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आगम
(१५)
“प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [9], -------------- मूलं [२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
प्रत
१८ काय
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
स्थितिपदं
सूत्रांक [२३५]
॥३८॥
दीप अनुक्रम [४७६]
Seleseaeiserseseseseलय
ज० अंतो० उको. असंखजं कालं जाव खेसओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं, पत्तेयसरीखादरव गफइकाइर णं भंते ! पुच्छा, गो०! जह. अंतो० उको सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो । निगोदे गं भंते । निगोएति केवञ्चिर होति ?, मो०! जह० अंतो. उकोसेणं. अर्णताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अड्डाइजा पोग्गलपरियट्टा, बादरनिगोदे णं भंते ! बादर० पुच्छा, गो.! जह• अंतो० उको सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो। बादरतसकाइया गं भंते ! बादरतसकाइयचि काल केवचिरं होई, गो! जह० अंतो. उको दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, एतेसिं चेव अपज्जत्तगा सवेवि जह० उको. अंतो०, बादरपजते णं भंते ! बादरपञ्जत्त० पुच्छा, गो० ! जह. अंतो० उको० सागरोवमसतपुहुचं सातिरंग, बादरपुढविकाइयपजचए णं भंते ! बादर पुच्छा, गो० जह० अंतो० उको संखिजाई वाससहस्साई, एवं आउकाइएवि, तेउकाइयपज्जत्तए णं भंते ! तेउकाइयपज० पुच्छा, गो० ज० अंतो० उक्को० संखिज्जाई राईदियाई, वाउकाइयवणस्सइकाइयपत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइते पुच्छा, गो! ज. अंतो० उ० संखेज्जाई वाससहस्साई, निगोयपजत्तते चादरनिगोदपजत्तए पुच्छा, गो! दोहवि ज. अन्तो० उको अंतो। बादरतसकाइयपज्जत्तए णं भंते। बादरतसकाइयपज्जत्तएत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गो० ज० अंतो० उ० सागरोवमसतपुडुत्तं सातिरेगं । दारं ४ (सूत्रं २३५) 'सुहुमे णं मंते !' इत्यादि 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मकायिको भदन्त ! सूक्ष्म इति सूक्ष्मत्वपर्यायविशिष्टः सन्नव्यवच्छेदेन का-18
20262902030203028829202
॥३८॥
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