Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 78 ] , [ प्रज्ञापनासून अपर्याप्तकों के दस लाख जाति-कुल-कोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। यह हुआ चतुष्पदस्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों का निरूपण / 76. से कि तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्सजोणिया ? परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरपंचेवियतिरिक्खजोणिया य / [76 प्र.] वे (पूर्वोक्त) परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? / 76 उ.] परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक एवं भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक। 77. से कि तं उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउबिहा पण्णत्ता। तं जहा—अही 1 अयगरा 2 आसालिया 3 महोरगा 4 / [77 प्र.) उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? [77 उ. उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अहि (सर्प), 2. अजगर, 3. प्रासालिक और 4. महोरग। 78. से किं तं मही? अहो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-दव्वीकरा य मउलिणो य / [78 प्र.] वे अहि किस प्रकार के होते हैं ? [78 उ.) अहि दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-दर्वीकर (फन वाले), और मुकुली (बिना फन वाले)। 79. से कि तं दधीकरा? दवीकरा प्रणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा—प्रासोविसा दिट्ठीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाक्सिा लालाविसा उस्सासविसा निस्सासविसा कण्हसप्पा सेदसप्पा कामोदरा दज्झपुष्फा कोलाहा मेलिमिदा, सेसिंदा; जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं दव्वीकरा / [76 प्र.] वे दर्वीकर सर्प किस प्रकार के होते हैं ? [79 उ.] दर्वीकर (फन वाले) सर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-आशीविष (दाढ़ों में विष वाले), दृष्टि विष (दृष्टि में विष वाले), उग्रविष (तीव्र विष वाले), भोगविष (फन या शरीर में विष वाले), त्वचाविष (चमड़ी में विष वाले), लालाविष (लार में विष वाले), उच्छवासविष (श्वास लेने में विष वाले), निःश्वासविष (श्वास छोड़ने में विष वाले), कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प), कोलाह, मेलिभिन्द और शेषेन्द्र / इसी प्रकार के और भी जितने सर्प हों, वे सब दर्वीकर के अन्तर्गत समझना चाहिए। यह हुई दर्वीकर सर्प की प्ररूपणा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org