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आगम
“प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [१६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६०]
रसद
गाथा
रमा ?, गो.! चरमावि अचरमाचि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! आहारचरमेणं किं चरमे अचरमे १,
गो। सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरझ्या णं भंते ! आहारचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गोचरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! भावचरमेणं किं चरमे अचरमे, मो.! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरंजाब माणिए, नेरइया णं भंते! भावचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए णं भंते ! वष्णचरमेणं किं चरमे अचरमे 1, गो! सिय चरमे सिव अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! वण्णचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो! चरिमावि अचरिमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरदए णं भंते! गंधचरमेणं किं चरमे अचरमे, मो०! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव बेमाणिए, नेरइया णं भंते ! गंधचरमेणं किं चरमा अचरमा', गो.! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए ण भंते ! रसचरमेणं किं चरमे अचरमे, गो.! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतर जाव येमाणिए, नेरइया पं भंते । रसचरमेणं कि चरमा अचरमा , गो०। चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! फासचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो०! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव बेमाणिए, नेरइया णं भंते ! फासचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो०! चरमावि अचरमावि एवं जाव वेमाणिया । संगहणिगाहा-"गतिठिइभवे य भासा आणापाणुचरमे य बोद्धबा । आहारभावचरमे वण्णरसे गंधफासे य ॥१॥" दसमं चरमपदं समनं (मूत्रम् १६०)॥
दीप अनुक्रम
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Saintairatunacha
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