________________ 80] [ प्रज्ञापनासूत्र स्थानों में प्रासालिक सम्मूच्छिमरूप से उत्पन्न होते हैं। वे (प्रासालिक) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-मात्र को अवगाहना से और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से (उत्पन्न होते हैं / ) उस (अवगाहना) के अनुरूप ही उसका विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है। वह (आसालिक) चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि के नीचे की भूमि को फाड़ (विदारण) कर प्रादुर्भूत (समुत्थित) होता है / वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है, तथा अन्तर्मुहूर्त काल की आयु भोग कर मर (काल कर) जाता है / यह हुई उक्त आसालिक की प्ररूपणा / / 83. से कि तं महोरगा? महोरगा प्रणेगविहा पण्णता / तं जहा-प्रत्थेगइया अंगुलं पि अंगुलपुहत्तिया वि वित्यि पि वियत्थिपुहत्तिया वि रयणि पि रर्याणपुत्तिया वि कुच्छि पि कुच्छिपुहत्तिया वि धणु पि धणुपुत्तिया वि गाउयं पि गाउयपुत्तिया वि जोयणं पि जोयणपुहत्तिया वि जोयणसतं पि जोयणसतपुहत्तिया वि जोयणसहस्सं पि / ते णं थले जाता जले वि चरंति थले वि चरंति / ते पत्थि इह, बाहिरएसु दीवसमुद्दएसु हवंति, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं महोरगा। [83 प्र.] महोरग किस प्रकार के होते हैं ? [83 उ.] महोरग अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--कई महोरग एक अंगुल के भी होते हैं, कई अंगुलपृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) के, कई वितस्ति (बीता=बारह अंगुल) के भी होते हैं; कई वितस्तिपृथक्त्व (दो से नौ वितस्ति) के, कई एक रत्नि (हाथ) भर के, कई रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से नौ हाथ तक) के भी, कई कुक्षिप्रमाण (दो हाथ के) होते हैं ; कई कुक्षिपृथक्त्व (दो कुक्षि से नौ कुक्षि तक) के भी, कई धनुष (चार हाथ) प्रमाण भी, कई धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक) के भी, कई गव्यूति-(गाऊ=दो कोसदो हजारधनुष) प्रमाण भी, कई गव्यूति-पृथक्त्व के भी, कई योजनप्रमाण (चार गाऊ भर) भी, कई योजन पृथक्त्व के भी कई सौ योजन के भी, कई योजनशतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ योजन तक) के भी और कई हजार योजन के भी होते हैं / वे स्थल में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जल में विचरण (संचरण) करते हैं, स्थल में भी विचरते हैं। वे यहाँ नहीं होते, किन्तु मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो भी उर:परिसर्प हों, उन्हें भी महोरगजाति के समझने चाहिए। यह हुई उन (पूर्वोक्त) महोरगों की प्ररूपणा / 84. [1] ते समासतो दुविहा पण्णता / तं जहा सम्मुच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य / [84-1] वे (चारों प्रकार के पूर्वोक्त उर:परिसर्प स्थलचर) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं-सम्मूच्छिम और गर्भज / [2] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सव्वे नपुसगा। [84-2] इनमें से जो सम्मूच्छिम हैं, वे सभी नपुसक होते हैं / [3] तत्य णं जे ते गम्भवक्कंतिया ते णं तिविहा पण्णता। तं जहा-इत्थी 1 पुरिसा 2 नपुंसगा 3 / [84-3] इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं। 1. स्त्री, 2. पुरुष और 3. नपुंसक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org