Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [79 80. से कि तं मउलिणो ? मउलिणो प्रगविहा पण्णत्ता। तं जहा-दिव्वागा गोणसा कसाहिया वइउला चित्तलिणो मंडलिणो मालिणो अही अहिसलागा वायपडागा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं मउलिणो / से तं प्रही। [80 प्र.] वे (पूर्वोक्त) मुकुली (बिना फन वाले) सर्प कैसे होते हैं ? [80 उ.] मुकुली सर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-दिव्याक, गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका और वातपताका (वासपताका)। अन्य जितने भी इसी प्रकार के सर्प हैं, (वे सब मुकुली सर्प की जाति के समझने चाहिए।) यह हुआ मुकुली (सर्पो का वर्णन 1) (साथ ही), अहि सों की (प्ररूपणा पूर्ण हुई)। 81. से कि तं प्रयगरा ? अयगरा एगागारा पण्णत्ता / से तं प्रयगरा। [81 प्र.] वे (पूर्वोक्त) अजगर किस प्रकार के होते हैं ? [81 उ.] अजगर एक ही आकार-प्रकार के कहे गए हैं। यह अजगर की प्ररूपणा हुई। 82. से कि तं प्रासालिया ? कहि णं भंते ! प्रासालिया सम्मुच्छति ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइज्जेसु दोवेसु, निव्वाधाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु, वाधातं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु, चक्कवट्टिखंधावारेसु वा वासुदेवखंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावारेसु महामंडलियखंधावारेसु वा गामनिवेसेसु नगरनिवेसेसु निगमणिवेसेसु खेडनिवेसेसु कब्बडनिवेसेसु मडंबनिवेसेसु वा दोणमुहनिवेसेसु पट्टणनिवेसेसु प्रागरनिवेसेसु प्रासमनिवेसेसु संवाहनिवेसेसु रायहाणीनिवेसेसु एतेसि णं चेव विणासेसु एत्य णं प्रासालिया सम्मुच्छति, जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए प्रोगाहणाए उक्कोसेणं बारसजोयणाई, तयणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं भूमि दालित्ताणं समुद्रुति अस्सण्णी मिच्छद्दिट्ठी अण्णाणी अंतोमुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ / से तं प्रासालिया। 82 प्र.] आसालिक किस प्रकार के होते हैं ? भगवन् ! प्रासालिग (प्रासालिक) कहाँ सम्मूच्छित (उत्पन्न होते हैं ? [82 ज.] गौतम ! वे (प्रासालिक उरःपरिसर्प) मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीपों में, निर्व्याघातरूप से (बिना व्याघात के) पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा से पांच महाविदेह क्षेत्रों में, अथवा चक्रवर्ती के स्कन्धावारों (सैनिकशिविरों-छावनियों) में, या बासुदेवों के स्कन्धावारों में, बलदेवों के स्कन्धावारों में, माण्डलिकों (अल्पवैभव वाले छोटे राजामों) के स्कन्धावारों में, महामाण्डलिकों (अनेक देशों के अधिपति नरेशों) के स्कन्धावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगम (वणिक-निवास)-निवेशों में, खेटनिवेशों में, कर्बटनिवेशों में, मडम्बनिवेशों में, द्रोणमुखनिवेशों में, पट्टणनिवेशों में, आकरनिवेशों में, आश्रमनिवेशों में, सम्बाधनिवेशों में और राजधानीनिवेशों में / इन (चक्रवर्ती स्कन्धावार आदि स्थानों) का विनाश होने वाला हो तब इन (पूर्वोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org