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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[२२३]
दीप
अनुक्रम [४६०]
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्तौ.
॥३५५॥
“प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक: [३],
दारं [-1,
मूलं [२२३]
आगमसूत्र [१५], उपांग सूत्र [४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः
पदं [१७],
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
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पास १, गो० !, से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जंसि भूमिभागंसि ठिच्चा सबओ समंता समभिलोएज्जा, तर गं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाए सबओ समता समभिलोएमाणे जो बहुयं खेतं जाव पासह जाब इत्तरियमेव खेचं पासह, से तेणद्वेण गोयमा ! एवं बुच्चइ कण्हले से गं नेरइए जाव इसरियमेव खेचं पासइ, नीललेसे गं भंते । नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाय ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणे २ केवतियं खेतं जाणइ केवतियं खेत्तं पासह १, गो० 1, बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासह दूरतरखेचं जाणइ दूरतरखेत्तं पासइ वितिमिरतरगं खेत्तं जाणइ वितिमिरतरगं खेत्तं पासइ विसुद्धतरागं खेत्तं जाणइ विसुद्वतरागं खेत्तं पासह, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नीललेसे णं नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेतं जाणइ विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ?, से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पवयं दुरुहिता सबओ समता समभिलोएजा वर णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय सबओ समता समभिलोमाणे २ बहुतरागं खेतं जाणइ जाव विशुद्धवरागं खेतं पासइ, से वेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चद--- नीललेस्से नेरइए कण्हलेस जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ, काउलेस्से णं भंते ! नेरइए नीललेस्स नेरइयं पणिहाय ओहिणा सओ समंता समभिलोएमाणे २ केवतियं खेतं जाणइ पासह ?, गो० ! बहुतरागं खेतं जाणइ पासइ जाव विमुद्वतरागं खेतं पासति, से केणद्वेणं भंते ! एवं ० काउलेस्से णं नेरइए जाव बिसुद्ध तरागं खेतं पासइ ?, गो० ! से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पञ्चयं दुरूहइ २ दोवि पाए उच्चाविया (वइत्ता) सओ समंता समभिलोएजा तए णं से पुरिसे पचयगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय सबओ समंता समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं
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१७लेश्या२ पदे उद्देश
३
॥ ३५५॥