Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ प्रथम प्रज्ञापनापद [ 77 73. से कि तं गंडोपया ? गंडीपया अणेगविहा पण्णता। तं जहा-हत्थो हत्थी-पूयणया मंकुणहत्थी खग्गा गंडा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं गंडोपया / [73 प्र.] वे (पूर्वोक्त) गण्डीपद किस प्रकार के हैं ? [73 उ.] गण्डीपद अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुणहस्ती, (बिना दांतों का छोटे कद का हाथी), खड्गी और गंडा (गेंडा) / इसी प्रकार के जो भी अन्य प्राणी हों, उन्हें गण्डीपद में जान लेने चाहिए / यह हुई गण्डीपद जीवों की प्ररूपणा / 74. से कि तं सणफदा? सणकदा प्रणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-सीहा बग्घा दीविया अच्छा तरच्छा परस्सरा सियाला बिडाला सुणगा कोलसुणगा' कोकेतिया ससगा चित्तगा चित्तलगा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं सणफदा। [74 प्र.] वे सनखपद किस प्रकार के हैं ? [74 उ.] सनखपद अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--सिंह, व्याघ्र, द्वीपिक (दीपड़ा), रीछ (भालू), तरक्ष, पाराशर, शृगाल (सियार), विडाल (बिल्ली), श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता और चित्तलग (चिल्लक)। इसी प्रकार के अन्य जो भी प्राणी हैं, वे सब सनखपदों के अन्तर्गत समझने चाहिए। यह हमा पूर्वोक्त सनखपदों का निरूपण / 75. [1] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--सम्मुच्छिमा य गन्भवतिया य / [75-1] वे (उपर्युक्त सभी प्रकार के चतुष्पद-स्थलचर पंचेन्द्रिय-तिर्थञ्चयोनिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सम्मूच्छिम और गर्भज / [2] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सच्चे णपुसगा। [75-2] उनमें जो सम्मूच्छिम हैं, वे सब नपुसक हैं / [3] तत्थ णं जे ते गम्भवतिया ते तिविहा पण्णता। तं जहा - इत्थी 1 पुरिसा 2 णसगा 3 / [75-3] उनमें जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं। यथा-१. स्त्री. 2. पुरुष और 3. नपुसक। [4] एतेसि णं एवमादियाणं (चउप्पय) थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं दस जाईकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा हवंतीति मक्खातं / से तं च उप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिया। [75-4] इस प्रकार (एकखुर) इत्यादि इन स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के पर्याप्तक१. [ग्रन्थानम् 500 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org