________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [81 [4] एएसि णं एवमाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं उरपरिसप्पाणं दस जाइकुलकोडीजोणिप्प. मुहसतसहस्सा हवंतीति मक्खातं / से तं उरपरिसप्पा / [84-4] इस प्रकार (अहि) इत्यादि इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक उर:परिसों के दस लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। यह उर:परिसॉं को प्ररूपणा हुई। 85. [1] से कि तं भुयपरिसप्पा ? भुयपरिसप्पा प्रणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा--णउला गोहा सरडा सल्ला सरंठा सारा खारा घरोइला विस्तंभरा मूसा मंगूसा पयलाइया छोरविरालिया; जहा चउपाइया, जे यावणे तहप्पगारा। [85-11.] भुजपरिसर्प किस प्रकार के हैं ? [85-1 उ.] भुजपरिसर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-नकुल (नेवले), गोह, सरट (गिरगिट), शल्य, सरंठ (सरठ), सार, खार (खोर), गृहकोकिला (घरोली छिपकली), विषम्भरा (विसभरा), मूषक (चूहे), मंगुसा (गिलहरी), पयोलातिक, क्षीरविडालिका; जैसे चतुष्पद (चौपाये) स्थलचर (का कथन किया, वैसे ही इनका समझना चाहिए।) इसी प्रकार के अन्य जितने भी (भुजा से चलने वाले प्राणी हों, उन्हें भुजपरिसर्प समझना चाहिए।) [2] ते समासतो दुविहा पण्णता / तं जहा–सम्मुच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य। [85-2] वे (नकुल आदि पूर्वोक्त भुजपरिसर्प) संक्षेप में दो प्रकार के होते हैं। जैसे किसम्मूच्छिम और गर्भज / [3] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सम्वे णपुसगा। [85-3] इनमें से जो सम्मूच्छिम हैं, वे सभी नपुंसक होते हैं / [4] तत्थ णं जे ते गम्भवक्कंतिया ते णं तिविहा पणत्ता। तं जहा-इत्थी 1 पुरिसा 2 नपुंसगा। [85-4] इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं। (1) स्त्री, (2) पुरुष और (3) नपुसक। [5] एतेसि णं एवमाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं भुयपरिसप्पाणं णव जाइकुलकोडिजोणीपमुहसतसहस्सा हवंतीति मक्खायं / से तं भयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया। से तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया। [85-5] इस प्रकार (नकुल) इत्यादि इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक भुजपरिसों के नौ लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। यह हुआ पूर्वोक्त भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों (का वर्णन / ) (साथ ही) परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों (की प्ररूपणा भी पूर्ण हुई / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org