________________ आगम (15) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [36], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं - -------------- मूलं [349] प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. सूत्रांक [349] नमत नयभङ्गकलितं प्रमाणबहुलं विशुद्धसद्बोधम् / जिनवचनमन्यतीर्थिककुमतिनिरासैकदुर्ललितम् // 1 // जयति हरिभद्रसूरिष्टीकाकृद्विवृतविषमभावार्थः / यद्वचनवशादहमपि जातो लेशेन विवृतिकरः // 2 // कृत्वा प्रज्ञा-1 | पनाटीकां पुण्यं यदवाप मलयगिरिरनघम् / तेन समस्तोऽपि जनो लभतां जिनवचनसद्बोधम् // 3 // " 36 समुयोगनिरो 11 // 349 गाथा इति श्रीमन्मलयगिरिचिरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां पत्रिंशत्तमं पदं समर्थितम् // प्रज्ञापनाटीका समाप्ता ग्रन्थानं 16000 दीप अनुक्रम // 11 // [621 -622] AmEaintimilia मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र 15) “प्रज्ञापना” परिसमाप्त: ~1226~