-अनाभोगाभोगनिवर्णितयोर्मध्ये योऽसावनाभोगनिवर्तित आहारः 'से णमिति पूर्ववत् 'अनुसमयं प्रतिसमय समये २ इत्यर्थः, इह च दीर्घकालोपभोग्यस्याहारस्यैकवारमपि ग्रहणे तावन्तं कालमनुसमयं भवति, तत आभवपर्यन्तं सातत्यग्रहणप्रतिपादनार्थमाह-अविरहित आहारार्थः समुत्पद्यते, अथवा सततप्रवृत्ते आहारार्थेऽपान्तराले चुक्कस्खलितन्यायेन येन कथञ्चित् विरहभावेऽपि लोके तदगणनया लाअनुसमयमिति व्यवहारः प्रवर्त्तते ततोऽपान्तराले विरहाभावप्रतिपादनार्थमविरहित इत्युक्तं, अनुसमयमविरहितो नामोगनिर्मित आहारार्थः समुत्पद्यमानः ओजआहारादिना प्रकारेणावसेयः, 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र-आभोगानाभोगनिवर्तितयोर्मध्ये योऽसावाभोगनिर्वर्तितः आहारार्थः सोऽसङ्खयेयसामयिकः-असङ्ख्ययैः समयैर्निर्तितः, यच्चा|सङ्ख्येयसमयनिर्वर्तितं तज्जघन्यपदेऽप्यन्तर्मुहर्तिकं भवति न हीनमत आन्तर्मुहूर्तिक आहारार्थः समुत्पद्यते, किमुक्तं भवति ?,-अन्तर्मुहूर्त कालं यावत् प्रवर्तते न परतो, नैरयिकाणां हि योऽसावाहारयामीत्यभिलाषः स परिगृहीता हारद्रव्यपरिणामेन यजनितमतितीव्रतरं दुःखं तद्भावादन्तर्मुहू निवर्त्तते तत आन्तर्मुहूर्तिको नैरयिकाणामाहारार्थः, वानरइया णमित्यादि, नैरयिका णमिति पूर्ववत् किंखरूपमाहारमाहारयन्ति ?, भगवान् द्रव्यादिभेदतस्तमाहारय न्तीति निरूपयितुकाम आह-'गोयमे त्यादि, गौतम! द्रव्यतो-द्रव्यखरूपपर्यालोचनायां अनन्तप्रादेशिकानि दीप अनुक्रम [५५०-५५३] For P OW Alanditurary.orm ~ 1005~ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३०३ -३०४] + गाथा: दीप अनुक्रम [५५० -५५३] "प्रज्ञापना" उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) पदं [२८], उद्देशक: [१], दारं [-1, मूलं [ ३०३ ३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - प्रज्ञापना ॥५०१ ॥ द्रव्याणि, अन्यथा ग्रहणासम्भवात्, न हि सङ्ख्यातप्रदेशात्मका असङ्ख्यातप्रदेशात्मका वा स्कन्धा जीवस्य ग्रहणयोयाः मल-ग्या भवन्ति, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाढानि कालतोऽन्यतरस्थितिकानि, जघन्यस्थितिकानि मध्यमस्थितिकानि उय०वृत्तौ . त्कृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः, स्थितिरिति चाहारयोग्य स्कन्धपरिणामत्येनावस्थानमवसेयं, भावतो वर्णवन्ति गंधवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति च प्रतिपरमाण्येकैकवर्णगन्धरसस्पर्शभावात्, 'जाई भावतो वण्णमंताई' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'गो० ! ठाणमग्गणं पडुबे' त्यादि, तिष्ठन्ति विशेषा अस्मिन्निति स्थानं - - - सामान्य मेकवर्णे द्विवर्ण त्रिवर्णमित्यादिरूपं तस्य मार्गणं-अन्वेषणं तत्प्रतीत्य सामान्य चिन्तामाश्रित्येति भावार्थ:, एकवर्णान्यपि द्विवर्णादीन्यपि इत्यादि सुगमं, नवरं तेषामनन्तप्रादेशिकानां स्कन्धानामेकवर्णत्वं द्विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमतापेक्षया, निश्चयनयमतापेक्षया त्वनन्तप्रादेशिक स्कन्धोऽणीयानपि पञ्चवर्ण एव प्रतिपत्तव्यः, 'विहाणमग्गणं पहुचे त्यादि, विविक्तम्- इतरव्यवच्छिन्नं धानं-पोषणं स्वरूपस्य यत् तद्विधानं - विशेषः कृष्णो नील इत्यादिप्रतिनियतो वर्णादिविशेष इतियावत् तस्य मार्गणं प्रतीत्य तानि कालवर्णान्यपि आहारयन्तीत्यादि सुगमं, नवरमेतदपि व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यं, निश्चयतः पुनरवश्यं तानि पञ्चवर्णान्येव, 'जाई बष्णओ कालवण्णा इंपी' त्यादि सुगमं, यावद् 'अनन्तगुणसुकिलाइंपि आहारैति' एवं गंधरसस्पर्शविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, 'जाई भंते! अनंतगुणलुक्खाई' इत्यादि, यानि भदन्त ! अनन्तगुणरूक्षाणि उपलक्षणमेतत् एकगुणकालादीन्यपि आहारयन्तीति, तानि च मदन्त ! For Penal Use On ~1006~ २८ आहा रपदे उहे शः १ असु रादीनामाहारादि सू. ३०४ ॥५०१ ॥ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३०३ -३०४] + गाथा: दीप अनुक्रम [५५० -५५३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) दारं [-1, पदं [२८], उद्देशक: [१], मूलं [ ३०३ ३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 12, किं स्पृष्टानि - आत्मप्रदेशविषयाण्याहारयन्ति उत्तास्पृष्टानि १, भगवानाह – स्पृष्टानि नो अस्पृष्टानि 'जहा भामुद्देसए वा जाव नियमा छद्दिसिं ति अत ऊर्ध्वं यथा भाषोदेशके प्राक् सूत्रमभिहितं तथात्रापि द्रष्टव्यं तत्र तावत् यात्रत् 'नियमा छहिसिं'ति पदं, तथैवम् 'जाई पुट्ठाई' आहा 'ताई भंते! किं ओगाढाई आहा० अणोगाढाई आहारैति गो० ! ओगाढाई आहारैति णो अयोगादाई आहारेंति, जाई भंते! ओगाढाई आहारैति ताई किं अनंतरोगाढाई आ० परंपरोगाढाई आहारैति १, गो० ! अणंतरोगाढाई जा० नो परंपरोगाढाई आ०, जाई भंते! अणंतरोगाढाई आ० ताई भंते! किं अणूई आहारेंति बादराई आ० १, गो० 1 अणूईपि आ० वादराईपि आहा०, जाई भंते! अणूईपि आहारेति वादराईपि आ० ताई किं उहं आ० अहे आहा• तिरियं आहारेति ?, गो०! उपि आ० अद्देवि आ० तिरियंपि आहारैति, जाई भंते! उडूंषि आ० अहेवि आहा० तिरियंपि आहारेति ताई किं आदि आ० मज्झे आ० पज्जवसाणे आ०१, गो० ! आदिपि आहारेंति मज्झेवि आ० पजवसाणेवि आहारेंति जाई भंते! आईपि आहारति मज्झेषि आहारैति पज्जवसाणेवि आहारैति ताई भंते! किं सविसए आहारेंति अविसए आ० १, गो० सविसए आ० नो अविसए आ० जाई भंते! सविसए आ• ताई किं आणुपुवीए आहारेन्ति अणाणुपुवीर आ०१, गो० ! आणुपुवीए आ० नो अणाणुपुषीए आ० जाई भंते! आणुपुर्वि आ० ताई किं तिदिसिं आहारेति चउदिसिं आहा • पंचदिसिं आहारैति उद्दिसिं आहारैति १, गो० ! नियमा छद्दिसिं आ०,' अस्य व्याख्या - दहात्मप्र देशैः संस्पर्शनमात्मप्रदेशावगाढक्षेत्राद्वहिरपि Education Internation For Park Use Only ~1007~ ayu Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३ प्रज्ञापना- यामल1.वृत्ती . -३०४] ५०२॥ गाथा: सम्भवति ततः प्रश्नयति-'जाई भंते' इत्यादि, यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किं अवगाढानि-आत्म-२८आहाप्रदेशैः सह एकक्षेत्रायस्थायीनि उत अनवगाढानि-आत्मप्रदेशावगाहक्षेत्राद्वहिरवस्थितानि ?, भगवानाह-गौ- रपदे उद्देतम ! अवगाढान्याहारयन्ति नानवगाढानि, यानि भदन्तावगाढान्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमनन्तरावगाढानि, शः१असुकिमुक्तं भवति ?-येष्वात्मप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगाढानि तैरात्मप्रदेशस्तान्येवाहारयन्ति उत परम्परावगाढा-ITH नि-एकद्वित्रयाद्यात्मप्रदेशव्यवहितानि, भगवानाह-गौतम! अनन्तरावगाढानि आहारयन्ति नो परम्परावगा | महारादि सू. ३०४ ढानि, यानि भदन्तानन्तरावगाढान्याहारयन्ति तानि किमणूनि-स्तोकान्याहारयन्ति उत बादराणि-प्रभूतप्रदेशोपचितानि ?, भगवानाह-गौतम ! अणून्यप्याहारयन्ति बादराण्यप्याहारयन्ति, इहाणुत्ववादरत्वे तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकत्वबाहुल्यापेक्षया वेदितव्ये इति, यानि भदन्त ! अणुन्यप्याहारयन्ति तानि भदन्त | किमूर्व-ऊर्ध्वप्रदेशस्थितान्याहारयन्ति अधस्तियग्वा, इह ऊर्ध्वाधस्तियक्त्वं यापति क्षेत्रे नैरयिकोऽवगाढः तावत्येव क्षेत्रे तदपेक्षया परिभावनीयं, भगवानाह'-गौतम! ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति-ऊर्ध्वप्रदेशावगाढान्यायाहारयन्ति एवम-18 धोऽपि तिर्यगपि, यानि भदन्त ! ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति अधोऽप्याहारयन्ति तिर्यगप्याहारयन्ति तानि किमादावाहा- ५०२॥ | रयन्ति मध्ये आहारयन्ति पर्यवसाने आहारयन्ति, अयमत्राभिप्रायः-नैरयिका हि अनन्तप्रदेशिकानि द्रव्याण्यन्तर्मुहूचे कालं यावत् उपभोगोचितानि गृह्णन्ति, ततः संशयः किमुपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहुर्तप्रमाणस्थादी-प्रथमसमये 02929929202 दीप अनुक्रम [५५०-५५३] ~1008~ Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] गाथा: आहारयन्ति उत मध्ये-मध्येषु समयेषु आहोश्चित्पर्यवसाने-पर्यवसानसमये?, भगवानाह-गौतम ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति, किमुक्तं भवति ?-उपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्यादिमध्यावसानेषु समयेष्वाहारयन्तीति, यानि भदन्त ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किं खविषयाणिखोचिताहारयोग्यानि आहारयन्ति उत अविषयाणि-खोचिताहारायोग्यान्याहारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! खविषयाण्याहारयन्ति नो अविषयाण्याहारयन्ति, यानि भदन्त ! खविषयाण्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमानुपूर्व्या आहारयन्ति अनानुपूर्व्या ?, आनुपूर्वीनाम यथासन्नं तद्विपरीता अनानुपूर्वी, भगवानाह-गौतम ! आनुपूा, सूत्रे आशा द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या प्राकृतत्वात् , यथा आचाराने 'अगणिं च पुट्ठा' इत्यत्र, आहारयन्ति नो अनानुपूर्या, ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्वा यथासन्नं नातिक्रम्याहारयन्तीति भावः, यानि भदन्त ! आनुपूर्व्या आहारयन्ति तानि कि 'तिदिसिं'ति तिस्रो दिशः समाहृताखिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितान्याहारयन्ति चतुर्दिशि पञ्चदिशि पदिशि वा, इह लोकनिष्कुटपर्यन्ते जघन्यपदे त्रिदिगव्यवस्थितमेव प्राप्यते न द्विदिग्व्यवस्थितमेकदिग्व्यवस्थितं वा अतस्त्रिदिश आरभ्य प्रश्नः कृतः, भगवानाह---गौतम ! नियमात् षड्दिशि व्यवस्थितान्याहारयन्ति, नैरयिका हि त्रसनाड्या मध्ये व्यवस्थिताः, तत्र चावश्यं षड्दिसंभव इति, 'ओसण्णकारणं पडुचे'त्यादि, ओसन्नशब्दो बाहुल्यवाची, यथा|| 'ओसन्नं देवा सायावेयणं वेदयन्ती'त्यत्र, ओसन्नकारणं-बाहुल्यकारणं प्रतीत्य, किं तद्वाहुल्यकारणमिति चेत्, 13 एन्टरटOCIEideo.co दीप अनुक्रम [५५०-५५३] ~ 1009~ Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] गाथा: प्रज्ञापना- 18 उच्यते, अशुभानुभाव एव, तथापि प्रायो मिथ्यादृष्टयः कृष्णादीन्याहारयन्ति न तु भविष्यत्तीर्थकरादयः तत ओस- २८आहाया: मल- नेत्युक्तं, वर्णतः कालनीलानि गन्धतो दुरभिगन्धानि, रसतस्तितकटुकानि स्पर्शतः कर्कशगुरुशीतरूक्षाणि इत्यादि, रपदे उद्देय. वृत्ती. तेपामाहार्यमाणानां पुद्गलानां 'पुराणान्' अग्रेतनान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् 'विपरिणा- शः१असु मइत्ता परिवीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता' एतानि चत्वार्यपि पदानि एकार्थिकानि विनाशार्थप्रतिपादकानि रादीना॥५०॥ नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपातानि, विनाश्य किमित्याह-अन्यान् अपूर्वान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् माहारादि स्पर्शगुणान् उत्पाद्य आत्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् 'सबप्पणया' सर्वात्मना सवैरेवात्मप्रदेशैराहारमाहाररूपान्सू . ३०४ आहारयन्ति, 'नेरइया णं भंते ! इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, 'नेरइया णं भंते! जे पोग्गला' इत्यादि, नैरयिका णमितिपूर्ववत्, भदन्त ! यान् पुद्गलान् आहारतया गृहन्ति नैरयिकाः तेषां गृहीतानां पुद्गलानां 'सेकालंसि' एण्यत्काले ग्रहणकालोत्तरकालमित्यर्थः 'कइभागं'ति कतिथं भागमाहारयन्ति-आहारतयोपभुञ्जते !, तथा 'कतिभागं' कतिथं |भागमाहार्यमाणपुद्गलानामाखादं गृह्णन्ति, नहि सर्वे पुद्गला आहार्यमाणा आखादमायान्तीति पृथक प्रश्ना, भगवा-| नाह-गौतम ! असमवेयं भागमाहारयन्ति, अन्ये तु गवादिप्रथमबृहदग्रासग्रहण इव परिशटन्ति, आहार्यमाणानां || पुद्गलानामनन्तभागमाखादयन्ति, शेषास्त्वनासादिता एव शरीरपरिणाममापद्यन्ते इति, 'नेरइया णं भंते!' इत्यादि, ५०३॥ नैरयिकाः णमिति पूर्ववत् यान् युगलान् आहारतया गृहन्ति, इह ग्रहणं विशिष्टमवसेयं, ततो ये उज्झितशेषाः दीप अनुक्रम [५५०-५५३] ~ 1010~ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] गाथा: केवला आहारपरिणामयोग्या एवावतिष्ठन्ते तेऽत्राहारतया गृह्यमाणाः पृष्टा द्रष्टव्याः, अन्यथा निर्वचनसूत्रमपेक्ष्य पूर्वापरविरोधप्रसको, न च भगवद्वचने विरोधसम्भावनाऽप्यस्ति, तत इदमेव व्याख्यानं सम्यक, अत एवंविधपूर्वा|परविरोधाशङ्काब्युदासाथै पूर्वसरिभिः कालिकसूत्रस्यानुयोगः कृतः, उक्तं च- "जं जह सुत्ते भणियं तहेव तं जा वियालणा नस्थि । किं कालियाणुजोगो दिवो दिटिप्पहाणेहिं ? ॥१॥"[यद्यथा सूत्रे भणितं तथैव तद् यदि |विचारणा नास्ति । किं कालिकानुयोगो रष्टिप्रधानैदृष्टः । ॥१॥] तान् किं सर्वान् आहारयन्ति उत नोसर्वान सबैकदेशभूतान्', भगवानाह-तान् सर्वान्-अपरिशेषानाहारयन्ति, उज्झितशेषाणामेव केवलानामाहारपरिणामयो-K | ग्यानां गृहीतत्वात् , 'नेरइया 'मित्यादि, नैरयिकाः णमितिपूर्ववत् यान् पुद्रलान् आहारतया गृह्णन्ति ते पुद्गलाः णमिति पूर्ववत् ते तेषां नेरयिकाणां कीहक्तया-किंखरूपतया भूयो भूयः परिणमन्ते', भगवानाह-गौतम! श्रोत्रेन्द्रियतया यावत्करणात् चक्षुरिन्द्रियतया माणेन्द्रियतया जिद्धेन्द्रियतयेति परिग्रहः, स्पर्शनेन्द्रियतया, इन्द्रियरूपतयापि परिणममानान शुभरूपाः किन्त्वेकान्ताशुभरूपाः, यत आह-'अणिहत्ताते' इत्यादि, इष्टा-मनसा इच्छाविषयीकृताः, यथा शोभनमिदं जातं यदित्थमिमे परिणता इति, तद्विपरीता अनिशास्तद्भावस्तत्वा तया, इह किञ्चित् | परमार्थतः शुभमपि केपाश्चिदनिष्टं भवति यथा मक्षिकाणां चन्दनकर्पूरादि तव आह-'अकंतचाए' न कान्ताःकमनीया अकान्ता अत्यन्ताशुभव पितत्वात् , अत एवाप्रियतया न प्रिया अधियाः, दर्शमापातकालेऽपि न प्रिय दीप अनुक्रम [५५०-५५३] टstracelecterseer ~ 1011~ Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥५०४॥ + गाथा: द्विमात्मन्युत्पादयन्तीति भावः, तद्भावोऽप्रियता तया, 'असुभत्ताए' इति न शुभा अशुभा अशुभवर्णगन्धरसस्पर्शात्म-18 २८आहा. कत्वात् तद्भावस्तत्ता तया, 'अमणुन्नत्ताए' इति न मनोज्ञा अमनोज्ञाः, विपाककाले दुःखजनकतया न मनःप्रल्हाद- रपदे उद्देहेतव इति भावः, तद्भावस्तत्ता तया, 'अमणामत्ताए' भोज्यतया मनः आमुवन्तीति मनापाः, प्राकृतत्वाच पकारस्यशः१असुमकारत्वे मणाम इति सूत्रे निर्देशः, न मनापा अमनपा, न जातुचिदपि भोज्यतया जन्तूनां मनापीभवन्तीति |रादीनाभावस्तद्भावस्तत्ता तया, अत एव 'अणिच्छियत्ताए' इति अनीप्सिततया भोज्यतया खादितमीष्टा ईप्सिता न ईप्सि- माहासाद ता अनीप्सितास्तदायस्तत्ता तया, 'अभिज्झियत्ताए' अभियानमभिध्या, अभिलाष इत्यर्थः, अभिध्या सजाता एच्चि सू. ३०४ ति अभिध्यितास्तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः तद्भावस्तत्ता तया, किमुक्तं भवति ?-ये गृहीता आहारतया पुद्गला न ते तृप्तिहेतवोऽभूवन्निति न पुनरभिलपणीयत्वेन परिणमन्ते, तथा 'अहत्ताए' इति अधस्तया, गुरुपरिणामतयेति भावः, नो ऊर्वतया-लघुपरिणामतया, अत एव दुःखतया गुरुपरिणामपरिणतत्वात् , न सुखतया लघुपरिणामपरिणतत्वाभावात् , ते पुद्गलास्तेषां नैरयिकाणां भूयो भूयः परिणमन्ते । एतान्येव आहारार्थिन इत्यादीनि सप्स द्वाराणि असुरकुमारादिषु भवनपतिपु चिचिन्तयिपुरिदमाह-'जहा नेरइयाण मित्यादि, यथा नैरयिकाणां तथा असुरकुमाराणामपि IVI||५०४॥ भाणितव्यं, यावत् 'तेसि भुजो २ परिणमन्तीति पर्यन्तपदं, तत्र नैरयिकसूत्रादस्य सूत्रस्य विशेषमुपदर्शयति-'तत्थ णं जे से' इत्यादि, एवं चोपदर्शितं सूत्रं न मन्दमतीनां यथास्थितं प्रतीतिमागच्छति ततस्तदनुग्रहाय सूत्रमुपदश्यते दीप अनुक्रम [५५०-५५३] ~ 1012~ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] गाथा: 'असुरकुमाराणं भंते ! आहारट्ठी, हंता आहारट्ठी, असुरकुमारा गं भंते! केवइकालस्स आहारट्टे समुष्पज्जई', अत्र सप्तम्यर्थ षष्ठी, कियति काले अतिक्रान्ते सति भूय आहारार्थः समुत्पद्यते इत्यर्थः, 'असुरकुमारा णं दुविहे आहारे ० तंजहा-आभोगनिवत्तिए अणाभोगनिवत्तिए य, तत्थ णं जे से अणाभोगनिषत्तिए से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुष्पज्जा, तत्थ णं जे से आभोगनिवत्तिए से णं जहण्णेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सलस्स आहारट्टे समुपज्जद' तत्र 'चउत्थभत्तस्सेति' सप्तम्यर्थे षष्ठी, चतुर्थभक्ते आगमिकीयं संज्ञा, एकस्मिन् दिवसेऽति कान्ते इत्यर्थः, भूयो जघन्येनाहारार्थः समुत्पद्यते, एतच दशवर्षसहस्रायुषां प्रतिपत्तव्यमुत्कर्षतः सातिरेके-अभ्यधिक वर्षसहस्रेऽतिक्रान्ते, एतच्च सागरोपमायुषामवसेयं, 'असुरकुमाराणं भंते ! किमाहारमाहारयन्ति', गो० दधतोऽणंतप्पएसियाई खेतो असंखेजपएसोगाढाई कालओ अन्नयरहिइयाई भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई। फासमंताई जाब नियमा छद्दिसिं आहोरेंति, ओसन्नं कारणं पडुच्च वण्णओ हालिद्दसुकिलाई, गंधओ सुरभिगंधाई, रसओ अंबिलमहुराई फासओ मउयलहुनिडुण्हाई, तेर्सि पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे जाव इच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए उद्धत्ताए नो अहत्ताए सुखत्ताए नो दुहत्ताए य तेसिं भुजो २ परिणमंति', यथा चासुरकुमाराणां सूत्रमुक्तं तथा नागकुमारादीनामपि स्तनितकुमारपर्यवसानानां वक्तव्यं, नवरमाभोगनिवर्त्तिताहारार्थचिन्तायामुत्कर्षाभिधानावसरे 'उक्कोसेणं दिवसपुत्तस्स आहारट्टे समुप्पजई' इति वक्तव्यं, एतच पल्योपमासयेयभागायुषां दीप अनुक्रम [५५०-५५३] ~ 1013~ Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०३-३०४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०३-३०४] २८आहाशरपदे उद्दे ब्यादीनामाहारादिसू.३०५ गाथा: प्रज्ञापना-8 तदधिकायुषां चावसेयं, शेषं तथैव, तथा चाह,-'एवं जाव थणियकुमाराण'मित्यादि । सम्प्रति पृथिवीकायिकाना- याः मल-1 मतान् सप्ताधिकारान् चिन्तयितुकाम आह-. यवृत्ती. पुढविकाइया णं भंते ! आहारट्ठी ?, हता! आहारट्ठी, पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारढे समुप्पजति ?, गो.! ॥५०५॥ अणुसमयमविरहिते आहारवे समुप्पज्जा, पुढविकाइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति, एवं जहा नेरइयाण जाव ताई कतिदिसि आहारेति !, गो० ! निवाघातेणं छद्दिसि वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिर्सि, नवरं ओसन्न कारणं न भण्णति, चण्णओ कालनीललोहितहालिद्दसुकिल्लातिं गंधतो सुन्भिगंधदुभिगंधाति रसतो तित्तरसकडुयरसकसायरसअंबिलमहुराई फासतो कक्खडफासमउयगुरुयलहुयसीतउण्हणिद्धलुक्खातिं तेर्सि पोराणे वणगुणे सेसं जहा नेरइयाणं जाव आहछ नीससंति, पुडविकाइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारचाते गिण्हंति तेसिं भंते ! पोग्गलाणं सेवालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं आसाएंति ? गो! असंखेजतिभागं आहारति अर्णतभागं आसाएंति, पुढ विकाइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारचाते गिण्हंति ते किं सवे आहारति नोसवे आहारेंति जहेब नेरइया तहेव, पुढविकाइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारचाते गिण्हंति ते णं तेसि पुग्मला कीसचाए भुजो २ परिणमंति, गोफासिंदियवेमायचाते भुजो २ परिणमंति, एवं जाव वणफइकाइया। (सूत्रम् ३०५) 'पुढविकाइया णं भंते !' इत्यादि सबै पूर्ववद् भावनीयं, नवरं 'निबाधाएणं छदिसिमित्यादि, व्याघातो नाम दीप अनुक्रम [५५० ॥५०५१ -५५३] ~ 1014~ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], --------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०५]] दीप अनुक्रम [५५४] Seriecessereeरसर अलोकाकाशेन प्रतिस्खलनं, व्याघातस्याभावो निर्व्याघातं 'शब्दे यथावदव्ययं पूर्वपदार्थे नित्यमव्ययीभाव' इत्यव्ययीभावः 'तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पेन अम्विधानात् पक्षेऽत्रामभावः, नियमादवश्यतया पड्दिशि व्यवस्थितानि, षड्भ्यो दिग्भ्य आगतानि द्रव्याण्याहारयन्तीति भावः, व्याघातं पुनः प्रतीत्य लोकनिष्कुटादौ स्यातू-कदाचित्रिदिशि-तिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि कदाचिच्चतुर्दिग्भ्यः कदाचित्पञ्चदिग्भ्यः, कात्र भावनेति चेत्, उच्यते, इह लोकनिष्कुटे पर्यन्ताधस्त्यप्रतरानेवकोणावस्थितो यदा पृथिवीकायिको वर्तते तदा तस्याधस्तादलोकेन व्याप्तत्वात् अधोदिक्पुद्गलाभावः, आग्नेयकोणावस्थितत्वात् पूर्वदिक्पुद्गलाभावो दक्षिणदिपुद्गलाभावश्च, एवमधःपूर्वदक्षिणरूपाणां तिसृणां दिशामलोकेन ध्यापनात् ता अपास्य या परिशिष्टा ऊच्चों अपरा उत्तरा च दिगव्याहता वर्तते तत आगतान् पुगलान् आहारयति, यदा पुनः स एव पृथिवीकायिका पश्चिमां दिशं अमुञ्चन् पर्त्तते तदा पर्वदिगभ्यधिका जाता द्वे च दिशौ दक्षिणाधस्त्यरूपे अलोकेन व्याहते इति स चतुर्दिगागतान् पुदलानाहारयति.IN यदा पुनरूर्व द्वितीयादिप्रतरगतपश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदा अधस्त्यापि दिगभ्यधिका लभ्यते केवलदक्षि-18 वाणका पर्यन्तवर्तिनी अलोकेन व्याहतेति पञ्चदिगागतान् पुद्गलानाहारयतीति, शेषं सूत्रं समस्तमपि पूर्ववद् भणनीयं, यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति-नवरं 'उस्सपणकारणेणं ण हवई' इत्यादि सुगमं, 'फासिंदियवेमायचाए' इति विषमा मात्रा विमात्रा तस्या भावो विमात्रता तया इष्टानिष्टनानाभेदतयेति भावो, न तु नारकाणामेकान्ताशुभतया ~1015~ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], --------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०५]] प्रज्ञापना- या मल- यवृत्ती. सराणां च शुभतयेयेति, एवं 'जाव वणस्सइकाइयाणति यथा पृथिवीकायिकाना सूत्रमुक्तमेषमप्लेजोवायुवनस्पतीना-२८आहामपि भणनीयं, सर्वेषामपि सकललोकव्यापितया विशेषाभावात् । रपदे उड़े ३०६ ||५०६॥ दीप अनुक्रम [५५४] बेईदिया ण भंते ! आहारट्ठी, हता! आहारट्ठी, बेइंदियाण मते केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति ,जहा नेरइयाणं, नवरं तत्थ गंजे से आमोगनिवत्तिते सेणं असंखिज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारहे समुप्पजति, सेसं जहा पुढविकाइयाण, जाव आहथ नीससंति, नवरं नियमा छद्दिसिं, बेईदियाण मंते ! • पुच्छा, गो०! जे पोग्गले आहारचाते गिपहंति ते तेसि पुग्गलाणं सियालंसि कतिभागं आहारति कतिभागं आसाएंति , एवं जहा नेरइयाणं, बेईदियार्ण भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताए गिण्हंति ते किं सवे आहारेंति णो सो आहारैति, गो०1 बेईदियाणं दुविधे आहारे पं०,०लोमाहारे य पक्खेवाहारे य, जे पोग्गले लोमाहारचाए गिण्हंति ते सच्चे अपरिसेसे आहारैति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेसिमसंखेजतिभागमाहारेंति अणेगाई च णं भागसहस्साई अफासाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं विद्धसमागच्छंति, एतेसिणं भंते पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाण य कयरे २ हितो अप्पा वा ४, गो०। सवत्थोवा पोग्गला अणासाइजमाणा अफासाइजमाणा अर्णतगुणा, बेइंदियाणं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताते पुच्छा, गो!. जिभिदिय० कासिंदियवेमायत्ताए तेसिं भुओ २ परिणमंति, एवं जाव चउरिदिया, पवरं गाई च णं भागसहस्साई अणापाइलमाणाई अणासाइजमाणाई अफासाइजमाणाई विद्धंसमागच्छंति, एतेसि गं भंते ! पोग्गलाणं अणापाइलमाणा ५०६॥ ~10164 Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०६] दीप अनुक्रम [५५५] णं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाण य कयरेर हितो अप्पा वा ४१, गो०- सवयोवा पोग्गला अणापाइजमाणा अणासाइजमाणा अर्णतगुणा अफासाइजमाणा अणंतगुणा, तेइंदियाण मंते ! जे पोग्गला पुच्छा, गो० ते णं पोग्गला पाणिदिय जिम्भिदिय० फार्सिदियवेमायत्ताए तेसिं भुजो२ परिणमंति, चउरिदियार्ण चक्खिदिय पाणिदिय जिभिदिय. फासिदियवेमायचाए तेर्सि मुजो २ परिणमंति, सेसं जहा तेईदियाण, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेईदियाण, णवर तत्थ गंजे से आमोगनिवतिते से जहण्णेणं अंतोमुहत्तस्स उको छहभत्तस्स आहारट्टे समुपजति, पंचिंदियतिरिक्खजोणि-. 'याण मंते जे पोग्गला आहा० पुच्छा, गो० सोतिदिय०चक्खिदियव्याणिदिय०जिम्मिवियफासिंदियवेमायचाए भुजो:२ : परिणमंति, मणसा एवं चेव, नवरं आभोगनिवचिते जह• अंतोमुत्तस्स उक्को० अहममत्तस्स आहारट्टे समुप्पजवि वाणमंतरा जहा नागकुमारा, एवं जोतिसियाचि, गवर आभोगनिवत्तिते जह० दिवसपुत्तस्स उ० दिवसाहत्तस्स- आहारडे समुप्पञ्जइ, एवं चेमाणियावि, नवरं आभोगनिवत्तिए ज०दिवसपुहुत्तस्स उ० तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुष्पजति, सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव एतेसि भुजो २ परिणमंति, सोहम्मे आभोगनिवतिते ज.दिवसपहुचस्स उको. दोण्हं वाससहस्साणं आहारहे स०, ईसाणेण पुच्छा, गो० ज० दिवसपुत्तम सातिरेगस्स उ० सातिरेग दोहं वाससहस्साणं, सणकुमाराणं पुच्छा, गो० ज० दोण्हं वाससहस्साणं उ० सत्तहं वाससहस्साणं, माहिंदे पुच्छा, गो०! जहनेणं दोई वाससहस्साणं सातिरेगाणं उको सचण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं, भलोए पुच्छा, गो. ज. सत्तव्हं वाससहस्साणं उ० दसव्ह वाससह, लंतएणं पुच्छा, मो० ज० दसहं वाससह उ० चउदसण्हं वाससह, महासु 299-सहकककककककक ~ 1017~ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०६] अज्ञापनाया:मलयवृत्ती. ३० ॥५०७॥ दीप अनुक्रम [५५५] Receneseperselesesesese के ण पुच्छा गो!ज. चउदसह वासस० उको सत्तरसण्डं वाससह, सहस्सारे पुच्छा, गो! जह० सत्तरसहं २८आहावासस० उ० अट्ठारसण्डं वाससह, आणए णं पुच्छा, गो० ज० अट्ठारसण्डं वाससह उ० एगणवीसाए वाससहस्सा- रपदे उद्देणं, पाणए णं पुच्छा, गो० ज० एगणवीसाए वास० उ० वीसाए वाससहस्साणं, आरणे णं पुच्छा, गो! ज० वी शः १सू. साए वाससह उको एकवीसाए वाससह, अचुए णं पुच्छा गो.ज. एकपीसाए वाससह उको० बाषीसाए वा०, हिडिमहिडिमगेविअगाणं पुच्छा, गो० ज० बावीसाए वा० उको० तेवीसाए वा०,एवं सवत्थ सहस्साणि भाणियवाणि, जाव सम्बई, हिद्विममझिमगाणं पुच्छा, गो! ज. तेवीसाए उ० चउवीसाए, हेहिमउबरिमाणं पुच्छा, गो.! ज. चउवीसाए उ० पणवीसाए, मज्झिमहेहिमाणं पुच्छा, गो० ज० पण्णवीसाए उको छवीसाए, मज्झिममज्झिमाण पुच्छा, गो० ! ज० छवीसाए उ० सत्तावीसाए, मज्झिमउवरिमाणं पुच्छा, गो! जसत्तावीसाए उ० अट्ठावीसाए, उबरिमहेहिमाणं पुच्छा, गो० ज० अट्ठावीसाए उ० एगणतीसाए, उवरिममज्झिमाणं पुच्छा, गो० ज० एगणतीसाए उ० वीसाए, उवरिमउपरिमाणं पुच्छा, गो. ज.तीसाए उ० एगतीसाए, विजयवेजयंतजयंतअपराजियाण पुच्छा, गो० ! ज• एगतीसाए उको० तेतीसाए, सबढ़गसिद्धदेवाणं पुच्छा, गो.! अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्सागं आहारट्टे समुष्पजति (सूत्र ३०६) ॥५०७॥ 'बेइंदिया णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'लोमाहारे पक्खेवाहारे' इति लोमभिराहारो लोमाहारः प्रक्षिप्य-1, ~ 1018~ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०६ ] दीप अनुक्रम [५५५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [१], दारं [-], मूलं [ ३०६ ] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. तेऽर्थात् मुखे इति प्रक्षेपः स चासाबाहारश्च प्रक्षेपाहारः, तत्र यः खल्वोघतो वर्षादिषु पुद्गलप्रवेशो मूत्रादिगम्यः स लोमाहारः, कावलिकस्तु प्रक्षेपांहारः, तत्र यान् पुद्गलान् लोमाहारतया गृह्णाति तान् सर्वान् - अपरिशेषानाहारय|न्ति, तेषां तथा २ स्वभावत्वात्, यान् पुद्गलान् प्रक्षेपाहारतया गृह्णन्ति तेषामसोयतमं भागमाहारयन्ति, अनेकानि पुनर्भागसहस्राणि - बहवोऽसङ्ख्येया भागा इति अस्पृश्यमानानामनाखाद्यमानानां विध्वंसमागच्छन्ति, किमुतं भवति ? - बहूनि द्रव्याण्यन्तर्बहिश्च अस्पृष्टान्येवानाखादितान्येव च विध्वंसमायान्ति, नवरं यथायोगं केचिदतिस्थौल्यतः केचिदतिसौक्ष्म्यत इति, सम्प्रत्यस्पृश्यमानानामनाखाद्यमानानां च परस्पर मल्पबहुत्वमभिधित्सुराह - 'एएसि णं भंते ! पुग्गलाणं अणासाइज्यमाणाण' मित्यादि, इह एकैकस्मिन् स्पर्शयोग्ये भागेऽनन्ततमो भाग आखाद्यो भवति, ततो येऽनाखाद्यमानाः पुद्गलास्ते स्तोका एव, अस्पृश्यमानपुद्गलापेक्षया तेषामनन्तभागवर्त्तित्वात्, अस्पृश्यमानास्तु पुद्गला अनन्तगुणाः, 'जिग्भिदियफासिंदियवेमायत्ताए' इति विमात्राऽत्रापि प्राग्वद् भावनीया, 'एवं जाव चउरिंदिया' एवं - द्वीन्द्रियोक्तप्रकारेण सूत्रं तावद् वक्तव्यं यावचतुरिन्द्रियाः- चतुरिन्द्रियगतं सूत्रं, प्रायः समानवक्तव्यत्वात्, यस्तु विशेषः स उपदर्श्यते- 'नवर' मित्यादि, यान् पुद्गलान् प्रक्षेपाहारतया गृह्णन्ति तेषां पुद्गलानामेकमसङ्ख्येयतमं भागमाहारयन्ति अनेकानि पुनर्भागसहस्राणि सङ्ख्यातीता असङ्ख्येयभागा इत्यर्थः अनाघ्रायमाणानि अस्पृश्यमाणानि अनाखाद्यमानानि विध्वंसमागच्छन्ति, तानि च यथायोगमतिस्थौल्यतोऽतिसौक्ष्म्यतश्च वेदित Education Internation For Pernal Use On ~ 1019~ Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: आहा प्रत सूत्रांक [३०६] शः १सू. दीप अनुक्रम [५५५] प्रज्ञापना- डाव्यानि, अत्रैवाल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते ! इत्यादि, इह एकैकस्मिन् भागे स्पर्शयोग्येऽनन्तमो भागः आखा- यामल- दयोग्यो भवति, तस्याप्यनन्तमो भाग आघाणयोग्यः, ततो यथोक्तमल्पबहुत्वं भवति, शेषं सर्वं सुगम, पश्चेन्द्रियब. वृसौ. सूत्रे-'जहणणेणं अंतोमुहुत्तस्सेति षष्ट्याः सप्तम्यर्थत्वादन्तर्मुहूतें गते सति भूय आहारार्थः समुत्पद्यते, उत्कर्षतः षष्ठभक्तेऽतिक्रान्ते, एतब देवकुरूत्तरकुरुतिर्यपञ्चेन्द्रियापेक्षया द्रष्टव्यं, मनुष्यसूत्रे 'उकोसेणं अट्ठमभचस्से'ति ॥५०॥ उत्कर्षतोऽष्टमभक्तेऽतिक्रान्ते, एतय ताखेव देवकुरूत्तरकुरुषु द्रष्टव्यं, व्यन्तरसूत्रे नागकुमारसूत्रवत् , ज्योतिषकसूत्रमपि तथैव, यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति'-नवरं जहण्णेण वि दिवसपुहुत्तस्स उक्कोसेणवि दिवसपुहुत्तस्स'त्ति, ज्योति-18 का हि जघन्यतोऽपि पल्योपमाष्टभागप्रमाणायुषस्ततस्तेषां जघन्यपदेऽप्युत्कृष्टपदेऽपि दिवसपृथक्त्वेऽतिकान्ते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते, पल्योपमाष्टभागायुषां च खरूपत एव दिवसपृथक्त्वातिकमे भूय आहारार्थः समुत्पद्यते, वैमानिकसूत्रे 'नवरमाभोगनिवत्तिए जहणेणं दिवसपुटुसस्स' इति, एतत्पल्योपमाद्यायुषामबसेयं, 'उकोसेणं ते. तीसाए वाससहस्साणं'ति एतदनुत्तरसुराणामवसेयं, इह यस्य यावन्ति सागरोफ्माणि स्थितिस्तस्य तावत्सु वर्षसहसेष्वतिक्रान्तेषु भूय आहारार्थः समुत्पद्यते, ततोऽमुं न्यायमाश्रित्य सौधर्मशानादिदेवलोकेषु जघन्यत उत्कर्षतच स्थितिपरिमाणं परिभाव्य वैमानिकसत्रं सकलमपि खयं विज्ञेयमिति । सम्प्रत्येकेन्द्रियशरीरादीनामधिकारमभिधित्सुराह| नेरहयाणं भंते ! किं एगिदियसरीराई आहारैति जाव पश्चिदियसरीराई आहारैति', गो० ! पूरभावपण्णवणं पद्धञ्च एमि N५०८ ~ 1020~ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०७]] दीप अनुक्रम [५५६] ceaeratiseoकरser दियसरीराईपि आहारेंति जाव पंचिंदिय०, पडुपण्णभावषण्णवणं पडुच्च नियमा पंचिदियसरीरातिं आ०, एवं जाव थपियकुमारा, पुढविकाइयाण पुच्छा, गो० ! पुवभावपण्णवर्ण पडुच्च एवं चेव, पडुप्पण्णभावपणवणं पड्डुच्च नियमा एनिदियसरीराति, बेइंदिया पुपमावपण्णवणं पडच्च एवं पेव, पचप्पण्णभावपण्णवण प०नियमा बेइंदियाण सरीराति आ०, एवं जाव चरिंदिया ताव पवभावपण्णवर्ण पडुच्च, एवं पहप्पण्णभावपण्णवर्ण पद्धच नियमा जस्स जति. ईदियाई तईदियाई सरीराई आहारेति सेस जहा नेरझ्या, जाच वेमाणिता, नेरइया पं.भंते । किं लोमाहारा पक्खेवाहारा!, गो. लोमाहारा । नो पक्खेवाहारा, एवं एगिदिया सबदेवा य भाणितधा, बेईदि० जाव मणसा लोभाहारावि पक्खेवाहारावि (सूत्र ३०७) 'नेरइया णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, निर्वचनसूत्रमाह-'गोयमे त्यादि, पूर्व:-अतीतो भावः पूर्वभावः तस्य प्रज्ञापना-प्ररूपणा तां प्रतीत्य एकेन्द्रियशरीराण्यपि यावत्करणात् द्वित्रिचतुरिन्द्रिक्शरीरपरिग्रहः, पञ्चेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्ति, इयमत्र भावना-यदा तेषामाहार्यमाणानां पुद्गलानामतीतो भावः परिभाव्यते तदा ते केचित् कदाचित् एकेन्द्रियशरीरतया परिणता आसीरन् कदाचित् द्वीन्द्रियशरीरतया कदाचित् त्रीन्द्रियशरीरतया कदाचिचतुरिन्द्रियशरीरतया कदाचित् पञ्चेन्द्रियशरीरतया, ततो यदि पूर्वभावं इदानीमध्यारोप्य विवक्ष्यते तदा नैरयिका एकेन्द्रियशरीराण्यपि यावत्पश्चेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्तीति भवति, पटुप्पन्नभावपण्णवणं पडुचे'त्यादि, प्रत्युत्पन्नो-वार्त्तमानिकः स चासी भावश्च प्रत्युत्पन्नभावस्तस्य प्रज्ञापना तां प्रतीत्य नियमाद-अवश्यतया पञ्चेन्द्रियशरीराण्याहारय ~ 1021~ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], --------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [३०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०७]] प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. ॥५०९॥ दीप अनुक्रम [५५६] ललललललल न्ति, कथमिति चेत्, उच्यते, इह प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनां करोति नयः ऋजुसूत्रो न शेषा नैगमादयः, ऋजुसूत्रश्च २८आहा|क्रियमाणं कृतं अभ्यवहियमाणमभ्यवहृतं परिणम्यमाणं परिणतमभ्युपगच्छति, अभ्यवाहियमाणाच पुद्गलास्ते उच्य- रपदे उद्देन्ते ये खशरीरतया परिणम्यमाना वर्चन्ते, अभ्यवहियमाणं चाभ्यवहृतं परिणम्यमानं च परिणतमिति तन्मतेन ख- शः१सू. शरीरमेवाभ्यवहियते खशरीरं च तेषां पञ्चेन्द्रियशरीरं पञ्चन्द्रियशरीरत्वात् तेषामत उक्तं नियमात् पञ्चेन्द्रियशरी ३०७ राण्याहारयन्तीति, एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः, पृथिवीकायिकसूत्रे प्रत्युत्पनभावप्ररूपणाचिन्तायां नियमादेकेन्द्रियशरीराण्याहारयन्तीति वक्तव्यं, तेषामेकेन्द्रियतया तत्शरीराणामेकेन्द्रियश-1 रीरत्वात्, एवं द्वीन्द्रियसूत्रे नियमात् वीन्द्रियशरीराण्याहारयन्तीति वक्तव्यं, त्रीन्द्रियसूत्रे नियमात् त्रीन्द्रियशरीरा|णि, चतुरिन्द्रियसूत्रे नियमात् चतुरिन्द्रियशरीराणि, तिर्यपञ्चेन्द्रिया मनुष्या व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाश्च नैरविकवद् वक्तव्या, तथा चाह-'पुढविकाइयाणं पुच्छा' इत्यादि । अधुना लोमाहाराधिकारं विभावयिपुरिदमाह-नेरइया ण'मित्यादि सुगम, नवरं नैरयिकाणां प्रक्षेपाहारो न भवति, वैक्रियशरीराणां तथा खभावत्वात्, लोमाहारोऽपि पर्याप्तानामवसेयो नापर्यासानामिति, 'एवं एगिदिया' इत्यादि, एवं-नैरयिकोक्तप्रकारेण एकेन्द्रियाः--13 |थिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सर्वे देवाश्च-असुरकुमारादयो याबद्वैमानिका भणितव्याः, तत्रैकेन्द्रियाणां प्रक्षेपाहाराभावो मुखाभावात्, असुरकुमारादीनां चैक्रियशरीरतया तथा खभावात्, द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्तिर्यपश्चेन्द्रिया ~1022~ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०७] दीप अनुक्रम [५५६] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [१], दारं [-], मूलं [ ३०७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [२८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. मनुष्याश्च लोमाहारा अपि वक्तव्याः प्रक्षेपाहारा अपि, उभयरूपस्याप्याहारस्य तेषां सम्भवात्, चरममर्था|धिकारमभिधित्सुराह— नेरइयाणं मंते । किं जयाहारा मणभक्खी ?, गो० ! ओयाहारा णो मणभक्खी, एवं सहे ओरालियसरीरावि, देवा सबेवि जाव वैमाणिया ओयाहारावि मणभक्खीवि, तत्थ णं जे ते भणभक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जति इच्छामो णं मणक्खणं करित्तते, तते णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव मणामा ते तेसिंमणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहा नामए सीया पोम्गला सीयं पप्प सीयं चैव अतिवृतित्ताणं चिति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चैव अइवदत्ताणं चिति, एवामेव तेहिं देवेहिं मणभक्खीकए समाणे से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति ( सू ३०८) आहारपयस्स पढमो उद्देसो समतो २३-१ ।। 'नेरया णं भंते ।" इत्यादि, ओज - उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपुद्गलसमूहः, ओज आहारो येषां ते ओजआहाराः, मनसा भक्षयन्तीत्येवंशीला मनोमक्षिणः, तत्र नैरयिका ओजआहारा भवन्ति, अपर्याप्तावस्थायामोजस एवाहारस्य सम्भवात् मनोभक्षिणस्त्वेते न भवन्ति, मनोभक्षणलक्षणो बाहारः स उच्यते ये तथाविधशक्तिवशात् मनसा खशरीरपुष्टिजनकाः पुद्गला अभ्यवहियन्ते, यदभ्यवहरणानन्तरं तृतिपूर्वः परमसन्तोष उपजायते, न चैतन्नैरयिकाणामस्ति, प्रतिकूलकर्मोदयवशतः तथारूपशक्त्यभावात्, 'एवं सचे ओरालियसरीरावि' इति, एवं नैरथि - For Parts Only ~1023~ yor Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०८] दीप अनुक्रम [५५७] प्रज्ञापना- कोक्तम प्रकारेण औदारिक शरीरिणोऽपि सर्वे पृथिवीकायिकादयो मनुष्यपर्यवसाना वक्तव्याः, तद्यथा-'पुढविका-18आहायाः मल इया णं भंते ! किं ओयाहारा मनभक्खी ?, गोयमा ! ओयाहारा नो मणभक्खी'सादि, 'देवा' इत्यादि देवाः याव- रपदे उहेयवृत्ती. द्वैमानिका ओजाहारा अपि मनोभक्षिणोऽपि वक्तव्याः, तद्यथा-असुरकुमारा णं भंते ! किं ओयाहारा मनो- शः१सू. ॥५१०॥ भक्खी, गो ओयाहारावि मणभक्खीवि, जाव वेमाणियाणं पुच्छा, गो.1 ओयाहारावि मणभक्खीवि।सम्प्रति मनोभक्षित्वं देवानां यथा भवति तथोपदर्शयति-तत्थ णमित्यादि, तत्र-तेषु संसारिषु जीवेषु मध्ये, णमिति चाक्यालकारे ये मनोभक्षिणो देवास्तेषां णमिति वाक्यालकारे मनः प्रस्तावादाहारविषयं समुत्पद्यते, केनोलेखेन इत्यत आह-इच्छामः--अभिलषामो णमिति वाक्यालङ्कारे, मनोभक्षणमिति-मनसा भक्षणं मनोभक्षणं कलुमिति, तत एवं तैमनसि कृते-व्यवस्थापिते मनोभक्षणे सति तथाविधशुभकर्मोदयवशात् क्षिप्रमेव तत्कालमेति भावः, ये इष्टाः कान्ताः प्रिंया मनोज्ञा मनापा पुद्गलाः एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत् तेषां देवानां मनोभक्षतया परिणमन्ते, कथमित्यत्रैव दृष्टान्तमाह-से जहानामए सेशब्दोऽयशब्दार्थः, स चात्र वाक्योपन्यासे, यथा नामेति विवक्षिताः शीताः पुद्गलाः शीतं-शीतयोनिकं प्राणिनं प्राप्य शीतत्वमेवातित्रज्य-अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, किमुक्तं भवति ।। विशेषतः शीतीभूय शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्त इति, उष्णा वा पुद्गला उष्णं-उष्णयोनिकं। प्राप्य उष्णमेव-उष्णत्वमेवातित्रज्य-अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, विशेषतः खरूपलाभसम्पत्त्या तस्स सुखित्वायोप ~ 1024 ~ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०८] दीप अनुक्रम [५५७] । तिष्ठन्त इति भावः, 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण तैर्देवैः प्रागुक्तरीत्या मनोभक्षणे कृते सति स तेषां देवानामिच्छाम ना-आहारविषयेच्छाप्रधान मनः क्षिप्रमेवापैति-तृप्तिभावानिवर्त्तते इति भावः, इयमत्र भावना-यथा शीतपुद्गलाः शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्प्यन्ते उष्णपुद्गला वा उष्णयोनिकस तथा देवैरपि मनसाऽभ्यवहियमाणाः पुद्गलास्तेषां तृप्तये परमसन्तोषाय चोपकल्पन्ते, तत आहारविषयाभिलापनिवृत्तिर्भवतीति, अत्र च ओजआहारादिविभागप्रतिपादिका इमाः सूत्रकृताङ्गनियुक्तिगाथा:-"सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायवो ॥१॥ ओयाहारा जीवा सधे अपजत्तया मुणेयथा। पज्जतगा व लोमे पक्खेवे होति. भइयवा ॥१॥ एगिदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो । सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो ॥२॥ लोमाहारा एगिदिया उ नेरइवसुरगणा चेव । सेसाणं आहारो लोमे पक्खेवओ चेव ॥३॥ ओयाहारा मणभक्खिणो य सचेवि सुरगणा होति । सेसा हवंति जीवा लोमे पखेवओ चेव ॥४॥" [शरीरेणीजआहारः त्वचा स्प-R र्शन रोमाहारः । प्रक्षेपाहारः पुमः कापलिको भवति ज्ञातव्यः॥१॥ ओजआहारा जीवाः सर्वेऽपर्याप्सका ज्ञातव्याः पर्यासाश्च रोमाहारे प्रक्षेपे भवन्ति भक्तव्याः॥२॥ एकेन्द्रियदेवानां नैरयिकाणां च नास्ति प्रक्षेपाहारः । शेषाणां जीवानां संसारस्थानां प्रक्षेपः॥३॥रोमाहारा एकेन्द्रियास्तु नैरविकसुरगणाश्चैव । शेषाणामाहारो रोमभिः प्रक्षेपेणैव ॥४॥(सू०१७१-१७२-२७३) ओजआहारा मनोभक्षिणश्च सर्वेऽपि सुरगणा भवन्ति । शेषा भवन्ति जीवा रोमभिः ~ 1025~ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०८] दीप अनुक्रम [५५७] पदं [२८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. प्रज्ञापना याः मल- 8 य० वृत्ती. है ॥५११॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ३०८ ] उद्देशक: [१], दारं [-], ..आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रक्षेपतश्चैव ॥ ५ ॥ ] अथ क आहार आभोगनिर्वर्त्तितः को वाऽनाभोगनिर्वर्त्तित इति चेत्, उच्यते, देवानामाभोग- ४२८ आहानिर्वर्त्तितः ओजआहारः स चापर्याप्तावस्थायां, लोमाहारोऽप्यनाभोग निर्वर्त्तितः, स च पर्याप्तावस्थायां आभोगनिर्वर्त्तिरपदे उड़ेतो मनोभक्षणलक्षणः, स च पर्याप्तावस्थायां देवानामेव न शेषाणां सर्वेषामप्यनाभोगनिर्वर्त्तित आहारोऽपर्याप्तावस्थायां शः १ लोमाहारः पर्याप्तावस्थायां, नैरयिकवर्जानां लोमाहारो, नैरयिकाणां तु लोमाहार आभोगनिर्वर्त्तितोऽपि, द्वीन्द्रियादीनां मनुष्यपर्यवसानानां यः प्रक्षेपाहारः स आभोगनिर्वर्त्तित एवेति । श्रीमलयगिरिविर० प्रज्ञापनाटीकायाँ आहारपदस्य प्रथमोद्देशकः परिसमाप्तः ॥ Education Internation व्याख्यात आहारपदस्य प्रथमोद्देशकः, सम्प्रति द्वितीयो व्याख्येयः, तत्र चादावियमधिकारसङ्ग्रहगाथा - आहार १ भविय २ सण्णी ३ लेसा ४ दिट्ठी ५ य संजत ६ कसाए ७ । णाणे ८ जोगु ९ वओगे १० वेदे ११ य सरीर १२ पची १३ ॥ १ ॥ 'आहारे' त्यादि, प्रथमं सामान्यत आहाराधिकारः, द्वितीयो भव्याधिकारो-भव्यविशेषिताहाराधिकारः, एवं तृतीयः संज्ञयधिकारः, चतुर्थो ठेश्याधिकारः पञ्चमो दृष्ट्यधिकारः षष्ठः संयताधिकारः सप्तमः कषायाधिकारः अष्टमो ज्ञानाधिकारः नवमो योगाधिकारः दशम उपयोगाधिकारः एकादशो वेदाधिकारः द्वादशः शरीराधिकारः त्रयोदशः अत्र (२८) आहार पदे उद्देशक (२) आरब्धः, ------------- For Parts Only ~1026~ ॥५११॥ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], ------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [१,२], ------ ----- मूलं [३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०९] eraeeserseas गाथा पर्याप्त्यधिकारः, इह भन्यादिग्रहणेन तत्प्रतिपक्षभूता अभव्यादयोऽपि सूचिता द्रष्टव्याः, तथैवाने वक्ष्यमाणत्वाद्, तत्र प्रथमं सामान्यत आहाराधिकारं विभावयिषुरिदमाह जीवेणं भंते ! किं आहारए अणाहारए, गो! सिय आहारए सिय अणाहारए, एवं नेरइए जाव असुरकुमारे जाव वेमाणिए, सिद्धे णं भंते । किं आहारए अणाहारए , गो! नो आहारए अणाहारए, जीवा गं भंते । किं आहारया अणाहारया, गो! आहारयावि अणाहारयावि, नेरइयाणं! पुच्छा, गो.! सवेवि ताव होजा आहारया १ अहवा आहारगा य अणाहारए य २ अहवा आहारगा य अणाहारगा य ३, एवं जाव ओमाणिया, णवरं एगिदिया जहा जीवा, सिद्धाणं पुच्छा, गो० नो आहारमा अणाहारगा । दारं १॥ भवसिद्धिए णं भंते! जीवे किं आहारते अणाहारते, गो० सिय आहारते सिय अणाहारए, एवं जाव वेमाणिए, भवसिद्धिया गं भंते । जीया कि आहारगा अणा०१, गो! जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, अभवसिद्धिएवि एवं चेब, नोभवसिद्धिएनोअभवसिद्धिए ण मंते ! जीवे कि आहारए अणाहारए, गो०। णो आहारए अणाहारए, एवं सिद्धेवि, नोभवसिद्धियनोअभवसिद्धिया पं भंते । जीवा किं आहारगा अणाहारगा, गो० नो बाहारगा अणाहारगा, एवं सिद्धावि, दारं २। सण्णी णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए, गो। सिय आकसिय अणा०, एवं जान वेमाणिए, गवरं एगिदियविगलिंदिया नो पुच्छिन्नति, सण्णी णं भंते ! जीवा कि आहारमा अणाहारमा, मो.! जीवाइओ तियभंगो जाव वेमाणिया, असणी भंते ! जीवे किं दीप अनुक्रम [५५८ 809200000 | अत्र (२८) आहार-पदे प्रथमे उद्देशके द्वारम् (१, २, ३) 'आहारकत्वं', 'भवसिद्धिक', संजी आरब्धम् ~ 1027~ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०९ ] गाथा दीप अनुक्रम [५५८ -५६१] पदं [२८], --------------- उद्देशकः [२], मूलं [ ३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥५१२॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [१-३], an Internation आहारए अणाहारए ?, गो० ! सिय आ० सिय अणा० एवं रइए जाव वाणमंतरे, जोइसियवेमाणिया ण पुच्छिज्जति, असष्णी णं भंते ! जीवा किं आ० अणा० १, गो० ! आहारगावि अणाहारगावि एगो भंगो, असण्णी णं भंते ! णेरड्या कि आहारया अणा० १, गो० ! आहारगा वा १ अणाहारगा वा २ अहवा आहारए य अणाहारए य ३ आहारए य अणाहारया य ४ अहवा आहारगा य अणाहारए य ५ अहवा आहारगा य अणाहारगा य ६ एवं एते छन्भंगा एवं जाव थणियकुमारा, एगिदिएस अभंगतं, बेइंदिय जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु तियभंगो, मणूसवाणमंतरेसु छन्भंगा, नोसण्णीनोअसण्णी णं भंते! जीवे किं आ० अणा० १, गो० ! सिय आहारए सिय अणाहारए य, एवं मणूसेवि, सिद्धे अणाहारते, पुडुचेणं नोसण्णीनोअसण्णी जीवा आहारगावि अणाहारगावि, मणूसेसु तियभंगो, सिद्धा अणाहारगा । दारं ३ (सूत्रं ३०९) 'जीणं ते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह – 'गौतम' त्यादि, गौतम ! स्यात् - कदाचिदाहारकः कदाचिदनाहारकः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, विग्रहगतौ केवलिसमुद्घाते शैलेश्यावस्थायां सिद्धत्वे चानाहारकः, शेषाखवस्थाखाहारकः, उक्तं च- "विग्गहगइमावना केवलिणो समोहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१॥" [विग्रहगत्यापन्नाः समवहताः केवलिनोऽयोगिनश्च । सिद्धाश्चानाहारकाः शेषा आहारका जीवाः ॥ १ ॥ ] तदेवं सामान्यतो जीवचिन्तां कृत्वेदानीं नैरविकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेणाहारकानाहारकचिन्तां करोति- 'नेर For Parts Only ~1028~ २८आहा रपदे उद्दे शः २ सू. ३०९ ॥५१२॥ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [१-३], ------ ----- मूलं [३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०९] इए णं भंते! किं आहारए' इत्यादि सुगम, तदेवं सामान्यतो जीवपदे नैरयिकादिषु चैकवचनेन आहारकानाहारकत्वचिन्ता कृता, सम्प्रति बहुवचनेन तां चिकीर्षुराह-'जीवाणं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! आहारका अपि अनाहारका अपि, सदैव बहुवचनविशिष्टा उभयेऽपि लभ्यन्ते इति भावः, तथाहि-विग्रहगतिव्यतिकरकेण शेषकालं सर्वेऽपि संसारिणो जीवा आहारकाः, विग्रहगतिस्तु कचित् कदाचित् कस्यचित्तु भवतीति सर्वकाल मपि लभ्यमाना सा प्रतिनियतानामेव लभ्यते तत आहारकेषु बहुवचनं, अनाहारका अपि सिद्धाः सदैव लभ्यन्ते, ते चाभव्येभ्योऽनन्तगुणाः, अन्यच-सर्वकालमेकेकस्य निगोदस्य प्रतिसमयमसङ्घयभागो विग्रहगत्यापन्नो लभ्यते, ततोऽनाहारफेष्वपि बहुवचनं, नैरयिकसूत्रे सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः१, किमुक्तं भवति?-कदाचिन्नेरयिकाः सर्वेऽ-16 प्याहारका एव भवन्ति, न त्वेकोऽप्यनाहारका, कथमिति चेत् , उच्यते, उपपातविरहात्, तथाहि-नैरयिकाणामुपपातबिरहो द्वादश मुहर्ताः, एतावति चान्तरे पूर्वोत्पन्नविग्रहगत्यापन्ना अपि आहारका जाताः, अन्यस्त्वनुत्पद्यमान-18 त्वात् अनाहारको न सम्भवतीति, अथवा आहारका अनाहारकाश्च २ आहारकपदे बहुवचनं अनाहारकपदे एकवच-18 नमिति भावः, कथमेष भको घटामियतीति चेत्, उच्यते, इह नरकेषु जन्तुः कदाचिदेक उत्पद्यते कदाचिट्ठी कदाचित् जयश्चत्वारो यावत्सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा, तत्र यदा एक उत्पद्यते सोऽपि च विग्रहगत्यापन्नोऽपि भवति अन्ये च पूर्वोत्पन्नतया आहारका अभवन् तदा एष भङ्गो लभ्यते, तृतीयभङ्गमाह-अहवा आहारगा य अणाहारगा य ३, 2032002020200000 गाथा दीप अनुक्रम [५५८ -५६१] ~1029~ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [१-३], ------ ------ मूलं [३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०९] प्रज्ञापना- याः मल- य.वृत्ती. ॥५१॥ गाथा अत्रोभयत्रापि बहुवचनं, एष च भङ्गो यदा बहवो विग्रहगत्योत्पद्यन्ते तदा द्रष्टव्यः, शेपभङ्गकास्तु न सम्भवन्ति, २८आहाआहारकपदस्य नैरयिकाणां सर्वदैव बहुवचनविषयतया लभ्यमानत्वात् , एवमसुरकुमारादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु रपदे उद्देवीन्द्रियादिषु च वैमानिकपर्यन्तेषु प्रत्येकं भजत्रिकं भावनीयं, उपपातविरहभावतःप्रथमभङ्गस्य एकादिसञ्जयतयोत्पत्तेःशः२ सू. शेषस्य च भङ्गद्यस्य सर्वत्रापि लभ्यमानत्वात् , एकेन्द्रियेषु पुनः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपेषु प्रत्येकमेष एवैको ३०९ भङ्गः आहारकाः अनाहारका अपि, पृथिव्यप्तेजोवायुपु प्रत्येकं प्रतिसमयमसङ्ख्यातानां वनस्पतिषु प्रतिसमयमनन्तानां विग्रहगत्योत्पद्यमानानां लभ्यमानतया अनाहारकपदेऽपि सदैव तेषु बहुवचनसम्भवात् , तथा चाह-एवं जाव माणिया नवरं एगिदिया जहा जीवा' इति, एवं-नैरयिकोक्तभङ्गप्रकारेण शेषा अप्यसुरकुमारादयस्तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकाः, नवरमेकेन्द्रियाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपाः प्रत्येकं यथा उभयत्रापि बहुवचने जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, सिद्धेष्वेक एव भङ्गोऽनाहारक इति, सकलशरीरप्रहाणतस्तेषामाहारासम्भवात् बहूनां च सदा भावात् इति, गतं प्रथमं द्वारं ॥ द्वितीयं भव्यद्वारमभिधित्सुराह-'भवसिद्धिए णं भंते !' इत्यादि, भरैः सङ्ख्यातरसङ्ख्यातैरनन्तैर्वा | सिद्धियस्यासी भवसिद्धिको भव्यः, स कदाचिदाहारकः कदाचिदनाहारकः, विग्रहगत्याद्यवस्थायां अनाहारकः शेष-IMInaam कालं त्वाहारकः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकेऽपि प्रत्येकं वाच्यं, तथा चाह-एवं जाव वेमाणिए' अत्र च सिद्धविषय सूत्र न वक्तव्यं, मोक्षपदप्रासतया तस्य भवसिद्धिकत्वायोगात्, अत्रैव बहुवचनेनाहारकानाहारकत्वचिन्तां चिकीर्षुराह दीप recedeseseserseas अनुक्रम [५५८ -५६१] ~ 1030~ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: २], ------------- दारं [१-3], ----- ------ मूलं [३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०९] गाथा ISभवसिद्धिया णं भंते !' इत्यादि, अत्राप्याहारकद्वार इव जीवपदे एकेन्द्रियेषु च प्रत्येकमुभयत्र बहुवचनेनैक एव भङ्गो, यथा आहारका अपि अनाहारका अपि, शेषेषु नैरयिकादिषु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, कदाचित्केवला आहारका एव न स्खेकोऽप्यनाहारकः, अथवा कदाचिदाहारका एकोऽनाहारकः, अथवा आहारका अपि अनाहारका अपि उभयत्रापि बहुवचनं, तथा चाह-'जीवगिदियवजो तियभंगों' इति, यथा च भवसिद्धिके एकस्मिन् बहुषु चाहारकानाहा-18 रकत्वचिन्ता कृता तथा अभवसिद्धिकेऽपि कर्त्तव्या, उभयत्राप्येकवचने बहुवचने च भङ्गसङ्ख्यायाः सर्वत्रापि समानत्वात् , तथा चाह-'अभवसिद्धिए एवं चेय' अभवसिद्धिकेऽपि भवसिद्धिक इव एकवचने बहुवचने च वक्तव्यमिति, यस्तु न भवसिद्धिको नाप्यभवसिद्धिकः स सिद्धः, स हि भवसिद्धिको न भवति, भवातीतत्वात् , अभवसिद्धिकस्तु रूढया यः सिद्धिगमनयोग्यो न भवति स उच्यते, ततोऽभवसिद्धिकोऽपि न भवति, सिद्धिप्राप्तत्वात, तथा च सति | नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिकत्वचिन्तायां वे एव पदे, तद्यथा-जीवपदं सिद्धिपदं च, उभयत्राप्येकवचने एक एव | भङ्गोऽनाहारक इति, बहुवचनेऽप्येक एवानाहारका इति । संज्ञिद्वारे-'सन्नी गं भंते' इत्यादि प्रश्चसूत्र सुगम, निर्वचनसूत्रमाह-'गोयमे'त्यादि, विग्रहगतावनाहारकः शेषकालमाहारका, ननु संज्ञी समनस्क उच्यते, विग्रहगती । |च मनो नास्ति ततः कथं संज्ञी सन्ननाहारको लभ्यते ।, उच्यते, इह विग्रहगत्यापन्नोऽपि संघ्यायुष्कवेदनात् संजी| व्यवहियते, यथा नारकायुष्कवेदनानारकततो न कश्चिद्दोषः, 'एवं'मित्यादि, एवमुपदर्शितेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं दीप अनुक्रम [५५८ -५६१] ~1031~ Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [१-३], ----- ----- मूलं [३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०९] प्रज्ञापना- या: मलय.वृत्ती. ॥५१४॥ गाथा यावद्वैमानिको-वैमानिकसूत्रं, नवरमेकेन्द्रिया विकलेन्द्रिया न प्रष्टव्याः, किमुक्तं भवति ?-तद्विषय सूत्रं सर्वथा न २८आहावक्तव्यं, तेषाममनस्कतया संज्ञित्वायोगात्, बहुवचनचिन्तायां जीवपदे नैरयिकादिपदेषु च प्रत्येकं सर्वत्र भनत्रयं, रपदे उद्देतद्यथा-सर्वेऽपि ताबद् भवेयुराहारकाः १ अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च २ अथया आहारकाच अनाहारकाचशः२ सू. का३, तथा चाह-'जीवातीतो तियभंगो जाव चेमाणिया' इति, तत्र सामान्यतो जीवपदे प्रथमभङ्गः सकललोकापे क्षया संज्ञित्वेनोत्पातविरहाभावात् द्वितीयभङ्ग एकस्मिन् संजिनि विग्रहगत्यापन्ने तृतीयभङ्गो बहुषु संज्ञिषु विग्रहगत्यापन्नेष. एवं नैरयिकादिपदेप्यपि भङ्गभाषना कार्या, 'असण्णी णं भंते ।' इत्यादि, अत्रापि विग्रहगतावनाहारकः शेषकालमाहारकः, 'एवं जाव याणमंतरे' इति एवं-सामान्यतो जीवपद इव चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण तावत् वक्तंव्यं यावद्वानमन्तरो-बानमंतरविषयं सूत्र, अथ नैरयिका भवनपतयो वानमन्तराश्च कथमसंज्ञिनो येनासंज्ञिसूत्रे | तेऽपि पठ्यन्ते इति , उच्यते, इह नैरयिका भवनपतयो व्यन्तराश्चासंज्ञिभ्योऽपि उत्पद्यन्ते संज्ञिभ्योऽपि, असंज्ञि-14 भ्यश्च उत्पद्यमाना असंज्ञिन इति व्यवहियन्ते संज्ञिभ्य उत्पद्यमानाः संज्ञिनः, ततोऽसंज्ञिसूत्रेऽपि ते उक्तप्रकारेण8 पठ्यन्ते, ज्योतिष्कवैमानिकास्तु संजिभ्य पवोत्पद्यन्ते नासंजिभ्य इति असंज्ञित्वव्यवहाराभावादिह ते न पठयन्ते,४५१४॥ तथा चाह-'जोइसियवमाणिया न पुच्छिति' किमुक्तं भवति?-तद्विषयं सूत्रं न वक्तव्यं, तेषामसंज्ञित्वाभावादिति, बहुवचनचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे एक एव भङ्गः, तद्यथा-आहारका अपि अनाहारका अपि, प्रतिसमयमेके दीप अनुक्रम [५५८ -५६१] ~1032~ Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३०९ ] गाथा दीप अनुक्रम [५५८ -५६१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [१-३], पदं [२८], उद्देशक: [२], मूलं [ ३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः केन्द्रियाणामनन्तानां विग्रहगत्यापन्नानामत एवानाहारकाणां सदैव लभ्यमानतया अनाहारकपदेऽपि सर्वदा बहुवच नभावात्, नैरयिकपदे षट् भङ्गाः, तत्र प्रथमो भङ्ग आहारका इति, अयं च भङ्गो यदाऽन्योऽसंज्ञिनारकः उत्पद्यमानो विग्रहगत्यापन्नो न लभ्यते पूर्वोत्पन्नास्त्वसंज्ञिनः सर्वेऽप्याहारका जातास्तदा लभ्यते, द्वितीयोऽनाहारका इति एष यदा पूर्वोत्पन्नोऽसंज्ञी नारक एकोऽपि न विद्यते उत्पद्यमानास्तु विग्रहगत्यापन्ना बहवो लभ्यन्ते तदा विज्ञेयः, तृतीय आहारकश्च अनाहारकश्च, द्वित्वेऽपि प्राकृते बहुवचनमिति बहुवचनचिन्तायामेषोऽपि भङ्गः समीचीन इत्युपन्यस्तः, तत्र यदा चिरकालोत्पन्न एकोऽसंज्ञी नारको विद्यते अधुनोत्पद्यमानोऽपि विग्रहगत्यापन्न एकस्तदाऽयं भङ्गः, चतुर्थः आहारकश्च अनाहारकाच एष चिरकालोत्पन्ने एकस्मिन्नसंज्ञिनि नारके विद्यमाने अधुनोत्पयमानेषु असंज्ञिषु विग्रहगत्यापन्नेषु द्रष्टव्यः, पञ्चमः - आहारकाश्च अनाहारकश्च, अयं चिरकालोत्पन्नेषु बहुषु असंज्ञिषु नारकेषु सत्सु अधुनोत्पद्यमाने विग्रहगत्यापन्ने एकस्मिन्नसंज्ञिनि विज्ञेयः, षष्ठ आहारकाश्च अनाहारकाच, एप बहुषु चिरकालोत्पन्नेषूत्पद्यमानेषु चासंज्ञिषु वेदितव्यः, 'एवमेते छन्भंगा' एवमुपदर्शितप्रकारेण एते षट् भंगाः, तद्यथा- आहारकपदस्य केवलस्य बहुवचनेनैकः १, अनाहारकपदस्य केवलस्य बहुवचनेन द्वितीयः २, आहारकपदस्थानाहारकपदस्य च युगपत् प्रत्येकमेकवचनेन तृतीयः ३, आहारकपदस्यैकवचनेन अनाहारकपदस्य बहुवचनेन चतुर्थः ४, आहारकपदस्य बहुवचनेन अनाहारकपदस्यैकवचनेन पञ्चमः ५, उभयत्रापि बहुवचनेन षष्ठः ६, शेषास्तु भङ्गा न Education International For Penal Use Only ~ 1033~ org Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [१-३], ------ ------ मूलं [३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०९] या मल गाथा प्रज्ञाना-18 सम्भवन्ति, बहुवचनचिन्तायाः प्रक्रान्तत्वात् , एते च षट्र भङ्गा असुरकुमारादिष्वपि स्तनितकुमारपर्यवसानेषु वेदि तव्याः, तथा चाह-एवं जाव थणियकुमारा' 'पगिदिएसु अभंगय'मिति एकेन्द्रियेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपे- पदे उद्देवमङ्गकं-भङ्गकाभाव एक एव भङ्ग इत्यर्थः, स चाय-आहारका अपि अनाहारका अपि, तत्राहारका बहवः शः२ स. ॥५१५॥ सुप्रसिद्धाः, अनाहारका अपि प्रतिसमय पृथिव्यप्तेजोवायवः प्रत्येकमसङ्ख्ययाः प्रतिसमयं बनस्पतयोऽनन्ताः सर्वकालं लभ्यन्ते इति तेऽपि बहवः सिद्धाः, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिक, तद्यथाआहारका अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च अथवा आहारकाश्च अनाहारकाच, तत्र द्वीन्द्रियान् प्रति भावना-15) यदा द्वीन्द्रिय एकोऽपि विग्रहगत्यापन्नो न लभ्यते तदा पूर्वोत्पन्नाः सर्वेऽप्याहारका इति प्रथमो भङ्गः, यदा पुनरेको विग्रहगत्यापनस्तदा पूर्व सर्वेऽप्याहारका उत्पद्यमानस्त्वेकोऽनाहारक इति, यदा तूत्पद्यमाना अपि बहवो ल-N भ्यन्ते तदा तृतीयः, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियेष्वपि भावना कर्तव्या, मनुष्यव्यन्तरेषु षट् भङ्गाः, ते च नैरयिकेष्विव भावनीयाः, तथा चाह-'बेईदिय जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिपसु तिवमंगो, मणूसयाणमंतरेसु छन्भ-18॥ गा' इति, नोसंज्ञीनोअसंज्ञी च केवली सिद्धश्च ततो नोसंज्ञिनोअसंज्ञित्वचिन्तायां त्रीणि पदानि, तद्यथा-जीवपदं । ॥५१५॥ मनुष्यपदं सिद्धपदं च, तत्र जीवपदे सूत्रमाह-'नोसण्णीनोअसण्णी णं भंते ! जीवे इत्यादि, स्यात्-कदाचिदाहा-19 रकः केवलिनः समुद्घाताद्यवस्थाविरहे आहारकः (कत्वात् ), स्वात्-कदाचिदनाहारकः, समुदूधातावस्थायां अयो दीप अनुक्रम [५५८ -५६१] ~ 1034 ~ Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [१-३], ------ ----- मूलं [३०९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०९] गाथा गित्वावस्थायां सिद्धावस्थायां वा भावनीयं, 'सिद्धे अणाहारए' इति सिद्धे-सिद्धविषये सूत्रे 'अणाहारए' इति वक्तव्यं, 'पुहुत्तेण'ति पृथक्त्वेन बहुत्वेन चिन्तायामिति प्रक्रमः, 'आहारगावि अणाहारगावि' तत्राहारका अपि बहूनां केवलिनां समुद्घाताद्यवस्थारहितानां सदैव लभ्यमानत्वात् , अनाहारका अपि सिद्धानां सदैव भावात्तेषां चानाहारकत्वादिति, 'मणुस्सेसु तियभंगो' इति मनुष्यविषयं भजत्रिक, तद्यथा-आहारका एष भको यदा न कोऽपि केवली समुद्घाताचवस्थागतो भवति, अथवा आहारकाच अनाहारकच एष भा एकस्मिन् केवलिनि | समुद्घाताद्यवस्थागते सति लभ्यते, अथवा आहारकाश्च अनाहारकाच एप बहुपु केवलिसमुद्घाताद्यवस्थागतेषु सत्सु वेदितव्यः । लेश्याद्वारे सामान्यतः सलेश्यसूत्रमाहसलेसे णं मते ! जीवे किं आहारए अणाहारए', गो.सिय आहारए सिय अणाहारए, एवं जाय वेमाणिते, सलेसा णं मंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा, गो०! जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, एवं कण्हलेसावि नीललेसायि काउलेसावि जीवेगिदियवओ तियभंगो, तेउलेसाए पुढविआउवणस्सइकाइयाण छम्भंगा, सेसाणं जीवादिओ तियभंगो जेसि अस्थि तेउलेसा, पम्हलेसाए सुकलेसाए य जीवादिओ तिभंगो, अलेसा जीवा मणुस्सा सिद्धा य एमचेणवि पुहुत्तेणवि नो आहारगा अणाहारगा, दारं ४ | सम्मदिट्ठीणं भंते ! जीवा किं आहा० अणा०१, गोसिय बाहा०सिय अणा, बेईदिया तेइंदिया चरिंदिया छम्भंगा, सिद्धा अणाहारमा, अवसेसाणं तियभंगो, मिच्छादिट्ठीसु जीवेगिदियवज्जो तिय-. दीप Keecccccessercelsदाहर अनुक्रम [५५८ -५६१] अत्र (२८) आहार-पदे प्रथमे उद्देशके द्वाराणि (४, ५, ६, ७) 'लेश्या', 'दृष्टि:', 'संयत', 'कषाय' आरब्धानि ~1035~ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [४-७], -------------- मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०]] २८आहा. रपदे उद्देशः२सू. ३१० ॥५१६॥ RECE दीप अनुक्रम [५६२-५६५] प्रज्ञापना- भंगो, सम्मामिच्छादिट्ठी णं भंते ! किं आहा. अणा०, गो! आहारते नो अणा०, एवं एगिदियविगलिदियवर्ज याः मल जाव वेमाणिते, एवं प्रहत्तेणवि । दारं ५। संजए णं भंते ! जीवे किं आहा० अणा, गो०! सिय आहारए सिय य. वृत्ती. अणाहारए, एवं मणूसेवि, पुराणं तियभंगो । असंजते पुच्छा, सिय आहारए सिय अणाहारए, पुहुत्तेणं जीवेगिंदियवओ तियभंगो । संजतासंजते गं जीवे० पंचिंदियतिरिक्खजोणिते मासे य३एते एगणचि पुहुनेणवि आहारगा नो अणा०, नोसंजतेनोअसंजतेनोसंजतासंजते जीवे सिद्धे य एते एगत्तेण पोहत्तेणवि नो आहा० अणा०, दारं ६ । सकसाई णं भंते ! जीवे किं आहारए अणा, गो.1 सिय आ० सिय अणाहारते, एवं जाव बेमाणिता, पुहुनेणं जीवेगिदियवज्जो तियमंगो, कोहकसाईसु जीवादीसु एवं चेव, नवरं देवेसु छन्भंगा, माणकसाईसु मायाकसाईसु य देवनेरइएसु छम्भंगा, अबसेसाणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, लोहकसाईसु नेरइएसु छम्भंगा, अवसेसेसु जीवेगिदियवजो तियभंगो, अकसाई जहा णो. सण्णीणोअसण्णी, दारं ७॥(सूत्रं ३१०) 'सलेसे णं भंते ! जीवे इत्यादि, इदं सामान्यतो जीवसूत्रमिव भाषनीय, अत्रापि सिद्धसूत्रं न वक्तव्यं, सिद्धानामलेIN श्यत्वात् , बहुवचनचिन्तायां जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पृथिव्यादिषु प्रत्येकमेक एव भङ्गस्तद्यथा-आहारका अपि अनाहारका अपि, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , शेषेषु तु नैरयिकादिषु पदेषु तु प्रत्येकं भङ्गत्रिक, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः १, अथवा आहारकाच अनाहारकश्च २, अथवा आहारकाथ अनाहारकाच| Researceaeeeeeraceae ॥५१६॥ ~10364 Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [४-७], --------------- मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०]] ३, अमीषां च भावना प्राग्वत् , तथा चाह-'जीवेगिंदियवजो तियभंगों' इति, 'एव'मित्यादि, एवं यथा सामान्यतः पसलेश्यसूत्रमुक्तं तथा कृष्णलेश्याविषयमपि नीललेश्याविषयमपि कापोतलेश्याविषयमपि सूत्रं वक्तव्यं, सर्वत्र सामान्यतो जीवपदे एकेन्द्रियेषु च प्रत्येकममङ्गकं, शेषपक्षे भङ्गत्रिकं, तेजोलेश्याविषयमपि सूत्रमेकत्वे प्राग्वत् , बहुत्वे पृथिव्यवनस्पसिषु षट् भङ्गाः, तेषु कथं तेजोलेश्यासम्भव इति चेत् ?, उच्यते, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क-1 सौधर्मेशानदेवानां तेजोलेश्यावतां तत्रोत्पादभावात्, उक्तं चास्या एव भगवत्याः प्रज्ञापनायाणौं-'जेणेतेसु भवण-18 वइवाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणया देवा उववजंति तेणं तेउलेस्सा लम्भई" इति, ते षट् भङ्गा इमे-सर्वे आहारकाः १ अथवा सर्वे अनाहारकाः २ अथवा आहारकश्चानाहारकश्च ३ अथवा आहारकश्च अनाहारकाच ४ अथ-IN वा आहारकाच अनाहारकश्च ५ अथवा आहारकाचानाहारकाच ६, शेषाणां जीवपदादारभ्य सर्वत्रापि भङ्गत्रिक, तथा चाह-'तेउलेस्साए पुढविआउवणस्सइकाइयाणं छम्भंगा, सेसाणं जीवाईओ तियभंगों' इति, आह-कि सर्वेषामविशेषेण जीवपदादारभ्य भङ्गत्रिकमुत केषांचिदत आह-जेसिं अत्थि तेउलेसा' इति, येषामस्ति तेजोलेश्या तेषामेव भङ्गत्रिकं वक्तव्यं, न शेषाणां, एतेन किमावेदितं भवति ?,-नैरयिकविपर्य तेजोवायुविषयं द्वित्रिचतुरि| १ श्रीहरिभद्रसूरिवरविहिता प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यारूपैवेयं नत्वन्या काचिचूर्णिः, अस्ति च सत्राय पाठः समयः, स्पष्टं च श्रावकधर्मपचाशकवृत्तौ औपपातिकाद्यानामुपाङ्गानां चूर्ण्यभाव इति प्रतिपादनम् । 5202929202952021-22000 दीप अनुक्रम [५६२-५६५] ~ 1037~ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१०] दीप अनुक्रम [५६२ -५६५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [३१०] पदं [२८], उद्देशकः [२], -----दारं [४-७], -------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥५१७॥ प्रज्ञापना- 8 न्द्रियविषयं च तेजोलेश्यासूत्रं न वक्तव्यमिति, तथा पद्मलेश्या शुललेश्या च येषां सम्भवति तद्विषयं तयोः सूत्रं याः - 8 वक्तव्यं तत्र पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु वैमानिकेषु च लभ्यते न शेषेष्विति तयोः प्रत्येकं य० वृत्तौ १ चत्वारि पदानि तद्यथा - सामान्यतो जीवपदं तिर्यक्पञ्चेन्द्रियपदं मनुष्यपदं वैमानिकपदं च सर्वत्राप्येकवचनचिस्तायां स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति भङ्गः, बहुवचनचिन्तायां भङ्गत्रिकं तद्यथा - सर्वेऽपि तावद् भवेयुराहारॐ काः १ अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च २ अथवा आहारकाश्चानाहारकाच ३, तथा चाह- 'पम्हलेसाए सुकलेसाए जीवाइओ तियभंगो' त्ति, अलेश्या - लेश्यातीतास्ते चायोगिकेवलिनः सिद्धार्थ, ततोऽत्र त्रीणि पदानि, तद्यथासामान्यतो जीवपदं मनुष्याः सिद्धाश्च, सर्वत्राप्येकवचनेन बहुवचनेन चानाहारका एव वक्तव्याः, एतदेवाह - 'अ| लेस्सा जीवा मणुस्सा सिद्धा य एगतेणवि पुहुत्तेणवि नो आहारगा अणाहारगा' इति, गतं लेश्याद्वारम् । सम्प्रति सम्यग्दृष्टिद्वारम् - सम्यग्दृष्टिचेही पशमिकसम्यक्त्वेन साखादनसम्यक्त्वेन क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेन वेदकसम्यक्त्वेन क्षायिकसम्यक्त्वेन वा प्रतिपत्तव्यः, सामान्यत उपादानात् तथैवाग्रे भङ्गचिन्ताया अपि करिष्यमाणत्वात्, तत्रौपशमिकसम्यग्दृष्ट्यादयः सुप्रतीताः, वेदकसम्यग्दृष्टिः पुनः क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पादयन् चरमप्रासमनुभवन्नवसेयः, एकत्वे सर्वेष्वपि जीवादिपदेषु प्रत्येकमेष भङ्गः स्यादाहारकः स्वादनाहारक इति, नवरमंत्र पृथिव्यादिविषयं सूत्रं न वक्तव्यं, तेषां सम्यग्दृष्टित्वायोगात्, 'उभयाभावो पुढवाइएस' [ उभयाभावः पृथ्व्यादिषु ] इति वचनाद्, बहुवचन Education Intentiona For Penal Use Only ~1038~ २८आहारपदे उद्दे शः २ सु.. ३१० | ॥५१७ ॥ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [४-७], -------------- मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०]] दीप अनुक्रम [५६२-५६५] विषयं सूत्रं, सामान्यतो जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपि इत्येष एव भङ्गः, उभयेषामपि सदा सम्यग्दृष्टी-II नां बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्, नैरयिकभवनपतितिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु प्रत्येकं भात्रिक, तद्यथा-कदाचित्सर्वेऽप्याहारका एव १ कदाचिदाहारका एकश्चानाहारका २, कदाचिदाहारकाच अनाहारकाच ३, द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु पुनः षड् भन्नाः, ते च प्राग्वद् भावनीयाः, द्वीन्द्रियादीनां च सम्यग्दृष्टित्वमपयोंसावस्थासम्भवि-11 साखादनसम्यक्त्वापेक्षया द्रष्टव्यं, सिद्धास्त्वनाहारकाः, एतेषां क्षायिकसम्यक्त्वयुक्तत्वात् , तथा चाह-बेइंदियतेदियचउरिदिएसु छन्भंगा, सिद्धा अणाहारगा, अवसेसाणं तियभंगों' मिथ्यादृष्टिष्वपि एकवचने सर्वत्र स्थादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपीति, उभयेषामपि सर्वदैव तेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वेन, शेषेषु तु सर्वेषु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, सिद्धसूत्रं चात्र न वक्तव्यं, सिद्धानां मिथ्यात्वापगमात्, एतदेवाह-'मिच्छादिट्ठीसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, सम्मामिच्छदिहीणं भंते ! जीवे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! आहारको नो अनाहारकः, कस्यादिति चेत्, उच्यते, इह संसारिणामनाहारकत्वं विग्रहगती, न च सम्यग्मिथ्याष्टित्वं विग्रहगताववाप्यते, कालकरणायोगात्, 'सम्मामिच्छो न कुणइ कालं' [सम्यग्मिथ्या न करोति कालं] इति वचनात् , ततः सम्यग्मिध्यादृष्टेर्विग्रहगत्वभावतोऽनाहारकत्वाभावः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण सर्वत्रापि वक्तव्यं, नवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्याः, तेषां सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वा ~ 1039~ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [४-७], -------------- मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०]] ३१० दीप अनुक्रम [५६२-५६५] प्रज्ञापना सम्भवात् , एवं बहुवचनेऽपि वक्तव्यं, तद्यथा-'सम्मामिच्छहिट्ठी णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ?, २८आहायाः मल- गो! आहारगा नो अणाहारगा, सम्मामिच्छट्टिी णं भंते ! नेरइया कि आ० अणा०, गो! आहारगानोरकपदे उय.वृत्ती. अणाहारगा, एवमेगिंदियविगलिंदियवजा जाव वेमाणिया' इति । गतं दृष्टिद्वारं, सम्प्रति संयतद्वारं-संयतत्वं च देशः ॥५१॥ मनुष्याणामेव, तत्र द्वे पदे, तद्यथा-जीवपदं मनुष्यपदं च, तत्रजीवपदे सूत्रमाह-'संजए णं भंते ! जी' इत्यादि। गत्यादिसुगम, नवरमनाहारकत्वं केवलिसमुद्घातावस्थायामयोगित्वावस्थायां च वेदितव्यं, शेषकालमाहारकत्वं, 'एवं मणू-18 प्वाहारक वादिःसू. सेविति एवं मनुष्यविषये सूत्रं वक्तव्यं, तद्यथा-'संजए णं भंते ! मणूसे किं आहारए अणाहारए ?, गोसिया आहारए सिय अणाहारए' भावनाऽनन्तरमेवोक्ता, 'पुहुत्तेणं तियभंगो'त्ति पृथक्त्वेन-बहुवचनेन जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, तथैवं-सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः, एष भनो यदा न कोऽपि केवली समुद्घातमयोगित्वं वा प्रतिपन्नो भवति तदा वेदितव्यः, अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च, एष एकस्मिन् केवलिनि समवहते शैलेशी वा 1 गते प्राप्यते, अथवा आहारकाश्चानाहारकाच, एष बहुषु केवलिषु समयहतेषु शैलेशीगतेषु वा लभ्यते । असंयतसूत्रे ॥५१८॥ एकवचने सर्वत्र स्थादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिषु च पदेषु प्रत्येकमाहारका KA अपि अनाहारका अपि इत्येष भङ्गः, शेषेषु तु नैरयिकादिषु स्थानेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, संयतासंयता-देशविरताः, ते च तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिया मनुष्या वा न शेषाः, शेषाणां खभावत एव देशविरतिपरिणामाभावाद्, एवं चैतेषां त्रीणि पदा For P OW ~ 1040~ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], .. -- उद्देशक: २], ------------- दारं [४-७], -------------- मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०]] दीप अनुक्रम [५६२-५६५] नि, तद्यथा-सामान्यतो जीवपदं तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियपदं मनुष्यपदं च, एतेषु त्रिष्वपि स्थानेषु एकवचने बहुवचने च । आहारका भवन्ति, भवान्तरगतौ केवलिसमुद्घाताद्यवस्थासु च देशविरतिपरिणामाभावात् , नोसंयतोनोअसंयतोनोसंयतासंयतः, तचिन्तायां वे पदे, तद्यथा-जीवपदं सिद्धपदं च, उभयत्राप्येकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेव वक्तव्यं, न त्वाहारकत्वं, सिद्धानामनाहारकत्वात् । गत संयतद्वारं, कषायद्वारं-'सकसाई णं भंते ! जीवे' इत्यादि, एकवचनविषयं सूत्रं सुगम, बहुवचने 'जीवेगिदियवज्जो तियभंगो'त्ति जीवपदे पृथिव्यादिषु च पञ्चसु पदेषु प्रत्येक आहारका अपि अनाहारका अपि वक्तव्यं, उभयेषामपि सकषायाणां सदैव तेषु स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , |शेषेषु तु स्थानेषु भात्रिकं, 'कोहकसाई एवं चेच'त्ति क्रोधकषाय्यपि एवमेव-सामान्यतः सकषायवदवसेयः, तत्रा-2 पि जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु चाभङ्गक, शेपेषु तु स्थानेषु भङ्गत्रिकमिति भावः, किं सर्वेष्वपि शेषेषु स्थानेषु भङ्गत्रिक?, नेत्याह-'नवरं 'देवेसु छन्भंगा' देवा हि खभावत एव लोभबहुला भवन्ति न क्रोधादिबहुलाः, ततः क्रोधकषायिण एकादयोऽपि लभ्यन्ते इति षड् भङ्गाः, तद्यथा-कदाचित् सर्वेऽप्याहारका एव क्रोधकषायिणः, एकस्यापि विग्रहगत्यापन्नस्यालभ्यमानत्वात् १, कदाचित्-सर्वेऽप्यनाहारकाः२, एकस्यापि क्रोधकपायिणःसत आहारकस्याप्राप्यमानत्वात् , क्रोधोदयो हि मानायुदयविविक्त एवंह विवक्ष्यते न मानायुदयसहितोऽपि, तेन क्रोधकषायिणः सतः कदा-1 चिदाहारकस्य सर्वथाऽप्यभावः, तथा कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः ३ कदाचिदेक आहारको बहवोऽनाहा ~1041~ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [४-७], -------------- मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०]] secemeter दीप अनुक्रम [५६२-५६५] प्रज्ञापना रकाः ४, कदाचिद्रहव आहारका एकोऽनाहारकः ५, कदाचिहच आहारकाः बहवश्चानाहारका इति ६, मानकषाया मल- यसूत्रं मायाकपायसूत्रं चैकवचने प्राग्वत् , बहुवचने विशेषमाह-माणकसाईसु' इत्यादि, मानकषायिषु मायाकषा- रकपदे - यवृत्ती. यिषु बहुवचनेन चिन्त्यमानेषु देवेषु नैरयिकेषु च प्रत्येक षड् मझाः, नैरयिका हि भवखभावतः क्रोधबहुला देवास्तु | देशः २ लोभबहुलास्ततो देवानां नैरयिकाणां च मानकषायो मायाकषायश्च प्रविरल इति प्रागुक्तप्रकारेण षट् भङ्गाः, जीव- गत्यादि॥५१९॥ पदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येकमभङ्गकमाहारकाणामनाहारकाणां च मानकषायिणां मायाकषायिणां च प्रत्येक सदैव प्वाहारकतेषु २ स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , शेषेषु तु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, लोभकपायसूत्रमप्येकवचने तथैव, बहुवचने विशे- वादिसू. पमाह-'लोभकसाईसु' इत्यादि, लोभकषायिषु नैरपिकेषु षट् भकास्तेषां लोभकषायस्वाल्पत्वात् , शेषेषु तु जीवैके ३१० न्द्रियवर्जेपु स्थानेष्वपि भात्रिक, देवेष्वपि भात्रिकमिति भावः, तेषां लोभबहुलतया षड्भनयसम्भवात् , जीवे वेकेन्द्रियेषु च प्राग्वदेष एवं भरा. आहारका अप्यनाहारका अपि इति, 'अकसाई जहा नोसपणीणोअसणी'ति | अकपाविणो यथा नोसंजिनोऽसंजिन उक्तास्तथा वक्तव्याः, किमुक्तं भवति -अकपायिणोऽपि मनुष्याः सिद्धाथ, मनुष्या उपशान्तकषायादयो बेदितव्याः, अन्येषां सकपायित्वात. तत एतेषामपि त्रीणि पदानि, तद्यथा-सामा-IMItem लान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदंच, तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकमेकवचने स्थादाहारका सादपानाहारक इति वक्तव्यं, सिद्धपदे त्वनाहारक एवेति, बहुवचने जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपीति, केवरि ~ 1042~ Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [४-७], -------------- मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०]] एeeccces दीप अनुक्रम [५६२-५६५] नामाहारकाणां सिद्धानामनाहारकाणां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , मनुष्यपदे भऋत्रिकं, सर्वेऽपि तावद् भवेयुराहारकाः१ अथवा आहारकाचानाहारकश्च २ अथवा आहारकाचानाहारकाच ३ भावना च प्रागेवानेकशः कृता, सिद्धपदे त्वनाहारक एव । गतं कषायद्वारं, सम्प्रति ज्ञानद्वारम् , तत्र पाणी जहा सम्मदिट्टी, आभिणियोहियणाणी सुयणाणी य बेईदियतेइंदियचउरिदिएसु छम्भंगा, अवसेसेसु जीवादिओ तियभंगो जेसिं अस्थि, ओहिणाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आहारगाणो अणाहारगा, अबसेसेसु जीवादिओ तियर्भगो जेसिं अस्थि ओहिनाणं, मणपजवनाणी जीवा मणूसा य एगणवि पुहुत्तेणवि आहाणो अणाहारगा, केवलनाणी जहा नोसण्णीनोअसण्णी, दारं ७1 अण्णाणी मतिअणाणी सुयअण्णाणी जीवेमिंदियवज्जो तियभंगो, विभंगनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य आहारगाणो अणा०, अवसेसेसु जीवादियो तियभंगो, दारं ८ । सजोगीसु जीवेनिंदियवजो तियभंगो, मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छदिट्ठी, नवरं पहजोगो विगलिंदियाणवि, कायजोगीसु जीवेगिदियवजो तियभंगो, अजोगी जीवमणूससिद्धा अणाहारगा, दारं ९। सागाराणागारोवउनेसु जीवेगिदियवजो तियभंगो, सिद्धा अणाहारगा, दारं १० । सवेदे जीवेगिंदियवो तियभंगो, इस्थिवेदपुरिसवेदेसुजीवादिओ तियभंगो, नपुंसगवेदए य जीवेर्गिदियवज्जो तियभंगो, अवेदए जहा केवलनाणी, दारं ११ ॥ ससरीरी जीवेगिदियवसो तियमंगो, ओरालियसरीरी जीवमसेसु तियभंगो, अवसेसा आहारगा नो अणाहारगा जेसिं अस्थि ओरालियसरीरं, घेउवियसरीरी आहारगसरीरी य | अत्र (२८) आहार-पदे प्रथमे उद्देशके द्वाराणि (८, ९, १०, ११, १२, १३ ) 'ज्ञान', 'योगः', 'उपयोग, 'वेद', शरीरं,' पर्याप्ति:' आरब्धानि ~1043~ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६ -५७१] प्रज्ञापना बाः मल य० वृत्ती. ॥५२०॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [२८], मूलं [३११] उद्देशक: [२], GT [C-83], -------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः आहारगा नो अणा० जेसि अत्थि, तेयकम्मसरीरी जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, असरीरी जीवा सिद्धा य नो आहारगा अणा० दारं १२, आहारपअत्तीए पजते सरीरपत्तीए पत्ते इंदियपञ्जत्तीए पजते आणापाणपत्तीए पञ्जतए भासामणपजत्तीए पज्जचते एतासु पंचसुवि पत्ती जीवेसु मणूसेसु य तियभंगो, अवसेसा आहारगा नो अणाहारगा, भासामणपती पंचिंदियाणं अवसेसाणं नत्थि, आहारपज्जती अपअत्तए जो आहारए अणा०, एगतेणवि पुहुरोणवि, सरीरपत्ती अपजत्तए सिय आहारए सिय अणाहारए, उवरिडियासु चउसु अपजतीसु नेरइयदेवमणुसेसु छन्गंगा, अवसेसाणं जीवेगिंदियवओो तियभंगो, भासामणपअत्तरसु जीवेसु पंचिंदियति रिक्खजोगिएसु य तियभंगो, नेरइयदेवमणुसु छन्भंगा, सवपदेसु एगत्तपोहणं जीवादिया दंडगा पुच्छाए माणितवा जस्स जं अत्थि तस्स तं पुच्छिञ्जति जस्स जं णत्थि तस्स तं न पुच्छति जाव मासामणपजची अपजत्तरसु नेरइयदेवमथुएस छ भंगा, सेसेसु तियभंगो ( सू ३११ ) आहारपयस्स बितिओ उद्देसो समत्तो ॥ अट्ठावीसहमं पयं समतं ॥ २८ ॥ 'नाणी जहा सम्मद्दिट्ठि'त्ति ज्ञानी यथा प्राक् सम्यग्रदृष्टिरुक्तस्तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नाणी णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो० । सिय आहारए सिय अणाहारए, नाणी णं भंते! नेरइए कि आहारए अणाहारए ?, गो० ! सिय आ० सिय अणाहारए, एवं एर्गिदियवज्जं जाव बेमाणिए, नाणी णं भंते । जीवा किं आहारगा अणाहारगा?, गो० ! आहारगावि अणाहारगावि, नाणी णं भंते ! नेरइया कि आहारगा अणाहारगा १, गो० ! सच्चेवि ताय Eaton International For Parts Only ~ 1044~ २८आहारकपदे उ देशः २ गत्यादिस्वाहारकखादिःसू. ३११ ॥५२०॥ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [८-१३], -------------- मूलं [३११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६-५७१] होज आहारगा १, अहवा आहारगा य अणाहारगे य २ अहवा आहारगा य अणाहारगा य ३, एवं जाव थणियकु-1 मारा, बेइंदियाणं पुच्छा, गो० सवेवि ताव होज आहारगा य १ अहवा अणाहारगा य २ अहवा आहारए य अणाहारए य ३, अहवा आहारगे य अणाहारगा ये ४, अहवा आहारगा य. अणाहारगे य ५, अहवा आहारगा [य अणाहारगा य ६, एवं तेइंदियचउरिदियावि भाणितचा, अवसेसा जाब बेमाणिया जहा नेरइया, सिद्धाणं पुच्छा, गो ! अणाहारगा य' इति, आभिनिवोधिकज्ञानिसूत्रे श्रुतज्ञानिसूत्रे चैकवचने प्राग्वदवसेयं, बहुवचने द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु षड् भङ्गाः, अवशेषेषु तु जीवादिपु स्थानेषु एकेन्द्रियवर्जेषु भङ्गत्रिक, तचैवम्-'आभिनियोहियनाNणी णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा', गो! सधेवि ताव होज आहारगा १ अहवा आहारगा य अणाहापारगे य २ अहया आहारगाय अणाहारगा य ३ इत्यादि, तथा चाह-आभिणियोहियनाणी सुयनाणी य बेईदियतेई दियचउरिदिएसु छम्भंगा, अवसेसेसु जीवाइओ तियभंगो, जेसिं अस्थि' इति सुगम, नवरं 'जेसिं अस्थि' येषां जीवानामाभिनिवोधिकज्ञानश्रुतज्ञाने स्तस्तेषु भात्रिकं वक्तव्यं, न शेषेषु पृथिव्यादिविति, अवधिज्ञानसूत्रमेकवचने तथैव, बहुवचनचिन्तायां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका आहारका एव न त्वनाहारकाः, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह पञ्चेन्द्रियतिरचामनाहारकत्वं विग्रहगती, न च तदानीं तेषां गुणप्रत्ययतोऽवधिसम्भवो, गुणानामेवासम्भवात् , नाप्यप्रतिपतितावधिर्देवो मनुष्यो वा तिर्यरुत्पद्यते, ततोऽवधिज्ञानिनः सतः पश्चेन्द्रियतिरश्चोऽनाहारकत्वायोगः, शेषेषु तु स्थानेष्येकेन्द्रिय ~1045~ Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [८-१३], -------------- मूलं [३११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६-५७१] विकलेन्द्रियवर्जेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, तदेवाह-ओहिनाणी णं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आहारगा अवसेसेसु जीवाइओ २८आहामज्ञापनाया। मल तियभंगो जेसिं अस्थि ओहिणाण'मिति, मनःपर्यायज्ञानं मनुष्याणामेव, ततो द्वे पदे, तद्यथा-जीवपदं मनुष्यपदं चारकपदे जयवृत्ती. उभयत्रापि चैकवचने बहुवचने च मनःपर्यायज्ञानिन आहारका एव वक्तव्याः, न त्वनाहारकाः, विग्रहगत्याद्यवस्थायां दशः२ मनःपर्यायज्ञानासम्भवात् , केवलज्ञानी यथा प्राय नोसंज्ञीनोअसंज्ञी उक्तस्तथा वक्तव्यः, किमुक्तं भवति ।-केवलज्ञान-181 गत्यादि॥५२॥ चिन्तायामपि त्रीणि पदानि, तद्यथा-सामान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च, तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्य प्वाहारक त्वादिःसू. पदे चैकवचने स्वादाहारका स्वादनाहारक इति वक्तव्यं, सिद्धपदे त्वनाहारक इति, बहुवचने सामान्यतो जीवपदे ATM आहारका अपि अनाहारका अपि, मनुष्यपदे भात्रिकं, तच्च प्रागेवोपदर्शितं, सिद्धपदे त्वनाहारका अपि । अज्ञानिसूत्र मत्यज्ञानिसूत्रं श्रुताज्ञानिसूत्र एकवचने प्रागिव, बहुवचनचिन्तायां जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पृथिव्यादिषु प्रत्येकमाहा|रका अनाहारका अपि इति वक्तव्यं, शेषेषु तु भङ्गत्रिकं, विभङ्गज्ञानिसूत्रमप्येकवचने तथैव, बहुवचनचिन्तायां पञ्चे|न्द्रियतियेग्योनिका मनुष्याचाहारका एव वक्तव्याः, न त्वनाहारकाः, विभङ्गज्ञानसहितस्य विग्रहगया तियेपश्चन्द्रिरायेषु मनुष्येषु चोत्पत्त्यसम्भवात् , अवशेषेषु स्थानेषु एकेन्द्रियषिकलेन्द्रियवर्जेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं । गतं ज्ञानद्वारं, सम्मति ॥२१॥ IS योगद्वार-तत्र सामान्यतः सयोगिसूत्रमेकवचने तथैव, बहुवचने जीवएकेन्द्रियपदानि वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु मात्रिक, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च पुनः प्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपीति भना, उभयेषामपि सदेव तेषु ~10464 Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [८-१३], -------------- मूलं [३११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६-५७१] स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् 'मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छद्दिही यत्ति मनोयोगिनो वाग्योगिनव यथा । प्राक् सम्यग्मिथ्यादृष्टय उक्तास्तथा वक्तव्याः, एकवचने बहुवचने चाहारका एव वक्तव्या न त्वनाहारका इति भावः, नवरं 'वइजोगो विगलिंदियाणवि'त्ति नवरमिति-सम्यग्मिध्यादृष्टिसूत्रादत्रायं विशेषः, सम्यग्मिच्यादृष्टित्वं विकलेन्द्रियाणां नास्तीति तत्सूत्रं तत्र नोकं, वाग्योगः पुनर्विकलेन्द्रियाणामप्यस्तीति तत्सूत्रमपि वाग्योगे वक्तव्यं, तबैवम्-'मणजोगी णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो! आहारए नो अणाहारए, एवं एगिदियविगलिंदिययज जाच वेमाणिए, एवं पुडुत्तेणवि, वइजोगीणं भंते ! किं आहा अणा० १, गो! आहारए नो अणाहारए, एवं एगिदियवजं जाव वेमाणिए, एवं पुहत्तेणवित्ति, काययोगिसूत्रमप्येकवचने बहुवचने च सामान्यतः सयोगिसूत्रमिव, अयोगिनो मनुष्याः सिद्धाश्च, तेनात्र त्रीणि पदानि, तद्यथा-जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च, त्रिष्वपि स्थानेप्येकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेव । गतं योगद्वारं, अधुनोपयोगद्वारमाह-तत्र साकारोपयोगसूत्रे अनाकारोपयोगसूत्रे च प्रत्येकमेकवचने सर्वत्र स्वादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, सिद्धपदे त्वनाहारक इति, बहुवचने । जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु चाहारका अपि अनाहारका अपि इति भङ्गः, शेषेषु भङ्गत्रिकं, सिद्धास्त्वनाहारका इति, सूत्रोल्लेखस्त्वयम्-'सागारोवउत्ते ण भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो.! सिय आहारए सिय अणाहारए। इत्यादि । गतं उपयोगद्वारं, वेदद्वारे सामान्यतः सवेदसूत्रमेकवचने स्वादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीव उमरsetatotretserotocce 26LaCaeoe ~1047~ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [८-१३], -------------- मूलं [३११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३११] प्रज्ञापना याः मलयवृत्ती. ॥५२च्या देशः २ दीप अनुक्रम [५६६-५७१] पदमेकेन्द्रियांश्च वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु भङ्गत्रिक, जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पुनः प्रत्येकमभनकं, आहारका अनाहा-18 नाहार२८आहा|रका अपीति, खीवेदसूत्रं पुरुषवेदसूत्रं च एकवचने तथैव, नवरमत्र नैरयिकैकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्याः , तेषां रकपदे उनपुंसकत्वात् , बहुवचने जीवादिषु पदेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, नपुंसकवेदेऽपि सूत्रमेकवचने तथैव, नवरमत्र भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका न वक्तव्यास्तेषामनपुंसकत्वाद् , बहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेपु भङ्गत्रिक, जीवपदे एकेन्द्रिय गत्यादिपदेषु च पृथिव्यादिपु पुनरभकं प्रागुक्तखरूपमिति, अवेदो यथा केवली तथा एकवचने बहुवचने च वक्तव्यः, वाहारकजीवपदे मनुष्यपदे च एकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीवपदे आहारका अपि अनाहारका । त्वादिसू. ३११ | अपि, मनुष्येषु भङ्गत्रिकं, सिद्धत्वेऽनाहारका इति वक्तव्यमिति भावः । गतं वेदद्वारं, शरीरद्वारे सामान्यतः शरीरसूत्रे सर्वत्रैकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीवएकेन्द्रियवर्जेषु शेषेषु स्थानेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिक, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येकमभङ्गकं प्रागुक्तमिति, औदारिकशरीरसूत्रमेकवचने तथैव, नवरमत्र नैरयिकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका न वक्तव्यास्तेषामौदारिकशरीराभावात् , बहुवचने जीवपदे मनुष्यपदेषु च प्रत्येकं भात्रिकं, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः, एष भको यदान कोऽपि केवली समुद्घातगतोऽयोगी वा, अथवा आ ॥५२था हारकाथानाहारकश्च, एष एकस्मिन् केवलिनि समुद्घातगते अयोगिनि वा सति प्राप्यते, अथवा आहारकाचानाहारकाच, एष भको बहुषु केवलिसमुघातगतेषु अयोगिषु वा सत्सु वेदयितव्यः, शेषास्त्वेकेन्द्रियहीन्द्रियत्रीन्द्रिय ~1048~ Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६ -५७१] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [२८], मूलं [३११] उद्देशक: [२], दारं [८-१३], ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः चतुरिन्द्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रिया आहारका एव वक्तव्याः, न त्वनाहारकाः, विग्रहगत्युत्तीर्णानामेवौदा रिकशरीरसम्भवातू, वैक्रिय आहारकशरीरिणश्च सर्वेऽप्येकवचने बहुवचने चाहारका एव न त्वनाहारकाः, नवरं येषां वैक्रियमाहारकं वा सम्भवति त एव वक्तव्या नान्ये, तत्र वैक्रियं नैरधिकभवनपतिवायुकायिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु आहारकं मनुष्यष्वेव, सूत्रोलेखश्चायं - 'वेउचियसरीरी णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए १, गोयमा ! आ० णो अणा०, वेउचियसरीरे णं भंते ! णेरइए कि आहारए अणाहारए ?, गो० ! आ० नो अणा०' ४ इत्यादि, तैजसकार्मणशरीरिसूत्रे चैकवचने सर्वत्र स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेषु शेषेषु ४ स्थानेषु भङ्गत्रिकं, जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पुनरभङ्गकं, अशरीरिणः- सिद्धास्तेन तत्र द्वे एव पदे, तद्यथा-जीवाः सिद्धाश्च तत्र एकवचने बहुवचने चोभयत्राप्यनाहारका एव । गतं शरीरद्वारं सम्प्रति पर्याप्तिद्वारम् - तत्रागमे पर्यातयः पञ्च, भाषामनः पर्याप्त्योरेकत्वेन विचक्षणात् तथा चाहारकपर्याप्त्या पर्यासे शरीरपर्यात्या पर्यासे इन्द्रियपर्यात्या पर्याप्ते प्राणापानपर्याया पर्याप्ते भाषामनः पर्याप्त्या पर्याप्ते चिन्त्यमाने, अत्रैव सर्वसङ्कलनामाह-- एतासु पञ्चस्वपि पर्याप्तिषु समर्थितासु चिन्त्यमानाखिति शेषः प्रत्येकमेकवचने जीवपदे मनुष्यपदे च स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, शेषेषु तु स्थानेषु आहारक इति, बहुवचने 'जीवेसु मणुस्सेसु य तियभंगो'त्ति जीवपदे मनुष्यपदे च भङ्गत्रिकं वक्तव्यं तचौदारिकशरीरिसूत्रमिव भावनीयं, अवशेषाः सर्वेऽप्याहारका वक्तव्याः, नवरं भाषामनः पर्यासिः For Parata Lise Only ~ 1049~ Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [८-१३], -------------- मूलं [३११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६-५७१] प्रज्ञापना पञ्चेन्द्रियाणामेवेति तत्सूत्रे एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्याः, किन्तु शेषाः, एतदेवाह-'भासामणपजत्ती पंचिंदि-२८आहाया: मल- याणं अवसेसाणं नत्थि' इति, आहारपर्याप्त्यपर्यासकसूत्रे एकवचने सर्वत्राप्यनाहारको वक्तव्यो, नो आहारकः, रकपदे उयवृत्ती. आहारपर्याप्त्याऽपर्याप्सो विग्रहगतावेच लभ्यते, उपपातक्षेत्रं प्राप्तस्य प्रथमसमय एवाहारपर्याप्त्या पर्यासत्वभावाद् देश २ EN गत्यादिअन्यथा तस्मिन् समये आहारकत्वानुपपत्तेः, बहुवचने त्वनाहारका इति, शरीरपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे एकवचने सर्वत्र ॥५२॥ स्वादाहारकः स्यादनाहारक इति, तत्र विग्रहगतावनाहारक उपपातक्षेत्रप्राप्तस्तु शरीरपयोप्तिपरिसमाप्ति यावदाहारक प्वाहारकइति, एवमिन्द्रियपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे प्राणापानपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे भाषामनःपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे च प्रत्येक एकवचने स्वादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, बहुवचने 'उवरिलियासु' इत्यादि, उपरितनीषु शरीरापर्याप्तिप्रभृतिषु चतसृषु अपर्याप्तिधु चिन्त्यमानासु प्रत्येक नैरयिकदेवमनुष्येषु षड् भङ्गा वक्तव्याः, तद्यथा-कदाचित्सर्वेऽप्यनाहारका एव १ कदाचित्सर्वेऽप्याहारका एव २ कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः ३ कदाचिदेक आहारको बहवोऽनाहारकाः कदाचिदहव आहारकाः एकश्चानाहारकः ५ कदाचिद्वहव आहारका बहबश्वानाहारकाः ६, अवशेषाणां नैरयिकदेवम नुष्यन्यतिरिक्तानां जीवेकेन्द्रियवर्जानां मात्रिक वक्तव्यं, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद्भवेयुः आहारकाः१ अथवा आहा- ५२२॥ शरकाव अनाहारकश्च २ अथवा आहारकाथानाहारकाध ३, जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पुनः शरीरपयोत्यपयोससूत्रे इन्द्रियपयोत्यपयोप्ससूत्रे प्राणापानपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे च प्रत्येकमभङ्गक आहारका अपि अनाहारका अपि, उमयेषामपि। ~1050~ Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२८], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [८-१३], -------------- मूलं [३११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६-५७१] च सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , भाषामनःपर्याप्त्यपर्याप्तकास्त्वेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न भवन्ति, किन्तु पञ्चेन्द्रिया एव, येषां हि भाषामनःपर्याप्तिसम्भवोऽस्ति त एव तत्पर्याप्यपर्यासकाः प्रोच्यन्ते, न शेषा इति, ततस्तत्सूत्रे बहुवचने जीवपदे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपदे च भङ्गत्रिकं, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो हि सम्मूर्छिमाः सदैव बहयो लभ्यन्ते, ततो यावदद्याप्यन्यो विग्रहगत्यापन्नः पञ्चेन्द्रियतिर्यग् न लभ्यते तावदेष भङ्गः-सर्वेऽपि तावद् भवेयुराहारका इति १, एकस्मिन् तस्मिन् विग्रहगत्यापन्ने लभ्यमाने द्वितीयो भङ्गः-आहारकाश्चानाहारकश्चेति २, यदा तु विग्रहगत्यापन्ना अपि बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयो भङ्गा-आहारकाचानाहारकाश्चेति ३, जीवपदेऽपि भङ्गत्रिकं एतदपेक्षया प्रत्येयं, नैरयिकदेवमनुष्येषु प्रत्येकं पडू भङ्गाः, ते च प्रागेवोक्ताः, इह भव्यपदादारभ्य प्राय एकत्वेन बदुत्वेन च वैविक्त्येन सूत्राणि जीवादिदण्डकक्रमेण नोक्तानि ततो मा भून्मन्दमतीनां सम्मोह इति तद्विषयमतिदेशमाह-'सधपएसु एगचे सादि, एते जीवादयो दण्डकाः सर्वपदेषु-सर्वेष्वपि पदेषु एकत्वेन बदुत्वेन च पृच्छया उपलक्षणमेतन्निवंचनेन। मणितव्याः, किं सर्वत्राप्यविशेषेण कर्त्तव्याः १, नेत्साह-'जस्से सादि, यस्य यदस्ति तस्य तत्पृच्छयते-तद्विषयं सूत्रं भण्यते, यस्य पुनः यन्नास्ति न तस्य तत्प्रष्टव्यं-न तद्विषयं तस्य सूत्रं वक्तव्यमिति भावः, कियडूरं यावदेवं कर्तव्यमिति शङ्कायां चरमदण्डकवक्तव्यतामुपदिशति-'जाव भासामणपज्जतीए अपज्जत्तपसु' इत्यादि, भाविताथै, इहा|धिकृतार्थभावनार्थमिमाः पूर्वाचार्यप्रतिपादिता गाथा:-"सिद्धेगिंदियसहिया जहिं तु जीवा अभंगयं तत्थ । सिद्धे tateracticersersesecesters ~1051~ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३११] दीप अनुक्रम [५६६-५७१] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥५२४॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [२८], मूलं [३११] उद्देशक: [२], GT [C-83], -------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१५] उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः गिंदियवज्जेहिं होइ जीवेहिं तियभंगो ॥ १॥ असण्णीसु य नेरइय देवमणुए होति छन्भंगा । पुढविदगत रुगणेसु य भंगा तेउलेसाए ॥ २ ॥ कोहे माणे माया छष्भंगा सुरगणेसु सत्रेसुं । माणे माया लोभे णेरइएहिंपि छन्भंगा ॥ ॥ ३ ॥ आभिणित्रोहियनाणे सुयनाणे खलु तहेव सम्मत्ते । छब्भंगा खलु नियमा त्रियतियच उरिदिए भवे ॥ ४ ॥ उवरिलापजत्ती चउसु णेरइयदेवमणुपसुं । उम्भंगा खलु नियमा वजे पढमा उ अपजती ॥ ५ ॥ सण्णी विसुद्धलेसा संजय हिलि तिसु य नाणेसु । श्रीपुरिसाण य वेदेवि छन्भंग अवेय तियभंगो ॥ ६ ॥ सम्मामिच्छामणवहमणनाणे बालपंडियविधी । जाहारसरीरंमि य नियमा आहारया होति ॥ ७ ॥ ओहिंमि विभंगंमि य नियमा आहारया उ नायवा । पंचिंदिया तिरिच्छा मणुया पुण होति विभंगे ॥ ८ ॥ ओरालसरीरं मि य पज्जतीणं च पंचसु तदेव । तियभंगो जियमणुए होंति आहारगा सेसा ॥ ९ ॥ णोभवअभविय लेसा अजोगिणो तहय होंति असरीरी । पढमाए अपजत्तीऍ ते उ नियमा अणाहारा ॥ १० ॥ सन्नासन्नविउत्ता अवेय अकसाइणो य केवलि - णो । तियभंग एक्कवयणे सिद्धाऽणाहारया होति ॥ ११ ॥” एताश्च सर्वा अपि गाथा उक्तार्थप्रतिपादकत्वाद् भावितार्था इति न भूयो भाव्यन्ते ग्रन्थगौरवभयात्, नवरं, 'एकत्रयणे सिद्धाणाहारया होति' इति 'एकवयणे' इत्यत्र तृतीयार्थे सप्तमी एकवचनेन एकार्थेनेति भावः, सर्वत्र सिद्धा अनाहारका भवन्तीति विज्ञेयम् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकाय आहारपदस्य द्वितीय उद्देशकः परिसमासः ॥ २ ॥ समासमष्टाविंशतितममाहाराख्यं पदम् ॥ २८॥ ४ अत्र पद (२८) "आहार" परिसमाप्तम् For Paren ~1052~ २८आहा रपदे उद्दे शः २ सू. ३११ ॥५२४॥ Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२९], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अथ एकोनत्रिंशत्तमं उपयोगाख्यं पदं ॥ २९ ॥ प्रत सूत्रांक [३१२] तदेवमुक्तमष्टाविंशतितममाहाराख्यं पदं, साम्प्रतमेकोनत्रिंशत्तममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेष आहारपरिणाम उक्तः, इह तु ज्ञानपरिणामविशेषः उपयोगः प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् काविहे गं भंते । उवओगे पं०१, गोदुविहे उवओगे पं०,०-सागारोवओगे य अणागारोवओगे य, सागारोवओगे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! अट्टविहे पं०, तं०-आभिणिबोहियनाणसागारोबओगे सुयणाणसामारोवओगे ओहिणाणसा० मणपज्जवनाणसा० केवलनाणसा०मतिअण्णाणसा० सुयअण्णाणसा०विभंगणाणसा० अणागारोबओगे णं भंते! कतिविहे पं०१, गो. चउबिहे पं०, ०-चपखुर्दसणअणागारोवओगे अचक्खुदंसणअणा० ओहिदसणअणागा. केवलदसणअणागारोवओगे य। एवं जीवाण, नेरइयाण भंते! कतिविधे उवओगे पं०१, गो० दुविधे उवओगे पं०,०-- सागारोवओगे य अणागारोवओगे य, नेरइयाणं भंते ! सागारोवओगे काबिहे पं०१, गो.! छबिहे पं०, ०–मतिणाणसागारोवओगे सुयणाणसा० ओहिणाणसा० मतिअण्णाणसा० सुयअण्णाण विभंगणाणसा०, नेरइया णं भंते ! अणागारोवओगे काविहे पं० त०१, गो! तिविहे पं०-चक्खुदंसण अचक्खुदसण ओहिदसणअणा०, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोला दु० उवओगे पंत--सागारो० अणागारोब०, पुढवि० सागारोवओगे कतिविधे पं०१, गोक RSASSRS208232220288 दीप अनुक्रम [५७२] FOON अथ पद (२९) "उपयोग" आरब्धम् ~1053~ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२९], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २९ उप प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक योगपदे सत्र ३१२ ॥५२५॥ [३१२] दु०५०, ०-मतिअण्णाण सुया, पुढविका० अणागारोबओगे कतिविधे पं०१, मो०! एगे अचक्खुदसणअणागारोवओगे पं०, एवं जाव वणप्फइकाइयाणं । बेइंदिगाणं पुच्छा, गो०! दुविधे उवओगे पं०,०-सागारोबओगे अणामारोवओगे य, बेइंदियाणं भंते ! सागारोवओगे कतिविधे पं०१, गो० चउबिहे पं०,०-आभिणि सुय० मतिअण्णाण सुतअण्णाणसा०, बेइंदियाणं अणा० कइ०५०, गो०! एगे अचखुर्दसण अणागारोवओगे, एवं तेइंदियाणवि, चउरिदियाणवि एवं चेव, नवरं अणागारोबओगे दुविधे पं००-चक्खुदंसणअणा० अचक्खुदसणअणा० । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा नेरइयाणं । मणुस्साणं जहा ओहिए उवओगे भणितं तहेव भाणित । वाणमंतरजोतिसियवेमाणियाणं भंते 10 जहा मेरइयाणं । जीवा णं भंते ! किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता, गो! सागारोवउचावि अणा०, से केणडेणं भंते । एवं बुधइ जीवा सागारोवउचावि अणा०, गो० जेणं जीवा आभिणिचोहियणाण सुय०ओहिमण केवल०महअणाणसुयअण्णाणविभंगणाणोवउत्ताते णं जीवा सागारोवउत्ता, जेणं जीवा चक्खुदंसणअचक्खुदसण ओहिदसणकेवलदसणोवउत्ता ते णं जीरा अणागारोवउत्ता, से तेणद्वेणं गो! एवं वुचह--जीवा सागारोवउत्ताचि अणागारो०, नेरइया गं भंते । किं सागारोवउत्ता अणा०१, मो० नेरइया सांगारोवउत्तावि अणागा०, से केणटेणं भंते ! एवं चुचति', गो० जे नेरइया आभिणियोहियणाण सय ओहि मतिअण्णाणसुय० विभंगनाणोवउत्ता ते ण नेरइया सागा०, जे ण नेरइया चक्खुदसणअचखुर्दसणओहि० ते ण नेरइया अणागारोवउत्ता, से तेणद्वेणं गो एवं बु० जाव सागारोवउत्तावि अणागारोबउत्ताचि, एवं जाव थणियकुमारा। पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो० तहेव जाच जेणं पुढवि० मतिअण्णाणसुयअ दीप अनुक्रम [५७२] eseeeeee १५२५॥ ॐasaya92929 ~10544 Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२९], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१२] Seceseises Proeceaeeeeee ण्णाणोवउत्ता ते णं पुढवि० सागारोब०, जे णं पुढवि. अचक्खुदंसणोवउत्ता ते णं पुढ० अणागारोवउत्ता, से तेणडेणं गो! एवं बु० जाव वणफइकाइया । बेइंदियाणं भंते ! अट्ठसहिया तहेव पुच्छा, गो०! जाव जे गं बेइंदिया आमिणिबोहिय०सुयणाणमतिअण्णाणसुयअण्णाणोवउत्चा ते गं बेइंदिया सागारोवउत्ता, जे णं इंदिया अचक्खुदंसणोवउत्ता तेणं अणागा०, से तेणद्वेणं, गो! एवं बु० एवं जाव चउरिदिया, गवरं चक्खुदंसणं अमहियं चउरिदियाणंति, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, मणूसा जहा जीवा, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा नेरहया (सूत्र ३१२) पण्णवणाए भगवईए एगोणतीसइमं उवओगपर्य समत्तं ॥ २९ ॥ 'कइविहे णं भंते ! उबओगे पं.' कतिविधः-कतिप्रकारः, सूत्रे एकारो मागधभाषालक्षणवशात् , णमिति वाक्यालती, भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् ! 'उपयोगः' उपयोजनमुपयोगः भावे घन्, यद्वा उपयुज्यते-वस्तुप-10 रिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः-पुंनाम्नि घ' इति करणे धप्रत्ययो बोधरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो व्यापारः प्रज्ञप्तः-प्रतिपादितः१, भगवानाह-'गोयमे त्यादि, आकार:-प्रतिनियतोऽर्थग्रहणपरिणामः, 'आगारो अ |विसेसो' इति वचनात् , सह आकारेण वर्तत इति साकारः स चासावुपयोगच साकारोपयोगः, किमुक्तं भवति ?-11 सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुआन आत्मा यदा सपर्यायमेव वस्तु परिच्छिनत्ति तदा स उपयोगः साकार उच्यते इति, स च कालतः छमस्थानामन्तर्मुहू कालं केवलिनामेकसामयिका, तथा न विद्यते यथोक्तरूप आकारो दीप अनुक्रम [५७२] ~1055~ Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१२] दीप अनुक्रम [५७२] प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ||५२६॥ पदं [२९], Education intemational “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-], यत्र सोऽनाकारः स चासाबुपयोगश्च अनाकारोपयोगः, यस्तु वस्तुनः सामान्यरूपतया परिच्छेदः सोऽनाकारोप| योगः स्कन्धावारोपयोगवदित्यर्थः, असावपि स्थानामान्तर्मुहूर्तिकः परमनाकारोपयोगकालात् साकारोपयोगकालः सङ्ख्येयगुणः प्रतिपत्तव्यः, पर्यायपरिच्छेदकतया चिरकाललगनात, छद्मस्थानां तथाखाभान्यात्, केवलिनां वनाकारोऽप्युपयोग एकसामयिकः चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ, तत्र साकारोपयोगभेदानभिधित्सुरिदमाह'सागारोवओगे णं भंते ।' इति, अर्थाभिमुखो नियतः --- प्रतिनियतस्वरूपो बोधो - बोधविशेषो अभिनिबोधः अ|भिनिबोध एव आभिनिबोधिकं, अभिनिबोधशब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमात् 'विनयादिभ्य' इत्यनेन खार्थे इकण् प्रत्ययः, 'अतिवर्त्तन्ते खार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानी 'तिवचनादत्र नपुंसकता, यथा विनय एव वैनयिकमित्यत्र, अथवा अभिनिबुध्यतेऽस्मादस्मिन्वेति अभिनिबोधः- तदावरणकर्मक्षयोपशमस्तेन निर्वृत्तमाभिनिवोधिकं तथ तज्ज्ञानं च आभिनिवोधिकज्ञानं, स च इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यदेशावस्थितवस्तुविषयः स्फुटप्रतिभासो बोधवि ६ शेष इत्यर्थः, स चासौ साकारोपयोगश्च आभिनिषोधिकज्ञानसाकारोपयोगः, एवं सर्वत्रापि समासः कर्त्तव्यः तथा श्रवणं श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दवाच्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतः समानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमितोऽवगमविशेष इत्यर्थः श्रुतं च तत् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, ततो भूयः साकारोपयोगशब्देन विशेषणसमासः, तथाऽवश For Fans Only मूलं [ ३१२] ~1056~ २९ उप योगपदे सूत्रं ३१२ ॥५२६॥ Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२९], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१२] दोऽधःशब्दार्थः, अब-अधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, यद्वा अवधिः-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, अवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानं, तथा परिः-सर्वतो, भावे अयनं अवः, 'तुदादिभ्योऽनका वित्यधिकारे 'अकिती चे'त्यकारप्रत्ययः, अवनं गमनमिति पर्यायाः, परि | अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, पाठान्तरं पर्यय इति, तत्र पर्ययणं पर्ययः, भावेऽल्प्रत्ययः, मनसि मनसो वा पर्ययः मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स चासौ ज्ञानं च मनःपयेवज्ञान मनःपर्ययज्ञानं वा, अधया मनःपर्यायेति पाठान्तरं, तत्र मनांसि पर्येति-सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनःपयायं, 'कर्मणोऽण' मनःपर्यायं च तत् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानं, यदिवा मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः, पोया धर्मा बाझवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यनन्तरं, तेषु तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, इदं चार्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्तिसंज्ञिमनोगतद्रग्यालम्बनं, तथा केवलं-एकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् , 'नटुंमि उ छाउमथिए नाणे [[नटे तु छानस्थिके ज्ञाने] इति वचनात् शुद्धं पा केवलं तदावरणमलकलङ्कविगमात् सकलं या केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारण वा केवलमनन्यसरशत्वात् अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात् , केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानं, तथा मतिश्रुतावधय एव यदा मिथ्यात्वकलुषिता भवन्ति तदा यथाक्रमं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानव्यपदेशालभन्ते, उक्तं च-"आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्त"मिति, 'विभङ्ग' इति | censernetseekerse दीप अनुक्रम [५७२] ~1057~ Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२९], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥५२७॥ [३१२] [विपरीतो भङ्गः-परिच्छित्तिप्रकारो यस्य तत् विभ, तच तत् ज्ञानं च विभङ्गज्ञान, सर्वत्रापि च साकारोपयोगशब्देन २९ उपविशेषणसमासः । अनाकारोपयोगभेदानभिधित्सुराह-'अणागारोवओगे णं भंते । इत्यादि, तत्र चक्षुपा-चक्षुरिन्द्रियेण दर्शनं-रूपसामान्यग्रहणलक्षणं चक्षुर्दर्शनं तच तत् अनाकारोपयोगः चक्षुर्दर्शनानाकारोपयोगः, अचक्षुषाचक्षुर्वशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं-खखविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनं, ततोऽनाकारोपयोगशब्देन विशेषणसमासः, एवमुत्तरत्रापि, अवधिरेव दर्शनं-सामान्यग्रहणमवधिदर्शनं, केवलमेव सकलजगदूभाविसमस्तवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपं । दर्शनं केवलदर्शनं, अथ मनःपर्यायदर्शनमपि कस्मान्न भवति येन पञ्चमोऽनाकारोपयोगो न भवतीति चेत् ?, उच्यते, मनःपर्यायविषयं हि ज्ञानं मनसः पर्यायाने विविक्तान गृहृदुपजायते, पर्यायाश्च विशेषाः, विशेषालम्बनं च ज्ञान ज्ञानमेन दर्शनमिति मनःपर्यायदर्शनाभावस्तदभावाच पञ्चमानाकारोपयोगासम्भव इति । एवं जीवाण'मित्यादि, एवं निर्विशेषणोपयोगवत् जीवानामप्युपयोगो द्विविधः प्रज्ञप्तो भणितव्यः, तत्रापि साकारोपयोगोऽष्टविधोऽनाकारोपयोगश्चतुर्विधः, एतदुक्तं भवति-यथा प्राक् जीवपदरहितमुपयोगसूत्रं सामान्यत उक्तं तथा जीवपदसहितमपि भणितव्यं, तद्यथा-'जीवाणं भंते ! कतिविधे उपओगे पं०१.गो01 दविषे उवओगे पं०, तं-सागारोवोग। ॥५२७॥ य अणागारोवओगे य, जीवाणं भंते | सागारोवओगे कतिविधे पं०१.गो.! अद्रविधे पं० त०' इत्यादि, तदेवं सामान्यतो जीवानामुपयोगश्चिन्तितः, सम्प्रति चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण नैरयिकादीनां चिन्तयन्नाह-निरइयाणं कजन0000000 दीप अनुक्रम [५७२] ~1058~ Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२९], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१२] दीप भंते।' इत्यादि, नैरयिका हि द्विविधा भवन्ति-सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च, अवधिरपि तेषां भवप्रत्ययोऽवश्यमुपजायते, भवप्रत्ययो नारकदेवाना' (तत्त्वा० अ०१ सू०२२) मिति वचनात् , तत्र सम्यग्दृष्टीनां मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधि| ज्ञानानि मिथ्यादृष्टीनां मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानीति सामान्यतो नैरयिकाणां षड्विधः साकारोपयोगः, अना-M कारोपयोगस्त्रिविधस्तद्यथा-चक्षुर्दर्शनं अचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं च, एष च त्रिविधोऽप्यनाकारोपयोगः सम्यग्दृशां । मिथ्यादृशां चाविशेषेण प्रतिपत्तव्यः, उभयेषामप्यवधिदर्शनस्य सूत्रे प्रतिपादितत्वात् , एवमसुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां भवनपतीनामप्यवसेयं, पृथिवीकायिकानां साकारोपयोगो द्विविधस्तद्यथा-मस्यज्ञानं श्रुताज्ञानं च, अनाकारोपयोग एकोऽचक्षुर्दर्शनरूपः, शेषोपयोगानां तेपामसम्भवात् , सम्यग्दर्शनादिलब्धिविकलत्वात, एवमसेजोवायुवनस्पतीनामपि वेदितव्यं, द्वीन्द्रियाणां साकारोपयोगश्चतुर्विधः, तद्यथा-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुता-18 ज्ञानं, तत्रापर्याप्तावस्थायां केषांचित् सासादनभावमासादयतां मविज्ञानश्रुतज्ञाने शेषाणां तु मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने, अना-191 कारोपयोगस्त्वेकोऽचक्षुर्दर्शनरूपः, शेषोपयोगाणां तेषामसम्भवात्, एवं त्रीन्द्रियाणामपि, चतुरिन्द्रियाणामप्येवं, नवरमनाकारोपयोगो द्विविधः चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं च, पञ्चेन्द्रियतिरश्वां साकारोपयोगः षड्विधस्तद्यथा-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं, अनाकारोपयोगविविधस्तद्यथा-चक्षुर्दर्शनं अचक्षुर्दर्शनं अवधिदशेनं च, अवधिद्विकस्यापि केषुचिचेषु सम्भवात् , मनुष्याणां यथासम्भवमष्टावपि साकारोपयोगाश्चत्वारोऽप्यनाकारो अनुक्रम [५७२] ~ 1059~ Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२९], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ३.पश्य चापदं सू. प्रत सूत्रांक याः मलयवृत्ती. ॥५२॥ पयोगाः, मनुष्येषु सर्वज्ञानदर्शनलब्धिसम्भवात् , व्यन्तरज्योतिष्कबैमानिका यथा नैरयिकाः, तदेवं सामान्यतश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण च जीवानां उपयोगश्चिन्तितः, सम्प्रति मन्दमतिस्पष्टावबोधाय जीवा एव तत्तदुपयोगोपयुक्ताः सामान्यतश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्त्यन्ते-'जीवा णं भंते !' इत्यादि सुगमम् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां० एकोनत्रिंशत्तममुपयोगाख्यं पदं समाप्त ॥ २९ ॥ [३१२] asvem peeeeeeeeee अथ त्रिंशत्तमं पश्यत्ताख्यं पदं ॥ ३०॥ दीप अनुक्रम [५७२] तदेवमुक्तमेकोनत्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेष उपयोगोऽभिहितः, इहापि ज्ञानपरिणामविशेषे उपयोगे पश्यत्ता चिन्त्यते इति, तत्र चेदमादिसूत्रम् कतिविहाणं मंते ! पासणया पण्णता?, गो दुविहा पासणया पं००-सागारपासणया अणागारपासणया, सागारपासणया ण मंते ! कइविहा पं०१, गो! छबिहा पण्णता, तं०-सुयणाणपा० ओहिणाणपा० मणपज्जवणाणपा० केवलणाणपा. सुयअण्णाणसागारपा०विभंगणाणसागारपासणया, अणागारपासणयाणं भंते ! कइविधा०, गो०! तिविहा ५०,० ५२८॥ अत्र पद (२९) "उपयोग" परिसमाप्तम् अथ पद (३०) "पश्यता" आरब्धम् ~10604 Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१३] seeeeeeeeeeeeeeeea चक्खुदसणअणागारपा० ओहिदंसणअणा० केवलदंसणअणा०, एवं जीवाणपि, नेरइयाणं भंते ! कतिविधा पासणया पण्णचा, गो! दुविहा पं०, तं०-सागारपासणया० अणागा०, नेरहयाणं भंते ! सागारपा० काविहा पं०१, गो०। चउबिहा पं०,०-सुयणाणपा०ओहिणाणपा० सुअअण्णाणपा०विभंगणाण, नेरइयाणं भंते ! अणागारपा० कतिविहा पं०१, गो० दुविहा, तं-चक्खुदंसण ओहिद, एवं जाब थणियकुमारा । पुढविकाइयाणं भंते! कतिविहा पासणया पं०१, गो०! एगा सागारपा०, पुढविकाइयाणं भंते ! सागारपासणया कतिविहा पं०१, गो०। एगा सुयअनाणसागा. रपा०५०, एवं जाव वणफइकाइयाणं । बेइंदियाणं मंते ! कतिविहा पासणया पं०१, गो०! एगा सागारपासणया पं०, बेइंदियाण भंते ! सागारपा० काविहा पं०१, गो० दु०पं० २०-सुयणाणसागारपा० सुयअण्णाणसागारपा०, एवं तेईदियाणवि, चरिदियाणे पुच्छा, गो०। दु०पं०, ०-सागारपा० अणागारपा०, सागारपासणया जहा बेइंदियाणं, चउरिदियाणं भंते ! अणागारंपा० काविहा पं०१, गो०! एगा चक्खुदंसण. अणागारपा० ५०, मसाणं जहा जीवाणं, सेसा जहा नेरइया जाव वेमाणियाणं । जीवाणं भंते ! किं सागारपस्सी अणागारपस्सी, गो.! जीवा सागारपस्सीवि अणागारपस्सीवि, से केणटेणं भंते! एवं यु० जीवा सागार० अणागार०१, गो० जेणं जीवा सुतणाणी ओहिणाणी मणपज्जय० केवल सुअअण्णाणी विभंगनाणी ते णं जीवा सागारपस्सी, जेणं जीवा चक्खुदंसणी ओहिदंसणी केवलदसणी ते णं जीवा अणागारपस्सी, से एतेणद्वेणं गोयमा! एवं चु०-जीवा सागारपस्सीवि अणागा०, नेरइया गं भंते ! कि सागारपस्सी अणागा०, गो०! एवं चेव, नवरं सागारपासणयाए मणपज्जवनाणी केवलनाणी न बुचति, seeeeeeecEASEA दीप अनुक्रम [५७३] ~10614 Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१३] दीप अनुक्रम [५७३] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥५२९॥ पदं [३०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३१३] उद्देशक: [-], . आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Educator International अणागारपासणयाए केवलदंसणं नत्थि, एवं जाव धणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो० ! पुढविकाइया सागारपस्सी णो अणागारपस्सी, से केणद्वेणं मंते ! एवं बु० गो० ! पुढविकाइयाणं एगा सुयअण्णाणसागारपासणया पं०, से ते० गो० !, एवं जाव वणस्सतिकाइयाणं, बेइंदियाणं पुच्छा, गो०! सागारपस्सी णो अणा०, से केणद्वेणं मंते । एवं ब्रुच्चति ?, गो० ! बेदियाणं दुविद्या सागारपासणया पं० तं०- सुयणाणसागारपा० सुअअण्णाणसागारपा०, से एएणडेणं गो० ! एवं ० एवं तेइंदियाणवि, चउरिंदियाणं पुच्छा, गो० ! चउरंदिया सागारपस्सीवि अणागारपस्सीवि, से केण्टेणं० १, गो० ! जे णं चउरंदिया सुयणाणी सुयअन्नाणी ते णं चउरिंदिया सागारपस्सी, जेणं चउरिंदिया चक्खुदंसणी ते गं चरिंदिया अणागारपस्सी से एएणद्वेणं गो० ! एवं बु०, मणूसा जहा जीवा, अवसेसा जहा नेरइया जाव माणिया (सू ३१३ ) 'कतिविधा णं भंते' इत्यादि, कतिविधा -- कतिप्रकारा, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! 'पासणय'त्ति 'दृशिर प्रेक्षणे' पश्यतीति 'सति वानिता विति अतृप्रत्ययः कर्त्तर्यनदादेशः, 'पामाध्मास्थाम्नादाणुदृश्य र्त्तिश्रौतिकृबुधिबुशदसदः पिवजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्यर्च्छष्टकृधिशीयसीद' मिति दृशेः पश्यादेशः, पश्यतो भावः पश्यत्ता, 'भावे तत्वला' विति तत्प्रत्ययः, 'आदापू' सैव पासणयेत्युच्यते, एष च पासणयाशब्दो रूढिवशात् साकारानाकारवोधप्रतिपादकः उपयोगशब्दवत् तथा चोपयोगविषये प्रश्नोत्तरसूत्रे इमे - 'कइविहे णं मंते । उवओोगे पण्णत्ते १, गोयमा । For Parts Only ~1062~ ३० पश्य तपदं स्. ३१३ ॥५२९॥ arra Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१३] ISI दुविहे पण्णते, तं०-'सागारोवओगे य अणागारोवओगे य' पश्यत्ताविषयेऽपि प्रश्नोत्तरसूत्रे इमे-'कइविहा णं भंते ! पासणयाँ पण्णत्ता, गो०! दुविहा०,०-सागारपासणया अणागारपासणया' इति, ननु तुल्ये साकारानाकारभ-18 दत्वे कोऽनयोः प्रतिविशेषो येन पृथगुच्यते ?, उच्यते, साकारानाकारमेदगतावान्तरभेदसञ्जयारूपः, तथाहि-पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानीपष्टविधः साकार उपयोगः, साकारपश्यत्ता तु षविधा, मतिज्ञानमत्यज्ञानयोः पश्यत्तयोः अनभ्युपगमात् , कस्मादिति चेत् , उच्यते, इह पश्यत्ता नाम पश्यतो भाव उच्यते, पश्यतो मावश्च 'शिर् प्रेक्षणे' इति वचनात् , प्रेक्षणमिह रूढिवशात् साकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रदीर्घकालं अनाकारपश्यत्तायां चिन्त्यमाना-18 यां प्रकष्टं परिस्फुटरूपमीक्षणमवसेयं, तथा च सति येन ज्ञानेन त्रैकालिकः परिच्छेदो भवति तदेव ज्ञानं प्रदीर्घका IST लविषयत्वात् साकारपश्यत्ताशब्दवाच्यं न शेष, मतिज्ञानमत्यज्ञाने तु उत्पन्नाविनष्टाग्राहके साम्प्रतकालविषये, तथा हाच मतिज्ञानमधिकृत्यान्यत्रोक्तम्-"जमवग्गहादिरूवंपञ्चुप्पन्नवत्थुगाहगं लोए । इंदियमणोनिमित्तं च तमामिनि-II बोधिगं बैंति ॥१॥" [ यदवग्रहादिरूपं प्रत्युत्पन्नवस्तुप्राहकं लोके । इन्द्रियमनोनिमित्तं च तदाभिनियोधिकं जुषते । M॥१॥] तत् द्वे अपि साकारपश्यत्ता शब्दवाच्ये न भवतः, श्रुतज्ञानादीनि तु त्रिकालविषयाणि, तयाहि-श्रुतज्ञानेन अतीता अपि भावा ज्ञायन्ते अनागता अपि, उक्तं च-"ज पुण तिकालविसर्य आगमगंथानुसारि विनाणं 11 दियमणोनिमिचं सुयनाणं तं जिणा बेति ॥१॥"[यत् पुनखिकालविषयं आगमनन्यानुसारि विज्ञानम् । इन्-ि स्करररररररररर दीप अनुक्रम [५७३] AREauratoninternational ~10634 Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१३] दीप अनुक्रम [५७३] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥५३०॥ पदं [३०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३१३] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः यमनोनिमित्तं श्रुतज्ञानं तत् जिना ब्रुवते ॥१॥ ] अवधिज्ञानमपि सङ्ख्यातीता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः अतीताः परिच्छिनत्ति भाविनीश्च मनःपर्यायज्ञानमपि पल्योपमासङ्ख्येयभागमतीतं जानाति भाविनं च, केवलं सकलकालविषयं सुप्रतीतं श्रुताज्ञानविभङ्गज्ञाने अपि त्रिकालविषये, ताभ्यामपि यथायोगमतीतानागतभावपरिच्छेदात्, ततः ज्ञानानि साकारपश्यत्ताशब्दवाच्यानि, उपयोगस्तु यत्राकारो यथोदितस्वरूपः परिस्फुरति स बोधों वर्त्तमानकालविषयो वा यदि भवति त्रिकालिको वा तत्र सर्वत्रापि प्रवर्त्तत इति साकारोपयोगोऽष्टविधः । तथा चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शन| मवधिदर्शनं केवलदर्शनमिति चतुर्विधोऽनाकारोपयोगः, अनाकारपश्यत्ता तु त्रिविधा, अचक्षुर्दर्शनस्थानाकारपश्यताशब्दवाच्यत्वाभावात् कस्मादिति चेत्, उच्यते, उक्तमिह पूर्वमनाका रपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रकृष्टं परिस्फुटरूपमीक्षणमत्रसेयमिति, तत्राचक्षुर्दर्शने परिस्फुटरूपमीक्षणं न विद्यते, न हि चक्षुषेव शेषेन्द्रियमनोभिः परिस्फुटमीक्षते प्रमाता, ततोऽचक्षुर्दर्शनस्थानाकारपश्यत्ताशब्दवाच्यत्वाभावात् त्रिविधाऽनाकारपश्यत्ता, तदेवं साकारभेदेऽनाकारभेदे च प्रत्येकमवान्तरभेदे वैचित्र्यभावान्महानुपयोग पश्यत्तयोः प्रतिविशेषः, एनमेव प्रतिविशेषं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः साकारानाकारभेदौ ततस्तद्गतावान्तरभेदान् प्रतिपादयति- 'गो० ! दुविहा पं० तंजहासागारपासणया अणागारपासण्यान्य, सागारपासणया णं भंते! कतिविहा पं०' इत्यादि भावितार्थम् । तदेवं सामान्यतो जीवपद विशेषणरहिता पश्यत्तोक्ता, साम्प्रतं तामेव जीवपदविशेषितामभिधित्सुराह - 'एवं जीवाणंपि' एवं Education Internation For Pale Only ~ 1064~ ३० पश्यतपदं स्. ३१३ ॥५३०॥ Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१३] पूर्वोक्तेन प्रकारेण जीवानामपि-जीवपदविशेषणसहितापि पश्यत्ता वक्तव्या, सा चैवम्-'जीवाणं भंते ! कतिविधान पासणया पं०१, गो01 दुविहा पं०, तंजहा-सागारपासणया अणागारपासणया य, जीवाणं भंते ! सागारपासणया कतिविहा पं०' इत्यादि, तदेवं जीवानामपि सामान्यत उक्ता, सम्प्रति चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वदति-नेरइयाणं | भिंते ! इत्यादि, सुगमत्वात् उपयोगपदे प्रायो भावितत्वात् अनन्तरोक्तभावनानुसारेण खयं परिभावनीयं, तदेवं सा मान्यतो विशेषतश्च जीवानां पश्यत्तोक्ता, सम्प्रति जीवानेव पश्यचाविशिष्टान् चिचिन्तयिषुराह-'जीवा णं भंते ! किं सागारपस्सी' इत्यादि, जीवाः-जीवनयुक्ताः प्राणधारिण इत्यर्थः, णमिति वाक्यालकारे किमिति प्रश्ने साकारपश्यत्ता विद्यते येषां ते साकारपश्यत्तिनः, प्राकृतत्वात् साकारपस्सी इत्युक्तं, 'मणपज्जवनाणी केवलनाणी न वुच्चई" इत्यादि, नैरयिकाणां चारित्रप्रतिपत्तेरभावतो मनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानकेवलदर्शनानामभावात् ॥ इह किल छन्मस्थानां साकारोऽनाकारचोपयोगः क्रमेणोपजायमानो घटते, सकर्मकत्वात् , सकर्मकाणां ह्यन्यतरस्योपयोगस्य बेलायामन्यतरस्य कर्मणाऽऽवृतत्वान्न घटते एवोपयोग इति, केवली तु घातिचतुष्टयक्षयाद् भवति, ततः संशयः-किंक्षीणज्ञानावरणदर्शनावरणत्वात् यस्मिन्नेव समये रत्नप्रभादिकं जानाति तस्मिन्नेव समये पश्यति उत जीवखाभाव्यात् क्रमणेति ?, ततः पृच्छतिकेवली णं भंते । इमं रयणप्प पुढषि आगारेहिं हेतूहि उवमाहिं दिद्वैतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पढीयारेहि जं समय दीप अनुक्रम [५७३] IMAGES SAREauratonintentiational ~1065~ Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१४] दीप अनुक्रम [५७४] प्रज्ञापना या मल य० वृसौ. ॥ ५३१ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३१४] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [३०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Internation जाणति तं समर्थ पास जं समयं पासह तं समयं जाणइ ?, गो० ! नो तिणछे समट्ठे से केणद्वेगं भंते! एवं बुवति केवली इमं रयणप्प पुढवि आगारेहिं० जं समयं जाणति नो तं समयं पासति जं समयं पा० नो तं समयं जा० १, गो० ! सागारे से गाणे भवति अणागारे से दंसणे भवति, से तेणद्वेणं जाव गो तं समयं जाणाति एवं जाब अहे सत्तर्म । एवं सोहम जाव अयं गेविजगविभाणा अणुत्तरविमाणा, ईसीपन्भारं पुढवीं, परमाणुं पोग्गलं दुपदेसियं खंघं जाव अणतपदेसिय खंधं, केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेतुर्हि अणुवमाहिं अदितेहिं अवण्णेहिं असंठाणेहिं अपमाणेहिं अपडोयारेहिं पासति न जाणति १, हंता ! गो० 1 केवली णं इमं रयणप्पमं पुढविं अगागारेहिं जाव पासति न जाणति, से केणद्वेणं भंते ! एवं वृ० केवली इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासति ण जाणति, गो० 1 अणगारे से दंसणे भवति सागारे से नाणे भवति, से ते० गो० ! एवं बुच्चइ केवली णं इमं रयणप्पभ्रं पुढर्वि अणागारेहिंजाब पासति ण जाणति, एवं जाव ईसिप्पभारं पुढविं परमाणुं पोग्गलं अणतपदेसियं खंधं पासति न जाणति ॥ ( सू ३१४ ) पासणयापर्यं समतं ।। ३० ।। 'केवली णं भंते!' इत्यादि, केवलं ज्ञानं दर्शनं चास्यास्तीति केवली णमिति वाक्यालङ्कृती भदन्त ! - परमकल्याणयोगिन् ! 'मां' प्रत्यक्षत उपलभ्यमानां रत्नप्रभाभियां पृथिवीं 'आगारेहिं' ति आकारभेदा यथा इयं रजप्रभा - पृथिवी त्रिकाण्डा खरकाण्डपङ्ककाण्ड अप्काण्डभेदात्, खरकाण्डमपि षोडशभेदं, तद्यथा - प्रथमं योजनसहस्रमानं For Parts Only ~1066~ ३० पश्यतापदं आकारा दिज्ञानदर्शनपृथ क्त्वं सू. ३१४ १५३१॥ Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१४] रत्नकाण्डं तदनन्तरं योजनसहस्रप्रमाणमेव वज्रकाण्डं तस्याप्यधो योजनसहस्त्रमानं वैदूर्यकाण्डमित्यादि, 'हेऊहिं'ति हेतवः--उपपत्तयः, ताथेमाः-केन कारणेन रत्नप्रभेत्यभिधीयते ?, उच्यते, यस्मादस्याः रनमयं काण्डं तस्मात् रत्नप्रभा, रत्नानि प्रभा-खरूपं यस्याः सा रत्नामेति व्युत्पत्तेरिति, 'उबमाहि' इति उपमामिः, 'माङ्ग माने' अस्मादुपपूर्वात् उपमितं उपमा 'उपसर्गादात' इत्यप्रत्ययः, ताश्चैवं-रतप्रभायां रत्नप्रभादीनि काण्डानि वर्णविभागेन कीदृशानि, परागेन्दुसदृशानि इत्यादि, 'दिट्टतेहिं ति दृष्टः अन्तः-परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाधनयोः सम्बन्धसाविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्तास्तैर्यथा घटः स्वगतैर्धम्मैः पृथुबुनोदरायाकारादिरूपैरनुगतः परधर्मेभ्यश्च पटादिगतेभ्यो व्यतिरिक्त उपलभ्यते इति पटादिभ्यः पृथक् वस्त्वन्तरं तथैवेषाऽपि रत्नप्रभा खगतभेदैरनुषक्ता शर्कराप्रभादिभेदेभ्यश्च व्यतिरिक्तेति ताभ्यः पृथक वस्वन्तरमिसादि. 'वण्णेहिं ति शुक्लादिवर्णविमागेन तेषामेव उत्कषों-18 पकसक्येयासंख्येयानन्तगुणविभागेन च, वर्णग्रहणमुपलक्षणं तेन गन्धरसस्पर्शविभागेन चेति द्रष्टव्यं, 'संठाणेहिति यानि तस्यां रत्नप्रभायां भवननारकादीनां संस्थानानि, तद्यथा-'ते णं भवणा बाहिं वहा अंतो चउरंसा अहे पुक्ख-13॥ रकण्णियासंठाणसंठिया' तथा 'ते गं नरया, अंतो बट्टा चाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया' इत्यादि, तथा |'पमाणेहिंति प्रमाणानि, 'अहे'त्यादि परिमाणानि, यथा 'असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाइला रजुप्पमाणमत्ता आयामविखंभेण'मित्यादि, 'पडोयारेहिंति प्रति-सर्वतः सामस्त्येन अवतीर्यते-व्याप्यते येते प्रत्यवताराः, ते चात्र। 3882920022Saa दीप अनुक्रम [५७४] reert SAREarathrINMind ~1067~ Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१४] प्रज्ञापनाया मल- य. वृत्ती. ॥५३२॥ त्वं सू. दीप घनोदध्यादिवलया बदितव्याः, ते हि सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चेमां रत्नप्रभा परिक्षिप्य व्यवस्थितास्तैः, 'जं समय' मिति ३०पश्य'कालाध्वनोळसावित्यधिकरणभावेऽपि द्वितीया, ततोऽयमर्थः-यस्मिन् समये जानाति-आकारादिविशिष्ट परि- त्तापदं छिनत्ति 'तं समयंति तस्मिन् समये पश्यति-केवलदर्शनविषयीकरोति ?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थो, आकारानायमर्थो युक्त्युपपन्न इति भावः, तत्त्वमजानानः पृच्छति-से केणटेणं भंते ! इत्यादि, 'से' इति अथशब्दार्थे अथ विज्ञानदकेनार्थेन-कारणेन भदन्त ! एवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेणोच्यते, तमेव प्रकारं दर्शयति-'केवली ण'मित्यादि, भगवानाह शनपृथगौतमे'त्यादि, अस्थायं भावार्थः-इह ज्ञानेन परिच्छिन्दन् जानातीत्युच्यते, दर्शनेन परिच्छिन्दन पश्यतीति, ज्ञानं INI ३१४ च 'से' तस्य भगवतः साकारमन्यथा ज्ञानत्वायोगात्, विशेषानभिगृण्हानो हि बोधो ज्ञानं, 'सविशेषं पुनर्ज्ञान मिति वचनात् , दर्शनमनाकारं 'निर्विशेषं विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते' इति वचनात् , तत्र ज्ञानं च दर्शनं च जीवस्य खण्डशो नोपजायते, यथा कतिपयेषु प्रदेशेषु ज्ञानं कतिपयेषु प्रदेशेषु दर्शनं, तथाखाभाव्यात्, किन्तु यदा ज्ञान तदा सामस्त्येन ज्ञानमेव यदा दर्शनं तदा सामस्त्येन दर्शनमेव, ज्ञानदर्शने च साकारानाकारतया परस्पर विरुद्धे,8 छायातपयोरिवेतरेतराभावनान्तरीयकत्वात् , ततो यस्मिन् समये जानाति तस्मिन् समये न पश्यति, यस्मिन् समये 8 |॥५३२॥ पश्यति तस्मिन् समये न जानाति, एतदेवाह-'से एएणद्वेणं' इत्यादि, एतेन यदवादीद् वादी सिद्धसेनदिवाकरो। | यथा-'केवली भगवान् युगपत् जानाति पश्यति चेति, तदप्यपास्तमवगन्तव्यं, अनेन सूत्रेण साक्षात् युक्तिपूर्व अनुक्रम [५७४] ~1068~ Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१४] दीप अनुक्रम [५७४] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-] पदं [३०], मूलं [ ३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ज्ञानदर्शनोपयोगस्य क्रमशो व्यवस्थापितत्वात् एवं शर्कराप्रभावालुकाप्रभाषकप्रभा धूम प्रभातमः प्रभातमस्तमः प्रभासौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकशुक्र सहस्रारान्तप्राणतारणाच्युतकल्पग्रैवेयकविमानानुत्तरविमानेषत्प्राग्भाराभिधपृथिवीपरमाणुपुद्गलद्विप्रदेशिक स्कन्धयावदनन्तप्रदेशिकस्कन्धविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, ननु यदि ज्ञानदर्शने साकारानाकारतया पृथमेवं व्यवस्थापितविषये तत इदमायातं यदा भगवान् केवली रत्नप्रभादिकमाकाराद्यभावेन परिच्छिनत्ति तदा स पश्यतीत्येवं वक्तव्यो न जानातीति, सत्यमेतत् तथा चाह- 'केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेऊहिं' इत्यादि, प्रायो भाषितत्वात् सुगमं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां ० त्रिंशत्तमं पदं समासं ॥ ३० ॥ अथ एकत्रिंशत्तमं संज्ञापरिणामपदं ॥ ३१ ॥ DAGE तदेवमुक्तं पश्यत्ताऽऽख्यं त्रिंशत्तमं पदं, साम्प्रतमेकत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेषः प्रतिपादितः, इह तु परिणामसाम्याद् गतिपरिणामविशेष एव संज्ञापरिणामः प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् अत्र पद (३०) "पश्यता" परिसमाप्तम् For Park Lise Only Cror अथ पद (३१) "संज्ञी / संज्ञापरिणाम" आरब्धम् •••अस्य अध्ययनस्य आगम-गाथा (मूल - ८) दर्शित-नाम "संज्ञी" अस्ति, किंतु अत्र वृत्तिगत नाम " संज्ञापरिणाम" इति दृश्यते ~1069~ Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) ཝཱ ཟླ - ལྕལླཱཡྻ ཏྠཱ [३१५] -५७६] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥५३३॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [३१], उद्देशक: [-] मूलं [ ३१५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internation जीवा णं भंते ! किं सण्णी असण्णी नोसण्णीनोअसण्णी १, गो० । जीवा सण्णीवि असण्णीवि नोसण्णीनोअसण्णीवि । नेरइयाणं पुच्छा, गो० ! नेरइया सण्णीवि असण्णीवि नो नोसण्णीनोअसण्णी, एवं असुरकुमारा जाव धणियकुमारा, ढविकायाणं पुच्छा, गो० ! नो सण्णी असण्णी, नो नोसण्णीनोअसण्णी, एवं बेईदियतेइंदियचउरिंदियावि, मणूसा जहा जीवा, पंचिदियतिरिक्ख जोणिया वाणमंतरा य जहा नेरइया, जोतिसियवेमाणिया सण्णी नो असण्णी नो नोसण्णीनोअसण्णी, सिद्धाणं पुच्छा, गो० ! नो सुण्णी नो असण्णी नोसणिनोअसण्णी, नेरइयतिरियमणुया य वणपरगसुरा इसणीसणी व । विगलिंदिया असण्णी जोतिसवेमाणिया सण्णी ॥ १॥ (सूत्रं ३१५) पण्णवणाए सण्णीपर्यं समत्तं ॥ ३१ ॥ 'जीवा णं भंते! किं सण्णी' इत्यादि, संज्ञानं संज्ञा- 'उपसर्गादात' इत्यप्रत्ययः भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः यथोक्तमनोविज्ञानविकला असंज्ञिनः, तेच एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियसम्मूर्च्छिमपञ्चेन्द्रिया वेदितव्याः, अथवा संज्ञायते सम्यक् परिच्छियते पूर्वोपलब्धो वर्त्तमानो भावी च पदार्थों यया सा संज्ञा, भिदादिपाठाभ्युपगमात् करणे घञ्, विशिष्टा मनोवृत्तिरित्यर्थः, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः समनस्का इत्यर्थः, तद्विपरीता असंज्ञिनोऽमनस्का इत्यर्थः, ते चैकेन्द्रियादय एवानन्तरोदिताः प्रतिपत्तव्याः, एकेन्द्रियाणां प्रायः सर्वथा मनोवृत्तेरभावात्, द्वीन्द्रियादीनां तु विशिष्टमनोवृत्तेरभावः, ते हि द्वीन्द्रियादयो वार्त्तमानिकमेवार्थ शब्दादिकं शब्दादिरूपतया संविदन्ति, न भूतं भाविनं चेति, केवली सिद्धयोभयप्रतिषेधविं For Parts Only ~1070~ ३१ संज्ञापदं सू. ३१५ ||५३३॥ wor Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) ཝཱ ཟླ - ལྕལླཱཡྻ ཏྠཱ [३१५] -५७६] "प्रज्ञापना" उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) पदं [३१], उद्देशक: [-] दारं [-], मूलं [ ३१५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - पयः, केवली हि यद्यपि मनोद्रव्यसम्बन्धभाक् तथापि न तैरसी भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं करोति, किन्तु क्षीणसकलज्ञानदर्शनावरणत्वात् पर्यालोचनमन्तरेणैव केवलज्ञानेन केवलदर्शनेन च साक्षात्समस्तं जानाति पश्यति च, ततो न संज्ञी नाप्यसंज्ञी, सकलकालकलाकलापव्यवच्छिन्नस मस्तद्रव्यपर्यायप्रपञ्च साक्षात्करणप्रवणज्ञानसमन्वितत्वात्, सिद्धोऽपि न संज्ञी, द्रव्यमनसोऽप्यभावात् नाप्यसंज्ञी सर्वज्ञत्वात्, तदेवं सामान्यतो जीवपदे संज्ञिनोऽसंज्ञिनो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनश्च लभ्यन्ते इति, भगवान् तथैव प्रतिसमाधानमाह - 'गौतमे' त्यादि, जीवाः संज्ञिनोऽपि नैरयिकादीनां संज्ञिनां भाषाद, असंज्ञिनोऽपि पृथिव्यादीनामसंज्ञिनां भावात्, नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनोऽपि सिद्ध केवलिनां नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनामपि भावात् । एतानेव चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति- 'नेरइया ण'मित्यादि, इह ये नैरयिकाः संज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते ते संज्ञिनो व्यवप्रियन्ते इतरे त्वसंज्ञिनः, न च नैरयिकाणां केवलिभावो घटते, चारित्रप्रतिपत्तेरभावात् तत उक्तं नैरयिकाः संज्ञिनोऽप्यसंज्ञिनोऽपि, नो नोसंज्ञिनोनोअसंज्ञिनः, एवमसुरकुमारादयोऽपि स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः तेषामप्यसंज्ञिनोऽप्युत्पादात् केवलित्वाभावाच, 'मणूसा जहा जीव'ति मनुष्याः प्राक् यथा जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, संज्ञिनोऽपि असंज्ञिनोऽपि नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनोऽपि वक्तव्या इति भावः तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तास्ते संज्ञिनः सम्मूच्छिमा असंज्ञिनः केवलिनो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनः, 'पञ्चेन्दियतिरिक्खजोणियवाणमंतरा जहा नेरइया' इति, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका व्यन्तराश्च यथा नैरयिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, Education Interation For PanalPrata Use Only ~ 1071~ Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१५] |३१संज्ञा पदं . प्रज्ञापना- या वृत्ती. ॥५३॥ ३१५ संज्ञिनोऽपि असंज्ञिनोऽपि नो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनः वक्तव्या इति भावः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः सम्मूछिमाः असंज्ञिनः गर्भव्युत्क्रान्ताः संज्ञिनः, व्यन्तरा असंज्ञिभ्य उत्पन्ना असंजिनः संज्ञिभ्य उत्पन्नाः संजिनः, उभयेऽपि चारित्रप्रतिपत्तेरभावात् नो नोसंझिनोअसंज्ञिनः, ज्योतिष्कवैमानिकाः संजिन एव, नो असंजिनः, असंज्ञिभ्य उत्पादाभावात् , नो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनश्चारित्रप्रतिपत्तेरभावात् , सिद्धास्तु प्रागुक्तयुक्तितो नो संझिनो नाप्यसंज्ञिनः| किन्तु नोसंज्ञिनोअसंजिनः, अत्रैव सुखप्रतिपत्तये सङ्ग्रहणिगाथामाह-'नेरइय' इत्यादि, नैरयिकाः 'तिरिय'त्ति तिर्यपञ्चेन्द्रिया मनुष्या वनचरा-व्यन्तरा असुरादयः-समस्ता भवनपतयः प्रत्येकं संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च वक्तव्याः, एत|चानन्तरमेव भावितं, विकलेन्द्रिया-एकद्वित्रिचतुरिन्द्रिया असंज्ञिनो ज्योतिष्कवैमानिकाः संजिन इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्र० एकत्रिंशत्तमं पदं समासम् ॥ ३१॥ गाथा दीप अनुक्रम [५७५-५७६] अथ द्वात्रिंशत्तमं संयमयोगाख्यं पदं ॥३२॥ ५३४॥ तदेवमुक्तमेकत्रिंशत्तमं पदं, अधुना द्वात्रिंशत्तमं पदमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे संज्ञिपरिणा SARERatunintamatural | अत्र पद (३१) "संज्ञी" परिसमाप्तम् अथ पद (३२) "संयत" आरब्धम् ~1072~ Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१६] गाथा म उक्तः, इह तु चारित्रपरिणामविशेषः संयमः प्रतिपाद्यते, संयमो नाम निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, तत्र चेदमादिसूत्रम् जीवाणं मंते । किं संजया असंजया संजया २ नोसंजयानोअसंजयानोसंजयासंजया, गो. जीवा संजयावि१ असंजयावि२ संजयासंजयावि३ नोसंजयानोअसंजयानोसंजयासंजयावि ४, नेरइया ण भते! पुच्छा, गो० नेरइया नो संजया असंजया नोसंजयासंजया नो नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजया, एवं जाब चउरिदि, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोपिंचिदियतिरिक्खजोणिता नो संजता असंजतावि संजतासंजतावि नो नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजतावि, मणुस्साणं पुच्छा, गो! मण्सा संजतावि असंजताबि संजतासंजतावि नो नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजता, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा नेरइया, सिद्धा णं पुच्छा, गो! सिद्धा नो संजता १ नो असंजता २ नो संजतासंजता ३ नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजता ४॥ गाहा "संजयअसंजय मीसगा य जीवा तहेव मणुया य । संजतरहिया तिरिया सेसा अस्संजता होति ॥ १॥" (सूत्र ३१६ ) ॥ संजयपयं समत्तं ॥ ३२ ॥ 'जीवा णं भंते' इत्यादि, संयच्छन्ति स्म-सर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति स्म अर्थात् निरवद्ययोगेषु चारित्र|परिणामस्फातिहेतुषु वर्तन्ते स्म इति संयताः 'गत्यर्थनित्याकर्मकादिति कर्तरि क्तप्रत्ययः, हिंसादिपापस्थाननिवृत्ता। इत्यर्थः, तद्विपरीता असंयताः, हिंसादीनां देशतो निवृत्ताः संयतासंयताः, त्रितयप्रतिषेधविषयाः सिद्धाः, कथमिति 392908282920209080000 दीप अनुक्रम [५७७-५७८] Taurasurary.com ~ 1073~ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१६] प्रज्ञापना- याः मलय. वृत्ती. ॥५३५॥ गाथा चेत्, उच्यते, उक्तमिह संयमो नाम निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, ततः संयतादिपर्यायो योगाश्रयः, सिद्धाश्च संयमभगवन्तो योगातीताः शरीरमनसोऽभावादतत्रितयप्रतिषेधविषयाः, एवं च सामान्यतो जीवपदे चतुष्टयमपि घटते, पदं सू. तथा चाह-'गोयमे'सादि, गौतम ! जीवाः संयता अपि साधूनां संयतत्वात् , असंयता अपि नैरयिकादीनामसंयतवात् , संयतासंयता अपि पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च देशतः संयमस्य भावात्, नोसंयतनोअसंयतनोसंयतासंयता। अपि सिद्धानां त्रयस्यापि प्रतिषेधात् , चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि सुगमानि, अत्रैवं सङ्ग्रहणिगाथामाह-संयते त्यादि, संयता असंयता मिश्रकाश्व-संयतासंयता जीवास्तथैव मनुष्याश्च, किमुक्तं भवति ?-जीवपदे मनुष्यपदे च एतानि त्रीण्यपि पदानि घटन्ते, नतु न घटन्ते इत्येवंपरमेतत् सूत्र, अन्यथा जीवपदे त्रितयप्रतिषेधरूपं चतुर्थमपि पदं घटत एव, यथोक्तं प्राक्, तथा संयतरहिता उपलक्षणमेतत् त्रितयप्रतिषेधरहिताश्च तिर्यञ्चः-तिर्यपञ्चेन्द्रियाः, आह-कथं संयतपदरहितास्तिर्यकपञ्चेन्द्रियाः, यावता तेषामपि संयतत्वमुपपद्यते एच. तथाहि-संयतत्वं नाम निर- विद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मकं, ते च निरवद्येतरयोगेषु प्रवृत्तिनिवृत्ती तिरथामपि सम्भवतः, यतश्चरमकालेऽपि चतु विधस्याप्याहारस्थ प्रत्याख्यानं कृत्वा शुभेपु योगेषु वर्तमाना दृश्यन्ते, अन्यच सिद्धान्ते तत्र तत्र प्रदेशे महानतान्यायारात्मन्यारोपयन्तः श्रूयन्ते, उक्तं च-"तिरियाणं चारित्तं निवारितं तह य अह पुणो तेसिं । सुबइ बहुयाणं चिय मह-1|| ५३५॥ बयारोवणं समए ॥१॥" [तिरश्चां चारित्रं निवारितं तथा च पुनस्तेषां श्रूयतेऽथ महावतारोपणं बहूनां समय॥१॥]] दीप अनुक्रम [५७७-५७८] ~1074~ Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१६] गाथा तदेतदयुक्तं, सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , संयतत्वमिह निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपमान्तरचारित्रपरिणामानुषक्त-11 मवगन्तव्यं, न शेष, न च तेषां कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानानामपि महाप्रतान्यारोपयतां भवप्रत्ययादेव चरणपरि-11 णाम उपजायते, स खचिन्त्यचिन्तामणिकरपे मनुष्यभव एव, यदि परं कर्मक्षयोपशमाद्भवति, नान्यथा, अप्त एवालायमतिदुलेमो गीयते भगवद्भिः, अथ कथमवसीयते न तिरश्च तथा चेष्टमानानामप्यान्तरश्चारित्रपरिणामः १, उच्यते.18 केवलज्ञानाधश्रवणात् , यदि हि तिरश्चामपि चरणपरिणामस्सम्भवेत् तत् कचित् कदाचित् कस्यचिदुत्कर्षतो भाव-18 तो मनःपयोयज्ञानं केवलज्ञानं वा श्रयेत, तयोश्चारित्रपरिणामनिबन्धनत्वात्, न च श्रूयते, तस्मादवसीयत-न तेषां । | चारित्रपरिणामः, उक्तं च-"न महत्वयसम्भावेवि चरणपरिणामसंभवो तेसिं । न बहुगुणाणपि जओ केवलसंमूह18|| परिणामो ॥१॥"[न महानतसद्भावेऽपि चारित्रपरिणामसंभवस्तेषाम् । न बहुगुणानामपि यतः केवलसंभूतिप रिणामः ॥१॥] तद्भावाभावात् संयमपदरहिताः, शेषाः संसारस्था असंयता-असंयतपदसहिंता भवन्ति, न शेषपदसहिताः ॥ इति श्रीमलयगिरिविर प्रज्ञा संयमपदं द्वात्रिंशत्तमं समासम् ॥ ३२॥ दीप अनुक्रम [५७७-५७८] cusedeo अत्र पद (३२) "संयत" परिसमाप्तम् ~ 1075~ Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१७] + गाथा दीप अनुक्रम [५७९ -५८० ] प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥५३६ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [३३], उद्देशक: [-] --------------- मूलं [ ३१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अथ त्रयस्त्रिंशत्तमं ज्ञानपरिणामाख्यं पदं ॥ ३३ ॥ तदेवमुक्तं द्वात्रिंशसमं पदं, सम्प्रति त्रयस्त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे चारित्रपरि णामविशेषः संयमः प्रतिपादितः, इह तु ज्ञानपरिणामविशेषः खल्ववधिः प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याविधिविषयमधिकारद्वारमाह भेदविसयसंठाणे अम्भितरबाहिरे य देसोही । ओहिस्स य खयबुद्धी पडिवाई चैव अपडिवाई ॥ १ ॥ कइविहा णं भंते! ओही पण्णत्ता १, गो० ! दुविहा ओही पद्मत्ता, तं०- भवपञ्चइया य खओवसमिया य, दोन्हं भवपचइया, तं०--देवाणय नेरइयाण य, दोन्हं खओवसमिया, तं० मणूसाणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाण य (सूत्रं ३१७ ) 'भेयविसयेत्यादि, अवधेः - अवधिज्ञानस्य प्रागनिरूपितशब्दार्थस्य प्रथमं भेदो वक्तव्यः, ततो विषय स्तदनन्तरं संस्थानं-अवधिना द्योतितस्य क्षेत्रस्य यस्तप्रादिरूप आकारविशेषः सोऽवधिनिबन्धन इत्यवधेः संस्थानत्वेन व्यपदिश्यते, तथा द्विविधोऽवधिर्वक्तव्यः, तद्यथा-अभ्यन्तरो वाचश्च तत्र योऽवधिः सर्वासु दिक्षु स्वद्योत्यं क्षेत्रं प्रकाशयति अवधिमता च सह सातत्येन ततः खद्योत्यं क्षेत्रं सम्बद्धं सोऽभ्यन्तरावधिः, एतद्विपरीतो वाह्यावधिः, स च द्विधा, Education Internation For Parts Use Only ३३ अव धिपदं सू. ३१७ ~ 1076~ ॥५३६॥ अथ पद (३३) "अवधिः" आरब्धम् •••अत्र मूल-संपादने अध्ययनस्य (पदस्य) नामकरणे किञ्चित् स्खलना संभाव्यते- "अवधि" स्थाने "ज्ञानपरिणाम" इति मुद्रितं Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३३], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१७] गाथा तद्यथा-अन्तगतो मध्यगतश्च, अथान्तगत इति कः शब्दार्थः १, उच्यते, इह पूर्वाचार्यप्रदर्शितमर्थत्रयं अन्तेआत्मप्रदेशानां पर्यन्ते गतः-स्थितोऽन्तगतः, काऽत्र भावनेति चेत् , उच्यते, इहावधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्द्धकरूपतयोत्पद्यते, स्पर्द्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेपः, तथा चाह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः खोपज्ञभाष्यटीकायां-"स्पर्द्धकमवधिविच्छेदविशेष" इति, तानि च एकजीवस्थासङ्घयेयानि संख्येयानि च भवन्ति, यत उक्तं मूलावश्यकप्रथमपीठिकायाम्-'फडाय असंखेजा संखिज्जा यावि एगजीवस्स' इति, [स्पर्धकान्यसंख्येयानि संख्येयानि चापि एकजीवस्य ] तानि च विचित्ररूपाणि कानिचित्पर्यन्तवर्तिष्वात्मप्रदेशेषूत्पद्यन्ते, तत्रापि कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे कानिचिदुपरितनभागे कानिचिन्मध्यवर्तिप्यात्मप्रदेशेष्येवं योऽवधिरुपजायते स आत्मनः पर्यन्ते स्थित इतिकृत्वा अन्तगत इत्यभिधीयते, तैरेव पर्यन्तवतिमिरात्मप्रदेशैः साक्षादवबोधात्', अथवा औदारिकशरीरस्थान्ते गतः-स्थितोऽन्तगतः, औदारिकशरीरम|धिकृत्य कदाचिदेकया दिशोपलम्भात् , इदमपि स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानं, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरस्यान्ते कयाचिदेकया दिशा यशादुपलभ्यते सोऽप्यन्तगतः, आह-यदि सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमस्ततः सर्वतः किं न पश्यति !, उच्यते, एकदिशैव क्षयोपशमसम्भवात् , विचित्रो हि देशाद्यपेक्षया कर्मणां क्षयोपशमः, ततः सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानामित्थंभूत एव खसामग्रीवशात् क्षयोपशमः संवृत्तो यदौदारिक दीप अनुक्रम [५७९-५८०] ~1077~ Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१७]] ॥५३७॥ गाथा प्रज्ञापनाशरीरमपेक्ष्य कयाचिद्विवक्षितया एकया दिशा पश्यतीति, तथा चोक्तं नन्धध्ययनचूर्णी-ओरालियसरीरंते ठियं भवगयति एगहुँ, तं वा अप्पप्पएसफडगावहि एगदिसोवलंभाओ अंतगयमोहिनाणं भन्नइ, अहवा सबप्पएसेसु वि-IIधिपदंस. यवृत्ती. सुद्धसुवि ओरालियसरीरगतेण एगदिसि पासणा गयंति अंतगयंति भण्णई' इति, एष द्वितीयः, तृतीयः पुनरयं-एग- ३१७ दिग्भाविना तेनावधिना यदुद्योतितं क्षेत्रं तस्यान्ते वर्त्तते अवधिरवधिज्ञानवतस्तदन्ते वर्तमानत्वात् , ततोऽन्ते |एकदिग्गतस्यावधिविषयस्य पर्यन्ते गतः-स्थितोऽन्तगत इति, अन्तगतश्चावधिः त्रिधा, तद्यथा-पुरतोऽन्तगतः IS पृष्ठतोऽन्तगतः पार्थतोऽन्तगतः, तत्र यथा कश्चित्पुरुषो हस्तगृहीतया दीपिकया पुरतः प्रेमाणया पुरत एव पश्य-18 ति, नान्यत्र, एवं येनावधिना तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरत एव सजयेयान्यसवेयानि या योजनानि पश्यति नान्यत्र सोऽवधिः पुरतोऽन्तगत इत्यभिधीयते, तथा स एव पुरुषो यथा पृष्ठतो हस्तेन प्रियमाणया दीपिकया पृष्ठत एव पश्यत्येवं येनावधिना पृष्ठत एव सजवेयान्यसाधेयानि वा योजनानि पश्यति स पृष्ठतोऽन्तगतो, येन तु पाश्चत एकतो द्वाभ्यां वा सङ्ख्येयान्यसयेयानि वा योजनानि पश्यति स पार्थतोऽन्तगत इति, उक्तं च नन्धध्ययनचूर्णो -"पुरतोऊतगएणं पुरतो चेव संखेजाणि वा असंखेजाणिवा जोयणाई जाणइ पासइ, मग्गतोऽतगएणं ओहिनाणेणं ५३७॥ रामग्गतो चेव' इत्यादि, मध्यगत इत्यत्रापि त्रिधा व्याख्यानं, इह मध्य प्रसिद्धं दण्डादिमध्यवत् , तत्रात्मप्रदेशानां मध्येमध्यवांतयात्मप्रदेशेषु गतः-स्थितो मध्यगतः, अयं च स्पर्द्धकरूपः सर्वदिगुपलम्मकारणं, मध्यवत्तिनामात्मप्रद raeaasapacasasaram दीप अनुक्रम [५७९-५८०] उरल ~ 1078~ Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१७] गाथा ececeeseseesesepeeces शानामवधि बसेयः, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरमध्यभागेनोपलब्धिः स मध्ये गतो मध्यगतः, उक्तं च नन्द्यध्ययनचूणीं-“ओरालियसरीरमज्झे फहगविसुद्धीओ सहायप्पएसपिसुद्धीओ वा सबदिसोवलंभत्तणओ मज्झगतोत्ति भण्णई' इति, अथवा तेनावधिना यदुद्योतितं क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये-मध्यभागे स्थितो मध्यगतः, अवधिज्ञानिनस्तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात्, आह च नंदिचूर्णिकदेव-"अहवा उवलद्धिखेत्तस्स अवहिपुरिसो मझगतोत्ति अतो वा मज्झगतो ओही भण्णइ' इति, इह व्याख्यानत्रयेऽपि यदाऽवधिना योतितं क्षेत्रमवधिमता सम्बद्धं भवति तदा सोऽभ्यन्तरावधिर्मतः, सर्वदिगुपलब्धिक्षेत्रमध्यवर्त्तित्वात् , एवं चेह न ग्रामोऽभ्यन्तरावधावस्यान्तर्भावात् , यदा तु तदुद्योतितं क्षेत्रमपान्तराले व्यवच्छिन्नत्वादवधिमता सम्बद्धं न भवति तदा बायोऽवधिः एष चेह प्रायः, प्रस्तुतत्वात् , तथा 'देसोही' इति देशावधिर्वक्तव्यः, उपलक्षणमेतत् , प्रतिपक्षभूतः। [सबोवधिध, अथ किंखरूपो देशावधिः किंखरूपो या सर्वावधिरिति चेत्, उच्यते, इदावधिविविधो भवति, तद्य था-सर्वजघन्यो मध्यमः सर्वोत्कृष्टश्च, तत्र यः सर्वजघन्यः स द्रव्यतोऽनन्तानि तैजसभाषापान्तरालवर्तीनि द्रव्याणि | त्रितोजलासयभागं क्षेत्रं कालतोऽतीतमनागतं चावलिकाया असङ्ख्येयभागं, इहावधिः क्षेत्रं कालं च खरूपतः18 साक्षान्न जानाति, तयोरमूर्तत्वात् , अवधेश्च रूपिविषयत्वात् 'रूपिष्ववघे (तत्त्वा-अ०१सू०२८) रिति वचनात्, इह क्षेत्रकालदर्शनमुपचारतो वेदितव्यं, किमुक्तं भवति ?-एतावति क्षेत्रे काले च यानि द्रव्याणि तानि जानातीति, दीप अनुक्रम [५७९-५८०] ~ 1079~ Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३१७] गाथा दीप अनुक्रम [५७९ -५८० ] प्रज्ञापनाया मलय० वृत्तौ. ॥५३८ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [३३], उद्देशक: [-] --------------- मूलं [ ३१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भावतोऽनन्तान् पर्यायान् जानाति, प्रतिद्रव्यं जघन्यपदेऽपि चतुर्णां रूपरसगन्धस्पर्शरूपाणां पर्यायाणामवगमात्, 'दो पज्जवे दुगुणिए सचजणे उ पिच्छए ( ओही ) । 'ते उ वन्नाईया चउरो' [ द्वौ पर्यवौ द्विगुणितौ सर्वजघन्यो तु प्रेक्षतेऽवधिः । ते तु वर्णादिकाश्चत्वारः ] इति वचनात् द्रव्याणां चानन्तत्वात्, अत ऊर्ध्वं तु प्रदेशवृद्ध्या समयवृद्ध्या पर्यायवृद्ध्या च प्रवर्द्धमानोऽवधिर्मध्यमो वेदितव्यः, स च तावत् यावत्सर्वोत्कृष्टः परमावधिर्न भवति, सर्वोत्कृष्टः परमावधिर्द्रव्यतः सर्वाणि रूपिद्रव्याणि जानाति, क्षेत्रतोऽलोके लोकमात्राणि खण्डानि, कालतोऽतीतानागताश्वासङ्ख्या उत्सपिण्यवसर्पिणीर्भावतोऽनन्तान् पर्यायान् प्रतिद्रव्यं सङ्ख्येयानामसङ्ख्येयानां च पर्यायाणामवगमात्, 'एगं दवं पेच्छं संधमणुं वा स पज्जवे तस्स । उक्कोसमसंखिजे संखेज्जे पेच्छए कोई ॥ १ ॥ [ एकं द्रव्यं प्रेक्षमाणः स्कन्धमणुं वा स तस्य पर्यवान् । उत्कृष्टतः संख्येयान् असंख्येयान् प्रेक्षते कश्चित् ॥ १॥ ] इति वचनात्, तत्र सर्वजघन्यो मध्यमश्च देशावधिः, सर्वोत्कृष्टस्तु परमावधिः सर्वावधिः । तथाऽवधेः क्षयवृद्धी वक्तव्ये, किमुक्तं भवति । - हीयमानकः प्रवर्द्धमानकश्चावधिर्वक्तव्य इति, तत्र तथाविधसामध्यभावतः पूर्वावस्थातो हानिमुपगच्छन् हीयमानकः, उक्तं च - "हीयमाणयं पुचावत्थातो अहोऽहो हस्समाणं'ति, बर्द्धमानको बहुबहुतरेन्धनप्रक्षेपादिभिर्वर्द्धमानज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसाय भावतोऽभिवर्द्धमानः, तथा प्रतिपाती अप्रतिपाती चशब्दस्यानुक्तार्थसमुच्चायकत्वादानुगामिकोऽनानुगामिकश्च वक्तव्यः, तत्र प्रतिपतनशीलः प्रतिपाती-य उत्पन्नः सन् क्षयोपश Education Internationa For Park Use Only ~ 1080 ~ १३ अन धिपदं सू. ३१७ ॥५३८ ॥ Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३३], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१७] गाथा मानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा प्रदीप इव सामस्त्येन विध्वंसमुपयाति, अथ हीयमानकप्रतिपातिनोः का प्रतिविशेषः, उच्यते, हीयमानकः पूर्वावस्थातोऽधोऽधो हानिमुपगच्छन्नभिधीयते प्रतिपाती तु निर्मूलमेककालं धंसमुपगच्छन्निति, तथा न प्रतिपाती अप्रतिपाती, यत्केवलज्ञानाद्वा मरणादारतो वा न भ्रंशमुपयातीत्यर्थः, तथा गच्छन्तं पुरुष आ-समन्तादनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामि आनुगाम्येयानुगामिका, खार्थे कः प्रत्ययः, अथवा अनुगमः प्रयोजनं यस्य स आनुगामिकः, लोचनवत् गच्छन्तमनुगच्छति सोऽवधिरानुगामिक इति भावः, तथा न आनुगामिकोऽनानुगामिकः, शृङ्खलाप्रतिबद्धदीप इय यो गच्छन्तं पुरुष नानुगच्छतीति भावः ॥ तदेवमधिकारप्रतिपादनाय द्वारगाथोपन्यता, सम्प्रति 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमतो भेदप्रतिपादनार्थमाह-कइविहाणं भंते !' इत्यादि, कति विधो भदन्त ! अवधिः प्रज्ञासः, सूत्रे खीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , भगवानाह-गौतम ! द्विविधोऽवधिः प्रज्ञसः, तद्यNथा-'भवपचइया य खओबसमिया य' भवप्रत्ययकः क्षायोपशमिकश्च, तत्र भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवो-नारकादिजन्म, 'पुनानी'ति अधिकरणे घप्रत्ययः, भव एव प्रत्ययः-कारणं यस्य स भवप्रत्ययः, प्रत्ययशब्दचेह कारणपर्यायः, वर्त्तते च प्रत्ययशब्दः कारणत्वे "प्रत्ययः शपथज्ञानहेतुविश्वासनिश्चये" इति, स एव खार्थिककप्रत्ययविधानात् भवप्रत्ययकः, तथाऽवधिज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य वेदनेन योऽपगमः। स क्षयोऽनुदयावस्थस्य विपाकोदयविष्कम्भणमुपशमः क्षयश्च उपशमश्च क्षयोपशमी ताभ्यां निवृत्तः क्षायोपशमिकः, दीप अनुक्रम [५७९-५८०] एन्टरटलब्रिट ~ 1081~ Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३३], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१७]] या: मल ॥५३॥ गाथा चशब्दी खगतानेकभेदसूचकौ, तत्र तु यो येषां भवति तं तेषामुपदर्शयति-'दोण्ह'मित्यादि, द्वयोर्जीवसमूहयोर्भव |३३ अवप्रत्ययका, तद्यथा-देवानां च नारकाणां च, देवा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदाचतुर्विधाः, नारका रत्नप्र- धिपदं. भादिपृथिवीभेदात् ससविधाः, चशब्दो प्रत्येकं खगतानेकभेदसूचकी, ते चानेकदा विषयसंस्थानचिन्तायामने खयमेव सूत्रकृतेवोपदर्शयिष्यन्ते, आह-नन्ववधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते नारकादिभवस्त्वौदयिके तत्कथं देवादीनामवधिज्ञानं भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते !, नैष दोषो, यतस्तदपि परमार्थतः क्षायोपशमिकमेव, केवलं स क्षयोपशमो देवनारकभवेष्ववश्यंभावी पक्षिणां गगनगमनलब्धिरिव ततो भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते, आह च नन्ध-IN ध्ययनचूर्णिकृत्-"नणु ओही खओवसमिओ चेव नारगादिभवो से उदइए भावे तओ कहं भवपचइओ भषणइ , | उच्यते, सोऽवि खओवसमिओ चेव, किंतु सो खओक्समो देवनारगमवेस अपस्सं भवइ, को दिट्टतो -पक्खीण। आगासगमणे च, तमोभवपचइओ भण्णइत्ति, तथा द्वयोः क्षायोपशमिकस्तद्यथा-मनुष्याणां च पञ्चेन्द्रियतियेग्योनिजातानां च, अत्रापि चशब्दी प्रत्येक खगतानेकभेदसूचकी, मनुष्याणां तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियतिरश्चां चावधिज्ञानं नावश्यंभावि ततः सामान्येऽपि क्षायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययादिदं भिद्यते, परमार्थतः पुनः सकलमप्यवधिज्ञान क्षायोपशमिकमेवेति । तदेवमुक्तो भेदः, सम्प्रति विषयप्रतिपादनार्थमाह ॥५३॥ नेरइया णं भंते ! केवइयं खे ओहिणा जाणंति पासंति, गो ! जह० अगाउयं उको० चत्वारि गाउयाई ओहिणा दीप अनुक्रम [५७९-५८०] ~ 1082 ~ Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१८] रesercederaceae जाणति पासंति, रयणप्यभापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणति पासंति?, गो० ज० अदुवाई गाउयाई उको चत्तारि गाउयाई०, सक्करप्पभापुढविनेरइया जह• तिष्णि गा० उको० अद्भुट्ठाई गाउ०, वालुयप्पभापुढविनेराया ज० अद्धाइलाई गाउ० उ० तिणि गाउयाई ओहिणा जाणंति पासंति, पंकप्पभामुडविनेरइया ज० दोण्णि गाउ० उ० अद्भाइजाई गा० ओहिणा जा० पा०, धूमप्पभापु० नेर० जह० दिवद्धंगा उक्को दो गाउ० ओहिणा जा० पा०, तमापु० ने० ज० गाउयं उ० दिवई गाउयं ओहिणा जा०या०, अधेसत्तमाए पुच्छा, मो०। जह० अर्बु गाउयं उ० गाउयं ओहिणा जा० पा० । असुरकुमारा णं भंते ! ओहिया केवइयं खेत जा. पा.१, गो० ज० पणवीसं जोअणाई उको० असंखेले दीवसमुद्दे ओहिणा जा० पा०, नागकुमारा णं ज. पणवीसं जोअणाई उ० संखेजे दीवसमुद्दे ओहिणा जा० पा०, एवं जाव थणियकुमारा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवइयं खेतं ओहिणा आणति पासंति , गो० ज० अंगुलस्स असंखेअतिभागं उ० असंखेजे दीवसमदे, मसाणं भंते ! ओहिणा केवतितं खेच जा० पा०, गो.! ज० अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उको० असंखेज्जाई अलोए लोयप्पमाणमेचाई खंडाई ओहिणा जा० पा० । वाणमंतरा जहा नागकुमारा, जोइसिया णं मंते ! केवतितं खेत्तं ओ० जा० पा०१, गो० ज० संखेजे दीवसमुद्दे उकोसेणवि संखेजे दीवसमुद्दे, सोहम्मगदेवाणं भंते ! केव० खेत्तं ओ० जा० पा०, गो० ज० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्को० अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए हिडिल्ले चरमंते तिरियं जाव असंखिजे दीवसमुद्दे उड्डु जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासंति, एवं ईसाणगदेवावि, सणकुमारदेवावि एवं चेच, नवरं जाव अहे दोच्चाए सकरप्पभाए पुढवीए ब्रटseeeee दीप अनुक्रम [५८१] ~ 1083~ Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ३१८ प्रत सूत्रांक [३१८] प्रज्ञापना- हिहिले चरमंते, एवं माहिंददेवावि, बंभलोयलंतगदेवा तच्चाए पुढवीए हिडिल्ले चरमंते, महासुक्कसहस्सारगदेवा चउत्थीए १३ अबया:मढ़- पंकप्पभाए पुढचीए हेहिले चरमंते, आणयपाणयआरणचुयदेवा अहे जाव पंचमाए धूमप्पभाए हेहिल्ले चरमंते, हेडिमम धिप यवृत्ती. ज्झिमगेवेज्जगदेवा अधे जाव छहार तमाए पुढवीए हेहिले जाव चरमंते, उवरिमगविज्जगदेवा गं भंते ! केवतियं खत्त ओहिणा जा० पा०, गो० ज० अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उ० अधे सत्तमाए हे. च० तिरियं जाव असंखेजे दीवसमुद्दे 1५४०॥ उड़े जाव सयाई विमाणाई ओ० जा० पा०, अणुचरोववाइयदेवा णं भंते ! के खेतं ओ० जा० पा०१, गो ! संभिनं लोगनालि ओ० जा० पा० (सूत्रं ३१८) 'नेरइया ण'मित्यादि सुगम, नवरं जघन्येनार्द्धगब्यूतमिति सप्तमपृथिव्यां जघन्यपदमपेक्ष्य, उत्कर्षतश्चत्वारि | गब्यूतानि रलप्रभायामुत्कृष्टपदमाश्रित्य, अधुना प्रतिपृथिवीविषयं चिन्तयन्नाह-'रयणप्पभे'त्यादि, सुगम, जघन्य| पदोत्कृष्टपदविषयसवाहिके इमे गाथे-"अह १-३॥ तिन्नि २-३ अद्धाइयाई ३-२॥ दोषिण ४-२ य दिवट्ठ-1| ||५-१॥ मेगं च ६-१ अद्धं च गाउ ७-०॥ कमसो जहन्नतो रयणमाईसुं॥१॥ चत्तारि गाउयाई १-४ अडु हाई २-३॥ तिगाज्यं ३-३ चेव । अद्भाइजा ४-२॥ दोणि ५-२ य दिवह-६-१॥ मेगं ७-१ च नरएK ॥ ५४॥ ॥२॥" भवनपतिव्यन्तराणां जघन्यपदे यानि पञ्चविंशतियोजनानि तानि येषां सर्वजघन्यं दशवर्षसहस्रप्रमाणमा! युस्तेषां द्रष्टव्यानि, न शेषाणां, आह च भाष्यकृत्-'पणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसिमिति, मनुष्य-TRA दीप अनुक्रम [५८१] बररररर ~ 1084 ~ Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१८] IIचिन्तायामुत्कृष्टपदे यान्यलोके लोकप्रमाणमात्राणि खण्डानि असङ्ख्येयानि तानि परमावधिमपेक्ष्य द्रष्टव्यानि, तस्यै वैतावद्विषयसम्भवात् , एतत्सामर्थ्यमात्रमुपवयेते, यद्येतावति क्षेत्रे द्रष्टव्यं भवति तर्हि पश्यति यावता तन्न विद्यते । अलोके रूपिद्रव्याणामसम्भवात् , रूपिद्रव्यविषयश्चावधिः, केवलमयं विशेषो-यावदद्यापि परिपूर्ण लोकं पश्यति तावदिह स्कन्धानेव पश्यति, यदा पुनरलोकेऽपि प्रसरमवधिरधिरोहति तदा यथा यथाऽभिवृद्धिमासादयति तथा तथा लोके सूक्ष्मान् सूक्ष्मतरान् स्कन्धान पश्यति यावदन्ते परमाणुमपि, उक्तं च-"सामस्थमेत्तमुत्तं दट्ठवं जह हवेज पेच्छेजा । न उ तं तत्थत्थि जओ सो रूविनिबंधणो भणिओ ॥१॥ वटुंतो पुण बाहिं लोगत्थं चेव पासई दछ । सुहुमयरं सुहुमयरं परमोही जाव परमाणुं ॥२॥" [ सामर्थ्यमात्रमुक्तं द्रष्टव्यं यदि भवेत् प्रेक्षेत नतु तत्तत्रास्ति यतः स रूपिनिबन्धनो भणितः ॥ १ ॥वधेमानः पुनर्वहिलोकस्थमेव पश्यति द्रव्यं । सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतरं। परमावधिर्यावत् परमाणु ॥ २॥ ] इत्थंभूतपरमावधिकलितश्च नियमादन्तर्मुहुर्तेन केवलालोकलक्ष्मीमालिङ्गति, यत उक्त-"परमोहीनाणवि केवलमंतोमुहुत्तमेत्तेणं" [ परमावधिज्ञानविदः केवलमन्तर्मुहुर्त्तमात्रेण ] इति, वैमानिकानां यजघन्यपदे अङ्गुलासययभागप्रमाणं क्षेत्रं उक्तं तत्र पर आह-नन्वङ्गुलासङ्खयेयभागमात्रक्षेत्रपरिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्चावधिस्तिर्यग्मनुष्येष्वेव न शेपेषु, यत आह भाष्यकृत् खकृतटीकायाम्-"उत्कृष्टो मनुष्येष्वेव नान्येषु, मनुष्यतिर्यग्योनिष्वेव जघन्यो नान्येषु, शेषाणां मध्यम एवेति" तत्कथमिह सर्वजघन्य उक्तः १, दीप अनुक्रम [५८१] ~ 1085~ Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१८] प्रज्ञापना- याः मलया वृत्ती. ॥५४॥ दीप अनुक्रम [५८१] उच्यते, सौधर्मादिदेवानां पारभविकोऽप्युपपातकालेऽवधिः सम्भवति, स च कदाचित्सवेजघन्योऽपि, उपपातान- ३३ अवन्तरं तु तद्भवजः, ततो न कश्चिदोषः, आह च दुष्पमान्धकारनिमग्नजिनप्रवचनप्रदीपो जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः- धिपदं सू. "माणियाणमंगुलभागमसंखं जहण्णओ होइ । उववाए परभविओ तम्भवजो होइ तो पच्छा ॥१॥" उहुंजाव ॥३१९-३२० सगाई विमाणाईति ऊर्ध्व यावत् खकीयानि विमानानि, खकीयविमानस्तूपध्वजादिकं यावदित्यर्थः, 'संभिनं। लोगनालिं'ति परिपूर्ण चतुर्दशरज्वात्मिका लोकनाडीमिति.। संस्थानद्वारमाहनेरइयाणं भंते ! ओही किंसंठिए पं० १, गो०! तप्पागारसंठिए पं०, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो०! पल्लगसंठिते, एवं जाव थणियकुमाराणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो०! णाणासंठाणसं०, एवं मणूसाणचि, वाणमंतराणं पुच्छा, गो! पडहगसं०, जोतिसिवाणं पुच्छा, गो०! झल्डरिसंठाणसं०५०, सोहम्मगदेवाणं पुच्छा, गो०1 उडमुयंगागारसंठिए पं०, एवं जाव अनुयदेवाणं, गेवेज्जगदेवाणं पूच्छा, गो! पुष्फचंगेरिसंठिए पं०, अणुचरोववाइयाणं पुच्छा, गो! जवनालियासंठिते ओही, पं०। (मूत्रं ३१९) नेरइयाणं भंते । ओहिस्स किं अंतो० बाहिं०, गो०। अंतो नो बाहि, एवं जाव थपियकुमारा, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो० नो अंतो बाहि, मणसाणं पुच्छा, गो। अंतीवि बाहिपि, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरयाणं । नेरइयाणं भंते । किं देसोही सबोही, गोदेसोही ॥५४॥ नो सबोही, एवं आप थणियकुमारा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो01 देसोही नो सबोही, मसाणं पुच्छा, ~ 1086~ Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], --------------- मूलं [३१९-३१९R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१९३१९R] seeincase दीप अनुक्रम [५८२-५८३] गो०! देसोहीपि सबोहीवि, वाणमंतरजोदसियवेमाणियाणं जहा नेरहयाणं । नेरइयाणं भंते ! ओही किं आणुगामिते अणाणुगामिते बड्डमाणते हीयमाणए पडिवाई अप्पडिवाई अवहिए अणवहिए , मो०! आणुगामिए नो अणाणुगामिए नो बद्माणते नो हीयमाणए नो पडिवाई अप्पडिवाई अवहिए नो अणवहिए, एवं जाव धणियकुमाराण, पंचिंदियतिखिखजोणियाणं पुच्छा, गो! आणुगामितेवि जाव अणवहिएपि, एवं मप्रसाणवि, वाणमंतरजोतिसियवेमाणियाणं जहा नेरहयाण (सूत्र ३१९)॥ पण्णवणाए ओहिपदं समत्तं ॥ ३३॥ 'नरइयाण'मित्यादि, 'तप्पागारसंठिए'त्ति तप्रो नाम काष्ठसमुदायविशेषो यो नदीप्रवाहेण प्लाव्यमानो दूरा-1 दानीयते स चायतख्यत्रश्च भवति, तदाकारसंस्थितोऽवधिनारकाणां, असुरकुमारादीनां सर्वेषामपि भवनपतीनां पल्लकसंस्थानसंस्थितः, पल्लको नाम लाटदेशे धान्याधारविशेषः, स चोर्बाध आयत उपरि च किश्चित्सहितः, पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां च नानासंस्थानसंस्थितो, यथा स्वयम्भूरमणोदधी मत्स्याः, अपि च तत्र मत्स्यानां वलयाकारं संस्थानं निषिद्धं तिर्यग्मनुष्यावधेस्तु तदपि भवति, उक्तं च-"नाणागारो तिरियमणुएसु मच्छा सयंभूरमणेव । तत्थ वलयं निसिद्धं तस्स पुण तयंपि होजाहि ॥१॥" व्यन्तराणां परहसंस्थानसंस्थितः, पटह आतो- यविशेषः, स च किश्चिदायत उपर्यधश्च समप्रमाणः, ज्योतिप्कदेवानां झलरीसंस्थानसंस्थितः, झल्लरी-चौवनद्धविस्तीर्णवलयाकारा आतोचविशेषरूपा देशविशेष प्रसिद्धा, सौधर्मदेवादीनामच्युतदेवपर्यन्तानां मृदङ्गसंस्थानसंस्थितः, 39292902039302030202030 मूल-संपादने अत्र सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोषात् (सूत्रं ३१९) इति '३१९' क्रम द्विवारान् मुद्रितं ~1087~ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], --------------- मूलं [३१९-३१९R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१९३१९R] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥५४॥ दीप अनुक्रम [५८२-५८३] मृदङ्गो वाद्यविशेषः, स चाधस्तात् विस्तीर्ण उपरि च तनुकः सुप्रतीतः, अवेयकदेवानां प्रथितपुष्पसशिखाकरूपच-18 ३३ अवमेरीसंस्थानसंस्थितः, अनुत्तरोपपातिकदेवानां कन्याचोलकापरपर्यायजवनालकसंस्थानसंस्थितः, तथा च तप्राकारा-18 | धिपदं सू. दीनां व्याख्यानमिदं भाष्यकृदाह-"तप्पेण समागारो तप्पागारो स चाययत्तंसो । उद्धायतो उ पल्लो उरिं च स किंचि सखित्तो ॥१॥ नचायतो समोविय पडहो हेट्टोवरि पईतो सो। चम्माणवणद्धविच्छिन्नवलयरूवा उ झल्ल|रिया ॥२॥ उद्धायओ मुइंगो हेवा रुंदो तहोवरि तणुओ। पुप्फसिहावलिरइया चंगेरी पुप्फचंगेरी ॥३॥ जवनालओत्ति भण्णाद उम्भ सिरकंचुओ कुमारीए॥" इति, अनेन च संस्थानप्रतिपादनेनेदमावेदितं द्रष्टव्यं, भवनपतिव्यन्त-II राणामूर्व प्रभूतोऽवधिवैमानिकानामधः ज्योतिष्कनारकाणां तिर्यक् विचित्रो नरतिरश्चां, आह च-"भवणवइवणयराणं उर्ख बहुगो अहो य सेसाणं । नारगजोइसियाणं तिरिय ओरालिओ चित्तो॥१॥" तथा नैरयिकभवनपतिव्यन्तरज्योतिप्कवैमानिकाः तथाभवखाभाब्यादवधेमध्यवर्त्तिनो न पुनर्वहिः, किमुक्तं भवति -सर्वतःप्रकाशिखसम्बद्धावधयो भवन्ति, न तु स्पर्द्धकावधयो विच्छिन्नावधयो वा, तिर्यपञ्चेन्द्रियास्त्ववधेरन्तन विद्यन्ते, किन्तु बहिः, अत्राप्येष भावार्थ:-तिर्यपञ्चेन्द्रियास्तथाभवखाभाव्यात् स्पर्धकावधयो विच्छिन्नापान्तरालसर्वतःप्रकाश्यवधियो वा भवन्ति, स्पर्द्धकाद्यवधयो वेति भावः, देशावधिसर्वावधिचिन्तायां मनुष्यवर्जाः सर्वेऽपि देशावधयः, मनुष्यास्तु देशावधयोऽपि भवन्ति सर्वावधयोऽपि, परमावधेरपि तेषां सम्भवात् । आनुगामिकादिचिन्तायां नैरयिकभवनपति 202082020009983 ॥५४॥ ~ 1088~ Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३३], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], --------------- मूलं [३१९-३१९R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१९३१९R] रररर व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका आनुगामिकाप्रतिपात्यवस्थितावधयो नत्वनानुगामिकवर्द्धमानहीयमानप्रतिपात्यनवस्थितावधयस्तथाभवखाभाव्यात् , तिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्याणां त्वष्टधाऽवधिरिति ॥ इति श्रीमलयगिरि० प्रज्ञापनाटी-1 कायां त्रयस्त्रिंशत्तममवध्याख्यं पदं समासम् ॥ ३३ ॥ अथ चतुर्विंशत्तमं प्रवीचारपरिणामाख्यं पदं ॥३॥ तदेवमुक्तं त्रयस्त्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति चतुस्त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेषोऽवधिरुक्तः, अत्र तु परिणामसाम्यावेदपरिणामविशेषः प्रवीचारः प्रतिपाद्यते इति, तत्र च सकलवक्तव्यतोपसङ्घाहिके इसे द्वे गाथे अणंतरगयाहारे १, आहारे भोयणाइय २ । पोग्गला नेव जाणंति ३, अज्झवसाणा ४ य आहिया ॥१॥ सम्मत्तस्साहिगमे ५ तत्तो परियारणा ६ य बोद्धद्या । काए फासे रूबे सद्दे य मणे य अप्पबई ॥२॥ नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निवतणा ततो परियाइणया ततो परिणामया ततो परियारणया तओ पच्छा विउवणया, हंता! गो०! नेरइयाणं अणंतराहारा ततो निवत्तणया ततो परियादिणया वतो परिणामया तओ परियारणया तओ पच्छा विउवणया, असुरकुमारा गं मंते ! अणंतराहारा ततो निश्वत्तणया ततो परियाइणया ततो परिणामया ततो विउवणया तओ पच्छा बिरहटान दीप अनुक्रम [५८२-५८३] रि Receet- अत्र पद (३३) "अवधि:" परिसमाप्तम् अथ पद (३४) "प्रविचारणा" आरब्धम् ~ 1089~ Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२० प्रज्ञापनाया। मलयवृत्ती. ॥५४॥ गाथा: परियारणया, हंता! गो! असुरकुमारा अणंतराहारा ततो निबत्तणया जाव ततो पच्छा परिया०, एवं जाव थणिय- M३४ परिकुमारा, पुढविकाइया णं भैते ! अणंतराहारा ततो निवत्तगया ततो परियाइणया ततो परिणामया ततो परिया० ततो- चारणापदं विउ०, हता! गोतं चेव जाव परियारणया नो चेवणं विउवणया, एवं जाब चउरिदिया, नवरं वाउकाइया पं- सू. ३२० चिंदियतिरिक्खजोणिया मनसा य जहा नेरझ्या, वाणमंतरजोइसियनेमाणिया जहा असुरकुमारा (सूत्रं ३२०) 'अणंतरागयाहारे'इत्यादि, प्रथममनन्तरागताहारको नैरयिकादिर्बक्तव्यः, तदनन्तरं 'आहारे भोयणाइय' इति आहाराभोगता आदिशब्दादाहारानाभोगता च वक्तव्या, यथा 'नेरयिकाणं भंते ! आहारे किं आभोगनिपत्तिए SH अणाभोगनिबत्तिए' इत्यादि, तथा 'पोग्गला नेव जाणंति' इति, नैरयिका आहारतया गृहीतान् पुद्गलान्नव जानन्तीत्यादि चतुविशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्यं, 'अज्झवसाणा य आहियत्ति तदनन्तरं नैरयिकादीनां क्रमेणाध्यवसानानि, सूत्रे पुंलिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात् , चः पूर्वापेक्षया समुच्चये, आख्यातानि, तदनन्तरं 'सम्मत्तस्स अहिगमे' इति, सम्यक्त्वस्याधिगमो नेरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तनीयः, 'तत्तो परियारणा य बोद्धवा' इति ततःसम्यक्त्वाधिगमप्रतिपादनादूर्ध्व परिचारणा वक्तव्यतया बोद्धव्या, कस्मिन् विषये इत्याह-काये स्पशे रूप शन्दा मनसि च, ततः कायप्रवीचारादीनामल्पबदुत्वं, भावप्रधानोऽयं निर्देश:-अल्पबहुत्वं वक्तव्यं । सम्प्रति 'योदशं नि-18 हादेश' इति प्रथमतोऽनन्तरागताहारवक्तव्यतामभिधित्सुरिदमाह-'नरइया णं भंते !' इत्यादि, नैरयिकाः, णमिति | दीप अनुक्रम [५८४-५८६] ५४३॥ ~ 1090~ Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२०] eaeses गाथा: वाक्यालङ्कारे, भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् ! परमसुखयोगिन् ! वा अनन्तरं-उपपातक्षेत्रप्राप्सिसमयमेव आहापरयन्तीत्यनन्तरागताहाराः, 'ततो निश्चत्तणया' इति ततः-अनन्तराहारग्रहणादारभ्य क्रमेण शरीरस्पेति गम्यते नि-11 वर्त्तना-निष्पत्तिर्भवति, 'ततो परियाइणया' इति ततः-शरीरनिष्पत्तेरारभ्य पर्यादानं यथायोगमङ्गप्रत्यकैलोमापहारादिना समन्ततः पुद्गलादानं 'ततो परिणामणया' इति ततः पुद्गलादानादनन्तरं तेषां पुद्गलानां परिणामनइन्द्रियादिरूपतया परिणत्यापादनं 'ततो परियारणया' इति ततः-इन्द्रियादिरूपतया परिणत्यापादनादूर्व परिचारणा-यथायोगं शब्दादिविषयोपभोगः, ततः पश्चात् विकुर्वणा-वैक्रियलग्धिवशात् विक्रिया नानारूपा १, एवमुक्त भगवानाह-'हंता! गोयमे'त्यादि, हन्तेत्यभ्यनुज्ञार्थ, हता! गौतम ! नैरयिका अनन्तराहारा इत्यादि, तदेवं यथा नैरयिकाणामनन्तराहारादिवक्तव्यतोक्ता तथा असुरकुमारादीनामपि स्तनितकुमारपर्यवसानानां वक्तव्या, नवरं | तेषां पूर्व विकुर्वणं पश्चात् परिचारणा, ते हि विशिष्टशब्दाधुपभोगवाम्छायां पूर्वमिष्टं वैक्रिय रूपं कुर्वन्ति पश्चात् शब्दाधुपभोगमित्येष नियमः, शेषास्तु शब्दाधुपभोगसम्पत्ती सत्यां हर्षवशात् विशिष्टतरशब्दाधुपभोगवान्छातः | अन्यतो वा कुतश्चित्कारणात् विकुर्वते, ततस्तेषां पूर्व प्रवीचारणा पश्चाद्विकुर्वणेति, पृथिवीकायविषये प्रश्नसूत्रं तथैव | उत्तरसूत्रे तावद् वक्तव्यं यावत् परिचारणा, तेषामपि स्पर्शीपभोगसम्भवात् , 'नो चेव णं विउचणय'त्ति न चैव तेषां| | विर्वणा याच्या, वैक्रियलब्धेरसम्भवात् , 'एच'मित्यादि, एवं-पृथिवीकायिकवत् अप्कायादयो वातकायवजोंस्ता दीप अनुक्रम [५८४-५८६] ~ 1091~ Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२०] गाथा: प्रज्ञापना- Iवदध्येतव्या यावचतुरिन्द्रियाः, सर्वेषामपि वैक्रियलब्धेरसम्भवेन सूत्रस्य समानत्वात् , वातकायान् प्रति विशेषमभि-1 ३४ परिया:मल- धित्सुः समानगमत्वात् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामपि बातकायैः सहातिदेशमाह-'नवर'मित्यादि, 'जहा नेरइया' चारणापदं य.वृत्ती . इति यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्याः, किमुक्तं भवति ?-'नैरपिकवत् विकुर्वणाऽप्येतेषां वक्तव्या, वैक्रियलब्धिसम्भ॥५४॥ वात् , सा च प्रवीचारणायाः पश्चादिति, 'वाणमंतरजोइसनेमाणिया जहा असुरकुमारा' इति असुरकुमाराणामिव व्यन्तरादीनामपि पूर्व विकुर्वणा पश्चात् परिचारणा वक्तव्येति भावः, सुरगणानां सर्वेषामपि तपाखाभाब्यात्, उक्त च मूलटीकायाम्-“पुर्व विउच्चणा खलु पच्छा परियारणा सुरगणाणं । सेसाण पुषपरियारणा उ पच्छा विउबणया ॥१॥” इति ॥ सम्प्रति आहारविषयमाभोग चिचिन्तयिषुरिदमाह नेरइया गं भंते ! आहारे किं आभोगनिवचिते अणाभोगनि०१, गो! आभोगनिवत्तिएवि अणा, एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिदियाण नोआभोगनिवत्तिए अणाभोगनिवत्तिए । नेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्डंति ते किं जाणंति पा० आहारेंति उदाहु न याति न पासं० आहारैति', गोन याणति न पासंति आहारैति, एवं जाव वेईदिया, चउरिदियाणं पुच्छा, गो० ! अस्थेगतिया न याणति पासंति आहा० अत्थेगइया न याति न II ॥५४४॥ पासंति आहा०, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो! अत्थे० जा० पा० आहा०१ अत्थे० जान पा० आहा०. अत्थेन याणंति पासंति आहा०३ अत्थेन जान पा० आ०४, एवं जाव मणुस्साणवि, वाणमंतरजोइसिया जहा -18|| दीप अनुक्रम [५८४-५८६] ~1092~ Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३२१] दीप अनुक्रम [५८७] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-] दारं [-] मूलं [ ३२१] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [३४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education Internation नेरइया, वैमाणियाणं पुच्छा, गो० ! अत्थे० जा० पा० आ०, अस्थे० न जा० न पा० आ०, से केणद्वेणं मंते ! एवं बु० वेमाणिया अत्थे ० जा ० पा० आ० अत्थे० न जा० न पा० आ०१, गो० ! बेमाणिया दुविहा पं० तं०- माईमिच्छदिट्ठिउववन्नगा य अमाथिसम्मद्दिट्टिउव, एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे मणितं तहा भाणित जाव से एएणडे णं गो० ! एवं बुच्चति, नेरइया णं भंते केवतिया अज्झवसाणा पं० १, गो० ! असंखेजा अज्झवसाणा, ते णं भंते! किं यसत्था अपसस्था १, गो० 1 पसत्थावि अप० एवं जाव वैमाणियाणं । नेरइया पणं मंते । किं सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी सम्मामिच्छत्ताभिगमी १, गो० सम्मत्ताभिगमीवि भिच्छताभिगमीवि सम्मामिच्छत्ताभिगमीवि, एवं जाव बेमाणियावि, नवरं एगिंदियविगलिंदिया णो सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी नो सम्मामिच्छत्ताभिगमी (सूत्रं ३२१ ) 'नेरइयाण' मित्यादि, आभोगनिर्वर्त्तितो यदा मनःप्रणिधानपूर्वमाहारं गृहन्ति, शेषकालमनाभोग निर्वर्त्तितः, स च लोमाहारोऽवसातव्यः, एवं शेषाणामपि जीवानामाभोगनिर्वर्त्तितोऽना भोगनिर्वर्त्तितश्चाहारो भावनीयः, नवरमेकेन्द्रियाणामतिस्तोकापटुमनोद्रव्यलब्धिसम्पन्नत्वात् पटुतर आभोगो नोपजायते इति तेषां सर्वदाऽनाभोगनिर्वर्त्तित एवाहारो न पुनः कदाचिदप्याभोग निर्वर्त्तितः । अधुना आहार्यमाणपुद्गलविषये ज्ञानदर्शने चिन्तयति - 'नेरइया णं भंते' इत्यादि, नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! यान् पुद्गलान् आहारतया गृह्णन्ति तान् किं जानन्ति पश्यन्ति उत नेति ?, भगवानाह — गौतम ! न जानन्त्यवधिज्ञानेन, लोमाहारतया तेषामतिसूक्ष्मत्वेन नारका For Penal Use On ~ 1093~ Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२१] दीप प्रज्ञापना- सावधेरविषयत्वात् , न च पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियविषयाभावात् , द्वीन्द्रिया न जानन्ति, मिथ्याज्ञानतया तेषां सम्यक् । ३४ परिया:मल- परिज्ञानाभावात् , द्वीन्द्रियाणां हि मत्यज्ञानं तदपि चास्पष्टमतः प्रक्षेपाहारमपि न ते खयं गृह्यमाणमपि सम्यक् जा- चारणापदं यवृत्ती. नन्ति चक्षुरिन्द्रियाभावात् न च पश्यन्ति, एवं त्रीन्द्रिया अपि ज्ञानदर्शनविकला भावनीयाः, चतुरिन्द्रियाः 'अत्थेगह- सू. ३२१ ॥५४५॥ यत्ति सन्त्येकके ये खयं गृह्यमाणमप्याहारं प्रक्षेपरूपमपि न जानन्ति, मिथ्याज्ञानित्वात् , तेषामपि हि द्वीन्द्रियाणा-18 मिव मत्यज्ञानं तदपि चाविस्पष्टमिति, चक्षुषा पुनः पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियसद्भावात् , तथाहि-पश्यन्ति मक्षिकादयो । गुडादिकमिति एवमाहारयन्ति, तथा सन्त्येकके चतुरिन्द्रिया ये न जानन्ति, मिथ्याज्ञानित्वात्, न पश्यन्ति च अन्ध-8 कारादिना चक्षुर्दर्शनस्य ब्याहतत्वात् अनाभोगसम्भवाद्वा, तिर्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चां चतुर्भङ्गी प्रक्षेपाहारं लोमाहार |चाधिकृत्य भावनीया, तत्र प्रक्षेपाहारमधिकृत्यैवं भावना-सन्त्येकके तिर्यपञ्चेन्द्रिया ये प्रक्षेपमाहारं जानन्ति, सम्यग्ज्ञानितया तेषां यथावस्थितपरिज्ञानात् , पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियभावात् एवमाहारयन्ति १, तथा सन्त्येकके ये| जानन्ति पूर्ववत् न च पश्यन्ति चक्षुर्दर्शनस्थान्धकारादिना अनाभोगेन च व्याहतत्वात् २, तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति मिथ्याज्ञानितया सम्यकपरिज्ञानाभावात् पश्यन्ति पुनश्चक्षुरिन्द्रियोपयोगात् ३ तथा सन्त्येकके ये न जानकान्ति मिथ्याज्ञानित्वान्न च पश्यन्ति पूर्ववत् एवमाहारयन्ति ४ लोमाहारापेक्षया त्वेवं भावना-सन्त्येकके तियेकपञ्चे ५४५१॥ न्द्रिया ये लोमाहारमपि जानन्ति, विशिष्टावधिज्ञानपरिकलितत्वात् , पश्यन्ति तथाविधक्षयोपशमभावत इन्द्रियपा-18 अनुक्रम [५८७] ~1094~ Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२१] दीप टवस्यातिविशुद्धत्वात् एवमाहारयन्ति १ तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति पूर्ववत् न तु पश्यन्ति तथाविधस्पेन्द्रियपा-15 टवस्थाभावात् २ तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति पश्यन्ति पुनस्तद्विषयेन्द्रियपाटवस्य भावात् ३ तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति मिथ्याज्ञानिस्यात् अवधिविकलत्वात् अवधिविषयातीतत्वाद्वा, न च पश्यन्ति तथारूपपाटवाभावात् 18इति, एवं मनुष्याणामपि लोमाहारप्रक्षेपाहारौ प्रतीस चतुर्भझी भावनीया, 'वाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया इति, नैरयिकावधिरिव व्यन्तरज्योतिष्कावधिरपि मनोभक्षित्वेऽप्याहारपुद्गलानामविषयत्वात् , 'वेमाणियाणं पुच्छ'ति, वैमानिकानां पृथक् सूत्रं वक्तव्यं, 'वेमाणिया णं भंते!' जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते किं जाणंति पासंति आहारेंति उदाहु न जाणंति न पासंति आहारैति' इति, भगवानाह-'गोयमे'त्यादि, माया पूर्वभवकृता विद्यते येषां ते मायिनो, मायया हि यया तया वा बादररूपकृतया कलुषकर्मप्रादुर्भावः, कलुषे च कर्मण्युदयमागते भवप्रका त्ययादप्युपजायमानोऽवधिर्नातिसमीचीनो भवति, एते च सम्यग्दशो न वेदितव्याः, तथा मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः|जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः, मायिनश्च मिश्यादृष्टयश्च मायिमिध्यादृष्टयस्ते च ते उपपन्नाश्च मायिमिथ्यादृष्ट-युपपन्नास्त एव खार्थिककप्रत्ययविधानात् मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकास्ते चोपरितनोपरितनौवेयकपर्यवसाना विज्ञेयाः, तेषां यथायोगमवश्यं मिथ्याष्टित्वस्य मायित्वस्य च भावात्, तद्विपरीता अमायिसम्यग्दृष्टयुपपनकाः, ते चानुत्तरविमानवासिनः, तेपामवश्यं सम्यग्दृष्टित्वं, पूर्वानन्तरभवे नितरां प्रतनुक्रोधमानमायालोभत्वस्यो अनुक्रम [५८७] SAVधन ~ 1095~ Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२१] दीप प्रज्ञापना- शान्तकषायत्वस्य च भावात् , आह च मूलटीकाकार:-"वेमाणिया मायिमिच्छट्टिीउववष्णगा जाव उवरिमगेवेज्जा, ३४ परियाः मल- अमाविसम्मदिहिउववन्नगा अनुत्तरसुरा एव गृह्यन्ते" इति, 'एवं जहे'सादि, एवमुक्तेन प्रकारेण प्राक् यथा इन्द्रि- चारणापदं ब०वृत्ती. यसत्के प्रथमोद्देशके भणितं तथा भणितव्यं, तच्च तावस् यावत् सर्वान्तिमं से एएणडेण'मित्यादिना निगमनपाक्यं, सू. ३२१ ॥५४६॥ तचैवम्-'तत्थ णं जे ते मायिमिच्छडिटिउवचन्नगा तेणं न जाणंति न पासंति आहारेंति, तत्व णं जे ते अमायि-18 | सम्मद्दिहिउववष्णगा ते णं दुविहा पपणत्ता, तंजहा-अणंतरोववण्णगा य परंपरोववण्णगा य, तत्थ णं जे ते अणंतरोववष्णगा ते ण ण याणति न पासंति आहारति, तत्थ णं जेते परंपरोवषण्णगा तेणं दुविहा पं०,०-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ गंजे ते अपजत्तगा ते णं न जाणंति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते पजत्तगा ते दुविहा पं०,तं.-उवउत्ता य अणुवउत्ता य, तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण याणंति न पासंति आहारेंति, तत्थ ण जे ते उचउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एएणठेणं गोयमा ! एवं वुचति-अत्थेगइया न जाणंति न पासंति आहारति अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति ?" इति, अस्थायमर्थः-तत्र ये ते मायिमिथ्यादृष्ट-युपपन्नका Nउपरितनोपरितनवेयकपर्यवसाना इत्यर्थः ते मनोभक्ष्याहारयोग्यान् पुद्गलान् न जानन्ति अवधिज्ञानेन, तदवधेस्तेषा- H५४६॥ मविषयत्वात् , न पश्यन्ति चक्षुषा, तथाविधपाटवाभावात् , येऽप्यमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नका अनुत्तरविमानवासिन इत्यर्थः, ते द्विधा-अनन्तरोपपन्नका परम्परोपपन्नकाच, प्रथमसमयोत्पन्ना अप्रथमसमयोत्पन्नाश्चेत्यर्थः, अत्र ये ते aasass890888 अनुक्रम [५८७] ~1096~ Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनन्तरोपपन्नकाते न जानन्ति न पश्यन्ति, प्रथमसमयोत्पन्नतयाऽवधिज्ञानोपयोगस्य चक्षुरिन्द्रियस्य चाभावात्, N|किन्त्येवमेषाहारयन्ति, तत्र ये ते परम्परोपपन्नकास्ते द्विविधाः, तद्यथा-पर्यासा अपर्याप्ताश्च, तत्र ये ते अपर्याप्तIS कास्ते न जानन्ति न च पश्यन्ति, पर्याप्तीनामसम्पूर्णत्वेनावध्याधुपयोगाभावात् , येऽपि पर्याप्तास्तेऽपि द्विविधाः, तद्यथा-उपयुक्ता अनुपयुक्ताश्च, तत्र ये ते उपयुक्तास्ते जानन्ति, अवधानवशतो यथाशक्ति नियमेन ज्ञानस्य स्खविषयपरिच्छेदाय प्रवृत्तिसम्भवात् , पश्यन्ति चक्षुषा इन्द्रियपाटवस्य तेषामतिविशिष्टत्वात् , ये त्वनुपयुक्तास्ते न जानन्ति न च पश्यन्ति अनुपयुक्तत्वादेव, उपयुक्ता अपि कथं मनोभक्ष्याहारयोग्यान् पुद्गलान् जानते इति चेत्, उच्यते, इहावश्यकप्रथमपीठिकायामवधिज्ञानाधिकारेऽभिहितम्-"संखेज कम्मद लोए थोऊणय पलियं" अस्थायमर्थःकार्मणशरीरद्रव्याणि पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य सङ्ख्येयान् भागान् पश्यति कालतः स्तोकोनं पल्योपमं यावत् , अनुत्तरास्तु सम्पूर्णी लोकनाडी पश्यन्ति, 'संभिन्न लोगनालिं पासंति अनुत्तरा देवा' इति वचनात् , ततस्ते मनोभक्ष्याहारयोग्यानपि पुद्गलान् जानन्ति, आह च मूलटीकाकार:-'ते जानन्ति पश्यन्ति आहारयन्ति च, विशुद्धत्वादवधेरिन्द्रियविषयस्य चातिविशुद्धत्वात् पश्यन्त्यपि" इति, अत्र इन्द्रियविषयस्येति-इन्द्रियपाटवस्खेतिभावः, उपसंहारवाक्यं प्रतीतं । अध्यवसायचिन्तायां प्रत्येकं नैरयिकादीनामसङ्ख्ययान्यध्यवसानानि प्रतिसमयं प्रायोऽन्यान्याध्यवसानभासवात् । सम्यक्त्वायधिगमचिन्तां कुर्वन्नाह-'नेरइया ण'मित्यादि, नैरयिकाः णमिति पूर्ववत् भदन्त ! किं सम्यक्त्वा eatiseekerseases [३२१] दीप अनुक्रम [५८७] ~1097~ Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. [३२१-३२७] ॥५४७|| दीप अनुक्रम [५८७-५९३] धिगामिनः-सम्यक्त्वप्राप्तिवन्तः, एवं मिथ्यात्वाधिगामिनः सम्यग्मिथ्यात्वाधिगामिनश्च ?, भगवानाह-गौतम ३४ परि सम्मेत्यादि सुगम, त्रिविधाया अपि प्राप्सेर्यथायोग सम्भवात् , 'एवं जावे'त्यादि, एवं-नैरयिकगतेनाभिलापप्रकारेण चारणानिरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकाः, नवरमेकेन्द्रियाणां विकलेन्द्रियाणां केषांचित् सासादनसम्यक्त्वमपि लभ्यतेपदं सू. तथापि ते मिथ्यात्वाभिमुखा इति सदपि तन्न विवक्षितं । सम्प्रति परिचारणां प्रतिपिपादयिपुरिदमाह- IN३२२-३२३ देवा णं भंते ! कि सदेवीया सपरियारा सदेवीया अपरियारा अदेवीया सपरियारा अदेवीया अपरियारा ?, गो! अत्थेगतिया देवा सदेवीया सपरियारा अत्थेगतिया देवा अदेवीया सपरियारा अत्थे० देवा अदेविया अपरिचारा नो चेय गं देवा सदेवीया अपरिचारा, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचति-अत्थे० देवा सदेवीया सपरिचारा तं चेव जाव नो चेव णं देवा सदेवीया अप०१, गोभवणपतिवाणमंतरजोतिससोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा संदेवीया सपरियारा, सर्णकुमारमाहिंदभलोपलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणचुएसु कप्पेसु देवा अदेवीया सपरिचारा गेवेजअणुसरोववाइया देवा अदेवीया अपरियारगा, नो चेवणं देवा सदेवीया अपरिचारा, से तेणद्वेणं गो! एवं बु० अत्थे० देवा सदेवीया सपरिचारा तं चेव नो चेव णं देवा सदेषीया अपरियारा (सूत्र ३२२) कतिविहा णं भंते ! परियारणा पं०१, गो०! पंचविहा परियारणा पं०,०-कायपरियारणा फासपरियारणा रूवप० सहपरि०मणप०, से केणढणं भंते ! एवं चु० | ॥५४७॥ पंचविहा परि०५०, त०-कायप० जाव मणप०१, गो! भवणवइवाणमंतरजोइससोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरि० ~ 1098~ Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], -------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२१-३२७] दीप अनुक्रम [५८७-५९३] सर्णकुमारमाहिदेसु कप्पेसु देवा फासपरि० भलोपलंतगेसु देवा रूबपरिया० महामुक्कसहस्सारसु देवा सद्दप० आणयपाणयआरण एमु कप्पेसु देवा मणप०, गेवेजअणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा, से तेणद्वेणं मो० चेव आव मणपरियारगा, तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा तेसिणं इच्छामणे समुप्पजति-इच्छामो णं अच्छरांहिं सद्धिं कायपरियारं करेचए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ ओरालातिं सिंगाराई मणुण्णाई मणोहराई मणोरमाई उत्तरखेउवियरूवाई विउति विउवित्ता तेसिं देवाणं अंतियं पाउम्भवंति, सते णं ते देवा ताहि अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेंति (सूत्रं ३२३) से जहाणामए सीया पोग्गला सीतं पप्प सीयं चेव अतिवतिताणं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अतिवतिचाणं चिद्वंति, एवमेव तेहिं देवेहिं ताहि अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारण कते समाणे से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति (सूत्रं ३२४) अस्थिभंते ! तेसिं देवाणं सुकपोग्गला', हता! अस्थि, ते गं भंते ! तासिं अच्छराण कीसचाते शुओ २ परिणमंति', गो! सोतिंदियत्ताते चक्खुइंदि०पाणिदिय० रसिदिय० फासिदियचाते इहत्ताते कंतताते मणुमचाते मणामचाते सुभगत्ताते सोहग्गरूवजोवणगुणलावनचाए ते तासिं भुजो २ परिणमंति (सूत्र ३२५) तत्थ ण जे ते फासपरियारगा देवा तेसि गं इच्छामणे समुप्पज्जति, एवं जहेब कायपरियारगा तहेव निरवसेसं भाणितई। तत्थ के ते लवपरियारगा देवा तेसिणं इच्छामणे समुप्पजति इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेवते, ते ण तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे तहेब जाव उत्तरखेउविधात लवाई विउवंति विउविचा जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छति उवागच्छिचा तेसिं देवाणं अदरसामते ठिचा वाई उरालाई जाव मणोरमाई उत्तर ~ 1099~ Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया:'मलयवृत्ती [३२१-३२७] ५४८॥ दीप अनुक्रम [५८७-५९३] Sersecccccesesereverseceneces वेठबिताई रूवाई उवदंसेमाणीतो २ चिट्ठति, तते णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेंति, सेस तं व ३४ प्रवीजाव भुजो २ परिणमन्ति । तत्थ ण जे ते सहपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पअति-इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं चारपदंसू. सदपरियारणं करेत्तए, तते णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउबियाति रूवाति विउति विउवित्ता ३२३-३२७ जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति २ नातेसिं देवाणं असामंते ठिचा अणुत्तराई उच्चावयाई सदाई समुदीरेमाणीतो २ चिट्ठति, तते गं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेंति सेसं तं चेव जाव भुजो २ परिणमंति। तत्थ ण जे ते मणपरियारगा देवा तेसिं इच्छामणे समुप्पअति, इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धि मणपरियारणं करेत्तते, तते गं तेहिं देवेहि एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ तत्थ गयाओ चैव समाणीओ अणुत्तरातिं उच्चावयाति मणाई संपहारेमाणीतो २ चिति. तते णं ते देवा ताहि अग्छराहिं सद्धि मणपरियारणं करेंति, सेसं निरवसेसं तं चेक जाच भुजो २ प०(सूत्र ३२६ ) एतेसि णं भंते । देवाणं कायपरियारगाणं जाव मणपरियारगाणं अपरियारगाण य कयरे० अप्पा वा ४१, गो! सबत्योवा देवा अपरियारगा मणपरियारगा संखे० सद्दपरियारगा असंखे० रूवप० असं० फासप० असं० कायप० असं० ॥ (सूत्र ३२७) पण्णवणाए परियारणापर्य समत्तं ॥ ३४ ॥ ॥५४८॥ 'देवाणमित्यादि, सुगम, नवरं भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानकल्पेषु देवा सदेवीकाः, देवीनां तत्रोत्पादात्,18 अत एव सपरिचाराः-परिचारणासहिताः, देवीनां तत्परिग्रहे यथायोगं भावतः कायप्रवीचारभावात् , सनत्कुमारमाहे ~1100~ Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३२१ -३२७] दीप अनुक्रम [५८७ -५९३] पदं [३४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-], मूलं [३२१-३२७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः न्द्रयोर्नशलो कलान्तकयोर्महाशुक्रसहस्रारयोरानतादिचतुर्षु कल्पेषु देवा अदेवीकाः, तत्र देवीनामुत्पादाभावात्, अथ च | सपरिचाराः - परिचारणासहिताः, सौधर्मेशानगत देवीभिः सह यथाक्रमं स्पर्शरूपशब्द मनःप्रवी चारभावात्, ग्रैवेयकानुसरोपपातिनो देवा अदेवीकाः, देवीनां तत्रोत्पादाभावात् अपरिचाराः - अप्रवीचाराः, अत्यन्तमन्दपुरुषवेदोदयतया मनसापि प्रवीचारासम्भवात् न पुनस्ते देवाः सदेवीका अपरीचाराः, तथाभवखाभाव्यात्, 'से एएण' मित्यादि निगमनवाक्यं । देवाः सदेवीकाः संपरिचारा इत्युक्तं, तत्र परिचारणामेव जिज्ञासुः पृच्छति - 'कइविहा णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'गौतमेत्यादि गतार्थ, नवरं 'कायपरिचारगा' इति कायेन शरीरेण मनुष्य स्त्रीपुंसानामिव परिचारो-मैथुनोपसेवनं येषां ते कायपरिचारकाः, किमुक्तं भवति १-भवनपत्यादय ईशानदेवलोक देवपर्यन्ताः सङ्किष्टोदय पुरुषवेदकर्मप्रभावतो मनुष्यवत् मैथुनसुखप्रतीयमानाः सर्वाङ्गीणं कायक्लेशजं संस्पर्शसुखमवाप्य प्रीतिमासादयन्ति नान्यथेति, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोर्देवाः स्पर्शपरिचारकाः, स्पर्शेन - स्तनभुजोरुजघन । दिगात्रसंस्पर्शेन परिचारः - प्रवीचारो येषां ते तथा, ते हि यदा प्रवीचारमभिलषन्ति तदा प्रवीचाराभिलाषुकतया प्रत्यासन्नभूतानां देवीनां स्तनाद्यवयवान् संस्पृशन्ति, तावन्मात्रेणैव तेषां कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुखं वेदोपशान्तिचोपजायते, ब्रह्मलोकलान्तकयोः कल्पयोर्देवा 'रूपपरिचारका' रूपेण रूपमा प्रदर्शनेन परिचारो-मैथुनोपसेवनं येषां ते तथा, ते हि सुरसुन्दरीणां मनोभवराजास्थानीयं दिव्यमुन्मादजनकं रूपमुपलभ्य कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुरतसुखमासादयन्ति तावन्मात्रेणैवोपशान्तवेदा Education Internation For Parts Only ~ 1101 ~ Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक estorseen |३४ प्रवीचारपदं स्. ३२३-३२७ [३२१-३२७] दीप अनुक्रम [५८७-५९३] प्रज्ञापना-INउपजायन्ते, महाशुक्रसहस्रारेषु कल्पेषु देवाः 'शब्दपरिचारकाः' शब्देन-शब्दभात्रश्रवणेन परिचारो येषां से तथा, ते या: मल- हि इच्छाविषयीकृतदेवीसत्कगीतहसितसविकारभाषितनूपुरादिध्यनिश्रवणमात्रत एव कायप्रवीचारादनन्तगुणसुखं यवृत्ती. Nउपमुअते तावन्मात्रेणैव तेषां वेद उपशान्तिमेति, आनतप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु देवा 'मनःपरिचारकाः' मनसा॥५४॥ मनोभवविकारोपबृंहितपरस्परोच्चावचमनःसङ्कल्पेन परिचारो मैथुनोपसेवनं येषां ते तथा, ते हि परस्परोधावचमनः Sसङ्कल्पमात्रेणेव कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुखमवामुषन्ति, तृसाश्च तावन्मात्रेणैवोपजायन्ते, अवेयकानुत्तरोपपातदेवा 'अपरिचारका' न विद्यते परिचारो-मैथुनोपसेवनं मनसाऽपि येषां ते तथा, तेषां प्रतनुमोहोदयतया प्रशमसुखांतीनत्वात् , यद्येचं कथं न ते जमचारिणः, उच्यते, चारित्रपरिणामाभावात् , 'से तेणटेण मित्यादि निगमनवाक्यं, तत्र ये कायपरिचारका देवास्तेषां कायप्रविचारं विभावविपरिदमाह-तत्थ 'मित्यादि. तत्र-तेषु कायपरिचारकादिषु देवेषु मध्ये ये ते पूर्वमुक्ताः कायपरिचारका भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मशानदेवास्तेषां णमिति पूर्वबत् इच्छामनः-कायपरिचारेच्छाप्रधानं मनः समुत्पद्यते, केनोलेखेन समुत्पद्यते -इच्छामः-अभिलपामः णमिति पूर्ववत् अप्सरोमिः साढे कायपरिचारं कर्तुमिति, 'तए णमित्यादि, ततस्तैर्देवैरेवमुक्तेन प्रकारेण कायपरिचारे मनसि कृते सति क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव ता अप्सरसः खस्खोपभोग्यदेवाभिप्रायमवेत्य परिचाराभिलाषुकतया उचरवैक्रियाणि रूपाणि विकुर्वन्तीति सम्बन्धः, कथंभूतानीसत आह-उदाराणि-स्फाराणि तु हीनावयवानि तानि अपि ॥४९॥ ~1102~ Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२१-३२७] दीप अनुक्रम [५८७-५९३] |'शृङ्गाराणि' शृङ्गारो-विभूषणादिभिर्मण्डनं स विद्यते येषां तानि शृङ्गाराणि, अभ्रादिभ्य' इस्वादि अप्रत्ययः, विभूषणादिकृतोदारकाराणीत्यर्थः, तानि च कदाचित् कस्यचिदमनोज्ञानि भवेयुः अत आह-'मनोज्ञानि' खखोपभोग्यदेवमनोविषयभावपेशलानि, तानि लेशतोऽपि सम्भाव्यन्ते तत आह-'मनोहराणि खखोपभोग्यस्य देवस्य मनो | हरन्ति-आत्मवशं नयन्तीति मनोहराणि, लिहादित्वादच्', तच मनोहरत्वं प्रथमसमापातमात्रभाष्यपि भवति तत आह-'मनोरमाणि' मनः खखोपभोग्यदेवसम्बन्धि रमयन्ति-क्रीडयन्ति प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरानुरागसम्पृक्तं जनयम्तीति मनोरमाणि, तानि इत्थंभूतानि उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि विकुर्वित्वा तेषां देवानामन्तिक-समीपं प्रादुर्भवन्ति, 'तते ण'मित्यादि, ततः णमिति पूर्ववत् , ते देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध कायपरिचारण-मनुष्य इव मनुष्यस्त्रीभिः सर्वाङ्गीणकायक्लेशपूर्वक मैथुनोपसेवनं कुर्वन्ति, एवमेव तेषां वेदोपशान्तिभावात् । तथा चामुमेवार्थ दृष्टान्तेन द्रढयति-से जहाणामए' इत्यादि से' इति अथशब्दार्थः, स चात्र वाक्योपन्यासे, यथा नाम 'ते' विवक्षिताः शीताः पुदलाः शीतं-शीतयोनिकं प्राणिनं प्राप्य 'शीतमेव' शीतत्वमेवातित्रज्य-अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, किमुक्तं भवति ?-विशेषतः शीतीभूतस शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्ते, उष्णा वा पुगला उष्णयोनिकं प्रा|णिनं प्राप्य 'उष्णमेव' उष्णत्वमेवातित्रज्य-अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, विशेषतः स्वरूपलाभसम्पत्या तस्य सुखि-18 वायोपतिष्ठन्ते इति भावः, 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण तैर्देवस्ताभिरप्सरोभिः साई यथोक्तरूपे कायपरिचारणे कृते। ~1103~ Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३२१ -३२७] दीप अनुक्रम [५८७ -५९३] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥५५०॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - उद्देशक: [-], दार [-], मूलं [३२१-३२७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [३४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. सति इच्छामनः कामविषयेच्छाप्रधानं मनः क्षिप्रमेवातितृप्तिभावात् शीतीभवति, इयमत्र भावना-यथा शीतपुद्गलाः शीतयोनिकस्य प्राणिनः संस्पर्शे शीतत्वं विशेषतः आसादयन्तस्तस्य सुखित्वायोपकल्पन्ते उष्णपुद्गला वा उष्णयोनिकस्य प्राणिनः संस्पर्शे उष्णत्वमतिप्रभूतमासादयन्तः सुखाय घटन्ते तथा देवीशरीरपुद्गला देवशरीरमवाप्य देवशरीरपुद्गला अपि देवीशरीरमवाप्य परस्परं तद्गुणतां भजमानाः परस्परं सुखित्वायोपकल्पन्ते ततस्तृतिरुपजायते तृप्तिभावाच्चाभिलाषनिवृत्तिर्भवतीति । इह मनुष्यस्त्रीणां मनुष्यपुरुषोपभोगे शुक्रपुद्गलसङ्क्रमतः सुखमुपजायमानं लब्धं तत्किं देवीनामप्युपभोग्य देवसत्क शुक्रपुद्गलसङ्क्रमतः सुखमुपजायते आहोश्विदन्यथेति संशयानो देवानां शुक्रपुद्गलास्तित्वं पृच्छति - 'अस्थि ण' मित्यादि, अस्तीतिनिपातोऽत्र बद्धर्थे, णमिति पूर्ववत् भदन्त । तेषां देवानां शुक्रपुदूलाः यत्सम्पर्कतो देवीनां सुखमुपजायते ?, 'हंता ! अस्थि' भगवानाह - गौतम । सन्ति, केवलं ते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः, 'ते णं भंते ।' इत्यादि, ते शुक्रपुद्गलाः, णमिति पूर्ववत् भदन्त । तासामप्सरसां कीदृक्खरूपतया 'भूयो २' यदा २ क्षरन्ति तदा २ इत्यर्थः परिणमन्ति १, भगवानाह - 'गोयमे' त्यादि, श्रोत्रेन्द्रि यरूपतया यावत्स्पर्शनेन्द्रियतया, तेऽपि कदाचिदनिष्टतया परिणमन्तः सम्भाव्येरन् तत आह-इष्टतया, इष्टमपि किचित्खरूपतोऽकान्तं भवति, यथा शूकरादीनामिष्टमपि विष्ठादि, तत आह- 'कान्ततथा' कमनीयतया, कान्तमपि किञ्चिन्मनः स्पृहणीयं न भवति तत आह- 'मनोज्ञतया' अतिस्पृहणीयतया, तदप्यतिस्पृहणीयत्वं कदाचिदा For Penal Use On ~1104~ ३४ प्रवी चारपदं स्. ३२३-३२७ ||५५० ॥ Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], -------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] (१५) प्रत ब्लटवाररब्रहर 92520399 सूत्रांक [३२१-३२७] पातकालमात्रभावि सम्भाव्यते तत आह-'मनआपतया' मन आमुवन्ति-मनसि सदा रमन्ते इति मनापास्तद्रावस्तत्ता तया, मनसा सदा स्पृहणीयतयेति भावः, करमादिति चेत्, अत आह-सुभगतया' 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायात् अत्र हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः-यतः सुभगतया-सर्वजनप्रियतया परिणमन्ति तत उच्यते इष्टतया कान्ततयेत्यादि, सुभगतया परिणमनमपि कथमिति चेत्, अत आह-'सोहग्गरूवजोषणगुणलावन्नत्ताए' इति, अत्र प्राकृततया गुणशब्दस्य लावण्यशब्दात् पूर्व निपातः परमार्थतस्तु परतो द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः-सौभाग्याय-सौभाग्यहेतवे रूपयौवनलावण्यरूपा गुणा यस्य तत्सौभाग्यरूपयौवनलावण्यगुणं तद्भावसत्ता तया, तत्र रूप-सौन्दर्यवती आकृतियौवनं-परमस्तरुणिमा लावण्यं-अतिशायी मनोभवविकारदेतुः परिणतिविशेषः, यतः सौभाग्यहेतुरूपादिगुणनिबन्धनतया परिणमन्ति ततः सुभगतया परिणमंतीत्युच्यते, एवं ते शुक्रपुद्गलास्तासामप्सरसां भूयो भूयः परिणमन्ति । तदेवं कायपरिचार उक्तः, सम्प्रति स्पर्शपरिचारं विभावयिषुराह-तत्य ण'मित्यादि, तत्र-तेषु परिचारकादिषु मध्ये णमिति पूर्ववत् ये ते स्पर्शपरिचारका देवास्तेषां णमिति पूर्ववत् एवमि|च्छामनः-स्पर्शपरिचारविषयेच्छाप्रधानं मनः समुत्पद्यते, 'एवं जहे-'त्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण यथैवानन्तरं प्राक् कायपरिचारका उक्ताः तथैव स्पर्शपरिचारकेष्वपि निरवशेष भणितव्यं, तचैवम्-'इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं फासपरियारं करेत्तए, तएणं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ उरालाई जाव विउविचा दीप अनुक्रम [५८७-५९३] *993 wwwjandiarary.om ~1105~ Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- या। मलय. वृत्ती. १५५१ [३२१-३२७] दीप अनुक्रम [५८७-५९३] तेसिं देवाणं अंतियं पाउष्भवति, तए णं ते देवा अच्छराहिं सद्धिं फासपरियारं करेंति" स्पर्शपरिचारण बदनचुम्बनस्त- ३४ प्रवीनमईनबाहुउपगृहनजघनोरुप्रभृतिगात्रसंस्पर्शरूपं, 'से जहानामए सीया पुग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवइचाणं चारपदं सू. चिट्ठति उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ताणं चिटंति एवमेव तेहिं देवेहिं ताहिं अच्छराहि ३२३-३२७ सर्द्धि फासपरियारणे कए समाणे इच्छामणे खिप्पामेव अवेइ,' अस्स सपातनिका व्याख्या प्राग्वत् , 'अत्यि णं भंते । तेसिं देवाणं सुकपोग्गला , हता! अस्थि, ते पं भंते ! तासिं अच्छराणं कीसत्ताए भुजो २ परिणमंति', गोयमा सोतिदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए इतृत्ताए कंतत्ताए जाव भुजो २ परिणमंति' अस्यापि सपातनिका ब्याख्या प्राग्वत्, नवरमस्मिन् स्पर्शप्रवीचारे शुक्रपुद्गलसङ्कमो दिन्यप्रमावादवसेयः,एवं रूपपरिचारादावपि भावनीयं, तदेवमुक्ताः स्पर्शपरिचारकाः, सम्प्रति रूपपरिचारणां विभावयिषुराह-'तत्थ णमित्यादि, सुगमं तावत् यावत् विकुर्वित्वा जेणामेव'त्ति यत्रय देवलोके विमाने प्रदेशे च ते देवाः सन्ति तत्रैव स्थाने ता अप्सरस उपागच्छन्ति, उपागम्य च तेषां देवानां 'अदूरसामंते' इति अदूरसमीपे स्थित्वा तानि पूर्व विकुर्चितानि उदाराणि यावदुत्तरवैक्रियाणि रूपाणि उपदर्शयन्त्यस्तिष्ठन्ति, ततस्ते देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध रूपपरिचारां-परस्परं सबिलासघष्टिविक्षेपाङ्गप्रत्यङ्गनिरीक्षण IN॥५५॥ निजनिजानुरागप्रदर्शनपटिष्टचेष्टाप्रकटनादिरूपां कुर्वन्ति, 'सेसं तं चेय'त्ति शेष से जहा नामए' इत्यादि तदेव यावत् 'भुजो २ परिणमन्तीति वाक्यम् , तदेवं भाविता रूपपरिचारणा, सम्प्रति शब्दपरिचारणां भावपितुकाम ~1106~ Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३२१ -३२७] दीप अनुक्रम [५८७ -५९३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दार [-], उद्देशक: [-], मूलं [३२१-३२७] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [३४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आह- 'तत्थ ण' मित्यादि कण्ठ्यं, नवरमदूरसमीपे स्थित्वा अनुत्तरान् — सर्वमनः प्रल्हादजनकतया अनन्य सहशान् उच्चावचान् - प्रबल २तरमन्मथोद्दीपकसभ्यासभ्यरूपान् शब्दान्, सूत्रे नपुंसक निर्देशः प्राकृतत्वात्, समुदीरयन्त्यस्तिष्ठन्ति, शेषं तथैव, 'एवं तत्थ ण'मित्यादि, मनःपरिचारकसूत्रमपि तथैव यावन्मनः परिचारे मनसि कृते सति क्षिप्रमेव ता अप्सरसस्तत्र गता एव सौधर्मेशानदेवलोकान्तर्गतखख विमानस्थिता एव सन्त्योऽनुत्तराणि - परमसन्तोषजनकतया अनन्यसदृशानि उच्चावचानि - कामानुषक्तसभ्यासभ्यरूपाणि मनांसि प्रचारयन्त्यस्तिष्ठन्ति, इह 'तत्यगया चैव समाणीओ' इति वदता देव्यः सहस्रारं यावद् गच्छन्ति न परत इत्यावेदितं द्रष्टव्यं तथा चाह सम्रहणिमूलटीकाकारो हरिभद्रसूरिः- “ सनत्कुमारादिदेवानां रताभिलाषे सति देव्यः सत्यपरिगृहीताः सहस्रारं यावदू गच्छन्ती"ति, तथा स एव प्रदेशान्तरे आह— "इह सोहम्मे कप्पे तासिं देवीणं पलिओममाउगं ताओ तद्देवाणं चेष दवंति, जासिं पुण पलिओ माई समयाहिया ठिई दुसमयतिसमयसंखेज्जासंखेज्जसमयाहिया जाव दसपलिया सोहम्मगदेवीओ ताओ सणकुमाराणं गच्छति, एवं दसपलिओषरि जासिं समयाहिया ठिई जान वीसं पलिया ताओ बंभलोगदेवाणं गच्छति, एवं बीसपलिओवरि जार्सि समयाहिया टिई जाव तीसं पलिया ताओ महासुकदेवाणं गच्छेति, एवं तीसं पलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई जाब चत्तालीसं पलिया ताओ आणयदेवाणं तत्थ |ठिया चेव झाणावलंगणं होंति, एवं चत्तालीसं पलिओवरि जार्सि समयाहिया ठिई जाब पंचास पलिया ताओ Eucatur Internation For Parts Only ~ 1107~ wor Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२१-३२७] kerseएर दीप अनुक्रम [५८७-५९३] प्रज्ञापना-18 आरणदेवाणं तत्थ ठियाओ चेव झाणावलंबणं होंति" तथा "ईसाणे जासिं देवीणं पलिओवममहियमाउयं ताओ ३४ प्रवीयाः मल- तद्देवाणं चेव होंति,जासिं पुण अहियपलिओवमाई समयाहिया ठिई दुसमयतिसमयसंखेज्जासंखेज्जसमयाहिया जान चारपदं सू. यवृत्ती. पण्णरसपलिया ताओ माहिंददेवाणं गच्छंति, एवं पन्नरसपलिओवरि समयाहिया ठिई जाय पणवीसं पलिया ताओ३२३-३२७ लंतगदेवाणं, जासिं पुण पणवीसपलिओवरि समयाहिया ठिई जाव पंचतीसं पलिया ताओ सहस्सारदेवाणं, जासि ॥५५था लापण पंचतीसपलिओवरि समयाहिया ठिई जाव पणयालीसं ताओ पाणयदेवाणं तत्थ ठियाओ चेष झाणावलंवर्ण । होति, जासिं पुण पणयालीसं पलिओवरि समयाहिया ठिई जाव पणपन्नपलिया ताओ अचुयदेवाणं तत्व ठियाओ। चेच झाणावलंबणं हवंति" इति, 'तए ण'मित्यादि, ततो णमिति पूर्ववत्, ते देवाः ताभिरप्सरोभिः सार्दू मन:परिचारणं-सुरतानुबन्धि परस्परं सभ्यासभ्यमनःसङ्कल्पकरणरूपं कुर्वन्ति, 'सेस'मित्यादि, शेषं से जहा नामए सीया पोग्गला' इत्यादि निरवशेष तावद् वक्तव्यं यावत् 'भुजो २ परिणमन्तीति सर्वान्तिम वाक्यं, व्याख्या चास्य प्राग्वत् , तत ऊर्ध्वं तु वेयकादयो मनसाऽपि योषितो न प्रार्थयन्ति, प्रतनुवेदोदयत्वात् , यथोत्तरं चैतेऽनन्तगुणसुखमाजः, तथाहि-कायप्रयीचारेभ्योऽनन्तगुणसुखाः स्पर्शपरिचारकास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणसुखाः रूपपरिचार-IMIn५५२॥ कास्तेभ्योऽपि अनन्तगुणसुखाः शब्दपरिचारकास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणसुखा मनःपरिचारकास्तेभ्योऽपि अपरिचारकाः। अनन्तगुणसुखाः। साम्प्रतमेतेषामेव परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका देवा अपरिचा Reserverse Researee ~1108~ Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३४], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२१-३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२१-३२७] seasesesesesesearee रकाः, ते हि येयकानुत्तरोपपातिनस्ते च सर्वसङ्ख्यया क्षेत्रपल्योपमासयेयभागवर्त्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणा इति, तेभ्योऽपि मनःपरिचारका देवाः सङ्ख्येयगुणाः, तेषामानतादिकल्पचतुष्टयवर्त्तित्वात् , तद्वर्तिनां च पूर्वदेवापेक्षया सोयगुणक्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यः शब्दपरिचारका असङ्ख्यगुणाः, ते हि महाशुक्रसहस्रारकल्पवासिनः, ते च घनीकृतलोकस्य एकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसङ्ख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, तेभ्योऽपि रूपपरिचारका देवा असङ्ख्येवगुणाः, ते हि ब्रह्मलोकलान्तककल्पनिवासिनः, ते च पूर्वदेवा-| नधिकृत्यासङ्ख्येयगुणश्रेण्यसङ्ख्येयभागगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणाः, तेभ्योऽपि स्पर्शपरिचारका देवा असङ्ख्येयगुणाः, तेषां ।। सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पवर्तित्वात् तद्वर्त्तिनां च ब्रह्मलोकलान्तकदेवानपेक्ष्यासययगुणश्रेण्यसबेयभागवाकाशप्रदेशपरिमाणतयाऽधीतत्वात् , तेभ्यः कायपरिचारका देवा असङ्ख्येयगुणाः, भवनपत्यादीनामीशानान्तानां सर्वेषां काय-13 परिचारकत्वात् , तेषां सर्वसङ्ख्यया प्रतरासङ्ख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविर०19 प्रज्ञा० चतुर्विंशत्तम पदं समासम् ।। COCO20. लिटरसटटाsecre दीप अनुक्रम [५८७-५९३] अत्र पद (३४) "प्रविचारणा" परिसमाप्तम् ~1109~ Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२८] ३५वेदना पदं सू. ३२८ गाथा; प्रज्ञापना अथ पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनाख्यं पदं ॥३५॥ या: मलयवृत्ती. पत्ता. तदेवमुक्तं चतुर्विंशत्तमं पदं, सम्प्रति पञ्चत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्व चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे वेदपरिणाम- ॥५३॥ विशेषः प्रवीचारः प्रतिपादितः, अत्र तु गतिपरिणामविशेषा वेदना प्रतिपाद्यते, तत्र आदी सकलवक्तव्यतासङ्ग्रहपरे 18| इमे द्वे गाये सीता व दबसरीरा साता तह वेदणा भवति दुक्खा । अभुवगमोवकमिया निदाय अणिदाय नायवा ॥१॥ सायमसायं सो सुहं च दुक्खं अदुक्खममुहं च । माणसरहियं विगलिंदिया उ सेसा दुविहमेव ॥२॥ कइविहा णं भंते ! वेदणा पं०१, गो. तिविहा वेदणा पं०, तं०-सीता उसिणा सीतोसिणा, नेरइया ण भंते ! कि सीतं वेदणं वेदेति उसिणं वे० वे. सीतोसिणं वे० चेदेंति ?, गो० सीतपि वेदणं वेदेति उसिपि वे वे० नो सीतोसिणं वे वे०, केई एकेकपुढवीए वेदणाओ भणंति, रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! पुच्छा, गो.! नो सीतं वेदणं वे उसिणं . वे० नो सीतोसिणं वे. वे०, एवं जाव वालुयप्पभापुढविनेरझ्या, पंकष्पभापुढविनेरयाणं पुच्छा, गो०! सीतंपि वे०० उसिणपि वे० वे०, नो सीतोसिणं पे००,ते पहुयतरागा जे उसिणं वेदणं वेदंति, ते थोवतरागा जे सीतं वेदणं वे०, धूमपभाए एवं चेव दुविहा, नवरं ते बहुतरागा जे सीतं वे००ते थोवतरागाजे उसिणं वे० पदेंति, तमाए य तमतमाए य सीयं वे० ० नी ececeaecse दीप अनुक्रम [५९४-५९६] टायर ॥५५॥ अथ पद (३५) “वेदना" आरब्धम् ~1110~ Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२८] गाथा: उसिणं वे००, नो सीतोसिणं वे वेदेति, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो! सीतपि वे वे० उसिणंपि चेल्वे सीतोसीणपि वे००, एवं जाव वेमाणिया । कतिविहा णं भंते ! वेदणा पं०१, गो! चउबिहा चेदणा पं० तं०-दबतो खेत्ततो कालतो भावतो, नेरइया णं भंते ! किं दबतो वेदणं वेगवे. जाव किं भावतो बे००१, गो! दबओवि वे०वेजाव भावओवि वे बे०, एवं जाव वेमाणिया। कतिविदा णं भंते ! वेदणा पं०१, गो०! तिविहा वेदणा, पं०, तं०-सारीरा माणसा सारीरमाणसा, नेरहया णं भंते । किं सारीरं वे वे० माणसं वेयणं वे सारीरमाणसं वे बे०१, गो० सारीरपि वे० वे० माणसंपि वे० वे० सारीरमाणसपि वे००, एवं जाव वेमाणिया, नवरं एगिदियविगलिंदिया सारीरं चे० वेनो माणसं वे वे०नो सारीरमाणसं वे००। कइविहा णं भंते ! वेयणा पं०१, गो०1तिविहा वेयणा पं०, ०साता असाता सातासाता, नेरइया णे भंते । किं सायं चेदणं वेदंति असातं वे सायासायं ० ०१, गोयमा ! तिविहंपि बे० वे०, एवं सबजीवा जाव वेमाणिया । कतिविदा गं भंते ! वेदणा पं०१, गोतिविहा पं०, तं०-दुक्खा सुहा अदुक्खसुहा, नेरइया णं भंते । किं दुक्खं वेदणं वे०के० पुच्छा, गो. दुक्खपि देवे० सुहेपि वे० वे अदुक्समसुइंपि वे० ० एवं जाव वेमाणिया। (सूत्र ३२८) 'सीया य दधे'त्यादि, वेदना प्रथमतः शीता चशब्दादुष्णा शीतोष्णा च वक्तन्या, तदनन्तरं द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्वेदना वक्तव्या, ततः शारीरी उपलक्षणान्मानसी च वेदना वाच्या, ततः साता तथा दुःखा वेदना सभेदा वक्तव्य हटSCE रSKSEReacefacticeneselect RECE दीप अनुक्रम [५९४-५९६] ~1111~ Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३२८] गाथा: दीप अनुक्रम [५९४ -५९६] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥ ५५४॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [-1, मूलं [३२८] + गाथा: पदं [३५], उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ३५वेदनापदं सू. तया ज्ञातव्या भवति, तदनन्तरमाभ्युपगमिकी औपक्रमिकी च वेदना वक्तव्यतया ज्ञातव्या, ततोऽप्यनन्तरं निदा चानिदा चेति, सातसुखादीनां विशेषमाभ्युपगभिक्यादिशब्दानामर्थं त्वमे वक्ष्यामः, सातादिवेदनां अधिकृत्य यो | विशेषो वक्ष्यते तत्सङ्ग्राहिका द्वितीया गाथा- ' सायम साय' मित्यादि, सर्वे संसारिणः सातामसातां चशब्दात् साता- ४ २२८ सातां च वेदनां वेदयन्ते, तथा मुखां दुःखां अदुःखामुखां च, तथा विकलेन्द्रिया - एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः तुशब्दस्याधिकारार्थसंसूचनार्थत्वादसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च मानसरहितां - मनोविकलां वेदनां वेदयन्ते, शेषास्तु द्विविधामेव शरीरमनोनिबन्धनां शारीरी मानसीं तदुभयसमुद्भवां चेति भावः, निदाऽनिदादिगतस्तु विशेषो न सङ्गृहीतो, विचित्रत्वात् सूत्रगतेः । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमतः शीतादिवेदनाः प्रतिपादनार्थमाह – 'कहविहा णं मंते !" इत्यादि, शीता-शीत पुद्गलसम्पर्कसमुत्था, एवमुष्णा, या च अवयवभेदेन शीतोष्णपुङ्गलसम्पर्कतः शीता उष्णा च सा शीतोष्णा, एनामेव त्रिविधां वेदनां नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति- 'नेरइया ण'मित्यादि, तत्राद्यासु तिसृषु पृथिवीपूष्णां वेदनां वेदयन्ते, ते हि शीताः ये नरकावासाश्च तदाश्रयभूताः सर्वतो जगप्रसिद्धखादिराङ्गारातिरिक्त बहुप्रतापोष्णपुद्गलसम्भूताः, चतुर्थ्यां तु पङ्कप्रभाभिधानायां पृथिव्यां केचिनैरथिका उष्णवेदनां केचिच शीतवेदनामनुभवन्ति, तत्रत्यनरकावासानां शीतोष्णभेदतो द्विधा भेदात्, केवलं ये उष्णवेदनां वेदयन्ते ते प्रभूततराः, प्रभूतेषु नरकावासेपूष्णवेदनासद्भावात्, इतरे शीतवेदनामनुभवन्तः स्तोकाः, स्तोकतरेषु नर Etication Internation For Parts Only ~ 1112 ~ ॥५५४॥ wor Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२८] गाथा: कावासेषु शीतवेदनासम्भवात् , धूमप्रभायामपि पृथिव्यां केचित् शीतवेदनाकाः केचिदुष्णवेदनाकाः, नवरं शीतवेद-13 नाकाः प्रभूततराः, प्रभूतेषु नरकावासेषु शीतवेदनासम्भवात् , स्तोका उष्णवेदनाः, कतिपयेष्वेव नरकावासेपूष्णवेद-12 ISI नाभावात् , अधस्तन्योस्तु द्वयोः पृथिव्योः शीतवेदनामेव नैरयिका अनुभवन्ति, तत्रत्सनैरयिकाणां सर्वेषामुष्णयोनि-1 I|कत्वात् , नरकावासानां त्वनुपमहिमानुषक्तत्वात् , एतावत्सूत्रं चिरन्तनेष्वनिप्रतिपत्त्या श्रूयते, केचिदाचार्याः पुन-|| रतद्विषयमधिकमपि सूत्रं पठन्ति, ततस्तन्मतं आह-'केर एकेकीए पुढवीए यणं भणंति' इति केचिदाचार्या एककसां पृथिव्यां प्रमनिर्वचनरूपतया वेदना भणंति, यथा भणन्ति तथोपदर्शयन्ति–'रयणप्पभे'त्यादि सुगम, तदेवं । निरयिकाणां चिन्तिता शीतादिवेदना, सम्पत्यसुरकुमाराणां तो चिचिन्तयिपुरिदमाह-'असुरकुमाराणं पुच्छा असुरकुमाराणां शीतादिवेदनाविषये पृच्छासूत्रं च वक्तव्यं, 'असुरकुमारा णं भंते। किं सीयं वेदणं येयंति उसिणं यणं वेयंति सीओसिणं वेयणं वेयंति ?, इति भगवानाह-'गोयमे त्यादि, शीतामपि वेदनां वेदयन्ते, यदा शीतलजलसम्पूर्णहदादिषु निमजनादिकं विदधति, उष्णामपि वेदनां वेदयंते यदा कोऽपि महर्द्धिकस्तजातीयोऽन्यजा-1 तीयो या कोपवशात् विरूपतया दृष्ट्याऽवलोकमानः शरीरे सन्तापमुत्पादयति, यथा प्रथमोत्पन्नः ईशानेन्द्रो पलि18|ञ्चाराजधानीवास्तव्यानामसुरकुमाराणामुत्पादितवान् , अन्यथा वा तथाविधोष्णपुद्गलसम्पृक्ताओष्णवेदनामनुभवआन्तो बेदितव्याः, यदा त्ववयवभेदेन शीतपुद्गलसम्पर्क उष्णपुद्गलसम्पर्कश्योपजायते तदा शीतोष्णां वेदना वेदयन्ते, दीप अनुक्रम [५९४-५९६] ~1113~ Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२८] गाथा: प्रज्ञापना- ननु उपयोगः क्रमेण जीवानां भवति, तथाखाभाष्यात् , कथमत्र शीतोष्णवेदनानुभवो युगपत् प्रख्याप्यते इति?,IM |३५वेदनापाः मल-INउच्यते, इहापि वेदनानुभवः क्रमेणैव, तथाजीवखाभाच्यात्, केपलं शीतोष्णवेदनाहेतुपुद्गलसम्पर्को युगपदुपजायत। यवृत्ती. इति सूक्ष्ममाशुसञ्चारिणमुपयोगक्रममनपेक्ष्य यथैव ते वेदयमाना युगपदभिमन्यन्ते तथैव प्रतिपादितमिति न कधि-18 ३२८ शेषः, सामान्यतः सूत्रस्य प्रवृत्तत्वात् , 'एवं जाव वेमाणिय'त्ति एवं-असुरोक्तेन प्रकारेण यावद् वैमानिकास्तावत् | ॥५५५॥ सूत्रं वक्तव्यं, तचैवम्-'पुढषिकाइया णं भंते ! किं सीयं वेयणं वेयंति उसिणं वे सीओसिणं वेयणं वेयंति KI गो! सीयंपि ये वे० उसिणंपि बे०वे. सीतोसिणंपि वे वेयंति' इत्यादि, तत्र पृथिवीकायिकादयो मनुष्यपर्य-11 वसानाः शीतवेदनां हिमादिप्रपातेऽभिवेदयमाना वेदितव्याः उष्णवेदनामझ्यादिसम्पर्के शीतोष्णवेदनामवयवशः शीतोष्णपुदलसम्बन्धे इति, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकास्त्वसुरकुमारवत् भावनीयाः। उक्ता शीतादिभेदात् त्रिविधा वेदना, सम्प्रति तामेव वेदना प्रकारान्तरेणाभिधित्सुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-'काविहा णं भंते' इत्यादि, इह का वेदना द्रव्यक्षेत्रकालभावसामग्रीवशादुत्पद्यते, सर्वस्यापि वस्तुनो द्रव्यादिसामग्रीवशादुत्पद्यमानत्वात् , तत्र यदा-1 स्यैव वेदना पुद्गलद्रव्यसम्बन्धमधिकृत्य चिन्त्यते तदा द्रव्यवेदना, द्रव्यतो वेदना द्रव्यवेदना, नारकाधुपपातक्षेत्रम- 11५५५॥ धिकृत्य चिन्त्यमाना क्षेत्रवेदना, नारकादिभवकालसम्बन्धेन विवक्ष्यमाणा कालवेदना, वेदनीयकर्मोदयादुपजायमा-14 18नत्वेन परिभाव्यमाना भाववेदना, एतामेव चतुर्विधां वेदनां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-निरइया णं भंते ! दीप अनुक्रम [५९४-५९६] AREauratonintimational ~1114~ Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२८] गाथा: किं दधतो वेयणं वेदंति' इत्यादि, सकलमपि सुगम। प्रकारान्तरेण वेदनांपि प्रतिपिपादयिषुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-'कइविहा णं भंते !' इत्यादि, शरीरे भवा शारीरी मनसि भवा मानसी तदुभयभवा शारीरमानसी, शारीरी १च मानसी च शारीरमानसी, 'पुंषत्कर्मधारय' इति पुंवद्भावः, एतामेय चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेर-19 इया णं भंते ! किं सारीरं वेयणं वेदेति' इत्यादि, तत्र यदा परस्परोदीरणतः परमाधार्मिकोदीरणतो वा क्षेत्रानुभावितो वा शरीरे पीडामनुभवन्ति तदा शारीरी वेदनां वेदयन्ते, यदा तु केवलं मनसि दुःखं परिभावयन्ति पाश्चात्य या भवमात्मीयं दुष्कर्मकारिणमनुसृत्य पश्चात्तापमतीव कुर्वते तदा मानसीं वेदनां वेदयन्से, यदा तु शरीरे मनसि चोक्तप्रकारेण युगपत् पीडां अनुभवन्ति तदा शारीरमानसी, इहापि वेदनानुभावः क्रमेणेव केवलं विवक्षिततावत्कालमध्ये शरीरे च पीडामनुभवन्ति मनसि च एतावन्तं कालं एकं विवक्षित्वा युगपच्छरीरमनःपीडानुभवः प्रतिपादित इत्यदोषः, 'एवं जाव वेमाणिया' इत्यादि, एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेण सूत्रं तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकाः, नवरमेकेन्द्रियषिकलेन्द्रियाः शारीरी वेदना वेदयन्ते न मानसी, तेषां मनसोऽभावात् , ततस्तदनुसारेण तद्विषयं सूत्र वक्तव्यं । प्रकारान्तरेण वेदनामभिधित्सुःप्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-'कइविहा णं भंते ।' इत्यादि, तत्र साता-सुखरूपा असाता-दुःखरूपा सातासाता-सुखदुःखात्मिका, एतामेव नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति।'नेरइया णमित्यादि, तत्र तीर्थकरजन्मादिकाले सातवेदनां वेदयन्ते, शेषकालमसातवेदनां वेदयन्ते, यदा तु पूर्वस-18॥ दीप अनुक्रम [५९४-५९६] ~1115~ Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३२८] गाथा: दीप अनुक्रम [५९४ -५९६] प्रज्ञापनाबाः मलय० वृत्ती. 1144511 “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) दारं [-], मूलं [३२८] + गाथा: पदं [३५], उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः कृतिको देवो दानवो वा वचनामृतैः सिञ्चति तदा मनसि सातं शरीरे तु क्षेत्रानुभावतोऽसातं यदिवा मनस्येव तहर्शनतः तद्वचनश्रवणतश्च सातं पश्चात्तापानुभवनतस्त्वसातमिति तदा सातासातवेदनामनुभवन्ति, अत्रापि तावन्तं विवक्षितकालमेकं विवक्षित्वा सातासातानुभवो युगपत् प्रतिपादितः, परमार्थतस्तु क्रमेणैव च वेदितव्य इति, 'एव'मित्यादि, एवं नैरयिकोक्तप्रकारेण सर्वे जीवास्तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकाः, तत्र पृथिव्यादयो यावन्नाद्याप्युपद्रवः सन्निपतति तावत् सात वेदनां वेदयन्ते उपद्रवसम्पाते त्वसातयेदनामवयवभेदेनोपद्रव सम्पातभावे सातासात वेदनां, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाः सुखमनुभवन्तः सातवेदनां च्यवनादिकाले त्वसात वेदनां परविभूतिदर्शनतो मात्सर्यानुभवे स्ववलभदेवीपरिष्वङ्गाद्यनुभवे च युगपज्जायमाने सातासात वेदनां वेदयन्ते इति । भूयः प्रकारान्तरेण एतामेव प्रतिपादयन् प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह- 'कइविहा णं भंते!' इत्यादि, या वेदना नैकान्तेन दुःखा भणितुं शक्यते सुखस्यापि भावात् नापि सुखा दुःखस्यापि भावात् सा अदुःखसुखा सुखदुःखात्मिका इत्यर्थः, अथ सातासातयोः सुखदुःखयोश्च परस्परं कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, ये क्रमेणोदयप्रासवेदनीय कर्मपुद्गलानुभवतः सातासाते ते सातासात उच्यते, ये पुनः परोदीर्यमाणवेदनारूपे सातासाते ते सुखदुःखे इति एतामेव चतुर्विंशतिदण्डक क्रमेण चिन्तयति- 'नेरइया ण' मित्यादि || वेदनामेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाह - कत्तिविहा णं भंते ! वेदणा पं० १, गो० ! दुविहा वेयणा पं० तं०-अम्भोवगमिया य उनकमिया य, नेरइया णं भंते ! Ja Eucation International For Parts Only ~ 1116 ~ ३५वेदनापदं सू. ३२९ ॥५५६॥ Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२९] अन्मोवगमियं वेदणं वे० दे० उवकभियं वेदणं ००१.गो.! नो अब्भोवगमियं वे०३० उवकमियं वे० वे०,एवं जाव चउरिंदिया, पंचिदियतिरिक्खजोणिया मासा य दुविहंपि वे० वे०, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा नेरइया (मत्र ३२९) 'कतिविहा णं भंते !' इत्यादि, तत्राभ्युपगमिकी नाम या खयमभ्युपगम्यते, यथा साधुभिः केशोलुञ्चनातापनादिभिः शरीरपीडा, अभ्युपगमेन-खयमङ्गीकारेण निवृत्ता आभ्युपगमिकीति व्युत्पत्तेः, उपक्रमणमुपक्रमः-खयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निवृत्ता औपक्रमिकी, खयमुदीर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयम-18 पनीतस्य वेदनीयकर्मणो विपाकानुभवनेन निवृत्ता इत्यर्थः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याच द्विविधामपि घेदना वेदयन्ते, सम्यग्रशां पश्चेन्द्रियतिरां मनुष्याणां च कर्मक्षपणार्थमाभ्युपगमिक्या अपि वेदनायाः सम्भवात् , शेषास्त्वीपक्रमिकीमेव वेदनां वेदयन्ते नाभ्युपगमिकी, पृथिव्यसेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां मनोविकलतया विवेकाभावतस्तथाप्रतिपत्तेरभावात्, नारकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां च तथाभवखाभाब्यादिति, एतदेव |सूत्रकृत् प्रतिपादयति-'नेरइया णं भंते ! इत्यादि सुगम । पुनः प्रकारान्तरेण वेदनामेवाभिधित्सुराह कतिविहा णं भंते ! वेदणा पं०१, गो ! दुविहा वेदना पं०, तं०-निदाय अणिदाय, नेरहया ण भते ! कि निदायं बेयर्ण बेदयंते अणिदायं ० ०१, गो० निदायपि वे०० अणिदायपि वेदणं वे०,से केण टेणं मंते ! एवं बु०-नेरहया निदान यपि अनिदायपि वे०के०१, गो! नेरइया दुविहा पं०,०-सण्णीभूया य असण्णीभूया य, तत्थ णं जे ते सण्णिभूया दीप अनुक्रम [५९७] ~1117~ Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३०] दीप अनुक्रम [५९८] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥५५७॥ Etication “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [३३०] उद्देशक: [-] दारं [-] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [३५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ते णं निदायपि वे० दे०, तत्थ णं जे ते असण्णीभूता ते णं अणिदार्य वेदणं वे०, से तेणद्वेगं० १, गो० ! एवं नेरड्या निदापि वेषणं वे० अणिदायपि ० वे०, एवं जाव थणियकुमारा, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो० नो निदायं वे० वे० अणिदाय वे० दे० सेकेणणं भंते ! एवं० पुढवीकाइया नो निदार्य वे० वे० अनिदार्य वे० ० १, गो० पुढविकाइया सवे असण्णी असणभूयं अणिदायं वे० दे०, से तेणट्टेणं गो० ! एवं० पुढविकाइया नो निदार्थ वे० दे०, अणिदायं वे० वे०, एवं जाव चळरिंदिया, पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहा नेरइया, जोइसियाणं पुच्छा, गो० ! निदापि वेयणं वे० दे० अणिदापि वेयणं वेद०, से केणद्वेणं भंते! एवं बु०--जोइसिया निदायपि० अणिदायंपि वेयणं वेदेंति १, गो० ! जोइसिया दुविहा पं० तं०-माइमिच्छद्दिट्टिउबवण्णमा व अमाइसम्मद्द्द्विी उबवण्णगा य, तत्थ णं जे ते माइमिच्छदिविवण्णमा ते णं अणिदायं वेयणं वेयंति, तत्थ णं जे ते अमाईसम्मदिट्ठीउ० ते णं निदार्थ वे० वे०, से एतेणद्वेणं गो० ! एवं॰ जोइसिया दुविहंपि वेदणं वे०, एवं वैमाणियावि ॥ (सूत्रं ३३० ) । पण्णवणाए वेयणापयं समत्तं ॥ ३५ ॥ 'कतिविधा णं भंते !' इत्यादि, निदा च अनिदा च, तत्र नितरां निश्चितं वा सम्यक् दीयते चित्तमस्यामिति निदा, बहुलाधिकाराद् 'उपसर्गादात' इलैधिकरणे घञ, सामान्येन चित्तवती सम्यग्विवेकबती वा इत्यर्थः, इतरा त्वनिदा-चित्तविकला सम्यग्विवेकविकला वा, एतामेव चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण प्रतिपादयति- 'नेरइया ण'मित्यादि, | द्विविधा हि नैरविकाः संज्ञिभूता असंज्ञिभूताश्च तत्र ये ते संज्ञिभ्य उत्पन्नास्ते संज्ञिभूताः ये त्वसंज्ञिभ्यस्तेऽसं For Parts Only ~1118~ ३५वेदनापदं सू. ३२९ ॥५५७॥ [onary org Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३०]] दीप अनुक्रम [५९८] ज्ञिभूताः, असंज्ञिनश्च पाश्चात्यं न किमपि जन्मान्तरकृतं शुभमशुभं वैरादिकं वा स्मरन्ति, स्मरणं हि तत्र प्रवर्त्तते । यत्तीनेणाभिसन्धिना कृतं भवति, न चासंज्ञिभवे पाश्चासे तेषां तीब्राभिसन्धिरासीत्, मनोविकलत्वात् , ततो यामपि काञ्चिद्वेदनां नैरयिका वेदयन्ते तामनिदां, पाश्चात्यभवानुभूतिविषयस्मरणपटुचित्तासम्भवात् , संज्ञिभूतास्तु सर्व पाश्चात्यमनुस्मरन्तीति ते निदा वेदनां चेदयन्ते इति, एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः, तेषामपि संज्ञिभ्योऽसंज्ञिभ्यश्चोत्पादसम्भवात् , पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सम्मूञ्छिमा इति मनोविकलत्वात् अनिदामेव वेदनां वेदयन्ते, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहा नेरइया' इति, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुष्या व्यन्तराश्च यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्या इति शेषः, निदामपि वेदनां वेदयन्ते अनिदामपि वेदनां वेदयन्ते इति वक्तव्या इत्यर्थः, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुष्याश्च द्विधा भवन्ति, तद्यथा-सम्मूछिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च, तत्र ये ते सम्मूछिमास्ते मनोविकलत्वादनिदां वेदनां वेदयन्ते, ये तु गर्भव्युत्कान्तास्ते समनस्का इति निदां वेदनामनुभवन्ति, व्यन्तरास्तु संज्ञिभ्योऽपि उत्पद्यन्ते असंज्ञिभ्योऽपि ततस्तेऽपि नैरयिकवत् निदां चानिदां च वेदनां वेदयमाना भावनीयाः, 'जोइसिया ण'मित्यादि, ज्योतिष्कास्तु संज्ञिभ्य एयोत्पद्यन्ते, ततस्तेषु न नैरयिकोक्तेन प्रकारेण निदानिदे वेदने सम्भावनीये, किन्तु प्रकारान्तरेण, ततस्तमेव प्रकारं बुभुत्सुः प्रश्नसुत्रमाह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि सुगम, भगवानाह-गोयमें'त्यादि, ज्योतिष्का हि T urmurary on ~1119~ Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३५], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३०]] प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. द्विविधाः-मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकाः अमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्न काच, तत्र मायानिर्तितं यत्कर्म मिथ्यात्वादिकं तद- वेदना पि माया, कार्य कारणोपचारात् , माया विद्यते येषां ते मायिनः, अत एष मिथ्यात्वोदयात् मिश्या-विपर्यस्ता दृष्टि:- पदं सू. वस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयो मायिनश्च ते मिथ्यादृष्टयश्च मायिमिथ्यारष्ट्रयस्ते च ते उपपन्नकाच मायिमि-18| ३२९ थ्यादृष्ट-धुपपन्नकाः तद्विपरीता अमायिसम्यग्दृष्टथुपपन्नकाः, तत्र येते मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकास्तेऽपि मिथ्याष्टित्वा-18 देव व्रतयिराधनातोऽज्ञानतपोवशाद्वा वयमेवंविधा उत्पन्ना इति न जानते, ततः सम्यगयथावस्थितपरिज्ञानामावादनिदा वेदनां वेदयमानास्ते वेदितव्याः, ये त्वमायिसम्यग्रएषुपपन्नास्ते सम्यग्दृष्टित्वात् यथावस्थितं स्वरूपं जानन्ति, ततो यां काञ्चन वेदनां वेदयन्ते तां सर्वामपि निदामिति, 'एवं चेव वेमाणियावि' इति एवं-ज्योतिष्फोक्तेन प्रकारेण नैमानिका अपि निदामनिदां च वेदनां वेदयमाना वेदितव्याः, तेषामपि मिथ्याष्टिसम्यग्दृष्टिभेदतो द्विविधत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां वेदनाख्यं पञ्चत्रिंशत्तमं पदं समाप्तं ॥३५॥ दीप अनुक्रम [५९८] रaestatist ॥५५८ हरर Hetauntiarary.org अत्र पद (३५) "वेदना परिसमाप्तम् ~1120~ Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], .......---- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [-1, --------- -- मूलं [३३०...] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अथ षट्त्रिंशत्तमं समुद्घाताख्यं पदं ॥ ३६ ॥ प्रत सूत्रांक [३३०...] गाथा तदेवं व्याख्यातं पञ्चत्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति पत्रिंशत्तममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेपो वेदना प्रतिपादिता, इहापि गतिपरिणामविशेष एव समुद्घातश्चिन्त्यते, तत्र समुद्घातवक्तव्यताविषये इयमादौ सङ्ग्रहणिगाथावेयणकसायमरणे वेउवियतेयए य आहारे । केवलिए चेव मवे जीवमणुस्साण सत्तेव ॥१॥ 'वेयणे त्यादि, इह समुदूघाताः सप्त भयन्ति, तद्यथा-'यणकसायमरणे' इति, वेदनं कपायाश्च मरणं च वेदनकषायमरणं समाहारो द्वन्द्वस्तस्मिन् विषये त्रयः समुद्घाता भवन्ति, तद्यथा-वेदनासमुदूपातः कषायसमुद्घातो मरणसमुद्घातच, 'बेउविय'त्ति वैक्रियविषयश्चतुर्थः समुद्घातः, तेजसः पञ्चमः समुद्घातः, षष्ठ आहार इतिआहारकशरीरविषयः, सप्तमः केवलिकः-केवलिषु भवति, 'जीवमणुस्साण सत्तेवत्ति सामान्यतो जीवचिन्तायां मनुष्यद्वारचिन्तायां सप्तैव-सप्तपरिमाणाः समुद्घाता वक्तव्याः, न न्यूनाः, ससानामपि तत्र सम्भवात् , 'सत्तेवत्ति एवकारोऽत्र परिमाणे, वर्तते च परिमाणे एक्शब्दः, यदाह शाकटायनन्यासकृत्-'एवोऽवधारणपृथक्त्वपरिमाणे-18 दीप अनुक्रम [५९९] अथ पद (३६) “समुद्घात: आरब्धम् ~1121~ Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [-1, ----------- -- मूलं [३३०...] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३०...] सू.३३० गाथा प्रज्ञापना- प्यि'ति, शेषद्वारचिन्तायां तु यथासम्भव वाच्याः, ते चारे खयमेव सूत्रकृताऽभिधास्यन्ते इत्येष सङ्ग्रहणिगाथासङ्के- ३६ समुयाः मल-सपा पार्थः । अथ समुद्घात इति कः शब्दार्थः, उच्यते, समित्येकीभावे उत्प्रावल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन पातः समु- द्घातपदं य. वृत्ती . |घातः, केन सह एकीभावगमनमिति चेत् , उच्यते, अर्थाद्वेदनादिभिः, तथाहि-यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घात | गतो भवति तदा वेदनाघनुभवज्ञानपरिणत एव भवति, नान्यज्ञानपरिणतः, प्राबल्येन कथं घात इति चेत्, उच्यते, इह वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योद-1 यावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूय च निर्जरयति, आत्मप्रदेशैस्सह सङ्क्लिष्टान् सातयतीति भावः, 'पुवकयकम्मसाडणं तु निजरा [पूर्वकृतकर्मशाटनं तु निर्जरा ] इति वचनात्, तथाहि-वेदनासमुद्घातोऽसद्वेद्यकमोश्रयः, कपायसमुद्पातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुद्घातः अन्तर्मुहूर्तशेषायुःकर्माश्रयः, वैकुर्विकतैजसाहार-18 कसमुद्घाता यथाक्रमं वैक्रियशरीरतैजसशरीराहारकशरीरनामकर्माश्रयाः, केवलिसमुद्घातः सदसद्वेधशुभाशुभनामोचनीचेगाँत्रकर्माश्रयः, तत्र वेदनासमुद्घातगत आत्मा असातवेदनीयकर्मपद्गलपरिशातं करोति, तथाहिवेदनापीडितो जीवः खप्रदेशाननन्तानन्तकर्मस्कन्धवेष्टितान् शरीरादहिरपि विक्षिपति, तैश्च प्रदेशैवेदनजठरादिरन्या-II ॥५५॥ |णि कर्णस्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च शरीरमात्र क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहूर्त यावदवतिष्ठते, तस्मिश्वान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातावेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्म-15 दीप अनुक्रम [५९९] JAMEauratonial Hinduranorm ~1122~ Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [३३०...] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३०...] गाथा पुदलपरिशातं विधत्ते, तथाहि-कषायोदयसमाकुलो जीवः प्रदेशान् बहिर्विक्षिपति, तैः प्रदेशैर्वदनोदरादिराणि कर्णस्कन्धाधन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते, तथाभूतश्च प्रभूतान् कषायकर्मपुद्गलान् । परिशातयति, एवं मरणसमुद्घातगत आयुःकर्मपुद्गलान् परिशातयति, नवरं मरणसमुद्घातगतो विक्षिप्तखप्रदेशो पदनोदरादिरन्त्राणि स्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्य विष्कम्भवाहल्याभ्यां खशरीरप्रमाणमायामतः खशरीरातिरेकतो जघन्यतोऽनुलासयेयभागं उत्कर्षतोऽसत्येयानि योजनान्येकदिशि क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तत इति वक्तव्यं, वैक्रियसमुद्धा-19 तगतः पुनर्जीवः खप्रदेशान् शरीरादहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमानमायामतः सङ्खयेययोजनप्रमाणं दण्ड निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वत् शातयति, तथा चोक्तम्-'घेउषियसमुग्धाएणं समोहणइ संमोहणिता संखिज्जाई जोयणाई दंडं निसिरह, निसिरित्ता अहाबायरे पुग्गले परिसाडेई'इति, एवं तैजसाहारसमुद्घातावपि भावनीयो, नवरं तेजससमुद्घातस्तेजोलेश्याविनिर्गमकाले तेजसनामकर्मपुद्गलपरिशातहेतुः, आहारकसमुद्घातगतस्त्वाहारशरीरनामकर्मपुद्गलान् परिशातयतीति, केवलिसमुद्घातगतः केवली सदसवेद्यादिकमपुद्ग-100 लपरिशातं करोति, स च यथा कुरुते तथा विनेयजनानुग्रहाय भाव्यते इति, केवलिसमुद्घातोऽष्टसामयिकः, तं च | कुर्वन् केवली प्रथमसमये बाहल्यतः खशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तं आत्मप्रदेशानां दण्डमारचयति, द्वितीयसमये पूर्वापरं दक्षिणोत्तरं वा कपाटं तृतीये मन्यानं चतुर्थेऽवकाशान्तराणां पूरणं पञ्चमेऽवकाशान्तराणां संहार दीप अनुक्रम [५९९] aonmarary.om ~1123~ Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३०...] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: समू प्रत सूत्रांक [३३०...] गाथा प्रज्ञापना पष्टे मथः सप्तमे कपाटस्य अष्टमे खशरीरस्थो भवति, वक्ष्यति च-"पढमे समये दंडं करेई, बीए कवाडं करेइ"॥२५ या मल- इत्यादि, तत्र दण्डसमयात् प्राक् या पल्योपमासङ्ख्येयभागमात्रा वेदनीयनामगोत्राणां स्थितिरासीत् तस्या बुद्धया घातपदं यवृत्ती. असङ्ख्येयभागाः क्रियन्ते, ततो दण्डसमये दण्डं कुर्वन् असङ्ख्येयान् भागान हन्ति, एकोऽसङ्ख्येयो भागोऽवतिष्ठते, यश्च प्राकर्मत्रयस्यापि रसस्तस्याप्यनन्ता भागाः क्रियन्ते, ततस्तस्मिन् दण्डसमये असातवेदनीय१प्रथमवर्जसंस्थान ६ ॥५६॥ ISसंहननपश्चका ११ प्रशस्तवर्णादिचतुष्टयो १५ पघाता १६ प्रशस्तविहायोगति १७ दुःखर १८ दुर्भगा १९ स्थिरा २०पर्याप्तका २१ शुभा २२ नादेया २३ यशः कीर्ति २४ नीचैर्गोत्ररूपाणां २५ पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तान भागान् हन्ति, एकोऽनन्तभागोऽवशिष्यते, तस्मिन्नेव च समये सातवेदनीय १ देवगति २ मनुष्यगति ३ देवांनुपूर्वी ४ मनुष्यानपूर्वी ५ पथेन्द्रियजाति ६ शरीरपञ्चको ११ पाङ्गत्रय १४ प्रथमसंस्थान १५ संहनन १६ प्रशस्तव-10 र्णादिचतुष्टया २० गुरुलघु २१ पराघातो२२च्छास १३ प्रशस्तविहायोगति २४ त्रस २५ बादर २६ पर्याप्त २७ प्रत्येकातपो २९ द्योत ३० स्थिर ३१ शुभ ३२ सुभग ३३ सुखरा ३४ देय ३५ यशःकीर्ति ३६ निर्माण ३७ तीर्थकरो|३७ चैर्गोत्ररूपाणा ३९ मेकोनचत्वारिंशतः प्रकृतीनामनुभागोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनोपहन्यते, समुद्घा ॥५६॥ तमाहात्म्यमेतत् , तख चोद्धरितस्य स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानुभागस चानन्तभागस्य पुनर्यथाक्रमं असङ्खयेया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततो द्वितीये कपाटसमये स्थितेरसङ्ख्येयान् भागान् हन्ति, एकोऽवशिष्यते, अनुभागस्य चानन्तान् दीप अनुक्रम [५९९] ~1124 ~ Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [-1, ----------- --- मूलं [३३०...] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३०...] गाथा भागान् हन्ति एकं मुञ्चति, अत्राप्यप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेन प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातो द्रष्टव्यः, पुनरप्येतत्समयेऽवशिष्टस्य स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य पुनर्बुद्ध्या यथाक्रममसङ्ख्यया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततस्तृतीये समये स्थितेरसल्ययान् भागान् हन्ति, एक मुश्चति, अनुभागस्य चानन्तान् भागान् हन्ति, एकमनन्तभागं मुञ्चति, अत्रापि प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातोप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनावसेयः, ततः पुनरपि है तृतीयसमयावशिष्टस्य स्थितेरसङ्घयभागस्थानुभागस्य चानन्ततमभागस्य बुध्ध्या यथाक्रममसङ्ख्यया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततश्चतुर्थसमये स्थितेरसङ्ख्येयान् भागान् हन्ति, एकस्तिष्ठति, अनुभागस्याप्यनन्तान् भागान् हन्त्येकोऽवशिष्यते, प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातश्च पूर्ववदवसेयः, एवं च स्थितिघातादि कर्वतयतर्थसमये खप्रदेशापूरितसमस्तलोकस्य भगवतः केवलिनो वेदनीयादिकमंत्रयस्थितिरायुषः सङ्घयेयगुणा जाता, अनुभागस्त्वद्याप्यनन्तगुणः, चतुथेसमयावशिष्टस्य च स्थितेरसङ्ख्ययभागस्थानुभागस्य चानन्ततमभागस्य भूयोऽपि बुद्धया यथाक्रमं सोया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततोऽवकाशान्तरसंहारसमये स्थितेः सङ्ख्ययभागान् हन्ति, एकं सङ्ख्येयभार्ग शेषीकरोति, अनुभागस्यानन्तान् भागान् हन्ति एकं मुञ्चति, एवमेतेषु पञ्चसु दण्डादिसमयेषु प्रत्येकं सामयिकं कण्डकमुत्कीर्ण,N समये २ स्थितिकण्डकानुभागकण्डकघातनात्, अतः परं षष्ठसमयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभागकण्डक चान्तमुहर्तेन कालेन विनाशयति, प्रयत्नमन्दीभावात् , षष्ठादिषु च समयेषु कण्डकस्य प्रतिसमयमेकैकं शकलं ताबदु Seerleeonieeeeeee दीप अनुक्रम [५९९] ~ 1125~ Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [३३०...] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३०...] eeee गाथा प्रज्ञापना किरति यावदन्तर्मुहर्चचरमसमये सकलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्णं भवति, एवमान्तमौर्तिकानि स्थितिकण्डकान्य-18|३६ समुया: मल ISIनुभागकण्डकानि च पातयन् तावद्वेदितव्यः यावत् सयोग्यवस्थाचरमसमयः, सर्वाण्यपि चामूनि स्थित्यनुभाग- पातपद यावृत्ती. कण्डकान्यसबेयान्यवगन्तव्यानीति कृतं प्रसनेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र संग्रहणिगायोक्तमय स्पष्टयन् प्रथमतः समुद्-18 INसू. ३२१ घातसयाविषयं प्रश्नसूत्रमाह कति गं भंते। समुपाया पं०१, गो० सत्त समुग्धाया पं०, तं०-वेदणासमुग्धाते १ कसायसम्मुग्धाते २ मारणंतियसमु० ३ वेउधियस०४ तेयास०५ आहारस०६ केवलिसमुग्घाते ७॥ वेदणासमुग्धाए णं भंते! कतिसमइए पं०१, गो.! असंखेजसमइए अंतोमुचिते पं०, एवं जाव आहारसमुग्धाते, केवलिसमुग्धाए णं भंते ! कतिसमइए पं०१, मो०! अट्ठसमइए पं० । नेरइयाणं भंते ! कति सामुग्धाया पं०१, मो० चत्तारि समुग्धाया पं०, तं०-वेदणासमुग्याए कसायस. मारणंतियस बेउवियस०, असुरकमाराणं मंते ! कति समुग्धाया पं०१, गो01 पंच समुग्धाया पं०, तं०-वेदणास कसायस. मारणंतियसबेउबियस० तेयास मुग्याए, एवं जाव चणियकुमाराणं, पुढचिकाइयाण भंते । कति समुग्धाया पं०, गो०1 तिष्णि समुपाया पं०, तं०-वेदणास कसायस० मारणंतियस०, एवं जाव चउरिदियाण, नवरं वाउका ॥५६॥ इयाणं चत्वारि समुपाया पं०, तं०-वेदणास कसायस. मारणंतियस वेउवियस०, पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव बेमाणियाणं भंते ! कति समग्घाया पं०१, गो०ी पंच समुपाया पं०, ०-यणास कसायस मारणंतियस० दीप अनुक्रम [५९९] seeeeeee ~ 1126~ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३१] बेउशियस० तेयास, नवरं मणूसाणं सत्तविहे सम्बग्घाए पं०, तं०-वेदणास कसायस० मारणंतियस० वेउ० तेया० । आहार० केवलिसमुग्धाते (सूत्रं ३३१) 'का 'मित्यादि, कति-किंपरिमाणा णमिति वाक्यलकारे 'भदन्ते'ति भगवतो वर्द्धमानखामिन भामत्रणं, IS भदन्तत्वं च भगवतः परमकल्याणयोगित्वात् , यदिवा भवान्तेति द्रष्टव्यं, सकलसंसारपर्यन्तवर्त्तित्वात् , अथवा || भयान्त ! इहपरलोकादिभेदभिन्नसप्तप्रकारभयविनाशकत्वात् , समुद्घाताः-उक्तशब्दार्थाः प्रज्ञप्ताः, भगवानाहISI'गोयमे त्यादि, गौतम! सप्त समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घात इत्यादि, वेदनायाः समुद्घातो बेदना-19 समुद्घातः, एवं यावदाहारकसमुद्घात इति, 'केवलिसमुद्धात' इति केवलिनः समुद्घातः केवलिसमुद्घातः सम्प्रति कः समुद्घातः कियन्तं कालं यावद्भवतीत्येतन्निरूपणार्थमाह-वेयणे'त्यादि, सुगम, नवरं 'जा'त्यादि, एवमुक्तप्रकारेणाभिलापेनान्तर्मुहूर्तप्रमाणतया च समुद्घा ताः क्रमेण तावद्वाघ्याः यावदाहारकसमुद्रातः, एते परप्याथा आन्तर्मुर्तिकाः, केवलिसमुद्घातस्त्वष्टसामयिका, सचानन्तरमेव भावितः, एतानेष समुषातान् चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिचिन्तयिषुराह-'नेरयाण'मित्यादि, नैरयिकाणामाघाश्चत्वारः, तेषां तेजोलब्ध्याहाकारकलब्धिकेवलित्वाभावतः शेषसमुदूधातत्रयासम्भवात्, असुरकुमारादीनां दशानामपि भवनपतीनां तेजोलेश्यालपाधिभावात् आघाः पञ्च समुद्घाताः, पृथिवीकायिकाकायिकतैजस्कायिकवनस्पतिकायिकद्वित्रिचतुरिन्द्रिया दीप अनुक्रम [६००] Soorasoernsoorcedegaodesnoos HONarary.org ~1127~ Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापमा 1939.992 ३६ समुद्घातपदं था: मल सू.१२१ यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [३३१] ३३२ M६२॥ दीप eeeeeeee णामाद्याखयः, तेषां वैक्रियादिलब्ध्यभावतः उत्तरेषां चतुर्णामपि समुद्घातानामसम्भवात् , वायुकायिकानामा- | याश्चत्वारस्तेषां चैक्रियलब्धिसम्भवेन वैक्रियसमुद्घातस्थापि सम्भवात्, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामाचाः पञ्च, केचित्तेषां तेजोलब्धरपि भावात् , मनुष्याणां सप्स, मनुष्येषु सर्वसम्भवात् , व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामाद्याः |पञ्च, पैक्रियतेजोलब्धिभावाद, उत्तरौ तु द्वौ न सम्भवतः, आहारकलब्धिकेवलित्वायोगात् ।। सम्प्रति चतुर्विंशतिदण्डकमधिकृत्य एकैकस्य जीवस्य कति वेदनादयः समुद्घाता अतीताः कति भाविन इति चिचिन्तयिषुराह एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता-१, गो०! अणता, केवइया पुरेक्खडा, गो ! कस्सइ अस्थि कस्सह नस्थि, जस्सस्थि तस्स जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेमा वा अणंता वा, एवममुरकुमारस्सवि निरंतरं जाव वेमाणियस्स, एवं जाव तेयगसमुग्धाते, एवमेते पंच चउवीसा दंडगा । एगमेगस्स गं भंते ! नेरइयस्स केवइया आहारसमुग्धाया अतीता, कस्सइ अस्थि कस्सइ नस्थि, जस्स अस्थि तस्स जह० एको वा दो वा उको तिण्णि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उको चत्तारि, एवं निरंतरं जाव वेमाणियस्स, नवरं मणूसस्स अतीतावि पुरेक्खडावि जहा नेरइयस्स पुरेक्खडा, एगमेगस्स णं भंते! नेरदयस्स केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीता?, गो० नत्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो! कस्सह अनुक्रम [६००] ॥५६२॥ Santauratoninind manasaram.org ~1128~ Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 29202892 प्रत सूत्रांक [३३२] कटरseeeeeeeeserceae अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि एको, एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं मणसस्स अतीता कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि एको, एवं पुरेक्खडावि (सूत्रं ३३२) 'एगमेगस्स णं भंते।' इत्यादि, एकैकस्य सूत्रे मकारोऽलाक्षणिकः, भदन्त ! नैरयिकस्य सकलमतीतं कालमधिकृत्य 'केवइय'त्ति कियन्तो वेदनासमुधाता अतीता-अतिक्रान्ताः?, भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, नारकादि स्थानानामनन्तशः प्रासत्वादे केकश्चि नारकादिस्थानप्राप्तिकाले प्रायोऽनेकशो वेदनासमुपातानां भावात्, एतष Mबाहुल्यापेक्षयोच्यते, बहवो हि जीवा अनन्तकालमसंव्यवहारराशेरुदृत्ता वर्तन्ते, ततस्तदपेक्षया एकेकस्य नेरयिक| स्थानन्ता अतीता वेदनासमुपाता उपपद्यन्ते, ये तु स्तोककालमसंव्यवहारराशेरुकृत्तास्तेषां यथासम्भवं समयेया। असङ्गयेया वा प्रतिपत्तव्याः, केवलं ते कतिपये इति न विवक्षिताः, 'केवइया पुरेक्सड'त्ति इदं सूत्रं पाठसूचामात्र, सूत्रपाठस्त्वेवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केवइया वेयणासमुग्धाया पुरेक्खडा'? इति, सुगम, नवरं पुरेअग्रे कृताः-तत्परिणामप्राप्सियोग्यतया व्यवस्थापिताः, सामर्थ्यात् तत्कर्तृजीवेनेति गम्यते, पुरस्कृता-अनागतकालभाविन इति तात्पर्यार्थः, अत्र भगवानाह-कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षतः सङ्ख्यया वा असङ्ख्येया वा अनन्ता वा, इयमत्र भावना-यो नाम विवक्षितप्रश्नसमयानन्तरं बेदनासमुपातमन्तरेणैव नरकादुदृत्त्यानन्तरमनुष्यभवे वेदनासमुद्घातमप्राप्त एव सेत्स्यति दीप अनुक्रम [६०१] 2029202929292029 ~1129~ Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सू. ३३२ [३३२] दीप प्रज्ञापना तस्य पुरतो बेदनासमुद्घात एकोऽपि नास्ति, यस्तु विवक्षितप्रश्नसमयानन्तरमायुःशेषे कियत्कालं नरकभये स्थित्वा ३६ समुया मल- तदनन्तरं मनुष्यभवमागत्य सेत्स्यति तस्य एकादिसम्भवः, सङ्ख्यातकालसंसारावस्थायिनः सङ्ख्याता असङ्ख्यातकाल- द्घातपदं यवृत्ती. संसारावस्थायिनोऽसयाताः अनन्तकालसंसारावस्थायिनोऽनन्ताः, 'एवं मित्यादि, एवं नैरयिकोक्तप्रकारेणासुरकु मारस्थापि यावत् स्तनितकुमारख वाच्यं, ततश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकस्य, किमुक्त। ॥५६३ IN भवति?-सर्वेष्वपि असुरकुमारादिषु स्थानेषु अतीता बेदनासमुद्घाता अनन्ता वाच्याः, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति । कस्यापि न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्या असङ्ख्यया अनन्ता वा इति वाच्याः, भावनापि पूर्वोक्तानुसारेण खयं परिभावनीया, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण कषायसमुद्घातो 5 मारणान्तिकसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्घातश्च प्रत्येकं, तत एव पञ्च चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति, | तथा चाह-एवं जाव तेयगसमुग्धाए' इत्यादि, एवं वेदनासमुद्घातप्रकारेण शेषसमुद्घातेष्वपि प्रत्येकं तानद्वक्तव्यं । यावत्जससमुद्घातः, शेषं सुगमं, 'एगमेगस्स 'मित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य पाश्चात्यं सकलमतीतं कालमपेक्ष्य कियन्त आहारकसमुद्घाता अतीताः१, भगवानाह-गौतम! कस्यापि 'अत्थि'त्ति अस्तीति निपातः | ॥५६॥ सर्वलिङ्गवचनो, यदाह शाकटायनन्यासकृत्-"मस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचनेवि"ति, ततोऽयमर्थः-कस्यापि अतीता माहारकसमुद्घाताः सन्ति कस्यापि न सन्ति, येन पूर्व मानुष्यं प्राप्य तथाविधसामन्यभावतश्चतुर्दशी अनुक्रम [६०१] ~1130~ Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३२] 222880000 पूर्वाणि नाधीतानि, चतुर्दशपूर्वाधिगमे वा आहारकलब्ध्यभावतः तथाविधप्रयोजनाभावतो चा आहारकशरीरं ना कृतं तस्य न सन्तीति, यस्खापि सन्ति तस्यापि जघन्यतः एको वा द्वौ वा उत्कर्षतस्तु त्रयो, न तु चत्वारः, चतुःकृत्वः कृताहारकशरीरस्य नरकगमनाभावात् , आह च मूलटीकाकारः-"आहारसमुग्घाया उक्कोसेणं तिन्नि, तदुवरि नियमा नरगं न गच्छद जस्स चत्वारि भवन्ति" इति, पुरस्कृता अपि कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र यो मानुष्यं प्राप्य तथाविधसामन्यभावतचतुर्दशपूर्वाधिगममाहारकसमुपातं चान्तरेण सेत्स्यति तस्य न सन्ति, शेषस्य तु यथासम्भवं जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, तत ऊर्ध्वमवश्यं गत्यन्तरासंक्रमेणाहारक-18 समुद्रातमन्तरेण च सिद्धिगमनभावात्, 'एच'मित्यादि, एवं नैरयिकोक्तेन प्रकारेण चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निर-IS न्तरं तावद् वाच्यं यावद्वैमानिकस्य सूत्र, नवरं मनुष्यस्यातीता अपि पुरस्कृता अपि यथा नैरयिकस्य पुरस्कृतास्तथा वाच्याः, अतीता अपि चत्वारः पुरस्कृता अपि चत्वार उत्कर्पतो वाच्या इत्यर्थः, सूत्रपाठवम्-'एगमेगस्स णं मणूसस्स भंते ! केवइया आहारसमुग्धाया अतीता ?, गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सद नस्थि, जस्स अस्थि जहनेणं| एको वा दो वा तिन्निपा उकोसेणं चत्वारि, केवइया पुरेक्खडा, गोयमा! कस्सह अस्थि कस्सद नस्थि, जस्स अस्थि जहन्नेणं एको वा दो बा तिनि वा उक्कोसेणं चचारि' अत्र भावना-इह यश्चतुर्थयेलमाहारकशरीरं करोति Mस नियमात् तद्भव एव मुक्तिमासादयति, न गत्यन्तरं, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, सूत्रपौर्वापर्यपर्या दीप अनुक्रम [६०१] 0 ~ 1131~ Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ब०वृत्ती. सू.३३२ [३३२] लोचनात् , तथाहि-यदि चतुर्थवेलमप्याहारकशरीरं कृत्वा गत्यन्तरं संक्रामेत ततो नैरयिकादावन्यतरस्यां गतौ ||३६ समु. प्रज्ञापनायाः मल IN उत्कर्षतमत्वारोऽप्याहारकस्य समुद्घाता उच्चरन, न चोच्यन्ते. ततोऽवसीयते-चतर्थवेलमाहारकशरीरं कृत्वा द्घातपदं नियमात् तद्भव एव मुक्तो भवति, न गत्यन्तरगामी, तत्र यः प्रागाहारकशरीरं कदाचनापि न कृतवान् तस्या तीत आहारकसमुद्घातो नास्ति, ततस्तदपेक्षयोक्तं 'कस्सइ नस्थिति, यस्यापि सन्ति सोऽपि यदि पूर्वमेकबारमा॥५६॥ हारकशरीरं कृतवान् तस्यैकोऽतीत आहारकस्य समुद्घातः द्वौ वारौ कृतवतो द्वौ त्रीन् वारान् कृतवतस्त्रयो| यचतुर्थवेलमाहारकशरीरं कृत्वा आहारकसमुद्घाताचतुर्थात्प्रतिनिवृत्तो वर्त्तते न चाद्यापि मनुजभवं विजहाति । तस्य चत्वारः, पुरस्कृता अपि समुदूधाताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र यश्चतुर्थवेलमाहारकशरीरं कृत्वा । आहारकसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तो यदिवा पूर्वमकृताहारकशरीरोऽप्यथवा एकवारकृताहारकशरीरोऽपि यदिवा द्विकृत्वः कृताहारकशरीरोऽपि यदिवा विकृत्वः कृताहारकशरीरोऽपि तथाविधसामध्यभावात् उत्तरकालमाहारकISIशरीरमकवेव मुक्तिमवाप्स्यति तस्य पुरस्कृता आहारकसमुद्घाता न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको वा द्वौ वा प्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, तत्र एकादिसम्भवः पूर्वोक्तभावनानुसारेण खयं भावनीयः, यस्तु पूर्वकाल-IAusam मेकवारमपि आहारकशरीरं न कृतवान् अथ चोत्तरकालं तथाविधसामग्रीभावतो यावत्सम्भवमाहारकशरीरको तस्य चत्वारो न शेषस्य । सम्प्रति केवलिसमुपातविषयं दण्डकसूत्रमाह-'एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस दीप अनुक्रम [६०१] SARERatininematural ~1132~ Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३२] Sectrsesesesesesenterseksees भदन्त ! नैरयिकस्य निरवधिकमतीत कालमधिकृत्य कियन्तः केवलिसमुद्घाता अतीताः?, भगवानाह-'नत्यि'त्ति नास्त्यतीत एकोऽपि केवलिसमुद्घातः, केवलिसमुद्घातानन्तरं घन्तर्मुहूर्तेन नियमतो जीवाः परमपदमावते, ततो यद्यभविष्यत्केवलिसमुद्घातस्तहि नरकमेव नागमिष्यद्, अथ च सम्प्रति नरकगामिनो वर्त्तन्ते तस्मानास्त्येकस्याप्यतीतः केवलिसमुद्घातः, 'केवइया पुरेक्खड'त्ति कियन्तः पुरस्कृताः केवलिसमुद्घाता इति प्रश्नः, भगवानाह'गोतमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्यि'त्ति, इह केवलिसमुद्घात एकस्य प्राणिन आकालमेक एव भवति, न द्वित्राः, ततोऽस्तीति निपातोऽत्र एकवचनान्तो वेदितव्यः, ततश्चायमर्थः कस्यापि केवलिसमुद्घातः पुरस्कृतोऽस्ति, यो दीर्घतरेणापि कालेन मुक्तिपदप्रात्ययसरे विषमस्थितिकर्मा इति, कस्यापि नास्ति, यो मुक्तिपदमवाप्तुमयोग्यो योग्यो | वा केवलिसमुद्घातमन्तरेणैव मुक्तिपदं गन्ता, तथा च वक्ष्यति-"अगंतूण समुग्धायमणंता केवलीजिणा । जरम-18 रणविप्पमुका, सिद्धिं वरगई गया ॥१॥" [अगत्वा समुद्घातमनन्ताः केवलिनो जिनाः । जरामरणविप्रमुक्ताः सिद्धिं वरगतिं गताः॥१॥] इति, इह अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचन इत्यविदितसिद्धान्तस्य बहुत्वाशङ्कापि कस्यचित् स्यात् ततस्तदपनोदार्थमाह-'जस्स अत्थि' एको यस्यास्ति पुरस्कृतः केवलिसमुद्रातस्तस्य एको, भूयः संसाराभावात्, ‘एवं जाव चेमाणियस्स'त्ति एवं-नैरयिकगताभिलापप्रकारेण चतुर्विशतिदण्डकक्रममनुसृत्य तावद्/% वक्तव्यं यावद्वैमानिकस्य सूत्रं, तच्चेदम्-'एगमेगस्स णं भंते ! वेमाणियस्स केवइया केवलिसमुग्धाया अतीता ?, दीप अनुक्रम [६०१] SARERatininistrational ~1133~ Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक Cated [३३२] दीप प्रज्ञापना-18|गोयमा! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्यि, जस्सत्थि एको' इति, तत्रैव विशे-8 याः मल- पमाह-'नवर'मिस्यादि, नवरमयं विशेषः-मनुष्यस्य केवलिसमुद्घातस्य चिन्तायामतीतः कस्याप्यस्ति कस्यापि। द्घातपदं य०वृत्ती. नास्तीति वक्तव्यः, तत्र यः केवलिसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तो वर्तते न चाद्यापि मुक्तिपदमवानोति तस्यास्त्यतीतः सू.३३२ ॥५१॥ केवलिसमुपातः, ते च सर्वसञ्जयया उत्कर्षपदे शतपृथक्त्वप्रमाणा वेदितव्याः, कस्यापि नास्ति अतीतः केवलिसमुद्धातो, यो न समुदूघातं गतवान् , ते च सर्वसङ्ख्यया असोया द्रष्टव्याः, शतपृथक्त्वव्यतिरेकेणान्येषां सर्वेषामप्यसम्प्राप्तकेवलिसमुपातत्वात् , अत्राप्यस्तीति निपातस्य सर्वलिङ्गवचनत्वात् , 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थिा इत्युक्ती बहुत्वाशका स्यात् ततस्तदन्यवच्छेदार्थमाह-यस्य मनुष्यस्वातीतः केवलिसमुद्घातस्तस्य नियमादेको न द्वित्राः, एकेनैव समुद्घातेन प्रायः समस्तघातिकर्मणां निर्मूलकाषंकषितत्वात् , 'एवं पुरेक्खडाविति एवं भतीतगतेन प्रकारेण पुरस्कृता अपि केवलिसमुद्घाता वाच्याः, ते चैवम्-'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि एक्को इति, अत्र भावना पूर्वोक्तानुसारेण खयं भावनीया ॥ तदेवमतीतमनागतं च कालमधिकृत्य एकैकस्य नैरयिकादेर्वेदनादिसमुपातचिन्ता कृता, सम्प्रति नैरयिकादेः प्रत्येकं समुदायरूपस्य तचिन्तां चिकीर्षुराह N५६५॥ नेरहयाणं भंते ! केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता', गो.! अर्णता, केवइया पुरेक्खडा, गो. 1 अणंता, एवं जाव बेमाणियाणं, एवं जाव तेयगसमग्याए, एवं एतेवि पंच चउधीसदंडगा, नेरइयाणं ! भंते ! केवइया माहारगसमग्माया अनुक्रम [६०१] ~1134 ~ Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], .............-- उद्देशक: [-].------------- दारं [-], ------------- मूलं [३३२-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३२R] 82892222200 अतीता, गो०! असंखेज्जा, केवइया पु०, गो! असंखेजा, एवं जाव चेमाणियाणं, नवरं वणस्सइकाइयाण मसाण य इमं णाणत-वणस्सइकाइयाणं भंते! केवड्या आहारसमुग्धाया अईया ?, गो०! अणंता, मणसाणं भने। केवइया आहारसमुग्धाया अईया , गो.! सिय संखेजा सिय असं०, एवं पुरेक्खडावि। नेरइयाणं भंते ! केवइया केवलिसमुग्घाया अतीता?, गोणस्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो० असंखेजा, एवं जाव बेमाणियाणं, नवरं बणस्सइमसेसु इम नाण-वणस्सइकाइयाणं भंते! केवइया केवलिसमुग्धाया अतीता, गो० णत्थि, केवइया पुरे०१, गो! अणंता, मणूसाणं भंते । केवइया फेवलिस अतीता, गो! सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जद्दण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा, उकोसेणं सतपुहुतं, केवति. पुरेक्खडा, सिय संखेजा सिय असं० (सूत्रं ३३२) . 'नेरइयाण'मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां सर्वेषां समुदायेन भदन्त ! कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीताः १, भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, बहनामनन्तकालसंव्यवहारराशेरुदत्तत्वात्, कियन्तः पुरस्कृताः, अत्रापि प्रश्नसूत्रपाठः परिपूर्ण एवं द्रष्टव्यः-'नेरइयाणं भंते! केवइया वेयणासमुग्घाया पुरेक्खडा' इति, भगवानाह-गीतमा अनन्ता, बहूनामनन्तकालभाविसंसारावस्थानभावात् , एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् वक्तव्य याबढमानिकानां, यथा च वेदनासमुदपातश्चतविशतिदण्डकक्रमेण चिन्तितः तथा कपायमरणक्रियतेजस-1 समुद्राता अपि चिन्तनीयाः, तथा चाह-एवं-जाव तेथगसमुग्धाए' एवं च सति एतान्यपि बहुत्वविषयाणि पञ्च दीप अनुक्रम [६०२] म.९५ PRO d asaram.org मूल-संपादने अत्र सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोषात् (सूत्र 332) इति (सूत्र ३३२)' क्रम द्विवारान् मुद्रितं ~1135~ Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३२R] दीप अनुक्रम [६०२] प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ॥५६६ ॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [ ३३२-R] पदं [ ३६ ]. उद्देशक: [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ३६ समु सामान्येनातीताः समु. सू. ३३२ चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति, एतदेवाह - 'एवमेऐवि य पंच चउच्चीसदंडगा' इति, आहारकसमुद्घातचिन्तां कुर्वन्नाह - 'नेरइयाण' मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम । असङ्ख्येयाः, इयमत्र भावना - ४ द्यातपदे इह नैरयिकाः सर्वदाऽपि प्रश्नसमयभाविनः सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्येयाः, तेषामपि मध्ये कतिपयाः सङ्ख्यातीताः कृत पूर्वाहारकसमुद्घातास्ततोऽसङ्ख्येया एव तेषामतीताहारसमुद्घाता घटन्ते, नानन्ता नापि सङ्ख्येयाः, एवं पुरस्कृता अपि भावनीयाः एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकानां, आह च - ' एवं जाव वैमाणियाणं' | अत्रैव यो विशेषस्तं दिदर्शयिपुराह - 'नवर' मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकचिन्तायां मनुष्यचिन्तायां च नैरयिकापेक्षया नानात्वमवसेयं, तदेव नानात्वमाह – 'वणप्फइकाइयाण' मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! अनन्ताः, अनन्तानामधिगत चतुर्दश पूर्वाणां कृताहारक समुद्घातानां प्रमादवशतः उपचितसंसाराणां वनस्पतिषु भावात्, पुरस्कृता अनन्ताः, अनन्तानां वनस्पतिकायादुद्धृत्य चतुर्दशपूर्वाधिगमपुरस्सरं कृताहारकसमुद्घातानां भाविसिद्धिगमनभावात् 'मणुस्साणं भंते!' इत्यादि, अत्रापि प्रश्नसूत्रं प्रतीतं, भगवानाह - गौतम ! स्यादिति निपातोऽनेकान्तद्योती, | ततोऽयमर्थः- कदाचित् सङ्ख्येयाः कदाचिदसङ्ख्येयाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह सम्मूच्छिम गर्भव्युत्क्रान्तसमुदायचिन्तायाँ उत्कृष्टपदे मनुष्या अङ्गुलमात्रक्षेत्रे यावान् प्रदेशराशिस्तस्य यत्प्रथमं वर्गमूलं तत् तृतीय वर्गमूलेन गुणितं सत् यावत्प्रमाणं भवति एतावत् प्रदेशप्रमाणानि खण्डानि घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्यां श्रेणी यावन्ति भवन्ति Jan Eucation International For Penal Use On ~ 1136~ ।।५६६।। waryra Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], .............-- उद्देशक: [-].------------- दारं [-], ------------- मूलं [३३२-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३२R] एतावत्प्रमाणा एकहीनाः, ते चातीव शेषनारकादिजीवराश्यपेक्षया स्तोकाः, तत्रापि ये पूर्वभवेषु कृताहारकशरीरास्ते || कतिपयाः, ते च कदाचित् विवक्षितप्रश्नसमये सङ्ख्ययाः कदाचिदसयेयाः, तत उक्तम्-'सिय संखेजा सिय असं-18 खेजा'इति, अनागतेऽपि काले विवक्षितप्रश्नसमयमाविना मध्ये कतिसक्या एवाहारकशरीरमारप्स्यन्ति तेऽपि कदा-19 चित् सस्येयाः कदाचिदसोयाः, तत आह-एवं पुरेक्खडावित्ति एवं अतीतगतेन प्रकारेण वनस्पतिकायिकानां मनुष्याणां च पुरस्कृता अपि आहारकसमुद्घाता वेदितव्याः,ते चैवम्-'वणप्फइकाइयाणं भंते ! केवइया आहारगसमुग्घाया पुरेक्खडा, गो० अणंता, मणुस्साणं भंते ! केवड्या आहारगसमुग्धाया पुरेक्खडा, गो० सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा'इति,केवलिसमुद्घातविषयं प्रश्नसूत्रमाह-नेरइयाणं भंते " इत्यादि सुगम,भगवानाह-गौतम !न सन्ति केचनातीता नैरयिकाणां केवलिसमुद्घाताः, कृतकेवलिसमुद्घातानां नारकादिगमनासम्भवात् , कियन्तः पुरस्कृता इति प्रशः, भगवानाह-गौतम ! असझयेयाः, सर्वदा विवक्षितप्रश्चसमयभाविनां मध्येऽसङ्ख्यातानां भाविकेवलिसमुद्घातत्वात् , तथा केवलवेदसोपलब्धेः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तापद् वाच्यं यावद् वैमानिकानां सूत्रं, तथा चाह-एवं जाव वेमाणियाणं' अत्रैव विशेषमाह-'नवर'मित्यादि, नवरं-वनस्पतिकायिकेषु मनुष्येषु चेदं वक्ष्यमाणलक्षणं नानात्वं, तदेवाह-वणप्फइकाइयाण'मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुप्रतीतं, उत्तरसूत्रे निर्वचन-अनन्ताः, अनन्तानां भाविकेवलिसमुदघातानां तत्र भावात्, 'मणुस्साणमित्यादि, अत्रापि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह CREAcce दीप अनुक्रम [६०२] Sunauranorm ~1137~ Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३२R] दीप अनुक्रम [६०२] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥५६७॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], पदं [ ३६ ]. उद्देशक: [-], मूलं [३३२-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education T गौतम ! स्यात् सन्ति स्वान्न सन्ति, किमुक्तं भवति ? - यदा प्रश्नसमये समुद्घातान्निवृत्ताः प्राप्यन्ते तदाः सन्ति, शेषकालं न सन्ति तत्र 'जइ अस्थि'त्ति यदि प्रश्नसमये कृतकेवलिसमुद्घाता मनुष्यत्वमनुभवन्तः प्राप्यन्ते तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः शतपृथक्त्वं एतावतामेककालमुत्कृष्टपदे केवलिनां केवलिसमुद्घातासादनात् 'केवइया पुरेक्खड 'ति कियन्तो मनुष्याणां केवलिसमुद्घाताः पुरस्कृताः १, भगवानाह - स्यात् सङ्ख्येयाः स्यादसङ्ख्येया, मनुष्या हि सम्मूच्छिमा गर्भव्युत्क्रान्ताश्च सर्वसमुदिता उत्कृष्टपदे प्रागुक्तप्रमाणास्तत्रापि विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां मध्ये कदाचित्केवलिसमुद्घाताः सङ्ख्येयाः, बहूनामभव्यानां भावात्, कदाचिदसङ्गमेयाः, बहूनां | भाविकेवलिसमुद्घातानां भावात् । सम्प्रति एकैकस्य नैरयिकत्वादिभावेषु वर्त्तमानस्य प्रत्येकं कति वेदनासमुद्घाता अतीताः कति भाविन इति निरूपयितुकाम आइ एगमेगस्स णं भंते 1 नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया वेदणास० अतीता १, गो० ! अनंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो० ! कस्सइ अस्थि कस्सह नत्थि, जस्स अस्थि जह० एको वा दो वा तिष्णि वा, उकोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा अनंता बा, एवं असुरकुमारते जाव वेमाणियते । एगमेगस्स णं भंते । असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया वेदणासमुग्धाया अवीता ?, गो० ! अता, केवया पु० 1, गो० ! कसह अस्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि तस्स सिय सं० सिय अ० सिय अनंता, एगमेगस्स णं भंते । असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता १, गो० ! अणंता, केवया पु० १, For Par Lise Only ~ 1138~ २६ समु द्यातपदं स्वपरस्था ने वेदना समु. सू. ३३३ ॥५६७॥ Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३३] यो कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहएको वा दो वा तिणि चा उ० संखे० असंखे० अर्णता वा, एवं नामकुमारचेवि जाव येमाणियचे, एवं जहा०वेयणासमुग्धातेणं असुरकुमारे नेरइयादिवेमाणियपज्जवसाणेसु भणितो तहा नागकुमारादिया अवसेसेसु सहाणेसु परहाणेसु भाणितवा जाव वेमाणियस्स वेमाणियचे, एवमेते चउबीसा चउडीसं दंडगा भवंति । (सूत्रं ३३३) । 'एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य भदन्त । नैरयिकस्य सकलमतीतं कालमषधीकृत्य तदा तदा नैरपिकत्वे वृत्तस्य सतः सर्वसङ्ख्यया कियन्तः वेदनासमुद्घाता अतीता, भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, नरकस्थानस्थानन्तशः प्रासत्वादेककस्मिंश्च नरकभवे जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयानां वेदनासमुघातानां भावात् , 'केवइया पुरेक्खड'त्ति कियन्तो भदन्त ! एककस्य नरयिकस्थासंसारमोक्षमनागतं कालमवधीकृत्य नैरयिकत्वे भाविनः सतः सर्वेसयया पुरस्कृता वेदनासमुद्घाताः, भगवानाह-गौतम! कस्सइ अत्थि'इत्यादि, तत्र य आसन्नमृत्युर्वेदनासमुदधातमप्राप्यान्तिकमरणेन नरकादुनृत्य सेत्स्यति तस्य नास्ति नैरयिकत्वे भावी एकोऽपि पुरस्कृतो वेदनासमुद्घात, शेषस्य त.सन्ति, तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, एतच्च क्षीणशेषायुषां तद्भवजानामनन्तरं सेत्स्थतां द्रष्टव्यं, न भूयो नरकेपूरपत्स्यमानानां, भूयो नरकेपुत्पत्ती जघन्यपदेऽपि सोयानां प्राप्यमाणत्वात् , यदाह मूलटीकाकार:IRI"नरकेषु जघन्यस्थितिषत्पन्नस्य नियमतः सोया एव वेदनासमुद्घाता भवन्ति, वेदनासमुदूधातप्रचुरत्वाकारका 9293008092023 cord दीप अनुक्रम [६०३] -e SAREnatiniminational ~1139~ Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: द्घातपद प्रत सूत्रांक [३३३] ३३५ मज्ञापना णा"मिति, उत्कर्षतः संलयेया असङ्ख्येया वा अनन्ता वा, तत्र सकृत् नरकेषु जघन्यस्थितियूत्पत्स्यमानस सोया 18 २६ समुयाः मल- अनेकशो दीर्घस्थितिषु असकृद्वा उत्पत्स्यमानस्य असोयाः अनन्तशः उत्पत्स्यमानस्य अनन्ताः, 'एव'मित्यादि, एवंय. वृत्ती . निरयिकगतेनाभिलापप्रकारेणासुरकुमारत्वेन तदनन्तरं चतुर्विंशतिदण्डक क्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकत्वे, स्वपरस्था ने वेदना' ॥५६८० तचैवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमाराओ केवइया वेयणासमुग्घाया अतीता?, गो. अनंता, समु.सू. केवइया पुरेक्खडा?, गो ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्को सेणं सोज्जा वा असोजा वा अणंता वा' तत्रातीतसूत्रेऽनन्तशोऽसुरकुमारत्वस्य प्राप्सत्वादुपपद्यते तद्भावमापथानस्यानन्ता अतीता वेदनासमुदूधाताः, पुरस्कृतचिन्तायां योऽनन्तरभवेन नरकाददत्तो मानुष्यं प्राप्य सेत्स्यति प्रासो वा परम्परया सकृदसुरकुमारभवं न वेदनासमुद्घातं गमिष्यति तस्य नास्त्येकोऽपि पुरस्कृतो असुरकुमारत्वे वेदनासमुद्र घातः, यस्तु सकृदसुरकुमारत्वं प्राप्तः सन् सकृदेव वेदनासमुद्घातं गन्ता तस्य जघन्यत एको दो या त्रयो वा, शेषस्य | सङ्ख्ययान्वारान् असुरकुमारत्वं यास्यतः सायया असङ्ख्येयान् वारान् असोया अनन्तान वारान् अनन्ताः, एवं चतुर्वि|| शतिदण्डकक्रमेण नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं सूत्रपाठस्तावद वक्तन्यो याबद्वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, 'एगमेगस्स | ॥५६८॥ ण' मित्यादि, एकेकस्य भदन्त। असुरकुमारस्य पूर्व नेरयिकत्वेन वृत्तस्य सतः सकलमतीतं कालमपेक्ष्य सर्वेसवयया कि-II || यन्तो वेदनासमुदधाता अतीताः१, भगवानाह-गौतम ! अनन्ता अतीताः,अनन्तशो नैरयिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , एक eatestroeseseceaesesenterciseaks दीप अनुक्रम [६०३] ~1140~ Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३३] दीप अनुक्रम [६०३] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-], मूलं [३३३] उद्देशक: [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. कस्मिँश्च नैरयिकस्य भवे जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयानां वेदनासमुद्घातानां भावात् कियन्तः पुरस्कृताः १, स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति, कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति इति भावः, अत्रापीयं भावना - योऽसुरकुमारभवादुदृत्तो न नरकं यास्यति किन्त्वनन्तरं परम्परया वा मनुजभवं प्राप्यं सेत्स्यति तस्य नैरयिकत्वावस्थाभाविनः पुरस्कृता वेदनासमुद्घाता न सन्ति नैरयिकत्वावस्थाया एवासम्भवात्, यस्तु तद्भवादूर्ध्वं पारम्पर्येण नरकं गमिष्यति तस्य सन्ति, तत्रापि कस्यचित्सङ्ख्येयाः कस्यचिदसङ्ख्येयाः कस्यचिदनन्ताः, तत्र यः सकृजघन्यस्थितिषु मध्ये समुत्पत्स्यते तस्य जघन्यपदेऽपि सङ्ख्याः, सर्वजघन्यस्थितावपि नरकेषु सङ्ख्येयानां वेदनासमुद्घातानां भावात् वेदनाबहुलत्वान्नारकाणां, असकृद् जघन्यस्थितिषु दीर्घस्थितिषु सकृदसकृद्वा गमने असङ्ख्येयाः, अनन्तशो नरकगमने अनन्ताः, तथा एकैकस्य भदन्त । असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे स्थितस्य सतः सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीताः १, भगवानाह - गौतम । अनन्ताः, पूर्वमप्यनन्तशस्तद्भावस्य प्राप्तत्वात् प्रतिभवं च वेदनासमुद्घातस्य प्रायो भावात्, पुरस्कृत चिन्तायां कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, यस्य प्रश्नसमयादूर्ध्वमसुरकुमारत्वेऽपि वर्त्तमानस्य न भावी वेदनासमुद्घातो नापि तत उद्धृत्य भूयोऽप्यसुरक्कुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्ति, यस्तु सकृत् प्राप्स्यति तस्य जधन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्या असङ्ख्येया अनन्ता वा सङ्ख्येयान् वारान् उत्पत्स्यमानस्य सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण नाग For Parts Only ~ 1141~ hary Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. प्रत रिहर ३६ समघातपदे स्वपरस्थाने कषायस मु.सू.२ सूत्रांक [३३३] ॥५६९॥ कुमारत्वादिषु खस्थानेष्वसुरकुमारस्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे, तथा चाह-एवं नागकुमारचेवि' इत्यादि, तदेवमसुरकुमाराणां वेदनासमुदघातश्चिन्तितः, सम्प्रति नागकुमारादिष्वतिदेशमाह-एवं'मित्यादि, उपदर्शिता- मिलापेन यथा चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण असुरो नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु भणितस्तथा नागकुमारादयोऽवशेपेषु समस्तेषु खस्थानपरस्थानेषु भणितव्या यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे,एवं चैतानि नैरयिकचतुर्विशतिदण्डकसूत्रादीनि वैमानिकचतुर्विंशतिदण्डकसूत्रपर्यवसानानि चतुर्विंशतिः सूत्राणि भवन्ति, तदेवं चतुर्विशत्या चतुर्विंशतिदण्डक- सूत्रैर्वेदनासमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रति चतुर्विंशस्यैव चतुर्विशतिदण्डकसूत्रः कषायसमुद्घातं चिचिन्तयिपुरिदमाहएगमेगस्स णं मंते ! नेरइयस्स नेरइयचे केवइया कसायसमुग्धाया अतीता?, गो! अर्णता, केवइया पु०१, गो.क अस्थि का नस्थि, जस्सत्थि एगुत्तरियाते जाच अणता । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया कसायसमुग्धाया अवीता, गोयमा ! अर्णता, केवइया पु०१, गो! कस्सति अस्थि कस्सति नत्थि, जस्सस्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणन्ता, एवं जाव नेरइयस्स थणियकुमारने, पुढविकाइयत्ते एगुचरियाए नेतई, एवं जाच मणुयचे, वाणर्मतरते जहा असुरकुमारते, जोइसियत्ते अतीता.अगंता, पुरेक्खडा कस्सति अस्थि कस्सति नस्थि, जस्सस्थि सिय असंखेजा सिय अर्णता, एवं वेमाणियत्तेवि सिय असंखेज्जा सिय अर्णता, असुरकुमारस्स नेरइयत्ते अतीता अणेता, पुरेक्खडा कस्सति अस्थि कस्सति नस्थि, जस्सत्थि सिय संखेजा सिप असंखेजा सिय अणंता, असुरकुमारस्स असुरक दीप एएeeseaeccessersers अनुक्रम [६०३] ॥५६॥ ~1142~ Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३४] secesटरनटार मारने अतीता अणंता पुरेक्खडा एगुचरिया, एवं नागकुमारते जाव निरंतरं वेमाणियत्ते जहा नेरइयस्स मणितं तहेव माणितवं, एवं जाव धणियकुमारस्सवि वेमाणियत्ते, नवरं सबेसि सहाणे एगुत्तरियाए परहाणे जहेब असुरकुमारस्स, पुढबिकाइयस्स नेरइयचे जाव थणियकुमारत्ते अतीता अर्णता, पुरेक्खडा कस्सति अस्थि कस्सति नस्थि, जस्सस्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता, पुढविकाइयस्स पुढविकाइयचे जाव मणूसते अतीता अर्णता पुरे० क अस्थि क. नत्थि जस्स अस्थि एगुत्तरिया, वाणमंतरचे जहा णेरइयत्ते, जोतिसियवेमाणियचे अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि सिय असंखेजा सिय अणंता, एवं जाव मणूसत्तेवि नेयवं, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा, गवरं सहाणे एगुत्तरियाए माणितवे जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवं एते चउहीसं चउघीसा दंडगा, (सूत्रं३३४) 'एगमेगस्स णमित्यादि, तत्र नैरयिकस्य नैरयिकत्वविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यचित् सन्ति 18 कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यः क्षीणशेषायुः प्रश्नसमये भवपर्यन्ते वर्तमानः कषायसमुघातमप्राप्त एव नरकभवादुर त्यानन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति न भूयो नरकवासगामी तस्स न सन्ति पुरस्कृता नैरयिकत्वे कषायसमुद्घाताः, शेषस्य तु सन्ति, तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, ते च क्षीणायु शेषाणां तद्भावभाजामवसेयाः, उत्कर्षतः सोया असङ्ख्येया वाअनन्ता वा, तत्र सोयवर्षायुःशेषाणां सङ्ख्ययाः असोयवर्षायुःशेषाणामसोयाः, यदिवा सकृत् जघन्यस्थिती उत्पत्स्यमानानां सोयाः असकृत् जघन्यस्थिती सकृदसकदीस्थितावुत्पत्स्वमानानामस दीप अनुक्रम [६०४] ISMomiaranmarg ~1143~ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: पना- याः मल य.वृत्ती. प्रत सूत्रांक [३३४] -॥५७०॥ दीप येयाः अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, तथा नैरयिकस्येवासुरकुमारत्वविषयेऽतीतसूत्रं, तथैव पुरस्कृतसूत्रे 'कस्सइ8|३६ समुअत्ति कस्सह नस्थित्ति यो नरकाददत्तोऽसरकमारत्वं न प्राप्स्यति तस्य न सन्ति पुरस्कृता असुरकुमारत्वविषयाःद्घातपदे कषायसमुद्घाताः, यस्तु प्राप्स्यति तस्य सन्ति, ते च जघन्यपदे सबवेया जघन्यस्थितावप्यसुरकुमाराणां सोयानां स्वपरस्थाकषायसमुद्घातानां भावात् , लोभादिकपायबहुलत्वात् तेषां, उत्कृष्टपदेऽसलयेया अनन्ता वा, तत्र सकृदीर्घस्थि-ने कपायस तावसकृजघन्यस्थितिषु वा उत्पत्स्यमानानामसङ्खयेयाः, अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, एवं नेरयिकस्य नागकु Mमु.सू.३३४ मारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत् स्तनितकुमारत्वे, तथा चाह-एवं जावे'त्यादि, पृथिवीकायिकत्वेऽतीतसूत्रं तथैव, पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यो नरकादुहृत्तो न पृथिवीकायभवं गमी तस्य न सन्ति, योऽपि गन्ता तस्यापि जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सोया असोया। वा अनन्ता घा, ते चैवं-तिर्यपञ्चेन्द्रियभवान्मनुष्यभवाद्देवभवाद्वा कपायसमुद्घातसमुद्धतः सन् य एकवारं पृथिबीकायिकेषु गन्ता तस्य एको द्वौ वारी गन्तुद्वौं त्रीन् वारान् प्रयः सङ्ख्येयान् वारान् सक्या असोयान् वारान् । असोया अनन्तान् वारान् अनन्ताः, तथा चाह-'पुढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए नेय'ति तथा 'एवं ताव मणूसत्ते।। इति एवं पृथिवीकायिकगतेनाभिलापप्रकारेण तावद् वक्तव्यं यावन्मनुष्यत्वे, तचैवम्-'एगमेगस्स पं भंते। नेरइयस्स आउकाइयत्ते केवइया कसायसमुग्धाया अईया ?, गोयमा! अर्णता, केवइया पुरेक्खडा, गोला कस्सइ अनुक्रम [६०४] celect ५७०॥ JMEaurat jaanasaram.org ~1144 ~ Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३४] अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जहरणेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं सखेजा वा असोज्जा वा अणंता वा' एवं यावन्मनुष्यसूत्रं, तत्राप्कायादिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिवीकायसूत्रवत् , द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिसन्तायां जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वेति सकृत् जघन्यस्थितिकं वीन्द्रियभवं प्रामुकामय, सक्येयान् वारान् प्राप्तु|| कामस्य सङ्ख्या असक्वेयानसङ्ख्येया अनन्तान् अनन्ताः, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये, तिर्यक्-18 पञ्चेन्द्रियमनुष्यसूत्रविषया त्वेवं भावना-सकृत्पञ्चेन्द्रियभवं प्राप्सुकामस्य खभावत एवाल्पकषायस्य जघन्यत एको हो प्रयो वा शेषस्य सङ्ग्येयान् वारान् तिर्यपञ्चेन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य सङ्ख्यया असङ्खयेयान् वारान् असोया अनन्तान् वारान् अनन्ताः, मनुष्यसूत्रे तु पुरस्कृतविषया भावनैवं-यो नरकभवादुद्दत्वोऽल्पकषायः सन् मनुष्यभवं प्राप्य कषायसमुपातमप्राप्त एवं सिद्धिपुरं गन्ता तख न सन्ति, शेषस्य सन्ति, तथापि एक द्वी श्रीन वारान् | कषायसमुद्घातान प्राप्य सेत्स्थत एको द्वी त्रयो वा सहयेयान् भवान् यदिवा एकस्मिन्नपि भवे सङ्ख्येयान् कपाय|समुद्घातान् गन्तुः सङ्ख्यया असङ्ख्येयान् भवान् प्राप्तुकामस्यासङ्ख्येयाः अनन्तान् अनन्ताः, 'वाणमंतरत्ते जहा असुर| कुमारत्ते' प्रागुक्तं, किमुक्तं भवति-पुरस्कृतचिन्तायां एवं वक्तव्यं-'जस्सत्धि सिय सखेज्जा सिय असोज्जा | सिय अणंता वा' इति न त्वेकोचरिका वक्तव्याः, व्यन्तराणामप्यसुरकुमाराणामिव जप यस्थितावपि सक्येयानां कायसमुद्घातानां लभ्यमानत्वात् , असङ्ख्येयानन्तभावनाप्यसुरकुमारवत् , 'जोइसियचे' इत्यादि, ज्योतिष्क एरररsecaceete दीप अनुक्रम [६०४] AJulturary.com ~1145~ Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३४] मज्ञापना- सत्वेऽतीता अनन्ता वक्तव्याः, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, एतदपि प्राग्वदू भावनीयं, यस्यापि ३६ समुया: मल- सन्ति तस्यापि कस्यचिदसोयाः कस्यचिदनन्ताः, न तु स्यात् सङ्ख्येया इति वक्तव्यं, कुत इति चेत् १, उच्यते, घातपदे या वृत्ती. ज्योतिष्काणां जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्येयकालायुष्कतया जघन्यतोऽपि असङ्खोयानां कषायसमुद्घातानां लभ्यमानत्वात् , स्वपरथाअनन्तशस्तत्र जिगमिषूणामनन्ताः, एवं वैमानिकत्वेऽपि पुरस्कृतचिन्तायां स्वादसङ्ख्येयाः स्वादनन्ता इति वक्तव्यं, INने कषायस ॥५७१॥ भावना प्राग्वत् । तदेवं नैरयिकस्य खस्थाने परस्थाने च कषायसमुद्घाताश्चिन्तिताः, सम्प्रत्यसुरकुमारेसु तान् । मु.सू.११४ चिचिन्तयिषुराह-एगमेगस्स 'मित्यादि, एकैकस्य असुरकुमारस्य नैरयिकत्वे कषायसमुद्घाता अतीताअनन्ता, भाविनः कस्यचित्सन्ति कस्खचिन्न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुत्तो नरकं न यास्यति तस्य न सन्ति, यस्तु यास्यति तस्य सन्ति, तस्यापि जघन्यतः सञ्बेयाः, जघन्यस्थितावपि सोयानां कषायसमुद्घातानां नरकेषु भावात्, उत्कर्षतोऽसोया अनन्ता था, तत्र जघन्यस्थितिष्यसकृद्दीस्थितिषु सकृदसकृद्वा जिगमिपोरसङ्घरया अनन्तशो जिगमिपोरनन्ताः, असुरकुमारस्वासुरकुमारत्वे अतीता अनन्ताः, 'पुरेक्खडा एगुत्तरिया' इत्यादि, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवे पर्यन्तवीं न च कषायसमुदयातं याता नापि तत्र प्रभ्रष्टो ॥५७१।। भूयोऽसुरकुमारभवं लब्धा किन्त्वनन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति तस्य सन्ति, शेषस्य तु न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि । जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सोया असङ्ख्येया अनन्ता वा, तत्र एकादयः क्षीणायुःशेषाणां तद्भव दीप अनुक्रम [६०४] SAMEmirathim For P OW NEasnamom ~1146~ Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३४] भाजां भूयस्तत्रैवानुत्पत्स्यमानानामवगन्तव्याः, सोयादयो नैरयिकत्वे इव भावनीयाः, 'एव'मित्यादि, एवंउक्तेन प्रकारेण नागकुमारत्वे तत ऊई चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं यावद्वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्र, यथा नैरयिकस्य भणितं तथैव भणितव्यं, किमुक्तं भवति?-नागकुमारत्वादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु पुरस्कृतचिन्तायां 'कस्सइ अत्धि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि सिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अणंता' पृथिवीकायिकवादिषु मनुष्यत्वपर्यवसानेषु 'जस्स अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा अर्णता पा' व्यन्तरत्वे 'जस्स अस्थि सिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अणता' ज्योतिष्कत्वे 'जस्स अस्थि सिया असंखेजा सिय अणंता' वैमानिकत्वेऽप्येवमेवेति वक्तव्यमिति, 'एवं जावे'त्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण असुरकुमा-11 हावनागकुमारस्य यावत् स्तनितकुमारस्य प्रत्येकं यावद वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं तावद्वक्तव्यं, अत्रैव विशेष-11 माह-नवरं सर्वेषां नागकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां स्वस्थाने नियमतः पुरस्कृता एकोतरिकाः, परस्थाने यथैवासुरकुमारस्य तथैव वक्तव्याः, 'पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते' इत्यादि, पृथिवीकायिकस्य नैरयिकत्वे यावत् स्तनि|तकुमारत्वे अतीता अनन्ताः, अत्र भावना प्रागिन, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र यः पृथिवी कायभवादुदृत्तो नरकेष्वसुरकुमारेषु यावत् स्तनितकुमारेषु न गमिष्यति किन्तु मनुष्यभवं प्राप्य सिद्धिं गन्ता तख 18न सन्ति, शेषस्य तु सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यतः सकयेयाः, जघन्यस्थितावपि नरकादिपु सङ्ख्ययाना। दीप अनुक्रम [६०४] SAREitiatini Manmurary.au ~1147~ Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती प्रत सूत्रांक [३३४] ॥५७२॥ seaeeeeeeeeee कषायसमुदघाताना भावात् , उत्कर्षतोऽसोया अनन्ता बा, ते च प्राग्वदू भावयितव्याः, पृथिवीकायिकत्वे यार- समुमनुष्यत्वेऽतीतास्ते तथैव, भाविन एकोत्तरिकया वक्तव्याः, ते चैवम्-'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि. जस्स अस्थि दघातपदे जहणणं एको वा दो वा तिषिण वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा ते च नैरयिकस्य पृथिवीका- खपरस्था|यिकत्व इव भावनीयाः, 'याणमंतरते जहा नेरइयत्ते' इति व्यन्तरत्वे यथा नैरयिकत्वे तथा बक्तव्यं, किमुक्तं भव- न कषायस नि?-एकोतरिका न वक्तव्याः, किन्तु 'सिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अणंता' इति वक्तव्यं, 'जोइसिय' सू. १२४ इत्यादि, ज्योतिष्कत्वे वैमानिकत्वे चातीतास्तथैव, पुरस्कृता यदि सन्ति ततो जघन्यपदे असङ्ख्येयाः उत्कृष्टपदे। अनन्ताः, एवमप्कायिकस्य यावन्मनुष्यत्वे नेतव्यं, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां यथा असुरकुमारस्य, नवरं पुरस्कृतचिन्तायां सर्व स्वस्थाने एकोतरिकया वक्तव्यं, परस्थाने यथा असुरकुमारस्य सूत्र, सूत्रपर्यन्तं दर्शयति–जाव माणियस्स वेमाणियत्ते' इति यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्र, एवमेते कपायसमुद्घातगताश्चतुर्विंशतिः-चतुर्विंशतिसङ्ख्याश्चतुर्विंशतिदण्डकाः भणितव्याः २४ । तदेव मुक्तश्चतुर्विंशत्या चतुर्विंशतिदण्डक-M सूत्रः कषायसमुद्रातः, सम्प्रति चतुर्विशत्यैव चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रारणान्तिकसमुद्रातमाह ॥५७२॥ मारणतियसमुग्घातो सहाणेवि परहाणेवि एगुत्तरियाए नेयहो जाव वैमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवमेते चउवीसं चउवीसदंडगा भाणियवा वेउवियसमुग्घातो जहा कसायस० तहा निरवसेसो भाणितबो, नवरं जस्स नस्थि तस्स दीप अनुक्रम [६०४] A mitaram.org ~1148~ Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३५] दीप अनुक्रम [६०५] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] उद्देशक: [-] मूलं [ ३३५] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education t (वुबति, एत्थवि चउवीसं चउवीसा दंडगा माणियद्वा । तेयगसमु० जहा मारणंतियस०, नवरं जस्सत्थि, एवं एतेवि बी चवीसा दंडगा भाणितवा । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया आहारसमुग्धाया अतीता १, गो० ! णत्थि, केवइया पु० १, गो० ! णत्थि एवं जाव वैमाणिय ते, नवरं मणूसत्ते अतीता कस्सइ अस्थि कस्सह नत्थि, जस्सत्धि जह० एको वा दो वा उ० तिनि, केवइया पु० १, गो० ! कस्सति अत्थि क० नत्थि, जस्सत्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उ० चत्तारि, एवं सवजीवाणं मणुस्साणं भाणियवं मप्सस्स मणूसते अतीता कस्सवि अस्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उ० चत्तारि, एवं पुरेक्खडावि, एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा जाव वैमाणिवत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयचे के० केवलिसमुग्याया अतीता १, गो० ! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! नत्थि, एवं जाव वेमाणियते, णवरं मणूसत्ते अतीता नत्थि, पुरेक्खडा क० अस्थि क० नत्थि, जस्सत्थि इको, मणूसस्स मणूसते अतीवा कस्स ति अस्थि क० नत्थि, जस्सत्थि एको, एवं पुरेक्खडावि, एवमेते चउबीसं चउडीसा दंडगा ( सू ३३५ ) 'मारणंतिए 'ति मारणान्तिकसमुद्घातः पुरस्कृत चिन्तायां स्वस्थाने परस्थाने वा एकोत्तरिकया नेतव्यो यावद्वै - | मानिकस्य वैमानिकत्वे — वैमानिकत्वविषयं सूत्रं तचैवम् — एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरयत्ते केवइया मारपंतियसमुग्धाया अतीता १, गोयमा ! अनंता, केवइया पुरेक्खडा १, गोयमा ! कस्सर अस्थि कस्सर नत्थि, For Parts Only ~ 1149~ rryp Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३५] ॥५७३॥ दीप अनुक्रम [६०५] जस्सत्थि जहन्नेणं एको वा दो या तिषिण वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा' तत्र यो मारणा- ३६ प्रज्ञापनाया: मल- |न्तिकसमुद्घातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुद्वृत्तः अनन्तरं पारम्पर्येण वा मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति न भूयो नरक- घातपदे य.वृत्ती . गामी तस्य न सन्ति पुरस्कृता मारणान्तिकसमुद्घाताः, यः पुनस्तद्भवे वर्तमानी मारणान्तिकसमुद्घातेन कालं कृत्वा नारकादे नरकादुवृत्तः सेत्स्यति तस्सैकः पुरस्कृतो मारणान्तिकसमुद्घातो, यः पुनभूयोऽपि नरकमागत्य सर्वसङ्ख्यया द्वौ मार- नारकत्वाणान्तिकसमुद्घातो गन्ता तस्य द्वी, एवं त्रिप्रभृतयोऽपि भावनीयाः, सङ्घयेयान् वारान् नरकमागन्तुः सबेयाः अस-दीमारणायेयान्वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवमसुरकुमारत्वे आलापको वाच्यः, नवरमत्रैवं भावनायो नर Kन्तिकाद्याः कादुत्तो मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति यदिवा तस्मिन् भवे मारणान्तिकसमुद्घातमगत्वा मृत्युमासाद्य ततोऽज्यभवे सिद्धि गन्ता तस्यैव न सन्ति, शेषस्य त्वेकादिभावना प्रागिव, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु यथा नैरयिकस्य, (यथा नैरयिकस्य) नरयिकादिषु चतुर्विंशतिस्थानेषु चिन्ता कृता तथाऽसुरकुमारादीनां वैमानिकपर्यवसानानां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण | कर्तव्या, तदेवमन्यान्यपि चतुर्विंशतिर्दण्डकसूत्राणि भवन्ति, तथा चाह-एवं एए चउवीस चउचीसा दंडगा भाणियबा' इति, उक्तो मारणान्तिकसमुदघातश्चतविशत्या चतुर्विशतिदण्डकसूत्रः, साम्प्रतमेतावत्सवबाकेरेव सूत्रे क्रियसमुद्घातं विवक्षुराह-वेउविए' इत्यादि, वैक्रियसमुद्घातो यथा कपायसमुपातःप्रा प्रतिपादितः तथा निरविशेषो भणितव्यः, केवलं यस्य वैक्रियसमुद्घातो नास्ति वैक्रियलब्धेरेवासम्भवात् तस्य नोच्यते, शेषस्य उच्यते, स | ॥५७३॥ JMEauratanAR. ~1150~ Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [-], ---- --------- मूलं [३३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३५] दीप अनुक्रम [६०५] शिर्ष-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया वेउषियसमुग्घाया अतीता ?, गो ! अणंता, केवइया पुरे-1। क्खडा, गो.! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उकोसेणं सिय संखेजा वा सिय असंखेजा वा सिय अर्णता या। एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया वेउधिय-1 समुग्घाया अतीता', गो० अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो.! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा सिय अणंता वा, एवं नेरइयस्स जाव थणियकुमारत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स। पुढविकाइयत्ते केवइया वेउवियसमुग्धाया अतीता, गोनत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, गो! नत्थि, एवं जाव तेउवाइयत्ते, एगमेगस्स णं भंते ! नेरदयस्स बाउकाइयत्ते केवइया वेउचियसमुग्घाया अतीता, गो018 |अणंता, केवइया पुरेक्खडा, गो० ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नस्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को संखेजा वा असं० अणंता वा, वणस्सइकाइयत्ते जाव चउरिदियचे जहा पुढविकाइयत्ते, तिरिक्खपं|चिंदियत्ते मणुसत्ते जहा बाउकाइयत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्तेसु जहा असुरकुमारत्ते' इह यत्र वैक्रियसमु घातसम्भवस्तत्र भावना कषायसमुद्घातवद् भावनीया, अन्यत्र तु प्रतिषेधः सुप्रतीतो, वैक्रियलधिरेवासम्भवात, यथा च नैरयिकस्य चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण सूत्रमुपदर्शितमेवमसुरकुमारादीनामपि चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण प्रत्येकं । सूत्रमवगन्तव्यं, नवरमसुरकुमारादिषु स्खनितकुमारपर्यवसानेषु व्यन्तरादिषु च परस्परं स्वस्थाने एकोतरिका पर aoratadaeopagacasae80saree ~ 1151~ Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३५]] दीप अनुक्रम [६०५] प्रज्ञापना | स्थाने सहयादयो वक्तव्याः, वायुकायिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु तु परस्परं स्वस्थाने परस्थाने वा एकोतरिकाः, यामल- | शेषं तथैव, एषमेतान्यपि चतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति, तथा चाह-'एवमेते चउषीसं चउवीसगा य. वृत्ती. दंडगा भाणितवा' एवं-उपदर्शितेन प्रकारेण अत्रापि-बैक्रियसमुद्घातविषयेऽपि चतुर्विशतिः-चतुर्विंशतिसङ्ख्याः 'चउवीसा' इति चतुर्विशतिः-चतुर्विंशतिस्थानपरिमाणा दंडका-दण्डकसूत्राणि भणितन्याः। सम्प्रति तैजससमुद्घात॥५७४॥ दी मारणामितिदेशत आह–'तेयगे'स्यादि, तैजससमुद्धातो यथा मारणान्तिकसमुद्घातस्तथा वक्तव्यः, किमुक्तं भवति ?-11 न्तिकाद्याः खस्थाने परस्थाने च एकोतरिकया स वक्तव्य इति, नवरं यस्य नास्ति-न सम्भवति तैजससमुद्घातस्तस्य न वक्तव्यः, तत्र नैरयिकपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु न सम्भवतीति न वक्तव्यः, शेषेषु तु वक्तव्यः, स चैवम्'एगमेगस्स णं मंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया तेउसमुग्घाया अतीता ?, गो। नस्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो० ! नत्थि, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया तेयगसमुग्धाया अतीता ?, गो.! अर्णता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो.! कस्सइ अस्थि कस्सद नत्थि, जस्सत्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्को-|| सेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा' इत्यादि सूत्रोक्तं विशेषमुपजीव्य स्वयं परिभावनीयं, अत्रापि सूत्रसङ्ख्यामाह-एवं'मित्यादि, एवं-मारणान्तिकसमुद्घातगतेन क्वचित् सर्वथा निषेधरूपेण च प्रकारेण एतेऽपि-तैजससमुद्घातगता अपि चतुर्विशतिः चतुर्विशतिका-दण्डका भणितव्याः। सम्प्रत्याहारकसमुपातं चिन्तयन्नाह-'एगमे aeroesesec taeeeeeeeeeeeee ५७४॥ SARERatunintennational ~1152~ Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं - -------------- मूलं [३३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३५] दीप अनुक्रम [६०५] asootra0000000000000002 गस्स ण'मित्यादि, इह सर्वेष्वपि स्थानेषु मनुष्यत्वचिन्तायामतीता जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतस्त्रयश्च, पुरस्कृता जघन्यत एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, शेषेषु स्थानेषु अतीताः पुरस्कृताश्च प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यस्य | मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः पुरस्कृताश्च जघन्यत एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, अत्रार्थे च कारणं प्रागे बोक्तं, अत्रापि सूत्रसङ्ख्यामाह-एवं'मित्यादि, एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण एते आहारकसमुद्घातविषयाश्चतुर्विशतिपसङ्ख्याकाः दण्डका वक्तव्याः, कियरं यावदित्याह-यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं. तचेवम्-'एगमेगस्स भंते ! वेमाणियस्स वेमाणियत्ते केवइया आहारगसमुग्धाया अतीता ?, गो०1 नत्थि, केवया पुरेक्खडा, गो. नस्थि' इति । अधुना केवलिसमुद्घातमभिधित्सुराह-एगमेगस्स णं भंते' इत्यादि, अत्राप्ययं तात्पर्यार्थ:-सर्वेष्वपि स्थानेषु मनुष्यत्वचिन्ताव्यतिरेकेणातीताः पुरस्कृताच प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यवर्जेषु । मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः प्रतिषेद्धव्याः, पुरस्कृतस्तु कस्याप्यस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक एवेति वक्तव्यः, मनुष्यस्य मनुष्यत्वचिन्तायामतीतः कस्यापि अस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक एव, एतच प्रश्नसमये केवलिसमुद्घातादुत्तीर्ण केवलिनमधिकृत्य, पुरस्कृतोऽपि कस्यापि अस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक इति वक्तव्यं, अत्रापि सूत्रसङ्ख्यामाह-एवं'मित्यादि एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण एते केवलिसमुद्घातविषयाश्चतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिसङ्ख्याका दण्डका भवन्ति, तदेवं सर्वसङ्ख्यया एकत्वविषयाणां चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणाम etestsestate Santaratana ~1153~ Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३६ ] दीप अनुक्रम [६०६] प्रज्ञापनायाः मल ० वृत्ती. ॥५७५॥ पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [ ३३६ ] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः षष्ट्यधिकं शतं जातं एतावत्सङ्ख्याकान्येव बहुत्वविषयाण्यपि सूत्राणि भवन्ति, तान्युपदिदर्शयिषुराह-नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते० के० वेदणास० अतीता १, गो० ! अनंता, के ० पुरे० १, गो० ! अगंता, एवं जाव वैमाणियत्ते, एवं सवजीवाणं भाणित जाब वेमाणियाणं वेमाणियत्ते, एवं जात्र तेयगस०, गवरं उवउजिऊण नेयह जस्सत्थि वेउचियतेयगा । नेरइयाणं भंते ! नेरइयचे केवतिता आहारगस० अतीता १, गो० ! नत्थि, केवतिता पु० १, गो० 1 णत्थि एवं जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसते अतीता असं० पुरेक्खडा असंखेजा एवं जाव बेमाणियाणं, णवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसते अतीता अनंता पुरेक्खडा अनंता, मणूसाणं मणूसते अतीता सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं पुरेक्खडावि, सेसा सबै जहा नेरइया, एवं एते चडवीसं चउवीसा दंडगा । नेरइयाणं मंते ! नेरइयत्ते केव० केवलिसमुग्धाया अतीवा ?, गो० 1 नस्थि, के० पु० १, गो० नत्थि, एवं जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसते अतीता णत्थि, पुरे० असंखेजा, एवं जाव वैमाणिया, नवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अतीता नत्थि, पु० अणंता, मणूसाणं मणूसते अतीता सिय अत्थि सिय णत्थि, जह अत्थि जह० एको वा दो तिष्णि वा उक्को० सतपुडुतं, केवइया पुरे० १, गो० ! सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं एते चउबीसं चउडीसा दंडगा सबै पुच्छाए भाणितवा जाव वेमाणियाणं वेमाणियते (सूत्रं ३३६) 'नेरइयाण' मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसमय भाविनां सर्वेषां भदन्त ! पूर्व. सकलमती कालमवधीकृत्य Ecation Internationa For Parts Only ~ 1154 ~ ३६ समुद्घातपर्द नारकादीनां नारकत्वादी समुद्धा ताः सू. ३३६ ॥५७५॥ Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: se प्रत सूत्रांक [३३६] दीप अनुक्रम [६०६] म यथासम्भवं नैरयिकत्वे वृत्तानां सतां समुदायेन सर्वसङ्ख्यया कियन्तो घेदनासमुद्घाता अतीताः १, भगवानाह गौतम ! अनन्ताः, बहूनामनन्तकालमसंव्यवहारराशेरुद्वृत्तत्वात् , कियन्तः पुरस्कृताः १, एतच्च सूत्रं सूचामात्र, परिपूर्णस्तु पाठ एवं-'नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया वेयणासमुघाया पुरेक्खडा ?' इति भगवानाह-गौतम । अनन्ताः, बहूनामनन्तशो भूयोऽपि नरकेष्वागमनसम्भवात् , 'एवं'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेणासुरकुमारत्वादिषु । स्थानेषु क्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तचेदं-'नेरइयाणं भंते ! वेमाणियत्ते केव-N इया वेयणासमुग्घाया अतीता ?, गो! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो ! अणंता' इति, अत्र अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः, सर्वसांव्यवहारिकजीयः प्रायोऽनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतास्वनन्ताः, प्रश्नसमय-| भाविनां नैरयिकाणां मध्ये बहुभिरनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्स्यमानत्वात् , एवमपान्तरालयतिध्वपि असुरकुमार-IM त्वादिषु स्थानेषु भावना भावनीया, यथा च नैरयिकाणां नैरयिकत्वादिषु चतुर्विशतिदण्डकक्रमेणातीताः पुरस्कृताश्च वेदनासमुद्घाता भणिता एवं सर्वजीवानामसुरकुमारादीनां भणितव्याः, कियडूरं यावदित्याह-यावद्वैमा-1 |निकानां वैमानिकत्ये-वैमानिकत्व विषयाः, ते चैवं-वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवझ्या बेयणासमुग्घाया अतीता ?, गो! अणंता, केवइया पुरे०१, गो.! अणंता' इति, एवं कषायमरणवैक्रियतैजससमुद्घाता अपि | नरयिकादीनां वैमानिकपर्यवसानानां सर्वेषु नैरयिकत्वादिषु स्थानेषु चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्याः, तथा चाह ~1155~ Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३६ ] दीप अनुक्रम [६०६] प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ॥५७६॥ पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Education to "प्रज्ञापना" उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) उद्देशक: [-] दारं [-] मूलं [ ३३६ ] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - 'एवं जावे' त्यादि, एवं - वेदनासमुद्घातगतेन प्रकारेण कषायादिसमुद्घाता अपि तावद्वक्तव्याः यावत्तैजससमुद्घातः, किमविशेषेण वक्तव्याः १, नेत्याह- 'नवर 'मित्यादि, नवरमुपयुज्य उपयोगं कृत्वा सर्व सूत्रं बुद्ध्या नेतव्यं किमुक्तं भवति ? – ये यत्र समुद्घाता घटन्ते ते तत्रातीताः पुरस्कृताश्चानन्ता वक्तव्याः, शेषेषु च स्थानेषु प्रतिषेद्धव्याः, एतदेव वैविक्त्येनाह - 'जस्स अत्थी' त्यादि, यस्य जीवराशेनैरयिकादेरसुरकुमारादेश्व सन्ति वैक्रियतैजससमुद्घाता से तस्य वक्तव्याः, शेषेषु पृथिव्यादिषु स्थानेषु प्रतिषेद्धव्या इति सामर्थ्यलभ्यं, कषायमारणान्तिकसमुद्घाताः पुनः सर्वत्रापि वेदनासमुद्घातवद्विशेषेणातीताः पुरस्कृताश्चानन्ता वक्तव्याः, न तु क्वापि निषेद्धव्याः । सम्प्रति आहारसमु|द्घातविषयं सूत्रमाह- 'नेरइयाण' मित्यादि, आहारकसमुद्घातो बाहारकलब्धौ सत्यामाहा रकशरीरप्रारम्भकाले भवति, नान्यथा, आहारकलब्धिश्चोपजायते चतुईशपूर्वाधिगमे, तेषां चतुर्द्दशानां पूर्वाणामधिगमो मनुष्यत्वावस्थाय न शेषायामवस्थायामिति मनुष्यत्ववर्जासु शेषास्ववस्थास्वतीतानां पुरस्कृतानां चाहारकसमुद्घातानां प्रतिषेधः, मनुव्यत्वावस्थायामपि पूर्वमतीता असङ्ख्येयाः, प्रश्वसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहूनामसङ्खोयानां नारकाणां पूर्व तदा २ मनुष्यत्वमवाप्य अधिगतचतुद्देशपूर्वाणां प्रत्येकं सकृद् द्विः त्रिर्वा कृताहारकसमुद्घातत्वात्, पुरस्कृता अपि असङ्ख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहुभिरसङ्ख्येयैर्नारिकैर्नर कादुदृस्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा तदा तदा मनुष्यत्वावाप्तौ चतुर्द्दश पूर्वाण्यधीत्य प्रत्येकमाहारकसमुद्यातानामेकशो द्विः त्रिश्चतुर्वा करिष्यमाणत्वात्, 'एवं जाव For Parts Only ~ 1156 ~ ३६ समुदूधातपदं नारकादी नां नारकत्यादौस मुद्धाताः सू. ३३६ ॥५७६ ॥ janayar Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३६] दीप अनुक्रम [६०६] वेमाणियाण मिति नैरयिकाणां चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्ता कृता एवमसुरकुमारदिीनामपि प्रत्येक चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकानां, केवलं यत्रास्ति विशेषस्तं दर्शयति-'नवर'मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकानां मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः पुरस्कृताश्च प्रत्येकमनन्ता वक्तव्याः, अनन्तानां पूर्वमधिगतचतुर्दशपूर्वाणां यथायोगमेकशो| द्विात्रि कृताहारकसमुद्घातानांवनस्पतिष्ववस्थानात् अनन्तरमेव वनस्पतिकायादुवृत्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा मानुपत्यमवाप्य यथायोगमेको द्विः त्रिचतुर्वाऽऽहारकसमुद्घातानां निर्वयिष्यमाणत्वात् , मनुष्याणां मनुष्यत्वावस्थाया-18 मतीताः पुरस्कृताश्च स्यात्सङ्ग्येयाः स्यादसङ्ख्येयाः,कथमिति चेत् ,उच्यते, ते हि प्रश्नसमयभाविनः उत्कर्षपदेऽपि सर्वस्तोकार, श्रेण्यसङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , ततो विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां मध्ये कदाचिदसधेयाः-यथायोग प्रत्येकमेकशी द्विः त्रिश्चतुर्वा कृतकरिष्यमाणाहारकसमुद्घाताः प्राप्यन्ते, उपसंहारमाह-एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एते आहारकसमुद्घातविषयाश्चतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिसङ्ख्याका दण्डका वक्तव्याः, सम्प्रति केवलिसमुद्घातं चिन्तयति-'नेरइयाण मित्यादि, केवलिसमुद्घातोऽपि मनुष्यत्वावस्थायां भवति, न शेषाखवस्थासु, न च कृतकेवलिसमुद्घातः संसारं पर्यटति, केवलिसमुद्घातानन्तरमन्तर्मुहूत्तैनावश्यं निःश्रेयसपदाधिगमात्, ततो नारकाणां मनुष्यत्ववर्जासु शेषाखवस्थाखतीताः पुरस्कृताश्च केवलिसमुद्घाताः प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यत्वावस्थायामप्यतीताः प्रतिषेव्याः, कृतकेवलिसमुद्घातानां नरके गमनाभावात् , भाविनश्च भविष्यन्ति, प्रश्नसमयभाविनां मध्ये बहूनामसङ्ख्ये ~1157~ Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३६] दीप अनुक्रम [६०६] प्रज्ञापना यानां नारकाणां मुक्तिपदगमनयोग्यत्वात् , ततः पुरस्कृता असङ्ग्येया इत्युक्तं, 'एव'मित्यादि, यथा नैरयिकाणां३६ समुया: मल- IM केवलिसमुद्यातचिन्ता कृता एवमसुरकुमारादीनामपि कर्तव्या, सा च तावत् यावत् वैमानिकानां, अत्रैव विशेयवृत्ती. 8षमाह-'नवर'मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकानां मनुष्यत्वावस्थाचिन्तायामतीताः प्रतिद्धन्याः, कृतकेवलिसमु नारकापघातानां संसाराभावात्, पुरस्कृतास्त्वनन्ता वाच्याः, प्रश्नसमयभाविनां वनस्पतिकायिकानां मध्ये बहूनामन-18 दीनां ना॥५७७॥ न्तानां वनस्पतिकायिकानां वनस्पतिकायादुत्यानन्तयेण पारम्पर्येण वा कृतकेवलिसमुद्घाताना सेत्स्यमानत्वात्, रकत्वादी समुद्घामनुष्याणां मनुष्यत्वावस्थाचिन्तायामतीताः कदाचित्सन्ति कदाचिन्न सन्ति, कृतकेवलिसमुद्घातानां सिद्धत्वभावाद ताः सू. शान्येषां चाद्यापि केवलिसमुद्घाताप्रतिपत्तेः, यदापि सन्ति तदाऽपि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः शतपथक्त्वं, पुरस्कृताः स्यात्सोयाः स्वादसङ्ख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां मनुष्याणां मध्ये कदाचित्सवयेयानां कदाचिद-18 सङ्ख्येयानां यथायोगमानन्तर्येण पारम्पर्येण कृतकेवलिसमुद्घातानां सेत्स्यमानत्वात् , सूत्रसर्वसङ्ख्यामाह-एवमुक्केन । प्रकारेण एते केयलिसमुद्घातविषयाश्चतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिदण्डकाः ते च सर्वेऽपि पृच्छायां-पृच्छापुरस्सरं भणितव्याः कियडूरं यावदित्याह-वैमानिकानां वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तचेदं-'बेमाणियाणं भंते ! बेमाणियत्ते केवइया केव-IN लिसमुग्घाया अतीता ?, गो. नस्थि, के.पु.१, गो! नत्थि' इति ॥ वदेवमुक्ता नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यव-IN सानेष्येकत्वविशिष्टेषु बहुत्वविशिष्टेषु च भूतभाविवेदनादिसमुद्घातसम्भवासम्भवपुरस्सरं सङ्ख्याप्रमाणप्ररूपणा, सम्प्र-N 1 1५७७॥ Panditurary.com ~11584 Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७-३३८] PresecxARA ति तेन तेन समुद्घातेन यावत् केवलिसमुद्घातेन समुद्धतानामसमुद्धतानां च परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह एतेसिणं भंते ! जीवाणं चेदणासमुग्धातेणं कसायस० मारणतिय बेउवियस० तेयस. आहारगस० केवलिस० समोहयाणं असमोहयाण य कयरेर हितो अ० ब० तु.वि०, गो०! सबथोवा जीवा आहारगस मुग्धाएणं समोहया केवलिसमुग्धाएणं संमोहता संखे० तेयगसमुग्घाएणं समोहया असं० बेउबियसमुग्घाएणं समो० असं० मारणंतियसमु. समो० अणंतगुणा कसायस० स० असंवेदणास विसेसाहिया असंमोहया असंखिजगुणा (सूत्र ३३७) एतेसिणं भंते ! नेरइयाणं वेदणासमुग्घाएणं कसायस० मारणंतियस बेउबियस समोहयाणं असमोहयाण य कतरेशहितो अप्पा वा ४, गो! सबत्थोवा नेरइया मारणंतियसमुग्धातेणं समोहया वेउब्वियसमुग्धावणं समोहया असं० कसायसमुग्याएणं समोहता संखे० वेदणासमुग्धा समो० संखे० असमोहया संखे०। एतेसि णं मंते ! असुरकुमाराणं वेदणासमुग्धातेणं कसायस० मारणंतियस० बेउवियस० तेयगस० समोहताणं असमोहताण य कयरेशहितो अप्पा वा ४१, गो! सबथोवा असुरकुमारा तेयगसमुग्धाएणं समोहया मारणंतियस० स० असं० वेदणास० स० असं० कसायसमु० स० सं० वेउबियसमु० स० संखे० असमोहया असंखेजगुणा एवं जाव थणियकुमारा । एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं वेदणास०३१, गो! सवत्थोवा पुटविकाइया मारणतियसमुग्धाएणं समोहया कसायसमुग्धाएणं समोहया सं० वेदणासमु० स० विसेसाहिया असमोहया असं०, एवं जाव वणस्सइकाइया, गवरं सबत्योवा बाउकाइया वेउचियसमुग्धाएणं समोहया मारणंतियसमु. समो० असंखेजगुणा कसायसमुग्धा० स०सं० वेदणास० स० विसेसाहिया असमो दीप अनुक्रम Secoeae easelese.actrserse [६०७ -६०८] 20090878000 marary au ~1159~ Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७-३३८] प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती. ३३७-३३८ कटe दीप हया असंखेजगुणा । बेइंदियाणं भंते ! बेदणासमुग्घाएणं कसायस. मारणंतियस० समोहयाणं असमोहयाण य कतरे- ३६ समु२ हितो अप्पा वा ४१, गो! सबथोवा बेइंदिया मारणतियसमुग्धाएणं समोहया वेदणासमुग्धातेणं समोहया असंखे० द्घातपदं कसायस० समो० असंखे० असमोहया संखे०, एवं जाव चारिदिया । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! वेदणास समुदातासमो० कसायसमुग्धातेणं मारणंतियस० वेउबियस० तेयासमु० समोहयाणं असंमोहयाण य कतरे।हिंतो अप्पा वा नामल्पब४१, गो! सबथोवा पंचिदियतिरि० तेयासमु० समोहया वेउ० समु० समो० असं० मारणंतियस० समो० असं० | हुत्वं सू. वेदणास समो. असं० कसायस० समो० संखे० असमवहता संखे । मणुस्साणं भंते । वेदणासमुपातेणं समोहयाणं कसायसमु० मारणंतियस० वेउबियस. तेथगस आहारगसमुग्धाएणं केवलिस० समोहयाणं असमोहयाण य कयरे २हिंतो अप्पा वा ४१, गो०! सबथोवा मणुस्सा आहारगस समोहया केवलिस० स० संखे० तेयगस० समो० संखे० चेउबियस समो० संखे० मारणंतियस समो० असं० वेदणास० स० असं कसायस० स० संखे० असमोहया असं०1181 वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं (मूत्र ३३८) 'एएसि ण'मित्यादि, एतेषां-यथायोगं प्राक् समवहतासमयहतत्वेन निरूपितानां भदन्त ! सामान्यतो जीवानां वेदनासमघातेन यावत् केवलिसमुद्घातेन समवहतानामसमवहतानां च मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पाः कतरे कतरे-II भ्यो बहुकाः-सङ्ख्येयासक्येयादिगुणतया प्रभूताः कतरे कतरेस्तुल्या:-समसयाकाः, अत्रार्थे सूत्रे विभक्तिपरिणामः खयं योजनीयः, कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिकाः-मनागधिकाः, वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः, भगवानाह-गौतम! एब्स्टटटटटट अनुक्रम [६०७ -६०८] ~1160~ Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७-३३८] सर्वस्तोका जीवा आहारकसमुद्घातेन समुद्धताः, आहारकशरीरिणो हि कदाचिदिह लोके षण्मासान यावन्न भवन्त्यपि, यदापि भवन्ति तदापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, केवलमाहाकसमुद्घात आहारकशरीरप्रारम्भकाले न शेषकालं ततः स्तोका एष युगपदाहारकसमुद्घाताः प्राप्यन्ते इति सर्वस्तोका आहारकसमुदघोतन समुद्धताः, तेभ्यः केवलिसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः,तेषामेककालं शतपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात्, यद्यप्याहारकशरीरिणः सत्तया समकालं एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वमानाः प्राप्यन्ते तथाप्या(पिस्तोकानामा)हारकसमुद्घातसम्भवात् एककालमतिस्तोकाः प्राप्यन्ते इति न तेभ्यः केवलिसमुद्घातसमुद्धतानां सङ्ख्येयगुणत्वविरोधः, केवलिसमुद्घातसमुद्धतेभ्यः तैजससमुद्घातेन समवहताः असङ्ख्यगुणाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां देवानामपि च तैजससमुदूघातसम्भवात् , तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातेन समुद्घताः असङ्ख्येयगुणाः, नारकवातकायिकानामपि वैक्रियसमुद्घातसम्भवात् , वातकायिकाश्च वैक्रियलब्धिमन्तोन स्तोकाः, किन्तु देवेभ्योप्यसोयगुणाः, कथमेतदिति चेत्, उच्यते, इह बादरपर्याप्तवायुकायिकाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियेभ्योऽसोयगुणाः, महादण्डके तथा पठितत्वात् , स्थलचरपञ्चेन्द्रियाश्च देवेभ्योऽप्यसोयगुणाः, ततो यद्यपि बादरपर्याप्तवायुकायि कानां सोयभागमात्रस्य वैकियलब्धिसम्भवो, यत उक्तम्-“तिण्हं ताव रासीणं घेउषियलद्धी चेव नत्थि, पायपरपजत्ताणपि संखेज्जइभागमेत्ताणं"ति, तथापि सङ्ख्येयभागमात्रा वैक्रियलब्धिमन्तो देवेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणा भवन्ति, दीप 20393029290sass90000 अनुक्रम [६०७ -६०८] Panduranorm ~1161 Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७ -३३८] ततो नैरयिकाणां वायुकायिकानां च वैक्रियसमुद्घातसम्भवादुपपद्यन्ते तैजससमुद्घातसमुद्धतेभ्यो वैकियसमुद्घातेन । प्रज्ञापना ३६ समुया मलसमुद्धताः असङ्ख्ययगुणाः, तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धता अनन्तगुणाः, कथं ?, उच्यते, इह निगोद- द्घातपदं यावृत्ती. जीवानामनन्तानामसोयो भागः सदा विग्रहगती वर्तमानः प्राप्यते, ते च प्रायो मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धता इति पूर्वेभ्योऽनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातसमुद्धता असङ्ख्येयगुणाः, निगोदजीवानामेयानन्तानां विग्रहग-1 नामल्पन॥५७९॥ त्यापन्नेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां कषायसमुद्घातसमुद्धतानां सदा प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धता | हुत्वं सू. विशेषाधिकाः,तेषामेव निगोदजीवानामनन्तानां कपायसमुद्घातसमुद्धतेभ्यो मनाक् विशेषाधिकानां सदा वेदनासमु-३३७-३३८ द्घातेन समुद्घततयाऽवाप्यमानत्वात् , तेभ्योऽपि एकेनापि समुद्घातेनासमुद्धता असङ्ख्येयगुणाः,वेदनाकषायमरणसमुद्घातसमुदूघतेभ्यो निगोदजीवानामेवासङ्ख्ययगुणानामसमवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् ।सम्प्रत्येतदेवाल्पबहुत्वं जीवविशेषेषु नैरयिकादिषु चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण यथायोगं चिचिन्तयिषुराह-'नेरइयाण मित्यादि प्रश्नसूत्रं, भग-18 वानाह-सर्वस्तोका नैरयिका मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः, मारणान्तिको हि समुद्घातो मरणकाले भवति, मरणं च शेषजीवन्नारकराश्यपेक्षयाऽतितोकानां, न च सर्वेषां नियमाणानामविशेषेण मारणान्तिकसमुद्घातः, किन्तु कतिपयानां, 'समोहयावि मरति असमोहयावि मरंतीति वचनात् , अतः सर्वस्तोका मारणान्तिकसमुद्घात18 समुद्धताः, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुपातेन समुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, सप्तखपि पृथिवीषु प्रत्येकं बहूनां परस्परवेदनो Decemedeceaeeeesesesese दीप अनुक्रम [६०७ aeeeeeee.se -६०८] SAREaratunana INomurary.org ~1162~ Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७-३३८] Recenesences दीरणाय निरन्तरमुत्तरवैक्रियसमारम्भसम्भवात् , तेभ्योऽपि कपायसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, कृतोत्तरबैक्रियाणामकृतोत्तरवैक्रियाणां च सर्वसङ्ख्ययोत्तरवैक्रियारम्भकेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां कषायसमुद्घातसमुद्धतत्वेन प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, यथायोग क्षेत्रजपरमाधार्मिकोदीरितपरस्परोदी-. |रितवेदनाभिः प्रायो बहूनां सदा समुद्धतत्वेन प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽप्ये केनापि समुद्घातेनासमवहताः सङ्ख्येयगुणाः, वेदनासमुद्घातमन्तरेणाप्यतिबहूनां सामान्यतो वेदनामनुभवतां सम्भवात् । सम्प्रत्यसुरकुमाराणामल्पबहुत्वमाह-एएसि ण'मित्यादिप्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोकाः असुरकुमारास्तैजससमुद्घातेन समुद्धताः, तैजसो हि समुद्घातो महति कोपावेशे क्वचित् कदाचित्केषाञ्चिद्भवति, ततस्तेन समुदूधातेन समुद्धताः। सर्वस्तोकाः, तेभ्यो मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यो वेदनासमुद्घातेन समुद्धताः असङ्खयेयगुणाः, परस्परं युद्धादी बहूनांवेदनासमुघातेन समुद्घतानां प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि कपायसमुधातेन समु. द्धताः सङ्खयेयगुणाः, येन तेन वा कारणेन बहूनां कषायसमुद्घातगमनसम्भवात् , तेभ्योऽपि वैक्रियसमुघातेन ४|समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, परिचारणायनेकनिमित्तमतिवहनामुत्तरक्रियकरणारम्भसम्भवात्, तेभ्योऽप्यसमवहता| असोयगुणाः, बहूनामुत्तमजातीनां सुखसागरायगाढानां पूर्वोक्तेभ्योऽसहयगुणानां केनापि समुद्घातेनासमवहतानां सदा लभ्यमानत्वात्, 'एव'मित्यादि, यथा असुरकुमाराणामल्पबहुत्वमुक्तमेवं सर्वेषां भवनपतीनां द्रष्टव्य र co203020908092002020 दीप अनुक्रम [६०७ -६०८] murary.org ~1163~ Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७-३३८] यामलय. वृत्ती. 1५८०॥ दीप यावत् स्तनितकुमाराणामिति । सम्प्रति पृथिवीकायिकगतमल्पबहुत्वमाह-'एएसि ण'मित्यादि, अत्र कषायसमु ३६ समुघातसमदतांनां वेदनासमुद्रातसमुद्धतानां च सजयेयगुणत्वे असमवहतानां चासोयगुणत्वे भावना स्वयं भाव- धातपद नीया. सगमत्वात, 'एव'मित्यादि, पृथिवीकायिकगतेन प्रकारेणाल्पचहत्वं तावद्वक्तव्यं यावद्वनस्पतिकायिका: समुदातावायुकायिकान् प्रति विशेषममिधित्सुराह-'नवर'मित्यादि, नवरं वातकायिकानामल्पबहुत्वचिन्तायामेवं वक्तव्यं-नामपत्र हुत्वं सू. मनोका वातकायिका वैक्रियसमुदघातेन समुद्धताः, बादरपयोप्ससमयभागस्य वैक्रियलब्धेः सम्भवात् , तेभ्योऽपि1330-310 |मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धता असोयगुणाः, पर्याप्तापर्याससूक्ष्मवादरभेदभिन्नानां सर्वेषामपि पातकायिकानां मरणसमदघातसम्भवात् , तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातेन समुद्धताः सहयगुणाः, तेभ्योऽपि वेदनासमुदूघातेन समुद्धता विशेषाधिकाः, तेभ्योऽसमवहता असङ्ख्येयगुणाः, सकलसमुद्घातगतघातकायिकापेक्षया खभावस्थानां वातकायिकानां खभावत एवासङ्ख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात् । हीन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकाः द्वीन्द्रिया मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः, प्रतिनियतानामेव प्रश्नसमये मरणसद्भावात् , तेभ्यो वेदनासमुद्घातेन समुद्धता असङ्ख्येयगुणाः, शीतातपादिसम्पर्कतोऽतिप्रभूतानां वेदनासमुद्घातभावात् , तेभ्यः कषायसमुद्घातेन समुद्धता असङ्ख्येयगुणाः, अतिप्र- ५८०॥ भूततराणां लोभादिकषायसमुद्घातभावात् , तेभ्योऽप्यसमवहताः सङ्ग्येयगुणाः, 'एव'मित्यादि, एवं द्वीन्द्रियगतेन । प्रकारेण तापद् वक्तव्यं यावच्चतुरिन्द्रियाः । तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकास्तैजससमुद्घातेन समुद्धताः, कतिपयाना अनुक्रम [६०७ -६०८] ~ 1164~ Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७-३३८] e rsekace | मेव तेजोलन्धिभावात् , तेभ्यो वेदनासमुद्घातेनासमषहताः असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुदूघातेन समवहताः। & असङ्ख्येयगुणाः, प्रभूतानां वैक्रियलब्धेर्भावात् , तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता असङ्ख्येयगुणाः, सम्मूछिमजलचरस्थलचरखचराणामपि सर्वेषां वैक्रियलब्धिरहितानां प्रत्येकं पूर्वोक्तभ्योऽसद्धयेयगुणानां केषाश्चित् गर्भजानामपि वैक्रियलन्धिरहितानां चैकियलब्धिमतां च मरणसमुद्घातसम्भवात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, म्रियमाणजीवराश्यपेक्षया अपि अम्रियमाणानामसोयगुणानां वेदनासमुद्रातभावात्, तेभ्यः कपायसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ग्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यसमवहताः सङ्ख्येयगुणाः, अत्र भावना प्रागिव । मनुष्यसूत्रे सर्वस्तोका आहारकसमुद्घातेन समुद्धताः, अतिस्तोकानामेककालमाहारकशरीरप्रारम्भसंभवात् , तेभ्यः केवलिसमु घातेन समुद्धताः सङ्घयेयगुणाः, शतपृथक्त्वसङ्ख्यया प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्यस्तैजससमुद्घातेन समवहताः सङ्घये| यगुणाः, शतसहस्रसङ्घयया तेषां प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वैकियसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, कोटीसङ्ख्यया लभ्यमानत्वात् , तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता असोयगुणाः, सम्मूछिममनुष्याणामपि तद्भावात् , तेषां चासशवेयत्वात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धता असलयेयगुणाः, म्रियमाणराश्यपेक्षया असोयगुणानामनियमाणानां तद्भावसम्भवात् , तेभ्यः कपायसमुद्घातेन समुद्धताः सहयगुणाः, प्रभूततया तेषां प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽप्यसमवहता असङ्खयेयगुणाः, सम्मछिममनुष्याणामल्पकषायाणामुत्कटकपायिभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां सदा Secececessestaeoeseseseseeees दीप अनुक्रम sercercelect [६०७ -६०८] S umionary.om ~1165~ Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३७-३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३७-३३८] प्रज्ञापनाया। मलयवृत्ती. ३६ समुद्घातपर्द स्वपरस्थाने कषायस. सू. ॥५८१॥ दीप लभ्यमानत्वात् । व्यन्तरज्योतिप्कवैमानिका यथा असुरकुमारास्तथा वक्तव्याः । तदेवमुक्तं समुद्धतासमुद्धतविषयमल्पबहुत्वं, अधुना कषायसमुद्घातगतां विशेषवक्तव्यतामभिधित्सुराहकति णं भंते ! कसायसमुग्धाया पणत्ता ?, गो०! चत्तारि कसायसमुम्घाया पं० तं-कोहसमुग्धाते माणस० मायास० लोहस०, नेरइयाणं भंते ! कतिकसायसमुग्धाया पं०१, गो! चत्तारि कसायसमुग्धाता पं० एवं जाव वेमाणियाणं, एगमेगस्स गं भंते ! नेरइयस्स केवतिता कोहसमुग्धाता अतीता, गो! अणंता, केवतिता पुरे०१, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उको संखेजा वा असंखेजा वा अणता वा, एवं जाव वेमाणियस्स, एवं जाव लोभसमुग्धाते एते चत्तारि दंडगा । नेरइयाणं भंते ! केवइया कोहसमु० अतीता, गो.! अणंता, के० पु.१, मो०! अणंता, एवं जान चेमाणियाणं, एवं जाव लोभसमुग्याए, एवं एएवि चत्वारि दंडगा। एगमेगस्स णं मंते ! नेरइयस्स नेरइयचे केवइया कोहस० अतीता, गो ! अणंता, एवं जहा वेदणासमुग्धातो भणितो तहा कोहसमुग्घातोवि निरवसेस जाव बेमाणियत्ते, माणसमुग्धाए मायासमुग्धातेवि निरवसेसं जहा मारणतियसमुग्धाते लोहसमुग्घातो जहा कसायसमुग्धातो नवरं सबजीवा असुरादिनेरइएसु मोहकसाएणं एगुत्तरियाते नेतबा । नेरइइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया कोहसमु० अतीता, गो० अर्णता, के० पु.१, गो० अर्णता, एवं जाव वेमाणियत्ते, एवं सट्टाणपरहाणेसु सवत्थ भाणियबा, सबजीवाणं चचारिवि समुन्धाया जाव लोभसामुग्धातो जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते (सूत्र ३३९) अनुक्रम [६०७ ॥५८॥ -६०८] ~ 1166~ Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] 'कइ णमित्यादि, इदं सामान्यतः कषायसमुद्घातविषयं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमगतं च सूत्रं सुप्रतीतं, सम्प्रत्येक| कस्य नैरयिकादेश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वैमानिकपर्यवसानस्य तद्वक्तव्यतामाह-'एगमेगस्स णं भंते !' इत्यादि, | अत्रातीतसूत्रं सुप्रतीतं, पुरस्कृतसूत्रे 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थिति यो नरकभवप्रान्ते वर्तमानः खभावत एवाल्पकपायः कषायसमुद्घातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुवृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य कपायसमुद्घातमगत एवं | सेत्स्यति तस्य नास्ति पुरस्कृत एकोऽपि कषायसमुद्घातो, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, ते च प्रागुक्तखरूपस्य सकृत्कषायसमुद्घातगामिनो वेदितव्याः, उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्खयेया अनन्ता वा, तत्र सङ्ख्येयं ।। कालं संसारावस्थायिनः सङ्ग्येयाः असावेयं कालमसद्धयेयाः अनन्तकालमनन्ताः, एवमसुरकुमारादिक्रमेण तावद् । वाच्यं यावद्वैमानिकस्य, 'एव'मित्यादि, एवं-चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण मानादिकषायसमुद्घातसमुद्धतास्तावद्वक्तव्याः यावल्लोभसमुद्घातः, एवमते चत्वारः चतुविशतिदण्डका भवन्ति, एते चैकैकनरयिकादिविषया उक्ताः, सम्प्रत्येतानेव चतुश्चतुर्विंशतिदण्डकान् सकलनारकादिविषयानाह-'नेरइयाण'मित्यादि, अतीतसूत्रं सुप्रतीतं, पुरस्कृता अनन्ताः, प्रश्चसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहूनामनन्तकालमवस्थायित्वात् , एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकानां । यथा चैषः क्रोधसमुद्घातश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेणोक्तः एवं मानादिसमुद्घाता अपि तावद् वक्त|व्या यावलोभसमुदूपातः । एवमेतेऽपि सकलनारकादिविषयाश्चत्वारश्चतुर्षिशतिदण्डका भवन्ति, साम्प्रतमेकेकस्य | 20302030203092000 दीप अनुक्रम [६०९] 0 0 Mainmarary.org ~1167~ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९]] aee १० सू. दीप अनुक्रम [६०९] प्रज्ञापना- निरयिकादेनैरयिकादिषु भावेषु वर्तमानस्य कति क्रोधसमुद्घाता अतीताः कति भाविन इति निरूपयितुकाम आह-1|३६ समुया: मल- 'एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य विवक्षितप्रश्नसमयकालात् पूर्व सकलमतीतं कालमवधी- द्घातपदं यवृत्ती. कृत्य तदा तदाऽस्य नैरयिकत्वं प्राप्तस्य सतः सर्वसज्ञवया कियन्तः क्रोधसमुद्घाता अतीताः, भगवानाह-गौतम स्वपरस्था ने कषाय॥५८२॥ अनन्ताः, नरकगतेरनन्तशः प्राप्सत्वात् , एकैकस्मिंश्च नरकभये जघन्यपदेऽपि सङ्ख्ययानां क्रोधसमुद्घातानां भावात् , 'एवं जहे'त्यादि, एवमुपदर्शितेन प्रकारेण यथा वेदनासमुद्घातः प्राग भणितः तथा क्रोधसमुद्घातोऽपि भणितव्यः, कथं भणितव्य इत्याह-निरवशेष, क्रियाविशेषणमेतत्, सामस्येनेत्यर्थः, कियरं यावत् भणितव्यमित्याहयाबद वैमानिकत्वे, पैमानिकस्य वैमानिकत्व इत्यालापकं यावदित्यर्थः, स चैवं-'केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जहणणं एको वा दो या तिषिण वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवमसुरकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते,''एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अईया?, गो.! अणंता, केवइया पुरेक्खडा, गो! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स सिय। संखेज्जा सिय असं० सिय अणंता, एगमेगस्स णं भंते! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केवइया कोहसमुग्घाया ॥५.ना अतीता, गो.! अर्णता, केव. पुरे०१, गो.! क. अस्थि क.नस्थि, जस्सस्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को संखेजा वा असंखेजा वा अर्णता वा, एवं नागकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते, एवं जहा असुरकुमारेसु नेर-11 202929202 ~11684 Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] दीप अनुक्रम [६०९] Reeeeeeeeeeeee |इया बेमाणियपजवसाणेसु भणिया तहा णागकुमारादिया सट्टाणपरहाणेसु भणियचा जाव वेमाणियत्ते' इति. NIअस्वार्थ:-कियन्तो भदन्त ! एकैकस्य नारकस्यासंसारमोक्षमनन्तं कालं मर्यादीकृत्य नैरयिकत्वे भाविनः सतः सर्व सङ्ख्यया पुरस्कृताः क्रोधसमुद्घाताः १, भगवानाह-'कस्सइ अस्थि' इत्यादि, आसन्नमरणः क्रोधसमुद्घातमना-N साद्यात्यन्तिकमरणेन नरकादत्तः सेत्स्यति तस्य नास्ति नेरयिकत्वभाविन एकोऽपि पुरस्कृतः क्रोधसमुद्घातः, शेप-15 स्य तु सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, एतच क्षीणशेषायुषां तद्भवस्थानां भूयो नरकेषु । उ(प्वनोत्पद्यमानानां वेदितव्यं, भूयो नरके पूत्पत्ती हि जघन्यपदेऽपि सहयेयाः प्राप्यन्ते, नैरयिकाणां क्रोधसमुदघा-1 |तप्रचुरत्वात्, उत्कर्षतः सोया वा असहयेया वा अनन्ता वा, तत्र सकृन्नरकेषु जघन्यस्थितिकेषत्पत्स्यमानस्य | सक्वेया अनेकशो यदिवा दीपस्थितिकेपु सकृदपि उत्पत्स्यमानस्यासस्ययाः अनन्तश उत्पत्स्यमानस्थानन्ताः, 'एच'मित्यादि, एवं-नैरयिकोक्तप्रकारेणासुरकुमारत्वे तदनन्तरं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्व-18 विषय सूत्रं, तथैव-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स चेमाणियत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अईया?, गो.! अणंता, | केवइया पुरे०१, गो.! कस्सइ अस्थि क नत्थि, जस्सस्थि जहएको वा दो या तिणि वा उको संखेजा वा असं० अणंता वा, अत्राप्ययं भावार्थ:-अतीतचिन्तायामनन्ताः, अनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्तत्वात्, पुरस्कृतचिन्तायां योऽनन्तरभवे नरकादुत्तो मानुषत्वमवाप्य सेत्स्यति प्राप्सो वा परम्परया सकृद्वैमानिकभयं न क्रोधस-1 ~1169~ Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३३९] दीप अनुक्रम [६०९] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३३९] उद्देशक: [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ॥५८३ ॥ प्रज्ञापनामुद्घा गन्ता तस्यैकोऽपि पुरस्कृतः क्रोधसमुद्घातो वैमानिकत्वे न विद्यते, यस्त्वसकृद्वैमानिकत्वं प्राप्तः सन् सकृया मल देव को समुद्घातं याता तस्य जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा शेषस्य सङ्ख्यातान् वारान् वैमानिकत्वं प्राप्स्यतः य० वृत्तौ . सङ्ख्येयाः असधेयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, 'एगमेगस्स णमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, 'गो० ! अनंता' इति, अनन्तशो नैरयिकत्वं प्राप्तस्य, एकैकस्मिंश्च नैरयिकभवे जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयानां क्रोधसमुदूधातानां भावात् पुरस्कृताः कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, किमुक्तं भवति ! -- योऽसुरकुमारभवादुद्वृत्तो न नरकं यास्यति किन्त्वनन्तरं परम्परया वा मनुष्यभवमवाप्य सेत्स्यति तस्य नैरयिकावस्थाभाविनः पुरस्कृताः क्रोधसमुद्घाता न सन्ति नैरयिकत्वावस्थाया एवासम्भवात् यस्तु तद्भवादूर्ध्वं पारम्पर्येण नरकगामी तस्य सन्ति, | तस्यापि कस्यचित् सङ्ख्येयाः कस्यचिदसङ्ख्येयाः कस्यचिदनन्ताः, तत्र यः सकृज्जघन्यस्थित्तिकेषु नरकमध्येषु समुत्पत्स्यते तस्य जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयाः दशवर्षसहस्रप्रमाणायामपि स्थितौ सङ्ख्येयानां क्रोधसमुद्घातानां भावात्, क्रोधबहुलत्वान्नारकाणां असकृत् दीर्घस्थितिषु सकृद्वा गमनेऽसङ्ख्येयाः अनन्तशो नरकगमनेऽनन्ताः, तथा एकैकस्य भदन्त ! असुरकुमारस्य असुरकुमारत्वे स्थितस्य सतः सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तः क्रोधसमुद्घाता अतीताः ?, भगवानाह - अनन्ताः अनन्तशोऽसुरकुमारभावस्य प्राप्तत्वात् प्रतिभवं च क्रोधसमुद्घातस्य प्रायो भावात्, पुरस्कृतचिन्तायां कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति यस्य प्रश्नका लादूर्ध्वं असुरकुमारत्वेऽपि वर्त्तमानस्य न भावी Eucation Inten For Penal Use Only ~ 1170~ ३६ समु धातपदं स्वपरस्थान कषायस० सू. ३३९ ।।५८३ ॥ www.nary.org Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं -1, -------------- मूलं [३३९] (१५) प्रत सूत्रांक [३३९] EReaesesentestatuencise क्रोधसमुद्घातो नापि तत उद्धृत्तो भूयोऽप्यसुरकुमारत्यै याता तस्य न सन्ति, यस्तु सकृदसुरकुमारत्वमागामी तस्य। जघन्यपदे एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्यया असङ्ख्यया अनन्ता वा, सङ्ख्येयान् वारान् आगामिनः | सङ्ख्यया असङ्ख्येयान् वारान् असङ्घययाः अनन्तान वारान् अनन्ताः, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण नागकुमारत्वादिषु | स्थानेषु असुरकुमारस्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्ये, तथा चाह-एवं नागकुमारत्तेऽवी'त्यादि, तदेवमसु-18 रकुमारेषु क्रोधसमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रति नागकुमारादिष्यतिदेशमाह-'एच'मित्यादि, एवमुक्तेनाभिलापगतेन प्रकारेण यथा चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण असुरकुमारो नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु भणितः तथा नागकुमाराहादयः समस्तेषु खस्थानपरस्थानेषु भणितव्याः यापद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे आलापका, एवमेतानि नैरविकचतुर्वि-IR शतिदण्डकादिसूत्राणि वैमानिकचतुर्विंशतिदण्डकपर्यवसानानि चतुर्विशतिः सूत्राणि वेदितव्यानि । तदेवं चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रः क्रोधसमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रति चतुर्विशत्यैव चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रानसमुद्घातं मायासमुद्घातं चाभिधित्सुरतिदेशमाह-माणसमुग्घाए मायासमुग्घाए निरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्धाए' इति, यथा प्राक मारणान्तिकसमुद्घातेऽभिहितं सूत्रं तथा मानसमुदाते मायासमुद्घाते च निरवशेषमभिधातव्यं, तचैवंजाएगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया माणसमुग्धाया अईया, गोयमा ! अणंता, केवइया पुरे क्खडा १, गो. कस्सह अस्थि कस्सद नत्थि, जस्स अत्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखे Feat ersecretativestaweimeroe दीप अनुक्रम [६०९] प्र.९८N Alinainrayon द ~1171~ Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९]] या: मलयवृत्ती ||५८४॥ 3 दीप अनुक्रम [६०९] यावा असंखेवा कामर्णता बा, एल्मसुरकुलारचे जाव वेगापिफ्ते, गमेगस्तते। जमुरकुमारस मेरा- समवत्ते केपश्या माणसमुग्धाया अतीता, गोषमा! वर्षता, केवड्या रेस्खडा,गोकस्सइ जत्यि कस्सघातपर्द नधि, जस्सत्थि जहन्ने एको वा दो वा तिन्नि वा उको संखेबा वा असंखेजा का असा चा, एवं नामकमा- स्वपरस्थातेजाव वेमाणिवत्ते, एवं जहा असुरकुमारे मेश्या वेमाणियपज्जवसाणेसु भणिया तहा नामकुमाराहमा सवाणान कषायराणेस भाणियबा जाव माणिमस्स वेमाणियत्ते' अस्थावमधे:-अतीतेपु सूत्रेषु सर्वत्राप्यनन्तवं सुप्रतीतं. नैरवि- .. कवादिस्थानानि प्रत्येकमनन्तशः प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतचिन्तायां खेवं नैरविकस नरविकत्वे भावना-वो नैरविकः। ३३९ प्रश्नकालाय मानसमुदयातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुहृत्तोऽनन्सरं पारम्पर्वण वा मनुष्यभवमवाप्य सेत्स्यति न भयो नरकमागन्ता तस न सन्ति पुरस्कृता मानसमुदूधाताः, यः पुनस्तद्रये वर्चमानो भूयो वा नरकमागत्वकं वारं मानसमुद्घातं गत्या कालकरपेन नरकादुत्तः सेत्स्वति तस्यैकः पुरस्कृतो मामसमुद्घातः, एवमेव कस्यापि द्वी कस्यापि त्रयः सक्येयान् वारान् नरकमागन्तुः सद्ययाः असावेयान् यारान् असक्येवाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, |नरयिकस्यैवासुरकुमारत्वे पुरस्कृतचिन्तायामियं भावना-यो नरकादुदृत्तो असुरकुमारत्वं न यास्यति तस्य न सन्ति ॥५८४॥ पुरस्कृता मानसमुद्घाताः, यस्त्वेकं वारं गन्ता तस्स एको द्वौ ध्यादयो वा सङ्घबेयान् वारान् गन्तुः सङ्ख्ययाः असयेयान् वारान् असद्धयेयाः अनन्तान् वारान् अनन्ता, एवं तावद् भणनीयं यावत् तिर्यपञ्चेन्द्रियत्वे पुरस्कृत 05-20 ~1172~ Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] दीप अनुक्रम [६०९] चिन्ता, मनुष्यचिन्तायां चैवं भावना-वो नरकादुहृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य मानसमुद्घातमगत्वा सेत्स्यति तस्य नास्येकोऽपि पुरस्कृतो मानसमुद्घातो, यस्तु मनुष्यत्वं गतः सन्नेक वारं मानसमुद्घातं गन्ता तस्यैकोऽपरस द्वावन्यस्य व्यादयः सङ्ख्येयान वारान् गन्तुः सङ्ख्येयाः असलयेयान् वारान् असङ्ख्ययाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकत्वेषु भावना यथा असुरकुमारत्वे यथा च नैरयिकस्य नैरयिकत्वादिषु चतुर्विंशतिस्थानेषु भावना |कृता तथा असुरकुमारादीनामपि वैमानिकपर्यवसानानां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण कर्तव्या, यथा च मानसमुघातस्य चतुर्विंशतिः सूत्राणि चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेणोक्तानि तथा मायासमुद्घातस्यापि चतुर्विशतिसूत्राणि चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्यानि, तुल्यगमकत्वात् , अधुना लोभसमुद्घातमतिदेशत आह-'लोभसमुग्घातो जहा कसायसमुग्धातो, नवरं सबजीया असुराई नेरइएसु लोभकसाएणं एगुत्तरियाए नेतबा' इति, यथा प्राक् कपायसमुद्घात उक्तस्तथा लोभकपायोऽपि वक्तव्यः, नवरं तत्रासुरकुमारादीनां नैरयिकत्वे पुरस्कृतचिन्तायां स्यात् सङ्ख्येयाः स्यादसङ्ख्यया स्यादनन्ता इत्युक्तं अत्र तु सर्वे जीवा असुरकुमारादयो नैरयिकेषु पुरस्कृतचिन्तायां चिन्त्यमाना एकोतरिकया ज्ञातव्याः, एकोत्तरस्य भाव एकोतरिका 'द्वन्द्वचुरादिभ्यो वुप्रिति चौरादेराकृतिगणतया बुभिति, एको, द्वौ त्रय इत्यादिरूपा तया, एकोत्तरतया इत्यर्थः, नरयिकाणां निरतिशयदुःखवेदनाभिभूततया नित्यमुद्विग्नानां प्रायो NIलोभसमुद्घातासम्भवात् , सूत्रालापकश्चैवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केव० लोभसमु० अतीता ?, CREAKorlarkeeeeeeeee neuraryom ~1173~ Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञापना- प्रत सूत्रांक [३३९]] य०वृत्तौ. ॥५८५॥ दीप अनुक्रम [६०९] गो ! अणंता, के० पु.१, गो! कस्लइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि एमो वा दो वा तिषिण या उक्कोसणं ३६ समुसंखेज्जा वा असं०. अनंता वा, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केव० लोभस. अतीता, गोदघातपर्द अर्णता, के० पु.?, गो! क. अत्धि क नत्थि, जस्सस्थि सिय संखेजा सिय असं० सिय अणंता, एवं जाव स्वपरस्थानेरइयस्स थणियकुमारते, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविकाइयत्ते के० लोभस० अतीता ?, गो! अर्णता, ने कषायके. पुरे०१, गो०! क. अस्थि क.नस्थि, जस्स अस्थि जह० एको वा दो वा तिष्णि चा उको संखे. असं. स. सू. अणंता वा, एवं जाव मणूसत्ते, वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स जोइसियत्ते के । लोभस० अतीता, गो! अणंता, केवइया पुरे०१, गो! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्सस्थि जहएको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता, एवं जाव वेमाणियत्तेऽपि भाणियचं, एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते के० लोभस अतीता ?, गो ! अणंता, केवइया पुरे०१, गो! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जह० एको वा दो वा तिषिण वा उक्को.सं. असं० अणंता वा, एगमेगस्स णं भंते । असुरकुमारस्स असुरकुमारसे के. लोभस० अतीता, गो.! अणंता, के० पु.१, गो! का अ.क. नत्थि, जस्सत्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को० सं० असं० अर्णता वा, एगमेगस्स णे भंते ! ॥५८५] असुरकुमारस्स नागकुमारत्ते पुच्छा, गो! अणंता, के० पु.१, गो. क. अस्थि कस्सद नस्थि, जस्सस्थि सिय Seलन 83 Saintairatumhalana ~1174 ~ Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] दीप अनुक्रम [६०९] सं० सिय असं० सिय अणंता, एवं जाव थणियकुमारते । पुढधिकाइयत्ते जाव वेमाणियत्ते जहा नेरइयस्स भणितं तहेव भाणियचं, एवं जाव बणियकुमारस्स वेमाणियत्ते। एगमेगस्सणं भंते ! पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते केव० लोभस अतीता ?, गो० अर्णता, केवइ पु०, गो!क. अस्थि क. नस्थि, जस्सस्थि जह. एको वा दो। वा तिन्नि वा उको संखेज्जा वा असं० अणं०, पुढवि० असुरकुमारत्ते अतीता अणंता, केव. पु.१, गो.! कस्साइ अस्थि क. नस्थि, जस्स अस्थि सिय संसिय असं०सिय अणंता, एवं जाव थणियकुमारत्ते, पुढविकाइ-1 यत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि क. नत्थ, जस्सत्थि जह• एक्को वा दो वा तिपिण वा उक्को ० असं० अणंताबा, एवं जाब मणूसत्ते, वाणमंतरचे जहा असुरकुमारत्ते, जोइसियत्ते वेमाणियत्ते अतीता अणंता, पुरक्ख० क. अस्थि क० नस्थि, जस्सस्थि सिय संखे० सिय असं० सिय अर्णता, एवं जाव मणूसस्स माणियत्ते, वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स एवं जोइसियवेमाणियाणपि' अस्थायमर्थ:-नैरयिकस्य नैरयिकत्वे 1. अतीता लोभसमुदूपाता अनन्ताः, अनन्तशो नैरयिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतचिन्तायों कखचित् सन्ति कस्य चिन्न सन्ति, तत्र यः प्रश्नसमयावलोभसमुद्घातमप्राप्त एव नरकभवादुदृत्त्यानन्तरं पारम्पर्यण वा सेत्स्यति न च । भूयो नरकमागामी न चागतोऽपि लोभसमुद्घातं गन्ता तस्य नैकोऽपि पुरस्कृतो लोभसमुद्रातः, शेषस्य तु भावी, तस्यापि कस्यचिदेकः कस्यचित् द्वौ कस्यचित् त्रयः, एतच प्रश्नसमयादूर्द्धमपि तद्भवभाजां सन्नरकभवगामिनां EetEE murary.au ~1175~ Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १८६॥ दीप अनुक्रम [६०९] या वेदितव्यं, उत्कर्षतः सङ्ख्येवा वा असोया वा अनन्ता वा, तत्र सञ्जयवान् वारान् नरकमवमागामिनः सङ्ख्ययाः ३६ समुअसक्वेयान् वारान् असश्ययाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, तथा नैरयिकत्वस्यासुरकुमारत्वविषयेऽतीतसूत्रं तवैषपातपदं भावनीयं, पुरस्कृतसूत्रे 'कस्सह अस्थि क. पत्थि'त्ति यो नरकभवादुदृत्तो नामरकुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्स- स्वपरस्थासुरकुमारत्वविषयाः पुरस्कृताः लोभसमुद्घाताः, वस्तु प्राप्स्यति तस्य सन्ति, ते च जघन्यपदे सज्ञयेयाः, जघन्य-18 ने कपायस्थितावप्यसुरकुमाराणां सङ्ख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात् , लोभबहुलत्वात् तेषां, उत्कृष्टपदेऽसङ्ख्येया अनन्ता ३३९ वा, तत्र सकदीर्घस्थितावसकृजघन्यस्थितिषु दी स्थितिषु वा उत्पत्स्यमानानामवसेयं, अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, एवं नैरयिकस्य नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमारत्वे, तथा चाह-एवं जाच यणियकुमारत्ते' पृथिवीकायिकत्वेऽतीतसूत्रं तथैव, पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र नर-16 कादुत्तो यो न पृथिवीकायिकत्वं प्राप्स्यति तख न सन्ति, योऽपि गन्ता तस्य जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा 8 उत्कर्षतः सङ्ख्या असङ्ख्येया अनन्ता वा, ते चैवम्-तिर्यपञ्चेन्द्रियभवात् मनुष्यभवाद्वा लोभसमुद्घातेन समुद्धतः सन् य एकं वारं पृथिवीं गन्ता तस्स एको द्वौ वारौ गन्तुद्वौं त्रीन् वारान् गन्तुस्त्रयः सङ्ख्येयान् वारान् सङ्ख्येयाः ॥५८६॥ असोयान् वारान् असावेयाः अनन्तान् बारान् अनन्ताः, 'एवं जाय मणसत्ते' इति एवं-पृथिवीकायिकगतेना-IN मिलापप्रकारेण तायद्वक्तव्यं यावन्मनुष्यत्वे, तथैवं-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स आउकाइयत्ते' इत्यादि, याव 8290 ~1176~ Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] II मनुष्यसूत्र, तत्राप्कायिकादिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिवीकायसूत्रवत्, द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिन्तायां जघ शान्येन एको द्वौ वा प्रयो वेति एतत् सकृत् द्वीन्द्रियभवं प्रामुकामख वेदितव्यं, उत्कर्षेण सङ्ख्यया असोया अनNन्ता वा, तत्र सङ्ख्येयान् वारान् द्वीन्द्रियभवं प्राप्मुकामस्य सङ्ख्यया असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये, तिर्वपञ्चेन्द्रियसूत्रविषया वेवं भावना-सकृत् पञ्चेन्द्रियभवं गन्तुकामस्य खभावत एवाल्पलोभस्य जघन्यतः एको द्वौ त्रयो वा, शेषस्य तूत्कर्षतः सङ्ख्येयान् वारान् तिर्यपञ्चेन्द्रियभवं गन्तुः सङ्ख्ययाः असावेयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, मनुष्यसूत्रे तु पुरस्कृतविषया |भावना मूलत एवं-यो नरकभवादुत्तोऽल्पलोभकषायः सन् मनुष्यभवं प्राप्य लोभसमुद्धातममत्वा सिद्धिपुरं यास्यति । तस्य न सन्ति पुरस्कृता लोभसमुद्घाताः, शेषस्य तु सन्ति, यस्य सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा यो बा, ते च एक द्वीत्रीन् वा लोभसमुद्घातान् प्राप्य सेत्स्यतो वेदितव्याः, सङ्ख्ययादयः प्राग्वदू भावनीयाः, 'वाणमंत-IN रत्वे जहा असुरकुमारा' इति यथा नेरयिकस्यासुरकुमारत्वे पुरस्कृतविषये सूत्रमुक्तं तथा व्यन्तरेष्वपि वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-पुरस्कृतचिन्तायामेवं वक्तव्यं-'कस्सइ अस्थि क. नत्थि, जस्स अस्थि सिय संखेज्जा सिय असं० सिय अणंता' इति, नत्वेकोतरिका वक्तव्या, व्यन्तराणामप्यसुरकुमाराणामिव जघन्यस्थितावपि सङ्ख्येयानां लोभसमुदघातानां भावात् , 'जोइसियत्ते' इत्यादि, ज्योतिप्कत्वे अतीता अनन्ताः, अनन्तशो ज्योतिष्कत्वस्य प्राप्त Sarasad2 दीप अनुक्रम [६०९] esesesesesesesese 0201292 Baitaram.org ~ 1177~ Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: या मल प्रत सूत्रांक [३३९]] दीप अनुक्रम [६०९] प्रज्ञापना- त्वात् , पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, एतत् प्राग्वद् भावनीयं, यस्यापि सन्ति तस्यापि कस्यचिद | सद्ध्येयाः कस्यचिदनन्ताः, न तु जातुचित् सहययाः, ज्योतिष्काणां जघन्यषदेऽप्यसवयेयवर्षायुष्कतया जघन्यतो- घातपर्द य. वृत्ती. प्यसङ्खयेयानां लोभसमुद्घातानां भावात् , लोभबहुलत्वात्तजातेः, एवं वैमानिकत्वेऽपि पुरस्कृतचिन्तायां वक्तव्यं स्वपर स्थ १५८७ तदेवं खस्थाने परस्थाने च लोभसमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रत्यसुरकुमारस्य तं चिचिन्तयिपुरिदमाह-'एगमेगस्स ण'-INने काय मिलादि, एकैकस्य असुरकुमारस्य नैरयिकत्वे लोभसमुद्घाता अतीता अनन्ताः, नैरयिकत्वस्थानन्तशः प्राप्तत्वात. स. सू. पुरस्कृताः कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुदृत्तो न नरकं याता नापि सकृद् गतोऽपि ३३९ लोभसमुद्घातं गन्ता तस्य न सन्ति, यस्तु यास्यति तस्य जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्पतः सङ्ख्येया असङ्ख्येया। अनन्ताः, तत्र सकृन्नरकगामिनः एकादयो नैरयिकाणामिष्टद्रव्यसंयोगाभावतः प्रायो लोभसमुद्घातस्थासम्भवात्, उक्तं च मूलटीकायाम्-"नेरइयाणं लोभसमुग्घाया थोवा चेंब भवन्ति, तेसिमिट्टदवसंजोगाभावातो एगादिसं भव" इति, सोयान् वारान् नरकं गन्तुः सहबेयाः असङ्ख्ययान् वारान् असवयेया अनन्तान् वारान् अनन्ताः, || असुरकुमारस्थासुरकुमारत्वे अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र योऽ-1 ५८७॥ सुरकुमारभवे पर्यन्तवर्ती न च लोभसमुद्घातं याता नापि तत उदृत्तो भूयोऽप्यसुरकुमारत्वं याता किन्त्वनन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति तस्य न सन्ति, यस्य तु सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्या SAREaratinda Nisaram.org ~1178~ Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं - -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] दीप अनुक्रम [६०९] | असहयया अनन्ताः, तत्र एकादयः क्षीणायुःशेषाणां तद्भवभाजां भूयस्तथैवानुत्पद्यमानानामवगन्तव्याः, सोयादयो नैरयिकस्येव भावनीयाः, असुरकुमारस्य नागकुमारत्वेऽतीताः प्राग्वत्, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि । न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुत्तो न नागकुमारभवं गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य तु सन्ति, यस्यापि सन्ति | तस्यापि स्यात् सङ्खयेयाः स्यादसयेयाः स्यादनन्ताः, तत्र सकृन्नागकुमारभवं प्राप्नुकामस्य सङ्ख्ययाः, जघन्यस्थिताविपि सशयानां लोभसमुदघातानां भावात् ,असक्वेयान वारान् प्राप्तुकामस्य असहयेयाः अनन्तान वारान् अनन्ताः,ISM एवं यावत् स्तनितकुमारत्वे, पृथिवीकायिकत्वे यावद्वैमानिकत्वे यथा नरयिकस्य भणितं तथैव भणितव्यं, एवमसुरकुमारस्पेव नागकुमारादेरपि तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमारस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तथैवं-'एग-1 मगरस णं भंते ! थणियकुमारस्य वेमाणियत्ते केवइया लोभसमुग्घाया असीता?' इत्यादि, एवं 'एगमेगस्स गं| भंत ! पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते' इत्यायपि सूत्र पूर्वोक्तभावनानुसारेण खयं भावनीयं, तदेवं नैरयिकादेरेकत्ववि-18 पयाः क्रोधादिसमुद्घाताः प्रत्येक चविंशत्या चतविशतिदण्डकसूत्रविचिन्तिताः, सम्प्रति तानेव नरयिकादिबहु-18 त्वविषयान् चिचिन्तयिपुरिदमाह-नेरइयाणं भंते' इत्यादि, नरयिकाणां भदन्त ! नरयिकत्वे कियन्तः क्रोधसमु|घाता अतीताः ?, भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः, अनन्तशो नैरयिकत्वस्य सर्वजीवैः प्राप्तत्वात् , कियन्तः पुरस्कृताः १, गौतम ! अनन्ताः, प्रश्नसमयभाविनां मध्ये बहूनामनन्तशो नैरयिकत्वं प्राप्तुकामत्वात् 'एव'मित्यादि, JAMEauratona Sarasurary.com ~1179~ Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३९] प्रज्ञापनायाः मल- य. वृत्ती . ॥५८८॥ दीप अनुक्रम [६०९] S9928920022893 एवं-नैरयिकगतेनाभिलापप्रकारेण चतुर्विशत्या चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रनिरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकस्य वैमानि- ३६ कत्वे-वैमानिकविषयं सूत्रं, तचैवं-'वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया कोहसमुग्धाया अतीता ?, गो० घातपदे अर्णता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो.! अणंता' भावना प्राग्वत्, यथा च क्रोधसमुद्घाताः सर्वेषु जीवेषु खस्थाने क्रोधादिपरस्थाने चातीताः पुरस्कृताश्चानन्तत्वेनाभिहिताः तथा मानादिसमुद्घाता अपि वाच्याः, तथा चाह-'एव'मि-समुद्धातात्यादि, एवं-क्रोधसमुद्घातगतेन प्रकारेण चत्वारोऽपि समुद्घाताः सर्वत्रापि स्वस्थानपरस्थानेषु वाच्याः, यावलोभ-Mद्यल्पबहुत्वं समुद्घातो वैमानिकत्वषिषय उक्तो भवति, स चैवं-'वेमाणियाणं भंते ! येमाणियत्ते केवइया लोभसमुग्धाया सू. ३४० अतीता ?, गो! अणंता, केवइया पुरेक्खडा?, गो! अणंता' सुगमं । तदेवं नैरयिकादिबहुत्वविषया अपि क्रोधादिसमुद्घाताः प्रत्येकं चतुर्विशत्या चतुर्विशतिदण्डकसूत्रश्चिन्तिताः,सम्प्रति क्रोधादिसमुद्घातैः शेषसमुद्घातैश्च समवहतानामसमवहतानां च परस्परमल्पबहुत्वमभिघित्सुः प्रथमतः सामान्यतो जीवविषयं तावदाहएतेसि प मंते ! जीवाणं कोहसमुग्धातेणं माणसमुग्धातेणं मायासमुन्धातेणं लोभसमुग्धातेण य समोहयाणं अकसायसमुग्यातेणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे२हितो अप्पा वा ४१, गो! सव्वत्थोवा जीवा अकसायसमुग्धाएणं समो०, ॥५८८॥ माणसमुग्धाएणं समोहया अणत०, कोहस० समो. विसेसाहिया मायासमुग्याएणं स० विसे० लोभसमु० स० वि० असमोहया संखेजगुणा, एतेसिणं भंते ! नेरइयाणं कोहस० माणसमायास लोभस समोहयाणं असभोहयाण य 2992929 ~1180~ Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४०] दीप अनुक्रम [६१०] कयरेशहितो अप्पा वा ४१, गो.! सबथोवा नेरइया लोभसमुग्घाएणं समोहया मायास०स० संखेन. माणस० स० संखे० कोहस० संखे. असमोहया संखे०, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो०! सवत्थोवा असुरकुमाराणं कोहस० समो० माणसमुग्धाएणं स० संखे० मायास० स० सं० लोभस समो० संखे० असमोहया संखेजगुणा, एवं सबदेवा जाव वेमाणिया, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो! सबथोया पुढविकाइया माणसमुग्धाएणं समोहया कोहसमु० स० विसे० मायासमु० स० विसे० लोभस० स० विसे० असमो० संखे, एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया, मणुस्सा जहा जीवा, णवरं माणसमु० स० असं० (सूत्रं ३४०) 'एएसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त ! जीवानां क्रोधसमुद्घातेन मानसमुद्घातेन मायासमुद्घातेन लोभसमुद्घातेन च समवहतानां 'अकषायेणे ति कषायच्यतिरेकेण शेषेण समुद्घातेन समबहतानामसमवहतानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा बहवो या 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति न्यायात् पञ्चम्याः स्थाने तृतीयापरिणामनातु कतरः कतरैस्तुल्या वा, तथा कतरेभ्यो विशेषाधिकाः, एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोका जीवा अकषायसमुद्घातेन-कपायव्यतिरिक्तेन शेषवेदनादिसमुद्घातपट्केन समवहताः,कषायव्यतिरिक्तसमुद्घातसमुद्धता हि क्वचित् कदाचित् केचिदेव प्रतिनियता लभ्यन्ते, ते चोत्कर्षपदेऽपि कषायसमुद्घातसमवहतापेक्षया अनन्तभागे वर्तन्ते, ततः स्तोकाः, तेभ्यो मानसमुद्घातसमवहता अनन्तगुणाः, अनन्तानां वनस्पतिजीवानां पूर्वभवसं SINomurary.org ~1181~ Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४०]] दीप अनुक्रम [६१०] प्रज्ञापना- स्कारानुवृत्तितो मानसमुद्घाते वर्तमानानां प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्यः क्रोधसमुद्घातेन समयहता विशेषाधिकाः,३६ समया: मल-13 मानापेक्षया क्रोधिनां प्रचुरत्वात् , तेभ्यो मायासमुद्घातेन समवहता विशेषाधिकाः, क्रोध्यपेक्षया मायाविना घातपदे य० वृत्ती. प्रचुरत्वात् , तेभ्योऽपि लोभसमुद्घातेन समवहता विशेषाधिकाः, मायाविभ्यो लोभवतामतिप्रभूतत्वात् , तेभ्यो-18 क्रोधादि॥५८९॥ |ऽपि केनाप्यसमवहता सङ्ख्येयगुणाः, चतसृष्वपि गतिषु प्रत्येकं समषहतेभ्योऽसमवहतानां सदा सहयगुणतया 8 समुदाताप्राप्यमाणत्वात् , सिद्धास्त्वेकेन्द्रियापेक्षयानन्तभागवर्त्तिन इति ते सन्तोऽपि न विवक्षिताः, एतदेवाल्पबहुत्वंयल्पबहुत्वं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयन्नाह-एएसि ण'मित्यादि सुगम, नवरं सर्वस्तोका नैरयिका लोभसमुपातेन । सू. ३४० समवहता इति, नैरयिकाणामिष्टद्रव्यसंयोगाभावात् प्रायो लोभसमुद्घातस्तावन्नोपपद्यते, येषामपि च केषाश्चिद्भवति ते कतिपया इति शेषसमुद्घातसमवहतापेक्षया सर्वस्तोकाः, असुरकुमारविषयाल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः क्रोधसमुद्घातसमुद्धता इति, देवा हि खभावतो लोभवहुलास्ततोऽल्पतरा मानादिमन्तः ततोऽपि कदाचित्कतिपये क्रोध-N वन्त इति शेषसमुद्घातसमवहतापेक्षया सर्वस्तोकाः, एवं सचदेवा जाय वेमाणिया' इति एवं-असुरकुमारगतेना|ल्पबहुत्वप्रकारेण सर्वे देवा नागकुमारादयस्तायद्वक्तव्याः यावद्वैमानिकाः, पृथिवीकायिकचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे इस भावना भावनीया, समानत्वात् , 'एवं जाये'त्यादि, एवं-पृथिवीकायिकोक्केन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं । ५८२॥ यावत् तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियाः, मनुष्या यथा जीवाः, नवरमकषायसमुद्घातसमवहतापेक्षया मानसमुदुघातेन समयहता। रररररररररर ~1182~ Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४१] करeseseaeesecememederage. दीप अनुक्रम | असमवेयगुणा वक्तव्याः । सम्प्रति कति छानस्थिकाः समुद्घाता इति निरूपणार्थमाह कह भंते ! छाउमस्थिया समुग्धाया पं०१,गो०!छ छाउमत्थिया स.पं०, तं०-वेदणास कसायस. मारणंतियसवेउवियस० तेयास० आहारगसमुग्धाते, नेरइयाणं भंते ! कति छाउमस्थिया स०पं०१, गो! चचारि छाउमत्थिया स०पं०,०-वेदणास कसायस० मारणंतियस बेउवियस०, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो० पंच छाउ० समु० पं०, तंवेदणासमु कसायसमु० मारणंतियसबेउवियस० तेयगसमु०, एगिदियविगलिंदियाणं पुच्छा, गो.! तिण्णि छाउ० समु०५०,०-वेदणासमु०कसायस० मारणतियस०, गवरं वाउकाइयाण चचारि स. पं०, तं०-वेदणास कसायस० मारणंतियस बेउवियस०, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो०1 पंच० स०प०, तं०-वेद.णास कसायस० मारणं तियस बेउबियस० तेयगस०, मणसाणं कति 'छाउमस्थिया समु०५०१, गो.1छ छाउमत्थिया स०प०, तं०-वेदणास कसायस० मारणतियस बेउवियस तेयगस आहारगस० (मूत्र ३४१) 'कइणं भंते !' इत्यादि सुगम, अथ कति केषां छानस्थिकाः समुद्घाता इति चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरूप-1 यति-नेरहयाण'मित्यादि, नरयिकाणामाद्याश्चत्वारो वेदनादिसमुद्घाता, तेषां तेजोलब्ध्याहारकलब्ध्यभावत|स्तेजससमुधाताहारकसमुद्घातासम्भवात् , असुरकुमारादीनां सर्वेषामपि देवानामाहारकसमुद्घातवजोः शेषाः पञ्च समुद्घाताः, तेषां तेजोलन्धिसम्भवात् तैजससमुद्घातस्यापि सम्भवात्, यस्त्वाहारकसमुद्घातः स तेषां न । 02029820393020200 Panditurary.com ~1183~ Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४१] प्रज्ञापनाया मल- यवृत्ती. ॥५९० दीप अनुक्रम सम्भवति, चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावतो भवप्रत्ययाच तेषामाहारकलब्ध्यभावात् , वायुकायवर्जेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामाद्या वेदनाकषायमरणलक्षणास्त्रयः समुद्घाताः, तेषां वैक्रियाहारकतेजोलब्ध्यभावतस्तत्समुद्घातासम्भवात् , घातपदं वायुकायिकानां पूर्वे त्रयो क्रियसमुद्घातसहिताश्चत्वारः समुद्घाताः, तेषां बादरपर्याप्सानां वैक्रियलब्धिसम्भवतो छानस्थि| वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात् , पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामाहारकसमुद्घातवर्जाः शेषाः पञ्च छानस्थिकाः समु-। काः समु याताः, यस्त्वाहारकसमुदूधातः स तेषां न सम्भवति, चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावतस्तेपामाहारकलब्ध्यसम्भवात् , दाताः सू. मनुष्याणां पडपि, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् । तदेवं यति येषां छामस्थिकाः समुद्घातास्तति तेषां निरूपिताः, ३४१समुसम्प्रति यस्मिन् समुद्घाते वर्तमानो यावत् क्षेत्रं समुद्घातवशतस्तैस्तैः पुद्गलैयाप्नोति तदेतन्निरूपयति द्धातपुद्ग लपूरणादि जीवे णं भंते ! वेदणासमुग्याएणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति तेहि णं भंते । पोग्गलहि केवइते खेचे । सू.३४२ अण्णे केवतिते खेते फुडे, गो सरीरप्पमाणमेचे विक्खंभवाहल्लेणं नियमा छदिसि एवतिते खेते अफुण्णणे एवतिते खेते फुडे, से गं भंते ! खित्ते केवतिकालस्स अप्फुडे केव० फुडे ?, गो! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवइयकालस्स फुडे, ते णं मंते ! पोग्गले केवतिकालस्स निच्छुभति ,गो०! जहण्यो] ॥५९०॥ अंतोमुहुत्तस्स उक्को वि० अंतो, ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाति तत्थ पाणातिं भूयातिं जीवाति सचार्ति अभिहणति वति लेसेंति संघाएंति संघटुंति परिताउँति किलामेंति उद्दति तेहितो पं भंते ! से जीवे कतिकिरिए, Santaratana Handiturary.com ~1184 ~ Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] ecent 80292909 दीप अनुक्रम [६१२] totoerestsecence गो. सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, ते णं भंते ! जीवा तातो जीवाओ कतिकिरिया, गो! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरिया, से णं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराधाएणं कतिकिरिया, गो। सिफिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि, नेरइए णं भंते ! वेदणासमुग्धाएणं समोहते, एवं जहेव जीवे, णवर नेरइयाभिलायो, एवं निरवसेसं जाव वेमाणिते । एवं कसायसमुग्घातोषि भाणितयो । जीवे णं भंते ! मारणतियसमुग्धातेणं समोहणइ समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवतिते खेत्ते अप्फुण्णे केवतिते खेत्ते फूडे , गो०! सरीरप्पमाणमेचे विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं असंखेजाति जोयणाति एगदिसि एवतिते खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे, से णं भंते । खेते फेवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे, गो०। एगसमइएण या दुसमइएण वा तिसमहरण वा चउसमइएण वा विग्रहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे, सेसं तं चेव जाच पंचकि०, एवं नेरइएवि, णवरं आयामेणं जहणेणं साइरेगं जोयणसहस्सं उको० असंखेज्जाति जोअणाति, एगदिसि एव तिते खेने अस्फुण्णे एवतिते खिचे फुडे, विग्गहेणं एगसमइएणवा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमतिएण वा भन्नति, सेसं तं चेव जाव पंचकिरियावि, असुरकुमारस्स जहा जीवपदे, णवर विग्गहो तिसमइओ जहा नेरइयस्स, सेसं तं चेव जहा असुरकुमारे, एवं जाव वेमाणिते, गवरं एगिदिये जहा जीवे निरवसेसं (सूत्रं ३४२) 'जीवे णं भंते ! इत्यादि, जीयो णमिति वाक्यालङ्कारे-वेदनासमुद्घाते वर्तमानः तस्मिन् समवहतो भवति 00ae ~1185~ Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३४२ ] दीप अनुक्रम [६१२] प्रज्ञापना या मल य०वृत्ती. ॥५९१॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], दारं [-] मूलं [ ३४२] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. समवहत्य च यान् पुद्गलान् वेदनायोग्यान् खशरीरान्तर्गतान् 'निच्छुभइ' इति विक्षिपति आत्मविश्लिष्टान् करोतीत्यर्थः, 'तेहि ण' मिति तैः पुद्गलैः कियत् क्षेत्रमापूर्ण, आपूर्णत्वमपान्तराले कियदाकाशप्रदेशासंस्पर्शनेऽपि व्यवहारत उच्यते तत आह-कियत् क्षेत्रं स्पृष्ट-प्रतिप्रदेशापूरणेन व्याप्तं, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह - 'सरीरे 'त्यादि नियमात् नियमेन छहिसिं'ति पद्ध दिशो यत्रापूरणे स्पर्शने वा पदिक तथथा भवति एवं विष्कम्भतो- विस्तरेण बाहल्यतः - पिण्डतः शरीरप्रमाणमात्रं यावत्प्रमाणः खशरीरस्य विष्कम्भो यावत्प्रमाणं च बाहल्यं एतावन्मात्रमापूर्ण स्पृष्टं चेति वाक्यशेषः, तदेव निगमनद्वारेणाह - 'एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे' इति, इह वेदनासमुद्घातो वेदनातिशयात्, वेदनातिशयश्च लोकनिष्कुटेषु जीवानां न भवति, निरुपद्रवस्था - नवर्त्तित्वात् तेषां, किन्तु त्रसनाढ्या अन्तः, तत्र परोदीरणसम्भवात्, तत्र च पदिकसम्भव इति नियमाच्छदिशिमित्युक्तं, अन्यथा 'सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि' मित्याद्युध्येत, अथ खशरीरप्रमाणविष्कम्भवाहल्यमेव क्षेत्रमापूर्ण स्पृष्टं च विग्रहगतो जीवस्य गतिमधिकृत्य कियद्दूरं यावद्भवति कियन्तं च कालमित्येतन्निरूपणार्थमाह- 'से णं भंते !' इत्यादि, नपुंसकत्वे पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् तत् — अनन्तरोक्तप्रमाणं णमिति प्राग्वत् भदन्त ! क्षेत्रं कालस्स इति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी कियता कालेन पूर्ण कियता कालेन स्पृष्टं, किमुक्तं भवति ?-कियन्तं कालं यावत् खशरीरप्रमाणविष्कम्भवाहल्यं क्षेत्रं निरन्तरं विग्रहगती जीवस्य गतिमधिकृत्यापूर्ण स्पृष्टं च Ja Eucation International For Penal Use On ~1186~ ३६ समु दुधातपदे समुद्रातपुद्गलपूरणादि सु ३४२ ॥५९१॥ Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: sese प्रत सूत्रांक [३४२] se दीप अनुक्रम [६१२] लभ्यते इति ?, भगवानाह-गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा विग्रहेण, किमुक्तं भवति ?एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा विग्रहेण यावन्मानं क्षेत्रं व्याप्यते इयडूरं यावत् खशरीरप्रमाणविष्क-15 म्भवाहल्यं क्षेत्रं वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण-भृतं जीवस्य गतिमधिकृत्यावाप्यते, तत एतद्गतमुत्कर्षतखिसामयिकेन विग्रहेण यावन्मात्रं क्षेत्रमभिव्याप्यते एतावदात्मविश्लिष्टर्वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण लभ्यते, इह | | चतुःसामयिकः पञ्चसामयिकश्च विग्रहो यद्यपि सम्भवति तथापि घेदनासमुद्घातः प्रायः परोदीरितवेदनावशत उपजायते, परोदीरिता च वेदना त्रसनाड्यां व्यवस्थितस्य न बहिः, सनाडीव्यवस्थितस्य च विग्रह उत्कर्षतोऽपि |त्रिसामयिक इति उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिकेन विग्रहेणेत्युक्तं, न चतुःसामयिकेन पञ्चसामयिकेन चेति, उपसं-IS हारवाक्यमाह-'एवइयकालस्स अफुण्णे एवइयकालस्स फुडे' एतावता उत्कर्षतोऽपि त्रिसमयप्रमाणेनेत्यर्थः कालेनापूर्णमेतावता कालेन स्पृष्टं, किमुक्तं भवति ?-विग्रहगताबुत्कर्षतः त्रीन् समयान् यावत् त्रिभिश्च समययो॥ वन्मानं व्याप्यते इयन्ती सीमामभिच्याप्य स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भवाहल्यं क्षेत्र वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलेरापूर्ण भृतं Iच जीवस्य गतिमधिकृत्य व्याप्यते, अथवा 'केवइय कालस्स'त्ति पम्वेव व्याख्येया, ततः स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भ-I वाहल्यं क्षेत्र वेदनाजननयोग्यः पुदलरापूर्ण भृतं च जीवस्य विग्रहगतिमधिकृत्य कियतः कालस्य सम्बन्धि, कियन्तं | कालं यावदवाप्यते इत्यर्थः, भगवानाह-एकसमयेन द्विसमयेन त्रिसमयेन वा विग्रहेणापूर्ण स्पृष्टं च लभ्यते इति || Benecesesesee ~1187~ Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] दीप अनुक्रम [६१२] प्रज्ञापना- वाक्यशेषः, तत एतावता उत्कर्षतः त्रिसमयप्रमाणस्य कालस्य सम्बन्धि यथोक्तप्रमाणं क्षेत्रं वेदनाजननयोग्यः ३६ समु पुरलैरापूर्णमेतावता कालस्य सम्बन्धि स्पृष्टमिति । सम्प्रति यावन्तं कालं वेदनाजननयोग्यान् पुद्गलान् विक्षिपतिधातपदे य. वृत्ती. तावत्कालप्रमाणं प्रतिपादनार्थमाह-'ते णं भंते !' इत्यादि, तान् वेदनाजननयोग्यान् पुद्गलान् णमिति वाक्याल- समुद्धातकारे भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् परमसुखयोगिन् वा पुद्गलान कियतः कालस्य सम्बन्धिनो विक्षिपति ?, किय-11 पुद्गलपूर॥१९॥ INणादि स्. कालं वेदनाजननयोग्यान विक्षिपतीति भावः, भगवानाह-जघन्येनाप्यन्तर्मुहर्तस्य सम्बन्धिन उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मु ३४२ काहर्तस्य, केवलं मनाक बृहत्तरस्य सम्बन्धिनः विक्षिपति, किमुक्तं भवति ?-ये पुद्गला जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त || यावत् वेदनाजननसमर्थाः तान् तथा २ वेदनातः सन् खशरीरगतान् खशरीराबहिरात्मप्रदेशेभ्योऽपि विश्लिष्टान विक्षिपति, यथाऽत्यन्तदाहज्वरपीडितः सन् सूक्ष्मपुद्गलान् , प्रत्यक्षसिद्धं चैतदिति, 'ते णं भंते ! इत्यादि, ते मिति पूर्ववत् भदन्त ! पुद्गला विक्षिप्ताः सन्तः शरीरसम्बद्धा असम्बद्धा वा 'जाई तत्थे' त्यादि प्राकृतत्वात् पुंस्त्वेsपि नपुंसकता यान् तत्र वेदनासमुद्घातगतपुरुषसंस्पृष्टे क्षेत्रे प्राणान्-द्वित्रिचतुरिन्द्रियान् शङ्खकीटिकामक्षिकादीन् । भूतान-वनस्पतीन् जीवान-पञ्चेन्द्रियान् गृहगोधिकासपोदीन् सत्त्वान्-शेषपृथिवीकायिकादीन् अभिनन्ति-अभिINIमुखमागच्छन्तो प्रन्ति वर्तयन्ति-आवर्तपतितान् कुर्वन्ति लेशयन्ति-मनाक स्पृशन्ति सलातयन्ति-परस्परं तान सवातमापन्नान् कुर्वन्ति सट्टयन्ति-अतीव सङ्घातविशेषमापादितान् कुर्वन्ति परितापयन्ति-पीडयन्ति क्लमय ~1188~ Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं - -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] दीप अनुक्रम [६१२] |न्ति-मूर्छापन्नान् कुर्वन्ति अपद्रावयन्ति-जीवितात् व्यपरोपयन्ति, तेभ्यः पुद्गलेभ्यः तेषां प्राणादीनां विषये भद-18 न्त ! सः-अधिकृतो वेदनासमुद्घातगतो जीवः कतिक्रियः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम ! 'सिय तिकिरिए' इति, स्यात्शब्दः कथञ्चित्पर्यायः, कथञ्चित् कदाचित् कांश्चिच जीवानधिकृत्येत्यर्थः त्रिक्रियः, किमुक्तं भवति ?-यदा। न केषाञ्चित् सर्वथा परितापनं जीविताद् व्यपरोपणं वा करोति तदा सर्वथा त्रिक्रिय एव, यदापि केषाश्चित्परि-IN तापं मरणं वाऽऽपादयति तदापि येषां नाबाधामुत्पादयति तदपेक्षया त्रिक्रियः, 'सिय चउकिरिए' इति केषा|श्चित्परितापकरणे तदपेक्षया चतुष्क्रिय इति, केषाश्चिदपद्रावणे तदपेक्षया पञ्चक्रिय इति, सम्प्रति तमेवाधिकृतं वेदनासमुद्घातगतं जीवमधिकृत्य तेषां वेदनासमुद्घातगतपुरुषपुद्गलस्पृष्टानां जीवानां क्रिया निरूपयति-ते णं भंते !' इत्यादि, ते-वेदनासमुद्घातगतपुद्गलस्पृष्टा णमिति पूर्ववत् भदन्त ! जीवास्ततो-वेदनासमुपातपरिगतान् जीवान् अत्र 'स्थानियपः कर्माधारयोः' इति स्थानिनं यपमधिकृत्य पञ्चमीयं, अयमर्थः-तं वेदनासमुघातपरिगतं जीवमधिकृत्य कतिक्रियाः प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह-गौतम ! स्वात्रिक्रियाः यदा न काश्चित्तस्याबाधामापादयितुं प्रभविष्णवः, स्थाचतुष्क्रिया यदा तं परितापयन्ति, दृश्यन्ते शरीरेण स्पृश्यमानाः परितापयन्तो वृश्चिकादयः, स्यात् पञ्चक्रियाः ये तं जीवितादपि व्यपरोपयन्ति, सिद्धाश्च प्रत्यक्षतः शरीरेण स्पृश्यमाना जीविताच्यावयन्तः सदिय इति, सम्प्रति तेन वेदनासमुद्घातगतेन जीवेन व्यापाद्यमानैर्जीवर्येऽन्ये जीवा व्यापाद्यन्ते वे चान्यैर्जी-18 ~1189~ Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] प्रज्ञापनाया:मलय. वृत्ती. ॥५९॥ दीप अनुक्रम [६१२] Dotaracele वापाद्यमाना बेदनासमुद्घातगतेन जीवेन व्यापाद्यन्ते तानधिकृत्य तस्य वेदनासमुद्घातपरिगतस्य तेषां च । |३६ समुसमुद्घातगतजीवसम्बन्धिपुद्गलस्पृष्टानां जीवानां क्रियानिरूपणार्थमाह-से णं भंते ! जीवे ते य जीवा' इत्यादि, घातपदे स:-अधिकृतो वेदनासमुद्घातगतो जीवः ते च वेदनासमुद्घातपरिगतजीवसम्बन्धिपुद्गलस्पृष्टाः अन्येषां जीवानामु समुद्धातपदर्शितेन प्रकारेण यः परम्पराघातस्तेन परम्पराघातेन कतिक्रियाः प्रज्ञसाः१, भगवानाह-गौतम ! स्यात् त्रि- पुद्गलपूर णादि सू. क्रिय इत्यादि पूर्वषत् भावयितव्यः, एनमेव वेदनासमुद्घातमुक्तेन प्रकारेण नैरयिकादिषु चतुर्विशतिस्थानेषु चिन्त ३४२ यन्नाह-'नेरइए णं भंते' इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण यथैव प्राक् सामान्यतो जीवो वेदनासमुद्घातमधिकृत्य चिन्तितः तथा नैरयिकोऽपि चिन्तयितव्यः, नवरं जीवाभिलापस्थाने नैरयिकामिलापः कर्तव्यो, यथा 'नेरदए थे। भिंते ! वेयणासमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभई' इत्यादि, 'एवं निरवसेसं जाव वेमाणिए। इति एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेण शेषेष्वपि स्थानेषु खखामिलापपूर्वकं निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकाःवैमानिकाभिलापः । तदेवमुक्तो वेदनासमुद्घातः, सम्प्रति कषायसमुद्घातं समानवक्तव्यत्वादतिदेशतोऽभिधित्सुराह-एवं कसायसमुग्घाओऽवि भाणियों' इति, एवं-वेदनासमुद्घातगतेन प्रकारेण सामान्यतो जीवपदे चतुविशतिदण्डकक्रमेण च कषायसमुद्घातोऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-'जीवे गंभंते ! कसायसमुग्धाएणं समोहए समो-| हणित्ता जे पोग्गले निच्छुभई' यान् पुद्गलान् शरीरान्तर्गतान् कषायसमुद्घातवशसमुत्थप्रयत्नविशेषतः खशरीरादू ५९॥ ~ 1190~ Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] दीप अनुक्रम [६१२] elesedesceceeseeeeee बहिरात्मप्रदेशेभ्योऽपि विश्लिष्टान् करोति, 'तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवइए खेत्ते अप्फुण्णे केवइए खित्ते फुडे, गो01 सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभवाहलेणं नियमा छहिसि एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे' कषायसमुघातो हि प्रथमं उद्भवति सजीवानां, तेषामेव तीव्रतराध्यवसायसम्भवादू, एकेन्द्रियाणां तु पूर्वभवानुवृत्तितः, प्रसजीवाथ प्रसनाख्यां न ततो बहिः, प्रसनाख्यां च व्यवस्थितः खशरीरप्रमाणं विष्कम्भवाहल्यं क्षेत्रमात्मविश्लिष्टै पुद्गलैः भृतं पद्ददिक्त्वमवश्यमुपपद्यते इति 'नियमा छद्दिसिमित्युक्तम्, 'एचइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे' इत्यादि सर्व समानं । सम्प्रति मरणसमुद्घातमभिधित्सुराह-'जीवेणं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएण'मित्यादि, इति । पूर्ववत्, भदन्त ! कश्चिन्मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः समवहत्य च यान् पुद्गलान् तैजसादिशरीरान्तर्गतान् I'निच्छुभई' इति विक्षिपति, आत्मप्रदेशेभ्यो विश्लिष्टान् करोति तेर्भदन्त ! पुद्गलैः कियत् क्षेत्रमापूर्ण कियत् क्षेत्र भृतम्, भगवानाह-गौतम 1 विष्कम्भवाइल्यतः शरीरप्रमाणमायामतो जघन्यतः खशरीरातिरेकामुलासमधेयभागमात्रं यदा तावन्मात्रे क्षेत्रे उत्पद्यते उत्कर्षतोऽसहययानि योजनानि एतच्च यदा तावति क्षेत्रे अन्यथा वा द्रष्टव्यम्, एकदिशि-एकस्यां दिशि न तु विदिशि खभावतो जीवप्रदेशानां दिशि गमनसम्भवात् , एतावत् क्षेत्रमापूर्णमेतावत् |क्षेत्रं स्पृष्टं, जघन्यतः उत्कर्पतो वा आत्मप्रदेशैरपि एतावत् क्षेत्रस्य पूरणसम्भवात् , सम्प्रति विग्रहगतिमधिकृत्या| पूरणविषयं स्पर्शनविषयं च कालप्रमाणमाह-से भंते !' इत्यादि, तत् उत्कर्षेणायामतोऽनन्तरोक्तप्रमाणं भद-1 R amurary on ~1191~ Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥५९४॥ दीप अनुक्रम [६१२] न्त ! क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्य 'केवइयकालस्सति तृतीयाथै पठ्या भावात् कियता कालेनापूर्ण कियता कालेन 8/३६ समुस्पृष्टं, किमुक्तं भवति -विग्रहगतिमधिकृत्य कियता कालेनोत्कर्षतोऽसक्वेययोजनप्रमाणं क्षेत्रमायामतः पुद्गलै- घातपदे रापूर्ण स्पृष्टं भवतीति, भगवानाह-गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा चतुःसमयेन वा विन- समुद्धात| हेणापूर्ण स्पृष्टं, इह पञ्चसामयिकोऽपि विग्रहः सम्भवति परं स कादाचित्क एव इति न विवक्षितः, इयमत्र पुद्गलपूरभावना-उत्कृष्टपदे आयामतोऽसयेययोजनप्रमाणं क्षेत्र विग्रहगतिमधिकृत्योत्कर्षतः चतुर्भिः समयैरापूर्ण स्पृष्टं वा। णादि सू. ३४२ भवतीति, अथ कथं चतुःसामयिकः पञ्चसामयिको वा विग्रहः सम्भवति ?, उच्यते, त्रसनाच्या बहिरधस्तनभागादुपरितने भागे यद्वोपरितनभागादधस्तने भागे समुत्पद्यमानो जीयो विदिशो वा दिशि दिशो वा विदिशि यदोत्पद्यते तदा एकेन समयेन त्रसनाडी प्रविशति द्वितीयेनोपरि अधो वा गमनं तृतीयेन बहिनिःसरणं चतुर्थेन दिशि उत्पत्तिदेशप्राप्तिः, अयं चतु:सामयिको विग्रहः, एवं पञ्चसामयिकस्तु प्रसनाच्या बहिरेप विदिशो विदिशि उत्पत्ती लभ्यते, तद्यथा-प्रथमसमये असनाच्या बहिरेव विदिशो दिशि गमनं द्वितीये त्रसनाच्या मध्ये प्रवेशः तृतीये उपर्यधो वा गमनं चतुर्थे बहिनिस्सरणं पञ्चमे विदिश्युत्पत्तिदेशगमनमिति, उपसंहारमाह-'एवइयकालस्स अप्फुण्णे एवइयकालस्स फुडे' इति एतायता कालेनापूर्णमेतावता कालेन स्पृष्टमिति, 'सेसं तं चेव जाव पंचकिरिए' इति अत ऊर्दू शेषं तदेव सूत्र-'ते णं भंते ! पुग्गला निच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई इत्यादि यावत् ॥५९४॥ ~1192~ Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] keeeeeeeee दीप अनुक्रम [६१२] पंचकिरिया' इति पदं, तदेवं सामान्यतो जीवपदे मारणान्तिकसमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रति एनमेव चतुर्विंशति-IS दण्डकक्रमेण चिन्तयन् प्रथमतो नैरयिकातिदेशमाह-एव मित्यादि, एवं-सामान्यतो जीवपद इव नैरयिकेऽपि वक्तव्यं, नवरमयं विशेषः-सामान्यतो जीवपदे क्षेत्रमायामतो जघन्येनाङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रमुक्तं इह तु जघन्यतः सातिरेकं योजनसहस्रं, किमत्र कारणमिति चेत् ?, उच्यते, इह नैरयिकाः नरकादुवृत्ताः खभावत एव पञ्चेन्द्रिय-19॥ तिर्यक्षु मध्ये उत्पद्यन्ते मनुष्येषु वा नान्यत्र, सर्वजघन्यचिन्ता चात्र क्रियते, ततो यदा पातालकलशसमीपवर्ती | नरयिकः पातालकलशमध्ये द्वितीये तृतीय वा त्रिभागे मत्स्थतयोत्पद्यते तदा पातालकलशठिकरिकाया योजनसहस्रमानत्वात् यथोक्तं जघन्यमानं नातोऽपि न्यूनतरं कथंचनेति, उत्कर्षतोऽसङ्ख्ययानि योजनानि, तानि सप्तम-| पृथिवीगतनारकापेक्षया भावनीयानि, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगदिसिं एवइए' इत्यादि, एकस्यां दिशि जघन्यत उत्कर्षतश्च एतावत्-अनन्तरोक्तप्रमाणं क्षेत्रमापूर्णमेतावत् क्षेत्रं स्पृष्टं, विग्रहगतिमधिकृत्य विशेषमाह-विग्गहे'सादि, विग्रहेणापूर्ण स्पृष्टं वा वक्तव्यमेकसामयिकेन द्विसामयिकेन त्रिसामयिकेन वा, नन्वेतत् सामान्यतो जीवपदेऽप्युक्तं तत्कोऽत्र विशेषस्तत आह-'नवरं चउसमइएण वा ण भन्नई' इति नवरमत्र सामान्यजीवपद इव चतुःसामयिकेनेति न भण्यते, नैरयिकाणामुत्कर्पतोऽपि विग्रहस्य त्रिसामयिकत्वात् , ते च त्रयः समया एवं भवन्ति-इह कश्चिन्नेरयिको वायव्यां दिशि वर्तमानो भरतक्षेत्रे पूर्वस्यां दिशि तिर्यपञ्चेन्द्रियतया मनुष्यतया ~1193~ Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३४२ ] दीप अनुक्रम [६१२] पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३४२] उद्देशक: [-], . आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल ॥५९५|| वोत्पित्सुः प्रथमसमये ऊर्द्धमागच्छति द्वितीयसमये वायव्या दिशः पश्चिमदिशं तृतीये ततः पूर्वदिशमिति, एवमसुरकुमारादिष्वपि यथायोगं त्रिसमयविग्रहभावना कार्या, 'सेसं तं चैव जाप पंचकिरियावि' इति शेषं सूत्रं तदेव य० वृत्तौ. १ वेदनासमुद्घातगतं, 'ते णं भंते! पोग्गला केवइया कालरस निच्छुभंति ?, गो० ! जहन्त्रेणवि अंतो० उक्को० अंतोमुहुत्तस्से' त्यादि तावद्वक्तव्यं यावदन्तिमं पदं पंचकिरियाबि' इति, असुरकुमारविषये अतिदेशमाह - ‘असुरकु मारस्स जहा जीवपदे' इति यथा सामान्यतो जीवपदेऽभिहितं तथा असुरकुमारस्याप्यभिधातव्यं एतावता किमुक्तं भवति ? - यथा जीवपदे आयामतः क्षेत्रं जघन्यतोऽङ्गुलासत्येय भागमात्रं उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयानि योजनानि तथाऽत्रापि वक्तव्यं, कथं जघन्यतोऽङ्गुछासङ्ख्येयभागमात्रमिति चेत्, उच्यते, इहासुरकुमाराय ईशान देवपर्यन्ताः ४ पृथिव्यम्बुवनस्पतिष्वप्युत्पद्यन्ते, ततो यदा कोऽप्यसुरकुमारः सङ्किष्टाध्यवसायी स्वकुण्डलार्थकदेशे पृथिवीकायिकत्वेनोत्पित्सुर्मरणसमुद्घातमादधाति तदा जघन्येनायामतः क्षेत्रमङ्गुलायेय भागप्रमाणमवाप्यते इति यथा जीवपदे इत्युक्तं, ततोऽत्रापि विग्रहगतिश्चतुःसामयिकी प्राप्नोति तत आह- नवरं विग्रहविसामयिको यथा नैरविकस्य, शेषं सूत्रं तदेव यत् सामान्यतो जीवपदे, नागकुमारादिष्वतिदेशमाह - 'जहा असुरकुमारे' इत्यादि, यथा असुरकुमारेऽभिहितमेवं नागकुमारादिषु तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकविषयं सूत्रं, नवरमेकेन्द्रिये पृथिव्यादिरूपे यथा जीवे सामान्यतो जीवपदे तथा निरवशेषं वक्तव्यं किमुक्तं भवति १-यथा जीवपदे चतुःसामयिकोऽपि विग्रह Education Intentational For Palata Use Only ~ 1194 ~ ३६ समु द्घातपदं समुद्धात पुद्गलपूर णादि स. ३४२ ||५९५|| Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४२] etrselese z दीप अनुक्रम [६१२] उक्त तथा पृथिव्यादिष्वपि पञ्चसु स्थानेषु वक्तव्यः । शेषं तथैवेति, तदेवमुक्तो मारणान्तिकसमुद्घातः, साम्प्रतं क्रियसनुपातमभिधित्सुराहबीचे णं भंते ! उबियसामुग्याएणं समोहते समोहणिचा वे पुग्गले निच्छुमति तेहि णं भवे! पोग्गलेहिं केवतिते खेचे अण्णे केवतिए खिचे पुडे, गो! सरीरप्पमाणमेचे विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह• अंगुलस्स संखेजतिभागं उको सखिआतिं जोअणाति एगदिसि विदिसि वा एवइए खित्ते अफुणे एवतिते खेचे फुडे, से णं भंते ! केवतिकाहस्स असणे फेवतिकाकस्स फुडे, गो! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स बजे वतिकालस्स फो, सेस तं व जाव पंचकिरियावि, एवं नेरदएवि, मवरं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखेअतिमागं उको० मंखिबाई जोअणाई एगदिसि, एवतिते खेत्ते, केवतिकालस्स, तं चेव जहा जीवपदे, एवं जहा नेरइपस्स हा असुरङ्गमारस, नवरं एगदिसि विदिसिं वा, एवं जाब यषियकुमारस्स, बाउकाइयस्स जहा जीवपदे, णवरं एमदिसिं चिंदियतिरिक्खजोषियस्स निरवसेसं जहा नेरदयस्स, मणसवाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स निरवसेर्स जहा असुरक्रमारस्स । जीवे ण मंते ! तेयगसमुन्धाएपं समोहते समोहणिचा जे पोग्गले निच्छुब्भति तेहि गं भंते ! पोग्गलेहि बेचविते बेचे आग्ने मेचदए सिरे, एवं जद्देष देउबिते समुग्धाते तहेव, नवरं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखेजविमान सेसं चेव एवंजाब माणियल्स, पावर पंबिंदियविरिक्खजोणियस्स एगदिसि एवविते खेचे अपुण्णे एवइखिच -Ettatree म.१00 Munmuranorm ~1195~ Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ब्राम WI प्रत सूत्रांक [३४३] प्रज्ञापनाया: मलप.वृत्ती Saamangaorae39 दीप अनुक्रम [६१३] स्स फुडे । जीवे णं भंते ! आहारगसमुग्यातेणं समोहते समोहणिवा जे पोग्गले निच्छुब्भति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि २६ समुकेवइए खित्ते अफुष्णे केवइए खेत्ते फुडे १, गो०! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असं- द्घातपदं खेजतिभागं उको संखेजाई जोयणाई एगदिसिं, एवतिते खेत्ते एगसमतिएण वा दुसम० तिसम० विग्गहेणं एवतिका समुद्धातलस्स अफुष्णे एवतिकालस्स फुडे, ते णं भंते ! पोग्गला केवतिकालस्स निच्छुमति ?, गो०! जह० अंतो• उको० पुद्गलस्पअंतोमुहुत्तस्स, ते गं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाति तत्थ पाणातिं भूयाति जीवाति सचार्ति अभिहणंति जाव शादि सू. उहवेति, ते ण मंते ! जीवे कतिकिरिए ?, गो०! सिय तिकि० सिय चउ० सिय पंचकिरिए, ते णं भंते ! जीवाओ ३४३ कतिकिरिया ?, गोएवं चेव, सेणं मंते ! ते य जीवा अण्णेसि जीवाणं परंपराघातेणं कतिकिरिया, गो! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकि०, एवं मासेवि (सूत्र ३४३) 'जीवे णं भंते । वेउचिए' इत्यादि प्राग्वत् , नवरमायामत उत्कर्षतः सत्ययानि योजनानि, एतच वायुकायिक-1 वर्जनैरयिकाद्यपेक्षया द्रष्टव्यं, ते हि वैक्रियसमुद्घातमारभमाणास्तथाविधप्रयत्नविशेषभावतः सङ्ख्येयान्येव योजना-M न्युत्कर्षतोऽप्यात्मप्रदेशानां दण्डमारचयन्ति, नासङ्ख्येयानि योजनानि, वायुकायिकास्तु जघन्यतो वा उत्कर्षतो वा ॥५९६॥ अङ्गुलासङ्ख्येयभागं, तावत्प्रमाणं चोत्कर्षतो दण्डमारचयन्तस्तावति प्रदेशे तेजसादिशरीरपुद्गलान् आत्मप्रदेशेभ्यो विक्षिपन्ति, ततस्तैः पुठूलैर्भूतं क्षेत्रमायामत उत्कर्षतोऽपि सङ्ख्येयान्येव योजनान्यवाप्यन्ते, एतचैवं क्षेत्रप्रमाणं ~1196~ Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४३] serveeeeeeeeee दीप अनुक्रम [६१३] केवलं वैक्रियसमुद्घातसमुद्भव प्रयत्नमधिकृत्योक्तं, यदा तु कोऽपि वैक्रियसमुपातमधिरूढो मरणमुपश्लिष्टः कथ-15 मप्युत्कृष्टदेशेन त्रिसामायिकेन विग्रहेणोत्पत्तिदेशमभिगच्छति तदा सङ्ख्यातीतान्यपि योजनानि यावदायामक्षेत्रम-15 वसेयं, तावत्प्रमाण क्षेत्रापूरणं मरणसमुद्घातप्रयत्नसमुद्भवमिति सदपि न विवक्षितं, 'एकदिसि विदिसि वा' इति, तत् जघन्यत उत्कर्षतो वा यथोक्तप्रमाणमायामक्षेत्रमेकस्यां दिशि विदिशि वा द्रष्टव्यं, तत्र नैरविकाणां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां । वायुकायिकानां च नियमादेकदिशि, नैरयिका हि परवशा अल्पर्द्धयश्च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियावाल्पर्द्धय एवं वायुकायिका विशिष्टचेतनाविकलास्ततस्तेषां वैक्रियसमुद्घातमारभमाणानां यदि परं तथाखाभाव्यादेवात्मप्रदेशदण्डविनिर्गमस्तेभ्यश्चात्मप्रदेशेभ्यो विश्लिष्य पुगलानां च स्वभावतोऽनुश्रेणिगमनं न तु विश्रेणितः ततो दिश्येव नैरयिकतिर्य-18 पञ्चेन्द्रियवायुकायिकानामायामतः क्षेत्रं द्रष्टव्यं, नतु विदिशि, ये तु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका मनुप्याश्च ते खेच्छाचारिणो विशिष्टलब्धिसम्पन्नाश्च भवन्ति ततस्ते कदाचित्प्रयत्नविशेषतो विदिश्यप्यात्मप्रदेशानां पदण्डं विक्षिपन्तस्तत्र तेभ्य आत्मप्रदेशेभ्यः पुद्गलान् विक्षिपन्तीति तेषामेकस्यां दिशि विदिशि वा प्रत्येतव्यं । वैकियसमुद्घातगतश्च कोऽपि कालमपि करोति विग्रहेण चोत्पत्तिदेशमभिसर्पति ततो विग्रहगतिमधिकृत्य कालनिरूपणार्थमाह-से णं भंते !' इत्यादि, तत् भदन्त ! क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्योत्पत्चिदेशं यावत् 'केवइकालस्स'त्ति तृतीयार्थे पष्ठी कियता कालेनापूर्ण कियता कालेन स्पृष्टं ?, भगवानाह-गौतम! एकसामयिकेन वा द्विसाम ~ 1197~ Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४३] प्रज्ञापनाया मल- य.वृत्ती. ॥५९७॥ दीप अनुक्रम [६१३] यिकेन वा त्रिसामयिकेन का विग्रहण आपूर्ण स्पृष्टमिति गम्यते, किमुक्तं भवति ?-विग्रहगतिमधिकृत्य मरणद-M३६ समु. शादारभ्य उत्पतिदेशं यावत् क्षेत्रस्यापूरणमुत्कर्षतः त्रिभिः समयैरवाप्यते न चतुर्थेनापि समयेन, वैक्रियसमुद्घात- घातपर्द गतो हि वायुकायिकोऽपि प्रायनसनाध्यामेवोत्पद्यते, सनाख्यां च विग्रह उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिक इति, उप-II समुबातसंहारमाह-'एवइकालस्स' इत्यादि सुगम, 'सेस ते चेवेत्यादि अत ऊर्द्ध शेष सूत्रं तदेव-यत्नाक वेदनासमुद्घाते पुद्गलस्पउक्तं, तब तावत् यावदन्तिमपद पंचकिरियावि' इति, एवं 'नेरइएणवि' इत्यादि सूत्रं तु स्वयं भावनीयं, यस्ता शोदि का दिगविदिगपेक्षया विशेषः स प्रागेव दर्शितः । सम्प्रति तैजससमुद्घातमभिधित्सुराह-'जीवे भते! तेयगसमु-। ३४३ पापण मित्यादि, सुगम, नवरमयं तेजससमुद्घातमतुर्देवनिकायतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां सम्भवति न शेषाणां, ते च महाप्रयत्बवन्त इति तेषां तेजससमुद्घातमारममाणानां जघन्यतोऽपि क्षेत्रमायामतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणं भवति, न तु सायेयभागमानं, उत्कर्षतः सोययोजनप्रमाणं, तब जघन्यत उत्कर्षतो पा यथोक्तप्रमाण क्षेत्र तिर्यपञ्चेन्द्रियवर्जामामेकस्यां दिशि विदिशि वा वक्तव्यं, तिर्यक्पश्चेन्द्रियाणां तु दिश्येव, अत्र युक्तिः प्रागुक्तैवानुस व्या, तथा चाह-एवं जहा बेउवियसमुग्धाए' इत्यादि । तदेवमुक्तस्तैजससमुद्घातः, साम्प्रतमाहारकसमुद्घातं प्रतिपिपादयिषुराह-'जीवेणं मंते। इत्यादि, एतच सूत्रं तेजससमुद्घातवद्भावनीयं, नवरमयमाहारकसमुद्घातो मनुष्याणां तत्राप्यधीतचतुर्दशपूर्वाणं सत्रापि केषाञ्चिदेषाहारकलब्धिमतां न शेषाणां, ते चाहारकसमुन्धातमारभ ~1198~ Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: JOUR प्रत सूत्रांक [३४३] दीप अनुक्रम [६१३] माणा जघन्यत उत्कर्षसो वा यथोक्तप्रमाणमायामता क्षेत्रमात्मप्रदेशविश्लिष्टेः पुद्गलैरापूरयन्त्येकस्यां दिशि, नारा विदिशि, विदिशि तु प्रयत्नान्तरविशेषादात्मप्रदेशदण्डविक्षेपः पुद्गलैरापूरणं च, न च ते प्रयत्नान्तरमारमते प्रयोजना-181 Sभावात् गम्भीरत्वाचेति, माहारकसमुद्घाप्तगतोऽपि च कोऽपि कालं करोति विग्रहेण चोत्पद्यते विग्रहवोत्कर्षत-11 खिसामयिक इति 'एगदिसिं एवइए खेचे फुडे' तथा 'एगसमइएण वा दुसमइएण वा' इत्याधुक्तं, तथा मनुष्याणाRI मेबापमाहारकसमुद्धात इति चतुर्विशतिदण्डकचिन्तोपक्रमे 'एवं मणूसेवि' इत्युक्तं, अस्सायमर्थः-एवं सामा न्यतो जीषपदे इव मनुष्येऽपि-मनुष्यचिन्तायामपि सूत्रं वक्तव्यं, जीवपदे मनुष्यानेवाधिकृस सूत्रस्य प्रपत्तत्वाद्, अन्येषामाहारकसमुपासासम्मवात् ॥ तदेवं षण्णामपि डामस्थिकानां समुद्घातानामारम्भे जघन्यतः उत्कर्षतो वा यानलामाणं क्षेत्रमात्मविश्विष्टः पुद्गलैपयायोममौदारिकादिशरीराद्यन्तर्गतरापूरितं भवति तावत्प्रमाणमावेदितं, सम्प्र ति केवलिसमुद्धातविधी यथाखरूपैः पुलावत्प्रमाषस क्षेत्रस्यापूरणमुपजायते तथाखरूपैः पुद्रलेखावत्मापणस क्षेत्रस्यापूरणमनिधित्सुराह अषमारस्स में भो!भावियप्पणो केवलिसमग्वातेणं समोहयस्स जे चरमा निजरापोग्गला सुटुमा ण ते पोग्गला पं०१ समगाउसो 1, सबलोगंपिय फुसित्ताणं चिति ?, हंता ! गो.1 अणगारस्स भावियप्पणो केवलिसमुग्धाएणं समोहमस्स जे परमा निजरापोग्गला सुहमा ते पोग्गला पं० समणाउसो, सबलोगपिय गं फुसिसाणं चिट्ठति । छउ ~1199~ Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३४४] दीप अनुक्रम [६१४] प्रज्ञापना या मल ब० वृचौ. ॥५९८॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३४४] उद्देशक: [-] ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. मत्थे णं भंते ! मणूसे तेसिं णिजरापोग्गलाणं किंचि वण्णं वण्णं गंधेणं गंधं रसेण वा रसं फासेण वा फार्स जागति पासति १, गो० ! णो इणट्टे समट्ठे से केणणं भंते ! एवं वृच्चति छउमत्थे णं मणूसे तेर्सि गिअरापोग्गलाणं णो किंचि वणं २ गंधेणं २ रसेणं २ फासेणं २ णो जाणति पासति १, गो० ! अयण्णं जंबूद्दीचे दीवे सङ्घदीवसमुद्दाणं सवभंतराए सबखुट्टाए बट्टे तेल्लाप्यसंठाणसंठिते वट्टे रहचकवालसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुण्णचंदसंठा• संठिए एवं जोअणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिष्णि जोपण सयस हस्साइं सोलस सहस्साई दोष्णि सत्तावीसे जोयणसते तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहिते परिक्खेवेणं पं०, देवे णं महिते जाव महासोक्खे एवं महं सविलेवणं गंधसमुग्गतं महाय तं अबदालेति तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्गतं अबदालहत्ता इणामेव कट्टु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिर्हि अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हवमागच्छेजा, से नू गो० ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे १, हंता ! फुडे, छउमत्थे णं गोतमा ! मणूसे तेसिं घाणम्गलाणं किंचि वणेणं वण्णं गंधेणं गंध रसेणं रसं फासेणं फार्स जाणति पासति १, भगवं । नो इणट्टे समट्टे, से एएणणं गोयमा ! एवं बुचर - छमत्थे णं मणूसे तेर्सि निजरापोग्गलाणं नो किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंवं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति, सुहुमाणं ते पोग्गला पं० समणाउसो !, सबलोगंपिय णं फुसित्ताणं चिद्वंति (सूत्रं ३४४ ) 'अणगारस्स णं भंते !' इत्यादि, इह केवलिसमुद्घातः केवलिनो भवति, न छद्मस्थस्य, केवली निश्चयनयमते For Penal Use On ~ 1200~ १६ समु द्वातपर्व केवलिस2 मुद्धातनि> जेरापुङ्गल सूक्ष्मता सू. १४४ ॥५९८॥ Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४] दीप अनुक्रम [६१४] नानगारो न गृहस्थो नापि पाखण्डी, स च नियमाद् भावितात्मा विशिष्टशुभाध्यवसायकलितत्वात् , अन्यथा केव-| |लित्वानुपपत्तेः, तत उक्तमनगारख भावितात्मन इति, केवलिसमुद्घातेन-उक्तखरूपेण समवहतस्य ये चरमाः-चरमसमयभाविनश्चतुर्थसमयमाविन इत्यर्थः, तैरेव सकललोकापूरणात् ,'निर्जरापुद्गला' इति निर्जरागुणयोगात् निर्जरा:-निर्जीर्णा इत्यर्थः ते च ते पुद्गलाश्चेति विशेषणसमासः, किमुक्तं भवति ?-ये लोकापूरणसमये पुद्गला आत्मप्र-8 देशेभ्यो विश्लिष्टाः परित्यक्तकर्मत्वपरिणामा इति, 'सुहुमा णं ते पुरगला' इति णमिति निश्चये नियतमेतत् सूक्ष्माःचक्षुरादीन्द्रियपथमतिकान्तास्ते पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः भगवद्भिहें श्रमण हे आयुष्मन् !, गौतमकृतं भगवतः सम्बोधनमेतत् , तथा णमिति निश्चितमेतत् सर्वलोकमपि ते पुद्गलाः स्पृष्टा णमिति वाक्यालङ्कारे तिष्ठन्ति ? इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-हंता गोयमा' इत्यादि, हन्तेति प्रीती, यदाह शाकटायन:-'हन्तेति सम्प्रदानप्रीतिविषादादि-18 विति, प्रीतिश्चात्र यथावस्थितखरूपप्रतिपादकत्वात् प्रश्नसूत्रस्य साम्मत्यलक्षणा बेदितव्या, न तु हर्षरूपा, क्षीण| मोहत्वेन भगवतो हर्षविषादातीतत्वात् साम्मत्यमेव ख्यापयति, यदुक्तं गौतमेन तदेवानुवदति-'अणगारस्से'त्यादि भावितार्थ । सूक्ष्माः पुद्गला इत्युक्तं, तच्च सूक्ष्मत्वमापेक्षिकमपि भवति यथा बदरादीनामामलकाद्यपेक्षया, ततश्चक्षुरादीन्द्रियगोचरातिकान्तरूपं तत्प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-'छउमत्थे णं भंते !' इत्यादि, छमस्थो भदन्त ! मनुष्यः तेपां-अनन्तरोद्दिष्टानां निर्जरापुद्गलानां किञ्चिदिति प्रथमतः सामान्येन प्रयुक्तं जानाति पश्यतीति सम्बध्यते, हटाएelesedesesegescene REauratondna ~ 1201~ Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४] दीप अनुक्रम [६१४] प्रज्ञापना- एतदेव विशेषतो व्याचष्टे-'वर्णेन' वर्णग्राहकेण चक्षुरिन्द्रियेण वर्ण्यते-यथावस्थितं वस्तुखरूपं निर्णीयते अनेनेति । ३६ समुया मल- वर्ण इति व्युत्पत्तेः वर्ण-कृष्णादिरूपं 'गन्धेन' गन्धग्राहकेण नासिकेन्द्रियेण 'गन्ध आमाणे 'चुरादिभ्यो णिच् घातपर्द 4. वृत्ती. गन्ध्यते-आत्रायते शुमोऽशुमो वा गन्धोऽनेनेति गन्ध इति व्युत्पादनात् गन्धं शुभमशुभं वा 'रसेन' रसग्राह- केवलिसM९९॥ केण रसनेन्द्रियेण रखते-आखाद्यतेऽनेनेति शब्दार्थत्वात् रसं-तिक्तादिरूपं, 'स्पर्शन' स्पर्शग्राहकेण स्पर्शनेन्द्रि- मुद्धातनि येण स्पृश्यते कर्कशादिरूपः परिच्छेद्यवस्तुगतः स्पर्शोऽनेनेति स्पर्श इति व्युत्पादनात् 'स्पर्श' कर्कशादिरूप सर्जरापुनलIS जानाति पश्यतीति, मगपानाह-गीतमा नायमर्थः समर्थः उपपन्न इत्यर्थः, पुनीतमः प्रश्नयति-से केण-II सूक्ष्मता टेणं भंते इत्यादि, उत्तानार्थ, भगवानाह-गौतम ! 'अयण मित्यादि, अयं-प्रत्यक्षत उपलभ्यमाना, णमिति सू. १४४ I] वाफ्यालारे, मष्टयोजनोस्तिया रखमय्या जम्न्या उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपो द्वीपः, 'सर्वाभ्यन्तरक' इति सर्वे | धामम्यन्तरो मध्यवर्ती सर्वाभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरक: “जाती वा खार्थे क" इति प्राकृतलक्षणवशात् । खार्थे कप्रलया, केषां सर्वेषामभ्यन्तर इत्याह-सर्वद्वीपसमुद्राणां, तथाहि-सर्वे-अशेषा द्वीपसमुद्रा जम्बूद्वीपादारभ्यागमामिहितेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणविस्तारा व्यवस्थिताः ततो भवति द्वीपसमुद्राणामेव जम्बूद्वीपोऽभ्यन्तर, तथा 'सबसुहाम इति सर्वेम्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको-इखः सर्वक्षलका, तथाहि-सर्वे लवणादयः समुद्राः सबै चपातकीखण्डादयो बीयाः मसाजम्बूद्वीपादारम्य प्रवचनोकेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणचक्रवालवितताः ततः शेष ~ 1202 ~ Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४] दीप अनुक्रम [६१४] दीपसमुद्रापेक्षयाऽयं सर्षलघुरिति, तथा मृत्तो-वर्नुलो, यतस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन हि पक्कोऽपूपः प्रायःपरिपूर्णवृत्तो मवति न घृतपक्क इति तैलविशेषणं, तस्येव संस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो जम्बूद्वीपो द्वीपो यतो रथच वालसंस्थानसंस्थितः, रथस्य-रथाङ्गस्य चक्रस्य चक्रवालं-मण्डलं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितः, एवं सूत्रोक्तमन्यदपि पदयं भाषनीयं, आयामविक्खंभेणं ति आयामश्च विष्कम्भश्चेति समाहारो द्वन्द्वः तेन आयामेन विष्कम्भेन प्रत्येकमेकं योजनशतसहसमित्यर्थः परिधिपरिमाणानयनगणितं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादावनेको भावितमिति ततो-IRT Rऽवधायें देवेणमित्यादि, देवश्च णमिति वाक्यालङ्कारे 'महर्द्धिक' इति महती ऋद्धिः-विमानपरिवारादिका यस्या सी मालिका 'भाव महासोक्खे' इति यावतशब्दकरणात् 'महज्जुइए महाबले महायसे' इति द्रष्टव्यं, तत्र महती| तिम् पारीरामरणविषया यस्य स महाधुतिः, महलं-शारीरःप्राणो यस्य स महाबलः, महत् यशः-ख्यातियस्थ इस महायशाः, तथा महत्-प्रभूतं सौख्यं यस्य प्रभूतसद्वेचकर्मोदयभावादिति महासौख्यः, कचित्-'महेसक्खें' इति पाठः, तत्र महान् ईश-वरं इत्याख्या-शब्दप्रथा यस्ख लोके स महेशाख्या, अथवा ईशनमीशो, भावे पश्प्रसया, ऐश्चर्यमित्यर्थः, ईश ऐश्व इति पचनात्, तत ईशं-ऐश्वर्यमात्मनः ख्याति-अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापपति प्रकाशयति तथा परिवारादिस्फीत्या वर्चते इति ईशाख्यः महांश्वासावीशायब महेशाख्या, अन्यत्र 'महासक्से' इति वा पाठः, तत्रैवं वृद्धव्याख्या-बाशुगमनादध-मनः अक्षाणि-इन्द्रियाणि स्वखविषयव्यापकत्वात , अक्ष Santaratana ourasurary.com ~1203~ Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४] मुखातनि दीप अनुक्रम [६१४] प्रज्ञापना- शब्दो हि प्रायेणाशुङ् व्यासावित्यस्ख धातोर्निष्पाद्यते, अश्वश्चाक्षाणि च अश्वाक्षाणि, महान्ति-स्फीतिमन्ति अश्वायाः मल क्षाणि यस्यासी महावाक्षः, स्फीतमनाः स्फूर्तिमच्चक्षुरादीन्द्रियश्चेत्यर्थः, एकं महान्तं-अतिगुरुकमन्यथा तोकतयाघातपर्द ब०वृत्ती. तद्गतैर्गन्धपुद्गलैः सकलस्य जम्बूद्वीपस्य व्याप्तमशक्यत्वात, 'सविलेवण मिति सह विशिष्ट अतिसूक्ष्मरंध्राणामपि केवलिसस्थगनात् लेपनं लेपो-जत्वादिकृतं पिधानमुपरि वर्तते येन स तथा तं, विशिष्टलेपप्रदानाभावे हि बहवः सूक्ष्मरनिर्गन्धपुद्गला निर्गच्छन्ति तत उद्घाटनवेलायां तेषां स्तोकीभावेन सकलजम्बूद्वीपापूरणं नोपपद्यते, 'गंधसमुग्गय'ति रापुद्रलगन्धद्रव्यैरतिविशिष्टैः परिपूर्ण भृतः समुद्को गन्धसमुद्कस्तं 'अबदालेइत्ति अवदालयति उत्पाटयतीत्यर्थः, 'इणामे-181 सूक्ष्मता सू.३४४ 'ति एवमेवेत्यर्थः 'केबलकप्पति केवलं केवलज्ञानं तत्कल्पं परिपूर्णतया तत्सदृशं परिपूर्णमित्यर्थः, जम्बूद्वीपं 8 द्वीपं त्रिभिः अप्सरोनिपातो नाम-चप्पुटिका ततस्तिसृभिः चप्पुटिकाभिरिति द्रष्टव्यं, चप्पुटिकाश्च कालोपलक्षणं, ततोऽयमर्थः-यावता कालेन तिस्त्रश्चप्पुटिकाः पूर्यन्ते तावत्कालमध्ये इति, त्रिसप्तकृत्वः-एकविंशतिवारान् अतिपरिवर्त्य-सामस्त्येन परिभ्रम्य हवं' शीघ्रमागच्छेत्-समागच्छेत् 'से नूर्ण इत्यादि, सेशब्दो मगधदेशप्रसिया | अथशब्दार्थे, अथशब्दस्य चार्थों वाक्योपन्यासादयः, उक्त च-'अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलाधिकारवाक्योपन्या-M॥६००॥ सेषु' तत्राय वाक्योपन्यासे, तद्भावना च एवं-उक्तस्तावत् विवक्षितार्थप्रतिपचिहेतोदृष्टान्तस्य पीठिकावन्धः, सम्प्रति विवक्षितार्थप्रतिपत्तिहेतुदृष्टान्तवाक्यमुपन्यस्य ते, नूनं निश्चितं, गौतम ! स केवलकल्पो जम्बूद्वीपस्तैर्ग secesestetstatestate ~ 1204 ~ Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४-३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक टseemeses [३४४ ३४७]] गाथा: न्धसमुद्काद्विनिर्गतैः प्राणपुद्गलैः-गन्धपुद्गलैः स्पृष्टो-व्याप्तः, काका चेदं सूत्रमधीयते ततःप्रश्नोऽवगम्यते, अथवा प्रश्नाथः सेशब्दस्ततोऽजसा प्रश्नयतीति, गौतम ! आह-हंत ! स्पृष्टो गन्धपुद्गलानां सर्वतोऽगिसर्पणशीलत्वात् , पुनरपि भगवानाह-'छउमत्थे ण'मित्यादि सुगमम् , एष चात्र भावार्थः-यथा ते सकलजम्बूद्वीपव्यापिनो गन्धपुगलाः सूक्ष्मत्वात् न छमस्थानां चक्षुरादीन्द्रियगम्यास्तथा सकललोकव्यापिनो निर्जरापुद्गला अपीति, उपसंहारमाह'एसुहुमाण'ति एतावत्सूक्ष्माः अथ यनिमित्तं केवली समुद्घातमारभते तत्पिपृच्छिपुरिदं प्रश्वसूत्रमाह कम्हा भंते ! केवली समुग्धाय गच्छति ?, गो. केवलिस्स चचारि कम्मंसा अक्खीणा अवेदिया अणिजिण्णा भवति. त०-वेदणिज्जे आउए नामे गोए, सबबहुप्पएसे से वेदणिज्जे कम्मे हवति सबत्थोवे आउए कम्मे हबइ, विसमं समं करेति बंधणेहिं ठितीहि य, विसमसमीकरणयाए बंधणे हिं ठितीहि य एवं खलु केबली समोहणति, एवं खलु समुग्धाय गच्छति, सोविणं भंते ! केवली समोहगंति सबेवि गं भंते ! केवली समुग्यातं गच्छति', गो०! णो इणहे समडे, "जस्साउएण तुल्लाति, बंधणेहिं ठितीहि य । भवोवग्गह कम्माई, समुपातं से ण गच्छति ॥१॥ अगंतूर्ण समुग्धातं, अणंता केवली जिणा । जरमरणविप्पमुका, सिद्धिं वरगतिं गता ॥२॥ (सूत्रं ३४५) कतिसमतिए णं भंते ! आउजीकरणे पं०१, गो! असंखेजसमतिए अंतोमुहुत्तिए आउजीकरणे पं० (सूत्र ३४६) कतिसमतिए णं भंते ! केवलिसमुग्धाए पं०1, गो०! अट्ठसमतिते पं०,०-पढमे समए दंडं करेति बीए समए कवाडं करेति ततिए समए मंथं एन्टर दीप अनुक्रम [६१४-६१९] anditurary.com ~ 1205~ Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४-३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना ३६ समुः [३४४ या: मलयवृत्ती. esese द्घातपदे विलिस ३४७] ॥३०॥ आवर्जी गाथा: करेति चउस्थे समए लोग पूरेति पंचमे समए लोय पडिसाहरति छढे समए म पडिसाहरति सत्तमए समए कवाडं पडिसाहरति अट्ठमे समए देर पडिसाहरति, दंडं पडिसाहरेता तओ पच्छा सरीरत्थे भवति । से णं भंतेतहा समुपायगते कि मणजोग मुंजति बहजोगं झुंजति कायजोगं जुजति ?, गो० नो मणजोगं जुजति नो बहजोगं जुजति कायजोग मुजति, कायजोगेणं भंते 1 जुजमाणे किं ओरालियकायजोग जुजति ओरालियमीसासरीरकायजो० किं केउधि- मुद्धातमयसरीरकाययोग वेउषियमीसासरीरकायजोगकिं आहारगसरीरका. आहारगमीसासरीरका० किं कम्मगसरीरका०१, | योजन गो० ओरालियसरीरकायजोगपि जुजति ओरालियमीसासरीरकायजोगपि झुंजद, नो पेउधियसरीरका नो वेउवियमीसा० नो पाहारसरीरका० नो आहारगमीसास० कम्मगसरीरकायजोगपि जुंजति, पढमट्ठमेसु समएसु ओरालियसरीर Nकरण केवकायजोगं गुंजति विलियमसत्तमेसु समएसु ओरालियमीसासरीरकायजोगं जुजति, ततियचउत्थपंचमेसु समपसु कम्म लिसमुगसरीरकायजोगं जुंजति (सूत्र ३४७) बाता सू. ३४५-३४६ ३४७ 'कम्हा णमित्यादि, कस्मात् कारणात् णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! 'केवली' केवलज्ञानोपेतः समुद्घात | | गच्छति-भारभते, कृतकृत्सत्वात् किल तस्येति भावः, भगवानाह-'गोयमे'त्यादि, गौतम ! केवलिनश्चत्वारः 'कमा K६०१॥ शाः' कर्ममेदाः 'पक्षीणा' क्षयमनुपगता., कुत इत्याह-अवेदिताः, अत्र 'निमित्तकारणहेतुपु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायात् हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यतोऽवेदिताः ततोऽक्षीणाः, कर्मणां हि क्षयो नियमतः दीप अनुक्रम [६१४-६१९] 860909 ~ 1206~ Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४-३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४ ब्रटseseseseseseseocm । ३४७]] प्रदेशतो विपाकतो या वेदनाद् भवति, 'सवं च पएसतया भुजइ कम्ममणुभावतो भइय' [ सर्वच प्रदेशतया । भुज्यते कर्मानुभावतो भक्तं ] मित्यादि वचनात् , ते चत्वारः कर्माशा अपि अवेदिता अतोऽक्षीणाः, एतदेव पर्यायेण ब्याचष्टे-'अनिर्जीर्णाः' सामस्त्येनात्मप्रदेशेभ्योऽपरिशारिताः भवन्ति' तिष्ठन्ति, तानेव नामग्राहमभिधित्सु-18 राह-तंजहे'त्यादि सुगम, तत्र यदा 'से' तस्य केवलिनः सर्वबहुप्रदेशं वेदनीयमुपलक्षणमेतत् नामगोत्रे च तथा सर्वस्तोकप्रदेशमायुःकर्म तदा स 'बंधणेहिं ठिइहिन्ति वध्यते-भवचारकात् विनिर्गच्छन् प्रतिबध्यते यैस्ते बन्धनाः, 'करणाधारे' इति करणेऽनट्प्रत्ययः, अथवा बध्यन्ते-आत्मप्रदेशैः सह लोलीभावेन संश्लिष्टाः क्रियन्ते योगवशात् ये ते बन्धनाः 'कृद्धहुल मिति वचनात् कर्मणि अनद्र, उभयत्रापि कर्मपरमाणवो वाच्याः, स्थितयो-वेदनाकालाः, तथा चोक्तं भाष्यकृता-"विसमं स करेइ समं समोहओ बंधणेहि ठिइए य । कम्मदवाई बंधणार्ति | कालो ठिई तेसिं ॥१॥" [विषमं स करोति समं समवहतो बन्धनैः स्थित्या च । कर्मद्रव्याणि बन्धनानि कालः स्थितिस्तेषाम् ॥१॥] ततश्च तैवन्धनैः स्थितिभिश्च विषमं सत् वेदनीयादिकं समुद्घातविधिना सममायुषा सह करोति, स एवं खलु केवली बन्धनैः स्थितिभिश्च विषमस्य सतो वेदनीयादिकस्य कर्मणः 'समीकरणयाए' इति । अत्र ताप्रत्ययः स्वार्थिकः, ततोऽयमर्थः-समकरणाय, 'समोहनह' इति समवहन्ति-समुद्घाताय प्रयतते, एवं खलु समुद्घातं गच्छति, उक्तं च-"आयुषि समाप्यमाने शेषाणां कर्मणां च यदि समाप्तिः। न स्यात् स्थितिवैष गाथा: दीप अनुक्रम [६१४-६१९] प्र.१०१ IN antaram.org ~1207~ Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३४४ ३४७] + गाथा: दीप अनुक्रम [६१४ -६१९] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [३६], ----------- उद्देशकः [-], दारं [-1, मूलं [ ३४४ ३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापना या मलय०वृती ||६०२ ॥ Educator म्यात् गच्छति स ततः समुद्घातम् ॥ १ ॥ स्थित्या च बन्धनेन च समीक्रियार्थं हि कर्मणां तेषाम् । अन्तर्मुहूर्त्त - २ शेषे तदायुषि समुज्जिघांसति सः ॥ २ ॥ ननु प्रभूतस्थितिकस्य वेदनीयादेरायुषा सह समीकरणार्थ समुद्घातः ९ मारभते इति यदुक्तं तन्नोपपन्नं कृतनाशादिदोषप्रसङ्गात्, तथाहि - प्रभूतकालोपभोग्यस्य वेदनीयादेरास्त एवापगमसम्भवात् कृतनाशः, वेदनीयादिवच कृतस्यापि कर्मक्षयस्य पुनर्नाशसम्भवान्मोक्षेऽप्यनाश्वासप्रसङ्गः, तदसत्, कृतनाशादिदोषाप्रसङ्गात्, तथाहि - इह यथा प्रतिदिवस सेतिकापरिभोगेन वर्षशतोपभोग्यस्य कल्पितस्याहारस्य भस्मकव्याधिना तत्सामर्थ्यात् स्तोकदिवसैर्निःशेषतः परिभोगान्न कृतनाशोपगमः तथा कम्र्म्मणोऽपि वेदनीयादेः तथाविधशुभाध्यवसायानुबन्धादुपक्रमेण साकल्यतो भोगान्न कृतनाशरूपदोषप्रसङ्गः, द्विविधो हि कर्म्मणोऽनुभवः-प्रदेशतो विपाकतश्थ, तत्र प्रदेशतः सकलमपि कर्मानुभूयते, न तदस्ति किञ्चित् कर्म यत्प्रदेशतोऽप्यननुभूर्त सत् क्षयमुपयाति, ततः कथं कृतनाशदोषापत्तिः १, विपाकतस्तु किञ्चिदनुभूयते किञ्चिन्न, अन्यथा मोक्षाभावप्रसङ्गात्, तथाहि--यदि विपाकानुभूतित एव सर्व कर्म क्षपणीयमिति नियमः तसङ्ख्यातेषु भवेषु तथाविधविचित्राध्यवसायविशेषैर्यन्नरकगत्यादिकं कर्मोपार्जितं तस्य नैकस्मिन् मनुष्यादावेव भवेऽनुभवः, स्वस्वभवनिवधनत्वात् तथाविधविपाकानुभक्स्य, क्रमेण च खखभवानुगमनेन वेदने नारकादिभवेषु चारित्राभावेन प्रभूततरकर्मसन्तानोपचयात् तस्यापि खखभवानुगमनेनानुभवोपगमात् कुतो मोक्षः १, तस्मात् सर्वे कर्म विपाकतो भाज्यं For Parts Only ~ 1208~ ३६ समु द्यातपदे केवलिस मुद्धातप्र| योजनं आवर्जीकरणं केव लिसमु द्वातः सु. ३४५-३४६ ३४७ ||50२॥ jayor Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३४४ ३४७] + गाथा: दीप अनुक्रम [६१४ -६१९] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [ ३६ ], दारं [-1, ----------- उद्देशकः [-], मूलं [ ३४४ ३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] " प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Educator | प्रदेशतोऽवश्यमनुभवनीयमिति प्रतिपत्तव्यं, एवं च न कश्चिद्दोषः नन्वेवमपि दीर्घकालभोग्यतथा तद्वेदनीयादिकं कर्मोपचितं अथ च परिणामविशेषादुपक्रमेणारादेव तदनुभवति ततः कथं न कृतनाशदोषापत्तिः ?, तदप्यसम्यक्, बन्धकाले तथाविधाध्यवसायवशादादावुपक्रमयोग्यस्यैव तेन बन्धनात् अपिच-जिनक्चनप्रामाण्यादपि वेदनीयादिकर्मणामुपक्रमो मन्तव्यः, यदाह भाष्यकृत् - "उदय कृत्रयक्खओवसमोवसमा जं च कम्मुषो भणिया । दवाई पंचगं पर जुत्तमुवकमणमेत्तोषि ॥ १ ॥” [ उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा यस्माच कर्मणो भणिताः । द्रव्यादिपञ्चकं प्रति युक्तमुपक्रमणमितोऽपि ॥ १ ॥ ] न चैवं मोक्षोपक्रमहेतुः कश्चिदस्ति येन तत्रानाश्वासप्रसङ्गः, यथा च न मोक्षोपक्रमहेतुः कश्चिदस्ति तथाऽन्तिमसूत्रे भावयिष्यते, ततो यदुक्तं 'वेदनीयादिवच कृतस्यापि कर्मक्षयस्से' यादि न तत्सम्यगुपपन्नमिति स्थितं, अपर आह-ननु यदा वेदनीयादिकमतिप्रभूतं सर्वस्तोकं चायुस्तदा समधिकवेदनीयादिसमुद्घातार्थ समुद्घातमारभतां वेदनीयादेः सोपक्रमत्वात् यदा त्वधिकमायुः सर्वस्तोकं च वेदनीयादिकं तदा का वार्त्ता १, न खल्वायुषः समधिकस्य समुद्घाताय समुद्घातः कल्प्यते, चरमशरीरिणामायुषो निरुपक्रमत्वात् 'चरमसरीरा य freemeा' इति वचनात्, तदयुक्तं, एवंविधभावस्य कदाचनाप्यभावात्, तथाहि सर्वदेव वेदनीयाद्येवायुषः सकाशादधिकस्थितिकं भवति, न तु कदाचिदपि वेदनीयादेरायुः, अथैवंविधो नियमः कुतो लभ्यते १, उच्यते, परिणामखाभान्यात्, तथाहि-- इत्थंभूत एवात्मनः परिणामो येनास्यायुर्वेदनीयादेः समं भवति For Pale Only ~1209~ antrary orp Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४-३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ३६ समुद्घातपदे [३४४ केवलिस ३४७] गाथा: प्रज्ञापना-18न्यूनं वा न तु कदाचनाप्यधिकं, यथैतस्यैवायुषः खल्वध्रुवबन्धः, तथाहि-ज्ञानावरणादीनि कर्माणि आयुर्वजानि यां: मल- सप्तापि सदैव बध्यन्ते, आयुस्तु प्रतिनियत एव काले खभवत्रिभागादिशेषरूपे, तत्र चैवंविधवैचित्र्यनियमे न ख- यवृत्ती. भावाहतेऽपरः कश्चिदस्ति हेतुरेवमिहापि स्वभावविशेष एव नियामको द्रष्टव्यः, आह च भाष्यकृत्-"असमठिईणं नियमो को थेवं आउयं न सेसंति । परिणामसहायाओ अदुवबंधोवि तस्सेव ॥१॥" [ असमस्थितिषु को निय॥६०३॥ मा-स्तोकमायुःन शेषाणि । परिणामस्वभावात् अभुववन्धोऽपि तस्यैव ॥१॥] अथ विशेषपरिज्ञानाय गौतमो भगवन्तं पृच्छति-सवेवि 'मित्यादि, णमिति निश्चये सर्वेऽपि खलु केवलिनः समवमन्ति-समुद्घाताय प्रय तन्ते, प्रयवानन्तरं च सर्वेऽपि खलु केवलिनः समुद्घातं गच्छन्ति, इति गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवान्निर्वचनNमाह-'गोयमे स्यादि, गौतम ! नायमर्थः समर्थः-नायमर्थः उपपन्नः, किमुक्तं भवति -सर्वेऽपि केवलिनः समु द्घाताय न प्रयतन्ते नापि समुद्घातं गच्छन्ति, किन्तु येषामायुषः समधिकं वेदनीयादिकं, यस्य पुनः खभावत एवायुषा सह समस्थितिकानि वेदनीयादीनि कर्माणि सोऽकृतसमुद्घात एव तानि क्षपयित्वा सिध्यति, तथा चाह-'जस्से'त्यादि, यस्य केवलिन आयुषा सह भवे-मनुष्यभवे उप-समीपेन गृखते-अवष्टभ्यते यैस्तानि भवोपनहाणि तानि च तानि कर्माणि च भवोपग्राहकर्माणि-वेदनीयनामगोत्राणि बन्धनैः-प्रदेशः स्थितिमिश्च तुल्यानि-समानि भवन्ति स समुपातं न गच्छति, अकृतसमुद्घात एव तानि क्षपयित्वा स सिद्धिसौधमध्यास्ते इति मुद्धातप्रयोजन आवर्जीकरणं केव| लिसमुद्धातः सू. ३४५-३४६ ३४७ MIn६.३॥ दीप अनुक्रम [६१४-६१९] ~1210~ Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक:-1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४-३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४ ३४७]] गाथा: INIभावः, उक्तं च-"जस्स उ तुलं भवइ य कम्मचउर्फ सभावतो जो य । सो अकयसमुग्धाओ सिझर जुगवं खये-IN ऊणं ॥१॥" [यस्य तु तुल्यं भवति तु कर्मचतुष्कं खभावतो यश्च (समकर्मा)। सोऽकृतसमुद्घातः सिध्यति युगपत् क्षपयित्वा ॥१॥] अथायं कदाचित्को भाव उत बाहुल्यभावः, तत आह-'अगंतूण समुग्याय'मित्यादि, अगत्वा समुद्घातं-केवलिसमुदूघातं 'सिद्धिं चरमगति गता इति सम्बन्धः, कियत्सङ्ख्याका इत्याह-अनन्ताःअनन्तसङ्ख्याकाः 'केवलिनः' केवलज्ञानदर्शनोपेताः, अनेन ये नवानामात्मगुणानामत्सन्तोच्छेदो मोक्ष इति प्रतिपनास्तेऽपास्ता द्रष्टव्याः, ज्ञानस्य निरुपचरितात्मस्वभावत्वात्, तख च विनाशायोगाद्, अन्यथाऽऽत्मन एवाभावापत्तेः, नं चात्मनो निरन्वयो विनाशः, सतः सर्वथा विनाशायोगात्, 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत' इति | न्यायात् , तथा जिना-जितरागादिशत्रवः, अनेन गोशालकमतापाकरणमाह, ते हि मुक्तिपदमध्यासीनमपि न तत्त्व-13 तो वीतरागमपि मन्यन्ते, 'अवाप्तमुक्तिपदा अपि तीर्थनिकारदर्शनादिहागच्छन्तीति वचनात्, तत्वतो वीतरागस्य ISIच पराभवबुद्धेरिहागमनस चासम्भवात्, पुनः कथंभूता इत्याह-'जरामरणविप्रमुक्ता' जरा च मरणं च जरामरण? ताभ्यां विप्रमुक्ता जरामरणविप्रमुक्काः, जरामरणग्रहणमुपलक्षणं तेन समस्तरोगशोकादिसांसारिकलेशविमुक्ता इति द्रष्टन्यं, एतेन एकान्ततो मोक्षसौख्यस्योपादेयतामाह, अन्यस्यैवंविधखरूपस्य स्थानस्यासम्भवात्, नहि संसारे प्रकसुखप्राप्तमपि स्थानमेवंविधमस्ति, सर्वस्यापि मरणपर्यवसानत्वात् , सेधनं सिद्धिः-अशेषकर्माशापगमेनात्मनः Contaceaeeमरम्बार दीप अनुक्रम [६१४-६१९] SAREaratinila H arary.orm ~1211~ Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४-३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४ ३४७] प्रधानमः योजन गाथा: प्रज्ञापना- खरूपेऽक्वानता वरा-सर्वगतीमामुत्तमा गम्यते इति गतिरगतिस्तां वरगतिरूपामित्यर्थः गताः-प्राप्ताः, १६ समुयाः मल- सर्वोऽपि केवली केवलिसमुद्घातं गच्छम् प्रथमत आवर्जीकरणमुपगच्छति, तथा च केवलिसमुद्घातप्रक्रियां विम- घातपदे य० वृत्ती.णिपुः समुपातशब्दथ्याख्यानपुरस्सरमाह भाग्यकार:-"तल्याउथअंससाहियकम्मसमुग्घायणं समाधाओ। केवलिस॥१०॥ गंतुमणा पुर्व आउजीकरणं उवे ॥१॥" [तत्रायुरंशाधिककर्मसमुद्घातनं समुद्घातः । तं गन्तुमनाः पूर्वमाफर्जीकरणमुपयाति ॥१॥] अथावर्जीकरणमिति का शब्दार्थः ।, उच्यते, आवर्जममावर्ज:-आस्मानं प्रति मोक्ष-1 आवर्जीस्वाभिमुखीकरणं आत्मनो मोक्षं प्रत्युपयोजनमित्ति तात्पर्यायः, अथवा आपय॑ते-अभिमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति करण केवमावर्ज-शुममनोवाकायापारविशेषः, उकं च-आववणमुवमोगो कावारो का' इति, तत उभयत्रापि अतस्प लिसमुतस करणमिति विवक्षायां शिवप्रत्ययः आवर्जीकरण, अमरे आवर्जितकरणमिसाए, तवायं शब्दार्थ-आवर्जितो दातः सू. नाक अमिमुखीकृता, तसाच लोके वकारू 'आवर्जितोऽयं मथा, सम्मुखीकृत' इत्यर्थः, ततथा तथाभन्यत्वेनावर्जित- ३५-३४६ ३४७ ख-मोकामनं प्रत्यभिमुखीतक कारणं-क्रिया शुभयोगव्यापारणं आवर्जितकरणं, अपरे 'आउज्जियाकरण मिति का पठन्ति, तत्रैवं शब्दसंस्कारमाचक्षते-आयोजिकाकरणमिति, जयं चात्रान्वयार्थ:-माङ मर्यादायां आ-मर्यादवा N६०४॥ बलिरला. योजन-गुभानां योगानां व्यापारणभायोजिका, भाये कुन्, तस्याः करणमायोजिकाकारणे, अन्वे आउस्सियफरण मिति युवते, तत्राण्ययमन्वर्थ:-आवश्यकेन-अवश्यंभावन करणमायककरणं, तथाहि-समः । दीप अनुक्रम [६१४-६१९] For P OW jaanasuramom ~ 1212~ Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४४-३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४ ३४७]] घात केचित्कुर्वन्ति केचिध न कुर्वन्ति इदं त्वावश्याकरण सर्वेऽपि केवरिमः कुर्वन्तीति, सम्प्रणास्सैकापीकरणस्य कालममाणनिरूपणार्थ प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-पाइसमइए पमित्मदि सुपम, आवर्जीकरणानन्तरं चाव्यवधानेनः कावलिसमुद्घात्तमारभते, स च कतिसामयिका इत्यावहावा तत्सम्यनिरूपणार्थमाह-'फसामइए पमिलादि। सुगम, तत्रा वखिन् समये यस्करोति तदर्शयत्ति--तंजहा-पढमे समए' इत्यादि, पदमपि सुगम, प्रागेक व्याख्यातत्वात नवरमेवं भाषाओं-ययाऽऽवितभिः समयैः ऋमेवात्मप्रदेशानां विचारणं तथैव प्रतिलोमं अमेण संक्षण[मिति, उक्तं तदन्यत्रापि-"उहुंजहो य लोगतनामिणं सो सदेहविक्रम । पतमे समर्थमिदं करेग विकमि। ARIय कवाई ॥१॥ तश्यसमयंमि मंचं चउत्थए लोमपूरणं कुणा। पडिलोमं साहरणं काउं तो दोष देवत्वों ॥२॥"S A[अर्ध्वमश्य लोकान्तगामिनं स खदेहविष्कम्भम् । प्रथमे समये दण्डं करोति द्वितीये च कपाटम् ॥१॥ तृतीये मन्यानं चतुर्थे लोकपूरणं करोति । प्रतिलोमं संहरणं कृत्वा ततो भवति देहस्थः ॥२॥] असिंच समुद्घाते | क्रियमाणे सति को योगो व्याप्रियते तमभिधित्सुराह-से णं भंते ! इत्यादि, तत्र मनोयोगं वाग्योग वा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् , आह च धर्मसारमूलटीकायां हरिभद्रसूरि:-"मनोवचसी तदान व्यापारवति, प्रयोजनाभावात्" काययोग पुनर्युआन औदारिककाययोगमौदारिकमिश्रकाययोगं कार्मणकाययोग का युनक्ति, न||| शेषं लब्ध्युपजीवनाभावेन शेषस्य काययोगस्यासम्भवात् , तत्र प्रथमे अष्टमे च समये केवलमौदारिकमेप शरीरं व्या-IN गाथा: दीप अनुक्रम [६१४-६१९] ~ 1213~ Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३४४ ३४७] + गाथा: दीप अनुक्रम [६१४ -६१९] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [ ३६ ], दारं [-1, उद्देशकः [-], मूलं [ ३४४ ३४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ... आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥१६०५|| प्रियते इत्यादारिककाययोगः, द्वितीये षष्ठे सप्तमे च समये कार्मणशरीरस्यापि व्याप्रियमाणत्वात् औदारिक मिश्रकाययोगः, तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु तु समयेषु केवलमेव कार्मणशरीरव्यापार भागिति कार्मणकाययोगः, आह च भाष्य8 कृत् - "न किर समुग्धातगतो मणवइजोगप्पयोयणं कुणइ । ओरालियजोगं पुण जुंजइ पढमट्ठमे समए ॥ १ ॥ उभयवावाराओ तम्मीसं बीयछट्टसत्तमए । तिचउत्थपंचमे कम्मगं तु तम्मत्तचेद्वाओ ॥ २ ॥" अत्रैव विशेषपरि ज्ञानायाह- से णं भंते! तहा समुग्धातगते सिझति बुज्झति मुञ्चति परिनिवाति सङ्घदुक्खाणं अंत करेति १, गो० नो इणडे समडे, से णं ततो पडिनियति पडिनियतित्ता ततो पच्छा मणजोगंपि जुंजति बजोगंपि जुजइ कायजोगंवि जुंजति, मणजोगं जुंजमाणे किं सचमणजोगं जुंजति मोसमणजोगं जुंजति सथामोसमणजोगं जुंजति असच्चामोसमणजोगं जुंजति १, गो० ! सचमणजो० नो मोसमणजो० नो सच्चामोसमणजोगं जुंजति असच्चामोसमणजोगं जुंजति, पतिजोगं जुंजमाणे किं सच्चव जोगं जुंजति मोसवइजोगं जुं० सञ्चामोसवद्दजोगं असच्चामोसवइजो० १, गो० ! सच्चवतिजो० नो मोसबहजो० नो सच्चामोसवतिजो० असच्चामोसवइजोगंपि जुंजति, कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज वा गच्छेज वा चिद्वेज वा निसीएज वा तुयहेअ वा उलंघेज्ज वा परंषेज वा पडिहारियं पीढफलगसेज्जासंधारगं पचप्पिणेज्जा । ( सूत्रं ३४८ ) 'से णं भंते!' इत्यादि, स भदन्त । केवली तथा दण्डकपाटादिक्रमेण समुद्घातं गतः सन् सिद्ध्यति - Education International For Par Use Only ~ 1214 ~ ३६ समु द्घातपदं कृतसमुद्वातस्य योगाः सू. ३४८ ॥ ६०५ ॥ arra Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३४८] दीप अनुक्रम [६२०] "प्रज्ञापना" उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) उद्देशक: [-] दारं [-] मूलं [ ३४८ ] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. - निष्ठितार्थो भवति ?, स च 'वर्त्तमानसामीप्ये वर्त्तमानवद्वेति वचनात् सेत्स्यन्नपि व्यवहारत उच्यते तत आहबुध्यते-अवगच्छति केवलज्ञानेन यथाऽहं निश्चयतो निष्ठितार्थो भविष्यामि निःशेषकर्माशापगमतः तत आहमुच्यतेऽशेषकर्माशैरिति गम्यते, सुज्यमानश्च कर्माणुवेदनापरितापरहितो भवति तत आह-परिनिर्वाति सामस्त्येन शीतीभवति, समस्तमेतदेकेन पर्यायेण स्पष्टयति - सर्वदुःखानामन्तं करोतीति, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थी - नायमर्थः सङ्गतो यः समुद्घातं गतः सर्वदुःखानामन्तं करोतीति, योगनिरोधस्याद्याप्यकृतत्वात्, सयोगस्य च वक्ष्यमाणयुक्त्या सिद्ध्यभावादिति भावः, ततः किं करोतीत्यत आह- 'से ण'मित्यादि, सःअधिकृतसमुद्घातगतः णमिति वाक्यालङ्कारे ततः समुद्घातात् प्रतिनिवर्त्तते, प्रतिनिवर्त्य च ततः --- प्रतिनिवर्त्तनात् पश्चादनन्तरं मनोयोगमपि वाग्योगमपि काययोगमपि युनक्ति-व्यापारयति यतः स भगवान् भवधारणीयकर्मसु नामगोत्रवेदनीयेष्वचिन्त्यमाहात्म्यसमुद्घातवशतः प्रभूतेष्वायुषा सह समीकृतेष्वप्यन्तर्मुहूर्त्त - भाविपरमपदत्वतस्तस्मिन् काले यद्यनुत्तरोपपातिकादिना देवेन मनसा पृच्छयते तर्हि व्याकरणाय मनःपुद्गलान् गृहीत्वा मनोयोगं युनक्ति, तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं या, मनुष्यादिना पृष्टः सन्नपृष्टो वा कार्यवशतो वाक्पुद्गलान् गृहीत्वा वाग्योगं तमपि सत्यमसत्यामृषा था, न शेषान् वाग्मनसोर्योगान्, क्षीणरागादित्वात्, | आगमनादौ चौदारिकादिकाययोगं, तथाहि —भगवान् कार्यवशतः कुतश्चित् स्थानात् विवक्षिते स्थाने आगच्छेत्, For Pale On ~ 1215~ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: यवृत्ती. प्रत सूत्रांक [३४८] प्रज्ञापनायदिवा कापि गच्छेत् , अथवा तिष्ठेत्-अईस्थानेन वावतिष्ठेत् निषीदेवा तथाविषश्रमापगमाय त्वम्वत वा ३६ समुयाः मल-कुर्यात् , अथका विवक्षिते स्थाने तथाविधसम्पातिमसत्त्वाकुलो भूमिमवलोक्य तत्परिहाराय जन्तुरक्षानिमित्तमुल- द्घातपर्द चनं प्रलचनं वा कुर्यात् , तत्र सहजात् पादषिक्षेपान्मनायधिकतरः पादविक्षेपः उल्लवनं स एवातिक्किटःप्रलपन, कृतसमु यदिवा प्रातिहारिक पीठफलकशय्यासंस्तारकं प्रयप्पयेत्, यस्मादानीतं तस्मै समर्पयेत् , इह भगवता आर्यश्यामेन द्वातस्य ॥६०६॥ प्रातिहारिकपीठफलकादीको प्रवर्यमेवोक्तं ततोऽवसीयते नियमादन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्क एवापा करमादिकनार- योगा भते, प्रभूतावशेषायुष्का, अन्याया ब्रहणस्यापि सम्भवाचदप्युपादीयेत, एतेन यदाहुरेके-'जघन्यतोऽन्तर्मुह शेषे | समुद्घातमारमते उत्कर्षतः पसु मासेषु शेपेविति तदपारतं द्रष्टव्यं, पदसु मासेषु कदाचिदपान्तराले वर्षाकालसम्भवात् तनिमित्तं पीठफलकादीनामादानमभ्युपपोत, न च तत्सूत्रसम्मतमिति तत्प्ररूपणमुत्सूत्रमवसेयं, एत्योसूत्रं आवश्यकेऽपि समुद्घातानन्तरमव्यवधानेन शैलेश्वभिधानात्, (यत्तः) तत्सूत्रं 'दण्डकवाडे मंथंतरे य साहारणा सरीरथे। भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिझमा चेव ॥१॥ यदि पुनस्कपतः पण्मासरूपमपान्तरालं भवेतत दबमिकीयेत, न चोकं, तस्मादेव अयुक्तमेतदिति, तया चाह भाष्यकार:--"कम्मलहुयाएँ समओ मिजमुहु- ०६॥ चाबसेसओ कालो । अन्ने जहन्नमेवं छम्मासुकोसमिच्छति ॥१॥ ततोऽनंतरखेलेसीक्वणो जंच पाडिहारीणं ।। चप्पणमेव सुए इहरा महणंपि होजाहि ॥२" अत्र कमलधुतानिमिचं समुद्घातस्य समयः-अक्सरो। दीप अनुक्रम [६२०] बिराटweets AREauratoninternational ~12164 Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: eeee प्रत सूत्रांक [३४८] भिन्नमुहविशेषकाला, शेष सुगम, तदेवमन्तर्मुहर्तकालं यथायोग योगत्रयव्यापारभाछ केवली भूत्वा तदनन्तरम-R त्यन्ताप्रकम्पं लेश्यातीतं परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुरवश्यं योगनिरोधायोपक्रमते, योगे सति यथोक्तरूपस्स ध्यानस्सासम्भवात् , तथाहि-योगपरिणामो लेश्या, तदन्थयव्यतिरेकानुविधानात्, ततो यावद्योगस्तावदवश्यंभाविनी लेश्येति न लेश्यातीतध्यानसम्भवः, अपिच-यावद्योगतावत्कर्मवन्धोऽपि, 'जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणई' इति वचनात्, केवलं स कर्मवन्धः केवलयोगनिमित्तत्वात् समयत्रयावस्थायी, तथाहि-प्रथमसमये कर्म बध्यते, द्वितीयसमये वेद्यते, तृतीये तु समये तत्कर्माकर्मीभवति, तत्र यद्यपि समयद्वयरूपस्थितिकानि कर्माणि क्रियन्ते, पूर्वाणि २ कर्माणि प्रलयमुपगच्छन्ति, तथापि समये समये सन्तत्या कर्मादाने । प्रवर्त्तमाने सति न मोक्षः स्याद्, अथ चावश्यं मोक्षं गन्तव्यं तस्मात् कुरुते स योगनिरोधमिति, उक्तं च-"स ततो योगनिरोधं करोति लेश्यानिरोधमभिकाजन् । समयस्थितिं च बन्धं योगनिमित्तं स निररुत्सुः॥१॥ समये। 18 समये कर्मादाने सति सन्ततेनं मोक्षः स्यात् । यद्यपि हि विमुच्यन्ते स्थितिक्षयात् पूर्वकर्माणि ॥२॥नाकर्मणो हि वीर्य योगद्रव्येण भवति जीवस्य । तस्यावस्थानेन तु सिद्धः समयस्थितेर्वन्धः ॥ ३ ॥" अत्र बन्धस्य समयमात्रस्थितिकता बन्धसमयमतिरिच्य बेदितव्या, भाष्यमप्येनं पूर्वोक्त सकलमपि प्रमेयं पुष्णाति, तथा च तद्वतो ग्रन्थः"विणिवित्तसमुरघाओ तिषिणवि जोगे जिणो पउंजिजा। सचमसचामोसं च सो मणं तह ईजोगं ॥ १ ॥ ओरा दीप अनुक्रम [६२०] Resercedeseee REautam M umurary.com ~1217~ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४८] ३६ समु: घातपर्द योगनिरो धः सू. ३४९ creeeeeeector: प्रज्ञापना- लियकाययोगं गमणाई पाडिहारियाणं वा। पचप्पणं करेजा जोगनिरोहं तओ कुणइ ॥२॥ किन्न सयोगो सिज्झइ याः मल-18स बंधहेउत्ति जं सजोगोऽयं । न समेइ परमसुकं स निजराकारणं परमं ॥३॥" अत एवाहय० वृत्ती. से ण भंते ! तहा सजोगी सिज्झति जाव अंतं करेति !, गो० नो इणढे समहे, से णं पुवमेव सपिणस्स पंचिंदियपज्जत॥६०७॥ यस्स.जहष्णजोगिस्स हेडा असंखेजगुणपरिहीणं पढम मणजोगं निरंभति, ततो अणंतर इंदियपजत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेडा असंखिजगुणपरिहीणं दोश्चं वतिजोगं निरंभति, ततो अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपजत्तयस्स जहष्णजोगिस्स हेवा असंखेनगुणपरिहीणं तचं कायजोगं निरंभति, से गं एतेण उवाएणं-पढम मणजोगं निरंभति मणजोगं निमंभित्ता वतिजोगं निरुभति वयजोगं निरुभित्ता कायजोगं निरंभइ कायजोगं निलंभित्ता जोगनिरोह करेति जोगनिरोहं करेता अजोगतं पाउणति अजोगयं पाउणिचा इसि हस्सर्यचक्खरुचारणद्वाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसि पडिवज्जइ, पुषरइयगुणसेढीयं च णं कम्म, तीसे सेलेसिमदाए असंखेज्जाहिँ गुणसेढीहि असंखेजे कम्मखंधे खवयति खवइत्ता वेदणिज्जाउणामगोत्ने इचेते चत्वारि कम्मसे जुगर्व खवेति, जुगवं खवेत्ता ओरालियतेयाकम्मगाई सबाहिं विष्पजहण्णाहिं विष्पजहति, विप्पजहिता उन्जुसेढीपडिवण्णो अफुसमाणगतीए एगसमएणं अविग्गहेणं उडे गंता सागारोवउत्ते सिज्झाइ बुझाइ तत्थ सिद्धो भवति, ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा देसणणाणोवउचा णिडियट्ठा णीरया जिरेपणा वितिमिरा रिसुद्धा सासयमणागयर्द्ध कालं चिट्ठति, से केणद्वेणं भंते । एवं बुचद ते णं दीप erestsee अनुक्रम [६२०] ॥६०७॥ ~ 1218~ Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४९] secticeaeseseseare गाथा तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीपघणा देसणणाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा नीरया निरयणा वितिभिरा विसुद्धा सासयमणागयदं कालं चिट्ठति !, गो० ! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुष्पची ण भवति, एवामेव सिद्धाणवि कम्मबीएमु दड्डेसु पुणरवि जम्मुप्पत्तीण भवति, से तेणद्वेणं गोतमा! एवं बु० तेणं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दसणणाणोवउत्ता णिट्ठियहा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विमुद्धा सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठतित्ति ।-'निच्छिण्यसबदुक्खा जाइजरामरणपंधणविमुक्का । सासयमबाबाहं चिट्ठति सुही सुह पत्ता ॥१॥ (सूत्र ३४९) इति पण्णवणाए भगवतीए समुग्धायपयं छत्तीसतिम पर्य समत्तं ॥ ३६॥ [प्रत्यक्षरं गणनया अनुष्टुपछंदसा मानमिदम्- ७७८७] ॥ 'से णं भंते ! तहा सजोगी सिज्झई' इत्यादि, सुगम. योगनिरोधं कुर्वन् प्रथम मनोयोग निरुणद्धि, तब पर्या-1 समात्रसंज़िपञ्चेन्द्रियस्य प्रथमसमये यावन्ति मनोद्रव्याणि यावन्मात्रश्च तद्व्यापारः तस्मादसङ्ख्येयगुणहीनं मनोयोग प्रतिसमयं निरुग्धानोऽसङ्ग्येयैः समयैः साकल्येन निरुणद्धि, उक्तंच-पजत्तमेत्तसण्णिस्स जत्तियाई जहपणजोगिस्स । होति मणोदचाई तबावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुंभमाणो सो। मणसी सबनिरोहं करेअसंखेजसमएहि ॥२॥" एतदेवाह-'से णं भंते ! इत्यादि, सः--अधिकृतकेवली योगनिरोध चिकीर्षन् पूर्वमेव संजिनः पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य मनोयोगखेति गम्यतेऽधस्तात् असवयगुणपारहान समये २ निरन्धानोऽसहययैः समयैः साकल्येनेति गम्यते प्रथम मनोयोग निरुणद्धि, 'ततोऽनंतरं चा 40Estoersersekseeeeeeeee दीप अनुक्रम [६२१ -६२२] Stotre- म.१०२ ~ 1219~ Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४९] प्रज्ञापना- यवृत्ती मामल ॥६०८॥ गाथा मित्यादि, तस्मात् मनोयोगनिरोधादनन्तरं चशब्दो वाक्यसमुचये णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीन्द्रियस्य पर्यासस्य ३६ समु. जघन्ययोगिनः सत्कस्य वागयोगस्येति गम्यतेऽधस्तात् वाग्योगं असङ्ख्येयगुणपरिहीनं समये समये निरुन्धानो- घातपर्द सङ्ख्येयैः समयैः साकल्येनेति गम्यते द्वितीयं वाग्योगं निरुणद्धि, आह च भाष्यकृत्-"पज्जत्तमित्तबिंदिय जह योगनिरोपणवइजोगपजवा जे उ । तदसंखगुणविहीणं समये समये निरंभंतो॥ १॥ सवइजोगरोहं संखाईएहिं कुणद धः सू. ३४९ समएहि"'ततोऽणंतरं च ण'मित्यादि, ततो वाग्योगादनन्तरं च णं प्राग्वत् सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य अपर्याप्तकस्य | प्रथमसमयोत्पन्नस्येति भावार्थः जघन्ययोगिनः-सल्पिवीर्यस्य पनकजीवस्य यः काययोगस्तस्याधस्तादसङ्ख्येयगु-N णहीनं काययोग समय समये निरुन्धन् असोयैः समयैः समस्तमपीति गम्यते तृतीयं काययोगं निरुणद्धि, ती च काययोग निरन्धानः सूक्ष्मनियमप्रतिपाति ध्यानमधिरोहति, तत्सामर्थ्याञ्च वदनोदरादिविधरपूरणेन सकुचि-IN तदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो भवति, तथा चाह भाष्यकृत्-"तत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमयोववण्णस्स ॥जो किर जहण्णजोगी तदसंखेजगुणहीणमेकेके । समएहिं रुंभमाणो देहतिभागं च मुंचतो ॥१॥ रंभइ स कायजोगं |संखाईएहिं चेव समएहिं' काययोगनिरोधकालान्तरे चरमे अन्तर्मुहूर्ते वेदनीयादित्रयस्य प्रत्येकं स्थितिः सर्वापव-IS६०८॥ नया अपवायोग्यवस्थासमाना क्रियते गुणश्रेणिक्रमविरचितप्रदेशा, तद्यथा-प्रथमस्थिती स्तोकाः प्रदेशाः,18 द्वितीयस्यां स्थिती ततोऽसङ्ख्येयगुणाः, तृतीयस्यां ततोऽप्यसङ्ख्येयगुणाः, एवं तावद्वाच्यं यावञ्चरमा स्थितिः, स्था दीप अनुक्रम [६२१ -६२२] ~1220~ Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४९] ००० ००० ०००nee गाथा पना, एताः प्रथम- ०००००००००००० समयगृहीतदलिकनिर्त्तिता गुणश्रेणयः, एवं प्रतिसमयगृहीतदलिक|निवर्तिताः कर्मत्र- .. .. .. यस्य प्रत्येकमसङ्खयेया द्रष्टव्याः अन्तर्मुहूर्तसमयानामसङ्ख्यातत्वात् , आयुषस्तु स्थितिय-. . . थावद्धवावतिष्ठते, सा च गुणश्रेणिक्रमविपरीतक्रमदलिकरचना, स्थापना चेयम्- अयं च सर्वोऽपि मनोयोगादिनिरोधो मन्दमतिसुखावबोधार्थमाचार्येण स्थूरदृष्ट्या प्रतिपादितः, यदि पुनः सूक्ष्मदृष्टया तत्खरूपजिज्ञासा भवति तदा पञ्चसङ्ग्रहटीका निभालनीया, तस्यामतिनिपुणं प्रपञ्चेन तस्याभिधानादू, इह च ग्रन्थगौरवभयानास्माभिरभिहितः, 'से 'मित्यादि, सोऽधिकृतः केवली णमिति पूर्ववत् एतेनानन्तरोदितेनोपायेन-उपायप्रकारेण, शेष सुगम, यावदयोगतां 'पाउणइ'त्ति प्राप्नोति, अयोगताप्राप्त्यभिमुखो। भवति इति भावार्थः, अयोगतां च प्राप्य-अयोगताप्राप्त्यभिमुखो भूत्वा 'ईर्सि'ति स्तोक कालं शैलेशी प्रतिपद्यते इति सम्बन्धः, कियता कालेन विशिष्टां इत्यत आह-इखपञ्चाक्षरोचारणाद्धया, किमुक्तं भवति ?-नातिद्रुतं नातिविलम्बितं किन्तु मध्यमेन प्रकारेण यावता कालेन ङञणनम इत्येवंरूपाणि पश्चाक्षराणि उच्चार्यन्ते तावता कालेन विशिष्टामिति, एतावान् कालः किंसमयप्रमाण इति निरूपणार्थमाह-असङ्ख्येयसामयिका-असङ्ख्येयसमयप्रमाणां, यचासयेयसमयप्रमाणं तच जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणं तत एषाऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणेति ख्यापनायाह दीप अनुक्रम [६२१ -६२२] nainamuramom ~ 1221 ~ Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: II प्रत सूत्रांक [३४९] गाथा प्रज्ञापना-18'आन्तर्मुहर्तिकी शैलेशी मिति, शीलं-चारित्रं तह निश्चयतः सर्वसंबररूपं तद् ग्राह्य, तस्यैव सर्वोत्तमत्वात् , तस्येशः ३६ समुयाः मल-18 शीलेशः तस्य याऽवस्था सा शैलेशी तां प्रतिपद्यते, तदानीं च ध्यानं ध्यायति व्यवच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति, उक्तद्घातपर्द यवृत्ती. च-"सीलं व समाहाणं निच्छयओ सबसंवरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सेलेसी होइ तदवत्था ॥१॥हस्सक्ख- योगनिरो राई मज्झेण जेण कालेण पंच भणंति । अच्छइ सेलेसिगतो तत्तियमित्तं तओ कालं ॥२॥ तणुरोहारंभाओ ॥६०९॥ धः सू. झायह सुहुमकिरियानियहि सो । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिबाई सेलेसिकालंमि ॥३॥" न केवलं शैलेशी प्रतिपद्यते ३४९ पूर्वरचितगुणश्रेणीकं च वेदनीयादिकं कर्म अनुभवितुमिति शेषः, प्रतिपद्यते च तत्पूर्व काययोगनिरोधगते घरमेऽन्तमुहर्ने रचिता गुणश्रेणयः-प्रागनिर्दिष्टवरूपा यस्य तत्तथा, ततः किं करोतीत्यत आह-तीसे सेलेसिअद्धाए' इत्यादि, तस्यां शैलेश्यद्धायां वर्तमानोऽसङ्ख्येयाभिर्गुणश्रेणीभिः पूर्वनिर्वतिताभिः प्रापिता ये कर्मत्रयस्य पृथक् प्रति-IN समयमसमवेयाः कर्मस्कन्धास्तान् 'क्षपयन्' विपाकतः प्रदेशतो वा वेदनेन निर्जरयन् चरमे समये वेदनीयमायुर्नाम |गोत्रमित्येतान् चतुरः 'कर्माशान्' कर्मभेदान् युगपत् क्षपयति, युगपञ्च क्षपयित्वा ततोऽनन्तरसमये औदारिकतैजसकार्मणरूपाणि त्रीणि शरीराणि 'सबाहिं विप्पजहणाहिं' इति सबैर्विप्रहानैः, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, विप्रजहाति, किमुक्तं भवति ?-यथा प्राक् देशतस्त्यक्तवान् तथा न त्यजति, किन्तु सः प्रकारैः परित्यजतीति, उक्तं च-"ओरालियाइ चयह सबाहिं विष्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेस तहा न जहा देसञ्चारण सो पुषिं ॥१॥" दीप अनुक्रम सरदारesesence [६२१ -६२२] SAREauratonintamatkind ~ 1222 ~ Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ ३४९ ] + गाथा दीप अनुक्रम [६२१ -६२२] “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ३४९ ] उद्देशक: [-] दारं [-] .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. परित्यज्य च तस्मिन्नेव समये कोशबन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थख भावविशेषादेरण्डफलमिव भगवानपि कर्मसम्बन्धविमोक्षणसहकारिसमुत्थख भावविशेषादूर्द्ध लोकान्ते गत्वेति सम्बन्धः, उक्तं च- " एरण्डफलं च जहा बंधच्छेदेरियं दुयं जाति । तह कम्मबंधणछेदणेरितो जाति सिद्धोवि ॥ १ ॥" कथं गच्छतीत्यत आह- 'अविग्रहेण ' विग्रहस्याभावोऽविग्रहः तेन एकेन समयेनास्पृशन्, समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेनेत्यर्थः, ऋजुश्रेणिं च प्रतिपन्नः, एतदुक्तं भवति यावत्खाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्ध्वमृजुश्रेण्याऽवगाहमानो विवक्षिताच्च समयादन्यत् समयान्तरमस्पृशन् गत्वा, तथा चोक्तमावश्यकचूर्णी- "जत्तिए जीवोऽवगाढो तावइयाए ओगाहणाए उ उज्जुगं गच्छति न वंकं, बिइयं च समयं न फुसइ" इति भाष्यकारोऽप्याह - "रिउसेटिं पडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो । एगसमपण सिज्झइ अह सागारोव उत्तो सो ॥ १ ॥" इत्थमूर्ध्वं गत्वा किमित्याह - साकारोपयुक्तः सन् सिद्ध्यति निष्ठितार्थो भवति, सर्वा हि लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य उपजायते नानाकारोपयुक्तस्य, सिद्धिरप्येषा सर्वन्ध्युत्तमा लब्धिरिति साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायते, आह च - "सबाओ लद्धीओ जं सागारोवओगलाभाओ । तेणेह सिद्धिलद्धी उप्पजइ तदुवउत्तस्स ॥ १ ॥” तदनन्तरं तु क्रमेणोपयोगप्रवृत्तिः । तदेवं यथा केवली सिद्धो भवति तथा प्रतिपादितमिदानीं सिद्धा यथाखरूपास्तत्रावतिष्ठन्ते तथा प्रतिपादयति - ते णं तत्थ सिद्धा भवतीत्यादि, ते-अनन्तरोक्तक्रमसम्भूता णमिति वाक्यालङ्कारे तंत्र - लोकान्ते सिद्धा भवन्ति, अश For Parts Only ~1223 ~ Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [३४९] + गाथा दीप अनुक्रम [६२१ -६२२] प्रज्ञापनाया मल य० वृत्तौ. ॥६१०॥ “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [-] मूलं [ ३४९] उद्देशक: [-], .. आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पदं [ ३६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. रीराः - औदारिकादिशरीरविप्रमुक्ताः तेषां सिद्धत्वप्रथमसमये एव सर्वात्मना त्यक्तत्वात्, जीवधना- निचितीभूतजीवप्रदेशरूपाः, सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानप्रतिपत्तिकाले एव तत्सामर्थ्यतो वदनोदरादिविवराणामापूरितत्वात्, दर्शनज्ञानोपयुक्ता जीवखाभाय्यात्, निष्ठितार्थाः कृतकृत्यत्वात्, नीरजसो वध्यमान कर्माभावात् निरेजनाः कम्पक्रियानिमित्तविरहात्, वितिमिराः कर्मतिमिवासनापगमात्, विशुद्धास्त्रिविध सम्यग्दर्शनादिमार्गप्रतिपत्त्या अत्यन्तशुद्धीभूतत्वात् ते चेत्थंभूतास्तत्र गतास्तिष्ठन्ति शाश्वतं यथा भवत्येवं 'अनागतार्द्ध' अनागता - भाविनी अद्धा समस्ता यत्र सोऽनागताद्धः तं कालं यावत्, अत्रैव मन्दमतिविबोधायाक्षेपपरिहारावाह- 'से केणटुणं भंते !" इत्यादि सुगमं, नवरं 'कम्मबीएसु' ति कर्म्मरूपाणि बीजानि - जन्मनः कारणानि कर्मबीजानि तेषु दग्धेषु - निर्मूलकार्षकषितेषु पुनरपि - भूयो जन्मन उत्पत्तिर्न भवति, कारणमन्तरेण कार्यासम्भवात्, अथ तान्येव कर्माणि भूयः कस्मान्न भवन्ति ?, उच्यते, रागादीनामभावात् रागादयो वायुःप्रभृतीनां कर्मणां कारणं, न च ते तेषां सन्ति, प्रागेव क्षीणमोहावस्थायां क्षीणत्वात् न च तेऽपि क्षीणा अपि भूयः प्रादुष्यन्ति, सहकारिकारणाभावात्, रागादीनां द्युत्पत्तौ परिणामिकारणमात्मा सहकारिकारणं रागादिवेदनीयं कर्म, न चोभयकारणजन्यं कार्यमे कतरस्वाप्यभावे भवति, अन्यथा तस्याकारणत्वप्रसङ्गात् न च सिद्धानां रागादिवेदनीयं कर्मास्ति, तस्य प्रागेव शुक्लध्यानाग्निना भस्मीकृतत्वात् न च वाच्यमत्रापि स एव प्रसङ्गः, यथा तदपि रागादिवेदनीयं कर्म भूयः कस्मान्न For Park Lise Only ~1224 ~ ३६ समु घातपदं योगनिरोधः सू. ३४९ ॥६.१०॥ Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३६], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४९] गाथा | भवतीति !, तत्कारणस्य सक्लेशस्थाभावात् , रागादिवेदनीयानां हि कर्मणामुत्पत्ती रागादिपरिणतिरूपः सङ्क्लेशः, 'जं वेयइ से बंधई' इति, न च रागादिवेदनीयकर्मविनिर्मुक्तस्य तथाभूतं सङ्क्लेशोत्थानमस्ति, ततस्तदभावाद्रागादिवेदनीयकाभावः, तदभावाच भूयो रागादीनामभावः, तथा च रागादीनामेव पुनरुत्पत्तिचिन्तायां धर्मसन-IN हण्यामुक्तम्-"खीणा य ते न होंती पुणरवि सहकारिकारणाभावा । नहि होइ संकिलेसो तेहिं विउत्तस्स। जीवस्स ॥१॥ तयभावा न य बंधो तप्पाउग्गस्स होइ कम्मस्स । तदभावे तदभावो सबद्धं चेव विन्नेओ ॥२॥" इति, ततो रागादीनामभावादायुःप्रभृतीनां कर्मणां पुनरुत्पादाभावस्तदभावाच न भूयो जन्मोत्पत्तिः, अत एवो|क्तमन्यत्रापि-"दग्धे वीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥१॥" | उपसंहारमाह-'से एएणद्वेण मित्यादि, एतदेव सिद्धस्वरूपं परममङ्गलभूतं शाखस्स शिष्यप्रशिष्यादिवंशगतत्वेना| व्यवच्छित्तिर्भूयादित्यन्तमङ्गलत्वेनोपसंहारव्याजत आह-निच्छिपणे त्यादि, निस्तीर्ण सर्वदुःखं यैस्ते तथा, सकल| सांसारिकदुःखपारगता इत्यर्थः, कुत इत्याह-जातिजरामरणवन्धनविषमुक्ताः' जातिश्च जरा च मरणं च बन्ध-| नानि च-ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि तैर्विप्रमुक्ताः, अत्र हेती प्रथमा, यतो जातिजरामरणबन्धनविप्रमुक्ताः ततो |निस्तीर्णसर्वदुःखाः, ते इत्थंभूताः परमखास्थ्यरूपं 'शाश्वतं' शश्वद्भावि 'अव्यावा,' बाधारहितं, रागादयो हिन |तद्वाधितुं प्रभविष्णयो न च तेषां ते सन्तीत्सनन्तरमेव भावितं, सुखं प्राप्ताः, अत एव सुखिनः सन्तस्तिष्ठन्ति ॥ । दीप अनुक्रम esesesentineseseseeeees 020202030202002020209002012 [६२१ -६२२] अत्र पद (३६) "समुद्घात:" परिसमाप्तम् ~ 1225~ Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (15) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [36], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं - -------------- मूलं [349] प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. सूत्रांक [349] नमत नयभङ्गकलितं प्रमाणबहुलं विशुद्धसद्बोधम् / जिनवचनमन्यतीर्थिककुमतिनिरासैकदुर्ललितम् // 1 // जयति हरिभद्रसूरिष्टीकाकृद्विवृतविषमभावार्थः / यद्वचनवशादहमपि जातो लेशेन विवृतिकरः // 2 // कृत्वा प्रज्ञा-1 | पनाटीकां पुण्यं यदवाप मलयगिरिरनघम् / तेन समस्तोऽपि जनो लभतां जिनवचनसद्बोधम् // 3 // " 36 समुयोगनिरो 11 // 349 गाथा इति श्रीमन्मलयगिरिचिरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां पत्रिंशत्तमं पदं समर्थितम् // प्रज्ञापनाटीका समाप्ता ग्रन्थानं 16000 दीप अनुक्रम // 11 // [621 -622] AmEaintimilia मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र 15) “प्रज्ञापना” परिसमाप्त: ~1226~ Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 15 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “प्रज्ञापना (उपांग)सूत्र" [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणित वृत्तिः] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "प्रज्ञापना” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण / परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~12274