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आगम
(१५)
“प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२७०]
णप्पभाषु० नेरइ० ५०० सरीरे ?, गो०! पजत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं० अपजत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं०, एवं जाव अधेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणितयो, जइ तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउवियसरीरे किं समुच्छिमपं०तिरि बेउ०स० गम्भवकंतियपंचिंति वे०स०१, गो ! नो समुच्छिमपं० ति०० सरीरे गम्भवकंतियतिबेउविषसरीरे, जति गम्भवकं० पचितिबेउब्वियसरीरे किं संखेजवासाउयगन्भवतियपंचि० वे०सरी० असंखिजवासाउयग०प०तिवे०सरीरे?, गो! संखेजवासाउयगम्भ०५०तिवे० स० नो असं० गम्भ० पंचिं० तिरि० बेउ० स०, जड संखिज० गम्भ० पंचिंतिवेउ सरीरे किं पजत्तगसं० गम्भ०५०ति०० सरीरे अपजत्तगसं० ग०५०ति०० सरीरे, गो! पज० सं० ग. पं०ति०० सरीरे नो अप० सं० गभ०५० ति० वे० सरीरे, जइ संखेञ्जवासा० किं जलयरगम्भ०५०तिवे० सरीरे थलयरसं० ग०५०तिवे० सरीरे खहयरसं० ग०५०तिवे० सरीरे, मो०! जल. सं० ग.पं.ति०० सरीरेवि थलयरसंगपं० ति० ० सरीरेवि खहयरसं० गम्भ० पं०तिवे० सरीरेषि, जह जल सं०कि पजत्तगजल० सं०म० पं० ति वे० सरीरे अपजत्तगजल० सं० म०पं० ति० उ० सरीरे य:, गो! पज. जल संगम०पंतिरिवे० स० नो अपज० सं०जलग०५०ति०० स०, जति थलयरपंचिक जाव सरीरे किं चउप्पय जाव सरीरे किं परिसप्प जाव०१, गो! चउप्पयजावसं० परिसप्पजाव स०, एवं सबेसि
या जाव खहयराणं पजताणं नो अपजसाणं, जति मणूसपंचि० वेउ० सरीरे किं समुच्छिममणूस० पं०० सरीरे गम्भ० म०पं० वेउबियसरीरे, गो०! णो संमु०म० पं० देउ० सरीरे गम्भ० म० पंचिं० दे० सरीरे, जइ गभ०
दीप
अनुक्रम [५१६]
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