Book Title: Aagam 03 STHAN Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थानाङ्गसूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "स्थान" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] | (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 04/08/2014, सोमवार, २०७० श्रावण शुक्ल ८ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[३], अंग सूत्र-[3] “स्थान" मूलं एवं अभयदैवसूरि-रचित वृत्तिः ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] स्थान [-] मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internation “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], स्थानाङ्गसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" NIANIANIANIANANIANIANIANA ॥ अहेम् ॥ श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितं श्रीमच्चन्द्रगच्छालङ्कारश्रीमदभयदेवसूरि सूत्रित विवरणयुतं श्रीमत्स्थानाङ्गसूत्रम् । (प्रथमो विभागः ) BAGAL प्रकाशयित्री - १००० राजनगरवास्तव्य श्रेष्ठि मगनलाल पीतांबरदास १००० सूर्यपुरवास्तव्य श्रेष्ठि दीपचंद सुरचंद १००० छायापुरी श्रीजैनसंघ ५०१ सूर्यपुरवास्तव्य श्रेष्ठि शिवचंद सोमचंद ५०० सूर्यपुरवास्तव्य श्रेष्ठि नानचंद धनाजी वित्तीर्ण पूर्णद्रव्यसाहाय्येन श्रेष्ठि वेणीचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा श्रीआगमोदयसमितिः मोहमय्यां 'निर्णयसागर मुद्रणालये रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रवित्वा प्रकाशितम् । वीरसंवत् २४४५. विक्रमसंवत् १९७५ ( पण्यं २-१२-० ) काईट १९१८ प्रतयः १०००. JNNUMANN NNNN For Park Use Only ~1~ wor Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका ७८३ मूलांक: of ५७ ५७ ७७ ८१ ९९ १२७ १२७ १६१ १८१ २०५ • स्थान-१ एक स्थान आश्रित विविध विषयस्य प्ररूपणा - • स्थान- २ विषय: उद्देशक: १ उद्देशकः २ उद्देशक: ३ - उद्देशक: ४ • स्थान ३ - उद्देशक: १ • उद्देशक: २ उद्देशक: ३ • उद्देशक: ४ पृष्ठ ००३ ०७९ ०७९ ११७ १२७ १७३ २०६ २०६ २५५ २७६ ३१६ मूलांक: २४९ २४९ २९२ ३३३ ३६२ ४२३ ४२३ ४५० ४७९ ५१८ स्थानाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम विषय: • स्थान- ४ उद्देशक: १ उद्देशक: २ उद्देशक: ३ उद्देशक: ४ • स्थान ५ उद्देशक: १ उद्देशक: २ उद्देशक: ३ • स्थान ६ - षड् स्थान- आश्रित विविधविषयस्य प्ररूपणा - [ उद्देशका: न अस्ति ] पृष्ठ ३६१ ३६२ ४१५ ४७१ ५२९ ~2~ ५८२ ५८२ ६१९ ६६७ ७०७ मूलांक: ५९२ ६९९ ८०० ८८८१०१० दीप- अनुक्रमाः १०१० पृष्ठ ७६४ विषय: • स्थान ७ - सप्त स्थान आश्रित विविध विषयस्य प्ररूपणा • स्थान ८ - अष्ट स्थान आश्रित विविध विषयस्य प्ररूपणा • स्थान ९ -नव स्थान आश्रित विविधविषयस्य प्ररूपणा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३ ] “स्थान” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः • स्थान १० - दश स्थान-आश्रित विविधविषयस्य प्ररूपणा ८३४ ८९० ९४३ - १०५८ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्थान- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "स्थानाङ्गसूत्र" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाई है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी स्थानांग सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है। अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है। इसी स्थानांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पुज्य श्री पुन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वद्धि पत्रक दिया है। हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] स्थान [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], [०३], अंग सूत्र [०३ ] Education Internation ॥ अर्हम् ॥ नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवृत्तिसमेतं । श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् । श्रीवीरं जिननाथं नत्वा स्थानाङ्गकतिपयपदानाम् । प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टं करोम्यहं विवरणं किश्चित् ॥ १ ॥ इह हि श्रमणस्य भगवतः श्रीमन्महाबीरवर्द्धमानस्वामिन इक्ष्वाकुकुलनन्दनस्य प्रसिद्ध सिद्धार्थराज सूनोर्महाराजस्येव परमपुरुष काराक्रान्तविक्रान्तरागादिशत्रोराज्ञाकरणदक्षक्ष्मापतिशत सतत सेवितपादपद्मस्य सकलपदार्थसार्थ साक्षात्करणदक्षकेवलज्ञानदर्शन रूपप्रधानप्रणिध्यंवबुद्ध सर्वविषयग्रामस्वभावस्य सकलत्रिभुवनातिशायिपरमसाम्राज्यस्य निखिलनीतिप्रवर्त्तकस्य परमगम्भीरान्महार्थादुपदेशान्निपुणबुद्ध्यादिगुणगणमाणिक्यरोहणधरणीकल्पेन भाण्डागारनियुक्तेनेव गणधरेण पूर्वकाले चतुर्वर्णश्रीश्रमणसङ्घभट्टारकस्य तत्सन्तानस्येवोपकाराय निरूपितस्य विविधार्थरैलसारस्य देवताधिष्ठि १ उपयोगः २ "नस्य चोप प्र ३ धारण प्र. वीर प्रभोः वंदना एवं स्थानांग विवरणस्य प्रतिज्ञा मूलं [-] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Penal Use On ~4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [-], उद्देशक [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्र ध्ययने वृत्तिः द्वाराणि तस्य विद्याक्रियावलवताऽपि पूर्वपुरुषेण केनापि कुतोऽपि कारणादनुन्मुद्रितस्यात एव च केषाश्चिदनर्थभीरूणां मनो- १ स्थानास्थगोचरातिक्रान्तस्य महानिधानस्येव स्थानाङ्गस्य तथाविधविद्याबलविकलैरपि केवलधार्थप्रधानैः स्वपरोपकारायार्थ| विनियोजनाभिलाषिभिरत एव चाविगणितस्वयोग्यतैनिपुणपूर्वपुरुषप्रयोगानुपश्रुत्य किञ्चित्स्वमत्योमेश्य तथाविधवर्त फलादिमानजनानापृच्छय च तदुपायान् द्यूतादिमहाव्यसनोपेतैरिवास्माभिरुन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यते इति शास्त्रप्रस्ता|बना ॥ तस्य चानुयोगस्य फलादिद्वारनिरूपणतः प्रवृत्तिः, यत उक्तम्-"तस्स फैलजोगमंगलसमुदायत्था तहेव दारौई।। तब्भेयनिरुत्तिकमपयोयणाईच बचाई ॥१॥"ति, तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तये फलमस्यावश्यं वाच्यम् , अन्यथा हि निष्पयोजनत्वमस्याशङ्कमानाः श्रोतारः कण्टकशाखामईन इव न प्रवर्तेरन्निति, तच्चानन्तरपरम्परभेदाद् द्विधा, तत्रानन्तरमर्थावगमः, तत्पूर्वकानुष्ठानतश्चापवर्गप्राप्तिर्या सा परम्परप्रयोजनमिति १३ तथा योगः-सम्बन्धः, स च यद्युपायोपेय-12 भावलक्षणो यदुतानुयोग उपायोऽर्थावगमादि चोपेयमिति तदा स प्रयोजनाभिधानादेवाभिहित इत्यवसरलक्षण: सम्बन्धोऽस्य वाच्यः, कोऽस्य दाने सम्बन्धोऽवसर इति भावः, योग्यो वा दाने अस्य क इति, तत्र भव्यस्य मोक्षमार्गाभिलाषिणः स्थितगुरूपदेशस्य प्राणिनोऽष्टवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यायस्यैव सूत्रतोऽपि स्थानाङ्गं देयमित्ययमवसरः, योग्योऽपि पहरित प्र. २ तस्य (अनुयोगस ) फल्योगमालसमुदायास्तथैव द्वाराणि । तद् (अनुयोगद्वार) भेदनिरुक्तिकमप्रयोजनाभि च वाच्यानि ॥१॥ (विशेषावश्यकपूरयभिप्रायेण प्रयोजनमिति भिन्नं वारं तथा च द्वारप्रयोजनमित्यर्थः) ३प्रयोजनस्य साधितरवात, यदि च न तथा तययमपि साध्य एव, CAS | स्थानांग-विवरणस्य प्रतिज्ञा, फलादिद्वारस्य निरूपणं ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [-], उद्देशक [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: चायमेवेति, यत उक्तम्-"तिवरसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाममज्झयणं । चउचरिसस्स य सम्म सूयगडं नाम अंगति | ॥१॥दसकप्पब्यवहारा संवच्छरपणगदिक्खियरसेव । ठाणं समवाओऽवि य अंगे ते अह वासस्स ॥२॥ ति" अन्यथा &ादानेऽस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा इति । तथा श्रेयोभूततयाऽस्य विघ्नसम्भवे तदुपहतशक्तयः शिष्या नैवात्र प्रवर्तेरनिति तदु-IX पशमाय मङ्गलमुपदर्शनीयम्, उक्तञ्च-"बहेविग्घाई सेयाई तेण कयमङ्गलोवयारेहिं । घेत्तब्बो सो सुमहानिहिव्व जह वा महाविज्जा ॥१॥” इति, मङ्गलं च शास्त्रस्यादिमध्यावसानेषु क्रमेण शास्त्रार्थस्याविघ्नेन परिसमाप्तये तस्यैव स्थैर्याय तस्यैवाव्यवच्छेदाय च भवतीति, तदुक्तम्-"तं मंगलमाईए मज्झे पज्जन्तए य सत्थस्स । पढम सत्यत्याविग्धपारगमणाय निद्दिडं ॥१॥ तस्सेव य थिज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमंपि तस्सेव। अब्बोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवसस्स ॥२॥"त्तिा तत्रादिमङ्गलं 'सुयं मे आउसं ! तेणं भगवयेत्यादिसूत्रं, नन्द्यन्तर्भूतत्वात् श्रुतशब्दस्य, भगवद्बहुमानगर्भवाद्वा आयुष्मता भगवतेत्यस्य, नन्दीभगवद्बहुमानयोश्च मङ्गचते-अधिगम्यते वाञ्छितमनेनेति मङ्गलार्थस्य युज्यमानत्वादिति, मधमङ्गलं पञ्चमाध्ययनस्यादिसूत्रं 'पंच महब्बए इत्यादि, महात्रतानां क्षायिकादिभावतया मङ्गलत्वाद्, भवति हि त्रिवर्षपर्यायस्य तु आचारप्रकल्पनामाध्ययनम् । चतुर्वस्य च सम्बक सूत्र नामामिति ॥ १॥ दशाकल्पव्यवहाराः संवत्सरपचकदीक्षितस्यैन । | स्थानानं समवायोऽपि चाडे ते अध्वर्षस्य ॥२॥ २ बहु विनानि श्रेयांसि तेन कृतमलोपचारैः । प्रहीतव्यः स सुमहानिधिारव यथा वा महाविद्या ॥१॥ २ सन्मालमादौ मध्ये पर्यन्ते च शास्त्रम । प्रथम शात्रा (नस्या)विघ्नपारगमनाय निर्दिष्टम् ॥१॥ तस्यैव च स्थैया मध्यममन्यमपि तवैव । अयुच्छि-1 प्रतिनिमितं शिवप्रशिष्यादिवंशे ॥२॥४मालमादिसूत्रमिति योगः. फलादिद्वारस्य निरूपणं, मंगल-निरुपणं, ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: CALC वात्तः द्वाराणि श्रीस्थाना- द्राक्षायिकादिको भावो मङ्गलं, यत उक्तम्-"नोआर्गमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाइओ" त्ति, अधवा षष्ठाध्ययनादिसूत्रं १ स्थाना 'छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरहई गणं धरित्तए' इत्यादि, अनगारस्य परमेष्ठिपश्चकान्तर्गतत्वेन मङ्गलत्वात्, सूत्रा-४ा ध्ययने भिधेयानां वा गणधरस्थानानां क्षायोपशमिकादिभावरूपतया मङ्गलत्वादिति, अन्तमङ्गलं तु दशमाध्ययनस्थान्तसूत्र | फलादि'दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ते' तीहानन्तशब्दस्य वृद्धिशब्दवन्मङ्गलत्वादिति, सर्वमेव वा शारखं मङ्गलं, नि-15 जेरार्थत्वात् , तपोवत्, मङ्गलभूतस्यापि शास्त्रस्य यो मङ्गलस्वानुवादः स शिष्यमतिमङ्गलत्वपरिग्रहार्थ, मकालतया हित। परिगृहीतं शाख मङ्गलं स्याद् , यथा साधुः, इत्यलं प्रसनेनेति, इह च शास्त्रस्य मङ्गलादि निरूपितमपि तदनुयोगस्य | द्रष्टव्यम् , तयोः कथञ्चिदभेदादिति । अथेदानी समुदायार्थश्चिन्त्यते-तत्र स्थानाङ्गमित्येतच्छास्त्रनाम, नाम च यथार्थादिभेदात् त्रिविधं, तद्यथा-यथार्थमयथार्थमर्थशून्यं च, तत्र यथार्थं प्रदीपादि, अयथार्थ पलाशादि, अर्थशून्यं * डित्यादि, तत्र यथार्थ शाखाभिधानमिष्यते, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेः, यत एवमतस्तन्निरूप्यते-तत्र च स्थानमङ्ग चेति पदद्वयं निक्षेपणीयमिति, तत्र स्थानं नामस्थापनादिभेदात् पञ्चदशधा, यदाह-"नामंठवणादविएखेतऽद्धी उँह उर्वरैती वसही । संजेमपैरंगहजोहे" अचलगणणसंधाभावे ॥१॥त्ति, तत्र स्थानमिति नामैव नामस्थानं, यस्य वा सचेतनस्याचेतनस्य वा स्थानमिति नाम क्रियते तद्वस्तु नाम्ना स्थान नामस्थानमित्युच्यते, तथा स्थाप्यत इति स्था-150 पना-अक्षादिः, सा च स्थानाभिप्रायेण स्थाप्यमाना स्थानमप्यभिधीयते, ततः स्थापनैव स्थानं स्थापनास्थानं, तथा दा॥२॥ १नोआगमतो भावः सुविशुद्धः क्षाविकादिकः । १ कथंचि दा.प्र. ३ अपिना अभ्यव्यपदेशा अपि. फलादिदवारस्य निरूपणं, मंगल-निरुपणं, 'स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निरुपणं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्रव्यं-सचित्ताचित्तमिनभेदं स्थानं गुणपर्यायाश्रयत्वात् , ततः कर्मधारय इति, तथा क्षेत्रम्-आकाशं, तञ्च तत् स्थान च द्रव्याणामाश्रयत्वात् क्षेत्रस्थानं, तथा अद्धा-कालः, स च स्थान, यतो भवस्थितिः कायस्थितिश्च भवकालः कायकालश्चाभिधीयते, स्थितिश्च स्थानमेवेति, 'उह'त्ति ऊर्ध्वतया स्थानम्-अवस्थानं पुरुषस्य ऊवस्थानं-कायोत्सर्ग इति, इह स्थानशब्दः क्रियावचनः, एवं निषदनत्वग्वर्तनादिस्थानमपि द्रष्टव्यम्, ऊर्ध्वशब्दस्योपलक्षणत्वादिति, तथा उपरतिः-विरतिः सैव स्थानं विविधगुणानामाश्रयत्वात् , विशेषार्थों वेह स्थानशब्दः, ततो विरतेः स्थान-विशेषो विरतिस्थानं, तच्च देशविरतिः सर्वविरतिति, तथा वसतिः स्थानमुच्यते, स्थीयते तस्मिन्नितिकृत्वेति, तथा संयमस्य स्थान संयमस्थानम् , इह स्थानशब्दो भेदार्थः, संयमस्य शुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतो विशेषः संयमस्थानं, तथा प्रगृह्यते-उपादी-1 यते आदेयवचनत्वाधः स प्रग्रहो-ग्राह्यवाक्यो नायक इत्यर्थः, स च लौकिको लोकोत्तरश्चेति, तत्र लौकिको राजयुवराजमहत्तरामात्यकुमाररूपो, लोकोत्तरश्वाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकरूप इति, तस्य स्थान-पदं प्रग्रहस्थानमिति, तथा योधानां स्थानम्-आलीढप्रत्यालीढवैशाखमण्डलसमपादरूपं शरीरन्यासविशेषात्मकं योधस्थान, तथा 'अचल'त्ति अचलतालक्षणो धर्मः सादिसपर्यवसितादिरूपः स्थानमचलतास्थानं, तथा 'गणण'त्ति गणनाविषयं । स्थानमेकब्यादिशीपहेलिकापर्यन्तं गणनास्थानं, तथा सन्धानं द्रव्यतश्छिन्नस्य कशुकादेरच्छिन्नस्य तु पक्ष्मोत्सद्यमानतन्वादेरिति, भावतस्तु छिन्नस्य प्रशस्ताप्रशस्तभावस्य पुनः सन्धानमच्छिन्नस्य त्वपरापरोत्पद्यमानस्य प्रशस्ताप्रशस्तभावस्य सन्धानं तदेव स्थान-वस्तुनः संहतत्वेनावस्थानं सन्धानस्थानं, 'भावे'त्ति भावानाम्-औदयिकादीनां स्थानम्-अवस्थि 'स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निरुपणं, ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -25 श्रीस्थाना-तिरिति भावस्थानमिति । एवमिह स्थानशब्दोऽनेकार्थः, इह च वसतिस्थानेन गणनास्थानेन वाऽधिकार इति दर्शयि- स्थानागसूत्र- प्यते ॥ इदानीमङ्गानिक्षेप उच्यते, तत्र गाथा-"नामंग ठवणंगं दव्वंग चेव होइ भावंग । एसो खलु अंगस्सा निक्खेवोध्य यने वृत्तिः चिउब्धिहो होइ ॥१॥" ति, तत्र नामस्थापने प्रसिद्धे, द्रव्याङ्गं पुनद्रव्यस्य-मद्यौषधादेरङ्ग-कारणमवयवो वेति द्रव्याङ्गं स्थानाङ्ग भावस्य-क्षायोपशमिकादेरेवमेवाझं भावाङ्गामिति, देह भावाङ्गेनाधिकार इत्यपि दर्शयिष्यते, तत्र तिष्ठन्त्यासते वसन्ति योनिक्षेपाः यथावदभिधेयतयैकत्वादिभिर्विशेषिता आत्मादयः पदार्था यस्मिंस्तत् स्थानम्, अथवा स्थानशब्देनेहकादिकः सङ्ख्याभेदोऽभिधीयते, ततश्चात्मादिपदार्थगतानामेकादिदशान्तानां स्थानानामभिधायकत्वेन स्थानम्, आचाराभिधायकत्वादाचारवदिति, स्थानश्च तत्प्रवचनपुरुषस्य क्षायोपशमिकभावरूपस्याङ्गमिवार चेति स्थानाङ्गमिति समुदायार्थः ४ । तत्र च दशाध्ययनानि, तेषु प्रथममध्ययनमेकादित्वात् सङ्खचाया एकसख्योपेतात्मादिपदार्थप्रतिपादकत्वात् एकस्थानम् , तस्य च महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तद्यथा-उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयश्चेति, तत्र अनुयोजनमनुयोगः,-सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनम् , अथवा अनुरूपोऽनुकूलो वा यो योगो-व्यापारः सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूपः सोऽनुयोग इति, आह च-"अणुजोजणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमभिधेयेण । वावारो वा जोगो जो अणुरूवो-13 &ाऽणुकूलो वा ॥१॥” इति, अथवा अर्थापेक्षया अणोः-लघोः पश्चाजाततया वा अनुशब्दवाच्यस्य सूत्रस्य योऽभिधेये | ॥३ ॥ १नामा स्थापना ज्यानं चैव भवति भानाम् । एष खलु आस्व निक्षेपश्चर्षिधो भवति ॥ १॥ २ इह व प्र. संबन्धः प्र. ४ अनुयोजनम-18 नुयोगः सूत्रस निजकेन यदभिधेयेन । व्यापारो वा योगो योऽनुरूपोऽनुकूलो वा ॥१॥ ५सूत्रानुयोगापेक्षया पुस्त्वं. SARERatininemarana 'स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निक्षेपा:, ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] Education Internation योगो - व्यापारस्तेन सम्बन्धो वा सोऽणुयोगोऽनुयोगो वेति, आह च--"अहवा जमस्थओ थोवपच्छभावेहि सुयमणुं तस्स । अभिधेये वावारो जोगो तेणं व संबंधो ॥ १ ॥ त्ति, तस्य द्वाराणीव द्वाराणि तत्संवेशमुखानि, एकस्थानकाध्ययनपुरस्यार्थाधिगमोपाया इत्यर्थः, नगरदृष्टान्तश्चात्र, यथा हि अकृतद्वारं नगरमनगरमेव भवति, कृतैकद्वारमपि दुरधिगमं कार्यातिपत्तये च चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगमं कार्यानतिपत्तये च, एवमेकस्थानकाध्ययनपुरमप्यर्थाधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं भवति, एकद्वारानुगतमपि च दुरधिगमं, सप्रभेदचतुर्द्वारानुद्वारानुगतं तु सुखाधिगममित्यतः फलवान् द्वारोपन्यास इति ५ । तानि च द्वित्रिद्विद्विभेदानि क्रमेण भवन्तीति तद्भेदाः ६ । निरुक्तिस्तु उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवाम्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रवणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनीतविनेयविनयादित्युपक्रम इत्यपादान इति, एवं निक्षेपणं निक्षिप्यते वाऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षे पो न्यासः स्थापनेति पर्यायाः, एवमनुगमनमनुगमः अनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वाऽनुगमः- सूत्रस्य न्यासानुकूलः परिच्छेदः, एवं नयनं नयः नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नयः-अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेद इत्यर्थः ७ । अथैषामुपक्रमादिद्वारा णामित्थंक्रमे किं प्रयोजनमिति ?, अत्रोच्यते, न ह्यनुपक्रान्तं सदसमीपीभूतं निक्षिप्यते, नचानि १ अथवा यदतः लोकपथाद्धावास्याः सूत्रमेणु तस्य अभिषेये व्यापारी योगस्तेन वा संबन्धः ॥ १ ॥ 'स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निक्षेपाः, उपक्रम आदि द्वाराणि मूलं [-] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Pernal Use Only ~10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- क्षिप्त नामादिभिरर्थतोऽनुगम्यते, न चार्थतोऽननुगतं नयैर्विचार्यते इत्ययमेव क्रम इति, उक्तश्च-"दारकमोऽयमेव १ स्थानाअसूत्र- उ निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइ नानत्थं नाणुगमो नयमयविहूणो ॥१॥"त्ति ८॥ तदेवं फलादीन्युक्तानि। ध्ययने वृत्तिः | साम्प्रतमनुयोगद्वारभेदभणनपुरस्सरमिदमेवाध्ययनमनुचिन्त्यते-तत्रोपक्रमो द्विविधो-लौकिकः शास्त्रीयश्च, तत्र ली-ICI उपक्रमाकिकः षोडा-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्योपक्रमो द्वेधा-सचेतनाचेतनमिश्र- दीद्वाराणि द्विपदचतुष्पदापदरूपस्य द्रव्यस्य परिकर्म विनाशश्चेति, तत्र परिकर्म-गुणान्तरोत्सादनं विनाशः-प्रसिद्ध एव, एवं क्षे-18 त्रस्य-शालिक्षेत्रादेः कालस्य त्वपरिज्ञातस्वरूपस्य नाडिकादिभिः परिज्ञानं, भावस्य च-गुर्वादिचित्तलक्षणस्थानवगतस्येजितादिभिरवगम इति, शाखीयोऽपि पोद्वैव-आनुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यताऽर्थाधिकारसमवतारभेदात्, तवानुपूर्वी दशधाऽन्यत्रोक्ता, तत्र चोत्कीर्तनगणनानुपूर्योरिदमवतरति, उत्कीर्तनश्च एकस्थानं द्विस्थानं त्रिस्थानमित्यादि, गणनं तु| परिसङ्ख्यान-एक द्वे त्रीणि इत्यादि, सा च गणनानुपूर्वी त्रिप्रकारा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूनानुपूर्वी चेति, पूर्वानुपू.| व्येदं प्रथम सदू व्याख्यायते पश्चानुपूर्व्या दशममनानुपूर्ध्या त्वनियतमिति, तथा नाम दशधा-एकादि दशान्तं, तत्र षड़ नाम्यस्यावतारः, तत्रापि क्षायोपशमिके भावे, क्षायोपशमिकभावस्वरूपत्वात् सकल श्रुतस्येति, उक्तश्च-"छबिहनामे दोभावे खओवसमिए सुर्य समोयरति । जे सुयणाणावरणक्खओवसमजं तयं सव्वं ॥१॥"ति । तथा प्रमाण द्रव्यादि- ॥४॥ द्वारकमोऽयमेव तु निक्षिप्यते येन नासमीपस्थं । नान्यस्लमनुगम्यते नानुगमो नयमतविहीनः ॥१॥ २ पविधनानि मावे क्षायोपशम्मके श्रुतं समवतरति । यद् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशाम तकत् सर्वम् ॥१॥ 45454844 उपक्रम-आदि द्वाराणि, 'स्थान' अध्ययनस्य अनुचिंतनम् ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 4254 भेदाचतुर्विध, तत्र क्षायोपशमिकभावरूपत्वादस्य भावप्रमाणे अवतारो, यत आह-"दच्योदि चउम्भेयं पमीयते जेण| तं पमाणति । इणमज्झयणं भावोत्ति भावमाणे समोयरति ॥१॥"त्ति, भावप्रमाणं च गुणनयसङ्ख्याभेदतस्विधा, तत्रास्य गुणप्रमाणसख्याप्रमाणयोरेवावतारः, नयप्रमाणे तु न सम्पति, यदाह-"मूढनइयं सुर्य कालियं तु न नया समोयरंति इहं । अपुहुत्ते समोयारो नत्थि पुहुत्ते समोयारो ॥१॥"त्ति, गुणप्रमाणं तु द्विधा-जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्र अस्य जीवोपयोगरूपत्वात् जीवगुणप्रमाणेऽवतारः, तस्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतख्यात्मके अस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानप्रमाणे, तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमात्मके प्रकृताध्ययनस्याप्तोपदेशरूपत्वादागमप्रमाणे, तत्रापि | लौकिकलोकोत्तरभेदे परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरे सूत्रार्थोभयात्मनि तथा चाह-जीवाणपणत्तणओ जीवगुणे बोह-| भावओ णाणे । लोगुत्तरसुत्तत्थोभयागमे तस्स भावाओ ॥१॥" तत्राप्यात्मानन्तरपरम्परागमभेदतस्त्रिविधेऽर्थतस्ती-| र्थकरगणधरतदन्तेवासिनः सूत्रतस्तु गणधरतच्छिष्यतत्प्रशिष्यानपेक्ष्य यथाक्रममात्मानन्तरपरम्परागमेष्ववतारः, ससधाप्रमाणमन्यत्र प्रपञ्चितं तत एवावधारणीयं, तत्र चास्य परिमाणसङ्ख्यायामवतारः, तत्रापि कालिकश्रुतदृष्टिवाद-17 श्रुतपरिमाणभेदतो द्विभेदायां कालिकश्रुतपरिमाणसङ्कथायां, कालिकश्रुतत्वादस्येति, तत्रापि शब्दापेक्षया सङ्ख्येयाक्षरपदाद्यात्मकतया सङ्ख्यातपरिमाणात्मिकायां पर्यायापेक्षया त्वनन्तपरिमाणात्मिकायां, अनन्तगमपर्यायत्वादागमस्य, १व्यादि चतुभवं प्रमीयते येन तस्प्रमाणमिति । इदमभ्ययन भावो भावमाने समवतराते ॥१॥२ मूढनयिकं श्रुतं कालिकं तु न नयाः रामवतरन्तीह । अपृथक्त्वे समवतारो नाति पृथक्वे समचतारः॥१॥ ३ जीवानन्यत्वात् जीवगुणे बोधभावात् शाने । लोकोत्तरसूत्रार्थोमयागमे तस्य भावात् ॥॥ 0CCES उपक्रम-आदि द्वार अंतर्गत् 'प्रमाण' विषयक चर्चा, ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ५ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [-1 "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .. आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - *******... Education Internation तथा चाह- 'अणंता गमा अनंता पजवा' इत्यादि । तथा वक्तव्यता स्वसमयेतरोभयवक्तव्यताभेदात् त्रिधा, तत्रेदं स्वसमयवक्तव्यतायामेवावतरति, सर्वाध्ययनानां तद्रूपत्वात्, तदुक्तम्- "परसंमओ उभयं वा सम्मद्दिस्सि समओ जेणं । ता सव्वभ्झयणाई ससमयवत्तव्वनिययाई ॥ १ ॥ "ति तथा अर्थाधिकारो वक्तव्यताविशेष एव स चैकत्वविशिष्टात्मादिपदार्थप्ररूपणलक्षण इति । तथा समवतारः-प्रतिद्वारमधिकृताध्ययन समवतारणलक्षणः, स चानुपूर्व्यादिषु लाघवार्थमुक्त एवेति न पुनरुच्यते, तथाहि-- “अहुणा य समोयारो जेण समोयारियं पइद्दारं । एगडाणमणुगओ सो लाघवओ ण पुण बच्चो ॥ १ ॥” निक्षेपत्रिधा भघनामसूत्राद्यापक निष्पन्नभेदात् आह च-"अण्णइ घेप्पइ य सुहं निक्खेवपयाणुसारओ सत्थं । ओहो नामं सुतं निखेत्सव्वं तओवरसं ॥ १ ॥" तत्रौघः- सामान्य मध्ययनादि नाम, उक्तश्च“ओहो जं सामन्नं सुयाभिहाणं चउब्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य पत्तेयं ॥ १ ॥ नामादि चउन्भेयं वनेऊणं सुआणुसारेणं । पैगहाणं जोज्जं चउपि कमेण भावेसुं ॥ २ ॥ तत्राध्यात्मं - मनस्तत्र शुभे अयनं गमनं अर्थादात्मनो भवति यस्मादध्यात्मशब्दवाच्यस्य वा मनसः शुभस्य आनयनमात्मनि यतो भवति बोधादीनां वाऽधि १ परसमय उभयं वा सम्यग्दृष्टेः खसमयो येन ततः सर्वाण्यध्ययनानि खसमययकव्यतानिवानि ॥ १ ॥ २ अधुना च समवतारो येन समयतारितं प्रतिद्वारम् एकस्थानेऽनुगतः स तापवतो न पुनर्वोच्य इति ॥ १ ॥ ( सामइयं सोऽणुगओ लापयओ णो पुणो वचो वि० भा० ) ३ भव्यते गृहखतेच मुखं निक्षेपपदानुसारतः शास्त्रम् ओषो नाम सूत्रं निक्षेप्तव्यं ततोऽवश्यम् ॥ १ ॥ ४] ओषो यत्सामान्यं सूत्राभिधानं चतुर्विधं तच अध्ययनमक्षीणमायः क्षपणा च प्रत्येकम् ॥ १ ॥ नामादि चतुर्भेदं वर्णयित्वा श्रुतानुसारेण । एकस्थानमायोज्यं चतुष्वैपि क्रमेण भावेषु ॥ २ ॥ ५ सामाइयमा०वि० भा० उपक्रम आदि द्वार अंतर्गत् 'प्रमाण' विषयक चर्चा, निक्षेपस्य भेदा: For Parts Only ~ 13~ १ स्थानाध्ययने उपक्रमा दीनि ॥ ५ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] "स्थान" अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति मूलं [-1 "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... ... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ***....... Education Internation - कमयनं यतो भवति तदण्झयणंति प्राकृतशैल्या भवतीति, आह च-" - "जेणं सुहप्पज्झयणं अज्झष्पाणयणमहियमवणं वा । बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥ १ ॥” ति, अधीयते वा पठ्यते आधिक्येन स्मर्यते गम्यते वा तदित्यध्ययनमिति तथा यद्दीयमानं न क्षीयते स्म तदक्षीणं, तथा ज्ञानादीनामायहेतुत्वादायः, तथा पापानां कर्मणां क्षपण | हेतुत्वात् क्षपणेति, आह च-' - "अज्झीणं दिजंतं अच्वोच्छित्तिनयतो अलोगोज्य । आओ नाणाईणं झवणा पावाण खवर्णति (कम्माणं ) ॥ १ ॥” नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे अस्यैकस्थानकमिति नाम, तत एकशब्दस्य स्थानशब्दस्य च निक्षेपो वाच्यः, तत्र एकस्य नामादिः सप्तधा, तदुक्तम्- "नामं १ ठवणा २ दविए ३ माउयपय ४ संगहेकए चैव ५ । पज्जव ६ भावे य ७ तहा सत्तेते एकगा होंति ॥ १ ॥” तत्र नामैको यस्यैक इति नाम, स्थापनैकः पुस्तकादिन्यस्तै ककाङ्कः, द्रव्यैकः सचित्तादिखिधा, मातृकापदैकस्तु 'उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा इत्येष मातृकावत्सकलवायमूलतया अवस्थितानामन्यतरद्विवक्षितम् अकाराद्यक्षरात्मिकाया वा मातृकाया एकतरोऽकारादिः, संग्रहको येनैकेनापि ध्वनिना बहवः सङ्गृह्यन्ते, यथा जातिप्राधान्येन त्रीहिरिति, पर्यायैकः शिवकादिरेकः पर्यायो, भावैक औदयिकादिभावानामन्यतमो भाव इति, इह भावैकेन अधिकारो यतो गणनालक्षणस्थानविषयोऽयमेको गणना च सङ्ख्या सङ्ख्या च गुणो गुणश्च भाव इति, स्थानस्य तु निक्षेप उक्त एव तत्र च गणनास्थानेनेहाधिकारः, ततः एकलक्षणं स्थानं-संख्याभेद १. वेन शुभाध्यात्मानयनमध्यात्मानयनमधिकमयनं वा । बोधस्य संयमस्य या मोक्षस्त्र या ततस्तद् अध्ययनम् ॥ १ ॥ २ अक्षीणं दीयमानमव्युच्छित्तिनवतोलोक इव आयो ज्ञानादीनां क्षपणा पापानां क्षपणमिति ॥ १ ॥ ३ नामस्थापनाइये मातृकापदसंग्रह कफन पर्ययभावे च तथा सप्तैवे एकका भवन्ति ॥ १ ॥ अध्ययन शब्दस्य अर्थः, 'एक' शब्दस्य सप्त निक्षेपाः For Parts Only ~14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [१] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ६ ॥ मूलं [१] स्थान [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], १ स्थाना ध्ययने ओघादिनिक्षेपाः एकस्थानं तद्विशिष्टजीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमध्ययनमध्ये कस्थानमिति उक्तावोपनिष्पन्न नामनिष्पन्ननिक्षेपी, सम्प्रति सूत्रालापक निष्पन्ननिक्षेपः प्राप्तावसरः, तत्स्वरूपं चेदम् - सूत्रालापकानां - सूत्रपदानां 'श्रुतं मे आयुष्मन्नि'त्यादीनां निक्षेपोनामादिन्यासः, स च अवसरप्राप्तोऽपि नोच्यते सति सूत्रे तस्य संभवात् सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चानुगमभेद एवेत्यनुगम एवं तावदुपवर्ण्यते - द्विविधोऽनुगमो - निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमञ्च, तत्र आयो निक्षेपनिर्युक्त्युपोद्घातनिर्युक्तिसूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगमविधानतस्त्रिविधः, तत्र च निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमः स्थानाङ्गाध्ययनाद्येकशब्दानां निक्षेपप्रतिपादना- * प्रस्तावना दनुगत एवेति, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु — 'उद्देसे निद्देसे य निगमे' इत्यादिगाथाद्वयादवसेय इति सूत्रस्पर्शिक निर्युक्त्यनुगमस्तु संहितादौ षडिधे व्याख्यालक्षणे पदार्थ पदविग्रह चालनाप्रत्यवस्थानलक्षण व्याख्यान भेदचतुष्टयस्वरूपः, स च सूत्रानुगमे संहितापदलक्षणव्याख्यानभेदद्वयलक्षणे सति भवतीत्यतः सूत्रानुगम एवोच्यते, तत्र च अल्पग्रन्थ महार्थादिसूत्र लक्षणोपेतं स्खलितादिदोषवर्जितं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् सू० (१) सुयं मे आउ ! ते भगवता एवमक्खायं ( सू० १ ) अस्य च व्याख्या संहितादिक्रमेणेति, आह च भाष्यकारः- “मुत्तं १ पयं २ पयत्थो ३ संभवतो विग्गहो ४ वियारो य ५ [ चालनेत्यर्थः ] । दूसियसिद्धी ६ नयमयविसेसओ नेयमणुसुत्तं ॥ १ ॥” तत्र सूत्रमिति संहिता, सा चानुगतैव, १ हि असी सम्भवति प्र. २ सूत्रं पदं पदार्थः संभवतो विग्रहो विचार दुषित सिद्धियमत विशेषतो नेवमनुसूत्रम् ॥ १ ॥ Etication Internation अत्र मूल - सूत्रस्य आरम्भः वर्तते, For Penal Praise Only ~ 15~ ॥६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति© स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [१] दीप अनुक्रम सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वादिति, आह च-"होई कयत्थो वो सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो"त्ति, सूत्रे चास्खलितादिगुणोपेते उच्चारिते केचिदर्था अवगताः प्राज्ञानां भवन्त्यतः संहिता व्याख्याभेदो भवति, अनधिगतार्थाधिगमाय च पदादयो व्याख्याभेदाः प्रवर्तन्त इति, तत्र पदानि-'श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यात'मिति, एवं पदेषु व्यवस्थापितेषु सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपावसरः, तत्र चेयं व्यवस्था-"जत्थ उ जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिये निरवसेसं । जस्थपि यण जाणेजा चउकयं निक्सिवे तत्थ ॥१॥"त्ति, तत्र नामश्रुतं स्थापनाश्रुतं च प्रतीतं, द्रव्य श्रुतमधीयानस्यानुपयुक्तस्य पत्रकपुस्तकन्यस्त वा, भावश्रुतं तु श्रुतोपयुक्तस्येति, इह च भावभुतेन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगलक्षणेनाधिकारः, तथा 'आउ ति आयुः-जीवितं, तन्नामादिभेदतो दशधा, तद्यथा-"नामं १ ठवणा २ दविए ३ ओहे ४ भव ५ तब्भवे य ६ भोगे य ७ । संजम ८ जस ९ कित्ती १० जीवियं च तं भण्णती दसहा ॥१॥" तत्र नामस्थापने क्षुण्णे 'दविए'त्ति द्रव्यमेव सचेतनादिभेदं जीवितव्यहेतुत्वाजीवितं द्रव्यजीवितं, ओघजीवितं नारकाद्यविशेषितायुर्द्रव्यमानं सामान्यजीवितं भवति, नारकादिभवविशिष्टं जीवितं भवजीवितं नारकजीवितमित्यादि, 'तन्भवे यत्ति तस्यैव-पूर्वभवस्य | समानजातीयतया सम्बन्धि जीवितं तद्भवजीवितं, यथा मनुष्यस्य सतो मानुषत्वेनोत्पन्नस्येति, भोगजीवितं चक्रवादीना, संयमजीवितं साधूनां, यशोजीवितं कीर्तिजीवितं च यथा महावीरस्येति, जीवितं चौयुरेवेति, इह च संयमा १ भवति च कृतार्थ उक्त्वा सपदच्छेयं सून सूत्रानुगम इति. २वत्र तु यं जानीयात् निक्षेप निक्षिपेत् निरवशेषम् । यत्रापि च न जानीयात् चतुष्कर्ष निक्षिपेत्रात्र ॥१॥ वाक्यनिक्षेपप्रसाचे भाषानिक्षेपबदन आयुःप्रतावे जीवितनिक्षेप दखी, 'श्रुत' एवं 'आउस' शब्दस्य निक्षेपा:, ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१] सूत्र वृत्तिः श्रीस्थाना- ४ युषा यशः कीर्त्त्यायुषा चाधिकार इति, एवं शेषपदाना यथासम्भवं निक्षेपो वाच्य इति ॥ उक्तः सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपः पदार्थः पुनरेवम्-इह किल सुधर्म्मस्वामी पञ्चमो गणधरदेवो जम्बूनामानं स्वशिष्यं प्रति प्रतिपादयाञ्चकार-श्रुतम् आकर्णितं 'मे' मया 'आउ'ति आयुः जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूतं वा विद्यते वस्यासावायुष्मांस्तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन् !-शिष्य ! 'तेणं' ति यः सन्निहितव्यवहितसूक्ष्मवादरबाह्याध्यात्मिकसकलपदार्थेष्वव्याहतवचनतयाऽऽप्तत्वेन जगति प्रतीतः अथवा पूर्वभवोपासतीर्थकरनामकर्मादिलक्षणपरमपुण्यप्राग्भारो विलीनानादिकालालीनमिथ्यादर्शनादिवासनः परिहृतमहाराज्यो दिव्याद्युपसर्गवर्गसंसर्गाविचलितशुभध्यानमार्गों भास्कर इव धनधा| तिकर्म्मघनाघनपटल विघटनोल्लसितविमलकेवलभानुमण्डलो विबुधपतिषट्पद्पटलजुष्टपादपद्मो मध्यमाभिधानपुरीप्रथमप्रवर्त्तितप्रवचनो जिनो महावीरस्तेन 'भगवता' अष्टमहाप्रातिहार्यरूपसमयैश्वर्यादियुक्तेन 'एव' मित्यमुना वक्ष्यमाणेनैकत्वादिना प्रकारेण 'आख्यात' मिति आ-मर्यादया जीवाजीवलक्षणासङ्कीर्णतारूपया अभिविधिना वा समस्तवस्तुविस्तारव्यापनलक्षणेन ख्यातं कथितं आख्यातमात्मादि वस्तुजातमिति गम्यते, अत्र च 'श्रुत'मित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेवान्यस्मै प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात् उक्तश" किं एत्तो पावयरं ? सम्मं अणहिगयधम्मसन्भावो । अन्नं कुदेसणाए कयरागंमि पाडेइ ॥ १ ॥ त्ति, 'मये 'त्यननोपक्रमद्वाराभिहितभावप्रमाणद्वारगतात्मानन्तरपरम्परभेदभिन्नार्गमेऽयं वक्ष्यमाणो ग्रन्थोऽर्थतोऽनन्तरागमः सूत्रतस्त्वात्मागम १ किमेतस्मात् कष्टकर सम्बम् अनधिगतसमयसद्भावः । अन्यं कुदेशनया कष्टतरागति पातयति ॥ १ ॥ २ भिन्नागमोऽयं प्र ॥७॥ “स्थान” - अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] Education Internation 'आउस' शब्दस्य निक्षेपा:, 'भगवत' आदि शब्दस्य अर्था: For Parts Only ~ 17~ स्थानाध्ययने आयुनिंक्षे पाः स० ॥७॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति© स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत + + सूत्राक [१] इत्याह, 'आयुष्मन्नि'त्यनेन तु कोमलवचोभिः शिष्यमनःप्रल्हादयताऽऽचार्येणोपदेशो देय इत्याह, उक्तश्च-"धम्ममइएहिं अइसुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो य मणं सीसं चोएइ आयरिओ ॥१॥"त्ति । आयुष्मस्वाभिधानं चात्यन्तमाहादक, प्राणिनामायुषोऽत्यन्ताभीष्टत्वाद्, यत उच्यते-'सव्वे पाणा पियाउया अप्पियवहा सुहासाया दुक्खपडिकूला सव्वे जीविउकामा सव्वेसिं जीवियं पियं"ति, तथा-"तृणायापि न मन्यन्ते, पुत्रदारार्थसम्पदः। जीवितार्थे नरास्तेन, तेषामायुरतिप्रियम् ॥ १॥" इति, अथवा 'आयुष्मन्नित्यनेन ग्रहणधारणादिगुणवते शिष्याय शास्त्रार्थो देय इति ज्ञापनार्थ सकलगुणाधारभूतत्वेनाशेषगुणोपलक्षणेन चिरायुर्लक्षणगुणेन शिष्यामन्त्रणमकारि, यत उक्तम्-'बुढेऽवि दोणमेहे न कण्हभूमाउ लोहए उदयं । गहणधरणासमत्थे इय देयमछित्तिकारिंमि ॥१॥" विपर्यये तु दोष इति, आह च--"आयरिए सुत्तम्मि य परिवाओ सुत्तअस्थपलिमंथो । अन्नेसिपि य हाणी पुवावि न दुद्धदा वंझा ॥१॥” इति, तथा 'तेने त्यनेन त्वाप्तत्त्वादिगुणप्रसिद्धताऽभिधायकेन प्रस्तुताध्ययनप्रामाण्यमाह, वक्तृगुणापेक्षत्वाचनप्रामाण्यस्येति, 'भगवते'त्यनेन तु प्रस्तुताध्ययनस्योपादेयतामाह, अतिशयवान किलोपादेया, तद्वचनमपि | तथेति, अथवा 'तेणं ति अननोपोद्घातनिर्युक्त्यन्तर्गतं निर्गमद्वारमाह, यो हि मिथ्यात्वतमःप्रभृतिभ्यो दोषेभ्यो निर्ग दीप अनुक्रम धर्ममयैरति मुन्दरैः कारणगुणोपनीतः। प्रहादयश्च मनः शिष्यं नोदयलाचार्यः ॥१॥ २ सर्वे प्रामाः प्रियायुधोऽप्रियवधाः सुखाखादाः प्रतिकूलदुःखाः सर्वे जीवितुकामाः सर्वेषां जीवितं प्रियम् . ३ पृष्ठेऽपि द्रोणमेथे न कृष्णभूमालुठति उदकं । प्रहणधारणसमर्थे एवं देयमच्छित्तिकारिधि ॥ १॥ ४ भाचार्ये सूत्रे काय परिवादः सूत्रार्थविनः । अन्येषामपि च हानिः स्पृष्ट्याऽपि न दुग्धदा पन्ध्या ॥१॥ ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [?] दीप अनुक्रम [१] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्ति: ॥ ८ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति मूलं [१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - स्थान [१], उद्देशक [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... ... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] -------- Education Internation तस्ततो निर्गतमिदमध्ययनं क्षेत्रतोऽपापायां कालतो वैशाखशुद्धैकादश्या पूर्वाह्णे भावे क्षायिके वर्त्तमानादिति, एवं च गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धोऽस्य प्रदर्शितो भवति, तथा तथाविधेन भगवता यदुक्तं तत् सप्रयोजनमेव भवतीति सामान्यतः सप्रयोजनता चास्योक्ता, न हि पुरुषार्थानुपयोगि भगवन्तो भाषन्ते, भगवत्त्वहाने:, अत एव चास्योपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्धोऽपि दर्शितः, इदं हि भगवदाख्यातं ग्रन्थरूपापन्नमुपायः, पुरुषार्थस्तूपेय इति, अत एव चात्र श्रोतारः श्रवणे प्रवर्त्तिताः, यतः - "सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्त्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥ १ ॥” इति 'एव' मित्यनेन तु भगवद्वचनादात्मवचनस्यानुत्तीर्णतामाह, अत एव स्ववचनस्य प्रामाण्यं, सर्वज्ञवचनानुवादमात्रत्वादस्येति, अथवा 'एव'मित्येकत्वादिः प्रकारोऽभिधेयतया निर्दिष्टः, निरभिधेयताऽऽशङ्कया श्रोतृणां काकदन्तपरीक्षायामिवाप्रवृत्तिरत्र मा भूदिति, 'आख्यात मित्यनेन तु नापौरुषेयवचनरूपमिदं तस्यासम्भवादित्याह यत उक्तम्- “वेयंवयणं न माणं अपोरसेयंति निम्मियं [तम्मयं ] जेण । इदमञ्चतविरुद्धं वयणं च अपोरसेयं च ॥ १ ॥ जं बुच्चइत्ति वयणं पुरिसाभावे उ नेयमेवंति । ता तस्सेवाभावो नियमेण अपोरुसेयत्ते ॥ २ ॥” इति, अ थवा आख्यातं भगवतेदं न कुव्यादिनिःसृतं यथा कैश्चिदभ्युपगम्यते - " तस्मिन् ध्यानसमापन्ने, चिन्तारत्नवदास्थिते । निःसरन्ति यथाकामं कुव्यादिभ्योऽपि देशनाः ॥ १ ॥" इत्यस्यानेनानभ्युपगममाह, यतः - 'कुडयादिनिः - १ वेदवचनं न मानमपौरुषेयमिति निर्मितं येन (तन्मतं येन ) इदमयन्तविरुद्धं यवनं वापरुषेये न ॥ १ ॥ यदुच्यते इति वचनं पुरुषाभावे तु नैतदेवमिति । यत् तस्यैवाभावो नियमेनापौरुषेयत्वे ॥ २ ॥ २ निम्मियं प्र. For Parts Only ~ 19~ १ स्थानाध्ययने १ सूत्रं ॥ ८ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [१] स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र- [ ०३ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति मूलं [१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सृतानां तु न स्यादाप्तोपदिष्टता । विश्वासश्च न तासु स्यात्केनेमाः कीर्त्तिता इति ? ॥ १ ॥" समस्तपदसमुदायेन त्वामौद्धत्यपरिहारेण गुरुगुणप्रभावनापरैरेव विनेयेभ्यो देशना विधेयेत्याह एवं हि तेषु भक्तिपरता स्यात्, तया च वियादेरपि सफलता स्यादिति, यदुक्तम्- “भत्तीऍ जिणवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा। आयरियनमोक्कारेण विज्जा | | मंता य सिज्झति ॥ १ ॥ "त्ति, नमस्कारश्च भक्तिरेवेति, अथवा 'आउसंतेणं'ति भगवद्विशेषणं, आयुष्मता भगवता, चिरजीविनेत्यर्थः, अनेन भगवद्बहुमानगर्भेण मङ्गलमभिहितं भगवद्बहुमानस्य मङ्गलत्वादिति चोक्तमेव, यद्वा 'आयुष्मते 'ति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुर्धारयता नतु मुक्तिमवाप्यापि तीर्धनिकारादिदर्शनात् पुनरिहायातेनाभिमाना| दिभावतोऽप्रशस्तं यथोच्यते कैश्चित् - "ज्ञानिनो धर्म्मतीर्थस्य, कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भव तीर्थनिकारतः ॥ १ ॥ " [ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥ २ ॥ ] एवं ह्यनुन्मूलितरागादिदोषत्यात् तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात्, निःशेषोन्मूलने हि रागादीनां कुतः पुनरिहागमन सम्भव इति ?, अथवा 'आयुष्मता' प्राणधारणधर्भवता न तु सदा संशुद्धेन तस्याकरणत्वेनाख्यातृत्वासम्भवादिति, यदिवा 'आवसंतेणं'ति मयेत्यस्य विशेषणं, तत आङिति गुरुदर्शितमर्यादया वसता, अनेन तत्त्वतो गुरुमर्यादावर्त्तिस्वरूपत्वात् गुरुकुलवासस्य तद्विधानमर्थत उक्तं, ज्ञानादिहेतुत्वात्तस्य, उक्तञ्च - "णाणस्स होइ भागी १ भक्त्या जिनवराणां क्षीयन्ते पूर्वसंचितानि कर्माणि । आचार्यनमस्कारेण विद्या मन्त्राथ सिध्यन्ति ॥ १ ॥ २ अशरीरत्वेन ३ ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुवन्ति ॥ १ ॥ गीतावासो रतिर्धमें अनायतनवर्जनम्। निवइब कषायाणामेतत् धीराणां शासनम् ॥२॥ Education Internation गुरुकुलवासस्य वर्णनं, For Parts Only ~20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 2 श्रीस्थाना- सूत्र १स्थानाध्ययने तिः गरुकूल [१] दीप अनुक्रम 555 थिरयरओ दसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥गीयावासो रती धम्मे, अणाययणवजणं। निग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासर्ण ॥२॥"ति, अथवा 'आमुसंतेणं'ति आमृशता भगवसादारविन्दं भक्तितः करतलयुगलादिना स्पृशता, अनेनैतदाह-अधिगतसकलशास्त्रेणापि गुरुविश्रामणादि विनयकृत्यं न मोक्तव्यम्, उक्त हि -"जहाऽऽहिअग्गी जलणं णमंसे, णाणाहुतीमंतपयाभिसित्तं । एवायरीय उवचिएजा, अणतणाणोवगओऽवि सं- पवासासू०१ तो॥१॥"त्ति, यद्वा 'आउसंतेण'ति आजुषमाणेन-श्रवणविधिमर्यादया गुरूनासेबमानेन, अनेनाप्येतदाह-विधिनैवोचितदेशस्थेन गुरुसकाशाच्छ्रोतव्यम्, न तु यथाकथञ्चित् , यत आह-"निद्दा विगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिङडेहिं । भत्तिबहुभाणपुच्वं उवउत्तेहिं सुणेयध्वं ॥१॥" इत्यादि, एवमुक्तः पदार्थः, पदविग्रहस्तु सामासिकपदविषयः, स चाख्यातमित्यादिषु दर्शित इति । इदानी चालनाप्रत्यवस्थाने, ते च शब्दतोऽर्थतश्च, तत्र शब्दतः ननु 'मे' इत्यस्य मम मह्यं चेति व्याख्यानमुचितं, षष्ठीचतुर्योरेबैकवचनान्तस्यास्मत्सदस्य मे इत्यादेशादिति, अत्रोच्यते, मे इत्ययं विभक्तिप्रतिरूपकोऽव्ययशब्दस्तृतीयैकवचनान्तोऽस्मच्छब्दार्थे वर्तत इति न दोषः । अर्थतस्तु चालना-ननु वस्तु नित्यं वा| स्थादनित्यं वा', नित्यं चेत्तहि नित्यस्याप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वरूपत्वाद्यो भगवतः सकाशे श्रोतृत्वस्वभावः स एव च कथं शिष्योपदेशकत्वस्वभाव इति, किञ्च-शिष्योपदेशकत्वं त्वस्य पूर्वस्वभावत्यागे स्यादत्यागे वा, यदि त्यागे हन्त हतं यथाहितामिलनं नमस्पति नानाहुतिमन्नपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्यमुपतिधेत अनन्तज्ञानोपमतोऽपि सन् ॥१॥२ परिवनितनिद्राविकचेगुप्तैः। अलिपुटैः । भकिबहुमानपूर्वमुपयुक्तः श्रोतव्यम् ॥ १॥ गुरुकुलवासस्य वर्णनं, ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति मूलं [१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] वस्तुनो नित्यत्वं वस्तुनः स्वभावाव्यतिरिक्तत्वेन तत्क्षये तत्क्षतेरिति, अपरित्याग इति चेत्, न, विरुद्धयोः स्वभावयोर्युगपदसम्भवादिति, अथचानित्यमिति पक्षस्तदपि न, निरन्वयनाशे हि श्रोतुः श्रवणकाल एव विनष्टत्वात् कथनाव| सरेऽन्यस्यैवोत्पन्नत्वादकथनप्रसङ्गः, यज्ञदत्तश्रुतस्य देवदत्ताकथनवदिति, अत्र समाधिर्नयमतेनेति नयद्वारमवतरति, तत्र नैगमसङ्ग्रव्यवहारर्जु सूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः, तत्र चाथाखयो द्रव्यमेवार्थोऽस्तीतिवादितया द्रव्यार्थिकेऽवतरन्ति, इतरे तु पर्याय एवार्थोऽस्तीतिवादितया पर्यायार्थिकनये, तदेवमुभयमताश्रयणे द्रव्यार्थितया नित्यं वस्तु पर्या यार्थितया त्वनित्यमिति नित्यानित्यं वस्त्विति प्रत्येकपक्षोक्तदोषाभावो गुडनागरादिवदिति, एवमेव च सकलव्यवहारप्रवृत्तिरिति, उक्तध- "सेव्वं चिय पइसमयं उप्पार नासए य निच्चं च । एवं चैव य सुहदुक्खबंधमोक्खादिसभावो ॥ १ ॥” ति । उक्तः सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्त्यनुगमः, तदेवमधिकृतसूत्रमाश्रित्य सूत्रानुगमसूत्रालापकनिक्षेपसूत्रस्प शिंकनियुक्तयनुगमनया उपदर्शिताः, आराधितच सक्रमं भाष्यकारवचनं, तद्यथा--"सुत्तं सुत्ताणुगमो सुचालावगकओ य निक्खेयो । सुत्तष्फासियनिज्जुत्ति नया व समगं तु वच्चंति ॥ १ ॥ त्ति, एतेषां चार्य विषय उक्तो भाष्यका रेण- "होई कयत्थो वोतुं सपयच्छेयं सुअं सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो नामाइनासविनियोगं ॥ १ ॥ सुत्तष्फासियनि १ ताश्रयेण ॥ २ सर्वमेव प्रतिसमयमुत्पद्यते नश्यति च निलं । एवमेव च मुखदुःखवन्धमोक्षादिसद्भावः ॥ १ ॥ ३ सूत्रे सूत्रानुगमः सूत्रालापककृतथ निक्षेपः सूत्रस्पर्शिक नितिनाथ समकमेव प्रजन्ति ॥ १ ॥ ४ भवति कृतार्थ उतना सपदच्छेदं सूत्रं सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियो यम् ॥ १ ॥ सूत्रस्पर्शिकनिकिनियोगः शेषकः पदार्थादिः प्रायः स एव नैयमनयादिमतगोचरो भवति ॥ २ ॥ For Park Use Only ~ 22~ waryru Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२] “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति मूलं [२] स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ०३ ], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १० ॥ ★ ज्जुत्तिनिओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सो चिय नेगमनयाइमयगोयरो होइ ॥ २ ॥ त्ति, एवं प्रतिसूत्रं स्वयमनुसरणीयं वयं तु संक्षेपार्थं क्वचित्किञ्चिदेव भणिष्याम इति । यदाख्यातं भगवता तदधुनोच्यते-तत्र सकलपदार्थानां सम्यग्मिथ्याज्ञानश्रद्धानानुष्ठानैर्विषयीकरणेनोपयोगनयनादात्मनः सर्वपदार्थप्राधान्य मतस्तद्विचारं तावदादावाह * एगे आया (सू०२) एको न व्यादिरूप आत्मा जीवः कथञ्चिदिति गम्यते, तत्र अतति सततमवगच्छति 'अत सातत्यगमन' इति वचनादतो धातोर्गत्यर्थत्वाद्गत्यर्थानां च ज्ञानार्थत्वादनवरतं जानातीति निपातनादात्मा जीवः, उपयोगलक्षणत्वादस्य सिसंसार्यवस्थाद्वयेऽप्युपयोगभावेन सततावबोधभावात्, सततावबोधाभावे चाजीवत्वप्रसङ्गात्, अजीवस्य च सतः पुनर्जीवत्वाभावात्, भावे चाकाशादीनामपि तथात्वप्रसङ्गात् एवञ्च जीवानादित्वाभ्युपगमाभावप्रसङ्ग इति, अथवा अतति- सततं गच्छति स्वकीयान् ज्ञानादिपर्यायानित्यात्मा, नन्वेवमाकाशादीनामध्यात्मशब्द व्यपदेशप्रसङ्गः तेषामपि स्वपर्यायेषु सततगमनाद्, अन्यथा अपरिणामित्वेनावस्तुत्वप्रसङ्गादिति, नैवं व्युत्पत्तिमात्रनिमित्तत्वादस्य, उपयोगस्यैव च प्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्, जीव एव आत्मा नाकाशादिरिति यद्वा संसार्यपेक्षया नानागतिषु सततगमनात् मुक्तापेक्षया च भूततद्भावत्वादात्मेति, तस्य चैकत्वं कथञ्चिदेव, तथाहि द्रव्यार्थतयैकत्वमेकद्रव्यत्वादात्मनः, प्रदेशार्थतया त्वनेकत्वमसङ्घ चेयप्रदेशात्मकत्वात् तस्येति, तत्र द्रव्यं च तदर्थश्चेति द्रव्यार्थस्तस्य भावो द्रव्यार्थता- प्रदेशगुणपर्यायाधा [१] [[पदार्थज्ञानप्रा० प्र. आत्मा- अर्थ, व्युत्पत्ति, आत्मन: एकत्वं, For Pal Pal Use Only ~23~ १ स्थाना ध्ययने एकानेकात्मतासि द्धिः सू० २ ॥ १० ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति© स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: रता अवयविद्रव्यतेतियावत्, तथा प्रकृष्टो देशः प्रदेशो-निरवययोंऽशः स चासावर्थश्चेति प्रदेशार्थः तस्य भावः प्रदे-13 शार्थता-गुणपर्यायाधारा (रता अ) वयवलक्षणार्थतेतियावत्, नन्ववयवि द्रव्यमेव नासि, विकल्पदयेन तस्यायुज्यमानत्वात् , खरविषाणवत्, तथाहि-अवयविद्रव्यमवयवेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्याद्?, न तावदभिन्नमभेदे हि अवयविद्रव्यवदवयवानामेकत्वं स्याद् , अवयववद्वाऽवयविद्रव्यस्याप्यनेकत्वं स्यात् , अन्यथा भेद एव स्यात्, विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदनिवन्धनत्वादिति, भिन्नं चेत् तत्तेभ्यस्तदा किमवयविद्रव्यं प्रत्येकमवयवेषु सर्वात्मना समवैति देशतो वेति ?, यदि सर्वात्मना तदाऽवयवसङ्ख्यमवयविद्रव्यं स्यात् कथमेकत्वं तस्य ?, अथ देशैः समवैति ततो यैर्देशैरवयवेषु तद्वार्तते तेष्वपि देशेषु तत्कथं प्रवर्तते देशतः सर्वतो वेति ?, सर्वतश्चेत्तदेव दूषणं, देशतश्चेत् तेष्वपि देशेषु कथमित्यादि-18 | रनवस्था स्यादिति, अत्रोच्यते, यदुक्तम्-'विकल्पद्वयेन तस्यायुज्यमानत्वादिति तदयुक्तम्, एकान्तेन भेदाभेदयोरनभ्युपगमात् , अवयवा एव हि तथाविधैकपरिणामितया अवयविद्रव्यतया व्यपदिश्यन्ते, त एव च तथाविधविचित्रपरिणामापेक्षया अवयवा इति, अवयविद्रव्याभावे तु एते घटावयवा एते च पटावयवा इत्येवमसङ्कीर्णावयवव्यवस्था न स्थात् , तथा च प्रतिनियतकार्यार्थिनां प्रतिनियतवस्तूपादानं न स्यात् , तथा च सर्वमसमञ्जसमापनीपोत, सन्निवेशविशेषाद् घटायवयवानां प्रतिनियतता भविष्यतीति चेत्, सत्यं, केवलं स एव सन्निवेशविशेषोऽवयविद्रव्यमिति, यच्चो च्यते-विरुधर्माध्यासो भेदनिवन्धनमिति, तदपि न सूक्तं, प्रत्यक्षसंवेदनस्य परमार्थापेक्षया भ्रान्तत्वेन संव्यवहारादापेक्षया वभ्रान्तत्वेनाभ्युपगमादिति, यदि नाम भ्रान्तमभ्रान्तं कथमित्येवमत्रापि वक्तुं शक्यत्वादिति । किश्व-विद्यते 564456-48-49-6-5045-50 आत्मन: सिध्धि: ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ॥११॥ श्रीस्थाना अवयविद्गब्यम्, अव्यभिचारितया तथैव प्रतिभासमानत्वाद् अवयववन्नीलयद्वा, न चायमसिद्धो हेतुः, तथाप्रतिभास- १ स्थानागसूत्र- स्थानुभूयमानत्वात् , नाप्यनैकान्तिकत्वविरुद्धत्वे, सर्ववस्तुव्यवस्थायाः प्रतिभासाधीनत्वाद्, अन्यथा न किश्चनापि वस्तु ध्ययने वृत्तिः सिध्येदिति । भवतु नामावयविद्रव्य केवलमात्मा न विद्यते, तस्य प्रत्यक्षादिभिरनुपलभ्यमानत्वादिति, तथाहि-न प्रत्य- आत्मसि क्षग्राह्योऽसावतीन्द्रियत्वात्, नाप्यनुमानग्राह्यः, अनुमानस्य लिजलिङ्गिनोः साक्षात्सम्बन्धदर्शनेन प्रवृत्तेरिति, आगम-दिःसू०२ गम्योऽपि नासौ, आगमानामन्योऽन्यं विसंवादादिति, अत्रोच्यते, केयमनुपलभ्यमानता?, किमेकपुरुषाश्रिता सकल पुरुषाश्रिता वा ?, योकपुरुषाश्रिता न तयाऽऽत्माभावः सिध्यति, सत्यपि वस्तुनि तस्याः सम्भवात्, न हि कस्यचित् &ापुरुषविशेषस्य घटायग्राहकं प्रमाणं न प्रवृत्तमिति सर्वत्र सर्वदा तदभावो निर्णेतुं शक्य इति, न हि प्रमाणनिवृत्ती प्र मेयं विनिवर्त्तते, प्रमेयकार्यत्वात् प्रमाणस्य, न च कार्याभावे कारणाभावो दृष्ट इत्यनैकान्तिकताऽनुपलम्भहेतोः, सकलपुरुषाश्रितानुपलम्भस्त्वसिद्ध इत्यसिद्धो हेतुः, न ह्यसर्वज्ञेन सर्वे पुरुषाः सर्वदा सर्वत्रात्मानं न पश्यन्तीति वक्तुं शक्यमिति, किच-विद्यते आरमा, प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यमानत्वात् , घटवदिति, न चायमसिद्धो हेतु, यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षेणाप्यात्मा तावद्गम्यत एव, आत्मा हि ज्ञानादनन्यः, आत्मधर्मत्वात् ज्ञानस्य, तस्य च स्वसंविदितरूपत्वात्, स्वसंवि|दितत्वञ्च ज्ञानस्य नीलज्ञानमुत्पन्नमासीदित्यादिस्मृतिदर्शनात्, न ह्यस्वसंविदिते ज्ञाने स्मृतिप्रभवो युज्यते, प्रमात्रन्तरज्ञानस्यापि स्मृतिगोचरत्वप्रसङ्गादिति, तदेवं तदव्यतिरिक्तज्ञानगुणप्रत्यक्षत्वे आत्मा गुणी प्रत्यक्ष एव, रूपगुणप्रत्यक्षत्वे घटगुणिप्रत्यक्षत्ववदिति, उक्तञ्च-"गुणपञ्चक्खत्तणओ गुणी वि जीवो घडोब पचक्यो । घडओव्य धिप्पइ गुणी ॥११ १गुणप्रत्यक्षावात गुण्यपि जीपो चढ इस प्रलाक्षः । पट इव गुताते गुणी गुणमात्रमहणात, यस्मान् ॥१॥ ॐX***** 4345544-45 आत्मन: सिध्धि: ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1 [०३ ], अंग सूत्र [०३] आत्मन: सिध्धि: Eaton Intentiona - स्थान [१], ..आगमसूत्र .......... गुणमित्तग्गहणओ जम्हा ॥ १ ॥" तथा " अण्णोऽणनो व गुणी होज्ज गुणेहिं ?, जइ णाम सोऽणनो । णाणगुणमि तगहणे धिप्पइ जीवो गुणी सक्ख ॥ १ ॥ अह अन्नो तो एवं गुणिणो न घडादयो वि पञ्चक्खा । गुणमित्तग्गहणाओ जीवम्मि कुतो विआरोऽयं ॥ २ ॥ ति ये तु सकलपदार्थसार्थस्वरूपाविर्भावनसमर्थज्ञानवन्तस्तेषां सर्वात्मनैव प्रत्यक्ष इति । तथाऽनुमानगम्योऽप्यात्मा, तथाहि - विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं भोग्यत्वाद्, ओदनादिवत्, व्योमकुसुमं विपक्षः, स च कर्त्ता जीव इति, नन्वोदनकर्तृवमूर्त्त आत्मा सिध्यतीति साध्यविरुद्धो हेतुरिति, नैवं, संसारिणो मूर्त्तत्वेनाप्यभ्युपगमाद्, आह च" जो कत्तादि स जीवो सज्झविरुद्धत्ति ते मई हुज्जा । मुत्ताइपसंगाओ तं नो संसारिणो दोसो ॥ १ ॥” त्ति, न चायमेकान्तो, यदुत - लिङ्ग्यविनाभूतलिङ्गोपलम्भव्यतिरेकेणानुमानस्यैव एकान्ततोऽप्रवृत्तिरिति, हसितादिलिङ्गविशेषस्य ग्रहाख्यलिङ्गयविनाभावग्रहणमन्तरेणापि ग्रहगमकत्वदर्शनात्, न च देह एव ग्रहो येनान्यदेहेऽदर्शनमविनाभावग्रहणनियामकं भवतीति, उक्तञ्च - "सोडणेगंतो जम्हा लिंगेहि समं अदिपुब्वोवि । गहलिंगदरिसणातो गहोऽणुमेयो सरीरंमि ॥ १ ॥” इति, आगमगम्यत्वं त्वात्मनः 'एगे आया' अत एव वचनात् नचास्यागमान्तरैर्विसंवादः संभावनीयः, सुनिश्चिताप्तप्रणीतत्वादस्येति, बहु वक्तव्यमत्र तच्च स्थानान्तरादवसेयमिति । किञ्च १ अन्योऽनन्यो वा गुणी भवेत् गुणेभ्यः, यदि नाम सोऽनन्यः । ज्ञानमात्रगुणग्रहणे ते जीवो गुणी साक्षात् ॥ १ ॥ अथान्यस्तदैवं गुणिनो न घटादयोऽपि प्रत्यक्षाः गुणमात्रग्रहणात् जीये कुतो विचारोऽयम् १ ॥ २ ॥ २ यः कर्मादिः स जीवः साध्यविरुद्ध इति ते मतिर्भवेत् मूर्तत्यादिप्रसङ्गात् तत्र संसारिणो दोषः ॥ १ ॥ ३ सोऽनेकान्तो यस्मात् लीः सममपूर्वोऽपि हलिङ्गदर्शनात् ग्रहोऽनुमेयः शरीरे ॥ १ ॥ मूलं [२] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [२] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना लसूत्र वतिः आत्माभावे जातिस्मरणादयस्तथा प्रेतीभूतपितृपितामहादिकृतावनुग्रहोपघातौ च न प्राप्नुयुरिति । आत्मनस्तु सप्रदेश- १ स्थानात्वमवश्यमभ्युपगन्तव्यं, निरवयवत्वे तु हस्ताद्यवयवानामेकत्वप्रसङ्गः प्रत्यक्यवं स्पर्शायनुपलब्धिप्रसङ्गश्चेति सप्रदेश ध्ययने आत्मा प्रत्यवयवं चैतन्यलक्षणतद्गुणोपलम्भात्, प्रतिग्रीवाद्यधययमुपलभ्यमानरूपगुणघटवदिति स्थापितमेतत् 'द्र- आत्मसि| व्यार्थतया एक आत्मेति, अथवा एक आत्मा कथञ्चिदिति, प्रतिक्षणं सम्भवदपरापरकालकृतकुमारतरुणनरनारक- द्धिः सू०२ स्वादिपर्यायैरुत्पादविनाशयोगेऽपि द्रव्यार्थतयैकत्वादस्य, यद्यपि हि कालकृतपर्यायैरुत्पद्यते नश्यति च वस्तु तथापि स्व-14 परपोयरूपानन्तधर्मात्मकत्यात् तस्य न सर्वथा नाशो युक्त इति, आह च-"न हि सब्बहा विणासो अद्धापज्जायमित्तनासंमि । सपरपज्जायाणतधम्मुणो वत्थुणो जुत्तो॥१॥"त्ति, किञ्च–प्रतिक्षणं क्षयिणो भावा' इत्येतस्माद् वचनात् प्रतिपाद्यस्य यत्क्षणभङ्गविज्ञानमुपजायते तदसख्यातसमयैरेव वाक्यार्थग्रहणपरिणामाज्जायते, न तु प्रतिपत्तुः। प्रतिसमयं विनाशे सति, यत एकैकमप्यक्षरं पदसत्कं सख्यातीतसमयसम्भूतं, सङ्ख्यातानि चाक्षराणि पदं, सङ्ख्या -18 तपदं च वाक्यं, तदर्थग्रहणपरिणामाञ्च सर्व क्षणभङ्गरमिति विज्ञानं भवेत् , तच्चायुक्तं समयनष्टस्येति, आह च-कह वा सव्वं खणियं विनायं?, जई मई सुयाओत्ति । तदसंखसमयसुत्तत्थगहणपरिणामओ जुत्तं ॥१॥नउ पइसमयवि. ॥ १२॥ नैव सर्वथा विनाशोऽवापर्याबमाननाशे । खपरपर्यायानन्तधर्मस्य वस्तुनो युक्तः ॥ १॥ १ कथं या सर्व क्षणिक विज्ञातं । यदि मतिः-श्रुतादिति तदसलयसमयसूत्राथग्रहणपरिणामतोऽयुक्तम् ॥ १ ॥ नैव प्रतिसमयविनाशे येनकै कमक्षरमपि पदस्य । संख्यातीतसामयिक संख्येवानि पदं तानि ॥ ३ ॥ संख्येय-18 |पद वाक्यं तदर्थपहणपरिणामतो भवेत् । सर्वक्षणभावाने तययुफै समयनस्य ॥३॥ SAREairahuaRLund Lumiarary.org आत्मन: सिध्धि: ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२] स्था० ३ Eatin "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [-1 स्थान [१], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आत्मन: सिध्धि: .......... - णासे जेणेक्केकक्खरंपि य पयस्स । संखाईयसमइयं संखेज्जाई पर्यं ताई ॥ २ ॥ संखेज्जपयं वकं तदत्थगणपरिणामओ होजा । सव्वखणभंगनाणं तदजुत्तं समयनइस्स ॥ ३ ॥” इति, तथा सर्वथोच्छेदे तृत्यादयो न घटन्ते, पूर्वसंस्का रानुवृत्तावेव तेषां युज्यमानत्वाद्, आह च - "तित्ती समो किलामो सारिक्खविवक्खपञ्चयाईणि । अज्झयणं झाणं भावणा य का सब्वनासंमि ? ॥ १ ॥” ति, तत्र तृप्तिः प्राणिः श्रमः - अध्यादिखेदः कुमो ग्लानिः सादृश्यं साधर्म्य विपक्षी - वैधर्म्य प्रत्यय:-अवबोधः, शेषपदानि प्रतीतानि, इत्यादि बहु वक्तव्यं तत्तु स्थानान्तरादवसेयमिति । तदेवमात्मा स्थितिभवनभङ्गरूपः स्थिररूपापेक्षया नित्यो नित्यत्वाच्चैकः भवनभङ्गरूपापेक्षया त्वनित्यः अनित्यत्वाच्चानेक इति, आह च--"जमणंतपज्जयमयं वत्युं भवणं च चित्तपरिणामं । ठिइविभवभङ्गरूवं णिच्चाणिञ्चाइ तोऽभिमयं ॥ १ ॥” ति, एवं च "सुहदुक्खबंधमोक्खा उभयनयमयाणुवत्तिणो जुत्ता । एगयरपरिच्चाए सच्चच्ववहारच्छित्ति ॥ २ ॥” त्ति, अथवा एक आत्मा कथचिदेवेति, यतो जैनानां न हि सर्वथा किञ्चिद्वस्तु एकमनेकं वाऽस्ति, सामान्यविशेषरूपत्वाद्वस्तुनः अथ ब्रूयात्- विशेषरूपमेव वस्तु, सामान्यस्य विशेषेभ्यो भेदाभेदाभ्यां चिन्त्यमानस्यायोगात्, तथाहि -सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ?, न भिन्नमुपलम्भाभावाद्, न चानुपलभ्यमानमपि सत्तया व्यवहर्त्तु शक्यं, खरविषाणस्यापि तथाप्रसङ्गात्, अथाभिन्नमिति पक्षः, तथा च सामान्यमात्रं वा स्याद्विशेषमात्रं वेति, न ह्येकस्मिन् मूलं [२] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः १ तृप्तिः श्रमः क्रमः सादश्य विपक्षप्रत्ययादयः । अध्ययनध्याने भावना च का सर्वनाशे ॥ १ ॥ २] यदनन्तपर्ययमयं वस्तु भवनं च चित्रपरिणामम् । स्थितिविभवभङ्गरूपं नित्यानित्यादि ततोऽभिमतम् ॥ १ ॥ सुखदुःखवन्धमोक्षा उभयनयमत्तानुवर्त्तिनो युक्ताः । एकतरपरित्यागे सर्वव्यवहारच्छितिः ॥ २ ॥ For Parts Only ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्र ध्ययने - सामान्यमेक विशेषास्त्वनेकरूपा इत्यसङ्कीर्णवस्तुव्यवस्था स्यादिति, अत्रोच्यते, न ह्यस्माभिः सामान्यविशेषयोरेकान्तेन | १ स्थाना| भेदोऽभेदो वाऽभ्युपगम्यते, अपि तु विशेषा एवं प्रधानीकृतातुल्यरूपा उपसर्जनीकृततुल्यरूपा विषमतया प्रज्ञायमाना | विशेषा व्यपदिश्यन्ते, त एव च विशेषा उपसर्जनीकृतातुल्यरूपाः प्रधानीकृततुल्यरूपाः समतया प्रज्ञायमानाः सामा-1 एकात्मनि न्यमिति व्यपदिश्यन्त इति, आह च-"निर्विशेष गृहीताश्च, भेदाः सामान्यमुच्यते । ततो विशेषात्सामान्यविशिष्टत्वं सामान्यन युज्यते ॥१॥ वैषम्यसमभावेन, ज्ञायमाना इमे किल । प्रकल्पयन्ति सामान्य विशेषस्थितिमात्मनि ॥२॥” इति, विशेषवादः तदेवं सामान्यरूपेणात्मा एको विशेषरूपेण त्वनेकः, न चात्मनां तुल्यरूपं नास्ति, एकात्मव्यतिरेकेण शेषात्मनामनात्मत्वप्रसङ्गादिति, तुल्यं च सरूपमुपयोगः 'उपयोगलक्षणो जीव' इति वचनात्, तदेवमुपयोगरूपैकलक्षणत्वात् सर्वे एवात्मान एकरूपाः, एवं चैकलक्षणत्वादेक आत्मेति, अथवा जन्ममरणसुखदुःखादिसंबेदनेष्वसहायत्वादेक आत्मेति भावनीयमिति । इह च सर्वसूत्रेषु कथञ्चिदित्यनुस्मरणीय, कथञ्चिद्वादस्याविरोधेन सर्ववस्तुव्यवस्थानिवन्धनत्वात् , उक्तश्च-"स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं विना सकलाः क्रियाः। लोकद्वितयभाविन्यो, नैव साङ्गत्यमियूति ॥ १ ॥" तथा "नयास्तव स्यात्सदसत्त्वलाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ १॥” इति । आत्मन एकत्वमुक्तन्यायतोऽभ्युपगच्छद्भिरपि कैश्चिन्निष्क्रियत्वं तस्याभ्युपगतमतस्तन्निराकरणाय12 तस्य क्रियावत्त्वमभिधित्सुः क्रियायाः कारणभूतं (त)दण्डस्वरूपं प्रथम तावदभिधातुमाह एगे दंडे (सु०३) एगा किरिया (सू०४) एगे लोए (सू०५) एगे अलोए (सू०६) ।॥१३॥ SAREautatin international ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-६] दीप अनुक्रम [३-६] 5064564564 ___ 'एगे दंडे' एकोऽविवक्षितविशेषत्वात् दण्ज्यते-ज्ञानाद्यैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते आत्माऽनेनेति दण्डः, स च! द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो यष्टिर्भावतो दुष्पयुक्तं मनःप्रभूति ॥ तेन चात्मा क्रियां करोतीति तामाह-एगा किरिया' एका-अविवक्षितविशेषतया करणमात्रविवक्षणात् करणं क्रिया-कापिक्यादिकेति, अधवा 'एगे दंडे एगा: किरिय'त्ति सूबद्धयेनारमनोऽक्रियत्वनिरासेन सक्रियत्वमाह, यतो दण्डकियाशब्दाभ्यां त्रयोदश क्रियास्थानानि | प्रतिपादितानि, तत्रार्थदण्डानर्थदण्डहिंसादण्डाकस्माद्दण्डदृष्टिविपर्यासदण्डरूपः पञ्चविधो दण्डः परमाणापहरणलक्षणो दण्डशब्देन गृहीतः, तस्य चैकत्वं वधसामान्यादिति, क्रियाशब्देन तु मृषाप्रत्यया अदत्तादानप्रत्यया आध्यात्मिकी मानप्रत्यया मित्रद्वेषप्रत्यया मायाप्रत्यया लोभप्रत्यया ऐयापथिकीत्यष्टविधा क्रियोक्ता, तदेकत्वञ्च करणमात्रसामान्यादिति, दण्डक्रिययोश्च स्वरूपविशेषमुपरिष्टात् स्वस्थान एव वक्ष्याम इति । अकियावत्त्वनिरासश्चात्मन एवं, यैः किलाक्रियावत्त्वमभ्युपगतमात्मनस्तै स्तृत्वमप्यभ्युपगतमतो भुजिक्रियानिवर्त्तनसामर्थ्ये सति भोक्तृत्वमुपपद्यते तदेव च क्रिया|वत्वं नामेति, अथ प्रकृतिः करोति पुरुषस्तु मुझे प्रतिबिम्बन्यायेनेति, तदयुक्तम् , कथश्चित् सक्रियत्वमन्तरेण प्रकृत्युपधानयोगेऽपि प्रतिबिम्बभावानुपपत्तेः, रूपान्तरपरिणमनरूपत्वात् प्रतिबिम्बस्येति, अथ प्रकृतिविकाररूपाया बुद्धेरेव सुखाद्यर्थप्रतिविम्वनं नात्मनः, तर्हि नास्य भोगः, तदवस्थत्वात्तस्येति, अत्रापि बहु वक्तव्यं तनु स्थानान्तरादवसेयमिति ।। उक्तस्वरूपस्यात्मन आधारस्वरूपनिरूपणायाह-'एगे लोए' एकोऽविवक्षितासङ्ख्यप्रदेशाधस्तिर्यगादिदिग्भेदतया लोक्यते-दृश्यते केवलालोकेनेति लोक-धर्मास्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषः, तदुक्तम्-"धर्मादीनां वृत्ति-13॥ दंड, क्रिया, लोक, अलोक शब्दस्य व्याख्या ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाना- नसूत्र प्रत सूत्रांक [३-६] वृत्तिः ॥१४॥ दीप अनुक्रम [३-६] व्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रन्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥ १ ॥” इति, अथवा लोको नामादिर- १ स्थानाटधा, आह च-"नामं ठवणादविए खित्ते काले भवे य भावे य ।पज्जवलोए य तहा अड्डविहो लोयनिक्लेवो ॥१॥" ति, ध्ययने नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यलोको जीवाजीवद्रव्यरूपः, क्षेत्रलोक आकाशमात्रमनन्तप्रदेशात्मक, काललोकः समयावलि- | दण्डक्रिकादिः, भवलोको नारकादयः स्वस्मिन् २ भवे वर्तमाना यथा मनुष्यलोको देवलोक इति, भावलोकः पडीदयिकादयोयालोकाभावाः, पर्यवलोकस्तु द्रयाणां पर्यायमात्ररूप इति, एतेषां चैकत्वं केवलज्ञानालोकनीयवसामान्यादिति ॥ लोकव्यवस्था | लोकार ह्यलोके तद्विपक्षभूते सति भवतीति तमाह-एगे अलोए' एकोऽनन्तप्रदेशात्मकत्वेऽप्यविवक्षितभेदत्वादलोको लोकव्युदासात् नत्वनालोकनीयतया, केवलालोकेन तस्याप्यालोक्यमानत्वादिति, ननु लोकैकदेशस्य प्रत्यक्षत्वात् तद्देशान्तरमपि बाधकप्रमाणाभावात् सम्भावयामो योऽयं पुनरलोकोऽस्य देशतोऽप्यप्रत्यक्षत्वात् कथमसावस्तीत्यध्यवसातुं शक्यो? येनैकत्वेन प्ररूप्यत इति, उच्यते, अनुमानादिति, तच्चेद-विद्यमानविपक्षो लोको, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वाद् , इह यड्युत्पत्तिमता शुद्धशब्देनाभिधीयते तस्य विपक्षोऽस्तीति द्रष्टव्यं, यथा घटस्याघटः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदवाच्यश्च लोकस्तस्मात् सविपक्ष इति, यश्च लोकस्य विपक्षः सोऽलोकस्तस्मादस्त्यलोक इति, अथ न लोकोऽलोक इति घटादीनामेवान्यतमो भविष्यति किमिह वस्त्वन्तरकल्पनयेति ?, नैवं, यतो निषेधसद्भावानिषेध्यस्यैवानुरूपेण भवितव्यं निषेध्यश्च ॥१४॥ लोकः स चाकाशविशेषो जीवादिद्रव्यभाजनमतः खल्वलोकेनाप्याकाशविशेषेणैव भवितव्यम् , यथेहापण्डित इत्युक्त 56 SAREauratoninhindiland A asurary.com लोक, अलोक शब्दस्य व्याख्या ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-६] दीप अनुक्रम [३-६] विशिष्टज्ञानविकलश्चेतन एवं गम्यते न घटादिरचेतनस्तद्वदलोकेनापि लोकानुरूपेणेति, आह च-"लोगस्सऽस्थि विव-| क्खो सुद्धत्तणओ घडस्स अघडोव्व । [प्रेरकःस घडादी व मती [गुरुः] न निसेहाओ तदणुरूवो ॥१॥"त्ति ॥ लोकालोकयोश्च विभागकरणं धर्मास्तिकायोऽतस्तरस्वरूपमाह एगे धम्मे (सू० ७) एगे अधम्मे (सू०८) एगे बंधे (सू०९) एगे मोक्खे (सू०१०) पये पुण्णे (सू० ११) एगे पावे (सू० १२) एगे आसवे (सू०१३) एगे संवरे (सू०१४) एगा वेवणा (सू०१५) एगा निजरा (सू०१६)॥१॥ एका प्रदेशार्थतयाऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्त्वेऽपि द्रव्यार्थतया तस्यैकत्वात् , जीवपुद्गलानां स्वाभाविके क्रियावत्त्वे सति गतिपरिणतानां तत्स्वभावधारणाद् धर्मः, स चास्तीना-प्रदेशानां सङ्घातात्मकत्वात् कायोऽस्तिकाय इति ॥ धर्मस्यापि विपक्षस्वरूपमाह-एगे- अधम्म' एको द्रव्यत एव न धम्मोऽधर्मः अधर्मास्तिकाय इत्यर्थः, धर्मो हि जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भकारी, अयं तु तद्विपरीतत्वात् स्थित्युपष्टम्भकारीति, ननु धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकाययोः कथमस्तित्वावगमः, प्रमाणादिति ब्रूमः, तच्चेदम्-इह गतिः स्थितिश्च सकललोकप्रसिद्ध कार्य, कार्यं च परिणाम्यपेक्षाकारणायत्तात्म लाभं वर्तते, घटादिकार्येषु तधादर्शनात्, तथा च मृत्पिण्डभावेऽपि दिग्देशकालाकाशप्रकाशाद्यपेक्षाकारणमन्तरेण न दोघटो भवति यदि स्यात् मृत्पिण्डमात्रादेव स्यात् न च भवति, गतिस्थिती अपि जीवपुद्गलाख्यपरिणामिकारणभावेऽपि १लोकस्याखि विपक्ष शुब(पद)त्वात् घटस्थापट वास घाविरेव मतिः न निषेधात् तदनुरूपः ॥१॥ CANCE CAकर anditurary.com "धर्म, अधर्म, बन्ध, मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७-१६] दीप अनुक्रम [७-१६] श्री स्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १५ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) - स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] -------- Eaton Internationa नापेक्षाकारणमन्तरेण भवितुमर्हतः दृश्यते च तद्भावोऽतस्तत्सत्ता गम्यते यच्चापेक्षाकारणं स धर्मोऽधर्मश्चेति भावार्थः, गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायो, मत्स्यानामिव जलं, तथा स्थितिपरिणामपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भकोऽधर्मास्तिकायो, मत्स्यादीनामिव मेदिनी, विवक्षया जलं वा, प्रयोगश्च-गतिस्थिती अपे क्षाकारणवत्यौ, कार्यत्वात्, घटवत्, विपक्षस्त्रैलोक्यशुषिरमभावो वेति, किञ्च - अलोकाभ्युपगमे सति धर्माधर्म्माभ्यां लोकपरिमाणकारिभ्यामवश्यं भवितव्यम्, अन्यथाऽऽकाशसाम्ये सति लोकोऽलोको वेति विशेषो न स्यात्, तथा चाविशिष्ट एवाकाशे गतिमतामात्मनां पुगलानाञ्च प्रतिघाताभावादनवस्थानम्, अतः सम्बन्धाभावात् सुखदुःखवन्धादिसंव्यवहारो न स्यादिति, उक्तञ्च - " तम्हा धम्माधम्मा लोगपरिच्छेयकारिणो जुत्ता । इहराऽऽगासे तुहे लोगोलोगोत्ति को भेओ १ ॥ १ ॥ लोगविभागाभावे पडिघाताभावओऽणवत्थाओ । संववहाराभावो संबंधाभावओ होज्जा ॥ २ ॥” इति । आत्मा च लोकवृत्तिर्धर्म्माधर्मास्तिकायोपगृहीतः सदण्डः सक्रियश्च कर्मणा वध्यत इति वन्धनिरूपणायाह-'एगे बंधे' बन्धनं बन्धः, सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदृत्ते यत् स बन्ध इति भावः, स च प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावविभेदात् चतुर्विधोऽपि बन्धसामान्यादेकः, मुक्तस्य सतः पुनर्वन्धाभावाद्वा एको बन्ध इति, अथवा द्रव्यतो बन्धो निगडादिभिर्भावतः कर्म्मणा तयोश्च बन्धनसामान्यादेको बन्ध इति, ननु बन्धो जीवकर्म्मणोः १ तस्मात् धर्माधर्मौ लोकपरिच्छेदकारिणौ युक्ती इतरथाऽऽकाशे तुल्ये लोकोऽलोक इति को भेदः ॥ १ ॥ लोकविभागाभावे प्रतिघाताभावतोऽनवस्थानात् । संव्यवहाराभावः संवन्धाभावतो भवेत् ॥ २ ॥ २ सदस्टायपेक्षया. For Parts Only मूलं [ १६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः "धर्म, अधर्म, बन्ध, मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या ~ 33~ १ स्थानाध्ययने धर्मास्ति कायाद्या निर्जरा न्ताः ७-१६ ।। १५ ।। www.landbrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [७-१६] दीप अनुक्रम [७-१६] संयोगोऽभिप्रेतः, स खल्वादिमानादिरहितो वा स्यादिति कल्पनाद्वयं, तत्र यद्यादिमानिति पक्षस्तदा कि पूर्वमात्मा ४ पश्चात् कर्म अथ पूर्व कर्म पश्चादात्मा उत युगपत्कर्मात्मानौ संप्रसूर्यतामिति त्रयो विकल्पाः, तत्र न तावत् पूर्व-18 मात्मसंभूतिः सम्भाव्यते, निर्हेतुकत्वात्, खरविषाणवत्, अकारणप्रसूतस्य च अकारणत एवोपरमः स्यात् , अथा-12 नादिरेव आत्मा तथाप्यकारणत्वान्नास्य कर्मणा योग उपपद्यते नभोवत्, अथाकारणोऽपि कर्मणा योगः स्यात् तहिं] |स मुक्तस्यापि स्यादिति, अथासावारमा नित्यमुक्त एव तर्हि किं मोक्षजिज्ञासया !, बन्धाभावे च मुक्तव्यपदेशाभाव एव,* आकाशवदिति, नापि कर्मणः प्राक् प्रसूतिरिति द्वितीयो विकल्पः सङ्गच्छते, कर्तुरभावात् , न चाक्रियमाणस्य कर्म| व्यपदेशोऽभिमतः, अकारणप्रसूतेश्चाकारणत एवोपरमः स्यादिति, युगपदुसत्तिलक्षणस्तृतीयपक्षोऽपि न क्षमः, अका-|| रणत्वादेव, न च युगपदुसत्तौ सत्यामयं कर्ता कम्र्मेदमिति व्यपदेशो युक्तरूपः, सब्येतरगोविषाणवदिति, अधादिर-है। हितो जीवकर्मयोग इति पक्षः, ततश्चानादित्वादेव नात्मकर्मवियोगः स्यात्, आत्माऽऽकाशसंयोगवदिति, अत्रोच्यते, आदिमत्संयोगपक्षदोषा अनभ्युपगमादेव निरस्ताः, यच्चादिरहितजीवकर्मयोगेऽभिधीयते 'अनादित्वान्नात्मकर्मवियोग ★ इति, तदयुक्तम्, अनादित्वेऽपि संयोगस्य वियोगोपलब्धेः, काञ्चनोपलयोरिवेति, यदाह-"जह वेह कंचणोवलसंजोगोऽणाइसंतइगओऽवि । वोच्छिज्जइ सोवायं तह जोगो जीवकम्माणं ॥१॥"ति, तथा अनादेरपि सन्तानस्य विनाशो नभोऽनिरोमभुषां वेति संझाविषयं छन्दोविषय वा, भाष्यप्रदीपेऽत एवोक्तं उपसंख्यानान्येतानि धन्दोविषयाणीत्याहुरिति. २ यथा येह काचनोपलसंयो& गोऽनादिसंततिगतोऽपि ब्युच्च्यिते सोपावं तथा योगो जीवकर्मणोः॥१॥ S 455 "बन्ध, मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७-१६] दीप अनुक्रम [७-१६] श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः ॥ १६ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [१], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] दृष्टो बीजाङ्कुरसन्तानवत्, आह च-- "अन्नंतरमणिव्वत्तियकज्जं वीर्यकुराण जं विहयं । तत्थ हओ संताणो कुकुडियंडाइयाणं च ॥ १ ॥ ति । अनादिबन्धसद्भावेऽपि भव्यात्मनः कस्यचिन्मोक्षो भवतीति मोक्षस्वरूपमाह-'एगे मोक्खे' मोचनं कर्मपाशवियोजनमात्मनो मोक्षः, आह च- ' कृत्स्त्रकर्मक्षयान्मोक्षः' स चैको ज्ञानावरणादिकर्मापेक्षयाऽष्टविधोऽपि मोचनसामान्यात् मुक्तस्य वा पुनर्मोक्षाभावात् ईषत्प्राग्भाराख्यक्षेत्र लक्षणो वा द्रव्यार्थतयैकः, अथवा द्रव्यतो मोक्षो निगडादितो भावतः कर्मतस्तयोश्च मोचनसामान्यादेको मोक्ष इति, नन्वपर्यवसानो जीवकर्मसंयोगोऽनादित्वाजीवा* काशसंयोगवदिति कथं मोक्षसम्भवः १, कर्मवियोगरूपत्वादस्य, अत्रोच्यते, अनादित्वादित्यनैकान्तिको हेतुः, धातुकावनसंयोगो ह्यनादिः, स च सपर्यवसानो दृष्टः, क्रियाविशेषाद्, एवमयमपि जीवकर्म्मयोगः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः सपर्यवसानो भविष्यति, जीवकर्म्मवियोगश्च मोक्ष उच्यते इति, ननु नारकादिपर्यायस्वभावः संसारो नान्यः, तेभ्यश्च नारकत्वादिपर्यायेभ्यो भिन्नो नाम कश्चिज्जीवो, नारकादय एव पर्याया जीवः, तदनर्थान्तरत्वादिति संसाराभावे जीवाभाव एवं नारकादिपर्याय स्वरूपवदित्य सत्पदार्थो मोक्ष इति आह च - "जं नारगोदिभावो संसारो नारगाइभिन्नो य। को जीवो तं मन्नसि ? तन्नासे जीवनासोत्ति ॥ १ ॥” अत्र प्रतिविधीयते यदुक्तम् 'नारकादिपर्याय संसाराभावे सर्वथा जीवाभाव एवानर्थान्तरत्वान्नार कादिपर्यायस्वरूपवदिति, अयमनैकान्तिको हेतुः, हेस्रो मुद्रिकायाश्चानर्थान्त Education Internation १ अन्यतरत् अनितिकार्य बीजाङ्करयोर्यद्विहतम् । तत्र हृतः संतानः कुकुव्यण्डादिकानां व १ २ यन्त्रारकाविभावः संसारो नरकादिभावभिप्रय । को जीवः ? (इति) एवं मन्यसे, (यतः ) तमाशे जीवनास इति (स्यात्) “मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या मूलं [ १६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Park Use Only ~35~ स्थानाध्ययने वन्धमोक्षौ ॥ १६ ॥ wor Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: %95 प्रत सूत्रांक 4 [७-१६] दीप अनुक्रम [७-१६] रत्वं सिद्धं न च मुद्रिकाकारविनाशे हेमविनाश इति, तद्वन्नारकादिपर्यायमात्रनाशे सर्वथा जीवनाशो न भविष्यतीति, आह प-न हि नारगादिपज्जायमेत्तनासंमि सव्वहां नासो। जीवद्दव्वस्स मओ मुद्दानासेव्व हेमस्स ॥ १॥" त्ति, अपि च-"कम्मको संसारो तन्नासे तस्स जुजए नासो। जीवत्तमकम्मकयं तन्नासे तस्स को नासो ॥२॥"त्ति मोक्षश्च पुण्यपापक्षयाद्भवतीति पुण्यपापयोः स्वरूपं वाच्यं, तत्रापि मोक्षस्य पुण्यस्य च शुभस्वरूपसाधयात् पुण्यं तावदाह-'एगे पुण्णे' 'पुण शुभे' इति वचनात् पुणति-शुभीकरोति पुनाति वा-पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्य-शुभकर्म, सद्वेद्यादि द्विचत्वारिंशद्विधम् , यथोक्तम्-"सायं १ उच्चागोयं २ नरतिरिदेवाउ ५ नाम एयाउ । मणुयदुर्ग ७ देवदुगं ९ पंचेंदियजाति १० तणुपणगं १५ ॥१॥ अंगोवंगतियंपिय १८ संघवणं वारिसहनारायं १९ । पढमंचिय संठाणं २० वनाइचउक्क सुपसत्थं २४ ॥ २ ॥ अगुरुलहु २५ पराघायं २६ उस्सासं २७ आयवं च २८ उज्जोय २९ । सुपसत्था | विहयगई ३० तसाइदसगं च ४० णिम्माण ४१॥३॥ तित्थयरेणं सहिया बायाला पुण्णपगईओ" ति ॥ एवं द्विचत्वारिंशद्विधमपि अथवा पुण्यानुबन्धिपापानुबन्धिभेदेन द्विविधमपि अथवा प्रतिपाणि विचित्रत्वादनन्तभेदमपि पुण्य-18 सामान्यादेकमिति । अथ कर्मैव न विद्यते प्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् शशविषाणवदिति कुतः पुण्यकर्मसत्तेति , अस-1 | त्यमेतत्, यतोऽनुमानसिद्धं कर्म, तथाहि-सुखदुःखानुभूतेर्हेतुरस्ति कार्यत्वादकरस्येव बीजं, यश्च हेतुरस्यास्तस्कम्म मैन नारकादिपर्यायमात्रनाशे सर्वथा नाषः । जीवद्रव्यस्व मतो मुद्रानाशे इच हेनः ॥ १॥२ कर्मकृतः संसारखमाझे वस्य युज्यते नाशः । वीवत्वमकर्मकृतं तमासे तस्य को नाशः। ॥ इति RELIGunintentatistial Cainasurary.com | "मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७-१६] दीप अनुक्रम [७-१६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] तस्मादस्ति कम्र्मेति, स्यान्मतिः- सुखदुःखानुभूतेर्दृष्ट एवं हेतुरिष्टानिष्टविषयप्राप्तिमयो भविष्यति, किमिह कर्म्मपरिकल्पनया है, न हि दृष्टं निमित्तमपास्य निमित्तान्तरान्वेषणं युक्तरूपमिति, नैवं, व्यभिचारात्, इह यो हि द्वयोरिष्टश|ब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फले विशेषो-दुःखानुभूतिमयो यश्चानिष्टसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फले विशेषः सुखानुभूतिमयो नासौ हेतुमन्तरेण सम्भाव्यते, न च तद्धेतुक एवासौ युक्तः, साधनानां विपर्यासादिति पारिशेष्याहिशिष्टहेतुमानसौ, कार्यस्थात्, घटवत्, यश्च समानसाधन समेतयोस्तत्फलविशेषहेतुस्तत् कर्म्म, तस्मादस्ति कर्मेति, आह च - "जो तुलसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हेडं । कज्जत्तणओ गोयम ! घड़ी व्व हेऊ य से कम्मं ॥ १ ॥” ति, किश्व - अन्यदेहपूर्वकमिदं बालशरीरं, इन्द्रियादिमत्त्वात्, यदिहेन्द्रियादिमत्तदन्यदेहपूर्वकं दृष्टं यथा बालदेहपूर्वकं युवशरीरम्, इन्द्रियादिमच्चेदं बालशरीरकं तस्मादन्यशरीरपूर्वकं यच्छरीरपूर्वकं चेदं वालकशरीरं तत्कर्म, तस्मादस्ति कम्र्मेति, आह च "बालेसरीरं देहंतरपुब्वं इंदियाइमत्ताओ। जह वालदेहपुण्वो जुवदेहो पुत्रमिह कम्मं ॥ १ ॥ ति, ननु कर्मसद्भावेऽपि पापमेवैकं विद्यते पदार्थो न पुण्यं नामास्ति, यत्तु पुण्यफलं सुखमुच्यते तत्यापस्यैव तरतमयोगादपकृष्टस्य फलं यतः पापस्य परमोत्कर्षेऽत्यन्ताधमफलता, तस्यैव च तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य मात्रापरिवृद्धिहान्या यावत् प्रकृष्टोऽपकर्षस्तत्र या काचित्पापमात्रा अवतिष्ठते तस्यामत्यन्तं शुभफलता पापापकर्षात्, तस्यैव च पापस्य सर्वा १ यस्तुल्यसाधनयोः फळे विशेषः स न विना हेतुम् कार्यत्वात् गौतम घट इस हेतु तस्य कर्म ॥ १ ॥ २ बालशरीरं देहान्तरपूर्व इन्द्रियादिमत्त्वात् । यथा वालदेहपूर्वी युवदेहः पूर्व कर्म ॥ १ ॥ #पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या For Penal Use On ~37~ १ स्थाना ध्ययने पुण्यसत्ता ॥ १७ ॥ anorary org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक * [७-१६] 459 दीप अनुक्रम [७-१६] त्मना क्षयो मोक्षः, यथाऽत्यस्तापथ्याहारसेवनादनारोग्यम् , तस्यैवापथ्यस्य किञ्चित्किश्चिदपकर्षात् यावत् स्तोकापथ्याहा-II रत्वमारोग्यकरं, सर्वाहारपरित्यागाच प्राणमोक्ष इति, आह च-"पावुकरिसेऽधमया तरतमजोगाऽवकरिसओ सुभया । तस्सेव खए मोक्खो अपत्थभत्तोवमाणाओ ॥१॥" त्ति, अत्रोच्यते, यदुक्तम्-'अत्यन्तापचितात् पापात् सुखप्रकर्ष' इति, तदयुक्तम् , यतो येयं सुखप्रकर्षानुभूतिः सा स्वानुरूपकर्मप्रकर्षजनिता,प्रकर्षानुभूतित्वात् , दुःखप्रकर्षानुभूतिवत् , यथा हि दुःखप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपापकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाऽभ्युपगम्यते तथेयमपि सुखप्रकर्षानुभूतिः (प्रकर्षानुभूतिरिति)स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनिता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति । पुण्यप्रतिपक्षभूतं पापमिति तत्स्वरूपमाह-एगे पावें'पाशयतिगुण्डयत्यात्मानं पातयति चात्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् , तच्च ज्ञानावरणादि ब्यशीतिभेदम् , यदाऽऽह"नाणंतरायदसगं १० दसण णव १९ मोहणीयछच्चीसं ४५ । अस्सायं ४६ निरयाऊ ४७ नीयागोएण अडयाला ४८॥१॥ | निरयदुर्ग २ तिरियदुर्ग ४ जाइचउकं च ८ पंच संघयणा १३ । संठाणाविय पंच उ १८ वनाइ चउकमपसत्थं २२ ॥२॥ उबघाय २३ कुविहयगई २४ थावरदसगेण होति चोत्तीसं २४ । सब्बाओ मिलिआओ बासीती पावपगईओ ८२ ॥२॥" तदेवं ब्यशीतिभेदमपि पुण्यानुबन्धिपापानुबन्धिभेदाद् द्विविधमपि वा अनन्तसत्त्वाश्रितत्वादनन्तमपि वाऽशुभसामाम्यादेकमिति । मनु कर्मसत्त्वेऽपि पुण्यमेवैकं कर्म न तत्प्रतिपक्षभूतं पापं कर्मास्ति, शुभाशुभफलानां पुण्यादेव सिद्धेरिति, तथाहि-यसरमप्रकृष्टं शुभफलमेतत् पुण्योत्कर्षस्य कार्य, यत्पुनस्तस्मादवकृष्टमवकृष्टतरमवकृष्टतमं च तत्पु पापोत्कऽभमता तरतमयोगाद् अपकर्षतः शुभता । तस्यैव क्षये मोक्षः अपभ्यभकोपमानात् ॥१॥ 454 SANS "पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक वृत्तिः पापसत्ता [७-१६] ॥१८॥ 4%250 दीप अनुक्रम [७-१६] ण्यस्यैव तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य यावत्परमप्रकर्षहानिः, परमप्रकर्षहीनस्य च पुण्यस्य परमावकृष्टतमं शुभफलं-या १ स्थानाकाचित् शुभमात्रेत्यर्थः-दुःखप्रकर्ष इति तात्पर्य, तस्यैव च परमावकृष्टपुण्यस्य सर्वात्मना क्षये पुण्यात्मकबन्धाभावा- ध्ययने मोक्ष इति, यथा अत्यन्तपथ्याहारसेवनात् पुंसः परमारोग्यसुखं, तस्यैव च किश्चित्पथ्याहारविवर्जनादपथ्याहारपरि-13 वृद्धेरारोग्यसुखहानिः, सर्वथैवाहारपरिवर्जनात् प्राणमोक्ष इति, पथ्याहारोपमानं चेह पुण्यमिति, अत्रोच्यते, येयं दुःखप्रकर्षानुभूतिः सा स्वानुरूपकर्माप्रकर्षप्रभवा, प्रकर्षानुभूतित्वात् , सौख्यप्रकर्षानुभूतिवत् , यथा हि सौख्यप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाऽभ्युपगम्यते तथेयमपि दुःखप्रकर्षानुभूतिः (प्रकर्षानुभूतित्वात्) स्वानुरूपपापकर्ममकर्षज-18 निता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति, आह च-"कम्मष्पगरिसजणिय तदवस पगरिसाणुभूइओ । सोक्खप्पगरिसभूई जह पुण्णप्पगरिसप्पभवा ॥१॥” इति, तदिति दुःखमिति । इदानीमनन्तरोक्तयोः पुण्यपापकर्मणोर्बन्धकारणनिरूपणायाह-'एगे आसवे' आश्रवन्ति-प्रविशन्ति येन काण्यात्मनीत्याश्रवः, कर्मबन्धहेतुरिति भावः, स चेन्द्रियकपायानतक्रियायोगरूपः | क्रमेण पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतित्रिभेदः, उक्तञ्च-"इंदिय ५ कसाय ४ अब्वय ५ किरिया २५ पणचउरपंचपणुवीसा । जोगा तिनेव भवे आसवभेया उ बायाला ॥१॥" इति, तदेवमयं द्विचत्वारिंशद्विधोऽथवा द्विविधो द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्याश्रवो यजलान्तर्गतनावादी तथाविधच्छिद्रैजलप्रवेशनं भावाश्रवस्तु यजीवनावीन्द्रियादिच्छिद्रुतः कर्मजलसञ्चय इति, स चाश्रवसामान्यादेक एवेति ॥अथाश्रवप्रतिपक्षभूतसंवरस्वरूपमाह-'एगे संवरे' संत्रियते-कर्मकारणं प्राणा १ कर्मप्रकर्षजनितं तद् ( दुःख) अवश्यं प्रकर्षानुभूतेः । सौख्यप्रकर्षानुभूतियथा पुण्यप्रकर्षप्रभवा ॥ १ ॥ २ तथाविधपरिणामेन छिदै "पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७-१६] दीप अनुक्रम [७-१६] तिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः, आनवनिरोध इत्यर्थः, स च समितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीषह(जय)चारित्ररूपः क्रमेण पश्चत्रिदशद्वादशद्वाविंशतिपश्चभेदः, आह च-"समिई ५ गुत्ती ३ धम्मो १० अणुपेह १२ परीसहा २२ चरित्तं च ५। सत्तावन्न भेया पणतिगभेयाई संवरणे ॥१॥"त्ति, अथवाऽयं द्विविधो द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जलमध्यगतनाबादेरनवरतप्रविशज्जलानां छिद्राणां तथाविधद्रव्येण स्थगनं संवरः, भावतस्तु जीवद्रोण्यामाश्रवत्कम्भेजलानामि-18 न्द्रियादिच्छिद्राणां समित्यादिना निरोधनं संवर इति, स च द्विविधोऽपि संवरसामान्यादेक इति ।। संवरविशेषे चायो-४ ग्यवस्थारूपे कर्मणां वेदनैव भवति न बन्ध इति वेदनास्वरूपमाह-एगा बेयणा' वेदनं वेदना-स्वभावेनोदीरणाकरणेन वोदयावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवनमिति भावः, सा च ज्ञानावरणीयादिकम्र्मापेक्षया अष्टविधाऽपि विपाकोदयप्रदेशोदयापेक्षया द्विविधाऽपि आभ्युपगमिकी-शिरोलोचादिका औपक्रमिकी-रोगादिजनितेत्येवं द्विविधाऽपि वेदनासामान्यादेकैवेति ॥ अनुभूतरसं कर्म प्रदेशेभ्यः परिशटतीति वेदनानन्तरं कर्मपरिशटनरूपां निर्जरां निरूपय-10 नाह-एगा निजरा' निर्जरणं निर्जरा विशरणं परिशटनमित्यर्थः, सा चाष्टविधकर्मापेक्षयाऽष्टविधाऽपि द्वादशविधतपोजन्यत्वेन द्वादशविधाऽपि अकामक्षुत्पिपासाशीतातपदंशमशकमलसहनब्रह्मचर्यधारणाद्यनेकविधकारणजनितत्वेनानेकविधाऽपि द्रव्यतो वस्त्रादेर्भावतः कर्मणामेवं द्विविधाऽपि वा निर्जरासामान्यादेकैवेति । ननु निर्जरामोक्षयोः का प्रतिविशेषः?, उच्यते, देशतः कर्मक्षयो निर्जरा सर्वतस्तु मोक्ष इति । इह च जीवो विशिष्टनिर्जराभाजनं प्रत्येकशरीरावस्थायामेव भवति न साधारणशरीरावस्थायामतः प्रत्येकशरीरावस्थस्य जीवस्य स्वरूपनिरूपणायाह-एगे स्था०४ Randiturary.orm "पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक वृत्तिः ॥१९॥ [७-१६] दीप अनुक्रम [७-१६] जीवें' इत्यादि, अथवा उक्ताः सामान्यतः प्रस्तुतशास्त्रव्युत्पादनीया जीवादयो नव पदार्थाः, साम्प्रतं जीवपदार्थ विशे- १ स्थानापेण प्ररूपयन्नाह ध्ययने एगे जीने पाटिकरण सरीरएण (सू०१७) एगा जीवाणं अपरिआइत्ता बिगुठवणा (सू० १८) एगे मणे (सू०१९) जीवपदाएगा बई (सू०२०) एगे कायवायामे (सू० २१) एगा उप्पा (सु० २२) एगा बियती (सू० २३) एगा वि थे विशेषाः यचा (सू० २४) एगा गती (सू० २५) एगा आगती (सू० २६) एगे चयणे (सू० २७) एगे उपवाए (सू० २८) एगा तफा (सू० २९) एगा सन्ना (सू० ३०) एगा मन्ना (सू०३१) एगा विनू (सू०३२) एगा वेयणा (सू०३३) एगा छेयणा (सू०३४) एगा भैयणा (सू० ३५) एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं (सू०३६) एगे संमुद्धे अहाभूए पत्ते (सू०३७) एगदुक्ने जीवाणं एगभूए (सू०३८) एगा अहम्मपडिमा जसे आया परिकिलेसति (सू०३९) एगा धम्मपहिमा जं से आया पज्जवजाए (सू०४०) एगे मणे देवासुरमणुयाण संसि संसि समयंसि (सू०४१) एगे उट्ठाणकम्मबलबीरियपुरिसकारपरकमे देवासुरमणुयाणं तंसि २ समयसि (सू०४२) एगे नाणे एगे दसणे एगे चरिते (सू०४३) का 'एगे जीवे पाडिकएणं सरीरएणं' एकः केवलोजीवितवान् जीवति जीविष्यति चेति जीवः-प्राणधारणधर्मा आत्मेत्यर्थः, एक जीवं प्रति गतं यच्छरीरं प्रत्येकशरीरनामकर्मोदयात् तत्सत्येकं तदेव प्रत्येकक, दीर्घत्वादि प्राकृतत्वात,13/ तेन प्रत्येककेन शीर्यत इति शरीर-देहः तदेवानुकम्पितादिधर्मोपेतं शरीरकं तेन लक्षितः तदानित एको जीव इत्यर्थः, Ind Santauratoni nd Turasurary.com ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक C+SCRSAGARC5-15 [१७-४३] दीप अनुक्रम [१७-४३]] अथवा णकारी वाक्यालङ्काराधी, तत एको जीवः प्रत्येकके शरीरे वर्त्तत इति वाक्यार्थः स्यादिति, इह च 'पडिक्ख-11 एण'ति क्वचित्पाठो दृश्यते, स च न व्याख्यातः, अनवबोधाद्, इह च वाचनानामनियतत्वात् सर्वासां व्याख्यातुमशक्यत्वात् काञ्चिदेव वाचनां व्याख्यास्याम इति । इह वन्धमोक्षादय आत्मधर्मा अनन्तरमुक्तास्ततस्तदधिकारादेवातः परमात्मधमान् ‘एगा जीवाणं इत्यादिना एगे चरित्ते' इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनाह–'एगा जीवाणं अपरियाइत्ता विगचणा' 'एगा जीवाण' ति प्रतीतं 'अपरियाइत्त'त्ति अपर्यादाय परितः-समन्तादगृहीत्वा वैकियसमुद्घातेन वाह्यान पुद्गलान् या विकुर्वणा भवधारणीयवैक्रियशरीररचनालक्षणा स्वस्मिन् २ उत्पत्तिस्थाने जीवैः क्रियते सा एकैव, प्रत्येकमेकत्वावधारणीयस्येति, सकलवैक्रियशरीरा[था पेक्षया वा भवधारणीयस्यैकलक्षणत्वात् कधश्चिदिति, या पुनर्वाह्यपवलपर्यादानपर्विका सोत्तरबैंक्रियरचनालक्षणा, सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वाद वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधशक्तिम-14 त्वाच्चैकजीवस्याप्यनेकापि स्यादिति पर्यवसितम्, अथ बाह्यपुद्गलोपादान एवोत्तरवैक्रियं भवतीति कुतोऽवसीयते !, येनेह सूत्रे 'अपरियाइत्ता' इत्यनेन तद्विकुर्वणा व्यवच्छिद्यते इति चेत्, उच्यते, भगवतीवचनात् , तथाहि-"देवे णं भंते ! महिहिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गलए अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं एगरूवं विउन्बित्तए ?, गोयमा! नो इणडे |समडे, देवे णं भैते! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू', हंता पभू"त्ति, इह हि उत्तरवैकियं बाह्यपुद्गलादानाद् भवतीति विवक्षितमिति ॥ 'एगे मणेति मननं मनः-औदारिकादिशरीरव्यापाराहतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो, मनोयोग इति भावः, मन्यते वाऽनेनेति मनो-मनोद्रव्यमात्रमेवेति, तच्च सत्यादिभेदादनेकमपि संजिनां वा अ ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [१७-४३] ङ्गसूत्र वृत्तिः "स्थान" स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) ॥ २० ॥ श्रीस्थाना- सख्यातत्वादसङ्ख्यातभेदमप्येकं मननलक्षणत्वेन सर्वमनसामेकत्वादिति || 'एगा वहति वचनं वाक्-औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवागद्रव्य समूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो, वाग्योग इति भावः, इयं च सत्यादिभेदादनेकाऽप्येकैव सर्ववाचां वचनसामान्येऽन्तर्भावादिति ॥ 'एगे कायवायामेत्ति चीयत इति कायः शरीरं तस्य व्यायामो४ व्यापारः कायव्यायामः औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेष इति भावः, स पुनरौदारिकादिभेदेन ससमकारोऽपि जीवानन्तत्वेनानन्तभेदोऽपि वा एक एव, कायव्यायामसामान्यादिति यच्चैकस्यैकदा मनःप्रभृतीनामे | कत्वं तत् सूत्र एव विशेषेण वक्ष्यति, 'एगे मणे देवासुरे त्यादिनेति सामान्याश्रयमेवेहकत्वं व्याख्यातमिति ॥ 'उप्प'त्ति प्राकृतत्वादुत्पादः, स चैक एकसमये एकपर्यायापेक्षया न हि तस्य युगपदुत्पादद्वयादिरस्ति, अनपेक्षिततद्विशेषकपदार्थतया चैकोऽसाविति ॥ 'विग्रह' ति विगतिर्विगमः, सा चैकोत्पादवदिति विकृतिर्विगतिरित्यादिव्याख्यान्तरमप्युचितमायोज्यम् अस्माभिस्तु उत्पादसूत्रानुगुण्यतो व्याख्यातमिति । 'वियय'त्ति विगतेः प्रागुक्तत्वादिह विगतस्य विगमवतो जीवस्य मृतस्येत्यर्थः अर्चा-शरीरं विगताच, प्राकृतत्वादिति विधर्चा वा विशिष्टोपपत्तिपद्धतिर्विशिष्टभूषा वा, सा चैका सामान्यादिति ॥ 'ग'न्ति मरणानन्तरं मनुजत्वादेः सकाशान्नारकत्वादो जीवस्य गमनं गतिः, सा बैंकदेकस्यैकैव ऋज्यादिका नरकगत्यादिका था, पुद्गलस्य वा स्थितिबैलक्षण्यमात्रतया वैकरूपा सर्वजीवपुद्गलानामिति ॥ 'आग'त्ति आगमनमागतिः - नारकत्वादेरेव प्रतिनिवृत्तिः, तदेकत्वं गतेरिवेति ॥ 'चयणे'ति च्युतिः च्यवनम्-वैमा निकज्योतिष्काणां मरणं, तदेकमेकजीवापेक्षया नानाजीवापेक्षया च पूर्ववदिति ॥ 'उबवाए'ति, उपपतनमुपपातो For Park Use Only मूलं [४३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 43~ १ स्थानाध्ययने एकयोगता ॥ २० ॥ nary org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७-४३]] दीप अनुक्रम [१७-४३] देवनारकाणां जन्म, सं चैकव्यवनवदिति ॥ तक'त्ति तकणं तर्को-विमर्शः अवायात् पूर्वा इहाया उत्तरा प्रायः शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इह घटन्त इतिसम्प्रत्ययरूपा, इह चैकत्वं प्रागियेति ॥ 'सन्न'त्ति संज्ञानं संज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः आहारभयाद्युपाधिका वा चेतना संज्ञा, अभिधानं वा संज्ञेति ॥ 'मन्न'सि प्राकृतत्वान्मननं मतिः-कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरितियावत् , आलोचनमिति केचित् , अथवा मन्ता मन्नियन्वं(मनितव्यं) अभ्युपगम इत्यर्थः, सूत्रद्वयेऽपि सामान्यत एकत्वमिति ॥ 'एगा विनति विद्वान् विज्ञो वा तुल्यबोधयादेक इति, स्त्रीलिङ्गत्वं च प्राकृतत्वात् उत्पाद(स्य) उप्पावत् , लुप्तभावप्रत्ययत्वाद्वा एका विद्वत्ता विज्ञता वेत्यर्थः ॥ 'वेयण'त्ति प्राग्वेदना सामान्यकर्मानुभवलक्षणोक्ता इह तु पीडालक्षणैव, सा च सामान्यत एकैवेति ॥ अस्या एव कारणविशेषनिरूपणायाह-छेयणेति छेदनं शरीरस्यान्यस्य वा खड्गादिनेति ॥"भेयणे'ति, भेदनं कुन्तादिना, अथवा छेदनं कर्मणः स्थितिघातः भेदनं तु रसघात इति, एकता च विशेषाविवक्षणादिति । वेदनादिभ्यश्च मरणमतस्तद्विशेषमाह-एगे मरणे इत्यादि, मृतिमरणं अन्ते भवमन्तिम-चरमं तच्च तच्छरीरं चेत्यMान्तिमशरीरं तत्र भवा अन्तिमशारीरिकी उत्तरपदवृद्धिः, तद्वा तेषामस्तीति अन्तिमशारीरिका दीर्घत्वञ्च प्राकृतशैल्या, तेषां चरमदेहाना, मरणैकता च सिद्धत्वे पुनमरणाभावादिति । अन्तिमशरीरश्च स्नातको भूत्वा म्रियते अतस्तमाह-एगे संसुद्धे' इत्यादि, एकः संशुद्धः-अशबलचरणः अकषायत्वात् 'यथाभूतः तात्त्विकः ('पत्ते'त्ति) पात्रमिव पात्रमतिशयवद्ज्ञानादिगुणरलानां प्राप्तो वा गुणप्रकर्षमिति गम्यते । 'एगेदुक्खे' एकमेवान्तिमभवग्रहणसम्भवं दुःखं यस्य स एकदुःखः AAAAEX SAREasatara ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत का सूत्रांक [१७-४३]] दीप अनुक्रम [१७-४३] श्रीस्थाना- एगहक्खे'त्ति पाठान्तरे त्वेकधैवाख्या-संशुद्धादिळपदेशो यस्य, न स्वसंशुद्धसंशुद्धासंशुद्ध इत्यादिकोऽपि, व्यपदे-17 स्थानासूत्र- शान्तरनिमित्तस्य कषायादेरभावादिति स भवत्येकधाख्यः, एकधा अक्षो वा-जीवो यस्य स तथेति, जीवाना-प्राणि-14 ध्ययने जीनामेकभूतः-एक एव-आत्मोपम इत्यर्थः, एकान्तहितवृत्तित्वाद्, एकत्वं चास्य बहुनामपि समस्वभावत्वादिति, अथवा एकयोगता ॥२१॥ 'पत्ते' इत्यादि सूत्रान्तरं उक्तरूपसंशुद्धादन्येषां स्वरूपप्रतिपादनपरं, तत्र प्राकृतत्वात् प्रत्येकमेकं दुःखं प्रत्येकैकदुःखं । | जीवानां स्वकृतकर्मफल भोगित्वात् , किंभूतं तदित्याह-एकभूतमनन्यतया व्यवस्थित प्राणिषु, न साङ्ख्थानामिव बा-12 ह्यमिति ॥ दुःखं पुनरधर्माभिनिवेशादिति तत्स्वरूपमाह 'एगा अहम्मे त्यादि, धारयति दुर्गतौ प्रपततो जीवान धारयति-सुगतौ वा तान् स्थापयतीति धर्मः, उक्तञ्च-"दुगैतिप्रसृतान् जन्तून , यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः॥१॥" स च श्रुतचामारित्रलक्षणः, तत्प्रतिपक्षस्वधर्मस्तद्विषया प्रतिमा-प्रतिज्ञा अधर्मप्रधानं शरीरं वा अधर्मप्रतिमा, सा चैका, सर्वस्याः परिक्लेशकारणतयैकरूपत्वाद्, अत एवाह-जं से इत्यादि, 'यत्' यस्मात् 'से' तस्याः स्वाम्यात्मा-जीवो अथवा 1'से'त्ति सोऽधर्मप्रतिमावानात्मा परिक्तिश्यते-रागादिभिर्वाध्यते संक्लिश्यत इत्यर्थः, 'जंसी'ति पाठान्तरं वा, ततश्च] प्राकृतत्वेन लिङ्गव्यत्ययात् यस्यामधर्मप्रतिमायां सत्यामात्मा परिक्लिश्यते सा च एकैवेति । एतद्विपर्ययमाह-एगा ॥२१॥ धम्म त्यादि, प्राग्वन्नवरं पर्यवाः-ज्ञानादिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातो भवतीति शेषः, विशुध्यतीत्यर्थः, आहितान्या-14 -800-4444 Baitaram.org ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [१७-४३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [४३] स्थान [१], उद्देशक [-1, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दित्वाच्च जातशब्दस्योत्तरपदत्वमिति, अथवा पर्यवान् पर्यवेषु वा यातः प्राप्तः पर्यवयातोऽथवा पर्यत्रः- परिरक्षा परिज्ञानं वा शेषं तथैवेति ॥ धर्माधर्मप्रतिमे च योगत्रयाद्भवत इति तत्स्वरूपमाह 'एगे मणे' इत्यादि सूत्रत्रयं तत्र मन इति मनोयोगः, तच्च यस्मिन् २ समये विचार्यते तस्मिन् २ 'समये' कालवि शेष एकमेव, वीप्सानिर्देशेन न कचनापि समये तद् व्यादिसंख्यं सम्भवतीत्याह, एकत्वं च तस्यैकोपयोगत्वात् जीवानां, स्यादेतत्-नैकोपयोगो जीवो, युगपच्छीतोष्णस्पर्शविषय संवेदनद्वय दर्शनात्, तथाविधभिन्नविपयोपयोगपुरुषद्वयवत्, अत्रोच्यते, यदिदं शीतोष्णोपयोगद्वयं तत्स्वरूपेण भिन्नकालमपि समयमनसोरतिसूक्ष्मतथा युगपदिव प्रतीयते, न पुनस्तद्युगपदेवेति, आह च - "समयातिसुहुमयाओ मनसि जुगवं च भिन्नकालंपि । उप्पलदलसयवेहं व जह व तमलायचति ॥ १ ॥" यदि पुनरेकत्रोपयुक्तं मनोऽर्थान्तरमपि संवेदयति तदा किमन्यत्रगतचेताः पुरोऽवस्थितं हस्तिनमपि न विषयीकरोतीति, आह च- "अन्नविणिउत्तमन्नं विणिओगं लहद्द जइ मणो तेणं । हत्थिपि ठियं पुरओ कि| मन्नचित्तो न लक्खेइ १ ॥ १ ॥"त्ति इह च बहुवक्तव्यमस्ति तत् स्थानान्तरादवसेयमिति, अथवा सत्यासत्योभयस्वभावानुभयरूपाणां चतुर्णां मनोयोगानामन्यतर एव भवत्येकदा, व्यादीनां विरोधेनासम्भवादिति, केषामित्याह - 'देवासुरमनुयाणंति तत्र दीव्यन्ति इति देवा: - वैमानिकज्योतिष्कास्ते च न सुरा असुराः - भवनपतिव्यन्तरास्ते च मनो १ समयातिसौक्ष्म्यात् मन्यसे युगपच मित्रकालमपि । उत्पलदलतवेध इव यथा वा तदलातचकमिति ॥ १ ॥ २ अन्यविनियुकमन्यं विनियोगं लभते यदि मनस्तेन । हस्तिनमपि स्वयं पुरतः किमन्यचित्तो न लक्षयति ॥ १ ॥ For Park Use Only ~46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [१७-४३] ङ्गसूत्र वृत्तिः “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) Jan Eurato स्थान [१], उद्देशक [-1, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] ॥ २२ ॥ श्रीस्थाना- जता मनुजा - मनुष्यास्ते च देवासुरमनुजास्तेषां तथा 'बागि'ति वाग्योगः, स चैषामेकदा एक एव, तथाविधमनोयोगपूर्व- ११ स्थानाकत्वात् तथाविधवाग्योगस्य, सत्यादीनामन्यतरभावाद्वा, वक्ष्यति च "छहिं ठाणेहिं णत्थि जीवाणं इही इ वा जाव ध्ययने परकमेइ वा, तंजहा जीवं वा अजीवं करणयाए १, अजीवं वा जीवं करणयाए २, एगसमएणं दो भासाओ भासित्तए” * एकयोगता * इति । तथा कायव्यायामः - काययोगः, स चैषामेकदा एक एव, सप्तानां काययोगानामेकदा एकतरस्यैव भावात् ननु यदाहारकप्रयोक्ता भवति तददारिकस्यावस्थितस्य श्रूयमाणत्वात् कथमेकदा न काययोगद्वयमिति ?, अत्रोच्यते, सतोऽप्यौदारिकस्य व्यायामाभावादाहारकस्यैव च तत्र व्याप्रियमाणत्वाद्, अप्यौदारिकमपि तदा व्याप्रियते तर्हि मिश्रयोगता भविष्यति, केवलिसमुद्धते सप्तमषष्ठद्वितीयसमयेष्वौदारिक मिश्रवत्, तथा चाहारकप्रयोक्ता न लभ्येत, एवं च सप्तविधकाययोगप्रतिपादनमनर्थकं स्यादित्येक एव कायव्यायाम इति, एवं कृतवैकियशरीरस्य चक्रवर्यादेरप्यौदारिकं निव्यपारमेव, व्यापारयश्चेत् उभयस्य व्यापारवत्वे केवलिसमुद्घातवन्मिश्रयोगतेत्येवमप्येकयोगत्वमव्याहतमेवेति तथा काययोगस्याप्यौदारिकतया वैक्रियतया च क्रमेण व्याप्रियमाणत्वे आनुवृत्तितया मनोयोगवाद्यदि यौगपद्यभ्रान्तिः स्यात् तदा को दोष इति एवञ्च काययोगकत्वे सत्यौदारिकादिकाययोगाहृतमनोद्रव्यवाग्द्रव्यसाचिन्यजातजीव व्यापाररूपत्वात् मनोयोगवाग्यो गयोरेककाययोगपूर्वकतयाऽपि प्रागुक्तमेकत्वमवसेयमिति, अथवेदमेव वचनमत्र प्रमाणम्, आज्ञा१ पह्निः स्थानैर्नास्ति जीवानां ऋद्धियां यावत्पराक्रम इति वा, तथा जीवाजीवकरणता अजीवं वा जीवकरणतावे एकसमयेन द्वे भाषे भाषितुं For Pasta Use Only मूलं [४३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 47~ ॥ २२ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [१७-४३] SRRORSCX ग्राह्यत्वात् अस्य, यतः-"आणागेज्झो अत्यो आणाए चेव सो कहेयचो । दिदंता दिईतिअ कहणविहिविराहणा इहा ४॥१॥" इति, दृष्टान्ताद्दाष्टोन्तिकोऽर्थ इत्यर्थः । ननु सामान्याश्रयैकत्वेनैव सूत्रं गमकं भविष्यतीति किमनेन विशेषव्या ख्यानेनेति ?, उच्यते, नैवं, सामान्यैकत्वस्य पूर्वसूत्रैरेवाभिहितत्वादस्य पुनरुतत्वप्रसङ्गा, देवादिग्रहणसमयग्रहणयोश्च वैयर्थ्यप्रसङ्गाचेति । इह च देवादिग्रहणं विशिष्टवैकियलब्धिसम्पन्नतयैषामनेकशरीररचने सत्येकदा मनोयोगादीनामनेकत्वं शरीरव भविष्यतीति प्रतिपत्तिनिरासाथै, न तु तिर्यग्नारकाणां व्यवच्छेदार्थ, ननु तिर्यनारका अपि| वैक्रियलब्धिमन्तस्तेषामपि विक्रियायां शरीरानेकत्वेन मनःप्रभृतीनामनेकत्वप्रतिपत्तिः सम्भाव्यत एवेति तहणमपि | न्याय्यमिति, सत्यम् , किन्तु देवादीनां विशिष्टतरलन्धितया शरीराणामत्यन्तानेकतेति तवणं, तथा 'प्रधानग्रहण पूइतरग्रहणं भवतीति न्यायाददोषो, नारकादिभ्यश्च देवादीनां प्रधानत्वं प्रतीतमेवेति, एतेषां च मनम्मभृतीनां यथा-| प्राधान्यकृतः क्रमः, प्रधानत्वं च बह्वल्पाल्पतरकर्मक्षयोपशमप्रभवलाभकृतमिति ॥ कायच्यायामस्यैव भेदानामेकता-2 माह-एगे उठाणे'त्यादि, उत्थानं च-चेष्टाविशेषः कर्म च-भ्रमणादिक्रिया बलं च-शरीरसामर्थ्य वीर्य च-जीव-18 प्रभवं पुरुषकारश्च-अभिमानविशेषः पराक्रमश्च-पुरुषकार एव निष्पादितस्वविषय इति विग्रहे द्वन्द्वैकवद्भावः, एते च वीर्यान्तराय[क्षय क्षयोपशमसमुत्था जीवपरिणामविशेषाः, एतेषु प्रत्येकमेकशब्दो योजनीयो, वीर्यान्तर क्षय]क्षयोपशमवैचित्र्यतः प्रत्येक जपन्यादिभेदैरनेकत्वेऽप्येषामेकजीवस्यैकदा [क्षय]क्षयोपशममात्राया एकविधत्वादेक एव ज १आशामायोऽर्थ आज्ञयेव स कथयितव्यः । दृष्टान्ताहाष्टान्तिकः कथन विधेरितरथा विराधना ॥१॥ ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [१७-४३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २३ ॥ Jan Educator "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-] मूलं [४३] स्थान [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - धन्यादिरेतद्विशेषो भवति कारणमात्राधीनत्वात् कार्यमात्राया इति सूत्रभावार्थः, शेषं प्राग्वदिति ॥ पराक्रमादेश्च ज्ञानादिमोक्षमार्गोऽवाप्यते, यत आह--"अभुद्वाणे विणये परक्कमे साहुसेवणाए य । सम्मदंसणलंभो विरयाविरइए विरइए ॥ १ ॥” इति, अतो ज्ञानादीनां निरूपणायाह-'एगे नाणे' इत्यादि, अथवा धर्मप्रतिमा प्रागुदिता सा च ज्ञानादिस्वभावेति ज्ञानादीन् निरुपयन्नाह ज्ञायन्ते - परिच्छिद्यन्तेऽर्था अनेनास्मिन्नस्माद्वेति ज्ञानं ज्ञानदर्शनावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा ज्ञातिर्वा ज्ञानम्आवरणद्वयक्षयाद्याविर्भूत आत्मपर्यवविशेषः सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्रहणप्रवणः सामान्यांशग्राहकश्च ज्ञानपञ्चकाज्ञानत्रयदर्शनचतुष्टयरूपः, तञ्चानेकमप्यवबोधसामान्यादेकमुपयोगापेक्षया वा, तथाहि उन्धितो बहूनां बोधविशेषाणामेकदा सम्भवेऽप्युपयोगत एक एव सम्भवति, एकोपयोगत्वाजीवानामिति, ननु दर्शनस्य ज्ञानव्यपदेशत्वमयुक्तं, विषयभेदाद्, उक्तञ्च - "जं सामन्नरगहणं दंसणमेयं विसेसियं नाणं"ति, अत्रोच्यते, ईहावग्रही हि दर्शनं, सामान्यग्राहकत्वाद्, अपायधारणे च ज्ञानं, विशेषग्राहकत्वाद्, अथचोभयमपि ज्ञानग्रहणेन गृहीतमागमे “आभिनियोहियनाणे अट्ठावीसं हवंति पयडीउ" ति वचनात् तस्मादवबोधसामान्याद्दर्शनस्यापि ज्ञानव्यपदेश्यत्वमविरुद्धमिति, ननु दर्शनं पृथगेवोपात्तमुत्तरसूत्रे तत्किमिह ज्ञानशब्देन दर्शनमपि व्यपदिष्टमिति १, अत्रोच्यते, तत्र हि दर्शनं श्रद्धानं १ अभ्युत्थाने विनये पराक्रमे साधुवेवनायां च सम्यग्दर्शनलाभो विरतादिरतेविरतेश ॥ १ ॥ २ यत् सामान्यग्रहणं दर्शनमेतत् विशेषितं ज्ञानम ३ आभिनियोधिकाने अष्टाविंशतिर्भवन्ति प्रकृतयः, For Park Use Only ~49~ १ स्थाना ध्ययने ज्ञानादिनिरूपणा ॥ २३ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७-४३] विवक्षितं, ज्ञानादित्रयस्य सम्यकशब्दलाग्छितत्वे सति मोक्षमार्गत्वेन विवक्षितत्वात् , मोक्षमार्गभूतं चैतप्रयं श्रद्धानप-13 हर्यायेणैव दर्शनेन सहेति । 'एगे दंसणे'त्ति, दृश्यन्ते-श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शन-दर्शनमोहनीयस्य: क्षयः क्षयोपशमो वा, दृष्टिा दर्शन-दर्शनमोहनीयक्षयाद्याविभूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिणामः, तच्चोपाधिभेदादनेकविधमपि श्रद्धानसाम्यादेकम् , एकजीवस्य वैकदा एकस्यैव भावादिति, नन्ववबोधसामान्याग्ज्ञानसम्यक्त्त्वयोः कः प्रतिविशेषः?, उच्यते, रुचिः सम्यक्त्वं रुचिकारणं तु ज्ञानं, यथोक्तम्-"नाणमवायधिईओ दसणमिई जहोग्गहेहाओ। तह तत्तराई सम्म रोइज्जइ जेण तं नाणं ॥१॥"ति, 'चरित्ते'त्ति चर्यते-मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति चर्यते वा गम्यते अनेन निवृताविति चरित्रं अथवा चयस्य कर्मणां रिक्तीकरणाचरित्रं निरुकन्यायादिति-चारित्रमोहनीयक्षयाद्याविभूत आत्मनो विरतिरूपः परिणाम इति, तदेवं वक्ष्यमाणानां सामायिकादित दानां विरतिसामान्यान्तर्भावादेकस्यैवैकदा भा-18 वाद्वेति, एतेषां च ज्ञानादीनामयमेव क्रमो, यतो नाज्ञातं श्रद्धीयते नानद्धत्तं सम्यगनुष्ठीयत इति । ज्ञानादीनि युकात्पत्तिविगतिस्थितिमन्ति, स्थितिश्च समयादिकेति समयं प्ररूपयन्नाह एगे समए (सू०४४) एगे पासे एगे परमाणू (सू०४५) एगा सिद्धी । एगे सिद्धे । एगे परिनियाणे । एगे परिनिब्बुए (सू०४६) 'एगे समए' समय:-परमनिरुद्धकाल उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्ताजरपट्टसाटिकापाटनदृष्टान्ताद्वा समयप्रसिद्धा१ज्ञानमायावी दर्शनामि यथाऽवग्रहेहे । तथा तत्त्वांचः सम्पवयं रोच्यते येन तत् शनम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [१७-४३] ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४४-४६] दीप अनुक्रम [४४-४६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २४ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] दवबोद्धव्यः, स चैक एव वर्त्तमानस्वरूपः, अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेनाभावात्, अथवा असावेकः स्वरूपेण निरंशत्वादिति । निरंशवस्त्वधिकारादेवेदं सूत्रद्वयमाह - एगे पएसे एगे परमाणु प्रकृष्टो - निरंशो धर्माधर्माकाशजीवानां देशः- अवयवविशेषः प्रदेशः स चैकः स्वरूपतः सद्वितीयत्वादौ देशव्यपदेशत्वेन प्रदेशत्वाभावप्रसङ्गादिति । 'परमाणु'त्ति परमश्चासावात्यन्तिकोऽणुश्च सूक्ष्मः परमाणुः व्यणुकादिस्कन्धानां कारणभूतः, आह च - "कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गञ्च ॥ १ ॥” इति स च स्वरूपतः एक एवान्यथा परमाणुरेवासौ न स्यादिति । अथवा समयादीनां प्रत्येकमनन्तानामपि तुल्यरूपापेक्षयैकत्वमिति । यथा परमाणोस्तथाविधैकत्व परिणामविशेषादेकत्वं भवति तथा तत एवानन्ताणुमयस्कन्धस्यापि स्यादिति दर्शयन् सकलबादरस्कन्धप्रधानभूतमीपत्प्राग्भाराभिधानं पृथिवीस्कन्धं प्ररूपयन्नाह - 'एगा सिद्धी' सिध्यन्ति कृतार्था भवन्ति यस्थां सा सिद्धिः सा च यद्यपि लोकानं, यत आह- "ईहं बुंदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ"त्ति, तथापि तत्प्रत्यासत्येषत्प्राग्भाराऽपि तथा व्यपदिश्यते, आह च" बारसंहिं जोयणेहिं सिद्धी सब्बहसिद्धाउ"त्ति, यदि च लोकाग्रमेव सिद्धिः स्यात् तदा कथमेतदनन्तरमुक्तम् - "निम्मेलदगरयवण्णा तुसारगोक्खीरहारसरिवन्ने'त्यादि तत्स्वरूपवर्णनं घटते ?, लोकाग्रस्यामूर्त्तत्यादिति, तस्मादीषत्प्राग्भारा सिद्धिरिहोच्यते सा चैका, द्रव्यार्थतया पञ्चचत्वारिंशद्योजन लक्षप्रमाणस्कन्धस्यैकपरिणामत्वात्, पर्यायार्थतया त्वनन्ता, अथवा कृतकृत्यत्वं लोकाग्रमणिमादिका वा सिद्धिः, एकत्वं च १ इह तनुं स्वत्वा तत्र गत्वा सिध्यन्ति २ द्वादशमियजनैः सिद्धिः सर्वार्थसिद्धात ३ निर्मलदकरजोवण तुषारगोक्षीरहारसरश For Penal Use Only ~51~ १ स्थानाध्ययने सिद्धिलों काममितिसाधनं ॥ २४ ॥ Contrary or Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४४-४६] दीप अनुक्रम [४४-४६] स्था० ५ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-1, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] Education in सामान्यत इति । सिद्धेरनन्तरं सिद्धिमन्तमाह- 'एगे सिद्धे' सिद्ध्यति स्म कृतकृत्योऽभवत् सेधति स्म वा-अगच्छत् अपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः सितं वा बद्धं कर्म धमातं दग्धं यस्य स निरुक्तात् सिद्धः--कर्म्मप्रपञ्चनिर्मुक्तः, स चएको द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतस्त्वनन्तपुर्याय इति, अथवा सिद्धानां अनन्तत्वेऽपि तत्सामान्यादेकत्वम्, अथवा | कर्मशिल्पविद्यामन्त्रयोगागमर्थयात्रा बुद्धितपः कर्म्मक्षयभेदेनानेकत्वेऽप्यस्यैकत्वं सिद्धशब्दाभिधेयत्वसाम्यादिति । कर्म्मक्षयसिद्धस्य च परिनिर्वाणं धम्मों भवतीति तदाह- 'एगे परिनिव्वाणे' परि-समन्तान्निर्वाणं सकलकर्म्मकृत विकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं परिनिर्व्वाणं तदेकम् एकदा तस्य सम्भवे पुनरभावादिति । परिनिर्वाणधर्म्मयोगात् स एव कर्मक्षयसिद्धः परिनिर्वृत उच्यते इति तद्दर्शनायाह- 'एंगे परिनिब्बुए' परिनिर्वृतः सर्वतः शारीरमानसास्वास्थ्यविरहित इति भावः, तदेकत्वं सिद्धस्येव भावनीयमिति । तदेतावता ग्रन्थेनैते प्रायो जीवधर्म्मा एकतया निरूपिताः, इदानीं जीवोपग्राहकत्वात् पुद्गलानां तलक्षणाजीवधर्म्मा 'एगे सदे' इत्यादिना जाव लुक्खे' इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनैकतयैव दर्श्यन्ते, पुलादीनां तु सत्ता केषाञ्चिदनुमानतोऽवसीयते घटादिकार्योपलब्धेः केषाञ्चित्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत इति ॥ एगे सदे । एने रूवे । एगे गंधे। एगे रसे एगे फासे । एगे सुब्भिसदे। एगे दुब्भिसदे। एगे सुरूबे । एगे दुरुबे । एगे दीहे । एगे इस्से । एगे वट्टे एगे तंसे एगे चउरंसे एगे पिडुले । एगे परिमंडले एगे किण्हे । एगे णीले । एंगे लोहिए। एगे हलिदे। एगे सुकिले एगे सुभिगंधे। एगे दुब्भिगंधे। एगे तित्ते । एगे कहुए एगे कसाए । एगे अंबिले । एगे महुरे । एगे कक्खडे जाव लुक्खे ( सू० ४७ ) For Parts Only ~ 52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [४७] दीप अनुक्रम [४७] श्रीस्थाना- KI तत्र शब्दादिसूत्राणि सुगमानि, नवरं शब्दचते-अभिधीयते अनेनेति शब्दो-ध्वनिः श्रोत्रेन्द्रियविषयः, रुप्यते-अब-12 १ स्थानालोक्यत इति रूपम्-आकारश्चक्षुर्विषयः, प्रायते-सिङ्घयते इति गन्धो-प्राणविषयः, रस्यते-आस्वाद्यते इति रसः-रस-4 ध्ययन वृत्तिः अजीबनेन्द्रियविषयः, स्पृश्यते-छुप्यत इति स्पर्शः-स्पर्शनकरणविषयः, शब्दानां चैकत्वं सामान्यतः सजातीयविजातीयव्या धर्मा 14 वृत्तपापेक्षया वा भावनीयं । शब्दभेदावाह-'सुब्भिसदित्ति शुभशब्दा मनोज्ञा इत्यर्थः, 'दुन्भि'त्ति अशुभो मनोजो ॥२५॥ यो न भवतीति, एवं च शब्दान्तरमत्रान्तर्भूतमवसेयम् , एवं रूपव्याख्यानेऽपि, सुरुपादयश्चतुर्दश शुक्लान्ता रूपभेदाः तत्र सुरूपं-मनोज्ञरूपमितर(रूपमिति। दीर्घम्-आयततरं इस्वं-तदितर, वृत्तादयः पञ्च स्कन्धसंस्थानभेदाः, तत्र वृत्तसंस्थानं मोदकवत् , तच्च प्रतरधनभेदात् द्विधा, पुनः प्रत्येकं समविषमप्रदेशावगाढमिति चतुर्की, एवं च शेषाण्यपि, 'तसे'त्ति तिस्रोऽनयः-कोटयो यस्मिंस्तत् व्यस्र-त्रिकोणम् , 'चतुरंसेति चतस्रोऽनयो यस्य तत्तथा-चतुष्कोणमित्यर्थः तथा 'पिहले'त्ति पृथुलं-विस्तीर्णम् , अन्यत्र पुनरिह स्थाने आयतमभिधीयते, तदेव चेह दीर्घहस्वपृथुलशब्दैविभज्यो[क्तम् , आयतधर्मस्वादेषां, तचायतं प्रतरघनश्रेणिभेदात् त्रिधा, पुनरेकैकं समविषमप्रदेशमिति घोढा, यचायतभेदयोरपि इस्वदीर्घयोरादावभिधानं तद्वत्तादिषु संस्थानेष्वायतस्य प्रायो वृत्तिदर्शनार्थ, तथाहि-दीर्घायतः स्तंभो वृत्तख्यत्रः चतु| रसश्चेत्यादि भावनीयम् , विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरेवमुपन्यास इति, 'परिमंडले'त्ति परिमण्डलसंस्थानं वलयाकारं प्रतरघनभेदात् द्विविधमिति, रूपभेदो वर्णः, स च कृष्णादिः पञ्चधा प्रतीत एव, नवरं हारिद्रः-पीतः, कपिशादयस्तु संसर्गजा म॥२५॥ | इति न तेषामुपन्यासः, गन्धो द्वेधा-सुरभिर्दुरभिश्च, तत्र सौमुख्यकृत्सुरभिमुख्यकृत् दुरभिः, साधारणपरिणामोऽसप्टो कर ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [४७]] दीप अनुक्रम [४७] दुर्ग्रह इति संसर्गजत्वादेव नोक्त इति, रसः पञ्चधा, तत्र श्लेष्मनाशकृत् तिक्तः १ वैशद्यच्छेदनकृत्कटुकः २ अन्नरुचिस्तम्भनकृत्कषायः ३ आश्रवणक्लेदनकृदम्लः ४ हादनबृंहणकृन्मधुरः ५ संसर्गजो लवण इति नोक्त इति, स्पर्शोऽष्टविधः, तत्र कर्कशः कठिनोऽनमनलक्षणः १ यावत्करणात् मृद्वादयः षडन्ये, तत्र मृदुः सन्नतिलक्षणः २ गुरुरधोगमनहेतुः ३ लघुः प्रायस्तियंगूर्ध्वगमनहेतुः ४ शीतो वैशद्यकृत् स्तम्भनस्वभावः ५ उष्णो माईवपाककृत् ६ स्निग्धः संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणं ७ रूक्षस्तथैवाबन्धकारणमिति ८। उक्ता पुद्गलधर्माणामेकता, इदानीं पुद्गलालिङ्गितजीवाप्रशस्तधर्माणामष्टा&ादशानां पापस्थानकाभिधानानां 'एगे पाणाइवाए' । इत्यादिना ग्रन्थेन 'दसणसल्ले' इत्येतदन्तेन तामेवाह___एगे पाणातिवाए जाब एगे परिगाहे । एगे कोधे जाव लोभे । एगे पेजे एगे दोसे जाव एगे परपरिवाए । एगा अर तिरती। एगे मायामोसे । एगे मिच्छादसणसल्ले । (सू०४८)। एगे पाणाइवायवेरमणे जाव परि०धेरमणे । एगे कोह विवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे (सू०४९) तत्र प्राणा:-उच्छासादयस्तेषामतिपातनं-प्राणवता सह वियोजन प्राणातिपातो हिंसेत्यर्थः, उक्तश्च-"पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुतास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥" इति, स च प्राणातिपातो द्रव्यभावभेदात् द्विविधो, विनाशपरितापसक्लेशभेदात् त्रिविधो वा, आह च-"तप्पजायविणासो दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य । एस वहो जिणभणिओ बजेयव्यो पयत्तेणं ॥१॥"ति, अथवा मनोवाक्कायैःकरण १ रारपर्यायविनाशो बुलोत्पादक संक्लेशश्च । एष वयो जिन गितो बर्जवितव्यः प्रयत्नेन ॥१॥ SARERuratir i na ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८-४९] श्रीस्थाना-कारणानुमतिभेदानवधा, पुनः स क्रोधादिभेदात् पत्रिंशद्विधो वेति १, तथा मृषा-मिथ्या वदनं वादो मृषावादः, स च ४ ८१ स्थाना का ध्यबने गसूत्र- द्रव्यभावभेदात् द्विधा, अभूतोभावनादिभिश्चतुर्धा वा, तथाहि-अभूतोद्भावनं यथा सर्वगत आत्मा, भूतनिहवो ना-है| वृत्तिः स्त्यात्मा, वस्त्वन्तरन्यासो यथा गौरपि सन्नश्वोऽयमिति, निन्दा च यथा कुष्ठी त्वमसीति २, तथा अदत्तस्य-स्वामि |पापस्थाजीवतीर्थकरगुरुभिरवितीर्णस्याननुज्ञातस्य सचित्ताचित्तमिनभेदस्य वस्तुनः आदान-ग्रहणमदत्तादानं, चौर्यमित्यर्थः नानि त॥ २६॥ द्विरतिश्च तच विविधोपाधिवशादनेकविधमिति, तथा मिथुनस्य-स्त्रीपुंसलक्षणस्य कर्म मैथुनम्-अब्रह्म, तत् मनोवाकायानां कृत-18 कारितानुमतिभिरौदारिकवैक्रियशरीरविषयाभिरष्टादशधा विविधोपाधितो बहुविधतरं येति ४, तथा परिगृह्यते-स्वी-13 द्रक्रियत इति परिग्रहः, बाह्याभ्यन्तरभेदात् द्विधा, तत्र बाह्यो धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादिरनेकधा, अ(आ)भ्यन्तरस्तु मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमादादिरनेकधा, परिग्रहणं वा परिग्रहो मूछेत्यर्थः ५, तथा क्रोधमानमायालोभाः कषायमोहनी यकर्मपुगलोदयसम्पाद्या जीवपरिणामा इति, एते चानन्तानुबन्ध्यादिभेदतोऽसङ्खचाताध्यवसायस्थानभेदतो वा बहुव विधाः, तथा 'पेल्जेत्ति प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेम, तच्चानभिव्यक्तमायालोभलक्षणभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्रमिति १०, तथा-'दोसेत्ति द्वेषणं द्वेषः, दूषणं वा दोषः, स चानभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रमिति ११, 'जाबत्ति 'कलहे अम्भक्खाणे पेसुण्णे' इत्यर्थः, तत्र कलहो-राटी १२ अभ्याख्यानं-प्रकटमसदोषारोपणं १३ पैशून्य-पिशुन| कर्म प्रच्छन्नं सदसद्दोषाविर्भावनं १४, परेषां परिवादः परपरिवादो विकत्वनमित्यर्थः १५, अरतिश्च तन्मोहनीयोदयज-1 ॥ २६ ॥ श्चित्तविकार उद्वेगलक्षणो रतिश्च तथाविधानन्दरूपा अरतिरति इत्येकमेव विवक्षितं, यतः वचन विषये या रतिस्तामेव DOCOMOCRACCACANSAR दीप अनुक्रम [४८-४९] Santaratan KHA Kunduranorm ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८-४९] दि विषयान्तरापेक्षया अरति व्यपदिशन्त्येवमरतिमेव रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति १६, तथा 'मायामोस'त्ति माया च-निकृतिम॒पा च-मृषावादो मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्त्वान्मायामोस, दोषद्वययोगः, इदं च मानमृषादिसंयोगदोषोपलक्षणं, वेषान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये, प्रेमादीनि च बहुविधानि विषयभेदेन अध्यवसायस्थानभेदतो वा १७, मिथ्यादर्शनं-विपर्यस्ता दृष्टिः, तदेव तोमरादिशल्यमिय शल्यं दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति, मिथ्यादर्शनश्च पश्चधा-अभिग्रहिकानभिग्रहिकाभिनिवेशिकानाभोगिकसांशयिकभेदाद् उपाधिभेदतो बहुतरभेदं वेति 8|१८ ॥ एतेषां च प्राणातिपातादीनां उक्तक्रमेणानेकविधत्वेऽपि वधादिसाम्यादेकत्वमयगन्तव्यमिति । उक्तान्यष्टादश है पापस्थानानि, इदानीं तद्विपक्षाणामेव 'एगे पाणाइवायवेरमणे इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैरेकतामाह, सुगमानि चै तानि, नवरं विरमणं विरतिः, तथा विवेकस्त्याग इति ॥ उक्त सपुद्गलजीवद्रव्यधर्माणामेकत्वमिदानीं कालस्य स्थितिरूपत्वेन तद्धर्मत्वात् तद्विशेषाणां 'एगा ओसप्पिणी'त्यादिना 'सुसमसुसमे'त्येतदन्तेनैतदेवाह--- एगा ओसप्पिणी । एगा सुसमसुसमा जाव एगा दूसमदूसमा । एगा उत्सप्पिणी एगा दुस्समदुस्समा जाव एगा मुसमसुसमा । (सू०५०) अथ काल एव कथमवसीयत इति चेत्?, उच्यते, बकुलचम्पकाशोकादिपुष्पप्रदानस्य नियमेन दर्शनान्नियामकञ्च काल इति, तत्र 'ओसप्पिणीति अवसर्पति हीयमानारकतया अवसर्पयति वाऽऽयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी सागरोपमकोटीकोटीदशकप्रमाणः कालविशेषः सुष्टु समा सुषमा अत्यन्तं सुषमा सुषमसुषमा अत्यन्तसुखस्वरू 44-456 दीप अनुक्रम [४८-४९] -- - REmiratna Munmurary.au ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५०] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- नसूत्र प्रत सूत्रांक [५०] ॥२७॥ दीप अनुक्रम [५०] पस्तस्या एव प्रथमारक इति, एकत्वं चावसपिण्याः स्वरूपेणैकत्वादेवं सर्वत्र, यावदिति सीमोपदर्शनार्थः, ततश्च सुषम- १ स्थानासुपमेत्यादि सूत्र स्थानान्तरप्रसिद्धं तावदध्येयमिह यावद् 'दृसमदूसमें ति पदमित्यतिदेशः, अयं च सूत्रलाघवार्थमिति, ध्ययने एवं च सर्वत्र यावदिति व्याख्येयम् , अतिदेशलब्धानि च पदान्येकशब्दोपपदान्येतानि-एगा सुसमा एगा सुसमदूसमा अवसर्पिएगा दूसमसुसमा एगा दूसमें'ति, आसां स्वरूपं शब्दानुसारतो ज्ञेयं, प्रमाणं पुनराद्यानां तिसृणां समानां क्रमेण साग-13 ण्याद्या रोपमकोटीकोव्यश्चतुखिद्विसङ्ख्याः, चतुर्थ्यास्त्वेका द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रोना, अन्त्ययोस्तु प्रत्येक वर्षसहस्राण्येकविंशतिरिति । तथा उत्सप्पति-वर्द्धतेऽरकापेक्षया उत्सप्पयति वा भावानायुष्कादीन वर्द्धयतीति उत्सर्पिणी अवसर्पिणीप्रमाणा दुष्ठु समा दुष्षमा-दुःखरूपा अत्यन्तं दुष्षमा दुषमदुषमा, यावत्करणाद् 'एगा दूसमा एगा दूसमसुसमा एगा सुसमसमा एगा सुसमे ति दृश्य, एतत्प्रमाणं च पूर्वोक्तमेव नवरं विपर्यासाविति । कृता जीवपुद्गलकाललक्षणद्रव्यविविधधर्मविशेषाणामेकत्वप्ररूपणा, अधुना संसारिमुक्तजीवपुद्गलद्रव्यविशेषाणां नारकपरमाण्यादीनां समुदायलक्षणधर्मस्य 'एगा नेरइयाणं वग्गणेत्यादिना 'एगा अजहण्णुकोसगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणेत्येतदन्तेन ग्रन्थेन तामेवाह एगा नेरइयाणं वग्गणा एगा असुरकुमाराणं वग्गणा चउवीसदंडओ जाव वेमाणियाणं वग्गणा । एगा भवसिद्धीयाण वग्गणा एगा अभवसिद्धीयाणं वग्गणा एगा भवसिद्धिनेरइयाणं वग्गणा एगा अभवसिद्धियाणं रतियाणं वग्गणा, एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वाणा । एगा सम्मदिहियाणं च ॥२७॥ ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [५१] दीप अनुक्रम [५१] ग्गणा एगा मिच्छरिष्टियाणं वग्गणा एगा सम्मामिच्छहिडिवाणं वग्गणा । एगा सम्मदिहियाण रझ्याणं वग्गणा एगा मिच्छद्दिहियाणे णेरइयाणं वग्गणा एगा सम्ममिच्छहिटियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं जाव थणियकुमाराणं वगणा । एगा मिच्छादिवियाणं पुढविकाइयाणं वग्गणा एवं जाव वणस्लइकाइयाणं । एगा सम्मदितियाण बेइंदियाणं वग्गणा एगा मिकछद्दिट्ठियाणं वेइंदियाणं वग्गणा, एवं तेइंदियाणंपि चरिदियाणवि । सेसा जहा नेरइया जाव एगा सम्ममिच्छरिडियाणं वेमाणियाणं वग्गणा ॥ एगा कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा सुझपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हपक्खियाणं रइयाणं वग्गणा, एगा मुक्कपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं चवीसदंडओ भाणियब्यो । एगा कण्हलेसाणं वगणा एगा नीललेसाणं वग्गणा एवं जाव सुक्कलेसाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाण नेरइयाणं वग्गणा जाव काउलेसाणं णेरझ्याण वग्गणा, एवं जस्स जइ लेसाओ, भवणवइयाणमंतरपुढविआउवणस्सइकाइयाणं च चत्तारि लेसाओ तेउवाउबेइंदियतिईविभपरिदियाणं तिन्नि लेसाओ, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं छल्लेसाओ, जोतिसियाणं एगा तेउलेसा, वेमाणियाण तिन्नि उपरिमलेसाओ । एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा, एवं छमुवि लेसासु दो दो पयाणि भाणियच्याणि । एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं नरयाणं वग्गणा एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धिआणं णेरइयाणं वगणा एवं जस्स अति लेसाओ तस्स तति भाणियवाओ जाव माणियाणं । एगा कण्हलेसाणं सम्मदिहिआणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं मिच्छदिहियाणं वगणा, एगा कण्हलेसाणं सम्मामिच्छद्दिहियाणं वगणा, एवं छमुवि लेसासु जाव वेमाणियाणं जेसि जदि विट्ठीओ। एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं सुकपक्खियाणं बग्गणा, जाव वेमाणियाण ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: स्थाना प्रत सुत्रांक [५१] SASCIRCTOCOCACACANCIACASS दीप अनुक्रम [५१] जस्स जति लेसाओ एए अह चउवीसदंडया ॥ एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा, एवं जाव एगा एकसिद्धाणं वग्गणा एगा १ स्थानाअणिकासिद्धाणं वगणा एगा पढ़मसमयसिद्धार्ण वम्गणा एवं जाव अणंतसमयसिद्धाणं वग्गणा ।। एगा परमाणुपोग्गलार्ण ध्ययने वग्गणा एवं जाव एगा अणंतपएसियाणं खंधाणं वग्गणा । एगा एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा जाब एगा असं भव्यदृष्टिखेजपएसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एगा एगसमयठितियाणं पोग्गलाणं वग्गणा जाव असंखेजसमयठितियाणं पोग्ग पक्षलेश्यालाणं वग्गणा । एगा एगगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा, जाव एगा असंखेज एगा अणंतगुणकालगाणं पोग्गलाणं व सिद्धपरगणा । एवं वण्णा गंधा रसा फासा भाणियचा जाब एगा अणंतगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं धग्गणा । एगा जहन्नपएसि माणवः याणं संधाणं वगणा एगा उकस्सपएसियाणं खंधाणं वग्गणा एगा अजहन्नुकस्सपएसियाणं संधाणं पागणा एवं जहन्नीगाहणयाणं उकोसोगाहणगाणं अजहब्रुकोसोगाहणगाणं जहन्नठितियाणं उचास्सठितीयाणं अजहनुकोसठितियाणं जहनगुणकालगाणं उकस्सगुणकालयाणं अजहन्नुकस्सगुणकालगाणं एवं वणगंधरसफासाणं वगणा भाणियबा, जाव एगा अजहबुकस्सगुणलुक्खाणं पोग्गलाण वग्गणा ।। (सू० ५१) 3. तत्र 'नेरइयाण ति निर्गतम्-अविद्यमानमयम्-इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिकाः-क्लिष्टसत्त्ववि-13 शेषाः, ते च पृथिवीप्रस्तटनरकावासस्थितिभव्यत्वादिभेदादनेकविधास्तेषां सर्वेषां वर्गणा वर्गः समुदायः, तस्याश्चैकत्वं सर्वत्र नारकत्वादिपर्यायसाम्यादिति । तथा असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव कुमाराओत्यसुरकुमारास्तेपामेका व-100 गणेति, 'चउवीसदंड'त्ति चतुर्विंशतिपदप्रतिबद्धो दण्डको वाक्यपद्धतिश्चतुर्विंशतिदण्डका, स इह वाच्य इति शेषः, स|४|| CCCCCCCC | चतुर्विंशति दंडकः, तस्य भेदा: ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [५१] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ५९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] .......... - चार्य - 'नेरेइया १ असुरादी १० पुढवाइ ५ बेइंदियादयो चेव ४ । नर १ वंतर १ जोतिसिय १ वेमाणी १ दंडओ एवं ॥ १ ॥" भवनपतयो दशधा - "असुरा नाग सुवण्णा विज्जू अग्गी य दीव उदही य दिसि पवणधणियनामा दसहा एए भवणवासि ॥ २ ॥” त्ति, एतदनुसारेण सूत्राणि वाच्यानि यावच्चतुर्विंशतितमं 'एगा वैमाणियाणं वग्गण त्ति, एष | सामान्यदण्डकः १। ननु नारकसत्तैव दुरुपपादा आस्तां तद्धर्म्मभूताया वर्गणाया एकत्वमनेकत्वं वेति, तथाहि न सन्ति नारकाः, तत्साधकप्रमाणाभावात्, व्योमकुसुमवत्, अत्रोच्यते, प्रमाणाभावादित्यसिद्धो हेतुः, तत्साधकानुमानसद्भा वात्, तथाहि विद्यमानभोक्तृकं प्रकृष्टपापकर्मफलं, कर्म्मफलत्वात् पुण्यकर्मफलवत्, न च तिर्यङ्नरा एव प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात्, विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत्, आह च"पावफलरस पगिस्स भोइणो कम्मओवसेसव्य । संति धुवं तेऽभिमया नेरइया अह मई होज्जा ॥ १ ॥ अञ्च्चत्थदुक्खिया जे तिरियनरा नारगत्ति तेऽभिमया । तं न जओ सुरसोक्खप्पगरिससरिसं न तं दुक्खं ॥ २ ॥” ति, 'अवसेस व्वति यथा नारकेभ्योऽन्ये तिर्यङ्नरा इत्यर्थः अथ सुराणामपि विवादास्पदीभूतत्वात् विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्ट , Eucation and १] नैरयिका अनुरादयः पृथ्यादयो द्वीन्द्रियादयचैव मरा व्यन्तरा ज्योतिका वैमानिका दण्डकचैवं ॥ १ ॥ २ असुरा नागाः सुपर्णा विद्युतः अनयथ द्वीपा उद्धयथ । दिशः पवनाः स्तनितनामानः दशभा एते भवनवासिनः ॥ १ ॥ २ पापफलस्य प्रष्टस्य भोगिनः कर्मस्या अवशेषा (प्रकृष्टपुष्यफला देवा इव सन्ति ध्रुवं तेऽभिमता नैरयिकाः अथ मतिर्भवेत् ॥ १ ॥ अत्यन्तदुःखिता मे हिमरा नारका इति तेऽभिगताः । तत्र यतः सुरसीययप्रकर्षसदृशं न तदुःखम् ॥ २ ॥ [४] सम्वस्थ प्र. चतुर्विंशति दंडकः, तस्य भेदा: For Pernal Use Only ~60~ ৩ অ nayor Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [५१] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २९ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [५१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] -------- EcationEAL नारक- देव सिध्धि: - पुण्यफलवत् इत्यसिद्धो दृष्टान्तः, अत्रोच्यते, देव इति सार्थकं पदं व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदत्वाद्, घटाभिधानवदिति, ततः सन्ति देवा इति प्रत्येतव्यम्, अथ मनुष्येण गुणर्द्धिसंपन्नेनार्थवद् भविष्यति देवपदमिति न विवक्षितदेवसिद्धिरिति, अत्रोच्यते, यदिदं नरविशेषे देवत्वं तदौपचारिकम्, उपचारश्च तथ्यार्थसिद्धौ सत्यां भवति, यथा निरुपचरितसिंहसद्भावें माणवके सिंहोपचार इति, आह च - "देवत्तिसत्थयमिदं सुद्धत्तणओ घडाभिहाणं व अह व मती मणुओ चिय देवो गुणरिद्धिसंपन्नो ॥ १ ॥ तं न जओ तच्चरथे सिद्धे उवयारओ मया सिद्धी । तच्चत्थसीह सिद्धे माणव सीहोवयारोग्य ॥२॥” इति अपि च- "देवेसुं न संदेहो जुत्तो जं जोइसा सपच्चक्खं । दीसंति तकयाविय उवधायाणुग्गहा जगओ ॥ १ ॥ आलयमेतं च मई पुरं च तव्यासिणो तहवि सिद्धा । जे ते देवति मया न य निलया निश्चपडिण्णा ॥ २ ॥ को जाइ व किमेयंति होज णिस्संसयं विमाणाइ । रयणमयनभोगमणादिह जह विज्जाहरादीणं ॥ २ ॥” इति तेषामसुरादिविशेषः पुनराप्तवचनादवसेय इति । अथ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाः कथमिह जीवत्वेन प्रतिपत्तव्याः १, उच्छासादिप्राणिधर्माणां तेष्वप्रतीयमानत्वाद्, अत्रोच्यते, आप्तवचनादनुमानतश्च तत्राप्तवचनमिदमेव, अनुमानं खिदं-वनस्पतयो १ देव इति सार्धकमिदं शुद्ध (पद) त्वात् घटाभिधानमिव। अथ च मतिर्मनुजचैव देवो गुणसंपन्नः ॥ १ ॥ तत्र यतस्तभ्यार्थे सिद्धे उपचारतो मता सिद्धिः । तथ्यार्थसिद्धे सिद्धे माणवके सिंहोपचारयत् ॥ २ ॥ २ देवेषु न संदेहो युक्तो वत् ज्योतिष्काः खप्रत्यक्षेण यन्ते तत्कृता अपि चोपपातानुग्रहा जगतः ॥ १ ॥ आल्यमात्रं च मतिः पुरमिव तद्वासिनः तथापि विद्धाः । ये ते देवा इति मता न च निलया नित्यं प्रतिशून्याः ॥ २ ॥ को जानाति किमेतदिति भवेत् , निस्त विमानादि रत्नमयनभोगमनादिह यथा विद्याधरादीनाम् ॥ ३ ॥ 1 For Parts Only ~ 61~ १ स्थानाध्ययने नारकदेवसिद्धिः ॥ २९ ॥ yor Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [५१] विमलवणोपलादेयः स्वस्वाश्रये वर्तमानाः सात्मकाः, समानजातीयाङ्करसद्भावाद्, अर्थोविकाराङ्करवत्, आह च"मसंकुरोव्व सामाणजाइरूवंकुरोवलंभाओ। तरुगणविहुमलवणोपलादयो सासयावस्था ॥१॥” इति, इह समानजातिग्रहणं शृङ्गाङ्कुरव्यवच्छेदार्थ, स हि न समानजातीयो भवतीति, तथा सात्मकमम्भो भौम, भूमिखनने स्वाभाविकसम्भवाद्, दर्दुरवत् , अथवा सात्मकमन्तरिक्षोदकं स्वभावतो व्योमसम्भूतस्य पातात्, मत्स्यवत्, आह च-भूमिक्खयसाभावियसंभवओ दहुरोव्य जलमुत्तं" [सात्मकत्वेनेति । अहवा मच्छोव सहाववोमसंभूयपायाओ ॥१॥” इति, तथा सात्मको वायुरपरप्रेरिततियंगनियतदिग्गतित्वाद् गोवत् , इह चापरप्रेरितग्रहणेन लेष्ट्वादिना व्यभिचारः परिहृतः, एवं तिर्यग्ग्रहणेनोर्ध्वगतिना धूभेनानियमितग्रहणेन च नियमितगतिना परमाणुनेति, तथा तेजः सात्मकमाहारोपादानात् तद्भुद्धिविशेषोपलब्धेस्तद्विकारदर्शनाच्च पुरुषवद्, आह च-"अपरेप्पेरियतिरियानियमियदिग्गमणोऽनिलो गोव्य । अनलो आहाराओ विद्धिविगारोवलंभाओ ॥१॥" त्ति, अथवा पृथिव्यप्तेजोवायवो जीवशरीराणि, अभ्रादिविकारवर्जितमूर्तजातीयत्वात् , गवादिशरीरवदिति, अभ्रादिविकारा हि मूर्तजातीयत्वे सत्यपि न जीवतनबस्तेन तत्परिहारो हेतुविशेषणम्, आह च-"तणओणम्भाइविगारमुत्तजाइत्तओऽनिलंताई [भूतानीति प्रक्रमः] । सस्थासत्थहयाओ निजीव दीप अनुक्रम [५१] १ बयक्ष खा.प्र. २ अरसर.प्र. अis(मांसार इस समानजातीयसपाहुरोपसम्भात् । तक्ष्मणविमलवणोपलादयः खाश्रयस्थाः ॥१॥ भूनिक्षतखाभाषिकसंभवात् दरवत् जलमुक्तम् । अथया मास्ववत् खमावव्योमसंभूतपासात् ॥१॥ ५अपरप्रेरित तिर्षगनियमितदिगमनादनिलो गोवत् । अनल आहारात वृद्धि विकारोपलम्भात् ॥ १॥ तनवोऽननादिवि कारा मूर्तजातित्वात् अचिलान्तानि । शवाशस्त्रतानि निषसजीवरूपाणि ॥१॥ CA पृथ्वी आदि पञ्च स्थावरानाम जिवत्वस्य सिध्धि: ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [५१] श्रीस्थाना-15 सजीवरूवाओ॥१॥"ति, वनस्पतीनां विशेषेण सचेतनत्वं भाष्यगाथाभिरभिधीयते-"जम्मजराजीवणमरणरोहणा-18/ खाना झसूत्र- हारदोहलामयओ । रोगतिगिच्छाईहि य णारिब्ध सचेयणा तरवो ॥१॥ छिक्कप्परोझ्या छिक्कमित्तसंकोयओ कुलिं ध्ययने वृत्तिः गिव्य । आसयसंचाराओ वियत्त! वल्ली वियाणाहि ॥२॥"['वियत्तत्ति गणधरामन्त्रणमिति ] सम्मादयो व सावप्पबोह-असार बोड-स्थावराणां संकोयणादिओऽभिमया । बउलादयो य सद्दाइबिसयकालोवलंभाओ॥३॥त्ति ['सम्मादति शम्यादयः 'बिसय-18/ ॥३०॥ कालोवलंभाओ'त्ति विषयाणां-गीतसुरागण्डूषकामिनीचरणताडनादीनां कालो वसन्तादिरिति] १ 'एगा भवसिद्धियेत्यादि, भविष्यतीति भवा-भाविनी सा सिद्धिः-निवृतिर्येषां ते भवसिद्धिका-भव्याः, तद्विपरीतास्त्वभवसिद्धिका अ-10 भव्या इत्यर्थः । ननु जीवत्वे समाने सति को भव्याभव्ययोर्विशेषः?, उच्यते, स्वभावकृतो, द्रव्यत्वेन समानयोर्जीव-६ नभसोरिव, आह च-"देवाइत्ते तुल्ले जीवनभाणं सभावओ भेदो । जीवाजीवाइगओ जह तह भव्वेयरविसेसो॥१॥" ति, आभ्यां विशेषितोऽन्यो दण्डकः २। एगा सम्मद्दिट्टियाण'मित्यादि, सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः-दर्शनं रुचिस्तत्त्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टिकाः, ते च मिथ्यात्वमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमेभ्यो भवन्ति, तथा मिथ्या-विपर्यासवती जिनाभिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दृष्टि:-दर्शनं श्रद्धानं येषां ते मिथ्यादृष्टिकाः-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितजिनव दीप अनुक्रम [५१] जन्मजराजीवनमरणरोहणाहारयोहदामयात् । रोगचिकित्सादिभिश्च नारीय सचेतनास्तरवः ॥ १॥ स्पृष्टप्ररोदिका स्पृष्टमात्रात् संकोचतः लिङ्गिवत् । आश्रयसंचारात व्यक्त वाहीविजानीहि (सचेतना:)॥२॥२सम्मादवच खापावोषसंकोचनादितोऽभिमताः । पकुलादयधशब्दादियिषयकालोपलम्भात् ॥101) बब्यादिले तुल्य जीवनभसोः खभावतो भेदः । जीवाजीयादिगतो यथा तथा भव्यतरनिशेषः ॥१॥ ॥३०॥ | पृथ्वी आदि पञ्च स्थावरानाम जिवत्वस्य सिध्धि: ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [५१] दीप अनुक्रम [५१] चना इति भावः, उक्तञ्च-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्याष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाण जिनाभि-3 हितम् ॥१॥" इति । तथा सम्यक् मिथ्या च दृष्टिर्येषां ते सम्यग्मिथ्याइष्टिका:-जिनोक्तभावान् प्रत्युदासीनाः, इह च गम्भीरभवोदधिमध्यविपरिवत्ती जन्तुरनाभोगनिवर्तितेन गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेन यथाप्रवृत्तिकरणेन संपादितान्तःसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकस्य मिथ्यात्ववेदनीयस्य कर्मणः स्थितेरन्तर्मुहर्तमुदयक्षणादुपयेतिक्रम्यापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञिताभ्यां विशुद्धिविशेषाभ्यामन्तर्मुहर्तकालप्रमाणमन्तरकरणं करोति, तस्मिन् कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमस्थितिरन्तर्मुहर्तमात्रा, तस्मादेवोपरितनी शेषा, तब प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्याइष्टिः, अन्तर्मुहतेन तु तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकसम्यक्त्वमामोति, मिथ्यात्वदलिकवेद-18|| 8 नाऽभावात् , यथा हि दवानलः पूर्वदग्धेन्धनमूपरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनाग्निरन्तरकरणमवाप्य विध्यायतीति, तदेवं सम्यक्त्वमौषधविशेषकल्पमासाद्य मदनकोद्रवस्थानीय दर्शनमोहनीयमशुद्धं कर्म त्रिधा भवतिअशुद्धमविशुद्ध विशुद्ध चेति, त्रयाणां तेषां पुझाना मध्ये यदाऽर्द्ध विशुद्धः पुज उदेति तदा तदुदयवशादई विशुद्धम| ईदृष्टतत्त्वश्रद्धानं भवति जीवस्य, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिर्भवति अन्तर्मुहूर्त यावत्, तत ऊ सम्यक्त्वपुजं मिध्यात्वपुजं वा गच्छतीति, सम्यग्दृष्टिमिथ्या दृष्टिमिश्रविशेषितोऽन्यो दण्डकः, तत्र च नारकादिष्वेकादशसु पदेषु दर्शनत्र यमस्ति, अत उक्तम्-एवं जाब धणिए'त्यादि, पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव, तेन तेषां तेनैव व्यपदेशः, उक्तश्च-'चोस्था०६ दिइस तस सेसया मिच्छत्ति चतुर्दशगुणस्थानकवन्तस्त्रसाः स्थावरास्तु मिथ्यारष्टय एवेत्यर्थः। द्वीन्द्रियादीनां मिलं नास्ति, JNEsuratis uniarary.orm ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः सूत्राक 4%2564 [५१] दीप अनुक्रम [५१] संज्ञिनामेव तझावात् , ततस्तेषु सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टितयैव व्यपदेशः, एवं 'तेइंदियाणवि चरिदियाणवित्ति द्वीन्द्रि-1 सा१स्थानायवद् व्यपदेशद्वयेन वर्गणैकत्वं वाच्यम् , पञ्चेन्द्रियतिर्यगादीनां दर्शनत्रयमप्यस्ति ततस्त्रिधाऽपि तब्यपदेशः, अत एवो-18 ध्ययने क्तम्-'सेसा जहा नेरइय'त्ति, तथा वाच्या इति शेषः, दण्डकपर्यन्तसूत्रं पुनरिदम् 'एगा सम्मदिठियाणं वेमाणियाणं| दृष्टिलेवग्गणा, एवं मिच्छद्दिहियाणं, एवं सम्मामिच्छादिहियाणं, एतत्पर्यन्तमाह-जाव एगा सम्मामिच्छेत्यादि । 'एगा कण्ह- श्यादि पक्खियाणं इत्यादि, कृष्णपाक्षिकेतरयोर्लक्षणं-"जेसिमवडो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण किण्हपक्खीआ॥१॥" इति, एतद्विशेपितोऽन्यो दण्डकः ४ ॥ 'एगा कण्हलेसाण'मित्यादि, लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, यदाह-"श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधायः" तथा "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् , परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥" इति, इयं च शरीरनामकर्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात् , योगस्य च शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषत्वात् , यत उक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-"योगपरिणामो लेश्या, कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या?, यस्मात् सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन विहत्यान्तमुहर्ने शेषे योगनिरोधं करोति ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति अतोऽवगम्यते 'योगपरिणामो लेश्येति, स पुनर्योगः शरीरना-18 मकर्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तम्-“कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणा"मिति," तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः १, तथौदारिकवैक्रियाहारकारीरव्यापाराहतवागद्रव्यसमूहसाचिव्यात् ॥३१॥ १ येषामपापुद्गलपरावतः शेषः संसारस्तु । ते शुरूपाक्षिकाः खल अधिक पुनः कृष्णपाक्षिकाः ॥ १ ॥ 2-562 - 2 2 % ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [५१] दीप अनुक्रम [५१] जीवव्यापारो यः स वाग्योगः २, तथौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति ३, ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतियोंग उच्यते तथैव लेझ्यापीति, अन्ये तु व्याचक्षते ला-'कम्मनिस्यन्दो लेश्येति, सा च द्रव्यभावभेदात् द्विधा, तत्र द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याण्येव, भावलेश्या तु तजन्यो जीवपरिणाम इति, इयं च षट्पकारा जम्बूफलखादकपुरुषषदृष्टान्ताद् ग्रामघातकचौरपुरुषषदृष्टान्ताद्वा आगमनसिद्धादवसेयेति, तत्सूत्राणि सुगमानि, नवरं कृष्णवर्णद्रव्यसाचिव्यात् जाताऽशुभपरिणामरूपा कृष्णा सा लेश्या येषां ते तथा, एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं नीला ईपत्सुन्दररूपैवमिति-अनेनैव क्रमेण यावत्करणात् 'एगा कावोयलेस्साण'मित्यादि सूत्रत्रयं दृश्य, तत्र कपोतस्य-पक्षिविशेषस्य वर्णेन तुल्यानि यानि द्रव्याणि धूमाणि इत्यर्थः, तत्साहाय्याज्जाता कापोतलेश्या मनाक् शुभतरा सा लेश्या येषां ते तथा, तेजः-अग्निज्वाला तद्वर्णानि यानि द्रव्याणि लोहितानीत्यर्थः, तत्साचिव्याज्जाता तेजोलेश्या शुभस्वभावा, पद्मगर्भवर्णानि यानि द्रव्याणि पीतानीत्यर्थः तत्साचिव्याजाता पद्मलेश्या शुभतरा, शुक्लवर्णद्रव्यजनिता शुक्ला, अत्यन्तशुभेति, एतासां च विशेषतः स्वरूपं लेश्याध्ययनादवसेयमिति, 'एवं जस्स जइत्ति नारकाणामिय यस्यासुरादेर्या यावत्यो लेश्यास्तदुद्देशेन तद्वर्गणैकत्वं वाच्यं, "भवणे'त्यादिना तलेश्यापरिमाणमाह, अत्र सङ्गहणी-काऊनीला किण्हा लेसाओ तिन्नि होति नरएसुं । तझ्याए काउनीला [पृथिव्यामि त्यर्थः] नीला किण्हा य रिद्वाए ॥ १॥ [पञ्चम्यामित्यर्थः] किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवतरिया १ कापोता नीला कृष्णा लेपयास्तिस्रो भवन्ति नरकेषु। तृतीयायां कापोता नीला (य) नीला कृष्णा च रिटायाम् ॥१॥ कृष्णानीलाकापोतातेजोलेश्याब भवनव्यन्तराः। ACADCASE-CRA Baitaram.org ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत १ स्थानाध्ययने दृष्टिले सुत्रांक श्यादि [५१] ॥३२॥ दीप अनुक्रम [५१] श्रीस्थाना-नाजोइससोहमीसाण तेउलेसा मुणेयच्या ॥२॥ कप्पे सणकुमारे माहिंदे चेव वंभलोए य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुकलेसा सूत्र- उ॥३॥ पुढवी आउ वणस्सइ बायर पत्तेय लेस चत्तारि । गन्भयतिरियनरेसुं छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥॥" अयं सामान्यो वृत्तिः लेश्यादण्डकः ५ । अयमेव भव्याभव्यविशेषणादन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे'त्यादि, 'एव'मिति कृष्णलेश्यायामिव 'छसुवित्ति कृष्णया सह षट्सु, अन्यथा अन्या पश्चैवातिदेश्या भवन्तीति, द्वे द्वे पदे प्रतिलेश्यं भव्या-| भव्यलक्षणे वाच्ये, यथा 'एगा नीललेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे त्यादि ६, लेश्यादण्डक एव दर्शनत्रयविशेषितोऽन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं सम्मद्दिहियाण'मित्यादि, 'जेसिं जइ विट्ठीओं'त्ति येषां नारकादीनां या यावत्यो दृष्टयः सम्यक्त्वाद्यास्तेपो ता वाच्या इति, तत्र एकेन्द्रियाणां मिथ्यात्वमेव, विकलेन्द्रियाणां सम्यक्त्वमिथ्यात्वे, शेषाणां तिम्रोऽपि दृष्टय इति ७, लेश्यादण्डक एव कृष्णशुक्लपक्षविशिष्टोऽन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाण'मित्यादि, एते 'अडचउवीस दंडय'त्ति, एते चैवं-ओहो १ भव्याईहिं बिसेसिओ २दसणेहि ३ पक्खेहिं ४ । लेसाहिं ५ भव्य ६. दसण ७ पक्खेहिं ८ विसिड लेसाहिं ॥१॥ति ॥ इतः सिद्धवर्गणा अभिधीयते, तत्र सिद्धा द्विधा-अनन्तरसिद्धपरम्परसिद्धभेदात् , तत्रानन्तरसिद्धाः पञ्चदशविधाः, तद्वर्गणकत्वमाह-'एगा तित्धेत्यादिना, तत्र तीयतेऽनेनेति तीर्थ, १ज्योतिकसौधर्मेशानेषु च तेजोलेपया मुणितव्याः ॥२॥ कल्पे सनत्कुमारे माहेन्द्र चैव ब्रह्मलोके च । एतेषु पाळेश्यासतः परशालेश्यास्तु ॥३॥ पृथ्व्यवनस्पतिबादरप्रत्येकेषु श्याश्वतन्नः । गर्भजतिपरेषु पदया। तिखः शेषाणाम् ॥४॥२भोषी भन्याभव्यरखाभ्यां विशेषितः वनिः पक्षाभ्यां । लेश्याभिर्भ | यदर्शनपविशिष्टाभिलेश्याभिः ॥१॥ ॥३२॥ Taurasurary.org ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [५१] दीप अनुक्रम [५१] द्रव्यतो मद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो भौतादिप्रवचनं वा, द्रव्यतीर्थता त्वस्याप्रधानत्वाद्, अप्रधानत्वं च भावत| स्तरणीयस्थ संसारसागरस्य तेन तरीतुमशक्यत्वात् , सावद्यत्वादस्येति, भावतीर्थ तु सहो, यतो ज्ञानादिभावेन तद्विपक्षा दज्ञानादितो भवाञ्च भावभूतात् तारयतीति, आह च-"जं णाणदसणचरित्तभावओ तधिवक्खभावाओ। भवभावओ हाय तारेइ तेण तं भावओ तित्थं ॥१॥" ति, त्रिषु वा-क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णानिरासकर्ममलापनयनलक्षणेषु ज्ञा-14 नादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थं, प्राकृतत्वात् तित्थं, आह च-“दाहोवसमादिसु वा जं तिसु थियमहब दसVणाईसुं । तो तित्थं सको चिय उभयं च विसेसणविसेसं ॥१॥"ति, 'विशेषणविशेष्य'मिति तीर्थ सह इति सद्यो वा ती-10 मिति, त्रयो वा क्रोधाग्निदाहोपशमादयोऽर्थाः-फलानि यस्य तत् व्यर्थं, तित्थंति पूर्ववत्, आह च-कोहग्गिदाहस-31 मणादओ व ते चेव तिन्नि जस्सऽस्था । होइ तियत्थं तित्थं तमत्थसद्दो फलस्थोऽयं ॥१॥" अथवा त्रयो ज्ञानादयोऽर्थाःवस्तूनि यस्य तथ्यर्थम् , आह च- अहवा सम्मईसणनाणचरित्ताई तिनि जस्सऽस्था । तं तित्थं पुन्बोदियमिहमत्थो वत्थुपज्जाओ ॥१॥" ति ॥ तत्र तीर्थे सति सिद्धा:-निवृतास्तीर्थसिद्धा ऋषभसेनगणधरादिवत् तेषां वर्गणेति १, तथा| १यत, हानवर्षानचारित्रभाववसद्विपक्षभावात् । भवभावतय तारयति तेन सहायतस्सीयम् ॥ १॥ २ दादीपशमादिषु वा पत्रिषु स्थितमधदा दर्शनादिषु । ततीर्थ सह एषोभयं च विशेषणविशेष्यम् ॥ १॥कोपामिदाहशमनाइयो वा ते चैव षयो यथार्थाः । भवति व्यर्थ तीर्थ चत, अर्थशब्दः फलार्थोऽयम् ॥१॥ ४ अथवा सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्राणि त्रयो यस्सार्धाः । तत् तीर्थ पूर्व दितमिहायों वपर्यायः ॥ १॥ Janataram.org सिध्धानाम पंचदश-भेदा: ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत सूत्र- १ स्थानाध्ययने सिद्धभेदाः सुत्रांक वृत्तिः १५ ॥ ३३॥ [५१] अतीर्थे-तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत् सिद्धा अतीर्थसिद्धास्तेषा २, एवंकर- णात् 'एगा तित्थगरसिद्धाणं वग्गणे'त्यादि दृश्य, तीर्थमुक्तलक्षणं तत्कुर्वन्त्यानुलोम्येन हेतुत्वेन तच्छीलतया वेति तीर्थ- कराः, आह च-"अणुलोमहेउतस्सीलयाय जे भावतित्यमेयं तु । कुव्बंति पगासंति उ ते तित्थगरा हियस्थकरा ॥१॥" इति, तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धा पभादिवत् तेषां ३, अतीर्थकरसिद्धाः सामान्यकेवलिनः सन्तो ये सिद्धा गौतमादिवत् तेषाम् ४, तथा स्वयम्-आत्मना बुद्धाः-तत्त्वं ज्ञातवन्तः स्वयम्बुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेषां ५, तथा प्रतीत्यैक किञ्चित् वृषभादिकं अनित्यतादिभावनाकारणं वस्तु बुद्धाः-बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येकबुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेषां ६, स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां च बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि-स्वयम्बुद्धानां बाह्यनिमित्तमन्तरेणैव बोधिः प्रत्येकबुद्धानां तु तदपेक्षया, करकण्ड्वादीनामिवेति, उपधिः स्वयम्बुद्धानां पात्रादिदिशविधः, तद्यथा-पत्तं १ पत्ताबंधो २ पायठवणं ३ च पायकेसरिया ४ पडलाइ ५ रयत्ताणं च ६ गोच्छओ ७ पायनिजोगो ॥१॥ तिन्नेव य पच्छागा १० रयहरणं ११ चेव होइ मुहपोति १२॥" ति, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवर्ज इति, स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधीते श्रुते अनियमः प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव, लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धा दीप अनुक्रम [५१] 494555645454 अनादि तीर्थमित्युत्पत्रेऽपि तीर्थान्तरता अत एव विपिष्टता साधुन्यखादिना. २ आनुलोम्यदेवतच्छीलतया ये भावतीर्घमेतत्तु । कुर्वन्ति प्रकाशयन्ति तु ते तीर्थकरा हितार्थकराः ॥ १॥ ३ पात्राणि पात्ररन्धः पात्रस्थापनं पात्रकेसरिका । पटलानि रजत्राणं च गोच्छकः पात्रनियोगः॥१॥प्रय एवं प्रच्छादका कारोहरणमेव भवति मुखरनिका। सिध्धानाम पंचदश-भेदा: ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: F प्रत सूत्राक [५१] दीप अनुक्रम [५१] A5-464-65 नामाचार्यसन्निधायपि भवति प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीति । बुद्धबोधिता:-आचार्यादिबोधिताः सन्तो ये सिखास्ते बुद्धबोधितसिद्धास्तेषां ७, एतेषामेव स्त्रीलिङ्गसिद्धानां ८ पुंलिङ्गसिद्धानां ९ नपुंसकलिङ्गसिद्धानां १० स्वलिङ्गसिद्धानां रजोहरणाद्यपेक्षया ११ अन्यलिङ्गसिद्धानां परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धानां १२ गृहिलिङ्गसिद्धानां मरुदेवीप्रभृतीनां |१३ एकसिद्धानामेकैकस्मिन् समये एकैकसिद्धानां १४ अनेकसिद्धानामेकसमये यादीनां अष्टशतान्तानां सिद्धानामेका वर्गणेति १५ । तत्रानेकसमयसिद्धानां प्ररूपणा गाथा-'बत्तीसा अडयाला सही बावत्तरी य बोद्धन्वा । चुलसीई छन्नउई दुरहिय अट्ठोत्तर सयं च ॥१॥" एतद्विवरण-यदा एकसमयेन एकादय उत्कर्षेण द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति तदा द्वितीयेऽपि समये द्वात्रिंशद्, एवं नैरन्तयेण अष्टौ समयान् यावत् द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति, तत ऊर्ध्वमवश्यमेवान्तरं भवतीति, यदा पुनखयखिंशद(त आ)रभ्य अष्टचत्वारिंशदन्ताः एकसमयेन सिक्ष्यन्ति तदा निरन्तरं सप्त समयान् यावत् सिद्ध्यन्ति, ततोऽवश्यमेवान्तरं भवतीति, एवं यदा एकोनपश्चाशतमादि कृत्वा यावत् पष्टिरेकसमयेन सिद्ध्यन्ति तदा निरन्तरं षट् समयान् सिद्ध्यन्ति, तदुपरि अन्तरं समयादिर्भवति, एवमन्यत्रापि योज्यम् , यावत् अष्टशतमेकसमयेन यदा सिद्ध्यति तदाऽवश्यमेव समयाद्यन्तरं भवतीति । अन्ये तु व्याचक्षते-अष्टौ समयान् यदा नैरन्तयेण सिद्धिस्तदा प्रथमसमये जघन्येनैकः सिध्यत्युत्कृष्टतो द्वात्रिंशदिति, द्वितीयसमये जघन्येनैकः उत्कृष्टतोऽष्टचत्वारिंशत् , तदेवं सर्वत्र जघन्येनैका समय उत्कृष्टतो गाथार्थोऽयं भावनीयः बत्तीसेत्यादि ॥ एवमनन्तरसिद्धानां तीर्थादिना भूतभावेन प्रत्यासत्तिव्य-18 पदेश्यत्वेन पश्चदशविधानां वर्गणैकत्वमुक्तमिदानी परम्परसिद्धानामुच्यते, तत्र 'अपढमसमयसिद्धाण'मित्यादित्रयो A asurary.com सिध्धानाम पंचदश-भेदा: ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [५१] श्रीस्थाना- दशसूत्री, न प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः सिद्धत्वद्वितीयसमयवर्तिनः तेषामेवं 'जाव'त्तिकरणाद् 'दुसम-IP स्थानागसूत्र-हायसिद्धाणं तिचउपंचछसत्तहनवदससंखेज्जासंखेजसमयसिद्धाण'मिति दृश्य, तत्र सिद्धत्वस्य तृतीयादिषु समयेषु द्विस- ध्ययने वृत्तिः टिमयसिद्धादयः प्रोच्यन्ते, यद्वा सामान्येनाप्रथमसमयाभिधानं विशेषतो द्विसमयाद्यभिधानमिति, अतस्तेषां वर्गणा, सिद्धभेदाः कचित् 'पढमसमयसिद्धाणं'ति पाठः, तत्र अनन्तरपरम्परसमयसिद्धलक्षणं भेदमकृत्वा प्रथमसमयसिद्धा अनन्तरसिद्धा ॥ ३४ ॥ एव व्याख्यातव्याः, ब्यादिसमयसिद्धास्तु यथाश्रुता एवेति ॥ इतो द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य पुनलवर्गणकत्वं चि-14 म्त्यते-पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, ते च स्कन्धा अपि स्युरिति विशेषयति-परमाणवो-निष्प्रदेशास्ते च पुद्गलाश्चेति | विग्रहस्तेषां, एवंकरणात् 'दुपएसियाणं खंधाणं तिचउपंचछसत्तहनवदससंखेजपएसियाणं असंखेजपएसियाण'मिति दश्यमिति, कृता द्रव्यतः पुद्गलचिन्ता, अतः क्षेत्रतः क्रियते-'एगा एगपएसें'त्यादि, एकस्मिन् प्रदेशे क्षेत्रस्यावगाढा:-अवस्थिता एकप्रदेशावगाढास्तेषां ते च परमाण्यादयोऽनन्तप्रादेशिकस्कन्धान्ताः स्युः, अचिन्त्यत्वात् द्रव्यपरिणामस्य, यथा पारदस्यैकेन कण चारिताः सुवर्णस्य ते सप्ताप्येकीभवन्ति, पुनर्वामिताः प्रयोगतः सप्तैव त[2] साइति, 'जाव एगा असंखेजपएसोगाढाणं'ति, अनन्तप्रदेशावगाहित्वं तु नास्ति पुद्गलानां, लोकलक्षणस्यावगाहक्षेत्रस्थाहायसद्धयेयप्रदेशत्वादिति, कालत आह-एगा एगसमए त्यादि, एक समयं यावत् स्थितिः परमाणुत्वादिना एक प्रदेशावगाढादित्वेन एकगुणकालादित्वेन वाऽवस्थानं येषां ते एकसमयस्थितिकास्तेषामिति, इह च अनन्तसमयहास्थितेः पुद्गलानामभावाद् असङ्ग्रेजसमयद्वितीयाणमित्युक्तमिति, भावतः पुद्गलानाह-एकेन गुणो-गुणनं ताडनं SARELatunintainarana सिध्धानाम पंचदश-भेदा: ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [५१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः यस्य स एकगुणः, एकगुणः कालो वर्णो येषां ते एकगुणकालकाः, तारतम्येन कृष्णतरकृष्णतमादीनां येभ्य आ - रभ्य प्रथममुत्कर्षप्रवृत्तिर्भवतीति भावस्तेषाम् एवं सर्वाण्यपि भावसूत्राणि षष्ट्यधिकद्विशतप्रमाणानि वाच्यानि २६०, | विंशतेः कृष्णादिभावानां त्रयोदशभिर्गुणनादिति । साम्प्रतं भङ्ग्यन्तरेण द्रव्यादिविशेषितानां जघन्यादिभेदभिन्नानां स्कन्धानां वर्गणैकत्वमाह-'एगा जहन्नप्पएसियाण' मित्यादि, जघन्याः - सर्वाल्पाः प्रदेशाः - परमाणवस्ते सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः, व्यणुकादेय इत्यर्थः स्कन्धाः - अणुसमुदयास्तेषां उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः - उत्कर्षवन्तः उत्कृष्टसङ्ख्याः परमानन्ताः प्रदेशाः - अणवस्ते सन्ति येषां ते उत्कर्षप्रदेशिकाः तेषां जघन्याश्च उत्कर्षाश्च जघन्योत्कर्षाः न तथा ये ते अजघन्योत्कर्षाः, मध्यमा इत्यर्थः, ते प्रदेशाः सन्ति येषां ते अजघन्योत्कर्षप्रदेशिकास्तेषाम् एतेषां चानन्तवर्गणत्वेऽ| प्यजघन्योत्कर्षशब्दव्यपदेश्यत्वादेकवर्गणात्यमिति । 'जहन्नोगाहणगाणं'ति अवगाहन्ते आसते यस्यां साऽवगाहना - क्षे प्रदेशरूपा सा जघन्या येषां ते स्वार्थिककप्रत्ययाज्जघन्यावगाहनकास्तेषाम्, एकप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, उत्कर्षावगाहनकानामसङ्ख्यातप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, अजघन्योत्कर्षावगाहनकानां सङ्ख्येयासङ्ख्येयप्रदेशावगाढानामित्यर्थः । जघन्या - जघन्यसङ्ख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते जघन्यस्थितिकाः, एकसमयस्थितिका इत्यर्थः तेषां उत्कर्षा - उत्कर्षवत्सङ्ख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते तथा तेपामसङ्ख्यात समयस्थितिकानामित्यर्थः, तृतीयं कण्ठ्यं जघन्येन - जघन्यसह्रयाविशेषेणैकेनेत्यर्थः गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स तथा (तथा) विधः कालो वर्णो येषां ते जघन्यगुणकालकास्तेषाम् एवमुक्क१ एकस्मादारभ्य दशान्ताः संख्यास्यानन्तावेति त्रयोदश २ खखवर्गणायां जघन्यानां वर्गणानामनेकविधत्वात् धणुकादय इति. सिध्धानाम पंचदश-भेदा: For Pale Only ~72~ nirary or Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [५१] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [-], मूलं [५१] स्थान [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः -------- श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३५ ॥ - गुणकालकानामनन्तगुणकालकानामित्यर्थः तृतीयं कण्ठ्यं, एवं भावसूत्राण्यपि पष्टिर्भावनीयानीति ॥ सामान्यस्कन्ध | वर्गणैकत्वाधिकारादेवाजघन्योत्कर्षप्रदेशिकस्याजघन्योत्कर्षप्रदेशावगाढस्य स्कन्धविशेषस्यैकत्वमाह एगे जंबूद्दीने २ सव्वदीवसमुद्दाणं जाव अद्धंगुलगं च किंचिविसेसाहिए परिक्लेवेणं ( सू० ५२) एगे समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चब्बीसाए तित्थगराणं चरमतित्ययरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते जाव सब्बदुक्खपहीणे (सू०५३) अणुत्तरोबवाइयाणं देवाणं एगा रयणी उडञ्च तेणं पन्नत्ता (सू० ५४) अहाणखते एगतारे पत्ते चित्ताणखत्ते एगतारे पं० सातीणक्खत्ते एगतारे पं० (सू० ५५) एगपदेसोगाढा पोग्गला अनंता पन्नत्ता, एवमेगसमयठितिया एगगुणकालगा पोराला अनंता पन्नत्ता, जाव एगगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता ॥ ( सू० ५६ ) एगद्वाणं समत्तं ॥ जम्ब्वा-वृक्षविशेषेणोपलक्षितो द्वीपः जम्बूद्वीपः द्वीप इति नाम सामान्यं यावद्ग्रहणादेवं सूत्रं द्रष्टव्यम् -'सव्वभंतरए सब्वखुड्डा वट्टे तेल्लापूय संठाणसंठिए एवं जोबणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साइं सोलससह - स्साई दोन्नि सयाई सत्तावीसाई तिन्नि कोसा अठ्ठावीसं धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं'ति, सुगममेतत् उक्तविशेषणश्च जम्बूद्वीप एक एव, अन्यथा अनेकेऽपि ते सन्तीति । अनन्तरं जम्बूद्वीप उक्त इति तत्मरूपकस्य भगवतो महावीरस्यैकतामाह-- 'एगे समणे' इत्यादि, एक:- असहायः अस्य च सिद्ध इत्यादिना स स्वन्धः, श्राम्यति - तपस्यतीति श्रमणः, भज्यत इति भगः- समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, उक्तं च- "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥ १ ॥ इति, स विद्यते यस्येति भगवान्, तथा विशेषेणे Eaton amma For Pal Use Only *** न अत्र सिध्धानाम भेदाः वर्तते, यत् मूल सम्पादकेन शीर्षके लिखितम् तत् मुद्रण-अशुध्धिः वर्तते ~73~ १ स्थानाध्ययने सिद्धभेदाः १५ ।। ३५ ।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक रयति-मोक्षं प्रति गच्छति गमयति वा प्राणिनः प्रेरयति वा-कर्माणि निराकरोति वीरयति वा-रागादिशत्रुन् प्रति परा-1 क्रमयति इति वीरः, निरुक्तितो वा वीरो, यदाह-"विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद् वीर इति स्मृतः॥१॥" इतरवीरापेक्षया महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरः, भाष्योक्तं च-तियणविक्खायजसो महाजसो नामओ महावीरो । विकतो य कसायाइसत्तुसेन्नप्पराजयओ ॥१॥ईरेइ विसेसेण व खिवइ कम्माई गमयइ सिवं वा । गच्छइ अ तेण वीरो स महं वीरो महावीरो ॥२॥" तिं ॥ अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां मध्ये चरमतीर्थकरःसिद्धा-कृतार्थो जातःबुद्धा-केवलज्ञानेन बुद्धवान् बोध्यं मुक्तः-कर्मभिः यावत्करणात् 'अंतकडे' अन्तो भवस्य कृतो येन सोऽन्तकृतः 'परिनिव्वुडे' परिनिर्वृतः कर्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः, किमुक्तं भवति?-सव्यदुक्खप्पहीणे-सर्वाणि शारीरादीनि दुःखानि प्रक्षीणानि प्रहीणानि वा यस्य स सर्वदुःखप्रक्षीणः सर्वदुःखमहीणो वा, सर्वत्र बहुब्रीही कान्तस्य यः परनिपातः स आहिताश्यादिदर्शनादिति, इह च तीर्थकरेप्वेतस्यैवैकत्वं मोक्षगमने, न तु ऋषभादीनां, दशसहस्रादिपरिवृतत्वेन तेषां सिद्धत्वाद्, उक्तं च-"एगो भगवं वीरो तेत्तीसाएँ सह निव्वुओ पासो । छत्तीसएहिं पंचहिं सएहिं नेमीउ सिद्धि गओ॥१॥" इत्यादि । एकाकी वीरो निवृत इत्युकं, नितिक्षेत्रासन्नानि चानुत्तरविमाना A 4ACANCS [५२-५६] दीप अनुक्रम [५२-५६] SAROSAMACA त्रिभुवनविरुषातयया महायशा नामती महावीरः । विक्रान्तब कषायाविशत्रुसैन्यपराजयात् ॥१॥ इत्यति विशेषेण वा क्षपयति कर्माणि गमयति शिचं तवा । गच्छति च तेन वीस रा महान् वीरो महावीरा ॥१॥ २ एवं प्रकारेण तु भाष्योक्तमिति संबन्धः, ३एको भगवान् वीरवयस्त्रिंशता सह निर्वतः पार्थः । कापत्रिशदधिकः पञ्चभिः शतनामस्तु सिदि गतः ॥१॥ SARERatinindJAL ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५२-५६] दीप अनुक्रम [५२-५६] श्रीस्थाना नीति तन्निवासिदेवमानमाह- 'अनुत्तरे'त्यादि, अनुत्तरत्वादनुत्तराणि विजयादि विमानानि तेषु य उपपातो- जन्म स विद्यते येषां तेऽनुत्तरोपपातिकास्ते, णंकारी वाक्यालङ्कारे, देवाः सुरा एकां रनिं-हस्तं यावत् 'क्रोशं कौटिल्येन नदी'ति है वदिह द्वितीया, 'उहुंउच्चत्तेणं' ति वस्तुनो ह्यनेकधोञ्चत्वम्, ऊर्द्धस्थितस्यैकमपरं तिर्यस्थितस्यान्यत् गुणोन्नतिरूपम्, तत्रेतरापोहेनोर्ध्वस्थितस्य यदुच्चत्वं तदृध्वोंच्चत्वमित्यागमे रूढमिति तेनोच्चत्वेन, अनुस्वारः प्राकृतत्वात्, प्रज्ञता:प्ररूपिताः सर्वविद्भिरिति, अथवा अनुत्तरोपपातिकानां देवानामूर्ध्वोच्चत्वेन प्रमाणमिति शेषः, एका रलिः प्रज्ञतेति व्याख्येयमिति ॥ देवाधिकारादेव नक्षत्रदेवानां 'अदा नक्खसे' इत्यादिना कण्ठ्येन सूत्रत्रयेण तारकत्वमुक्तम्, तारा चज्योतिर्विमानरूपेति, कृत्तिकादिषु च नक्षत्रेष्विदं ताराप्रमाणम् - ६ पंच ५ तिन्निं ३ ऍगं १ चेड ४ तिर्ग ३ स ६ वेयं ४ जुयल २ जुंपलं च २ । इंदिये ५ ऐंग १ ए १ विसय ५३ समुह ४ वरसगं १२ ॥ १ ॥ चर्ड ४ तिथे ३ तिथे ३ तिये ३ पंचे ५ संत ७ वे २ वे २ भवे तिया तिन्नि ३-३-३। रिक्खे तारयमाणं जर तिहितुलं हयं क ॥ २ ॥" ति इह चैकस्थानकानुरोधान्नक्षत्रत्रयस्य ताराप्रमाणमुक्तं, शेषनक्षत्राणां तु प्रायोऽप्रेतनाध्ययनेषु तद् वक्ष्यति, यस्तु कचिद्विसंवादस्ताराप्रमाणस्य स तथाविधप्रयोजनेषु तिथिविशेषस्य नक्षत्रविशेषयुक्तस्याशुभत्वसूचनार्थखेनोकगाथयोमतान्तरभूतत्वान्न बाधक इति । तारा पुद्गलरूपेति पुद्गलस्वरूपमभिधातुमाह- 'एगप्पएसोगाढे' इत्यादि सुगमं, नवरमेकत्र प्रदेशे - क्षेत्रस्यांशविशेषे अवगाढा:-आश्रिता एकप्रदेशावगाढाः, ते च परमाणुरूपाः स्कन्धरूपाश्चेति, एवं वर्ण ५गन्ध २ रस ५ स्पर्श ५ भेदविशिष्टाः पुद्गला वाच्या', अत एवोक्तम्- 'जाव एगगुणलुक्खे' इत्यादि ॥ तदेवमनुगमोऽ१ वदेहमान मुद्रिते. ङ्गसूत्रवृत्तिः “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५६ ] स्थान [१], उद्देशक [-1, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ३६ ॥ Education national For Parts Only *** न अत्र सिध्धानाम भेदाः वर्तते, यत् मूल सम्पादकेन शीर्षके लिखितम् तत् मुद्रण- अशुध्धिः वर्तते ~75~ १ स्थाना ध्ययने सिद्धभेदाः १५ ॥ ३६ ॥ p Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५२-५६] दीप अनुक्रम [५२-५६] भिहितः, अधुना कथञ्चित्मत्यवस्थानावसरे भणितमपि नयद्वारमनुयोगद्वारक्रमायातमिति पुनर्विशेषेणोच्यते-तत्र नैग-10 मादयः सप्त नयाः, ते च ज्ञाननये क्रियानये चान्तर्भवन्तीति ताभ्यामध्ययनमिदं विचार्यते-तत्र ज्ञानचरणात्मकेऽस्मिनध्ययने ज्ञाननयो ज्ञानमेव प्रधानमिच्छति, ज्ञानाधीनत्वात् सकलपुरुषार्थसिद्धेः, यतः-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न [क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसम्भवाद् ॥१॥" इत्यत ऐहिकामुध्मिकफलार्थिना ज्ञान एवं यलो विधेय इति । क्रियानयस्तु क्रियामेवेच्छति, तस्या एव पुरुषार्थसिद्धावुपयुज्यमानत्वात्, तथा चोक्तम्-"क्रियैव | फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥१॥" इत्यत ऐहिकामुष्मिकफलार्थिना कियैव कार्येति । जिनमते तु नानयोः प्रत्येक पुरुषार्थेसाधनता, यत उक्तम्-"हेयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दहो, धावमाणो य अंधओ॥१॥"ति, संयोग एव चानयोः फलसाधकत्वं, |यत उक्तम्-"संजोगसिद्धीद फलं वयंति, नहु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविहा ॥१॥” इति ॥ भाष्यकृताऽप्युक्तम्-"नाणाहीणं सब्वं नाणणओ भणति किं च किरिवाए । किरियाए करणनओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥१॥" ति, अथवा सप्तापि नैगमादयः सामान्यनये विशेषनवे चान्तर्भवन्ति, तत्र सामान्यनयः प्रकान्ताध्ययनोकानामात्मादिपदार्थानामेकत्वमेवाभिमन्यते, सामाम्यबादित्वात् तस्य, स हि मूते-एक १हतान कियाहीनं हताजानतः किया । पश्यन् पर्दग्धो धाधान्धः ॥१॥ संयोगसिद्धेः फलं वदन्ति, नकचकेण स्थः प्रयाति । अन्धब पहन बने 18 समेख सी संप्रयुक्ती नगरं प्रविष्टौ ॥ १॥ हानाधीनं सर्वं हाननयो भणति किच क्रियया १। क्रियायाः करणनयखदुभयप्रद सम्बतवम् ॥1॥ ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५२-५६] श्रीस्थाना-18 नित्यं निरवयव निष्क्रियं सर्वगं च सामान्यमेवास्ति, न विशेषो, निःसामान्यत्वात्, इह यन्निसामान्यं तन्नास्ति यथा खर- १ स्थानविषाणं, यच्चास्ति न तन्निःसामान्यं यथा घट इति, तथा सामान्यादन्येऽनन्ये वा विशेषाः प्रतिपद्येरन् ?, यद्यन्ये काध्ययने वृत्तिः ननूक्तमसन्तस्ते निःसामान्यत्वात् खपुष्पवत् , अथानन्ये तदा सामान्यमात्रमेव, तत्र वा विशेषोपचारः, न चोपचा ज्ञानक्रियाशरणार्थतत्त्वं चिन्त्यत इति, आह च-"एक निच्चं निरवयवमकियं सव्वगं च सामन्नं । निस्सामन्नत्ताओ नथि वि॥ ३७॥ सामान्यसेसो खपुष्पं व ॥१॥ तथा-सामन्नाओ बिसेसो अन्नोऽनन्नो व होज? जइ अन्नो । सो नत्थि खपुष्फ पिवऽणनो & विशेषसामन्नमेव तयं ॥ २ ॥" ति, तदेवं सामान्यनयाभिप्रायेणात्मादीनामेकत्वमेव । विशेषनयमतेन तु तेषामनेकत्वमेव, स वादा हि ब्रूते-विशेषेभ्यः सामान्य भिन्नमभिन्नं वा स्यात्, न भिन्नमत्यन्तानुपलम्भात् खपुष्पवत्, तथा-न सामान्य विशे-13 पेभ्यो भिन्नमस्ति, दाहपाकस्नानपानावगाहवाहदोहादिसर्वसंव्यवहाराभावात् खरविषाणवत्, अथाभिन्नं तदा विशेषमात्र बस्तु न नाम सामान्यमस्ति, तेषु वा सामान्यमात्रोपचार इति, न चोपचारेणार्थतत्त्वं चिन्त्यत इति, आह च-"न विसेसत्वंतरभूयमस्थि सामन्नमाह ववहारो । उवलंभव्ववहाराभावाओ खरविसाणं व ॥१॥" इति, तदेवमात्मादीनामनेकत्वमेवेति । ननु पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवात् किं तत्त्वं प्रतिपत्तव्यमिति ?, उच्यते, स्यादेकत्वं स्याद दीप अनुक्रम [५२-५६] 56456015-1ॐ %25 १ एकं नित्यं निरवषयमकिवं सर्वगं च सामान्यम् । निस्सामान्यत्वात् नास्ति विशेषः सपुष्पवत् ॥ १ ॥ सामान्याद्विशेषः अन्योऽनन्यो वा भवेत् ! य-ट | धन्यः । स नास्ति खपुष्प भिर अनम्बः सामान्यमेव कत् ॥१॥२म विशेषादर्थान्तरभूतमस्ति सामान्यमाद व्यवहारः । उपलम्भव्यवहाराभावात् बारवि-DI॥ ३७॥ पाणमिय।।१॥ ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: नेकत्वमिति, तथाहि-समविषयरूपत्वाद्वस्तुनः समरूपापेक्षया एकत्वं विषमरूपापेक्षया त्वनेकत्वमिति, उक्तश्च-"व-! स्तुन एव समानः परिणामो यः स एव सामान्यम् । विपरीतास्तु विशेषा वस्त्वेकमनेकरूपं तद् ॥१॥" इति ॥ प्रत सूत्रांक [५२-५६] इति श्रीमदभयदेवमूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे प्रथममध्ययनमे कस्थानकाभिधानं समाप्समिति, (ग्रन्थाग्रं ११८७ ॥) दीप अनुक्रम [५२-५६] SAREastatinintimational अत्र प्रथम स्थानं (अध्ययन) परिसमाप्तं ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः सूत्राक [१७] ॥३८॥ दीप अनुक्रम [१७] अथ द्वितीयं द्विस्थानकाख्यमध्ययन २ स्थान काध्ययने व्याख्यातमेकस्थानकाख्यं प्रथममध्ययनं, अतः सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव द्विस्थानकाख्यं द्वितीयमध्ययनमारभ्यते, अस्य 8 जीवानां चायं विशेषसम्बन्धः-इह जैनानां सामान्यविशेषात्मक वस्तु, तत्र सामान्यमाश्रित्य प्रथमाध्ययने आत्मादिवस्त्वेक-161 द्वैविध्यं त्वेन प्ररूपितमिह तु विशेषाश्रयणात् तदेव द्विविधत्वेन प्ररूप्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, तानि च प्रथमाध्ययनवत् द्रष्टव्यानि यस्तु विशेषः स स्वबुद्ध्याऽवगन्तव्यः, केवलमस्य चतुरुदेशकात्मकस्थाध्ययनस्य सूत्रानुगमे प्रथमोद्देशकादिसूत्रमिदमुच्चारणीयम् जवस्थि णं लोगे तं सर्व दुपओआर, तंजहा-जीवचेव अजीवच्चेव । तसे चेव थावरे व १, सजोणियचेव अजोणियथेच २, सायचेव अणायचेव ३, सईवियचेव, अणिदिए चेव ४, सवेयगा व अवेयगा चेष ५, सरूवि चेच अरूचि चेव ६, सपोग्गला येन अपोग्गला चेव ७, संसारसमावनगा चेव असंसारसमावनगा व ८, सासया चेष असासया चेव ९, (सू० ५७) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धा-पूर्व एकम् 'एकगुणरूक्षाः पुद्गलाः अनन्ताः' तत्र किमनेकगुणरूक्षा अपि पुद्गला| भवन्ति येन ते एकगुणरूक्षतया विशिष्यन्त इति ?, उच्यते, भवन्त्येव, यतो 'जदत्थी'त्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु-'श्रुतंद्रा मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमेक आत्मेत्यादि, तथेदमपरमाख्यातं 'जदत्थी'त्यादि, संहितादिचः पूर्ववत्, 'घदू' AREauratonintenational अत्र द्वितीय स्थानं (अध्ययन) आरभ्यते, जीवानाम् वैविध्यं ~79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] दीप अनुक्रम [ ५७ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] जीवानाम् वैविध्यं, जीवादिकं वस्तु 'अस्ति' विद्यते, णमितिवाक्यालङ्कारे, क्वचित्पाठो 'जदत्थि चणं'ति, तत्रानुस्वार आगमिकश्चशब्दः पुनरर्थः एवं चास्य प्रयोगः - अस्त्यात्मादि वस्तु, पूर्वाध्ययनप्ररूपितत्वाद्, यच्चास्ति 'लोके' पश्चास्तिकावात्मके लोक्मते- प्रमीयत इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे वा तत् 'सर्व' निरवशेषं द्वयोः पदयोः स्थानयोः पक्षयोर्विवक्षितवस्तु तद्विपर्ययलक्षणायोरवतारो यस्य तद् द्विपदावतारमिति, 'दुपडोयारं 'ति क्वचित् पठ्यते, तत्र द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तत् द्विप्रत्यवतारमिति, स्वरूपवत् प्रतिपक्षवश्चेत्यर्थः, 'तद्यथे' त्युदाहरणोपन्यासे, 'जीवचेव अजीवचेव त्ति, जीवाश्चैवाजीवाश्चैव, प्राकृतत्वात् संयुक्तपरत्वेन ह्रस्वः, चकारी समुच्चयार्थी, एवकाराववधारणे, तेन च राश्यन्तरापोहमाह, नोजीवाख्यं राश्यन्तरमस्तीति चेत्, नैवम्, सर्वनिषेधकत्वे नोशब्दस्य नोजीवशब्देनाजीव एव प्रतीयते, देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते, न च देशो देशिनोऽत्यन्तव्यतिरिक्त इति जीव एवासाविति, 'चेय' इति वा एवकारार्थः 'चिय धेय एवार्थ' इति वचनात् ततश्च जीवा एवेति विवक्षितवस्तु अजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति, एवं सर्वत्र, अथवा 'यदस्ति' अस्तीति यत् सन्मात्रं यदित्यर्थः तद् द्विपदावतारं द्विविधं, जीवाजीव भेदादिति शेषं तथैव । अथ त्रसेत्यादिकया नवसूच्या जीवतत्त्वस्यैव भेदान् सप्रतिपक्षानुपदर्शयति- 'तसे वेवेत्यादि, तत्र त्रसनामकर्मोदयत स्त्रस्यन्तीति त्रसा:- द्वीन्द्रियादयः स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः - पृथिव्यादयः, सह योन्या- उत्पत्तिस्थानेन सयोनिकाः संसारिणस्तद्विपर्यासभूताः अयोनिकाः सिद्धाः, सहायुषा वर्तन्त इति सायुषस्तदन्येऽनायुषः सिद्धाः, एवं सेन्द्रियाः - संसारिणः, For Parts Only मूलं [ ५७ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~80~ ray.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [१७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- सूत्र- वृत्तिः सूत्राक [१७] ॥३९॥ दीप अनुक्रम [१७] GOODCADORE अनिन्द्रियाः-सिद्धादयः, सवेदकाः-स्त्रीवेदाधुदयवन्तः, अवेदका:-सिद्धादयः, सह रूपेण-मूर्त्या वर्तन्त इति समा-II स्थानसान्ते इन्प्रत्यये सति सरूपिणः-संस्थानवर्णादिमन्तः सशरीरा इत्यर्थः, न रूपिणोऽरूपिणो-मुक्ताः, सपुद्गलाः का- काध्ययने दिपुद्गलवन्तो जीवाः, अपुद्गलाः-सिद्धाः, संसार-भवं समापनका:-आश्रिताः संसारसमापन्नका-संसारिणः, तदितरे |अजीवनसिद्धाः, शाश्वता:-सिद्धाः जन्ममरणादिरहितत्वाद्, अशाश्वताः-संसारिणस्तद्युक्तत्वादिति ॥ एवं जीवतत्वस्य द्विपदा-18 धादिकिवतारं निरूप्याजीवतत्त्वस्य तं निरूपयन्नाह याणां हैआगासा चेव नोआगासा चैव । धम्मे चेष अधम्मे चेव । (सू०५८) बंधे चेव मोक्खे चेव १ पुग्ने चेव पावे व विध्यं २ आसवे व संघरे व ३ वेयणा चेव निवरा चेव ४ (सू०५९) दो किरियाओ पन्नचाओ, जहा-जीवकिरिया चेव अजीवकिरिया चेव १, जीवकिरिया दुबिहा पन्नत्ता, संजहा-सम्मत्तकिरिया चेव, मिच्छत्तकिरिया व २, अजीवकिरिया दुविहा पत्ता, सं०-इरियावहिया चेव संपरागा चेव ३, दो किरियाओ पं० सं०---काइया चेव अहिगरणिया व ४, काश्या किरिया दुविहा पन्नत्ता तं०-अणुवरयकायकिरिया चेव, दुप्पउत्तकायकिरिया चेव ५, अहिकर. णिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तं0-संजोयणाधिकरणिया व णिवत्तणाधिकरणिया चेव ६, दो किरियाओ पं० सं०पाउसिया चेव पारियावणिया चेच ७, पाउसिया किरिया दुविहा पं० सं०-जीवपाउसिया चेव अजीवपाउसिया चेव ८, पारियावणिया किरिया दुविहा पं० सं०-सहत्यपारियावणिया चेव परहत्यपारियावणिया चेव ९, दो किरियाओ १ आदिना सयोगिफेवल्यादयः, तेषां क्षायोपशमिकभावाभावात्, क्षायोपशमिकाणि चेन्द्रियाणि, अS ॥३९ REautatumbinidina क्रियानाम् वैविध्यं ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ॐ-% **** प्रत %A5 सूत्रांक [५८-६०] %A5% ** पं० सं०-पाणातिवायकिरिया चेव अपचक्खाणकिरिया चेव १०, पाणातिवायकिरिया दुविदा पं००-सहस्थपाणातिवायकिरिया चेव परहल्थपाणातिवायकिरिया चेव ११, अपच्चक्खाणकिरिया दुविहा पं० ०-जीवअपञ्चक्माणकिरिवा चेव अजीबअपञ्चक्याणकिरिया चेव १२, दो किरियाओ पं० सं०-आरंभिया चेव परिग्गहिया चेव १३, आरमिया किरिया दुविहा पं० सं०---जीवआरंभिया चेव अजीवआरंभिया चेव १४, एवं परिग्गहियावि १५, दो किरियाओ पं० सं०-मायावत्तिआ चेव मिच्छादसणवत्तिया चेव १६, मायावत्तिया किरिया दुविहा पं० २०-आयभावर्वकणता चेव परभावकणता चेव १७, मिच्छादसणवत्तिया किरिया दुविहा पं० २०–णाइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव तम्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव १८, दो किरियाओ पं०२०-दिविया चेव पुडिया व १९, दिट्ठिया किरिया दुविहा पं० सं०-जीवदिहिया चेव अजीवदिविया चेव २०, एवं पुट्टिवावि २१, दो किरियाओ पं० २०-पाडुचिया चेष सामंतोवणिवाइया चेव २२, पाडुशिया किरिया दुविहा पं० सं०-जीवपाडुचिया चेव अजीवपाधुधिया चेव २३, एवं सामंतोषणियाच्यावि २४, दो किरियाओ पं० २०-साहत्थिया चेव णेसत्थिया चेव २५, साहस्थियाकिरिया दुविहा पं० सं०-जीवसाहत्थिया चेव अजीवसाहत्विया व २६, एवं सत्थियावि २७, दो किरियाओ पं० २० -आणवणिया चेव वेवारणिया चेव २८, जहेव णेसत्थियाओ २९-३०, दो किरियाओ पं० सं०-अणाभोगवत्तिया व अणवखवत्तिया चेत्र ३१, अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा पं० २०-अणाउत्तभआइयणता व अणाउत्तपमळणता चेव ३२, अणवखवत्तिया किरिया दुविहा पं० सं०-आयसरीरअणवखवत्तिया चेव परसरीरभणव दीप अनुक्रम [५८-६०] A 4 * %954 * SARERatininamarana क्रियानाम् वैविध्यं ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८-६० ] दीप अनुक्रम [५८-६०] श्रीस्थाना सूत्र वृतिः ॥ ४० ॥ Jan Eucat स्थान [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र ****** “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [१], [०३], अंग सूत्र [०३ ] क्रियानाम् द्वैविध्यं बत्तिया चैत्र १३, दो किरियाओ पं० तं० पिज्जवत्तिया चैत्र दोसवत्तिया चेव २४, पेनबत्तिया किरिया दुबिद्दा पं० [सं० -- मायावतिया चेव लोभवत्तिया चेव ३५, दोसवत्तिया किरिया दुविहा पं० तं० – कोहे चैव माणे नेत्र ३६, ( सू० ६० ) आकाशं व्योम नोआकाशम् तदन्यद्धर्मास्तिकायादि, धर्मः- धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भणुणः तदन्योऽधर्मः- अध| मस्तिकायः स्थित्युपष्टम्भगुणः । सविपक्षबन्धादितत्त्वसूत्राणि चत्वारि प्राग्वदिति । बन्धादयश्च क्रियायां सत्यामात्मनो भवन्तीति क्रियानिरूपणायाह- 'दो किरिये' त्यादि सूत्राणि षटूत्रिंशत्, करणं क्रिया क्रियत इति वा क्रिया, ते च द्वे प्रज्ञप्ते प्ररूपिते जिनेः, तत्र जीवस्य क्रिया-व्यापारो जीवक्रिया, तथा अजीवस्य -- पुद्गलसमुदायस्य यत्कर्म्मतया | परिणमनं सा अजीवक्रियेति, इह चियशब्दस्य चैवशब्दस्य च पाठान्तरे प्राकृतत्वाद्विर्भाव इति चैवेत्ययं च समुच्चयमात्र एव प्रतीयते, अपिचेत्यादिवदिति, 'जीवकिरिये त्यादि, सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया सम्यक्त्वक्रिया, एवं मिथ्यात्वक्रियाऽपि, नवरं मिथ्यात्वम्-अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एवेति, अथवा सम्यग्दर्शनमिध्यात्वयोः सतोर्वे भवतः ते सम्यक्त्वमिथ्यात्वक्रिये इति ॥ तत्र 'ईरियावहिय'ति-ईरणमीर्या - गमनं तद्वि| शिष्टः पन्था ईर्षापधस्तत्र भवा ऐर्वापथिकी, व्युत्पत्तिमात्रमिदं प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत्केबलयोगप्रत्यवमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातावेदनीयकर्म्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐर्यापथिकी क्रिया, इह जीवव्यापारेऽप्यजीनप्रधानत्वविवक्ष For Park Use Only मूलं [६० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~83~ ४ २ स्थानकाध्ययने | अजीवनन्धादिकि याणां द्वैविध्यं ॥ ४० ॥ any org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८-६०] दीप अनुक्रम [५८-६०] याऽजीवक्रियेयमुक्ता, कर्मविशेषो वैर्यापथिकीक्रियोच्यते, यतोऽभिहितं-"इरियावहिया किरिया दुविहा-बज्झमाणा वेइज्जमाणा य, जा[व] पढमसमये बद्धा बीयसमये बेइया सा बद्धा पुट्ठा वेइया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मं वावि भवतीति, तथा सम्परायाः-कपायास्तेषु भवा सांपरायिकी, सा ह्यजीवस्य पुद्गलराशेः कर्मतापरिणतिरूपा जीवव्यापारस्याविवक्षणादजीवक्रियेति, सा च सूक्ष्मसम्परायान्तानां गुणस्थानकवतां भवतीति ॥ पुनरन्यथा द्वे 'दो किरियेत्यादि, 'काइया चेव'त्ति कायेन निवृत्ता कायिकी-कायव्यापारः, तथा 'अहिगरणिया चेव'त्ति अधिक्रियते आत्मा | नरकादिषु येन तदधिकरणम्-अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु, इह च बाह्यं विवक्षितं खगादि, तत्र भवा आधिकरणिकीति ।। कायिकी द्विधा-'अणुवरयकायकिरिया वत्ति अनुपरतस्य--अविरतस्य सावद्यात् मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टेवा कायक्रिया-उत्क्षेपादिलक्षणा कर्मबन्धनिबन्धनमनुपरतकायक्रिया, तथा 'दुप्पउत्सकायकिरिया चेच'त्ति दुष्पयुक्तस्य-8 दुष्टप्रयोगवतो दुष्प्रणिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्येष्टानिष्टविषयप्राप्ती मनाक् संवेगनिर्वेदगमनेन तथा अनिन्द्रियमाश्रित्याशुभमनःसङ्कल्पद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकावक्रियेति ५, आधिकरणिकी द्विधा, तत्र 'संजोयणाहिगरणिया चेव'त्ति वत्पूर्व निर्तितयोः खङ्गतन्मुट्यादिकयोरर्थयो। संयोजनं | क्रियते सा संयोजनाऽधिकरणिकी, तथा 'णिवत्तणाहिकरणिया चेव'त्ति यच्चादितस्तयोनिवर्त्तनं सा निर्वर्तना यापथिकीकिया द्विविधा अध्यमाना वैद्यमानाच, या प्रथमसमय बद्धा द्वितीयसमये पेविता बद्धा स्पृष्टा वेदिता निर्माणी एण्यत्काडे अकर्म चापि। | भवति, १ गुणस्थानानावाध्या इष्टे इच्छाप्रतिवन्धेन इतरस्मिन् देगेन. संवेदनि प्र. SAREaratuninthintandna क्रियानाम् वैविध्यं ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८-६०] दीप अनुक्रम [५८-६०] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४१ ॥ Education “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] क्रियानाम् द्वैविध्यं धिकरणिकीति । पुनरन्यथा द्वे- 'पाउसिया चेव'त्ति प्रद्वेषो मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी, तथा 'पारियावणिया चैव चि परितापनं ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी, आद्या द्विधा- 'जीवपाउसिया चैवत्ति जीवे प्रद्वेषाज्जीवप्राद्वेषिकी, तथा 'अजीवपाउसिया चेव'त्ति अजीवे-पाषाणादौ स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवप्रा द्वेषिकीति, द्वितीयाऽपि द्विविधा 'सहत्थपारियावणिया चेव त्ति स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारितापनिकी तथा 'परहत्थपारियावणिया चैवत्ति परहस्तेन तथैव च तत्कारयतः परहस्तपारितापनिकीति । अन्यथा द्वे 'पाणाइवायकिरिया चेव'त्ति प्रतीता, तथा 'अपचक्खाणकिरिया चेव'त्ति अप्रत्याख्यानम् - अविरतिस्तन्निमित्तः कर्मबन्धोऽप्रत्याख्यानक्रिया सा चाविरतानां भवतीति । आद्या द्वेधा -- 'सहस्थपाणाइवायकिरिया चेब'त्ति स्वहस्तेन स्वप्राणान् निर्वेदादिना परमाणान् वा क्रोधादिना अतिपातयतः स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया, तथा 'परहत्थपाणाइवायकिरिया चैवत्ति परहस्तेनापि तथैव परहस्तप्राणातिपातक्रियेति । द्वितीयापि द्विधा, 'जीव अपचक्खाणकिरिया चैव त्ति जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिर्व्यापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया, तथा 'अजीव अपचक्खाणकिरिया चैव ति यदजीवेषु मद्यादिष्वप्रत्याख्यानात् कर्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रियेति । पुनरन्यथा द्वे 'आरंभिया चेव'त्ति आरम्भणमारम्भः तत्र भवा आरम्भिकी, तथा 'परिग्गहिया चेव'त्ति 'जीवआ' परिग्रहे भवा पारिग्रहिकी ॥ आद्या द्वेधा 'जीवआरम्भिया चैवत्ति, यजीवानारभमाणस्य-उपमृद्गतः कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिकी, तथा 'अजीवारं| भिया चेवति यश्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भि For Park Use Only मूलं [६० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 85~ २ स्थान काध्ययने क्रियाणां द्वैविध्यं ॥ ४१ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८-६० ] दीप अनुक्रम [५८-६०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] क्रियानाम् द्वैविध्यं कीति, एवं 'पारिग्गहिया चेव'त्ति आरम्भिकीवद् द्विविधेत्यर्थः, जीवाजीवपरिग्रहप्रभवत्वात् तस्या इति भावः । पुनरन्यथा द्वे 'मायावत्तिया चेव'त्ति माया- शाठ्यं प्रत्ययो - निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वा सा तथा, 'मिच्छादंसणवत्तिया चेव त्ति मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति, आया द्वेषा- 'आयभाववंकणया वेव त्ति आत्मभावस्याप्रशस्तस्य वनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववङ्कनता, वङ्कनानां च बहुत्वविव| क्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः सा च किया व्यापारत्वात्, तथा 'परभाववंकणया चेव'त्ति परभावस्य वङ्कनता - वञ्चनता या कूटलेखकरणादिभिः सा परभाववङ्कनतेति, यतो वृद्धव्याख्येयं - "तं तं भावमायरइ जेण परो वंचिजह कूडलेहकरणाईहिं”ति, द्वितीयाऽपि द्वेधा- 'ऊणा इरितमिच्छादंसणवत्तिया चेव ेति ऊनं स्वप्रमाणाद्धीनमतिरिक्तं| ततोऽधिकमात्मादि वस्तु तद्विषयं मिथ्यादर्शनमूनातिरिक्तमिथ्यादर्शनं तदेव प्रत्ययो यस्याः सा ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्ययेति, तथाहि कोऽपि मिध्यादृष्टिरात्मानं शरीरव्यापकमपि अङ्गष्टपर्वमात्रं [यवमात्रं ] श्यामाकतन्दुलमात्रं वेति हीनतया वेत्ति तथाऽन्यः पञ्चधनुःशतिकं सर्वव्यापकं वेत्यधिकतयाऽभिमन्यते, तथा 'तव्वइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया चेव त्ति तस्माद् ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद् व्यतिरिक्तं मिथ्यादर्शनं - नास्त्येवात्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति । पुनरन्यथा द्वे- 'दिट्टिया चेव ेति दृष्टेर्जाता दृष्टिजा अथवा दृष्टं दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिकादर्शनार्थं या गतिक्रिया, दर्शनाद् वा यत्कमोंदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका वा, तथा 'पुट्टिया चेव'ति पृष्टिः पृच्छा ततो जाता पृष्टिजा-प्रश्नजनितो व्यापारः, अथवा पृष्टं प्रश्नः वस्तु वा तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिकेति, अथवा स्पृष्टिः स्पर्शनं For Parts Only मूलं [६० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८-६०] दीप अनुक्रम [५८-६०] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः Ja Eratur “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ॥ ४२ ॥ ततो जाता स्पृष्टिजा, तथैव स्पृष्टिकाऽपीति । आद्या द्वेधा- 'जीवदिट्टिया चेव त्ति या अश्वादिदर्शनार्थं गच्छतः, तथा 'अजीवदिट्टिया चेवत्ति अजीवानां चित्रकर्मादीनां दर्शनार्थं गच्छतो या सा अजीवदृष्टिकेति, एवं 'पुट्टिया चैवत्ति 'एव'मिति जीवाजीवभेदेन द्विधैव तथाहि - जीवमजीवं वा रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपू ष्टिका जीवस्पृष्टिका वा अजीवपृष्टिका अजीवस्पृष्टिका वेति । पुनरन्यथा द्वे- 'पाडुचिया चैवत्ति बाह्यं वस्तु प्रतीत्य* आश्रित्य भवा प्रातीत्यिकी तथा 'सामन्तोवणिवाइया चेवत्ति समन्तात् सर्वत उपनिपातो - जनमीलकस्तस्मिन् भवा | सामन्तोपनिपातिकी आद्या द्वेधा- 'जीवपाडुचिया चेव'त्ति जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा, तथा 'अजीवपाडुचिया चेव त्ति अजीवं प्रतीत्य यो रागद्वेषोद्भवस्तजो वा बन्धः सा अजीवप्रातीत्यिकीति द्वितीयापि द्विधैवे| त्यतिदिशन्नाह - 'एवं सामन्तोवणिवाइयावित्ति, तथाहि कस्यापि पण्डो रूपवानस्ति तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तोपनिपातिकी, तथा रथादौ तथैव हृष्यतोऽजीवसामन्तोपनिपातिकीति, अन्यथा वा द्वे 'साहस्थिया चैव'त्ति स्वहस्तेन निर्वृत्ता स्वाहस्तिकी तथा 'नेसत्थिया चेव'त्ति, निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थः, तत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी, निसृजतो यः कर्म्मबन्ध इत्यर्थः, निसर्ग एव वेति, तत्र आद्या द्वेधा- 'जीवसाहत्थिया चेव'त्ति यत् स्वहस्तगृहीतेन जीवेन जीवं मारयति सा जीवस्वाहस्तिकी, तथा 'अजीवसाहत्थिया चेव'त्ति यच्च स्वहस्तगृहीतेनैवा जीवेन खड्गादिना जीवं मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकीर्ति, अथवा | स्वहस्तेन जीवं ताडयत एका, अजीवं ताडयतोऽन्येति । द्वितीयाऽपि जीवाजीव भेदैवेत्यतिदिशन्नाह - ' एवं नेसत्थिया क्रियानाम् द्वैविध्यं For Parata Lise Only मूलं [६० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~87~ २ स्थानकाध्ययने क्रियाणां द्वैविध्यं ॥ ४२ ॥ SPrary or Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८-६०] दीप अनुक्रम [५८-६०] चेवत्ति, तथाहि-राजादिसमादेशाद्यदुदकस्य यन्त्रादिभिनिसर्जनं सा जीवनसृष्टि कीति, यत्तु काण्डादीनां धनुरादिभिः४॥ सा अजीवनसृष्टिकीति, अथवा गुर्बादी जीव-शिष्यं पुत्रं वा निसृजतो-ददत एका, अजीव पुनरेषणीयभक्तपानादिकं निसृजतो-त्यजतोऽन्येति, पुनरन्यथा द्वे 'आणधणिया चेव'त्ति आज्ञापनस्य-आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी सेवाज्ञापनिका तज्जः कर्मबन्धः, आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी, तथा 'वयारणिया चेवति विदारणं विचारणं वितारणं वा स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद् बैदारिणीत्यादि वाच्यमिति ॥ एते च द्वे अपि द्वेधा-जीवाजीवभेदादिति, तथाहि-जीवमाज्ञापयत आनाययतो वा परेण जीवाज्ञापनी जीवानायनी वा, एवमेवाजीवविषया अजीवाssज्ञापनी अजीवानायनी वेति ॥ तथा 'वेयारणिय'त्ति जीवमजीव वा विदारयति-स्फोटयतीति, अथवा जीवमजीव वा समानभाषेषु विक्रीणति सति द्वैभाषिको विचारयति परिच्छायेइत्ति भणितं होति, अथवा जीवं-पुरुष वितारयति-प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थः, असद्गुणैरेतादृशः तादृशस्त्वमिति, पुरुषादिविप्रतारणबुझौव वाऽजीवं भणत्येतादृशमेतदिति यत्सा 'जीववेयारणिआऽजीववेयारणिया वत्ति । एतत्सर्वमतिदेशेनाह-'जहेव नेसस्थियत्ति, अन्यथा वा द्वे |'अणाभोगवत्तिया चेय'त्ति अनाभोगः-अज्ञानं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः सा तथा, 'अणवखवत्तिया चेव'त्ति अनवकासा-स्वशरीराद्यनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकासाप्रत्ययेति, आद्या द्विधा-'अणाउत्सआइयणया चेवत्ति अनायुक्तः-अनाभोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः तस्याऽऽदानता-वस्त्रादिविषये ग्रहणता अनायुक्तादानता, तथा 'अणाउत्त १ असमानभागेषु यो विकोणाति द्वैभाषिको वि० २ वाऽयमानभावेषु प्र. ३ व्यवहारे द्वारीभवति ( द्विलालः) स्था०८ क्रियानाम् वैविध्यं ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति© स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत असूत्रवृत्तिः सूत्रांक | उद्दशः१ [५८-६०] दीप अनुक्रम [५८-६०] श्रीस्थाना भापमज्जणया चेय'त्ति अनायुक्तस्यैव पात्रादिविषया प्रमार्जनता अनायुक्तप्रमार्जनता, इह च ताप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृ तत्वेन आदानादीनां भावविवक्षया वेति । द्वितीयाऽपि द्विविधा-'आयसरीरेत्यादि, तत्रात्मशरीरानवकाङ्क्षप्रत्यया काध्ययने स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वतः, तथा परशरीरक्षतिकराणि तु कुर्वतो द्वितीयेति । 'दो किरिये'त्यादि त्रीणि सूत्राणि, | कण्ठ्यानि, नवरं प्रेम-रागो मायालोभलक्षणः द्वेषः क्रोधमानलक्षण इति, यदन न व्याख्यातं तत्सुगमत्वादिति ॥ एताच |गर्हाद्वैक्रियाः प्रायो गर्हणीया इति गर्हामाह विध्यं दुविहा गरिहा पं० त०-मणसा वेगे गरहति । वयसा वेगे गरहति । अहवा गरहा दुविहा पं० २०-दीदं वेगे अर्द्ध गरहति, रहस्सं बेगे अझं गरहति । (सू०६१) 'दविहा गरहे'त्यादि, विधान विधा द्वे विधे-भेदौ यस्याः सा द्विविधा, गहण गहाँ-दुश्चरितं प्रति कुत्सा, साच स्वपरविषयत्वेन द्विविधा, साऽपि मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेश्च द्रव्यगो, अप्रधानगर्हेत्यर्थः, द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थत्वाद्, उक्तं च-"अप्पाहन्नेऽवि इहं कत्थइ दिहो हु दब्बसहोति । अंगारमद्दओ जह दब्वायरिओ सयाऽभवो ॥१॥" ति, सम्यग्दृष्टेस्तूपयुक्तस्य भावगहेति, चतुर्दा गर्हणीयभेदाबहुप्रकारा वा, सा चेह करणापेक्षया द्विविधोक्का, तथा चाह-'मणसा वेगे गरहइत्ति मनसा-चेतसा वाशब्दो विकल्पार्थो अवधारणाओं वा, ततो मनसैव न वाचे II४३॥ त्यर्थः, कायोत्सर्गस्थो दुर्मुखसुमुखाभिधानपुरुषद्वयनिन्दिताभिष्टुतस्तद्वचनोपलब्धसामन्तपरिभूतस्वतनयराजवात्तॊ मनसा १ अप्राधान्येऽपि इह कचिदृष्ट एवं द्रव्यशब्द इति । अहारमईको यथा द्रव्याचार्यः सदाऽभव्यः ॥ १॥ 555555 ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६१] - - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति "स्थान" स्थान [२], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] प्रत्याख्यानस्य वैविध्यं समारब्धपुत्र परिभवकारि सामन्तसङ्ग्रामो वैकल्पिकप्रहरणक्षये स्वशीर्षकग्रहणार्थ व्यापारितहस्त संस्पृष्टलुञ्चितमस्तकस्ततः स मुपजातपश्चात्तापानलज्वालाकलापदन्दह्यमानसकलकम्मैन्धनो राजर्षिप्रसन्नचन्द्र इव एकः कोऽपि साध्वादिर्गर्हते -जु गुप्सते गर्ह्यमिति गम्यते, तथा वचसा वा-याचा वा अथवा वचसैव न मनसा भावतो दुश्चरितादि उक्तत्वाज्जनरञ्जनार्थं गहप्रवृत्ताङ्गारमर्द्दकादिप्रायसाधुवत् एकोऽन्यो गर्हत इति, अथवा 'मणसाऽवेगेत्ति इह अपिः, स च सम्भावने, तेन | सम्भाव्यते अयमर्थ:-अपि मनसैको गर्हते अन्यो वचसेति, अथवा मनसाऽपि न केवलं वचसा एको गर्हते, तथा वचसाऽपि न केवलं मनसा एक इति स एव गर्हते, उभयथाऽप्येक एव गर्हत इति भावः, अन्यथा गर्हाद्वैविध्यमाह'अहवे'त्यादि, अथवेति पूर्वोक्तद्वैविध्यप्रकारापेक्षो द्विविधा गर्दा प्रज्ञप्तेति प्रागिव, अपिः सम्भावने, तेन अपि दीर्घाबृहतीं अद्धां-कालं यावदेकः कोऽपि गर्हते गर्हणीयमाजन्मापीत्यर्थः, अन्यथा वा दीर्घत्वं विवक्षया भावनीयम्, आपेक्षिकत्वात् दीर्घस्वयोरिति एवमपि स्वाम् अल्पां यावदेकोऽन्य इति, अथवा दीर्घामेव यावत् हस्वामेव यावदिति व्याख्येयमपेरवधारणार्थत्वादिति, एक एव वा द्विधा कालभेदेन गर्हते भावभेदादिति, अथवा दीर्घ ह्रस्वं वा कालमेव गर्हत इति ॥ अतीते गर्ने कर्मणि ग भवति भविष्यति तु प्रत्याख्यानम् उक्तं च- “अईयं निंदामि पप्पन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चक्खामीति प्रत्याख्यानमाह दुवि पञ्चकखाणे पं० [सं० मणसा वेगे पञ्चकखाति वयसा वेगे पञ्चक्खाति, अहवा पञ्चक्खाणे दुबिहे पं० [सं० दीहं १] अतीतं निन्दामि प्रत्युत्पन्नं संवृणोमि अनागतं प्रयास्यामि For Park Use Only मूलं [ ६९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~90~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६२] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत २स्थानकाध्ययने उद्देशः १ सूत्रांक [६२-६३] नस्य मोक्षहेतोश्च द्वैविध्य दीप अनुक्रम [६२-६३] श्रीस्थाना वेगे अद्ध पथक्खाति रहस्सं वेगे अद्धं पञ्चक्खाति (सू०६२) दोहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीयं अणवयम्गं दीहहासत्र भद्धं चाउरंतसंसारकतारं वीतिवतेजा, संजहा-विजाए चेव चरणेण चेव (सू० ६३) 'दुविहे पञ्चक्खाणे' इत्यादि, प्रमादप्रातिकूल्येन मर्यादया ख्यान-कथनं प्रत्याख्यानं, विधिनिषेधविषया प्रतिज्ञेत्यर्थः, दातच द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टेवाऽनुपयुक्तस्य कृतचतुर्मासमांसप्रत्याख्यानायाः पारणकदिनमांसदानप्रवृत्ताथा राजदु-1 हितुरिवेति, भावप्रत्याख्यानमुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरिति, तच्च देशसर्वमूलगुणोत्तरगुणभेदादनेकविधमपि करणभेदाद् द्विविधम् , आह च-मनसा बैंकः प्रत्याख्याति-वधादिकं निवृत्तिविषयीकरोति, शेषं मागिवेति । प्रकारान्तरेणापि तदाह -'अहवेत्यादि, सुगमं । ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानादि मोक्षफलमत आह-'दोहिं ठाणेही'त्यादि, द्वाभ्यां स्थानाभ्यांगुणाभ्यां सम्पन्नो-युक्तो नास्यागारं-गेहमस्तीत्यनगार:-साधुः नास्त्यादिरस्येत्यनादिकं तत् अवदग्रं-पर्यन्तस्तन्नास्ति | यस्य सामान्यजीवापेक्षया तदनवदनं तत् दीर्घा अद्धा-कालो यस्य तद् दीर्घाद्धं तत्, मकार आगमिकः, दीपों वाऽध्वा -मार्गो यस्मिंस्तद्दीर्घावं तचतुरन्त-चतुर्विभार्ग नरकादिगतिविभागेन, दीर्घत्वं प्रकटादित्वादिति, संसारकान्तारं-भवा|रण्यं व्यतिब्रजेद्-अतिकामेत्, तद्यथा 'विद्यया चैव' ज्ञानेन चैव 'चरणेन चैव' चारित्रेण चैवेति, इह च संसारकारन्तारव्यतिब्रजनं प्रति विद्याचरणयोयोगपद्येनैव कारणत्वमवगन्तव्यम् , एकैकशो विद्याक्रिययोरैहिकार्थेष्वष्यकारणत्वात् , नन्वनयोः कारणतया अविशेषाभिधानेऽपि प्रधान ज्ञानमेव न चरणम् , अथवा ज्ञानमेवैकं कारणं न तु क्रिया, G यतो ज्ञानफलमेवासी, किश-यथा क्रिया ज्ञानस्य फलं तथा शेषमपि यत् क्रियानन्तरमवाप्यते बोधकालेऽपि यज्ञ ॥४४॥ प्रत्याख्यानस्य वैविध्यं ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६२-६३] दीप अनुक्रम [६२-६३] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ६३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [२], उद्देशक [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Educationa - *******... यपरिच्छेदात्मकं यच्च रागादिविनिग्रहमयमेषामविशेषेण ज्ञानं कारणं यथा मृत्तिका घटस्य कारणं भवन्ती तदन्तरालवर्त्तिनां पिण्डशिवकस्थासकोशकुशूलादीनामपि कारणतामापद्यते तथेह ज्ञानमपि भवाभावस्य तदन्तरालवर्त्तिनां च तत्यपरिच्छेद समाधानादीनां कारणमिति, यच्चानुस्मरणमात्रमन्त्रपूत विषभक्षणन भोगमनादिकमनेकविधं फलमुपलभ्यते साक्षात्तदपि क्रियाशून्यस्य ज्ञानस्य, यथा चैतद् दृष्टफलं तथा अदृष्टमप्यनुमीयत इति, आह् च - "ओह पहाणं नाणं न चरितं नाणमेव वा सुद्धं । कारणमिह न उ किरिया साऽवि हु नाणत्फलं जम्हा ॥ १ ॥ जह सा नाणस्स फलं तह सेपि तह बोहकालेवि । नेयपरिच्छेयमयं रागादिविणिग्गहो जो य ॥ २ ॥ जं च मणोचिंतियमंतपूयविसभक्खणादि बहुभेयं । फलमिह तं पञ्चकखं किरियारहियस्स नाणस्स ॥ ३ ॥ त्ति, अत्रोच्यते, यत्तावदुक्तम्- 'ज्ञानमेव प्रधानं ज्ञानमेव चैकं कारणं न क्रिया, यतो ज्ञानफलमेवासाविति, तदयुक्तम्, यतो यत एव ज्ञानात् क्रिया ततश्चेष्टफलप्राप्तिरत एवोभयमपि कारणमिष्यते, अन्यथा हि ज्ञानफलं क्रियेति क्रियापरिकल्पनमनर्थकं ज्ञानमेव हि क्रियाविकलमपि प्रसाधयेत् न च साधयति, क्रियाऽभ्युपगमात्, ज्ञानक्रियाप्रतिपत्तौ च ज्ञानं परम्परयोपकुरुते अनन्तरं च क्रिया यतस्तस्मात् क्रियैव प्रधानतरं युक्तं कारणं, नामधानमकारणं चेति, अथ युगपदुपकुरुतस्तत उभयमपि युक्तं, न युक्तमप्राधान्यं क्रियाया अकारणत्वं चेति, यः पुनरकारणत्वमेव क्रियायाः प्रतिपद्यते तं प्रतीदं विशेषेणोच्यते-क्रिया हि साक्षा १] आह प्रधानं ज्ञानं न चारित्रं ज्ञानमेव वा शुद्धं कारणमिह नैव किया सापि ज्ञानफलं यस्मात् ॥ १ ॥ यथा सा ज्ञानस्य फर्क तथा शेषमपि बोधकालेऽपि परिच्छेदमयं रागादिविनिग्रहो या ॥ २ ॥ यच मनश्चिन्तितमन्त्रपूत विषभक्षणादि बहुमेदं फलनिह तत् प्रत्यक्षं क्रियारहितस्य ज्ञानस ॥ ३ ॥ For Parts Only ~92~ nary org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२-६३] साध्यो दीप अनुक्रम [६२-६३] श्रीस्थाना- IIतकारित्वात् कारणमन्त्य, ज्ञानं तु परम्परोपकारित्वादनन्त्यम्, अतः को हेतुर्यदन्त्यं विहायानन्त्यं कारणमिष्यते, २ स्थानअथ सहचारिताङ्गीक्रियते अनयोः, अतोऽपि हि ज्ञानमेव कारणं न क्रियेत्यत्र न हेतुरस्तीति, यच्चोक्तम्-'बोधकाले-18 काध्ययने ऽपी'त्यादि, तत्र ज्ञेयपरिच्छेदो ज्ञानमेवेति रागादिशमश्च संयमक्रियैव ज्ञानकारणा भवेदिति प्रतिपद्यामहे, किन्तु त-14 उद्देशः१ त्फले भववियोगाख्येऽयं विचारो, यदुत-किं तत् ज्ञानस्य क्रियायास्तदुभयस्य वा फलमिति !, तत्र न ज्ञानस्यैव, क्रिया-1 ज्ञानक्रियाफलत्वात् तस्य, नापि केवलक्रियायाः, क्रियामात्रत्वात् , उन्मत्तकक्रियावत्, ततः पारिशेष्याज्ज्ञानसहितक्रियाया इति, यच्चोक्तम्-'अनुस्मृतिज्ञानमात्रात् मन्त्रादीनां फलमुपलभ्यते' तत्र मो-मन्त्रेष्वपि परिजपनादिक्रियायाः साधन मोक्षः भावो न मन्त्रज्ञानस्य, प्रत्यक्षविरुद्धमिदमिति चेद् यतो दृष्टं हि क्वचित् मन्त्रानुस्मृतिमात्रज्ञानादिष्टफलमिति, अत्रीच्यते, न मन्त्रज्ञानमात्रनिर्वत्यै तत्फलं, तज्ज्ञानस्याक्रियत्वात् , इह यदक्रियं न तत् कार्यस्य निर्वर्तकं दृष्टं, यथाऽऽकाशकुसुमं, यच्च निर्वर्तकं तदक्रियं न भवति, यधा कुलालः, न चेदं प्रत्यक्षविरुद्धं, न हि ज्ञानं साक्षात्फलमुपहरदुपलश्यत इति, अथ यदि न मन्त्रज्ञानकृतं तत्फलं ततः कुतः पुनस्तदिति ?, तत्समयनिबद्धदेवताविशेषेभ्य इति ब्रूमः, तेषां हि सक्रियत्वेन क्रियानिर्वत्यमेतत् न मन्त्रज्ञानसाध्यमिति, आह च-"तो तं कत्तो? [आचार्यः] भण्णति, तस्समय&ानिवद्धदेवभोवहियं । किरियाफलं चिय जओ न मंतणाणोवओगस्स ॥१॥"त्ति, ननु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष-15 मार्ग इति श्रूयते, इह तु ज्ञानक्रियाभ्यामसावुक्त इति कथं न विरोधः?, अथ द्विस्थानकानुरोधादेवं निर्देशेऽपि न वि- ॥ ४५ ॥ ततलत् कुतः । भण्वते तत्समयनिद्धदेवतोपहितम् । कियाफलमैन यतो न मात्रज्ञानोपयोगस्य ॥१॥ Baitaram.org ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२-६३] दीप अनुक्रम [६२-६३] रोधो, नैवमवधारणगर्भत्वात् निर्देशस्येति, अत्रोच्यते, विद्याग्रहणेन दर्शनमप्यविरुद्धं द्रष्टव्यं, ज्ञानभेदत्वात् सम्यग्दर्शनस्य, यथा हि अवयोधात्मकत्वे सति मतेरनाकारत्वादवग्रहेहे दर्शनं साकारत्वाचापायधारणे ज्ञानमुक्तमेवं व्यवसायात्मकत्वे सत्यवायस्य रूचिरूपोऽशः सम्यग्दर्शनमवगमरूपोऽशोऽवाय एवेति न विरोधः, अवधारणं तु ज्ञानादिव्यतिरेकेण नान्य उपायो भवव्यवच्छेदस्येति दर्शनार्थमिति । विद्याचरणे च कथमात्मा न लभत इत्याह-दो ठाणाइ'मित्यादि सूत्राण्येकादश, दो ठाणाई अपरियाणिचा आया णो केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज सवणयाए, तं०-आरंभे चेव परिग्गहे चेव १, दो ठाणाई अपरियादित्ता आया णो केवलं बोधि बुझेजा तं०-आरंभे व परिग्गहे चेव २, दो ठाणाई अपरियाइत्ता आया नो केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चइजा तं०-आरंभे चेव परिग्गहे चेव ३, एवं णो केवलं बंभचेरवासमावसेजा ४, णो केवलेणं संजमेणं संजमेजा ५, नो केवलेणं संवरेणं संवरेजा ६, नो केवलमामिणियोहियणाणं उप्पा डेजा ७, एवं सुयनाणं ८ ओहिनाणं ९ मणपजवनाणं १० केवलनाणं ११ । (सू०६४) 'द्वे स्थाने द्वे वस्तुनी 'अपरियाणित्तत्ति अपरिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया यधैतावारम्भपरिग्रहावनाय तथा अलं ममाभ्या| मिति परिहाराभिमुख्यद्वारेण प्रत्याख्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तवत्तयोरनिविषण इत्यर्थः, 'अपरियाइत्त'त्ति क्वचिसाठः, तत्र स्वरूपतस्तावपर्यादायागृहीत्वेत्यर्थः, आत्मा 'नो' नैव 'केवलिप्रज्ञस' जिनोतं 'धम्म' श्रुतधर्म लभेत 'श्रवणतया' श्रवणभावेन श्रोतुमित्यर्थः, तद्यथा-'आरम्भाः ' कृष्यादिद्वारेण पृथिव्याधुपमद्दस्तान् 'परिग्रहा' Tuesturary.com ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक वृत्तिः [६४] दीप अनुक्रम [६४] श्रीस्थाना- धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादयस्तान् , इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि व्यक्त्यपेक्षं बहुवचनम् , अवधारणसमुच्चयो स्व-11२ स्थाननसूत्र- बुद्ध्या ज्ञेयाविति, 'केवला' शुद्धां 'बोधि' दर्शनं सम्यक्त्वमित्यों 'बुध्येत' अनुभवेत् , अथवा केवलया वोध्येति वि-18 काध्ययने भक्तिपरिणामात् बोध्यं जीवादीति गम्यते 'वुध्येत श्रद्दधीतेति ॥ मुण्डो द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतः कषायाद्यपनय-उद्देशः १ नेन 'भूत्वा' संपद्य 'अगारादू'गेहान्निष्कम्येति गम्यते, केवलामित्यस्येह सम्पन्धात् 'केवलां' परिपूर्णी विशुद्धां वा- आरम्भप॥४६॥ नगारितां-पत्रज्या 'प्रव्रजेत्' यायादिति, 'एव'मिति यथा प्राक् तथोत्तरवाक्येष्वपि 'दो ठाणाई इत्यादि वाक्यं पठनी-18रिग्रहात्यायमित्यर्थः, 'ब्रह्मचर्येण' अब्रह्मविरमणेन यासो-रात्रौ स्वापः तत्रैव वा वासो-निवासो ब्रह्मचर्यवासस्तमावसेत्-कुर्या- गेन धर्मदिति, 'संयमेन' पृथिव्याविरक्षणलक्षणेन संयमयेदात्मानमिति, 'संवरेण' आश्रवनिरोधलक्षणेन संवृणुयादाश्रवद्वारा- 1 श्रवणादिणीति गम्यते 'केवलं' परिपूर्ण सर्वस्वविषयग्राहकम् 'आभिणियोहियनाणं'ति अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्नियतोऽस-3 ज्ञानान्तं शयस्वभावत्वावू बोधो-वेदनमभिनिबोधः स एवाभिनिबोधिकं तच्च तज्ज्ञानं चेत्याभिनिबोधिकज्ञानम्-इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमोघतः सर्वद्रव्यासर्वपर्यायविषयं 'उप्पाडेज'त्ति उत्पादयेदिति, तथा 'एव'मित्यनेनोत्तरपदेषु 'नो केवलं उप्पाडेज'त्ति द्रष्टव्यम् , 'सुयनाणं'ति श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्द एव स च भावभुतकारणत्वात् ज्ञानं श्रुतज्ञानं श्रुतग्र-| न्थानुसारि ओघतः सर्वद्रव्यासर्वपर्यायविषयमक्षरश्रुतादिभेदमिति, तथा 'ओहिनाण'ति अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन् | वेत्यवधिः, अवधीयते-इत्यधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते मर्यादया वेत्यवधिः-अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुप-10॥४६ ।। दयोगहेतुत्वादिति, अवधानं वाऽवधिविषयपरिच्छेदनमिति, अवधिश्चासी ज्ञानं चेत्यवधिज्ञान-इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनोx ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [६४] दीप अनुक्रम [६४] रूपिद्व्यसाक्षात्करणमिति । तथा 'मणपज्जवनाणं ति मनसि मनसो वा पर्यवः-परिच्छेदः स एव ज्ञानमथवा मनसः पर्यवाः पर्यायाः पर्यया वा-विशेषाः अवस्था मनःपर्यवादयस्तेषां तेषु वा ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानमेवमितरत्रापि, समयक्षेत्रगतसंज्ञिमन्यमानमनोद्रव्यसाक्षात्कारीति । 'केवलनाणंति केवलम्-असहायं मत्यादिनिरपेक्षत्वादकलङ्क वा आवरणमलाभावात् सकलं वा-तत्प्रथमतवैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेरसाधारणं वा-अनन्यसदृशस्वादनन्तं वा-ज्ञेयानन्तत्वात् तच्च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति ॥ कथं पुनर्द्धर्मादीनि विद्याचरणस्वरूपाणि प्रामोतीत्याह-दो ठाणाईमित्यायेकादशसूत्री दो ठाणाई परिवाबित्ता आया केवलिपन्नत्तं धर्म लभेज सवणयाए, तं०-आरंभे चेव परिग्गडे घेव, एवं जाव केबलनाणमुपादेशमा (सू०६५)। दोहि ठाणेहिं आया केवलिपन्नच धम्मं लभेज सवणयाए तं०-सोच व अमिसमेच शेव जाप केबलनाणं उप्पाडेजा (सू०६६)। सुगमा । धादिलाभ एव पुनः कारणान्तरद्वयमाह-'दोहीत्यादि सुगम, केवलं 'श्रवणतया' श्रवणभावेन, 'सोच चेव'त्ति इस्वत्वादि प्राकृतत्वादेव, श्रुत्वा-आकर्ण्य तस्यैवोपादेयतामिति गम्यते, 'अभिसमेत्य' समधिगम्य तामेवा वबुध्येत्यर्थः, उक्तं च-"सद्धर्मश्रवणादेव, नरो विगतकल्मपः । ज्ञाततत्त्वो महासत्त्वः, परं संवेगमागतः ॥१॥ धर्मोजापादेयतां ज्ञात्वा, सातेच्छोऽत्र भावतः । इदं स्वशक्तिमालोच्य, ग्रहणे संप्रवर्तते ॥२॥" इति, 'एवं रोहिं बुज्झेजे| त्यादि यावत् केवलनाणं उप्पाडेज'त्ति । केवलज्ञानं च कालविशेषे भवतीति तमाह SARERatunintamanna ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६७-६९] दीप अनुक्रम [६७-६९] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६७ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [२], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] दो समाओ पद्मत्ताओ, नंद — ओसव्पिणी समा चैव उस्सप्पिणी समा चैत्र ( सू० ६७ ) दुविद्दे उम्माए पं० तं० ज क्खावेसे चैव मोहणिज्जरस चैव कम्मस्स उदपणं, तत्थ णं जे से जक्खावेसे से णं सुहवेयतराए चैव सुदविमोचतराए देव, तत्य णं जे से मोहणिस्स कम्मरस उदयणं से णं दुहवेयतराए चेव दुहविमोययराए चैव । (सू० ६८ ) दो दंडा पं० [सं० — अट्ठादंडे चेव अणहादंडे चेय, नेरइयागं दो दंडा पं० [सं० अट्ठावंडे य अण्डादंडे य, एवं चवीसा दंडओ जाव वैमाणियाणं (सू० ६९) समा- कालविशेषः, शेषं सुगमम् ॥ केवलज्ञानं मोहनीयोन्मादक्षय एव भवत्यतः सामान्येनोन्मादं निरूपयन्नाह - 'दुविहे उम्माप' इत्यादि, उन्मादो ग्रहो बुद्धिविप्लव इत्यर्थः, यक्षावेशः-देवताधिष्ठितत्वं ततो यः स यक्षावेश एवेत्येको, | मोहनीयस्य दर्शनमोहनीयादेः कर्मण उदयेन यः सोऽन्य इति, 'तत्रे'ति तयोर्मध्ये योऽसौ यक्षावेशेन भवति स सुख| वेद्यतरक एव - मोहजनितग्रहापेक्षयाऽकृच्छ्रानुभवनीयतर एव, अनैकान्तिकानात्यन्तिकभ्रमरूपत्वादस्येति, अतिशयेन | सुखं विमोच्यते- त्याज्यते यः स सुखविमोच्यतरकश्चैव, मन्त्रमूलादिमात्रसाध्यत्वादस्येति, अथवा अत्यन्तं सुखापेय:सुखापनेयः सुखापेयतरः, तथा अत्यन्तं सुखेनैव विमुञ्चति यो देहिनं स सुखविमोचतरक इति, मोहजस्तु तद्विपरीतः, | ऐकान्तिकात्यन्तिक भ्रमस्वभावतयाऽत्यन्तानुचितप्रवृत्तिहेतुत्वेनानन्तभवकारणत्वात् तथाऽऽन्तरकारणजनितत्वेन मन्त्रा| द्यसाध्यत्वात् कर्मक्षयोपशमादिनैव साध्यत्वादिति, अत एवोक्तं- 'दुहवेयतराए चैव दुहविमोअतराए चेव'त्ति, अतिशयेन दुःखवेद्य एव दुःखविमोच्य एव चासाविति ॥ उन्मादात् प्राणी प्राणातिपातादिरूपे दण्डे प्रवर्त्तते दण्डभाजनं For Parks Use Only ~97~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः १ समाजम्मा ददण्डाः 1180 11 waryra Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७-६९] दीप अनुक्रम [६७-६९] वा भवतीति दण्डं निरूपयन्नाह दो दंडे'त्यादि, दण्डः-प्राणातिपातादिः, स चार्थाय-इन्द्रियादिप्रयोजनाय यः सो|ऽर्थदण्डः, निष्प्रयोजनस्त्वनर्थदण्ड इति । उक्तरूपमेव दण्डं सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन निरूपयन्नाह–णेरइयाण'मित्यादि, 'एवं मिति नारकवदर्थदण्डानधंदण्डाभिलापेन चतुर्विशतिदण्डको शेयो, नवरं-नारकस्य स्वशरीररक्षार्थ पर-1 |स्योपहननमर्थदण्डः प्रद्वेषमात्रादनर्थदण्डः, पृथिव्यादीनां रखनाभोगेनाप्याहारग्रहणे जीववधभावादर्थदण्डोऽन्यथा त्वन र्थदण्डः अथवोभयमपि भवान्तरार्थदण्डादिपरिणतेरिति । सम्यग्दर्शनादित्रयवतामेव च दण्डो नास्तीति त्रितयनिरूपणेइच्छुईर्शनं सामान्येन तावन्निरूपयति-तत्र दुविहे दसणे पन तं०-सम्मईसणे व गिरछादसणे चेव १, सम्मईसणे दुविहे पं० सं०-णिसमासम्मईसणे चेव अभिगमसम्मईसणे व २, णिसम्गसम्मईसणे दुविहे पं० २०-पडिवाई व अपडिवाई चेव ३, अभिगमसम्मदंसणे दुविहे पं० सं०-पडिवाई चेव अप्पडिवाई चेव ४, मिच्छादसणे दुविहे पं० सं०-अभिग्गहियमिच्छादसणे व अणभिगहियमिच्छादसणे चेव ५, अभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे पं० त०-सपजवसिते चेव अपमवसिते व ६, एवमणभिगहितमिच्छादसणेऽवि ७ । (सू०७०) 'दुविहे दंसणे इत्यादि सूत्राणि सप्त सुगमान्येव, नवरं, दृष्टिदर्शनम्-तत्त्वेषु रुचिः तच्च सम्यग्-अविपरीतं जिनोक्तानुसारि, तथा मिथ्या-विपरीतमिति।'सम्मइंसणे'इत्यादि, निसर्गःस्वभावोऽनुपदेश इत्यनर्थान्तरं, अभिगमोऽधिगमो गुरूपदेशादिरिति, ताभ्यां यत्तत् तथा, क्रमेण मरुदेवीभरतवदिति, 'निसर्ग'त्यादि,प्रतिपतनशील प्रतिपाति सम्यग्दर्शनमौपशमिक Lunaturanorm ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ७०] दीप अनुक्रम [७०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] श्रीस्थानाङ्गसूत्र ॥ ४८ ॥ क्षायोपशमिकं च, अप्रतिपाति क्षायिकं तत्रैषां क्रमेण लक्षणं-दहौपशमिकीं श्रेणीमनुप्रविष्टस्यानन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयत्रयस्य चोपशमादोपशमिकं भवति, यो वाऽनादिमिध्यादृष्टिरकृत सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्राभिधानशुद्धाशुद्धोभयरूपमिवृत्तिः ध्यात्वपुद्गलत्रिपुञ्जीक एव अक्षीणमिथ्यादर्शनोऽक्षपक इत्यर्थः, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तस्योपशमिकं भवतीति कथं ? -इह यदस्य मिथ्यादर्शनमोहनी यमुदीर्णं तदनुभवेनैवोपक्षीणमन्यत्तु मन्दपरिणामतथा नोदितमतस्तदन्तर्मुहूर्त्तमात्रमुपशान्तमास्ते, विष्कम्भितोदयमित्यर्थः, तावन्तं कालमस्योपशमिकसम्यक्त्वलाभ इति, आह च - "वसामगसेढिगयरस होइ उवसामिअं तु सम्मतं । जो वा अकयतिपुञ्ज अखवियमिच्छो उहद्द सम्मं ॥ १ खीणम्मि उदिनंमी अणुदिजते य सेसमिच्छत्ते । अंतोमुहुत्तकाल उबसमसम्मं लहइ जीवो ॥ २ ॥” ति । अन्तर्मुहर्त्तमात्रकालत्वादेवास्य प्रतिपातित्वं यच्चानन्तानुबन्ध्युदये औपशमिकसम्यक्त्वात् प्रतिपततः सास्वादनमुच्यते तदीपशमिकमेव, तदपि च प्रतिपात्येव, जघन्यतः समयमात्रत्वादुत्कृष्टतस्तु पडावलिकामानत्वादस्येति, तथा इह यदस्य मिथ्यादर्शनदलिकमुदीर्ण तदुपक्षीणं यच्चानुदीर्ण तदुपशान्तम्, उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीतमिध्यास्वभावं च तदिह क्षयोपशमस्वभावमनुभूयमानं क्षायोपशमिकमित्युच्यते, नम्वौपशमिकेऽपि क्षयश्चोपशमश्च तथेहापीति कोऽनयोर्विशेषः १, उच्यते, अयमेव हि विशेषः यदिह वेद्यते दलिकं न तत्र, इह हि क्षायोपशमिके पूर्वशमितमनुसमयमुदेति वेद्यते क्षीयते च औपशमिके तूदयविष्कम्भणमात्रमेव, १ उपशमश्रेणिगतस्य भवति औपदामिकं तु सम्यत्तत्वम् । यो वाऽकृतत्रिपुत्रोऽक्षपित मिथ्यात्यो लभते सम्यत्वम् ॥ १ ॥ क्षीणे उदीर्णे अनुदीनें व शेषध्याश्वे अन्तर्मुहूर्त कामोपशमिकसम्ययं लभते जीवः ॥ २ ॥ For Parts Only मूलं [ ७०] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~99~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः १ सम्यग्मि ध्यादर्शनं ॥ ४८ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७०] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७०] आह च-"मिछत्तं जमुइन्नं तं खीणं अणुइयं च उपसंतं । मीसीभावपरिणयं वेइजतं खओवसमं ॥१॥" ति, एतदपि|8 जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तस्थितिकत्वादुत्कर्षतः षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकत्वाच्च प्रतिपातीति, यदपि च क्षपकस्य सम्यग्दर्शनदलिकचरमपुद्गलानुभवनरूपं वेदकमित्युच्यते तदपि क्षायोपशमिकभेदत्वात् प्रतिपात्येवेति, तथा मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्या-12 स्वसम्यक्त्वमोहनीयक्षयात् क्षायिकमिति, आह च-"खीणे दंसणमोहे तिविहंमिवि भवनियाणभूयंमि । निष्पचवायमउलं सम्मत्तं खाइयं होई॥१॥"त्ति, इदं तु क्षायिकत्वादेवाप्रतिपाति, अत एव सिद्धत्वेऽप्यनुवर्तत इति । 'मिच्छादसणे इत्यादि, अभिग्रहः-कुमतपरिग्रहः स यत्रास्ति तदाभिग्रहिकं तद्विपरीतम्-अनभिग्रहिकमिति । 'अभिग्गहिए' इत्यादि, अभिग्रहिकमिध्यादर्शनं सपर्यवसितं-सपर्यवसानं सम्यक्त्वप्राप्ती, अपर्यवसितमभव्यस्य सम्यक्त्वाप्राप्तेः, |तच मिथ्यात्वमात्रमप्यतीतकालनयानुवृत्त्याऽऽभिग्रहिकमिति व्यपदिश्यते, अनभिग्रहिकं भव्यस्य सपर्यवसित मितरस्यापर्यवसितमिति, अत एवाह-एवं अणभी'त्यादि । दर्शनमभिहितमथ ज्ञानमभिधीयते, तत्र 'दुविहे नाणे इत्यादीनि आवस्सगवइरिने दुविहे' इत्यादिसूत्रावसानानि त्रयोविंशतिः सूत्राणि ॥ दुविहे नाणे पं० त०.-पचक्खे चेव परोक्खे चेव १, पञ्चासे नाणे दुविहे पन्नत्ते तं०-केवलना व णोकेवलनाणे चेव २, केवलणाणे दुविहे पं० सं०--भवत्यफेवलनाणे चेव सिद्धकेवलणाणे चेव ३, भवत्यकेवलणाणे दुबिहे पं० २० निध्यात्वं यदुदीर्ण तत, क्षीर्ण अवदीर्ण चोपशान्तम् । मिधीभावपरिणतं देवमानं क्षायोपवाभिकम् ॥१॥ २क्षीणे दर्शनमोहे विविवेऽपि भवनिदानभूते।। दिनियतपायमतुलं सम्यक्त्व क्षायिक भवति ॥१॥३जिनामेवाभिप्राहिकसनवान , तत्वसापर्यवसितत्वाभावात् अती तेयावि दीप अनुक्रम [७०] स्था०९ AK4-064955 ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७१] दीप अनुक्रम [७१] श्रीस्थाना नसूत्र वृत्तिः ॥ ४९ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) rand स्थान [२], उद्देशक [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - .......... ---सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, अजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ४, सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुबिहे पं० तं० - पढमसमवसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अपढमसमयसजोगिभवत्थ केवलणाणे चेव ५, अहवा परिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे देव अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव ६, एवं अजोगिभवत्थ केवलनाणेऽवि ७-८, सिद्धकेवलणाणे दुबिहे पं० तं० - अणंतरसिद्ध केवलणाणे चैव परंपरसिद्ध केवलनाणे चैत्र ९, अणंतरसिद्धकेवलनाणे दुविहे पं० तं० एकाणंतरसिद्ध केवळणाणे चेव अकाणंतरसिद्ध केवलणाणे चेव १०, परंपरसिद्धकेवलणाणे दुबिहे पं० नं० - एकपरंपरसिद्धकेवलणाणे व अणेक परंपरसिद्ध केवलणाणे चेव ११, णोकेवलणाणे दुबिहे पं० [सं० ओहिणाणे चैत्र मणपजवणाणे चैत्र १२, ओहिणाणे दुबिहे पं० [सं० भवपचइए चैव खओवसमिए चैत्र १३, दोन्हं भवपञ्चइए पन्नत्ते, तं० देवाणं चैव नेरइयाणं चे १४, दोहं खओवसमिए पं० सं० मणुस्साणं चैव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चैव १५, मणपज्जवणा दुविहे पं० तं० उज्जुमति चेव विउलमति चैत्र १६, परोक्खे णाणे दुबिहे पन्नत्ते, तं० आभिणित्रोहियणाणे चेव सुयनाणे चैत्र १७, आभिणिबोहिग्रणाणे दुविहे पं० तं० सुयनिस्सिए चैव असुयनिस्सिए चैव १८, सुयनिस्सिए दुबिहे पं० सं०—– अत्थोग्गहे चैव बंजणोग्गहे चैव १९, असुयनिस्सितेऽवि एमेव २०, सुयनाणे दुविहे पं० [सं० --- अंगपथिट्टे चैव अंगवाहिरे चेत्र २१, अंगबाहिरे दुबिहे पं० तं० – आवस्सए चैव आवस्यवइरित्ते चैव २२, आवस्यवतिरित्ते दुवि पं० सं०—कालिए चैव उकालिए चेव २३ ।। ( सू० ७१ ) सुगमानि, नवरं 'ज्ञानं' विशेपावबोधः अश्नाति भुङ्क्ते अश्रुते वा - व्याप्नोति ज्ञानेनार्थानित्यक्षः - आत्मा तं प्रति यद् For Pale Only मूलं [७१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 101 ~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः १ प्रत्यक्षपरो क्षज्ञाने ॥ ४९ ॥ yor Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [७१] स्थान [२], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) वर्त्तते इन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वेन तत्प्रत्यक्षम् - अव्यवहितत्वेनार्थ साक्षात्करणदक्षमिति, आह च- "अक्खो जीवो अस्थव्वावणभोयणगुणण्णिओ जेण । तं पइ बहइ नाणं जं पञ्चक्खं तमिह तिविहं ॥ १ ॥”ति, परेभ्यः - अक्षापेक्षया पुद्गलमयत्वेन द्रव्येन्द्रियमनोभ्योऽक्षस्य जीवस्य यत्तपरोक्षं निरुक्तवशादिति, आह च- 'अक्खस्स पोलकया जं दविदियमणा परा तेण । तेहिंतो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥ १ ॥ "त्ति, अथवा परैरुक्षा-सम्बन्धनं जन्यजनकभावलक्षणमस्येति परोक्षम् - इन्द्रियमनोव्यवधानेनात्मनोऽर्थप्रत्याय कमसाक्षात्कारीत्यर्थः ॥ 'पञ्चकखे' त्यादि, केवलम् - एकं ज्ञानं केवलज्ञानं तदन्यन्नो केवलज्ञानम् - अवधिमनःपर्यायलक्षणमिति । 'केवले' त्यादि, 'भवत्थकेवलनाणे चेवत्ति भवस्थस्य केवलज्ञानं यत्तत्तथा, एवमितरदपि, 'भवत्थे' त्यादि, सह योगैः - कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी इन्समासान्तत्वात् स चासौ भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः, न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगी-शैलेशीकरणव्यवस्थितः शेषं तथैव, 'सयोगी त्यादि, प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य स तथा, एवमप्रथमो-व्यादिसमयो * यस्य स तथा शेषं तथैव, 'अथवे'त्यादि, चरमः - अन्त्यः समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा, शेषं तथैव, 'एव' मिति सयोगिसूत्रवत्प्रथमाप्रथमचरमा चरमविशेषणयुक्तमयोगिसूत्रमपि वाच्यमिति, 'सिद्धेत्यादि, अनन्तरसिद्धो यः सम्प्रति समये सिद्धः, स चैकोऽनेको वा, तथा परम्परसिद्धो यस्य व्यादयः समयाः सिद्धस्य सोऽप्येकोऽनेको वेति तेषां यत्के Education Internation १ अक्ष जीवोऽर्थव्यापनभोजनगुणान्वितरे येन तं प्रति वर्तते ज्ञानं यत् प्रत्यक्षं वह्नि त्रिविधम् ॥ १ ॥ २ अक्षात् पुगलमयानि यमेन्द्रियमनांसि पराणि तेन तेभ्यो यत् ज्ञानं परोक्षमि तदनुमानमिव ॥ १ ॥ ३ पोग्गलमया प्र प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञानम् मूलं [७१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Park Use Only ~102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः सूत्राक ॥५०॥ [७१] दीप अनुक्रम वलज्ञानं तत्तथा व्यपदिश्यत इति । 'ओहिनाणे'इत्यादि, 'भवपच्चइएत्ति क्षयोपशमनिमित्तत्वेऽप्यस्य क्षयोपशमस्यापि र स्थानभवप्रत्ययत्वेन तस्राधान्येन भव एव प्रत्ययो यस्य तद्भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यत इति, इदमेव भाष्यकारेण साक्षेपप- काध्ययने रिहारमुक्तं, तत्राक्षेपः-"ओही खओवसमिए भावे भणितो भवो तहोदइए । तो किह भवपञ्चइओ वोत्तुं जुत्तोऽवही|4| उद्देशः१ दोण्हं १ ॥१॥" (दोण्हं )ति देवनारकयोः, अत्र परिहारः-'सोऽवि हु खओक्समिओ किन्तु स एव उ खओयसम- प्रत्यक्षपरोलाभो । तमि सइ होइऽवस्सं भण्णइ भवपञ्चओ तो सो ॥१॥" यतः-"उदयक्खयखओवसमोवसमावि अ जंच क्षज्ञाने कम्मुणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥१॥"त्ति, तथा तदावरणस्य क्षयोपशमे भवं क्षायोप-6 शमिकमिति । 'मणपज्जवेत्यादि, ऋग्वी-सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः-घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिवन्धनं] मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, विपुला-विशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः-घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रिकोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति, आह च-"रिर्जु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजुमती मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चिंतितं मुणइ ॥१॥ विउलं वत्थुविसेसणमाणं तग्गाहिणी मती विउला। चिंतियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जयसएहिं ॥२॥" 'आभिणियोहिए'इत्यादि, श्रुतं कर्मतापन्नं निश्रितम्-आ अवधिः क्षायोपशमिके भावे भणितो भवसायौदायिके । ततः कथं भवप्रत्यायिको अक्तुं युजोऽवधियोः । ॥ १॥ २ सोऽपि क्षायोपशामिकः किन्तु स एवं तक्षयोपशमलानः । तस्मिन् सति भवनपश्यं भव्यते भवप्राविकस्ततः ।।१॥३ उदयक्षपक्षयोपशमोपशमा यथ कर्मगो भनिताः द्रव्यं क्षेत्र काल भवं च भावं च। प्राप्य ॥१॥४ हजुः सामान्यं तन्मानपाहिणी अनुमतिमनोज्ञानम्। प्रायो विशेष विमलं घटमा चिन्तितं जानाति ॥१॥ विपुलं वस्तुविशेषणमानं तहाहिणी मितिः विपुला । विन्तितमनुस्मरति घटं प्रसरतः पर्यायवातः ॥ २॥ 40-544 [७१] प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञानम् ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक +DANCACCOM [७१] दीप अनुक्रम [७१] श्रितं श्रुतं वा निश्रितमनेनेति श्रुतनिश्रित, यत्पूर्वमेव श्रुतकृतोपकारस्पेदानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्त्तते तदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितमिति, यत्पुनः पूर्व तदपरिकर्मितमतेः क्षयोपशमपटीयस्त्वादौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायतेऽन्यद्वा श्रोत्रादिप्रभवं तदश्रुतनिश्रितमिति, आह च-"पुवं सुयपरिकम्मियमतिस्स जं संपर्य सुयाईयं । [२] सुयनिस्सियमियरं ५ पुण अणिस्सियं मइचउक(तं)॥१॥"ति 'सुए'त्यादि, "अत्थोग्गहे'त्ति अर्यते-अधिगम्यतेऽर्थ्यते वा अन्विष्यत इत्यर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहण-प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रह इति, निर्विकल्पकं ज्ञानं दर्श-12 नमिति यदुच्यते इत्यर्थः, स च नैश्चयिको यः स सामयिको यस्तु व्यावहारिकः शब्दोऽयमित्याधुलेखवान् स आन्त| मौहर्तिक इति, अयं चेन्द्रियमनःसम्बन्धात् पोढा इति, तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जन-तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादित्वपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन-उपकरणेन्द्रियेण शब्दादित्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो व्यञ्जनावग्रह इति, अथवा व्यञ्जनम्-इन्द्रियशब्दादिद्रव्यसम्बन्धः इति, आह च-"जिजइ जेणऽत्थो घडोव्व दीवेण वंजणं तो तं । उवगरणिदियसद्दादिपरिणयद्दब्यसंबंधो॥ १ ॥"त्ति, अयं च मनोनयनवर्जेन्द्रियाणां भवतीति | चतुर्दा, नयनमनसोरप्राप्तार्थपरिच्छेदकत्वात्, इतरेषां पुनरन्यथेति, ननु व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमेव न भवति, इन्द्रिय| शब्दादिद्रव्यसम्बन्धकाले तदनुभवाभावात् , बधिरादीनामिवेति, नैवं, व्यञ्जनावग्रहान्ते तद्वस्तुग्रहणादेवोपलब्धिसद्भा पूर्व भुतपरिकमितमतेयत, साम्प्रतं धुतातीतम् । समिभित मितरत् पुनरनिश्रितं मतिचतुष्क तत् ॥१॥ २व्यज्यते येनावों घट इन दीपेग व्यसनं | (ततत्तत् । उपकरणेन्द्रियशन्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धः ॥1॥ प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञानम् ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [७१] दीप अनुक्रम [७१] श्रीस्थाना वात् , इह यस्य ज्ञेयवस्तुग्रहणस्थान्ते तत एव ज्ञेयवस्तूपादानात् उपलब्धिर्भवति तत् ज्ञानं दृष्टं, यथाऽर्थावग्रहपर्यन्ते ॥२ स्थानसूत्र- तत एवार्थावग्रहगाह्यवस्तुग्रहणादीहासद्भावात् अर्थावग्रहज्ञानमिति, आह च-"अन्नाणं सो बहिराइणं व तकालम काध्ययने वृत्तिः णुवलंभाओ । [आचार्यः] न तदन्ते तत्तोच्चिय उवलंभाओ तयं नाणं ॥१॥"ति, किश्च-व्यञ्जनावग्रहकालेऽपि ज्ञा- उद्देशः१ नमस्त्येव, सूक्ष्माव्यक्तत्वात्तु नोपलभ्यते, सुप्ताव्यक्तविज्ञानवदिति, ईहादयोऽपि श्रुतनिश्रिता एव, न तूक्ताः, द्विस्था प्रत्यक्षपरो॥५१॥ नकानुरोधादिति । 'अस्सुयनिस्सिएऽवि एमेव'त्ति अर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहभेदेनाश्रुतनिश्रितमपि द्विधैवेति, इदं च श्री- क्षज्ञाने त्रादिप्रभवमेव, यत्तु औत्पत्तिक्याद्यश्रुतनिश्रितं तनावग्रहः सम्भवति, यदाह-"किह पडिकुकुडहीणो जुझे किंवेण उम्गहो ईहा । किं सुसिलिहमवाओ दप्पणसंकेत बिंबंति ॥१॥" न तु व्यञ्जनावग्रहः, तस्येन्द्रियाश्रितत्वात् , बुद्धीनां तु मानसत्वात् , ततो बुद्धिभ्योऽन्यत्र व्यञ्जनावग्रहो मन्तव्य इति । 'सुपणाणे इत्यादि, प्रवचनपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि तेषु प्रविष्टं-तदभ्यन्तरं तत्स्वरूपमित्यर्थः, तच्च गणधरकृतं 'उप्पन्ने इ वेत्यादिमातृकापदत्रयप्रभवं वा ध्रुवश्रुतं वा आचारादि, यत्पुनः स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्तव्याकरणनिबद्धमध्रुवश्रुतं वोत्तराध्ययनादि तदङ्गवाह्यमिति, आह च-"गणहर १ घेराइकतं २ आएसा मुकवागरणओ वा २४ धुव १ चलविसेसणाओ २ अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥शा"T ति, 'अंगवाही'त्यादि अवश्यं कर्तव्यमित्यावश्यक-सामायिकादि षड्विधम्, आह च-"समणेण सावएण य अज्ञानं स बधिरादीनामिव तत्कालमनुपसम्भात । न तदन्ते तत एकोपलम्भात्तकत् ज्ञानम् ॥1॥रकथं प्रतिकुठहीनो युपति विम्बेनावग्रह अंडा कि ॥५१॥ KIमुसिष्टमवायो दर्पणसंकान्त विम्बमिति ॥१॥ ३ गणधरस्थविरादिकृतं आदेशात् मुजव्याकरणतो वा । धुवचलविशेषणादा अमानस्योः नानात्वम् ॥१॥ YIv श्रमणेन श्रावकेण चावश्यं कर्तव्यं भवति यस्मात् । अन्तेऽडो निशध तस्मादावश्यर्फ नाम ॥१॥ प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञानम् ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत R सूत्राक [७१] दीप अनुक्रम [७१] अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा । अंतो अहो णिसस्स य तम्हा आवस्सयं नामं ॥१॥५॥ आवश्यका व्य-४ तिरिक्तं ततो यदन्यदिति । 'आवस्सगवतिरित्ते'इत्यादि, यदिह दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्का लेन निवृत्तं कालिकम्-उत्तराध्ययनादि, यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्व कालिकादित्युत्कालिकं-दशकालि४ कादीति ।। उक्तं ज्ञानं, चारित्रं प्रस्तावयति दुविहे धम्मे पं० सं०-सुवधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेब, सुयधम्मे दुविहे पं०.०-सुत्तसुयधम्मे चेष अवसुयधम्मे घेव, परित्तधम्मो दुबिहे पं० सं०-अगारचरित्तधम्मे चेव अणगारचरित्तधम्मे घेव, दुविहे संजमे पं० सं०-सरागसंजमे चेव - वीतरागसंजमे बेव, सरागसंजमे दुविहे पं० सं०-मुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव बादरसंपरायसरागसंजमे घेव, मुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पन्नते, तं०-पढमसमयसुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव अपढमसमयमु०, अथवा चरमसमयसु० अचरिमसमयसु०, अहवा सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० त०-संकिलेसमाणए व विसुज्झमाणए चेव, पादरसंपरायसरागसंजमे दुबिहे पं० सं०-पढमसमयबादर अपढमसमयबादरसं०, अहवा चरिमसमय अचरिमसमय, अहवा वायरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० त०-पढिवाति चेव अपडिवाति चेव, बीयरागसंजमे दुविहे पं० सं०उवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव खीणकसायवीयरागसंजमे चेब, उवसंतकसायवीयरागसंजमे दुविहे पं० २०-पढमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे चेव अपढमसमयउव०, अहवा चरिमसमय अचरिमसमय, खीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे पं० सं०-छउमस्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे पेव, छउमत्थखीणकसायवी -6-% % % SAREauratoninternational धर्मानाम् द्विविधा: भेदाः, संयमानाम् द्विविधा: भेदा:, ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [७२] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ५२ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... -------- Education Internation स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - यरागसंजमे दुबिहे पं० [सं० सयंबुद्धउमत्थखीणकसाय बुद्धयोहियछडमस्थ०, सर्वबुद्धछउमत्थ० दुबिहे पं० तं० — पढमसमय० अपढमसमय०, अह्वा चरिमसमय० अवरिमसमय०, बुद्धबोहियउमस्थखीण० दुविहे पं० [सं० पढमसमय अपढमसमय०, अह्वा चरिमसमय० अचरिमसमय, केवलिखीणकसायवीतरागसंजमे दुविद्दे पं० तं सजोगिकेवलिखीणकसाय० अजोगिकेवलिखीणक सायवीयराग०, सजोगिकेवलिखीणकसायसंजमे दुबिहे पं० तं० पढ मसमय० अपढमसमय०, अह्वा चरिमसमय० अचरिमसमय०, अजोगिकेवलिखीणकसाय० संजमे दुविद्दे पं० तं पढमसमय अपढमसमय० अहवा चरिमसमय० अथरिमसमय० ॥ ( सू० ७२ ) दुर्ग प्रपततो जीवानं रुणद्धि सुगतौ च तान् धारयतीति धर्मः श्रुतं द्वादशाङ्गं तदेव धर्मः श्रुतधर्मः चर्यते - आसेव्यते यत् तेन वा चर्यते - गम्यते मोक्ष इति चरित्रं-मूलोत्तरगुण कलापस्तदेव धर्म्मश्चारित्रधर्म्म इति । 'सुयधम्मे' इत्यादि, सूत्रयन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम्, सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च मुष्टक्तत्वाद्वा सूक्तं, सुप्तमिव वा सुप्तम्, अव्याख्यानेनाप्रबुद्धावस्थत्वादिति भाष्यवचनं त्वेवं" सिचेति खरइ जमत्थं तुम्हा सुत्तं निरुत्तविहिणा वा । सूएइ सवति सुब्बइ सिब्बइ सरए व जेणऽत्थं ॥ १ ॥ अविवरियं सुत्तंपि व सुट्टियवावित्तओ सुबुत्तं "त्ति | अर्थतेऽधिगम्यतेऽर्ध्यते वा या च्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थो व्याख्यानमिति, आह च - "ओ सुत्ताभिप्याओ सो अत्थो अज्जए व जम्हत्ति" "चरितेत्यादि, १ पततो रक्षति सुगती पते इति २ सिथति क्षरति यस्मादर्थं तस्मात्पूर्व निरुकविधिना वा सूचयति जयति भूयते सभ्यते सर्वते नानार्थः ॥ १ ॥ अवितं सुप्तमिव सुस्थितत्र्यापित्वात् सूचवि. ३ यः सूत्राभिप्रायः खोऽथोऽयते च यस्मादिति । धर्मानाम् द्विविधाः भेदाः, संयमानाम् द्विविधाः भेदाः, For Parts Only मूलं [७२] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 107~ २ स्थान काध्ययने १ धर्मसंयमी ।। ५२ ।। waryru Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [७२] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [२], उद्देशक [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton Intention .......... - अगारं गृहं तद्योगादगाराः- गृहिणस्तेषां यश्चरित्रधर्म्मः सम्यक्त्वमूलाणुव्रतादिपाउनरूपः स तथा एवमितरोऽपि, नवरमगारं नास्ति येषां तेऽनगारा :- साधव इति । चरित्रधर्मश्च संयमोऽतस्तमेवाह- 'दुबिहे'त्यादि, सह रागेण-अभिष्वङ्गेण मायादिरूपेण यः स सरागः स चासौ संयमश्च सरागस्य वा संयम इति वाक्यम्, वीतो विगतो रागो यस्मात् स चासौ संयमश्च वीतरागस्य वा संयम इति वाक्यमिति । 'सरागेत्यादि, सूक्ष्मः - असङ्ख्यातकिट्टिकावेदनतः सम्परायः - कषायः सम्परैति - संसरति संसारं जन्तुरनेनेति व्युत्पादनाद्, आह च- 'कोहाइ संपराओ तेण जुओ संपरीति संसार"ति, स च लोभकषायरूपः उपशमकस्य क्षपकस्य वा यस्य स सूक्ष्म सम्परायः साधुस्तस्य सरागसंयमः, वि शेषणसमासो वा भणनीय इति, बादराः-स्थूराः सम्परायाः कषाया यस्य साधोः यस्मिन् वा संयमे स तथा सूक्ष्मसम्पराय प्राचीनगुणस्थानकेषु, शेषं प्राग्वदिति । 'मुहुमे' त्यादिसूत्रद्वये प्रथमाप्रथमसमयादिविभागः केवलज्ञानवदिति । 'अहवे'त्यादि, सकिश्यमानः संयमः उपशमश्रेण्याः प्रतिपततः, विशुद्धयमानस्तामुपशमश्रेणीं वा समारोहत इति । 'बादरे'त्यादिसूत्रद्वयं, बादरसम्परायसरागसंयमस्य प्रथमा प्रथमसमयता संयमप्रतिपत्तिकालापेक्षया चरमाचरमसमयता तु यदनन्तरं सूक्ष्मसम्परायता असंयतत्वं वा भविष्यति तदपेक्षयेति, 'अहवेत्यादि, प्रतिपाती उपशमकस्थान्यस्य वा | अप्रतिपाती क्षपकस्येति । सरागसंयम उक्तोऽतो वीतरागसंयममाह - 'बीयरागे' त्यादि, उपशान्ताः--प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कपाया यस्य यस्मिन् वा स तथा साधुः संयमो वेति- एकादशगुणस्थानवर्त्तीति, क्षीणकषायो द्वादशगुणस्थान१पष्टपमपेक्ष्य २ कोधायाः संपरायास्तैर्युतः संपरैति संसारम् । धर्मानाम् द्विविधाः भेदाः, संयमानाम् द्विविधाः भेदाः, For Pernal Use Only मूलं [७२] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 108~ nayoru Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [७२]] ॥५३॥ दीप श्रीस्थाना-18वतीति, 'उवसंते'त्यादि सूत्रद्वयं प्रागिव । 'खीणेत्यादि, छादयत्यात्मस्वरूपं यत्तच्छद्म-ज्ञानावरणादिघातिकर्म तत्र २ स्थान: तिष्ठतीति छद्मस्था-अकेवली, शेषं तथैव, केवलम्-उक्तस्वरूपं ज्ञानं च दर्शनं चास्यास्तीति केवलीति । "छतमत्थे- काध्ययने वृत्तिः त्यादि, स्वयम्बुद्धादिस्वरूपं प्रागिवेति, 'सयंवुद्धे'त्यादि नव सूत्राणि गतार्थान्येवेति । उक्तः संयमः, सच जीवाजीव- उद्देशः१ विषय इति पृथिव्यादिजीवस्वरूपमाह-'दुबिहा पुढवी'त्यादिरष्टाविंशतिः सूत्राणि ॥ पृथव्यादीदुचिहा पुढविकाझ्या पं० सं०-सुदुमा चेव बायरा चेव १, एवं जाव दुविहा वणस्सइकाइया पं० २०-मुहुमा चेव नां परिणाबायरा चेव ५, दुविहा पुढविकाइया पं० तं-पञ्जतगा चेव अपज्जत्तगा चेष ९, एवं जाव वणस्सइकाइया १०, IPL मेतरौ दुबिहा पुढविकाइया पं० २०-परिणया चेव अपरिणया चेव ११, एवं जाव वणस्सइकाइया १५, दुविहा दवा पं० तं.-परिणता चेव अपरिणता चेव १६, दुविहा पुढविकाइया पं० २०-गतिसमावनगा व अगइसमावनगा व १७, एवं जाव वणस्सइकाइया २१, दुविहा दन्वा पं० २०-तिसमावन्नगा चेव अगतिसमावन्नगा चेव २२, दुविहा पुढविकाइया पं० सं०-अणंतरोगाढा घेव परंपरोगाढा चेव २३, जाव दवा०२८ (सू० ७३) तत्र पृथिव्येव कायो येषां ते पृथिवीकायिनः समासान्तविधौ एव स्वार्थिककप्रत्ययात् पृथिवीकायिकाः, पृथिव्येव वा कायः-शरीरं सोऽस्ति येषां ते पृथिवीकायिकास्ते सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माश्चैव ये सर्वलोकापन्नाः, बादरनामकर्मोदयश्रावर्तिनो चादरा ये पृथिवीनगादिष्वेवेति, नैषामापेक्षिकं सूक्ष्मवादरत्वमिति, 'एव'मिति पृथिवीसूत्रवदप्तेजोवायूनां सू-| त्राणि वाच्यानि यावद्वनस्पतिसूत्रम्, अत एवाह-जावेत्यादि, 'दुविहे'त्यादि पञ्चसूची, तत्र पर्याप्तनामकर्मोदयव 464 अनुक्रम [७२]] 129 ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [७३] तिनः पर्याप्ताः, ये हि चतस्रः स्वपर्याप्तीः पूरयन्तीति, अपर्याप्तनामकमोदयादपर्याप्तका ये स्वपर्याप्तीनं पूरयन्तीति, इह च पर्याप्तिर्नाम शक्तिः सामर्थ्यविशेष इतियावत्, सा च पुद्गलद्रव्योपचयादुपद्यते, पडूभेदा चेयं, तद्यथा-आलाहार १ सरीरिं २ दिय ३ पज्जत्ती आणपाण ४ भास ५ मणे ६ । चत्तारि पंच छप्पिय एगिंदियविगलसन्नीणं ॥१॥"ति, तत्र एकेन्द्रियाणां चतस्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च संजिनां षट्, तत्र आहारपर्याप्तिर्नाम खलरसपरिणमनशक्तिः १, शरीरपर्याप्तिः सप्तधातुतया रसस्य परिणमनशक्तिः २, इन्द्रियपर्याप्तिः पञ्चानामिन्द्रियाणां योग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिवर्तितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिः ३, आनप्राणपर्याप्तिः उच्छासनिश्वासयोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा तथा परिणमय्याऽऽनप्राणतया निसर्जनशक्ति, ४ भाषापर्याप्तिर्वचोयोग्यान पुद्गलान् गृहीत्वा भाषाखेन परिणमय्य वाग्योगतया | निसर्जनशक्तिः ५, मनःपर्याप्तिर्मनोयोग्यान पुद्गलान् गृहीत्वा मनस्तया परिणमय्य मनोयोगतया निसर्जनशक्तिरिति ६, एताः पर्याप्तयः पर्याप्तनामकर्मोदयेन निर्वय॑न्ते, तद् येषामस्ति ते पर्याप्तकाः, अपर्याप्तनामकर्मोदयेनानिवृत्ताः येषा-15 मेताः सन्तीति तेऽपर्याप्तका इति, एताश्च युगपदारभ्यन्तेऽन्तर्मुहर्तेन च निर्वय॑न्ते, तत्र आहारपर्याप्तेर्निवृत्तिकालः | समय एव, कथम् ?, उच्यते, यस्मात् प्रज्ञापनायामुक्तं 'आहारपज्जत्तीए अपज्जत्तए णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए!, गोयमा! नो आहारए अणाहारए"त्ति, स च विद्महे आहारपर्याच्या अपर्याप्तको लभ्यते, यदि पुनरुपपातक्षेत्रप्राप्तोऽप्याहारपर्याप्याऽपर्याप्तको भवेत्तदैवं व्याकरणं भवेद्-गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए'त्ति, यथा १ आहारपर्यायाऽपर्याप्तो भदन्त ! जीवः किमाहारकोनाहारकः ? गौतम ! नो आहारकोऽनाहारकः । २ गीतम ! स्यादाहारकः स्यादनाहारफः, ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [ ७३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ५४ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton Internation - .......... त्रि शरीरादिपर्याप्तिषु 'सिय आहारए सिय अणाहारए'ति शेषाः पुनरसङ्ख्यातसमया अन्तर्मुहूर्त्तेन निर्वर्त्यन्त इति, अपर्याप्तकास्तु उच्छासपर्याया अपर्याप्ता एव म्रियन्ते, न तु शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां यस्मादागामिभवायुष्कं बा यन्ते तच्च शरीरेन्द्रियादिपर्याप्त्या पर्याप्तैरेव वध्यत इति । 'एवमिति पूर्ववदेवेति । 'दुविहा पुढची त्यादिषट्सूत्री, | परिणताः - स्वकाय पर काय शस्त्रादिना परिणामान्तरमापादिताः, अचित्तीभूता इत्यर्थः, तत्र द्रव्यतः क्षत्रीदिना मिश्रेण द्रव्येण कालतः पौरुष्यादिना [मिश्रेण] कालेन भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शान्यथात्वेन परिणताः क्षेत्रतस्तु 'जोयेणसयं तु गंता अणहारेण तु भंडसंकंती | वायागणिधूमेण य विद्धत्थं होइ लोणाइ ॥ १ ॥ हरियाल मणोसिल पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया । आइनमणाइन्ना तेऽवि हु एमेव णायच्या ॥ २ ॥ आरुहणे ओरुहणे णिसियण गोणाइणं च गाउम्हा । भूमाहारच्छेदे उबक्कमेणेव परिणामो ॥ ३ ॥” 'अणहारेणं' ति स्वदेशजाहाराभावेनेति, "भंडसंकंती' ति भाजनाद् भाजनान्तरसङ्क्रान्त्या, खर्जूरादयोऽनाचरिताः अभयादयस्तु आचरिता इति, परिणामान्तरेऽपि पृथिवीकायिका एव ते, केवलमचेतना इति कथमन्यथाऽचेतन पृथिवी कायपिण्डप्रयोजनाभिधानमिदं स्यात्, यथा- 'घट्टगडगलगलेवो एमादि पयोयणं बहुहा' इति । 'एव' मित्यादि प्रागिव, तदेवं पञ्चैतानि सूत्राणि । द्रवन्ति गच्छन्ति विचित्रपर्यायानिति द्रव्याणिजीवपुद्गलरूपाणि तानि च विवक्षितपरिणामत्यागेन परिणामान्तरापन्नानि परिणतानि विवक्षितपरिणामवन्त्येव, अप १ क्षेत्रादिना प्र. २] योजनशतं तु गत्वाऽनाहारेण भाडाला । वृन्ताकधूमेन व विध्वस्तं भवति लवणादि ॥ १ ॥ हरितालमनःशिले पिप्पली च खजूरः मुद्रिकाऽभया । आचोर्णा अनावस्तेऽपि एवमेव ज्ञातव्याः ॥ २॥ आरोहेऽवरोहे निषीदनं गवादीनां च गात्रोमा भौमाहारव्यवच्छेदे उपक्रमेणैव परिणामः ॥३॥ मूलं [७३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Palsta Use Only ~ 111 ~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः १ पृथव्यादी नां परिणामेतरी ॥ ५४ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [७३] |रिणतानीति द्रव्यसूत्र षष्ठम् । 'दुविहे त्यादि षट्सूत्री, गतिर्गमनं तां समापन्नाः प्राप्तास्तद्वन्तो गतिसमापनाः, ये हि पृथिवीकायिकाद्यायुष्कोदयात् पृथिवीकायिकादिव्यपदेशवन्तो विग्रहगत्या उत्पत्तिस्थानं प्रजन्ति, अगतिसमापन्नास्तु स्थितिमन्तः, द्रव्यसूत्रे गतिर्गमनमात्रमेव, शेषं तथैवेति ॥ 'दुविहा पुढवीत्यादि षट्सूत्री, अनन्तरं-सम्प्रत्येव समये क्वचिदाकाशदेशे अवगादा:-आश्रितास्त एवानन्तरावगाढकाः, येषां तु यादयः समया अवगाढानां ते परम्परावगाढकाः, अथवा विवक्षितं क्षेत्रं द्रव्यं वाऽपेक्ष्यानन्तरम्-अव्यवधानेनावगाढा अनन्तरावगाढा, इतरे तु परम्परावगाढा इति ॥ अनन्तरं द्रव्यस्वरूपमुक्तम् , अधुना द्रव्याधिकारादेव द्रव्यविशेषयोः कालाकाशयोचिसूत्र्या प्ररूपणामाह दुविहे काले पं० सं०-ओसप्पिणीकाले चेष उस्सप्पिणीकाले चेष, दुविहे आगासे पं० त०-लोगागासे व अलोगागासे चेव, (सू०७४) तत्र कल्यते-सजायायतेऽसावनेन वा कलनं वा कलासमूहो वेति काल:-वर्तनापरापरत्वादिलक्षणः स चावसप्पिण्युत्सप्पिणीरूपतया द्विविधो द्विस्थानकानुरोधादुक्तः अन्यथाऽवस्थितलक्षणो महाविदेहभोगभूमिसम्भवी तृतीयोऽप्यस्तीति ॥ 'आगासे'त्ति सर्वेद्रव्यस्वभावानाकाशयति-आदीपयति तेषां स्वभावलाभेऽवस्थानदानादित्याकाशम्, आ मर्यादा-1 भिविधिवाची, तत्र मर्यादायामाकाशे भवन्तोऽपि भावाः स्वात्मन्येवाऽऽसते नाकाशतां यान्तीत्येवं तेषामात्मसादकरणाद्, अभिविधौ तु सर्वभावव्यापनादाकाशमिति, तत्र लोको यत्राकाशदेशे धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां वृत्तिरस्ति स एवाकाशं ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [७४] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ।। ५५ ।। "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... -------- - स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Internationa लोकाकाशमिति, विपरीतमलोकाकाशमिति । अनन्तरं लोकालोकभेदेनाकाशद्वैविध्यमुक्तं, लोकश्च शरीरिशरीराणां सर्वत आश्रयस्वरूप इति नारकादिशरीरिदण्डकेन शरीरप्ररूपणायाह रयाणं दो सरीरगा पं० तं - अभंतर चेव बाहिरंगे चेव, अन्यंतरए कम्मए बाहिरए वेडव्विए एवं देवाणं भाणियव्वं, पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पं० सं० अभंतरगे चेव बाहिरगे थेव अन्तरगे कम्मर बाहिर ओरालियगे, जाव वणस्सइकाइयाणं, वेइंदियाणं दो सरीरा पं० वं० अभंतरए चैव बाहिरए चैव, अन्नंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणितबजे बाहिरए ओरालिए, जाव चउरिंदियाणं, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पं० [सं० अब्भंतरगे चैव वाहिरगे चेब, अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणियण्हारुधिराद्धे बाहिरए ओरालिए, मणुस्साणवि एवंचैव । विग्गद्गइसमावन्नगाणं नेरइयाणं दो सरीरगा पं० तं० तेयए चैव कम्मए चेव, निरन्तरं जाव वैमाणियाणं, नेरइयाणं दोहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं० – रागेण चैव दोसेण चैव, जाव वेमाणियाणं, नेरइयाणं दुट्ठाणनिव्वतिए सरीरंगे पं० तं०—-रागनिव्वत्तिए चैव, दोसनिव्वत्तिए चैव, जाव वैमाणियाणं, दो काया पं० तं०--तसकाए चैव थाबरकाए चेव, तसकाए दुबिहे पं० तं भवसिद्धिए चैव अभवसिद्धिए चैत्र, एवं यावर काय नि (सू०७५ ) 'रइयाण' मित्यादि, प्रायः कण्ठ्यं, नवरं शीर्यते-अनुक्षणं चयापचयाभ्यां विनश्यतीति शरीरं तदेव शटनादिधर्मतयाऽनुकम्पितत्वात् शरीरकं ते च द्वे प्रज्ञप्ते जिनैः, अभ्यन्तः- मध्ये भवमाभ्यन्तरं, आभ्यन्तरत्वं च तस्य जीवप्रदेशैः मूलं [७४] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~113~ २ स्थान. काध्ययने उद्देशः १ कालाका शशरीराणि ।। ५५ ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [७५] सह क्षीरनीरन्यायेन लोलीभवनात् भवान्तरगतावपि च जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तम्प्रविष्टपुरुषवदनतिशयिनामप्रत्यक्षत्वाञ्चेति, तथा बहिर्भवं बाह्यं, बाह्यता चास्य जीवप्रदेशैः कस्यापि केषुचिदवयवेष्वव्याप्तेर्भवान्तराननुयायि त्वान्निरतिशयानामपि प्रायः प्रत्यक्षत्वाञ्चेति, तत्राभ्यन्तरं 'कम्मए'त्ति कार्मणशरीरनामकर्मोदयनिर्वय॑मशेषकर्मणां प्ररोबहभूमिराधारभूतं, तथा संसार्यात्मनां गत्यन्तरसङ्कमणे साधकतमं तत् कार्मणवर्गणास्वरूपं, कर्मैव कर्मकमिति, कर्मकन हणे च तैजसमपि गृहीतं द्रष्टव्यं, तयोरन्यभिचारित्वेनैकत्वस्य विवक्षितत्वादिति, 'एवं देवाणं भाणियवं'ति अयमों -यथा नैरयिकाणां शरीरद्वयं भणितमेवं देवानाम्-असुरादीनां वैमानिकान्तानां भणितव्यम्, कार्मणवैक्रिययोरेव तेषां भावात् , चतुर्विंशतिदण्डकस्य च विवक्षितत्वादिति । 'पुढवी त्यादि, पृथिव्यादीनां तु बाह्यमौदारिकमौदारिकशरीरनामकर्मोदयादुदारपुद्गलनिवृत्तमौदारिकं, केवलमेकेन्द्रियाणामस्थ्यादिविरहितं, वायूनां वैक्रियं यत्तन्न विवक्षितं, प्रायिकत्वात् तस्येति ॥ 'बेहदियाण'मित्यादि, अस्थिमांसशोणितैर्बद्ध-नद्धं यत्तथा, द्वीन्द्रियादीनामौदारिकत्येऽपि शरीरस्यायं वि-18 शेषः । 'पंचेंदिए'त्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणां पुनरयं विशेषो यदस्थिमांसशोणितस्त्रायुशिरापद्धमिति, अस्थ्यादयस्तु प्रतीता इति ।। प्रकारान्तरेण चतुर्विशतिदण्डकेन शरीरप्ररूपणामेवाह-'विग्गहे त्यादि, विग्रहगतिः-चक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्तां समापन्ना विग्रहगतिसमापन्नास्तेषां द्वे शरीरे, इह तैजसकामेणयोर्भेदेन विवक्षेति, एवं दण्डकः ॥ शरीराधिकारात् शरीरोपत्तिं दण्डकेन निरूपयन्नाह-निरइयाण'मित्यादि, कण्ठ्यं, किन्तु या रागद्वेषजनितकर्मणा शरीरोसत्तिः सा रागद्वेषाभ्यामेवेति ब्यपदिश्यते, कार्ये कारणोपचारादिति, 44520456% 15-255155 दीप अनुक्रम [७५] For P LOW Taurasurare.org ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [64] दीप अनुक्रम [७५] श्रीस्थाना जसूत्र वृत्तिः ॥ ५६ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] 'जाव वैमाणियाणं'ति दण्डकः सूचितः । शरीराधिकाराच्छरीरनिर्वर्त्तनसूत्रं, तदप्येवं, नवरमुत्यत्तिः- आरम्भमात्रं निर्व| र्त्तना तु निष्ठानयनमिति । शरीराधिकाराच्छरीरवतां राशिद्वयेन प्ररूपणामाह - 'दो काए'त्यादि, त्रसनामकर्मोदयात् त्रस्यन्तीति त्रसाः तेषां कायो - राशिस्वसकायः, स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरास्तेषां कायः स्थावरकाय इति । त्रसस्थावरकाययोरेव द्वैविध्यप्ररूपणार्थे 'तसकायेत्यादि सूत्रद्वयं, सुगमं चेति । पूर्वसूत्रे भव्याः शरीरिण उक्ता इतस्तद्विशेषाणामेव यद्यथा कर्त्तुमुचितं तत् तथा द्विस्थानकानुपातेनाह Education International मूलं [ ७५ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंधाण वा णिमांधीण वा पञ्चावित्तए पाईणं चेव उदीणं चेव, एवं मुंडावित्तए सिक्खावित्त उवावित्तए संभुंजित्तर संवसित्तए सज्झायमुद्दिसित सम्झायं समुद्दिसित्तर सञ्झायमणुजाणित्तए आलोइत्तए पडिकमित्त निदित्तए गरद्दित्तए विउट्टित्तए विसोहित्तए अकरणयाए अन्भुद्वित्तर आहारिहं पायच्छितं तवोकम्मं पडवत्तिए, दो दिसातो अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा अपच्छिममारणंतियसंलेहणाजूसणाजूसियाणं भत्तपाणपडियाक्तिाणं पाभोवगताणं कालं अणवकखमाणाणं विहरित्तए, तंजहा— पाईणं चैव उदीणं चैव ॥ (सू० ७६) विद्वाणस्स पढमो उद्देसओ समत्ती २-१ ॥ For Pale Only 'दो दिसाओ' इत्यादि, द्वे दिशी-काठे अभिगृह्य-अङ्गीकृत्य तदभिमुखीभूयेत्यर्थः कल्पते युज्यते निर्गता ग्रन्थाद्- ५ ॥ ५६ ॥ धनादेरिति निर्मन्थाः साधवस्तेषां निर्ग्रन्थ्यः साधव्यस्तासां प्रव्राजयितुं रजोहरणादिदानेन, 'प्राचीनां' प्राचीं पूर्वामि ~ 115~ २ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ प्रवज्यादि बुदिशे waryra Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [ ७६ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] त्यर्थः, 'उदीचीनाम्' उदीचीमुत्तरामित्यर्थः उक्तं च- "पुण्यामुहो उ उत्तरमुहो व देजाऽहवा पडिच्छेजा जाए जिणादओ वा हवेज्ज जिणचेइयाई वा ॥ १ ॥” इति ॥ 'एव' मिति यथा प्रत्राजनसूत्रं दिगद्वयाभिलापेनाधीतमेवं मुण्डनादिसूत्राण्यपि षोडशाध्येतव्यानीति, तत्र मुण्डयितुं शिरोलोचनेन १ शिक्षयितुं ग्रहणशिक्षापेक्षया सूत्रार्थी ग्राहयितुं आसेवनाशिक्षापेक्षया तु प्रत्युपेक्षणादि शिक्षयितुमिति २, उत्थापयितुं महात्रतेषु व्यवस्थापयितुं ३ संभोजयितुं भोजनमण्डल्यां निवेशयितुं ४ संवासयितुं संस्तारकमण्डल्यां निवेशयितुं ५, सुष्ठु आ-मर्यादया अधीयत इति स्वाध्यायः-अङ्गादिस्तमुद्देष्टुं योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधीष्वेदमित्येवमुपदेष्टुमिति ६, समुद्देष्टुं योगसामाचार्येव स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति वक्तुमिति ७, अनुज्ञातुं तथैव सम्यगेतद् धारय अन्येषां च प्रवेदयेत्येवमभिधातुमिति ८, आलोचयितुं गुरवेऽपराधान्निवेदयितुमिति ९, प्रतिक्रमितुं प्रतिक्रमणं कर्त्तुमिति १०, निन्दितुमतिचारान् स्वसमक्षं जुगुप्सितुं, आह च"संचरित्तपच्छयावो निंद"त्ति ११, गर्हितुं गुरुसमक्षं तानेव जुगुप्सितुं, आह च - "रहाऽवि तहाजातीयमेव नवरं परप्पयासणए ति १२, 'विउट्टित्तए'त्ति व्यतिवर्त्तयितुं विनोटयितुं विकुयितुं वा अतिचारानुबन्धं विच्छेदयितुमित्यर्थः । १३, विशोधयितुमति चारपङ्क।पेक्षयाऽऽत्मानं विमलीकर्त्तुमिति १४, अकरणतया पुनर्न करिष्यामीत्येवमभ्युत्थातुम्अभ्युपगन्तुमिति १५, 'यथार्हम्' अतिचाराद्यपेक्षया यथोचितं पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्रायश्चित्तं, Educator International १ पूर्वमुखो बोतरमुखो वा दयादथवा प्रतीच्छेत् यस्यां जिनन्दवो वा भवेयुर्जिनचैखानि वा ॥ १ ॥ २ खरितपचातापो निन्दा ३ गऽवि तथाजातीयैव नवरं परस्मै प्रकाशनम्, मूलं [ ७६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Park Use Only ~ 116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्राक श्रीस्थाना-1& उक्तं च-पाव छिदइ जम्हा पायच्छित्तं तु भन्नए तेण । पाएण बावि चित्तं विसोहए तेण पच्चित्तं ॥१॥" ति, तपः- सूत्र- कर्म-निर्विकृतिकादिकं प्रतिपत्तुम्-अभ्युपगन्तुमिति १६, सप्तदर्श सूत्रं साक्षादेवाह-दो दिसे त्यादि, पश्चिमैवामङ्गल- वृत्तिः परिहारार्थमपश्चिमा सा चासी मरणमेव योऽन्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी च सा चासौ संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना-तपोविशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना तस्याः 'जूस'त्ति जोषणा-सेवा तया तलक्षणधर्मेणे-1 त्यर्थः 'जूसियाण'न्ति सेवितानां, तद्युक्तानामित्यर्थः, तया वा 'झोषितानां क्षपितानां क्षपितदेहानामित्यर्थः, तथा भक्तपाने प्रत्याख्याते यैस्ते तथा तेषां, पादपवदुपगतानाम्-अचेष्टतया स्थितानामनशनविशेष प्रतिपन्नानामित्यर्थः,8 'कालं' मरणकालमनवकालतां-तत्रानुत्सुकानां विहर्नु-स्थातुमिति १७ । एवमेतानि दिक्सूत्राण्यादितोऽष्टादश । सर्वत्र यन्न व्याख्यातं, तत्सुगमत्यादिति ॥ द्विस्थानकस्य प्रथमोद्देशको विवरणतः समाप्तः॥ २ स्थानकाध्ययने उद्देशः१ प्रवज्यादिपुदिशे ॥५७॥ दीप अनुक्रम [७६] इहानन्तरोद्देशके जीवाजीवधर्मा द्वित्वविशिष्टा उक्ताः, द्वितीयोद्देशके तु द्वित्वविशिष्टा एव जीवधर्मा उच्यन्ते, इत्य-17 नेन सम्बन्धेन आयातस्यास्योद्देकशस्वेदमादिसूत्रम्जे देवा उड़ोववनगा कप्पोबवनगा विमाणोवपन्नगा चारोववनगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावनगा, तेसिणं देवाणं IN५७॥ १ पापं छिनति यस्मात् पापचिछत्तु भण्यते तस्मात् । प्रायेण बाऽपि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तं ॥१॥ अत्र प्रथमो उद्देशक: समाप्तं, दवितीयो उद्देशक: आरब्ध: ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७] दीप अनुक्रम [७७] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [७७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सता समितं जे पावे कम्मे कज्जति तस्थगतावि एगतिया वेदणं वेदेति अन्नत्थगतावि एगतिया वेअणं वेदेति, जेरइयाणं सता समियं जे पावे कम्मे कनति तत्थगतावि एगतिया वेयणं वेदेति अन्नत्थगतावि एगतिआ वेयणं वेदेति, जाव पंचेंदिथतिरिक्खजोणियाणं मणुस्वाणं सता समितं जे पावे कम्मे कजति इहगतावि एगतिता वेयणं वेयंति अन्नत्थगतावि एगतिया वेणं वेयंति, मणुस्सवजा सेसा एकगमा || ( सू० ७७ ) 'जे देवे'त्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः- प्रथमोद्देशकान्त्यसूत्रे पादपोपगमनमुक्तम्, तस्माच्च देवत्वं केषाञ्चिद्भवतीति देवविशेषभणनेन तत्कर्मबन्धवेदने प्रतिपादयन्नाह 'जे देवें' त्यादि, ये देवाः सुराः वक्ष्यमाणचिशेषणेभ्यो वैमानिका अनशनादेरुत्पन्नाः किंभूताः - 'उद्धत्ति ऊर्द्धलोकस्तत्रोपपन्नकाः- उत्पन्ना ऊपपन्नकास्ते च द्विधा- कल्पोपपन्नकाः- सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नास्तथा विमानोपपन्नकाः - मैत्रेयकानुत्तरलक्षणविमानोत्पन्नाः कल्पातीता इत्यर्थः, तथा परे 'चारोव वनग'त्ति चरन्ति-भ्रमन्ति ज्योतिष्कविमानानि यत्र स चारो-ज्योतिश्चक्रक्षेत्रं समस्तमेव, व्युत्पत्त्यर्थमात्रानपेक्षणेन शब्दप्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात्, तत्रोपपन्नकाश्चारोपपन्नकाः - ज्योतिष्काः, न च पादपोपगमनादेज्योतिष्कत्वं न भवति, परिणामविशेषादिति, तेऽपि च द्विधैव, तथाहि -चारे- ज्योतिश्चक्रक्षेत्रे स्थितिरेव येषां ते चारस्थितिकाः समयक्षेबहिर्वर्त्तिनो घण्टाकृतय इत्यर्थः, तथा गतौ रतिर्येषां ते गतिरतिकाः, समयक्षेत्रवर्त्तिन इत्यर्थः, गतिरतयश्चासततगतयो ऽपि भवन्तीत्यत आह-गतिं गमनं समिति - सन्ततमापन्नकाः - प्राप्ता गतिसमापन्नकाः, अनुपरतगतय इत्यर्थः, तेषां देवानां द्विविधानां पुनर्द्धिविधानां सदा-नित्यं समितं-सन्ततं यत्पापं कर्म-ज्ञानावरणादि, सततबन्धकत्वात् जीवानां, Education International For Parts Only ~ 118~ yor Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना-1 असूत्रवृत्तिः सूत्राक [७७] ॥५८॥ दीप अनुक्रम [७७] क्रियते-वध्यते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं, भवति सम्पद्यत इत्यर्थः, ते देवास्तस्य-कर्मणः अबाधाकालातिकमे सति 'तत्थ- स्थानगयावित्ति अपिरेवकारार्थस्तस्य चैवं प्रयोगः-तत्रैव-देवभव एव कल्पातीतानां क्षेत्रान्तरादिगमनासम्भवादिह तत्रान्य-18काध्ययने त्रशब्दाभ्या भव एव विवक्षितः, न क्षेत्रशयनासनादीति, गताः-वर्तमाना 'एके केचन देवा वेदनाम्-उदयं विपाकं | उद्देशः१ 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, 'अन्नत्थगयावि'त्ति देवभवादन्यत्रैव भवान्तरे गता-उत्पन्ना वेदनामनुभवन्ति, केचित्तूभयत्रा-1 पि, अन्ये विपाकोदयापेक्षया नोभयत्रापीति, एतच विकल्पद्वयं सूत्रे नाश्रित, द्वित्वाधिकारादिति ॥ सूत्रोक्तमेव विक- कर्मवेदनं ल्पद्वयं सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाह-निरइयाण'मित्यादि, प्रायः सुगमम्, नवरं, "तत्थगयावि अन्नत्थगयावि" एवमभिलापेन दण्डको नेयो यावत्पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चोऽत एवाह-जा'त्यादि, मनुष्येषु पुनरभिलापविशेषो दृश्यः, यथा 'इहगतावि एगइया' इति, सूत्रकारो हि मनुष्योऽतस्तत्रेत्येवंभूतं परोक्षानासन्ननिर्देशं विमुच्य मनुष्यसूत्रे इहेत्येवं निर्दिशति स्म, मनुष्यभवस्य स्वीकृतत्वेन प्रत्यक्षासन्नवाचिन इदंशब्दस्य विषयत्वादिति, अत एवाह-'मणुस्सवजा सेसा एक्कगमत्ति शेषाः-व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका एकगमा:-तुल्याभिलापाः, ननु प्रथमसूत्र एव ज्योतिष्कवैमानिकदेवानां विवक्षितार्थस्याभिहितत्वात् किं पुनरिह तगणनेनेति', उच्यते, तत्रानुष्ठानफलदर्शनप्रसङ्गेन भेदतश्चोक्तत्वाद्, इह तु दण्डककमेण सामान्यतश्चोक्तत्वादिति न दोषो, दृश्यते चेह तत्र तत्र विशेषोक्तावपि सामान्योक्तिरितरोक्तौ वितरेति ॥ तत्रगता वेदनां वेदयन्तीत्युक्तमतो नारकादीनां गतिं तद्विपर्यस्तामागतिं च निरूपयन्नाह नेरतिता दुगतिया दुयागतिया पं० सं०-नेरइए २ सु उववजमाणे मणुस्सेहितो वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो ॥५८॥ ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७८] वा उपवजेजा, से चेष णं से नेरदए गेरइयत्तं विपजहमाणे मणुस्सत्ताए वा पंचेंदियतिरिक्खजोणिवत्ताए वा गलेला, एवं असुरकुमारावि, गवरं, से व णं से असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विष्पजहमाणे मणुस्सत्ताए या तिरिक्खजो. णिवत्ताए वा गच्छिज्जा, एवं सम्बदेवा, पुढविकाइया दुगतिया दुयागतिया पं० २०--पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववजमाणे पुढविकाइएहितो वा णोपुढविकाइएहितो वा उववजेजा, से चेव णं से पुढ विकाइए पुढचिकाइयत विषजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा णोपुढविकाइयत्ताए वा गच्छेजा, एवं जाव मणुस्सा ।। (सू०७८) दण्डकः कण्ठ्यो, नघरं नैरयिका-नारका द्वयोः-मनुष्यगतितिर्यग्गतिलक्षणयोर्गत्योरधिकरणभूतयोर्गतिर्येषां ते तथा, द्वाभ्यामेताभ्यामेवावधिभूताभ्यामागति:-आगमनं येषां ते तथा, उदितनारकायु रक एव व्यपदिश्यते, अत उच्यते 'णेरहए णेरइएसुत्ति, नारकेषु मध्ये इत्यर्थः, इह चोदेशक्रमव्यत्ययात् प्रथमवाक्येनागतिरुक्ता, 'से चेव णं से'त्ति यो मानुषत्वादितो नरकं गतः स एवासौ नारको नान्यः, अनेनैकान्तानित्यत्वं निरस्तमिति, 'विप्पजहमाणे'त्ति विप्रजहन्परित्यजन्, इह च भूतभावतया नारकव्यपदेशः, अनेन वाक्येन गतिरुक्का, इत्थं च व्याख्यानं 'तेजस्कायिका ब्यागतयस्तिर्यजमनुष्यापेक्षया एकगतयस्तिर्यगपेक्षयेति वाक्यमुपजीव्येति, 'एवं असुरकुमारावित्ति, नारकवक्तव्या इत्यर्थः, |'नवरंति केवलमयं विशेष:-तिर्यक्षु न पञ्चेन्द्रियेष्वेवोसद्यन्ते पृथिव्यादिष्वपि तदुखत्तेरित्यतः सामान्यत आह-'से चेव णं से इत्यादि जाव तिरिक्खजोणियत्साए वा गच्छेज्जत्ति, 'एवं सव्वदेव'त्ति असुरवत् द्वादशापि दण्डकदेवपदानि वाच्यानि, तेषामप्येकेन्द्रियेषूत्यत्तेरिति । 'णोपुढविकाइएहिंतो'त्ति अनेन पृथ्वीकायिकनिषेधद्वारेणाप्कायिका दीप अनुक्रम [७८ ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक २ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ | नारकाणां गल्यागती भव्यत्वादिच [७८] दीप अनुक्रम [७८] श्रीस्थाना- दयः सर्वे गृहीता द्विस्थानकानुरोधादिति, तेभ्यो वा-नारकवर्जेभ्यः समुत्पद्यते, 'णोपुदविकाइयत्तापंत्ति, देवनारकव- सूत्र-लर्जाप्कायादितया गच्छेदिति, 'एवं जाव मणुस्स'त्ति, यथा पृथिवीकायिका 'दुगतिया' इत्यादिभिरभिलापरुक्ता एवमे- भिरेवाप्कायिकादयो मनुष्यावसानाः पृधिवीकायिकशब्दस्थानेऽप्कायादिव्यपदेश कुर्वद्भिरभिधातव्या इति । व्यन्तरादयस्तु पूर्वमतिविष्टा एवेति । जीवाधिकारादेव भव्यादिविशेषणैः षोडशभिर्दण्डकारूपणायाह दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा भवसिद्धिया चेव अभवसिबिया चेव, जाव वेमाणिया १ । दुविहा नेरच्या पं० ०अणतरोवपन्नगा चेव परंपरोक्वनगा चेक जाव वेमाणिया २। दुबिहा रया पं० २०-गतिसमावन्नगा चेव अगतिसमा. वनगा चेव, जाव वेमाणिया ३ । दुविहा नेरइया पं० २०-पढमसमओवबन्नगा चेव अपढमसमभोववनगा चेव आव वेगाणिया ४ । दुविहा नेरइया पं० २०-आहारगा चेष अणाहारगा चेव, एवं जाव बेमाणिया ५ । दुविहा रथा पं० सं०-उस्सासगा चेव णोउस्सासगाव, जाव वेमाणिया ६। दविहा नेरहया पं० सं०-सइंदिया चेव अणिदिया चेव, जाव वेमाणिवा ७। दुविहा नेरइया पं० १०--पजत्तगा चेव अपजत्तगा चेव, जाव वेमाणिआ था दुविहा नेरइया पं० २० -सन्नि चेव असन्नि चेव, एवं पंचेंदिया सब्वे विगलिंदियवज्ञा, जाव वाणमंतरा (वेमाणिया) ९ । दुविहा नेरइया पं० तं०-भासगा व अभासगा घेव, एवमेगिंदियवमा सब्वे १० । विहा नेरच्या पं० तं-सम्मट्टिीया चेव मिच्छरिहीया घेव, एगिवियवज्जा सव्वे ११ । दुविहा नेरइया पं० सं०-परित्तसंसारिता चेव अर्णतसंसारिया चेच, जाव वेमाणिया १२ । दुविहा नेरइया पं० सं०-संखेजकालसमयद्वितीया चेव असंखेजकालसमयद्वितीया चेक, एवं पंचेंदिया ॥५९॥ ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [७९] दीप अनुक्रम ७९] एगिवियविगलिंदियवजा जाव वाणमंतरा १३ । दुविहा नेरइया पं० २०-सुलभचोधिया घेत्र दुलभवोधिया चेष, आव वेमाणिया १४ । दुविहा नेदया पं० सं०--कण्हपक्खिया चेव मुकपक्खिया घेव, जाच वेमाणिया १५ । दुविहा नेरच्या पं० सं०-चरिमा घेव अचरिमा चेव, जाव वेमाणिया १६ (सू०७९) तत्र भव्यदण्डकः कण्ठ्या, अनन्तरदण्डके 'अणंतरत्ति एकस्मादनन्तरमुत्पना ये तेऽनन्तरोपपन्नकाः, तदन्यथा तु परम्परोपपन्नकाः, विवक्षितदेशापेक्षया वा येऽनन्तरतयोत्पन्नास्ते आद्याः, परम्परया वितरे इति २, गतिदण्डके गतिसमापन्नका-नरकं गच्छन्तः इतरे तु तत्र ये गताः, अथवा गतिसमापन्ना-नारकत्वं प्राप्ता इतरे तु द्रव्यनारकाः, अथवा चलस्थिरत्वापेक्षया ते ज्ञेया इति ३, प्रथमसमयदण्डके 'पढमें त्यादि, प्रथमः समय उपपन्नानां येषां ते प्रथमसमयोपपन्नकाः, तदन्ये अप्रथमसमयोपपन्नका इति ४, आहारकदण्डके आहारकाः सदैव, अनाहारकास्तु विग्रहगतावेक द्वौ वा समयौ, ये नाडीमध्ये मृत्वा तत्रैवोपद्यन्ते, ये त्वन्यथा ते त्रीनिति ५, उच्छासदण्डके उच्छुसन्तीत्युच्च्वासकास्तत्पर्याप्ति (स्था) पर्याप्तकाः, तदन्ये तु नोच्छासकाः ६, इन्द्रियदण्डके सेन्द्रियाः-इन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्ताः, तदपर्याप्तास्तु अनिन्द्रियाः ७, पर्याप्तदण्डके पर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मोदयादितरे वितरोदयादिति ८, संज्ञिदण्डके संज्ञिनो-मन:पर्याप्त्या पर्याप्तकाः तथा अपर्याप्तकास्तु ये (न तथा) ते असंज्ञिन इति, 'एवं पंचिंदिए'त्यादि-अस्यायमर्थः-यथा नारकाः संज्यसंजिभेदेनोक्ताः 'एवं विगले दियवज्जत्ति, विकलानि-अपरिपूर्णानि सङ्ख्ययेन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः, तान् पृथिव्यादीन १ सामान्य जीवापेक्षया, तेन यदि नाडीवहिःस्वचसानां तत्रोत्सादाभायः करणापर्याप्तिकालेऽपर्याप्नानकमाँवयस्याभाव तदापि न क्षतिः, ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [७९] दीप अनुक्रम ७९] श्रीस्थाना- द्वित्रिचतुरिन्द्रियांश्च वर्जयित्वा येऽन्ये चतुर्विंशतिदण्डके पञ्चेन्द्रिया असुरादयो भवन्ति ते सर्वेऽपि संस्यसंज्ञितया २ स्थानलसूत्र- वाच्याः, दण्डकावसानमाह-जाव वेमाणिय'त्ति वैमानिकपर्यवसाना अप्येवं वाच्या इति, क्वचिद् 'जाव वाणवंत- काध्ययने वृत्तिः |रिय'त्ति पाठस्तत्रायमर्थों-येऽसंज्ञिभ्यो नारकादितयोपद्यन्ते तेऽसंज्ञिन एवोच्यन्ते, असंजिनश्च नारकादिषु व्यन्तरा-15 उद्देशः२ | वसानेषूत्पद्यन्ते न ज्योतिष्कवैमानिकेविति तेषामसंज्ञित्वाभावादिहाग्रहणमिति ९, भाषादण्डके भाषका-भाषापर्योप्यु-14 नारकाणा ॥६ ॥ | दये, अभापकास्तदपर्याप्तकावस्थायामिति, एकेन्द्रियाणां भाषापर्याप्तिास्तीत्यत आह-एवं'मित्यादि १०, सम्यग्दृष्टि-INभव्यत्वादि दण्डके सम्यक्त्वमेकेन्द्रियाणां नास्ति, द्वीन्द्रियादीनां तु सास्वादनं स्यादपीत्युक्तम्-एगिंदियचज्जा सव्वेत्ति ११, द संसारदण्डके परीत्तसंसारिका:-सङ्क्षिप्तभवा इतरे वितरे १२, स्थितिदण्डके कालः कृष्णोऽपि स्यात् समय आचारोऽपि स्थादतः कालश्चासौ समयश्चेति कालसमयः सङ्ग्येयो वर्षप्रमाणतः स यस्यां सा सयेयकालसमया सा स्थितिः-अवस्थान येषां ते सत्येयकालसमयस्थितिकाः, दशवर्षसहस्रादिस्थितय इत्यर्थः, इतरे तु पल्योपमासद्भयेयभागादिस्थितयः, 'संखिज्जकालठिइय'त्ति कचिसाठः, स च सुगम एवेति, 'एव'मिति नारकवद् द्विविधस्थितिका दण्डकोक्ताः, किं सर्वेऽपि!, नेत्याह-पञ्चेन्द्रियाः असुरादयः, किमुक्तं भवति?–एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जाः, एतेषां हि द्वाविंशतिवर्षसहस्रादिका सयातैव स्थितिः, पञ्चेन्द्रिया अपि किं सर्वे?, नेत्याह-यावद् व्यन्तराः व्यन्तरान्ताः, एते हि उभयखभावा भवन्ति, ।।६०॥ ज्योतिष्कवैमानिकास्तु असङ्गयातकालस्थितय एवेति १३, बोधिदण्डके बोधिः-जिनधर्मः (प्राप्ति) सा सुलभा येषां ते सुलभबोधिकार, एवमितरेऽपि १४, पाक्षिकदण्डके शुक्लो विशुद्धत्वात् पक्षः-अभ्युपगमः शुक्लपक्षस्तेन चरन्तीति शुक्लपाक्षिका, ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७९] दीप अनुक्रम [७९] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... -------- - स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Education Internation शुक्लत्वं च क्रियावादित्येनेति, आह च- 'किरियाबाई भव्वे णो अभन्ने सुकपक्लिए णो किण्हपख्खिए'ति, शुक्लानां वा --आस्तिकत्वेन विशुद्धानां पक्षो वर्गः शुक्लपक्षस्तत्र भवाः शुकुपाक्षिकाः, तद्विपरीतास्तु कृष्णपाक्षिका इति १५, चरमदण्डके येषां स नारकादिभवश्चरमः पुनस्तेनैव नोत्पत्स्यन्ते सिद्धिगमनात् ते चरमाः अन्ये त्वचरमा इति १६, एवमेते आदितोऽष्टादश दण्डकाः । प्रावैमानिकाश्चरमाचरमत्येनोक्ताः, ते चावधिनाऽधोलोकादीन् विदन्त्यतस्तद्वेदने जीवस्य प्रकारद्वयमाह- दोहिं ठाणेहिं आया अधोलोगं जाणइ पासइ तं समोहतेणं चैव अप्पाणं आया अहेलोग जाणइ पासइ असमोहतेणं चैव अप्पाणेणं आया अलोगं जाणइ पासइ, आधोहि समोहतासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं जाणइ पासइ एवं तिरिथलोगं २ उद्धृलोगं ३ केवलकप्पं लोगं ४ । दोहिं ठाणेहिं आया अधोलोगं जाणइ पासइ सं०—विव्वितेण चैव अप्पाणं आता अधोलोगं जाणइ पासइ अबिउव्यितेणं चैव अप्पाणेणं आया अधोलोगं जाणइ पासइ आहोधि विउब्वियाविउन्वितेण चैव अप्पाणेणं आता अधोलोगं जाणइ (पास) १ एवं तिरियलोगं० ४ । दोहिं ठाणेहिं आया सहाई सुणेइ, तंदेसेणचि आया सदाई सुणेइ सध्येणचि आया सद्दाई सुणेति एवं रुवाई पासइ, गंधाई अग्घाति, रसाई आसादेति, फासाई पढिसंवेदेति ५ । दोहिं ठाणेहिं आया ओभासद, सं०--- देसेणवि आया ओभासद सवेणचि आया ओभासति, एवं पभासति चिकुवति परियारेति भासं भासति आहारेति परिणामेति वेदेति निरेति ९ दोहिं ठाणेहिं देवे सद्दाई १ क्रियावादी भन्यो भो अभव्यः पाक्षिको नो कृष्णपाक्षिकः. मूलं [७९] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॐ [८०] दीप अनुक्रम सुणेइ, तं०-देसेणवि देवे सदाई सुणेति सम्वेणवि देवे सहाई सुणेइ, जाव निजरेति १४ । मरुया देवा दुविहा० ५०० २स्थान--एगसरीरे चेव विसरीरे घेव, एवं किन्नरा किंपुरिसा गंधवा णागकुमारा सुवन्नकुमारा अग्गिकुमारा वायुकुमारा ८, काध्ययने देवा दुविहा पं० सं०--एगसरीरे चेव बिसरीरे चेव । (सू०८०) विट्ठाणस्स बीओ उद्देसओ समत्तो २-१। उद्देशः२ 'दोहीत्यादि सूत्रचतुष्टयं, द्वाभ्यां 'स्थानाध्या प्रकाराभ्यामात्मगताभ्यामात्मा-जीवोऽधोलोकं जानात्यवधिज्ञानेन समुद्धात |पश्यत्यवधिदर्शनेन 'समवहतेन' वैक्रियसमुद्घातगतेनात्मना-स्वभावेन, समुद्घातान्तरगतेन वा, असमवहतेन | वैक्रियेतरखन्यथेति, एतदेव व्याख्याति–'आहोही'त्यादि यत्प्रकारोऽवधिरस्येति यथावधिः, आदिदीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, परमा तोऽवधिः |वधेाऽधोव_वधिर्यस्य सोऽधोऽवधिरात्मा-नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी स कदाचित् समवद्दतेन कदाचिदन्यथेति सम- देशसर्वतः वहतासमवहतेनेति, 'एच'मित्यादि, 'एवं मिति यथाऽधोलोकः समवहतासमवहतप्रकाराभ्यामवधेविषयतयोक्त एवं शब्दाद्याः | तिर्यग्लोकादयोऽपीति, सुगमानि च तिर्यग्लोकोर्द्धलोककेवलकल्पसूत्राणि, नवरं केवल:-परिपूर्णः स चासौ स्वका-| येसामथ्यात् कल्पश्व केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा केवलकल्पः समयभाषया परिपूर्णस्तं 'लोकं चतुर्दशरग्यात्मकमिति ॥ वैक्रियसमुद्घातानन्तरं वैक्रियं शरीरं भवतीति वैक्रियशरीरमाश्रित्याधोलोकादिज्ञाने प्रका-18 |रद्वयमाह-'दोही त्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यम् , नवरं 'विउब्धिएणति कृतक्रियशरीरेणेति । ज्ञानाधिकार एवेद-|| ॥६१॥ मपरमाह-'दोहीत्यादि पञ्चसूत्री, द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां प्रकाराभ्यां 'देसेणचित्ति देशेन च शृणोल्ये केन श्रोत्रेणकश्रोत्रोपपाते सति, सर्वेण वाऽनुपहतश्रोत्रेन्द्रियो, यो वा सम्भिन्नश्रोतोऽभिधानलब्धियुक्तः स सर्वैरिन्द्रियः शृणो [८०] ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८०] तीति सर्वेणेति व्यपदिश्यते, 'एवं मिति यथा शब्दान् देशसर्वाभ्यां एवं रूपादीनपि, नवरं जिह्वादेशस्य प्रसुप्त्यादि-1 नोपघाताद्देशेनास्वादयतीत्यवसेयमिति । शब्दश्रवणादयो जीवपरिणामा उक्ताः, तत्प्रस्तावात् तत्परिणामान्तराण्याह -'दोही'त्यादि, नव सूत्राणि सुगमानि, नवरम् , अवभासते-द्योतते देशेन खद्योतकवत्, सर्वतः प्रदीपवत्, अथवा अवभासते-जानाति स च देशतः फडकावधिज्ञानी सर्वतोऽभ्यन्तरावधिरिति १, 'एव'मिति देशसर्वाभ्यां प्रभासते-प्रकपेण द्योतते २, विकरोति देशेन हस्तादिवक्रियकरणेन, सर्वेण सर्वस्यैव कायस्येति ३, 'परियारेइ'त्ति मैथुन सेवते दे शेन मनोयोगादीनामन्यतमेन, सर्वेण योगत्रयेणापि ४, भाषां भापते देशेन जिह्वाग्रादिना सर्वेण समस्तताल्वादिस्थानः५, ट आहारयति देशेन मुखमात्रेण सर्वेण ओजआहारापेक्षया ६, आहारमेव परिणमयति-परिणाम नयति खलरसविभागेमानेति भक्काशयदेशस्य प्लीहादिना रुद्धत्वाद् देशतः अन्यथा तु सर्वतः ७, वेदयति-अनुभवति, देशेन हस्तादिना अवय-12 वेन सर्वेण सर्वावयवैराहारसत्कान् परिणमितपुद्गलान् इष्टानिष्टपरिणामतः ८, निर्जरयति-त्यजत्याहारितान् परिणामितान् वेदितान् आहारपुद्गलान् देशेनापानादिना सर्वेण सर्वशरीरेणैव प्रस्वेदवदिति ९, अथवैतानि चतुर्दशापि सूत्राणि विवक्षितविषयवस्त्वपेक्षया नेयानि, तत्र देशसर्वयोजना यथा 'देशेनापी ति देशतोऽपि शृणोति विवक्षितशब्दानां मध्ये कांश्चिच्छृणोतीति, 'सर्वेणापी'ति सर्वतश्च सामस्त्येन, सर्वानेवेत्यर्थः, एवं रूपादीनपि, तथा विवक्षितस्य देशं सर्वं वा विवक्षितमवभासयत्येवं प्रभासयति एवं विकुर्वणीयं विकुरुते परिचारणीयं खीशरीरादि परिचारयति भाषणीयापेक्षया देशतो भाषां भाषते सर्वतो वेति अभ्यवहार्यमाहारयति आहृतं परिणमयति वेद्य कर्म वेदयति देशतः सर्वतो वा, एवं दीप अनुक्रम [८०] ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥ ६२॥ सूत्रांक [८०] निर्जरयत्यपि । देशसर्वाभ्यां सामान्यतः श्रवणायुक्त विशेषविवक्षायां प्रधानत्वाद् देवाना तानाश्रित्य तदाह-दोही-16|२ स्थानत्यादि, एतदपि विवक्षितशब्दादिविषयापेक्षया सूत्रचतुर्दशकं नेयमिति, देशतः सर्वतो वा । एतेऽनन्तरोता भावाःकाध्ययने शरीर एव सति सम्भवन्तीति देवाना च प्रधानत्वात् तेषामेव व्यक्तितः शरीरनिरूपणायाह-मरुए'त्यादि सूत्राष्टका उद्देशः२ कण्ठयम् , नवरं, मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः, यत उक्तम्-"सारस्वता १ दित्य २ वय ३ रुण ४ गईतोय ५- समुद्धात तुषिताऽ६ व्यावाघ ७ मरुतो ८ ऽरिष्ठा ९श्चेति' (तत्त्वा अ०४ सू०२६)ते चैकशरीरिणो विग्रहे कार्मणशरीरत्वात. विक्रियेतरतदनन्तरं वैक्रियभावाद् द्विशरीरिणः, द्वयोः शरीरयोः समाहारो द्विशरीरं तदस्ति येषां ते तथा, अथवा भवधारणीय-8 तोऽवधिः मेव यदा तदैकशरीरः यदा तूत्तरवैक्रियमपि तदा द्विशरीराः, किन्नराधास्त्रयो व्यन्तराः, शेषा भवनपतय इति,दा देशसर्वतः परिगणितभेदग्रहणं च भेदान्तरोपलक्षणम्, न तु व्यवच्छेदाध, सर्वजीवानामपि विग्रहे एकशरीरत्वस्यान्यदा द्विश- शब्दाद्याः रीरत्वस्य चोपपद्यमानस्वादिति ८, अत एव सामान्यत आह-'देवा दुविहे त्यादि कण्ठयम् , द्विस्थानकस्य द्वितीय 31 उद्देशको विवरणतः समाप्तः॥ __उक्तो द्वितीयोद्देशकः, अध तृतीय आरभ्यते, अस्य चानन्तरेण सहायमभिसंबन्धः-अनन्तरोदेशके जीवपदार्थो-| नेकधोक्तः, अत्र तु तदुपग्राहकपुद्गलजीवधर्मक्षेत्रद्रव्यलक्षणपदार्थप्ररूपणोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्वेदमादिमसूत्राष्टकम्दुविहे सरे पं० सं०--भासासद्दे चेव णोभासास चेब, भासासदे दुरिदे पं० २०-अक्खरसंबद्ध व नोअक्सर ॥६२॥ संबद्ध चेव, णोभासासदे दुविहे पन्नत्त तं०-आउजसदे व णोआउज्जसद्दे चेब, आउजसद्दे दुविहे पं० सं०-तते व दीप अनुक्रम [८०] AkCACA अत्र द्वितीयो उद्देशक: समाप्तं, तृतीयो उद्देशक: आरब्ध: ~127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [८] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [८१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वितते चैव तते दुबिद्दे पं० तंद—घणे क्षेत्र झुसिरे चैव, एवं विततेऽवि, णोआउज्जसदे दुबिहे पं० नं० - भूसणस चेव नोभूसणसदे चेव, णोभूसणसद्दे दुबिहे पं० तं० --- तालसरे चैव लत्तिआस चेव, दोहिं ठाणेहिं सडुप्पाते सिया, तंजा -- साहनंताण चैव पुग्गलाणं सहुप्पाए सिया भियंताण चैव पोमालाणं सहुप्पाए सिया (सू० ८१ ) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेशकान्त्यसूत्रे देवानां शरीरं निरूपितं तद्वांश्च शब्दादिग्राहको भवतीत्यत्र शब्दस्तावन्निरूप्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, सा च सुकरैव, नवरं भाषाशब्दो भाषापर्याप्तिनामकर्मोदयापादितो जीवशब्दः, इतरस्तु नोभाषाशब्दः १, अक्षरसम्बद्धो वर्णव्यक्तिमान् नोअक्षरसम्बद्धस्वित्तर इति २, आतोद्यं - पटहादि तस्य यः शब्दः स तथा नोआतोद्यशब्दो वंशस्फोटादिरवः ३, ततं यत्तन्त्री वर्धादिवद्धमातोयं, ४ तच्च किशिद यथा पिaनिकादि किञ्चिच्छुधिरं यथा वीणापटहादिकं तज्जनितः शब्दस्ततो घनः शुषिरचेति व्यपदिश्यते ५, विततं ततविलक्षणं तन्त्र्यादिरहितं तदपि घनं भाणकवत् शुषिरं काहलादिवत् तज्जः शब्दो विततो घनः शुषिरश्चेति, चतुःस्थानके पुनरिदमेवं भणिष्यते—ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । धनं तु कांश्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥ १ ॥ इति, विवक्षाप्राधान्याच्च न विरोधो मन्तव्य इति ६, भूषणं नुपूरादि नोभूषणं भूषणादन्यत् ७, तालो - हस्ततालः, 'लत्तिय'त्ति कंसिकाः, ता हि आतोद्यत्वेन न विवक्षिता इति, अथवा 'लत्तियासदेत्ति पाष्णिप्रहारशब्दः ८ ॥ उक्ताः शब्दभेदाः, इतस्तत्कारणनिरूपणायाह - 'दोही'त्यादि, द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां' कारणाभ्यां शब्दोत्सादः स्याद्-भवेत् ८, 'संहन्यमानानां च' सङ्घातमापयमानानां सतां कार्यभूतः शब्दोसादः स्यात्, पञ्चम्यर्थे वा Educatin internation For Parts Only ~128~ www.lanerary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८] टीप अनुक्रम [८] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ६३ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (3) स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... -------- - Internationa षष्ठीति संहन्यमानेभ्य इत्यर्थः, पुद्गलानां बादरपरिणामाना यथा घण्टालालयोः, एवं भिद्यमानानां वियोज्यमानानां च यथा वंशदलानामिति । पुङ्गसङ्घातभेदयोरेव कारणनिरूपणायाह - दोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहण्णंति, तं० सई वा पोम्गला साहनंति परेण वा पोसाला साहनंति १ । दोहिं ठाणेहिं पोग्गला भिजंति नं० - सई वा पोग्गला भिव्वंति परेण वा पोगाला भिज्जति २ । दोहिं ठाणेहिं पोगाला परिसति, नं० सई वा पोग्गला परिसइति परेण वा पोग्गला परिसाडिज्जति ३ एवं परिवर्डति ४ विद्वंसंति ५। दुबिहा पोग्गला पं० [सं० मिना चैव अभिन्ना चैत्र १, दुबिहा पोग्गला पं० ० -- मेउरधम्मा चैव नोभेडरधम्मा चेक २, दुविधा पोराला पं० तं० पोग्गला चैव नोपरमाणुपोग्गला चेव ३, दुबिहा पोग्गला पं० वं०—- सुहुमा चैव बायरा चैत्र ४, दुबिहा पोमाला पं० तं० —बद्धपासपुट्ठा चैव नोबद्धपासपुढा चेव ५, दुविहा पोग्गला पन्नत्ता, तं परियादितचैव अपरियादितश्चैव ६, दुविड़ा पोगला पन्नत्ता नं० - अत्ता चैव अणत्ता चैव ७, दुबिहा पोग्गला पं० नं० - इट्ठा चैव अणिट्ठा चैव ८, एवं कंता ९ पिया १० म परमाणु ११ मणामा १२, (सू० ८२) । दुबिधा सदा पन्नत्ता तं-- अत्ता चैव अणता चेव, १ एवमिट्ठा जाब मणामा ६ । दुविहा रूवा पं० तं० अता चैव अणत्ता चैव, जाव मणामा, एवं गंधा रसा फासा, एवमिकिके छ आलावगा भाणियन्वा (सू० ८३) 'दोही 'त्यादि सूत्रपञ्चकं कण्ठ्यम्, नवरं 'स्वयं वे 'ति स्वभावेन वा अनादिष्विव पुद्गलाः संहन्यन्ते सम्बध्यन्ते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं, परेण वा पुरुषादिना वा संहन्यन्ते संहताः क्रियन्ते, कर्म्मप्रयोगोऽयमेवं भिद्यन्ते विघटन्ते, तथा परिपतन्ति | पर्वतशिखरादेरिवेति, परिशटन्ति कुष्ठादेर्निमित्तादङ्गुल्यादिवत् विध्वस्यन्ते विनश्यन्ति घनपटलवदिति ५ ॥ पुद्गलानेव मूलं [८१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 129~ २ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ भाषाश भारि लभेदादिः ॥ ६३ ॥ ra Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [23] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः द्वादशसूत्र्या निरूपयन्नाह - 'दुबिहे' त्यादि, भिन्नाः- विचटिता इतरे त्वभिन्नाः १ स्वयमेव भिद्यत इति भिदुरं भिदुरत्वं धर्मो येषां ते भिदुरधर्माणः अन्तर्भूतभावप्रत्ययोऽयं प्रतिपक्षः प्रतीत एवेति २ परमाश्च ते अणत्रुश्चेति परमाणवः नोपरमाणवः-स्कन्धाः, सूक्ष्माः येषां सूक्ष्मपरिणामः शीतोष्णस्निग्धरुक्षलक्षणाश्चत्वार एव च स्पर्शास्ते च भाषादयः, बादरास्तु येषां बादरः परिणामः पञ्चादयश्च स्पर्शास्ते चौदारिकादयः ४ पार्श्वेन स्पृष्टा देहत्वचा खुप्ता रेणुवत्पार्श्वस्पृष्टास्ततो बद्धा:-गाढतरं श्लिष्टाः तनौ तोयवत् पार्श्वस्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चेति राजदन्तादित्वाद् वद्धपार्श्वस्पृष्टाः, आह च - 'पुडं रेणुं च तणुंमि बद्धमप्पीकयं पएसेहिं'ति, एते च प्राणेन्द्रियादिग्रहणगोचराः, तथा नो बद्धाः किन्तु पार्श्वस्पृष्टा इत्येकपदप्रतिषेधः श्रोत्रेन्द्रियग्रहणगोचराः, यत उक्तम्- “पुढं सुणेइ सद्दं रूवं पुण पासई अपुढं तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुढं वियागरे ॥ १ ॥ त्ति, उभयपदनिषेधे श्रोत्राद्यविषयाश्चक्षुर्विषयाश्चेति, इयमिन्द्रियापेक्षया बद्धपार्श्वस्पृष्टता पुद्गलानां व्याख्याता, एवं जीवप्रदेशापेक्षया परस्परापेक्षया च व्याख्येयेति ५ 'परियाइयत्ति विवक्षितं पर्यायमतीताः पर्यायातीताः पर्यात्ता वा सामस्त्यगृहीताः कर्मपुद्गलवत्, प्रतिषेधः सुज्ञानः ६ आत्ताः- गृहीताः स्वीकृता जीवन परिग्रहमात्रतया शरीरादितया वा ७ इप्यन्ते स्म अर्थक्रियार्थिभिरितीष्टाः ८ कान्ताः -- कमनीया विशिष्टवर्णादियुक्ताः ९ प्रियाः प्रीति| कराः इन्द्रियाहादकाः १० मनसा ज्ञायन्ते शोभना एत इत्येवंविकल्पमुसादयन्तः शोभनत्वप्रकर्षाद्ये ते मनोज्ञाः ११ मनसो मता- वलभाः सर्वस्याप्युपभोक्तुः सर्वदा च शोभनत्वप्रकर्षादेव निरुक्तविधिना मणामा १२ इति व्याख्यानान्तरं त्वेवं१ स्पृष्टं रेवसनीयमात्मीकृतं प्रदेश २ शृणोति शब्दं रूपं पुनः पश्चष्टं तु गन्धं व स्पर्श च बद्धस्पृष्टं व्यारणीयात् ॥ १॥ Education Internation For Penal Use On ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत | काध्ययने सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [८३] श्रीस्थाना-IPइष्टा:-बालभाः सदैव जीवानां सामान्येन, कान्ताः-कमनीयाः सदैव तभावेन, प्रियाः-अद्वेष्याः सर्वेषामेव, मनोज्ञाः- २ स्थानसूत्र मनोरमाः कथयाऽपि, मनआमा-मनःप्रियाश्चिन्तयाऽपीति, विपक्षः सुज्ञानः सर्वत्रेति ॥ पुद्गलाधिकारादेव तद्धर्मान 81 वृत्तिः शब्दादीन् अनन्तरोक्कसविपर्ययात्तादिविशेषणषटुविशिष्टान् 'दुविहा सद्दे'त्यादिसूत्रत्रिंशताऽऽह-'दुविहे त्यादि, कण्ठ्या उद्देशः ३ चेयमिति । उक्ताः पुद्गलधर्माः, सम्प्रति धर्माधिकाराज्जीवधर्मानाह | ज्ञानाद्या॥६४॥ दुविहे आयारे पं० २०-णाणायारे चेव नोनाणायारे चेव १, णोनाणायारे दुविहे पं० सं०-सणायारे चेव नोदंसणा चारा: प्रयारे चैव २, नोदंसणायारे दुविहे पंसं०-चरित्तायारे चेव नोचरित्तायारे चेव ३, णोचरित्तावारे दुविहे पं० २०-तषायारे तिमा साचेव वीरियायारे चेव दो पडिमाओ पं० सं०-समाहिपडिमा चेव उवहाणपडिमा व १, दोपडिमाओ पं० २०-विवे मायिकं च गपद्धिमा चेव विउसगपडिमा चेव २, दो पडिमाओ पं० तंजहा-भद्दा चेव सुभद्दा चेव ३, दो पडिमाओ पं० ----महाभद्दा चेव सब्बतोभदा चेव ४, दो पढिमाओ पं० २०-खुड़िया चेव मोयपडिमा महल्लिया चेव मोयपडिमा ५, यो पडिमाओ पं० ०-जवमो चेव चंदपडिमा बहरमझे चेव चंदपडिमा ६, दुविहे सामाइए पं० ०-अगारसामाइए चेव अणगारसामाइए चेव (सू०८४)। 'दुविहे आयारे इत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यं, नवरं आचरणमाचारो-व्यवहारो ज्ञान-श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः कालादिरष्टविधो ज्ञानाचारः, आह च-"काले विणए बहुमाणे उवहाणे चेव तहय निण्हवणे । वंजणमस्थ तदुभए अढविहो 31 १ कालो बिनयो बहुमान उपभानं चैव तथैवानिवनम् । व्यानं अर्थस्तदुभयमष्टविधी ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [८४] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (3) स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Intemational .......... - नाणमायारो ॥ १ ॥ त्ति, नोज्ञानाचार:- एतद्विलक्षणो दर्शनाद्याचार इति, दर्शनं सम्यक्त्वं तदाचारो निःशङ्कितादिरष्टविध एव, आह च— “णिस्संकिय १ निक्कंखिय २ निव्वितिगिच्छा ३ अमूढदिडी ४ य । उवगृह ५ धिरीकरणे ६ वच्छल ७ पभावणे ८ अट्ठ ॥ २ ॥” त्ति, नोदर्शनाचारश्चारित्रादिरिति, चारित्राचारः समितिगुप्तिरूपोऽष्टधा, आह च"येणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समिईहिं तीहिं गुसीहिं । एस चरितायारो अडविहो होइ नायच्वो ॥ ३ ॥” चि, नोचारित्राचारस्तपआचारप्रभृतिः, तत्र तपआचारो द्वादशधा, उक्तं च- "बारसविहंमिवि तवे सम्भितरबाहिरे कुसलदिडे । अगि लाइ अणाजीवी नायन्त्रो सो तवायारो ॥ ४ ॥” त्ति, वीर्याचारस्तु ज्ञानादिष्वेव शक्तेरगोपनं तदनतिक्रमश्चेति, उक्तं च - " अणिगृहियवलविरिओ परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुजइ य जहाथामं नायन्यो वीरियायारो ॥ ५ ॥” ति ॥ अथ वीर्याचारस्यैव विशेषाभिधानाय पट्टसूत्रीमाह- 'दो पडिमें' त्यादि, प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेतियावत्, समाधानं | समाधिः- प्रशस्तभावलक्षणः तस्य प्रतिमा समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदा- श्रुतसमाधिप्रतिमा सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च, उपधानं तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवंरूपेति । विवेचनं विवेकः- त्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानां गणशरीरभक्तपानादीनामनुचितानां तत्प्रतिपत्तिर्विवेकप्रनिशङ्को निष्काति निर्विचिकित्सोऽमूडदृष्टि । उपबृंहा स्थिरीकरणं यात्सत्यं प्रभावना अष्टौ ॥ २ ॥ ३ प्रविधानयोगयुक्तः पश्च समितिषु तिरुषु गुप्तिषु। एष चारित्राचारोऽष्टविधो भवति ज्ञातव्यः ॥ १॥ ४ द्वादशविधेऽपि तपसि साभ्यन्तरबाधे कुशलदृष्टे । अग्लान्याऽनाजीची ज्ञा५ अनिगूहितचलवीर्यः पराक्रमते यो यथोक्तमायुक्तः । युनक्ति च यथास्थान ज्ञातव्यो वीर्याचारः ॥ १ ॥ [१] [शनाचाः ॥ १॥ २ तव्यः स तपआचारः ॥ १ ॥ For Pale On मूलं [२४] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: kG प्रत दीप अनुक्रम [८४] श्रीस्थाना-1 तिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा-कायोत्सर्गकरणमेवेति, भद्रा-पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येक प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहो- स्थान: सूत्र- रात्रद्वयमानेति, सुभद्राऽप्येवंप्रकारैव सम्भाच्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तति, महाभद्रापि तथैव, नवरमहोरात्रकायोत्सर्गरूपाकाध्ययने वृत्तिः अहोरात्रचतुष्टयमाना, सर्वतोभद्रा तु दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशकप्रमाणेति, मोकप्रतिमा-| उद्देशः ३ प्रस्रवणप्रतिमा, सा च कालभेदेन क्षुद्रिका महती च भवतीति, यत उक्तं व्यवहारे-"खुड्डियं णं मोयपडिम पडिव- ज्ञानाद्याग्णसे"त्यादि, इयं च द्रव्यतः प्रस्रवणविषया क्षेत्रतो ग्रामादेवहिः कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते, भुक्त्वा चेत् चाराः प्रप्रतिपद्यते चतुर्दशभक्केन समाप्यते, अभुक्त्वा तु षोडशभक्केन, भावतस्तु दिव्याधुपसर्गसहनमिति, एवं महत्यपि, नवरं तिमा साभुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते षोडशभक्केन समाप्यते, अन्यथा त्वष्टादशभक्तेनेति, यवस्येव मध्यं यस्याः सा यवमध्या, चन्द्रमायिकं च इव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथाहि-शुक्लप्रतिपदि एक कवलमभ्यवहृत्य ततः प्रतिदिनं कवलवृद्ध्या पञ्चदश पौर्णमास्यां कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदश भुक्त्वा प्रतिदिनमेकैकहान्याऽमावास्यायामेकमेव यस्यां भुते सा यवमध्या चन्द्रप्रतिमेति, यस्यां तु कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश भुक्त्वा एकैकहान्याऽमावास्यायामेकं शुक्लप्रतिपदि चैकमेव ततः18 पुनरेकैकवृद्ध्या पूर्णिमायां पञ्चदश भुते सा वनस्येव मध्यं यस्यां तन्वित्यर्थः सा बज्रमध्या चन्द्रप्रतिमेति, एवं भिक्षादावपि वाच्यमिति ॥ प्रतिमाश्च सामायिकवतामेव भवन्तीति सामायिकमाह-'दुविहें इत्यादि, समानां-ज्ञानादीना-1॥६५॥ मायो-लाभः समायः स एव सामायिकमिति, तद् द्विविधम्-अगारवदनगारस्वामिभेदाद् , देशसर्वविरती इत्यर्थः ॥ जी-18 वधर्माधिकार एव तद्धर्मान्तराणि 'दोहं उववाए' इत्यादिभिश्चतुर्विशत्या सूत्रैराह ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८५] दीप अनुक्रम [८५] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक (3) स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education International .......... - दो उबबाद पं० तं० देवाण चैव नेरइयाण चैव १ दोहं उब्वट्टणा पं० तं० णेरइयाण चैव भवणवासीण चैव २ दोन्हं चयणे पं० तं - जोइसियाण चेव वैमाणियाण चेव ३ दोन्हं गव्भवती पं० सं० मणुरसाण चैव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चैव ४ दोषं गव्भत्थाणं आहारे पं० तं० मणुस्साण चैव पंचदियतिरिक्खजोणियाण चैव ५ दोन्हं गन्भत्थाणं बुड्डी पं० तं० मणुरसाण चैव पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाण चैव ६ एवं निच्युड्डी ७ विगुव्वणा ८ गतिपरियाए ९ समुग्धाते १० कालसंजोगे ११ आयाती १२ मरणे १३ दोहं छविपव्वा पं० [सं० – मणुस्साण चेत्र पंचिदियतिरिक्सजोणियाण चैत्र ४ दो सुकसोणितसंभवा पं० तं मणुस्सा चैव पंचिदियतिरिक्खजोणिया चेव १५ दुविहा ठती पं० तं कायद्विती चैव भवद्विती चैव १६ दोन्हं कायद्विती पं० तं० मणुस्साणं चैव पंचिदियतिरिक्खजोणियाण चैत्र १७ दोन्हं भवट्टिती पं० [सं० – देवाण चैव नैरइयाण चैत्र १८ दुविहे आउए पं० तं - अद्धाउए चैव भवाउए दोन्हं अद्वाउए पं० तं०- मणुस्साण चैव पंचदियतिरिक्त्र ओणियाण चैव २० दोष्टं भवाउए पं० तं०रइयाण चैत्र २१ दुविहे कम्मे पं० [सं० पदेसकम्मे चैव अणुभावकम्मे चेत्र २२ दो अहाउयं पालेति चैत्र १९ देवाण चैव तं देवदेव नेरइयश्चेव २३ दोन्हं आउयसंवट्टए पं० तं० - मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चैत्र २४ (सू० ८५) सुगमता नवरं ''काक्ष जन्मविशेष इति, दीव्यन्ति इति देवाः- चतुर्निकायाः सुरा नैरयिकाः प्राग्वत्तेषाम् १, उद्वर्त्तनमुद्वर्त्तना तत्कायान्निर्गमो मरणमित्यर्थः तच्च नैरयिकभूवनवासिनामेवैवं व्यपदिश्यते, अन्येषां तु मरणमेवेति, नैरयिकाणां - नारकाणां तथा For Palsta Use Only मूलं [८५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 134 ~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना-1 भवनेषु-अधोलोकदेवावासविशेषेषु वस्तुं शीलमेपामिति भवनवासिनस्तेषाम् २, प्युतिक्ष्यवनं मरणमित्यर्थः, तच्च ज्यो-18२ स्थान: तिष्कवैमानिकानामेव व्यपदिश्यते, ज्योतिषु-नक्षत्रेषु भवाः ज्योतिष्काः, शब्दव्युत्पत्तिरेवेयं, प्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणातुकाध्ययन वृत्तिः । चन्द्रादयो ज्योतिष्का इति, विमानेषु-ऊलोकवत्तिषु भवाः वैमानिका:-सौधर्मादिवासिनस्तेषां ३, गर्भ-गर्भाशये उद्दशः३ ड्युस्कान्तिः-उत्पत्तिर्गर्भव्युत्कान्तिः, मनोरपत्यानि मनुष्यास्तेषां, तिरोऽयन्ति-गच्छन्तीति तिर्यञ्चस्तेषां सम्बन्धिनीरा उपपाती॥६६॥ योनिःउत्पत्तिस्थानं येषां ते तिर्यग्योनिकाः, ते चैकेन्द्रियादयोऽपि भवन्तीति विशिष्यन्ते-पथेन्द्रियाश्च ते तिर्यग्यो-II द्वर्तन| निकाश्चेति पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकास्तेषाम् ४, तथा द्वयोरेव गर्भस्थयोराहारोऽन्येषां गर्भस्यैवाभावादिति ५, वृद्धिः-15 च्यवनादिः टू शरीरोपचयः ६, निवृद्धिस्तद्धानिर्वातपित्तादिभिः, निशब्दस्याभावार्थत्वात् , निवरा कन्योत्यादिवत् ७, वैक्रियलब्धिमतां | विकुर्वणा ८, गतिपर्यायः-चलनं मृत्वा वा गत्यन्तरगमनलक्षणः, यच्च वैक्रियलब्धिमान् गर्भानिर्गत्य प्रदेशतो बहिः सङ्कामयति स वा मतिपर्यायः, उक्तं च भगवत्यां-"जीवे णं भंते! गन्भगए समाणे णेरइएसु उववजेजा?, गोतमा!, अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववजेजा, से केणडेणं?, गोतमा! से णं सन्नी पंचिंदिए सब्वाहिं पजत्तीहिं पजत्तए वीरियलद्धीए विउचिअलद्धीए पराणीयं आगतं सोचा णिसम्म पएसे निच्छुन्भइ २ वेउब्वियसमुग्धाएणं जीनो भवन्त ! गर्भगतः सन् नैरवि के पूत्पद्येत !, मौतम ! असत्येकक उत्पयेत अस्त्येकको नोत्पयेत, तत्केनान?, गौतम! स संज्ञी पवेन्दियः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तको वीर्यलबध्या वैकियलच्या परानीकमागतं भुला निशम्य प्रदेशान् निष्काशयति वैक्रियसमुत्पातेन समवदन्ति २ चतुरक्षिणी सेना विकुवैति । AT॥६६॥ २ चतुरङ्गिण्या सेनया परानीकेन साई संग्राम संग्रामयति. RECACK दीप अनुक्रम [८५]] ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम [८५]] समोहन्नइ २ चाउरंगिणि सेणं विउव्वइ २ चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धिं संगाम संगामेई"त्यादि ९, समुद्घातो मारणान्तिकादिः १०, कालसंयोगः-कालकृतावस्था ११, आयाति:-गर्भानिर्गमो १२, मरणं-प्राणत्यागः १३, 'दोण्हं छविपत्ति द्वयानां-उभयेषां 'छवि'त्ति मतुब्लोपाच्छविमन्ति-स्वम्बन्ति 'पव्व'त्ति पर्वाणि सन्धिवन्धनानि छविपर्वाणि कचित् 'छवियत्त'त्ति पाठः तत्र छवियोगाच्छविः स एव छविकः स चासौ 'अत्त'त्ति आत्मा च-शरीरं छविकात्मेति, 'छविपत्त'त्ति पाठान्तरे छविः प्राप्ता जातेत्यर्थः, गर्भस्थानामिति सर्वत्र सम्बन्धनीयम् १४, 'दो सुकेत्यादि, द्वयोः शुक्र-रेतः शोणितम्-आर्तवं ताभ्यां सम्भवो येषां ते तथा १५, 'कायहिति'त्ति काये-निकाये पृधिव्यादिसामान्यरूपेण स्थितिः कायस्थितिः असङ्ख्योत्सपिण्यादिका, भवे भवरूपा वा स्थितिः भवस्थितिर्भवकाल इत्यर्थः १६, 'दोण्हति | द्वयानामुभयेषामित्यर्थः, कायस्थितिः सप्ताप्टभवग्रहणरूपा, पृधिव्यादीनामपि साऽस्ति, न चानेन तद्व्यवच्छेदः, अयोगव्यवच्छेदपरत्वात् सूत्राणामिति १७, 'दोण्हे त्यादि, देवनारकाणां भवस्थितिरेव, देवादेः पुनर्देवादित्येनानुसत्तेरिति |१८, 'दुविहे इत्यादि अद्भा-कालः तत्प्रधानमायु:-कर्मविशेषोऽद्धायुः, भवात्ययेऽपि कालान्तरानुगामीत्यर्थो, यथा मनु-/ घ्यायुः, कस्यापि भवात्यय एव नापगच्छत्यपि तु सप्ताष्टभवमानं कालमुत्कर्षतोऽनुवर्तत इति, तथा भवप्रधानमायुर्भ-1 वायुः, यद्भवात्यये अपगच्छत्येव न कालान्तरमनुयाति, यथा देवायुरिति, १९, 'दोण्ह'मित्यादि सूत्रद्वयं भावितार्थमेव |२१,'दुविहे कम्मे इत्यादि, प्रदेशा एव-पुद्गला एवं यस्य वेद्यन्ते न यथा बद्धो रसस्तत्प्रदेशमानतया वेद्य कर्म प्रदेशकर्म, यस्य त्वनुभावो यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्यं कर्मानुभावकर्मेति २२, 'दो' इत्यादि, यथावद्धमायुर्यथायुः पाल ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत वृत्तिः ॥६७॥ दीप यन्ति-अनुभवन्ति नोपक्रम्यते तदितियावदिति,-'देवा नेरइयावि य असंखवासाउया य तिरिमणुया । उत्तमपुरिसा यारस्थानतहा चरमसरीरा य निरुवकमा ॥१॥ इति वचने सत्यपि देवनारकयोरेवेह भणनं द्विस्थानकानुरोधादिति । 'दोण्ह'- काध्ययने मित्यादि, संवर्तनमपवर्तनं संवर्तः स एव संवर्तका, उपक्रम इत्यर्थः, आयुषः संवर्तकः आयुःसंवर्तक इति २३ । पर्या- उद्देशः३ याधिकारादेव नियतक्षेत्राश्रितत्वात् क्षेत्रव्यपदेश्यान् पुद्गलपर्यायानभिधित्सुः 'जंबुद्दी।' इत्यादिना क्षेत्रप्रकरणमाह- | भरतादिजंबूडीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा [पं० त०-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिव क्षेत्रस्व० टुंति आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं तं०-भरहे चेव एरवए चेष, एवमेएणमहिलावेणं हिमवए चेव हेरनवते चेव, हरिवासे व रम्मयवासे चेब, जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं दो खित्ता [पं० सं०-बहुसमतुल्ला अविसेस जाव पुम्वविदेहे चेव अवरविदेहे चेव, जंबूमंदरस्स पब्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो कुराओ [पं० सं०-बहुसमतुलामो जान देवकुरा घेव उत्तरकुरा चेव, तत्व णं दो महतिमहालया महादुमा [पं० सं०-बहुसमतुला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन णाश्वदृति आयामविकसभुश्चत्तोबेहसंठाणपरिणाहेणं तं०-कूडसामली चेव जंबू चेव सुदंसणा । तत्थ णं दो देवा महिडिया जाव महासोक्खा पलिओवमद्वितीया परिवसन्ति, त रुले चेव वेणुदेवे अणाढिते व जंचूड़ीवाहिवती (सू०८६) सुगम चैतत् , नवरमिह जम्बूद्वीपप्रकरणं परिपूर्णचन्द्रमण्डलाकारं जम्बूद्वीपं तन्मध्ये मेलं उत्तरदक्षिणतः क्रमेण मा॥६७॥ १ देना नैरयिका अपि च असण्यवर्षाबुष्काय तित्यनुष्याः । उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमपारीराध निरुपक्रमाः ॥१॥ अनुक्रम [८५]] ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % प्रत 25 5-5*5*35 *3 t % वर्षाणि च स्थापयित्वा, तद्यथा,-'भरह हेमवयंति य हरिवासंति य महाविदेहति । रम्मय एरनवयं एरवयं चेव वासाई ॥१॥ ति, तथा वर्षान्तरेषु वर्षधरपर्वतान् कल्पयित्वा, तद्यथा-'हिमवंत १ महाहिमवंत २ पव्वया निसढ ३ नीलवंता य ४। राष्पी ५ सिहरी ६ एए वासहरगिरी मुणयन्वा ॥१॥' इति सर्वमवबोद्धव्यमिति । मन्दरस्यमेरोः उत्तरा च दक्षिणा च उत्तरदक्षिणे तयोरुत्तरदक्षिणयोरिति वाक्ये उत्तरदक्षिणेनेति स्याद्, एनप्रत्ययविधानादिति, हे वर्षे-क्षेत्रे प्रज्ञप्ते जिनः, समतुल्यशब्दः सहशार्थः अत्यन्तं समतुल्ये बहुसमतुल्ये प्रमाणतः अविशेषे-अविलक्षणे नगनगरनद्यादिकृतविशेषरहिते अनानात्वे-अवसपिण्यादिकृतायुरादिभावभेदवर्जिते, किमुक्तं भवतीत्याह-'अन्योअन्य परस्परं नातिवाते, इतरेतरं न लन्यत इत्यर्थः, कैरित्याह-आयामेन' दैर्येण 'विष्कम्भेन' पृथुत्वेन 'संस्थानेन' आरोपितज्याधनुराकारेण 'परिणाहेन' परिधिनेति, इह च द्वन्द्वैकवद्भावः कार्य इति, अथवा बहुसमतुल्ये आयामतः, तथाहि-भरतपर्यन्तश्रेणीयं 'चोइस य सहस्साई सयाइँ चत्तारि एगसयराई । भरहद्धत्तरजीवा छा य कला ऊणिया किंचि ॥१॥ कला च योजनस्यैकोनविंशतितमो भाग इति १४४७१, एरवतेऽप्येवं । तथा अविशेषे विष्कम्भतः, तथाहि-पंच सए छब्बीसे छच्च कला वित्थडं भरहवासंति, ५२६ अयमेव चैरवतस्यापीति, अनानात्वे संस्थानतः अन्योऽन्यं नातिवर्तेते, परिणाहतः परिणाहश्च ज्याधनुःपृष्ठयोर्यप्रमाणं, तत्र ज्याप्रमाणमुक्त, धनु: १ भरत मयत हरिव महानिदेशमिति च । रम्यगैरववतं ऐखतं चैव वर्षाणि ॥१॥ हिमकादाया वर्षधरगिरय एते १ चतुर्दश सदनाणि चत्वारि शतानि । | एकसप्ताभिकानि भरतात्तिरजीचा षट्कला ऊनाः किंचित् ॥१॥३पंच शतानि पढिशत्यधिकानि पडला विसर भरतवर्ष. ५२६-६-पिसारा. दीप अनुक्रम [८६] --2- 5 -- *** ** ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [८६] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [२], उद्देशक (3) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मूलं [ ८६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः -------- श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ६८ ॥ - पृष्ठप्रमाणं विदम्- 'चोईस य सहस्साई पंचेव सयाई अटुंबीसाई । एगारस य कलाओ धणुपुढं उत्तरद्धस्स ॥ १ ॥' १४५२८२ । यथा च भरतस्यैरवतस्यापि तथैवेति । एकार्थिकानि वैतानि पदानि, भृशार्थत्वाच न पुनरुक्ततेति, उक्तं च - "अनुवादादर वीप्सा भृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रमविस्मयगणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम् ॥ १ ॥” इति, तद्यथा, 'भरहे चेवे' त्यादि, 'उत्तरदाहिणेणं' त्येतस्य पाठस्य यथासङ्ख्यन्यायानाश्रयणाद् यथासत्तिन्यायाश्रयणाश्च जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे भागे भरतमाहिमवतः, तस्यैवोत्तरे भागे ऐरवतं शिखरिणः परत इति, 'एव' मिति भरतैरव तवत् 'एतेनाभिलापेन' 'जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्से त्यादिना उच्चारणेनापरं सूत्रद्वयं वाच्यं तयोश्चायं विशेष: 'हेमवए चेवे'त्यादि, तत्र हैमवतं दक्षिणतो हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये हिरण्यवतमुत्तरतः रुक्मिशिखरिणोरन्तः हरिवर्ष दक्षिणतो महाहिमवन्निषधयोरन्तः रम्यकवर्ष चोत्तरतो नीलरूक्मिणोरन्तरिति, 'जंबूद्दीवे' इत्यादि, 'पुरच्छिमपचत्थिमेणं' ति पुरस्तात् - पूर्वस्यां दिशि पश्चात् - पश्चिमायामित्यर्थः यथाक्रमं पूर्वश्वासौ विदेहश्चेति पूर्वविदेहः, एवमपरविदेह इति एतेषां चायामादि ग्रन्थान्तरादवसेयमिति । 'जंबू' इत्यादि, दक्षिणेन देवकुरवः उत्तरेण उत्तरकुरवः, तत्र आया विद्युत्प्रभसौमनसाभिधानवक्षस्कारपर्वताभ्यां गजदन्ताकाराभ्यामावृताः, इतरे तु गन्धमादनमाल्यवद्भ्यामावृताः, उभये चामी अर्द्धचन्द्राकाराः दक्षिणोत्तरतो विस्तृताः, तत्प्रमाणं चेदम्- 'असया बायाला एकारस सहस दो कलाओ य विक्लंभो य कुरूणं ते १ चतु सहस्राणि पंचैव शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि एकादश च कला धनुःपृष्ठे उत्तरार्द्धस्य १४५२८-११ धनुःपृष्ठं २ एकादश सहस्राणि अष्ट शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि द्वे कले भिस्तु देवकुरूणां त्रिपंचाशत्सहस्राणि जीवाऽनयोः ॥ १ ॥ १२८४२-२ विष्कम्भः ५२००० जीवा. Education Internation For Palsta Use Only ~ 139~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ भरतादि क्षेत्रस्व० ॥ ६८ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [0] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम [८६] वन्नसहस्स जीवा सिं ॥१॥" पूर्वापरायामाश्चैता इति, 'महइमहालय'त्ति महान्ती गुरू 'अतीति अत्यन्तं महसातेजसा महानां वा-उत्सवानामालयौ-आश्रयौ महातिमहआलयौ महातिमहालयौ वा समयभाषया महान्तावित्यर्थः, महाद्रुमौ प्रशस्ततया आयामो-दैर्ध्वं विष्कम्भो-विस्तारः उच्चत्वम्-उच्छ्रयः उद्वेधो-भुवि प्रवेशः संस्थानम्-आकारः प|रिणाहा-परिधिरिति, तत्रानयोः प्रमाणम्-रयणमया पुप्फफला विक्खंभो अह अह उच्चत्तं । जोयणमडुब्बेहो खंधो दोजोयणुब्बिद्धो ॥१॥ दो कोसे विच्छिन्नो विडिमा छज्जोयणाणि जंबूए । चाउद्दिसिपि साला पुचिल्ले तत्थ सालमि ॥२॥ भवणं कोसपमाणं सयणिज तत्थऽणाढियसुरस्स । तिसु पासाया सालेसु तेसु सीहासणा रम्मा ॥३॥” इति, शाल्मल्यामप्येवमेवेति, कूटाकारा-शिखराकारा शाल्मली कूटशाल्मलीति संज्ञा, सुठु दर्शनमस्या इति सुदर्शनेतीयमपि संज्ञेति, 'तस्थ'त्ति तयोर्महादुमयोः 'महे त्यादि महती ऋद्धिः-आवासपरिवाररत्नादिका ययोस्तौ महर्चिकौ यावद्ग्रहणात् 'महजुन्या महाणुभागा महायसा महावल'त्ति, तत्र युतिः-शरीराभरणदीप्तिः अनुभाग:-अचिन्त्या शक्तिबैंक्रियकरणादिका यशः-ख्यातिः बलं-सामर्थ्य शरीरस्य सौख्यम्-आनन्दात्मक, 'महेसक्खा' इति कचित्पाठः, महेशी-महेश्वरावित्याख्या ययोस्ती मेहशाख्याविति, पल्योपमं यावत् स्थितिः-आयुर्ययोस्तौ तथा । गरुडः-सुपर्णकुमारजातीयः वेणुदेवो नाम्ना, अणाढि उत्ति नाम्ना ॥ रत्नमयानि पुष्पफलानि भष्ट विष्कम्भोऽष्ट उच्चत्वं अर्ययोजनमुद्वेधः स्कन्धो द्वियोजनोद्वेषः ॥ १॥ कोशद्वयं विस्तीर्णो विटपो जम्बाः शाखा षट् योजना चतुर्दिशमपि शालाः पौरस्त्यां तत्र शालायां ॥ २॥ भवनं कोशप्रमाणं शयनीयं तत्रानाइतसुरस्य तिरुषु प्रासादाः शालासु तासु सिंहासनानि रम्याणि ॥३॥ % 25AFACE ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः २ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ वर्षधरादिस्व० ॥६९॥ दीप अनुक्रम जंबूमंदरस्स पब्वयस्स य उत्तरदाहिणेणं दो वासहरपव्वया [पं० त०-] बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणता अन्नमन्नं णातिवइंति आयामविक्खंभुचत्तोब्बेहसंठाणपरिणाहेणं, तंजहा-चुलहिमवंते चेव सिहरिचेव, एवं महाहिमवंते व रुप्पिथेव, एवं णिसढे चेव णीलवते चेव, जंवूर्मदरस्स पव्ययस्स उत्तरदाहिणेणं हेमवंतेरण्णवतेसु वासेसु दो वटवेतहुपवता [पं० तं०-] बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता जाव सद्दावाती चेव विवडावाती चेब, तस्थ णं दो देवा महिडिया जाव पलिओबमद्वितीया परिवसंति तं०-साती चेव पभासे चेब, जंबूमंदरस्स उत्तरदाहिणेणं हरिवासरम्मतेसु वासेसु दो बट्टवेयटपथ्षया [पं० सं०-] बहुसम० जाव गंधावाती चेव मालवंतपरियाए चेव, तत्थ णं दो देवा महिडिया चेष जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, ६०-अरुणे चेव पउमे चेव, जंबूमंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं देवकुराए पुवावरे पासे एत्य णं आसक्खंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्वारपव्वया पं० २०-बहुसमा जाव सोमणसे चेव विजुप्पभे चेव, जंवूमंदर उत्तरेणं उत्तरकुराए पुत्वावरे पासे एत्य णं आसक्खंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्यारपव्यया पं० सं०-बहु० जाब गंधमायणे चेव मालवंते चेव, जंबूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो दीहवेयडपध्वया पं० सं०-बहुसमतुल्ला जाव भारहे चेव दीहवेयड़े एरावते चेव दीहवेयड़े, भारहए ण दीहवेयड़े दो गुहाओ पं० २०बहुसमतुल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ अन्नमन्नं णातिबटुंति आयामविक्खंभुचत्तसंठाणपरिणाहणं, तं-तिमिसगुहा चेव खंडगापवायगुहा चेव, तत्थ णं दो देवा महिडिया जाब पलिओवमहितीया परिवसंति, सं०-यमालए चेव नट्टमालए चेव, एरावयए णं दीहवेयड़े दो गुहाओ पं० तं०-जाव कयमालए चेव नट्टमालए चेव । अंबूमंदरस्स पव [८७]] ॥६९॥ ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) ཝཱ ཡྻ सूत्रांक [b] अनुक्रम [८७] 35 36 36 4 34K "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [3]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Education Internation - .......... यस्स दाहिणेणं चुहिमवंते वासहरपव्वए दो कूडा पं० सं०- बहुसमतुल्ला जाव विक्संभुचत्तसंठाणपरिणाहेणं, तंव - हिमवंतकडे चेव वेसमणकूडे चेव, जंबूगंदरदाहिणेणं महाहिमवंते वासहरपञ्चए दो कूडा पं० नं० - बहुसम० जाब महाहिमवन्तकूडे चैव वेरुलियकूडे चैव एवं निसढे वासहरपञ्चए दो कूडा पं० [सं० बहुसमा० जाव निसटकूडे चैव रुगप्प चैव । जंबूमंदर० उत्तरेणं नीलवंते वासहरपव्वए दो कूडा पं० तंत्रसम० जाव सं०-नीलवंतकूडे चैव वदंसणकूडे चैव एवं रुपिभि वासहरपव्यए दो कूटा पं० बहुसम० जाव तं० रुपिकूडे चैव मणिकंचणकूडे चेव, एवं सिरिंगि वासहरपन्वते दो कूडा पं० [सं० बहुसम० जाव तं० सिहरिकूडे चैव तिर्गिछिकूडे पेव (सू० ८७) 'जंबू' इत्यादि, वर्ष- क्षेत्रविशेषं धारयतो व्यवस्थापयत इति वर्षधरी 'चुल्लो'ति महदपेक्षया लघुर्हिमवान चुल्लहिमवान् भरतानन्तरः, शिखरी पुनर्यत्परमैरवतम् तौ च पूर्वापरतो लवणसमुद्राववद्भावायामतश्च चवीस सहस्साई णव य सए जोयणाण बत्तीसे । चुल्लहिमवंतजीवा आयामेणं कलद्धं च ॥ १ ॥ २४९३२८ एवं शिखरिणोऽपि तथा भरतद्विगुणविस्तारौ योजनशतोच्छ्रायों पञ्चविंशतियोजनावगाढौ आयतचतुरस्र संस्थान संस्थितौ परिणाहस्तु तयोः 'वैणयालीस सहरसा सयमेगं नय य वारस कलाओ । अर्द्ध कलाऍ हिमवंतपरिरओ सिहरिणो चैव ॥ १ ॥ ति, ४५१०९ 'एव मिति यथा हिमवच्छिखरिणी 'जंबुद्दीवे' त्यादिनाऽभिलापेनोक्तौ एवं महाहिमवदादयोऽपीति, तत्र १ चतुर्विंशतिः सहस्राणि नय य शतानि द्वात्रिंशक योजनानां हिमायामेन कलाच. २४९३२३ हि० जीया २ पंचचत्वारिंशत्सहस्राणि एक शतं नवाधिकं द्वादश च कलाः । कलाया अ च हिमवत्परिश्यः शिखरिणचैव ॥ १ ॥ परि० ४५१०९-१२ मूलं [२७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 142 ~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [cb] दीप अनुक्रम [८७] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ७० ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [२], उद्देशक (3) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] .......... - महाहिमवाँलध्वपेक्षया, स च दक्षिणतः रुक्मी चोत्तरतः, एवमेव निषधनीलवन्तौ, नवरं एतेषामायामादयो विशेषतः क्षेत्रसमासाद् अवसेयाः, किश्चित्तु तद्गाथाभिरेवोच्यते- 'पंचसए छब्बीसे छच्च कला वित्थडं भरहवासं । दससय बावन्नऽहिया वारस य कलाओ हिमवंते ॥ १ ॥ हेमवए पंचहिया इगवीससया उ पंच य कलाओ। दसहियबायालसया दस य कलाओ महाहिमवे ॥ २ ॥ हरिवासे इगवीसा चुलसीइ सया कला य एक्का य । सोलससहस्स अट्ठ य वायाला दो कला | णिसढे ॥ ३ ॥ तेत्तीसं च सहस्सा छच्च सया जोयणाण चुलसीया । चउरो य कला सकला महाविदेहस्स विक्खंभो ॥ ४ ॥ जोयणसयमुन्विद्धा कणगमया सिहरिचुल्लहिमवंता । रुप्पिमहाहिमवंता दुसउच्चा रुपकणगमया ॥ ५ ॥ चत्तारि जोयणसए उब्विद्धा णिसढणीलवन्ता य। णिसहो तवणिज्जमओ वेरुलिओ नीलवंतगिरी ॥ ६ ॥ उस्सेहचउब्भागो ओगाहो पायसो नगवराणं । वट्टपरिही उतिउणो किंचूणछभायजुत्तो य ॥ ७ ॥' ति, चतुरस्रपरिधिस्तु आयाम विष्कम्भद्विगुण इति । 'जंबू' इत्यादि 'दो वहवेयपव्वय'त्ति, द्वौ वृत्तौ पल्याकारत्वाद् वैताढ्यौ नामतः तौ च तौ पर्वतौ चेति वि Internationa १] शिधिकानि पंच शतानि षट् च कला विस्तृतं भरतक्षेत्रं द्विपंचाशदधिकाने दश शतानि द्वादश च कला हिमवतः ॥ १ ॥ हैमवते पंचाधिकान्येकविंशतिशतानि पंच च कलाः । दशाधिकानि द्विचत्वारिंशच्छतानि दश च कलाः महाहिमवति ॥ २ ॥ हरिवर्षे एकविंशत्यधिकानि चतुरशीतिः शतानि कर चैका षोडशसहस्राणि अष्टशताधिकानि द्विचत्वारिंशत् द्वे च कड़े निषये ॥ ३ ॥ त्रयत्रिंशत्सहाणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकाल योजनानां चत कला सकलाः महाविदेहस्य विष्कम्भः ॥ ४ ॥ शतयोजनोची कनकमयो शिखरमयन्ती । रुक्मिनामवन्तद्विशतोथी रूप्यकनकमयौ ॥ ५ ॥ योजनचतुःशतोची निषधनवन्ती निषधस्वपनीयमयो वैद्धयों नीलवान् गिरिः ॥ ६॥ उत्सेध चतुर्भागोऽवगाहः प्रायशो नगवराणां वृत्तपरिरयस्त्रिगुणः किंचिदूनपड्भागयुक्त इति ॥ ७ ॥ मूलं [२७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 143~ २ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ वर्षधरादिख० ॥ ७० ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८७] दीप अनुक्रम [८७] ग्रहः, सर्वतः सहस्रपरिमाणौ रजतमयौ, तत्र हैमवते शब्दापाती, उत्तरतस्तु ऐरण्यवते विकटापातीति, 'तत्यत्ति तयोहा वृत्तवैताढ्ययोः क्रमेण स्वातिप्रभासौ देवौ वसतः, तनवनभावादिति । एवं हरिवर्षे गन्धापाती रम्यगूवर्षे माल्यवत्पर्यायो देवी च क्रमेणैवेति ॥ 'जंबू' इत्यादि 'पुवावरे पासे'त्ति, पार्श्वशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् पूर्वपार्थेऽपरपाचे च, किंभूते?-पत्थ'त्ति प्रज्ञापकेनोपदयमाने क्रमेण सौमनसविद्युत्बभौ प्रज्ञप्ती, किम्भूतौ ?-अश्वस्कन्धसदृशावादौ निम्नौ पर्यवसान उन्नती, यतो निषधसमीपे चतुःशतोच्छ्रिती मेरुसमीपे तु पञ्चशतोच्छिताविति, आह च-"वासहरगिरितेणं रुंदा पंचेव जोयणसयाई । चत्तारिसउब्बिद्धा ओगाढा जोयणाण सयं ॥ १॥ पंचसए उम्बिद्धा ओगाढा पंच गाउयसयाई । अंगुलअसंखभागो विच्छिन्ना मंदरतेणं ॥२॥ वैक्खारपब्वयाणं आयामो तीस जोयणसहस्सा । दोन्नि | य सया णवाहिया छप कलाओ चउण्हं पि ॥ ३॥" त्ति, 'अवरचंद'त्ति अपकृष्टमर्दू चन्द्रस्यापार्द्धचन्द्रस्तस्य यत्संस्थानम्-आकारो गजदन्ताकृतिरित्यर्थः, तेन संस्थितावपार्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिती, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति कचिसाठः, तत्र अर्द्धशब्देन विभागमा विवक्ष्यते, नतु समप्रविभागतेति, ताभ्यां चार्द्धचन्द्राकारा देवकुरवः कृता, अत एवं वक्षाराकारक्षेत्रकारिणी पर्वतो वक्षारपर्वताविति । 'जंबू' इत्यादि तथैव, नवरं अपरपार्चे गन्धमादनः पूर्वपार्चे माल्यवानिति । 'दो दीहवेयहुत्ति, वृत्तवैताठ्यव्यवच्छेदार्थ दीर्घग्रहणं, वैताब्यौ विजयान्यौ वेति संस्कारः, तौ च भरतैरा वर्षधरगिवन्ते विस्तृताः पंचव योजनशतानि चतुःशतीचाः योजनानां शतमवगादाः॥१॥२ पंचशसोपा पंचशतगब्यूतावगाडाः । अंगुलासंख्यभागविस्तीर्णा | मन्दरसमीपे. ।। २॥ वक्षस्कारपवेत्तानामायामधिशद्योजनसहवाणि द्वे शते नवाधिके पद का चतुर्णामपि ॥३॥ ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८७] दीप अनुक्रम [८७] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ॥ ७१ ॥ ॐ वर्षधरादिख० वतयोर्मध्यभागे पूर्वापरतो लवणोदधिं स्पृष्टवन्तौ पञ्चविंशतियोजनोच्छ्रितौ तत्पादावगाढौ पञ्चाशद् विस्तृतौ आयतसंस्थितौ सर्वराजतावुभयतो वहिः काञ्चनमण्डनाङ्काविति, आह च - "पेणुवीसं उविद्धो पन्नासं जोयणाण विच्छिन्नो । * वेयहो रययमओ भारहखेसरस मज्झम्मि ॥ १ ॥” त्ति, 'भारहए ण' मित्यादि, वैताढ्येऽपरतस्तमिश्रागुहा गिरिविस्ता + उद्देश: छ ४) रायामा द्वादशयोजनविस्ताराष्ट्रयोजनोच्छ्रया आयतचतुरस्रसंस्थाना विजयद्वारप्रमाणद्वारा वज्रकपाटपिहिता बहुमध्ये द्वियोजनान्तराभ्यां त्रियोजनविस्ताराभ्यामुन्मग्नजलानिमग्नजलाभिधानाभ्यां नदीभ्यां युक्ता, तद्वत् पूर्वतः खण्डप्रपाता गुहेति । 'तत्थ णं'ति तयोः तमिस्रायां गुहायां कृतमाल्यक इतरस्यां नृत्तमालक इति । 'एरावए' इत्यादि तथैव । 'जंबू' इत्यादि, हिमवद्वर्षघरपर्वते येकादश कूटानि सिद्धायतन १ लहिमवत् २ भरत ३ इला ४ गङ्गा ५ श्री ६ रोहितांशा ७ सिन्धु ८ सुरा ९ हैमवत १० वैश्रमण ११ कूटाभिधानानि भवन्ति, पूर्वदिशि सिद्धायतनकूटं ततः क्रमेणापरतोऽन्यानि सर्वरलमयानि स्वनामदेवतास्थानानि पश्चयोजनशतोच्छ्रयाणि तावदेव मूले विस्तृतानि उपरि तदर्द्धविस्तृतानि, आद्ये सिद्धायतनं पञ्चाशयोजनायामं तदर्द्धविष्कम्भं षटूत्रिंशदुच्चं अष्टयोजनायामैश्चतुर्योजन विष्कम्भप्रवेशैस्त्रिभिर्द्वारैरुपेतं जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतसमम्बिर्त, शेषेषु प्रासादाः सार्द्धद्विपष्टियोजनोच्या स्तदर्द्धविस्तृतास्तन्निवासि देवता सिंहासनवन्त इति । इह तु प्रकृतनगनाय कनिवासभूतत्वाद्देवनिवासभूतानां तेषां मध्ये आद्यत्वाच्च हिमवत्कूटं गृहीतं सर्वान्तिमत्वाच्च वश्रवणकूटं द्विस्थानकानुरोधेनेति, आह च – “केत्थइ देसग्गहणं कत्थर घेप्पंति निरवसेसाई । उक्कमकमजुत्ताई कार१ पंचविशतिरुद्वेषः पंचाशयोजनानां विस्तीर्णः । वैतायो रजतमयो भरतक्षेत्रस्य मध्ये ॥ १ ॥ २ कुत्रचिदेशमहणं कापिखन्ते निरवशेषाणि । उक्रमकमयुक्तानि कारणवशतो नियुकानि ॥ १ ॥ Education International For Parts Only मूलं [८७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 145~ २ स्थान काध्ययने ।। ७१ ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम णवसओ निउत्ताई ॥१॥" ति कूटसङ्ग्रहश्चार्य-"वेयड ९ मालवंते ९ विजुप्पह ९ निसह ९णीलवंते य ९। णव णव कूडा भणिया एकारस सिहरि ११ हिमवंते ११ ॥१॥ रुप्पि ८ महाहिमवंते ८ सोमणसे ७ गंधमायणनगे य ७ । अMEढ सत्त सत्त य वक्खारगिरीसु चत्तारि ॥२॥"त्ति । 'जंबू' इत्यादि, महाहिमवति ह्यष्टौ कूटानि, सिद्ध १ महाहि*मवत् २ हैमवत् ३ रोहिता ४ ही ५ हरिकान्ता ६ हरि ७ वैडूर्य ८ कूटाभिधानानि, दयग्रहणे च कारणमुक्तमिति । एवं'मित्यादि, एवंकरणात् 'जंबू' इत्यादिरभिलापो दृश्यः, निषधवर्षधरपर्वते हि सिद्ध १ निषध २ हरिवर्ष ३ प्राग्विदेह ४ हरि ५ धृति ६ शीतोदा ७ अपरविदेह ८ रुचकाख्यानि ९ स्वनामदेवतानि नव कूटानि, इहापि द्वितीयान्त्ययोहणं प्राग्वद् व्याख्येयमिति । 'जंबू'इत्यादि, नीलवर्षधरपर्वते हि सिद्ध १नील २ पूर्व विदेह ३ शीता ४ कीर्ति ५ नारीकान्ता21 परविदेह ७ रम्यक ८ उपदर्शना ९ ख्यानि नव कूटानि, इहापि द्वितीयान्त्यग्रहणं प्राग्वदिति । एव'मित्यादि, रुक्मिवर्षधरे हि सिद्ध १ रुक्मि २ रम्यक ३ नरकान्ता ४ बुद्धि ५ रौप्यकूला ६ हैरण्यवत् ७ मणिकाश्चनकूटा ८ ख्यानि | अष्ट कूटानि, द्वयाभिधानं च प्राग्वदिति । 'एवं मित्यादि शिखरिणि हि वर्षधरे सिद्ध १ शिखरि २ हैरण्यवत ३ सुरादेवी ४ रक्का ५ लक्ष्मी ६ सुवर्णकूला ७ रक्तोदा ८ गन्धापाति ९ ऐरावती १० तिगिच्छिकूटा ११ ख्यानि एकादश | कूटानि, इहापि द्वयोग्रहणं तथैवेति ॥ बैताये माल्यवति । विद्युत्भे निषधे नीलवति च नव नव कूटानि भगितानि एकादश शिसरि हिमपति ॥ १॥ विममहाहिमवतोः सीमनसगन्धमादननगयोः । अथाष्ट सप्त सप्त व वक्षस्कारगिरिषु चत्वारि ॥३॥ [८७] 55%E5%-564 ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः २ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ दिदादिस्व० ॥७२॥ दीप अनुक्रम [८८] 462525-25962 जंबूमंदर० उत्तरदाहिणेणं चुलहिमवंतसिहरीसु वासहरपव्वयेसु दो महदहा पं० २०-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं णातिवटुंति, आयामविक्खंभउज्वेहसंठाणपरिणाहणं, सं०-पउमदहे चेव पुंडरीयदहे चेव, तस्थ णं दो देवयाओ महडियाओ जाव पलिओवमद्वितीयाओ परिवसति, ०-सिरी चेव लच्छी घेव, एवं महाहिमवंतरुप्पीमु वास हरपन्चएसु दो महदहा पं० २०-बहुसम० जाव तं०-महापउमरहे चेव महापोंडरीयरहे चेव, देवताओ हिरिशेव बुद्विजेव, एवं निसढनीलवंतेमु तिगिछिदहे चेव केसरिबहे चेव, देवताओ धिती चेव कित्तिश्चेव, जंबूमंदर० दाहिणणं महाहिमवंताओ वासहरपव्यवाओ महापउमदहाओ दहाओ दो महाणईओ पवहंति, तं०-रोहियचेव हरिकतथेव, एवं निसढाओ वासहरपब्बताओ तिगिछिदहाओ दो म० --हरिश्चेव सीओअशेव, जंबूमंदर० उत्तरेणं भीलवंताओ वासहरपब्वताओ केसरिदहाभो दो महानईओ पवहंति, तं०-सीता चेव नारिकता चेब, एवं रुप्पीओ वासहरपव्यताओ महापोंबरीयदहाओ दो महानईओ पवहंति, तं०-णरकता चेव रुप्पकूला घेव, जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे वासे दो पवायदहा पं० २०-बहुसम० त०-गप्पवातदहे चेव सिंधुष्पवायदहे चेव । एवं हिमवए वासे दो पवायदहा पं० २० -बहु० सं०-रोहियप्पवातहहे चेव रोहियंसपवातहहे चेव, जंबूमंदरदाहिणेणं हरिवासे वासे दो पवायदहा पं० बहुसम० तं०-हरिपवातहहे चेव हरिकंतपवातहहे चेव, जंवूमंदरउत्तरदाहिणणं महाविदेहवासे दो पवायदहा पं० बहुसम० जाव सीअप्पवातहहे चेव सीतोदष्पवायदहे चेव, जंबूर्मदरस्स उत्तरेणं रम्मए वासे दो पवायदहा पं० सं०-बहु० जाब नरकंतपवायदहे व णारीकतप्पवायहहे चेव, एवं हेरन्नवते वासे दो पवायदहा पं० सं०-बहु० सुवन्नकूलपवायदहे ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) ཁྲལླཱ ཡྻ अनुक्रम स्थान [२], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] **%% % % % % % *%% “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [८८] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः चैव रुपकूलप्पवायदद्दे चेव, जंबूमंदरउत्तरेणं एरवाए वासे दो पवायदहा पं० बहु० जाव रत्तप्पवायदद्दे चैव रतावइपवायरहे चेत्र, जंबूमंदरदाहिणणं भरहे वासे दो महानईओ पं० बहु० जाब गंगा चैव सिंधू चेव, एवं जधा पवातद्ददा एवं ईओ भाणियव्वाओ, जाव एरवए वासे दो महानईओ पं० बहुमतुलाओ जव रत्ता चैव रचवती चैवा (सू०८८) 'जंबू' इत्यादि, इह च हिमवदादिषु षट्सु वर्षधरेषु क्रमेणैते पद्मादयः पडेव हदाः, तद्यथा - "पेडमे य १ महापरमे २ तिगिंछी ३ केसरी ४ दहे चेव । हरए महपुंडरिए ५ पुंडरीए चैव य ६ दहाओ ॥ १ ॥” हिमवत उपरि बहुमध्यभागे पद्महद इति पद्महदनामा हदः, एवं शिखरिणः पौण्डरीकः, तौ च पूर्वापरायती सहस्रं पञ्चशतविस्तृती चतुष्कोणी दशयोजनावगाढौ रजतकूल वज्रमयपापाणी तपनीयतलौ सुवर्णमध्यरजतमणिवालुको चतुर्दशमणिसोपानौ शुभाबतारौ तोरणध्वजच्छत्रादिविभूषितौ नीलोसलपुण्डरीकादिचितो विचित्रशकुनिमत्स्यविचरितौ षट्पदपदलोपभोग्याविति । 'तस्थ णं'ति, तयो:-महाह्रदयोर्द्धे देवते परिवसतः पद्महदे श्रीः पौण्डरीके लक्ष्मीः, ते च भवनपतिनिकायाभ्यन्तरभूते, पल्योपमस्थितिकत्वाद्, व्यन्तरदेवीनां हि पल्योपमार्द्धमेवायुरुत्कर्षतोऽपि भवति, भवनपतिदेवीनां तूत्कर्षतोऽर्द्धपञ्चमपल्थोपमान्यायुर्भवतीति, आह च - "अड अद्धपंचम पलिओदम असुरजुयलदेवीणं । सेस Education Internation १ पद्मो महापद्मश्च तिमिच्छी केशरी हृदय । हदी महापुण्डरीकः पुण्डरीकक्षैव च हृदाः ॥ १ ॥ शिखरपर्वतस्योपरि बहुमध्यभागे हृदः प्र. अधिकम् । * निर्मलके वालो कालो कि त्रिभुवनश्रीजिनराजपरिभाषितानि आ० प्र. अधिकम् २ सात्रयाचमपल्यपमानि असुरयुगलदेवीनां शेषाणां For Para Use Only ~148~ yor Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत २स्थानकाध्ययने उद्देशः३ इदनद्यादिस्वरूपं दीप अनुक्रम [८८] श्रीस्थाना-15ावणदेवयाणं देसूर्ण अद्धपलियमुकोसं ॥१॥" ति, तयोश्च महाइदयोर्मध्ये योजनमाने पद्मे अर्जुयोजनवाहल्ये दशा-1 ङ्गसूत्र- वगाहे जलान्तादू द्विकोशोच्छ्ये वज्र १ रिष्ठ २ वैडूर्य ३ मूल १ कन्द २ नाले वैडूर्य १ जाम्बूनद २मयबाह्यावृत्तिः भ्यन्तररपत्रे कनककणिके तपनीयकेसरे, तयोः कर्णिके अर्द्धयोजनमाने तदर्द्धवाहस्ये तदुपरि देव्योर्भवने इति । 'एच' मित्यादि, महाहिमवति महापद्मो रुक्मिणि तु महापौण्डरीका, तौ च द्विसहस्रायामी तदर्द्धविष्कम्भौ द्वियोजनमा॥७३॥ नपद्मव्यासवन्ती, तयोर्दैवते परिवसतो महापझे हीमहापुण्डरीके बुद्धिरिति । 'एव'मित्यादि, निषधे तिगिंछहदे धृतिदेवता नीलवति केसरिहदे कीतिर्देवता, तौ च हूदी चतुर्द्विसहस्रायामविष्कम्भाविति, भवति चात्र गाथा-"एएसु सुरवहूओ वसति पलिओवमद्वितीयाओ। सिरिहिरिधितिकित्तीओ बुद्धीलच्छीसनामाओ ॥१॥" ति। 'जंबू' इत्यादि, तत्र रोहिनदी महापद्महदादक्षिणतोरणेन निर्गत्य षोडश पञ्चोत्तराणि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणतो गिरिणा गया। |हाराकारधारिणा सातिरेकयोजन द्विशतिकेन प्रपातेन मकरमुखप्रणालेन महाहिमवतो रोहिदभिधानकुण्डे निपतति, मकरमुखजिह्वा योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेन कोशं वाहल्येन, रोहितप्रपातकुण्डाय दक्षिणतोरणेन निर्गत्य हैमवतवर्षमध्यभागवतिनं शब्दापातिवृत्तवैताम्यमर्चयोजनेनाप्राप्याष्टाविंशत्या नदीसहत्रैः संयुज्याधो जगतीं |विदार्य पूर्वतो लवणसमुद्रमतिगच्छतीति, रोहिनदी हि प्रबाहेऽर्द्धत्रयोदशयोजनविष्कम्भा कोशोद्वेधा ततः क्रमेण वर्द्धमाना मुखे पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतविष्कम्भा सार्द्धद्वियोजनोद्वेधा, उभयतो वेदिकाभ्यां बनखण्डाभ्यां च युक्ता, एवं १ वनदेवतामा देशोनमर्धपत्यमुक्कष्ट ॥ १॥ २ एतेषु (हदेष) सुरवध्वो बसन्ति पल्योपमस्थितिकाः । धीहीकृति कीर्तियुद्धिलक्ष्मीसनामयः ॥ १॥ ॥७३॥ ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत [८] दीप अनुक्रम [८] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [८८] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सर्वा महानद्यः पर्वताः कूटानि च वेदिकादियुक्तानीति, हरिकान्ता तु महापद्महदादेवोत्तरतोरणेन निर्गत्य पश्चोत्तराणि षोडश शतानि सातिरेकाणि उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्या सातिरेकयोजनशतद्वयप्रमाणेन प्रपातेन हरिकान्ताकुण्डे तथैव प्रपतति, मकरमुखजिह्निकाप्रमाणं पूर्वोक्तद्विगुणं ततः प्रपातकुण्डादुत्तरतोरणेन निर्गत्य हरिवर्षमध्यभागवर्त्तिनं गन्धा| पातिवृत्तवैताढ्यं योजनेनासम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखीभूता षट्पञ्चाशता सरित्सहस्रैः समग्रा समुद्रमभिगच्छति, इयं च हरिकान्ता प्रमाणतो रोहिनदीतो द्विगुणेति । 'एवमित्यादि, एवमिति 'जंबूदीवे' त्याद्यभिलापसूचनार्थः । हरिन्महानदी तिगिंछिदस्य दक्षिणतोरणेन निर्गत्य सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि चैकविंशत्यधिकानि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षि णाभिमुखी पर्व्वतेन गत्वा सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन हरिकुण्डे निपत्य पूर्वसमुद्रे प्रपतति शेषं हरिकान्तासमानमिति । शीतोदामहानदी तिगिंछिदस्योत्तरतोरणेन निर्गत्य तावन्त्येव योजनसहस्राणि गिरिणा उत्तराभिमुखी गत्या सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन शीतोदाकुण्डे निपततीति, जिह्निका मकरमुखस्य चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशद्विष्कम्भेण योजनं बाहल्येन कुण्डादुत्तरतोरणेन निर्गत्य देवकुरून् विभजन्ती चित्रविचित्रकूट पर्वतों निषधदादश्च पञ्च हृदान् द्विधा कुर्वती चतुरशीत्या नदीसहस्रैरापूर्यमाणा भद्रशालयनमध्येन मेरुं योजनद्वयेनाप्राप्ता प्रत्यसुखी आवर्त्तमाना अधो विद्युत्प्रभं वक्षारपर्वतं दारयित्वा मेरोरपरतोऽपर विदेहमध्यभागेन एकैकस्माद् विजयादष्टाविं शत्या अष्टाविंशत्या नदीसहस्त्रैरापूर्यमाणा अधो जयन्तद्वारस्य अपरसमुद्रं प्रविशतीति शीतोदा हि प्रवाहे पञ्चाशयोज नविष्कम्भा योजनोद्वेधा ततो मात्रया परिवर्द्धमाना मुखे पञ्चयोजनशतविष्कम्भा दशयोजनोद्वेधेति । 'जंत्र' इत्यादि, Education Internation For Palata Use Only ~ 150 ~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत मसूत्र वृत्तिः काध्ययने उद्देशः३ इदनद्यादिस्वरूपं दीप अनुक्रम [८८] श्रीस्थाना- शीता महानदी केसरिहदस्य दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य कुण्डे पतित्वा मेरोः पूर्वतः पूर्वविदेहमध्येन विजयद्वारस्याधः पूर्व समुद्रं शीतोदासमानशेषवक्तव्या प्रविशतीति । नारीकान्ता तु उत्तरतोरणेन निर्गत्य रम्यकवर्ष विभजन्ती हरिन्महानदी- समानवक्कच्या रम्यकवर्षमयेनापरसमुद्रं प्रविशतीति । 'एव'मित्यादि, नरकान्ता महापुण्डरीकइदादक्षिणतोरणेन विनि र्गत्य रम्यकवर्ष विभजन्ती हरिकान्तातुल्यवक्तव्या पूर्वसमुद्रमधिगता । रूप्यकूला तु तस्यैवोत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ऐर७४R ण्यवद्वर्ष विभजन्ती रोहिनदीतुल्यवक्तव्या अपरसमुद्रं गच्छतीति । 'जंबू' इत्यादि, 'पवायदह'त्ति प्रपतनं प्रपातस्तदुपलक्षिती हूदी प्रपातहूदी, इह यत्र हिमवदादे गात् गङ्गादिका महानदी प्रणालेनाधो निपतति स प्रपातहद इति, प्रपातकुण्डमित्यर्थः, 'गंगापवायदहे चेवत्ति हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्तिपद्मइदस्य पूर्वतोरणेन निर्गत्य पूर्वाभिमुखी पञ्च | योजनशतानि गत्वा गङ्गावर्तनकूटे आवृत्ता सती पञ्च त्रयोविंशत्यधिकानि योजनशतानि साधिकानि दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा गङ्गामहानदी अर्द्धयोजनायामया सक्रोशषड्योजनविष्कम्भयाऽर्धक्रोशवाहल्यया जिहिकया युक्तेन विवृतमहामकरमुखप्रणालेन सातिरेकयोजनशतिकेन च मुक्तावलीकल्पेन प्रपातेन यत्र प्रपतति यश्च पष्टियोजनायामविकम्भः किश्चिन्यूननवत्युत्तरशतपरिक्षेपो दायोजनोद्वेधो नानामणिनिबद्धः यस्य च पूर्वापरदक्षिणासु त्रयस्त्रिसोपानप्रतिरूपकाः सविचित्रतोरणाः मध्यभागे च गङ्गादेवीद्वीपोऽष्टयोजनायामविष्कम्भः सातिरेकपचविंशतिपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोच्छितो वज्रमयो गङ्गादेवीभवनेन कोशायामेन तद विष्कम्भेन किश्चिदूनकोशोचेनानेकस्तम्भशतसन्निविष्टेनालङ्कातोपरितनभागः, यतश्च दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य प्रवाहे सक्रोशषड़योजनविष्कम्भाऽर्द्धकोशोधा गङ्गा उत्त ॥७४ ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत [८] दीप अनुक्रम [८] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], मूलं [८८] उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः रभरतार्द्ध विभजन्ती सप्तभिः नदीसहस्रैरापूर्यमाणा अधः पूर्वतः खण्डप्रपातगुहाया वैताढ्यपर्वतं विदार्य दक्षिणार्द्ध भरतं विभजन्ती तन्मध्यभागेन गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्द्दशभिर्नदीसहस्रैः समग्रा मुखे सार्द्धद्विषष्टियोजनविष्कम्भा सक्रोशयोजनोद्वेधा जगतीं विदार्य पूर्वलवणसमुद्रं प्रविशति स गङ्गाप्रपातहूदः, एतदनुसारेण सिन्धुप्रपातह दोऽपि व्याख्यातव्यः, अत एव एतौ बहुसमादिविशेषणावायामविष्कम्भोद्वेधपरिणाहैर्भावनीयाविति, सर्व एव प्रपातहूदा दशयोजनोद्वेधा वक्तव्या इति । यश्चेह वर्षधरनद्यधिकारे गङ्गासिन्धुरोहितांशानां तथा सुवर्णकूलारक्कारक्तवतीनामनभिधानं तद् द्विस्थानकानुरोधात्, तासां हि एकैकस्मात् पर्वतात् त्र्यं त्र्यं प्रवहतीति द्विस्थानके नावतार इति । 'एव'मित्यादि, एवमिति प्राग्वत् 'रोहियप्पवायद हे चैवत्ति रोहिदू-उक्तस्वरूपा यंत्र प्रपतति यश्च सविंशतिकं योजनशतमायामविष्कम्भाभ्यां किञ्चिन्यूनाशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि परिक्षेपेण यस्य च मध्यभागे रोहिद्वीपः षोडशयोजनायामविष्कम्भः सातिरेकपञ्चाशद्योजन परिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोच्छ्रितो यश्च रोहिद्देवताभवनेन गङ्गादेवताभवनसमानेन विभूषितोपरितनभागः स रोहिअपातह्रद इति । 'रोहियंसप्पवायदहे चेव'ति हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्त्तिपद्महदोत्तरतोरणेन निर्गत्य रोहितांशा महानदी द्वे षट्सप्तत्युत्तरे योजनशते सातिरेकं उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा योजनायामया अर्द्धत्रयोदशयोजन विष्कम्भया क्रोशवाहल्यया जिह्निकया विवृतमकरमुखप्रणालेन हाराकारेण च सातिरेकयोजनशतिकेन प्रपातेन यत्र प्रपतति यश्च रोहिमपातकुण्डसमानमानः तस्य मध्ये रोहितांशद्वीपो रोहिद्वीपसमानमानः रोहितांशाभयनेन प्रागुक्तमानेनालङ्कृतः, यतश्च रोहितांशानदी रोहिनदीसमानमाना उत्तरतोरणेन निर्गत्य पश्चिमसमुद्रं Ja Education International For Penal Use On ~152~ waryra Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत इसत्र दीप अनुक्रम [८८] श्रीस्थाना- प्रविशति स रोहितांशाप्रपातहद इति । 'जंबू' इत्यादि, 'हरिप्पवायदहे चेव'त्ति हरिनदी पागुक्तलक्षणा यत्र निपतति | M२ स्थान यश्च द्वे शते चत्वारिंशदधिके आयामविष्कम्भाभ्यां सप्त शतानि एकोनषष्ट्याधिकानि परिक्षेपेण यस्य च मध्यभागे हरिद्देव- काध्ययने ताद्वीपः द्वात्रिंशद्योजनायामविष्कम्भः एकोत्तरशतपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोच्छ्रितो हरिदेवताभवनभूषितोपरितन- उद्देशः३ भागोऽसौ हरिप्रपात हद इति । 'हरिकंतप्पवायदहे चेव'त्ति हरिकान्तोक्तरूपा महानदी यत्र निपतति यश्च हरित्कुण्ड-| लाइदनद्यासमानो हरिद्वीपसमानेन हरिकान्तादेवीद्वीपेन सभवनेन भूपितमध्यभागः स हरिकान्ताप्रपातहूद इति । 'जंबू' इत्यादि, दिस्वरूपं 'सीयप्पवायदहे चेब'त्ति यत्र नीलवतः शीता निपतति यश्च चत्वार्यशीत्यधिकानि योजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां पञ्चदशाष्टादशोत्तराणि विशेषन्यूनानि परिक्षेपेण यस्य च मध्ये शीताद्वीपश्चतुःषष्टियोजनायामविष्कम्भो युत्तरयोजनशतद्वयपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोहितः शीतादेवीभवनेन विभूषितोपरितनभागः स शीताप्रपातहूद इति, 'सीतोदप्पवायदहे वत्ति यत्र निषधाच्छीतोदा निपतति स शीतोदाप्रपातहदः शीताप्रपातहदसमानः स शीतादेवीद्वीपभवनसमानशीतोदादेवीद्वीपभवनश्चेति । 'जंबू इत्यादि, नरकान्तानारीकान्ताप्रपातइदौ च हरिकान्ताहरिप्रपातहदसमानौ स्वसमाननामद्वीपदेविकाविति । 'एवं'मित्यादि, सुवर्णकूलारूप्यकूलाप्रपातहूदी रोहितांशारोहियपातहदसमानवक्तव्यो, ४ विशेषस्तूह्य इति । 'जंबू' इत्यादि रकारक्तवतीप्रपातहूदी गङ्गासिन्धुप्रपातहदसमानवक्तव्यो, नवरं रक्का पूर्वोदधिगा|मिनी रक्तवती तु पश्चिमोदधिगामिनीति । 'जंबू' इत्यादि 'जंबुद्दीवे २ मंदरस्स दाहिणणं भरहे वासे दो महानदीओ' इत्यादि, 'एवं'मिति अनन्तरकमेण 'जह'त्ति यथा पूर्व वर्षे २ द्वौ द्वौ प्रपातहदाबुक्की एवं नद्यो वाच्याः, ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [८] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (3) स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .......... Internationa - ताश्चैवं "गंगा १ सिंधू २ तह रोहियंस ३ रोहीणदी य ४ हरिकंता ५। हरिसलिला ६ सीयोया ७ सत्तेया होंति दाहिणओ ॥ १ ॥ सीया व १ नारिकांता २ नरकांता चेव ३ रुप्पकूला ४ य । सलिला सुबण्णकूला ५ रत्तवती र ७ उत्तरओ ॥ २ ॥” इति । जम्बूद्वीपाधिकारात् क्षेत्रव्यपदेश्यपुद्गलधर्माधिकाराच्च जम्बूद्वीपसम्बन्धि भरतादिसत्क काललक्षणपर्यायधर्माननेकधाऽष्टादशसूत्र्याऽऽह मूलं [ CC ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः जंबूदरीवे २ भरवसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमदू समाए समाए दो सागरोवमकोडाकोडीओ फाले होत्या १, एवमिमी से ओसप्पिणीए जाव पन्नत्ते २ एवं आगमिस्साए उस्सप्पिणीए जाव भविस्सति ३, जंबूदीवे दीवे भरहेरवसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमाए समाए मणुया दो गाउयाई उ उचत्तेनं होत्था ४, दोन्नि य पलिओचमाई परमा पालइत्या ५, एवमिमीसे ओसप्पिणीए जाव पाठविस्था ६, एवमागमेस्लाते उस्सप्पिणीए जाव पालिस्संति ७, जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेस एगसमये एगजुगे दो अरिहंतसा उप्पलिंसु वा उप्पजंति वा उपज्जिस्तंति वा ८, एवं चक्कवट्टिबंसा ९, दसारवंसा १०, जंबूभर हेरवएतु एगसमते दो अरहंता उपसुि वा उपज्वंति वा उप्पजिस्संति वा ११ एवं चक्कवट्टिणो १२, एवं वलदेवा एवं वासुदेवा ( दसारखंसा) जाव उप्पजिंसु वा उपज्जंति वा उपज्जिस्संति वा १३, जंबू० दोसु कुरासु मणुआ सया सुसमयसममुत्त मिडि पत्ता पचणुब्भवमाणा विहरंति, तं० देवकुराए चैव उत्तर १ गंगासिन्धू तथा रोहितांशा रोहिनदी व हरिकान्ता । हरिसडिला शीतोदा सप्ता भवन्ति दक्षिणस्यां ॥१॥ शीता च नारीकान्ता नरकान्ता चैव रु प्यकूला व सलिला सुवर्णकुला रवती रक्ता पोतरस्यां ॥ २ ॥ For Parts Only ~ 154 ~ wor Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थानागसूत्र २ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ सुषमादुःपमादिस्व० ॥७६॥ दीप अनुक्रम [८९] कुराए चेव १४, जंबुरीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सया सुसमुत्तमं इईि पत्ता पचणुब्भवमाणा विहरति तं--हरिवासे चेव रम्मगवासे व १५, जंबू० दोसु वासेसु मणुया सया सुसममुत्तममिडि पत्ता पश्चणुब्भवमाणा विहरति तं०-हेमचए व एरनवए चेव १६, जंबुदीवे दीवे दोमु खित्तेसु मणुया सया दूसमसुसममुत्तममिट्टि पत्ता पक्षणुब्भवमाणा विहरैति, सं०-पुब्वविदेहे चेव अवरविदेहे चेव १७, जंबूदीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया छब्विहंपि कालं पचणुभवमाणा विहरति, तं०-भरहे चेव एरवते चेव १८, (सू०८९) सुगमानि चैतानि, नवरं 'सीताए'त्ति अतीता या उत्सर्पिणी प्राग्वत् तस्यां तस्या वा सुपमदुष्षमाया:-बहुसुषमायाः समायाः-कालविभागस्य चतुर्थारकलक्षणस्य 'कालो'त्ति स्थितिः प्रमाण वा 'होत्यत्ति बभूवेति । 'एव'मिति जंबुद्दीवे २ इत्यादि उच्चारणीयम् , णवरं 'इमीसेत्ति अस्यां प्रत्यक्षायां वर्तमानायामित्यर्थः, अवसर्पिण्यां-उतार्थायां, 'जाव'त्ति सुसमदूसमाए समाए-तृतीयारक इत्यर्थः, 'दो सागरोवमकोडाकोडीओ काले' 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्ते इति पूर्वसूत्राद्विशेषः, पूर्वसूत्रे हि होत्यत्ति भणितमिति । एवं'मित्यादि, 'आगमिस्साए'त्ति आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यामिति भविष्यतीति पूर्व| सूत्राद्विशेषः, 'जम्बू' इत्यादि सुषमायां पञ्चमारके 'होत्थ'त्ति बभूवुः, 'पालयित्व'त्ति पालितवन्तः पूर्वसूत्राद्विशेषः। 'जंबु' इत्यादि, 'एगजुगे'त्ति पञ्चाब्दिकः कालविशेषो युगं तत्रैकस्मिन् तस्याप्येकस्मिन् समये 'एगसमए एगजुगे' इत्येवं पाठे|ऽपि व्याख्योतक्रमेणैव, इत्थमेवार्थसम्बन्धादन्यथा वा भावनीयेति । द्वावहतां वंशौ-प्रवाहावेको भरतप्रभवोऽन्य ऐरवतप्रभव इति । 'दसारत्ति दसारा:-समयभाषया वासुदेवाः । 'जंबू' इत्यादि, सदा-सर्वदा 'सुसमसुसमंति ॥७६॥ ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम [८९] प्रथमारकानुभागः सुषमसुषमा तस्याः सम्बन्धिनी या सा सुषमसुषमैव तां उत्तमद्धि-प्रधानविभूति उच्चस्त्वायु:कल्पवृक्षदत्तभोगोपभोगादिकां प्राप्ताः सन्तस्तामेव प्रत्यनुभवन्तो-वेदयन्तो न सत्तामात्रेणेत्यर्थः, अथवा सुषमसुषमां-कालविशेष प्राप्ताः-अधिगता उत्तमामृद्धिं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-आसत इति, अभिधीयते च-"दोसुवि कुरासु मणुया तिपल्लपरमाउणो तिकोसुच्चा । पिहिकरंडसयाई दो छप्पन्नाई(तु) मणुयाणं॥१॥सुसमसुसमाणुभावं अणुभवमाणाणऽवबगोवणया । अउणापन्नदिणाई अहमभत्तस्स आहारो॥२॥” इति । देवकुरवो दक्षिणाः उत्तरकुरव उत्तरास्तेष्विति । 'जंबू' इत्यादि, 'सुसमति सुषमा द्वितीयारकानुभागः, शेषं तथैव, पठ्यते च-"हेरिवासरंमएमुं आउपमाणं सरीरउ|स्सेहो । पलिओवमाणि दोन्नि उ दोन्नि य कोसा समा भणिया ॥१॥छहस्स य आहारो चउसडिदिणाणुपालणा तेसिं । पिढिकरंडाण सयं अट्ठावीस मुणेयव्वं ॥२॥" इति । 'जंबू' इत्यादि, 'सुसमदुस्समीति सुषमदुष्पमा-तृतीयारकानुभागस्तस्या या सा सुषमदुषमा ऋद्धिः, शेषं तथैव, उच्यते च-"गाँउयमुच्चा पलिओवमाउणो वजारसहसंघयणा । हेमवएरनवए अहमिंदणरा मिहुणवासी ॥१॥ चउसही पिठिकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो। भत्तस्स चउत्थस्स य उणसीतिदिणाणुपालणया ॥२॥" इति । 'जंबू' इत्यादि, दूसमसुसमीति दुष्षमसुषमा चतुर्थारकप्रतिभागस्तत्सम्ब दूयोरपि कुमिनुष्यानिपल्यपरमायुषस्निकोकोचाः । पृष्ठकरण्दानि है दाते षट्पंचाशदधिक मनुजानां ॥१॥ भुषममुषमानुभावमनुभवतामपत्यगोपनता । | एकोनपंचाशदिनानि अष्टमभकेन आहारः ॥ १॥ हरिचर्षरम्यकयोरायुषः प्रमाणे शरीरसोच्छ्रपः । पत्योपमे चद्वी कोशी च समी भणिती ॥१॥ पठेन भारचतुःषष्टिदिनाभ्यनुपालना तेषां पृथकरण्डानां अश्याविंशयधिकं शतं ज्ञातव्यं ॥२॥ ३ ग.१५, १ वज. ६४ पृष्ठ. दि. आ. १९ पालना ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [3], मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- झसूत्रवृत्तिः 26*5*5*555 ॥७७॥ दीप अनुक्रम [८९] धिनी ऋद्धिर्दुष्पमसुषमैव, शेषं तथैव, अधीयते च-"मणुयाण पुवकोडी आउं पंचुस्सिया धणुसयाई । दूसमसुस- स्थानमाणभाव अणुहोति णरा निययकालं ॥१॥" इति । 'जंबूद्दी इत्यादि, 'छविहंपित्ति सुषमसुषमादिकं उत्सर्पिण्य-लकाध्ययने वसर्पिणीरूपमिति । अनन्तरं जम्बूद्वीपे काललक्षणद्रव्यपर्यायविशेषा उक्काः, अधुना तु जम्बूद्वीप एव कालपदार्थव्यञ्ज- उद्देशः ३ कानां ज्योतिषां द्विस्थानकानुपातेन प्ररूपणामाह चन्द्रादित्य जंबुद्दीवे दीवे दो चंदा पभासिसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, दो सूरिआ तर्विसु वा तवंति वा तविस्संति था, नक्षत्रादिदो कत्तिया, दो रोहिणीओ, दो मगसिराओ, दो अदाओ, एवं भाणियव्वं, 'कत्तिय रोहिणि मंगसिर अंदा य पुणे स्वरूपं स्वसू अ 'पूसो य । तन्तोऽवि अरस लेसा महा य दो फागुंणीओ य ॥१॥दस्थो चित्ती "साई, विसाही तय होति अणुरादा । जेट्टी मूलो पुवा य आसाढा उत्तरों चेव ।। २ ॥ अनिईसवणधणिही सयभिसया दो य होंति भवयों । रेवति अस्मिणि भरणी नेतण्या आणुपुत्वीए ।। ३ ॥ एवं गाहाणुसारेणं यवं जाब दो भरणीओ । दो अगगी दो पयावती दो सोमा दो रुदा दो अदिती दो बहस्सती दो सप्पी दो पीती दो भगा दो अजमा दो सविता दो तट्टा दो वाऊ दो इंदरगी दो मित्ता दो इंदा दो निरती दो आऊ दो विस्सा दो धम्हा दो विण्डू दो बसू दो वरुणा दो अवा दो विविद्धी दो पुस्सा दो अस्सा दो यमा । दो इंगालगा दो वियालगा दो लोहितक्खा दो सणिचरा दो आहुणिया दो पाहुणिया दो कणा दो कणगा दो कणकणगा दो कणगविताणगा दो कणगसंताणगा दो सोमा दो सहिया दो आसासणा दो ॥७७॥ १ मनुजाना पूर्वकोव्यायुः पंचधनुःपातोपिछुतानि । दुषमसुधमानुभावमनुमति नरा नियतकाले ॥१॥ * * ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [30] गाथांक १-३ दीप अनुक्रम [९०-९४] "स्थान". स्थान [२] उद्देशक (01. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .. आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] **********. Education Internation - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) जोगा दो कबडगा दो अयकरगा दो दुंदुभगा दो संखा दो संखवन्ना दो संखवन्नाभा दो कंसा दो कंसवन्ना दो कंसवन्नाभा दो रुप्पी दो रुप्पाभासा दो णीला दो णीलोभासा दो भासा दो भासरासी दो तिला दो तिलपुरफवण्णा दो दगा दो दुगपंचवन्ना दो काका दो ककंधा दो इंदग्गीवा दो धूमकेऊ दो हरी दो पिंगला दो बुद्धा दो सुधा दो बहस्सती दो] राहू दो अगत्थी दो माणवगा दो कासा दो फासा दो धुरा दो पमुहा दो वियडा दो बिसंधी दो नियता दो पल्ला दो जडिया लगा दो अरुणा दो अग्गिहा दो काला दो महाकालगा दो सोत्थिया दो सोवस्थिया दो वद्धमाणगा दो प्रैससमाणगा दो अंकुसा दो पलंबा दो निचालोगा दो शिशुजोता दो सयंप्रभा दो ओभासा दो सेयंकरा दो खेमंकरा दो आभंकरा दो पकरा दो अपराजिता दो अरया दो असोगा दो विगतसोगा दो विमला दो वितत्ता दो चितथा दो बिसाला दो साल दो सुता दो अणियट्टा दो एगजडी दो दुजड़ी दो करकरिगा दो रायग्गला दो पुल्फकेतू दो भावकेऊ । ( सू० ९०) 'जंबुद्दीवे' इत्यादि सूत्रद्वयं, 'पभासिंसु व ेत्ति प्रभासितवन्तौ वा प्रकाशनीयमेवं प्रभासयतः प्रभासयिष्यतः, चन्द्रयोश्च सौम्यदीप्तिकत्वात् प्रभासनमात्रमुक्तम्, आदित्ययोश्च खररश्मित्यात्तापितवन्तौ वा एवं तापयतस्तापयिष्यत इति वस्तुनस्तापनमुक्तम् अनेन कालत्रयप्रकाशनभणनेन सर्वकालं चन्द्रादीनां भावानामस्तित्वमुक्तम्, अत एव चोच्यते'न कदाचिदनीदृशं जगदिति, न वा विद्यमानस्य जगतः कर्त्ता कल्पयितुं युक्तः, अप्रमाणकत्वात्, अथ यत्सन्निवे 3 १ मे या दर्शपाठेन च संवदत इति नाइनीये. For Parts Only मूलं [९०, गाथा-३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९०,गाथा-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] गाथांक १-३ श्रीस्थाना- शविशेषवत् तद्बुद्धिमत्कारणपूर्वकं दृष्ट, यथा घटः, सन्निवेशविशेषवन्तश्च भूभूधरादयः, यश्च बुद्धिमानसावीश्वरो जगत्क- २ स्थान सूत्र- ति, नैवम् , सन्निवेशविशेषवत्यपि वल्मीके बुद्धिमत्कारणत्वस्यादर्शनादित्यत्र बहु वक्तव्यं तच्च स्थानान्तरादवसेयमिति। काध्ययने . वृत्तिः द्विसद्धयत्वाञ्चन्द्रयोस्तत्परिवारस्यापि द्विखमाह-'दो कत्तिए'त्यादिना 'दो भावकेऊ' इत्येतदवसानेन अन्धेन, सुगम-15| उद्देशः ३ पश्चायं, नवरं वे कृत्तिके नक्षत्रापेक्षया, न तु तारिकापेक्षयेत्येवं सर्वत्रेति, 'कत्तिएत्यादिगाथात्रयेण नक्षत्रसूत्रसवहः, चन्द्रादित्य ॥ ७८॥ कृत्तिकादीनामष्टाविंशतिनक्षत्राणां क्रमेणान्यादयोऽष्टाविंशतिरेव देवता भवन्ति, आह च-द्वावनी १ एवं प्रजापती २] नक्षत्रादि सोमौ ३ रुद्री ४ अदिती ५ बृहस्पती ६ सप्पी ७ पितरौ ८ भगौ ९ अर्यमणी १० सवितारौ ११ त्वष्टारौ १२ वायू १३8 स्वरूपं भइन्द्राग्नी १४ मित्रौ १५इन्द्रो १६ निर्वती १७ आपः १८ विश्वौ १९ ब्रह्माणी २० विष्णू २१ वसू २२ वरुणौ २३ है, *अजी २४ विवृद्धी २५ ग्रन्धान्तरे अहिर्बुधाबुक्ती, पूषणौ २६ अश्विनौ २७, यमाविति २८, ग्रन्थान्तरे पुनरश्विनीत* सिआरभ्यता एवमुक्ताः, “अश्वियमदहनकमलजशशिशूलभृददितिजीवफणिपितरः योन्यर्यमदिनकृत्त्वष्ट्रपवनशक्राग्निमि-15 त्राख्याः॥१॥ ऐन्द्रो नितिस्तोयं विश्वो ब्रह्मा हरिर्वसुर्वरुणः । अजपादोऽहिर्बुधः पूषा चेतीश्वरा भानाम् ॥२॥" अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिम्रहाः सूत्रसिद्धाः, केवलमस्मदृष्टपुस्तकेषु केषुचिदेव यधोक्तसङ्ख्या संवदतीति सूर्यप्रज्ञप्त्यनुसारेठाणासाविह संवादनीया, तथाहि तत्सूत्रम्-"तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महागहा पन्नत्ता, तंजहा-इंगालए १ वियालए। ६२ लोहियक्खे ३ सणिच्छरे ४ आहुणिए ५ पाहुणिए ६ कणे ७ कणए ८ कणकणए ९ कणवियाणए १० कणसंताणए ॥ ७८ ॥ ११ सोमे १२ सहिए १३ अस्सासणे १४ कज्जोयए १५ कब्बडए १६ अयकरए १७ दुंदुभए १८ संखे १९ संखवण्णे | दीप अनुक्रम [९०-९४] ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९०,गाथा-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] गाथांक १-३ | २० संखवन्नाभे २१ कसे २२ कंसवण्णे २३ कंसवन्नाभे २४ णीले २५ णीलोभासे २६ रुप्पी २७ रुप्पोभासे २८ भासे |२९ भासरासी ३० तिले ३१ तिलपुप्फवण्णे ३२ दगे ३३ दगपंचवण्णे ३४ काए ३५ काकंधे ३६ इंदग्गी ३७ धूमकेऊ है ३८ हरी ३९ पिंगले ४० बुहे ४१ सुक्के ४२ बहस्सई ४३ राहू ४४ अगत्थी ४५ माणवगे ४६ कासे ४७ फासे ४८ धुरे| ४९ पमुहे ५० वियडे ५१ विसंधी ५२ नियल्ले ५३ पयल्ले ५४ जडियाइलए ५५ अरुणे ५६ अग्गिल्लए ५७ काले ५८ महाकाले ५९ सोस्थिए ५० सोवत्थिए ६१ वद्धमाणगे ६२ पलंबे ६३ णिचालोए ६४ निच्नुज्जोए ६५ सयंपभे ६६ ओभासे ६७ सेयंकरे ६८ खेमकरे ६९ आभंकरे ७० पभंकरे ७१ अपराजिए ७२ अरए ७३ असोगे ७४ वीयसोगे ७५ | विमले ७६ वियत्ते ७७ वितत्थे ७८ विसाले ७९ साले ८० सुब्बए ८१ अनियट्टी ८२ एगजडी ८३ दुजडी ८४ करक|रिए ८५ रायग्गले ८६ पुप्फ ८७ भावकेऊ८८, इदं तत्रैव संग्रहणीगाथाभिनियन्त्रितं, तथाहि-"इंगालए १ टावियालए २, लोहियक्खे ३ सणिच्छरे चेव ४ । आहुणिए ५ पाहुणिए ६ कणगसनामा उ पंचेव ११॥१॥ सोमे १ स-IC ₹ाहिए २ आसासणे य ३ कजोवए य ४ कब्बडए ५ । अयकरए ६ दुंदुहए ७ संखसनामाओ तिन्नेव १० (२१)॥२॥ तिन्नेव कंसनामा ३णीला ५ रुप्पी यहोति चत्तारि। भास ९तिलपुष्फवन्ने ११ [दगे य] दग पण[पंच]वण्णे य १३ काय का४ कंधे १५ ॥ (३६) ॥३॥ इंदग्गि १ धूमकेऊ २ हरि ३ पिंगलए ४ बुहे य ५ सुक्के य ६ । बहस्सइ ७ राहु ८ अगत्थी ९ माणवए १० कास ११ फासे य १२ (४८)॥ ४ ॥धूरे १ पमुहे २ वियडे ३ विसंधिणियले ५ तहा पयल्ले य ६॥ स्था०१५ मा जडियाइलए ७ अरुणे ८ अग्गिल ९ काले १० महाकाले ११ (५९) ॥५॥ सोस्थिय १ सोवस्थिय २ वद्धमाणगे | दीप अनुक्रम [९०-९४] ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९०,गाथा-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] गाथांक ||१-३|| श्रीस्थाना- तहा पलंबे य ४ । निच्चालोए ५ णिच्चुजोए ६ सयंपभे ७ चेव ओभासे ८ (१७)॥ ६ ॥सेयंकर १ खेमकर २ आ-IM२ स्थानहुसूत्र-लाभकर ३ पकरे य ४ बोद्धये । अरए ५ विरए य ६ तहा असोग ७ तह वीयसोगे य ८(७५)॥७॥ विमल १ वि- 17 वृत्तिः तत्त २ वितत्थे ३ विसाल ४ तह साल ५ सुब्बए ६ चेव । अनियट्टी ७ एगजडी ८ य होइ विजड़ी य ९ बोद्धव्ये (८४) उद्देशः ३ ॥ ८ ॥ करकरए १ रायग्गल २ बोद्धव्वे पुष्फ ३ भावकेऊ य ४ । अहासीई गहा खलु णेयब्वा आणुपुब्बीए ॥९॥" ॥७९॥ & इति । जम्बूद्वीपाधिकारादेवेदमपरमाह जंबुरीवस्स णं दीपस्स बेइमा दो गाउयाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता । लवणे णं समुरे दो जोवणसयसहस्साई चकवालविक्खंभेणं पन्नत्ते । लवणस्स णं समुहस्स वेतिया दो गाउयाइ उद्धं उच्चत्तेर्ण पन्नत्ता । (सूत्रं ९१) धायइसंडे दीवे पुरच्छिमवेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवर घेव, एवं जहा जंबुहरी तहा एत्थवि भाणियच्वं जाव दोसु वासेसु मणुया छविहंपि कालं पत्रणुभवमाणा विहरति त० भरहे चेव एरवते चैव, णवरं कूडसामली चेव धायहरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे सुदंसणे घेष, धाततीसंडदीवपचच्छिमद्धे णं मंदरस्स पञ्चयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहु० जाव भरहे चेव एरवए चेव जाव छविहंपि कालं पञ्चणुभवमाणा विहरति भरहे चेव एरवर घेव, णवर कूटसामली चेव महाधायतीरुक्खे चेव, देवा गरुले व वेणुदेवे पियदसणे चेव, धायइसंडे णं दीवे दो भरहाई दो एरवयाई दो हेमवयाई दो हेरन्नवयाई दो हरिवासाई यो रम्मगवासाई दो पुज्यविदेहाई ॥ ७९॥ दो अवरविदेहाई दो देवकुराओ दो देवकुरुमहदुमा दो देवकुरुमहदुमवासी देवा दो उत्तरकुराओ दो उत्तरकुरुमहदुमा दो दीप अनुक्रम [९०-९४] ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२] टीप अनुक्रम [९६] "स्थान". स्थान [२], उद्देशक (3) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] .......... * % ৩ জ996+9+ ratha - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उत्तरकुरुमहद्दुमवासी देवा दो चुहहिमवंता दो महाहिमवंता दो निसदा दो नीलवंता दो रुप्पी दो सिहरी दो सहावाती दो सहावादवासी साती देवा दो वियढावाती दो वियडावातिवासी पभासा देवा दो गंधावाती दो गंधावातिवासी अरुणा देवा दो सालपरियागा दो मालवंतपरियागावासी पडमा देवा दो मालवंता दो चित्तकूडा दो पम्हकूडा दो नलि - कूडा दो एगसेला दो तिकूडा दो वेसमणकूडा दो अंजणा दो मातंजणा दो सोमणसा दो विजुप्पमा दो अंकावती दो पम्हावती दो आसीविसा दो सुहावहा दो चंदपब्बंता दो सूरपन्यता दो णागपव्वता दो देवपव्वया दो गंधमायणा दो सुगारपब्वया, दो हिमवंतकूडा दो वेसमणकूडा दो महाहिमवंतकूडा दो वेरुलियकूडा दो सिहकूड़ा दो रुयगकूडा दो नीलवंतकूडा दो वदंसणकूडा दो रुप्पिकूडा दो मणिकंचणकूडा दो सिहरिकूडा दो तिगिच्छिकूडा दो पमदहा दो पउमद्दहवासिणीओ सिरीदेवीओ दो महापत्रमहा दो महाप मद्दहवासिणीओ हिरीतो देवीओ एवं जाव दो पुंडरीयदहा दो पोंडरीयद्दद्दवासिणीओ लच्छीदेवीओ, दो गंगापवायदा जाब दो रत्तवतिपवात दहा दो रोहियाओ जाव दो रुष्पकुलातो दो गाइवतीओ दो दहवतीओ दो पंकवतीओ दो तत्तजलाओ दो मत्तजलाओ दो उम्मत्तजलाओ दो खीरोयाओ दो सीहसोताओ दो अंतोवाहिणीओ दो उम्मिमालिणीओ दो फेणमालिणीओ दो गंभीरमालिणीओ दो कच्छा दो सुकच्छा दो महाकच्छा दो कच्छगावती दो आवता दो मंगलावत्ता दो पुक्खला दो पुक्खलावई दो बच्छा दो सुवच्छा दो महावच्छा दो बच्छगावती दो रम्मा दो रम्मगा दो रमणिज्जा दो मंगलावती दो पम्हा दो सुपम्हा दो महपम्हा दो पम्गावती दो संखा दो पालिया दो कुमुया दो स (ज) लिला (णा) बती दो वप्पा दो सुबप्पा दो महावप्पा दो वप्पगावती दो बम्मू दो For Penal Use Only मूलं [१२] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 162 ~ yor Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९२] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: स्थान प्रत श्रीस्थानानसूत्रदृत्तिः काध्ययने उद्देशा३ सूत्रांक ॥८०॥ [९२] 815 दीप अनुक्रम सुवग्गू वो गंधिला दो गंधिलावती ३२ दो खेमाओ दो खेमपुरीओ दो रिद्वाओ दो रिट्ठपुरीओ दो खग्गीतो दो मंजुसाओ दो ओसधीजो दो पोंदरिगिणीओ दो सुसीमाओ दो कुंडलाओ दो अपराजियाओ दो पभंकराओ दो अंकावईओ दो पम्हापईओ दो सुभाओ दो खणसंचयाओ दो आसपुराओ दो सीदपुराओ दो महापुराओ दो विजयपुराओ दो अपराजिताओ दो अवराओ दो असोबाओ दो विगयसोगाओ दो विजयातो दो वेजयंतीओ दो जयंतीओ दो अपराजियाओ दो चकपुरानो दो सग्गपुराओ दो अवज्झाओ दो अउज्झाओ ३२ दो महसालवणा दो गंदणवणा दो सोमणसवणा दो पंहगवणाई दो पंडुकंबलसिलाओ दो अतिपंडुकंबलसिलाओ दो रत्तकंबलसिलामो दो अइरत्तकंबलसिलाओ दो मंदरा दो मंदरचूलिताओ, चायतिसंडस्स णं दीवस्स बेदिया दो गाउयाई उबमुथरेणं पन्नत्ता। (सूत्रं ९२) कालोदस्स णं समुदस्स वेइया दो गाउयाई उई उच्चत्तेणं पन्नत्ता । पुक्सरवरदीवड़पुरच्छिमद्धेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पं० बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेत्र तहेव जाव दो कुराओ पं. देवकुरा चेव उत्तरकुरा येव, तत्य गं दो महतिमहालता महरमा पं० २०-कूडसामली चेव पउमरुक्खे चेव, देवा गरुले व वेणुदेवे पउमे चेक, जाव छब्बिहंपि कालं पञ्चणुभवमाणा विहरति । पुक्खरवरदीवड़पञ्चच्छिमद्धे णं मंदरस्स पञ्चयस्स उत्तरदाहिणेणं दो बासा पं० २०-तहेब णाणत्तं फूडसामली चेव महापउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेव पुंडरीए चेव, पुक्खरवरदीवड़े ण दीवे दो भरहाई दो एरवयाई जाव दो मंदरा दो मंदरचूलियाओ, पुक्खरवरस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई लमुखत्तेणं पन्नत्ता, सम्वेसिपि ण दीवसमुदाणं वेदियाओ दो गाउयाई उडमुञ्चत्तेणं पण्णताओ (सू० ९३) 25% [९६] ॥८ ॥ ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] 'जंबू' इत्यादि कंठयं, नवरं, वज्रमय्याः अष्टयोजनोच्छ्रायायाश्चतुादशोपर्यधोविस्तृताया जम्बूद्वीपनगरप्राकारकल्पाया जगत्या द्विगन्यूतोच्छूितेन पञ्चधनुःशतविस्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकेन परिक्षिप्ताया उपरि वेदिकेति पद्मवरवेदिकेत्यर्थः, पञ्चधनुःशतविस्तीर्णा गवाक्षहेमकिङ्किणीघण्टायुक्ता देवानामासनशयनमोहनविविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवतीति ।। | जम्बूद्वीपवक्तव्यतानन्तरं तदनन्तरत्वादेव लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह-'लवणे ण'मित्यादि कण्ठ्यम् , नवरम्, 'चक्रवालस्य-मण्डलस्य विष्कम्भ:-पृथुत्वं चक्रवालविष्कम्भस्तेनेति, समुद्रवेदिकासूत्रं जम्बूद्वीपवेदिकासूत्रवद्वाच्यमिति । क्षेत्रप्रस्तावालवणसमुद्रवक्तव्यतानन्तरं धातकीखण्डवक्तव्यतां 'धायइ संडे दीवे' इत्यादिना वेदिकासूत्रान्तेन अन्धेनाह-कण्ठयश्वायम् , नवरं धातकीखण्डप्रकरणमपि जम्बूद्वीपलवणसमुद्रमध्यं वलयाकृति धातकीखण्डमालिख्य हिमवदादिवर्षधरान | जम्बूद्वीपानुसारेणैवोभयतः पूर्वापरविभागेन भरतहैमवतादिवर्षाणि च व्यवस्थाप्य पूर्वापरदिशोर्वलयविष्कम्भमध्ये मेलं |च कल्पयित्वाऽवबोद्धव्यम् । अनेनैव च क्रमेण पुष्करवरद्वीपार्द्धप्रकरणमपीति । तत्र धातकीनां-वृक्षविशेषाणां खण्डो वनसमूह इत्यर्थो धातकीखण्डस्तयुक्तो यो द्वीपः स धातकीखण्ड एवोच्यते, यथा दण्डयोगाद्दण्ड इति, धातकीखण्ड|श्चासौ द्वीपश्चेति धातकीखण्डद्वीपस्तस्य 'पुरच्छिमति पौरस्त्यं पूर्वमित्यर्थो यदर्द्ध-विभागस्तद्धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्या, पूर्वापरार्द्धता च लवणसमुद्रवेदिकातो दक्षिणत उत्तरतश्च धातकीखण्डवेदिकां यावद् गताभ्यामिषुकारपर्वताभ्यां धातकीखण्डस्य विभक्तत्वादिति, उक्तं च-"पंचसयजोयणुचा सहस्सभेगं च होति विच्छिन्ना । कालोययलवणजले १पंचशतवोजनोचौ सहखने के च भवतो विस्तीणीं। कालोदकलपणजले दीप अनुक्रम [९७]] Anjaanasurary.org ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [९३] टीप अनुक्रम [९७] श्रीस्थानाज्ञसूत्रवृत्तिः ॥ ८१ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [२], उद्देशक (1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - .......... Eucation Intematon पुट्ठा ते दाहिणुत्तरओ ॥ १ ॥ दो इसुयारनगरा धायइडस्स मज्झयारठिया । तेहि दुहा णिद्दिस्सर पुण्बद्धं पच्छि मद्धं च ॥ २ ॥” इति तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, 'मन्दरस्य' मेरोरित्येवं धातकीखण्डपूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धप्रकरणे प्रत्येकमेकोनसप्ततिसूत्रप्रमाणे जम्बूद्वीपप्रकरणवदध्येतव्ये व्याख्येये च, अत एवाह- 'एवं जहा जंबुद्दीवे तहे 'त्यादि, नवरं वर्षधरादिखरूपमायामादिसमता चैवं भावनीया - "पुवैद्धस्स य मज्झे मेरू तस्स पुण दाहिणुत्तरओ । वासाई तिन्नितिनिवि विदेहवासं च मज्झमि ॥ १ ॥ अरविवरसंठियाई चउरो लक्खाई ताई खेत्ताई ( दीर्घतया ) । अंतो संखिचाई रुंदतराई कमेण पुणो ॥ २ ॥ भरहे मुहविक्खंभो छावसियाई चोदसहियाई । अउणत्तीसं च सयं बारसहियदुसयभागाणं ॥ ३ ॥ ६६१४३ । अट्ठारस य सहस्सा पंचैव सया हवंति सीयाला पणपण्णं अंससयं बाहिरओ भरहविक्खंभो ॥ ४ ॥ १८५४७३३३ । चउगुणिय भरहवासो [व्यास इत्यर्थः ] हेमवए तं चउग्गुणं तइयं [ हरिवर्षमित्यर्थः ] । हरिवासं चउगुणितं महाविदेहस्स विक्खंभो ॥ ५ ॥ जह विक्खंभा दाहिणदिसाए तह उत्तरेऽवि वासतिए । जह पुव्वद्धे सत्त उ 1 १ स्पृष्टी तो दक्षिणोत्तरयोः ॥ १ ॥ द्वौ इषुकारौ नगवरी घातकीचंडस्य मध्ये स्थिती । ताभ्यां द्विधा निर्दिश्यते पूर्वार्ध पश्चिमार्धं च ॥ २ ॥ २ पूर्वार्धस्य च मध्ये मेहः पुनस्तस्य दक्षिणोत्तरतः । वर्षाणि त्रीणि त्रीणि विदेहवर्ष व मध्यभागे ॥ १ ॥ अरविवरसंस्थितानि चत्वारो लक्षा क्षेत्राणि तानि (ण) अन्तः संक्षिप्तानि विस्तृतानि क्रमेण पुनः ॥ २ ॥ भरते मुखविष्कंभः पद्षष्टिशतानि चतुर्दशाधिकानि । एकोनत्रिशब्द शतं द्वादशाधिकद्विशतभागानां ॥ ३ ॥ अष्टादश सहस्राणि पंचैव च शतानि भवति सप्तचत्वारिंशदधिकानि पंचपंचाशदधिकं अंशसतं बाह्यतो भरतविष्कम्भः ॥ ४ ॥ चतुर्मुनितो भरतव्यासो हेमवति तचतुर्गुणं तृतीयं हरिवर्ष चतुर्गुणो महाविदेहस्य विष्कम्भः ॥ ५ ॥ यथा विष्कम्भा दक्षिणस्यां दिशि तथोत्तरस्यामपि वर्षत्रिके । यथा पूर्व सव For Parts Only ~ 165 ~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ ॥ ८१ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] इतिह अवरद्धेऽवि वासाई ॥६॥ सत्ताणउई सहस्सा सत्ताणउयाई अढ य सयाई । तिन्नेव य लक्खाई कुरूण भागा य४ बाणउई ॥७॥ [विष्कम्भ इति] ३९७८९७१।। अडवण्णसयं तेवीस सहस्सा दो य लक्ख जीवाओ। दोण्ह गिरीणायामो संखित्तो तं धणू कुरूणं ॥ ८ ॥वासहरगिरी १२ वक्खारपब्वया ३२ पुवपच्छिमढेसु । जंबुद्दीवगदुगुणा धिस्थरओ उस्सए तुला ॥ ९ ॥ कंचणगजमगसुरकुरुनगा य यह चट्टदीहा य । विक्खंभोग्नेहसमुस्सएण जह जंबुदी| विच्चा ॥१०॥ लक्खाई तिन्नि दीहा विज्जुष्पभगंधमादणा दो वि । छप्पन्नं च सहस्सा दोन्नि सया सत्तवीसा य ॥११॥ अउणहा दोन्नि सया उणसत्तरि सहस्स पंचलक्खा य । सोमणस मालवंता दीहा रुंदा दस सयाई ॥१२॥ सव्वाओऽविणईओ विखंभोब्बेहदुगुणमाणाओ। सीयासीयोयाणं वणाणि दुगुणाणि विक्खंभो ॥ १३ ॥"[विस्तरतो वनमुखानीत्यर्थः] “वासहरकुरुसु दहा [वर्षधरेषु कुरुषु च ये हूदा इत्यर्थः] नदीण कुंडाई तेसु जे दीवा । उच्चेहुस्सयतुल्ला विक्खंभायामओ दुगुणा ॥ १४॥" [जम्बूद्वीपकापेक्षयेति] कियदूर जम्बूद्वीपप्रकरणं धातकीखण्डपूर्वार्धा तथाऽपरार्थेऽपि वर्षाणि ॥ (| सानपतिः सहस्राणि सप्तनवल्यधिकाष्टशतानि । त्रय एव च लक्षाः कुर्वाधिष्कम्भो दिनयतिश भागाः ॥ ७॥ अष्ठपंचर-3 सदधिक शतं प्रयोविश्चतिसहस्राणि हे लक्षे जीवा तुहियोगियोरायामः कुरूणां तत्संक्षिप्तं धनुः ॥ ८॥ वर्षधरगिरिवक्षस्कारपर्वताः पूर्वापधिमाईयोः । जंबुद्धीपब्रिगुणा विसारत उच्हयेन तुल्याः॥5॥ कांचनयमकदेवकुरुनगाव रत्तदीर्घौतायाश्च । विष्फभोद्वेषसमुच्चपर्यथा अंन्द्रोपगताः ॥ १०॥ लक्षाम् दीर्घा नीन् विघुत्प्रभाग धमादनी द्वावपि । षट्पंचाशत्साहलाणि सप्तविंशत्यधिके पाते ॥ ११॥ एकोनपष्टयधिके । शते एकोनसप्ततिः सहस्राणि पंच लक्षाथ । श्रीमनसमास्यवंती दीयों इंदौ जाए शतानि ॥ १२ ॥ सर्वा अपि नयो विकभोवद्विगुणमानाः । सीतासीतोदयोः बनमुखानि द्विगुणानि विसरतः ॥ १३ ॥ वर्षभरकरुप हदा नदीना कुंडानि तेषु ये द्वीपाः । उद्वेषोच्छ्याभ्यां तुल्याः विष्कमायामतो द्विगुणाः ॥ १४ ॥ दीप अनुक्रम [९७]] 5453 - - Baitaram.org ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वृत्तिः सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [९७]] श्रीस्थाना-भिलापेन वाच्यमित्याह-जाव दोसु वासेसु मणुए'त्यादि, एतस्माद्धि सूत्रात् परतो जम्बूद्वीपप्रकरणे चन्द्रादिज्योतिषां असूत्र- 18 सूत्राण्यधीतानि तानि च धातकीखण्डपुष्करा पूर्वार्द्धादिप्रकरणेषु न सम्भवन्ति, द्विस्थानकत्वाद् अस्याध्ययनस्य, काध्ययने धातकीखण्डादौ च चन्द्रादीनां बहुत्वादिति, आह च-"दो' चंदा इह दीवे चत्तारि य सायरे लवणतोए । धायइसंडे | उद्देशः३ दीवे वारस चंदा य सूरा य ॥१॥" इति चन्द्राणामद्वित्वेन नक्षत्रादीनामपि द्वित्त्वं न स्यात् ततो द्विस्थानकेऽनवतार ॥८ ॥ इति । जम्बूद्वीपप्रकरणादस्य विशेष दर्शयन्नाह-णवरमित्यादि, नवरं केवलमयं विशेष इत्यर्थः, कुरुसूत्रानन्तरं तत्र 'कूडसामली चेव जंबू चेव सुदंसणे'ति उक्तमिह तु जम्बूस्थाने 'धायहरुक्खे चेव'त्ति वक्तव्यम् , प्रमाणं च तयोज म्बूद्वीपकशाल्मल्यादिवत् , तयोरेव देवसूत्रे 'अणाढिए चेच जंबुद्दीवाहिवाई'त्यत्र वक्तव्ये 'सुदसणे चेवतीह वक्तव्य-12 ४ मिति। घायइसंडे दीवे इत्यादि पश्चिमा प्रकरणं पूर्वार्धवदनुसतव्यम् , अत एवाह-'जाव छब्विहंपिकाल मित्यादि, विशेषमाह-णवरं कूडसामली' त्यादि, धातकीखण्डपूर्वार्दोत्तरकुरुषु धातकीवृक्ष उक्त इह तु महाधातकीवृक्षोऽध्येतव्यः, देवसूत्रे द्वितीयः सुदर्शनस्तत्राधीतः इह तु प्रियदर्शनोऽध्येतव्य इति, पूवार्द्धपश्चिमार्द्धमीलनेन धातकीखण्डद्वीप सम्पू-| वर्णमाश्रित्य द्विस्थानकं 'धायइसंडे 'मित्यादिनाह-द्वे भरते पूर्वार्द्धपश्चार्द्धयोर्यद्दक्षिणदिग्भागे तयोर्भावादित्येवं सर्वत्र, भरतादीनां स्वरूपं प्रागुक्तम्, 'दो देवकुरुमहादुमेति द्वौ कूटशाल्मलीवृक्षावित्यर्थः द्वौ तद्वासिदेवी वेणुदेवावित्यर्थः, दो उत्तरकुरुमहर्मेति धातकीवृक्षमहाधातकीवृक्षाविति, तद्देवी सुदर्शनप्रियदर्शनाविति, चुलहिमवदादयः षड् वर्ष १बी चंदाविद द्वीपे चत्वारश्च सागरे लपणतोये धात श्रीसंदे द्वीपे द्वादश अंबाश्च सूर्याश्च ॥ १॥ ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [७] Jan Education “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ९३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [२] उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] धरपर्वताः शब्दापातिविकटापातिगन्धापातिमालवत्पर्यायाख्यवृत्तैयताढ्याश्च तन्निवासिस्वातिप्रभासारुणपद्मनाभदेवानां द्वयेन द्वयेन सहिताः क्रमेण द्वौ द्वावुक्तौ, 'दो मालवंत'त्ति मालवन्तावुत्तरकुरुतः पूर्वदिग्वत्तिनौ गजदन्तकौ स्तः, ततो भद्रशालबनतद्वेदिकाविजयेभ्यः परौ शीतोत्तरकूलवर्त्तिनौ दक्षिणोत्तरायती चित्रकूटो वक्षस्कारपर्वती, ततो विजयेनान्तरनद्या विजयेन चान्तरितावन्यो तथैवान्यौ पुनस्तथैवान्याविति पुनः पूर्ववन मुखवेदिका विजयाभ्यामर्वाक् शीतादक्षिणकूलवतीनि तथैव त्रिकूटादीनां चत्वारि द्वयानि, ततः सौमनसी देवकुरुपूर्वदिग्वर्त्तिनौ गजदन्तको, ततो गजदन्त| कावेव देवकुरुप्रत्यग्भागवर्त्तिनौ विद्युत्प्रभो, ततो भद्रशालवनतद्वेदिकाविजयेभ्यः परतः तथैवाङ्कावत्यादीनां चत्वारि | द्वयानि शीतोदादक्षिण कूलवर्त्तीनि, पुनरन्यानि पश्चिमवनमुखवेदिकान्त्यविजयाभ्यां पूर्वतः क्रमेण तथैव चन्द्रपर्वतादीनां चत्वारि द्वयानि, ततो गन्धमादनाबुत्तरकुरुपश्चिमभागवर्त्तिनी गजदन्तकाविति एते धातकीखण्डस्य पूवार्डे पश्चिमार्द्ध च भवन्तीति द्वौ द्वायुक्ताविति, इपुकारौ दक्षिणोत्तर यो दिशोधतकीखण्डविभागकारिणाविति, 'दो चुल्लहिमवंतकूडा' इत्यादि, हिमवदादयः पढ़ वर्षधरपर्वताः तेषु ये द्वे द्वे कूटे जम्बूद्वीपप्रकरणे अभिहिते ते पर्वतानां द्विगुणत्वाद् एकेकशो द्वे द्वे स्यातामिति, वर्षधराणां द्विगुणत्वात् पद्मादिहदा अपि द्विगुणास्तद्देव्योऽप्येवमिति । चतुर्दशानां गङ्गादिमहानदीनां पूर्वपश्चिमार्द्रापेक्षया द्विगुणत्वात् तत्प्रपातहूदा अपि द्वौ द्वौ स्युरित्याह- 'दो गंगापवा यद्दहे 'त्यादि, 'दो रोहियाओ' इत्यादी नद्यधिकारे गङ्गादीनां सदपि द्वित्वं नोकं, जम्बूद्वीपप्रकरणोक्तस्य – “महाहिमवंताओ वासहरपत्रयाओ महापडमद्दद्दाओ दो महानदीओ पवहंती" त्यादिसूत्रक्रमस्याश्रयणात् तत्र हि रोहिदादय एवाष्टौ श्रूयन्त इति, For Parts Only ~168~ rryp Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः २ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ प्रत सूत्रांक [९३] चित्रकूटपद्मकूटवक्षस्कारपर्वतयोरन्तरे नीलबद्वर्षधरपर्यतनितम्बव्यवस्थिताद् ग्राहवतीकुण्डाद्दक्षिणतोरणविनिर्गताऽष्टा- विंशतिनदीसहस्रपरिवारा शीताभिगामिनी सुकच्छमहाकच्छविजययोर्विभागकारिणी ग्राहवती नदी, एवं यथायोग द्वयो- ईयोः सवक्षस्कारपर्वतयोविजययोरन्तरे क्रमेण प्रदक्षिणया द्वादशाप्यन्तरनद्यो योज्याः, तद्वित्वं च पूर्ववदिति, पङ्कव- तीत्यत्र वेगवतीति ग्रन्थान्तरे दृश्यते, क्षारोदेल्यत्र क्षीरोदेत्यन्यत्र, सिंहश्रोता इत्यत्र सीतश्रोता इत्यपरत्र, फेनमालिनी गम्भीरमालिनी चेतीह व्यत्ययश्च रश्यते इति, माल्यवद्गजदन्तकभद्रशालवनाभ्यामारभ्य कच्छादीनि द्वात्रिंशद्विजयक्षेत्रयुगलानि प्रदक्षिणतोऽवगन्तव्यानीति, तथा कच्छादिषु क्रमेण क्षेमादिपुरीणां युगलानि द्वात्रिंशदवगन्तव्यानीति, भद्रशालादीनि मेरौ चत्वारि बनानि-"भूमीए भद्दसालं मेहलजुयलंमि दोन्नि रम्माई । नंदणसोमणसाई पंडगपरिमंडियं सिहरं ॥१॥" इति वचनात् , मेवोर्द्वित्वे च वनाना द्वित्वमिति, शिलाश्चतस्रो मेरौ पण्डकवनमध्ये चूलिकायाः क्रमण पूर्वादिषु, अत्र गाथे-"पंडेगवणमि चउरो सिलाउ चउसुवि दिसासु चूलाए । चउजोयणउस्सियाओ सबजुणकंचणमयाओ॥१॥ पंचसयायामाओ मझे दीहत्तणऽद्धरुंदाओ। चंदद्धसंठियाओ कुमुओयरहारगोराओ ॥२॥" इति, मन्दरे-मेरी मेरुचूलिका-शिखरविशेषः, स्वरूपमस्या:-"मेरुसे उवरि चूला जिणभवणविहसिया तुवी(५०)सुच्चा । दीप अनुक्रम [९७]] AYURRRRRRR १ भूमौ भवशाल मेखलायुगले दे रम्ये नन्दनसीमनसे पाण्टुकपरिमाणितं शिखरम् ॥१॥ २ पाण्डकाने चतन्नः शिलावतरांबपि विशु चूलायाः । चतुर्यो-1&॥८३ जाजनीचिताः सर्वार्जुनकायनमध्मः ॥1॥पयशातायामा मध्ये दीवाधुलाः । अर्धचन्दसंस्थिताः नदोदरहारगीराः ॥ २॥ ३कुम्मो० । समषि०, ४ मेरो परि चूला जिनभावनभूषिता चत्वारिंशत् उचाः । SARERaunintamatarnal ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक %25450-15045% [९३] बारस अह य चउरो मूले मझुवरि रुदा य ॥१॥ इति, वेदिकासूत्रं जम्बूद्वीपबत् , धातकीखण्डानन्तरं कालोदसमुद्रो। भवतीति तद्वक्तब्यतामाह-कालोदे'त्यादि कण्ठ्यम् , कालोदानन्तरमनन्तरत्यादेव पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वार्द्धपश्चार्द्धतदुभयप्रकरणान्याह-'पुक्खरे'त्यादि, त्रीण्यप्यतिदेशप्रधानानि, अतिदेशलभ्यश्चार्थः सुगम एव, नवरं पूर्वार्धापरार्द्धता धातकीखण्डवदिषुकाराभ्यामवगन्तव्या, भरतादीनां चायामादिसमतैवं भावनीया-"इगुयालीस सहस्सा पंचेव सया हवंति उणसीया । तेवत्तरमंससयं मुहविक्खंभो भरहवासे ॥१॥"४१५७९४ पन्नहि सहस्साई चत्तारि सया हवंति छायाला । तेरस चेव य अंसा बाहिरो भरहविक्खंभो॥२॥" ६५४४६१६। चउगुणिय भरहवासो [विस्तर इत्यर्थः] हेमवए तं चउग्गुणं तइयं [हरिवर्पमित्यर्थः]। हरिवासं चउगुणियं महाविदेहस्स विक्खंभो ॥३॥" एवमैरवतादीनि मन्तव्यानि "स-1 त्तत्तरि सयाई चोइस अहियाई सत्तरस लक्खा । होइ कुरूविक्खंभो अह य भागा अपरिसेसा ॥४॥" १७०७७१४ “चत्तारि लक्ख छत्तीस सहस्सा नव सया य सोलहिया । [एषा कुरुजीवा] । ४३६९१६ दोण्ह गिरीणायामो संखित्तो तं| धणू कुरूणं ॥ ५॥ सोमणसमालवंता दीहा वीसं भवे सयसहस्सा । तेयालीस सहस्सा अउणावीसा य दोन्नि सया ॥६॥ ___ वादा यत्वारि मूले मध्य उपरि विस्तीर्णा ॥१॥२एकचत्वारिंशत्सहसान पर शतानि भवन्त्येकोनाशीयधिकानि त्रिसप्तपिकासमंशाना मुख विष्कभो भरतवर्षे ॥१॥ पंचषष्टिसहस्राणि चत्वारि शतानि भवति षट्चत्वारिंशदपिकानि प्रयोदश्च एवाशा बायो भरतविष्कम्भः ॥२॥ चतुर्गुणितभरतव्यासो हैमवते तबतक तृतीय हारवर्षे चतुर्गणितं महापिदेहस्य विष्कम्भः ॥ ३ ॥ समसप्ततिः शतानि चतुर्दशाधिकानि सप्तदश लक्षा भवति कुरुविष्कम्भः अष्टौ च माया अपरियोषाः ॥ ४ ॥ चतुर्लक्षषट्त्रिंशत्सहस्रपोदशाधियानवशतानि योनिया रायामः तनुः कुरूणां संक्षितं ॥ ५॥ सौमनलमालवंती दोनों विंशतिः यातसहलागि कात्रिचत्वारिमात्सहस्राणि एकोनविंशत्यधिक मते ॥६॥ दीप अनुक्रम [९७]] %2525 ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [९३] टीप अनुक्रम [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ८४ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक (1 स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] .......... Eaton Inationa २०४३२१९ । “सोलहियं सयमेगं छब्बीससहस्स सोलस य लक्खा । विज्जुष्पभो नगो गंधमायणा चैव दीहाओ ॥ ७ ॥ १६२६११६, महाद्रुमा जंबूद्वीपकमहाद्रुमतुल्याः, तथा - “धायइवरंमि दीवे जो विक्खंभो उ होइ उ णगाणं । सो दुगुणो णायच्वो पुक्खरद्धे णगाणं तु ॥ ८ ॥ वासहरा वक्खारा दहनइकुंडा वणा य सीयाई । दीवे दीवे दुगुणा बित्थरओ उस्सए तुला ॥ ९ ॥ उसुयार जमगकंचण चित्तविचित्ता य वट्टवेयहा । दीवे दीवे तुला दुमेहला जे य वेया ॥ १० ॥” इति । पुष्करवरद्वीपवेदिकामरूपणानन्तरं शेषद्वीपसमुद्रवेदिकाप्ररूपणामाह-'सव्वेसिंपि ण मि त्यादि कण्ठ्यं । एते च द्वीपसमुद्रा इन्द्राणामुत्पातपर्वताश्रया इतीन्द्रवतव्यतामाह मूलं [ ५३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दो असुरकुमारिंदा पत्ता, तं० चमरे चैव बली चेव, दो णागकुमारिंदा पण्णत्ता, सं०धरणे चैव भूयाणंदे चैव २, दो सु - वनकुमारिंदा पं० [सं० वेणुदेवे चैव वेणुदाली चेव दो विजुकुमारिंदा पं० तं० पन्नत्ता तं० — अग्गिसिद्धे चैव अग्गिमाणवे चैव, दो दीवकुमारिंदा पं० [सं० पं० तं०—जलकंते चेव जलप्पभे चेव, दो दिसाकुमारिंदा पं० नं० - अभियगती चैव अमितवाहणे चेव, दो वातकुमा १ षोडशाधिकं शतं पविशतिसहस्राणि पोडश च लक्षा विद्युत्प्रभो नमो गन्धमादनच दीर्थों ॥ ७ ॥ २घातकीवरे द्वीपे यो विष्कम्भस्तु भवति तु नगानां सद्विगुणो ज्ञातव्यः पुष्करा गगानान्तु ॥ ८ ॥ धरा वक्षस्काराः हृदनदीकुंडानि वनानि च सीतादयः द्वीपे द्वीपे द्विगुणा विस्तरत उच्छ्रयेण तुल्या ॥ ९ ॥ इषुकारयम ककाशनचित्र विचित्राश्च वृत्तवैताच्या द्वीपे द्वीपे तुल्या] द्विमेसला ये न वैताभ्यः ॥ १० ॥ For Parts Only ~ 171 ~ हरिचैव हरिस्सहे चैव, दो अग्निकुमारिंदा पुत्रे चैव विसिडे चैव, दो दहिकुमारिंदा २ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ ॥ ८४ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] SSCREENSUSRX रिंदा पं० -लंबे चेव पभंजणे चेब, दो थणियकुमारिंदा पण्णत्ता, तं०-योसे चेव महापोसे चेव, दो पिसाइंदा पन्नत्ता---०-काले चेव महाकाले चेव, दो भूइंदा पं० १०-सुरुवे चेव पडिरूवे चेष, दो अपिंखदा पन्नत्ता, तं0पुनम चेव माणिभदेव, दो रक्खसिंदा पन्नता, तं०-भीमे चेव महाभीमे घेव, दो किन्नरिंदा पन्नत्ता, सं०-किन्नरे वेव किंपुरिसे चेव, दो किंपुरिसिंदा पं० सं०-सप्पुरिसे चेव महापुरिसे चेव, दो महोरगिंदा पं० सं०-अतिकाए घेव महाकाए चेव, दो गंधबिदा ५०, तं०-गीतरती चेव गीयजसे चेव, दो अणपनिंदा पं०, तं०-संनिहिए चेष सामण्णणे घेव, दो पणपनिंदा पं०, ०-धाए चेव विहाए चेव, दो इसिवाईदा पं०, तं०-इसिनेव इसिवालए चेक, पो भूतबाइंदा पन्नत्ता, सं०-इस्सरे व महिस्सरे चेब, दो कंदिदा पं० सं०-मुबच्छे चेव विसाले घेव, दो महाकदिंदा पन्नता, तं०-हस्से चेव हस्सरती घेव, दो कुमंडिंदा पं० सं०-सेए चेव महासेए चेष, दो पतइंदा पं० सं०-पतए व पवयवई चेव, जोइसियाणं देवाणं दो इंदा पन्नत्ता, -चंदे चेव सूरे चेव, सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो इंदा पं0, तं०-सके व ईसाणे घेव, एवं सर्णकुमारमार्हिदेसु कप्पेसु दो इंदा पं०, तं०-सर्णकुमारे चेव माहिदे चेब, घंभलो. गलंतएसु णं कपेसु दो इंदा पं०, ०-भे व लंतए चेक, महासुकसहस्सारेसुणं कप्पेसु दो इंदा पन्नता, सं0महामुके घेव सहस्सारे घेव, आणयपाणवारणचुतेसु णं कप्पे दो इंदा पं० सं०-पाणते चेव अभुते घेव, महासुकासहस्सारेमु णं कप्पेसु विमाणा दुवण्णा पं०, त-हालिदा चेव सुकिल्ला चेव, गेविनगाणं देवा णं दो रयणीओ मुञ्चत्तेणं पन्नत्ता (सू० ९४ ) द्वितीयस्थाने तृतीयोदेशकः समाप्तः । २-३। दीप अनुक्रम [९८ स्था०१५ ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [८] श्रीखानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ८५ ॥ स्थान [२] उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] 449 “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) असुरादीनां दशानां भवनपतिनिकायानां मेर्वपेक्षमा दक्षिणोसरदिग्द्वयाश्रितत्वेन द्विविधरवाद् विंशतिरिन्द्राः, तत्र ५ चमरो दाक्षिणात्यो बली त्वौदीच्य इत्येवं सर्वत्र, एवं व्यन्तराणामष्टनिकायानां द्विगुणत्वात् षोडशेन्द्राः तथा अणप* ण्णिकादीनामप्यष्टानामेव व्यन्तरविशेषरूपमिकायानां द्विगुणत्वात् षोडशेति ज्योतिष्कानां त्यसङ्ख्यातचन्द्रसूर्यत्वेऽपि जातिमा श्राश्रयणाद् द्वावेव चन्द्रसूर्याख्याबिन्द्रानुक्तौ सौधर्मादिकल्पानां तु दशेन्द्रा इत्येमं सर्वेऽपि चतुःषष्टिरिति । देवाधिकारात् तनिवासभूतविमानव कन्यतामाह - 'महासु' त्यादि कण्ठ्यं, नवरं हारिद्राणि पीसानि, कमश्चायं सौधर्मादिविमानवर्णविषयो यथा - सौधर्मेशानयोः पञ्चवर्णानि ततो द्वयोरकृष्णामि पुनर्द्वयोरकृष्णमीलानि ततो द्वयोः शुक्रसहस्राराभिधानयोः पीतशुक्लानि ततः शुक्कान्येवेति, आह च- "सोहम्मे पंचममा एकनहाणी उ जा सहस्सारो । दो दो तुला कप्पा तेण परं पुंडरीयाई ॥ १ ॥” इति । देवाधिकारादेव द्विस्थानकानुपातिनीं तदवगाहमामाह — 'गेवेजगाण' मित्यादि, पूर्वपद् व्याख्येयमिति । द्विस्थानकस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ Education Internationa उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थः समारभ्यते-अस्य च जीवाजीववक्तव्यताप्रतिबद्धस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः - पूर्वस्मिन् हि पुद्गलजीवधर्माउक्ताः इह तु सर्व जीवाजीवात्मकमिति वाच्यम्, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्ये| मानि पश्चविंशतिरादिसूत्राणि समयेत्यादीनि, समयाति वा आवलियाति वा जीवाति या अजीवाति या पथति १, आणापाणूति वा थोवेति वा जीवाति या अजीवाति या अत्र तृतीयो उद्देशकः समाप्तं, चतुर्थ: उद्देशक: आरब्धः मूलं [९४] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 173~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ ।। ८५ ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [९५] दीप अनुक्रम [९९]] पबुधति २, खणाति या लबाति वा जीवाति या अजीवाति या पवुचति ३, एवं मुहुत्ताति वा अहोरत्ताति वा ४, पनाति वा मासाति बा ५, उति वा अयणाति वा ६, संवच्छराति वा जुगाति वा ७, वाससयाति वा वाससहस्साइ वा ८, वाससतसहस्साइ वा वासकोडीद वा ९, पुल्चंगावि वा पुरुवाति वा १०, तुडियंगाति वा तुढियाति वा ११, भडंगाति वा अदहाति वा १२, अबवंगाति वा अववाति वा १३, हूहूअंगाति वा हृदयाति वा १४, उप्पलंगाति था अप्पलाति वा १५, पटमंगाइ वा पतमाति या १६, णलिणंगाति वा पलिणाति वा १७, अच्छणिकुरंगाति वा अच्छणिउराति वा १८, अजअंगाति वा अलआति वा १९, णअंगाति वा पउआति वा २०, पडतंगाति वा परताति वा २१, चूलितंगाति पा यूलिताति वा २२, सीसपहेलियंगाति वा सीसपहेलियाति वा २३, पलिओवमाति वा सागरोवमाति वा २४, पसप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा जीवाति या अजीवाति या पवुधति २५, गामाति वा गराति या निगमाति या रायहाणीति वा खेडाति वा कम्बढाति वा मडंबाति वा दोणमुहाति वा पट्टणाति वा आगराति वा आसमाति वा संबाहाति वा संनिवेसाइ वा घोसाइ वा आरामाइ वा उजाणाति वा वणाति वा वणसंडाति वा बावीह वा पुक्षरणीति वा सराति या सरपंतीति वा अगढाति वा सलागादि वा दहाति वा णदीति वा पुढवीति वा उपदीति वा वातखंधाति वा उवासंतराति वा बलताति वा पिगहाति वा दीवाति वा समुदाइ वा बेलाति वा वेतिताति वा दाराति वा तोरणाति वा रतिवाति बाणेरतितावासाति वा जाव वेमाणियाइ वा वेमाणियाचासाति वा कप्पाति वा कप्पषिमाणावासाति वा वासाति वा वासधरपव्वताति वा कूवाति वा कूडगाराति वा विजयाति वा रायहाणीइ वा जीवाति या अजी ********************* ~ 174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [९५] दीप अनुक्रम [९९]] श्रीस्थाना- वाति या पवुचति ४७ । छाताति वा आतवाति वा दोसिणाति वा अंधगाराति वा ओमाणाति वा उम्माणाति वा अतिता स्थानणगिहाति वा उजाणगिहाति वा अवलिंबाति वा सणिप्पवाताति वा जीवाति या अजीवाति था पचुपद । दो रासी पं० काध्ययने तं-जीवरासी चेव अजीवरासी चेव (सूत्रं ९५) उद्देशः४ एषां चानन्तरसूत्रेणायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्र जीवविशेषाणामुच्चत्वलक्षणो धर्मोऽभिहितः, इह तु धर्माधिकारादेव समयादिस्थितिलक्षणो धर्मो जीवाजीवसम्बन्धी जीवाजीवतयैव धर्मधर्मिणोरभेदेनोच्यत इति, तत्र सर्वेषा कालप्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मोऽभेद्यो निरवयव उसलपत्रशतव्यतिभेदाद्युदाहरणोपलक्षितः समयः, तस्य चातीतादिविवक्षया बहुत्वाद् बहुवचनमित्याह-समयाइ वा' इत्यादि, इतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, तथा असङ्ख्यातसमयसमुदयात्मिका आवलिका क्षुल्लकभवग्रहणकालस्य षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशततमभागभूता इति, तत्र समया इति वा आवलिका इति वा यत्काल| वस्तु तदविगानेन जीवा इति च, जीवपर्यायत्वात्, पर्यायपर्यायिणोश्च कथश्चिदभेदात्, तथा अजीवानां-पुद्गलादीनां पर्यायत्वादजीवा इति च, चकारौ समुच्चयाधौं, दीर्घता च प्राकृतत्वात् , प्रोच्यते-अभिधीयत इति, न जीवादिव्यतिरेकिणः समयादयः, तथाहि-जीवाजीवानां सादिसपर्यवसानादिभेदा या स्थितिस्तद्भेदाः समयादयः सा च तद्धर्मों धर्मश्च धर्मिणो नात्यन्तं भेदवान् , अत्यन्तभेदे हि विप्रकृष्टधर्ममात्रोपलब्धौ प्रतिनियतधर्मिविषय एव संशयो न स्यात्, तदन्येभ्योऽपि हितस्य भेदाविशेषाद , दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसरविवरान्तरतः किमपि शुक्लं पश्यति तदा फिमियं प-16 ताका किं वा बलाकेत्येवं प्रतिनियतधर्मिविषयः संशय इति, अभेदेऽपि सर्वधा संशयानुसत्तिरेव, गुणग्रहणत एव तस्यापि ~ 175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [९५] गृहीतत्वादिति, इह त्वभेदनयाश्रयणाजीवाइ येत्यायुक्तम्, इह च समयावलिकालक्षणार्थद्वयस्य जीवादिद्वयात्मकतया भणनाद् द्विस्थानकावतारो दृश्यः, एवमुत्तरसूत्राण्यपि नेयानि, विशेषं तु वक्ष्याम इति, 'आणापाणू' इत्यादि, 'आनप्राजाणा'विति-उच्छासनिःश्वासकालः सायातावलिकाप्रमाणाः, आह च-"हरस अणवगहस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुचई ॥१॥" तथा स्तोकाः सप्तोच्छासनिःश्वासप्रमाणाः, क्षणाः सङ्ख्यातानप्राणलक्षणाः, सप्तस्तोकप्रमाणा लवाः, 'एवं मिति यथा प्राकने सूत्रत्रये जीवा इति च अजीवा इति च प्रोच्यते इत्यधीतमेवं सर्वेपूत्तरसूत्रेवित्यर्थः, मुहूर्ताः-सप्तसप्ततिलवप्रमाणाः, उक्तञ्च-"सत्ते पाणूणि से थोवे, सत्त धोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते वियाहिए॥१॥तिणि सहस्सा सत्त य सयाणि तेवत्सरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिो सम्वेहिं अर्थतनाणीहिंद ॥२॥” इति, अहोरात्राः त्रिंशन्मुहर्तप्रमाणाः, पक्षाः पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणाः, मासा द्विपक्षाः, ऋतवो द्विमासमानाः वसन्ताद्याः, अयनानि ऋतुत्रयमानानि, संवत्सरा अयनद्वयमानाः, युगानि पञ्चसंवत्सराणि, वर्षशतादीनि प्रतीतानि, दपूर्वाङ्गानि चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणानि, पूर्वाणि पूर्वाद्वान्येव चतुरशीतिलक्षगुणितानि, इदं चैषां मानम्-"पुवस्स उ परिमाणं सारं खलु होति कोडिलक्खाओ । छप्पन्नं च सहस्सा बोद्धब्बा वासकोडीणं ॥१॥" इति, ७०५६०००००० दीप अनुक्रम [९९]] हएस्थानवग्लानस्य निरुपकष्टस्य जन्तोः एक उरखासनि:न्यासः एष प्राण इति उच्यते॥१॥२सप्त प्राणा:सखोकः सप्त लोकाः लवः सप्तसप्तत्या सबैः एष मुहूर्त इति व्याख्यातः॥१॥ त्रीणि सहस्राणि सप्त च सतानि त्रिसप्ततियोटासा एष मुहूर्तो भणितः सर्वैरनन्तशानिभिः ॥ १॥ पूर्वस्व तु परिमाणं सप्ततिः खलु भवन्ति कोटीलक्षाःषिपंचाशस्फोटीसहखाणि च वर्षाणां बोद्धव्यानि ॥1॥ ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत २ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ सूत्राक [९५] दीप अनुक्रम [९९]] ००००, पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षगुणितानि त्रुटिताङ्गानि भवन्ति, एवं पूर्वस्य पूर्वस्य चतुरशीतिलक्षगुणनेनोत्तरमुत्तरं सञ्जयानं भवति यावच्छीर्षप्रहेलिकेति, तस्यां चतुर्नवत्यधिकमकस्थानशतं भवति, अत्र करणगाथा-"इच्छियठाणेण गुणं पणसुन्नं चउरसीतिगुणितं च । काऊणं तइवारे पुच्वंगाईण मुण संखं ॥१॥" शीर्षप्रहेलिकान्तः सांव्यवहारिकः सङ्ख्यातकालः, तेन च प्रथमपृथिवीनारकाणां भवनपतिव्यन्तराणां भरतैरवतेषु सुषमदुष्षमायाः पश्चिमे भागे नरतिरश्चां चायुमीयत इति, किश्च-शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽप्यस्ति सङ्ख्यातः कालः, स चानतिशायिनां न व्यवहारविषय इतिकृत्वौपम्ये प्रक्षिप्तः, अत एव शीर्षप्रहेलिकायाः परतः पल्योपमाद्युपन्यासः, तत्र पल्येनोपमा येषु तानि पल्योपमानि-असङ्ग्यातवर्षकोटीकोटीप्रमाणानि वक्ष्यमाणलक्षणानि, सागरेणोपमा येषु तानि सागरोपमाणि-पल्योपमकोटीकोटीदशकमानानीति, दशसागरोपमकोटीकोव्य उत्सर्पिणी, एवमेवावसर्पिणीति । कालविशेषवत् प्रामादिवस्तुविशेषा अपि जीवाजीवा एवेति द्विपदैः सप्तचत्वारिंशता सूत्रैराह-गामे'त्यादि, इह च प्रत्येक जीवाइ येत्यादिरालापोऽध्येतव्यो, ग्रामादीनां च जीवाजीवता प्रतीतैव, तत्र करादिगम्या ग्रामाः, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि १, निगमा:-वणिनिवासाः। राजधान्यो-यासु राजानोऽभिषिच्यन्ते २ खेटानि-धूलिप्राकारोपेतानि कर्बटानि-कुनगराणि ३, मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परतोऽवस्थितप्रामाणि द्रोणमुखानि येषां जलस्थलपथावुभावपि स्तः ४, पत्तनानि येषु जलस्थलपथयोरन्य|तरेण पयोहारप्रवेशा, आकरा-लोहाद्युत्पत्तिभूमयः ५, आश्रमाः-तीर्थस्थानानि संवाहा:-समभूमी कृषि कृत्वा येषु दु १ इच्छितस्थानेन गुण्यं शून्यपंचक चतुरशीतिगुणितं च । पूर्वागादीनां संख्या ततिबारान् कृत्या आभीहि ॥१॥ ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [९५] दीप अनुक्रम [९९]] भूमिभूतेषु धान्यानि कृषीवलाः संवहरित रक्षार्थमिति ६, सन्निवेशाः सार्थकटकादेः घोषा-गोष्ठानि ७, आरामा-वि-13 विधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसां रमणस्थानभूता इसि, उद्यानानि पत्रपुष्पफलच्छा-1 योपगादिवृक्षोपशोभितानि बहुजनस्य विविधवेषस्योन्नतमानस्य भोजनार्थं यानं-गमनं येष्विति ८, वनानीत्येकजातीयवृक्षाणि वनखण्डा:-अनेकजातीयोत्तमवृक्षाः ९, वापी चतुरस्रा पुष्करिणी वृत्ता पुष्करवती वेति १०, सरांसि-जलाशयविशेषाः सरःपतयः-सरसा पद्धतयः ११, 'अगह'त्ति अवटा:-कूपाः, तडागादीनि प्रतीतानि १२, पृथिवी-रलप्रभादिका उदधिः-तदधो घनोदधिः १४, वातस्कन्धा:-धनवाततनुबाता इतरे वा अवकाशान्तराणि-वातस्कन्धानामधस्तादाकाशानि, जीवता चैषां सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिजीवव्याप्तत्वात् १५, पलयानि-पृथिवीनां बेष्टनानि घनोदधिधनवाततनुवातलक्षणानीति विग्रहा-लोकनाडीवक्राणि, जीवता येषां पूर्ववत् १६, द्वीपाः समुद्राश्च प्रतीताः १७, बेला-समुद्रजलवृद्धिः, वेदिकाः प्रतीता: १८, द्वाराणि-विजयादीनि तोरणानि तेष्वेवेति १९, नैरयिका:-क्लिष्टसत्त्वविशेषास्तेषां चाजीवता कर्मपुद्गलाद्यपेक्षया तदुत्पत्तिभूमयो नैरविकावासास्तेषां च जीवता पृथिवीकायिकाद्यपेक्षया, इत्येवं चतुर्विशतिदण्डकोऽभिधेयः ४३ अत एवाह-यावदित्यादि, कल्पा:-देवलोकास्तदंशाः कल्पविमानाबासाः ४४, वर्षाणि-भरतादिक्षेत्राणि वर्षधरपर्वता:-हिमवदादयः ४५, कूटानि-हिमवत्कूटादीनि कूटागाराणि-तेष्वेव देवभवनानि ४६, विजया:-चकवतिविजेतव्यानि कच्छादीनि क्षेत्रखण्डानि, राजधान्या-क्षेमादिकाः, 'जीवे'त्यादि इहोक्तं सर्वत्र सम्बन्धनीयमिति ४७ । येऽपि पुद्गलधर्मास्तेऽपि तथैवेत्याह-'छायेत्यादि सूत्रपञ्चकं गतार्थम् , नवरं छाया वृक्षादीनामातपः | Sanitaram.org ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [९५] दीप अनुक्रम [९९]] श्रीस्थाना- आदित्यस्य, 'दोसिणाति वत्ति ज्योत्स्ना अन्धकाराणि-तमांसि, अवमानानि-क्षेत्रादीनां प्रमाणानि हस्तादीनि उ- २ स्थान मसूत्र न्मानानि-तुलायाः कर्षादीनि, अतियानगृहाणि-नगरादिप्रवेशे यानि गृहाणि, उद्यानगृहाणि प्रतीतानि, अवलिंबा सणिप-16 काध्ययने वृत्तिः वाया य रूढितोऽवसेया इति, किमेतत् सर्वमित्याह-जीवा इति च, जीवव्याप्तत्वात् तदानितत्वाद्धा, "अजीवा इति | उद्देशः४ च' पुद्गलाद्यजीवरूपत्वात् तदाश्रितत्वाद्वेति, प्रोच्यते-जिनैः प्ररूप्यत इति । इह च जीवाइ येत्यादि सूत्रपञ्चकेऽपि प्रत्येकमध्येतव्यमिति । अथ समयादिवस्तु जीवाजीवरूपमेव कस्मादभिधीयते , उच्यते, तद्विलक्षणराश्यन्तराभावाद् है अत एवाह-दो रासीत्यादि कण्ठ्यम् । जीवराशिश्च द्विधा-बद्धमुक्तभेदात् , तत्र बद्धानां बन्धनिरूपणायाह विहे बंधे पं०, तं०-पेशाबंधे चेव दोसबंधे चेव, जीवाणं दोहि ठाणेहिं पावं कर्म बंधति, सं०-रागेण चेव दोसण चेच, जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्म उदीरेंति, सं०-अभोवगमिवाते चेव वेतणाते उवकगिताते चेय वेवणाते, एवं धेति एवं णिजेरेति-अब्भोषगमिताते चेव वेयणाते उवकमिताते चेव वेयणाते (सूत्र ९६) प्रेम-रागो मायालोभकषायलक्षणः, द्वेषस्तु क्रोधमानकषायलक्षणः, यदाह-"माया लोभकपायश्चेत्येतद् रागसंज्ञितं| द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुन?ष इति समासनिर्दिष्टः॥१॥" इति, प्रेम्णः-प्रेमलक्षणचित्तविकारसम्पादकमोहनीयकमपुद्गलराशेवन्धन-जीवप्रदेशेषु योगप्रत्ययतः प्रकृतिरूपतया प्रदेशरूपतया च सम्बन्धनम् तथा कषायप्रत्ययतः स्थित्यनुभागविशेषापादनं च प्रेमबन्धः, एवं द्वेषमोहनीयस्य बन्धो द्वेषवन्ध इति, रक्तं हि,-"जोगा पयडिपदेस ठिति-13॥॥ १ योगेभ्यः प्रकृतिप्रदेशबन्धं कषायेभ्यः स्थित्यनुभागबंध करोति ।। ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [१०० ] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [२], उद्देशक [VI. मूलं [ ५६ ] ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... Eaton Intematona .......... - अणुभागं कसायओ कुणइ "त्ति, प्रेमद्वेषलक्षणाभ्यां कर्मभ्यामुदयगताभ्यां जीवानामशुभकर्मबन्धो भवतीत्याह- 'जी वाण' मित्यादि, अथवा पूर्वसूत्रमन्यथा व्याख्याय सम्बन्धान्तरमस्य क्रियते - सामान्येन बन्धो द्वेधा- प्रेमतो द्वेषतश्चेति, स चानिवृत्तिसूक्ष्मसम्परायान्तान् गुणस्थानिनः प्रतीत्य द्रष्टव्यः यस्तूपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिनां स योगप्रत्यय एव, स तु वन्धत्वेन न विवक्षितो, बन्धस्यापि तस्य शेषकर्मबन्धविलक्षणतयाऽबन्धकल्पत्वात् यस्य हि कर्मणोऽसौ तदल्पस्थितिकादिविशेषणम् उक्तं च- "अप्पं वायर मउयं बहुं च रुक्खं च सुकिलं चैव । मंदं महन्वयं तिय सायाबहुलं च तं कम्मं ॥ १ ॥” इति, अल्पं स्थित्या बादरं परिणामतः मृद्वनुभावतः बहु प्रदेशः मन्दं लेपतो बालुकावत्, महाव्ययं सर्वापगमात् । एतदेव दर्शयन्नाह - 'जीवा णमित्यादि, जीवाः सत्त्वाः णं वाक्यालङ्कारे द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां कार णाभ्यां पापम्-अशुभमशुभभवनिबन्धनत्वात् न तु निरनुबन्धं द्विसमयस्थितिकमत्यन्तं शुभं तस्य केवलयोगप्रत्ययत्वादिति, वनन्ति-स्पृष्टाद्यवस्थां कुर्वन्ति, रागेण चैव द्वेषेण चैव, कषायैरित्यर्थः ननु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धहेतवः तत्कथं कषाया एव इहोक्ता इति ?, उच्यते, कषायाणां पापकर्मबन्धं प्रति प्राधान्यख्यापनार्थ, प्राधान्यं च स्थित्यनुभागप्रकर्षकारणत्वात् तेषामिति, अथवा अत्यन्तमनर्थकारित्वाद्, उक्तञ्च - " को दुक्खं पावेजा कस्स व सोक्खेहिं बिम्हओ होज्जा ? । को वा न लहेज मोक्खं ? रागद्दोसा जइ न होजा ॥ १ ॥” इति अथवा बन्धहेतु देशग्राहकमेवेदं सूत्रं द्विस्थानकानुरोधादिति न दोषः । उक्तस्थानद्वयवद्धपापकर्मणश्च यथोदीरणवेदननिर्जराः कुर्वन्ति देहिन१ तत्सयोगिक अल्पं बाद मृदु बहु रूक्षं शुत्रं चैव मंदं महाव्ययं साता बहुलमिति ॥ १ ॥ २ को दुःखं प्राप्नुयात् कस्य वा सुखैर्विमयो भूयात् को न लभेत मोक्षं रागद्वेषा यदि न भवेतां ॥ १ ॥ For Parts Only ~ 180 ~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- लसूत्र- वृत्तिः सूनाक 4%456-54-% [९६] ॥८९॥ दीप अनुक्रम [१००] स्तथा सूत्रत्रयेणाह-'जीवेत्यादि गतार्थम् , नवरं उदीरयन्ति-अप्राप्तावसरं सदुदये प्रवेशयन्ति, अभ्युपगमेन-अङ्गी- २स्थानकरणेन निवृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगमिकी तया-शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदनया-पीडया उपक्रमेण-कर्मोदीर-15 काध्ययने णकारणेन निवृत्ता तत्र वा भवा औपक्रमिकी तया-ज्वरातीसारादिजन्यया, 'एवं मिति उक्तप्रकारत एव वेदयन्ति उद्देशः४ | विपाकतोऽनुभवन्त्युदीरितं सदिति, 'निर्जरयन्ति' प्रदेशेभ्यः शाटयन्तीति । निर्जरणे च कर्मणो देशतः सर्वथा वा भवान्तरे सिद्धी वा गच्छतः शरीरान्निर्याणं भवतीति सूत्रपञ्चकेन तदाह दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाति, तं०-देसेणवि आता सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाति सम्वेणवि आया . सरीरगं फुसित्ताणं णिजाति, एवं कुरित्ताणं एवं फुडित्ता एवं संवदृतिचा एवं निबट्टतित्ता (सूत्र ९७) 'दोही'त्यादिक कण्ठयं, नवरं द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां 'देसेणबित्ति देशेनापि कतिपयप्रदेशलक्षणेन केषाशिदेशाना| मिलिकागत्योत्पादस्थानं गच्छता जीवेन शरीराहिः क्षिप्तत्वात् , 'आत्मा' जीवः, 'शरीरं देहं 'स्पृष्ट्वा' श्लिष्ट्वा 'निर्याति' शरीरान्मरणकाले निःसरतीति, 'सब्वेवित्ति सर्वेण-सर्वात्मना सजीवप्रदेशैः कन्दुकगत्योत्पादस्थानं गच्छता शरीराद् बहिः प्रदेशानामप्रक्षिप्तत्वादिति, अथवा देशेनापि-देशतोऽप्यपिशब्दः सर्वेणापीत्यपेक्षा, आत्मा, शरीरं, कोऽर्थः-शरीरदेशं पादादिकं स्पृष्ट्वाऽवयवान्तरेभ्यः प्रदेशसंहारानियोति, स च संसारी, 'सर्वेणापि' सर्वतयाऽपि, अपिदेशेनापीत्यपेक्षः, सर्वमपि शरीरं स्पृष्ट्वा निर्यातीति भावः, स च सिद्धो, वक्ष्यति च-"पायणिज्जाणा णिरएसु "उववजंती"त्यादि, यावत् “सब्बंगणिज्जाणा सिद्धेसु"त्ति । आत्मना शरीरस्य स्पर्शने सति स्फुरणं भवतीत्यत उच्यते REaratime ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 845459 प्रत सूत्राक [९७]] 1-'ए'मित्यादि, 'एवं मिति 'दोहिं ठाणेही'त्याद्यभिलापसंसूचनार्थः, तत्र देशेनापि कियद्भिरप्यात्मप्रदेशैरिलिकागतिकाले 'सवेणवित्ति सब्बैरपि गेन्दुकगतिकाले शरीरं 'फुरित्ताण ति स्फोरयित्वा सस्पन्दं कृत्वा निर्याति, अथवा शरीरकं देशतः शरीरदेशमित्यर्थः स्फोरयित्वा पादादिनिर्याणकाले, सर्वतः-सर्व शरीर स्फोरयित्वा सर्वाङ्गानिर्याणावसर इति । स्फोरणाच सात्मकत्वं स्फुटं भवतीत्याह-'एव'मित्यादि, 'एवं मिति तथैव देशेन-आत्मदेशेन शरीरक 'फुडित्ताण ति सचेतनतया स्फुरणलिङ्गतः स्फुटं कृत्वा इलि कागतौ सर्वेण-सर्वात्मना स्फुट कृत्वा गेन्दुकगताविति, अथवा शरीरकं देशतः-सात्मकतया स्फुटं कृत्वा पादादिना निर्याणकाले सर्वतः-सर्वाङ्गनिर्याणप्रस्ताव इति, अथवा फुडित्ता| स्फोटयित्वा विशीर्ण कृत्वा, तत्र देशतोऽक्ष्यादिविघातेन सर्वतः सर्वविशरणेन देवदीपादिजीववदिति । शरीरं सात्मकतया स्फुटीकुर्वस्तत्संवर्तनमपि कश्चित्करोतीत्याह-एब'मित्यादि, 'एवं'मिति तथैव 'संवत्ताण'त्ति संवर्त्य-सङ्कोच्य शरीरकं देशेनेलिकागती शरीरस्थितप्रदेशैः सर्वेण-सर्वात्मना गेन्दुकगती सर्वात्मप्रदेशानां शरीरस्थितत्वान्निर्यातीति, अथवा शरीरक-शरीरिणमुपचाराद्दण्डयोगाद्दण्डपुरुषवत्, तत्र देशतः संवर्चनं संसारिणो बियमाणस्य पादादिगतजीवप्रदेशसंहारात् सर्वतस्तु निर्वाणं गन्तुरिति, अथवा शरीरकं देशतः संवर्ध्व-हस्तादिसङ्कोचनेन सर्वतः-सर्वशरीरसकोचनेन पिपीलिकादिवदिति । आत्मनश्च संवर्तनं कुर्वन् शरीरस्थ निवर्सनं करोतीत्याह-एवं 'निव्वदृयित्ता ति, तथैव निवर्त्य-जीवप्रदेशेभ्यः शरीरकं पृथकृत्येत्यर्थः, तत्र देशेनेलिकागती सर्वेण गेन्दुकगती, अथवा देशतः शरीरं निर्वसात्मनः पादादिनिर्याणवान् सर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणवानिति, अथवा पश्चविधशरीरसमुदायापेक्षया देशतः शरीरम् दीप CORDSROCKGROCER अनुक्रम [१०१] jaanasaramorg ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [९७] दीप अनुक्रम [१०१] स्थान [२], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] श्रीस्थाना झसूत्रवृत्तिः ॥ ९० ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) औदारिकादि निवर्त्य तैजसकार्मणे स्वादायैव, तथा सर्वेण सर्वे शरीरसमुदायं निवर्त्य निर्याति, सिध्यतीत्यर्थः । अनन्तरं सर्वनिर्याणमुक्तम्, तच्च परम्परया धर्मश्रवणलाभादिषु, ते च यथा स्युस्तथा दर्शयन्नाह Education International मूलं [ ९७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दोहिं ठाणेहिं आता केवळपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणताते, तं० खतेण चेव उवसमेण देव, एवं जाब मणपजवनाणं उप्पाडेजा [सं० खतेण चेव उवसमेण चैव (सूत्रं ९८ ) 'दोही 'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'खएण चेव'त्ति ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणः उदयप्राप्तस्य क्षयेण - निर्ज रणेन अनुदितस्य चोपशमेन - विपाकाननुभवेन, क्षयोपशमेनेत्युक्तं भवति, यावत्करणात् केवलं बोहिं बुज्झेजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा केवलं वंभचेवासमावसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमिज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, | केवलं आभिणिबोहियनाणमुप्पाडेजा इत्यादि दृश्यम् एवं यावन्मनः पर्यवज्ञानमुखादयेदिति, केवलज्ञानं तु क्षयादेव भवतीति तनोक्तम् । इह च यद्यपि बोध्यादयः सम्यक्त्वचारित्ररूपत्वात् केवलेन क्षयेण उपशमेन च भवन्ति तथाऽप्येते क्षयोपशमेनापि भवन्ति, श्रवणाभिनिबोधिकादीनि तु क्षयोपशमेनैव भवन्तीति सर्वसाधारणः क्षयोपशम उक्तः पदद्वयेनातः स एव व्याख्यात इति । बोध्याभिनिबोधिक श्रुतावधिज्ञानानि च षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकान्युत्कर्षतो भवन्ति, सागरोपमाणि च पल्योपमाश्रितानीति तद्वितयप्ररूपणामाह दुविहे अद्धोमिए पत्ते तं०—पलिओ मे चैव सागरोवमे चैव से किं तं पलिओ मे ?, पलिओ मे—जं जोयणविनं, पहएगाहियपरूदाणं होऊन निरंतरणिचितं भरितं वाग्गकोडीणं ॥ १ ॥ वाससए वाससए एकेके अवडंमि For Parts Only ~ 183~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ ॥ ९० ॥ www.andray or Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९९] गाथांक ||१-३|| ASNA जो कालो । सो कालो बोम्बो, उधमा एगस्स पल्लस्स ॥२॥ एएसि पाहाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिता । तं सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं ॥३॥ (सू० ९९) उपमा-औपम्यं, तया निवृत्तमौपमिक अद्धा-कालस्तद्विषयमोपमिकमद्धीपमिकम् , उपमानमन्तरेण यस्कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदद्धीपमिकमिति भावः, तच द्विधा-पल्योपमं चैव सागरोपमं चैव, तत्र पल्यवत्पल्यस्तेनोपमा यस्मिंस्तत्सल्योपमम् , तथा सागरेणोपमा यस्मिंस्तत्सागरोपमं, सागरवन्महापरिमाणमित्यर्थः, इदं च पल्योपमसागरोपमरूपमौपमिक सामान्यत उद्धाराद्धाक्षेत्रभेदात् त्रिधा, पुनरेंकैकं संव्यवहारसूक्ष्मभेदात् द्विधा, तत्र संव्यवहारपल्योपमं नाम यावता कालेन योजनायामविष्कम्भोच्चत्वः पल्यो मुण्डनानन्तरमेकादिसप्तान्ताहो रात्रप्ररूढानां वालाग्राणां भृतः प्रतिसमयं वालाग्रोद्धारे सति निलेपो भवति स कालो व्यावहारिकमुद्धारपल्योपममुटीच्यते, तेषां दशभिः कोटीकोटीभिः व्यावहारिकमुद्धारसागरोपममुच्यते, तेषामेव वालाग्राणां दृष्टिगोचरातिसूक्ष्मद्रव्या सङ्ख्येयभागमात्रसूक्ष्मपनकावगाहनाऽसङ्ख्यातगुणरूपखण्डीकृतानां भृतः पल्यो येन कालेन निलेपो भवति तथैवोद्धारे तत्सूक्ष्ममुद्धारपल्योपमं, तथैव च सूक्ष्ममुद्धारसागरोपमम् , अनेन च द्वीपसमुद्राः परिसञ्चायन्ते, आह च-"उद्धारसागराणं अहाइजाण जत्तिया समया । दुगुणादुगुणपवित्थर दीवोदहि रजु एवइया ॥ १ ॥” इति, अद्धापल्योपम सागरोपमे अपि सूक्ष्मबादरभेदे एवमेव, नवरं वर्षशते २ वालस्य वालासयेयखण्डस्य चोद्धार इति, अनेन नारकादिस्थिस्था०१६ १ उद्धारसागरोपमयोः साबद्वयोः यावन्तः समयाः एतापन्तो द्वीपोदधयो द्विगुणद्विगुणप्रविस्तरा रजः॥१॥ दीप अनुक्रम [१०३-१०६] ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत सूत्रांक [९९] गाथांक ||१-३|| वृत्तिः ॥९ ॥ तयो मीयन्ते, क्षेत्रतोऽपि ते द्विविधे एवमेव, नवरं प्रतिसमयमेकैकाकाशप्रदेशापहारे यावता कालेन वालाग्रस्पृष्टा एव | | २ स्थानप्रदेशा उद्रियन्ते स कालो व्यावहारिक इति, यावता च वालाग्रासङ्ग्यातखण्डः स्पृष्टा अस्पृष्टाश्वोद्रियन्ते स कालः सू काध्ययने क्ष्म इति, एते च प्ररूपणामात्रविषये एव, आभ्यां च दृष्टिवादे स्पृष्टास्पृष्टप्रदेशविभागेन द्रव्यमाने प्रयोजनमिति श्रूयते, उद्देशः४ बादरे च त्रिविधे अपि प्ररूपणामात्रविषये एवेति, तदेवमिह प्रक्रमे उद्धारक्षेत्रीपमिकयोनिरुपयोगित्वादद्धौपमिकस्यैव पल्योपचोपयोगित्वाद अद्वेतिविशेषणं सूत्रे उपात्तमिति, अत एवाद्धापल्योपमलक्षणाभिधित्सयाऽऽह सूत्रकार-से किं|मादिस्व. त'मित्यादि, अथ किं तत् पल्योपमं ?, यदीपमिकतया निर्दिष्टमिति प्रश्ने निर्वचनमेतदनुवादेनाह–'पलिओवमेत्ति, पल्योपममेवं भवतीति वाक्यशेषः, 'जं' गाहा, किल यद्योजनविस्तीणमित्युपलक्षणवात्सर्वतो यद्योजनप्रमाणं पल्यं-1 धान्यस्थानविशेषः एकाह एव ऐकाहिकस्तेन प्ररूढाना-वृद्धानां मुण्डिते शिरसि एकेनाहा यावत्यो भवन्तीत्यर्थः, एतस्य चोपलक्षणत्वादुत्कर्षतः सप्ताहप्ररूढानां वालाग्राणां कोट्यो-विभागाः सूक्ष्मपल्योपमापेक्षयाऽसंख्येयखण्डानि या-1 दरपल्योपमापेक्षया तु कोटयः-सहबाविशेषाः तासां किं भवेत्?-'भरितं भूतं, कथमित्याह-निरन्तर' निचितं निवि-10 ४ डतया निचयवत्कृतमिति । 'वास' गाहा, एतस्मासल्यावर्षशते वर्षशतेऽतिक्रान्ते सति प्रतिवर्षशतमित्यर्थः, एकैकस्मिन् वालाने असद्धयेयखण्डे चापहृते-उद्धृते सति 'यः कालों' यावती अद्धा भवति प्रमाणतः स तावान् कालो बोद्धव्या, किमित्याह-'उपमा उपमेयः, कस्येत्याह-एकस्य पल्यस्य, इदमुक्तं भवति-स काल एक पल्योपमं सूक्ष्म व्यावहारिक | ॥९१॥ चोच्यत इति । 'एएसिं' गाहा, एतेषाम्-उक्तरूपाणां सूक्ष्मवादराणां 'पल्यानां' पल्योपमानां कोटीकोटी भवेद् दश दीप अनुक्रम [१०३-१०६] aurary.com ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१०० -१०१] गाथांक ||2-3|| दीप अनुक्रम [१०८ -१०९] Education “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ९९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [२] उद्देशक [४]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] गुणिता यदिति गम्यते, दश कोटीकोव्य इत्यर्थः, तदेकस्य सूक्ष्मरूपस्य वादररूपस्य वा सागरोपमस्यैव भवेत्परिमाणमिति ॥ एतैश्च येषां क्रोधादीनां फलभूतकर्मस्थितिर्निरूप्यते तत्स्वरूपनिरूपणायाह दुविहे कोहे पन्नत्ते तं० – आयपइट्ठिते चैव परपइट्ठिए चेव, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं, एवं जाव मिच्छादंसणसले (सू० १००) । दुबिहा संसारसमावन्नगा जीवा पं० सं० तसा चैव थावरा देव, दुबिहा सब्वजीवा पं० तं०सिद्धा चैव असिद्धा चैव दुविधा सव्वजीवा पण्णत्ता तं०—सइंदिया चेव अनिंदिया चेव, एवं एसा गाहा फासेतव्वा जाब ससरीरी चेव असरीरी चैव सिद्धसइंदियकाए जोगे वेए कसाय लेसा य णाणुवओगाहारे भासग चरिने य ससरीरी ॥ १ ॥' ( सू० १०१ ) आत्मापराधादैहिकापायदर्शनादात्मनि प्रतिष्ठितः - आत्मविषयो जातः आत्मना वा परत्राक्रोशादिना प्रतिष्ठितो-जनित आत्मप्रतिष्ठितः, परेणाक्रोशादिना प्रतिष्ठितः - उदीरितः परस्मिन् वा प्रतिष्ठितो जातः परप्रतिष्ठित इति । 'एव' मिति यथा सामान्यतो द्वेधा क्रोध उक्त एवं नारकादीनां चतुर्विंशतेर्वाच्यः, नवरं पृथिव्यादीनामसंज्ञिनामुक्तलक्षणमात्मप्रतिष्ठितत्वादि पूर्वभवसंस्कारात् क्रोधगतमवगन्तव्यमिति । एवं मानादीनि मिथ्यात्वान्तानि पापस्थानकान्यात्म परप्रति| ष्ठितविशेषणानि सामान्यपदपूर्वकं चतुर्विंशतिदण्ड केनाध्येतव्यानि, अत एवाह - 'एवं जाय मिच्छादंसणसल्ले त्ति, एतेषां च मानादीनां स्वविकल्पजातपरजनितत्वाभ्यां स्वात्मवर्त्तिपरात्मवर्त्तिभ्यां वा स्वपरप्रतिष्ठितत्वमवसेयम् । एवमेते पापस्थानाश्रितास्त्रयोदश दण्डका इति । उक्तविशेषणानि च पापस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति तान् भेदत आह For Par Use Only ~ 186~ Tray org Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१०० -१०१] गाथांक ||2-3|| दीप अनुक्रम [१०८ -१०९] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [२], मूलं [१०१] उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ९२ ॥ — 'दुविहे 'त्यादि कण्ठ्यमिति ॥ ननु संसारिण एव जीवा उतान्येऽपि सन्ति ?, सन्त्येवेति प्राय उभयदर्शनाय त्रयोदशसूत्रीमाह-- 'दुविहा सवे' त्यादिकं, कण्ठ्या चेयं, नवरं सेन्द्रियाः - संसारिणोऽनिन्द्रियाः- अपर्याप्तक केवलिसिद्धाः २ 'एवं एस'त्ति, 'एवं' सिद्धादिसूत्रोक्तक्रमेण 'दुविहा सब्बजीवेत्यादिलक्षणेन एषा वक्ष्यमाणा प्रस्तुतसूत्रसहगाथा स्पर्शनीया अनुसरणीया, एतदनुसारेण त्रयोदशापि सूत्राण्यध्येतव्यानीत्यर्थः, अत एवाह- 'जाव ससरीरी चेव असरीरी चेव'त्ति । 'सिद्ध' गाहा, सिद्धाः सेन्द्रियाश्व सेतरा उक्ताः, एवं 'काए'त्ति, कायाः - पृथिव्यादयस्तानाश्रित्य सर्वे 4 जीवाः सविपर्यया वाच्याः, एवं सर्वाणि व्याख्येयानि, वाचना चैवं- 'सकायचेव अकायचेव' 'सकायाः पृषिव्यादिषडूविधकायविशिष्टाः संसारिणः, अकायास्तद्विलक्षणाः सिद्धाः ३, सयोगाः - संसारिणः अयोगा- अयोगिनः सिद्धाश्च ४, 'वेदेत्ति सवेदाः - संसारिणः अवेदाः - अनिवृत्तिवादर सम्परायविशेषादयः पटू सिद्धाश्च ५, 'कसाय'त्ति, सकषायाःसूक्ष्मसम्परायान्ताः अकषायाः- उपशान्तमोहादयश्चत्वारः सिद्धाश्च ६, 'लेसा यत्ति सलेश्याः- सयोग्यन्ताः संसारिणः अलेश्या:- अयोगिनः सिद्धाश्च ७, 'नाणे'त्ति ज्ञानिनः - सम्यग्दृष्टयोऽज्ञानिनो-मिथ्यादृष्टयः, आह च--"अविसेसिया मइ च्चिय सम्मद्दिस्सि सा मन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिट्ठिस्स सुर्यपि एमेव ॥ १ ॥” इति, अज्ञानता च मिथ्यादृष्टिबोधस्य सदसतोरविशेषणात्, तथाहि सन्त्यर्थाः, इह तत्सत्त्वं कथञ्चिदिति विशेषितव्यं भवति, स्वरूपेणेत्यर्थः, मिध्यादृष्टिस्तु मन्यते - सन्त एवेति ततश्च पररूपेणापि तेषां सत्त्वप्रसङ्गः तथा न सन्त्यर्थाः, इह तदसत्त्वं कथञ्चि अविशेषिता मतिरेव सम्बः सा मतिज्ञानं सियाज्ञानं श्रुतमप्येवमेव ॥ १ ॥ Education Internation For Park Use Only ~ 187 ~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ क्रोधादे रात्मस्थ तादिसि द्धत्वादि सू० १०० १०१ ॥ ९२ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००-१०१] गाथांक ||१-३|| दिति विशेषिव्यं भवति, पररूपेणेत्यर्थः, स तु न सन्त्येवेति मन्यते, तथा च तत्प्रतिषेधकवचनस्थाप्यभावः प्रसजतीति, अथवा शशविषाणादयो न सन्तीत्येतत्कथञ्चिदिति विशेषणीयं, यतस्ते शशमस्तकादिसमवेततयैव न सन्ति, न तु शशश्च विषाणं च शशस्य वा विषाणं शृङ्गिपूर्वभवग्रहणापेक्षया शशविषाणं तद्रूपतयाऽपि (वा) न सन्तीति, तदेवं सदसतोः कथञ्चि|दित्येतस्य विशेषणस्थानभ्युपगमात् तस्य ज्ञानमप्ययथार्थत्वेन कुत्सितत्वादज्ञानमेव, आह च-“जह दुन्वयणमवयणं कुच्छियसीलं असीलमसतीए । भण्णइ तह णाणपि हु मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणं ॥१॥" इति, तथा मिथ्यादृष्टेरध्यवसायो न ज्ञानं, भवहेतुत्वात्, मिथ्यात्वादिवत् , तथा यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्, तथा ज्ञानफलस्य सत्कियालक्षणस्या-13 भावात् अन्धस्य स्वहस्तगतदीपप्रकाशवदिति, आह च-"सदसदविसेसणाओ भवहेजजइच्छिओवलंभाओ । णाणफलाभावाओ मिच्छादिहिस्स अन्नाणं ॥१॥" इति ८, 'उवओगि'त्ति, सागारोवउत्ते चेव अणगारोबउत्ते चेव त्ति सहाकारेण-विशेषांशग्रहणशक्तिलक्षणेन वर्तते य उपयोगः स साकारो, ज्ञानोपयोग इत्यर्थः, तेनोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः, अनाकारस्तु तद्विलक्षणो दर्शनोपयोग इत्यर्थः, अभिधीयते च-"ज सामनग्गहण भावाणं नेय कटु आगारं । अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिति वुच्चए समए ॥१॥"त्ति, तेनोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ता इति ९, 'आहार'त्ति, आहारका १ यथा पुर्वचनमवचनं कुरिसतं कीलमशील असत्याः । भण्यते यया तथा ज्ञानमपि मिभ्यादरेरशानमेव ॥१॥ २ सदसदविशेषणाअवतो यादच्छिकोपलंभात् । शानफलाभावाच मिथ्यावाटेरशानं ॥१॥ ३ यसामान्यग्रहणं पदार्थाना मेवाकारं कृत्वाऽविशिष्याथीन् दर्शनमित्युच्या शान सामान्यग्रहण पदार्थाना नेवाकार काsविशिष्यार्थान दर्शनमित्युच्यते सनये ॥१॥ दीप अनुक्रम [१०८ * -१०९] Brainrary.org ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: असूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [१००-१०१] गाथांक ||१-३|| ॥९३॥ लाओजोलोमकवलभेदभिन्नाहारविशेषग्राहिणः, आह च-"ओयाहारा जीवा सम्वे अपज्जत्तगा मुणेयब्वा । पजत्तगाय लोमे पक्खेवे होति भइयव्वा ॥ १ ॥ एगिंदिय देवाणं रझ्याणं च नत्थि पक्खेयो । सेसाणं जीवाणं संसारत्थाणकाध्ययने पक्खेवो ॥२॥" इति, अनाहारकास्तु “विग्गहगइमावण्णा १ केवलिणो समोहया २ अजोगी य३ । सिद्धा य ४ स | उद्देशः४ अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ ३ ॥” इति, १० । 'भास'त्ति भाषकाः-भाषापर्याप्तिपर्याप्ताः अभाषका:-तदप- प्रशस्ताप्रपर्याप्तका अयोगिसिद्धाश्च ११ । 'चरमत्ति चरमा येषां चरमो भवो भविष्यति, अचरमास्तु येषां भव्यत्वे सत्यपि चरमोशस्तानि साभवो न भविष्यति, न निर्वास्यन्तीत्यर्थः १२ । 'ससरीरि'त्ति सह यथासम्भवं पञ्चविधशरीरेण ये ते इन्समासान्तविधेःमरणानि सशरीरिणः-संसारिणो अशरीरिणस्तु-शरीरमेषामस्तीति शरीरिणस्तन्निषेधादशरीरिणः-सिद्धाः १३॥ एते च संसारिणः सू०१०२ सिद्धाश्च मरणामरणधर्मकाः, अप्रशस्तप्रशस्तमरणतश्चैते भवन्तीति प्रशस्ताप्रशस्तमरणनिरूपणाय नवसूत्रीमाह दो मरणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंधाणं णो णिचं वनियाई णो णिचं कित्तियाई णो णिचं पूइयाई णो णिचं पसस्थाई णो णि अभणुनायाई भवंति, तंजहा-बलायमरणे चेव बसट्टमरणे चेव १ एवं णियाणमरणे चेव तम्भवमरणे व २ गिरिपडणे चेव तरुपडणे चेव ३ जलप्पवेसे चेव जलगप्पवेसे चेव ४ विसभक्खणे चेव सत्थोबाडणे चेव ५ दो मरणाई जाच णो णिचं अन्भणुनायाई भवंति, कारणेण पुण अप्पडिकुट्ठाई तं०-बेहाणसे चेव गिद्धपढे चेव ६ १ओजआहाराः सर्वे अपर्याप्तका जीवा झातव्याः पर्याप्तकाश्च लोम्नि प्रक्षेपे भवन्ति भक्तव्याः ॥1॥ एकेन्द्रियाणां देवानां नैरयिकाणां च नास्ति प्रक्षेपः ॥१३॥ ग्रहगतिमापत्राः कवाल नः समबहता अयोगिनः सिद्धावानाहाराः शेषा आहारका जीवाः ॥१॥ दीप अनुक्रम [१०८ -१०९] ~ 189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२ दो मरणाई समणेणं भगवया महावीरेण समणाणं निग्गंधाणं णिचं वनियाई जाव अन्भणुन्नाताई भवति, तं-पाओबगमणे चेष भत्तपमक्खाणे चेव ७ पाओगमणे दुविहे पं० सं०-णीहारिमे चेव अनीहारिमे व णियमं अपतिकमे ८ भत्तपनक्खाणे दुविहे पं० सं०-णीहारिमे चेव अणीहारिमे चेव, णियमं सपदिकमे ९ (सू० १०२) 'दो मरणाई' मित्यादि, कण्ठ्या चेयम्, नवरं दे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रमणास्तेषां, ते च शाक्यादयोऽपि स्युः, यथोक्तम्-"णिग्गथे १ सक २ तावस ३ गेरुय ४ आजीव ५ पंचहा समणा" इति तद्व्यवच्छेदार्थमाह-निर्गता अन्धाद्-बाह्याभ्यन्तरादिति निर्घन्धाः-साधवस्तेषां नो 'नित्यं सदा 'वर्णिते तास्तयोः प्रवर्तयितुमुपादेयफलतया नाभिहिते कीर्तिते-नामतः संशब्दिते उपादेयधिया 'बुहयाईति व्यक्तवाचा उक्त | उपादेयस्वरूपतः पाठान्तरेण 'पूजिते वा' तत्कारिपूजनतः 'प्रशस्ते' प्रशंसिते श्लाघिते, 'शंसु स्तुताविति वचनात् , अभ्यनुज्ञाते' अनुमते यथा कुरुतेति, 'वलायमरणं'ति वलता-संयमानिवर्तमानानां परीषहादिबाधितत्वात् मरणं | वलन्मरणं, 'वसहमरण'ति इन्द्रियाणां वशम्-अधीनतामृताना--गतानां स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलितपतङ्गादीनामिव मरणं वशान्मरणमिति, आह च-"संमजोगविसन्ना मरंति जे तं बलायमरण तु । इंदियविसयवसगया मरंति जे तं बस तु ॥ १॥" इति, एवं 'णियाणे'त्यादि, 'एव'मिति दो मरणाई समणेणमित्याद्यभिलापस्योत्तर निन्धिाः शाक्यास्तापसा गैरिका आजीवकाः पंचधा श्रमणाः ॥ २ संयमयोगविषण्णा नियन्ते तलबन्मरण तु इन्द्रियविषय वशगता नियन्ते थे। दशामरणं ॥१॥ दीप अनुक्रम [११०] ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१०२] दीप अनुक्रम [११०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१०२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [२], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] उद्देशः ४ प्रशस्ताप्र ॥ ९४ ॥ श्रीस्थाना- 2 सूत्रेष्वपि सूचनार्थः, ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदानं तत्पूर्वकं मरणं निदानमरणं, यस्मिन् भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्द्भवयोग्य २ स्थानसूत्र- 3 मेवायुर्वद्धा पुनर्वियमाणस्य मरणं तद्भवमरणम्, एतच्च सङ्ख्यातायुष्कनरतिरश्चामेव, तेषामेव हि तद्भवायुर्वन्धी ४ काध्ययने वृत्तिः ॐ भवतीति, उक्तं च- "मोत्तुं अंकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे य णेरइए । सेसाणं जीवाणं तव्भवमरणं तु केसिंचि ॥ १ ॥” इति, 'सत्थोवाडणे'त्ति शस्त्रेण-धुरिकादिना अवपाटनं - विदारणं स्वशरीरस्य यस्मिंस्तच्छत्रावपाटनम्, 'कारणे पुणे - ७. त्यादि, शीलभङ्गरक्षणादी पाठान्तरे तु कारणेन 'अप्रतिक्रुष्टे' अनिवारिते भगवता, वृक्षशाखादावुद्धद्धत्वाद् विहा- 8 शस्तानियसि - नभसि भवं वैहायसं प्राकृतत्वेन तु वेहाणसमित्युक्तमिति, गृनैः स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिंस्तद् गृभ्रस्पृष्टम्, यदिवा गृधाणां भये पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरिकर भादिशरीरानुप्रवेशेन महासत्स्वस्य मुमूर्षोर्यस्मिंस्तत् गृपृष्ठमिति, गाथाsत्र “द्धादिभक्खणं गद्धपब्बंधणादि बेहासं । एते दोन्निवि मरणा कारणजाए अणुनाया ॥ १ ॥ " इति । अप्रशस्तमरणानन्तरं तत्प्रशस्तं भव्याचां भवतीति तदाह- 'दो मरणाई' इत्यादि, पादपो-वृक्षः, तस्येव छिन्न| पतितस्योपगमनम् - अत्यन्तनिश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिंस्तपादपोपगमनं भक्कं भोजनं तस्यैव न चेष्टावा अपि पादपोपगमन इव प्रत्याख्यानं वर्जनं यस्मिंस्तद्भकप्रत्याख्यानमिति, 'णीहारिमंति यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात् - निस्सारणान्निहरिमं यत्पुनर्गिरिकन्दरादौ तदनिर्हरणादनिर्धारिमं । 'नियम'ति विभक्तिपरिणामा मरणानि सू० १०२ १ अफर्म भूमिकनर तिरो मुक्त्वा सुरगणानैरविकांथ शेषाणां जीवानां केपाविदेव तद्भनमरणं ॥ १ ॥ २द्रादिभक्षणं गृहपृष्ठ उद्बन्धनादि वैहायसं । एते ॥ ९४ ॥ द्वे मरणे कारणजाते अनुज्ञाते अपि ॥ १ ॥ Education International For Park Use Only ~ 191~ waryra Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -SSES प्रत सूत्रांक [१०२ दीप अनुक्रम [११०] नियमादप्रतिकर्म-शरीरप्रतिक्रियावर्ज पादपोपगमनमिति, भवति चात्र गाथा-"सीहाइसु अभिभूओ पायवगमणं करेइ थिरचित्ती । आउमि पहुप्पंते बियाणिउ नवरि गीयत्थो ॥१॥" इति, इदमस्य व्याघातवदुच्यते, नियाघातं तु यस्सूत्रार्थनिष्ठितः उत्सर्गतो द्वादश समाः कृतपरिकर्मा सन् काल एव करोतीति, तद्विधिश्चायम्-"चत्तौरि विचिताई विगतीनिज्जूहियाई चत्तारि । संवच्छरे य दोन्नि उ एगंतरियं च आयाम ॥ २ ॥णाइविगिहो य तवो छम्मासे | परिमियं च आयाम । अन्नेऽवि य छम्मासे होइ विगिढ़ तवोकर्म ॥ ३ ॥ वासं कोडीसहियं आयाम काउ आणुपुब्बीए । संघयणादणुरूवं एत्तो अद्धाइ नियमेणं ॥४॥ यतः-देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहिं खिज्जमाणेहिं । जायइ अट्टम्झाणं सरीरिणो चरमकालम्मि ॥ ५ ॥ किश्व-भावमवि संलिहेइ जिणप्पणीएण झाणजोगेणं । भूयत्वभावणाहि य । परिवार घोहिमूलाई ॥ ६ ॥ भावेइ भावियप्पा बिसेसओ नवरि तंमि कालम्मि । पयईय निग्गुणत्तं संसारमहासमुदस्स ॥ ७ ॥ जम्मजरामरणजलो अणाइमं वसणसावयाइण्णो । जीवाण दुक्खहेऊ कई रोद्दो भवसमुद्दो॥ ८ ॥ सिंहादिनाभिभूतः पादपोपममनं करोति स्थिरचितः । आयुषि प्रभवति विज्ञाथ पर गीतार्थः ॥१॥ (१) बहुप्पते प्र. २ चत्वारि विचित्राणि विकृतिरहितानि चत्वारि । संवत्सरे च हे एकान्तरित आचामाम्लमेव ॥ २॥ नाति विकष्टं च तपः षण्मासी परिमितं चाचाम्लं । अन्यानपि षण्मासान् भवति विरुष्ट तपःकर्म ॥ ३॥ वर्षे कोटिसहितमाचामाम्लं कृत्वानुपूा। संहननाद्यनुरूपमेतत्कालादि नियमेन ॥४॥ देहेऽसलिखिते सहसा धातुभिः क्षीयमाणः । जायते आतध्याने शरीरिणथरमकाले ॥ ५॥ भावमपि संलेख यति जिनप्रणीतेन ध्यानयोगेन । भूतार्थभावनानिष परिवर्वते बोधिमूलानि ॥६॥ भावयति भावितात्मा विशेषतः पर तस्मिन् काले । प्रकृत्या निर्गुणवं संसारमहासमुद्रस्य ॥ ७॥ जन्मजरामरणालोऽनाविमान् व्यसनश्वापदाकीर्णः । जीवानां दुःखहेतुः कठो दो भवसमुहः ॥८॥ ACAKACCEACM ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः सूत्रांक [१०२] ॥१५॥ दीप अनुक्रम [११०] धन्नोऽहं जेणमए अणोरपारम्मि नवरमेयंमि । भवसयसहस्सदुलह लद्धं सद्धम्मजाणंति ॥ ९ ॥ एयस्स पभावेणं | २ स्थानपालिजंतस्स सइ पयत्तेणं । जम्मतरेऽवि जीवा पार्वति न दुक्खदोगचं ॥ १० ॥ चिंतामणी अउब्बो एयमपुब्यो यसकाध्ययने कप्परुक्खोत्ति । एयं परमो मंतो एयं परमामयं एत्थं ॥ ११ ॥ ऍत्वं वेयावडियं गुरुमाईणं महाणुभावाणं । जेसि उद्देशः४ पभावेणेयं पसं तह पालियं चेव ॥ १२ ॥ तेसिं नमो तेसिं नमो भावेण पुणोवि तेसिं चेव णमो । अणुवकयपरहि-131 प्रशस्तापयरया जे एयं देति जीवाणं ॥१३॥” इत्यादि, "संलिहिऊणऽप्पाणं एवं पञ्चप्पिणेत्तु फलगाई। गुरुमाइए य सम्म खमा- | शस्तानि विउं भावसुद्धीए ॥ १४ ॥ उवहिऊण सेसे पडिबद्धे तम्मि तह बिसेसेणं । धम्ने उज्जमियच्वं संजोगा इह विओ- मरणानि गंता ॥ १५॥ अह वंदिऊण देवे जहाविहिं सेसए य गुरुमाई । पञ्चक्खाइत्तु तओ तयंतिए सबमाहारं ॥१६॥ सम- सू०१०२ भावमि ठियप्पा सम्म सिद्धंतभणितमग्गेणं । गिरिकंदरंमि गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥ १७ ॥ सब्वत्थापडिवद्धो १ धन्योऽहं येन मयाउनर्वापारे परमेतस्मिन् । भवशतसइसदुर्लभं लब्धं सद्धर्मयानमिति ॥ ९॥ (२) भयसमुद्दम्मि प्र. एतस्य प्रभावेन पाल्यमानस्य सकरायनेन । जन्मान्तरेऽपि जीयाः प्रामुवन्ति न दुःखदौ खं ॥ १०॥ चिन्तामपिरपूर्वः एषोऽपूर्वध कल्पवृक्ष इति । एषः परमो मंत्र एतरपरममृतमत्र ।। ११॥ (१) एस अपुच्चो प्र. गाथावृत्ती. (४) इच्छं गाथावृत्ती. अत्र यावृश्यं गुर्वादीनां महानुभावानां । येषा प्रभावेनैतत्प्राप्त तथा पालित चैव ॥ १२॥ तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमो भावेन पुनरपि तेभ्यवैव । नमः अनुपातपरहितरता ये एनं ददति जीवानां ॥ १३ ॥ सैलेख सिखात्मानमेवं प्रत्यय फलकावि गुरुमादिकांच सम्यक् क्षामयित्वा भायशुष्या ॥ १४ ॥ उपवृंहयित्वा शेषान् प्रतिबंधास्तस्मिन् तथा विशेषेण । धर्म उद्यतितव्यं संयोगा यह वियोगान्ता ॥९५ इति ॥ १५॥ अथ वंदित्वा देवान यथाविधि शेषांध गुरूंदीच । प्रत्याख्याय ततः तदन्तिके सर्वमाहारं ॥ १६॥ समभावे स्थितारमा सम्पक्सिद्धान्तमनितमार्गेण । गिरिकंदरायां गत्वा पादपोपगमनमय करोति ।। १७॥ सर्वनाप्रतिबको ATMasturary.com ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१०२] दीप अनुक्रम [११०] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [V). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... स्थान [२], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - .......... rand | दंडाययमाइ ठाणमिह ठाउं । जावज्जीवं चिट्ठइ णिच्चेडी पायवसमाणो ॥ १८ ॥ पढमिलयसंघयणे महाणुभावा करेंति एवमिणं । पायें सुहभावच्चिय णिच्चलपयकारणं परमं ॥ १९ ॥ भत्तपरिज्ञाणसणं तिचउन्विहाहारचायणिष्फन्न सप्पडिकम्मं नियमा जहासमाही विणिद्दिद्धं ॥ २० ॥"ति, इङ्गितमरणं त्विह नोक्तं, द्विस्थानकानुरोधात्, तल्लक्षणं चेदम् - "इंगियदेसंमि सयं चउब्विहाहार चायनिप्पन्नं । उव्वत्तणाइजुत्तं नऽण्णेण उ इंगिणीमरणं ॥ १ ॥” इति । इदं च मरणादिस्वरूपं भगवता लोके प्ररूपितमिति लोकस्वरूपप्ररूपणाय प्रश्नं कारयन्नाह - मूलं [१०२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः के अयं लोगे ?, जीवचैव अजीवचेव, के अनंता लोए ?, जीवचैव अजीवचैव, के सासया लोगे ?, जीवश्चेव अजीवचेव (सू० १०३ ) । दुबिहा चोथी पं० तं ० णाणबोधी चैव दंसणबोधी चेव, दुविहा बुद्धा पं० नं० -- णाणबुद्धा चैव दं सणबुद्धा देव, एवं मोहे, मूढा ( सू० १०४ ) 'क' इति प्रश्नार्थः, 'अय' मिति देशतः प्रत्यक्ष आसन्नश्च यत्र भगवता मरणादि प्रशस्ता प्रशस्तसमस्त वस्तुस्तोमतत्त्वमभ्यधायि, लोक्यत इति लोक इति प्रश्नः अस्य निर्वचनं जीवाश्चाजीयाश्चेति पञ्चास्तिकायमयत्वाल्लोकस्य, तेषां च जीवाजीवरूपत्वादिति, उक्तं च-- “पंचस्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं"ति । लोकस्वरूपभूतानां १ दंडायतमादि स्थानमिह स्थित्वा यावज्जीवं तिष्ठति निवेष्टः पादपसमानः ॥ १८ ॥ प्रथमसंहनना महानुभावाः कुर्वन्त्येतदिदं प्रायेण शुभभावा एव निश्चलपदकारणं परमं ॥ १९ ॥ भक्तपरिज्ञानशनं त्रिचतुर्विधाहारयाग निष्पनं सप्रतिकम्मै नियमात् यथासमाधि विनिर्दिष्टम् ॥ २० ॥ इंगितदेशे खयं चतुर्वि धाहारत्यागनिष्पनं उद्वर्त्तनादियुकं नान्येन लिगितमरणं ॥ १ ॥ २ पंचास्तिकायमय लोकोऽनादिनिधनो जिनाख्यातः ॥ For Parts Only ~ 194 ~ nary org Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [११२] श्रीस्थाना हाच जीवाजीवानां स्वरूपं प्रश्नपूर्वकेण सूत्रद्वयेनाह-के अणंते'त्यादि, के अनन्ताः लोके? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरं-18 २ स्थान जीवा अजीवाश्चेति, एत एव च शाश्वता द्रव्यातयेति ॥ ये चैतेऽनन्ताः शाश्वताच जीवास्ते बोधिमोहलक्षणधर्मयो-काध्ययने गाद्बुद्धा मूढाश्च भवन्तीतिदर्शनाय द्विस्थानकानुपातेन सूत्रचतुष्टयमाह-दुविहे'त्यादि, बोधनं घोधिः-जिनधर्मलाभः उद्देशः४ ज्ञानबोधिः-ज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूता ज्ञानप्राप्तिः, दर्शनबोधिः-दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नः श्रद्धानलाभ | लोकाद्या।। ९६ ॥ ॥ इति, एतद्वन्तो द्विविधा बुद्धाः, एते च धर्मत एव भिन्ना न धर्मितया, ज्ञानदर्शनयोरन्योऽम्याविनाभूतत्वादिति, एवं बोध्या 'मोहे मूढ'त्ति, यथा बोधिवुद्धाश्च द्विधोका तथा मोहो मूढाश्च वाच्या इति, तथाहि-'मोहे दुविहे पन्नत्ते तक-याणमोहे द्याश्च चिव दंसणमोहे चेव ज्ञानं मोहयति-आच्छादयतीति ज्ञानमोहो-ज्ञानावरणोदयः, एवं 'दसणमोहे चेष' सम्यग्दर्शनमो-18 सू०१०३होदय इति, 'दुविहा-मूढा पं०-०-णाणमूढा चेव','ज्ञानमूढा' उदितज्ञानावरणाः 'दसणमूढा चेव दर्शनमूढा-मिथ्यादृष्टय इति। द्विविधोऽप्ययं मोहो ज्ञानावरणादिकर्मनिबन्धनमिति सम्बन्धेन ज्ञानावरणादिकर्मणामष्टाभिःसूत्रैविध्यमाह णाणावरणिजे कम्मे दुविहे पं० सं०-देसनाणावरणिजे चेव सव्वणाणावरणिज्जे चेव, दरिसणावरणिजे कम्मे एवं पोr वेयणिको कम्मे दुविहे पं००-सातावेयणिजे येव असातावेयणिज्जे चेव, मोहणिजे कम्मे दुविहे पं० त०-सीमोहणिजे व चरित्तमोहणि चेय, आउए कम्मे दुविहे पं० २०-अद्धाउए चेष भवाउए चेक, गामे कम्मे दुविढे - G प्रत्ते तं०-मुभणामे चेच असुभणामे चेव, गोत्ते कम्मे दुविहे पं० त०-उच्चागोते चेव णीयागोते येष, अंतराइए कम्मे ॥९६॥ दुविहे पं०१०-पडप्पन्नविणासिए चेव पिहितआगामिपहं (सू० १०५) SARERaunintamaraana Darnaturary.com ~195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] H दीप अनुक्रम [११३] 'णाणे त्यादि, सुगमानि चैतानि, नवरं ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम् , आह च-"सरजग्गयससिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायणं जमिह । णाणावरणं कम पडोवर्म होइ एवं तु ॥१॥" देश-ज्ञानस्थाऽऽभिनिबोधिकादिमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम् , सर्वं ज्ञान केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयं, केवलावरणं हि आदित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्वज्ञानावरणं, मत्याद्यावरणं तु धनातिच्छादितादित्येषनभाकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुव्यादिरूपावरणतुल्यमिति देशावरणमिति, पठ्यते च-"केवलणाणावरणं १दसण छकं च मोहयारसगं । [अनन्तानुबन्ध्यादीत्यर्थः] ता सम्बधाइसन्ना भवंति मिच्छत्तवीसइमं ॥१॥"ति, अथवा देशोपघातिसौंपघातिफडकापेक्षया देशसर्वावरणत्वमस्य, यदाह-"मैतिसुयणाणावरणं दसणमोहं च तदुचघाईणि । तफडुगाई दुविहाई देससब्बोवघाईणि ॥ १ ॥ सन्वेसु सम्बधाइसु हएसु देसोवघाइयाणं च । भागेहिं मुच्चमाणो समए समए अणंतेहिं ॥२॥ पढम लहइ नगारं एकेक वन्नमेवमन्नपि । कमसो विसुज्झमाणो लहइ समत्तं नमोकार ॥३॥" इति, तथा दर्शन-सामान्यार्थबोधरूपमावृणोतीति दर्शनावरणीय, उक्तं च "दसणसीले जीवे दसणघायं करेइ जं शरगतशशिनिर्भलतरख जीवस्यापछादनं यदिह । ज्ञानावरण कर्म पटोपमं भवत्येवमेन ॥१॥२ केवलज्ञानापरणं दर्शनषटुं च मोहद्वादशक । ताः सर्वxपातिसंहाः भवंति मिथ्यात्वं विधाविसमं ॥१॥ मतिश्रुतकानावरण दर्शनमोहन तदुपधातीनि । तत्पचकानि विविधानि देशसौंपघातीनि ॥१॥ सर्वेषु सर्वपातिपुरतेषु देशोपघातिनां च । भागेर्मुव्यमानः समये समयेऽमन्तैः ॥ १॥ प्रथमं लभते नकार एकैक वर्णमेवमन्यमपि । कमशो विशुध्यमानो लमते संपूर्ण स्था०१७४ नमस्कार ॥१॥ ४ दर्शनशीके जीवे दर्शनघातं करोति OROS ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥९७॥ [१०५] दीप कम्मं । तं पडिहारसमाणं दसणवरणं भवे जीवे ॥ १ ॥" इति, 'एवं चेव'त्ति देशदर्शनावरणीयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्श- २ स्थाननावरणीयम् , सर्वदर्शनावरणीयं तु निद्रापञ्चकं केवलदर्शनावरणीयं चेत्यर्थः, भावना तु पूर्ववदिति, तथा वेद्यते-अनु-13 काध्ययने भूयत इति वेदनीयं, सात-सुखं तद्रूपतया वेद्यते यत्तत्तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, इतरत्-एतद्विपरीतम्, आह च उद्देशः४ al-"मडेलित्तनिसियकरवालधार जीहाएँ जारिसं लिहणं । तारिसयं वेयणियं सुहदुहउप्पायर्ग मुणह ॥१॥” इति, मोह- सू० १०५ यतीति मोहनीयं, तथाहि-"जहै मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ । तह मोहेणवि मूढो जीवो उ परव्यसो होई ॥१॥" इति, दर्शनं मोहयतीति दर्शनमोहनीयं-मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वभेदं, चारित्र-सामायिकादि मोहयति यत्कपाय १६ नोकषाय ९ भेदं तत्तथा, एति च याति चेत्यायुः एतद्रूपं च "र्दुक्खं न देइ आउँ नविय सुहं देइ चउसुवि गईसुं । दुक्खसुहाणाहारं घरेइ देहडियं जीयं ॥१॥” इति । अद्धायु:-कायस्थितिरूपं, भावना तु प्राग्वत्, भवायुर्भवस्थितिरिति, विचित्रपर्यायैनमयति-परिणमयति यजीव तन्नाम, एतत्स्वरूपं च 'जैह चित्तयरो निजणो अणेगरूवाई कुणइ रूबाई । सोहणमसोहणाई चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं ॥१॥ तह नामंपिहु कर्म अणेगरूबाई कुणइ जीवस्स। यत्कम्म । तत्प्रतीहारसमानं दर्शनावरणं भवेनीचे ॥१॥ २ मधुलिप्तनिशितकरवालधाराया जिलया यादर्श लिहन । तादृशं वेदनीयं सुखदुःखोरपादक जानीत ॥१॥ ३ यथा मद्यपानमूढो लोके पुरुषः परवशो भवति । तथा मोहेनापि मूढो जीवन परवशो भवति ॥१॥ ४ दुःख न ददायायुः नापि च मुखं | ददाति चतमष्यपि गतिषु । दुःखसुखयोराधारं धारयति देहस्थितं जी ॥१॥ ५ यथा चित्रकारो निपुणोऽनेकरूपाणि करोति रूपाणि । शोभनान्यचोमनानि चोक्षायचोक्षाणि वर्णैः ॥ १॥ तथा नामाप्येव कर्मानेकानि रूपानि करोति जीवस्य । अनुक्रम [११३] ॥२७॥ ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] सोहणमसोहणाई इटाणिहाई लोयस्स ॥ ३ ॥ इति, शुभं-तीर्थंकरादि अशुभम्-अनादेयत्वादीति, पूज्योऽयमित्यादि-4 व्यपदेशरूपां गां-वाचं त्रायत इति गोत्रं, स्वरूपं चास्येदम्-"जह कुंभारो भंडाई कुणई पुज्जेयराई लोयस्स । इय गोयं कुणइ जियं लोए पुजेयरावधं ॥ १ ॥” इति, उच्चैर्गोत्रं पूज्यत्वनिवन्धनमितरत्तद्विपरीतं, जीवं चार्धसाधनं चान्तरा एति-पततीत्यन्तरायम्, इदं चैवं-"जैह राया दाणाई ण कुणई भंडारिए विकूलंमि । एवं जेणं जीवो कम्म त अंतरायति ॥ 'पद्धपन्नविणासिए चेव'सि प्रत्युत्पन्न-वर्तमानलब्धं वस्वित्यर्थों विनाशितम्-उपहतं येन तत्तथा, पाठान्तरेण प्रत्युत्पन्नं विनाशयतीत्येवंशीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि, चैवः समुच्चये, इत्येकम् , अन्यञ्च पिधत्ते च-निरुणद्धि च आगामिनो-लन्धव्यस्य वस्तुनः पन्था आगामिपथस्तमिति, क्वचिदागामिपथानिति दृश्यते, क्वचिच्च आगमपहंति, तत्र च लाभमार्गमित्यर्थः । इदं चाष्टविधं कर्म मूछोजन्यमिति मूछोखरूपमाह-- दुविहा मुच्छा पं० २०-पेजवत्तिता चेव दोसवत्तिता चेव, पेजवत्तिया मुच्छा दुविहा पं००-माए व कोभे चेव, दोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पं००-कोहे घेव माणे चेव (सू० १०६) दुविहा आराहणा पं० २०-चम्मिताराहणा चेव केवलिआराहणा चेव, धम्मियाराणा दुविहा पं० ०-सुयधम्माराहणा व परित्तधम्माराहणा चेव, केवलिआराहणा दुविहा पं०, तं०-अंतकिरिया चेव कप्पविमाणोववत्तिआ चेव (सू० १०७) दो तिस्थगरा नी १ शोभनान्यशोभनानीधाम्यनिष्टानि लोके ॥१॥ २ यथा कुम्भकारो भाडानि करोति पूज्यतरानि लोकस्य । एवं गोत्रं करोति जीर्ष लोके पूज्येतरावस्थं ॥१॥ ३ यथा राजा दानादि न करोति मादागारिके विकूले । एवं येन जीवः कर्म तदन्तरायमिति ॥१॥ BRBRBBWS* दीप अनुक्रम [११३] Naturary.org ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१०८] दीप अनुक्रम [११६] श्रीस्थानाजत्सूत्रवृत्तिः ॥ ९८ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१०८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [२], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] लुप्पलसमा वनेणं पं० [सं० मुणिम्य चैव अरिट्ठनेमी चैव दो तित्थवरा पियंगुसामा यन्त्रेणं पं० [सं० मही चैव पासे चेन, दो तित्ययरा पउमगोरा वजेणं पं० [सं० पष्ठमप्प चैव वासुपूज्ने चेष, दो तित्वगरा चंदगोरा वनेणं पं० नं० - चंदप्प चैव पुष्पदंते चैव (सू० १०८ ) 'दुविहे 'त्यादि सूत्रत्रयं कण्ठ्यं, नवरं मूर्च्छा-मोहः सदसद्विवेकनाशः प्रेम-रागो वृत्तिः - वर्त्तनं रूपं प्रत्ययो वा हेतुर्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका प्रेमप्रत्यया का, एवं द्वेषवृत्तिका द्वेषप्रत्यया बेति ॥ मूर्च्छापात्तकर्मणश्च क्षय आराधनयेति तां सूत्रत्रयेणाह 'दुविहे' त्यादि, सूत्रत्रयं कण्ठ्यम्, नवरं आराधनमाराधना-ज्ञानादिवस्तुनोऽनुकूलवर्तित्वं निरतिचारज्ञानाद्यासेवेतियावत् धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकाः साधवस्तेषामियं धार्मिकी सा चासावाराधना च धार्मिकाराधना, केवलिनां श्रुतावधिमनः पर्याय केवलज्ञानिनामियं केवलिकी सा चासावाराधना चेति केवलिकाराधनेति । 'सुपधम्मे' त्यादौ विषयभेदेनाराधनाभेद उक्तः, 'केवलि आराहणे'त्यादौ तु फलभेदेनेति, तत्र अन्तो भवान्तस्तस्य क्रिया अन्तक्रिया, भवच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुर्याऽऽराधना शैलेशीरूपा साऽन्तक्रियेति, उपचारात् एषा क्षायिकज्ञाने केवलिनामेव भवति । तथा 'कल्पेषु' देवलोकेषु, न तु ज्योतिश्चारे, विमानानि देवावासविशेषाः अथवा |कल्पाश्च-सौधर्मादयो विमानानि च तदुपरिवर्तित्रैवेयकादीनि कल्पविमानानि तेषूपपत्तिः उपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानोपपत्तिका ज्ञानाद्याराधना, एषा च श्रुतकेवल्यादीनां भवतीति, एवंफला चेयमनन्तरफलद्वारेणोछा परम्परया तु भवान्तक्रियाऽनुपातिन्येवेति । ज्ञानाद्याराधनाऽनन्तरमुक्ता, तत्फलभूताश्च तीर्थकरास्तैर्वा सा For Peaks On ~ 199~ २ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ सू० १०८ ॥ ९८ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०८] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 8496+ प्रत सूत्रांक [१०९] सम्यक्कृता देशिसा वेति तीर्थकरान् द्विस्थानकानुपातेनाह–'दो तित्थयरे'त्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यम् , नवरं पद्मरक्कोत्पलं तद्वद् गौरी पनगौरी, रकावित्यर्थः, तथा चन्द्रगौयै चन्द्रशुक्लावित्यर्थः, गाथाऽत्र-"पउमाभवासुपुजा रत्ता ससिपुष्पदंत ससिगोरा । सुन्वयनेमी काला पासो मल्ली पियंगाभा ॥१॥" इति । तीर्थकरस्वरूपमनन्तरमुक्तम्, तीर्थकर्तृत्वाच तीर्थकरा, तीर्थ च प्रवचनमतः प्रवचनैकदेशस्य पूर्व विशेषस्य द्विस्थानकावतारायाह सशपवायपुवस्स णं दुवे वस्थू पं०, (सू० १०९) पुष्वाभइवयाणक्खते दुतारे पन्नो, उत्तरभषयाणक्सत्ते दुतारे पण्णते, एवं पुण्यफग्गुणी उत्तराफागुणी (सू० ११०) अंतो णं मणुस्सखेत्तस्स यो समुहा पं० सं०-लपणे घेव कालोदे चेष (सू० १११) दो चचवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किया अहेसत्तमाए पुढवीप अपतिद्वाणे णरए नेरइत्तत्ताए उववन्ना तं०-सुभूमे चेव बंभदत्ते चेव (सू० ११२) 'सचप्पवाये'त्यादि, सद्भचो-जीवेभ्यो हितः सत्यः-संयमः सत्यवचनं पा स यत्र सभेदः सप्रतिपक्षश्च प्रकर्षणो-1 द्यते-अभिधीयते तत्सत्यप्रवाद तच्च तत्पूर्व च सकल श्रुतात्पूर्व क्रियमाणत्वादिति सत्यप्रवादपूर्व, तच्च षष्ठं, तत्परिमाणं च एका पदकोटी षट्पदाधिका, तस्य द्वे वस्तुनी, वस्तु च-तविभागविशेषोऽध्ययनादिवदिति । अनन्तरं षष्ठ| पूर्वखरूपमुक्तमधुना पूर्वशब्दसाम्यात् पूर्वभाद्रपदनक्षत्रस्वरूपमाह-'पुवे'त्यादि कण्ठ्यम् । नक्षत्रप्रस्तावान्नक्षत्रान्तर १ पानभवाची रची विधी शशिगौरी । मुन्नतनेमी कृष्णी पावमाशी प्रियंग्वामी ॥१॥ S+++ M दीप अनुक्रम [११७] X4 ROSAKASE M runmiaranmarg ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११२] काध्ययने | उद्देशः४ सू०११३११८ दीप श्रीस्थाना-स्वरूपं सूत्रत्रयेणाह-'उत्तरेत्यादि कण्ठ्यम् । नक्षत्रवन्तश्च द्वीपाः समुद्राश्चेति समुद्रद्विस्थानकमाह-अंतो 'मि सूत्र- त्यादि, अन्त:-मध्ये 'मनुष्यक्षेत्रस्य मनुष्योत्पत्त्यादिविशिष्टाकाशखण्डस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणस्य, शेष वृत्तिः कण्ठ्यमिति । मनुष्यक्षेत्रप्रस्तावादरतक्षेत्रोत्पन्नोत्तमपुरुषाणां नरकगामितया द्विस्थानकावतारमाह--'दो चक्कवहीं'त्यादि, द्वौ चक्रेण-रत्नभूतपहरणविशेषेण वर्तितुं शीलं ययोस्तौ चक्रवर्तिनी, 'कामभोग'त्ति कामौ च-शब्दरूपे भोगाश्च॥१९॥ गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः, अथवा काम्यन्त इति कामा मनोज्ञा इत्यर्थः ते च ते भुज्यन्त इति भोगाश्च-शब्दादय इति कामभोगा न परित्यक्तास्ते यकाभ्यां तौ तथा 'कालमासेत्ति कालस्य-मरणस्य मासः उपलक्षणं चैतसक्षाहोरात्रादेस्ततश्च कालमासे, मरणावसर इति भावः, 'कालं मरणं कृत्वा अधःसप्तम्यां पृथिव्यां, तमस्तमायामित्यर्थः अधोग्रहणं विना सप्तमी उपरिष्टाच्चिन्त्यमाना रत्नप्रभाऽपि स्यादित्यधोग्रहणं, अप्रतिष्ठाने नरके पञ्चानां मध्यमे नैरयिकत्वे नोत्पन्नौ, सुभूमोऽष्टमो ब्रह्मदत्तश्च द्वादशः, तत्र च तयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिरिति । नारकाणां चासम्बधेय#कालाऽपि स्थितिर्भवतीति भवनपत्यादीनामपि तां दर्शयन् पञ्चसूत्रीमाह असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं देसूणाई दो पलिओवमाई ठिती पन्नत्ता, सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोबमाई ठिती पन्नता, ईसाणे कप्पे देवाणं उकोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, सणंकमारे कप्पे देवाणं जहन्नेणं दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, माहिंदे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नचा । (सू० ११३) दोसु कप्पेसु कप्पत्थियाओ पन्नत्ताओ, तं0-सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । (सू०११४) दोसु कप्पेसु देवा तेउ अनुक्रम [१२०] ॥९९।। ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११३-११८] लेस्सा पन्नत्ता, तं०-सोहम्मे चैव ईसाणे चेव (सू० ११५) दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पं० त०-सोहम्मे चेव ईसाणे घेव, दोसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा पं० सं०-सणकुमारे चेव माहिदे चेव, दोसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा पं० त०-भलोग चेष लंतगे घेव, दोसु कप्पेसु देवा सहपरियारगा पं० सं०-महासुफे चेव सहस्सारे चेव, दो इंदा मणपरियारगा पं० तं०-पाणए चेव अजुए चेव (सू० ११६) जीवा णं दुद्वाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मताए चिणिसु वा चिर्णति वा चिणिस्संति वा, २०तसकायनिव्वत्तिए चेव थावरकायनिव्वत्तिए चेव, एवं अवचिणिंसु पा लवचिणति वा उवचिणिस्संति वा, बंधिसु वा बंधति वा बंधिस्संति वा, उदीरिंसु वा वीरेंति वा उदीरिस्संति वा, वेसु वा वेदेति वा वेदिस्संति वा, णिजारिंसु वा णिजरिंति का णिजरिस्संति वा (सू० ११७) दुपएसिता खंधा अणता पन्नत्ता दुपदेसोगाढा पोग्गला अणंता पन्नत्ता एवं जाव दुगुणलुक्खा पोग्गला अर्णता पन्नत्ता (सू० ११८) आहे- । | शकः ४ ॥ दुहाणं समत्तं ।।। 'असुरे'त्यादि, असुरेन्द्रौ-चमरबली तद्वर्जितानां [तत्सामानिकवर्जितानां च, सूत्रे इन्द्रग्रहणेन सामानिकानामपि ग्रहणाद् , अन्यथा सामानिकत्वमेव तेषां न स्यादिति, शेषाणां त्रायविंशादीनामसुराणां तदन्येषां चे] भवनवासिना देवानामुत्कषतो वे पल्योपमे किश्चिदूने स्थित्तिः प्रज्ञप्ता, उक्तव-"चमर १ बलि २सार ३ महियं ४ सेसाण सुराण १ चमरवली तद्वर्जितानामन्येषां भवनवासिनो देवानां असुरेन्द्रवर्णनात् नायकुमारादीन्दाणामित्यर्थः उत्कर्षतो वे प्र. भवनेषु दक्षिणार्धापतीनामिसादिवचनात सम्पगेषोऽपि पाठः, १ समाने विभवायुषि भवा सामानिका इत्युक्तेष्टीपितमेतर, चमरमलिनोः सागरमधिक च शेषाणां सुराणां दीप अनुक्रम [१२१-१२६] RCESCCU ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना-1 सूत्रवृत्तिः [११३ -११८] ACC44 आउयं वोच्छ। दाहिणदिवङ्कपलिय दो देसूणुत्तरिलाणं ॥१॥"ति, उत्कर्षत एवैतत् जघन्यतस्तु दशवर्षसहस्राणीति, आह च-"दसे भवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहन्नेणं । पलिओवममुक्कोसं वतरियाणं वियाणिज्जा ॥१॥" इति, शेष काध्ययने सुगमम् , नवरं सौधर्मादिष्वियं स्थिति:-"दो १ सोहि २ सत्त ३ साही ४ दस ५ चोदस ६ सत्तरे व ७ अयराई। उद्देशः४ सोहम्मा जा सुको तदुवरि एक्केकमारोवे ॥२॥" इति, इयमुत्कृष्टा, जघन्या तु "पलियं १ अहिय २ दो सार ३ सू०११८ साहिया ४ सत्त ५ दस य ६ चोद्दस य ७ । सत्तरस सहस्सारे ८ तदुवरि एकेकमारोवे ॥३॥" इति । देवलोकप्रस्तावात् स्यादिद्वारेण देवलोकद्विस्थानकावतारं सप्तसूत्र्याऽऽह-दोसु' इत्यादि, कल्पयोः-देवलोकयो खियः कल्प-| स्त्रियो-देव्यः, परतो न सन्ति, शेष कण्ठ्यमिति १, नवरं 'तेउलेसति तेजोरूपा लेश्या येषां ते तेजोलेश्याः, तेच 31 सौधर्मेशानयोरेव न परतः, तयोस्तेजोलेश्या एव, नेतरे, आह च-"किण्हा नीला काऊ तेकलेसा य भवणवंतरिया।। जोइस सोहम्मीसाण तेऊलेसा मुणेयव्वा ॥१॥" इति, 'कायपरियारगत्ति परिचरन्ति-सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः। कायतः परिचारकाः कायपरिचारकाः, एवमुत्सरत्रापि, नवरं सादिपरिचारकाः सशंदेरेवोपशान्तवेदोपतापा भव १आयुः वक्ष्ये । दाक्षिणात्याना साधपत्य देशोने दे उत्तराणां ॥१॥२ भवनव्यन्तस्योर्दश वर्षसहस्राणि अघन्येन स्थितिः पत्योपममुत्कृष्ट ब्यन्तराणा विजानीयात् ॥१॥ो साधिके सप्त साधिकानि वश चतुर्दश सप्तदश सागरोपमाणि । सौधर्माद्यावच्छुकः तदुपर्येककमारोपयेत् ॥१॥ पत्यं अधिक द्वे साधिके सागरे सप्त दश च चतुर्दश प । सप्तदश सहसारे तदुपयेंककमारोपयेत् ॥ १॥ ५ कृष्णनीलकापोततेजोश्याष भवनव्यन्तराः । ज्योतिषचौधर्मेशानेषु ॥१० ॥ तेजोलेश्या ज्ञातव्याः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१२१-१२६] Hrajastaram.org देवानाम् परिचार-विषयक चर्चा: ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११३ -११८] न्तिीत्यभिप्रायः, आनतादिषु चतुर्ष कल्पेषु मनःपरिचारका देवा भवन्तीति वक्तव्ये द्विस्थानकानुरोधाद् 'दो इंदा' इत्युक्त, आनतादिषु हि द्वाविन्द्राविति, गाथाऽत्र-"दो कायप्पवियारा कप्पा फरिसेण दोन्नि दो रूवे । सद्दे दो चउर मणे उवरिं परियारणा नत्थि ॥१॥" इयं च परिचारणा कर्मतः, कर्म च जीवाः स्वहेतुभिः कालत्रयेऽपि चिताद्यवस्थं कुर्वन्तीत्याह-'जीवाण'मित्यादि, सूत्राणि षट् सुगमानि, नवरं, जीवा-जन्तवो, णं वाक्यालङ्कारे, द्वयोः स्थानयोः-आश्रययोस्त्रसस्थावरकायलक्षणयोः समाहारो दिखानम् , तत्र मिथ्यात्वादिभिर्ये निर्वर्तिताः-सामान्येनोपार्जिताः वक्ष्यमाणावस्थापट्योग्यीकृताः द्वयोर्वा स्थानयोः निवृत्तिर्येषां ते द्विस्थाननिवृत्तिकास्तान् पुद्गलान् कार्मणान् पापकर्म-धातिकर्म सर्वमेव वा ज्ञानावरणादि तद्भावस्तत्ता तया पापकर्मतया तद्रूपतयेत्यर्थः, चितवन्तो वा अतीतकाले चिन्वन्ति वा | सम्प्रति चेष्यन्ति वा अनागतकाले केचिदिति गम्बते, चयनं च कषायादिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्र, उपचयन | तु चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेका, स चैर्व-प्रथमस्थिती बहुतरं कर्मदलिक निषिञ्चति ततो द्वितीयायां विशेषहीनमेवं “जावुकोसियाए विसेसहीणं णिसिंचई" इति, बन्धनं तु तस्यैव ज्ञानावरणादितया निषिक्तस्य। पुनरपि कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति, उदीरणं खनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये क्षेपणमिति, वेदनम्-अनुभवः, निर्जरा-कर्मणोऽकर्मताभवनमिति । कर्म च पुद्गलात्मकमिति पुद्गलान् द्रव्यक्षेत्रकालभार्द्विस्थानकावतारेण निरूपयन्नाह |--'तुपएसी'त्यादि सूत्राणि त्रयोविंशतिः, सुगमा चेयं, नवरं यावत्करणात् 'दुसमयहिए'त्यादि सूत्राण्येकविंशतिर्वा-15 ही कायप्रविचारी कल्पो स्पर्शन द्वौ द्वौ रूपेण । द्वौ शब्देन चत्वारो मनसोपरि परिचारणा नास्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२१-१२६] SaintairathiA... | देवानाम् परिचार-विषयक चर्चा: ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [११३ - ११८] दीप अनुक्रम [१२१ -१२६] श्रीस्थानाज्ञसूत्रवृत्तिः ॥ १०१ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः २ स्थान च्यानि, कालं पञ्चद्विपञ्चाष्टभेदान् वर्णगन्धरसस्पर्शाश्चाश्रित्येति वाचना चैवं- 'दुसमयडिईया पोग्गले 'त्यादि ॥ द्विस्थानकस्य चतुर्थ उद्देशकः समाप्तः । तत्समाप्तौ च श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानास्यतृतीयाङ्गविवरणे द्वितीयमध्ययनं ॐ काध्ययने द्विस्थानकाभिधानं समाप्तमिति ॥ उद्देशः ४ सू० ११८ अत्र 'द्वितीयं स्थानं परिसमाप्तं इति श्रीस्थानाङ्गाख्ये तृतीयेऽङ्गे द्विस्थानकाख्यं द्वितीयमध्ययनं समाप्तं । For Park Use Only ~ 205~ ॥ १०१ ॥ wor Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] **** * दीप द्विस्थानकानन्तरं त्रिस्थानकमेव भवति सक्याक्रममामाण्यादित्यनेन सम्बन्धेनायातस्य चतुरनुयोगद्वारस्य चतुरुदेशकस्यास्य तत्रापि द्वितीयाध्ययनान्त्योद्देशके जीवादिपोया उक्का अस्याप्यध्ययनस्य प्रथमोद्देशके त एवाभिधीयन्त इत्येवसम्बन्धस्यैतत्पथमोद्देशकस्य तत्राप्यनन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रे पुद्गलधर्मो उक्का एतत्प्रथमसूत्रे तु जीवधर्मा उच्यन्त इत्येवं-14 सम्बन्धस्यैतदादिसूत्रस्य तओ इंदा पण्णता ०--णामिदे ठवणिंदे दविदे, तओ इंदा ५० त०-णाणिदे दंसर्णिदे परिसिंदे, तो इंवा पं० तं०-देविंदे असुरिंदे मणुस्सिदे (सू० ११९) 'तओ इंद'त्यादेाख्या, सा च सुकरैव, नवरमिन्दना-ऐश्वर्याद् इन्द्रः नाम-संज्ञा तदेव यथार्थमिन्द्रेत्यक्षरात्मकमिन्द्रो नामेन्द्रः, अथवा सचेतनस्याचेतनस्य वा यस्येन्द्र इत्ययथार्थ नाम क्रियते स नामनामवतोरभेदोपचारान्नाम चासाविन्द्रश्चेति नामेन्द्रः, अथवा नाम्नैवेन्द्र इन्द्रार्थशून्यत्वान्नामेन्द्र इति, नामलक्षणं पुनरिदम्-"यद्वस्तुनोऽभिधानं |स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयञ्च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥१॥” इति, अयमर्थः यदस्त्वित्यादिना य थार्थमिन्द्र इत्यायुक्त, स्थितमित्यादिना त्वयधार्थ गोपालादाविन्द्रेत्यादि, यादृच्छिकमनर्थक डित्थादीति ३, अथवा यदिजन्दनाद्यर्थनिरपेक्षं गोपालादिवस्तुन इन्द्र इत्यादिकमभिधानं यथार्थतया शक्रादावन्यत्रार्थे स्थितं तन्नामेति, इन्द्रादिव स्तुनो वा अभिधानमिन्दनाद्यर्थनिरपेक्षं सद् गोपालादावन्यत्रार्थे स्थितं नामेति । तथा इन्द्राद्यभिप्रायेण स्थाप्यत इति । स्थापना-लेप्यादिकर्म सैवेन्द्रः स्थापनेन्द्रः, इन्द्रप्रतिमा साकारस्थापनेन्द्रः अक्षादिन्यासस्त्वितर इति, स्थापनालक्ष अनुक्रम [१२७] * ** अत्र 'तृतीयं स्थानं' आरभ्यते, इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा: ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अन्सूत्र प्रत सूत्रांक [११९] दीप श्रीस्थाना- णमिदम्-"यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणिः । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालश्च ॥१॥"|३ स्थान इति, तथा, "लेप्पगहत्थी हत्यित्ति एस सन्भाविया भवे ठवणा । होइ असम्भावे पुण हस्थित्ति निरागिई अक्खो ॥१॥" काध्ययने इति, तथा द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायान् द्रूयते वा तैस्तैः पर्यायोर्वा-सत्ताया अवयवो विकारो वा वर्णादिगु- उद्दे णानां वा द्रावः-समूह इति द्रव्यं, तच्च भूतभावं भाविभावं चेति, आह च--"देवए १ दुयए २ दोरवयवो विगारो ३ सू०११९ ॥१०२॥ गुणाण संदावो ४ । दव्वं भवं भावस्स भूयभाव च जं जोगं ॥१॥" ति, इति । तथा “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं गदितम् ॥ १॥" तथा 'अनुपयोगो द्रव्यमप्रधानं चेति, तत्र द्रव्यं 51 चासाविन्द्रश्चेति द्रव्येन्द्रः, स च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतः-खल्वागममधिकृत्य ज्ञानापेक्षयेत्यर्थः, नोआगमतस्तु तद्विपर्ययमाश्रित्य, तत्रागमत इन्द्रशब्दाध्येताऽनुपयुक्तो द्रव्येन्द्रः 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, अयमेवार्थो मङ्गलमाश्रित्य भाष्य उक्तः, तथाहि-"आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता । तन्नाणलद्भिजुतोवि णोवउत्तोत्ति तो दच ॥१॥” इति, तथा नोआगमतस्त्रिविधो द्रव्येन्द्रः, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रो भव्यशरीरद्र-1 व्येन्द्रो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्येन्द्रश्चेति, तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरं ज्ञशरीरमेव द्रव्येन्द्रः ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रः, लेप्यहस्ती हस्तीति एषा सद्भाविका स्थापना भवेत् । भवत्यसद्भावे पुनईस्तीति निराकृतिरक्षः ॥ १॥ २ अति दूपते वा दोः (सत्तायाः) अवयवो विकारो | दवा गुणानां संद्रावो (भाजन) तव्यं भव्यभावस्य भूतभावस्य च यद् योग्यामिति ॥ १॥ ३ आगमतोऽनुपयुत्तो मंगलशब्दानुवासित (आत्मा) वका । तज्ज्ञानल-4॥१०२॥ भियुक्तोऽप्यनुपयुक्त इति ततो द्रव्यं ॥ १॥ अनुक्रम [१२७] SARERatinintennatural इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा: ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] दीप एतदुक्तं भवति-इन्द्रपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतकालानुभूततभावानुवृत्त्या सिद्धशिलातलादिगतमपि प्रत-12 घटादिन्यायेन नोआगमतो द्रव्येन्द्र इति, इन्द्रकारणत्वात् इन्द्रज्ञानशून्यत्वाच्च तस्य, इह सर्वनिषेध एव नोशब्दः, तथा भन्यो-योग्य इन्द्रशब्दार्थ ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य इति तस्य शरीरं भव्यशरीरं तदेव द्रव्येन्द्रो भध्यशरी-| रद्रव्येन्द्रः, अयमन भावार्थों-भाविनी वृत्तिमङ्गीकृत्य इन्द्रोपयोगाधारत्वात् मधुघटादिन्यायेनैव तद्वालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्येन्द्र इति, नोशब्दः पूर्ववत्, उक्तन मङ्गालमधिकृत्य-"मंगलपयत्थजाणयदेहो भव्यस्स वा से जीवोवि।णोआगमओ |दव्वं आगमरहिओत्ति जं भणितं ॥१॥” इति, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्येन्द्रो भावेन्द्र कार्येष्वब्यापूतः, आगमतो|ऽनुपयुक्तद्रव्येन्द्रवत् , तथा यच्छरीरमात्मद्रव्यं वाऽतीतभावेन्द्रपरिणामं तच्चोभयातिरिक्तद्रव्येन्द्रो, शशरीरद्रव्येन्द्रवत, तथा यो भावीन्द्रपर्यायशरीरयोग्यः पुद्गलराशिर्वच भावीन्द्रपर्यायमात्मद्रव्यं तदप्युभयातिरिक्तो द्रव्येन्द्रः, भव्यशरीरद्रव्येन्द्रवत् , स चावस्थाभेदेन त्रिविधः, तद्यथा-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनाम गोत्रश्चेति, तत्र एकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिकान्ते भावी एकमविको-योऽनन्तर एव भवे इन्द्रतयोपत्स्यत इति, स चोत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि भ-3 वन्ति, देवकुर्वादिमिथुनकस्य भवनपत्यादीन्द्रतयोसत्तिसम्भवादिति, तथा स एवेन्द्रायुर्वन्धानन्तरं बद्धमायुरनेनेति बद्धायुरुच्यते, स चोत्कर्षतः पूर्वकोटीत्रिभागं यावद्, अस्मात्सरतः आयुष्कबन्धाभावात् , तथा अभिमुखे-संमुखे जपन्योत्कर्षाभ्यां समयान्तर्मुहानन्तरभावितया नामगोत्रे इन्द्रसबन्धिनी यस्य स तथा, तथा भविश्वर्ययुक्ततीर्थकरा दि-18 १ मंगलपदार्थक्षातृदेवो भव्यरूप या सजीवोऽपि (देः) । नोआगनतो द्रव्यं आगमरहित इति यदणितं ॥ १॥ २ सजीवोति. अनुक्रम [१२७] १-225% इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा: ~ 208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥१०॥ [११९] दीप श्रीस्थाना-बाभावेन्द्रापेक्षया अप्रधानत्वाच्छादिरपि द्रव्येन्द्र एव, द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थेऽपि प्रवृत्तेरिति, भावेन्द्रस्त्विह त्रिस्थान- ३ स्थान सूत्र- कामुरोधानोता, तलक्षणं चेदम्-भावम्-इन्दनक्रियानुभवनलक्षणपरिणाममाश्रित्येन्द्र इन्दनपरिणामेन वा भवतीति काध्ययन वृत्तिः भावः स चासाविन्द्रश्चेति भावेन्द्रः, यदाह-भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वरिन्द्रादिवदि-| &उद्देशः१ हेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥१॥" स च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमत इन्द्रज्ञानोपयुक्तो जीवो भावेन्द्रः, सू०११९ कथमिन्द्रोपयोगमात्रात् तन्मयताऽवगम्यते ?, न ह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव, दहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकत्वाभावादिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, संवित् ज्ञानमवगमो भाव इत्यनर्थान्तरम् , तत्र 'अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया' इति सर्ववादिनामविसंवादस्थानं, यथा कोऽयं, घटः, किमयमाह?, घटशब्द, किमस्य | ज्ञान, घट इति, अग्निरिति च यत् ज्ञानं तदव्यतिरिक्को ज्ञाता तलक्षणो गृह्यते, अन्यथा तज्ज्ञाने सत्यपि नोपलभेत,3 अतन्मयत्वात्, प्रदीपहस्तान्धवत् पुरुषान्तरवद्वा, न चानाकारं तत्, पदार्थान्तरवद्विवक्षितपदार्थापरिच्छेदप्रसङ्गात्, बन्धाद्यभावश्च ज्ञानाज्ञानसुखदुःखपरिणामान्यत्वाद् , आकाशवत्, न चानलः सर्व एव दहनाद्यर्थक्रियाप्रसाधको, भस्मच्छन्नाग्निना व्यभिचारादिति कृतं प्रसङ्गेन, नोआगमतो भावेन्द्र इन्द्रनामगोत्रे कर्मणी वेदयन् परमैश्वर्यभाजन, सर्वनिषेधवचनत्वानोशब्दस्य, यतस्तन्त्र नेन्द्रपदार्थज्ञानमिन्द्रव्यपदेशनिवन्धनतया विवक्षितं इन्दनक्रियाया एव च विव४क्षितत्वात् , अथवा तथाविधज्ञानक्रियारूपो यः परिणामः स नागम एव केवलो न चानागम इत्यतो मिश्रवचनत्वात् नोशब्दस्य नोआगमत इत्याख्यायत इति । ननु नामस्थापनाद्रव्येष्विन्द्राभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वाद् द्रव्यत्वं च 05-% 84-5-45-50% अनुक्रम [१२७] RELIGunintentATHREE इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा: ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] समानं वर्तते, ततश्च क एषां विशेषः, आह च-"अभिहाणं दबत्तं तदत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाई। को भाववजियाण | नामाईणं पइविसेसो? ॥१॥" इति, अत्रोच्यते, यथा हि स्थापनेन्द्रे खल्विन्द्राकारो लक्ष्यते तथा कर्तुः सद्भूतेन्द्राभिप्रायो भवति तथा द्रष्टुस्तदाकारदर्शनादिन्द्रप्रत्ययस्तथा प्रणतिकृतधियश्च फलार्थिनः स्तोतुं प्रवर्तन्ते फलं च प्राप्नुवन्ति केचिद्देवतानुग्रहात् न तथा नामद्रव्येन्द्रयोरिति, तस्मात् स्थापनायास्तावदित्वं भेद इति, आह च-"आगारोऽभिष्पाओ सावडी किरियाफलं च पाएणं । जह दीसइ ठवणिंदे न तहा नामे न दविंदे ॥१॥” इति. यथा च द्रव्येन्द्रो भावे-11 न्द्रकारणतां प्रतिपद्यते तथोपयोगापेक्षायामपि तदुपयोगतामासादयत्यवाप्तवांश्चै न तथा नामस्थापनेन्द्रावित्ययं विशेष | इति, आह च-"भावस कारणं जह दवं भावो य तस्स पज्जाओ । उपओगपरिणतिमओ न तहा नामं न वा ठवणा ॥१॥" इति । उक्ता नामस्थापनाद्रव्येन्द्रा, इदानीं भावेन्द्रं त्रिस्थानकावतारेणाह-तओ ईत्यादि कण्ठप, । नवरं ज्ञानेन ज्ञानस्य ज्ञाने वा इन्द्रः-परमेश्वरी ज्ञानेन्द्रः-अतिशयवच्छ्रताद्यन्यतरज्ञानवशविवेचितवस्तुविस्तरः केवली वा, एवं दर्शनेन्द्र:-क्षायिकसम्यग्दर्शनी, चरित्रेन्द्रो-यथाऽऽख्यातचारित्रः, एतेषां च भावेन-सकलभावप्रधानक्षायिकलक्षणेन विवक्षितक्षायोपशमिकलक्षणेन वा भावतः-परमार्थतो वेन्द्रत्वात्-सकलसंसार्यप्राप्तपूर्वगुणलक्ष्मीलक्षणपरमैश्वर्य १ अभिधानं द्रव्यत्वं तदर्थशून्यत्वं च तुल्यानि को भाववर्जितानां नामादीनां प्रतिविशेषः । ॥१॥ (येन भेदात्रयस्ते)। २ आकारोऽभिप्रायो बुद्धिः कियाहै फलं च यथा प्रायः स्थापनेन्द्र श्यते न तथा सामेन्द्र न द्रव्येदे ॥१॥ ३ प्तपूर्वश्च प्र. ४ भारस्य कारणं यथा इव्यं भावश्च तस्य पर्यायः उपयोगपरिणतिमसो न तथा नाम न वा स्थापनेति ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२७] RELIGunintentATHREE इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा: ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः ॥१०४॥ [११९] दीप अनुक्रम [१२७] श्रीस्थाना-पायुक्तत्वाद् भावेन्द्रताऽवसेयेति । उक्तमाध्यात्मिकैश्वर्यापेक्षया भावेन्द्रत्रैविध्यमथ बाह्येश्वर्यापेक्षया तदेवाह-तओ स्थान इंद'त्यादि, भावितार्थ, नवरं देवा-वैमानिका ज्योतिष्कवैमानिका वा रूढेः असुराः-भवनपतिविशेषा भवनपतिव्यन्तरा| काध्ययने वा सुरपयुदासात्, मनुजेन्द्रः-चक्रवत्यादिरिति ॥ त्रयाणामप्येषां वैक्रियकरणादिशक्तियुक्ततयेन्द्रत्वमिति विकुर्वणा- उद्देशः१ निरूपणायाह सू० १२१ तिविहा विष्वणा पं० २०-बाहिरते पोग्गलए परियातित्ता एगा विकुब्वणा बाहिरए पोम्गले अपरियादित्ता एगा विकुव्वणा बाहिरए पोग्गले परियादित्तावि अप्परियादित्तावि एगा विकुचणा, तिचिहा विगुव्वणा पं० ०-अभंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विकुब्बणा अभंतरे पोगले अपरियादित्ता एगा विकुब्वणा अभंतरए पोगाले परियातित्तावि अपरितादित्तावि एगा विकुब्बणा, तिविद्दा विकुम्वणा पं०२०-बाहिरभंतरए पोग्गले परिवाइचा एगा विकुव्वणा बाहिरम्भंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुब्वणा बाहिरभंतरए पोमाले परियाइत्तावि अपरियाइत्तावि एगा विउठवणा । (सू०१२०) तिबिहा नेरइया पन्नत्ता तं०–कतिसंचिता अकतिसंचिता अबत्तबगसंचिता, एवमेगिदियवजा जाव बेमाणिया (सू० १२१) 'तिविहे'त्यादि सूत्रत्रयी कण्ठ्या, नवरं बाह्यान् पुद्गलान्-भवधारणीयशरीरानवगाढक्षेत्रप्रदेशवर्तिनो वैक्रियसमुद्घा-13 तेन पर्यादाय-गृहीत्वैका विकुर्वणा क्रियते इति शेषः, तानपर्यादाय, या तु भवधारणीयरूपैव साऽन्या, यत्पुनर्भवधा-15॥१०४॥ करणीयस्यैव किश्चिद्विशेषापादनं सा पर्यादायापि अपर्यादायापि इति तृतीया व्यपदिश्यते, अथवा विकुर्वणा-भूपाकरणं, RELIGunintentATHREE इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा:, 'विकुर्वणा' शब्दस्य अर्थ: ~211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२० -१२१] दीप अनुक्रम [१२८ -१२९] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [३], उद्देशक [१]. मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तत्र बाह्यपुङ्गलानादायाभरणादीन् अपर्यादाय केशनखसमारचनादिना उभयतस्तूभयथेति, अथवाऽपर्यादायेति कृकलाससर्पादीनां रक्तत्वफणादिकरणलक्षणेति । एवं द्वितीयसूत्रमपि, नवरमभ्यन्तरपुद्गला भवधारणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये क्षेत्रप्रदेशा अवगाढास्तेष्वेव ये वर्त्तन्ते तेऽवसेयाः, विभूषापक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यन्तरपुद्गला इति । तृतीयं तु बाह्याभ्यन्तरपुद्गलयोगेन चाच्यमिति, तथाहि उभयेषामुपादानाद् भवधारणीयनिष्पादनं तदनन्तरं तस्यैव केशादिरचनं च, अनादानाच्चिरविकुर्वितस्यैव मुखादिविकारकरणं, उभयतस्तु वाह्याभ्यन्तराणामनभिमतानामादानतोऽन्येषां चानादानतोऽनिष्टरूपभवधारणीयेतररचनमिति ॥ अनन्तरं विकुर्वणोक्ता, साच नारकाणामप्यस्तीति नारकान्निरूपयन्नाह'तिविहे 'त्यादि, कण्ठ्यम्, नवरं 'कती'त्यनेन सङ्ख्यावाचिना व्यादयः सङ्ख्यावन्तोऽभिधीयन्ते, अयं चान्यत्र प्रश्नवि| शिष्टसङ्ख्यावाचकतया रूढोऽपीह सङ्ख्यामात्रे द्रष्टव्यः, तत्र नारकाः कति-कति सङ्ख्याताः सङ्ख्याता एकैकसमये ये उत्पन्नाः | सन्तः सञ्चिताः - कत्युत्पत्तिसाधर्म्याद् बुद्ध्या राशीकृतास्ते कतिसञ्चिताः, तथा न कति न सङ्ख्याता इत्यकति-असङ्ख्याता अनन्ता वा तत्र ये अकति-अकतिसङ्ख्याताः असङ्ख्याता एकैकसमये उत्पन्ना सम्तस्तथैव सञ्चितास्ते अकतिसशिताः, तथा यः परिमाणविशेषो न कति नाप्यकतीति शक्यते वक्तुं सोऽवकव्यकः स चैक इति तत्सञ्चिता अवक्तव्यकसञ्चिताः, समये समये एकतयोसन्ना इत्यर्थः, उत्पद्यन्ते हि नारका एकसमये एकादयोऽसङ्ख्येयान्ताः उक्तं च - " एंगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा व एगसमएणं । उववतेवइया उच्चता वि एमेव ॥ १ ॥” इति एतद्देवपरिमाणमेतदेव नार १ एको थापा यो वा सङ्ख्याता असङ्ख्या वैकसमयेन उत्पयन्ते एवायन्तः उद्वर्त्तन्तेऽप्येवमेव (देवाः) ॥ १ ॥ Education Internation 'विकुर्वणा' शब्दस्य अर्थः, नारकाणाम् निरुपणं For Pasta Use Only ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- गसूत्र- ३ स्थानकाध्ययने | उद्देशः१ प्रत सूत्रांक [१२०-१२१] वृत्तिः | सू० १२२ ॥१०॥ काणामपि, यत उक्तम्-"संखा पुण सुरवरतुल"त्ति, कतिसञ्चितादिकमर्थमसुरादीना दण्डकोक्तानामतिदिशन्नाहएवं'मित्यादि, 'एवं'मिति नारकवच्छेषाश्चतुर्विशतिदण्डकोक्ता वाच्या एकेन्द्रियवर्जाः, यतस्तेषु प्रतिसमयमसङ्ख्याता अनन्ता वा अकतिशब्दवाच्या एवोत्पद्यन्ते, न त्वेकः सङ्ख्याता वा इति, आह च-"अणुसमयमसंखेज्जा संखेज्जाऊयतिरियमणुया य । एगिदिएसु गच्छे आरा ईसाणदेवा य ॥ १॥ एगो असंखभागो वट्टइ उन्वट्टणोववायमि । एगनिगोए निचं एवं सेसेसुवि स एव ॥ २॥" इति । अनन्तरसूत्रे कतिसंचितादिको धर्मों वैमानिकानां देवानामुक्तः, अधुना देवानां सामान्येन परिचारणाधर्मनिरूपणायाह तिविहा परियारणा पं० त०-एगे देवे अन्ने देवे अन्नेसि देवाणं देवीओ अ अभिजुजिय २ परियारेति, अप्पणिजियाओ देवीओ अनि जिव २ परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विउब्बिय २ परियारेवि १, एगे देवे णो अरे देवा णो अण्णेसि देवाणं देवीओ अमिजुंजिय २ परियारेति अत्तणिजिआओ देवीओ अभिजुंजिय २ परियारेद अपाणमेव अपणा विडविय २ परियारेति २, एगे देवे णो अन्ने देवा णो अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिमुंजिय २ परितारेति णो अप्पणिजिाताओ देवीओ अभिजुजिय २ परितारेति अपाणमेव अप्पाणं विउब्विय २ परितारेति३, (सू० १२२)। तिविहे मेहुणे पं० २० दीप अनुक्रम [१२८-१२९] SCACANC+4 ॥१०५॥ १ सङ्ख्या पुनः सुरवरतुल्या (नारकाणां). २ अनुसमयमसपाता: सहयायुषस्तु तिर्यशो मनुष्याच एकेन्द्रियेषु गच्छेयुः आरादीशानादेवाच ॥१॥ काएकोऽसबभागो वर्तते उगर्लनोपपाते एकस्मिनिगोदे निलं एवं क्षेपेयपि स एव ॥ २ ॥ ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१३१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [१]. [०३], अंग सूत्र [०३ ] स्थान [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र Education Interrational - दिवे माणुरसते तिरिक्खजोणीते, तओ मेहुणं गच्छति वं० देवा मणुस्सा तिरिक्खजोणिता, ततो मेहुणं सेवंति ० - इत्थी पुरिसा णपुंसगा ( सू० १२३) 'तिविहा परीत्यादि, कण्ठ्यम्, नवरं परिचारणा-देवमैथुनसेवेति, एकः कश्चिद्देवो न सर्वोऽप्येवमिति किम् ? - 'अण्णे देवे 'ति अन्यान् देवान्- अल्पर्द्धिकान् तथाऽन्येषां देवीनां सत्का देवीश्वाभियुज्याभियुज्य-आलिप्याश्लिष्य वशीकृत्य वा परिचारयति - परिभुङ्क्ते वेदबाधोपशमायेति, न च न सम्भवति देवस्य देवसेवा पुंस्येने त्याशङ्कनीयम्, मनुष्येष्वपि तथा श्रवणात्, न चात्रार्थे नरामरयोः प्रायो विशेषोऽस्तीति, एक एवायं प्रकारो देवदेवीनामन्यत्वसामान्यादत एव द्वयोरपि पदयोरेकः क्रियाभिसम्बन्ध इति, एवमात्मीया देवीः परिचारयतीति द्वितीयः, तथाऽऽत्मानमेव परिचारयति कथं ? - आत्मना विकृत्य विकृत्य परिचारणायोग्यं विधायेति तृतीयं एवं प्रकारत्रयरूपाप्येकेयं परिचारणा, प्रभविष्णूत्कटका मैकपरिचारकव शादिति, अथान्यो देव आद्यप्रकारपरिहारेणान्त्यप्रकारद्वयेन परिचारयतीति द्वितीयेयमप्रभविष्णूचितकामपरिचारकदेवविशेषात् तथाऽन्यो देव आद्यप्रकारद्वयवर्जनेनान्त्यप्रकारेण परिचारयतीति तृतीयाऽनुरकटकामास्पर्द्धिकदेवविशेषस्वामिकत्वादिति ॥ परिचारणेति मैथुनविशेष उतोऽधुना तदेव मैथुनं सामान्यतः प्ररूपयन्नाह 'तिविहे मेहुणे' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं मिथुनं स्त्रीपुंसयुग्मं तत्कर्म मैथुनं नारकाणां तन सम्भवति द्रव्यत इति चतुर्थी मास्त्येवेति नोक्तम् ॥ मिथुनकर्मण एव कारकानाह—'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, तेषामेव भेदानाह'तओ मेहुण' मित्यादि, कण्ठ्यं, नवरं स्यादिलक्षणमिदमाचक्षते विचक्षणाः-- " योनि १ मृदुत्य २ मस्थैर्य, मुग्धत्वं ४ For Park Use Only मूलं [१२३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१३९] श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः ॥ १०६ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [१]. [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Eaton International - स्थान [३], ..आगमसूत्र क्लीवता ५ स्तनौ ६ । पुंस्कामितेति ७ लिङ्गानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥ १ ॥ मेहनं १ खरता २ दाय ३, शौण्डीर्य ४ श्मश्रु ५ घृष्टता ६ । स्त्रीकामिते ७ ति लिङ्गानि सप्त पुंस्ये प्रचक्षते ॥ २ ॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलमुदीपितम् ॥ ३ ॥” तथाऽन्यत्राप्युक्तम्- “स्तन केशवती स्त्री स्याद्, रोमशः पुरुषः स्मृतः । उभयोरन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम् ॥ १ ॥” इत्यादि । एते च योगवन्तो भवन्तीति योगप्ररूपणायाह तिविहे जोगे पं० [सं० मणजोगे बतिजोगे कायजोगे, एवं रविवाणं विगलिंदियवज्जाणं जाव वैमाणियाणं, तिविहे प ओगे पं० तं०—मणपओगे वतिपओगे कायपओगे, जहा जोगो विगलिंदियवज्जाणं तथा पओगोऽवि, तिविहे करणे पं०, तं मणकरणे वतिकरणे कायकरणे, एवं विगलिंदियवजं जान बेमाणियाणं, तिविहे करणे पं० तं० आरंभकरणे संरंभकरणे समारंभकरणे, निरंतरं जाव बेमाणियाणं ( सू० १२४ ) 'तिविहे जोए' इत्यादि, इह वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशम समुत्थ लब्धिविशेषप्रत्यय मभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य योगः, आह च - "जोगो वीरियं धामो उच्छाह परक्कमो तहा चेद्वा । सत्ती सामत्यंति य जोगस्स हवंति पज्जाया ॥ १ ॥ " इति, स च द्विधा-सकरणोऽकरणश्च तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयोर्ज्ञेयदृश्ययोरर्थयोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुज्ञानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो वीर्यविशेषः सोऽकरणः, स च नेहाधिक्रियते, सकरणस्यैव त्रिस्थानकावतारित्वाद्, अतस्तत्रैव व्युत्पत्तिस्तमेव चाश्रित्य सूत्रव्याख्या, युज्यते जीवः कर्मभिर्येन 'कैम्मं जोगनिमित्तं वज्झइ'त्ति वचनात् युङ्क्ते१ योगो वीर्य स्थान उत्साहः पराक्रमखथा पेटा शक्तिः सामव्यमिति च योगख भवन्ति पर्यायाः ॥ १ ॥ २ कर्म योगनिमित्तं बध्यते For Parts Only मूलं [ १२३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~215~ ३ स्थान काध्ययने उद्देशः १ सू० १२४ ॥ १०६ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१३२] स्थान [३], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रयुङ्क्ते यं पर्यायं स योगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति आह च "मर्णसा वयसा कापण वावि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्स अप्पणिजो स जोगसन्नो जिणक्खाओ ॥ १ ॥ तेओजोगेण जहां रत्तत्ताई घडस्स परिणामो । जीवकरणप्पओए विरियमवि तहष्पपरिणामो ॥ २ ॥ इति मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोग इति, स च चतुर्विधः सत्यमनोयोगो मृषामनोयोगः सत्यमृषामनोयोगो असत्यामृषामनोयोगश्चेति, मनसो वा योगः-करणकारणानुमतिरूपो व्यापारो मनोयोगः, एवं वाग्योगोऽपि, एवं काययोगोऽपि, नवरं स सप्तविध:- औदारिको १ दारिकमिश्र २ वैक्रिय ३ विक्रियमिश्रा ४ हारका ५ हारकमिश्र ६ कार्मणकाययोग ७ भेदादिति, तत्रीदारिकादयः शुद्धाः सुबोधाः, औदारिकमिश्रस्तु औदारिक एवापरिपूर्णा मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्रं दधि न गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते तत्ताभ्यामपरिपूर्णत्वात् एवमौदारिकं मिश्र कार्मणेन नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यम् अपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिक मिश्रव्यपदेशः, एवं वैक्रियाहारकमिश्रावपीति शतकटीकालेशः, प्रज्ञापना व्याख्यानांशस्त्वेवम्-औदारिकाद्याः शुद्धास्तत्पर्याप्तकस्य मिश्रास्त्वपर्यातकस्येति, तत्रोत्पत्तावदारिककायः कार्मणेन औदारिकशरीरिणश्च वैक्रियाहारककरणकाले वैक्रियाहारकाभ्यां मिश्री भवति इत्येवमौदारिकमिश्रः, तथा वैक्रियमिश्रो देवाद्युत्पत्ती कार्मणेन कृतवैक्रियस्य चौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारि Education International १ मनसा वचसा कायेन वापि युक्तस्य वीर्यपरिणामः जीवस्थात्मीयः स योगो जिनाख्पातः ॥ १ ॥ तेजोयोगेन यथा रत्यादिपदस्थ परिणामः जीवकरणप्रयोगे वीर्यमपि तथाऽऽत्मपरिणामः ॥ २ ॥ योगस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदाः मूलं [१२४] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Park Use Only ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक | ३ स्थान काध्ययने उद्देशः१ सू०१२४ ला [१२४ दीप अनुक्रम [१३२] श्रीस्थाना-18 केण, आहारकमिश्रस्तु साधिताहारककायप्रयोजनः पुनरौदारिकप्रवेशे औदारिकेणेति, कार्मणस्तु विग्रहे केवलिसमुद्घाते गसूत्र- वेति, सर्व एवायं योगः पञ्चदशघेति, सनहोऽस्य-"सच्चं १ मोसं २ मीसं ३ असच्चमोसं ४ मणो वती चे ८ वृत्तिः काओ उराल १ विकिय २ आहारग ३ मीस ६ कम्मइगो ७॥१॥" इति ॥ सामान्येन योग प्रष्य विशेषतो नार कादिषु पतुर्विशती पदेषु तमतिदिशन्नाह एवं मित्यादि, कण्ठयं, नवरमतिप्रसङ्गपरिहारायेदमुक्त-"विगलिंदिय॥१७॥ पदमुक-विगालादय- वजाणं"ति तत्र विकलेन्द्रियाः-अपञ्चेन्द्रियाः, तेषां ह्ये केन्द्रियाणां काययोग एव, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु काययोगवाग्योगाविति ॥ मनःप्रभृतिसम्बन्धेनैवेदमाह-'तिविहे पओगे' इत्यादि, कण्ठ्यं, नवरं मनःप्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जीवन हेतुकर्तृभूतेन यद् व्यापारण-प्रयोजनं स प्रयोगः मनसः प्रयोगो मनम्प्रयोगः, एवमितरावपि, 'जहे'त्यायतिदेशसूत्र पूर्ववद्भावनीयमिति । मनःप्रभृतिसम्बन्धेनैवेदमपरमाह-'तिविहे करणे इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं कियते येन तस्करणं-मननादिक्रियासु प्रवर्समानस्थात्मन उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पुद्गलसङ्घात इति भावः, तत्र मन एवं करणं मनःकरणमेवम् इतरे अपि, 'एवं मित्याद्यतिदेशसूत्र पूर्ववदेव भावनीयमिति, अथवा बोगप्रयोगकरणशब्दामां मन:प्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्यभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात्, तथाहि-योगः पञ्चदशविधः शतकादिषु व्याख्याता, प्रज्ञापनायां स्वेवमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः, तथाहि -“कतिविहे णं भंते ! पओगे पन्नत्ते, गोतमा! पन्नरसबिहे" इत्यादि, तथा आवश्यकेऽयमेव करणतयोक्ता, तथाहि १सलं मुषा मित्रं असल्यामुषा मनो नमोऽपि वैन काय बौदारिकवैफियाहारकमिधाः कार्मण इति ॥१॥ 4%-4-9649 ॥१०७॥ RELIGunintentATHREE योगस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदा: ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१३२] -"जुजणकरणं तिविहं मणवतिकाए य मणसि सञ्चाइ । सहाणे तेसि भेओ चउ चउहा सत्तहा चेव ॥१॥" इति ॥ प्रकारान्तरेण करणत्रैविध्यमाह-'तिधिहें'इत्यादि, आरम्भणमारम्भः-पृधिव्याधुपमईनं तख कृति:-करणं स एव वा करणमित्यारम्भकरणमेवमितरे अपि वाच्ये, नवरमयं विशेष:-संरम्भकरणं पृथिव्यादिविषयमेव मनःसन्क्लेशकरणं, समारम्भकरणं-तेषामेव सन्तापकरणमिति, आह च-"संकैप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ सुद्धनयाणं तु सध्यसि ॥ १॥” इति ॥ इदमारम्भादिकरणत्रयं नारकादीनां वैमानिकान्तानां भवतीत्यतिदिशमाह-निरन्तर मित्यादि, सुगम, केवलं संरम्भकरणमसंज्ञिनां पूर्वभवसंस्कारानुवृत्तिमात्रतया भावनीयमिति ॥ आरम्भादिकरणस्य क्रियान्तरस्य च फलमुपदर्शयन्नाह तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताते कर्म पगरिति, तं०-पाणे अतिवातित्ता भवति मुसं वइचा भवइ तहारूवं समर्ण वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलामिचा भवइ, इचेतेहि तिहि ठाणेहि जीवा अ. पाउअत्ताते फर्म पगरेति । तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउअत्ताते कर्म पगरेंति, तं०-णो पाणे अतिवातिचा भवद णो मुसं पतित्ता भवति तथारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ, इसे तेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्म पगरेंति । तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाध्यत्ताए कर्म पगरेति, तंजधा १युश्नकरणं विविध मनोवाक्कायेषु मनसि सत्यादि ससाने तेषां भेदः चतुर्धा चतुर्दा काया सप्तथा चैव ॥१॥२ संकल्पः संरभः परितापको भवेत्समारंभः। आरंभ उपद्रवतः शुद्धनवानान्नु सर्वेषां ॥१॥ ~ 218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना CCT वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१२५] ॥१०८॥ दीप अनुक्रम [१३३] पाणे अतिवातित्ता भवद मुसं वइत्ता भवइ तहारूवं समणं वा माहणं का हीलेत्ता णिदित्ता खिसेत्ता गरहित्ता अवमाणित्ता १३स्थानअन्नयरेणं अमणुनेणं अपीतिकारतेणं असण. पडिलाभेत्ता भवइ, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउअचाए फर्म काध्ययने पगरेति । तिहिं ठाणेहिं जीवा सुभदीहाउअत्ताते कम्मं पगरेंति, तं०-जो पाणे अतिवातित्ता भवइ णो मुसं वदित्ता भ उद्देशः१ यह तहारूवं समणं चा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता सकारिता समाणेचा कल्लाणं मंगल देवतं चेतितं पजुवासेत्ता मणु सू०१२५ नेणं पीतिकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता भवइ, इचेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहाउतत्ताते कर्म पगरेति । (सू० १२५) 'तिहिं ठाणेहि इत्यादि, त्रिभिः 'स्थानः' कारणैः 'जीवाः' प्राणिनः 'अप्पाउयत्ताए'त्ति अल्प-स्तोकमायु:-जी-11 वितं यस्य सोऽल्पायुस्तद्भावस्तत्ता तस्यै अल्पायुष्टाय तदर्थं तन्निबन्धनमित्यर्थः, कर्म-आयुष्कादि, अथवा अल्पमायु: जीवितं यत आयुषस्तदल्पायुः तद्भावस्तत्ता तया कर्म-आयुर्लक्षणं 'प्रकुर्वन्ति' बनन्तीत्यर्थः, तद्यथा-प्राणान्' प्राणेदानोऽऽतिपातयितेति 'शीलार्थतन्नन्त'मिति कर्मणि द्वितीयेति, प्राणिनां विनाशनशील इत्यर्थर, एवंभूतो यो भवति, एवं मृषावादं वक्ता यश्च भवति, तथा-ताकारं रूप-स्वभावो नेपथ्यादि वा यस्य स तथारूपः दानोचित इत्यर्थः, तं श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः-तपोयुक्तस्तं मा हन इत्याचष्टे यः परं प्रति स्वयं हनननिवृत्तः सन्निति स माहनो-मूलगुणधरस्तं, वाशब्दौ विशेषणसमुच्चयाथौं, प्रगता असवः-असुमन्तः प्राणिनो यस्मात् तमासुकं तनिषेधादप्रासुकं | सचेतनमित्यर्थः तेन, एष्यते-गवेष्यते उद्गमादिदोषविकलतया साधुभियंत्तदेषणीयं-कल्प्यं तनिषेधादनेषणीयं तेन, CASSACANCE जीव, कर्म, प्राण, रूप, श्रमण, अप्रासुक, अनेषणीय आदि शब्दानाम् व्याख्या ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३३] अश्यते-भुज्यते इत्यशनं च-ओदनादि पीयत इति पानं च-सौवीरकादि खादनं खादस्तेन निर्वृत्तं खादनार्थं तस्य निर्वयमानत्यादिति खादिम च-भक्तीदि स्वादनं स्वादः तेन निर्वृत्तं स्वादिम दन्तपवनादीति समाहारद्वन्द्धस्तेन, गाथाश्चात्र-"असणं ओदणसत्तुगमुग्गजगाराइ खज्जगविही य । खीराइ सूरणादी मंडगपभिती य विन्नेयं ॥१॥पाणं सोवीरजचोदगाइ चित्तं सुराइयं चेव । आउक्काओ सम्वो ककडगजलाइयं च तहा ॥२॥ भत्तोसं दंताई खरं नालिकरदक्खाई। ककडिगंवगफणसादि बहुविहं खाइमं नेयं ॥३॥ दंतवणं तंबोलं चित्तं अज्जगकुहेडगाई य । महुपिप्पलिसंठादी अणेगहा साइम होइ॥४॥” इति, प्रतिलम्भयिता-लाभवन्तं करोतीत्येवंशीलो यश्च भवति, ते अल्पायुष्कतया। कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रमः, 'इथेएहिंति इत्येतैः प्राणातिपातादिभिरुक्तप्रकारैत्रिभिः स्थानः जीवा अल्पायुष्टया कर्म प्रकहवन्तीति निगमनमिति । इह च प्राणातिपातयित्रादिपुरुषनिर्देशेऽपि प्राणातिपातादीनामेवाल्पायुर्वन्धनिबन्धनत्वेन तस्का रणत्वमुक्तं द्रष्टव्यमिति, इयं चास्य सूत्रस्य भावना-अध्यवसायविशेषेणैतत्रयं यथोक्तफलं भवतीति, अथवा यो हि जीवो जिनादिगुणपक्षपातितया तत्पूजाद्यर्थ पृथिव्याद्यारम्भेण न्यासापहारादिना च प्राणातिपातादिषु वर्तते तस्य सरागसंयमनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्टा समवसेया, अथ नैतदेवं, निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य, अल्पायुष्कस्य क्षुल्लकभवग्रहणरूपस्यापि प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वाद्, अतः कथमभिधीयते-सविशेषणप्राणातिपातादिवती जीव आ-| पेक्षिकी चाल्पायुष्कतेति ?, उच्यते, अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणातिपातादेविशेषणमवश्य वाच्यं, यत इतस्तृतीयसूत्रे RESSESSIOCCADC0 4A 'अशन, पान, खादिम, स्वादिम' शब्दस्य व्याख्या, प्राणातिपातादित्वात् अल्पायुर्निबन्धन्त्वं ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२५ ] दीप अनुक्रम [१३३] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १०९ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internationa - स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] प्राणातिचत्वदित्वात् अल्पायुर्निबन्धन्त्वं प्राणातिपातादित एव अशुभदीर्घायुष्टां वक्ष्यति, न हि समान हेतोः कार्यवैषम्यं प्रयुज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात्, तथा 'समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा !, बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइति भगवतीवचनश्रवणादवसीयते नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपाऽल्पायुष्टा, न हि स्वल्पपापबहुनिर्जरानिबन्धनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवमहणनिमित्तता सम्भाव्यते, जिनपूजनाद्यनुष्ठानस्यापि तथाप्रसङ्गात्, अथाप्रासुकदानस्य भवतूक्ताऽल्पायुष्टा, प्राणातिपा| तमृषावादयोस्तु क्षुलकभवग्रहणमेव फलमिति, नैतदेवम्, एकयोगप्रवृत्तत्वाद् अविरुद्धत्वाच्चेति, अथ मिथ्यादृष्टिश्रमणब्राह्मणानां यदप्रासुकदानं ततो निरुपचरितैवाल्पायुष्टा युज्यते, इतराभ्यां तु को विचार इति ? नैवम्, अप्रासु केनेति तत्र विशेषणस्यानर्थकत्वात् प्रासुकदानस्यापि अल्पायुष्कफलत्वाविरोधाद्, उक्तं च भगवत्याम् - " समणोवा सयरस णं भंते! तहारूवं असंजत अविश्य अपडिहय अपच्चक्खायपावकम्मं फासुएण वा अफासुरण वा एसणिजेण वा अणेसणिजेण वा असण ४ पडिला भेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा ?, एगंतसो पावेकम्मे कज्जइ, नो से काइ निज्जरा कज्जइ"त्ति, यच्च पापकर्मण एव कारणं तेदल्पायुष्टाया अपि कारणमिति, नन्वेवं प्राणातिपातमृषावादार्थप्रासुकदानं च कर्त्त " १ युज्यते २ श्रमणोपासकेन भदन्त । तथारूपं श्रमणं वा माहनं वाप्रासु के नानेपणीवेनाशनपानसादिमखादिमेन प्रतिसम्भवता किं क्रियते, गौतम | बहुतरा तेन निर्जरा क्रियतेऽल्पतरं तेन पापकर्म कियते ३ श्रमणोपासन भदन्त । तथारूपं असंयदारिताप्रतिहता वाख्यातपापकर्माणं प्राफेन वाप्राकेन वा एषणीयेनानेपणीयेन वा अशनादिना प्रतिलम्भयता किं क्रियते ?, गौतम ! एकान्तः पापकर्म कियते न तेन काविनिर्जरा कियते ॥ ४ बहुनिर्जरासाधनत्वेऽपि अल्पस्य ५ सरागसंयम निर्वदापेक्षया ६ अप्रासुकादिदानं. मूलं [१२५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 221~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ सू० १२५ ॥ १०९ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [1] स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Education International - व्यमापन्नमिति ?, उच्यते, आपद्यतां नाम भूमिकापेक्षया को दोषः ?, यतः “ अधिकारिवशाच्छास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ॥ १ ॥” तथा च गृहिणं प्रति जिनभवनकारणफलमुक्तम्- "एतदिह भावयज्ञः सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् । अभ्युदयान्युच्छित्त्या नियमादपवर्गबीजमिति ॥ १ ॥” तथा “अण्णइ जिणपूयाए कार्यवहो जइवि होइ उ कहिंचि । तहवि तई परिसुद्धा गिहीण कूवाहरणजोगा ॥ १ ॥ असदारंभपवत्ता जं च गिही तेण तेसिं विश्लेया । तन्निव्वित्तिफलच्चिय एसा परिभाषणीयमिदं ॥ २ ॥” इति दानाधिकारे तु श्रूयते द्विविधाः श्रमणोपासकाः- संविग्नभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्चेति यथोक्तम्- “ संविग्गंभावियाणं लोयदितभावियाणं च । मोत्तृण खेसकाले भावं च कहिंति सुहुन्छं ॥ १ ॥” इति, तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता यथाकथञ्चिद्ददति, संविग्नभावितास्त्वौचित्येनेति, तच्चेदम्, “संघरणमि असुद्धं दोपहवि गेण्हन्तदेतयाणऽहियं । आउरदितेणं तं चैव हितं असंथरणे ॥ १ ॥” इति, तथा "णायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाईणं दव्वाणं देसकालसद्धासकारकम जुयं" इत्यादि, कचित् "पाणे अतिवादिता मुखं वयित्ते"त्येवं भवतिशब्दवर्जा वाचना, तत्रापि स एवार्थः क्त्वाप्रत्ययान्तता वा व्या प्राणातिचदित्वात् अल्पायुर्निवन्धन्त्वं १ भम्यते जिनपूजायां यद्यपि कथंचित्कायनधो भवति तथापि सा परिशुद्धा गृहिणां कूपोदाहरणदृष्टान्तात् ॥ १॥ असदारंभप्रवृत्ता यच गृहिणस्तेन तेषां विज्ञेया निवृतिफ एषा परिभावनीयमेतत् ॥ २ ॥ २ विभावितानां कान्तभावितानां च क्षेत्रकाली भावे च शुक्खा मुछे कथयन्ति (देशयति) ॥ १ ॥ ३ संस्तरणे द्वयोरपि गृहणतोरहितमद्धं आतुरदृष्टान्तेन तदेवास्तरणे हितं (देशादिभेदात् ) ॥ १ ॥ ४ न्यायागतानां कल्पनीयानां अन्नपानादीनां इव्याणां देशकाला सत्कारकमयुतं (दानं). मूलं [१२५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१]. मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सूत्र ॥ ११० ॥ श्रीस्थानाख्येया, प्राणानतिपात्य मृषोक्त्वा श्रमणं प्रतिलम्भ्य अल्पायुष्टया कर्म बनन्तीति प्रक्रमः शेषं तथैव, अथवा प्रतिलम्भ+नस्थानकस्यैवेतरे विशेषणे, तथाहि प्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त्वा यथा-अहो साधो ! स्वार्थसिद्धमिदं भवृत्तिः १४ कादि कल्पनीयं वो न शङ्का कार्येत्यादि, ततः प्रतिलम्भ्य तथा कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रमः इह च द्वयस्य विशेषणत्वेन एकस्य विशेष्यत्वेन त्रिस्थान कत्वमवगन्तव्यम्, गम्भीरार्थं चेदं सूत्रमतोऽन्यथाऽपि भावनीयमिति ॥ अल्पायुष्कताकारणान्युक्तान्यधुनैतद्विपर्ययस्यैतान्येव विपर्यस्ततया कारणान्याह - 'तिही' त्यादि प्राग्वदवसेयम्, नवरं 'दीहाउयत्ताएत्ति शुभदीर्घायुष्टायै शुभदीर्घायुष्टया वेति प्रतिपत्तव्यं, प्राणातिपात विरत्यादीनां दीर्घायुषः शुभस्यैव निमित्तत्वाद्, उक्त च--"महन्वय अणुब्वएहि य बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मदिट्ठी य जो जीवो ॥ १ ॥" तथा, "पयईऍ तणुकसाओ दाणरओ सीलसंजमविहूणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउं बंधए जीवो ॥ २ ॥” देवमनुष्यायुषी च शुभे इति । तथा भगवत्यां दानमुद्दिश्योक्तं- “समणोवासयस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा २ फासुएसणिज्जेणं | असण ४ पडिला भेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा !, एगंतसो निज्जरा कज्जइ, णो से केइ पावे कम्मे कज्जइ २ इति, यच्च निर्जराकारणं तच्छुभदीर्घायुः कारणतया न विरुद्धं, महात्रतयदिति । अनन्तरमायुषो दीर्घताकारणान्यु १ महातैरते बालोऽकामनिर्जरया च देवायुर्निबध्नाति सम्यग्दनि यो जीवः ॥ १ ॥ प्रकृत्या तनुकषायो दानरतिः शीलसंयमविहीनः मध्यमगुणैर्युक्तो मनुजायुर्वभाति जीवः ॥ १ ॥ २ श्रमणोपासकेन मदन्त । तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा प्रापणीयेनाशनादिना ४ प्रतिलम्भयता किं क्रियते ?, गौतम 1 एकान्ततो निर्जरा क्रियते न तेन किंचिदपि पापकर्म कियते ॥ प्राणातिपातादित्वात् अल्पायुर्निबन्धन्त्वं For Park Use Only ~ 223~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ सू० १२५ ॥ ११० ॥ war Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] SSCRRORSCRDS तानि, तव शुभाशुभमिति तत्रादौ तावदशुभायुदीर्घताकारणान्याह--'तिहीं'त्यादि प्राग्वत्, नवरं अशुभदीर्घायुष्टायै इति नारकायुष्कायेति भावः, तथाहि-अशुभं च तत्सापप्रकृतिरूपत्वात् दीर्घ च तस्य जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्रस्थितिकस्वादुत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपत्वादशुभदीर्घ, तदेवंभूतमायुः जीवितं यस्मात्कर्मणस्तदशुभदीर्घायुस्तदाबस्तत्ता तस्यै तया वेति, प्राणान्-प्राणिन इत्यर्थोऽतिपातयिता भवति मृषावाद वक्ता भवति तथा श्रमणमशनादिना हीलनादि कृत्वा प्रतिलम्भयिता भवतीत्यक्षरघटना, हीलना तु जात्याधुघट्टनतो निन्दनं मनसा खिसनं जनसमक्षं गर्हणं तत्समक्ष अपमाननमनभ्युत्थानादिभिा, 'अन्यतरेण' बहूनां मध्ये एकतरेण, कचित्त्वन्यतरेणेति न दृश्यते, 'अमनोज्ञेन' स्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिनाऽत एवाप्रीतिकारकेण, भक्तिमतस्त्वमनोज्ञमपि मनोज्ञमेव, तत्फलत्वाद्, आर्यचन्दनाया इव, आर्यचन्दनया हि कुल्मापाः सूर्पकोणकृता भगवते महावीराय पञ्चदिनोनपाण्मासिकक्षपणपारणके दत्ताः, तदैव च तस्या लोहनिगडानि हेममयनूपुरी सम्पन्नौ केशाः पूर्ववदेव जाताः पञ्चवर्णविविधरत्नराशिभिहं भृतं सेन्द्र देवदानवनरनायकैरभिनन्दिता कालेनावाप्तचारित्रा च सिद्धिसौधशिखरमुपगतेति, इह च सूत्रेऽशनादि प्रासुकापासुकत्वादिना न विशेषितं, हीलनादिकर्तुःप्रासुकादिविशेषणस्य फलविशेष प्रत्यकारणत्वात् , मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेव प्रधानतया तत्कारणत्वादिति । प्राणातिपातमृपावादयोनिविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटत एव, अवज्ञादाने|ऽपि प्राणातिपातादेदृश्यमानत्वादिति, भवति च प्राणातिपातादेनरकायुः, यदाह-"मिच्छादिही महारंभपरिग्गहो तिब्ब १ मिभ्याष्टिमहारंमपरिग्रहस्तीन दीप अनुक्रम [१३३] 2-61-56-06-%* ~ 224~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- इसूत्रवृत्तिः काध्ययने प्रत सूत्रांक [१२५] -- ॥१११॥ -- दीप अनुक्रम [१३३] लोहनिस्सीलो । नरयाउयं निबंधइ पावमती रोद्दपरिणामो॥१॥" इति ॥ उक्तविपर्ययेणाधुनेतरदाह-'तिहिं ठाणेही- स्थान त्यादि पूर्ववत्, नवरं 'वन्दित्वा' स्तुत्वा 'नमस्थित्वा प्रणम्य सत्कारयित्वा वस्त्रादिना सन्मानयित्वा प्रतिपत्तिविशेषेण | कल्याण-समृद्धिः तद्धेतुत्वात् साधुरपि कल्याणमेवं मंगलं विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गल देवतमिव [देवतेव] दैवतं चैत्यमिव-181 जिनादिप्रतिमेव चैत्यं श्रमणं 'पर्युपास्य' उपसेव्येति, इहापि प्रासुकाप्रासुकतया दानं न विशेषितं, पूर्वसूत्रविपर्य- सू. १२६ यवादस्य, पूर्वसूत्रस्य चाविशेषणतया प्रवृत्तत्वादिति, न च प्रासुकाप्रासुकदानयोः फलं प्रेति न विशेषोऽस्ति, पूर्वसूत्रयोस्तस्य प्रतिपादितत्वात्, तस्मादिह प्रासुकैषणीयस्य कल्पप्राप्तावितरस्य चेदं फलमवसेयं, अथवा भावप्रकर्षविशेषादनेपणीयस्यापीदं फलं न विरुध्यते, अचिन्त्यत्वाच्चित्तपरिणतः, सा हि बाह्यस्यानुगुणतयैव न फलानि साधयति, भरतादीनामिवेति, इह च प्रथममल्पायुःसूत्रं द्वितीयं तद्विपक्षः तृतीयमशुभदीर्घायुःसूत्रं चतुर्थं तद्विपक्ष इति न पुनरुक्ततेति ॥ प्राणानतिपातनादि च गुप्तिसद्भावे भवतीति गुप्तीराह ततो गुत्तीतो पन्नत्ताओ, तं०-मणगुत्ती वतिगुची कायगुत्ती, संजयमणुस्साणं रातो गुत्तीओ पं० २०-मण इ० काय, तो अगुत्तीभो पं० सं०-मणअगुत्ती वगुत्ती कायअगुत्ती, एवं नेरहताण जाव थणियकुमाराणं, पंचिंदिय १ लोभानिस्शीलः । निरयायुर्निबध्नाति पापमती रुद्रपरिणामः ॥१॥ २ प्रति वि.प्र. ३ यथाभदकापेक्षया प्रवृत्ती मनुष्यापेक्षया स्यात्तत् , चतुर्थं तुला ॥१११॥ परिणतापेक्षया अत एव सरकारथित्वेलादि, तथा देवानुष्कायपेक्षमेतत् ~ 225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: P -RDR प्रत सूत्रांक [१२६] 56 तिरिक्वजोणियाणं असंजप्तमणुस्साण वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं । ततो दंडा पं० सं०-गणदंडे वयदंडे काय दंडे, नेरदयाणं तओ दंडा पण्णत्ता, तं०-मणदंडे वइदंडे कायदंडे, विगलिंदियबज जाप वेमाणियाण (सू०१२६) 'तओं' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं गोपनं गुप्तिः-मनःप्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्त्तनमिति, आह च ---"मणगुत्तिमाइयाओ गुत्तीओ तिन्नि समयके ऊहिं । परियारेयररूवा णिद्दिडाओ जो भणियं ॥१॥ समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणमि भइयब्यो । कुसलवइमुईरतो जं वइगुत्तोऽवि समिओऽवि ॥२॥” इति, एताश्चतुर्विशतिदण्डके चिन्त्यमाना मनुष्याणामेव, तत्रापि संयतानां, न तु नारकादीनामित्यत आह-संजयमणुस्साण'मित्यादि, कण्ठ्यम् ।। उक्ता गुप्तयस्त द्विपर्ययभूता अथागुप्तीराह-'तओं इत्यादि कण्ठ्यं, विशेषतश्चतुर्विंशतिदण्डके एता अतिदिशन्नाह-एवं'मित्यादि, 'एवं'मिति सामान्यसूत्रवन्नारकादीनां तिम्रोऽगुप्तयो वाच्याः, शेषं कण्ठयं, नवरमिहैकेन्द्रियविकलेन्द्रिया नोक्ताः, वाङानसोस्तेषां यथायोगमसम्भवात् , संयतमनुष्या अपि नोक्काः, तेषां गुप्तिप्रतिपादनादिति ॥ अगुप्तयश्चात्मनः परेषां च दण्डनानि भवन्तीति दण्डान्निरूपयन्नाह-तओदण्डे 'त्यादि, कण्ठ्यं, नवरं मनसा दण्डनमात्मनः परेषां चेति मनोदण्डः, अथवा दण्यते अनेनेति दण्डो मन एव दण्डो मनोदण्ड इति, एवमितरावपि, विशेषचिन्तायां चतुर्विंशतिदण्डके 'नरइयाणं तओ दंडा' इत्यादि यावद्वैमानिकानामिति सूत्रं वाच्यं, नवरं 'विगलिंदियवर्जति १ मनोगत्यादिका गुप्तयतिखा समयकेभिः प्रविचारेतररूपा निर्षिय यतो भणितं ॥1॥ समितो निषमा गुप्तो गुप्तः समितने भकन्यः कुशलवाचमुदीरयन् यद्वारगुतोऽपि समितोऽपि ॥१॥ दीप अनुक्रम [१३४] %4354760 ~ 226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१३४] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ११२ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१२६ ] उद्देशक [१]. [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internation - स्थान [३], ..आगमसूत्र एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वेत्यर्थः तेषां हि दण्डत्रयं न सम्भवति, यथायोगं वाड्मनसोरभावादिति । दण्डश्च गर्हणीयो भवतीति गह सूत्राभ्यामाह- 'गर्हा' शब्दस्य व्याख्या: 'तिविहे 'त्यादि सूत्रद्वयं गतार्थ, नवरं, गर्हते - जुगुप्सते दण्डं स्वकीयं परकीयं आत्मानं वा 'कायसावित्ति सकारस्यागमिकत्वात् कायेनाप्येकः, कथमित्याह- पापानां कर्म्मणामकरणतया हेतुभूतया, हिंसाद्यकरणेनेत्यर्थः, कायगर्हा हि पापकर्माप्रवृत्यैव भवतीति भावः, उक्तं च - "पापजुगुप्सा तु तथा सम्यक्परिशुद्धचेतसा सततम् । पापोद्वेगोऽकरणं तदचिन्ता चेत्यनुक्रमसः ॥ १ ॥” इति, अथवा पापकर्मणामकरणतायै तदकरणार्थं त्रिधाऽपि गर्हते, अथवा चतुर्थ्यर्थे षष्ठी ततः पापेभ्यः कर्मभ्यो गर्हते तानि जुगुप्सत इत्यर्थः किमर्थम् ? - अकरणतायै मा कार्षमहमेतानीति, 'दीडपेगे अर्द्धति दीर्घ कालं यावत्, तथा कायमप्येकः प्रतिसंहरति-निरुणद्धि, कया ? -पापानां कर्म्मणामकरणतया हेतुभूतया तदकरणेन तदकरणतायै वा तेभ्यो वा गर्हते, कार्य वा प्रतिसंहरति तेभ्यः, अकरणतायै तेषामेवेति ॥ अतीते दण्डे गर्दा भवति सा चोक्का, भविष्यति च प्रत्याख्यानमिति सूत्रद्वयेन तदाह - 'तिविहे 'त्यादि गतार्थ, नवरं 'गरि तिविहा गरहा पं० [सं० मणसा देंगे गरहति वयसा बेगे गरहति, कायसा वेगे गरइति पावाणं कम्माणं अकरणयाए, अथवा गरहा तिविद्दा, पं० नं० - दीहंगे अद्धं गरहृति, रहस्संयेगे अद्धं गरहति, कार्यपेगे पडिसाहरति पावाणं कम्माण अकरणया, तिविहे पचकखाणे पं० [सं० मणसा वेगे पञ्चस्वाति वयसा वेगे पञ्चकखाति कायसा वेगे पञ्चक्खाइ, एवं जहा गरहा तहा पञ्चक्खाणेवि दो आलावगा भाणियव्या (सू० १२७ ) For Parts Only ~ 227~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ सू० १२७ ॥ ११२ ॥ www.landbrary or Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१३५] हत्ति गर्हायां, आलापको चेमी 'मणसे'त्यादि, 'कायसा चेगे पञ्चक्खाइ पावाणं कम्माणं अकरणयाए' इत्येतदन्त । एकः, 'अहवा' पच्चक्खाणे तिविहे पं०-१०-दीहंपेगे अद्धं पञ्चक्खाइ रहस्संपेगे अद्धं पञ्चक्खाइ कार्यपेगे पडिसाहरद पावाणं कम्माणं अकरणयाए इति द्वितीयः, तत्र कायमप्येका प्रतिसंहरति पापकर्माकरणाय अथवा कार्य प्रतिसंहरति पापकर्मभ्योऽकरणाय तेषामेवेति ॥ पापकर्मप्रत्याख्यातारश्च परोपकारिणो भवन्तीति तदुपदर्शनाय दृष्टान्तभूतवृक्षाणां तद्दाष्टोन्तिकानां च पुरुषाणां प्ररूपणार्थमाह ततो रुक्खा पं० सं०-पत्तोवते फलोवते पुष्फोवते १ एवामेव तओ पुरिसजाता पं० सं०-पत्तोवारुक्खसामाणा पुफोवारुक्षसामाणा फलोवारुखसामाणा २, ततो पुरिसज्जाया पं० २०-नामपुरिसे ठवणपुरिसे दब्बपुरिसे ३, तो पुरिसज्जाया पं०, ०-नाणपुरिसे दसणपुरिसे चरित्तपुरिसे ४, तओ पुरिसजाया पं० सं०-वेदपुरिसे विधपुरिसे अभिलावपुरिसे ५, तिविहा पुरिसजाया पं० २०-उत्तमपुरिसा मझिमपुरिसा जहन्नपुरिसा ६, उत्तमपुरिसा तिविदा पं० सं०-धम्मपुरिसा भोगपुरिसा कम्मपुरिसा, धम्मपुरिसा अरिहंता भोगपुरिसा चकवट्टी कम्मपुरिसा वासुदेवा, महिमपुरिसा तिविहा पं० तं०-उग्गा भोगा रायन्ना ८, जहन्नपुरिसा तिविहा पं० तं०-दोसा भयगा भातिलगा ९ (सू० १२८) 'तओ रुक्खे'त्यादि सूत्रद्वयं, पत्राण्युपगच्छति-प्रामोति पत्रोपगः, एवमितरी, 'एवमेवेति दान्तिकोपनयनार्थः, पुरुषजातानि-पुरुषप्रकारा यथा पत्रादियुक्तत्वेनोपकारमात्र विशिष्टविशिष्टतरोपकारकारिणोऽर्थिषु वृक्षाः तथा लोकोत्तर AREauratoninternational Turmurary.org ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२८] दीप अनुक्रम [१३६ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ३ स्थान ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ११३ ॥ श्रीस्थाना- ४ पुरुषाः सूत्रार्थोभयदानादिना यथोत्तरमुपकारविशेषकारित्वात् तत्समाना मन्तव्याः, एवं लौकिका अपीति, इह च 'पत्तो* वर्ग इत्यादिवाध्ये पत्तोवा इत्यादिकं प्राकृतलक्षणवशादुक्तं, 'समाणे' इत्यत्रापि च 'सामाणे' इति ॥ अथ पुरुषप्रस्ता-काध्ययने २ वात् पुरुषान् सप्तसूत्र्या निरूपयन्नाह - 'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं नामपुरुषः पुरुष इति नामैव, स्थापनापुरुषः पुरु- उद्देशः १ २ पप्रतिमादि, द्रव्यपुरुषः पुरुषत्वेन य उत्पत्स्यते उत्पन्नपूर्वी वेति, विशेषोऽत्रेन्द्रसूत्राद् द्रष्टव्यो भवति, अत्र भाष्यसू० १२८ * गाथा - "आगमे ओऽणुवत्तो इयरो दव्यपुरिसो तिहा तइओ । एगभवियाइ तिविहो मूलुत्तरनिम्मिओ वावि ॥ १ ॥” मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तदाकारवन्ति तान्येवेति भावपुरुषभेदाः पुनर्ज्ञानपुरुपादयः । ज्ञानलक्षणभावप्रधानपुरुषो ज्ञानपुरुषः एवमितरावपि । वेदः पुरुषवेदः तदनुभवनप्रधानः पुरुषो वेदपुरुषः, स च स्त्रीपुंनपुंसकसम्बन्धिषु त्रिष्वपि लिङ्गेषु भवतीति, तथा पुरुषचिह्नः श्मश्रुप्रभृतिभिरुपलक्षितः पुरुषश्चिह्नपुरुषो, यथा नपुंसकं श्मश्रुचिह्नमिति, पुरुषवेदो वा चिह्नपुरुषस्तेन चिह्यते पुरुष इतिकृत्वेति, पुरुषवेषधारी वा ख्यादिरिति, अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलापः शब्दः स एव पुरुषः पुंलिङ्गतया अभिधानात् यथा घटः कुटो वेति, आह च- “अभिलायो पुंलिंगाभिहाणमेत्तं घडो व चिंधे उ । पुरिसाकिई नपुंसो वेओ वा पुरिसवेसो वा ॥ २ ॥ वेयपुरिसो तिर्लिंगोऽवि पुरिसो वेदाशुभूइकालम्मि" ॥ इति, 'धम्मपुरिस' त्ति-धर्म्मः क्षायिकचारित्रादिस्तदर्जनपराः पुरुषाः धर्म्मपुरुषाः उक्तं च १ आगमतोऽनुपयुक्त नोआगमतो द्रव्यपुरुषस्त्रिधा तृतीयः एकमनिकादिविविधः मूलोत्तरनिर्मितो वाऽपि ( योग्यानि द्रव्याणि आकारवन्ति वा ) ॥ १ ॥ अभिलापः पुंलिङ्गाभिधानमात्रं पट इस चिठे तु । पुरुषाकृति नपुंसक वेदो या पुरुषयेषो वा ॥ २ ॥ वेदपुरुषस्त्रिलिंगोऽपि पुरुषवेदानुभूतिकाले । Ja Eucation International For Parts Only ~ 229~ ॥ ११३ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८] दीप अनुक्रम [१३६] "धम्मपुरिसो तयज्जणवावारपरो जह सुसाह" इति, भोगा:-मनोज्ञाः शब्दादयस्तत्पराः पुरुषा भोगपुरुषाः १, आह च"भोगपुरिसो समज्जियविसयसुहो चकवट्टिब" इति, कर्माणि-महारम्भादिसम्पाद्यानि नरकायुष्कादीनीति, उग्रा-भगवतो नाभेयस्य राज्यकाले ये आरक्षका आसन्, भोगास्तत्रैव गुरवः, राजन्यास्तत्रैव वयस्याः, तदुक्तम्-“उग्गा भोगा रायन्न खत्तिया संगहो भवे चउहा । आरक्खि गुरु वयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ॥१॥” इति, तद्वंशजा अपि तत्तव्यपदेशा इति, एषां च मध्यमत्वमनुत्कृष्टत्वाजघन्यत्वाभ्यामिति, दासा-दासीपुत्रादयः भृतकाः-मूल्यतः कर्मकराः 'भाइल्लग'त्ति भागो विद्यते येषां ते भागवन्तः शुद्धचातुर्थिकादय इति ॥ उक्तं मनुष्यपुरुषाणां त्रैविध्यमधुना सामान्यतस्तिरश्चां जलचरस्थलचरखचरविशेषाणां, 'तिविहा मच्छे'त्यादि सूत्रादशभिस्तदाह तिविहा मच्छा पं० सं०-अंडया पोअया संमुच्छिमा १, अंडगा मच्छा सिविहा पं० सं०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा २, पोतया मच्छा तिविहा पं० सं०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा ३, तिविहा पक्खी पं० त०-अश्या पोमया समुच्छिमा १, अंडया पक्खी तिविहा पं० सं०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा २, पोतजा पक्खी तिबिहा पं० सं०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा, एवमेतेणं अभिलावेणं घरपरिसप्पावि भाणियव्वा, भुजपरिसप्पाविभाणियव्या ९ (सू० १२९) एवं चेव तिविहा इत्थीओ पं० सं०-तिरिक्खजोणित्थीओ मणुस्सित्थीओ देविस्थीओ १, तिरिक्खजोणीओ इत्थीओ विवि १ धर्मपुरुषसदर्जनब्यापारपरो चथा मुसाधुरिति ॥ २ भोगपुरुषः समर्जितविषय मुखधकवताव । ३व्या भोगा राजन्याः क्षत्रिया संपही भवेचतुओं ॥ मा| रक्षकगुरुवयस्याः शेषा वे क्षत्रियास्ते तु ॥१॥ HATurmurary.org ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२९ १३१] दीप अनुक्रम [१३७ १३९] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ११४ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] can Internationa हाओ पं० [सं० --- जलचरीओ थलचरीओ खहचरीओ २, मणुस्सित्यीओ तिविहाओ, पं० सं० कम्मभूमिभाओ अकम्मभूमियाओ अंतरदीविगाओ ३, तिविहा पुरिसा पं० वं०तिरिक्खओणीपुरिसा मणुस्तपुरिसा देवपुरिसा १, ति रिक्खजोणिपुरिसा तिविहा तं० - जलचरा थलचरा खेचरा २, मणुस्सपुरिसा तिविहा पं० [सं० कम्मभूमिगा अकस्मभूमिगा अंतरदीवगा है, तिविहा नपुंसंगा पं० तं रतियनपुंसमा तिरिक्खजोणियनपुंसगा मणुस्सनपुंगा १, तिरिक्खजोणियनपुंसगा तिविहा पं० [सं०] जलयरा थलवरा खबरा २, मणुस्सनपुंसंगा तिविधा पं० तं० कम्मभूमिगा अकम्मभूमिगा अंतरदीवगा है। (सू० १३०) तिविहा तिरिक्खजोणिया पं० तं इत्थी पुरिसा नपुंसगा। (सू० १३१ ) सुगमानि चैतानि, नवरं अण्डाजाता अण्डजाः, पोतं वस्त्रं तद्वज्जरायुर्वर्जितत्वाज्जाताः, पोतादिव वा वोहित्थाज्जाताः पोतजाः, सम्मूच्छिमा अगर्भजा इत्यर्थः, सम्मूच्छिमानां ख्यादिभेदो नास्ति नपुंसकत्वात्तेषामिति स सूत्रे दर्शित इति । पक्षिणोऽण्डजाः हंसादयः, पोतजा वल्गुलीप्रभृतयः सम्मूच्छिमाः खञ्जनकादयः, उद्भिज्जत्येऽपि तेषां सम्मूर्कजत्वव्यपदेशो भवत्येव, उद्भिज्जादीनां सम्मूर्च्छनज विशेषत्वादिति, 'एव' मिति पक्षिवत् एतेन प्रत्यक्षेणाभिलापेन 'तिविहा उरपरिसप्पेत्यादिसूत्रत्रयलक्षणेन, उरसा-वक्षसा परिसर्पन्तीति उरः परिसर्पाः सर्व्वादयस्तेऽपि भणितव्याः, तथा भुजाभ्यां चाहुभ्यां परिसर्पन्ति ये ते तथा नकुलादयस्तेऽपि भणितव्याः, 'एवं चेव'त्ति, एवमेव यथा पक्षिणस्तथै वेत्यर्थः, इहापि सूत्रत्रयमध्येतव्यमिति भावः ॥ उक्तं तिर्यग्विशेषाणां त्रैविध्यमिदानीं स्त्रीपुरुषनपुंसकानां तदाह For Palata Use Only ~231~ ३ स्थान काध्ययने उद्देशः १ सू० १३१ ॥ ११४ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१२९ १३१] दीप अनुक्रम [१३७ १३९] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [३], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [१३१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'तिविहेत्यादि नवसूत्री सुगमा, नवरं 'खरं'ति प्राकृतत्वेन खम्-आकाशमिति, कृष्यादिकर्म्मप्रधाना भूमिः कर्मभूमिः| भरतादिका पञ्चदशधा तत्र जाताः कर्मभूमिजाः, एवमकर्मभूमिजाः, नवरमकर्मभूमिः भोगभूमिरित्यर्थः देवकुर्वादिका त्रिंशद्विधा, अन्तरे-मध्ये समुद्रस्य द्वीपा ये ते तथा तेषु जाता आन्तरद्वीपास्त एवान्तरद्वीपिकाः । विशेष (तः ) त्रैविध्यमुक्त्वा सामान्यतस्तिरश्चां तदाह- 'तिविहे'त्यादि, कण्ठ्यम् ॥ रूयादिपरिणतिश्च जीवानां लेश्यावशतो भव[ती]ति तन्निबन्धनकर्मकारणत्वात् तासामिति नारकादिपदेषु लेश्याः त्रिस्थानकावतारेण निरूपयन्नाह नेरइयाणं तओ लेसाओ पं० वं० कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा १, असुरकुमाराणं तओ लेसाओ संकिलिट्ठाओ पं०, तं० फण्ड्लेसा नीललेसा काउलेसा २, एवं जाव थणियकुमाराणं १९, एवं पुढविकाइयाणं १२ आठवणरसविकाइयाणवि १३-१४ ते काइयाणं १५ बाउकाइयाणं १६ वेदियाणं १७ तेंदियाणं १८ चउरिदिआणचि १९ तओ लेस्सा जहा नेरइयाणं, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेसाओ संकिलिहाओ पं० तं कण्ट्लेसा नीललेसा काउलेसा २०, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेसाओ असंकिलिहाओ पं० सं० तेउलेसा पम्हलेसा सुकलेसा २१, एवं मणुस्ताणचि २२, वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं २३, वैमाणियाणं तओ लेस्साओ पं० [सं० तेउलेसा पहलेसा सुकलेसा २४ (सु० १३२ ) 'नेरइयाण' मित्यादिदण्डकसूत्रं कण्ठ्यं, नवरं 'नेरइयाणं तओ लेस्साओत्ति एतासामेव तिसृणां सद्भावादविशेपणो निर्देशः, असुरकुमाराणां तु चतसृणां भावात् सङ्किष्टा इति विशेषितं चतुर्थी हि तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, किन्तु Ja Eucation Inteirational For Parts Only ~ 232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना सूत्रतात्ती सूत्रांक [१३२] दीप अनुक्रम [१४० सा न संक्लिष्टेति, पृथिव्याविध्वसुरकुमारसूत्रार्थमतिदिशमाह-'एवं पुढवी'त्यादि, पृथिव्यव्यनस्पतिषु वेषोसादसम्भ-121 है वाचतुथीं तेजोलेश्याऽस्तीति सविशेषणो लेश्यानिर्देशोऽतिदिष्टः, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु तु देवानुत्पत्त्या तद- काध्ययने भावान्निविशेषण इत्यत एवाह-तओं इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पडपीति संक्लिष्टासंक्लिष्टविशेषणत- उद्देशः १ चतु:सूत्री, नवरं मनुष्यसूत्रे अतिदेशेनोके इति व्यन्तरसूत्रे संक्लिष्टा वाच्याः, अत एवोक्तं-वाणमंतरे'त्यादि, बै सू०१३३ & मानिकसूत्रं निर्विशेषणमेव, असंक्लिष्टस्यैव त्रयस्य सद्भावात् , व्यवच्छेद्याभावेन विशेषणायोगादिति । ज्योतिष्कसूत्रं नोक्तं, तेषां तेजोलेश्याया एवं भावेन त्रिस्थानकानवतारादिति ॥ अनन्तरं वैमानिकानां लेश्याद्वारेणेहावतार उक्तो, ज्योतिष्काणां तु तथा तदसम्भवाच्चलनधर्मेण तमाह तिदि ठाणेदि तारारूबे चलिजा त-विकुब्वमाणे वा परियारेमाणे वा ठाणाओ वा ठाणं संकममाणे तारारूवे चलेजा, लिहिं ठाणेहि देवे विष्णुतार करेजा तं०-विकुब्त्रमाणे वा परियारेमाणे वा तहारूवस समणस्स वा माहणरस वा इडिं जुत्ति जसं बलं वीरियं पुरिसकारपरकम उचईसेमाणे देवे विजुतारं करेजा। तिहिं ठाणेहिं देवे धणियसई करेगा त०विकुबमाणे, एवं जहा विजुतारं तहेव थणियसपि (सू० १३३) 'तारारूवेत्ति तारकमात्र 'चलेजा' स्वस्थानं त्यजेत् , वैक्रियं कुर्वद्वा परिचारयमाणं बा, मैथुनार्थं संरम्भयुक्तमि- ॥११५॥ त्यर्थः, स्थानाद्वैकस्मात् स्थानान्तरं सङ्क्रामत् गच्छदित्यर्थः, यथा धातकीखण्डादिमेरु परिहरेदिति, अथवा कचिन्मह-14 ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] कि देवादी चमरवद्वैक्रियादि कुर्वति सति तन्मार्गदानार्थ चलेदिति, उक्तं च-तत्थ णं जे से वाघाइए अंतरे से जहन्नेणं दोन्नि छावढे जोयणसए, उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साई ति, तत्र व्याघातिकमन्तरं महर्द्धिकदेवस्य मार्गदा& नांदिति ॥ अनन्तरं तारकदेवचलनक्रियाकारणान्युक्तान्यथ देवस्यैव विद्युत्स्तनितक्रिययोः कारणानि सूत्रद्वयेनाह-ति ही'त्यादि, कण्ठ्य, नवरं 'विजयारंति विद्युत्-तडित्सव क्रियत इति कारः-कार्य विद्युतो वा करणं कारः-क्रिया वि|द्युत्कारस्तं, विद्युतं कुर्यादित्यर्थः, क्रियकरणादीनि हि सदर्पस्य भवन्ति, तत्प्रवृत्तस्य च दोल्लासवतश्चलनविद्युद्गजनादीन्यपि भवन्तीति चलनविद्युत्कारादीनां वैकियादिकं कारणतयोक्तमिति, 'ऋविं' विमानपरिवारादिकां द्युति-शरीराभरणादीनां 'यश' प्रख्याति बलं शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकारश्च-अभिमानविशेषः स एव निष्पादितस्वविषयः पराक्रमश्चेति पुरुषकारपराक्रमं समाहारद्वन्द्वः, तदेतत्सर्वमुपदर्शयमान इति । तथा स्तनितशब्दो मेघगर्जितं 'एवं'मित्यादि वचनं 'परियारेमाणे वा तहारुवस्से'त्याद्यालापकसूचनार्थमिति ॥ विद्युत्कारस्तनितशब्दावुत्पातरूपावनन्तरमुक्तावथोत्पातरूपाण्येव लोकान्धकारादीनि पञ्चदशसूत्र्या-'तिहिं ठाणेही त्यादिकया प्राह तिहि ठाणेहिं लोगंधयारे सिया तं-अरिहंतेहि वोच्छिज्जमाणेहिं अरिहंतपन्नते धमे वोच्छिजमाणे पुन्यगते वोच्छि १तन व्यापातिकं यदिदमन्तरं तमपन्येन द्विषष्ठयाधिके । शते योजनाना उत्कृष्ट तु द्वादश सहस्त्रानि उत्पातोऽत्राभूतभावार्थोऽनिष्टताच, यतोऽत्राद्यानि हैत्रीणि मूत्राम्यनिष्टार्थसूचकान्यपराणि तु दशेष्ठायशंसीनि, संगता चोत्पत्तिवतुत्पातस्थाप्युदयतार्थता। २ मेपेक्षयेति संग्रहणीत्तिः, कादाविलामन्तरं तु लक्षयो जनान्यपि यमराद्यागम इस %E5%B55 दीप अनुक्रम [१४१] ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत सूत्रांक [१३४] ANAM वृत्तिः दीप अनुक्रम [१४२] जमाणे १, तिहिं ठाणेदि लोगुजोते सिया तं०-भरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेसु पस्चयमाणेमु अरहताणं णाणुप्पाय ३ स्थानमहिमासु २, विहिं ठाणेहि देवंधकारे सिया तं-अरहंतेहिं बोच्छिजमाणेहिं अरहतपन्न धम्मे वोच्छिजमाणे पुन्व काध्ययने गते वोच्छिजमाणे ३, तिहिं ठाणेहि देवुजोते सिया ०-अरहतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पन्वयमाणेहि अरहवाणं णा उद्देशः १ गुप्पायमहिमामु ४, तिहिं ठाणेहिं देवसंनिवाए सिया तं०-अरिहंतेहिं जायमाणेहिं अरिहंतेहिं पब्वयमाणेहिं अरिहंताणं सू०१३४ नाणुप्पायमहिमासु ५, एवं देवुकलिया ६ देवकहकहए ७ । तिहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोग हव्वमागच्छति तं०अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पन्वयमाणेहिं अरहताणं णाणुप्पायमहिमामु ८, एवं सामाणिया ९ वायत्तीसगा १० लोगपाला देवा ११ आगमहिसीनो देवीओ १२ परिसोववन्नगा देवा १३ अणियाहिवई देवा १४ आयरक्खा देवा १५ माणुसं लोग हलबमागच्छति। तिहिं ठाणेहिं देवा अब्भुद्विजा, तं०-अरहतेहिं जायमाणेहिं जाव तं चेष १, एवमासणाई चलेजा २, सीहणात करेजा ३, चेलुक्खेवं करेजा ४, तिहिं ठाणेहिं देवाणं चेयरुक्खा चलेजा तं०-अरहंतेहिं तं व ५ । तिहिं ठाणेहिं लोगंतिया देवा माणुसं लोग इध्वमागच्छिज्जा, तं०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पन्वयमाणेहिं अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु (सू० १३४) कण्ठ्या चेयं, नवरं, 'लोके क्षेत्रलोकेऽन्धकार-तमो लोकान्धकारं स्याद्-भवेत् द्रव्यतो लोकानुभावाभावतो वा प्रकाशकस्वभावज्ञानाभावादिति, तद्यथा-अर्हन्ति अशोकाद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुरासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहा-IC॥११६ लवालविरूढानवद्यवासनाजलाभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पा महाप्रातिहार्यरूपां पूजां निखिलप्रतिपस्थिप्रक्षयात्म ~ 235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१४२] सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यर्हन्तः, उक्तं प-"अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूयसकारं । सिद्धिगमणं च अरिहा | है अरिहंता तेण धुचंति ॥१॥"त्ति, तेषु 'व्यवच्छिद्यमानेषु' निर्वाणं गच्छत्सु, तथाऽर्हप्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने तीर्थ व्यवच्छेदकाले, तथा 'पूर्वाणि' दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु गतं-प्रविष्टं तदभ्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छ्रतं तत्पूर्वगतं तत्र व्यवच्छिद्यमाने, इह च राजमरणदेशनगरभङ्गादावपि दृश्यते दिशामन्धकारमात्रं रजस्वलतयेति, यत्पुनर्भगवत्स्वहंदादिषु निखिलभुवनजनानवद्यनयनसमानेषु विगच्छत्सु लोकान्धकारं भवति तत्किमद्भुतमिति ! । लोकोद्योतो लोकानुभावान्मनुष्यलोके देवागमाद्वा, 'नाणुप्पायमहिमासु' केवलज्ञानोत्पादे देवकृतमहोत्सवेष्विति, देवानां भवनादिष्वन्धकार देवान्धकार लोकानुभावादेवेति, लोकान्धकारे उक्तेऽपि यद्देवान्धकारमुक्तं, तत्सर्वत्रान्धकारसद्भावप्रतिपादनार्थमिति ।। एवं देवोद्योतोऽपि, देवसन्निपातो-भुवि तत्समवतारो, देवोत्कलिका-तत्समवायविशेषः, 'एच'मिति त्रिभिरेव स्थानः 'देवकहकहेचि देवकृतः प्रमोदकलकलस्त्रिभिरेवेति, 'हब्बन्ति शीघ्र 'सामाणिय'त्ति इन्द्रसमानर्द्धयः, 'तायत्तीस-11 गत्ति महत्तरकल्पाः पूज्याः 'लोकपाला' सोमादयो दिग्नियुक्तकाः 'अग्रमहिष्यः' प्रधानभार्याः 'परिषत् परिवारस्तत्रोपपन्नका ये ते तथा 'अनीकाधिपतयों' गजादिसैन्यप्रधाना ऐरावतादयः 'आत्मरक्षा' अङ्गरक्षा राज्ञामिवेति, 'माणुस्सं लोयं हब्बमागच्छन्तीति प्रतिपदं सम्बन्धनीयं १५ ॥ मनुष्यलोकागमने देवानां यानि कारणान्युक्तानि | तान्येव देवाभ्युत्थानादीनां कारणतया सूत्रपश्चकेनाह-तिहिं' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'अन्मुहिजत्ति सिंहासना १ चन्दननमनान्यई ति पूजासत्कारावईन्ति सिद्धिगमनं चाईन्ति देनाईन्च उच्यन्ते ॥१॥ 1364-1562 ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१४२] श्रीस्थाना-मदभ्युत्तिष्ठेयुरिति, 'आसनानि शकादीनां सिंहासनानि, तच्चलनं लोकानुभावादेवेति, सिंहनादचेलोरक्षेपी प्रमोदकायौं स्थानमसूत्र- |जनप्रतीती, चैत्यवृक्षा ये सुधर्मादिसभानां प्रतिद्वारं पुरतो मुखमण्डपप्रेक्षामण्डपचैत्यस्तूपचैत्यवृक्षमहाध्वजादिक्रमतःकाध्ययने वृत्तिः भूयन्ते, लोकान्तिकानां प्रधानतरत्वेन भेदेन मनुष्यक्षेत्रागमनकारणान्याह-'तिहीं'त्यादि कण्ठ, नवरं लोकस्य-व-18 उद्देशः१ ॥११७॥ | मलोकस्यान्ता-समीपं कृष्णराजीलक्षणं क्षेत्रं निवासो येषां ते लोकान्ते वा-औदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तर-1 सू०१३५ |भवे मुक्तिगमनादिति लोकान्तिका:-सारस्वतादयोऽष्टधा वक्ष्यमाणरूपा इति ॥ अथ किमर्थं भदन्त! ते इहागच्छन्तीति उच्यते, आहेतां धर्माचार्यतया महोपकारित्वात् पूजाद्यर्धम् , अशक्यप्रत्युपकाराश्च भगवन्तो धम्माचार्यो, यतः तिण्हं दुष्पडियार समणाउसो! तं०-अम्मापिठणो १ भट्टिस्स २ धम्मायरियस्स ३, संपातोऽवि य णं केइ पुरिसे अम्मापियरं सबपागसहस्सपागेदि तिहिं अभंगेता सुरभिणा गंधट्टएणं उबट्टित्ता तिहिं उदगेहिं मजाविता सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता मणुन थालीपागसुखं अट्ठारसर्वजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावजीवं पिडिवडेंसियाए परिवहेजा, तेणापि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियारं भवइ, अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवइत्ता पन्नवित्ता परूपित्ता ठावित्ता भवति, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुप्पडित्तारं भवति समणाउसो! १, केइ महाचे दरिदं समुक्कसेज्जा, तए णं से दरिदे समुकिडे समाणे पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमितिसमन्नागते यावि विहरेजा, तए णं से महचे अन्नया कयाइ दरिदीहूए समाणे वरस परिहस्स अंतिए हबमागच्छेज्जा, तए णं से दरिदे तस्स भहिस्स सव्यस्समविदलयमाणे ॥११७॥ तेणावि तस्स दुष्पडियार भवति, अहे णं से तं माहि केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवइत्ता पन्नवदत्ता परूवइत्ता ठावदत्ता भवति, X ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: F5 प्रत सूत्रांक [१३५] दीप अनुक्रम [१४३] तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पलियारं भवति २, केति तहारूवस्स समणस्स वा माइणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु देवलोएम देवताए उववन्ने, तए णं से देवे तं धम्मायरियं दुभिक्खातो वा देसातो सुभिक्सं देसं साहरेजा, कंताराओ वा णिकतार करेजा, दीहकालिएणं वा रोगातकणं अभिभूतं समाणं विमोएला, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति, अधे णं से तं धम्मायरियं केलिपन्नत्ताओ धम्माओ भट्ठ समाणं भुगोवि केवलिपन्नत्ते धम्मे आषवतिचा जाव ठावतित्ता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियरस सुप्पडियारं भवति ३ (सू० १३५) 'तिण्ह' त्रयाणां दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रतिक्रियते-कृतोपकारेण पुंसा प्रत्युपक्रियत इति खलप्रत्यये सति दुष्पतिकरं प्रत्युपक मशक्यमितियावत्, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! समस्तनिर्देशो वा हे श्रमणायुष्मन्निति भगवता शिष्यः सम्बोधितः, अम्बया-मात्रा सह पिता-जनकः अम्बापिता तस्येत्येक स्थान, जनकत्वेनैकत्वविवक्षणात्, तथा 'भहिस्स'त्ति भर्तुः|पोषकस्य स्वामिन इत्यर्थ इति द्वितीय, धर्मदाता आचार्यों धर्माचार्यः तस्येति तृतीयम् , आह च-"दुष्प्रतिकारी मातापितरी स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च सुदुष्करतरप्रतीकारः॥१॥" इति, तत्र जनकदुष्प्रतिकार्यतामाह-संपाओ'त्ति प्रात:-प्रभातं तेन समं सम्प्रातः सम्पातरपि च-प्रभातसमकालमपि च, यदैव प्रातः संवृत्तं | तदेवेत्यर्थः, अनेन कार्यान्तराव्यग्रतां दर्शयति, संशब्दस्यातिशयार्थत्वाद्वा अतिप्रभाते, प्रतिशब्दार्थत्वाद्वाऽस्य प्रतिप्रभातमित्यर्थः, 'कश्चिदिति कुलीन एव, न तु सर्वोऽपि 'पुरुषों मानवो देवतिरश्चोरेवंविधव्यतिकरासम्भवात्, शतं पा ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ३ स्थानकाध्ययने प्रत सूत्रांक [१३५] ॥११८॥ सू०१३५ दीप अनुक्रम [१४३] श्रीस्थाना- कानाम् ओषधिक्काथानां पाके यस्य १ ओषधिशतेन वा सह पच्यते यत् २ शतकृत्वो वा पाको यस्य ३ शतेन वा असूत्र- रूपकाणां मूल्यतः पच्यते ४ यत्तच्छतपाकम्, एवं सहस्रपाकमपि, ताभ्यां तैलाभ्याम्, 'अब्भंगेत्ता' अभ्यङ्गं कृत्वा वृत्तिः 'गन्धद्दएणं'ति गन्धाट्टकेन-गन्धद्रव्यक्षोदेन 'उद्वत्यै उद्वलनं कृत्वा त्रिभिरुदकैः-गन्धोदकोष्णोदकशीतोदकः 'मजयित्वा' स्ना(न)पयित्वा मनोज्ञं-कलमौदनादि 'स्थाली पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा, अन्यत्र हि पक्कमपक्कं वा न तथाविधं स्यादितीदं विशेषणमिति 'शुद्ध' भक्तदोषवर्जितं स्थालीपाकं च तच्छुद्धं च स्थालीपाकेन वा शुद्धमिति विग्रहः, अष्टादशभिलोकप्रतीतैर्व्यञ्जनैः-झालनकैस्तक्रादिभिर्वा आकुलं-सङ्कीर्ण यत्तत्तथा, अथवाऽष्टादशभेदं च तद् व्यञ्जनाकुल चेति, अत्र भेदपदलोपेन समासः, भोजनं भोजयित्वा, एते चाष्टादश भेदा:-'सूओ १ दणो २ जवनं ३ तिन्नि य में*साई ६ गोरसो ७ जूसो८ । भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला ११ हरियगं १२ सागो १३ ॥१॥ होइ रसालू य तहा १४ पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ । अहारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिंडो॥२॥ मांसत्रयं जलजादिसत्कं जूषो-मुद्गतन्तुलजीरककटुभाण्डादिरसः, भक्ष्याणि-खण्डखाद्यादीनि गुललावणिका-गुडपर्पटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा मूलफलान्येक एव पदं, हरितक-जीरकादि शाको-वस्तुलादिभर्जिका, रसालू-मजिका, तल्लक्ष| सूप ओवनो यवान्नं त्रीणि च मांसानि गोरसो मुनादिरसो । भक्ष्याणि गुलपटिका मूळफलानि जीरकादि वत्धुलादिः ॥१॥ भवति मजिका च तथा मुरादि कर्कटिजलं सौवीरादि चैव । अष्टादशः शाको निरूपइतो लीमिकः पिण्डा ॥१॥ ACCACADA W ॥११८ anditurary.com भोजनस्य अष्टादश भेदा: ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 6056-4256* प्रत सूत्रांक 5 [१३५] णमिदम्-दो घयपला महुपलं दहिस्स अद्धादयं मिरिय वीसा । दस खण्डगुलपलाई एस रसालू णिवइजोग्गो ॥१॥'ति, पानं-सुरादि, पानीयं-जलं, पानक-द्राक्षापानकादि, शाक:-तक्रसिद्ध इति, यावान् जीवो यावज्जीवं-यावयाणधारण पृष्ठेस्कन्धे अवतंस इवावतंसः-शेखरस्तस्य करणमवतंसिका पृष्ट्यवतंसिका तया पृष्ठयवतंसिक्या परिवहेत् , पृष्ठ्यारोपितमित्यर्थः, तेनापि परिवाहकेन परिवहनेन वा तस्य-अम्बापितुर्दुष्प्रतीकारम् , अशक्यः प्रतीकार इत्यर्थः, अनुभूतोपकारतया तस्य प्रत्युपकारकारित्वाद्, आह च-"कर्यज्वयारो जो होइ सजणो होइ को गुणो तस्स ! । उवयारबाहिरा जे हवंति ते 5 सुंदरा सुयणा ॥१॥" इति, 'अहे णं से'त्ति अथ चेत् णमित्यलङ्कारे स पुरुषस्तम्-अम्बापितरं धर्मे 'स्थापयिता' स्थापनशीलो भवति, अनुष्ठानतः स्थापयतीत्यर्थः, किं कृत्वेत्याह-आघवइत्ता' धर्ममाख्याय 'प्रज्ञाप्य' बोधयित्वा 'प्ररूप्य' प्रभेदत इति, अथवा आख्याय सामान्यतो यथा कार्यो धर्मः, प्रज्ञाप्य विशेषतो यथाऽसावहिंसादिलक्षणः, प्ररूप्य प्रभेदतो यथा (अष्टादश) शीलाङ्गसहस्ररूप इति, शीलार्थतन्नन्तानि वैतानीति, 'तेणामेव'त्ति ततस्तेनैव धर्मस्थापनेनैव * न परिवहनेन अथवा तेनैव धर्मस्थापकपुरुषेण न परिवाहिना 'तस्य' प्रत्युपकरणीयस्याम्बापितुः 'सुप्पडियाति सुखेन प्रतिक्रियते-प्रत्युपक्रियत इति सुप्रतिकारं, भावसाधनोऽयं, तद्भवति-प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः, धर्मस्थापनस्य महोपकारत्वाद् , आह च-"संमत्तदायगाणं दुष्पडियारं भवेसु बहुएमुं। सव्वगुणमेलियाहिवि उपगारसहस्सकोडीहिं ॥१॥"IN १। एतपले मधुपर्क दनोभांडक मरीचा विशतिः । दश गुस्सयोः पलानि एष रसाछपतियोग्यः ॥ १॥ १कतोपकारो यो भवति सजनो भवति को | गुणलाम ? । उपकारवाह्या ये भवन्ति ते सुन्दराः सजनाः ॥१॥ ३ सम्यत पदायकानां दुष्प्रतिकारं भवेषु बहुचपि । सर्वगुणनीलिताभिरपि उपकारसहखकोटीभिः ॥१॥ दीप अनुक्रम [१४३] 45645 SCE Himaturary.com ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१३५] दीप अनुक्रम [१४३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ११९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [१], मूलं [१३५] [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र इति १ । अथ भर्त्तुः दुष्प्रतिकार्यतामाह — 'केह महचे' त्ति कश्चित् कोऽपि महती ऐश्वर्यलक्षणाऽर्चा -ज्वाला पूजा वा यस्य | अथवा महांश्चासावर्थपतितया अर्घ्यश्च पूज्य इति महाच्चों महाच्यों वा माहत्यं महत्त्वं तद्योगान्माहत्यो वा ईश्वर इ- ४ त्यर्थः, दरिद्रम्-अनीश्वरं कश्चन पुरुषमतिदुःस्थं 'समुत्कर्षयेत्' धनदानादिनोत्कृष्टं कुर्यात्, 'ततः' समुत्कर्षणानन्तरं स दरिद्रः समुत्कृष्टो धनादिभिः 'समाणे'त्ति सन् 'पच्छ'त्ति पश्चात्काले 'पुरं च णं'ति पूर्वकाले च समुत्कर्षणकाल एवेत्यर्थः अथवा पश्चाद्भर्त्तुरसमक्षं पुरश्च भर्तुः समक्षं च विपुलया 'भोगसमित्या' भोगसमुदयेन 'समन्वागतो' युक्तो यः स तथा स चापि 'विहरेत्' वर्त्तत, ततोऽनन्तरं 'स'महाच भर्त्ता 'अन्यदा' लाभान्तरायोदये 'कदाचिद्' तथा| विधायामसह्यायामापदि दरिद्रीभूतः सन् 'तस्य' पूर्वसमुत्कृष्टस्य 'अन्तिके' पार्श्वे 'हवं'ति अनन्यत्राणतया शीघ्रं त्राणस्य तत्र शक्यत्वाभिसन्धेः आगच्छेत् तदा स पूर्वावस्थया दरिद्रः पूर्वोपकारिणे भर्त्रे 'सव्वस्तं'ति सर्व्वं च तत् स्वं च- द्रव्यं चेति सर्वस्वं तदपि, आस्तामल्पमिति, 'दलयमाणे त्ति ददत् न कृतप्रत्युपकारो भवेदिति शेषः, अतस्तेनापि - सर्वस्वदानेन सर्वस्वदाय केनापि वा दुष्प्रतिकारमेवेति २ । अथ धर्माचार्यदुष्प्रतिकार्यतामाह-- 'केई' त्यादि, 'आयरिय'ति पापकर्मभ्य आराद्यातमित्यार्यमत एव धार्मिकमत एव सुवचनं श्रुत्वा श्रोत्रेण 'निशम्य' मनसाऽवधार्य अन्यतरेषु देवलोकेष्वन्यतरदेवानां मध्ये इत्यर्थो देवत्वेनोत्पन्न इति, दुर्लभा भिक्षा यस्मिन् देशे स दुर्भिक्षस्तस्मात् 'संहरेत्' नयेत, कान्तारम् अरण्यं निर्गतः कान्तारान्निष्कान्तारस्तन्निष्क्रमितारं वा, दीर्घः कालो विद्यते यस्य स दीर्घकालिकस्तेन रोग:कालसहः कुष्ठादिरातङ्कः-कृच्छ्रजीवितकारी सद्योघातीत्यर्थः शूलादिरनयोर्द्वन्द्वंकर रोगातङ्कं तेनेति, धर्मस्थापनेन तु Educaty Internation For Penal Use Only ~ 241 ~ र स्थानकाध्ययने उद्देशः १ सू० १३५ ॥ ११९ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५] दीप अनुक्रम [१४३] भवति कृतोपकारो, यदाह-"जो जेण जंमि ठाणम्मि ठाविओ दसणे व चरणे वा । सो त तओ चुर्य तंमि चेव काउं भवे निरिणो ॥१॥" त्ति, शेष सुगमरवान्न सृष्टमिति । धर्मस्थापनेन चास्य भवच्छेदलक्षणः प्रत्युपकारः कृतः स्यादिति धर्मस्य स्थानत्रयावतारणेन भवच्छेदकारणतामाह तिहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणादीय अणवदग्गं दीमद्धं चाउरत संसारकंतारं वीईवएजा, तं०-अणिदाणयाए दिहिसंपनियार जोगवाहियाए (सू० १३६) तिचिहा ओसप्पिणी पं० २०-उकोसा मज्झिमा जहन्ना १, एवं छपि समाओ भाणियन्याओ, जाव दूसमदूसमा ७, तिविहा उस्सप्पिणी पं० त०-उनोसा मज्झिमा जहन्ना ८ एवं छप्पि समाओ भाणियब्बामओ, जाव मुसगसुसमा १४ (सू०१३७) विहिं ठाणेहिं अच्छिन्ने पोग्गले चलेजा संक-आहारिजमाणे वा पोमाले चलेजा विकुब्वमाणे वा पोग्गले चलेजा ठाणातो वा ठाणं संकामिजमाणे पोग्गले चलेजा, तिविहे उषधी पं० तं०-कम्मोवही सरीरोवही बाहिरभंडमत्तोवही, एवं असुरकुमाराणं भाणियन्वं, एवं एगिदिवनेरहयवज जाव वेमाणियाणं १, महवा तिविहे उवधी पं० सं०-सञ्चित्ते अचित्ते मीसए, एवं रहाणं निरंतरं जाव बेमाणियाण, तिविहे परिगहे पं००-कम्मपरिगहे सरीरपरिगहे बाहिरभंडमतपरिग्गहे, एवं असुरकुमाराणं, एवं एगिदियनेरतियवज जाव वेमाणियाणं ३, अहवा तिविद परिगहे प० त०-सचित्ते अचित्ते मीसए, एवं नेरतियाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ४ (सू०॥ १३८॥) यो येन बसिन् स्थाने स्थापितो दर्शने वा चरणे वा । स तं ततथ्युतं तस्सिमेन कृत्वा भवेभिर्षणः ॥१॥ SAREauratoninternational Janataram.org ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [१३८] ॥१२०॥ 'तिही'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं अनादिकम्-आदिरहितमनवदग्रम्-अनन्तं दीर्घाध्वं-दीर्घमार्ग चत्वारोऽन्ता-विभागा| स्थाननरकगत्यादयो यस्य तच्चतुरन्तं, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , संसार एवं कान्तारम्-अरण्यं संसारकान्तारं तद् 'व्य-II काध्ययने तिव्रजेत् व्यतिक्रामेदिति, अनादिकवादीनि विशेषणानि कान्तारपक्षेऽपि विवक्षया योजनीयानि, तथाहि-अना-81 उद्देशः१ घनन्तमरण्यमतिमहत्त्वाच्चतुरन्तं दिग्भेदादिति, निदानं-भोगद्धिप्रार्थनास्वभावमार्तध्यानं तद्विवर्जितता अनिदानता सू०१३८ है तया 'दृष्टिसम्पन्नता' सम्यग्दृष्टिता तया 'योगवाहिता' श्रुतोपधानकारित्वं समाधिस्थायिता वा तयेति । भवव्यतिव्रजनं च कालविशेष एव स्यादिति कालविशेषनिरूपणायाह-'तिविहे'त्यादिसूत्राणि चतुर्दश कण्ठ्यानि, नवरम् 81 अवसर्पिणीप्रथमेऽरके उत्कृष्टा, चतुर्यु मध्यमा, पश्चिमे जघन्या, एवं सुषमसुषमादिषु प्रत्येकं त्रयं त्रयं कल्पनीयम्,८ तथा उत्सपिण्याः दुष्पमदुष्पमादि सझेदानां चोक्तविपर्ययेणोत्कृष्टत्वं प्राग्वद्योज्यमिति ॥ काललक्षणा अचेतनद्रव्यधा* अनन्तरमुक्तास्तत्साधात्पुद्गलधान्निरूपयन् सूत्राणि पश चतुरश्च दण्डकानाह-तिहीं'त्यादि, छिन्नः खङ्गादिना पुद्गलः समुदायाच्चलत्येवेत्यत आह-'अच्छिन्नपुद्गल' इति, 'आहारेजमाणे'त्ति आहारतया जीवेन गृह्यमाणः स्वस्थानाचलति, जीवेनाकर्षणात्, एवं वैक्रियमाणो वैक्रियकरणवशवर्तितयेति, स्थानात्स्थानान्तरं सङ्कम्यमाणो हस्ताविनेति । उपधीयते-पोष्यते जीवोऽनेनेत्युपधिः, कम्मैवोपधिः कम्मोपधिः, एवं शरीरोपधिः, वाय:शरीरबाहिर्वती भाण्डानि च-भाजनानि मृन्मयानि मात्राणि च-मात्रायुक्तानि कांस्यादिभाजनानि भाजनोपकर-८॥१२०॥ णमित्यर्थः, भाण्डमात्राणि तान्येवोपधिः भाण्डमानोपधिः, अथवा भाण्ड-वस्त्राभरणादि तदेव मात्रा-परिच्छदः[च्छेदः) दीप अनुक्रम [१४६] L ogiramera ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -5 प्रत सूत्रांक [१३८] सैवोपधिरिति, ततो बाह्यशब्दस्य कर्मधारय इति, चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायामसुरादीनां त्रयोऽपि वाच्याः, नारकैके-18 दान्द्रियवर्जाः, तेषामुपकरणस्याभावाद्, द्वीन्द्रियादीनां तूपकरणं दृश्यते एव केपाश्चिदित्यत एवाह-एव'मित्यादि, 'अ-1 हवेत्यादि, सचित्तोपधिर्यथा शैलं भाजनम्, अचित्तो-वस्त्रादिः, मिश्रः-परिणतप्राय शैलभाजनमेवेति, दण्डकचिन्ता सुगमा, नवरं सचित्तोपधि रकाणां शरीरं अचेतनः-उसत्तिस्थानं मिश्रः-शरीरमेवोच्छ्रासादिपुद्गलयुक्तं तेषां सचेतहै नाचेतनत्वेन मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति, एवमेव शेषाणामप्ययमूह्य इति । 'तिविहे परिग्गहें'इत्यादि सूत्राणि उपधिवन्ने यानि, नवरं परिगृह्यते-स्वीक्रियते इति परिग्रहो-मूर्छाविषय इति, इह च एषामयमिति व्यपदेशभागेव ग्राह्या, सच नारकैकेन्द्रियाणां कादिरेव सम्भवति, न भाण्डादिरिति । पुद्गलधर्माणां त्रित्वं निरूप्य जीवधर्माणां 'तिविहे'इत्यादि-18 भित्रिभिः सदण्डकैः सूत्रैस्तदाह तिविहे पणिहाणे पं० २०-मणपणिहाणे बयपणिहाणे कायपणिहाणे, एवं पंचिदियाणं जाव वेमाणियाणं, तिविहे सुप्पणिहाणे पं० २०-मणमुप्पणिहाणे धयसुप्पणिहाणे कायसुष्पणिहाणे, संजयमणुस्साणं तिविद सुष्पणिहाणे पन्नत्ते तं०मणमुप्पणिदाणे बदसुप्पणिहाणे कायमुष्पणिहाणे, तिविहे दुष्पणिहाणे पं० सं०-मणदुष्पणिहाणे वइदुप्पणिहाणे कायदुष्पणिहाणे, एवं पंचिंदियाणं जाव वेमाणियाणं (सू०१३९) तिविहा जोणी पं० २०-सीवा उसिणा सीओसिणा, एवं पगिदियाणं विगलिबियाणं तेउफाइयवजाणं संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं समुच्छिममणुस्साण य । तिनिहा जोणी पं००-सचिचा अचिचा मीसिया, एवं एगिदियाणं विगलिंदियार्ण समुच्छिमपंचिदियतिरिक्सजोणियाण सं दीप अनुक्रम [१४६] 5* REAC 5 3 * ~244~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [१४०] ॥१२१॥ दीप अनुक्रम [१४८] मुच्छिममणुस्साण य । तिविधा जोणी पं० २०-संवुष्टा वियडा संवुडवियडा । सिविहा जोणी पं० सं०-कुम्मुन्नया ३ स्थानसंखावता वंसीपत्तिया, कुम्मुन्नवा णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं, कुमुन्नयाते थे जोणीए तिचिहा उत्तमपुरिसा गम्भं वक- काध्ययने मंति, तं०-अरईता चकवडी बलदेववासुदेवा, संखावत्ता जोणी इत्थीरयणस, संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जीवा उद्देशः१ व पोग्गला य वमति विजकमति चयंति उववजति नो चेव णं निष्फज्जति, वंसीपत्तिता ण जोणी पिद्दजणस, वंसीप सू०१४० त्तिताए णं जोणीए वहवे पिहजणे गर्भ वकर्मति (मू० १४०) कठ्यानि चैतानि, नवरं प्रणिहितिः प्रणिधानम्-एकाग्रता, तच्च मनाप्रभृतिसम्बन्धिभेदानिधेति, तत्र मनसः प्रणिधानं| | मनःप्रणिधानमेवमितरे, तच चतुर्विंशतिदण्डके सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां भवति, तदन्येषां तु नास्ति, योगानां सामस्त्येनाभावादित्यत एवोक्तम्-'एवं पञ्चेदियेत्यादीति । प्रणिधानं हि शुभाशुभभेदमथ शुभमाह-'तिविहें इत्यादि सामान्यसूत्रं १, विशेषमाश्रित्य तु चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां मनुष्याणामेव तत्रापि संयतानामेवेदं भवति, चारित्रपरिणामरूपत्वादस्येति, अत एवाह-संजयेत्यादि २, (दुष्टं) प्रणिधानं दुष्पणिधानम्-अशुभमनःप्रवृत्त्यादिरूपं सामान्यप्रणिधानवत् व्याख्येयमिति ३॥ जीवपर्यायाधिकारात् 'तिविहेत्यादिना गम्भं वक्कमंती'त्येतदन्तेन ग्रन्धेन योनिस्वरूपमाह, तत्र युवन्ति-तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकादिशरीरेण मिनीभवन्त्यस्यामिति योनिः-जीवस्योत्पत्तिस्थानं शीतादिस्पर्शवदिति, 'एवंति यथा ॥१२१ ।। | सामान्यतस्त्रिविधा तथा चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां तेजोवर्जाना, तेजसामुष्णयोनित्वात् , पश्चे-15) ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४०] दीप अनुक्रम [१४८] न्द्रियतिर्यपदे मनुष्यपदे च सम्मूर्छनजानां त्रिविधा, शेषाणां त्वन्यथेति, यत आह-"सीओसिणजोणीया सब्बे देवा य गन्भवती । उसिणा य तेउकाए दुह णिरए तिविह सेसाणं ॥१॥” इति ॥ अन्यथा योनित्रैविध्यमाह-'तिविहे त्यादि कण्ठ्यं, नवरं दण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियादीनां सचित्तादिखिविधा योनिरन्येषां स्वन्यथा, यत उक्तम्-"अचित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेब देवाणं । मीसा य गम्भवसही तिविहा जोणी य सेसाणं ॥१॥” इति, पुनरन्यथा तामाह-'तिविहे त्यादि, संवृता-सङ्कटा घटिकालयवत् विवृता-विपरीता संवृतविवृता तूभयरूपेति, एतद्विभागोऽयं -"एगिंदियनेरइया संवुडजोणी हवंति देवा य। विगलिंदियाण विगडा संवुडवियडा य गम्भमि ॥शात्ति' 'कुम्मुन्नये-18 त्यादि कण्ठ्यं, नवरं कूर्मः-कच्छपः तद्वदुन्नता कूर्मोन्नता, शङ्खस्येवावों यस्यां सा शङ्खावा, वंश्या-वंशजाल्याः कापत्रकमिव या सा वंशीपत्रिका, 'गम्भं वकमंति'त्ति गर्ने उत्पद्यन्ते, बलदेववासुदेवानां सहचरत्वेनैकत्वविवक्षयोत्तमपुरु पत्रैविध्यमिति, 'बहबें'इत्यादि, योनित्वाज्जीवाः पुद्गलाश्च तद्रहणप्रायोग्याः, किं?-व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते, 'व्यवक्रामन्ति' विनश्यन्ति, एतदेवव्याख्याति-विउक्कमतीति, कोऽर्थः-च्यवन्ते, 'वकमंति'त्ति, किमुक्तं भवति ?-उत्पद्यन्ते इति, 'पिहजणस्स'त्ति पृथग्जनस्य-सामान्यजनस्योत्पत्तिकारणं भवतीति । अनन्तरं योनितो मनुष्याः प्ररूपिताः, अधुना मनुष्यस्य सधर्मणो बादरवनस्पतिकायिकान् प्ररूपयन्नाह शीतोष्णयोनिकाः सर्वे देवाश्च गर्भध्युत्क्रान्तिकाः। उणा व तेजस्काये द्विधा नरके त्रिविधा शेषागाम् ॥१॥ २ अचित्तव योनि रयिकाणां तथैव देवानाम् । मिश्रा च गर्भयसतीनां त्रिविधा योनिश्व शेषाणाम् ॥ १ ॥ ३ एकेन्द्रियरयिकाः संपवयोनयो भवन्ति देवाय । विकलेन्द्रियाणां विवृता संवृत विवृता च गर्ने ॥१॥ 2-5-242 ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः१ सू०.१४२ दीप अनुक्रम [१५०] श्रीस्थाना-16 तिविहा सणवणस्सइकाइया पं० सं०-संखेजजीविता असंखेशजीविता अर्णतजीविया (सू० १४१) जंबुद्दीवे दीवे भा रहे वासे तो तित्था पं० २०-मागहे वरदामे पभासे, एवं एरवएपि, जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चवृत्तिः कावट्टिविजये ततो तित्था पं० सं०-मागहे वरदामे पभासे ३, एवं धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेवि ६, पचत्यिमद्धेवि ९, पुक्सरवर दीवद्धपुरच्छिमद्धेवि १२ पञ्चस्थिमद्धेवि १५ (सू० १४२) ॥१२२॥ 'तिविहे'त्यादि, तृणवनस्पतयो बादरा इत्यर्थः, सङ्ख्यातजीविकाः-सङ्ख्यातजीवाः, यथा नालिकाबद्धकुसुमानि जात्यादीनीत्यर्थः, असझ्यातजीविका यथा निम्बारादीनां मूलकन्दस्कन्धत्वक्छाखाप्रबालाः, अनन्तजीविका:-पनकादय इति, इह प्रज्ञापनासूत्राण्यपीरथं-"जे केऽवि नालियावद्धा, पुष्फा संखेजजीविया । णीहुआ अणंतजीवा, जे यावन्ने तहा-टू |विहा ॥१॥पउमुष्पलनलिणाणं, सुभगसोगंधियाण य । अरविंदकोंकणाणं, सयवत्तसहस्सवत्ताणं ॥२॥ विटं बाहि-। ४ारपत्ता य कन्निया चेव एगजीवस्स । अभितरगा पत्ता पत्तेयं केसरं मिजा ॥३॥” इति । तथा-लिंबवर्जबुकोसंब६ सालअंकुलपीलुसलूया । सलइमोयइमाल[मोत्थाय बउलपलासे करंजे य॥४॥" इत्यादि, “एएर्सि मूलावि असंखे । १ यानि कान्यपि नालिकाबद्धानि पुष्पाणि संख्येयजीविका नि । निरनन्त त्रीवा ये चाप्यन्ये तथाविधाः ॥१॥ पोखलनलिनाना बुभयसौगन्धिकयोध। भरविन्दकोकनदयोः शतपत्रसहलपत्रयोः ॥२॥ वृतं बागपत्राणि काका एकजीवस्य । अभ्यन्तराणि पत्राणि प्रत्येक केशराणि मिनाथ ॥ निम्बामजम्बूकोशाम्यशालाकोपीलशालकाः । सहकीमोचकीमाछका पकुलपलाकरशाच ॥ ४॥ एतेषां मूलान्यप्यसंम्वेय मीविकानि कन्दान्यपि स्कन्धा अपि त्वमपि आचाला अपि प्रवासा मपि, पत्राणि प्रत्येकजीबिकानि पुष्पाण्यनेकगीविकानि फलान्येकास्थिकानि. CROS ॥१२२।। ~ 247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१५०] जजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालावि, पत्ता पत्तेय जीविया, पुष्फा अणेगजीविया, फला एगडिया" इति ॥ अनन्तरं वनस्पतय उक्तास्ते च जलाश्रया बहवो भवन्तीतिसम्बन्धाजलाश्रयाणां तीर्धानां निरूपणायाह-जंबुद्दीवर इत्यादि पञ्चदशसूत्री साक्षादतिदेशतश्च, सुगमा च, केवलं तीर्थानि-चक्रवर्तिनः समुद्रशीतादिमहानद्यवतारलक्षणानि 8 तन्नामकदेवनिवासभूतानि, तत्र भरतैरावतयोस्तानि पूर्वदक्षिणापरसमुद्रेषु क्रमेणेति, विजयेषु तु शीताशीतोदामहानद्योः | पूर्वादिक्रमेणवेति ॥ जम्बूद्वीपादौ मनुष्यक्षेत्रे सन्ति तीर्थानि प्ररूपितानि, अधुना तत्रैव सन्तं कालं त्रिस्थानोपयोगिनं | सूत्रपञ्चदशकेन साक्षादतिदेशाभ्यां निरूपयन्नाह जंबुद्दीचे २ भरहेरखएमु बासेसु तीताए उस्सप्पिणीते सुसमाए समाए तिन्नि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुस्था १, एवं ओसप्पिणीए नवरं पन्नत्ते २, आगमिस्साते उस्सप्पिणीए भविस्सति ३, एवं धायइसंडे पुरच्छिमद्धे पञ्चस्थिमद्धेवि ९, एवं पुक्खरखरदीवतपुरछिमद्धे पचस्थिमद्धेवि कालो भाणियब्यो १५। जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु सीताते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए मणुया तिण्णि गाउयाई उद्धं उच्चत्तेणं तिनि पलिओवमाई परमाणु पालइत्था १, एवं इमीसे ओसप्पिगीते २ आगमिस्साए पस्सप्पिणीए ३, अंबुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरासु मणुया तिष्णि गाउभाई उलं उचचेर्ण पं०, तिनि पलिओवमाई परमाउँ पाठयंति ४, एवं जाव पुक्खरखरदीवद्धपञ्चत्थिमद्धे २०। जंबुद्दीवे दीये भरहेरखएमु वासेमु एगमेगाते ओसप्पिणिस्सप्पिणीए तो बसाओ उपजिसु वा उप्पचंति वा उप्पजिस्संति वा ०-अरहंतवसे चकबहिवंसे दसारवंसे २१, एवं जाव पुक्खरवरदीवद्धपञ्चस्थिमद्धे २५। जंबूदीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु एगमेगाए ओसप्पिणीउस्सण्णिीए तभी 604 ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानान जासूत्र प्रत CAK NCR |३ स्थानकाध्ययने उद्देशः१ सू०१४६ सूत्रांक [१४३] ॥१२३ ॥ दीप अनुक्रम [१५१] 5555555 उत्तमपुरिसा उपजिसु वा उप्पजति वा उप्पज्जिस्संति वा तं०-अरहता चकवट्टी बलदेववासुदेवा २६, एवं जाव पुक्खरवरदीवद्धपञ्चत्थिमद्धे ३०, तओ अहाउयं पालयति तं०-अरहंता चकवट्टी बलदेववासुदेवा ३१, तओ मझिममाउयं पालयंति, तं०-अरहता चकवट्टी बलदेववासुदेवा ३२ (सू० १४३). 'जबूद्दीवे इत्यादि सुवोध, किंतु, 'पन्नत्ते' इति अवसर्पिणीकालस्य वर्तमानत्वेनातीतोस्सर्पिणीवत् होत्थ'त्ति न व्यपदेशः। कार्यः अपि तु पन्नत्तेत्ति कार्य इत्यर्थः, 'जंवूद्दीवेत्यादिना वासुदेवे'त्येतदन्तेन ग्रन्थेन कालधर्मानेवाह-सुगमश्चार्य, किन्तु 'अहाज्य पालयंति'त्ति निरुपक्रमायुष्कत्वात् , मध्यमायुः पालयन्ति वृद्धत्वाभावात् । आयुष्काधिकारादिदं | सूत्रद्वयमाह थायरतेउकाइयाणं उकोसेणं तिन्नि राईदियाई ठिती पन्नत्ता । वायरवाउकाइयाणं उत्कोसेणं तिनि वाससहस्साई ठिती पं० । (सू० १४४) । अह भंते ! सालीणं वीहीर्ण गोधूमाणं जवाणं जवजवाणं एतेसि णं धन्नाणं कोहाउत्ताणं पाहाउत्तार्ण मंचाउत्तार्ण मालाउत्तार्ण ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुखियाण पिहिताणं केवइयं कालं जोणी संचिति ?, गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं तिणि संवच्छराई, तेण परं जोणी पमिलायति, तेण पर जोणी पविद्धंसति, तेण परं जोणी विद्धसति, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणीवोच्छेदो पं० (सू०१४५)। दोचाए णं सकरपभाए पुढवीए णेरइयाणं उकोसेणं तिणि सागरोबमाई ठिती पं० १, तच्चाए णं वालुयप्पभाए पुढवीए जहन्नेणं णेरड्याण तिन्नि सागरोबमाई ठिती पण्णता २(सू० १४६) 45555 ॥१२३ ~249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [१५४] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education International - स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] भंते' शब्दस्य विभिन्न व्याख्या: स्पष्टम् ॥ स्थित्यधिकारादेवेदमपरमाह- 'अहे' त्यादि, 'अह भंते'त्ति 'अर्थ' परिप्रश्नार्थः, 'भदन्ते 'ति भदन्तः - कल्याणस्य सुखस्य च हेतुत्वात् कल्याणः सुखश्चेति, आह च-" - "अदिकलाणसुहत्थो धाऊ तस्स य मंदतसदोऽयं । स भदंतो कलाणं सुहो य कलं किलारोग्गं ॥ १ ॥ इत्यादि, अथवा भजते-सेवते सिद्धान् सिद्धिमार्ग वा अथवा भज्यते-सेव्यते शिवा [सिद्ध्य]थिंभिरिति भजन्तः, आह च-' -"अहंवा भज सेवाए तस्स भयंतोत्ति सेवए जम्हा । सिवगइणो सिवमग्गं | सेन्वो य जओ तदस्थीणं ॥ १ ॥" अथवा भाति-दीप्यते भ्राजते वा-दीप्यते वा दीप्यते एव ज्ञानतपोगुणदीस्येति भान्तो भ्राजन्तो वेति, आह च - " अहेवा भा भाजो वा दित्तीए होइ तस्स अंतोति । भाजतो वाऽऽयरिओ सो णाणतवोगुजुईए ॥ १ ॥” इति, अथवा भ्रान्तः- अपेतो मिथ्यात्वादेः, तत्रानवस्थित इत्यर्थः इति भ्रान्तः, अथवा भगवान्ऐश्वर्ययुक्त इति, आह च - "अहंवा भंतोऽपेओ जं मिच्छत्ताइबंधहेऊओ | अहवेसरियाइ भगो विज्जइ सो तेण भगवंतो ॥ १ ॥” इति भवस्य वा संसारस्य भयस्य वा - त्रासस्यान्तहेतुत्वात्-नाशकारणत्वाद् भवान्तो भयान्तो वेति, उक्तं च--"नेरैइयाइभवस्स व अंतो जं तेण सो भवतोत्ति । अहवा भयस्स अंतो होइ भवं (यं) तो भयं तासो ॥ १ ॥”त्ति, १ मदिः कल्याणमुखार्थी धातुस्तस्य च भदंतशब्दोऽयं स भवंतः कल्याणं सुख कस्यं किलारोग्यम् ॥ १ ॥ २ अथवा भज सेवायां तस्य भर्जत इति सेवते यस्माच्छित्रगामिनः शिवमार्गे सेव्यश्च यतस्तदर्शिभिः ॥ १ ॥ ३ अथवा भा भाजो वा दीप्तौ तस्य भवति भान्त इति भाजन्तो वाऽऽनार्यः स ज्ञानतपोगुणवा ॥१॥ ४ अथवा प्रान्तोऽतो यमिध्यात्वादिवन्धहेतुतः । अथवैश्वर्यादिः भगो विद्यते तस्य तेन भगवान् ॥ १ ॥ ५ नैरयिकादिभवा वान्तो यत्तेन स भवान्त इति अथवा भयस्यान्तो भवति भयान्तः भयं त्रासः ॥ १॥ मूलं [९४६] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 250 ~ wor Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: काध्ययने प्रत सूत्रांक [१४६] वृत्तिः ॥ १२४॥ दीप अनुक्रम [१५४] श्रीस्थाना-10 इह च भदन्तादीनां शब्दानां स्थाने प्राकृतत्वादामन्त्रणार्थ भंतेत्ति पदं साधनीयमिति, अतो 'भंते'त्ति महावीरमामन्त्र-15 यन्नुक्तवान् गौतमादिः 'शालीनां कलमादिकानामिति विशेषः, शेपाणां ब्रीहीणामिति सामान्यं, 'यवयवा'यवविशेषा एव,द लसूत्र'एतेषाम्' अभिहितत्वेन प्रत्यक्षाणां कोठे-कुशूले आगुप्तानि-प्रक्षेपणेन संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि तेषामेवं सर्वत्र, नवर उद्देशः१ पल्यं-वंशकटकादिकृतो धान्याधारविशेषः, मश्च:-स्थूणानामुपरि स्थापितवंशकटकादिमयो जनप्रतीतः मालको-गृह-18 |स्योपरितनभागः, अभिहितं च-"अड्डो होइ मंचो मालो य घरोवरिं होइ"त्ति, 'ओलित्ताणं'ति द्वारदेशे पिधानेन है। सू०१४६ सह गोमयादिना अवलिप्तानां लित्ताणं ति सर्वतः 'लंछियाणं'ति रेखादिभिः कृतलान्छनानां 'मुद्दियाणति मृत्ति-10 कादिमुद्रावतां 'पिहियाणं'ति स्थगितानां, 'केवतियंति कियन्तं कालं योनिर्यस्थामकर उत्पद्यते?, ततः परं योनिः प्र-8 म्लायति-वर्णादिना हीयते प्रविध्वस्यते-विध्वंसाभिमुखा भवति 'विध्वस्यते'क्षीयते, एवं च तद्वीजमबीजं भवति-14 उप्तमपि नानुरमुत्पादयति, किमुक्तं भवति ?-ततः परं योनिव्यवच्छेदः प्रज्ञप्तो मयाऽन्यैश्च केवलिभिरिति, शेष स्पष्टम् ॥5 स्थित्यधिकारादेवेदमपरं सूत्रद्वयमाह-'दोचे'त्यादि स्फुट, नवरं द्वितीयायां पृथिव्यां, फिनामिकायामित्याह-शर्कराप्रभायामित्येवं योजनीयं, सर्वपृथिवीषु चेयं स्थितिः-"सागरमेगं तिय सत्त दस य सत्तरस तह य बावीसा। तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसु पुढवीसु उकोसा ॥१॥जा पढमाए जेट्ठा सा बिइयाए कणिडिया भणिया । तरतमजोगो एसो दसवासस-1 हस्स रयणाए ॥२॥" इति ॥ नरकपृथिव्यधिकारान्नरकनारकविशेषस्वरूपप्ररूपणाय सूत्रत्रयमाह कुरायो भवति मंचो मालच दोपरि भवति. २ एक सागर त्रीणि सप्त ददा च सप्तदश तथा च द्वाविंशतिः । त्रयस्त्रिंशद्यावत स्थितिः सप्तमु पृथ्वीपूत्कृष्टा ॥१२४॥ ॥1॥२वा प्रथमायां स्पेशा सा द्वितीयायां कनिष्ठिका भपिता । तरतमयोग एष दशवर्षसहनानि खायां ॥१॥ SCACHECANCY ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [१५४] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [1] स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internation - --- पंचमाए णं धूनप्पभाए पुढवीए विन्नि निरयावास सय सहस्सा पं०, तिसुणं पुढबीसु णेरइयाणं उसिणवेयणा पन्नत्ता तं०पढमाए दोबाए तथाए, तिम्रणं पुढबीसु रइया उणिवेयणं पचणुभवमाणा विहरंति — पढमाए दोचाए तचाए (सू० १४७) ततो लोगे सभा सपर्किस सपडिदिसिं पं० [सं० अप्पइडाणे णरए जंबुद्दीवे दीवे सव्वट्टसिद्धे महाविमाणे, तओ लोगे समा सपर्किख सपडिदिसि पं० तं० सीनंतर णं णरए समयक्खेत्ते ईसीपव्भारा पुढवी (सू० १४८) तओ समुद्दा पराईए उद्गरसेनं पं० तं कालोदे पुक्खरोदे सयंभुरमणे ३ तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पं० नं० - लबणे कालोदे सयंभुरमणे ( सू० १४९) 'पंचमाए' इत्यादि, सुबोधं केवलं 'उसिणवेपण'त्ति तिसृणामुष्णस्वभावत्वात् तिसृषु नारका उष्ण वेदना इत्युक्त्वापि यदुच्यते नैरथिका उष्णवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति तत्तद्वेदना सातत्यप्रदर्शनार्थम् ॥ नरकपृथिवीनां क्षेत्रस्वभावानां प्रागस्वरूपमुक्तमथ क्षेत्राधिकारात् क्षेत्र विशेषस्वरूपस्य त्रिस्थानकावतारिणो निरूपणाय सूत्रचतुष्टयमाह 'तओ' इत्यादि, त्रीणि लोके समानि-तुल्यानि योजन लक्षप्रमाणत्वात् न च प्रमाणत एवात्र समत्वमपि तु औत्तराधर्यव्यवस्थिततया समश्रेणितयाऽपीत्यत आह- 'सपक्खिमित्यादि, पक्षाणां दक्षिणवामादिपार्श्वानां सदृशता-समता सपक्षमित्यव्ययीभावस्तेन समपार्श्वतया समानीत्यर्थः, इकारस्तु प्राकृतत्वात् तथा प्रतिदिशां विदिशां सदृशता सप्रतिदिक् तेन समप्रतिदिक्तयेत्यर्थः, अप्रतिष्ठानः सप्तम्यां पञ्चानां नरकावासानां मध्यमः, तथा जम्बूद्वीपः सकलद्वीपमध्यमः, सर्वार्थसिद्धं विमानं पञ्चानामनुचराणां मध्यममिति । सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तदे नरकेन्द्रकः पञ्चचत्वारिंशद्योजन मूलं [ १४९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 252~ wor Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- गसूत्रवृत्तिः सूत्रांक ॥१२५॥ [१४९] * % लक्षाणि, समयः कालः तत्सत्तोपलक्षित क्षेत्र समयक्षेत्रं मनुष्यलोक इत्यर्थः, ईषद्-अल्पो योजनाष्टकवाहल्यपञ्चचत्वा- | ३ स्थानरिशल्लक्षविष्कम्भात् प्राग्भार:-पुद्गलनिचयो यस्याः-सेषत्पाग्भाराऽष्टमपृथिवी, शेषपृथिव्यो हि रत्नप्रभाद्या महापा- काध्ययने म्भाराः, अशीत्यादिसहस्राधिकयोजनलक्षवाहल्यत्वात् , तथाहि-"पढमाऽसीइसहस्सा बत्तीसा अट्टवीस वीसा य। अहार | उद्देशः१ सोलस य अह सहस्स लक्खोवरि कुजा ॥१॥" इति, विष्कम्भस्तु तासां कमेणकाद्याः सप्तान्ता रजव इति, अथवेष- | सू०१५२ लाग्भारा मनागवनतत्वादिति ॥ प्रकृत्या-स्वभावेनोदकरसेन युक्ता इति, क्रमेण चैते द्वितीयतृतीयान्तिमाः । प्रथमद्वितीयान्तिमाः समुद्रा बहुजलचराः अन्ये त्वरूपजलचरा इति, उक्तं च-"लवणे उदगरसेसु य महोरया मच्छकच्छहा भणिया । अप्पा सेसेसु भये न य ते णिम्मच्छया भणिया ॥१॥" अन्यच्च- लवणे कालसमुदे सयंभुरमणे य होति मच्छा उ । अवसेस समुद्देसुं न हुंति मच्छा न मयरा वा ॥२॥ नस्थित्ति पउरभावं पडुच न उ सब्बमच्छपडिसेहो। अप्पा सेसेसु भवे नय ते निम्मच्छया भणिया ॥३॥” इति ॥ क्षेत्राधिकारादेवाप्रतिष्ठाने नरकक्षेत्रे ये उत्पद्यन्ते तानाह तो लोगे णिस्सीला णिव्यता णिगुणा निम्मेरा णिप्पञ्चक्खाणपोसहोबवासा कालमासे कालं किचा अहे सत्तमाए पुढवीए अप्पतिद्वाणे णरए गैरइयत्ताए उबवजंति, तं०-रायाणो मंडलीया जे य महारंभा कोचुंबी । तभी लोए मुसीला १प्रथमाशीतिः सहस्राणि द्वात्रिंशदधाविया लिविंशतिबाटादश षोडशा चाष्ट सहस्रागि लक्षोपरि कुर्यात् ॥1॥ २ लवणे उदकरसेषु च महोरगा मास्पक-पदा ॥१२५ छपा भणिताः । अल्पाव पोषेषु भवेयुन थ से निमत्स्यका भनिताः ॥१॥ ३ लवणे कालसमुद्रे सायंभूरमणे च भवंति भत्स्याः । अवशेषसमुद्रेषु न भवति | मरमा वामकरावा॥१॥नसन्तीति प्रपरमा प्रवीख नैव सर्वथा मरस्पप्रतिषेधः । अल्पा शेषेषु भवेयुनेव ते निर्मलाकाः भगिताः॥१॥ % दीप अनुक्रम [१५७]] * ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [१५] 15-05-25 दीप अनुक्रम [१६०] सुख्खया सग्गुणा समेरा सपचक्खाणपोसहोवबासा कालमासे कालं किन्ना सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवताए उववत्तारो भवंति, सं०-राषाणो परिचत्तकामभोगा सेणावती पसत्थारो । (सु० १५०) धमलोगलतएसु णं कप्पेसु विमाणा तिवण्णा पं० सं०-किण्हा नीला लोहिया, आणयपाणयारणसुतेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिजसरीरा उकोसेणं तिण्णि रवणीओ उद्धं उपतेणं पण्णता (सू० १५१) तओ पन्नतीओ कालेणं अहिज्जति, तं०-चंदपन्नत्ती सूरपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती (सू० १५२) तिट्ठाणस्स पढ़मो उद्देसो समत्तो ।। | 'तओं इत्यादि, 'निःशीला' निर्गतशुभस्वभावाः दुःशीला इत्यर्थः, एतदेव प्रपश्यते-'निव्रताः' अविरताः प्राणा* तिपातादिभ्यो 'निर्गुणा' उत्तरगुणाभावात् 'निम्मेर'त्ति निर्मर्यादाः प्रतिपन्नापरिपालनादिना, तथा प्रत्याख्यानं च नमस्कारसहितादि पौषधः-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवास:-अभक्तार्थकरणं स च तो निर्गतौ येषां ते निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासाः 'कालमासें' मरणमासे 'कालं' मरणमिति, 'णेरइयत्ताएत्ति पृथिव्यादित्वव्यवच्छेदार्थ, तत्र ह्येकेन्द्रियतया तदन्येऽप्युत्पद्यन्त इति, तत्र राजानः-चक्रवत्तिवासुदेवाः माण्डलिका:-शेषा राजानः, ये च महारम्भा:-पञ्चेन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकर्मकारिणः कुटुम्बिन इति, शेष कण्ठयम् ।। अप्रतिष्ठानस्य स्थित्यादिभिः समाने सर्वार्थे ये उपद्यन्ते तानाह-'तओं' इत्यादि सुगम, केवलं राजानः-प्रतीताः परित्यक्तकामभोगाः-सर्वविरताः, एतच्चोत्तरपदयोरपि सम्बन्धनीयं, सेनापतयः-सैन्यनायकाः प्रशास्तारो-लेखाचार्यादयः, धर्मशास्त्रपाठका इति क्वचित् ॥ अनन्तरोक्कसर्वार्थसिद्धविमानसाधाद्विमानान्तरनिरूपणायाह-बंभेत्यादि, इह च "किण्हा नीला लोहिय"त्ति, पुस्तकेष्वेवं त्रैविध्यं दृश्यते, ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१५२] दीप अनुक्रम [१६०] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ १२६ ॥ स्थान [३], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ३ स्थान स्थानान्तरे च लोहितपीतशुक्लत्वेनेति, यत उक्तम् — “सोहम्मे पंचवना एकगहाणी य जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा तेण परं पुंडरीयाई ॥ १ ॥” इति, अनन्तरं विमानान्युक्तानि तानि च देवशरीराश्रया इति देवशरीरमानं त्रिस्था के काध्ययने नकानुपात्याह- 'आणयेत्यादि, भवं- जन्मापि यावद्भार्यन्ते भवं वा देवगतिलक्षणं धारयन्तीति भवधारणीयानि तानि ४ उद्देशः १-२ च तानि शरीराणि चेति भवधारणीयशरीराणीति, उत्तरवेक्रियव्यवच्छेदार्थ चेदं तस्य लक्षप्रमाणत्वात्, 'उक्कोसेणं' ति उत्कर्षेण, न तु जघन्यत्वादिना, जघन्येन तस्योत्पत्तिसमयेऽङ्गुला सङ्ख्य भागमात्रत्वादिति शेषं कण्ठ्यमिति । अनन्तरं देवशरीराश्रयवक्तव्यतोक्ता तत्प्रतिबद्धाश्च प्रायस्त्रयो ग्रन्था इति तत्स्वरूपाभिधानायाह- 'तओ' इत्यादि कालेन -प्र- 8 धमपश्चिमपौरुषी लक्षणेन हेतुभूतेनाधीयन्ते, व्याख्याप्रज्ञप्तिजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च न विवक्षिता, त्रिस्थानकानुरोधादिति, शेषं स्पष्टम् ॥ इति त्रिस्थानकस्य प्रथम उद्देशको विवरणतः समाप्तः ॥ सू० १५३ व्याख्यातः प्रथम उद्देशकः, तदनन्तरं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, प्रथमोदेशके जीवधर्म्माः प्राय उक्ताः, इहापि प्रायस्त एवेतीत्थं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् - तिविहे खोगे पं० [सं० तिविहे लोगे पं० [सं० १ सोधमें पंचवर्णानि एकैकदानिश्च यावत्सहस्वारः द्वौ द्वी कल्पो ल्यो ततः परं पुण्डरीकाणि ॥१॥ णामलोगे ठवणलोगे दव्वलोगे, विविध लोगे पं० तं० णाणलोगे दंसणलोगे चरिचलोगे, उद्धलोगे अहोलोगे तिरियलोगे (सू० १५३) Education Internationa अत्र तृतीय स्थानस्य प्रथम- उद्देशकः समाप्तः, अथ द्वितीय उद्देशक: आरभ्यते For Park Use Only ~ 255 ~ ॥ १२६ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१५३] दीप अनुक्रम [१६१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१५३] स्थान [३], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः चामभिसम्बन्धः - अनन्तरसूत्रेण चन्द्रमज्ञयादिग्रन्थस्वरूपमुक्तमिह तु चन्द्रादीनामेवार्थानामाधारभूतस्य लोकस्य स्वरूपमभिधीयत इत्येवंसम्बन्धवतोऽस्य सूत्रस्य व्याख्या -लोक्यते-अवलोक्यते केवलावलोकेनेति लोको, नामस्थापने इन्द्रसूत्रवत्, द्रव्यलोकोऽपि तथैव, नवरं ज्ञशरीरभव्य शरीरव्यतिरिक्तद्रव्यलोको धर्मास्तिकायादीनि जीवाजीवरूपाणि रूप्यरूपीणि सप्रदेशाप्रदेशानि द्रव्याण्येव, द्रव्याणि च तानि लोकश्चेति विग्रहः, उक्तं च- "जीवमजीवे रूवमरुवी सपएसअप्पएसे य । जाणाहि दव्वलोयं णिच्चमणिच्चं च जं दब्बं ॥ १ ॥” इति, भावलोकं त्रिधाऽऽह — 'तिविहेइत्यादि, भावलोको द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो लोकपर्यालोचनोपयोगः तदुपयोगानन्यत्वात् पुरुषो वा, नोआगमतस्तु सूत्रोको ज्ञानादिः, नोशन्दस्य मिश्रवचनत्वाद्, इदं हि त्रयं प्रत्येकमितरेतरसव्यपेक्षं नागम एव केवलो नाप्यनागम इति, तत्र ज्ञानं चासौ लोकश्चेति ज्ञानलोकः, भावलोकता चास्य क्षायिकक्षायोपशमिकभावरूपत्वात्, क्षायिकादिभावानां च भावलोकत्वेनाभिहितत्वाद्, उक्तं च-- "ओदश्य उवसमिए य खइए व तहा खओवसमिए य । | परिणाम सन्निवाए य छविहो भावलोगो उ ॥ १ ॥” त्ति, एवं दर्शनचारित्रलोकावपीति ॥ अथ क्षेत्रलोकं त्रिधाऽऽह| 'तिविहे' इत्यादि, इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे मेरुमध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति, तस्योपरितनप्रतरस्योपरि|ष्टान्नव योजनशतानि यावज्योतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत् तिर्यग्लोकस्ततः परत ऊर्द्धभागस्थितत्वात् ऊर्द्ध लोको देशोनसप्त | १ जीवा अजीवा रूपिणोऽरूपिणः सप्रदेशा अप्रदेशाव | जानीहि द्रव्यलोकं नित्यमनित्यं च यद्रव्यं ॥ १२ औदायिक औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपश मिकक्ष तथा परिणामः सन्निपातश्च षड्विधो भावलोक इति ॥ १ ॥ Education International 'लोक' शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपाः For Park Use Only ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५३] दीप अनुक्रम [१६१] श्रीस्थाना-IPारजुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनपतरस्यायो नव योजनशतानि यावत्तावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वादधोलोकः ३ स्थानअसूत्र- सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोको लोकयोर्मध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्लोक इति, प्र-14 काध्ययने कारान्तरेण चायं गाथाभियाख्यायते- अह्वा अहपरिणामो खेत्तणुभावेण जेण ओसन्नं । असुहो अहोत्ति भणिओ उद्देशः३ दब्बार्ण तेणऽहोलोगो ॥१॥ उहूं उवरिं जं ठिय सुहखेत्तं खेत्तओ य दव्वगुणा । उप्पजति सुभा वा तेण तओ जल-| ॥१२७॥ सू०१५४ लोगोत्ति ॥२॥ मज्झणुभावं खेत्तं जं तं तिरियति वयणपजवओ । भण्णइ तिरिय विसालं अओ य तं तिरियलोगोत्ति ॥३॥" लोकस्वरूपनिरूपणानन्तरं तदाधेयानां चमरादीनां 'चमरस्सेत्यादिना अचुपलोगवालाण'मित्येतदम्तेन ग्रन्धेन पर्षदो निरूपयति चमरस्स णं अमुरिंदस्स असुरकुमाररनो ततो परिसातो पं० सं०-समिता चंडा आया, अम्भितरिता समिता मनिमता चंडा बाहिरता जावा, चमरस्सणं असुरिंदस्स असुरकुमाररनो सामाणिताण देवाणं ततो परिसातो पं० तंसमिता जहेव चमरस्स, एवं वायत्तीसगाणवि, लोगपालाणं तुंबा तुडिया पक्ष्या, एवं अग्गमहिसीणवि, बलिस्सवि एवं चेव, जाव अम्गमहिसीणं, धरणस्स य सामाणिवतायत्तीसगाणं च समिता चंडा जाता, लोगपालाणं अग्गमहिसीणं ईसा तुडिया दढरहा, जहा धरणस्स तहा सेसाणं भवणवासीणं, कालस्स णं पिसाइंदस्स पिसायरण्णो तो परि १ अथवा अधः परिणामः क्षेत्रानुभावेन येन प्रायेण अशुभोऽध इति भणितो व्याणां तेनाचोलोकः ॥ १॥ ऊर्वमुपरि यस्थितं शुभक्षेत्र क्षेत्रतश्च शुभा P १२७॥ वा व्यगुणा उत्पयन्ते तेन स उर्वलोक इति ॥१॥ मध्यमानुभावं क्षेत्रं यत्तत्तियेगिति वचनपर्यायतः । भव्यते तिर्यविशालं अतब तत्तिर्यग्लोक इति ॥१॥ ***अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोषः वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) 'लोक' शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा: ~ 257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] साओ पं०० ईसा तुडिया ढरहा, एवं सामाणियअग्गमहिसीणं, एवं जाव गीयरतिगीयजसाणं, चंदस्स ण जोतिर्सिदस्स जोतिसरमो ततो परिसातो ५०, ०-तुबा तुढिया पवा, एवं सामाणियअगमहिसीण, एवं सूरस्सपि, सकस्स णं देविंदस्स देवरसो ततो परिसाओ पं० सं०-समिता चंडा जाया, एवं जहा चमरस्स जाव अग्गमहिसीणं, एवं जाव अश्रुतस्स लोगपालाणं (सू० १५४) । सुगमश्चार्य, नवरं 'असुरिंदस्से'त्यादौ इन्द्र ऐश्वर्ययोगात् राजा तु राजनादिति 'परिषत् परिवारः, सा च त्रिधा | प्रत्यासत्तिभेदेन, तत्र ये परिवारभूता देवा देव्यश्चातिगौरव्यत्वात् प्रयोजनेष्वप्याहूता एवागच्छन्ति सा अभ्यन्तरा परिषत् ये स्वाहता अनाहूताश्चागच्छन्ति सा मध्यमा ये त्वनाहता अप्यागच्छन्ति सा बाह्येति, तथा यया सह प्रयोजनं पर्यालोचयति साऽऽद्या यया तु तदेव पोलोचितं सत् प्रपञ्चयति सा द्वितीया यस्थास्तु तत्प्रवर्णयति साऽन्त्येति ॥ अनन्तरं परिषदुत्पन्नदेवाः प्ररूपिताः, देवत्वं च कुतोऽपि धर्मात्, तत्प्रतिपत्तिश्च कालविशेषे भवतीति कालविशेपनिरूपणपूर्वं तत्रैव धर्मविशेषाणां प्रतिपत्तीराह ततो जामा पं० सं०-पढमे जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे, तिहिं जामेहिं आता केवलिपन्नत्तं धर्म लभेज सवणताते-पढने जामे मझिमे जामे पच्छिमे जामे, एवं जाव केबलनाणं उप्पाडेजा पढमे जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे । ततो बया पं० सं०-पढमे वते मज्झिमे वते पच्छिमे बए, तिहिं वतेहिं आया केवलिपन्नत्तं धर्म लभेज सवणयाए, त०-पढमे वते मझिमे बते परिछमे बते, एसो चेव गमो यन्बो, जान केवलनाणंति (सू० १५५) दीप अनुक्रम [१६२] * 52 marary.org ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१५५] दीप अनुक्रम [१६३ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [ १५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रीस्थाना ॥ १२८ ॥ 'तओ जामेत्यादि स्पष्टं केवलं यामो-रात्रेर्दिनस्य च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धस्तथाऽपीह त्रिभाग एव विवक्षितः ङ्गसूत्र- 2 पूर्वरात्रमध्यरात्रापररात्रलक्षणो यमाश्रित्य रात्रिस्त्रियामेत्युच्यते, एवं दिनस्यापि, अथवा चतुर्थभाग एव सः, किन्त्विह वृत्तिः चतुर्थो न विवक्षितः, त्रिस्थानकानुरोधादित्येवमपि त्रयो यामा इत्यभिहितम्, एवं 'जाव'त्तिकरणादिदं दृश्यं— 'केवलं' बोहिं बुज्झेजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, केवलं वंभचेरवासमावसेज्जा, एवं संजमेणं संजमेज्जा, संवरणं संवरेज्जा, आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजे' त्यादि । यथा कालविशेषे धर्मप्रतिपत्तिरेवं वयोविशेषेऽपीति तन्निरूपणतस्तत्र धर्मविशेषप्रतिपत्तीराह- 'तओ वयेत्यादि स्फुटं, किन्तु प्राणिनां कालकृतावस्था वय उच्यते, तत् त्रिधा बालमध्यमवृद्धत्व भेदादिति, वयोलक्षणं चेदम् - "आषोडशाद्भवेद्वालो, यावत्क्षीरान्नवर्त्तकः । मध्यमः सप्ततिं यावत् पश्तो वृद्ध उच्यते ॥ १ ॥ " शेषं प्राग्वत् ॥ उक्तानेव धर्मविशेषांस्त्रिधा बोधिशब्दाभिधेयान् १ बोधिमतो २ बोधिविपक्षभूतं मोहं ३ तद्वतश्च ४ सूत्रचतुष्टयेनाह Educatin internation तिविधा बोधी पं० [सं० णाणबोधी दंसणबोधी चरितवोधी १ तिबिहा बुद्धा पं० तं गाणबुद्धा दंसणबुद्धा चरित्त बुद्धा २ एवं मोहे ३ मूढा ४ (सू० १५६ ) तिविहा पव्वज्जा, पं० तं० इलोगपढिबद्धा परलोगपडिबद्धा दुहतोपविद्धा, तिविद्दा पब्वजा, पं० [सं० पुरतो पढिबद्धा मग्गतो पढिबद्धा दुहओ पडिबद्धा, तिविद्दा पञ्जा, पं० तं०-याव इत्ता यावत्ता बुआवइचा, तिथिहा पब्वज्जा पं० [सं० उदातपव्वज्जा अक्खातपव्वज्जा संगारपव्वज्जा (सू० १५७ ) For Par Lise Only ४ ~ 259~ ३ स्थान काध्ययने उद्देशः र सू० १५७ ॥ १२८ ॥ wor *** अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोषः वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: MUSA प्रत सूत्रांक [१५७] दीप अनुक्रम [१६५] सुबोध, किन्तु बोधिः-सम्यग्बोधः, इह च चारित्रं बोधिफलत्वात् बोधिरुच्यते, जीवोपयोगरूपत्वाद्धा, बोधिविशिष्टाः पुरुषास्त्रिधा ज्ञानबुद्धादय इति, 'एवं मोहे मूढ'त्ति चोधिवद्वद्धवच्च मोहो मूढाश्च त्रिविधा वाच्याः, तथाहि-ति-12 विहे मोहे पण्णत्ते, तंजहा-नाणमोहे' इत्यादि, 'तिविहा मूढा पन्नत्ता, तंजहा-णाणमूढेइत्यादि । चारित्रबुद्धाःप्रागभिहिताः, ते च प्रव्रज्यायां सत्यामतस्तां भेदतो निरूपयन्नाह-'तिविहे'त्यादि, सूत्रचतुष्टयं सुगम, केवलं प्रव्रजनंगमनं पापाचरणव्यापारेप्विति प्रत्रज्या, एतच्च चरणयोगगमनं मोक्षगमनमेव, कारणे कार्योपचारात्, तन्दुलान् वर्षति पर्जन्य इत्यादिवदिति, उक्तं च-"पब्धयणं पञ्चज्जा पाबाओ सुद्धचरणजोगेसु । इय मोक्खं पइ गमणं कारण कजोवयाराओ॥ १ ॥" इति, इहलोकप्रतिबद्धा-ऐहलौकिकभोजनादिकार्यार्थिनां परलोकप्रतिबद्धा-जन्मान्तरकामाद्यर्थिनां द्विधाप्रतिबद्धा-इहलोकपरलोकप्रतिबद्धा सा चोभयार्थिनामिति, पुरतः-अग्रत्तः प्रतिबद्धा प्रव्रज्यापर्यायभाविषु | शिष्यादिष्याशंसनतः प्रतिबन्धात् मार्गत:-पृष्ठतः स्वजनादिषु स्नेहाच्छेदात् तृतीया द्विधाऽपीति । 'तुपावइत्त'त्ति 'तुद व्यथने' इति वचनात् तोदयित्या-तोदं कृत्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव |सा तथोच्यते, 'पुयावहत्त'त्ति, 'प्लुङ्गताविति वचनात् प्लावयित्वा-अन्यत्र नीत्वा आयेंरक्षितवद् या दीयते सा तथेति, 'बुयावहत्ता' संभाष्य गौतमेन कर्षकवदिति । अवपात:-सेवा सद्गुरूणां ततो या सा अवपातपत्रज्या, तथा आख्यातेन-धर्मदेशनेन आण्यातस्य वा-प्रवजेत्यभिहितस्य गुरुभिर्या साऽऽख्यातप्रव्रज्या फल्गुरक्षितस्येवेति, 'संगा १ प्रजमं प्रवज्या पापाशुद्धचरणयोगेषु । एवं मोक्ष प्रति गमनं (प्रबन्या) कारणे कार्योपचारात् ॥ १॥ प्रव्रज्या- व्याख्या एवं भेदा: ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१५७] दीप अनुक्रम [१६५] श्रीस्थाना नसूत्रवृत्तिः ॥ १२९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] रति सङ्केतस्तस्माद् या सा सङ्गारप्रत्रज्या मेतार्यादीनामिवेति, अथवा यदि त्वं प्रत्रजसि तदा मया प्रमजितव्यमित्येवं या सा तथा ॥ उक्तमज्यावन्तो निर्ग्रन्धा भवन्तीति निर्ग्रन्थस्वरूपं सूत्रद्वयेनाह तओ नियंठा गोसंण्णोवडत्ता पं० तं० पुलाए नियंठे सिणाए । ततो नियंठा सन्त्रणोसंणो उत्ता पं० [सं० उसे पडिसेवणाकुसीले कसायकुसीले २ ( सू० १५८) तमो सेहभूमीओ पं० तं० उकोसा मज्झिमा जहन्ना, उमोसा छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहन्ना सत्तराइंदिया । ततो थेरभूमीओ पं० तं०-जाइथेरे सुत्तयेरे परियाययेरे, सद्विवासजाए समणे णिग्गंधे जातिथेरे, ठाणंगसमवायघरे णं समणे णिग्गंचे सुयथेरे, वीसवासपरिवार णं समणे णिग्गंथे परियायथेरे ( सू० १५९ ) मूलं [१५७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'तओ' इत्यादि, निर्गता प्रन्धात् सबाह्याभ्यन्तरादिति निर्मन्थाः संयता 'नो' नैव संज्ञायाम् आहाराद्यभिलाषरू पायां पूर्वानुभूतस्मरणानागतचिन्ताद्वारेणोपयुक्ता ये ते नोसंज्ञोपयुक्ताः, तत्र पुलाको लब्ध्युपजीवनादिना संयमासारताकारको वक्ष्यमाणलक्षणः, निर्मन्थः-उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वेति, स्नातको घातिकर्ममलक्षालनावाघशुद्धज्ञानस्वरूपः तथा त्रय एव संज्ञोपयुक्ता नोसंज्ञोपयुक्ताश्चेति सङ्कीर्णस्वरूपाः, तथास्वरूपत्वात्, तथा चाह – “सन्ननोसन्नोवउत्त"त्ति, संज्ञा च आहारादिविषया नोसंज्ञा च तदभावलक्षणा संज्ञानोसंज्ञे तयोरुपयुक्ता इति विग्रहः, पूर्वहस्वता प्राकृतत्वादिति, तत्र वकुश:- शरीरोपकरणविभूषादिना शवलचारित्रपटः प्रतिषेवणया मूलगुणादिविषयया, कुत्सितं शीलं यस्य स तथा एवं कषायकुशील इति ॥ निर्मन्थाश्वारोपितव्रताः केचित् भवन्तीति व्रतारोपणकालविशेषानाह For Parts Only ~ 261~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ सू० १५९ ।। १२९ ।। *** अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोषः वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देशः ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) पुलाक, निर्ग्रन्थ, स्नातक, बकुश, कुशील शब्दानाम् व्याख्या yor Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] प्रतओ सेहेत्यादि सुगम, किन्तु 'सेहेति 'पिधू संराद्धाविति वचनात् सेध्यते-निष्पाद्यते यः स सेधः शिक्षा वादाधीत इति शैक्षः तस्य भूमयो-महानतारोपणकाललक्षणाः अवस्थापदव्य इति सेधभूमयः शैक्षभूमयो वेति, अयमभि-IX प्रायः-उत्कृष्टतः पद्भिर्मासैरुत्थाप्यते न तानतिकाम्यते, जघन्यतः सप्तभिरेव रात्रिन्दिवैर्गृहीतशिक्षत्वादिति, उक्तंच"सहस्स तिन्नि भूमी जहन्न तह मज्झिमा य उक्कोसा । राईदिसत्त चउमासिगा य छम्मासिआ चेव ॥१॥" इति, आसु चार्य व्यवहारोक्तो विभागः-"पुब्बोवपुराणे करणजयहा जहनिया भूमी । उक्कोसा दुम्मेहं पडुच्च अस्सद्दहाणं &च ॥ १॥ एमेव य मज्झिमगा अणहिजते असद्दहंते य । भावियमेहाविस्सवि, करणजयहा य मज्झिमगा ॥ २ ॥" इति ॥ शैक्षस्य च विपर्यस्तः स्थविरो भवतीति तद्भूमिनिरूपणायाह-"तओ थेरे" इत्यादि कठ्य, नवरं स्थविरो-वृद्धस्तस्य भूमयः-पदव्यः स्थविरभूमय इति, जाति:-जन्म श्रुतम्-आगमः पर्यायः-प्रव्रज्या तैः स्थविरा-वृद्धा ये ते तथोक्ता इति, इह च भूमिकाभूमिकावतोरभेदादेवमुपन्यासः, अन्यथा भूमिका उद्दिष्टा इति ता एव वाच्याः स्युरिति, एतेषां च त्रयाणां क्रमेणानुकम्पापूजावन्दनानि विधेवानि, यत उक्त व्यवहारे-"औहारे उवही सेजा, संथारे खेत्तसंकमे। शैक्षस्य तिनो भूमयो जघन्या तथा मध्यमा बोत्कृष्टा । रात्रिंदिवसप्त चतुर्मासिका पास्मासिका चैन ॥१॥ २ पूर्वोपस्थे पुराणे करणयार्थ जवम्या भूमिः । उत्कृष्टा दुर्मेधर्म प्रतीयाश्रयानं च ॥१॥ एवमेव च मध्यमा अनधीवाने चाबद्दधाने च । भावितमेपापिनोऽपि करणजयाथै च मध्यमा ॥१॥ आहारे उपयौ शय्यायां संवारे क्षेत्रसंगमे। 35S दीप अनुक्रम सऊ5545* [१६७] + * * * %% ~2624 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१५९ ] दीप अनुक्रम [१६७ ] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १३० ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [२]. ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] स्थान [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Intentiona - किईच्छेदाणुवत्तीहिं, अणुकंपइ थेरगं ॥ १ ॥ उद्वाणासणदाणाई, जोगाहारय्पसंसणा । नीयसेजाइ निद्देसवत्तित्ते पूयए सुयं ॥ २ ॥ उाणं वंदणं चैव, गहणं दंडगस्स य । अगुरुणोऽविय णिद्देसे, तईयाए पवत्तए ॥ १ ॥” इति ॥ स्थविरा इति पुरुषप्रकारा उक्ताः, तदधिकारात् पुरुषप्रकाराने वाह मूलं [१५९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ततो पुरिसजाया पं० [सं० सुमणे दुम्मणे णोसुमणेणोदुम्मणे १ ततो पुरिसजाया पं० [सं० गंता णामेगे सुमणे भवति, गंवा णामेगे दुम्मणे भवति, गंता णामेगे णोमणेोदुम्मणे भवति २, तओ पुरिसजाया पं० [सं० जामीतेगे सुमणे भवति, जामीतेगे दुम्मणे भवति, जामीतेगे णोमुमणेणोदुम्मणे भवति ३ एवं जाइस्सामीतेगे सुमणे भवति ३४, ततो पुरिसजाया पं० तं० - अगंता णामेगे सुमणे भवति ३५ ततो पुरिसजाता पं० सं०ण जामि एगे सुमणे भवति ३६, ततो पुरिसजाया पं० [सं० जाइस्सामि एगे सुमणे भवति, ३७, एवं आगंता णामेगे सुमणे भवति ३८, एमितेगे सु० ३ एस्सामीति एगे सुमणे भवति ३ एवं एएणं अभिलावेण गंता व अगंता (य) १ आगंता खलु तथा अणागंता २ चिट्ठि चमचिट्टित्ता ३, णिसितिचा चैव नो चेद ४ ॥ १ ॥ ईवा य अहंता य ५ छिंदित्ता खलु तहा अदित्ता ६ बूवित्ता अवृतित्ता ७ भासित्ता चेव णो चेव ८ ॥ २ ॥ दशा य अदवा य ९ भुंजित्ता खलु तथा अभुंजित्ता १० । लंमित्ता अभित्ता ११ पिता चेव नो चेक १२ ॥ ३ ॥ सुतित्ता असुतित्ता १३ जुज्झित्ता खलु वहा अजुज्झित्ता १४ ॥ ज १ कृतिच्छन्दोऽनुतिभिरनुकंपते स्थविरं ॥ १ ॥ उत्थानासनदानयोः योग्याद्वारशंसनायां नीचैः शय्यादौ निर्देशयवेि पूज्यते श्रुतं ॥ २ ॥ उत्थानं वन्दनं चैव दण्डस्य अगुरोरपि च निर्देशे तदा प्रवर्तते तस्य तृतीयस्य ॥१॥ For Parts Only ~ 263 ~ ३ स्थान काध्ययने उद्देशः श् सू० १६१ ॥ १३० ॥ *** अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोषः वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) ora Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६१]+गाथा १-५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६०-१६१] तिता अजयित्ता य १५ पराजिणिता य [व] नो चैव १६ ॥४॥ सदा १७ रुवा १८ गंधा १९ रसा य २० फासा २१ (२१४६=१२६-१-१२७) तहेव ठाणा य । निस्सीलस्स गरहिता पसत्था पुण सीलवंतस्स || ५॥ एवमिकेके तिमि र तिनि उ आलावगा भाणियव्वा, सदं मुणेत्ता णामेगे सुमणे भवति३ एवं सुमीति ३ मुणिस्सामीति ३, एवं असुणेत्ता णामेगे सुमणे भवति ३ न सुणेमीति ३ ण सुणिस्सामीति ३, एवं स्वाई गंधाई रसाई फासाई, एफेके छ छ आलावगा भाणियबा १२७ आलावगा भवंति (सू०१६०) तओ ठाणा णिस्सीलस्स निव्वयस्स णिग्गुणस्स जिम्मेरस्स णिप्पचक्खाणपोसहोववासस्स गरहिवा भवंति तं0-अस्सि लोगे गरहिते भवइ उववाते गरहिए भवइ आयाती गरहिता भवति, ततो ठाणा सुसीलस्स सुब्वयस्स सगुणस्स सुमेरस सपञ्चक्याणपोसहोववासस्स पसत्या भवंति, सं०-अस्सि लोगे पसत्ये भवति उववाए पसत्थे भवति आजाती पसस्था भवति (सू० १६१) 'तओ पुरिसे त्यादि, पुरुषजातानि-पुरुषप्रकाराः सुठु मनो यस्यासी सुमनाः-हर्षवान् रक्त इत्यर्थः, एवं दुर्मना-दैन्यादिमान् द्विष्ट इत्यर्थः, नोसुमनानोदुमना:-मध्यस्थः, सामायिकवानित्यर्थः । सामान्यतः पुरुषप्रकारा उक्ताः, एतानेव विशेषतो गत्यादिक्रियापेक्षया तओ इत्यादिभिः सूत्रैराह-तत्र 'गवा' यात्वा कचिद्विहारक्षेत्रादौ नामेति स|म्भावनायामेकः कश्चित् सुमना भवति-दृष्यति, तथैवान्यो दुर्मनाः-शोचति, अन्यः सम एवेति, अतीतकालसूत्रमिव वर्तमानभविष्यत्कालसूत्रे, नवरं 'जामीतेगें' इत्यादिषु इतिशब्दो हेत्वर्थः । 'एवमगंतेत्यादिप्रतिषेधसूत्राणि आगमनसूत्राणि च सुगमानि, 'एवम् एतेनानन्तरोक्तेनाभिलापेन शेषसूत्राण्यपि वकच्यानि । अथोक्तान्यनुक्कानि च सूत्राणि दीप अनुक्रम [१६८-१७४] ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: SHTHH. प्रत सूत्रांक काध्ययने [१६० -१६१] श्रीस्थाना-18 संगृह्णन् गाथापञ्चकमाह-गंते'त्यादि, गंता अगता आगन्तेत्युक्तम् , अणागंतत्ति-अणागता नामेगे सुमणे भवइ४॥ सूत्र- अणागंता नामेगे दुम्मणे भवइ, अणागंता नामगे नोसुमणेनोदुम्मणे भवइ ३, एवं न आगच्छामीति ३, एवं न वृत्तिः आगमिस्सामीति ३, 'चिहित्तत्ति स्थित्वा उर्द्धस्थानेन सुमना दुर्मना अनुभयं च भवति, एवं-चिट्ठामीति, चि उद्देशः३ हिस्सामीति अचिद्वित्ता' इहापि कालतः सूत्रत्रयम्, एवं सर्वत्र नवरं 'निषद्य उपविश्य नो चेवत्ति-अनिषद्य-अ॥१३१॥ सू० १११ नुपविश्य ३, हत्वा-विनाश्य किश्चित् ३, अहत्वा-अविनाश्य ३, छित्त्वा-द्विधा कृत्वा ३, अच्छित्त्वा-प्रतीतं ३, 'बु इत्त'त्ति उक्त्वा-भणित्वा पदवाक्यादिकं ३, 'अवुइत्त'त्ति अनुक्त्वा ३, "भासित्तेति भाषित्वा संभाष्य कश्चन स-1 ४म्भापणीयं ३, 'नो चेव'त्ति अभासित्ता असंभाष्य कञ्चन ३, 'दच'त्ति दत्त्वा ३ अदवा ३ भुक्त्वा ३ अभुक्त्वा ३४ लब्ध्वा ३ अलब्ध्वा ३ पीत्या ३ 'नो चेव'त्ति अपीत्वा ३ सुस्त्वा ३ असुप्त्वा ३ युद्धा ३ अयुवा ३'जहत्त'त्ति जित्वा परं ३ अजित्वा परमेव ३ 'पराजिणित्ता' भृशं जित्वा ३ परिभन्न वा प्राप्य सुमना भवति, वर्जनकभाविमहावित्तव्ययविनिर्मुक्तत्वात् , पराजितान्-प्रतिवादिनः, सम्भावितानर्थविनिर्मुक्तत्वाद्वा, 'नो चेव'त्ति अपराजित्य ३ । सद्देत्यादि गाथा सूत्रत एव बोद्धव्या, अपश्चितत्वात् तत्रैवास्या इति । एवमिके' इत्यादि, 'एवं'मिति गत्वादिसूत्रोक्तक्रमेण एकैकस्मिन् शब्दादौ विषये विधिप्रतिषेधाभ्यां प्रत्येकं त्रयस्खय आलापका:-सूत्राणि कालविशेषाश्रयाः सुमनाः दुर्मना नोसुमनानोदुम्मना इत्येतत्सदत्रयवन्तो भणितव्याः, एतदेव दर्शयन्नाह–समित्यादि, भावितार्थम् , 'एवं रुवाई ग-1 ॥१३१॥ धाई' इत्यादि, यथा शब्दे विधिनिषेधाभ्यां त्रयस्त्रय आलापका भणिता एवं 'ख्वाई पासित्ते'त्यादयः त्रयस्य एव 355555 दीप अनुक्रम [१६८-१७४] ***अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोष: वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१६० -१६१] दीप अनुक्रम [१६८ -१७४] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [२], मूलं [ १६१] [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र दर्शनीयाः, एवञ्च यद्भवति तदाह – 'एक्के इत्यादि, एकैकस्मिन् विषये षडालापका भणितव्या भवन्तीति तत्र शब्दे दशिंता एव, रूपादिषु पुनरेवं रूपाणि दृष्ट्वा सुमना दुर्मना अनुभयं १ एवं पश्यामीति २ एवं द्रक्ष्यामीति ३ एवं अदृष्ट्वा ४ न पश्यामीति ५ न द्रक्ष्यामीति ६ पटू, एवं गन्धान् घ्रात्वा ६ रसानास्वाद्य ६ स्पर्शान् स्पृष्ट्वेति ६ । 'तव ठाणा यत्ति यत्सग्रहगाथायामुक्तं तद् भावयन्नाह - 'तओ ठाणा' इत्यादि, त्रीणि स्थानानि निःशीलस्य - सामान्येन शुभस्वभाववर्जितस्य विशेषतः पुनः निर्व्रतस्य प्राणातिपाताद्यनिवृत्तस्य निर्गुणस्योत्तरगुणापेक्षया निर्म्मर्यादस्य लोककुलाद्यपेक्षया निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासस्य पौरुष्यादिनियमपर्वोपवासरहितस्य गर्हितानि - जुगुप्सितानि भवन्ति, तद्यथा - 'अस्सि ति विभक्तिपरिणामादयं लोकः- इदं जन्म गर्हितो भवति, पापप्रवृत्त्या विद्वज्जन जुगुप्सितत्वात्, तथा उपपातः - अकामनिर्जरादिजनितः किल्विषिकादिदेवभवो नारकभवो वा, 'उपपातो देवनारकाणा' मिति (नारकदेवानामुपपातः तत्त्वा० अ० २ सू० ३५ ) वचनात् स गर्हितो भवति किल्बिपिकाभियोग्यादिरूपतयेति, आजातिः - तस्माच्यु तस्योद्वृत्तस्य वा कुमानुषत्वतिर्यक्त्वरूपा गर्हिता, कुमानुषादित्वादेवेति । उक्तविपर्ययमाह-'तओ' इत्यादि, निगद सिद्धम् ॥ एतानि च गर्हितप्रशस्तस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति संसारि जीवनिरूपणायाह तिविधा संसारसमानगा जीवा पं० [सं० इत्थी पुरिसा नपुंसगा, तिविहा सव्वजीवा पं० तं० सम्मद्दिट्ठी मिच्छादिडी सम्मामिच्छदिट्टी य, अहवा तिविहा सञ्चजीवा पं० [सं० पज्जत्तगा अपनत्तगा णोपजत्तगाणोऽपन्नसगा । एवंसम्मद्दिङ्किपरित्तापज्जत्तग सुदुमसन्निभविया व ( सू० १६२ ) Ja Eucation International For Parts Only ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१६२ ] दीप अनुक्रम [१७५] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] 'तिविहे 'त्यादि सूत्रसिद्धं ॥ जीवाधिकारात् सर्वजीवांस्त्रिस्थानकावतारेण पद्धिः सूत्रैराह - 'तिविहे 'त्यादि, सुबोधं, नवरं 'नोपज्जन्त'त्ति नोपर्याप्त कानो अपर्याप्तकाः सिद्धाः, 'एव'मिति पूर्वक्रमेण सम्मद्द्द्विीत्यादिगाथार्द्धमुक्तानुक्तसूत्रसग्रहार्थमिति । 'तिविहा सव्वजीवा पं० तं० परित्ता १ अपरिता २ नोपरित्तानोअपरित्ता ३' तत्र परीताः - प्रत्येकशरीराः अपरीत्ता:- साधारणशरीराः परीत्तशब्दस्य छन्दोऽर्थ व्यत्यय इति 'सुम'त्ति तिविहा सब्वजीवा पं० तं०-सुहुमा * बायरा नोहुमानोवायरा, एवं संज्ञिनो भव्याश्च भावनीयाः, सर्वत्र च तृतीयपदे सिद्धा वाच्या इति । सर्व एव चैते लोके व्यवस्थिता इति लोकस्थितिनिरूपणायाह ।। १३२ ।। तिविधा लोगठिती पं० तं० आगासपइट्टिए बाते वातपतिडिए उदही उदहिपतिट्टिया पुढवी, तओ दिसाओ पं० सं०उद्धा अहा तिरिया १, तिहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति, उड़ाए अहाते तिरियाले २, एवं आगती ३ वर्षाती ४ आहारे ५ जुड़ी ६ णिबुडी ७ गतिपरियाते ८ समुग्धावे ९ कालसंजोगे १० दंसणाभिगमे ११, णाणाभिगमे १२, जीवाभिगमे १३, तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पं० [सं० उड़ाते अहाते तिरियाते १४, एवं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, एवं मणुस्साणवि (सू० १६३) 'तिविहे 'त्यादि कण्ठ्यं, किन्तु लोकस्थितिः- लोकव्यवस्था आकाशं ज्योम तत्र प्रतिष्ठितो व्यवस्थित आकाशप्रतिष्ठितो वातो- घनवाततनुवातलक्षणः सर्वद्रव्याणामाकाशप्रतिष्ठितत्वात् उदधिः- घनोदधिः पृथिवी - तमस्तमःप्रभादिकेति ॥ उक्तस्थितिके च लोके जीवानां दिशोऽधिकृत्य गत्यादि भवतीति दिग्निरूपणपूर्वक तासु गत्यादि निरूपयन् 'तओ दिसे त्यादि सूत्राणि चतुर्द्दशाह - सुगमानि च, नवरं दिश्यते-व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्त्वनयेति दिक् सा च नामादिभेदेन सप्तधा, 4 ॥ १३२ ॥ Education Internation For Par Lise Only मूलं [ १६२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~267~ २ स्थानकाध्ययने ४ उद्देशः ३ सू० १६३ *** अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोषः वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) aru Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम [१७६] आह च-"नाम १ ठवणा २ दविए ३ खेत्तदिसा ४ तावखेत्त ५ पन्नवए ६ । सत्तमिया भावदिसा७ सा होअट्ठारसविहाउ ॥१॥" तत्र द्रव्यप-पुद्गलस्कन्धादेर्दिक द्रव्यदिक, क्षेत्रस्य-आकाशस्य दिक् क्षेत्रदिक, सा चैवं-"अहपएसो रुयगो ति-16 रियलोयस्स मज्झयारंमि। एस पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥१॥" तत्र पूर्वाद्या महादिशश्चतस्रोऽपि द्विप्रदेशा-12 दिका युत्तराः, अनुदिशस्तु एकप्रदेशा अनुत्तराः, ऊर्ध्वाधोदिशौ तु चतुरादी अनुत्तरे, यतोऽवाचि-"दुपएसादि दुरुत्तर ४ एगपएसा अणुत्तरा चेव । चउरो४ चउरो य दिसा चउरादि अणुत्तरा दुन्नि २॥१॥ संगडुद्धिसंठिआओ महादिसाओ हवंति चत्तारि। मुत्तावलीउ चउरो दो चेव य हुँति रुयगनिभा ॥२॥" नामानि चासाम्--"इंदे १ ग्गेयी २ जम्मा य ३ नेरई ४ वारुणी य ५ वायव्वा ६ । सोमा ७ ईसाणावि य ८ विमला य ९ तमा १० य बोद्धव्वा ॥१॥" तापः-सविता तदुपल|क्षिता क्षेत्रदिक् तापक्षेत्रदिक्, सा च अनियता, यत उक्तम्-"जेसिं जत्तो सूरो उदेइ तेसिं तई हवइ पुन्वा । तावक्खेचदिसाओ पयाहिणं सेसियाओ सिं ॥१॥" तथा प्रज्ञापकस्य-आचार्यादेर्दिक प्रज्ञापकदिक्, सा चैवम्-" पन्नवओ जयभिमुहो सा पुच्चा सेसिया पयाहिणओ । तस्सेवऽणुगंतब्वा अग्गेयाई दिसा नियमा ॥१॥" भावदिक् । नाम स्थापना व्यक्षेत्रदिशः तापक्षेत्रप्रज्ञापकाः । सप्तमीका भावदिक् सा भवत्यमादशानिधा एवं ॥१॥२ अप्रदेशो रुचको मन्ये तिर्यग्लोकस्य एष प्रभवो |दिशामेष एवानुदिचामपि ॥१॥ रा प्रिदेशादिका अनुत्तरकप्रदेशाव। चतस्रश्चतच दिशः चतरावी अनुत्तरेहे ॥१॥४ाकटोदिगस्थिता महादियो। भवति चतक्षः । मुक्तावलीव चतसोदे एव च भवतो रुचकनिभे ॥१॥ ५ ऐन्दी भामेयी यमा च नैतिर्वारुणी व वायव्या । सोमा देशानी अपि च विमला चहा शनमा च बोद्धव्या ॥१॥ येषां यतः सूर्य उदयते ते सा भवति पूर्वो। तापक्षेत्रविक् प्रदक्षिणं शेषा अस्याः ॥१॥७प्रशापका पूर्वा प्रदक्षिणतः शेषाः । तस्सा एवानुगंतव्याः आमेय्याचा दियो नियमाव ॥१॥ ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम [१७६] श्रीस्थाना-1Bाचाष्टादशविधा-"पुढविश्जलरजलणवायाधमूला५खंधग्गपोरवीया य८ । बिति१०चउ११पंचिंदियतिरिय ३ स्थानझसूत्र (१२ नारगा १३ देवसंघाया १४ ॥१॥ संमुच्छिम १५ कम्मा १६ कम्मभूमगनरा १७ तहतरदीवा १८ । काध्ययने वृत्तिः । भावदिसा दिस्सइ ज संसारी निययमेयाहिं ॥२॥" इति, इह च क्षेत्रतापप्रज्ञापकदिम्भिरेवाधिकारः, तत्र च तिर्यग्ग्रह-| उद्देशः२ णेन पूर्वाद्याश्चतस्र एवं दिशो गृह्यन्ते, विदिक्षु जीवानामनुश्रेणिगामितया वक्ष्यमाणगत्यागतिव्युत्क्रान्तीनामयुज्यमान॥१३३॥ सू०१६४ त्वात्, शेषपदेषु च विदिशामविवक्षितत्वात्, यतोऽत्रैव वक्ष्यति,-" छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तई त्यादि, तथा ग्रन्थान्तरेऽप्याहारमाश्रित्योक्तम्-"निब्वाधारण नियमा छद्दिसिंति" तत्र 'तिहिं दिसाहिति सप्तमी तृतीया पञ्चमी वा यथायोगं व्याख्येयेति, गति:-प्रज्ञापकस्थानापेक्षया मृत्वाऽन्यत्र गमनम्, 'एवं मिति पूर्वोक्ताभिलापसूचनार्थः, आगतिः-प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने आगमनमिति, व्युत्क्रान्तिः--उत्पत्तिः, आहारः प्रतीतः, वृद्भिः शरीरस्य वर्द्धनं, निवृद्धिः-शरीरस्यैव हानिः, गतिपर्यायश्चलनं जीवत एव, समुद्घातो-वेदनादिलक्षणः, कालसंयोगो-वर्तनादिकाललक्षणा नुभूतिः मरणयोगो वा, दर्शनेन-अवध्यादिना प्रत्यक्षप्रमाणभूतेनाभिगमो-बोधो दर्शनाभिगमः, एवं ज्ञानाभिगमः, जी&ीवानां ज्ञेयानां अवध्यादिनैवाभिगमो जीवाभिगम इति । 'तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पन्नत्ते, तं०-उडाए | एवं सर्वत्राभिलपनीयमिति दर्शनार्थं परिपूर्णान्त्यसूत्राभिधानमिति । एतान्यपि जीवाभिगमान्तानि सामान्यजीवसूत्राणि पृथ्वीजलज्जलनवाता मूलस्तधानपर्वबीजाश्च । द्वित्रिचतुःपंचेंद्रिय निर्ममारका देवसंघाताः ॥ १॥ समूछिमकर्मावर्मभूमिगनराससथान्तरद्वीपगाः भावदिशो R॥१३३॥ व्यपदिश्यते बरसंसारी नियतमेताभिः ॥१॥ RESSETTE ~ 269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम [१७६] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ १६३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः चतुर्विंशतिदण्ड कचिन्तायां तु नारकादिपदेषु दिक्त्रये गत्यादीना त्रयोदशानामपि पदाना सामस्त्येनासम्भवात् पश्वेन्द्रि-' यतिर्यक्षु मनुष्येषु च तत्सम्भवात् तदतिदेशमाह- 'एव' मित्यादि, यथा सामान्यसूत्रेषु गत्यादीनि त्रयोदश पदानि विकत्रये अभिहितान्येवं पञ्चेन्द्रियतिर्यङमनुष्येष्विति भावः, एवं चैतानि षडिंशतिः सूत्राणि भवन्तीति ॥ अथैषां नारकादिषु कथमसम्भव इति १, उच्यते, नारकादीनां द्वाविंशतेर्जीवविशेषाणां नारकदेवेपूत्पादाभावादूर्ध्वाधोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शनज्ञानजीवाजीवाभिगमा गुणप्रत्यया अवध्यादिप्रत्यक्षरूपा दित्रये न सन्त्येव, भवप्रत्ययावधिपक्षे तु | नारकज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊर्ध्वावधयः वैमानिका अधोऽवधय एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां स्ववधिर्नास्त्येवेति । यथोक्तानि च गत्यादिपदानि त्रसानामेव सम्भवन्तीति सम्बन्धात्रसान्निरूपयन्नाह तिविहा तसा पं० [सं० तेउकाइया बाउकाइया उराला तसा पाणा, तिविधा थावरा, पं० सं० पुढविकाइया आउकाइया वणरसइकाइया (सू० १६४ ) 'तिविहे 'त्यादि स्पष्ट, किन्तु त्रस्यन्तीति त्रसाः-चलनधम्र्माणः, तत्र तेजोवायवो गतियोगात् त्रसाः, उदाराः-स्थूलाः 'सा' इति श्रसनामकर्मोदयवर्त्तित्वात्, 'प्राणा' इति व्यक्तोच्छ्वासादिप्राणयोगात् द्धीन्द्रियादयस्तेऽपि गतियोगादेव त्रसा इति । उक्तास्त्रसाः, तद्विपर्ययमाह - 'तिविहे 'त्यादि, स्थानशीलत्वात् स्थावरनामकर्मोदयाच्च स्थावराः, शेषं व्यक्तमेवेति । इह च पृथिव्यादयः प्रायो ऽङ्गुलासवेय भागमात्रावगाहनत्वात् अच्छेद्यादिस्वभावा व्यवहारतो भवन्तीति तत्प्रस्तावानिश्चयाच्छेद्यादीनष्टभिः सूत्रैराह Education Internation For Parts Only ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ३ स्थानकाध्ययने उद्देश: सू० १६६ [१६५] ॥१३४॥ 1% दीप अनुक्रम [१७८] ततो अकछेजा पं० सं०-समये पदेसे परमाणू १, एवमभेजा २ अडझा ३ अगिशा ४ अणडा ५ अमज्जा ६ अपएसा ७ ततो अविभातिमा पं०२०-समते पएसे परमाणू ८ (सू०१६५) अजोति समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे णिगंथे आमंतेत्ता एवं बयासी-किंभवा पाणा? समणाउसो', गोयमाती समणा णिगंधा समर्ण भगवं महावीर उवसंकर्मति उपसंकमित्ता वदंति नमसंति बंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-जो खलु वयं देवाणुप्पिया! एयम8 जाणामो वा पासामो बा, तं जदि ण देवाणुप्पिया एयमझु णो गिलायति परिकहित्तते तमिच्छामो णं देवाणुप्पियाणं - तिए एवमह जाणित्तए, अजोत्ति समणे भगवं महावीरे गोयमाती समणे निमगंथे आमंतेचा एवं वयासी-दुक्खभया पाणा समणाउसो', से णं भंते! दुक्खे केण कडे, जीवेणं कडे पमादेण २, से णं भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जति ?, अप्पमाएर्ण ३ (सू० १६६) 'तओ अच्छेज्जेत्यादि, छेत्तुमशक्या बुद्ध्या क्षुरिकादिशस्त्रेण वेत्यच्छेद्याः, छेद्यत्वे समयादित्वायोगादिति, समयःकालविशेषः प्रदेशो-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां निरवयवोर्डवाः परमाणु:-अस्कन्धः पुद्गल इति, उक्तंच-सत्येण | सुतिक्खणवि छेत्तुं भेनु पजं किर न सका । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ॥१॥"ति, एवं'मिति पूर्वसूत्राभिलापसूचनार्थ इति, अभेद्याः सूच्यादिना अदाह्या अग्निक्षारादिना अग्राह्या हस्तादिना न विद्यतेऽ येषामित्यनद्धों विभागद्वयाभावात् , अमध्या विभागत्रयाभावात् , अत एवाह-'अप्रदेशा' निरवयवाः, अत एवाविभाज्या-विभक्तुमश सतीपणेनापि शस्त्रेण हेतु भेत्तुं च यः किल न शक्यते तं वदन्ति परमाणुं ज्ञानसिद्धाः प्रमाणानामादि ॥५॥ ( H1१३४॥ ~ 271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६६] क्याः, अथवा विभागेन निवृत्ता विभागिमास्तन्निषेधादविभागिमाः। एते च पूर्वतरसूत्रोक्ताः त्रसस्थावराख्याः प्राणिनो दुःखभीरव इत्येतत् संविधानकद्वारेणाह-'अजों' इत्यादि, सुगम, केवलम् 'अज्जोत्ति'त्ति आरात् पापकर्मभ्यो याता | आर्यास्तदामन्त्रणं हे आर्या ! 'इति' एवमभिलापेनामध्येतिसम्बन्धः, श्रमणो भगवान् महावीर गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्धानेव-वक्ष्यमाणन्यायेनावादीदिति, कस्माद् भयं येषां ते किंभयाः, कुतो विभ्यतीत्यर्थः, 'प्राणाः' प्राणिनः 'स मणाउसो'त्ति हे श्रमणाः! हे आयुष्मन्त इति गौतमादीनामेवामन्त्रणमिति, अयं च भगवतः प्रश्नः शिष्याणां व्युसाद-12 ४/नार्थ एव, अनेन चापृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तत्त्वमाख्येयमिति ज्ञापयति, उच्यते च--"कत्थइ पुच्छइ सीसो 8 कहिंधऽपुहा वयंति आयरिया। सीसाणं तु हियहा विउलतरागं तु पुच्छाए ॥१॥" इति, ततश्च 'उवसंकमंति'त्ति उपसङ्कामन्ति-उपसङ्गच्छन्ति तस्य समीपवर्तिनो भवन्ति, इह च तत्कालापेक्षया क्रियाया वर्तमानत्वमिति वर्तमाननिर्देशो न दुष्टः, उपसङ्कम्य वन्दन्ते स्तुत्या नमस्यन्ति प्रणामतः, 'एवम् अनेन प्रकारेण 'वयासि'त्ति छान्दसत्वात् बहुवचनार्थे एकवचनमिति अवादिषुः उक्तवन्तो नो जानीमो विशेषतः नो पश्यामः सामान्यतो, वाशब्दौ विकल्पार्थों, PI'तदिति तस्मादेतमर्थ-किंभयाः प्राणा इत्येवलक्षणं, 'नो गिलायंति'त्ति न ग्लायन्ति-न श्राम्यन्ति परिकथयितुं परिकथनेन तंति ततः, 'दुक्खभय'त्ति दुःखात्-मरणादिरूपात् भयमेषामिति दुःखभयाः, 'से गंति तद् दुःख |'जीवेणं कडेत्ति दुःखकारणकर्मकरणात् जीवेन कृतमित्युच्यते, कथमित्याह-पमाएण'ति प्रमादेनाज्ञानादिना १ चित्पृषति शिष्यः कचिचापृष्ठा बदन्त्याचार्याः । शिष्याणां हितायव विपुलतर तु पृच्छायां ॥३॥ दीप अनुक्रम [१७९] ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६६] श्रीस्थाना- मसूत्रवृत्तिः ॥१३५॥ 6468055* दीप अनुक्रम [१७९] वन्धहेतुना करणभूतेनेति, उक्तंच-"पमाओ य मुर्णिदेहि, भणिओ अहमेयो । अनाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं| स्थानतहेव य ॥१॥रागो दोसो मइन्भंसो, धम्ममि य अणायरो । जोगाणं दुष्पणीहाणं, अहहा बजियवओ॥२॥" काध्ययने इति । तच्च वेद्यते-क्षिप्यते अप्रमादेन, बन्धहेतुप्रतिपक्षभूतत्वादिति । अस्य च सूत्रस्य कुश्खभया पाणा १ जीवेणं कडे उद्देशः २ दुक्खे पमाएणं २ अपमाएणं बेइज्जई ३ त्येवरूपप्रश्नोत्तरत्रयोपेतत्वात् त्रिस्थानकावतारो द्रष्टव्य इति ॥ जीवेन कृतं सू०१६७ का दुःखमित्युक्तमधुना परमतं निरस्यैतदेव समर्धयन्नाह अन्नउत्थिता गं भंते! एवं आतिक्वंति एवं भासंति एवं पन्नति एवं परूवंति कहनं समणाणं निग्गंधाणं किरिया कजति ?, तत्थ जा सा कडा कज्जइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा नो कजति, नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा नो कजति नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कजति तं पुच्छंति, से एवं दत्तव्वं सिता-अकिचं दुखं अफुसं दुक्खं अकजमाणकडं दुखं अकटु अकहु पाणा भूया जीवा सत्ता वेवणं वेदेतित्ति वत्तव्वं, जे ते एवमाईसु मिच्छा ते एवमाईसु, अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पनवेमि एवं परूवेमि-किचं दुक्खं फुस्सं दुक्खं फज़माणकर्ड दुक्खं कटु २ पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयतित्ति वत्तव्य सिया (सू० १६७) तइयठाणस्स बीओ उद्देसओ समत्तो॥ 'अन्नउत्थी'त्यादि प्रायः सष्टं, किन्तु अन्ययूथिकाः-अन्यतीर्घिका इह तापसा विभङ्गज्ञानवन्तः, 'एवं' वक्ष्य ॥१३५॥ १ प्रमादव मुनीन्दर्भनितोऽटभेदः। अज्ञानं संशयथैव, मिभ्याक्षानं तथैव चारागो द्वेषो मतिभ्रंशो धर्मे वानादरः योगाना दुष्प्रणिधान अध्या जयितव्यः ॥१॥ ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६७] माणप्रकारमाख्यान्ति सामान्यतो भाषन्ते विशेषतः क्रमेणैतदेव प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्तीति पर्यायरूपपदद्वयेन उक्तमिति, अथवा आख्यान्ति ईषद् भाषन्ते व्यक्तवाचा प्रज्ञापयन्ति उपपत्तिभिर्बोधयन्ति प्ररूपयन्ति प्रभेदादिकथनत इति, किं तदित्याह-कथं केन प्रकारेण 'श्रमणानां निग्रन्थानां मते इति शेषः क्रियते इति क्रिया-कर्म सा 'क्रियत्ते' भवति दु:खायेति विवक्षयेति प्रश्नः, इह तु चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-कृता क्रियते-विहितं सत्कर्म दुःखाय भवतीत्यर्थः १, एवं कृतान क्रियते २ अकृता कियते ३ अकृता न कियते ४ इति, एतेष्वनेन प्रश्नेन यो भङ्गाः प्रष्टुमिष्टस्तं शेषभजानिराकरणपूर्वकमभिधातुमाह'तस्थ'त्ति तेषु चतुर्यु भङ्गकेषु मध्ये प्रथम द्वितीयं चतुर्थं च न पृच्छन्ति, एतत्रयस्यात्यन्तं रुचेरविषयतया तत्पश्नस्थाप्यप्रवृत्तेरिति, तथाहि-'याऽसौ कृता क्रियते' यत्तत्कर्म कृतं सद्भवति नो तत्ते पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन निम्रन्थमतत्वेन चासंमतत्वादिति, 'तत्र याऽसौ कृता नो क्रियते' इति तेषु-भङ्गाकेषु मध्ये यत्तत्कर्म कृतं न भवति नो तत्पृच्छन्ति, अत्यन्तविरोधेनासम्भवात् , तथाहि-कृतं चेत् कर्म कथं न भवतीत्युच्यते?, न भवति चेत् कथं कृतं तदिति, कृतस्य कर्मणोऽभवनाभावात् , 'तत्र' तेषु 'याऽसावकृतां यत्तदकृतं कर्म 'नो क्रियते' न भवति नो तां पृच्छन्ति, अकृतस्यासतश्च कर्मणः खरविषाणकल्पत्वादिति, अमुमेव च भङ्गकत्रयनिषेधमाश्रित्यास्य सूत्रस्य त्रिस्थानकावतार इति सम्भाव्यते, तृतीयभङ्गकस्तु तत्संमत इति तं पृच्छन्ति, अत एवाह-तत्र 'याऽसावकृता क्रियते' यत्तदकृत-पूर्वमविहितं कर्म भवति-दुःखाय सम्पद्यते तां पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्थाप्रत्यक्षतया असत्वेन लादुखानुभूतेश्च प्रत्यक्षतया सत्वेनाकृतकर्मभवनपक्षस्य सम्मतत्वादिति, पृच्छतां चायमभिप्रायो-यदि निर्गन्धा अपि | BROTHERNKAR दीप अनुक्रम [१८०] AREauratan international ~274~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१६७] दीप अनुक्रम [१८०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१६७ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र ॥ १३६ ॥ अकृतमेव कर्म्म दुःखाय देहिनां भवतीति प्रतिपद्यन्ते ततः सुष्ठु - शोभनं अस्मत्समानबोधत्वादिति शेषानपृच्छन्तः तृ-स्थानतीयमेव पृच्छन्तीति भावः, 'से'त्ति अथ तेषामकृतकर्माभ्युपगमवतामेवं वक्ष्यमाणप्रकारं वक्तव्यम्-उल्लापः स्यात्, त ७ काध्ययने वृत्तिः है एव वा एवमाख्यान्ति परान् प्रति यदुत अथैवं वक्तव्यं-प्ररूपणीयं तत्ववादिनां स्यात् भवेद्, अकृते सति कर्म्मणि उद्देशः २ * दुःखभावात् अकृत्यम् - अकरणीयमबन्धनीयम् - अप्राप्तव्यमनागते काले जीवानामित्यर्थः, किं ? 'दुक्खं दुःखहेतुत्वात् सू० १६७ ४ कर्म, 'अफुस्सं'ति अस्पृश्यं कर्म अकृतत्वादेव, तथा क्रियमाणं च वर्त्तमानकाले बध्यमानं कृतं चातीतकाले बद्धं क्रिय| माणकृतं द्वन्द्वैकत्वं कर्म्मधारयो वा न क्रियमाणकृतमक्रियमाणकृतं, किं तत् ? - दुःखं कर्म 'अकिचं दुक्ख मित्यादिपदत्रयं, 'तत्थ जा सा अकडा कलह तं पुच्छं त्यन्यतीर्थिकमताश्रितं कालत्रयालम्बनमाश्रित्य त्रिस्थानकावतारोऽस्य द्रष्टव्यः किमुक्तं भवतीत्याह-अकृत्वा अकृत्वा कर्म प्राणा द्वीन्द्रियादयः भूता:-तरवो जीवाः - पश्चेन्द्रियाः सत्त्वाः पृथिव्यादयो यथोक्तम् - "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पथेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वाः प्रकीर्त्तिताः ॥ १ ॥” इति वेदना-पीडां वेदयन्तीति वक्तव्यमित्ययं तेषामुहापः, एतद्वा ते अज्ञानोपहतबुद्धयो भाषन्ते परान् प्रति, यदुत एवं वक्तव्यं स्यादिति प्रक्रमः ॥ एवमन्यतीर्थिकमतमुपदार्थ निराकुर्वन्नाह - 'जे ते' इत्यादि, य एते अन्यतीर्थिका एवम् उक्तप्रकारमाहंसुत्ति-उक्तवन्तः 'मिथ्या' असम्यक् ते अन्यतीर्थिका एवमुक्तवन्तः, 'आहेसुति उक्तवन्तः, अकृतायाः क्रियात्वानुपपत्तेः क्रियत इति हि क्रिया, यस्यास्तु कथञ्चनापि करणं नास्ति सा कथं क्रियेति, अकृतकर्मानुभवने हि बद्धमुकसुखितदुःखितादिनियतव्यवहाराभावप्रसङ्ग इति, स्वमतमाविष्कुर्वन्नाह - 'अह'मि For Pernal Use On ~275~ ॥ १३६ ॥ www.anibrary.org Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६७] 15945456455 दीप अनुक्रम [१८०] त्यादि 'अहंति अहमेव नान्यतीर्थिकाः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः स च पूर्ववाक्यादुत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षणतामाह, 'एवमाइक्खामी'त्यादि पूर्ववत्, कृत्यं करणीयमनागतकाले दुःखं, तद्धेतुकत्वात् कर्म, स्पृश्य-स्पृष्टलक्षणवन्धावस्थायोग्य क्रियमाणं वर्तमानकाले कृतमतीते, अकरणं नास्ति कर्मणः कथञ्चनापीति भावः, स्वमतसर्वस्वमाह-कृत्वा कृत्वा कर्मेति गम्यते, प्राणादयो वेदनां-कर्मकृतशुभाशुभानुभूतिं वेदयन्ति-अनुभवन्तीति वक्तव्यं स्यात् सम्यग्वादिनामिति । [विस्थानकस्य द्वितीय उद्देशको विवरणतः समाप्तः ॥ उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके विचित्रा जीवधर्माः प्ररूपिताः इहापि त एवं प्ररूप्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रत्रयम्-. तिहिं ठाणेहिं माथी माय फट्ट णो आलोतेजा णो पडिकमेजा णो गिदिज्जा णो गरहिजा णो विजडेजा णो विसोहेला णो अकरणाते अम्भुढेजा णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिबज्जेजा, ०-अकरिसु वाऽहं करेमि वाऽहं करिस्सामि वाई१ । तिहिं ठाणेहिं माथी मायं कह णो आलोतेज्जा णो पडिकमिजा जाव णो पडिबजेजा अकित्ती वा मे सिता अवण्णे वा मे सिया अविणते वा मे सिता २ तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्ट णो आलोएजा जाव नो पडिवजेला सं० -कित्ती वा में परिहातिस्सति जसो वा मे परिहातिस्सति पूयासकारे वा में परिहातिस्सति ३ । तिहिं ठाणेहि माथी मायं कटु आलोएज्जा पतिकमेजा जाव पडिबज्जेजा तं०-मायिस्स णं अस्सि लोगे गरहिते भवति उववाए गरहिए भवति आयाती गरहिया भवति । तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएज्जा जाय पडिवोजा सं०-अमाथिस्स णं -64625 अत्र तृतीय-स्थानस्य द्वितीय -उद्देशक: समाप्त:, अथ तृतीय-उद्देशकः आरभ्यते ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८] श्रीस्थाना- अरिंस लोगे पसरथे भवति उवयाते पसत्थे भवइ आयाई पसत्था भवति ५। तिहिं ठाणेहिं मायी मार्य कटु आलोएजा ३ स्थानलसूत्रजाव पढिवजेजा, तं०-णाणवताते दसणट्ठयाते चरित्तद्वयाते ६ । (सू० १६८) काध्ययने वृत्तिः 'तिहिं ठाणेही त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वसूत्रे मिथ्यादर्शनवतामसमञ्जसतोक्का, इह तु कषायवतां उद्देशा३ ॥१३७॥ तामाहेत्येवंसम्बन्धस्यास्य ब्याख्या-'मायीं' मायावान् 'माया' मायाविषयं गोपनीयं प्रच्छन्नमकार्य कृत्वा नो आलो- सू० १६८ चयेत् मायामेवेति, शेष सुगम, नवरं आलोचनं-गुरुनिवेदनं प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतदानं निन्दा-आत्मसाक्षिका गाँ-14 गुरुसाक्षिका वित्रोटन-तदध्यवसायविच्छेदनं विशोधनम्-आत्मनः चारित्रस्य वा अतीचारमलक्षालनं अकरणताभ्युत्थानंपुन तत् करिष्यामीत्यभ्युपगमः'अहारिहं यथोचितं 'पायच्छितंति पापच्छेदकं प्रायश्चित्तविशोधकं वा तपःकर्म-निर्विकृतिकादि प्रतिपद्येत, तद्यधा-अकार्षमहमिदमतः कथं निन्द्यमित्यालोचयिष्यामि स्वमाहात्म्यहानिप्राप्तेरित्येवमभिमानात् १ तथा करोमि चाहमिदानीमेव कथमसाध्विति भणामि २ करिष्यामीति चाहमेतदकृत्यमनागतकालेऽपि कथं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य इति । कीर्तिः-एकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः सर्वदिग्गामिनी सैव वर्णो यशःपर्यायवादस्य अथवा दानपुण्यफला| कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः, तच वर्ण इति तयोः प्रतिषेधोऽकीर्तिः अवर्णश्चेति, अविनया साधुकृतो मे स्यादिति, इदं च सूत्रमप्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्षं, 'मायं कहुत्ति मायां कृत्वा-मायां पुरस्कृत्य माययेत्यर्थः, 'परिहास्यति' हीना भविष्यति पूजा पुष्पादिभिः सत्कारो वस्त्रादिभिः, इदमेकमेव विवक्षितमेकरूपत्वादिति, इदं तु प्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्षं, शेष सुग-15॥१२७ जामम् ॥ उक्तविपर्ययमाह-'तिही'त्यादि सूत्रत्रयं स्पष्ट, किन्तु 'मापी मायं कह आलोएजत्ति इह मायी अकृत्यकर-18 दीप अनुक्रम [१८१] CSC A ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: *-40- प्रत सूत्रांक [१६८] * Aणकाल एव आलोचनादिकाले त्वमाय्येव आलोचनाद्यन्यधानुपपत्तेरिति, 'अस्सि'ति अर्य, यतो मायिन इहलोकाद्या गहिंता भवन्ति यतश्चामायिन इहलोकाद्याः प्रशस्ता भवन्ति यतश्चामायिन आलोचनादिना निरतिचारीभूतस्य ज्ञानादीनि स्वस्वभावं लभन्ते अतोऽहममायी भूत्वाऽऽलोचनादि करोमीति भावना ॥ अनन्तरं शुद्धिरुक्ता, इदानीं तत्कारिणोऽभ्यन्तरसम्पदा त्रिधा कुर्वन्नाह ततो पुरिसजाया पं० २०-मुत्तधरे अत्यधरे तदुभयधरे (सू० १६९) कप्पति णिग्गंधाण वा णिग्गंधीण वा ततो वस्थाई धारित्तए वा परिहरित्तते वा, तं०-जंगिते भंगिते खोमिते १, कप्पद णिग्गंधाण वा णिमगंधीण वा २ ततो पायाई धारित्तते वा परिहरित्तते वा, तं०-लाउयपादे वा दारुपादे वा मट्टियापादे वा (सू० १७०) विहिं ठाणेहिं वर्थ धरेज्जा, तं०-हिरिपत्तितं दुगुंछापत्तियं परीसहवत्तिय (सू० १७१) तओ आयरक्सा ५० सं०-धम्मियाते पडिचोयणाते पछिचोएता भवति तुसिणीतो वा सिता उद्वित्ता वा आताते एगंतमंतमवकमेजा णिगंधस्स णं गिलाथमाणरस कप्पति ततो वियडदत्तीओ पडिग्गाहित्तते, तं०-उकोसा मज्झिमा जहन्ना (सू० १७२) 'तओ पुरी'त्यादि सुबोध, नवरमेते यथोत्तरं प्रधाना इति । तेषामेव बाह्य सम्पदं सूत्रद्वयेनाह-कप्पती'ति कल्पते' युज्यते युक्तमित्यर्थः, 'धारित्तएति धर्नु परिग्रहे 'परिहत्तुं परिभोक्तुमिति, अथवा "धारणया उवभोगो, परिहरणे होइ परिभोग'त्ति । 'जंगियं जंगमजमौर्णिकादि "भंगियं' अतसीमय 'खोमियं' का सिकमिति। अलावुपात्रक-तु १धारगदोपभोगः परिहरणं भवति परिभोगः. %2544454545446 दीप अनुक्रम [१८१] ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक वृत्तिः [१७२] ॥१३८॥ दीप अनुक्रम [१८५] का म्बक, दारुपात्रं-काष्ठमयं मृत्तिकापात्रं-मृन्मयं शराववाघटिकादि, शेपं सुगमं । वस्त्रग्रहणकारणान्याह-'तिहीं'त्यादि, स्थानही-लज्जा संयमो वा प्रत्ययो-निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा-प्रवचनखिंसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भूदित्येवं प्र- काध्ययने त्ययो यत्र तत्तथा, एवं परीपहाः-शीतोष्णदंशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा, आह च-"वेवि वाउड़े वाइए य हीरि-15 उद्देशः३ खद्धपजणणे चेव । एसिं अणुग्गहट्ठा लिंगुदयहा य पट्टो उ ॥१॥” ('बेउवित्ति विकृते तथा 'अप्रावृते' वखाभावे सति सू०१७२ 'वातिकेच उच्छूनत्वभाजने हियां सत्यां 'खट्टे' वृहत्यमाणे 'प्रजनने मेहने 'लिमोदय'त्ति स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षार्थमित्यर्थः) तथा, "तंणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुकझाणट्ठा । दिहं कप्पग्गहणं गिलाणमरणया चेव ॥१॥" इति, वस्त्रस्य ग्रहणकारणप्रसङ्गात् पात्रस्यापि तान्याख्यायन्ते,-"अंतरंतबालवुहा सेहाऽऽदेसा गुरू असहुवग्गो । साहारणोग्गहालद्धिकारणा पायगहणं तु ॥१॥" (अतरंतत्ति-ग्लाना आदेशाः-प्राघूर्णकाः, 'असहुत्ति सुकुमारो राजपुत्रादिप्रबजितः 'साधारणावग्रहात्' सामान्योपष्टम्भार्थ अलब्धिकार्थ चेति)। निर्गन्थप्रस्तावान्निर्गन्धानेवानुष्ठानतः सप्तसूत्र्याऽऽह-'तओ आए'त्यादि सुगमा, नवरम् आत्मानं रागद्वेषादेरकृत्या भवकूपाद्वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः 'धम्मियाए पडिचोयणाए'त्ति धार्मिकेणोपदेशेन-नेदं भवादृशां विधातुमुचितमित्यादिना प्रेरयिता-उपदेष्टा भवति अनुकूलेतरोपसगेकारिणः, ततोऽसावुपसर्गकरणान्निवर्त्तते ततोऽकृत्यासेवा न भवतीत्यतः आत्मा रक्षितो भवतीति, तूष्णीको वा वार्चयम विकृतेऽप्रायते उच्छूिते वातिके व हीः महन्मेहने चैव एषां चानुग्रहार्थ लिंगोदयेरक्षार्थ पEः ॥ १॥ २ तृणप्रणानलसेवानिवारणाय धर्मशा ॥१३८॥ ध्यानाय ग्लानाय मरणार्थाय वर कापमहर्ण ॥१॥३ग्लानवादानुपस्थापितमाघूर्णकाचार्यराजपुत्रादीनां साधारणोपबहार्थ अलब्धिका थ पात्रपदणम् ॥१॥ ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७२] दीप अनुक्रम [१८५] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १७२] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] उपेक्षक इत्यर्थः स्यादिति २, प्रेरणाया अविषये उपेक्षणासामर्थ्यं च ततः स्थानादुत्थाय 'आय ( आए ) 'त्ति आत्मना एकान्तं - विजनं अन्तं भूविभागमवक्रामेत् गच्छेत् । निर्ग्रन्थस्य ग्लायतः - अशक्नुत्रतः, तृड्वेदनादिना अभिभूयमानस्येत्यर्थः, आहारग्रहणं हि वेदनादिभिरेव कारणैरनुज्ञातं । 'तओ'ति तिस्रः 'विषड'त्ति पानकाहारः, तस्य दत्तयः- एकप्रक्षेपप्रदानरूपाः प्रतिग्रहीतुम्-आश्रयितुं वेदनोपशमायेति, उत्कर्ष :- प्रकर्षः तद्योगादुत्कर्षा उत्कर्षतीति वोत्कर्षा उत्कृष्टेत्यर्थः, प्रचुरपानकलक्षणा, यया दिनमपि यापयति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव वितृष्णो भवति यापनामात्रं वा लभते, अथवा पानकविशेषादुत्कृष्टाद्या वाच्याः, तथाहि - कलमकाञ्जिकावश्रावणादेः द्राक्षापानकादेव प्रथमा १ पष्ठिका [दि] काञ्जिकादेर्मध्यमा २ तृणधान्य काञ्जिकादेरुष्णोदकस्य वा जघन्येति, देशकालस्वरुचिविशेषाद्वोत्कर्षादि नेयमिति । तिर्हि ठाणेहिं समणेनिगं साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णातिक्रमति तं सतं वा दहुं, सस्स वा निसम्म, तवं मोसं आउट्टति चत्थं नो आउट्टति (सू० १७३) विविधा अणुन्ना पं० नं० - आयरिवत्ताए उवज्झायन्तार गणिताते। तिविधा समणुन्ना पं० नं० - आयरियत्ताते उवज्झायत्ताते गणित्ताते, एवं उवसंपया, एवं विजहणा (सू० १७४ ) 'सामियंति समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकस्तं सम्-एकत्र भोगो-भोजनं सम्भोगः- साधूना समानसामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षणः स विद्यते यस्य स साम्भोगिकः तं विसम्भोगो-दानादिभिरसंव्यवहारः स यस्यास्ति स विसम्भोगिकस्तं कुर्वन् नातिक्रामति-न खत्यत्याज्ञां सामायिकं वा विहितकारित्वादिति, स्वयमात्मना साक्षात् दृष्ट्वा सम्भोगिकेन क्रियमाणामसंभोगिकदानग्रहणादिकामसमाचारों, तथा 'सहस्स'ति श्रद्धा Education Internation For Parts Only ~ 280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥१३९॥ दीप अनुक्रम [१८७] श्रद्धानं यस्मिन् अस्ति स श्राद्धः-श्रद्धेयवचनः कोऽप्यन्यः साधुस्तस्य वचनमिति गम्यते 'निशम्य' अवधार्य, तथा स्थान'तचंति एक द्वितीयं यावत् तृतीयं 'मोसंति मृपावादं अकल्पग्रहणयावस्थदानादिना सावद्यविषयप्रतिज्ञाभङ्गलक्ष- काध्ययने णमाश्रित्येति गम्यते, 'आवर्तते' निवर्तते तमालोचयतीत्यर्थः, अनाभोगतस्तस्य भावात् प्रायश्चित्तं चास्योचितं दीयते, उद्देशः ३ चतुर्थं त्वाश्रित्य प्रायो नो आवतते-तं नालोचयति, तस्य दर्पत एवं भावादिति, आलोचनेऽपि प्रायश्चित्तस्यादानम- सू०१७४ स्येति, अतश्चतुर्थासम्भोगकारणकारिणं विसम्भोगिकं कुर्वनातिकामतीति प्रकृतम् , उक्तं च "एगं व दो व तिन्नि व आउदृतस्स होइ पच्छित्तं । आउद्धृतेऽवि तओ परिणे तिण्हं विसंभोगो ॥१॥” इति, एतचूर्णि:-से संभोइओ असुद्धं गिण्हंतो चोइओ भणइ-संता पडिचोयणा, मिच्छामि दुकडं, ण पुणो एवं करिस्सामो, एवमाउट्टो जमावन्नो तं पायच्छिसं दाऊं संभोगो । एवं बीयवाराएवि, एवं तइयवाराएवि, तइयवाराओ परओ चउत्थवाराए तमेवाइ-14 यार सेविऊण आउदृतस्सवि विसंभोगों' इति, इह चाद्यं स्थानद्वयं गुरुतरदोषाश्रयं, यतस्तत्र ज्ञातमात्रे श्रुतमात्रे च विसंभोगः क्रियते, तृतीयं त्वल्पतरदोषाश्रय, तत्र हि चतुर्थवेलायो से विधीयत इति । 'अणुन्न'त्ति, अनुज्ञानमनुज्ञाअधिकारदानं, आचर्यते-मर्यादावृत्तितया सेव्यत इत्याचार्यः, आचारे वा पश्चप्रकारे साधुरित्याचार्यः, आह च एकशो वा द्विकत्वविकृत्वो वा आवर्तमानस्य भवति प्रायविसं आवर्तमानस्यापि ततस्त्रयाणां परत: विसंभोगः ॥१॥ २ स सांभोगिको कार्य राईधोवितो भणति सती प्रतिचोदना मिथ्या मे दुष्कृतं न पुनरेवं करिष्यामि एवमात्ते यदापनसत् प्रायवित्तं दया संभोगः । एवं द्वितीयबारायामपि, एवं तृतीवारायामपि, तृतीयवारायाः परतश्चतुर्धवारायां तमेवातिचार सेवयित्वा आवर्तमानस्यापि विसंभोगः, GAN आचार्य शब्दस्य व्याख्या ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ १७४ ] दीप अनुक्रम [१८७] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक (3) स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .......... Internationa - "पंचविहं आयारं आवरमाणा तहा पयासंता आयारं दंसेन्ता आयरिया तेण वुच्छंति ॥ १ ॥” तथा “सुत्तत्थविक लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य । गणतत्तिविष्पमुको अत्थं वाएइ आयरिओ ॥ २ ॥ तद्भावस्तत्ता तया, उत्तरत्र ग णाचार्यग्रहणादनुयोगाचार्य तयेत्यर्थः तथा उपेत्याधीयतेऽस्मादित्युपाध्यायः, आह च- "संमेत्तनाणदंसणजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्नू । आयरियठाणजोगो सुत्तं वाएइ उबझाउ ॥ १ ॥” इति ॥ तद्भाव उपाध्यायता तथा, तथा गणः - साधुसमुदायो यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासौ गणी - गणाचार्यस्तद्भावस्तत्ता तया, गणनायकतयेति भाव इति, तथा समितिसङ्गता औत्सर्गिक गुणयुक्तत्वेनोचिता आचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा, तथाहि - अनुयोगाचार्य स्यात्सर्गिक गुणाः “तैम्हा वयसंपन्ना कालोचिय गहियसयलसुत्तस्था । अणुजोगाणुण्णाए जोगा भणिया जिनिंदेहिं ॥ १ ॥ इहपर (रहा) मोसावाओ पवयणखिंसा य होइ लोयंमि । सेसाणवि गुणहाणी तित्थुच्छेओ य भावेणं ॥ २ ॥” इति गणाचार्योऽप्यात्सर्गिक एवं"सुत्तत्थे निम्माओ पियदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपन्नो गंभीरो लद्धिमंतो य ॥ १ ॥ संगहुबग्गहनिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी य । एवंविहो उ भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥ २ ॥” अथैवंविधगुणाभावे अनुज्ञाया १] पंचविधमाचारे आचरन्तस्तथा प्रकाशयन्तः आचारं दर्शयन्त आचार्यारतेन उच्यन्ते ॥ १ ॥ सूत्रार्थं विलक्षणयुक्तो गच्छस्याधारभूत गणराप्तिविप्रमुक्तोऽर्थे वाचाचार्यः ॥ २ ॥ २ सम्यक्त्यज्ञानदर्शनयुक्तः सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः आचार्यस्थानयोग्यः सूत्रं माचयत्युपाध्यायः ॥ १ ॥ ३ तस्माद्वतसंपन्नाः गुहीतकालोचितसकलसूषार्थाः । अनुशेगानुज्ञाया योग्या भविता जिनेन्द्रः ॥ १ ॥ इतरथा तु मृषावादः प्रवचननिन्दा च भवति लोके शेषाणामपि गुणहानिस्त्रीयांच्छेदनाश्ता ॥ २ ॥ ४ सूत्रार्थयोर्निमतिः प्रियधर्मानुवर्तमाकुशलः जातिकुलसंपन्नो गंभीरो सन्धिमष ॥ १ ॥ संग्रहोपग्रह निरतः कृतकरणः प्रवचनानुरागी च एवंविध एव भणितो गणखामी जिनवरेन्द्रः ॥ १ ॥ आचार्य, उपाध्याय, गणी आदि शब्दस्य व्याख्या मूलं [ १७४ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 282 ~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७४] दीप अनुक्रम [१८७] श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः ॥ १४० ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १७४ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] काध्ययने उद्देशः ३ सू० १७४ अप्यभावात् कथमन्या समनुज्ञा भविष्यतीति, अत्रोच्यते, उक्तगुणाना मध्यात् अन्यतमगुणाभावेऽपि कारणविशेषात् १ ३ स्थानसम्भवत्येवासौ, कथमन्यथाऽभिधीयते - “जे यावि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुपत्ति नच्चा । हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ १ ॥” इति, अतः केषाञ्चित् गुणानामभावेऽप्यनुज्ञा समग्रगुणभावे तु समनुज्ञेति स्थितम्, अथवा स्वस्य मनोज्ञाः - समानसामाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनोज्ञाः सह वा मनोज्ञैर्ज्ञानादिभि रिति समनोज्ञाः - एकसाम्भोगिकाः साधवः, कथं त्रिविधा इत्याह--' आचार्यतयेत्यादि, भिक्षुक्षुलकादिभेदाः सन्तोऽपि न विवक्षिताः, त्रिस्थानकाधिकारादिति । 'एवं उवसंपय'त्ति, 'एवमित्याचार्यत्वादिभिस्त्रिधा समनुज्ञावत् । उपसंपत्तिरु|पसंपत्-ज्ञानाद्यर्थं भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः, तथाहि कश्चित् स्वाचार्यादिसन्दिष्टः सम्यक् श्रुतग्रन्थानां दर्शनप्रभावकशास्त्राणां वा सूत्रार्थयोर्ग्रहण स्थिरीकरण विस्मृतसन्धानार्थे तथा चारित्रविशेषभूताय वैयावृत्त्याय क्षपणाय वा सन्दि|ष्टमाचार्यान्तरं यदुपसम्पद्यते, उक्तं च- "जैवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरिते य । दंसणणाणे तिविहा दुविहाय चरित अढाए ॥ १ ॥” इति, सेयमाचार्योपसम्पद्, एवमुपाध्यायगणिनोरपीति, 'एवं विजहण'ति 'एव'मित्या|चार्यत्वादिभेदेन त्रिधैव विहानं परित्यागः तच्च आचार्यादेः स्वकीयस्य प्रमाददोषमाश्रित्य वैयावृत्त्यक्षपणार्थमाचार्यान्तरोपसम्पच्या भवतीति, आह च - "नियैगच्छादनंमि उ सीयणदोसाइणा होइ"त्ति, अथवा आचार्यो ज्ञानाद्यर्थमुपस १ ये चापि गुरुं मंद इति विदित्वा बालोऽसावल्पश्रुत इति च हत्या मिध्यात्वं प्रतिपद्यमाना हीलयंति ते गुरूणामाशातनां कुर्वन्ति ॥ १ ॥ २ उपसंप त्रिविधा ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च दर्शनाने त्रिविधा द्विविधा च चारित्रार्थं ॥ १ ॥ ३ निजगच्छादन्यत्र सीदनदोषादिनैव भवति Education Internation For Park Lise Only ~ 283~ ॥ १४० ॥ waryra Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७५]] STOCK+ दीप अनुक्रम [१८८ ECASSESC म्पन्न यति तमर्थमननुतिष्ठन्त सिद्धप्रयोजनं वा परित्यजति यत् साऽऽचार्यविहानिः उक्तं च-"वसंपन्नोज कारण तु तं कारणं अपूरितो । अहवा समाणियंमी सारणया वा विसग्गो वा ॥१॥” इति, एवमुपाध्यायगणिनोरपीति ।। इयम-1 नन्तरं विशिष्टा साधुकायचेष्टा त्रिस्थानकेऽवतारिता, अधुना तु वचनमनसी तत्पर्युदासी च तत्रावतारयन्नाह तिविहे वयणे पं० २०-सव्ववणे तदन्नवयणे णोअवयणे, तिविहे अवयणे पं० सं०-णोतव्ययणे णो सदन्नवयणे अवयणे । तिविहे मणे पं० सं०-सम्मणे तयनमणे णोअमणे, तिविहे अमणे पं० ०-णोतंमणे णोतयन्नमणे, अमणे (सू. १७५) सूत्रचतुष्टयम्, अस्य गमनिका-तस्य-विवक्षितार्थस्य घटादेवचन-भणनं तद्वचनं, पटार्थापेक्षया घटवचनवत्, तस्माद-विवक्षितघटादेरन्यः-पटादिस्तस्य वचनं तदन्यवचनम् , घटापेक्षया पटवचनवत्, नोअवचनम्-अभणननिवृत्ति-| चनमानं डित्यादिवदिति, अथवा सा-शब्दब्युसत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थोऽनेनोच्यत इति तवचनं यथार्थनामेत्यर्थः, ज्वलनतपनादिवत्, तथा तस्मात्-शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टादन्यः-शब्दप्रवृत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थ उच्यते अनेनेति तदन्यवचनमयथार्थमित्यर्थः, मण्डपादिवत्, उभयव्यतिरिक्त नोअवचनं, निरर्थकमित्यों , डित्यादिवत् , अ. थवा तस्य-आचार्यादेर्यचनं तद्वचनं तद्व्यतिरिक्तवचनं तदन्यवचन-अविवक्षितप्रणेतृविशेष नोअवचनं वचनमात्रमित्यर्थः, त्रिविधवचनप्रतिषेधस्त्ववचनं, तथाहि-नोतद्वचनं घटापेक्षया पटवचनवत्, नोतदन्यवचनं घटे घटवचन यत्कारणमानित्योपसंपवलत्कारणगपूरयन् अथवा समानिते (संपूर्णे) सारणता च विसो वा ॥१॥ KA ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना- इसूत्रवृत्तिः ३ स्थान काध्ययने उद्देश:३ सू०१७६ [१७५]] ॥१४१॥ दीप अनुक्रम [१८८ वत्, अवचनं वचनचिवृत्तिमात्रमिति, एवं व्याख्यान्तरापेक्षयाऽपि नेयम् , तस्य-देवदत्तादेस्तस्मिन् वा घटादौ मनस्त- मनः ततो-देवदत्तात् अन्यस्य-यज्ञदत्तादेर्घटापेक्षया पटादौ वा मनस्तदन्यमनः, अविवक्षितसम्बन्धिविशेषं तु मनोमानं| नोअमन इति, एतदनुसारेणामनोऽप्यूद्यमिति ।। अनन्तरं संयतमनुष्यादिव्यापारा उक्ताः, इदानीं तु प्रायो देवव्यापा- सन् 'तिही त्यादिभिरष्टाभिः सूत्रैराह तिहिं ठाणेहिं अस्पबुट्ठीकाते सिता, तं०-तस्सि च णं देसंसि वा पदेससि वा णो बहवे उदगजोणिया जीवा व पोगाला य उदगत्ताते वकर्मति विउकर्मति चयंति उववअंति, देवा णागा जक्खा भूता णो सम्ममाराहिता भवंति, तत्व समुट्ठियं उदगपोग्गलं परिणतं वासितुकामं अन्नं देसं साहति अन्भवलगं च णं समुष्हितं परिणतं वासितुकामं वाउकाए विधुणति, इचेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अप्पबुद्विगाते सिता १ । तिहिं ठाणेहिं महावुट्टीकाते सिता, तंजहा-तंसि च णं देसंसि वा पतेसंसि वा बहवे सद्गजोणिता जीवा य पोग्गला य उदगत्ताते वकर्मति विजयामति चयंति उववजति, देवा जक्खा नागा भूता सम्ममाराहिता भवंति, अन्नत्थ समुट्टितं उदगपोग्गलं परिणयं वासिउकामं देसं साहरति अभबदलगं च णं समुद्विसं परिणयं वासितुकामं णो बाउआतो विधुणति, इतेहिं तिहिं ठाणेहि महाबुद्विकार सिभा २ । (सू०१७६) सुगमानि चैतानि, किन्तु 'अप्पबुढिकाए'त्ति, अल्पः-स्तोकः अविद्यमानो वा वर्षणं वृष्टि:-अधः पतनं वृष्टिप्रधानः। M कायो-जीवनिकायो व्योमनिपतदकाय इत्यर्थः, वर्षणधर्मयुक्तं वोदकं वृष्टिः, तस्याः कायो-राशिवृष्टिकायः, अल्प ॥१४॥ FarPurwanaBNamunoonm ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१७६] %% A दीप अनुक्रम [१८९] ४चासौ वृष्टिकायश्च अल्पवृष्टिकायः स 'स्याद् भवेत् तस्मिंस्तत्र-मगधादौ, चशब्दोऽल्पवृष्टिताकारणान्तरसमुच्चयार्थः, दाणमित्यलङ्कारे, 'देशे जनपदे प्रदेशे-तस्यैवैकदेशरूपे, वाशब्दौ विकल्पाचौं, उदकस्य योनयः-परिणामकारणभूता उदPकयोनयस्त एवोदकयोनिका-उदकजननस्वभावा 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते 'व्यपक्रामन्ति' च्यवन्ते, एतदेव यथायोग पर्यायत आचष्टे-च्यवन्ते उत्पद्यन्ते क्षेत्रस्वभावादित्येक, तथा 'देवा'वैमानिकज्योतिष्काः 'नागा'नागकुमारा भवनपत्यु पलक्षणमेतत् , यक्षा भूता इति व्यन्तरोपलक्षणम्, अथवा देवा इति सामान्य नागादयस्तु विशेषः, एतब्रहणं च प्राय Pापपामेवंविधे कर्मणि प्रवृत्तिरिति ज्ञापनाय, विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति, नोसम्यगाराधिता भवन्ति अविनयकरणाजन पदैरिति गम्यते, ततश्च तत्र-मगधादौ देशे प्रदेशे वा तस्यैव समुस्थितम्-उत्पन्नं उदकप्रधानं पौद्गलं-पुद्गलसमूहो मेघ इत्यर्थः उदकपौद्गलं, तथा 'परिणतं उदकदायकावस्थाप्राप्तम् , अत एव विद्युदादिकरणाद्वर्षितुकामं सदन्यं देशमङ्गादिकं संहरन्ति-जयन्तीति द्वितीय, अभ्राणि-मेघास्तै ईलक-दुर्दिनं अचवईलक 'वाउआए'त्ति वाउकायः प्रचण्डवातो |'विधुनाति' विध्वंसयतीति तृतीयम् 'इचे इत्यादि निगमनमिति, एतद्विपर्यासादनन्तरसूत्रम् । तिहिं ठाणेहिं अहुणोवबन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज माणुस्सं लोग हब्वमागच्छित्तते, णो चेव ण संचातेति हय्यमागपिछत्तए, तं०--अहुणोषयन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने से णं माणुस्सते कामभोगे णो आढाति णो परियाणाति णो अटुं बंधति णो नियाणं पगरेति णो ठिइपकप्पं पकरेति, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिब्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अझोववन्ने तस्स णं माणुस्सए पेम्मे बोच्छिण्णे दिव्वे संकते 5 ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [१९० ] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृति ॥ १४२ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक (3) स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Jan Eaton Internationa - भवति, अणोवबन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते जाव अज्झोववत्रे तस्स णं एवं भवति इयदि न गच्छं हुतं गच्छे, तेणं कालेणमप्पाडया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवति, इचेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अहुणोवनले देवे देवलोगे इच्छेला माणुसं लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते ३ । तिहिं ठाणेहिं देवे अगोवबन्ने देवलोगेसु इच्छेखा माणूसं लोगं हवमागच्छित्तए, संचातेइ हुन्वमागच्छित्तते— अनुणोवबन्ने देवे देवलोगेस दिव्वेसु कामभोगे अमुच्छिते अगिद्धे अगढिते अणज्झोवबन्ने तरस णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सते भवे आयरि तेति वा उवज्झातेति वा पवतीति या थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेदेति वा, जेसिं प्रभावेणं मते इमा एताख्वा दिव्वा देवडी दिव्या देवजुती दिव्ये देवाणुभावे लड़े पत्ते अभिसमन्नागते तं गच्छामि णं ते भगवंते बंदामि मसामि सकारेमि सम्भाणेमि कलाणं मंगलं देवयं चेश्यं पलुवासामि, अहुणोववत्रे देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभो गेसु अमुच्छिए जाव अणझोववने वस्स णं एवं भवति-एस णं माणुस्सते भवे णाणीति वा तवस्सीति वा अतिदुरदु• करकारगे तं गच्छामि णं भगवंतं वंदामि णमंसामि जाय पजुवासामि, अहुणोत्रवन्ने देवे देवलगेगेसु जाव अणज्झोववन्ने, तस्स णमेवं भवति अस्थि णं मम माणुस्सते भवे माताति वा जाव सुहाति वा तं गच्छामि णं तेसिमंतियं पाउन्भवामि पासंतु ता मे इमं एतारूवं दिव्वं देविडिं दिव्वं देवजुतिं दिच्वं देवाणुभावं उद्धं पचं अभिसमन्नागयं, इथेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अद्दुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज माणूस लोग हन्वभागच्छित्तते संचातेति हव्वमागच्छित्तते, ४ ( सू० १७७) For Parts Only मूलं [ १७७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 287 ~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ सू० १७७ ॥ १४२ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७]] दीप अनुक्रम [१९०] अधुनोपपन्नो देवा, केत्याह-देवलोकेविति, इह च बहुवचनमेकस्यैकदा अनेकेपूरपादासम्भवादेकार्थे रश्यं वचनव्यत्ययादेवलोकानेकत्वोपदर्शनार्थ वा अथवा देवलोकेषु मध्ये क्वचिद्देवलोक इति, 'इच्छेदू' अभिलषेत्, पूर्वसङ्गतिकदर्शनाद्यर्थ मानुषाणामयं मानुषस्तं 'हव्वं' शीघं 'संचाएईत्ति शक्नोति, दिवि-देवलोके भवा दिव्यास्तेषु कामौ च-शब्दरूपलक्षणी भोगाश्च-गन्धरसस्पशोंः कामभोगास्तेषु, अथवा काम्यन्त इति कामा:-मनोज्ञास्ते च ते भुज्यन्त इति भोगाः-शब्दादयस्ते च कामभोगास्तेषु मूञ्छित इव मूञ्छितो-मूढः, तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादविबोधाक्षमत्वात् , गृद्धः-तदाकाठगवान् अतृप्त इत्यर्थः, प्रथित इव ग्रथितस्तद्विषयस्नेहरजूभिः सन्दर्भित इत्यर्थः, अध्युपपन्न:-आधिक्येनासक्तोऽत्यन्ततन्मना इत्यर्थः, 'नो आद्रियते' न तेष्वादरवान् भवति 'नो परिजानाति' एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते, नो अर्थ बनाति-एतैरिदं प्रयोजनमिति न निश्चयं करोति, तथा तेषु नो निदान प्रकरोति-पते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा तेष्वेव नो स्थितिप्रकल्पम्-अवस्थानविकल्पनमेतेष्वहं तिष्ठेयमिति एते वा मम तिष्ठन्तुस्थिरीभवन्त्वित्येवंरूपं स्थित्या वा-मर्यादया विशिष्टः प्रकल्पा-आचार आसेवेत्यर्थस्तं 'प्रकरोति कर्तुमारभते, प्रशब्दस्यादिकार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरित्येक कारणं १, तथा यतोऽसावधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मूञ्छितादिविशेषणो भवति ततस्तस्य मानुष्यर्क-मनुष्यविषयं प्रेम-नेहो येन मनुष्यलोके आगम्यते तद् व्यवच्छिन्नं, दिवि भवं दिव्यं-स्वर्गगतवस्तुविषयं सङ्कान्तं-तत्र देवे प्रविष्टं भवतीति दिव्यप्रेमसङ्क्रान्तिरिति द्वितीयम् २, तथाऽसौ देवो यतो दिव्यकामभोगेषु मूच्छितादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् 'तस्स गति तस्य-देवस्य एवं ति एवंप्रकार ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७७] टीप अनुक्रम [१९० ] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १४३ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [(3) स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - Eaton International चित्तं भवति, यथा 'इयपिंहति इत इदानीं न गच्छामि, 'मुहूर्त'ति मुहर्त्तेन गच्छामि कृत्यसमाप्तावित्यर्थः, 'तेणं कालेणं ति येन तत्कृत्यं समाप्यते स च कृतकृत्यत्वादागमनशक्तो भवति तेन कालेन गतेनेति शेषः तस्मिन् वा काले गते, शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, अल्पायुषः स्वभावादेव मनुष्या मात्रादयो यद्दर्शनार्थमाजिगमिषति ते कालधम्र्मेणमरणेन संयुक्ता भवन्ति, कस्यासौ दर्शनार्थमागच्छत्विति असमाप्तकर्त्तव्यता नाम तृतीयमिति ३, 'इचेएही 'त्यादिनिगमनं | ३ || देवकामेषु कश्चिदमूच्छितादिविशेषणो भवति, तस्य च मन इति गम्यते, एवंभूतं भवति - 'आचार्य' प्रतिबोधकप्रत्राजकादिः अनुयोगाचार्यो वा 'इतिः एवंप्रकारार्थो वाशब्दो विकल्पार्थः, प्रयोगस्त्वेवं मनुष्यभवे ममाचार्योऽस्तीति वा, उपाध्यायः -सूत्रदाता सोऽस्तीति वा, एवं सर्वत्र, नवरं प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्त्यादिष्विति प्रवर्ती, उक्तं च- "बसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पयट्टेइ । असहुं च नियत्तेई गणतत्तिल्लो पवती उ ॥ १ ॥” इति, प्रवर्त्तिव्यापारितान् साधून् संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोति इति स्थविरः, उक्तं च--"थिरकरणा पुण थेरो पवत्तिवावारिए अस्थेसु । जो जत्थ सीयइ जई संतबलो तं थिरं कुणइ ॥ १ ॥” इति गणोऽस्यास्तीति गणी - गणाचार्यः, गणधरो - जिनशिष्यविशेषः आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः, उक्तं च- “पिवैधम्मे दधम्मे संविग्गो उज्जुओ य तेयंसी । संगहुवग्गहकुसलो सुत्तत्थबिऊ गणाहिवई ॥ १ ॥” गणस्यावच्छेदो विभागोऽंशोऽस्यास्तीति, यो हि गणांशं १ तपः संयमयोगेषु यो योग्यस्तत्र तं प्रवर्तयति असद्धं च निवर्तयति गणप्तिकरः प्रवर्ती तु ॥ १ ॥ २ स्थिरकरणापुनः स्थविरः प्रवर्तक व्यापारितेष्यर्येषु यो यत्र सीदति यतिस्सलतं स्थिरं करोति ॥ १ ॥ प्रियधर्माधर्माविम कक्ष तेजखी संग्रहोपमहकुशलः सूत्रार्थविद् गणाधिपतिः ॥ १ ॥ For Parts Only मूलं [ १७७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक आदि शब्दस्य व्याख्या ~ 289~ २ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ सू० १७७ ॥ १४३ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [१९०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१७७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति स गणावच्छेदकः, आह च - "उद्धा (भा) बणापहावणखेत्तोवहिमग्गणासु अविसाई । सुत्तत्थतदुभयविऊ गणवच्छो एरिसो होइ ॥ १ ॥” इति, 'इम'त्ति इयं प्रत्यक्षासन्ना एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरे रूपान्तरभाक् सा एतद्रूपा दिव्या-स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा देवानां सुराणामृद्धि :- श्रीर्विमानरलादिसम्पद्देवर्द्धिः, एवं सर्वत्र, नवरं द्युतिः- दीप्तिः शरीराभरणादिसम्भवा युतिर्वा -युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणाऽनु| भाग:-अचिन्त्या वैक्रियकरणादिका शक्तिः लब्धः-उपार्जितो जन्मान्तरे प्राप्तः इदानीमुपनतः अभिसमन्वागतो-भोग्यतां गतः, 'तद्विति तस्मात्तान् भगवतः -पूज्यान् बन्दे स्तुतिभिर्नमस्यामि प्रणामेन सत्करोम्यादरकरणेन वस्त्रादिना वा सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमितिबुद्ध्या 'पर्युपासे' सेवे इत्येकं, 'एस णं'ति 'एषः' अवध्यादिप्रत्यक्षीकृतः मानुष्य के भवे वर्त्तमान इति शेषो, मनुष्य इत्यर्थः, ज्ञानीति वा कृत्वा तपस्वीति वा कृत्वा, किमिति ? -दुष्कराणां सिंहगुहा कायोत्सर्गकरणादीनां मध्ये दुष्करमनुरक्तपूर्वोपभुक्तप्रार्थनापरतरुणीमन्दिरवासाप्रकम्पग्रह्मचर्यानुपालनादिकं करोतीति अतिदुष्करदुष्करकारकः, स्थूलभद्रवत्, 'तत्' तस्माद्गच्छामित्ति-पूर्वमेकवचननिर्देशेऽपीह पूज्यविवक्षया बहुवचनमिति, तान् दुष्करदुष्करकारकान् भगवतो वन्द इति द्वितीयं, तथा 'माया इ वा पिया इ वा भज्जा इ वा भाया इ वा भगिणी इ वा पुत्ता इ वा धूया इ वेत्ति यावच्छडदाक्षेपः स्नुषा - पुत्रभार्या, 'तदि'ति तस्मात् तेषामन्तिके- समीपे 'प्रादुर्भवामि' प्रकटीभवामि, 'ता में'ति तावत् मे ममेति तृतीयं ॥ १] उद्भावनप्रधावनक्षेत्रोपधिमार्गेणास्त्रविषादी सूत्रार्थतदुभयविद्वावच्छेदक ईदृशः ॥१॥ Internationa For Parts Only ~290~ war Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१७८] टीप अनुक्रम [१९१] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्ति: ॥ १४४ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१७८ ] उद्देशक [(3) [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internation मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... स्थान [३], .. आगमसूत्र - *******... रातो ठाणाई देवे पीछेजा ० ० - अहो णं मते संते माणुसं भवं १ आरिते खेत्ते जम्मं २ सुकुलपथायातिं ३, ५ । तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेखा, बले संते वीरिए संते पुरिसकारपरकमे खेमंसि सुभिक्वंसि आवरियउवज्झातेहिं विजमाहिं कसरीरेण णो बहुते सुते अहीते १, अहो णं मते इहलोगपढिवद्वेणं परलेोगपरंमुद्देणं विसयतिसितेणं णो दीहे सामन्नपरिताते अणुपालिते २, अहो णं मते इडिरससायगरुपणं भोगामिसगिद्वेणं णो विसुद्धे चरिते फासिते ३, इथेतेहिं० ६ । ( सू० १७८) तिहिं ठाणेहिं देवे चतिस्सामिति जाणाइ, तंज़हा विमाणाभरणाई णिप्पभाई पासित्ता कप्परुक्ख मिलायमाणं पासित्ता अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणि जाणित्ता, इएहिं ३, ७ । तिहिं ठाणेहिं देवे उब्वेगमागच्छेया, तं० अहो णं मए इमातो एतारूवातो दिव्वातो देविडीओ दिव्याओ देवजुतीतो दिव्बाओ देवाणुभावाओ प तातो लद्धातो अभिसमण्णागतातो चतियव्वं भविस्सति १, अहो णं मते माउओयं पिउसुकं तं तदुभयसंसङ्कं वप्पढमयाते आहारो आहारयव्वो भविस्सति २, अहो णं मते कलम जंबाला असुतीते उब्वेयणिवाते भीमाते गभवसहीते वसियच्वं भविस्स, इचेएहिं तिहिं ३, ८| (सू० १७९) तिसंठिया विमाणा पं० तं० वट्टा सा चउरंसा ३, तत्थ णं जे ते बट्टा विभाणा ते णं पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिता सब्बओ समता पागारपरिक्खित्ता एगदुवारा पनचा तत्थ णं जे ते तसा विमाणा ते णं सिंघाडगसंठाणसंठिता दुहतो पागारपरिक्खित्ता, एगतो वेतिता परिक्खिता तिदुबारा पन्नता, तत्थ णं जे ते चउरंसविमाणा ते णं अक्खाङगसंठाणसंठिता, सम्बतो समंता वेतितापरिक्खित्ता, चउदुवारा पं० । द्वि For Parts Only ~ 291~ ३ स्थान काध्ययने उद्देश: ३ सू० १८० ॥ १४४ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१८०] 155455 पतिविया विमाणा पं० सं०-पणोदधिपतिहिता घणवातपइष्टिया ओवासंतरपइद्वित्ता, तिविधा विमाणा पं० सं०--- अवहिता वेउन्विता परिजाणिता । (सू० १८०) 'पीहेजत्ति स्पृहयेद्-अभिलपेदार्यक्षेत्रम्-अर्द्धपड़िशतिजनपदानामन्यतरत् मगधादि सुकुले-इक्ष्वाकादी देवलोकात् प्रतिनिवृत्तस्याजाति:-जन्म आयाति-आगतिः सुकुलप्रत्याजातिः सुकुलप्रत्यायातिर्वा तामिति । 'परितप्पेज'त्ति | पश्चात्तापं करोति, अहो विस्मये 'सति विद्यमाने बले शारीरे वीर्ये जीवाश्रिते पुरुषकारे अभिमानविशेषे पराक्रमे अभिमान एव च निष्पादितस्वविषये इत्यर्थः, 'क्षेमे' उपद्वाभावे सति 'सुभिः सुकाले सति 'कल्यशरीरेण' नीरोगदेहेनेति सामग्रीसद्भावेऽपि नो बहुश्रुतमधीतमित्येकं, 'विसयतिसिएणति विषयतृषितत्वादिहलोकप्रतिबन्धादिना दीर्घश्रामण्यपर्यायापालनं इति द्वितीय, तथा ऋद्धिः-आचार्यत्वादी नरेन्द्रादिपूजा रसा-मधुरादयो मनोज्ञाः सातसुखमेतानि गुरूणि-आदरविषया यस्य सोऽयमृद्धिरससातगुरुकस्तेन अथवा एभिगुरुकस्तेषां प्राप्तावभिमानतोऽमाप्तौ च प्रार्थनातोऽशुभभावोपात्तकर्मभारतयाऽलघुकस्तेन भोगेषु-कामेषु आशंसा च-अप्राप्तप्रार्थनं गृद्धं च-प्राप्तातृप्तिर्यस्य स भोगाशंसागृद्धः, इह चानुस्वारलोपहस्वत्वे प्राकृततयेति, पाठान्तरेण भोगामिषगृद्धेनेति, नो विशुद्धम्-अनतिचार चरित्रं स्पृष्टमिति तृतीयम्, इत्येतैरित्यादि निगमनम् । विमानाभरणानां निष्प्रभत्वमौसातिकं तचक्षुर्विभ्रमरूपं वा, 'कल्परुक्खगति चैत्यवृक्ष, तेयलेस्संति शरीरदीहिं सुखासिकां वा, 'इचेतेही'त्यादिनिगमनं, भवन्ति चैवंविधानि लिङ्गानि देवानां च्यवनकाले, उक्तं च-"मास्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससा चोपरागः । दन्यं तन्द्रा कामरा SACCHAR दीप अनुक्रम [१९३] + 5 + ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] 4 % ॥१४५॥ 5 दीप अनुक्रम [१९३] श्रीस्थाना-IKगाङ्गभङ्गी, दृष्टिभ्रान्तिर्वेपथुश्चारतिश्च ॥१॥" इति, 'उब्वेगति उद्वेग-शोकं मयेतच्यवनीय भविष्यतीत्येकं, तथा स्थानअसूत्र- मातुरोज:-आर्तवं पितुः शुक्रं तत्तथाविधं किमपि विलीनानामतिविलीनं तयोः-ओजःशुकयोरुभय-द्वयं तदुभयं तच्चकाध्ययन वृत्तिः तत्संसृष्टं च, संश्लिष्टं चेति या, परस्परमेकीभूतमित्यर्थः, तदुभयसंसृष्टं तदुभयसंश्लिष्ट वा एवंलक्षणो य आहारस्तस्य | उद्देशः३ गर्भवासकालस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्या, प्रथमसमय एवेत्यर्थः, स आहर्त्तव्यः-अभ्यवहार्यो भविष्यतीति द्वितीयं, सू०१८० |तथा कलमलो-जठरद्रव्यसमूहः स एव जम्बालः-कईमो यस्यां सा तथा तस्याम् अत एवाशुचिकायां उद्वेजनीयायां-18 | उद्वेगकारिण्यां भीमायां-भयानिकायां गर्भ एव वसतिर्गर्भवसतिस्तस्यां वस्तव्यमिति तृतीयः, अत्र गाथे भवतः-"देवावि | देवलोए दिव्वाभरणाणुरंजियसरीरा । जं परिवति तत्तो तं दुक्खं दारुणं तेसिं ॥१॥ तं सुरबिमाणविभव चिंतिय च यणं च देवलोगाओ। अइवलियं चिय जं नवि फुट्टइ सयसकर हिययं ॥२॥” इति, 'इचेएही'त्यादि निगमनम् ॥ अध देववक्तव्यतानन्तरं तदाश्रय विमानवक्तव्यतामाह-तिसंठिए'त्यादि, सूत्रत्रयं स्फुटमेव, केवलं त्रीणि संस्थितानिसंस्थानानि येषां तानि त्रिभिर्वा प्रकारैः संस्थितानि त्रिसंस्थितानि, 'तत्थ णं'ति तेषु मध्ये 'पुक्खरकपिणए'ति | पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः, सा हि वृत्ता समोपरिभागा च भवति, 'सर्चत इति दिक्षु 'समन्तादिति विदिक्षु 'सिंघाडगं'ति त्रिकोणो जलजफलविशेषः 'एकत' एकस्यां दिशि यस्यां वृत्तविमानमित्यर्थः 'अक्खाडगो' चतुरस्रः। देवा अपि देवलोके दिव्याभरणानुरस्तिशरीराः । यत्परिपतन्ति ततःवं दानं तेषाम् ॥ १॥ तं सुरविमान विभयं वितयित्वा च्यवनं च देवलोकात् ।। अतिमलिई चव हृदयं यच्छताशर न स्फुटति. LOCA-25 ॥१४५॥ ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] 4564645% प्रतीत एव, वेदिका-मुण्डप्राकारलक्षणा, एतानि चैवंकमाण्येवावलिकाप्रविष्टानि भवन्ति, पुष्पावकीर्णानि त्वन्यथा पीति, भवन्ति चात्र गाथा:-"सब्बेसु पत्थडेसु मज्झे बढे अणंतरे तंसं । एयंतरचतुरंसं पुणोवि वढू पुणो तंसं ॥१॥ बट्ट वस्सुवरि तसं तंसस्स उपरि होइ । चउरंसे चउरंसं उहुं तु विमाणसेढीओ ॥२॥ वटुं च वलयगंपि व तंसं सिंघाडगंपिव विमाणं । चउरंसविमाणपि य अक्खाडगसंठियं भणियं ॥३॥ सब्बे वट्टविमाणा एगदुवारा हवंति बिन्नेया। | तिन्नि य तंसविमाणे चत्तारि य होंति चउरसे ॥ ४॥ पागारपरिक्खित्ता वट्टविमाणा हवंति सब्वेवि । चउरंसविमाणाणं चउद्दिसि वेइया होइ॥५॥ जत्तो वट्टविमाणं तत्तो. तंसस्स बेइया होइ । पागारो बोद्धब्बो अवसेसेहिं तु पासेहिं ॥६॥ आवलियासु विमाणा बट्टा तंसा तहेव चउरंसा । पुष्फावगिन्नया पुण अणेगविहरूवसंठाणा ॥७॥” इति । प्रतिष्ठानसूत्रस्येयं विभजना-“घणउदहिपइहाणा सुरभवणा होति दोसु कप्पेसु । तिमु वाउपइडाणा तदुभयसुपइडिया तीसु ॥१॥ तेण परं उबरिमगा आगासंतरपइडिया सब्वे"त्ति । अवस्थितानि-शाश्वतानि वैक्रियाणि-भोगाद्यर्थ निष्पादितानि, १ सर्वेषु प्रसटेषु मध्ये भूतं अनन्तरं त्र्यसं । एतदनन्तरं चतुरखं पुनरपि वृत्तं पुनरुयसं ॥१॥ वृत्तं वृत्तस्योपरि असं व्यस्योपरि भवति । चतुरसस्य चतुरख कईन्तु विमानक्षेणयः ॥ २ ॥ तं च वलयमिव त्र्यवं भंगाटकमिव विमानं । तुरसविमानमपि चाक्षाकर्मस्थितं भणितं ॥३॥ सर्वाणि वृत्तविमानान्येकद्वाराणि भवन्ति विज्ञवानि । श्रीणि च ध्यसविमाने चत्वारि च भवन्ति चतुरखे ॥४॥ प्राकारपरिक्षितानि वृत्तविमानानि भवंति सर्वाण्यपि । चतुरक्षालिमानानां चतमधु विक्ष वेषिका भवति ॥ ५॥ यतो प्रतविमान सतध्यक्षस वेदिका भवति । प्राकारो बोद्धव्योजशेषेत पाषु ॥ ॥ आवलिका विमानानि मृत्तानि । यत्राणि तथैव चतुरस्राणि । पुष्पावकीर्णकानि पुनरनेकविधरूपसंस्थानानि ।। ७ ॥ २ घनोदधिप्रतिष्ठानानि सुरभवनानि भवंति द्वयोः कल्पयोः । त्रिषु वायुप्रतिष्ठानानि कातदुभयसुप्रतिष्टितानि त्रिषु ॥१॥ ततः परमुपरितनानि आकाशान्तरप्रतिष्ठितानि सर्वाणि ।। CCCCCCC दीप अनुक्रम [१९३] ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१८० ] दीप अनुक्रम [१९३] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १४६ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१८० ] उद्देशक (3) [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - स्थान [३], ..आगमसूत्र Education Internation यतोऽभिहितं भगवत्यां - "जाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाई भोगभोगाई भुंजिकामे भवइ से कहमियाणि पकरेति ?, गोयमा ! ताहे चेवणं से सक्के देविंदे देवराया एवं महं नेमिपडिरूवगं विब्बर [ नेमिरिति चक्रधारा तद्वद्वृत्तविमानमित्यर्थः > एवं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं इत्यादि यावत् "पसायवसिए सयणिज्जे, तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहि य अणिएहिं णट्टाणीएण य गंधब्बाणीएण य सद्धिं महया नट्ट जाव दिव्बाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरद्द"ति, परियानं तिर्यग्लोकावतरणादि तत्प्रयोजनं येषां तानि पारियानिकानि - पालकपुष्पकादीनि वक्ष्यमाणानीति ॥ पूर्वतरसूत्रेषु देवा उक्ताः, अधुना वैक्रियादिसाधर्म्यान्नारकान्निरूपयन्नाह- विविधा नेरइया पं० ० -- सम्मादिट्ठी मिच्छादिट्टी सम्मामिच्छादिट्ठी एवं विगलिंदियवजं जान वैमाणियाणं २७ । ततो दुग्गतीतो पं० नं० - रइयदुग्गती तिरिक्खजोणीयदुग्गती मणुयदुग्गती १ ततो सुगतीतो पं० सं०--- सिद्धिसोगती देवसोगती मणुस्वसोगती २ । ततो दुग्गता पं० [सं० - मेरति तदुग्गता तिरिक्खजोणितदुग्गया मणुस्सदुग्गता ३, ततो सुगता पं० [सं० सिद्धसोगता देवसोग्गता मणुस्ससुग्गता ४ ( सू० १८१ ) १ यदा भदन्त । शको देवेन्द्रो देवराजो दिव्यान् भोगभोगान् भोकामो भवति स कथमिदानीं प्रकरोति गौतम । तदेव च पाको देवेन्द्रो देवराज एकं महनेमिप्रतिरूपकं विकुर्वति, एकं योजनशतसहस्रं भयामविष्कंभाभ्यां २ प्रासादावतंसकः शयनीयं तत्र स को देवेन्द्रो देवराजः अष्टाभिरप्रमहीषिभिः सप वाराभिभ्यामनीकाभ्यां त्यानीकेन च सार्द्धं महता नृत्यं यावदिव्यान् भोग भोगान् भुंगन, विहरति ॥ For Parts Only ~ 295~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः छ सू० १८१ ॥ १४६ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८१] दीप अनुक्रम [१९४] AKACEBCACASA 'तिविधे'त्यादि स्पष्ट, नारका दर्शनतो निरूपिताः, शेषा अपि जीवा एवंविधा एवेत्यतिदेशतः शेषानाह-एवंमित्यादि गतार्थ, नवरं 'विगलेंदियवर्जति नारकवत् दण्डकत्रिधा वाच्यः एकेन्द्रियविकलेन्द्रियान् विना, यतः पृथिच्यादीनां मिथ्यात्वमेव द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु न मिश्रमिति । त्रिविधदर्शनाश्च दुर्गतिसुगतियोगात् दुर्गताः सुगताश्च | |भवन्तीति दुर्गत्यादिदर्शनाय सूत्रचतुष्टयमाह-'तओ'इत्यादि, व्यक्तं, परं दुष्टा गतिर्दुर्गतिर्मनुष्याणां दुर्गतिर्विवक्षयैव, तरसुगतेरप्यभिधास्यमानत्वादिति, दुर्गेता-दु:स्थाः सुगताः-सुस्थाः । सिद्धादिसुगतास्तुश्वि] तपस्विनः सन्तो भवन्तीति तत्कर्त्तव्यपरिहर्तव्यविशेषमाह पउत्थभत्तितस्स ण मिक्खुस्स कप्पति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए, सं०-उस्सेतिमे संसेतिमे चाउलधोषणे १, छहभतितस्स ण भिक्खुस्त कापति तओ पाणगाई पडिगाहितए तं०-तिलोदए तुसोदए जवोदए २, अहमभत्तियस्स णं भिक्खुस्स कप्पति ततो पाणगाई पडिगाहित्तए, तं०-आयामते सोवीरते सुद्धवियडे ३, तिविहे उबहडे पं० २०फलिओबहडे सुद्धोबहढे संसट्ठोवाडे ४, तिविहे जग्गहिते पं० २०-जं च ओगिण्हति जंप साहरति जं च भासगसि पक्विवति ५, विविधा ओमोयरिया पं० सं०-वगरणोमोयरिया भत्तपाणोमोदरिता भावोमोपरिता ६, उवगरणोमोदरिता तिविहा पं० सं०-एगे पत्थे एगे पाते चियत्तोवहिसातिजाणता ७, ततो ठाणा जिग्गंथाण पा णिमधीण या अहियाते असुभाते अक्समाते अणिस्सेयसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं०-कूअणता कारणता अवज्झाणता ८, ततो ठाणा जिम्गंधाण वा णिग्गंधीण वा हिताते सुहाते समाते जिस्सेयसाते आणुगामिअत्ताते भवति, तं०-अकूअणता ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१८२ ] दीप अनुक्रम [१९५] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥ १४७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१८२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] Education International अककरणता अणवझाया ९, ततो सहा पं० वं० मायासले णियाणसले मिच्छादंसणस १०, तिहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्तविवेलेस्ले भवति, वं० आयावणवाते १ संतिखमाते २ अपाणगेणं तवो कम्मेणं ३, ११ । तिमासितं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पंति ततो दत्तीओ भोजणस्स पडिगाहेत व तो पाणगस्स १२, एगरातियं भिक्खुपडिमं सम्मं अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे ततो ठाणा अहिताते अनुभाते अखमाते अणिस्तेयसाते अणानुगामिता भवति, तं० उम्मायं वा उभिज्दा १ दीहकालिय वा रोगायक पाउणेला २ केवलिपन्नत्तातो वा धम्मातो भंसेज्जा ३, १३, एगरातियं भिक्खुपडिमं सम्मं अणुपालेमाणस्स अणगारस्स तवो ठाणा हिताते सुभाते खमाते णिस्सेसाते आणुगामितत्ताए भवति, तं० ओद्दिणाणे वा से समुप्पजेजा १ मणपजवनाणे वा से समुप्पा २ केवलणाणे वा से समुपजेना ३, १४ । (सू० १८२ ) 'चत्थे'त्यादि सूत्राणि चतुर्दश व्यक्तानि, केवलं एकं पूर्वदिने द्वे उपवासदिने चतुर्थ पारणकदिने भक्तं-भोजनं परिहरति यत्र तपसि तत् चतुर्थभक्तं तद्यस्यास्ति स चतुर्थभक्तिस्तस्य, एवमन्यत्रापि, शब्दव्युत्पत्तिमात्रमेतत् प्रवृत्तिस्तु चतुर्थभक्तादिशब्दानामेकाद्युपवासादिष्विति, भिक्षणं शीलं धर्म्मः तत्साधुकारिता वा यस्य स भिक्षुर्भिनत्ति वा क्षुधमिति भिक्षुस्तस्य पानकानि-पानाहाराः, उत्स्वेदेन निर्वृत्तमुत्स्वेदिमं येन ब्रीह्यादिपिष्टं सुरायर्थं उत्स्वेद्यते, तथा संसेकेन निर्वृत्तमिति संसेकिमं-अरणिकादिपत्रशाकमुत्काल्य येन शीतलजलेन संसिच्यते तदिति तन्दुलधावनं प्रतीतमेव, तिलोदकादि तसत्प्रक्षालनजलं, नवरं तुषोदकं त्रीद्युदकम् २ आयामकम् - अवश्रावणं सौवीरकं For Park Lise Only ~ 297~ ३ स्थान काध्ययने उद्देश: ३ सू० १८२ ॥ १४७ ॥ www.inrary.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] दीप अनुक्रम [१९५] *****5*5556****** कालिकं शुद्धविकटम्-उष्णोदकं ३, उपहृतमुपहितम् , भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः, फलिक-प्रहेणकादि, |तच तदुपहृतं चेति फलिकोपहतं अवगृहीताभिधानपञ्चमपिण्डैपणाविषयभूतमिति, यदाह व्यवहारभाष्ये-"फेलियं|| पहेणगाई वंजणभक्खेहिं वाऽविरहियं जं । भोत्तुमणस्सोवहियं पंचमर्पिडेसणा एस ॥१॥” इति, तथा शुद्धम्-अलेपकृतं शुद्धोदनं च, तच्च तदुपहतं चेति शुद्धोपहृतं, एतच्चाल्पलेपाभिधानचतुर्थेषणाविषयभूतमिति, तथा संसृष्टं नाम-भोक्त-13 कामेन गृहीतकूरादौ क्षिप्तो हस्तः क्षिप्तो न तावत् मुखे क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावमिति, तदेवंभूतमुपहृतं संसृष्टोपहृतं, इदं चतुर्थेषणात्वेन भजनीयं, लेपालेपकृतादिरूपत्वादस्येति, अत्र गाथा-"सुद्धं च अलेवकडं अहव ण सुद्धोदणो भवे सुद्धं । संसद्ध आउत्तं [भोक्तुमारब्धमित्यर्थः> लेवाडमलेवर्ड वावि ॥१॥” इति, इह च त्रये एकद्वित्रिसंयोगैः सप्ताभिग्रहवन्तः साधयो भवन्तीति ४ अवगृहीतं-नाम केनचित् प्रकारेण दायकेनात्तं भक्तादि 'य'दिति भक्तम् , चकाराः समुच्चयार्थाः अवगृह्णाति-आदत्ते हस्तेन दायकस्तदवगृहीतम्, एतच षष्ठी पिण्डेषणेति, एवं च वृद्धव्याख्यापरिवेषकः पिटिकायाः कूरं गृहीत्या यस्मै दातुकामस्तद्भाजने क्षेप्तुमुपस्थितस्तेन च भणित-मा देहि, अत्रावसरे प्राप्लेन साधुना धर्मलाभितं, ततः परिवेषको भणति-प्रसारय साधो! पात्रं, ततः साधुना प्रसारिते पात्रे क्षिप्तमोदनम् , इह च |संयतप्रयोजने गृहस्थेन हस्त एवं परिवर्तितो नान्यत् गमनादि कृतमिति जघन्यमाहृतजातमिति, इह च व्यवहार-1 कालिक प्रहणकादि व व्यञ्जनभक्ष्याविरहित । भोलुमनस उपहत पंचमी पिंपरीषा ॥१॥ २एवं चालेपकतं अथवा शुद्धोदनः शर्व भवेत्सरः । आयुफ (भोक्तुमारब्ध) लेपकृतमलेपकृतं वापि ॥१॥ ~298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाः प्रत सूत्रांक [१८२] वृत्तिः ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [१९५] 45595 भाष्यश्लोकः-"भुजमाणस्स उक्खितं, पडिसिद्धं तं च तेण उ । जहन्नोवहडं तं तु, हत्थस्स परियत्तणा ॥१॥" इति,IP३ स्थानतथा यच्च परिवेषका स्थानादविचलन् संहरति-भक्तभाजनात् भोजनभाजनेषु क्षिपति तच्चावगृहीतमिति प्रक्रमः, काध्ययने श्लोकोऽत्र- अह साहीरमाणं तु, वहतो [परिवेषयन्नित्यर्थः> जो उ दायओ। दलेजाविचलिओ तत्तो, छही एसावि | | उद्देशः३ एसणा ॥१॥” इति, तथा यच्च भक्तमास्यके-पिठरादिमुखे क्षिपति तच्चावगृहीतमिति, एवं चात्र वृद्धव्याख्या-कूरम सू०१८२ वहादननिमित्तं कलिंजादिभाजने विशालोत्तानरूपे क्षिप्तं ततो भाक्तिकेभ्यो दत्तं ततो भुक्तशेष यद्भूयः पिठरके प्रकाशमुखे क्षिपन्ती दद्यात् परिवेषयन्ती वा प्रकाशमुखे भाजने तत् तृतीयमवगृहीतं, श्लोकोऽत्र-"भुत्तसेसं तु जंभूओ, छुम्भंती पिठरे दये । संवती व अन्नस्स, आसगंमि पगासए ॥ १॥” इति, ननु आस्ये-मुखे यत् प्रक्षिपतीति मुख्यार्थे सति किं पिठरकादिमुखे इति व्याख्यायत इति ?, उच्यते आस्यप्रक्षेपव्याख्यानमयुक्तं, जुगुप्साभावादिति, आह च"पैक्खेवए दुगुंछा, आएसो कुडमुहाईसु"न्ति ५ । अवमम्-ऊनमुदरं-जठरं यस्य सोऽवमोदरः, अवमं वोदरं अवमोदरं तद्भावोत्रमोदरता प्राकृतत्वादोमोयरियत्ति, अवमोदरस्य वा करणमवमोदरिका, व्युसत्तिरेवेयमस्य, प्रवृत्तिस्तूनतामात्रे, तत्र प्रथमा जिनकल्पिकादीनामेव न पुनरन्येषां, शास्त्रीयोपध्यभावे हि समग्रसंयमाभावादिति, अतिरिक्तान १ भुजमानस्य उत्क्षिप्त प्रतिषिद्ध तब तेन तु । जघन्योपहृतं तत्तु हस्तस्य परिवर्तनात् ॥ १॥ २ अथ संहियमानमेव बेषकः यो वेषयन् दद्यादचालितन्ततः पापेषाऽप्येषणा ॥1॥ ३ भुक्तशेषन्तु यद् भूयः क्षिपन्ती पिठरे दद्यात् । परिवेश्यन्ती वान्यस्य आत्ये प्रकाशे ॥ १॥ (मुखे) प्रक्षेपे जुगुप्सा पिठरादिमुखेवादेशः (जुगुप्सायाः अभावात् ). . .. ॥१४८ ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] दीप अनुक्रम [१९५] हणतो योनीदरतेति, उक्तं च-"ज वट्टइ उवगारे उपकरणं तं सि(तेसि) होइ उवगरणं । अइरेग अहिगरणं अजओ अ-II जयं परिहरंतो ॥१॥" [अयतश्च यत्तत् भुञ्जानो भवतीत्यर्थः> भक्तपानावमोदरता पुनरात्मीयाहारमानपरित्यागतो। वेदितव्या, उक्तं च-"वेत्तीस किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवेद कवला ॥१॥ कवलाण य परिमाण कुकुडिअंडगपमाणमेत्तं तु । जो वा अविगियवयणो वयणमि छुहेज वीसत्थो ॥२॥"12 इति, इयं चाष्ट १द्वादश २ षोडश ३ चतुर्विशत्ये ४ कत्रिंशदन्तैः कवलैः ५ क्रमेणाल्पाहारादिसंज्ञिता पश्चधा भवति, उक्तं च-"अप्पाहार १ अबड्डा २ दुभाग ३ पत्ता ४ तहेव किंचूणा ५ । अह १ दुवालस २ सोलस ३ चवीस ४ तहेक्कतीसा य ५॥१॥" इति, 'एवम्' अनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्या, भगवत्यामध्युक्तम्-"बेत्तीस कुकुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्तेत्ति वत्तव्यं सिया, एत्तो एकेणवि कवलेण ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे णिग्गंधे नो पगामरसभोइत्ति वत्तव्वं सिय"त्ति, भावोनोदरता पुनः क्रोधादित्यागः, उक्तं च “कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणययणभावणाओ उ । भावेणोमोदरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥१॥" उपकरणावमोदरिकाया भेदानाह १ यदर्तत उपकारे सत्तेषां उपकरणं भपति उपकरणं । भतिरेकमधिकरणमयतोऽयतं धारयन् ॥ १॥ २ किल द्वात्रिंशत्रूवला आहारः कुक्षिपूरको भणितः । पुरुषस्य महिलाया अष्टाविंशतिर्भवेयः कवलाः ॥१॥कालानो परिमाण कमवंडकप्रमाणमानं । यो बाऽविकृतपदनः बदने क्षिपेरियल अल्पाहारापा । द्विभागा प्राप्ता तव किंचिना अदायशयोदशचविशत्येकशिकवलस्तथा ॥१॥४ द्वात्रिंशतं कुपव्यण्डकपमाणमात्राकवलानादारत्वेनाद्वारयन् प्रमाणप्राप्त इति पकव्यः स्वादित एकेनापि कबलेनोनं माहारमादारयन् श्रमणो नियन्यो गो प्रकामरसभोजीति वकन्यः स्यात् ॥ ५ क्रोधादीनामनुदिनं सागो जिनवचनभावनाश्च भावेनावमोदरता प्राप्ता वीतरागैः ॥१॥ ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१८२ ] दीप अनुक्रम [१९५] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१८२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ३ स्थान श्रीस्थाना- ४ 'वकरणे त्यादि, एकं वस्त्रं जिनकल्पिकादेरेव, एवं पात्रमपि, 'ऐगं पायं जिणकप्पियाण' मिति वचनादिति, तथा 'चियङ्गसूत्र| तेणं' संयमोपकारकोऽयमिति प्रीत्या मलिनादावप्रीत्यकरणेन वा 'चियत्तस्स वा' संयमिनां संमतस्य उपधेः- रजोहर-काध्ययने वृत्तिः णादिकस्य 'साइजणय'त्ति सेवा 'चियत्तोवाहिसा इज्जणय'त्ति ७ । 'चियत्तेणे 'ति प्रागुक्तमेतद्विपर्ययभेदान् सकलानाह उद्देशः ३ 'तओ' इत्यादि स्पष्टं, किन्तु अहिताय-अपथ्याय असुखाय दुःखाय अक्षमाय-अयुक्तत्वाय अनिःश्रेयसाय - अमोक्षाय ४१ सू० १८२ ॥ १४९ ॥ अनानुगामिकत्वाय न शुभानुबन्धायेति, कूजनता- आर्त्तस्वरकरणं कर्करणता - शय्योपध्यादिदोषोद्भावनगर्भं प्रलपनं अपध्यानता-आर्त्तरौद्रध्यायित्वमिति ८, उक्तविपर्ययसूत्रं व्यक्तं ९, निर्मन्थानामेव परिहर्त्तव्यं त्रयमाह-'तओं' इत्यादि, शल्यते-बाध्यते अनेनेति शल्यं, द्रव्यतस्तोमरादि भावतस्तु इदं त्रिविधं माया - निकृतिः सैव शल्यं मायाशस्यं १, एवं ४ सर्वत्र, नवरं नितरां दीयते-लूयते मोक्षफलमनिन्द्यब्रह्मचर्यादिसाध्यं कुशलकर्मकल्पतरुवनमनेन देवदिप्रार्थन परिणामनिशिता सिनेति निदानं मिथ्या विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनमिति १० । निर्मन्थानामेव लब्धिविशेषस्य कारणत्रयमाह - 'तिही त्यादि, सङ्गिता - लघूकृता विपुलापि विस्तीर्णाऽपि सती अन्यथाऽऽदित्यविम्बवत् दुर्दर्शः स्यादिति तेजोलेश्या - तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं तैजसशरीरपरिणतिरूपं महाज्वालाकल्प येन स सधिविपुलतेजोलेश्यः आतापनानां| शीतादिभिः शरीरस्य सन्तापनानां भाव आतापनता शीतातपादिसनमित्यर्थस्तया 'क्षान्या' क्रोधनिग्रहेण क्षमा-मर्षणं न त्वश्कतयेति क्षान्तिक्षमा तया, अपानकेन पारणककालादन्यत्र 'तपःकर्मणा' षष्ठादिनेति, अभिधीयते च १ एक पात्र जिनकल्पिकानाम Eaton International For Parts Only ~301~ ॥ १४९ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] भगवत्याम्-"जेणं गोसाला! एगाए सनहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य विवडासणेणं छई छडेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड वाहाओ पगिज्झिय २ सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविपुलतेयलेस्से भवइ"त्ति ११, 'तेमासिय मित्यादि, भिक्षुप्रतिमाः-साधोरभिग्रहविशेषाः, ताश्च द्वादश, तत्रैकमासिक्या-14 दयो मासोत्तराः सप्त तिस्रः सप्तरात्रिन्दिवप्रमाणाः प्रत्येक एका अहोरात्रिकी एका एकरात्रिकीति, उक्तं च--"मासाई। सत्ता ७ पढमा १ बिइ २ तइय ३ सत्त राइदिणा १० । अहराइ ११ एगराई १२ भिक्खूपडिमाण वारसगं ॥१॥"ति, अयमत्र भावार्थ:-"पडिवज्जइ एयाओ संघयणधिइजुओ महासत्तो । पडिमाओ भावियप्पा सम्म गुरुणा अणुन्नाओ ॥१॥" गच्छे च्चिय निम्माओ जा पुन्वा दस भवे असंपुन्ना । नवमस्त तइयवत्थू होइ जहन्नो सुयाभिगमो ॥२॥ वोसट्टचत्तदेहो उबसग्गसहो जहेब जिणकप्पी। एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवर्ड तस्स ॥३॥गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवजा मासियं महापडिमं । दत्तेग भोयणस्सा पाणस्सवि एग जा मासं ॥ ४॥ पच्छा गच्छमुवेती एव दुमासी तिमासि जा सत्त । नवरं दत्तिविवही जा सत्त उ सत्तमासीए ॥ ५॥ तत्तो अ अङ्कमी खलु हवइ इहं पढमसत्तराईदी। मासायाः सप्तमासान्ताः सप्त प्रथमा द्वितीया तृतीया सप्तारात्रिदिवा । अहोरात्रा एकरात्रा भिवप्रतिमानों द्वादशकं ॥१॥ प्रतिपयत एताः संहननभूतियुतो महासत्वः प्रतिमा भावितास्मा सम्यग्गुरुणाऽनुहातः॥१॥ गले निर्मात एस यावत्पूर्वाणि दश्च भवेयुरसंपूर्णानि । नवमस्य तृतीयपस्तु भवति जपन्यः श्रुताभिगमः ॥२॥ म्युरराष्टखतदेह उपसर्गसहो यर जिनकल्पी । एषणाऽभिगृहीता भकं बालेपत्तथा ॥३॥ गच्छाद्विनिष्क्रम्य प्रतिपद्यत मासिका महाप्रातमा । | दरका भोजनस पानवाप्येका यावन्मास ।।४ पक्षाद्रग्छमत्येति एवं द्विमासिसी त्रिमासिकी यावत्सतमाति की। पर दतिविधियांवत् सत सामासिक्या ॥५॥ तववागीह भवति प्रथमा सप्तरात्रिदिन । तवां चतुर्थ चतुनापानकेनाथ विशेषः॥६॥ SABCSC REACTECSCOCOCK दीप अनुक्रम [१९५] RA भिक्षुप्रतिमा-वर्णनं ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] झसूत्रवृत्तिः ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ सू०१८२ ॥१५॥ दीप अनुक्रम [१९५] दावीए चउत्थएणं अपाणएणं अह विसेसो ॥६॥ तथा चागमः-"पढमसत्तराईदियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अ- |णगारस्स कप्पर से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वे"त्यादि, "उत्ताणगपासल्ली नेसज्जी बावि ठाण ठा-1 इत्ता । अह उबसग्गे घोरे दिब्बाई सहइ अविकंपो ॥१॥ दोच्चा वि एरिसि चिय बहिया गामादियाण नवरं तु । उकु- डुलगंडसाई डंडायतिउच ठाइचा ॥२॥ तच्चाएवी एवं नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमवावी ठाएज व अं- बखुजो य ॥३॥ एमेव अहोराई छई भत्तं अपाणगं नवरं । गामनगराण बहिया वग्धारियपाणिए ठाणं ॥४॥ एमेव एगराई अठमभत्तेण ठाण बाहिरओ। ईसि पन्भारगए अणिमिसणयणेगदिवीउ ॥५॥ सौहटु दोन्नि पाए वम्घारियपाणिठायई ठाणं । वग्धारिलंबियभुओ सेस दसासु जहा भणियं ॥ ६ ॥” इति, तत्र त्रिमासिकी तृतीया तां प्रतिपन्नस्यआश्रितस्य 'दत्तिः सकृत्प्रक्षेपलक्षणेति १२, एकरात्रिकी द्वादशी तां सम्यगननुपालयतः उन्माद:-चित्तविभ्रमो, रोगःकुष्ठादिरातङ्क:-शूलविशूचिकादिः सद्योपाती, स च स चेति रोगातक्, 'पाउणेज्जेति प्राप्नुयात् 'धर्मात्'-श्रुतचारित्रलक्षणात् भ्रश्येत्, सम्यक्त्वस्यापि हान्येति, उन्मादरोगधर्मभ्रंशाः प्रतिभायाः सम्यगननुपालनाजन्या 'अहिताचीः प्रथमां गहरात्रिदियां भिक्षुप्रतिमा प्रतिपत्रस्य अनगारस्य कल्पने चतुर्थेन भक्तनापान केन प्रामस्य पहिः॥ २ उत्तानकः पार्थलीनो नैषधी वापि स्थानं स्थित्या । [अथोपसगान् पोरान विव्यादीन् सहतेउविकपः ॥५॥ द्वितीयानि इश्येव प्रामादीनां बहिः परन्तरकटुकल कुटशायी डायत इच वा स्थिरत्या ॥२॥ तृतीयायामप्येवं परं तस्य स्थानं गोदाहिकेव। वीरासन अथवा तित् वापि भामकुब्जय ॥३॥ एवमेवाहोरात्रिकी पर षष्ठ भक्कमपान । धामनगरात् बाहिरपलबितपाणिना स्थान ॥४॥ C | एपमेपैकरात्रिकी अश्मभतेन स्थानं पहिः । परप्रारभारगतः अनिमेषनयनैकदृष्टिः ॥ ५॥ संहत्य द्वावपि पादी अवलंबितपानिः विधति स्थानं । अवलंबितभुवः | * शेष दशासु यथा माणितं ॥६॥ 4-0-8454 १५०॥ भिक्षुप्रतिमा-वर्णनं ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] AAAA दीप अनुक्रम [१९५] दुःखार्था भवन्तीति हृदयम् १३, विपर्ययसूत्रमेतदनुसारतो बोद्धव्यमिति १४ ॥ उक्तरूपाणि च साध्वनुष्ठानानि कर्म-18 भूमिष्वेव भवन्तीति तन्निरूपणायाह जंबुडीवे २ ततो कश्मभूभीओ पं० त०-भरहे एरवते महाविदेहे, एवं धायइसंडे दीवे पुरछिमद्धे जाव पुक्खरवरदीबड़पञ्चत्यिमद्धे ५। (सू० १८३) तिविहे सणे पं० २०-सम्मईसणे मिच्छरसणे सम्मामिच्छरसणे १, तिविधा रुती पं००-सम्मरुती मिच्छरुती सम्मामिच्छरुई २, तिविधे पओगे पं० सं०-सम्मपओगे मिच्छपओगे सम्मामिच्छपओगे ३ (सू० १८४) तिविहे, परसाए पं० त०-धम्मिते ववसाते अधम्मिए ववसाते धम्मियाधम्मिए ववसाते ४, अथवा तिविधे ववसाते, पं० २०-पञ्चक्खे पञ्चतिते आणुगामिए ५, अहवा तिविधे बरसाते पं००-दलोइए परलोइए इहलोगितपरलोगिते ६, इहलोगिते ववसाते तिविहे पं० सं०-लोगिते वेतिते सामतिते ७, लोगिते ववसाते तिविधे पं० त०-अत्थे धम्मे कामे ८, वेतिगे ववसाते तिविधे पं० २०-रिउव्येदे जजम्वेदे सामवेदे ९, सामइते ववसाते तिविधे पं०, ०-णाणे दंसणे चरिते १०, तिविधा अत्थजोणी पं० सं०-सामे यंडे भेदे ११ (सू० १८५) 'जंबुद्दीवे'त्यादि सूत्राणि साक्षादतिदेशाभ्यां पञ्च सुगमानि चेति । उक्काः कर्मभूमयः, अथ तद्गतजनधर्मनिरूपणायाह -'तिविहे'त्यादि सूत्राण्येकादश कण्ठ्यानि, किन्तु त्रिविधं दर्शनं-शुद्धाशुद्धमिश्रपुञ्जत्रयरूपं मिथ्यात्वमोहनीयं, तथा-| & विधदर्शनहेतुत्वादिति १, रूचिस्तु तदुदयसम्पाधं तत्त्वानां श्रद्धानं, 'प्रयोग' सम्यक्त्वादिपूर्वो मनःप्रभृतिच्यापार | इति अथवा सम्यगादिप्रयोगः-उचितानुचितोभयात्मक औषधादिव्यापार इति ३, 'व्यवसायों' वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थ ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१८५ ] दीप अनुक्रम [१९८] श्रीस्थाना नसूत्रवृत्तिः ॥ १५१ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१८५ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] सिद्धार्थमनुष्ठानं वा स च व्यवसायिनां 'धार्मिका १ धार्मिक २ धार्मिकाधार्मिकाणां संयतासंयत देशसंयतलक्षणानां सम्बन्धित्वादभेदेनोच्यमानस्त्रिधा भवतीति, संयमासंयमदेशसंयमलक्षणविषयभेदाद्वा ४, व्यवसायो- निश्चयः, स च प्रत्यक्षोऽवधिमनः पर्यायकेवलाख्यः प्रत्ययात्-इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणान्निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः साध्यम्-अन्यादिकमनुगच्छति साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो जातमानुगामिकम् - अनुमानं तद्रूपो व्यवसाय आनुगामिक एवेति, अथवा प्रत्यक्षः - स्वयंदर्शनलक्षणः प्रात्ययिकः- आष्ठवचनप्रभवः तृतीयस्तथैवेति ५, इहलोके भव ऐहलौकिको-य इह भवे वर्त्तमानस्य निश्चयोऽनुष्ठानं वा स ऐहलौकिको व्यवसाय इति भावः, यस्तु परलोके भविष्यति स ५ पारलौकिकः, यस्त्विह परत्र च स ऐहलौकिकपारलौकिक इति ६, लौकिकः सामान्यलोकाश्रयो निश्चयोऽनुष्ठानं वा, वेदाश्रितो वैदिकः, समयः साङ्ख्यादीनां सिद्धान्तस्तदाश्रितस्तु सामयिकः, लौकिकादयो व्यवसायाः प्रत्येकं त्रिविधास्ते च प्रतीता एव, नवरं अर्थधर्मकामविषयो निर्णयो यथा-"अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्मस्य दानं च दया दमश्च । कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु ॥ १ ॥ इत्यादिरूपः तदर्थमनुष्ठानं वा अर्थादिरेव व्यवसाय उच्यते इति ८, ऋग्वेदाद्याहितो निर्णयो व्यापारो वा ऋग्वेदादिरेवेति ९, ज्ञानादीनि सामा (म)यिको व्यवसायः, तत्र ज्ञानं व्यवसाय एव पर्यायशब्दखात्, दर्शनमपि श्रद्धानलक्षणं व्यवसायो, व्यवसायांशत्वात्तस्येति प्रतिपादितमेव, चारित्रमपि समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बोधस्वभावस्यात्मनः परिणतिविशेषत्वात् यच्चोच्यते, "सच्चरणमणुद्वाणं १ तत्र विधिप्रतिषेधानुगमनुष्ठानं सचारित्रे. Education Internationa For Palsta Use On ~305~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः इ सू० १८५ ॥ १५१ ॥ www.ncbrary.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५]] दीप अनुक्रम [१९८] विहिपडिसेहाणुगं तस्थ"त्ति तत्र तद्वाह्यचारित्रापेक्षमवगन्तव्यमिति, अथवा ज्ञानादौ विषये यो व्यवसायो-बोधोऽनुष्ठान है। वा स विषयभेदात् त्रिविध इति, सामा(म)यिकता चास्य सम्यग्मिथ्याशब्दलाञ्छितस्य ज्ञानादित्रयस्य सर्वसमयेष्वपि भावादिति १०, अर्थस्य-राजलक्ष्म्यादेोनिः-उपायोऽर्थयोनिः साम-प्रियवचनादि दण्डो-वधादिरूपः परनिग्रहः भेदो-II जिगीषितशत्रुपरिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिः, कचित्तु दण्डपदत्यागेन प्रदानेन सह तिम्रोऽर्थयोनयः पश्यन्ते, भवन्ति चात्र श्लोकाः-"परस्परोपकाराणां, दर्शनं १ गुणकीर्तनम् २ । सम्बन्धस्य समाख्यानश्मायत्याः संप्रकाशनम् ४ ॥१॥" अस्मिन्नेवं कृते इदमावयोभविष्यतीत्याशाजननमायतिसंप्रकाशनमिति, "वाचा पेशलया साधु तवाहमिति चार्पणम् ५ । इति सामप्रयोगज्ञैः, साम पञ्चविधं स्मृतम् ॥१॥" वधश्चैव १ परिक्लेशो २, धनस्य हरणं तथा ३ । इति दण्डविधान दण्डोऽपि विविधः स्मृतः ॥२॥ स्नेहरागापनयनं १, संहर्षोत्पादनं तदा २ । सन्तर्जनं च ३ भेदज्ञैर्भेदस्तु है त्रिविधः स्मृतः॥३॥"संहर्षः-स्पर्द्धा सन्तर्जनं च-अस्यास्मन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यतीत्यादिकरूपमिति, प्रदानलक्षणमिदम्-"यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः । प्रतिदानं तथा तस्य, गृहीतस्यानुमोदनम् ॥१॥ द्रव्यदानमपूर्वं च ३, स्वयंग्राहप्रवर्तनम् ४ । देयस्य प्रतिमोक्षश्च ५, दानं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ १॥ धनोत्सर्गो-धनसम्पत् स्वयंग्राहप्रवर्तनम्-परस्वेषु देयप्रतिमोक्ष-ऋणमोक्ष इति, प्रयोगश्चासामेवम्-"उत्तम प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, समं तुल्यपराक्रमैः॥१॥" इति । अनन्तरं जीवा धर्मतः प्ररूपिताः, इदानीं पुद्गलांस्तथैव प्ररूपयन्नाह EASEE SAREauratonintennational ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६] दीप अनुक्रम [१९९] श्रीस्थाना- तिविहा पोग्गला पं० त०-पओगपरिणता मीसापरिणता वीससापरिणता, तिपतिढ़िया णरगा पं० त०-पुढविपति ३स्थानद्विता आगासपतिहिता आयपइद्विभा, णेगमसंगहवबहाराणं पुढविपइडिया उजुसुतस्स आगासपतितिया तिहं सरण काध्ययने ताणं आयपतिट्ठिया ।। (सू० १८६) उद्देशः ३ ॥१५॥ प्रयोगपरिणता:-जीवव्यापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीताः, यथा पटादिषु कर्मादिषु वा, 'मीस'त्ति प्रयोगविनहै साभ्यां परिणताः, यथा पटपुद्गला एव प्रयोगेण पटतया विनसापरिणामेन चाभोगेऽपि पुराणतयेति, विस्रसा-स्वभावः तत्परिणता अनेन्द्रधनुरादिवदिति । पुद्गलप्रस्तावाद्विसापरिणतपुद्गलरूपाणां नरकावासानां प्रतिष्ठाननिरूपणायाह'तिपइट्टिए'त्यादि, स्फुटं, केवलं नरका-नारकावासा आत्मप्रतिष्ठिताः-स्वरूपप्रतिष्ठिताः । तत्प्रतिष्ठान नबराह'णेगमे त्यादि, नैकेन-सामान्यविशेषग्राहकत्वात् तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति-परिच्छिनत्तीति नैकमः, अथवा निगमा:-10 निश्चितार्थबोधास्तेषु कुशलो भवो वा नैगमः, अथवा नैको गमः-अर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः १, संग्रहणं भेदानां सङ्ग्रहाति वा तान् संगृह्यन्ते वा ते येन स सङ्ग्रहो-महासामान्यमात्राभ्युपगमपर इति २, व्यवहरणं व्यवहियते वा स व्यवहियते वा तेन विशेषेण वा सामान्यमवहियते-निराक्रियतेऽनेनेति लोकन्यवहारपरो वा व्यवहारोविशेषमात्राभ्युपगमपरः ३, एतेषां नयाना मतेनेति गम्य, ऋजु-अवक्रमभिमुखं श्रुतं-श्रुतज्ञानं यस्येति ऋजुश्रुता, ऋजु[8 वा-अतीतानागतवकपरित्यागाद्वर्तमानं वस्तु सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रः-स्वकीयं साम्प्रतं च वस्तु नान्यदित्यभ्यु ॥१५२॥ पगमपरः, शब्द्यते-अभिधीयतेऽभिधेयमनेनेति शब्दो-वाचको ध्वनिः, नयन्ति-परिच्छिन्दन्त्यनेकधारमकं सबस्तु 1515450560 ॐ545-45645+5+ ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६] दीप अनुक्रम [१९९] ट्र सा(अन)वधारणतयकेन धर्मेणेति नयाः शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः, ते च त्रयः-शब्दसमभिरूदैवंभूताख्याः, तत्र शब्दनमभिधानं शब्द्यते वा यः शब्द्यते वा येन वस्तु स शब्दः, तदभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति, सच भावनिक्षेअपरूपं वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्यायमपि च वस्त्वभ्युपगच्छतीति, वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं समभिरोहयति दू-आश्नयति यः स समभिरूढा, स ह्यनन्तरोक्तविशेषणस्यापि वस्तुनः शक्रपुरन्दरादिवाचकभेदेन भेदमभ्युपगच्छति घट-1 पटादिवदिति, यथा शब्दार्थो घटते-चेष्टत इति घट इत्यादिलक्षणः 'एव'मिति तथाभूतः सत्यो घटादिरों नान्यथेवेवमभ्युपगमपर एवंभूतो नयः, अयं हि भावनिक्षेपादिविशेषणोपेतं व्युत्पत्त्यर्थाविष्टमेवार्थमिच्छति, जलाहरणादिचेष्टावन्तं घटमिवेति ७, तत्रायत्रयस्थाशुद्धत्वात् प्रायो लोकव्यवहारपरत्वाच्च पृथिवीप्रतिष्ठितत्वं नरकाणामिति मतं, चतुर्थस्य शुद्धत्वात् आकाशस्य च गच्छतां तिष्ठतां वा सर्वभावानामैकान्तिकाधारत्वात् भुवोऽनैकास्तिकत्वाच्याकाशप्रतिष्ठितत्वBामिति, त्रयाणां तु शुद्धतरत्वात् सर्वभावानां स्वभावलक्षणाधिकरणस्यान्तरङ्गत्वादव्यभिचारित्वाच आत्मप्रतिष्ठितत्वमिति, न हि स्वस्वभावं विहाय परस्वभावाधिकरणा भावाः कदाचनापि भवन्तीति, यत आह-"वत्थु वसइ सहावे सत्ताओ चेयणव्व जीवम्मि । न विलक्खणतणाओ भिन्ने [अन्यत्र> छायातवे चेव ॥१॥" इति, नरकेषु च मिथ्यात्वाद् गतिर्जन्तूनां भवतीति अथवा नया मिथ्यादृश इति सम्बन्धान्मिथ्यात्वस्वरूपमाह तिविधे मिच्छते ५००-अकिरिता अविणते अन्नाणे १, अकिरिया तिविधा, पं००-पओगकिरिया समुदाणकिरिया १जीये वेदनेच यस्तु स्वभाचे वसति सत्त्वात् छायातपाविया बैलक्षम्यादम्यत्र न. ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: त्रास्थाना प्रत सूत्रांक [१८७]] ॥१५॥ दीप अनुक्रम [२००] अन्नाणकिरिया २, पभोगकिरिया विविधा, पं००-मणपओगकिरिया वइपओगकिरिया कायपोगकिरिया ३, समुदाण ३ स्थानकिरिया तिविधा पं० सं०-अर्णतरसमुदाणकिरिया परंपरसमुदाणकिरिया तदुभयसमुदाणकिरिता ४, अन्नाणकिरिता काध्ययने तिविधा पं००-मतिअन्नाणकिरिया सुत्तअन्नाणकिरिया विभंगअन्नाणकिरिया ५, अविणते तिविहे पं० सं०-देसश्चाती उद्देशः ३ निरालंधणता नाणापेजदोसे ६, अन्नाणे तिविधे पं० २०-देसण्णाणे सव्वण्णाणे भावन्नाणे ७ (सू० १८७) सू०१८७ 'तिविधे मिच्छत्ते' इत्यादि, सूत्राणि सप्त सुगमानि, नवरं मिथ्यात्वं विपर्यस्तश्रद्धानमिह न विवक्षितं, प्रयोगक्रियादीनां वक्ष्यमाणतझेदानां असम्बद्यमानत्वात् , ततोऽत्र मिथ्यात्वं क्रियादीनामसम्यग्रूपता मिथ्यादर्शनानाभोगादिजनितो विपर्यासो दुष्टत्वमशोभनत्वमिति भावः, 'अकिरिय'त्ति नजिह दुःशब्दार्थो यथा अशीला दुःशीलेत्यर्थः, ततश्वाक्रिया-दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाद्युपहतस्यामोक्षसाधकमनुष्ठानं, यथा मिथ्यादृष्टानमप्यज्ञानमिति, एवमविनयोऽपि, अज्ञानम्-असम्यग्ज्ञानमिति, अक्रिया हि अशोभना क्रियैवातोऽक्रिया त्रिविधेत्यभिधायापि प्रयोगेत्यादिना क्रियैवोकेति, तत्र वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रयुज्यते-व्यापार्यत इति प्रयोगो-मनोवाकायलक्षणस्तस्य क्रिया-करणं व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगैः-मनःप्रभृतिभिः क्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया कर्मेत्यर्थः, सा च दुष्टत्वादक्रिया, अक्रिया च मिथ्यात्वमिति सर्वत्र प्रक्रमः, 'समुदाणति प्रयोगक्रिययैकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां समिति-सम्यक प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदान-स्वीकरणं समुदानं निपातनात्तदेव क्रिया-क-IN ॥१५३॥ मर्मेति समुदानक्रियेति, अज्ञानात् वा चेष्टा कर्म वा सा अज्ञानक्रियेति २, प्रयोगक्रिया त्रिविधा व्याख्याताओं ३, ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८७]] नास्त्यन्तरं-व्यवधानं यस्याः साऽनन्तरा सा चासौ समुदानक्रिया चेति विग्रहः, प्रथमसमयवर्तिनीत्यर्थः, द्वितीयादि-13 समयवर्तिनी तु परम्परसमुदानक्रियेति, प्रथमाप्रथमसमयापेक्षया तु तदुभयसमुदानक्रियेति, 'मइअन्नाणकिरिय'त्ति "अविसेसिया मइच्चिय सम्मद्दिहिस्स सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिहिस्स सुयंपि एमेव ॥ १॥त्ति [अविशे|पिता मतिरेव सम्यग्दृष्टेः सा मतिज्ञानम् । मत्यज्ञानं मिश्यादृष्टेः श्रुतमप्येवमेव ॥१॥ मत्यज्ञानात् क्रिया-अनुष्ठान मत्यज्ञानक्रिया, एवमितरे अपि, नवरं विभङ्गो-मिथ्यादृष्टेरवधिः स एवाज्ञान विभङ्गाज्ञानमिति । व्याख्यातमक्रियामिथ्यात्वं, अविनयमिथ्यात्वव्याख्यानायाह-'अविणयेत्यादि, विशिष्टो नयो विनयः-प्रतिपत्तिविशेषः तत्सतिथेधादविनयः, देशस्य-जन्मक्षेत्रादेस्त्यागो देशत्यागः स यस्मिन्नविनये प्रभुगालीपदानादावस्ति स देशत्यागी, निर्गत आलम्बनाद्-आश्रयणीयात् गच्छकुटुम्बकादेरिति निरालम्बनस्तद्भावो निरालम्बनता-आश्रयणीयानपेक्षस्वमिति भावः, पुष्टालम्बनाभावेन वोचितप्रतिपत्तिभ्रंशः, प्रेम च द्वेषश्च प्रेमद्वेष नानाप्रकारं प्रेमद्वेषं नानाप्रेमद्वेषमविनयः, इयमत्र भावना-आराध्यविषयमाराध्यसंमतविषयं वा प्रेम तथाऽऽराध्यासम्मतविषयो द्वेष इत्येवं नियतावेतौ विनयः स्यात्, उक्तं च-"सरुषि नतिः स्तुतिवचनं, तदभिमते प्रेम तविपि द्वेषः । दानमुपकारकीर्त्तनममन्त्रमूलं वशीकरणम् ॥१॥" इति, नानाप्रकारौ च तावाराध्यतत्संमतेतरलक्षणविशेषानपेक्षत्वेनानियतविषयादविनय इति, अज्ञानमिथ्यात्वमित उच्यते -'अन्नाणे'त्यादि, ज्ञानं हि द्रव्यपर्यायविषयो बोधस्तन्निषेधोऽज्ञानं तत्र विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न जानाति तदा देशाज्ञानमकारप्रश्लेषात्, यदा च सर्वतस्तदा सर्वाज्ञानं, यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा भावाज्ञानमिति, अ. 45-5115156456- 5 दीप अनुक्रम [२००] 256056 ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- जसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [१८७] काध्ययने उद्देश सू०१८ ॥१५४॥ दीप अनुक्रम [२००] थवा देशादिज्ञानमपि मिथ्यात्वविशिष्टमज्ञानमेवेति अकारप्रश्लेषं विनापि न दोष इति । उक्त मिथ्यात्वं, तयाधर्म इति | तद्विपर्ययमधुना धर्ममाह तिविहे धम्मे पं० सं०- सुयधम्मे चरित्तधम्मे अस्थिकायधम्मे, तिविधे उवकमे पं० सं०-धम्मिते उक्कमे अधम्मिते उवयमे धम्मिताधम्मिते लवकमे १, अह्वा तिविधे उक्कमे पं० सं०-आओवक्कमे परोक्कमे तदुभयोबकमे २, एवं वेयावथे ३, अणुग्गहे ४, अणुसट्ठी ५, उवालभं ६, एवमेकेके तिन्नि २ आलावगा अहेव उबकमे (सू० १८८) 'तिविहे धम्म'इत्यादि श्रुतमेव धर्मः श्रुतधर्मः स्वाध्यायः, एवं चरित्रधर्म:-क्षान्त्यादिश्रमणधर्मः, अयं च द्विविधोऽपि-द्रव्यभावभेदे धर्मे भावधर्म उक्तः,यदाह-“दुविहोउ भावधम्मो सुयधम्मो खलुचरित्तधम्मो य। सुयधम्मो समाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो॥१॥"इति, अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्ते तेषां कायो-राशिरस्तिकायः स चासौ संज्ञया धर्मश्चेत्यस्तिकायधम्मों, गत्युपष्टम्भलक्षणो धम्मास्तिकाय इत्यर्थः, अयं च द्रव्यधर्म इति । अनन्तरं श्रुतधर्मचारिबधीचुकी अधुना तद्विशेषानाह-तिविहे उवक्कमे इत्यादि, सूत्राणि अष्टौ सुगमानि, परं उपक्रमणमुपक्रमा-उपायपूर्वक आरम्भः, धर्मे-श्रुतचारित्रात्मके भवः स वा प्रयोजनमस्येति धार्मिकः, श्रुतचारित्रार्थ आरम्भ इत्यर्थः, तथा न धार्मिकः अधार्मिक:-असंयमार्थः, तथा धार्मिकश्चासौ देशतः संयमरूपत्वात् अधार्मिकश्च तथैवासंयमरूपत्वात् धार्मिकाधामिका, देशविरत्यारम्भ इत्यर्थः, अथवा नामस्थापनाद्रब्यक्षेत्रकालभावभेदात् पद्रिय उपक्रमः, तब नामस्थापने सुशाने, द्रष्यो १ विविधस्तु भावधर्मः श्रुतधर्मः खछ चारित्रधर्म । श्रुतधर्मः खाध्यायश्चारित्रथमः श्रमणधम्मैः ॥ १॥ 115 + ॥१५४॥ ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम [२०१] पक्रमस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्रिधा-सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यभेदात् , तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमो द्विपदचतुष्पदापदभेदभिन्नः, पुनरेकैको द्विविध:-परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तब परिकर्मणि-द्रव्यस्य गुणविशेषकरणं तस्मिन् सति, तद्यथा-घृताधुपयोगेन पुरुषस्य वर्णादिकरणम् , एवं शुकसारिकादीनां शिक्षागुणविशेषकरणं, तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनामपदानां च वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वार्धक्यादिगुणापादनमिति, तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खङ्गा दिभिर्विनाश एवोपक्रम इति, एवमचित्तद्रव्योपक्रमः पद्मरागादिमणेः क्षारमृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादनं विनाशश्चेति, है मिश्रद्रव्योपक्रमस्तु कटकादिविभूषितपुरुषादिद्रव्यस्यैवेति, तथा क्षेत्रस्य-शालिक्षेत्रादेः परिकर्म विनाशो वा क्षेत्रोपक्रमः, तथा कालस्य-चन्द्रोपरागादिलक्षणस्योपक्रमः-उपायेन परिज्ञानं कालोपक्रमा, तथा भावस्य प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्योपायतः परिज्ञानमेव भावोपक्रमः, स चाप्रशस्तो डोड्डिनीगणिकाऽमात्यदृष्टान्तावसेयः, प्रशस्तश्च श्रुतादिनिमित्तमाचार्यादिभावोपक्रम इति, एवं च धार्मिकस्य-संयतस्य यश्चारित्राद्यर्थ द्रव्यक्षेत्रकालभावानामुपक्रम उक्तस्वरूपः स धार्मिक एवोप क्रमः, तथा अधार्मिकस्य-असंयतस्यासंयमार्थ यः सोऽधार्मिक एव, तथा धाम्मिकाधार्मिकस्य-देशविरतस्य यः स ४ीधार्मिकाधाम्मिक इति, अथ स्वाम्यन्तरभेदेनोपक्रममेव त्रिधाऽऽह-तत्रात्मनोऽनुकूलोपसर्गादौ शीलरक्षणनिमित्तमुपहै क्रमो-बैहानसादिना विनाशः परिकर्म वा आत्मार्थ वा उपक्रमोऽन्यस्य वस्तुनः आत्मोपक्रम इति, तथा परस्य परार्थ | वोपक्रमः परोपक्रम इति, तदुभयस्य-आत्मपरलक्षणस्य तदुभयार्थं वोपक्रमस्तदुभयोपक्रम इति, 'एवं'मिति उपक्रमसूत्रवत् ४ा आत्मपरोभयभेदेन वैयावृत्त्यादयो बाच्याः, व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्य-भक्तादिभिरुपष्टम्भा, तत्रात्मवैया Audiorary.org ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम [२०१] 15-1354 वृत्त्यं गच्छनिर्गतस्यैव, परवैयावृत्त्यं ग्लानादिप्रतिजागरकस्य, तदुभयवैयावृत्त्यं गच्छवासिन इति, अनुग्रहो-ज्ञानाधुप-B स्थानकारः, तत्र आत्माऽनुग्रहोऽध्ययनाविप्रवृत्तस्य परानुग्रहो बाचनादिप्रवृत्तस्य तदुभयानुग्रहः शाखव्याख्यानशिष्यसनहा- काध्ययने दिप्रवृत्तस्येति, अनुशिष्टिः-अनुशासनम्, तत्र आत्मनो यथा-वायालीसेसणसंकडंमि गहणमि जीव! न हु छलिओ। उद्देशः इण्डिं जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥१॥" इति, (तथा विधेयमिति शेष इति), परानुशिष्टिर्यथा-"ता तंसि भा- सू०१८८ ववेज्जो भवदुक्खनिपीडिया तुहं एते । हंदि सरणं पवना मोएयध्वा पयत्तेणं ॥ २॥” इति, तदुभयानुशिष्टिर्यथा “केह-8 कहऽवि माणुसत्ताइ पावियं चरण पवररयणं च । ता भो एत्थ पभाओ कइयावि न जुजए अम्हं ॥१॥" इति, उपा-12 लम्भः-इयमेवानौचित्यप्रवृत्तिप्रतिपादनगर्भा, स चात्मनो यथा-"चोलैंगदिदंतेणं दुलहं लहिऊण माणुसं जम्मं । जं न कुणसि जिणधर्म अप्पा किं वेरिओ तुझ ॥१॥" इति, परोपालम्भो यथा-"उत्तमकुलसंभूओ उत्तमगुरुदिक्खिओ तुम वच्छ! । उत्तमनाणगुणड्डो कह सहसा ववसिओ एवं? ॥१॥” इति, तदुभयोपालम्भो यथा-एंगस्स कए नियजीवियस्स बहुयाओ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे केवि ताण किं सासर्य जीयं ॥२॥" ति, 'एच'मित्यादिना १ द्विचत्वारिंशदेषणासकटे बहने जीव ! नैव छलितः । इदानीं यथा न छल्यसे भुंजानो रागद्वेषाभ्याम् ॥ १॥ २ तत्वं तेषां भाववैद्यो(सि) भवबुःखनिपी|दिता एते वो शरणं प्रपना मोचयितव्या (दुःखात्) प्रयत्नेन ॥२॥ ३ क कथमपि मनुष्यत्वादि प्राप्तं प्रारं पारिवरनं च तत् भी अत्र प्रमादो न दापि युआतेऽस्माकम् ॥३॥ भोजनादिदृष्टान्तैर्दुलर्भ मान जन्म लब्ध्वा यजिनधर्म न करोषि किंवात्मंस्त्वमेव वैरी तव ॥१॥ ५वत्स। लाला ला॥१५५॥ | उत्तमकुलसंभूत उत्तमगुरुदीक्षित उत्तमज्ञानगुणाण्या कममे सहसा व्यवसितोऽसि ॥२॥ एकस्य निजजीवितस ते बढ़का जीवकोठी बुख स्थापयति ये केचित् तेषां कि शाश्वतं जीमितं ॥३॥ 465555 ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम [२०१] BACKS पूर्वोक्तोऽतिदेशो व्याख्यातः, एवं चात्राक्षरघटना-यथैवोपक्रमे आत्मपरतदुभयैस्त्रय आलापका उक्ताः एवमेकैकस्मिन् वैयावृत्त्यादिसूत्रे ते त्रयस्त्रयो वाच्या इति । अथ श्रुतधर्मभेदा उच्यन्ते तिविहा कहा, पं० सं०-अस्थकहा धम्मकहा कामकहा ७, तिविहे विणिच्छते पं० सं०-अत्यविणिच्छते धम्मविणि छते कामविणिच्छते ८, (सू०१८९) अर्थस्य-लक्ष्म्याः कथा-उपायप्रतिपादनपरो वाक्यप्रवन्धोऽर्थकथा, उक्तं च-"सामादिधातुवादादिकृष्यादिप्रतिपादिका । अर्थोपादानपरमा, कथाऽर्थस्य प्रकीर्तिता ॥१॥" तथा-"अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधानः प्रतिभासते। तृणादपि लघु लोके, घिगर्थरहितं नरम् ॥१॥" इति, इयं च कामन्दकादिशास्त्ररूपा, एवं धर्मोपायकथा धर्मकथा,* उक्तं च-"दयादानक्षमायेषु, धाङ्गेषु प्रतिष्ठिता । धर्मोपादेयतागर्भा, बुधैर्धर्मकथोच्यते ॥१॥" तथा-"धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधान इति गीयते । पापसक्तं पशोस्तुल्यं, धिग्धर्मरहितं नरम् ॥२॥" इति, इयं चोत्तराध्ययनादिरूपाऽवसेयेति, एवं कामकथाऽपि, यदाह--"कामोपादानगर्भा च, वयोदाक्षिण्यसूचिका । अनुरागेगिताद्युत्था, कथा कामस्य वर्णिता ॥१॥" तथा-"स्मितं न लक्षेण वचो न कोटिभिर्न कोटिलक्षः सविलासमीक्षितम् । अवाप्यतेऽन्यैहुंदयोपगृहनं, न कोटिकोव्याऽपि तदस्ति कामिनाम् ॥१॥" इति, इयमपि वात्स्यायनादिरूपाऽवसेयेति, प्रकीर्णा वा तत्तदर्थी वचनपद्धतिः कथा चरित्रवर्णनरूपा वा, अर्थादिविनिश्चयाः-अर्थादिस्वरूपपरिज्ञानानि, तानि च "अर्थानामबाने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । नाशे दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थे दुःखकारणम् ॥१॥" तथा "धनदो धनार्थिनां धर्मः, RBSE ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१८९] दीप अनुक्रम [२०२] श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः ।। १५६ ।। “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१८९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] कामदः सर्वकामिनाम् । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥ २ ॥” तथा “शल्यं कामा विषं कामाः, कामा आशीविषोपमाः । कामानभिलषन्तोऽपि निष्कामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ ३ ॥" इत्यादीनि ॥ अनन्तरमर्थादिविनिश्चय उक्त इति तत्कारणफलपरम्परां त्रिस्थानकानवतारिणीमपि प्रसङ्गतो भगवत्प्रश्नद्वारेण निरूपयन्नाह Education International तहारूवं णं भंते! समणं वा माहणं या पवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणता ?, सवणफला, से णं भंते! सबणे किंफले ?, णाणफले, से णं भंते! जाणे किंफले ?, विण्णाणफले, एवमेतेणं अभिलावेणं इमा गाधा अणुगंतव्वा-सवणे णाणे य विन्नाणे पञ्चकखाणे य संजमे । अणण्हते तये चैव वोदाणे अकिरिय निव्वाणे ॥ १॥ जाब से णं भंते! अकिरिया किंफला ?, निव्वाणा, से णं भंते! निव्वाणे किंफले १, सिद्धिगइगमणपज्जवसाणफले पन्नत्ते, समणाउसो ! ॥ ( सू० १९० ) तृतीयस्य तृतीय उद्देशकः ॥ ‘तहारूवें’त्यादि पाठसिद्धं, केवलं पर्युपासना-सेवा, श्रवणं फलं यस्याः सा तथा साधवो हि धर्म्मकथादिकं स्वाध्यायं कुर्वन्तीति श्रवणं तत्सेवायां भवतीति ज्ञानं श्रुतज्ञानं, विज्ञानम्-अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चयः, 'एव' मिति पूर्वोक्तेनाभिलापेन से णं भंते! विज्ञाणे किंफले १, पञ्चक्खाणफले' इत्यादिना, इयं गाथा अनुगन्तव्या अनुसरणीया, एतद्गाथोक्तानि पदान्यध्येतव्यानीत्यर्थः, 'सवणे' इत्यादि, भावितार्था, नवरम् प्रत्याख्यानं - निवृत्तिद्वारेण प्रतिज्ञाकरणं संयमः -प्राणातिपाताद्यकरणम् उक्तं च---" पश्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः For Penal Use Only ~315~ ३ स्थान काध्ययने उद्देशः र सु० १९० १५६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९०] गाथांक सप्तदशभेदः ॥१॥” इति, अनाश्रवो-नवकर्मानुपादानम् , अनाश्रवणालघुकर्मत्वेन तपोऽनशनादिभेदं भवति, व्यवदान-पूर्वकृतकर्मवनलवनं 'दाए लवने' इति वचनात् कर्मकचवरशोधनं वा 'दैप शोधन' इति वचनादिति, अक्रिया-योगनिरोधः, निर्वाणं-कर्मकृतविकाररहितत्वं सिद्ध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः-लोकानं सैव गम्यमा-* नत्वाद् गतिस्तस्यां गमनं तदेव पर्यवसानफलं-सर्वान्तिमप्रयोजनं यस्य निर्वाणस्य तत्सिद्धिगतिगमनपर्यवसानफलं प्रज्ञप्तं 8. मया अन्यैश्च केवलिभिः, हे श्रमणायुष्मन्निति गौतमादिकं शिष्यं भगवानामन्त्रयन्निदमुवाचेति । त्रिस्थानकस्य तृतीयोदेशको विवरणतः समाप्तः॥ ||१|| दीप अनुक्रम [२०३-२०४] व्याख्यातः तृतीय उद्देशकः, अधुना चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् उद्देशके पुद्गलजीवधर्मा| खित्वेनोक्ता इहापि त एव तथैवोच्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रपटै पडिमें'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वसूत्रे श्रमणमाहनस्य पर्युपासनायाः फलपरम्परोक्का इह तु तद्विशेषस्य कल्पविधिरुच्यत इत्येवंसम्बन्धितस्यास्य व्याख्या पडिमापडिवनस्स अणगाररस कप्पति तओ उपस्सया पडिलेहित्तए, तं०-अहे आगमणगिहंसि वा अहे वियदगिर्हसि वा अहे रुक्खमूलगिहसि वा, एवमणुनवित्तते, उवातिणित्तते, पडिमापडिवन्नरस अणगारस्स कप्पति तो संघारगा पडिलेहित्तते, सं०-पुढविसिला कदुसिला अहासंथडमेव, एवं अगुण्णवित्तए उबाइणित्तए (सू० १९१) अत्र तृतीय-स्थानस्य तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्तं. अथ तृतीय-स्थानस्य चतुर्थ-उद्देशक: आरब्ध: ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 15 काध्ययने पृत्तिः उद्देशः४ प्रत सूत्रांक [१९१] H दीप श्रीस्थाना RI 'प्रतिमा' मासिक्यादिका भिक्षुप्रतिज्ञाविशेषलक्षणां प्रतिपन्नः-अभ्युपगतवान् यः स तथा तस्थानगारस्य 'कल्पन्' ३ स्थानअसूत्र- है युज्यन्ते त्रय उपाश्रीयन्ते-भज्यन्ते शीतादित्राणार्थं ये ते उपाश्रयाः वसतयः प्रत्युपेक्षितुम्-अवस्थानार्थं निरीक्षितु मिति, 'अहे'त्ति अधार्थः, अथशब्दह पदत्रयेऽपि त्रयाणामप्याश्रयाणां प्रतिमाप्रतिपन्नस्य साधो कल्पनीयतया । तुल्यताप्रतिपादनार्थो, वा विकल्पाः , पथिकादीनामागमनेनोपेतं तदर्थं वा गृहमागमनगृह-सभाप्रपादि,यदाह- सू० १९१ |"आगन्तु गारत्थजणो जहिं तु, संठाइ जं वाऽऽगमणमि तेसिं । तं आगमो किं तु बिदू वयंति, सभापवादेउलमाइयं भी च॥१॥" इति, तस्मिन् उपाश्रयः-तदेकदेशभूतः प्रत्युपेक्षितुं कल्पत इति प्रक्रम इति, तथा 'वियर्ड'ति विवृतम्अनावृतं, तच द्वेधा-अध ऊच, तत्र पार्वत एकादिदिक्षु अनावृतमधोविवृतं अनाच्छादितममालगृहं चोट्ट-12 | विवृतं तदेव गृहं विवृतगृहम् , उक्कं च-"अबाउडं जंतु चउद्दिसिंपि, दिसामहो तिन्नि दुवे य एका । अहे भवे तं वियर्ड गिहं तु, उहुं अमालं च अतिच्छदं च ॥१॥" ति, तस्मिन् वा, तथा वृक्षस्य-करीरादेनिंगलस्य मूलम्-अधोभागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहं तस्मिन् वेति । प्रत्युपेक्षया चोपाश्रये शुद्धे गृहस्थं प्रति तदनुज्ञापनं भवतीत्यनुज्ञापनासूत्रम्'एवं'मिति, एतदेव 'पडिमापडिवन्ने'त्याधुधारणीयं, नवरं प्रत्युपेक्षणास्थाने अनुज्ञापनं वाच्यमिति । अनुज्ञाते च गृहिणा| तस्योपादानमित्युपादानसूत्र, तदप्येवमेवेति, 'ओबाइणित्तपत्ति उपादातुं ग्रहीतुं प्रवेष्टुमित्यर्थः, एवं संस्तारकसूत्रत्रयगृहस्थजन आगा यत्र तु तिष्ठते यद्वागमने वेषां तदागन्तुकागारं विद्वांसो बदन्ति सभाप्रपादेवकुसादिकम् ॥१॥ २ अनावर्त यत्तु चतमप DI||१५७॥ INIदिशु अथवा तिरषु दिक्ष द्वयोः पाचवोरपव सदमोविकृतं अच्छादितममाल चोड़ पिपतं ॥१॥ R अनुक्रम [२०५] +5** * ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१९१] दीप अनुक्रम [२०५] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१९१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मपि, नवरं पृथिवीशिला उडगो [उबडगो ]त्ति यः प्रसिद्धः, काष्ठं चासौ शिलेवायतिविस्तराभ्यां शिला [सा] चेति काष्ठ| शिला 'यथासंस्तृतमेवे 'ति यत्तृणादि यथोपभोगार्ह भवति तथैव यलभ्यत इति । प्रतिमाश्च नियतकाला भवन्तीति कालं त्रिधाऽऽह तिविहे काले पण्णत्ते तं० तीए पडुप्पण्णे अणागए, तिविहे समए पं० वं० तीते पडुप्पन्ने अणागए, एवं आवलिया आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरत्ते जाव वासवतसहस्से पुव्यंगे पुज्बे जाव ओसप्पिणी, तिविधे पोम्ालपरियट्टे पं० नं० तीते पप्पन्ने अणागते (सू० १९२) तिचिहे वयणे पं० सं०एगवयणे दुवयणे बहुवयणे, अवा तिविहे बघणे पं० तं इत्थवणे पुंवयणे नपुंसगवयणे, अहवा तिविहे वयणे पं० [सं० तीतययणे पडुप्पन्नवयणे अणागयवयणे (सू० १९३) अति-अतिशयेनेतो- गतोऽतीतः, पिधानवदकारलोपे तीतो, वर्त्तमानत्वमतिक्रान्त इत्यर्थः, साम्प्रतमुत्यन्नः प्रत्युत्सन्नो वर्तमान इत्यर्थः, न आगतोऽनागतो वर्त्तमानत्वमप्राप्तो, भविष्यन्नित्यर्थः, उक्तं च-- " भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्त्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्त्तमानत्वम् ॥ १ ॥” इति । कालसामान्यं त्रिधा विभष्य तद्विशेषांखिधा विभजयन्नाह 'तिविहे समये इत्यादि कालसूत्राणि, समयादयो द्विस्थानकाद्योद्देशकवत् व्याख्येयाः, नवरं 'पोग्गलपरियट्टे'त्ति पुगलानां रूपिद्रव्याणामाहारकवर्जितानां औदारिकादिप्रकारेण ग्रहणतः एकजीवापेक्षया परिवर्तनं - सामस्त्येन स्पर्शः पुजलपरिवर्त्तः, स च यावता कालेन भवति स कालोऽपि पुङ्गलपरिवर्त्तः, स चानन्तोत्सर्पि Education Internationa For Parts Only ~ 318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३] श्रीस्थाना-पाण्यवसप्पिणीरूप इति, स चेत्थं भगवत्यामुक्ता-“कतिविहे गं भंते! पोग्गलपरियट्टे पन्नते?, गोयमा! सत्तविहे पन्नत्ते, ३ स्थान लसूत्र- तंजहा-ओरालियपोग्गलपरियट्टे वेउन्बियपोग्गलपरियट्टे एवं तेयाकम्मामणवइआणापाणूपोग्गलपरियट्टे" तथा 'से- काध्ययने वृत्तिः कणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ-ओरालियपोग्गलपरियट्टे २?, गोयमा! जेणं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरी-18 | उद्देशः४ रिपाउग्गाई दवाई ओरालियसरीरत्ताए गहियाई जाव णिसट्ठाई भवंति, से तेणऽढेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-ओरालिय- सू० १९३ ॥१५८॥ पोग्गलपरियट्टे ओ०२"। एवं शेषा अपि वाच्याः, तथा “ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइकालस्स णिचट्टिजइ?, गोयमा! अर्णताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं"ति, एवं शेषा अपीति, अन्यत्र वेवमुच्यते-"ओरॉल १ विउब्वा २ तेय18 ३ कम्म ४ भासा ५ ऽऽणुपाणु ६ मणगेहिं ७ । फासेवि सब्बपोग्गल मुक्का अह बायरपरहो ॥२॥ दवे सुहुमपरट्टो जाहे भाएगेण अह सरीरेणं । लोगंमि सव्यपोग्गल परिणामेऊण तो मुक्का ॥१॥” इति, द्रव्यपुद्गलपरिवर्तसहशा येऽन्ये क्षेत्रकालभावपरिवर्त्तास्तेऽन्यतोऽवसेया इति । एते च समयादयः पुद्गलपरिवन्तिाः स्वरूपेण बहवोऽपि तत्सामान्यलक्षण १ कतिविधो भदन्त ! पुरलपरावर्तः प्राप्तः, गीतम । सप्तविधः प्रहप्तः, तद्यथा-औदारिकपुनलपरिवर्तः कियपुरलपरिवर्तः एवं तेजःकर्ममनोबागान[प्राणपुद्गलपरारतः ॥ २ अथ केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते औदारिकपुरलपरावतः २१, गौतम ! येन जीवेन औदारिकपारीरे वर्तमानेनौदारिकप्रायोग्यानि व्यामि | औदारिकशरीरतया गृहीतानि यावनिमानि भवन्ति, मथ तेनान गौतमैवमुच्यते औदारिक पुगलपरावर्सः ।। श्रीधारिकपुलपरावतः भदन्त.। कियता कालेन निर्वस्यते ।, गौतमानन्ताभिरत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः ॥ ४औदारिकपैफियतेजःकर्मभाषान प्राणमनोभिः सर्वे पुलाः संस्पृश्य मुक्का अथासी वादरपत्रिवत्र्तः ॥ ॥१५८।। ये सूक्ष्मपरापत्तों बदकेन शरीरेणाथ लोके सर्वे पुलाः परिणमय मुक्काः सुखदा ॥1॥ दीप अनुक्रम [२०७] ~ 319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३] मेकं अर्थमाश्रित्यैकवचनान्ततयोक्ताः, भवन्ति चैकादिष्वर्थेष्वेकवचनादीनीत्येकवचनादिप्ररूपणायाह-तिविहे' इत्यादि, एकोऽर्थ उच्यतेऽनेनोक्तिवेंति वचनमेकस्यार्थस्य वचनमेकवचनमेवमितरे अपि, अत्र क्रमेणोदाहरणानि-देवो देवी देवाः। वचनाधिकारे अहवेत्यादि सूत्रद्वयं सुबोधम् , उदाहरणानि तु स्त्रीवचनादीनां नदी नदः कुण्डं, तीतादीनां कृतवान् करोति करिष्यति । वचनं हि जीवपर्यायस्तदधिकारात् तसर्यायान्तराणि त्रिस्थानकेऽवतारयन्नाह तिविहा पन्नवणा पं० २०–णाणपन्नवणा दसणपन्नवणा चरित्तपन्नवणा १, तिविधे सम्मे पं० सं०-नाणसम्मे दसणसम्मे परित्तसम्मे २, तिविधे उवधाते पं० २०-उग्गमोवघाते उप्पायणोषघाते एसणोवधाते ३, एवं विसोही ४ (सू०१९४) तिविहा आराहणा पं० सं०-णाणाराणा दसणाराणा चरित्ताराणा ५, णाणाराणा तिविहा पं०२०-कोसा मझिमा जहन्ना ६, एवं ईसणाराहणावि , चरित्ताराहपावि ८, सिविधे संकिलेसे पं०२०-नाणसंफिलेसे दसणसंकिलेसे परित्तसंकिले से ९, एवं असंकिलेसेवि १०, एवमतिकमेऽवि ११, वइकमेऽवि १२, अइयारेऽवि १३, अणायारेवि १४ । तिहमतिकमाणं आलोएजा पटिकमज्जा निदिजा गरहिजा जाव पडिवजिजा, सं०-णाणातिकमस्स सणातिकमस्स चरित्तातिकमस्स १५, एवं वइकमाणवि १६, अतिचाराणं १७, अणायाराणं १८ (सू० १९५) तिविधे पायच्छित्ते पं० सं०-आलोयणारिहे पडिकमणारिहे वदुभयारिहे १९ (सू० १९६) 'तिविहे'त्यादि सूत्राणामेकोनविंशतिः, स्पष्टा चेयं, परं प्रज्ञापना-भेदायभिधानं, तत्र ज्ञानप्रज्ञापना-आभिनिबो-|| अधिकादि पञ्चधा ज्ञानम्, एवं दर्शनं क्षायिकादि त्रिधा, चारित्रं सामायिकादि पश्चधेति, समश्चतीति सम्यक्-अविपरीत दीप अनुक्रम [२०७] ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम [२१०] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १५९ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [१९६] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [३], उद्देशक [V). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] आधाकर्मादयः दोषाः - Education Internationa मोक्षसिद्धिं प्रतीत्यानुगुणमित्यर्थः तच्च ज्ञानादीनि, उपहननमुपघातः, पिण्डशय्यादेरकल्प्यतेत्यर्थः, तत्र उद्गमनमुद्गमः पिण्डादेः प्रभव इत्यर्थः, तस्य चाधाकम्र्म्मादयः षोडश दोषाः, उक्तं च--" तस्थुग्गमो पसूई पभवो एमादि होंति एगडा । सो पिंडस्सिह पगओ तस्स य दोसा इमे होंति ॥ १ ॥ आहाकम्मु १ देसिय २ पूइकम्मे य ३ मीसजाए य ४ । ठवणा ५ पाहुडियाए ६ पाओयर ७ कीय ८ पामिच्चे ९ ॥ २ ॥ परिवट्टिए १० अभिहडे ११ उभिने १२ मालोहडे इय १३ । अच्छेजे १४ अनिस १५ अज्झोयरए य १६ सोलसमे ॥ ३ ॥” इति इह चाभेदविवक्षया उद्गमदोषा एवोनमः अत स्तेनोद्गमेनोपघातःपिण्डादेरकरूपनीयताकरणं चरणस्य वा दशबलीकरणमुन्द्रमोपघातः, उद्गमस्य वा पिण्डादिप्रसूतेरुपघातः- आधाकर्म्मत्वादिभिर्दुष्टता उद्गमोपघातः, एवमितरावपि केवलमुसादना -सम्पादनं गृहस्थासिण्डादेरुपार्जनमत्यर्थः, तद्दोषा धात्रीत्यादयः षोडश, यदाह उष्पायण संपायण णिब्वत्तणमो य होंति एगडा । आहारस्सिद्द पगया तीय य दोसा इमे होंति ॥ १ ॥ धाई १ दूइ २ निमिते ३ आजीव ४ वणीमगे ५ तिमिच्छाय ६ । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोभे य १० हवंति दस एए ॥ २ ॥ पुब्विं पच्छा संभव ११ विजा १२ मंते य १३ चुन १४ जोगे य १५ । उप्पायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥ ३ ॥” इति, तथा एषणा गृहिणा दीयमानपिण्डादेर्ग्रहणं तद्दोषाः शङ्किता १ तत्रोद्रमः प्रसूतिः प्रभव इत्यादीन्येकार्थानि भवन्ति स पिंडस्पे प्रकृतः तस्य च दोषा इमे भवन्ति ॥ १॥ भाषाकर्म औदेशिकं पूतिकर्म व मिश्रजात स्थापना प्राकृतिका प्रादुष्कृतं क्रीतं प्रामित्वं ॥ २ ॥ परिवर्तितः अभ्याहृतः उद्भिः मालाहतः आच्छेयः अनिसृष्टः अभ्यवपूरकच घोः ॥ २॥ २ उत्पादना सम्पा दना निर्वर्तना च भवति एकार्थानि आहारस्येह प्रकृता तखां च दोषा इमे भवन्ति ॥ १ ॥ धात्री दूती निमित्तं आजीविका वनीपकः चिकित्सा व कोचः मानः माया सोमव भवंति दशैते ॥ २ ॥ ३ पूर्व पथाद्वा संस्तरः विद्या मन्त्रश्च चूर्णयोगथ उत्पादनायां दोषाः पोडशो मूलकर्म च ॥ १ ॥ For Penal Use Only ~321~ ‍स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ सू० १९६ ॥ १५९ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] दयो दशेति, आह प-"ऐसणगवेसणन्नेसणा य गहणं च होंति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया तीय य दोसा इमे होति ॥१॥ संकिय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६म्मीसे ७। अपरिणय ८ लित्त छड्डिय १० एसणदोसा दस हवंति ॥ २॥" इह च 'सोलेस उग्गमदोसा गिहियाओ समुहिए वियाणाहि । उष्मायणाय दोसा सा-1 हओ समुडिए जाण ॥३॥ एषणादीपास्तूभयसमुत्था इति, एवमुद्गमादिभिदोषरविद्यमानतया वा विशुद्धिा-पिण्डच-| रणादीनां निर्दोषता सा उन्नमादिविशुद्धिरुद्मादीनां वा विशुद्धिर्या सा तथेति, इदमेवातिदिशन्नाह एवं चिसोहीं। ज्ञानस्य-श्रुतस्याराधना-कालाध्ययनादिष्वष्टस्वाचारेषु प्रवृत्त्या निरतिचारपरिपालना ज्ञानाराधना, एवं दर्शनस्य निःशङ्कितादिषु चारित्रस्य समितिगुप्तिषु, सा चोत्कृष्टादिभेदा भावभेदात् कालभेदाति, ज्ञानादिप्रतिपतनलक्षणः सविश्यमानपरिणामनिवन्धनो ज्ञानादिसइक्लेशा, ज्ञानादिशुद्धिलक्षणो विशुज्यमानपरिणामहेतुकस्तदसइक्लेशः। 'एवं|मिति, ज्ञानादिविषया एवातिकमादयश्चत्वारः, तत्राधाकर्माश्रित्य चतुर्णामपि निदर्शनम्-"आहाकम्मामंतण पडिसुणमाणे अइकमो होइ १ । पयभेयादि वइक्कम २ गहिए तइश्एयरो गिलिए ॥१॥” इति, इस्थमेवोत्तरगुणरूपचारित्रस्य चत्वारोऽपि, एतदुद्देशेन ज्ञानदर्शनयोस्तदुपग्रहकारिद्रव्याणां च पुस्तकचैत्यादीनामुपघाताय मिथ्याशामुपबृंहणार्थ एषणा गवेषणाऽन्वेषणा च प्रहणं च भवमयेकार्थानि आहारस्येह प्रकृतः तस्मां च दोषा इमे भवन्ति ॥१॥शंकित: अक्षितः निक्षिप्तः पिहितः संहतः दायक उन्मिश्रः । अपरिणतः लिप्तः छर्षितः एषणादोषा दश भवन्ति ॥ २॥ २ षोडशोगमदोषान् गृहिणः समुत्थितान् विजानीहि । उत्पादनाचा दोषान् साधोः | समुत्थितान् जानीहि ॥ ३ ॥ ३ आषाकर्मामंत्रणप्रतिषवणे अतिक्रमो भवति । पदभेदादी व्यतिकमो गृहीते तृतीय इतरो गिलिते ॥१॥ दीप अनुक्रम [२१०] आधाकर्मादय: दोषा: ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४. सू०१९७ दीप श्रीस्थाना- वा निमन्त्रणप्रतिश्रवणादिभिर्ज्ञानदर्शनातिक्रमादयोऽप्यायोज्या इति । 'तिण्हं अइकमाणंति पछ्या द्वितीयार्थत्वात् ४ात्रीनतिक्रमानालोचयेत्-गुरवे निवेदयेदित्यादि प्राग्वत् , नवरं यावत्करणात् 'विसोहेजा विउद्देज्जा अकरणयाए अन्भु- वृत्तिः दाडेजा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्त'मित्यध्येतव्यमिति, पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्राकृते पायच्छित्त- ॥१६॥ मिति शुद्धिरुच्यते तद्विषयः शोधनीयातिचारोऽपि प्रायश्चित्तमिति, तच विधा, दशविधत्वेऽपि तस्य त्रिस्थानकानुरोधादिति, तत्रालोचनमालोचना-गुरवे निवेदनं तां शुद्धिभूतामहति तयैव शुयति यदतिचारजातं भिक्षाचर्यादि तदालोचनाहमिति, एवं प्रतिक्रमणं-मिध्यादुष्कृतं तदह सहसा असमितत्वमगुप्तत्वं चेति, उभयम्-आलोचनाप्रतिक्रमणलक्षणमर्हति यत्तत्तथा, मनसा रागद्वेषगमनादि, सार्द्धगाथेह-"भिक्खायरियाइ सुज्झइ अइयारो कोवि विवडणाए। ऊ । बीओ य असमिओमित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ॥१॥ सहाइएसु रागं दोसं च मणो गओ तइयगंमि"त्ति। एते च प्रज्ञापनादयो धम्मोंः प्रायो मनुष्यक्षेत्र एव स्युरिति तद्वक्तव्यतामाह जंबूरीवे २ मंदरस्स पयस्स दाहिणेणं ततो अकम्मभूमिओ पं० सं०-हेमवते हरिबासे देवकुरा, जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरेणं तओ अकम्मभूमीओ पं० सं०-उत्तरकुरा रम्मगवासे एरण्णवए, जंचूर्मदरस्स दाहिणेणं ततो वासा पं० तं०-भरहे हेमवए हरिवासे, जन्मदरस्स उत्तरेणं ततो वासा पं० तं०-रम्मगवासे हेरनवते एरवए, जंबूमंदरदाहि मिक्षाचर्यायां कोऽपि अतिचारः स विकटनया शुद्ध्यति । कथं सहसाऽसमितोऽगुप्तो वाऽस्मीति द्वितीयः। ॥१॥(प्रतिक्रमण ) शब्दादिकेषु मनो रागं ४ वर्ष वा गतं तृतीय (मिथं). अनुक्रम [२१०] आधाकर्मादय: दोषा: ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१९७] दीप णेणं ततो वासहरपवता पं० त०-चुहिमवंते महाहिमवंते णिसढे, जंबूमंदरउत्तरेणं तओ वासहरपब्धता पं० सं०णीलवंते रूपी सिहरी, अंबूभंदरदाहिणेणं तओ महादहा पं०८०-पउमदहे महापउमदहे तिगिंछदहे, तत्थ णं ततो देवताओ महिडियातो जाय पलिओचमद्वितीताओ परिवसंति, तं०-सिरी हिरी धिती, एवं उत्तरेणवि, णवर-केसरिदहे महापोंडरीयदहे पोंडरीयदहे, देवतातो किची बुद्धी लच्छी, जंवूमंदरदाहिणेणं चुलहिमवतातो वासधरपवतातो पउमदहाओ महादहातो ततो महाणतीमओ पवईति, तांगा सिंधू रोहितंसा, जंबूमंदरउत्तरेणं सिहरीओ पासहरपब्बतातो पोंडरीयदहाओ महादहाओ वओ महानदीओ पहंति, तं०-सुबन्नकूला रत्ता रत्तवती, जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताए महाणतीते उत्तरेणं ततो अंतरणतीतो पं० त०-गाहावती दहवती पंकवती, जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महाणतीते वाहिणणं ततो अंतरणतीचो पं० सं०-तत्तजला मत्तजला उम्मत्तजला, जंवूमंदरपञ्चस्थिमेणं सीओदाते महाणईए दाहिणेणं ततो अंतरणतीतो पं० सं०-खीरोदा सीतसोता अंतोवाहिणी, जंबूमंदरपचत्यिमेणं सीतोदाए महाणदीए उत्तरेणं तो अंतरणदीतो पं० त०- उम्मिमालिणी फेणमालिणी गंभीरमालिनी। एवं धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेवि अकम्मभूमीतो आढवेत्ता जाव अंतरनदीओत्ति गिरवसेसं भाणियवं, जाव पुक्सरवरदीवडपञ्चत्थिमड़े तहेब निरवसेसं भाणियध्वं (सु० १९७) | 'जंबूद्दीचे इत्यादि, इदं च प्रकरणं द्विस्थानकानुसारेण जम्बूद्वीपपटानुसारेण चावसेयमिति, नवरमन्तरनदीनां वि कम्भः पञ्चविंशत्यधिक योजनशतमिति । अनन्तरं मनुष्यक्षेत्रलक्षणक्षितिखण्डवक्तव्यतोकेत्यधुना भजयन्तरेण सामान्यपृथ्वीदेशवक्तव्यतामाह अनुक्रम [२११] ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [१९७] दीप अनुक्रम [२११] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १६१ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [V). मूलं [१९८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Eaton Intemational स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - *******... सिहं ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेजा, सं० अथे णमिमीसे रयणप्पभाते पुढवीते उराला पोग्गला निवतेज्जा, तते णं ते उराला पोग्गला नियतमाणादेसं पुढवीए चलेना १, महोरते वा महिडीए जाव महसबखे इमीसे रयणप्पभावे पुढवीते अहे उम्मणिमज्जियं करेमाणे देषं पुढबीते चलेया २, णागसुवन्नाण वा संगामंसि वट्टमाणंसि देस पुढवीते चले, इथेहिं तिहिं० । तिहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेना, तंअधे णं इमीसे रवणप्पभाते पुढवीते घणवाते गुप्पेज्जा, वए णं से घणवाते गुविते समाणे घणोदद्दिमेजा, तए णं से घणोदही एइए समाणे केवलकप्पं पुढविं चालेना, देवे वा महिट्टिते जाव महेसक्ने तदारूवरस समणस्स माद्दणस्स वा इड्डि जुतिं जसं बलं वीरितं पुरिसकारपरकमं उवदंसेमाणे केवलकप्पं पुढविं चालिज्जा, देवासुरसंगामंसि या वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी चलेजा, इथेतेहिं तिहिं० । ( सू० १९८ ) 'तिहीं' त्यादि स्पष्टं केवलं देश इति भागः, पृथिव्याः - रजप्रभाभिधानाया इति, 'अहे'सि अधः 'ओरालि'त्ति उ| दारा- वादरा निपतेयुः - विस्रसापरिणामात् ततो विचटेयुरम्यतो वाऽऽगत्य तत्र लगेयुर्वन्त्रमुक्तमहोपलवत्, 'लए 'ति ततस्ते निपतन्तो देशं पृथिव्याञ्चलयेयुरिति पृथिवीदेशश्च लेदिति, महोरगो-व्यन्तरविशेषः, 'महिडिए' परिवारादिना याव करणात् 'महज्जुइए' शरीरादिदीस्या 'महाबले' प्राणतः 'महाणुभागे' वैक्रियादिकरणतः 'महेसक्खे' महेश इत्याख्या यस्येति, उन्मग्ननिमग्निकाम्-उसतनिपतां कुतोऽपि दर्पादेः कारणात् कुर्वन् देशं पृथिव्याश्चव्येत् स च चलेदिति, नागकुमाराणां सुपर्णकुमाराणां व भवनपतिविशेषाणां परस्परं सङ्ग्रामे वर्त्तमाने - जायमाने सति 'देस' ति देशश्चलेदिति, 'इथेपहिं'ति निगमनमिति । पृथिव्या देशतश्चलनमुक्तम्, अधुना समस्तायास्तदाह - 'तिही स्यादि, स्पष्टं, किन्तु केवलैव केवल For Parts Only ~ 325~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ सू० १९८ ॥ १६१ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] SHREST कल्पा, ईपवूनता चेह न विवक्ष्यते, अतः परिपूर्णेस्यर्थः परिपूर्णप्राया बेति, पृथिवी-भूः, 'अहे'त्ति अधो धनवातःतथाविधपरिणामो वातविशेषो 'गुप्त' व्याकुलो भवेत् क्षुभ्येदित्यर्थः ततः स गुप्तः सन् घनोदधि-तथाविधपरिणामजलसमूहलक्षणमेजयेत्-कम्पयेत् , 'तए गंति ततोऽनन्तरं स घनोदधिरेजित:-कम्पितः सम् केवलकल्पां पृथिवी चालयेत्, सा च चलेदिति, देवो वा ऋद्धि-परिवारादिरूपां द्युतिं शरीरादेः यश:-पराक्रमकृतां ख्याति बलं-शारीर वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकार-साभिमानं व्यवसायं निष्पन्नफलं तमेव पराक्रममिति, बलवीर्याद्युपदर्शनं हि पृथिव्यादिच लन विना न भवतीति तदर्शयंस्तां चलयेदिति, देवाश्च-वैमानिका असुरा:-भवनपतयस्तेषां भवप्रत्ययं वैरं भवति, अभिधीयते च भगवत्याम्-"किं पत्तियण्णं भंते! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य?, गोयमा! तेसि क देवाणं भवपचहए वेराणुबंधे"त्ति, ततश्च सखामः स्यात् , तत्र वत्तेमाने पृथिवी चलेतू, तत्र तेषां महान्यायामत 3 उत्सातनिपातसम्भवादिति 'इचेएही त्यादि, निगमनमिति । देवासुराः सकामकारितयाऽनन्तरमुक्काः, ते च दशविधाः 'इन्द्रसामानिकत्रायखिंशपार्षयात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्पिषिकाश्चैकश' (तत्त्वा० अ०४ सू०४) इति वचनात्, इति तन्मध्यवर्तिनः त्रिस्थानकावतारित्वात् किल्बिषिकानभिधातुमाह तिविधा देवकिपिसिया पं० सं०-तिपलिओवमद्वितीता १ तिसागरोवमद्वितीता २ तेरससागरोषमद्वितीया ३, कहिणं भंते ! विपलितोवमहितीता देवकिञ्चिसिया परिवसंति ?, उप्पि जोइसियाणं हिहि सोहम्मीसाणेसु कप्पेमु एत्य णं सिपलिओवमहितीचा देवा किबिसिया परिवसति १, कहि णं भंसे ! तिसागरोवमद्वित्तीसा देवा किब्लिसिया परिवसंति ?, दीप अनुक्रम [२१२] ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत सूत्रांक [१९९]] ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ सू०२०१ ॥१२॥ जुपि सोहंमीसाणाणं कप्पाणं देहि सर्णकुमारमाहिद कप्पे एत्य णं तिसागरोवमद्वितीया देवकिग्विसिया परिवसंति २, कहिण भंते ! तेरससागरोवमद्वितीया देवकिञ्यिसिता परिवसंति ?, उपि बंभलोगस्स कप्परस हिहिं लंतगे कप्पे एल्थ गं तेरससागरोवमद्वितीता देवकिन्चिसिया परिवसंति ३ (सू० १९९) सकस्स देविंदस्स देवरणो बाहिरपरिसाते देवाणं तिन्नि पलिगोषमाई लिई पन्नत्ता, सकस्स णं देविंदस्स देवरनो अभितरपरिसाते देवीण तिनि पलिओक्माई ठिती पं०, ईसाणस पं देविंदस्स देवरन्नो बाहिरपरिसाते देवीणं तिन्नि पलिओवमाई ठिती पं० (सू० २००) तिविहे पायपिछत्ते पं० सं०-णाणपायच्छिते दसणपायच्छित्ते चरित्तपायच्छिते, ततो अणुग्धातिमा पं० सं०-हत्वकम्म करेमाणे मेहुर्ण सेवेमाणे राईभोवणं मुंजमाणे, तओ पारंचिता पं० सं०-दुट्ठपारंचिते पमत्तपारचिते अन्नमय करेमाणे पारंचिते, सतो अणवठ्ठप्पा पं० २०-साहमियाणं तेणं करेमाणे अन्नधम्मियाणं तेणं फरेमाणे हत्यातालं दलयमाणे (सू० २०१) 'तिविहे स्यादि स्फुटं, केवलं, किब्बिसियत्ति-नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाहूणं । माई अवन्नवाई किबिसियं भावणं कुणइ ॥१॥"त्ति एवंविधभावनोपात्तं किल्बिर्ष-पापं उदये विद्यते येषां ते किल्बिपिका देवानां मध्ये किशल्पिषिका:-पापा अथवा देवाश्च ते किल्बिषिकाश्चेति देवकिल्बिषिका:-मनुष्ये चण्डाला इवास्पृश्याः, 'उरिप' उपरि 'हिडिं। अधस्तात् 'सोहम्मीसाणेसुत्ति षष्ठ्यर्थे सप्तमी। देवाधिकारायातं 'सके त्यादि सूत्रत्रयं सुगममिति । देवीनामनन्तरं स्थिति १ज्ञानस्य केवलिनी धर्माचार्यस्य सहसाधूनां । अवर्णवादी मावी किरियधिको भावनां करोति ॥१॥ दीप अनुक्रम [२१३] d ॥१६॥ ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] रुक्ता, देवीत्वं च पूर्वभवे सप्रायश्चित्तानुष्ठानाद्भवतीति प्रायश्चित्तस्य तद्वतां च प्ररूपणायाह-'तिविहें'त्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगम, केवलं 'नाणे'त्यादि, ज्ञानाद्यतिचारशुद्यर्थं यदालोचनादि ज्ञानादीनां वा योऽतिचारस्तत् ज्ञानप्रायश्चित्तादि, तत्राकालाविनयाध्ययनादयोऽधावतिचारा ज्ञानस्य शङ्कितादयोऽष्टौ दर्शनस्य मूलगुणोत्तरगुणविराधनारूपा विचित्राः चारित्र स्येति। 'अणुग्धाइम'त्ति उद्घातो-भागपातस्तेन निर्वृत्तमुद्घातिमं, लम्वित्यर्थः, यत उक्तम्-"अ ण छिन्नसेसं पुब्बद्धेणं दतु संजुयं काउं। देजाहि लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चेव ॥१॥” इति, भावना-मासोऽर्द्धन छिन्नो जातानि पञ्चदश दिनानि, ततो मासापेक्षया पूर्व तपः पञ्चविंशतितमं तदई सार्बद्वादशकं तेन संयुतं मासाद्ध, जातानि सप्तविंशतिर्दिनानि सा - नीत्येवं कृत्वा यद् दीयते तलघुमासदानम् , एवमन्यान्यपि, एतन्निषेधादनुद्घातिमं तपो, गुञ्चित्यर्थः, तद्योगात्साधवो-1 ऽपि वा तथोच्यन्ते, 'हस्तकर्म' हस्तेन शुक्रपुद्गलनिघातनक्रिया आगमप्रसिद्धं तत्कुर्वन् , सप्तमी चेयं षष्ठचा, तेन कुर्वत इति व्याख्येयम् , एतेषां च हस्तकर्मादीनां यत्र विशेषे योऽनुद्घातिमविशेषो दीयते स कल्पादितोऽवसेयः, 'पारंचिय'चि पार-तीरं तपसा अपराधस्याञ्चति-गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराची स एवं पाराश्चिकः तस्य यदनुष्ठानं तच्च पाराभिकमिति दशमं प्रायश्चित्तं, लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिर्वहिःकरणमिति भावः, इह च सूत्रे कल्पभाष्य इदमभिधीयते-"आसायण पडिसेवी दुविहो पारंचिओ समासेणं । एकेकंमि य भयणा सचरित्ते चेव अचरित्ते ॥१॥ अन छिने शेषं पूर्वतपोऽर्धन संयुफ पला । सफदानं दद्या गुरुदानं तावदेव ॥१॥ २ समासेन पाराधिको द्विविधा आशातनायो प्रतिसेवाय च। एकेकस्मिन् भजना च संचारित्र भकारिने एवं ॥१॥ दीप अनुक्रम [२१५] अणुग्घाईमं आदि प्रायश्चित्तस्य वर्णनं ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाससूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२०१] ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ सू०२०१ ॥१३॥ सब्वचरितं भस्सइ केणवि पडिसेविएण उ पएणं । कत्थइ चिद देसो परिणामवराहमासज ॥२॥ तुलमिवि अबराहे परिणामवसेण होइ नाणत्तं । कस्थइ परिणामंमिवि तुले अवराहनाणत्तं ॥ ३॥" तत्र आशातकपाराश्चिक:-'तिस्थयर- शापवयणसुए आयरिए गणहरे महिडीए । एते आसायंते पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥१॥"त्ति तन्त्र--सब्वे आसायंते पावति पारंचियं ठाणं"ति, इह च सूत्रे प्रतिसेवकपाराश्चिक एव त्रिविध उक्तः, तदुक्तम्-"परिसंवणपारंची तिविहो सो होइ |आणुपुवीए । दुढे य पमत्ते या नायब्बो अन्नमन्ने य॥१॥" तत्र दुष्टो-दोषवान् कषायतो विषयतश्च, पुनरेंकैको द्वेधा, सपक्षविपक्षभेदात्, उक्तं च-“दुविहो य होइ दुट्ठो कसायदुवो य विसयदुवो य । दुविहो कसायदुद्दो सपक्सपरपक्व चउभंगो ॥१॥" तत्र स्वपक्षे कषायदुष्टो यथा सर्पपनालिकाभिधानशाकभर्जिकाग्रहणकुपितो मृताचार्यदन्तभञ्जकः साधुः, विषयदुष्टस्तु साध्वीकामुकः, तत्र चोक्तम्-"लिंगेण लिंगिणीए संपत्तिं जो णिगच्छई पायो । सम्बजिणाणऽज्जाओ संघो वाऽऽसाइतो तेणं ॥१॥ पावाणं पावयरो दिद्विप्फासेवि सो न कप्पति तु | जो जिणपुंगवमुई नमिऊण १सर्व चारित्र भ्रस्यति फेनापि प्रतिषेवितेन पदेन कुत्रचित्तिपति देशः परिणामापराधाबासाथ ॥ २॥ तुल्येऽप्यपराचे परिणामयशेन भमति नानात्वम् । कुत्रचित् परिणामे तुल्येऽपि अपराधनानात्वम् ॥३॥ २ तीर्यकरप्रवचनश्रुतानि आचार्यान गणधरान महर्दिकान् । एतानाशातयति प्रायधिसे मार्गणा भवति ॥१॥ ३ सर्वानाशातयन् प्रामोति पाराचि स्थानम्। ४ प्रतिषेवणापारापिकविविधः स आनुपूा दुष्टव प्रमत्तच ज्ञातव्योऽम्योऽन्यथ ॥१॥ ५ द्विविधष भवति दुष्टः कवायदुश्व विषयदुश्च । द्विविधा कषायदुधः सपक्षपरपक्षयोः चतुर्भः॥१॥६लिगेन लिगिन्याः संप्रालि यो गच्छति पापः । सर्वजिनागामार्याः संघधाशातितस्तेन ॥ १॥ पापामा पापतरो दृष्टिस्पोऽपि कत्तुं तव नैव कल्पते यो जिनपरसुदा नवा दीप अनुक्रम [२१५] SXS का॥१६३॥ SAREarattirintimational अणुग्घाईमं आदि प्रायश्चित्तस्य वर्णनं ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] शतमेव धरिसेह ॥२॥" त्ति, “संसारमणवयग्गं जाइजरामरणवेयणापउरं। पावमलपडलछन्ना भमंति मुद्दाधरिसणेण॥३॥" इति, परपक्षकषायदुष्टस्तु राजवधको द्वितीयो राजाग्रमहिष्यधिगन्तेति, उक्तं च-"जो य सलिंगे दुट्ठो कसाय विसएहिं रायवहगो य । रायग्गमहिसिपरिसेवओ य बहुसो पयासो य ॥१॥" प्रमत्तः-पञ्चमनिद्राप्रमादवान, मांसाशिप्रव्रजि तसाधवदिति, अयं च सद्गणोऽपि त्याग्य इति, आह च- अवि केवलमुप्पाडे णय लिंगं देइ अणइसेसी से । देसव-15 शायदंसणं वा गेण्ह अणिच्छे पलायंति ॥१॥" तथा, अन्योऽम्य-परस्परं मुखपायुप्रयोगतो मैथुनं कुर्वन् , पुरुषयुगमिति शेषः, उच्यते च-"आसयपोसयसेवी केवि मणूसा दुवेयगा होति । तेसिं लिंगविवेगों"त्ति, आसेवितातिचारविशेषः सन्ननाचरिततपोविशेषस्तद्दोषोपरतोऽपि महाव्रतेषु नावस्थाप्यते-नाधिक्रियते इत्यनवस्थाप्यः तदतिचारजातं तच्छुखिरपि वाऽनवस्थाप्यमुच्यत इति नवमं प्रायश्चित्तमिति, तत्र साधर्मिकाः-साधवस्तेषां सस्कस्योस्कृष्टोपधि(:)शिष्यादेवी बहुशो वा प्रद्विष्टचित्तो वा, 'तेणं ति स्तेयं-चौर्यं कुर्वन् , तथा अन्यधाम्मिका:-शाक्यादयो गृहस्था वा तेषां सत्कस्योपध्यादेः स्तेयं कुर्वन्निति १ तथा हस्तेनाऽऽताडनं हस्ततालस्तं 'दलमाणे ददत्, यष्टिमुष्टिलकुटादिभिर्मरणादिनिरपेक्ष दीप अनुक्रम [२१५] १ तामेव वर्षयति ॥२॥ संसारमनवदनं जन्ममरणरावेदनाप्रचुर । पापमलपटलच्छा प्राम्यन्ति मुद्राधर्षणेन ॥३॥ १ व खलिंगे कषायविषयैर्दुष्टः | | राजवघका राजाप्रमहिषीपरिषेचकर बहुधाः प्रकाशच ॥9॥ ३ अपि केवलमुत्पादयेन व लिंग तयानतिशयी वदाति । देशजतं सम्यक्त्वं वा गृहाण अनि| गछति पलायन्ते ॥1॥४ास्यपोप्यसेविनः केऽपि मनुष्याः द्विवेदा भवन्ति तेषां लिंगविवेकः ।। AREauratonintehational अणुग्घाईमं आदि प्रायश्चित्तस्य वर्णनं ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [२१५] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १६४ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [V). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... -------- Eaton International - स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] आत्मनः परस्य वा प्रहरन्निति भावः उक्तं च "कोसं बहुसो वा पदुडचित्तो व तेणियं कुणइ । पहरइ जो य सपक्खे निरवेक्खो घोरपरिणामो ॥ १ ॥” अथवा 'अत्थायाणं दलमाणो त्ति पाठस्तत्र अर्थादानं द्वव्योपादानकारणमष्टाङ्गनिमित्तं तद्ददत्, प्रयुञ्जान इत्यर्थः, अथवा 'हत्थालंबं दलमाणे ति पाठः तत्र हस्तालम्ब इष हस्तालम्बस्तं हस्तालम्ब ददद्, अशिवपुररोधादौ तत्प्रशमनार्थमभिचारकमन्त्रविद्यादि प्रयुञ्जान इत्यर्थः । पूर्वोक्तप्रायश्चित्तं प्रत्राजना वियुक्तस्य भवति, तानि चायोग्यनिरासेन योग्यानां विधेयानीति तदयोग्यान्निरूपयन् सूत्रषटुमाह ततो णो कप्पंति पञ्चात्तए, सं० पंढए वातिते की १, एवं मुंडावित्तए २, सिक्खावित्तए ३, उद्वावित्तए ४, संभुंजित ५, संवासित ६ ( सू २०२ ) 'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, किन्तु 'पण्डकं' नपुंसकं तच्च लक्षणादिना विज्ञाय परिहर्तव्यं, लक्षणानि चास्य--' "महिलासहावो सरवन्नभेओ, मेंढं महंतं मउई य वाया । ससद्दगं मुत्तमफेणगं च पयाणि छप्पंडगलक्खणाणि ॥ १ ॥” चि तथा वातोऽस्यास्तीति वातिकः, यदा स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहनं कपायितं भवति तदा न शक्नोति यो वेदं धारयितुं यावन्न प्रतिसेवा कृता स वातिक इति, अर्थ च निरुद्धवेदो नपुंसकतया परिणमति, क्वचित्तु 'वाहियति पाठः, तत्र व्याधितो रोगीत्यर्थः, तथा क्लीव:- असमर्थः, स च चतुर्द्धा दृष्टिक्लीवशब्दक्कीवादिग्धक्कीबनिमन्त्रणक्लीवभेदात्, तत्र यउत्कृष्टं बहुदा प्रद्विष्टचित्त सैन्यं करोति प्रदति यः खपक्षे निरपेक्षः पोरपरिणामः ॥ १ ॥ २ महिला सभायः खरवर्णभेदः मेहनं महन्द्री च वाणी सशब्दकं मूत्रमफेनं च एतानि षट् पंडकलक्षणानि ॥ १ ॥ 1 For Parts Only मूलं [२०१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 331 ~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ सू० २०२ ।। १६४ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०२] है स्यानुरागतो विवखाद्यवस्थं विपक्षं पश्यतो मेहनं गलति स दृष्टिक्लीवः, यस्य तु सुरतादिशब्दं शृण्वतः स द्वितीयो, यस्तु विपशेणावगूढो निमन्त्रितो वा व्रतं रक्षितुं न शक्नोति स आदिग्धक्कोबो निमन्त्रितक्लीवश्चेति, चतुर्विधोऽप्ययं निरोधे नपुंसकतया परिणमतीति, चातिकक्कीचयोस्तु परिज्ञानं तयोस्तन्मित्रादीनां वा कथनादेरिति, विस्तरश्चात्र कल्पादबसेयः, है एते चोत्कटवेदतया प्रतपालनासहिष्णव इति न कल्पन्ते प्रवाजयितुं, अनाजकस्याप्याज्ञाभङ्गेन दोषप्रसङ्गादिति, उक्तं | च-"जिणवयणे पडिकुडं जो पब्वावेइ लोभदोसेणं । चरणहिओ तवस्सी लोवेइ तमेव उ चरितं ॥१॥” इति, इह सूत्रयोऽप्रवाज्या उक्काः त्रिस्थानकानुरोधाद्, अन्यथा अन्येऽपि ते सन्ति, यदाह-"बाले बुढे नपुंसे य, जड्डे कीवे य वाहिए । तेणे रायावगारी य, उम्मत्ते य अदंसणे॥१॥दासे दुढे (य) मूढे (य), अणत्ते जुगिए इय। ओवद्धए य भयए, सेहनिएफेडिया इय ॥२॥ गुन्विणी बालवच्छा य, पम्बावेउं न कप्पई"त्ति, अदंसणो-अन्धः अणत्तो-ऋणपीडितः। जुंगिओ-जात्यशाहीनः ओबद्धओ-विद्यादायकादिप्रतिजागरकः सेहणिफेडिआ-अपहत इति, एवं'मित्यादि, यथैते प्र. वाजयितुं न कल्पन्ते एवमेत एव कथश्चिच्छलितेन प्रत्राजिता अपि सन्तो मुण्डयितुं शिरोलोचेन न कल्पन्ते, उक्तं च -"पथ्याविओ सियत्ति, [यः स्यादित्यर्थः> मुंडावेजे अणायरणजोगो । अहवा मुंडाविन्ते दोसा अणिवारिया पुरिमा ॥१॥" इति, एवं शिक्षयितुं-प्रत्युपेक्षणादिसामाचारी ग्राहयितुं, तथा उपस्थापयितुं-महानतेषु व्यवस्थापयितुं, तथा जिनपचने प्रतिकृष्ट यः प्रमाशयति खोभदोषेण । चरपस्थितस्तपसी लोपयति तदेव चारित्रं ॥१॥ बालोपो जल की व्याधितः ।। रास्तेनो राजापकारी व उन्मत्तधादांना ॥१॥ दासो दुश्च मूडब नाणात जुंगित इति अवबद्धको भूतका शिष्यनिष्फे टिकेति ॥१॥गर्भिणी बालवत्सा व प्रमाजशायितुं न कल्पते ॥ सायनाजिता संडयितुं अनाचरणयोग्यः भयवा संबिते परिस्सा दोषा अनिवारिताः ॥ दीप अनुक्रम [२१६] कलकcks ॐॐॐ Auditurary.com ~ 332~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- स्थानकाध्ययने FE प्रत सूत्रांक [२०२] ॥१६५॥ सू०२०३ दीप सम्भोक्तुम्-उपध्यादिना, पवमनाभोगात् संभुक्ताश्च संवासयितुम्-आत्मसमीपे आसयितुं न कल्पन्त इति प्रक्रम इति । कथचित् संवासिता अपि वाचनाया अयोग्या:-न वाचनीया इति, तानाह ततो अवायणिज्जा पं० सं०-अविणीए विगतीपडिवद्धे अविओसितपाहुडे, तो कष्पति पातित्तते, तं०-विणीए अचिगतीपडिबद्धे विउसियपाहे । तो दुसन्नप्पा पं० सं०-दुढे मूढे बुग्गाहिते, तओ सुसन्नप्पा पं० २०-अदुढे अमूढे अबुग्गाहिते (सू० २०३) I 'तओं' इत्यादि सुगम, नवरं न वाचनीया:-सूत्र न पाठनीया, अत एवार्थमध्यश्रावणीयाः, सूत्रादर्थस्य गुरुत्वात् , तत्राविनीतः सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहितः, तद्वाचने हि दोषः, यत उक्तम्-"इहरहवि ताव थम्भइ अविणीओ लंभिओ किमु सुएणं ! । मा णहो नासिहिई खएव खारोवसेगोउ ॥१॥गोजूहस्स पडागा सयं पलायस्स वद्धह य वेगं । दोसोदए य समर्ण न होइ न नियाणतुलं च ॥ २॥" निदानतुल्यमेव भवतीत्यर्थः, "विणेयाहीया विजा देइ फलं इह परे य लोयंमि । न फलंतऽविणयगहिया सस्साणिव तोयहीणाई॥३॥" इति, तथा विकृतिप्रतिबद्धो-गृतादिरसविशेषगृद्धः अनुपधानकारीति भावः, इहापि दोष एव, यदाह-"अतेवो न होइ जोगो न य फलए इच्छियं फलं विजा। ___ इतरथाऽपि तावत् सानाति अविनीतो सभितः किं श्रुतेन मा नश्वनाशयिष्यति खते क्षारायसेकादिव ॥१॥ गोयूथस्य पताका स्वयं पलायमानसा बर्द्धयति वेग दोषोदये व शमनं न भवति न च निदानतुल्यं ॥३॥ २ बिनयाधीता विधा इह परसिब लोके ददाति फलं भ फलन्यविनषग्रहीताः पास्मानीव तोयहीनानि ॥१॥ ३ अतपो न भवति योगो न च अनुक्रम [२१६] * भा॥१६५ ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२०३] दीप अनुक्रम [२१७] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [४]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Education Internation अवि फेलति विलमगुणं साहणहीणा जहा विज्जा ॥ १ ॥” इति अव्यवसितम् - अनुपशान्तं प्राभृतमिव प्राभृतं नरकपालकौशलिकं परमक्रोधो यस्य सोऽव्यवसितप्राभृतः, उतं च - "अप्पेवि पारमाणिं अवराहे वयइ खामियं तं च । बहुसो उदीरयंतो अविओसियपाहुडो स खलु ॥ १ ॥” इति, 'पारमाणि' परमक्रोधसमुद्घातं व्रजतीति भावः, एतस्य वाचने इहलोकतरत्यागोऽस्य प्रेरणायां कलहनात् प्रान्तदेवताछलनाच्च, परलोकतोऽपि त्यागः, तत्र श्रुतस्य दत्तस्य निष्फलत्वात्, ऊपरक्षितबीजवदिति, आह च - "देविहो उ परिचाओ इह चोयण कलह १ देवयाछलणं २ । परलोगंमि अ अकलं खित्तंपि व ऊसरे बीयं ॥ १ ॥” इति एतद्विपर्ययसूत्रं सुगमं । श्रुतदानस्यायोग्या उक्ताः, इदानीं सम्यक्त्वस्याप्ययोग्यानाह - 'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, किन्तु दुःखेन कृच्छ्रेण संज्ञाप्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते बोध्यन्त इति दुःसंज्ञाप्याः, तत्र दुष्टो - द्विष्टः तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रति स चाप्रज्ञापनीयो, द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः, एवं मूढो गुणदोषानभिज्ञः, व्युद्माहितः- कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपर्यासः सोऽप्युपदेशं न प्रतिपद्यते, उक्तं च “पुब्वं कुग्गाहिया केई, बाला पंडियमाणिणो । नेच्छति कारणं सोउं, दीवजाए जहा गरे ॥ १ ॥” इति एतेषां स्वरूपं कल्पात् कथाकोशाच्चावसेयमिति । एतद्वि 2 १] फलवीच्छितं फलं विद्या विपुलमगुणं साधनहीना फडति यथा विद्या ॥ १ ॥ २ अल्पेऽपि अपराधे कोपं अजति क्षामितं च बहुश उदीरयति सोऽव्युपितप्राभृतः ॥ १ ॥ ३ द्विविधस्तु परित्यागः इह चोदने कलहः देवतानं परलोके चाफलं ऊपरे क्षेत्रे बोजमिन ॥ १ ॥ ४ पूर्व कुमाहिताः केचि द्वाला पंडितमानिनः । नेच्छन्ति कारणं श्रोतुं द्वीपजाता यथा नराः ॥ १ ॥ ( बुग्गाहियेति गाथावृत्तिः ). मूलं [२०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 334 ~ www.nary.or Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: C प्रत सूत्रांक [२०३] ॥१६॥ दीप अनुक्रम [२१७] श्रीस्थाना- पर्यस्तान् सुसंज्ञाप्यतयाऽऽह-तओं' इत्यादि, स्फुटमिति, उक्ताः प्रज्ञापनार्हाः पुरुषाः, अधुना तत्प्रज्ञापनीयवस्तूनि ३ स्थानत्रिस्थानकावतारीण्याह काध्ययने सतो मंडलिया पव्यता पं० २०-माणुसुत्तरे कुंडलवरे रुअगवरे (सू० २०४) ततो महतिमहालया पं० २० उद्देश: जंबुरीवे मंदरे मंदरेसु सयंभुरमणे समुद्दे समुद्देसु बंभलोए कप्पे कप्पेसु (सू० २०५) सू०२०५ AI 'तओ मंडलिए त्यादि, मण्डलं-चक्रवालं तदस्ति येषां ते मण्डलिकाः-प्राकारवलयवदवस्थिता मानुषेभ्यो मानुष-18/ क्षेत्राद्वोत्तरः-परतोवती मानुषोत्तर इति, तत्स्वरूपं चेदम्-"पुक्खरवरदीवई परिखिवइ माणुसुत्तरो सेलो । पायासरसरिसरूवो विभयंतो माणुसं लोग ॥१॥ सत्तरस एगवीसाइ जोयणसयाइ सो समुब्बिद्धो । चत्तारि य तीसाई मूले कोसं च ओगाढो ॥२॥ दस बावीसाइ अहे विच्छिन्नो होइ जोयणसयाई । सत्त य तेवीसाई विच्छिन्नो होइ मामि ॥३॥ चत्तारि य चउबीसे वित्थारो होइ उवरि सेलस्स । अहाइजे दीवे दो य समुदे अणुपरीइ ॥४॥” इति।। तथा-'जंबूद्दीवो धार्यह पुक्खरदीवो य वारुणिवरो य । खीरवरोऽवि य "दीवो घयवरदीवो ये खोयवरो ॥५॥ पुष्करचरद्वीपाई परिक्षिपति मानुषोत्तरः शैलः प्राकारसदृशरूपः विभजन् मानुषं लोके ॥ १ ॥ एकत्रिंशत्यधिकसप्तदशयोजनशतानि स समुञ्चः त्रिंशदसाविकचतुःशतानि कोशं चावगाढः ॥ २॥ द्वाविंशत्यधिकदशयोजनशतानि अधो लिखी! भवति अयोविंशत्यधिकसप्तशतानि मध्ये विस्तीर्णो भवति ॥ ३ ॥ |चतुर्विशत्यधिकचतुःशतानि शैलस्योपरि विस्तारो भवति सायद्वीपान द्वौ समुद्रावनुपाति ॥ ४॥ १जंबूद्वीपो धातकी पुष्करद्वीपक्ष वारुणीवरच क्षीरवरोऽपि च, दीपो धूतवरद्वीपश्च क्षोदवरः ॥ ५॥ MIn१६६ oe ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२०५ ] दीप अनुक्रम [२१९] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [V). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton International नंदीसरो 'थे अरुणो अरुणोओ य कुंडलंवरो य । तह संखे अंग अवर कुसे कुंवरो तओ दीवो ॥ ६ ॥” इति क्रमापेक्षया एकादशे कुण्डलवराख्ये द्वीपे प्राकारकुण्डलाकृतिः कुण्डलवर इति तद्रूपमिदम्"कुंडलवरस्स मज्झे णगुत्तमो होति कुण्डलो सेलो पागारसरिसरूवो विभयंतो कुण्डलं दीवं ॥ १ ॥ बायालीससहस्से उब्बिद्धो कुंडलो हवइ सेलो एवं चैव सहस्सं धरणियलमहे समोगाढो ॥ २ ॥ दस चैव जोयणसए बावीसे वित्थडो य मूलंमि । सत्तेव जोयणसए बावीसे वित्थडो मज्झे ॥ ३ ॥ चत्तारि जोयणसए चडवीसे वित्थडो उ सिहरतले"त्ति, तथा त्रयोदशे रुचकवराख्ये द्वीपे कुण्डलाकृती रुचक इति एतस्य त्विदं स्वरूपं - "यगवरस्स उमज्झे नगुतमो होति पब्चओ रुअगो । पागारसरिसरुवो रुअगं दीवं विभयमाणो ॥ १ ॥ रुयगस्स उ उस्सेहो चउरासीतिं भवे सहस्साई । एवं चैव सहस्सं धरणियलमहे समोगाढो ॥ २ ॥ दस चेव सहस्सा खलु बावीसा जोयणाण बोद्धव्या । मूलंमि उ विक्खंभो साहीओ रुयगसेलस्स ॥ ३ ॥” तथा मध्यविस्तारोऽस्य सप्त सहस्राणि द्वात्रिंशत्यधिकानि, शिरोविस्तारस्तु १ नंदीश्वर वारुणोऽरुणावपातच कुंडलवरथ तथा शंखः रुचकः भुजवरः कुशः काँचवरच ततो द्वीपः ॥ ६ ॥ २ कुंवरस्य मध्ये नगोत्तमो भवति कुंडलः शैलः प्राकारसदृशरूपो विभजन् कुंडलं द्वीपं ॥ १ ॥ द्विचत्वारिंशत्सहसा द्विद्धः कुंडलो भवति शैलः अधो धरणीतले एकमेव सहलं समवगाढः ॥ २ ॥ दशयो जनशतानि द्वाविंशत्यधिकानि मूले विस्तृतो द्वाविंशत्यधिकसप्तयोजनशतानि मध्ये विस्तृतः ॥ ३ ॥ चतुर्विंशत्यधिक चतुर्योजनशतानि शिखरतले विस्तृतः ॥ ४ ॥ ३ रुचकरस्य मध्ये नगोत्तमो भवति पर्वतो रुचकः प्राकारसदशरूपः रुचर्क द्वीपं विभजन् ॥ १ ॥ रुचकस्योत्येवः चतुरशीतिर्भवेत् सहस्राणि परणितले एकमेव सहस्रमधः समयगाढः ॥ २ ॥ द्वाविंशत्यधिकदशसहस्रयोजनानि बोद्धव्यः मूळे तु विष्कम्भः साधिकः ॥ ३ ॥ मूलं [२०५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५]] जसूत्रवृत्तिः ॥१६७॥ दीप अनुक्रम [२१९] श्रीस्थाना-18चत्वारि सहस्राणि चतुर्विशत्यधिकानीति । मानुषोत्तरादयो महान्त उक्ता इति महदधिकारादतिमहत आह-तओ स्थान * महईत्यादि व्यक्तं, केवलमतिमहान्तश्च ते आलयाश्च-आश्रयाः अतिमहालया महान्तश्च तेऽतिमहालयाश्चेति महाति- काध्ययने महालयाः, अथवा लय इत्येतस्य स्वार्थिकत्वात् महातिमहान्त इत्यर्थः, द्विरुचारणं च महच्छब्दस्य मन्दरादीनां सर्व-12 (उद्देशः४ गुरुत्वख्यापनार्थम् , अव्युत्पन्नो वाऽयमतिमहदर्थे वर्त्तत इति, 'मंदरसुत्ति मेरूणां मध्ये जम्बूद्वीपकस्य सातिरेकल- सू० २०६ क्षयोजनप्रमाणत्वाच्छेपाणां चतुर्णी सातिरेकपञ्चाशीतियोजनसहस्रप्रमाणत्वादिति, स्वयम्भूरमणो महान् सुमेरोरारभ्य तस्य शेषसर्वद्वीपसमुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्वात् , तेषां तस्य च क्रमेण किञ्चिन्यूनाधिकरज्जुपादप्रमाणत्वादिति, ब्रह्मलो|कस्तु महान् , तत्प्रदेशे पञ्चरज्जुप्रमाणत्वात् लोकविस्तरस्य, तत्प्रमाणतया च विवक्षितत्वात् ब्रह्मलोकस्येति । अनन्तरं ब्रह्मलोककल्प उक्त इति कल्पशब्दसाधात् कल्पस्थिति त्रिधाऽऽह तिविधा कप्पठिती पं०, तं-सामाइयकप्पठिती छेदोषट्ठावणियकप्पट्टिती निविसमाणकप्पद्विती ३, अहवा तिविहा कपद्विती पं० सं०-णिन्विट्ठकप्पद्विती जिणकप्पठिती थेरकप्पठिती ३ (सू० २०६) सूत्रद्वयं व्यक्तं, केवलं समानि-ज्ञानादीनि तेषामायो-लाभः समायः स एव सामायिक-संयमविशेषस्तस्य तदेव वा कल्प-करणमाचारः, यथोक्तम्-“सामध्ये वर्णनायां च, करणे छेदने तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदु-1 ॥१६७॥ बुंधाः ॥१॥" इति सामायिककल्पः, स च प्रथमचरमतीर्थयोः साधूनामल्पकालः, छेदोपस्थापनीयस्य सद्भावात्, मध्यतीर्थेषु महाविदेहेषु च यावत्कथिका, छेदोपस्थापनीयाभावात् , तदेवं तस्य तत्र वा स्थिति:-पर्यादा सामायिककल्प कल्प-मर्यादाया: वर्णनं ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२०६] दीप अनुक्रम [२२०] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [V). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Eaton International स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] कल्प मर्यादायाः वर्णनं - .......... स्थितिः, सा च शय्यातरपिण्डपरिहारे चतुर्यामपालने पुरुषज्येष्ठत्वे बृहत्पर्यायस्येतरेण वन्दनकदाने च नियमलक्षणा शुकप्रमाणोपेतवस्त्रापेक्षया यदचेलत्वं तत्र १ तथा आधाकम्भिकभक्ताद्यग्रहणे २ राजपिण्डाग्रहणे २ प्रतिक्रमणकरणे ४ मासकल्पकरणे ५ पर्युपणकल्पकरणे ६ चानियमलक्षणा चेति, अत्रोक्तम्--- "सिज्जायरपिंडे या १ चाउज्जामे य २ पुरिसजेट्टे य २ । किइकम्मस्स य करणे ४ चत्तारि अडिया कप्पा ॥ १ ॥ आचेलु १ कुद्देसिय २ सपडिकमणे य ३ रायपिंडे व ४ । मासं ५ पोसवणा ६ छप्पेअणवट्टिया कप्पा ॥ २ ॥ तत्राचेलकत्वमेवम्- “दुविहो होइ अचेलो असंतचेलो य संतचेलो य । तत्थ असंतेहिं जिणा संताऽचेला भवे सेसा ॥ १ ॥ सीसावेढियपोतं नइउत्तरणंमि नग्गयं वेंति । जुनेहिं नग्गियम्हि तुर सालिय ! देहि मे पोत्तिं ॥ २ ॥ जुन्नेहिं खंडिएहिं असब्वतणुयाउएहिं ण य णिचं | संते| हिवि णिग्गंथा अचेलया होंति चेलेहिं ॥ ३ ॥" इत्यादि, तथा पूर्वपर्य्यायच्छेदेनोपस्थापनीयम् - आरोपणीयं छेदोपस्थापनीयं, व्यक्तितो महाव्रतारोपणमित्यर्थः तच्च प्रथमपश्चिमतीर्थयोरेवेति शेषा व्युत्पत्तिस्तथैव, तस्स्थितिश्वोकलक्षणेष्वेव द शसु स्थान केप्यवश्यं पालनलक्षणेति, तथाहि - "देसठाणठिओ कप्पो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । एसो धुयरय १ शय्यातरपिंड चतुर्यामथ पुरुषज्येछथ कृतिकर्मणच करणे चत्वारोऽवस्थिताः कल्पाः ॥ १ ॥ अचेलक्ष्यमीदेशिकं सप्रतिकमणव राजपिंडव मासः पर्यु पणा पढप्येतेऽनवस्थिताः कल्पाः ॥ २ ॥ २ द्विविधो भवत्यचेोऽसल सचेलच तत्रासत्सु बिना अचेलाः शेषाः सत्खपि चेलेषु ॥ १ ॥ शीर्पावेष्टितपोतं नद्युतरणे न बुवन्ति जीर्णेषु नमामि शालिक स्वर मे पोतं देहि ॥ २ ॥ जीर्णेषु तेषु असतप्राकृतेषु नच नित्यं येषु सत्यपि निन्या अलका मन्ति ॥ ३ ॥ ३ दशस्थानस्थितः कल्पः पूर्वस्य पश्चिमस व जिनस्य एष धूतरजाः--- मूलं [२०६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: मसूत्र प्रत सूत्रांक २०६] दीप अनुक्रम [२२०] श्रीस्थाना-15 कप्पो दसठाणपइडिओ होइ ॥१॥" इति, "आचेल १ कुद्देसिय २ सिज्जायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ । वय ६ ३ स्थान जेड ७ पडिक्कमणे ८ मासं ९ पज्जोसवणकप्पे १० ॥२॥" इति, निर्विशमाना ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति परिहा- काध्ययने वृत्तिः रिका इत्यर्थः, तेषां कल्पे स्थितियथा-ग्रीष्मशीतवर्षाकालेषु क्रमेण तपो जघन्यं चतुर्थषष्ठाटमानि मध्यम पठादीनि उ-15 | उद्देशान त्कृष्टमष्टमादीनीति, पारणं चायाममेव, पिण्डैपणासप्तके चाद्ययोरभिग्रह एव, पञ्चसु पुनरेकया भक्कमेकया च पानक- सू० २०६ ॥१६८॥ मित्येवं द्वयोरभिग्रह इति, उक्कं च-"वारस १ दस २ अङ्क ३ दस १४ २ छह ३ अद्वेव १ छह २ चउरो य ३० उक्कोसमज्झिमजहन्नगा उ वासासिसिरगिम्हे ॥ १॥ पारणगे आयाम पंचसु गहो दोसऽभिग्गहो भिक्खे"ति, निविष्टा । -आसेवितविवक्षितचारित्रा अनुपरिहारिका इत्यर्थः, तत्कल्पस्थितियथा प्रतिदिनमायाममात्रं तपो भिक्षा तथैवेति, उक्त च-"कैप्पडियावि पइदिण करेंति एमेव चायाम"ति, एते च निर्विशमानका निर्विष्टाश्च परिहारविशुद्धिका उच्यन्ते, तेषां च नवको गणो भवति, ते च एवंविधा:-"सब्वे चरित्तवतो उ, दसणे परिनिढ़िया । नवपुब्बिया जहन्नेणं, उकोसा दसपुचिया ॥१॥ पंचविहे ववहारे, कप्पंमि दुविहंमि य । दसविहे य पच्छिते, सब्वे ते परिनिठिया ॥२॥ कल्पः दशस्थानप्रतिष्ठितो भगति ॥५॥१गाचेसक्यौदेशिकं शष्यातरपिंडः राजपिंटः कृतिकर्म मतानि ज्या प्रतिक्रमण मासः पर्युषणाकल्पः ॥१॥ बादशमं दशम अष्टमं दशर्म अष्ठम पई । म प चतुर्थ चोत्कृष्टमध्यमजघन्यतो वर्षा शिशिरपीष्मेषु ॥१॥ पारणके मायामाम्ल पंचसु ग्रहो द्वयोप्रारभिग्रहो मिक्षायां ॥ ४ कल्पस्थिता अपि प्रतिदिनमेजमेवाचाम्लं कुर्वन्ति ॥ ५ सर्व चारित्रवन्त एव वर्षाने परिनिभिताः जघन्येन नवपूर्षिण उक्तस्तो दशपूर्विणः ॥ KE ||१६८॥ पंचयिधे व्यवहारे विविध कल्पे च दशविधे च प्रायषिते सर्व एते परिनिष्ठिताः ॥ २ ॥ कल्प-मर्यादाया: वर्णनं ~339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक २०६] दीप अनुक्रम [२२०] इत्यादि, जिना-गच्छनिर्गतसाधुविशेषास्तेषां कल्पस्थितिर्जिनकल्पस्थितिः, सा चैवम्-जिनकल्पं हि प्रतिपद्यते जघन्यतोऽपि नवमपूर्वस्य तृतीयवस्तुनि सति उत्कृष्टतस्तु दशसु भिन्नेषु प्रथमे संहनने, दिव्याधुपसर्ग रोगवेदनाश्चासौ सहते, एकाक्येव भवति, दशगुणोपेतस्थण्डिल एवोच्चारादि जीर्णवस्त्राणि च त्यजति, वसतिः सर्वोपाधिविशुद्धास्य, भिक्षाचर्या तृतीयपौरुष्यां, पिण्डैषणोत्तरासां पञ्चानामेकतरैव, विहारो मासकल्पेन, तस्यामेव वीथ्यां षष्ठदिने भिक्षाटनमिति, एवंप्रकारा चेयं 'सुयसंघयणे'त्यादिकाद् गाथासमूहात् कल्पोक्तादवगन्तव्येति, भणितं च-"गच्छमि य निम्माया धीरा जाहे य गहियपरमत्था । अम्गहि जोग अभिग्गहि, उति जिणकप्पियचरितं ॥१॥" अग्रहे आधयोरभिग्रहे-पञ्चानां पिण्डैपणानां द्वयोर्योंगे-द्वयोर्मध्ये एकतरस्या गृहीतपरमार्थाः, "घिईबलिया तवसूरा निती गच्छाउ ते पुरिससीहा। बलवीरियसं-13 घयणा उवसग्गसहा अभीरुया ॥१॥" इति, स्थविरा:-आचार्यादयो गच्छप्रतिबद्धास्तेषां कल्पस्थितिः स्थविरकल्प-| स्थितिः, सा च "पब्वजा सिक्खावयमस्र्धगहणं च अनियेओ वासो । निर्फत्ती य विहारो सामायारी ठिई चेव ॥१॥" | इत्यादिकेति, इह च सामायिके सति छेदोपस्थापनीयं तत्र च परिहारविशुद्धिकभेदरूपं निविशमानकं तदनन्तरं निर्विष्टका-| यिकं तदनन्तरं जिनकल्पः स्थविरकल्पो वा भवतीति सामायिककल्पस्थित्यादिकः सूत्रयोः क्रमोपन्यास इति । उक्तकल्पस्थितिव्यतिक्रामिणो नारकादिशरीरिणो भवन्तीति तच्छरीरनिरूपणायाह १ गच्छे च निर्माता श्रीरा यदा गृहीतपरमार्थाः अमायाभिग्रहयोगे चोपति जिनकल्पिकचरित्रं ॥१॥२ भूतिबलिकाः तपःशूरास्ते पुरुषसिंहा गच्छानिर्गमान्छति बलवीयचंदननयुता उपसर्गरबहा अभौरवः ।।१३ प्रत्रज्या शिक्षा ब्रतानि अर्थग्रहण वानियतो वासः शिष्याणां निष्पत्तिव विहारः सामाचारी स्थितिष ॥१॥ २४ कल्प-मर्यादाया: वर्णनं ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना मसूत्र प्रत सूत्रांक [२०७]] वृत्तिः १६९॥ दीप अनुक्रम [२२१] नेरइयाणं ततो सरीरगा पं० सं०-उन्विते तेवए कम्मए, असुरकुमाराणं ततो सरीरगा पं० सं०-एवं चेव, एवं ॥ ३ स्थानसम्बसि देवाणं, पुढविकाइयाणं ततो सरीरगा पं० २०-ओरालिते तेयए कम्मते, एवं वाउकाइयवजाणं जाव चरि- काध्ययने दियाण (सू० २०७) गुरुं पडुच ततो पडिणीता पं० २०-आयरियपडिणीते उबज्झायपडिणीते थेरपडिणीते १, गति | उद्देशः४ पडुन ततो पडिणीया पं० सं०-इहलोगपडिणीए परलोगपडिणीए दुहभो लोगपडिणीए २, समूहं पदुश्च ततो पद्धि- प्रत्यनीकाः णीता पं० ०-कुलपडिणीए गणपलिणीए संघपडिणीते ३, अणुकंपं पडुश्च ततो पडिणीया पं० २० तवस्सिपडि- सू०२०७णीए गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए ४, भावं पडुच्च ततो पडिणीता पं० २०-णाणपडिणीए दंसणपडिणीए परितप २०८ डिणीए ५, सुर्य पञ्च ततो पडिणीता पं० सं०-सुत्तपडिणीते अत्थपरिणीते तदुभयपडिणीए ६ (सू० २०८) 'नेरइयाणमित्यादि, दण्डकः कण्ठया, किन्तु एवं सब्बदेवाणं ति यथा असुराणां त्रीणि शरीराणि एवं नाग-12 कुमारादिभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानाम् , एवं 'वाउकाइयवजाण'ति, वायूनां हि आहारकवर्जानि च स्वारि शरीराणीति सर्जनमेवं पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि चत्वारि मनुष्याणां तु पञ्चापीति त इह न दर्शिताः । कल्पस्थितिव्यतिक्रामिणश्च प्रत्यनीका अपि भवन्तीति तानाह-गुरुमित्यादि सूत्राणि पद व्यक्कानि, किन्तु गृणाति-अभिधत्ते | तत्त्वमिति गुरुस्तं प्रतीत्य-आश्रित्य प्रत्यनीका:-प्रतिकूला:, स्थविरो जात्यादिभिः, एतत्प्रत्यनीकता चैवम्-"जच्चाईहि | अवन्तं विभासद बट्टा नयावि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही पगासवादी अणणुलोमो ॥१॥" अहवावि वए एवं जाखादिभिरवर्ग विभाषते भोपपातेऽपि वर्तते अहितः छिद्रप्रेक्षी प्रकटवादी अननुलोमः ॥ १॥ २ अथवाऽपि बदेदेवं ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [२२२] उवएस परस्स देंति एवं तु । दसविहवेयावच्चे कायच्च सयं न कुब्वंति ॥२॥” इति, गतिः-मानुषत्वादिका तत्रेहलोकस्य-प्रत्यक्षस्थ मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पश्चाग्नितपस्विवदिहलोकप्रत्यनीका, परलोको-जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीकः इन्द्रियार्धतत्परो, द्विधालोकप्रत्यनीकश्चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः, यद्वा इहलोकप्रत्यनीक इहलोकोपकारिणां भोगसाधनादीनामुपद्रवकारीहलोकप्रत्यनीका, एवं ज्ञानादीनामुपद्रवकारी परलोक-18 प्रत्यनीका, उभयेषां तु द्विधालोकप्रत्यनीक इति, अथवेहलोको-मनुष्यलोकः परलोको-नारकादिरुभयमेतदेव द्वितयं, प्रत्यनीकता तु तद्वितथप्ररूपणेति, कुलं चान्द्रादिकं तत्समूहो गणः कोटिकादिस्तत्समूहः सह इति, प्रत्यनीकता चैतेषां अवर्णवादादिभिरिति, कुलादिलक्षणं चेदम्-'एत्थ कुलं विन्नेयं एगायरियस्स संतई जा उ । तिण्ह कुलाण मिहो| पुण सावेक्खाणं गणो होइ ॥१॥ सव्वोऽवि नाणदसणचरणगुणविभूसियाण समणाणं । समुदायो पुण संघो गुणसमुदाओत्तिकाऊणं ॥२॥' अनुकम्पाम्-उपष्टम्भं प्रतीत्य-आश्रित्य तपस्वी-क्षपका, ग्लानो-रोगादिभिरसमर्थः,४ शैक्षः-अभिनवप्रवजितः, एते ह्यनुकम्पनीया भवन्ति, तदकरणाकारणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति, भावः-पर्यायः, सच जीवाजीवगतः, तत्र जीवस्य प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्तः क्षायिकादिः, अप्रशस्तो विवक्षयौदयिकः, क्षायिकादिश्च ज्ञानादिरूपः, ततो भाव-ज्ञानादि प्रतीत्य प्रत्यनीकस्तेषां वितथप्ररूपणतो दूषणतो वा, यथा-"पाययसुत्तनिवद्धं को १परस्योपदेशं ददति एवमेव दशविध यावृत्य कर्तव्यं परं सर्व न कुर्वन्ति ॥ २ ॥ १ अत्र कुलं बिले यमेकाचार्य स्व या तु संततिः । त्रयाणां कुलानां मिथः सापेक्षाणां गणो भवति ॥१॥ सदाऽपि ज्ञानदर्शनधरणगुणविभूषितानां श्रमणानां । समुदायः पुनः संघः गुणसमुदाय इतिकृत्वा ॥२॥ ३ प्राकृतभाषानिबद्धमेतचुत को ~342~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: जन्सूत्र प्रत सूत्रांक [२०८] बङ्गानि सू०२०९ दीप अनुक्रम [२२२] श्रीस्थाना- वो जाणइ पणीय केणेयं । किं वा चरणेणं तू दाणेण विणा उकिं हवा ॥१॥” इति, सूत्र-व्याख्येयमर्थः-तद् ३ स्थान व्याख्यानं नियुक्त्यादिस्तदुभयं-द्वितयमिति तत्प्रत्यनीकता-"कोया वया य ते चिय ते चेव पमाय अप्पमाया य । काध्ययने वृत्तिः मोक्खाहिगारियाणं जोइसजोणीहि किं कजं ॥१॥" इत्यादिदूषणोद्भावनमिति । उक्ता कल्पस्थितिर्गर्भजमनुजाना-18| उद्देशः४ दमेव तच्छरीरं च मातापितृहेतुकमिति तयोस्तदङ्गेषु हेतुत्वे विभागमाह मातापि॥१७॥ ततो पितियंगा पं० सं०-अट्ठी अद्विमिंजा केसमंसुरोमनहे । तओ माउयंगा पं० त०-मंसे सोणिते मत्थुलिंगे (सू०२०९) सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, केवलं पितुः-जनकस्याङ्गानि-अवयवाः पित्रङ्गानि प्रायः शुक्रपरिणतिरूपाणीत्यर्थः, अस्थि प्रतीतं १ अस्थिमिजा-अस्थिमध्यरसः २ केशाच-शिरोजाः श्मश्रु च-कूर्चः रोमाणि च-कक्षादिजातानि नखाश्च-प्रतीताः केशश्मश्रुरोमनखमित्येकमेव प्रायः समानत्वादिति । मात्रङ्गानि आर्त्तवपरिणतिप्रायाणीत्यर्थः, मांसं प्रतीतं, शो|णित-रकं, मस्तुलि-शेष मेदाफिफिसादि, कपालमध्यवर्ति भेजकमित्येके । पूर्वोकस्थविरकल्पस्थितिप्रतिपन्नस्य विशिष्टनिर्जराकारणान्यभिधातुमाह तिहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे महानिबरे महापज्जवसाणे भवति, तं-कया णं अहं अप्पं वा बहुयं का सुर्य अहिजि १वा जानाति केनेदं प्रणीतं! । किंवा दानेन विना चारित्रेण भवति इति ॥१॥ २ काया ब्रतानि च तान्येव प्रमादा अप्रमादाय त एव । मोक्षा-॥१७॥ विकारिणां ज्योतियोनिभिः किं कार्यम् ॥२॥ हो ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२१०] दीप अनुक्रम [२२४] "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्ति उद्देशक [V). मूलं [२१० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... -------- Education International - स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] 5 सामि कथा णममेकलविहारपडिमं उपसंपजित्ता णं विहरिस्सामि, कया णमहमपच्छिममारणंतितसंहणासूसासूसिते भत्तपाणपडियाइक्खिते पाओवगते कालं अणवखमाणे विहरिस्सामि एवं स मणसा स वयसा स कायसा पागडेमाणे ( पहारेमाणे ) निग्गंथे महानिज्जरे महापावसाणे भवति । तिहिं ठाणेहिं समणोवासते महानिजरे महापावसाणे भवति, तं०कया णमहमप्यं वा बहुयं वा परिग्ाई परिचइस्सामि १ कया णं अहं मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारितं पब्वइस्सामि २ कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसंलेहणासणासिते भत्तपाणपडि यातिक्खते पाओवगते कालं अणवस्त्रमाणे विद्दरिस्सामि ३ एवं स मणसा स वयसा स कायसा पागडेमाणे [ जागरमाणे ] समणोवासते महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति ( सू० २१० ) 'तिही 'त्यादि सुगमं, नवरं महती निर्जरा-कर्मक्षपणा यस्य स तथा महत्-प्रशस्तमात्यन्तिकं वा पर्यवसानं - पर्यन्तं | समाधिमरणतोऽपुनर्भरणतो वा जीवितस्य यस्य स तथा अत्यन्तं शुभाशयत्वादिति, एवं समणस' त्ति एवमुक्त लक्षणं त्रयं स इति साधुः 'मणस' त्ति मनसा हस्वत्वं प्राकृतत्वात् एवं स वयसत्ति वचसा स 'कायस'ति कायेने त्यर्थः, सकारागमः प्राकृतत्वादेव, त्रिभिरपि करणैरित्यर्थः, अथवा स्वमनसेत्यादि, प्रधारयन्-पर्यालोचयन् कचित्तु पागडेमाणेति पाठस्तत्र प्रकटयन् व्यक्तीकुर्वन्नित्यर्थः । यथा श्रमणस्य तथा श्रमणोपासकस्यापि त्रीणि निर्जरादिकारणानीति दर्शयन्नाह - 'तिही त्यादि, कण्ठ्यं । अनन्तरं कर्मनिर्जरोक्ता, सा च पुद्गलपरिणामविशेषरूपेतिपुद्गलपरिणाम विशेषमभिधातुमाह For Parts Only ~ 344 ~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना RA प्रत सूत्रांक [२११] तिविहे पोग्गलपडिधाते, पं० सं०-परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिह निजा लुक्सत्ताते या पटिहणिजा ३ स्थानसूत्रलोगते वा पडिहमिजा (सू० २११) तिविहे, चक्खू पं० तं-एगचक्खू विचक्खू तिचक्खू, छतमस्थे ण मणुस्से काध्ययने वृत्तिः | एगचक्खू देवे विचक्खू तहारूने समणे वा माहणे वा उप्पन्ननाणदसणधरे से णं तिचक्यूत्ति वत्तव्यं सिता (सू० २१२) उद्देशः४ ॥१७१॥ तिविधे अभिसमागमे पं० २०--पई अई तिरिय, जया गं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स या अतिसेसे नाण- &ाश्रमणश्रादसणे समुपजति से णं तप्पढमताते उडुममिसमेति ततो तिरितं ततो पच्छा अहे, अहोलोगे ण दुरभिगमे पन्नत्ते वकमनोसमणाउसो ! (सू० २१३) रथाः 'तिविहे'इत्यादि, पुद्गलानाम्-अण्वादीनां प्रतिघातो-गतिस्खलनं पुद्गलप्रतिघातः, परमाणुश्चासौ पुद्गलश्च परमाणु- लसू०२१०पापुद्गलः स तदन्तरं प्राप्य प्रतिहन्येत-गतेः प्रतिघातमापयेत, रूक्षतया वा तथाविधपरिणामान्तरात् गतितः प्रति हन्येत, लोकान्ते वा, परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । पुद्गलप्रतिघातं च सचक्षुरेव जानातीति तन्निरूपणायाह'तिविहे'इत्यादि, प्रायः कण्ठयं, चक्षुः-लोचनं तद् द्रव्यतोऽक्षि भावतो ज्ञानं तद्यस्यास्ति स तयोगाचक्षुरेव, चक्षुष्मा-| नित्यर्थः, स च त्रिविधः-चक्षुःसङ्ख्याभेदात्, तत्रैकं चक्षुरस्वेत्येकचक्षुरेवमितरावपि, छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादि २१३ तत्र तिष्ठतीति छास्थः, स च यद्यप्यनुत्पन्नकेवलज्ञानः सर्व एवोच्यते तथापीहातिशयवत्श्रुतज्ञानादिवर्जितो विवक्षित | इति एकचक्षुः चक्षुरिन्द्रियापेक्षया, देवो द्विचक्षुः चक्षुरिन्द्रियावधिभ्याम्, उत्पन्नमावरणक्षयोपशमेन ज्ञानं च-श्रुता- ॥१७१॥ वधिरूपं दर्शनं च-अवधिदर्शनरूपं यो धारयति-बहति स तथा य एवंभूतः स त्रिचक्षुः, चक्षुरिन्द्रियपरमश्रुतावधिभि दीप अनुक्रम [२२५] २११ %ARA3% ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: *** प्रत सूत्रांक २१३] रिति वक्तव्यं स्यात् , स हि साक्षादिवावलोकयति हेयोपादेयानि समस्तवस्तूनि, केवली विह न व्याख्यातः, केवलज्ञानदर्शनलक्षणचक्षुर्द्धयकल्पनासम्भवेऽपि चक्षुरिन्द्रियलक्षणचक्षुष उपयोगाभावेनासत्कल्पतया तस्य चक्षुस्वयं न विद्यत इतिकृत्वेति, द्रव्येन्द्रियापेक्षया तु सोऽपि न विरुध्यत इति । चक्षुष्माननन्तरमुक्तः, तस्य चाभिसमागमो भवतीति तं दिग्भेदेन विभजयमाह-'तिविहे'इत्यादि, अभीत्यर्थाभिमुख्येन न तु विपयोसरूपतया समिति-सम्यक् | न संशयतया तथा आ-मर्यादया गमनमभिसमागमो-वस्तुपरिच्छेदः । इहैव ज्ञानभेदमाह-'जया 'मित्यादि, 'अइ& सेसत्ति शेषाणि-छदास्थज्ञानान्यतिक्रान्तमतिशेष-ज्ञानदर्शनं तच्च परमावधिरूपमिति संभाव्यते, केवलस्य न क्रमेणो पयोगो येन तत्प्रथमतयेत्यादि सूत्रमनवा स्यादिति, तस्य-ज्ञानादेरुत्पादस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्यां 'उहुंति' ऊध्र्वलोकमभिसमेति-समवगच्छति जानाति ततस्तियगिति-तिर्यग्लोकं ततस्तृतीय स्थानेऽध इत्यधोलोकमभिसमेति, एवं च सामर्थ्यात् प्राप्तमधोलोको दुरभिगमः, क्रमेण पर्यन्ताधिगम्यत्वादिति, हे श्रमणायुष्मन्निति शिष्यामन्त्रणमिति । अनन्तरमभिसमागम उक्का, स च ज्ञानं तचद्धिरिहव वक्ष्यमाणत्वादिति ऋद्धिसाधात् तभेदानाह तिविधा इट्टी पं० सं०-देविट्टी राइडी गणिट्टी १, देविट्ठी तिबिहा ५० तं०-विमाणिती विगुज्वणिड़ी परिवारणिड्डी २, अहवा देपिडी तिविहा पं० सं०-सचित्ता अचित्ता मीसिता ३, राइडी तिविधा पं० सं०-मो अतिवाणिही रन्नो निजाणिड्डी राणो बलवाहणकोसकोट्ठागारिट्टी ४, अहवा रातिडी तिविहा पं० त०-सचित्ता अचित्तामीसिता ५, गणिती तिविहा पं० सं०-णाणिडी दंसणिड़ी चरित्तिड्डी, अहवा गणिडी तिविहा पं००-सचित्ता अचिचा मीसिया ७, (सू०२१४) *** दीप अनुक्रम [२२७] ** HATunesirary.org ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१४] दीप अनुक्रम [२२८] श्रीस्थाना-1 'तिविहा इहीं इत्यादि, सूत्राणि सप्त सुगमानि, नवरं देवस्य-इन्द्रादेद्धिः ऐश्वर्य देवढिरेचं राज्ञः-चक्रवादेर्ग-I स्थानप्रसूत्र- 3ाणिनो-गणाधिपतेराचार्यस्येति १ । विमानानां विमानलक्षणा वा ऋद्धिः-समृद्धिः, द्वात्रिंशल्लक्षादिकं बाहुल्यं महत्त्वं रत्ना- काध्ययने वृत्तिः दिरमणीयत्वं चेति विमानर्द्धिः, भवति च द्वाविंशलक्षादिक सौधर्मादिषु विमानबाहुल्यम्, यथोक्तम्- बत्तीस अट्ठ-1|| उद्देशः ४ देवराजवीसा वारस अह चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥ १॥ पंचास चत्त छच्चेव सहस्सा | ॥१७२॥ लंतसुक्कसहसारे । सयचउरो आणयपाणएसु तिन्नारणजुयए ॥२॥ एकारसुत्तर हेडिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । गणिऋद्धिः सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥३॥” इति, उपलक्षणं चैतत् भवननगराणामिति, वैकियकरणलक्षणा सू०२१४ ऋद्धिक्रियर्द्धिः, वैक्रियशरीरहिं जम्बूदीपद्वयमसङ्ख्यातान् वा द्वीपसमुद्रान् पूरयन्तीति, उक्तं च भगवत्याम्-"चमेरे| णं भंते ! केमहिडिए जाव केवतियं च णं पभू विउवित्तए?, गोयमा ! चमरे णं जाव पभू णं केवलकप्पं जंबुद्दीव दीवंटू बहुहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य आइन्नं जाव करेत्तए, अदुत्तरं च णं गोयमा! पभू चमरे जाव तिरियमसंखेजे दीवसमुदे बहुहिं असुरकुमारेहिं आइन्ने जाव करित्तए, एस णे गोयमा ! चमरस्स ३ अयमेयारूवे विसयमेत्ते द्वात्रिंशवष्टानिशतिद्वादशाट च चत्वारि शतसहस्राणि । आराब्राह्मलोकात् विमानसंख्यया भवेत् ॥ १॥ पंचायचत्वारिंशत् षट् सहमाथि लान्तकचकराहनारेष चत्वारि शतान्यानतप्राणतयोस्त्रीयारणाश्युतयो। ॥२॥ अपरखने एकादशाधिकं मभ्यमे सप्तोत्तर शतं उपरितने एकपात अनुत्तरविमानानि पंचेच ॥३॥ १ चमरो भदन्त ! कीटशो मद्ददिको वापत्कियद्विवयितुं प्रभुः गीतम! चमरो यावत्समर्थः केवलकल्पं ही पामिरमरकुमारनिकायः देवः देवीमिव आकीर्ण यावर H ॥१७२॥ कर्ण, अथ च गौतम ! प्रभुषमरो यावत्तिर्वयसंख्येयद्वीपसमुद्रान् बहुभिरमुरकुमारनिकायराक्रीन गावक, एष चौतम ! चमरस एतादृशखरूपः विषयमात्र उकः RECE ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक २१४] बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउम्बिसु ३, एवं सक्केऽवि दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीये जाव आइने करेज"त्ति, परिचारणा कामासेवा तदृद्धिः अन्यान् देवानन्यसत्का देवीः स्वकीया देवीरभियुज्यात्मानं च विकृत्य परिचारयतीत्येवमुक्तलक्षणेति २ । सचित्ता-स्वशरीराममहिष्यादिसचेतनवस्तुसम्पत् अचेतना-वखाभरणादिविषया मिश्रा-अलङ्कृतदेव्यादिरूपा ३। अतियानं-नगरप्रवेशः, तत्र ऋद्धि-तोरणहट्टशोभाजनसम्भद्दादिलक्षणा निर्यानं-नगरान्निर्गमः तत्र ऋद्धिः-हस्तिकल्पनसामन्तपरिवारादिका बलं-चतुरङ्गं वाहनानि-वेगसरादीनि कोशो-भाण्डागारं कोष्ठा-धान्यभाजनानि तेषामगारोह कोष्ठागारं धान्यगृहमित्यर्थः तेषां तान्येव वा ऋद्धिर्या सा तथा ४ । सचित्तादिका पूर्ववद् भावनीयेति ५ । ज्ञानद्धिविशिष्ट श्रुतसम्पत् , दर्शनर्द्धिः-प्रवचने निम्शवितादित्वं प्रवचनप्रभावकशाखसम्पदा चारिबर्द्धिनिरतिचारता । सचित्ता शिष्यादिका अचित्ता वस्त्रादिका मिश्रा तथैवेति । इह च विकुर्वणादिकजयोऽन्येषामपि भवन्ति, केवलं देवादीनां विशेषवत्यस्ता इति तेषामेवोक्ता इति । ऋद्धिसद्भावे च गौरवं भवतीति त दानाह ततो गारवा पं० सं०-डीगारवे रसगारखे सातागारवे (सू० २१५) तिविधे करणे पं० सं०-धम्मिते करणे अधम्मिए करणे धम्मिताधम्मिए करणे (सू० २१६) तिविहे भगवता धम्मे पं० सं०-मुअधिज्झिते सुज्झातिते सुतवस्सिते, जया मुअधिज्जितं भवति तदा सुज्झातियं भवति जया सुज्झातियं भवति तदा सुतवस्सियं भवति, से सुअधिज्जिते सुज्जमातिते सुतवस्सिते सुतक्खाते णं भगवता धम्मे पण्णचे (सू०२१७) १न चैव संपच्या व्यकार्षांत निकरोति विकरिभाति । एवं शकोऽपि द्वौ केवलकापी जंबूद्वीपी द्वीपी आफीणों यावरांत ।। SARKASAXY दीप अनुक्रम [२२८] ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [२३१] श्रीस्थाना-II 'तओ गारवे'त्यादि व्यक्तं, परं गुरोर्भावः कर्म वेति गौरवं, तच्च द्वेधा-द्रव्यतो बज्रादेर्भावतोऽभिमानलोभलक्षणा ३ स्थानसूत्र शुभभाववत आत्मनः, तत्र भावगौरवं विधा, तत्र ऋद्ध्या-नरेन्द्रादिपूजालक्षणया आचार्यत्वादिलक्षणया वा अभि- काध्ययने वृत्तिः मानादिद्वारेण गौरवं ऋद्धिगौरवं, ऋद्धिप्रात्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावो भावगौरवमित्यर्थः, एवमन्य- | उद्देशः४ त्रापि, नवरं रसो-रसनेन्द्रियाओं मधुरादिः सात-सुखमिति, अथवा ऋयादिषु गौरवमादर इति । अनन्तरं चारित्र- सू०२१५॥१७३॥॥ |द्धिरुक्ता, चारित्रं च करणमिति तझेदानाह-'तिविहे इत्यादि, कृतिः करणमनुष्ठानं, तच्च धाम्मिकादिस्वामिभेदेन २१६त्रिविधं, तत्र धार्मिकस्य-संयतस्येदं धार्मिकमेवमितरे, नवरमधार्मिकः-असंयतस्तृतीयो देशसंयता, अथवा धर्मे l २१७ भवं धर्मो वा प्रयोजनमस्येति धार्मिक, विपर्यस्तमितरत् , एवं तृतीयमपीति । धार्मिककरणमनन्तरमुक्तं, तच्च धर्म पवेति तदानाह-'तिबिहे इत्यादि सर्ट, केवल भगवता महावीरेणेत्येवं जगाद सुधर्मस्वामी जम्यूस्वामिनं प्रतीति, सुष्टु-कालविनयाचाराधनेनाधीत-गुरुसकाशात् सूत्रतः पठितं स्वधीतं, तथा सुप्तु-विधिना तत एव व्याख्यानेनार्थतः श्रुत्वा ध्यातम्-अनुप्रेक्षित, श्रुतमिति गम्यं सुध्यातम्, अनुप्रेक्षणाऽभावे तत्त्वानवगमेनाध्ययनश्रवणयोः प्रायोऽकृतार्थत्वादिति, अनेन भेदद्वयेन श्रुतधर्म उक्तः, तथा सुष्टु-इहलोकाद्याशंसारहितत्वेन तपस्थितं-तपस्यानुष्ठानं, सुतपस्थितमिति च चारित्रधर्म उक्त इति, त्रयाणामप्येषामुत्तरोत्तरतोऽविनाभावं दर्शयति-'जया इत्यादि व्यक्त, परं निर्दोषाध्ययनं विना श्रुतार्थाप्रतीतेः सुध्यातं न भवति तदभावे ज्ञानविकलतया सुतपस्थितं न भवतीति भावः, यदेतत्-स्वधी-|| तादित्रयं भगवता वर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रज्ञप्तः 'से'त्ति स स्वाख्यातः-सुष्टुक्तः सम्यग्ज्ञानक्रियारूपत्वात् , तयोश्चैका-II 4-0544-4500-5645445% % ~349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [२३१] न्तिकात्यन्तिकसुखावन्ध्योपायत्वेन निरुपचरितधर्मत्वात् , सुगतिधारणाद्धि धर्म इति, उक्कं च-"नाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्डंपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥१॥" इति, [ज्ञानं प्रकाशकं शोधक। तपः संयमस्तु गुप्तिकरः । त्रयाणामपि समायोगो मोक्षो जिनशासने भणितः॥१॥] णमिति वाक्यालङ्कारे । सुतपस्थितमिति चारित्रमुक्तं, तच्च प्राणातिपातादिविनिवृत्तिस्वरूपमिति तस्या भेदानाह तिविधा वावती पं० ०-जाणू अजाणू वितिगिच्छा, एवमझोषवाणा परियावजणा (सू० २१८) तिविधे अंते पं० सं०-छोगते यंते समयंते (सू० २१९) ततो जिणा पं० सं०-ओहिणाणजिणे मणपजवणाणजिणे केवछणाणजिणे १, ततो फेवली पं० सं०-ओहिनाणकेवली मणपजवनाणकेवली केवलमाणकेवली २, तओ अरहा, पं० सं०-ओहिनाणभरहा मणपजवनाणअरहा केवलनाणभरहा ३ (सू० २२०) 'तिचिहे'त्यादि, व्यावर्त्तनं व्यावृत्तिः, कुतोऽपि हिंसाद्यवधेर्निवृत्तिरित्यर्थः, सा च या ज्ञस्य-हिंसादेहेतुस्वरूपफलविदुषो ज्ञानपूर्विका व्यावृत्तिः, सा तदभेदात् जाणुत्ति गदिता, या त्वज्ञस्याज्ञानात् सा अजाणू इत्यभिहिता, या तु विचिकित्सातः-संशयात् सा निमित्तनिमित्तिनोरभेदाद्विचिकित्सेत्यभिहिता । व्यावृत्तिरित्यनेनानन्तरं चारित्रमुक्त तद्विपक्षश्चाशुभाध्यवसायानुष्ठाने इति तयोरधुना भेदानतिदेशत आह–'एच'मित्यादि सूत्रे, 'एव'मिति व्यावृत्तिरिव त्रिधा 'अज्झोववज्जणत्ति अध्युपपादनं कचिदिन्द्रियार्थे अध्युपपत्तिरभिष्वङ्ग इत्यर्थः तत्र जानतो विषयजन्यमन) ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२२०] दीप अनुक्रम [२३४] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १७४ ॥ "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति उद्देशक [V). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internation स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - .......... या तत्राभ्युपपत्तिः सा जाणू या त्वजानतः सा अजाणू या तु संशयवतः सा विचिकित्सेति, 'परियावजण 'त्ति पर्यापदनं पर्यापत्तिरासेवेतियावत् साऽप्येवमेवेति । 'जाणु'त्ति ज्ञः, स च ज्ञानात् स्यादित्युक्तं ज्ञानं चातीन्द्रियार्थेषु प्रायः शास्त्रादिति शास्त्रभेदेन तद्भेदानाह - 'तिविहे अंते इत्यादि, अमनमधिगमनमन्तः- परिच्छेदः, तत्र लोको-लोकशास्त्रं तत्कृतत्वात् तदध्येयत्वाच्चार्थशास्त्रादिः तस्मादन्तो निर्णयस्तस्य वा परमरहस्यं पर्यन्तो वेति लोकान्तः, एषमितरावपि, नवरं वेदा ऋगादयः ४ समया जैनादिसिद्धान्ता इति । अनन्तरं समयान्त उक्तः, समयश्च जिनकेवल्यईच्छन्दवाच्यैरुक्तः सम्यग्भवतीति जिनादिशब्दवाच्यभेदानभिधातुं त्रिसूत्रीमाह-'तओ जिणे त्यादि, सुगमा, नवरं रागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिना:- सर्वज्ञाः, उक्तं च- "रागो द्वेषस्तथा मोहो, जितो येन जिनो ह्यसौ । अस्त्रशस्त्रा| क्षमालत्वादन्नेवानुमीयते ॥ १ ॥” इति, तथा जिना इव ये वर्त्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षज्ञानतया तेऽपि जिनास्तत्रावधिज्ञानप्रधानो जिनोऽवधिजिनः एवमितरावपि, नवरमाथावुपचरितावितरो निरुपचारः, उपचारकारणं तु प्रत्यक्षज्ञानित्वमिति, केवलम् एकमनन्तं पूर्ण वा ज्ञानादि येषामस्ति से केवलिनः उक्तं च- "कंसिणं केवलकप्पं लोगं जाणंति तह य पासंति । केवलचरित्तणाणी तम्हा ते केवली होंति ॥ १ ॥” इति इह्नपि जिनवद् व्याख्या, अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यर्हन्तः, अथवा नास्ति रहः प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां प्रत्यक्षज्ञानित्वात्ते अरहसः, शेषं प्राग्वत् । एते च सलेश्या अपि भवन्तीति लेश्याप्रकरणमाह १ केवल लोकं जानाति पश्यति च केवलचारित्रज्ञानी तस्मात्स केवली भवति ॥ १ ॥ For Park Use Only मूलं [ २२० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 351 ~ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ सू० २१८२१९ अवधिजिनाद्याः सू० २२० ॥ १७४ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२२१] दीप अनुक्रम [२३५] "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्ति उद्देशक [V). मूलं [२२१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... स्थान [३], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton International - *******... तो साओ दुभिगंघाओ पं० तं० कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा १, तओ लेसाओ सुब्भिगंधातो पं० तं ० तेऊ० पन्ह० सुक्कलेसा २ एवं दोग्गतिगामिणीओ ३ सोगतिगामिणीओ ४ संकिलिट्टाओ ५ असंकिलट्ठाओ ६ अमणुनाज ७ मणुन्नाओ ८ अविसुद्धा ९ विसुद्धाओ १० अप्पसत्थाओ ११ पसत्याओ १२ सीतलुक्खाओ १३ णिहाओ १४ (सू० २२१) तिविहे मरणे पं० [सं० बालमरणे पंडियमरणे वालपंडियमरणे, बालमरणे तिविहे पं० सं०—ठितलेसे संकिलिहलेसे पज्जवजातलेसे, पंडियमरणे तिविहे पं० नं० - ठितलेसे असंकिलिट्ठलेसे पज्जवजातलेसे ३, बालपंडितमरणे तिविधे पं० तं०ठितलेस्से असकिलिङ्कले से अपज्जवजातले से ४ ( सू० २२२ ) 'ओ' इत्यादि सुगमं, नवरं 'दुभिगंधाओ'त्ति दुरभिगन्धा दुर्गन्धाः, दुरभिगन्धत्वं च तासां पुद्गलारमकत्वात्, पुद्गलानां च गन्धादीनां अवश्यंभावादिति, आह च - "जह गोमडस्स गंधो सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तोवि अनंतगुणो लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥ १ ॥” इति नामानुसारी चासां वर्णः कपोतवर्णा लेश्या कपोतलेश्या, धूम्रवर्णेत्यर्थः, 'सुभिगंधाओं'ति सुरभिगन्धयः, आह् च - "जह सुरभिकुसुमगंधो गंधी वासाण पिस्समाणाणं । एसोवि अनंतगुणो पसत्थलेसाण तिव्हपि ॥ १ ॥” इति, तेजो- वह्निस्तद्वर्णा लेश्या लोहितवर्णेत्यर्थः, तेजोलेश्येति, पद्मगर्भ १ यथा गोशवस्य गन्धो वशवस्याहिशवस्य वा गन्धः इतोऽप्यनन्तगुणोऽप्रशस्तानां श्यानां गन्धः ॥ १ ॥ २ यथासुरभिमन्धो गन्धो वासान विध्यमाणानां इतोऽप्यनन्तगुणः प्रशस्तानां तिसृणामपि श्यानाम् ॥ १ ॥ For Parts Only ~ 352~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ लेश्यामरणे सू०२२१ २२२ % दीप अनुक्रम [२३६] श्रीस्थाना-18वर्णा लेश्या पीतवर्णेत्यर्थः पद्मलेश्या, शुक्ला प्रतीता, एवंकरणात्प्रथमसूत्रवत् । 'तओं इत्याद्यभिलापेन शेषसूत्राण्यध्येयाझासूत्र- नीति, तत्र दुर्गति-नरकतिर्यग्रूपां गमयन्ति प्राणिनमिति दुर्गतिगामिन्यः, सुगतिः-मनुष्यदेवगतिरूपा, सलिष्टाः सङ् वृत्तिः क्लेशहेतुत्वादिति, विपर्ययः सर्वत्र सुज्ञानः, अमनोज्ञाः अमनोज्ञरसोपेतपुद्गलमयत्वात्, अविशुद्धा वर्णतः, अप्रशस्ताः॥१७५। अश्रेयस्योऽनादेया इत्यर्थः, शीतरूक्षाः स्पर्शतः आद्याः, द्वितीयास्तु स्निग्धोष्णाः सर्शत एवेति । अनन्तर लेश्या उक्ता, | अधुना तद्विशेपितमरणनिरूपणायाह-'तिविहे' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं, बाल:-अज्ञस्तद्वद् यो वर्त्तते विरतिसाधकविवेकविकलत्वात् स बाल:-असंयतस्तस्य मरणं बालमरणम् , एवमितरे, केवलं-पडिधातोर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वाद्विरतिफलेन फलवद्विज्ञानसंयुक्तत्वात् पण्डितो-बुद्धतत्त्वः संयत इत्यर्थः, तथा अविरतत्वेन वालवाद्विरतत्वेन च पण्डितत्वाद् बालपण्डितः-संयतासंयत इति, स्थिता-अवस्थिता अविशुध्यन्त्यसडिक्लश्यमाना च लेश्या कृष्णादिर्यस्मिन् तस्थित लेश्यः, सडिक्लष्टा-सविश्यमाना सइक्वेशमागच्छन्तीत्यर्थः, सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथा, तथा पर्यवाः-पारिशेष्याद्विशुसद्धिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुया वर्द्धमानेत्यर्थः, सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथेति, अत्र प्रथमं कृष्णादि लेश्यः सन् यदा कृष्णादिलेश्येष्वेव नारकादिपूत्पद्यते तदा प्रथमं भवति, यदा तु नीलादिलेश्यः सन् कृष्णादिलेश्येष्पद्यते तदा द्वितीय, यदा पुनः कृष्णलेश्यादिः सन् नीलकापोतलेश्येषूपद्यते तदा तृतीयम् , उक्तं चान्त्यस्यसंवादि भगवत्याम् यदुत-से णूणं भंते ! कण्हलेसे नीललेसे जाव सुक्कलेसे भवित्ता काउलेसेसु नेरइएसु उववजह, हंता, १ अथ नूनं भवन्त ! कृष्णलेश्यो नीललेश्यो गावगुमलेश्यो भूत्या कापोतलेश्येषु नैरपिकेधूपयते ना॥१७५॥ ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [२३६] गोयमा!, से केणडेणं भंते ! एवं वुचइ?, गोयमा! लेसाठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा काउलेस्सं परि-1 णमइ २ काउलेसेसु नेरइएसु उवक्जइ"त्ति, एतदनुसारेणोत्तरसूत्रयोरपि स्थितलेश्यादि विभागो नेय इति । पण्डितमरणे सक्लिश्यमानता लेश्याया नास्ति संयतत्वादेवेत्ययं बालमरणाद्विशेषः, बालपण्डितमरणे तु सकृिश्यमानता विशुधमानता च लेश्याया नास्ति, मिश्रत्वादेवेत्ययं विशेष इति । एवं च पण्डितमरणं वस्तुतो द्विविधमेव, सक्लिश्यमानलेश्यानिषेधे अवस्थितवर्द्धमानलेश्यत्वात् तस्य, त्रिविधत्वं तु व्यपदेशमात्रादेव, बालपण्डितमरणं त्वेकविधमेव, सक्लि श्यमानपर्यवजातलेश्यानिषेधे अवस्थितलेश्यत्वात् तस्येति, त्रैविध्यं त्वस्येतरव्यावृत्तितो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरिति । मरण&ामनन्तरमुक्तं, मृतस्य तु जन्मान्तरे यथाविधस्य यद्वस्तुत्रयं यस्मै सम्पद्यते तस्य तत्तस्मै दर्शयितुमाह तो साणा अव्यवसितस्स अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सेसाते अणाणुगामियत्ताते भवंति, सं०-से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पम्वतिते णिनगंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावने कलससमावने निग्गंथं पाक्यणं जोसरहति णो पत्तियति णो रोएति तं परिस्सहा अमिजुंजिय र अमिभवंति, णो से परिस्सहे अभिजुंजिय २ अभिभवद १, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पन्वतिते पंचहि महव्वएहिं संकिते जाच कलुससमावने पंच महन्यताई नो सदहति जाव णो से परिस्सहे अभिमुंजिय २ अभिभवति, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पन्वतिते छहि यौतमैवं, अश्व केनार्थेन भदन्तवमुच्यते गौतम ! लेश्यास्थानेषु संविश्यमानेषु विशव्यमानेषु ना कापोतलेश्यां परिणमते परिणम्य च कापोतलेश्येषु मानचिकेपूरपयते. ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 18 ३ स्थान काभ्ययने + प्रत सूत्रांक [२२३] सूत्रवृत्तिः उद्देशः४ शङ्कितेतरत्वाद्यहितादिकस्वाय दीप अनुक्रम [२३७] श्रीस्थाना जीवनिकाएदि जाव अभिभवा ३ । ततो ठाणा ववसियस्स हिताते जाव आणुगामितत्वाते भवंति, सं०-से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पञ्चतिते णिग्गये पावयणे हिस्संकिते णिखिते जाव नो कलुससमावन्ने णिगंथं पावयणं सहति पत्तियति रोतेति से परिस्सहे अभिजुंजिय २ अमिभवति, नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय २ अभिभवंति १, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पम्वतिते समाणे पंचहिं महत्वएहिं हिस्संकिए णिखिए जाव परिस्सद्दे अभिजु॥१७६॥ जिय २ अभिभवइ, नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय २ अभिभवंति २, से णं मुंडे भविता भगारामओ अणगारियं पन्चइए छहिं जीवनिकाएदि णिस्संकिते जाव परिस्सहे अमिजुंजिय २ अभिभवति, नो तं परिस्सहा अमिज़ुजिभ २ अमिभ वंति ३ (सू० २२३) 'तओ ठाणे'त्यादि, त्रीणि. स्थानानि-प्रवचनमहाव्रतजीवनिकायलक्षणानि अव्यवसितस्य-अनिश्चयवतोऽपराक्रमवतो वाहिताय-अपथ्यायासुखाय-दुःखाय अक्षमाय-असङ्गतत्वाय अनिःश्रेयसाय-अमोक्षायाननुगामिकत्वाय-अशुभानुवन्धाय भवन्ति, 'से ण ति यस्य त्रीणि स्थानान्यहितादित्वाय भवन्ति स शङ्कितो-देशतः सर्वतो वा संशयवान्, कावितस्तथैव मतान्तरस्यापि साधुत्वेन मन्ता विचिकित्सितः-फलं प्रति शङ्कोपेतः अत एव भेदसमापन्नो-द्वैधीभावमापत्रः -एवमिदं न चैवमितिमतिका कलुषसमापन्नो-नैतदेवमितिप्रतिपत्तिकः, ततश्च निर्ग्रन्थानामिदं नैर्गन्धं प्रशस्तं प्रगतं प्रथमं वा वचन मिति प्रवचनम्-आगमो दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, न श्रद्धत्ते सामान्यतो न प्रत्येति-न प्रीतिविषयीकरोति। BI नो रोचयति-न चिकीर्षाविषयीकरोति 'त'मिति य एवंभूतस्तं प्रनजिताभासं परिसह्यन्त इति परीषहा:-क्षुदादयः अ 6 ॥१७६॥ ~355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२३] दीप अनुक्रम [२३७] भियुष्य २-सम्बन्धमुपगत्य प्रतिस्पर्ध वा अभिभवन्ति-न्यकुर्वन्तीति, शेष सुगमम् । उक्तविपर्ययसूत्र प्राग्वत् , किन्तु हितम्-अदोषकरमिह परत्र चात्मनः परेषां च पथ्यान्नभोजनवत्, सुखम्-आनन्दस्तृषितस्य शीतलजलपान इव क्षमम्-उचितं तथाविधव्याधिव्याधातकौषधपानमिव निःश्रेयस-निश्चितं श्रेयः-प्रशस्य भावतः पञ्चनमस्कारकरणमिव अनुगामिकम्-अनुगमनशीलं भास्वरद्रव्यजनितच्छायेवेति । अयं चैवंविधः साधुरिहैव पृथिव्यां भवतीत्यर्थेन सम्बन्धेन पृथिवीस्वरूपमाह एगमेगा ण पुढवी तिहि वलएहि सम्वओ समंता संपरिक्खित्ता, सं०-धणोदधिवलएणं घणवातबलएणं तणुवायवलतेणं (सू० २२४) गेरइया णं उकोसेणं तिसमतितेणं विग्गहेणं उववज्जति, एगिदियवर्ज जाव वेमाणियाणं (सू० २२५) 'एगमेगे'त्यादि, एकैका पृथ्वी रक्षप्रभादिका सर्चतः, किमुक्तं भवति ?-समन्तादथवा दिक्षु विदिक्षुपेत्यर्थः 'सम्परिक्षिसा' वेष्टिता आभ्यन्तरं घनोदधिवलयं ततः क्रमेणेतरे, तत्र धनः-स्त्यानो हिमशिलावत् उदधिः-जलनिचयः स चासौ स चेति घनोदधिः स एव वलयमिव वलयं-कटकं घनोदधिवलयं तेन, एवमितरे अपि, नवरं घनश्चासौ वा-४ तश्च तथाविधपरिणामोपेतो धनवातः, एवं तनुवातोऽपि तथाविधपरिणाम एवेति, भवन्त्यत्र गाथा:-"नवि अ फुसंति अलोग चउरॉपि दिसासु सब्बपुढवीओ । संगहिया वलएहिं विक्खंभं तेसि वोच्छामि ॥१॥ छच्चेव १ अपंचम २ नैव च स्पृशंति अलोकं चतसृष्वपि दिक्षु सर्वाः पृथ्व्यः संग्रहीता क्लसर्विष्कभं तेषां वक्ष्ये ॥ १ ॥ पट् चैवाईपञ्चमानि ॥ ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५] ॥ १७७॥ दीप अनुक्रम [२३९] श्रीस्थाना- जोयण सद्धं च ३ होइ रयणाए । उदही १ घण २ तणुवाया ३ जाहासंखेण निद्दिडा ॥२॥ तिभागो १(योजनस्य)। ४३ स्थान गाउयं चेव २ तिभागो गाउयस्स य । आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव सत्तमिरं ॥ ३॥” इति, एतासु च पृथि- काध्ययने वीषु नारका एव उत्पद्यन्त इति तदुसत्तिविधिमभिधातुमाह-'नेरइया 'मित्यादि, त्रयः समयारिखसमयं तद्यत्रास्ति स उद्देशः ४ त्रिसमयिकस्तेन विग्रहेण-वक्रगमनेन, 'उक्कोसेणं ति सानां हि वसनाच्यन्तरुत्पादात् वकद्वयं भवति, तत्र च वय घनोदध्याएव समयाः, तथाहि-आग्नेयदिशो नैर्ऋतदिशमेकेन समयेन गच्छति, ततो द्वितीयेन समश्रेण्याऽधस्ततस्तृतीयेन वायव्य । दिवलयादिशि समश्रेण्यैवेति, बसानामेव सोसत्तावेबविध उत्कर्षेण विग्रह इत्याह-एगेंदियेत्यादि, एकेन्द्रियास्त्वेकेन्द्रियेषु पञ्च-| नि विग्र&सामयिकेनाप्युत्पद्यन्ते, यतस्ते बहिस्तात् त्रसनाडीतो बहिरण्युत्पद्यन्ते, तथाहि-"विदिसाउ दिसं पढमे बीए पइसरह लाहोत्पादः लोयनाडीए । तइए उप्पिं धावइ चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥१॥ पंचमए विदिसीए गर्नु उप्पजए उ एगिदि"ति स- सू०२२४४म्भव एवायं, भवति तु चतुःसामयिक एव, भगवत्यां तधोक्तत्वादिति, तथाहि-"अपजत्तगसुहमपुढविकाइए णं २२५ भंते! अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए उडलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा, गो०! तिसमइएण वा चउसम १ योजनं सार्थ व भवति रमायां उदधिधनतनुवाता यथासकोन निर्दिष्टाः ॥२॥ योजननिभायः गव्यूतं गव्यूवत्रिभागय भाविभुवे प्रक्षेपः अधः। अधः यावत्सप्तम्याम् ॥५॥२ विदियो दिशि प्रथमे द्वितीये प्रविशति लोकनायो तृतीये उपरि धावति चनु नाया बहिर्निगच्छति ॥१॥ विदिशि पंचमे यत्वा उत्पयवे एकेन्द्रियत्वेन। अपर्याप्त सक्षमपूचीकायिको भदम्ताधोलोकक्षेत्रनामा बाटो क्षेत्रे समवहतः समवद्दय यो भव्य ऊर्वलोकवनाच्या बाहोरोग्रेड-। मा॥१७॥ |पयोप्तसूपमध्यीकायतबा उत्पत्तुं स भदन्त । कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पयेत!, पीतम 1 निसामयिकेन वा चतुःसाम. 55555-ॐकर ~ 357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५]] दीप अनुक्रम [२३९] इएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा" इत्यादि, विशेषणवत्यामप्युक्तम्-"सुत्ते चउसमयाओ नत्थि गई उ परा विणिदिहा। जुज्जइ य पंचसमया जीवस्स इमा गई लोए ॥१॥ जो तमतमविदिसाए समोहओ बंभलोगविदिसाए । उववजई *गईए सो नियमा पंचसमयाए ॥२॥ उववायाभावाओ न पंचसमयाहवा न संतावि । भणिया जह चउसमया मह लबंधे न सन्तावि ॥ ३॥" इति, अत उक्तम्-'एगिदियवज्जति, यावद्वैमानिकानामिति-वैमानिकान्तानां जीवानां त्रिसामयिक उत्कर्षेण विग्रहो भवतीति भावः । मोहवतां त्रिस्थानकमभिधायाधुना क्षीणमोहस्य तदाह खीणमोहस्स णं अरहओ सतो कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं०-नाणावरणिज्जं दसणावरणिज्ज अंतरातियं (सू० २२६) अभितीणक्खते तितारे पं० १ एवं सवणो २ अस्सिणी ३ भरणी ४ मगसिरे ५ पूसे ६ जेट्टा ७ (सू०२२७) ध. मातो णं अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोबमेहिं तिचउभागपलिओवमऊणएहिं चीतिकतेहिं समुप्पन्ने (सू० २२८) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव तश्चाओ पुरिसजुगाओ जुर्गतकरभूमी, मही गं अरहा तिहिं पुरिससरहिं सद्धिं गुंडे भषित्ता जाव पब्वतिते, एवं पासेवि (सू० २२९) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सया चउद्दसपुवीण अजिणाणं जिणसंकासाणं सबक्सरसन्निवातीणं जिण इव अवितहवागरमाणाणं उकोसिया चउद्दसपुब्बिसपया हुत्था (सू० २३०) तो तिथवरा चकवट्टी होत्या तं०-संती कुंथू अरो ३ (सू० २३१) १यिकेन वापि विग्रहेणोरपद्यते ॥ २ सूत्रे चतुःसमयाया गयाः परा गतिनं निर्दिया युज्यते च पंचसमया जीवस्यैषा गतिलोके ॥१॥ वस्तमतमोबिदिशि समवहतो महालोकवि दिशि उपयवे स नियमात पंचसमसया गया ॥२॥ उत्पादाभावान पंचसमया अथवा सस्यपि न भगिता यथा चतुःसमया महत्प्रवन्धे सखपि ॥३॥ ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत सूत्रांक %25% वृत्ति |३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ सू०२२६२३१ [२३१] ॥१७८ दीप अनुक्रम [२४५] 'खीणेत्यादि क्षीणमोहस्य' क्षीणमोहनीयकर्मणोऽहतो-जिनस्य त्रयः कर्मांशाः-कर्मप्रकृतय इति, उक्तं च"चरमे नाणावरणं पंचविहं दसणं चउविगपं । पंचविहमंतराय खवइत्ता केवली होइ ॥१॥” इति, शेष कण्ठ्यम् । अनन्तरमशाश्वतानां त्रिस्थानकमुक्तम् , अधुना शाश्वतानां तदाह-'अभी त्यादि सूत्राणि सप्त कण्ठ्यानीति । परम्प-| रसूत्रे क्षीणमोहस्य त्रिस्थानकमुक्तमधुना तद्विशेषाणां तीर्थकृतां तदाह-'धम्मे'त्यादि प्रकरणं, 'तिचउभाग'त्ति विभिश्चतुर्भागः पादैः पल्योपमस्य सत्कैरूनानि त्रिचतुर्भागपल्योपमोनानि तैर्व्यतिकान्तैरिति, उक्तं च-"धम्मजिणाओ संती तिहि उ तिचउभागपलियऊणेहिं । अयरेहिं समुप्पन्नो"त्ति । 'समणस्से'त्यादि, युगानि पञ्चवर्षमानानि कालविशेषा लोकप्रसिद्धानि वा कृतयुगादीनि तानि च क्रमव्यवस्थितानि ततश्च पुरुषा गुरुशिष्यक्रमिणः पितापुत्रक्रमवन्तो वा यु. गानीव पुरुषयुगानि, पुरुषसिंहवत्समासः, ततश्च पञ्चम्या द्वितीयार्थत्वात् तृतीय पुरुषयुगं यावत् , जम्बूस्वामिनं यावदित्यर्थः, 'युग'त्ति पुरुषयुगं तदपेक्षयाऽन्तकराणां-भवान्तकारिणां निर्वाणगामिनामित्यर्थः, भूमि:-कालो युगान्तकर भूमिः, इदमुक्तं भवति-भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे तस्मादेवावधेस्तृतीय पुरुष जम्बूस्वामिनं यावन्निवोणमभूत , तत दि उत्तरं तद्व्यवच्छेद इति । 'मल्ली'त्यादि सूत्रस्यं, तत्र संवाद:-"एगो भगवं वीरो पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सए हिं"ति मल्लिजिनः स्त्रीशतैरपि त्रिभिः । 'समणेत्यादि, 'अजिणाण'ति असर्वज्ञत्वेन जिनसंकाशानां सकलसंशयच्छेदका चरमसमये पंचविध ज्ञानावरणं भर्विकल्प दर्शनावरण अंतराच पंचविध क्षपयित्वा फेवली भवति ॥२ मंजिनाच्छान्तिः चतुर्भागोनयन्यैखिभिः | दापल्यैः त्रिभिरतरैः समुत्पन्नः ।। Mil॥१७८॥ ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१] दीप अनुक्रम [२४५] कत्वेन सर्वे-सकला अक्षरसक्षिपाता:-अकारादिसंयोगा विद्यन्ते येषां ते तथा स्वार्थिकेन्प्रत्ययोपादानात् तेषां, विदितसकलवापयानामित्यर्थः, 'वागरमाणाण'न्ति ब्यागृणतां व्याकुर्वतामित्यर्थः । 'तओ' इत्यादि, अत्रोक्तम्-'संती। कुंथू अ अरो अरहंता चेव चक्कवट्टी य । अवसेसा तित्थयरा मंडलिआ आसि रायाणो ॥१॥” इति । तीर्थकराश्चैते विमानेभ्योऽवतीर्णा इति विमानविस्थानकमाह ततो गेविजषिमाणपत्थमा पन्नत्ता तं०-हिडिमगेविजबिमाणपत्थडे मनिझमगेविजबिमाणपत्थडे उपरिमगेविज विमाणपत्थडे, हिडिमगेविजबिमाणपत्थडे तिविहे पं० सं०-हेहिम २ गेविजविमाणपस्थडे हेहिममझिमगेविजविमाणपत्थडे हेडिमउपरिमगेविजबिमाणपत्थडे, मज्झिमगेविजविमाणपत्थडे तिबिहे पं० २०-मनिझमहेद्विमगेवेजविमाणपस्थडे भझिम २गेविज मझिमषवरिमोविज०, उबरिमगेविजविमाणपत्थडे तिविहे पं० त०-वरिमहेडिमगेविज० परिममज्झिमगेविज० बरिम २ गेविजविमाणपत्थडे (सू० २३२) जीवाणं तिहाणणिज्वनिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिमु वा चिणिति वा चिणिस्संति वा, तं०-इस्थिणिव्वचिते पुरिसनिव्वत्तिए णपुंसगनिव्वत्सिते, एवं चिणउवचिणधन्दीरवेद तह णिजरा चेव (सू० २३३) तिपतेसिता खंधा अणता पण्णता, एवं जाव तिगुणलुक्खा पोग्गला अणंवा पन्नत्ता । (सू० २३४) तिढाणं समत्तं ततियं अजायणं समर्श । १वान्तिः कुन्धारण महन्तय चकवतिनच । अवशेषास्तीकरा मांडलिकराजा आसन् ॥1॥ ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [२४८] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ १७९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति मूलं [ २३४ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [ ३ ], उद्देशक [४]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] 'ओ' इत्यादि, लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थाने भवानि ग्रैवेयकानि तानि च तानि विमानानि च तेषां प्रस्तटा-रचनाविशेपवन्तः समूहाः । इयं च मैवेयकादिविमानवासिता कर्म्मणः सकाशात् भवतीति कर्मणः त्रिस्थानकमाह - 'जीवा णमित्यादि, सूत्राणि पटू, तत्र त्रिभिः स्थानैः स्त्रीवेदादिभिर्निर्वर्त्तितान्-अर्जितान् पुद्गलान् पापकर्म्मतया अशुभकर्म्मत्वेनोत्तरोत्तरानुभाध्यवसायतश्चितवन्तः - आसंकलनत एवमुपचितवन्तः परिपोषणत एव बद्धवन्तो-निर्मापणतः उदीरितवन्तः - अध्यवसायवशेनानुदीर्णोदयप्रवेशनतः वेदितवन्तः अनुभवनतः निर्जरितवन्तः प्रदेशपरिशादनतः, सङ्ग्रह - णीगाथार्द्धमत्र - ' एवं चिणउवचिणबंधउदीरवेय तह निजरा चेव'त्ति 'एव'मिति यथैकं कालत्रयाभिलापेनोक्तं तथा सर्वाण्यपीति । कर्म च पुद्गलात्मकमिति पुद्गलस्कन्धान् प्रति त्रिस्थानकमाह - 'तिपएसिए' त्यादि, स्पष्टमिति, | सर्वसूत्रेषु व्याख्यातशेषं कण्ठ्यमिति ॥ त्रिस्थानकस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ॥ तत्समाप्तौ च श्रीमदभयदेवसूरिविरचितस्थानाङ्गविवरणे तृतीयं त्रिस्थानकाख्यमध्ययनं समाप्तमिति । समाधं तृतीयमध्ययनम् ॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिवरविहितविवरणयुतं त्रिस्थानकाख्यं तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ व्याख्यातं तृतीयमध्ययनम् अधुना सङ्ख्याक्रमसंबद्धमेव चतुःस्थानकाख्यं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण सह अत्र तृतीय स्थानं परिसमाप्तं अथ चतुर्थ स्थानं आरभ्यते For Parts Only ~361~ ३ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ सू० २३२ २३४ ॥ १७९ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * * प्रत सूत्रांक [२३४] * विशेषसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने विचित्रा जीवाजीवद्रव्यपर्याया उक्ता इहापि त एवोच्यन्ते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुरुद्देशकस्य चतुरनुयोगद्वारस्य सूत्रानुगमे प्रथमोद्देशकादिसूत्रमेतत् चत्तारि अंतकिरियातो पं० सं०-तत्व खलु पढमा इमा अंतकिरिया-अप्पकम्मपचायाते यावि भवति, से ण मुंडे भविता अगारातो अणगारियं पब्वतिते संजभवहुले संवरबहुले समाहिबहुले लहे तीरही उचहाणवं दुक्खक्सवे तवस्सी तस्स ण णो वद्दष्पगारे तवे भवति णो तहप्पगारा वेयणा भवति तहष्पगारे पुरिसज्जाते दीहेणं परितातेणं सिझति बुजाति मुभति परिणिग्वाति सम्वदुक्खाणमंतं करेइ, जहा से भरहे राया चाउरंतचकवट्टी, पढमा अंतकिरिया १, अहावरा दोचा अंतकिरिया, महाकम्मे पञ्चाजाते यावि भवति, से गं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पम्वतिते, संजमबहुले संवरबहुले जाव उवहाणवं दुक्खक्सवे तवस्सी, तस्स णं तहपगारे तवे भवति तहपगारा वेषणा भवति, तहपगारे पुरिसजाते निरुद्रेणं परितातेणं सिज्झति जाव अंतं करेति जहा से गतसूमाले अणगारे, दोचा अंतकिरिया २, अहावरा तथा अंत किरिया, महाकम्मे पचायाते यावि भवति, सेणं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पश्यतिते, जहा दोचा, नवरं दीहेणं परितातेणं सिझति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा से सर्णकुमारे राया चाउरतचकवट्ठी तथा अंतकिरिया ३, अहावरा चउत्था अंतकिरिया अप्पकम्मपञ्चायाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता जाव पम्वतिते दीप अनुक्रम [२४८] * SACARAL * ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३५] श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः ।३स्थानकाध्ययने उद्देशः१ अन्तकिया: | सू०२३५ ॥१८॥ दीप अनुक्रम [२४९] संजमबहुले जाव तस्स ण णो तहप्पगारे तवे भवति णो तहष्पगारा वेयणा भवति, तहपगारे पुरिसजाए णिरुद्रेण परितातेण सिझति जाव सम्वदुक्खाणगंत करेति, जहा सा मरुदेवा भगवती, घउत्था अंतकिरिया ४ (सू० २३५) अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरोद्देशकस्योपान्त्यसूत्रे कर्मणश्चयायुक्तमिह तु कर्मणस्तत्कार्यस्य वा भवस्यान्तक्रियोच्यत इति, अथवा श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमित्यभिधाय यत्तदाख्यातं तदभिहितं तथेदमपरं तेनैवाख्यातं यत्तदुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्थास्य व्याख्या-अन्तक्रिया-भवस्यान्तकरणम् तत्र यस्य न तथाविधं तपो नापि परीपहादिजनिता तथाविधा वेदना दीर्घेण च प्रव्रज्यापर्यायेण सिद्धिर्भवति तस्यैका १ यस्य तु तथाविधे तपोवेदने अल्पेनैव च प्रनज्यापर्यायेण सिद्धिः स्यात् तस्य द्वितीया २ यस्य च प्रकृष्टे तपोवेदने दीपेण च पर्यायेण सिद्धिस्तस्य तृतीया ३ यस्य पुनरविद्यमानतथाविधतपोवेदनस्य इस्वपर्यायेण सिद्धिस्तस्य चतुर्थीति, अन्तक्रियाया एकस्वरूपत्वेऽपि सामग्रीभेदात् चातुर्विध्यमिति समुदायाः , अवयवार्थस्त्वयं-चतम्रोऽन्तक्रिया: प्रज्ञप्ता भगवतेति गम्यते, 'तत्रे ति सप्तमी निर्धारणे तासु चतसृषु मध्ये इत्यर्थः, खलुक्यालङ्कारे, इयमनन्तरं वक्ष्यमाणत्वेन प्रत्यक्षासन्ना प्रथमा, इतरापेक्षया आद्या अन्तक्रिया, इह कश्चित्पुरुषः देवलोकादौ यात्वा ततोऽल्पैः-स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः-प्रत्यागतो मानुषत्वं इति अल्पकर्मप्रत्यायातो य इति गम्यते, अथवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः स तथा, लघुकर्मतयोत्पन्न इत्यर्थः, चकारो वक्ष्यमाणमहाकर्मापेक्षया समुच्चयार्थः, अपि सम्भावने, सम्भाव्यतेऽयमपि पक्ष इत्यर्थः, भवति-स्यात्, स इति असी, णं वाक्यालङ्कारे, मुण्डो भूत्वा द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतो रागाद्यपनयनेन अगाराद् *A4 ॥१८॥ अंतक्रियाया: वर्णनं ~363~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२३५ ] दीप अनुक्रम [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [१], Educatin internation अंतक्रियायाः वर्णनं द्रव्यतो गेहाद्भावतः संसाराभिनन्दिदेहिनामावासभूतादविवेक गेहान्निष्क्रम्येति गम्यते अनगारितां अगारी-गृही असंयतः तत्प्रतिषेधादनगारी संयतस्तद्भावस्तत्ता तां साधुतामित्यर्थः, प्रत्रजितः - प्रगतः प्राप्त इत्यर्थः, अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया - निर्ग्रन्थतया 'प्रव्रजितः' प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः किंभूत इत्याह- 'संजमबहुले त्ति संयमेन - पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणेन बहुल:- प्रचुरो यः स तथा संयमो वा बहुलो यस्य स तथा एवं संवरबहुलोऽपि, नवरमाश्रवनिरोधः संवरः, अथवा इन्द्रियकपायनिग्रहादिभेदः एवं च संयमबहुलग्रहणं प्राणातिपातविरतेः प्राधान्यख्यापनार्थं, यतः-- "एकं चिय एत्थ वयं निहिडं जिणवरेहिं सम्येहिं । पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खट्टा ॥ १ ॥ इति, एतच्च द्वितयमपि रागाद्युपशमयुक्तचित्तवृत्तेर्भवति, अत आह-समाधिबहुलः, समाधिस्तु प्रशमवाहिता ज्ञानादिर्वा, समाधिः पुनर्निःस्नेहस्यैव भवतीत्याह- 'लूहे' रूक्षः शरीरे मनसि च द्रव्यभावस्नेहवर्जितत्वेन परुषः, लूपयति वा कर्म्मम लमपनयतीति षः, कथमसावेवं संवृत्त इत्याह-यतः "तीरडी" तीरं पारं भवार्णवस्थार्थयत इत्येवंशीलस्तीरार्थी तीरस्थायी वा तीरस्थितिरिति वा प्राकृतत्वात् तीरद्वेत्ति, अत एव 'उवहाणवंति उपधीयते उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानं श्रुतविषयस्तपउपचार इत्यर्थः तद्वान्, अत एव - 'दुक्खक्खवेत्ति दुःखम् - असुखं तत्कारणत्वाद्वा कर्म तत् क्षपयतीति दुःखक्षपः, कर्मक्षपणं च तपोहेतुकमित्यत आह-'तवस्सी'ति तपोऽभ्यन्तरं कम्र्मेन्धनदहनज्वलन कल्प मनवरतशुभध्यानलक्षणमस्ति यस्य स तपस्वी, 'तस्स णं'ति यश्चैवंविधस्तस्य णं वाक्यालङ्कारे नो तथाप्रकारम् अत्यन्तघोरं १ अत्र - एकमेवात्र मतं सर्वेजिनवरैर्निर्दिष्टं । प्राणादिपात निरमणमवशेषाणि तस्थ रक्षायें ॥ १ ॥ For Pasta Use Only मूलं [२३५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~364~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत असूत्र काध्ययने सूत्रांक [२३५] रहकर णाप पया- सू०२३५ श्रीस्थाना-प्रवर्धमानजिनस्येव तपा-अनशनादि भवति, तथा नो तथाप्रकारा-अतिधोरैवोपसर्गादिसम्पाद्या वेदना-दुःखासिका ४ स्थान भवति, अल्पकर्मप्रत्यायातत्वादिति, ततश्च तत्तथाप्रकारमल्पकर्मप्रत्यायातादिविशेषणकलापोपेतं पुरुषजात-पुरुषप्र-18 वृत्तिः कारो 'दीर्पण' बहुकालेन 'पर्यायेण' प्रव्रज्यालक्षणेन करणभूतेन सिद्धयति-अणिमादियोगेन निष्ठिताओं वा विशेषतः उद्देशः१ ॥१८॥ सिद्धिगमनयोग्यो वा भवति, सकलकर्मनायकमोहनीयघातात्, ततो घातिचतुष्टयघातेन बुज्यते केवलज्ञानभावात् अन्तसमस्तवस्तूनि, ततो मुच्यते भवोपग्राहिकर्मभिः, ततः परिनिर्वाति-सकलकर्मकृतविकारव्यतिकरनिराकरणेन शीती- क्रिया: भवतीति, किमुक्तं भवतीत्याह-सर्वदुःखानामन्तं करोति, शारीरमानसानामित्यर्थः, अतथाविधतपोवेदनो दीर्घेणापि पर्यायेण किं कोऽपि सिद्धः इति शङ्कापनोदार्थमाह-'जहा सें'इत्यादि, यथाऽसौ यः प्रथमजिनप्रथमनन्दनो नन्दनशताअजन्मा भरतो राजा चत्वारोऽन्ताः-पर्यन्ताः पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रहिमवलक्षणा यस्याः पृथिव्याः सा चतुरन्ता तस्या अयं स्वामित्वेनेति चातुरन्तः स चासौ चक्रवत्तीं चेति स तधा, स हि प्राग्भवे लघूकृतका सर्वार्थसिद्धविमानाच्युत्वा चक्रवर्तितयोपद्य राज्यावस्थ एव केवलमुत्पाद्य कृतपूर्वलक्षप्रव्रज्यः अतथाविधतपोवेदन एव सिद्धिमुपगत इति प्रथमा|न्तक्रियेति १, 'अहावरे'ति 'अथ अनन्तरमपरा पूर्वापेक्षयाऽन्या द्वितीयस्थानेऽभिधानात् द्वितीया महाकर्मभिः-गुरुकम्मेभिर्महाकर्मा सन् प्रत्यायातः प्रत्याजातो वा यः स तथा, 'तस्स 'मिति, तस्य-महाकर्मप्रत्यायातत्वेन तत्क्षपणाय तथाप्रकारं घोरं तपो भवति, एवं वेदनाऽपि, कर्मोदयसम्पायरवादुपसर्गादीनामिति, 'निरुडेनेति अल्पेन यथाऽसौ ट्रगजमुकुमारो विष्णुलघुभ्राता, स हि भगवतोऽरिष्ठनेमिजिननाथस्यान्तिके प्रवज्यां प्रतिपद्य श्मशाने कृतकायोत्सर्ग-1 दीप अनुक्रम [२४९] | अंतक्रियाया: वर्णनं ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [२३५] दीप अनुक्रम [२४९] IMलक्षणमहातपाः शिरोनिहितजाज्वल्यमानाङ्गारजनितात्यन्तवेदनोऽल्पेनैव पर्यायेण सिद्धवानिति, शेष कण्ठयम् २, 'अ-1 हावरे'त्यादि कण्ठय, यथाऽसी सनत्कुमार इति चतुर्थचक्रवर्ती, स हि महातपा महावेदनश्च सरोगत्वात् दीर्घतरपर्या-IN येण सिद्धा, तद्भवे सियभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति ३, 'अहावरेत्यादि कण्ठयं, यथाऽसौ मरुदेवी प्रथमजिनजननी, सा हि स्थावरत्वेऽपि क्षीणप्रायकर्मत्वेनाल्पकर्मा अविद्यमानतपोवेदना च सिद्धा, गजवरारूढाया एवायुःसमाप्ती सिद्धत्वादिति ४, एतेषां च दृष्टान्तदान्तिकानामर्थानां न सर्वथा साधर्म्यमन्वेषणीयम् , देशदृष्टान्तस्वादेषां, यतो| मरुदेव्या 'मुण्डे भवित्ते'त्यादिविशेषणानि कानिचिन्न घटन्ते, अथवा फलतः सर्वसाधर्म्यमपि मुण्डनादिकार्यस्य सिद्धस्य | * सिद्धत्वादिति । पुरुषविशेषाणामन्तक्रियोक्ता, अधुना तेषामेव स्वरूपनिरूपणाय दृष्टान्तदाान्त्रिकसूत्राणि पड़िशतिमाह-- चत्तारि रुक्खा पं० त०-नए नामेगे उन्नए १ उन्नते नाममेगे पणते २ पणते नाममेगे उन्नते ३ पणते नाममेगे पणते ४, १ । एवामेव पत्तारि पुरिसजाता पं००-उन्नते नामेगे उन्नते, सहेच जाव पणते नामेगे पणते २ । चत्तारि रुक्खा पं० २०-उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणए १ उण्णए नाममेगे पणतपरिणते २ पणते णाममेगे उन्नतपरिणते ३ पणए नाममेगे पणयपरिणए ४,३ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-उन्नते नाममेगे उन्नयपरिणते चउभंगो ४, ४ । चत्तारि रुक्खा पं० सं०-उन्नते नामेगे उन्नतरूवे तहेव चउभंगो ४, ५। एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पं० २० -उन्नए नाम०४,६। चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-उन्नते नाममेगे उन्नतमणे उन्न०४,७एवं संकप्पे ८ पन्ने *A5%%* * | अंतक्रियाया: वर्णन ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ४स्थानकाध्ययने उद्देशः१ उन्नतादि सू० २३६ [२३५] दीप अनुक्रम [२५०] श्रीस्थाना ९ दिट्ठी १० सीलाबारे ११ ववहारे १२ परकमे १३ एगे पुरिसजाए पडिवक्सो नत्ति । चत्तारि रुक्खा पं० २०झसूत्र उज्जूनाममेगे उज्जू उज्जू नाममेगे 4के, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-उजूनाममेगे ४, एवं जहा वृत्तिः उन्नतपणतेहिं गमो तहा उजुवकेहिवि भाणियब्बो, जाव परकमे । २६ (सू० २३६) ॥१८२॥ कण्ठ्यं, किन्तु वृश्यन्ते-छिद्यन्ते इति वृक्षाः, ते विवक्षया चत्वारा प्रज्ञप्ता भगवता, तत्र उन्नतः-उच्चो द्रव्यतया 'नामेति सम्भावने बाक्यालङ्कारे वा 'एक' कश्चिद्भक्षविशेषः, स एव पुनरुन्नतो-जात्यादिभावतोऽशोकादिरित्येको भङ्गः, उन्नतो नाम द्रव्यत एव एकः अन्यः प्रणतो-जात्यादिभावहींनो निम्बादिरित्यर्थः इति द्वितीयः प्रणतो नामैको द्रव्यतः खर्च इत्यर्थः स एव उन्नतो जात्यादिना भावेनाशोकादिरिति तृतीयः, प्रणतो द्रव्यत एव खः स एव प्रणतो जात्यादिहीनो निम्बादिरिति चतुर्थः, अथवा पूर्वमुन्नतः-तुङ्गः अधुनाऽप्युनतस्तुङ्ग एवेत्येवं कालापेक्षया चतुर्भङ्गीति १, 'एवं मित्यादि, एवमेव वृक्षवच्चत्वारि पुरुषजातानि-पुरुषप्रकारा अनगारा अगारिणो वा, उन्नतः पुरुषः कुलैश्वर्यादिपाभिलौकिकगुणैः शरीरेण वा गृहस्थपर्याये पुनरुन्नतो लोकोत्तरैानादिभिः प्रवज्यापर्याये अथवा उन्नत उत्तमभवत्वेन पुनरुन्नतः शुभगतित्वेन कामदेवादिवदित्येकः 'तहेच'त्ति वृक्षसूत्रमिवेदं, 'जाव'त्ति यावत् 'पणए नाम एगे पणए'त्ति, चतुर्थंभङ्गकस्तावन् वाच्यं, तत्र उन्नतस्तथैव प्रणतस्तु ज्ञानविहारादिहीनतया दुर्गतिगमनाद्वा शिथिलत्वे शैलकराजदार्षिवत् ब्रह्मदत्तवद्वेति द्वितीयः, तृतीयः पुनरागतसंवेगः शैलकवत् मेतार्यवद्वा, चतुर्थ उदायिनृपमारकवत्काल शौकरिकवद्वेति २, एवं दृष्टान्तदान्तिकसूत्रे सामान्यतोऽभिधाय तद्विशेषसूत्राण्याह-उन्नतः तुगतया एको वृक्षः ॥१८२॥ ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२३६] दीप अनुक्रम [२५० ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] उन्नतपरिणतः अशुभरसादिरूपमनुन्नतत्वमपहाय शुभरसादिरूपोन्नततया परिणत इत्येकः, द्वितीये भने प्रणतपरिण त उक्तलक्षणोन्नतत्वत्यागात्, एतदनुसारेण तृतीयचतुर्थी वाच्यौ, विशेषसूत्रता चास्य पूर्वमुन्नतत्वप्रणतत्वे सामान्येनाभिहिते इह तु पूर्वावस्थातोऽवस्थान्तरगमनेन विशेषिते इति, एवं दार्शन्तिकेऽपि परिणतसूत्रमवगन्तव्यमिति ४, परि| णामश्चाकारबोधक्रियाभेदात् त्रिधा, तत्राकारमाश्रित्य रूपसूत्रं, तत्र उन्नतरूपः संस्थानावयवादिसौन्दर्यात् ५, गृहस्थपुरुषोऽप्येवं, प्रत्रजितस्तु संविग्नसाधुनेपथ्यधारीति ६, बोधपरिणामापेक्षाणि चत्वारि सूत्राणि, तत्र उन्नतो जात्यादिगुणैरुच्चतया उन्नतमनाः प्रकृत्या औदार्यादियुक्तमनाः, एवमन्येऽपि त्रयः, 'एव' मिति सङ्कल्पादिसूत्रेषु चतुर्भङ्गिकातिदेशोऽकारि लाघवार्थ, सङ्कल्पो-विकल्पो मनोविशेष एव विमर्श इत्यर्थः, उन्नतत्वं चास्यौदार्यादियुक्ततया सदर्थविषयतया वा ८, प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञा, सूक्ष्मार्थविवेचकत्वमित्यर्थः, तस्याश्ञ्चोन्नतत्वमविसंवादितया ९, तथा दर्शनं दृष्टिःचक्षुर्ज्ञानं नयमतं वा तदुन्नतत्यमप्यसंवादितयैवेति १०, क्रियापरिणामापेक्षमतः सूत्रत्रयम्, तत्र शीलाचारः, शीलं - | समाधिस्तत्प्रधानस्तस्य वाऽऽचार:- अनुष्ठानं शीलेन वा-स्वभावेनाचार इति, उन्नतत्वं चास्यादूषणतया, वाचनान्तरे तु शीलसूत्रमाचारसूत्रं च भेदेनाधीयत इति ११, व्यवहारः - अन्योऽन्यदानग्रहणादिविवादो वा, उन्नतत्वमस्य श्लाध्यत्वेनेति १३, पराक्रमः - पुरुषकारविशेषः परेषां वा शत्रूणामाक्रमणं, तस्योन्नतत्वमप्रतिहतत्वेन शोभनविषयत्वेन चेति १२, उन्नतविपर्ययः सर्वत्र प्रणतत्वं भावनीयमिति, 'एगे पुरी'त्यादि एतेषु मनःप्रभृतिषु सप्तसु चतुर्भङ्गिकासूत्रेषु एक एव पुरुषजातालापकोऽध्येतव्यः, प्रतिपक्षो-द्वितीयपक्षो दृष्टान्तभूतः वृक्षसूत्रं नास्ति, नाध्येतव्यमितियावत्, इह मनःप्रभृतीनां दा Eucation International For Parata Lise Only मूलं [ २३६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२३६] दीप अनुक्रम [२५० ] श्रीस्थानासूत्र - वृत्तिः “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ उन्नतादि ॥ १८३ ॥ न्तिकपुरुषधर्माणां दृष्टान्तभूतवृक्षेष्वसम्भवादिति । 'उज्य'त्ति ऋजुः- अवको नामेति पूर्ववदेकः कश्चिद्वृक्षः तथा ऋजुः अविपरीतस्वभाव औचित्येन फलादिसम्पादनादित्येकः, द्वितीये द्वितीयं पदं वङ्क इति वक्रः, फलादौ विपरीतः, तृतीये प्रथमपदं वक्रः- कुटिलः चतुर्थः सुज्ञानः, अथवा पूर्व ऋजुरवक्रः, पश्चादपि ऋजुः-- अवक्रोऽथवा मूले ऋजुरन्ते हूँ च ऋजुरित्येवं चतुभङ्गी कार्येत्येष दृष्टान्तः १, पुरुषस्तु ऋजुः- अवको बहिस्तात् शरीरगतिवाक्चेष्टादिभिस्तथा ऋजुरन्तनिर्मायत्वेन सुसाधुवदित्येकः, तथा ऋजुस्तथैव 'वङ्क' इति तु वक्रः अन्तर्मायित्वेन कारणवशप्रयुक्तार्जवभावदुः- ॐ सू० २३६ साधुवदिति द्वितीयः तृतीयस्तु कारणवशाद्दर्शितबाहिरनार्जवोऽन्तर्निर्माय इति प्रवचनगुप्तिरक्षाप्रवृत्तसाधुवदिति, ॐ चतुर्थ उभयतो वक्रः, तथाविधशठवदिति, कालभेदेन वा व्याख्येयम् २ । अथ ऋजु ऋजुपरिणत इत्यादिका एकादश चतुर्भङ्गिका लाघवार्थमतिदेशेनाह - 'एवमित्यनेन ऋजुर्नाम ऋजुरित्यादिनोपदर्शितक्रमभङ्गकक्रमेण 'यथे'ति येन प्रकारेण परिणतरूपादिविशेषणनवकविशेषिततयेत्यर्थः, उन्नतप्रणताभ्यां परस्परं प्रतिपक्षभूताभ्यां गमः सदृशपाठः कृतः, 'तथा' तेन प्रकारेण परिणतरूपादिविशेषिताभ्यामित्यर्थः, ऋजुवाभ्यामपि भणितव्यः, कियान् स इत्याह- 'जाव परकमे'त्ति, ऋजुवक्रवृक्षसूत्रात्रयोदशसूत्रं यावदित्यर्थः, तत्र च ऋजु २ ऋजुपरिणत २ ऋजुरूप २ लक्षणानि पट् सूत्राणि वृक्षदृष्टान्तपुरुषदार्शन्तिकस्वरूपाणि, शेषाणि तु मनःप्रभृतीनि सप्त अदृष्टान्तानीति १३ । पुरुषविचार एवेदमाह - पडिमा पडिवन्नस्स णमणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासातो भासितए, सं०-जावणी पुच्छणी अणुजवणी पुटुस्स वागरणी (सू० २३७) चत्तारि भासाजाता पं० तं सचमेगं भासजायं बीयं मोसं तइयं सक्षमोसं चत्थं असचमोसं ४ Education internationa For Parts Only मूलं [ २३६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~369~ ।। १८३ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९]] दीप अनुक्रम [२५३] (सू० २३८) चत्तारि वत्था, पं० सं०-सुद्धे णाम एगे सुद्धे १ सुद्धे णामं पगे असुद्धे २ असुद्धे णार्म एगे सुद्धे ३ असुद्धे णाम एगे असुद्धे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० ०-सुद्धे णामं एगे सुद्धे चउभंगो ४, एवं परिणतरूवे वस्था सपडिवक्या, चत्तारि पुरिसजाता पं० -सुद्धे णामं एगे सुद्धमणे घउभंगो ४, एवं संकप्पे जाव परक्कमे (सू० २३९) स्फुट, परं प्रतिमा-भिक्षुप्रतिमा द्वादश समयप्रसिद्धास्ताः प्रतिपन्नः-अभ्युपगतवान् यस्तस्य, याच्यतेऽनयेति याचनी| पानकादेः दाहिसि मे एत्तो अन्नतरं पाणगजायमित्यादिसमयप्रसिद्धक्रमेण, तथा प्रच्छनी मार्गादेः कथश्चित्सूत्रार्थयोवों, तथा अनुज्ञापनी अवग्रहस्य तथा पृष्टस्य केनाप्यर्थादेाकरणी-प्रतिपादनीति ॥ भाषाप्रस्तावादापाभेदानाह-चत्तारि भासे'त्यादि, जातम्-उत्पत्तिधर्मकं तच्च व्यक्तिवस्तु, अतो भाषाया जातानि-व्यक्तिवस्तूनि भेदा:-प्रकाराः भाषाजातानि, तत्र सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा तेभ्यो हितं सत्यमेकं-प्रथम सूत्रक्रमापेक्षया भाष्यते सा तया वा भाषणं |वा भाषा-काययोगगृहीतवाग्योगनिसृष्टभाषाद्रव्यसंहतिः तस्या जात-प्रकारो भाषाजातं अस्त्यात्मेत्यादिवत्, द्वितीय सूत्रक्रमादेव 'मोसं'ति प्राकृतत्वान्मृषा-अनृतं नास्त्यात्मेत्यादिवत्, तृतीयं सत्यमृषा-तदुभयस्वभावं आत्माऽस्त्यकर्तेत्यादिवत्, चतुर्थमसत्यामृषा-अनुभयस्वभावं देहीत्यादिवदिति, भवतश्चात्र गाथे-"सच्चा हिया सतामिह संतो मुणओ गुणा पयत्था वा । तबिवरीया मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ॥१॥ अणहिगया जा तीसुवि सद्दो चिय १ सला हिता सतामिह सन्तो मुनयो गुणाः पदार्थाचा । तद्विपरीता मृषा मिश्रा सा या तदुभयसभावा ॥१॥ या तिसयपि अनधिकता ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९]] श्रीस्थाना-5 केवलो असच्चमुसा । एया सभेयलक्खण सोदाहरणा जहा मुत्ते ॥२॥” इति, पुरुषभेदनिरूपणायैवेयं त्रयोदशसूत्री I'चत्तारि वत्धेत्यादि, स्पष्टा, नवरं शुद्धं वस्त्रं निर्मलतन्त्वादिकारणारब्धत्वातु पुनः शुद्धमागन्तुकमलाभावादिति, वृत्तिः अथवा पूर्व शुद्धमासीदिदानीमपि शुद्धमेव, विपक्षी सुज्ञानावेवेति, अथ दाष्टोन्तिकयोजना 'एवमेवेत्यादि, शुद्धो ॥१८४ ॥ जात्यादिना पुनः शुद्धो निर्मलज्ञानादिगुणतया कालापेक्षया वेति 'चउभंगो'त्ति चत्वारो भङ्गाः समाहृताः चतुर्भङ्गी| चतुर्भङ्गवा, पुंल्लिङ्गता चात्र प्राकृतत्वात् , तदयमों-वखवच्चत्वारो भङ्गाः पुरुषेऽपि वाच्या इति। एव'मिति यथा शुद्धात *शुद्धपदे परे चतुर्भङ्गं सदाष्टान्तिकं वखमुक्तमेवं शुद्धपदप्राक्पदे परिणतपदे रूपपदे च चतुर्भङ्गानि वखाणि 'सपडि वक्ख'त्ति सप्रतिपक्षाणि सदा न्तिकानि वाच्यानीति, तथाहि-चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुद्धे नाम एगे सुद्धपरिणए चतुर्भङ्गी, 'एवमेवेत्यादि पुरुषजातसूत्रचतुर्भङ्गी, एवं सुद्धे नाम एगे सुद्धरूवे चतुर्भङ्गी, एवं पुरुषेणापि, व्याख्या तु पूर्ववत् । 'चत्तारीत्यादि, शुद्धो बहिः शुद्धमना अन्तः एवं शुद्धसङ्कल्पः शुद्धप्रज्ञः शुद्धदृष्टिः शुद्धशीलाचारः शुद्ध- व्यवहारः शुद्धपराक्रम इति वस्त्रवर्जाः पुरुषा एव चतुर्भङ्गवन्तो वाच्यार, व्याख्या च प्रागिवेति, अत एवाह-एवं|मित्यादि । पुरुषभेदाधिकार एवेदमाह चत्तारि सुता पं० सं०-अतिजाते अणुजाते अवजावे कुलिंगाले (सू०२४०) चचारि पुरिसजाता पं० सं०-सच्चे नाम एगे सभे, सो नाम एगे असचे ४, एवं परिणते जाव परकमे, चत्तारि बत्था पं० २०-सुतीनाम एगे सुती, १ केवलः शब्द एल साऽससमृषा । एताः सभेदलक्षणाः खोदाहरणा यथा सूत्रे ॥२॥ |४ स्थानकाध्ययने उद्देशा१ प्रतिभावतः पानकानि भापाः शु दादिः सू०२३७२३८२३९ दीप अनुक्रम [२५३] ॥१८४॥ ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [२५] मुनाम एगे असुई, चउभंगो ४, एषामेव चत्तारि पुरिसजाता, पं० २०-मुतीणाम एगे सुती, पउभंगो, एवं जहेव मुद्धणं बत्षेणं भणितं तहेव सुतिणावि, जाव परकमे (सू० २४१) चत्तारि कोरवा पं० तं-अवपलंगकोरपे वालपलबकोखे पलिपलंचकोरवे मेंढविसाणकोरवे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० त० अंबपलंघकोरवसमाणे तालपलं. बकोरवसमाणे बलिपलबकोरवसमाणे मेंढविसाणकोरवसमाणे (सू० २४२) सुताः-पुत्राः 'अइजाए'ति पितुः सम्पदमतिलाब जात:-संवृत्तोऽतिक्रम्य वा तां यात:-प्राप्तो विशिष्टतरसम्पदं ४ समृद्धतर इत्यर्थः इत्यतिजातोऽतियातो वा, ऋषभवत्, तधा 'अणुजाए'त्ति अनुरूपः, सम्पदा पितुस्तुल्यो जातोऽनुSolजातः अनुगतो वा पितृविभूल्याऽनुयातः, पितृसम इत्यर्थः, महायशोवत्, आदित्ययशसा पित्रा तुल्यत्वात्तस्य, तथा 'अधजाए'त्ति अप इत्यपसदो हीनः पितुः सम्पदो जातोऽपजातः पितुः सकाशादीपद्धीनगुण इत्यर्थः, आदित्ययशोवत्, भरतापेक्षया तस्य हीनत्वात्, तथा 'कुलिङ्गाले'त्ति कुलस्य-स्वगोत्रस्याङ्गार इवाङ्गारो दूषकत्वादुपतापकत्वाद्वेति कण्डरीकवत्, एवं शिष्यचातुर्विध्यमप्यवसेयं, सुतशब्दस्य शिष्येष्वपि प्रवृत्तिदर्शनात् तत्रातिजातः सिंहगिर्यपेक्षया वैरखामिवत् , अनुजातः शय्यंभवापेक्षया यशोभद्रवत्, अपजातो भद्रबाहुस्वाम्यपेक्षया स्थूलभद्रवत्, कुलाङ्गारः कूलवालकवदुदायिनृपमारकवद्वेति। तथा 'चत्तारीत्यादि, सत्यो यथावद्वस्तुभणनाद् यथाप्रतिज्ञातकरणाच, पुनः सत्यः संयमित्वेन सयो हितत्वाद, अथवा पूर्व सत्य आसीदिदानीमपि सत्य एवेति चतुर्भङ्गी । एवंप्रकारसूत्राण्यतिदिशन्नाह | -एवं'मित्यादि, व्यकं, नवरमेवं सूत्राणि-'चत्तारि पुरिसजाया पं०-सच्चे नाम एगे सञ्चपरिणए ४, एवं सच्च ~372~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] ॥१८५॥ श्रीस्थाना- वे ४ सचमणे ४ सच्चसंकप्पे ४ सच्चपन्ने ४ सच्चदिट्ठी ४ सच्चसीलायारे ४ सच्चववहारे ४ सच्चपरकमेत्ति ४, पुरुषा- लसूत्र Mाधिकार एवेदमपरमाह-चत्तारि वत्थेत्यादि शुचि-पवित्रं स्वभावेन पुनः शुचि संस्कारेण कालभेदेन वेति, पुरुषचतु- 'बृत्तिः भङ्गयां शुचिः पुरुषोऽपूतिशरीरतया पुनः शुचिः स्वभावेनेति, सुइपरिणए सुइरुवे इत्येतत्सूत्रद्वयं दृष्टान्तदान्तिकोपे सतम्, 'सुइमणे इत्यादि च पुरुषमात्राश्रितमेव सूत्रसप्तकमतिदिशन्नाह-'एव'मित्यादि कण्ठ्यं । पुरुषाधिकार एवेदमपर-1 माह-'चत्तारि कोरवे इत्यादि, तत्र आधः-चूतः तस्य प्रलम्बः-फलं तस्य कोरक-तन्निष्पादक मुकुलं आम्रप्रलम्बकोरकम् , एवमन्ये ऽपि, नवरम्-तालो वृक्षविशेषः, वल्ली-कालिजबादिका, मेंढविषाणा-मेषङ्गसमानफला बनस्पति जातिः, आउलिविशेष इत्यर्थः, तस्याः कोरकमिति विग्रहः, एतान्येव चत्वारि दृष्टान्ततयोपात्तानीति चत्वारीत्युक्तम्, Mन तु चत्वार्येव लोके कोरकाणि, बहुतरोपालम्भादिति, 'एवे'त्यादि सुगम, नवरमुपनय एवं-यः पुरुषः सेव्यमान उचि- तकाले उचितमुपकारफलं जनयत्यसावामप्रलम्बकोरकसमानः, यस्त्वतिचिरेण सेवकस्य कष्टेन महदुपकारफलं करोति स तालप्रलम्बकोरकसमानः, यस्तु अलेवोनाचिरेण च ददाति स वल्लीप्रलम्बकोरकसमाना, यस्तु सेव्यमानोऽपि शोभ-| नवचनान्येव ब्रूते उपकारं तु न कञ्चन करोति स मेण्डविषाणकोरकसमानः, तत्कोरकस्य सुवर्णवर्णत्वादखायफलदाय-1 कत्वाच्चेति ॥ पुरुषाधिकार एव घुणसूत्र चत्तारि घुणा पं० २०-तयक्खाते छल्लिक्खाते कहक्खाते सारक्खाते, पनामेव चत्तारि भिक्खागा पं० ०-तयक्यायसमाणे जाव सारक्खायसमाणे, तयक्खातसमाणस्स णं भिक्खागस्स सारक्खातसमाणे तवे पण्णत्ते, सारक्खायसमा ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ अतिजातादिः स त्यादिः |कारकाः सू०२४०२४१२४२ दीप अनुक्रम [२५६] X॥१८५॥ ~373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] दीप अनुक्रम [२५७] णस्स ण भिक्खागस्स तयक्खातसमाणे तवे पण्णत्ते, छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कट्ठक्वायसमाणे तवे पण्णते, कहक्खायसमाणस्स णं मिक्खागस्स छल्लिक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते (सू० २४३) त्वच-बाह्यवल्कं खादतीति त्वक्खादः, एवं शेषा अपि, नवरं 'छल्लि'त्ति अभ्यन्तरं वल्कं काष्ठ-प्रतीतं सार:-काष्ठमध्यमिति दृष्टान्तः, 'एवमेवे'त्याद्युपनयसूत्रं, भिक्षणशीला भिक्षणधर्माणो भिक्षणे साधवो वा भिक्षाकाः, त्वक्खादेन धुणेन समानोऽत्यन्तं सन्तोषितया आयामाम्लादिप्रान्ताहारभक्षकत्वात् त्वक्खादसमाना, एवं छलीखादसमानोडलेपाहारकत्वात् काष्ठखादसमानो निर्विकृतिकाहारतया सारखादसमानः सर्वकामगुणाहारत्वादिति, एतेषां चतुर्णामपि भिक्षाकाणां तपोविशेषाभिधानसूत्र 'तयक्खाये'त्यादि, सुगम, केवलमयं भावार्थ:-स्वकल्पासाराहाराभ्यवह निरभिष्वङ्गत्वात् कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवतीत्यतोऽपदिश्यते–'सारक्खायसमाणे तत्ति, सारखादघुणस्य सारखादत्वादेव समर्थत्वात् वज्रतुण्डत्वाच्चोते, सारखादसमानस्योक्तलक्षणस्य साभिप्वङ्गतया त्वक्खादसमानं कर्मसारभेदं प्रत्यसमर्थं तपः स्यात् , त्वक्वादकघुणस्य हि तत्त्वादेव सारभेदनं प्रत्यसमर्थत्वादिति, तथा छल्लीखादघुणसमानस्य भिक्षाकस्य स्वक्खादधुणसमानापेक्षया किनिद्विशिष्टभोजित्वेन किञ्चित्साभिष्वङ्गत्वात् सारखादकाष्ठखादघुणसमानापेक्षया त्वसारभोजित्वेन निरभिष्यङ्गित्वाच कर्मभेदं प्रति काष्ठखादधुणसमानं तपः प्रज्ञप्त, नातितीव्र, सारखादघुणवत् , नाप्यतिमन्दादि, त्वक्छलीखादधुणवदिति भावः, तथा काष्ठखादघुणसमानस्थ साधोः सारखादधुणसमानापेक्षया असारभो|जित्वेन निरभिष्वङ्गत्वात् त्वक्छहीखादघुणसमानापेक्षया सारतरभोजित्वेन साभिष्वङ्गस्वाच्च छातीखादघुणसमानं तपः ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२४३] दीप अनुक्रम [२५७] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १८६ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [1] स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... -------- - Education Internation प्रज्ञतं, कर्म्मभेदं प्रति न सारखादकाष्ठखादघुणवदतिसमर्थादि नापि त्वक्वादघुणवदतिमन्दमिति भावः, प्रथमविकल्पे | प्रधानतरं तपो द्वितीयेऽप्रधानतरं, तृतीये प्रधानं, चतुर्थेऽप्रधानमिति ॥ अनन्तरं वनस्यत्यवयवखादका घुणाः प्ररूपिता इति वनस्पतिमेव प्ररूपयन्नाह चउच्विहा वणवणस्सतिकातिता पं० तं० - अग्गबीया मूळबीया पोरबीया संधवीया ( सू० २४४ ) चउहिं ठाणेहिं अहुणोवण्णे रइए रइयलोगंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हन्यमागच्छित्तते, णो चेव णं संचाते हवमागच्छित्तते, अहुणोaaण्णे नेरइए णिरयोगंसि समुब्भूयं वेयणं वेयमाणे इच्छेला माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते णो चेव णं संचाि हव्यमागच्छत्तते १ अहुणोवनने रइए निरतलोगंसि गिरयपालेहिं भुज्जो २ अहिद्विजमाणे इच्छेजा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तते, जो चेव णं संचावेति हव्यमागच्छित्तते २ अहुणोवनने रइए णिरतवेयणिज्जंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेतितंसि अणिज्जिनंसि इच्छेजा०, नो चेव णं संचाएइ ३, एवं णिरयाउअंसि कम्मंसि अक्खीणंसि जाब जो चेद णं संचातेति इच्चमागच्छित्तते ४, इथेतेहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने नेरतिते जाव नो चेव णं संचातेति हव्यमागच्छि ४ (सू० २४५) कांति णिमांथीणं चचारि संघाडीओ धारित वा परिहरितते वा तं०-एगं दुहत्यवित्थारं, दो तिहत्यवित्वारा एगं चहत्यवित्वारं ( सू० २४६ ) 'चव्विहे 'त्यादि, वनस्पतिः प्रतीतः स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः त एव वनस्पतिकायिकाः, तृणप्रकारा वनस्पतिकायिकास्तृणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थः, अनं बीजं येषां ते अग्रवीजाः - कोरिण्टकादयः, अग्रे वा मूलं [२४३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 375~ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ त्वक्खा दादिः अ प्रबीजा दिः नार कागमः संघाव्यः सू० २४३२४६ ॥ १८६ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६] बीज येषां तेऽप्रवीजा:-ब्रीह्यादयः, मूलमेव बीजं येषां ते मूलबीजा:-उत्सलकन्दादयः, एवं पर्वबीजा-इक्ष्वादयः, स्कन्धवीजा:-सल्लक्यादयः, स्कन्धः धुडमिति, एतानि च सूत्राणि नान्यव्यवच्छेदनपराणि, तेन बीजरुहसम्मूच्र्छनजादीनां नाभावो मन्तव्यः, सूत्रान्तरविरोधादिति । अनन्तरं वनस्पतिजीवानां चतुःस्थानकमुक्तम् , अधुना जीवसाधान्नारकजीवानाश्रित्य तदाह-'चउही'त्यादि सुगम, केवलं 'ठाणेहिंति कारणः 'अहुणोववन्ने'त्ति अधुनोपपन्न:-अचिरोपपन्नः, निर्गतमयं-शुभमस्मादिति निरयो-नरकस्तत्र भवो नैरयिकः, तस्य चानन्योत्पत्तिस्थानतां दर्शयितुमाह-निरयलोके, तस्मादिच्छेन्मानुपाणामयं मानुपस्तं लोक-क्षेत्रविशेष 'हवं' शीघ्रमागन्तुं, 'नो चेव'त्ति नैव, णं वाक्यालङ्कारे, 'संचाएई' सम्यक् शक्रोति आगन्तुं, 'समुन्भूयं ति समुद्भूनाम्-अतिप्रबलतयोत्पन्नां पाठान्तरेण 'सम्मुखभूताम्' एकहेलोत्पन्नां पाठान्तरेणामहतो महतो भवनं महद्भूतम् तेन सह या सा समता तां सुमहद्भूतां वा वेदनां-दुःखरूपां वेदयमान:-अनुभवन् इच्छेदिति मनुष्यलोकागमनेच्छायाः कारणम् १, एतदेव चाशकनस्य, तीव्रवेदनाभिभूतो हि न शक्त आगन्तुमिति, तथा निरयपालैः-अम्बादिभिः भूयो भूयः-पुनः पुनरधिष्ठीयमानः-समाक्रम्यमाणः आगन्तुमिच्छेदित्यागमनेच्छाकारणमेतदेव चागमनाशक्तिकारणं, तैरत्यन्ताकान्तस्यागन्तुमशक्तत्वादिति २, तथा निरये वेद्यतेअनुभूयते यत् निरययोग्यं वा यद्वेदनीयं तन्निरयवेदनीय-अत्यन्ताशुभनामकादि असातवेदनीयं वा तत्र कर्मणि अक्षीणे स्थित्या अवेदिते अननुभूतानुभागतया अनिर्जीणे-जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशदिते इच्छेत् मानुषं लोकमागन्तुं न च |शक्नोति, अवश्यवेधकम्मे निगडनियन्त्रितत्वादित्यागमनाशकन एव कारणमिति ३, तथा 'एच'मिति 'अहुणोवचने' इत्याद्य दीप अनुक्रम [२६०] १२ Inimation ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२४६] टीप अनुक्रम [२६०] श्रीस्थानासूत्रवृत्तिः ॥ १८७ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [1] स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internation *******... - मिलापसंसूचनार्थं निरयायुष्के कर्माणि अक्षीणे यावत्करणात् अवेइए इत्यादि दृश्यमिति ४, निगमयन्नाह - 'इचेपहिं'ति, इति एवंप्रकारैरेतैः- प्रत्यक्षैरनन्तरोक्तत्वादिति । अनन्तरं नारकस्वरूपमुक्तं, ते चासंयमोपष्टम्भकपरिग्रहादुखयन्त इति त द्विपक्षभूतं परिग्रहविशेषं चतुःस्थानकेऽवतारयन्नाह - 'कप्पंती'त्यादि, कल्पन्ते - युज्यन्ते निर्गता ग्रन्थाद्-बन्धहेतोर्हिरव्यादेर्मिथ्यात्वादेश्चेति निर्मन्ध्यः साध्व्यस्तासां सङ्घाव्यः- उत्तरीयविशेषरूपा धारयितुं वा परिग्रहे परिहर्तुं वा परिभोक्छुमिति, द्वौ हस्तौ विस्तारः - पृथुत्वं यस्याः सा तथा कल्पन्त इति क्रियापेक्षया कर्तृत्वात् संघाटीनां, 'एगं दुहत्थवित्थारं, एगं चउहत्यवित्थारं 'ति प्रथमा स्यात्तदर्थे च प्राकृतत्वात् द्वितीयोक्ता, धारयन्ति परिभुञ्जते चेति, प्रत्ययपरिणामेन वेति (वा) क्रियानुस्मृतेः द्वितीयैव तत्र प्रथमा उपाश्रये भोग्या त्रिहस्तविस्तारयोरेका भिक्षागमने द्वितीया विचारभूमिगमने चतुर्थी समवसरणे, उक्तं च "संघाडीओ चउरो तत्थ दुहत्था जवसयंमि ॥ दुन्नि तिहत्थायामा भिक्खड़ा एग एग उच्चारे। ओसरणे चउहत्था निसन्नपच्छायणी मसिणा ॥ १ ॥” इति नारकत्वं ध्यानविशेषाद्, ध्यानविशेषार्थमेव च संघाव्यादिपरिग्रह इति ध्यानं प्रकरणत आह चारि झाणा पं० [सं० अट्टे झाणे रोदे झाणे धम्मे झाणे सुके झाणे, अट्टे झाणे चउबिहे पं० नं० - अमणुन्नसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति १, मणुन्नसंपओगसंपत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमण्णागते या भवति २ आकसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागए यावि भवति ३, परिजुसितकामभोगसंपओगसंपत्ते [१] संघाव्यतस्तत्र द्विता उपाध्ये | द्वे त्रिहस्तायामे भिक्षाये एका उच्चारे बैंका अवसरणे चतुर्हस्ता निषणप्रच्छादनी मसृणा ॥१॥ For Parts Only मूलं [२४६] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 377 ~ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू० २४७ ॥ १८७ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] सस्स अविपओगसतिसमण्णागते यावि भवइ ४, अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्षणा पं०,०-कंदणता सोतणम सिप्पणता परिदेवणता । रोदे झाणे चउन्विहे पं० २०-हिंसाणुबंधि मोसाणुबंधि तेणाणुवैधि सारक्खणाणुबंधि, सहस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं०, १०-ओसण्णदोसे बहुदोसे अन्नाणदोसे आमरणंतदोसे । धम्मे झाणे चउबिहे प. उप्पडोयारे पं० सं०-आणाविजते अवायविजते विवागविजते संठाणविजते, धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-आणारुई णिसग्गाई सुत्तरुई ओगाढरुती, धम्मस्स झाणस्स चत्वारि आलंबणा पं० तं०-यायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पहा, धम्मस्स गंशाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं० १०-एगाणुप्पेहा अणिचाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा, सुके झाणे चउब्विहे चउप्पडोआरे ५० त०-पुहुत्तवितके सवियारी १, एगत्तवितके अवियारी २, मुहुमकिरिते अणियट्टी ३, समुच्छिन्नकिरिए अपडिवाती ४, सुमास्स गं झाणस्स चत्तारि ल. क्खणा पं० सं०--अव्यहे असम्मोहे विवेगे विउस्सग्गे, सुकास्स गं झाणस्स चत्वारि आलंबणा पं० सं०-संती मुत्ती महवे अगवे, मुफस्स पं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं० २०-अर्णतवत्तियाणुप्पेहा विपरिणामाणुप्पेहा असुभाणुप्पेहा अबायाणुप्पेहा (सू०२४७) . सुगर्म चैतन्नवरं-ध्यातयो ध्यानानि, अन्तर्मुहर्त्तमात्र कालं चित्तस्थिरतालक्षणानि, उक्तं च-"अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवस्थुम्मि । छउमस्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥१॥" इति, तत्र ऋतं-दुःखं तस्य निमित्तं १ अन्तर्मुहर्तमा एकत्र वस्तुनि मनोऽवस्थानं । ध्यानं छपस्थामा जिनानां तु गोगनिरोधः ॥१॥ दीप अनुक्रम [२६१] चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः१ ध्यानानि सू०२४७ श्रीस्थाना तत्र वा भवं ऋते वा-पीडिते भवमा ध्यान-ढोऽध्यवसायः हिंसाग्रतिक्रार्यानुगतं रौद्र श्रुतचरणधर्मादनपेत धर्म्य शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा कुमयतीति शुक्लं, 'चउब्बिहे'त्ति चतम्रो विधा-भेदा यस्य तत्तधा, अमनोज्ञस्य-अनिष्टस्य, असमणुनस्सत्ति पाठान्तरे अस्वमनोज्ञस्य-अनात्मप्रियस्य शब्दादिविषयस्य तत्साधनवस्तुनो या सम्प्रयोगः-सम्बन्धस्तेन सम्प्रयुक्ता-सम्बद्धः अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो अस्वमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो वा य इति ॥१८८। गम्यते 'तस्येति अमनोज्ञशब्दादेर्बिप्रयोगाय-विप्रयोगार्थं स्मृतिः-चिन्ता तां समन्वागतः-समनुप्राप्तो भवति यः प्राणी सोऽभेदोपचारादातमिति, चापीतिशब्द उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चयार्थः, अथवा अमनोजसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो | यः प्राणी तस्य प्राणिनः विप्रयोगे-प्रक्रमादमनोज्ञशब्दादिवस्तूनां वियोजने स्मृति:-चिन्तनं तस्याः समन्वागत-समा-| गमनं समन्याहारो विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतं, चापीति तथैव, भवति आर्तध्यानमिति प्रक्रमः, अथवा अमनोज्ञसम्प्र-1 योगसम्पयुक्त प्राणिनि 'तस्येति अमनोज्ञशब्दादेविप्रयोगस्मृतिसमन्वागतमार्तध्यानमिति, उक्तं च-"आर्त्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहारः" (तत्त्वार्थ० अ० ९ सू०३१) इति प्रथममेवमुत्तरत्रापि, नवरं मनोज-वल्लभं धनधान्यादि अविप्रयोगः-अवियोग इति द्वितीयमार्त्तमिति, तथा आतङ्को-रोग इति तृतीय, तथा 'परि जुसिय'त्ति निषेविताः ये कामा:-कमनीयाः भोगाः-शब्दादयोऽथवा कामौ-शब्दरूपे भोगाः-गन्धरसस्पर्शाः कामराभोगाः कामानां वा-शब्दादीनां यो भोगस्तैस्तेन वा सम्प्रयुक्ता, पाठान्तरे तु तेषां तस्य वा सम्प्रयोगस्तेन सम्प्रयुक्तो। यः स तथा, अथवा 'परिझुसिय'त्ति परिक्षीणो जरादिना स चासौ कामभोगसम्प्रयुक्तश्च यस्तस्य तेषामेवाविप्रयोग दीप अनुक्रम [२६१] ॥१८ चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] स्मृतेः समन्वागत-समन्वाहारः, तदपि भवत्याध्यानमिति चतुर्थ, द्वितीय वल्लभधनादिविषयं चतुर्थ तत्सम्पाद्यशशब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः, शास्त्रान्तरे तु द्वितीयचतुर्थयोरेकरवेन तृतीयत्वम् , चतुर्धे तु तत्र निदान४मुक्तं, उक्तं च-"अमणुन्नाणं सद्दाइविसयवस्थूण दोसमइलस्स । (वस्तूनि--शब्दादिसाधनानि दोसोत्ति द्वेषः) धणियं वियोगचिंतणमसंपओगाणुसरणं च ॥ १॥ तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विओगपणिहाणं । तयसंपओगचिंता तप्पडियाराउलमणस्स ॥ २॥ इहाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स । अविओगझवसाणं तह संजोगाभिलासो य R॥३॥ देविंदचक्कवट्टित्तणाइगुणरिद्धिपत्थणामइ । अहम नियाणचिंतणमन्नाणाणुगयमच्चतं ॥४॥” इति, आर्त ध्यानलक्षणान्याह-लक्ष्यते-निणीयते परोक्षमपि चित्तवृत्तिरूपत्वादार्तध्यानमेभिरिति लक्षणानि, तत्र क्रन्दनता-महता शब्देन विरवणं शोचनता-दीनता तेपनता-तिपेःक्षरणार्थत्वादश्रुविमोचन परिदेवनता-पुनः पुनः क्लिष्टभाषणमिति,एतानि ६ चेष्टवियोगानिष्टसंयोगरोगवेदनाजनितशोकरूपस्यैवार्तस्य लक्षणानि, यत आह-तैस्सकंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई । इहाणिडवियोगावियोगवियणानिमित्ताई ॥१॥" इति, निदानस्यान्येषां च लक्षणान्तरमस्ति, आह च शब्दादिविषयसाधनानामनोशानां द्वेषमलिनस्य वियोगक्तिनं बाई असंप्रयोगानुस्मरणं च ॥१॥ तथा शुलंशिरोरोगादिवेदनाया वियोगप्रणिधानं तसाबसम्प्रयोगचिन्ता तरप्रतीकाराकुलमनसः ॥ १॥ इष्टानां विषयादीनामनुभवे रागरतस्यावियोगाध्यवसानं तथा संयोगामिलापश्च ॥३॥ देवेन्दचक्रवत्तिदिवादिगुणदिप्रार्थनामयं । अधर्म निदानचिन्वनमशानानुगतमखम्तम् ॥ ४॥ २ तपादनशोचनपरिदेवनतादनानि लिंगानि । दशानिष्टवियोगावियोय वेदना निमित्तानि ॥१॥ दीप अनुक्रम [२६१] For P OW चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक [२४७] ॥ १८९॥ दीप अनुक्रम [२६१] "निंदा निययकयाई पसंसद सविम्हओ विभूईओ । पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ ॥१॥" इति ॥ अथ रौद्र- ४ स्थानध्यानभेदा उच्यन्ते, हिंसा-सत्त्वानां वधबन्धनादिभिः प्रकारः पीडामनुबनाति-सततप्रवृत्तं करोतीत्येवंशीलं यत्प्रणिधानं| काध्ययने हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिंसानुबन्धि रौद्रध्यानं इति प्रक्रम इति, उक्तं च-"सत्तवहवेहबंधणडहणकणमारणाइप- | उद्देशः १ णिहाणं । अइकोहग्गहगत्थं णिग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥१॥” इति, तथा मृषा-असत्यं तदनुवन्नाति पिशुनाऽसभ्या-| ध्यानानि सद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धि, आह च-"पिसुणाऽसन्भासम्भूयभूयायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽतिसं- मासू०२४७ धणपरस्स पच्छन्नपाधस्स ॥१॥" इति, तथा स्तेनस्य-चौरस्य कर्म स्तेयं तीवक्रोधाद्याकुलतया तदनुबन्धवत् सेयानुवन्धि, आह च-"तेह तिब्वकोहलोहाउलस्स भूतोवघायणमणज । परदब्वहरणचित्तं परलोगावायनिरवेक्खं ॥१॥" इति, संरक्षणे-सोपायैः परित्राणे विषयसाधनधनस्यानुबन्धो यत्र तत्संरक्षणानुबन्धि, यदाह-“सेदाइविसयसाहणधणसंरक्षणपरायणमणिडं। सब्वाहिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥१॥” इति । अथैतल्लक्षणान्युच्यन्ते-ओसन्नदोसे'त्ति हिंसादीनामन्यतरस्मिन् ओसनं-प्रवृत्त प्राचुर्य बाहुल्यं यत्स एव दोषः अथवा 'ओसर'ति बाहुल्ये १ निन्दति निजकृतानि प्रशंसति सविस्मयो विभूतीः प्रार्थयति तासु रज्यति तदर्जनपरायणो भवति ॥१॥ २ सयवधवेपबंधनदहनांकनमारणादिप्र| निभानमतिकोधग्रहातं निगमनसोऽयमविपार्क ॥१॥३पिशुनाराभ्यासतभूतवातादिवचनप्रणिधान । मायाविनोऽतिसंधानपरस्य प्रश्नपापस्म ॥१॥ ४ तथा तीनकोचलोभाकुलस्य भूतोपघातनगनार्य पराव्यहरणनितं परलोकापायानरपेक्ष ॥१॥ ५शब्दादिविषयसाधनपनसेरक्षणपरायणमनि । सर्वामिश- R ॥ १८९॥ कनपरोपधातकलपाकुलं वित्तं ॥१॥ चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [२४७] 4555*4 नानुपरतत्वेन दोषो हिंसादीनां चतुर्णामन्यतर ओसन्नदोषः, तथा बहुष्वपि-सर्वेष्वपि हिंसादिषु दोषः-प्रवृत्तिलक्षणो| बहुदोषः, बहु-बहुविधो हिंसानृतादिरिति बहुदोषः, तथा अज्ञानात्-कुंशास्त्रसंस्कारात् हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्ध्याऽभ्युदयार्थ या प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः, अथवा उक्तलक्षणमज्ञानमेव दोषोऽज्ञानदोष इति, अन्यत्र नानाविधदोष इति पाठस्तत्र नानाविधेषु तु-उक्तलक्षणादिषु हिंसाद्युपायेषु दोषोऽसकृत्प्रवृत्तिरिति नाना& विधदोष इति, तथा भरणमेवान्तो मरणान्तः आमरणान्तादामरणान्तम् असञ्जातानुतापस्य कालसौकरिकादेरिव या हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोष आमरणान्तदोषः । अथ धय चतुर्विधमिति स्वरूपेण चतुषु पदेषु-स्वरूपलक्षणालम्बनाXIनुप्रेक्षालक्षणेष्ववतारो विचारणीयत्वेन यस्य तच्चतुष्पदावतारं चतुर्विधस्यैव पर्यायो वाऽयमिति, कचित् 'चउप्पडोयारमिति पाठस्तत्र चतुर्यु पदेषु प्रत्यवतारो यस्येति विग्रह इति, 'आणाविजए'त्ति आ-अभिविधिना झायन्तेऽर्था यया साऽऽज्ञा-प्रवचनं सा विचीयते-निणीयते पर्यालोच्यते वा यस्मिंस्तदाज्ञाविचर्य धर्मध्यानमिति, प्राकृतत्वेन विजय| मिति, आज्ञा या विजीयते अधिगमद्वारेण परिचिता क्रियते यस्मिन्नित्याज्ञाविजयं, एवं शेषाण्यपि, नवरं अपाया| रागादिजनिताः प्राणिनामैहिकामुष्मिका अनर्थाः, विपाका-फलं कर्मणां ज्ञानाद्यावारकत्वादि संस्थानानि लोकद्वीपसमुद्रजीवादीनामिति, आह च-"आप्तवचनं प्रवचनमाज्ञा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आश्रवविकथागौरवपरीषहाथै पायस्तु ॥ १॥ अशुभशुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विषाकविचयः स्यात् । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमन संस्थानविचयस्स्वि | &॥२॥" ति, एतलक्षणान्याह-'आणारुइ'त्ति आज्ञा-सूत्रव्याख्यानं निर्युक्त्यादि तत्र तया वा रुचिः-श्रद्धानं आ दीप 5 अनुक्रम [२६१] * 323325 चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानामसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२४७]] Miज्ञारुथिः, एवमन्यत्रापि, नवरं निसर्गः-स्वभावोऽनुपदेशस्तेन, तथा सूत्रम्-आगमः तत्र तस्माद्वा, तथा अवगाहनमव-II ४ स्थान गाढम्-द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम इति सम्भाव्यते तेन रुचिः अथवा ओगादत्ति साधुप्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधू- काध्ययने पदेशाद्रुचिः, उक्तं च-"आगमउवएसेणं निसग्गओ जं जिणप्पणीयाण । भावाणं सद्दहणं धम्मग्झाणस्स तं लिंग उद्देशः१ olu१॥” इति, तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वं धर्मस्य लिङ्गमिति हृदयं, धर्मस्यालम्बनान्युच्यन्ते-धर्मध्यानसौधारोहणा- ध्यानानि र्थमालम्ब्यन्त इत्यालम्बनानि वाचनं वाचना-विनेयाय निर्जरायै सूत्रदानादि, तथा शङ्किते सूत्रादौ शङ्कापनोदाय गुरोः सू०२४७ प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना, प्रतिशब्दस्य धात्वर्थमात्रार्थत्वादिति, तथा पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादेरविस्मरणनिर्जरार्थमभ्यासः परिवर्त्तनेति, अनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा-सूत्रार्थानुस्मरणमिति । अथानुनेक्षा उच्यन्ते--अन्विति-ध्यानस्य पश्चातक्षणानि-पर्यालोचनान्यनुप्रेक्षाः, तत्र एकोऽहं न च मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ||१" इत्येवमात्मन एकस्य एकाकिनो असहायस्यानुप्रेक्षा-भावना एकानुप्रेक्षा, तथा-"कायः सन्निहितापायः, सम्पदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्सादि भङ्गरम् ॥१॥" इत्येवं जीवितादेरनित्यस्यानुप्रेक्षा अनित्यानुप्रेक्षेति, तथा | "जन्मजरामरणभयैरभिहते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिलोके ॥१॥" एवमशरणस्य|अत्राणस्यात्मनोऽनुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षेति, तथा-"माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । ब्रजति सुतः | पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुताश्चैव ॥ १॥" इत्येवं संसारस्य-चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा संसा-1 ॥१९॥ १ भागमोपदेशेन निसर्गतो यजिनप्रणीतानां भावानां श्रद्धधानं तद्धर्मभ्यानिनो लिंग ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२६१] चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२४७] दीप अनुक्रम [२६१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ २४७ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः रानुप्रेक्षेति । अथ शुमाह- 'पुहुत्तवितके त्ति पृथक्त्वेन - एकद्रव्याश्रितानामुत्यादादिपर्यायाणां भेदेन पृथुत्वेन वा विस्तीर्णभावेनेत्यन्ये वितर्को विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यस्मिंस्तत्तथा, पूज्यैस्तु वितर्कः श्रु तालम्बनतया श्रुतमित्युपचारादधीत इति, तथा विचरणम्-अर्थाद् व्यञ्जने व्यञ्जनादर्थे तथा मनःप्रभृतीना योगानामन्यतरस्मादन्यतरस्मिन्निति विचारो 'विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्ति'रिति ( तत्त्वा० अ० ९ सू० ४६ ) वचनात्, सह विचारेण सविचारि, सर्वधनादित्यादिन्समासान्तः, उक्तं च – “उप्पायठितिभंगाई पज्जयाणं जमेगदव्वंमि । नाणानयाणुसरणं पुच्वगयसुयाणुसारेणं ॥ १ ॥ सवियारमत्थवंजण जोगंतरओ तयं पढममुकं । होति पुहुत्तवियक्कं सवियारमरागभावस्स ॥ २ ॥" इत्येको भेदः, तथा 'एगत्तवियत्ति एकत्वेन अभेदेनोत्यादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायान्बनतयेत्यर्थो वितर्कः- पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम्, तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र सञ्चरणलक्षणो निर्वातगृहगतप्रदीपस्येव यस्य तदविचारीति पूर्ववदिति, उक्तं च-""जं पुण सुनिप्पकं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायठिइभंगाइयाणमेगंमि पजाए ॥ १ ॥ अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बिइयसुकं । पुत्रगयसुया लंबण मेग त्तवियकमविया ॥ २ ॥” इति द्वितीयः, तथा १] उत्पादस्थितिभंगादिपदानां यदेकस्मिन् द्रन्ये नानानयैरनुसरणं पूर्वमतश्रुतानुसारेण ॥ १ ॥ सविवारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तत् प्रथमकम् भवति पृथक्त्ववितर्क सविचारमरागभावस्य ॥ २ ॥ २ यत्पुनः निष्प्रकंप निवासस्थानप्रदीपमिव चितं उत्पादस्थिति गंगादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥ १॥ अविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तत् द्वितीयं शुम् पूर्वगतश्रुतालम्बनमेकत्ववितर्कमविचारम् ॥ २ ॥ Education Internation चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं For Park Use Only ~384~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२४७] टीप अनुक्रम [२६१] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १९१ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [1] स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Education Internation *******... चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं - 'सुमकिरिए 'त्ति निर्वाणगमनकाले केवलिनो निरुद्ध मनोवाग्योग स्यार्द्ध निरुद्ध काययोगस्यैतद्, अतः सूक्ष्मा क्रिया का यिकी उच्च्छासादिका यस्मिंस्तत्तथा न निवर्त्तते न व्यावर्त्तत इत्येवंशीलमनिवर्त्ति प्रवर्द्धमानतर परिणामादिति, भणितं च - "निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियहिं तइयं तणुकायकिरियस्स ॥ १ ॥” इति तृतीयः, तथा, 'समुच्छिन्नकिरिएत्ति समुच्छिन्ना - क्षीणा क्रिया-कायिक्यादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, 'अप्पडिवाए'त्ति अनुपरतिस्वभावमिति चतुर्थः, आह हि -"तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व निष्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियामप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं ॥ १ ॥” इति इह चान्त्ये शुक्लभेदद्वये अयं क्रमः - केवली किलान्तर्मुहूर्त्त भाविनि परमपदे भवोपग्राहिकर्म्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्सु योगनिरोधं करोति, तत्र च - 'पैज्जत्तमेत्तसन्निस्स जत्तियाई जहन्न जोगिस्स । होंति मणोदव्वाई तन्वावारो य जम्मेत्तो ॥ १ ॥ तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभमाणो सो । मणसो सव्वनिरोहं कुणइ असंखेजसमएहिं ॥ २ ॥ पज्जत्तमेतबिंदिय जहन्नवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंतो ॥ ३ ॥ सब्ववइजोगरोहं संखाती एहिं कुणइ समएहिं । १ निर्वाणगमनकालेऽनिरुद्धयोगस्य केवलिनः सूक्ष्मक्रियानिति तृतीयं सूक्ष्मकाय क्रियस्य ॥ १ ॥ २] तस्यैव तस्य शैल व निष्प्रकंपस्थ व्युच्छिक्रियमप्रतिपाति ध्यानं परमशुलं ॥ १ ॥ ३ संशिनः पर्याप्तमात्रस्य यावन्ति जपन्ययोगिनः भवति मनोद्रव्याणि तद्व्यापारथ यावन्मात्रः ॥ १ ॥ तदगुणविहीनानि समये समये निरुन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं करोतिसमयैः ॥ २ ॥ पर्याप्तमात्राद्रियस्स जघन्यवारयोगपर्यया ये तु तदसगुणविहीनान् समये समये निधन ॥ ३ ॥ सर्ववायोगरो सङ्ख्यातीतः करोति समवैः । मूलं [२४७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Pernal Use Only ~385~ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू० २४७ ॥ १९१ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] SACREASELECk तत्तो अ मुहमपणगस्स पढमसमओववन्नस्स ॥४॥जो किर जहन्नजोगो तदसंखेजगुणहीणमेकेके । समए निरुंभमाणो देहतिभागं च मुंचतो ॥ ५॥ रुंभइ स काययोगं संखाईतेहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ M॥६॥ शैलेशस्येव-मेरोरिव या स्थिरता सा शैलेशीति, 'हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भन्नति । अच्छइ से लेसिगओ तत्तियमेतं तओ कालं ॥१॥ तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरियाणियदि सो। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ॥२॥” इति । अथ शुक्लध्यानलक्षणान्युच्यन्ते–'अवहेत्ति देवादिकृतोपसर्गादिजनितं भयं चलनं वा व्यथा तस्या अभावो अव्यथम् , तथा देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च संमोहस्य-मूढताया निषेधादसम्मोहः, तथा देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं-बुया पृथकरणं विवेका, तथा निःसङ्गतया देहोपधित्यागो व्युत्सर्ग इति । अत्र विवरणगाथा-"चालिजइ बीहेइ व धीरो न परीसहोवसग्गेहिं । सुहुमेसु न संमुझइ भावेसु न देवमायासु २॥१॥ देहविवित्तं पेच्छइ अपाणं तय सव्वसंजोगे ३ । देहोवहिवुस्सगं निस्संगो सम्बहा कुणा ॥२॥” इति, आलंबनसूत्र व्यक्तं, तत्र गाथा-"अह खंतिमद्दवजवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ। आलंबणाई १ ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमगोपनस्य ॥ ४॥ यः किल जघन्ययोगलदराज्ञोयगुणहीनमे कै कस्मिन् समये निधन बेहविभागं च {चन् ॥ ५ ॥स काययोग सङ्ख्यातीतथैव समयै गदि ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावना एति ॥६॥ बेन मध्येन कालेन पंच इवाक्षराणि भष्यन्ते । तायन्मानं कालं ततः का शैलेशीगततिति ॥ १॥ तनुरोधारम्भात् ध्यायति सूक्ष्मकियानिवृत्ति सः । व्युच्छिमकियमप्रतिपाति शैलेशीकाले ॥ २ ॥ २ चास्यते विभेति वा धीरो न परियहो पसमः सूक्ष्मेध्यपि भायेषु न संमुताति न च देवमायासु ॥१॥ आत्मानं देह विवि प्रेक्षते तथा सर्वसंयोगाच वेहोपषिपुत्सर्ग निस्सैगः सर्वथा करोति ॥३॥ | अथ क्षान्तिमार्दवावमुख्यः आलंबनानि दीप अनुक्रम [२६१] चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक [२४७] वृत्तिः ॥१९॥ स्थानकाध्ययने उद्देशः१ ध्यानानि सू०२४७ जेहि उ सुकझाणं समारुहइ ॥१॥” इति, अथ तदनुप्रेक्षा उच्यन्ते-'अणंतवत्तियाणुप्पेह'त्ति अनन्ता-अत्यन्त प्रभूता वृत्तिः-वर्तनं यस्यासावनन्तवृत्तिः अनन्ततया वा वर्तत इत्यनन्तवती तद्भावस्तत्ता, भवसन्तानस्येति गम्यते, तस्या अनुप्रेक्षा अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा वेति, यथा-"एस अणाइ जीवो संसारो सागरोन्य दुत्तारो। नारयतिरियनरामरभवेसु परिहिंडए जीवो ॥१॥" इति, एवमुत्तरत्रापि समासः, नवरं 'विपरिणामे'त्ति विविधेन | प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो वस्तूनामिति गम्यते, यथा-"सब्बट्ठाणाई असासयाई इह चेव देवलोगे य । सुरअसुरनराईणं रिद्धिविसेसा सुहाई च ॥१॥" 'असुभे'त्ति अशुभत्वं संसारस्येति गम्यते, यथा-"धी संसारो जमि(मी)जुयाणओ परमरूवगब्बियो । मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कडेवरे नियए ॥१॥" तथा अपाया आश्रवाणामिति गम्यते, यथा-"कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवहमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति | मूलाई पुणम्भवस्स ॥१॥" इह गाथा-"आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च । भवसंताणमणंतं वत्थूणं विप|रिणाम च ॥ १॥" इति । ध्यानाद् देवत्वमपि स्यादतो देवस्थितिसूत्र १जिनमतप्रधानाः सध्यान समारोदति ॥१॥ १ एष जीवोऽनादिः सागर इव संसारो दुरुत्तारः । जीवो मारकतिर्थपरामरभरेषु परिहिंडते ॥१॥ ३ इह देवलोके च सर्वागि स्थानाभ्यशावतान्येष सुरासुरनरादीनां ऋद्धिविशेषाः मुखानि च ॥१॥ ४ विक संसार यस्मिन युषा परमरूपगर्वितः मूला कृमिर्जायते तत्रैव निजे कलेवरे ॥1॥ ५ शोधो मानधामिगृहीती माया व लोभष विपर्धमानी चत्वार एते कृतमाः कषायाः पुनर्भवस्य मूलानि सिश्चन्ति ॥१॥ माश्रमद्वारापायान तथा संसाराभानुभावं अनन्तं भवसन्तानं वस्तूनां परिणाम च॥1॥ दीप अनुक्रम [२६१] चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४८] k चलबिहा देवाण ठिती पं० सं०-देवे णाममेगे १ देवसिणाते नाममेगे २ देवपुरोहिते नाममेगे ३ देवपजलणे नाममेगे ४, चउविधे संवासे पं० तं०-देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, देवे णाममेगे छवीते सदि संवास गच्छेळा, छवी णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेजा, छवी णाममेगे छवीते सद्धिं संचासं गच्छेज्जा (सू० २४८) चत्तारि कसाया पं० २०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए, एवं रझ्याणं जाव वेमाणियाणं २४, चउपतिद्विते कोहे पं० त०-आतपइद्विते परपतिटिए तदुभयपइद्विते अपतिहिए, एवं णेरइयाणं जाप माणियाणे २४, एवं जाव लोमे, वेमाणियाण २४, चाहिं ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिता, सं०-खेत्तं पश्चा वत्थु पहुचा सरीर पहुंचा उवहिं पहुचा, एवं रझ्याणं जाव वेमाणियाणं २४, एवं जाव लोम. वेमाणियाणं २४, चरबिधे कोहे ५००अणताणुबंधिकोहे अपक्खाणकोहे पञ्चक्खाणावरणे कोहे संजलणे कोहे, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं २४, एवं जाव लोभे बेमाणियाण २४, चउबिहे कोहे पं० ०-आभोगणिब्वत्तिए अणाभोगणिन्वत्तिते लबसते अणुवसंते, एवं नेरदयार्ण जाव धेमाणियाणं २४, एवं जाव लोभे जाव वेमाणियाणं २४ (सू० २४९) स्थिति:-क्रमो मर्यादा राजामात्यादिमनुष्यस्थितिवदेव, देवः सामान्यो नामेति वाक्यालङ्कारे एकः कश्चित् स्नातक:प्रधानः, देव एव देवानां वा स्नातक इति विग्रहः, एवमुत्तरत्रापि, नवरं पुरोहितः-शान्तिकर्मकारी पिज्जलणे'त्ति प्रज्वलयति-दीपयति वर्णवादकरणेन मागधवदिति प्रज्वलन इति । देवस्थितिप्रस्तावात् तद्विशेषभूतसंवाससूत्रम् , एतच्च व्यकं, किन्तु संवासो-मैथुनाथ संवसनं, 'छवि'त्ति त्वतद्योगादौदारिकशरीरं तद्वती नारी तिरश्ची वा तद्वान्नर दीप अनुक्रम [२६२] सब ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ४ स्थाना प्रत सूत्रांक [२४९] संवासः सू०२४८ कषायाः सू०२४९ श्रीस्थाना- स्तिर्यग्वा छविरित्युच्यते । अनन्तरं संवास उक्ता, स च वेदलक्षणमोहोदयादिति मोहविशेषभूतकपायप्रकरणमाह 'चत्तारि कसाये'त्यादि, तत्र कृषन्ति-विलिखन्ति कर्मक्षेत्रं सुखदुःखफलयोग्यं कुर्वन्ति कलुषयन्ति वा जीवमिति वृत्तिः निरुक्तिविधिना कपायाः, उक्तं च-"सुहदुक्खबहुसईयं कम्मक्खेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसति जं च जीवं तेण कप्ता- यत्ति धुचंति ॥१॥" अथवा कषति-हिनस्ति देहिन इति कर्ष-कर्म भवो वा तस्याया लाभहेतुत्वात् कर्ष वा आय- ॥१९॥ यन्ति-गमयन्ति देहिन इति कषायाः, उक्तं च-"कर्म कसं भवो वा कसमाओ सिं जओ कसायातो । कसमाययति व जओ गमयंति कसं कसायत्ति ॥१॥” इति, तत्र क्रोधनं क्रुध्यति वा येन स क्रोधः-क्रोधमोहनीयोदयस- म्पाद्यो जीवस्य परिणतिविशेषः क्रोधमोहनीयकमैव वेति, एवमन्यत्रापि, नवरं जात्यादिगुणवानहमेवेत्येवं मननम्-अवगमनं मन्यते वाऽनेनेति मानः, तथा मानं हिंसनं वश्चनमित्यथों मीयते वाऽनयेति माया, तथा लोभनम्-अभिकाणं| लुभ्यते वाऽनेनेति लोभः । एवं मिति यथा सामान्यतश्चत्वारः कषायास्तथा विशेषतो नारकाणामसुराणां यावचतुर्विंशतितमे पदे पैमानिकानामिति । 'चउप्पइट्टिए'त्ति चतुर्प-आत्मपरोभयतदभावेषु प्रतिष्ठितः चतुःप्रतिष्ठितः, तत्र 'आयदीपइडिए'त्ति आत्मापराधेनैहिकामुष्मिकापायदर्शनादात्मविषय आरमप्रतिष्ठितः परेणाक्रोशादिनोदीरितः परविषयो वा || लापरप्रतिष्ठितः आत्मपरविषय उभयप्रतिष्ठितः आक्रोशादिकारणनिरपेक्षः केवलं क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽम सुखदुःखबहुशस्य कर्मक्षेत्र कर्षन्ति ते यस्मात् । यच जी कलषयन्ति तेन कषाया इति उच्यन्ते ॥१॥ यद्वा कसा कर्म भयो वा कषः अनयोरायो। यतः कषायान, कामाययंति वा यतो गमयन्ति वा कर्ष पाया इति ॥५॥ दीप अनुक्रम [२६३] 25E5 1.॥१९३॥ 'कषाय' अर्थ एवं वर्णनं ~389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४९] तिष्ठिता, उक्त च--"सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कोणि फलविपाकेषु । सोपक्रमञ्च निरुपक्रमं च दृष्ट यथाऽऽयुकम् ॥१॥" इति, अयं च चतुर्थभेदो जीवप्रतिष्ठितोऽपि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठित उक्तो, न तु सर्वथा अप्रतिष्ठितः, चतुःप्रतिष्ठितत्वस्थाभावप्रसङ्गादिति । एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां कोपस्यात्मादिप्रतिष्ठितत्वं पूर्वभवे तसरिणामपरिणतमरणेनोत्पन्नानामिति, एवं मानमायालोभैदण्डकत्रयमपरमध्येतव्यमिति, क्षेत्रं नारकादीनां ४ स्वं स्वमुखत्तिस्थानं प्रतीत्य-आश्रित्य एवं वस्तु सचेतनादि ३ वास्तु वा-गृहम् शरीरं दुःसंस्थितं विरूपं वा उपधिर्यद्यस्योपकरण, एकेन्द्रियादीनां भवान्तरापेक्षयेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयं, अनन्तं भवमनुवनाति-अविच्छिन्नं करोतीत्येवंशीलोडनन्तानुबन्धी अनन्तो वाऽनुबन्धोऽस्येत्यनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनसहभाविक्षमादिस्वरूपोपशमादिचरणलवविबन्धी, चारित्रमोहनीयत्वात् तस्य, न चोपशमादिभिरेव चारित्री अल्पत्वाद्यथाऽमनस्को न संज्ञी किन्तु महता मूलगुणादिरूपेण चारित्रेण चारित्री, मनःसंज्ञया संज्ञिवद्, अत एव त्रिविधं दर्शनमोहनीयं पञ्चविंशतिविधं चारित्रमोहनीयमिति, ननु 'पढमिल्लुयाण उदए नियमेत्यादि विरुध्यते, चारित्रावारकस्य सम्यक्त्वावारकत्वानुपपत्तेः, अत एव सप्तविधं दर्शनमोहनीयमेकविंशतिविधं चारित्रमोहनीयमिति मतं सङ्गतमाभातीति, अत्रोच्यते, 'पढमेल्लुयाणे'त्यादि यदुक्तं तदनन्तानुबन्धिनां न सम्यक्रषावारकतया किन्तु सम्यक्त्वसहभाब्युपशमाद्यावारकतया, अन्यथाऽनन्तानुबन्धिभिरेष सम्यक्रकस्थावृत्तस्वात् किमपरेण मिथ्यात्वेन प्रयोजनं?, आवृतस्याच्यावरणेऽनवस्थाप्रसङ्गात्, तस्माद्यथा "केवलियनाणलंभो १कषावाणां क्षयादन्यत्र न केवलज्ञानलभः ॥ दीप अनुक्रम [२६३] 25 'कषाय' अर्थ एवं वर्णनं ~390~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सूत्रवृत्तिः संवास: प्रत सूत्रांक [२४९] ॥१९४॥ दीप नन्नत्थ खए कसायाण"ति इह कषायाणां केवलज्ञानस्यानावारकत्वेऽपि कषायक्षयः केवल ज्ञानकारणतयोक्तः, तस्मिन्नेव दा स्थाना. तस्य भावाद्, एवमनन्तानुवन्धिक्षयोपशम एव सम्यक्त्वलाभ उच्यते, तस्मिन् सति तस्य भावाद, यतो नानन्तानुब- उद्देश-१ |न्धिपूदितेषु मिथ्यात्वं क्षयोपशममुपयाति, तदभावाच्च न सम्यक्त्वमिति, यच्च सप्तविधं सम्यग्दर्शनमोहनीयमिति मता-11 हन्तरं तत्सम्यक्त्वसहचरितत्वेनोपशमादिगुणाना सम्यक्त्वोपचारादिति मन्यामह इति, न विद्यते प्रत्याख्यानम्-अणुव्र सू०२४८ तादिरूपं यस्मिन् सोऽप्रत्याख्यानो-देशविरत्यावारका, प्रत्याख्यानम् आमर्यादया सर्वविरतिरूपमेवेत्यर्थों वृणोतीति प्र काया: त्याख्यानावरणः सवलयति-दीपयति सर्वसावद्यविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पाते वा सवलति-दीप्यत इति सज्वलनः सू०२४९ यथाख्यातचारित्रावारकः, एवं मानमायालोभेष्वप्यनन्तानुबन्ध्यादिभेदचतुष्टयमध्येतव्यमिति, एषां निरुक्तिः पूज्यैरियमुक्ता-"अनन्तान्यनुबन्नन्ति, यतो जन्मानि भूतये । अतोऽनन्तानुवन्ध्याख्या, क्रोधाद्याऽऽद्येषु दर्शिता ॥१॥नाल्पमप्युत्सहेद्येषां, प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥२॥ सर्वसावद्यविरतिः, प्र| त्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥३॥ शब्दादीन् विषयान प्राप्य, सज्वलन्ति यतो मुहुः ।। अतः सञ्जवलनाहानं, चतुर्थानामिहोच्यते ॥४॥” इति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । 'आभोगणिब्वत्तिए'त्ति आभोगो-ज्ञानं तेन निर्वचितो यजानन् कोपविपाकादि रुष्यति, इतरस्तु यदजानन्निति, उपशान्तः-अनुदयावस्थः, तत्ल-II तिपक्षोऽनुपशान्तः, एकेन्द्रियादीनामाभोगनिर्वर्तितः संज्ञिपूर्वभवापेक्षया, अनाभोगनिवर्तितस्तु तद्भवापेक्षयाऽपि, उप-|| अनुक्रम [२६३] 'कषाय' अर्थ एवं वर्णनं ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४९] शान्तो नारकादीनां विशिष्टोदयाभावात् अनुपशान्तो निर्विचार एवेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । इदानी कषायाणामेव कालत्रयवर्तिनः फलविशेषा उच्यन्ते जीवा णं चलाहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु, तं०-कोहेणं माणेणं माथाए लोभेणं, एवं जाव पेमाणियाणं २४, एवं चिणंति एस डओ, एवं चिणिस्संति एस दंडओ, एवमेतेणं तिन्नि दंडगा, एवं उबचिणिसु अवधिणति उवचिणिस्संति, बंधिमु ३ उदीरिंसु ३ वेसु ३ निजरेसु णिज्जरेंति निजरिस्संति, जाव वेमाणियाणं, एवमेबोके पदे तिनि २ दंगा भाणियब्बा, जाव निज रिस्संति (सू० २५०) चत्तारि पडिमाओ पं० २०-समाहिपडिमा उवहाणपडिमा विवेगपडिमा विउस्सगपडिमा, चचारि पडिमाओ पं० २०-भदा सुभदा महाभद्दा सव्वतोभदा, चत्तारि पडिमातो पं० सं०-खुड़िया मोयपदिमा महल्लिया मोयपडिमा अवमझा बदरमझा (सू०२५१) 'जीवा णमित्यादि गतार्थ, नवरम् चयनं-कषायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्र उपचयन-चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा | ज्ञानावरणीयादितया निषेक, स चैव-प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिक निषिञ्चति, ततो द्वितीयायां विशेषहीनं, एवं यावदुस्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति, उक्तं च-"मोत्तूण सगमवाहं पढमाइ ठिईएँ बहुतरं दब्वं । सेसे विसेसहीणं जावुकोसंति सब्वे-15 सिं॥१॥” इति, बन्धन-तस्यैव ज्ञानावरणीयादितया निषिक्तस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति, उदीरणम्-| अनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणमिति, वेदन-स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेन घोदयभावमुप १खकमवाधाकालं मुक्त्वा (निषेके) प्रथमस्थितौ बहुतरं द्रव्यं शेषायां विशेषहीनं यावतुत्वष्टायो सर्वासा ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२६३] Accc Xnoramod ~392~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५१] ॥१९५॥ दीप श्रीस्थाना- नीतस्यामुभवनमिति, निर्जरा कर्मणोऽकर्मस्वभवनमिति, इह च देशनिर्जरैव ग्राण्या, सर्वनिर्जरायाश्चतुर्विंशतिदण्डके स्थाना० सूत्र- सम्भवात, क्रोधादीनां च तदकारणत्वात, क्रोधादिक्षयस्खैक तत्कारणत्वादिति, इह प्रज्ञापनाधीता सनगाथा.- उद्देशः १ वृत्तिः “आयपइडिय १ खेत्तं पडुच्च २ ताणुवंधिः ३ आभोगे ४ । चिणसवचिणबंध उदीर वेय तह निजरा चेपः॥१॥ कर्मचयादि | इति । अनन्तरं निर्जरोक्ता, सा च विशिष्टा प्रतिमाघनुष्ठानाद्भवतीति, प्रतिमासूत्रत्रयं, तद् द्विस्थानकाधीतमपीहाधीयते, ०२५० चतुःस्थानकानुरोधादिति, व्याख्याऽप्यस्य पूर्ववदनुसर्सव्या, किन्तु स्मरणाय किश्चिदुच्यते-समाधिः-श्रुतं चारित्रं च प्रतिमा ट्रातद्विषया प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः समाधिप्रतिमा द्रव्यसमाधिर्वा प्रसिद्धस्तद्विषया प्रतिमा-अभिग्रहः समाधिप्रतिमा सू०२५१ एवमन्या अपि, नवरमुपधान-तपः विवेकः-अशुद्धातिरिक्तभक्तपानवस्त्रशरीरतन्मलादित्यागः 'विउस्सग्गे'त्ति कायो-18 सर्गः। तथा पूर्वादिदिक्चतुष्टयाभिमुखस्य प्रत्येक प्रहरचतुष्टयमानः कायोत्सर्गो भद्रेति, अहोरात्रद्वयेन चास्याः समा-1 Mप्तिरिति, सुभद्राऽप्येवंभूतैव सम्भाव्यते, न च दृष्टेति न लिखितेति, एवमेव चाहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गो महाभद्रा, चतुर्भिश्चाहोरात्रैरियं समाप्यते, यस्तु दिग्दशकाभिमुखस्याहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गः सा सर्वतोभद्रा, सा च दशभिरहोरात्रैः समाष्यत इति । मोयप्रतिमा-प्रश्रवणप्रतिज्ञा सा च क्षुल्लिका या पोडशभक्तेन समाप्यते महती तु याऽष्टादश भक्तेनेति, यवमध्या या यववद्दत्तिकवलादिभिराद्यन्तयोहीना मध्ये च वृद्धेति, वज्रमध्या तु याऽधन्तवृद्धा. मध्ये हीना नाचेति । प्रतिमाश्च जीवास्तिकाये एवेति तद्विपर्ययस्वरूपाजीवास्तिकायसूत्र ME१९५॥ १ आत्मप्रतिष्ठितः क्षेत्रं प्रतीत्य अनन्तानुबन्धी आभोगः चिनाति उपचिनाति बधाति उदीरयति पैदयति निर्जरयति ॥ १॥ अनुक्रम [२६५] ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२५२] दीप अनुक्रम [२६६ ] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२५२ ] उद्देशक [1] [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Internationa स्थान [४], ..आगमसूत्र - *******... चित्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पं० सं० धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए पोग्गहत्थिकाए, चत्तारि अथिकाया अरुविकाया पं० [सं० धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासत्थिकाए जीवस्थिकाए (सू० २५२ ) चतारिफला पं० [सं० आमे णामं एगे आममहुरे १ आमे णाममेगे पकमहुरे २ पके णाममेगे आममहुरे ३ पके णाममेगे कमरे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - आमे णाममेगे आममहुरफलसमाणे, ४ (सू० २५३) उविहे सधे पं० [सं० काउजुयथा भासुकुवया भावुज्नुयया अविसंवायणाजोगे, चउब्विद्दे मोसे पं० तं० कायअणुज्जुयया भासअणुज्जुयया भावअनुयया विसंवादणाजोगे, चउब्विहे पणिहाणे पं० वं०---मणपणिहाणे वइपणिहाणे कायपणिहाणे उवकरणपणिधाणे, एवं रइयाणं पंचिदियाणं जाव वैमाणियाणं २४, चउब्विहे सुप्पणिहाणे पं० [सं० मणसुप्पणिहाणे जाव उवगरणमुप्पणिहाणे, एवं संजयमणुस्साणवि, चउब्विहे दुप्पणिहाणे, पं० तं मणदुष्पणिहाणे जाव उवकरणदुप्प णिहाणे, एवं पंचिदिवाणं जाव वेमाणियाणं २४ ( सू० २५४ ) 'अस्थिकाय'त्ति, अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना, अतोऽस्ति च ते प्र | देशानां कायाश्च राशय इति, अस्तिशब्देन प्रदेशाः कचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकायाः, ते चाजीवकायाः अचेतनत्वात् । अस्तिकाया मूर्त्तामूर्त्ता भवन्तीत्यमूर्त्तप्रतिपादनायारूप्यस्तिकायसूत्रं, रूपं मूर्त्तिर्वर्णादिमत्त्वं तदस्ति येषां ते रूपिणस्तपर्युदासादरूपिणः-अमूर्त्ता इति । अनन्तरं जीवास्तिकाय उक्तः, तद्विशेषभूतपुरुषनिरूपणाय फलसूत्रं, आमम् अपक्कं सत् आममिव मधुरम् आममधुरमीषन्मधुरमित्यर्थः तथा आमं सत् पक्कमिव मधुरमत्यन्तमधु For Parts Only ~ 394 ~ wor Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- गसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२५४] स्थाना० उद्देशः १ अजीवास्तिकायाः सू०२५२ आमादि ॥१९६॥ दीप अनुक्रम [२६८] रमित्यर्थः, तथा पक्कं सत् आममधुरं प्राग्वत् , तथा पक्कं सत् पक्कमधुरं प्राग्वदेवेति, पुरुषस्तु आमो-चयः श्रुताभ्याम- व्यक्तः आममधुरफलसमाना, उपशमादिलक्षणस्य माधुर्यस्याल्पस्यैव भावात् , तथा आम एवं पक्कमधुरफलसमानः- पक्कफलवन्मधुरस्वभावः, प्रधानोपशमादिगुणयुक्तत्वादिति, तथा पक्कोऽन्यो वयः श्रुताभ्या परिणतः आममधुरफलसमाना, उपशमादिमाधुर्यस्याल्पत्वात् , तथा पक्वस्तथैव, पक्कमधुरफलसमानोऽपि तथैवेति । अनन्तरं पक्कमधुर उक्तः, स च सत्यगुणयोगात् भवतीति सत्यं तद्विपर्ययं च मृषा तथा सत्यासत्यनिमित्तं प्रणिधानं प्रतिपिपादयिषुः सूत्राण्याह'चउब्बिहे सचे' इत्यादीनि गतार्थानि, नवरमृजुकस्य-अमायिनो भावः कर्म वा ऋजुकता कायस्थ ऋजुकता का- यर्जुकता, एवमितरे अपि, नवरं भावो-मन इति, कायर्जुकतादयश्च शरीरवाङमनसां यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्धाः प्रथत्तयः, तथा अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं यद्वदति कस्मैचित् किश्चिदभ्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसंवादना तद्विपक्षेण योगः-सम्बन्धोऽविसंवादनायोग इति, 'मोसे'त्ति मृषाऽसत्यं कायस्थानृजुकतेत्यादि वाक्यम् । प्रणिधिः प्रणिधान-प्रयोगः, तत्र मनसः प्रणिधानम्-आतरौद्रधर्मादिरूपतया प्रयोगो मनःप्रणिधानम्, एवं बाकाययोरपि, उपकरणस्य-लौकिकलोकोत्तररूपस्य वस्त्रपात्रादेः संयमासंयमोपकाराय प्रणिधानं-प्रयोग उपकरणप्रणिधानं । 'एवं'मिति | यथा सामान्यतस्तथा नैरयिकाणामिति, तथा चतुर्विशतिदण्डकपठितानां मध्ये ये पञ्चेन्द्रियास्तेषामपि वैमानिकान्तानामेवमेवेति, एकेन्द्रियादीनां मनःप्रभृतीनामसम्भवेन प्रणिधानासम्भवादिति । प्रणिधानविशेषः सुप्रणिधानं दुष्पणिपानश्चेति तत्सूत्राणि, शोभनं संयमार्थत्वात् प्रणिधानं-मनःप्रभृतीनां प्रयोजनं सुप्रणिधानमिति । इदं च सुप्रणिधानं सत्यमणि धाने सू०२५४ ॥१९६॥ ~395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५४] चतुर्विशतिदण्डकनिरूपणायां मनुष्याणां तत्रापि संयतानामेव भवति, चारित्रपरिणतिरूपत्वात् सुप्रणिधानस्येत्याहप्रा एवं संजयेत्यादि, दुष्प्रणिधानसूत्र सामान्यसूत्रवत् नवरं दुष्पणिधानम्-असंयमा मनःप्रभृतीनां प्रयोग इति । पुरुषाधिकारादेवापरथा पुरुषसूत्राणि चतुर्दश पत्तारि पुरिसजाता ५००-आवातभरते णाममेगे णो संवासभहते १, संवासभदए णाममेगे णो आवातभरए २, एगे आवातभद्दतेवि संवासभइतेवि ३ एगे णो, आवायभहते नो वा संवासभरए ४,१, बत्तारि पुरिसजाया पं० तं०अपणो नाममेगे वजं पासति णो परस्स, परस्स णाममेगे वजं पासति ४,२, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-अपणो णाममेगे बज खदीरेइ णो परस्स ४, ३, अप्पणो नाममेगे वजं उबसामेति णो परस्स ४, ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अम्भुढेइ नाममेगे णो अब्भुहावेति, ५, एवं बंदति णाममेगे णो बंदावेइ ६, एवं सकारेइ ७ सम्माणेति ८ पूएइ ९ वाएइ १० पडिपुच्छति ११ पुच्छइ १२ वागरेति, १३, सुत्तधरे णाममेगे णो अत्यधरे अस्थधरे नाममेगे णो सुत्तधरे १४ (सू० २५५) सुगमानि, नवरमापतनमापात:-प्रथममीलकः तत्र भद्रको-भद्रकारी दर्शनालापादिना सुखकरत्वात् , संवास:-चिरै| सहवासस्तस्मिन्न भद्रको हिंसकत्वात् संसारकारणनियोजकत्वाद्वेति, संवासभद्रका सह संवसतामत्यन्तोपकारितया नो आपातभद्रकः अनालापकठोरालापादिना, एवं द्वावन्यो । 'वळ'ति वर्ग्यत इति वर्व्यम् अवद्यं वा अकारलोपात्, वज्रवज्रं वा गुरुत्वाद्धिंसाऽनृतादि पापं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कलहादौ पश्यति, पश्चात्तापान्वितत्वात् , न परस्य, तं दीप अनुक्रम [२६८] ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२५५] दीप अनुक्रम [२६९] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १९७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] प्रत्युदासीनत्वात् अन्यस्तु परस्य नात्मनः, साभिमानत्वात्, इतर उभयोः, निरनुशयत्वेन यथावद्वस्तुबोधात् अपरस्तु नोभयोर्विमूढत्वात् इति । दृष्ट्वा चैक आत्मनः सम्बन्धि अवद्यमुदीरयति भणति यदुत मया कृतमेतदिति, उपशान्तं वा पुनः प्रवर्त्तयत्यथवा वज्रं कर्म्म तदुदीरयति - पीडोत्पादनेन उदये प्रवेशयतीति, एवमुपशमयति- निवर्त्तयति पापं कर्म वा । 'अग्भुट्टे'त्ति अभ्युत्थानं करोति न कारयति परेण, संविनपाक्षिको लघुपर्यायो वा, कारयत्येव गुरुः, उभयवृत्तिर्वृषभादिः, अनुभयवृत्तिर्जिनकल्पिकोऽविनीतो वेति । एवं वन्दनादिसूत्रेष्वपि, नवरं वन्दते द्वादशावर्त्तादिना, सत्करोति वस्त्रादिदानेन, सन्मानयति स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणेन, पूजयति उचितपूजाद्रव्यैरिति वाचयति - पाठयति, 'नो वायावे' आत्मानमन्येनेति उपाध्यायादिः, द्वितीये शैक्षकः, तृतीये क्वचित् ग्रन्थान्तरेऽनधीती, चतुर्थे जिनकल्पिकः । एवं सर्वत्रोदाहरणं स्वबुद्ध्या योजनीयम्, प्रतीच्छतीति सूत्रार्थी गृह्णाति पृच्छति प्रश्नयति सूत्रादि व्याकरोति ब्रूते तदेवेति सूत्रधारः -- पाठकः, अर्थघरो बोद्धा, अन्यस्तूभयधरः, चतुर्थस्तु जड इति । चमरसणं असुरिंदर अमरकुमाररन्नो पत्तारि लोगपाला पं० तं० सोमे जमे वरुणे बेसमणे, एवं बलिस्सवि सोमे जमे बेसमणे वरुणे धरणस्स कालपाले कोलपाले सेलपाले संखपाले, एवं भूयानंदस्स चत्तारि फालपाले कोलपाले संखपाले सेलपाले, वेणुदेवस्स चित्ते विचित्ते चित्तपक्ले विचित्तपक्खे वेणुदालिस्स चित्ते विधित्ते विचित्तपत्रे चित्तपक्खे हरिकंतस्स पने सुपभे पभयंते सुष्पभकंते हरिस्सहस्स पभे सुप्पने सुप्पभकंते पभकंते अग्गिसिहस्स तेऊ तेडसिहे ते कंते उप्प अग्गिमाणवस्स तेऊ तेडसिहे तेउपभे तेडकंते पुन्नस्स रूए रूयंसेवकंते रूदप्पने एवं विसिट्ठस्स Education International For Parka Use Only ~397~ १४ स्थाना० उद्देशः १ आपातभ द्रकादि सू० २५५ ॥ १९७ ॥ waryra Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२५६] दीप अनुक्रम [२७०] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [१]. स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internation .......... - रूते से रूतप्पमे रूयकंते, जलकंतरस जले जलइते जलकंते जलप्पभे जलप्पहस्स जले जलरते जलप्पड़े जलकंते, अमितगतिस्स तुरियगती खिप्पराती सीहगती सीदविकमगती अमितवाहणस्स तुरियगती खिप्पगती सीह विकमगढी सीहगती वेलंबस्स काले महाकाले अंजणे रिठ्ठे पभंजणस्स काले महाकाले रिट्ठे अंजणे, घोसरस आवत्ते वियावन्ते णंदियावत्ते महाणंदियावत्ते महाघोसस्स आवत्ते वियाबत्ते महाणंदियावत्ते णंदियावत्ते २०, सकस्स सोमे जमे वरुणे समणे, ईसाणस्स सोमे जमे बेसमणे वरुणे, एवं एगंतरिता जायचुतस्स, चउन्विहा बाजकुमारा० पं० [सं० काले महाकाले वेलंबे पभंजणे ( सू० २५६) चढब्दिहा देवा पं० तं भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया विमाणवासी (सू० २५७) चउब्विहे पमाणे पं० सं०दष्वप्पमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्रमाणे भावप्पमाणे (सू० २५८ ) पुरुषाधिकारादेव देवविशेषपुरुषनिरूपणपराणि लोकपालादिसूत्राणि कण्ठ्यानि, नवरं इन्द्रः परमैश्वर्पयोगात् प्रभुहान् वा गजेन्द्रवत्, राजा तु राजनाद् दीपनात् शोभावत्त्वादित्यर्थः आराध्यत्वाद्वा, एकार्थी वैताविति, दाक्षिणात्येषु यो नामतस्तृतीयो लोकपालः स औदीच्येषु चतुर्थश्चतुर्थस्त्वितर इति, एवं 'एकंतरिय'त्ति, यन्नामानः शक्रस्य तन्नामान एव सनत्कुमारब्रह्मलोकशुक्रप्राणतेन्द्राणां तथा यन्नामान ईशानस्य तन्नामान एवं माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युतेन्द्राणामिति । कालादयः पातालकलशस्वामिन इति । चतुर्विधा देवा इत्युक्तम्, एतच्च सङ्ख्याप्रमाणमिति प्रमाणप्ररूपणसूत्रं, तत्र प्रमिति प्रमीयते वा परिच्छिद्यते येनार्थस्तत् प्रमाणं तत्र द्रव्यमेव प्रमाणं दण्डादिद्रव्येण वा धनुरादिना शरीरादेव्यैर्वा दण्डहस्ताङ्गुलादिभिः द्रव्यस्य वा जीवादेः द्रव्याणां वा जीवधर्म्माधर्म्मादीनां द्रव्ये वा परमाण्वादी पर्या For Pale On मूलं [२५६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- मसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२५८] ॥१९८॥ याणां द्रव्येषु वा तेष्वेव तेषामेव प्रमाणं द्रव्यप्रमाणं, एवं यथायोगं सर्वत्र विग्रहः कार्यः, तत्र द्रव्यप्रमाणं द्विधा-प्र- स्थानां० देशनिष्पन्नं विभागनिष्पन्नं च, तत्र आद्यं परमाण्वाद्यनन्तप्रदेशिकान्त, विभागनिष्पन्नं पञ्चधा-मानादि, तत्र मानं उद्देशः १ धान्यमानं सेतिकादि रसमानं कर्षादि १ उन्मानं तुलाकर्षादि २ अवमानं हस्तादि ३ गणितमेकादि ४ प्रतिमानं गुजा-लोकपालाः वल्लादीति ५ क्षेत्रम्-आकाशं तस्य प्रमाण द्विधा-प्रदेशनिष्पन्नादि, तत्र प्रदेशनिष्पन्नमेकप्रदेशावगाढादि असङ्ख्यप्रदे- सू० २५६ शावगाढान्त, विभागनिष्पन्नमङ्गल्यादि, काल:-समयस्तन्मानं द्विधा प्रदेशनिष्पन्नमेकसमयस्थित्यादि असङ्खयेयसमय- देवाः स्थित्यन्तं विभागनिष्पन्नं समयावलिकेत्यादि, क्षेत्रकालयोर्द्रव्यत्वे सत्यपि भेदनिर्देशो जीवादिद्रव्यविशेषकत्वेनानयो- सू०२५७ स्तत्पर्यायताऽपीति द्रव्याद्विशिष्टताख्यापनार्थः, भाव एव भावानां वा प्रमाणं भावप्रमाणं गुणनयसङ्ख्याभेदभिन्नं, तत्रा प्रमाणं गुणा-जीवस्य ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तत्र ज्ञान प्रत्यक्षानुमानोपमानागमरूपं प्रमाणमिति, नया-नैगमादयः, सङ्ख्या- सू० २५८ एकादिकेति । देवाधिकारे एवेदं सूत्रचतुष्टयं चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पं० २०-रूया रूयंसा सुरूवा रूयावती, चचारि विजुकुमारिमहत्तरियाओ पं० सं० -चित्ता चित्तकणगा सतेरा सोतामणी (सू० २५९) सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाते देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पं०, ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाए देवीणं चत्तारि पलिओचमाई ठिई पं० (सू० २६०) चउबिहे संसारे पं० त०-दव्वसंसारे खेचसंसारे कालसंसारे भावसंसारे (सू० २६१) |॥१९८॥ 'चत्तारि दिसा' इत्यादि सुगम, नवरं दिकुमार्यश्च ता महत्तरिकाश्च-प्रधानतमास्तासां वा महत्तरिका दिकुमारीमह-1 दीप अनुक्रम [२७२] SCARRIES ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२६१] दीप अनुक्रम [२७५] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१]. मूलं [२६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः त्तरिकाः, एता मध्यरुचकवास्तव्या अर्हतो जातमात्रस्य नालकल्पनादि कुर्वन्तीति, विद्युत्कुमारी महत्तरिकास्तु विदिगुरुचकवास्तव्याः, एताश्च भगवतो जातमात्रस्य चतसृष्वपि दिक्षु स्थिता दीपिकाहस्ता गायन्तीति । एते च देवाः संसारिण इति संसारसूत्रं, संसरणम् इतश्चेतश्च परिभ्रमणं संसारः, तत्र संसारशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्याणां वाजीवपुद्गललक्षणानां यथायोगं भ्रमणं द्रव्यसंसारः, तेषामेव क्षेत्रे-चतुर्दशरज्यात्मके यत्संसरणं स क्षेत्रसंसारः, यत्र वा क्षेत्रे संसारो व्याख्यायते तदेव क्षेत्रमभेदोपचारात् संसारो यथा रसवती गुणनिकेत्यादि, कालस्य-दिवसपक्षमासयनसंवत्सरादिलक्षणस्य संसरणं चक्रन्यायेन भ्रमणं पत्योपमादिकालविशेषविशेषितं वा यत्कस्यापि जीवस्य नरकादिषु स कालसंसारः, यस्मिन् वा काले-पौरुप्यादिके संसारी व्याख्यायते स कालोऽपि संसार उच्यते अभेदाचथा प्रत्युपेक्षणाकरणात् कालोऽपि प्रत्युपेक्षणेति तथा संसारशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तो जीवपुद्गलयोर्वा संसरणमात्रमुपसर्जनीकृतसम्बन्धिद्रव्यं भावानां वौदयिकादीनां वर्णादीनां वा संसरणपरिणामो भावसंसार इति । अयञ्च द्रव्यादिसंसारोऽनेकनयैर्दृष्टिवादे विचार्यते इति दृष्टिवादसूत्रं चविहे दिडिवाए पं० [सं० परिकम्मं सुत्ताई पुब्वगए अणुजोगे ( सू० २६२) चडविहे पायच्छित्ते पं० सं०पाणपायच्छिदंसणपायच्छिते श्वरिसपायच्छित्ते चियत्त किञ्चपायच्छित्ते १। चव्विहे पायच्छिते पं० तं० परिसेवणापायच्छित्ते संजोयणापायच्छित्ते आरोअणापायच्छित्ते पलिडंचणापायच्छिते २ (सू० २६३ ) 'erfast feere' इत्यादि, तत्र दृष्टयो दर्शनानि-नया उद्यन्ते - अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यस्मि - Eucation International For Parts Only ~ 400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [२७७] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ १९९ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२६३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton Internationa - *******... चतुर्दश- पूर्वस्य नामानि एवं श्लोक प्रमाण - न्नसौ दृष्टिवादो दृष्टिपातो वा द्वादशमङ्गम्, तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासंपादनसमर्थ परिकर्म गणितपरिकर्मवत्, तच्च सिद्धसेनिकादि, सूत्राणीति ऋजुसूत्रादीनि द्वाविंशतिर्भवन्ति, इह सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणीति, सम तात्पूर्व करणात् पूर्वाणि तानि बोत्पादपूर्वादीनि चतुर्दशेति एतेषां चैवं नामप्रमाणानि, तद्यथा-" उप्पाय १ अग्गेणीयं २ वीरियं ३ अस्थिनत्थि उ पवायं ४ । णाणपत्रायं ५ स ६ आयपवायं च ७ कम्मं च ८ ॥ १ ॥ पुब्वं पच्चक्खाणं ९ विजणुवायं १० अझ ११ पाणा १२ । किरियाविसालपुवं १३ चोदसमं बिंदुसारं तु १४ ॥ २ ॥ उप्पाये पयकोडी १ अग्गेणीयंमि छन्नउक्खा २ । विरियम्भि सयरिलक्खा ३ सद्विलक्खा उ अत्थिणत्थिम्मि ४ ॥ ३ ॥ एगा पडणा कोडी णाणपवामि होइ पुब्बंमि ५ । एगा पयाण कोडी छच्च पया सच्चवार्यमि ॥ ४ ॥ छब्बीसं कोडीओ आयपवार्यमि होइ पयसंखा ७ । कम्मपवाए कोडी असीती लक्खेहिं अन्भहिआ ८ ॥ ५ ॥ चुलसीइ सयसहस्सा पच्चक्खामि वन्निया पुच्वे । एका पयाण कोडी दस सहसहिया य अणुवाए १० ॥ ६ ॥ छब्बीसं कोडीओ पयाण पुब्वे अवंझणामि ११ । पाणाउम्मि य कोडी छप्पणलक्खेहि अमहिया १२ ॥ ७ ॥ नवकोडीओ संखा किरियविसालमि १] उत्पादं अत्रायणीयं वीर्य अस्तिनातिप्रवादं ज्ञानप्रवादं सख्यप्रवादमात्मप्रवादं च कर्मप्रवादं च ॥ १ ॥ प्रयाख्यानं पूर्व विद्यानुवादं अवन्ध्यं प्राणायुः कि याविशालं पूर्व चतुर्दशं बिन्दुसारं तु ॥ २ ॥ उत्पादे पदकोटी अप्रायणीचे पणरतिक्षा बी सप्ततिलक्षाः अस्तिनास्तिपूर्वे परिक्षाः ॥ ३॥ पादोनेका कोटी ज्ञानप्रवादे भवति पूर्वे सत्यवादे षडधिका पदकोटी ॥ ४ ॥ आत्मप्रवादे शितिः काव्यः पदसयया भवंति अशी लक्षैरधिका पदकोटी कर्मप्रवादे ॥ ५ ॥ प्रख्याख्यानपूर्वे चतुरशीतिसहस्राणि वर्णितानि विद्यानुवादे दशसहस्राधिकैका कोठी पदानां ॥ ६ ॥ अवन्ध्यनानि पूर्वे पद्विशतिः कोय्यः पदानां प्राणायुषि व पद्पंचाक्षाधिका कोटी ॥ ७ ॥ गुरुणा क्रियाविशाल नव कोयो For Pale On ~ 401 ~ ४ स्थाना० उद्देशः १ दृष्टिवादः सू० २६२ प्रायश्चित्तं सू० २६३ ॥ १९९ ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 27 * प्रत सूत्रांक [२६३] * विनिया गुरुणा १३ । अद्धत्तेरसलक्खा पयसंखा बिंदुसारम्मि ॥८॥" इति, तेषु गत-प्रविष्टं यत् श्रुतं तत्पूर्वगतं-पूर्वाण्येव, अङ्गपविष्टमङ्गानि यथेति, योजनं योगः अनुरूपोऽनुकूलो वा सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सह योग इत्यनुयोगः, स चैकस्तीर्थकराणां प्रथमसम्यक्त्वावाप्तिपूर्वभवादिगोचरो यः स मूलप्रथमानुयोगोऽभिधीयते, यस्तु कुलकरादिवक्तव्यता गोचरः स गण्डिकानुयोग इति । पूर्वगतमनन्तरमुक्त, तत्र च प्रायश्चित्तप्ररूपणाऽऽसीदिति प्रायश्चित्तसूत्रद्वयं, तत्र ज्ञानमेव प्रायश्चित्तं, यतस्तदेव पापं छिनत्ति प्रायः चित्तं वा शोधयतीति निरुक्तिवशात् ज्ञानप्रायश्चित्तमिति, एवमन्यवापि, 'वियत्तकिचे'त्ति व्यक्तस्य-भावतो गीतार्थस्य कृत्य-करणीयं व्यक्तकृत्यं प्रायश्चित्तमिति, गीतार्थो हि गुरुलाघवपर्यालोचनेन यत् किश्शन करोति तत्सर्व पापविशोधकमेव भवतीति, अथवा ज्ञानाद्यतिचारविशुद्धये यानि प्रायश्चित्तान्यालोचनादीनि विशेषतोऽभिहितानि तानि तथा व्यपदिश्यन्ते, (यद्वा) 'वियत्तेति विशेषेण-अवस्थाद्यौचित्येन विशेषानभिहितमपि दत्त-वितीर्णमभ्यनुज्ञातमित्यर्थः, यत्किचिन्मध्यस्थगीतार्थेन कृत्यम्-अनुष्ठानं तद् विदत्तकृत्यं प्रायश्चित्तमेव, |'चियत्तकित्ति पाठान्तरतस्तु प्रीतिकृत्यं वैयावृत्त्यादीति, प्रतिपेवणम्-आसेवनमकृत्यस्येति प्रतिपेवणा, सा च द्विधा-परिणामभेदात् प्रतिषेवणीयभेदादा, तत्र परिणामभेदात् “पंडिसेवणा उ भावो सो पुण कुसलोब्य होजऽकुसलो वा । कुसलेण होइ कप्पो अकुसलपरिणामओ दप्पो ॥१॥" प्रतिषेवणीयभेदान "मूलगुणउत्तरगुणे दुविहा १ वर्णिता पदसषया अत्रयोदश क्षा बिन्दुसारे पदसलाया ॥८॥२ भायः प्रतिषेवना सः पुनः कुशलो था भवेदकुशलो वा । गुवालेन भवति कल्पः अकुशलपरिणामादपः ॥१॥ ३ मूलगुणोत्तरगुणेषु द्विविधा दीप अनुक्रम [२७७] * * चतुर्दश-पूर्वस्य नामानि एवं श्लोक प्रमाणं, प्रायश्चित-वर्णनं. ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] स्थाना उद्देशः१ प्रायश्चित्तं सू० २६३ ॥२००। श्रीस्थाना- पंडिसेवणा समासेणं १। मूलगुणे पंचविहा पिंडविसोहाइगी इयरा ॥१॥" तस्यां प्रायश्चित्तमालोचनादि, तच्चेदम्- सूत्र- “आलोयण १ पडिकमणे २ मीस ३ विवेगे ४ तहा विउस्सग्गे ५। तब ६ छेय ७ मूल ८ अणवठ्ठया य ९ पारंचिए वृत्तिः ४१. चेव ॥ १॥” इति प्रतिषेवणाप्रायश्चित्तं १, संयोजनम्-एकजातीयातिचारमीलन संयोजना यथा शय्यातरपिण्डो| गृहीतः सोऽप्युदकाहस्तादिना सोऽप्यभ्याहृतः सोऽप्याधाकम्मिकस्तत्र यत् प्रायश्चित् तत् संयोजनाप्रायश्चित्तम्, तथा आरोपणमेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणमारोपणा, यथा पश्चरात्रिन्दिवप्रायश्चित्तमापन्नः पुनस्तत्सेवने दशरात्रिन्दिवं पुनः पञ्चदशरात्रिन्दिवमेवं यावत्षण्मासात् ततस्तस्याधिकं तपो देयं न भ-| वति अपि तु शेषतपांसि तत्रैवान्तर्भावनीयानि, इह तीर्थे षण्मासान्तत्वात् तपस इति, उक्तं च "पंचाईयारोवण नेयव्या जाव होति छम्मासा । तेण पर मासियाणं छण्हुवरि जोसणं कुजा ॥१॥” इति, आरोपणया प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तमिति, तथा परिकुञ्चनम्-अपराधस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुचना परिवञ्चना वा, उतं च-दव्वे खेत्ते काले भावे पलिउंचणा चउवियप्प"त्ति, तथाहि-सच्चित्ते अञ्चित्तं १ जणवयपडिसेवियं च अद्धाणे २ सुभिक्खे य दुभिक्खे ३ हटेण तहा गिलाणेणं ॥१॥" इति, तस्याः प्रायश्चित्तं परिकुलनाप्रायश्चित्तं, विशेषोऽत्र व्यवहारपीठादवसैय इति । प्रायश्चित्तं च कालापेक्षया दीयत इति कालनिरूपणासूत्रम् १ प्रतिषेषणा समासेन । मूलगुणेषु पंचविधा पिछवियोन्यादिका इतरा ॥1॥२ आलोचनं प्रतिक्रमणं मि विवेकाचा गुत्सर्गः । तपरले दो मूलमनवस्थाप्यं पारांचितं चैव ॥१॥ पंचादिकारोपणा ज्ञातव्या यावद्भवन्ति षण्मासास्ततः परं मासादीनां पणामुपरि बोधणं कुर्यात् ॥1॥ ४ सचित्तमचित्तं | जनपदप्रतितेवितं चावनि सुभिक्षे दुर्भिक्षे च इष्टेन तथा म्लानेन ॥१॥ RESEARC दीप अनुक्रम [२७७] ॥२० ॥ प्रायश्चित-वर्णनं. प्रायश्चित्तस्य दश-भेदा: ~ 403~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२६४] टीप अनुक्रम [२७८] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [१]. स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... *******... Education Internation - विहेकाले पं० [सं० पमाणकाले अहाउयनिव्वत्तिकाले मरणकाले अद्धाकाले ( सू० २६४ ) चउब्विहे मोग्गलपरिणामे पत्ते तं० वन्नपरिणामे गंधपरिणामे रसपरिणामे फासपरिणामे ( सू० २६५) भरहेरवसु णं वाले पुरिमपच्छिमवजा मज्झिमगा बाबीसं अरहंता भगवंता चावामं धम्मं पण्णवेंति, तं०—सवातो पाणातिवायाओ वेरमणं, एवं मुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादाणाओ वेरमणं सचाओ बहिद्धादाणा [ परिग्गहा ]ओ वेरमणं १, सन्वेणं महाविदेदेसु अरहंता भगवंतो चाउामं धम्मं पण्णवयंति, सं०-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, जाव सव्वाती महिद्धादाणाओ वेरमणं ( सू० २६६ ) तत्र प्रमीयते - परिच्छिद्यते येन वर्षशतपल्योपमादि तत्प्रमाणं तदेव कालः प्रमाणकालः, स च अद्धाकालविशेष एव दिवसादिलक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वतीति, उक्तं च- "दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई य । चउपोरिसिओ दिवसो राई चउपोरिसी चैव ॥ १ ॥” इति, यथा-यत्प्रकारं नारकादिभेदेनायुः कर्मविशेषो यथायुस्तस्य रौद्रादिध्यानादिना निर्वृतिः- बन्धनं तस्याः सकाशाद्यः कालो-नारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां स यथायुर्निर्वृतिकालः, अथवा यथाssयुषो निर्वृतिस्तथा यः कालो - नारकादिभवेऽवस्थानं स तथेति, अयमप्यद्धाकाल एवायुष्ककर्मानुभवविशिष्टः, सर्वसं| सारिजीवानां वर्त्तनादिरूप इति उक्तं च- “आउयमेत्तविसिद्धो स एव जीवाण वत्तणादिमओ । भन्नइ अहाउकालो १] द्विविधः प्रमाणकाल दिवसप्रमाणो भवति रात्रिप्रमाण चतुष्पौरुषीको दिवस रात्रिरपि चतुः पौषी एव ॥ १५ २ आयुमत्र विशिष्टः स एव जीवानां वर्तनादिमयः भव्यते यथाऽऽयुष्ककालो मूलं [२६४) "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 404 ~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- लसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२६६] ॥२०१ वत्तह जो जचिरं जेणं ॥१॥" इति, मरणस्य-मृत्योः कालः-समयो' मरणकालः, अयमप्यद्धासमयविशेष एव, मरण- विशिष्टो मरणमेव वा कालो, मरणपर्यायत्वादिति, उक्तं च-"कालोति मयं मरणं जहेह मरणं गओत्ति कालगओ। तम्हा स कालकालो जो जस्स मओ मरणकालो॥१॥" इति, तथा अद्धैव कालः अद्धाकालः, कालशब्दो हि वर्णप्रमाणकालादिष्वपि वर्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशिष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वती समयादिरूपोऽवसेयः, उक्तं च-"सूरकिरियाविसिट्टो गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो । अद्धाकालो भन्नइ समयक्खेत्तंमि समयाइ ॥१॥ समयावलियमुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छरजुगपलिया सागरओसप्पिपरियट्टा ॥२॥” इति । द्रव्यपयायभूतस्य कालस्य चतुःस्थानकमुक्तम्, इदानीं पर्यायाधिकारात् पुद्गलानां पर्यायभूतस्य परिणामस्य तदाह- 'चउविहे' इत्यादि, परिणामः-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम्, उक्तं च-"परिणामो ह्यान्तरगमनं न तु सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥” इति, तत्र वर्णस्य-कालादेः परिणामः-अन्यथा भवन वर्णेन वा कालादिनेतरत्यागेन पुद्गलस्य परिणामो वर्णपरिणामः, एवमन्येऽपि । अजीवद्रव्यपरिणाम उक्तोऽधुना तु जीवद्रव्यस्य परिणामा विचित्रा सूत्रप्रपश्येनाभिधीयन्ते-तत्र च "भरते त्यादिसूत्रद्वयं व्यक्तमेव, किन्तु पूर्वपश्चिमवजों, वर्तते यो यचिर येन ॥१॥ काल इति मतं मरणं यह मरणं गत इति कालगतः । तस्मात् स कालकालो यो यस्य मतो मरणकालः ॥२॥ सूर्यक्रियाविशिष्टो गोदोहादिक्रियासु निरपेक्षः । अहाकालो भण्पते समयादिः समवक्षेत्रे ॥१॥ समय आवलिका मुहूर्तः दिवसोऽहोरात्रः पक्षः मासः संवत्सरं युगं पस्यः सागरः उत्सर्पिणी परावतः ॥२॥ स्थाना० | उद्देशः१ प्रमाणकालादिः परिणामः यामा: सू०२१४२६५. दीप अनुक्रम [२८०] ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 2-5%8-4-56 -5 प्रत सूत्रांक [२६६]] 4-5% 82-% | किमुक्तं भवति?-मध्यमका इति, ते चाष्टादयोऽपि भवन्तीत्युच्यते-द्वाविंशतिरिति, चत्वारो यमा एव यामा निवृत्तयो यस्मिन् स तथा 'बहिद्धादाणाओ'त्ति बहिर्द्धा-मैथुनं परिग्रहविशेषः आदानं च-परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैकत्वमथवा आ दीयत इत्यादानं-परिग्राह्य वस्तु तच्च धर्मोपकरणमपि भवतीत्यत आह-बहिस्तात्-धर्मोपकरणाद् बहियेदिति, इह च समैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यत इति प्रत्याख्येयस्य माणातिपातादेश्चतुर्विधत्वात् चतुर्यामता| धर्मस्येति, इयं चेह भावना-मध्यमतीर्थकराणां विदेहकानां च चतुर्यामधर्मस्य पूर्वपश्चिमतीर्थकरयोश्च पश्चयामध मर्मस्य प्ररूपणा शिष्यापेक्षा, परमार्थतस्तु पश्चयामस्यैवोभयेषामप्यसौ, यतः प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थसाधव ऋजुजडा सावकजडाश्चेति, तत्त्वादेव परिग्रहो वर्जनीय इत्युपदिष्टे मैथुनवर्जनमववोर्बु पालयितुं च न क्षमाः, मध्यमविदेहजतीथे | करतीर्थसाधवस्तु ऋजुप्रज्ञरवात् तद्बोढुं वर्जयितुं च क्षमा इति, भवतश्चात्र श्लोको-"पुरिमा उज्जुजड्डा उ, वकजड्डा य पच्छिमा । मज्झिमा उजुपन्ना उ, तेण धम्मे दुहा कए ॥१॥ पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालए । कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसुज्झे सुपालए ॥२॥” इति । अनन्तरोक्केभ्यः प्राणातिपातादिभ्योऽनुपरतोपरतानां दुर्गतिसुगती भवतः, तद्वन्तश्च ते दुग्गंतेतरा भवन्तीति दुर्गतिसुगत्यात्मकपरिणामयोदुर्गतसुगतानां च भेदान् सूत्रचतुष्टयेनाह प्रथमे जुजाः वळजवाब पाधायाः मध्यमास्तु अनुप्रक्षास्तेन धर्मों द्विधा कृतः॥1॥ १ पूर्वाण दुर्विशीध्वस्तु चरमाणां दुरमुपाल्यः कल्पः मध्यमानान्तु मुबिशोभ्यः खनुपाल्पच ॥१॥ दीप % RSBB%55 अनुक्रम [२८०] ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः दुर्गतिसु प्रत सूत्रांक [२६७] सू० २६७ दीप पत्तारि दुग्गतीतो पं० सं०-रदयदुग्गती तिरिक्खजोणियदुरगती मणुस्सदुग्गती देवदुग्गई १, चत्तारि सोग्गईओ ४ स्थाना० पं००-सिद्धोगती देवसोग्गती मणुयसोग्गती सुकुलपञ्चायाति २, चत्तारि दुग्गता पं० सं०-मेरदयदुग्गया तिरि उद्देशः १ क्खजोणियदुग्गता भणुयदुग्गता देवदुग्गता ३, चत्तारि सुग्गता पं० त०-सिद्धसुगता जाव सुकुलपचायाया ४ (सू०२६७) पढमसमयजिणसणं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति–णाणावरणिजं दसणावरणिज्ज मोहणिज्ज अंतरातितं १, उप्पन्नना गती णसणधरे णं अरहा जिणे केवली चत्तारि कम्मसे वेदेति, सं०-वेदणिज्ज आउयं णामं गोतं २, पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगर्व खिजति २०-वेथाणिनं आउयं णाम गोतं ३ (सू० २६८) | केवल्या'चत्तारी'त्यादि गतार्थम् , नवरं मनुष्यदुर्गतिः निन्दितमनुष्यापेक्षया देवदुर्गतिः किल्बिषिकाद्यपेक्षयेति, 'सुकुलप दिकर्मक्षयौ सू०२६८ चायाईत्ति देवलोकादौ गत्वा सुकुले-इक्ष्वाकादौ प्रत्यायातिः-प्रत्यागमनं प्रत्याजातिर्वा-प्रतिजन्मेति, इयञ्च तीर्थकरादीनामेवेति मनुष्यसुगते गभूमिजादिमनुजत्वरूपाया भिद्यते, दुर्गतिरेपामस्तीत्यचि प्रत्यये दुर्गता दुःस्था वा दुर्गताः एवं सुगताः । अनन्तरं सिद्धसुगता उक्काः ते चाष्टकर्मक्षयात् भवन्त्यतः क्षयपरिणामस्य क्रममाह- पढमे त्यादि सूत्रत्रयं व्यक्त, परं प्रथमः समयो यस्य स तथा स चासौ जिनश्च-सयोगिकेवली प्रथमसमयजिनस्तस्य कर्मणः-सामान्यस्यांशाः 51 |-ज्ञानावरणीयादयो भेदा इति, उत्पन्ने-आवरणक्षयाजाते ज्ञानदर्शने-विशेषसामान्यबोधरूपे धारयतीत्युत्पन्नज्ञानदर्श-|| नधरोऽनेनानादिसिद्धकेवलज्ञानवतः सदाशिवस्यासद्भावं दर्शयति, न विद्यते रहा-एकान्तो गोप्यमस्य सकलसन्निहितव्यवहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसार्थसाक्षात्कारित्वादित्यरहा देवादिपूजाऽहत्वेनाहन्वा रागादिजेतृत्वाजिनः केवलानि-परिपू अनुक्रम [२८१] ~ 407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६८] गानि ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवलीति, सिद्धत्वस्य कर्मक्षपणस्य च एकसमये सम्भवात् प्रथमसमयसिद्धस्येत्यादि व्यपदिश्यते। असिद्धानां तु हास्यादयो विकारा भवन्तीति हास्य तावञ्चतुःस्थानकावतारित्वादाह पहिं ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिता तं०-पासित्ता भासेत्ता सुणेत्ता संभरेत्ता (सू० २६९) चउबिहे अंतरे पं०तं. -कट्ठतरे पम्हंतरे लोहंतरे पत्थरंतरे, एवामेव इतिथए वा पुरिसस्स वा चउबिहे अंतरे पं० २०-कहतरसमाणे पम्हसरसमाणे लोहंतरसमाणे पत्थरंतरसमाणे (सू०२७०) चत्तारि भयगा पं०२०-दिवसभयते जत्ताभयते उचत्तभयते कच्चालभयते (सू० २७१) पत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-संपागडपडिसेवी णामेगे जो पच्छन्नपडिसेवी पच्छन्नपडिसेवी णामेगे णो संपागडपडिसेवी एगे संपागढपडिसेवीवि पच्छन्नपडिसेवीवि एगे नो संपागपटिसेवी णो पच्छन्नपडिसेवी (सू०२७२) 'चउही'त्यादि, हसनं हासः-हासमोहोदयजनितो विकारस्तस्योत्पत्तिः-उत्पादः हासोत्पत्तिः 'पासित्त'त्ति दृष्ट्वा विदूषकादिचेष्टां चक्षुषा, तथा भाषित्वा वाचा किचिचसूरिवचनं तथा श्रुत्वा श्रोत्रेण परोकं तथाविधवाक्यं तथा तथाविधमेव चेष्टावाक्यादिकं स्मृत्वा हसतीति शेषः, एवं दर्शनादीनि हासकरणानि भवन्तीति । असिद्धानामेव धर्मान्तरनिरूपणाय दृष्टान्तदान्तिकार्थवत्सूत्रद्वयम्, 'चउब्धिहें' इत्यादि, काष्ठस्य च काष्ठस्य चेति काष्ठयोरन्तरं-विशेषो रूपनिर्माणादिभि रिति काष्ठान्तरमेवं पक्ष्म-कर्पासरूतादि पक्ष्मणोरन्तरं विशिष्टसौकुमार्यादिभिः लोहान्तरं अत्यन्तच्छेदकत्वादिभिः दप्रस्तरान्तरं-पाषाणान्तरं चिन्तितार्थप्रापणादिभिरिति, 'एवमेव' काष्ठाद्यन्तरवत्, स्त्रिया वा ख्यन्तरापेक्षया पुरुषस्य दीप अनुक्रम [२८२] ~ 408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [२८६] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७२] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] श्रीस्थाना ४ स्थाना० वा पुरुषान्तरापेक्षया, वाशब्दौ स्त्रीपुंसयोश्वातुर्विध्यं प्रति निर्विशेषताख्यापनार्थी, काष्ठान्तरेण समानं तुल्यमन्तरंसूत्र- ४ विशेषो विशिष्टपदवीयोग्यत्वादिना पक्ष्मान्तरसमानं वचनसुकुमारतयैव लोहांतरसमानं स्नेहच्छेदेन परीपहादौ निर्भङ्ग- ४२ उद्देशः १ वृत्तिः * त्वादिभिश्व प्रस्तरान्तरसमानं चिन्तातिक्रान्तमनोरथपूरकत्वेन विशिष्टगुणववन्द्यपदवीयोग्यत्वादिना चेति । अनन्त॥ २०३ ॥ रमन्तरमुक्तमिति पुरुषविशेषान्तरनिरूपणाय भृतकसूत्रं तत्र भ्रियते-पोष्यते स्मेति भृतः स एवानुकम्पितो भृतकः कर्म्मकर इत्यर्थः, प्रतिदिवस नियतमूल्येन कर्म्मकरणार्थं यो गृह्यते स दिवसभृतकः १ यात्रा - देशान्तरगमनं तस्यां | सहाय इति वियते यः स यात्राभृतकः २ मूल्यकालनियमं कृत्वा यो नियतं यथावसरं कर्म्म कार्यते स उच्चताभृतकः, कब्बाड भृतकः- क्षितिखानकः ओडादिः, यस्य स्वं कर्म्मायते द्विहस्ता त्रिहस्ता वा खया भूमिः खनितव्यैतावते धनं दास्यामीत्येवं नियम्येति, इह गाधे - “दिवसभयओ उ घेप्पइ छिन्नेण घणेण दिवसदेवसियं । जत्ता उ होइ गमणं उभयं वा [ आगमनं चेत्यर्थः ] एत्तियधणेणं ॥ १ ॥ कव्वाल ओडमाई हत्थमियं कम्म एत्तियधणेणं । एचिरकालुञ्चत्ते ४५ कायध्वं कम्म जं ति ॥ २ ॥ उक्तं लौकिकस्य पुरुषविशेषस्यान्तरमधुना लोकोत्तरस्य तस्यान्तरप्रतिपादनाय प्रतिषेवि सूत्रं, तत्र सम्प्रकटम्-अगीतार्थसमक्षमकल्प्यभक्तादि प्रतिषेवितुं शीलं यस्य स सम्प्रकटप्रतिसेवीत्येवं सर्वत्र, नवरं प्र छिमेन धनेन दिवसे दिवसे दिवसभृतस्तु गृह्यते यात्रा तु भवति गमनं गमनागमने वा इयता धनेन ॥ १ ॥ ओडादिः कब्बतको नियम्य इयता भनेन हस्तमितं कम्म कार्यते उपताभृतक इयत्कालं कर्म कर्त्तव्यं यदू नवीति (भवति) ॥ २ ॥ Education Intematon For Parts Only ~409~ हास: अ न्तरं भू तकाः प्र * तिसेविनः सू० २६९ २७०. २७१२७२ ॥ २०३ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [ २८६] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] .......... Eaton Intentional - च्छन्नमगीतार्थासमक्षं, अत्र चाद्ये भङ्गकत्रये पुष्टालम्बनों वकुशादिः निरालम्बनो वा पार्श्वस्थादिर्द्रष्टव्यः, चतुर्थे तु निर्ग्रन्थः स्नातको वेति, अन्तराधिकारादेव देवपुरुषाणां स्त्रीकृतमन्तरं प्रतिपादयन्नाह चमर आदि असुरकुमारस्स अग्रमहिष्यः चमरस्त णं असुरिंदस्स असुरकुमाररनो सोमस्स महारनो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं० कणगा कणगलता चित्तगुत्ता वसुंधरा, एवं जमस्स वरुणस्स वेसमणस्स, वहिस्स णं वतिरोयणिदस्स वतिरोयणरत्र सोमस्स महारनो चचारि अग्गमहिसीओ पं० वं०-- मित्तगा सुभद्दा विजुवा असणी, एवं जमस्स वेसमणस्स वरुणरस, धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररनो कालवालस्स महारनो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० [सं० असोगा विमला सुप्पभा सुदंसणा, एवं जान संखवालस्स, भूताणंदस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो कालवालस्स महारनो चत्तारि अग्ग० पं० सं०सुनंदा सुभदा सुजाता सुमणा, एवं जान सेलवालस्स जहा धरणस्स एवं सब्बेसि दाहिणिंद लोगपालाणं जाव घोसरस जहा भूतानंदस्स एवं जाव महाघोसस्स लोगपालाणं, काछस्स णं पिसाईदस्स पिसायरनो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं० कमला कमलप्पभा उप्पला सुदंसणा एवं महाकालस्सवि, सुरुवस्स णं भूविंदस्स भूतरनो चत्तारि जग्गमहिसीओ पं० तं रूपवती बहुरुवा सुरुवा सुभगा एवं पढिरुवस्सवि, पुण्णभदस्त णं जक्खिंदस्स जक्खरनो चत्तारि अगमहिसीओ पं० [सं० पुत्ता बहुपुत्तिता उत्तमा तारगा, एवं माणिभदस्सवि, भीमस्स णं रक्खसिदस्स रक्खसरनो दत्तारि अग्गमहिसीओ पं० नं०पडमा वसुमती कणगा रवणप्पभा, एवं महाभीमस्सवि, किंनरस्त णं किंनरिंदरस चत्तारि अग्ग० पं० ० वडेंसा केतुमती रतिसेणा रतिप्पभा, एवं किंपुरिसरसवि, सप्पुरिसस्स णं किंपुरिसिंदरस० मूलं [ २७२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Pernal Use Only ~ 410 ~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२७३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाइसूत्र प्रत सूत्रांक वृत्तिः २०४॥ K४ स्थाना० उद्देशः१ अग्रमहिप्यः विकृतयः कूटागाराः सू०२७३२७४२७५ [२७३] चत्वारि अगमहिसीओ पं० सं०-रोहिणी णवमिता हिरी पुष्फवती, एवं महापुरिसस्सपि, अतिकायस्स णं महोरगिंदस्स चत्तारि अगमहिसीओ पं० तं०-भुयगा भुयगवती महाकच्छा फुडा, एवं महाकायस्सवि, गीतरतिस्स गं गंधबिदस्स चत्वारि अग्ग० ५००-सुधोसा विमला सुस्सरा सरस्सती, एवं गीयजसस्सवि, चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरनो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० ०-चंदप्पमा दोसिणाभा अश्चिमाली पभंकरा, एवं सूरस्सवि, णवर सूरप्पमा दोसिणाभा अश्चिमाली पभंकरा, इंगालस्स गं महागहस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० २०-विजया बेजयंती जयंती अपराजिया, एवं सब्जेसि महागहाणं जाव भावकेउस्स, सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारो चत्तारि अग्ग० ५० तं०-रोहिणी मयणा चित्ता सोमा, एवं आव चेसमणस्स, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरत्नो सोमस्स महारस्रो चत्तारि अग०५० त०-पुढवी राती रयणी विजू, एवं जाव वरुणस्स (सू० २७३) चत्तारि गोरसविगतीओ पं० सं०-खीर दहिं सपि गवणीतं, चचारि सिणेहविगइतीओ पं००-रोहं पयं वसा णवणीत, चत्तारि महाविगतीओ पं० सं०-महुं मंसं मज्जं णवणीतं (सू०२७४) चत्तारि कूडागारा पं० सं०-गुत्ते णामं एगे गुत्ते गुत्ते णाम एगे अगुप्ते अगुत्ते णाम एगे गुत्ते अगुत्ते णाम एगे अगुत्ते, एवामेव पत्तारि पुरिसजाता पं० त०-गुत्ते णाममेगे गुत्ते ४, चत्तारि कूडागारसालाओ पं० २०-गुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा गुत्ताणाममेगा भगुतदुवारा अगुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा अगुत्ता णाममेगा अगुत्तदुवारा, पवामेव पचारिस्थीओ पं०२०-गुत्ता नाममेगा गुनिंदिता गुत्ता णाममेगा अगुत्तिदिआ [४] ४ (सू० २७५) चउविहा ओगाहणा पं००-यूयोगाहणा खे दीप अनुक्रम [२८७] चमर आदि असुरकुमारस्स अग्रमहिष्य: ~ 411~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२७६] दीप अनुक्रम [२९०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ २७६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] वोगाहणा कालोगाहणा भावोगाहणा (सू० २७६) चत्तारि पन्नत्तीओ अंगबाहिरियातो पं० नं०चंद्रपन्नची सूरपन्नत्ती जंबुरीवपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती (सू० २७७ ) || चउद्वाणस्स पढमो उद्देभो ॥ १ ॥ 'चमरस्से'त्यादिकमग्रमहिषीसूत्रप्रपञ्चमाह, कण्ठ्यश्चायम्, नवरं 'महारन्नो' त्ति लोकपालस्याग्रभूताः - प्रधाना महिष्यो -राजभार्या अग्रमहिष्य इति, वइरोयणत्ति-विविधैः प्रकारै रोच्यन्ते दीप्यन्त इति विरोचनास्त एव वैरोचना:- उत्त | रदिग्वासिनोऽसुराः तेषामिन्द्रः, धरणसूत्रे 'एव'मिति कालवालस्यैव कोलपालशैलपाठ शङ्कपालानामेतन्नामिका एव चतस्रश्वतस्रो भार्याः, एतदेवाह 'जाव संखवालस्स'ति, भूतानन्दसूत्रे 'एव' मिति यथा कालवालस्य तथान्येषामपि, नवरं तृतीयस्थाने चतुर्थी वाच्यः, धरणस्य दक्षिणनागकुमारनिकायेन्द्रस्य लोकपालानामग्रमहिष्यो यथा यन्नामिकास्तथा तन्नामिका एव सर्वेषां दाक्षिणात्यानां शेषाणामष्टानां वेणुदेव हरिकान्तअग्निशिख पूर्णजलकान्तअमितगतिबेलम्ब घो पाख्यानामिन्द्राणां ये लोकपालाः सूत्रे दर्शितास्तेषां सर्वेषामिति, यथा च भूतानन्दस्यौदीच्य नागराजस्य तथा शेषाणामष्टानामौदीच्येन्द्राणां वेणुदारिहरिस्सहाग्निमानवविशिष्टजलप्रभामितवाहनप्रभञ्जनमहाघोषाख्यानां ये लोकपालास्तेपामपीति, एतदेवाह 'जहा धरणस्से' त्यादि । उक्तं सचेतनानामन्तरमथान्तराधिकारादेवा चेतनविशेषाणां विकृतीनां गोरस स्नेहमत्त्वलक्षणमन्तरं सूत्रत्रयेणाह - 'चत्तारी त्यादि, गवां रसो गोरसः व्युत्पत्तिरेवेयं गोरसशब्दस्य प्रवृत्तिस्तु महिष्यादीनामपि दुग्धादिरूपे रसे, विकृतयः शरीरमनसोः प्रायो विकारहेतुत्वादिति शेषं प्रकटम्, नवरं सर्पिः घृतम्, नवनीतं-काक्षणं, स्नेहरूपा विकृतयः स्नेहविकृतयो वसा-अस्थिमध्यरसः, महाविकृतयो- महारसत्वेन महा विकार कारित्वात्, Education International For Park Use Only ~412~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७] तयः कू दीप श्रीस्थाना-IXमहतः सत्त्वोपघातस्य कारणत्वाञ्चेति, इह विकृतिप्रस्तावाद् विकृतयो वृजगाथाभिः प्ररूप्यन्ते-खीरं ५ दहि ४ णक- ४ स्थाना० नसूत्र- णीयं ४ घयं ४ तहा तेलमेव ४ गुड २ मज २। महु ३ मंसं ३ चेव तहा ओगाहिमगं च दसमी उ॥१॥ गो- उद्देशः १ वृत्तिः महिसुट्टिपसूर्ण एलगखीराणि पंच चत्तारि । दहिमाइयाई जम्हा उट्टीणं ताणि णो हुंति ॥२॥ चत्तारि होति तेल्ला अग्रमहि तिलअयसिकुसुंभसरिसवाणं च । विगईओ सेसाई डोलाईणं न विगईओ॥३॥ दवगुलपिंडगुला दो मज पुण कट्ठ- | पीप्रकर॥२०५॥ पिछनिष्फनं । मच्छियकोत्तियभामरभेयं च तिहा महुँ होइ ॥ ४ ॥ जलथलखहयरमंसं चम्म बस सोणियं तिहेयपि । |णं विकआइल्ल तिन्नि चलचल ओगाहिमगं च विगईओ ॥५॥ आदिमानि त्रीणि चलचलेत्येवं पक्कानि विकृतिरित्यर्थः "सेसा न होति विगई अ जोगवाहीण ते उ कप्पती । परिभुजंति न पायं जं निच्छयओ न नजति ॥१॥ एगेण चेव तवओ मटाकाराणि पूरिजति पूयएण जो ताओ । बीओवि स पुण कप्पइ निविगई लेवडो नवरं ॥२॥" इत्यादि । अचेतनान्तराधिकारा-| अवगाहदेव गृहविशेषान्तरं दृष्टान्ततयाऽभिधित्सुः पुरुपस्त्रियोश्चान्तरं दार्शन्तिकतया अभिधातुकामः सूत्रचतुष्टयमाह- नाःप्रज्ञ'चत्तारि कूडेत्यादि, कूटानि शिखराणि स्तूपिकास्तद्वन्त्यगाराणि-गेहानि-अथवा कूट-सत्त्वबन्धनस्थानं तद्वदगाराणि | प्रायः क्षीर दधि नवनीत घृतं तथा तैलमेव गुरो मयं मधु मांस चैव तथाऽवगा हिमं च दशमी तु॥१॥ गोमहिन्युष्ट्रीपानामेरकस्य धीराणि पक्ष दध्या & सू०२७३दीनि चतुओं यस्माद्दष्ट्रीणां तानि न भवन्ति ॥ २॥ चत्वारि भवन्ति तैलानि तिलातसौकुसुंभसर्पपाणां च विकृतयः शेषाणि डोलियादीनां न विकृतयः॥३॥ वगुपिटगुटी द्वौ मर्य पुनः काष्ठपिष्ट निष्पन माक्षिककोतिकभ्रामरभेदेन मधु त्रिपा भवति ॥ ४॥ जलस्थलबचरमांसानि वर्म बना सोणितं त्रिधैतदपि ॥२०५॥ आदिम पकानत्रयं भवनाहिम ब विकृतिस्तु ॥५॥ शेषा विकृतयो न भवति ते योगवाहिनां कल्पन्ते प्रायः परिझुंजते न यनिधयतो न शायवे ॥१॥ एकेसानापूपेन कटाहदेव यः पूर्यते ततः द्वितीयोऽपि स पुनः कल्पते निर्विकृतिको लेपतत्परम् ॥२॥ अनुक्रम [२९१] २७७ ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२७७] दीप अनुक्रम [२९१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] Education Internationa कूटागाराणि तत्र गुप्तं प्राकारादिवृतं भूमिगृहादि वा पुनर्गुष्ठं स्थगितद्वारतया पूर्वकालापरकालापेक्षया वेति, एवमन्येऽपि त्रयो भङ्गा बोद्धव्याः, पुरुषस्तु गुप्तो नेपथ्यादिनाऽन्तर्हितत्वेन पुनर्गुप्तो गुप्तेन्द्रियत्वेन, अथवा गुप्तः पूर्व पुनर्गुसोऽधुनापीति, विपर्यय कह्यः, तथा कूटस्येव आकारो यस्याः शालाया - गृहविशेषस्य सा तथा, अयं च स्त्रीलिङ्गदृष्टान्तः, | स्त्रीलक्षणदार्शन्तिकार्थसाधर्म्यवशात्, तत्र गुप्ता-परिवारावृता गृहान्तर्गता वस्त्राच्छादिताङ्गा गूढस्वभावा वा गुप्तेन्द्रि यास्तु निगृहीतानौचित्यप्रवृत्तेन्द्रियाः, एवं शेषभङ्गा ऊह्याः । अनन्तरं गुझेन्द्रियत्वमुक्तमिन्द्रियाणि चावगाहनाश्रयाणीत्यवगाहनानिरूपणसूत्रं, अवगाहन्ते - आसते यस्यां आश्रयन्ति वा यां जीवाः साऽवगाहना - शरीरं द्रव्यतोऽवगाहना | द्रव्यावगाहना, एवं सर्वत्र तत्र द्रव्यतोऽनन्तद्रव्या क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाढा, कालतोऽसङ्ख्येयसमयस्थितिका, भावतो वर्णाद्यनन्तगुणेति, अथवाऽवगाहना विवक्षितद्रव्यस्याधारभूता आकाशप्रदेशाः, तत्र द्रव्याणामवगाहना द्रव्यावगाहना, क्षेत्रमेवावगाहना क्षेत्रावगाहना, कालस्यावगाहना समयक्षेत्रलक्षणा कालावगाहना, भाववतां द्रव्याणामवगाहना भावाव गाहना, भावप्राधान्यादिति, आश्रयणमात्रं वा अवगाहना, तत्र द्रव्यस्य पर्यायैरवगाहना-आश्रयणं द्रव्यावगाहना, एवं क्षेत्रस्य कालस्य, भावानां द्रव्येणेति, अन्यथा वोपयुज्य व्याख्येयमिति । अवगाहनायाश्च प्ररूपणा प्रज्ञप्तिष्विति तच्चतुःस्थानकसूत्रम्, तत्र प्रज्ञाप्यन्ते प्रकर्षेण बोध्यन्ते अर्था यासु ताः प्रज्ञप्तयः, अङ्गानि आचारादीनि तेभ्यो बाह्याः अङ्गवाद्याः, यथार्थाभिधानाश्चैताः कालिक श्रुतरूपाः, तत्र सूरप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पञ्चमषष्ठाङ्गयोरुपाङ्गभूते, इतरे तु प्रकीर्णकरूपे इति, व्याख्याप्रज्ञप्तिरस्ति पञ्चमी केवलं साऽङ्गप्रविष्टेत्येताश्चतस्र उक्ता इति ॥ चतुःस्थानकस्य प्रथमोद्देशकः समाप्त इति । अथ चतुर्थ स्थानस्य प्रथमो उद्देशकः परिसमाप्तः । For Park Use Only मूलं [२७७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~414~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२७८] टीप अनुक्रम [२९२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ २०६ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [२]. मूलं [२७८ ] ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internationa .......... अथ चतुर्थस्थानके द्वितीय उद्देशः । व्याख्यातश्चतुःस्थानकस्य प्रथमोदेशकोऽधुना द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः - अनन्तरोदेशके जीवादिद्रव्यपर्यायाणां चतुःस्थानकमुक्तमिहापि तेषामेव तदेवोच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्यो देशकस्येदमादिसूत्रचतुष्टयम्चत्तारि पडिलीणा पं० [सं० – कोहपडिसलीये माणपडिली मायापडिसंलीगे लोभपडिलीणे, चचारि अपडिसंलीणा पं० तं० - कोहपडिसलीणे जाव लोभ पडिलीणे, चत्तारि पडिसलीणा पं० वं०मणपडिलीणे वतिपडिसलीणे कायप डिलीणे इंदियपडिलीणे, चत्तारि अपडिलीणा पं० सं० मणअपटिसंलीने जाव इंदियमपढिसंली ४ ( सू० २७८) बचारि पुरिसजाता पं० नं०दीणे णाममेगे दीणे दीणे णाममेगे अदीणे अदीणे णाममेगे दी अदीणे णाममेगे अदीणे १, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं० दीणे णामगेगे दीणपरिणते दीणे णामं एगे अदीणपरिणते अदीणे णामं एगे दीणपरिणते अदीणे णाममेगे अदीणपरिणते २, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० दीणे णाममेगे दीवे (४) ३, एवं दीणमणे ४-४, दीणसंकप्पे ४-५, दीणपत्रे ४-६, दीणदिट्टी ४-७, दीणसीलाचारे ४-८, दीणववहारे ४-९, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - दीणे णाममेगे दीणपरकमे, दीणे णाममेगे अदीण० ह (४) १०, एवं सव्वेसिं चभंगो भाणियब्वो, चत्तारि पुरिसजाता पं० नं०दीणे णाममेगे दीणवित्ती ४-११, एवं दीणजाती १२, - अथ चतुर्थ स्थानस्य द्वितीय उद्देशक: आरभ्यते । For Pernal Use Only ~415~ ४ स्थाना० उद्देशः २ प्रतिसंली नतादिः सू० २७८ दीनादिप्रकाराः सू० २७९ ॥ २०६ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२७९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७९]] CCC दीणभासी १३, दीणोभासी १४, चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-दीणे णाममेगे दीणसेवी र (४) १५, एवं दीणे णाममेगे दीणपरिवाए १६, दीणे णाममेगे दीणपरियाले ह (१) १७, सव्वत्थ चउभंगो (सू० २७९) 'चत्तारि पडिसंलीणे'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-अनन्तरसूत्रे प्रज्ञप्तय उक्कार, ताश्च प्रतिसं-12 लीनरेव बुध्यन्त इति प्रतिसंलीनाः सेतराः अनेनाभिधीयन्त इत्येवंसम्बद्धमिदं सुगम, नवरं, क्रोधादिकं वस्तु वस्तु प्रति सम्यग्लीना-निरोधवन्तः प्रतिसलीनाः, तत्र क्रोधं प्रति उदयनिरोधेनोदयप्राप्तविफलीकरणेन च प्रतिसंलीनः कोधप्रतिसंलीनः, उक्तं च-"उदयस्सेव निरोहो उदयप्पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं एस्थ कसायाणं कसायसंलीणया एसा ॥१॥" कुशलमनउदीरणेनाकुशलमनोनिरोधेन च मनः प्रतिसंलीनं यस्य स मनसा वा प्रतिसलीनो मनःप्रतिसं लीनः, एवं वाकायेन्द्रियेष्वपि, नवरं शब्दादिषु मनोज्ञामनोज्ञेषु रागद्वेषपरिहारी इन्द्रियप्रतिसंलीन इति, अत्र गाथा ४-"अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं । कजमि य विही गमणं जोगे संलीणया भणिया ॥१॥" सहेसु य भयपावरसु सोयविसमुवगएसु । तुडेण व रुढेण व समणेण सया न होयब्वं ॥१॥" एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वक्तव्या, इत्येवं मनःप्रभृतिभिरसंलीनो भवति विपर्ययादिति । असलीनमेव प्रकारान्तरेण सप्तदशभिश्चतुर्भगीरूपैर्दीनसूत्रैराहदीनो-दैन्यवान् क्षीणोजितवृत्तिः पूर्व पश्चादपि दीन एव अथवा दीनो बहिर्वच्या पुनदींनोऽन्तर्तृत्त्येत्यादिश्चतुर्भशी, उदयस्यैव गिरोध उदयप्राप्तामा वाकलीकरणं थदन कषायाणां एषा कयायसंलीनता ॥१॥ २ अपक्षरताना योगाना निरोधः कुशलानामुदीरणं च कार्ये च विधिना गमनं एषा योगे संलीनतोया ॥ १॥ ३शब्देषु भद्रकपापकेषु श्रोत्रनिषयमुपगतेषु कोन चा तुटेन वा सदा श्रमगेन न भवितव्यं ॥१॥ दीप अनुक्रम [२९३] 'प्रतिसंलिनता' विषयक विवरण ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक सूत्रवृत्तिः [२७९] तथा दीनो बहिर्वृत्त्या म्लानवदनत्वादिगुणयुक्तशरीरेणेत्यर्थः, एवं प्रज्ञासूत्र यावदादिपदं व्याख्येयं, दीनपरिणतः अ-I स्थाना० दीनः सन् दीनतया परिणतोऽन्तर्वृत्त्येत्यादि चतुर्भङ्गी २, तथा दीनरूपो मलिनजीर्णवस्त्रादिनेपथ्यापेक्षया ३, तथा उद्देशः२ दीनमनाः स्वभावत एवानुन्नतचेताः ४, दीनसङ्कल्प उन्नतचित्तस्वाभान्येऽपि कथथिद्धीनविमर्शः ५, तथा दीनमशाहीन-IIप्रतिसंलीसूक्ष्मालोचनः ६, तथा दीनश्चित्तादिभिरेवमुत्तरत्राप्यादिपदं, तथा दीनदृष्टिर्विच्छायचक्षुः ७, तथा दीनशीलसमाचारः हीनधर्मानुष्ठानः८, तथा दीनव्यवहारो दीनान्योऽन्यदानप्रतिदानादिक्रियः हीनविवादो वा ९, तथा दीनपराक्रमो सू०२७८ हीनपुरुषकार इति १०, तथा दीनस्येव वृत्तिः-वर्त्तनं जीविका यस्य स दीनवृत्तिः ११, तथा दीन-दैन्यवन्तं पुरुषं दैन्य- दीनादिवद्वा यथा भवति तथा याचत इत्येवंशीलो दीनयाची, दीनं वा यातीति दीनयायी, दीना वा-हीना जातिरस्येति | प्रकाराः दीनजातिः १२, तथा दीनवदीनं वा भाषते दीनभाषी १३, दीनवदवभासते-प्रतिभाति अवभापते वा-याचत इत्येवं- सू०२७९ शीलो दीनावभासी दीनावभाषी वा १४, तथा दीनं नायक सेवत इति दीनसेवी १५, तथा दीनस्येव पर्यायः-अवस्था | प्रत्रग्यादिलक्षणा यस्य स दीनपर्यायः १६, 'दीनपरियाले'त्ति दीनः परिवारो यस्य स तथा १७, 'सब्वत्थ चउर्म|गो'त्ति सर्वसूत्रेषु चत्वारो भङ्गा द्रष्टव्या इति । पुरुषजाताधिकारवत्येवेयमष्टादशसूत्री पत्तारि पुरिसजाता पं० २०-अजे णाममेगे अजे ४,१। चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-भजे णाममेगे अजपरिणए ४, २ । एवं अजरूवे ३ । अजमणे ४ । अजसंकप्पे ५ । अजपने ६ । अजदिही ७ । अज्जसीलाचारे ८ । अजववहारे ९ । अजपरकमे १० । अजवित्ती ११ । अवजाती १२ । अजभासी १३ । अजोभासी १४ । अजसेषी १५। दीप अनुक्रम [२९३] ॥२०७॥ ~ 417~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८०] एवं अजपरिथाए १६ । अजपरियाले १७, एवं सत्तर आलावगा १७, जहा दीणेणं भणिया तहा अओणवि भाणियन्वा, पत्तारि पुरिसजाया पं००-अजे णाममेगे अजमावे अजे नाममेगे अणजभावे अणजे नाममेगे अजमावे अणजे नाममेने अगजनभावे १८ (सू० २८०) चत्तारि उसभा पं० सं०-जातिसंपन्ने कुलसंपन्ने पलसंपन्ने रूवसंपन्ने, एवामेव. चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-जातिसंपन्ने जाव रुवसंपन्ने १, चत्वारि उसभा पं० सं०-जातिसंपन्ने णाम एगे नो कुलसंपण्णे, कुलसंपण्णे नाम एगे नो जाइसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि कुलसंपण्णेचि, एगे नो जातिसंपण्णे नो कुलसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जातिसंपन्ने नाममेगे ४, २, चत्तारि उसभा पन्नत्ता त-जातिसंपन्ने नाम एगे नो बलसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-जातिसंपन्ने ४, ३, चत्तारि उसभा पं० सं०--जाइसंपन्ने नाम एगे नो रूपसंपन्ने ४, एषामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-आतिसंपन्ने नाम एगे नो रूवसंपने, रूपसंपने णाममेगे ४,४, पत्तारि उसमा पं० सं०-कुलसंपन्ने नाम एगे नो बलसंपन्ने ४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०कुलसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपन्ने ह४, ५, पत्तारि सभा पं० त०-कुलसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने, ख ४, एवामेव पत्तारि पुरिसजावा पं० सं०-कुल. ४,६, चत्तारि सभा पं० सं०-चलसंपने णाम एगे नो रूवसंपण्णे ४४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता तं०-बलसंपण्णे नाममेगे ४,७चत्तारि हत्थी पं००-भरे मंदे मिते संकिन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-भरे मंदे मिते संकिन्ने, चत्तारि हत्थी पं० ०-भरे णाममेगे भरमणे, भरे णाममेगे मंदमणे, भरे णामभेगे मियमणे, भरे नाममेगे संकिनमणे, एषामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-भरे णाम दीप 45166454545454545-454 अनुक्रम [२९४] ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८१] + गाथा १-५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२८१] II ROCH मेगे भरमणे भरे णाममेगे मंदमणे भरे णाममेगे मियमणे महे णाममेगे संकिन्नमणे, चत्तारि हत्थी पं०२०-मंदे णाममेगे भरमणे मंदे नाममेगे मंदमणे मंदे णाममेगे मियमणे मंदे णाममेगे संकिनमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता, पं० सं०-दे णाममेगे भरगणे तं चेब, चत्तारि हत्थी पं० सं०-गिते णामोंगे भरमणे मिते णाममेगे मंदमणे मिते णाममेगे मियमणे मिते णाममेगे संकिन्नमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता ५०, तं०-मिते णाममेगे भरमणे तं घेव, चत्वारि हत्थी पं० सं०-संकिण्णे नाममेगे भहमणे संकिन्ने नाममेगे मंदमणे संकिन्ने नाममेगे मियमणे संकिन्ने णाममेगे संकिन्नमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं०, तं०-संकिन्ने नाममेगे भहभणे तं चेव जाव संकिने नाममेगे संकिन्नमणे, मधुगुलियपिंगलक्खो अणुपुबसुजायदोहणंगूलो । पुरओ उदग्गधीरो सव्वंगसमाधितो भहो ॥१॥ चलबहलविसमचम्गो थूलसिरो थूलएण पेएण । धूलणहदंतवालो हरिपिंगललोयणो मंदो ॥२॥ तणुओ तणुतग्गीवो तणुवततो तणुयदत्तणवालो । भीरू तत्थुविग्गो तासीय भवे मिते णामं ।। ३ ॥ एतेसि हत्थीणं थोष थोवं तु जो हरति हत्थी । रुवेण व सीलेण व सो संकिनोति नायबो॥४॥ भदो मजइ सरए मंदो उण मज्जते वसंतमि । मिड मजति हेमंते संकिन्नो सब्वकालंमि ॥ ५॥ (सू० २८१) गतार्थी, नवर, आर्यों नवधा, यदाह-खेत्ते जाई कुल कम्म सिप्प भासाइ नाणचरणे य । दसणारिय णवहा| मिच्छा सगजवणखसमाइ ॥१॥ इति, तत्र आर्यः क्षेत्रतः पुनरार्यः पापकर्मबहिर्भूतत्वेनापाप इत्यर्थः, एवं सप्तदश १ आतिकुलकर्मशिल्पभाषाभ्यः शानधरणाभ्यां दर्शनाचार्या नवधा शकययनसमादयो म्लेच्छाः ॥१॥ स्थाना उहेशः २ आर्यादिप्रकाराः वृषभहस्तिदृष्टान्ता सू०२८.२८१ दीप अनुक्रम [३००] T ॥२०८॥ ~419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२८१] दीप अनुक्रम [ ३००] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] सूत्राणि नेयानि, तथा आर्यभावः क्षायिकादिज्ञानादियुक्तः अनार्यभावः कोधादिमानेति । पुरुषजातप्रकरणमेव दृष्टान्तदान्तिकार्थोपेतमा विकथासूत्रादभिधीयते, पाठसिद्धं चैतत् नवरं ऋषभा - बलीवर्दाः जातिः- गुणवन्मातृकत्वं कुलं- गुणवसितृकत्वं बलं - भारवहनादिसामर्थ्यं रूपं शरीरसौन्दर्यमिति, पुरुषास्तु स्वयं भावयितव्याः २, अनन्तरदृष्टान्तसूत्राणि तु सपुरुषदान्तिकानि जात्यादीनि चत्वारि पदानि भुवि विन्यस्य षण्णां द्विकसंयोगानां 'जाइसंपन्ने नो कुलसंपन्ने' इत्यादिना स्थानभङ्गकक्रमेण षडेव चतुर्भङ्गिकाः कृत्वा समवसेयानि । हस्तिसूत्रे भद्रादयो हस्तिविशेषा वक्ष्यमाणलक्षणा वनादिविशेषिताश्च यदाह - “भद्रो मन्दो मृगश्चेति, विज्ञेयास्त्रिविधा गजाः । वनप्रचार १ सारूप्य २, सत्त्वभेदोपलक्षिताः ३ ॥ १ ॥” इति तत्र भद्रो हस्ती भद्र एव धीरत्वादिगुणयुक्तत्वात्, मन्दो मन्द एव धैर्यवेगादिगुणेषु मन्दस्वात्, मृगो मृग एव तनुत्वभीरुत्वादिना, सङ्कीर्णः किशिद् भद्रादिगुणयुक्तत्वात् सङ्कीर्ण एवेति, पुरुषो ऽप्येवं भावनीयः, उत्तरसूत्राणि तु चत्वारि सदान्तिकानि, भद्रादिपदानि चत्वारि तदधः क्रमेण चत्वार्येव भद्रमन:प्रभृतीनि च विन्यस्य "भद्दे नामं एगे भद्दमणे" इत्यादिना क्रमेण समयसेयानि, तत्र भद्रो जात्याकाराभ्यां प्रशस्तस्तथा भद्रं मनो यस्याथवा भद्रस्येव मनो यस्य स तथा धीर इत्यर्थः, मन्दं मन्दस्येव वा मनो यस्य स तथा नात्यन्तधीरः, एवं मृगमना भीरुरित्यर्थः, सङ्कीर्णमना भद्रादिचित्रलक्षणोपेतमना विचित्रचित्त इत्यर्थः, पुरुषास्तु वक्ष्यमाणभद्रादिलक्षणानुसारेण प्रशस्ताप्रशस्तस्वरूपा मन्तव्या इति, भद्रादिलक्षणमिदम् - 'मह'गाथा, मधुगुटिकेव-क्षौद्रवटिकेव पिङ्गले-पि अक्षिणी लोचने यस्य स तथा अनुपूर्वेण परिपाव्या Education International For Pale Only मूलं [ २८१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~420~ भ। मं । से म में मृ । स Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [0] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१] ॥२०९॥ श्रीस्थाना-18 सुष्ठ जाता-उत्पन्नो यः सोऽनुपूर्वसुजातः, स्वजात्युचितकालक्रमजातो हि बलरूपादिगुणयुक्तो भवति स चासी दीर्घलाङ्ग-1 सूत्र- लव-दीर्घपुच्छ इति स तथा, अनुपूर्वेण वा स्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरलक्षणेन सुजातं दीर्घ लाङ्गलं यस्य स तथेति, पुरता- उद्देशः२ वृत्तिः अग्रभागे उदमः-उन्नतः तथा धीर:-अक्षोभः तथा सर्वाण्यङ्गानि सम्यक्-प्रमाणलक्षणोपेतत्वेन आहितानि-व्यवस्थितानि आर्यादि यस्य स सर्वाङ्गसमाहितो भद्रो नाम गजविशेषो भवतीति, 'चल'गाहा, चल-श्लथं बहलं-स्थूलं विषम-बलियुक्तं चर्म यस्य प्रकाराः स तथा, स्थूलशिराः, स्थूलकेन 'पएणत्ति पेचकेन पुच्छमूलेन युक्तः स्थूलनखदन्तवालो, हरिपिङ्गाललोचन:-सिंहवत् | वृषभहस्तिपिङ्गाक्षो मन्दो गजविशेषो भवतीति, 'तणुगाहा, तनुक:-कृशः तनुग्रीवः तनुत्वक्-तनुचा तनुकदम्तनखवालः, दृष्टान्ताः भीरुः-भयशील स्वभावतत्रस्तो भयकारणवशात् स्तब्धकर्णकरणादिलक्षणोपेतो भीत एव उद्विग्नः कष्टविहारादाबुद्धेग- सासू०२८०& वान् स्वयं त्रस्तः परानपि त्रासयतीति त्रासी च भवेन्मृगो नाम गजभेद इति, 'एएसिं गाहा' 'भदो गाहा' कण्ठ्ये, तथा 'दंतेहिं हणइ भद्दो मंदो हत्थेण आहणइ हत्थी । गत्ताधरेहि य मिओ, संकिन्नो सबओ हणइ ॥१॥” इति, अनन्तरं संकीर्णः सङ्कीर्णमना इत्यत्र मनःस्वरूपमुक्तमथ वाचःस्वरूपभणनाय विकथाकथाप्रकरणमाह चत्तारि विकहाती पं० सं०-इत्यिकहा भत्तकद्दा देसकहा रायकहा, इस्थिकहा पण्विहा पं० २०-इत्थीणं जाइकहा इत्थीण कुलकद्दा इत्थीणं रूवकहा इत्थीणं णेवत्थकहा, भत्तकहा चउब्बिहा पं०२०-भत्तस्स आवावकहा भतस्स णिन्वावकहा भत्तस्स आरंभकहा भत्तस्स निहाणकहा, देसकहा पउबिहा पं० ०-देसविहिकहा देसविक आ॥२०९ १ भदो दन्तैर्हन्ति मन्दो हस्तेनाइति हस्ती गानाधराभ्यां व मृगः संकीर्णः सन्ति ॥१॥ दीप २८१ अनुक्रम [३००] ~421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] प्पकहा देसच्छंदकहा देसनेवत्थकहा, रायकहा पउब्विहा पं० त०-रत्नो अतिताणकहा रनो निजाणकहा रनो बलवाहणकहा रनो कोसकोट्ठागारकहा, पबिहा धम्मकहा पं०२०-अक्षेवणी विक्खेवणी संवेयणी निव्वेगणी, अक्खेवणी कहा परविहापं० त०-आयारअक्खेवणी ववहारअक्खेवणी पन्नत्तिअक्खेवणी दिद्विवातअक्सेवणी, विक्खेवणी कहा चउन्विहा पं० २०-ससमय कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ १, परसमय कहेत्ता ससमय ठावतित्ता भवति २, सम्भावातं कहेइ सम्मावातं कहेत्ता मिच्छावातं कहेइ ३ मिच्छाबात कहेत्ता सम्मावातं ठावतित्ता भवति ४, संवेगणी कथा चउबिहा पं० सं०-दहलोगसंवेगणी परलोगसंवेगणी आतसरीरसंवेगणी परसरीरसंवेगणी, णिवेगणीकहा पाउन्विहा पं० सं०-इहलोगे दुचिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति १, इहलोगे दुचिन्ना कम्मा परलोगे दुरुफलविवागसंजुत्ता भवंति २, परलोगे दुश्चिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ३, परलोगे दुचिन्ना कम्मा परलोवे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ४, इहलोगे सुचित्रा कम्मा इदलोगे मुहफलविवागसं जुत्ता भवंति १, इहलोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति २ एवं चउभंगो ४ (सू० २८२) सुगमम् , नवरं, विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा-वचनपद्धतिर्विकथा, ततः खीणां स्त्रीषु वा कथा स्त्रीकथा, इयं च कथेरयुक्तापि स्त्रीविषयत्वेन संयमविरुद्धत्वाद्विकथेति भावनीयेति, एवं भक्तस्य-भोजनस्य, देशस्य-जनपदस्य, राज्ञोनृपस्येति, ब्राह्माणीप्रभूतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जातेर्वा कथेति जातिकथा, यथा-'घिग्नाझणीवाभावे, या जीवन्ति मृता इव । धन्या मन्ये जने शूद्रीः, पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः॥१॥ इति, एवं उग्रादिकुलो WERMEHTHANESH दीप अनुक्रम [३०१] | 'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ २८२] दीप अनुक्रम [ ३०१] श्रीस्थानासूत्रवृत्तिः ॥ २१० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [२]. स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton International *******... 'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा - यन्नानामन्यतमाया यत् प्रशंसादि सा कुलकथा, यथा- 'अहो चौलुक्यपुत्रीणां साहसं जगतोऽधिकम् । पत्युर्मृत्यों विशन्त्यनौ, याः प्रेमरहिता अपि ॥ १ ॥ इति, तथा अन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपस्य यत्प्रशंसादि सा रूपकथा, यथा--'चन्द्रवक्रा सरोजाक्षी, सङ्गीः पीनघनस्तनी। किं छाटी नो मता साऽस्य, देवानामपि दुर्लभा १ ॥ १ ॥” इति, तासामेव अन्यतमायाः कच्छाबन्धादिनेपथ्यस्य यत्प्रशंसादि नेपथ्यकथेति, यथा- 'घिन्नारीरौदीच्या बहुवसनाच्छादिताङ्गलतिकत्वात् । यद्यौवनं न यूनां चक्षुर्मोदाय भवति सदा ॥ १ ॥” इति स्त्रीकथायां चैते दोषाः "आयप रमोहुदीरणं उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाणी बंभवयस्स अगुप्ती पसंगदोसा य गमणादी ॥ १ ॥ ” उन्निष्क्रमणादय इत्यर्थः, तथा शाकघृतादीन्येतावन्ति तस्यां रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवंरूपा कथा आवापकथा, एतावन्तस्तत्र पक्कापक्कान्नभेदा व्यञ्जनभेदा वेति निर्वापकथेति, तित्तिरादीनामियतां तत्रोपयोग इत्यारम्भकथा, एतावत् द्रविणं तत्रोपयुज्यत इति निष्ठानकथेति, उक्तञ्च - " - "सागघयादावादी पक्कापको य होइ निव्वावो । आरंभ तित्तिराई मिट्ठाणं जा सयसहस्सं ||१||” इति, इह चामी दोषाः- “आहारमन्तरेणवि गेहीओ जायए सईंगालं । अजिइंदिय ओदरियावाओ उ अणुन्नदोसा य ॥ २ ॥” इति तथा देशे मगधादौ विधिः-विरचना भोजनमणिभूमिकादीनां भुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधिस्तरकथा देशविधिकथा एवमन्यत्रापि, नवरं, विकल्पः- सस्यनिष्पत्तिः, वप्रकूपादिदेवकुलभवनादिविशेषश्चेति, छन्दो १] आत्मपरयोमहोदीरणा उड्ङ्गादः सूत्रादिपरिहानिः ब्रह्मवतस्यागुप्तिः प्रसंगदोषा उनि च ॥ १ ॥ २ाकवृतादिरावापः पक्कापकच भवति निर्वाणः । तितिरायारंभः यावच्छतसहस्रादि निष्ठानं ॥ १ ॥ ३ आहारमन्तरेणापि गृज्या सांगारं जायते अजितेन्द्रियता औदरिकवादस्तु अनुज्ञादोषथ ॥ १ ॥ मूलं [ २८२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 423 ~ १४ स्थाना० उद्देशः २ कथाः सू० २८२ ॥ २१० ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] गम्यागम्यविभागो यथा लाटदेशे मातुलभगिनी गम्या अन्यत्रागम्येति, नेपथ्यं-स्त्रीपुरुषाणां वेषः स्वाभाविको विभूषामतात्ययश्चेति, इह दोषा:-रागद्दोपुप्पत्ती सपक्खपरपक्खओ य अहिगरणं । वहगुण इमोत्ति देसो सोई गमणं च अ-. सिं ॥१॥" इति, तथा अतियान-नगरादौ प्रवेशस्तरकथा अतियानकथा, यथा-"सियसिंधुरसंधगो सियचमरो || सेयछत्तछन्नणहो । जणणयणकिरणसेओ एसो पविसइ पुरे राया ॥१॥” इति, एवं सर्वत्र, नवरं निर्याण-निर्गमः, तत्कथा यथा-"वैजताउज्जममंदबंदिसई मिलंतसामतं । संखुद्धसेन्नमुहुयचिंधं नयरा निवो नियइ ॥१॥" वलंहस्त्यादि वाहनं वेगसरादि, तत्कथा यथा-"हेसंतहयं गजंतमयगलं घणघणंतरहलक्खं । कस्सऽन्नस्सवि सेन्नं णिन्नासियसत्तुसिन भो॥१॥" कोशो-भाण्डागार कोष्ठागारं-धान्यागारमिति, तत्कथा यथा-पुरिसपरंपरपत्तेण भरियविस्संभरेण कोसेणं । णिजियवेसमणेणं तेण समो को नियो अन्नो॥१॥" इति, इह चैते दोषा:-"चारिय चोरा भिमरे २ हिय १ मारिय २ संक काउकामा बा । भुत्ताभुत्तोहाणे करेज वा आससपओगं ॥१॥" भुक्तभोगोडभुक्तभोगो वा अवधावनं कुर्यादित्यर्थः । आक्षिप्यते-मोहात् तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽनयेत्याक्षेपणी, तथा विक्षिप्यते १रागड्डषोत्पत्तिः सपक्षपरपक्षाभ्यामधिकरणच एष बहुगुणो देश इति श्रुत्वाऽन्येषां गमनं च ॥१॥ २ सितसिन्धुरस्कन्धयतः शित चामरः सितच्छत्रच्छन्ननभाः जननयनकिरणश्वेत एष प्रविशति पुरे राजा ॥१॥ ३ वायमानायुधं अमंदबंदिशब्दं मीलत्सामन्तं संवन्धसैन्यं उबूतचि नगराभूपो निगच्छति ॥१॥ हेषद्धय गर्जन पनपनावमानस्थलक्ष कस्यान्यस्यापि सैन्य निर्वाशितशत्रुसैन्य भोः ॥ १॥ ४ पुरुषपरम्परया प्राप्तेन भूतसमाविश्वेन कोशागारेण । निर्मित-15 श्रमणेन तेन समोऽन्यः को नृपः ! ॥1॥ ५चारिकचौराभिमरतया हवे मारिते शका कतुकामा पा । मुक्कामुष्योरवधाननं कुर्याचाशंसाप्रयोग वा ॥१॥ दीप अनुक्रम [३०१] *CROGR50 | 'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा ~424~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्र प्रत सूत्रांक [२८२]] सू० २८२ ॥२११॥ सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोताऽनयेति विक्षेपणी, संवेगयति-संवेगं करोतीति संवेद्यते वा-संबोध्यते सं- स्थाना० वेज्यते वा-संवेगं ग्राह्यते श्रोताऽनयेति संवेदनी संवेजनी वेति, निर्विद्यते-संसारादेनिधिण्णः क्रियते अनयेति निवेद- उद्देश:२ नीति, आचारो-लोचास्नानादिस्त प्रकाशनेन आक्षेपणी आचाराक्षेपणीति, एवमन्यत्रापि, नवरं व्यवहारः-कथश्चिदाप- कथाभेदा: नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः, प्रज्ञप्तिः-संशयापन्नस्य श्रोतुर्मधुरवचनैः प्रज्ञापन, दृष्टिवाद:-श्रोत्रपेक्षया नयानुसा-1 रेण सूक्ष्मजीवादिभावकथम् , अन्ये त्वभिदधति-आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराधभिधानादिति, अस्था-13 श्चार्य रसः-"विजाचरणं च तयो पुरिसकारो य समिइगुत्तीओ । उवइस्सइ खलु जं सो कहाएँ अक्खेवणीइ रसो ॥१॥" इति, स्वसमय-स्वसिद्धान्तं कथयति, तद्गुणानुद्दीपयति पूर्व, ततस्तं कथयित्वा परसमयं कथयति, तदोषान दर्शयतीत्येका, एवं परसमयकथनपूर्वकं स्वसमयं स्थापयिता-स्वसमयगुणानां स्थापको भवतीति द्वितीया, 'सम्मावायमित्यादि, अस्यायमर्थः-परसमयेष्वपि घुणाक्षरन्यायेन यो यावान् जिनागमतत्त्ववादसहशतया सम्यग्-अविपरीततत्त्वानां वादः सम्यग्वादः तं कथयति, तं कथयित्वा तेष्वेव यो जिनप्रणीततत्त्वात् विरुद्धत्वान्मिथ्यावादस्तं दोषदर्शनतः कथयतीति तृतीया, परसमयेष्वेव मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं स्थापयिता भवतीति चतुर्थी, अथवा स. म्यग्वादः-अस्तित्वं, मिथ्यावादो-नास्तित्वं, तत्र आस्तिकवादिदृष्टीरुक्त्वा नास्तिकवादिदृष्टीणतीति तृतीया, एतद्विपर्यया चतुर्थीति, इहलोको-मनुष्यजन्म तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी इहलोकसंवेगनी, सर्वमिदं मानुषत्वमसारमध्रुवं कद १ विद्याचरणं च तपः पुरुषकारथ समिति गुप्तयः । उपदिश्यते खळ यत् स कथाया आक्षेपण्या रसः ॥१॥ दीप अनुक्रम [३०१] सा॥२११॥ 'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] लीस्तम्भसमानमित्यादिरूपा, एवं परलोकसंवेदनी देवादिभवस्वभावकथनरूपा-देवा अपीऱ्यांविषादभयवियोगादिदुःखैरभिभूताः, किं पुनस्तिर्यगादय इति, आत्मशरीरसंवेगनी यदेतदस्मदीयं शरीरमेतदशुचि अशुचिकारणजातमशुचिद्वारविनिर्गतमिति न प्रतिबन्धस्थानमित्यादिकथनरूपा, एवं परशरीरसंवेगनी, अथवा परशरीरं-मृतकशरीरमिति, इहलोके दुश्चीर्णानि-चौर्यादीनि कर्माणि-क्रिया इहलोके दुःखमेव कर्मदुमजन्यत्वात् फलं दुःखफलं तस्य विपाक:-अनुभवो दुःखफलविपाकस्तेन संयुक्तानि दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति चौरादीनामिवेत्येका, एवं नारकाणामिवेति द्वितीया, आ गर्भात् व्याधिदारिद्याभिभूतानामिवेति तृतीया, प्राकृताशुभकर्मोत्पन्नानां नरकमायोग्य बनतां काकगृध्रादीनामिव चतुर्थीति, 'इहलोए सुचिन्नेत्यादि चतुर्भङ्गी तीर्थकरदानदातृ १ सुसाधु २ तीर्थकर ३ देवभवस्थतीर्थकरादीना ४ मिव भावनीयेति ॥ उक्तो वाग्विशेषोऽधुना पुरुषजातप्रधानतया कायविशेषमाह- सहेब बचारि पुरिसजाया पं० तं-किसे णाममेगे किसे किसे णाममेगे दृढे दढे णाममेगे किसे बढे णाममेगे दढे, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-किसे णाममेगे किससरीरे किसे णाममेगे दृढसरीरे दढे णाममेगे किससरीरे दडे णाममेगे दढसरीरे ४ ॥ चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-किससरीरस्स नाममेगस्स णाणदसणे समुप्पणति णो दढसरीरस्स दढसरीरस्स णाम एगस्स णाणदसणे समुप्पजति णो किससरीरस्स एगस्स किससरीरस्सवि णाणदसणे समुप्पजति दढसरीरस्सवि एगस्स नो किससरीरस्स गाणदंसणे समुप्पजति णो दढसरीरस्स (सू० २८३) चाहिं ठाणेहिं निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अस्सि समयसि अतिसेसे नाणदसणे समुप्पजिउकामेवि न समुप्पोजा, तं० दीप अनुक्रम [३०१] 'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा ~426~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना जसूत्र वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२८४] ॥२१२॥ -अमिषक्षणं अभिक्खणगिस्थिकह भत्तकह देसकह गयकई कहेत्ता भवति १, विवेगेण विजस्सग्गेणं णो सम्ममप्पाणं I+४ स्थाना. भाविता भवति २ पुष्वरत्तापरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरितं जागरतिता भवति ३, फासुयस्स एसणिजस्स जंठस्स उद्देशः२ सामुदाणियस्स णो सम्म गसिता भवति ४, इन्तेहिं चउहि ठाणेहिं निर्माथाण या निम्गंधीण वा जाब नो समुप्प सू०२८३ज्जेज्जा । चर्हि ठाणेहिं निग्गंधाण वा निग्गंधीण या अतिसेसे पाणदसणे समुप्पजिउकामे समुष्पज्जेजा, तं०-इत्थीकहं भत्तकई देसकहं रायकह नो कहत्ता भवति, विवेगेण विउसग्गेणं सम्ममप्पाणं भावेता भवति, पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरियं जागरतिता भवति, फासुयस्स एसणिजस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्मं गवेसिया भवति, इथे एहिं चाहिं ठाणेहिं निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा जाव समुपज्जेजा (सू० २८४) 'चत्तारि पुरिसे त्यादि कण्ठयं, नवरं कृशः-तनुशरीरः पूर्व पश्चादपि कृश एव अथवा कृशो भाबेन हीनसत्त्वा|दित्वात् पुनः कृशः शरीरादिभिरेवं दृढोऽपि विपर्ययादिति, पूर्वसूत्रार्थविशेषाश्रितमेव द्वितीयं सूत्रं, तत्र कृशो भावतः, शेष सुगर्म । कृशस्यैव चतुर्भङ्गवा ज्ञानोत्पादमाह-चत्तारी'त्यादि व्यक्तं, किन्तु कृशशरीरस्य विचित्रतपसा भावितस्य |शुभपरिणामसम्भवेन तदाधरणक्षयोपशमादिभावात् ज्ञानञ्च दर्शनश्च ज्ञानदर्शनं ज्ञानेन वा सह दर्शनं ज्ञानदर्शनं छाअस्थिकं कैवलिक वा तत्समुत्पद्यते, न दृढशरीरस्य, तस्य हि उपचितत्वेन बहुमोहतया तथाविधशुभपरिणामाभावेन क्षयोपशमाद्यभावादित्येकः, तथाऽमन्दसंहननस्याल्पमोहस्य दृढशरीरस्यैव ज्ञानदर्शनमुखद्यते, स्वस्थ शरीरतया मनःस्वास्थ्येन शुभपरिणामभावतः क्षयोपशमादिभावात् न कृशशरीरस्यास्वास्थ्यादिति द्वितीयः, तथा कृशस्य हवख वा तदु दीप अनुक्रम [३०३] NCRACK ~427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२८४] दीप अनुक्रम [ ३०३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] सद्यते विशिष्ट संहननस्याल्पमोहस्योभयथापि शुभपरिणामभावात् कृशत्वदृढत्वे नापेक्षत इति तृतीयः, चतुर्थः सुज्ञानः । ज्ञानदर्शनयोरुत्पादः उक्तोऽधुना तव्याघात उच्यते, तत्र - 'चउही' त्यादि सूत्रं स्फुटं परं निर्धन्धीग्रहणात् स्त्रिया अपि केवलमुखद्यत इत्याह, 'अस्मिन्निति अस्मिन् प्रत्यक्ष इवानन्तरप्रत्यासन्ने समये 'अइसेसे 'ति शेषाणि-मत्यादिचक्षुर्दर्शनादीनि अतिक्रान्तं सर्वायवोधादिगुणैर्यत्तदति शेषमतिशयवत्केवलमित्यर्थः समुत्पत्तकाममपीती हैवार्थो द्रष्टव्यः, ज्ञानादेरभिलाषाभावात् कथयितेति शीलार्थिकस्तृन् तेन द्वितीया न विरुद्धेति, 'विवेकेने 'ति अशुद्धादित्यागेन 'विजस्सगेणंति कायव्युत्सर्गेण पूर्वरात्रश्च रात्रेः पूर्वो भागो अपररात्रश्च-रात्रेरपरो भागः तावेव कालः स एव समय:- अवसरो जागरिकायाः पूर्वरात्रापररात्रकालसमय स्तस्मिन् कुटुम्बजागरिकाव्यवच्छेदेन धर्मप्रधाना जागरिका-निद्राक्षयेण बोधो धर्मजागरिका, भावप्रत्युपेक्षेत्यर्थी, यथा-"किं कंय किं वा सेसं किं करणिज्जं तवं च न करेमि । पुब्वावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥ १ ॥” इति अथवा “को मम कालो? किमेयस्स उचियं? असारा विसया नियमगामिणो विर| सावसाणा भीसणो मच्चू || १ ||" इत्यादिरूपा विभक्तिपरिणामात् तया जागरिता-जागरको भवति, अथवा धर्म्मजागरिकां जागरिता-कर्तेति द्रष्टव्यमिति, तथा प्रगता असवः - उच्छ्रासादयः प्राणा यस्मात् स प्रासुको निज्जीवस्तस्य एण्यतेगवेष्यते उद्गमादिदोषरहित तयेत्येपणीयः- कल्प्यस्तस्य उन्छयते-अल्पाल्पतया गृह्यत इत्युच्छो-भक्तपानादिस्तस्य समु SKI मूलं [ २८४ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः १ कि कृतं किंवा शेषं किं करणीये तपय न करोमि पूर्वापरकाले जामतो भावप्रतिलेखना ॥ १ ॥ २ को वा न कालः किमेतवोचितं अ सारा विषया नियमयामिनो विरसावसानाः भीषणो मृत्युः ॥ १ ॥ For Park Use Only ~428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दसूत्र प्रत सूत्रांक [२८४] श्रीस्थाना-II दाने-भिक्षणे याच्या भवः सामुदानिकः तस्य नो सम्यग्गवेषयिता-अन्येष्टा भवति, इत्येवंप्रकार:-एतैरनन्तरोदितै- स्थाना० मारित्यादि निगमनम् , एतद्विपर्ययसूत्रं कण्ठ्यं । निग्रन्धप्रस्तावात्तदकृत्यनिषेधाय सूत्रे उद्देशः २ वृत्तिः नो कप्पति निम्गंधाण वा निमगंधीण वा चाहिं महापाडिवएहि सझायं करेत्तए, तं०-भासाहपाडिवए इंदमहपाडि महाप्रति॥२१३॥ वए कतियपाटिवए सुगिम्हपाडिवए १, णो कप्पइ निग्गंथाण पा निग्गंधीण या चाहिं संझाहिं सज्झार्य करेत्तए, तं०पढमाते पच्छिमाते माहे अडरते २॥ कपइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चाउकालं सज्झायं करेत्तए, सं०-पुन्वण्हे, सू०२८५अवरहे पोसे पर्से (सू०२८५) चउबिहा लोगठिती पं० सं०-आगासपतिहिए बाते वातपतिहिए उदधी २८६उदधिपतिट्ठिया पुढची पुढविपइद्विया तसा थावरा पाणा ४ (सू०२८६) चत्तारि पुरिसजाता ५००-तहे नाममेगे २८७मोतहे नामगेगे सोबत्थी नाममेगे पधाणे नाममेगे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं०२०-आयंतकरे नाममेगे णो परंतकरे १ परंतकरे णाममेगे जो आतंतकरे २ एगे आतंतकरेवि परतकरेवि ३ एगे जो आतंतकरे णो परंतफरे ४, २, पत्तारि पुरिसजाता पं० २०-आतंतमे नाममेगे नो परंतमे परंतमे नो (ह) ४, ३, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-आदमे नाममेगे णो परंदमे ४, ४, (सू०२८७) चउन्विधा गरहा पं० सं०-उवसंपज्जामित्तेगा गरहा विति गिच्छामिलेगा गरहा जंकिंचिमिच्छामीत्तेगा गरहा एवंपि पन्नत्तेगा गरहा (सू० २८८) 'नो कप्पई'त्यादिके कण्ठये, केवलं महोत्सवानन्तरवृत्तित्वेनोत्सवानुवृत्त्या शेषप्रतिपद्धर्मविलक्षणतया महाप्रतिपद-181॥ हस्तासु, इह च देशविशेषरूढया पाडिवएहिंति निर्देशः, स्वाध्यायो-नन्द्यादिसूत्रविषयो वाचनादिः, अनुप्रेक्षा तु नं निषि SA565 २८८ दीप अनुक्रम [३०३] 'अस्वाध्याय-दिवस सम्बन्धी कथनं ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८८] ध्यते, आषाढस्य पौर्णमास्या अनन्तरा प्रतिपदापाढप्रतिपदेवमन्यत्रापि, नवरमिन्द्रमहा-अश्वयुपौर्णमासी, सुग्रीष्मःचैत्रपौर्णमासीति, इह च यत्र विषये यतो दिवसान्महामहाः प्रवर्त्तन्ते तत्र तदिवसात् स्वाध्यायो न विधीयते महस माप्तिदिनं यावत् , तच्च पौर्णमास्येव, प्रतिपदस्तु क्षणानुवृत्तिसम्भवेन वय॑न्त इति, उक्तं च-"आसाढी इंदमहो क४|त्तिय सुगिम्हए य बोद्धब्बो । एए महामहा खलु सम्वेसि जाव पाडिवया ॥१॥” इति, अकालस्वाध्याये चामी दोषाः -"सुयणाणमि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य । विजासाहणवेगुन्नधम्मया एव मा कुणसु ॥१॥” इति, विद्यासाधनवैगुण्यसाधम्र्येणैवेत्यर्थः, प्रथमा सन्ध्या अनुदिते सूर्ये पश्चिमा-अस्समयसमये । उक्तविपर्ययसूत्रं कण्ठ्यं, किन्तु 'पुवण्हे अवरण्हें त्ति दिनस्याधचरमप्रहरयोः 'पओसे पचूसे'त्ति रात्रेरिति । स्वाध्यायप्रवृत्तस्य च लोकस्थितिपरिज्ञानं भवतीति तामेव प्रतिपादयन्नाह-'चउबिहे'त्यादि, लोकस्य-क्षेत्रलक्षणस्य स्थितिः-व्यवस्था लोकस्थितिः, आकाशप्रतिष्ठितो वातो-धनवाततनुवातलक्षणः, उदधिः-घनोदधिः, पृथिवी-रत्नप्रभादिका, असा-द्वीन्द्रियादयस्ते पुनर्ये रलप्रभादिपृथ्वीष्यप्रतिष्ठितास्तेऽपि विमानपर्वतादिपृथिवीपतिष्ठितत्वात् पृथिवीप्रतिष्ठिता एव, विमानपृथिवीनां चाकाशादिप्रतिष्ठितत्वं यथासम्भवमवसेयम् , अविवक्षा बेह विमानादिगतदेवादित्रसानामिति, स्थावरास्त्विह बादरवनस्सत्यादयो ग्राह्याः, सूक्ष्माणां सकललोकप्रतिष्ठितत्वात् , शेषं सुगममिति । अनन्तरं त्रसाः प्राणा उक्ताः, अधुना बसमा आपाठी इन्द्रमहः कार्तिकः सुप्रीष्मे बोद्धव्याः एते महामहाः खलु सर्वेषां यावत्प्रतिपदः ॥१॥२ श्रुतज्ञानेमक्तिः लोकविरुद्धता प्रमत्तछलना प &ाविद्यासाधनवैगुण्पषमता इति मा कुरु ॥१॥ दीप अनुक्रम [३०७] SAREauratonintamarnama Inurasaram.org 'अस्वाध्याय-दिवस सम्बन्धी कथनं ~430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८८] श्रीस्थाना-ठाणविशेषस्य 'चत्तारी'त्यादिभिश्चतुर्भिश्चतुर्भङ्गीसूत्रः स्वरूपं दर्शयति, कण्ठयानि चैतानि, केवलं 'तह'त्ति सेवकः सन् | सूत्र- यथैवादिश्यते तथैव यः प्रवर्तते स तथा, अन्यस्तु नो तथैवान्यथापीत्यर्थ इति नोतथः, तथा स्वस्तीत्याह चरति वा वृत्तिः सौवस्तिकः प्राकृतत्वात् ककारलोपे दीर्घत्वे च सोवत्थी-माङ्गलिकाभिधायी मागधादिरन्यः, एतेषामेवाराध्यतया प्र- धाना-प्रभुरन्य इति । 'आयंतकरे'त्ति आत्मनोऽन्तम्-अवसानं भवस्य करोतीत्यात्मान्तकरः, नो परस्य भवान्तकरो, ।।२१४॥ धर्मदेशनानासेवकः प्रत्येकबुद्धादिः १, तथा परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवत्तेनेन परान्तकरो नात्मान्तकरोऽचरम | शरीर आचार्यादिः२, तृतीयस्तु तीर्थकरोऽन्यो वा३, चतुर्थों दुषमाचार्यादि४, अथवाऽऽत्मनोऽन्त-मरणं करोतीति | आत्मान्तकरः, एवं परान्तकरोऽपि, इह प्रथम आत्मवधको द्वितीयः परवधकः तृतीय उभयहन्ता चतुर्थस्त्ववधक इति, अथवाऽऽत्मतन्त्रः सन् कार्याणि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः, एवं परतन्त्रकरोऽपि, इह तु प्रथमो जिनो, द्वितीयो भिक्षुः, तृतीय आचार्यादिः, चतुर्थः कार्यविशेषापेक्षया शठ इति, अथवा आत्मतन्त्र-आत्मायत्तं धनगच्छादि करोतीत्यात्मत नकर एवमितरापि भङ्गयोजना स्वयमूह्येति । तथा आत्मानं तमयति-खेदयतीत्यात्मतम:-आचार्यादिः, परं-शिष्यादिक द्रीतमयतीति परतमः, सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वारः, अथवा आत्मनि तमः-अज्ञानं क्रोधो वा यस्य स आत्मतमाः, एवमि तरेऽपि, तथा आत्मानं दमयति-शमवन्तं करोति शिक्षयति वेत्यात्मदमः आचार्योऽश्वदमकादिर्वा, एवमितरेऽपि, नवरं पर:-शिष्योऽश्वादिा ॥ दमश्च गीगीतः स्यादिति गर्हासूत्र, तत्र गुरुसाक्षिका आत्मनो निन्दा गर्यो, तत्र उपसंपद्येआश्रयामि गुरुं स्वदोषनिवेदनार्थ अभ्युपगच्छामि वोचितं प्रायश्चित्तं इतीत्येवंप्रकारः परिणाम एका गर्हेति, गोत्वं ४ स्थाना० उद्देशः२ महाप्रति पद: सू०२८५२८६२८७२८८ दीप अनुक्रम [३०७] ॥२१४।। अत्र सम्पादन-कार्ये अथवा 'प्रूफ-रिडींग' अवसरे किंचित स्खलना जाता: (यहाँ प्रत में शीर्षक स्थाने जो महाप्रतिपदः लिखा है वो गलतीसे रह गया दीखता है, क्योंकि वो विषय पिछले पृष्ठ पर पूर्ण हो गया है.) अत्र आत्मनोकर: एवं परान्तकर: विषय वर्तते. ~ 431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [0] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८८] CARSAKACAARCccc चास्योक्तपरिणामस्य गर्हायाः कारणत्वेन कारणे कार्योपचाराद् गाँसमानफलत्वाश्च द्रष्टव्यमिति, अभिधीयते हि भग-1 बत्याम्-"निग्गंथे णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए [पिण्डलाभप्रतिज्ञयेत्यर्थः>, पविजेणं अन्नयरे अकिच्चहाणे पडि|सेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिकमामि निंदामि जाव पडिवजामि, तओ पच्छा थेराणं अंतिथं आलोइस्सामि० से य संपडिए असंपत्ते अप्पणा य पुब्बमेव कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए?, गोयमा! आराहए नो विराहए"त्ति, तथा वितिगिच्छामि'त्ति वीति-विशेषेण विविधप्रकारैर्वा चिकिसामि-प्रतिकरोमि निराकरोमि गर्हणीयान् दोषान इतीत्येवंविकल्पात्मिका एकाउन्या गर्दा, तत एवेति, तथा 'ज|किंचिमिच्छामीति'त्ति यरिकशनानुचितं तन्मिथ्या-विपरीतं दुष्ठ मे-मम इत्येवंवासनागर्भवचनरूपा एकाऽन्या गर्दा, एवंस्वरूपत्वादेव गायाः, तथा 'एवमपीति अनेनापि-स्वदोषगहणप्रकारेणापि प्रज्ञता-अभिहिता जिनैदोषशुद्धिरिति प्रतिपत्तिरेका गर्हा, एवंविधप्रतिपत्तेहाँकारणत्वादिति, 'एवंपि पन्नत्तेगा गरहेति पाठे व्याख्यानमिदम् , 'एवंपि पनत्ते एगा' इति पाठे त्विदं-यत्किञ्चनावा तन्मिथ्येत्येवं प्रतिपत्तव्यमित्येवमपि प्रज्ञप्ते-प्ररूपिते सत्येका गहीं भवति, एवंविधप्ररूपणायाः प्रज्ञापनीयस्य गर्दाकारणत्वात् , अथवा उपसंपद्ये-प्रतिषेधाम्यहमतिचारानित्येवं स्वदोषप्रतिपत्तिरेका १ नियन्धो गृहपतिकुल पिडादानप्रतिक्षया प्रविष्टोऽन्यतरत् अबस्थान प्रतिषेवितं, तस्यैव भवति-ददैव तावदहमेतस्य स्थानस्यालोचयामि प्रतिकाम्यामि निमन्दामि यावत्प्रतिपये ततः पवारस्थ विराणामन्तिके आलोचयिष्यामि, सच संप्रस्थितोऽसंप्राप्त आत्मना च पूर्वमेव काकुचात् स भदन्त किमाराधको विराधका , गौतम! आराधको न विराधकः । दीप अनुक्रम [३०७] ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥२१५॥ प्रत सूत्रांक [२८८] पुरुषाणा गर्दा, तथा विचिकित्सामि-शके अशङ्कनीयानपि जिनभाषितभावान् गुर्वादीन् वा दोषवत्तयेत्येवंप्रकारा अपि गर्दा स्व-६४ स्थाना० दोषप्रतिपत्तिरूपत्वादेवेति, तथा यस्किान साधूनामनुचितं तदिच्छामि-साक्षादकरणेऽपि मनसाऽभिलपामि, इह मकारा उद्देशः२ आगमिकः प्राकृतत्वादिति, अथवा यत्किञ्चन साधुकृत्यमाश्रित्य मिथ्या-विपर्यस्तोऽस्मि-भवामि मिथ्याकरोमि वा मिथ्ययामीति, 'मिच्छामि'म्लेच्छवदाचरामि वा म्लेच्छामीति मिच्छामि, शेषं पूर्ववत् , तथा असदनुष्ठानप्रवृत्तः सन् प्रेरितः | समलमस्त्वासन् केनापि स्वकीयचित्तसमाधानार्थं वा स्वकीयासदनुष्ठानसमर्थनाय क्लिष्टचित्ततयैवं प्ररूपयामि भावयामि वा, यदुत- दिचतुर्भगी एवमपि प्रज्ञप्तिः-प्ररूपणाऽस्ति जिनागमे, पाठान्तरे त्वेवमपि प्रज्ञप्तोऽयं भाव इत्यस्थानाभिनिवेशी उत्सूत्रप्ररूपको वाऽ- सू०२८९ हमित्येका गहीं, एवं स्वदोषप्रतिपत्तिरूपा गर्दा सर्वत्रेति ॥ गर्दा च दोषवर्जकस्यैव सम्यग् भवति नेतरस्येति दोषवर्जकजीवस्वरूपनिरूपणाय सप्तदश चतुर्भङ्गी सूत्राणि चत्तारि पुरिसजाया पं० -अपणो नाममेगे अलमंथू भवति णो परस्स परस्स गाममेगे अलमंथू भवति णो अप्पणो एगे अपणोवि अलमंथू भवति परस्सवि एगे नो अप्पणो अलमंथू भवति णो परस्स १ । चत्तारि मग्गा पं० तं०-उज्जू नाममेगे उजू उणू नाममेगे के के नाममेगे उज्जू के नाममेगे के २ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०---उजू नाममेगे उज्जू ४, ३ । चत्तारि मग्गा पं० सं०-खेमे नाममेगे खेमे खेमे णाममेगे अखेमे (४), ४ । एवामेव चत्वारि पुरिसजाता पं० सं०-खेमे णाममेगे खेमे, ह (१), ५ । चत्तारि मग्गा पं० सं०खेमे णाममेगे खेमरूवे, खेमे णाममेगे अखेमरूवे ४,६ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-खेमे नाममेगे खे दीप अनुक्रम [३०७] ॥२१५॥ ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८९]] मरूबे ४, ७ । पत्तारि संयुका पं०२०-वामे नाममेगे वामावत्ते वामे नाममेगे दाहिणावत्ते दाहिणे नाममेगे वामावत्ते दाहिणे नाममेगे दाहिणावत्ते ८ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-चामे नाममेगे वामावत्ते, क (४) ९ । चत्तारि धूमसिहाओ पं०२०-चामा नाममेगा वामावत्ता ४, १०। एवामेव चत्तारित्थीओ पं० २०-यामा णाममेगा वामावत्ता ४, ११ । चत्तारि अग्गिसिहाओ पं००-वामा णाममेगा वामावत्ता, (इ)४, १२ । एवामेव पचारित्थीले पं००-वामा णा० (6)४, १३ । चत्तारि वायमंडलिया पं० २०-वामा णाममेगा वामावचा ४, १४, एवामेव चत्तारित्थीओ पं० सं०-वामा गाममेगा वामावत्ता ४, १५ । चत्तारि वणसंडा पं० २०-वामे नाममेगे वामावत्ते ४, १६, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-वामे णाममेगे वामावते, ४, १७ ॥ (सू० २८९) व्यक्तानि, केवलं अलमस्तु-निषेधो भवतु य एवमाह सोऽलमस्त्वित्युच्यते, निषेधक इत्यर्थः, स चात्मनो दुर्णयेषु प्रवर्त्तमानस्यैको निषेधकः, अथवा 'अलमंथु'त्ति समयभाषया समर्थोऽभिधीयते, ततः आत्मनो निग्रहे समर्थः कश्चिदिति, एको मार्ग ऋजुरादावन्तेऽपि ऋजुः अथवा ऋजुः प्रतिभाति तत्त्वतोऽपि जुरेवेति, पुरुषस्तु ऋजुः पूर्वापरकालापेक्षया, अन्तस्तत्ववाहिस्तत्त्वापेक्षया वेति, कचित्तु 'उज्जूनाम एगे उज्जूमणेत्ति पाठः, सोऽपि बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वापेक्षया व्याख्येया, क्षेमो नामैको मार्ग आदौ निरुपद्रवतया पुनः क्षेमोऽन्ते तथैव, प्रसिद्धितत्त्वाभ्यां वा, एवं पुरुषोऽपि क्रोधाद्युपद्रवरहिततया क्षेम इति, क्षेमो भावतोऽनुपद्रवत्वेन क्षेमरूप आकारेण मार्गः, पुरुषस्तु प्रथमो भावद्रव्यलिङ्गयुक्तः साधुः, द्वितीयः कारणिको द्रव्यलिङ्गवर्जितः साधुरेव, तृतीयो निह्नवः, चतुर्थोऽन्यतीर्थिको गृहस्थो वेति, ७, दीप अनुक्रम [३०८] ~ 434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८९] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥२१६॥ शम्बूकाः-शङ्काः वामो वामपार्थव्यवस्थितत्वात् प्रतिकूलगुणत्वाद्वा, वामावर्सः प्रतीतः, एवं दक्षिणावर्तोऽपि, दक्षिणो दक्षिणपाश्चनियुक्तत्वादनुकूलगुणवाद्धेति, पुरुषस्तु वामः प्रतिकूलस्वभावतया वाम एवावर्तते-प्रवर्तत इति वामावर्तों विपरीतप्रवृत्तेरेकः अन्यो वाम एव स्वरूपेण कारणवशाद् दक्षिणावर्तः-अनुकूलवृत्तिः, अन्यस्तु दक्षिणोऽनुकूलस्वभाव- तया कारणवशात् वामावर्तः-अननुकूलवृत्तिरित्येवं चतुर्थोऽपीति, धूमशिखा वामा वामपार्श्ववर्तितया अननुकूलस्वभा-| बतया वा वामत एवावर्तते या तथावलनात् सा वामावर्ता, स्त्री पुरुषवद् व्याख्येया, कम्बुदृष्टान्ते सत्यपि धूमशि- खादिदृष्टान्तानां खीदान्तिके शब्दसाधयेणोपपन्नतरत्वाद् भेदेनोपादानमिति ११, एवमग्निशिखापि १३, वातमण्ड|लिका-मण्डलेनोर्द्धप्रवृत्तो वायुरिति, इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचापल्यस्वभावा भवन्तीत्यभिप्रायेण तासु धूमशिखादिदृष्टान्तत्रयोपन्यास इति, उक्तञ्च-"चवला मइलणसीला सिणेहपरिपूरियावि तावेई । दीवयसिहन्ध महिला लद्धप्पसरा भयं देह ॥१॥” इति, १५, वनखण्डस्तु शिखावत्, नवरं वामावर्तो वामवलनेन जातत्वान् वायुना वा तथा धूयमानत्वादिति १६, पुरुषस्तु पूर्ववदिति १७ ॥ अनुकूलस्वभावोऽनुकूलप्रवृत्तिश्चानन्तरं पुरुष उक्तः, एवंभूतश्च निर्ग्रन्थः सामान्येनानुचित प्रवृत्तावपि न स्वाचारमतिकामतीति दर्शयवाह चाहिं ठाणेहिं णिग्गंधे णिगंथिं आलबमाणे वा संलबमाणे वा णातिकमति तं०-पंथं पुच्छमाणे वा १ पंथं देसमाणे वा २ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दलेमाणे वा ३ दलावेमाणे वा ३(सू० २९०) तमुकायस्म णं चत्तारि १ चपला मलिनताकरणशीला बेहपरिपूरितापि तापयति दीपकशिवेव महिला लब्धप्रसरा भयं ददाति ॥१॥ स्थाना० उद्देशः२ निग्रंथ्या | सहाला पादि सू० २९० तमस्कायः २९१ दीप अनुक्रम [३०८] XU२१६॥ ~ 435~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२९१] दीप अनुक्रम [३१०] स्थान [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र ********* “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [२], [०३], अंग सूत्र [०३] Eucation International नामभेजा पं० [सं० तमिति वा तमुक्कातेति वा पं० [सं० लोगंधगारेति वा डोगतमसेति वा अंधकारेति वा महंधकारेति वा । तमुकायरस णं चत्तारि णामधेना देबंधगारेति वा देवतमसेति वा । तमुक्कायस्स णं चत्तारि नामभेजा पं० [सं० धावफलदेति या बातफलिखोमेति वा देवरन्नेति वा देववूढेति वा । तमुकाते णं चत्तारि कप्पे आवरिता चिठ्ठति तं - सोधम्मीसाणं सणकुमारमाहिंदं ( सू० २९१ ) 'चउही त्यादि, स्फुटं किन्त्वापन् - ईषत्प्रथमतया वा जल्पन् संलपन् मिथो भाषणेन नातिक्रामति-न लङ्घयति निर्ग्रन्थाचारं, “एगो एगिस्थिए सद्धिं नेव चिट्ठे न संलवे” विशेषतः साध्या इत्येवंरूपं, मार्गप्रश्नादीनां पुष्टालम्बनत्वादिति, तत्र मार्गे पृच्छन्, प्रश्नीय साधम्मिक गृहस्थ पुरुषादीनामभावे हे आयें ! कोऽस्माकमितो गच्छतां मार्ग इत्यादिना क्रमेण | मार्ग वा तस्या देशयन् धर्म्मशीले! अयं मार्गस्ते इत्यादिना क्रमेण, अशनादि वा ददद्-धर्मशीले। गृहाणेदमशनादीत्येवं तथा अशनादि दापयन्, आयें! दापयाम्येतत्तुभ्यं आगच्छेह गृहादावित्यादिविधिनेति । तथा तमस्कार्यं तम इत्यादिभिः शब्दः व्याहरन्नातिक्रमति भाषाचारं यथार्थत्वादिति तानाह- 'तमुक्काये' त्यादि सूत्रत्रयं सुगमं, नवरं तमस:- अष्कायपरिणामरूपस्यान्धकारस्य कायः - प्रचयस्तमस्कायो, यो ह्यसङ्ख्याततमस्वारुणवराभिधानद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तादरुणोदाख्यं समुद्रं द्विचत्वारिंशद्योजन सहस्राण्यवगाह्योपरितनाज्जलान्तादेकप्रदेशिकया श्रेण्या समुत्थितः | सप्तदशैकविंशत्यधिकानि योजनशतानि ऊर्द्धमुखत्य ततः तिर्यक् प्रविस्तृणन् सौधर्म्मादींश्चतुरो देवलोकानावृत्त्योर्द्धमपि १ एकाकी एकामिया स्त्रिया सार्धं नैव तिष्ठेत् नैव तत्। मूलं [२९१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Park Use Only ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२९१] दीप अनुक्रम [३१०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ २९१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थाना० तमस्कायः सू० २९१ श्रीस्थाना * च ब्रह्मलोकस्य रिष्ठं विमानप्रस्तटं सम्प्राप्तः, तस्य नामान्येव नामधेयानि, 'तम' इति तमोरूपत्वादितिरुपप्रदर्शने वा ङ्गसूत्र| विकल्पे तमोमात्ररूपताभिधायकान्याद्यानि चत्वारि नामधेयानि, तथाऽपराणि चत्वार्येवात्यन्तिकतमोरूपताभिधायका- ५ उद्देशः २ वृत्तिः नीति, लोके अयमेवान्धकारो नान्योऽस्तीदृश इति लोकान्धकारः, देवानामप्यन्धकारोऽसौ, तच्छरीरप्रभाया अपि तत्राप्रभवनादिति देवान्धकारः, अत एव ते बलवतो भयेन तत्र नश्यन्तीति श्रुतिरिति, तथाऽन्यानि चत्वारि कार्या॥ २१७ ॥ श्रयाणि वातस्य परिहननात् परिघः - अर्गला, परिघ इव परिघः, वातस्य परिधो धातपरिघः, तथा वातं परिघवत् क्षो भयति हतमार्ग करोतीति वातपरिषक्षोभः, वात एव वा परिघस्तं क्षोभयति यः स तथा, पाठान्तरेण वातपरिक्षोभ इति, वचिद्देवपरिघो देवपरिक्षोभ इति चाद्यपदद्वयस्थाने पठ्यते, देवानामरण्यमिव बलवद्भयेन नाशनस्थानत्वाद यः स देवारण्यमिति, देवानां व्यूहः सागरादिसाङ्ग्रामिकव्यूह इव यो दुरधिगम्यत्वात् स देवव्यूह इति, तमस्काय स्वरूपप्रतिपादनायैव 'तमुक्काये ण'मित्यादि सूत्रं गतार्थम्, किन्तु सौधर्मादीनावृणोत्यसौ कुक्कुटपञ्जरसंस्थानसंस्थितस्य तस्य प्रतिपादनाद् उक्तं च- "तमुकाए णं भंते! किंसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए उपिं कुकुडपंजरसंठिए पन्नत्ते" ति ॥ अनन्तरं तमस्कायो वचनपर्यायैरुक्तोऽधुना अर्थपर्यायैः पुरुषं निरूपयता पञ्चसूत्री गदिता चत्तारि पुरिसजाता पं० [सं० संपागडपडिसेवी णाममेगे पच्छन्नपडिसेवी णाममेगे पप्पन्ननंदी नाममेगे णिस्सरणगंदी णाममेगे १ । चत्तारि सेणाओ पं० [सं० जतित्ता णाममेगे णो पराजिणित्ता पराजिणित्ता णामनेगे णो जतित्ता १ तमस्कायो भदन्त किंसंस्थितः प्रज्ञप्तो, गौतम अधो मूलस्थितः उपरि कुर्कुटपंजरसंस्थितः ॥ Eucation International For Parts Only ~437~ ॥ २१७ ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: B प्रत सूत्रांक [२९२] एगा जतित्तावि पराजिणित्तावि एगा नो जतित्ता नो पराजिणिचा २। एवामेव पत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-जतित्ता नाममेगे नो पराजिणित्ता ४,३ । चत्तारि सेणाओ पं० २०-जतित्ता णामं एगा जयई आइत्ता णाममेगा पराजिणति पराजिणित्ता णाममेगा जयति पराजिणिचा नाममेगा पराजिणति ४ । एवामेव पत्तारि पुरिसजाता पं. तं०-जइत्ता नाममेगे जयति ४, ५ । (सू० २९२) सुगमा च, नवरं कश्चित्साधुर्गच्छवासी सम्प्रकटमेव-अगीतार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसेवते मूलगुणानुत्तरगुणान् वा दर्पतः कल्पेन वेति सम्प्रकटप्रतिसेवीत्येका, एवमन्यः प्रच्छन्न प्रतिसेवत इति प्रच्छन्नप्रतिसेवी, अन्यस्तु प्रत्युसन-लब्धेन वस्त्रशिध्यादिना प्रत्युत्पन्नो वा-जातः सन् शिष्याचार्यादिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी, अथवा नन्दनं नन्दिाआनन्दः, प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स प्रत्युत्पन्ननन्दिः, तथा प्राघूर्णकशिष्यादीनामात्मनो वा निःसरणेन-गच्छादेनिर्गमेन नन्दति यो नन्दिा यस्य स तथा, पाठान्तरे तु प्रत्युत्पन्न-यथालब्धं सेवते-भजते नानुचितं विवेचयतीति प्रत्युत्पन्नसेवीति । 'जइत्त'त्ति जेत्री जयति रिपुबलमेका न पराजेत्री-न पराजयते-रिपुबलान भज्यते द्वितीया तु पराजेत्री-पगरेभ्यो भङ्गभाक्, अत एव नो जेत्रीति, तृतीया कारणवशादुभयस्वभावेति, चतुर्थी त्वविजिगीषुत्वादनुभयरूपेति, पुरुषः ला-साधुः स जेता परीपहाणां न तेभ्यः पराजेता-उद्विजते इत्यर्थो महावीरवदित्येको, द्वितीयः कण्डरीकवत्, तृतीयस्तु कदाचिजेता कदाचित्कर्मवशात् पराजेता शैलकराजर्षिवत्, चतुर्धस्त्वनुत्पन्नपरीपहः । जित्वा एकदा रिपुबलं पुनरपि जयतीत्येका अन्या जित्वा पराजयते-भज्यते अन्या पराजित्य-परिभज्य पुनर्जयति चतुर्थी तु पराजित्य-परिभज्यैकदा दीप अनुक्रम [३११] HARASHTRA AREasatirintanational ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२९२] दीप अनुक्रम [३११] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २१८ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [२]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Internationa - *******... पुनः पराजयते, पुरुषस्तु परीषादिष्वेवं चिन्तनीय इति ॥ जेतव्याश्वेह तत्त्वतः कषाया एवेति तत्स्वरूपं दर्शयितुकामः क्रोधस्योत्तरत्रोपदर्शयिष्यमाणत्वान्मायादिकषायत्रयप्रकरणमाह चत्तारि केतणा पं० तं०—सीमूलकेतणते मेंढविसाणकेत ते गोमुत्तिकेतणते अवलेहणितकेतणते, एवामेव चउविधामाया पं० तं० वंसीमूलकेतणासमाणा जाव अवलेहणितासमाणा, वसीमूलकेतणासमाणं भायं अणुपविट्टे जीवे कालं करेति रइएस उववज्जति, मेंढविसाणकेतणासमाणं मायमणुष्पविद्वे जीवे काढं करेति तिरिक्खजोणितेसु उववज्जति, गोमुत्ति० जाव कालं करेति मणुस्सेसु उववज्जति, अवलेहणिता जाव देवेसु उववज्जति । चत्तारि थंभा पं० [सं० सेलयं अद्विथंभे दारुथंभ तिथिसतार्थमे एवामेव चढव्विधे माणे पं० [सं० सेथंभसमाणे जाव तिमिसलतार्थभसमाणे, सेलथंभसमाणं माणं अणुपविट्टे जीवे कालं करेति नेरतिए उववज्जति एवं जाव तिमिसलताभसमाणं माणं अणुपविट्टे जीवे कालं करेति देवेसु उववज्जति । चत्तारि वत्था पं० [सं० किमिरागर ते कद्दमरागरते खंजणरागरते दलिerगरते, एवामेव उव्विधे लोभे पं० नं० - किमिरागरत्तवत्थसमाणे कद्दमरागरत्तवत्यसमाणे खंजणरागरचबस्थसमाणे हल्दिरागरतवत्यसमाणे, किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ नेरइएस उबवज्जद, तहेव जाव इलिदरागरतवत्यसमाणं लोभमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जति ( सू० २९३ ) 'चत्तारी 'त्यादि प्रकटं, किन्तु केतनं सामान्येन वक्रं वस्तु पुष्पकरण्डस्य वा सम्बन्धि मुष्टिग्रहणस्थानं वंशादिदलकं, तच्च वक्रं भवति, केवलमिह सामान्येन वक्रं वस्तु केवनं गृह्यते, तत्र वंशीमूलं च तत्केतनं च वंशीमूलकेतनमेवं मूलं [२९२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 439~ ४ स्थाना० उद्देशः २ प्रकटसे व्यादि केतनादि सू० २९२२९३ ।। २१८ ॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] सर्वत्र, नवरं मेण्डविषाणं-मेषशृङ्ख, गोमूत्रिका प्रतीता, 'अवलेहणिय'त्ति अवलिख्यमानस्य वंशशलाकादेर्या प्रतन्वी त्वक् साऽवलेखनिकेति, वंशीमूलकेतनकादिसमता तु मायायास्तद्धतामनार्जवभेदात्, तथाहि-यथा वंशीमूलमतिगुपि-* लवक्रमेवं कस्यचिन्मायाऽपीत्येवमल्पाल्पतराल्पतमानार्जवत्वेनान्याऽपि भावनीयेति, इयं चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसवलनरूपा क्रमेण ज्ञेया, प्रत्येकमित्यन्ये, तेनैवानन्तानुबन्धिया उदयेऽपि देवत्वादि न विरुध्यते, एवं मानादयोऽपि, वाचनान्तरे तु पूर्व कोधमानसूत्राणि ततो मायासूत्राणि, तत्र क्रोधसूत्राणि 'चत्तारि राइओ पन्नत्ताओ। |तं०-पवयराई पुढविराई रेणुराई जलराई, एवामेव चउब्धिहे कोहे' इत्यादि मायासूत्राणीवाधीतानीति, फलसूत्रे अनुप्रविष्ट:-तदुदयवर्तीति, शिलाविकारः शैलः स चासौ स्तम्भश्च-स्थाणुः शैलस्तम्भः, एवमन्येऽपि, नवरं, अस्थि दारु च प्रतीतं, तिनिशो-वृक्षविशेषस्तस्य लता-कम्बा तिनिशलता, सा चात्यन्तमृद्वीति, मानस्यापि शैलस्तम्भादिसमानता तद्वतो नमनाभावविशेषात् ज्ञेयेति, मानोऽप्यनन्तानुबन्ध्यादिरूपः क्रमेण दृश्यः, तत्फलसूत्र व्यक्तं, कृमिरागे वृद्धसम्प्रदायोऽयं-मनुष्यादीनां रुधिरं गृहीत्वा केनापि योगेन युक्तं भाजने स्थाप्यते, ततस्तत्र कृमय उत्पद्यन्ते, ते च वाताभिलाषिणः छिद्रनिर्गता आसन्ना भ्रमन्तो निहरलाला मुञ्चन्ति ताः कृमिसूत्रं भण्यते, तच्च स्वपरिणामरागरञ्जितमेव भवति, अन्ये भणन्ति-ये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्ते तान् तत्रैव मृदित्वा कचवरमुत्तार्य तद्रसे कश्चिद् योग प्रक्षिप्य पट्टसूत्रं रञ्जयन्ति, स च रसः कृमिरागो भण्यते अनुत्तारीति, तत्र कृमीणां रागो-रञ्जकरसः कृमिरागस्तेन रक्तं कृमिरागरक्तम्, एवं सर्वत्र, नवरं कईमो-गोवाटादीनां खञ्जनं-दीपादीनां हरिद्रा प्रतीतैवेति, कृमिरागादिरक्तवस्त्रसमानता दीप अनुक्रम [३१२] 84%र ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९३] दीप श्रीस्थाना- च लोभस्य अनन्तानुबन्ध्यादितझेदवतां जीवानां क्रमेण दृढहीनहीनतरहीनतमानुवन्धत्वात् , तथाहि-कृमिरागरका स्थाना० असत्र- वस्त्रं दग्धमपि न रागानुबन्धं मुञ्चति, तद्भस्मनोऽपि रक्तत्वाद्, एवं यो मृतोऽपि लोभानुबन्धं न मुञ्चति तस्याभिधी- उद्देशा२ वृत्तिः यते लोभः कृमिरागरक्तवस्त्रसमानोऽनन्तानुबन्धी चेति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति, फलसूत्रं सष्टम्, इह कषायमरू- संसारादि पणागाथा:-"जलरेणुपुढविपब्वयराईसरिसो चउब्विहो कोहो । तिणिसलयाकट्टडियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥3 | सू०२९४ मायाऽवलेहिगोमुत्तिमेंढसिंगघणवंसिमूलसमा । लोभो हलिदखंजणकद्दमकिमिरागसारिच्छो ॥२॥ पक्खचउमासवच्छ- आहारः रजावज्जीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो भणिया ॥३॥” इति ॥ अनन्तरं कषायाः प्ररूपिताः, २९५ कषायैश्च संसारो भवतीति संसारस्वरूपमाह चउबिहे संसारे पं० त०--णेरतियसंसारे जाव देवसंसारे । चउब्बिहे आउते पं० २०-णेरतिआउते जाव देवाजते । चबिहे भवे पं००-रतियभवे जाव देवभवे (सू० २९४) चविहे आहारे पं० तं0--असणे पाणे खाइमे साइमे । चउम्बिहे आहारे पं० २०-उबक्खरसंपन्ने उवक्खडसंपन्ने सभावसंपन्ने परिजुसियसंपन्ने (सू० २९५) 'चउब्बिहे' इत्यादि व्यक्तं, किन्तु संसरणं संसार:-मनुष्यादिपर्यायान्नारकादिपर्यायगमनमिति, नैरयिकप्रायोग्येष्वा जलरेणुपृथ्वीपर्यतराजीसरशचतुर्विधः क्रोधः तिनिघालताकालास्थिकौलस्तम्भोपमो मानः ॥1॥ मायावलेखिकागोमूत्रम्याधनवंशमूलसमा लोभो । DIहरिदाखंजनकदमकनिरागसत्याः१॥ पक्षचतुर्माससंवत्सरयावज्जीवानुगामिनः क्रमशः देवनरतिर्यभारकगतिसाधनदेवी भणिताः ॥३॥ अनुक्रम [३१२] ॥२१२ ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: HSS प्रत सूत्रांक [२९५] युर्नामगोवादिषु कर्मसूदयगतेषु जीवो नैरयिक इति व्यपदिश्यते, उक्तं च-"नेरइए णं भंते! नेरइपसु उपवजा अनेरइए नेरइएसु ज्ववज्जइ ?, गोयमा, नेरइए नेरइपसु उववजह नो अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ" इति, ततो नैरयिकस्य संसरणम्-उत्पत्तिदेशगमनमपरापरावस्थागमनं वा नैरयिकसंसारः, अथवा संसरन्ति जीवा यस्मिन्नसौ संसारो X-गतिचतुष्टय, तत्र नैरयिकस्यानुभूयमानगतिलक्षणः परम्परया चतुर्गतिको वा संसारो नैरयिकसंसारः, एवमन्येऽपि ॥ उक्तरूपश्च संसार आयुषि सति भवतीति आयुःसूत्र, तत्र एति च याति चेत्यायु:-कर्मविशेष इति, तत्र येन निरयभवे प्राणी ध्रियते तन्निरयायुरेवमन्यान्यपि, उक्तरूपं चायुभवे स्थिति कारयतीति भवसूत्रं, कठ्यं, केवलं भवनं भवः-उत्पत्तिनिरये भवो निरयभवो मनुष्येषु मनुष्याणां वा भवो मनुष्यभवः, एवमन्यावपि । भवेषु च सर्वेष्वाहारका जीवाः इत्याहारसूत्रे, तत्राहियत इत्याहारः अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि पीयत इति पानं-सौवीरादि खादः प्रयोजनमस्येति | खादिम-फलवर्गादि स्वादः प्रयोजनमस्येति स्वादिम-ताम्बूलादि, उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करो-हिङग्वादिस्तेन सम्पन्नोयुक्त उपस्करसम्पन्नः, तथा उपस्करणमुपस्कृतं-पाक इत्यर्थस्तेन सम्पन्न ओदनमण्डकादि: उपस्कृतसम्पन्नः पाठान्तरेण नो उपस्करसम्पन्नो-हिङ्गादिभिरसंस्कृत ओदनादिः, स्वभावेन-पाक विना सम्पन्न:-सिद्धः द्राक्षादिः स्वभावसम्पन्ना, 'परिजुसिय'त्ति पर्युषित-रात्रिपरिवसनं तेन सम्पन्नः पर्युषितसम्पन्न इड्डरिकादिः, यतस्ताः पर्युषितकलनीकृताः अम्ल १ नैरपिको भदन्त । नैरपिके पूत्पद्यते अनैरयिको नैरयिफेयते !, गौतम 1 नरयिको नैरयिकेषूत्पद्यते न अमरविको नेरपिकपूरपद्यते । दीप अनुक्रम [३१४] ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२९५] IN ROU वारसा भवन्ति, आरनालस्थिताम्रफलादिति ॥ अनन्तरोदिताः संसारादयो भावाः कर्मवतां भवन्तीति 'चउन्विहे बंधे' इत्यादि कम्मेप्रकरणमारादेककसूत्रात् उद्देशः २ चाउठिवहे बंधे पं० सं०-पगतिबंधे ठितीबंधे अणुभावबंधे पदेसबंधे । चउम्विहे उवकमे पं० सं०-बंधणोवकमे उदीरणो- प्रकृतिबवकमे उवसमणीवकामे विष्परिणामणोवकमे । बंधणोवकमे चउविहे पं० तं०-पगतिबंधणोवफमे ढितिबंधणोक्कमे अणु धादि भावबंधणीवकामे पदेसबंधणोपकामे । उदीरणोवक्कमे चउब्विहे पं० सं०-पगतीउदीरणोक्कमे ठितीउदीरणोवकमे अणुभा सू० २९६ बजदीरणोषकामे पदेसउदीरणोवकामे । उवसमणोवकामे चउविहे पं० सं०-पगतिउवसामणोक्कमे ठिति० अणु पतेसवसामणोवपामे । विपरिणामणोक्कमे चउब्बिहे पं० २०-पगति ठिती. अणु० पतेसविष पिबिहे अपाचहुए पं. सं०-पगतिअप्पाबहुए ठिति० अणु० पतेसप्पाबहुते । चउबिहे संकमे पं० सं०-पगतिसंकमे ठिती. अणु० पएससंकमे । चउबिहे णिवत्ते पं० सं०-पगतिणिधत्ते ठिती. अणु० पएसणिधत्ते । चउबिहे णिकायिते ५० सं०-पगतिणिकायिते ठिति० अणु० पएसणिकायिते (सू० २९६) प्रकटं चैतत् , नवरं सकषायत्वात् जीवस्य कर्मणो योग्यानां पुद्गलानां बन्धनम्-आदान बन्धः, तत्र कर्मणः प्रकृ-13/ तयः-अंशा भेदा ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां प्रकृतेर्वा-अविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिवन्धः, तथा स्थिति:तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नं तस्या बन्धो-निर्वतनं स्थितिबन्धः, तथा अनुभावो-विपाकः तीवादिभेदो रस ॥२२० ।। इत्यर्थस्तस्य बन्धोऽनुभावबन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां दीप अनुक्रम [३१४] 'बन्ध' शब्दस्य अर्थ एवं भेदा: ~443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९६]] बधा-सम्बन्धनं प्रदेशबन्धः, परिमितपरिमाणगुडादिमोदकबन्धवदिति, एवञ्च मोदकदृष्टान्तं वर्णयन्ति वृद्धाः-यथा किल मोदकः कणिकागुडघृतकटुभाण्डादिद्रव्यबद्धः सन् कोऽपि वातहरः कोऽपि पित्तहरः कोऽपि कफहरः कोऽपि हमारकः कोऽपि बुद्धिकरः कोऽपि व्यामोहकरः, एवं कर्मप्रकृतिः काचिज्ञानमावृणोति काचिद्दर्शनं काचित् सुखदुः खादिवेदनमुखादयतीति, तथा तस्यैव मोदकस्य यधाऽविनाशभावेन कालनियमरूपा स्थितिर्भवति, एवश्च कर्मणोऽपि ४ तद्भावेन नियतकालावस्थानं स्थितिवन्धः, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा स्निग्धमधुरादिरेकगुणद्विगुणादिभावेन रसो भहै वति, एवं कर्मणोऽपि देशसर्वघातिशुभाशुभतीजमन्दादिरनुभागवन्धः, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा कणिकादिद्रव्याणां परिमाणवत्त्वं एवं कर्मणोऽपि पुद्गलानां प्रतिनियतप्रमाणता प्रदेशबन्ध इति । उपक्रम्यते-क्रियतेऽनेनेत्युपक्रमः-कर्मणो ४ वद्धत्वोदीरितत्वादिना परिणमनहेतु वस्य शक्तिविशेषो योऽन्यत्र करणमिति रूढः, उपक्रमणं वोपक्रमो-बन्धनादी नामारम्भः, 'स्थादारम्भ उपक्रम' इति वचनादिति, तत्र बन्धनं-कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनं, इदं च सूत्रमात्रबद्धलोहशलाकासम्बन्धोपममवगन्तव्यं तस्योपक्रमः-उकार्थों बन्धनोपक्रमः, आसकलितावस्थस्य वा कर्मणो बद्धावस्थीकरणं बन्धनं तदेवोपकमो-वस्तुपरिकर्मरूपो बन्धनोपक्रमो, वस्तुपरिकर्मवस्तुविनाशरूपस्याप्युपकमस्याभिहितत्वादिति, एवमन्यत्रापि, नवरमप्राप्तकालफलानां कर्मणामुदये प्रवेशनमुदीरणा, उक्कं च-"ज करणेणोकहिय उदए दिज्जा उदीरणा एसा । पगईठिइअणुभागप्पएसमूलुत्तरविभागा ॥१॥" तथा उदयोदीरणानिधत्तनि १ पत्करणेनाकृष्योदये दीयत एषोदीरणा प्रकृतिस्थित्लनुभागप्रदेशगूलोत्तर विभागाः॥१॥ दीप अनुक्रम [३१५] SAREauraton international 'बन्ध' शब्दस्य अर्थ एवं भेदा: ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२९६] दीप अनुक्रम [३१५] श्रीस्थाना ज्ञसूत्रवृत्तिः ॥ २२९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] उद्देशः २ प्रकृतिनः न्धादि सू० २९६ काचनाकरणानामयोग्यत्वेन कर्म्मणोऽवस्थापनमुपशमनेति, उक्तं च- "ओवणवण संक्रमणाई च तिन्नि कर- २ ४ स्थाना० णाई” इति, उपशमनायां सन्तीति प्रक्रमः, तथा विविधैः प्रकारैः कर्म्मणां सत्तोदयक्षयक्षयोपशमोद्वर्त्तनापवर्त्तनादिभिरे तद्रूपतयेत्यर्थः, गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्यक्षेत्रादिभिर्वा करणविशेषेण वाऽवस्थान्तरापादनं विपरिणामना, इह च विप४रिणामना बन्धनादिषु तदन्येष्वप्युदयादिष्वस्तीति सामान्यरूपत्वाद् भेदेनो केति । बन्धनोपक्रमो बन्धनकरणं चतुर्द्धा तत्र प्रकृतिबन्धनस्योपक्रमो जीवपरिणामो योगरूपः, तस्य प्रकृतिबन्धहेतुत्वादिति, स्थितिबन्धनस्यापि स एव, नवरं, कषायरूपः स्थितेः कषायहेतुकत्वादिति, अनुभागबन्धनोपक्रमोऽपि परिणाम एव, नवरं कषायरूपः, प्रदेशबन्धनोपकमस्तु स एव योगरूप इति, यत उक्तम्- "जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ" इति, प्रकृत्यादिबन्धनानामारम्भा वा उपक्रमा इति, एवमन्यत्रापि । यन्मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा दलिकं वीर्यविशेषेणाकृष्योदये दीयते सा प्रकृत्युदीरणेति, वीर्यादेव चाप्राप्तोदयया स्थित्या सहाप्राप्तोदया स्थितिरनुभूयते सा स्थित्युदीरणेति, तथैव प्राप्तोदयेन रसेन सहाप्राप्तोदयो रसो यो वेद्यते साऽनुभागोदीरणेति तथा प्राप्तोदयैर्नियतपरिमाण कर्मप्रदेशैः सहाप्राप्तोदयानां नियतपरिमाणानां कर्म्मप्रदेशानां यद्वेदनं सा प्रदेशोदीरणेति, इहापि कषाययोगरूपः परिणाम आरम्भो वोपक्रमार्थः, प्रकृत्युपशमनोपक्रमादयश्चत्वारोऽपि सामान्योपशमनोपक्रमानुसारेणावगन्तव्याः, प्रकृतिविपरिणामनोपक्रमाद| योऽपि सामान्यविपरिणामनोपक्रमलक्षणानुसारेणावबोद्धव्याः, उपक्रमस्तु प्रकृत्यादित्वेन पुद्गलानां परिणमनसमर्थं जी - ४ ॥ २२१ ॥ १] उद्वर्त्तनापवर्तन संक्रमणरूपाणि न त्रीणि करणानि ( देशोपशमनायां ). २ येणात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभावी कषायतः करोति । For Pernal Use On बन्ध, उदय, उदिरणा, उपशमन, उद्वर्तन, प्रकृति- स्थिति आदि विषयस्य व्याख्या मूलं [२९६] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 445~ waryra Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९६]] SHRS*55 दीप ववीर्यमिति । 'अप्पाबहुए'त्ति अल्पं च-स्तोकं बहु च-प्रभूतमल्पबहु तद्भावोऽल्पवहुत्वं, दीर्घत्वासंयुक्तत्वे च प्राकृतत्वादिति, प्रकृतिविषयमपबहुत्वं बन्धाद्यपेक्षया, यथा सर्वस्तोकप्रकृतिबन्धक उपशान्तमोहादिः, एकविधबन्धकत्वाद, बहुतरबन्धक उपशमकादिसूक्ष्मसम्परायः, पड़िधबन्धकत्वात् , बहुतरवन्धकः सप्तविधबन्धकस्ततोऽष्टविधवन्धक इति, स्थितिविषयमल्पबहुत्वं यथा-"सच्वत्थोवो संजयस्स जहन्नओ ठिइबंधो, एगेंदियवायरपज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिइबंधो असंखेजगुणो" इत्यादि, अनुभागं प्रत्यल्पबहुत्वं यथा,-"सैव्वत्थोवाई अणंतगुणवुहिठाणाणि असंखेजगुणवुहिठाणाणि असंखेजगुणाणि जाव अणंतभागवुहिठाणाणि असंखेजगुणाणि" प्रदेशाल्पबहुत्वं यथा-"अडविहबंधगस्स आउयभागो थोवो नामगोयाणं तुल्लो विसेसाहिओ नाणदंसणावरणंतरायाणं तुल्लो बिसेसाहिओ मोहस्स विसेसाहिओ वेयणीयस्स विसेसाहिओ" इति, यां प्रकृति बनाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति | स सङ्कमः, उक्तं च-"सो संकमोत्ति भन्नइ जब्बंधणपरिणओ पओगेणं । पययंतरत्थदलिय परिणामइ तदणुभावे जं |॥१॥” इति, तत्र प्रकृतिसङ्कमा सामान्यलक्षणावगम्य एवेति, मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेयंदुत्कर्षणं अपकर्षणं १संवतस्य जपन्यः स्थितिवन्धः सर्वतोफा एफेनियवादरपर्याप्तकस्य जपन्यः स्थितिबन्धः असत्यातगुणः अनन्त गुणवृद्धिस्थामानि सर्वसोकानि असमगुणवृद्धिस्थानान्यसोयगुणानि यावदनन्तभागवृद्धिस्थानान्यसोयगुणानि ३ अष्ठविवंधला भायुभीगः लोको नामगोत्रयोसुल्यो विशेषाधिको है शानदर्शनावरणान्तरायाणां तुल्यो विशेषाधिको मोहस्य विशेषाधिको वेदनीयस्य विशेषाधिकः ४ यवन्धनपरिणतः प्रयोगेन तदनुभाव प्रकृलान्तरस्थं दलिक गोपरिणमयति बत् स संक्रम इति भव्यते ॥१॥ अनुक्रम [३१५] %252-2255 SARERatininemarana बन्ध, उदय, उदिरणा, उपशमन, उद्वर्तन, प्रकृति-स्थिति आदि विषयस्य व्याख्या ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२९६] दीप अनुक्रम [३१५] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ।। २२२ ॥ श्रीस्थाना वा प्रकृत्यन्तरस्थिती वा नयनं स स्थितिसङ्क्रम इति उक्तं च--"ठिसंकमोत्ति बुच्चइ मूलुत्तरपगईओ उ जा हि ठिई। सूत्र- * उब्वट्टिया व ओवट्टिया व पगई जिया वऽन्नं ॥ १ ॥” इति, अनुभागसंक्रमोऽप्येवमेव यदाह - "तत्पर्य उन्बट्टिया वृत्तिः व ओवट्टिया व अविभागा । अणुभागसंकमो एस अन्नपगई णिया वावि ॥ १ ॥” इति, अनुपयंति - अनुभागसङ्क्रमस्व - रूपनिर्द्धारणं, 'अविभाग'त्ति अनुभागाः 'निय'त्ति नीता इति । यत्कर्म्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणाभ्यते स प्रदेशसङ्क्रमः, उक्तथ ""जं दलियमन्नपगई णिज्जइ सो संकमो पएसस्स" इति निधानं निहितं वा निधत्तं भावे कर्म्मणि वा तप्रत्यये निपातनात्, उद्वर्त्तनापवर्त्तनावर्जितानां शेषकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमुच्यते, नितरां काचनं-बन्धनं निकाचितं कर्मणः सर्वकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापनं, उक्तञ्चोभयसंवादि - "संक्रमणंवि निहत्तीऍ णत्थि सेसाणि वत्ति इयरस्स" इति, निकाचनाकरणस्येति, अथवा पूर्ववद्धस्य कर्म्मणस्तप्तसंमीलित लोहशलाका सम्बन्धसमानं निघत्तं तप्तमिलितसंकुट्टित लोहशलाका सम्बन्धसमानं निकाचितमिति, प्रकृत्यादिविशेषस्तूभयत्रापि सामान्यलक्षणानुसारेण नेय इति, विशेषतो बन्धादिस्वरूप जिज्ञासुना कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिरनुसरणीयेति ॥ इहानन्तर मल्पबहुत्वमुक्तं, तत्रात्यन्तमल्पमेकं शेषं त्वपेक्षया बहु इत्यल्पबहुत्वाभिधायिन एककतिसर्वशब्दान् चतुःस्थानकेऽवतारयन् 'चसारी'त्यादि सूत्रत्रयमाह, Jacation internation १] मूलोत्तरप्रकृतीनां या स्थितिस्तस्या उत्कर्षणमपकर्षणं प्रकृत्यन्तरस्थितावयमं वा स्थितिसंक्रम इत्युच्यते ॥ १ ॥ २] तन्त्रार्थ (खरूपं ) उदर्शिता वा अपवर्तिता वा अविभागाः । अनुभागसंकन एपः अन्यप्रकृति नीता वाऽपि ॥ १ ॥ ३ यत्किमन्य प्रकृती नीयते स प्रदेशस्य ४ निसंक्रमणमपि नास्ति निकायनस्य शेषाण्यपि ॥ For Parata Lise Only मूलं [२९६] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः बन्ध, उदय, उदिरणा, उपशमन, उद्वर्तन, प्रकृति- स्थिति आदि विषयस्य व्याख्या ~ 447~ स्थाना० उद्देशः २ प्रकृतिब धादि सू० २९६ ॥ २२२ ॥ war Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [२९७] दीप अनुक्रम [३१६] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२९७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] Education Internationa चत्तारिएका पं० [सं० दविए एकते माड उकते पज्जते इकते संग इकते ( सू० २९७) चचारि कती पं० द्वितकती माउयकती पावती संगहकती ( सू० २९८) चत्तारि सव्वा पं० [सं० नामसव्वए ठवणसव्वए आएसम्वते निरवसेससव्वते (सू० २९९ ) एकसयोपेतानि द्रव्यादीनि स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादेककानि, तत्र द्रव्यमेवैककं द्रव्यैककं सचित्तादिभेदात् त्रिवि धमिति, 'माउपएक्कए'सि मातृकापदैककम् एकं मातृकापदं, तद्यथा-उप्पन्ने इवेत्यादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनययादवीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति तद्यथा-उप्पन्ने इ वा विगए इ वा धुवे इ वत्ति, अमूनि च मातृकापदानीव आ इत्येवमादीनि सकलशब्दशास्त्रार्थव्या पारव्यापकत्वान्मातृकापदानीति, पर्यायैककः एकः पर्यायः, पर्यायो विशेषो धर्म्म इत्यनर्थान्तरं स चानादिष्टो वर्णादिरादिष्टः कृष्णादिरिति, सङ्ग्रहैककः शालिरिति, अयमर्थः - सग्रहः समुदायस्तमाश्रित्यैकवचन गर्भशब्दप्रवृत्तिः, तथा चैकोऽपि शालिः शालिरित्युच्यते, बहवोऽपि शालयः शाहिरिति, ठोके तथादर्शनादिति, कचित्पाठ: 'दविए एक्कए' इत्यादि, तत्र द्रव्ये विषयभूते एकक इत्यादि व्याख्येयमिति । कतीति प्रश्नगर्भापरिच्छेदवत्सङ्ख्यावचनो बहुवचनान्तः, तत्र द्रव्याणि च तानि कति च द्रव्यकति कति द्रव्याणीत्यर्थः, द्रव्यविषयो वा कतिशब्दो द्रव्यकतिः, एवं मातृकापदादिष्वपि, नवरं सङ्ग्रहाः शालियवगोधूमा इत्यादि । नाम तत्सर्वं च नामसर्व सचेतनादेव वस्तुनो यस्य सर्व्वमिति नाम तन्नामसर्वं नाम्ना सबै सर्व इति वा नाम यस्येति विग्रहाद्-नामशब्दस्य च पूर्वनिपातः, तथा स्थापनया-सर्वमेतदितिकल्पनया अक्षादि द्रव्यं सर्वे स्थापना सर्व स्थापनैव वा अक्षादिद्रव्यरूपा सर्व्वं स्थापना For Parts Only ~448~ war Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९९] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥२२३॥ ४ स्थाना० उद्देशः२ मानुषोत्तरकूटाः दु प्षमसुष 6-03- 25 सई, आदेशनमादेशः-उपचारो व्यवहारः स च बहुतरे प्रधाने वा आदिश्यते देशेऽपि यथा विवक्षितं घृतमभिसमीक्ष्य बहुतरे भुक्त स्तोके च शेषे उपचारः क्रियते-सच घृतं भुक्तं, प्रधानेऽप्युपचारः यथा ग्रामप्रधानेषु गतेषु पुरु-1 पेषु सब्बों ग्रामो गत इति व्यपदिश्यते इति, अत आदेशतः सर्वमादेशसर्वं उपचारसर्वमित्यर्थः, तथा निरवशेषतया। |-अपरिशेषव्यक्तिसमाश्रयेण सबै निरवशेषसर्वं, यथा-अनिमिषाः सर्वे देवाः, न हि देवव्यक्तिरनिमिषत्वं काचिद् व्यभिचरतीत्यर्थः, सर्वत्र ककारः स्वार्थिको द्रष्टव्यः । अनन्तरं सर्व प्ररूपितं तत्प्रस्तावात् सर्वमनुष्यक्षेत्रपर्यन्तवतिनि पर्वते सर्वासु तिर्यग्दिक्षु कूटानि प्ररूपयन्नाह माणुमुत्तरस्सणं पव्वयस्स चढदिसिं चत्तारि कूडा पं० त०-रयणे रतणुचते सञ्चरयणे रतणसंचये (सू० ३००) जंबहीवे २ भरहेरवतेसु वासेसु तीताते उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुत्था जंबूदीये २ भरहेरवते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए जहण्यापए ण चत्तारि सागरोजमकोडाकोडीओ कालो हुत्था, जंबुद्दीवे २ भरहेरखएमु वासेसु आगमेस्साते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोटीमो कालो भविस्सइ (सू०३०१) जंबूरीवे २ देवकुरुउत्तरकुरुवजाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ पं० सं०-हेमवते हेरनवते हरिवस्से रम्मगवासे, चत्तारि बट्टवेयडपब्बता पं० सं०-सहावई वियडावई गंधावई मालवंतपरिताते, तत्थ णं यत्तारि देवा महिद्वितीया जाव पलिओवमद्वितीता परिवसंति, ०-साती पभासे अरुणे पउमे, जंबूहीवे २ महाविदेहे वासे चउबिहे पं० ०-पुध्वविदेहे अवरविदेहे देवकुरा उत्तरकुरा, मब्बेऽवि णं णिसढणीलवंतवासहरपव्वता चत्तारि जोयणसयाई उड़ मावर्षादि सू०३००३०२ दीप अनुक्रम [३१८] ~449~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] + गाथा-१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०२] उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उम्मेहेणं पं०, जंवूहीवे २ मैदरस्स पब्वयस्स पुरथिमेणं सीताए महानदीए उत्तरे कूले पत्तारि बक्खारपब्वया पं० सं०-चित्तकूडे पम्हकूडे णलिणकूडे एगसेले, जंबू० मंदर० पुर० सीताए महानदीए दाहिणकले पत्तारि वखारपश्वया पं० सं०-तिकूडे बेसमणकूडे अंजणे मातंजणे, जंबू० मंदर पञ्चस्थिमेणं सीओदाए महानतीए दाहिणकूले चत्तारि बक्खारपन्नता पं०२०-अंकावती पम्हावती आसीबिसे सुहावहे, जंबू० मंदर पर० सीओदाए महाणतीते उत्तरकूले बत्तारि वक्खारपब्वया पं० तं0--चंदपव्यते सूरपन्यते देवपश्यते णागपन्वते, जंबू मदरस्स पब्वयस्स चमु विदिसासु चत्तारि बक्खारपब्बया पं० सं०---सोमणसे विअप्पभे गंधमायणे मालवंते, जंबूरीवे २ महाविदेहे वासे जहन्नपते चत्तारि अरहता चत्तारि चकवट्टी चत्तारि बलदेवा चचारि वासदेवा उपजिमुवा उप्पजति वा उपजिरसंति वा, जंबूरीवे २ मंदरपवते चत्तारि वणा पं०२०-भरसालवणे नंदणवणे सोमणसवणे पंडगवणे, जंबू० मन्दरे पवए पंडगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ पं० २०-पंहुर्फ पलसिला अइपंडुकबलसिला रतकंबलसिला अतिरत्तकंवलसिला, मंदरचूलिया णं उबरिं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं पन्नता, एवं धायइसंडदीवपुरछिमझेवि कालं आदि करेना जाव मंदरचूलियत्ति, एवं जाव पुक्खरवरदीवपञ्चरिछमद्धे जाप मंदरचूलि यत्ति-जंबूद्दीवगावस्सगं तु कालाओ मूलिया जाव । धायइसंडे पुक्खरवरे य पुत्वावरे पासे ॥१॥ (सू० ३०२) 'माणुसुत्तरस्से'त्यादि स्फुट, किन्तु 'चउदिसिन्ति चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक तस्मिंश्चतुर्दिशि, अनुस्वारः प्राकृतत्वादिति, कूटानि-शिखराणि, इह च दिग्ग्रहणेऽपि विदिश्विति द्रष्टव्यं, तत्र दक्षिणपूर्वस्यां दिशि रत्नकूट, गरु दीप अनुक्रम [३२२] SAREauraton international ~450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३०२] ॥२२४॥ उस्य वेणुदेवस्य निवासभूतं, तथा दक्षिणापरस्यां दिशि रलोच्चयकूटं वेलम्बसुखदमित्यपरनामक वेलम्बस्य वायुकुमारेन्द्रस्य र स्थाना सम्वन्धि, तथा पूर्वोत्तरस्यां दिशि सर्वरत्नकूट वेणुदालिसुपर्णकुमारेन्द्रस्य, तथा अपरोत्तरस्यां रलसञ्चयकूट प्रभञ्जना- का उद्देशः२ परनामकं प्रभञ्जनवायुकुमारेन्द्रस्येति, एवं चैतद् व्याख्यायते द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्यनुसारेण, यतस्तत्रोक्तम्- | मानुषोत्त "दक्षिणपुब्वेण रयणकूड गरुलस्स वेणुदेवस्स । सब्बरयणं च पुन्बुत्तरेण तं वेणुदालिस्स ॥१॥ रयणस्स अवरपासे | रकूटाःदुभातिनिवि समइच्छिऊण कूडाई । कूडं वेलंबस्स उ विलंबसुहयं सया होइ ॥ २॥ सबरयणस्स अवरेण तिन्नि समइच्छि-1 प्षमसुष ऊण कूडाई। कूड पभंजणस्स उ पभजणं आढियं होइ ॥३॥" इति, इह चतुःस्थानकानुरोधेन चत्वार्युकानि, अ- मावर्षादि न्यथा अन्यान्यपि द्वादश सन्ति, पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु त्रीणि त्रीणि, द्वादशापि चैकैकदेवाधिष्ठितानीति, उर्फ च- सू० "पुज्वेण तिनि कूडा दाहिणओ तिणि तिण्णि अवरेणं । उत्तरओ तिन्नि भवे चउद्दिसिं माणुसनगस्स ॥१॥” इति । अनन्तरं मानुषोत्तरे कूटद्रव्याणि प्ररूपितानि, अधुना तेनावृतक्षेत्रद्रयाणां चतु:स्थानकावतारं 'जंबूद्दीवेत्यादिना चत्तारि मंदरचूलियाओं एतदन्तेन ग्रन्थेनाह-व्यक्तश्चार्य, नवरं, चित्रकूटादीनां वक्षारपळतानां पोडशानामिदं स्वरूपम्"पंचसए बाणउए सोलस य सहस्स दो कलाओ य । विजया १ वक्खारं २ तरनईण ३ तह वणमुहायामो ४ ॥१॥" १६क्षिणपूर्वस्यां रत्नकूट गढस्य पेणुदेवस्य सर्वरच पूर्वोत्तरस्यां तद्वेषुदालिनः ॥1॥जल्यापरपात्रीम्यपि समतिक्रम्य कुटानि कूट लंबस्य तु विलंबसुखद् सदा भवति ॥२॥ सर्वरनवापरस्यों त्रीणि कूडानि समतिक्रम्य प्रभंजनस्य प्रभंजनं कुट आयं भवति ॥३॥२पूर्वस्या त्रीणि ढानि दक्षिणमा त्रीणि अपरात्रीणि उत्तरस्यां त्रीणि भवेयुक्तसूपु दिशुमानुषनमस्य॥1॥३दिनबलाधिकपंचशतानि पोखश सहस्राणि कठे विजया वक्षस्कारा ||२२४॥ अन्तर्नयः तथा वनमुखान आयामेन ॥१॥ ABSCASS दीप अनुक्रम [३२२] - ~ 451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०२] इति, सथा-जत्तो वासहरगिरी तत्तो जोयणसयं समवगाढा । चत्तारि जोयणसए उब्धिद्धा सब्बरयणमया P॥१॥जसो पुण सलिलाओ तत्तो पंचसयगाउउब्बेहो । पंचेव जोयणसए उब्बिद्धा आसखंधणिभा ॥२॥” इति.IN ४ विष्कम्भश्चैषामेवम्-"विजयाणं विक्खंभो बावीससयाई तेरसहियाई। पंचसए बक्लारा पणुवीससयं च सलिलाओ3 १॥" इति ॥ पद्यते-गम्यते इति पदं-ससयास्थानं तच्चानेकति जघन्य-सत्रहीनं पदं जघन्यपदं तत्र विचार्ये सत्यवश्यंभावेन चत्वारोऽर्हदादय इति ।। भूम्यां भद्रशालवनं मेखलायुगले च नन्दनसौमनसे शिखरे पण्डकवनमिति, अन्न गाथा:- बाबीससहस्साई पुव्यावरमेरुभद्दसालवणं । अड्डाइजसया उण दाहिणपासे य उत्तरओ ॥१॥ पंचेव जोयणसए उहुं गंतूण पंचसयपिहुलं । नंदणवणं सुमेरुं परिक्खिवित्ता ठियं रम्मं ॥२॥ वासहिसहस्साई पंचेव सयाई| नंदणवणाओ । उहुं गंतूण वर्ण सोमणसं नंदणसरिच्छं ॥३॥ सोमणसाओ तीसं छच्च सहस्से विलग्गिऊण गिरि । विमलजलकुंडगहणं हवद वर्ण पंडगं सिहरे ॥४॥ चत्तारि जोयणसया चउणउया चकवालओ रुदै । इगतीस जोयणसया बावडी परिरओ तस्स ।। ५॥” इति, तीर्थकराणामभिषेकार्थाः शिला अभिषेकशिलाः चूलिकायाः पूर्वदक्षिणा यतो वर्षधरगिरिसतो योजनशतं समवगाहाः चतुर्योजनशतान्युद्वियाः सवरामयाः ॥१॥ यतः पुनः सलिलाः ततः पंचशतगम्यूतान्युट्टेधः पंचैव योजनताम्युद्रिद्धा अवरकम्पनिमा। ॥ २॥२ विजवानां विष्कम्भो प्रयोदशाधिकानि द्वाविंशतिवातानि वक्षस्कारागा पंचशतानि सतिताना पंचविशवधिक शतं ॥1॥ मेरोः पूर्वापरयोद्वाविंशतिः सहखाणि भवशालय दक्षिणोत्तरपार्थबोरसतृवीयशतानि पुनः॥१॥ पंचैव योजनशतान्पूर्ण गला पंचयोजनशतपृथुख नंदनं सुमेर तापरिक्षिप्य स्थित रम्यं ॥ २॥ नन्दनवनापूर्णद्वाध्यिातिः सहलागि पंचव शतानि गत्वा नन्दनवनसरी सीमगर्स व ॥३॥सोमनसास्पदविधरसहखाणि गत्वा, का गिरौ विमलजलकुंडगहन पाण्डक बनं भवति शिखरे ॥ ४॥ चनुनंवत्यधिकचतुःसतानि चकवाल तया विस्तीर्ण द्विषटवधिककत्रिंशयछतानि तस्य परिरयः ॥ ५॥ दीप अनुक्रम [३२२] ~ 452~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- जन्सूत्र वृत्तिः द्वीपद्वा प्रत सूत्रांक [३०२]] ॥२२५॥ ३०४ दीप अनुक्रम [३२२] परोत्तरासु दिक्षु क्रमेणावगम्या इति, उवरिति अग्रे 'विक्खंभेणं ति विस्तरेणेति यथा 'जंबहीवे दीये भरहेरव- स्थाना० एमु चासेसु' इत्यादिभिः सूत्रः कालादयश्चलिकान्ता अभिहिताः एवं धातकीखण्डस्य पूवार्डे पश्चिमा पुष्करा - उद्देशः२ स्यापि पूर्वाङे पश्चिमाढ़े च पायाः, एकमेरुसम्बद्धवक्तव्यतायाः चतुर्वप्यन्येषु समानत्वाद्, एतदेवाह-एव'मि-131 त्यादि, अमुमेवातिदेश सहगाथया आह-जंबूहीवेत्यादि, जंबुद्वीपस्वेदं जम्बूद्वीपर्क तं वा गच्छतीति जम्बूद्वीपगं, राणि अजम्बूद्वीपे यदिति कचिसाठः, अवश्यंभावित्वाद् वाच्यत्वाद्वाऽऽवश्यकं जम्बूद्वीपकावश्यक जम्बूद्वीपगावश्यक वा वस्तु- न्तरद्वीपाः जातं, तुः पूरणे, किमादि किमन्तं चेत्याह-कालात् सुषमसुषमालक्षणादारभ्य चूलिका-मंदरचूलिका यावत् यत्तदिति| 31सू०३०३. गम्यते धातकीखण्डे पुष्करवरे च द्वीपे यौ पूर्वोपरी पाचौं प्रत्येकं पूवार्द्धमपरार्द्ध च तयोः पूर्वापरेषु वर्षेषु वा-क्षेत्रेवन्यूनाधिकं द्रष्टव्यमिति शेष इति ॥ अंबडीवस्स पं दीपस्स चत्तारि दारा पं०सं०-विजये वेजयंते जयंते अपराजिते, ते णं दारा पत्तारि जोयणाई विखंभेण ताबतितं चेव पवेसेणं पं०, तत्थ ण चत्तारि देवा महिडीया जाव पलिओवमद्वितीता परिवसंति विजते वेजयंते जयंते अपराजिते (सू०३०३) जंबूहीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुलहिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स चउसु विदिसासु लवणसमुई तिनि २ जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्य णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०-एगूरूयदीवे आभासियदीवे वेसाणितदीवे गंगोलियदीवे, तेसुणं दीवेसु चडब्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं०-एगूरूता आभासिता वेसाणिता गंगोलिया, ॥२२५॥ तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसामु लवणसमुदं चत्तारि २ जोवणसयाई ओगाहेत्ता एत्य णं चत्वारि अंतरदीवा पं० तं० ~ 453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०४] +CACA -हयकनदीवे गयकनदीवे गोकन्नदीवे संकुलिकन्नदीवे, तेसु णं दीवेसु चाउम्विधा मणुस्सा परिवसति तं०-यकन्ना गयकन्ना गोकना संकुलिकना, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुई पंच २ जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० २०-आर्यसमुहदीवे मेंढमुहदीवे अओमुद्ददीये गोमुहदीवे, तेसु णं दीवेसु चउचिहा मणुस्सा भाणियन्वा, सिणं दीवाणं चउसु विदिसामु लवणसमुई छ छ जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्य णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०आसमुहदीवे हस्थिमुहदीवे सीहमुहदीवे बग्घमुहदीवे, तेसु गं दीघेसु मणुस्सा भाणियन्वा, तेसि णं दीवाणं पसु विदिसासु लवणसमुदं सत्त सत्त जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्व णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०-आसकन्नदीवे हस्थिकन्नदीये अकन्नदीवे कनपाउरणदीवे, तेमु णं दीवेसु मणुया भाणियब्बा, तेसि णं दीयाणं चउसु विदिसासु लवणसमुई अट्ठह जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्य णं चत्तारि अंतरदीवा ५००-उकामुहदीवे मेहमुहदीवे विजुमुहबीवे विजुदंतयीये, तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणिवण्या, तेसि ण दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुई णव णन जोयणसयाई ओगाहेत्ता एस्थ णं चत्वारि अंतरदीवा पं० त०-पणदंसदीये लवंतदीवे गूढतदीवे, मुद्धदतदीये, तेसु णं दीयेसु चउन्धिहा मणुस्सा परिवसंति, तं०-घणदता बहदंता गूढदता सुद्धता, जंबूहीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासहरपब्जयस्स चसु विदिसासु लवणसमुदं तिनि २ जोयणसयाई ओगाहेत्ता एस्थ णं चत्वारि अंतरदीवा पं००---एगूरुयदीवे सेसं तदेव निरवसेसं भाणियब जान सुद्धदंता (सू०३०४) जंबूदीवस्स णं दीवस्स बाहिरिल्लाओ बेतितताओ चपरिसि लवणसमुई पंचाणउद जोवणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्य णे महतिमहालता महालंजरसंठाणसंठिता चत्वारि महापायाला दीप अनुक्रम [३२४] SAMACREC ~454~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -5 श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः NCRes 4 % प्रत सूत्रांक [३०५] + ॥ २२६॥ ४ स्थाना उद्देशः२ पातालकलशाःधातकीविकभादि सू०३०५. | ३०६ 5 + दीप अनुक्रम [३२५] पं० सं०-बलतामुहे केउते जूबए इसरे, एल्व णं चत्वारि देवा महिड्रिया जाव पलिओवमहितीता परिवसंति, तं०काले महाकाले वेलंये पभंजणे, जंबूदीवस्स णं दीवस्स बाहिरिलाओ वेतितंताओ चउदिसिं लवणसमुई बायाळीसं २ जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्य णं चउण्हं वेलंधरनागराईणं चत्तारि आवासपब्वता पं० २०-गोथूभे उदयभासे संखे दगसीमे, तत्थ णं चत्तारि देवा महिडिया जाव पलिओक्मट्रितीता परिवसंति ०-गोथूभे सिवए संखे मणोसिलाते, अंदीवरस णं दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ चउसु विदिसासु लवणसमुदं बायालीसं २ जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्थ णं चजण्हं अणुवेलंधरणागरातीणं चत्वारि आवासपव्वता ५० त०-ककोडए विजुष्पभे केलासे अरुणप्पभे, तत्थ णं पत्तारि देवा महिडीया जाव पलिओवमद्वितीता परिवसंति, सं०-फकोडए कदमए केलासे अरुणप्पभे, लवणे णं समुदेणं चत्तारि चंदा पभासिसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, चत्तारि सूरिता तविसु चा तवंति वा तविस्संति वा, चत्तारि कत्तियाओ जाव चत्तारि भरणीओ, चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा, चत्तारि - गारा जाव चत्तारि भावकेऊ, लवणस्स णं समुदस्स चत्तारि दारा पं० २०--विजए विजयंते जयंते अपराजिते, ते णं दारा ण चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावतितं चेक पवेसेणं पं०, तत्थ णं चक्षारि देवा महिड़िया जाव पलिओवमद्वितिया परिवसंति-विजये बेजयंते जयंते अपराजिए (सू० ३०५) धायइसंडे दीवे चत्वारि जोषणसयसहस्साई चकवालविक्संभेणं पं०, जंबूदीवस्स णं दीवस्स बहिया चत्तारि भरहाई चत्तारि एरवयाई, एवं जहा सहुदेसते तहेव निरवसेस भाणियव्वं जाव चत्तारि मंदरा चत्तारि मन्दरचूलिआओ (मू०३०६) KAMASTRACT ॥२२६॥ ~455~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३०६ ] दीप अनुक्रम [३२६] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] विजयादीनि क्रमेण पूर्वादिदिक्षु विष्कम्भो-द्वारशाखयोरन्तरं प्रवेशः- कुड्यस्थूलत्वमष्ट योजनान्युच्चमिति, उच “उजोयणविच्छिना अहेव य जोयणाणि उब्विद्धा । उभओवि कोसकोसं कुड्डा वालओ तेसिं ॥ १ ॥” इति, क्रोशं शाखाबाहल्यमित्यर्थः, “पलिओचमडिईया सुरगणपरिवारिया सदेवीया । एएसु दारनामा वसंति देवा महिडीया ||२||" इति, 'चुल्लहिमवंतस्स' त्ति महाहिमवदपेक्षया लघोर्हिमवतः, तस्य हि प्राग्भागापरभागयोः प्रत्येकं शाखाद्वयमस्तीत्युच्यते 'चसु विदिसासु' विदिक्षु पूर्वोत्तराद्यासु लवणसमुद्रं त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगाह्य-उहा ये शाखाविभागा वर्त्तन्ते 'एत्य'त्ति एतेषु शाखाविभागेषु अन्तरे-मध्ये समुद्रस्य द्वीपाः, अथवा अन्तरं - परस्परविभागस्तत्प्रधाना द्वीपा अन्तरद्वीपाः, तत्र पूर्वोत्तरायामेकोरु [च] काभिधानो योजनशतत्रयायामविष्कम्भो द्वीपः एवमाभाषिकवैपाणिकलाङ्गुलिकद्वीपा अपि क्रमेणाग्नेयीनैऋतीवायव्यास्विति चतुर्विधा इति समुदायापेक्षया न त्वेकैकस्मिन्निति, अतः क्रमेणैते योज्याः, द्वीपनामतः पुरुषाणां नामान्येव, ते तु सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरा दर्शने मनोरमाः स्वरूपतो, नैकोरुचकादय एवेति तथा एतेभ्य एव चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य प्रतिविदिक् चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा द्वितीयाश्चत्वार एव, एवं येषां यावदन्तरं तेषां तावदेवायामविष्कम्भप्रमाणं यावत्सप्तमानां नवशतान्यन्तरं तावदेव च तत्प्रमाणमिति, सर्वेऽप्यष्टाविंशतिरेते, एतन्मनुष्यास्तु युग्मप्रसवाः पत्योपमासङ्ख्ये य भागायुपोऽष्टधनुःशतोच्चाः, तथैरावतक्षेत्र विभाग १ योजनचतुष्कं विस्तीर्ण अयोजनोद्वेधा उभयतोऽपि कोशको कुइया बाहूल्यतस्तयोः ॥ १ ॥ पयोपमस्थितिकाः सुरगणपरिवृताः सदेवीकाः एतेषु द्वारनामानो वसन्ति देवा महर्दिकाः ॥ २ ॥ Internationa मूलं [ ३०६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Penal Use On ~456~ war Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०६] श्रीस्थाना- कारिणः शिखरिणोऽप्येवमेव पूर्वोत्तरादिविदिक्षु क्रमेणतन्नामिकैवान्तरद्वीपानामष्टाविंशतिरिति, अन्तरद्वीपप्रकरणार्थस- ४ स्थाना० इसूत्र- ब्रहगाथाः-"चुलहिमवंत पुब्बावरेण विदिसासु सागरं तिसए । गंतूर्णतरदीवा तिन्नि सए होंति विच्छिन्ना ॥१॥ अउ-18 उद्देशः २ वृत्तिः णावन्ननवसए किंचूणे परिहि तेसिमे नामा। एगूरुगाभासिय बेसाणी चे नंगूली ॥२॥ एएसि दीवाणं परओ पातालक चत्तारि जोयणसयाई । ओगाहिऊण लवणं सपडिदिसिं चउसयपमाणा ॥३॥ चत्तारंतरदीवा हयगयगोकन्नसंकुली-| लशाः धा॥२२७॥ कण्णा । एवं पंचसयाई छसत्तअढेच नव चेव ।। ४ ॥ ओगाहिऊण लवणं विक्खंभोगाहसरिसया भणिया । चउरो च तकीविनउरो दीवा इमेहिं णामेहिं यब्वा ॥५॥ आयंसगमेंढमुहा अओमुहा गोमुहा य चउरेते । अस्समुहा हत्थिमुहा सीह- कंभादि मुहा चेव बग्घमुहा ॥६॥ तत्तो अ अस्सकन्ना हस्थियकन्ना अकन्नपाउरणा । उक्कामुहमेहमुहा विजुमुहा विजुदंता य सू०३०६ ॥७॥ घणदंत लहदंता निगूढदंता य सुद्धदंता य । वासहरे सिहरंमिवि एवं चिय अट्ठबीसावि ॥ ८॥ अंतरदीवेसुई नरा धणुसयभट्ठसिया सया मुइया । पालिंति मिहुणधर्म पालस्स असंखभागाऊ ॥ ९ ॥ चउसद्वि पिढिकरंडयाणि हवाहिमवत्पूर्वापरयोविपितु विशती सागर गया द्वीपानिशतचित्तीर्णा भवन्ति ॥१॥ एकोनपंचामादपि नसतं किचिन परिधिः तेषाभिमानि | नामानि एकोरुक आभाषिको विषाणी लांगुली और ॥२॥ एतेषां द्वीपानां परतश्चत्वारि योजनशतादि अवगाय लवणं सप्रतिदिशि चतुःशतप्रमाणाः ॥ ३॥ का चरवारोऽन्सीपा हयगजगोकर्णशालीकर्णाः एते पंचशतानि षट्सप्लाष्ट नव चैव ॥४॥ लवणमवगाय विष्कम्भावगाहसरताः भणिताः पत्यारषत्वारी द्वापा 12 | इमैनामभितिव्याः ॥ ५॥ भादपक मेंहमुखायोमुखा गोमुखय चत्वार एते अश्वनुखो इस्तिमुलः सिंहमुखनैव व्याप्रमुसः ॥६॥ ततथ्याश्वकर्णः इसिक-1, ॥२२७॥ |णोफर्णकर्णप्रावरणाः उल्कामुखः मेषभुसः विद्युन्मुसो विगुरन्तब ॥७॥ पनवंतोदन्तः निगडदन्तब शुद्धदम्तब शिखरिष्यपि वर्षधरे एकमेव अशार्षि-17 शतिरपि ॥८॥ अन्तपिपु मरा। धनु-शतायोच्छूिताः सदा मुदिताः पालयन्ति मिथुन कधर्म पल्यासमभागायुषः ॥५॥ चतुःषष्टिः पृथकरण्दकानि दीप अनुक्रम [३२६] SAREauraton international ~ 457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०६] मणुयाणऽवच्चपालणया । अउणासीई तु दिणा चउत्थभत्तेण आहारो॥१०॥” इति ॥ एत्य 'ति मध्यमेषु दशसु योजनसहस्रेषु महामहान्त इति वक्तव्ये समयभाषया 'महइमहालया' इत्युक्तम् , महच्च तदरञ्जरं च अरंजरं-उदकुम्भ इत्यर्थः महारजरं तस्य संस्थानेन संस्थिता येते तथा, तदाकारा इत्यर्थः, महान्तस्तदन्यक्षुल्लकव्यवच्छेदेन पातालमिमिवागाधत्वात् गम्भीरत्वासातालाः पातालव्यवस्थितत्वादा पातालाः महान्तश्च ते पातालाश्चेति महापाताला, वडवामुखः केतुको यूपक ईश्वरश्चेति, क्रमेण पूर्वादिदिश्विति, एते च मुखे मूले च दश सहस्राणि योजनानां, मध्ये उच्चैस्त्वेन च लक्षमिति, एषामुपरितनभागे जलमेव मध्ये वायुजले मूले वायुरेवेति, एतन्निवासिनो देवाः वायुकुमाराः कालादय इति, इह गाथा:-"पणनउइ सहस्साई ओगाहित्ताण चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलंजरसंठाणसंठिया होंति | पायाला ॥१॥ वलयामुह केऊए जूयग तह इस्सरे य बोद्धव्वे । सथ्ववइरामयाणं कुड्डा एएसिं दससइया ॥२॥ जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होति विच्छिन्ना । मज्झे य सयसहस्सं तत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥ ३॥ पलिओवमठिईया एएसिं अहिवई सुरा इणमो । काले य महाकाले वेलंब पभंजणे चेव ॥४॥ अन्नेवि य पायाला खुड्डालंजरगसंठिया १ मनुष्याः एकोनाशीतिं यावदषस्यपालनादिनागि आहारचतुर्थगन ॥१॥ २ चतुर्दिशि लवर्ण पंचनवतिसहस्राण्याचगाय चत्वारोऽलंजरसंस्थान| संस्थिताः पाताला भवन्ति ।।१॥ क्लयमुखः केतुकः सूपकलाथा ईश्वरष ओव्याः सर्वे यनमयाः काया एषां दशशतानि ॥ २ ॥ दशसहसयोजनानि मूले। उपरिच विस्तीर्णा भवन्ति मध्ये शतसहस्र तावन्मात्रं चावगाडाः ॥ ३ ॥ पल्योपमस्थितिका एतेषामधिपतिमुरा एते कालच महाफालः बेलंयः प्रभंजन चैव ॥४॥ अन्येऽपि च धक्कालंजरसंस्थिता दीप अनुक्रम [३२६] Inmastaram.org ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३०६ ] दीप अनुक्रम [३२६] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २२८ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (२). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Internationa लवणे । अहसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सब्वेवि ॥ ५ ॥ जोयणसयविच्छिन्ना मूलबरिं दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं दस जोयणिया य. सिं कुड्डा ॥ ६ ॥ पायालाण विभागा सव्वाणवि तिन्नि तिन्नि बोद्धव्या । हेहिमभागे वाऊ मझे वाऊ य उदयं च ॥ ७ ॥ उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएस वाढसंखुभिओ । वामे [वमतीत्यर्थः >, उदगं तेण य परिवहुइ जलनिही खुहिओ ॥ ८ ॥ परिसंठियंमि पवणे पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । वच्चेई तेण उदही परिहायइणुकमेणेवं ॥ ९ ॥” इति वेलां लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्तीं वहिर्वाऽऽयान्तीमशिखां च धारयन्तीति संज्ञाखाद्वेलंधरास्ते च ते नागराजाश्च - नागकुमारवराः वेलंधरनागराजास्तेषामावासपर्वताः पूर्वादिदिक्षु क्रमेण गोस्तूपादयः, विदिक्षु-पूर्वोत्तरादिषु वेलंधराणां पश्चात्तयो अनुनायकत्वेन नागराजा अनुवेलंधरनागराजाः, वेलंधरवतंव्यता| गाथा: “देसजोयणस्सहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा सोलससहस्सउच्चा सहस्यमेगं तु ओगाढा ॥ १ ॥ [ समाद् भूभागादिति भावः > देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । [ दिवा रात्रौ चेत्यर्थः ]>, 1 बने पातालाः सन्ति ते सर्वेऽपि सप्तसहस्राष्टशतचतुरशीतिमिताः ॥ ५ ॥ योजनशत विस्तीर्ण मूले उपरि च दश शतानि मध्ये अवगाडाथ सदयं दश योजनानि (योजनमाना ) भित्तिः ॥ ६ ॥ सर्वेषामपि पातालानां प्रयखयो भागा बोदव्याः अपस्तनभागे वायुर्मध्ये वायुरुदकं च ॥ ७ ॥ उपरि उदकं भणितं प्रथमद्वितीययोः संमितो वायुरुदकं वमति तेन क्षुभितो जलनिधिः परिवर्द्धते ॥ ८ ॥ पवने परिस्थिते पुनरप्युदकं तरसंस्थानमेव गच्छति तेनोदभिः परिड़ीयतेऽनुक्रमेणैवं ॥ ९ ॥ २ लवगशिखा दशयोजनससमाना चकवाकतो विखीणी पोडशसहस्रोचा एकं सहस्रं त्ववगाढा ॥ १ ॥ दिवा रात्री व देश्रोनम योजन लवणशिखोपरि मूलं [ ३०६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 459~ ४ स्थाना० उद्देशः २ पातालक लशाः धातकीवि कंभादि सू० ३०६ ॥ २२८ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०६] | अइरेग आइरेग परिवहद हायए वावि ॥२॥ अभितरिय बेलं धरेंति लवणोदहिस्स नागाणं पायालीससहरसा[अन्तविशन्तीमित्यर्थः> दुससरिसहस्स बाहिरियं ॥३॥" [बहिर्गच्छन्तीमित्यर्थः> सहि नागसहस्सा धरिति अग्गोदगं शिखाग्रमित्यर्थः> समुदस्स । वेलंधरआवासा लवणे य चउद्दिसिं चउरो॥४॥ पुवाइ अणुकमसो गोधुभदगभाससंखदगसीमा । गोधुभ सिवए संखे मणोसिले नागरायाणो ॥ ५॥ अणुवेलंधरवासा लवणे विदिसासु संठिया चउरो। ककोडे विजुष्पभे केलासऽरुणप्पभे चेव ॥६॥ ककोडय कद्दमए केलासऽरुणप्प य रायाणो । बायाली|ससहस्से गंतु उदहिमि सब्वेवि ।। ७॥ चत्तारि जोयणसए सीसे कोसं च उग्गया भूमिं । सत्तरस जोयणसए इगवीसे ऊसिया सव्वे ॥८॥ इति, 'पभासिंसुत्ति चन्द्राणां सौम्यदीप्तिकत्वाद्वस्तुप्रभासनमुक्तमादित्यानां तु खररश्मित्वात् 'तवइंसुत्ति तापनमुक्तमिति । चतुःसङ्ख्यत्वाच्चन्द्राणां तपरिवारस्यापि नक्षत्रादेश्चतुःसङ्ख्यत्वमेवेत्याह-चतस्रः कृत्तिका नक्षत्रापेक्षया न तु तारकापेक्षयेति, एवमष्टाविंशतिरपि, अग्निरिति कृत्तिकानक्षत्रस्य देवता यावद्यम इति भरण्या दे अतिरेकमतिरेक परिवर्धते हीयते वापि ॥ १॥ अभ्यन्तरी वेलां धारयति लवणोदः हामायारिवाराहनमाना देवाः नामाना बासमतिसहनी पान ॥ ३ ॥ पसिनांगराहनी धारयंवनोदकं समुद्रस्य । वेलम्धराणामावासा लवणे च चतुर्दिा चत्वारः ॥ ४ ॥ पूर्वाधानुकमतः गोरतूपदकभासशंखदकसीमास्या मोस्तूपशिवशंसमनःशिला नागराजानः ॥५॥ लवणे विदिक्षु चत्वारोऽनुवेलंधरावासाः संस्थिताः कर्कोटकलियुत्पनकैलासारुणप्रभा व ॥ ॥ कर्कोटका कर्दमकः कैलासोऽरुणप्रभश्व राजानः द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि तस्सिदा सर्वेऽपि गत्वा ॥ ७॥ चत्वारि योजनशतानि त्रिंशतं कोश चोद्गता भूमि । सप्तदशयोजनशती एकविंशविच्छ्रिताः सर्वे ॥८॥ दीप अनुक्रम [३२६] ~ 460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३०६ ] दीप अनुक्रम [३२६] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २२९ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [२]. स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Education Internation *******... - वता, अङ्गारक आयो ग्रहः भावकेतुरित्यष्टाशीतितम इति शेषं यथा द्विस्थानके, समुद्रद्वारादि जम्बूद्वीपद्वारादिवदिति, चक्रवालस्य- वलयस्य विष्कम्भी - विस्तरः जम्बूद्वीपाद्वह्निर्घातकीखण्डपुष्करार्द्धयोरित्यर्थः, शब्दोपलक्षित उद्देशकः | शब्दोदेशको द्विस्थानकस्य तृतीय इत्यर्थः केवलं तत्र द्विस्थानानुरोधेन 'दो भरहाई' इत्याद्युक्तमिह तु 'चत्तारी'त्यादि, उक्तं मनुष्यक्षेत्रवस्तूनां चतुःस्थानकमधुना क्षेत्रसाधर्म्यानन्दीश्वर द्वीपवस्तूनामासत्यसूत्राच्चतुःस्थानकं 'नंदीसरस्से'त्यादिना ग्रन्थेनाह मूलं [ ३०६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः [ अथ नन्दीश्वरविचारः ] णंदीसरवरस्स णं दीवस्स चकवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउद्दिसिं चत्तारि अंजणग पञ्चता पं० [सं० पुरथिमिले अंजणगपव्वते दाहिणिल्ले अंजणगपव्यए पचस्थिमिले अंजणगपव्वते उत्तरि अंजणगपव्वते ४, ते णं अंजणगपव्वता चडरासीति जोयणसहस्साई उई उचत्तेनं एवं जोवणसहस्सं उन्हेणं मूले दस जोयसहस्सा विक्खंभेणं तदणंतरं च णं मायाए २ परिहातेगाणा २ उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पण्णत्ता मूले इकतीसं जोयणसहस्साई छच तेवी से जोयणसते परिकखेवेणं उपरिं तिनि २ जोयणसहस्साई एवं च छाव जोयणसतं परिक्षेणं, मूले विच्छिन्ना मध्ये संखेत्ता, उपितणुया० गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वअंजणमया अच्छा सहा लहा घट्टा मट्ठा भीरया निव्यंका निकंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सजोया पासाईया दरिसणीया अभिरुवा पढिरुवा, सिणं अंजणगपव्वयाणं उवरिं बहुसमरमणिजभूमिभागा पं० तेसि णं बहुसमरमणिज्जभूमिभागाणं बहुमज्झदेस भागे चत्तारि सिद्धाययणा पण्णत्ता, ते णं सिद्धाययणा एवं जोवणसर्व आयामेणं पण्णत्ता पण्णासं जोयणाई विक्संभेणं बाब For Parts Only ~ 461 ~ ४ स्थाना० उद्देशः २ नन्दीश्व राधि० सू० ३०७ ॥ २२९ ॥ waryra Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३०७] दीप अनुक्रम [ ३२७ -३२९] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (२). Eaton nation मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] -- 1 + तरि जोयणाई उउथसेणं, तेसिं सिद्धाययणाणं चउदिसिं चत्तारि दारा पं० [सं० देवदारे असुरदारे जागदारे सुवन्नदारे, तेसु णं दारेसु चउध्विा देवा परिवसंति, तं देवा असुरा नागा सुवण्णा, तेसि णं दाराणं पुरतो चत्तारि मुहमंडवा पं० तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पं० तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं बहुमज्झतभागे चत्तारि वइरामया अक्खाडगा पं० तेसि णं वइराभयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि मणिपेडियातो पं०, तासि णं मणिपेढताणं वारं चत्तारि सीहासणा पन्नत्ता, तेसि णं सीहासणाणं उवरिं चत्तारि विजयदूसा पन्नत्ता, तेसि णं विजयदुसगाणं बहुमज्झदे सभागे चत्तारि वइरामता अंकुसा पं० तेसु णं वतिरामतेमु अंकुसेसु चत्तारि कुंमिका मुत्तादामा पं०, ते णं कुंभिका मुत्तादामा पत्तेयं २ अन्नेहिं तदद्वउत्तपमाणमितेहिं चाहिं अद्धकुंभकेहिं मुत्तादामेहिं सव्वतो समता संपरिक्खित्ता, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरभो चत्तारि मणिपेढिताओ पण्णत्ताओ, तासि णं मणिपेढियाणं उबरिं चत्तारि २ चेतितभा पण्णत्ता, तासि णं चेतितथूभाणं पत्तेयं २ चउद्दिसिं चचारि मणिपेडियातो पं० तासि णं मणिपेडिता उबरिं चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईतो संपलियंकणिसन्नाओ भूभामिमुहाओ चिति, तं०-रिसभा वद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा तेसि णं चेतितधूभाणं पुरतो चत्तारि मणिपेदिताओ पं०, तासि णं मणिपेदिताणं उवरिं चत्तारि चेतितरुक्खा पं० तेसि णं चेतितरुक्खाणं पुरओ चचारि मणिपेढियाओ पं० तासि णं मणिपेडियाणं उवरिं चत्तारि महिंदझया पं० तेसि णं महिंदञ्झताणं पुरओ चत्तारि णंदावो पुक्खरणीओ पं०, तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेयं २ उदिसिं बसारि वणसंडा पं० तं० पुरच्छिमेणं दाहिणेणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणंपुन्येणं असोगवणं दाहि 3 For Penal Use Only मूलं [ ३०७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 462 ~ or Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] + गाथा-१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०७] श्रीस्थानाजन्सूत्रवृत्तिः ४ स्थाना० उद्देशः२ नन्दीश्वराधि० सू०३०७ ॥३०॥ दीप अनुक्रम [३२७ णमो होइ सत्तवण्णवणं । अवरेण चंपगवणं चूतषणं उत्तरे पासे ॥ १॥ तत्थ पंजे से पुरच्छिमिले अंजणगपव्यते तस्स णं चारिसिं चत्तारि दामो पुक्खरिणीतो पं० सं०-णंदुत्तरा गंदा आणंदा नंदिवद्धणा, ताओ गंदामो पुक्सरिणीओ एर्ग जोयणसयसहस्सं आयामेणं पन्नास जोयणसहस्साई विक्खंभेणं दस जोयणसवाई उल्लेहेणं, तासि णं पुक्ख. रिणीणं पत्तेयं २ चउहिसिं पत्तारि तिसोबाणपडिरूवगा, तेसि णं तिसोवाणपडिरूबगाणं पुरतो पत्तारि तोरणा पं०, तं० -पुरछिमेणं दाहिणेणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं, तासि णं पुक्खरणीणं पत्तेयं २ चउदिसि चत्तारि वणसंडा ५०, ५०पुरतो दाहिण. पञ्च० उत्तरेणं, पुवेणं असोगवर्ण जाव घूयवणं उत्तरे पासे, चासि णं पुक्खरिणीर्ण बहुममदेसभागे चत्वारि दधिमुहगपब्वया पं०, ते णं दधिमुहगपब्वया चउसहि जोयणसहस्साई उई उचत्तेणं एगं जोयणसहस्सं उन्हेणं सम्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिता दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई छप तेवीसे जोयणसते परिक्सेवेणं, सम्वरयणामता अच्छा जाव पडिरूवा, तेसिणं दधिमुहगपव्यताणं उबरि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पं०, सेसं जहेब अंजणगपवताणं तहेव निरवसेसं भाणियब्र्व, जाप चूतवणं उत्तरे पासे, तत्व पंजे से पाहिणि अंजणगपव्यते तस्स ण चलदिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरणीओ पण्णताओ, सं०-भरा विसाला कुमुवा पोंउरिगिणी, तातो गंदातो पुक्खरणीतो एर्ग जोयणसयसहस्सं सेसं तं चेव जाव दधिमुगपठवता जाव वणसंढा, तस्य गंजे से पथस्थिमिल्ले अंजणगपन्वते तस्स णं चउरिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरणीमो ५०, तं0-दिसेणा अमोहा गोधूभा सुदसणा, सेस तं घेव, तहेब दधिमुहगपञ्चता तहेव सिद्धाययणा आव वणसंडा, वश्य ण जे से उत्सरिले अंज CACACACACY -३२९] ॥३०॥ ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * 4% प्रत सूत्रांक [३०७] CCCCTOCAL CCESS दीप अनुक्रम [३२७ णगपन्वते तरस ण परिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरणीओ पं०, २०-विजया वेजयंती जयंती अपराजिता, तातो णं पुक्सरिणीओ एर्ग जोयणसवसहस्सं तं चेव पमाणं तहेब दधिमुद्दगपव्यता तद्देव सिद्धाययणा जाव वणसंडा, गंदीसरवरस्स क दीवस चकवालविक्वंभस्स बहुमझदेसभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरगपञ्चता पं०, ०-उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपब्बते दाहिणपुरच्छिमिल्ले रइकरगपन्वए दाहिणपञ्चस्थिमिले रतिकरगपब्वते उत्तरपञ्चथिमिल्ले रतिकरगपवए, ते णं रतिकरगपब्वता दस जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं दस गाउतसताई उब्वेहेणं सव्वस्थ समा मल्लरिसंठा संठिता दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोवणसहस्साई छच तेवीसे जोयणसते परिक्खेवण, सम्बरयणामता, अच्छा जाव पतिरूवा, तस्थ णं जे से उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपन्वते तस्स णं चरदिसि ईसाणस्स देविंदरस देवरनो चउण्डमग्गमहिसीणं जंबूरीवपमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ पं० सं०-णंदुत्तरा गंदा उत्तरकुरा देवकुरा, कपहाते कण्हरातीते रामाए रामरक्खियाते, तत्थ ण जे से दाहिणपुरकिछमिले रतिकरगपब्बते, तरसणं चादिसिं सफास्स देविदस्स देवरत्नो बलाहमागमहिसीणं जंबूरीवपमाणातो चत्तारि रायहाणीओ पं०, ०-समणा सोमणमा अश्चिमाली मणोरमा परमाते सिवाते सतीते अंजूए, तत्थ णं जे से दाहिणपञ्चस्थिमिल्ले रतिकरगपबसे तत्थ णं चारिसिं सफरस देविंदस्स देवरलो चउण्डमग्गमहिसीणं जंबूरीवपमाणमेत्तातो चसारि राबहाणीओ पं0, त-भूता भूतबसा गोथूभा सुदसणा, अमलाते अकराते णवमिताते रोहिणीते, तस्थ णं जे से उत्तरपपस्थिमिले रतिकरगपवते तस्थ णं -३२९] PASCHEMLCCC ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०७] श्रीस्थानाजसूत्रवृत्तिः ॥२३१॥ चरिसिमिसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो चउण्डमामहिसीणं जंबूद्दीवप्पमाणमित्तातो चत्तारि रायहाणीओ पं०, तं C४ स्थाना० रयणा रवणुचता सम्परतणा रतणसंचया, वसूते वसुगुचाते वसुमित्ताते वसुंधराए (सू० ३०७) उद्देशः २ सूत्रसिद्धश्चार्य, केवलं-जम्बू १ लबणे धायइ २ कालोए पुक्खराइ ३ जुयलाई । वारुणि ४ खीर ५ घय ६% नन्दीश्वइक्खू ७ नंदीसर ८ अरुण ९ दीवुदही ॥१॥ति गणनयाऽष्टमो नन्दीश्वरः स एव वरः २, अमनुष्यद्वीपापेक्षया | राधि० बहुतरजिनभवनादिसद्भावेन तस्य वरत्वादिति, तस्य चक्रवालविष्कम्भस्य प्रमाण १६३८४०००००, उक्तं च-II "तेवई कोडिसयं चउरासीइंच सयसहस्साई। नंदीसरवरदीवे विक्खंभो चक्कवालेणं ॥१॥” इति, मध्यश्चासौ देशभागश्च-देशावयवो मध्यदेशभागः, स च नात्यन्तिक इति बहुमध्यदेशभागो न प्रदेशादिपरिगणनया निष्ट|कित्तः, अपि तु प्राय इति, अथवा अत्यन्तं मध्यदेशभागो बहुमध्यदेशभाग इति, तत्र इहाञ्जनकाः मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेणेत्युक्तम्, द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहिण्यां तूकम्-"चुलसीति सहस्साई उबिद्धा ओगया | सहस्समहे । धरणितले विच्छिन्ना य ऊणगा ते दससहस्सा ॥१॥ नव चेव सहस्साई पंचेव य होति जोयणसयाई । अंजणगपञ्चयाणं मूलंमि उ होइ विक्खंभो ॥२॥" कंदस्वेत्यर्थः, “नव चेव सहस्साई चत्तारि य होति १ विषष्टिः कोटिपातं चतुरशीतिध शतसहस्राणि नन्दीश्वरवरद्वीपे चकवालतो विष्कम्भः ॥१॥ २ चतुरशीतिः सहस्राणि उशिकाः अधः सहस्र गताः किचिन्यूनदशसहस्राणि धरणीतले विस्तीर्णाः ॥ १॥ नव चैव सहस्राणि पंव भवन्ति योजनशतानि अंजनकपर्वताना मूले भवति तु विकभः ॥ २॥ ३ नव चैव | सहस्राणि चत्वारि च भवंति शतानि दीप अनुक्रम [३२७-३२९] Shock नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकार: ~465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०७] जोयणसयाई । अंजणगपब्बयाणं धरणियले होइ विक्खंभो ॥१॥" इति, तदिदं मतान्तरमित्यवसेयमेवमन्यत्रापि, मतान्तरबीजानि तु केवलिगम्यानीति, 'गोपुच्छसंठाण'त्ति गोपुच्छो ह्यादौ स्थूलोऽन्ते सूक्ष्मस्तद्वत्तेऽपीति, 'सव्वंज-14 णमय'त्ति अञ्जन-कृष्णरतविशेषः तन्मयाः सर्व एवानन्यमयत्वेन सर्वथैवाजनमयाः सर्वोजनमया, परमकृष्णा इति भावः, उक्तं च-"भिंगंगरुइलकजलअंजणधाउसरिसा विरायति । गगणतलमणुलिहता अंजणगा पब्बया रम्मा ॥१॥" इति, अच्छाः आकाशस्फटिकवत्, सण्हा-लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्नाः, श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, लण्हा-लक्ष्णा मसृणा | इत्यर्थः, धुण्टितपटवत् , तथा धृष्टा इव घृष्टाः, खरशानया पाषाणप्रतिमावत्, मृष्टा इव मृष्टाः सुकुमारशानया पाषा णप्रतिमेव शोधिता वा प्रमार्जेनिकयेव अत एव नीरजस: रजोरहितत्वात् निर्मलाः कठिनमलाभावात् धौतवस्त्रवद्वा निष्पका आर्द्रमलाभायात् अकलङ्कत्वाद्वा 'निरकडच्छाया' निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणेत्यर्थः छाया-शोभा येषां ते तथा अकलशोभा वा सप्रभा देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्ताः अथवा स्वेन आत्मना प्रभान्ति न परत इति स्वप्रभाः यतः 'समिरीया' सह मरीचिभिः-किरणये ते तथा, अत एव 'सउज्जोया' सहोद्योतेन-वस्तुप्रभासनेन वर्तन्ते ये ते तथा 'पासाईय'त्ति प्रासादीयाः-मनःप्रसादकराः दर्शनीयास्तांश्चक्षुपा पश्यन्नपि न श्रमं गच्छतीत्यर्थः अभिरूपाःकमनीयाः प्रतिरूपाः द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीया इति यावत्शब्दसचहा, बहुसमाः-अत्यन्तसमा रमणीयाश्च ये ते १ योजनानामंजनकपर्वताना धरणीतले भवति विष्कम्भः ॥ १॥ २ गारगल करुविरकवलांजनधातुसामा बिराजन्ते गगनतलमनुलिखत इवांजनकाः पर्वता रम्याः ॥1॥ STOROSCORRECAMER दीप अनुक्रम [३२७-३२९] नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकार: ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानासूत्र प्रत सूत्रांक [३०७] वाता ॥२३॥ C दीप अनुक्रम [३२७-३२९] तथा सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानांवा-शाश्वतीनामहअतिमानामायतनानि-स्थानानि सिद्धायतनानि, उक्तं च-"अंजण- स्थाना गपव्वयाणं सिहरतलेसुं हवंति पत्तेयं । अरहताययणाई सीहणिसायाई तुंगाई ॥१॥" मुखे-अग्रद्वारे आयतनस्य मण्डपाहा उद्देशः२ मुखमण्डपाः पट्टशालारूपाः प्रेक्षा-प्रेक्षणकं तदर्थं गृहरूपाः मण्डपाः प्रेक्षागृहमण्डपाः प्रसिद्धस्वरूपाः, वैरं-वर्ज रनविशे- नन्दीश्वपस्तन्मयाः आखाटका:-प्रेक्षाकारिजनासनभूताः प्रतीता एव विजयदूष्याणि-वितानकरूपाणि वस्त्राणि तन्मध्यभागी राधिक एवानुशाः अवलम्बननिमित्तं, कुम्भो मुक्ताफलानां परिमाणतया विद्यते येषु तानि कुम्भिकानि मुक्कादामानि-मुक्ताफ || सू०३०७ लमालाः, कुम्भप्रमाणश्च-"दो असतीओ पसती दो पसतीओ सेतिया चत्तारि सेतियाओ कुडवो चत्तारि कुडवा-* पत्थो चत्तारि पत्था आढयं चत्तारि आढया दोणो सट्ठी आढयाई जहन्नो कुंभो असीइ मज्झिमो सयमुकोसो" इति, 'तदद्धेति तेषामेव मुक्तादानामर्द्धमुच्चत्वस्य प्रमाणं येषां तानि तदर्बोच्चत्वप्रमाणानि तान्येव तन्मात्राणि तैः 'अद्धकुं- भिकेहिं'ति मुक्ताफलार्द्धकुम्भवद्भिः सर्वतः-सर्वासु दिक्षु, किमुक्तं भवति?-समन्तादिति, चैत्यस्य सिद्धायतनस्य प्रत्या-14 सन्नाः स्तूपाः-प्रतीताश्चैत्यस्तूपाश्चित्ताल्हादकत्वाद्वा चैत्याः स्तूपाः चैत्यस्तूपाः संपर्यङ्कनिषण्णा:-पद्मासननिषण्णाः, एवं| चैत्यवृक्षा अपि, महेन्द्रा इति-अतिमहान्तः समयभाषया ते च ते ध्वजाश्चेति, अथवा महेन्द्रस्येव-शकादेयजा महेन्द्रध्वजाः । शाश्वतपुष्करिण्यः सर्वा अपि सामान्येन नन्दा इत्युच्यन्ते, 'ससपन्नवणं'ति सप्तच्छदवनमिति, 'तिसोवाण १ अंजनकपर्वताना शिवरतलेषु भांति प्रत्येक । बहदायतनानि सिंहनिषद्यानि तुंगानि ॥१॥२ असती पसतिः पसती सेतिका पतन: सेतिका:IN२३२॥ करना चत्वारःकरना प्रस्थकः चत्वारः प्रस्थकाः भादकः चत्वार आदकाः द्रोमः आडकपकपा जपन्यः कुंभोऽशीमा मध्यमः पातेनोला। नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकारः ~ 467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 9-१८ प्रत सूत्रांक [३०७] % .SCXCCC0 PROG 9-60 दीप अनुक्रम [३२७-३२९] परियति एकद्वार प्रति निर्गमप्रवेशाध त्रिदिगभिमुखास्तिस्रः सोपानपतयः, दधिवत् श्वेतं मुख-शिखरं रजतमयत्वात् येषां ते तथा, उक्तं च-"संखदलविमलनिम्मलदहियणगोखीरहारसंकासा । गगणतलमणुलिहंता सोहंते दहिमुहा रम्मा ॥१॥” इति, बहुमध्यदेशभागे-उक्तलक्षणे विदिक्षु-पूर्वोत्तराद्यासु रतिकरणाद्रतिकराः ४, राजधान्यः क्रमेण कृष्णादीनामिन्द्राणीनामिति, तत्र दक्षिणलोकार्द्धनायकत्वाच्छकस्य पूर्वदक्षिणदक्षिणापरविदिग्यरतिकरयोस्तस्येन्द्राणीनां राजधान्य इतरयोरीशानस्योत्तरलोकार्डाधिपतित्वात् तस्येति, एवञ्च नन्दीश्वरे द्वीपे अञ्जनकदषिमुखेषु |४-१६ विंशतिर्जिनायतनानि भवन्ति, अत्र च देवाः चातुमोसिकप्रतिपत्सु सांवत्सरिकेषु चान्येषु च बहुषु जिनजन्मादिषु देवकार्येषु समुदिता अष्टाह्निकामहिमाः कुर्वन्तः सुखंसुखेन विहरन्तीत्युक्तं जीवाभिगमे, ततो यधन्यान्यपि तथाविधानि सन्ति सिद्धायतनानि तदा न विरोधा, सम्भवन्ति च तानि उक्तनगरीषु विजयनगर्यामिति, तथा दृश्यते | |च पश्चदशस्थानोद्धारलेश:-"सोलसदहिमुहसेला कुंदामलसंखचंदसंकासा! कणयनिभा बत्तीस रइकरगिार बाहिरा तेर्सि ॥१॥" द्वयोर्द्वयोर्चाप्योरन्तराले बहिःकोणयोः प्रत्यासत्तौ द्वौ द्वावित्यर्थः, "अंजणगाइगिरीणं णाणामणिपज्जलंतसिहरेसु । बावन्नं जिणणिलया मणिरयणसहस्स कूडवरा ॥ १॥” इति, तत्त्वन्तु बहुश्रुता विदन्तीति । एतच पूर्वोक्तं सर्व सत्यं जिनोक्तत्वात् इति सत्यसम्बन्धेन सत्यसूत्रम् शंखदल विमलनिगमदधिषनमोकारमुलाहारसंकाशा: । गगनतलमनुलिखन्तः शोभन्ते दधिमुखा रम्याः ॥१॥२दधिमुखोला पोडशामदर्शखचंद्रसंकाशाः । द्वात्रिंशदतिकरा: कनकनिभाः तयोः (वायो)बहिः ॥1॥ १अंजनकादिगिरीणा नानामपिप्रमच्छिखरेषु द्विपंचाशमिनाहाणि मणिरत्नमयानिसहस्राणि कूटवराः ॥१॥ SAREauratonintemational wwwmarary.orm नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकार: ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०८] श्रीस्थानाअन्सूत्र वृत्तिः ॥२३३॥ दीप अनुक्रम [३३०] चउबिहे सगे पं० त०-णामसणे ठवणसच्चे दव्वसचे भावसच्चे (सू० ३०८) आजीवियाण पउब्धिहे तवे पं० ४ स्थाना० तं०-उग्गतवे घोरतवे रसणिजहणता जिभिदियपडिसंलीणता (सू० ३०९) चविहे संजमे पं० त०.-मणसं- उद्देशः२ जमे वतिसंजमे कायसंजमे उबगरणसंजमे । चउन्विधे चिताते पं० २०--मणचिताये बतिथियाते कायचियाते जब नामस. वरणचियाते । चउबिहा अकिंचणता पं० २०-मणअकिंचणता बतिअकिंचणता कायअकिंचणता उवगरणअकिंचणता त्यादिआ. (सू०३१०)॥ इति द्वितीयोदेशकः सम्पूर्णः ।। जीविकतनामस्थापनासत्ये सुज्ञाने, द्रव्यसत्यमनुपयुक्तस्य सत्यमपि भावसत्यं तु यत्स्वपरानुपरोधेनोपयुक्तस्येति । सत्यं चारित्र- पासंयमः विशेष इति चारित्रविशेषानुद्देशकान्तं यावदाह-'आजीविएत्यादि, 'आजीविकानां गोशालकशिष्याणां उग्रतपः- (पुस्तकाअष्टमादि क्वचन 'उदार मिति पाठः तत्र उदारं-शोभनं इहलोकाद्याशंसारहितत्वेनेति घोर-आत्मनिरपेक्ष रसनितहणया' घृतादिरसपरित्यागः जिह्वेन्द्रियप्रतिसंलीनता-मनोज्ञामनोज्ञेष्वाहारेषु रागद्वेषपरिहार इति, आर्हतानां तु द्वादशसू०३०८अधेति, मनोवाक्कायानामकुशलत्वेन निरोधाः कुशलत्वेन तूदीरणानि संयमा, उपकरणसंयमो महामूल्यवस्त्रादिपरिहारा ३१० पुस्तकवस्तृणचर्मपञ्चकपरिहारो वा, तत्र-''गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडीय । एवं पोत्ययपणगं पन्नत्तं बीयरागेहिं ॥१॥ बाहल्लपुहत्तेहिं गंडी पोत्थो उ तुल्लओ दीहो । कच्छवि अंते तणुओ मझे पिहुलो मुणेयब्बो ॥२॥ गंडी कच्छपी मुष्टिः संपुटफलकलवा सपाटिका च एतापुस्तकपंच प्राप्त वीतरागैः ॥ १॥ बाहल्यपक्वैगंडीपुमा केतु तत्वं दीर्ष फल्छपी अंते | ॥२३३॥ तनुकः मध्ये पृथुलः सातव्यः ॥२॥ ~469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१०] चिउरंगुलदीहो वा वट्टागिति मुडिपोत्थओ अहवा । चउरंगुलदीहोच्चिय चउरंसो होइ विनेओ ॥३॥ संपुडगो दुगमाइ फलगा वोच्छं छिवाडित्ताहे । तणुपत्तूसियरूवा होइ छिवाडी बुहा चेति ॥ ४॥ दोहो वा हस्सो वा जो पिहलो होइ अप्पबाहल्लो । तं मुणियसमयसारा छिवाडिपोत्थं भणतीह ॥ ५॥" वस्त्रपञ्च द्विधा, अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितभेदात् , तत्र-अप्पडिलेहियदूसे तूलि उवहाणगं च नायव्वं । गंडुवहाणालिंगिणि मसूरए चेव पोत्तमए ॥१॥ पल्हवि कोयव पावार नवयए तह य दाढिगालीओ। दुष्पडिलेहियदूसे एवं बीयं भवे पणगं ॥२॥ पल्लवि हत्थुत्धरणं तु कोयवो रूयपूरिओ पडओ । दढिगालि धोयपोत्ती सेस पसिद्धा भवे भेया ॥३॥ तणपणगं पुण भणिय जिणेहिं कम्मगंठिमहणेहिं । साली वीही कोदव रालग रत्ने तणाई च ॥४॥" चर्मपञ्चकमिदम्-"अयएलगावि महिसी मि-18 गाण अजिणं तु पंचमं होइ । तलिया खलगवझो कोसग कत्ती य पीयं तु ॥ ५॥" इति, 'चियाए'त्ति त्यागो मनः चतुरंसदीयों वा वृत्ताकतिररिपुस्तकमथना । चतुरंगुलदीर्थ एव चतुरस्रो भवति ज्ञातयः॥३॥ फलकद्वयादिः संपुटकोऽय वाये सपाटिका तमुपत्रीतिरूपां भवति सुपाटिको बुधा अवसे ॥४॥ दीपों वाहसो वा योडल्यवाहल्यः पृथुभवति। तं हातसमयसाराधिनाडीपुस्तकं भर्णतीह ॥ ५॥ २ अप्रतिले जितष्येणु दूलिकोपपानं बहातल्यं गंडोपधाममालिगिनी मसूरकवेव पोतमयः ॥१॥ प्रहत्तिः कुतुपः प्राचारी नवत्या तथा व दंष्ट्रागाडिः। दुष्प्रतिहेखितदूष्ये एतद्धितीयं भवेत् पसकं ॥ २॥ प्रहत्तिहस्तातरणे कुतुपको रूतपूरितः परः । गानिर्धारापोतिका शेषाः प्रसिद्धा भेदा भवन्ति ॥३॥ तृणपच पुनर्भणित जिनः अष्टकमयभिगवनैः । शाली मोहिः कोइवो रालकोऽरण्यतृणानि च ॥४॥ ३ अजैट कगोमहिषीगा भूगाणामजिनं तु पञ्चमं भवति । तलिका खलको भवद्भः कोशकः कतरिका (कृत्तिका) व द्वितीयं तु ॥५॥ दीप अनुक्रम [३३२] ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३१०] टीप अनुक्रम [३३२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २३४ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [४], उद्देशक [२]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] -------- - Eaton International प्रभृतीनां प्रतीत एव, अथवा मनःप्रभृतिभिरशनादेः साधुभ्यो दानं त्यागः, एवमुपकरणेन पात्रादिना भक्तादेस्तस्य वा त्याग उपकरणत्यागः, न विद्यते किञ्चन - द्रव्यजातमस्येत्यकिञ्चनस्तद्भावो अकिञ्चनता निष्परिग्रहतेत्यर्थः, सा च मनःप्र भृतिभिरुपकरणापेक्षया च भवतीति यथोक्तेति ॥ चतुःस्थानकस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ 4333 व्याख्यातो द्वितीयोदेशकः, अथ तृतीय आरभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः, पूर्वत्र जीवक्षेत्रपर्याया उक्ताः, इह तु जीवपर्याया उच्यन्ते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादि सूत्रद्वयं · चारि रादीओ पं० तं पव्वयराती पुढविराती बालुबराती उद्गराती, एवामेव चडब्बिहे कोहे पं० [सं० पब्वयरातिसमाणे पुढविरातिसमाणे वालुयरातिसमाणे उद्गरातिसमाणे पव्वयरातिसमाणं कोई अणुपविट्टे जीवे कालं करेइ रइते उववज्जति, पुढविरातिसमाणं कोहमणुष्पविद्वे तिरिक्खजोणितेसु उववज्जति, वालुयरातिसमाणं कोई अणुपविट्टे समाणे मणुरसेसु उववज्जति, उद्गरातिसमाणं कोहमणुपविडे समाणे देवेसु जववज्जति १ । चत्तारि उदगा पं० नं० — कदमोदर खंजणोदय वालुओदए सेलोदए, एवामेव चव्विहे भावे पं० तं० कदमोद्गसमाणे खंजणोद्गसमाणे वालुओद्गसमाणे सेलोद्गसमाणे, कमोद्गसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ पेरsee उबवज्जति, एवं जव सेलोगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ देवेषु उववज्जइ (सू० ३११) चत्तारि पक्खी पं० सं०रुय संपन्ने नाममेगे जो रुवसंपन्ने रूवसंपन्ने नाममेगे तो स्तसंपन्ने एगे रूवसंपन्नेवि रुवसंपन्नेवि नो रुतसंपन्ने णो रूवसंपन्ने, अथ चतुर्थ स्थानस्य द्वितीय- उद्देशकः परिसमाप्तः अथ चतुर्थ स्थानस्य तृतीय- उद्देशक: आरभ्यते मूलं [३१० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 471~ ४ स्थाना० उद्देशः २ क्रोधः प क्षिदृष्टान्तः सू० ३११३१२ ॥ २३४ ॥ wor Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१२] एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-यसंपन्ने नाममेगे णो रुवसंपन्ने ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-पत्तियं करेमीतेगे पत्तिय करेइ पत्तियं करेमीतेगे अपत्तितं करेति अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तितं करेइ अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तितं करेति, पत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अपणो णाममेगे पत्तितं करेति णो परस्स परस्स नाममेगे पत्तियं करेति णो अप्पणो (४)ह, चत्तारि पुरिसजाया पं०२०-पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तितं पवेसेइ पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तितं पवेसेति ४ । चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-अपणो नाममेगे पत्तितं पवेसेइ णो परस्स परस्स ४ ह (सू० ३१२) 'चत्तारी'त्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्व चारित्रमुक्त, तत्प्रतिबन्धकश्च क्रोधादिभाव इति क्रोधस्वरूपप्ररूपणायेदमुच्यते, तदेवंसम्बन्धस्यास्य दृष्टान्तभूतादिसूत्रस्य व्याख्या-'राजी' रेखा, शेष कोधव्याख्यानं मायादिवत्, मायादिप्रकरणाच्चान्यत्र क्रोधविचारो विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति, द्वितीयं सुगममेव ॥ अयं च क्रोधो भावविशेष एवेति भावप्ररूपणाय दृष्टान्तादिसूत्रद्वयमाह-'चत्तारीत्यादि प्रसिद्धं, किन्तु कईमो यत्र प्रविष्टः पादादिर्नाक्रष्टुं शक्यते कष्टेन वा शक्यते, खञ्जनं दीपादिखजनतुल्यः पादादिलेपकारी कईमविशेष एव, वालुका प्रतीता सा तु लग्नापि जलशोषे पादादेरल्पेनैव प्रयत्नेनापतीत्यल्पलेपकारिणी, शैलास्तु पाषाणाः श्लक्ष्णरूपास्ते पादादेः स्पर्शनेनैव किश्चिदुःख| मुखादयन्ति, न तु तथाविधं लेपमुपजनयन्ति, कईमादिप्रधानान्युदकानि कई मोदकादीन्युच्यन्ते, भावो-जीवस्य रागादिपरिणामः तस्य कईमोदकादिसाम्यं तत्स्वरूपानुसारेण कम्मलेपमङ्गीकृत्य मन्तव्यमिति । अनन्तरं भाव उक्तोऽधुना तद्वतः पुरुषान् सदृष्टान्तान् चित्तारि पक्खी'त्यादिना 'अत्यमियत्वमिये'त्येतदन्तेन अन्धेनाह-व्यक्तश्चार्य, नवरं ||* दीप अनुक्रम [३३४] ~472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१२] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॐ प्रत सूत्रांक [३१२] ॥२३५॥ दीप अनुक्रम [३३४] रुतं रूपं च सर्वेषामेव पक्षिणामस्त्यतस्ते विशिष्टे एवेह ग्राह्ये, ततो रुतं-मनोज्ञशब्दस्तेन सम्पन्नः एकः पक्षी न च रू- स्थाना पेण-मनोज्ञेनैव कोकिलवत्, रूपसम्पन्नो न रुतसम्पन्नः, प्राकृतशुकवत, उभवसम्पन्नो मयूरवत्, अनुभयस्वभावः उदेशः३ काकवदिति, पुरुषोऽत्र यथायोगं मनोज्ञशब्दः प्रशस्तरूपश्च प्रियवादित्वसद्वेषत्वाभ्यां साधुर्वा सिद्धसिद्धान्तप्रसिद्धशुद्ध- तरूपपी. धर्मदेशनादिस्वाध्यायप्रवन्धवान् लोचविरलवालोत्तमाङ्गतातपस्तनुतनुत्वमलमलिनदेहताअल्पोपकरणतादिलक्षणसुवि- त्यप्रीतिच. हितसाधुरूपधारी वा योज्य इति । 'पसिय'ति प्रीतिरेव प्रीतिक स्वाधिककप्रत्ययोपादानेऽपि रूढेर्नपुंसकतेति, तस्क-II तुर्भङ्गिकाः रोमि प्रत्ययं वा करोमीति परिणतः प्रीतिकमेव प्रत्ययमेव वा करोति, स्थिरपरिणामत्वात् उचितप्रतिपत्तिनिपुणत्वात् सू० ३१२ सौभाग्यवत्वाति, अन्यस्तु प्रीतिकरणे परिणतोऽप्रीतिं करोति उक्तवैपरीत्यादिति, अपरोऽप्रीती परिणतः प्रीतिमेव | करोति, सञ्जातपूर्वभावनिवृत्तत्वात्, परस्य वा अप्रीतिहेतुतोऽपि प्रीत्युत्पत्तिस्वभावत्वादिति, चतुर्धः सुज्ञानः, आत्मन एकः कश्चित् प्रीतिकम्-आनन्दं भोजनाच्छादनादिभिः करोति-उत्सादयति आत्मार्थप्रधानत्वान्न परस्य, अन्यः परस्य परा प्रधानत्वान्नात्मनोऽपर उभयस्याप्युभयार्थप्रधानत्वादितरो नोभवस्याप्युभयाशून्यत्वादिति, आत्मनःप्रत्ययं-प्रतीति | करोति न परस्येत्याद्यपि व्याख्येयमिति, 'पत्तियं पवेसेमिति प्रीतिकं प्रत्ययं वाऽयं करोतीत्येवं परस्य चित्ते विनिPावेशयामीति परिणतस्तथैवैका प्रवेशयतीत्येक इति, सूत्रशेपोऽनन्तरसूत्रं च पूर्ववत् । चत्तारि रुक्सा पं० ०-पत्तोबए पुष्फोवए फलोवए छायोवए, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०---पत्तोवारु ॥२३५॥ ___ क्खसमाणे पुप्फोवारुक्खसमाणे फलोवारुक्खसमाणे छातोवारुक्खसमाणे (सू० ३१३) भारण्णं वहमाणस्स चत्तारि ~ 473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१४] आसासा पन्नत्ता, संजहा--जत्थ णं असातो असं साहरइ नत्थविय से एगे आसासे पण्णचे १, जत्थविय णं उच्चार वा पासवर्ण वा परिहावेति तत्थघिय से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थविय णं णागकुमारावासंसि वा सुवन्नकुमारावासंसि वा चासं उबेति तस्थविय से एगे आसासे पन्नते ३, जस्थविय णं आवकधाते चिट्ठति तत्वविय से एगे आसासे पन्नते ४, एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पं० सं०-जस्थ गं सीलब्बतगुणवतवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोयवासाई पडिवजेति तस्थविस से एगे आसासे पण्णत्ते १, जत्थविय णं सामाइयं देसावगासिथं सम्ममणुपालेइ तत्वविय से एगे आसासे पं० २, जत्वविय णं चाउद्दसहमुद्दिट्टपुन्नमासिणीसु पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेइ तत्थवि य से एगे आसासे पण्णते ३, जस्थवि य णं अपच्छिममारणंतितसलेहणाजूसणाजूसिते भत्तपाणपडितातिक्खिते पाओवगते कालमणवकखमाणे विहरति तत्वविय से एगे आसासे पन्नते ४ (सू० ३१४) पत्राणि-पर्णान्युपगच्छतीति पत्रोपगो बलपत्र इत्यर्थः, एवं शेषा अपि, पत्रोपगादिवृक्षसमानता तु पुरुषाणां लोकोतराणां लौकिकानां चार्थिषु तथाविधोपकाराकरणेन स्वस्वभावलाभ एव पर्यवसितत्वात् १, सूत्रदानादिना उपकारकत्वात् २ अर्थदानादिना महोपकारकत्वात् ३ अनुवर्त्तनापायसंरक्षणादिना सततोपसेव्यत्वाच ४ क्रमेण द्रष्टव्येति । भारं -धान्यमुक्तोल्यादिकं वहमानस्य-देशाद्देशान्तरं नयतः पुरुषस्य आश्वासा-विश्रामाः, भेदश्च तेषामवसरभेदेनेति, यत्रावसरे अंसाद्-एकस्मात् स्कन्धादंसमिति-स्कन्धान्तरं संहरति-नयति भारमिति प्रक्रमः तत्रावसरे अपिचेति उत्तराश्वासापेक्षया समुच्चये 'से' तस्य वोदुरिति १, परिष्ठापयति-व्युत्सृजति २, नागकुमारावासादिकमुपलक्षणमतोऽन्यत्र दीप अनुक्रम [३३६] 50*5-25% ~ 474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१४] श्रीस्थाना टीवाऽऽयतने वासमुपैतीति-रात्री वसति ३ यावती-यसरिमाणा कथा-मनुष्योऽयं देवदत्तादिवोऽयमिति व्यपदेशलक्षणा स्थाना यावत्कथा तया यावजीवमित्यर्थः, तिष्ठति-वसति इत्ययं दृष्टान्तः ४, 'एवमेवेत्यादि दाष्टान्तिका, श्रमणान-साधू-I उद्देशः३ नुपास्ते इति श्रमणोपासक-श्रावकस्तस्य सावद्यव्यापारभाराकान्तस्य आश्वासा:-तद्विमोचनेन विश्रामाः चित्तस्याश्या- पत्राद्युप सनानि-स्वास्थ्यानि इदं मे परलोकभीतस्य त्राणमित्येवंरूपाणीति, स हि जिनागमसङ्गमावदातबुद्धितया आरम्भपरि॥२३६॥ गचतु ग्रही दुःखपरम्पराकारिसंसारकान्तारकारणभूततया परित्याज्यावित्याकलयन् करणभटवशतया तयोः प्रवर्त्तमानो म-| सू०३१३ हान्तं खेदसम्तापं भयं चोदहति, भावयति चैवं-"हियए जिणाण आणा चरियं मह परिसं अउन्नस्स । एवं आल-14 आश्वासप्पालं अब्वो दूरं विसंवयइ ॥१॥ हयमम्हाणं नाणं हयमम्हाणं मणुस्समाहप्पं । जे किल लद्धविवेया विचेट्ठिमो बा- चतुष्कं लबालब्ध ॥ २॥" ति, यत्रावसरे शीलानि-समाधानविशेषाः ब्रह्मचर्य विशेषा वा व्रतानि-स्थूलपाणातिपातविरमणा सू०३१४ दीनि, अन्यत्र तु शीलानि-अणुव्रतानि व्रतानि-सप्त शिक्षात्रतानि तदिह न व्याख्यातं, गुणवतादीनां साक्षादेवोपादानादिति, गुणवते-दिग्वतोपभोगपरिभोगवतलक्षणे विरमणानि-अनर्थदण्डविरतिप्रकारा रागादिविरतयो वा प्रत्याख्या-1 नानि-नमस्कारसहितादीनि पोषधः-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवसनम्-अभक्तार्थः पोषधोपचासः, एतेषां दुन्दुस्तान प्रतिपद्यते-अभ्युपगच्छति तत्रापि च 'से' तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्तो १, यत्रापि च सामायिक-सावद्ययोगपरिवर्जननिरव हृदये जिनानामाशा ममापुष्पस्येय परिप्रं एवं आलप्याल, आश्चर्य है, दूरं विसंवदति ॥१॥हतमस्माकं ज्ञानं इतमस्माकं मानुष्यमाहात्म्यं । यत्किल ॥२३६॥ लब्धपियका अपि भुयाला इव चेष्टामः ॥२॥ दीप अनुक्रम [३३६] ASSSC ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 2017 प्रत सूत्रांक [३१४] द्ययोगप्रतिसेवनलक्षणं यद्व्यवस्थितः श्राद्धः श्रमणभूतो भवति, तथा देशे-दिग्वतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्थ विभागे अवकाश:-अवस्थानमवतारो विषयो यस्य तद्देशावकाशं तदेव देशावकाशिक-दिग्वतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिनं | सफ़ेपकरणलक्षणं सर्वत्रतसङ्केपकरणलक्षणं वा अनुपालयति-प्रतिपत्त्यनन्तरमखण्डमासेवत इति, तत्रापि च तस्यैक | आश्वासः प्रज्ञप्त इति २, उद्दिष्टेत्यमावास्या परिपूर्णमिति-अहोरात्रं यावत् आहारशरीरसत्कारत्यागब्रह्मचर्याव्यापारलक्ष-| काणभेदोपेतमिति ३, यत्रापि च पश्चिमैवामङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमा सा चासौ मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणा-12 न्तिकी सा चेत्यपश्चिममारणान्तिकी सा चासौ सलिख्यतेऽनया शरीरकपायादीति सइलेखना-तपोविशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकीसब्लेखना तस्याः 'जूसण'त्ति जोपणा सेवनालक्षणो यो धर्मस्तया 'जूसिय'त्ति जुष्टः सेवितः अथवा क्षपितः-क्षपितदेहो यः स तथा, तथा भक्तपाने प्रत्याख्याते येन स तथा, पादपवत् उपगतो-निश्चेष्टतया स्थितः पादपोपगतः, अनशनविशेष प्रतिपन्न इत्यर्थः, काल-मरणकालं अनवकाङ्कन तत्रानुत्सुक इत्यर्थः, विहरति तिष्ठति । चत्वारि पुरिसजाया पं० त०-उदितोदिते णाममेगे उदितत्थमिते णाममेगे अत्यमितोदिते णाममेगे अत्थमियत्थमिते णाममेगे, भरहे राया चाउरंतचकवट्टी ण उदितोदिते, बंभदत्ते णं राया चाउरंतचकवट्टी उदिअत्थमिते, हरितेसवले णमणगारे णमत्थमिओदिते, काले णं सोयरिये अत्यमितत्यमिते (सू० ३१५) चत्तारि जुम्मा पं० सं०-कबजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिओए, नेरतिताणं चत्तारि जुम्मा पं० त०-कहजुम्मे तेओए दावरजुम्मे फलितोए, एवं असुरकुमाराणं जाब थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आउ० तेउ० बाउ० वणस्सतिक उदिताणं दियाणं चउरिदि CARRRRENA दीप अनुक्रम [३३६] ~ 476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाजसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३१६]] ॥ ३७॥ याण पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वाणमंतरजोइसियाणं वेमाणियाणं सम्येसि जहा जेरइयाणं (सू० ३१६) ४ स्थाना० चत्तारि सूरा पं००-खंतिसूरे तवसूरे दाणसूरे जुद्धसूरे, खंतिसूरा अरहंता तबसूरा अणगारा दाणसूरे वेसमणे जु-. उद्देशः ३ बसूरे वासुदेवे (सू०३१७) चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-उच्चे णाममेगे उच्चच्छंदे उसे णाममेगे णीतच्छंदे णीते उदितोदिणाममेगे उच्चच्छंदे नीए णाममेगे णीयच्छंदे (सू० ३१८) अमुरकुमाराणं चत्तारि लेसातो पं०२०-कण्हलेसा तादिच. णीललेसा काउलेसा तेउलेसा, एवं जाव थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आउवणस्सइकाइयाणं वाणमंतराणं सम्बेसि युग्मच-शूजहा असुरकुमाराणं (सू० ३१९) रचतुष्कं उदितश्चासौ उन्नतकुलबलसमृद्धिनिरवद्यकर्मभिरभ्युदयवान् उदितश्च परमसुखसंदोहोदयेनेत्युदितोदितो यथा भरतः, उच्चादिच. उदितोदितत्वं चास्य प्रसिद्धं १, तथा उदितश्चासौ तथैव अस्तमितश्च भास्कर इव सर्वसमृद्धिभ्रष्टत्वात् दुर्गतिगतत्वाचेत्युदितास्तमितो ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीव, स हि पूर्वमुदित उन्नतकुलोत्पन्नत्वादिना स्वभुजोपार्जितसाम्राज्यत्वेन च पश्चा-बसू सू०३१५दस्तमितः अतथाविधकारणकुपितब्राह्मणप्रयुक्तपशुपालधनुर्गोलिकाप्रक्षेपणोपायप्रस्फोटिताक्षिगोलकतया मरणानन्तरा ३१९ प्रतिष्ठानमहानरकमहावेदनाप्राप्ततया चेति २, तथा अस्तमितश्चासौ हीनकुलोसत्तिदुर्भगवदुर्गतत्वादिना उदितश्च समृद्धिकीर्तिसुगतिलाभादिनेति अस्तमितोदितो यथा हरिकेशवलाभिधानोऽनगारः, स हि जन्मान्तरोपात्तनीचैर्गोत्रकर्मवशावातहरिकेशाभिधानचाण्डालकुलतया दुर्भगतया दरिद्रतया च पूर्वमस्तमितादित्य इवानभ्युदयवत्त्वादस्तमित इति, ॥२३७ ॥ पश्चात्तु प्रतिपन्नप्रव्रज्यो निष्पकम्पचरणगुणावर्जितदेवकृतसान्निध्यतया प्राप्तप्रसिद्धितया सुगतिगततया च उदित इति | दीप लेश्या० अनुक्रम [३३८] CASSAR ~ 477~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१९] |३, तथा अस्तमितवासी सूर्य इव दुष्कुलतया दुष्कर्मकारितया च कीर्तिसमृद्धिलक्षणतेजोवर्जितत्वादस्तमितश्च दुर्गतिगमनादित्यस्तमितास्तमितः, यथा कालाभिधानः सौकरिकः, स हि सूकरैश्चरति-मृगयां करोतीति यथार्थः सौकरिक एव दुष्कुलोपन्नः प्रतिदिनं महिषपञ्चशतीव्यापादक इति पूर्वमस्त मितः पश्चादपि मृत्वा सप्तमनरकपृथिवीं गत इति अस्तमित एवेति ४, भरहेत्यादि तु उदाहरणसूत्रं भावितार्थमेवेति । ये एवं विचित्रभावैश्चिन्त्यन्ते ते जीवाः सर्व एव चतुर्ष राशिष्ववतरन्तीति तान् दर्शयन्नाह 'चत्तारि जुम्मे'त्यादि, जुम्मत्ति-राशिविशेषः, यो हि राशिश्चतुष्कापहारेण अपहियमाणश्चतुःपर्यवसितो भवति स कृतयुग्म इत्युच्यते, यस्तु त्रिपर्यवसितः स योजः द्विपर्यवसितो द्वापरयुग्मः एकपर्यवसितः कल्योज इति, इह गणितपरिभाषायां समराशियुग्ममुच्यते विषमस्तु ओज इति, इयञ्च समयस्थितिः, लोके तु कृतयुगादीनि एवमुच्यन्ते-"द्वात्रिंशत्सहस्राणि, कलौ लक्षचतुष्टयम् । वर्षाणां द्वापरादौ स्यादेतद् द्वित्रिचतुर्गुणम् ॥१॥" इति, उक्तराशीन्नारकादिषु निरूपयन्नाह नेरइए'त्यादि सुगम, नवरं नारकादयश्चतुर्द्धाऽपि स्युः, जन्ममरराणाभ्यां हीनाधिकत्वसंभवादिति, पुनर्जीवानेव भावनिरूपयन्नाह-'चत्तारि सूरे'त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, किन्तु शूरा-18 वीराः, क्षान्तिशूरा अईन्तो महावीरवत्, तपःशूरा अनगाराः दृढमहारिवत्, दानशूरो बैश्रमण उत्तराशालोकपालस्तीर्थकरादिजन्मपारणकादिरलवृष्टिपातनादिनेति, उक्तञ्च-"वेसमणवयणसंचोइया उ ते तिरियजंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरन्ना रयणाणि य तत्थ उवणेति ॥१॥" त्ति, युद्धशूरो वासुदेवः कृष्णवत् तस्य षष्ट्यधिकेषु त्रिषु सङ्कामशतेषु १ वैश्रमणवचनसंचोदितास्तु ते तियग्नुंभका देवाः कोपशो हिरम्परमानि च तत्रोपनयन्ति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३४१] ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३१९ ] दीप अनुक्रम [३४१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मूलं [ ३१९] स्थाना० ङ्गसूत्र उद्देशः ३ श्रीस्थाना- लब्धजयत्वादिति, उच्चः पुरुषः शरीरकुलविभवादिभिः तथा उन्नतच्छन्दः - उच्चताभिप्रायः औदार्यादियुक्तत्वात् नीच★ च्छन्दस्तु-विपरीतो नीचोऽप्युच्चविपर्ययादिति । अनन्तरमुच्चेतराभिप्राय उक्तः, स च लेश्याविशेषाद् भवतीति लेश्यावृत्तिः ★ सूत्राणि, सुगमानि च, नवरं असुरादीनां चतस्रो लेश्या द्रव्याश्रयेण भावतस्तु पडपि सर्वदेवानां, मनुष्यपञ्चेन्द्रियति- हे यानयुग्यरक्षां तु द्रव्यतो भावतश्च पडपीति, पृथिव्यबूवनस्पतीनां हि तेजोलेश्या भवति देवोत्पत्तेरिति तेषा चतस्र इति । उक्तले 5 सारथिप्रश्याविशेषेण च विचित्र परिणामा मानवाः स्युरिति यानादिदृष्टान्तचतुर्भङ्गिकाभिरन्यथा च पुरुषचतुर्भङ्गिका यानसूत्रा- भृतिचतु० दिना श्रावकसूत्रावसानेन ग्रन्थेन दर्शयन्नाह - ॥ २३८ ॥ सू० ३२० Jan Eucation International चत्तारि जाणा पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते जुत्ते णाममेगे अजुत्ते अजुत्ते णाममेगे जुत्ते अजुत्ते नाममेगे अजुत्ते, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते जुत्ते णाममेगे अजुत्ते ४ चत्तारि जाणा पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते ०, एवामेव चचारि पुरिसजाया पं० [सं० जुत्ते णाममेगे जुतपरिणते ४, चत्तारि जाणा पं० तं० जुत्ते णाममेगे जुत्तरूबे जुत्ते णाममेगे अज्जुसरूवे अजुत्त णाममेगे जुत्तरुवे० ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० नं० - जुत्ते णाममेगे जुत्तरुवे ४, चत्तारि जाणा पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुचसोले ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-जुत्ते णाममेगे जुतसोमे । चत्तारि जुग्गा पं० तं०-जुत्ते नाममेगे जुत्ते, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-जुत्ते णामभेगे जुत्ते ४, एवं जधा जाणेण चत्तारि आढावा तथा जुग्गेणवि, पढिपक्खो तब पुरिसजावा जाव सोमेति । चत्तारि सारही पं० तं० – जोयावरचा णामं एये नो विजोयावइत्ता For Park Use Only ~479~ ॥ २३८ ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२०] विजोयावइत्ता नाम एगे नो जोयावइत्ता एगे जोयावइत्ताचि बिजोयावइत्तावि एगे नो जोयावइत्ता नो विजोयाषइत्ता, एवामेव चत्तारि हया पं० त०-जुत्ते णामं एगे जुत्चे जुत्ते जाममेगे अजुत्ते ४ एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, एवं जुत्तपरिणते जुत्तरूवे जुत्तसोभे सव्वेसि पडिवक्खो पुरिसजाता । चत्वारि गया पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४ एवं जहा हयाणं तहा गयाणवि भाणियब्वं, पडिवक्खो तहेव पुरिसजाया। चत्तारि जग्गारिता पं००-धजाती णाममेगे णो उपहजाती उप्पथजाती णाममेगे णो पंथजाती एगे पंथजातीवि उप्पहजातीवि, एगे जो पंथजातीणो उपपहजाती, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया। चत्तारि पुष्फा पं० त०-वसंपन्ने नाममेगे जो गंधसंपन्ने गंधसंपन्ने णाममेगे नो रूवसंपन्ने एगे रूवसंपन्नेवि गंधसंपन्नेवि एो णो रूवसंपन्ने णो गंधसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-रूवसंपन्ने णाममेगे णो सीलसंपन्ने ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० -जातिसंपन्ने नाममेगे नो कुलसंपन्ने ४.१, पत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जातिसंपण्णे नामं एगे णो बलसंपन्ने पलसंपन्ने नाम एगे णो जातिसंपन्ने ४, २, एवं जातीते स्वेण ४ चत्वारि आलावगा ३, एवं जातीते सुएण ४,४, एवं जातीते सीलेण ४, ५, एवं जातीते चरित्तेण ४, ६, एवं फुलेण बलेण ४, ७, एवं कुलेण स्वेण ४,८,कुलेण सुतेण ४, ९, कुलेण सीलेण ४, १०, कुलेण चरित्तेण ४, ११, चत्तारि पुरिसजाता पं० त० वळसंपण्णे नाममैगे णो रूवसंपन्ने ४, १२, एवं बलेण सुतेण ४, १३, एवं बलेण सीलेण ४,१४, एवं बलेण चरित्तेण ४, १५, चत्तारि पुरिसजाया पं००-रूवसंपन्ने नाममेगे णो सुयसंपण्णे ४, दीप अनुक्रम [३४२] ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३२०] स्थाना० | उद्देशः३ यानयुग्यसारथिप्रभृतिचतु. सू. ३२० ॥२३९॥ दीप अनुक्रम [३४२] १६, एवं रूपेण सीलेण ४, १७, रूवेण चरित्तेण ४, १८, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-सुयसंपन्ने नाममेगे णो सीलसंपन्ने ४, १९, एवं सुतेण चरित्तेण य ४, २०, चचारि पुरिसजाता पं० त०-सीलसंपन्ने नाममेगे नो चरितसंपन्ने ४, २१, एते एकवीसं भंगा भाणितब्वा, चत्तारि फला पं० तं०-आमलगमहुरे मुदितामहुरे खीरमहुरे खंडमहुरे, एवामेव पत्तारि आयरिया पं००-आमलगमहुरफलसमाणे जाव खंडमहुरफलसमाणे, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-आतवेतावचकरे नाममेगे नो परवेतावपकरे ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-फरेति नाममेगे वेयावच णो परिच्छइ पडिच्छइ नाममेगे वेयावचं नो करेद ४, चत्तारि पुरिसजाना पं० ०-अट्ठकरे णाममेगे णो माणकरे माणकरे णाममेगे णो अट्ठकरे एगे अट्ठकरेवि माणकरेवि एगे णो अट्टकरे जो माणकरे, पत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-भाणटुकरे णाममेगे णो माणकरे ४, चत्वारि पुरिसजाता पं० सं०-गणसंग्गहकरे णाममेगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०ाणसोभकरे णाम एगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं० -माणसोहिकरे णाममेगे नो माणकरे ४, चत्वारि पुरिसजाया पं० २०-कवं नाममेगे जहति नो धर्म धर्म नाममेगे जहति नो रूवं एगे रूबंपि जहति धम्मपि जहति एगे नो रूवं जहति नो धर्म, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-धम्म नाममेगे जहति नो गणसंठितिं ४, चत्वारि पुरिसजाया पं० २०-पियधम्मे नाममेगे नो वढधम्मे दधम्मे नाममेगे नो पितधम्मे एगे पियधम्मेवि दधम्मेवि एगे नो पियधम्मे नो दधम्मे, चत्तारि आयरिया पं० २०-पब्वायणायरिते नाममेगे जो उवट्ठावणायरिते उवट्ठावणायरिए णाममेगे णो पन्चायणायरिए एगे पब्बाय ॥२३९॥ ~481~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२०] णातरितेवि उबकावणातरितेवि एगे नो पन्वायणातरिते नो उट्ठावणातरिते धम्मायरिए, पत्तारि आयरिया पं० तं०-उदेसणायरिए णाममेगे णो वायणायरिए ४ धम्मायरिए, चत्तारि अंतेवासी ५० त०-पञ्चायणंतेवासी नाम एगे णो उवट्ठावर्णतेवासी ४ धम्मतेवासी, चत्तारि अंतेवासी पं० २०-उद्देसणंतेवासी नाम एगे नो वायणंतेवासी १ [वायणंतेवासी] ४ धम्मंतेवासी, चत्तारि निग्गंथा पं० सं०-रातिणिये समणे निर्गथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स अणाराषते भवति १ राइणिते समणे निगथे अप्पकम्मे अप्पकिरिते आतावी समिए धम्मस्स आराहते भवति २ ओमरातिणिते समणे निग्गंथे महाकम्मे महाकिरिते अणातावी असमिते धम्मस्स अणाराहते भवति ३, ओमरातिणिते समणे निग्गंधे अप्पकम्मे अप्पकिरिते आतावी समिते धम्मस्स आराहते भवति ४, पत्तारिणिग्गंधीओ पं००-रातिणिया समणी निग्गंधी एवं चेव ४, चत्तारि समणोवासगा पं. ०---रायणिते समणोषासए महाकम्मे तहेव ४, चत्तारि समणोवासियाओ पं० सं०-रायणिता समणोवासिता महाकम्मा तहेब चनारि गमा (सू० ३२०) 'चत्तारी'त्यादि कण्ठ्यश्चार्य, नवरं यान-शकटादि, तयुक्तं बलीवादिभिः, पुनर्युक्त-सङ्गतं समग्रसामग्रीकं वा पूर्वापरकालापेक्षया वा इत्येकं अन्यत् युक्तं तथैवायुक्तं तृतविपरीतत्वादिति, एवमितरौ, पुरुषस्तु युक्तो धनादिभिः पुनर्युक्त उचितानुष्ठानैः सनिर्वा, पूर्वकाले वा युक्तो धनधानुपानादिभिः पश्चादपि तथैवेति चतुर्भङ्गी, अथवा युक्तो द्रव्यलिङ्गेन भावलिन चेति प्रथमः साधः, द्रव्यलिङ्गन नेतरेणेति द्वितीयो निहवादिः, न द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन तु युक्त इति | दीप अनुक्रम [३४२]] ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२०] दीप श्रीस्थाना- तृतीयः प्रत्येकबुद्धादिः, उभयवियुक्तश्चतुर्थो गृहस्थादिरिति, एवं सूत्रान्तराण्यपि, नवरं युक्तं गोभिः युक्तपरिणतं तु अ-16 स्थाना० सूत्र- युक्तं सत्सामय्या युक्ततया परिणतमिति, पुरुषः पूर्ववत् , युक्तरूपं-सङ्गतस्वभाव प्रशस्तं वा युक्तं युक्तरूपमिति, पुरुषपक्षे उद्देशः३ वृत्तिः युक्तो धनादिना ज्ञानादिगुणैर्वा युक्तरूपः-उचितवेषः सुविहितनेपथ्यो वेति, तशा युक्तं तथैव युक्तं शोभते युक्तस्य यानयुग्य वा शोभा यस्य तयुक्तशोभमिति, पुरुषस्तु युक्तो गुणैस्तथा युक्ता-उचिता शोभा यस्य स तथेति, युग्य-वा- सारधिन॥२४०॥ हनमश्वादि, अथवा गोल्लविषये जपानं द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्रं सवेदिकमुपशोभितं युग्यकमुच्यते तद्युक्तमारोहणसामय्या भृतिचतु || पर्याणादिकया पुनर्युक्तं वेगादिभिरित्येवं यानवद् व्याख्येयम्, एतदेवाह-'एवं जहे'त्यादि, प्रतिपक्षी दाटोस्तिकस्तथैव, सू० ३२० कोऽसावित्याह-'पुरिसजाय'ति पुरुषजातानीत्येवं परिणतरूपशोभसूत्रचतुर्भङ्गिकाः सप्रतिपक्षा वाच्या, यावच्छोभसूत्रचतुर्भङ्गी यथा अजुत्ते नाम एगे अजुत्तसोभे, एतदेवाह-'जाव सोभेत्ति, सारथिः-शाकटिकः, योजयिता |शकटे गवादीनां न वियोजयिता-मोका, अन्यस्तु वियोजिता न तु योजयितेति, एवं शेषावपि, नवरं चतुर्थः खेटयत्येवेति, अथवा योनयन्तं प्रयुते यः स योक्रापयिता वियोक्रयतः प्रयोक्ता तु वियोक्रापयितेति, लोकोत्तरपुरुषविवक्षायां तु सारथिरिव सारथिर्योजयिता-संयमयोगेषु साधूनां प्रवर्त्तयिता, वियोजयिता तु-तेषामेवानुचितानां निवर्तयितेति, यानसूत्रवत् हयगजसूत्राणीति, 'जुग्गारियत्ति युग्यस्य चर्यान्वहनं गमनमित्यर्थः, कचित्तु 'जुग्गायरिय'ति पाठः, तत्रापि युग्याचर्येति, पथयायि एक युग्यं भवति नोलधयायीत्यादिश्चतुर्भङ्गी, इह च युग्यस्य चर्याद्वारेणैव निर्देशे चतुर्विधत्वेनो | ॥२४॥ तत्वात् तच्चर्याया एवोद्देशेनोक्तं चातुर्विध्यमवसेयमिति, भावयुग्यपक्षे तु युग्यमिव युग्य-संयमयोगभरवोढा साधुः, स|PI STORCE अनुक्रम [३४२]] ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२०] च पधियाय्यप्रमत्त उत्पथयायी लिहावशेषः उभययायी प्रमत्तः चतुर्थः सिद्धः, क्रमेण सदसदुभयानुभयानुष्ठानरूपत्वात्, अथवा पच्युपथयोः स्वपरसमयरूपत्वाद् यायित्वस्य च गत्यर्थत्वेन बोधपोयत्वात् स्वसमयपरसमयबोधापेक्षयेयं चतु। भनी नेयेति, एकं पुष्पं रूपसम्पन्नं न गन्धसम्पन्नमाकुलीपुष्पवत् द्वितीयश्च बकुलस्येव तृतीयं जातेरिव चतुर्थ बदर्यादेरिवेति, पुरुषो रूपसम्पनो-रूपवान् सुविहितरूपयुक्तो वेति ७ जाति ६ कुल ५ बल ४ रूप ३ श्रुत २ शील १ चारित्रलक्षणेषु सप्तसु पदेषु एकविंशती द्विकसंयोगेषु एकविंशतिरेव चतुर्भङ्गिकाः कार्याः सुगमाश्चेति, आमलकमिव मधुरं | यदन्यत् आमलकमेव वा मधुरमामलकमधुरं 'मुद्दियत्ति मृदीका-द्राक्षा तद्वत्सव वा मधुरै मृदीकामधुरं क्षीरवत् खण्डवच्च मधुरमिति विग्रहः, यथैतानि क्रमेणेषबहुबहुतरबहुतममाधुर्यवन्ति तथा ये आचार्या ईपद्वहुबहुतरबहुतमोपशमादिगुणलक्षणमाधुर्यवन्तस्ते तत्समानतया व्यपदिश्यन्त इति, आत्मवैयावृत्त्यकरोडलसो विसम्भोगिको वा परवैयावृत्यकरः स्वार्थनिरपेक्षः स्वपरवैयावृत्त्यकरः स्थविरकल्पिकः कोऽपि उभयनिवृत्तोऽनशनविशेषप्रतिपन्नकादिरिति, करोत्येवैको वैयावृत्त्य निःस्पृहत्वात् १ प्रतीच्छत्येवान्य आचार्यत्वग्लानत्वादिना २ अन्यः करोति प्रतीच्छति च स्थविरविशेषः ३ उभयनिवृत्तस्तु जिनकल्पिकादिरिति ४, 'अट्ठकरें'त्ति अर्थान-हिताहितप्राप्तिपरिहारादीन् राजादीनां दिग्यात्रादौ तथोपदेशतः करोतीत्यर्थकर:-मन्त्री नैमित्तिको वा, स चार्थकरो नामैको न मानकरः, कथमहमनभ्यर्थितः कथयिष्यामीत्यवलेपवर्जितः, एवमितरे त्रयः, अत्र च व्यवहारभाष्यगाथा-"पुट्टापुट्ठो पढमो जत्ताइ हियाहियं परिकहेइ । तइओ १ पृष्टोऽटो वा प्रथमो यात्रायां हिवाहित परिकथयति तृतीयः दीप अनुक्रम [३४२] ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३२०] दीप अनुक्रम [३४२] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्ति: ॥ २४१ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [(3) स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - Internationa पुट्ठो सेसा उ णिष्फला एव गच्छेवि ॥ १ ॥” इति गणस्य - साधुसमुदायस्यार्थान्- प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकरःआहारादिभिरुपष्टम्भकः, न च मानकरोऽभ्यर्थनानपेक्षत्वात् एवं त्रयोऽन्ये, उक्तं च- "आहारजव हिसयणाइएहिं गच्छस्वग्गहं कुणइ । बीओ न जाइ माणं दोन्निवि तइओ न उ चडत्थो ॥ १ ॥” इति अथवा 'नो माणकरो' सि गच्छार्थकरोऽहमिति न माद्यतीति । अनन्तरं गणस्यार्थ उक्तः, स च सङ्गहोडत आह-'गणसंगहकरे त्ति गणस्याहारादिना ज्ञानादिना च सङ्ग्रहं करोतीति गणसङ्ग्रहकर, शेषं तथैव, उक्तं च- "सो' पुण गच्छस्सऽट्टो उ संगहो तत्थ संगहो दुविहो । दब्बे भावे नियमाउ होंति आहारणाणादी ॥ १ ॥” आहारोपधिशय्याज्ञानादीनीत्यर्थः, न माद्यति, | गणस्यानवद्यसाधुसामाचारीप्रवर्त्तनेन वादिधर्म कथिनैमित्तिकविद्यासिद्धत्वादिना वा शोभाकरणशीलो गणशोभाकरो, नो मानकरोऽभ्यर्थनाऽनपेक्षितया मदाभावेन वा, गणस्य यथायोगं प्रायश्चित्तदानादिना शोधिं-शुद्धिं करोतीति गणशोधिकरः, अथवा शङ्किते भक्तादौ सति गृहिकुले गत्वाऽनभ्यर्थितो भक्तशुद्धिं करोति यः स प्रथमः, यस्तु मानान्न गच्छति सद्वितीयः, यस्त्वभ्यर्थितो गच्छति स तृतीयः, यस्तु नाभ्यर्थनापेक्षी नापि तत्र गन्ता स चतुर्थ इति, रूपं - साधुनेपथ्यं | जहाति -त्यजति कारणवशात् न धर्म चारित्रलक्षणं वोटिकमध्यस्थितमुनिवत्, अन्यस्तु धर्मं न रूपं निह्ववत्, उभयमपि उत्प्रब्रजितवत्, नोभयं सुसाधुवत् धर्म्यं त्यजत्येको जिनाज्ञारूपं न गणसंस्थितिं स्वगच्छकृतां मर्यादां, इह 2 १ पृष्टः शेषों निकली एवं गच्छेऽपि १२ आहारोपधिशयनादिकैर्गच्छस्योपग्रहं करोति द्वितीयो न मानं याति तृतीयो द्वावपि न तु चतुर्थ इति ॥ १ ॥ २ स गच्छस्यार्थः पुनः संप्रहस्तु तत्र संग्रहो द्विविधः द्रव्ये भावे नियमाद् भवन्ति आहारादयो ज्ञानादयश्च ॥ १ ॥ द्य मूलं [३२० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 485 ~ ४ स्थाना० उद्देशः ३ यानयुग्यसारथिप्रभृतिचतु० सू० ३२० ॥ २४१ ॥ wor Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [३२०] * IM कैश्चिदाचार्यैः तीर्थकरानुपदेशेन संस्थितिः कृता यथा-नास्माभिर्महाकल्पाचतिशय श्रुतमन्यगणसत्काय देयमिति, एवं |च योऽन्यगणसत्काय न तहदाविति स धर्मं त्यजति न गणस्थिति, जिनाज्ञाननुपालनात्, तीर्थकरोपदेशो ह्येव-सर्वेभ्यो योग्येभ्यः श्रुतं दातव्यमिति प्रथमो, यस्तु ददाति स द्वितीयः, यस्त्वयोग्येभ्यः तद्ददाति स तृतीयः, यस्तु श्रुताव्यव-IX &च्छेदार्थ तदव्यवच्छेदसमर्थस्य परशिष्यस्य स्वकीयदिग्बन्धं कृत्वा श्रुतं ददाति तेन न धर्मों नापि गणसंस्थितिस्त्यति स चतुर्थ इति, उक्तं च-"सयमेव दिसाबंधं काऊण पडिच्छगस्स जो देइ । उभयमवर्लबमाणं कामं तु तयंपि पूएमो ॥१॥"त्ति, प्रियो धर्मों यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च प्रतिपत्तेः स प्रियधर्मा न च रढो धर्मों वस्य, आपद्यपि तपरिणामाविचलनात्, अक्षोभवादित्यर्थः स दृढधम्मॆति, उक्तं च "देसविहवेयावचे अन्नतरे खिपमुज्जम कुणति । अच्चतमणेब्वाणि धिइविरियकिसो पढमभंगो ॥१॥" अन्यस्तु दृढधर्मा अङ्गीकृतापरित्यागात् न तु प्रियधर्मा कप्टेन धर्मप्रतिपत्तेः, इतरौ सुज्ञानौ, उक्तं च-"दुक्खेण उगाहिज्जइ बीओ गहियं तु नेइ जा तीरं। उभयं तो कल्लाणो तइओ चरिमो उ पडिकुट्ठो ॥१॥" इति, आचार्यसूत्रचतुर्थभने यो न प्रजाजनया न चोत्थापनयाचार्यः स क इत्याह |-धर्माचार्य इति, प्रतिबोधक इत्यर्थः, आह च-"धम्मो जेणुवइट्टो सो धम्मगुरू गिही व समणो वा । कोवि तिहिं | खवमेव दिग्बंध कृत्वा प्रतीनछकाय यो ददाति (श्रुतं ) तमप्युभयगवलंबयंतं प्रकामं पुनयामः॥१॥ २ दशविश्वयात्त्येपन्यतरस्मिन् क्षिप्रमुखम &ाकरोति अत्यन्तमपिधान्त प्रतिवीर्यशः प्रथमभंगः ॥१॥ ३ दुःलेनोशाचते द्वितीयो गृहीतं तु नयति पारं तृतीय उभयमतः कल्याणधरमस्तु प्रतिकुष्टः ॥१॥ 20 येन धर्म उपदिष्टः स धर्मगुरुः गृही धमणो वा कोऽपि त्रिभिः. दीप * अनुक्रम [३४२] ***** ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२० दीप श्रीस्थाना-14 उत्तो दोहिवि एकेकगेणेव ॥१॥" इति, त्रिभिरिति-प्रजाजनोत्थापनाधर्माचार्यत्वैरिति, उद्देशनम्-अनादेः पठ- स्थाना. सूत्र नेऽधिकारित्वकरणं तत्र तेन वाऽऽचार्यों-गुरुः उद्देशनाचार्यः, उभयशून्यः को भवतीत्याह-धर्माचार्य इति, अन्ते- उद्देशः३ वृत्तिः ६ गुरोः समीपे वस्तुं शीलमस्यान्तेवासी-शिष्यः प्रजाजनया-दीक्षया अन्तेवासी प्रजाजनान्तेवासी दीक्षित इत्यर्थः, उप-18 स्थापनान्तेवासी महावतारोपणतः शिष्य इति, चतुर्थभङ्गकस्थः क इत्याह-धर्मान्तेवासी धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यः, ॥२४॥ धार्थितयोपसम्पन्नो वेत्यर्थः, यो नोद्देशनान्तेवासी न वाचनान्तेवासीति चतुर्थः, स क इत्याह-धर्मान्तेवासीति, भृतिचतु. | निर्गता बाह्याभ्यन्तरग्रन्धान्निर्ग्रन्थाः-साधवो, रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि तैर्व्यवहरतीति रालिका पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थःहू सू० ३२० श्रमणो-निर्ग्रन्थो महान्ति-गुरूणि स्थित्यादिभिस्तथाविधप्रमादाद्यभिव्यजयानि कर्माणि यस्य स महाका, महती है मातापिक्रिया-कायित्यादिका कर्मबन्धहेतुर्यस्य स महाक्रियः, न आतापयति-आतापनां शीतादिसहनरूपां करोतीत्यनातापी|| त्रादिसमाः मन्दश्रद्धत्वादिति, अत एवासमितः समितिभिः, स चैवंभूतो धर्मस्थानाराधको भवतीत्येकः, अन्यस्तु पर्यायज्येष्ठ एवा- श्रावका: ल्पकम्मों-लघुका अल्पक्रिय इति द्वितीयः, अन्यस्तु अवमो-लघुः पर्यायेण रालिको अवमरालिका, एवं नियन्धिकान- सू०३२१ मणोपासकश्रमणोपासिकासूत्राणि 'चत्तारि गम'त्ति त्रिष्वपि सूत्रेषु चत्वार आलापका भवन्तीति ॥ चत्तारि समणोवासगा पं० त०-अम्मापितिसमाणे भातिसमाणे मित्तसमाणे सवत्तिसमाणे, पत्तारि समणोबासगा पं० सं०-अदागसमाणे पढागसमाणे खाणुसमाणे खरकटयसमाणे ४ (सू० ३२१) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स ॥ २४२॥ 1 संयुक्तः द्वाभ्यामेकैकेन वा (प्रव्राजकादवः)॥१॥ अनुक्रम [३४२] For P OW ~ 487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२२] समणोवासगाणं सोधम्मकप्पे अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलिओवमाई ठिती पन्नत्ता (सू० ३२२) चउहि ठाणेहिं अहुणोषवन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेजा माणुसं लोग हव्वमागछित्तते णो चेव णं संचातेति हल्धमागच्छित्तते, तं०-अहुणोववझे देवे देवलोगेसु दिव्येसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अझोववन्ने से णं माणुस्सए कामभोगे नो आढाइ नो परियाणाति णो अटुं बंधइ णो णिताणं पगरेति णो ठितिपगप्पं पगरेति १, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभोगेसु मुछिते ३ तस्स ण माणुस्सते पेमे वोच्छिन्ने दिव्वे संकेते भवति २, अहुणोववन्ने देवे देवलोपसु दिव्येसु कामभोगेसु मुग्छिते ४ तस्स णं एवं भवति-दम्हि गच्छं मुहुत्तेणं गच्छं, तेणं कालेणमपाउया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति, ३, अहुणोचवन्ने देवे देवलोएसु दिब्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते ४ तस्स णं माणुस्सए गंधे पटिकूले पहिलोमे नावि भवति, उडुपिय णं माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंच जोयणसताई इन्चमागच्छति ४, इचेतेहिं चउहि ठाणेदि अहुणोववण्णे देवे देवलोएमु इच्छेज्जा माणुस लोग हब्वमागच्छित्तए पो चेव णं संचातेति हल्चमागच्छित्तए । चर्षि ठाणेहिं अहुणोवबन्ने देवे देवलोएम इच्छेमा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तते संचाएइ हव्यमागच्छित्तए तं०-अहुणोवबन्ने देवे देवलोगेसु दिल्बेसु कामभोगेसु अमुच्छिते जाव अणज्झोवबन्ने, तस्स णं एवं भवति-अस्थि खलु मम माणुस्सए भवे आधरितेति का उवज्झाएति वा पवचीति वा थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेएति वा जेसिं पभावेणं मए इमा एतारूवा दिव्या देविड़ी दिल्या देवजुची लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, तं गच्छामि गं ते भगवते धंदामि जाच पअवासामि, १, भहुणोवयन्ने देवे देवलोएसु जाव अणझोववन्ने तस्स णमेवं भवति-एस णं माणुस्सए भवे जाणीति दीप अनुक्रम [३४४] ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: - % प्रत सूत्रांक -4 [३२३] दीप श्रीस्थाना- वा तवस्मीति वा अइदुकररकारते, तं गच्छामि णं ते भगवंते बंदामि जाव पजुवासामि २, अहुणोववन्ने देथे देवलो. ला४ स्थाना असूत्रएसु जाव अणज्झोववन्ने तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सए भवे माताति वा जाव सुण्डाति बा, तं गच्छा उद्देशः ३ वृत्तिः मिणं तेसिमंतितं पाउम्भवामि पासंतु ता मे इममेतारूनं दिवं देबिडिं दिव्वं देवजुर्ति लद्धं पत्तं अभिसमन्नागतं ३, वीरश्रावअहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु जाव अणज्झोववन्ने तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सए भवे मिति वा, सहीति कदेवत्वं ॥२४३॥ वा सुहीति वा सहाएति वा संगएति वा, तेसिं च णं अम्हे अन्नमनस्स संगारे पडिसुते भवति, जो मे पुस्वि चयति से सू० ३२२ संबोहेतब्वे, इचेतेहिं जाव संचातेति हवमागच्छित्तते ४ । (सू० ३२३) देवागमा'अम्मापिइसमाणे मातापितृसमानः, उपचारं विना साधुषु एकान्तेनैव वत्सलत्वात् , भ्रातृसमानः अल्पतरप्रेम- नागमकात्वात् तत्त्वविचारादौ निष्ठुरवचनादपीतेः तथाविधप्रयोजने त्वत्यन्तवत्सलत्वाचेति, मित्रसमानः सोपचारवचनादिना रणानि प्रीतिक्षते, तत्क्षतौ चापद्यप्युपेक्षकत्वादिति । समानः--साधारणः पतिरस्याः सपक्षी, यथा सा सपक्या ईर्ष्यावशाKादपराधान् वीक्षते एवं यः साधुषु दूषणदर्शनतत्परोऽनुपकारी च स सपलीसमानोऽभिधीयत इति, 'अदाग'त्ति आ दर्शसमानो यो हि साधुभिः प्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् भावान् यथावत्प्रतिपद्यते सन्निहितार्थानादर्शक वत् स आदर्शसमाना, यस्यानवस्थितो बोधो विचित्रदेशनावायुना सर्वतोऽपहियमाणत्वात् पताकेव स पताकासमान[x है इति, यस्तु कुतोऽपि कदाग्रहान्न गीतार्थदेशनया चाल्यते सोऽनमनस्वभावबोधत्वेनाप्रज्ञापनीयः स्थाणुसमान इति, यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान्न चलति अपि तु प्रज्ञापकं दुर्वचनकण्टकैविध्यति स खरकण्टकसमानः, खरा अनुक्रम [३४५] श्रावकस्य चतुर्विध स्वरूप ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: CAD प्रत सूत्रांक [३२३] CROFERENERAL निरन्तरा निधुरा वा कण्टा:-कण्टका यमिंस्तत् खरकण्ट-बुन्बूलादिडालं वरणमिति लोके यदुच्यते तश्च बिलग्नं चीवरं न केवलमविनाशितं न मुशत्यपि तु तद्विमोचकं पुरुषादिकं हस्तादिषु कण्टकैः विध्यतीति, अथवा खरण्टयति-लेपवन्त | करोति यत् तत्खरण्टम्-अशुच्यादि तत्समानो, यो हि कुवोधापनयनप्रवृत्तं संसर्गमात्रादेव दूषणवन्तं करोति, कुबोधकुशीलतादुष्पसिद्धिजनकत्वेनोत्सूत्रप्ररूपकोऽयमित्यसषणोद्भावकत्वेन वेति । श्रमणोपासकाधिकारादिदमाह-'समणस्से'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं, श्रमणोपासकानामानन्दादीनामुपासकदशाभिहितानामिति । देवाधिकारादेवेदमाह'चउही त्यादि, त्रिस्थानके तृतीयोद्देशके प्रायो व्याख्यातमेवेद, तथापि किश्चिदुच्यते, चउहि ठाणेहिं नो संचाएइत्ति सम्बन्धः, तथा देवलोकेषु देवमध्ये इत्यर्थः, हवं-शीघं, संचाएइत्ति-शक्नोति, कामभोगेषु-मनोज्ञशब्दादिषु मूच्छित इव मूच्छितो-मूढस्तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादेविबोधाक्षमत्वात् गृद्धः-तदाकाडावान् अतृप्त इत्यर्थः ग्रथित एवं प्रथितस्त-14 द्विषयस्नेहरजुभिस्संदर्भित इत्यर्थः, अध्युपपन्नः अत्यन्तं तन्मना इत्यर्थः, नाद्रियते--न तेप्वादरवान् भवति, न परिजानाति-एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते नो अर्थ बनाति-एतैरिदं प्रयोजनमिति निश्चय करोति, तथा नो तेषु निदानं प्रकरोति-एते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा नो तेषु स्थितिप्रकल्पम्-अवस्थानविकल्पनमे तेष्वहं तिष्ठामि एते वा मम तिष्ठन्तु-स्थिरा भवन्त्वित्येवंरूपं स्थित्या वा-मर्यादया प्रकृष्टः कल्पः-आचारः स्थितिप्रकल्पस्तं प्रकरोति-कर्नुमारभते, प्रशब्दस्यादिकार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरेकं कारणं, तथा यतोऽसावधुनोत्पन्नो देवः कामेषु मूच्छितादिविशेषणोऽतस्तस्य मानुष्यकमित्यादि इति दिव्यप्रेमसङ्क्रान्तिः द्वितीय, तथाऽसौ देवो यतो भो-IN दीप अनुक्रम [३४५] JABEdurainhintamarikana ForParaamaRAVIDEOnly श्रावकस्य चतुर्विध स्वरूपं ~ 490~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३२३] दीप अनुक्रम [३४५] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ३२३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सूत्रवृत्तिः ॥ २४४ ॥ स्थान [४], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] श्रीस्थाना- गेषु मूर्च्छितादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् 'तस्स ण'मित्यादि इति देवकार्यायत्ततया मनुष्यकार्यानायत्तत्वं तृतीयम्, तथा दिव्यभोगमूर्च्छितादिविशेषणात्तस्य मनुष्याणामयं मानुष्यः स एव मानुष्यको गन्धः प्रतिकूलो- दिव्यगन्ध * विपरीतवृत्तिः प्रतिलोमश्चापि इन्द्रियमनसोरनाहादकत्वाद्, एकार्थी वैतौ अत्यन्तामनोज्ञताप्रतिपादनायोक्ताविति या वदिति परिमाणार्थः, 'चत्तारि पंचेति विकल्पदर्शनार्थे कदाचित् भरतादिष्वेकान्तसुषमादौ चत्वार्येवान्यदा तु पश्चापि, मनुष्यपश्चेन्द्रियतिरश्चां बहुत्वेनौदारिकशरीराणां तदवयवतन्मलानां च बहुत्वेन दुरभिगन्धप्राचुर्यादिति, आगच्छति मनुध्यक्षेत्रादाजिगमिषुं देवं प्रतीति, इदं च मनुष्यक्षेत्रस्याशुभस्वरूपत्वमेवोकं, न च देवोऽन्यो वा नवभ्यो योजनेभ्यः परतः आगतं गन्धं जानातीति, अथवा अत एव वचनात् यदिन्द्रियविषयप्रमाणमुक्कं तदौदारिकशरीरेन्द्रियापेक्षयैव सस्भाव्यते, कथमन्यथा विमानेषु योजनलक्षादिप्रमाणेषु दूरस्थिता देवा घण्टाशब्दं शृणुयुर्यदि परं प्रतिशब्दद्वारेणान्यथा वेति नरभवाशुभत्वं चतुर्थमनागमनकारणमिति, शेषं निगमनम् आगमनकारणानि प्रायः प्राग्वत् तथापि किञ्चिदुच्यते, कामभोगेष्वमूर्च्छितादिविशेषणो यो देवस्तस्य 'एव'मिति एवंभूतं मनो भवति यदुत अस्ति मे, किन्तदित्याहआचार्य इति वा आचार्य एतद्वास्ति इतिः- उपप्रदर्शने वा विकल्प एवमुत्तरत्रापि क्वचिदितिशब्दो न दृश्यते तत्र तु सूत्रं सुगममेवेति, इह च आचार्यः प्रतिबोधकप्रत्राजकादिरनुयोगाचार्यो वा उपाध्यायः- सूत्रदाता प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्त्यादिष्विति प्रवत्तीं, प्रवर्त्तिव्यापारितान् साधून् संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोति स्थविरो, गणोइस्यास्तीति गणी - गणाचार्यः गणधरो-जिनशिष्यविशेषः आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः, गणस्या For Park Use Only ~ 491~ ४ स्थाना० उद्देशः ३ देवागमा नागमकारणानि सू० ३२३ ॥ २४४ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२३] 2- - विच्छेदो-देशोऽस्यास्तीति गणावच्छेदकः, यो हितं गृहीत्वा गच्छावष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरत, 'इम'त्ति इयं प्रत्यक्षासन्ना, एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरादावपि रूपान्तरभाक् सा तथा, दिव्या-स्वर्गसम्भवा प्रधाना वाटू देवर्द्धिः-विमानरलादिका द्युतिःशरीरादिसम्भवा युतिर्वा-युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा लब्धा-उपार्जिता जन्मान्तरे xप्राप्ता-इदानीमुपनता अभिसमन्वागता-भोग्यावस्थां गता, 'तंति तस्मात्तान् भगवतः पूज्यान् वन्दे स्तुतिभिः, नम-15 स्यामि प्रणामेन सत्करोमि आदरकरणेन पखादिना वा सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याण मङ्गलं दैवतं चैत्यमितिबुद्ध्या पर्युपासे-सेवामीत्येकम्, तथा ज्ञानी श्रुतज्ञानादिनेत्यादि द्वितीय, तथा 'भाया इ वा भजाइ पा भइणी इ वा पुत्ता इ वा धूया इ वेति यावच्छब्दाक्षेपः, सुषा-पुत्रभार्या 'तं तस्मात्तेषामन्तिक-समीपं प्रादुर्भवामि-प्रकटीभवामि 'ता' तावत् 'में मम 'इमें' इति पाठान्तर इति तृतीय, तथा मित्र-पश्चात्स्नेहवत् सखा-बालवयस्यः सुहृत्-सज्जनो हितैषी सहायः-सहचरस्तदेककार्यप्रवृत्तो वा सङ्गतं विद्यते यस्यासौ साङ्गतिकः-परिचितस्तेषां, 'अम्हे'त्ति अस्माभिः 'अन्नमन्नस्स'त्ति अन्योऽन्यं 'संगारे'त्ति सङ्केतः प्रतिश्रुतः-अभ्युपगतो भवति स्मेति, जे मो' (मे)त्ति योऽस्माकं पूर्व च्यवते देवलोकात् स सम्बोधयितव्य इति चतुर्थ, इदश्च मनुष्यभवे कृतसङ्केतयोरेकस्य पूर्वलक्षादिजीविषु भवनपत्यादित्पद्य च्युत्वा च नरतयोत्पन्नस्यान्यः पूर्वलक्षादि जीवित्वा सौधर्मादित्यद्य सम्बोधनार्थं यदेहागच्छति तदाऽवसेयमिति, इत्येतैरित्यादि निगमनमिति । अनन्तरं देवागम उक्तस्तत्र तत्कृतोद्योतो भवतीति तद्विपक्षमन्धकारं लोके आह चलहिं ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, सं०-अरहतेहिं वोच्छिन्नमाणेहिं अरहतपन्नते धम्मे बोरिछज्जमाणे पुव्वगवे वोच्छि दीप - अनुक्रम [३४५] +ck ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३२४] दीप अनुक्रम [३४६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ २४५ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ३२४] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] जमाणे जायतेते वोच्छिजमाणे, चउहिं ठाणेहिं लोउज्जोते सिता, तं० अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पब्बतमाणेहिं अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु ४, एवं देवंधगारे देवुजोते देवसन्निवाते देवुकलिताते देवकहकहते, चहिं ठाणेहिं देविंदा माणुस्सं लोगं हन्त्रमागच्छंति एवं जहा तिठाणे जाव लोगंतिता देवा माणुस्सं लोग हय्यभागच्छेया, तं० - अरहंतेहिं जायमाणेहिं जाव अरिहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु (सू० ३२४ ) 'ही' त्यादि व्यक्तं, किन्तु लोकेऽन्धकारं तमिस्रं द्रव्यतो भावतश्च यत्र यद् स्यात्, सम्भाव्यते ह्यर्हदादिव्यवच्छेदे द्रव्यतोऽन्धकारं उत्पातरूपत्वात् तस्य, छत्रभङ्गादौ रजउद्घातादिवदिति, वह्निव्यवच्छेदेऽन्धकारं द्रव्यत एव, तथास्वभावात् दीपादेरभावाद्वा, भावतोऽपि वा, एकान्तदुष्पमादावागमादेरभावादिति । पूर्व देवागम उक्तः, अतो देवाधिकारवन्तमादुःखशय्यासूत्रात् सूत्रप्रपञ्चमाह - 'चउही त्यादि, सुगमश्चार्य, नवरं लोकोद्योतश्चतुर्ष्वपि स्थानेषु देवागमात् जन्मादित्रये तु स्वरूपेणापि, एवमिति यथा लोकान्धकारं तथा देवान्धकारमपि चतुर्भिः स्थानैः, देवस्थानेध्वपि ह्यर्हदादिव्यवच्छेदकाले वस्तुमाहात्म्यात् क्षणमन्धकारं भवतीति, एवं देवोद्योतोऽर्हतां जन्मादिष्विति, देवसनिपातो:-- देवसमवाय एवमेव देवोत्कलिका - देवलहरिः, एवमेव देवकहकहेत्ति - देवप्रमोदकलकलः, एवमेव देवेन्द्रा मनुष्यलोकमागच्छेयुः अर्हतां जन्मादिष्वेवेति यथा त्रिस्थानके प्रथमोद्देशके तथा देवेन्द्रागमनादीनि लोकान्तिकसूत्रावसानानि वाक्यानि, केवलमिह परिनिर्वाणमहिमास्थिति चतुर्थमिति । पूर्वमर्हतां जन्मादिव्यतिकरेण देवागम उक्तः, अधुना अर्हतामेव प्रवचनार्थे दुःस्थितस्य साधोः दुःखशय्या इतरस्येतरा भवन्तीति सूत्रद्वयेनाह Eucation International For Penal Use On ~ 493~ ४ स्थाना० उद्देशः ३ लोकान्धकारादिः सू० ३२४ ।। २४५ ।। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२५] चत्तारि दुसेजामो पं० त०-तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेजातं०-से णं मुंढे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्यतिते निमगंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने निर्णथं पावयणं णो सहहति णो पत्तियति णो रोएइ, मिगध पावयणं असदहमाणे अपत्तितमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावतं नियच्छति विणिघातमावअति पढमा दुहसेज्जा १, अहावरा दोचा दुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता अगारातो जाच पन्चतिते सएणं लाभेणं णो तुस्सति परस्स लाभमासाएति पीहेति पत्थेति अभिलसति परस्स लाभमासाएमाणे जाव अमिलसमाणे मणं उहावयं निवच्छ विणिघातमावजति दोचा दुहसेज्जा २, अहावरा तच्चा दुहसेजा--से णं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए विग्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अभिलसति दिब्वमाणुस्सए कामभोगे आसाएमाणे जाव अमिलसमाणे मणं उणावयं नियच्छति विणिघातमावज्जति तथा दुहसेज्जा ३, अहावरा चउत्था दुहसेज्जा-से ण मुंडे जाव पब्वइए तस्स णमेवं भवति जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमह संवाहणपरिमणगातम्भंगगातुच्छोलणाई लभामि जप्पभिई चर्ण आई मुंडे जाव पन्चतिते तप्पमिदं च णं अहं संवाहण जाव गातुच्छोलणाई णो लभामि, से गं संवाहण जाव गातुच्छोलणाई आसाएति जाव अमिलसति से ण संबाहण जाव गातुच्छोलणाई आसाएमाणे जाव मणं उच्चावतं नियच्छति विणिघायमावज्जति चउत्था दुहसेजा ४ । चत्तारि सुहसेजाओ पं० सं०-तत्य खलु इमा पढमा मुहसेजा, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पञ्चतिए निम्गंथे पावयणे निस्संकिते णिकांखिते निन्वितिगिच्छिए नो भेदसमा दीप अनुक्रम [३४७] BESEARCH marana ~ 494~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥२४६॥ [३२५] 55554545515345527 वन्ने नो कलुससमावने निग्गंधं पावयणं सहइ पत्तीयइ रोतेति निर्गवं पावयणं सदहमाणे पत्तितमाणे रोएमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति णो विणिपातमावजति पढ़मा सुहसेज्जा १, अहावरा दोच्चा सुहसेना, से गं मुंडे जाव पन्चतिते सतेणं डामेणं तुस्सति परस्स लाभ णो आसाएति णो पीहेति णो पत्येइ णो अमिलसति परस्स लाभमणासाएमाणे जाव अणमिलसमाणे नो मणं उच्चावतं णियच्छति णो विणिघातमावनति, दोषा सुहसेज्जा २, अहावरा तथा मुहसेना-से ण मुंडे जाब पम्बइए दिन्बमाणुस्सए कामभोगे णो आसाएति जाव नो अभिलसति दिब्बमाणुस्सए कामभोगे अणासाएमाणे जाव अणभिलसमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति णो विणिधासमावज्जति तथा मुहसेजा ३, अहावरा चउत्था सुहसेज्जा-से णं मुंढे आव पन्चतिते तस्स णं एवं भवति-जइ साव भरहंता भगवंतो हट्ठा आरोग्गा बलिया कल्लसरीरा अन्नयराई ओरालाई कल्लाणाई विउलाई पयताई पग्गहिताई महाणुभागाई कम्मक्खयकारणाई तवोकम्माई पविजेति किमंग पुण अहं अम्भोवगमिओवामियं वेवणं नो सम्म सहामि खमामि तितिक्सेमि अहियासेमि ममं च णं अभोवगमिमोवामियं सम्ममसहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणहियासेमाणस्स किं मन्ने कजति', एतसो मे पावे कम्मे कजति, ममं च गं अब्भोवगमिओ जान सम्म सहमाणस्स जाव अहिवासेमाणस्स किं मन्ने कजति , एगंतसो मे निजरा कजति, चउत्था सुहसेवा ४ (सू० ३२५) चत्तारि भवायणिज्जा, पं० सं०अविणीए वीगईपडिबद्धे अविओसवितपाहुढे माई । चत्तारि वातणिजा पं० त०-विणीते अविगतीपडिबद्धे वित्तोसवितपाहुढे अमाती (सू० ३२६) ४स्थाना० | उद्देशः ३ दुखसुखदाशय्या: | सू० ३२५ | वाचनीयावाचनीयाः सू०३२६ दीप अनुक्रम [३४७] ॥२४६॥ ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२६]] K+NXCANACA 'चसारी'त्यादि, चतना-चतुःसच्या दुःखदाः शय्या दुःखशय्या, ताथ द्रव्यतोऽतथाविधखदादिरूपाः भावतस्तु दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावाः प्रवचनाश्रद्धान १ परलाभप्रार्थन २ कामाशंसन ३ स्नानादिप्रार्थन ४ विशेषिताः प्रज्ञताः, 'तत्रेति तासु मध्ये 'से' इति स कश्चित गुरुको अथार्थों वा अयं स च वाक्योपक्षेपे 'प्रवचने' शासने दीर्घत्वच प्रकटादित्वादिति शङ्कितः-एकभावविषयसंशययुक्तः काजितो-मलान्तरमपि साध्वितिबुद्धिः विचिकिस्सितः-18 दाफलं प्रति शङ्कावान् भेदसमापन्नो-बुद्धिद्वैधीभावापन्न एवमिदं सर्व जिनशासनोक्तमन्यथा वेति कलुपसमापनो-नैत देवमिति विपर्यस्त इति, न श्रद्धते-सामान्येनैवमिदमिति नो प्रत्येति-प्रतिपद्यते प्रीतिद्वारेण नो रोचयति-अभिला-1 पातिरेकेणासेवनाभिमुखतयेति, मन:-चित्तमुचावचम्-असमञ्जसं निर्गच्छति-याति करोतीत्यर्थः, ततो विनिघात-धर्मभ्रशं संसारं वा आपचते, एवमसौ श्रामण्यशय्यायां दुःखमास्त इत्येका, तथा स्वकेन-स्वकीयेन लभ्यते लम्भनं वेति लाभा-अन्नादे रजादेवों तेन आशां करोतीत्याशयति स नूनं मे दास्यतीत्येवमिति आस्वादयति वा-लभते चेत् भुङ्ग एवं स्पृहयति-वाग्छयति प्रार्थयति-याचते अभिलषति-लब्धेऽप्यधिकतरं वाग्छतीत्यर्थः, शेषमुक्तार्थमेवमप्यसौ दुःखमास्त इति द्वितीया, तृतीया कण्ठ्या, अगारवासो-गृहवासस्तमावसामि-तत्र वत्से सम्बाधनं-शरीरस्यास्थिसुखत्वादिना नैपुण्येन मर्दनविशेषः परिमर्दनं तु-पिष्टादेर्मलनमात्र परिशब्दस्य धात्वर्थमात्रवृत्तित्वात् गात्राभ्यङ्गा-तैलादिनाs-12 यक्षणं गात्रोत्क्षालनम्-अङ्गधावनमेतानि लभे न कश्चित् निषेधयतीति, शेष कण्ठ्यमिति चतुर्थी ॥ दुःखशय्याविपरीताः सुखशय्याःप्रागिवावगम्या, नवरं-'हह'त्ति-शोकाभावेन हृष्टा इव हृष्टा अरोगा-ज्वरादिवर्जिताः बलिका:-प्राणवन्तः दीप अनुक्रम [३४८] ~496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 5 श्रीस्थाना असूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३२६]] २४७॥ %95 दीप कल्पशरीरा:-पटुशरीरा अन्यतराणि-अनशनादीनां मध्ये एकतराणि उदाराणि-आशंसादोपरहिततयोदारचित्तयुक्तानि | ४ स्थाना० कल्याणानि मङ्गलस्वरूपत्वात् विपुलानि बहुदिनत्वात् प्रयतानि प्रकृष्टसंयमयुक्तत्वात् प्रगृहीतानि आदरप्रतिपन्नत्वात् महा उद्देशः३ नुभागानि अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् (समृद्धाने) ऋद्धिविशेषकारणत्वात् कर्मक्षयकारणानि मोक्षसाधकत्वात् तपाकर्माणि-ली तपः-क्रियाः प्रतिपद्यन्ते-आश्रयन्ति, 'किमंग पुण'त्ति किं प्रश्ने अङ्ग्रेत्यात्मामन्त्रणेऽलङ्कारे वा 'पुनरिति पूर्वोक्तावलक्षण्य-12 शय्या : दर्शने शिरोलोचब्रह्मचर्यादीनामभ्युपगमे भवा आभ्युपगमिकी उपक्रम्यतेऽनेनायुरित्युपक्रमो-ज्वरातीसारादिस्तत्र भवा सू० ३२४ या सौपक्रमिकी सा चासौ सा चेति आभ्युपगमिकौपक्रमिकी तां वेदनां-दुःखं सहामि तदुत्पत्तावभिमुखतया, अस्ति च । वाचनीसहिरवैमुख्यार्थे यथाऽसौ भटस्त भटं सहते, तस्मान्न भज्यत इति भावः, क्षमे आत्मनि परे वाऽविकोपतया तितिक्षामियावाच| अदैन्यतया अध्यासयामि सौष्ठवातिरेकेण तत्रैव वेदनायामवस्थानं करोमीत्यर्थः, एकार्था वैते शब्दा, कि 'मन्ने तिनीयाः मन्ये निपातो वितकर्थिः क्रियते-भवतीत्यर्थः, 'एगंतसो'त्ति एकान्तेन सर्वथेत्यर्थ इति ।। एते च दुःखसुखशय्यावन्तो सू०३२५. निर्गुणसगुणाः अतस्तद्विशेषाणामेव वाचनीयावाचनीयत्वदर्शनाय सूत्रद्वयं, कण्ठ्यं, नवरं 'वीयइत्ति विकृतिः-क्षीरादिका ३२६ 'अव्यवशमितप्राभृत' इति प्राभृतम्-अधिकरणकारी कोप इति । अनन्तरं वाचनीयावाचनीयाः पुरुषा उक्ता इति पुरुषा अधिकारात् तद्विशेषप्रतिपादनपरं चतुर्भङ्गिकाप्रतिवद्धं सूत्रप्रवन्धमाह C ॥२४७॥ 'बत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-आतंभरे नाममेगे नो परंभरे परंभरे नाममेगे नो आतंभरे एगे आतंभरेवि परंभरेवि एगे नो आर्यभरे नो परंभरे, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-दुग्गए नाममेगे दुग्गए दुग्गए नाममेगे सुग्गते सुग्गते अनुक्रम [३४८] SACROSCOR ~497~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२७] 4%85% नामगेमे दुग्गए सुग्गए नाममेगे सुग्गए, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-दुगगते नाममेगे दुखए दुग्गए नाममेगे मुपए सुग्गए नाममेगे दुन्वते सुग्गए नाममेगे सुब्बए ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-दुग्गते नाममेगे दुष्पडिता. गंदे दुग्गते नाममेगे मुप्पडिताणंदे ४, चत्तारि पुरिसजावा पं० २०-दुग्गते नाममेगे दुग्गतिगामी दुग्गए नाममेगे सुग्गतिगामी ४, चचारि पुरिसजाया पं० तं०-दुग्गते नागमेंगे दुग्गतिं गते दुग्गते नाममेगे सुगर्ति गते ४, चत्तारि पुरिसजाता पं०२०-तमे नाममेगे तमे तमे नाममेगे जोती जोती णाममेगे तमे जोती णाममेगे जोती ४, पत्तारि पुरिसजाता पं००--तमे नाममेगे तमबले तमे नाममेगे जोतिबले जोती नाममेगे तमबले जोती नाममेगे जोतीबले, 'चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-तमे नाममेगे तमवलपलजणे तमे नाममेगे जोतीवलपलक्षणे ४, चत्तारि पुरिसजाना पं० २०-परिनायकम्मे नाममेगे नो परिन्नातसन्ने परिनातसन्ने णाममेगे णो परिनातकम्मे एगे परिन्नातकम्मेवि० ४, पत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-परिन्नायकम्मे णाममेगे नो परिभातगिहावासे परित्नायगिहायासे णाम एगे णो परिन्नातकम्मे ४, पत्तारि पुरिमजाता पं० सं०-परिण्णायसन्ने णाममेगे नो परिभातगिहावासे परिजातनिहावासे णाम एगे०४, पत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-इहत्थे णाममेगे नो परत्थे परत्थे नाममेरो नो इहत्थे ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०--एगेणं णाममेगे बहुति एगेणं हायति एगेणं णाममेगे बड़ा दोहिं हायति दोहिं णाममेगे वडति ए. . गेणं हातति एगे दोहिं नाममेगे बहुति दोहिं हायति, चत्तारि कथका पं० २०-आइन्ने नाममेगे आइने आइन्ने नाममेगे खलुके खलुके नाममेगे आइन्ने खलुंके नाममेगे खलुके ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजावा पं० २०-आइने नाम दीप अनुक्रम [३४९] 2584545 564 ~ 498~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाअसूनवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३२७] ॥२४८॥ मेगे आइने पउभंगो, पत्तारि कंथगा पं० त०-आतिन्ने नाममेगे आतिनताते विहरति आइन्ने नाममेगे खलुकत्ताए ४ स्थाना० विहरति ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाना पं० सं०-आइन्ने नाममेगे आइन्नताए विहरइ, चउभंगो चत्तारि पकंथगा उद्देश ३ पं००-जातिसंपने नाममेगे णो कुलसंपन्ने ४, एवागेव चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-जातिसंपन्ने नाममेगे चत. आत्मम्भभंगो, चत्तारि कंथगा पं० सं०-जातिसंपन्ने नाममेगे णो बलसंपन्ने ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं०२०-जा रित्वादितिसंपन्ने नाममेगे णो बलसंपण्णे ४, चत्तारि कंधगा पं० २०-जातिसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने ४, एवामेव चत्तारि चतुर्भमा पुरिसजाता पं० सं०-जातिसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपण्णे ४ चत्तारि कंथगा ५००--माइसंपन्ने णाममेगे णो सू०३२७ जयसंपणे ४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जातिसंपन्ने ४, एवं कुलसंपन्नेण य बलसंपण्णेण त ४, कुलसंपन्नेण य रुवसंपण्णेण त ४ कुलसंपण्णेण त जयसंपन्नेण त ४ एवं बलसंपन्नेण त स्वसंपन्नेण त ४ बलसंपन्नेण त जयसंपण्णण त ४, सम्वत्थ पुरिसजाया पडिवक्खो, चत्तारि कंथगा पं० सं०-रूवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने ४ एवामेव चनारि पुरिसजाया पं० सं०-रूवसन्ने नाममेगे णो जयसंपन्ने ४ । चचारि पुरिसजाया पं० जहा-सीहत्ताते णाममेगे निक्खंते सीदत्ताते पिहरइ सीहत्ताते नाममेगे निक्षते सियालत्ताए विहरइ सीयालत्ताए नाममेगे निक्खते सीहत्ताए विहर सीयालप्ताए नाममेगे निक्खते सीयालत्ताए विहर (सू० ३२७) 'चत्तारी'त्यादि, आत्मानं विभर्ति-पुष्णातीत्यात्मम्भरिः प्राकृतत्वादायंभरे, तथा परं विभीति परम्भरिः, प्राकृत-IM॥२४८॥ वासरंभरे इति. तन्त्र प्रथमभंगे स्वार्थकारक एव, स च जिनकल्पिको, द्वितीयः परार्थकारक एव, स च भगवानहेन्, दीप अनुक्रम [३४९] ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२७] है तस्य विवक्षया सकलस्वार्थसमाप्तेः वरप्रधानप्रयोजनप्रापणप्रवणप्राणितत्वात् , तृतीये स्वपरार्थकारी, स च स्थविरकल्पिकः विहितानुष्ठानतः स्वार्थकरत्वाविधिवसिद्धान्तदेशनातश्च परार्थसम्पादकत्वात् , चतुर्थे तूभयानुपकारी, स च मुग्धमतिः कश्चिद् यथाच्छन्दो वेति, एवं लौकिकपुरुषोऽपि योजनीयः । उभयानुपकारी च दुर्गत एव स्यादिति दुर्ग-18 तसूत्र, दुर्गतो-दरिद्रः, पूर्व धनविहीनत्वात् ज्ञानादिरत्नविहीनत्वाद्वा पश्चादपि तथैव दुर्गत एवेति, अथवा दुर्गतो* द्रव्यतः पुनर्दुर्गतो भावत इति प्रथमः, एवमन्ये त्रयो, नवरं मुगतो द्रव्यतो धनी भावतो ज्ञानादिगुणवानिति । दुर्गतः कोऽपि व्रती स्यादिति दुर्बतसूत्र, दुर्गतो-दरिद्रः दुर्बत:-असम्यग्नतोऽथवा दुर्व्ययः-आयनिरपेक्षव्ययः कुस्थानव्ययो है वेत्येकः, अन्यो दुर्गतः सन् सुव्रतो-निरतिचारनियमः, सुव्ययो वौचित्यप्रवृत्तेरिति, इतरौ प्रतीतौ । दुर्गतस्तथैव दुष्पत्यानन्दा-उपकृतेन कृतमुपकारं यो नाभिमन्यते, यस्तु मन्यते तं स सुप्रत्यानन्द इति । दुर्गतो-दरिद्रः सन् दुर्गतिं गमिष्यतीति दुर्गतिगामीत्येवमन्येऽपि, नवरं सुगति गमिष्यतीति सुगतिगामी, सुगतः-ईश्वर इत्यर्थः । दुर्गतस्तथैव है। दुर्गतिं गतः यात्राजनकुपिततन्मारणप्रवृत्तद्रमकवत् , एवमन्ये त्रयः । तम इव तमः पूर्वमज्ञानरूपत्वादप्रकाशत्वाद्वा पश्चादपि तम एवेत्येकः, अन्यस्तु तमः पूर्वं पश्चाज्योतिरिवज्योतिरुपार्जितज्ञानत्वात् प्रसिद्धिप्राप्तत्वाद्वा, दोषौ सुज्ञानौ । तमः-कुकर्मकारितया मलिनस्वभावस्तमः-अज्ञातं बलं-सामर्थ्य यस्य तमः- अन्धकारं वा तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा, असदाचारवानज्ञानी रात्रिचरो वा चौरादिरित्येकः, तथा तमस्तथैव ज्योतिः-ज्ञानं बलं यस्य आदित्यादिनकाशो वा ज्योतिस्तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा, अयं चासदाचारो ज्ञानवान् दिनचारी वा चौरादिरिति द्वितीयो, दीप CADCACANCIEOCOM अनुक्रम [३४९] NAGAR ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३२७] दीप अनुक्रम [३४९] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २४९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ज्योतिः - सत्कर्मकारितयोज्ज्वलस्वभावस्त मोगलस्तथैव, अयं च सदाचारवान् अज्ञानी कारणान्तराद्वा रात्रिचर इति तृतीयः, चतुर्थः सुज्ञानः, अयञ्च सदाचारवान् ज्ञानी दिनचरो वेति । तथा तमस्तथैव 'तमबलपलज्जणे' त्ति तमो-मिथ्याज्ञानं अन्धकारं वा तदेव बलं तत्र वा अथवा तमसि उक्तरूपे बले च-सामर्थ्यं प्ररज्यते रतिं करोतीति तमोवलप्ररञ्जनः एवं ज्योतिर्बलप्ररञ्जनोऽपि, नवरं ज्योतिः - सम्यग्ज्ञानमादित्यादिप्रकाशो वेति, एवमितरावपि, इहापि त एव पूर्वसूत्रोक्ताः पुरुषविशेषाः प्ररञ्जनविशेषिताः द्रष्टव्याः, अथवा तमस्तथैवाप्रसिद्धो वा तमोबलेन-अन्धकारवलेन सञ्चरन् प्रलज्जते इति तमोवलप्रलज्जनः - प्रकाशचारी, एवमितरेऽपि, नवरं द्वितीयोऽन्धकारवारी तृतीयः प्रकाशचारी चतुर्थः ४ सू० १२७ कुतोऽपि कारणादन्धकारचार्येवेति, 'पज्जलणे'ति कचित्पाठः तत्राज्ञानबलेनान्धकारवलेन वा ज्ञानबलेन प्रकाशत्रलेन है। वा प्रज्वलति दर्पितो भवत्यवष्टम्भं करोति यः स तथेति । परिज्ञातानि ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानप- से रिज्ञया च परिहृतानि कर्माणि - कृष्यादीनि येन स परिज्ञातकर्मा नो-न च परिज्ञाताः संज्ञा-आहारसंज्ञाद्या येन स परिज्ञातसंज्ञः, अभावितावस्थः प्रत्रजितः श्रावको वेत्येकः, परिज्ञातसंज्ञः सद्भावनाभावितत्वात् न परिज्ञातकर्म्मा कृष्याद्यनिवृत्तेः श्रावक इति द्वितीयः, तृतीयः साधुञ्चतुर्थोऽसंयत इति । परिज्ञातकर्मा - सावधकरणकारणानुमतिनिवृत्तः कृप्यादिनिवृत्तो वा न परिज्ञातगृहावासोऽप्रब्रजित इत्येकः, अभ्यस्तु परिज्ञातगृहावासो न त्यक्तारम्भो दुष्प्रत्रजित इति द्वितीयः तृतीयः साधुश्चतुर्थोऽसंयतः त्यक्तसंज्ञो विशिष्टगुणस्थानकत्वादत्यतगृहावासो गृहस्थत्वादेकः अन्यस्तु ॥ २४९ ॥ परिहृतगृहवासो यतित्वादभावितत्वान्न परिहृतसंज्ञः अन्य उभयथा अन्यो नोभयथेति । इहैव जन्मन्यर्थः - प्रयोजनं Educatin internationa For Pale Only मूलं [ ३२७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 501~ ४ स्थाना० उद्देशः ३ आत्मम्भरित्यादिचतुर्भयः Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३२७] दीप अनुक्रम [३४९] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ३२७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] भोगसुखादि आस्था वा इदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य स इहार्थ इहास्थो वा भोगपुरुष इहलोकप्रतिबद्धो वा परत्रैव जन्मान्तरे अर्थ आस्था वा यस्य स परार्थः परास्थो वा साधुर्बालतपस्वी वा इह परत्र च यस्यार्थ आस्था वा स सुश्रावक उभयप्रतिबद्धो वा उभयप्रतिषेधवान् कालशौकरिकादिर्मूढो वेति, अथवा इहैव विवक्षिते ग्रामादौ तिष्ठतीति इहस्थस्तत्प्रतिबन्धान्न परस्थो अन्यस्तु परत्र प्रतिबन्धात्सरस्थः अन्यस्तूभयस्थः अन्यः सर्वाप्रतिवद्धत्वादनुभयस्थः साधुरिति । एकेनेति श्रुतेन एकः कश्चिद्वर्द्धते एकेनेति सम्यग्दर्शनेन हीयते, यथोक्तम्- "जह जह बहुस्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य। अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥ १ ॥" इत्येकः तथा एकेन श्रुतेनैवान्यो वर्द्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शन विनयाभ्यां हीयते इति द्वितीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यामन्यो बर्द्धते एकेन सम्यग्दर्शनेन हीयते इति तृतीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यां अन्यो वर्द्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शन विनयाभ्यां हीयत इति चतुर्थः, अथवा ज्ञानेन वर्द्धते रागेण हीयते इत्येकः, अन्यो ज्ञानेन वर्द्धते रागद्वेषाभ्यां हीयते इति द्वितीयः, | अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते रागेण हीयते इति तृतीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते रागद्वेषाभ्यां हीयत इति चतुर्थः, अथवा क्रोधेन बर्द्धते मायया हीयते कोपेन वर्द्धते मायालोभाभ्यां हीयते क्रोधमानाभ्यां वर्द्धते मायया हीयते क्रोधमानाभ्यां वर्द्धते मायालोभाभ्यां हीयत इति । प्रकन्थकाः पाठान्तरतः कन्यका वा-अश्वविशेषाः, आकीण-व्याप्तो जवादिगुणैः पूर्व पश्चादपि तथैव, अन्यस्त्वाकीर्णः पूर्व पश्चात्खलुङ्को - गलिरविनीत इति अन्यः पूर्व १ यथा यथा बहुश्रुतः संमतच शिष्यगणसंपरिवृतथ अविनिखितो यदि समये तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः ॥ १ ॥ Education Internation For Park Use Only ~ 502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः लोके प्रत सूत्रांक [३२७] ॥२५ ॥ | सू०३२९ दीप अनुक्रम [३४९] खलुङ्कः पश्चादाकीर्णों गुणवानिति चतुर्थः पूर्व पश्चादपि खलुक एवेति । आकीर्णो गुणवान आकीर्णतया-गुणवत्तया स्थाना विनयवेगादिभिरित्यर्थः, वहति-प्रवर्तते विहरतीति पाठान्तरं आकीर्णोऽन्य आरोहदोषेण खलुङ्कतया-गलितया वहति, उद्देशः अन्यस्तु खलुप: आरोहकगुणात् आकीर्णगुणतया वहति, चतुर्थः प्रतीतः, सूत्रद्वयेऽपि पुरुषा दान्तिका योज्याः, सूत्रे तु कचिन्नोक्ता, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति, ५ जाति ४ कुल ३ बल २ रूप १ जयपदेषु दशभिर्द्विकसंयोगैर्दशैव | समा० प्रकन्धकदृष्टान्तचतुर्भङ्गीसूत्राणि, प्रत्येकं तान्येवानुसरन्ति सन्ति दश दार्टान्तिकपुरुषसूत्राणि भवन्तीति, नवरं जया सू० ३२८ पराभिभव इति, सिंहतया-ऊर्जवृत्त्या निष्कान्तो गृहवासात् तथैव च विहरति उद्यतविहारेणेति, शृगालतया-दीन- द्विशरीराम वृत्त्येति । पूर्व पुरुषाणामन्चादिभिर्जात्यादिगुणेन समतोक्काऽधुना अप्रतिष्ठानादीनां तामेव प्रमाणत आह पजारि लोगे समा ५००-अपइहाणे नरण १ जंबुद्दीवे दीवे २ पालते आणविमाणे ३ सम्वसिद्धे महाविमाणे ४, पत्तारि लोगे समा सपक्खि सपडिदिास पं० २०-सीमंतए नरए समयक्खेत्ते उडुविमाणे ईसीपम्भारा पुढवी, (सू० ३२८) पडलोगे णं चत्तारि निसरीरा पं० २०-पुढविकाइया आउ० वणस्सइ० घराला तसा पाणा, अहो लोगे णं चत्तारि विसरीरा पं० त०-एवं चेव, एवं तिरियलोएबि ४ (सू० ३२९) 'चत्सारी'त्यादि सूत्रद्वयं प्रायो व्याख्यातार्थ तथाप्युच्यते, अप्रतिष्ठानो नरकावासः सप्तम्यां नरकपृथिव्यां पञ्चाना कालादीनां नरकावासानां मध्यवर्ती, स च योजनलक्षं, पालक पालकदेवनिर्मितं सौधर्मेन्द्रसम्बन्धि यानञ्च तद्विमा-8॥२५०॥ नश्च यानाय पा-मनाय विमानं यानविमानं, नतु शाश्वतमिति, सर्वो|सिद्धं पञ्चानामनुत्तरविमानानां मध्यममितिबाट *CONOCOSUSK कर SAREarattunintenthnational ~503~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२९] चत्वारो लोके समा भवन्ति, कथमित्याह-'सपक्खि सपडिदिसं'ति समानाः पक्षा:-पार्धा दिशो यस्मिन् तत्सपक्ष । | इहेकार प्राकृतत्वेन तथा समानाः प्रतिदिशो-विदिशो यस्मिंस्तत्सप्रतिदिक् तद् यथा भवत्येवं समा भवन्तीति, सदृशाः पक्षरिति सपक्षमित्यव्ययीभावो वेति, पृथुसङ्कीर्णयोर्हि द्रव्ययोरधउपरिविभागेन स्थितयोस्तुल्यमानयोर्वा विषमताव्य81वस्थितयोर्न समा दिशो विदिशश्च भवन्तीत्यत्यन्तसमताख्यापनार्थमिदं विशेषणद्वयमिति, सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे पश्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाण इति, समयः-कालस्तदुपलक्षित क्षेत्रं समयक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः, उडुविमानं सौधर्मे प्रथमप्रस्तट एवेति, ईषद्-अल्पो रत्नप्रभाद्यपेक्षया प्राग्भारः-उच्छ्रयादिलक्षणो यस्यां सेषत्याग्भारा । | ईषनागभारा ऊर्ध्वलोके भवतीति ऊर्ध्वलोकप्रस्तावादिदमाह-'उडे'त्यादि, द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः, एक पृथिवीका-| |यिकादिशरीरमेव द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्यशरीरं ततस्तृतीयं केषाश्चिन्न भवत्यनन्तरमेव सिद्धिगमनात् , 'ओ राला तसति उदारा-स्थूला द्वीन्द्रियादयो न तु सूक्ष्मास्तेजोवायुलक्षणाः, तेषामनन्तरभवे मानुषत्वाप्राप्त्या सिद्धिर्न भवतीति शरीरान्तरसम्भवात्, तथोदारत्रसग्रहणेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपादनेऽपीह द्विशरीरतया पञ्चेन्द्रिया एव ग्राह्याः, विकलेन्द्रियाणामनन्तरभवे सिद्धेरभावाद्, उक्तञ्च-"विगला लभेज विरई ण हु किंचि लभेज सुहुमतसा" [[विकला लभेरन् विरतिं नैव किञ्चिल्लभेरन् सूक्ष्मत्रसाः] इति । लोकसम्बन्धायाते अधोलोकतिर्यग्लोकयोरतिदेशसूत्रे, |गतार्थे इति । तियेंग्लोकाधिकारात् तदुद्भवं संयतादिपुरुष भेदैराह चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-हिरिसत्ते हिरिमणसत्ते चलसत्ते थिरसत्ते (सू० ३३०) चत्वारि सिजपडिमाओ पं०, दीप अनुक्रम [३५१] REarathimland ~ 504~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानामसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३३१] ॥२५ ॥ चत्तारि पत्थपडिमामो पं०, चत्तारि पायपडिमाओ पं०, चत्तारि ठाणपडिमाओ पं० (सू० ३३१) पत्तारि सरीरगा ४स्थाना० जीवपुडा पं० सं०-वेउम्बिए आहारण तेयए कम्मए, थत्तारि सरीरगा कम्मम्मीसगा पं० सं०-ओरालिए बेज उद्देश ३ बिए आहारते तेउते (सू० ३३२) चाहिं अस्थिकाएहिं लोगे फुडे पं००-धम्मस्थिकारणं अधम्मत्विफाएणं जी | सत्त्वमतिवस्थिकारणं पुग्गलत्थिकारण, चउहि बादरकातेहिं उववजमाणेहिं लोगे फुडे पं००-पुढविकाइएहिं आउ० वाउ० माजीवस्पृवणस्सइकाइएहिं (सू०३३३) चत्वारि पएसग्गेणं तुल्ला पं० २०-धम्मत्तिकाए अधम्मस्थिकाए लोगागासे एग टलोकस्पृ. ष्टप्रदेशाजीवे (सू० ३३४) 'चत्तारीत्यादि, हिया-लज्जया सत्त्वं-परीषहादिसहने रणाङ्गणे वा अवष्टम्भो यस्य स हीसत्त्वः, तथा हिया-हसि ग्रतुल्याः *सू०३३०प्यन्ति मामुत्तमकुलजातं जना इति लज्जया मनस्येव न काये रोमहर्षकम्पादिभयलिङ्गोपदर्शनात् सत्त्वं यस्य स ह्रीम-13 नःसत्त्वा, चलम्-अस्थिरं परीषहादिसम्पाते ध्वंसात् सत्त्वं यस्य स चलसत्त्वः, एतद्विपर्ययात् स्थिरसत्व इति । स्थिरसत्त्वोऽनन्तरमुक्ता, स चाभिग्रहान् प्रतिपद्य पालयतीति तदर्शनाय सूत्रचतुष्टयमिदं-'चत्तारि सिजेत्यादि, सुगम,18 नवरं शय्यते यस्यां सा शय्या-संस्तारकः तस्याः प्रतिमा-अभिग्रहाः शय्याप्रतिमाः, तत्रोद्दिष्टं फलकादीनामन्यतमत् ग्रहीध्यामि नेतरदित्येका, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव यदि द्रक्ष्यामि तदा तदेव ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शयिष्य इति तृतीया, तदपि फलकादिकं यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि नान्यथेति चतुर्थी, आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोर्गच्छनिर्गतानामग्रहः उत्तर दीप अनुक्रम [३५३] 456 SAROSCR ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३४] *****5 योरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तरगतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्त इति, वस्त्रप्रतिमा-वस्त्रग्रहणविषये प्रतिज्ञा, कार्पा-| सिकादीत्येवमुद्दिष्टं वखं याचिष्ये इति प्रथमा, तथा प्रेक्षितं वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति द्वितीया, तथाऽऽन्तरपरिभोगे-1 नोत्तरीयपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तप्राय बखं ग्रहीष्यामीति तृतीया, तथा तदेवोत्सृष्टधर्मकं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी, पात्रप्रतिमा उद्दिष्टं दारुपात्रादि याचिध्ये १, तथा प्रेक्षितं २ तथा दातुः स्वाङ्गिक परिभुतप्रायं द्वित्रेषु वा पाबानेषु पर्यायेण परिभुज्यमानं पात्रं याचिष्य इति तृतीया, उज्झितधर्मकमिति चतुर्थी, स्थान-कायोत्सर्गाद्यर्थ आश्रयः तत्र प्रतिमा स्थानप्रतिमाः, तत्र कस्यचिवू भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति यथा-अहमचित स्थानमुपाश्रयिष्यामि तत्र चाकुश्चनप्रसारणादिकां क्रियां करिष्ये, तथा किश्चिदचित्तं कुढ्यादिकमवलम्बयिष्ये, तथा तत्रैव स्तोकपादविहरणं समा-* श्रयिष्यामीति प्रथमा प्रतिमा, द्वितीया त्वाकुञ्चनप्रसारणादिक्रियामवलम्बनं च करिष्ये न पादविहरणमिति, तृतीया । स्वाकुचनप्रसारणमेव नावलम्बनपादविहरणे इति, चतुथीं पुनर्यत्र त्रयमपि न विधत्ते । अनन्तरं शरीरचेष्टानिरोध उक्त इति शरीरप्रस्तावादिदं सूत्रद्वयं-'चत्तारीत्यादि व्यक्तं, किन्तु जीवेन स्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि, जीवेन हि स्पृष्टान्येव वैक्रियादीनि भवन्ति, न तु यथा औदारिक जीवमुक्तमपि भवति मृतावस्थायां तथैतानीति, 'कम्मुम्मीसग'त्ति कार्मणेन शरीरेणोन्मिश्रकाणि न केवलानि यथौदारिकादीनि त्रीणि वैक्रियादिभिरमिश्राग्यपि भवन्ति नैवं कार्मणेनेति भावः । शरीराणि काणेनोन्मिश्राणीत्युक्तमुन्मिश्राणि च स्पृष्टान्येवेति स्पृष्टप्रस्तावात् सूत्रद्वयं-'चउही'त्यादि, ग-1 तार्थं, केवलं 'फुडे'त्ति स्पृष्टः-प्रतिप्रदेश व्याप्तः, सूक्ष्माणां पश्चानामपि सर्वलोकात् सर्वलोके उसादात् वादरतैजसानां दीप अनुक्रम [३५६] 5557 ~5064 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३३४] टीप अनुक्रम [३५६] श्रीस्थाना- ङ्गसूत्र वृत्ति: ॥ २५२ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (3) स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... - Eucation International तु सर्वलोकादुदृस्य मनुष्यक्षेत्रे ऋजुगत्या वक्रगत्या चोत्पद्यमानानां द्वयोरुकपाटयोरेव वादरतेजस्त्वव्यपदेशस्येष्ट[त्वाच्च'चउहिं बादरका एहिं' इत्युक्तं, बादरा हि पृथिव्यम्बुवायुवनस्पतयः सर्वतो लोकादुद्धृत्य पृथिव्यादि घनोदध्यादि घनवातवलयादि घनोदध्यादिषु यथास्वमुखादस्थानेष्वन्यतरगत्योत्पद्यमाना अपर्याप्तकावस्थायामतिबहुत्वात् सर्वलोकं प्रत्येकं स्पृशन्ति, पर्याप्तास्त्वेते वादरतेजस्कायिकास्त्रसाश्च लोकासयेयभागमेव स्पृशन्तीति, उक्तञ्च प्रज्ञापनायाम्"एत्थ णं बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे," तथा "बादरपुढ विकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उचवाएणं सव्वलोए,” एवमब्वायुवनस्पतीनां तथा "बादरतेउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा मन्नत्ता, उबचाएणं छोयरस असंखेजइभागे" बादरतेडक्काइयाणं अपज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, लोयस्स दोसु उकवाडे तिरियलोयतद्वे य" ति द्वयोरूर्द्धकपाटयोरूर्ध्वकपाटस्थतिर्यग्लोके चेत्यर्थः, तिर्यग्लोकस्थालके चेत्यन्ये, तथा "केहिनं भंते! सुहुमपुढविकाइयाणं पज्जतगाणं अपजत्तगाण य ठाणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! सुहुमपुढविकाइया जे पज्जतगा जे य अपज्जत्तगा ते सब्बे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सम्बलोगपरियावन्नगा पन्नत्ता समणाउसो!" त्ति, एवमन्येऽपि, १] अत्र वादपृथ्वीकायिकानां पर्याप्तकानां स्थानानि प्रप्तानि उपपातेन ठोकल्या संख्याततमो भागः, बादरपृथ्वी कायिकानामपर्याप्तकानां स्थानानि तानि उपपातेन सर्वलोके, बादर तेजस्कायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि तानि उपपातेन लोकस्यासंस्ततमो भागः, मादरतेजस्काविकानामपर्याप्तकानों स्थानानि तानि सोकस्य द्वरुकपाटयोतिर्यग्लोके च (स्थाले च ॥ २ भदन्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिकानामपर्याप्तकानां पर्याप्तकानां च स्थानानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! सूक्ष्मपृथ्वीका बिका ये पर्याप्ता ये चापर्यातकास्ते सर्वे एकविधा अविशेषा अनानात्वाः सर्वलोकपर्यायाः प्रकृताः श्रमणायुष्मन् मूलं [३३४) "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~ 507 ~ ४ स्थाना० उद्देशः ३ सत्त्वप्रति माजीवस्पृष्टलोकस्पृ प्रदेश प्रतुल्याः सू० ३३०३३४ ॥ २५२ ॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३३४] दीप अनुक्रम [३५६] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मूलं [३३४] "एवं बेइंद्रियाणं पात्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागो"त्ति, [द्वीन्द्रियाणां पर्याप्ताकापर्याताकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि उपपातेन लोकस्यासङ्ख्याततमो भागः ] एवं शेषाणामपीति । चतुर्भिर्लोकः स्पृष्ट इत्युक्तमिति | लोकप्रस्तावात्तस्य धर्मास्तिकायादीनां चान्योऽन्यं प्रदेशतः समतामाह - 'चत्तारी त्यादि कण्ठ्यं, नवरं प्रदेशाग्रेण - प्रदे शपरिमाणेनेति तुल्याः--समाः सर्वेषामेषामसङ्ख्यातप्रदेशत्वात्, 'लोयागासे'त्ति आकाशस्यानन्तप्रदेशत्वेन धर्मास्तिकायादिभिः सहातुल्यताप्रसक्केर्लोकग्रहणं, 'एगजीवे'त्ति सर्वजीवानामनन्तप्रदेशत्वाद्विवक्षिततुल्यताऽभावप्रसङ्गादेकग्रहणमिति । पूर्वं पृथिव्यादिभिः स्पृष्टो लोक इत्युक्तमिति पृथिव्यादिप्रस्तावादिदमाह चमेगं सरीरं नो सुपरसं भवइ, सं० पुढविकाइयाणं आउ० ते ० वणस्सइकाइयाणं ( सू० ३३५) चत्तारि इंदि यथा पुट्ठा वेदेति, ० सोतिंदियत्थे पाणिदियत्ये जिभिदियत्थे फासिंदियत्वे (सू० ३३६) चउहिं ठाणेहिं जीवा यपोग्गला व णो संचातेंति बहिया लोगंता गमणताते, वं० गतिअभावेणं णिरुवग्गहताते लुक्खताते लोगाणुभावेणं (सू० ३३७) 'चन्ह'मित्यादि कण्ठ्यं, किन्तु 'नो परसं'ति चक्षुषा नो दृश्यमतिसूक्ष्मत्वात्, क्वचित् नो सुपस्संति पाठः, तत्र न सुखदृश्यं न चक्षुषः प्रत्यक्षदश्यमनुमानादिभिस्तु दृश्यमपीत्यर्थः, बादरवायूनां तथा सूक्ष्माणां पञ्चानामपि तदेकमनेकं वा अदृश्यमिति चतुर्णामित्युक्तं, वनस्पतय इह साधारणा एव ग्राह्याः, प्रत्येकशरीरस्यैकस्यापि दृश्यत्वादिति । पृथिव्यादीनां शरीरस्य चक्षुरिन्द्रियाविषयत्वमुक्तमितीन्द्रियविषयप्रस्तावादिदमाह-'चत्तारि इंदिये' त्यादि, स्पष्टं, किन्तु इन्द्रियै Ja Education International For Parts Only ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३३७] दीप अनुक्रम [३५९] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २५३ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [३३७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ४ स्थाना० रर्यन्ते - अधिगम्यन्त इतीन्द्रियार्थाः - शब्दादयः, 'पुट्ठ'त्ति स्पृष्टाः - इन्द्रियसम्बद्धा 'वेति'त्ति वेद्यन्ते-आत्मना ज्ञायन्ते, नयनमनोवर्जानां श्रोत्रादीनां प्राप्तार्थपरिच्छेदस्वभावत्वादिति, उक्तं च-- “पुढं सुणेइ सद्दं रूवं पुण पासई अपुढं ४ उद्देशः ३ तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुढं वियागरे ॥ १ ॥” इति [स्पृष्टं शृणोति शब्दं रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टमेव गंधरसं च ॐ शरीरासुपृथ्व्यादि| स्पर्श च बद्धस्पृष्टं व्याकुर्यात् ॥ १ ॥ ] अनन्तरं जीवपुद्गलयोरिन्द्रियद्वारेण ग्राहक ग्राह्यभाव उक्तोऽधुना तयोर्गतिधर्म्म+ चिन्तयन्नाह - 'चउही त्यादि, व्यक्तं, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति 'जीवा य पुग्गला ये'त्युक्तम्, 'नो संचाऐंति' न शक्नुवन्ति नालं 'बहिय'त्ति बहिस्तालोकान्तात् अलोके इत्यर्थः, गमनतायै - गमनाय गन्तुमित्यर्थः, गत्यभावेन - लोकान्तात् परतस्तेषां गतिलक्षणस्वभावाभावादधो दीपशिखावत्, तथा निरुपग्रहतया धर्मास्तिकायाभावेन तज्जनितगत्युपष्टम्भाभावात् गन्त्र्यादिरहितपङ्गुवत्, तथा रूक्षतया सिकतामुष्टिवत्, लोकान्तेषु हि पुनला रूक्षतया तथा परिणमन्ति यथा परतो गमनाय नालं, कर्मपुद्गलानां तथाभावे जीवा अपि, सिद्धास्तु निरुपग्रहतयैवेति, लोकानुभावेन- लोकमर्या तु लोकेऽगमः दया विषयक्षेत्रादन्यत्र मार्त्तण्डमण्डलवदिति । अनन्तरोका अर्थ उक्तवन्निदर्शनतः प्रायः प्राणिनां प्रतीतिपथपातिनो भवन्तीति निदर्शनभेदप्रतिपादनाय पञ्चसूत्री दृश्यता स्पृष्टा इ ५ न्द्रियाथः जीवपुङ्गलानाम * सू० ३३५ ३३७ Education Internationa चणावे पं० [सं० आहरणे आहरणतदेसे आहरणतोसे उनन्नासोवणए १, आहरणे चडब्बिहे पं० तं० अबाते Said aणाकम्मे पप्पन्नविणासी २, आहरणतसे चउब्विहे पं० नं० - अणुसिद्दी उबालने पुच्छा निस्सावयणे ३, आहरणतदोसे उन्हे पं० तं० अधम्मजुत्ते पढिलोमे अंतोवणीते दुरुवणीते ४, उवनासोवणए चडब्बिहे पं० For Parts Only ~509~ ॥ २५३ ॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] रुसकर त० सम्वत्थुते तदन्नवत्थुते पडिनिभे हेतू हेऊ ५, चउबिहे-५००-जावते थावते धंसते लूसते, अथवा हेऊ चलबिहे पं० २०-पक्षक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे, अहवा हेऊ चउडिरहे पं० २०-भत्थित्तं अस्थि सो देऊ १, अस्थित्तं णस्थि सो हेऊ २, गस्थित् अस्थि सो हेऊ ३, पत्थित्तं णस्थि सो हेऊ ४ (सू० ३३८) तत्र ज्ञायते अस्मिन् सति दाान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे प्रत्ययोपादानात् ज्ञातं-दृष्टान्तः, साधनसद्भावे साध्यस्यावश्यंभावः साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्युपदर्शनलक्षणो, यदाह-"साध्येनानुगमो हेतो, साध्याभावे च* नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः, स साधर्वेतरो द्विधा ॥१॥” इति, तत्र साधर्म्यदृष्टान्तोऽग्निरत्र धूमाद्यथा महानस इति, वैधर्म्यदृष्टान्तस्तु अन्यभावे धूमो न भवति यथा जलाशये इति, अथवा आख्यानकरूपं ज्ञातं, तच्च चरितकल्पितभेदात् द्विधा, तत्र चरितं यथा निदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव, कल्पितं यथा प्रमादवतामनित्यं यौवनादीति | देशनीयं, यथा पाण्डुपत्रेण किशलयानां देशितं, तथाहि-"जह तुम्भे तह अम्हे तुम्भेऽविय होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥१॥” [यथा यूयं तथा वयं यूयमपि भविष्यथ यथा वयं शिक्षयति पतत् पांडुपत्रं किशलयान् ॥ १॥] इति, अथवोपमानमात्रं ज्ञातं सुकुमारः करः किशलयमिवेत्यादिवत्, अथवा ज्ञातम्उपपत्तिमात्रं ज्ञातहेतुत्वात् , कस्माद्यवाः क्रीयन्ते? यस्मान्मुधा न लभ्यन्ते इत्यादिवदिति, एवमनेकधा साध्यप्रत्यायन स्वरूपं ज्ञातमुपाधिभेदात् चतुर्विधं दर्शयति-तत्र आ-अभिविधिना हियते-प्रतीती नीयते अप्रतीतोऽर्थोऽनेनेत्याहशरणं, यत्र समुदित एव दार्शन्तिकोऽर्थः उपनीयते यथा पापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येवेति, तथा तस्य-आहरणार्थस्य देश दीप अनुक्रम [३६०] आहरणस्य भेदा: ~510~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] स्थाना. उद्देशः ३ आहरण भेदाः सू०३३८ दीप अनुक्रम [३६०] श्रीस्थाना- स्तद्देशः स चासावुपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य पूर्वनिपात आहरणतद्देश इति, भावार्थश्चात्र-यत्र दृष्टा- असूत्र न्तार्थदेशेनैव दान्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्देशोदाहरणमिति, यथा चन्द्र इव मुखमस्या इति, इह हि चन्द्रे सौवृत्तिः म्यत्वलक्षणेनैव देशेन मुखस्योपनयनं नानिष्टेन नयननासावर्जितत्वकलङ्कादिनेति, तथा तस्यैव-आहरणस्य सम्बन्धी साक्षात्प्रसङ्गसम्पन्नो वा दोषस्तद्दोषः स चासौ धौ धम्मिणः उपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वेन पूर्वनिपातादाहरणत॥२५४॥ दोष इति, अथवा तस्य-आहरणस्य दोषो यस्मिंस्तत्तथा, शेष तथैव, अयमत्र भावार्थः यत्साध्यविकलत्वादिदोषदुष्ट तदोषाहरणं, यथा नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात् घटवत्, इह साध्यसाधनवैकल्यं नाम दृष्टान्तदोषो, यञ्चासभ्यादिवचनरूपं तदपि तद्दोपाहरणं, यथा सर्वथाऽहमसत्यं परिहरामि गुरुमस्तककर्तनवदिति, यद्वा साध्यसिद्धिं कुर्वदपि दोपान्तरमुपनयति तदपि तदेव, यथा सत्यं धर्ममिच्छन्ति लौकिकमुनयोऽपि.-"वर कृपशताद्वापी, बरं वापीशताक्रतुः वरं क्रतुशतात्पुत्रः, सत्यं पुत्रशताङ्करम् ॥१॥” इति वचनवक्तृनारदवदिति, अनेन च श्रोतुः पुत्रक्रतुप्रभृतिषु प्रायः संसारकारणेषु धर्मप्रतीतिराहितेति आहरणतद्दोषतेति, यथा वा-बुद्धिमता केनापि कृतमिदं जगत् सन्निवेशविशेषवस्वात् घटवत् स चेश्वर इति, अनेन हि स बुद्धिमान् कुम्भकारतुल्योऽनीश्वरः सिज्यतीति, ईश्वरश्च स विवक्षित इति, तथा वादिना अभिमतार्थसाधनाय कृते वस्तूपन्यासे तद्विघटनाय यः प्रतिवादिना विरुद्धार्थीपनयः क्रियते पर्यनुयोहै गोपन्यासे वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः, उत्तररूपमुपपत्तिमात्रमपि ज्ञातभेदो ज्ञातहेतुत्वादिति, यथा अकत्ता|ऽऽत्मा अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्युक्त अन्य आह-आकाशवदेवाभोक्तत्यपि प्राप्तमनिष्टं चैतदिति, यथा वा मांसभक्षणमदुष्टं KASALA आहरणस्य भेदा: ~511~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: + *5%+5 प्रत सूत्रांक [३३८] 56*5 प्राण्यङ्गत्वादोदनादिवत् , अत्राहान्यः-ओदनादिवदेव स्वपुत्रादिमांसभक्षणमप्यदुष्टमिति, यथा वा त्यक्तसङ्गा वखपात्रा| दिसहं न कुर्वन्ति ऋषभादिवत्, अत्राह-कुण्डिकाद्यपि ते न गृह्णन्ति तद्वदेवेति, तथा कस्मारकर्म कुरुषे यस्माद धनार्थीति, इह प्रथमं ज्ञातं समग्रसाधर्म्य द्वितीयं देशसाधर्म्य तृतीयं सदोष चतुर्थ प्रतिवायुत्तररूपमित्ययमेषां स्वरूपविभाग इति, इह देशतः संवादगाधा-"चरियं च कप्पियं वा दुविहं तत्तो चउबिहेककं । आहरणे तद्देसे तद्दोसे चेवुवन्नासा ॥१॥" [चरितं च कल्पिक वा द्विविधं ततश्चतुर्विधमेकैक आहरणं तद्देशः तद्दोषश्चैव उपन्यासः ॥१॥] इति, 'अवायें अपाय:-अनर्थः स यत्र द्रव्यादिष्वभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेष्वस्त्यपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषेष्विव, हेयता चाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमपाय इति, स च चतुर्धा द्रव्यादिभिः-तत्र द्रव्यात् द्रव्ये वाऽपायो द्रव्यमेव वा तत्कारणत्वादपायो द्रव्यापायः, एतद्धेयतासाधकं एतत्साधकं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, ततायोगो-द्रव्यापायः परिहार्यस्तत्र वाऽपायो वत्तते देशान्तरगमनेनोपार्जितद्रविणयोस्तल्लोभात् परसरमारणपरिणतयोः स्वग्रामाद् वहिः प्राप्तावनुतापात् इदत्यक्तमत्स्यगिलिततद्वित्तयोर्मत्स्यवन्धकपार्थात् गृहीतस्य तस्य म-1 स्यस्य विदारणेऽवाप्ततद्रव्यलुग्धभगिन्या मत्स्यच्छेदकशस्त्राभिघातेन तदुद्दालनप्रवृत्तमारितमातृकायास्तथाविधव्यतिकरदर्शनोत्पन्नसंवेगात् प्रतिपन्नप्रव्रज्ययोर्धातृवणिजोरिव, तत्परिहारश्च प्रव्रज्यया तत्त्यागादिति, आहरणता चास्य देशे-18 नोपनयस्याविवक्षणादिति, तथा क्षेत्रात् क्षेत्रे वा क्षेत्रमेव वाऽपायः क्षेत्रापायः, शेषं तथैव, एवमुत्तरत्रापि, तत्प्रयोगःअपायवत् क्षेत्र वर्जयेत् जरासन्धाभिधानप्रतिवासुदेवात् सम्भावितापायां मधुरानगरी यथा दशार्हचक्र वर्जयामासेति, दीप अनुक्रम [३६०] For P OW आहरणस्य भेदा: ~512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: असूत्र प्रत सूत्रांक [३३८] दीप अनुक्रम [३६०] श्रीस्थाना- अथवा सम्भवत्यपायः सप्रत्यनीकक्षेत्रे ससर्पगृहवत्, कालापायो यथा-सापायकालवर्जने यतेत, द्वैपायनो द्वारका- ४ स्थाना० मावर्षद्वादशकाजक्ष्यतीति श्रुतनेमिनाथवचनो द्वादशवर्षलक्षणसापायकालपरिजिहीर्षयोत्तरापथप्रवृत्तो द्वैपायनो य- उद्देशः । वृत्तिः थेति, अथवा सापायोऽपि भवति कालो रुद्रादिवदिति, तथा भावापायो यथा भावापायं परिहरेत् महानागवत् नाग-31 आहरणदत्तक्षुल्लकवद्वेति, तथाहि-किल कश्चित् क्षपकः प्रस्तुतपारणकः सक्षुल्लकः समारब्धभिक्षार्थभ्रमणकः कथविन्मारित-18 ॥२५५॥ मण्डूकिका क्षुलकप्रेरितोऽप्रतिपन्नतद्वचनः पुनरावश्यककाले स्मारिततदर्थः समुत्खन्नकोपः क्षुलकोपघातायाभ्युत्थितो सू०५२८ वेगादागच्छन् स्तम्भ आपतितो मृतो ज्योतिष्कघूखन्नोऽनन्तरं च्युतो जातिस्मरदृष्टिविषसप्तयोत्सनः सर्पदष्टमृतपुत्रेण च सपेषु कुपितेन राज्ञाऽऽदिष्टजनमार्यमाणेषु नागेषु नागविनाशकनरेण केनाप्योषधिबलादाकृष्यमाणो दृष्टकोपविपाठाकतया च मदृष्टिविषेण मा घातकपुरुषविधातो भवत्विति भावनया पुच्छतो निर्गच्छन् यथानिर्गमं च खण्यमानः को पलक्षणभावापार्य परिहृतवानिति, तथा स एवानन्तरं नागदत्ताभिधानराजसुततयोसन्नो बालत्व एव प्रतिपक्षप्रव्रज्यो|ऽत्यन्तसंविनस्तिर्यग्भवाभ्यासाचात्यन्तक्षुधालुरादित्योदयादस्तमयं यावद् भोजनशीलोऽसाधारणगुणावर्जितदेवताभिवन्दितोऽत एव तद्गच्छगतमासादिक्षपकचतुष्टयस्याविषयीभूतो विनया तेपामुपदर्शितस्वार्थानीतभोजनः तैश्च मस्सराझोजनमध्यनिष्च्यूतनिष्ठीवनोऽत्यन्तोपशान्तचित्तवृत्तितया यः सञ्जातकेवलः पुर्देवतावन्दितस्तेषामपि क्षपकाणां| संवेगहेतुत्वेन केवलज्ञानदर्शनसमृद्धिसम्पादकः कोपरूपं भावापायं परिजहारेति, अथवा कोपादिलक्षणो भावोऽपायो ॥२५५ ॥ भवति क्षपकस्पेवेति, गाथे इह-"देवावाए दुनिउ वाणियगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणयमेकमिक दहमि म आहरणस्य भेदा: ~513~ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३३८] दीप अनुक्रम [३६०] आहरणस्य भेदा: “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३३८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] Education International च्छेण निव्वेओ ॥ १ ॥ खितंमि अवक्रमणं दसारवग्गस्स होइ अवरेणं । दीवायणो य काले भावे मंडकियाखमओ ॥ २ ॥" [ द्रव्यापाये द्वौ वणिग्भ्रातरौ धननिमित्तं । वधपरिणती एकैकस्मिन् हृदे मत्स्येन निर्वेदः ॥ १ ॥ क्षेत्रे | अवक्रमणं दशार्हबर्गस्य भवत्यपरस्याम् । द्वीपायनश्च काले भावे मण्डूकिकाक्षपकः ॥ २ ॥ ] इति, 'उवाए'ति उपाय:उपेयं प्रति पुरुषव्यापारादिका साधनसामग्री स यत्र द्रव्यादावुपेये अस्तीत्यभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषवत्, उपादेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमुपाय इति, सोऽपि द्रव्यादिभिश्चतुर्देव, तत्र द्रव्यस्य सुवर्णादेः प्रासुकोदकादेर्वा द्रव्यमेव वा उपायो द्रव्योपायः, एतत्साधनमेतदुपादेयतासाधनं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, तत्प्रयोगश्चैवम् अस्ति सुवर्णादिषुपायः उपायेनैव वा सुवर्णादौ प्रवर्त्तितव्यं, तथाविधधातुवादसिद्धादिवदिति, एवं क्षेत्रोपायः - क्षेत्रपरिकर्म्मणोपायो यथा अस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो लाङ्गलादिस्तथाविधसाधुव्यापारो वा तेनैव वा प्रवर्त्तितव्यमत्र तथाविधान्यक्षेत्रवदिति, एवं काठोपाय:- कालज्ञानोपायः, यथा अस्ति कालस्य ज्ञाने उपायः धान्यादेरिव, जानीहि वा कार्ल घटिकाच्छायादिनोपायेन तथाभूतगणितज्ञवदिति, एवं भावोपायो यथा भावज्ञाने उपायोऽस्ति भावं वोपायतो जानीहि वृहत्कुमारिकाकथाकथनेन विज्ञातचौरादिभाषा भयकुमारवदिति, तथाहि किल राजगृहनगरस्वामिनः श्रेणिकराजस्य पुत्रोऽभयकुमाराभिधानो देवताप्रसादलब्धसर्व कफलादिसमृद्धारामस्यावफलानां अकालाम्रफल दोहदवद्धार्या दोहदपूरणार्थे चाण्डालचौरेणापहरणे कृते चौरपरिज्ञानार्थ नाव्यदर्शननिमित्तमिलित बहुजनमध्ये बृहत्कुमारिकाकथामच कथत्, तथाहि - काचिद् वृद्धकुमारिका For Palsta Use On ~514~ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: मसूत्र प्रत सूत्रांक [३३८] दीप अनुक्रम [३६०] श्रीस्थाना- वान्छितवरलाभाय कामदेवपूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती आरामपतिना गृहीता सद्भावकथने विवाहितया पत्या स्थाना. अपरिमुक्तया मयार्थे समागन्तव्यमित्यभ्युपगम कारयित्वा मुक्ता ततः कदाचित् विवाहिता सती पतिमापृच्छच रात्रा-18 उद्देशः ३ वृत्तिः वारामपतिपार्चे गच्छन्ती चौरराक्षसाभ्यां गृहीता सद्भावकथने प्रतिनिवृत्तया भवसाचे आगन्तव्यमितिकृताभ्युपगमा आहरण१२५६॥ मुक्ता आरामे गता आरामिकेण सत्यप्रतिज्ञेत्यखण्डितशीला विसर्जिता इतराभ्यामपि तथैव विसर्जिता पतिसमीपमा- II भेदाः गतेति, ततो भो लोकाः पत्यादीनां मध्ये को दुष्करकारक इति चासौ पप्रच्छ, तत ईष्यालुप्रभृतयः पत्यादीन् दुष्क-४ सू० ३३८ सरकारित्वेनाभिदधुः, चौरचाण्डालस्तु चौरानिति, ततोऽसावनेनोपायेन भावमुपलक्ष्य चौर इतिकृत्वा तं बन्धयामासेति, अत्रापि गाथे-"एमेव चउविगप्पो होइ उवाओऽवि तत्थ दवम्मि । धाउवाओ पढमो जंगलकुलिएहिं खेत्तं तु ॥१॥ ६ कालोऽवि नालियाईहिं होइ भावम्मि पंडिओ अभओ। चोरस्स कए णट्टि य वडकुमारि परिकहिंसु ॥२॥"8 [एवमेव चतुर्विकल्पो भवत्युपायोऽपि तत्र द्रव्ये धातुवादः प्रथमः लांगूलकुलिका क्षेत्रं तु ॥१॥ कालोऽपि नालि| कादिभिः भवति भावे पंडितोऽभयः चौरस्य कृते नृत्ये वृद्धकुमारीकथां परिचख्यौ ॥२॥] इति । 'ठवणाकम्मे'त्ति स्थापनं प्रतिष्ठापनं स्थापना तस्याः कर्म-करण स्थापनाकम्में येन ज्ञातेन परमतं दूपयित्वा स्वमतस्थापना क्रियते तत्स्थापनाकम्भेति भावः, तत्र द्वितीयाङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकाख्य, तत्र युक्तमस्ति-काचित्पुष्करिणी कईमप्रचुरजला तन्मध्यदेशे महत्पुण्डरीकं तदुद्धरणार्थ चतसृभ्यो दिग्भ्यश्चत्वारः पुरुषाः सकर्दममार्गः ॥२५ ॥ प्रवेष्टुमारब्धाः, ते चाकृततदुद्धरणा एवं पङ्के निमग्नाः, अन्यस्तु तटस्थोऽसंस्पृष्टकईम एवामोघवचनतया तदुदतवानिति आहरणस्य भेदा: ~ 515~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] ज्ञातम् , उपनयश्चायमत्र-कर्दमस्थानीया विषयाः पुण्डरीक राजादिव्यपुरुषः चत्वारः पुरुषाः परतीर्थिकाः पञ्चमः पुरुषः साधुः अमोधवचनं धर्मदेशना पुष्करिणी संसारः तदुद्धारो निर्वाणमिति, अनेन च ज्ञातेन विषयाभिष्वङ्गावतां तीथिकानां भव्यस्य संसारानुत्तारकत्वं साधोश्च तद्विपर्ययं वदता आचार्येण परमतदूषणेन स्वमतं स्थापितमतो भवती ज्ञातं स्थापनाकम्र्मेति, अथवाऽऽपन्नं दूषणमपोह्य स्वाभिमतस्थापना कार्येत्येवंविधार्थप्रतिपत्तिर्यतो जायते तत्स्थापनाकर्म, किल मालाकारेण केनापि राजमार्गपुरीपोत्सर्गलक्षणापराधापोहाय तत्स्थाने पुष्पपुञ्जकरणेन किमिदमिति पृच्छतो लोकस्य हिंगुशिवो देवोऽयमिति बदता व्यन्तरायतनस्थापना कृतेति, एतस्मास्किलाख्यानकादुक्तार्थः प्रतीयत इतीद स्थापनाकम्र्मेति, तथा नित्यानित्यं वस्त्वित्यसङ्गतं जिनमतं विरुद्धधर्माध्यासादिति दूषणमापन्नमेतद्व्यपोहायोच्यते-18 विरुद्धधर्माध्यासो न भेदनिबन्धनं विकल्पस्येव, विकल्पो हि क्रमभाविवर्णोल्लेखवान् विरुद्धधर्मोपेतो भवति, न च कथचिदेको न भवति, खण्डशो विभक्तस्य तस्य स्वरूपलाभाभावात् प्रवृत्तिनिवृत्त्योरकारणता स्यादसमञ्जसं चैवमिति, एवश्च विरुद्धधर्माध्यासस्य कथश्चिदभेदकत्वे सति न केवलं नित्यानित्यं न भवतीति दूषणमपोढमपि तु सर्वमनेकान्तात्मकमिति विकल्पज्ञानेन स्वमतं प्रसाधितम्, अतो विकल्पज्ञातं स्वमतस्थापनेन स्थापनाकर्मेति, अत्र नियुक्तिगाथा:"ठेवणाकम्म एक [अभेदमित्यर्थः> दिढतो तत्थ पुंडरीयं तु । अहवाऽवि समढकण हिंगुसिवकर्य उदाहरणं ॥१॥" इति, सव्यभिचारो हेतुर्यः सहसोपन्यस्तस्तस्य समर्थनार्थ यो दृष्टान्तः पुनरुपन्यस्यते स स्थापनाकर्मेति, उक्तं च १ स्थापना कर्म मि स्थान्तस्तन्त्र पुंडरीकं तु भथवा पिसंज्ञाच्छादकहिंगशिवदेवकतनदाहरणम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३६०] SAREauraton international आहरणस्य भेदा: ~516~ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३३८] दीप अनुक्रम [३६०] ङ्गसूत्रवृत्तिः स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ॥ २५७ ॥ स्थान- ४ “संव्वभिचारं हे सहसा बोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उवबूहइ सप्पसरं सामत्थं चप्पणो जाउं ॥ १ ॥” ति, तद्यथा - अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, अथ वर्णात्मके शब्दे कृतकत्वं न विद्यते वर्णानां नित्यतयाऽभिहितत्वादिति व्यभिचारः, समर्थना पुनर्वर्णात्मा शब्दः कृतको निजकारणभेदेन भिद्यमानत्वात् घटपटादिवत् घटादिदृष्टान्तेन हि वर्णानां कृतकत्वं स्थापितमिति भवत्ययं स्थापनाकम्र्मेति, 'पप्पन्नविणासि त्ति प्रत्युत्सन्नस्य तत्कालोत्पन्नवस्तुनो विनाशोऽभिधेयतया यत्रास्ति ॐ तत्मत्युत्पन्नविनाशीति, यथा केनापि वणिजा दुहित्रादिस्त्रीपरिवारशीलविनाशरक्षार्थं तदासक्तिनिमित्तस्वगृहासन्नराजगान्धर्विकगुणनिकायाः स्वगृहे कुलदेवतानिवेशनाद् गुणनिकाकाले तस्या देवताया अमतः आतोद्यनादव्याजेन राजापराधपरिहारेण विनाशः कृतः, एवं गुरुणा शिष्यान् कचिद् वस्तुन्यभ्युपपद्यमानानुपलभ्य तस्य तदासक्तिनिमित्तत्वमुपहन्तव्यमित्येवं प्रत्युत्पन्नविनाशनीयताज्ञापकत्वात् प्रत्युत्पन्नविनाशिज्ञातता गन्धर्विकाख्यानकस्यावगन्तव्येति, उक्तश्च - “होति पडुप्पन्नविणासणंमि गंधन्विया उदाहरणं । सीसोऽवि कत्थई जई अज्झोवज्जेज तो गुरुणा ॥ १ ॥ बारेयब्वो उवाएणं” इति, अथवा अकर्त्ताऽऽत्मा अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्युत्यन्ने आत्मनोऽकर्तृत्वापत्तिलक्षणे दूषणे तद्विनाशायोच्यते-कन्तैवात्मा कथञ्चिन्मूर्त्तत्वाद्देवदत्तवदिति । व्याख्यातमाहरणं, आहरणता चैतद्भेदानां देशेन दोषवत्तया चोपनयनाभावादिति । अथा हरणतदेशो व्याख्यायते स च चतुर्द्धा, तत्र अनुशासनमनुशास्तिः- सद्गुणोत्कीर्त्तनेनोपबृंहणं “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३३८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education International आहरणस्य भेदा: १] सव्यभिचार हेतुं सहसोथा तमेवान्यैः उपबृंहयति सप्रसंग सामर्थ्य वामनोहारा ॥ १ ॥ २ भवति प्रत्युत्पन्न विनाशने गांधर्वकोदाहरणं शिष्योऽपि कुत्रापि यदि अभ्युपपयेत तदा गुरुणोपायेन वारवित्तव्यः ॥ For Park Use Only ~ 517 ~ ४ स्थाना० उद्देशः ३ आहरण भेदाः सू० ३३८ ।। २५७ ।। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] सा विधेयेति यत्रोपदिश्यते साऽनुशास्तिः, यथा गुणवन्तोऽनुशासनीया भवन्ति, यथा साधुलोचनपतितरजःकणापन-1 ४ायनेन लोकसम्भावितशीलकलङ्का तत्क्षालनायाराधितदेवताकृतप्रातिहार्या चालनीव्यवस्थापितोदकाच्छोटनोवघाटितच-151 पागोपुरत्रया सुभद्रा अहो शीलवतीति महाजनेनानुशासितेति, उक्तं च-"आहरणं तद्देसे चउहा अणुसहि तह उवालभो । पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसट्टीए ॥ १॥ साहुक्कारपुरोयं जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । वेयावच्चा-1 ईसुवि एव जयंतेवकूहेजा ॥२॥" इति, इह च तथाविधवैयावृत्त्यकरणादिनाप्युपनयः सम्भवति तत्यागेन च महाजनानुशास्तिमात्रेणोपनयः कृत इत्याहरणतद्देशतेति, एवमनभिमतांशत्यागादभिमतांशोपनयनमुत्तरेष्वपि भावनीयमिति, तथा उपालम्भनं उपालम्भो-भयन्तरेणानुशासनमेव स यत्राभिधीयते स उपालंभो यथा कचिदपराधवृत्तयो विनेया उपालम्भनीयाः यथा महावीरसमवसरणे सविमानागतचन्द्रादित्योद्योतेन कालविभागमजानती मृगावतीनाम्नी साध्वी स्थिता ततस्तद्गमनेऽतिकालोऽयमिति सम्धान्ता सह साध्वीभिरार्यचन्दनासमीपं गता तया चोपालब्धा-अयुक्तमिदं भवाहशीनामुत्तमकुलजातानामिति, तथा पृच्छा-प्रश्नः किं कधं केन कृतमित्यादि सा यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा पृच्छा, यथा प्रच्छनीया ज्ञानिनो निर्णयार्थिभिर्यथा भगवान् कोणिकेन पृष्टः, तथाहि-किल कोणिकः श्रेणिकराजपुत्रः श्रमणं भगवन्तं महावीरं पप्रच्छ, तद्यथा-भदन्त ! चक्रवर्तिनोऽपरित्यक्तकामा मृताः कोत्पद्यन्ते, भगवताऽभिहितं भाहरणं तदेयो चतुर्था अनुशास्तिसथोपालंभः पृच्छा निभावचनं भवति सुभदानुशास्ती ॥१॥ साधुकारपूर्वक यथा साऽनुशिधा पौरजनेन यापू. कस्यादिष्वपि एवं यतमानामप्युपबृहयेत् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३६०] आहरणस्य भेदा: ~ 518~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३३८] दीप अनुक्रम [३६० ] श्रीस्थानाझसूत्र वृत्तिः ।। २५८ ।। स्थान [४], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] आहरणस्य भेदा: “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३३८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः canIntanamond सप्तमनरकपृथिव्यां ततोऽसौ वभाण अहं कोत्पत्स्ये?, स्वामिनोकं पठ्यां स उवाच-अहं किं न सप्तम्यां ?, स्वामिना + जगदे-सप्तम्यां चक्रवर्त्तिनो यान्ति ततोऽसावभिदधौ किमहं न चक्रवर्त्ती?, यतो ममापि हस्त्यादिकं तत्समानमस्ति, स्वामिना प्रत्यूचे - तव रत्ननिधयो न सन्ति ततोऽसौ कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वा भरतक्षेत्रसाधनप्रवृत्तः कृतमालि| कयक्षेण गुहाद्वारे व्यापादितः षष्ठीं गत इति । तथा 'निस्सावयणेति निश्रया वचनं निश्रावचनम्, अयमर्थः- कमपि सुशिष्य मालव्य यदन्यप्रबोधार्थं वचनं तन्निश्रावचनं तद्यत्र विधेयतयोच्यते तदाहरणं निश्रावचनं यथा असहनान् विनेयान् माईव सम्पन्नमन्यमालम्ब्य किञ्चिद् ब्रूयात्, गौतममाश्रित्य भगवानिवेति, तथाहि किल गौतमं तापसादिप्रव्रजि| तानां केवलोत्पत्तावनुत्पन्न केवलत्वेनाधृतिमन्तं चिरसंश्लिष्टोऽसि गौतम । चिरपरिचितोऽसि गौतम ! मा श्वमधृतिं कार्षीरित्यादिना वचनसन्दोहेनानुशासयता अन्येऽप्यनुशासिताः, तदनुशासनार्थं दुमपत्रकाध्ययनं च प्रणिन्ये इति, उक्तं च“पुच्छाए कोणिए खलु निस्सावयणमि गोयमस्सामि” [पृच्छायां कोणिकः खलु निश्रावचने गौतमस्वामी ] इति ॥ व्याख्यातं तद्देशोदाहरणम्, तद्दोपोदाहरणमथ व्याख्यायते तच चतुर्द्धा तत्र 'अहम्मजुतेत्ति यदुदाहरणं कस्यचिदर्थस्य साधनायोपादीयते केवलं पापाभिधानस्वरूपं येन चोक्तेन प्रतिपाद्यस्याधर्म्मबुद्धिरुपजन्यते तदधर्म्मयुक्तं, तद्यथा-उपायेन कार्याणि कुर्यात् कोलिकनलदामवत्, तथाहि पुत्रखाद कमरकोटकमार्गेणोपलब्धबिलवासानामशेष मत्कोटकानां तप्तजलस्य त्रिले प्रक्षेपणतो मारणदर्शनेन रञ्जितचित्तचाणक्याव स्थापितेन चौरग्राहनउदामाभिधानकुविन्देन चौर्यसहकारितालक्षणोपायेन विश्वासिता मिलिताश्चौरा विषमिश्रभोजनदानतः सर्वे व्यापादिता इति, आहरणतद्दोषता चास्याधम्र्म्मयुक्तत्वात् तथा For Parts Only ~519~ ४ स्थाना० उद्देशः श् आहरण भेदाः सू० ३३८ ।। २५८ ॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] ************ विधश्रोतुरधर्मबुद्धिजनकत्वाचेति, अत एव नैवविधमुदाहर्त्तव्यं यतिनेति, 'पडिलोमेति प्रतिकूलं यत्र प्रातिकूल्यमुपदिदश्यते यथा शठं प्रति शठत्वं कुर्यात्, यथा चण्डप्रद्योते तदपहरणार्थं तदपहृताभयकुमारश्च कारेति, तद्दोषता चास्य श्रोतुः परापकारकरणनिपुणबुद्धिजनकत्वात् , अथवा धृष्टप्रतिवादिना द्वावेवराशी जीवश्चाजीवश्चेत्युके तातिधाता) क-11 श्चिदाह-तृतीयोऽप्यस्ति नोजीवाख्यो गृहकोलिकादिच्छिन्नपुच्छवदिति, अस्थापि तद्दोषताऽपसिद्धान्ताभिधानादिति, 'अ-18 तोवणीए ति आत्मैवोपनीतः-तथा निवेदितो नियोजितो यस्मिंस्तत्तथा, येन ज्ञातेन परमतदूषणायोपात्तेनात्ममतमेव दुतयापनीयते यथा पिङ्गलेनात्मा तदात्मोपनीतं, तथाहि-कथामदं तडागमभेदं भविष्यतीत राज्ञा पृष्टः पिङ्गलाभिधानः स्थपांतरवोचत्-भेदस्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते सतीति, अमात्येन तु स एव तत्र तद्गुणत्वान्निखात इति तेना-18 स्मैव नियुक्तः, स्ववचनदोषात् , तदेवंविधमात्मोपनीतमिति, अत्रोदाहरणं यथा सर्वे सत्वा न हन्तव्या इत्यस्य पक्षस्य | दूषणाव कश्चिदाह-अन्यधर्मस्थिता हन्तव्या विष्णुनेव दानवा इत्येवंवादिना आत्मा हन्तव्यतयोपनीतो धमन्तिर|स्थितपुरुषाणामात, तद्दोषता तु प्रतीतैवास्योते, 'दुरूवणीए'त्ति दुष्टमुपनीतं-निगमितं योजितमस्मिन्निति दुरुपनीतं परिव्राजकवाक्यवद्, यथा हि किल कश्चित् पारबाजको जालव्यग्रकरो मत्स्यबन्धाय चलिता, केनचिद् धूर्तेन किश्चिदुक्तस्तेन च तस्योत्तरमसङ्गतं दत्तम्, अत्र च वृत्तं-"कन्धाऽऽचार्याऽधना ते ननु शफरवधे जालमश्वासि मत्स्यास्तेमे मद्योपदंशान् पिबास ननु ? युतो वेश्यया यासि वेश्याम् । दत्त्वाऽरीणां गलेऽहिक नु तव रिपयो? येषु सन्धि छिनझि, चौरस्त्वं द्यूतहेतोः कितव झात कथं? येन दासीसुतोऽस्मि ॥१॥" इत्येवं प्रकृतसाध्यानुपयोगे स्वमतदूषणावह वा दीप अनुक्रम [३६०] ********* आहरणस्य भेदा: ~ 520~ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्र प्रत सूत्रांक [३३८] ॥२५९॥ मासू० ३३८ दीप अनुक्रम [३६०] यत्तद्दार्शन्तिकेन सह साधाभावाद् दुरुपनीतमिति, यथा नित्यः शब्दो घटवद्, इह घटे नित्यत्वं नास्त्येवेति कुत- स्थाना. स्तत्साधयोच्छब्दस्य नित्यत्वमस्तु?, अपि त्वनित्यत्वात् घटस्य तत्साधाच्छब्दस्यानित्यत्वमेवानभिमतं सिध्यतीति सा- उद्देश:३ ध्यानुपयोगीदमुदाहरणम् , तथा सन्तानोच्छेदो मोक्षो दीपस्येवेत्यभ्युपगमे दीपदृष्टान्तादनादिमतोऽपि सन्तानस्याव- भा आहरणस्तुता प्रतीयते, तथाहि-दीपस्यात्मनश्च सन्तानोच्छेद उत्तरक्षणाजनकत्वात्, तत्त्वे चार्थक्रियाकारित्वलक्षणमवाभावा- भेदाः दन्त्यक्षणस्यावस्तुत्वम् अवस्तुत्वजनकत्वात् पूर्वक्षणस्यापि तत एव पूर्वतरस्यापीत्येवं समस्तस्यापि सन्तानस्यावस्तुत्वम् , अथ क्षणान्तरानारम्भेऽपि स्वगोचरज्ञानजननलक्षणार्थक्रियाकारित्वादन्त्यक्षणो वस्तु भविष्यति, नैवम् , एवं हि भूतभाविपर्यायपरम्परापि योगिज्ञानं स्वविषयमुत्पादयतीति वस्तुत्वं स्वीकुर्यात्, तन्न क्षणान्तरानारम्भे वस्तुत्वमित्यतो भवति दीपज्ञातं स्वमतदूषणावहमिति, अथवा अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति वक्तव्ये सम्भ्रमादनित्यो घटः कृतकत्वाच्छन्दवदिति बदतो दुरुपनीतं विपर्ययोपनयनादिति, अत्र गाथा-"पढम अहम्मजुत्तं पडिलोमं अत्तणो उवनासो । दुरुवणियं च चउत्थं अहम्मजुत्तमि नलदामो ॥१॥पडिलोमे जह अभओ पजोयं हरइ अवहिओ संतो" इति “असउवनासंमि य तलायभेयंमि पिंगलो धवई । अणिमिसगेण्हणभिच्छुग दुरुवणीए उदाहरणं ॥१॥" इति, उक्त आहरणतदोषोऽधुनोपन्यासोपनय उच्यते, स च चतुर्डा, तत्र 'तब्बत्थुए'त्ति तदेव-परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति-उत्त प्रथममधर्मयुक्त प्रतिलोम आरमन उपन्यासः दुरुपनीतं च चतुर्थमधर्मयुक्ते नवदामः ॥१॥ प्रतिलोनि यथाऽभयः प्रद्योत हरति अपहता सन् ॥ &आत्मोपन्यासे च तडाकभेरे पिंगलः स्थपतिः अनिमेषवाहकभिक्षुर्दुरुपनीते उदाहरणं ॥१॥ 本中心亭令。 ॥२५ ॥ आहरणस्य भेदा: ~521~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] कारभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तद्वस्तुकोऽथवा तदेव-परोपन्यस्तं वस्तु तद्वस्तु तदेव तद्वस्तुकं तद्युक्त उपन्यासोमापनयोऽपि तद्वस्तुक इत्युच्यते एवमुत्तरत्रापि, यथा कश्चिदाह-समुद्रतटे महान् वृक्षोऽस्ति, तच्छाखा जलस्थलयोरुपरि | ट्रास्थिताः, तसत्राणि च यानि जले निपतन्ति तानि जलचरा जीवा भवन्ति यानि च स्थले निपतन्ति तानि स्थलचरा| का इति, अन्यस्तदुपन्यस्तमेव तरुपत्रपतनवस्तु गृहीत्वा तदुक्तं विघटयति, यदुत-यानि पुनर्मध्ये तेषां का वात्सेत्येतदुपप-13 Bात्तिमात्रमुत्तरभूतं तद्वस्तुक उपन्यासोपनयो, ज्ञातत्वं चास्य ज्ञातनिमित्तत्वात् , अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेतत् , तथा हि एवं प्रयोगोऽस्थ-जलस्थलपतितपत्राणि न जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, जलस्थलमध्यपतितपत्रवत्, तन्मध्यपतितपत्राणां हि जलस्थलपतितपत्रजलचरत्वादिप्राप्तिवदुभयरूपप्रसङ्गो, न चोभयरूपाः सत्त्वा अभ्युपगता इति, अथवा नित्यो जीवः अमूर्तत्वादाकाशवदित्युक्ते आह-अनित्य एवास्तु अमूर्तत्वात् कर्मवदिति । तथा 'तयन्नवत्थुएत्ति तस्मात्-परोपन्यस्ताद् वस्तुनोऽन्यदुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुको यथा जले पतितानि जलचरा इत्युक्ते एतविघटनाय पतनादन्यदुत्तरमाह-यानि पुनः पातयित्वा खादति नयति वा तानि किं भवन्ति?, न किविदित्यर्थोऽयमपि ज्ञापकतया ज्ञातमुक्तः, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः, तथाहिन्न जलस्थलपतितानि पत्राणि जलच-| रादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, मनुष्याद्याश्रितानीव, अयमभिप्रायो यथा-जलाद्याश्रितत्वात् जलचरादितया तानि सम्पद्यन्ते तथा मनुष्याद्याश्रिततया मनुष्यादिभवयूकादितयाऽपि सम्पद्यन्ताम्, आश्रितत्वस्याविशेषात् , न च तानि तथाऽभ्युप-13 गम्यन्त इति जलादिगतानामपि जलचरत्वाद्यसम्भव इति, तथा 'पडिनिभेत्ति यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तव दीप अनुक्रम [३६०] 'आहरण' तदोषा ~522~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- जासत्र- प्रत सूत्रांक [३३८] भेदाः वृत्तिः ॥२०॥ दीप अनुक्रम [३६०] स्तुनः सदृशं वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभो यथा कोऽपि प्रतिजानीने यदुत-यो मामपूर्व श्रावयति तस्मै लक्ष-४ि स्थाना. मूल्यमिदं कटोरकं ददामीति, स च श्रावितोऽपि तन्नापूर्वमिति प्रतिपद्यते, तत एकेन सिद्धपुत्रेणोक्तम्-"तुझ पियाजदशा ३ मज्झ पिउणो, धारेड अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुर्व दिजउ अह न सुयं खोरयं देहि ॥१॥" इति, प्रतिनिभता आहरणचास्य सर्वस्मिन्नप्युक्त श्रुतपूर्वमेवेदं ममेत्येवमसत्यं वचो बुवाणस्य परस्य निग्रहाय तव पिता मम पितुरियति लक्षमि-| त्येवंविधस्य द्विपाशरज्जुकल्पस्यासत्यस्यैव वचस उपन्यस्तत्वादिति, अस्य चोपपत्तिमात्ररूपस्याप्यर्थज्ञापकतया ज्ञातत्व सू०३३८ मुक्तमिति, अथवा यधारूढमेव ज्ञातमेषः, तथाहि अत्रायं प्रयोगः-नास्त्यश्रुतपूर्व किञ्चित् श्लोकादि ममेत्येवमभिमानधनं ब्रूमो वयम्-अस्ति तयाश्रुतपूर्व वचनं तव पिता मम पितु रयत्यनूनं शतसहस्रमिते यथेाते । तथा 'हे'त्ति यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयते स हेतुरािते, यथा केनापि कश्चित् पर्यनुयुक्त:-अहो कि यवाः क्रीयन्ते त्वया?, स वाह-येन मुधैव न लभ्यन्ते झाते, तथा कस्मात् ब्रह्मचर्यादिकष्टमनुष्ठीयते?, यस्मादकृततपसां नरकादौ गुरुतरा वेदना भवतीति, इदमपि उपपत्तिमात्रमेव ज्ञातत्वेनोक्तमर्थज्ञापकत्वादिाते, अथवाऽयमपि यथारूढं ज्ञातमेव, तथाह्यस्यैवं प्रयोगः-कस्मात् त्वया प्रव्रज्या क्रियत इति पृष्टः सन् केनापि साधुराह-यतस्तां विना मोक्षो न भवति, एतत्समर्थनायैव साधुस्तमाह-भो यवमाहिन्! किमिाते त्वया यवाः क्रीयन्ते?, स त्वाह-येन मुधा न लभ्यन्ते, साधो ॥२६॥ श्वायमभिप्रायो यथा-मुधालाभाभावात् तान् क्रीणासि त्वमेवमहं तां विना तदभावात्तां करोमीति, इह च मुधा य १ तब पिता मम पितुर्धारयत्यनून शतसहस्रं यदि श्रुतपूर्व ददातु अथ न श्रुवं क्षौरकं देहि ॥१॥ ~523~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] वालाभस्य क्रयणे हेतोः सतो दृष्टान्ततयोपन्यस्तत्वाद्धेतूपन्यासोपनयज्ञाततेति, इह च किश्चिद्विशेषेणैवंविधा ज्ञातभेदाः | सम्भवन्त्यन्येऽपि किन्तु ते न विवक्षिताः अन्तर्भावो वा कथश्चित् गुरुभिर्विवक्षितो न च तं वयं सम्यग् जानीम इति । अथ ज्ञातानंतरं ज्ञातवद्धेतोः साध्यसिद्ध्यङ्गत्वात् तद्भेदान हेऊ इत्यादिना सूत्रत्रयेणाह-व्यक्तं चैतत्, नवरं हिनोतिगमयति ज्ञेयमिति हेतुः-अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणः, उक्तञ्च-“अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रसिद्धिसन्देहविपर्यासैस्तदाभता ॥१॥" इति, प्रागुक्तश्च हेतुः पर्यनुयुक्तस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रमयं तु साध्यं प्रत्यन्वयव्यतिरेकवान् | तथाविघदृष्टान्तस्मृततझाव इति, स चैकलक्षणोऽपि किश्चिद्विशेषाचतुर्की, तत्र 'जावए'त्ति यापयति-वादिनः कालया-| पनां करोति, यथा काचिदसती एकैकरूपकेण एकैकमुष्ट्रलिण्डं दातव्यमिति दत्तशिक्षस्य पत्युस्तद्विक्रयार्थेमुज्जयनीप्रेषणोपायेन बिटसेवायां कालयापनां कृतवतीति यापका, उक्तञ्च-"उब्भामिया य महिला जावगहेउम्मि उट्टलिंडाई॥" इति, इह वृद्धैयाख्यातम्-प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा तथा विशेषणबहुलो हेतुः कर्तव्यो यथा कालयापना भवति, ततो-18 ऽसौ नावगच्छति प्रकृतमिति, स चेदृशः सम्भाव्यते-सचेतना वायवः अपरप्रेरणे सति तियगनियतत्वाभ्यां गतिम-16 वात् गोशरीरवदिति, अयं हि हेतुर्विशेषणबहुलतया परस्य दुरधिगमत्वात् वादिनः कालयापनां करोति, स्वरूपमस्या-12 नवबुध्यमानो हि परो न झगित्येवानकान्तिकत्वादिदूषणोद्भावनाय प्रवर्तितुं शक्नोति, अतो भवत्यस्माद् वादिनः काल-18 दायापनेति, अथवा योऽप्रतीतव्याप्तिकतया व्याप्तिसाधकप्रमाणान्तरसव्यपेक्षत्वान्न झगित्येव साध्यप्रतीतिं करोति अपि तु कालक्षेपेणेत्यसौ साध्यप्रतीतिं प्रति कालयापनाकारित्वाद्यापकः, यथा क्षणिकं बस्त्विति पो बीजस्य सत्वादिति हेतुः, दीप अनुक्रम [३६०] ~524~ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्र प्रत सूत्रांक [३३८] ६॥२६१॥ दीप अनुक्रम [३६०] नहि सत्त्वश्रवणादेव क्षणिकत्वं प्रत्येति पर इत्यतो बौद्धः सत्त्वं क्षणिकत्वेन व्याप्तमिति प्रसाधयितुमुपक्रमते, तथाहि ४ स्थाना सत्त्वं नामार्थक्रियकारित्वमेव, अन्यथा वन्ध्यासुतस्यापि सत्त्वप्रसङ्गः, अर्थक्रिया तु नित्यस्यैकरूपत्वान्न क्रमेण नापि उद्देशः । | योगपद्येन क्षणान्तरे अकर्तृत्वप्रसङ्गादित्यतोऽर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमक्षणिकान्निवर्तमान क्षणिक एवावतिष्ठत इत्येवं क्षेपेण आहरण| साध्यसाधने कालयापनाकारित्वाद् यापकः सत्त्वलक्षणो हेतुरिति । तथा स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात् भेदाः | समर्थयति, यथा परिव्राजकधूर्ते लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति तञ्चाहमेव जानामीति मायया प्रतिग्राममन्यान्यं सू० ३३८ लोकमध्यं प्ररूपयति सति तन्निग्रहाय कश्चित् श्रावको लोकमध्यस्यैकत्वात् कथं बहुषु प्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवंवि-४ घोपपत्त्या स्वदर्शितो भो लोकमध्यभागो न भवतीति पक्ष स्थापितवानिति स्थापको हेतुः, उक्तश-"लोगस्स मझ-16 जाणण थावगहेऊ उदाहरणं" इति, स चायं-अग्निरत्र धूमात्, तथा नित्यानित्यं वस्तु द्रव्यपर्यायतस्तथैव प्रतीयमानत्वादिति, अनयोश्च प्रतीतव्याप्तिकतया अकालपेण साध्यस्थापनात् स्थापकत्वमिति । तथा व्यसयति-परं व्यामोहयति शकटतित्तिरीग्राहकधूर्त्तवद् यः स व्यंसक इति, तथाहि-कश्चिदन्तराललब्धमृततित्तिरीयुक्तेन शकटेन नगरं प्रविष्टः | उक्तो पूर्तेन यथा-शकटतित्तिरी कथं लभ्यते, स च किलायं शकटस्य सत्कां तित्तिरी याचत इत्यभिप्रायादवोचत्तर्पणालोडिकयेति, सक्त्वालोडनेन जलाद्यालोडितसक्तुभिरित्यर्थः, ततो पूर्तः साक्षिण आहुत्य सतित्तिरीके शकट ज-| ग्राह, उक्ताश्च मदीयमेतद्, अनेनैव शकटतित्तिरीति दत्तत्वात् , मया तु शकटसहिता तित्तिरी शकटतित्तिरीति गृही-3॥२१॥ तत्वादिति, ततो विषण्णः शाकटिक इति, अत्रोक्तम्-“सा सगडतित्तिरी सगंमि हेमि होइ णायब्वा ।।" इति, स चैवं ~ 525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३८] 11-अस्ति जीवोऽस्ति घट इत्यभ्युपगमे जीवघटयोरस्तित्वमविशेषेण वर्तते ततस्तयोरेकत्वं प्राप्तमभिन्नशब्दविषयस्वादिति | हैं व्यसको हेतुः, घटशब्दविषयघटस्वरूपबत्, अथास्तित्वं जीवादौ न वर्तते ततो जीवाद्यभावः स्यादस्तित्वाभावादिति व्यंसकः प्रतिवादिनो व्यामोहकत्वादिति, तथा 'लुसए'त्ति लूपयति-मुष्णाति व्यंसकापादितमनिष्टमिति लूषको हेतुः, स एव शाकटिको, यथा-धूर्तान्तरशिक्षितेन हि शाकटिकेन तेन याचितोऽसौ धूर्त तहि देहि मे तर्पणालोडिकामिति, ततो धूर्तेनोक्ता स्वभार्या-देह्यस्मै सरकूनालोब्येति, ताञ्च तथा कुर्वन्ती तार्या गृहीत्वाऽसौ प्रस्थितोऽवादीच्च धूर्तमभि-मदीयेयं तर्पणमिति सत्कूनालोडयतीति तर्पणालोडिकेति भवतैव दत्तत्वादिति, स चायं यदि जीवघटयोरस्तित्ववृत्त्या एकत्वं सम्भावयसि तदा सर्वभावानामेकत्वं स्यात्, सर्वेष्वप्यस्तित्ववृत्तेरविशेषात् , न चैवमिति, इहास्तित्व-| वृत्तेरविशेषादित्ययं लूपको जीवघटयोरेकत्वापादनलक्षणस्याभावापत्तिलक्षणस्य वाऽनिष्टस्य परापादितस्यानेन लूषितत्वाशादिति, अथवेति हेतोः प्रकारान्तरताद्योतको विकल्पार्थो हिनोति-गमयति प्रमेयमर्थं स वा हीयते-अधिगम्यते अने४ानेति हेतुः-प्रमेयस्य प्रमिती कारणं प्रमाणमित्यर्थः, स चतुर्विधः स्वरूपादिभेदात् , तत्र 'पञ्चक्खे'त्ति अश्वाति अश्नुते-1 व्यामोत्यानित्यक्ष:-आस्मा तं प्रति यदलते ज्ञान तत्प्रत्यक्षं निश्चयतोऽवधिमनःपर्यायकेवलानि, अक्षाणि वेन्द्रियाणि | प्रति यत्सत्प्रत्यक्ष व्यवहारतस्तच्चक्षुरादिप्रभवमिति, लक्षणमिदमस्य-"अपरोक्षतयाऽर्थस्य, ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्य-| क्षमितरत् ज्ञेयं, परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥१॥" ग्रहणापेक्षयेति भावः, अन्विति-लिङ्गदर्शनसम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चान्मानं 13 &I-ज्ञानमनुमानम्, एतल्लक्षणमिदम्-"साध्याविनाभुवो लिङ्गात्, साध्यानिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदधान्त, प्रमा दीप अनुक्रम [३६०] ~526~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३३८] ॥३६२॥ दीप अनुक्रम [३६०] |णत्वात् समक्षवद् ॥१॥" इति, एतच्च साध्याविनाभूतहेतुजन्यत्वेनाप्युपचाराद्धेतुरिति, तथा उपमानमुपमा सैवोपम्य | 2 स्थाना० अनेन गवयेन सदृशोऽसौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपं, उक्तञ्च-"गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा । भूयो- ज्दशः । |ऽवयवसामान्यभाजं वत्तुंलकण्ठकम् ॥ १॥ तस्यामेव त्ववस्थायां, यद्विज्ञानं प्रवर्तते । पशुनैतेन तुल्योऽसौं, गोपिण्डी इति सोपमा ।। २॥" इति, अथवा श्रुतातिदेशवाक्यस्य समानार्थोपलम्भने संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमानमुच्यत इति, भेदाः म आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः-आप्तवचनसम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः, उक्तश्च-"दृष्टेष्टाव्याहताद् वा- सासु०३३८ सू० क्यासरमार्थाभिधायिनः । तत्त्वग्राहितयोत्सन्नं, मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥ १॥ आप्तोपज्ञमनुलवयमष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥१॥” इति । इहान्यथाऽनुपपन्नत्वलक्षणहेतुजन्यत्वादनुमानमेव कार्ये कारणोपचाराद्धेतुः, स च चतुर्विधः, चतुर्भङ्गीरूपत्वात् , तत्र अस्ति-विद्यते तदिति-लिङ्गभूतं धूमादिवस्तु इतिकृत्वा | अस्ति सः-अग्न्यादिकः साध्योऽर्थ इत्येव हेतुरिति अनुमानं, तथा अस्ति तदयादिकं वस्त्वतो नास्त्यसौ तद्विरुद्धः शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति, तथा नास्ति तदश्यादिकमतः शीतकालेऽस्ति स शीतादिर\ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति, तथा नास्ति तदक्षत्वादिकमिति नास्ति शिशपात्वादिकोऽर्थ इत्यपि हेतुरनुमानमिति, इह च शब्दे कृतकत्वस्यास्तित्वादस्त्यनित्यत्वं घटवत्तथा धूमस्यास्तित्वादिहास्त्यग्निर्महानस इवेत्यादिकं स्वभावानुमान कार्यानुमानञ्च प्रथमभङ्गकेन सूचितम् १, तथा अनेरस्तित्वाळूमास्तित्वाद्वा नास्ति शीतपर्श इत्यादि विरुद्धोपलम्भानुमान विरुद्धकार्योपलम्भानु-II मानञ्च, तथाऽग्नेधूमस्य वाऽस्तित्वान्नास्ति शीतस्पर्शजनितदन्तवीणारोमहर्षादिः पुरुषविकारो महानसवदित्यादि कारणवि-टू ACCACK ~ 527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३३८] दीप अनुक्रम [३६०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] रुद्धोपलम्भानुमानम् कारणविरुद्धकार्योपलम्भानुमानं च द्वितीयभङ्गकेनाभिहितं २ तथा छत्रादेरनेव नास्तित्वादस्ति कचित्कालादिविशेषे आतपः शीतस्पर्शो वा पूर्वोपलब्धप्रदेश इवेत्यादिकं विरुद्ध कारणानुपलम्भानुमानं विरुद्धानुपलम्भानुमानश्च तृतीयभङ्गकेनोपातं १ तथा दर्शनसामम्यां सत्यां घटोपलम्भस्य नास्तित्वान्नास्तीह घटो विवक्षितप्रदेशवदित्यादि स्वभावानुपलब्ध्यनुमानं तथा धूमस्य नास्तित्वान्नास्त्य विकलो धूमकारणकलापः प्रदेशान्तरवदित्यादि कार्यानुपलब्ध्यनुमानम्, तथा वृक्षनास्तित्वात् शिंशपा नास्तीत्यादि व्यापकानुपलम्भानुमानं तथाऽग्नेर्नास्तित्वामो नास्तीत्यादि कारणानुपलम्भानुमानश्च चतुर्थभङ्गकेनावरुद्धमिति, न च वाच्यं न जैनप्रक्रियेयं, सर्वत्र जैनाभिमतान्यथानुपपन्नत्वरूपस्य हेतुलक्षणस्य विद्यमानत्वादिति ४ । अनन्तरं हेतुशब्देन ज्ञानविशेष उक्तस्तदधिकाराद् ज्ञानविशेषनिरूप णायाह- मूलं [ ३३८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः चवि संखाणे पं० [सं० पडिकम्मं १ बवहारे २ र ३ रासी ४ अहोलोगे णं चत्तारि अंधगारं करेंति, तं० — नरगा रइया पावाई कम्माई असुमा पोसाला १, तिरियलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, सं०-चंदा सूरा मणि आभरणा ४, ३ ( सू० ३३८ ) ।। जोती २, उड़ोगेणं चत्तारि उजवं करेंति, तं०देवा १ देवीओ २ विमाणा चाणस्स ततिओ उद्देसतो समतो ॥ 'चव्यिहे' इत्यादि, सङ्ख्यायते - गण्यते अनेनेति सङ्ख्यानं गणितमित्यर्थः, तत्र परिकर्म सङ्कलनादिकं पाटीप्रसिद्धं, एवं व्यवहारोऽपि मिश्रकव्यवहारादिरनेकधा, रज्जुरिति रज्जुगणितं क्षेत्रगणितमित्यर्थः, राशिरिति त्रैराशिकपञ्चराशिकादीति । For Para Use Only ~ 528~ waryru अत्र मुद्रण-दोष दृश्यते:- मूल-संपादने (सू० ३३८) लिखितम् तत् पुनः लिखितम् ( मूल संपादनमें सू० ३३८ दूसरी बार छप गया है ) Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८-R*] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: LA प्रत सूत्रांक [३३८R] श्रीस्थाना-रजुरिति क्षेत्रगणितमुक्तमिति क्षेत्रसम्बन्धाल्लोकलक्षणक्षेत्रस्व त्रिधा विभक्तस्यान्धकारोद्योतावाश्रित्य सूत्रत्रयेण प्ररूपणा- कास्थाना० नसूत्र- माह-'अहे' इत्यादि सुगमं, किन्तु अधोलोके-उक्तलक्षणे चत्वारि वस्तूनीति गम्यते नरका-नरकावासा नैरयिका-नारका उद्देशः ३ वृत्तिः एते कृष्णस्वरूपत्वात् अन्धकारं कुर्वन्ति, पापानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि मिथ्यात्वाज्ञानलक्षणभावान्धकारकारित्वाद-| संख्याना न्धकार कुर्वन्तीत्युच्यते, अथवा अन्धकारस्वरूपे अधोलोके प्राणिनामुत्पादकत्वेन पापानां कर्मणामन्धकारकर्तृत्वमिति, |नि अन्ध||२६३॥ तथा अशुभाः पुद्गलाः-तमिश्रभावेन परिणता इति । 'मणि'त्ति मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः, 'जोइत्ति ज्योतिरग्निरिति ॥ कारोद्योचतुःस्थानकस्य तृतीयोद्देशको विवरणतः समाप्त इति ।। तकारकाः सू०३३९व्याख्यातस्तृतीयोद्देशकः, तदनन्तरं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः--इहानन्तरोद्देशके विविधा भावाश्चतुःस्थानकतयोक्ता इहापि त एव तधेवीच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्र चत्तारि पसप्पगा पं० २०-अणुप्पन्नाणं भोगाणं उप्पाएत्ता एगे पसप्पए पुचुप्पन्नाणं भोगाणं अविप्पतोगेणं एगे पसप्पते अणुप्पनाणं सोक्याणं उप्पाइत्ता एगे पसप्पए पुब्बुप्पन्नाणं सोक्खाणं अविपओगेणं एगे पसप्पए । (सू० ३३९) णेरतिताणं चलम्विहे आहारे पं० सं०-इंगालोबमे मुम्मरोवमे सीतले हिमसीतले, तिरिक्ख जोणियाणं चउबिहे आहारे पं० सं०-कोवमे बिलोवमे पाणमंसोवमे पुत्तमंसोवमे, मणुस्साणं चउठिवहे आहारे पं०२०-असणे जाव सातिमे, ॥२६३॥ देवाणं चविहे आहारे पं० त०-वन्नमंते गंधमंते रसमंते फासमंते । (सू० ३४०) चत्तारि जातिआसीविसा पं० ३४० दीप अनुक्रम [३६१] 4544 Saintairatanimal aurary.com 'R- सूत्रांक पुन:मुद्रितं (यह सूत्रांक दुबारा छप गया है) अत्र चतुर्थ-स्थानस्य तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्थ-स्थानस्य चतुर्थ: उद्देशक: आरब्ध: ~529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३४१] दीप अनुक्रम [३६४] "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्ति उद्देशक [V). मूलं [३४१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... Education Internation .......... तं ० विच्छुतजातीयाली विसे मंडुकजातीयासीविसे उरगजातीयासीविसे मणुस्वजाति आसी विसे, विच्छुयजाति आसीविसस्स णं भंते! केवइए विसए पत्नत्ते ?, पभू णं बिच्छु जाति आसीदिसे अद्भभरप्पमाणमेत्तं नोंदिं विसेणं विसपरियं विट्टमाणि करितए विसए से विसताए नो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा, मंडुकजातिआ सीसिस पुच्छा, पभू णं मंडुकजा तिजसीविसे भरहृष्यमाणमेतं बौदिं विसेणं ( विसप० ) विसट्टमाणि, सेसं तं चैव जाव करेस्संति वा, उरगजाति पुच्छा, पभू णं उरगजाति असीविसे जंबूदीवपमाणमेतं बोदि विसेण सेसं तं चैव जाव करेस्संति वा, मणुस्सजातिपुच्छा, पभू णं मणुस्तजाति आसीविसे समतखेत्तपमाणमेत्तं वौदि बिसेणं विसपरिणतं विसमाणि करेशर, विसते से बिसट्टताते नो चेव णं जाव करिस्संति वा ( सू० ३४१ ) 'चत्तारि पसप'त्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः - अनन्तरसूत्रे देवा देव्यश्च निर्दिष्टाः, ते च भोगवन्तः सुखिताश्च भवन्तीति भोगान् सुखानि चाश्रित्य प्रसर्पकभेदाभिधानायेदमुच्यते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्य व्याख्या-प्रकर्षेण सर्पन्ति - गच्छन्ति भोगाद्यर्थं देशानुदेशं सञ्चरन्ति आरम्भपरिग्रहतो वा विस्तारं यान्तीति प्रसर्पकाः, 'अणुपपन्नानं'ति द्वितीयार्थे षष्ठीति अनुत्पन्नान् -असम्पन्नान् भोगान्-शब्दादीन् तत्कारणद्रविणाङ्गनादीन् वा 'उप्पाइत्तति उत्पादयितुं सम्पादनाय अथवाऽनुत्पन्नानां भोगानामुत्पादयिता- उत्पादकः सन् एकः कोऽपि प्रसर्पति-प्रगच्छति, प्रसर्पको वा प्रगन्ता भवतीति गम्यते, प्रसर्पन्ति च भोगाद्यर्थिनो देहिनः उक्तञ्च - "धावेइ रोहणं तरइ सागरं भमंइ गिरिनिगुंजेसु । १ धावति रोहणं तरति सागरं भ्राम्यति गिरिनिकुजेषु । For Pernal Use Only ~ 530 ~ yor Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४१] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत हसत्र सूत्रांक [३४१] दीप अनुक्रम [३६४] श्रीस्थाना-18 मारेइ बंधबंपिहु पुरिसो जो होज्ज (इ) धणलुद्धो॥१॥ अडइ बहुं वहइ भरं सहइ छुहं पावमायरइ चिट्ठो । कुल- ४ स्थाना सील जातिपच्चयट्टिइं च लोभओ चयइ ॥२॥” इति, तथा पूर्वोत्पन्नानां पाठान्तरेण प्रत्युत्पन्नानां वा 'अविपओ-Nउद्देशः ४ वृत्तिः गणं'ति अविप्रयोगाय रक्षणार्थमिति 'सौख्याना मिति भोगसम्पाद्यानन्दविशेषाणां, शेष सुगर्म । भोगसौख्यार्थश्च प्रस-| | प्रसर्पकाः पन्तः कर्म बद्धा नारकत्वेनोसद्यन्त इति नारकानाहारतो निरूपयन्नाह-'नेरइयाण'मित्यादि व्यक्तं, केवलं अङ्गारो आहार: ॥२६४॥ पमः अल्पकालदाहत्वात् मुर्मुरोपमः स्थिरतरदाहत्वात् शीतलः शीतवेदनोसादकत्वात् हिमशीतलोऽत्यन्तशीतवेदना- आशीजनकत्वात् , अधोऽध इति क्रम इति । आहाराधिकारात् तिर्यग्मनुष्यदेवानामाहारनिरूपणाय सूत्रवयं-'तिरिक्खजो-3 विषाः णियाण'मित्यादि व्यक्त, नवरं कङ्कः-पक्षिविशेषः तस्याहारेणोपमा यत्र स मध्यपदलोपात् कोपमः, अयमों-यथा हिदि सू०३४१ कङ्कस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहारः सुखभक्ष्यः सुखपरिणामश्च भवति एवं यस्तिरश्चा सुभक्षः सुखपरिणामश्च स कङ्कोपम इति, तथा पिले प्रविशद्रव्यं बिलमेव तेनोपमा यत्र स तथा, बिले हि अलब्धरसास्वादं झगिति यथा किल किश्चित् प्रविशति एवं यस्तेषां गलबिले प्रविशति स तथोग्यते, पाणो-मातङ्गस्तन्मांसमस्पृश्यत्वेन जुगुप्सया दुःखाचं स्यादेवंत यस्तेषां दुःखाचः स पाणमांसोपमः, पुत्रमांसं तु स्नेहपरतया दुःखाद्यतरं स्यादेवं यो दुःखाद्यतरः स पुत्रांसोपमः, क-1 |मेण चैते शुभसमाशुभाशुभतरा वेदितव्याः, वर्णवानित्यादी प्रशंसायामतिशायने वा मतुविति । आहारो हि भक्षणीय १मारयति बांधवमपि पुरुषो यो भवेशनब्धः ॥ १॥ अटति बहुं पद्दति भार सहते क्षुधां पापमा चरति प्रधः । कुलशीलजातिप्रत्ययस्थिति व C॥२४॥ ओभोपहतस्त्वजाति ॥1॥ + Santaratimahind ~531~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४१] या इति भक्षणाधिकारादाशीविषसूत्र, सुगमश्चेदं, नवरं 'आसीविसत्ति आश्यो-दंष्ट्रास्तासु विष येषां ते आशीविषाः, ते च है कर्मतो जातितश्च, तत्र कर्मतस्तिर्यङमनुष्याः कुतोऽपि गुणादाशीविषाः स्युः, देवाश्चासहस्राराच्छापादिना परब्यापाद नादिति, उकच-"आसी दाढा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा दुविद्द भेया । ते कम्मजाइभेएण णेगहा चउबिहविग्गप्पा ॥१॥" [आशी द्रष्टा तक्तमहाविषा आशीविषा द्विविधभेदाः ते कर्मजातिभेदेन नैकधा चतुर्विधविकल्पाः ॥१॥ (वृश्चिकमंडुकोरगनरा:)] इति, जातित आशीविषा जात्याशीविषा:-वृश्चिकादयः, केवइय'त्ति कियान विषयो-योचरो विपस्येति | गम्यते, प्रभुः-समर्थः, अ.भरतस्य यत्प्रमाण-सातिरेकत्रिषष्ट्यधिकयोजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा-प्रमाणं यस्याः साऽर्द्धभरतपमाणमात्रा तां बोन्दि-शरीरं विषेण-स्वकीयाशीप्रभवेण करणभूतेन विषपरिणतां-विषरूपापन्नां विषपरिगतासमिति कचिसाठे तव्याप्तामित्यर्थः, 'विसहमाणि' विकसन्ती विदलन्ती 'कर्नु' विधातुं विषयः सा-गोचरोऽसौ अथवा से तस्य वृश्चिकस्य, विषमेवार्थों विषार्थस्तद्भावस्तत्ता तस्या विषार्थताया-विषत्वस्य तस्यां वा 'नो चेव'त्ति नैवेत्यर्थः | 'सम्पत्त्या' एवंविधवोन्दिसम्प्राप्तिद्वारेण 'करिस'त्ति अकार्युर्वृश्चिका इति गम्यते, इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचदाननिर्देशो वृश्चिकाशीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थ, एवं कुर्वन्ति करिष्यन्ति, त्रिकालनिर्देशवामीषां चैकालिकत्वज्ञापना, समयक्षेत्रं-मनुष्यक्षेत्रं । विषपरिणामो हि व्याधिरिति तदधिकाराद् व्याधिभेदानाइ चबिहे वाही पं० २०-वातिते पिचिते सिभिते सन्निवातिते, चडविदा विगिरा पं० सं०-विज्जो ओसधाई आपरे परिचारते । (सू०२४३) चचारि तिगिच्छग्म पं० ०-भादविगिच्छते नाममेगे णो परविविच्छते १ परतिगि दीप अनुक्रम [३६४] अत्र मुद्रण-दोष दृश्यते:- मूल-संपादने (सू० ३४३) लिखितम्, (मूल संपादनमें सू० ३४३ छपा है, यहां सूत्रांक ३४२ आता है, मगर ३४३ छापा है, उसका कारण यह है की इसके पहले सूत्रांक ३३८ दो बार छप गया था, इसलिए शायद बादमे यह गलती सुधारली गई है)। ~532~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति© स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाः दसत्र प्रत ॥ २६५॥ सूत्रांक [३४४] ४ स्थाना उद्देशः४ व्याधिचिकित्से सू० ३४३ चिकित्सकवणशल्यश्रेय:पापाख्या यकादि ४सू० ३४४ ॥२६५॥ च्छए नाममेगे ४, २, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-यणकरे णाममेगे नो वणपरिमासी वणपरिमासी नाममेगे णो वणकरे एगे वणकरेवि वर्णपरिमासीवि एगे णो वणकरे णो वणपरिमासीवि १, चत्वारि पुरिसजाया पं० सं०-वणकरे नाममेगे जो वणसारक्खी ४, २, पत्तारि पुरिसजाया पं० २०-वणकरे नाम एगे णो वणसरोही ४, ३, चत्तारि वणा पं० २०-अंतोसले नाममेगे णो बाहिंसल्ले ४, १, एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पं० ०-अंतोसले णाममेगे णो बाहिंसले ४, २, पत्तारि षणा पं० ०-अंतो दुढे नाम एगे णो बाहिं दुढे चाहिं बुट्टे नाम एगे नो अंतो ४, ३, एवामेव पत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-अंतो दुहे नाममेगे नो बाहिं दुढे ४, ५, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०सेतसे णाममेगे सेयंसे सेयंसे नामगेगे पावसे पावसे णामं एगे सेयंसे पावंसे णाममेगे पावसे, १, पत्तारि पुरिसजाया पं००-सेतसे णाममेगे सेतंसेत्ति सालिसए सेतसे णाममेगे पासेत्ति सालिसते ४, २, चत्तारि पुरिसा पं० त०सेतंसेत्ति णाममेगे सेतंसेत्ति मण्णति सेतैसेत्ति णाममेगे पावंसेत्ति मण्णति ४, ३, चत्तारि पुरिसजाता पं० २०सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति सालिसते मन्नति सेतंसे णाममेगे पावंसेत्ति सालिसते मन्नति ४,४, बत्तारि पुरिसजाता पं० त०-आपतित्ता णाममेगे णो परिभावतित्ता परिभावइत्ता णाममेगे णो भापतित्ता ४, ५, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-आघवतित्ता णाममेगे नो उछजीविसंपन्ने उछजीविसंपन्ने णाममेगे णो आपबइत्ता ४, ६, चउन्विहा रुक्खविगुब्वणा पं00-पचालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए (सू० ३४४) 'चउविहे' इत्यादि कण्ठयं, केवलं वातो निदानमस्येति वातिकः एवं सर्वत्र नवरं सन्निपात:-संयोगो द्वयोस्त्रयाणां वेति दीप अनुक्रम [३६६] ~533~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४] वातादिस्वरूपं चैतत्-"तत्र सक्षो १ लघुः २ शीतः ३ खरः ४ सूक्ष्म ५ श्चलो ६ऽनिलः । पित्तं सस्नेह १ तीक्ष्णो २ष्णं | |३ लघु विनं५ सरं ६ द्रवम् ७ ॥११॥ कफो गुरु १ हिमः २ स्निग्धः ३ प्रक्लेदी ४ स्थिर ५ पिच्छिलः ६। सन्निपातस्तु सङ्कीर्ण लक्षणो ब्यादिमीलकः ॥२॥" वातादीनां कार्याणि पुनरिमानि-“पारुष्यसङ्कोचनतोदशूलश्यामत्वमङ्गव्यथचेष्टभङ्गाः। |सुप्तत्वशीतत्वखरत्यशोषाः, कम्मोणि वायोः प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥१॥ परिस्रवस्वेदविदाहरागा, बैगन्ध्यसलेदविपाककोपाः । प्रलापमूभ्रिमिपीतभावाः, पित्तस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः ॥ २॥ श्वेतत्वशीतत्वगुरुत्वकण्डूस्नेहोपदेहस्तिमितत्वलेपाः । उत्सेधसम्पातचिरक्रियाश्च, कफस्य कम्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः ॥३॥” इति । अनन्तरं व्याधिरुकः, अधुना तस्यैव चिकित्सां चिकित्सकांश्च सूत्रद्वयेनाह-'चउठिवहे'त्यादि, कण्ठ्यं, नवरं चिकित्सा-रोगप्रतीकारस्तस्याश्चातु-| विध्य कारणभेदादिति, एतत्सूत्रसंवादकमुक्तमपरैरपि-"भिषा १ द्रव्याण्यु २ पस्थाता ३, रोगी ४ पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्ट, प्रत्येक तच्चतुर्गुणम् ॥१॥ दक्षो १ विज्ञातशास्त्रार्थो २, दृष्टका ३ शुचि ४ भिषक् । बहुकल्प १ बहुगुणं २, सम्पन्नं ३ योग्यमौषधम् ४॥२॥ अनुरक्तः १ शुचि २ दक्षो ३, बुद्धिमान् ४ परिचारकः । आब्यो १ रोगी भिषग्वश्यो २, ज्ञापकः ३ सत्त्ववानपि ४॥३॥” इति, इयं द्रव्यरोगचिकित्सा मोहभावरोगचिकित्सा त्वेवं,निब्विगइ निब्बलोमे तवउद्धट्ठाणमेव उम्भामे । वेयावच्चाहिंडण मंडलि कप्पट्ठियाहरणं ॥१॥" इति [निर्बल वल्लादि, अवमम्-ऊन उद्भामो-भिक्षाभ्रमणम् आहिंडणं देशेषु मण्डली-सूत्रार्थयोः 'कप्पडिया' श्रेष्ठिवधूरिति> |निर्विकृतिक बल्लादि न्यून आचामाम्लादि कायोत्सर्गः विहारावैयावृत्त्यं भिक्षाश्रमः मंडली (मोहचिकित्सैपा) कुलपुत्रि दीप अनुक्रम [३६६] Auditurary.org 'वात" आदिनाम् स्वरूपं एवं कार्याणि, व्याधि चिकित्सा ~534~ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४] दीप अनुक्रम [३६६] श्रीस्थाना |कोदाहरणात चिकित्सका द्रव्यतो ज्वरादिरोगान् प्रति भावतो रागादीन् प्रतीति, तत्रात्मनो ग्यरादेः कामादेर्वा चिकिसूत्र त्सकः-प्रतिकतॆत्यात्मचिकित्सक इति । अथात्मचिकित्सकान भेदतः सूत्रत्रयेणाह-चत्तारीत्यादि कण्ठ्यं, नवरं व्रणं उद्देशः ४ -देहे क्षतं स्वयं करोति रुधिरादिनिर्गालनार्थमिति व्रणकरो नो-नैव व्रणं परिमृशतीत्येवंशीलो व्रणपरिमीत्येकः, अ- व्याधि न्यस्त्वन्यकृतं व्रणं परिमृशति न च तत् करोतीति, एवं भाववर्ण-अतिचारलक्षणं करोति कायेन न च तदेव परिमृशति-है। चिकित्से ॥२६६॥ पुनः पुनः संस्मरणेन स्पृशति, अन्यस्तु तत्परिमृश्यत्यभिलाषान्न च करोति कायतः संसारभयादिभिरिति, वर्ण करोति | सू०३४३ न च तसट्टवन्धादिना संरक्षति, अन्यस्तु कृतं संरक्षति न च करोति, भावत्रणं त्वाश्रित्यातिचारं करोति न च तं सानु- चिकित्सवन्धं भवन्तं कुशीलादिसंसर्गतन्निदानपरिहारतो रक्षत्येकोऽन्यस्तु पूर्वकृतातिचारं निदानपरिहारतो रक्षति नवं च न कवणशकरोति, 'नों नैव व्रणं संरोहयत्यौषधदानादिनेति वणसरोही, भावत्रणापेक्षया तु नो वणसरोही प्रायश्चित्ताप्रतिपत्ते, ल्यश्रेय:अणसरोही पूर्वकृतातिचारप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या, नो व्रणकरोऽपूर्वातिचाराकारित्वादिति । उता आत्मचिकित्सकाः, अब पापाख्याचिकित्स्य वर्ण दृष्टान्तीकृत्य पुरुषभेदानाह-'चत्तारीत्यादि चतुःसूत्री, सुगमा, नवरं, अन्तः-मध्ये शल्यं यस्य अदृश्य-1- यकादि मानमित्यर्थः वचथा, 'बाहिं सल्लेत्ति यच्छल्यं व्रणस्थान्तरल्पं बहिस्तु बहु तदहिरिव बहिरित्युच्यते, अन्तो बहिः सल्यसू०३४४ यस्य तत्तथा, यदि पुनः सर्वथैव तत्ततो बहिः स्यात् तदा शल्यतैव न स्याद्, उद्धृतत्वे वा भूतभावितथा स्यादपीति २, यत्र पुनरन्तर्षहु बहिरप्युपलभ्यते तदुभयशल्यं ३ चतुर्थः शून्य इति ४, गुरुसमक्षमनालोचितत्वेनान्तः शल्यम्-अति-INTREET चाररूपं यस्य स तथा, बहिः शल्यं आलोचिततया यस्य तत्तथा, अन्तर्बहिश्श शल्यमालोचितानालचितत्वेन यस्य स व्याधि चिकित्सा, ~535~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४४] तथा, चतुर्थः शून्यः । अन्तर्दुष्टं वणं लूतादिदोषतः, न वही रागाद्यभावेन सौम्यत्वात् ४, पुरुषस्तु अन्तर्दुष्टः शठतया संवृताकारत्वान्न बहिरित्येकः, अभ्यस्तु कारणेनोपदर्शितवाक्पारुप्यादित्वाबहिरेवेति । पुरुषाधिकारात् तद्भेदप्रतिपादनाय षट्सूत्री कण्ठया च, किन्तु अतिशयेन प्रशस्यः श्रेयानेकः प्रशस्यभावः सद्बोधत्वात् पुनः श्रेयान प्रशस्तानुष्ठानत्वात् साधुवदित्येक १ अन्यस्तु श्रेयांस्तथैव अतिशयेन पापः पापीयान् , स चाविरतत्वेन दुरनुष्ठायित्वादिति २ अभ्यस्तु | पापीयान् भावतो मिथ्यात्वादिभिरुपहतत्वात् कारणवशात् सदनुष्ठायित्वाच श्रेयान् उदायिनृपमारकवत् ३ चतुर्थः स एव कृतपाप इति ४, अथवा श्रेयान् गृहस्थत्वे निष्क्रमणकाले वा पुनः श्रेयान् प्रव्रज्यायां विहारकाले वेत्येवमन्येऽपि । श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु श्रेयान् प्रशस्यतर इत्येवंवुद्धिजनकत्वेन सदृशकः-अन्येन श्रेयसा तुल्यो न तु सर्वथा श्रेयानेवेत्येकः १, अन्यस्तु भावतः श्रेयानपि द्रव्यतः पापीयानित्येवंबुद्धिजनकत्वेन सदृशकः-अन्येन पापीयसा समानो न तु पापीयानेवेति द्वितीयः२, भावतः पापीयानप्यन्यः संवृताकारतया श्रेयानित्येवंबुद्धिजनकतया सदृशकोऽन्येन श्रेयसेति तृतीयः, चतुर्थः सुज्ञानः । श्रेयानेकः सद्त्तत्वात् श्रेयानित्येवमात्मानं मन्यते यथावद्वोधात् लोकेन धा मन्यते विशदसदनुष्ठानाद्, इह च मन्निजइत्ति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन मन्न ईत्युक्तम् , श्रेयानप्यन्य आत्मन्यरुचिपरायणत्वात् | पापीयानित्यात्मानं मन्यते, स एव वा पूर्वोपलब्धतदोपेण जनेन मन्यते दृढप्रहारिवत् १ पापीयानष्यपरो मिथ्यात्वाधुपहततया श्रेयानित्यात्मानं मन्यते, कुतीर्थिकवत्, तद्भक्केन वेति २, पापीयानन्योऽविरतिकत्वात् पापीयानित्यास्मानं मन्यते, सद्बोधत्वाव, असंयतो वा मन्यते, संयतलोकेनेति ३, श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु किश्चित्सदनुष्ठायि दीप अनुक्रम [३६६] For P OW ~ 536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः सूत्रांक ॥२६७॥ [३४४] दीप अनुक्रम [३६६] वात श्रेयानित्येवं विकल्पजनकत्वेन सहशकोऽन्येन श्रेयसा मन्यते-ज्ञायते जनेनेति विभक्तिपरिणामाता सदशकमा- ४ स्थाना० त्मानं मन्यत इति एवं शेषाः ४, 'आघवइत्तेति आख्यायका-प्रज्ञापकः प्रवचनस्य एकः-कश्चिन्न च प्रविभावयिता- उद्देशः४ प्रभावयिता प्रभावकः शासनस्य उदारक्रियाप्रतिभादिरहितत्वात् प्रविभाजयिता वा-प्रवचनार्थस्य नयोत्सर्गादिभिर्दिव- व्याधिः वेचयितेति, अथवा आख्यायकः सूत्रस्य प्रविभावयिता प्रविभाजयिता वाऽर्थस्येति । आख्यायक एकः सूत्रार्थस्य न चो | चिकित्से छजीविकासम्पन्नो नैषणादिनिरत इत्यर्थः, स चापद्गतः संविनःसंविझपाक्षिको वा, यदाह-"होज हु वसणं पत्तो सरी-1 सू० ३४३ रदुब्बल्लयाए असमत्थो। चरणकरणे असुद्धे सुद्धं मग्गं परवेजा ॥१॥" तथा-"ओसन्नोऽवि विहारे कम्मं सिढिलेइ चिकित्ससुलहबोही य । चरणकरणं विसुद्धं उवहतो परूवेतो ॥२॥" [शरीरदौर्बल्येनासमर्थः व्यसनं प्राप्तो भवेत् (तथापि) अशुद्धे चरणकरणे शुद्धं मार्ग प्ररूपयेत् ॥१॥ विहारेऽवसन्नोऽपि कर्म शिथिलयति सुलभबोधिश्च विशुद्धं चरणकरण ल्यश्रेयःमुपबृंहयन् प्ररूपयंश्च ॥२॥] इत्येकः द्वितीयो यथाच्छन्दः तृतीयः साधुः चतुर्थी गृहस्थादिरिति, पूर्वसूत्रे साधुलक्षण पापाख्यापुरुषस्याख्यापकत्वोन्छजीविकासम्पन्नवलक्षणा गुणविभूषोक्ता अधुना तत्साम्याहृक्षविभूषामाह-'चउविहे त्यादि,अथवा ५ यकादि पूर्वमुञ्छजीविकासंपन्नः साधुपुरुष उक्तः, तस्य च वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधप्रयोजने वृक्षं विकुर्वतो यद्विधा तद्विक्रिया सू० २४ स्यात्तामाह-'चउबिहे'त्यादि पातनयैवोक्ता), नवरं "प्रवालतयेति नवाङ्करतयेत्यर्थः । एते हि पूर्वोक्का आख्याय-- कादयः पुरुषास्तीर्थिका इति तेषां स्वरूपाभिधानायाह 1॥२६७॥ चत्तारि वातिसमोसरणा पं० २०-किरियावादी अकिरियावादी अन्नाणितावादी वेणतियावादी । णेरइयाणं चत्वारि CHANGIAUSIOS ~537~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४५] वादिसमोसरणा पं० सं०--किरियावादी जाव वेणतितवादी, एवमसुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं एवं विगलिंपि यवजं जाव वेमाणियाणं । (सू० ३४५) बादिनः-तीथिकाः समवसरन्ति-अवतरन्त्येष्विति समवसरणानि-विविधमतमीलकास्तेषां समवसरणानि वादिसमवसरणानि, क्रियां-जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिन आस्तिका इत्यर्थः तेषां यत्समवसरणं तत्त एवोच्यन्ते अभेदादिति, तनिषेधादक्रियावादिनो-नास्तिका इत्यर्थः, अज्ञानमभ्युपगमद्वारेण येषामस्ति ते अज्ञानिकाः त एव वादिनोऽज्ञानिकवादिनः, अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंप्रतिज्ञा इत्यर्थः, विनय एव वैनयिकं तदेव निःश्रेयसायेत्येवंवादिनो, वैनयिकवादिन इति, एतदूभेदसङ्ख्या चेय-"असियसय किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥१॥" [क्रियावादिनां अशीत्यधिकं शतं अक्रियावादिनां चतुरशीतिरज्ञानिनां सप्तषष्टिः वैनयिकानां द्वात्रिंशत् ॥१॥] इति, तत्राशीत्यधिकं शतं क्रियावादिनां भवति, इदं चामुनोपायेनावगन्तव्यम्-जीवाजीवाश्रवसंवरवन्धनिजेरापुण्यापुण्यमोक्षाख्यान नव पदार्थान् विरचय्य परिपाच्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्य-18 सनीयौ तयोरधो नित्यानित्यभेदी तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनश्चेत्थं विकल्पाः कर्तव्याः-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चार्य-विद्यते खवयमात्मा स्वेन रूपेण न परापेक्षया इस्वत्वदीर्घत्वे व नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिनः, तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः 'पुरुष एवेदं निमित्यादिप्रतिपत्तुरिति, चतुर्थों नियतिवादिनः, नियतिश्च-पदार्थानामवश्यन्तया य दीप अनुक्रम [३६७] Turasurare.org वादिः, तस्य समवसरणानि, क्रियावादि, अक्रियावादि ~ 538~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३४५] दीप अनुक्रम [३६७] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २६८ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३४५] स्थान [४], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ४ स्थाना० उद्देशः ४ द्यायाः यथाभवने प्रयोजककर्त्रीति पञ्चमः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यजहता लब्धाः पश्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्चैव लभ्यन्ते तत्र परत इत्यस्यायमर्थ:-इह सर्वपदार्थानां पररूपापेक्षः स्वरूपपरिच्छेदो यथा ह्रस्वत्वाद्यपेक्षो दीर्घत्वादिपरिच्छेदः, एवमेव चात्मनः स्तम्भकुम्भादीन् समीक्ष्य तद्व्यतिरिक्ते हि वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्त्तत इत्यतो यदात्मनः स्वरूपं * क्रियावातत्परत एवावधार्यते न स्वत इति, नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एवं विंशतिजवप - ४ दार्थेन लब्धाः अजीवादिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिना सू० ३४५ मिति, एते च विकल्पा एकैकशो न लभ्यन्ते शीलाङ्गवदिति । तथा अक्रियावादिनां तु चतुरशीतिर्द्रष्टव्या, एवञ्चेयं + पुण्यापुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपररूपविकल्पद्वयोपन्यासः, असत्वादात्मनो नित्यानित्यभेदी १ न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, इयं चानभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिरिति पश्चाद्विकल्पाभिलापःनास्ति जीवः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छावसानैः सर्वे पड़िकल्पाः, तथा नास्ति जीवः परतः कालत इति षडेव विकल्पा इत्येकत्र द्वादश, एवमजीवादिष्वपि पट्सु प्रत्येकं द्वादश विकल्पाः एवञ्च द्वादश सप्तगुणाश्चतुरशीतिविकल्पाः नास्तिकानामिति । अज्ञानिकानां तु सप्तपष्टिर्भवति, इयं चामुनोपायेन द्रष्टव्या-तत्र जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादय उपन्यसनीयाः, सत्त्व १ म सत्त्वं २ सदसत्त्वं ३ अवाच्यत्वं ४ सदवाच्यत्वं ५ असदवाच्यत्वं ६ सदसदवाच्यत्व ७ मिति, तत एते नच सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्तु चत्वार एवाद्या विकल्पाः, तद्यथा-सत्त्व १ मसवं सदसय ३ मवाच्यखं ४ चेति, त्रिषष्टिमध्ये क्षिप्ताः सप्तषष्टि वादि:, तस्य समवसरणानि, क्रियावादि, अक्रियावादि, अज्ञानिक, For Penal Use On ~ 539~ ।। २६८ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४५] र्भवन्ति, विकल्पाभिलापश्चर्व-को जानाति जीवः सन्निति किंवा तेन ज्ञातेनेत्येको विकल्पः, एवमसदादयोऽपि पाच्याः, तथा सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति किं वाऽनया ज्ञातया? एवमसती सदसती अवक्तव्या चेति, सत्त्वादिसप्तभजवाश्चायमर्थः-स्वरूपमात्रापेक्षया वस्तुनः सत्त्वं १ पररूपमात्रापेक्षया त्वसत्त्वं २ तथा एकस्य घटादिद्रव्यदेशस्य प्रीवादेः सद्भावपर्यायेण ग्रीवात्यादिनाऽऽदिष्टस्य सत्त्वात् तथा घटादिद्रव्यदेशस्यैवापरस्य बुभादेरसद्भावपर्यायेण वृत्तत्वा|दिना परगतपर्यायेणैयादिष्टस्यासत्वात् वस्तुनः सदसत्त्वम् ३ तथा सकलस्यैवाखण्डितस्य घटादिवस्तुनोऽर्धान्तरभूतैः पटादिपर्यायनिजैश्चोझे कुण्डलौष्ठायतवृत्तग्रीवादिभिर्युगपद्विवक्षितस्य सत्त्वेनासत्त्वेन वा धक्तुनशक्यत्वात् तस्य घटादेव्यस्यावक्तव्यत्वम् ४, तथा घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य सद्भावपर्यायैरादिष्टस्य सत्त्वादपरस्य स्वपरपर्याययुगपदादिष्टतया सत्त्वेनासत्वेन वा वक्तुमशक्यत्वात् घटादिद्रव्यस्य सदवक्तव्यत्वमिति ५, तथा तस्यैव घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य परपर्या-| यैरादिष्टस्यासत्वादपरदेशस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टत्वेन तथैव वकुमशक्यत्वात् तस्य घटादेरसदवक्तव्यत्वम् ६, तथा घटादिद्रग्यस्यैकदेशस्य स्वपर्यायैरादिष्टत्वेन सत्वादपरस्य परपर्यायैरादिष्टतया असत्वादन्यस्य स्वपरपर्याययुगपदादिष्टस्य तथैव वक्तुमशक्यत्वेनावक्तव्यत्वात् तस्य घटादिद्रव्यस्य सदसदवक्तव्यत्वमिति ७, इह च प्रथमद्वितीयचतुर्था | अखण्डवस्त्वाश्रिताः शेषाश्चत्वारो वस्तुदेशाश्चिता दर्शिताः, तथाऽन्यैस्तृतीयोऽपि विकल्पोऽखण्डवस्त्वानित एवोक्तः, तथाहि-अखण्डस्य वस्तुनः स्वपर्यायः परपर्यायैश्च विवक्षितस्य सदसत्त्वमिति, अत एवाभिहितमाचारटीकायाम्"इह चोत्पत्तिमङ्गीकृत्योत्तरविकल्पत्रयं न सम्भवति, पदार्थावयवापेक्षस्वात् तस्योपत्तेश्चावयवाभावा"दिति, एवम-16 दीप अनुक्रम [३६७] | वादिः, तस्य समवसरणानि, अज्ञानिक, ~540~ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: जासत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३४५] श्रीस्थाना- ज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भवतीति । बैनयिकानां च द्वात्रिंशत् , सा चैवमवसेया-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितॄणां P४ स्थाना० लाप्रत्येकं कायेन वाचा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टासु स्थानेषु भ-दिशा ४ वन्ति, ते चैकत्र मीलिता द्वात्रिंशदिति, सर्वसङ्ख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि त्रिषध्यधिकानीति, उक्तश्च पूज्यैः-"आ- Iक्रियावा|स्तिकमतमात्माद्या ९ नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः । कालनियतिस्वभावेश्वरात्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः॥१॥ काल- चाचा यहच्छानियतीश्वरस्वभावात्मनश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमतं न सन्ति सप्त स्वपरसंस्थाः ॥२॥ अज्ञानिकवादि-IXIसू० ३४५ मतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्ति सदसवैधाऽवाच्याश्च को वेत्ति ॥ ३॥ वैनयिकमतं विनयश्चेतोवा- गर्जितादिकायदानतः कायें। सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु सदा ॥१॥" इति, एतान्येव समवसरणानि चतुर्विश-1 मेघपुरुषाः तिदण्डके निरूपयन्नाह-निरइयाण'मित्यादि सुगम, नवरं नारकादिपश्चेन्द्रियाणां समनस्कत्वाच्चत्वार्यप्येतानि सम्भ- सू०३४६ वन्ति, 'विगलेंदियवजुति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणाममनस्कत्वान्न सम्भवन्ति तानीति । पुरुषाधिकारात् पुरुषविशेपप्रतिपादनाय प्रायः सदृष्टान्तसूत्राणि पुरुषसूत्राणि त्रिचत्वारिंशतं 'चत्तारि मेहे'त्यादीत्याह, चत्तारि मेहा पं० २०-जित्ता णाममेगे णो वासित्ता वासित्ता णाममेगे णो गजित्ता एगे गजित्तावि बासित्तावि एगे णो गभित्ता णो वासित्ता १, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-गजित्ता णाममेगे णो वासित्ता ४, २, पचारि मेहा पं० २० जित्ता गाममेगे णो विजुवाइत्ता विजुयाइत्ता णाममेगे ४, ३, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० ॥२६९॥ तं० कित्ता णाममेने णो विजुयाइत्ता ४, ४, चत्तारि मेहा पं० २०-वासित्ता णाममेगे णो विजुयाइत्ता ४, ५, 985 दीप अनुक्रम [३६७] वादिः, तस्य समवसरणानि, अज्ञानिक, वैनयिक ~541~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४६] एवामेव पत्तारि पुरिस० वासित्ता णाममेगे णो विजुयाइत्ता ४, ६, चत्तारि मेहा पं० सं०-कालवासी ४, ७, णाममेगे णो अकालवासी एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-कालवासी गाममेगे नो अकालवासी ४, ८, चचारि मेहा पं० ०खेत्तवासी णाममेगे णो अखित्तवासी ४, ९, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-खेत्तवासी णागमेगे णो अखेतवासी ४, १०, पत्तारि मेहा पं० सं०-जणतित्ता गामगेगे णो णिम्मवइत्ता जिम्मवइत्ता णाममेगे णो जणतित्ता ४, ११, एषामेव चत्तारि अम्मापियरो पं० सं०-जणइत्ता णाममेगे णो णिम्मवइत्ता ४, १२, चत्तारि मेहा पं० त०-देसवासी णाममेगे णो सम्बवासी ४, १३, एवामेव चत्तारि रायाणो पं० तं०-देसाधिवती णाममेगे णो सव्वाधिवती ४,१४ (सू०३४६) सुगमानि च, नवरं मेघा:-पयोदाः गर्जिता-गर्जिकृत् नो वर्षिता-न प्रवर्षणकारीति १, एवं कश्चित्पुरुषो गर्जितेव, गर्जिता दानज्ञानव्याख्यानानुष्ठानशत्रुनिग्रहादिविषये उच्चैः प्रतिज्ञावान् नो-नैव वर्षितेव वर्षिता-वर्षकोऽभ्युपगतसम्पादक इत्यर्थः, अन्यस्तु कार्यकर्ता न चोच्चैः प्रतिज्ञावानिति, एवमितरावपि नेयाविति २। 'विजुयाइत्त'त्ति विद्युत्को ३, एवं पुरुषोऽपि कश्चिदुच्चैः प्रतिज्ञाता न च विद्युत्कारतुल्यस्य दानादिप्रतिज्ञातार्थारम्भाडम्बरस्य कर्ताकाऽन्यस्तु आरम्भाडम्बरस्य कर्ता न प्रतिज्ञातेति, एवमन्यावपीति ४, वर्षिता कश्चिद् दानादिभिने तु तदारम्भा-12 डम्बरकों, अन्यस्तु विपरीतोऽन्य उभयथाऽन्यो न किञ्चिदिति ५-६, कालवर्षी-अवसरवर्षीति एवमन्येऽपि, ७, पुरुषस्तु कालवर्षीव कालवर्षी-अवसरे दानव्याख्यानादिपरोपकारार्थप्रवृत्तिक एकः अन्यस्त्वन्यथेति, एवं शेषौ ८, |क्षेत्रं धान्याद्युत्पत्तिस्थानम् ९, पुरुषस्तु क्षेत्रवर्षीव क्षेत्रवर्षी-पात्रे दानश्रुतादीनां निक्षेपका, अन्यो विपरीतोऽम्यस्तथा दीप अनुक्रम [३६८] मेघ: एवं तस्य भेदा: ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाजसूत्रवृत्तिः | पुष्करसं प्रत सूत्रांक [३४६] ॥२७॥ विधविवेकविकलतया महौदार्यात् प्रवचनप्रभावनादिकारणतो वा उभयस्वरूपोऽन्यस्तु दानादावप्रवृत्तिक इति १०,६ स्थाना० जनयिता मेघो यो वृष्ट्या धान्यमुगमयति, निम्मापयिता तु यो वृष्ट्यैव सफलता नयतीति ११, एवं मातापितरावपीति उद्देशः४ प्रसिद्धं, एवमाचार्योऽपि शिष्यं प्रत्युपनेतव्य इति १२, विवक्षितभरतादिक्षेत्रस्य प्रादृडादिकालस्य वा देशे आत्मनो वा देशेन वर्षतीति देशवर्षी १ यस्तु तयोः सर्वयोः सर्वात्मना वा वर्षति स सर्ववर्षी, अन्यस्तु क्षेत्रतो देशे कालतः वर्ताद्या सर्वत्रात्मनो वा सर्वः २, अथवा कालतो देशे क्षेत्रतः सर्वत्र ३ आत्मनो वा सर्वतः ४, अथवा आत्मनो देशेन क्षेत्रतः मेघपुरुषाः ५, कालतो वा सर्वत्र ६, अथवा क्षेत्रकालतो देशेन आत्मनः सर्वतः ७, अथवा क्षेत्रतो देशे, आत्मनो देशेन कालतः | सू० ३४७ सर्वत्र ८, अथवा कालतो देशे आत्मनो देशेन क्षेत्रतो न सर्वत्रे ९त्येवं नवभिर्विकल्पैर्वर्षति स देशवर्षी सर्ववीं चेति, करण्डकचतुर्थः सुज्ञान इति १३, राजा तु यो विवक्षितक्षेत्रस्य मेघवद्देश एव योगक्षेमकारितया प्रभवति स देशाधिपतिन सर्वाधिपतिः स च पल्लीपत्यादिः, यस्तु न पल्यादौ देशेऽन्यत्र तु सर्वत्र प्रभवति स सर्वाधिपतिर्न देशाधिपतिर्य- सू० ३४० स्तूभयत्र स उभयाधिपतिरथवा देशाधिपतिर्भूत्वा सर्वाधिपतियों भवति वासुदेवादिवत् स देशाधिपतिश्च सर्वाधिपति|श्चेति, चतुर्थो राज्यभ्रष्ट इति १४, पत्तारि मेहा पं० २०-गुक्खलसंबढ़ते पजुन्ने जीमूते जिम्हे, पुक्खलबट्टए णं महामेहे एगेण वासेणं दसवाससहस्साई भावेति, पजुने णं महामेहे एगेणं बासेणं दस वाससयाई भावेति, जीमूते ण महामेहे एोणं वासेणं दसवासाई भावेति, जिम्हे णं महामेहे बहहिं वासेहिं एग वासं भावेति वा ण वा भावेइ १५, (सू० ३४७) पत्तारि करंडगा पं० २७.॥ दीप पुरुषाः अनुक्रम [३६८] ~543~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४८] +गाथा १ से ४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४८] सं०-सोषागकरंडते वेसिताकरंडते गाहावतिकरंडते रायकरंडते १६, एवामेव चत्तारि आयरिया पं० सं०-सोवागकरंडमसमाणे वेसिसाकरंडगसमाणे गाहाचइककरंडनसमाणे रायकरंडगसमाणे १७ (सू०३४८) चत्तारि रुक्सा पण्णत्ता तं०-साले नाममेंगे सालपरियाते साले नाममेगे एरंडपरियाए एरंडे०४, १८ एवामेव पत्तारि आयरिया पं०२०साले णाममेगे सालपरिताते साले णाममेगे एरंडपरियाते एरंडे णाममेगे०४, १९ चत्वारि रुक्खा पं०२०--साले णाममेगे सालपरिवार. ४, २० एवामेव चत्तारि आयरिया पं० सं०-साले नामभेगे सालपरिबारे०४, २१ सालदु मम झयारे जह साले णाम होइ दुमराया । इव सुंदरआयरिए सुंदरसीसे मुणेयव्ये ॥ १॥ एरंडमझयारे जह साले णाम होइ दुमराया । इय सुंदरआयरिए मंगुलसीसे मुणेयब्बे ॥ २ ॥ सालदुममझयारे एरंडे णाम होति दुमराया । इय मंगुलआयरिए सुंदरसीसे मुणेयव्वे ।। ३ ।। एरंडमझयारे एरंडे णाम होइ दुमराया। इस मंगुलआयरिए मंगुलसीसे मुणेयब्वे ॥४॥ चत्तारि मछी पं० २०-अगुसोयचारी पडिसोयचारी अंतचारी मज्मचारी, २२ एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० सं०-अणुसोबचारी पडिसोयचारी अंतचारी मज्झचारी, २३ चत्तारि गोला पं० सं०-मधुसिस्थगोले जङगोले दारुगोले मट्टियागोले, २४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-मधुसित्थगोलसमाणे ४, २५ पत्तारि गोला पं०२०-अथगोले तउगोले तंवगोले सीसगोले, २६ एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पं०२०-अयगोलसमाणे जाव सीसगोलसमाणे, २७ चत्तारि गोला पं० २०-हिरण्णगोले सुवन्नगोले रयणगोले वयरगोले, २८ एवागेव बत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-हिरण्णगोलसमाणे जात्र बइरगोलसमाणे, २९ चत्तारि पत्ता पं० सं०-असिपत्ते दीप अनुक्रम [३७०] hurasurare.org ~ 544~ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३४९ ] गाथा दीप अनुक्रम [३७१ ३७६] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २७१ ॥ स्थान [ ४ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (V). मूलं [ ३४९] + गाथा १ से ५ ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Education Internationa मेघः एवं तस्य भेदा: - करपत्ते खुरपत्ते कलम्चीरितापते ३० एवानेव चचारि पुरिसजाया पं० तं० – असिपत्तसमाणे जाव कलंबचीरितापत्तसमाणे, ३१ चत्तारि कडा पं० सं०—सुंवकडे विदलकडे चम्मकडे कंबलकडे, ३२ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० [सं० - मुंबकदसमाणे जाव कंबलकडसमाणे ३३ ( सू० ३४९) चढव्विा चउप्पया पं० [सं० एगखुरा दुखुरा गंडीपदा सणफदा, ३४ चव्यिा पक्खी पं० तं चम्ममपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी, २५ चडव्विद्दा खुट्टपाणा पं० [सं० बेइंदिया तेइंदिया चउरंदिया संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया ३६ ( सू० ३५० ) चत्तारि पक्खी पं० तं निवृत्तित्ता णाममेगे जो परिवतित्ता परिवइत्ता नाम एगे तो निवइत्ता एगे निवतित्तावि परि वित्तावि एगे नो निवतित्ता नो परिवतित्ता ३७ एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० [सं० णिवतित्ता णाममेगे नो परिवतित्ता ४, ३८ (सू० ३५१) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० णिकडे णाममेगे किडे निकट्ठे नाममेगे अणिकडे ४, ३९ चत्तारि पुरिसजाया पं० [सं० निकट्ठे नाममेगे शिकट्टप्पा णिकट्ठे नाममेगे अनिकप्पा ४ ४० चत्तारि पुरिसजाया पं० [सं० मुद्दे नाममेगे बुद्दे बुद्दे नाममेगे अहे ४, ४१ चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०—बुधे नाममेगे हिए ४ ४२ चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० आयाणुकंपते जाममेगे तो पराणुकंपते ४, ४३ (सू० ३५२ ) 'पुक्खले'त्यादि, 'एगेणं वासेणंति एकया वृष्ट्या भात्रयतीति उदकस्नेहवतीं करोति धान्यादिनिष्पादन समर्थामितियावत् भुवमिति गम्यते, जिह्मस्तु बहुभिर्वर्षणैरेकमेव वर्षम्-अब्दं यावत् भुवं भावयति नैव वा भावयति रूक्षत्वात्तजउस्येति । अत्रान्तरे मेधानुसारेण पुरुषाः पुष्कलावर्त्तसमानादयः पुरुषाधिकारत्वात् अभ्यूद्या इति, तत्र सकृदुपदे For Parts Only "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 545 ~ ४ स्थाना० उद्देशः ४ करण्डकः वृक्षमत्स्यगोलपत्र कटाः चतु ष्पदाद्याः पक्षिभिन निष्कृष्टाद्याः सू० ३४८३५२ ॥। २७१ ॥ aru Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३५२ ] दीप अनुक्रम [३७९] “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [ ३५२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] शेन दानेन वा प्रभूतकालं यावच्छुभस्वभावमीश्वरं वा देहिनं यः करोत्यसावाद्यमेघसमानः, एवं स्तोकतर स्तोकतमकालापेक्षया द्वितीय तृतीय मेघसमानी असकृदुपदेशादिना देहिनमल्पकालं यावदुपकुर्वन्ननुपकुर्वन् वा चतुर्थमेष समान -इति १५ । करण्डको वस्त्राभरणादिस्थानं जनप्रतीतः, श्वपाककरण्डकः- चाण्डालकरण्डकः, स च प्रायश्चर्म्मपरिकम्मपि करणवर्षादिचमशस्थानतया अत्यन्तमसारो भवति, वेश्याकरण्डकस्तु जतुपूरित स्वर्णाभरणादिस्थानत्वात् किञ्चित्ततः सारोऽपि वक्ष्यमाणकरण्डकापेक्षया त्वसार एवेति, गृहपतिकरण्डकः श्रीमत्कौटुम्बिककरण्डकः, स च विशिष्टमणिसुत्रर्णाभरणादियुक्तत्वात् सारतरः, राजकरण्डकस्तु अमूल्यरत्नादिभाजनत्वात्सारतम इति १६, एवमाचार्यो यः पद्मज्ञक| गाथादिरूपसूत्रार्थधारी विशिष्टक्रियाविकलश्च स प्रथमः अत्यन्तासारत्वात्, यस्तु दुरधीतश्रुतलवोऽपि वागावम्बरेण मुग्धजनमावर्जयति स द्वितीयः परीक्षाऽक्षमतया असारत्वादेव, यस्तु स्वतमयपरसमयज्ञः क्रियादिगुणयुक्तश्च स तृतीयः सारतरस्यात्, यस्तु समस्तास्वार्यगुणयुक्ततया तीर्थकरकल्पः स चतुर्थः सारतमस्यात् सुधर्मादिवदिति १७, सालो नामैकः सालाभिधानवृक्षजातियुक्तत्वात् साठस्यैव पर्याया- धर्म्मा बहलच्छायत्वासेव्यत्वादयो यस्य सः शालपर्याय इत्येकः, शालो नामक इति तत्रैव एरण्डस्येव पर्याया धर्मा अवहलंच्छावत्वाऽऽसेव्यत्वादयो यस्य स एरण्डपर्याय इति द्वितीयः, एरण्डो नामैक एरण्डाभिधानवृक्षजातीयत्वात् सालपर्यायो वहलच्छायत्यादिधर्म्मयुक्तत्वादिति तृतीयः, एरण्डो नामैकस्तथैव एरण्डपर्यायः अवहलच्छायत्वाद्येरण्डधर्मयुक्तत्वादिति चतुर्थः १८, आचार्यस्तु साल इव साठो यथा हि सालो जातिमानेवमाचार्योऽपि यः सत्कुलः सद्गुरुकुलञ्च स साठ एवोच्यते तथा सालपर्यायः - साधर्म्मा Educatuny Internationa For Penal Use On ~ 546~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना- सूत्र- वृत्तिः ||२७२॥ [३५२] यथा हि सालः सच्छायत्वादिधर्मयुक्त एवं यो ज्ञानक्रियाप्रभवयशःप्रभृतिगुणयुक्तो भवति स तथोच्यते इत्येकः, तथा स्थाना. सालो नामैक इति तथैव एरण्डपर्यायस्तूक्तविपर्ययादिति द्वितीयः, एवमितरावपीति १९, तथा सालस्तथैव साल एव | 5 उद्देशः ४ परिवारः-परिकरो यस्य स सालपरिवारः, एवं शेषत्रयमिति २०, आचार्यस्तु साल इव सालो गुरुकुलश्रुतादिभिरुत्तम-15 त्वात् सालपरिवारः सालकल्पमहानुभावसाधुपरिकरत्वात् , तथा एरण्डपरिवारः एरण्डकल्पनिर्गुणसाधुपरिकरत्वात् एव- वृक्षमत्स्य| मेरण्डोऽपि श्रुतादिभिहीनत्वादिति, चतुर्थः सुज्ञानः, उक्त चतुर्भङ्गया एवं भावनार्थ 'सालदुमे'त्यादि गाथाचतुष्कं, व्यक्तंगोलपत्रनवरं मङ्गलम्-असुन्दरं २१, अनुश्रोतसा चरतीत्यनुश्रोतश्चारी-नद्यादिप्रवाहगामी एवमन्ये त्रयः २२, एवं भिक्षाका- कटाः चतुसाधुः, यो ह्यभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमीपात् क्रमेण कुलेषु भिक्षते सोऽनुश्रोतश्चारिमत्स्यवदनुश्रोतश्चारी प्रथमो, यस्तू-INपदायाः क्रमेण गृहेषु भिक्षमाण उपाश्नयमायाति स द्वितीयो, यस्तु क्षेत्रान्तेषु भिक्षते स तृतीयः, क्षेत्रमध्ये चतुर्थः २३, मधु- पक्षिभिर्सित्थु-मदनं तस्य गोलो-वृत्तपिण्डो मधुसित्धगोल एवमन्येऽपि, नवरं जतु-लाक्षा दारुमृत्तिके प्रसिद्ध इति २४, यथते || गोला मृदुकठिनकठिनतरकठिनतमाः क्रमेण भवन्त्येवं ये पुरुषाः परीपहादिषु मृदुदृढढतरदृढतमसत्त्वा भवन्ति ते मधुसित्थगोलसमाना इत्यादिभिर्व्यपदेशैर्व्यपदिश्यन्त इति २५, अयोगोलादयः प्रतीताः २६, एतैश्चायोगोलकादिभिः सू०३४८ ३५२ कमेण गुरुगुरुतरगुरुतमात्यन्तगुरुभिः आरम्भादिविचित्रप्रवृत्त्युपार्जितकर्मभारा ये पुरुषा भवन्ति तेऽयोगोलसमाना इत्यादिव्यपदेशवन्तो भवन्ति पितृमातृपुत्रकलनगतस्नेहभारतो वेति २७, हिरण्यादिगोलेषु क्रमेणाल्पगुणगुणाधिकगुणा-IV॥२७२॥ धिकतरगुणाधिकतमेषु पुरुषाः समृद्धितो ज्ञानादिगुणतो वा समानतया योज्याः २८, पत्राणि-पर्णानि तद्वतनुतया दीप अनुक्रम [३७९] निष्कृ ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५२] यानि अस्थादीनि तानि पत्राणीति, असिः-खड्गः स एव पत्रमसिपत्रं करपत्रं-ककचं येन दारु छिद्यते शुर:-छुरः स एव पत्रं क्षुरपत्रं, कदम्बचीरिकेति शस्त्रविशेष इति २९, तत्र द्राक् छेदकत्वादसेयः पुरुषो द्रागेच स्नेहपाशं छिनत्ति सोऽसिपत्रसमानः, अवधारितदेववचनसनत्कुमारचक्रवर्तिवत्, यस्तु पुनः पुनरुच्यमानो भावनाभ्यासात् स्नेहतलं छिनत्ति स करपत्रसमानः, तथाविधश्रावकवत्, करपत्रस्य हि गमनागमनाभ्यां कालक्षेपेण छेदकत्वादिति, यस्तु श्रुतधनेमार्गोऽपि सर्वथा स्नेहच्छेदासमर्थो देशविरतिमात्रमेव प्रतिपद्यते स क्षुरपत्रसमानः, क्षुरो हि केशादिकमल्पमेव छिनतीति, यस्तु स्नेहच्छेदं मनोरथमात्रेणैव करोति स चतुर्थः अविरतसम्यग्दृष्टिरिति, अथवा यो गुर्वादिषु शीघ्रमन्दमन्दतरमन्दतमतया स्नेह छिनत्ति स एवमपदिश्यते ३१, कम्बादिभिरातानवितानभावेन निष्पाद्यते यः स कटः कट इव कट इत्युपचारात् तन्त्वादिमयोऽपि कट एवेति, तत्र 'सुंबकडे'त्ति तृणविशेषनिष्पन्नः 'विदलकडे'त्ति वंशशकलकृतः15 'चम्मकडेत्ति वर्द्धव्यूतमञ्चकादिः 'कंबलकडे'त्ति कम्बलमेवेति ३२, एतेषु चाल्पबहुबहुतरबहुतमावयवप्रतिबन्धेषु पुरुषा टायोजनीयाः, तथाहि-यस्य गुर्वादिष्वल्पः प्रतिवन्धः स्वल्पव्यलीकादिनापि विगमात् स सुम्मकटसमान इत्येवं सर्वत्र भावनीयमिति ३३, चतुष्पदाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यश्चः एकः खुरः पादे पादे येषां ते एकखुरा:-अश्वादयः, एवं द्वौ खुरौ येषां ते तथा ते च गवादयः, गण्डी-सुवर्णकारादीनामधिकरणी गण्डिका तद्वत्पदानि येषां ते तथा ते हस्त्यादयः, 'सणप्फयसि सनखपदाः नाखरा:-सिंहादयः, इहोत्तरसूत्रद्वये च जीवानां पुरुषशब्दवाच्यत्वात् पुरुषाधिकारतेति ३४, चर्ममयपक्षाः पक्षिणश्चर्मपक्षिणो-बल्गुलीप्रभृतयः एवं लोमपक्षिणो-हंसादयः समुद्रकवत् पक्षी येषां ते समु दीप अनुक्रम [३७९] ~548~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- मसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥२७३॥ [३५२] दीप अनुक्रम [३७९] कपक्षिणः, समासान्त इन , ते च बहिद्वीपसमुद्रेषु, एवं विततपक्षिणोऽपीति ३५, क्षुद्रा-अधमा अनन्तरभवे सिय-IM स्थाना भावात् प्राणा-उपासादिमन्तः क्षुद्रमाणाः संमूर्छन निर्वृत्ताः सम्मूञ्छिमाः, तिरश्चां सत्का योनिर्येषां ते तथा ततः उद्देशः४ पदत्रयस्य कर्मधारये सति सम्मूछिमपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति भवति ३६, निपतिता-नीडादवतरीता-अवतरीतुं करण्डकाः शक्तो नामकः पक्षी धृष्टत्वादज्ञत्वाद्वा न तु परिवजिता-न परित्रजितुं शक्तो बालस्वादित्येका, एवमन्यः परिवजितुं वृक्षमत्स्यशक्तः पुष्टत्वान्न तु निपतितुं भीरुत्वादन्यस्तूभयथा चतुर्धस्तूभयप्रतिषेधवानतिबालवादिति ३७, निपतिता-भिक्षाच- गोलपत्रर्यायामवतरीता भोजनाद्यर्थित्वान्न तु परिव्रजिता-परिचमको ग्लानत्वादलसत्वालज्जालुत्वाद्वेत्येकः अन्यः परित्रजिता- कटाः चतुपरिभ्रमणशील आश्रयान्निर्गतः सन् न तु निपतिता-भिक्षार्थमवतरीतुमशक्तः सूत्रार्थासक्तत्वादिना, शेषौ स्पष्टौ ३८, पदाद्याः | निष्कृष्टः-निष्कर्षितः तपसा कृशदेह इत्यर्थः पुनर्निकृष्टो भावतः कृशीकृतकषायत्वादेवमन्ये त्रय इति २९, एतद्भाय-11 पक्षिभित्|नार्थमेवानन्तरं सूत्रं-नि:कृष्टः कृशशरीरतया तथा नि:कृष्टः आत्मा कषायादिनिर्मथनेन यस्य स तथेत्येवमन्ये त्रयी निष्कृइति, अथवा निःकृष्टस्तपसा कृशीकृतः पूर्व पश्चादपि तथैवेत्येवमाद्यसूत्रं व्याख्येयं, द्वितीयं तु यथोक्तमेवेति ४०, बुधो| ष्टाद्याः बुधत्वकार्यभूतसक्रियायोगात्, उक्तश्च-"पठकः पाठकश्चैव, ये चान्ये तत्त्वचिन्तकाः । सर्चे ते व्यसनिनो राजन्, भासू०३४८ ३५२ यः क्रियावान् स पण्डितः॥१॥" इति, पुनर्बुधः सविवेकमनस्त्वादित्येकः, अन्यो बुधस्तथैव अबुधस्त्वविविक्तमन|स्त्वात् , अपरस्त्वबुधोऽसक्रियत्वात् बुधो विवेकवञ्चित्तत्वाचतुर्थ उभयनिषेधादिति ४१, अनन्तरसूत्रेणैतदेव व्यकी R ॥२७३|| क्रियते-बुधः सक्रियत्वात्, बुध हृदयं-मनो यस्य स बुधहृदयो विवेचकमनस्त्वात् , अथवा बुधः शास्त्रज्ञत्वात् बुध ~549~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ACC प्रत सूत्रांक [३५२] का हृदयस्तु कार्येष्वमूढलक्षवादित्येकः, एवमन्ये त्रय ऊह्याः ४२, आत्मानुकम्पकः-आत्महितप्रवृत्तः प्रत्येकबुद्धो जिनकल्पिको वा परानपेक्षो वा निपुणः, परानुकम्पको निष्ठितार्धतया तीर्थकरः आत्मानपेक्षो वा दयैकरसो मेतार्यवत् , उभयानुकम्पकः स्थविरकल्पिक उभयाननुकम्पकः पापात्मा कालशौकरिकादिरिति ४३ । अनन्तरं पुरुषभेदा रक्ताः, अधुना तद्व्यापारविशेष तद्वेदसम्पाद्यमभिधित्सुः सूत्रसप्तकमाह-'चउबिहे संवासे' इत्यादि चाउन्यिहे संवासे पं० २०-दिव्वे आसुरे रक्ससे माणुसे १, पउबिधे संवासे पं० सं०-देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं गच्छति देवे नाममेगे असुरीए सद्धि संवासं गच्छति अमुरे णाममेगे देवीए सहि संवासं गच्छन असुरे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति २, चउव्विधे संवासे पं० २०-देवे नाममेगे देवीए सद्धि संवासं गच्छति देवे नाममेगे रक्खसीए सदि संवासं गच्छति रक्खसे णाममेगे देवीए सद्धि संवा गच्छति रक्खसे नाममेगं रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति ४, ३, चउब्विधे संचासे पं० त०-देवे नाममेगे देवीए सचि संवासं गच्छति देवे नाममेगे म. गुस्सीहि सद्धि संवासं गच्छति मगुस्से नाममेगे देवीहिं सद्धिं संवासं गच्छति मणुस्से नाममेगे मणुस्सीइ सद्धिं संबासं गच्छति ४, चविषे संवासे पं० २०-असुरे गाममेगे असुरीए सचि संवासं गच्छति अमुरे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति ४, ५, चउब्विधे संवासे पं० तं०-असुरे नाममेगे असुरीए सद्धि संवासं गच्छति असुरे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति५, ६, चउब्विधे संवासे ५००--रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति रक्खसे नाममेगे माणुसीए सद्धिं संवासं गछति ४, ७, (सू. ३५३) चउबिहे अवर्चसे पं० २०-आसुरे आमिओगे दीप अनुक्रम [३७९] CIAL ~550~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३५४] दीप अनुक्रम [३८१] श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः ॥ २७४ ॥ "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४]. ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Eaton Internationa - संमोहे देवविसे चर्हि ठाणेहिं जीवा आतुरताते कम्मं पगरेंति, तं० कोवसीलवाते पाहुडसील या संसत्ततोकम्मेणं निमित्ताजीवयाते, चडहिं ठाणेहिं जीवा आभिओगत्ताते कम्मं परैति तं अत्तुकोसेगं परपरिवाणं भूतिकमे कोउयकरणं, चहिं ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताते कम्मं पराति, वं० उम्मग्गदेसणाए मम्गंतरायणं कामासंसओ मेणं भिज्जानियाणकरणेणं, चउहिं ठाणेहिं जीवा देवकिव्विसियत्ताते कम्मं पगरेति नं० - अरहंताणं अवनं वयमाणे अरतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवनं वयमाणे आयरियउवज्झायाणमवन्नं वमाणे चाउवन्नरस संघरस अवनं वदमाणे ( सू० ३५४ ) कण्ठ्यं, नवरं स्त्रिया सह संवसनं शयनं संवासः द्यौः स्वर्गः तद्वासी देवोऽप्युपचाराद् द्यौस्तत्र भवो दिव्यो वैमानिकसम्बन्धीत्यर्थः, असुरस्य - भवनपतिविशेषस्यायमासुर एवमितरी, नवरं राक्षसो-व्यन्तरविशेषः, चतुर्भङ्गिकादेव असुर २ राक्षस १ | मनुष्य | सूत्राणि देवासुरेत्येवमादिसंयोगतः षड् भवन्ति । पुरुषक्रियाधिकार। देवापध्वंससूत्रं देवी असुरी राक्षसी तत्रापध्वंसनमपध्वंसः - चारित्रस्य तत्फलस्य वा असुरादिभावनाजनितो विनाशः, तत्रासुरभावनाजनित आसुरः येषु वाऽनुष्ठानेषु वर्त्तमानोऽसुरत्वमर्जयति तैरात्मनो वासन मासुरभावना, एवं भावनान्तरमपि, अभियोगभावनाजनित आभियोगः, सम्मोहभावनाजनितः साम्मोहः, देवकिल्विषभावनाजनितो दैवकिल्विष इति, | इह च कन्दर्पभावनाजनितः कान्दप्पपध्वंसः पञ्चमोऽस्ति, स च सन्नपि नोक्तः, चतुःस्थानकानुरोधाद्, भावना हि पञ्चागमेऽभिहिताः, आह च - "कंदप्प १ देवकिव्विस २ अभिओगा छ आसुरा य ४ संमोहा ५ । एसा उ संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिया ॥ १ ॥” [कंदर्पी देवकिल्बिषाऽभियोग्या आसुरी च संमोहा । एतास्तु संक्लिष्टाः पंचविधा For Parts Only मूलं [ ३५४ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 551 ~ ४ स्थाना० उद्देशः ४ संवासः आसुराभियोग्या द्याः सू० ३५३-३५४ ॥ २७४ ॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३५४] दीप अनुक्रम [३८१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति स्थान [ ४ ], उद्देशक [४], मूलं [ ३५४ ] भावना भणिता ॥ १ ॥ ] आसाच मध्ये यो यस्यां भावनायां वर्त्तते स तद्विधेषु देवेषु गच्छति चारित्रलेशप्रभावाद्, उक्तञ्च - "जो संजओऽवि एयासु अप्पसत्थासु वहद्द कहंचि । सो तच्त्रिहेसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥ १ ॥ " [यः संयतोऽप्येतासु अप्रशस्तासु वर्त्तते कथञ्चित् । स तद्विधेषु सुरेषु गच्छति भक्तश्वरणहीनः ॥ १ ॥] इति, आसुरादिरपध्वंस उक्तः, स चासुरत्वादिनिबन्धन इत्यनुरादिभावना स्वरूपभूतान्यसुरादित्यसाधनकर्म्मणां कारणानि सूत्रचतुष्टयेनाह-'चउहिं ठाणेही' त्यादि कण्ठ्यं, नवरं असुरेषु भव आसुरः-असुरविशेषस्तद्भावः आसुरत्वं तस्मै आसुरत्वाय तदर्थमित्यर्थः, अथवा असुरतायै असुरतया वा कर्म्म-तदायुष्कादि प्रकुर्वन्ति-कर्त्तुमारभन्ते, तद्यथा - क्रोधनशीलतयाकोपस्वभावत्वेन प्राभृतशीलतया - कलहन सम्बन्धतया संसक्कतपःकर्मणा - आहारोपधिशय्यादिप्रतिबद्धभावतपश्चरणेन निमित्ताजीवनसया- त्रैकालिक लाभालाभादिविषयनिमित्तोपात्ताहाराद्युपजीवनेनेति, अयमर्थोऽन्यत्रैवमुक्तः — " अणुबद्धविग्गहोंबिय संसत्ततयो निमित्तमाएसी । निक्किवणिराणुकंपो आसुरियं भावणं कुणइ ॥ १ ॥" [अनुबद्धविग्रहः संसक्ततपा निमित्तादेशी निष्कृपः निरनुकंप आसुरिकीं भावनां करोति ॥ १ ॥] इति, तथा अभियोगं व्यापारणमर्हन्तीत्याअभियोग्याः किङ्करदेवविशेषास्तद्भावस्तत्ता तस्यै तया वेति, आत्मोत्कर्षेण-आत्मगुणाभिमानेन परपरिवादेन -परदोषपरिकीर्त्तनेन भूतिकर्मणां ज्वरितादीनां भूत्यादिभी रक्षादिकरणेन कौतुककरणेन-सौभाग्यादिनिमित्तं परस्त्रपनकादिकरणेनेति, इयमप्येवमन्यत्र - " कोउय भूईकम्मे पसिणा इयरे निमित्तमाजीवी । इहिरससायगरुओ अभिओगं भावणं कुणइ ॥ १ ॥” इति [ प्रश्नोऽङ्गुष्ठप्रश्नादिरितरः स्वमविद्यादिरिति > [ कौतुकं भूतिकर्म प्रश्नः इतर ( स्वमादिः ) निमित्ताजीवी uttaration For Fasten ~552~ www.ncbrary.org Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः संवास: प्रत सूत्रांक [३५४] ॥२७५॥ दीप अनुक्रम [३८१] ऋद्धिरससातागौरवित आभियोग्यां भावनां करोति ॥१॥] तथा सम्मुह्यतीति सम्मोहः-मूढात्मा देवविशेष एव तद्भा- ४ स्थाना० वस्तत्ता तस्यै सम्मोहतायै सम्मोहत्वाय सम्मोहतया वेति, उन्मार्गदेशनया-सम्यग्दर्शनादिरूपभावमार्गातिक्रान्तधर्म- [ उद्देशः४ प्रथनेन [प्रकटनेन-कथनेन> मार्गान्तरायण-मोक्षाध्वप्रवृत्ततद्विघ्नकरणेन, कामाशंसाप्रयोगेण-शब्दादावभिलापक|रणेन, 'भिजत्ति लोभो गृद्धिस्तेन निदानकरणं एतस्मात्तपःप्रभृतेश्चक्रवादित्वं मे भूयादिति निकाचनाकरणं तेनेति, आसुराइयमप्येवमन्यत्र-"उम्मग्गदेसओ मग्गनासो मग्गविप्पडीवत्ती । मोहेण य मोहेत्ता संमोहं भावणं कुणइ ॥१॥" भियोग्याइति, [उन्मार्गदेशको मार्गनाशको मार्गविप्रतिपत्तिका मोहेन च मोहयित्वा संमोही भावनां करोति ॥ १॥ देवानां मध्ये द्याः किल्विषः-पापोऽत एवास्पृश्यादिधर्मको देवश्चासौ किल्विषश्चेति वा देवकिल्विषः शेषं तथैव, अवर्ण:-अश्लाघा अस-18सू०३५३. दोषोघट्टनमित्यर्थः, अयमर्थोऽन्यत्रैवमुच्यते-नाणस्स केवलीणं धम्मायरिआण सब्बसाहूणं । भासं अवनमाई कि-18 ३५४ बिसियं भावणं कुणइ ।।१॥" इति, [ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्याणां सर्वसाधूनाम् । भाषमाणोऽवर्णादि किस्विपिकी भावनां करोति ॥१॥] इह कन्दर्पभावना नोका चतुःस्थानकत्वादिति, अवसरश्चायमस्या इति सा प्रदर्श्यते-"कंदप्पे कुक्कुइए दवसीले यावि हासणकरे य । विम्हावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥१॥” इति, [कन्दर्पः कन्दर्पकथावान् , कुचितो भाण्डचेष्टः, द्रवशीलो दात् द्रुतगमनभाषणादि, हासनकरो धेषवचनादिना स्वपरहासोत्पादकः विस्मापकःइन्द्रजाली> [कंदपी कुकुचितः द्रुतगामी चापि हासनकरः परं विस्मापयन् (विस्मापक इन्द्रजाली) कंदपी भावनां: करोति ॥१॥] अयश्चापध्वंसः प्रवग्यान्वितस्येति प्रवज्यानिरूपणाय 'चउब्विहा पब्बजे' त्यादि सूत्राटक ~553~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५५] चलम्विहा पयजा पं००-इहलोगपडियद्धा परलोगपटिवद्धा दुहतो लोगपढिबद्धा अप्पडिबद्धा १, चाउम्विहा पध्वजा पं०२०-पुरमोपडिबद्धा मग्गोपडिचद्धा दुहतो पडिबद्धा अपडिवढा २, चउव्विहा पध्वजा पं०२०-ओबायपवजा अक्वातपच्चजा संगारपब्वजा विहगगइपब्बजा ३, चउब्विहा पवजा पं० सं०-यापहत्ता पुयायदत्ता मोयाबदत्ता परिपूयावइत्ता ४, चउब्विहा पन्बज्जा पं० २०-नडखश्या भडखझ्या सीहखड्या सियालक्खया ५, च3विहा किसी पं० सं०-याविया परिवाविया णिदिता परिणिदिता ६, एवामेव चाउम्विहा पध्वजा पं० सं०-यारिता परिवाविता निंदिता परिणिदिता ७, चविहा पन्चजा पं० सं०-धमपुंजितसमाणा धनविरलितसमाणा धन्नविक्खित्त समाणा धनसङ्कट्टितसमाणा ८, (सू०३५५) कण्ठ्यं, किन्तु इहलोकप्रतिवद्धा निर्वाहादिमात्रार्थिनां परलोकप्रतिबद्धा जन्मान्तरकामाद्यर्थिनां विधालोकप्रति बद्धोभयार्थिनां अप्रतिबद्धा विशिष्टसामायिकवतामिति । पुरतः-अग्रतः प्रत्रज्यापर्यायभाविषु शिष्याहारादिषु या प्रतिबद्धा सा तथोच्यते, एवं मार्गतः-पृष्ठतः स्वजनादिषु, विधाऽपि काचित् , अप्रतिबद्धा पूर्ववत् । 'ओवाय'त्ति अवपातः-सद्गुरूणां सेवा ततो या प्रव्रज्या साध्वपातप्रव्रज्या, आख्यातस्य-अत्रजेत्यायुक्तस्य या स्यात् साउंडख्यातप्रवण्या आर्यरक्षितधातुः फल्गुरक्षितस्येवेति, 'संगार'त्ति सङ्केतस्तस्माद्या सा तथा मेतार्यादीनामिव यदिवा यदि वं प्रव्रजसि तदाऽहमपीत्येवं सङ्केततो या सा तथेति, 'विहगगईत्ति विहगगत्या-पक्षिन्यायेन परिवारादिवियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेन च या सा विहगगतिप्रव्रज्या, कचिद् 'विहगपबजेति पाठस्तत्र विहगस्ये दीप अनुक्रम [३८२] SACANCE Hrwasaramorg 'प्रव्रज्या' एवं तस्य भेदा: ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५५] 5- 43 दीप अनुक्रम [३८२] श्रीस्थाना-वेति दृश्यमिति, विहतस्य वा-दारियादिभिररिभिर्वेति । 'तुयावइत्तत्ति तोदं कृत्वा तोदयित्वा-व्यथामुत्पाद्य या प्रवज्या स्थाना ङ्गसूत्र- दीयते, मुनिचन्द्र पुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते, 'उयावइत्त'त्ति क्वचित्पाठस्तत्र ओजो-बलं शारीरं विद्यादिसकं | उद्देशः४ वृत्तिः वा तत्कृत्वा-प्रदय या दीयते सा ओजयित्वेत्यभिधीयते, 'पुयावइत्तत्ति 'प्लुङ् गताविति वचनात् प्लावयित्वा-अन्यत्र || इहलोक नीत्वाऽऽयरक्षितवत्, पूतं वा दूषणव्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वेति, 'वुयावइत्त'त्ति सम्भाष्य गौतमेन कर्षकवत्, प्रतिबद्धा॥२७६॥ वचनं वा पूर्वपक्षरूपं कारयित्वा निगृह्य च प्रतिज्ञावचनं वा कारयित्वा या सा तथोक्ता, कचित् 'मोयावइत्त'त्ति पाठ- दिप्रत्रज्यास्तत्र मोचयित्वा साधुना तैलार्थदासत्वप्राप्तभगिनीवदिति, 'परिवुयावइत्तत्ति घृतादिभिः परिग्नुतभोजनः परिप्लुत एव भेदाः तं कृत्वा परिप्लुतयित्वा मुहस्तिना रडवत् या सा तथोच्यत इति । नटस्येव संवेगविकलधर्मकथाकरणोपार्जितभोजना- सू०३५५ दीनां 'खइय'त्ति खादितं भक्षणं यस्यां सा नटखादिता, नटस्येव वा 'खइव'त्ति संवेगशून्यधर्मकथनलक्षणो हेवाका-स्व-| भायो यस्यां सा तथा, एवं भटादिष्वपि, नवरं भटः तथाविधवलोपदर्शनलब्धभोजनादेः खादिता आरभटवृत्तिलक्षणहेवाको वा सिंहः पुनः शौर्यातिरेकादवज्ञयोपात्तस्य यथारब्धभक्षणेन वा खादिता तथाविधप्रकृतियों शृगालस्तु न्य-1 मृत्योपात्तस्यान्यान्यस्थानभक्षणेन वा खादिता तत्स्वभावो वेति । कृषिः-धान्यार्थ क्षेत्रकर्षणम् , 'वाविय'त्ति सकृद्धान्यवपनवती 'परिवाविय'त्ति द्विस्त्रियं उत्साध्य स्थानान्तरारोपणतः परिवपनवती शालिकृषिवत्, 'निंदिय'त्ति एकदा दाविजातीयतृणाद्यपनयनेन शोधिता निदाता, 'परिनिंदिय'त्ति द्विस्त्रिा तृणादिशोधनेनेति, प्रव्रज्या तु वाविया सामा R||२७६॥ यिकारोपणेन परिवाविया महावतारोपणेन निरतिचारस्य सातिचारस्य वा मूलप्रायश्चित्तदानतः, निन्दिया सकृदतिचा-| SARERatunintainational 'प्रव्रज्या' एवं तस्य भेदा: ~555~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५५] रालोचनेन परिणिंदिया पुनः पुनरिति 'धन्नपुंजियसमाण'त्ति खले लूनपूनविशुद्धपुञ्जीकृतधान्यसमाना सकलातिचारकचवरविरहेण लब्धस्वस्वभावत्वात् एका, अन्या तु खलक एव यद्विरेलितं-विसारितं वायुना पूनमपुजीकृतं धान्य तत्समाना या हि लघुनापि यत्नेन स्वस्वभावं लप्स्यत इति, अन्या तु यद्विकीर्ण-गोखुरक्षुण्णतया विक्षिप्त धान्यं तत्स-12 माना या हि सहजसमुत्पन्नातिचारकचवरयुक्तत्वात् सामय्यन्तरापेक्षितया कालक्षेपलभ्यस्वस्वभावा सा धान्य विकीर्णसमानोच्यते, अन्या तु यत्सङ्कर्षित-क्षेत्रादाकर्षितं खलमानीतं धान्यं तत्समाना या हि बहुतरातिचारोपेतत्वाद् बहुतरकालप्राप्तव्यस्वस्वभावा सा धान्यसङ्कर्षितसमानेति, इह च पुञ्जितादेर्धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वादिति ॥ इयश्च प्रव्रज्या एवं विचित्रा संज्ञावशाभवतीति संज्ञानिरूपणाय सूत्रपश्चर्क चत्तारि सलामो पं० २०-आहारसन्ना भयसन्ना मेहुणसन्ना परिग्गहसन्ना १, चाउदि ठाणेहिं आहारसना समुप्पजति, तं०-भोमकोहताते १ छुहावेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं २ मतीते ३ तदवोवोगेणं ४, २, चर्हि ठाणेहिं भयसन्ना समुपजाति, सं०-दीणसत्तत्ताते भयवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं मतीते तदहोवओगेणं ३, चाहिं ठाणेहिं मेहुणसन्ना समुपज्जति, २०-चितमंससोणिययाए मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मतीते सट्ठोवओगेणं ४, चर्हि ठाणेहिं परिग्गहसना समुपज्जा, तं-अविमुत्तवाए लोभवेयणिजस्स कम्मरस उदएणं मतीते तदहोवओगेणं ५ (सू० ३५६) चाउम्विहा कामा पं० सं०-सिंगारा कलुणा बीभत्सा रोदा, सिंगारा कामा देवाणं कलुणा कामा मणुयाण बीभत्सा कामा तिरिक्खजोणियाणं रोदा कामा रयाणं (सू० ३५७) दीप अनुक्रम [३८२] Alaunciurary.orm संज्ञा एवं तस्य उत्पत्ति: ~556~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३५७] दीप अनुक्रम [३८४] श्रीस्थाना असूत्रवृत्तिः ॥ २७७ ॥ Jan Ecat “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [ ४ ], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ ३५७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'चारी'त्यादि व्यक्तं केवलं संज्ञानं संज्ञा- चैतन्यं तच्चासात वेदनीय मोहनीयकम्मोदयजन्यविकारयुक्तमाहारसंज्ञादिवेन व्यपदिश्यत इति, तत्राहारसंज्ञा- आहाराभिलाषः भयसंज्ञा-भयमोहनीयसम्पाद्यो जीवपरिणामो मैथुनसंज्ञावेदोदयजनितो मैथुनाभिलाषः परिग्रहसंज्ञा - चारित्रमोहोदयजनितः परिग्रहाभिलाप इति, अवमकोष्ठतया - रिक्तोदरतया मत्या - आहारकथाश्रवणादिजनितया तदर्थोपयोगेन सततमाहारचिन्तयेति । हीनसत्त्वतया - सत्त्वाभावेन मतिःभयवार्त्ताश्रवणभीषणदर्शनादिजनिता बुद्धिस्तया तदर्थोपयोगेन- इहलोकादिभयलक्षणार्थपर्यालोचनेनेति । चिते उपचिते | मांसशोणिते यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तया चित्तमांसशोणिततया मत्या- सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेन- मैथुनलक्षणार्थानुचिन्तनेनेति । अविमुक्ततया - सपरिग्रहतया मत्या-सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेन परिग्रहानुचिन्तनेनेति । संज्ञा हि कामगोचरा भवन्तीति कामनिरूपणसूत्रं व्यक्तञ्च, किन्तु कामाः - शब्दादयः, शृङ्गारा देवानां एकान्तिकात्यन्तिकमनोज्ञत्वेन प्रकृष्टरतिरसास्पदत्वादिति, रतिरूपो हि शृङ्गारो, यदाह - "व्यवहारः पुंनार्योरन्योऽन्यं रक्तयोरतिप्रकृतिः शृङ्गारः" इति मनुष्याणां करुणा मनोज्ञत्वस्यातथाविधत्वात्तुच्छत्वेन क्षणदृष्टनष्टत्वेन शुक्रशोणितादिप्रभवदेहाश्रितत्वेन च शोचनात्मकत्वात्, करुणो हि रसः शोकस्वभावः "करुणः शोकप्रकृति"रिति वचनादिति, तिरक्षां बीभत्सा जुगुप्सास्पदत्वात्, बीभत्सरसो हि जुगुप्सात्मको, यदाह - "भवति जुगुप्साप्रकृतिबीभत्सः' इति, नैरयिकाणां रौद्रा-दारुणा अत्यन्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात्, रौद्ररसो हि कोधरूपो, यत आह"रौद्रः क्रोधप्रकृति" रिति । एते च कामाः तुच्छगम्भीरयोर्वाधकेतरा इति तावभिधित्सुः सदृष्टान्तान्यष्टौ सूत्राण्याह संज्ञा एवं तस्य उत्पत्तिः For Parts On ~ 557 ~ १४ स्थाना० उद्देशः ४ संज्ञाः सू० ३५६ कामाः सू० ३५७ ।। २७७ ॥ nirar Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५८] पत्तारि उदगा पं० त०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदए गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए गंभीरे जाममेगे गंभीरोदए १, एवामेष पत्तारि पुरिसजाया पं०२०-उताणे नाममेगे उत्ताणहिदए उचाणे णाममेगे गंभीरहिदए १,२, पत्तारि उद्गा पं० २०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४,३, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४,४, चत्तारि उदही पं० त०उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदही ४,५, एवामेव चत्वारि पुरिसजाता पं० २०-उत्ताणे णामयेगे उत्ताणहियए ४, ६, चत्तारि उही पं० त०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४,७, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-उत्ताणे णाममेगे उचाणोभासी ४, ८ (सू० ३५८) 'चतारी'त्यादीनि व्यक्तानि च, किन्तु उदकानि-जलानि प्रज्ञप्तानि तत्रोत्तानं नामैक तुच्छत्यात प्रतलमित्यर्थः पुनरुसानं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वादुदक-जलम् , उसाणोदयेत्ति व्यस्तोऽयं निर्देशः प्राकृतशैलीक्शात् समस्त इवावभासते, न च मूलोपात्तेनोदकशब्देनायं गतार्थों भविष्यतीति वाच्यम्, तस्य बहुवचनान्तत्वेनेहासम्बद्यमानत्वात्, साक्षादुदकशब्दे च सति किं तस्य वचनपरिणामादनुकर्षणेनेत्येवमुदधिसूत्रेऽपि भावनीयमिति । तथोत्तानं तथैव गम्भीरमुदक-गडुलत्वादनुपलभ्यमानस्वरूपं तथा गम्भीरम्-अगाधं प्रचुरत्वादुत्तानमुदकं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वात् तथा गम्भीरमगायत्वात् पुनर्गम्भीरमुदकं गडुलत्वादिति, पुरुषस्तु उत्तानः अगम्भीरो बहिर्दर्शितमददैन्यादिजन्यविकृतकायवाक्षेष्टत्वादुत्तानहृदयस्तु दैन्यादियुक्तगुह्यधरणासमर्थचित्तस्वादित्येकः अन्य उत्तानः कारणवशाहर्शितविक RECOGESABKAA%ESCR S SISTERSTOREACT दीप अनुक्रम [३८५] PA ~ 558~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३५८] ॥२७८॥ दीप अनुक्रम [३८५] तचेष्टत्वात् गम्भीरहृदयस्तु स्वभावेनोत्तानहृदयविपरीतत्वात् तृतीयस्तु गम्भीरो दैन्यादिवत्त्वेऽपि कारणवशात् संवृता स्थाना० कारतया उत्तानहदयस्तथैव चतुर्थः प्रथमविपर्ययादिति । तथा उत्तानं प्रतलत्वादुत्तानमवभासते स्थानविशेषात् तथो- शार त्तानं तथैव गम्भीरम्-अगाधमवभासते सङ्कीणोश्रयत्वादिना तथा गम्भीरम्-अगाधमुत्तानावभासि तु विस्तीर्णस्थानाश्रय-18 उदकोदस्वादिना । तथा गम्भीरम्-अगाधं गम्भीरावभासि तथाविधस्थानाश्रितत्वादिनैवेति, पुरुषस्तूत्तान:-तुच्छ उचान एवाव |धिसमपुभासते प्रदर्शिततुच्छत्वविकारत्वाद् द्वितीयः संवृतत्वात् तृतीयः कारणतो दर्शितविकारत्वाच्चतुर्थः सुज्ञानः । तथा रुषाः उदकसूत्रद्वयवदुदधिसूत्रद्वयमपि सदार्टान्तिकमवसेयमिति, अथवा उत्तानः सगाधत्वादेक उदधिः-उदधिदेशः पूर्व प सू० ३५८ |श्चादपि उत्तान एव वेलाया बहिःसमुद्रेष्वभावात् द्वितीयस्तुत्तानः पूर्य पश्चाद् गम्भीरो वेलाऽऽगमेनागाधत्वात् तृती तरककु. यस्तु गम्भीरः पूर्व पश्चात् वेलाविगमेनोत्तान उदधिः चतुर्थः सुज्ञानः ॥ समुद्रप्रस्तावात्तत्तरकान् सूत्रद्वयेनाह म्भसमपुचत्तारि तरगा पं० सं०-समुई तरामीतेगे समुदं तरइ समुदं तरामीतेगे गोप्पतं तरति गोप्पतं तरामीतेगे ४,१, चत्तारि रुषाः तरगा पं० सं०-समुई तरित्ता नाममेगे समुद्दे विसीतते समुदं तरेचा णाममेगे गोप्पते विसीतति गोपतितं ४,२ (सू० सू० ३५९३५५) पचारि कुंभा पं० तं-पुन्ने नाममेगे पुन्ने पुन्ने नाममेगे तुच्छे तुच्छे णाममेगे पुग्ने तुच्छे णाममेगे तुच्छे, एवामेष ३६० पत्तारि पुरिसजाया पं० २०-पुन्ने नाममेगे पुन्ने ४, चत्तारि कुंभा पं० त०-पुन्ने नाममेगे पुनोभासी पुग्ने नाममेगे तुम्लोभासी तुच्छे नाममेगे पुन्नोभासी तुच्छे नाममेगे तुच्छोभासी, एवं चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-पुन्ने ॥ २७८॥ णाममेगे पुन्नोभासी ४, चत्तारि कुंभा पं० सं०-पुन्ने नाममेगे पुन्नरूवे पुने नाममेगे तुच्छरूवे ४, एवामेव चत्तारि ॐARHI ~ 559~ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६०] + गाथा १ से ४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६०] गाथा ||१-४|| दीप अनुक्रम [३८७-३९१] R5RW6955-555k पुरिसजाया पं०,०-पुन्ने नाममेगे पुन्नरूवे ४, चत्तारि कुंभा पं० सं०-पुन्नेवि एगे पितढे पुन्नेवि एगे अक्दले तुच्छेवि एगे पियहे तुच्छेवि एगे अवदले, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-पुनेवि एगे पितढे ४, तहेव चत्तारि कुंभा पं००-पुनेवि एगे विस्संदति पुनेवि एगे णो विस्संदति तुच्छेवि एगे विस्संदति तुफछेवि एगे न विस्सदइ, एषामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० ०-पुन्नेवि एगे विस्संदति ४, तहेव चत्तारि कुंभा पं० सं०-भिन्ने जजरिए परिस्साई अपरिस्साइ, एवामेव चउबिहे परित्ते पं० ०-भिन्ने जाय अपरिस्साई, पत्तारि कुंभा पं० २०-महुकुंभे नाम एगे महुप्पिहाणे महुकुंभे णामं एगे विसपिहाणे विसकुंभे नाम एगे महुपिहाणे विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-महुकुंभे नाम एगे मधुपिहाणे ४-हिययमपावमकलुसं जीहाऽपि य महरभासिणी निथं । जमि पुरिसंमि विजति से मधुकुंभे मधुपिहाणे ॥१॥ हिययमपावमकलुसं जीहाऽवि य कडयभासिणी निचं । जंमि पुरिसंमि विजति से मधुकुंभे विसपिहाणे ॥२॥ जं हिययं कलुसमयं जीहाऽपि य मधुरभासिणी निधं । जमि पुरिसंमि विजति से विसकुंभे महुपिहाणे ॥ ३ ॥ जं हिययं कलुसमयं जीहाऽपि य कडुयभासिणी निचं । अंमि पुरिसंमि विजति से विसकुंभे विसपिदाणे ॥ ४ ॥ (सू० ३६०) 'चत्तारि तरगे'त्यादि व्यक्तं, नवरं तरन्तीति तराः त एव तरका, समुद्र-समुद्रबहुस्तरं सर्वविरत्यादिकं कार्य तरामि -करोमीत्येवमभ्युपगम्य तत्र समर्थत्वादेकः समुद्रं तरति-तदेव समर्थयतीत्येकः, अन्यस्तु तदभ्युपगम्यासमर्थत्वात् गोष्पदं-तत्कल्पं देशविरत्यादिकमल्पतमं तरति-निर्वाहयतीति, अन्यस्तु गोष्पदप्रायमभ्युपगम्य वीर्यातिरेकात् समुद्र Brainram.org ~ 560~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३६०] गाथा ॥१-४॥ दीप अनुक्रम [३८७ -३९१] श्रीस्थाना सूत्र ४ स्थाना० प्रायमपि साधयतीति चतुर्थः प्रतीतः १ । समुद्रप्रायं कार्य तरीखा निर्वाह्य समुद्रप्राये प्रयोजनान्तरे विषीदति-न तन्नि ।। २७९ ।। रुषाः र्वाहयतीति विचित्रत्वात् क्षयोपशमस्येति, एवमन्ये त्रय इति २ । पुरुषानेव कुम्भदृष्टान्तेन प्रतिपिपादयिषुः सूत्रप्रपञ्चमाह- १ उद्देशः ४ ४ सुगमश्चायं, नवरं पूर्णः सकलावयवयुक्तः प्रमाणोपेतो वा पुनः पूर्णो-मध्वादिभृतः द्वितीये भने तुच्छो-रिक्तः, तृतीये ४ उदकोद* तुच्छः- अपूर्णावयवो लघुर्वा, चतुर्थः सुज्ञानः, अथवा पूर्णो भृतः पूर्व पचादपि पूर्ण इत्येवं चत्वारोऽपि १, पुरुषस्तु पूणों घिसमपुजात्यादिभिर्गुणैः पुनः पूर्णो ज्ञानादिभिरिति अथवा पूर्णो धनेन गुणैर्वा पूर्व पश्चादपि तैः पूर्ण एवेत्येवं शेषा अपि २, पूर्णोऽवयवैर्दध्यादिना वा पूर्ण एवावभासते द्रष्टृणामिति पूर्णावभासीत्ये कोऽन्यस्तु पूर्णोऽपि कुतश्चिद्धेतोर्विवक्षितप्रयो- २ तरककुजनासाधकत्वादेस्तुच्छोऽव भासते, एवं शेष ३ । पुरुषस्तु पूर्णो घनश्रुतादिभिस्तद्विनियोगाच्च पूर्ण एवावभासते, अम्भसमपुन्यस्तु तदविनियोगात्तुच्छ एवावभासते, अन्यस्तु तुच्छोऽपि कथमपि प्रस्तावोचितप्रवृत्तेः पूर्णवदवभासते, अपरस्तुच्छोधनश्रुतादिरहितोऽत एव तदविनियोजकत्वात् तुच्छावभासीति ४ । तथा पूर्णो नीरादिना पुनः पूर्ण पुण्यं वा पवित्रं रूपं यस्य स तथेति प्रथमो द्वितीये तुच्छं हीनं रूपम्-आकारो यस्य स तुच्छरूपः, एवं शेष ५ । पुरुषस्तु पूर्णो ज्ञानादिभिः पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा विशिष्टर जोहरणादिद्रव्यलिङ्गसद्भावात् सुसाधुरिति द्वितीयभङ्गे तुच्छरूपः कारणात्यतलिङ्गः सुसाधुरेवेति तृतीये तुच्छो ज्ञानादिविहीनो निह्वादिश्चतुर्थो ज्ञानादिद्रव्यलिङ्गहीनो गृहस्थादिरिति ६ । तथा पूर्णस्तथैव अपिस्तुच्छापेक्षया समुच्चयार्थः एकः कश्चित् प्रियाय- प्रीतये अयमिति प्रियार्थः कनकादिमयत्वात् सार इत्यर्थः, तथा अपदलम् - अपशदं द्रव्यं कारणभूतं मृत्तिकादि यस्यासावपदलः अवदलति वा दीर्यत इत्यवदलः आमप “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [ ४ ], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ ३६० ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वृत्तिः Education Internationa For Parts Only ~ 561~ रुषाः सू० ३६० ॥ २७९ ॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६०] गाथा ||१-४|| दीप अनुक्रम [३८७-३९१] कतयाऽसार इत्यर्थः, तुच्छोऽप्येवमेवेति । पुरुषो धनश्रुतादिभिः पूर्णः प्रियार्थः कश्चिनियवचनदानादिभिः प्रियकारी सार इति, अन्यस्तु न तथेत्यपदलः परोपकारं प्रत्ययोग्य इति, तुच्छोऽप्येवमेवेति ८. पूर्णोऽपि जलादेविष्यन्दते-श्रवति, इह तुच्छ:-तुच्छजलादिः स एव विष्पन्दते, अपिः सर्वत्र समुच्चये प्रतियोग्यपेक्षयेति ९ पुरुषस्तु पूर्णोऽप्येको विप्यन्दते-धनं ददाति श्रुतं वा अन्यो नेति तुच्छोऽपि-अल्पवित्तादिरपि धनश्रुतादि विष्यन्दतेऽन्यो नैवेति १० तथा भिन्नः-स्फुटितः जर्जरितो-राजीयुक्तः परिश्रावी-दुष्पकत्वात् क्षरकः अपरिश्रावी कठिनत्वादिति ११ । चारित्रं तु भिन्न मूलप्रायश्चित्तापत्या जर्जरितं छेदादिमाप्त्या परिस्रावि सूक्ष्मातिचारतया अपरिस्रावि निरतिचारतयेति, इह च पुरुषा-1 धिकारेऽपि यच्चारित्रलक्षणपुरुषधर्मभणनं तद्धर्माधर्मिणोः कथञ्चिदभेदादनवद्यमवगन्तव्यमिति १२ । तथा मधुन:-क्षी-| द्रस्य कुम्भो मधुकुम्भो मधुभृतं मध्वेव वा पिधान-स्थगनं यस्य स मधुपिधानः एवमन्ये त्रयः १३ । पुरुषसूत्रं स्वयमेव "हिय'मित्यादिगाथाचतुष्टयेन भावितमिति, तत्र हृदयं-मनः अपापम्-अहिंस्रमकलुषम्-अप्रीतिवर्जितमिति, जिह्वाऽपि च मधुरभाषिणी नित्यं यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो मधुकुम्भ इव मधुकुम्भो मधुपिधान इव मधुपिधान इति प्रथमभङ्गयोजना, तृतीयगाथायां यत् हृदयं कलुषमयम्-अनीत्यात्मकमुपलक्षणत्वात् पापं च जिह्वा या मधुरभाषिणी नित्यं तत्सा चेति गम्यते यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो विषकुम्भो मधुपिधानस्तरसाधम्योंदिति १४ । अत्र च चतुर्थः पुरुष उपसर्गकारी स्यादित्युपसर्गप्ररूपणाय 'चरब्विहा उबसग्गे'त्यादि सूत्रपशकमाह चउबिहा उनसग्गा पं० त०-दिव्या माणुसा तिरिक्खजोणिया आयसंचयणिजा १, दिव्वा उपसग्गा चउम्विहा पं० *AKADCASSES उपसर्ग एवं तस्य भेदा: ~562~ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३६१] दीप अनुक्रम [३९२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ २८० ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [ ४ ], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] मूलं [ ३६१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः *%* % सं० - दासा पाओसा वीमंसा पुढोवेमाता २, माणुस्सा उवसग्गा चढविधा पं० वं० - हासा पाओसा वीमंसा कुखीउपडि सेवणया ३, तिरिक्खजोणिया उवसग्गा चढव्विा पं० तं० भता पदोसा आहारहेडं अवचलेणसारक्खणया ४, आतसंचैवणिजा उवसग्गा चढवा पं० [सं० पट्टणता पवडणता थंभणता लेसणता ५ ( सू० ३६१ ) कण्ठ्यचेदं, नवरमुपसर्जनान्युपसृज्यते वा-धर्म्मात् प्रच्याव्यते जन्तुरेभिरुपसर्गा-बाधाविशेषाः, ते च कर्तृभेदाच्चतु बिंधाः, आह च--" उवसज्जणमुवसग्गो तेण तओ य उवसिजए जम्हा । सो दिव्यमणुयतेरिच्छ आय संवेयणाभेओ || १||” इति, [उपसर्जनमुपसर्गः येन यतो वोपसृज्यते यस्मात् स दिव्यमानुजतैर्यगात्मसंवेदनाभेदः ॥ १ ॥ ] आत्मना संचेत्यन्ते - क्रियन्त इत्यात्मसंचेतनीयाः, तत्र दिव्या ह्रासति -हासाद्भवन्ति हाससम्भूतत्वाद्वा हासा उपसर्ग एवेत्येवमन्यत्रापि, यथा भिक्षार्थं ग्रामान्तरप्रस्थितल कैर्व्यन्तर्या उपयाचितं प्रतिपन्नं यदीप्सितं लप्स्यामहे तदा तवोण्डेरकादि दास्याम इति, लब्धे च तत्र तवेदमिति भणित्वा तदुण्डेरकादि तैः स्वयमेव भक्षितं देवतया च हासेन तद्रूपमावृत्य क्रीडितं अनागच्छत्सु च झुलकेषु व्याकुले गच्छे निवेदितमाचार्याणां देवतया शुलकवृत्तं, ततो वृषभैरुण्डेरकादि याचित्वा तस्यै दत्तं तथा तु ते दर्शिता इति, प्रद्वेषाद्यथा सङ्गमको महावीरस्योपसर्गानकरीत्, | विमर्षात् यथा क्वचिद्देवकुलिकायां वर्षा सूषित्वा साधुषु गतेषु तदीय एवान्यः पश्चादागतस्तत्रोषितः तं च देवता किं स्वरूपोऽयमिति विमर्षादुपसर्गितवतीति, पृथग्-भिन्ना विविधा मात्रा -हासादिवस्तुरूपा येषु ते पृथग्विमात्रा अथवा पृथग्- विविधा मात्रा विमात्रा तया इत्येतततृतीयैकवचनं पदं दृश्यं तथाहि हासेन कृत्वा प्रद्वेषेण करो Education Internationa उपसर्ग एवं तस्य भेदा: For Pale Only ~563~ ४ स्थाना० उद्देशः ४ उपसर्गाः सू० ३६१ ॥ २८० ॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६१] दीप अनुक्रम [३९२]] SSSSSCk C2452-2240 तीत्येवं संयोगाः, यथा सङ्कमक एव विमर्षेण कृत्वा प्रद्वेषेण कृतवानिति, तथा मानुष्या हासात् यथा गणिका-1 दुहिता क्षुल्लकमुपसर्गितवती सा च तेन दण्डेन ताडिता विवादे च राज्ञः श्रीगृहदृष्टान्तो निवेदितस्तेनेति, प्रद्वेषाद्यथा गजसुकुमारः सोमिल ब्राह्मणेन व्यपरोपितः, विमर्षाद्यथा चाणक्योक्तचन्द्रगुप्तेन धर्मपरीक्षार्थ लिङ्गिनोडन्तःपुरे धर्ममाख्यापिताः क्षोभिताश्च साधवस्तु क्षोभितुं न शकिता इति, कुशीलम्-अब्रह्म तस्य प्रतिषेवणं कुशीलप्रतिषेवणं तद्भावः कुशीलप्रतिषेवणता उपसर्गः कुशीलस्य वा प्रतिषेवणं येषु ते कुशीलप्रतिषेवणकाः अथवा कुशीलप्र|तिषेवणयेति व्याख्येयं, यथा सन्ध्यायां वसत्यर्थं प्रोषितस्येालोहे प्रविष्टः साधुश्चतसृभिरीालुजायाभिर्दत्तावासः प्रत्येक चतुरोऽपि यामानुरुपसम्गितो न च क्षुभितः, तथा तैरश्चा भयात् श्वादयो दशेयुः प्रद्वेषाचण्डकौशिको भगवन्तं दष्टवान् आहारहेतोः सिंहादयः अपत्यलयनसंरक्षणाय काक्यादय उपसर्गयेयुरिति, तधा आत्मसंचेतनीयाः घट्टनता घट्टनया वा यथाऽक्षिणि रजः पतितं ततस्तदक्षि हस्तेन मलितं दुःखितुमारब्धमधवा स्वयमेवाक्षिणि गले वा मांसाङ्करादि जातं घट्टयतीति प्रपतनता प्रपतनया चा यथा अप्रयलेन सञ्चरतः प्रपतनात् दुःखमुखद्यते स्तम्भनता स्तम्भनया वा यथा तावदुपविष्टः स्थितो यावत् सुप्तः पादादिः स्तब्धो जातः श्लेषणता श्लेषणया वा यथा पादमाकुच्य स्थितो वातेन तथैव पादो लगित इति, भवन्ति चात्र गाधा:-"हास १ पदोस २ वीमंसओ ३ विमायाय ४ वा भवे दिग्दो । एवं चिय माणुस्सो कुसीलपडिसेवणचउत्थो॥१॥ तिरिओ भय १ प्पओसा २ ऽऽहारा ३ ऽवच्चादिरक्खणत्थं वा ४॥ घट्टण १ धंभण २ पवडण ३ लेसणओ वाऽऽयसंचेओ४॥२॥ दिव्यंमि वंतरी १ संगमे २ गजइ ३ छोभणादीया ४ ल उपसर्ग एवं तस्य भेदा: ~564~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३६१] दीप अनुक्रम [३९२] श्रीस्थाना झसूत्रवृत्तिः ॥ २८१ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [४]. स्थान [४], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton Intentional उपसर्ग एवं तस्य भेदा: - [ इत्युत्तरार्द्ध >, गणिया १ सोमिल २ धम्मोवएसणे ३ साल्लुजोसियाईया ४ । तिरियंमि साण १ कोसिय २ सीहा अचिरसूवियगवाई ॥ ३ ॥ कणुग १ कुडणा २ भिपयणाइ ३ गत्तसंलेसणादओ ४ नेया । आओदाहरणा काय १ वित्त २ कफ ३ सन्निवाया व "ति ॥ ४ ॥ [हास्यात्प्रद्वेषाद्विमर्शाद्विमात्रातो वा भवेद्दिव्यः । एवमेव मानुष्यः कुशीलप्रतिपेवनाचतुर्थः ॥ १ ॥ तैरश्चः भयात्मद्वेषादाहारादपत्यरक्षणार्थं वा । घट्टनस्तंभनप्रपतनसंलेषणतो वाऽऽत्मसंवेदः ॥ दिव्ये व्यन्तरी संगम एकयतिलोभन्यादिका (क्षोभणादिकाः) । मानुष्ये गणिकासोमिलधर्मोपदेश केर्ष्यालुयोषिदादयः ॥ तैरवीने श्वक शिकसिंहाचिरप्रसूतगवादिकाः । कणकुट्टनाभिपतनगर्तासंलेषणादयो ज्ञेयाः ॥ आत्मोदाहरणानि वातपित्तकफसनिवाता वा] उपसर्गसहनात् कर्म्मक्षयो भवतीति कर्म्मस्वरूपप्रतिपादनायाह मूलं [३६१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः कम्मे पं० [सं० सुभे नाममेगे सुभे सुभे नाममेगे असुभे असुभे नाम ४, १, चडब्बिहे कम्मे पं० सं०सुभे नाममेगे सुभविवागे सुभे णाममेगे असुभविवागे असुभे नाममेगे सुभविचागे असुभे नाममेगे असुभविवागे ४, २, चउन्विद्दे कम्मे पं० [सं० पगडीकम्मे ठितीकम्मे अणुभावकम्मे पदेसकम्मे ४, ३, (सू० ३६२) चडब्बिहे संघे पं० सं० - समणा समणीओ सावगा सावियाओ (सू० ३६३) चउब्विहा बुद्धी पं० तं० उप्पत्तिता वेणतिता क म्मिया पारिणामिया, डब्वधा मई पं० [सं० उगमती ईहामती अवायमई धारणामती, अथवा चउब्विद्दा मती पं० तं ० अरंजरोद्गसमाणा वियरोदयसमाणा सरोद्गसमाणा सागरोदगसमाणा (सू० ३६४ ) चडव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पं० [सं० रइता तिरिक्खजोणीवा मणुस्सा देवा, चव्विा सवजीवा पं० तं० मणजोगी For Parts Only ~ 565 ~ ४ स्थाना० उद्देशः ४ कर्मसङ्घः ि जीवाः सू० ३६२३६५ ।। २८१ ॥ ayor Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६५] दीप बइजोगी कायजोगी अजोगी अहवा चउब्विहा सन्बजीषा पं० सं०-इस्थिषेवगा पुरिसवेदगा गपुंसकवेदगा अवेवगा। अथवा पब्बिहा सव्वजीवा पं० ०-चक्खुदंसणी अचक्खुदसणी ओहिसणी केवलदसणी अहवा चउम्विहा स बजीवाणं तं०-संजया असंजया संजयासंजया णोसंजयाणोअसंजया (सू०३६५) चबिहें'त्यादि सूत्रत्रयं व्यकं, नवरं क्रियत इति कर्म ज्ञानावरणीयादि तत् शुभ-पुण्यप्रकृतिरूपं पुनः शुभशुभानुवन्धित्वात् भरतादीनामिव, शुभं तथैवाशुभमशुभानुवन्धित्वात् ब्रह्मदत्तादीनामिव अशुभ-पापप्रकृतिरूपं शुभं| शुभानुबन्धित्वात् दुःखितानामकामनिर्जरावतां गवादीनामिव अशुभं तथैव पुनरशुभमशुभानुबन्धिस्चात् मत्स्यबन्धा दीनामिवेति । तथा शुभं सातादि सातादित्वेनैव वद्धं तथैवोदेति यत्तत् शुभविपाकं यत्तु बद्धं शुभत्वेन सङ्क्रामकरणवBाशातदेत्यशुभत्वेन तद् द्वितीय, भवति च कर्मणि कर्मान्तरानुप्रवेशः, सङ्कमाभिधानकरणवशाद्, उक्तश्च-"मूलप्रकृत्यभिन्नाः सङ्कमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः। नन्वात्माऽमूर्त्तत्वादध्यवसानप्रयोगेण ॥१॥” इति, तथा मतान्तरम्"मोसूण आउयं खलु दंसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पयडीणं उत्तरविहिसंकमो भणिओ ॥१॥"[आयुर्दर्शनमोह चारित्रमोहमेव च मुक्त्वा शेषाणां प्रकृतीनामुत्तरविधिसंक्रमो भणितः॥१॥] यद्दद्धमशुभतयोदेति च शुभतया तत्तृतीयं चतुर्थं प्रतीतमिति, तृतीयं कर्मसूत्रमत्रत्यद्वितीयोदेशकबन्धसूत्रवज्ञेयमिति । चतुर्विधकर्मस्वरूपं सङ्घ एव वित्तीति सहसूत्रं, स च सर्वविद्वचनसंस्कृतबुद्धिमानिति बुद्धिसूत्रं, बुद्धिश्च मतिविशेष इति मतिसूत्रे, सुगमानि। चैतानि, नवरं सगे-गुणरत्नपात्रभूतसत्वसमूहा, तब श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रमणाः अथवा सह मनसा शोभनेन| SAE%E0*904SMARA%***** अनुक्रम [३९६] 'कर्म' व्याख्या एवं तस्य शुभ-अशुभ रुपेण भेदा:, ~566~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना - ङ्गसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥२८२॥ [३६५] ROCEARC दीप निदानपरिणामलक्षणपापरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसस्तथा समान-स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते स्थाना. समनसः, उक्तश्च-"तो समणो जद सुमणो भावेण य जइन होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो समो य उद्देशा४ माणावमाणेसुं ॥१॥" [तदा श्रमणः यदि सुमना: भावेन यदि न भवति पापमनाः । स्वजने जने च समः समश्च| कर्मसङ्कः मानापमानयोः॥१॥] अथवा समिति-समतया शत्रुमित्रादिष्वणन्ति-प्रवर्त्तन्त इति समणाः, आह च-"नस्थित बुद्धि य सि कोइ वेसो पिओ व सब्वेसु चेब जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ॥१॥" [नास्ति । जीवा च तस्य कोऽपि द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वपि जीवेषु । एतेन भवति समनाः एषोऽन्योऽपि पर्यायः॥१॥] इति, सू०३६५ प्राकृततया सर्वत्र समणत्ति, एवं समणीओ, तथा शृण्वन्ति जिनवचन मिति श्रावकार, उक्तश्च-"अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धसम्पत् , परं समाचारमनुप्रभातम् । शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावक माहुरमी जिनेन्द्राः ॥१॥” इति, अथवा श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति-गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनवीजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति-क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति कास्ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति, यदाह-"श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादथापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥१॥” इति, एवं श्राविका अपीति, तथा उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, ननु क्षयोपशमः कारणमस्याः, सत्यं, किन्तु स खल्वन्तरङ्गत्वात्सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, अपि च-बुज्युत्पादा ला॥२८२॥ पूर्व स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतो मनसाऽप्यनालोचितस्तस्मिन्नेव क्षणे यथावस्थितोऽर्थो गृह्यते यया सा लोकद्वयाविरुद्ध अनुक्रम [३९६] श्रमण, समिति, श्रावक आदि शब्दस्य व्याख्या, 'बुध्धि' तस्या: भेदा: ~567~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६५] दीप कान्तिकफलवती बुद्धिरीसत्तिकीति, यदाह-"पुवमदिद्वमसुयमवेइयतक्खणविसुद्धगहियत्था । अब्बाहयफलजोगा बुद्धी उप्पत्तियानाम ॥१॥" इति, [पूर्वमहष्टाश्रुतज्ञातस्य तत्क्षणे गृहीतविशुद्धार्थी । अव्याहतफलयोगवती औत्पातिकी नानी बुद्धिः॥१॥] नटपुत्ररोहकादीनामिवेति, तथा विनयो-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा ४ बैनयिकी, अपिच-कार्यभरनिस्तरणसमर्था धर्मार्थकामशास्त्राणां गृहीतसूत्रार्थसारा लोकद्वयफलवती चेयमिति, यदाह |-"भरनित्थरणसमस्या तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेयाला । उभओ लोगफलवती विणयसमुत्था हवइ बुद्धि ॥१॥ त्ति, भिरनिस्तरणसमर्था गृहीतत्रिवर्गशाखसूत्रार्थसारा । उभयलोकफलवती विनयसमुत्था भवति बुद्धिः॥१॥] नैमि त्तिकसिद्धपुत्रशिष्यादीनामिवेति, अनाचार्य कर्म साचार्य शिल्पं कादाचित्कं वा कर्म नित्यब्यापारस्तु शिल्पदिमिति, कर्मणो जाता कर्मजा, अपिच-कर्माभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्था कर्माभ्यासविचाराभ्यां विस्तीर्णा प्रशंसा फलवती चेति, यदाह-"उपओगदिवसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुकारफलवती कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी | ॥१॥” इति [उपयोगष्टसारा कर्मप्रसंगपरिघोलनविशाला । साधुकारफलवती कर्मसमुत्था भवति बुद्धिः॥१॥] हरण्यककर्षकादीनामिवेति, परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः स प्रयोजनमस्यास्तप्रधाना वेति | पारिणामिकी, अपिच-अनुमानकारणमात्रदृष्टान्तः साध्यसाधिका बयोविपाके च पुष्टीभूता अभ्युदयमोक्षफला चेति, यदाह-"अणुमाणहेउदिढतसाहिया वयविवागपरिणामा । हियनिस्सेसफलवई बुद्धी परिणामिया नाम ॥१॥” इति | [[अनुभानहेतुरष्टान्तसाधिका धयोविपाकपरिणामा। हितनिःश्रेयसफलवती बुद्धिः पारिणामिकीनानी ॥१॥] अभयकु-1 अनुक्रम [३९६] 'बुध्धि' तस्याः भेदा: ~ 568~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- उद्देशः४ वृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥२८ ॥ बुद्धिः [३६५] दीप मारादीनामिवेति । तथा मननं मतिः तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपादेः अब इति-प्रथमतो ग्रहण- स्थाना. परिच्छेदनमवग्रहः स एव मतिरवग्रहमतिरेवं सर्वत्र, नवरं तदर्थविशेषालोचनमीहा प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽयायः अवगतार्थविशेषधरणं धारणेति, उक्तश-"सामन्नत्वावगहणमोग्गहो भेयमग्गणमिहेहा । तस्सावगमोऽवाओ अविचुई कर्मस धारणा तस्स ॥१॥” इति । [सामान्येनार्थावग्रहणमवग्रहो भेदमार्गणमिहेहा तस्यावगमोऽवायोऽविच्युतिर्धारणा तस्य ॥१॥] तथा अरञ्जरम्-उदकुम्भो अलञ्जरमिति यत्प्रसिद्धं तत्रोदकं यत्तत्समाना प्रभूतार्थग्रहणोक्षणधरण-18 जीवाः सामर्थ्याभावेनाल्पत्वादस्थिरत्वाच, अरञ्जरोदकं हि सङ्क्षिप्तं शीनं निष्ठितं चेति, विदरो-नदीपुलिनादौ जलार्थोंसू०३६५ गर्तः तत्र यदुदकं तत्समाना अल्पत्वादपरापरार्थोहनमात्रसमर्थत्वात् झगिति अनिष्ठितत्वाच, तदुदकं ह्यल्पं तथाऽपरापरमल्पमल्प स्यन्दते, अत एव क्षिप्रमनिष्ठितश्चेति, सरउदकसमाना तु विपुलत्वाद्वहुजनोपकारित्वादनिष्ठितस्वाच्च प्रायः सरोजलस्याप्येवंभूतत्वादिति, सागरोदकसमाना पुनः सकलपदार्थविषयत्वेनात्यन्तविपुलत्वादक्षयत्वादलब्धमध्यत्वाच, सागरजलस्यापि ह्येवंभूतत्वादिति । यथोक्तमतिमन्तो जीवा एव भवन्तीति जीवसूत्राणि पञ्च व्यक्तानि चैताने, नवरं मनोयोगिनः-समनस्का योगत्रयसभावेऽपि तस्य प्राधान्यादेवं वाग्योगिनो द्वीन्द्रियादयः काययोगिन एकेन्द्रिया अ योगिनो-निरुद्धयोगाः सिद्धाश्चेति । अवेदका:-सिद्धादयः । चक्षुषः सामान्यार्थग्रहणमवग्रहहारूपं दर्शनं चक्षुर्दर्शनं तद्वसान्तश्चतुरिन्द्रियादयः, अचक्षुः-स्पर्शनादि तदर्शनवन्त एकेन्द्रियादय इति । संयता:-सर्वविरताः असंयता-अविरताः सं-1॥२८॥ यतासंयता-देशविरताः जयप्रतिषेधवन्तः सिद्धा इति ॥ जीवाधिकाराजीवविशेषान् पुरुषभेदान् चतुःसूत्र्याऽऽह अनुक्रम [३९६] 'बुध्धि' तस्याः भेदा: ~ 569~ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६६] दीप चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-मिते नाममेगे मित्ते मित्ने नाममेगे अमित्ते अमिते नाममेगे मित्ते अमित्ते णाममेगे अमिते १, पत्तारि पुरिसजाया पं० २०-मित्ते णाममेगे मित्तरूवे च उभंगो, ४, २, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-मुत्ते णाममेगे मुले मुत्ते णाममेगे अमुत्ते, ४, ३, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-मुत्ते णाममेगे मुत्तरूवे ४,४, (सू०३६६) पंचिंवियतिरिक्सजोणिया चउगईया चउआगईया पं० त०-पंचिदियतिरिक्खजोणिया पंचिदियतिरिक्खजोणिपसु पववजमाणा रहएहितो वा तिरिक्ख जोणिपहिंतो वा मणुस्सेहितो वा देवेहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चेवणं से पंकिंदियतिरिक्खजोगिए पचिंबियतिरिक्खजोणियतं विप्पजहमाणे गैरइत्तत्ताए वा जाव देवत्ताते वा उवागच्छजा, मणुस्सा चजगईआ पउआगतिता, एवं चेव मणुस्सावि (सू० ३६७) बेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स चउविहे संजमे कजति, तं-जिन्भामयातो सोक्खातो अववरोवित्ता भवति, जिन्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति, फासमयातो सोक्खातो अवबरोवेत्ता भवद एवं चेव ४, बेईदियाणं जीवा समारभमाणस्स चउविधे असंजमे कजाति, सं०-जिभामयातो सोक्खाओ ववरोवित्ता भवति, जिब्भामतेणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवति, फासामयातो सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ (सू० ३६८) सम्मरिद्विताणं णेरइयाणं चत्तारि किरियाओ पं० सं०-आरंभिता परिग्गहिता मातावत्तिया अपचक्खाणकिरिया, सम्मदिद्विताणमसुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओ पं० सं०-एवं घेव, एवं विगलिवियवजं जाच वेमाणियाणं (सू० ३६९) चाहिं ठाणेहिं संते गुणे नासेजा, तं०-कोहेणं पडिनिसेवेणं अकयण्णुयाए मिल्छत्ताभिनिवेसेणं । चहि ठाणेहिं संते गुणे दीवेजा तंजहा-अब्भासवत्तितं परच्छंदाणुवत्तिसं काहे कतपतिकतितेति वा, अनुक्रम [३९७] ~570~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः [३७०] ॥२८४ ॥ दीप अनुक्रम [४०१] OLCANCHAR (सू०३७०) णेरइयाणं चाहिं ठाणेहि सरीरुप्पत्ती सिवा, तंजहा–कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं जाव वेमाणि ४ स्थाना. याणं, रक्ष्याणं चाहिं ठाणेहिं निब्बत्तिते सरीरे पं० तं०-कोहनिबत्तिए जाव लोभनियत्तिए, एवं जाव बेमाणि उद्देशः ४ याणं (सू० ३७१) मित्रपश्चे'चत्तारीत्यादि, स्पष्टा चेयं, नवरं मित्रमिहलोकोपकारित्वात्पुनर्मित्रं-परलोकोपकारित्वात्सद्गुरुवत्, अन्यस्तु मित्रंन्द्रियनरस्नेहवत्त्वादमित्र परलोकसाधनविध्वंसात्कलत्रादिवत् , अन्यस्त्वमित्रः प्रतिकूलत्वान्मित्रं निर्वेदोत्पादनेन परलोकसाधगत्यागातनोपकारकत्वादविनीतकलनादिवच्चतुर्थोऽमित्रः प्रतिकूलत्वात् पुनरमित्रः सङ्क्लेशहेतुत्वेन दुर्गतिनिमित्तत्वात् , पूर्वापर-18 द्वींद्रिया कालापेक्षया वेदं भावनीयमिति । तथा मित्रमन्तःस्नेहवृत्त्या मित्रस्यैव रूपम्-आकारो बाह्योपचारकरणात् यस्य स संयमेतर Xसम्यग्हुमित्ररूप इति एको, द्वितीयोऽमित्ररूपो बाह्योपचाराभावात् तृतीयः अमित्रः स्नेहवर्जितत्वादिति चतुर्थः प्रतीतः । तथा| ष्टिक्रिया | मुक्त:-त्यक्तसङ्गो द्रव्यतः पुनर्मुक्तो भावतोऽभिष्वङ्गाभावात् सुसाधुवत्, द्वितीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वात् रङ्गवत् । गुणनाशतृतीयोऽमुक्तो द्रव्यतः भावतस्तु मुक्को राज्यावस्थोत्पन्नकेवलज्ञानभरतचक्रवर्तिवत् , चतुर्थो गृहस्था, कालापेक्षया वेद तनूत्पादा दृश्यमिति । मुक्को निरभिष्वङ्गतया मुक्तरूपो वैराग्यपिशुनाकारतया यतिरिवेत्येको द्वितीयोऽमुक्तरूप उक्तविपरीतत्वाद् सू०३६६. गृहस्थावस्थायां महावीर इव तृतीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वाच्छठयतिवच्चतुर्थो गृहस्थ इति । जीवाधिकारिकं पञ्चेन्द्रियातियेग्मनुष्यसूत्रद्वयं सुगम, एवं द्वीन्द्रियसूत्रद्वयमपि, नवरं द्वीन्द्रियात् जीवान् असमारभमाणस्य-अव्यापादयतः, २८४॥ |जिह्वाया विकारो जिह्वामयं तस्मात् सौख्याद्-रसोपलम्भानन्दरूपादव्यपरोपयिता-अभ्रंशयिता, तथा जिह्वामयं-जिह्व-! ~571~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३७१] दीप अनुक्रम [४०२] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [ ४ ], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] Education Internation न्द्रियहानिरूपं यद् दुःखं तेना संयोजयितेति । जीवाधिकारादेव सम्यग्दृष्टिजीवक्रियासूत्राणि सुगमानि चैतानि, नवरं सम्यग्दृष्टीनां चतस्रः क्रिया मिथ्यात्वक्रियाया अभावात्, एवं 'विगलिंदियवज्जं'ति, एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पञ्चापि, तेषां मिथ्यादृष्टित्वात्, द्वीन्द्रियादीनाञ्च सासादनसम्यक्त्व स्यात्पत्वेनाविवक्षितत्वादिति, एवं चेह विकलेन्द्रियवर्जनेन षोडश क्रियासूत्राणि वैमानिकान्तानि भवन्तीति । अनन्तरं क्रिया उक्तास्तद्वांश्च सद्भूतान् परगुणान् नाशयति प्रकाशयति चेत्येवमर्थ सूत्रद्वयं तच्च सुगमं, नवरं सतो -विद्यमानान् गुणान् नाशयेदिव नाशयेत् अपलपति न मन्यते, क्रोधेन| रोषेण तथा प्रतिनिवेशेन-एष पूज्यते अहं तु नेत्येवं परपूजाया असहनलक्षणेन कृतमुपकारं परसम्बन्धिनं न जानातीत्यकृतज्ञस्तद्भावस्तत्ता तया मिथ्यात्वाभिनिवेशेन-बोधविपर्यासेन, उक्तञ्च -- “रोसेण पडिनिवेसेण तहय अकवण्णुमिच्छभावेणं । संतगुणे नासिता भासइ अगुणे असंते वा ॥ १ ॥” इति [रोपेण प्रतिनिवेशेन तथैवाकृतज्ञतया मिथ्याभावेन च सतो गुणान्नाशयित्वाऽसतो दोषान् भाषते ॥ १ ॥ ] असत:- अविद्यमानान् क्वचित्संतेत्ति पाठस्तत्र च सतो -विद्य मानान् गुणान् दीपयेत् वदेदित्यर्थः, अभ्यासो हेवाको वर्णनीयासन्नता वा प्रत्ययो - निमित्तं यत्र दीपने तदभ्यासप्रत्ययं दृश्यते ह्यभ्यासान्निर्विषयापि निष्फलापि च प्रवृत्तिः, सन्निहितस्य च प्रायेण गुणानामेव ग्रहणमिति, तथा परच्छन्दस्य- पराभिप्रायस्यानुवृत्तिः- अनुवर्त्तना यत्र तसरच्छन्दानुवृत्तिकं दीपनमेव, तथा कार्यहेतोः- प्रयोजननिमित्तं चकीर्षितकार्य प्रत्यानुकूल्यकरणायेत्यर्थः तथा कृते-उपकृते प्रतिकृतं प्रत्युपकारः तद्यस्यास्ति स कृतप्रतिकृतिकः 'इति वा' कृतप्रत्युपकर्त्तेतिहेतोरित्यर्थः, अथवा कृतप्रतिकृतये इति वा एकेनैकस्योपकृतं गुणा वोल्कीर्त्तिताः स तस्यासतो - For Parts Only मूलं [३७१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३७१] दीप अनुक्रम [४०२] श्रीस्थानानसूत्र वृत्ति: ॥ २८५ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [४], उद्देशक [४]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] Eaton Intimational - *******... sपि गुणान् प्रत्युपकारार्थमुत्कीर्त्तयतीत्यर्थः, इतिरुपप्रदर्शने वा विकल्पे । इदच गुणनाशनादि शरीरेण क्रियत इति शरीरस्योत्पत्तिनिर्वृत्तिसूत्राणां दण्डकद्वयं कण्ठ्यं चैतत् नवरं क्रोधादयः कर्म्मबन्धहेतवः कर्म च शरीरोपत्तिकारणमिति कारणकारणे कारणोपचारात् क्रोधादयः शरीरोत्यत्तिनिमित्ततया व्यपदिश्यन्त इति । 'चउहिं ठाणेहिं सरीरे' त्यायुक्तं, क्रोधादिजन्यकर्म्मनिवर्त्तितत्वात् क्रोधादिभिर्निवर्तितं शरीरमित्यपदिष्टं, इह चोत्पत्तिरारम्भमात्रं निर्वृत्तिस्तु नि ष्पत्तिरिति । क्रोधादयः शरीरनिर्वृत्तेः कारणानीत्युक्तं तन्निग्रहास्तु धर्मस्येत्याह मूलं [२७१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः चत्तारि धम्मदारा पन्नता, तंजहा—-खंती गुसी अावे मद्दवे (सू० ३७२) चउहि ठाणेहिं जीवा रतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा — महारंभवाते महापरिग्गद्याते पंचिदियहेणं कुणिमाहारेणं १ चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं०माइताते नियडिङताते अलियवयणेणं कूडतुलकूडमाणेणं २ चउर्हि ठाणेहिं जीवा मणुसताते कम्मं परारेंति, तंजा - पगतिभद्दताते पगतिविणीययाए साणुकोसयाते अभच्छरिताले ३ चउहि ठाणेहिं जीवा देवाय ताए कम्मं पगति, तंजहा सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं बालतको कम्मेणं अकामणिज्जराए ४ (सू० ३७३) पवि बज्जे पं० तं०~~तते वितते घणे झुसिरे १ चउब्विहे नट्टे पं० [सं० अंचिए रिभिए आरभडे मिसोले २ चउब्विहे ए पं० [सं० उक्त्त पत्तए मंदए रोविंदए ३ चन्त्रिहे मल्ले पं० तं० थमे वेढिमे पूरिमे संघातिमे ४ चउबिहे अलंकारे पं० वं० केसालंकारे वत्थालंकारे मल्लालंकारे आभरणालंकारे ५ घविहे अभिणते पं० तं०- दितिते पांडु सुते सामंतोवातणिते लोगमब्भावसिते ६ ( सू० ३७४ ) सणकुमारमाहिंदे सुणं कप्पेसु विमाणा चवन्ना पं० तं० णीला For Parts Only ~ 573 ~ ४ स्थाना० उद्देशः ४ धर्मद्वारा सुर्खेतुचा यादिवि मानव र्णादि सू० ३७२ ३७५ ॥ २८५ ॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७५] दीप अनुक्रम [४०६] लोहिता हालिहा मुकिला, महासुकसहस्सारेसु ण कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जा सरीरमा उकोसेणं चत्तारि रयणीओ उर्छ उच्चत्तेणं पन्नत्ता (सू० ३७५) 'चत्तारि धम्मे'त्यादि, धर्मस्य-चारित्रलक्षणस्य द्वाराणीव द्वाराणि-उपाया। क्षान्त्यादीनि धर्मद्वाराणीत्युक्तं, अथारम्भादीनि नारकरवादिसाधनकर्मणो द्वाराणीति विभागतः 'चउहिं ठाणेहिं' इत्यादिना सूत्रचतुष्टयेनाह-कण्ठ्यचैतत् , नवर 'नरइयत्ताए'त्ति नैरयिकत्वाय नैरयिकतायै नैरयिकतया वा कर्म-आयुष्कादि, नेरइयाउयत्ताएत्ति पाठान्तरे नैरयिकायुष्कतया नैरयिकायुष्करूपं कर्मदलिकमिति, महान्-इच्छापरिमाणेनाकृतमर्यादतया बृहन् आरम्भः-पृथिव्याधुपमईलक्षणो यस्य स महारम्भः-चकवादिस्तद्भावस्तत्ता तया महारम्भतया एवं महापरिग्रहतयाऽपि, नवरं परि-17 गृह्यत इति परिग्रहो-हिरण्यसुवर्णद्विपदचतुष्पदादिरिति, 'कुणिम मिति मांसं तदेवाहारो-भोजनं तेन, 'माइल्लयाए'त्ति मायितया माया च मन कुटिलता, 'नियडिल्लयाए'त्ति निकृतिमत्तया निकृतिश्च वजनार्थं कायचेष्टाद्यन्यथाकरणलक्षणा अभ्युपचारलक्षणा वा तद्वत्तया, कूटतुलाकूटमानेन यो व्यवहारः स कूटतुलाकूदमान एवोच्यते अतस्तेनेति, प्रकृत्या-स्वभावेन भद्रकता-परानुपतापिता या सा प्रकृतिभद्रकता तया सानुक्रोशतया-सदयतया मस्सरिकता-परगुणा-15 सहिष्णुता तत्प्रतिषेधोऽमत्सरिकता तयेति, सरागसंयमेन-सकषायचारित्रेण वीतरागसंयमिनामायुपो बन्धाभावात् संयमासंयमो-द्विस्वभावत्वाद्देशसंयमः बाला इव बाला-मिथ्याशस्तेषां तपःकर्म-तफाक्रिया बालतपःकर्म तेन अका| मेन-निर्जरां प्रत्यनभिलाषेण निर्जरा-कर्मनिर्जरणहेतुर्बुभुक्षा दिसहनं यत् सा अकामनिर्जरा तया। अनन्तरं देवोत्पत्ति 5555 ~574~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३७५] ॥२८६॥ दीप कारणान्युक्तानि, देवाश्च वाद्यनाव्यादिरतयो भवन्तीति वाद्यादिभेदाभिधानाय षट्सूत्री, तब बजेत्ति-वाद्यं तत्र-ततं स्थाना. वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि शुधिरं मतम् ॥१॥ इति, नाट्यगेयाभिनयसूत्राणि उद्देश ४ सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि, मालायां साधु माल्यं-पुष्पं तद्रचनापि माल्यं ग्रन्थः-सन्दर्भः सूत्रेण ग्रन्थनं तेन निर्वृत्तं | धर्मद्वाराग्रन्धिर्म मालादि, बेष्टनं वेष्टस्तेन निवृत्तं वेष्टिमं-मुकुटादि, पूरेण-पूरणेन निवृत्तं पूरिम-मृन्मयमनेकच्छिद्रं वंशशला- युर्हेतुवाकादिपञ्जरं वा यत्पुष्पैः पूर्यत इति, सङ्घातेन निवृत्तं सातिमं यत्परस्परतः पुष्पनालादिसङ्घातनेनोपजन्यत इति, अ-| हावादिविलकियते--भूष्यतेऽनेनेत्यलङ्कारः केशा एवालङ्कारः केशालङ्कारः, एवं सर्वत्र देवाधिकारवत्येव 'सर्णकुमारे'त्यादिका द्वि-II मानवसूत्री सुगमा चेयं, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि, कल्पान्तरेषु त्वन्यथा, तदुक्तम्-"सोहम्मे पंचवण्णा एक- र्णादि गहाणी उ जा सहस्सारो। दो दो तुल्ला कप्पा तेण परं पुंडरीयाओ ॥१॥"[द्वयोर्द्वयोः कल्पयोर्वर्णस्य हानिः कार्येसू०३७३त्यर्थः> तत्र भवे धार्यते तदिति तं वा भवं धारयतीति भवधारणीयं-यजन्मतो मरणावधि 'कृतमुष्टिकस्तु रतिः स एव| वितताङ्कलिररनिरिति वचने सत्यपि रनिशब्देनेह सामान्येन हस्तोऽभिधीयत इति, शुक्रसहस्रारयोश्चतुर्हस्ता देवा अ-1 न्यत्र वन्यथा, यत आह-"भवण १० वण ८ जोइस ५ सोहम्मीसाणे सत्त होति रयणीओ । एकेकहाणि सेसे दुदुगे। य दुगे चउके य ॥१॥ गेविजेसुं दोनी एका रयणी अणुत्तरेसु"त्ति [भवनवानमंतरज्योतिष्कसौधर्मेशानेषु सप्त रत्नयो भवति शेषेषु एकैकहानिः बिके द्विके च द्विके चतुष्के च ॥॥ अवेयकेषु द्वे रत्नी अनुत्तरसुरेष्वेका रतिः॥] भवधारणी-3॥२ यान्येवं, उत्तरवैक्रियाणि तु लक्षमपि सम्भवन्ति, उत्कृष्टेनैतत् , जघन्यतस्त्वङ्गलासयेयभागप्रमाणान्युत्पत्तिकाले भवधा- अनुक्रम [४०६] ~ 575~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७५] (०३) प्रत सूत्रांक [३७५] रणीयानि भवन्त्युत्तरवैक्रियाणि त्वगुलसङ्ख्येयभागप्रमाणानीति । अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, देवाश्चाप्कायतयाऽप्युत्पधन्ते इत्युदकगर्भप्रतिपादनाय 'चत्तारी'त्यादि सूत्रद्वयमाह पत्तारि उदकगमा पं० त०-उस्सा महिया सीता उसिणा, चत्तारि उदगम्भा पं० सं०--हेमगा अम्भसंधडा सीतोसिणा पंचरूविता,-माहे उ हेमगा गम्भा, फग्गुणे अध्भसंथदा । सीतोसिणा उ चित्ते, वतिसाहे पंचरूविता ।।१।। (सू०३७६) चत्तारि माणुस्सीगम्भा पं० सं०-इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताते बित्ताए, अप्पं सुकं पहुं ओचं, इत्थी तत्थ पजातति । अप्पं ओयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्व पजातति ॥ १॥ दोण्हंपि रत्तसुकाणं, तुल्लभाचे णपुंसओ। इत्थीतोतसमाओगे, पिंच तत्थ पजायति ॥ २॥ (सू०३७७) 'दगगभ'त्ति दकस्य-उदकस्य गर्भा इव गर्भा दकगर्भाः-कालान्तरे जलवर्षणस्य हेतवस्तत्संसूचका इति तत्त्वमिति, अवश्याय:-क्षपाजलं महिका-धूमिका शीतान्यात्यन्तिकानि एवमुष्णा-धर्माः, एते हि यत्र दिन उत्पन्नास्तस्मादुत्कर्षेणाव्याहताः सन्तः पद्भिर्मासैरुदकं प्रसुवते, अन्यैः पुनरेवमुक्तम्-"पवनाभ्रवृष्टिविद्युद्गर्जितशीतोष्णरश्मिपरिवेषाः । जलमत्स्येन सहोक्ताः दशधा धातुप्रजनहेतुः॥१॥" तथा "शीतवाताश्च बिन्दुश्च, गर्जितं परिवेषणम् । सर्वं गर्भेषु शंसन्ति, निर्ग्रन्थाः साधुदर्शनाः॥१॥" तथा "सप्तमे २ मासे, सप्तमे २ऽहनि । गर्भाः पार्क नियच्छन्ति, यादृशास्तादृर्श फलम् ॥ १॥" हिम-तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमका हिमपातरूपा इत्यर्थः, 'अब्भसंघट'त्ति अभ्रसंस्थितानि मेधेराकाशाच्छादनानीत्यर्थः, आत्यन्तिके शीतोष्णे, पञ्चानां रूपाणां-गर्जितविद्युजलवाताधलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं दीप अनुक्रम [४०६] JABERatinintamational wjanmiorary.org ~576~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मुलं [३७७] + गाथा १-२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: | उदकगर्भः प्रत सूत्रांक [३७७] गाथा ||१-२|| दीप अनुक्रम [४०९४११] श्रीस्थाना-४ तदस्ति येषां ते पञ्चरूपिका उदकगर्भाः, इह मतान्तरमेवम्-पौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । नात्य) नसूत्र- मार्गशिरे शीतं पौषेऽतिहिमपातः॥१॥ माघे प्रबलो वायुस्तुपारकलुषद्युती रविशशाङ्कौ । अतिशीतं सघनस्य च उद्देशः४ वृत्तिः भानोरस्तोदयी धन्यौ ॥ २॥ फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्डः पवनोऽभ्रसमलवाः स्निग्धाः । परिवेषाश्चासकला. कपिलस्ताम्रो|| शारविश्व शुभः॥३॥ पवनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे गर्भाः शुभाः सपरिवेषाः । घनपवनसलिलविद्युत्स्तनितेश्च हिताय वैशाखे मनुष्यग॥२८७॥ &॥४॥" इति, तानेव मासभेदेन दर्शयति–'माहे'त्यादि श्लोकः । गर्भाधिकारानारीगर्भसूत्रं व्यक्तं, केवलं 'इस्थित्ताएं'त्ति भैश्च काखीतया विम्बमिति-गर्भप्रतिबिम्ब गर्भाकृतिरार्त्तवपरिणामो न तु गर्भ एवेति, उक्तश्च-"अवस्थितं लोहितमङ्गनाया, सू०३७६ वातेन गर्भ ब्रुवतेऽनभिज्ञाः । गर्भाकृतित्वात्कटुकोष्णतीक्ष्णैः, श्रुते पुनः केवल एव रक्ते ॥ १॥ गर्भ जडा भूतहतं व- ३७९ दन्ती"त्यादि, वैचित्र्यं गर्भस्य कारणभेदादिति श्लोकाभ्यां तदाह-'अप्पमित्यादि, शुक्र-रेतः पुरुषसम्बन्धि ओज-| आर्तवं रक्तं खीसम्बन्धि यत्र गर्भाशय इति गम्यते इति, तथा खिया ओजसा समायोगो-वातवशेन तरिस्थरीभवन-1 ४ लक्षणः खयोजःसमायोगस्तस्मिन् सति बिम्ब 'तत्र' गर्भाशये प्रजायते, अन्यैरप्यत्रोक्तम्-"अत एव च शुक्रस्य, बाहुटल्याजायते पुमान् । रक्तस्य स्त्री तयोः साम्ये, क्लीबः शुक्रातवे पुनः॥१॥ वायुना बहुशो भिन्ने, यथावं बहुपत्यता। |वियोनिविकृताकारा, जायन्ते विकृतैर्मलैः॥२॥" इति ॥ गर्भः प्राणिनां जन्म विशेषः स चोत्पादोऽभिधीयते, उत्पाद४ श्चोलादाभिधानपूर्वे प्रपश्चत इति तत्स्वरूपविशेषप्रतिपादनायाह ॥२८७॥ उपायपुवस्स णं चत्तारि मूलवस्थू पन्नत्ता (सू० ३७८) चउबिहे कन्धे पं० त०-भाजे पजे करये गेए (सू०३७९) * * wraanasaram.org ~577~ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३८०] दीप अनुक्रम [ ४१४] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [४]. मूलं [ ३८० ] [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Ja Education intimational स्थान [४], ..आगमसूत्र - .......... रविताणं चत्तारि समुग्धाता पं० तं० वेयणासमुग्धाते कसायसमुग्धाते मारणंतियसमुग्धाए वेडब्बियसमुग्धाए, एवं बकाइयाणवि (सू० ३८० ) अरिहतो णं अरिट्ठनेमिस्स चत्तारि सया चोहसपुव्वीणमजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसभिवाणं जिणो इव अवितथवागरमाणाणं उकोसिता चउदसपुब्विसंपया हुल्या (सू० ३८१) समणस्स णं भ गवओ महावीरस्स बचारि सया वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते अपराजियाणं उकोसिता वातिसंपया हुत्या (सू० ३८२) हिला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पन्नत्ता, तंजा— सोहम्मे ईलाणे सणकुमारे माहिंदे, मझिला चचारि कप्पा पडिपुनचंदसंठाणसंठिया पन्नत्ता, तंजा— बंभलोगे लंतते महासुके सहस्सारे, उवरिक्षा चत्तारि कप्पा अद्धचंदठाणसंठिता पन्नत्ता, तंजहा - आणते पाणते आरणे अचुते ( सू० ३८३ ) चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पं० तं० - लवणोदे वरुणोदे खीरोदे घतोदे ( सू० ३८४) चत्तारि आवत्ता पं० तं० खरावते उमताबचे गूढावते आमि सावते, एवामेव चत्तारि कसाया पं० तं० खरावत्तसमाणे कोहे उन्मत्तावत्तसमाणे माणे गूढावत्तसमाणा माता आ मिसावत्तसमाणे लोमे, खरावतसमाणं कोई अणुपविट्टे जीवे कालं करेति णेरइएस उववज्जति, उन्नत्तावत्तसमाणं माणं एवं चैव गूढावत्तसमाणं मातमेवं चेव आनिसावत्तसमाणं लोभमणुपविट्टे जीवे कालं करेति नेरइएस उववज्जेति (सू०३८५) 'उपाये' त्यादि कण्ठ्यं, नवरं उत्पादपूर्व प्रथमं पूर्वाणां तस्य चूला - आचारस्याग्राणीव तद्रूपाणि वस्तूनि परिच्छेद| विशेषा अध्ययनवच्चूलावस्तूनि । उत्पादपूर्व हि काव्यमिति काव्यसूत्रं कण्ठ्यं चैतन्नवरं काव्यं ग्रन्थः, गद्यम् -अच्छन्दोनिबद्धं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवत् पयं छन्दोनिबद्धं विमुक्त्यध्ययनवत् कथायां साधु कथ्यं ज्ञाताध्ययनवत्, गेयं-गान For Par&Pat Use Only ~ 578 ~ Morp Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८५] दीप अनुक्रम [४१९] श्रीस्थाना- योग्य, इह गद्यपद्यान्तर्भावेऽपीतरयोः कथागानधर्मविशिष्टतया विशेषो विवक्षित इति । अनन्तरं गेयमुक्त, तच्च भा-16 स्थाना० गसूत्र- पास्वभावत्वात् दण्डमन्धादिकमेण लोकैकदेशादि पूरयति, समुद्घातोऽप्येवमेवेति साधात् समुद्घातसूत्रे सुगमे च, उद्देशः ४ वृत्तिः नवरं समुद्धननं समुपात:-शरीराद्वहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः, वेदनया समुद्घातः कषायैः समुद्घातो मरणमेवान्तो मर-12 वस्तुसमु णान्तः तत्र भवो मारणान्तिकः स एव समुद्घातो वैक्रियाय समुद्घातः२ इति. विग्रहा इति । वैक्रियसमुद्घातो हिल-14 | दूधातपू. ॥२८८ धिरूप उक्त इति लम्धिप्रस्तावात् विशिष्ट श्रृंतलब्धिमतामभिधानाय 'अरहओं' इत्यादि सूत्रद्वयी सुगमा, नवरमजिना-* विवादिक नामसर्वज्ञत्वात् जिनसंकाशानामविसंवादिवचनत्वाद् यथापृष्टनिर्व्वक्तृत्वाच सर्वे अक्षराणाम्-अकारादीनां सन्निपाता। ल्पसंस्थादा-व्यादिसंयोगा अभिधेयानन्तत्वादनन्ता अपि विद्यन्ते येषां ते सर्वाक्षरसन्निपातिनः, एतेषां जिनसंकाशत्वे कारणमाह- नाधिर 'जिणो विवेत्यादि, 'उक्कोसिय'चि नातोऽधिकाश्चतुर्दशपूर्विणो बभूवुः कदाचिदपीति । ते च प्रायः कल्पेषु गता इति सावताः साकल्पसूत्राणि सुगमानि च, नवरं 'अद्धचंदसंठाणसंठिए'त्ति पूर्वापरतो मध्यभागे सीमासझावादिति । देवलोका हिसू० ३७९. क्षेत्रमिति क्षेत्रप्रस्तावात् समुद्रसूत्र व्यक्तं, नवरं एकमेकं प्रति भिन्नो रसो येषां ते प्रत्येकरसाः, अतुल्यरसा इत्यर्थः, ३८५ लवणरसोदकत्वालवणः पाठान्तरे तु लवणमिवोदकं यत्र स लवणोदो निपातनादिति प्रथमः वारुणी-सुरा तया समानं | वारुणं वारुणमुदकं यस्मिन् स वारुणोदः चतुर्थः क्षीरवत्तथा घृतवदुदकं यत्र स क्षीरोदः पञ्चमः घृतोदः षष्ठः, कालोदिपुष्करोदस्वयम्भुरमणा उदकरसाः, शेषास्तु इक्षुरसा इति, उक्तश्च-बारुणिवरखीरवरो घयवर लवणो य होति || पत्तेया । कालो पुक्खरउदही सयंभुरमणो य उदगरसा ॥१॥" इति । अनन्तरं समुद्रा उकास्तेषु चाव" भवन्ती ~579~ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८५] दीप अनुक्रम [४१९] त्यावर्तान् दृष्टान्तान् कपाांश्च तदान्तिकानभिधित्सुः सूत्रद्वयमाह-सुगर्म चैतत् , नवरं खरो-निष्ठुरोऽतिवेगितया पातकश्छेदको वा आवर्तनमावतः स च समुद्रादेश्चऋविशेषाणां वेति खरावर्तः, उन्नतः-उच्छ्रितः स चासावावर्त्तश्चेति उन्नतावतः, स च पर्वतशिखरारोहणमार्गस्य वातोत्कलिकाया वा, गूढश्चासावावतश्चेति गूढावतः स च गेन्दुकदवरकस्य दारुग्रन्थ्यादेवा आमिषं-मांसादि तदर्थमावतः शकुनिकादीनामामिपावर्त्त इति, एतत्समानता च क्रोधादीनां क्रमेण परापकारकरणदारुणत्वात् पत्रतृणादिवस्तुन इव मनस उन्नतत्वारोपणात् अत्यन्तदुलेक्ष्यस्वरूपत्वात् अनर्थशतसम्पातसङ्कुलेऽप्यवपतनकारणत्वाचेति, इयञ्चोपमा प्रकर्षवता कोपादीनामिति तत्फलमाह-'खरावत्तेत्यादि, अशुभपरिणामस्याशुभकर्मबन्धनिमित्ततया दुग्गेतिनिमित्तत्वादुच्यते 'रइएमु उववजह'त्ति ॥ अणुराहानक्खचे चउत्तारे 40 पुण्यासाढे एवं चेच उत्तरासाढे एवं चेव (सू०३८६) जीवाणं चउठाणनिब्यत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिति वा चिणिस्संति वा, नेरतियनिव्वत्तिते तिरिक्खजोणितनिवत्तिते मणुस्स. देवनिव्वसिते, एवं उयचिणिसु वा उबचिणति वा उबचिणिस्संति वा, एवं चिय उवचिय बंध उदीर वेत तह निजरे चेव । (सू० ३८७) चउपदेसिया खंथा अर्णता पन्नता चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता पडसमयद्वितीया पोग्गला अर्णता चतगुणकालगा पोग्गला अणता जाव चगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता (सू० ३८८) । चउत्थो उद्देसो समतो चउठाणं चउत्थमज्झयणं समत् ।। नारका अनन्तरमुक्तास्तैश्च वैक्रियादिना समानधर्माणो देवा इति तद्विशेषभूतनक्षत्रदेवानां चतुःस्थानकं विवक्षुः | ~580~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३८८] दीप अनुक्रम [४२२] श्रीस्थानासूत्रवृत्तिः ॥ २८९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [४], उद्देशक [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मूलं [३८८ ] ४ स्थाना० नक्षत्रता अणुराहेत्यादि सूत्रत्रयमाह- कण्ठ्यःञ्चैतदिति । देवत्वादिभेदश्च जीवानां कर्मपुद्गलचयादिकृत इति तत्प्रतिपादनायाह* 'जीवाण'मित्यादि सूत्र, व्याख्यातं प्राकू तथापि किञ्चिल्लिख्यते, 'जीवाणं 'ति णंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, चतुर्भिः उद्देशः ४ १ स्थानकैः- नारकत्वादिभिः पर्यायेनिर्वर्तिताः कर्म्मपरिणामं नीतास्तथाविधाशुभपरिणामवशाद्वद्धास्ते चतुःस्थाननिर्वर्त्तितास्तान् पुद्गलान्, कथं निर्वर्त्तितानित्याह- पापकर्म्मतया-अशुभस्वरूपज्ञानावरणादिरूपत्वेन, 'चिणिसति तथाविधापरकर्म्मपुङ्गले श्चितवन्तः - पापप्रकृतीरल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः, 'नेरइयनिव्वत्तिए'सि नैरयिकेण सता निर्वर्त्तिता इति विग्रहः, एवं सर्वत्र, तथा 'एवं उबचिणिसु'त्ति चयसूत्राभिलापेनोपचयसूत्रं वाच्यं उवचिर्णिमुत्ति- उपचितवन्तः पौनःपुन्येन 'एव' मिति चयादिन्यायेन बन्धादिसूत्राणि वाध्यानीत्यर्थः इह च 'एवं बन्धउदीरे 'त्यादिवतव्ये यच्चयोपचयग्रहणं तत्स्थानान्तरप्रसिद्ध गाधोत्तरार्द्धानुवृत्तिवशादिति, तत्र 'बंध'त्ति बंधिसु ३ श्वबन्धनवद्धान् गाढवन्धनबद्धान् कृतवन्तः ३, 'उदीर'त्ति उदीरिंसु ३ उदयप्राप्ते दलिके अनुदितांस्तान् आकृष्य करणेन वेदितवन्तः ३, 'वेय'त्ति वे दिंसु ३ प्रतिसमयं स्वेन रसविपाकेनानुभूतवन्तः ३ 'तह निजरा चेव'त्ति निजरिंसु ३ कात्स्म्येंनानुसमयमशेषतद्विपाकहान्या परिशातितवन्तः ३ इति । पुद्गलाधिकारात् पुद्गलानेव द्रव्यादिभिर्निरूपयन्नाह 'चउप्पए से' त्यादि सुगममिति ॥ इति चतुःस्थानकस्य चतुर्थ उद्देशकः समाप्तः ॥ ग्रन्था २९३२ ॥ २८९ ॥ ॥ इति श्रीमद् भगदेवाचार्यविरचिते स्थानास्यतृतीयाङ्गविवरणे चतुःस्थानकास्यं चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ॥ अत्र चतुर्थ स्थानं परिसमाप्तं For Praise Only ~ 581 ~ रकाः पुन निर्वर्त्तनं १ पुङ्गलप्रदे शादि सू० ३८६ ३८८ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ पञ्चमस्थानकम् प्रत सूत्रांक [३८९] दीप अनुक्रम [४२३] व्याख्यातं चतुर्थमध्ययन, साम्प्रतं सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव पञ्चस्थानकाख्यं पञ्चममध्ययनं व्याख्यायते, अस्य चाय, विशेषाभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने जीवाजीवतद्धर्माख्याः पदार्थाश्चतुःस्थानकावतारणेनाभिहिताः, इह तु त एव पञ्चस्थानकावतारणेनाभिधीयन्ते इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकत्रयवतश्चतुरनुयोगद्वारवतोऽध्ययनस्य प्रथमोदेशको व्याख्यायते, अस्य च पूर्वोदेशकेन सह सम्बन्धोऽधिकृताध्ययनवत् द्रष्टव्यः, तस्य चेदमादिसूत्रम् पंच महन्वया पं० सं०-सम्बातो पाणातिवायाओ बेरमणं ।। जाव सव्यातो परिग्गहातो वेरमणं । पंचाणुष्वता पं० ० -थूलातो पाणाइवायातो वेरमणं थूलातो मुसावायातो वेरमणं थूलातो अदिनादाणातो वेरमणं सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे ।। (सू० ३८९) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहाय सम्बन्धः-पूर्वसूत्रे अजीवानां परिणामविशेष उक्तः इह तु स एव जीवानामुच्यत इत्येवं सम्बन्धस्यास्य व्याख्या संहितादिकमेण, सच क्षुण्ण एव, नवरं पञ्चेति समयान्तरव्यवच्छेदः, तेन न चत्वारि, प्रथम-18 पश्चिमतीर्थयोः पश्चानामेव भावात् , महान्ति-वृहन्ति तानि च तानि ब्रतानि च-नियमा महाव्रतानि, महत्त्वं चैषां सर्व-1 स्था०४९ REaramKand अथ पंचमं स्थानं आरभ्यते चतुर्थ: एवं पंचमं स्थानस्य अभिसंबंध:, महाव्रतस्य व्याख्या ~582~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३८९ ] दीप अनुक्रम [४२३] स्थान [५], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २९० ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ३८९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः जीवादिविषयत्वेन महाविषयत्वात् उक्तञ्च - " पढमंमि सव्वजीवा बीए चरमे अ सब्वदव्वाई | सेसा महब्वया खड | तदेकदेसेण दव्वाणं ॥ १ ॥” इति [प्रथमे सर्वे जीवा द्वितीये चरमे च सर्वाणि द्रव्याणि । शेषाणि महाव्रतानि तदेक| देशे द्रव्याणां ॥ १ ॥ ][ 'तदेकदेसेणं'ति तेषां द्रव्याणामेकदेशेनेत्यर्थः तथा यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रत्याख्यानरूपत्वाच्च तेषामिति, देशविरतापेक्षया महतो वा गुणिनो व्रतानि महद्भतानीति, पुंलिङ्गनिर्देशस्तु प्राकृतत्वादिति, प्रज्ञप्तानि - तथाविधशिष्यापेक्षया प्ररूपितानि महावीरेणाणाद्यतीर्थकरेण च न शेपैरिति एतत्किल सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतिपादयामास तद्यथा सर्वस्मात् निरवशेपात्रसस्थावर सूक्ष्मवादरभेदभिन्नात् कृतकारितानुमतिभेदाच्चेत्यर्थः, अथवा द्रव्यतः षड्जीवनिकायविषयात् क्षेत्रतस्त्रिलोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिप्रभवाद्वा भावतो रागद्वेषसमुत्थाच्च, न तु परिस्थूरादेवेति भावः प्राणानां - इन्द्रियोच्छासायुरादीनामतिपातः प्राणिनः सकाशाद्विभ्रंशः प्राणातिपातः प्राणिप्राणवियोजनमित्यर्थः तस्माद्विरमणं - सम्यग्ज्ञान श्रद्धानपूर्वकं निवर्त्तनमिति तथा सर्वस्मात् सद्भा वप्रतिषेधा १ सद्भावोद्भावन २ अर्थातरोक्ति ३ गभेदात् ४ कृतादिभेदाच अथवा द्रव्यतः सर्वधर्मास्तिकायादिद्रव्यविषयात् क्षेत्रतः सर्वलोकालोकगोचरात् कालतोऽतीतादे राज्यादिवर्त्तिनो वा भावतः कपायनोकषायादिप्रभवात् मृषा-अलीकं वदनं वादो मृषावादः तस्माद्विरमणं - विरतिरिति, तथा सर्वस्मात् कृतादिभेदादथवा द्रव्यतः सचेत नाचेतनद्रव्यविषयात् क्षेत्रतो ग्रामनगरराण्यादिसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिप्रभवाद्वा भावतो रागद्वेषमोहसमुस्थात् अदत्तं-स्वामिना अवितीर्णं तस्याऽऽदानं ग्रहणमदत्तादानं तस्माद्विरमणमिति, तथा सर्वस्मात् कृतकारितानुमति Education International महाव्रतस्य विषद व्याख्या: For Para Use Only ~583~ ५ स्थाना० उद्देशः १ महाव्रता शुत्रतानि सू० ३८९ ॥ २९० ॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [३८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८९] दीप अनुक्रम [४२३] भेदादथवा द्रव्यतो दिव्यमानुषतैरश्चभेदात् रूपरूपसहगतभेदाद्वा तत्र रूपाणि-निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते रूपसहगतानि तु-सजीवानि भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि रूपसहगतानीति क्षेत्रतखिलोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिसमुत्थाद्वा भावतो रागद्वेषप्रभवात् मिथुनं-स्त्रीपुंसद्वन्द्वं तस्य कर्म मैथुनं तस्माद् विरमणमिति, तथा | सर्वस्मात्-कृतादेरथवा द्रव्यतः सर्वद्रव्यविषयात् क्षेत्रतो लोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिभवाद्वा भावतो रागद्वेषविषयात् परिगृह्यते-आदीयते परिग्रहणं वा परिग्रहः तस्माद्विरमणमिति ।। व्रतप्रस्तावात् 'पश्चाणुव्वएत्याधणुत्रतसूत्र, स्फुटं चेदं, किन्तु अणूनि-लघूनि व्रतानि अणुव्रतानि, लघुत्वं च महाव्रतापेक्षया अल्पविषयत्वादिनेति प्रतीत| मेवेति, उक्तं च-"सव्वगयं सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पज्जवा सब्वे । देसविरई पडुच्चा दोण्हवि पडिसेहणं कुजा ॥१॥" इति [ सर्वद्रव्यपर्यायगतं सम्यक्त्वं श्रुते चारित्रे च सर्वे पर्याया न । देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि प्रतिषेधं कुर्यात्-नसर्वट्रद्रव्याणि न सर्वपर्यवाः ॥१॥] अथवा अनु-महात्रतकथनस्य पश्चात्तदप्रतिपत्ती यानि व्रतानि कथ्यन्ते तान्यनुव्रतानि, उक्तं च-"जइधम्मस्सऽसमत्थे जुज्जइ तद्देसणंपि साहूणं । तदहिगदोसनिवित्तीफलंति कायाणुकंपट्टा ॥१॥” इति [यतिधमस्यासामर्थे तद्देशनमपि साधूनां युज्यते तदधिकदोषनिवृत्तिफलत्वारकायानुकंपार्थं ॥१॥] अथवा सर्वेविरतापेक्षया अणोः-लघोगुणिनो व्रतान्यणुव्रतानीति, स्थूला-द्वीन्द्रियादयः सत्त्वाः, स्थूलत्वं चैषां सकललौकिकानां जीवत्वप्रWIसिद्धेः, स्थूलविषयत्वात् स्थूलः तस्मात् प्राणातिपातात् । तथा स्थूल:-परिस्थूल-वस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवास्तस्मात् | मृषावादात् तथा परिस्थूरवस्तुविषयं चौर्यारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमतिदुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलं तस्माददत्तादानात् तथा - % E REmiratinidin inrary.org | महाव्रतस्य विषद-व्याख्या:, अणुव्रतस्य विषद-व्याख्या ~584~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३८९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: वृत्तिः 155-45-२ प्रत स्थाना. उद्देशः१ वणोद्या: सुगतिदुगैतिहेतवा सु०३९०. सूत्रांक [३८९] दीप अनुक्रम [४२३] श्रीस्थाना- स्वदारसन्तोष-आत्मीयकलत्रादन्यत्रेच्छानिवृत्तिरिति, उपलक्षणात् परदारवर्जनमपि ग्राह्य, तथा इच्छाया:-धनादि- असूत्र विषयाभिलाषस्य परिमाणं-नियमनमिच्छापरिमाणं देशतः परिग्रहविरतिरित्यर्थः । इच्छापरिमाणं चेन्द्रियार्थगोचरं श्रेय [3] इतीन्द्रियार्थवक्तव्यतार्थे पंचवन्नेत्यादित्रयोदशसूत्रीमाह पंचवन्ना ५० तं०-किण्हा नीला लोहिता हालिदा सुकिल्ला १, पंच रसा पं० सं०-तित्ता जाव मधुरा २, पंच ॥ २९१॥ कामगुणा पं० -सदा रूवा गंधा रसा फासा ३, पंचहि ठाणेहिं जीया सज्जति २०-सदेहिं जाव फासेहिं ४, एवं रजति ५ मुख्छति ६ गिझंति अझोववनंति ८, पंचहिं ठाणेहिं जीवा विणिघायमावर्जसि, सं०-सद्देहिं जाव फासेहिं ९ पंच ठाणा अपरिष्णाता जीवाणं अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सेताते अणाणुगामितत्ताते भवंति, तं०-सहा जाव फासा १० पंच ठाणा सुपरिनाता जीवाणं हिताते सुभाते जाव आणुगामियत्ताए भवंति, सं०सदा जाव फासा ११, पंच ठाणा अपरिष्णाता जीवाणं दुग्गतिगमणाए भवंति तं०-सहा जाव फासा १२, पंच ठाणा परिणाया जीवाणं सुग्गतिगमणाए भवंति तं०-सहा जाब फासा १३ (सू० ३९०) पंचहिं ठाणेहिं जीवा दोन्गतिं गच्छति, तं०-पाणातिवातेणं जाव परिग्गहेणं, पंचहिँ ठाणेहिं जीवा सोगति गच्छंति, सं०-पाणातिवातवे रमणेणं जाव परिग्गहवेरमणं (सू० ३९१) प्रकटा पेयं, नवरं पञ्च वर्णाः १ पश्चैव रसास्तदन्येषां सांयोगिकत्वेनाविवक्षितत्वादिति २, 'कामगुण'त्ति कामस्यमदनाभिलापस्य अभिलापमात्रस्य वा सम्पादका गुणा-धर्माः पुद्गलानां, काम्यन्त इति कामाः ते च ते गुणाश्चेति Saintaintinni K unaturanorm अणुव्रतस्य विषद-व्याख्या ~585~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३९१] दीप अनुक्रम [४२५] Jan Educati “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति मूलं [ ३९९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] वा कामगुणा इति । 'पंचहिं ठाणेहिं'ति पञ्चसु पश्चभिर्वा ( इन्द्रियैः ) स्थानेषु - रागाद्याश्रयेषु तैर्वा सह सज्यन्ते सङ्ग सम्बन्धं कुर्वन्तीति ४, 'एवमिति पञ्चस्वेव स्थानेषु रज्यन्ते सङ्गकारणं रागं यान्तीति ५ मूर्च्छन्ति तद्दोषानवलोकनेन मोहमचेतनत्वमिव यान्ति संरक्षणानुबन्धवन्तो वा भवन्तीति ६, गृध्यन्ति - प्राप्तस्यासन्तोषेणाप्राप्तस्यापरापरस्याकाङ्क्षावन्तो भवन्तीति ७, अध्युपपद्यन्ते तदेकचित्ता भवन्तीति तदर्जनाय वाऽऽधिक्येनोपपद्यन्ते - उपपन्ना घटमाना भवन्तीति ८, विनिघातं मरणं मृगादिवत् संसारं वाऽऽपद्यन्ते प्राप्नुवन्तीति, आह च - "रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्शे नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतङ्गो रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ॥ १ ॥ पञ्चसु रक्ताः पश्च विनष्टा यन्त्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततां मूढः ॥ २ ॥ इति । 'अपरिनाय'त्ति अपरिज्ञया स्वरूपतोऽपरिज्ञातानि - अनवगतानि अप्रत्याख्यानपरिज्ञया वा प्रत्याख्यातानि अहिताय - अपायाय अशुभाय-अपुण्यबन्धाय असुखाय वा अक्षमाय-अनुचितत्वाय असमर्थत्वाय वा अनिःश्रेयसाय - अकल्याणायामोक्षाय वा यदुपकारि सरकालान्तरमनुयाति तदनुगामिकं तत्प्रतिषेधोऽननुगामिकं तद्भावस्तस्वं तस्मै अननुगामिकत्वाय भवन्ति १० द्वितीयं विपर्ययसूत्रं ११, उत्तरसूत्रद्वयेन तु एतदेवाहितहितादि व्यञ्जितमस्ति दुर्गतिगमनाय -नारकादिभवप्राप्तये सुगतिगमनाय - सिद्ध्यादिप्राप्तये इति १२-१३ । दुर्गतिसुगत्योः कारणान्तरप्रतिपादनसूत्रे सुगमे इति । इह संवरतपसी मोक्षहेतू, तत्रानन्तरमाश्रव| निरोधलक्षणः संवर उत्तोऽधुना तपोभेदात्मिकाः प्रतिमा आह पंचपडिमातो पं० तं०—भद्दा सुभद्दा महाभद्दा सव्वतोभद्दा भद्दुत्तरपडिमा ( सू० ३९२ ) पंच थावरकाया पं० [सं० For Parts Only ~ 586~ janesbrary org Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९३] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९३] दीप अनुक्रम [४२७] श्रीस्थाना-दे थावरकाए बभे थावरकाए सिप्पे थावरकाए संमती थावरकाए पाजावचे थावरकाए पंच थावरकायापिपती पं० ४५स्थाना० सूत्र तं०-इंदे पावरकाताधिपती जान पातावचे थावरकाताहिपती (सू० ३९३) पंचहि ठाणेहिं ओहिदसणे समुप्पजित- उद्देशः१ वृत्तिः कामेवि तप्पढमयाते खंभातेजा, सं०-अप्पभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पढमयाते खंभातेजा, कुंथुरासिभूतं वा पुढषि प्रतिमा पासित्ता तपढ़मयाते खंभातेजा, महतिमहालतं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमताते खंभातेजा, देवं वा महड़ियं स्थावराः ॥२९ ॥ जाव महेसक्वं पासित्ता तप्पढमताते खंभातेजा पुरेसु वा पोराणाई महतिमहालतानि महानिहाणाई पहीणसामिताति अवधिकेपहीणसेलयाति पहीणगुत्तागाराई उच्छिन्नसामियाई उछिन्नसेउयाई उच्छिन्नगुत्तागाराई जाई इमाई गामागरणगरखेड- वलानुत्पकपडदोणगुहपट्टणासमसंबाहसभिवेसेसु सिंघाडगतिगचउक्चच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु णगरणिद्धमणेसु सुसाणसुन्नागार- स्युत्पत्ती गिरिकंदरसन्तिसेलोवढाषणभवणगिहेसु संनिक्खित्ताई चिट्ठति ताई वा पासित्ता तप्पढमताते खंभातेजा, इहिं पंचर्हि सू० ३९२ ठाणेहिं ओहिदसणे समुष्पजिउकामे तप्पढमताते खंभाएज्जा । पंचहि ठाणेहि केवलबरनाणदसणे समुप्पलिउकामे सप्पढ ३९४ मतातेनो खंभातेजा, तं०-अप्पभूतं चा पुढवि पासित्ता तप्पडमताते णो खंभेजा, सेसं सहेब जाव भवणगिहेसु संनिक्खित्ताई चिहति ताई वा पासित्ता तप्पढमयाते णो खंभातेजा, सेसं तहेव, इचेतेहिं पंचहि ठाणेहिं जाव नो खंभा तेजा (सू०३९४) 'पंचे'त्यादि व्यक्तं, नवरं भद्रा १ महाभद्रा २ सर्वतोभद्रा ३ दि १ चतु २ दशभि ३ दिनैः क्रमेण भवन्तीत्युक्तं । कामाग, सुभद्रा त्वदृष्टस्वान्न लिखिता, सर्वतोभद्रा तु प्रकारान्तरेणाप्युच्यते, द्विधेयं-शुद्रिका महती च, तत्राथा चतु ॐRAC%*555 RUIR९२॥ Baitaram.org | भद्रा आदि तप प्रतिमाया: तपस: वर्णनं ~587~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दिना द्वादशावसानेन पञ्चसप्ततिदिनप्रमाणेन तपसा भवति, अस्थाश्च स्थापनोपायगाथा-"एगाई पचंते ठविउं मझ तु आइमणुपंतिं । रचियकमेण य सेसे जाण लहुं सबओभई ॥१॥” इति [एकादिकान् पंचांतान स्थापयित्वा मध्य आदिमं अनुपंक्ति । उचितक्रमेण शेषान् जानीहि सर्वतोभद्रम् ॥१॥] पारणकादिनानि तु पश्चविंशतिरिति, स्थापना,12 प्रत सूत्रांक [३९४] दीप अनुक्रम १२३४५/महती तु चतुर्थादिना पोडशावसानेन पण्णवत्यधिकदिनशतमानेन भवति, अस्या अपि स्थापनोपायगाथा-3 1 "एगाई सत्तंते ठविलं मझंच आदिमणुपंतिं । उचियकमेण य सेसे जाण महं सब्बओभई ॥१॥" इति, रास[एकादिकान् सप्तान्तान् स्थापयित्वा मध्यं आदिम अनुपंक्ति उचितक्रमेण शेषान् जानीहि महासर्वतोभद्रा ॥१॥ ४५१२३/ पारणकदिनान्येकोनपश्चाशदिति, स्थापना, भद्रोत्तरप्रतिमा द्विधा-क्षुलिका महती च, तत्र आद्या द्वादशादिना [४२८] १२३४५६ विंशान्तेन पासप्तत्यधिकदिनशतप्रमाणेन तपसा भवति, अस्याः स्थापनोपायगाथा-"पंचाई व नवते ७१२३४५६ ठवि मझं तु आदिमणुपति । उचियकमेण य सेसे जाणह भद्दोत्तरं खुड्डु ॥१॥” इति [पंचादिकान् नवा३४५६७१२ ६७१२३४५न्तान् स्थापयित्वा मध्यं आदिमं अनुपंक्ति उचितक्रमेण शेषान् जानीहि क्षुद्रं भद्रोत्तरां ॥१॥] पारणकदि५६०१२३४ नानि पश्चविंशतिरिति, महती तु द्वादशादिना चतुर्विंशतितमान्तेन द्विनवत्यधिकदिनशतत्रयमानेन तपसा A asurary.com | भद्रा आदि तप प्रतिमाया: तपस: वर्णनं ~588~ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९४] दीप अनुक्रम श्रीस्थाना- ६५ भवति, तत्र च गाथा-"पंचादिगारसंते ठविउं मझं तु आइमणुपंति । उचियकमेण य सेसे महई भद्दोत्तर स्थाना० असूत्र- १५६७ जाण ॥१॥” इति [पंचादिकानेकादशान्तान् स्थापयित्वा मध्य आदिमं अनुपंक्ति उचितक्रमण शेषान् जानीहि उद्देशा१ वृत्तिः १९८६महतीं भद्रोत्तरां ॥१॥] पारणकदिनान्येकोनपञ्चाशदिति ३ । उक्तः कर्मणां निर्जरणहेतुस्तपोविशेषः, अधुना है प्रतिमाः स्थावरा ॥२९३॥ ५ ९ १० ११ तेषामेवानुपादानहेतोः संयमस्य विषयभूतानेकेन्द्रियजीवानाह-पंचे'त्यादि, स्थावरनामकर्मो- अवधिके|८११.११ ५६ दयात् स्थावरा-पृथिव्यादयः तेषां काया-राशयः स्थावरो वा काय:-शरीरं येषां ते स्थावर वलानुत्प१०११ ५ ६ कायाः, इन्द्रसम्बन्धित्वादिन्द्रः स्थावरकायः पृथिवीकायः, एवं ब्रह्मशिल्पसम्मतिप्राजापत्या त्युत्पत्ती अपि अकायादित्वेन याच्या इति । एतन्नायकानाह-पंचेदियेत्यादि, स्थावरकायानां-पृथि-| सू०३९३. ११.१ ५ ६ ७ ८ व्यादीनामिति (मपि) सम्भाव्यन्तेऽधिपतयो-नायका दिशामिवेन्द्राम्यादयो नक्षत्राणामिवा|श्वियमदहनादयो दक्षिणेतरलोकार्द्धयोरिव शकेशानाविति स्थावरकायाधिपतय इति । एते चावधिमन्त इत्यवधिस्वरूप|माह-पंचहीं'त्यादि व्यक्तं, नवरं अवधिना दर्शन-अवलोकनमर्थानामुत्सत्तुकाम-भवितुकाम तनयमतायां-अवधिदर्श-18 नोत्पादप्रथमसमये 'खंभाएजत्ति स्कन्नीयात् क्षुभ्येत, चलतीत्यर्थः, अवधिदर्शने वा समुत्पत्तुकामे सति अवधिमानिति | गम्यते क्षुभ्येद् अल्पभूतां-स्तोकसत्त्वां पृथिवीं दृष्ट्वा, वाशब्दा विकल्पार्थाः, अनेकसत्त्वव्याकुला भूरिति सम्भावनावान अकस्मादल्पसत्त्वभूदर्शनात् आः किमेतदेवमित्येवं क्षुभ्यदेव अक्षीणमोहनीयत्वादिति भावः, अथवा भूतशब्दस्य प्रकृ. ३९४ [४२८] S REaratinim Kisma | भद्रा आदि तप प्रतिमाया: तपस: वर्णनं ~589~ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९४] त्यर्थत्वादस्पभूता-अल्पा, पूर्व हि तस्थ बह्री पृथ्वीति सम्भावनाऽऽसीदिति १, तथाऽत्यन्तप्रचुरत्वारकुन्धूनां कुन्थुरा-10 |शिभूता-कुन्धुराशित्वप्राप्तां पृथिवीं दृष्ट्वा अत्यन्तविस्मयदयाभ्यामिति.२, तथा 'महहमहालयति महातिमहत् महोरगशरीरं-महाऽहितनुं वाह्यद्वीपवतियोजनसहस्रप्रमाणं दृष्ट्वा विस्मयाद् भयाद्वा ३, तथा देवं महर्द्धिकं महाद्युतिक महानुभागं महाबलं महासौख्यं दृष्ट्वा विस्मयादिति ४, तथा 'पुरेसु बत्ति नगराधेकदेशमूतानि प्राकारावृतानि पुरा-18 Kणीति प्रसिद्धं तेषु पुराणानि-चिरन्तनानि ओरालाई कचिसाठः तत्र मनोहराणीत्यर्थः 'महहमहालयाईति विस्तीर्ण-1 हैवेन महानिधानानीति-महामूल्यरत्नादिमत्त्वेन, प्रहीणाः स्वामिनो येषां तानि तथा, तथा प्रहीणाः सेकारः-सेचकास्ते वेवोपर्युपरि धनप्रक्षेपकाः पुत्रादयो येषां तानि तथा, अथवा प्रहीणाः सेतवः-तदभिज्ञानभूताः पालयस्तन्मार्गा वाऽतिचिरन्तनतया प्रतिजागरकाभावेन च येषां तानि प्रहीणसेतुकानि, किं बहुना, निधायकानां यानि गोत्रागाराणि-कुल| गृहाणि तान्यपि प्रहीणानि येषां । अथवा तेषामेव गोत्राणि-नामान्याकाराश्व-आकृतयस्ते प्रहीणा येषां तानि प्रहीणगोत्रागाराणि प्रहीणगोत्राकाराणि वा, एवमुच्छिन्नस्वामिकादीन्यपि, नवरमिह प्रहीणा:-किंचित्सत्तावन्तः उच्छिन्ना-निर्नष्ट|सत्ताकाः, यानीमानि-अनन्तरोक्तविशेषणानि तथा प्रामादिषु यानि, तत्र करादिगम्यो मामः, आगत्य कुर्वन्ति यत्र स आकरो-लोहाद्युत्पत्तिभूमिरिति, नास्मिन् करोऽस्तीति नकर, धूलीपाकारीपेतं खेटं, कुनगरं कर्बर्ट, सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परेण स्थितग्राम मडम्ब यस्य जलस्थलपधावुभावपि तद् द्रोणमुखं यत्र जलपथस्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशस्तत्पत्तनं तीर्थस्थानमाश्रमः यत्र पर्वतनितम्बादिदुर्गे परचक्रभयेन रक्षार्थ धान्यादीनि संवहन्ति स संवाहः, यत्र प्रभू दीप अनुक्रम [४२८] 4 2-5%4 Pinnauranorm ~590~ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: माप्रतिमा प्रत सूत्रांक [३९४] दीप अनुक्रम श्रीस्थाना-18तानां भाण्डानां प्रवेशः स संनिवेशः, तथा ऋकाटक-त्रिकोण रथ्यान्तरं स्थापना > त्रिक-यत्र रथ्यानां त्रयं मिलति स्वाना सूत्र R उद्देशः१ त चत्वरं-रथ्याष्टकमध्यं चतुष्क-यत्र रथ्याचतुष्टयं चतुर्मुख-देवकुलादि महापथो-राजमार्गः पथो-स्थ्यामात्रं, एवंभूतेषु वृत्ति वा स्थानेषु, नगरनिर्द्धमनेषु-तत्क्षालेषु, तथा अगारशब्दसम्बन्धात् श्मशानागारं-पितृवनगृहं शून्यागार-प्रतीतं तथा गृहशब्दसम्बन्धात् गिरिगृह-पर्वतोपरि गृहं कन्दरगृह-गिरिगुहा गिरिकन्दरं वा शान्तिगृह-यत्र राज्ञां शान्तिकर्म-हो-14 स्थावरा ॥२९४॥ |मादि क्रियते शैलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यस्कृत, उपस्थानगृहं-आस्थानमण्डपोऽथवा शैलोपस्थानगृह-पाषाणमण्डपः भव-IM अवधिकेनगृह-यत्र कुटुम्बिनो वास्तव्या भवन्तीति, अथवा शान्त्यादिविशेषितानि भवनानि गृहाणि च, तत्र भवनं-चतुःशालादि। बलानुत्पगृहं तु-अपवरकादिमानं तेषु सन्निक्षिप्तानि-न्यस्तानि दृष्ट्वा क्षुभ्येद् अदृष्टपूर्वतया विस्मयाल्लोभाद्वेति, 'इच्चेएही'त्यादिभात्युत्पत्ती निगमनमिति । केवल ज्ञानदर्शनं तु न स्कम्नीयात् केवली वा याथात्म्येन वस्तुदर्शनात् क्षीणमोहनीयत्वेन भयविस्मयलो- सू० ३९२. भाद्यभावेन अतिगम्भीरत्वाच्चेति, अत आह-पंचहीं'त्यादि सुगममिति । तथा नारकादिशरीराणि बीभत्सान्युदाराणि च दृष्ट्वाऽपि न केवलदर्शनं स्कन्नातीति शरीरप्ररूपणाय 'नेरइयाण'मित्यादि सूत्रप्रपञ्चः णेरइयाणं सरीरगा पंचवन्ना पंचरसा पं० ०-किण्हा जाब सुकिल्ला, तित्ता जाव मधुरा, एवं निरंतर जाव वेमाणियाणं । पंच सरीरगा पं० त०-ओरालिते बेउब्बिते आहारते तेयते कम्मते, ओरालितसरीरे पंचवन्ने पंचरसे पं०० किण्हे जाव सुकिल्ले वित्ते जाव महुरे, एवं जाव कम्मगसरीरे, सब्वेवि गं बादरखों दिधरा कलेवरा पंचवना X1-२९४॥ पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा (सू०३९५) -- ३९५ -- [४२८] - RBSE ~591~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [३९५]] दीप अनुक्रम [४२९] *%454545605कर गतार्थश्चार्य, नवरं पञ्चवर्णत्वं नारकादिवैमानिकान्तानां [ शरीरिणां ] शरीराणां निश्चयनयात् , व्यवहारतस्तु एकवर्णप्राचुर्यात् कृष्णादिप्रतिनियतवर्णतैवेति, 'जाव सुकिल्लत्ति किण्हा नीला लोहिता हालिद्दा सुकिल्ला 'जाव महुर लासि तित्ता कडया कसाया अंबिला महुरा 'जाव बेमाणियाणं'ति चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रम् । 'सरी'त्ति उत्पत्तिसमया-III दारभ्य प्रतिक्षणमेव शीर्यत इति शरीरं, 'ओरालिय'त्ति उदारं-प्रधानं उदारमेवीदारिक, प्रधानता चास्य तीर्थकरादिशरीरीपेक्षया, न हि ततोऽन्यत् प्रधानतरमस्ति, प्राकृतत्वेन च ओरालियंति १, अथवा उरालं नाम विस्तरालं विशालं सातिरेकयोजनसहनप्रमाणत्वादस्य अन्यस्य चावस्थितस्यैवमसम्भवात्, उक्त-"जोयणसहस्समहियं ओहे एगिदिए तरुगणेसु । मच्छ जुयले सहस्सं उरगेसु य गम्भजाएसु ॥१॥" इति [योजनसहस्रमधिकं ओघेनैकेन्द्रिये तरुगणे च । मत्स्ययुगले सहस्रं गर्भजातेपूरगेषु च ॥१॥] वैक्रियस्य लक्षप्रमाणत्वेऽप्यनवस्थितत्वात् , तदेव ओरालिकं २, अथवा उरलमल्पप्रदेशोपचितत्वाबृहत्त्वाच्च भिण्डवदिति तदेव ओरालिकं निपातनात् ३, अथवा ओरालं-मांसास्थिस्नाय्वाद्य वबद्धं तदेव ओरालिकमिति ४, उक्तब-तत्थोदार १ मुरालं २ उरलं ३ ओरालमहब ४ बिन्नेयं । ओदारियति पढम कपडुच्च तित्थेसरसरीरं ॥१॥ भन्नइ य तहोरालं वित्थरवंतं वणस्सई पप्प । पगईए नत्थि अन्न पदहमेत्तं विसालंति ॥२॥ [[उरलं थेवपएसोवचियपि महलगं जहा भिंडं । मंसटिण्हारुबद्धं ओरालं समयपरिभासा ॥३॥ इति [तत्रोदारमुरालमुरलमोरालमथवा विज्ञेयं प्रथम तीर्थेश्वरशरीरं प्रतीत्यौदारिकमिति ॥१॥ भण्यते च तथोरालं विस्तारवद्धनसति प्राप्य प्रकृत्यायदन्यन्नास्त्येतावन्मानं विस्तृतं ॥ २॥ स्तोकप्रदेशोपचितमपि भिंडवन्महत् उरलं मांसास्थिस्नायुबद्धमोरालं Janaturary.com नारकादिनाम् शरीरस्य वर्णनं ~592~ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [३९५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९५] दीप अनुक्रम [४२९] श्रीस्थाना- समयपरिभाषा ॥२॥] 'वेउब्विय'त्ति विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं, उक्तं च-"विविहा व वि- ५स्थाना सिट्ठा वा किरिया विकिरिय तीऍ जं भवं तमिह । वेउब्वियं तयं पुण नारगदेवाण पगईए ॥१॥” इति, विविधा वा उद्देशः१ वृत्तिः विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां यद्भव तदिह वैक्रियं तत्पुनः प्रकृत्या नारकदेवानां ॥१॥] विविधं विशिष्टं वा कु-18 शरीरदिन्ति तदिति, वैकुकिमिति बा, 'आहारए'त्ति तथाविधकार्योत्पत्तौ चतुर्दशपूर्वविदा योगवलेनाहियत इत्याहारक, वर्णन ।।२९५॥ उक्कं च.-"कजमि समुपने सुयकेवलिणा विसिलद्धीए । जं एस्थ आहरिज्जइ भणंति आहारगं तं तु ॥१॥" [श्रुतके- सू० ३९५ वलिना विशिष्टलब्ध्या यदत्र कार्ये समुत्खन्ने आहियते तदेवाहारकं भण्यते ॥१॥] कार्याणि चामूनि-"पाणिदयरिद्धि-15 संदरिसणथमत्थोवगहणहेउं वा । संसयवोच्छेयत्त्थं गमणं जिणपायमूलम्मि ॥१॥" [पाणिदयसिंदर्शनार्थ अर्थावग्रहणाय वा संशयच्युच्छेदाय वा जिनपादमूले गमनं ॥१॥] कार्यसमाप्तौ पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवदिति, 'तेयए'त्ति तेजसो भावस्तैजसं, उष्मादि लिङ्गासिद्धं, उक्तं च-"सब्यस्स उम्हसिद्धं रसादिआहारपागजणगं च । तेयगलद्धिनिमित्तं 51 |च तेयगं होइ नायव्वं ॥१॥" इति [सर्वेषामुष्मतासिद्धं रसाचाहारपाकजनकं च । तेजोलब्धिनिमित्तं च तेजःशरीरं | भवति ज्ञातव्यं ॥१॥] 'कम्मए'त्ति कर्मणो विकारः कार्मणं, सकलशरीरकारणमिति, उक्तं च-"कम्मविगारो कम्म-17 णमद्दविहविचित्तकम्मनिष्फन्नं । सम्बसि सरीराणं कारणभूयं मुणेयव्वं ॥१॥" इति [कर्मविकारः कार्मर्ण अष्टविधवि-13 चित्रकर्मनिष्पन्नं । सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं च ज्ञातव्यं ॥१॥] औदारिकादिक्रमश्च यथोत्तरं सूक्ष्मत्वात् प्रदेशबा-15 हुल्याच्चेति । तथा सर्वाण्यपि बादरवोन्दिधराणि-पर्याप्तकत्वेन स्थूराकारधारीणि कलेवराणि-शरीराणि मनुष्यादीनां ॥२९५॥ induranorm | नारकादिनाम् शरीरस्य वर्णनं ~593~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [३९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९५]] दीप अनुक्रम [४२९] पशादिवर्णादीन्यवयवभेदेनेति, अधिगोलकादिषु तथैवोपलब्धेः, 'दो गंध'त्ति सुरभिदुरभिभेदात् , 'अट्ठ फासत्ति CIकठिनमृदशीतोष्णगुरुलघुस्निग्धरूक्षभेदादिति, अवादरबोन्दिधराणि तु न नियतवर्णादिव्यपदेश्यानि, अपर्याप्तत्वेनाव यघविभागाभावादिति, अनन्तरं शरीराणि प्ररूपितानीति शरीरिविशेषगतान् धर्म विशेषान पंचहि ठाणेहीत्यादिनाऽऽजेषसूत्राम्तेन अन्येन दर्शयति पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, सं०-दुभाइक्खं दुविभज दुपस्सं दुतितिक्खं दुरणुचरं। पंचर्हि ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुगम भवति, तं०-मुआतिक्खं सुविभज सुपस्सं सुतितिक्खं सुरणुचर। पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंयाणं णिचं वनिताई निथं फित्तिताई णिचं धुतिताई णिचं पसत्थाई नियमभणुन्नाताई भति, वं०-संती गुत्ती अजवे महवे लाघवे, पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं जाव अम्भणुनायाई भवंति, सं0-सचे संजमे तवे चिताते बंभरवासे, पंच ठाणाई समणाणं जाय अब्भणुनायाई भवंति, तं०-उक्खित्तघरते निक्खित्तचरते अंतचरते पंतचरते लहचरते, पंच ठाणाई जाव अम्भणुप्रणायाई भवंति, ०-अन्नातचरते अभइलायचरे मोणचरे संसट्ठकप्पिते तज्जासंसट्टकप्पिते, पंच ठाणाई जाव अम्भणुनावाई भवंति, सं०-उपनिहिते मुद्धेसणिते संखादत्तिते दिहलाभिते पुट्ठलाभिते, पंच ठाणाई जाव अब्भणुण्णाताई भवंति, तं०-आयंविलिते निबियते पुरमड़िते परिमिते पिंडवाविते भिन्नपिंडवाविते, पंच ठाणाई अन्भणुनायाई भवंति, ६०-भरसाहारे विरसाहारे अंसाहारे पंताहारे छहाबारे, पंच ठापाई भन्भणुनायाई भवंति, सं०-अरसजीवी विरसजीबी अंतजीवी ख्या०५० junmurary.orm ~594~ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [३९६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानामसूत्र वृत्तिः प्रत ॥२९६॥ क सूत्रांक पंतजीवी सहजीवी, पंच ठाणाई० भवंति, तं०-ठाणातिते उक्कडुआसणिए पडिमहाती वीरासणिए णेसलिए, पंच ५स्थाना ठाणाई. भवंति, तं०-डायतिते लगंडसाती आतावते अबाउडते अकंहूयते (सू०३९६) पंचहि ठाणेहि समणे. उद्देशः१ निगंथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवति, तं0-अगिलाते आयरियवेयावचं करेमाणे १ एवं उवझायवेयावचं करेमाणे | दुर्गमसुग२ थेरवेयावर्ष०३ तबस्सिवेयावचं०४ गिलाणवेयावर्च करेमाणे ५। पंचहि ठाणेहिं समणे निम्गंधे महानिजरे महापज्ज |मक्षान्तिवसाणे भवति, तं०-अगिलाते सेहबेयावचं करेमाणे १ अगिलाते कुलबेया० २ अगिलाए गणवे० ३ अगिलाए संघवे. | सत्याधु४ अगिलाते साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे ५ (सू० ३९७) क्षिप्तादि स्थानादि सुगमश्चार्य, नवरं पश्चसु स्थानकेषु-आख्यानादिक्रियाविशेषलक्षणेषु पुरिमा-भरतैरावतेषु चतुर्विशतेरादिमास्ते च पश्चि-IK सू०३९६ मकाश्च-चरमाः पुरिमपश्चिमकास्तेषां जिनाना-अर्हतां 'दुग्गमति दुःखेन गम्यत इति दुर्गम भावसाधनोऽयं कृच्छ्रवृ वैयावृत्त्यं त्तिरित्यर्थः तद्भवति विनेयानामृजुजडत्वेन वक्रजडत्वेन च, तानि चेमानि तद्यथे' त्यादि, इह चाख्यानं विभजनं दर्शन तितिक्षणमनुचरणं चेत्येवं वक्तव्येऽपि येषु स्थानेषु कृच्छ्रवृत्तिर्भवति तानि तद्योगात् कृवृत्तीन्येवोच्यन्ते इति कृच्छ्र त्तिद्योतकदुःशब्दविशेषितानि कर्मसाधनशब्दाभिधेयान्याख्याना(ख्येया)दीनि विचित्रत्वाच्छन्दप्रवृत्तेराह, 'दुआइक्ख'★ मित्यादि, तत्र दुराख्येय-कृच्छ्राख्येयं वस्तुतत्त्वं, विनेयानां महावचनाटोपप्रबोध्यत्वेन भगवतामायासोत्सत्तेरित्येवमा ख्याने कृच्छ्रवृत्तिरुक्का, एवं विभजनादिष्यपि भावनीया, तथा-व्याख्यातेऽपि तत्र दुर्विभ-कष्टविभजनीयं, ऋजुजडत्वादेरेव तद्भवति दुःशाङ्क शिष्याणां वस्तुतत्त्वस्य विभागेनावस्थापनमित्यर्थः, दुर्विभवमित्यत्र पाठान्तरे दुर्विभाव्यं [३९६] दीप अनुक्रम [४३०] K 4 % सू० ३९७ 2-5 S aturary.com ~595~ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३९७] दीप अनुक्रम [४३१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ ३९७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दुःशका विभावना कर्त्तुं तस्येत्यर्थः, तथा 'दुप्परसं'ति दुःखेन दर्श्यते इति दुर्दर्श, उपपत्तिभिर्दुःशकं शिष्याणा प्रतीतावारोपयितुं तस्वमिति भावः, 'दुतितिक्ख'ति दुःखेन तितिक्ष्यते सह्यते इति दुस्तितिक्षं परीपहादि दुःशकं परीषहादिकमुत्पन्नं तितिक्षयितुं, शिष्यं तत्मति क्षमां कारयितुमिति भाव इति, 'दुरणुचरं ति दुःखेनानुचर्यते - अनुष्ठीयत इति दुरनुचरमन्तर्भूतकारितार्थत्वेन दुःशक मनुष्ठापयितुमित्यर्थः, [ कातन्त्रे हि कारितसंज्ञयैव णिगन्तो ज्ञाप्यते ] अथवा तेषां तीर्थे दुराख्येयं दुर्विभजमाचार्यादीनां वस्तुतस्त्वं शिष्यान् प्रति, आत्मनापि दुर्द्दर्श दुस्तितिक्षं दुरनुचरमित्येवं कारितार्थे विमुच्य व्याख्येयं तेषामपि ऋजुजडादित्वादिति । मध्यमानां तु सुगमं अकृच्छ्रवृत्तिः, तद्विनेयानामृजुप्रज्ञत्वेना* ल्पप्रयतेनैव बोधनीयत्वाद् विहितानुष्ठाने सुखप्रवर्त्तनीयत्वाच्चेति शेषं पूर्ववत्, नवरमकृच्छ्रार्थविशिष्टता आख्यानादीनां वाच्या, तथा 'सुरनुचरन्ति रेफः प्राकृतत्वादिति नित्यं सदा वर्णितानि फलतः कीर्त्तितानि-संशब्दितानि नामतः, 'बुझ्याई'ति व्यक्तवाचोक्तानि स्वरूपतः 'प्रशस्तानि' प्रशंसितानि श्लाघितानि 'शंसु स्तुता'विति वचनात् अभ्यनुज्ञातानि कर्त्तव्यतया अनुमतानि भवन्तीति, अयं च सूत्रोरक्षेपः प्रतिसूत्रं वैयावृत्यसूत्रं यावद् दृश्य इति, तत्र क्षान्त्यादयः क्रोधलोभमायामाननिग्रहाः तथा लाघवमुपकरणतो गौरवन्त्रयत्यागतश्चेति, तथाऽन्यानि पञ्च, सद्भ्यो हितं सत्यम्-अनलीकं, तच्चतुर्विधं यतोऽवाचि - " अविसंवादनयोगः कायमनोत्रागजिह्मता चैत्र । सत्यं चतुर्विधं तच्च जिनवरम| तेऽस्ति नान्यत्र ॥ १ ॥” इति तथा संयमनं संयमो - हिंसादिनिवृत्तिः, स च सप्तदशविधः, तदुक्तम्- “पुढविदगअग| णिमारुय वणष्फर बितिचउपणिंदि अज्जीवे । पेहोपेहपमजणपरिवणमणोवई काए ॥ १ ॥ [ पृथ्वीदकाग्निमारुतवन For Parts Only ~ 596~ |ryorg Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३९७] दीप अनुक्रम [४३१] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥ २९७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ ३९७] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थाना० सत्याद्युत्क्षिप्तादि स्पतिद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियाजीवेषु प्रेक्षोत्प्रेक्षप्रमार्जनपरिष्ठापन मनोवाक्कायेषु ॥ १ ॥ ] अथवा - "पश्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रि यनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥ १ ॥” इति, तथा तप्यतेऽनेनेति तपः, यतोऽभ्यधायि ॐ उद्देशः १ "रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्ज शुक्राण्यनेन तप्यन्ते । कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुतम् ॥ १ ॥" [ साम्वर्थमि७ दुर्गमसुगत्यर्थः > तच्च द्वादशधा यथाऽऽह - "अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संकीणया य बज्झो मक्षान्तितवो होइ ॥ १ ॥ पायच्छित्तं विणओ बेयावचं तहेव सम्झाओ। झाणं उस्सग्गोऽविय अग्भितरओ तवो होइ ॥ २ ॥" इति [ अनशनमबमौदर्य वृतिसंक्षेपो रसत्यागः कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपो भवति ॥ १ ॥ प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं तथैव स्वाध्यायो ध्यानमुत्सर्गः अपि चाभ्यन्तरं तपो भवति ॥ १ ॥ ] 'चिघाए'ति त्यजनं त्यागः- संविनैकसा- 8 स्थानादि म्भोगिकानां भक्तादिदानमित्यर्थः, गाथे चात्र- "तो कयपञ्चक्खाणो आयरियगिलाणवाउहाणं । देजाऽसणार संते ४० ३९६ लाभ कयवीरियायारो ॥ १ ॥ संविग्गअन्नसंभोइयाण देसिज्ज सगुगकुलाणि । अतरंतो वा संभोइयाण देखे जहसमाही ॥ २ ॥” इति [ ततः कृतप्रत्याख्यानः आचार्यग्यानबालवृद्धानां । सति लाभेऽशनादि दद्यात् कृतवीर्याचारः ॥ १ ॥ ] १ सू० १९७ कयपश्चक्खाणोऽविय आव० ) संविग्नान्यसंभोगिकानां श्राद्धकुलानि दर्शयेत् । सांभोगिकानामध्यशको यथासमाधि देशयेत् ॥ १ ॥ ] ब्रह्मचर्ये -मैथुनविरमणे तेन वा बासो ब्रह्मचर्यवास इत्येष पूर्वोच्चैः सह दशविधः श्रमणधर्म इति, अन्यत्र त्वयमेवमुक्त:- " खंती य मद्दवऽज्जव मुती तवसंजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च वंभं च जइधम्मो ॥ १ ॥” इति [ क्षान्तिश्च माद्देवमार्जवं मुक्तिस्तपः संयमश्च बोद्धव्यः । सत्यं शौचमाकिंचन्यं च ब्रह्म च यतिधर्मः ॥ १ ॥ ] वैयावृत्त्य ( For Penal Use On ~ 597 ~ ॥ २९७ ॥ nary org Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [३९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [३९७] दीप अनुक्रम [४३१] इतश्च साधुधर्मभेदस्य बाह्यतपोविशेषस्य वृत्तिसङ्केपाभिधानस्य भेदाः 'उक्खिसचरए'इत्यादिना अभिधीयन्ते, तत्र उ-1. क्षिप्त-स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुदृतं तदर्थमभिग्रहविशेषाचरति-तद्गवेषणाय गच्चतीत्युक्षिप्तचरकः, एवं सर्वत्र, नवरं निक्षिप्त-अनुद्व अन्ते भवमान्त-भुक्तावशेष बल्लादि प्रकृष्टमान्तं प्रान्त-तदेव पर्युषितं, रूक्ष-निःस्नेहमिति, हा |च भावप्रत्ययप्रधानखेन उत्क्षिप्तपरकत्वमित्यादि द्रष्टव्यमेवमुत्तरत्रापि भावप्रधानता दृश्या, इह चाद्यौ भावाभिग्रहावि-1* तरे द्रव्याभिग्रहाः, यतोऽभाणि-"उक्खित्तमाइचरगा भावजुया खलु अभिग्गहा होति । गायंतो व रुयंतो जं देह निस-18 णमाई वा ॥१॥"[ उत्क्षिप्तादिघरकत्वादिका अभिग्रहा भावयुता भवंति । गायन् वा रुदन निषण्णादिळ यहदाति |॥१॥] तथा "लेबडमलेवर्ड वा अमुगं दवं च अज्ज घेच्छामि । अमुगेण उ दवेणं अह दव्वाभिग्गहो नाम ॥२॥" इति [ लेपकृदलेपकृवाऽमुकं द्रव्यं चाय ग्रहीष्यामि । अमुकेन तु द्रव्येणैष द्रव्याभिग्रहो नाम ॥१॥] पवमन्यत्रापि |विशेष ऊह्य इति, अज्ञातः-अनुपदर्शितस्वाजन्यर्द्धिमानजितादिभावः सन् चरति-भिक्षार्थमटतीत्यज्ञातचरकः, तथा 'अन्नइलायचरए'त्ति अन्नग्लानको दोषान्नभुगिति भगवतीटीप्पनके उक्तः, एवंविधः सन् , अथवा अन्नं विना ग्लायका-समुत्पन्नवेदनादिकारण एवेत्यर्थः अभ्यस्मै वा ग्लायकाय भोजनार्थं चरतीति अन्नग्लानकचरकोऽन्नग्लायकचरको-| |ऽन्यग्लायकचरको वा, कचित् पाठः 'अन्नवेल'त्ति तत्रान्यस्यां-भोजनकालापेक्षयाऽऽद्यावसानरूपायां वेलायां-समये चिरतीत्यादि दृश्य, अयं च कालाभिग्रह इति, तथा मौनं-मौनव्रतं तेन चरति मौनचरकः, तथा संसृष्टेन-खरण्टिते नेत्यर्थो हस्तभाजनादिना दीयमानं 'कल्पिक' कल्पवत् कल्पनीयमुचितमभिग्रहविशेषाभकादि यस्य स संसृष्टकल्पिकः, SCAROSACANCCC REmainine Kunitarary.org ~598~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२९॥ [३९७] दीप अनुक्रम [४३१] श्रीस्थाना- तथा 'तजातेन' देयद्रव्यप्रकारेण यत्संसृष्टं हस्तादि तेन दीयमानं कल्पिकं यस्येति विग्रह इति, उपनिधीयत इत्युप- ५स्थाना० उद्देशः१ असूत्र- निधिः-प्रत्यासन्नं यद्यथाकथञ्चिदानीतं तेन चरति तद्ग्रहणायेत्यर्थः इत्योपनिधिकः, उपनिहितमेव वा यस्य ग्रहण-I वृत्तिः | विषयतयाऽस्ति स प्रज्ञादेराकृतिगणवेन मत्वर्थीयाणप्रत्यये औपनिहित इति, तथा शुद्धा-अनतिचारा एषणा-दाकि- दुर्गमसुग है तादिदोपवर्जनरूपा 'संसहमसंसट्टे त्यादिसप्तप्रकारा अन्वतरा वा तया चरतीत्युत्तरपदवृया शुद्धैषणिकः, सङ्ख्याप्र-IMमक्षान्ति धाना:-परिमिता एव दत्तयः-सकृद्भक्कादिक्षेपलक्षणा ग्राह्याः यस्य स सङ्ख्यादत्तिका, दत्तिलक्षणश्लोकः-"दत्ती उ सत्याधुजत्तिए वारे, खिबई होति तत्तिया। अवोच्छिन्नणिवायाओ, दत्ती होइ दबेतरा ॥१॥" इति [यावतीवाराः क्षिपति तावत्यो अक्षिप्तादिदत्तयो भवन्ति । अव्युच्छिन्ननिपातायेतरयोर्दत्तिर्भवति ॥१॥] तथा दृष्टस्यैव भक्तादेलाभस्तेन चरतीति तथैव दृष्टला-ला स्थानादि भिकः, पृष्टस्यैव साधो! दीयते ते? इत्येवं यो लाभस्तेन चरतीति प्राग्वत् पृष्टलाभिकः, आचाम्ल-समयप्रसिद्धं तेन चर न यमितचर- सू०३९६ वैयावृत्त्यं पतीत्याचाम्लिकः, निर्गतो घृतादिविकृतिभ्यो यः स निम्विकृतिका, पुरिमार्द्ध-पूर्वाहलक्षणं प्रत्याख्यानविशेषोऽस्ति यस्य स तथा, परिमितो-द्रव्यादिपरिमाणतः पिण्डपातो-भक्तादिलाभो यस्यास्ति स परिमितपिण्डपातिका, भिन्नस्यैव-स्फोटितस्यैव कापिण्डस्य सक्तुकादिसम्बन्धिनः पातो-लाभो यस्यास्ति स भिन्नपिण्डपातिकः । ग्रहणानन्तरमभ्यवहरणं भवतीत्यत एतदु-1 च्यते-'अरसं' हिड्नवादिभिरसंस्कृतमाहारयतीत्यरसो वाऽऽहारो यस्यासावरसाहारः, एवं सर्वत्र, नवरं विरसं-विगतरसं *पुराणधान्यौदनादि, रूक्षं तैलादिवर्जितमिति, तथा अरसेन जीवितुं शीलमाजन्मापि यस्य स तथा, एवमन्यत्रापि । 'ठाणाइए'त्ति स्थान कायोत्सर्ग: तमतिददाति-प्रकरोति अतिगच्छति वेति स्थानातिदः स्थानातिगो वेति, उत्कुटुका-1 FarPurwanaBNamunoonm ~599~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [३९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९७] दीप अनुक्रम [४३१] सन-पीठादौ पुतालगनेनोपवेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स उत्कुटुकासनिकः, तथा प्रतिमया-एकरात्रिक्यादिकया । कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ठतीत्येवंशीलो यः स प्रतिमास्थायी 'वीरासन' भून्यस्तपादस्य सिंहासने उपविष्टस्य तदपनयने | या कायावस्था तद्रूपं, दुष्करं च तदिति, अत एव वीरस्य-साहसिकस्यासनमिति वीरासनमुक्तं तदस्थास्तीति वीरास-1 ४ानिका, तथा निषद्या-उपवेशनविशेषः, सा च पशधा, तत्र यस्यां समं पादी पुती च स्पृशतः सा समपादपुता १ यस्यां - तु गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका २ यत्र तु पुताभ्यामुपविष्टः सन् एक पादमुत्पाव्यास्ते सा हस्तिसुण्डिका ३ पर्यङ्कार्द्धपर्यङ्का च प्रसिद्धा, निपद्यया चरति नैषयिक इति, दण्डस्येवायतिः-दीर्घत्वं पादप्रसारणेन यस्य स दण्डायतिकः, तथा लगण्डं किल दुःसंस्थितं काष्ठं तद्वन्मस्तकपार्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः यः शेते तथाविधाभिग्रहात् स लगण्डशायी, तथा आतापयति-आतापनां शीतातपादिसहनरूपां करोतीत्यातापकः, तथा न विद्यते प्रावृतं-बावरणं अस्येत्यप्रावृतका, तथा न कण्डूयत इत्यकण्डूयका, 'स्थानातिग' इत्यादिपदानां कल्पभाष्यव्याख्येयम्-"उद्धट्ठाण ठाणाइयं तु पडिमा य होति मासाई। पंचेव णिसेजाओ तासि विभासा उ कायब्वा ॥१॥ वीरासणं तु सीहासणेब्व | जहमुकजाणुगाणेविट्ठो । डंडे लगण्डउवमा आययकुजे य दोण्हपि ॥२॥ आयावणा य तिविहा उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना य । उकोसा उ निवना निसन्न मज्झा ठिय जहन्ना ॥३॥तिविहा होइ निवन्ना ओमंथिय पास तइय उत्ताणा", इति [ स्थानादिकमेवोस्थानं प्रतिमा भवन्ति मासाद्याः । निषद्याः पंचव तासां विभाषा तु कर्तव्या ॥१॥ अद्वैजा-1 नुको (मुक्तजानुकः) यथा सिंहासने निविष्टः वीरासनं दंडेन लगंडेन उपमा द्वयोरपि आयतकुब्जत्वयोः॥१॥ आता ~600~ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३९७] दीप अनुक्रम [४३१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [१], मूलं [३९७] स्थान [५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रीस्थानाकसूत्र वृत्तिः ॥ २९९ ॥ Education t सत्याधु त्क्षितादि पना च त्रिविधोत्कृष्टा मध्यमा जघन्या च सुप्तस्योत्कृष्टा निषण्णा मध्या स्थिता जघन्या ॥ १ ॥ निर्वर्णा त्रिविधा भ वति अवमंथिता पार्श्वा तथा उत्ताना ] निषण्णापि त्रिविधा - "गोदुह उक्कुडपलियंकमेस तिविहा य मज्झिमा होइ । तइया उ हस्थिसोंडगपायसमपाइया चेव ॥ ४ ॥” इति [ (निषण्णा) गोदोहिकोरकुटपर्यंका एषा त्रिविधा च मध्यमा भवति तृतीया तु हस्तिसोंडिका पादसमपादिका चैव ॥ १ ॥] इयं च निषण्णादिका त्रिविधाऽध्यातापना स्वस्थाने पुनरप्युत्कृष्टादिभेदा ओमंधियादिभेदेनावगन्तव्या, इह च यद्यपि स्थानातिगत्वादीनामातापनायामन्तर्भावस्तथापि प्रधानेतरविवक्षया न पुनरुक्तत्वं मन्तव्यमिति । तथा महानिर्जरो बृहत्कर्मक्षयकारी महानिर्जरत्वाच्च महद्-आत्यन्तिकं पुनरुद्भवाभावात् पर्यवसानं - अन्तो यस्य स तथा, 'अगिलाए'ति अग्लान्या-अखिन्नतया बहुमानेनेत्यर्थः, आचार्यः प ४ स्थानादि चप्रकार:, तद्यथा-प्रजाजनाचार्यो दिगाचार्यः सूत्रस्थ उद्देशनाचार्यः सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यो वाचनाचार्यश्चेति, तस्य वैयावृस्य-व्यावृत्तस्य - शुभव्यापारयतो भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं भक्तादिभिर्धम्र्मोपग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणमाचार्यवैयावृत्त्यं तत्कुर्वाणो विदधदिति, एवमुत्तरपदेष्वपि, नवरमुपाध्यायः- सूत्रदाता स्थविरः स्थिरीकरणात् अथवा जात्या पष्टिवार्षिकः पर्यायेण विंशतिवर्षपर्यायः श्रुतेन समवायधारी तपस्वी - मासक्षपकादिः ग्लानः- अशको व्याध्यादिभिरिति, तथा 'सेह'त्ति शिक्षकोऽभिनवप्रत्रजितः 'साधर्मिकः' समानधर्मा लिङ्गतः प्रवचनतश्चेति, कुलं- चान्द्रादिकं साधु समुदायविशेषरूपं प्रतीतं गणः- कुलसमुदायः सङ्घोगणसमुदाय इत्येवं सूत्रद्वयेन दशविधं वैयावृत्त्यमाभ्यन्तरतपोभेदभूतं प्रतिपादितमिति, उक्तं च- "आयरियउवज्झाए थेरतवस्सी गिलाणसेहाणं । साईमियकुलगण संघ संगयं त For Parts Use One ~601~ ५ स्थाना० उद्देशः १ दुर्गमसुगमक्षान्ति सू० १९६ वैयावृत्त्यं सू० ३९७ ।। २९९ ।। anibrary o Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३९७] दीप अनुक्रम [४३१] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [1] Education In मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... स्थान [५], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - *******... मिह कायध्वं ॥ १ ॥” इति [आचार्योपाध्यायस्थ विरतपस्विशैक्षग्लानानां साधर्मिककुलगणसंघस्य संगतं तदिह क र्त्तव्यम् ॥ १ ॥ ] पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मितं संभोतितं विसंभोतितं करेभाणे णातिकमति, सं० सकिरितठ्ठाणं पडिसेवित्ता भवति १ पडिसेवित्ता जो आलोएइ २ आलोइचा णो पट्टवेति ३ पटुवेत्ता णो णिध्विसति ४ जाई इमाई बेराणं ठितिपप्पाई भवति ताई अतियंचिय २ पडिसेवेति से इंदऽहं पडिसेवामि किं मं थेरा करिस्संति ? ५ । पंचहिं ठाणेहिं समणे निम्गंथे सारंमितं पारंचितं करेमाणे णातिक्रमति, तं०--- सकुले वसति सकुलस्स भेदाते अच्मुट्ठित्ता भवति १ गणे वसति गणस्स भेताते अभुट्टेत्ता भवति २ हिंसप्पेही ३ छिप्पेही ४ अभिक्खणं पसिणावतणाई परंजित्ता भवति ५ । (सू० ३९८ ) आयरिउवज्झायरस णं गणंसि पंच दुग्गहट्टाणा पं० तं० – आयरियउवज्झाए णं गर्णसि आणं वा धारणं वा नो सम्म पजेत्ता भवति १ आयरियउवज्झाए णं गर्णसि आधारातिणियाते कितिकम्मं नो सम्मं परंजिता भवति २ आयरियडबझाते गणंसि जे सुत्तपावजाते धारेति ते काले २ णो सम्ममणुष्पवातित्ता भवति ३ आयरियउवज्झाए गणसि गिलाणसेवेयावचं नो सम्ममध्भुट्टित्ता भवति ४ आयरियउवज्झाते गर्णसि अणापुच्छितचारी यावि हवइ नो आपुच्छिबचारी ५ । आयरियउवज्झायरस णं गणंसि पंचावुग्गहट्टाणा पं० ० -आयरियउवज्झाए गर्णसि आणं वा धारणं वा सम्भं परंजिता भवति, एवमधारायणिताते सम्मं किइकम्मं परंजित्ता भवइ आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुतपज्जवजाते धारेति ते काले २ सम्म अणुपवाइत्ता भवइ आयरियडवज्झाए गणंसि गिलाणसेवेतावचं सम्मं अम्भुट्टित्ता भवति आय For Parts Only मूलं [३९७ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 602 ~ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानालसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥३०॥ [३९९]] दीप अनुक्रम [४३३] SECREENERACTICAL रियउवमाते गणसि आपुकिछयचारी याचि भवति णो अणापुच्छियचारी (सू० ३९९) पंच निसिजाओ पं० सं० ५स्थाना० उडती गोदोहिता समपायपुता पलिका अद्धपलितंका । पंच अजबढाणा ५० त०-साधुअज्जवं साधुमहवं साधुलापर्व | उद्देशः१ साधुखंती साधुमुत्ती (सू०४००) विसंभोगसाम्भोगिक-एकभोजनमण्डलीकादिक विसाम्भोगिक-मण्डलीबाह्यं कुर्वनातिकामति आज्ञामिति गम्यते, उचितत्वादिति, सक्रिय--प्रस्तावादशुभकर्मवन्धयुक्तं स्थानं-अकृत्यविशेषलक्षणं प्रतिषेविता भवतीत्येकं, प्रतिषेव्य गुरवे ना-18 लोचयति-न निवेदयतीति द्वितीयं, आलोच्य 'गुरूपदिष्टप्रायश्चित्तं न प्रस्थापयति-कर्तुं नारभत इति तृतीयं, प्रस्थाप्य XI रौ निषन निर्विशति-न समस्तं प्रवेशयत्यथवा 'निर्वेशः परिभोग' इति वचनान्न परिभुले-नासेवत इत्यर्थः इति चतुर्थ, या-12 द्यार्जवे नीमानि सुप्रसिद्धतया प्रत्यक्षाणि 'स्थविराणां स्थविरकल्पिकानां 'स्थिती समाचारे' प्रकल्प्यानि-प्रकल्पनीयानि यो सू०३९८ग्यानि विशुद्धपिण्डशय्यादीनि स्थितिप्रकल्प्यानि अथवा स्थितिश्च-मासकल्पादिका प्रकल्प्यानि ग्य-पिण्डादीनि स्थि-II तिप्रकल्प्यानि तानि 'अश्यंचिय अइयंचिय'त्ति अतिक्रम्यातिक्रम्येत्यर्थः, प्रतिषेवते तदन्यानीति गम्यते, अथ स-151 छाटकादिः साधुरेवं पर्यालोचयति-यथा नैतत्प्रतिषेवितुमुचितं गुरुनौं बाह्यौ करिष्यति, तत्रेतर आह-'सें' इति तदकल्प्यजातं 'हंद'त्ति कोमलामन्त्रणं वचनं हमित्यकारप्रश्लेषादहं प्रतिषेवामि किं मम 'स्थविराः' गुरवः करिष्यन्ति ?, न किचित्तै रुष्टैरपि मे करें शक्यते इति बलोपदर्शनं पञ्चममिति । 'पारंचियंति दशमप्रायश्चित्तभेदवन्तमपहतलि-13॥३०॥ गादिकमित्यर्थः कुर्वन्नातिकामति सामायिकमिति गम्यते, कुले-चान्द्रादिके वसति गच्छवासीत्यर्थस्तस्यैव कुलस्य भेदा-- ४०० Belanataramorg साम्भोगिक, विसाम्भोगिक, पारंचिय आदि शब्दानाम् व्याख्या ~603~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [४००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४००] यान्योऽन्यमधिकरणोत्सादनेनाभ्युत्थाता भवति यतत इत्यर्थः इत्येक, एवं गणस्यापीति द्वितीय, तथा हिंसा-वधं सा-18 ध्वादेः प्रेक्षते-गवेषयतीति हिंसाप्रेक्षीति तृतीय, हिंसार्थमेवापभ्राजनार्थं वा 'छिद्राणि प्रमत्ततादीनि प्रेक्षत इति छिद्रप्रेक्षीति चतुर्थं, अभीक्ष्णमितीह पुनःशब्दार्थः ततश्चाभीक्ष्णमभीक्ष्णं पुनः पुनरित्यर्थः प्रश्ना-अङ्गाष्टकुब्यप्रश्नादयः सावद्यानुष्ठानपृच्छा वा त एवायतनान्यसंयमस्य प्रश्नायतनानि प्रयोक्ता भवति, प्रयुङ्ग इत्यर्थः इति पञ्चमं । तथा आचार्यो-1 |पाध्यायस्येति समाहारद्वन्दः कर्मधारयो वा, ततश्चाचार्यस्योपाध्यायस्य 'गणंसि'त्ति गणे 'विग्रहस्थानानि' कलहाश्रयाः, आचार्योपाध्यायौ द्वयं वा 'गणे' गणविषये 'आज्ञा' हे साधो! भवतेदं विधेयमित्येवंरूपामादिष्टिं 'धारणां' न विधेयमिदमित्येवंरूपां 'नो'नैव सम्यग्-औचित्येन प्रयोक्का भवतीति साधवः परस्परं कलहायन्ते असम्यग्नियोगात दुर्मिय-1 त्रितत्वाच्च, अथवा अनौचित्यनियोक्तारमाचार्यादिकमेव कलहायन्ते इत्येवं सर्वत्रेति, अथवा गूढार्थपदैरगीतार्थस्य। पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनाय गीतार्थो यदतिचारनिवेदनं करोति साऽऽज्ञा, असकृदालोचनादानेन यत्प्रायश्चित्तविशेषावधारणं सा धारणा, तयोर्न सम्यक् प्रयोक्तेति स कलहभागिति प्रथम, तथा स एव 'आहाराइणियाए'त्ति रलानि द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः कर्केतनादीनि भावतो ज्ञानादीनि, तत्र रलैः-ज्ञानादिभिर्चवहरतीति रानिका-बृहत्पर्यायो यो यो रालिको यथारालिकं तद्भावस्तत्ता तया यधारातिकतया-यथाज्येष्ठं कृतिकर्म-वन्दनक | विनय एव वैनयिकं तच्च न सम्यक् प्रयोक्ता, अन्तर्भूतिकारितार्थत्वाद्वा प्रयोजयिता भवतीति द्वितीय, तथा स एवं | यानि श्रुतस्य पर्यवजातानि-सूत्रार्थप्रकारान् 'धारयति' धारणाविषयीकरोति तानि काले काले-यथावसरं न सम्यग दीप अनुक्रम [४३४] *4-95 JAMEaurainininml Mjaanasurary.org ~ 604~ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [0] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सूत्रवृत्तिः ॥ ३०१॥ प्रत सूत्रांक [४००] दीप अनुक्रम [४३४] नुप्रवाचयिता भवति-न पाठयतीत्यर्थः इति तृतीयं, काले अनुप्रवाचयितेत्युक्तं तत्र गाथाः-“कालकमेण पत्तं संव- ५स्थाना च्छरमाइणा उजं जंमि । तं तंमि चेव धीरो वाएजा सो य कालोऽयं ॥१॥ तिबरिसपरियागरस उ आयारपकप्प- उद्देशः१ नाममज्झयणं । चउवरिसस्स य सम्म सूयगडं नाम अंगति ॥ २॥ दसकप्पथ्यवहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव ।। विसंभोगठाणं समवाओऽविय अंगे ते अट्ठवासस्स ॥ ३॥ दसवासस्स विवाहो एक्कारसवासयस्स य इमे उ । खुड्डियविमाणमाई | पाराञ्चिते अज्झयणा पंच नायब्वा ॥ ४ ॥ बारसवासस्स तहा अरुणुववायाइ पंच अज्झयणा । तेरसवासस्स तहा उट्ठाणसुयाइया व्युद्हेत| चउरो ॥ ५॥ चोदसवासस्स तहा आसीविसभावणं जिणा बिन्ति । पन्नरसवासगरस य दिहीविसभावणं तहय ॥६॥ रौ निषसोलसवासाईसु य एकोत्तरवुडिएसु जहसंखं । चारणभावणमहासुविणभावणा तेयगनिसग्गा ॥७॥ एगूणवीसवासगस्स द्यावे उ दिद्विवाओ दुवालसममंग । संपुष्णवीसबरिसो अणुवाई सब्वसुत्तस्स ॥८॥"त्ति, [संवत्सरादिना कालक्रमेण यस्मिन् सू०३९८यदेव प्राप्तं तत्तस्मिन्नेव धीरो वाचयेत् सोऽयं कालः ॥१॥ त्रिवर्षपर्यायकस्याचारप्रकल्पनामाध्ययनं चतुर्वस्य च सूत्र-18/ ३९९. कृनामाङ्गमिति सम्यग्वाचयेत् ॥ २॥ दशाकल्पव्यवहाराः संवत्सरपंचकदीक्षितस्यैव स्थानांर्ग समवायोऽपि ते अष्टवर्ष-| ४०० स्यांगे ॥३॥ दशवर्षस्य विवाहः एकादशवर्षस्यमानि शुलकविमानप्रविभक्त्यादीन्यध्ययनानि पंच ज्ञातव्यानि ॥४॥ द्वादशवर्षस्य तथाऽरुणोपपातादीनि पंचाध्ययनानि त्रयोदशवर्षस्य तथोत्थानश्रुतादिकानि चत्वारि ॥५॥ चतुर्दशवर्षस्याशीविषभावनां जिना अवन्ति पंचदशवर्षकस्य च दृष्टिविषभावनां तथा च ॥६॥षोडशवर्षादिषु चैकैकोत्तरवर्धितेषु यथासंख्य चारणभावनां महास्वामभावनां तेजीनिसर्ग ॥७॥ एकोनविंशतिकस्य तु दृष्टिवादो द्वादशममंग संपूर्णविं CCCALSO ACANCE ॥३०१॥ FmPanaswantheontr ~605~ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४०० ] दीप अनुक्रम [४३४] स्था० ५१ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [ ४०० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः शतिवर्षोऽनुपाती सर्वश्रुतस्य ॥ १ ॥ ] तथा स एव ग्लान शैक्षवैयावृत्यं प्रति न सम्यक् स्वयमभ्युत्थाता - अभ्युपगन्ता भवतीति चतुर्थ, तथा स एव गणं अनापृच्छय चरति-क्षेत्रान्तरसङ्क्रमादि करोतीत्येवंशीलोडनापृच्छयचारी, किमुक्तं भवति ?-नो आपृच्छयचारीति पथमं विग्रहस्थानं । एतदेव व्यतिरेकेणाह-अविग्रहसूत्रं गतार्थं । निषयासूत्रे निषदनानि | निषद्याः- उपवेशनप्रकारास्तत्रासना लग्नपुतः पादाभ्यामवस्थित उत्कुटुकस्तस्य या सा उत्कुटुका, तथा गोदहनं गोदोहिका तद्वयाऽसौ गोदोहिका, तथा समौ-समतया भूलग्नौ पादौ च पुतौ च यस्यां सा समपादपुता, तथा पर्यङ्का - जिनप्रति मानामिव या पद्मासनमिति रूढा, तथा अर्द्धपर्यङ्का - ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति । तथा ऋजोः रागद्वेषवक्रत्ववर्जितस्य सामायिकवतः कर्म्म भावो वा आर्जवं संबर इत्यर्थः तस्य स्थानानि भेदा आर्जवस्थानानि, साधु-सम्यग्दर्शनपूर्वक त्वेन शोभनमार्जवं मायानिग्रहस्ततः कर्म्मधारयः साधोर्वा यतेरार्जवं साध्वार्जवं, एवं शेषाण्यपि । आर्जवयुक्ताश्च मृत्वा प्रायो देवा भवन्तीति पंचविहा जोइसिएत्यादिना ईसाणस्स णमेतदन्तेन ग्रन्थेन देवाधिकारमाह पंचविधा जोइसिया पं० [सं० चंदा सूरा गहा गक्खत्ता ताराओ, पंचविधा देवा पं० [सं० भवितब्बदेवा णरदेवा धम्मदेवा देवातिदेवा भावदेवा (सू० ४०१) पंचविद्या परितारणा पं० [सं० कातपरिचारणा फासपरिवारणा परि तारणा सहपरितारणा मणपरिवारणा (सू० ४०२) चमरस्स णं असुर्रिदस्स असुरकुमाररनो पंच अग्गमहिसीओ पं० तं०-काले राती रवणी बिज्जू मेहा, बलिस्स णं वतिरोवणिदस्स वतिरोवणरन्नो पंच अग्गमहिसीओ पं० सं० सुभा णिसुभारंभा णिरंभा मतणा (सू० ४०३) चमरस्स णमसुर्रिदस्स असुरकुमाररण्णो पंच संगानिता अणिता पंच For Parts Only ~ 909~ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४०४] दीप अनुक्रम [४३८] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३०२ ॥ स्थान [५], उद्देशक [1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] -------- * * * - *-% *%*56% "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ४०४ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः EducationEIE - संगामिया अणियाधिवती पं० तं०-पायचाणिते पीढाणिते कुंजराणिते महिसाणिते रहाणीते, दुमे पायन्ताणितादिवती सोदामी आसराया पीढाणियाधिवती कुंथू दत्थिराया कुंजराणिताधिवती लोहितक्ले महिसाणिताधिवती किन्नरे रथापिताविती । वलिस णं वतिरोतणिंदस्स वतिरोतणरनो पंच संगामिताणिवा पंच संगामिताणीयाधिवती पं० तं०पायताणते जाव रधाणिते, महद्दुमे पायत्ताणिताधिवती महासोतामो आसराता पीडाणिताधिवती मालंकारो हत्थिराया कुंजराणिताधिपती महालोहिअक्खो महिसाणिताधिवती किंपुरिसे रधाणिताधिपती धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररनो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिताणीयाधिपती पं० [सं० पायत्ताणिते जाव रहाणीए, भद्दसेणे पायशाणिताधिपती जसोधरे आसराया पीठाणिताधिपती सुदंसणे इत्थिराया कुंजराणिवाधिपती नीलकंठे महिसाणियाधिपती आणंदे रहाणिता हिवई । भूयानंदस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो पंच संगामियाणिया पंच संगामियाणीयाहिबई पं० [सं० पायताणीए जाव रहाणीए दक्खे पायत्ताणियाहिवई सुग्गीवे आसराया पीढाणियाहिवई सुचिकमे हल्थिराया कुंजराणिताहिवई सेयकंठे महिसाणिया हिवई नंदुत्तरे रहाणियाहिवई । वेणुदेवस्स णं सुवन्निंदस्स सुवनकुमाररनो पंच संगामियाणिता पंच संगामिवाणिताहिपती पं० [सं० – पायताणीते एवं जथा धरणस्स तथा वेणुदेवस्सवि, वेणुदालियस्स जहा भूताणंदस्स, जधा घरणस्स तहा सव्वेसिं दाहिणिहाणं जब घोसस्स, जधा भूताणंदस्स तथा सन्धेसि उरिला जाव महाघोसस्स । सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिताणिताधिवती पं० सं० - पायत्चाणिते जाव उभाणिते, हरिणेगमेसी पायत्ताणिताधिवती वाऊ आसराता पीढाणिताधिवई एरावणे हत्थराया For Palsta Use Only ~ 607 ~ ५ स्थाना० उद्देशः १ ज्योतिष्क भव्यदेवा दिपरिचा रणाऽग्रम हिषीचम राधनी कानिद्विकल्पाभ्य न्तरपर्ष रिस्थतिः सू० ४०१ Skate ॥ ३०२ ॥ you Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [४०४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 25 प्रत सूत्रांक [४०४] दीप अनुक्रम [४३८] कुंजराणिताधिपई दामट्टी उसभाणिताधिपती माढरो रधाणिताधिपती, ईसाणस्स णं देविदस्स देवरलो पंच संगामिया अणिता जाव पायत्ताणिते पीडाणिए कुंजराणिए उसमाणिए रधाणिते, लहुपरजामे पायत्ताणिताधिवती महावाऊ आसराया पीढाणियाहिबई पुष्फदते हत्थिराया कुंजराणियाहिवती महादामड़ी उसभाणियाहिबई महामावरे रथाणिवाहियती, जधा समस्स तहा सव्वेसि दाहिणिलाणं जाव आरणस्स जधा ईसाणस्स तहा सम्बोसि उत्तरिलाणं आप अभुतस्स (सू०४०४) सफरस गं देविंदस्स देवरनो अब्भतरपरिसाए देवाणं पंच पलिओषमाई ठिती पं०, ईसाणरस णं देविंदस्स देवरो अम्भंतरपरिसाते देवीणं पंच पलिओवमाई ठिती पं०, (स०४०५) सुगमश्चार्य, नवरं ज्योतींषि-विमानविशेषास्तेषु भवा ज्योतिष्का इति, तथा दीव्यन्ति-क्रीडादिधर्मभाजो भवन्ति | दीव्यन्ते वा-स्तूयन्ते ये ते देवाः, भव्या-भाविदेवपर्याययोग्या अत एव द्रव्यभूताः ते च ते देवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः-वैमानिकादि ४, देवत्वेनानन्तरभवे ये उत्पत्स्यन्त इत्यर्थः, नराणां देवा नरदेवाश्चक्रवर्तिन इत्यर्थः, धर्मप्रधाना देवा धर्मदेवा:-चारित्रवन्तो देवानां मध्ये अतिशयवन्तो देवाः देवाधिदेवाः-अहेन्तः भावदेवा-देवायुष्काद्यनुभवन्तो वैमानिकादयः ४ इत्यर्थः । 'परितारण'त्ति वेदोदयप्रतीकारः, तत्र स्त्रीपुंसयोः कायेन परिचारणा-मैथुनप्रवृत्तिः कायपरिचा रणा ईशानकल्पं यावद् , एवमन्यत्रापि समासः, नवरं स्पर्शेन तदुपरि द्वयोः ४ रूपेण द्वयोः ६ शब्देन द्वयो ८ मनसा &|चतुर्यु १२ अवेयकादिषु परिचारणैव नास्तीति । 'साझामिकाणि' सत्रामप्रयोजनानि, एतच्च गान्धर्वनाट्यानीकयोयंव च्छेदार्थ विशेषणमिति, अनीकाधिपतयः-सैन्यमध्ये प्रधानाः पदात्यादयः, एवं पदातीना-पत्तीनां समूहः पादातं तदे % ~608~ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [४०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: आजीव प्रत सूत्रांक [४०५] दीप अनुक्रम [४३९] श्रीस्थानावानीकं पादातानीकं पीठानीकं-अश्वसैन्यं, पादातानीकाधिपतिः पदातिरेवोत्तमः, अश्वराजः-वधानाऽश्वा, एवम स्थाना सूत्र 12न्येऽपि, 'दाहिणिल्लाण'ति सनत्कुमारब्रह्मशुकानतारणानां, 'उत्तरिल्लाणं'ति माहेन्द्रलान्तकमहन रणताच्युनाना-IALउद्देशा१ वृत्तिः ४ मिति, इह च दाक्षिणात्याः सौधर्मादयो विषमसञ्जया इति विषमसञ्जयत्वं शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य ब्रह्मलोकशुक्री दाप्रतिपाता. है क्षिणात्यावुक्ती, समसङ्ख्यत्वं तु प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य लान्तकसहस्रारावुत्तराविति, तथा देवेन्द्रस्तबाध्ययनाभिधानप्रकीर्णकश्रुत इव द्वादशानामिन्द्राणां विवक्षणादारणस्येत्यायुक्तमिति सम्भाव्यते, अन्यथा चतुषु द्वात्रवेन्द्रावत आरण त्येत्या-15 काराजद्यनुपपन्नं स्वादिति । इहानन्तरं देवानां वक्तव्यतोक्ता, दुष्टाध्यवसायस्य च प्राणिनस्तद्गातस्थित्यादिप्रतिघातो भवतीति | | चिहानि | तन्निरूपणायाह सू०४०६. पंचविहा पडिहा पं० सं०-गतिपडिहा ठितीपडिहा बंधणपडिहा भोगपडिहा बलवीरितपुरिमयारपरकमपटिहा ४०८ (सू०४०६) पंचविधे आजीविते पं० २०-जातिआजीवे कुलाजीवे कम्माजीवे सिप्पाजीवे लिंगाजीवे (सू०४०७) पंच रातफहा पं० सं०-खग्गं छत्वं उपफेसं उपाणहाओ वालवीअणी (सू०४०८) | 'पंचविहा पडिहे त्यादि सुगम, नवरं 'पडिह'त्ति प्राकृतत्वात् उप्पा इत्यादिवत्प्रतिघातः प्रातहरनामेत्यर्थः, तत्र | |गतेः-देवगत्यादेः प्रकरणाच्छुभायाः प्रतिघातः-तत्प्राप्तियोग्यत्वे सति विकर्माकरणादप्राप्तिगंतिप्रतिघात, प्रत्यादिपरि पालनतः प्राप्तव्यशुभदेवगतेनैरकप्राप्ती कण्डरीकस्येवेति, तथा स्थितेः-शुभदेवगतिप्रायोग्यकर्मणां बड़व प्रतिघातः स्थितिप्रतिघाता, भवति चाध्यवसायविशेषारिस्थतेः प्रतिघातो, यदाह-"दीहकालठियाओ इसकालठियाभो पकरेइ"15 400 dancinrary.orm ~609~ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [१], मूलं [४०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: SACANSAR प्रत सूत्रांक [४०८] दीप अनुक्रम इति, [दीर्घकालस्थितिकाः हस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति प्रकती॥ तथा बन्धनं नामकर्मण उत्तरप्रकृतिरूपमौदारिकादिभेदतः पञ्चविधं तस्य प्रक्रमात् प्रशस्तस्य प्राग्वत् प्रतिघातो बन्धनप्रतिघातो, बन्धनग्रहणस्योपलक्षणत्वात् तत्सहचरप्रशस्तशरीरतदङ्गोपाजसंहननसंस्थानानामपि प्रतिघातो व्याख्येयः, तथा प्रशस्तगतिस्थितिबन्धनादिप्रतिघाताद् भो| गाना-प्रशस्तगत्याद्यविनाभूतानां प्रतिघातो भोगप्रतिघातो, भवति हि कारणाभावे कार्याभाव इति, तथा प्रशस्तगत्यादेरभावादेव बलवीयपुरुषकारपराक्रमप्रतिघातो भवतीति प्रतीतं, तत्र वलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषका:-अभिमानविशेषः पराक्रमः-स एव निष्पादितस्वविषयोऽथवा पुरुषकार:-पुरुषकर्त्तव्यं पराक्रमो-बलवीर्ययोव्योपारणमिति । देवगत्याविप्रतिघातश्च चारित्रातिचारकारिणो भवतीत्युत्तरगुणानाश्रित्य तद्विशेषमाह-पंचविहे त्यादि, जाति-बाह्मणादिकामाजीवति-उपजीवति तज्जातीयमात्मानं सूचादिनोपदय ततो भक्कादिकं गृहातीति जात्याजीवका, एवं सर्वत्र, नवरं कुलम्-उग्रादिकं गुरुकुलं वा कर्म-कृष्याद्यनाचार्य वा शिल्प-तूर्णनादि साचार्यकं वा लिङ्ग-साधुलिङ्गं तदा|जीवति, ज्ञानादिशून्यस्तेन जीविका कल्पयतीत्यर्थः, लिङ्गस्थानेऽन्यत्र गणोऽधीयते, यत उक्तम्-"जाईकुलगणकम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा । सूयाए असूयाए अप्पाण कहेइ एकेके ॥१॥"त्ति, [आत्मनो जातिकुलगणकर्माणि शिल्पं वा सूचयाऽसूचया वैकैकं कथयतीति पंचविधा आजीवकाः॥१॥] तत्र गणो-मल्लादिः, सूचया-व्याजेनासू|चया-साक्षात् । अनन्तरं साधूनां रजोहरणादिकं लिङ्गमुक्क, अधुना खगादिरूपं राज्ञां तदेवाह-पंच रायककुभा। इत्यादि व्यक्तं, नवरं राज्ञां-नृपतीनां ककुदानि-चिह्नानि राजककुदानि, 'उष्फेसि'त्ति शिरोयेष्टनं शेखरक इत्यर्थः, 34 [४४२ 44 +ache SAREmainine ~610~ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४०८ ] दीप अनुक्रम [ ४४२ ] "स्थान". अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [५], उद्देशक [1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] मूलं [ ४०८ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३०४ ॥ Educationa *******... - 'पाहणाउ'सि उपानही, वालव्यजनी चामरमित्यर्थः श्रूयते च - "अवणे पंच ककुहाणि जाणि रायाण चिंधभूयाणि । खग्गं छत्तोवाणह मउडं तह चामराओय ॥ १ ॥” इति [ खङ्गं छत्र उपानही मुकुटं तथा चामराणि पंचापनयति यानि राज्ञः चिह्नभूतानि ॥ १ ॥ ] अनन्तरोदितककुदयोग्य श्चैश्याकादिप्रव्रजितः सरागोऽपि सन् सत्त्वाधिकत्वाद्यानि वस्तून्यालम्ब्य परीषहादीनपगणयति तान्याह पंचहि ठाणे मत्थे णं उदिने परिस्सहोवसम्गे सम्मं सहेजा खभेजा तितिक्खेजा अहियासेज्जा, सं०-उदिनकम्मे खलु अयं पुरिसे उम्मत्तगभूते, तेण मे एस पुरिसे अकोसति वा अवहसति वा णिच्छोदेति वा णिज्भंछेति वा बंधति वारंभति वा छविच्छेतं करेति वा पमारं वा नेति उदवेइ वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंणमच्छदति वा विच्छिदति वा दिति वा अवहरति वा २ अक्खातिट्टे खलु अयं पुरिसे, तेणं मे एस पुरिसे अकोसति वा तहेब जाव अवहरति वा २, ममं च णं तब्भववेयणिले कम्मे उतिने भवति, तेण मे एस पुरिसे अकोसति वा जाव अवहरति वा ३, ममं च णं सम्मम सहमाणस्स अखममाणस्स अतितिक्यमाणस्स अणधितासमाणस्स कि भन्ने कज्जति १, एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति ४, ममं च णं सम्मं सहमाणस्स जाव अहिया सेमाणस्स किं मने कज्जति ?, एगंतसो मे णिज्जरा कति ५, इथेतेहिं पंचहि ठाणेहिं छमत्थे उदिने परीसहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव अहियासेजा। पंचहि ठाणेहिं केवली उदिने परीसहोवसम्मे सम्मं सहेजा जाव अहियासेना, सं०-- खितचित्ते खलु अतं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तब जाव अवहरति वा १ दित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा० २ जक्खातिट्टे खलु For Parts Only ~ 611~ ५ स्थाना० उद्देशः १ छद्मस्थके वेलिपरि पहाः सू० ४०९ ॥ ३०४ ॥ any org Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४०९ ] दीप अनुक्रम [ ४४३ ] Education “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४०९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा ३ ममं च णं तमववेयणिले कम्मे उदिने भवति तेण मे एस पु. रिसे जाव अवहरति वा ४ ममं च णं सम्मं सहमाणं सममाणं तितिक्खमाणं अहियासेमाणं पासेत्ता बहवे अनेछमत्था समणा णिग्गंथा उदिने २ परीसहोवसग्गे एवं सम्मं सहिस्संति जाव अहियासिस्संति ५, इथेतेहिं पंचहि ठा हिं केवली दिने परीसहोवसग्गे सम्म सहेजा जाब अहिया सेना ( सू० ४०९ ) • स्फुटं, किन्तु छाद्यते येन तच्छद्म-ज्ञानावरणादिघातिकर्म्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः सकपाय इत्यर्थः उदीर्णान- उदितान् परीषहोपसर्गान् अभिहितस्वरूपान् सम्यक् - कषायोदय निरोधादिना सहेत भयाभावेनाविचलनाद् भटं भटवत् क्षमेत क्षान्त्या तितिक्षेत अदीनतया अभ्यासीत परीपहादावेवाधिक्येनासीत न चलेदिति, उदीर्ण-उदितं प्रबलं वा कर्म्म - मिथ्यात्वमोहनीयादि यस्य स उदीर्णकम्म खलुर्वाक्यालङ्कारे अयं प्रत्यक्षः पुरुषः उन्मत्तको-मदिरादिना वितचित्तः स इव उन्मत्तकभूतो, भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात्, उन्मत्तक एव वा उन्मत्तकभूतो भूतशब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वात् उदीर्णकम्म यतोऽयमुन्मत्तकभूतः पुरुषः तेन कारणेन 'में' इति मां एषः- अयमाक्रोशति शपति अपहसतिउपहासं करोति अपघर्षति वा अपघर्षणं करोति निश्छोटयति-सम्बन्ध्यन्तरसम्बद्धं हस्तादौ गृहीत्वा बलात् क्षिपति निर्भर्त्सयति दुर्वचनैः बध्नाति रज्यादिना रुणद्धि कारागारप्रवेशादिना छवेः-शरीरावयवस्य हस्तादेः छेदं करोति मरणप्रारम्भः प्रमारो-मूर्च्छाविशेषो मारणस्थानं वा तं नयति-प्रापयतीति अपद्वापयति-मारयति अथवा प्रमारं मरणमेव 'उचद्दवेइति उपद्रवयति उपद्रवं करोतीति, पतग्रहं पात्रं कम्बलं प्रतीतं पादमोञ्छनं-रजोहरणं आच्छिनत्ति-बलादु छद्मस्थ, उदीर्णकर्मा, पतद्ग्रह, पादप्रछन आदि शब्दानाम् व्याख्या For Penal Use On ~612~ Planetary org Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०९] दीप श्रीस्थाना-दालयति 'विच्छिनत्ति' विच्छिन्नं करोति, दूरे व्यवस्थापयतीत्यर्थः, अथवा वस्त्रमीपच्छिनत्ति आच्छिनत्ति, विशेषेण ५ स्थाना० सूत्र । छिनत्ति विच्छिनत्ति, भिनत्ति-पात्रं स्फोटयति अपहरति-चोरयति, वाशब्दाः सर्वे बिकल्पार्था इत्येक परीषहादिसह- उद्देशः१ वृत्तिः नालम्बनस्थानं, इदं चाक्रोशादिक, इह प्राय आक्रोशवधाभिधानपरीषहद्वयरूपं मन्तव्यमुपसर्गविवक्षायां तु मानुष्यक- छमस्थके प्राद्वेषिकाद्युपसर्गरूपमिति १। तथा यक्षाविष्टो-देवाधिष्ठितोऽयं तेनाक्रोशतीत्यादि द्वितीयं २, तथा अयं हि परीषहो-18 वेलिपरिH०५॥ पसर्गकारी मिथ्यात्वादिकर्मवशवत्ती 'ममं च ण'ति मम पुनस्तेनैव-मानुष्यकेण भवेन-जन्मना वेद्यते-अनुभूयते पहाः यत्तत्तद्भववेदनीयं कर्म उदीर्ण भवति-अस्ति तेनैष मामाकोशतीत्यादि तृतीयं ३, तथा एप बालिशः पापाभीतत्वा- सू०४०९ करोतु नामाकोशनादि मम पुनरसहमानस्य 'किं मन्नेत्ति मन्ये इति निपातो वितार्थः 'कज्जइ'त्ति सम्पद्यते, इह वि-18 निश्चयमाह-एगंतसो त्ति एकान्तेन सर्वथा पापं कर्म-असातादि क्रियते' संपद्यत इति चतुर्थ, तथा अयं तावत् * पापं बनाति मम चेदं सहतो निर्जरा क्रियत इति पञ्चमं, 'इचेएही'त्यादि निगमनमिति, शेषं सुगर्म। छद्मस्थविपर्ययः | केवलीति तत्सूत्रं, तत्र च क्षिप्तचित्तः-पुत्रशोकादिना नष्टचित्तः, दृप्तचित्ता-पुत्रजन्मादिना दर्पवञ्चित्त उन्मत्त एवेति, मां च सहमानं दृष्ट्वा अन्येऽपि सहिष्यन्ति, उत्तमानुसारित्वात् प्राय इतरेषां, यदाह-"जो उत्तमेहिं मग्गो पहओ सो * दुकरो न सेसाणं । आयरियमि जयंते तयणुचरा केण सीपज्जा?॥१॥" इति, [यो मार्ग उत्तमैः प्रहतः स शेषाणां न दुष्करः आचार्ये यतमाने तदनुचराः केन सीदेयुः ॥१॥] 'इच्चेएही त्याद्यत्रापि निगमनं, शेष सुगममिति । छद्म दा॥३०५। द स्थकेवलिनोरनन्तरं स्वरूपमुक्तमिदानीमपि तयोरेव तदाह अनुक्रम [४४३] ~613~ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४१०] दीप अनुक्रम [४४४] “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति मूलं [ ४१०] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] पंच हेऊ पं० तं०—हेडं न जाणति हेडं ण पासति हेडं ण बुज्झति हेडं हेऊ पं० [सं० हेउणा ण जाणति जाव हेउणा अन्नाणभरणं मरति ५, २, छमत्थमरणं मरइ ३, पंच हेऊ पं० [सं० उणा जाणइ जाव हेउणा हेडं ण यागति जाब अद्देउ छमत्थमरणं मरति ५ पंच अहेऊ पं० [सं० त्थमरणं मरति ६, अहेऊ पं० [सं०] अहेडं जाणति जाव अहेडं केवलिमरणं मरति ७, पंच अहेऊ पं० [सं० अणुत्तरे नाणे णाभिगच्छति हे अन्नाणमरणं मरति १ पंच पंच हेऊ पं० तं०- हे जाणइ जाव हे उमत्थमरणं मरह, पंच अहेऊ पं० [सं० अ अहेउणा न जाणवि जाव अद्देउणा छउम - अहेउणा जाति जान अहेउणा केवलिमरणं नरति ८, केवलिस्स णं पंच अणुत्तरा पं० तं० अणुत्तरे दंसणे अणुत्तरे चरिते अणुत्तरे तवे अणुत्तरे वीरिते ९ ( सू० ४१० ) 'पंच हेऊ' इत्यादि सूत्रनवकं तत्र भगवतीपञ्चमशतसप्तमोद्देशक चूर्ण्यनुसारेण किमपि लिख्यते, पश्च हेतवः, इह यः झस्थतयाऽनुमानव्यवहारी अनुमानाङ्गतया हेतुं लिङ्गं धूमादिकं जानाति स हेतुरेवोच्यते, एवं यः पश्यति श्रद्धत्ते ३ प्राप्नोति चेति ४, तदेव हेतुचतुष्टयं मिथ्यादृष्टिमाश्रित्य कुत्साद्वारेणाह हेतुं न जानाति न सम्यग्विशेषतो गृह्णाति, नञः कुत्सार्थत्वादसम्यगवैतीत्यर्थः, एवं न पश्यति सामान्यतः, न बुज्यते न श्रद्धचे, बोधेः श्रद्धानपर्यायत्वात्, तथा न समभिगच्छति-भवनिस्तरणकारणतया न प्राप्नोति, एवं चायं चतुर्विधो हेतुर्भवतीति, तथा हेतुम् अध्यवसानादिमरण हेतु जन्यश्वेनोपचाराद् अज्ञानमरणं मिथ्यादृष्टिश्वेना ज्ञात हेतु तद्भम्यभावस्य मरणं तन्त्रियते-करोति यश्चैवंविधः सोऽपि हेतुरेवेति पञ्चमो हेतुर्विधित एवोक्त इति १ । तथा पंच हेतवस्तत्र यो हेतुना धूमादिनाऽनुमेयमर्थ जा For Parts Only ~614~ arr Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत स्थाना० उद्देशः १ हेत्वहेतवः अनुत्तराणि 'व केलिनः सू० ४१० ॥३०६॥ सूत्रांक [४१०] दीप अनुक्रम [४४४] श्रीस्थाना-18/नाति स हेतुरेव, एवं यः पश्यतीत्यादि । तदेव कुत्साद्वारेण मिथ्यादृष्टिमाश्रित्य हेतुचतुष्टयमाह-हेतुना न जानात्यनुमेयं, नसूत्र- नञः कुत्सार्थत्वादेवासम्यगवगच्छतीत्यर्थः ,एवं न पश्यतीत्यादि, तथा हेतुना-मरणकारणेन योऽज्ञानमरणं वियते स वृत्तिः हेतुरेवेति पञ्चमो हेतुरिति २ तथा पच हेतवो यो हि सम्यग्दृष्टितया हेतुं सम्यग्जानाति स हेतुरेवेत्येवमन्येऽपि, नवरं हेतु-हेतुमत् छद्मस्थमरणं सम्यग्दृष्टित्वान्नाज्ञानमरणमनुमातृत्वाच्च न केवलिमरणमिति, एवं तृतीयान्तसूत्रमपि ३ इह सूत्रदयेऽपि हेतवः स्वरूपत उक्ताः ४, [ मिथ्यादृष्टिसम्यग्दृष्टियुग्मापेक्षया सूत्रयुगलता अन्यथा सूत्रचतुष्टयं ] तथा पशाहेतवः यः सर्वज्ञतया अनुमानानपेक्षा स धूमादिकं हेतुं नार्य हेतुर्ममानुमानोत्थापक इत्येवं जानाती-I सत्यतोऽहेतुभूतं तं जानन्नहेतुरेवासावुच्यते, एवं दर्शनबोधाभिसमागमापेक्षयाऽपि । तदेवम (व अ) हेतुचतुष्टयं छद्मस्थमाश्रित्य देशनिषेधत आह–'अहेतु'मिति, धूमादिकं हेतुमहेतुभावेन न जानाति-न सर्वथाऽवगच्छति, कथश्चिदेवावगच्छतीत्यर्थः, नो देशनिषेधार्थत्वात् , ज्ञातुश्चावध्यादिकेवलित्वेनानुमानाव्यवहर्तृत्वादित्येकोऽयमहेतुर्देशप्रतिषेधत उक्ता, एवमहेतुं कृत्वा धूमादिकं न पश्यतीति द्वितीयो, न बुध्यत्ते-न श्रद्धते इति तृतीयो, नाभिसमागच्छ-12 तीति चतुर्थः, तथा अहेतु-अध्यवसानादिहेतुनिरपेक्षं निरुपक्रमतया छद्मस्थमरणम्-अनुमानव्यवहतृत्वेऽप्यकेवलिवात् तस्य, अयं च स्वरूपत एवं पञ्चमोऽहेतुरुका ५ । तथा पञ्चाहेतवो योऽहेतुना-हेत्वभावेन केवलित्वात् जानात्यसावहेतुरेवेत्येवं पश्यतीत्यादयोऽपि, एवं च छद्मस्थमाश्रित्य पदचतुष्टयेनाहेतुचतुष्टयं देशप्रतिषेधत आह-तथा अहेतुना-उपक्रमाभावेन छद्मस्थमरणं नियत इति पञ्चमोऽहेतुः स्वरूपत एवोक्ता ६। तथा पञ्चाहेतवः अहेतुं न हेतुभावेन, ॥३०६॥ ~615~ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१०] दीप अनुक्रम [४४४] विकल्पितं धूमादिकं जानाति केवलितया योऽनुमानाव्यवहारित्वात् सोऽहेतुरेव, एवं यः पश्यतीत्यादि, तथा अहेर्नु निर्हेतुकमनुपक्रमत्वात् केवलिमरणमनुमानाव्यवहारिवान्धियते-यात्यसावहेतुः पञ्चमः, एते पश्चापीह स्वरूपत उक्ताः, । एवं तृतीयान्तसूत्रमप्यनुसर्तव्यमिति ८ गमनिकामात्रमेतत्, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति । तथा न सन्त्युत्तरागणि-प्रधानानि येभ्यस्तान्यनुत्तराणि, यथास्वं सर्वथाऽऽवरणक्षयात् , तत्राद्ये ज्ञानदर्शनावरणक्षयाद्, अनन्तरे मोहक्षयात् , तपसश्चारित्रभेदत्वात् , तपश्च केवलिनामनुत्तरं शैलेश्यवस्थायां शुक्लध्यानभेदस्वरूप, ध्यानस्याभ्यन्तरतपोभेदत्वात् । वीर्यं तु वीर्यान्तरायक्षयादिति ९ । केवल्यधिकारात् तीर्थकरसूत्राणि चतुर्दश, पउभपहे णमरहा पंचचित्ते हुस्था, तं०--चित्ताहिं चुते चइत्ता गम्भं वकंते चित्ताहिं जाते वित्ताहि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारित पन्वइए चित्ताहिं अणते अणुत्तरे णिवाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुग्ने केवलपरनाणदसणे समुष्पन्ने चित्ताहिं परिणिचुते, पुष्पदंते णं अरहा पंचमूले हुत्या, मूलेणं चुते चइत्ता गम्भं वकते, एवं चेव एवमेतेणं अभिलावेणं इमातो गाहातो अणुगंतव्बातो, पउमप्पभस्स चिचा १ मूले पुण होइ पुष्पदंतस्स २ । पुवाई आसाढा ३ सीयलस्सुत्तर विमलस्स भदवसा ४ ॥ १॥ रेवतिता अणंतजिणो ५ पूसो धम्मस्स ६ संतिणो भरणी ७ । कुंथुस्स कत्तियाओ ८ अरस्स तह रेवतीतो य ९॥२ ।। मुणिसुव्वयस्स सवणो १० आसिणि णमिणो ११ य नेमिणो चित्ता १२ । पासस्स विसाहाओ १३ पंच व हत्थुत्तरो बीरो १४ ।। ३ ।। समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुसरे होत्या हत्थु'त्तराहिं चुए चइत्ता गम्भं वकते हत्धुत्तराहिं गब्भाओ गभं साहरिते हत्थुत्तराहिं जाते हत्युत्तराहिं मुंडे भवित्ता आव REaratinaina ~616~ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिल स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [४११] + गाथा १-३ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥३०७॥ प्रत सूत्रांक [४११] गाथा ||१-३|| दीप अनुक्रम [४४५-४४९] पञ्चइए हत्युत्तराहि अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने ॥ (सू० ४११) इति पंचमद्वाणरस पढ़मो ५ स्थाना० उहेसओ समत्तो॥ उद्देशः१ कण्ठ्यानि चैतानि नवरं पद्मप्रभा-ऋषभादिषु षष्ठः, पञ्चसु च्यवनादिदिनेषु चित्रा नक्षत्रविशेषो यस्य स पञ्चचित्रः पद्मप्रभाचित्राभिरिति रूक्या बहुवचनं, च्युतः-अवतीर्णः उपरिमोपरिमवेयकादेकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकात् च्युत्वा च 'गर्भ'ति दिस्थानगन्) कुक्षौ व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नः, कौशाम्ब्यां धराभिधानमहाराजभार्यायाः सुसीमानामिकायाः माघमासबहुलषष्ठयां, 'कानि जातो गर्भनिर्गमनेन कार्तिकबहुलद्वादश्यां तथा मुण्डो भूत्वा केशकषायाद्यपेक्षया अगारान्निष्कम्यानगारिता-श्रमणतां | सू०४११ प्रवजितो-गतः अनगारितया वा प्रमजितः कार्तिकशुद्धत्रयोदश्यां, तथाऽनन्तं पर्यायानन्तत्वात् अनुत्तरं सर्वज्ञानोत्तमत्वात् नियाघातमप्रतिपातित्वात् निरावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात् कटकुड्याद्यावरणाभावाद्वा कृत्स्नं सकलपदाथे-11 विषयत्वात् परिपूर्ण स्वावयवापेक्षया अखण्डं पौर्णमासीचन्द्रबिम्बवत्, किमित्याह-केवलं ज्ञानान्तरासहायत्वात् संशुद्धत्वाद्वा अत एव वरं-प्रधानं केवलवरं ज्ञानं च-विशेषावभासं दर्शनं च-सामान्यावभासं ज्ञानदर्शनं तच्च तत्तञ्चेति केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्न-जातं चैत्रशुद्धपञ्चदश्यां, तथा परिनिर्वृतो-निर्वाणं गतः मार्गशीर्षबहुलैकादश्यामादेशान्तरेण फाल्गुनबहुलचतुयामिति । 'एवं चेव'त्ति पद्मप्रभसूत्रमिव पुष्पदन्तसूत्रमण्यध्येतव्यं, "एवं' अनन्तरोक्तस्वरूपेण एतेन-अनन्तरत्वात् प्रत्यक्षेणाभिलापेन सूत्रपाठेनेमास्तिस्रः सूत्रसङ्ग्रहाणगाथा अनुगन्तव्या:-अनुसत्तेव्याः, शेषसूत्राभिलापनिष्पादनार्थं 'पउमप्पभस्से त्यादि, तत्र पद्मप्रभस्य चित्रानक्षत्रं च्यवनादिषु पञ्चसु स्थानकेषु भवतीत्यादि गा ॥३०७॥ -4444 ~617~ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४११] गाथा ||2-3|| दीप अनुक्रम [ ४४५ -४४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित स्था० ५२ Jan Eratury in “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति उद्देशक [१], आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र स्थान [५], धाक्षरार्थो वक्तव्यः, सूत्राभिलापस्त्वाद्यसूत्रद्वयस्य साक्षादर्शित एव इतरेषां त्वेवं- 'सीयले णं अरहा पंचपुण्यासाढे होरथा, तंजहा-पुण्यासादाहिं चुए चइता गन्भं वकते, पुण्यासाढाहिं जाए' इत्यादि, एवं सर्वाण्यपि इति व्याख्या त्वेवं - पुष्पदन्तो-नवमतीर्थकरः आनतकल्पादेकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकात् फाल्गुनबहुलनवम्यां मूलनक्षत्रे च्युतश्रयुत्वा काकन्दीनगर्यो सुग्रीवराजभार्यायाः रामाभिधानाया गर्भत्वेन व्युत्क्रान्तः १, मूलनक्षत्रे मार्गशीर्षबहुलपञ्चम्यां जातः, तथा मूल एव ज्येष्ठशुद्धप्रतिपदि मतान्तरेण मार्गशीर्षबहुलषष्ठयां निष्क्रान्तः, तथा मूल एवं कार्त्तिकशुद्धतृतीयायां केवलज्ञानमुखभं, तथा अभ्वयुजः शुद्धनवम्बामादेशान्तरेण वैशाखबहुलपष्ठयां निर्वृत इति २ तथा शीतलो| दशमजिनः प्राणतकल्पाद्विंशतिसागरोपमस्थितिकाद्वैशाखबहुलषष्ठयां पूर्वाषाढा नक्षत्रे च्युतः च्युत्वा च भहिलपुरे दृढरथनृपतिभार्याया नन्दाया गर्भतथा व्युत्क्रान्तः, तथा पूर्वाषाढास्वेव माघवहुलद्वादश्यां जातः, तथा पूर्वाषाढास्थेव माघ बहुउद्वादश्यां निष्क्रान्तः, तथा पूर्वाषाढास्वेव पौषस्य शुद्धे मतान्तरेण बहुले पक्षे चतुर्दश्यां ज्ञानमुत्यन्नं, तथा तत्रैव नक्षत्रे श्रावणशुद्धपञ्चम्यां मतान्तरेण श्रावणबहु द्वितीयायां निर्वृत इति, एवं गाथात्रयोक्तानां शेषाणामपि सूत्राणां प्रथमानुयोग पदानुसारेणोपयुज्य व्याख्या कार्या, नवरं चतुर्द्दशसूत्रे अभिलापविशेषोऽस्तीति तद्दर्शनार्थमाह'समये' त्यादि, हस्तोपलक्षिता उत्तरा हस्तो बोत्तरो यासां ता हस्तोत्तराः-उत्तराः फाल्गुन्यः, पञ्चसु यवनगर्भहरणादिषु हस्तोत्तरा यस्य स तथा 'गर्भात' गर्भस्थानात् 'गर्भ'न्ति गर्भे गर्भस्थानान्तरे संहृतो नीतः, निर्वृतस्तु स्वातिनक्षत्रे कार्त्तिकामावास्यायामिति ॥ इति पञ्चमस्थानकस्य प्रथमोदेशको विवरणतः समाप्तः ॥ अत्र पंचम स्थानस्य प्रथमो उद्देशकः परिसमाप्तः मूलं [ ४१९] + गाथा १-३ [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~618~ - rary.org Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानागसूत्र ५ स्थाना. उद्देशः२ वृत्तिः महानद्यु प्रत सूत्रांक [४१२] %2-% तारेतरी ॥३०८॥ प्रथमप्राबृ पर्युषणा दीप * उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरोद्देशके विविधा जीववक्तव्यतोक्का इहापि सैवोच्यत इत्येवमभिसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् नो कप्पइ निगंयाण पा निगंथीण वा इमाओ उदिवाओ गणियाओ वितंजितातो पंच महष्णवातो महाणदीओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए था, तं०-गंगा जउणा सरऊ एरावती मही, पंचर्हि ठाणेहिं कप्पति, तं०-भसि वा १ दुभिक्खंसि वा २ पम्बहेज व णे कोई ३ दोघंसि वा एजमाणसि महता वा ४ अणारितेसु ५। (सू०४१२) णो कप्पइ णिग्गंधाण वा णिमाथीण वा पदमपाउसंसि गामाणुगामं दूइजित्तए, पंचहि ठाणेहिं कप्पा, तं०-भयंसि वा दुभिक्खंसि वा जाव महता वा अणारितेहिं ५ । वासावासं पञ्जोसविताणं णो कप्पइ णिगंयाण या २ गामाणुगामं दूइजित्तए, पंचहि ठाणेहिं कप्पइ, तं०-णाणट्टयाए बसणवाए चरि सट्टयाए आयरियउवज्झाया वा से बीसुंभेजा आयरितउज्झायाण वा बहिता वेआवञ्चं करणताते (सू०४१३) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वसूत्रे केवलिनिग्रन्थगतं वस्तूक्तमिह तु छद्मस्थनिम्रन्थगतं तदुच्यत इत्येबमस्यारागर्भसूत्रादू अन्येषां च सम्बन्धानां नो कप्पईत्यादीनां व्याख्या सुकरैव, नवरं 'नो कप्पा'त्ति न कल्पन्ते-न युज्यन्ते, एकवचनस्य बहुवचनार्थत्वात् 'वत्थगन्धमलङ्कार'मित्यादाविवेति, निर्गता ग्रन्धादिति निर्ग्रन्थाः-साधवस्तेषां, |तथा निग्रन्थीनां-साध्वीनां, इह प्रायस्तुल्यानुष्ठानत्वमुभयेषामपीतिदर्शनार्थी वाशब्दो, 'इमा' इति वक्ष्यमाणनामतः प्रत्यक्षासन्ना उद्दिष्टाः-सामान्यतोऽभिहिता यथा महानद्य इति गणिताः यथा पञ्चेति व्यजिता-व्यक्तीकृताः यथा गो विहारेतरी सू०४१२ अनुक्रम [४५० 22 ॥३०८॥ | अथ पंचम स्थानस्य द्वितीयो उद्देशक: आरब्ध: ~619~ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: CCCC प्रत सूत्रांक [४१३] दीप अनुक्रम [४५१] त्यादि विशेषणोपादानाद्वा यथा महार्णवा इति, तत्र महार्णव इव या बहूदकत्वात् महार्णवगामिन्यो वा यास्ता वा महार्णवा महानद्यो-गुरुनिम्नगा: अन्तः-मध्ये मासस्य द्विकृत्वो वा द्वौ वारौ विकृत्वो वा-त्रीन्वारान् उत्तरीतु-लकयितुं बाहुजादिना सन्तरीतुं-साङ्गत्येन नावादिनेत्यर्थः लवयितुमेव, सकृद्वोत्तरीतुमनेकशः सन्तरीतुमिति, अकल्प्यता | चात्मसंयमोपघातसम्भवात् शबलचारित्रभावाद्, यत आह-"मासम्भंतर तिन्नि दगलेवा उ करेमाणे"त्ति [मासान्त|खीणि दकलेपनानि नाभिप्रमाणजलोत्तरणानि कुर्वन् ] [उदकलेपो-नाभिप्रमाणजलावतरणमिति > इह सूत्रे कल्प भाष्यगाथा-"इमउत्ति सुत्तउत्ता १ उद्दिढ नईओ २ गणिय पंचेव ३ । गंगादि बजियाओ ४ बहृदय महनवाओ | |य ५ ॥१॥ पंचण्हं गहणेणं सेसावि उ सूइया महासलिला ॥” इति, [इमा इति सूत्रोक्ता उद्दिष्टा नद्यः गणिताः पंचैव व्यंजिताः गंगादिकाः बहुदका महार्णवाः ॥१॥ पंचानां ग्रहणेन शेषा अपि महासलिलाः सूचिताः] प्रत्यपायाश्चेह"ओहारमगराइया, घोरा तत्थ उ सावया । सरीरोवहिमाईया, णावातेणा व कत्थई ॥१॥" इति, [अपहारः (मत्स्यः) मकरादिका घोरास्तत्र श्वापदाः एवं शरीरोपधिस्तेना वा नौस्तेना वा कुत्रचित् ॥१॥] अपवादमाह-पंचेत्यादि, भये-राजप्रत्यनीकादेः सकाशादुपध्याद्यपहारविषये सति १ दुर्भिक्षे वा-भिक्षाऽभावे सति २,'पब्वहेजत्ति प्रन्यथते-k बाधते अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद्वा प्रवाहयेत् कश्चित् प्रत्यनीकः, तत्रैव गङ्गादौ प्रक्षिपेदित्यर्थः ३ 'दओघंसि'त्ति उदकौघे वा गङ्गादीनामुन्मार्गगामित्वेनागच्छति सति तेन प्लाव्यमानानामित्यर्थः, महता च आटोपेनेति शेषः ४, 'अणारिएसुत्ति विभक्तिव्यत्ययादनार्यः-म्लेच्छादिभिर्जीवितचारित्रापहारिभिरभिभूतानामिति शेषा, म्लेच्छेषु वा आगच्छस्विति | 50% REmiratna murary.org ~620~ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: महाना प्रत सूत्रांक [४१३] दीप अनुक्रम [४५१] ट्पर्युषणा श्रीस्थानाशेषः, एतानि पुष्टालम्पनानीति तत्तरणेऽपि न दोष इति, उक्तं च-"सालंबणो पडतोवि अप्पयं दुग्गमेऽवि धारेइ सूत्रइय सालंबणसेची धारेइ जई असढभावं ॥१॥ आलंबणहीणो पुण निवडइ खलिओ अहे दुरुत्तारे । इय निकारणसेवी | उद्देशः २ पडइ भवोहे अगाहम्मि ॥२॥” इति, [पतन्नपि सालम्बन आत्मानं दुर्गमेऽपि धारयति एवं सालंबनसेवी यतिरश-HTS ठभावं धारयति ॥१॥ आलम्बनहीनः पुनः स्खलितोऽधो दुरुत्तरे निपतति एवं निष्कारणसेवी अगाधे भवौघे पतति | तारेतरी॥३०९॥ ॥१॥] तथा, 'पढमपाउसंसित्ति इह आषाढश्रावणी प्रावृद्ध, आषाढस्तु प्रथमप्रावृट, ऋतूनां वा प्रथमेति प्रथ-15 मप्रापृट् , अथवा चतुर्मासप्रमाणो वर्षाकालः प्रावृडिति विवक्षितः, अत्र सप्ततिदिनप्रमाणे प्रावृषो द्वितीये भागे तावन्न | प्रथमप्रावृकल्पत एवं गन्तुं, प्रथमभागेऽपि पञ्चाशद्दिनप्रमाणे विंशतिदिनप्रमाणे वा न कल्पते जीवव्याकुलभूतत्वाद्, उक्तंच विहारेतरौ | "एत्थ य अणभिग्गहियं वीसइराई सवीसयं मासं । तेण परमभिग्गहियं गिहिनायं कत्तियं जाव ॥१॥"त्ति, [विंशति | सू०४१२रात्रिंदिवानां सविंशतिरात्रिंदिवं मासं । अत्रानभिगृहीतं ततः परमभिगृहीतं गृहिज्ञातं कार्तिकं यावत् ॥१॥] अनभिगृहीत-अनिश्चितमशिवादिभिनिर्गमभावाद, आह च-"असिवादिकारणेहिं अहवा वासं न सुद्द आरद्धं । अभिव-IN द्वियंमि वीसा इयरेसु सवीसई मासो ॥१॥” इति, [अशिवादिभिः कारणैरथवा वर्षणं न सुष्टु आरब्धं । अभिवर्द्धिते दाविंशतिः इतरेषु सविंशतिर्मासः॥१॥] यत्र संवत्सरे अधिकमासो भवति तत्र आषाड्या विंशतिदिनानि यावदनभि-| Vाहिक आबासोऽन्यत्र सविंशतिरावं मास-पचाशतं दिनानीति, अत्र चैते दोषा:-"छक्कायविराहणया आवडणं विस-1 मखाणुकंटेसु । वुज्क्षण अभिहण रुक्खोल्लसावए तेण उवचरए ॥ १॥ अक्खुन्नेसु पहेसु पुढवी उदगं च होइ दुविहूं तु। JMEauratani CAMumtaram.org ~621~ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१३] दीप अनुक्रम [४५१] जलपयावणअगणी इहरा पणओ हरियकुंथू ॥२॥" इति, [षट्रायविराधनाऽऽपतनं विषमस्थाणुकण्टकेषु वहनमभिहननं वृक्षादावार्द्रताश्चापदाः स्तेनो उपचरकशंका ॥१॥ अक्षुण्णेषु पथिषु पृधब्युदकं (भौमांतरिक्षभेद) भवति विविध आई प्रतापनेऽग्निः इतरथा पनको हरिते कुंथुस्त्रसे ॥१॥] ततस्तत्र प्रावृषि किमत आह-एकस्माद् प्रामादवधिभूतादुत्तर-18 * ग्रामाणामनतिक्रमो प्रामानुग्राम सेन ग्रामपरम्परयेत्यर्थ, अथवा एकग्रामालघुपश्चाभावाभ्यां ग्रामोऽणुग्रामो, गामो जय अणुगामो य गामाणुगाम, तत्र 'दूइजित्तए'ति द्रोतु-विहर्तुमित्युत्सर्गः, अपवादमाह-पंचेत्यादि, सथैव, नवरट्रामिह प्रव्यथेत--प्रामाचालयेन्निष्काशयेत् कश्चित् उदकौघे वा आगच्छति ततो नश्येदिति, उक्तंच-"आषाहे दुरिभक्खे | भए दोघंसि वा महंतंसी। परिभवणतालणं वा जया परो वा करेजासि ॥१॥" इति, [आवाहे दुर्भिक्षे भये महति दकौघे परिभवनं ताडन वा यदा परः करिष्यति ॥१॥] तथा वर्षासु-वर्षाकाले वर्षो-वृष्टिवर्षावर्षो वर्षासु वा आवासःअवस्थानं वर्षावासस्तं, सच जघन्यतः आकार्तिक्याः दिनसप्ततिप्रमाणो मध्यवृत्या चतुर्मासप्रमाणः उत्कृष्टता षण्मासमानः, तदुक्तम्-"इअ सत्तरी जहन्ना असिह नउई वीसुत्तरसर्य ध।जह वासे मग्गसिरे दस राया तिन्नि उकोसा ॥१॥ [मासमित्यर्थः > "काऊण मासकप्पं तत्थेव ठियाण तीत मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उजेडागहो होइ ॥१॥ |इति, [इति सप्ततिर्जघन्योऽशीतिर्नवतिविंशत्युत्तरं शतं च यदि मार्गशीर्षे वर्षेत् दशरात्राणि त्रीणि यावदुत्कृष्टः॥१॥ कृत्वा मासकल्पं तत्रैव स्थिताना मार्गशीर्षेऽतीते सालंबनानां पाण्मासिकस्तु ज्येष्ठावग्रहो भवति ॥१॥] 'पज्जोसषियाण'ति परीति-सामस्त्येमोषितानां पर्युषणाकल्पेन नियमबदस्तुभारम्धानामित्यर्थः, पर्युषणाकल्पश्च म्यूनोदरताकरणं KAISANSAR M unmurarmom ~622~ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४१३] दीप अनुक्रम [४५१] श्रीस्थाना- विकृतिनवकपरित्यागः पीठफलकादिसंस्तारकादानमुच्चारादिभात्रकसंग्रहणं लोचकरणं शैक्षाप्रजाजनं प्रारगृहीतानां भ-५५स्थाना० लसूत्र- मडगलकादीनां परित्यजनमितरेषां ग्रहणं द्विगुणवर्षोपग्रहोपकरणधरणमभिनवोपकरणाग्रहणं सक्रोशयोजनात् परतो उद्देशः२ गमनवर्जनमित्यादिकः, उक्तंच-"दब्वट्ठवणाऽऽहारे विगई संथारमत्तए लोए । सच्चित्ते अच्चित्ते वोसिरणं गहणधर- महाना लाणाइ ॥१॥” इति [ द्रव्यस्थापनाऽऽहारे विकृतिः संस्तारकमात्रकलोचाः सचित्तेऽचित्ते व्युत्सर्जनं ग्रहणं धारणं इत्यादित्तारेतरी।।३१०॥ ॥१॥] 'दबट्ठवण'त्ति निशीधे द्वारपरामर्श इति ॥ ज्ञानमेवार्थों यस्य स ज्ञानार्थस्तद्भावस्तत्ता तया ज्ञानार्थतया प्रथमप्रावृ| ज्ञानार्थत्वेन तत्रापूर्वः श्रुतस्कन्धोऽन्यस्याचार्यादेरस्ति स च भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्ततो यद्यसौ तत्सकाशान गृह्यतेपर्युषणाततोऽसौ व्यवच्छिद्यते अतस्तद्रहणार्थ ग्रामानुग्राम द्रोतुं कल्पते, एवं दर्शनार्थतया-दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थित्वेन, चा- विहारेतरी रित्रार्थतया तु तस्य क्षेत्रस्यानेषणाख्यादिदोषदुष्टतया तद्रक्षणार्थ, तथा 'आयरियउवज्झाए'त्ति समाहारद्वन्द्वत्वा- सू०४१२ सदाचार्योपाध्यायं वा 'से' तस्य भिक्षोः 'वीसुंभेजत्ति विष्वक्-शरीरात् पृथग्भवेत् जायेत म्रियतेत्यर्थः, ततस्तत्र | Pl गच्छे अन्यस्याचार्यादेरभावाद् गणान्तराश्रयणा) अधवा 'वीमुंभेज'सि विश्वम्भेत तस्य साधोराचायोदिविश्रन्धो | ला भवेत् ततोऽत्यन्तरहस्यकार्यकरणायेति, तथा आचार्योपाध्यायानां वा बहिस्ताद् वर्षाक्षेत्रस्य वर्तमानानां वैयावृत्त्यकरणतायै प्रेषितस्याचार्यादिना द्रोतुं कल्पत इति, उक्तंच-"असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलन्ने । नाणाइतिग-15 स्सट्टा ३ वीसुंभण ४ पेसणेणं च ५॥१॥" इति । [अशिवेऽवमौदर्ये राजद्विष्टे भये ग्लानत्वे वा ज्ञानादित्रिकाएं वि- ॥३१॥ प्वगभवनेन प्रेषणेन च ॥१॥] SARERainintentiarana ~623~ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१४] दीप पंच अणुग्घातिता पं० सं०-हत्याकम करेमाणे मेहुणं पडिसेवेमाणे रातीभोवणं भुजेमाणे सागारितपिंड अँजेमाणे रायपिंडं भुजेमाणे (सू०४१४) 'अणुघाइय'त्ति न विद्यते उद्घातो-लघूकरणलक्षणो यस्य तपोविशेषस्य तदनुघातं यथाश्रुतदानमित्यर्थः तोषां प्रतिषेवाविशेषतोऽस्ति तेऽनुद्घातिकाः, 'हस्तकर्म'समयप्रसिद्धं तत्कुर्वाणः, मैथुनम्-अब्रह्म अतिक्रमादिना सेवमानः, तथा भुज्यत इति भोजनं रात्री भोजनं रात्रिभोजनं तच्च द्रव्यतोऽशनादि, क्षेत्रतः समयक्षेत्रे कालतो दिवा गृहीतं दिवा भुक्तं दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तं रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्तं रात्रौ गृहीतं रात्रौ भुक्तमित्येवं चतुर्भङ्गरूपं भावतो रागद्वेपाभ्यां तद्भुञ्जानोऽश्नन्नित्यर्थः, अत्र दोषाः-"संतिमे सुहुमा पाणा" इत्यादिश्लोकत्रयं, तथा-"जइवि हु फासुगदवं कुंथू पणगा तहावि दुप्पस्सा । पञ्चक्खं नाणीविहु राईभत्तं परिहरंति ॥१॥ जइवि य पिवीलिगाइ दीसंति पईवजोइउज्जोए । तहवि खलु अणाइन्नं मूलवयविराहणा जेणं ॥२॥" [यद्यपि द्रव्यं प्रासुकमेव तथापि कुंथुपनका दुर्दाः । प्रत्यक्षज्ञान्यपि रात्रिभक्तं परिहरति ॥१॥ यद्यपि च पिपीलिकादयो दृश्यन्ते प्रदीपज्योतिष उद्योते तथापि अनाचीर्णमेव मूलवतविराधना येन ॥१॥] तथा अगारं-गृहं सह तेन वर्तत इति सागारः स एव सागारिका-शव्यातरस्तस्य पिण्ड:-आहारोपधिरूपः, अन्यस्त्वसौ न भवति, उक्तं च-"तणछारडगलमल्लगसेज्जासंथारपीढलेवाई। सेज्जायरपिंडो सो न होइ सेहो य सोबहिओ॥१॥" इति, [तृणक्षारडगलमलकशय्यासंस्तारकपीठलेपादिः शय्या&ातरपिंडो न स भवति सोपधिकः शैक्षश्च ॥१॥] सागारिकपिण्डस्त भुञ्जानः, तद्भोजने चामी दोषा:-"तिस्थकरपडिक्कुट्टो अनुक्रम [४५२] Humurary.om 'अणुग्घातिक' शब्दस्य व्याख्या एवं तत् कारणा: ~624~ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४१४] दीप अनुक्रम [४५२] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मूलं [ ४१४] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृतिः ॥ ३११ ॥ अन्नायं [ अज्ञातोंछो न भवतीत्यर्थः > उग्गमोऽवि य न सुझे [परिचयात्> । अविमुत्तिय लाघवया दुल्लहसेजा य वोच्छेदो ॥ १ ॥ पडिबंधनिराकरणं केई अन्ने उ गिही अगहणस्स । तस्साउट्टण [ शय्यातरावर्जन मित्यर्थः > आणं | इत्थवरे वेति भावत्थं ॥ १ ॥” इति [ तीर्थंकरप्रतिकुष्टोऽज्ञातत्वमुद्द्रमोऽपि च न शुद्ध्येत् लोभिताऽलाघवता दुर्लभशय्या च व्युच्छेदो वा ॥ १ ॥ केचित् प्रतिबन्धनिराकरणं अन्ये तु अग्रहणस्य गृद्धिः शय्यातरस्यावर्जनं अपरेऽत्राज्ञां भावार्थं ब्रुवन्ति ॥ १ ॥ ] तथा राज्ञः पिण्डो राजपिण्डः तं भुञ्जनः, राजा चेह चक्रवर्त्त्यादिर्यत आह-"जो मुद्धाअभिसितो पंचाहिँ सहिओ य भुंजए रजां । तस्स उ पिंडो वज्जो तव्विवरीयंमि भयणा उ ॥ १ ॥" पिंडस्वरूपं च "असणाईया चउरो वरथे पाए य कंबले चैव पाउंछणए य तहा अट्ठविहो रायपिंडो तु ॥ २ ॥ [ यो मूर्भाsभिचिक्तः पंचभिः सहितश्च राज्यं भुंके । तस्यैव पिंडो धर्म्यस्तद्विपरीते भजनैव ॥ १ ॥ अशनादिकाश्चत्वारो वस्त्रं पात्रं कंबलश्चैव पादप्रोञ्छनं च तथाऽष्टविध एव राजपिण्डः ॥ १ ॥ ] दोषा आज्ञादयः ईश्वरादिप्रवेशादी व्याघातः अमं गलधिया प्रेरणा लोभ एषणाव्याघातश्रीविद्याङ्का चेत्यादय इति ॥ पंचहि ठाणेहिं समणे निम्गंथे रायंतेडरमणुपविसमाणे नाइकमति, तं० नगरं सिवा सम्वतो समंता गुत्ते गुत्तबारे, बहवे समणमाहणा णो संचाएंति भताते वा पाणाते वा निक्खमित्तते वा पविसित्तते वा तेसिं विझवणवाले रावंदेडरविसेला १ पाsिहारितं वा पीढफलगसेज्जासंथारगं पचपिणमाणे रायंते रमणुपवेसेवा २ हतस्स वा गवस वाट्ठस्स आगच्छमाणस्स भीते रायतेवर मणुपवेसिया ३ परो व णं सहसा वा बलसा वा बादावे सहाय अंतेरसणु 'अणुग्घातिक' शब्दस्य व्याख्या एवं तत् कारणाः For Pasta Use Only ~ 625~ १ ५ स्थाना० उद्देशः २ पञ्चानुवू घातिमाः अन्तःपुर प्रवेशः सू० ४१४ ४१५ ॥ ३११ ॥ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४१५ ] दीप अनुक्रम [४५३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४१५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] पवेसेा ४ बहिता व णं आरामगयं वा उखाणगयं रायतेवरजणो सम्बतो समता संपरिक्खिवित्ता णं निवेसिज्जा । इथेतेहिं पंचहि ठाणेहिं समणे निम्गंधे जाव णातिक्रमइ ( सू० ४१५ ) नाइकमति आज्ञामाचारं घेति, नगरं स्यात् भवेत् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ताद्-विदिक्षु, अथवा सर्वतः किमुक्तं भवति ? - समन्तादिति, गुप्तं प्राकारवेष्टितत्वात् गुप्तद्वारं द्वाराणां स्थगितत्वात् श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणाः मा व धीरिति प्रवृत्तिर्येषा ते माहनाः-उत्तरगुणमूलगुणवन्तः संयता इत्यर्थः अथवा श्रमणाः - शाक्यादयः माहना - ब्राह्मणा 'नो संचाएन्ति'ति न शक्नुवन्ति, भक्ताय पानाय वा निष्क्रमितुं वा निर्गन्तुं नगरात् तद्बहिर्भिक्षाकुलेषु भिक्षित्वा तथैव प्रवेष्टुं चेति, ततस्तेषां श्रमणादीनां प्रयोजने विज्ञापनाय राज्ञोऽन्तःपुरस्थस्य प्रमाणभूतराज्ञ्या वा राजान्तःपुरमनुप्रविशेद्, इह च शाक्यादीनां प्रयोजने यद्राज्ञो विज्ञापनं तदपवादापवादरूपं, असंयताविरतत्वात्तेषां एतच्च किञ्चिदात्यन्तिकं सङ्घादिप्रयोजन मवलम्बमानानां भवतीति समवसेयमित्येकं, तथा कृतप्रयोजनैः प्रतिहियते प्रतिनीयते यत्तत्प्रतिहारम योजनत्वात् प्रातिहारिकं पीठं पट्टादिकं फलकं-अवष्टम्भफलकं शय्या-सर्वाङ्गीणा फलकादिरूपा संस्तारको - लघुतरोऽथवा शय्या शयनं तदर्थः संस्तारकः शय्यासंस्तारको द्वन्द्वैकवद्भावात् पीठफलकशय्यासंस्तारकं 'पचप्पिणमाणे 'ति आर्षत्वात् प्रत्यर्पयितुं तत्प्रविशेत् यस्माद् यदानीतं तत्तत्रैव निक्षेशव्यमिति कृत्वेति द्वितीयं, हयादेर्दुष्टादागच्छतो भीत इति तृतीयं पर:--आत्मव्यतिरिक्तः 'सहस'त्ति अकस्मात् 'बलस'त्ति बलेन हठात् सकारस्त्वागमिको बाहौ गृहीस्वेति चतुर्थे, 'बहिया व'त्ति नगरादेर्बहिरारामगतं वा उद्यानगतं वा निर्मन्थं तत्र आरामो विविधपुष्पजात्युपशोभित For Palata Use On ~ 626~ Janurary org Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४१५] दीप अनुक्रम [४५३] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३१२ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] Education Internation उद्यानं तु चम्पकवनाद्युपशोभितमिति, 'संपरिक्खिचित्त'त्ति संपरिक्षिप्य परिवार्य सन्निविशेत्-क्रीडाद्यर्थं गत आवासं कुर्यादिति पञ्चममिति, 'इचेही 'त्यादिना निगमनं, इह च पीठादीनामर्पणस्य ग्रहणव्यतिरेकेणासम्भवात् तद्ब्रहणमध्यनेनैव सङ्गृहीतं द्रष्टव्यमिति, भवन्ति चात्र गाथा: "थंडरं च तिविहं जुनं नवयं च कन्नगाणं च । एक्केकंपि यदुविहं सहाणे चेव परठाणे ॥ १ ॥ एतेसामन्यरं रनो अंतेउरं तु जो पविसे । सो आणाअणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ २ ॥ सद्दाइदियत्थोव ओगदोसा न एसणं सोहे । सिंगारकहाकहणे एगयरुभए य बहुदोसा ॥ ३ ॥ बहियावि[निर्गतस्येत्यर्थः > होंति दोसा केरिसिंगा कहणगिण्हणाईआ । गब्बो बाउसितं सिंगाराणं च संभरणं ॥ ४ ॥ [रूयन्तःपुरं च त्रिविधं जीर्ण तारुणं च कन्यकानां च । एकैकमपि च द्विविधं स्वस्थाने परस्थाने चैव ॥ १ ॥ एतेषामन्यतरद्राज्ञोन्तःपुरं य एव प्रविशेत् स आज्ञानवस्थामिध्यात्वविराधनाः प्राप्नुयात् ॥ २ ॥ शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषूपयोग दोषेनेपणां न शोधयेत् शृंगारकथाकथने एकतरोभयदोषाः बहुदोषाश्च ॥ ३ ॥ बहिरपि दोषा भवन्ति कीदृशाः कथनग्रहणादिकाः गर्यो बाकुशिकत्वं शृंगाराणां स्मरणं च ॥ ४ ॥ ] "वितियपद [ अपवाद इत्यर्थः > मणाभोगा १ वसहि परिक्खेव २ सेजासंधारे ३ । हयमाई दुद्वाणं आवयमाणाण ४ कजेसु ५ ॥ ५ ॥” इति । [ अनाभोगाद्वसतिपरिक्षेपात् शय्यासंस्तारकार्थाय दुष्टानां हयादीनां आपततां (रक्षार्थी) कार्येषु प्रवेशे द्वितीयं पदं ॥ १ ॥] अनन्तरमन्तःपुरसूत्रत्वात् स्त्रीगतमुक्तमधुनाऽपि तद्गतमेव क्रियाविशेषमाह पंच ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सार्द्ध असंवसमाणीदि गर्भ घरेजा, तं० इरथी दुब्बियडा दुनिसण्णा सुकपोम्गले अ For Parts Only मूलं [ ४१५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~627~ १५ स्थाना० उद्देशः २ अन्तःपुरप्रवेशः सू० ४१५ ॥ ३१२ ॥ war Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४१६ ] दीप अनुक्रम [४५४] स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ন “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४१६] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः चिद्विजा, सुकपोलसिट्टे व से वत्ये अंतो जोणीते अणुपवेसेजा, सई वा सा सुकपोम्गले अणुपवेसेजा, परो व से सुकपोगले अणुपवेसेजा, सीओदगवियडेण वा से आयममाणीते सुकपोग्गला अणुपवेसेना, इथेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं जाब घरे १ पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धि संवसमाणावि गर्भ नो धरेजा, तं०-- अप्पत्तजोवणा १ अतिकंतजोवणा २ जातिवंशा ३ गेलन्नपुडा ४ दोगणंसिया ५ इवेतेहिं पंचहि ठाणेहिं जाव नो घरेज्जा २ पंचहि ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीचे नो गन्भं घरेखा, सं० निचोडवा अथोडया वावन्नसोया वाविद्धसोया अनंगपडिसेवणी, इजेतेहि पंचहि ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीचि गमं णो घरेजा ३ पंचहि ठाणेहिं इत्थी० [सं० — उडंमिणो निगामपडिसेबिणी तावि भवति, समागता या से सुकपोग्गला पडिविद्धंसंति उदिने वा से पित्तसोणिते पुरावा देवकम्मणा पुत्तफले वा नो निहिडे भवति, इथेतेहिं जाब नो घरेजा ४। (सू० ४१६) 'पंच' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यं, नवरं 'दुव्वियड'त्ति विवृता - अनावृता सा चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्यादतो दुःशब्देन विशेष्यते दुष्ठु विवृता दुत्रिवृत्ता परिधानवर्जितेत्यर्थः अथवा विवृतोरुका - दुबिवृता, दुविवृता या सती दुर्न्निषण्णा - दुष्ठु विरूपतयोपविष्टा गुह्यप्रदेशेन कथञ्चित्पुरुषनिसृष्टशुक्र पुद्गलवद्भूमिपट्टादिकमासनमाक्रम्य निविष्टा सा दुर्निवृत दुर्भिण्णेति शुक्रपुङ्गलान् कथञ्चित्पुरुष निसृष्टानासनस्थानधितिष्ठेत् -योन्याकर्षणेन संगृह्णीयात्, तथा शुक्रपुद्गलसंसृष्टं 'से' तस्याः स्त्रिया वस्त्रमन्तः- मध्ये योनावनुप्रविशेत्, इह च वस्त्रमित्युपलक्षणं तथाविधमन्यदपि केशिमातुः केशवरकण्डूयनार्थं रक्तनिरोधनार्थं वा तथा प्रयुक्तं सदनुप्रविशेद् अनाभोगेन वा तथाविधं वस्त्रं परिहितं सद् योनिमनुप्रविशेत्, तथा 'स्वयं' मिति Education International पुरुषेण सह संवास-रहितेपि गर्भ धारणस्य कारणाः For Penal Use On ~ 628~ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१६] दीप अनुक्रम [४५४] श्रीस्थाना- पुत्रार्थिनीत्वाच्छीलरक्षिकत्वाच्च 'सेति सा शुक्रपुद्गलान् योनावनुप्रवेशयेत्, तथा 'परो वत्ति श्वशुप्रभृतिकः पुत्रा-४५स्थाना० सूत्र- मेव 'से' तस्या योनाविति गम्यते, तथा 'वियर्ड'ति समयभाषया जलं तबानेकधेत्यत उच्यते-शीतोदकलक्षणं यद्वि- उद्देशः२ वृत्तिः कट-पल्वलादिगतमित्यर्थः तेन वा 'से तस्या आचमत्याः पूर्वपतिता-उदकमध्यवर्तिनः शुक्रपुद्गलाः अनुपविशेयुरिति, गर्भधर दिइच्चेएही त्यादि निगमनमिति । अप्राप्यौवना प्राय आवर्षद्वादशकादावाभावात् तथाऽतिकान्तयौवना वर्षाणां पञ्च- णाधरणे ॥३१॥ पञ्चाशतः पञ्चाशतो वा आर्त्तवाभावादेव, यतोऽवाचि-"मासि मासि रजः खीणामजस्रं सवति व्यहम् । वत्सराद् द्वा- सू०४१६ दशाव, याति पश्चाशतः क्षयम् ॥ १॥ पूर्णषोडशवर्षा स्त्री, पूर्णविंशेन संगता । शुद्धे गर्भाशये १ मार्गे २, रक्ते ४४ शुक्र ५ ऽनिले ५ हृदि ६॥२॥ वीर्यवन्तं सुतं सूते, ततो न्यूनाब्दयोःपुनः । रोग्यल्पायुरधन्यो वा, गर्भो भवति नैवया ॥३॥” इति, शुद्धे-निर्दोषे गर्भाशयादिषट्र इत्यर्थः, तथा जातेः-जन्मत आरभ्य वग्ध्या-निबींजा जातिवन्ध्या, तथा | ग्लान्येन-लानत्वेन स्पृष्टा म्लान्यस्पृष्टा-रोगादिता, तथा दौर्मनस्य-शोकाद्यस्ति यस्याः सा दौर्मनस्थिका तद्वा सञ्जानतमस्या इति दौर्मनस्थितेति, 'इचेएही'त्यादि निगमनं । 'नित्यं सदा न व्यहमेय ऋतू-रक्तप्रवृत्तिलक्षणो यस्याः सा नित्यतुका, तथा न विद्यते ऋतू-रक्तरूपः शास्त्रप्रसिद्धो वा यस्याः सा अनृतुका, तथाहि-"ऋतुस्तु द्वादश निशाः, पूर्वास्तिस्रोऽत्र निन्दिताः। एकादशी च युग्मासु, स्थात्पुत्रोऽन्यासु कन्यका ॥१॥ पद्मं सङ्कोचमायाति, दिनेऽतीते दायथा तथा । ऋतावतीते योनिः सा, शुक्रं नैव प्रतीच्छति ॥२॥ मासेनोपचितं रक्तं, धमनीभ्यामृती पुनः । इपरकृष्णं | ॥३१३॥ [विगन्धं च, बायुर्योनिमुखाशुदे ॥३॥" इति, तथा व्यापन्नं-विनष्टं रोगतः श्रोतो-गर्भाशयश्छिद्रलक्षणं यस्याः सा Maanasurary.orm | पुरुषेण सह संवास-रहितेपि गर्भ-धारणस्य कारणा: ~629~ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१६] दीप अनुक्रम [४५४] व्यापनश्रोताः, तथा व्यादिग्ध व्याविर्द्ध वा-वातादिव्याप्तं विद्यमानमप्युपहतशक्तिक श्रोता-उक्तरूपं यस्याः सा ध्या-18 दिग्धश्रोता ब्याविद्धश्रोता ना, तथा मैथुने प्रधानमङ्गं मेहनं भगश्च तत्प्रतिषेधोऽनङ्गं तेनानङ्गेन-अहार्यलिङ्गादिना अ-1 नङ्गे वा-मुखादौ प्रतिषेवाऽस्ति यस्याः अनङ्गं वा-काममपरापरपुरुषसम्पर्कतोऽतिशयेन प्रतिषेवत इत्येवंशीलाऽनङ्गपति-10 विणी, तथाविधवेश्यावदिति, ऋतौ-ऋतुकाले नो-नैव निकामम्-अत्यर्थं बीजपातं यावत् पुरुष प्रतिषेवत इत्येवंशीला दनिकामप्रतिषेविणी 'वाऽपीति उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चये समागता वा 'से' तस्यास्ते प्रतिविध्वंसन्ते-योनिदोषादुप हतशक्तयो भवन्ति, मेहनविश्नोतसा वा योनेवहिः पतन्तो विध्वंसन्ते इति, उदीर्ण च-उत्कट तस्याः पित्तप्रधानं शोणितं ४ स्यात् तचाबीजमिति, पुरा वा-पूर्व वा गर्भावसरात् देवकर्मणा-देवक्रियया देवतानुभावेन शक्त्युपघातः स्यादिति | दशेपः, अथवा देवश्च कार्मणं च-तथाविधद्रव्यसंयोगो देवकाम्मेणं तस्मादिति, पुत्रलक्षणं फलं पुत्रो वा फलं यस्थ कर्मणस्तत्पुत्रफलं तद्वा नो निर्विष्टं भवति, अलब्धं अनुपात्तं स्यादित्यर्थः, 'थेवं बहुनिव्वेस' इत्यादी निर्वेशशब्दस्य लाभार्थस्य दर्शनादथवा पुत्रः फलं यस्य तत्पुत्रफलं-दानं तज्जन्मान्तरेऽनिर्विष्ट-अदत्तं भवति, निर्विष्टस्य दत्तार्थत्वात् , | यथा 'नानिविट्ठ लग्भइ'त्ति । ख्यधिकारादेव साध्वीवक्तव्यताप्रतिबद्धं सूत्रद्वयमिदमाह पंचहि ठाणेहि निर्माया निग्गंधीओ य एगतो ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेतेमाणे णातिकमंति, २०-अस्थेग इया निमगंधा निग्गंधीओ व एणं मई अगामितं छिन्नावायं दीहमद्धमडविमणुपविष्टा तत्थेगवतो ठाणं पा सेज वा निसीस्था०५३ हियं वा घेतेमाणे णातिकमति १, अत्थेगया जिग्गंथा २ गामंसि वा णगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा वास उवा SARERatini ~630~ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥३१४॥ [४१७] दीप सू०४१७ गता एगतिया यस्थ उपस्सयं लभंति एगतिता णो लभंति सत्थेगतितो ठाणं वा जाब नातिकमंति २, अत्येगतिता ५स्थाना निर्गथा थ २ मागकुमारावासंसि वा (मुवण्णकुमारावासंसि वा), वासं उवागता तस्थेगयओ जाव णातिकर्मति ३, आमो- का उद्देशः२ सगा दीसंति ते इच्छंति निम्गंधीओ चीवरपडिताते पडिगाहित्तते तत्थेगवओ ठाणं वा जाव णातिकमति ४, जुवाणा निन्धाना दीसंति ते इच्छंति निग्गंधीमो मेहुणपडिताते पडिगाहित्तते तत्थेगयओ ठाणं वा जाव णातिकमंति ५, इतेहि पंचर्हि | निर्ग्रन्थीठाणेहिं जाव नातिकमति । पंचहि ठाणेहि समणे निगथे अचेलए सचेलियाहिं निग्गंधीहिं सद्धिं संवसमाणे नाइकमति, |भिः सह तं०-खितथि समणे णिग्गंथे निगंयेहिमविजमाणेहि अचेलए सचेलियाहिं निग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिकमति स्थानादि १, एवमेतेणं गमएणं दित्तचित्ते जक्खातिहे उम्झायपत्ते निगंथीपब्वावियते समणे णिग्गंथेहिं अविजमाणेहि अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंधीहि सद्धि संवसमाणे णातिकमति (सू०४१७) 'पंचहिँ'इत्यादि, सुगम, नवरं 'एगयओत्ति एकत्र 'ठाणति कायोत्सर्ग उपवेशनं वा सेजति शयनं 'निसीहिय'ति | स्वाध्यायस्थानं 'चेतयन्तः' कुर्वन्तो 'नातिकामन्ति' न लयन्ति, आज्ञामिति गम्यते, 'अस्थि'त्ति सन्ति भवन्ति 'एगयय'त्ति एके केचन 'एकां' अद्वितीयां 'महती' विपुलामग्रामिकामकामिकां बा-अनभिलपणीयां छिन्ना आपाताः साधेगोकुला-15 दीनां यस्यां सा तथा तां दीर्घोऽध्वा-मार्गो यस्यां सा तथा तां दीर्घाध्वानं, मकारस्त्वागमिका, दीर्घोऽद्धा था-कालो निस्तरणे यस्याः सा दीर्घाद्धा तामटवीं-कान्तारमनुप्रविष्टा दुर्भिक्षादिकारणवशात् 'तत्र' अटव्यां' 'एगयउ'त्ति एकतः | एकत्रेत्यर्थः स्थानादि कुर्वन्तः आगमोक्तसामाचार्या नातिकामन्ति १, तथा राजधानी यत्र राजा अभिषिच्यते वासमुप अनुक्रम [४५५] ॥३१४ ~631~ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -- - प्रत सूत्रांक [४१७] दीप लगताः-निवास प्राप्ता इत्यर्थः, 'एगइया यत्यत्ति एकका-एकतरा निर्ग्रन्था निम्रथिका वा चः पुनरर्थः अत्र-ग्रामादौ उपाश्रयं-गृहपतिगृहादिकमिति, तथा 'अत्थेति अथ गृहपतिगृहादिकमुपाश्रयमलग्ध्वा 'एगाया' एके केचन नागकुमारावासादौ वासमुपागताः अथवा 'अत्थेति इह सम्बध्यते अस्ति सन्ति भवन्ति निवासमुपगता इति, तस्य च ना-| |गकुमारावासादेरतिशून्यत्वादथवा बहुजनाश्रयत्वादनायकत्वाच निग्रन्थिकारक्षार्थमेकत एवं स्थानादि कुर्वाणा नातिकामन्तीति, तथा आमुष्णन्तीत्यामोपका-चौरा दृश्यन्ते ते च इच्छन्ति नियन्धिकाः 'चीवरवटियाए'त्ति चीवरमतिज्ञया-वस्त्राणि गृहीष्याम इत्यभिप्रायेण प्रतिगृहीतुं यत्रेति गम्यते तत्र निर्ग्रन्धास्तद्रक्षणार्थमेकतः स्थानादिकमिति ४% तथा मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनार्थमिति ५ । इदमपवादसूत्रम् , उत्सर्गश्चापवादसहितो भाष्यगाथाभिरवसेयस्ताश्चेमाः-"भय-| णपयाण चउहं [एकः साधुरेका स्त्रीत्यादिभङ्गकानामित्यर्थः> अन्नतरजुए उ संजए संते । जे भिक्खू विहरेजा अह-| वावि करेज सज्झायं ॥ १॥ असणादिं वाऽऽहारे उच्चारादि च आचरेजाहि । निगुरमसाधुजुत्तं अन्नतरकहं च जो| कहए ॥२॥[चतुर्णी भजनापदानामन्यतरयुतः सन् संयतो यो भिक्षुर्विहरेत् अथवा स्वाध्यायमपि कुर्यात् ॥ १॥ अशनादि चाऽऽहरेदुच्चारादि वाऽऽचरेत् असाधुयुक्तां निष्ठुरामन्यतरां कथां च कथयेद्यः ॥२॥][स्त्रीभिः सहेति > “सो आणाअणवत्यै मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं । पावइ जम्हा तेणं एए उ पए विवजेजा ॥३॥" इति [स आज्ञाभंगमनवस्था मिथ्यात्वं विराधनां तथा द्विविधा । प्रामोति यस्मात्तत एतानि स्थानानि वर्जयेत् ॥ ३॥] "बीयपयमणप्पजे [अपवादोऽनात्मवशे इत्यर्थः> गेलनुवसग्गरोहगडाणे । संभमभयवासासु य खंतियमाईण निक्खमणे ॥४॥” इति, अनुक्रम [४५५] Saintaintina A nurary.om ~632~ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक निग्रन्थीभिः सह [४१७] दीप अनुक्रम [४५५] श्रीस्थाना-18|| अनात्मीयत्वे ग्लानत्वे उपसर्गे रोधकेऽध्वनि । संभ्रमे भये वर्षासु च क्षान्तिक (वृद्ध) प्रभृतीनां निष्कमणे द्वितीयपदं| ५ स्थानाः असूत्र- Inn] अचेलः क्षिप्तचित्तत्वादिना, क्षिप्तचित्तः शोकेन, तातिजागरकाः साधवो न विद्यन्ते ततो निर्ग्रन्थिकाः पुत्रादिकमिव पुत्रादिकामवाउद्देश-२ वृत्तिः 18 तं सझोपायन्तीति न ततोऽप्यसावाज्ञामतिकामति १, दृप्तचित्तो हर्षातिरेकात् २, यक्षाविष्टो-देवाधिष्ठितः ३, उन्माद निर्ग्रन्थानां ॥३१५॥ ताप्राप्तो वातादिक्षोभात् ४, निर्गन्धिकया कारणवशात्पुत्रादिः प्रवाजितः, स च बालवादचेलो महानपि वा तथाविध वृद्धत्वादिनेति । अत्र चोत्सर्गापवादौ भाष्याभिहितावेवम्-'जे भिक्खू य सचेले ठाणनिसीयण तुपट्टणं वावि । एज्ज १ सचेलाणं मज्झमि य आणमाईणि ॥ १॥ इय संदसणसंभासणेहिं भिन्नकहबिरहजोगेहि ।। [दोषा भवन्तीति > तथा | स्थानादि है सिज्जातरादिपासण वोच्छेय दुदिधम्मत्ति ॥२॥ [यो भिक्षुः सचेलोऽपि स्थानं निषीदनं त्वरवर्तनं वा चेतयेत् | सू०४१७ सचेलानां साध्वीनां मध्ये तस्याज्ञादीनि ॥ १॥ इह दर्शनसंभाषणैः भिन्न कथाभिर्विरहयोगैः । शय्यातरादिभिर्दर्शनं व्युहाच्छेदः दुर्दष्टधर्म इति (अवज्ञा) ॥२॥] तथा-"संवरिएविहु दोसा किं पुण एगतरणिगिण उभओ वा । दिट्ठमदिट्टब्ब मे दिद्विपयारे भवे खोभो ॥३॥" [संवृतेऽपि दोषा एव किं पुनरेकतरस्मिन्नग्ने उभयस्मिन् वा । ममाष्टव्यं दृष्टमिति दृष्टिप्रचारे भवेत् क्षोभः॥१॥] इत्युत्सर्गः-"बीयपदमणप्पजे गेलनुवसग्गरोहगाणे । समणाणं असईए समणीपन्याविए चेव ॥१॥" इति ।[द्वितीयं पदमनात्मवशे ग्लानत्वे उपसर्गे रोधकेऽध्वनि । श्रमणानामसति श्रमणीमत्राजिते चैव ॥१॥] धर्म नातिकामतीत्युक्तं तदतिक्रमश्चाश्रवरूप इति तद्वाराणि तस्यैव च प्रतिपक्षत्वात् संवरद्वाराणि पुनराबविशेषांश्च दण्डक्रियालक्षणानापरिज्ञासूत्रादाह ~633~ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४१८] दीप अनुक्रम [ ४५६ ] Eucation in "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [५], उद्देशक [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] .......... आश्रव, संवर व्याख्या - पंच आसवदारा पं० सं०मिच्छत्तं अविरती पमादे कसाया जोगा । पंच संवरदारा पं० [सं० सम्म बिरती अपमादो अकसातितमजोगितं । पंच दंडा पं० [सं० अट्ठादंडे अगद्वावंडे हिंसावंडे अक्रन्दा (स्मात् ) दंडे दिडी विपरि यासितादंडे ( सू० ४१८) आरंभिया पंच किरिताओ पं० सं० आरंभिता १ परिग्गहिता २ मातावत्तिता ३ अपक्षक्खाणकिरिया ४ मिच्छादंसणषत्तिता ५, मिच्छदिहियाण नेरइयाणं पंच किरियाओ पं० सं० जाव मिच्छादंसणवचिया, एवं सव्वेसिं निरन्तरं जाव मिच्छद्दिट्टिताणं वेमाणिताणं, नवरं विगलिंदिता मिच्छदिट्टी ण भन्नंति, सेसं तहेब । पंच किरियातो पं० [सं० काविता १ अहिगरिणता २ पाठोसिया ३ पारितावणिया ४ पाणातिवातकिरिया ५, रहया पंच एवं चैव निरन्तरं जाब बेमाणियाणं १ पंच किरिताओ पं० वं० आरंभिता १ जाव मिच्छादंसणवत्तिता ४, रइयाणं पंच किरिता, निरंतरं जाव वैमाणियाणं २ पंच किरियातो पं० [सं० विहिता १ पुहिता २ पाडोचिता ३ सामंतोवणिवाइया ४ साहत्थिता ५, एवं शेरइयाणं जाव वैमाणियाणं २४, ३ । पंच किरियातो पं० सं० --- सत्थिता १ आणवणिता २ बेयारणिया ३ अणाभोगवचिता ४ अणवकंसवचिता ५, एवं जाव वैमाणिया णं २४, ४। पंच किरियाओ पं० [सं० पेजवत्तिता १ दोसवतिया २ पओगकिरिया ३ समुदाणकिरिया ४ ईरियावहिया ५, एवं मावि, साणं नत्मि ५ । ( सू० ४१९ ) 'पंचे 'त्यादि सुगमं, नवरं आश्रवणं- जीवतडागे कर्म्मजलस्य सङ्गठनमाश्रवः, कम्र्म्मनिबन्धनमित्यर्थः, तस्य द्वाराणीव द्वाराणि उपाया आश्रवद्वाराणीति । तथा संवरणं- जीवतडागे कर्म्मजलस्य निरोधनं संवरस्तस्य द्वाराणि उपायाः सं For Parts Only मूलं [४१८] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 634 ~ yor Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: | सू०४१८ प्रत सूत्रांक [४१९] दीप अनुक्रम [४५७]] श्रीस्थाना-वरद्वाराणि-मिथ्यात्वादीनामाश्रवाणां क्रमेण विपर्ययाः सम्यक्त्वविरत्यप्रमादाकपायित्वायोगित्वलक्षणाः प्रथमाध्यय-81५स्थाना० लसूत्र- नवद्वाच्या इति । दण्ज्यते आत्माऽन्यो वा प्राणी येन स दण्डः, तत्र प्रसानां स्थावराणां वा आत्मनः परस्य वोपकाराय | उद्देशः२ वृत्तिः हिंसाऽर्थदण्डः विपर्ययादनर्थदण्डः हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यत्ययमित्यभिसन्धेर्यः सर्पवैरिकादिवधः स हिंसादण्ड आश्रवसं इति 'अकस्माइंड'त्ति मगधदेशे गोपालवालावलादिप्रसिद्धोऽकस्मादिति शब्दः स इह प्राकृतेऽपि तथैव प्रयुक्त इति वरदण्डार तत्रान्यवधार्थ प्रहारे मुक्तेऽन्यस्य वधोऽकस्माद्दण्ड इति यो मित्रस्याप्यमित्रोऽयमितिबुद्ध्या वधः स दृष्टिविपर्यासदण्ड क्रियाः ४ इति । एते हि दण्डाखयोदशानां क्रियास्थानानां मध्येऽधीता इति प्रसङ्गतः शेषाण्यष्टौ क्रियास्थानान्यभिधीयन्ते, तत्र मृषाक्रिया-आत्मज्ञात्याद्यर्थं यदलीकभाषणं १ तथा अदत्तादानक्रिया आत्माद्यर्धमदत्तग्रहणं २ तथा अध्यात्मक्रिया ४१९ यत्केनापि कथश्चनाप्यपरिभूतस्य दौर्मनस्थकरणं ३ तथा मानक्रिया यजात्यादिमदमत्तस्य परेषां हीलनादिकरणं ४ तथा * अमित्रक्रिया यत् मातापितृस्थजनादीनामल्पेऽप्यपराधे तीब्रदण्डस्य दहनाङ्कनताडनादिकस्य करणं ५ तथा मायाक्रिया &ायच्छठतया मनोवाकायप्रवर्तनं ६ तथा लोभक्रिया यल्लोभाभिभूतस्य सावद्यारम्भपरिग्रहेषु महत्सु प्रवर्तनं ७ तथेअर्यापथिकक्रिया यदुपशाम्तमोहादेरेकविधकर्मवन्धनमिति ८, अत्र गाथा-"अट्ठा १णवा २ हिंसा ३ ऽकम्हा ४ दिही य ५ मोस ५ दिन्ने य ७ । अज्झस्थ ८माण ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३ ॥१॥" इति, [अर्थोऽनों हिंसाऽकस्माद् दृष्टिम॒षाऽदत्तं च । अध्यात्मस्था मानः मित्रं माया लोभ इयाँपथिकी (इति क्रियाः) १२॥१॥] नवरं C ॥३१६॥ 'विगलिदिए"त्यादि एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टिविशेषणं न वाच्यं, तेषां सदैव सम्यक्त्वाभावेन व्यवच्छेद्याभावात् , संवरस्य व्याख्या, दंडस्य अर्थ एवं भेदा: ~635~ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: MCGL प्रत सूत्रांक [४१९] दीप अनुक्रम [४५७]] सासादनस्य चाल्पत्वेनाविवक्षितत्वादिति । कायिकी-कायचेष्टा १ अधिकरणिकी-खगादिनिर्वर्तनी २ प्रादेपिकी-म-12 सरजम्या ३ पारितापनिकी-दुःखोसादनरूपा ४ प्राणातिपातः प्रतीतः ५। 'दिट्ठिया' अश्वादिचित्रकर्मादिदर्शनार्थ गमनरूपा १ 'पुट्टिया' जीवादीन् रागादिना पृच्छतः स्पृशतो वा २'पाडुचिया' जीवादीन् प्रतीत्य या ३ 'सामंतोवणिवाइया' अश्वादिरथादिकं लोके श्लाघयति इष्यतो अश्वादिपतेरिति ४ 'साहस्थिया' स्वहस्तगृहीतजीवादिना |जीवं मारयतः ५। 'नेसत्थिया' यत्रादिना जीवाजीवान् निसृजतः १ 'आणवणिया' जीवाजीवानानाययतः २ 'वियारणिया' तानेव विदारयतः ३ 'अणाभोगवत्तिया' अनाभोगेन पात्राद्याददतो निक्षिपतो वा ४ 'अणवखवत्तिया' इहपरलोकापायानपेक्षस्येति ५। 'पेजवत्तिया रागप्रत्यंया १ 'दोसवत्तिया' द्वेषप्रत्यया २'प्रयोगक्रिया'। कायादिव्यापाराः ३ 'समुदानक्रिया' कम्र्मोपादानं ४'ईरियावहिया' योगप्रत्ययो बन्धः ५ । इदं च प्रेमादिक्रियापश्चक सामान्यपदे, चतुर्विशतिदण्डके तु मनुष्यपद एव सम्भवति, ईपिथक्रियाया उपशान्तमोहादित्रयस्यैव भावादिल्याह'एव'मित्यादि, इहैकेन्द्रियादीनामविशेषेण क्रियोक्ता, सा च पूर्वभवापेक्षया सर्वापि सम्भवतीति भावनीय, द्विस्थानके & द्वित्वेन क्रियाप्रकरणमुक्तमिह तु पञ्चकत्वेन नारकादिचतुर्विशतिदण्डकाश्रयेण चेति विशेषः, क्रियाणां च विस्तरव्या ख्यानं द्विस्थानकप्रथमोद्देशकाद्वाच्यमिति । अनन्तरं कम्मेणो बन्धनिबन्धनभूताः क्रिया उक्काः, अधुना तस्यैव निर्जरोपायभूतां परिज्ञामाह पंचविहा परिना ५० सं०-उबहिपरिन्ना उबस्सयपरिक्षा कसायपरिन्ना जोगपरिक्षा भत्तपाणपरिना (सू० ४२०) पं 5756056 ~636~ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४२१] दीप अनुक्रम [४५९ ] श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः ॥ ३१७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] मूलं [ ४२१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education चविहे बवहारे पं० [सं० आगमे सुते आणा धारणा जीते, जहा से तत्थ आगमे सिता आगमेणं ववहारं पट्टवैजा णो से तत्थ आगमे सिया जहा से तस्य सुते सिता सुतेणं धवहारं पट्टवेज्जा णो से तत्थ सुते सिता एवं जाव जहा से तत्थ जीए सिया जीतेणं वबहारं पटुवेजा, इथेतेदिं पंचहिं वबहारं पट्टवेया आगमेणं जाव जीतेणं, जधा २ से तत्थ आगमे आब जीते वहा २ ववहारं पट्टवेज्जा से किमाहु भंते! आगमबलिया समणा निमगंधा ? इथेतं पंचविधं बवहारं जता जता जहिं जहि तथा तता तहिं तहिं अणिस्सितोवस्थितं सम्मं ववहरमाणे समणे णिग्गंधे आणावे आराघते भवति ( सू० ४२१) 'परिज्ञा, उपाधि, व्यवहार, आगम, श्रुतादि शब्दानाम व्याख्या: 'पंचविहे 'त्यादि, सुगमं, नवरं परिज्ञानं परिज्ञा वस्तुस्वरूपस्य ज्ञानं तत्पूर्वकं प्रत्याख्यानं च, इयं च द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य भावतस्तूपयुक्तस्येति, आह च - "भावपरिन्ना जाणण पञ्चक्खाणं च भावेणं" इति, [ज्ञानं भावेन प्रत्याख्यानं च भावपरिज्ञा ॥ ] तत्रोपधी-रजोहरणादिस्तस्यातिरिक्तस्याशुद्धस्य सर्वस्य वा परिज्ञा उपधिपरिज्ञा, एवं शेषपदान्यपि, नवरमुपाश्रीयते - सेव्यते संयमात्मपालनायेत्युपाश्रयः ॥ परिज्ञा च व्यवहारवतां भवतीति व्यवहारं रूपयन्नाह - 'पंचे' त्यादि, व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहारो मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः इह तु तन्निबन्धनत्वात् ज्ञानविशेषोऽपि व्यवहारः, तत्र आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः केवलमनःपर्यायावधिपूर्व चतुर्दश कदश कनवकरूपः १ तथा शेषं श्रुतं - आचारप्रकल्पादिश्रुतं, नवादिपूर्वाणां श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्य- ४ ॥ ३१७ ॥ पदेशः केवलवदिति २ यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायाविचारा लोचनमितरस्यापि तथैव For Parts Only ५ स्थाना० उद्देशः २ परिज्ञाः ~637~ आगमा. दिव्यवहारा: सू० ४२० ४२१ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२१] AKAM दीप %256456-226256-0-%25645605 शुद्धिदानं साऽऽज्ञा ३ गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराचे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदन्यस्तत्रैव तथैव । तामेव प्रयुते सा धारणा वैयावृत्त्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणो अशेषानुचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां धरणं धारणेति ४ तथा द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवानुवृत्त्या संहननधृत्यादिपरिहाणिमपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदान यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तितस्तज्जीतमिति, अत्र गाथा:-"आगमसुयववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपन्नत्तो । पच्चक्खो य परोक्खो सोऽविध दुविहो मुणेबब्बो ॥१॥पञ्चक्खोवि य दुविहो इंदियजो चेव नो य इंदियओ । इंदिवपञ्चक्खोविय पंचसु विसएसु नेयब्वो ॥२॥ नोइंदियपश्चक्खो ववहारो सो समासओ तिविहो। ओहिमणपज्जवे या केवलनाणे य पञ्चक्खो ॥३॥ पञ्चक्खागमसरिसो होइ परोक्खोवि | आगमो जस्स । चंदमुहीव उ सोविहु आगमववहारवं होइ ॥४॥ पारोक्खं ववहारं आगमओ सुयहरा बधहरति । चोदसदसपुग्वधरा नवपुचिग गंधहत्थी य॥५॥[शृणुत यथा धीरपुरुषप्रज्ञप्तं आगमश्चतन्यवहारं सोऽपि च द्विविधः। प्रत्यक्षः परोक्षश्च ज्ञातव्यः॥१॥प्रत्यक्षोऽपि च द्विविधा इंद्रियजश्चैव नोइंद्रियजश्चैव इंद्रियप्रत्यक्षोऽपि च पंचसु विषयेषु | ज्ञातव्यः॥२॥ स नोइंद्रियप्रत्यक्षो व्यवहारः संक्षेपतस्विविधः अवधिमनःपर्यवौ च केवलज्ञानं च प्रत्यक्षः ॥३॥ प्रत्यक्षागमसदृशो भवति परोक्षेऽप्यागमो यस्य चंद्रमुखीव सोऽपि आगमव्यवहारवानेव भवति ॥ ४॥ श्रुतधरा आगमतः परोक्षं व्यवहारं व्यवहरन्ति चतुर्दशदशपूर्वधरा नवपूर्वी गंधहस्ती च ॥५॥](पते गन्धहस्तिसमाः) "जं जह|मोल्लं रयणं तं जाणइ रवणबाणिओ निउणं । इव जाणइ पञ्चक्खी जो सुज्झइ जेण दिनेणं ॥६॥ कप्पस्स य निजुचित %2595% अनुक्रम [४५९] 4 Rainrary.org "आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या ~638~ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४२१] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२१] दीप श्रीस्थाना- 1ववहारस्सेव परमनिउणस्स । जो अत्थओ बियाणइ सो ववहारी अणुलाओ ॥७॥ तं चेवऽणुसजते [अनुसरन् >10५ स्थाना सूत्र- विवहारविहिं पउंजइ जहुत्तं । एसो सुयववहारो पन्नत्तो पीअरागेहिं ॥८॥ अपरक्कमो तवस्सी गंतुं जो सोहिकारगस-14 उद्देशः२ वृत्तिः मीवे । न चएई आगंतुं सो सोहिकरोऽवि देसाओ ॥९॥ अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनटुचेट्टाओ । इच्छामऽजो आगमादि काउं सोहिं तुम्भं सगासंमि ॥१०॥ सो ववहारविहिन्नू अणुसजित्ता सुओबएसेणं । सीसरस देइ आणं तस्स इमं व्यवहाराः ॥३१८॥ दादेह पच्छित्तं ॥१॥ [ गूढपदैरुपदिशतीति >३ जेणऽन्नयाइ दिटुं सोहीकरणं परस्स कीरतं । तारिसयं चेव पुणो उप्पन्नं सू०४२१ कारणं तस्स ॥ १२॥ सो तंमि चेव दवे खेत्ते काले य कारणे पुरिसे । तारिसयं चेव पुणो करिंतु आराहओ होइ | ४॥१३॥ यावच्चकरो वा सीसो वा देसहिंडओ वावि । देसं अवधारेन्तो चउत्थओ होइ ववहारो ॥ १४ ॥ इति ५, बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो नो निवारिओ होइ । वत्तणुवत्तपमाणं (वत्तो) जीएण कयं हवइ एयं ॥ १५॥ [यथा नयावन्मूल्यं यद्रलं तन्निपुणो रत्नवणिग्जानाति एवं प्रत्यक्षवान् यो येन दत्तेन शुद्ध्यति तज्जानाति ॥ ६॥ कल्पस्य नि युक्किं व्यवहारस्यैव च परमनिपुणस्य योऽर्थतो विजानाति स व्यवहारी अनुज्ञातः॥७॥ तमेवानुसरन् यथोक्तं व्यव-1 हारविधि प्रयुक्त एष श्रुतव्यवहारो वीतरागैःप्रज्ञप्तः ॥८॥ अपराक्रमस्तपस्वी गंतु यः शोधिकारकसमीपे न शक्नोति आगंतुं यः शोधिकरोऽपि देशात् ॥ ९॥ अथ प्रस्थापयति शिष्यं देशान्तरगमननष्टचेष्टाः इच्छाम आर्य! तव सकाशे शोधिं कर्तुं ॥१०॥स व्यवहारविधिज्ञः श्रुतोपदेशमनुसृत्य शिष्यस्थाज्ञां ददाति (गूढपदैः) तस्यैतत् प्रायश्चित्तं दद्याः ॥३१८॥ ॥ ११॥ येन परस्य क्रियमाणं शोधिकरणमन्यदा दृष्टं पुनरपि तस्य कारणमुत्पन्न तादृशं चैव ॥ १२ ॥ स तस्मिंश्चैव अनुक्रम [४५९] -% SARELIEatunintentiaTISHRA "आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या ~639~ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४२१] दीप अनुक्रम [४५९ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४२१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] द्रव्ये क्षेत्रे काले कारणे पुरुषे च तादृशींचैव पुनः कारयन्नाराधको भवति ॥ १३ ॥ वैयावृत्त्यकरो वा देशहिंडको वापि शिष्यः देशमवधारयन् चतुर्थको भवति व्यवहारः ॥ १४ ॥ बहुश्रुतैर्बहुशो वृत्तो न निवारितश्च भवति वृत्तानुवृत्तप्रवृत्तः एतज्जीतेन कृतं भवति ॥ १५ ॥ ] तथा - 'जं जस्स उपच्छित्तं आयरिअपरंपराऍ अविरुद्धं । जोगा य बहुविहीया एसो खलु जीयकप्पो उ ॥ १६ ॥” इति [यद् यस्याचार्यपरम्परयाऽविरुद्धं प्रायश्चित्तं योगाश्च बहुविधिकाः एष खलु जीतकल्प | एव ॥ १६ ॥ ] जीत-आचरितं इदं चास्य लक्षणं-" असढेण समाइझं जं कत्थइ केणई असावज्जं । न निवारियमन्नेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ १७ ॥” इति [ अशठेन समाचीर्ण यत्कुत्रचित्केनचिदसावयं । अन्यैर्न निवारितं अनुमतं बहुगुणमेतदाचरितं ॥ १ ॥ ] आगमादीनां व्यापारणे उत्सर्गापवादावाह - 'येथे'ति यप्रकारः केवलादीनामन्यतमः 'से' तस्य व्यवहर्तुः स च उक्तलक्षणः 'तत्र' तेषु पञ्चसु व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानादिव्यवहारकाले | व्यवहर्त्तव्ये वा वस्तुनि विषये आगमः केवलादिः स्याद्भवेत् तादृशेनेति शेषः आगमेन 'व्यवहार' प्रायश्चित्तदानादिकं 'प्रस्थापयेत्' प्रवर्त्तयेत् न शेषः आगमेऽपि षडिधे केवलेनावन्ध्यबोधत्वात् तस्य तदभावे च मनःपर्यायेणैवं प्रधानतराभावे इतरेणेति, अथ 'नो' नैव 'से' तस्य स वा 'तत्र' व्यवहर्त्तव्यादावागमः स्यात् 'यथा' यत्प्रकारं तत्र श्रुतं स्यात् तादृशेन श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति, 'इच्चेएहिं' इत्यादि निगमनं सामान्येनेति, यथा यथाऽसौ तत्राग| सादि स्यात्तथा तथा व्यवहारं प्रस्थापयेदिति तु विशेषनिगमनं इति । एतैर्व्यवहर्तुः प्रश्नद्वारेण फलमाह - 'से किमे'त्यादि, अथ किं हे भदन्त ! - भट्टारका आहुः प्रतिपादयन्ति के ? --आगमवलिका - उक्तज्ञानविशेषबलवन्तः श्रमणा नि "आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या For Pale Only ~640~ andrary org Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: + +S प्रत सूत्रांक [४२१] दीप अनुक्रम [४५९] श्रीस्थाना न्या केवलिप्रभृतयः 'इचेय'ति. इत्येतद्वक्ष्यमाणं, अथवा किं तदित्याह-'इत्येवं' इति उक्तरूपं एतं-प्रत्यक्षं के ?-पाच-15/५ स्थाना असूत्र- विधं व्यवहार-प्रायश्चित्तदानादिरूपं 'संमं ववहरमाणे'त्ति सम्बध्यते व्यवहरन्-प्रवर्तयन्नित्यर्थः कथं?-'संम' तिमा उदेशः२ वृत्तिः सम्यक् तदेव कथमित्याह-'यदा यदा' यस्मिन् यस्मिन्नवसरे 'यत्र यत्र' प्रयोजने क्षेत्रे वा यो यः उचितस्तमिति शेषः४ व्यवहाराः तदा तदा काले तस्मिंस्तस्मिन् प्रयोजनादौ, कथंभूतमित्याह-अनिश्रितैः' सर्वाशंसारहितैरुपाश्रितः-अङ्गीकृतोऽनि सुप्तजाग॥३१९॥ धितोपाश्रितस्तं अथवा लिश्रितश्च-शिष्यत्वादिप्रतिपन्नः उपाश्रितश्च-स एव वैयावृत्त्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरस्तौ अ (रा: रजधवा निभितं च रागः उपाश्रितं च श्रेषस्ते अथवा निश्रितं च-आहारादिलिप्सा उपाश्रितं च-शिष्यप्रतीच्छककुलाच-18| आदानेपेक्षा ते न तो यत्र सत्तथेति क्रियाविशेषणं, सर्वथा पक्षपातवर्जितत्वेन यथावदित्यर्थः, इह पूज्यव्याख्या-रागो || होइ निस्सा स्वस्सिओ दोससंजुत्तो ॥१॥ अहव ण आहाराई दाही मज्झं तु पस निस्सा उ । सीसो पडिओ वास०४२१ होइ उवस्सा फुलाईया ॥१॥” इति, [रागस्तु भवति निभा द्वेषसंयुक्त उपाश्रितः। अधवा आहारादि मह्यं न दास्यति || ४२२टाएष मिश्वा तु १ शिष्यः प्रतीरछको वा भविष्यत्युपश्रा कुलादिका]॥ आज्ञाया-जिनोपदेशस्याराधको भवतीति हन्त | ४२३ आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति । श्रमणप्रस्तावात् तम्पतिकरमेव सूत्रद्वयेनाह संजतमणुस्साणं भुत्ताण पंच सागरा पं०२०-सहा आग कासा, संजनमगुस्साणं जागराणं पंच भुत्ता पं० सं०-सहा जाब फासा। असंजयमणुस्साणं मुत्ताणं का मामरागंवा पंच जामरा पं०१०-सहा जाब फासा (सू०४२२) पंचर्ति ठाणेहिं जीषा रतं आपियंति, सं-पाणातिवातेणं आव परिग्गहेणं । पंचदि ठाणेदि जीवा रतं बमंति, ० ॥३१९॥ तरौ +SCASESCAKACC4 SAREaratinathtima "आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या ~641~ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४२३] दीप अनुक्रम [ ४६१] स्था० ५४ Education “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति मूलं [४२३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... ...आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] NARESAMA 4% 4% 4444 पाणातिवातवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं (सू० ४२३ ) पंचमासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगाररस कप्पंति पंच दत्तीको भोयणस्स पढिगात्तते पंच पाणगस्त्र (सू० ४२४) पंचविधे उबघावे पं० [सं० उम्ममोवघाते उप्पायणोवधाते एसणोवघा परिकम्मोवघाते परिहरणोवपाते। पंचविद्या विसोही पं० तं० उग्गमविसोही उप्पायणविसोधी एसणाविसोही परिकम्म विसोही परिहरणविसोधी ( सू० ४२५ ) व्यक्तं, नवरं 'संजये 'त्यादि 'संयतमनुष्याणां' साधूनां 'सुप्तानां' निद्रावतां जाग्रतीति जागरा :- असुप्ता जागरा इव जागराः, इयमत्र भावना - शब्दादयो हि सुप्तानां संयतानां जाग्रद्वह्निवदप्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्म्मबन्धाभाव कारणस्याप्रमादस्य तदानीं तेषामभावात् कर्म्मबन्धकारणं भवन्तीत्यर्थः । द्वितीयसूत्र भावना तु जागराणां शब्दादयः सुता इव सुष्ठाः भस्मच्छन्नाग्निवत् प्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्म्मबन्धकारणस्य प्रमादस्य तदानीं तेषामभावात् कर्म्मबन्धकारणं न भवन्तीत्यर्थः । संयतविपरीता ह्यसंयता इति तानधिकृत्याह --'असंजए' त्यादि व्यक्त, नवरमसंयतानां प्रमादितया अवस्थाद्वयेऽपि कर्म्मबन्धकारणतया अप्रतिहतशक्तित्वाच्छब्दादयो जागरा इव जागरा भवन्तीति भावना । संयतासंयताधिकारात् तद्व्यतिकराभिधायि सूत्रद्वयं सुगमं, नवरं 'जीव'त्ति असंयतजीवाः 'र'ति जीवस्वरूपोपरञ्जनाद्रज इव रज:- कर्म 'आइयंति'त्ति आददति गृह्णन्ति बन्नन्तीत्यर्थः, 'जीव'त्ति संयतजीवाः 'वमंति'त्ति त्यजन्ति क्षपयन्तीत्यर्थः । संयताधिकारादेवापरं सूत्रद्वयं 'पंचमासिए'त्यादि व्यक्तं, नवरं उपघातः - अशुद्धता, उद्गमोपघातः उद्गम१ स्वाभाविकाः शब्दादयः सुप्तदशायां खतन्त्रतया प्रवर्तन्ते जातां तु यतनयेति शब्दादीनां सुप्ते जादितरते अथवा स्वप्नजायते अवबोधानबोधी. For Parts Only ~ 642 ~ Any org Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ॥३२ ॥ प्रत सूत्रांक [४२५]] दीप अनुक्रम [४६३] श्रीस्थाना- दोपैराधाकर्मादिभिः षोडशप्रकारभक्तपानोपकरणालयानामशुद्धता, एवं सर्वत्र, नवरं उत्पादनया-उत्पादनादोपैः पो- ५ स्थाना. असूत्र- मडशभिः धात्र्यादिभिः एषणया-तद्दोषैर्दशभिः शङ्कितादिभिरिति, परिकर्म-वखपात्रादेः छेदनसीवनादि तेन तस्योप-15 उद्देशः२ वृत्तिः घातः-अकल्प्यता, तत्र वस्त्रस्य परिकर्मोपघातो यथा-"तिण्हुवरि फालियाणं वत्थं जो फालियं तु संसीवे । पंचण्ह ए- पञ्चमासि गतरं [कर्णिकाद्यन्यतरत् > सो पावह आणमाईणि ॥१॥[यस्तिसृणां धिम्गलिकानां उपरि थिग्गलिका बखे संसी- की प्रतिमा व्येत् पंचविधानामेकतरस्मिन् स प्रामोत्याज्ञादीनि ॥१॥] तथा पात्रस्य "अवलक्खणेगबंधे दुगतिगअइरेगबंधणं उपघातवावि । जो पायं परियट्टइ [परिभुङ्गे> परं दिवड्डाओ मासाओ ॥१॥" [अपलक्षणमेकबंधं द्वित्रिविशेषबन्धनं वापि। विशुद्धो य एतत् पात्रं परिभुङ्गे सार्धात् मासात्परतः॥१॥] स आज्ञादीनामोतीति, तथा वसतेः “दूमिय धूमिय बासिय सू०४२४ उज्जोइय बलिकडा अवत्ता य । सित्ता संमट्ठाविय विसोहिकोडिं गया वसही ॥१॥" इति [मिता धवलिता बासितो- ४२५ बायोतिता बलिकृताऽव्यक्ता च सिक्ता संमृष्टापि च वसतिर्विशोधिकोटिं गता ॥१॥] [दूमिता धवलिता बलिकृता कूरादिना अव्यक्ता छगणादिना लिप्ता संमृष्टा सम्मार्जितेत्यर्थः>, तथा परिहरणा-आसेवा तयोपध्यादेरकल्प्यता, तबोपधेर्यथा एकाकिना हिंडकसाधुना यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति समयव्यवस्था, "जग्गण अप्पडिवज्झण| |जइवि चिरेणं न उवहमे" [जागरणमप्रतिबन्धः (स्तस्तदा) यद्यपि चिरेणागच्छति गच्छे न तथाप्युपहन्यात् ॥] इति वचनाद्, अस्य चायमर्थः-एकाकी गच्छभ्रष्टो यदि जागर्ति दुग्धादिषु च न प्रतिवद्ध्यते तदा यद्यप्यसौ गच्छे चिरेणा- ॥३२०॥ गच्छति तथाप्युपधिर्नोपहन्यते अन्यथा तूपहन्यत इति, वसतेरपि मासचतुर्मासयोरुपरि कालातिक्रान्तेति तथा मासयं ४ kiOSCARROSAROK ~643~ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [४२५]] 445 दीप k! चतुर्मासद्वयं चावर्जयित्वा पुनस्तत्रैव वसतामुपस्थानेति च तदोषाभिधानात् , उक्तं च-"उउवासा समईता कालातीता उ सा भवे सेजा । सा चेव उवट्ठाणा दुगुणा दुगुणं अवजित्ता ॥१॥” इति [ऋतुवर्षयोर्मासचतुर्मास्योरमतः कालातीता भवेच्छय्या । सा चैवोपस्थाना द्विगुणं २ अबर्जयित्वा ॥१॥] तथा भक्तस्यापि पारिष्ठापनिकाकारं प्रत्यकल्प्यता, तदुक्तम्-"विहिगहियं विहिभुत्तं अइरेग भत्तपाण भोत्तव्यं । विहिगहिए विहिभुत्ते एत्थ य चउरो भवे भंगा ॥१॥ अहवाषिय विहिगहियं विहिभुतं तं गुरूहऽणुन्नायं । सेसा नाणुन्नाया गहणे दिने च निजहणं ॥२॥"[विधिगृहीतं विधि-12 भुक्तमतिरेक भक्तपानं भोक्तव्यं विधिगृहीते विधिमुक्ते अत्र च भवेयुः चत्वारो भंगाः॥१॥ अथवा विधिगृहीतं विधिभुक्तं तद्गुरुभिरनुज्ञातं शेषा नानुज्ञाता गृहीते दत्ते वा नियूहणा (त्यागः)॥२॥] उद्गमादिभिरेव भक्तानां कल्प्यता:-विशुद्धय इति। उपघातविशुद्धिवृत्तयश्च जीवा निर्द्धर्मधार्मिकत्वाभ्यां बोधेरलाभलाभस्थानेषु प्रवर्तन्त इति तत्प्रतिपादनाय सूत्रद्वयम् पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभवोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं०-अरहंताणं अवन्नं वदमाणे १ अरहतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवनं बदमाणे २ आयरियउवझायाण अवन्नं वदमाणे ३ चाउवनस्स संघस्स अवन्नं वयमाणे ४ विधकतवर्षभचेराणं देवाणं अवन्नं वदमाणे ५ । पंचहि ठाणेहि जीवा सुलभबोधियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं०-अरहंताणं वनं वदमाणे जाव विवक्तवबंभचेराणं देवाणं वन्नं वदमाणे (सू०४२६) 'पंचहीं'त्यादि सुगम, नवरं दुर्लभा बोधिः-जिनधर्मो यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तया दुर्लभवोधिकतया तस्यै वा/ कर्म-मोहनीयादि प्रकुर्वन्ति-धनन्ति, अर्हतामवर्ण-अश्लाघां वदन् , यथा-"नत्थी अरहंतती जाणं वा कीस भुंजए| अनुक्रम [४६३] Santauratoni n d M auranorm बोधि एवं कर्म शब्दस्य व्याख्या ~644~ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२६] दीप अनुक्रम [४६४] श्रीस्थाना-दाभोए। पाहुडियं तुवजीवह[समवसरणादिरूपां> एमाइ जिणाण उ अवघ्नो ॥१॥"[नास्त्यर्हन् जानानो वा कथं ५ स्थाना. सूत्र- भोगान् भुनक्ति प्राभृतिकां वोपजीवति इत्यादितु जिनानामवर्णः ॥१॥] न च ते नाभूवन् ताणीतप्रवचनोपलब्धे, उद्देशः२ वृत्तिः 13/नापि भोगानुभवनादिदोषः, अवश्यवेद्यसातस्य तीर्थकरनामादिकर्मणश्च निर्जरणोपायत्वात् तस्य, तथा वीतरागत्वेन | अहंदवसमवसरणादिषु प्रतिबन्धाभावादिति, तथा अर्हत्वज्ञप्तस्य धर्मस्य-श्रुतचारित्ररूपस्य प्राकृतभाषानिबद्धमेतत् तथा किं| | दिना ॥३२१॥ चारित्रेण दानमेव श्रेय इत्यादिकमवर्ण वदन, उत्तरं चात्र प्राकृतभाषात्वं श्रुतस्य न दुष्टं बालादीनां सुखाध्येयत्वे-12 दुर्लभसुलनोपकारित्वात् , तथा चारित्रमेव श्रेयो, निर्वाणस्थानन्तरहेतुत्वादिति, आचार्योपाध्यायानामवर्ण वदन् यथा बालोऽय-18| भबोधिता दामित्यादि, न च बालवाविर्दोषो बुख्यादिभिर्वृद्धत्वादिति, तथा चत्वारो वर्णो:-प्रकारा श्रमणादयो यस्मिन् स तथा सहै। सू०४२६ Pएव स्वार्थिकाविधानाच्चातुवर्णस्तस्य सदस्थावण वदन् , यथा-कोऽयं सङ्घो? यः समवायवलेन पशुसङ्घ इवामार्गमपि मागींकरोतीति, न चैतत्साधु, ज्ञानादिगुणसमुदायात्मकत्वात् तस्य, तेन च मार्गस्यैव मार्गीकरणादिति, तथा विपकं | -सुपरिनिष्ठितं प्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः तपश्च ब्रह्मचर्य च भवान्तरे येषां विपक्कं वा-उदयागतं तपोब्रह्मचर्य तद्धेतुकं देवायुष्कादि कर्म येषां ते तथा तेषामवर्ण वदन्, न सन्त्येव देवाः, कदाचनाप्यनुपलभ्यमानत्वात् , किं वा तैर्विटैरिव कामासकमनोभिरविरतैस्तथा निर्निमेपरचेष्टिश्च बियमाणैरिव प्रवचनकार्यानुपयोगिभिश्चेत्यादिक, इहोत्तरं-सन्ति | |देवाः, तत्कृतानुग्रहोपघातादिदर्शनात्, कामासक्तता च मोहसातकर्मोदयादित्यादि, अभिहितं च-"एत्थ पसिद्धी ॥२१॥ सानादिहेतोरेवाचरणायां समुपादानात्. २ पूर्वपुरुषाणां तथाविधकारणाभावात् तथाविधाचरणाभावात् अमार्गलं तथा चावपि व्युत्पत्ती विरोधो न. ~645~ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४२६] दीप अनुक्रम [४६४] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] मोहणीयसायवेयणिय कम्मउदयाओ। कामपसत्ता विरई कम्मोदयओ चिय न तेसिं ॥ १ ॥ अणिमिस देवसहावा निश्चेट्ठाऽणुत्तरा उ कयकिच्चा । कालणुभावा तित्थुन्नपि अन्नत्थ कुब्वंति ॥ २ ॥ " [ अत्र समाधानं मोहनीयसात वेदनीयकर्मणोरुदयात् कामप्रसक्ता इति तेषां कर्मोदयतो विरतिरपि न ॥ १ ॥ देवस्वभावादनिमेषाः निश्चेष्टा अनुत्तरास्तु कृतकृत्याः । कालानुभावात्तीर्थोन्नतिमप्यन्यत्र कुर्वन्ति ॥ २ ॥] तथा अर्हतां वर्णवादो यथा - " जियरागदोसमोहा सब्वन्न तियसनाहकयपूया । अचंतसच्चवयणा सिवगइगमणा जयंति जिणा ॥ १ ॥” इति [ जितरागद्वेषमोहाः सर्वशाः त्रिदशनाथकृतपूजा: । अत्यंतसत्यवचनाः शिवगतिगामिनो जयंति जिनाः ॥ १ ॥ ] अर्हह्मणीतधर्म्मवर्णो यथा - "वत्थु पयासणसूरो अइसयरयणाण सायरो जयइ । सब्वजयजीवबंधुबंधू दुविहोऽवि जिणधम्मो ॥ १ ॥” [ वस्तुप्रकाशनसूर्यः अतिशयरलानां सागरो जयति । सर्वजगज्जीवस्नेहलबंधुर्द्विविधोऽपि जिनधर्मः ॥ १ ॥ ] आचार्यवर्णवादी यथा"तेसिं नमो तेसिं नमो भावेण पुणोवि तेसि चैव नमो । अणुवकयपरहियरया जे नाणं देति भव्वाणं ॥ १ ॥” [ तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमो भावेन पुनरपि तेभ्य एव नमः अनुपकृतपरहितरता ये ज्ञानं ददति भव्येभ्यः ॥ १ ॥ ] चतुर्वर्णश्रमणसवर्णो यथा - " एयंमि पूइयंमि नत्थि तयं जं न पूइयं होइ । भुवणेवि पूअणिजो न गुणी संघाओ जं अन्नो ॥ १ ॥” [ एतस्मिन् पूजिते नास्ति तद्यत्पूजितं न भवति यद्भुवनेऽपि संघादन्यो गुणी न पूजनीयः ॥ १ ॥ ] देववर्णवादो यथा-"देवाण अहो सीढं विसयविसमोहियावि जिणभवणे । अच्छरसाहिंपि समं हासाई जेण न करिति ॥ १ ॥” Eucation International For Park Use Only मूलं [ ४२६ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 646~ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४२६] दीप अनुक्रम [४६४] श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः ॥ ३२२ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... Eaton nationa स्थान [५], ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] - .......... इति । [ देवानामहो शीलं विषयविषमोहिता अपि जिनभवने । अप्सरोभिरपि समं येन हास्यादि न कुर्वेति ॥ १ ॥ ] संय| तासंयतव्यतिकरमेव पंचपडिसंलीणेत्यादिना आरोपणसूत्रपर्यन्तेन ग्रन्थेनाह मूलं [४२६] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सोर्ति पंच पडिलीणा पं० तं० सोइंदियपडिसंलीणे जाव फासिंदियपडिलीणे । पंच अप्पडिसंलीणा पं० [सं० दियअप्पडिसंलीने जाव फासिंदियअप्पडिसलीणे। पंचविधे संवरे पं० तं० सोतिं दियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, पंचविहे असंवरे पं० तं० - सोइंदियअसंवरे जाब फासिंदियअसंवरे । (सू० ४२७) पंचविधे संजमे पं० नं० -- सामावितसंजमे छेदोषद्वावणियसंजमे परिहारविसुद्धितसंजमे सुडुमसंपरागसंजमे अहवायचरितसंजमे (सू० ४२८) एगिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कज्जति, तं० पुढविकातियसंजमे जाव वणस्सतिकातितसंजमे । एगिंदिया णं जीवा समारभमाणस्स पंचविहे असंजमे कन्नति, तं० पुढविकासित संजमे जाव वणस्सतिका तितअसंजमे । ( सू० ४२९ ) पंचिदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कजति, तं० सोर्तिदितसंजमे जाव फासिंदिवस जमे, पंचिदिया णं जीवा समारंभमाणस्स पंचविधे असंजमे कज्जति, तं० सोर्तिदियअसंजमे जाव फासिंदियअसंजमे, सव्वपाणभूयजीवसत्ता णं असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कजति, तं० एगिदितसंजमे जाद पंचिंदियसंजमे । सव्वपाणभूतजीवसत्ता णं समारंभमाणस्स पंचविधे असंजमे कज्जति, तं०- एर्गिदितअसंजमे जाव पंचिदिवभसंजमे ( सू० ४३० ) पंचविधा तणवणस्सतिकातिता पं० तं० - अग्गबीया मूलबीया पोरवीया बंधवीया बीयरुहा ( सू० ४३१ ) For Park Use Only ~ 647 ~ ५ स्थाना० उद्देशः २ प्रतिसंली. नसंवरेत राः सामायिकाद्याः एकेन्द्रियसंयमेतरी पथेन्द्रि यसंयमेतरौ तृणव नस्पतिः सू०४२७ ४३१ | ॥ ३२२ ॥ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [ ४६९ ] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३] .......... Eaton Internationa - गतार्थश्चायं, नवरं श्रोत्रेन्द्रियादिक्रमो यथाप्राधान्यात्, प्राधान्यं च क्षयोपशमबहुत्वकृतं । तथा प्रतिसंलीनेतरसूत्रयोः पुरुषो धम्म उक्तः, संवरेतरसूत्रयोस्तु धर्म एवेति । तथा संयमनं संयमः पापोपरम इत्यर्थः, तत्र समो - रागादिरहितस्तस्य अयो- गमनं प्रवृत्तिरित्यर्थः समायः समाय एव समाये भवं समायेन निर्वृत्तं समायस्य विकारोऽंशो वा समायो वा प्रयोजनमस्येति सामायिकं उक्तं च - " रागद्दोसविरहिओ समोति अयणं अउत्ति गमणंति । समगमणंति समाओ स एव सामाइयं नाम ॥ १ ॥ अहह्वा भवं समाए निव्वतं तेण तंमयं वावि । जं तप्पओयणं वा तेण व सामाइयं नेयं ॥ २ ॥” इति [ रागद्वेषविरहितः सम इति अयनमय इति गमनमिति समगमनमिति समायः स एव सामायिकं नाम ॥ १॥ अथवा समाये भवं तेन निर्वृत्तं तन्मयं वापि यत्सत्प्रयोजनं वा तेन वा सामायिकं ज्ञेयं ॥ २ ॥] अथवा समानि-ज्ञानादीनि तेषु तैर्वा अयनमयः समायः स एव सामायिकमिति, अवादि च - " अहवा समाइ सम्मतनाणचरणाइ तेसु तेहिं वा । अयणं अओ समाओ स एव सामाइयं नामा ॥ १ ॥” इति [अथवा समानि सम्यक्त्वज्ञानचरणानि तेषु तैर्वाऽयनं अयः समायः स एव सामायिकं नाम || १ || ] अथवा समस्य-रागादिरहितस्याऽऽयो- गुणानां लाभः समानां वा ज्ञानादीनामायः समायः स एव सामायिकं, अभाणि च अहवा समस्स आओ गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो । अहवा समाणमाओ णेओ सामाइयं नाम ॥ १ ॥” इति [ अथवा समस्यायस्तु गुणानां लाभ इति यः स समायः अथवा समानामायो ज्ञेयः सामायिकं नाम ॥ १ ॥ ] अथवा साम्नि - मैत्र्यां साम्ना वा अयस्तस्य १ श्रोत्रस्य शब्दवर्गणापुद्रलानां चतुःस्पर्शानां ग्रहणसामभ्यपतत्वात् शेषाणि सर्वाणि स्वष्टस्पर्शप्राणि तेषु तु चक्षुरादिक्रमेण प्राधान् सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद व्याख्या:,:, For Parts Only मूलं [४३१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~648~ yor Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४३१] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] श्रास्थाना- वा आयः सामायः स एव सामायिक, अभ्यधायि च-"अहवा सामं मेत्ती तत्थ अओ तेण वत्ति सामाओ । अहवा५स्थाना० गसूत्र-18 सामस्साओ लाभो सामाइयं नाम ॥१॥” इति [अथवा साम मैत्री तत्रायस्तेन बाध्य इति सामायः अथवा साम्न उद्देशः२ वृत्तिः आयो लाभः सामायिकं नाम ॥१॥] सावद्ययोगविरतिरूपं सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकमेव, छेदादिविशे-IN |सामायि पैस्तु विशिष्यमाणमर्थतः शब्दतच नानात्वं भजते, तत्र प्रथम विशेषणाभावात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामा-13 काद्याः ॥३२३॥ यिकमिति, तच द्विधा-इत्वरकालिकं यावज्जीविकं च, तत्त्वरकालिकं सर्वेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपि-15 सू०४३१ दातव्रतस्य यावजीविकं तु मध्यमविदेहतीर्थकरतीर्थेषु भवति इति, तेषूपस्थापनाऽभावादिति, सामायिक च तत्सं यमश्चेत्येवं सर्वत्र वाक्यं कार्यमिति, भवन्ति चात्र गाथा:-"सब्वमिणं सामाइय छेदादिविसेसओ पुण विभिन्नं । ४ अविसेसियमादिमयं ठियमिह सामन्नसन्नाए ॥१॥ सावजजोगविरइत्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहहै|तिय पढम पढमंतिमजिणाणं ॥२॥ तित्थेसु अणारोवियवयरस सेहस्स थोवकालीयं । सेसाणमावकहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥" इति, [सर्वमिदं सामायिक छेदादिविशेषतः पुनर्विभिन्नं अविशेषितमादिम स्थितं चैतदिह सामान्य४ा संज्ञया ॥१॥ सावद्ययोगविरतिरिति तत्र सामायिक द्विधा तच्च इत्वरं यावत्कथिकमिति च प्रथम प्रथमान्तिमजिनयोः t॥२॥ तीर्थयोरनारोपितत्रतस्य शैक्षस्य स्तोककालीनं । शेषाणां यावत्कथिकं तीर्थेषु विदेहगानां च ॥३॥] तथा छेदच* ॥३२३॥ पूर्वपर्यायस्योपस्थापनं च तेषु यत्र तच्छेदोपस्थापनं तदेव छेदोपस्थापनिक ते वा विद्यते यत्र तच्छेदोपस्थापनिकमथवा पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थाप्यते-आरोप्यते यत्महाव्रतलक्षणं चारित्रं तच्छेदोषस्थापनीयं, तदपि द्विधा-अनतिचारं साति SAMERai hunmurary.orm | सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद-व्याख्या:, ~649~ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [0] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] चारं च, तत्रानतिचार यदित्वरसामायिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते पार्श्वनाथसाधो पञ्चयामधर्मप्रतिपत्ती, सातिचारं तु यन्मूलप्रायश्चित्तप्राप्तस्येति, इहापि गाथे-"परियायस्स उ छेओ जत्थोवट्ठावणं वएसुं च । छेओवट्ठावणमिह तमणइयारे-६ तरं दुविहं ॥१॥ सेहस्स निरइयारं तित्वंतरसंकमे व तं होजा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे ॥२॥" पर्यायस्य छेदः यत्रोपस्थापनं च व्रतेषु छेदोपस्थापनमिह तदनतिचारतरत्वाभ्यां द्विविधं ॥१॥ शिष्यस्य निरतिचार तीर्थान्तरसंक्रमे वा तद्भवेत् । मूलगुणघातिनः सातिचारमुभयं च स्थितकल्पे ॥१॥] (प्रथमपश्चिमतीर्थयोरित्यर्थः > तथा परिहरणं परिहारः-तपोविशेषः तेन विशुद्धं परिहारो वा विशेषेण शुद्धो यस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धं तदेव परिहारविशुद्धिक, परिहारेण वा विशुद्धियस्मिंस्तत्सरिहारविशुद्धिक, तच्च द्विधा-निर्विशमानक निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विशमान-15 कानां च तदासेवकानां यत्तनिर्विशमानकं, यत्तु निविष्टकायिकानामासेवितविवक्षितचारित्रकायानां तन्निविष्टकायिकमिति, हापि गाथे-"परिहारेण विसुद्धं सुद्धो य तबो जहिं विसेसेणं । तं परिहारविसुद्धं परिहारविमुद्धियं नाम ॥१॥AIN दुविकल्प निविस्समाणनिबिटुकाइयवसेणं । परिहारियाणुपरिहारियाण कप्पट्ठियस्सऽविय ॥२॥" इति, [परिहारेण विशुद्धं यत्र विशेषेण शुद्धं च तपः। तत्परिहारविशुद्धं परिहारविशुद्धिकं नाम॥१॥ तद् द्विविकल्पं निर्विशमाननिविष्टकायिकवशात् परिहारिकानुपरिहारिकाणां कल्पस्थितस्यापि च ॥२॥] इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वारः परिहारिका अपरे तु तद्वयावृत्त्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारकाः, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यों गुरुभूत इत्यर्थः, एतेषां च निर्विशमानकानामयं परिहार:-ग्रीष्मे जपन्यादीनि चतुर्थपधाष्टमादीनि शिशिरे तु पष्ठाटमदशमानि वर्षास्वष्टमदशमद्वादशानि पा CAPAN AJulturary.com | सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद-व्याख्या:, ~ 650~ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सत्र %A वृत्तिः ॥३२४ प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] % श्रीस्थाना- रणके चायाम, इतरेषा सर्वेषामायाममेव, एवमेते चत्वारः पण्मासान पुनरन्ये चत्वारः षडेव पुनर्वाचनाचार्यः पडितिस्थाना० &सर्व एवायमष्टादशमासिकः कल्प इति । तथा सूक्ष्माः-लोभकिट्टिकारूपाः सम्पराया:-कषाया यत्र तत्सूक्ष्मसम्पराय, उद्देशः २ तदपि द्विधा-विशुद्यमानकं सक्तिश्यमानकं च, तत्राद्यं क्षपकोपशमश्रेणिद्वयं समारोहतः, सङ्क्तिश्यमानकं तूपशमनेणितः प्रच्यवमानस्येति, तत्रोक्तम्-"कोचाइ संपराओ तेण जओ संपरीई संसारं । तं सुहुमसंपरायं सुहुमो जत्थाव-131 काद्याः सेसो से॥१॥ सेटिं बिलग्गओ तं विसुज्झमाणं तओ चयंतस्स । तह संकिलिरसमाणं परिणामवसेण विनेयं ॥२॥" इति [क्रोधादिः संपरायो यतस्तेन संसारं संपरैति यत्र स सूक्ष्मोऽवशिष्टः तत्सूक्ष्मसंपरायं ॥१॥श्रेणि विलगतस्तद्विशुद्यमानं ततश्चयवमानस्य तथा संक्लिश्यमानं परिणामवशेन विज्ञेयं ॥२॥] अथशब्दो यथार्थः, यथैवाकषायतयेत्यर्थः, आख्यातं-अभिहितं अधाख्यातं तदेव संयमोऽथाख्यातसंयमः, अयं च छद्मस्थस्योपशाम्तमोहस्य क्षीणमोहस्य च स्थात् केवलिनः सयोगस्यायोगस्य च स्यादिति, इहाभ्यधायि-"अहसदो जाहस्थो आडोऽभिविहीऍ कहियमक्खायं ।* चरणमकसायमुदियं तमहक्लायं अहक्खायं ॥१॥ तं दुविगप्पं छउमस्थकेवलिविहाणओ पुणेकेकं । खयसमजसजोगाजोगि केवलिविहाणओ दुविहं ॥२॥" इति [अथशब्दो याथार्थे आङभिविधौ कथितं आख्यातं चरणमकषायमुदितं तद्यथाख्यातं अथाख्यातं ॥१॥ तद् द्विविकल्प छद्मस्थकेवलि विधानतः पुनरेकैकं क्षयशमजसयोग्ययोगिकेवलि-म विधानाद् द्विविधम् ॥ २॥] 'एगिदिया णं जीव'त्ति एकेन्द्रियान् णमित्यलङ्कारे जीवान् असमारभमाणस्य-संघट्टा-18 &ादीनामविषयीकुर्वतः सप्तदशमकारस्य संयमस्य मध्ये पञ्चविधः संयमो-न्युपरमोऽनाश्रवः क्रियते' भवति, तद्यथा 33157 % % सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद-व्याख्या:, ~6514 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] 55 पृथिवीकायिकेषु संयमः-सट्टाधुपरमः पृथिवीकायिकसंयमः, एवमन्यान्यपि पदानि, असंयमसूत्रं संयमसूत्रवद् विप-है कार्ययेण व्याख्येयमिति । 'पंचेंदियाण'मित्यादि, इह सप्तदशप्रकारसंयमभेदस्य पश्चेन्द्रियर्सयमलक्षणस्येन्द्रियभेदेन भेदवि वक्षणात् पञ्चविधत्वं, तत्र पश्चेन्द्रियानारम्भे श्रोत्रेन्द्रियस्य व्याघातपरिवर्जनं श्रोत्रेन्द्रियसंयमः एवं चक्षुरिन्द्रियसंयमादयोऽपि वाच्या, असंयमसूत्रमेतद्विपर्यासेन बोद्धव्यमिति । 'सच्चपाणे'त्यादि, पूर्वमेकेन्द्रियपश्चेन्द्रियजीवाश्रयेण संयमासयमावुक्काविह तु सर्वजीवाश्रयेणात एव सर्वग्रहणं कृतमिति, प्राणादीनां चाय विशेष:-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः॥१॥" इति, इह सप्तदशप्रकारसंयमस्याद्या FIनव भेदाः सङ्गहीताः, एकेन्द्रियसंयमग्रहणेन पृथिव्यादिसंयमपञ्चकस्य गृहीतत्वादिति एतव्यत्ययेनासंयमसूत्रं । 'तण वणस्सइत्ति तृणवनसतयो-बादरा वनस्पतयोऽग्रवीजादयः क्रमेण कोरण्टका उत्पलकन्दा वंशाः शलक्यो वटा एवमाMदयो, व्याख्यातं चैतत्यागिति। पंचविधे आवारे पं० त०-णाणायारे दसणायारे चरिचायारे तवायारे वीरियायारे (सू०४३२) पंचविधे आयारपकप्पे पं० त०-मासिते उग्धातिते मासिए अणुग्घाइए चउमासिए उग्धाइए चाउम्मासिए अणुग्यातीते आरोवणा । आरोवणा पंचविहा पं० त०-पट्टविया ठबिया कसिणा अकसिणा हाडहला (सू० ४३३) १पुढविदगअगगिभाग्य पणस्सइबितिचतपणिविजजीवा । पेहुप्पेहलमजण परिद्रवणमणोवईकाए 110 इसकभेदत्वात् पधेन्दियसयमस्व. ३ विकलेन्द्रियनिकपोन्द्रियैः सह नव भेदा पृथ्व्यायेकेन्द्रियादिसंयमाना. ~652~ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४३३] दीप अनुक्रम [४७१] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३२५ ॥ Jan Eucatur “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ५ स्थाना० उद्देशः २ ४३३ आचरणमा चारो - ज्ञानादिविषयाऽऽसेवेत्यर्थः ज्ञानाचारः - कालादिरष्टधा दर्शनं सम्यक्त्वं तदाचारो निःशङ्कितादिरष्टधैव चारित्राचारः-समितिगुप्तिभेदोऽष्टधा तपआचारोऽनशनादिभेदो द्वादशधा वीर्याचारो वीर्यागोपनमेतेष्वेवेति । आचारस्य- प्रथमाङ्गस्य पदविभागसामाचारीलक्षणप्रकृष्टकल्पाभिधायकत्वात् प्रकल्प आचारप्रकल्पः- निशीथा- ४ आचाराः ध्ययनं स च पञ्चविधः पञ्चविधप्रायश्चित्ताभिधायकत्वात् तथाहि तत्र केषुचिदुद्देशकेषु लघुमासप्रायश्चित्तापत्तिरु- उद्वातिकाच्यते १ केषुचिच्च गुरुमासापत्तिः २ एवं लघुचतुर्मास ३ गुरुचतुर्मासा ४ssरोपणाश्चेति ५ तत्र मासेन निष्पन्नं मासिकं द्यारोपणाः तपः, तच्च उद्घातो भागपातो यत्रास्ति तदुद्घातिकं लध्वित्यर्थः, यत उकम् - "अद्वेण छिन्नसेसं पुष्यद्वेण तु संजुयं १ सू० ४३२| काउं । देजाहि लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चैव ॥ १ ॥” इति एतद्भावना मासिकतपोऽधिकृत्योपदर्श्यते-मासस्यार्द्धछिन्नस्य शेषं दिनानां पञ्चदशकं तत् मासापेक्षया च पूर्वस्य पञ्चविंशतिकस्यार्जेन - सार्धद्वादशकेन संयुतं कृतं सार्द्धा सप्तविंशतिर्भवतीति । आरोपणा तु चडावणत्ति भणियं होइ, यो हि यथाप्रतिषेवितमालोचयति तस्य प्रतिषेचानिष्पन्नमेव मासलघुमासगुरुप्रभृतिकं दीयते यस्तु न तथा तस्य तत्तावद्दीयते एव मायानिष्पन्नं चान्यदारोप्यते इत्यारोपणेति । 'आरोवणे' ति आरोपणोकस्वरूपा, तत्र 'पट्टविय'त्ति बहुष्वारोपितेषु यन्मासगुर्वादिप्रायश्चित्तं प्रस्थापयति-बोदुमारभते तदपेक्षयाऽसौ प्रस्थापितेत्युक्का १, 'ठविय'त्ति यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तत्तस्य स्थापितं कृतं न वाहयितुमारब्ध इत्यर्थः, आचार्यादिवैयावृत्त्यकरणार्थं, तद्धि वन्न शक्नोति वैयावृत्त्यं कर्त्तुं वैयावृत्त्यसमाप्तौ तु तत्करिष्यतीति स्थापितोच्यत इति २, कृत्स्ना पुनर्यत्र झोषो न क्रियते, झोपस्स्वयं-इह तीर्थे षण्मासान्तमेव तपस्ततः पण्णां मासानामुपरि यान् मा आचार शब्दस्य व्याख्या एवं भेदाः, पञ्चविध प्रायश्चित्तम् For Panalyse On मूलं [ ४३३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~653~ ।। ३२५ ॥ ayor Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३३] दीप अनुक्रम [४७१] सानापन्नोऽपराधी तेषां क्षपर्ण-अनारोपणं प्रस्थे चतुःसेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव झाटनमित्यर्थः, झोपाभावेन सा परिपू-15 नाणेति करनेत्युच्यत इति भावः३, अकृत्वा तु यस्यां षण्मासाधिक झोप्यते, तस्या हि तदतिरिक्तझाटनेनापरिपूर्ण स्वादिति ४,'हाडहडेति यत् लघुगुरुमासादिकमापनस्तत् सद्य एव यस्यां दीयते सा हाडहडोक्तति ५। एतत्स्वरूपं च|| विशेषतो निशीथविंशतितमोदेशकादवगन्तव्यमिति । अयं च संयतासंयतगतवस्तुविशेषाणां व्यतिकरो मनुष्यक्षेत्र एव भवतीति मनुध्यक्षेत्रवर्तिनो वस्तुविशेषान् 'जंबुद्दीवेत्यादिना 'उमुयारा नस्थिति पर्यवसानेन अन्धेनाह जंबुदीवे २ मंदरस पबयस्स पुरथिमे णं सीयाए महानईए उत्तरेणं पंच वक्वारपन्यता पं० सं०-पालवंते चित्तकडे पन्हफूठे णलिणकुडे एगसेले १ जंबूमंदरस्स पुरओ सीताए महानदीए दाहिणेणं पंच वक्खारपवता पं० सं०तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मायंजणे सोमणसे २ जंबूमंदरस्स पञ्चस्थिमेणं सीओताते महाणदीए दाहिणणं पंच वक्खारपस्यता पं० ०-विजुप्पभे अंकावती पम्हावती आसीविसे सुहावहे ३ जंघूमंदरपञ्चस्टिमेणं सीतोताते महानदीते उत्तरेणं पंच वक्खारपम्यता पं० तं०-चंदपव्वते सूरपब्बते णागपञ्चते देवपम्बते गंधमादणे ४ जंबूमंदरदाहिणणं देवकुराए कुराए पंच महदहा पं० तं0-निसहदहे देवकुरुदहे सूरदहे सुलसदहे विजुप्पभदहे ५ जंवूमंदरउत्तरकुराते कुराए पंच महदहा पं० सं०-नीलवंतदहे उत्तरकुरुदहे चंदहे एरावणदहे मालवंतदहे ६ सव्वेऽबि णं वक्खरपब्वया (तेणं) सीया सीओयाओ महाणईओ मंदरं वा पन्वतंतेणं पंच जोयणसवाई उई उच्चत्तेणं पंचगाउयसताई उन्हेणं ७ । धायइसंडे दीवे पुरच्छिगद्वेणं मदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं सीताते महाणतीते उत्तरेणं पंच बक्सारपञ्चता ५००-मालते ८ स्था०५. SAREarathinde G aurary.org पञ्चविध-प्रायश्चित्तम् ~654~ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४३४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४३४] ॥३२६॥ दीप मुच्चत्वं एवं जया अंबुडीवे तपा जाब पुक्खरवरवीवडपञ्चत्थिमद्धे वक्खारा दहा य पश्चत्तं भाणिय । समयक्ष ते ण पंच 1५स्थाना भरहाई पंच एरवताई, एवं जघा चउहाणे वितीयउसे तहा एथवि भाणियब्वं जाव पंच मंदरा पंच मंदरचूलिताओ, उद्देशः२ णवरं उसुयारा णस्थि (सू०४३४) उसमे गं अरहा कोसलिए पंचधणुसताई उई उत्तेणं होत्या १ । भरहे थे मालवद्धराया चाउरंतचकावट्ठी पंच धणुसयाई उई उच्चत्तेणं हुस्था २ । बाहुबली णमणगारे एवं घेव ३ भीणामजा एवं चेव ४ क्षस्काराएवं सुंदरीवि ५, (सू० ४३५) द्याः ऋषकण्ठ्यश्चार्य, नवरं मालव(व)तो गजदन्तकात् प्रदक्षिणया सूत्रचतुष्टयोक्ता विंशतिर्वक्षस्कारगिरयोऽवगन्तव्या इति, इह भादीनाच देवकुरुषु निषधवर्षधरपर्वतादुत्तरेणाष्टौ योजनानां शतानि चतुर्विंशदधिकानि योजनस्य चतुरश्च सप्तभागानतिक्रम्य शीतोदाया महानद्याः पूर्वापरकूलयोर्विचित्रकूटचित्रकूटाभिधानौ योजनसहस्रोचिङ्गतौ मूले सहनायामविष्कम्भावुपरि सू०४३४पञ्च योजनशतायामविष्कम्भी प्रासादमण्डिती स्वसमाननामदेव निवासभूतौ पर्वती स्तः, ततस्ताभ्यामुत्तरतोऽनन्तरोदि- ४२५ तान्तरः शीतोदामहानदीमध्यभागवती दक्षिणोत्तरतो योजनसहनमायतः पूर्वापरतः पञ्च योजनशतानि विस्तीर्णः | |दिकावनखण्डद्वयपरिक्षिप्तो दश योजनावगाहो नानामणिमयेन दशयोजननालेनाद्धयोजनवाहल्येन योजनविष्कम्भेनार्द्ध-| योजनविस्तीर्णया कोशोस्तिया कर्णिकया युक्तेन निषधाभिधानदेवनिवासभूतभवनभासितमध्येन तदद्धेप्रमाणाष्टोत्तर-1 |शतसमयपीस्तदन्येषां च सामानिकादिदेवनिवासभूतानां पद्मानामनेकलक्षः समन्तात् परिवृतेन महापद्मेन विराजमान-12" मध्यभागो निषधो महादः, एवमन्येऽपि निषधसमानवक्तव्यताः स्वसमानाभिधानदेवनिवासा उक्तान्तराः समवसेयाः, अनुक्रम [४७२ वक्षस्कार-पर्वतानाम् वर्णनं ~ 655~ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३५] दीप नवरं नीलवन्महाहदो विचित्रकूटचित्रकूटपर्वतसमवक्तव्यताभ्या यमकाभिधानाभ्यां स्वसमाननामदेवावासाभ्यां पर्वताभ्यामनन्तरं द्रष्टव्यस्ततो दक्षिणतः शेषाश्चत्वार इति, एते च सर्वेऽपि प्रत्येक दशभिर्दशभिः काशनकाभिधान योजनशतोच्छितैयोजनशतमूलविष्कम्भैः पश्चाशद्योजनमानमस्तकविस्तारैः स्वसमाननामदेवाधिवासैः प्रत्येक दशयोजनान्तरैः पूर्वापरव्यवस्थितैः गिरिभिरुपेसाः, एतेषां च विचित्रकूटादिपर्वतहदनिवासिदेवानामसङ्ग्येयतमजम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसह-| * सप्रमाणास्तशामिका नगयों भवन्तीति, 'सब्वेवि ण'मित्यादि, सर्वेऽपि जम्बूद्वीपादिसम्बन्धिनः, 'तेणं ति शीताशीतोदे महानद्यौ प्रतीते लक्षणीकृत्य नदीदिशीत्यर्थः, मन्दरं वा-मेरुं वा पर्वतं प्रति तद्दिशीत्यर्थः, तत्र मालवत्सौमनसविद्युत्लभगन्धमादनागजदन्ताकारपर्वता मेरु प्रति यथोक्तस्वरूपाः, शेपास्तु वक्षारपर्वता महानद्यौ प्रतीति, इयं चानन्तरोदिता सप्त सूत्री धातकीखण्डस्य पुष्करार्द्धस्य च पूर्वापरार्द्धयोई श्येत्यत एवोक्तम्-एवं जहा जंबू' इत्यादि । समयः-कालस्तद्विपशिष्टं क्षेत्रं समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्रं तस्यैवादित्यगतिसमभिब्यङ्गय ऋत्वयनादिकालयुक्तत्वात् , 'जाव पंच मंदर'त्ति इह | यावत्करणात् पश्न हैमवतानि पञ्च हैरण्यवतानीत्यादि पञ्च शब्दापातिन इत्यादि चोपयुज्य सर्वं चतुःस्थानकद्वितीयोदेMशकानुसारेण वाच्यं, नवरं 'उसुयार'त्ति चतुःस्थानके चत्वार इषुकारपर्वता उक्ताः इह तु ते न वाच्यार, पश्चस्थान कत्वादस्येति । अनन्तरं मनुष्यक्षेत्रे वस्तून्युक्तानीति तदधिकाराद्भरतक्षेत्रवर्त्तमानावसर्पिणीभूषणभूतमृषभजिनवस्तु तत्सम्बन्धादन्यानि च पश्चस्थानकेऽवतारयन् सूत्रपञ्चकमाह-'उसमे 'मित्यादिः कल्यं, नवरं 'कोसलिए'त्ति अनुक्रम [४७३] 44-%% Santaratani | वक्षस्कार-पर्वतानाम् वर्णन ~ 656~ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक 24 [४३५] 585%25-562565%* रि श्रीस्थाना- कोशलदेशोत्सन्नत्वात् कोशलिको, भरतादयश्च ऋषभापत्यानि । बुद्धाश्चैते, बुद्धश्च भावतो मोहक्षया द्रव्यतो निद्राक्ष-18 स्थाना असूत्र-Iयादिति द्रव्यबोध कारणत उपदर्शयन्नाह उद्देशः२ वृत्तिः पंचहि ठाणेहिं मुत्ते विचुज्झेजा, तं०-सदेणं फासेणं भोयणपरिणामेणं णिहक्खएणं सुविणदसणेणं (सू०४३६) पं. द्रव्यबोधचहि ठाणेहि समणे जिग्गंधे गिग्गंधि गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिकामति, सं0-निगथिं च णे अन्नयरे पसु- हेतवः नि॥३२७॥ जातिए वा पक्खिजातिए वा ओहातेजा तत्व णिग्गंधे णिग्गंथि गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नातिकमति १ गिग्गंथे ग्रन्थ्यबलजिग्गंथि दुग्गसि वा विसमंसि वा पक्खलमाणि वा पवडमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंयमाणे वा णातिकमति २ म्वादावाणिगंथे गिमाथि सेतंसि वा पंकसि वा पणगंसि वा उदगंसि बा उकसमाणी वा उज्झमाणी वा गिण्हमाणे वा 'अवलंबमाणे या णातिकमति ३ निग्गथे निग्गथि नावं आरुभमाणे वा ओरोहमाणे वा णातिकमति १, खेतइत्तं दित्तइत्तं अ. क्रमः क्खाइई जम्मायपत्तं उत्सग्गपत्तं साहिगरणं सपायरिछत्तं जाव भचपाणपडियातिक्खियं अट्ठजाय वा निर्माथे निगथिं ०४३६गेण्हमाणे वा अवलंचमाणे वा णातिकमति ५॥ (सू०४३७) ४३७ 'पंचही'त्यादि कण्ठयं, नवरमिह निद्राक्षयोऽनन्तरकारणं शब्दादयस्तु तत्कारणत्वेन तत्कारणतयोक्ताः, भोजनपरिणामो xबुभुक्षा । अनन्तरं द्रव्यप्रबुद्धः कारणत उक्तो, अथ भावप्रबुद्धमनुष्ठानत आज्ञानतिक्रमिणं दर्शयितुमाह-पंचही त्यादि | सुगम, नवरं 'गिण्हमाणे'त्ति बाह्वादावङ्गे गृहन् अवलम्बमानः पतन्तीं बाहादी गृहीत्वा धारयन् अथवा 'सब्वंगियं तु ॥ ३२७॥ गहणं करेण अवलंबणं तु देसमित्ति [सर्वाङ्गिक तु ग्रहणं करेण अवलम्बनं तु देशे] नातिकामति स्वाचारमाज्ञां वा गीता-15 दीप ज्ञानति -25 अनुक्रम [४७३] ~657~ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३७] दीप अनुक्रम [४७५] %-5- 45-454545464 वार्थस्थविरो निग्रन्थिकाऽभावे न यथाकथञ्चित् , पशुजातीयो दृप्तगवादिः पक्षिजातीयो गृध्रादिः, 'ओहाएजत्ति उपह न्यात् तत्रेति-उपहनने गृहलातिकामति कारणिकत्वात् निष्कारणत्वे तु दोषाः, यदाह-"मिच्छत्तं उड्डाहो विराहणा फास भावसंबंधो । पडिगमणाई दोसा भुत्ताभुत्ते व नायब्वा ।। १॥ [मिथ्यात्वमुड्डाहो विराधना स्पर्श भावप्रतिबंधः प्रतिगमनादयो दोपा भुक्ताभुक्तयोश्च ज्ञातव्याः॥९॥] इत्येकं, तथा दुःखेन गम्यत इति दुर्गः, स च त्रिधा-वृक्षदुर्ग:|* काश्वापददुग्र्यो म्लेच्छादिमनुष्यदुर्गः, तत्र वा मार्गे, उक्तं च-"तिविहं च होइ दुग्गं रुक्खे सावयमणुस्सदुग्गं च"S इति [दुर्ग त्रिविधं च भवति वृक्षश्वापदमनुष्यदुर्गभेदात् ॥] तथा विषमे वा-गर्तपाषाणाद्याकुले पर्वते वा प्रस्खलंती वा गत्या प्रपतन्ती वा भुवि, अथवा "भूमीए असंपत्तं पत्तं वा हत्थजाणुगादीहिं । पक्खलर्ण नायव्वं पवडण भूमीऍ गत्तेहिं| MInsp" इति [भमावसंप्राप्तिः प्राप्तिर्वा हस्तजान्वादिभिः। प्रस्खलनं ज्ञातव्यं प्रपतनं भूमी गात्रैः ॥"] गृहन्नातिकाम-12 तीति द्वितीयं, तथा पङ्कः पनको वा सजलो यत्र निमज्यते स सेकस्तत्र वा, पङ्कः-कर्दमस्तत्र वा, पनके वा आगन्तुकप्रतनुद्रवरूपे कम एव ओल्यां वा, 'अपकसंती पङ्कपनकयोः परिहसन्ती अपोह्यमानां वा-सेके उदके वा नीयमानां गृह्णन्नातिकामतीति, गाथे चेह-"पंको खलु चिक्खिल्लो आगंतुं पतणुओ दवो पणओ । सोच्चिय सजलो सेओ | सीइज्जइ जत्थ दुबिहेवि ॥ १॥” इति, पंकपणएसु नियमा ओसगणं वुझणं सिया सेए । निमियंमि निमजणया सजले| सेए सिया दोवि ॥ २॥ [पंकः खलु चिक्खिल आगंतुकः प्रतनुको द्रवः पनकः । सोऽपि च सजला सेकः यत्र द्विवि- धेऽपि सीद्यते ॥१॥ पंकपनकयोनियमादधोगमनं सेके स्याद्वहन (निर्मुदि स्तिमिते) निमज्जनता सजले सेके स्थातां ~658~ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सूत्र प्रत सूत्रांक [४३७]] दीप अनुक्रम [४७५] श्रीस्थानाद्वावपि ॥२॥] इति तृतीयं, तथा नावं 'आरुहमाणे त्ति आरोहयन् 'ओरुहमाणे ति अवरोह्यन्नुत्तारयनिस्यों ५स्थाना नातिक्रामतीति चतुर्थ, तथा क्षिप्त-नष्टं रागभयापमानैश्चित्तं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता सां वा, उक्त च-"रागेण वा भ- उद्देशः२ वृति : एण चा अहवा अवमाणिया महंतेणं । एतेहिं खिसचित्त"त्ति [रागेण वा भयेन वाऽथवा महताऽपमानिता एतैःनिन्थ्य क्षिप्तचित्ता ॥] तथा हप्तं सन्मानात् दर्पयश्चित्तं यस्याः सा हप्तचित्ता तां वा, उक्तंच-"इति एस असंमाणा खित्तोलावलम्बहे. ॥२८॥ सम्माणओ भवे दित्तो। अग्गीव इंधणेणं दिप्पड चित्तं इमेहिं तु ॥१॥ लाभमएण व मत्तो अहवा जेऊण दुज्जयं स- तवः तुं"ति ।[इत्येषोऽसन्मानाक्षिप्तः सन्मानाद्भवेदप्तः। अग्निरिवेन्धनदृष्यति चित्तमेभिरेव ॥१॥ लाभमदेन वा मसः अथवा||सू०४३६. जित्वा दुर्जय शत्रु ॥] यक्षेण-देवेन आविष्टा-अधिष्ठिता यक्षाविष्टा तां वा, अत्रोक्तम्-"पुब्वभपवेरिएणं अहवा रागेण । ४३७ रागिया संती । एएहि जक्खट्ट"त्ति [पूर्वभववैरिणाऽधया रागेण रागवती सती । एतैयक्षाविष्टा ॥] उन्माद-उन्म-| त्ततां प्राप्ता उन्मादप्राप्ता तां वा, अत्राप्युक्तम्-"उम्माओ खलु दुविहो जक्खाएसो य मोहणिजो य । जक्खाएसो| वुत्तो मोहेण इमं तु वोच्छामि ॥१॥ सवंर्ग दहणं उम्माओ अहव पित्तमुच्छाए"त्ति, [वन्मादः खलु द्विविधा यक्षा-13 वेशश्च मोहनीयश्च । यक्षावेश उक्तो मोहेनेनं तु वक्ष्यामि ॥शा रूपमंगं च दृष्ट्वा उन्मादोऽथवा पित्समूच्या ॥] उपसर्ग-1 उपद्रवं प्राप्ता उपसर्गप्राप्ता तां वा, इहाप्युक्तम्-"तिविहे य उवस्सग्गे दिब्वे माणुस्सए तिरिक्खे य । दिब्बे य पुष्प-18 भणिए माणुस्से आभिओगे य ॥१॥ विजाए मंतेण य चुझेण व जोइया अणप्पवसा" इति [विविधाश्चोपसर्गाः दिव्या & मानुष्यासैरक्षश्च। दिव्याश्च पूर्व भणिता मानुष्या आभियोगाश्च ॥१॥ विद्यया मंत्रेण चूर्णेन वा योजिता अनात्मवशा॥] तथा| ~659~ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३७] दीप अनुक्रम [४७५] 5544 सहाधिकरणेन साधिकरणा-युद्धार्थमुपस्थिता तां वा सह प्रायश्चित्तेन सप्रायश्चित्ता तां घा, भावना चेह-"अहिंग रणमि कयंमि उ खामेउमुवट्टियाए पच्छित्तं । तप्पढमयाभएणं होइ किलंता व वहमाणी ॥१॥"[अधिकरणे कृते क्षामKIयितुमुपस्थिताया अथवा तप्रथमतया प्रायश्चित्तं वहती किल भयेन वा क्लान्ता भवति ॥१॥] तथा भक्तपाने आभवं प्रत्याख्याते यया सा भक्तपानप्रत्याख्याता तां वा, इह गाथा-"अहूँ वा हेड वा समणीर्ण विरहिए कहिंतस्स । मु४च्छाएँ विवडियाए कप्पड़ गहणं परिन्नाए ॥१॥" इति [अर्थ वा हेतुं वा विरहे श्रमणीभ्यः कथयतः । मूर्छया विपति-12 Mतायाः परिज्ञायां (अनशने) ग्रहणं कल्पते ॥१॥] तथा अर्थः-कार्यमुतानाजनतः स्वकीयपरिणेत्रादेर्जातं यया साऽर्थ-T* जाता पतिचौरादिना संयमाञ्चाल्यमानेत्यर्थस्तां वा, इह गाथा-"अहोत्ति जी' कजं संजायं एस अट्ठजायाज । तं पुण संजमभावा चालिज्जतं समवलंब ॥१॥" ति [यस्या अर्थः कार्य संजातं एषा एवाऽर्थजाता । तां पुनः संयमभावाच्चाल्य& मानां समवलंबयन्ति ॥१॥] पञ्चममिति ५॥ अनन्तरं येषु स्थानेषु वर्तमानो निम्रन्थो धम्मै नातिकामति ताम्युकानि, अधुना तद्विशेष आचार्यो येष्वतिशयेषु वर्तमानस्तं नातिकामति तानाह आयरियउवज्झायस्स गं गणसि पंच अतिसेसा पं००--आयरियउवज्झाए अंतो उपस्सगस्स पाए निगिग्झिय २ पफोडेमाणे वा पमजेमाणे वा णातिकमति १ आयरियउवज्झाए अंतो उबस्सगस्स उशारपासवर्ण विगिंघमाणे वा बिसोधेमाणे वा णातिकमति २ आयरियउवज्झाए पभू इच्छा वेयावडियं करेजा इच्छा को करेजा ३, आयरियउवझाए ~660~ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] श्रीस्थाना- अंतो उबस्सगस्स एगराय वा दुरातं वा एगागी क्समाणे णा० ४ आयरियउवज्झाए वाहिं उबस्सगस्स एगरात वा दु- ४५स्थाना० हुसूत्ररात वा बसमाणे णातिकमति ५ (सू० ४३८) | उद्देशः २ वृत्तिः 'आयरिए'त्यादि, आचार्यश्चासाबुपाध्यायश्चेत्याचार्योपाध्यायः, स हि केषाश्चिदर्थदायकत्वादाचार्योऽन्येषां सूत्रदाय- आचार्यो॥३२९॥ कत्वादुपाध्याय इति तस्य, आचार्योपाध्याययोर्वा, न शेषसाधूनां, 'गणे साधुसमुदाये वर्तमानस्य वर्तमानयोर्वा गण-II तिशेषार विषये चा शेषसाधुसमुदायापेक्षयेत्यर्थः पश्चातिशेषा:-अतिशयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आचार्योपाध्यायोऽन्तः-मध्ये 'उपा- सू०४३८ *श्रयस्य' वसतेः 'पादी निगृह्य २' पादधूलेरुडूयमानाया निग्रहं वचनेन कारयित्वा यथाऽन्ये धल्या न भ्रियन्ते तथेत्यर्थः, प्रस्फोटयित्वा आभिग्रहिकेनान्येन वा साधुना स्वकीयरजोहरणेन ऊर्णिकपादप्रोञ्छनेन वा प्रस्फोटनं कारयन् ।। झाटयन्नित्यर्थः, प्रमार्जयन्वा शनैलूंषयन् नातिक्रामतीति, इह च भावार्थ इत्थमास्थित:-आचार्यः कुलादिकार्येण नि-14 |र्गतः प्रत्यागत उत्सर्गेण तावदसतेर्बहिरेव पादौ प्रस्फोटयति, अथ तत्र सागारिको भवेत्तदा वसतेरन्तः प्रस्फोटयेत् । प्रस्फोटनं च प्रमार्जनविशेषस्तच्च चक्षुर्व्यापारलक्षणप्रत्युपेक्षणपूर्वकमितीह सप्त भङ्गाः, तत्र न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्टि चे-13 त्येकः, न प्रत्युपेक्षते प्रमाष्टींति द्वितीयः, प्रत्युपेक्षते न प्रमाष्टींति तृतीयः, प्रत्युपेक्षते प्रमार्टि चेति चतुर्थः, यत्तत्प्रत्युपेक्ष्यते प्रमार्ण्यते च तदुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं ४ दुष्प्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं बा ४ सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं वा ६ | सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं वा ७ करोति, इह च सप्तमः शुद्धः शेषेष्वसमाचारीति, यदि तु सागारिकश्चलस्ततः सप्तता-18 V ॥३२९॥ लमात्र सप्तपदावक्रमणमात्रं वा कालं वहिरेव स्थित्वा तस्मिन् गते पादी प्रस्फोटयेत्, उक्तं च-"अइवाइगंमि चाहिं आचार्य-उपाध्यायस्य अतिशया: ~661~ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] अच्छति मुहत्तगं घेर"त्ति। [अतिपातिकेऽस्थिरे बहिर्मुहर्तकं तिष्ठन्ति स्थविराः॥] अल्पार्थके सप्ततालमान (अतिपातितो|ऽस्थिरः>, ततो वसतौ प्रविशेत् , कः केन चास्य पादौ प्रमार्जयतीत्युच्यते--"अभिग्गहियस्स असई तस्सेव रओहरेण 51 अन्नयरो" । (तस्यैवेत्याचार्यस्यैव > पाउँछणुन्निएण व पुंछइ उ अणन्नभुत्तेणं ॥१॥" ति । [आभिग्रहिकस्यासति तस्यैव रजोहरणेनान्यतरः । पादपोंछनेनौर्णिकेन वा पुंछति त्वनन्यभुक्तेन ॥१॥] वसतेरन्त प्रविष्टस्य चायं विधिःविपुलायां वसतावपरिभोगस्थाने सङ्कटायां चात्मसंस्तारकाबकाशे उपविष्टस्य पादौ प्रमार्जनीयौ, अन्यस्यापि गणावच्छेदकादेरयमेव विधिः, केवलमन्यो बहिचिरतरं तिष्ठतीति, उक्तं च-"विपुलाए अपरिभोगे अत्तणओवासए व बेढस्स। एमेव य भिक्खुस्सवि नवरं चाहिं चिरयरं तु ॥ १॥"[विपुलायामपरिभोगे आत्मनोऽवकाशे वोपविष्टस्य । एवमेव भि-| दक्षोरपि नवरं बहिश्चिरतरमेव ॥१॥] एतावानेव चायमतिशयो यदसी न चिरं बहिरास्ते, अथ चिरं तिष्ठतः के दोषाद इति?, उच्यते-“तण्हुण्हभावियस्सा (सुकुमाराचार्यस्य > पडिच्छमाणस्स [बहिस्तात् > मुच्छमाईया। खद्धारायणगि- लाणे [प्रचुरद्रवपाने ग्लानत्वे > मुत्तत्थविराहणा चेव ॥१॥” इत्यादि, [तृपोष्णभावितस्य प्रतीच्छतः मूर्छादिकाः। प्रचुरचपाने ग्लानत्वं सूत्रार्थविराधना चैव ॥१॥] शेषसाघवस्तु चिरमपि बहिस्तिष्ठन्ति न च दोषाः स्युः, जितश्रमखाद्, आह च-"दसविहवेयावचे सग्गाम वहिं च निचवायामो। सीउण्हसहा भिक्खू ण य हाणी वायणाईया |" [दशविधवैयावृत्त्ये स्वग्रामे बहिर्वा नित्यं व्यायामः । शीतोष्णसहा भिक्षवो न च हानिर्वाचनादिकाः॥१॥] इत्येको-15 लातिशयः, तथाऽन्तः-मध्ये उपाश्रयस्य उच्चार-पुरीष प्रश्रवण-मूत्रं विवेचयन्-सर्व परिष्ठापयन विशोधयन्-पादादिल 1960-625405 For P OW | आचार्य-उपाध्यायस्य अतिशया: ~662~ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] बीवाना- मस्य निरवयपत्यं कुर्वन् शौचभावेन बेति, अथवा सकृद्विवेचनं बहुशो विशोधन, उक्तं -"सब्यस्त पडण विगिचणा 3५ स्थाना. असूत्र- पुयपादहत्थलग्गस्स । फुसणधुवणा विसोहण सई च बहुसो य नाणतं ॥१॥” इति, [पुतपादहस्तलग्नस्य सर्वस्य त्य- उद्देशः२ पति: जनं विवेचनं पर्शने धावनं विशोधनं सकृदशश्चेति नानात्वं ॥१॥] नातिकामति, इह च भावार्थ एवं-आचार्यो आचार्या॥१०॥ नोत्सर्गतो विचारभूमि गच्छति दोपसम्भवात् , तथाहि-श्रुतवानयमित्यादिगुणतः पूर्व वीथिषु वणिजो बहुमानादभ्यु- IIतिशेषाः स्थानादि कृतवन्तस्ततो विचारभूमौ सकृद्विाऽऽचार्यस्य गमने आलस्यासन्न कुर्वन्ति पराशुखाश्च भवन्ति, एतोतरे दृष्ट्वा सू०४३८ Wशन्ते यदुतायमिदानी पतितो यणिजानामभ्युस्थानापकरणादित्ये मिच्यात्वगमनादयो दोषाः, उक्तंच-"स्यवं तवस्सि परिवारवं च वणियंतरावणुढाणे। (अंतरापणो वीथी>, दुट्टाणनिष्णममि य (द्विनिर्गमे>हाणी य (विनयख> परमुहाऽवो ॥१॥" [श्रुतवांस्तपस्वी परिवारवांश्चेति वणिजोऽन्तरापणे उत्थाने (प्रायतिषत) द्विनिगमे च हानिर्विनयस्य | पराऽखेऽवर्णः ॥१॥] [अवर्णो नूनं द्विर्भुङ्ग इति> "गुणवंत जतो पणिया पूइंतऽने विसनया संमि । पडिमोत्ति अणुहाणे (अनुस्थाने > दुषिहनियत्ती अभिमुहाणं ॥१॥" [यतो वणिजो गुणवतः पूजयन्ति अन्यानऽपि च संज्ञार्थं | | यातः पतित इत्यनुत्थानेऽभिमुखानां निवृत्तिद्धिविधा ॥१॥](श्रावकत्वात्रजितत्वाभ्यां निवृत्तिरिति> तथा मत्स| रिभ्यः सकाशान्मरणबन्धनापभ्राजनादयोऽन्येऽपि व्यवहारभाष्यादवगन्तव्या इति द्वितीयोऽतिशया, तथा प्रभुःसमर्थः इच्छा-अभिलाषो वैयावृस्थकरणे यदि भवेत्तदा वैयावृत्त्य-भक्तपानगवेषणग्रहणतः साधुभ्यो दानलक्षणं कुर्यात् । ॥३३० अधेच्छा-अभिलाषस्तदकरणे तन्न कुर्यादिति, भावार्थस्त्वयं-आचार्यस्य भिक्षाभ्रमणं न कल्पते, यतोऽवाचि-"उप्प-18 | आचार्य-उपाध्यायस्य अतिशया: ~663~ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] ॐॐॐ नाणा जह नो अदंति, चोत्तीसबुद्धाइसया जिणिंदा । एवं गणी अट्ठगुणोववेओ, सस्था व नो हिंडइ इहिमं तु ॥ चतुर्विंशद्धातिशया जिनेन्द्रा यथा न भिक्षामटन्ति एवमष्टगुणोपपेतो गण्यपि शास्ता इव ऋद्धिमानो हिंडते ॥१॥ ४ दोषास्त्वमी-"भारेण वेदणा वा हिंडते उच्चनीयसासो वा । आइयणछडुणाई (प्रचुरपानकादेरापानादौ छादयो>IA गेलन्ने पोरिसीभंगोnn" इति, भारेण वेदना हिंडमाने उच्चनीचश्वासोवा। आदाने पानकच्छईनायाः ग्लानत्वे पौरुषीम-* जश्च ॥१॥] एवमादयोऽनेके दोषा व्यवहारभाष्योक्ताः समवसेयाः, एते च सामान्यसाधोरपि प्रायः समानास्तथापि गच्छस्य तीर्थस्य वा महोपकारित्वेन रक्षणीयत्वेनाचार्यस्यायमतिशय उक्तः, उक्तं च "जेण कुलं आयत्तं तं पुरिसं| आयरेण रक्खिजा । न हु तुंबंमि विणढे अरया साहारवा होति ॥१॥" त्ति [यस्यायत्तं कुलं तं पुरुष आदरेण रक्षयेत् नेमो विनष्टायां साधारका अरका नैव भवन्ति ॥१॥] तृतीयः, तथा अन्तरुपाश्रय एका चासौ रात्रिश्चेत्येकरात्रं तद्वा द्वयो राज्योः समाहारो द्विरात्रं तद्वा, विद्यादिसाधनार्थमेकाकी एकान्ते वसन्नातिकामति, तत्र तस्य वक्ष्यमाणदोपासम्भवाद्, अन्यस्य तु तद्भावादिति चतुर्थः, एवं पञ्चमोऽपि, भावार्थश्चायमनयोः-अन्तरुपाश्रयस्य वक्षारके विष्ववसति बहिर्वोपाश्रयस्य शून्यगृहादिषु वसति यदि तदा असामाचारी, दोषाश्चैते-पुंवेदोषयोगेन जनरहिते हस्तकर्मादिकरणेन संयमे भेदो भवति, मर्यादा मया लहिन्तेति निर्वेदेन वैहायसादिमरणं च प्रतिपद्यत इति, इह गाथा-"तब्भा| वुवओगेणं रहिए कंमादि संजमे भेदो। मेरा व लंघिया मे वेहाणसमादि निन्वेया ॥१॥ जइविय निग्गयभायो तकहावि रक्खिज्जइ स अन्नेहिं । वंसकडिखेवि छिन्नोऽवि वेणुओ पावए न महिं ॥२॥ वीसु पसओ दप्पा गणियायरिए | आचार्य-उपाध्यायस्य अतिशया: ~664 ~ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] श्रीस्थाना-दय होइ एमेव । सुत्तं पुण कारणियं भिक्खुस्सवि कारणेऽणुन्ना ॥ ३ ॥ विजाणं परिवाडि पब्बे पब्वे करेंति आयरिया । ५ स्थाना. झसूत्र- दिढतो महपाणे अन्तो चाहिं च यसहीए ॥४॥" इति,[जनरहिते तद्भावोपयोगेन कर्मादिना संयमभेदः । मया मर्यादा वृत्तिः | लंघितेति निर्वेदाद्वैहायसादि ॥१॥ यद्यपि च निर्गतभावस्तथापि सोऽन्यैः। रक्ष्यते वंशसमुदाये छिन्नोऽपि वेणुर्न प्रा-IS आचार्यस्य मोति महीं ॥ २॥ विष्वक् वसतो दात् गण्याचार्ययोर्भवत्येवमेव । सूत्रं पुनः कारणिकं भिक्षोरपि कारणेऽनुज्ञा ॥३॥ गणनिर्गमः ॥३३१॥ आचार्याः पर्वणि पर्वणि विद्यानां परिपाटी कुर्वन्ति । दृष्टान्तो महाप्राणेन अन्तर्बहिश्च वसत्याः ॥४॥] आचार्यस्य ऋद्धिमगणे अतिशया उक्काः, अधुना तस्यैवातिशयविपर्ययभूतानि गणान्निर्गमनकारणान्याह न्तः पंचहिं ठाणेहिं आयरियतबझावस्स गणावकमणे पं० २०-आयरियउवज्झाए गणसि आणं वा धारणं वा नो सम्म सू०४३९. पजित्ता भवति आयरियध्वज्झाए गणसि अधारायणियाते कितिकम्मं वेणश्य णो सम्म पजित्ता भवति २ आयरियउबज्माते गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारिति ते काले नो सम्ममणुपवादेत्ता भवति ३ आयरियउवज्झाए गणसि सगणिताते वा परगणियाते वा निग्गंथीते बहिलेसे भवति ४ मित्ते णातीगणे वा से गणातो अवकमेजा तेसिं संगहोवग्गहहयाते गणावकमणे पन्नते ५ (सू०४३९) पंचविहा इड्डीमंता मणुस्सा पं० त०-अरहता चकवडी पलदेवा वासुदेवा भावियप्पाणो अणगारा (सू०४४०) पंचमट्ठाणस्स बिहओ उहेसो॥ 'पंचहीं'त्यादि सुगम, नवरं आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्याययोर्वा गणाद्-गच्छात् अपक्रमण-निर्गमो गणाप- ॥३३१॥ क्रमण आचार्योपाध्यायो 'गणे' गच्छविषये 'आज्ञा या' योगेषु प्रवर्तनलक्षणां धारणां वा-विधेयेषु निवर्तनलक्षणां, 'नो' ४४० ~665~ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४०]] दीप अनुक्रम [४७८] नैव सम्यग-यौचित्यं प्रयोक्ता-तयोः प्रवर्तनशीलो भवति, इदमुक्तं भवति-दुविनीतत्वाद् गणस्य ते प्रयोक्तमशकवन दिगणादपकामति कालिकाचार्यवदित्येकं, तथा गणविषये यथारलाधिकतया-यथाज्येष्ठ कृतिकर्म तथा वैनयिक-वि नयं 'नो' नैव सम्यक् प्रयोक्ता भवति, आचार्यसम्पदा साभिमानत्वातु, यतः आचार्येणापि प्रतिक्रमणक्षामणादिषूचि तानामुचितविनयः कर्त्तव्य एवेति द्वितीयं, तथा असौ यानि श्रुतपर्यवजातानि-यान् श्रुतपर्यायप्रकारानुदेशकाध्यय-16 दिनादीन् धारयति हृद्यविस्मरणतस्तानि काले २-यथावसरे नो सम्यगनुप्रवाचयिता-तेषां पाठयिता भवति, 'गणे'त्ति इह सम्बध्यते, तेन गणे-गणविषये गणमित्यर्थः, तस्याविनीतत्वात् तस्य वा सुखलम्पटत्वान्मन्दप्रज्ञत्वाद्वेति गणादप४ामतीति तृतीयं, तथा असौ गणे वर्तमानः 'सगणियाए'त्ति स्वगणसम्बन्धियां 'परगणियाए'त्ति परगणसत्कायां निर्ग्रन्थ्यां तथाविधाशुभकर्मवशवर्तितया सकलकल्याणाश्रयसंयमसौधमध्याद् बहिर्लेश्या-अन्तःकरणं यस्यासौ बहि|लेश्यः, आसक्तो भवतीत्यर्थः, एवं गणादपक्रामतीति, न चेदमधिकगुणत्वेन अस्यासम्भाव्यं, यतः पठ्यते-“कम्माई नूर्ण घणचिकणाई गरुयाई चजसाराई । नाणहृयपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं निंति ॥१॥"[गुरुकाणि वज्रसाराणि चिक्कणानि कर्माणि धनानि ज्ञानाध्यमपि पुरुषं नूनं पथ उत्पथं नयंति ॥१॥] इति चतुर्थ, तथा मित्रज्ञातिगणो वा| -सुहृत्स्वजनवर्गो वा 'से' तस्याचार्यादेः कुतोऽपि कारणाद् गणादपकामेदतस्तेषां सुहृत्स्वजनानां सङ्ग्रहाद्य) गणा दपकमणं प्रज्ञप्त, तत्र सङ्ग्रहस्तेषां स्वीकारः, उपग्रहो वस्त्रादिभिरुपष्टम्भ इति पञ्चमं । अनन्तरमाचार्यस्य गणापक्रमण-15 स्था० ५६ मुक्त, स च ऋद्धिमन्मनुष्यविशेष इत्यधिकाराद् ऋद्धिमन्मनुष्य विशेषानाह-पंचविहे'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं ऋद्धिः आचार्यस्य गण-अपक्रमणस्य कारणा: ~666~ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [२], मूलं [४४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: खाना- असून प्रत सूत्रांक वृत्तिः ॥३३२॥ [४४०] आमपौषध्यादिका सम्पत् , तद्यथा-आमपौषधिर्विघुडोषधिः खेलौषधि(जल्लौषधि)जलो-मल: सौषधिः आसीविषत्वं स्थाना. -शापानुग्रहसामर्थ्यमित्यर्थः आकाशगामित्वमक्षीणमहानसिकत्वं वैक्रियकरणमाहारकत्वं तेजोनिसर्जनं पुलाकत्वं क्षी- उद्देशः२ राश्रवत्वं मध्वाश्रयत्वं सपिराश्रवत्वं कोष्ठबुद्धिता बीजबुद्धिता पदानुसारिता सम्भिन्नश्रोतृत्व-युगपत्सर्वशब्दश्राविते- गणापक्र. त्यर्थः पूर्वधरता अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं अर्हत्ता गणधरता चक्रवर्तिता बलदेवता वासुदेवता चेत्येव-15 मणहेतवः मादिका, उक्तं च-"उदयखयखओवसमोवसमसमुत्था बहुप्पगाराओ। एवं परिणामवसा लद्धीओ होति जीवाणं रद्धिमन्तः ॥१॥” इति, [उदयक्षयक्षयोपशमोपशमसमुत्था बहुप्रकाराः परिणामवशाजीवानां लब्धय एवं भवन्ति ॥१॥] सू०४३९तदेवरूपा प्रचुरा-प्रशस्ता अतिशायिनी वा ऋद्धिविद्यते येषां ते ऋद्धिमन्तः भावितः-सद्वासनया वासितः आत्मा ४४० यैस्ते भावितात्मानोऽनगारा इति, एतेषां च ऋद्धिमत्त्वमामपापध्यादिभिरहंदादीनां तु चतुर्णी यथासम्भवमामोपध्या|दिनाऽहत्यादिना चेति ॥ पञ्चमस्थानकस्य विवरणतो द्वितीयोद्देशकः समाप्त इति । दीप अनुक्रम [४७८] उको द्वितीयोदशका, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरोद्देशके जीवधम्मोः प्रायः प्ररूपिता:, इह स्वजीवजीवधर्मा उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् पंच अस्थिकाया पं० सं०-धम्मत्थिकाते अधम्मस्थिकाते आगासस्थिकाते जीवस्थिकाले पोमालस्थिकाए, धम्मत्यिकाए अवन्ने अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासए अवट्ठिए लोगव्वे,से समासओ पंचविधे पं० त०-दम्बो खित्तो N३३॥ RELIGunintentATHREE अत्र पंचम स्थानस्य द्वितीयो उद्देशक: परिसमाप्त: अथ पंचम स्थानस्य तृतीयो उद्देशक: आरब्ध: ~667~ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४४१] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४१] दीप अनुक्रम कालो भावओ गुणओ, दबओ णं धम्मस्थिकाए एगं दवं खेत्ततो लोगपमाणमेत्ते कालो ण कयाति णासी न कयाइ न भवति ण कयाइ ण भविस्सइत्ति भुर्वि भवति य भविस्सति व धुवे णितिते सासते अक्खए अब्बते अवहिते णिचे भावतो भवने अगंधे अरसे अफासे गुणतो गमणगुणे य १, अधम्मस्थिकाए अवन्ने एवं चेव, णवर गुणतो ठाणगुणो २, आगासथिकाए अवन्ने एवं चेव णवरं खेत्तओ लोगालोगषमाणमित्ते गुणतो अवगाहणागुणे, सेसं तं व ३, जीवथिकाए णं अवन्ने एवं चेब, णवर दब्बओणं जीवस्थिगाते अणंताई दवाई, अरूवि जीचे सासते, गुणतो उपभोगगुणे सेसं तव ४, पोग्गलस्थिगाते पंचवन्ने पंचरसे दुग्गंधे अट्ठफासे रूबी अजीवे सासते अवट्टिते जाव दवभो ण पोग्गलस्थिकाए अणंताई पब्वाई खेत्तो लोगपमाणमेत्ते कालतो ण कयाइ गासि जाव णिचे भावतो वनमंते गंधमंते रसमंते कासमंते, गुणतो गहणगुणे (सू०४४१) पंच गतीतो पं० २०-निरयगती तिरिथगती मणुयगती देवगती सि. द्विगती (सू० ४४२) 'पंचे'त्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरसूत्रे जीवास्तिकायविशेषा ऋद्धिमन्त उक्ताः इह त्वसमवेयानन्तप्रदेशलक्षणऋद्धिमन्तः समस्तास्तिकाया उच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या प्रथमाध्ययनवदनुसत्र्तव्या, नवरं धमॉस्तिकायादयः। किमर्थमित्थमेवोपन्यस्यंत इति, उच्यते, धर्मास्तिकायादिपदस्य माङ्गलिकत्वात् प्रथम धमोस्तिकायोपन्यासः पुनमास्तिकायप्रतिपक्षवादधर्मास्तिकायस्य पुनस्तदाधारत्वादाकाशास्तिकायस्य पुनस्तदाधेयत्वाज्जीवास्तिकायस्य पुनस्तदुपग्राहकत्वात् पुद्गलास्तिकायस्येति, धम्मास्तिकायादीनां क्रमेण स्वरूपमाह-'धम्मत्यिकाएं त्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शप्रतिषेधाद् [४७९] CORRC BACRO Baitaram.org ~668~ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४२] दीप श्रीस्थाना- अरूवित्ति रूपं-मूर्तिवर्णादिमत्त्वं तदस्यास्तीति रूपी न रूपी अरूपी अमूर्त इत्यर्थः, तथा अजीवः-अचेतनः, शाश्वतः५ स्थाना. सूत्र- प्रतिक्षणं सत्ताऽऽलिङ्गितत्वादवस्थितः अनेन रूपेण नित्यत्वादिति, लोकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यं, यत उक्तम्-"- उद्देशा३ चस्थिकायमइयं लोगमणाइनिहणं ।" इति, [पञ्चास्तिकायमयं लोकमनादिनिधनं ] अधैतत्स्वरूपस्योक्तस्य प्रपश्चनाया-15 धर्मास्ति नुक्तस्य चाभिधानायाह-'समासतः' सोपतः पञ्चविधो, विस्तरस्त्वन्यधापि स्यात् , कथमित्याह-द्रव्यतो' द्रव्यता- कायाद्याः ॥३३३ मधिकृत्य क्षेत्रतः क्षेत्रमाश्रित्य एवं कालतो भावतश्च 'गुणत:' कार्यतः कार्यमाश्रित्येत्यर्थः, तत्र द्रव्यतोऽसावेक द्रव्यं गतयः तथाविधैकपरिणामादेकसङ्ख्याया एवेह भावात् , क्षेत्रतो लोकस्य प्रमाणं लोकप्रमाणं--असङ्ख्येयाः प्रदेशास्तपरिमाणम-131 सू०४४१स्येति लोकप्रमाणमात्रः, कालतो न कदाचिन्नासीदित्यादि कालत्रयनिर्देशः, एतदेव सुखार्थं व्यतिरेकेणाह-अभूच्च भ- ४४२ वति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालभावित्वाद्रवो, मा भूदेकसर्गापेक्षयैव भुवस्वमिति सर्वदेवंभावान्नियतो, मा भूदनेकसर्गापेक्षयव नियतत्वमिति प्रलयाभावात् शाश्वतः, एवं सदाभावेनाक्षयः, पर्यायापगमेऽप्यनन्तपोयतयाऽव्ययः, एवमुभयरूपतया अवस्थितः, अनेन प्रकारेणीघतो नित्य इति पूज्यव्याख्या, अथवा यत एव कालिकोऽसावत एवं ध्रुवोऽवश्यंभावित्वादादित्योदयवत्, नियत एकरूपत्वात् , शाश्वतः प्रतिक्षणं सत्त्वादत एवाक्षयोऽवयविद्रव्यापेक्षया अ४क्षतो वा परिपूर्णत्वात् , अव्ययोऽवयवापेक्षया अवस्थितो निश्चलत्वात् , तात्पर्यमाह-नित्य इति, अथवा इन्द्रशकादिशहाब्दवसोयशब्दा धुवादयो नानादेशजविनेयप्रतिपत्यर्थमुपन्यस्ता इति, तथा गुणतः गमनं गतिस्तद् गुणो-गतिपरिणा-| C ॥३३३॥ मपरिणतानां जीवपुद्गलानां सहकारिकारणभावतः कार्य मत्स्यानां जलस्येव यस्यासौ गमनगुणो गमने वा गुणः-उप अनुक्रम [४८०] 25-45 ~669~ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४४२] दीप अनुक्रम [ ४८० ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [४४२ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] कारो जीवादीनां यस्मादसौ गमनगुण इति, 'एवं चेव'त्ति यथा धर्मास्तिकायोऽधीत एवमधर्मास्तिकायोऽपीति, नवरं केवलमेतावान् विशेषो यदुत - 'ठाणगुणे'त्ति स्थानं स्थितिर्गुणः - कार्य यस्य स स्थानगुणः, स हि स्थितिपरिणतानां जीवादीनामपेक्षाकारणतया स्थानं कार्य करोति स्थाने वा स्थितौ गुणः- उपकारो यस्मात् स तथा, 'लोगालोगे' त्यादि लोकालोकयोस्तद्व्यक्त्योर्यत्प्रमाणं- अनन्ताः प्रदेशास्तदेव परिमाणमस्येति लोकालोकप्रमाणमात्रः, अवगाहना-जीवादीनामाश्रयो गुणः कार्ये यस्य तस्यां वा गुणः - उपकारो यस्मात्सोऽवगाहनागुणः, 'अनंताई दब्वाई' ति अनन्ता जीवास्तेषां च प्रत्येकं द्रव्यत्वादिति, 'अरूवी जीवे'ति जीवास्तिकायोऽमूर्त्तस्तथा चेतनावानिति, उपयोगः- साकारानाकारभेदं चैतन्यं गुणो-धम्र्म्मो यस्य स तथा शेषं तदेव यदधर्मास्तिकायादीनामिति, लोकप्रमाणो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायश्च तयोस्तत्रैव भावादिति, 'गहणगुणेति ग्रहणं-औदारिकशरीरादितया ग्राह्यता इन्द्रियग्राह्यता वा वर्णादिमत्त्वात् परस्पर सम्बन्धलक्षणं वा तद्गुणो-धर्म्मो यस्य स तथा । अनन्तरमस्तिकाया उक्ता इति तद्विशेषस्य जीवास्तिकायस्य सम्बन्धिवस्तूम्याह अध्ययनपरिसमाप्तिं यावदिति महासम्वन्धः, तत्र 'पंचे' त्यादि गतिसूत्रं कण्ठ्यं, नवरं गमनं गति १ गम्यत इति वा गतिः - क्षेत्रविशेषः २ गम्यते वा अनया कर्म्मपुद्गलसंहत्येति गतिः - नामकर्मोत्तरप्रकृतिरूपा ३ तत्कृता वा जीवावस्थेति ४, तत्र निरये- नरके गति ४ निरयश्चासौ गतिश्चेति वा २ निरयप्रापिका वा गतिः ३ निरयगतिः, एवं तिर्यक्षु ४ तिरश्चां २ तिर्यक्त्वप्रसाधिका वा गति ३ स्तिर्यग्गतिः, एवं मनुष्यदेवगती, सिद्धौ गतिः १] व्युत्पत्तिचतुष्कग्रहणसूत्रणाय चतुष्कः, आधे रत्नप्रभावामाश्रित्य गमनं द्वितीये तत्क्षेत्रविषये तृतीये नरकावस्थाया हेतुः कर्म तु नरकभवः. For Parts Only ~670~ nary org Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४४२] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४२] दीप श्रीस्थाना-सिद्धिश्वासी गतिश्चेति वा सिद्धिगतिः, गतिरिह नामप्रकृतिर्नास्तीति । अनन्तरं सिद्धिगतिरुक्ता, सा चेन्द्रियार्थान् क-1| ५स्थाना० असूत्रपायादींश्चाश्रित्य मुण्डितत्वे सति भवतीतीन्द्रियानिन्द्रियकषायादिमुण्डांश्चाभिधित्सुः सूत्रत्रयमाह उद्देशः३ पंच इवियत्या पं० १०-सोविवियत्ये जाव फासिंवियत्थे १३पंच मुंडा पं० त०-सोतिदिवमुंडे जाव फासिदियमुंडे२, मुण्डा अहवा पंच मुंडा पं००-कोहमुंडे माणमुंडे मायामुंडे लोभमुंडे सिरमुंडे ३ (सू०४४३) अहेलोगे थे पंच बायरा पं० पञ्चबाद॥३३४॥ तं०-पुढ विकाझ्या आउ० वात० वणस्सइ ओराला तसा पाणा १, उड़लोगे थे पंच बायरा पं० ०-एवं तं व २, रबादरतिरियलोगे थे पंच बायरा पं० सं०-एगिंदिया जाब पंचिंदिता ३। पंचविधा बायरतेउकाइया पं०२०-इंगाले तेजोबादजाला मुम्मुरे अनी अलाते १, पंचविधा बादरवाउकाइया पं० सं०-पाईणवाते पडीणवाते दाहिणवाते उदीणवाते राचित्तविविसवाते २, पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पं० त०-अकते धंते पीलिए सरीराणुगते संमुच्छिमे ३ (सू०४४४) वायवः 'पंचेत्यादि सुगम, नवरं इन्दनादिन्द्रो-जीवः सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात् तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं सू०४४३सृष्टं जुष्टं दत्तमिति वा इन्द्रियं-श्रोत्रादि, तच्चतुर्विधं नामादिभेदात्, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, निवृत्त्युपकरणे द्रव्ये ४४४ |न्द्रियं, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियं, तत्र निवृचिराकारः, सा च बाह्याऽभ्यन्तरा च, तत्र बाह्या अनेकप्रकारा, अभ्यन्तरा पुनः क्रमेण श्रोत्रादीनां कदम्बपुष्प १ धान्यमसूरा २तिमुक्तकपुष्पचन्द्रिका ३ क्षुरप ४ नानाप्रकार ५ संस्थाना, | उपकरणेन्द्रियं विषयग्रहणे सामर्थ्य, छेद्यच्छेदने खङ्गस्येव धारा, यस्मिन्नुपहते निर्वृतिसद्भावेऽपि विषयं न गृह्णातीति, ल-I&ा॥३४॥ धीन्द्रियं यस्तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगेन्द्रियं यः स्वविषये व्यापार इति, इह च गाथा:-"इंदो जीवो सब्बोवल-1 अनुक्रम [४८०] *CACA 8362 | इन्द्रिय शब्दस्य व्याख्या एवं तत् प्रकारा: ~671~ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४४] दीप अनुक्रम [४८२] सद्धिभोगपरमेसरत्तणओ । सोत्तादिभेदमिंदियमिह तलिंगादिभावाओ ॥१॥ तन्नामादि चउद्धा दवं निब्वतिओवकरणं | च । आकारो निव्वती चित्ता बज्झा इमा अंतो॥२॥ पुप्फ कलबुयाए धन्नमसूराऽतिमुत्तचंदो य । होइ खुरुप्पो नाणागिई य सोइंदियाईणं ॥ ३ ॥ विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तंपि । जं नेह तदुवघाए गिण्हइ निवित्तिभावेवि ॥ ४॥ लडुवओगा भाविंदियं तु लद्धित्ति जो खओवसमो । होइ तयावरणाणं तल्लाभे चेव सेसंपि ॥ ५॥ जो सविसयवावारो सो उवओगो स चेगकालम्मि । एगेण चेव तम्हा उवओगेगिंदिओ सव्वो ॥६॥ एगिदियादिभेदा प इच सेसिंदियाई जीवाणं । अहवा पडुच्च लद्धिंदियपि पंचिंदिया सब्वे ॥७॥ जं किर बउलाईणं दीस सेसिंदिओव-17 [लंभोवि । तेणऽस्थि तदावरणक्खओवसमसंभवो तेसिं ॥८॥ इति, [सर्वोपलब्धिभोगपरमैश्वर्यत्वादिन्द्रो जीवः तलिं-131 गादिभावादिंद्रियमिह श्रोत्रादिभेदम् ॥१॥ तन्नामादिभेदेन चतुर्द्धा निवृत्तिरुपकरणं च द्रव्यं आकारो निर्वृत्तिः बाह्यार चित्रा अंतरिमा ॥२॥ कलंबुकायाः पुष्पं मसूरीधान्यं अतिमुक्तकपुष्पचन्द्रः भवति चरमो नानाकृतिश्च श्रोत्रे४ान्द्रियादीनाम् ॥३॥ विषयग्रहणसमर्थमुपकरणमिन्द्रियान्तरं तदपि यत्नेह तदुपघाते निवृत्तिभावेऽपि गृह्णाति ॥४॥ लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियमेव यः तदावरणानां क्षयोपशमो भवति स लन्धिः तल्लाभे एव शेषाण्यपि ॥ ५ ॥ यः सविषयव्यापारः स उपयोगः स चैककाले एकेनैव तस्मादुपयोगेनैकेंद्रियः सर्वः॥६॥ एकेन्द्रियादयो भेदाः शेषाणीन्द्रि-1 याणि प्रतीत्य जीवानां अथवा लब्धीन्द्रियं प्रतीत्य सर्वेऽपि पंचेन्द्रियाः॥७॥ यत्किल बकुलादीनां शेषेन्द्रियोपल. म्भोऽपि दृश्यते तेन तेषां तदावरणक्षयोपशमसम्भवोऽप्यस्ति ॥८॥] अर्यन्ते-अभिलष्यन्ते क्रियार्थिभिरयन्ते वा-अ | इन्द्रिय शब्दस्य व्याख्या एवं तत् प्रकारा: ~672~ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४४४] दीप अनुक्रम [४८२] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रीस्थाना झसूत्रवृत्तिः ।। ३३५ ।। धिगम्यन्त इत्यर्था इन्द्रियाणामर्था इन्द्रियार्था:-तद्विषयाः शब्दादयः, श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रं तच्च तदिन्द्रियं च श्रोत्रेन्द्रियं तस्यार्थी ग्राह्यः श्रोत्रेन्द्रियार्थः शब्दः, एवं क्रमेण रूपगन्धरसस्पर्शाश्चक्षुराद्यर्था इति । मुण्डनं मुण्डः- अपनयनं, स च द्वेधा-द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः शिरसः केशापनयनं, भावतस्तु चेतस इन्द्रियार्थगतप्रेमाप्रेम्णोः कषायाणां | वाऽपनयनमिति मुण्डलक्षणधर्मयोगात् पुरुषो मुण्ड उच्यते, तत्र श्रोत्रेन्द्रिये श्रोत्रेन्द्रियेण वा मुण्डः पादेन खख इत्यादिवत् श्रोत्रेन्द्रियमुण्डः शब्दे रागादिखण्डनाच्छोत्रेन्द्रियार्थमुण्ड इति भाव इत्येवं सर्वत्र तथा क्रोधे मुण्डः क्रोध★ मुण्डस्तच्छेदनादेवमन्यत्रापि, तथा शिरसि शिरसा वा मुण्डः शिरोमुण्ड इति । इदं च मुण्डितत्यं बादरजीवविशेषाणां भवतीति लोकत्रयापेक्षया बादरजीवकायान् प्ररूपयन् सूत्रत्रयमाह - 'आहे 'त्यादि सुगमं, नवरमधऊर्द्धलोकयोस्तेजसा बादरा न सन्तीति पंच ते उक्ताः, अन्यथा षट् स्युरिति, अधोलोकग्रामेषु ये वादरास्तेजसास्ते अस्पतया न विवक्षिताः, ये चोर्द्धकपाटद्वये ते उत्पत्तुकामत्वेनोत्पत्तिस्थानास्थितत्वादिति, 'ओरालतसत्ति त्रसखं तेजोवायुष्वपि प्रसिद्धं अतस्तद्व्यवच्छेदेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपत्यर्थ मोरालग्रहणं, ओराठाः-स्थूला एकेन्द्रियापेक्षयेति, एकमिन्द्रियं करणं स्पर्शनलक्षणमेकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्तदावरणक्षयोपशमाच्च येषां ते एकेन्द्रिया:- पृथिव्यादयः, एवं द्वीन्द्रियादयोऽपि, नवरमिन्द्रियविशेषो जातिविशेषश्च वाच्य इति । एकेन्द्रिया इत्युक्तमिति तान् पञ्चस्थानकानुपातिनो विशेषतः सूत्रत्र | १ यद्यपि यद्भेदेस्तदाख्ये 'ति २-२-४६ श्रीसिद्धहेमचन्द्रानुगतयात्र न विरोधयापि पाणिनीयानुसारिणां स्वाद्विरोधाभासः परं तत्रापि अप्रवृत्त्या अरजनाद्वा विकृतता यम्या. इन्द्रिय शब्दस्य व्याख्या एवं तत् प्रकारा: For Parts Only ~673~ ५ स्थाना० उद्देशः ३ मुण्डाः पञ्चवादरवादरतेजोवाद राचित्त वायवः सू० ४४३ ४४४ ॥ ३३५ ॥ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४४४] दीप अनुक्रम [४८२] स्थान [५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र “स्थान” - अंगसूत्र-३ (मूलं + वृत्ति मूलं [ ४४४ ] उद्देशक [३], [०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः येणाह - 'पंचविहे 'त्यादि, अङ्गारः प्रतीतः ज्वाला-अग्निशिखा छिन्नमूला सैवाच्छिन्नमूलाऽचिः मुर्मुरो-भस्ममिश्राग्निकणरूपः अलातं उल्मुकमिति । प्राचीनवातः पूर्ववातः प्रतीचीनः- पश्चिमः दक्षिणः प्रतीतः उदीचीनः-उत्तरः तद न्यस्तु विदिश्वात इति । आकान्ते पादादिना भूतलादौ यो भवति स आकान्तो यस्तु ध्माते इत्यादौ स ध्मातः जलाद्रवस्त्रे निष्पीड्यमाने पीडितः उद्गारोच्छ्रासादिः शरीरानुगतः व्यजनादिजभ्यः सम्मूच्छिमः, एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्तीति । पूर्व पञ्चेन्द्रिया उक्ता इति पश्चेन्द्रियविशेषानाह, अथवा अनन्तरं सचेतनाचेतना वायव उक्ताः, तांश्च रक्षन्ति निर्मन्था एवेति तानाह पंच निमांथा पं० तं०—पुढाते वउसे कुसीले णिग्गंथे सिणा ते १, पुलाए पंचविहे पं० सं०- णाणपुलाते दंसणपुलाते चरित्तपुलाते लिंगपुलाते अहासुद्दुमपुलाते नामं पंचमे २, बडसे पंचविधे पं० सं० आभोगबडले अणाभोगबसे संयु से असे अदासुहुमबउसे नामं पंचमे ३, कुसीले पंचविधे पं० [सं० णाणकुसीले दंसणकुसीले चरिचकुसीले लिंगकुसीले अहासुतुमकुसीले नामं पंचमे ४, नियंठे पंचविहे पं० [सं० पढमसमय नियंठे अपढमसमयनियंठे चरिमसमयनियंठे अरिमसमयनियंठे अहासुहमनियंठे ५, सिणाते पंचविधे पं० तं० अच्छवी १ असबले २ अक्रम्मंसे ३ संसुद्धणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली ४ अपरिस्सावी ५,६ (सू० ४४५ ) 'पंच नियंठे' त्यादि, सूत्रष्टुं सुगमं, नवरं ग्रन्थादाभ्यन्तरान्मिथ्यात्वादेर्वाह्याच धर्मोपकरणवर्जाद्धनादेर्निर्गता निर्मन्थाः, पुलाका- तंदुलकणशून्या पर्लजि तद्वद् यः तपःश्रुतहेतुकायाः सङ्घादिप्रयोजने चक्रवर्त्त्यादेरपि चूर्णनसमर्थायाः लब्धे Education Internationa निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदाः For Penal Use On ~674~ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ग्रन्थाः प्रत सूत्रांक [४४५]] दीप अनुक्रम [४८३] श्रीस्थाना- रुपजीवनेन ज्ञानायतिचारासेवनेन वा संयमसाररहितः स पुलाका, अत्रोक्तम्-"जिनप्रणीतादागमात् सदैवाप्रतिपा- ५स्थाना० प्रसूत्र तिनो ज्ञानानुसारेण क्रियानुष्ठायिनो लब्धिमुपजीवन्तो निर्गन्धपुलाका भवन्ती"ति, बकुशः शवलः कर्बुर इत्यर्थः, श-18 वृत्तिः शरीरोपकरणविभूषानुवर्तितया शुद्ध्यशुद्धिव्यतिकीर्णचरण इति, अयमपि द्विविधः, यदाह-"मोहनीयक्षयं प्रति प्रस्थिताः पञ्च नि. शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिन:-तत्र शरीरे अनागुप्तव्यतिकरण करचरणवदनप्रक्षालनमक्षिकर्णनासिकाद्यवयवेभ्यो विदू-13 ॥३३॥ पिकामलाथपनयनं दन्तपावनलक्षणं केशसंस्कारं च देहविभूषार्थमाचरन्तः शरीरवकुशा, उपकरणबकुशास्तु अकाल एव प्रक्षालितचोलपट्टकान्तरकल्पादिचोक्षवासःप्रियाः पात्रदण्डकाद्यपि तैलमात्रयोजवलीकृत्य विभूषार्थमनुवर्तमाना विभ्रति, उभयेऽपि च ऋद्धियशस्कामाः-तत्र ऋद्धिं प्रभूतवस्त्रपात्रादिकां ख्याति च गुणवन्तो विशिष्टाः साधव इत्या दिप्रवादरूपां कामयन्ते, सातगौरवमाश्रिताः नातीवाहोरात्राभ्यन्तरानुष्ठेयासु क्रियास्वभ्युद्यताः, अविविक्तपरिवारा:४ानासंयमात् पृथग्भूतः पृष्टज तैलादिकृतशरीरमृजः कतरिकाकल्पितकेशश्च परिवारो येषामिति भावः, बहुच्छेदशव-1* मालयुक्ताः-सर्वदेशच्छेदाहोतिचारजनितशबलत्वेन युक्ता निर्ग्रन्थबकुशा इति" तथा कुत्सितं उत्तरगुणप्रतिषेवया सायल-15 &ानकषायोदयेन वा दूषितत्वात् शीलं-अष्टादशशीलासहस्रभेदं यस्य स कुशील इति, एषोऽपि द्विविध एव, अत्राप्युक्तम् "द्विविधाः कुशीला:-प्रतिसेवनकुशीलाः कषायकुशीलाच, तत्र ये नम्रन्ध्यं प्रति प्रस्थिताः अनियतेन्द्रियाः कथञ्चित्किश्चि-IN प्रदेवोत्तरगुणेषु-पिण्डविशुद्धिसमितिभावनातपःप्रतिमाभिग्रहादिषु विराधयन्तः सर्वज्ञाज्ञोलनमाचरन्ति ते प्रतिसेवना-ला कुशीलाः, येषां तु संयतानामपि सतां कथश्चित्सवलनकषाया उदीयन्ते ते कपायकुशीलाः," निर्गतो ग्रन्धान्मोहनीया निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदाः ~675~ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४४५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: । प्रत सूत्रांक [४४५]] दीप अनुक्रम ख्यात निर्गन्धः क्षीणकषाय उपशान्तमोहो वा, क्षालितसकलपातिकर्ममलपटलत्वात् स्नात इव स्नातः स एव स्नातका, सयोगोऽयोगो वा केवलीति । अधुनैत एव भेदत उच्यन्ते, तत्र पुलाक इत्यासेवापुलाकः पञ्चविधो, लब्धिपुलाकस्यैकविधत्वात् , तत्र स्खलितमिलितादिभिरतिचारैानमाश्रित्यात्मानं असारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः, एवं कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः, मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः, यथोक्तलिङ्गाधिकग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिङ्गकरणाद्वा लिङ्गपुलाका, किश्चित्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्मपुलाको नाम पाम इति । बकुशो द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तत्र शरीरोपकरणभूषयोः सञ्चिन्त्यकारी आभोगवकुशः, सहसाकारी अनाभोगवकुशः, प्रच्छन्नकारी संवृतबकुशः, प्रकट-1 कारी असंवृतबकुशः, मूलोत्तरगुणाश्रितं वा संवृतासंवृतत्वं, किश्चित्नमादी अक्षिमलायपनयन् वा यथासूक्ष्मयकुशो| नाम पम इति, कुशीलो द्विविधोऽपि पचविधः, तत्र ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्गान्युपजीवन प्रतिषेवणतो ज्ञानादिकुशीलो लिङ्गस्थाने क्वचित्तपो दृश्यते, तथा अयं तपश्चरतीत्येवमनुमोद्यमानो हर्ष गच्छन् यथासूक्ष्मकुशीलः प्रतिषेवणयैवेति, कषायकुशीलोऽप्येवं नवरं क्रोधादिना विद्यादिज्ञानं प्रयुञ्जानो ज्ञानकुशीलः, दर्शनग्रन्थं प्रयुञ्जानो दर्शनतः शापं ददत चारित्रतः कषायलिङ्गान्तरं कुर्वन् लिङ्गतः मनसा कषायान् कुर्वन् यथासूक्ष्मः । चूर्णिकाकारव्याख्या खेवम्-'सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना, सा पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां ते प्रतिसेवनाकुशीला, कषायकुशीलास्तु पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां कषायैर्विराधना कियत इति । अन्तर्मुहूर्तप्रमाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्तमान एकः शेषेषु द्वितीयः अन्तिमे तृतीयः शेषेषु चतुर्थः सर्वेषु पञ्चम इति विवक्षया भेद एषामिति । छविः-शरीरं तदभावात्का 0-%9 [४८३] SAREairabKSkind Maraiaram.org | निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदाः ~676~ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४५]] दीप अनुक्रम श्रीस्थाना-बाययोगनिरोधे सति अच्छविर्भवति अव्यथको वा १ निरतिचारत्वादशवलः २ क्षपितकर्मत्वादकांश इति तृतीयः ३, ५ स्थाना गसूत्र ज्ञानान्तरेणासम्पृक्तत्वात् संशुद्धज्ञानवर्शनधरः पूजाईत्वादईन् नास्य रहो-रहस्यमस्तीत्यरहा वा जितकषायत्वाजिनः, उद्देशः३ वृत्तिः केवलं-परिपूर्ण ज्ञानादित्रयमस्यास्तीति केवलीति चतुर्थः ४, निष्क्रियत्वात्सकलयोगनिरोधे अपरिश्रावीति पञ्चमः, ५, क-15 पञ्च नि चित्पुनरहन जिन इति पश्चमः । अत्र भाष्यगाथा:-"होइ पुलाओ दुविहो लद्धिपुलाओ तहेव इयरो य । लद्धिपुलाओ || ग्रेन्थाः ॥३३७॥ संघाइकले इयरो य पंचविहो ॥१॥ नाणे देसण चरणे लिंगे अहसुहमए य नायब्यो। नाणे दंसणचरणे तेसिं तु विराहण सु०४४५ असारो ॥२॥ लिंगपुलाओ अन्नं निकारणओ करेइ सो लिंगं । मणसा अकप्पियाणं निसेवओ होइहामुहुमो ॥३॥ सारीरे उपकरणे वासियत्तं दुहा समक्खायं । मुफिलवस्थाणि धरे देसे सम्बे सरीरंमि ॥४॥ आभोगमणाभोग संबुड-15 मस्संतुष्टे अहासुहुमे । सो दुविहो वा बउसो पंचविहो होइ नायब्वो ॥५॥ आभोगे जाणतो करेइ दोसं तहा अपा-IN |भोगे । मूलत्तरेहि संवुड विवरीय असंवुडो होइ॥६॥ अच्छिमुहं मज्जमाणो होइ अहासुहमओ तहा बउसो । पडि-15 सेवणा कसाए होइ कुसीलो दुहा एसो॥७॥ नाणे दंसणचरणे तवे य अहसुहमए य बोद्धब्वे । पडिसेवणाकुसीलो र पंचविहो ऊ मुणेअब्बो ॥८॥ नाणादी उवजीवइ अहसुहमो अह इमो मुणेयब्बो । साइजतो राग वचइ एसो तवच-IN रणी ॥९॥ [एष तपश्चरणीत्येवमनुमोद्यमानो हर्ष ब्रजतीत्यर्थः> "एमेव कसायंमिवि पंचविहो चेव होइ कुसीलो उ||3 कोहेणं बिजाई पउंजएमेव माणाई ॥१०॥" एवमेव मानादिभिरित्यर्थः> "एमेव देसणतवे सावं पुण देइ उ चरित्तमि ॥३३७ मणसा कोहाईणं करेइ अह सो अहासुमो ॥११॥ पढमा १ पढमे २ चरम ३ अचरिमे ४ अहसुहुमे ५ होइ नि-* [४८३] SARELatun international निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदाः ~677~ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४४५] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४५]] दीप अनुक्रम [४८३] ४ गंथे । अच्छवि १ अस्सपले या २ अकम्म ३ संसुद्ध ४ अरहजिणा ५॥१२॥" इति, [भवति पुलाको द्विविधो लब्धि-18|| पुलाकस्तथैवेतरश्च । लन्धिपुलाकः संघादिकार्ये इतरश्च पंचविधः ॥१॥ ज्ञाने दर्शने चारित्रे लिंगे यथासूक्ष्मश्च ज्ञा-1 तव्यः । ज्ञाने दर्शने चरणे तेषां विराधनयवासारः॥२॥ निष्कारणतो लिंगपुलाकोऽन्यदू लिंग स करोति । मनसा अकल्पितानां निसेवको भवति यथासूक्ष्मः ॥३॥ शरीरे उपकरणे च बाकुशिकत्वं द्विधा समाख्यातं शुक्लवस्त्राणि धारयन् देशे सर्वस्मिन् शरीरे ॥४॥ आभोगोऽनाभोगः संवृतोऽसंवृतो यथासूक्ष्मः । स द्विविधो वा बकुशः पंचविधो भवति ज्ञातव्यः॥५॥ आभोगो जानन् दोषं करोति तथाऽनाभोगः । मूलोत्तरगुणेषु संवृतः विपरीतोऽसंवृतो भवति । San६॥ अक्षिमुर्ख मार्जयन् भवति यथासूक्ष्मस्तथा बकुशः । प्रतिसेवनाकषाययोर्भवति द्विधैषः कुशीलः ॥७॥ ज्ञाने दर्शने चरणे तपसि च यथासूक्ष्मश्च बोद्धव्यः । प्रतिसेवनाकुशीलः पंचविधस्तु ज्ञातव्यः॥८॥ज्ञानाद्युपजीवति अथैष यथासूक्ष्मो ज्ञातव्यो यो यं तपश्चारीति स्वादयन् रागं ब्रजति ॥९॥ एवमेव कषायेऽपि पञ्चविधो भवति कुशीलस्तु । क्रोधेन विद्यादि प्रयुक्त एवमेव मानादिभिः ॥ १०॥ एवमेव दर्शनतपसोः चारित्रे पुनः शापं ददाति । अथ मनसा क्रोधादीन करोति स यथासूक्ष्मः ॥११॥ प्रथमोऽप्रथमः चरमोऽचरमो यथासूक्ष्मो भवति निर्यन्धः अच्छविः। अशबल: अकर्मा संशुद्धः अहंजिनः ॥ १२॥] निम्रन्थानामेवोपधिविशेषप्रतिपादनाय सूत्रद्वयमाहस्था०५७ कप्पइ णिगंधाण वा णिग्गंथीम वा पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरेत्तते वा, जहा-जंगिते भंगिते साणते पोतिते निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदाः ~678~ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४४६] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाअन्सूत्र ॥३३८॥ प्रत सूत्रांक [४४६] दीप अनुक्रम [४८४] तिरीडपट्टते णाम पंचमए । कप्पइ निगंथाण वा निग्गंधीग वा पंच रयहरणाई चारित्तए वा परिहरित्तते वा-जहा ५स्थाना उण्णिए उट्टिते साणते पचापिश्चियते मुंजापिचिते नामं पंचमए (सू०४४६) उद्देशः३ &ा 'कप्पंती'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं कल्पन्ते-युज्यन्ते धारयितुं परिग्रहे परिहतु-आसेवितुमिति, अथवा 'धारणया उव- वस्त्ररजोभोगो परिहरणा होइ परिभोगोत्ति, 'जंगिए'त्ति जङ्गमाः-त्रसास्तदवयवनिष्पन्नं जानामिकं-कम्बलादि, "भंगिए'त्ति हरणपभंगा-अतसी तन्मयं भाङ्गिक, 'साणए'त्ति सनसूत्रमय सानकं, 'पोत्तिए'त्ति पोतमेव पोतर्क-कार्यासिकं, 'तिरीड-४ वत्ति वृक्षवडायमिति, इह गाथा: “जंगमजायं जंगिय तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदि। एकेकंपि य इसो होइ वि- सू०४४६ भागेण णेगविहं ॥१॥ पट्टसुवन्ने मलए अंसुयचीणंसुए य विगलिंदी । उन्नोट्टियमियलोमे कुतवे किट्टी य पंचिंदी ॥२॥ [जंगमाज्जातं जाङ्गमिकं तत्पुनर्विकलेन्द्रियर्ज पंचेन्द्रियजं च । इत एकैकमपि विभागेनानेकविधं भवति ॥१॥ पट्टः सुवर्ण मलयं अंशुकं चीनांशुकं च विकलेन्द्रियजः औणिकौष्टिके मृगलोमर्ज कुतुपर्ज पंचेंद्रियं च ॥१॥] (पट्टः प्र- मातीतः सुवर्ण-सुवर्णवर्णसूत्रं कृमिकाणां मलय-मलयविषय एव अंशुक-रुक्ष्णपट्टः चीनांशुक कोशीरः चीनविषये वा ट्रायद्भवति श्लक्ष्णापट्टादिति मृगरोमर्ज-शशलोमजं मूषकरोमजं वा कुतपः-छागलं किट्टिजमेतेषामेवावयवनिष्पन्न-17 |मिति >, “अयसी बंसीमाइय भंगियं साणयं तु सणवक्को । पोतं कप्पासमय तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो॥१॥[अ-II तसीवंश्यादिजं भांगिक सणवल्कलं तु साणक कर्पासमयं पोतं तिरीडवृक्षात्तिरीडपट्टः॥१॥] इह पश्चविषे वस्ने प्ररू-10 फ्तेिऽप्युत्सर्गतः कार्यासिकौर्णिके एवं ग्राह्ये, यतोऽवाचि-"कप्पासिया उ दोन्नी उन्निय एक्को य परिभोगो।" इति, ~679~ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४६] दीप अनुक्रम [४८४] लोकप्पासियरस असई वागयपट्टो य कोसियारो य । असई य उन्नियस्सा वागय कोसेजपट्टो य ॥१॥" इति, [का-1 सिकस्यासति बल्वजपट्टश्च कोशिकारश्च । असति चौर्णिकस्य बल्बजः कौशेयपट्टश्च ॥१॥] तदप्यमहामूल्यमेव ग्राह्य, महामूल्यता च पाटलीपुत्रीयरूपकाष्टादशकादारभ्य रूपकलक्षं यावदिति । रजो ह्रियते-अपनीयते येन तद्रजोहरणं, उक्तं च-"हरद रयं जीवाणं बझं अभंतरं च ज तेणं । रयहरणंति पवुच्चइ कारणकजोवयाराओ॥१॥" इति, [हियते रजो जीवानां बाह्यमभ्यन्तरं च यत्तेन रजोहरणमित्युच्यते कारणे कार्योपचारात् ॥ १॥] तत्र 'उन्नियंति अविलोममयं 'उट्टिय'ति उष्ट्रलोममयं 'सानक' सनसूत्रमयं 'पचापिश्चियए'त्ति बल्बजः-तृणविशेषः तस्य 'पिश्चियति कुट्टितत्वक् तन्मयं 'मुजः' शरपणीति, इह गाथा:-"पाउंछणयं दुविहं ओसग्गियमाववाइयं चेव । एकेकंपिय दुविहं निब्वाधायं च वाघाये ॥१॥" (व्याघातवत्त्वितरदिति >, औत्सगिर्क रजोहरणं पट्टनिषद्याद्वययुक्तमापवादिकमनावृतदंडं, निळघातिकमौर्णिकदशिक व्याघातिक वितरदिति-"जं तं निब्यापायं तं एग उनियंति नायव । (औसर्गिकच > उस्सग्गियवाघार्य उट्टियसणपञ्चमुजं च ॥२॥ निवाघायववाइ दारुगदंडुपिणयाहिं दसियाहिं । अववाइय घाघायं उट्टीसणवच मुंजमयं ॥३॥" ति [पादनोज्छनक द्विविधमौत्सर्गिकमापवादिकं चैव एकैकमपि च द्वि| विधं नियाघातं च व्याघातं ॥१॥ यत्तन्नियाघातं तदेकं औणिकमिति ज्ञातव्यं । औत्सर्गिकव्याघातिकमौष्टिकं शणं | बल्यजं मुंजं च ॥२॥ निर्व्याघातमपवादिकं दारुदण्डान्विताभिर्दशाभिः आपवादिकव्याघातं औष्ट्रिकबल्वमुंजमयं Plu] श्रमणानां यथा वखरजोहरणे धर्मोपग्राहके तथा पराण्यपि कायादीनि, तान्येवाह 465 ~680~ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४४७] दीप अनुक्रम [४८५] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३३९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४४७ ] उद्देशक [३], [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र धम्मं वरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पं० वं० इक्काए गणे राया गिवती सरीरं ( सू० ४४७) पंच णिही पं० [सं० — पुत्तनिही मित्तनिही सिप्पनिही धणणिही धन्नणिही ( सू० ४४८ ) सोए पंचविहे पं० तं० - पुढविसोते आउसो तेसोते मंतसोते बंभसोते ( सू० ४४९ ) 'धम्म' मित्यादि, धर्म्म- श्रुतचारित्ररूपं, णमित्यलङ्कारे चरतः सेवमानस्य पंच निश्रास्थानानि - आलम्बनस्थानानि । उपग्रहहेतव इत्यर्थः, पट्टायाः पृथिव्यादयः, तेषां च संयमोपकारिताऽऽगमप्रसिद्धा, तथाहि पृथिवीकायमाश्रित्योक्तम् - "ठाणनिसीयतुयद्दण उच्चाराईण गहण निक्खेवे । घट्टगडगलगलेवो एमाइ पओयणं बहुहा ॥ १ ॥” अकायमाश्रित्य - परिसेपियणहत्था इधोयणे चीरधोयणे चेव । आयमणभाणधुवणे एमाइ पओयणं बहुहा ॥ २ ॥ [ स्थानं निषीदनं त्वग्वर्त्तनं उच्चारादीनां ग्रहणे निक्षेपे घट्टके डगले लेपो बहुधैवमादिप्रयोजनं पृथ्व्याः ॥ १ ॥ परिषेकः पानं हस्तादिघावनं चीरधावनं चैव आचमनं भांडघावनं बहुधैवमादिप्रयोजनमद्भिः ॥ २ ॥ ] तेजःकायं प्रति-ओयण वंजणपाणग आयामुसिणोदगं च कुम्मासो । डगलगसरक्खसूइय पिप्पलमाई य उवओगो ॥ ३ ॥ वायुकायमधिकृत्य - दइएण बत्थिणा वा पओयण होज्ज वाउणा मुणिणो । गेलन्नम्मिवि होज्जा सचित्तमी से परिहरेजा ॥ ४ ॥ [ ओदनं व्यंजनं नकं आचाम उष्णोदकं च कुल्माषादिः डगलकाः भस्म सूचिश्च पिप्पलकमादि उपयोगः ॥ ३ ॥ दृतिकेन भस्त्रया प्रयोजनं भवेद्वायुना मुनेः ग्लानत्वेऽपि भवेत् सचित्तमिश्री परिहरेत् ॥ ४ ॥] वनस्पतिं प्रति - संथारपायदंडगखोमियकप्पा य ॥ ३३९ ॥ पीठफलगाइ । ओसहमे सज्जाणि य एमाइ पओयणं तरुसु ॥ ५ ॥ त्रसकाये पश्चेन्द्रियतिरश्च आनित्योक्तं-चम्मट्ठि दंत For Parts Only ~681~ ५ स्थाना० उद्देशः श् निश्रास्थानानि पुत्रादिनिधयः शौचं सू० ४४७४४८ ४४९ p Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: + + प्रत सूत्रांक [४४९] 26 दीप *MACROCHEMESSACRECOM नहरोमसिंगअमिलाइछगणगोमुत्ते । खीरदहिमाइयाणं पंचेंदियतिरियपरिभोगे ॥ ६ ॥ [संस्तारकपात्रदण्डकक्षीमिककार्पासपीठफलकादिऔषधभैषज्यानि चैवमादि तरुषु प्रयोजनं ॥ ५ ॥ चास्थिदन्तनखरोमभंगाम्लान(अव्यादि) गोमयगोमूत्रैः क्षीरदध्यादिक पंचेन्द्रियतिर्यपरिभोगः ॥६॥] एवं विकलेन्द्रियमनुष्यदेवानामप्युपग्रहकारिता वाच्या. तथा गणो-गच्छ। तस्य चोपग्राहिता-'एक्कस्स कओ धम्मों इत्यादिगाथापूगादवसेया, तथा "गुरुपरिवारो गच्छो हातस्थ बसंताण निजरा विउला । विणयाउ तहा सारणमाईहिं न दोसपडिवत्ती॥१॥ अनोशावेक्खाए जोगमि तहिं| तिहिं पय१तो। नियमेण गच्छवासी असंगपयसाहगो नेओ ॥२॥" इति, [गुरुपरिवारो गच्छस्तत्र वसतां विपुला निजरा विनयात्तथा सारणादिभिर्न दोषप्रतिपत्तिः॥१॥ अन्योऽन्यापेक्षया योगे तत्र तत्र प्रवर्त्तमानः गच्छवासी नियमेनासंगपदसाधको ज्ञेयः॥२॥] तथा राजा-नरपतिस्तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरक्षणाद्, उक्तं च लोकिकैः"शुद्रलोकाकुले लोके, धर्म कुर्युः कथं हि ते । क्षान्ता दान्ता अहंतारश्चेद्राजा तान्न रक्षति ॥१॥ तथा 'अराजके हि लोकेऽस्मिन, सर्वतो विद्रुते भयात् । रक्षार्थमस्य सर्वस्य, राजानमसृजत् प्रभुः॥२॥" इति, तथा गृहपतिः-शग्यादाता, सोऽपि निश्रास्थानं, स्थानदानेन संयमोपकारित्वात्, तदुक्तम्-"धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन | दत्ता सुखं तेन दत्तम् । गुणनीसमालिङ्गितेभ्यो वरेभ्यो, मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः॥१॥" तथा "जो देइ है उवस्सयं जइवराण तवनियमजोगजुत्ताणं । तेणं दिना वत्वन्नपाणसयणासणविगप्पा ॥२॥" इति [यो ददात्युपाश्रय यतिवरेभ्यस्तपोमियमयोगयुक्तेभ्यः। तेन दत्ता वस्त्रानपानशयनासनविकल्पाः१॥] तथा शरीरं-कायः, अस्य च ध अनुक्रम [४८७] %2501 ~682~ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४४९] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४९] यः शौच दीप श्रीस्थाना-18|म्मोपमाहिता स्फुटव, यतोऽवाचि-शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीय प्रयत्नतः । शरीराच्छ्रवते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा||५स्थाना० ङ्गसूत्र- ॥१॥" इति, भवति चात्रार्या-धम्मै चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पञ्चैव । राजा गृहपतिरपरः षट्राया गणशरीरे उद्दशः २ वृत्तिः च॥२॥” इति, शेष सुगम । श्रमणस्य निश्रास्थानान्युक्तामि, अथ लौकिक निधिलक्षणं निश्रास्थानं पञ्चधा प्रतिपाद- | निश्रास्था॥३४ायनाह-पंच निहीं'त्यादि सुगम, नवरं नितरां धीयते-स्थाप्यते यस्मिन् स निधिः-विशिष्टरत्नसुवर्णादिद्रव्यभाजन | नानि पु तत्र निधिरिव निधिः पुत्रश्चासौ निधिश्च पुत्रनिधिः, द्रव्योपार्जकत्वेन पित्रोनिर्वाहहेतुत्वादत एव स्वभावेन च तयोरा- त्रादिनिधनन्दसुखकरत्वाच्च, अत्रोक्तं परैः-"जन्मान्तरफलं पुण्यं, तपोदानसमुद्भवम् । सन्ततिः शुद्धवंश्या हि, परत्रेह च शर्मणे || ॥१॥" इति, तथा मित्रं-सुहृत्तच तनिधिश्चेति मित्रनिधिरर्थकामसाधकत्वेनानन्दहेतुत्वात् , तदुक्तम्-"कुतस्तस्यास्तापासू०४४७. राज्यश्री, कुतस्तस्य मृगेक्षणाः । यस्य शूर विनीतं च, नास्ति मित्रं विचक्षणम् ॥ १॥" शिल्पं-चित्रादिविज्ञानं तदेव ४४८निधिः शिल्पनिधिः, एतच्च विद्योपलक्षणं, तेन विद्या निधिरिव पुरुषार्थसाधनत्वाद्, अत्रोक्तम्-"विद्यया राजपूण्यः स्थाद्विद्यया कामिनीप्रियः । विद्या हि सर्वलोकस्य, वशीकरणकार्मणम् ॥१॥” इति, तथा धननिधिः-कोशो धाम्य2निधि:-कोष्ठागारमिति । अनन्तरं निधिरुक्तः, स च द्रव्यतः पुत्रादिर्भावतस्तु कुशलानुष्ठानरूपं ब्रह्म, तत्पुनः शीचतया/ विभणिषुः प्रसङ्गेन शेषाण्यपि शौचान्याह-पंचविहेंत्यादि व्यक्तं, नवरं शुर्भावः शौचं, शुद्धिरित्यर्थः, तच्च विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्रायं चतुष्टयं द्रव्यशीचं, पञ्चमं तु भावशौचं, तत्र पृथिव्या-मृत्तिकया शौच-जुगुप्सितमलगन्धयोरपनयनं शरीरादिभ्यो घर्षणोपलेपनादिनेति पृथिवीशौचं, इह च पृथिवीशौचाभिधानेऽपि यत्सरैस्तल्लक्षणमभिधीयते, यदुत-'एका अनुक्रम [४८७] ~683~ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४९] दीप लिंगे गुदे तिम्रस्तथैकत्र करे दश । उभयोः सप्त विज्ञेया, मृदः शुद्धौ मनीषिभिः॥१॥ एतच्छौचं गृहस्थानां, द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणं वानप्रस्थानां, यतीनां च चतुर्गुणम् ॥२॥” इति, तदिह नाभिमस, गन्धायुपघातमात्रस्य शौचत्वेन विवक्षितत्वात् , तस्यैव च युक्तियुक्तस्वात् इति १, तथा अद्भिः शौचमप्शौचं प्रक्षालनमित्यर्थः २, तेजसाऽग्निना तद्विकारेण वा भस्मना शौचं तेजःशीचं ३, एवं मंत्रशौचं शुचिविद्यया ४ ब्रह्म ब्रह्मचर्यादिकुशलानुष्ठानं तदेव शौचं| ब्रह्मशौचं ५, अनेन च सत्यादिशौचं चतुर्विधमपि सङ्ग्रहीतं, तच्चेदम्-"सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः।। सर्वभूतदया शौचं, जलशौचञ्च पञ्चमम् ॥१॥” इति, लौकिकैः पुनरिदं सप्तधोक्तम्-यदाह-"सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, स्वयमेव स्वयंभुवा । द्रव्यभावविशुद्ध्यर्थमृषीणां ब्रह्मचारिणाम् ॥१॥ आग्नेयं वारुणं ब्राहय, वायव्यं दिव्यमेव च । पा|र्थिवं मानसं चैव, स्नानं सप्तविधं स्मृतम् ॥ २॥ आग्नेयं भस्मना स्नानमवगाहां तु वारुणं । आपोहिछामयं ब्राहयं, वायव्यं तु गवां रजः॥३॥ सूर्यदृष्टं तु यदृष्ट, तद्दिव्यमृषयो विदुः। पार्थिवं तु मृदा स्नानं, मनःशुद्धिस्तु मानसम् ॥४॥” इति । अनन्तरं ब्रह्मशौचमुक्तं, तच्च जीवशुद्धिरूपं, जीवं च छद्मस्थो न जानाति केवली तु जानातीति सम्बन्धाच्छद्मस्थकेवलिनोरज्ञेयज्ञेयवस्तुप्रतिपादनाय सूत्रद्वयमाह पंच ठाणाई छउमत्थे सव्वभावणं ण जाणति ण पासति, तं०-धम्मस्थिकातं अधम्मस्थिकातं आगासस्थिकार्य जीवं असरीसदियद्धं परमाणुपोग्गलं, एयाणि चेव उप्पननाणदसणधरे अरहा जिणे केवली सम्बभावेणं जाणति पासति धम्मस्थिकातं जाव परमाणुपोग्गलं (सू०४५०) अधोलोगे थे पंच अणुत्तरा महतिमहालता महानिरया ५००-काले अनुक्रम [४८७] Postaram.org ~684~ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४५१] दीप अनुक्रम [४८९] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३४१ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [४५१] स्थान [५], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः महाकाले रोरुते महारोरुते अप्पतिड्डाणे १ । उडलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालता महाविमाणा पं० [सं० विजये विजयंते जयंते अपराजिते सम्बसिद्धे २ ( सू० ४५१) पंच पुरिसजाता पं० तं०हिरिसत्ते हिरिमणसते चलसत्ते थिरसते उदतणसत्ते (सू० ४५२ ) पंच मच्छा पं० तं० -- अणुसोतचारी पढिसोतचारि अंतचारी मज्झचारी सबचारी, एवमेव पंच भिक्खागा पं० तं० - अणुसोयचारी जाव सव्वसोयचारी ( सू० ४५३) पंच वणीमगा पं० तं० अतिहिवणीमते किविणवणीमते माहणवणी मते साणवणीमते समणवणीमते (सू० ४५४ ) 'छत्येत्यादि सुगमं, नवरं छद्मस्थ इहावध्याद्यतिशयविकलो गृह्यते, अन्यथा अमूर्त्तत्वेन धर्मास्तिकायादीन् अजानन्नपि परमाणुं जानात्येवासौ मूर्त्तत्वात्तस्य, अथ सर्वभावेनेत्युक्तं ततश्च तं कथविजानन्नप्यनन्तपर्यायतया न जानातीति, एवं तर्हि सङ्ख्या नियमो व्यर्थः स्यात्, घटादीनां सुबहूनामर्थानामकेवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञातुमशक्यत्वादिति, 'सव्वभावेणं'ति च साक्षात्कारेण श्रुतज्ञानेन त्वसाक्षात्कारेण जानात्येव, जीवमशरीरप्रतिबद्धं - देहमुक्तं, परमाणुश्चासौ पुद्गलश्चेति विग्रहः, व्यणुकादीनामुपलक्षणमिदं ॥ यथैतान्यतीन्द्रियाणि जिनः पञ्च जानाति तथाऽन्यदप्यतीन्द्रियं जानातीत्यधोलोकोर्द्धलोकवर्च्छतीन्द्रियं पञ्चस्थानकावतारि दर्शयन् सूत्रद्वयमाह - 'अहो' इत्यादि व्यक्त, नवरं 'अहोलोए'त्ति सप्तमपृथिव्यां अनुत्तराः - सर्वोत्कृष्टा उत्कृष्टवेदनादित्वात्ततः परं नरकाभावाद्वा, महत्त्वं च चतुर्णा क्षे श्रतोऽप्यसङ्ख्यातयोजनत्वादप्रतिष्ठानस्य तु योजनलक्षप्रमाणत्वेऽप्यायुषोऽतिमहत्वान्महत्त्वमिति, एवमूर्ध्वलोकेऽपि । कालादिषु विजयादिषु च सत्त्वाधिकपुरुषा एव गच्छन्तीति तत्प्रतिपादनायाह - 'पंच पुरिसे' त्यादि, 'हिरिसप्ति'त्ति Education Internation For Pale On ~685~ ४ ५ स्थाना० उद्देशा सर्वभावेन धर्मादिज्ञा कालविज याद्याः म हालयाः हीसत्त्वाद्याः अनुश्रोतश्चारित्वाद्या व नीपकाः सु० ४५०४५४ ।। ३४१ ॥ ayu Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४५४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५४] दीप अनुक्रम [४९२] पहिया-लज्जया सत्त्वं-परीपहेषु साधोः सङ्गामादावितरस्य वा अवष्टम्भो-अविचलत्वं यस्यासी हीसत्त्वः, तथा हियाऽपि मनस्येव सत्त्वं यस्य न देहे शीतादिषु कम्पादिविकारभावात् स हीमनःसत्त्वः, चलं-भङ्गुरं सत्वं यस्य स तथा, एतद्विपर्ययात् स्थिरसत्त्वा, उदयनं-उदयगामि प्रवर्द्धमानं सत्त्वं यस्य स तथा । अनन्तरं सत्त्वपुरुष उक्तः, स च भिक्षुरेवेति तत्स्वरूपप्रतिपादनाय दृष्टान्तदाष्टोन्तिकसूत्रे पंच मच्छेत्यादिके आह-तत्र मत्स्यः प्राग्वत् भिक्षाकस्तु अनुश्रीतश्चारिवदनुश्रोतश्चारि-प्रतिश्रयादारभ्य भिक्षाचारी स च प्रथमः, प्रतिश्रोतश्चारीव प्रतिश्रोतवारी दूरादारभ्य प्रतिश्रयाभिमुखचारीत्यर्थः, स च द्वितीयः, अन्तचारी-पार्श्वचारीति तृतीयः, शेषौ प्रतीतौ । भिक्षाकाधिकारात्तद्विशेष पञ्चधाऽऽह-पंचेत्यादि व्यकं, किन्तु परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनानुकूलमाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी प्रतीता तां पिबति-आस्वादयति पातीति वेति बनीपः स एव वनीपको-याचका, इह तु यो यस्यातिध्यादेर्भक्तो भवति तं ताशंसनेन यो दानाभिमुखं करोति स वनीपक इति, तत्र भोजनकालोपस्थायी प्राघूर्णकोऽतिथिस्तहानप्रशंसनेन तद्भ-IN कात् यो लिप्सति सोऽतिथिमाश्रित्य वनीपकोऽतिथिवनीपका, यथा-"पाएण देइ लोगो उवगारिसु परिजिए व | जुसिए वा । जो पुण अद्भाखिन्नं अतिहिं पूएइ तं दाणं ॥१॥" इति, [प्रायेण ददाति लोक उपकारिभ्यः परिचितेभ्यो वा प्रीतेभ्यः । यः पुनरध्वखिन्नमतिथिं पूजयति तद्दानम् ॥१॥]('जुसिए'त्ति प्रीते तमिति तस्य दानं महा-| फलमिति शेषः>, एवमन्येऽपि नवरं कृपणा:-रङ्कादयो दु:स्थाः, उदाहरणम्-"किमिणेसु दुम्मणेसु य अबन्धवायं| किजुंगियंगेसु । पूयाहिजे लोए दाणपडागं हरइ देंतो॥१॥[कृपणेभ्यो दुर्मनोभ्योऽबन्धुभ्य आतंकिभ्यो व्यङ्गितां । -- LACKS+% REmiratna ~686~ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४५४] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५४] दीप अनुक्रम [४९२] श्रीखाना-8 गेभ्यः । पूजाहावें लोके ददत् दानपताकां हरति ॥१॥]('आयकि'त्ति रोगी 'मुंगियंगों' व्यङ्गितः 'पूजाहार्येति पूजि- ५ स्थाना० तपूजके> माहना-जाह्मणाः, तत्रोदाहरण-लोयाणुग्गहकारिसु भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि नाम बभबंधस किंउद्देशः ३ वृत्तिः पुण छकम्मनिरयाणं ॥१॥[लोकानुग्रहकारिषु ब्राह्मणेषु दानं बहफलं ब्रह्मबंधुमावेष्वपि नाम किं पुनः पटर्मनिर-II सर्वेभावन | तेभ्यः ॥१॥] (बंभयंधुसुत्ति-जन्ममात्रेण ब्रह्मवान्धवेषु निर्गुणेष्वपीत्यर्थः, यजनादीनि षट् कर्माणोति > श्ववनीपको धर्मादिज्ञा॥१४२ नाज्ञाने यथा-"अपि नाम होज सुलभो गोणाईणं तणाइ आहारो। छिच्छिकारहयाण नहु सुलभो होज सुणताणं ॥१॥ कालविज. केलासभवणा एए, गुज्झगा आगया महिं । चरति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हिताऽहिता ॥२॥ [अपि नाम गवादीनां |&ायामतृणाचाहारः सुलभो भवेत् । शीत्कारकरणहतानां शुनां नैव सुलभो भवेत् ॥१॥ एते कैलासभवना गुह्यका महीं आगता Pाहालयाः यक्षरूपेण चरन्ति ते पूजिता अपूजिता हिता अहिताः॥२॥](पूजया हिता अपूजया त्वहिता इत्यर्थः>, अमणा:- हीसत्वापञ्चधा-निर्गन्धाः शाक्यास्तापसा गैरिका आजीविकाश्चेति, तत्र शाक्यवनीपको यथा-"भुति चित्तकम्महिया व का-ट्रिा द्याः अनु. रुणियदाणरुइणो य । अवि कामगद्दभेसुविन नस्सए कि पुण जती ॥१॥" इति, [चित्रकर्मस्थिताः इव कारुणिका श्रीतश्चारि|दानरुचयश्च भुञ्जन्ति नाम | कामगर्दभेष्वपि न नश्यति किं पुनर्यतिपु॥१॥] एवमन्येऽपि तापसवनीपकादयो नीपकाः द्रष्टच्या इति । योऽयं वनीपक उक्तः स साधुविशेषः, साधुश्चाचेलो भवतीत्यचेलत्वस्य प्रशंसास्थानान्याह सू०४५०पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं०-अप्पा पडिलेहा १ लायबिए पसत्थे २ रूवे वेसासिते ३ तवे अणुनाते ४५४ ॥३४२॥ SACSCGC खाद्या ब पिं तापसवनीपकादयो ~687~ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४५७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५७]] दीप अनुक्रम [४९५] ४ विउले इंदियनिग्गहे ५ (सू० ४५५) पंच उकला पन्नत्ता तं०-दंडुकले रजुकले तेणुफले देसुफले सन्बुकले (सू०४५६) पंच समितीतो पं० त०-ईरियासमिती भासा जान पारिठावणियासमिती (सू०४५७), 'पंचही'त्यादि प्रतीतं, नवरं न विद्यन्ते चेलानि-वासांसि यस्यासावचेलका, सच जिनकल्पिकविशेषस्सदभाषादेव तथा 8 जिनकल्पिकविशेषः स्थविरकल्पिकचाल्पाल्पमूल्यसप्रमाणजीर्णमलिनवसनत्वादिति, 'प्रशस्तः' प्रशंसितस्तीर्थकरगणधरा-3 दिभिरिति गम्यते, अल्पा प्रत्युपेक्षाऽचेलकस्य स्यादिति गम्यम् , प्रत्युपेक्षणीयतथाविधोपधेरभावाद्, एवं च न स्वाध्यायादिपरिमन्थ इति, तथा लयोर्भावो लाघवं तदेव लापविकं द्रव्यतो भावतोऽपि रागविषयाभावात् प्रशस्तं-अनिन्य स्यात् , तथा रूपं-नेपथ्यं वैश्वासिक-विश्वासप्रयोजनमलिप्सुतासूचकत्वात् स्वादिति, तथा तपः-उपकरणसंल्लीनतारूकापमनुज्ञात-जिनानुमतं स्वात् , तथा विपुलो-महानिन्द्रियनिग्रहः स्याद् , उपकरणं विना सर्शनप्रतिकूलशीतवातात-12 पादिसहनादिति । इन्द्रियनिग्रहच सत्वेनोत्कटैरेष कर्तुं शक्य इत्युत्कटभेदानाह-पंचेत्यादि सुगम, नवरं 'उक्कल'त्ति || उत्कटा उत्कला वा, तत्र दण्ड:-आज्ञा अपराधे दण्डनं वा सैन्यं वा उत्कट:-प्रकृष्टो यस्य तेन वोत्कटो यः स दण्डोस्कटः, दण्डेन बोत्कलति-वृद्धिं याति यः स दण्डोत्कल:, इत्येवं सर्वत्र, नवरं राज्यं-प्रभुता स्तेनाः-चौराः देशोमण्डलं सर्व-एतत्समुदय इति । असंयतो दण्डादिभिरुत्कटो भवति, संयतस्तु समितिभिरिति समितीः प्राह-पंचे त्यादि सुगम, नवरं सम्-एकीभावेनेति:-प्रवृत्तिः समितिः शोभनकाग्रपरिणामस्थ चेष्टेत्यर्थः, ईरणमीयो गमनमित्यर्थः | + १ रजोहरणमुखवसिकारूपद्विविधोपकरणधारकः । २ शेषाः सर्वेऽपि त्रिविश्वायुपकरणधारिणः । समिति शब्दस्य व्याख्या एवं तस्य पञ्चविध भेदा: ~688~ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५७ दीप अनुक्रम [४९५] श्रीस्थाना- तत्र समितिरीर्यासमितिः, उक्तं च-"ईर्यासमिति म रथशकटयानवाहनाकान्तेषु मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुक- ५ स्थाना. विविक्तेषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कर्त्तव्य"मिति, तथा भाषणं भाषा तस्यां समितिर्भाषासमितिः, उक्तं च उद्देशः३ वृत्तिः 13-"भाषासमिति म हितमितासन्दिग्धार्थभाषण" तथा एषणमेपणा गवेषणग्रहणग्रासैपणाभेदा शङ्कादिलक्षणा. वा 31 अचेलकदि तस्यां समितिरेषणासमितिः, उक्तं च-"एषणासमिति म गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नवकोटीपरिशुद्ध प्रा- प्राशस्त्य ह्यम्" इति, तथा 'आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितिः' भाण्डमात्रे आदाननिक्षेपविषया सुंदरचेष्टेत्यर्थः, इह चाप्रत्युपे- | मुत्कला अक्षिताप्रमार्जिताद्याः सप्त भङ्गाः पूर्वोक्ता भवन्तीति, तथा उच्चारप्रश्रवणखेलसिंघाणजल्लानां परिष्ठापनिका-त्यागस्तत्र | समितयः समितियों सा तथेति, तत्रोच्चारः-पुरीषं प्रश्रवण-मूत्र खेल:-श्लेष्मा जल्लो-मलः सिंघानो-नासिकोद्भवः श्लेष्मा, अ- जीवभेदत्रापि त एव सप्त भङ्गा इति । समितिप्ररूपणं च जीवरक्षार्थमिति जीवस्वरूपप्रतिपादनाय सूत्राष्टकमाह गत्यागत. पंचविधा संसारसमावनगा जीवा पं० ०-एगिदिता जाव पंचिंदिता १ । एगिदिया पंचगतिइया पंचागतिता पं० यः कलसं0-एगिदिए एगिदितेसु उववजमाणे एगिवितेहिंतो जाव पंचिंदिपहितो या उववजेजा, से चेवणं से एगिविए एगि माद्यचिदित विषजहमाणे एगिदित्ताते वा जाव पंचिदित्ताते वा गच्छेजा २ । विया पंचगतिता पंचागइया एवं व ३ । चता एवं जाव पंचिदिया पंचगतिता पंचागइया पं० सं०-पंचिंदिया जाय गच्छेजा ४-५-६ । पंचविधा सम्बजीवा पं० सू०४५५ ४५९ ०-कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाती ७ । अहवा पंचविधा सधजीवा पं० सं०-रइया जाव देवा सिद्धा ७ (सू०४५८) अह भंते! कलमसूरतिलमुग्गमासणिप्फाबकुलत्थआलिसंवगसतीणपलिमंथगाणं एतेसि णं ध ॥३४॥ ~689~ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४५९ ] दीप अनुक्रम [४९७] स्था० ५८ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४५९ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [५], उद्देशक [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] नाणं कुत्ताणं जधा सालीणं जाव केवतितं कालं जोणी संचिद्वति ?, गोयमा ! जद्दण्णेणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं पंच बच्छराई, तेण परं जोणी पमिलायति जाब तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते (सू० ४५९) पंच संबच्छरा पं० [सं० —णक्खचसंवच्छरे जुगसंच्छरे प्रमाणसंयच्छरे लक्षण संबच्छरे सर्णिचरसंघच्छरे १, जुगसंयच्छरे पंचविहे पं० तं०चंदे चंदे अभिवह्निते चंदे अभिवद्धिते चैव २, पमाणसंवच्छरे पंचविहे पं० [सं० नक्खत्ते चंदे ऊऊ आदि अभिवद्धिते ३, लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पं० [सं० समगं नक्खत्ता जोगं जोयंति समगं उदू परिणमति । णत्रुहं णातिसीतो बहूदतो होति नक्खते ॥ १ ॥ ससिसगलपुण्णमासी जोतेती बिसमचारणक्खत्ते । कडुतो बहूदतो (या) तमाहु संवच्छरं चंद ॥ २ ॥ दिसमं पवालिणो परिणमन्ति अणुद्सु देति पुप्फफलं । वासं ण सम्म वासति तमाहु संबच्छरं कम्मं ॥ ३ ॥ विगाणं तु रसं पुप्फफलाणं तु देइ आदियो । अपेवि वासेणं सम्मं निष्फलए सस्सं ४ || ४ || आदिचतेयतबिता खणलबदिवसा उऊ परिणमति । पूरिंति रेणुथलताई तमाहु अभिवद्धितं जाण ॥ ५ ॥ ( सू० ४६० ) 'पंचविहे 'त्यादि स्फुटार्थ, नवरं संसारसमापन्ना - भववर्त्तिनः विप्रजहत् परित्यजन्, सर्वजीवाः - संसारिसिद्धाः, अकषायिणः - उपशान्तमोहादयः । जीवाधिकाराद्वनस्पतिजीवानाश्रित्य पञ्चस्थानक माह — 'अहे 'त्यादि, त्रिस्थानकवद् व्याख्येयं, नवरं कला - बट्टचणगा मसूरा-चणईयाओ तिलमुग्गमासाः प्रतीताः निष्फावा-बहाः कुलत्था:- चवलगसरिसा चिप्पिडया भवन्ति आलिसिंदया चवलया सईणा- तुवरी पलिमन्थाः - कालचणगा इति । अनन्तरं संवत्सरप्रमाणेन योनिव्यतिक्रम उक्तः, अधुना स एव संवत्सरचिन्त्यते इति, 'पंच संबच्छरे त्यादिसूत्रचतुष्टयं तत्र 'नक्खत्त For Pay Lise On ~ 690~ anurary org Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मुलं [४६०] + गाथा १-५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना सत्र वृत्तिः ॥३४४॥ प्रत सूत्रांक [४६०] गाथा ||१-५|| दीप अनुक्रम [४९७-५०३]] 5555555 संवच्छरे'त्ति, इह चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकालो नक्षत्रमासा, स च सप्तविंशतिः दिनानि एकविंशतिः सप्तपष्टि- ५ स्थाना० भागा दिवसस्येति २७१४, एवंविधद्वादशमासो नक्षत्रसंवत्सरः, स चाय-त्रीणि शतान्यहां सप्तविंशत्युत्तराणि एकपंचा- उद्देश ३ & शच्च सप्तपष्टिभागा इति ३२७१:१, एवं पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं तदेकभूदेशमूतो वक्ष्यमाणलक्षणश्चन्द्रादियुगसंवत्सरः सर्वजीवाः २, प्रमाण-परिमाणं दिवसादीनां तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादिः प्रमाणसंवत्सरः ३, स एव लक्ष-121 | कलादीशणानां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः४, यावता कालेन शनैश्चरो नक्षत्रमेकमधवा द्वादशापि राशीन नामधिMIभुले स शनैश्चरसंवत्सर इति, यतश्चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रम्-"सनिच्छरसंवच्छरे अट्ठावीसविहे पन्नते-अभीई सवणे जाव उ- त्तता संमत्तरासाढा, जं वा सनिच्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहिं सव्वं नक्खत्तमंडलं समाणेइ"त्ति । [ शनैश्चरसंवत्सरोऽष्टाविंश- वत्सराः तिविधः प्रज्ञप्तोऽभिजित् श्रवणः यावदुत्तराषाढा यद्वा शनैश्चरमहाग्रहः त्रिंशता वर्षेः सर्व नक्षत्रमण्डलं पूरयति ५] सू०४५८युगसंवत्सरः पश्चविधा, तद्यथा-चंदे'त्ति एकोनविंशदिनानि द्वात्रिंशच द्विषष्टिभागा दिवसस्येत्येवंप्रमाणः२९ कृष्ण-II ४६० प्रतिपदारब्धः पूर्णमासीनिष्ठितश्चन्द्रमासस्तेन मासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरः, तस्य च प्रमाणमिद-त्रीणि श-I तान्यहां चतुम्पश्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्टिभागाः ३५४३, एवं द्वितीयचतुर्थावपि चन्द्रसंवत्सरी, 'अभिवहिपत्ति | एकत्रिंशद्दिनानि एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामभिवद्धितमासः ३११, एवंविधेन मासेन द्वादशमा-ल मासप्रमाणोऽभिवतिसंवत्सरः, स च प्रमाणेन-त्रीणि शतान्यहां ध्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्विषष्टिभागा: २८ ॥३४४ ।। इत्येवं पञ्चमोऽपि, एभिश्चन्द्रादिभिः पञ्चभिः संवत्सरैरेक युगं भवति, तेषां च पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये अभिवद्धि संवत्सरस्य पञ्च भेदा: एवं तस्य दिनमानं ~691~ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मुलं [४६०] + गाथा १-५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६०] गाथा ||१-५|| दीप अनुक्रम [४९७-५०३]] ताख्ये संवत्सरे अधिकमासका पततीति, प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधा, तत्र 'नक्षत्र' इति नक्षत्रसंवत्सरः, स च उक्तलक्षणः, केवलं तत्र नक्षत्रमण्डलस्य चन्द्रभोगमात्रं विवक्षितमिह तु दिनदिनभागादिप्रमाणमिति, तथा चन्द्राभिवर्द्धितावप्युकलक्षणावेव किन्तु तत्र युगावयवतामात्रमिह तु प्रमाणमिति विशेषः, 'उ' इति ऋतसंवत्सरः, त्रिंशदहोरात्रप्रमाणेदिशभिः ऋतुमासैः सावनमासकर्ममासपर्यायैर्निष्पन्नः, षष्टचधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति ३६०, 'आइचेत्ति आदित्यसंवत्सरः, स च त्रिंशदिनान्यद्धै चेति, एवंविधमासद्वादशकनिष्पन्नः पट्पट्यधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति ३६६, | अयमेवानन्तरोक्तो नक्षत्रादिसंवत्सरो लक्षणप्रधानतया लक्षणसंवत्सर इति । तत्र नक्षत्रमाह-'समगं' गाहा, समर्कसमतया नक्षत्राणि-कृत्तिकादीनि योग-कार्तिकीपौर्णमास्यादितिथ्या सह सम्बन्ध योजयन्ति-कुर्वन्ति, पदमुक्त भवतियानि नक्षत्राणि यासु तिथिपूत्सर्गतो भवन्ति, यथा कार्तिक्यां कृत्तिकाः, तानि तास्वेव यत्र भवन्ति यथोक्तम्-"जेहो वच मूलेण सावणो धणिवाहिं । अद्दासु य मग्गसिरो सेसा नक्खत्तनामिया मासा ॥१॥" इति [ज्येष्ठो ब्रजति मूलेन श्रावणो ब्रजति धनिष्ठाभिः । आर्द्रया च मार्गशीर्षः शेषा नक्षत्रनामानः मासाः॥१॥] तथा यत्र समतयैव ऋतवः परिणमन्ति, न विषमतया, कात्र्तिक्या अनन्तरं हेमन्तः पौष्या अनन्तरं शिशिरतुरित्येवमवतरन्तीति भावः, यश्च न नव अतीव उष्ण-धर्मों यत्र सोऽत्युष्णः, न-नैवातिशीत:-अतिहिमः, बहूदकं यत्र स बहुदकः, स च भवति लक्षणतो & नक्षत्र इति, नक्षत्रचारलक्षणलक्षितत्वानक्षत्रसंवत्सर इति, अस्यां च गाथायां पश्चमाघमावंशको पञ्चकलावितीय विचित्रेति छंदोविनिरुपदिश्यते, 'बहुला विचित्त'त्ति गाथालक्षणात् पत्ति-पंचकलो गण इति । 'ससिंगाहा 'ससि'त्ति | Anmurary.org | संवत्सरस्य पञ्च भेदा: एवं तस्य दिनमानं ~692~ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४६०] गाथा ॥१-५|| दीप अनुक्रम [ ४९७ -५०३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३४५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित स्थान [५], Educationa “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [३], मूलं [ ४६० ] + गाथा १-५ आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विभक्तिलोपात् शशिना-चन्द्रेण सकलपौर्णमासी-समस्तराका यः संवत्सर इति गम्यते अथवा यत्र शशी सकलां पौर्णमासीं योजयति-आत्मना सम्बन्धयति । तथा विषमचारीणि - यथास्वतिथिष्ववत्तनि नक्षत्राणि यत्र स विषमचारिनक्षत्रः, तथा कटुकोऽतिशीतोष्णसद्भावात् बहूदकश्च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, तमेवंविधमाहुर्लक्षणतो मुवते तद्विदः संवत्सरं चन्द्रं चन्द्रचारलक्षणलक्षितत्वादिति । 'विसमं' गाहा, विषमं वैषम्येण प्रवाल-पलवाङ्कुर स्तद्विद्यते येषां ते प्रवालिनो वृक्षा इति गम्यते, परिणमन्ति-प्रबालवत्तालक्षणया अवस्थया जायन्ते, अथवा प्रयादिनो-वृक्षाः परिणमन्तिअङ्कुरोद्भेदाद्यवस्थां यान्ति, तथां अनृतुषु अस्त्रकालं ददति - प्रयच्छन्ति पुष्पफलं यथा चैत्रादिषु कुसुमादिदायिनोऽपि स्वरूपेण चूताः माघादिषु पुष्पादि यच्छन्तीति, तथा वर्ष-वृष्टिं मेघो न सम्यग्वर्षति यत्रेति गम्यते, तमाहुर्लक्षणतः संवत्सरं कार्मणं, यस्य ऋतुसंवत्सरः सावन संवत्सरश्चेति पर्यायौ ॥ 'पुढविगाहा, यत्र त्विति गम्यते, तथा च यत्र तु संवत्सरे पृथिव्युदकयो रस-माधुर्यस्निग्धतालक्षणं पुष्पफलाना च ददात्यादित्यः तथास्वभावत्वात्, तथाविधोदकाभा | वेऽपीति भावः, अत एवाल्पेनापि वर्षेण सम्यक् यथाभिमतं निष्पद्यते सस्यं शास्यादिधान्यं स लक्षणत आदित्य संवत्सर उच्यत इति शेष इति । 'आइच' गाहा, आदित्यतेजसा तप्ताः पृथिव्यादितापेऽप्युपचारात् क्षणादयस्तता इति मन्तव्यं, तत्र क्षणो-मुहूर्त्तः लवः - एकोनपञ्चाशदुच्छ्रासप्रमाणो दिवसः - अहोरात्रः ऋतुः - मासद्वयप्रमाणः 'परिणमन्ति' अतिक्रामन्ति यत्रेति गम्यते, यश्च पूरयति वायूत्खातरेणुभिः स्थलानि - भूमिप्रदेशविशेषान् तमाहुराचार्या लक्षणतः संवत्सरमभिवर्द्धितं 'जाण' त्ति त्वमपि शिष्य । तं तथैव जानीहीति । संवत्सर व्याख्यानमिदं तत्त्वार्थटीकायनुसारेण संवत्सरस्य पञ्च भेदा: एवं तस्य दिनमानं For Pale Only ~693~ ५ स्थाना० उद्देशः ३ संवत्सराः [सू० ४५८४६० ॥ ३४५ ॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४६०] गाथा ||2-4|| दीप अनुक्रम [ ४९७ -५०३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [३], आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र स्थान [५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [ ४६० ] + गाथा १-५ [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रायो लिखितमिति । अनन्तरं संवत्सर उक्तः, स च कालः कालात्यये च शरीरिणां शरीरान्निर्गमो भवतीत्यतस्तन्मार्गे निरुपयन्नाह पंचविधे जीवरस णिज्जाणमग्गे पं० [सं० पातेहिं ऊरूहिं उरेणं सिरेणं सम्बंगेहिं, पाएहिं णिक्षणमाणे निरयंगामी भ ति, ऊरूहिं गिलाणमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं निज्जायमाणे मणुयगामी भवति, सिरेणं णिञ्जायमाणे देवगामी भवति, सब्बे निज्जायमाणे सिद्धिगतिपजवसाणे पण्णत्ते (सू० ४६१) पंचविहे छ्रेयणे पं० नं० - उप्पाछेयणे वियच्छेयणे बंधच्छेवणे पएसच्छेयणे दोधारच्छेयणे । पंचविधे आणंतरिए पं० तं० उप्पातयणंतरिते वितणंतरिते पतेसा णंतरिते समताणंवरिए सामण्णाणंतरिते । पंचविधे अनंते पं० तं०णामणंदते ठवणाणतते दव्त्राणतते गणणाणतते पदेसाणंतते, अहवा पंचविहे भणतते पं० तं एतोऽणंतते दुहतोनंतर देसविस्थारणंतर सव्ववित्थाराणंतते सासयाणंतते ( सू० ४६२ ) 'पंचविहे 'त्यादि व्यक्तं, किन्तु निर्याण-मरणकाले शरीरिणः शरीरान्निर्गमस्तस्य मार्गों निर्याणमार्गः - पादादिकः, तत्र 'पाएहिं 'ति पादाभ्यां मार्गभूताभ्यां करणताऽऽपन्नाभ्यां जीवः शरीरान्निर्यातीति शेषः, एवं उरुभ्यामित्यादावपि, अथ क्रमेणास्य निर्याणमार्गस्य फलमाह-पादाभ्यां शरीरान्निर्यान् जीवो 'निरयगामिति प्राकृतत्वादनुस्वार इति निरयगामी भवति, एवमन्यत्रापि, नवरं सर्वाणि च तान्यङ्गानि च सर्वाङ्गानि तैर्निर्यान् सिद्धिगतिः पर्यवसानं संसरणपर्यन्तो यस्य स सिद्धिगतिपर्यवसानः प्रज्ञप्त इति । निर्याणं चायुष्कच्छेदने भवतीति छेदनं प्ररूपयन्नाह - 'पंचविहे' For Parts Only ~694~ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४६२] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- इसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ३३४६॥ [४६२] दीप त्यादि कण्ठ्यं, केवलं 'उप्पत्ति उत्पादो देवत्वादिपर्यायान्तरस्य तेन छेदो-जीवादिद्रव्यस्य विभाग उत्पादच्छेदनं, तथा||५स्थाना० विय'त्ति व्ययो विगमो मानुषत्वादिपर्यायस्य तेन छेदनं जीवादेरेवेति व्यवच्छेदनं, तथा बन्धनस्य-जीवापेक्षया कर्मणःउद्देशा३ स्कन्धापेक्षया तु सम्बन्धस्य छेदन-विनशन बन्धच्छेदनमिति, तथा तस्यैव प्रदेशतो निर्विभागावयवतो बुज्या छेदन- जीवनिविभजनं प्रदेशच्छेदनं, तथा जीवादेरेव द्रव्यस्य द्विधाकरणं द्विधाकारः स एव छेदनं द्विधाकारच्छेदनं, उपलक्षणं चैत-Iोणमार्गाः विधाकारादीनां, अनेन च देशतः छेदनमुक्तं, अथवोसादस्य-उत्पत्तेः छेदनं-विरहो यथा नरकगती द्वादश मुताः, व्य-IVछेदानन्तयच्छेदनं-उद्वर्तनाविरहा, सोऽप्येवं, बन्धनविरहो यथोपशान्तमोहस्य सप्तविधकर्मबन्धनापेक्षया, प्रदेशच्छेदन-प्रदेश-13 यानतानि | विरहो यथा विसंयोजितानामनन्तानुबन्ध्यादिकर्मप्रदेशानां, तथा द्वे धारे यस्य तद् द्विधारं तच्च तच्छेदनं च द्विधार-लासू०४६१. च्छेदनमुपलक्षणत्वादस्यैकधाराद्यपि दृश्यम् , तच्च क्षुरखड्गचक्राचं, तच्च छेदनशब्दसाम्यादिहोपात्तमिति, प्रदेशच्छेदन- ४' स्थाने क्वचित् 'पंथच्छेयणे'त्ति पठाते, तत्र पथिच्छेदन-मार्गच्छेदनं मार्गातिक्रमणमित्यर्थः॥छेदनस्य च विपर्यय आन-15 न्तर्यमिति तदाह-पंचविहे'त्यादि, आनन्तर्य-सातत्यमच्छेदनमविरह इत्यर्थः, तत्रोत्सादस्य यथा निरयगतौ जीवा|नामुत्कर्षतः असङ्ग्येयाः समयाः, एवं व्ययस्यापि, प्रदेशानां च समयानां च तत्प्रतीतमेव, अविवक्षितोत्सादव्ययादिविशेपणमानम्तयेमात्र सामान्यानन्तर्य, श्रामण्यस्य वा आकर्षविरहेणानन्तर्य श्रामण्यानन्तर्यमिति बहुजीवापेक्षया वा श्रामण्यप्रतिपत्त्यानन्तर्य, तच्चाष्टी समया इति ॥ अनन्तरसूत्रे समयप्रदेशानामानन्तर्यमुक्त, ते चानन्ता इत्यनन्तकमेव प्र.ला॥३४६ ॥ | रूपयन्नाह-'पंचविहे'त्यादि सूत्रद्वयं प्रतीतार्थ, नवरं नाना अनन्तकं नामानन्तकं अनन्तकमिति यस्य नाम, यथा| अनुक्रम [५०५] ~695~ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६२] दीप समयभाषया वस्खमिति, स्थापनैव स्थापनया वा अनन्तकं स्थापनानन्तक-अनन्तकमिति कल्पनयाऽक्षादिन्यासः, ज्ञभ-15 व्यशरीरादिव्यतिरिक्तं द्रव्याणामण्यादीनां गणनीयानामनन्तकं द्रव्यानन्तकं, गणना-सञ्जयानं तालक्षणमनन्तकमविवक्षि-10 ताण्वादिसमयेयविषयः सयाविशेषो गणनानन्तकं, प्रदेशानां सङ्ख्येयानामनन्तकं प्रदेशानन्तकमिति, एकतः-एकनांशे नायामलक्षणेनानन्तकमेकतोऽनन्तकम्-एकश्रेणीकं क्षेत्र, द्विधा-आयामविस्ताराभ्यामनन्तकं द्विधानन्तकं-प्रतरक्षेत्रं, लाक्षेत्रस्य यो रुचकापेक्षया पूर्वाद्यन्यतरदिग्लक्षणो देशस्तस्य विस्तारो-विष्कम्भस्तस्य प्रदेशापेक्षया अनन्तकं देशविस्तारा नन्तकं, सर्वाकाशस्य तु चतुर्थ, शाश्वतं च तदनन्तकं च शाश्वतानन्तकम्-अनाद्यपर्यवसितं यजीवादिद्रव्यमनन्तसमय|स्थितिकत्वादिति । एवंभूतार्थपरिच्छेदो ज्ञानाद्भवतीति ज्ञानस्वरूपमिरूपणायाह पंचविहे गाणे पं० त०-आमिणिबोहियणाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे (सू०४६३) पंचविहे णाणावरणिजे कम्मे पं० सं०-आमिणिबोहियणाणावरणिजे जाव केवलनाणावरणिज्जे (सू०४६४) 'पंचविहे'त्यादि, पञ्चेति-पञ्चसङ्ख्या विधाः-भेदा यस्य तसञ्चविधं, ज्ञातिानमिति भावसाधनः संविदित्यर्थः, ज्ञायते लिवाऽनेनास्माद्वेति ज्ञान-तदावरणस्य क्षयः क्षयोपशमो वा, ज्ञायते वाऽस्मिन्निति ज्ञान-आत्मा तदावरणक्षयक्षयोपशम परिणामयुक्तो, जानातीति वा ज्ञानं तदेव स्वविषयग्रहणरूपत्वादिति, 'प्रज्ञप्त' प्ररूपितमर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैः। उक्तं च-"अत्थं भासइ अरिहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियहाए, तो सुत्तं पवत्तइ ॥१॥” इति [अहेन् भाषतेऽथ सूत्र प्रश्नन्ति गणधराः निपुणं । शासनस्य हितार्थाय ततः सूत्रं प्रवर्तते ॥१॥] अथवा प्राज्ञात्-तीर्थकरात् | अनुक्रम [५०५] 35 nurasurary.org ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या: ~696~ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६४] दीप श्रीस्थाना-पार्वा प्रज्ञया था आतं-प्राप्तमात्तं वा प्राज्ञाप्तं प्रज्ञाप् प्राज्ञात्तं प्रज्ञात्तं वा, तद्यथा-अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्नियगसूत्र- तोऽसंशयरूपत्वाद्वोधः-संवेदनमभिनिबोधः स एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिक, अभिनिवोधे वा भवं तेन वा उद्देशः३ वृत्तिः निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वेत्याभिनिवोधिक, अभिनिबुध्यते वा तत् कर्मभूतमित्याभिनिवोधिक-अवग्रहादिरूपं मतिज्ञा-1 ज्ञानानि नमेव, तस्य स्वसंविदितरूपत्वात्, भेदोपचारादित्यर्थः, अभिनिबुध्यते वा अनेनास्मादस्मिन् वेत्याभिनिवोधिक-तदाव-18/ज्ञानावर॥३४७॥ रणकर्मक्षयोपशम इति भावार्थः, आत्मैच वा अभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादभिनिबुध्यत इत्याभिनियोधिक, तच्चल णीयानि तज्ज्ञानं चेत्याभिनियोधिकज्ञानमिति, आह च-"अस्थाभिमुहो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो । सो चेवा- सू०४६३भिणिबोहियमहव जहाजोग्गमाजोजं ॥१॥ तं तेण तओ तम्मि य सो वाऽभिणिबुज्झए तओ वा तं ॥” इति [अर्था-181 ४६४ भिमुखो नियतो बोधा यः सोऽभिनिवोधो मतः । स एवाभिनिवोधिकमथवा यथायोग्य आयोज्यं ॥१॥ तत्तेन तत-16 स्तस्मिंश्च स वाऽभिनिबुध्यते ततो वा तत् ॥] तथा श्रूयत इति श्रुतं-शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारादिति भावार्थः, श्रूयते वा अनेनास्मादस्मिन्वेति श्रुतं, तदावरणकर्मक्षयोपशम इत्यर्थः, आत्मैव वा श्रुतोपयोगपरिणामानन्यत्वाच्छ्रणोतीति श्रुतं, श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् , आह च-"तं तेण तओ तम्मि य सुणेइ सो वा सुयं च तेणंति ॥” इति [तत्तेन ततस्तसिंश्च शृणोति स वा श्रुतं तेन तथा अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन्वेत्यवधिः, अ-IY शवधीयत इत्यधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते मर्यादया वेत्यर्थः, स चावधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुपयोगहेतुत्वादिति,8 अवधानं वा अवधिविषयपरिच्छेदनमित्यर्थः, अवधिश्चासौ ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानं, उक्तं च-"तेणावधीयते तमि वाऽव अनुक्रम [५०७] SARERatunintanasana FaPranaamvam ucom ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय-कर्मादि पंचक: ~ 697~ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: B प्रत सूत्रांक [४६४] दीप अनुक्रम [५०७] आहाणं च तोऽयही सो य । मज्जाया जं तीए दब्वाइपरोप्पर मुणइ ॥१॥" इति, [तेनावधीयते तस्मिन् वाऽवधानं | ततोऽवधिः स च मर्यादा तस्मिन् द्रव्यादिपर क्षेत्रादि परं जानाति ॥ तथा परिः-सर्वतोभावे अवनं अवः अयनं वार है| अयः आयो वा गमनं वेदनमिति पर्यायाः परि अवः अयः आयो वा पर्यवः पर्ययः पर्यायो वा मनसि मनसो का पर्यवः पर्ययः पर्यायो वा मनःपर्यवो मनापर्ययो मनःपर्यायो वा, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं मनम्पर्ययज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वा, अथवा मनसः पर्यायाः पर्यया पर्यवा वा भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनादिप्रकारा इत्यर्थभस्तेषु तेषां वा ज्ञानं मनापर्यायज्ञान मनःपर्ययज्ञानं मनःपर्यवज्ञानमिति, आह च-पज्जवणं पजयणं पज्जाओवा मणमि मणसो वा । तस्स व.प्रजायादिनाणं मणपज्जवन्नाणं ॥१॥" इति [ पर्यवनं पर्ययनं पर्यायो वा मनसि मनसो वा तस्य वा पर्यायादिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं ॥१॥] केवलं-असहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा आवरणमलक-14 लङ्करहितत्वात् सकलं वा तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोसत्तेः असाधारणं वा अनन्यसदृशत्वात् अनन्त वा ज्ञेयानन्तत्वात् यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति भावना तच तत् ज्ञानं चेति केवलज्ञानं, उक्तं च-"केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणतं च । पायं च नाणसद्दो नाणसमाणाहिगरणोऽयं ॥१॥” इति, [के-4 बलं एक शुद्धं सकलं असाधारणं अनंतं च । प्रायेणायं ज्ञानशब्दः ज्ञानसमानाधिकरणः ॥१॥] प्राय इति मनःप-14 योयज्ञाने तत्पुरुषस्यापि दर्शितत्वात् । इह च स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधम्योत्तद्भावे च शेषज्ञानसद्भावादादावेव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोरुपन्यास इति, तथाहि-य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य, “जस्थ मतिनाणं तत्थ | 6545455555 ANGALORECASSADG SAREairatna ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय-कर्मादि पंचक: ~698~ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४६४] दीप अनुक्रम [५०७ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [ ४६४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः जसूत्रवृत्तिः ॥ ३४८ ॥ श्रीस्थाना- २) सुयनाणं” इति [ यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानं ] वचनात्, तथा यावान् मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य प्रवाहापेक्षया अतीतादिः सर्व एव, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया तु षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति तथा यथा मतिज्ञानं क्षयो+ पशमहेतुकं तथा श्रुतज्ञानमपि यथा च मतिज्ञानमोघतः सर्वद्रव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि यथा च मतिज्ञानं परोक्षं एवं श्रुतज्ञानमपि तथा मतिज्ञानश्रुतज्ञानभावे चावध्यादिभावादिति, आह च-- "जं सामिकालकारणविसयपरोक्खत्तहिं तुलाई । तम्भावे सेसाई तेणाईए मइसुयाई ॥ १ ॥” इति [ स्वामिकालकारणविषय परोक्षत्वैर्य तुल्यानि तद्भावे शेषाणि च तेनादी मतिश्रुते ॥ १ ॥ ] मतिपूर्वकत्वात् श्रुतस्य विशिष्टमत्यंशरूपत्वाद्वा श्रुतस्यादी मतेरुपन्यास इति, उक्तं च - " मइपुब्वं जेण सुयं तेणाईए मई विसिट्ठो वा । मइभेओ चेव सुर्य तो मइसमणंतरं भणियं ॥ १ ॥” इति [मतिपूर्वं येन श्रुतं तेनादी मतिर्विशिष्टो वा मतिभेद एव श्रुतं ततः मतिसमनन्तरं भणितं श्रुतं ॥ १ ॥ ] तथा कालविपर्ययस्वामि लाभ साधयिम्मतिज्ञान श्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानस्योपन्यासः तथाहि यावानेव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः स्थितिकालः प्रवाहापेक्षया अप्रतिपतितैकस स्वाधारापेक्षया च तावानेवावधिज्ञानस्यापि तथा यथैव मतिज्ञान श्रुतज्ञानयोविपर्ययज्ञाने भवतः एवमिदमपि मिथ्यादृष्टेर्विभङ्गज्ञानं भवतीति, तथा य एव तयोः स्वामी स एवास्यापि भवतीति, तथा विभङ्गज्ञानिनस्त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावासी युगपदेव ज्ञानत्रयलाभसम्भव इति, उरुं च - "कालविवज्जयसामित्तलाभसाहम्मओडवही तत्तो ।” [ कालविपर्ययस्वामित्व लाभसाधर्म्यतोऽवधिस्ततः ॥ ] तथा छद्मस्थविषयभावाध्यक्षत्वसाधर्म्यादवधिज्ञानानन्तरं मनः पर्यवज्ञानस्योपम्यासः, तथाहि यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति एवं मनःपर्यायज्ञान ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय कर्मादि पंचक: For Par Use Only ~699~ ५ स्थाना० उद्देशः ३ ज्ञानानि ज्ञानावरणीयानि सु० ४६३४६४ ॥ ३४८ ॥ www.lanerary.org Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६४] दीप अनुक्रम [५०७] मपि, तथा यथाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयमेवमेतदपि, तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे तथेदमपि, तथा यथाऽवधिज्ञान प्रत्यक्ष तथेदमपीति, उक्तं च-"माणसमेत्तो छउमत्थविसयभावादिसामना" इति [मनोज्ञानमतश्छामस्थ्यविषयभावादिसामान्यात् ] तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानोपन्यासः तस्य सकलज्ञानोत्तमत्वात् तथा अप्र मत्तयतिस्वामिसाधात्, तथाहि-यथा मनःपर्यायज्ञानमुत्तमयतेरेव भवति एवमिदमपि, तथा अवसानलाभात्, यो * काहि सर्वज्ञानानि समासादयति स खल्वन्त एवेदमामोतीति, तथा विपर्ययाभावसाधात्, तथाहि-यथा मनःपर्याय-15 ज्ञानं सविपर्ययं न भवत्येवं केवलमपीति, उक्तं च-अंते केवलमुत्तमजइसामित्तावसाणलाभाओ । एत्थं च मतिसुयाई परोक्खमियरं च पञ्चक्खं ॥१॥" इति, [केवलमन्ते उत्तमयतिस्वामित्वादवसानलाभात् अत्र च मतिश्रुते परोक्षं इतराणि प्रत्यक्षं ॥१॥] उक्तस्वरूपस्य ज्ञानस्य यदावारकं कम्मे तत्स्वरूपाभिधानाय सूत्रं-पंचे'त्यादि सुगम, उक्तं ज्ञानावरणमिति तत्क्षपणोपायविशेषस्य स्वाध्यायस्य भेदानाह पंचविहे सज्झाए पं० सं०-यायणा पुच्छणा परियणा अणुप्पेहा धम्मकहा (सू०४६५) पंचविहे पचणाणे पं० तं०-सदहणसुद्धे विणयसुद्धे अणुभासणासुद्धे अणुपालणासुद्धे भावसुद्धे (सू०४६६) पंचविहे पडियामणे पं० २० -आसबदारपतिकमणे मिच्छत्तपडिकमणे कसायपडिकमणे जोगपडिकमणे भावपडिकमणे (सू०४६७) 'पंचविहे' इत्यादि सुगमं, नवरं शोभनं आ-मर्यादया अध्ययन-श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्यायः, तत्र वक्ति शियस्तै प्रति गुरोः प्रयोजकभावो वाचना पाठनमित्यर्थः, गृहीतवाचनेनापि संशयाधुसत्ती पुनः प्रष्टव्यमिति पूर्वाधीतस्य || 3555 SAREauratonlol ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय-कर्मादि पंचक: ~ 700~ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६७]] दीप अनुक्रम [५१०] श्रीस्थाना- सूत्रादेः शङ्कितादौ प्रश्नः प्रच्छनेति, प्रच्छनाविशोधितस्य सूत्रस्य मा भूद्विस्मरणमिति परिवर्तना, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थः, ५ स्थाना० गसूत्र- है सूत्रयदर्थेऽपि सम्भवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा, चिन्तनिकेत्यर्थः, एवमभम्यस्तश्रुतेन ध- उद्देशः३ वृत्ति मकथा विधेयेति धर्मस्य-श्रुतरूपस्य कथा-व्याख्या धर्मकथेति । धर्मकथामन्थनिर्मथितमिथ्याभावाश्च भव्याः शुद्ध स्वाध्यायाः प्रत्याख्यानं प्रपद्यन्त इति तदाह-पंचविहे' इत्यादि, प्रति-प्रतिषेधत आख्यान-मर्यादया कथन-प्रतिज्ञानं प्रत्याख्यानं, प्रत्याख्या॥ ३४९॥ तत्र श्रद्धानेन-तथेतिप्रत्ययलक्षणेन शुद्धं-निरवयं श्रद्धानशुद्धं, श्रद्धानाभावे हि तदशुद्धं भवति, एवं सर्वत्र, इह नियु- नानि प्रतिगाथा-"पच्चक्खाणं सब्वदेसियं जं जहिं जया काले । तं जो सद्दहइ नरो तं जाणसु सद्दहणसुद्धं ॥१॥"[य-18|तिक्रमद्यदा यत्र काले (स्थविरकल्पादौ भरतादी) सर्वज्ञेन प्रत्याख्यानं देशितं तद्यः श्रद्दधाति नरः तत् श्रद्धानशुद्धं जानीहिणानि ॥१॥] विनयशुद्धं यथा-"किइकम्मस्स विसोहिं पउंजए जो अहीणमइरित्तं । मणवयणकायगुत्तो तं जाणम् विण सू०४६५शायओ सुजं ॥२॥"[कृतिकर्मणो विशुद्धिं योऽहीनातिरिक्तं प्रयुंजीत मनोवचनकायगुप्तस्तत् विनयशुद्ध जानीहि | ४६७ दा॥१॥] अनुभाषणाशुद्धं यथा-"अणुभासद गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं । पंजलिउडो अभिमुहो तं जाणWणुभासणासुद्धं ॥३॥"[अनुभाषते गुरुवचनमक्षरपदव्यञ्जनः परिशुद्धम् । कृतप्राञ्जलिरभिमुखस्तत् जानीहि अनुभा पणाशुद्धं ॥१॥] नवरं गुरुर्भणति-वोसिरिति, शिष्यस्तु वोसिरामित्ति, अनुपालनाशुद्धं यथा-"कंतारे दुभिक्खे आ-31 दायके वा महया (३)(महतीत्यर्थः> समुप्पन्ने । जे पालियं न भग्गं तं जाणऽणुपालणासुद्धं ॥१॥" [कान्तारे दुर्भिक्षेदी आतंके वा महति समुखाने । यन्न भग्नं पालितं तदनुपालनाशुद्ध जानीहि ॥१॥] भावशुद्धं, यथा-"रागेण व दोसेण ~ 701~ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४६७] (०३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६७]] व परिणामेण व (इहलोकाद्याशंसालक्षणेन >न दूसियं जं तु तं खलु पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयवं ॥१॥” इति|81 दारागेण वा द्वेषेण वा परिणामेन वा (इच्छादिना)न दूषितं यत्तु तत्खलु प्रत्याख्यानं भावविशुद्ध ज्ञातव्यं ॥१॥]५. अन्यदपि षष्ठं ज्ञानशुद्धमिति नियुक्तावुक्तं, यदाह-"पञ्चक्खाणं जाणइ कप्पे जं जंमि होइ कायव्यं । मूलगुणउत्तरगुणे तं जाणसु जाणणासुद्धं ॥१॥" ति [यस्मिन् काले यत्प्रत्याख्यानं मूलगुणेपूत्तरगुणेषु वा कर्तव्यं भवति तत् जानाति तज्ज्ञानशुद्ध जानीहि ॥१॥] इह तु पश्चस्थानकानुरोधान्नेदमुक्तं, श्रद्धानशुद्धेन वा सन्गृहीतत्वात, ज्ञानविशेषत्वात श्रद्धानस्येति । प्रत्याख्याने च कृते कदाचिदतिचारः सम्भवति, तत्र च प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यमिति प्रतिक्रमण निरूपय-2 नाह-पंचविहे' इत्यादि, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं, एतदुक्तं भवति-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शुभेष्वेव गमनमिति, उक्तं च-"स्वस्थानाद्यत्सरस्थानं, प्रमादस्य वशागतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥ क्षायोपशमिकादावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः ॥२॥” इति, इदं च विषयभे-|| दात् पञ्चधेति, तत्र आश्रवद्वाराणि-प्राणातिपातादीनि तेभ्यः प्रतिक्रमणं-निवर्तनं पुनरकरणमित्यर्थः आश्रवद्वारप्रति क्रमण, असंयमप्रतिक्रमणमिति हृदयं, मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं यदाभोगानाभोगसहसाकारैमिथ्यात्वगमनं तन्निवृत्तिः, एवं ताकपायप्रतिक्रमण, योगप्रतिक्रमणं तु यत् मनोवचनकायव्यापाराणामशोभनानां व्यावर्त्तनमिति, आश्रवद्वारादिप्रति क्रमणमेवाविवक्षितविशेष भावप्रतिक्रमणमिति, आह च-"मिच्छत्ताइ न गच्छइ न य गच्छावेइ नाणुजाणाइ । जं स्था०५९ ४ मणवइकाएहिं तं भणियं भावपडिकमणं ॥१॥" इति, [मिथ्यात्वादि न गच्छति न च गमयति नानुजानाति । य दीप अनुक्रम [५१०] CER L aturary.com ~702~ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६७] (०३) वृत्तिः ५ स्थाना० उद्देशः ३ श्रुतवाचनाशिक्षणहेतवः | सू०४६८ प्रत सूत्रांक [४६७] दीप अनुक्रम [५१०] श्रीस्थाना- न्मनोवाक्कायैः तद्भणितं भावप्रतिक्रमणं ॥१॥] विशेषविवक्षायां तूता एव चत्वारो भेदाः, यदाह-"मिच्छत्तपडि- सूत्र- कमण तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । कसायाण पडिकमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥१॥" इति । [मिथ्यात्वाप्रति- क्रमणं तथैव चासंयमाप्रतिक्रमणं कपायेभ्यः प्रतिक्रमणं योगेभ्योऽप्रशस्तेभ्यश्च ॥१॥] भावप्रतिक्रमणं च श्रुतभावित ममतेरेव भवतीति श्रुतं वाचनीयं शिक्षणीयं चेत्येतद्वयोपदर्शनार्थं सूत्रे॥ ३५०॥ पंचहि ठाणेहिं सुतं बाएजा, तं०-संगहढ्याते उबग्गहणटुयाते णिज्जरणहयाते सुत्ते वा मे पजवयाते भविस्सति सुत्तस्स वा अवोपिछत्तिणयट्ठयाते । पंचहि ठाणेहिं सुत्तं सिक्खिजा, तं०-णाणवयाते दंसणट्ठयाते परित्तयाते यु महविमोतणट्ठयाते अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीतिक? (सू०४६८) 'पंचहीं'त्यादि सुगम, नवरं सुत्तं-श्रुतं सूत्रमात्रं वा 'वाचयेत्' पाठयेत्, तत्र सहा-शिष्याणां श्रुतोपादानं स एवार्थ:-प्रयोजनं तस्मै सङ्ग्रहार्थाय सङ्ग्रह एव वाऽर्थों यस्य स सनहार्थस्तद्धावस्तत्ता तया सङ्ग्रहार्थतया श्रुतसनहो भव-| वेषामिति प्रयोजनेनेति भावः अथवैत एव मया सङ्गहीता भवन्ति-शिष्यीकृता भवन्तीति साहार्थतया, तत्सनहा-| येति भावः, एवमुपग्रहार्थेयोपग्रहार्थातया बा, एवं ह्येते भक्तपानवखाद्युत्सादनसमर्धतयोपष्टम्भिता भवन्विति भावः, निर्जरार्थाय-निर्जरणमेवं मे कर्मणां भवत्विति, श्रुतं वा-ग्रन्थो 'मे' मम वाचयत इति गम्यते 'पर्यवजातं' जातविशेष स्फुटतया भविष्यतीति, अव्यवच्छित्त्या नयनं-श्रुतस्य कालान्तरमापर्ण अव्यवच्छित्तिनयः स एवार्थस्तस्मै इति । ज्ञान ॥३५०॥ marwlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 703~ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [3], मूलं [४६८] (०३) प्रत सूत्रांक तत्त्वानां परिच्छेदो दर्शन-तेषामेव श्रद्धानं चारित्रं-सदनुष्ठानं व्युग्रहो-मिथ्याभिनिवेशस्तस्य तस्माद्वा परेषां विमोचन व्युब्रहविमोचन तदर्थाय तदर्थतया चा, 'अहत्थे'त्ति यथास्थान-यथावस्थितान् यथार्थान् वा-यथाप्रयोजनान् भावान्-जीवादीन् यथार्थान् वा-यथाद्रव्यान् भावान-पर्यायान् ज्ञास्यामीतिकृत्वा-इतिहेतोः शिक्षत इति । यथावस्थिताश्च भावा ऊ लोके सौधर्मादय इति तद्विषयं सूत्रत्रयं, तथाऽधोलोके नारकादयश्चतुर्विंशतिरिति तद्गतां चतुर्विंशतिसूत्री तथा तिर्यग्लोके जम्बूद्वीपादय इति तद्गतवस्तुविषयं च सूत्रचतुष्टयमाह सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचवण्णा पं० तं-किण्हा जाव सुकिल्ला १, सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु बिमाणा पंचजोयणसयाई उर्छ उच्चत्तेणं पन्नत्ता २, बंभलोगळंततेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिजसरीरगा उकोसेणं पंचरयणी उर्दु उपात्तेणं पं०३ । नेरच्या णं पंचवन्ने पंचरसे पोग्गले बंधेसु वा बंधति वा बंधिस्संति वा ०-किण्हा जाप सुपिल्ले तित्ते जाव मधुरे, एवं जाव वेमाणिता २४ । ४ (सू०४६९) जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणेणं गंगा महानदी पंच महानदीओ समति, तं०---जउणा सरऊ आदी कोसी मही १। जंवूमंदरस्स दाहिणेणं सिंधुमहाणदी पंच महान [४६८] दीप अनुक्रम [५११] १ अधोलोकेऽपि ज्योतिष्कवैमानिकयोः खयं गमनं भवत्येव, विमानानि मा भूवन, पुगलोपविखादितु तेषामेव निर्विमानानामपि, इति नारतोऽधोलोकादौ | कालोके इति कचिद्विद्यमानोऽपि पाठः. andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 704~ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [३], मूलं [४७०] (०३) श्रीस्थानान असूत्र वृत्तिः ३५१॥ प्रत सूत्रांक [४७०]] दीओ समप्यति २०-सत विभासा वितत्था एरावती चंदभागा २ जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तामहानई पंच महान ५ स्थाना ईओ समप्पेंति, --किण्हा महाकिण्हा नीला महानीला महातीरा ३, जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तावतीमहानई पंच उद्देश:३ महानईमो समप्पेंति, तं०-इंदा इंदसेणा सुसेणा वारिसेणा महाभोया ४(सू०४७०) पंच तित्थगरा कुमारवासमझे विमानोपसित्ता (जमावसित्ता) मुंडा जाव पन्चतिता, तं०-यासुपुजे मल्ली अरिटुनेमी पासे धीरे (सू०४७१) चमरचंचाए चताबन्ध पुगलानरायहाणीए पंच सभा पं० सं०-सभा सुधम्मा उबवातसभा अभिसेयसभा अलंकारितसभा ववसातसभा, एगमेगे णं दीसंगमः इंदहाणे पंच सभाओ पं०.०-सभा सुहम्मा जाव ववसातसभा (सू०४७२) पंच णक्खत्ता पंचतारा ५०० कुमारजि-णिहा रोहिणी पुणब्वसू हत्थो विसाहा (सू०४७३) जीवाणं पंचट्ठाणणिवित्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चि- नाःसभाः जिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं०-एगिवितनिव्वत्तिते जाव पंचिंदितनिव्वत्तिते, एवं-चिण उबविण बंध पंचतारकखदीर बेद तह णिजरा चेव । पंचपत्तेसिवा खंधा अर्णता पण्णत्ता पंचपतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णता जाव पंचगु- नक्षत्राणि गलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता (सू०४७४) पंचमट्ठाणस्स सईओ उद्देसो । पंचमायणं समर्स ॥ पुद्गलाः सू०४६९सर्वाण्येतानि सुगमानि, नवरं 'बंधिसुत्ति शरीरादितयेति, 'दक्षिणेने ति भरते 'समति'त्ति समानुवन्ति, 'उत्त ४७४ रेणे'ति ऐरवत इति । पूर्वतरसूत्रे भरतवक्तव्यतोक्तेति तत्प्रस्तावात्तदुःसन्नतीर्थकरसूत्रं सुगम, नवरं कुमाराणामराजभा-INM५१॥ वेन वासः कुमारवासः तं 'अज्झावसित्त'त्ति अध्युष्येति । तथा भरतादिक्षेत्रप्रस्तावात् क्षेत्रभूतचमरचञ्चादिवक्तव्य दीप अनुक्रम [५१३] wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 705~ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [३], मूलं [४७४] (०३) ताभिधायि सूत्रद्वयं । चमरचचा रत्नप्रभापृथिव्यां चमरस्यासुरकुमारराजस्येति, सुधा सभा यस्यां शय्या, उपपातसभा यस्यामुत्पद्यते, अभिषेकसभा यस्यां राज्याभिषेकेणाभिषिच्यते, अलङ्कारिका यस्यामलकियते, व्यवसायसभा यत्र पुस्त४ कवाचनतो व्यवसायं-तत्त्वनिश्चयं करोति, एताश्च यथाक्रममुत्तरपूर्वस्या द्रष्टच्या इति । देवनिवासाधिकारान्नक्षत्रसूत्रं । नक्षत्रादिदेवरूपता च सत्त्वानां कर्मपुद्गलचयादेरिति चयादिसूत्रपटू । पुद्गलाश्च विविधपरिणामा इति पुद्गलसूत्राणीति, व्याख्या च प्राग्वदध्ययनसमाप्तिं यावत्सुकरैवेति, पञ्चमस्थानकस्य तृतीयः॥ प्रत सूत्रांक [४७४] दीप अनुक्रम [५१७] इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाङ्गविवरणे पञ्चमस्थानाख्यं पञ्चममध्ययनं समासमिति ॥ अन्धा १६२५ ॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र पंचम-स्थानस्य तृतीयो उद्देश: समाप्त:, "पंचम-स्थानं अपि समाप्तं" ~ 706~ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४७५] (०३) श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः गुणा कि ॥३५२॥ प्रत सूत्रांक [४७५]] SAMACARE ६स्थाना० उद्देशः ३ अथ षष्ठस्थानकमध्ययनम् । गणधरणव्याख्यातं पञ्चममध्ययनमधुना सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव षट्स्थानकाख्यं पष्ठमारभ्यते, अस्य चायं विशेषसम्बन्धः-इहा| नन्तराध्ययने जीवादिपर्यायप्ररूपणा कृता इहापि सैव क्रियते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य चतुरनुयोगद्वारस्येदमादिसूत्रम्- ग्रंथीग्रहणं छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति गणं धारित्तते, तं०-सड़ी पुरिसजाते १ सच्चे पुरिसजाते २ मेहावी पुरिमजाते बहिर्नय३ बहुस्सुते पुरिसजाते ४ सत्तिमं ५ अप्पाधिकरणे ६ (सू०४७५) छहिं ठाणेहिं निगाथे निग्गथिं गिण्हमाणे वा नावि अवलंबमाणे वा नाइकमइ, तं-खित्तचित्तं दित्तचित्तं जक्खातिटुं उम्मानपत्र उवसम्गपत्तं साहिकरणं (सू० ४७६) सू०४७५छहिं ठाणेहिं निग्गंधा निग्गंधीओ य साहम्मित कालगतं समायरमाणा गाइकमंति, तं०-अंतोहिंतो वा बाहिं णीणेमाणा ४७७ १ बाहीहितो वा निचाहि णीणेमाणा २ उवेहमाणा बा ३ उवासमाणा वा ४ अणुन्नवेमाणा वा ५ तुसिणीते वा संपवयमाणा६ (सू०४७७) अस्य चायमभिसम्बन्धः, पूर्वसूत्रे 'पञ्चगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ता' इत्युकं, प्रज्ञापकाश्चैषामर्थतोऽर्हन्तः सू-18 तो गणधराः, गणधराश्च वैगुणैर्युक्तस्यानगारस्य गणधरणाहत्वं भवति तद्युक्ता एवेति तेषां गुणानामुपदर्शनायेदमुक्त-16 |मित्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहितादिचर्चस्तु प्रतीत एवेति, नवरं पनि स्थानैः-गुणविशेषैः 'सम्पन्नो' युक्तोऽनगारो दीप अनुक्रम [५१८ JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ षष्ठं स्थानं आरभ्यते, अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित उद्देशकः वर्तते ~707~ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४७७] (०३) + -+ --- प्रत सूत्रांक [४७७] दीप अनुक्रम -मिक्षुः 'अर्हति' योग्यो भवति 'गण' गच्छं धारयितुं मर्यादायामिति गम्यते, पालयितुं वेत्यर्थः, 'सद्धिति श्रद्धावान्, अश्रद्धावतो हि स्वयममर्यादावर्तितया परेषां मर्यादास्थापनायामसमर्थत्वात् गणधारणानहत्वं, एवं सर्वत्र भावना कार्या, | 'पुरुषजात' पुरुषप्रकारः, इह च पद्भिः स्थानेरित्युक्त्वापि यदुक्तं श्राद्धं पुरुषजातमिति तद्धर्मधर्मवतोरभेदाद् अन्यथा श्राद्धत्वं सत्यत्वमित्यादि वक्तव्यं स्यादिति १, तथा 'सत्यं सयो-जीवेभ्यो हिततया प्रतिज्ञातशूरतया वा, एवंभूतो हि पुरुषो गणपालक आदेयश्च स्यादिति २, तथा 'मेधावि'मयोदया धावतीत्येवंशीलमिति निरुक्तिवशात्, एवंभूतो हि गणस्य मर्यादाप्रवत्तको भवति, अथवा मेधा-श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत्, एवंभूतो हि श्रुतमन्यतो झगिति गृहीत्वा शिष्याध्यापने समर्थो भवतीति ३ तथा बहु-प्रभूतं श्रुतं-सूत्रार्थरूपं यस्य तत्तथा, अन्यथा हि गणानुपकारी स्थात्, उक्तं च -"सीसाण कुणइ कह सो तहाविहो हंदि नाणमाईणं । अहियाहियसंपत्ति संसारुच्छेयणं परमं ॥" [कथं शिष्याणां परमां संसारोच्छेदिनी ज्ञानादीनामधिकाधिक संपत्ति तथाविधः स करिष्यति ॥१॥] तथा “कह सो जयज अगीओ कह वा कुणज अगीयनिस्साए । कह था करेउ गच्छं सवालवुहाउलं सो उ ॥२॥" इति ४, [कथं सोऽगीतार्थो यततां कथं | वागीतार्थनिश्रया करोतु स बालवृद्धाकुलं गच्छं च स कथं करोतु (प्रवर्त्तयतु) ॥१॥] तथा 'शक्तिमत्' शरीरमन्त्रतत्रपरिवारादिसामर्थ्ययुक्त, तद्धि विविधास्वापत्सु गणस्यात्मनश्च निस्तारकं भवतीति ५, तथा 'अपाहिगरण"न्ति अल्प अविद्यमानमधिकरणं-स्वपक्षपरपक्षविषयो विग्रहो यस्य तत्तथा, तद्ध्यनुवर्तकतया गणस्याहानिकारक भवतीति ६,8 लाग्रन्थान्तरे खेवं गणिनः स्वरूपमुक्तम्-"मुत्तत्थे निम्माओ पियदधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपन्नो गंभीरो 40-594 [५२०] 46555 ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 708~ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४७७] दीप अनुक्रम [५२०] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृति: ॥ ३५३ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ४७७ ] स्थान [ ६ ], लद्धिमंतो य ॥ १ ॥ संगहुबग्गहनिरओ कयकरणो पत्रयणाणुरागी य । एवंविहो उ भणिओ गणसामी जिणवरिंदे हिं ॥ २ ॥” [ सूत्रार्थे निष्णातः प्रियदृढधर्मः अनुवर्त्तनाकुशलः । जातिकुलसंपन्नो गंभीरो लब्धिमांश्च ॥ १ ॥ संग्रहो पग्रहनिरतः कृतकरणः प्रवचनानुरागी च । एवंविध एव भणितो गणस्वामी जिनवरेन्द्रः ॥ २ ॥ ] इति । अनन्तरं गणधरगुणा उक्ताः, गणधरकृतमर्यादया च वर्त्तमानो निर्मन्थो नाज्ञामतिक्रामतीत्येतत् सूत्रद्वयेनाह-तत्र प्रथमं पञ्चस्थानके व्याख्यातमेव तथापि किञ्चिदुच्यते-गृह्णन् प्रीवादाववलम्बयन् हस्तवस्त्राशलादौ गृहीत्वा नातिक्रामत्याज्ञामिति गम्यते, क्षिप्तचित्तां शोकेन दृष्टचित्तां हर्षेण यक्षाविष्टां - देवताधिष्ठितां उन्मादप्राप्तां वातादिना उपसर्गप्राप्तां तिर्यखानु ध्यादिना नीयमाना साधिकरणां - कलहयन्तीं ॥ पह्निः स्थानैः वक्ष्यमाणैर्निर्ग्रन्थाः - साधवो निर्ग्रन्थ्यश्च साध्य्यस्तथाविधनिर्ग्रन्धाभावे मिश्राः सन्तः साधर्मिकं समानधर्म्मयुक्तं साधुमित्यर्थः 'समायरमाणे ति समाद्रियमाणाः साधर्मिकं प्रत्यादरं कुर्वाणाः समाचरन्तो वा उत्पादनादिव्यवहारविषयीकुर्वन्तो नातिक्रामन्त्याज्ञां खीभिः सह विहारस्वाध्यायावस्थानादि न कार्यमित्यादिरूपां पुष्टालम्बनत्वादिति, 'अंतोहिंतो वत्ति गृहादेर्मध्याद्बहिर्नयन्तो वाशब्दा विकल्पार्थाः, 'बाहिहिंतो वत्ति गृहादेर्बहिस्तात् निर्वहि:- अत्यन्तबहिर्वहिस्तात्तरां नयन्तः, 'उपेक्षमाणा' इति, उपेक्षा द्विविधा - | व्यापारोपेक्षा अव्यापारोपेक्षा च, तत्र व्यापारोपेक्षया तमुपेक्षमाणाः, तद्विपयायां छेदनबन्धनादिकायां समयप्रसिद्ध| क्रियायां व्याप्रियमाणा इत्यर्थः, अव्यापारोपेक्षया च मृतकस्वजनादिभिस्तं सत्क्रियमाणमुपेक्षमाणाः तत्रोदासीना इत्यर्थः तथा 'उवासमाण'त्ति पाठान्तरेण 'भयमाण'त्ति वा रात्रिंजागरणात्तदुपासनां विदधानाः, 'उवसामेमाण'त्ति For Fans Only ६ स्थाना० उद्देशः ३ ~709~ गणधरण गुणा निमैथीग्रहणं बहिर्नयनादि सू० ४७५ ४७७ ॥ ३५३ ॥ incibrary.org [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४७७] (०३) प्रत सूत्रांक [४७७]] दीप अनुक्रम पाठान्तरे तं क्षुद्रव्यन्तराधिष्ठितं समयप्रसिद्धविधिनोपशमयन्त इति, तथा 'अणुन्नवेमाण'त्ति तत्स्वजनादीस्तत्सरिष्ठा-12 ट्रपनायानुज्ञापयन्तः, 'तुसिणीए'त्ति तूष्णींभावेन संप्रव्रजन्तस्तत्सरिष्ठापनाथेमागमानुज्ञातत्वात् सर्वमिदमाज्ञातिकमाय |न भवतीति । छानस्थिकश्चार्य व्यवहारः प्राय उक्त इति छद्मस्थप्रस्तावादिदमाह छ ठाणाई छउमरथे सल्वभावणं ण जाणति ण पासति, तंजहा-धम्मस्थिकायमधम्मत्थिकातं आयासं जीवमसरीरपतिबद्धं - परमाणुपोग्गलं सई, एताणि चेव उप्पन्ननाणदसणधरे अरहा जिणे जाव सब्वभावणं जाणति पासति २०-धम्मस्थिकासं जाव सर (सू०४७८) छहिं ठाणेहिं सव्वजीवाणं णधि इडीति वा जुत्तीति वा, [जसेइ वा बलेति वा वीरिएइ या पुरिसकार (जाव) परकमेति वा, तं0-जीवं वा अजीचं करणताते १ अजीवं वा जीवं करणताते २ एगसमएण वा दो भासातो भासित्तते ३ सयं कडं वा कम्मं वेदेमि वा मा वा वेएमि ४ परमाणुपोग्गलं वा छिदित्तए वा भिदित्तए वा अगणिकातेण वा समोदहित्तते ५ बहिता वा लोगता गमणताते ६ (सू०४७९) छज्जीवनिकाया पं० २०-गुढविकाइया जाव तसकाइया (सू० ४८०) छ तारग्गहा, पं० तं०-सुके बुहे बहस्सति अंगारते सनिश्चरे केतू (सू०४८१) छबिहा संसारसमावनगा जीवा पं० सं०-पुढविकाइया जाव तसकाइया, पुढविकाइया छगइया छागतिता पं० ०-पुदविकातिते पुढविकाइएसु उबवजमाणे पुढविकाइएहिंतो वा जाव तसकाइपहिंतो वा उववजेजा, सो चेव णं से पुढविकातिते, पुढविकातितत्तं विप्पजहमाणे पुढविकातितत्ताते वा जाव तसकातितत्ताते वा गच्छेजा, आउकातियावि छगतिता छागतिता, एवं चेव जाव तसकातिता (सू०४८२) छन्विहा सव्वजीवा पं० त०-आमिणिबोहियणाणी [५२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 710~ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८३] (०३) श्रीस्थाना सूत्रवृत्ति 455 ॥३५४॥ प्रत सूत्रांक [४८३] दीप अनुक्रम [५२६] जाब केवलणाणी अन्नाणी, अहवा छविधा सध्वजीवा पं० सं०-एगिदिया जान पंचिंदिया अणिंदिया, भहवा छ ६ स्थाना० विहा सध्वजीवा पं० सं०-ओरालियसरीरी वेठब्वियसरीरी आहारगसरीरी तेअगसरीरी कम्मगसरीरी असरीरी उद्देशः३ (सू०४८३) छव्यिहा तणवणस्सतिकातिता पं० त०-अम्गबीया मूलबीया पोरबीया संधबीया बीयरहा समु- | छमस्थेच्छिमा (सू०४८४) तरज्ञेयाजे'छही'त्यादि, इह छद्मस्थो-विशिष्टावध्यादिविकलो न बकेवली, यतो यद्यपि धर्माधर्माकाशान्यशरीरं जीवं च पर- यानि षड्मावधिर्न जानाति तथापि परमाणुशब्दौ जानात्येव, रूपित्वात् तयोः, रूपिविषयत्वाचावधेरिति, एतच्च सूत्रं सविपर्ययं शक्तयः प्राग्व्याख्यातप्रायमेवेति । छदास्थस्य धर्मास्तिकायादिषु ज्ञानशक्तिर्नास्तीत्युक्तमधुना सर्वजीवानां येषु यथा शकिर्नास्ति । ला निकायाः तानि तथाऽऽह-छही'त्यादि, पट्सु स्थानेषु सर्वजीवानां-संसारिमुक्तरूपाणां नास्ति ऋद्धिः-विभूतिः, इतीति-एवं- तारग्रहाः कारा यया जीवादिरजीवादिः क्रियते, वा विकल्पे, एवं द्युतिः-प्रभा माहात्म्यमित्यर्थः, यावत्करणात् 'जसेइ वा संसारिणः काबलेइ वा वीरिएइ वा पुरिसकारपरकमे इ वे'ति, इदं च व्याख्यातमनेकश इति न व्याख्यायते, तद्यथा-'जीवं वे'-1 त्यादि, जीवस्थाजीवस्य करणतायां, जीवमजीवं कर्तुमित्यर्थः १, अजीवस्य वा जीवस्य करणतायां २ 'एगसमयेण वत्ति अग्रवी० युगपद्वा द्वे भाषे सत्यासत्यादिके भाषितुमिति ३ स्वयंकृतं वा कर्म वेदयामि वा मा वा घेदयामीत्यत्रेच्छावशे वेदनेऽवे- सू०४७८. दने वा नास्ति बलमिति प्रक्रमा, अयमभिप्रायो-न हीच्छावशतः प्राणिनां कर्मणः क्षपणाक्षपणे स्तो बाहुबलिन इव, ४८४ अपि त्वनाभोगनिवर्तिते ते भवतः अन्यत्र केवलिसमुद्घातादिति अन्यथा वा भावनीयं ४ परमाणुपुद्गलं वा छेत्तुं वा 98503 JABERatinintamational S wlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~711~ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८४] (०३) प्रत सूत्रांक [४८४] दीप अनुक्रम [५२७] खगादिना द्विधाकृत्य भेत्तुं वा शूच्यादिना वा विध्वा, छेदादी परमाणुत्वहानेः, अग्निकायेन वा समवदग्धुमिति, सूक्ष्मवेनादाह्यत्वात्तस्येति ५, बहिस्ताद्वा लोकान्तागमनतायां ६, अलोकस्यापि लोकताऽऽपत्तेरिति ॥ जीवमजीवं कर्तुमित्युक्तमतो जीवपदार्थस्यैव बहुधा प्ररूपणाय 'छजीवनिकाये'त्यादि सूत्रप्रपञ्चमाह-सुगमश्चार्य, नवरं जीवानां |निकाया-राशयो जीवनिकायाः, इह च जीवनिकायानभिधाय यत् पृथिवीकायिकादिशब्दैनिकायवन्त उक्ताः तत्तेपामभेदोपदर्शनार्थ, न ह्येकान्तेन समुदायात् समुदायिनो व्यतिरिच्यन्ते, व्यतिरेकेणाप्रतीयमानत्वादिति ॥ तारकाकारा ग्रहास्तारकग्रहाः, लोके हि नव प्रहाः प्रसिद्धाः, तत्र च चन्द्रादित्यराहणामतारकाकारत्वादन्ये पटू तथोक्का इति, WI'सुके'त्ति शुक्रः 'बहस्सईत्ति बृहस्पतिः 'अंगारको' मङ्गलः 'सनिच्छत्ति शनैश्चर इति । संसारसमापनकजीवसूत्रे पृथ्वीकायिकादयो जीवतयोक्ताः पूर्वसूत्रे तु निकायत्वेनेति विशेषान्न पुनरुक्ततेति । ज्ञानिसूत्रे अज्ञानिनखिविधा मिथ्यात्वोपहतज्ञानाः । इन्द्रियसूत्रेऽनिन्द्रियाः-अपर्याप्ताः केवलिनः सिद्धाश्चेति । शरीरसूत्रे यद्यप्यन्तरगती कामणशरीरिसम्भवस्तद्व्यतिरिक्तस्य तैजसशरीरिणोऽसम्भवस्तथाप्येकतराविवक्षया भेदो व्याख्यातव्यः तथा अशरीरी सिद्ध इति । तृणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थों, मूलबीजा-उत्सलकन्दादयः इत्यादि व्याख्यातमेव, नवरं सम्मूछिमा:दिग्धभूमी बीजासत्त्वेऽपि ये तृणादय उत्पद्यन्ते । यथाधिकृताऽध्ययनावतारं प्ररूपिता जीवाः, अथ तेषामेव च ये पर्यायविशेषा दुर्लभास्तांस्तथैवाह छहाणाई सन्नजीवाणं णो सुलभाई भवंति, तं०-माणुस्सए भवे १ आयरिए खित्ते जम्म २ सुकुले पचायाती ३ फे Mandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~712~ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४८५] दीप अनुक्रम [५२८] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ।। ३५५ ।। Jus Educato “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ४८५ ] स्थान [६], पं० तं० aforare धम्मस्स सवणता ४ सुयस्स वा सदहणता ५ सदहितस्स वा पतितस्स वा रोइतस्स वा सम्मं कारणं कासया ६ ( सू० ४८५) छ इंदियत्था पं० [सं० सोइंदियत्थे जाव फासिंदियत्ये नोइंदियत्थे ( सू० ४८६ ) - विहे संवरे पं० [सं० सोविंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे णोइंदितसंवरे, छबिहे असंवरे पं० [सं० सोइंदिअभ संवरे जाब फार्सिदितअसंवरे णोइंदित असंवरे ( सू० ४८७ ) छब्बिहे साते पं० सं० सोइंदियसाते जाव नोइंदियसाते, छबिहे असाते पं० [सं० सोतिंदितअसावे जाब नोईदितअसाते (सू० ४८८ ) छब्बिहे पाय -आलोयणारिद्दे पडिकमणारि तदुभयारिहे विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तवारिहे ( सू० ४८९ ) 'छाणाई' त्यादि, पट् स्थानानि - पट् वस्तूनि सर्वजीवानां 'नो' नैव 'सुलभानि'. सुप्रापाणि भवन्ति, कृच्छ्रलभ्यानीत्यर्थी, न पुनरलभ्यानि, केषाञ्चिज्जीवानां तल्लाभोपलम्भादिति तद्यथा - मानुष्यको - मनुष्यसम्बन्धी भवो-जन्म स नो सुलभ इति प्रक्रमः, आह च - " ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसार जलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकत डिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ १ ॥” इति एवमायें क्षेत्रे - अर्द्धपडिशतिजनपदरूपे जन्म-उत्पत्तिः, इहाप्युक्तम्- 'सत्यपि च मानुपत्वे दुर्लभतरमार्य भूमिसम्भवनम् । यस्मिन् धर्माचरणप्रवणत्वं प्राप्नुयात् प्राणी ॥ १ ॥” इति, तथा सुकुले - इक्ष्वाका|दिके प्रत्यायाति:- जन्म नो सुलभमिति, अत्राभिहितम् - " आर्यक्षेत्रोससौ सत्यामपि सत्कुलं न सुलभं स्यात् । सञ्चर णगुणमणीनां पात्रं प्राणी भवति यत्र ॥ १ ॥” इति तथा केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रवणता दुर्लभा यतोऽवाचि - "सुलभा सुरलोयसिरी रयणायरमेहला मही सुलहा । निब्बुइसुहजणियरुई जिणवयणसुई जए दुलहा ॥ १ ॥” इति, For Parts at Le Only ६ स्थाना० उद्देशः ३ दुर्लभानि इन्द्रिया श्रर्थाः संव रासंवरौ सातासाते प्रायश्चित्तं ~713~ सू० ४८५४८९ ।। ३५५ ।। wwwancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८९] (०३) प्रत सूत्रांक [४८९] दीप अनुक्रम SIT सुरलोकश्रीः सुलभा रक्षाकरमेखला मही सुलभा । निर्वृतिसुखजनितरुचिः जिनवचन श्रुतिर्जगति दुर्लभा ॥१॥] श्रुतस्य वा श्रद्धानता दुर्लभा, उक्तं च-"आहच्च सवर्ण लहूं, सद्धा परमदुलहा । सोचा नेआउयं मग्ग, बहवे परिभस्सह ॥१॥"कदाचिच्छ्रवणं लब्ध्वा श्रद्धा परमदुलेभा । यतः बहवो न्यायोपपन्नं मार्ग श्रुत्वाऽपि परिभ्रश्यन्ति | |॥१॥] तथा श्रद्धितस्य वा सामान्येन प्रतीतस्य वोपपत्तिभिरथवा प्रीतिकस्य-स्वविषये उत्पादितप्रीतेः रोचितस्य वाचिकीर्पितस्य सम्यग् यथावत् कायेन-शरीरेण न मनोरथमात्रेणाविरतवत् स्पर्शनता-स्पर्शनमिति, यदाह-"धम्मपिहु सद्दईतया, दुलहया कारण फासया । इह कामगुणेसु मुच्छिया, समय गोयम! मा पमायए ॥१॥" इति, [धर्म || तु श्रद्दधतां दुर्लभा ततः कायेन सर्शनता । संसारे कामगुणेषु मूच्छितानां तन्मा समयमपि प्रमाः गौतम || ॥१॥] मनुष्यभवादीनां च दुर्लभत्वं प्रमादादिप्रसकपाणिनामेव न सर्वेषामिति, यतो मनुष्यभवमाश्रित्याभिहितम् | -"एवं पुण एवं खलु अन्नाणपमायदोसओ नेयं । जं दीहा कायठिई भणिया एगिदियाईणं ॥१॥ एसा य असइदोसासेवणओ धम्मवजचित्ताणं । ता धम्मे जइयवं सम्म सइ धीरपुरिसेहिं ॥२॥"ति, [एतत् पुनरेवं खलु अस-| कृत्प्रमाददोषतो ज्ञेयं । यद्दीर्घा कायस्थितिर्भणितैकेन्द्रियादीनां ॥१॥ एषा चासकृदोषासेवनतो धर्मवर्जितचित्तानां । तत् धर्मे यतितव्यं सम्यक् सदा धीरपुरुषैः॥२॥] मानुषत्वादीनि च सुलभानि दुर्लभानि च भवन्तीन्द्रियार्थानां संवरे असंवरे च सति, तयोश्च सतो सातासाते स्तस्ततक्षयश्च प्रायश्चित्ताद् भवतीतीन्द्रियार्थानिन्द्रियसंवरा-18 संवरौ सातासाते प्रायश्चित्तं च मरूपयन् सूत्रपटमाह-सुगमञ्चेदं, नवरं 'छ इंदियत्यत्ति मनस आन्तरकरणत्वेन क [५३२] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~714~ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४८९ ] दीप अनुक्रम [५३२] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४८९ ] स्थान [ ६ ], उद्देशक [-1, ६ स्थाना० उद्देश: ३ श्रीस्थाना- ॐ रणत्वात् करणस्य चेन्द्रियत्वात् तन्त्रान्तररूढ्या वा मनस इन्द्रियत्वात् तद्विषयस्येन्द्रियार्थत्वेन षडिन्द्रियार्था इत्युक्तं, ङ्गसूत्र ! तत्र श्रोत्रेन्द्रियादीनामर्था विषयाः शब्दादयः, 'नोइंदियत्थ'त्ति औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्म्मद्वयोपेतवृत्तिः मिन्द्रियं तस्यौदा रिकादित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधात् नोइन्द्रियं मनः सादृश्यार्थत्वाद्वा नोशब्दस्यार्थपरिच्छेदकत्वेनेन्द्रि- *मनुष्या याणां सदृशमिति तत्सहचरमिति 'नोइन्द्रियं मनस्तस्यार्थो विषयो जीवादिः नोइन्द्रियार्थ इति । श्रोत्रेन्द्रियद्वारेण नृ मनोज्ञशब्दश्रवणतो यत्सातं सुखं तच्छ्रोत्रेन्द्रिय सातमेवं शेषाण्यपि, तथा यदिष्टचिन्तनतस्तन्नोइन्द्रियसातमिति । आ- द्धिमन्त लोचनाहै यद् गुरुनिवेदनया शुद्ध्यति, प्रतिक्रमणार्ह यद् मिथ्यादुष्कृतेन, तदुभयार्ह यदालोचनामिथ्यादुष्कृताभ्यां विवेकाई यत्परिष्ठापिते आधाकर्मादौ शुद्ध्यति, व्युत्सर्गार्हं यत्कायचेष्टानिरोधतः, तपोऽर्ह यन्निर्विकृतिकादिना तपसेति । प्रायश्चित्तस्य च मनुष्या एव बोढार इति मनुष्याधिकारवत् 'छन्विहा मणुस्सा' इत्यादिसूत्रादारभ्य आ लोकस्थितिसूत्रात् ॥ ३५६ ॥ उत्सर्पिणी ४ सुषमसुष मानरो प्रकरणमाह Education intemational छव्हिा मणुस्सगा पं० तं० - जंबूदीवगा धायइसंडदीवपुरच्छिमद्भगा धाततिसंडदीवपथत्थिमद्भगा पुक्खरवरदीवङ्गपुरत्थिमद्भगा पुक्खरवरदीवढपन्च्चत्थिमगा अंतरदीवगा, अहवा छविहा मणुस्सा पं० तं० संमुच्छिममणुस्सा ३-कम्मभूमगा १ अकम्मभूमगा २ अंतरदीवगा ३ गम्भवकंतिअमणुस्सा ३-कम्मभूमिगा १ अकम्मभूमिगा २ अंतदीवगा ३ ( सू० ४९० ) छव्हिा इडीमंता मणुस्सा पं० [सं० अरहंता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा चारणा बिजाहरा छ हा अणिडीमंता मणुस्सा पं० [सं० - हेमवंतगा हेरन्नवंतगा हरिवंसगा रम्भगवंसगा कुरुवासिणो अंतरदीवगा (सू० Forest Use Only चत्वायुषी संहननं संस्थान सू० ४९०. ४९५ ॥ ३५६ ॥ ~715~ www.janbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४९१] (०३) प्रत सूत्रांक [४९१] दीप अनुक्रम [५३४] 35555 ४९१) छब्बिहा ओसपिणी पं० त०-सुसमसुसमा जाब दूसमदूसमा, छब्बिहा ओसप्पिणी पं० सं०-दुस्समदुस्समा जाव सुसममुसमा (सू० ४९२) जंबुरीवे २ भरहेरवएसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए मणुया छञ्च धणुसहस्साई उडमुबत्तेणं हुत्था, छच अद्वपलिओवमाई परमाउं पालयित्था १, जंबुद्दीवे २ भरहेरवतेमु वासेसु इमीसे ओसप्पिणीते सुसगसुसमाते समाए एवं चेव २, जंयू० भरहेरखते आगमेस्साते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए एवं चेव जाव छच्छ अद्धपलिओवमाई परमाउं पालतिस्संति ३, जंबुद्दीवे २ देवकुरउत्तरकुरासु मणुया छधणुस्सहस्साई उ उच्चत्तेणं पं० छच्च अद्धपलिओवमाई परमाउं पालेंति ४, एवं धायइसंडदीवपुरच्छिमढे चत्तारि आलावगा जाव पुक्सरवरदीवड्पपच्छिमद्धे चत्वारि आलावगा (सू०४९३) छव्यिहे संपवणे पं० सं०-वतिरोसभणारातसंघयणे उसभणारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे खीलितासंधयणे छेवट्ठसंघयणे (सू०४९४) छविहे संठाणे पं० २०-समचउरंसे णग्गोहपरिमंडले साती खुजे वामणे हुंडे (सू० ४९५) गतार्थ चैतत् , नवरं 'अहवा छब्बिहे'त्यत्र सम्मूछैनजमनुष्यास्त्रिविधाः कर्मभूमिजादिभेदेन, तथा गर्भव्युत्क्रातिकाआखिधा तथैवेति पोढा। चारण'त्ति जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च, विद्याधरा-वैताब्यादिवासिनः । 'उच्चधणुसहस्साईति |बीन् कोशानित्यर्थः, 'छच्च अद्धपलिओवमाईति त्रीणि पल्योपमानीत्यर्थः । संहननं-अस्थिसञ्चयः, वक्ष्यमाणोपमानोपमेयः शक्तिविशेष इत्यन्ये, तत्र वज्र-कीलिका ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः 'नाराचा-उभयतो मर्कटबन्धः, यत्र द्वयोरस्मोरुभयतोमर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रितयभेदि कीलिकाकारं वज्रनामक ROCEMC-NCRX Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~716~ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४९५] (०३) श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥ ३५७॥ प्रत सूत्रांक [४९५]] दीप अनुक्रम [५३८] ACACCORREAL मस्थि भवति तद्वनऋषभनाराचं प्रथम, यत्र तु कीलिका नास्ति तद् ऋषभनाराचं द्वितीयं, यत्र तुभयोमर्कटबन्ध एवं स्थाना० तनाराचं तृतीयं, यत्र त्वेकतो मर्कटबन्धो द्वितीयपाधं कीलिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थ, कीलिकाविद्धास्थिद्वयसश्चित उद्देशः३ कीलिकाख्यं पञ्चम, अस्थिद्वयपर्यन्तस्पर्शनलक्षणां सेवामा सेवामागतमिति सेवाः षष्ठ, शक्तिविशेषपक्षे त्वेवंविधदार्ग- मनुष्या देरिव दृढत्वं संहननमिति, इह गाधे-"वजरिसभनारायं पढर्म बीयं च रिसभनारायं । नाराय अद्धनाराय कीठियाटियनृतहय छेव ॥ १॥ रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण खीलियं वियाणाहि । उभओ मकडबंध नारायं तं वियाणाहि ॥२॥"IIद्धिमन्त वज्रषभनाराचं प्रथम द्वितीयं च ऋषभनाराचं नाराचमर्द्धनारा कीलिका तथा सेवाः च ॥१॥ ऋषभो भवति उत्सर्पिणी. च पट्टा वनं पुनः कीलिका विजानीहि उभयतो मर्कटबन्धं नाराचं विजानीहि तत् ॥२॥] संस्थान-शरीराकृतिरवयवरचनात्मिका, तत्र समा:-शरीरलक्षणोकप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत् समचतुरस्र, अनिस्त्विह चतुर्दि- मानरोविभागोपलक्षिताः शरीरावयवास्ततश्च सर्वेऽप्यषयवाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाव्यभिचारिणो यस्य न तु न्यूनाधिकममा-8 चत्वायुषी णास्तनुल्यं समचतुरस्रं, तथा न्यग्रोधवत्सरिमण्डलं न्यग्रोधपरिमण्डलं, यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णावयवः अधस्तनभागे संहननं पुनर्न तथा तथेदमपि नाभेरुपरि विस्तरबहुलं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाग अधस्तु हीनाधिकप्रमाणमिति, तथा 'सादी' तिसंस्थानं आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते तेनादिना शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाजा सह वर्तते यत्तत् सादि, स-हसू०४९०वमेव हि शरीरमविशिष्टेनादिना सह वर्तत इति विशेषणान्यथानुपपत्तेरिह विशिष्टता लभ्यते, अतः सादि-उत्सेधबहुलं ४९५ परिपूर्णोत्सेधमित्यर्थः, 'खजेत्ति अधस्तनकायमडर्भ, इहाधस्तनकायशब्देन पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते तदू यत्र शरीरलक्ष-INRom SANEaratuntainlional janeiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~717~ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४९५ ] दीप अनुक्रम [५३८] Jus Educator “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४९५ ] स्थान [६], उद्देशक [-], | णोकप्रमाणव्यभिचारि यत्पुनः शेषं तद्यथोक्तप्रमाणं तत्कुन्जमिति, 'वामण'सि मडहकोष्ठं यत्र हि पाणिपादशिरोग्रीवं यथोक्तप्रमाणोपेतं यत्पुनः शेषं कोष्ठं तन्मडभं-न्यूनाधिकप्रमाणं तद्वामनं, 'हुंडे'ति सर्वत्रासंस्थितं यस्य हि प्रायेणैको|ऽप्यवयवः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणेन न संवदति तत्सर्वत्रासंस्थितं हुंडमिति, उक्तं च- "तुलं १ वित्थरबहुलं २ उस्सेहवहुलं च १ मडहको च ४ । हेट्ठिलकायमडहं ५ सम्वत्थासंठियं हुंडं ॥ १ ॥” इति, [तुल्यं १ विस्तारबहुलं २ उत्सेधनहलं ३ मडभकोष्ठं च ४ अधस्तनकायमडभं ५ सर्वत्रासंस्थितं हुंडं ६ ॥१॥ ] इह गाथायां सूत्रो कक्रमापेक्षया चतुर्थपश्चमयोर्व्यत्ययो दृश्यत इति । छठाणा अणत्तव अहिताते असुभाते अखमाते अनीसेसाए अणाणुगामियत्ताते भवति, नं० परिता परिताले सुते तवे लाभे पूतासकारे, छट्टाणा अन्तवतो हिताते जाव आणुगामियत्ताते भवंति तं परिवाते परिताले जाव पूतासकारे (सूत्रं ४९६) छब्बिहा जाइजरिया मणुस्सा पं० सं० अंबट्ठा य कलंदा य, वेदेहा वेदिगातिता । हरिता चुंचुणा चैत्र, छप्पेता इन्भजातिजो ॥ १ ॥ छव्विधा कुलारिता मणुस्सा पं० [सं० उग्गा भोगा राइन्ना इक्खागा जाता कोरवा (सू ४९७ ) छबिधा लोगट्टिती पं० [सं० आगासपतिठिते वाए वायपतिट्ठिए उदही उदधिपतिद्विता पुढवी पुढविपट्टिया तसा थावरा पाणा अजीवा जीवपट्टिया जीवा कम्मपतिडिया (सू० ४९८ ) 'अणत्तवत्ति अकषायो ह्यात्मा आत्मा भवति स्वस्वरूपावस्थितत्वात्तद्वान्न भवति यः सोऽनात्मवान् सकपाय इत्यर्थः, तस्य 'अहिताय' अपध्याय 'अशुभाय पापाय असुखाय वा दुःखाय 'अक्षमाय' असङ्गतत्वाय अ Fürsten मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 718~ www.landbrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४९८] + गाथा - १ (०३) नसूत्र प्रत सूत्रांक [४९८] गाथा ||१|| दीप अनुक्रम [५४९५४३] श्रीस्थाना- Iक्षान्त्यै वा 'अनिःश्रेयसाय' अकल्याणाय 'अननुगामिकत्वाय' अशुभानुबन्धाय भवन्ति, मानकारणतयैहिकामुष्मिका-IMIस्थाना. पायजनकत्वादिति, 'पर्यायो' जन्मकालः प्रव्रज्याकालो वा, स च महानेव मानकारणं भवतीति महानिति विशेषणं | उद्देशः ३ द्रष्टव्यं, अथवा गृहस्थापेक्षया अल्पोऽपि प्रत्रज्यापायो मानहेतुरेवेति, तत्र जन्मपर्यायो महानहिताय, यथा बाहुब-18 आत्मानालिना, एवमन्येऽपि यथासम्भवं वाच्याः, नवरं 'परियालेत्ति परिवारः शिष्यादिः 'श्रुतं' पूर्वगतादि, उक्तं च-"जह स्मवन्तौ जह बहुस्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिबुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धंतपडिणीओ॥ १ ॥" इति, | जातिकुयथा यथा बहुश्रुतः संमतश्च शिष्यगणसंपरिवृतश्च । अविनिश्चितश्च समये तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः ॥१॥] लाः लो. तपः-अनशनादि लाभोऽन्नादीनां पूजा-स्तवादिरूपा तत्पूर्वकः सत्कारो-वस्त्राभ्यर्चनं पूजायां वा आदरः पूजासत्कार ||कस्थितिः इति । जाति:-मातृका पक्षः तया आर्याः-अपापा निर्दोषा जात्यार्याः विशुद्धमातृका इत्यर्थः, अंबढेत्याधनुष्टुप्प्रतिकृतिः, सू०४९६ पडप्येता इभ्यजातय इति, इभमर्हन्तीतीभ्याः, यद्रव्यस्तूपान्तरित उच्छूितकदलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति &ाश्रुतिः, तेषां जातय इभ्यजातयस्ता एता इति, कुलं पैतृका पक्षः, उग्रा आदिराजेनारक्षकत्वेन ये व्यवस्थापितास्तद्ध श्याश्च, ये तु गुरुत्वेन ते भोगास्तदंश्याश्च ये तु वयस्यतयाऽऽचरितास्ते राजन्यास्तद्वंश्याश्च इक्ष्वाकका प्रथमप्रजापतिव४शजाः ज्ञाताः कुरवश्च महावीरशान्तिजिनपूर्वजाः, अथवैते लोकरूढितो ज्ञेयाः । इयं च जातिकुलायोदिका लोकस्थिति-1|| रिति लोकस्थितिप्रत्यासत्त्या तामेवाह-छब्बिहे त्यादि, इदं पूर्वमेव व्याख्यातं, नवरमजीवा-औदारिका दिपुद्गलास्ते जीवेषु प्रतिष्ठिताः-आश्रिताः, इदं चानवधारणं बोद्धव्यं, जीवविरहेणापि बहुतराणामजीवानामवस्थानात्, पृथिवीविरह 5-5-5 ४९८ JABERatine Infantionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~719~ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४९८] (०३) प्रत सूत्रांक [४९८] तोऽपि त्रसस्थावरवदिति, तथा जीवा:-कर्मसु ज्ञानावरणादिषु प्रतिष्ठिताः, प्रायस्तद्विरहितानां तेषामभावादिति । अ-12 नन्तरं कर्मप्रतिष्ठिता जीवा उक्ताः, तेषां च दिक्ष्वेव गत्यादयो भवन्तीति दिशस्तासु गत्यादींश्च प्ररूपयन्नाह छदिसाओ पं० २०-पातीणा पड़ीणा दाहिणा उतीणा उड्डा अधा, छहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति, सं०-पाणाते जाव अधाते १ एवमागई २ वर्कती ३ आहारे ४ बुड़ी ५ निबुडी ६ विगुण्यणा ७ गतिपरिताते ८ समुग्पाते ९ कालसंजोगे १० दसणाभिगमे ११ णाणाभिगमे १२ जीवाभिगमे १३ अजीवाभिगमे १४, एवं पंथिवियतिरिक्खजोणियाणवि मणुस्साणवि (सू०४९५) छहि ठाणेहिं समणे निमांथे आहारमाहारमाणे णातिकमति, तं०-यणवेवायचे ईरिवट्ठाए य संजमट्टाए । तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए ॥१शा छहिं ठाणेहि समणे निगथे आहारं योछिदमाणे णातिकमति, तं०-आतंके उवस तितिक्खणे बंभवेरगुत्तीते। पाणियातवहे सरीरखुल्छेयणटाए ॥१॥' (सू०५००) 'छदिसाओ' इत्यादि सूत्रकदम्बक, इदं च त्रिस्थानक एवं व्याख्यातं, तथापि किश्चिदुच्यते-प्राचीना-पूर्वा प्रतीचीना-पश्चिमा दक्षिणा-प्रतीता उदीचीना-उत्तरा ऊमधश्चेति प्रतीते, विदिशो न दिशो विदित्वादेवेति षडेवोक्ताः अथवा एभिरेव जीवानां वक्ष्यमाणा गतिप्रभृतयः पदार्थाः प्रायः प्रवत्तेन्ते, पदस्थानकानुरोधेन वा विदिशो न विवक्षिता इति षडेव दिश उक्ता इति । पद्भिर्दिग्भिर्जीवानां गतिः-उत्पत्तिस्थानगमनं प्रवर्तते, अनुश्रेणिगमनात्तेषामित्येवमेतानि चतुर्दश सूत्राणि नेयानि, नवरं गतिरागतिश्च प्रज्ञापकस्थानापेक्षिण्यौ प्रसिद्ध एव, व्युत्क्रान्ति:-उसत्तिस्थानप्रा १ चकनिदिगपेक्षयाऽप्रात्तायपि प्रहापकादिविदिगपेक्षया गयादीनां प्रातः षट्स्थामकेयादि. AMSUCARDINDONESH दीप अनुक्रम [५४३] IndiaTay.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 720~ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५००] + गाथा (०३) मसूत्र उद्देशः प्रत सूत्रांक [५००] | दिशातग श्रीस्थाना-प्स्योसादः, साऽपि ऋजुगतौ पट्स्वेव दिक्षु, तथा आहारः प्रतीतः, सोऽपि षट्स्वेव दिक्षु, एतद्व्यवस्थितप्रदेशावगादपु- स्थाना. दलानामेव जीवेन स्पर्शनात् स्पृष्टानामेव चाहरणादिति, एवं पदिक्ता यथासम्भवं वृद्ध्यादिष्वप्यूह्येति, तथा वृद्धिः शरी-18 वृत्तिः रस्य निवृद्धिः-हानिस्तस्यैव विकुर्वणा-वैक्रियकरणं गतिपर्यायो-गमनमानं न परलोकगमनरूपः तस्य गत्यामतिग्रहणेन गृहीतत्वादिति, समुद्घातो-वेदनादिकः सप्तविधः कालसंयोगः-समयक्षेत्रमध्ये आदित्यादिप्रकाशसम्बन्धलक्षणः, 'द-12 त्यादि आ।।३५९॥ र्शन' सामान्यग्राही बोधः, तच्चेह गुणप्रत्ययावध्यादि प्रत्यक्षरूपं तेनाभिगमो-वस्तुनः परिच्छेदस्तमाप्तिर्चा दर्शनाभि-18 हाराना. गमः, एवं ज्ञानाभिगमोऽपि, जीवाभिगमः-सत्त्वाधिगमो गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षता, अजीवाभिगमः-पुनलास्तिकाया- हारकारद्यधिगमः, सोऽपि तथैवेति, 'एवं मिति यथा 'छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पबत्तई त्यादिसूत्राण्युकानि एवं चतुर्विंशति-12 णानि दण्डकचिन्तायां 'पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं छहिं दिसाहिं गईत्यादीन्यपि वाच्यानि, तथा मनुष्यसूत्राण्यपि, शेषेषु नारकादिपदेषु षट्सु दिक्षु गत्यादीनां सामस्त्येनासम्भवः, तथाहि-नारकादीनां द्वाविंशतेजींचविशेषाणां नारकदेवेषूपादाभावादूर्वाधोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शनज्ञानजीवाजीवाभिगमा गुणप्रत्ययावधिलक्षणप्रत्यक्षरूपान सभवन्त्येव तेषां, भवप्रत्ययावधिपक्षे तु नारकज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊर्ध्वावधयो वैमानिकास्त्वधोअधयः शेषा निरवधय एवेति भावना, 'विवक्षाप्रधानानि च प्रायोऽन्यत्रापि सूत्राणी ति । अनन्तरसूत्रे मनुष्याणामजीवाधिगम उक्त इति मनुष्यप्रत्यासत्या संयतमनुष्याणामाहारग्रहणाग्रहणकारणानि सूत्रद्वयेनाह-छही स्यादि कण्ठ्यं ॥३५९ ॥ १ गुणप्रत्यय एवं प्रायो बाच्याच पञ्चेन्नियतिवनराः न च प्रायो भवप्रत्ययो न बाच्याच देवनारका इत्यत्र को नियम इत्याइ विवक्षेत्यादि. गाथा दीप अनुक्रम [५४४-५४८] (सू०४९९ 5ऊऊक JABERatinintamatama Sataneiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~721~ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५०० ] गाथा दीप अनुक्रम [५४४ -५४८] Educat “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [ ६ ], उद्देशक [-1, मूलं [ ५०० ] नवरमाहारं-मशनादिकमाहारयन्-अभ्यवहरन्नातिक्रामत्याज्ञा, पुष्टकारणत्वाद्, अन्यथा त्वतिक्रामत्येव, रागादिभाषात्, तद्यथा- 'बेषण' गाहा, वेदना च क्षुद्वेदना वैयावृत्त्वं च- आचार्यादिकृत्यकरणं वेदनावैयावृत्त्यं तत्र विषये भुञ्जीत, वेदनोपशमनार्थ वैयावृत्त्यकरणार्थं चेति भावः, ईर्ष्या - गमनं तस्या विशुद्धिर्युगमात्रनिहितदृष्टित्वमीर्याविशुद्धिस्तस्यै इदमीर्याविशुद्ध्यर्थ, इह च विशुद्धिशब्दलोपादीर्यार्थमित्युक्तं, बुभुक्षितो हीर्षाशुद्धावशकः स्यादित्ति तदर्थमिति, चः समुच्चये, संयमः- प्रेक्षोत्प्रेक्षाप्रमार्जनादिलक्षणः तदर्थ, 'तथे 'ति कारणान्तरसमुच्चये, प्राणाः - उच्छ्रासादयो बलं वा प्राणस्तेषां तस्य वा वृत्तिः प्रासनं तदर्भ प्राणसंघारयार्थमित्यर्थः, पर्छ पुनः कारणं धर्मचिन्ताये गुणनानुप्रेक्षार्थमित्यर्थः इत्येतानि षट्टारणानीति, अत्र भाष्यगाथे- "नत्थि तुहाए सरिसा विवणा भुंजिजा तयसमणद्वा । छाजो ( बुभुक्षितः वेयावां न तरइ कार्ड अओ भुंजे ॥ १ ॥ इरियं न व सोहेर जहोव च संजमं काउं । थामो वा परिहायइ गुणणुप्पेहासु य असत्तो ॥ २ ॥ ति [ नास्ति क्षुधा सदृशी वेदना भुञ्जीत तत्प्रशमनार्थम् । वुभुक्षितः वैयावृत्यं न शक्नोति कर्त्तुं अतो भुञ्जीत ॥ १ ॥ ईर्ष्या न च शोधयति यथोपदिष्टं च संयमं कर्त्तुं ( न शक्तः) । बलं परिहीयते गुणनानुप्रेक्षयोरशक्तश्च ॥२॥ ] 'वोदिमाणे 'ति परित्यजन् आतङ्के-ज्वरादावुपसर्गे - राजस्वजनादिजनिते प्रतिकूलानुकूलस्वभावे तितिक्षणे- अधिसहने कस्याः मह्मचर्यगुतेः मैथुनत्रत संरक्षणस्य, आहारत्यागिनो हि ब्रह्मचर्ये सुरक्षितं स्यादिति, प्राणिदया च- संपातिमन्त्रसा दिसंरक्षणं तपः- चतुर्थादि पण्मासान्तं प्राणिदयातपस्तञ्च तद्धेतुश्च प्राणिदयातपोहेतुस्तस्मात् प्राणिदयातपोहेतोर्दयादिनिमित्तमित्यर्थः, तथा शरीरव्यवच्छेदार्थ-देहत्यागाय आहारं व्यवच्छिन्दन्नातिक्रामत्याज्ञामिति प्रक्रमः इह गाथे For Final P abray org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~722~ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५००] (०३) प्रत सूत्रांक [५००] ॥३६०॥ चितकारण श्रीस्थाना-3"आर्यको जरमाई राया सन्नायगा य उपसग्गे । बभवयपालणडा पाणिदया वासमहियाई ॥१॥ तबहेउ चतुत्थाई ४६ स्थाना सूत्र- जाव य छम्मासिओ तवो होइ । छटुं सरीरवोच्छेयणट्ठया होअणाहारो॥२॥" इति, [आतको ज्वरादिः राजा सज्ञा- उद्देशः ३ वृत्तिः तीयाश्चोपसर्गे। ब्रह्मव्रतपालनार्थ प्राणिदया वर्षामहिकादेः ॥१॥ तपोहेतुः चतुर्थादि यावच्च पाण्मासिकं तपो भवति । उन्मादाः भाषष्ठं शरीरब्युच्छेदनार्थ भवत्यनाहारः॥२॥] अनन्तरं श्रमणस्याहाराग्रहणकारणान्यभिहितानीति श्रमणादेजींवस्थानु-४ प्रमादाः चितकारिण उन्मादस्थानान्याह सू०५०१छहिं ठाणेहिं आया उम्मायं पाउणेजा, तं०-अरहताणमवणं बदमाणे १ अरहतपनत्तस्स धम्मस्स अवनं बदमाणे २ ५०२ आवरियउवझायाणमवन्नं बदमाणे ३ चाउम्वन्नस्स संघस्स अवन्नं बदमाणे ४ अक्खावेसेण चेव ५ मोहणिजास्स घेव कम्मस्स बदएणं (सू० ५०१) छबिहे पमाते पं० २०-मजपमाए णिदपमाते विसयपमाते कसावपमाते जूतप माते पडिलेहणापमाए (सू०५०२) 'छही'त्यादि इदं च सूत्रं पश्चस्थानक एव व्याख्यातप्राय, नवरं पद्धिः स्थानरात्मा-जीवः उन्माद-उन्मत्ततां प्राप्नु-I यात्, उन्मादश्च महामिथ्यात्वलक्षणस्तीर्थकरादीनामवर्ण वदतो भवत्येव तीर्थकरायवर्णवदनकुपितमवचनदेवतातो चाल असी ग्रहणरूपो भवेदिति, पाठान्तरेण 'उम्मायपमाय'न्ति उन्मादः-सग्रहत्वं स एव प्रमादः-प्रमत्तत्वं आभोगशून्य| तोन्मादप्रमादः, अथवोन्मादश्च प्रमादश्च-अहितप्रवृत्तिहिताप्रवृत्ती उन्मादप्रमादं प्राप्नुयादिति, 'अवनति अवर्ण-8॥३६०॥ | अश्लाघामवज्ञां वा वदन वजन वा-कुर्वन्नित्यर्थः, 'धम्मस्स'त्ति श्रुतस्य चारित्रस्य वा, आचार्योपाध्यायानां च, चतुर्थ-HI गाथा दीप अनुक्रम [५४४-५४८] wwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~723~ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५०२] (०३) प्रत सूत्रांक [५०२] दीप अनुक्रम [५५०] स्त्र-श्रमणादिभेदेन चतुष्प्रकारस्य, यक्षावेशेन चैव-निमित्तान्तरकुपितदेवाधिष्ठतत्वेन, मोहनीयस्थ-मिथ्यात्ववेदशोकादेरुदयेनेति । उम्मादसहचरः प्रमाद इति तमाह-छब्बिहे'त्यादि, पनिधः-पट्पकारः प्रमदनं प्रमादः-प्रमत्तता सदुपयोगाभाव इत्यर्थः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मय-सुरादि तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादो, यत आह-"चिसभ्रान्तिर्जायते मद्यपानाञ्चित्ते भ्रान्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गति यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव देयं न पेयम् | ॥१॥” इति, एवं सर्वत्र, नवरं निद्रा प्रतीता तद्दोषश्चायं-"निद्राशीलो न श्रुतं नापि वित्तं, लब्धुं शक्तो हीयते | चैप ताभ्याम् । ज्ञानद्रव्याभावतो दुःखभागी, लोकद्वैते स्यादतो निद्रयाऽलम् ॥१॥" इति, विषयाः-शब्दादयस्तेषां चैवं प्रमादता-"विषयव्याकुलचिसो हितमहितं वा न वेत्ति जन्तुरयम् । तस्मादनुचितचारी चरति चिरं दुःखकान्तारे|| 2॥१॥" कषाया:-क्रोधादयस्तेषामध्येवं प्रमादता-"चित्तरत्नमसक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य | शिष्टा विपत्तयः॥१॥" इति, घृतं प्रतीतं तदपि प्रमाद एक, यतः-"यूतासक्तस्य सचित्तं, धनं कामाः सुचेष्टितम् । *नश्यन्त्येव परं शीर्ष, नामापि च विनश्यति ॥ १॥" तथा प्रत्युपेक्षणं प्रत्युपेक्षणा, सा च द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्धा, तत्र द्रव्यमत्युपेक्षणा वस्त्रपात्राद्युपकरणानामशनपानाद्याहाराणां च चक्षुर्निरीक्षणरूपा, क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा कायोत्सर्गनिषदनशयनस्थानस्य स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च निरूपणा, कालप्रत्युपेक्षणा उचितानुष्ठान करणार्थ कालविशेपस्य पर्यालोचना, भावप्रत्युपेक्षणा धर्मजागरिकादिरूपा, यथा-"किं कय किंवा सेसं किं करणिज तवं च न करेमिः ।। पुवावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहणा ॥१॥" इति, तत्र प्रत्युपेक्षणायां प्रमादः-शैथिल्यमाज्ञाऽतिक्रमो वा प्रत्य-1 2005-06-2 Dinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~724~ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५०२] दीप अनुक्रम [५५० ] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ।। ३६१ ।। "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [६], उद्देशक [-1 मूलं [५०२ ] Education Inthano पेक्षणाप्रमादः, अनेन च प्रमार्जनाभिक्षाचर्यादिषु इच्छाकारमिथ्याकारादिषु च दशविधसामाचारीरूपव्यापारेषु यः प्र मादोऽसावुपलक्षितः, तस्यापि सामाचारीगतत्वेन षष्ठप्रमादलक्षणाव्यभिचारित्वादिति । अनन्तरं प्रत्युपेक्षाप्रमाद उक्तः, अथ तामेव तद्विशिष्टामाह- - छविधा पमायपडिलेणा पं० सं० आरभडा संमद्दा वज्जेयब्वा य मोसली ततिता । पप्फोडणा चटत्थी वक्खिसा बेतिया छुट्टी ॥ १ ॥ छब्बिहा अप्पमायपडिलेणा पं० तं०- अणञ्चावितं अवलितं अणाणुबंधि अमोसलिं चैव । छप्पूरिमा नव खोडा पाणी पाणविसोहणी ॥ २ ॥ ( सू० ५०३) छ लेसाओ पं० तं कण्हलेसा जाब सुकलेसा, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं छ लेसाओ पं० तं० कण्हलेसा जाब सुकलेसा, एवं मणुत्सदेवाणवि ( सू० ५०४ ) समास्स णं देविंदर देवरनो सोमस्स महारनो छ अम्गमहिसीतो पं०, सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारनो छ मामहसीओ पं० सू० ५०५ ) ईसाणस्स णं देबिंदस्स मज्झिमपरिसाए देवाणं छ पलिओबमाई ठिती पं० (सू०५०६) छ दिसिकुमारिमतरता तो पं० [सं० कृता रूतंसा सुरूवा रूपवती रूपकंता रुतप्पभा, छ विजुकुमारिमद्दन्तरितातो पं० सं०—आला सका सतेरा सोतामणी इंदा पणबिज्जुया ( सू० ५०७ ) धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररनो छ अग्गमहिसीओ पं० [सं० - आला सक्षा सतेरा सोतामणी इंदा घणविज्जुवा । भूताणंदस्स णं नागकुमारिदस्स नागकु माररनो छ अग्गमहिसीओ, पं० [सं० रूवा रूसा सुरूवा रुववती रूपकंवा स्वप्पमा, जधा धरणस्स तथा सब्वेसिं ---------- For Fans Only ६ स्थाना० उद्देशः ३ ~ 725 ~ प्रमादाप्रमादप्रतिलेखनाः | लेस्या: शक्रसोमयमात्र महि प्यः ईशानमध्यपर्षत्स्थितिः [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते धरणाच ग्रमहिष्यः सू० ५०३५०८ ॥ ३६१ ॥ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१०८] (०३) प्रत सूत्रांक [५०८] दीप अनुक्रम दाहिणिलाणं जाव घोसस्स, जघा भूताणदस्स तथा सब्वेसिं उत्तरिहाणं जाब महायोसस्स (सू० ५०८) धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररन्नो छस्सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्तातो, एवं भूनाणदस्सवि जाव महापोसस्स (सू०५०९) 'छविहे'त्यादि, पडिधा-पडूभेदा प्रमादेन-उक्तलक्षणेन प्रत्युपेक्षा प्रमादप्रत्युपेक्षा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-'आरभईगाहा, आरभटा-वितथकरणरूपा, अथवा त्वरितं सर्वमारभमाणस्य, अथवा अर्द्धप्रत्युपेक्षित एवैकत्र यदन्यान्यवनग्रहणं सा आरभटा, सा च वर्जनीया सदोषत्वादिति सर्वत्र सम्बन्धनीयमिति, सम्मा -यत्र वस्त्रस्य मध्यप्रदेशे संव|लिता कोणा भवन्ति, यत्र वा प्रत्युपेक्षणीयोपधिवेण्टिकायामेवोपविश्य प्रत्युपेक्षते सा सम्मति, मोसली प्रत्युपेक्ष्यमााणवखभागेन तिर्यगूमधो वा पट्टनरूपा 'तइय'त्ति तृतीया प्रमादप्रत्युपेक्षणेति, कचिद् 'अट्ठाणहवणा यत्ति दृश्यते,15 तत्र गुर्ववग्रहादिके अस्थाने प्रत्युपेक्षितोपधेः स्थापन-निक्षेपोऽस्थानस्थापना, प्रस्फोटना-प्रकर्षेण धूननं रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्येति, इयं च चतुर्थी, 'विक्खित्त'त्ति वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य ततोऽन्यत्र यमनिकादौ प्रक्षिपति यद् अथवा वस्त्राञ्चलादीनां यदूर्वक्षेपणं सा विक्षिप्तोच्यते ५, 'वइय'त्ति वेदिका पञ्चप्रकारा, तत्र जीवेदिका यत्र जानुनोरुपरि हस्ती कृत्वा प्रत्युपेक्षते १ अधोवेदिका जानुनोरधो हस्तौ निवेश्य २, एवं तिर्यग्वेदिका जानुनोः पार्श्वतो हस्ती नीत्वा ३, द्विधावेदिका बाह्वोरन्तरे द्वे अपि जानुनी कृत्वा ४, एकतोवेदिका एक जानु बाहोरन्तरे कृत्वेति ५ षष्ठी प्रमादप्रत्युपेक्षणेति प्रक्रमा, इह गाथे-“वितहकरणमि तुरिय अन्न अन्नं च गिह आरभडा । अंतो व होज कोणा निसियण तत्थेव संमहा ॥१॥ गुरुउग्गहादठाणं पष्फोडण रेणुगुंडिए चेव । विक्खेवं तु क्षेवो वेइयपणगं च छद्दोसा ॥२॥” इति । [५५९] स्था०६१ Santaintumniantarana andyanatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 726~ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५०९] (०३) प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना- वितधकरणे त्वरितं अन्योऽन्यग्रहणे आरभटा कोणा वस्त्रान्तः भवेयुस्तत्र निपीदनं वा संमही ॥१॥ गुर्वग्रहादौ अस्थानं स्थाना. जसूत्र- रेणुगुंडितस्येव प्रस्फोटना विक्षेपस्तूरक्षेपो यवनिकादौ वेदिकापंचकं च षट् दोषाः ॥२॥] उक्तविपरीतां प्रत्युपेक्षणा-18उद्देशः ३ वृत्तिः मेवाह-छविहे स्यादि, पड़िधा अप्रमादेन-प्रमादविपर्ययेण प्रत्युपेक्षणा अप्रमादप्रत्युपेक्षणा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-'अ-1 प्रमादाम शणचावि'गाहा, बनमात्मा वा न नर्तितं-न नृत्यदिव कृतं यत्र तदनर्तितं प्रत्युपेक्षणं, वस्त्रं नर्त्तयत्यात्मानं घेत्येषमिह मादप्रति॥३६२॥ चत्वारो भनाः १ तथा वखं शरीरं वा न वलितं कृतं यत्र तदवलितमिहापि तथैव चतुर्भङ्गी २ तथा न विद्यतेऽनुबन्धः लेखनाः -सातत्यप्रस्फोटकादीनां यत्र तदननुबन्धि, इत्समासान्तो दृश्यः, नानुबन्धि अननुबन्धीति वा ३ तथा न विद्यते मो लेस्याः शसली उक्तलक्षणा यत्र तदमोसलि ४ 'छप्पुरिमा नव खोड'त्ति तत्र वस्त्रे प्रसारिते सति चक्षुषा निरूप्य तदर्वाग्भाग सोमय माग्रमहितत्परावर्त्य निरूप्य च यः पुरिमाः कर्त्तव्याः, प्रस्फोटका इत्यर्थः, तथा तत्परावर्त्य चक्षुषा निरूप्य च पुनरपरे त्रयः पुरिमा एवमेते षट्, तथा नव खोटका ते च वयस्त्रयः प्रमार्जनानां त्रयेण त्रयेणान्तरिताः कार्या इति, पदद्वयेनापि पञ्चमी अप्रमादप्रत्युपेक्षणोका, पुरिमलोटकानां सहशत्वादिति, तथा पाणे:-हस्तस्योपरि प्राणाना-प्राणिनां स्थितिः कुन्थ्वादीनामित्यर्थः 'विसोहणि'त्ति विशोधना प्रमार्जना प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रेणैव कार्या नवैव वाराः, उक्तन्यायेन खो- धरणाद्यटकान्तरितेति षष्ठी अप्रमादप्रत्युपेक्षणेति, इह गाथे-"वत्थे अप्पाणमि य चउहा अणचावियं अवलियं च । अणुबंधि ग्रमहिष्यः निरंतरया तिरिउहहहणा मुसली॥१॥छप्पुरिमा तिरियकए नव खोडा तिन्नि तिन्नि अंतरिया । ते पुण पियाणि- सू०५०९ यच्या हत्थंमि पमजणतिएणं ॥२॥"[वस्ने आत्मनि चानर्तितं अवलितं च चतुर्धा अनुबंधिता निरंतरता तिर्य- ३६२ ॥ [५०९]] दीप अनुक्रम [५६०] ध्या ईशान AREntml ainatorary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~727~ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५०९] (०३) प्रत सूत्रांक [५०९]] दीप अनुक्रम [५६०] 5555555 गूर्वाधोघटना मोसलिः॥१॥ तिर्यकृताः षट् पुरिमा त्रिभ्यंतरिता नव स्फोटकाः ते पुनर्विज्ञातव्या हस्ते प्रमार्जनामात्रिकेण ॥१॥ इयं च प्रमादाममादप्रत्युपेक्षा लेश्याविशेषतो भवतीति लेश्यासू, लेण्याधिकारावेष पोन्द्रियतिर्यग् मनुष्यदेवलेश्यासूत्राणि, देवप्रत्यासत्त्या सकेत्यादिकान्यग्रमहिप्यादिसूत्राणि चावग्रहमतिसूत्रादग्विीनि, कठयानि च | नवरं देवानां जात्यपेक्षया अवस्थितरूपाः षट् लेश्या अवगम्तव्या इति । अनन्तरं देववक्तव्यतोक्का, रेवाश्च भषप्रत्ययादेव विशिष्टमतिमन्तो भवन्तीति मतिभेदान् सूत्रचतुष्टयेनाह छबिहा लग्गहमती पं० सं०-खिप्पमोगिण्हति बहुमोगिहति बहुविधौगिण्हति धुषमोगिण्डति अणिस्सियमोगिया असंदिवमोगिदह । छबिहा ईशामती पं० त०-खिप्पमीहति बहुमीहति जाप असंदितमीहति । छविधा अवागमती पं० त०-खिप्पमवेति जाव असंविद्धं अवेति, छविधा धारणा पं० ०-पहुं धारेर बहुविएं धारे पोराणं धारेति दुद्धरं धारेति अणिस्सितं धारेति असंदिद्धं धारेति (सू०५१०) 'छव्विहा उग्गहें'त्यादि मतिः-आभिनिबोधिक, सा चतुर्विधा, अपग्रहहापायधारणाभेदात्, समावग्रहः प्रथम सामान्याथेग्रहणं तद्रूपा मतिरवग्रहमतिः, इयं च द्विविधा-व्यञ्जनावग्रहमतिरावग्रहमतिश्न, तनावग्रहमतिबिधा-15 & निश्चयतो व्यवहारतच, तत्र व्यञ्जनावमहोत्तरकालमेकसामयिकी प्रथमा, द्वितीया त्वम्सहर्सप्रमाणा अवाधरूपा अपि साईहापाययोरुत्तरयोः कारणत्वादवग्रहमतिरित्युपचरितेति, यत माह-सामन्नमेलगहणं नेच्छामो समयमोग्गहो पढमो । तत्तोष्णंतरमीहियवस्थुविसेसस्स जोऽवाओ॥१॥ सो पुण बहाषायावेक्खाउ अघग्गहोत्ति उपपरिमो। Mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 728~ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [११०] (०३) प्रत सूत्रांक [५१०] दीप अनुक्रम [५६१] श्रीस्थाना- दएस विसेसावेखं सामन्नं गेहए जेण ॥२॥ तत्तोऽणंतरमीहा तत्तोऽवाओ य तबिसेसस्स । इय सामनविसेसा ६ स्थाना सूत्र- वेक्खा जातिमो भेभो ॥ ३॥ सब्वत्थेहावाया निच्छयओ मोत्तुमाइ सामन्नं । संववहारत्थं पुण सम्बत्थावग्गहोवाओ|उद्देशा३ ॥४॥ तरतमजोगाभावेऽवाउब्धिय धारणा तदंतमि । सब्वत्थ वासणा पुण भणिया कालंतरसइत्ति ॥५॥" [सामा-18 | क्षिप्राद्या ॥३३॥ न्यमात्रग्रहणमवग्रहः प्रथमो नैश्चयिकः समयं ततोऽनन्तरमीहितवस्तुविशेषस्य योऽपायः॥१॥ स पुनरीहापायापेक्ष अवमहापायाऽवग्रह इत्युपचरितः येनैप विशेषापेक्षया सामान्य गृह्णाति ॥२॥ ततोऽनन्तरमीहा ततोऽपायस्तद्विशेषस्य एवं सामा-1 दिभेदाः न्यविशेषापेक्षया (ज्ञेय) यावदन्तिमो भेदः ॥३॥ आदिसामान्यं मुक्त्वा निश्चयतः सर्वत्रेहापायौ संव्यवहारार्थ पुनः अपायः सू०५१० सर्वत्रावग्रहः ॥४॥ तरतमयोगाभावेऽपाय एव तदन्ते च धारणा सर्वत्र पुनः कालान्तरस्मृतिर्वासनेति भणिता ॥५॥]lk तत्र व्यवहारावग्रहमतिमाश्रित्य प्रायः पहिधत्वं व्याख्येयमिति, तद्यथा-क्षिप्रमवगृह्णाति-तूल्यादिस्पर्दी क्षयोपशमपटु-12 वादचिरेणैव वेत्ति मतिस्तद्विशिष्टः पुरुषो वेति, 'वह'ति शय्यायां छुपविशन्पुमांस्तत्रस्थयोषित्पुष्पचन्दनवखादिस्पर्श || बहुं-भिन्नजातीयं सन्तमेकैक भेदेनावबुध्यते अयं योषित्स्पर्श इत्यादि, 'बहुबिहंति बहवो विधा-भेदा यस्य स बहुविधस्तं, योषिदादिस्पर्शमेक शीतस्निग्धमृदुकठिनादिरूपमवगृहातीति, 'धुवंति ध्रुवमत्यन्तं सर्वदेत्यर्थे, यदा यदा अस्य तेन स्पर्शन योपिदादिना योगो भवति तदा तदा तमवच्छिनत्तीत्यर्थः, एतदुक्तं भवति-सतीन्द्रिये सति चोपयोगे यदाऽसौ विषयः स्पृष्टो भवति तदा तमवगृह्णात्येवेति, 'अणिस्सिय'ति निश्रितो-लिङ्गप्रमितोऽभिधीयते, यथा ॥ यूथिकाकुसुमानामत्यन्तं शीतमृदुस्निग्धादिरूपः प्राक् स्पर्शोऽनुभूतः तेनानुमानेन-लिङ्गेन ते विषयमपरिच्छिन्दत् यदा aantarai A andiorary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 729~ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [११०] (०३) प्रत सूत्रांक [५१०] दीप अनुक्रम [५६१] SARAARAK है ज्ञानं प्रवर्तते तदा अनिश्रितमलिङ्गमवगृह्णातीत्यभिधीयते, 'असंदिद्धति असंदिग्ध-निश्चितं सकलसंशयादिदोषरहित मिति, यथा तमेव योपिदादिस्पर्शमवगृह्णत् योषित एवायं चन्दनस्यैवायमित्येवमवगृहातीति । एवमीहापायधारणामतीनां पवित्वं, नवरं धारणायां क्षिप्रधुवपदे परित्यज्य पुराणदुर्द्धरपदाभ्यां सह पडिधत्वमुक्त, तत्र च पुराण-बहुकालीनं दुर्द्धर-गहनं चित्रादीनि, क्षिप्रबहुबहुविधादिपदषट्रविपर्ययेणापि पद्विधा अवग्रहादिमतिर्भवतीति मतिभेदानामष्टाविंशतेद्वादशभिर्गुणनात् त्रीणि शतानि पत्रिंशदधिकानि भवन्ति, अभाणि च भाष्यकारेण-"जं बहु १ बहुविह २खिप्पा ३ अणिस्सिय निच्छिय ५ धुये ६ यर १२ विभिन्ना । पुणरोग्गहादओ तो तं छत्तीसत्तिसयभेदं ॥१॥” इति, "नानासहसमूह बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाइयं १ । बहुविहमणेगभेदं एकेक निद्धमहरादि २॥२॥ खिप्पमचिरेण ३ ।। काचिय.सरूवओज अनिस्सियमलिंगं ४ । निच्छयमसंसयं जं५ धुवमच्चतं न उ कयाइ ६॥३॥ एत्तो चिय पडि वक्खं साहेजा निस्सिए विसेसो वा । परधम्मेहि विमिस्सं निस्सियमविनिस्सियं इयरं ॥ ४॥” इति । "बहुबहुविध| क्षिप्रानिनितनिश्चितध्रुवेतरविभिन्ना यत्पुनरवग्रहादयोऽतस्तत्पत्रिंशदधिकत्रिशतभेदं ॥१॥ नानाशब्दसमूह बहु पृथगू जानाति भिन्नजातीयं । बहुविधमनेकभेदं स्निग्धमधुराखेकैकं ॥२॥ क्षिप्रमचिरेण तदेव अनिश्रितमलिंग12 निश्चितं यदसंशयं ध्रुवमत्यन्तं न तु कदाचित् ॥३॥ एतावत एव प्रतिपक्षान् साधयेत् निश्रिते च विशेषः पर-18 धर्विमिदं निश्रितमविनिश्रितमितरत् ॥४॥" इह भावना-अक्षिप्रं चिरेण निश्रितं लिङ्गात् अनिश्रितं सन्दिग्धं अध्रुवं कदाचित् अथवा निश्रितानिश्चितयोरयमपरो विशेषः-निश्रितं गृह्णाति गवादिकमर्थं सारङ्गादिधर्मविशिष्टमवगृह्णाति 15 Inctionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 730~ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [११०] (०३) श्रीस्थानालसूत्र वृत्तिः ॥३६४॥ प्रत सूत्रांक [५१०] दीप अनुक्रम [५६१] अनिश्चितं गोधमैरेव विशिष्टं गृह्णाति, यदिह न स्पृष्ट तत्स्सष्टमेवेति । अनन्तरं मतिरुक्का तद्विशेषवन्तश्च पसन्तीति स्थाना० तपोऽभिधानाय सूत्रद्वयम् उद्देशः३ छबिहे नाहिरते तवे पं० सं०-अणसणं ओमोदरिया भिक्खागरिता रसपरिचाते कायकिलेसो परिसलीनता । एविये बाह्यान्तअभंतरिते तवे पं० त०-पायच्छित्तं विणओ वेयावर्च तहेव सज्झाओ साणं विउस्सग्गो (सू० ५११) छबिहे वि. रतपसी बादे पं० १०-ओसकतित्ता उस्सकइत्ता अणुलोमइसा पडिलोमतिचा भइत्ता भेलतित्ता (सू०५१२) विवादा 'छन्विहे'त्यादि गतार्थमेतत् तथापि किश्चिदुच्यते, 'बाहिरए तत्ति बाह्यमित्यासेव्यमानस्य लौकिकैरपि सपनयासू०५११ज्ञायमानत्वात् प्रायो बहिः शरीरस्य तापकत्वाद्वा तपति-दुनोति शरीरकर्माणि यत्तसप इति, तत्रानशन-अमोजनमा-ला ५१२ काहारत्याग इत्यर्थः, तद् द्विधा-इत्वरं यावत्कधिकं च, तत्वरं चतुर्थादि षण्मासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्येति, यावत्काधिक त्याजन्मभावि विधा-पादपोपगमनेजितमरणभक्तपरिज्ञाभेदादिति, एतच प्राग्व्याख्यातमिति १, 'भोमोयरियत्ति -18 वम-ऊनमुदरं-जठरं अवमोदरं तस्य करणमवमोदरिकेति, सा च द्रव्यत उपकरणभक्तपानविषया प्रतीता, मावतस्तु कोधादित्याग इति ३, तथा भिक्षार्थं चर्या-चरणमटनं भिक्षाचर्या सैव तपो निर्जराकरवादनशनवद् अथवा सामान्यीपादानेऽपि विशिष्टा विचित्राभिग्रहयुक्तत्वेन वृत्तिसक्रेत्परूपा सा ग्राह्या, यत इहैव वक्ष्यति'छब्धिहा गोयरचरिवाति ॥३६४॥ न चेयं ततोऽत्यन्तभिन्नेति, भिक्षाचर्यायां चाभिग्रहा द्रव्यादिविषयतया चतुर्विधाः, तत्र द्रव्यतोऽसेपकायांचे ग्रहीष्ये, क्षेत्रतः परग्रामगृहपश्चकादिलब्ध, कालतः पूर्वाहादी, मावतो गानादिप्रवृत्तालम्पमिति ३, रसा-बीरादयस्त Hinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~731~ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [११२] (०३) प्रत सूत्रांक सरित्यागो रस परित्यागः ४, कायक्लेश-शरीरक्केशनं स च वीरासनादिरनेकधा ५, प्रतिसंलीनता-गुप्तता, सा चेन्द्रि-2 यकषाययोगविषया विविक्तशयनासनता वेति । 'अभितरए सि लौकिकैरमभिलक्ष्यत्वात् तन्नाम्तरीयैश्च परमार्थतोऽनासेव्यमानत्वाग्मोक्षप्रात्यन्तरकत्वाश्चाभ्यन्तरमिति, प्रायश्चित-उक्तनिषचनमालोचनादि वनविषमिति १, विनीयते कर्म बेन स विनयः, उफ-"जम्हा विणयइ कर्म अविह चाउरंतमोक्खाए । सम्हा र वयंति विऊ विणयंति|8 |विलीणसंसारा॥१॥" इति, [यस्मात् विनयति कर्म अष्टविध चातुरश्तमोक्षाय । तस्मातु वदन्ति विद्वांसो विनय | इति विलीनसंसारा-केवलिनः॥१॥] सच ज्ञानादिभेदात् सप्तधा वक्ष्यते २ तथा व्यावृत्तभावो पैयावृत्त्य धर्मसा-12 8 धनार्थमन्नादिदानमित्यर्थः, आह च-"वेयावच्चं वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्तं । अण्णाइयाण विहिणा संपायणमे-४ स भावत्यो ॥१॥" इति, [वैयावृवं व्यापृतभाव इह धर्मसाधननिमित्तं । अन्नादिकानां संपादनमेष भावार्थः॥१॥lt तथ दशधा-"आयरिय उवज्झाए थेरतवस्तीगिलाणसेहाणं। साहमियकुलगणसंघसंगर्य तमिह कायम् ॥१॥" इति । ४३[आचार्योपाध्यायस्थविरतपस्विग्लानशैक्षाणां । साधर्मिककुलगणसंघानां संगतं तदिह कर्तव्यं ॥१॥] सुष्टु आ-४ मर्यादया अध्यायः-अध्ययनं स्वाध्यायः, स च पञ्चधा-याचना प्रच्छना परावर्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा ति ४,ध्यातिर्थानं एकाग्रचिन्तानिरोधस्तचतुर्दा प्राग व्याख्यात, तत्र धर्मशुक्के एव तपसी निर्जरार्थत्वात् नेतरे बन्धहेतुत्वादिति। ४५, व्युत्सर्ग:-परित्यागः, स च द्विधा-द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतो गणशरीरोपध्याहारविषयः, भावतस्तु क्रोधादिहै विषय इति दाएते च तपासूत्रे दशकालिकाद्विशेषतोऽवसेवे इति । अनन्तरोदितार्थेषु विवदते कश्चिदिति विवादस्व [५१२] दीप अनुक्रम [५६३] 566 ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~732~ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [११२] (०३) श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः GACANCCSSC प्रत ॥३६५॥ सूत्रांक [५१२] दीप अनुक्रम [५६३] रूपमाह-'छबिहे'त्यादि, पड्विधः-प दो विप्रतिपन्नयोः कचिदर्थे वादो-जल्पो विवाद: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'ओस-11 कइत्त'त्ति अवष्वक्य-अपसृत्यावसरलाभाय कालहरणं कृत्वा यो विधीयते स तथोच्यते, एवं सर्वत्र, कचिच्च 'ओस-द्र | उद्देशा३ कावइत्तत्ति पाठस्तत्र प्रतिपन्धिनं केनापि व्याजेनापसl-अपस्तं कृत्वा पुनरवसरमवाप्य विवदते, 'ओसकइत्त'त्ति क्षुद्राः गोउत्प्वष्क्य उत्सृत्य लब्धावसरतयोत्सुकीभूय 'उस्सकावइत्त'त्ति पाठान्तरे परमुत्सुकीकृत्य लब्धावसरो जयार्थी विवदते, चरचर्या तथा 'अणुलोमइत्तत्ति विवादाध्यक्षान् सामनीत्याऽनुलोमान् कृत्वा प्रतिपन्धिनमेव वा पूर्व तत्यक्षाभ्युपगमेनानुलोमं ९ अपकान्तकृत्वा 'पडिलोमइत्ता' प्रतिलोमान् कृत्वा अध्यक्षान् प्रतिपन्धिनं वा, सर्वथा सामर्थे सतीति, तथा भइत्त'त्ति अध्य- | निरयाः क्षान् भक्त्वा-संसेव्य, तथा 'भेलहत्त'त्ति स्वपक्षपातिभिर्मिश्रान् कारणिकान् कृत्वेति भावः कचित्तु "भयइत्त'त्ति | सू०५१३पाठः तत्र भेदयित्वा केनाप्युपायेन प्रतिपन्धिनं प्रति कारणिकान् द्वेषिणो विधाय स्वपक्षग्राहिणो वेति भावः। विवाद हा ५१५ च कृत्वा ततोऽप्रतिकान्ताः केचित् क्षुद्रसत्त्वेषपद्यन्त इति तान्निरूपयन्नाह छम्विहा खुड्डा पाणा पं० २०-वेदिता तेइंदिता चरिंदिता समुच्छिमपंचिदिततिरिक्खजोणिता सेउकातिता बाउकातिता (सू०५१३) छब्बिधा गोयरचरिता पं० २०-पेडा अद्धपेडा गोमुत्तिता पतंगविहिता संबुकवट्टा गर्नुपचागता (सू० ५१४) जंबुरी २ मदरस्स पव्वयस्स य दाहिणेणमिमीसे रतणप्पभाते पुढपीए छ अवकतमहानिरता पं० तं०-लोले लोलुए उदड़े निदड़े जरते पजरते, चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीते छ अवकता महानिरता पं० सं०-- आरे बारे मारे रोरे रोरुते खाइखडे (सू०५१५) ॥६५॥ ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 733~ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [११५] (०३) प्रत सूत्रांक [५१५] दीप अनुक्रम 'छब्बिहे'त्यादि सुगम, परमिह क्षुद्रा:-अधमाः, यदाह-"अल्पमधर्म पणस्त्रीं क्रूरं सरघां नटी च षट् क्षुद्रान् । युवते" इति, अधमत्वं च विकलेन्द्रियतेजोवायूनामनन्तरभवे सिद्धिगमनाभावाद्, यत उक्तम्-भूदगपंकप्पभवा चउरोहरिया उ छच्च सिज्ञज्जा । विगला लभेज बिरई नउ किंचि लभेज सुहुमतसा ॥१॥"[भूदकपङ्कप्रभवाश्चत्वारः वनस्पतेः पट् सिद्धयन्ति । विकला लभन्ते विरतिं नतु किमपि सूक्ष्मत्रसाः॥१॥] (सूक्ष्मत्रसाः तेजोवायू इति तथा एतेषु देवानुत्पत्तेश्च, यत उक्तम्-"पुढवीआउवणस्सइगन्भे पजत्तसंखजीवीसु । सग्गचुयाण बासो सेसा पडिसेहिया ठाणा INu१॥" इति [पृथ्व्यवनस्पतिगर्भजपर्याप्तसङ्ख्यजीविषु स्वर्गच्युतानां वासः शेषाणि स्थानानि प्रतिषेधितानि ॥१॥] सम्मूच्छिमपश्चेन्द्रियतिरश्चां चाधमत्वं तेषु देवानुसत्तेः, तथा पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्यमनस्कतया विवेकाभावेन निर्गुणत्वादिदिति, वाचनान्तरे तु सिंहाः व्याघ्रा वृका दीपिका ऋक्षास्तरक्षा इति क्षुद्रा उक्ता क्रूरा इत्यर्थः । अनन्तरं सत्त्वविशेषा उक्ताः, सत्त्वानां चानपायतः साधुना भिक्षाचर्या कार्येति, सा च पोढेति दर्शयन्नाह-'छबिहे'त्यादि, 'गोयरचरियत्ति गोः-बलीवईस्य चरण-चरः गोचरस्तद्वद्या चर्या-चरणं सा गोचरचर्या, इदमुक्तं भवति-यथा गोरुच्चनीचत-13 णेष्वविशेषतश्चरणं प्रवर्त्तते तथा यत्साधोररक्तद्विष्टस्योच्चनीचमध्यमकुलेषु धर्मसाधनदेहपरिपालनाय भिक्षार्थ चरणं *सा गोचरचर्येति, इयं चैकस्वरूपाऽप्यभिग्रहविशेषात् पोढा, तत्र प्रथमा पेटा-वंशदलमयं वखाविस्थानं जनप्रतीतं, सा च चतुरस्रा भवति, स्थापना ततश्च साधुरभिग्रह विशेषाद्यस्यां चर्यायां प्रामादिक्षेत्रं पेटावचतुरस्र विभजन्विहरति सापेटेत्युच्यते, एवम पेटाऽपि एतदनुसारेण वाच्या, गोमूत्रणं गोमूत्रिका तद्वद्या सा तथा, इयं हि परस्पराभिमुखगृह-| [५६६] Enata *Indiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~734~ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१५] (०३) प्रत सूत्रांक [५१५] दीप अनुक्रम भीयाना-पाचोरेकस्यां गत्वा पुनरितरस्यां पुनस्तस्यामेवेत्येवं क्रमेण भावनीया, पतङ्गः-शलभस्तस्य वीथिका-मार्गः तद्वद्या सास्थाना० असूत्र- स्था, पतङ्गगतिहिं अनियतकमा भवति एवं याऽनाश्रितकमा सा तथा, 'संयुकवति संबुका झालबच्छा- उद्देश:३ -वृत्ति : ममिवदित्वों या वृत्ता सा संबुलवृत्तेति, इयं च द्वेधा, तत्र यस्यां क्षेत्रबहिर्भागाच्छवृत्तत्वगत्याऽटन क्षेत्र- क्षुद्राः गो मध्यमागमायाति साऽभ्यन्तरसंबुका, यस्यां तु मध्यभागाद् बहियाति सा बहिन्सम्युकेति, 'गंतुं पञ्चागर्यति उपा- चरचर्या ॥६६॥ श्रयान्निर्गतः सन्नेकस्यां गृहपको भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् पुनर्द्वितीयायां गृहपको यस्यां मिझते अपकान्तसा गत्वाप्रत्यागता, गत्वा प्रत्यागतं यस्यामिति च विग्रह इति । अनन्तरं साधुचर्योक्तति क्यापस्तावादसा- निरयाः चर्याफलभोक्तुस्थानविशेषाभिधानाय सूत्रद्वयं-'जंबूद्दीवे'त्यादि सुगम, नवरं 'अवनति अपक्रान्ता-सर्वशुन- सू०५१३मावेभ्योऽपगता-भ्रष्टास्तदन्येभ्योऽतिनिकृष्टा इत्यर्थः, अपकान्ता वा-अकमनीया, सर्वेऽप्येवमेव नरकार, विशे- ५१५ पतीते इति दर्शनार्थं विशेषणमिति सम्भाव्यते, तेच ते महानरकाश्चेति विग्रहः, एतेषां चैवं प्ररूपणा-"तेरि-। कारस नव सत्त पंच तिन्नेव हॉति एको य । पत्थडसक्ला एसा सत्तसुवि कमेण पुढवीसु ॥१॥"[प्रयोदशैकादश नव सप्त पंच यो भवति एक एव सप्तस्वपि पृथ्वीषु क्रमेणैषा प्रस्तटसध्या ॥१॥] एवमेकोनपञ्चाशवालटार, एतेषु क्रमणतावन्त एव सीमन्तकादयो वृत्ताकारा नरकेन्द्रकाः, तत्र सीमन्तकस्य पूर्वादिदिक्षु एकोनपञ्चाशत्रमाणा नरका४ वली विदिक्षु चाष्टचत्वारिंशत्रमाणेति प्रतिप्रस्तटमुभयै कैकहान्या सप्तम्यां दिश्वकैक एव विदिक्षु न सन्त्येवेति, उ ॥ ३६६ ॥ च-"एगूणुवन्ननिरया सेढी सीमंतगस्स पुग्वेणं । उत्तरओ अवरेण य दाहिणओ चेव बोजव्या ॥१॥ अडयोली EXAM । [५६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 735~ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१५] (०३) प्रत सूत्रांक [५१५] दीप अनुक्रम सं निरया सेढी सीमंतगस्स बोद्धन्वा । पुच्चुत्तरेण नियमा एवं सेसासु विदिसासु ॥२॥ एकको ये दिसासु मन्झे नि-II रओ भवेऽपइट्ठाणो । विदिसानिरयविरहियं तं पयरं पंचगं जाण ॥३॥" [एकोमपंचाग्निरयाणां श्रेणिः सीमन्तकस्य पूर्वस्या उत्तरस्यामपरस्यां दक्षिणतश्च बोद्धव्या ॥१॥ सीमन्तकस्य पूर्वोत्तरस्यां अष्टचत्वारिंशतो नरकाणी श्रेणिनियमाद् बोद्धव्या एवं शेषास्वपि विदिशासु ॥२॥ विश्वकैको मध्ये च अप्रतिष्ठानो निरयवासो भवेत् विदिनरकविरहित तनस्तरं पंचमय जानीहि ॥३॥] सीमन्तकस्य च पूर्वादिषु विक्षु सीमन्तकप्रभादयो नरका भवन्ति, तदुक्तम्"सीमंतकप्पभो खलु निरओ सीर्मतगस्स पुग्येण । सीमंतगमज्झिमओ उत्तरपासे मुणेयब्बो ॥१॥ सीमंतावत्तो पुण | निरओ सीमंतगस्स अवरेणं । सीमंतगावसिट्ठो दाहिणपासे मुणेयच्चो ॥२॥” इति, [ सीमन्तकप्रभा खलु निरयः सीमन्तकस्य पूर्वस्यां सीमन्तकमध्यमः उत्तरपार्चे ज्ञातव्यः ॥ १॥ सीमन्तावतः पुननिरयः सीमन्तकस्यापरखां सीमन्तकावशिष्टो दक्षिणपाचे ज्ञातव्यः॥२॥] ततः पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु सीमन्तकापेक्षया तृतीयादयः प्रत्येकमाव-5 |लिकासु क्लियादयो नरका भवन्तीति, एवं चैते लोलादयः पडप्यावलिकागतानां मध्ये अधीता विमाननरकेन्द्रका ये अन्धे, यतस्तत्रोक्तम्-"लोले तह लोलुए चेव" इति, [लोलस्तथा लोलुपश्चैव एतौ चावलिकाया: पर्यनितमी तथा 'उदहे च निद्दडे'त्ति [उद्दग्धश्चैव निर्दग्धः] एतौ सीमन्तकप्रभाविंशतितमैकविंशाविति, तथा 'जरए तह पेय पजरए'त्ति [जरकस्तथैव प्रजरकः] पश्चत्रिंशत्तमषट्त्रिंशत्तमौ, केवल लोलो लोलुप इत्येवं शुद्धपदैः सर्वनरकाणां पूर्वावलिकायामेवाभिलापः, उत्तरदिगाद्यावलिकासु पुनरेभिरेव सविशेषैर्नामभिर्नरका अभिलप्यन्ते, तद्यथा-उत्तरायां [५६६]] - 12 JABERatinintimation wranjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 736~ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१५] दीप अनुक्रम [५६६ ] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ३६७ ॥ "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [५१५] स्थान [६], उद्देशक [-1. Education Indianationa - लोलमध्यो लोलुपमध्य इत्यादि, एवं पश्चिमायां लोलावर्त्तो दक्षिणाया लोलावशिष्ट इत्यादि, उक्तं च-- “ मज्झा उत्तरपासे आवत्ता अवरओ मुणयन्त्रा । सिट्टा दाहिणपासे पुब्विलाओ विभइयच्चा ॥ १ ॥” इति [ उत्तरपार्श्वे ठोठमध्या अपरस्यां ढोलावर्त्ताः ज्ञातव्याः दक्षिणपार्श्वे टोलशिष्टाः पूर्वदिका विभक्तव्याः ॥ १ ॥ ] इह तु दक्षिणानामेषां विवक्षितत्वेन लोलावशिष्ट इत्यादिवक्तव्येऽपि सामान्याभिधानमेव निविशेषं विवक्षितमिति सम्भाव्यते । 'चडत्थीए'त्ति पङ्कप्रभायां अपक्रान्ता अपकान्ता वेत्यादि तथैव, इह च सप्त प्रस्तटाः सप्तैव नरकेन्द्रकाः, यथोक्तम् - "आरे मारे नारे तत्थे तमए य होइ बोद्धव्ये । खाडखडे व खडखडे इंदयनिरया चत्थीए ॥ २ ॥ इति [ आरो मारो नारस्तावः | तमस्कश्च भवति बोद्धव्यः । खाडखडश्च खंडखड : इंद्रकनिरयाश्चतुर्थ्यां ॥ १ ॥ ] तदेवं आरा मारा खाडखडा नरकेन्द्रकाः, अन्ये तु वाररोररोरुकाख्याखयः प्रकीर्णकाः, अथवा इन्द्रका एव नामान्तरैरुक्ता इति सम्भाव्यत इति । अनम्तरमा पुर्याोस्थानात सायकल भोयाविशेषानाह भलोगे णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पं० [सं० - अरते विरते पीरते निम्मले वितिमिरे विसुद्धे ( सू० ५१६) चंदस्ल जोतिसिंदरस जोतिसरन्नो छ णक्खत्ता पुर्व्वभागा समखेत्ता तीसतिमुहुचा पं० नं० - पुव्वाभद्दवया कत्तिता महा पुन्वाफग्गुणी मूलो पुव्वासाढा । चंदस्स णं जोतिसिंदुस्स जोतिसरण्णो छ णक्खत्ता णत्तंभागा अवडक्सेता पन्नरसमुहुत्ता पं० तं० सयभिसता भरणी अद्दा अस्सेसा साती जेट्ठा। चंदस्स णं जोइसिंद्स्स जोतिसरनो छ नक्खत्ता उभयंभागा दिवसेत्ता पणयाली समुहुत्ता पं० [सं० - रोहिणी पुणब्वसू, उत्तराफग्गुणी बिसादा उत्तरासाठा उत्तराभद्दवया (सू० ५१७ ) For Fans Only ६ स्थाना० उद्देशः ३ विमानप्र ~737~ स्तदाः पूर्वभागा दीनि न क्षत्राणि सू० ५१६५१७ ॥ ३६७ ॥ www.incibrary or [०३], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१७] दीप अनुक्रम [५६८] स्था० ६२ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५१७] स्थान [ ६ ], उद्देशक [-], 'भे'त्यादि, 'बंभलोए'ति पञ्चमदेवलोके षडेव विमानप्रस्तटाः प्रज्ञप्ता, आह च - "तेरस ई बारस छ५ पंच चैव ६ चतारि ७८ उसु कप्पेसु । गेवेज्जेसु तिय तिय ३-३-३ एगो य अणुत्तरेसु १ भवे ॥ १ ॥ त्ति, [त्रयोदश द्वादश षटू ५ पंच ६ चैव चत्वारः ७-८ - चतुर्षु कल्पेषु चैवेयकेषु त्रयस्त्रयः एकश्चानुत्तरेषु भवेत् ॥ १॥ ] | १३-१२-६-५-१६ ९ १ सर्वेऽपि ६२, तद्यथा-अरजा इत्यादि सुगममेवेति । अनन्तरं विमानवक्तव्यतोकेति तत्प्रस्तावानक्षत्रविमानवक्तव्यतां सूत्रत्रयेणाह -- 'चंदस्से' त्यादि व्यक्तं, नवरं 'पुब्बं भाग 'त्ति पूर्वमिति - पूर्वभागेनाग्रेणेत्यर्थो भज्यन्ते अप्राप्तेनैव चन्द्रेण सेव्यन्ते युज्यन्ते इतियावदिति पूर्वभागानि, अनुस्वारश्च प्राकृतत्वादिति, चन्द्रस्याप्रयोगीनि, चन्द्र एतान्यप्राप्तो भुङ्क्ते इति लोकश्रीप्रोक्ता भावनेति, उक्तं च तत्रैव - "पुव्वा तिनि य मूलो मह कित्तिय अग्गिमा जोगा” इति, [ त्रीणि च पूर्वाणि मूलं मघा कृत्तिका एतान्यग्रिमयोगानि ] 'समं' स्थूलन्यायमाश्रित्य त्रिंशन्मुहूर्त्तभोग्यं क्षेत्रं- आका शदेशलक्षणं येषां तानि समक्षेत्राणि, अत एवाह- 'त्रिंशन्मुहर्त्तानि' त्रिंशतं मुहर्त्ताश्चन्द्रभोगो येषां तानि तथा, 'णसंभाग'त्ति नभागानि चन्द्रस्य समयोगीनीत्यर्थः, उक्तं च- " अद्दाऽसेसा साई सयभिसमभिई य जेट्ट समजोगा" [ आर्द्राऽश्लेषा स्वातिः शतभिषक् अभिजित् ज्येष्ठा समयोगानि ॥ ] केवलं भरणीस्थाने लोकश्रीसूत्रे अभिजितेति मतविशेषो दृश्यत इति, अपार्द्ध-समक्षेत्रापेक्षया अर्द्धमेव क्षेत्रं येषां तानि तथा, अर्द्धक्षेत्रत्वमेवाह-- 'पंचदशमुहर्त्ता नीति, 'उभयभाग'त्ति चन्द्रेणोभयतः- उभयभागाभ्यां पूर्वतः पश्चाश्चेत्यर्थी भज्यन्ते भुज्यन्ते यानि तान्युभयभागानि, चन्द्रस्य पूर्वतः पृष्ठतश्च भोगमुपगच्छन्तीत्यर्थः इति भावना लोकश्रीभणितेति, उक्तं च-- “उत्तरतिनि विसाहा पुणब्वसू For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~738~ incibay.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [११७] (०३) श्रीस्थानागसूत्र ॥३६८॥ प्रत सूत्रांक [५१७]] दीप अनुक्रम [५६८] रोहिणी उभयजोगा॥” इति, [त्रीण्युत्तराणि विशाखा पुनर्वसू रोहिणी उभययोगानि ॥] द्वितीयमपाई यत्र तत् व्यपार्द्ध स्थाना. सार्द्धमित्यर्थः, क्षेत्रं येषा तानि तथा, यतः पञ्चचत्वारिंशन्मुह नीति, अन्यानि दश पश्चिमयोगानि, पूर्वभागादिनक्षत्राणां || उद्देश ३ गुणोऽयं,-'उक्तक्रमेण नक्षत्रयुज्यमानस्तु चन्द्रमाः । सुभिक्षकृद्विपरीतं युज्यमानोऽन्यथा भवेत् ॥ १॥ इति । अनन्तरं || अभिचचन्द्रव्यतिकर उक्त इति किविच्छब्दसाम्यात्तद्वर्णसाम्यावा अभिचन्द्रकुलकरसूत्र, तद्वंशजन्मसम्बन्धादरतसूत्रं पार्श्व-12न्द्रःभरतः नाथसूत्रं च, जिनसाधम्योद्वासुपूज्यसूत्रं चन्द्रप्रभसूत्रं चाह पार्श्ववासुअभिचंदे णं कुछकरे छ घणुसवाई उडु उचत्तेणं हुत्था (सू० ५१८) भरहे णं राया पाउरतचायट्टी छ पुग्यसत. पूज्यच. सहस्साई महाराया हुस्था (सू०५१९) पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स छ सता बादीणं सदेवमणुयासुराते परि न्द्रप्रभाः साते अपराजियाणं संपया होत्था । वासुपुजे णं अरहा छहि पुरिससतेहिं सद्धिं मुंडे जाव पव्वइते । चंदप्पो णं अरहा त्रीन्द्रिय छम्मासे छउमत्थे हुत्था (सू० ५२०) तेतिबियाणं जीवाणं असमारभमाणस्स छबिहे संजमे कजति, सं०-घाणा संथमामातो सोक्खातो अबवरोवेत्ता भवति घाणामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति, जिम्मामातो सोक्खातो अबरोवेत्ता भवइ० संयमी एवं व फासामातोवि । तेइंदिवाणं जीवाणं समारभमाणस्स छबिहे असंजमे कजति, सं०-धाणामातो सोक्यातो सू०५१८ववरोवेत्ता भवति, घाणामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति, जाव फासमतेणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति (सू०५२१) ५२१ 'अभिचंदे' त्यादि, सुगमानि चैतानि, नवरं अभिचन्द्रोऽमुष्यामवसपिण्यां चतुर्थः कुलकरः। 'चाउरंत'त्ति चत्वा-12 ॥३६८॥ रोऽन्ताः-समुद्रत्रयहिमवलक्षणा यस्यां सा चतुरन्ता-पृथ्वी तस्या अयं स्वामीति चातुरन्तः स चासी चक्रवर्ती चेति Tangtaram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 739~ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१२१] (०३) प्रत सूत्रांक [५२१] चातुरन्त चक्रवर्ती, षट् पूर्वशतसहस्राणि-तल्लक्षाणि, पूर्व तु चतुरशीतिवर्षलक्षाणां तद्गुणेति । 'आदाणीयस्स'त्ति आदीयते-उपादीयते इत्यादानीयः उपादेय इत्यर्थः, पुरुषाणां मध्ये आदानीयः पुरुषश्चासावादानीयश्चेति या पुरुषादानीयस्तस्य । चन्द्रप्रभस्य षण्मासानिह छद्मस्थपर्यायो दृश्यते आवश्यके तु पद्मप्रभस्यासौ पठ्यते, चन्द्रप्रभस्य तु त्रीनिति मतान्तरमिदमिति । छद्मस्थश्चेन्द्रियोपयोगवान् भवतीतीन्द्रियप्रत्यासत्त्या त्रीन्द्रियाश्रितं संयममसंयमं च प्रतिपादयन् सूत्रद्वयमाह-'तेइंदिए'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'असमारभमाणस्सत्ति अव्यापादयतः, 'घाणामाउ'त्ति प्राणमयासौख्यात् गन्धोपादानरूपात् अव्यपरोपयिता-अभ्रंशका, घ्राणमयेन-गन्धोपलम्भाभावरूपेण दुःखेनासंयोजयिता भवति, इह चाव्यपरोपणमसंयोजनं च संयमोऽनाश्रवरूपत्वादितरदसंयम इति । इयं च संयमासंयमप्ररूपणा मनुष्यक्षेत्र एवेति मनुष्यक्षेत्रगतषट्स्थानकावतारि वस्तुप्ररूपणाप्रकरणं 'जंबुद्दीवेत्यादिकं पञ्चपश्चाशत्सूत्रप्रमाणमाह जंबुद्दीवे २ छ अकस्मभूमीयो पं० २०-हेमवते हेरण्णवते हरिवसे रम्मागवासे देवकुरा उत्तरकुरा १ । जंबुरी २ छब्बासा पं० त०-भरहे एरवते हेमवते हेरनयए हरिवासे रम्मगवासे २ । जंबुद्दीधे २ छ वासहरपब्वता पं० सं०चुलहिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रूप्पि सिहरी ३ । जंवूमंदरदाहिणे ण छ कूडा पं० ०-चुल्लहिमवंतकूडे वेसमणकूडे महाहिमवंतकूडे वेरुलितकूडे निसढकूडे रुयगाडे ४ । जंवूमंदरउत्तरे थे छ कूडा पं० त०-लवंतकूड़े उवदसणकूडे रुप्पिकूडे मणिकंचणकूडे सिहरिकूडे तिगिच्छकूडे ५। जंबूहीवे २ छ महदहा पं० २०-पउमदहे महापउमरहे तिगिच्छदहे केसरिरहे महापोंडरीयबहे पुंडरीयदहे ६ । तत्थ णं छ देवयाओ महडिवाओ जाब पलिओवम दीप अनुक्रम [५७२ HANDrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~740~ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१२२] (०३) श्रीस्थाना प्रत ॥३६९॥ सूत्रांक [५२२] द्वितीतातो परिवसंति, सं०-सिरि हिरि घिति कित्ति बुद्धि लच्छी ७ । जमवरदाहिणे णे छ महानईओ पं. स्थाना० तं०-गा सिंधू रोहिया रोहितसा हरी हरिकता ८ । जंबूमंदरउत्तरे थे छ महानतीतो पं० सं०-रकता नारिकता उद्देशः३ सुवनकूला रुपकूला रत्ता रत्तवती ९ । जंबूमंदरपुरच्छिमे णं सीताते महानदीते उभयफूले छ अंतरनईओ पं० तं. अकर्मभू-गाहावती दहावती पंकवती तत्तजला मत्तजला उम्मत्तजला १० । अंचूमंदरपश्चत्यिमे णं सीतोदाते महानतीते उभय भ्याद्या कूले छ अंतरनदीभो पं० त०-खीरोदा सीहसोता अंतोवाहिणी उम्मिमालिणी फेणमालिणी गंभीरमालिणी ११ । ऋतवोजधायइसंडदीवपुरच्छिमद्धेणं छ अकम्मभूमीओ पं० त०-हेमवए, एवं जहा जंबुद्दीवे २ तहा नदी जाव अंतरण- मरात्रा अदीतो २२ जाव पुक्खरवरदीवद्धपञ्चत्थिमद्धे भाणितव्यं ५५ (सू० ५२२) छ उदू पं००-पाउसे परिसारचे स- तिरात्राः रए हेमंते वसंते गिम्हे १ (सू० ५२३) छ ओमरचा पं००-ततिते पव्वे सत्तमे पब्बे एकारसमे पन्ने पन्नरसमे पब्वे सू०५२२एगूणवीसहमे पव्वे तेवीसइमे पव्वे २ । छ अइरत्ता पं० २०-चजत्थे पव्वे अहमे पन्ने दुवालसमे पन्ने सोलसमे पव्ये वीसहमे पव्वे चउचीसइमे पव्वे ३ (सू०५२४) सुबोध चैतत्, नवरं कूटसूत्रे हिमवदादिषु वर्षधरपवतेषु द्विस्थानकोतक्रमेण द्वे द्वे कूटे समवसेये इति । अनन्तरो-12 पवर्णितरूपे च क्षेत्रे कालो भवतीति कालविशेषनिरूपणाय 'छ उऊ' इत्यादि सूत्रत्रयं, सुगर्म चेदं, नवरं 'उडु'त्ति द्विमासप्रमाणकालविशेष ऋतुः, तत्राषाढश्रावणलक्षणा प्रावृट् एवं शेषाः क्रमेण, लौकिकव्यवहारस्तु श्रावणाद्या वर्षा ॥३६९॥ शरद्धेमन्तशिशिरवसन्तग्रीष्माख्या ऋतव इति, 'ओमरत्त'त्ति अवमा-हीना रात्रिरवमरात्रो-दिनक्षयः, 'पब्बत्ति अ ACCOCCASACROCOCESS ५२४ दीप अनुक्रम [५७३] airmianmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~741~ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१२४] (०३) प्रत सूत्रांक [५२४] दीप अनुक्रम दमावास्था पौर्णमासी वा तदुपलक्षितः पक्षोऽपि पर्व, तत्र लौकिकग्रीष्मत्तौ यत्तृतीय पर्व-आषाढकृष्णपक्षस्तत्र, सप्तम पर्व-भाद्रपदकृष्णपक्षस्तत्र, एवमेकान्तरितमासानां कृष्णपक्षाः सर्वत्र पाणीति, उक्तं च-"आसाढबहुलपक्खे भद्द-1 पए कत्तिए अपोसे य । फागुणवइसाहेसु य बोडब्बा ओमरत्ताउ ॥१॥" [आषाढासितपक्षे भाद्रपदे कार्तिके च | पौषे च फाल्गुनवैशाखयोश्च बोद्धव्या अवमरावयः॥१॥] 'अइरत्त'त्ति अतिरात्रः अधिकदिन दिनवृद्धिरितियावत् चतुर्थं पर्च-आषाढ शुक्लपक्षः, एवमिहकान्तरितमासानां शुक्लपक्षाः सर्वत्र पाणीति । अयं चातिरात्रादिकोऽथों ज्ञाने-12 नावसीयन्त इत्यधिकृताध्ययनावतारिणो ज्ञानस्याभिधानाय सूत्रद्वयमाह आमिणियोहियणाणस्स णं छबिहे अत्थोग्गहे पं० २०-सोइंदियत्थोग्गहे जाव नोइंदियस्थोगहे (सू० ५२५) छबिहे भोदिणाणे पं० त०- आणुगामिए अणाणुगामिते वडमाणते हीयमाणते पडिवाती अपडिवाती (सू० ५२६) नो कप्पद निर्माथाण वा २ इमाई छ अवतणाई वदित्तते तं०-अलियवयणे हीलिअवयणे खिसितवयणे फरसवयणे गारस्थियवयणे विउसवितं वा पुणो उदीरित्तते (सू० ५२७) 'आभी'त्यादि, सुगम, नवरं अर्थस्य सामान्यस्य श्रोत्रेन्द्रियादिभिः प्रथममविकल्प्यं शब्दोऽयमित्यादिविकल्परूपं चो-10 त्सरविशेषापेक्षया सामान्यस्थावग्रहणमर्थावग्रहः, स च नैश्चयिक एकसामयिको व्यावहारिकस्त्वान्तमौहर्तिका, अर्थविशेपितत्वाद् व्यञ्जनावग्रहन्युदासः, स हि चतुर्धा । 'आणुगामिए'त्ति अननुगमनशीलमनुगामि तदेवानुगामिक-देशान्तरगतमपि ज्ञानिनं यदनुगच्छति लोचनवदिति, यत्तु तद्देशस्थस्यैव भवति तद्दे शनिबन्धनक्षयोपशमजत्वात् स्थानस्थदीप [५७५] JanEain Decsonamom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~742~ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१२७] (०३) प्रत सूत्रांक [५२७]] दीप अनुक्रम [५७८] श्रीस्थाना व देशान्तरगतस्य स्वपैति तदनानुगामिकमिति, उक्तं च-"अणुगामिओऽणुगच्छइ गच्छन्तं लोअणं जहा पुरिस स्थाना० नसूत्र- भइयरो य नाणुगच्छइ ठिअप्पईवोच्च गच्छंतं ॥१॥" इति [आनुगामिकोऽवधिर्गच्छन्तमनुगच्छति यथा पुरुष लोचनं उद्देशः ३ वृत्तिः इतरश्च स्थितप्रदीप इव गच्छन्तं नानुगच्छति ॥१॥] यनु क्षेत्रतोऽजलासययभागविषयं कालत आवलिकासळ्येयभा- अथोवन गविषयं द्रव्यतस्तेजोभाषाद्रब्यान्तरालवर्तिद्रव्यविषयं भावतस्तद्गतसमयेयपोयविषयं च जघन्यतः समुत्सद्य पुनर्वृद्धिं- हा अवध३७०॥ काविषयविस्तरणात्मिकां गच्छदुत्कर्षणालोके लोकप्रमाणान्यसङ्घधेयानि खण्डान्यसयेया उत्सपिण्यवसर्पिणीः सर्वरूपिद्रव्याणियोऽवच प्रतिद्रव्यमसमवेयपर्यायांश्च विषयीकरोति तद्बर्द्धमानमिति, उक्तं च-"पइसमयमसंखेजइभागहियं कोइ संखभागहियं । नानि | अन्नो संखेजगुणं खेत्तमसंखेजगुणमन्नो ॥१॥ पेच्छइ विवह्यमाणं हार्यतं वा तहेव कालंपि" इत्यादि, [प्रतिसमयमसं- सू०५२५ख्यभागाधिकं कोऽपि संख्यभागाधिकं अन्यः संख्यातगुणं क्षेत्रमन्योऽसंख्यातगुणं ॥१॥ प्रेक्षते विवर्द्धमानेन हीयमानेन वा तथैव कालमपि] तथा बजघन्येनाङ्गलासङ्ख्येयभागविषयमुत्कर्षेण सर्वलोकविषयमुखद्य पुनः सङ्क्लेशवशात् ४ क्रमेण हानि-विषयसङ्कोचात्मिकां याति यावदङ्गलासमधेयभागं तद्धीयमानमिति, तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति-उत्कर्षण लोकविषयं भूत्वा प्रतिपतति, तथा तद्विपरीतमप्रतिपाति, येनालोकस्य प्रदेशोऽपि दृष्टस्तदप्रतिपात्येवेति, आह च"उकोस लोगमित्तो पडिवाइ परं अपडिवाइ" इति ।[उत्कृष्टो लोकमात्रः प्रतिपाती परतोऽप्रतिपाती॥] एवंविधज्ञानवतां च यानि वचनानि वरून कल्पन्ते तान्याह-'नो कप्पतीत्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'अवयणाईति नजः कुत्सार्थत्वात् कु-II सितानि वचनानि अवचनानि, तत्रालीक-प्रचलायसे किं दिवेत्यादिप्रश्नेन प्रचलाये इत्यादि, हीलितं-सासूर्य गणिन् !! 2006 Nirajaniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~743~ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१२७] (०३) प्रत सूत्रांक वाचक! ज्येष्ठायेंत्यादि, सिंसितं-जम्मकर्माधुघट्टनतः परुष-दुष्ट शैक्षेत्यादि गारंति अगारं-गेहं तद्वत्तयो अगार-13 स्थिता-गृहिणः तेषां यत्तदगारस्थितवचनं पुत्र मामक भागिनेयेत्यादि, उक्तं च-"अरिरे माहणपुत्ता अब्चो बप्पोत्ति भाय मामोत्ति । भट्टिय सामिय गोमिय (भोगि) (लहुओ लहुआ य गुरुआ य ॥१॥)ति [अरे रे ब्राह्मण पुन बप्प! भ्रातः माम इति भतः स्वामिन् भोगिन् लघुलेघवो गुरवश्च ॥१॥] व्यवशमितं वा-उपशमितं वा पुनरुदीरयितुं न कल्पत इति प्रक्रमोऽवचनवादस्येति, अनेन च व्यवशमितस्य पुनरुदीरणवचनं नाम षष्ठमवचनमुक्तम्, | गाथा-"खामिय वोसमियाई अहिगरणाई तु जे उदीरेंति । ते पावा नायब्वा तेसिं चारोवणा इणमो ॥१॥" इति, [क्षामयित्वा व्युपशमितान्यधिकरणानि य एवोदीरयन्ति । ते पापा ज्ञातव्यास्तेषां चैषाऽऽरोपणा ॥१॥] अवचनेषु प्रा-IX यश्चित्तप्रस्तारो भवतीति तानाह छ कप्पस्स पत्यारा पं० २०-पाणातिवायरस वायं वयमाणे १ मुसाबायस्स यादं वयमाणे २ अदिनादाणस्स वाई वयमाणे ३ अविरतिवायं वयमाणे ४ अपुरिसवातं वयमाणे ५ दासवायं वयमाणे ६ इन्चेते छ कप्पस्स पत्थारे पत्थरेत्ता सम्ममपरिपूरेमाणो तढाणपत्ते (सू० ५२८) छ कप्पस्स पलिभंथू पं० २०-कोकुतिते संजमस्स पलिमंधू १ मोहरिते सथवयणस्स पलिभ) २ चक्षुलोलुते रितावहिताते पलिम) ३ तितिणिते एसणागोतरस्स पलिमंथू ४ इच्छालोमिते मोत्तिमग्गरस पलिमथू ५ मिजाणिताणकरणे मोक्यमग्गरस पलिमंथू ६ सब्बत्य भगवता अणिताणता पसस्था (सू०५२९) छम्बिहा कपठिती पं० त०-सामातितकापठिती छेत्तोवट्ठावणितकप्पठिती निविसमाणकप्पठिती णिविट्ठकप्पद्विती जिणकप्पठिती [५२७] दीप अनुक्रम [५७८] ASSADODALSSES मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~744~ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३०] (०३) उद्देशः श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः प्रत ॥३७१॥ सूत्रांक [५३०] दीप अनुक्रम [५८१] थिविरकप्पठिती (सू०५३०) समणे भगवं महावीरे छडेणं भत्तेणं अपाणएणं मुंडे जाब पब्बइए । समणस्स भगवओ ६ स्थाना महावीरस्स छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं अणंते अणुत्तरे जाव समुप्पन्ने । समणे भगवं महावीरे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं सिझे जाव सम्वदुक्खप्पहीणे (सू० ५३१) सणंकुमारमाहिदेसु णं कप्पेसु विमाणा छ जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं प प्रस्तारा: पभत्ता, सर्णकुमारमाहिदेसु णं कप्पेसु देवार्ण भवधारणिज्जगा सरीरगा उकोसेणं छ रतणीओ उई उपत्तेणं पं० (सू०५३२) [रिमन्थवः 'छ कप्त्यादि, कल्पः-साध्वाचारस्तस्य सम्बन्धिनस्तद्विशुद्यर्थत्वात् प्रस्ताराः-प्रायश्चित्तस्य रचनाविशेषाः, तत्र प्रा-18वीरः सनणातिपातस्य वाद-वाती वाचं वा वदति साधौ प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीत्येका, यथा अन्यजनविनाशितददुरे ग्यस्तपादं कुमारमाभिक्षुमुपलभ्य क्षुल्लक आह-साधो! ददुरो भवता मारितः, भिक्षुराह-नैवं, क्षुल्लक आह-द्वितीयमपि व्रतं ते नास्ति, हेन्द्रवि. ततः क्षुलको भिक्षाचर्यातो निवृत्त्याचार्यसमीपमागच्छतीत्येकं प्रायश्चित्तस्थानं, ततः साधयति यथा तेन दर्दुरो मारित | मानश-- इति प्रायश्चित्तान्तरं, ततोऽभ्याख्यातसाधुराचार्येणोक्तः यथा दर्दुरो भवता मारितः१, असावाह-नैवमिह शुलकस्य * रीरे प्रायश्चित्तान्तरं, पुनः क्षुल्लक आह-पुनरप्यपलपसीति, भिक्षुराह-गृहस्थाः पृच्छ-चन्तां, वृषभा गत्वा पृच्छन्तीति प्राय-12सू०५२८चित्तान्तरमित्येवं योऽभ्याख्याति तस्य मृपावाददोष एव, यस्तु सत्यमारितं निहते तस्य दोषद्वयमिति १, अत्रोक्तम्"ओमो चोइज्जतो दुपहियाएमु संपसारेइ । (पर्यालोचयति> अहमविणं चोइस्सं न य लभए तारिसं छिदं ॥१॥ अनेण घाइए दहुरंमि दई चलण कय ओमो । पहिओ हा एसु तुमे नवत्ति बीयपि ते णस्थि ॥२॥" इत्यादि, [ अ-12 ॥३७१॥ वमोद्यमानो दुष्पेक्षितादिषु पोलोचयति अहमपि चोदयिष्ये न च लभते तादृशं छिद्रं ॥१॥ अन्येन घातितं ददुर www.janorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~~745~ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३२] (०३) प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम दृष्ट्वा चरणं कृतमवमः हा एष त्वया हतः नैवेति तव द्वितीयमपि नास्ति ॥२॥] तथा मृषावादस्य सत्कं वाद-विक ल्पनं वार्ती वा वदति साधौ प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति, तथाहि-कचित् संखड्यामकालत्वात् प्रतिषिद्धी साधू अन्यत्र है गती, ततो मुहत्तान्तरे रत्नाधिकेनोक्तम्-बजामः संखड्यामिदानी भोजनकालो यतस्तत्रेति, लघुर्भणति-प्रतिषिद्धोऽहं| न पुनर्बजामि, ततोऽसौ निवृत्त्याचार्यायेदमालोचयति यथा-अयं दीनकरुणवचनैर्याचते, प्रतिषिद्धोऽपि च प्रविशति एषणां प्रेरयतीत्यादि, ततो रखाधिकमाचार्यों भणति-साधो! भवानेवं करोति ?, स आह-नैवमित्यादि, पूर्ववत्नस्तारः २, इहाप्युक्तम्-"मोसंमि संखडीए मोयगगहणं अदत्तदाणमि । आरोवणपत्थारो तं चेव इमं तु नाणतं ॥१॥ दीणक लुणेहिं जायइ पडिसिद्धो विसइ एसणं हणइ । जंपइ मुहप्पियाणि य जोगतिगिच्छानिमित्ताई ॥२॥" [ मृषावादे संद्र खव्यां अदत्तादाने मोदकग्रहणं आरोपणप्रस्तारः स एव इदं तु नानात्वं ॥१॥ दीनकरुणैर्याचते प्रतिषिद्धो विशत्येषणां |च हन्ति जल्पति मुखप्रियाणि च योगचिकित्सानिमित्तानि युनक्ति ॥२॥] इत्यादि, एवमदत्तादानस्य पाद बदति, अत्र भावना एकत्र गेहे भिक्षा लब्धा सा अवमेन गृहीता यावदसौ भाजनं संमार्टि तावद्रत्नाधिकेन संखयां मोदका लब्धास्तानवमो दृष्ट्वा निवृत्त्याचार्यस्यालोचयति-यथाऽनेनादत्ता मोदका गृहीता इत्यादि, प्रस्तारः प्राग्वदिति ३, एवमविरतिः-अब्रह्म तद्वादं वाती वा अथवा न विद्यते विरतिर्यस्याः सा अविरतिका-स्त्री तद्वादं तद्वार्ती वा, तदासेवाभणनरूपां वदति, तथाहि-अवमो भावयति एप रत्नाधिकतया मां स्खलितादिषु प्रेरयति, ततो रोषादभ्याख्याति-"ज. हजेण अकर्ज सज्ज अज्जाघरे कयं अज । उबजीविओ य भंते! मएवि संसहकप्पोज्थ ॥१॥" [ज्येष्ठार्येणाकार्य [५८३] andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 746~ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३२] (०३) श्रीस्थाना- सूत्र वृत्तिः सि प्रत ॥ ३७२॥ सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम अद्यार्यागृहे सद्यः कृतं भदन्त मयापि अत्र संस्पृष्टकल्प उपजीवितः॥१॥] (अहमपि तजुक्ता भुक्तवानित्यर्थः >स्थाना प्रस्तारभावना प्राग्वत् ४, तथा अपुरुषो-नपुंसकोऽयमित्येवं बादं वाचं वार्ती वा वदतीति, इह समासः प्रतीत एवाला उद्देशः३ |भावनाऽत्र-आचार्य प्रत्याह-अयं साधुर्नपुंसक, आचार्य आह-कथं जानासि ?, स आह-एतन्निजकरहमुक्ता- किस्ताराप| भवतां कल्पते प्रवाजयितुं नपुंसकमिति, ममापि किश्चित्सल्लिङ्गदर्शनाच्छङ्कर अस्तीति, प्रस्ताः प्राग्वत् , अवाप्युक्तम्- रिमन्धवः "तइओत्ति कहं जाणसि? दिवा णीया सि तेहि मे वृत्त । बट्टइ तइओ तुम्भं पवावे ममवि संका ॥१॥ दीसह वीरः सनय पाडिरूवं ठियचं कमियसरीरभासादी । बहसो अपुरिसवयणे पत्थारारोवणं कुजा ॥२॥” इति, [तृतीय इति, रकुमारमा कथं जानासि ?, दृष्टा निजकास्सैरहं उक्तः वर्तते तृतीयः युष्माकं प्रवाजयितुं, ममापि शंका ॥१॥ दृश्यते च प्रतिरूपं एव|४| हेन्द्र वि. स्थितं च कमितशरीरभाषादि बहशोऽपुरुषवचने प्रस्तारारोपणं कुर्यात् ॥१॥]५, तथा दासवादं वदति, भावना-कश्चि-1 मानशदाह-दासोऽयं, आचार्य आह-कथं?, देहाकाराः कथयन्ति दासत्वमस्येति, प्रस्तारः प्राग्वदिति, अत्राप्युक्तम्-"खर-I उत्ति कह जाणसि? देहागारा कहिति से हंदि । छिक्कोवण (शीघ्रकोपः > उभंडो णीयासी दारुणसहावो ॥१॥ दे सू०५२८हेण वा विरूवो खुजो बढभो य बाहिरप्पाओ। फुडमेवं आगारा कहति जह एस खरओ ति ॥२॥" [ दास इति, N कथं जानासि ?, तस्य देहाकाराः कषयन्ति शीघ्रकोपः उद्भांडः नीचाशी दारुणस्वभावः ॥ १॥ देहेन वा विरूपः कुब्जा मडभश्च वाह्यात्मा स्फुटमेवमाकाराः कथयन्ति यथैष दास इति ॥२॥] आचार्य आह-"कोइ सुरूवविरुवा खुजा म-18॥३७२।। डहा य बाहिरपा य । न हु ते परिभवियव्वा वयणं च अणारियं वो ॥१॥" इत्यादि, [केऽपि सुरूपा विरूपाः ५३२ [५८३] AMERIESENI Kinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~747~ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] Educato “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ५३२] स्थान [ ६ ], कुब्जा मडभा वाह्यात्मानश्च नैव ते परिभवनीयाः वचनं चानार्यकं वक्तुं ( योग्याः) ॥ १ ॥ ] इति ६, एवंप्रकारान् एताननन्तरोदितान् पटू कल्पस्य - साध्वाचारस्य प्रस्तारान् प्रायश्चित्तरचनाविशेषान् मासगुर्व्वादिपाराखिकावसानान् प्रस्तार्य-अभ्युपगमतः आत्मनि प्रस्तुतान् विधाय प्रस्तारयिता वा - अभ्याख्यानदायकसाधुः सम्यगप्रतिपूरयन्- अभ्या |ख्येयार्थस्यासद्भूततया अभ्याख्यानसमर्थनं कर्त्तुमशक्नुवन् प्रत्यगिरं कुर्वन् सन् तस्यैव-प्राणातिपातादिकर्तुरेव स्थानं प्राप्तो गतः तत्स्थानप्राप्तः स्यात् प्राणातिपातादिकारीव दण्डनीयः स्यादिति भावः अथवा प्रस्तारान् प्रस्तीर्य - विरचय्याचार्येण अभ्याख्यानदाता अप्रतिपूरयन्- अपरापरप्रत्ययवचनैस्तमर्थमसत्यमकुर्वन् तत्स्थानप्राप्तः कार्य इति शेषः, यत्र प्रायश्चित्तपदे विवदमानोऽवतिष्ठते न पदान्तरमारभते तत्पदं प्रापणीय इति भावः शेषं सुगममिति । कल्पाधिकारे सूत्रद्वयम् -'छ कप्पे त्यादि, षटू कल्पस्य कल्पोक्तसाध्वाचारस्य परिमनन्तीति परिमन्धवः, उणादित्वात्, पाठान्तरेण परिमन्था वाच्याः, घातका इत्यर्थः इह च मन्थो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च यत आह- "दव्वंमि मंथओ खलु तेणा मंथिज्जए जहा दहियं । दहितुलो खलु कप्पो मंथिज्जइ कुक्कुयाईहिं ॥ १ ॥” ति, [ द्रव्ये मन्थाः तेन यथा दध्यादि मध्यते खलु दधितुल्यः कल्प एव स कौकुच्यादिना मध्यते ॥ १ ॥ ] तत्र 'कुक्कुइए' त्ति 'कुच अवस्यन्दन' इति वचनात् कुत्सितं - अप्रत्युपेक्षितत्वादिना कुचितं-अवस्यन्दितं यस्य स कुकुचितः स एव कौकुचितः, कुकुचा वा अवस्यन्दनं प्रयोजनमस्येति कौकुचिकः, स च त्रिधा-स्थानशरीरभाषाभिः उक्तं च- "ठाणे सरीर भासा तिविहो पुण कुकुई समासेणं ॥” इति [ स्थाने शरीरे भाषायां च त्रिविधः कौकुची समासेन ॥ ] तत्र स्थानतो यो यन्त्रकवत् नर्त्तिकाश्रद्वा For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~748~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३२] (०३) वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम श्रीस्थाना भ्राम्यतीति, शरीरतो यः करादिभिः पापाणादीन् क्षिपति, उक्तं च-"करगोफणधणुपायाइएहि उच्छुहइ पत्थराईए। ६ स्थाना सूत्र- भमुहादाढियथणपुयविकंपणं णट्टवाइत्तं ॥१॥” इति, [करगोफणधनुःपादादिभिः क्षिपति प्रस्तरादीन् धूदंष्ट्रास्त-IX| उद्देशः३ नपुतविकंपनं नर्तिका ॥१॥] भाषातो यः सेण्टितमुखबादित्रादि करोति, तथा च जल्पति यथा परे हसन्तीति, मस्तारा:प उक्तं च-"छेलिअ मुहाइत्ते जपइ य तहा जहा परो हसइ । कुणइ य रुए बहुविहे वग्घाडियदेसभासाओ॥१॥" रिमन्थवः ॥३७३॥ *इति, [सेंटितमुखवादिवे जल्पति च तथा यथा परो हसति करोति च बहुविधानि रुतानि अनार्यदेशभाषाः॥१॥ वीरः सन४ अयं च त्रिविधोऽपि 'संयमस्य' पृथिव्यादिसंरक्षणादेः कायगुप्तिपर्यन्तस्य यथासम्भवं परिमन्थुर्भवत्येवेति १, 'मोह- त्कुमारमाGरिए'त्ति मुखं-अतिभाषणातिशयनवदस्तीति मुखरः स एव मौखरिको बहुभाषी, अथवा मुखेनारिमावहतीति निपातनात्दा हेन्द्रवि मौखरिका, उक्तं च-"मुखरिस्स गोन्ननामं आवहइ मुहेण भासतो ॥” इति, [ मौखर्यस्य गौणं नाभावहति (अरिं) मुखेन मानशभाषमाणः (यत्तत्) ॥] स च 'सत्यवचनस्य' मृषावादविरतेः परिमंथुः, मौखये सति मृषावादसम्भवादिति २, 'च-13 रीरे क्खुलोल'त्ति चक्षुषा लोल:-चञ्चलः चक्षुर्वा लोलं यस्य स तथा, स्तूपादीनालोकयन् ब्रजति य इत्यर्थः, इदं च धर्म- सू०५२८* कथनादीमामुपलक्षणं, आह च-"आलोयंतो वञ्चइ थूभाईणि कहेइ वा धम्मं । परियणाणुपेहण ण पेह पंथं अणुव- ५३२ उत्तो ॥१॥” इति, [स्तूपादीनालोकयन् ब्रजति धर्म वा कथयति परिवर्तनानुप्रेक्षे वाऽनुपयुक्तः पंथानं न प्रेक्षते G १॥] 'इरियायहिए'त्ति र्या-गमनं तस्याः पन्था-मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा या समितियोंसमितिलक्षणा सा ईयों-16॥३७६ ॥ पथिकी तस्याः परिमन्थुरिति, आह च-"छक्कायाण विराहण संजम आयाएँ कंटगाई या । आवडणभाणभेओ खद्धे [५८३] IBERatini मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~749~ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३२] (०३) % 82%ACACA प्रत सूत्रांक उडाह परिहाणी ॥१॥" इति, ३, [संयमे षट्रायानां विराधनाऽऽत्मनि च कंटकादयः। आपतनं भाजनभेदः प्राचयें। उडाहः परिहाणिश्च ॥१] 'तितिणिएत्ति तितिणिकोऽलाभे सति खेदाद् यत्किश्चनाभिधायी, स च खेदप्रधानत्वादेतषणा-उद्गमादिदोषविमुक्तभक्तपानादिगवेषणग्रहणलक्षणा तत्प्रधानो यो गोचरो-गोरिव मध्यस्थतया भिक्षार्थं चरणं स एपणागोचरस्तस्य परिमन्धुः, सखेदो हि अनेषणीयमपि गृह्णातीति भावः ४, 'इच्छालोभिए'त्ति इच्छा-अभिलापः स चासी लोभश्च इच्छालोभो, महालोभ इत्यर्थः, शुक्लशुक्लोऽतिशुक्लो यथा, स यस्यास्ति स इच्छालोभिको-महेच्छोऽधिकोपधिरित्यर्थः, उक्तं च-'इच्छालोभो उ उवहिमइरेग'त्ति [अतिरेकोपधिरिच्छालोभिका] स 'मुक्तिमार्गस्येति मुक्ति-निष्परिग्रहत्वमलोभत्वमित्यर्थः सैव मार्ग इव मार्गो निवृतिपुरस्येति ५, 'भिजत्ति लोभस्तेन यन्निदानकरणं-चक्रवर्तीन्द्राविऋद्धिप्रार्थनं तन्मोक्षमार्गस्य-सम्यग्दर्शनादिरूपस्य परिमन्थुः, आध्यानरूपत्वात्, भिध्याग्रहणायत्पुनरलोभस्य भवनिर्वेदमार्गानुसारितादिप्रार्थनं तन मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरिति दर्शितमिति, ननु तीर्थकरत्वादिप्रार्थनं न राज्यादिहै प्रार्थनवदुष्टमतस्तद्विषयं निदानं मोक्षस्थापरिमन्थुरिति, नवं, यत आह-'सब्वत्थे त्यादि, 'सर्वत्र तीर्थकरत्वचरमदे हत्वादिविषयेऽपि आस्तां राज्यादौ 'भगवता'जिनेन 'अनिदानता' अप्रार्थनमेव 'पसत्थ'त्ति प्रशंसिता-श्लाषि| तेति, तथा च-"इहपरलोगनिमित्तं अवि तित्धगरत्तचरमदेहत्तं । सम्बत्थेसु भगवया अणियाणत्तं पसत्थं तु ॥१॥" भइहपरलोकार्थे तीर्थकरत्वचरमदेहत्वे अपि (प्रार्थनं निदानं ) सर्वार्थेषु भगवताऽनिदानत्वं एव प्रशस्तं ॥१॥] एवमेव हि सामायिकशुद्धिः स्यादिति, उक्तं च-"पडिसिद्धेसु अ दोसे विहिएमु य ईसि रागभावेवि । सामाइयं असुद्धं सुखं सम [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] कर-पूनम IBEastu ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~750~ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३२] (०३) श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः ॥३७४॥ प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम याए दोण्हपि ॥१॥"ति [प्रतिषिद्धेषु च द्वेपे ईषद्रागभावेऽपि च विहितेषु सामायिकमविशुद्ध द्वयोरपि समतायामभावे स्थाना० शुद्धं ॥१॥] अयं चान्तिमपरिमन्थयोविंशेष:-"आहारोवहिदेहेसु, इच्छालोभो उ सजई । नियाणकारी संगं तु, कुरुते उद्देशः ३ उद्धदेहिकं ॥१॥ [आहारोपधिदेहेषु इच्छालोभस्तु सजति । निदानकारी त्वौर्ध्वदेहिकं संगं कुरुते ॥१॥] (पारलौकिक- प्रस्तारा:पमित्यर्थः>॥'कप्पठिईत्यादि, कल्पस्य-कल्पाद्युक्तसाध्वाचारस्य सामायिकच्छेदोपस्थापनीयादेः स्थितिः-मर्यादा कल्प-रिमन्यवः स्थितिः, तत्र सामायिककल्पस्थिति:-"सिजायरपिंडे या १ चाउज्जामे य २ पुरिसजिडे य३ । किइकम्मस्स य करणे ४ वीरः सनचत्तारि अवविया कप्पा ॥१॥" [सामायिकसाधूनामवश्यं भाविन इत्यर्थः> "आचेलकु१देसिय २ सपडिकमणे ३ याकुमारमारायपिंडे ४ य । मासं ५"] पज्जोसवणा ६ छप्पेतेऽणवद्विया कप्पा ॥२॥" नावश्यंभाविन इत्यर्थः, छेदोपस्थापनी हेन्द्रवियकल्पस्थितिः-"आचेल १ कुद्देसिय २ सेजायर ३ रायपिंड ४ कियकम्मे ५ । वय ६ जेट्ट ७ पडिक्कमणे ८ मासं ९ मानशपज्जोसवणकप्पे १०॥१॥ एतानि च तृतीयाध्ययनवज्ञेयानि, 'निब्बिसमाणकप्पट्टिई, निविट्ठकप्पटिइत्ति परिहार रीरे | विशुद्धिकरूपं वहमाना निर्षिशमानका यैरसौ व्यूढस्ते निर्विष्टास्तेषां या स्थिति:-मर्यादा सा तथा तत्र, "परिहारिय छम्मासे |सू०५२ तह अणुपरिहारियावि छम्मासे । कप्पढिओ छमासे एते अट्ठारसवि मास ॥१॥" ति [परिहारकाः षण्मासाननुपरि-II ५३२ हारिका अपि षण्मासान् । कल्पस्थितः षण्मासान् एतेऽष्टादश भासाः॥१॥] तथा जिनकल्पस्थिति:-"गच्छम्मि ॥३७४ ॥ सानिम्माया धीरा जाहे य गहियपरमत्था । अग्गहजोग्गअभिग्गह उचिंति जिणकप्पियचरितं ॥१॥” इति [गच्छे निष्णातः धीरो यदा च गृहीतपरमार्थः । अग्रहयोग्याभिग्रहे उपैति जिनकल्पिकचारित्रं ॥१॥] एवमादिका (अग्गहजोग्ग मा०५२८. [५८३] sairatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 751~ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३२] (०३) *** प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम * अभिग्गहे'त्ति कासाश्चिपिण्डैषणानामग्रहे योग्याना चाभिग्रहे अनयैव ग्राह्यमित्येवरूपे गृहीतपरमार्था इत्यर्थः> स्थ विरकल्पस्थिति:-"संजमकरणुज्जोया (उद्योगा:> निष्फायग नाणदसणचरित्ते । दीहाउ बुहुवासे वसही दोसेहि य विमुका ॥ १॥" [संयमकरणोद्योगा निष्पादका ज्ञानदर्शनचारित्रेषु । दीर्घायुषो वृद्धवासे दोषैश्च विमुक्ता वसतिः॥१॥] इत्यादिका । इयं च कल्पस्थितिमहावीरेण देशितेतिसम्बन्धान्महावीरवक्तव्यतासूत्रत्रयं, तथा अनेनेयमपरापि कल्पस्थितिदर्शितेति कल्पसूत्रद्वयमुपन्यस्तं, सुगर्म चैतखंचकमपि, नवरं पष्ठेन भक्केन-उपवासद्वयलक्षणेनापानकेन-पानीयपानपरिहारवता यावत्करणात् 'निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केबलवरनाणदंसणेत्ति #दृश्य, सिद्धे जावसिकरणात् 'बुद्धे मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुडे'त्ति दृश्य । उक्तरूपेषु च देवशरीरेष्वाहारपरिणामोऽस्तीत्याहारपरिणामनिरूपणायाह छबिहे भोषणपरिणामे पं० सं०-मणुने रसिते पीणणिजे बिहणिजे [मयणणिजे दीघणिजे] दप्पणिजे । छबिहे विसपरिणामे पं० त०-तके भुत्ते निवतिते मंसाणुसारी सोणिताणुसारी अट्ठिमिजाणुसारी (सू०५३३) छब्बिहे पढे पं. तं०-संसयपढे बुग्गहपढे अणुजोगी अणुलोमे तहणाणे अतहणाणे (सू०५३४) चमरचंचा ण रायहाणी उकोसेणं उम्मासा विरहिते उववातेणं । एगमेगे णं इंदट्ठाणे उक्कोसेणं छम्मासा विरहिते उववातेणं । अधेसत्तमा णं पुढवी उकोसेणं छम्मासा विरहिता उबवातेणं । सिद्धिगती णं उक्कोसेणं छम्मासा विरहिता उबवातेणं (सू० ५३५) 'छब्बिहे भोयणे'त्यादि, भोजनस्येति-आहारविशेषस्य परिणामः पयायः स्वभावो धर्म इतियावत्, तत्र 'मणु [५८३] JAMERatinine मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~752~ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३५] (०३) प्रत ॥ ७५॥ सूत्रांक [५३५] श्रीस्थाना-नत्ति मनाशमामलणाम - नेत्ति मनोज्ञमभिलपणीयं भोजनमित्येकस्तत्परिणामः, परिणामवता सहाभेदोपचारात् , तथा 'रसिक' माधुर्याद्युपेतं,ITI स्थाना इसूत्र तथा 'प्रीणनीयं रसादिधातुसमताकारि, 'बृहणीयं' धातूपचयकारि, 'दीपनीयं' अग्निबलजनकं, पाठान्तरे तु 'मद- उद्देशः ३ वृत्तिः नीयं' मदनोदयकारि 'दर्पणीय' बलकरमुत्साहवृद्धिकरमित्यन्य इति, अथवा भोजनस्य परिणामो-विपाकः, सच आहारविमनोज्ञः शुभत्वान्मनोज्ञभोजनसम्बन्धित्वाद्वेत्येवमन्येऽपि । परिणामाधिकारादायातं विषपरिणामसूत्रमप्येवं, नवरं 'ड पपरिणाके'त्ति दष्टस्य प्राणिनो दंष्ट्राविषादिना यत्पीडाकारि तद् दष्टं-जङ्गमविषं, यच भुक्तं सत्पीडयति तद् भुक्तमित्युच्यते, मा प्रश्ना तच्च स्थावर, यत्पुनर्निपतितं-उपरि पतितं सत् पीडयति तन्निपतितं-स्वग्विषं दृष्टिविषं चेति त्रिविध स्वरूपतः, तथा चमरचकिश्चिन्मांसानुसारि-मांसान्तधातुव्यापकं किश्चिच्छोणितानुसारि-तथैव किश्चिञ्चास्थिमिञ्जानुसारि तथैवेति त्रिविधं । शादिषु कार्यतः, एवं च सति पडिधं तत् , ततस्तपरिणामोऽपि पोरैवेति ॥ एवंभूतार्थानां च निर्णयो निरतिशयस्यातप्रश्नतो विरह भवतीति प्रश्नविभागमाह-छविहे त्यादि, प्रच्छनं प्रश्नः, तत्र संशयप्रश्नः कचिदर्थे संशये सति यो विधीयते ॥ सू०५३३यथा-"जइ तवसा बोदाणं संजमओऽणासवोत्ति ते कह णु । देवत्तं जंति जई? गुरुराह सरागसंजमओ ॥१॥ इतिः यदि तपसा व्यवदानं संयमतोऽनाश्रव इति तव मते कथं यतयो देवत्वं यांति, गुरुराह सरागसंयमतः ॥११॥ व्युत्प्रहेण-10 मिथ्याभिनिवेशेन विप्रतिपत्त्येत्यर्थः, परपक्षपणार्थ यः क्रियते प्रश्नः स ब्युग्रह्मश्नो, यथा-"सामनाउ विसेसो अदामोऽणन्नो व होज जइ अन्नो । सो नस्थि खपुष्फपिव णनो सामन्नमेव तयं ॥१॥"ति [सामान्याद्विशेषोऽन्योऽनन्यो वा ॥३७५ ॥ भवेत्। यद्यन्यः स नास्ति खपुष्पमिव अनन्यः सामान्यमेव सः॥१॥] 'अनुयोगी'ति अनुयोगी-व्याख्यानं प्ररूप दीप अनुक्रम [५८६] wwwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~753~ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३५] (०३) प्रत सूत्रांक [५३५]] दीप अनुक्रम णेतियावत् स यत्रास्ति तदर्थ यः क्रियत इति भावो, यथा-'चउहिं समरहिं लोगों' इत्यादिप्ररूपणाय 'काहिं समएही त्यादि ग्रन्धकार एवं प्रश्नयति, 'अनुलोमे' अनुलोमनार्थ-अनुकूलकरणाय परस्य यो विधीयते, यथा क्षेमं भवतामित्यादि, 'तहनाणेत्ति यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छकस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने स तथाज्ञानो, जानत्|प्रश्न इत्यर्थः, स च गौतमादेः, यथा 'केवइकालेणं भंते! चमरचचा रायहाणी विरहिया उववाएण'मित्यादिरिति, एतद्विपरीतस्त्वतथाज्ञानोऽजानतप्रश्न इत्यर्थः, क्वचित् 'छबिहे अहे' इति पाठस्तत्र संशयादिमिरथों विशेषणीय इति । इहानन्तरसूत्रेऽतथाज्ञानप्रश्नो दर्शितस्तत्र चोत्तरवस्तुना भाव्यमिति तद् दर्शयति-'चमरचंचेत्यादि, 'चमरस्य' दादाक्षिणात्यल्यासुरनिकायनायकस्य चञ्चा-चबाख्या नगरी चमरचश्चा, या हि जम्बूद्वीपमन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन तिय गसङ्घयेयान द्वीपसमुद्रान व्यतिब्रज्यारुणवरद्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्तादरुणोदं समुद्र द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्य चमरस्यासुरराजस्य तिगिच्छिकूटो नामा य उत्पातपर्वतोऽस्ति सप्तदशैकविंशत्युत्तराणि योजनशतान्युचस्तस्य द|क्षिणेन षडू योजनकोटीशतानि साधिकान्यरुणोदे समुद्रे तिर्यग्व्यतिव्रज्याधो रत्नप्रभायाः पृथिव्याः चत्वारिंशर्त योजनसहस्राण्यवगाह्य व्यवस्थिता जम्बूद्वीपप्रमाणा च, सा चमरचच्चा राजधानी उत्कृष्टेन पण्मासान् विरहिता-वियुक्ता उप पातेन, इहोत्सद्यमानदेवानां षण्मासान्यावद्विरहो भवतीति भावः । विरहाधिकारादिदं सूत्रत्रयं-'एगे'त्यादि, एकैकदमिन्द्रस्थानं-चमरादिसम्बन्ध्याश्रयो भवननगरविमानरूपस्तदुत्कर्षेण षण्मासान् यावद्विरहितमुपपातेनेन्द्रापेक्षयेति । अधःसप्तमीत्यत्र सप्तमी हि रलप्रभापि कथञ्चिद्भवतीति तद्व्यवच्छेदार्थमधोग्रहणं अतस्तमस्तमेत्यर्थः, सा षण्मासान् [५८६] X ndinrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 754~ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५३५ ] दीप अनुक्रम [५८६ ] श्रीस्थाना इसूत्र वृत्तिः ॥ ३७६ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ५३५] स्थान [ ६ ], विरहितोयपातेन, यदाह - "चउवीस मुहुत्ता १ सत्त अहोरस २ तह य पनरस ३ । मासो व ४ दो य ५ रो ६ छम्मासा विरहकालो उ ७ ॥ १ ॥ इति, [ चतुर्विंशतिर्मुहूर्त्ता सप्ताहोरात्राणि तथैव पंचदेश मासश्च द्वौ वारः | षण्मासाँ विरहकालः ॥ १ ॥ ] सिद्धिगतावुपपातो -गमनमात्रमुच्यते न जन्म, तद्धेतूनां सिद्धस्थाभावादिति, इहोकम् - "एगसमओ जहनं उकोसेणं हवंति छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए उब्वट्टणवज्जिया नियमा ॥ १ ॥” इति [ जघन्येनैकः समय उत्कृष्टतो भवंति षण्मासाः विरहः सिद्धिगतौ सा उद्धर्जनवर्जिता नियमात् ॥ १ ॥ ] शेषं सुगममिति । जनन्तरमुपपातस्य विरह उक्तः, उपपातश्चायुर्वन्धे सति भवतीत्यायुर्बन्धसूत्रप्रपञ्चं छविहेत्यादिकमाह छवि आउयधे पं० तं - जातिणामनिधत्तावते गतिणामणिधत्ताउए ठिविनामनिधत्ताउते ओगाहणाणामनिघताते पएसणामनिधत्ताउए अणुभावणामनिहत्ताउते । नेरतियाणं छव्विद्दे आउयबंधे पं० तं० - जातिणामनिहत्ताउते जाव अणुभावनामणिहत्ताउए एवं जाव बेमाणियाणं । नेरइया णियमा छम्मासावसेसाउता परभवियाडयं पगरेंति, एवामेव असुरकुमाराचि जाव थणियकुमारा, असंखेज्जवासाउता सन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिया नियमं छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पगरेंति, असंखेवासाया सनिमणुस्सा नियमं जाव पगरिति, वाणमंतरा जोतिसवासिता वैमाणिता जहा रतिता (सू० ५३६) छव्विधे भावे पं० [सं० ओद्विते उवसमिते खविते खत्तोवसमिते पारिणामिते सनिवाइए (सू० ५३७ ) सुगमश्चायं, नवरं आयुषो बन्धः आयुर्वन्धः, तत्र जातिः - एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चधा सैव नाम-नाम्नः कर्म्मण उसरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निघतं निषिक्तं यदायुस्तज्जातिनामनिधत्तायुः, निषेकश्च कर्म्मपुद्गलानां For Fast Use Only ६ स्थाना० उद्देशः ३ आयुर्बन्धा भावाश्च ~755~ सू०५३६५३७ ॥ ३७६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते bryog Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३७] (०३) प्रत सूत्रांक प्रतिसमयानुभवनरचनेति, उक्तव-"मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिईएँ बहुतरं दबं । सेसे विसेसहीणं जावुकस्संति सव्वासिं ॥१॥” इति, [ मुक्त्वा स्वकीयामबाधां प्रथमायां स्थितौ बहुतरं द्रव्यं । शेषासु विशेषहीनं यावदुत्कृष्टा इति सर्वासां ॥१॥] स्थापना चैवम्, : तथा गतिः-नरकादिका चतुर्दा, शेषं तथैवेति गतिनामनिधत्तायुरिति, तथा र स्थितिरिति-यत् स्थातव्यं केनचिद्वि... वक्षितेन भावेन जीवेनायु:कर्मणा वा सैव नामः-परिणामो धर्मः स्थितिनामस्तेन विशिष्टं निघत्तं यदायु:- .... दलिकरूपं तत्स्थितिनामनिधत्तायुः, अथवेह सूत्रे जातिनामगतिनामावगाह-| नानामग्रहणाजातिगत्यवगाहनाना..... प्रकृतिमात्रमुक्त, स्थितिप्रदेशानुभागनामग्रहणात्तु तासामेव स्थित्यादय उक्ताः, ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नामकर्मरूपा एवेति नामशब्दः सर्वत्र कर्माधों घटत इति स्थितिरूपं नामकर्म स्थितिनाम तेन सह निधसं यदायुस्तत् स्थितिनामनिधत्तायुरिति, तथा अवगाहते यस्यां जीवः सा अवगाहनाशरीरमौदारिकादि तस्या नाम-औदारिकादिशरीरनामकर्मत्यवगाहनानाम तेन सह यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुरिति, तथा प्रदेशानां-आयुःकर्मद्रव्याणां नाम:-तथाविधा परिणतिः प्रदेशनाम प्रदेशरूपं वा नाम-कर्मविशेष इत्यर्थः प्रदेशनाम तेन सह यन्निधत्तमायुस्तादेशनामनिधत्तायुरिति, तथा अनुभाग:-आयुर्द्रव्याणामेव विपाकस्तल्लक्षण एव नामः-परिणामोऽनुभागनामोऽनुभागरूपं वा नामकम्मानुभागनाम तेन सह निधत्तं यदायुस्तदनुभागनामनिधत्ता४ युरिति, अथ किमर्थं जात्यादिनामकर्मणाऽऽयुर्विशिष्यते?, उच्यते, आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थं, यस्मान्नारकाद्या युरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव, यस्मादुक्तं प्रज्ञप्त्याम्-"नेरइए णं [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] EXnoartoo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~756~ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३७] (०३) प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] श्रीस्थाना- भंते ! नेरइएसु उववज्जइ ? अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ!, गोयमा! नेरइए नेरइएसु उववज्जई", एतदुक्तं भवति-नारगसूत्र- कायुःसंवेदनप्रथमसमय एव नारक इत्युच्यते, तरसहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति, इह चा-18| उद्देश:३ वृत्तिः है।युर्वन्धस्य पनियत्वे उपक्षिप्ते यदायुषः षडिधत्वमुक्तं तद् आयुषो बन्धाव्यतिरेकाद्बद्धस्यैव चायुर्व्यपदेश विषयत्वादिति ।। 'नियमति अवश्यंभावादित्यर्थः, 'छम्मासावसेसाउय'त्ति षण्मासा अवशेषा-अवशिष्टा यस्य तत्तथा तदायुर्वेषां ते आयुर्वेन्धा ॥३७७॥ भावाश्च षण्मासावशेषायुष्काः, परभवो विद्यते यस्मिंस्तसरभविक तच्च तदायुश्चेति परभविकायुः 'प्रकुर्वन्ति' बनन्ति, असधे- ब यानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा ते च ते संज्ञिनश्च-समनस्काः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्त्यसयेयवोंयुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय-है। सू०५३६स ५३७ तिर्यग्योनिका, इह च संज़िग्रहणमसङ्ख्येयवर्षायुष्काः संजिन एव भवन्तीति नियमदर्शनार्थ, न त्वसङ्ग्वेयवर्षायुषामसंज्ञिनां व्यवच्छेदार्थ, तेषामसंभवादिति, इह च गाथे-"निरइसुरअसंखाऊ तिरिमणुआ सेसए उ छम्मासे । इगविगला निरुवक्कमतिरिमणुया आउयतिभागे ॥१॥ अवसेसा सोवकम तिभागनवभागसत्तवीसइमे । बंधति परभवाउँ निययभवे सबजीवा उ ॥२॥” इति, [नैरयिकसुरा असङ्ख्यायुषस्तिर्यग्मनुष्याः शेषेषु षट्सु मासेसु एकेंद्रियविकलेंद्रियनिरुपक्रमायुपस्तियेग्मनुष्या आयुष्कतृतीयभागे ॥१॥ अवशेषाः सोपक्रमास्तृतीयनवमसप्तविंशतितमे भागे परभवायुनन्ति निजभवे | सर्वे जीवाः ॥ २॥] इदमेवान्यरित्थमुक्तम्-इह तिर्यडअनुष्या आत्मीयायुपस्तृतीयत्रिभागे परभवायुषो बन्धयोग्या भ-I भवन्ति, देवनारकाः पुनः षण्मासे शेषे, तत्र तिर्यानुष्यैर्यदि तृतीयत्रिभागे आयुर्ने पद्धं ततः पुनस्तृतीयत्रिभागस्य तृ-1 तीयत्रिभागे शेषे वनन्ति, एवं तावत् सजिप्तन्वायुर्यावत् सर्वजघन्य आयुर्वन्धकाल उत्तरकालश्च शेषस्तिष्ठति इह तिय-18 SAGAR KARKES Wwwanmorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 757~ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३७] (०३) प्रत सूत्रांक [५३७] मनुष्या आयुर्बध्नन्ति, अयं चासङ्केपकाल उच्यते, तथा देवनैरयिकैरपि यदि षण्मासे शेषे आयुर्न बद्धं तत आत्मीयहास्यायुषः पण्मासशेष तावत्सपिन्ति यावरसर्वजघन्य आयुर्वन्धकाल उत्तरकालश्वावशेषोऽवतिष्ठते इह परभवायुर्देवनै-18 * रयिका बनन्तीत्ययमसङ्ग्रेपकालः । अनन्तरमायुःकर्मबन्ध उक्तः, आयुः पुनरौयिकभावहेतुरित्यौदयिकभावं भाव साधाच्छेषभावांश्च प्रतिपादयन्नाह 'छबिहे भावे इत्यादि, भवन भावः पर्याय इत्यर्थः, तत्रौदायिको द्विविधः-10 उदय उदयनिष्पन्नश्च, तत्रोदयोऽष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयः-शान्तावस्थापरित्यागेनोदीरणावलिकामतिकम्योदयावलि-14 कायामात्मीयात्मीयरूपेण विपाक इत्यर्थः, अत्र चैवं व्युत्पत्तिः-उदय एवौदयिका, उदयनिष्पन्नस्तु कर्मोदयजनितो जीवस्य मानुषत्वादिः पर्यायः, तत्र च उदयेन निवृत्तस्तत्र वा भव इत्यौदायिकः इत्येवं व्युत्पत्तिरिति, तथा औपशद्रमिकोऽपि द्विविधा-उपशम उपशमनिष्पन्नश्च, तत्रोपशमो [दर्शन] मोहनीयकर्मणोऽनन्तानवनध्यादिभेदभिन्नस्योपश-₹ मणिप्रतिपन्नस्य [वा] मोहनीयभेदान् अनन्तानुबन्ध्यादीनुपशमयता, उदयाभाव इत्यर्थः, उपशम एवौपशमिकः, उपशमनिष्पन्नस्तु उपशान्तक्रोध इत्यादि, उदयाभावफलरूप आत्मपरिणाम इति भावना, तत्र च व्युत्पत्तिः-उपशमेन निवृत्त औपशमिक इति, तथा क्षायिको द्विविध:-क्षयः क्षयनिष्पन्नश्च, तत्र क्षयोऽष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावर-18 गणादिभेदानां, क्षयः कम्मीभाव एवेत्यर्थः, तत्र क्षय एवं क्षायिका, क्षयनिष्पन्नस्तु तत्फलरूपो विचित्र आत्मपरिणाम: साकेवल ज्ञानदर्शनचारित्रादिः, तत्र क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिक इति व्युत्पत्तिः, तथा क्षायोपशमिको द्विविधा-क्षयोपशमः12 क्षयोपशमनिष्पन्नश्च, तत्र क्षयोपशमश्चतुर्णा घातिकर्मणां केवलज्ञानप्रतिबन्धकानां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनी दीप अनुक्रम [५८८] JAMERatinum Indiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 758~ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३७] (०३) कृत्तिः प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] श्रीस्थाना- यान्तरायाणां, क्षयोपशम इह उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकमधिकृत्योपशम इति गृह्यते, आह-औपश-13 स्थाना मिकोऽप्येवंभूत एव, नैवं, तत्रोपशान्तस्य प्रदेशानुभवतोऽप्यवेदनाद् असिंश्च वेदनादिति, अयं पक्षयोपशमःउद्देशः ३ क्रियारूप एवेति, क्षयोपशम एवं क्षायोपशमिकः, क्षयोपशमनिष्पन्नस्त्वाभिनिबोधिकज्ञानादिलब्धिपरिणाम आत्मन आयुर्वेन्धा एव, क्षयोपशमेन निवृतः क्षायोपशमिक इति च व्युत्पत्तिरिति, तथा परिणमनं परिणामा-अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव ४ भावाश्च तद्भावगमनमित्यर्थः, उक्तं च-“परिणामो ह्यान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः सू०५३६. परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥" स एव पारिणामिक इत्युच्यते, स च साधनादिभेदेन द्विविधः, तत्र सादि । ५३७ जीर्णघृतादीनां, तभावस्य सादित्वादिति, अनादिपारिणामिकस्तु धर्मास्तिकायादीनां, तद्भावस्य तेषामनादित्वादिति, IY३७८॥ तथा सन्निपातो-मेलकस्तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः, अयं चैषां पश्चानामौदयिकादिभावानां ब्यादिसंयोगतः सम्भवा-1 सम्भवानपेक्षया पडिंशतिभङ्गरूपः, तत्र द्विकसंयोगे दश त्रिकसंयोगेऽपि दशैव चतुष्कसंयोगे पश्च पञ्चकसंयोगे त्वेक एवेति, सर्वेऽपि पडूविंशतिरिति, इह चाविरुद्धाः पञ्चदश सन्निपातिकभेदा इष्यन्ते, ते चैवं भवन्ति-"उदइयखओ वसमिए परिणामिकेक गइचउक्केवि । खयजोगेणवि चउरो तयभावे उवसमेणपि ॥१॥ उवसमसेढी एको केवलिPणोवि य तहेव सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइय भेया एमेव पनरस ॥२॥” इति, [औदयिका क्षायोपशमिकः परिणामिकः एकैको गतिचतुष्केऽपि क्षायिकयोगेनापि चत्वारस्तदभावे औपशमिकेनापि ॥१॥ उपशमश्रेण्यामेकः केवलिनोऽपि च तथैव सिद्धस्य अविरुद्धसांनिपातिकभेदा एवमेते पंचदश ॥२॥] औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नः JAMERatinintamatic मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 759~ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३७] (०३) प्रत AA सूत्रांक ॐॐॐॐ55% [५३७] सान्निपातिक एकैको गतिचतुष्केऽपि, तद्यथा-औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवत्वमिति, इत्थं तिर्यनरामरेष्वपि योजनीयमिति चत्वारो भेदाः, तथा क्षययोगेनापि चत्वार एव तास्वेव गतिषु, अमिलापस्तु औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि क्षायिकः सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवस्वमिति, एवं तिर्यगादिष्वपि वाच्य, सन्ति चैतेष्वपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽधिकृतभङ्गान्यथानुपपत्तेरिति भावनीयमिति, 'तयभावे'त्ति क्षायिकाभावे चशब्दाच्छेपत्रयभावे चौपसमिकेनापि चत्वार एष, उपशममात्रस्य गतिचतुष्टयेऽपि भावादिति, अभिलापस्तथैव, नवरं सम्यक्त्वस्थाने उपशान्तकषायत्वमिति वक्तव्यमेते चाष्टौ भङ्गाः, प्राकनाश्चत्वार इति द्वादश, उपशमश्रेण्यामेको भङ्गः तस्या मनुष्येवेष भावात् , अभिलापः पूर्ववत्, नवरं मनुष्यविषय एव, केवलिनश्चैक एवं औदयिको मानुषत्वं क्षायिका सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वं, तथैव सिद्धस्यैक एव, क्षायिकः सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वमिति, एवमे-13 तैत्रिभिर्भङ्ग सहिताः प्रागुक्काः द्वादश अविरुद्धसान्निपातिकभेदाः पञ्चदश भवन्तीति, अपि च-"उवसमिए २ खइएऽविय ९ खयउवसम १८ उदय २१ पारिणामे य३ । दो नव अट्ठारसगं इगवीसा तिन्नि भेएणं ॥१॥ सम्म १] चरित्ते २ पढमे देसण १ नाणे य २ दाण ३ लाभे य ४। उवभोग ५ भोग ६ वीरिय ७ सम्म ८ चरित्ते य ९ तह बीए २॥२॥ चउनाण ४ ऽनाणतियं ३ दंसणतिय ३ पंच दाणलद्धीओ ५। सम्मत्तं १ चारित्तं च १ संजमासंजमे | १ पूर्वभुपशान्तकोध इखादिनिर्देशादेवमाहुः पूज्याः, सूत्रानुकरणार्थ वैवमुभयत्रापि निर्देशः, शान्ते च क्रोधादी अनन्तानुबन्धिनि स्यादेव सम्यक्त्वं. २ केवलज्ञानादेरुषलक्षण. दीप अनुक्रम [५८८] 5 ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 760~ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१३७] (०३) स्थाना. | उद्देशः३ श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥३७९ प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] SC-SASANCHAR १ तइए ॥३॥ चउगइ ४ चउकसाया ४ लिंगतियं ३ लेस छक ६ अन्नाणं १ मिच्छत्त १ मसिद्धत्तं १ असंजमे १ तह चउत्थे उ ४॥४॥ पंचमगम्मि य भावे जीव १ अभवत्त २ भवता ३ चेव । पंचण्हवि भावाणं भेया एमेव तेवन्ना ॥१॥" इति [औपशमिकः क्षायिकोऽपि च क्षायोपशमिक औदयिका पारिणामिकः द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदेन ॥ १॥ सम्यक्त्वचारित्रे प्रथमे दर्शनज्ञानदानलाभोपभोगभोगवीर्यसम्यक्त्वचारित्राणि द्वितीये ॥२॥ ज्ञानच-1 तुष्कमज्ञानविकं दर्शनत्रिक पंच दानाद्या लब्धयः सम्यक्त्वं चारित्रं च संयमासंयमस्तथा ॥३॥ गतिचतुष्कं कपायचतुष्कं लिंगत्रिक लेश्याषटु अज्ञानं मिथ्यात्वमसिद्धत्वं असंयमश्चतुर्थे ॥४॥ पंचमे भावे जीवत्वं अभव्यत्वं भव्यत्वं पञ्चानामपि भावानां भेदा एवमेव त्रिपञ्चाशत् ॥५॥] अनन्तरं भावा उक्तास्तेषु चाप्रशस्तेषु यद्वृत्तं यच्च प्रशस्तेषु न वृत्तं विपरीतश्रद्धानप्ररूपणे वा ये कृते तत्र प्रतिक्रमितव्यं भवतीति प्रतिक्रमणमाह विहे पडिकमणे पं० सं०-उचारपडिक्कमणे पासवणपटिकमणे इत्तरिते आवकहिते जंकिंचिमिच्छा सोमणतिते (सू० ५३८) कत्तिताणक्खचे छत्तारे पण्णत्ते, असिलेसाणक्खते छत्तारे पं० (सू० ५३९) जीवाणं छहाणनियत्तिते पोमाले पावकम्मत्ताते चिणिसु वा ३, २०-पुढविकाइयनिवत्तिते जाव तसकायणिवत्तिते, 'एवं चिण लवचिण बंधउदीरवेय तह निजरा थेव ४ । छप्पतेसिया गं बंधा अणता पण्णता, छप्पतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णता, छसमयद्वितीता पोग्गला अणंता, छगुणकालगा पोग्गला जाव छगुणलक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता (सू०५४०) छड्डाणं छठ्ठमझयणं समत्तं ॥ प्रतिक्रमणानि न. क्षत्रतार| काः परस्थाननिवर्तितादि सू०५३८५४० ॥३७९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 761~ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१४०] (०३) SACROSS प्रत सूत्रांक 'छब्बिहे पडिकमणे इत्यादि, प्रतिक्रमणं-द्वितीयप्रायश्चित्तभेदलक्षणं मिथ्यादुष्कृतकरणमिति भावः, तत्रोच्चारोदिसर्ग विधाय यदीर्यापथिकीप्रतिक्रमणं तदुच्चारप्रतिक्रमणं, एवं प्रश्रवणविषयमपीति, उच-"उच्चारं पासवर्ण भू मीए वोसिरितु उवउत्तो । ओसरिऊणं तत्तो इरियावहियं पडिकमइ ॥१॥ वोसिरद मत्तगे जइ तो न पडिकमा य मत्तगं जो उ । साहू परिहवेई नियमेण पडिकमा सो उ ॥२॥" इति [ उपयुक्तो भूमौ उच्चारं प्रश्रवणं व्युत्सृज्यापमृत्योपथिकां प्रतिक्रामयेत्ततः॥१॥मात्रके यदि व्युत्सृजति तदा न प्रतिकाम्यति यस्तु साधुर्मात्रकं परिष्ठापयति स तु नियमात् | प्रतिक्राम्यति ॥२॥] 'इत्तरिय'ति इत्वरं-स्वल्पकालिकं देवसिकरात्रिकादि, 'आवकहियन्ति यावत्कथिक-याव8 जीविकं महानतभक्तपरिज्ञादिरूपं, प्रतिक्रमणत्वं चास्य विनिवृत्तिलक्षणान्वर्थयोगादिति, 'जंकिंचिमिच्छत्ति खेलसिंसाधानाविधिनिसर्गाभोगानाभोगसहसाकाराद्यसंयमस्वरूपं यत्किशिन्मिथ्या-असम्यक तद्विषयं मिथ्येदमित्येवंप्रतिप-1G त्तिपूर्वक मिथ्यादुष्कृतकरणं यत्किश्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमणमिति, उक्तं च "संजमजोगे अन्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एयंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥१॥" इति [संयमयोगेष्वभ्युत्थितेनापि यत् किंचिद्वितधमाचरितं एतन्मिथ्येति ज्ञात्वा मिथ्येति कर्तव्यं ॥१॥] तथा-खेलं सिंघाणं वा अप्पडिलेहापमजि तहय । वोसरिय पटिकमई तंपिय मिच्छुकडं देइ ॥२॥ इत्यादि, [श्लेष्माणं संघानं चाप्रतिलिख्याप्रमृज्य तथा च व्युत्सृज्य प्रतिक्राम्यति तस्यापि मिथ्यादुष्कृतं ददाति ॥२॥] तथा 'सोमणतिए'त्ति 'स्वापनास्तिक' स्वपनस्य-सुप्तिक्रियाया स्था०६८ | अन्ते-अवसाने भवं स्थापनास्तिकं, सुप्तोत्थिता हि ईयाँ प्रतिक्रामति साधव इति, अथवा स्वमो-निद्राषशविकल्पस्त GAAAAAAAAA [५४०]] दीप अनुक्रम [५९१] - 4 ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~762~ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [१४०] (०३) श्रीस्थाना- ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ३८० ॥ SA प्रत स्यान्तो-विभागः स्वप्मान्तस्तत्र भवं स्वशान्तिकं, स्वप्नविशेषे हि प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति साधवः, यदाह-गमणागमण विहारे सुत्ते वा सुमिणदसणे राओ । नावानइसतारे इरियावहियापडिक्कमणं ॥१॥ [गमनागमनयोविहारे स्वप्ने वा स्वप्नदर्शने रात्रौ । नौनदीसंतारे ईयापथिकीप्रतिक्रमणं ॥१॥] यतः-आउलमाउलाए सोवणवत्तियाए' इत्यादि प्रतिक्रमणसूत्रं, तथा स्वाकृतप्राणातिपातादिष्वन्वर्थगत्या प्रतीपक्रमणरूपया कायोत्सर्गलक्षणप्रतिक्रमणमेवमुक्तम्--1 "पाणिवहमुसाधाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं उसासाणं हवेजाहि ॥१॥" इति, [प्राणिवधे मृपावादेऽदत्ते मैथुने परिग्रहे चैव उच्छासानामेकं शतमनूनं भवेत् ॥१॥] अनन्तरं प्रतिक्रमणमुक्तं, तच्चावश्यकमप्यु-1 च्यते, आवश्यकं च नक्षत्रोदयाद्यवसरे कुर्वन्तीति नक्षत्रसूत्रं शेपसूत्राणि चा अध्ययनपरिसमाप्तेः पूर्वाध्ययनवदवसेया-1 नीति । इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे षट्स्थानकाख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ ग्रंथा ७६५। स्थाना० उद्देशः ३ प्रतिक्रमणानि नक्षत्रतारकाः षट्स्थान निवर्तितादि सू०५३८५४० सूत्रांक 4-06-4 - 1 [५४०] दीप अनुक्रम [५९१] 25-5 2 - इति श्रीमति स्थानाले चन्द्राकुलनभस्तलमृगाङ्कश्रीमदभयदे वाचार्यविहितविवरणयुतं षष्ठं स्थानकं समाप्तम् ॥ RRRRRRRRENTER ॥३८॥ 5 % 85% AMERIES ong Singtonary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र षष्ठं स्थानं परिसमाप्तं अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित उद्देशक: वर्तते ~7634 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५४१] दीप अनुक्रम [५९२] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], स्थान [७], मूलं [ ५४१] अथ सप्तमस्थानकम् व्याख्यातं षष्ठमध्ययनमधुना सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने षट्सयोपेताः पदार्थाः प्ररूपिताः, इह तु त एव सप्तसङ्ख्योपेताः प्ररूप्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्य चतुरनुयोगद्वारस्येदमादिसूत्रम् विहे गणावकमणे पं० तं सव्वधम्मा रोतेनि १ एगतिता रोएम एगइया णो रोपनि २ सव्वधम्मा वितिगिच्छामि ३ एगतिया वितिगच्छामि एगतिया नो वितिमिच्छामि ४ सव्वधम्मा जुगुणामि ५ एगविया जुडुणामि एगतिया णो जुहुणामि ६ इच्छामि णं भंते! एगहविहारपडिमं उनसंपचित्ता णं बिहरितते ७ ( सू० ५४१) 'सत्तविहे 'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः - अनन्तरसूत्रे पुद्गलाः पर्यायत उक्ताः, इह तु पुद्गलविशेषाणामेव क्षयोपशमतो योऽनुष्ठानविशेषो जीवस्य भवति तस्य सप्तविधत्वमुच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहिता! दिस्तु तत्क्रमः प्रतीत एव, नवरं सप्तविधं सप्तप्रकारं प्रयोजनभेदेन भेदात् गणाद्-गच्छादपक्रमणं - निर्ममो गणापत्रमणं प्रज्ञप्तं तीर्थकरादिभिः, तद्यथा-सर्व्वान् 'धर्मान्' निर्जराहेतून् श्रुतभेदान् सूत्रार्थोभयविषयान् अपूर्वग्रहणवि For First Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] अथ सप्तमं स्थानं आरभ्यते ~764~ janyr "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५४१] दीप अनुक्रम [५९२] श्रीस्थानाज्ञसूत्र वृत्तिः ॥ ३८१ ॥ Educatio “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५४१] स्थान [७], उद्देशक [-1, स्मृत सन्धान पूर्वाधीत परावर्त्तनरूपान् चारित्रभेदांश्च-क्षपणवैयावृत्त्यरूपान् 'रोचयामि' रुचिविषयीकरोमि चिकीर्षामि, ते चामुत्र परगणे सम्पद्यन्ते नेह स्वगणे, बहुश्रुतादिसामध्यभावाद्, अतस्तदर्थं स्वगणादपक्रमामि भदन्त । इत्येवं गुरुपृच्छाद्वारेणैकं गणापक्रमणमुक्तं १, अथ 'सर्वधर्मान् रोचयामीत्युक्ते कथं पृच्छार्थोऽवगम्यते इति ?, उच्यते, 'इच्छामि णं भंते! एकलविहारपडिम'मित्यादि पृच्छावचन साधर्म्यादिति, रुचेस्तु करणेच्छार्थता 'पत्तियामि रोएमी'त्यत्र व्याख्यातेवति, कचित्तु 'सव्वधम्मं जाणामि, एवंपि एगे अवकमे' इत्येवं पाठः, तत्र ज्ञानी अहमिति किं गणेनेति मदादपत्रामति १, तथा 'एगइय'ति एककान् कांश्चन श्रुतधर्म्माचारित्रधर्मान् वा रोचयामि चिकीर्षामि एककांश्च श्रुतधर्म्मा| श्चारित्रधर्मान् वा नो रोचयामि न चिकीर्षामीत्यतश्चिकीर्षितधर्माणां स्वगणे करणसामध्यभावादपक्रमामि भदन्त इति द्वितीयं २, तथा सर्व्वधर्म्मान- उत्तलक्षणान् विचिकित्सामि - संशयविषयीकरोमीत्यतः संशयापनोदार्थ स्वगणादपक्रमामीति तृतीयं ३, एवमेककान् विचिकित्सामि एककान् नो विचिकित्सामीति चतुर्थ ४, तथा 'जुहुणाभित्ति जुहोमिअन्येभ्यो ददामि न च स्वगणे पात्रमस्त्यतोऽपक्रमामीति पञ्चमं ५, एवं पष्ठमपि ६, तथा इच्छामि णं भदन्त !-धर्माचार्य एकाकिनो गच्छनिर्गतत्वाज्जिन कल्पिकादितया यो विहारो- विचरणं तस्य या प्रतिमाप्रतिपत्तिः प्रतिज्ञा सा एकाकि| विहारप्रतिमा तामुपसम्पद्य-अङ्गीकृत्य विहर्तुमिति सप्तममिति । अथवा सर्वधर्म्मान् रोचयामि श्रदधे अहमिति तेषां स्थिरीकरणार्थमपक्रमामि, तथा एककान् रोचयामि श्रधे एककांश्च नो रोचयामीत्यश्रद्धितानां श्रद्धानार्थमपकामामीत्यनेन पदद्वयेन सर्वविषयाय देशविषयाय च सम्यग्दर्शनाय गणापक्रमणमुक्तं १ । एवं सर्वदेशविषयसंशय वि For Full ७ स्थाना० उद्देशः ३ गणापक्र मणकारणानि सू० ५४१ ~765~ ।। ३८१ ॥ incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५४१] (०३) प्रत सूत्रांक [५४१] दीप अनुक्रम [५९२]] नोदसूचकेन 'सच्चधम्मा विचिकिच्छामी'त्यादिपदद्वयेन ज्ञानार्थमपक्रमणमुक्तमिति, तथा 'सर्वधर्मान् जुहोमी ति जुहोतेरदनार्थत्वाद् भक्षणार्थस्य चासेवावृत्तिदर्शनादाचराम्यासेवाम्यनुतिष्ठामीतियावत् तथा एककानासेवामीति | सर्वेषामासेव्यमानानां विशेषार्थमनासेवितानां च क्षपणवैयावृत्त्यादीनां चारित्रधर्माणामासेवार्थमपक्रमामीत्यनेन पद-18 द्वयेन तथैव चारित्रार्थमपक्रमणमुक्तमिति, उक्तं च-"नाणट्ट दसणट्ठा चरणहा एवमाइ संकमणं । संभोगट्ठा व पुणो आयरियडा व णायव्वं ॥१॥" इति, [ज्ञानार्थ दर्शनार्थ चरणार्थ इत्याद्यर्थ संक्रमणं संभोगार्थं च पुनः आचार्या ६च ज्ञातव्यं ॥१॥ तत्र ज्ञानार्थ-"सुत्तस्स व अत्थस्स व उभयस्स व कारणा उ संकमणं । बीसज्जियस्स गमणं भीओ8 य. नियत्तए कोइ ॥ १॥” इति, [सूत्रस्य वार्थस्य वोभयस्य वा कारणात् संक्रमणं विसर्जितस्य गमन भीतो वा निवर्तते है |कोऽपि ॥१॥] दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थ दर्शनार्थ, चारित्राथू यथा-"चरितह देसि दुविहा, (देशे द्विविधा दोषा इत्यर्थः>IPI |एसणदोसा य इस्थिदोसा य । (ततो गणापक्रमणं भवति > गच्छमि य सीयंते आयसमुत्थेहिं दोसेहिं ॥१॥” इति,8 KI चारित्रार्थ देशे दोषेषु द्विविधास्ते एषणादोपाः स्त्रीदोषाश्च आत्मसमुत्थैर्दोषर्गच्छे च सीदति ॥१॥] सम्भोगार्थं नाम यत्रोपसम्पन्नस्ततोऽपि विसम्भोगकारणे सदनलक्षणे सत्यपक्रामतीति, आचार्याधं नामाचार्यस्य महाकल्पश्रुतादि श्रुतं नास्त्यतस्तदध्यापनाय शिष्यस्य गणान्तरसङ्कमो भवतीति, इह च स्वगुरुं पृष्दैव विसर्जितेनापक्रमितव्यमिति सर्वत्र पृ-18 |च्छार्थो ध्याख्येयः, उक्तकारणवशात् पक्षादिकालापरतोऽविसर्जितोऽपि गच्छेदिति, निष्कारणं गणापक्रमणं त्वविधेयं, यता-"आयरियाईण भया पच्छित्तभया न सेवइ अकिच्चं । वेयावच्चज्झयणेसु सज्जए तदुवओगेणं ॥१॥" [ आचा-1 Enatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~766~ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५४१] दीप अनुक्रम [५९२] श्रीस्थानाज्ञसूत्र वृत्तिः ॥ ३८२ ॥ "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [-1 स्थान [७], मूलं [५४२] - र्यादीनां भवात् प्रायश्चित्तभयान्न सेवतेऽकार्य वैयावृत्त्याध्ययनयोः सभ्यते तदुपयोगेन ॥ १ ॥ ] ( सूत्रार्थोपयोगेनेत्यर्थः > तथा - " एगो इत्थीगंमो तेणादिभया य अल्लिययगारे ( गृहस्थान > कोहादी च उदिन्न परिनिन्यावंति से अने ॥ १ ॥ ति [ एकः स्त्रीगम्यः स्तेनादिभयानि चाश्रयत्यगारिणः क्रोधादीनुदीरयंतं तमन्ये परिनिर्वापयन्ति ॥ १ ॥ ] एवं श्रद्धानस्थैर्याद्यर्थमन्यथा वा गणादपक्रान्तस्य कस्यापि विभङ्गज्ञानं स्यादिति तस्य भेदानाह सत्तविहे विभंगणाणे पं० तं० एगदिसिलोगाभिगमे १ पंचदिसिलोगाभिगमे २ किरियावरणे जीवे ३ मुदग्गे जीवे ४ अमुमो जीवे ५ रूमी जीवे ६ सब्बमिणं जीवा ७ तत्थ खलु इमे पढमे विभंगणाणे जया णं तहारुवस्स समree वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पज्जति से णं तेणं विभंगणाणेण समुप्पन्नेणं पासति पातीणं वा पडि बा दाहिणं वा उदीर्ण वा उ वा जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णमेवं भवति अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप एगदिसिं लोगाभिगमे, संतेगतिया समणा वा माहणा वा एवमाशंसु पंचदिसिं लोगाभिगमे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एव माहं, पढमे विभंगनाणे १ । अहावरे दोगे विभंगनाणे, जता णं तारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पाति से णं तेणं विभंगणाणेणं समुपमेणं पासति पातीणं वा पडणं वा वाहिणं वा उदीर्ण वा उ जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णमेवं भवति — अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पने पंचदिसिं होगा निगमे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहंसु एगदिसिं डोयाभिगमे, जे ते एवमाशंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, दोघे विभंगणाणे २ । अह्नावरे तबे विभंगणाणे, जया णं तहारूवरस समणस्स वा माइणस्स वा विभंगणाणे समुप्पज्जति, से णं तेणं विर्भ 2 ........ For Fans Only ७ स्थाना० उद्देशः ३ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 767 ~ सप्तधा विभङ्ग ज्ञानं सू० ५४२ ॥ ३८२ ॥ yog Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] (०३) 35 प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम गणाणणं समुष्पमेणं पासति पाणे अतिवातेमाणा मुसं बस्तेमाणे अविममावितमाणे मेहुणे पडिसेवमाणे परिग्गडं परिगि- ।। हमाणे राइभोवणं मुंजमाणे वा पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो पासति, तस्स णमेवं भवति-अस्थि ण मम अतिसेसे णाणदसणे समुपन्ने, किरितावरणे जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाईसु-नो किरितावरणे जीथे, जे ते एवमासु मिल्छं ते एवमासु, तसे विभंगणाणे ३ । अहावरे चउत्थे विभंगणाणे जया णं तयारूषस्स समणस्स वा माहणस्स वा जाव सगुष्पजति, सेणं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पनेणं देवामेव पासति, बाहिरभंतरते पोरगले परितादितित्ता पुढेगतं णाणत्तं फुसिया फुरेत्ता फुट्टित्ता विकुब्वित्ता णं विकुबित्ता गं चिद्वित्तए, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदसणसमुप्पन्ने, मुदग्गे जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एषमासु-अमुमो जीवे, जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमासु, चपत्ये विभंगनाणे ४ । अहावरे पंचमे विभंगणाणे, जथा गं तधारूवस्स समणस्स जाव समुपजति, से ण तेणं विभंगणाणेणं समुष्पन्नेणं देवामेव पासति, बाहिरम्भतरए पोग्गलए अपरितादितित्ता पुढेगतं णाणत्तं जाव विउवित्ता णं चिहित्तते तस्स णमेवं भवति-अस्थि जाब समुप्पन्ने अमुदग्गे जीवे, संतेगतिता समणा चा माहणा वा एवमासु-मुग्ने जीवे, जे ते एवमासु मिच्छ से एबमासु, पंचमे विभंगणाणे ५। अहावरे हे विभंगणाणे, जया णं तधारूवस्स समणस्स वा माणस वा जाव समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुपमेणं देवामेव पासति, बाहिरभंतरते पोगले परितातित्ता वा अपरियावितिचा वा पुढेगतं णाणसं कुसेत्ता जाव विकुबित्ता चिद्वित्तते, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदसणे समुप्पने, रूबी जीये, संतेगतिता 35523 [५९३] JAMEaatmal M MIDrayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 768~ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] (०३) प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम समणा वा मादणा वा एचमाहंसु-अरूवी जीवे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, छठे विभंगणाणे ६ । अहावरे श्रीस्थाना ७स्थाना० सत्तमे विभंगणाणे जया ण तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुपज्जति, से णं तेणं विभंगणाणेणं उद्देशः३ झासूत्रसमुप्पन्नेणं पासह मुहुमेणं वायुकातेणं फुड पोग्गलकार्य एततं येतं चलंतं खुभंत फंदतं घटुंतं उबीरगं तं तं भावं सप्तधा वृत्तिः परिणमंतं, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदसणे समुष्पन्ने, सबमिणं जीवा, संतेगतिता समणा वा विभङ्ग॥३८३॥ 'माहणा वा एचमाईसु-जीवा चेव अजीवा चेव, जे ते एकमाईसु मिच्छं ते एव माईसु, तस्स णमिमे पत्तारि ज्ञानं जीवनिकाया णो सम्ममुवगता भवंति, तं०-पुढचिकाइया आऊ तेऊ वाउकाइया, इच्चेतेहिं चहि जीवनिकापहि मिच्छादंड सू०५४२ पवत्तेइ सत्तमे विभंगणाणे ७1 (सू० ५४२) 'सत्तविहे'त्यादि, 'सप्तविधं' सप्तप्रकार विरुद्धो वितधो वा अन्यथा वस्तुभङ्गो-वस्तुविकल्पो यस्मिंस्तद्विभङ्गं तब तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति विभङ्गज्ञानं मिथ्यात्वसहितोऽवधिरित्यर्थः, 'एगदिसंति एकस्वां दिशि एकया दिशा पूर्वो-18 कादिकयेत्यथें: 'लोकाभिगमो' लोकावबोध इत्येक विभङ्गज्ञान, विभङ्गता चास्य शेषदिक्षु लोकस्यानभिगमेन तत्प्रति-12 धनादिति १, तथा पंचसु दिक्षु लोकाभिगमो नैकस्यां कस्यांचिदिति, इहापि विभङ्गता एकदिशि लोकनिषेधादिति २, क्रि-18 यामात्रस्यैव-प्राणातिपातादेज वैः क्रियमाणस्य दर्शनात्तद्धेतकर्मणश्चादर्शनात क्रियैवावरणं-कर्म यस्य स क्रियावरणः, कोऽसौ ?-जीव इत्यवष्टम्भपरं यद्विभङ्ग तत्तृतीय, विभङ्गता चास्य कर्मणोऽदर्शनेनानभ्युपगमादेवमुत्तरत्रापि विभा- ३८३ दाताऽवसेयेति ३, 'भुयग्गेति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इत्यवष्टम्भवत्, भवनपत्यादिदेवानां बाह्याभ्यन्तरयुग [५९३] m onsorary.org मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~769~ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५४२ ] दीप अनुक्रम [५९३] Educator “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ५४२ ] स्थान [७], लपर्यादानतो वैक्रियकरणदर्शनादिति चतुर्थ ४, 'अमुदग्गे जीवेत्ति देवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्गलादानविरहेण वैक्रियवतां दर्शनाद् अवाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितावयवशरीरो जीव इत्यवसायवयञ्चमं ५, तथा 'रूवी जीवे 'ति देवानां वैकियशरीरचता दर्शनाद्रूप्येव जीव इत्येवमवष्टम्भवत् पष्ठमिति ६, तथा 'सव्वमिणं जीवति वायुना चलतः पुङ्गलकायस्य दर्शनात् सर्वमेवेदं वस्तु जीवा एव, चलनधम्र्मोपेतत्वादित्येवं निश्चयवत्सप्तममिति सङ्ग्रहवचनमेतत् । 'तस्थे'त्यादि त्वेतस्यैव विवरणवचनमुत्तानार्थमेव नवरं 'सत्य'त्ति तेषु सप्तसु मध्ये 'जया णं'ति यस्मिन् काले 'से णंति इह तदेति ग म्यते स विभंगी 'पासइति उपलक्षणांवाजानातीति च, अन्यथा ज्ञानत्वं विभंगस्य न स्यादिति, 'पाईणं वेत्यादि, वा विकल्पार्थः, 'उहुं जाब सोहम्मो कप्पो' इत्यनेन सौधर्मात् परतः किल प्रायो बालतपखिनो न पश्यन्तीति दर्शितं तथाऽवधिमतोऽप्यधोलोको दुरधिगमो विभङ्गज्ञानिनस्तु सुतरामित्यधोदिग्दर्शनमिह नाभिहितं दुरधिगम्यता चाधोलोकस्य त्रिस्थानकेऽभिहितेति, 'एवं भवइ' ति एवंविधो विकल्पो भवति, यदुत-अस्ति मे अतिशेष शेषाण्यतिक्रान्तं सातिशयमित्यर्थो ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानेन वा दर्शनं ज्ञानदर्शनं, ततश्चैकदिशो दर्शनेन तत्रैव लोकस्योपलम्भादाह-एक दिशि लोकाभिगम इति, एकदिग्मात्र एव लोकस्तथोपलम्भादिति भावः, 'सन्ति' विद्यन्ते एकके श्रमणा वा ब्राह्मणा वा ते चैवमाहुः - अन्यास्वपि पञ्चसु दिक्षु लोकाभिगमो भवति, तास्वपि तस्य विद्यमानत्वात्, ये ते एवमाहुः यदुत - पञ्चस्वपि दिक्षु लोकाभिगमो मिथ्या ते एवमाहुरिति प्रथमं विभङ्गज्ञानमिति । अथापरं द्वितीयं तत्र 'पाईणं वे'त्यादी, वाशव्दश्चकारार्थी द्रष्टव्यः विकल्पार्थत्वे तु पञ्चानां दिशां पश्यत्ता न गम्यते, एकस्या एव च गम्यते, तथा च प्रथमद्वितीय For Final P मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~770~ ancibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५४२ ] दीप अनुक्रम [५९३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३८४ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ५४२ ] स्थान [७], + योर्विभङ्गयोर्भेदो न स्यादिति कचिद्वाशब्दा न दृश्यन्त एवेति २, प्राणानतिपातयमानानित्यादिषु जीवानिति गम्यते, 'नो किरियावरणे'त्ति अपितु कर्म्मावरण इति २, 'देवामेव 'ति देवानेव भवनवास्यादीनेव 'बाहिरन्यंतरे' ति बाह्यान् शरीरावगाहक्षेत्राद् अभ्यन्तरान्- अवगाहक्षेत्रस्थान पुद्गलान् वैक्रियवर्गणारूपान् 'पर्यादाय' परि-समन्तात् वैक्रियसमुद्घातेनादाय गृहीत्या, 'पुढेगतं'ति पृथकालदेशभेदेन कदाचित्क्वचिदित्यर्थः, 'एकत्वं' एकरूपत्वं 'नाना' नानारूपत्वं विकृत्य उत्तरवैक्रियतया 'चिट्ठेत्तए'त्ति स्थातुं आसितुं प्रवृत्तानिति वाक्यशेष इति सम्बन्धः, कथं विकृत्येत्याह 'फुसित्ता' तानेव पुद्गलान् स्पृष्ट्वा तथाऽऽत्मना स्फुरित्वा वीर्यमुहास्य पुद्गलान् वा स्फोरयित्वा तथा 'स्फुटित्वा' प्रकाशीभूय, पुद्गलान् वा स्फोटयित्वा वाचनान्तरे तु पदद्वयमपरमुपलभ्यते, तत्र संवर्त्य - सारानेकीकृत्य निवर्त्य - असा रान् पृथकृत्येति, अथवा पर्याप्त पुद्गलैरुत्तरवै क्रियशरीरस्यैकत्वं नानात्वं च कर्मतापनं स्पृष्ट्वा प्रारभ्य तथा स्फुरस्कृत्वा - स्फुटं कृत्वा सम्-एकीभावेन वर्त्तितं सामान्यनिष्पन्नं कृत्वा निर्वर्त्तितं कृत्वा सर्वथा परिसमाप्य, किमुक्तं भवति:-विकुर्व्य-वैक्रियं कृत्वा न त्वौदारिकतयेति, तस्येति विभङ्गज्ञानिनो वाह्याभ्यन्तर पुद्गलपर्यादानप्रवृत्तदेवान् पश्यत एवं अ वति इति विकल्पो जायते, 'मुदग्गे'ति बाह्याभ्यन्तरपुन्नलरचितशरीरो जीव इति ४, अथापरं पञ्चमं तत्र बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलान्- अपर्यादायेत्यत्र निषेधस्य वैकियसमुद्घा तापेक्षित्वादुसत्तिक्षेत्रस्थांस्तूयत्तिकाले गृहीत्वा भवधारणीयशरीरस्यैकत्वमेकदेवापेक्षया कण्ठाद्यवयवापेक्षया वा नानात्वं त्वनेकदेवापेक्षया हस्ताङ्गुल्याद्यवयत्रापेक्षया वा विकुर्व्य स्थातुं प्रवृत्तानित्यादि, शेषं प्राग्वत्, बाह्यपुद्गलपर्यादानं हि विनोत्तरवैक्रियैकत्वनानात्वे किल न भवत इति भवधारणीयमिहा For Full ७ स्थाना० | उद्देशः ३ सप्तधा विभङ्गज्ञानं सू० ५४२ ॥ ३८४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 771~ p Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] (०३) ESSAGES प्रत सूत्रांक धिकृतं, तदेवमबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरदेवदर्शनात्तस्यैवं विकल्पो भवति-'अमुदग्गे'त्ति अबाह्याभ्यन्तरपुनलरचितावयवशरीरो जीव इति ५, 'रूवी जीवेत्ति पुद्गलानां पर्यादानेऽपर्यादाने च वैक्रियरूपस्यैकानेकरूपस्य देवेषु दर्शनादपवानेव जीव इत्यवसायो जायते, तस्य अरूपस्य कदाचनाप्यदर्शनादिति ६, 'सुहमें'त्यादि सूक्ष्मेण-मन्देन न त सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिना, तस्य यस्तुचलनासमर्थत्वात्, 'फुड'ति स्पृष्टं 'पुद्गलकार्य' पुद्गलराशिं 'एयंत ति| एजमान कम्पमानं 'व्येजमानं विशेषेण कम्पमानं 'चलन्तं स्वस्थानादन्यत्र गच्छन्तं 'श्यन्तं' अधो निमज्जन्तं | 'स्पन्दन्त' ईषच्चलन्तं 'घट्टयन्त' वस्त्वन्तरं स्पृशन्तमुदीरयन्त-वस्त्वन्तरं प्रेरयन्तं तं तमनाख्येयमनेकविधं 'भावं पर्याय 'परिणमन्तं'गच्छन्तं तं सव्वमिण ति सर्वमिदं चलत् पुद्गलजातं जीवाः स्पन्दनलक्षणजीवधर्मोपेतत्वात् , यच्च चलपि श्रमणादयो जीवाचाजीवाश्चेति प्राहुः तन्मिथ्येति तदध्यषसाय इति, 'तस्स 'ति तस्य विभङ्गज्ञानवतः 'इमें'त्ति वक्ष्यमाणा न सम्यगुपगता:-अचलनावस्थायां जीवत्वेन न बोधविषयीभूताः, तपथा-पृथिव्यापस्तेजो वायवः, चलनदोहदादिधर्मवतां प्रसानामेव दोहदादित्रसधर्मवतां वनस्पतीनामेव च जीवतया प्रज्ञानात्, पृथ्व्यादीनां तु वाकायुचलनेन स्वतश्चलनेन पत्रसत्वेनैव प्रज्ञानात् स्थावरजीवतया तु तेषामनभ्युपगमाञ्चेति, 'इच्चेएहिंति इतिहेतोरेतेषु लाचतुर्ष जीवनिकायेषु मिथ्यात्वपूर्वो दण्डो-हिंसा मिथ्यादण्डस्तं प्रवर्सयति, तद्रूपानभिज्ञः संस्तान् हिनस्ति निहुते चेति भाव इति सप्तमं विभङ्गज्ञानमिति ७ मिथ्यादण्डं प्रवर्त्तयतीत्युक्त, दण्डश्च जीवेषु भवतीति योनिसङ्गहतो जीवालाह [५४२] दीप अनुक्रम [५९३] - 35ऊपर JAMERaint Praniorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~772~ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४३] (०३) श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः प्रत ॥३८५॥ सूत्रांक सत्तविधे जोणिसंगधे पं० सं०-अंडजा पोतजा जराउजा रसजा संसत्तगा समुच्छिमा उभिगा, अंडगा सत्तगतिता सत्तागतित्ता पं० त०-अंडगे अंङगेसु उववजमाणे अंडतेहिंतो वा पोतजेहिंतो वा जान उभिएहितो वा उवजेजा, से चेवणं से अंडते अंडगतं विप्पजहमाणे अंडगत्ताते वा पोतगताते वा जाव उभियत्ताते वा गच्छेजा पोत्तगा सत्तगतिता सत्तागतित्ता, एवं चेव सत्तण्हषि गतिरागती भाणियब्वा, जाव अभियत्ति (सू० ५४३) आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि सत्त संगहठाणा पं० त०--आयरियउवज्झाए गणसि आणं वा धारणं वा सम्म पउँजित्ता भवति, एवं जधा पंचढाणे जाव आयरियउवझाए गणसि आपुच्छियचारि यावि भवति नो अणापुच्छियचारि यावि भवति, आयरियउवज्झाए गणंसि अणुप्पन्नाई उवगरणाई सम्म उप्पाइचा भवति, आयरियउवज्झाए गणसि पुरुखुष्पन्नाई ‘अबकरणाई सम्म सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति णो असम्म सारक्खेत्ता संगोवित्ता भव । आयरियउवझायस्स णं गर्णसि सत्त । असंगठाणा पं० २०-आयरियउवज्झाए गणंसि आय वा धारणं वा नो सम्म पउँजित्ता भवति, एवं जाव उबगरणाणं नो सम्म सारक्खेचा संगोवेत्ता भवति (सू० ५४४) सत्त पिंडेसणाओ पन्नत्तातो । सत्त पाणेसणाओं पन्नत्ताओं । सत्स उपगदपडिमातो पन्नतातो । सत्तसत्तिकया पन्नत्ता । सत्त महायणा पण्णचा । सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एकूणपण्णताते रातिदिएहिमेगेण य छण्णउएणं भिक्खासतेणं अहासुतं [अहा अत्यं] जाव आराहियाधि भवति (सू० ५४५) 'सत्तविहे'इत्यादि, योनिभिः-उत्पत्तिस्थानविशेषेर्जीवानां सङ्ग्रहः योनिसङ्कहा, स च सप्तधा, योनिभेदात् सप्तधा जीवा इत्यर्थः, अण्डजा:-पक्षिमत्स्यसदिया, पोतं-वस्त्रं तद्वज्जाता: पोतादिव वा बोहित्थाजाता, अजरायुवेष्टिता इत्यर्थः, [५४२]] दीप अनुक्रम ७स्थाना० | उद्देशः अण्डता| दियोनिसंग्रहः ग संग्रहेतरे | पिण्डपानेषणावग्रहाद्याः सू०५४३५४५ SACCASSA [५९३] ॥३८4 Alangionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~773~ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४५] (०३) ACA प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम %AUCRORSCORRECOCKSCRess पोतजाः-हस्तिवल्गुलीप्रभृतयः, जरायो-गर्भवेष्टने जाताः तद्वेष्टिता इत्यर्थों जरायुजा-मनुष्या गवादयश्च, रसे-तीमनकाञ्जिकादी जाता रसजाः, संस्वेदाज्जाताः संवेदजा-यूकादयः, सम्मूर्छन निर्वृत्ताः सम्मूच्छिमा:-कृम्यादयः, उद्भिदो -भूमिभेदाजाता उद्भिजाः-खजनकादयः । अथाण्डजादीनामेव गत्यागतिप्रतिपादनाय 'अंडये'त्यादि सूत्रसप्तकं, तत्र मृतानां सप्त गतयोऽण्डजादियोनिलक्षणा येषां ते सप्तगतयः सप्तभ्य एवाण्डजादियोनिभ्य आगतिः-उत्पत्तिर्येषां ते सप्तागतयः, 'एवं चेति यथाऽण्डजानां सप्तविघे गत्यागती भणिते तथा पोतजादिभिः सह सप्तानामध्यण्डजादिजीवभेदानां गतिरागतिश्च भणितव्या 'जाव उम्भिय'त्ति सप्तमसूत्र यावदिति, शेष सुगम । पूर्व योनिसङ्ग्रह उक्त इति सङ्घहप्रस्तावारसाहस्थानसूत्रम्-'आयरिए'त्यादि, आचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्द्वः कर्मधारयो वा 'गणे' गच्छे स हो ज्ञानादीनां शिष्याणां वा तस्य 'स्थानानि हेतवः सहस्थानानि, आचार्योपाध्यायो गणे आज्ञा वा-विधिविषयमादेशं धारणां वा-निषेधविषयमादेशमेव सम्यक् प्रयोक्ता भवति, एवं हि ज्ञानादिसङ्ग्रहः शिष्यसकहो वा स्याद्, अन्यथा तद्भश एवेति प्रतीतं, यतः-"जहि नथि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छमि । सो उ अगच्छो गच्छो मोत्तब्धो संजमत्थीहिं ॥१॥" इति, [यत्र गच्छे सारणा बारणा च प्रतिचोदना च नास्ति स गच्छोऽगच्छ एव संयमाथिभिमोक्तव्यश्च ॥१॥] 'एवं जहा पंचठाणे'ति, तच्चेदं-'आयरियउवज्झाए णं गणंसि अहाराइणियाए कितिकम्मं पर्ड| जित्ता भवति २ आयरियउवम्झाए णं गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारेइ ते काले काले सम्म अणुप्पवाइत्ता भवइ ३ आयरियउवज्झाए णं गणसि गिलाणसेहवेआवचं सम्म अध्भुद्वित्ता भवइ ४ आयरियउवज्झाए णं गर्णसि आपुच्छियचारि R RCASAROK [५९६] स्था०६५ JAMERatinintamational ero मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~774~ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४५] (०३) श्रीस्थाना- नसूत्र AN ॥३८६॥ प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६] यावि हवइ, नो अणापुच्छियचारी ५' स्थानद्वयं विहवेति, व्याख्या तु सुकरैव, नवरमाप्रच्छनं गच्छस्य, यत उक्तम्- स्थाना "सीसे जइ आमंते पडिच्छगा तेण वाहिरं भावं । अह इयरे तो सीसा ते व समतमि गच्छति ॥१॥ तरुणा बाहिरभावं उद्देशः३ नय पडिलेहोबही ण किइकम्मं । मूलगपत्तसरिसगा परिभूया वचिमो थेरा ॥२॥" इति, [शिष्यान् यद्यामंत्रयेत् प्र- अण्डतातीच्छकास्तेन बाह्यं भावं अधेतरांस्तदा शिष्यास्ते च समाप्ते ब्रजन्ति ॥१॥ तरुणा बाह्यभावं न च प्रतिलेखनोपधेः कृ- दियोनितिकर्म मूलकपत्रसदशकाः परिभूता बजामः स्थविराः॥२॥] तथा 'अणुप्पन्नाईति अनुत्पन्नानि-अलब्धानि 'उपक- संग्रहः ग रणानि' वस्त्रपात्रादीनि सम्यग्-एषणादिशुया 'उत्पादयिता' सम्पादनशीलो भवति, संरक्षयिता-उपायेन चौरा- णसंग्रहेतरे सादिभ्यः 'सोपयिता' अल्पसागारिककरणेन मलिनतारक्षणेन वेति । एवं सहस्थानविपर्ययभूतमसनहसूत्रमपि भाव-12 पिण्डपाडानीयमिति । अनन्तरमाज्ञां न प्रयोक्ता भवतीत्युक्तमाज्ञा च पिण्डैपणादिविषयेति पिण्डैषणादिसूत्रपटम्-'सरा पिंडे-12 सणा'त्ति पिण्ड:-समयभाषया भक्तं तस्वैपणा-ग्रहणप्रकाराः पिण्डैपणाः, ताश्चैता:-"संसट्ठ १ मसंसट्टा २ उद्धड ३ तह ग्रहाद्याः | अप्पलेविया चेव ४। उग्गहिया ५ पग्गहिया ६ उज्झियधम्मा य७ सत्तमिया ॥शा" अत्रासंसृष्टा हस्तमात्राभ्यां चिन्तनीया सू०५४३|'असंसटे हत्थे असंसढे मत्ते' अक्खरडियत्ति वृत्तं भवइ, एवं गृह्णतः प्रथमा भवति, गाथायां सुखमुखोच्चारणार्थोऽन्य-IXI ५४५ था पाठः, संसृष्टा ताभ्यामेव चिन्त्या 'संसट्टे हत्थे संसढे मत्ते' खरडिएत्ति बुत्तं भवइ, एवं गृहतो द्वितीया, उद्धृता नामा ॥३८६ ।। स्थाल्यादी स्खयोगेन भोजनजातमुडतं, ततो असंसट्टे हत्थे असंसडे मत्ते संसट्टे वा मत्ते संसट्टे वा हत्थे, एवं गृहृतः। तृतीया, अल्पलेपा नाम अल्पशब्दोऽभाववाचकः, निर्लेप-पृथुकादि गृहृतश्चतुर्थी, अवगृहीता नाम भोजनकाले शरा-1 XXX wlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~775~ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५४५] स्थान [७], उद्देशक [-], वादिषूपहृतमेव भोजनजातं यत् ततो गृहतः पञ्चमी, प्रगृहीता नाम भोजनवेलायां दातुमभ्युद्यतेन करादिना प्रगृहीतं योजनजातं भोक्तुं वा स्वहस्तादिना तद् गृह्णत इति षष्ठी, उज्झितधर्म्मा नाम यत्परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकाङ्क्षन्ति तदर्द्धत्यक्तं वा गृहत इति हृदयं सप्तमीति । पानकैषणा एता एव, नवरं चतुर्थ्यां नानावं, तत्र ह्यायामसौवीरकादि निर्लेपं विज्ञेयमिति । 'उग्गहपडिम'त्ति अवगृह्यत इत्यवग्रहो - वसतिस्तत्प्रतिमाः- अभिग्रहा अवग्र हप्रतिमाः, तत्र पूर्वमेव विचिन्त्यैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथाभूत इति तमेव याचित्वा गृह्णतः प्रथमा, तथा यस्य भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, तद्यथा--अहं च खल्वेषां साधूनां कृते अवग्रहं ग्रहीष्यामि, अन्येषां चावग्रहे गृहीते सति वत्स्यामीति तस्य द्वितीया, प्रथमा सामान्येन इयं तु गच्छान्तर्गतानां साम्भोगिकानामसम्भोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां यतस्तेऽन्योऽन्यार्थे याचन्त इति, तृतीया स्वियं अन्यार्थमवग्रहं याचिष्ये अन्यावगृहीतायां तु न स्थास्यामीति, एषा स्वहालन्दिकानां यतस्ते सूत्रावशेषमाचार्यादभिकाङ्क्षन्तः आचार्यार्थं तां याचन्त इति, चतुर्थी पुनरहमन्येषां कृते अवग्रहं न याचिष्ये अन्यावगृहीते तु वत्स्यामीति, इयं तु गच्छ एव अभ्युद्यतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थं परिकर्म्म कुर्वतां पञ्चमी तु अहमात्मकृते अवग्रहमवग्रहीष्यामि न चापरेषां द्वित्रिचतुःपञ्चानामिति, इयं तु जिनकल्पिकस्येति, षष्ठी पुनर्यदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमेव चेत्कटादि संस्तारकं ग्रहीष्यामि इतरथोत्कुटुको वा निषण्ण उपविष्टो वा रजनीं गमिष्यामीत्येषाऽपि जिनकल्पिकादेरिति, सप्तमी एषैव पूर्वोक्ता, नवरं यथाऽऽस्तृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि नेतरदिति । अयं च सूत्रत्रयार्थः क्वचित्सूत्र पुस्तक एव दृश्यत इति । 'सतसत्तिक्कय'त्ति अनुदेशक तयैकसरत्वेन ए Education intimational For Final P मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [ ०३ ] ~776~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः g Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६ ] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ १८७ ॥ Education t “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [ ५४५] | ककाः- अध्ययनविशेषा आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीय चूडारूपास्ते च समुदायतः सप्तेतिकृत्वा सप्तकका अ भिधीयन्ते तेषामेकोऽपि सप्तैकक इति व्यपदिश्यते, तथैव नामत्यात्, एवं च ते सप्तेति तत्र प्रथमः स्थानस तैकको, द्वितीयो नैषेधिकीस सैककः, तृतीय उच्चारप्रश्रवणविधिसककः, चतुर्थः शब्दसककः, पञ्चमी रूपसतैककः, पष्ठः परक्रियासप्तककः, सप्तमोऽन्योऽन्यक्रियासमैकक इति । 'सत्त महज्झयण'त्ति सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे महान्तिप्रथम श्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यः सकाशाद् ग्रन्थतो बृहन्ति अध्ययनानि महाध्ययनानि तानि च पुण्डरीकं १ क्रियास्थानं २ आहारपरिज्ञा ३ प्रत्याख्यानक्रिया ४ अनाचारश्रुतं ५ आर्द्रककुमारीयं ६ नालन्दीयं ७ चेति । 'सत्तसत्तमिय'ति सप्तसप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका, सा हि सप्तसप्तभिर्दिनसप्तकैर्यथोत्तरं वर्द्धमानदत्तिभिर्भवति, तत्र प्रथमे सप्तके प्रतिदिन मेका भक्तस्य पानकस्य चैका दत्तिर्यात्सप्तमे सप्त दत्तयः, भिक्षुप्रतिमा- साध्वभिग्रहविशेषः, सा चैकोनपञ्चाशता रात्रिन्दिवैः अहोरात्रैर्भवति, यतः सप्त सप्तकान्येकोनपञ्चाशदेव स्यादिति, तथा एकेन च पण्णवत्यधिकेन भिक्षाशतेन, यतः प्रथमे सप्तके सप्तैव द्वितीयादिषु तद्विगुणाद्याः यावत्सप्तमे एकोनपञ्चाशदिति, सर्वाः सङ्कलिताः शतं पण्णवत्यधिकं भवति, भक्तभिक्षाश्चैताः पानकभिक्षा अप्येतावत्यो न चेह गणिता इति एतत्स्वरूपमेवम् - "पडिमासु सप्तगा सत्त, पढमे तत्थ सत्तए । एक्केके गिव्हए भिक्खं, बिइए दोन्नि दोन्नि ऊ ॥ १ ॥ एवमेकेकियं भिक्खं, भेज्जेकेकसत्तए । गिन्हई अंतिमे जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे ॥ २ ॥ अहवा एकेक्कियं दर्शि, जा सत्तेकेकसत्तए । आएसो अस्थि एसोबि, सिंहविकमसन्निहो ॥ ३ ॥" इत्यादि, [ प्रतिमाः सप्तसप्तिकाः प्रथमे तत्र सप्तके एकैकां भिक्षां गृह्णाति For Fans Only ७ स्थाना० उद्देशः ३ अण्डतादियोनि संग्रहः ग णसंग्रहेतरे पिण्डपा नैषगाव महायाः सू०५४३५४५ ॥ ३८७ ॥ ~777~ incibrary.org [०३], अंग सूत्र- [ ०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५४५] (०३) प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६] द्वितीये द्वे द्वे एव ॥१॥ एवमेकैकां भिक्षा क्षिपेद्यावत् एकैकसप्तकेऽन्तिमे दिने सप्त सप्त गृह्णाति ॥२॥ अथवैकैकां दत्तिं (हापयेत् ) एकैकसप्तके यावत् सप्त एपोऽप्यादेशोऽस्ति सिंहगतिसदृशः॥३॥] 'अहामुत्तंति यथासूत्र-सूत्रानतिकमेण यावत्करणात् 'अहाअस्थं यथार्थ-निर्युक्त्यादिव्याख्यानानतिक्रमेणेत्यर्थः, 'अहातचं' यथातत्त्वं सप्तसप्तमिकेत्यभिधानार्थानतिक्रमेण अन्वर्थसत्यापनेनेत्यर्थः 'अहामग्गं' मार्ग:-क्षायोपशमिको भावस्तदनतिक्रमेण, औदयिकभावागमननेत्यर्थः, 'अहाकप्प' यथाकल्प-कल्पनीयानतिक्रमेण प्रतिमासमाचारानतिक्रमेण वा 'सम्म कारणं' कायप्रवृत्त्या न मनोमात्रेणेत्यर्थः, 'फासिया' स्पृष्टा प्रतिपत्तिकाले विधिना प्राप्ता, 'पालिय'ति पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षिता, सोहियत्ति शोभिता तत्समाप्ती गुर्वादिप्रदानशेषभोजनासेवनेन शोधिता पा-अतिचारवर्जनेन तदालोचनेन वा, तीरिय'त्ति तीरं-पारं नीता, पूर्णेऽपि कालावधौ किञ्चित्कालावस्थानेन, 'किट्टिय'त्ति कीचिता पारणकदिने अयमयं चाभिग्रहविशेषः कृत आसीद् अस्यां प्रतिमायां स चाराधित एवाधुना मुत्कलोऽहमिति गुरुसमक्षं कीर्तनादिति, 'आरादहिय'त्ति एभिरेव प्रकारैः सम्पूर्णनिष्ठां नीता भवतीति, प्रत्याख्यानापेक्षया अन्यत्र व्याख्यानमेषामेवं-"उचिए काले वि हिणा पत्तं जं फासियं तयं भणियं । तह पालियं तु असई सम्म उवओगपडियरियं ॥१॥ गुरुदाणसेसभोयणसेवणयाए |उ सोहियं जाण । पुन्नेवि घेवकालावत्थाणा तीरियं होइ ॥२॥ भोयणकाले अमुगं पचक्खायंति भुंज किट्टिययं । आराहियं पयारेहिं संममेएहिं निट्ठवियं ॥ ३ ॥” इति । [विधिना यदुचिते काले प्राप्तं तरस्पृष्टं भणितं असकृत्सम्यगुपयोगप्रतिचरितं पालितं तथैव ॥१॥ गुरुदानशेषभोजनसेवनतया शोधितं जानीहि पूर्णेऽपि स्तोककालावस्थानात्तीर्ण भ * * 4% IndiaTary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~~778~ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४५] (०३) प्रत सूत्रांक सू०५४६ [५४५] दीप अनुक्रम [५९६] श्रीस्थाना-IN वति ॥२॥ भोजनकालेऽमुकं प्रत्याख्यातमित्युपयुज्य भुनक्ति कीर्तितं सम्यगेभिः प्रकारनिष्ठितमाराधितं ॥३॥] स्थाना० सूत्र- | सप्तसप्तमिकादिप्रतिमाश्च पृथिव्यामेव विधीयन्त इति पृथ्वीप्रतिपादनायाह उद्देशः ३ वृत्तिः अहेलोगे णं सत्त पुढवीओ पं०, सत्त घणोदधीतो पं०, सत्त घणवाता सत्त तणुवाता पं० सत्त उवासंतरा पं०, एतेसु पृथ्वीधनणं सशसु उवासंतरेसु सत्त तणुचाया पइट्ठिया, एतेसु णं सत्तसु तणुवातेसु सत्त घणवाता पइविया, एएसु णं सत्तसु वातादि॥३८८॥ घणवातेसु सत्त घणोदधी पतिहिता, एतेसु णं सत्तसु घणोदधीसु पिंडलगपिहुणसंठाणसंठिाओ सत्त पुढवीओ पं० सं० सप्तकानि पढमा जाव सत्तमा, एतासि णं सत्तण्डं पुढवीणं सत्त णामधेजा पं० ६०-पम्मा वंसा सेला अंजणा रिट्ठा मघा माघबती, पतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त गोत्ता पं० २०-यणप्पभा सकरप्पभा वालुअप्पमा पंकप्पभा धूमप्पभा तमा तमतमा (सू०५४६) 'अहेलोए' इत्यादि, अधोलोकग्रहणादूर्वलोकेऽपि पृथिवीसत्ताऽवगम्यते, तत्र चैका ईषत्याग्भाराख्या पृधिव्यस्तीति, इह च यद्यपि प्रथमपृथिव्या उपरितनानि नव योजनशतानि तिर्यग्लोके भवन्ति तथापि देशोनाऽपि पृथिवीति| कृत्वा न दोषायेति, एताश्च क्रमेण बाहल्यतो योजनलक्षमशीत्यादिसहस्राधिकं भवन्ति, उक्त च-"पढमा असीइसहस्सा १ बत्तीसा २ अट्ठबीस ३ बीसा य ४। अट्ठार ५ सोल ६ अट्ठ य ७ सहस्स लक्खोवरिं कुज्जा ॥१॥" इति ।। अधोलोकाधिकारात्तगतवस्तुसूत्राण्यावादरसूत्रात्, सुगमानि चैतानि, नवरं घनोदधीनां बाहल्यं विंशतिर्योजनसहस्राणि || ॥ ३८८ घनतनुवाताकाशान्तराणामसङ्ख्यातानि तानि, आह च-"सब्वे वीससहस्सा बाहलेणं घनोदधी नेया । सेसाणं तु असंखा | मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~779~ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४६] (०३) प्रत 154505 6455 सूत्रांक अहो २ जाव सत्समिया ॥१॥” इति, [विंशतिः सहस्राणि बाहल्येन सर्वत्र घनोदधयः शेषाणामसङ्ख्येयानि एव अधो-| धो यावत्सप्तम्यां घनतनुवातान्तराणां ॥१॥] तथा छत्रमतिक्रम्य छत्रं छत्रातिच्छत्रं तस्य संस्थान-आकारोऽधस्तनं छत्रं महदुपरितनं लध्विति तेन संस्थिताः छत्रातिच्छत्रसंस्थानसंस्थिताः, इदमुक्तं भवति-सप्तमी सप्तरज्जुविस्तृता षष्ट्यादयस्त्वेककरज्जुहीना इति, कचिसाठः "पिंडलगपिलसंठाणसंठिया' तत्र पिंडलग-पटलकं पुष्पभाजनं तद्वत्पृथुलसंस्थानसंस्थिता इति पटलकपृथुलसंस्थानसंस्थिताः, 'पृथुलपृथुलसंस्थानसंस्थिता' इति कचिसाठः, स च व्यक्त एव, 'नामधे. जत्ति नामान्येव नामधेयानि, 'गोत्त'त्ति गोत्राणि तान्यपि नामान्येव, केवलमन्वर्थयुक्तानि गोत्राणि इतराणि त्वितराणि, अन्वर्थश्च सुखोनेयः । सप्तावकाशान्तराणि प्राक् प्ररूपितानि, तेषु च बादरा वायवः सन्तीति तत्परूपणायाह सत्तविहा वायरवाउकाइया पं० त०-पातीणवाते पडीणवाते दाहिणवाते उदीणवाते उड़वाते अहोवाते विदिसिवाते (सू० ५४७) सत्त संठाणा पं० सं०-दीहे रहस्से वट्टे से चउरंसे पिहुले परिमंडले (सू० ५४८) सत्त भयट्ठाणा पं० सं०-इहलोगभते परलोगमते आदाणभते अकम्हाभते वेयणभते मरणभते असिलोगमते (सू०५४९) सत्तहिं ठाणेहिं छतमत्थं जाणेजा, पाणे अइवाएत्ता भवति मुसं वदत्ता भवति अविनमाविता भवति सहफरिसरसरूवगंधे आसादेत्ता भवति पूतासकारमणुव्हेत्ता भवति इगं सावजंति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति णो जधावादी तथाकारी यावि भवति । सत्तर्हि ठाणेहिं केवली जाणेज्जा, ०–णो पाणे अइवाइत्ता भवति जाव जधावाती तधाकारी यावि भवति (सू० ५५०) [५४६] दीप अनुक्रम [५९७] JAMERatinintamational wwwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~780~ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५५० ] दीप अनुक्रम [६०१] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ५५० ] स्थान [७], श्रीस्थाना- 2 ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३८९ ॥ ७ स्थाना० उद्देशः इ वायुसंस्थानभयानि 'सत्तविहा बायरेत्यादि, सूक्ष्माणां न भेदोऽस्ति ततो बादरग्रहणं, भेदश्व दिग्विदिग्भेदात् प्रतीत एवेति । वायवो ह्यदृश्यास्तथापि संस्थानवन्तो भयवन्तश्चेति संस्थानभयसूत्रे, संस्थानानि च प्रतीतानि तद्विशेषाः प्रतरघनादयोऽन्यतो ॐ ज्ञेयाः । 'सत्त भयद्वाणे त्यादि, भयं-मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामस्तस्य स्थानानि -आश्रया भयस्थानानि, तत्र मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद्भयं तदिहलोकभयं, इहाधिकृतभीतिमतो जाती लोक इहलोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तिः, तथा विजातीयात् तिर्यग्देवादेः सकाशान्मनुष्यादीनां यद्भयं तत्परलोकभयं, आदीयत ४ केवलित्वाइत्यादानं धनं तदर्थं चौरादिभ्यो यद्भयं तदादानभयं अकस्मादेव वाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिध्वेव स्थितस्य राज्यादौ केवलित्वभयमकस्माद्भयं वेदना-पीडा तनयं वेदनाभयं मरणभयं प्रतीतं, अश्लोकभयं अकीर्त्तिभयं एवं हि क्रियमाणे ॐ ज्ञानहेतवः | महदयशो भवतीति तद्भयान्न प्रवर्त्तत इति । भयं च उद्मस्थस्यैव भवति, स च यैः स्थानैर्ज्ञायते तान्याह - 'सत्तहिं ठाणेही त्यादि, सप्तभिः स्थानैर्हेतुभूतैः छद्मस्थं जानीयात्, तद्यथा- प्राणान् अतिपातयिता, तेषां कदाचिद् व्यापादनशीलो भवति, इह च प्राणातिपातनमिति वक्तव्येऽपि धर्म्मधम्मिणोरभेदादतिपातयितेति धम्म निर्दिष्टः, प्राणातिपातनाच्छद्मस्थोऽयमित्यवसीयते, केवली हि क्षीणचारित्रावरणत्वान्निरतिचार संयमत्वादप्रतिषेवित्वान्न कदाचिदपि प्राणानामतिपातयिता भवतीत्येवं सर्वत्र भावना ज्ञेया, तथा मृषा वादिता भवति, अदत्समादाता - गृहीता भवति, शब्दादीनास्वादयिता भवति, पूजासत्कारं - पुष्पार्चनवखाद्यर्चने अनुबृंहयिता परेण स्वस्य क्रियमाणस्य तस्यानुमोदयिता, तद्भावे हर्षकारीत्यर्थः तथेदमा धाकर्मादि सावधं सपापमित्येवं प्रज्ञाप्य तदेव प्रतिषेविता भवति, तथा सामान्यतो नो यथा Forest Use Only सू० ५४७ ५५० ~ 781~ ।। ३८९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते p Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५० ] दीप अनुक्रम [६०१] Education "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [७], उद्देशक [-1 मूलं [५५० ] वादी तथाकारी अन्यथाभिधायान्यथा कर्त्ता भवति 'चापी'ति समुच्चये । एतान्येव विपर्यस्तानि केवलिगमकानि भवन्तीत्येतत्प्रतिपादनपरं केवलिसूत्रं, सुगममेव । केवलिनश्च प्रायो गोत्रविशेषवन्त एव भवन्ति प्रव्रज्यायोग्यत्वान्नाभेयादिवदिति 'सत्त मूलगोत्तेत्यादिना ग्रन्थेन गोत्रविभागमाह सत्त मूलगोता पं० [सं०] कासवा गोतमा बच्छा कोच्छा कोसिता मंडवा वासिङ्का, जे कासवा ते सत्तविधा पं० तं ते कासवा ते संदेश ते गोडा ते वाला ते मुंजविणो ते पव्वपेच्छतिणो ते वरिसकण्हा, जे गोवमा ते सत्तविधा पं० तं ते गोयमा ते गग्गा ते भारहा ते अंगिरसा ते सकराभा ते भक्खराभा ते उद्गतामा, जे वच्छा ते सत्तविधा पं० तं ते बच्छा ते अगेया ते मिचिया ते सामिलिणो ते सेलतता ते अट्ठिसेणा ते बीयकम्हा, जे कोच्छा ते सप्तविधा पं० [सं० - ते कोच्छा ते मोग्गलायणा ते पिंगलायणा ते कोडीणा ते मंडलियो ते हारिता ते सोमया, जे कोसिभा ते सत्तविधा पं० [सं०― ते कोसिता ते कचारणा ते साखंकातणा ते गोलिकारणा ते पक्खिकायणा ते अग्गिचा ते होहिया, जे मंडवा ते सत्तविहा पं० तं०ते मंडवा ते अरिट्ठा ते समुता ते तेला ते एलावथा ते कंडिडा ते खारावणा, जे वासिद्धा ते सत्तविहा पं० तं ते वासिद्धा ते उंजायणा ते जारेकण्हा ते बघायचा ते कोडिन्ना ते सण्णी ते पारासरा ( सू० ५५१ ) सुगमश्चायं, नवरं गोत्राणि तथाविधैकैकपुरुषप्रभया मनुष्यसन्तानाः उत्तरगोत्रापेक्षया मूलभूतानि - आदिभूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि, काशे भवः काश्यः- रसस्तं पीतवानिति काश्यपस्तदपत्यानि काश्यपाः, मुनिसुव्रतनेमिवज जिना मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... - www...... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] For Fans at Use Only - ~782~ Bal anibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१५१] (०३) श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत ॥३९॥ सूत्रांक [५५१] दीप अनुक्रम [६०२] चक्रवादयश्च क्षत्रियाः सप्तमगणधरादयो द्विजाः जम्बूस्वाम्यादयो गृहपतयश्चेति, शह च गोत्रस्य गोत्रवयोऽभेदादेवस्थाना० निर्देशः, अन्यथा काश्यपमिति वाच्यं स्यादेवं सर्वत्र, तथा गोतमस्यापत्यानि गौतमाः-क्षत्रियादयो यथा सुव्रतनेमी जिनौलाउद्देशः ३ नारायणपावर्जवासुदेवबलदेवा इन्द्रभूत्यादिगणनाथत्रयं वैरस्वामी च, तथा वत्सस्यापत्यानि वत्सा:-शय्यम्भवादयः, मूलगोत्राएवं कुत्सा-शिवभूत्यादयः “कोच्छं सिवभूई पिय" इति वचनात् , एवं कौशिकाः पडुलूकादयः, मण्डोरपत्यानि मण्डवाः, आणि नयाश्च वशिष्टस्यापत्यानि वाशिष्टाः-षष्ठगणधरायसुहस्त्यादयः, तथा ये ते काश्यपास्ते सप्तविधाः, एके काश्यपशब्दव्यपदेश्यत्वेनसू०५५१काश्यपा एवान्ये तु काश्यपगोत्रविशेषभूतशण्डिल्यादिपुरुषापत्यरूपाः शाण्डिल्यादयोऽवगन्तव्याः । अयं च मूलगो- ५५२ बप्रतिगोत्रविभागो नयविशेषमताद्भवतीति नयविभागमाह सत्त मूलनया पं० २०-नेगमे संगहे ववहारे उजुसुते सद्दे सममिरूढे एवंभूते (सू० ५५२) 'सत्त मूले'त्यादि, भूलभूता नया मूलनयाः, ते च सप्त, उत्तरनया हि सप्त शतानि, यदाह-"एकेको य सयविहो सत्त नयसया हवंति एवं तु । अन्नोऽविय आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥१॥"[एकैकः शतविधा एवं सप्तनयशतानि | |भवन्ति अन्योऽपि चादेशो नयानां पंचव शतानि ॥१॥] तथा-"जावइया बयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया। जावइया नयवाया तावइया चेव परसमय ॥२॥"त्ति, [यावन्तो वचनपंथानः तावन्तश्चैव भवन्ति नयवादाः यावन्तो नयवादास्तावन्तश्चैव परसमया इति ॥१॥] तत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकधर्मसमर्थनप्रवणो बोधविशेषो नय इति. ॥२९० ॥ तत्र 'णेगमे'त्ति नैकर्मानैर्महासत्तासामान्यविशेषविशेषज्ञानमिमीते मिनोति वा नैकमः, आह च-“गाई माणाई. Hajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 783~ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१५२] (०३) प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] सामन्नोभयविसेसनाणाई । तेहिं मिणइ तो गमो णो णेगमाणोत्ति ॥१॥" [नैकानि मानानि सामान्योभयविशेपज्ञानानि यतैर्मिनोति ततो नैगमो नयो नैकमान इति ॥१॥] इति, निंगमेषु वा-अर्थबोधेषु कुशलो भवो चा नैगमः, | अथवा नैके गमा:-पन्धानो यस्य स नैकगमः, आह च-"लोगत्थनियोहा वा निगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं । अहवा जंगगमो गपहा णेगमो तेणं ॥१॥” इति, [लोकार्थनिबोधा वा निगमास्तेषु कुशलो भवो वाऽयं । अथवा यत् नैकगमोऽनेकपथो नैगमस्तेन ॥१॥] तत्रायं सर्वत्र सदित्येवमनुगताकारावबोधहेतुभूतां महासत्तामिच्छति अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च सामान्यविशेषं द्रव्यत्वादि व्यावृत्ताववोधहेतुभूतं च नित्यद्रव्यवृत्तिमन्त्यं विशेषमिति, आइइत्थं तीयं नैगमः सम्यग्दृष्टिरेवास्तु सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वात् साधुवदिति, नैतदेवं, सामान्यविशेषवस्तूनामत्यन्तभेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्येति, आह च भाष्यकार:-"जं सामनविसेसे परोप्परं वत्थुओ य सो भिन्ने । मन्नइ अञ्चतमओ मिच्छादिट्टी कणादोब्ब ॥ १ ॥दोहिवि नएहिं नीयं सत्थमुलूएण तहवि मिच्छत्तं । जं सविसयपहाणतणेण अन्नोननिरवेक्खा ॥१॥" इति, [यत्परस्परं वस्तुनश्च सामान्यविशेषौ भिन्नी अत्यन्तै मनुतेऽतो मिथ्याष्टिः कणाद | इव ॥१॥ उलूकेन शाखं द्वाभ्यां नयाभ्यां नीतमपि मिथ्यात्वं यत्स्वविषयप्रधानत्वेनान्योऽन्यनिरपेक्षौ (अङ्गीकृती) ॥१॥] तथा सङ्ग्रहणं भेदानां सङ्गलाति वा भेदान् सङ्गह्यन्ते वा भेदा येन स सबहः, उक्तश्च-"संगहणं संगिण्हइ संगिझते व तेण जं भेया । तो संगहोत्ति"[संग्रहणं संगृह्णाति संगृह्यते वा तेन यस्मा दास्ततः सङ्घहः॥] एतदुक्तं भवति-सामान्यप्रतिपादनपरः खल्वयं सदित्युक्त सामान्यमेव प्रतिपद्यते न विशेष, तथा च मन्यते-विशेषाः सामान्य Mrandinrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 784~ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ३९१ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५५२] स्थान [७], उद्देशक [-1, तोऽर्थान्तरभूताः स्युरनर्थान्तरभूता वा?, यद्यर्थान्तरभूता न सन्ति ते, सामान्यादर्थान्तरत्वात् खपुष्पवत्, अथानअर्थान्तरभूताः सामान्यमात्रं ते, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवदिति, आह च - “सदिति भणियंमि जम्हा सव्वत्थाणुष्पवत्तए बुद्धी। तो सव्यं तम्मत्तं नत्थि तदत्थंतरं किंचि ॥ १ ॥ कुंभो भावाऽणनो जइ तो भावो अहऽन्नहाऽभावो । एवं | पडादओऽविहु भावाऽनन्नति तम्मत्तं ॥ २ ॥” इति [ सदिति भणिते यस्मात्सर्वत्रानुप्रवर्त्तते बुद्धिः ततः सर्वं तन्मात्रं नास्ति तदर्थान्तरं किंचित् ॥ १ ॥ कुंभो भावादनन्यो यदि ततो भावोऽथान्यथाऽभावः एवं पटादयोऽपि भावादनन्या इति तन्मात्रं (सर्व) ॥ २ ॥ ] तथा व्यवहरणं व्यवहरतीति वा व्यवहियते वा अपलप्यते सामान्यमनेन विशेषान् वा | sऽश्रित्य व्यवहारपरो व्यवहारः, आह च-- "ववहरणं ववहरए स तेण वबहीरए व सामनं । ववहारपरो य जओ विसेसओ तेण वबहारो ॥ १ ॥” इति [ व्यवहरणं व्यवहरति व्यपहरति वा सामान्यं व्यवहारपरो यतश्च विशेषतस्तेन व्यवहारः ॥ १ ॥ ] अयं हि विशेषप्रतिपादनपरः सदित्युक्ते विशेषानेव घटादीन् प्रतिपद्यते, तेषामेव व्यवहारहेतुत्वात्, न तदतिरिक्तं सामान्यं तस्य व्यवहारापेतत्वात् तथा च-सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ? यदि भिन्नं विशेषव्यतिरेकेणोपलभ्येत, न चोपलभ्यते, अथाभिन्नं विशेषमात्रं तत्तदव्यतिरिक्तत्वात्तत्स्वरूपवदिति, आह च - “उवलंभब्बवहाराभावाओ त (नि) विसेसभावाओ । तं नत्थि खपुष्फेपिव संति विसेसा सपञ्चक्खं ॥ १ ॥” इति [ उपलंभव्यवहारा भावात्तद्वि (निर्विशेषभावात् तन्नास्ति खपुष्पमित्र विशेषाः सन्ति स्वप्रत्यक्षं ॥ १ ॥ ] तथा लोकसंव्यवहारपरो व्यवहारः, तथाहि - असौ पञ्चवर्णेऽपि भ्रमरादिवस्तुनि बहुतरत्यात् कृष्णत्वमेव मन्यते, आह च - "बहुतरओतिय तं चिय ग Forest Use Only ७ स्थाना० उद्देशः र नयाः सू० ५५२ ~785~ ॥ ३९१ ॥ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] स्था० ६६ Education in “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ५५२] स्थान [७], | मेइ संतेवि सेसए मुयइ । संववहारपरतया वबहारो लोगमिच्छंतो ॥१॥” [ संव्यवहारपरतया लोकमिच्छन् व्यवहारो वहुतरत्वादेव तं गमयति सतोऽपि शेषकान्मुचत्येव ॥ १ ॥ ] इति ३ तथा ऋजु वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं ज्ञानं यस्यासी ऋजुश्रुतः, ऋजु वा - वर्त्तमानमतीतानागतवऋपरि त्यागाद्वस्तु सूत्रयति - गमयतीति ऋजुसूत्रः उक्तं च- "उज्जं रिडं सुर्य नाणमुज्जु सुयमस्स सोऽयमुज्जुसुओ । सुत्तयइ वा जमुज्जुं वत्थं तेणुज्जुमुत्तोत्ति ॥ १ ॥ [ऋजु अवक्रं श्रुतं ज्ञानं ऋजु श्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुतः सूत्रयति वा यहजु वस्तु तेन ऋजुसूत्र इति ॥ १ ॥ ] अयं हि वर्त्तमानं निजकं लिङ्गवचननामादिभिन्नमप्येकं वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्त्विति, तथाहि अतीतमेष्यद्वा न भावो, विनष्टानुत्पन्नत्वाददृश्यश्वात्खपुष्पवत्, तथा परकीयमध्यवस्तु निष्फलत्वात् खकुसुमवत्, तस्माद्वर्त्तमानं स्वं वस्तु तच्च न लिङ्गादिभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति, लिङ्गभिन्नं तटस्तटी तटमिति वचनभिन्नमापो जलं नामादिभिन्नं नामस्थापनाद्रव्यभावभिन्नं, आह च " तम्हा निजगं संपयकालीयं लिंगवयणभिन्नपि । नामादिभेयविहियं पडिवज्जइ वत्थुमुज्जसुय ॥ १ ॥” त्ति ४, [तस्मान्निजकं साम्प्रतकालीनं लिंगवचनभिन्नमपि नामादिभेदवदपि प्रतिपद्यते ऋजुसूत्रो वस्तु ॥ १ ॥ ] तथा शपनं शपति वा असौ शप्यते वा तेन वस्त्विति शब्दस्तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एव, यथा कृतकत्वादिलक्षणहेत्वर्थप्रतिपादकं पदं हेतुरेवोच्यत इति, आह च- "सवणं सबइ स तेणं व सप्पए वत्थु जं तभ सहो । तस्सऽत्थपरिग्गहओ नओवि सदोत्ति हेतुव्व ॥ १ ॥” इति, [ शपनं शपति स तेन वा शप्यते वस्तु यत्ततः शब्दः । तस्यार्थपरिग्रहात् नयोऽपि शब्द इति हेतुरिव हेत्वर्थप्रतिपादकः ॥ १॥ ] अयं च नामस्थापनाद्रव्य कुम्भा न सन्त्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात् खपुष्पवत्, For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~786~ Janibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५२] (०३) प्रत सूत्रांक [५५२] श्रीस्थाना-पान च भिन्नलिङ्गवचनमेकं, लिङ्गवचनभेदादेव, स्त्रीपुरुषवत् कुटा वृक्ष इत्यादिवत् , अतो घटः कुटः कुम्भ इति स्वप-IP स्थाना र्यायध्वनिवाच्यमेकमेवेति, आह च-" चिय रिजसुत्तमयं पचुप्पन्नं विसेसियतरं सो । इच्छइ भावघडं थिय ज न उ द्देशा३ वृत्तिः नामादओ तिन्नि ॥१॥" [तदेव ऋजुसूत्रमतं प्रत्युत्पन्न विशेषिततरं स इच्छति भावघटमेव (मनुते) नैव नामा नया: ॥३९२॥ दीखीन् यत् ॥१॥] ५, तथा नानार्थेषु नानासंज्ञासमभिरोहणात् समभिरूढः, उक्तं च-"जं जं सन्नं भासह तं तं | मासू०५५२ |चिय समभिरोहए जम्हा । सर्वतरत्थविमुहो तओ क(न)ओ समभिरूढोत्ति ॥१॥"[यां यां संज्ञा भाषते तां तां समभिरोहत्येव यस्मात् संज्ञान्तरार्थविमुखस्ततो नयः समभिरूढइति ॥१॥] अयं हि मन्यते-घटकुटादयः शब्दा भिन्नप्रवृतिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचराः, घटपटादिशब्दवत् , तथा च घटनात् घटो विशिष्टचेष्टावानर्थों घट इति, तथा 'कुट कीटिल्ये' कुटनात् कुटा, कौटिल्ययोग्यात् कुट इति, घटोऽन्यः कुटोऽप्यन्य एवेति ६, तथा यथाशब्दार्थ एवं पदार्थों भूतः सन्नित्यर्थोऽन्यथाभूतोऽसन्नितिप्रतिपत्तिपर एवंभूतो नयः, आह च-"एवं जहसद्दत्थो संतो भूओ तयऽन्नहाऽभूओ। तेणेवभूवनओ सद्दत्थपरो विसेसेणं ॥” इति, [एवं यथाशब्दार्थस्तथा भूतः सन्नन्यथाऽभूतः ततः (असन्) तेनैवंभूतनयः विशेषेण शब्दार्थपरः ॥१॥] अयं हि योषिन्मस्तकव्यवस्थितं चेष्टावन्तमेवार्थ घटशब्दवाच्य मन्यते, न स्थानभरणादिक्रियान्तरापन्नमिति, भवन्ति चात्र श्लोकाः-"शुद्ध द्रव्यं समाश्रित्य, सङ्गहस्तदशुद्धितः । नैगमव्यवहारौ स्तः, शेषाः पर्यायमाश्रिताः॥२॥ अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्यमेवेति, मन्यते | नैगमो नयः ॥२॥ सद्भपतानतिक्रान्तस्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व, सङ्गहन सत्रहो मतः॥३॥ व्यवहा दीप अनुक्रम [६०३] ॥३९२ JABERatin intimational s ajaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 787~ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [५५२] Educatunamnational रस्तु तामेव, प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद्, व्यवहारयति देहिनः ॥ ४ ॥ तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्वात्, युद्धपर्यायसंस्थिता | नश्वरस्यैव भावस्य, भावात् स्थितिवियोगतः ॥ ५ ॥ अतीतानागताकारकालसंस्पर्शवर्जितम् । वर्त्तमानतया सर्वमृजुसूत्रेण सूत्रयते ॥ ६ ॥ विरोधिलिङ्गसङ्ख्यादिभेदाद्भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं, शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥ ७ ॥ तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवृत्तिनः । ब्रूते समभिरूढस्तु, संज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ ८ ॥ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोऽभिमन्यते ॥ ९ ॥” अथ कथं सप्त नयशतान्यसङ्ख्या वा नयाः सप्तसु नयेष्वन्तर्भवन्तीति ?, उच्यते, यथा वक्तृविशेषादसङ्ख्येया अपि स्वराः सप्तसु स्वरेष्विति स्वराणामेव स्वरूपप्रतिपादनाय सत्त सरेत्यादि स्वरप्रकरणमाह सत्त सरा पं० तं०—सज्जे रिसने गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । धेवते चैव णिसाते, सरा सत्त विवाहिता ॥ १ ॥ एएसि णं सन्त सराणं सत्त सरद्वाणा पं० नं० -- स तु अम्गजिन्माते, उरेण रिसभं सरं । कंडुग्गतेण गंधारं,' मज्झजिभाते मज्झिमं ॥ २ ॥ णासाए पंचमं वूया, दंतोद्वेण य धैवतं । मुद्धाणेण य णेसावं, सरठाणा विवाहिता ॥ ३ ॥ सत्त सरा जीवनिस्सिता पं० तं० सज्जं रखति मयूरो, कुकुडो रिसहं सरं । हंसो णदति गंधारं मज्झिमं तु गवेलगा || ४ || अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं । छद्धं च सारसा कोंचा, जिसायं सत्तमं गता ॥ ५ ॥ सच सरा अजीवनिस्सिता पं० तं०-सलं रवति मुइंगो, गोमुही रिसभं सरं । संखो णदति गंधारं मज्झिमं पुण झहरी 1 ॥ ६ ॥ चउचलणपतिद्वाणा, गोहिया पंचमं सरं | आडंबरो रेवतितं मद्दाभेरी य सत्तमं ॥ ७ ॥ एतेसि णं सत्तस मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... - www...... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] - , For PPs Use Only ~788~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ (०३) श्रीस्थानागसूत्र ७स्थाना० उद्देशः३ स्वरप्रकरणं सू०५५६ ॥३९३॥ प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३]] राणं सत्त सरलक्खणा पं० सं०-"सजेण लभति विति, कतं च ण विणस्सति । गावो मित्ता य पुत्ता य, णारीणं व वल्लभो ।। ८॥ रिसभेण उ एसज, सेणाव, धणाणि य । वत्थगंधमलंकार, इथिओ सयणाणि ।। ९ ।। गंधारे गीतजुत्तिण्णा, वनवित्ती कलाहिता । भवंति कतिणो पन्ना, जे अन्ने सस्थपारगा ॥ १० ॥ मनिमसरसंपन्ना, भवंति सुहजीविणो । खावती पीवती देती, मविमर्म सरमस्सितो ॥ ११ ॥ पंचमसरसंपन्ना, भवंति पुढवीपती । सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणणातगा ॥ १२ ॥ रेवतसरसंपन्ना, भवंति कलह प्पिया । साउणिता बग्गुरिया, सोयरिया मच्छबंधा व ॥१३॥ चंडाला मुट्ठिया सेवा, जे अन्ने पावकम्मिणो । गोधातगा य जे चोरा, णिसायं सरमस्सिता ॥ १४ ॥ एतेसिं सत्तण्डं सराणं तभी गामा पण्णत्ता, ०-सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे, सजगागरम णं सत्त मुच्छणातो पं० सं०-भंगी फोरल्पीया हरी व रयतणी य सारकंता व । छवी य सारसी णाम मुद्धसजा य सत्तमा ।। १५ ॥ मझिमगामस्स णं सत्त मुख्छणातो पं०, ०-उत्तरमंदा रयणी, उत्तरा उत्तरासमा । आसोकंता य सोवीरा, अ. भिरु दवति सत्तमा ॥ १६ ॥ गंधारगामस्म णं सच मुच्छणातो पं०, तं०--णंदी त खुदिमा पूरिमा य उत्थी य सुद्वगंधारा । उत्तरगंधारावित, पंचमिता हवति मुच्छा उ १७ ।। सुइतरमायामा सा छट्ठी णियमसो उ णायचा । मह उत्तरायता कोडीमातसा सत्समी मुच्छा ।। १८ ॥ सत्त सराओ को संभवंति यस्स का भवंति जोणी।। कतिसमता उस्सासा कति वा गेयस्स आगारा ॥ १९ ॥ सत्त सरा णाभीतो भवंति गीतं च रुयजोणीतं । पारसमा ऊसासा तिनि य गीयस्स आगारा ॥ २० ।। आइमिउं आरभंता समुन्वहंता य मज्मगारंमि । अवसाणे तणवितो तिन्नि व ३९३॥ PRESS Infantionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~789~ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२०४ -६४३] Education **** "स्थान" - अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [-1. मूलं [ ५५३] + गाथा १-३२ स्थान [७], गेयस्स आगारा ॥ २१ ॥ छोसे अद्वगुणे तिन्नि य वित्ताई दो व भणितीओ । जाणाहिति सो गाहिए सुसिक्खिओ रंगमज्झमि ।। २२ ।। भीतं दुतं रहस्सं गायंतो मा व गाहि उत्तालं । काकस्सरमणुनासं च होंति गेयस्स छोसा ||२३|| पुनं १ र २ च अलंकियं ३ च वत्तं ४ सहा अविघु ५ । मधुरं ६ सम ७ सुकुमारं ८ अट्ठ गुणा होंति गेयस्स ॥ २४ ॥ उरकंठसिरपसत्यं च गेजंते मरिमिअपदबद्धं । समतालपडुक्खेवं सत्तसरसीहरं गीयं ॥ २५ ॥ निद्दोसं सारवंतं च उत्तम कियं । उपणीय सोवयारं च मियं मधुरमेव य ॥ २६ ॥ सममद्रसमं चैव सव्वत्थ विसमं जं । तिनि वित्तप्पयाराहं चत्थं नोपलब्भती ॥ २७ ॥ सकता पागता चेव, दुहा भणितीओ आहिया । सरमंडलंमि गिज्जंते, पसत्था इसिभासिता ॥ २८ ॥ केसी गावति य मधुरं केसी गातति खरं च रुक्खं च । केसी गायति चरं केसि विलंबं दुतं केसी ॥ २९ ॥ विस्सरं पुण केरिसी ? || सामा गायइ मधुरं काली गाय खरं च रुक् च । गोरी गावति चडरं काण विलंबं दुतं अंधा ॥ ३० ॥ विस्सरं पुण पिंगला | वंतिसमं तालसमं पादसमं लयसमं गसमं च । नीससिऊससियसमं संचारसमा सरा सत्त ॥ ३१ ॥ सत सरा य ततो गामा, मुच्छणा एकवीसती । ताणा एगूणपण्णासा, समत्तं सरमंडलं ॥ ३२ ॥ ( सू० ५५३ ) इति सरमंडलं समत्तं ॥ + सुगमं चेदं नवरं स्वरणानि स्वराः -- शब्दविशेषाः, 'सज्जे' त्यादिश्लोकाः, पद्मयो जातः पड्जः, उक्तं हि "नासां क ण्ठमुरस्तालु, जिह्वां दन्तांश्च संश्रितः । पङ्गिः सञ्जायते यस्मात्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ १ ॥” तथा ऋषभो वृषभस्तद्वद् यो वर्त्तते स ऋषभ इति, आह च - " वायुः समुत्थितो नाभेः कण्ठशीर्षसमाहतः । नद्देत्यृषभवद् यस्मात् तस्मादृषभ 1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] www...... For Parts Only - ~ 790 ~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः brary.org Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [५५३] +गाथा १-३२ (०३) श्रीस्थाना- जसत्र ॥३९४॥ प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३]] उच्यते ॥१॥" तथा गन्धो विद्यते यत्र स गम्धारः स एव गान्धारो, गन्धवाहविशेषः इत्यर्थः, अभाणि हि-वायु स्थाना० समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः। नानागम्धावहः पुण्यो, गान्धारस्तेन हेतुना ॥१॥" तथा मध्ये कायस्य भवो उद्देशः ३ | मध्यमा, यदवाचि-वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहदि समाहतः । नाभिं प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समचते ॥१॥" तथा पञ्चानां पड़जादिस्वराणां निर्देशक्रममानिस पूरणः पञ्चमः अथवा पञ्चसु नाभ्यादिस्थानेषु मातीति पञ्चमः स्वर,ला यदभ्यधायि-"वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहत्कण्ठशिरोहतः । पञ्चस्थानोत्थितस्यास्य, पञ्चमत्वं विधीयते ॥१॥" तथा सू०५५३ अभिसन्धयते-अनुसन्धयति शेषस्वरानिति निरुक्तिवशाद् धैवतः, यदुक्तम्-"अभिसन्धयते यस्मादेतान् पूर्वोस्थितान् स्वरान् । तस्मादस्य स्वरस्थापि, धैवतत्वं विधीयते ॥१॥" पाठान्तरेण रैवतश्चैवेति, तथा निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स. निषादः, यतोऽभिहितं-"निषीदन्ति स्वरा यस्मानिषादस्तेन हेतुना । सर्वांश्चाभिभवत्येष, यदादित्योऽस्य दैवतम् ॥१॥" इति, तदेवं स्वराः सप्त 'वियाहियोति व्याख्याता, ननु कार्य हि कारणायत्तं जिह्वा च स्वरस्य कारणं सा चासमययरूपा ततः कथं स्वराणां सहयातत्वमिति, उच्यते, असङ्ख्याता अपि विशेषतः स्वराः सामान्यतः सर्वेऽपि सप्तस्वन्तभे-13 वन्ति, अथवा स्थूलस्वरान् गीतं चाश्रित्य सप्त उकाः, आह च-"कर्ज करणायसं जीहाय सरस्स ता असंखेया। सरसंख| मसंखेजा करणस्सासंखयत्ताओ॥१॥ सत्त य सुत्तनिबद्धा कह न विरोहो तओ गुरू आह । सत्तणुवाई सच्चे बायरगहणं च गेयं वां ॥२॥” इति।कार्य कारणायत्तं स्वरस्थच जिह्वा ता असङ्ख्येयाः स्वराः सहयेया असङ्घयाताः कारणस्था-II | |३९४॥ सङ्ग्यत्वात् ॥१॥ सस च सूत्रे निवदाः कथं न विरोधः ततो गुरुराह सर्वेऽपि सप्तानुपातिनः स्थूलग्रहणमाश्रित्य गेयं 455 JABERatinimtamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 791~ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१५३] +गाथा १-३२ (०३) प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३]] ४ वा ॥२॥] स्वरानामतोऽभिधाय कारणतस्तनिरूपणायोपक्रमते-'एएसि ण'मित्यादि, तत्र नाभिसमुत्थः स्वरोविकारी आभोगेन अनाभोगेन वा यं प्रदेश प्राप्य विशेषमासादयति तत्स्वरस्योपकारकमिति स्वरस्थानमुच्यते, 'सज्ज'मित्यादिश्लोकद्वयं; बयादिति सर्वत्र क्रिया, पजं तु प्रथमस्वरमेव अग्रभूता जिह्वा अप्रजिह्वा जिह्वानमित्यर्थः तया, यद्यपि षड्जभणने स्थानान्तराण्यपि व्याप्रियन्ते अप्रजिह्वा वा स्वरान्तरेषु व्याप्रियते तथापि सा तत्र बहुतरव्यापारवतीतिकृत्वा तया तमेव ब्रूयादित्यभिहित, उरो-वक्षस्तेन ऋषभस्वरं, 'कंटुग्गएणं'ति कण्ठश्चासावुनकच-उत्कटः कण्ठोअकस्तेन कण्ठस्य वोग्रत्वं यत्तेन कण्ठोग्रत्वेन कण्ठाद्वा यवुद्गतं-उद्गतिः स्वरोद्गमलक्षणा क्रिया तेन कण्ठोद्गतेन गन्धार, |जिहाया मध्यो भागो मध्यजिह्वा तया मध्यमं, तथा दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्ठं तेन चैवर्त रैवतं वेति । 'जीवनिस्सियत्ति जीवाश्रिताः जीवेभ्यो वा निःसृता-निर्गता, 'सज्ज'मित्यादिश्लोकः, 'नदति'रौति 'गवेलग'त्ति गावश्च एलकाश्च-ऊरणका गवेलकाः अथवा गवेलका-ऊरणका एव इति, 'अह कुसुम इत्यादिरूपकं गाथाभिधान, "विषमा|क्षरपाद या पादैरसम दशधर्मवत् । तन्वेऽस्मिन् यदसिद्ध, गाथेति तत् पण्डितै यम् ॥१॥” इति पचनात्, 'अथेति &ाविशेषार्थः, विशेषार्थता चैव-यथा गवेलका अविशेषेण मध्यम स्वरं नदन्ति न तथा कोकिलाः पश्चर्म, अपि तु कुसुमस म्भवे काल इति, कुसुमानां बाहुल्यतो बनस्पतिषु सम्भवो यस्मिन् स तथा तत्र, मधावित्यर्थः । 'अजीवमिस्सिय'त्ति तथैव नवरं जीवप्रयोगादेत इति। 'सज'मित्यादि श्लोकः, मृदङ्गो-मर्दला गोमुखी-काहला यतस्तस्या मुखे गोशामन्यद्वा & क्रियत इति, 'च' इत्यादिश्लोकाः चतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तधा, गोधाचर्मणा अवनखेति गोधिका RE wajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~792~ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ (०३) श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः रण प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३]] वाद्यविशेषो दर्द रिकेति यत्सर्यायः, आडम्बर:-पटहः सप्तममिति-निपादं । 'एएसि 'मित्यादि, 'सत्त'त्ति स्वरभेदात् स्थाना० सप्त स्वरलक्षणानि यथास्वं फलं प्रति प्रापणाव्यभिचारीणि स्वररूपाणि भवन्ति, तान्येव फलत आह-सजेणे'त्यादि श्लोकाः सप्त, षड्जेन लभते वृत्तिं, अयमर्थः-पढ्जस्येदं लक्षण-स्वरूपमस्ति येन वृत्ति-जीवनं लभते षड्जस्वरयुक्तः प्राणी, खरप्रकएतच्च मनुष्यापेक्षया लक्ष्यते, मनुष्यलक्षणत्वादस्पेति, कृतं च न विनश्यति तस्येति शेषः, निष्फलारम्भो न भवतीत्यर्थः, गावो मित्राणि च पुत्राश्च भवन्तीति शेषः। 'एसज्जति ऐश्वर्य गन्धारे गीतयुक्तिज्ञाः वर्यवृत्तयः-प्रधानजीविकाः कला-14 सू०५५३ भिरधिकाः कवयः-काव्यकारिणः प्राज्ञाः-सद्बोधाः, ये च उक्तेभ्यो गीतयुक्तिज्ञादिभ्योऽन्ये शास्त्रपारगा:-धनुर्वेदादिपारगामिनस्ते भवन्तीति, शकुनेन-श्येनलक्षणेन चरन्ति-पापद्धि कुर्वन्ति शकुनान् वा मन्ति शाकुनिकाः, वागुरामृगबन्धनं तया चरन्तीति वागुरिकाः, शूकरेण शूकरवधार्थ चरन्तीति शूकरान् वा नन्तीति शौकरिकाः, मौष्टिकामल्ला इति, 'एतेषा'मित्यादि, तत्र व्याख्यानगाथा-'सजाइ तिहा गामो ससमूहो मुच्छनाण विन्नेओ। ता सत्त एकमेके तो सत्त सराण इगवीसा ॥१॥ अन्नन्नसरविसेसे उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्ता व मुच्छिओ इब कुणहे | मुच्छ व सो वत्ति ॥२॥" कर्ता वा मूञ्छित इव करोति, मूर्छन्निव वा स कतैत्यर्थः, इह च मङ्गीप्रभृतीनामेकविंशतिमूर्च्छनानां स्वरविशेषाः पूर्वगते स्वरमाभृते भणिताः, अधुना तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरतवैशाखिलादिशास्त्रेभ्यो वि. ज्ञेया इति । सत्सस्सरा कओ' गाहा, इह चत्वारः प्रश्नाः, तत्र कुत इति स्थानात् का योनिरिति-का जातिः तथा कति का॥३९५ समया येषु ते कतिसमया, उच्छासाः किंपरिमाणकाला इत्यर्थः, तथाऽऽकारा:-आकृतयः स्वरूपाणीत्यर्थे।, 'सत्त Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 793~ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१५३] +गाथा १-३२ (०३) प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३]] सरा' गाहा प्रश्ननिर्वचनार्था सष्टा, नवरं रुदितं योनिः-जातिः समानरूपतया यस्य तद् रुदितयोनिक, पादसमया उच्छ्रासा-यावद्भिः समयैः पादो वृत्तस्य नीयते तावत्समया उच्छामा गीते भवन्तीत्यर्थः, आकारानाह-'आईगाहा, आदौ-प्राथम्ये मृदु-कोमलमादिमृदु गीतमिति गम्यते, आरभमाणाः, इह समुदितत्यापेक्षं बहुवचनमन्यथा एक एव आकारो द्वयमन्यद् वक्ष्यमाणलक्षणमिति, तथा समुद्वहन्तश्च महत्ता गीतध्वनेरिति गम्यते, मध्यकारे-मध्यभागे, तथा अवसाने च क्षपयन्तो-गीतध्वनि मन्द्रीकुर्वन्तस्त्रयो गीतस्याकारा भवन्ति, आदिमध्यावसानेषु गीतध्वनिः मृदुतारमन्द्रस्वभावः क्रमेण भवतीति भावः, किं चान्यत्-'छ दोसे' दारगाहा, षट् दोपा वर्जनीयाः, तानाह-'भीर्य'गाहा, भीत-त्रस्तमानसं १ दुतं-त्वरितं २ 'रहस्संति इस्वस्वरं लघुशब्दमित्यर्थः, पाठान्तरेण 'उप्पिच्छं' श्वासयुक्तं त्वरितं चेति ह उत्ताल-उत्सावल्यार्थे इत्यतितालमस्थानतालं वा, तालस्तु कंशिकादिशब्द विशेष इति ४, 'काकस्वर' श्लक्ष्णाश्रव्यस्वरं, अनुनासं च-सानुनासिकं नासिकाकृतस्वरमित्यर्थः, किमित्याह-गायन् गानप्रवृत्तस्त्वं हे गायन! मा गासी, किमिति, कायत एते गेयस्य षट् दोषा इति । अष्टौ गुणानाह–'पुलं' गाहा, पूर्ण स्वरकलाभिः १ रक्तं गेयरागेणानुरक्तस्य २ अलङ्क६ तमन्यान्यस्वरविशेषाणां स्फुटशुभानां करणात् ३ व्यक्तमक्षरस्वरस्फुटकरणत्वात् ४ 'अविघुटुं' विक्रोशनमिव यन्न विस्वर "५ मधुरं-मधुरस्वर कोकिलारुतवत् ६ सम-तालवंशस्वरादिसमनुगतं ७ सुकुमार-ललितं उलतीव यत् स्वरघोलना प्रकारेण शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखोत्सादनाद्वेति ८, एभिरष्टाभिर्गुणैर्युक्तं गेयं भवति, अन्यथा विडम्बना । किश्चान्यत्-'उरगाहा, उरकण्ठशिरःसु प्रशस्त-विशुद्धं, अयमों-यधुरसि स्वरो विशालस्तत उरोविशुद्धं, कण्ठे यदि Milindiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~794~ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१५३] +गाथा १-३२ (०३) प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३]] श्रीस्थाना- स्वरो वर्तितोऽस्फुटितच ततः कण्ठविशुद्ध, शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकस्ततः शिरोविशुद्धं, अथवा उरकण्ठाशिरःसु ४ (७स्थाना० असूत्र- श्लेष्मणा अव्याकुलेषु विशुद्धेषु-प्रशस्तेषु यत्तत्तयेति, चकारो गेयगुणान्तरसमुच्चये गीयते-उधार्यते गेयमिति सम्बध्यते, उद्देशः ३ वृत्तिः किविशिष्टमित्याह?-मृदुक' मधुरस्वरं 'रिभितं' यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रगतीव घोलनाबहुलमित्यर्थः । स्वरप्रक पदवी' गेयपदैनिबद्धमिति, पदत्रयस्थ कर्मधारयः, 'समतालपडुक्खेवति समशब्दः प्रत्येक सम्बध्यते तेन समा-18 स्ताला-हस्तताला उपचारात् तद्रवो यस्तित्समतालं तथा समः प्रत्युत्क्षेपः प्रतिक्षेपो वा-मुरजकंशिकाद्यातोद्यानां यो सू०५५३ ध्वनिस्तलक्षणः नृत्यत्सादक्षेपलक्षणो वा यस्मिंस्तत्समप्रत्युत्क्षेपं समप्रतिक्षेपं वेति, तथा 'सत्तसरसीभरति सप्त स्वराः 'सी-12 भर'न्ति अक्षरादिभिः समा यत्र तत्सप्तस्वरसीभरं, ते चामी-'अक्खरसमं १ पयसमं २ तालसमं ३ लयसमं ४ गहसम | पाच ५। नीससिऊससियसमं व सञ्चारसम ७ सरा सस ॥ ति, इयं च गाथा स्वरप्रकरणोपान्ते 'तंतिसम'मित्यादिरधीमातापि इहाक्षरसममित्यादि व्याख्यायते, अनुयोगद्वारटीकायामेवमेव दर्शनादिति, सत्र दीर्घे अक्षरे दीर्घः स्वरः क्रियते | ४ाइखे इस्वः प्लते प्लतः सानुनासिके सानुनासिका तदक्षरसम, तथा यद् गेयपद-नामिकादिकमन्यतरबन्धेन बद्ध यत्र स्वरे | &ा अनुपाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते गीयते तत्पदसममिति, यत्परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवर्सि भवति तसालसम, ज दायिन्यतरमयेनाङ्गुलिकोशकेनाहतायास्तत्र्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरतो गातुर्यद्य तल्लयसम, प्रथमतो वंशतच्या दिभिर्यः स्वरो गृहीतस्तत्सम गीयमानं ग्रहसम, निश्वसितोच्छसितमानमनतिकामतो यनेयं तनिःश्वसितोच्छसितसम, ॥३९६॥ प्रा तैरेव वंशतस्यादिभिर्यदङ्गलिसञ्चारसमं गीयते तत्सश्चारसम, गेयं च सप्त स्वरास्तदात्मकमित्यर्थः । यो गेये सूत्रवन्धः JAMERatinintamational Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 795~ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१५३] +गाथा १-३२ (०३) प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३]] स एवमष्टगुण एव कार्य इत्याह-निहोस' सिलोगो, तत्र निर्दोष-"अलियमुवधायजणयं" इत्यादिद्वात्रिंशत्सूत्रदोपरहित १ सारवद्-अर्थेन युक्तं २ हेतुयुक-अर्थगमककारणयुक्तं ३ अलङ्कतं-काव्यालङ्कारयुक्तं ४ उपनीत-उपसंहारयुक्तं ५सोपचारं-अनिष्ठराविरुद्धालजनीयाभिधानं सोझास वा ६ मितं पदपादाक्षरैः नापरिमितमित्यर्थः ७ मधुरं त्रिधा || शब्दार्थाभिधानतो गेयं भवतीति दोषः। 'तिनि य वित्ताईति यदुक्तं तव्याख्या-'सम'सिलोगो, तत्र सर्म पादैर-* रैच, तत्र पादैश्चतुर्भिरक्षरैस्तु-गुरुलघुभिः, अर्द्धसमं त्वेकतरसम, विषमं तु सर्वत्र पादाक्षरापेक्षयेत्यर्थः, अन्ये तु व्या-18 चक्षते-सम-यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीययोर्वितीयचतुर्थयोश्च समत्व, तथा सर्वत्र-सर्वपादेषु विपर्म च-विषमाक्षरं यत् यस्माद्वस भवति ततस्त्रीणि वृत्तप्रजातानि-पद्यप्रकाराः, अत एव चतुर्थं नोपलभ्यत इति, 'दोन्नि य भणिइओत्ति अस्य व्याख्या-'साया' सिलोगो, मणितिः-भाषा 'आहिया' आख्याता स्वरमण्डलेपडूजाविस्वरसमूहे, शेष कण्ठ्यं । कीदृशी स्त्री कीशं गायतीति प्रश्नमाह-केसी' गाहा, 'केसित्ति कीदृशी 'खर'न्ति | खरस्थानं रूक्ष-प्रसिद्धं चतुरं-दक्षं विलम्ब-परिमन्धरं दुर्त-शीघ्रमिति, 'विस्सरं पुण केरिसिति विस्सरं पुण केरिसित्ति गाथाधिकमिति, उत्तरमाह-'सामागाहा कण्ठ्या, "पिंगल'ति कपिला, 'तंति गाहा तन्त्रीसम-धीणादितन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च, शेष प्राग्वत्, नवरं 'पादों' वृत्तपादः, तन्त्रीसममित्यादिषु गेयं सम्बम्धनीर्य, तथा गेयस्य स्वरानोग्तरत्वादुक्तं 'संचारसमा सरा सत्त'ति, अन्यथा सञ्चारसममिति वाच्य खात्, तैतिसमा तालसमेत्यादि वेति, अयं च स्वरमण्डलसझेपा , 'सत्त सरा' सिलोगो, सता तश्री तानो भव्यते, तत्र षड्जादिः स्वरः प्रत्येक सप्तभिस्तान JABERatin intimational Paramhandionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 796~ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५३ ] गाथा ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२०४ -६४३] श्रीस्थाना #सूत्र वृत्तिः ॥ ३९७ ॥ "स्थान" - अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक [-1. Education intimational स्थान [७], गयित इत्येवमेकोनपञ्चाशत्तानाः सप्ततन्त्रीकायां वीणायां भवन्तीति एवमेकतन्त्रीकायां त्रितन्त्रीकायां च कण्ठेनापि गीयमाना एकोनपञ्चाशदेवेति । अनन्तरं गानतो लौकिकः कायक्लेस उक्तोऽधुना लोकोत्तरं तमेवाहसविधे कायकिलेसे पण्णत्ते, तं०-ठाणातिते उकुदुयासणिते पडिमठाती वीरासगिते सजिते दंडाविते गंडसाती ( सू० ५५४) जंबुद्दीवे २ सत्त वासा पं० [सं० भरहे एरखते है बते हेरन्नवते हरिवासे रम्मगवासे महाविदेद्दे। जंबुदीवे २ सत्त वासहरपव्यता पं० तं० - चुहिमवंते महाहिमवंते नमः नीलवंते रुप्पी सिहरी मंदरे । जंबुद्दीवे २ सत्त महानदीओ पुरत्थामिमुहीओ लवणसमुद्दे समप्पेंति, तं नाग रोहिता हिरी सीता णरकंता सुवण्णकूला रत्ता । जंबुदीवे २ सत्त महानतीओ पचत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समुपैति नं सिंधू रोहितंसा हरिकंता सीतोदा णारीकंता रुपकूला रक्तवती । धायइसंडदीवपुरच्छिम णं सत्त वासा पं० १०- भरहे जाव महाविदेद्दे, धायइसंडदीवपुरच्छिमे णं सच वासहरपब्वता पं० [सं० चुतहिमवंते जाब मंदरे, धायसंडदीवपुर० सत्त महानतीओ पुरच्छामिमुहीतो कालोयसमुद्द समप्पेंति, तं०-गंगा जाव रत्ता, धायइसंडदीवपुरच्छिमज्झेणं सत्त महानतीओ पञ्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुद्द समप्र्पेति, सं०-सिंधू जाव रत्तवती, धायइसंडदीवे पञ्चस्थिम णं मत्त वासा एवं चैव, णवरं पुरस्थामिमुहीओ लवणसमुदं खमप्र्मेति पञ्चत्थाभिमुद्दाओ कालोदं, सेसं तं वेब, पुक्खवरोध पुरच्छिमद्धे णं सत्त वासा तद्देव, णवरं पुरस्थाभिमुहीओ पुक्खरोदं समुद्धं समप्र्पति पञ्चत्थामिमुहीतो कालोदं समुदं समप्पैति, सेसं तं चैव एवं पञ्चत्थिमद्धेवि, नवरं पुरत्थामिमुहीओ कालोवं समुदं सम० पचत्याभिमुद्दीओ पुक्खरोदं समप्पेंति, सव्वत्थ वासा वासहरपञ्चता णतीतो य मूलं [ ५५३] + गाथा १-३२ ---------- For Fans Only ~ 797 ~ ७ स्थाना० उद्देशः १ स्वरप्रकरणं सू० ५५३ ॥ ३९७ ॥ [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते www.pincibrary.o Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५५] (०३) प्रत सूत्रांक [५५५] भाणितव्वाणि । (सू०५५५) । जंबुद्दीवे २ भारहे वासे तीताते उस्सप्पिणीते सत्त कुलगरा हुत्था, त०-मित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सर्यपभे । विमलघोसे सुघोसे त, महाघोसे य सत्तमे ॥१॥ जंबुद्दीचे २ भारहे वासे इमीसे ओसपिणीए सत्त कुलगरा हुत्था-पदमित्थ विमलबाहण १ चक्खुम २ जसमं ३ चउत्थमभिचंदे ४ । तत्तो य पसेणइ ५ पुण भोलेनाभीय ७॥॥ एएसिणं सत्तण्डं कुलगराणं सत्त भारियाओ हुत्था, तं०-चंदजसा १ चंदकांता २ सुरूव ३ पडिरूष ४ चक्खुकता ५ या सिरिकता ६ मरुदेवी ७ कुलकरइत्थीण नामाई ॥२॥ जंबुद्दीवे २ भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सत्त कुलकरा भविस्संति-मित्तवाहण सुभोमे य, सुप्पभे व सयंपभे । दत्ते मुहुमे [सुहे सुरुवे य] सुबंधू य, आगमेस्सिण होक्सती ॥१॥ विमलवाहणे णं कुलकरे सत्तविधा रुक्खा उपभोगताते हग्यमागछिम, सं०मत्तंगता त भिंगा चित्तंगा चेव होति चित्तरसा । मणियंगा त अणियणा सत्तमगा कपरुक्खा य ॥१॥ (सू० ५५६) सत्तविधा दंडनीती पं०२०-हकारे मकारे धिकारे परिभासे मंडलधंधे चारते छविच्छेदे (सू०५५७) एगमेगस्स ण रम्रो चाउरंतचकवहिस्स णं सत्त एगिदियरतणा पं०, तं०-यकरयणे १ छत्तरपणे २ चम्मरयणे ३ दंडरयणे ४ असिरयणे ५ मणिरयणे ६ काफणिरवणे ७ । एगमेगस्स णं रनो चाउरंतवकवट्टिस्स सत्त पंचिदियरतणा पं०, तं0सेणावतीरयणे १ गाहावतिरवणे २ वडतिरयणे ३ पुरोहितरयणे ४ इस्थिरयणे ५ आसरयणे ६ हत्थिरयणे ७ (सू० ५५८) सत्तहिं ठाणेहिं ओगावे दुस्सम जाणेजा, तं०-अकाले वरिसइ १ काले ण परिसइ २ असाधू पुजंति ३ साधू ण पुजंति ४ गुरूहि जणो मिच्छं पडिवन्नो ५ मगोदुहता ६ वतिदुहता । सत्तहि ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जा दीप अनुक्रम [६४५] स्था०६७ Handiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 798~ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५९] +गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [५५९] R-55-54-5 श्रीखाना- णेजा, तं०-अकाले न वरसइ १ काले वरिसइ २ असाधू ण पुजंति ३ साधू पुजंति ४ गुरूहि जणो सम्म पडि ७स्थाना नासूत्रवनो ५ मणोसुहत्ता ६ वतिसुहता ७ (सू० ५५९) ४ा उद्देशः ३ वृत्तिः 'सत्तविहे'त्यादि, प्रायः प्रागेव व्याख्यातमिदं तथापि किश्चिल्लिख्यते, कायस्य-शरीरस्य क्लेश:-खेदः पीडा काय-3 | कुल करा॥३९८॥ धानी. केशो-बाह्यतपोविशेषः, स्थानायतिका स्थानातिगः स्थानातिदो वा-कायोत्सर्गकारी, इह च धर्मधर्मिणोरभेदादेवमुप- न्यासः, अन्यथा कायक्केशस्य प्रकान्तत्वात् स एव वाच्यः स्यात्, न तद्वान, इह तु तद्वानिर्दिष्ट इति, एवं सर्वत्र, तयारउत्कटुकासनिकः-प्रतीतः, तथा प्रतिमास्थायी-भिक्षुप्रतिमाकारी वीरासनिको-यः सिंहासननिविष्टमिवास्ते, नैपधिका- लानि असमपदपुतादिनिषद्योपवेशी दण्डायतिकः-प्रसारितदेहो लगण्डशायी-भूम्यलग्नपृष्ठः । इदं च कायक्लेशरूपं तपो मनुष्य-10 वगाढदुः || लोक एवास्तीति तत्प्रतिपादनपरं 'जम्बुद्दीवे'त्यादि प्रकरणं, गतार्थ चैतत् । मनुष्यक्षेत्राधिकारात्तगतकुलकरकल्पवृक्ष- षमासुषमे Kानीतिरक्षदुषमादिलिङ्गसूत्राणि पाठसिद्धानि चैतानि, नवरं 'आगमिस्सेण होक्खह'त्ति आगमिष्यता कालेन हेतुनासू०५५६ भविष्यतीत्यर्थ, तथा विमलवाहने प्रथमकुलकरे सति सप्तविधा इति पूर्व दशविधा अभूवन् 'रुक्ख'त्ति कल्पवृक्षाःIDI ५५९ 'उवभोगत्ताए'त्ति उपभोग्यतया 'हव्वं शीघ्रमागतवन्तः, भोजनादिसम्पादनेनोपभोग तत्कालीनमनुष्याणामागता इत्यर्थः, 'मत्तंगया य'गाहा, 'मत्तंगया' इति मत्तं-मदस्तस्य कारणत्वान्मद्यमिह मत्तशब्देनोच्यते तस्याङ्गभूता-कार 11३९८॥ प्राणभूतास्तदेव बाउल-अवयवो येषां ते मत्ताङ्गकाः, सुखपेयमद्यदायिन इत्यर्थः, चकारः पूरणे, 'भिंग'त्ति संज्ञाशब्दत्वाद् Mभृङ्गारादिविविधभाजनसम्पादका भृङ्गाः, 'चित्तंगत्ति चित्रस्य-अनेकविधस्य माल्यस्य कारणत्वाच्चित्राङ्गाः, 'चित्तरसत्ति गाथा दीप अनुक्रम [६४६-६५८] JABERatinintamational Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~799~ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५९] +गाथा (०३) SCAGAR प्रत सूत्रांक [५५९] चित्रा-विचित्रा रसा-मधुरादयो मनोहारिणो येभ्यः सकाशात् सम्पद्यन्ते ते चित्ररसाः, 'मणिपंग'त्ति मणीनां-आभ-1 रणभूतानामङ्गभूता:-कारणभूताः मणयो वा अङ्गानि-अवयवा येषां ते मण्यङ्गाः, भूषणसम्पादका इत्यर्थः, 'अणिपण'त्ति | अनग्नकारकत्वादनना-विशिष्टवस्त्रदायिनः, संज्ञाशब्दो वाऽयमिति, 'कप्परुक्ख'त्ति उक्तव्यतिरिक्तसामान्यकल्पितफलदायित्वेन कल्पना कल्पस्तनधाना वृक्षाः कल्पवृक्षा इति । 'दंडनीइत्ति दण्डनं दण्ड:-अपराधिनामनुशासनं, तत्र तस्य वा स एव वा नीतिः-नयो दण्डनीतिः, 'हकारें'त्ति ह इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः, अयमर्थः-प्रथमद्वितीयकुलकरकालेऽपराधिनो दण्डो हकारमात्र, तेनैवासौ हतसर्वस्वमिवात्मानं मन्यमानः पुनरपराधस्थाने न प्रवर्त्तत इति । तस्य दण्डनीतिता, एवं मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं-अभिधानं माकारः, तृतीयचतुर्थेकुलकरकाले महत्यपराधे माकारोदण्डः इतरत्र तु पूर्व एवेति, तथा धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं-उच्चारणं धिक्कारः, पञ्चमषष्ठसप्तमकुलकरकाले महापराधे धिकारो दण्डो जघन्यमध्यमापराधयोस्तु क्रमेण हकारमाकाराविति, आह च-"पढमवीयाण पढमा तइयचउत्थाण अभिनवा बीया । पंचमछहस्स य सत्तमस्स तइया अभिणवा उ ॥१॥” इति, [प्रथमद्वितीययोः प्रथमा तृतीयचतु-1 योरभिनवा द्वितीया । पञ्चमषष्ठसप्तमानां तृतीयाऽभिनवा तु ॥१॥] तथा परिभाषणं परिभाषा-अपराधिनं प्रति | कोपाविष्कारेण मा यासीरित्यभिधानं, तथा 'मण्डलबन्धो' मण्डलं-इशितं क्षेत्र तत्र बन्धो-नास्मात् प्रदेशाद् गन्तव्यमित्येवं वचनलक्षणं, पुरुषमण्डलपरिवारणलक्षणो वा, 'चारक' गुप्तिगृह 'छविच्छेदों' हस्तपादनासिकादिच्छेदः, इयमनन्तरा चतुर्विधा भरतकाले बभूव, चतसृणामन्त्यानामाद्यद्वयमृषभकाले अन्ये तु भरतकाले इत्यन्ये, आह य । गाथा दीप अनुक्रम [६४६-६५८] N arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~800~ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५९] गाथा दीप अनुक्रम [६४६ -६५८] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ३९९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५५९] + गाथा स्थान [७], उद्देशक [-], " परिभासणा उ पढमा मंडलिबंधंमि होइ बीया उ । चारग छविछेदादी भरहस्स चउत्रिहा नीई ॥ १ ॥ इति । [ प्र धमा परिभाषणैव देशनिर्वासे द्वितीया चारकं छविच्छेदादिश्च भरतस्य चतुर्विधा नीतिः ॥ १ ॥ ] 'चक्करपणे' त्यादि, 'रलं ४ निगद्यते तत् जातौ जातौ यदुत्कृष्ट' मितिवचनात् चक्रादिजातिषु यानि वीर्यत उत्कृष्टानि तानि चकरलादीनि मन्तव्यानि, तत्र चक्रादीनि सप्तैकेन्द्रियाणि-पृथिवीपरिणामरूपाणि तेषां च प्रमाणं- "चकं छत्तं दंडो तिन्निवि एयाई वामतुलाई । धम्मं दुहत्थदीहं बत्तीसं अंगुलाई असी ॥ १ ॥ चउरंगुलो मणी पुण तस्सद्धं चैव होइ विच्छिन्नो । चउरंगुलप्पमाणा | सुवन्नवरकागणी नेया ॥ १ ॥” [ चक्रं छत्रं दण्डः श्रीण्यप्येतानि धामतुल्यानि । चर्म द्विहस्तदीर्घ द्वात्रिंशदंगुलाम्यसिः ॥ १ ॥ मणिः पुनः चतुरंगुलः तदर्द्धमेव विस्तीणों भवति । सुवर्णवरकाकिणी चतुरंगुलप्रमाणा ज्ञेया ॥ २ ॥] सेनापतिः - सैन्यनायको गृहपतिः - कोष्ठागारनियुक्तः वर्द्धकी-सूत्रधारः पुरोहितः शान्तिकर्मकारीति, चतुर्दशाप्येतानि प्रत्येकं यक्षसहस्राधिष्ठितानीति । 'ओगाढं'ति अवतीर्णी अवगाढां वा प्रकर्षप्राप्तामिति, अकालः- अवर्षा, असाधवःअसंयताः गुरुषु मातापितृधर्माचार्येषु 'मिच्छे' मिथ्याभावं विनयभ्रंशमित्यर्थः 'प्रतिपन्नः' आश्रितः, 'मणोदुहय'त्ति मनसो मनसा वा दुःखिता दुःखितत्वं दुःखकारित्वं वा द्रोहकरवं वा एवं 'वयदुहये' त्यपि व्याख्येयमिति । 'सम्म'ति | सम्यग्भावं विनयमित्यर्थः । एते च दुष्षमासुषमे संसारिणां दुःखाय सुखाय चेति संसारिप्ररूपणायाहरतिता तिरिक्खजोणिता तिरिक्ख जोणिणितो मणुस्सा मणुस्सीओ देवा नं० - 'अज्झवसानिमित्ते आहारे वेयणा परापाते । फासे आणापाणू सत्तविहा संसारसमाबनगा जीवा पं० तं० देवीओ (सू० ५६० ) सञ्चविधे आउभेदे पं० Education intimation For Fans Only ७ स्थाना० उद्देशः ३ ~801~ कुलकरा द्याः नी तयः रलानि अ| बगाढदुष्यमासुषमे सू० ५५६५५९ ॥ ३९९ ॥ www.brary.org आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५६२] गाथा दीप अनुक्रम [६५९ -६६२] Jus Educati “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५६२ ] + गाथा उद्देशक [-1, स्थान [७], सत्तविधं मिलए आऊं ॥ १ ॥' (सू० ५६१) सत्तविधा सव्वजीवा पं० तं०- पुढविकाइया आउ० तेउ० वाउ० वसति तसातिता अकातिता, अह्ह्वा सत्तविहा सब्बजीवा पं० [सं० कण्ट्लेसा जाब सुकलेसा अलेसा (सू० ५६२) 'सत्ते' त्यादि कण्ठ्यं, संसारिणां च संसरणं आयुर्वेदे सति भवतीति तद्दर्शयन्नाह - 'सत्तेत्यादि, तत्र 'आउयभेदे'त्ति आयुषो जीवितव्यस्य भेदः - उपक्रमः आयुर्भेदः, स च सप्तविधनिमित्तप्रापितत्वात् सप्तविध एवेति, 'अज्झवसाण' गाहा, अध्यवसानं रागस्नेहभयात्मकोऽध्यवसायो निमित्तं दण्डकशाशस्त्रादीनि समाहारद्वन्द्वस्तत्र सति आयुभिद्यत इति सम्बन्धः, तथा आहारे भोजनेऽधिके सति तथा वेदना- नयनादिपीडा पराघातो गर्त्तपातादिसमुत्थः, इहापि समाहारद्वन्द्व एव तत्र सति तथा स्पर्शे- तथाविधभुजङ्गादिसम्बन्धिनि सति, तथा 'आणापाणु'ति उच्छासनिःश्वासौ निरुद्धावाश्रित्येति, एवं च सप्तविधं यथा भवति तथा भिद्यते आयुरिति, अथवा अध्यवसानमायुरुपक्रम कारणमिति शेषः एवं निमित्तमित्यादि, यावदाणापाणुत्ति व्याख्येयं प्रथमैकवचनान्तत्वादध्यवसानादिपदानां एवं सप्तविधत्वादायुर्भेदहेतूनां सप्तविधं यथा भवति तथा भिद्यते आयुरिति, अयं चायुर्वेदः सोपक्रमायुषामेव नेतरेषामिति, आह-यद्येवं भिद्यते आयुस्ततः कृतनाशोऽकृत्याभ्यागमश्च स्यात् कथं ?, संवत्सरशतमुपनिबद्धमायुस्तस्य अपान्तराल एव व्यपगमात्कृतनाशो येन च कर्मणा तद्भिद्यते तस्याकृतस्यैवाभ्यागमः एवं च मोक्षानाश्वासः ततश्चारित्राप्रवृत्त्यादयो दोषा इति, आह च - "कम्मोवकामिज्जइ अपतकालंपि जड़ तओ पत्ता । अकयागमकयनासा मोक्खाणासासओ दोसा ॥ १ ॥” [ अप्राप्तकाले यदि कर्म उपक्रम्यते ततोऽकृतागमकृतनाशान्मोक्षेऽनाश्वासः दोषाः ॥ १ ॥ ] अत्रोच्यते-यथा Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~802~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः bryog Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक -], मूलं [५६२] +गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [५६२]] श्रीस्थाना-1 वर्षशतभोग्यभक्तमप्यग्निकव्याधितस्याल्पेनापि कालेनोपभुञ्जानस्य न कृतनाशो नायकृताभ्यागमस्तददिहापीति, आह स्थाना० इसूत्र- च-"न हि दीहकालियस्सविणासो तस्साणुभूइओ खिप्पं । बहुकालाहाररस व दुयमग्गियरोगिणो भोगो ॥१॥ सव्वं च उद्देशः ३ वृत्तिः |पएसतया भुजइ कम्ममणुभागओ भइयं । तेणावस्साणुभवे के कयनासादओ तस्त? ॥२॥ किंचिदकालेवि फलं पाइजद सर्वजीवाः ॥४० ॥ पच्चए य कालेणं । तह कम्म पाइजइ कालेण वि पच्चए अन्नं ॥ ३ ॥ जह वा दीहा रज्जू डज्झइ कालेण पुंजिया खिप्पं । आयुरुपवितओ पडो उ सुस्सइ पिंडीभूओ उ कालेणं ॥४॥” इत्यादि [अग्निरोगिणो बहुकालाहारस्य भोग इव दीर्घकालिकस्यापि क्रमाः सतस्य क्षिप्रमनुभूतितो नोक्तो नाशलक्षणो दोषः॥१॥ सर्व च कर्म प्रदेशतया भुज्यतेऽनुभागतो भक्तं तेनावश्यानुभवे: बंजीवाः कर्मणः के कृतनाशादयस्तस्य ॥२॥ किंचित्फलमकालेऽपि पाच्यतेऽन्यत्कालेन पच्यते तथा कर्म पाच्यतेऽन्यत्कालेनापि | कापाच्यते ॥ ३॥ यथा दीपों रज्जुः कालेन दह्यते पुंजिता क्षिप्रं क्षिप्रं विततः पटः शुष्यति पिण्डीभूतस्तु कालेन ॥४॥] अयं| युर्गती चायुर्भेदः कथश्चित्सर्वजीवानामस्तीति तानाह-'सत्तेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं सर्वे च ते जीवाश्चेति सर्व-1 जीवाः, संसारिमुक्ता इत्यर्थः, तथा 'अकाइय'त्ति सिद्धाः षड़िधकायाव्यपदेश्यत्वादिति, अलेश्याः-सिद्धाः अयोगिनो है। ५६३ वेति ।। अनन्तरं कृष्णलेश्यादयो जीवभेदा उक्ताः, तत्र च कृष्णलेश्यः सन्नारकोऽध्युत्सद्यते ब्रह्मदत्तवदिति ब्रह्मदत्तस्वरूपाभिधानायाहबंभदत्ते णं राया चाउरंतचकवट्टी सत्त धणूई उडु उच्चत्तेणं सत्त य वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किया M ॥४० ॥ 'अधे सत्तमाए पुढवीए अप्पतिवाणे गरए णेरतितत्ताए उबवन्ने (सू०५६३) मल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता गाथा दीप अनुक्रम [६५९-६६२] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~803~ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५६४] दीप अनुक्रम [६६४] Education “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५६२] स्थान [७], उद्देशक [-], गतो अणगारयं पवए, तं० मही विदेहरायवरकन्नगा १ पडिबुद्धी इक्खागराया २ चंदच्छाये अंगराया ३ रुप्पी कुणालाधिपती ४ संखे कासीराया ५ अदीणसत्तू कुरुराता ६ जितसत्तू पंचाल या ७ (सू० ५६४ ) 'भदत्तेत्यादि सुगमं ॥ ब्रह्मदत्त उत्तमपुरुष इति तदधिकारात् उत्तमपुरुषविशेषस्थानोसन्न मल्लिवक्तव्यतामाह'मल्ली ण'मित्यादि, महिरहन् 'अप्पसत्तमेति आत्मना सप्तमः सप्तानां पूरणः आत्मा वा सप्तमो यस्यासावात्मसप्तमो, महिशब्दस्य स्त्रीलिङ्गत्वेऽप्यईच्छन्दापेक्षया पुंनिर्देशः, विदेहजनपदराजस्य वरकन्या विदेहराजवरकन्या १, तथा | प्रतिबुद्धिर्नाम्ना इक्ष्वाकुराजः साकेतनिवासी २, चन्द्रच्छायो नाम अङ्गजनपदराजश्चम्पानिवासी ३, रुक्मी नाम कुणालजनपदाधिपतिः श्रावस्तीवास्तव्यः ४, शङ्खो नाम काशीजनपदराजो वाराणसीनिवासी ५, अदीनशत्रुर्नाम्ना कुरुदेशनाथः हस्तिनागपुरवास्तव्यः ६, जितशत्रुर्नाम पश्चाखजनपदराजः काम्पिल्यनगरनायक इति ७, आत्मसप्तमत्वं च भगवतः प्रव्रज्यायामभिहितप्रधानपुरुषप्रव्रज्याग्रहणाभ्युपगमापेक्षयाऽवगन्तव्यं, यतः प्रब्रजितेन तेन ते प्रब्राजिताः, तथा त्रिभिः पुरुषशतैः बाह्यपरिषदा त्रिभिश्व स्त्रीशतैरभ्यन्तरपरिषदाऽसौ संपरिवृतः परिव्रजित इति ज्ञातेषु श्रूयत इति उक्तं च"पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सहिं"ति, [पार्श्वो मही च त्रिभिस्त्रिभिः शतैः] एवमन्येष्वपि विरोधाभासेषु विषयविभागाः सम्भवन्तीति निपुणैर्गवेषणीयाः, शेषं सुगममिति, इत्थं चैतच्चरितं मलिज्ञाताध्ययने श्रूयते - जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे सलि | लावतीविजये वीतशोकायां राजधान्यां महाबलाभिधानो राजा पतिर्बालवयस्यैः सह प्रत्रज्यां प्रतिपेदे, तत्र महाबलस्तैवयस्थान गारैरूचे-यद्भवांस्तपस्तपस्त्रति तद्वयमपीत्येवं प्रतिपन्नेषु तेषु यदा ते तमनुसरन्तश्चतुर्थादि विदधुस्तदाऽसावष्टमादि Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ~804~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः cibrary.org Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५६२] +गाथा (०३) चरितं प्रत सूत्रांक [५६४] श्रीस्थाना- व्यधासीद्, एवं च खीनामगोत्रकर्मासौ वबन्ध अहंदादिवात्सल्यादिभिश्च हेतुभिस्तीर्थकरनामेति, ततस्ते जीवितक्षयाजयन्ता- स्थाना० द भिधानविमाने अनुत्तरसुरत्वेनोपेदिरे, ततश्युत्वा महायलो विदेहेषु जनपदेषु मिथिलायां राजधान्यां कुम्भकराजस्य उद्देशः३ वृत्तिः प्रभावत्या देव्यास्तीर्थकरीत्वेन समजनि, मल्लिरिति नाम च पितरौ चक्रतुः, तदन्ये तु यथोक्तेषु साकेतादिषु सञ्जज्ञिरे, मल्लीजिन ततो मल्ली देशोनवर्षशतजाता अवधिना तानाभोगवाञ्चकार, तत्प्रतिबोधनार्थ च गृहोपवने षङ्गर्भगृहोपेतं तन्मध्यभागे च कनकमयीं शुषिरां मस्तकच्छिद्रां पद्मपिधानां स्वप्रतिमां कारयामास, तस्यां चानुदिवसं स्वकीयभोजनकवलं प्रक्षेप- सू०५६४ यामास, इतश्च साकेते प्रतिबुद्धिराजः पद्मावत्या देव्या कारिते. नागयज्ञे जलजादिभास्वरपञ्चवर्णकुसुमनिर्मितं श्रीदामगण्डकं दृष्ट्वा अहोऽपूर्वभक्तिकं इदमिति विस्मयादमात्यमुवाच-दृष्ट कापीदमीहशमिति?, सोऽवोचत्-मल्लिविदेहवरराज-15 कन्यासत्कश्रीदामगण्डापेक्षयेदं लक्षांशेऽपि शोभया न वर्तते, ततो राज्ञाऽवाचि-सा पुनः कीदृशी, मन्त्री जगाद-1 अन्या नास्ति तादृशीत्युपश्रुत्य सञ्जातानुरागोऽसौ मलिवरणार्थ दूतं विससर्ज श तथा चम्पायां चन्द्रच्छायराजः कदाचिदहनकाभिधानेन श्रावकेण पोतवणिजा चम्पावास्तव्येन यात्राप्रतिनिवृत्तेन दिव्ये कुण्डलयुग्मे कौशलिकतयोपनीते सति पप्रच्छ, यदुत-यूयं बहुशः समुद्र लड्यथ, तत्र च किञ्चिदाश्चर्यमपश्यत्?, सोऽवोचत्-स्वामिन्नस्यां यात्रायां समुद्रमध्येऽ-18 स्माकं धर्मचालनार्थ देवः कश्चिदुपसर्ग चकार, अविचलने चास्माकं तुष्टेन तेन कुण्डलयुगलद्वितयमदाथि, तदेकं कुम्भ-18 साकस्य अस्माभिरुपनिन्ये, तेनापि मल्लिकन्यायाः कर्णयोः स्वकरेण विन्यासि, सा च कन्या त्रिभुवनाश्चर्यभूता दृष्टा, इति । WI||४०१॥ श्रुत्वा तथैव दूतं प्रेषयामास २॥ तथा श्रावस्त्यां रुक्मिराजः सुवाइभिधानायाः स्वदुहितुश्चातुर्मासिकमजनमहोत्सवे नग *CROSSSSSS दीप अनुक्रम [६६४] AMERatinintimational rajaniorary.org मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~805~ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] +गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [५६४] रीचतुष्पथनिवेशितमहामण्डपे विभूत्या मज्जिता तां तत्रैवोपविष्टस्य पितुः पादवन्दनार्थमागतां अङ्के निवेश्य तल्लावण्यमवलोकयन व्याजहार, यदुत भो वर्षधर दृष्ट ईदृशोऽन्यस्याः कस्याश्चिदपि कन्यायाः मजनकमहोत्सवः?, सोऽवोचदू-देव! विदेहवरराजकन्यासत्कमजनोत्सवापेक्षया अयं लक्षांशेऽपि रमणीयतया नवर्तत इत्युपश्रुत्य तथैव दूत प्रेषयति स्मेति । तथा अन्यदा मल्लिसत्कदिव्यकुण्डलयुग्मसन्धिर्विजघटे, तत्सङ्घनार्थ कुम्भकेन सुवर्णकाराः समादिष्टास्तथैव कर्नु तमशक्नुवन्तश्च नगर्या निष्कासिताः, बाणारस्यां शङ्खराजमाश्रिताः, भणिताश्च ते तेन-केन कारणेन कुम्भेन निष्काशिता यूयं ?, तेऽभिदधुःमलिकन्यासत्कविघटितकर्णकुण्डलसन्धानाशकनेनेति, ततः कीरशी सेति पृष्टेभ्यस्तेभ्यो मल्लिरूपमुपश्रुत्य तथैव दूतं प्राहिणोत्४ा तथा कदाचिन्मल्या मल्लदिन्नाभिधानोऽनुजो भ्राता सभां चित्रकश्चित्रयामास, तत्रैकेन चित्रकरयूना लब्धिविशेपवता यमनिकान्तरिताया मल्लिकन्यायाः पादाङ्गाष्ठमुपलभ्य तदनुसारेण मल्लिसदृशमिव तद्रूपं निर्वतितं, ततश्च मल्लदिन्नकु-15 |मार सान्तःपुरश्चित्रसभायां प्रविवेश, विचित्राणि च चित्ररूपाण्यवलोकयन मल्लिरूपं ददर्श, साक्षान्महीयमिति मन्यमानो ज्येष्ठाया भगिन्या गुरुदेवभूताया अहमग्रतोऽविनयेनायात इति भावयन् परमनीडां जगाम, ततस्तद्धात्री चित्रमिदमिति न्यवेदयत्। ततोऽसावस्थाने तेनेदं लिखितमिति कुपितस्तं वध्यमाज्ञापितवान् , चित्रकरश्रेणी तु तं ततो मोचयामास, तथापि कुमारः सन्दशकं छेदयित्वा तं निर्विषयमादिदेश, स च हस्तिनागपुरे अदीनशत्रुराजमुपाश्रितः, ततो राजा तन्निर्गमकारणं पप्रच्छ, तेन च तथैव कथिते दूतं प्रहिणोति स्मेति ५। तथा कदाचिच्चोक्षाभिधाना परिवाजिका मल्लिभवनं प्रविवेश, तां च दानधर्म च शौचधर्म चोद्राहयन्तीं मल्लिस्वामिनी निर्जिगाय, निर्जिता च सती सा कु ***PASSATASUNAM दीप अनुक्रम [६६४] *AXAS JABERatime MAILanmitram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~806~ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] +गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [५६४] श्रीस्थाना- पिता काम्पिल्यपुरे जितशत्रुराजमुपाश्रिता, भणितं च नरपतिना-चोक्षे! बहुत्र त्वं संचरस्यतोऽद्राक्षी काश्चिक-18 |७स्थाना सूत्र- चिदस्मदन्तःपुरपुरन्ध्रीसदृशीं १, सा व्याजहार-विदेहवरराजकन्यापेक्षया युष्मत्पुरन्ध्रयो लक्षांशेऽपि रूपसौभाग्यादि- | उद्देशः३ भिर्गुणैर्न वर्तन्त इति श्रुत्वा तथैव दूतं विसर्जितवानिति ६ । एवमेते षडपि दूताः कुम्भक कन्यां याचितवन्तः, सच मल्लीजिन चरितं Bातानपद्वारेण निष्काशितवान, दूतवचनाकर्णनाजातकोपाः षडपि अविक्षेषेण मिथिलां प्रति प्रतस्थुः, आगच्छतश्च ता-131 ॥४०२॥ &ानुपश्रुत्य कुम्भकः सबलवाहनो देशसीमान्ते गत्वा रणरङ्गरसिकतया तान् प्रतीक्षमाणस्तस्थी, आयातेषु तेषु लग्नमायो-लसू०५५४ धनं, बहुत्वात् परबलस्य निहतकतिपयप्रधानपुरुषमतिनिशितशरशतजर्जरितजयकुञ्जरमतिखरशुरुषप्रहारोपप्लुतवाजिवि-12 पसरविक्षिप्ताश्चवारमुत्तुङ्गमत्तमतङ्गजन्चूर्णितचकिचक्रमुल्लूनच्छत्रं पतत्पताकं कान्दिशीककातरं कुम्भकसैन्यं भङ्गमगमत् , ततोऽसौ निवृस्य रोधकसजः समासामासे, ततस्तज्जयोपायमलभमानमतिव्याकुलमानसं जनकमवलोक्य मही समाश्वासयन्ती समादिदेश, यदुत-भवते दीयते कन्येत्येवं प्रतिपादनपरपरस्परप्रच्छन्नपुरुषप्रत्येकप्रेषणोपायेन पुरि पा-1 ४ार्थिवाः पडपि प्रवेश्यन्तां, तथैव कृतं, प्रवेशितास्ते, पूर्वरचितगर्भगृहेषु मलिप्रतिमामवलोक्य च ते सेयं मलीति मन्य-15 मानास्तद्रूपयीवनलावण्येषु मूर्छिता निर्निमेपदृष्ट्या तामेवावलोकयन्तस्तिष्ठन्ति स्म, ततो मल्ली तत्राजगाम, प्रतिमायाः पिधानं चापससार, ततस्तस्था गन्धः सर्पादिकमृतकगन्धातिरिक्त उद्दघाव, ततस्ते नासिकां पिदधुः पराशुखाश्च तस्थुः।। सामली च तानेवमवादीत्-किन्नु भो भूपा! यूयमेवं पिहितनासिकाः परामुखीभूताः, ते ऊचुःगन्धेनाभिभूतत्वात्, पुनः15 साऽयोचत्-यदि भो देवानां प्रिया! प्रतिदिनमतिमनोज्ञाहारकवलक्षेपेणैवंरूपः पुद्गलपरिणामः प्रवत्तेते कीरशः पुनरस्यो-15 दीप 9425%*ॐॐॐॐ अनुक्रम [६६४] ॥४२॥ Sairwlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~807~ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५६२] +गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [५६४] दारिकस्य शरीरस्य खेलवान्तपित्तशुक्रशोणितपूयाश्रवस्य दुरन्तोच्छासनिश्वासस्य पूतिपुरीषपूर्णस्य चयापचयिकस्य शटनपतनविध्वंसनधर्मकस्य परिणामो भविष्यतीति?, ततो मा यूयं मानुष्यककामेषु सजत, किंच-"किंथ तयं पम्हढे जथ तया भो जयंतपवरंमि । वुच्छा समयनिवद्धं देवा! तं संभरह जाई ॥१॥” इति [किश्च तद्विस्मृतं यत्तदा जयंतप्रवरे | विमाने व्युषिताः समयनिबद्धं तां जातिं देवा भो संस्मरत ॥१॥] भणिते सर्वेषामुसन्नं जातिस्मरणं, अथ मल्लिरवा दीत्-अहं भोः! संसारभयात् प्रनजिष्यामि, यूयं किं करिष्यथ?, ते ऊचुः-वयमप्येवं, ततो मल्लिरवोचत्-यद्येवं ततो| ट्रगण्छत स्वनगरेषु स्थापयत पुत्रान् राज्येषु ततः प्रादुर्भवत ममान्तिकमिति, तेऽपि तथैव प्रतिपेदिरे, ततस्तान् मही| गृहीत्वा कुम्भकराजान्तिकमाजगाम, तस्य तान् पादयोः पातयामास, कुम्भकराजोऽपि तान् महता प्रमोदेनापूपुजत् स्वस्थानेषु च विससर्जेति, मल्ली च सांवत्सरिकमहादानानन्तरं पोषशुद्धैकादश्यामष्टमभकेनाश्विनीनक्षत्रे ते पनि पतिभिनन्दनन्दिमित्रादिभिर्नागवंशकुमारैस्तथा बाह्यपर्षदा पुरुषाणां त्रिभिः शतैरभ्यन्तरपर्षदा च स्त्रीणां त्रिभिः शतैः सह प्रवबाज, उत्पन्न केवलच तान् प्रवाजितवानिति । एते च सम्यग्दर्शने सति प्रव्रजिता इति सामान्यतो दर्शननिरूपणायाह सत्तविहे सणे पं०, तं०-सम्मईसणे मिच्छदसणे सम्मामिच्छदसणे चक्खुदंसणे अचक्खुदसणे ओहिसणे केवल दसणे (सू०५६५) उपमत्यवीयरागे णं मोहणिजयजाओ सत्त कम्मपयडीओ वेयेति, संजहाणाणावरणिनं दसणावरणि वेषणियं आवयं नाम गोतमंतरातितं (सू० ५६६) सत्त ठाणाई छउमत्ये सम्वभावणं न याणति न पासति, दीप अनुक्रम [६६४] JABERatinintamational Swanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~808~ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५६७] (०३) श्रीस्थाना वृत्तिः ॥४०३॥ रागवेद्य प्रत सूत्रांक [५६७]] तं.-धम्मत्यिकार्य अधम्मत्थिकार्य आगासस्थिकार्य जीवं असरीरपडिबद्ध परमाणुपोग्गलं सई गंध, एयाणि चेष उत्पन्नणाणे ७ स्थाना० जाव जाणति पासति, सं०-धम्मस्थिगात जाव गंधं (सू० ५६७) समणे भगवं महावीरे पयरोसभणारायसंघयणे उद्देशः३ समचउरससंठाणसंठिते सत्त रयणीओ उई उच्चत्तेणं हुत्था (सू०५६८) सत्त विकहाओ पं०, तं०-इथिकहा भत्त दर्शनानि कहा देसकहा रायकहा मिउकालणिता दसणभेयणी चरित्तभेयणी (सू० ५६९) आयरियनवज्झायस्स गं गणसि सत्त । छद्मस्थवीअइसेसा ५०, तं०-आयरियउषज्झाए अंतो उक्स्सगस्स पाते णिगिजिक्षय २ पाफोडेमाणे वा पमआमाणे वा णातिकमति, एवं जया पंचवाणे जाव बाहिं उपस्सगस्स एगरात वा दुरातं वा वसमाणे नातिकमति, उपकरणातिसेसे भत्तपाणातिसेसे कर्माणि छ(सू० ५७०) सत्तविधे संजमे पं०,०-पुढविकातितसंजमे जाव तसफातितसंजमे अजीवकायसंजमे । सविधे झस्थेतरअसंजमे पं०, तं-पुढविकातितभसंजमे जाव तसकातितअसंणमे अजीवकायअसंजमे । सत्तविहे आरंभे पं० सं० ज्ञेयाज्ञेयाः पुढविका तितआरंभे जाव अजीवकातआरंभे । एवमणारंभेचि, एवं सारंभेवि, एवमसारंभेवि, एवं समारंभेवि, एवं अस विकथाः मारंभेवि, जाव अजीवकायअसमारंभे (सू० ५७१) सूर्यतिश'दसणे'त्यादि सुगम, परं सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्वं मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यादर्शनं-मिश्रमिति, एतचायाः संयः त्रिविधमपि दर्शनमोहनीयभेदानां क्षयक्षयोपशमोदयेभ्यो जायते तथाविधरुचिस्वभावं चेति, चक्षुर्देर्शनादि तु दर्शना-18/०५५५वरणीयभेदचतुष्टयस्य यथासम्भवं क्षयोपशमक्षयाभ्यां जायते सामान्यग्रहणस्वभावं चेति, तदेवं श्रद्धानसामान्यग्रहणयोदर्शनशब्दवाच्यत्वादर्शनं सप्तधोकमिति । अनन्तरं केवलदर्शनमुक्तं, तच छद्मस्थावस्थाया अनन्तरं भवतीति छम- ४०३॥ दावीरोच्चता दीप अनुक्रम [६६७] andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~809~ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१७१] (०३) प्रत सूत्रांक [५७१] स्थप्रतिबद्धं सूत्रद्वयं, विपर्ययसूत्रं च छउमत्थे त्यादि सुगम, नवरं छमनि-आवरणद्वयरूपे अन्तराये च कर्मणि तिष्ठट्रातीति छद्मस्थ:-अनुत्पन्न केवलज्ञानदर्शनः स चासी वीतरागश्च-उपशान्तमोहत्वात् क्षीणमोहत्वाद्वा विगतरागोदय इप्रत्यर्थः, 'सत्त'त्ति मोहस्य क्षयादुपशमाद्वा नाष्टावित्यर्थः, अत एवाह-'मोहणिज्जबजाउ'त्ति । एतान्येव च जिनो जाना। तीत्युक्त, स च वर्चमानतीर्थे महावीर इति तत्स्वरूपं तत्प्रतिषिद्धविकथाभेदांश्वाह-'समणे इत्यादि सूत्रद्वयं सुगम, नवरं 'विकहाउ'त्ति चतस्रः प्रसिद्धाः व्याख्याताश्चेति 'मिउकालुणिय'त्ति श्रोतृहदयमाईवजननात् मृद्वी सा चासौल कारुणिकी च-कारुण्यवती मृदुकारुणिकी-पुत्रादिवियोगदुःखदुःखितमात्रादिकृतकारुण्यरसगर्भप्रलापप्रधानेत्यर्थः, तयथा-"हा पुत्त पुत्त हा वच्छ! वच्छ मुकामि कहमणाहाहं ? । एवं कलुणविलावा जलंतजलणेऽज सा पडिया ॥१॥" इति, [हा पुत्र पुत्र हा वत्स! वत्स कथमनाथाऽहं मुक्ताऽस्मि । एवं कारुणिकप्रलापा ज्वलज्ज्वलने साऽद्य पतिता ॥१॥ दर्शनभेदिनी ज्ञानाद्यतिशयितकुतीर्थिकप्रशंसादिरूपा, तद्यथा-'सूक्ष्मयुक्तिशतोपेतं, सूक्ष्मबुद्धिकरं परम् । सूक्ष्मार्थदर्शि-1 ट भिष्ट, श्रोतव्यं बौद्धशासनम् ॥१॥' इत्यादि, एवं हि श्रोतृणां तदनुरागात्- सम्यग्दर्शनभेदः स्यादिति, चारित्रभेदिनी न सम्भवन्तीदानी महानतानि साधूनां प्रमादबहुलत्वादतिचारप्रचुरत्वादतिचारशोधकाचार्यतत्कारकसाधुशुद्धीनामभावादिति ज्ञानदर्शनाभ्यां तीर्थ वर्तत इति ज्ञानदर्शनकर्तव्येष्वेव यलो विधेय इति, भणितं च-"सोही य नस्थि नवि | दित करेंता नविय केइ दीसंति । तित्थं च नाणदसण निजवगा चेव वोच्छिन्ना ॥१॥" इत्यादि, [नास्ति च शोधिर्नापि दातारः नापि च केचिदपि कर्त्तारो दृश्यन्ते ज्ञानदर्शनाभ्यां तीर्थ च नियामका व्युच्छिन्नाः॥१॥] अनया हि दीप अनुक्रम [६७१] JANERUT ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~810~ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१७१] (०३) श्रीस्थानाजसूत्रवृत्ति प्रत सूत्रांक [५७१] HARMA ।। ४०४॥ प्रतिपन्नचारित्रस्यापि तद्वैमुख्यमुपजायते किं पुनस्तदभिमुखस्येति चारित्रभेदिनीति ॥ विकथासु च वर्तमानान् साधूनाचार्या स्थाना. निषेधयन्ति सातिशयत्वात्तेषामिति तदतिशयप्रतिपादनायाह-आयरिएत्यादि, पञ्चस्थानके व्याख्यातप्राय तथापि उद्देशः ३ किश्चिदुच्यते-आचार्योपाध्यायो निगृह्य निगृह्य-अन्तर्भूतकारितार्थत्वेन पादधूल्याः प्रसरन्त्या निग्रहं कारयित्वा २ प्रस्फोटयन्-पादप्रोज्छनेन वैयावृत्त्यकरादिना प्रस्फोटनं कारयन् प्रमार्जयन्-प्रमार्जनं कारयन्नाज्ञामतिकामति, शेषसाधवः उपाश्रयाहिरिदं कुर्वन्तीत्याचार्यादेरतिशयः, 'एव'मित्यादिनेदं सूचितं "आयरिय उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचेमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइकमाइ २ आयरियउवज्झाए पभू इच्छा वेयावडियं करेजा इच्छा नो करेजा ३, कर्माणि छआयरियउधज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा संवसमाणे नाइकमइ ४ आयरियउवज्झाए चाहिं उपस्सयस्स IP एगरायं वा दुरायं वा संवसमाणे णाइकमइ ५" एतद् व्याख्यातमेवेति, इदमधिक-उपकरणातिशेषः-शेषसाधुभ्यः सका- रोचता आशात् प्रधानोज्वलवस्त्राथुपकरणता, वक्त -"आयरियगिलाणाणं मइला मइला पुणोवि धोति । माहु गुरूण अ- विकथा: वो लोगम्मि अजीरणं इयरे ॥१॥" इति, [आचार्याणां ग्लानानां च मलिनानि २ पुनः २ क्षालयंति गुरूणामवज्ञा| सूर्यतिश|मा भूत् लोके ग्लानानामजीर्ण च ॥१॥] (ग्लान इत्यर्थः> भक्तपानातिशेषः-पूज्यतरभक्तपानतेति, उक्तं च-"कलमो- याः संय० यणो उ पयसा परिहाणी जाव कोदवुब्भजी । तत्थ ज मिउ तुप्पतरं जत्थ य ज अधियं दोसुं ॥१॥" [पयसा कल- सू०५६५मौदनो यावत् परिहान्या कोद्रवोद्भाजी तत्रापि मृदु स्निग्धतरं यत्र क्षेत्रकालयोर्यदर्चितं च ॥१॥]('कोहबुब्भज्जित्ति | IPL ५७ कोदवजाउलयं 'दोसु'त्ति क्षेत्रकालयोरिति > गुणाश्चैते-"सुत्तत्थथिरीकरणं विणओ गुरुपूय सेहबहुमाणो । दाणवइस-TRIVnein. दीप 45154 अनुक्रम [६७१] woriandiorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~811~ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१७१] (०३) 55ॐ% प्रत सूत्रांक [५७१] IM! वुद्धी बुद्धीवलवद्धणं चेव ॥१॥” इति। [सूत्रार्थस्थिरीकरणं विनयो गुरुपूजा शैक्षबहुमानः दानपतिश्रद्धा वृद्धिः बुद्धिबलवर्द्धनं चैव ॥१॥] ॥ एते चाचार्यातिशयाः संयमोपकारायैव विधीयन्ते न रागादिनेति संयम तद्विपक्षभूतमसंयम चासंयमभेदभूतारम्भादित्रयं च सविपक्षं प्रतिपादयन् सूत्राष्टकं सातिदेशमाह-सत्तविहे' इत्यादि, सुगम, नवरं संयमः-पृथिव्यादिविषयेभ्यः सट्टपरितापोपद्रावणेभ्यः उपरमः, 'अजीवकायसंजमें'त्ति अजीवकायानांपुस्तकादीनां ग्रहणपरिभोगोपरमः, असंयमस्वनुपरमः, आरम्भादयोऽसंयमभेदार, तालक्षणमिदं प्रागभिहितम्-"आरंभो उद्दवओ परितावकरी भवे समारंभो । संकप्पो संरंभो सुद्धनयाणं तु सव्वेसि ॥१॥" इति, [आरम्भ उपद्रवतः परितापकरो भवेत् समारंभः । संरंभः संकल्पः शुद्धनयानां च सर्वेषां ॥१॥] नन्वारम्भादयोऽपद्रावणपरितापादिरूपा उकास्ते पाजीवकायानामचेतनतया न युक्तास्तदयोगादजीवकायानारम्भादयोऽपीति, अत्रोच्यते, अजीवेषु पुस्तकादिषु। ये समाश्रिता जीवास्तदपेक्षया अजीवकायप्राधान्यादजीवकायारम्भादयो न विरुध्यन्त इति । अनन्तरं संयमादय उ-18 तास्ते च जीवविषया इति जीवविशेषान् स्थितितः प्रतिपादयन् सूत्रचतुष्टयमाह अथ भंते ! अदसिकुसुंभकोदवकंगुराग वराकोदूसगा सणसरिसबमूलाबीयाणं एतेसि णं धन्नाणं कोट्ठालत्ताणं पलाउचाणं जाव पिहियाणं केवतितं कालं जोणी संचिट्ठति ?, गो.! जहणेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं सत्त संबच्छराई, तेण पर जोणी पगिलायति जाव जोणीयोच्छेदे पण्णत्ते १ (सू० ५७२) बायराउकाइयाणं उकोसेणं सत्त बाससहस्साई ठिती पन्नत्ता २ । तलाए णं वालयप्पभाते पुढवीए उकोसेणं नेरइयाणं सत्त सागरोचमाई ठिती पण्णत्ता ३, चउत्थीतेणं पंकप्पभाते पुढचीते दीप SCRECECRECTOR अनुक्रम [६७१] laindiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~812~ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१७३] (०३) स्थिाना ङ्गसूत्र ॥४०५॥ प्रत सूत्रांक [५७३] जह नेरइयाणं सत्त सागरोचमाई ठिती पं०४ (सू० ५७३) सकस्स गं देविंदस्स देवरो वरुणस्स महारस्रो सत्त भगगमहिसीतो पं०, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरसो सोमस्स महारो सत्त अग्गमहिसीतो पं०, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरलो जमरस महारनो सत्त अगमहिसीओ पं० (सू० ५७४) ईसाणस्स ण देविंदस्स देवरनो अभितरपरिसाते देवाणं सत्त पलिओवमाई ठिती पं०, समरस णं देविंदस्स देवरन्नो अग्गमहिसीणं देवीणं सत्त पलिओबमाई ठिती पं०, सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं देवीण उकोसेणं सत्त पलिओवमाई ठिती पं० (सू० ५७५) सारस्सयमाश्चाणं सस देवा सत्त देवसता पं०, गहतोयतुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा ५० (सू० ५७६) मणकुमारे कप्पे उचोसेणं देवाणं सत्त सागरोवमाई ठिती पं०, माहिदे कप्पे उकोसेणं देवाणं सातिरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिती पं०, बंभलोगे कप्पे जहण्णेणं देवाणं सत्त सागरोबमाई ठिती पं० । (सू०५७७) भलोयलंततेसु णं कप्पेसु विमाणा सत्त जोवणसताई उई उपत्तेणं पं० (सू० ५७८) भवणवासीणं देवाणं भवधारणिजा सरीरमा उकोसेणं सप्त रयणीमओ उई उत्तेणं, एवं वाणमंतराणं एवं जोइसियाणं, सोहम्मीसाणेमु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिजगा सरीरा सत्त रयणीभो उई उच्चत्तेणं पं० (सू० ५७९) गंदिस्सरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त दीवा पं० ०-जंबुद्दीवे दीये १ धायइसंडे दीवे २ पोक्खरखरे ३ बरुणवरे ४ खीरवरे ५ घयबरे ६ क्षोयवरे ७ । गंदीसरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त समुदा ५०, ०लवणे कालोते पुक्खरोदे वरुणोए खीरोदे घओदे खोखोदे (सू० ५८०) सत्त सेढीमो पं० त०-शुभआयता एगतोवंका दुहतोवंका एगतोखुहा दुहतोखुहा चक्वाला अद्वपकवाला (सू०५८१) चमरस्स णं अमुरिंदरस असुरकुमाररनो ७स्थाना. ४ उद्देशः३ बीजयोन्यादि आनन्दीश्वरावीपसमुद्राः श्रेण्यः अनीकाधिपाः सू०५७२ ५८२ दीप अनुक्रम [६७३] ॥४०५॥ JAMERatini ataneiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~813~ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१८२] (०३) प्रत सूत्रांक [५८२]] सत्त अणिता सत्त अणिताधिपती पं० त० पायताणीए १ पीढाणिए २ कुंजराणिए ३ महिसाणिए ४ रहाणिए ५ नहाणिए ६ गंधण्याणिए ७ दुमे पायत्ताणिताधिपती एवं जहा पंचट्टाणे जाव किंनरे रथाणिताधिपती रितु णट्टाणियाहियती गीतरती गंधब्बाणिताधिपती। बलिस्स णं वइरोयणिदस्स बइरोयणरण्णो सत्ताणीया सत्त अणीयाधिपती पं० सं०-पायत्ताणिते जाव गंधव्बाणिते, महर्मे पायत्ताणिताधिपती जाव किंपुरिसे रपाणिताधिपती महारिद्वे गट्टाणिताधिपती गीतजसे गंधब्बाणिताधिपती । धरणरस णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो सत्त अणीता सत्त अणिताधिपती पं० त०-पायत्ताणिते जाव गंधवाणिए रुइसेणे पायत्ताणिवाधिपती जाव आणंदे रवाणिताधिपती नंदणे णडाणियाधिपती तेतली गंधत्वाणियाधिपती । भूनाणंदस्स सत्त अणिया सत्त अणियाहिबई पं० त०-पायत्ताणिते जाप गंधव्याणीए दक्खे पायत्ताणीवाहिवती जाच णंदुत्तरे रहाणिक रती णट्टाणि० माणसे गंधवाणियाहिबई, एवं जाव घोसमहायोसाणं नेयच्वं । सकस्स णं देविंदस्स देवरनो सत्त अणिया सत्त अणियाहिवती पं० २०-पायत्ताणिए जाव गंधवाणिए, हरिणेगमेसी पायताणीयाधिपती जाव माढरे रपाणिताधिपती सेते णट्टाणिवाहिवती तुंचुरू गंधवाणिताधिपती । ईसाणसणं देविंदस्स देवरनो सत्त अणीया सत्त अणियादिवईणो पं० सं०-पायवाणिते जाव गंधव्याणिते लहुपरकमे पायत्ताणियाहिवती जाव महासेते णट्टाणिक रते गंधव्याणिताधिपती सेसं जहा पंचट्ठाणे, एवं जाव अशुतस्सवि नेतब्बं (सू० ५८२) चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररनो दुमस्स पायत्ताणिताहिबतिरस सत्त कछाओ पं०२०-पढमा कच्छा जाव सत्तमा कच्छा, चमरस्स गमसुरिंदस्स असुरकुमाररनो दुमस्स पायत्ताणिताधिपतिस्स दीप अनुक्रम [६८२] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~814~ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [५८३] + गाथा-१ (०३) श्रीस्थाना जन्सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [५८३]] गाथा ||१|| NAGA ७स्थाना० उद्देशः देवानां कच्छाः सू० ५८३ ॥४०६॥ पढमाए करछाए चवसहि देवसहस्सा पं० जापतिता पढमा कच्छा तन्धिगुणा दोचा कच्छा तब्बिगुणा तका कल्ला एवं जाव जावतिता छट्ठा करछा, तन्विगुणा सत्तमा कच्छा । एवं बलिस्सवि, णवर महर्मे सठ्ठिदेवसाहस्सितो, सेसं तं ष, धरणस्स एवं चेव, णवरमट्ठावीस देवसहस्सा, सेसं सं चेव, जधा धरणस्स एवं जाव महाघोसस्स, मवर पायताणिताधिपती अन्ने ते पुटवभणिता । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरो हरिणेगमेसिस्स सत्त कच्छाओ पन्नत्ताओ पं०, तं०-पढमा कच्छा एवं जहा चमरस्स तहा जाव अचुतस्स, णाणत्तं पायत्ताणिताधिपतीणं ते पुष्वभणिता, देवपरीमाणमिमं सकरस चउरासीतिं देवसहस्सा, ईसाणस्स असीती देवसहस्साई, देवा इमाते गायाते अणुगतरुवा-'परासीति असीति बावत्तरि सत्तरी य सट्ठीया । पन्ना चत्तालीसा तीसा वीसा इससहस्सा ॥ १॥ जाव अनुत्तस्स लदुपरकमस्स दसदेवसहस्सा जाव जावतिता छट्ठा कच्छा तब्बिगुणा सत्तमा कच्छा (सू० ५८३) 'अहे'त्यादि सूत्रसिहं, नवरं अथेति परिप्रश्वार्थः भदन्तेति गुर्वामन्त्रणं 'अयसी'ति अतसी कुमुंभो-लहा रालका&ाकंगूविशेषः सनः त्वक्प्रधानो धान्यविशेषः सर्पपा:-सिद्धार्थकाः मूलका-शाकविशेषः तस्य बीजानि मूलकबीजानि, |ककारलोपसन्धिभ्यां मूलाबीयत्ति प्रतिपादितमिति, शेषाणां पर्याया लोकरूढितो ज्ञेया इति, यावग्रहणात् 'मंचाउताणं मालाउत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुहियाण ति द्रष्टव्यं व्याख्याऽस्य प्रागिवेति, पुनयोंवत्करणात् 'पवि द्धंसह विद्धंसह से पीए अबीए भवइ, तेण पति दृश्यं ॥'बादरआउकाइयाणं'ति सूक्ष्माणां त्वन्तमुत्तेमेवेति, एवमु-13 कात्तरत्रापि विशेषणफलं यथासम्भवं स्वधिया योजनीयं । अनन्तरं नारका उक्का इति स्थितिशरीरादिभिस्तत्साधम्याई दीप अनुक्रम [६८३६८४] 44 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~815~ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) – ངྒྷཊྛམྦོཝཱ =ཙྪཱཊུལླཱཡྻ |||| अनुक्रम “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [ ५८३] + गाथा-१ वाना वक्तव्यतामभिधित्सुः सूत्रमपथमाह- 'सकस्से' त्यादि सुगमश्चायं, नवरं 'वरुणस्स महारन्नो'चि लोकपालस्य पश्चिमदिग्वर्त्तिनः सोमस्य पूर्वदिग्लोकपालस्य यमस्य दक्षिणदिग्लोकपालस्य । अनन्तरं देवानामधिकार उक्तो देवावासाच द्वीपसमुद्रा इति तदर्थं 'नंदीसरे' त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं । एते च प्रदेशश्रेणीसमूहात्मक क्षेत्राधाराः श्रेण्याऽवस्थिता इति श्रेणिप्ररूपणायाह- 'सत्त सेढीत्यादि श्रेणयः प्रदेशपतयः ऋम्बी-सरला सा चासावायता च दीर्घा ऋज्वायता, स्थापना- 'एक ओवंका' एकस्यां दिशि वक्रा 'दुहओका' उभयतो वका, स्थापना । एगओखहा-एकस्यां दिश्यकुशाकारा दुहओ खहा-उभयतोऽङ्कुशाकारा GO चक्रवाला वलयाकृतिः • अर्द्धचक्रवाला - अर्द्धवलयाकारेति c एताकतोवक्राद्या लोकपर्यन्तप्रदेशापेक्षाः सम्भाव्यन्ते । चक्रवालार्द्धचक्रवालादिना गतिविशेषेण भ्रमणयुक्तानि दर्पितत्वादेवसैन्यानि भवन्तीति तत्प्रतिपादनाय 'मरे' त्यादि प्रकरणं, सुगमं, नवरं पीठानीकं अश्वसैन्यं, नाव्यानीकं-नर्तकसमूहो गन्धर्व्वानीकं -गायनसमूहः 'एवं जहा पंचमठाणए'त्ति अतिदेशात् 'सोमे आसराया पीढाणीया हिवई २ बैकुंथू हत्थिराया कुंजराणियाहिवई र लोहियक्ले महिसाणियाहिवई ४ इति द्रष्टव्यमेवमुत्तरसूत्रेष्वपीति । तथा धरणस्येव सकलदाक्षिणात्यानां भवनपतीन्द्राणां सेना सेनाधिपतयः, औदीच्यानां तु भूतानन्दस्येवेति, 'कच्छत्ति समूहः, यथा धरणस्य तथा सर्वेषां भवनपतीन्द्राणां महाघोषान्तानां केवलं पादातानीकाधिपतयोऽन्ये ज्ञेयाः, ते च पूर्वमनन्तरसूत्रे भणिताः, 'नाणसं'ति शक्रादीनामानतप्राणतेन्द्रान्तानामेकान्तरितानां हरिणैगमेषी पादातानीकाधिपतिरीशानादीनामारणाच्युतेन्द्रान्तानामेकान्तरितानां लघुपराक्रम इति, 'देवेत्यादि, देवाः प्रथमकच्छासम्बन्धिनोऽन For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 816~ Tanibrary org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८३] |||| दीप अनुक्रम [६८३ ૬] श्रीस्थानाज्ञसूत्रवृति ॥ ४०७ ॥ "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशक -L स्थान [७], Education Inational - या गाथयाऽवगन्तव्याः, 'चतुरासी' गाहा, चतुरशीत्यादीनि पदानि सौधर्मादिषु क्रमेण योजनीयानि, नवरं विंशतिपदमानतप्राण तयोर्योजनीयं तयोर्हि प्राणताभिधानस्येन्द्रस्यैकत्वात् दशेति पदं स्वारणाच्युतयोर्योजनीयं, अच्युताभिधानस्येन्द्रस्यैकत्वादिति । सकलमिदमनन्तरोदितं वचनप्रत्याय्यमिति वचनभेदानाह 3 मूलं [५८३] + गाथा - १ - सतविद्दे वयणविकप्पे पं० तं० आलावे अणालावे उहावे अणुलावे संठावे पलावे विप्पलावे ( सू० ५८४) सत्तविहे विणए पं० [सं० जाणविणए दंसणविणए चरितविणए मणविणए वतिचिणए कार्याविणए लोगोवयारविणए । पसत्यमणविणए सत्तविधे पं० तं० अपावते असावजे अकिरिते निरुवकेसे अणण्डुकरे अच्छविकरे अभूताभिसंकमणे, अप्पसत्थमणविण सत्तविधे पं० [सं० पावते सावजे सकिरिते सबकेसे अण्हकरे छविकरे भूतामिसंकणे, पसत्यवविगए सत्तविधे पं० [सं० अपावते असावज्जे जाव अभूतामिसंकणे, अपसत्थवइविणते सत्तविधे पं० [सं० पावते जाव भूतामिसंकणे, पसत्थकातविणए सत्तविधे पं० [सं० आउतं गमणं आउतं ठाणं आउत्तं निसीयणं आवतं तुअट्टणं आउतं उघणं भारतं पहुंपणं आउत्तं सव्बिंदितजोगजुंजणता, अपसत्यकातविणते सत्तविधे पं० तं० अणाउतं ग मणं जाव अणाउतं सदिदितजोगजुंजणता । लोगोजतारविणते सत्तविधे पं० तं० - अन्भासवचितं परच्छेदाणुवतितं काहेउं कतपडिकितिता अत्तगबेसणता देसकालष्णुता सव्वत्थेसु यापडिलोमता ( सू० ५८५ ) 'सत्तविहे 'त्यादि, सप्तविधो वचनस्य - भाषणस्य विकल्पो-भेदो वचनविकल्पः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - आङ ईषदर्थत्वादीपलपनमालापः नञः कुत्सार्थत्वादशीलेत्यादिवत् कुत्सित आलापः अनालाप इति, उल्लाप:- काकावर्णनं 'काका वर्णनमु For Fans Only ~817~ ७ स्थाना० उद्देशः ३ वचनानि विनयः सू० ५८४५८५ ॥ ४०७ ॥ www.lincibrary or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८५] (०३) 445 प्रत सूत्रांक [५८५]] लाप' इति वचनात् स एव कुत्सितोऽनुलापः, क्वचित्पुनरनुलाप इति पाठस्तत्रानुलापः-पीनःपुन्यभाषणं "अनुलापो | मुहुर्भाषा" इति वचनात् , सल्लापः-परस्परभाषणं "संलापो भाषणं मिथः" इति वचनात्, प्रलापो-निरर्थक वचन | "प्रलापोऽनर्थकं वचः" इति वचनात् स एव विविधो विप्रलाप इति ॥ एतेषां वचनविकल्पानां मध्ये केचिद्विकल्पा विनयार्था अपि स्युरिति विनयभेदप्रतिपादनायाह-'सत्तविहे'त्यादि, सप्तविधो विनीयतेऽष्टप्रकारं कर्मानेनेति विनयः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-ज्ञान-आभिनिबोधिकादि पञ्चधा तदेव विनयो ज्ञानविनयो ज्ञानस्य वा विनयो-भत्त्यादिकरणं ज्ञान| विनयः, उक्तं च-"भत्ती १ तह बहुमाणो २ तद्दिद्वत्थाण संम भावणया ३ । विहिगहण ४ भासोऽविय ५ एसो वि णओ जिणाभिहिओ॥१॥"[भक्तिस्तथा बहुमानं तदृष्टार्थानां सम्यग्भावना विधिना ग्रहणं अभ्यासोऽपि च एष | ४ विनयो जिनाख्यातः ॥१॥] दर्शनं-सम्यक्त्वं तदेव विनयो दर्शनविनयो दर्शनस्य वा-तदव्यतिरेकाद्दर्शनगुणाधिकानां शुश्रूषणाऽनाशातनारूपो बिनयो दर्शनविनयः, उर्फ च-"सुस्सूसणा अणासायणा य विणओ उ दसणे दुविहो । दसणगुणाहिएK कजइ सुस्सूसणाविणओ ॥१॥ सकार १ भुट्ठाणे २ सम्माणा ३ सणअभिग्गहो तह य४ । आसणमणुप्पयाणं ५ कीकर्म ५ अंजलिगहो य ७॥२॥ इंतस्सऽणुगच्छणया ८ ठियस्स तह पजुवासणा भणिया ९ । गच्छंताणुब्वयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ॥३॥” इति, [शुश्रूषणाऽनाशातना च विनयस्तु दर्शने द्विविधः । दर्शनगुणाधिकेषु क्रियते शुश्रूषणाविनयः ॥ १॥ सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मान आसननिमन्त्रणा तथा च आसनसंक्रामणं कृतिकर्म अंजलिहश्च ॥२॥ आगच्छतोऽभिजन स्थितस्य तथा पर्युपासना भणिता गच्छतोऽनुवजन एष शुश्रूषणाविनयः ॥३॥ दीप अनुक्रम [६८६] CONSORRORSC* wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~818~ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८५] (०३) मसूत्र प्रत सूत्रांक [५८५]] श्रीस्थाना- इह च सत्कार:-स्तवनवन्दनादि अभ्युत्थान-विनयाहस्य दर्शनादेवासनत्यजनं सम्मानो-वखपात्रादिपूजनं आसनाभि- स्थाना ग्रहः पुनस्तिष्ठत आदरेण आसनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणनं आसनानुप्रदानं तु-आसनस्य स्थानास्स्थानान्तरस-४ उद्देश: ३ ञ्चारणं कृतिकर्म-द्वादशावर्त्तवन्दनकं, शेष प्रकटमिति । उचितक्रियाकरणरूपोऽयं दर्शने शुश्रूषणाविनयः, अनाशातना-II विनयः ॥४०॥ | विनयस्तु अनुचितक्रियाविनिवृत्तिरूपः, अयं पञ्चदशविधा, आह च-"तिस्थगर १ धम्म २ आयरिय ३ वायगे ४ थेरासू०५८५ ला५ कुल ६ गणे ७ संघे ८। संभोगिय ९ किरियाए १० मइनाणाईण १५ य तहेव ॥१॥" [तीर्थंकराचार्यधर्मवाच कस्थविरकुलगणसंघानां सांभोगिकानां क्रियावादिनां मत्यादिज्ञानानां च तथैव ॥१॥] साम्भोगिका-एकसामाचा रीकाः क्रिया-आस्तिकता, अन भावना-तीर्थकराणामनाशातनायां तीर्थकरप्रज्ञप्तधर्मस्यानाशातनायां, वर्तितव्यमि-II लत्येवं सर्वत्र द्रष्टव्यमिति, "कायब्वा पुण भत्ती बहुमाणो तहह्य वन्नवाओ य । अरहतमाइयाणं केवलनाणावसाणाणं॥१॥" [ अहंदादीनां केवलज्ञानावसानानां पंचदशानां भक्तिः कर्तव्या पुनर्बहुमानः तथा च वर्णवादश्च ॥ १॥] उक्तो दर्शBानविनयः, साम्प्रतं चारित्रविनय उच्यते, तत्र चारित्रमेव विनयश्चारित्रस्य वा श्रद्धानादिरूपो विनयश्चारित्रविनयः, आह च-"सामाझ्यादिचरणस्स सद्दहणया १ तहेव काएणं । संफासणं २ परूवण ३ मह पुरओ.भब्वसत्ताणं ॥१॥” इति, [सामायिकादिचारित्रस्य श्रद्धानं तथैव कायेन स्पर्शना अथो भव्यानां पुरतः प्ररूपणा सत्त्वानां ॥१॥] मनोवाकायविनयास्तु मनःप्रभृतीनां विनयाhषु कुशलप्रवृत्त्यादिः, उक्कं च--"मणवइकाइयविणओ आयरियाईण सव्वकालंपि । अकुसलाण निरोहो कुसलाणमुईरणं तय ॥१॥" [सर्वकालमपि आचार्याणां मनोवाकायिकविनयः यदकुशलानां 455 दीप अनुक्रम [६८६] ॥४०८॥ andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~819~ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१८५] (०३) प्रत सूत्रांक [५८५]] RECORRENTk निरोधः कुशलानां उदीरणं च तथा ॥१॥] लोकानामुपचारो-व्यवहारस्तेन स एव वा विनयो लोकोपचारविनयः । मनोवाक्कायविनयान प्रशस्ताप्रशस्तभेदान् प्रत्येकं सप्तप्रकारान् लोकोपचारविनयं च सप्तधैवाह-पसत्थमणे'त्यादि, सूत्रसप्तकं सुगमं, नवरं प्रशस्त:-शुभो मनसो विनयनं विनयः प्रवर्तनमित्यर्थः प्रशस्तमनोविनयः, तत्र अपापका-शुभचि. तारूपः असावधा-चौर्यादिगहितकानालम्बनः अक्रिय:-कायिक्याधिकरणिक्यादिक्रियावर्जितो निरुपक्लेश:-शोकादि-1* बाधावर्जितः 'स्तु प्रश्रवण' इति वचनात् आस्वः -आश्रवः कर्मोपादानं तत्करणशील आनवकरस्तनिषेधादनानवकरः -प्राणातिपाताचाश्रववर्जित इत्यर्थः, अक्षयिकरः-प्राणिनां न क्षये:-व्यथाविशेषस्य कारका, अभूताभिशाहनो-न भूता न्यभिशङ्कन्ते-बिभ्यति यस्मात् स तथा, अभयङ्कर इत्यर्थः, एतेषां च प्रायः सहशार्थत्वेऽपि शब्दनयाभिप्रायेण भेदोऽ-1 ठा वगन्तव्योऽन्यथा वेति, एवं शेषमपि । आयुक्तं गमनं आयुक्तस्य-उपयुक्तस्य सल्लीनयोगस्य यदिति, एवं सर्वत्र, नवरं । स्थान-ऊर्जस्थान कायोत्सर्गादि 'निसीयण'ति निपदनं-उपवेशनं 'तुयद्दणं' शयनं 'उलान' देवनं देहल्यादेः प्रलहुन-14 | अर्गलादेः सर्वेषामिन्द्रियाणां योगा-व्यापाराः सर्वे वा ये इन्द्रिययोगास्तेषां योजनता-करणं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता। 'अब्भासवत्तियं" ति प्रत्यासत्तिवतित्वं, श्रुताद्यर्थिना हि आचार्यादिसमीपे आसितव्यमित्यर्थे', 'परच्छंदाणुवत्तिय'न्ति पराभिप्रायानुवर्तित्वं, 'कज्जहे'ति कार्यहेतोः, अयमर्थः-कार्य-श्रुतप्रापणादिकं हेतुं कृत्वा, श्रुतं प्रापितोऽहमनेनेति हेतोरित्यों, विशेषेण विनये तस्य वर्तितव्यं तदनुष्ठानं च कर्तव्यमिति, तथा 'कृतप्रतिकृतिता' कृते भक्तादिनोपचारे प्रसन्ना गुरवः प्रतिकृति-प्रत्युपकरणं सूत्रादिदानतः करिष्यन्तीति भक्तादिदानं प्रति यतितव्यमिति, आर्तस्य B5% 8335 दीप अनुक्रम [६८६] JanEaiILM andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~820~ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८५ ] दीप अनुक्रम [६८६] श्रीस्थानाजसूत्र वृत्तिः ॥ ४०९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ५८५ ] स्थान [७], दुःखार्त्तस्य गवेषणं औषधादेरित्यातंगवेषणं तदेवार्त्तगवेषणतेति, पीडितस्योपकार इत्यर्थः, अथवा आत्मना आप्तेन वा भूत्वा गवेषणं - सुस्थदुःस्थतयोरन्वेषणं कार्यमिति, देशकालज्ञता - अवसरज्ञता, सर्वार्थेष्वप्रतिलोमता - आनुकूल्यमिति । विनयात्कर्मघातो भवति, स च समुद्घाते विशिष्टतर इति समुद्घातप्ररूपणायाह सत्त समुग्धाता पं० तं०—वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्धाए वेडब्बियसमुग्धाते तेजससमुग्याए आहारसमुग्धाते केवलिसमुग्धाते, मणुस्साणं सत्त समुग्धाता पं० एवं चेव ( सू० ५८६ ) 'सत्त समुग्धाए'त्यादि, 'हन् हिंसागत्योः' हननं घातः समित्येकीभावे उत्-प्राबल्ये तत एकीभावेन प्राबल्येन च घातो-निर्जरा समुद्घातः, कस्य केन सहैकी भावगमनं १, उच्यते, आत्मनो वेदनाकषायाद्यनुभवपरिणामेन, यदा ह्यात्मा वेदनीयाद्यनुभवज्ञान परिणतो भवति तदा नान्यज्ञानपरिणत इति, प्राबल्येन घातः कथं ?, यस्माद्वेदनीयादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्म्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः सह संश्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, उक्तं च- “ पुग्वकयकम्मसाडणं तु निज्जरा" इति [ पूर्वकृत्तकर्मशाटनं तु निर्जरा ॥ ] स च वेदनादिभेदेन सप्तधा भवतीत्याह-सप्त समुद्घाताः प्रज्ञताः, तद्यथा-वेदनासमुद्धात इत्यादि, तत्र वेदनासमुद्घातोऽसद्वेय कम्र्म्माश्रयः, कषायसमुद्घातः कपायाख्यचारित्रमोहनीय कर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्तमुहूर्त्तशेषायुष्क कर्माश्रयः, वैकुर्वि कतैजसाहारकसमुद्धाताः शरीरनामकर्माश्रयाः, केवलि समुद्धातस्तु सदसद्वेद्यशुभाशुभनामोचनीचैर्गोत्रकर्माश्रय इति, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्म्म पुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घा nintamational For Fans Only ७ स्थाना० उद्देशः ३ ~ 821~ समुद्धाताः सू० ५८६ ॥ ४०९ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८६] (०३) प्रत सूत्रांक [५८६] SPECIASARAMAN तसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धतः आयुष्ककर्मपुद्गलघातं वैकुर्षिकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीरादहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमात्रमायामतश्च साधेयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च] यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्नद्धान् शातयति, यथोक्तम्-"वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहन्नइ समोह| णित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसरइ २त्ता अहावायरे पुग्गले परिसाडेई"त्ति, [वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति समवहत्य सङ्ग्येययोजनप्रमाणं दंडं निसृजति निसृज्य प्रारबद्धान् यथास्थूलान् पुद्गलान् परिशाटयति ॥शा] एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयौ, केवलिसमुद्घातेन समुद्धतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् शातयतीति, इहान्त्योऽष्टसामयिकः शेषास्त्वसवातसामयिका इति । चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां सप्तापि समुद्घाता मनुष्याणामेव भवन्तीत्याह | -'मणुस्साणं सत्ते'त्यादि, 'एवं चेव'त्ति सामान्यसूत्र इव सप्तापि समुच्चारणीया इति । एतच्च समुद्घातादिकं | जिनाभिहितं वस्त्वन्यथा प्ररूपयन् प्रवचनवाह्यो भवति यथा निहवा इति तद्वक्तव्यता सूत्रत्रयेणाह समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवतणनिहगा पं०, तं०-बहुरता जीवपतेसिवा अवत्तिता सामुच्छेदता दोकिरिता तेरासिता अबद्धिता एएसि णं सत्तहं पवयणनिहगाणं सत्त धम्मातरिता हुत्था, तं०-जमालि तीसगुत्ते आसादे आसमिते गंगे छलुए गोट्ठामाहिले, एतेसि णं सत्तण्ह पबयणनिहगाणं सत्तुप्पत्तिनगरा होत्था, सं०-साबत्थी पसभपुर सेतविता मिहिलमुल्लगातीरं । पुरिमंतरंजि दसपुर णिण्हराउप्पत्तिनगराई ॥ १॥ (सू०५८७) 'समणे'ल्यादि कण्ठ्यं, नवरं प्रवचन-आगमं निहुवते-अपलपन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचननिहवाः प्रज्ञप्ता जिनः दीप FACANCE अनुक्रम [६८७]] स्था०६९ Malaingionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~822~ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [५८७] +गाथा- १ (०३) प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा ||१|| श्रीस्थाना तत्र 'पहरय'ति एकेन समयेन क्रियाध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुससे प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेः बहुषु समयेषु रता:-सका स्थाना० सूत्र- बहुरताः, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः, तथा जीवः प्रदेश एव येषां ते जीवप्रदेशास्त एव जीवप्रादेशिका: अ- उद्देशः३ थवा जीवप्रदेशो जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तथा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति हृदयं, तथा अव्यक्त-अस्फुट निह्नव वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां तेऽव्यक्तिकाः, संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति भावना, तथा समुच्छेदः-प्रसूत्यन-II स्वरूपं ॥४१॥ लान्तरं सामस्त्येन प्रकर्षेण च छेदः समुच्छेदो-विनाशः समुच्छेदं युवत इति सामुच्छेदिकाः, क्षणक्षयिकभावप्ररूपका इत्यर्थःला सू०५८७ तथा द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं तदधीयते तद्वैदिनो वा दैक्रियाः, कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिण इत्यर्थः, तथा जीवाजीवनोजीवभेदास्त्रयो राशयः समाहृतास्त्रिराशि तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः, राशित्रयख्यापका इत्यर्थः, तथा स्पृष्टं जीवेन कर्म न स्कन्धवन्धवद्बद्धमबद्धं तदेषामस्तीत्यवद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकमरूपका इति हृदयं, 'धम्मायरियत्ति धर्म:-उक्तप्ररूपणादिलक्षणः श्रुतधर्मस्तप्रधानाः प्रणायकत्वेनाचार्या धम्माचार्यास्तन्मतोपदेष्टार इत्यर्थः, तत्र जमाली क्षत्रियकुमारो, यो हि श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य भागिनेयो भगवडुहितुः सुदर्शनाभिधानाया भत्ता पुरुष& पञ्चशतीपरिवारो भगवनवाजित आचार्यत्वं प्राप्तः श्रावस्त्यां नगर्या तेन्दुके चैत्ये विहरन्ननुचिताहारादुसन्नरोगो वेद| नाभिभूततया शयनार्थ समादिष्टसंस्तारकसंस्तरणः कृतः संस्तारकः? इतिविहितपरिप्रश्नः संस्तारककारिसाधुना संस्त्रिX|| यमाणत्वेऽपि संस्तृत इतिदत्तप्रतिवचनो गत्वा च दृष्टक्रियमाणसंस्तारकः कर्मोदयाद्विपर्यस्तबुद्धिः प्ररूपयामास-यत्|क्रियमाणं कृतमिति भगवान् विदेश तदसत् प्रत्यक्षविरुद्धत्वाद् अश्रावणशब्दवत्, प्रत्यक्षविरुद्धता चास्या संस्तृतसं ॥४१०॥ EARSEX555 दीप अनुक्रम [६८८६८९] JanEaintin M arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~823~ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा |||| दीप अनुक्रम [६८८ ६८९] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ५८७ ] + गाथा- १ स्थान [७], स्तारका संस्कृतत्वदर्शनात्, ततश्च क्रियमाणत्वेन प्रत्यक्षसिद्धेन कृतत्वधर्मोऽपनीयत इति भावना, आह च - "सक्खं चिय संधारो ण कज्जमाणो कडोत्ति मे जम्हा । बेइ जमाली सचं न कज्जमाणं कथं तम्हा || १||" इति, [मम संस्तारकः | क्रियमाणः साक्षान्न कृत एवेति यस्मात् जमालिर्ब्रवीति तस्मात् क्रियमाणं कृतं न सत्यं ॥ १ ॥ ] यश्चैवं प्ररूपयन् स्थवि - रैरेवमुक्तः - हे आचार्य ! क्रियमाणं कृतमिति नाध्यक्षविरुद्धं, यदि हि क्रियमाणं-क्रियाविष्टं कृतं नेष्यते ततः क्रियानारम्भसमय इव पश्चादपि क्रियाऽभावे कथं तदिष्यत इति सदा प्रसङ्गः क्रियाऽभावस्याविशिष्टत्वात्, यदप्युक्तं 'अर्द्धसंस्तृत संस्तारका संस्कृतत्वदर्शनात्' तदप्ययुक्तं यतो यद्यदा यत्राकाशदेशे वस्त्रमास्तीर्यते तत्तदा तत्रास्तीर्णमेव, एवं पाश्चात्यवस्त्रास्तरणसमये खल्वसावास्तीर्ण एवेति, आह च - "जं जत्थ नभोदेसे अत्थुम्बइ जत्थ जत्थ समयमि । तं तत्थ तत्थमत्थुयमस्थुच्वंपि तं चैव ॥ १ ॥” इति [ यत्र नभोदेशे यस्मिन् यस्मिन् समये यदास्तीर्यते तस्मिंस्तस्मिंस्तदास्तीर्ण आस्तीर्यमानमपि तदेव ||१|| ] तदेवं विशिष्टसमयापेक्षीणि भगवद्वचनानीति, एवमपि प्रत्युक्तो यो न तत् प्रतिपनवान्, सोऽयं बहुरतधर्माचार्यः १ तथा तिष्यगुप्तः वसुनामधेयाचार्यस्य चतुर्दश पूर्वधरस्य शिष्यो, यो हि राजगृहे | विहरन्नात्मप्रवादाभिधानपूर्वस्य 'एगे भंते । जीवप्पएसे जीवेत्ति बत्तव्वं सिया ?, नो इणमट्टे समट्टे, एवं दो तिन्नि संखेजा वा असंखेजा जाव एकेणावि परसेण ऊणे नो जीवेत्ति वत्तच्वं सिआ, जम्दा कसिणे पडिपुन्ने लोगागासपएस तुल्लप्पए से जीवेति वत्तब्वं सिया' [ एको भदन्त ! जीवप्रदेशो जीव इति वक्तव्यः स्यात् ?, नैषोऽर्थः समर्थः, एवं द्वौ त्रयः सङ्ख्येया | असङ्ख्या वा यावदेकेनापि प्रदेशेनोनः जीव इति नो वक्तव्यः स्यात्, यस्मात् कृत्स्नः प्रतिपूर्णः लोकाकाशप्रदेश तुल्यप्रदेशः For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 824~ nebray org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [५८७] +गाथा- १ (०३) प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना- सूत्रवृत्ति : [५८७] ॥४११॥ AGRAMODSAS* गाथा ||१|| जीव इति वक्तव्यः स्यात् ॥] इत्येवमादिकमालापकमधीयानः कर्मोदयादुस्थितः सन्नित्थमभिहितवान्-योकादयो जीव-16 स्थाना० प्रदेशाः खल्वेकप्रदेशहीना अपि न जीवाख्यां लभन्ते किन्तु चरमप्रदेशयुक्ता एव लभन्त इति, ततः स एवैकः प्रदेशो उद्देशा३ जीव इति, तनावभावित्वाज्जीवत्वस्येति, आह च-"एगादओ पएसा न य जीवो न य पएसहीणोवि । जं तो स जेण: पुन्नो स एव जीवो पएसोत्ति ॥१॥" [एकादयः प्रदेशा जीवो न न च प्रदेशहीनोऽपि यत्तत्स येन पूर्णः स एव प्रदा स्वरूपं देशो जीव इति ॥] यश्चैवमभिदधानो गुरुणोक्तो-नैतदेवं, जीवाभावप्रसङ्गात् , कथं ?, भवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽप्यजीवः, सू०५८७ आद्यप्रदेशतुल्यपरिणामत्वात् , प्रथमादिप्रदेशवत्, प्रथमादिप्रदेशो चा जीवः शेषप्रदेशतुल्यपरिणामत्वादन्त्यप्रदेशवत्,8 न च पूरण इतिकृत्वा तस्य जीवत्वं युज्यते, एकैकस्य पूरणत्वाविशेषाद्, एकमपि विना तस्यासम्पूर्णत्वमिति, आह च -"गुरुणाऽभिहिओ जइ ते पढमपएसो न संमओ जीवो । तो तप्परिणामो चिय जीवो कहमतिमपएसो? ॥१॥" [गुरुणाऽभिहितः स यदि ते प्रथमप्रदेशो जीव इति न संमतस्तत्परिणाम एवान्त्यप्रदेशः कथं जीवः ॥१॥] इत्यादि, एवमुक्तोऽपि न प्रतिपन्नवान , ततः सङ्कादहिष्कृतो, यश्चामलकल्पायां मित्रश्रीनाना श्रमणोपासकेन संखयां भक्कादिग्रहणार्थ गृहमानीयाग्रतश्च विविधानि खाद्यकादिद्रव्याण्युपनिधाय तत एकैकमवयव दत्त्वा पादेषु निपत्याहो धन्योऽहं मया साधवः प्रतिलम्भिता इत्यभिदधानेनाहो अहं भवता धर्षित इति वदन् भवत्सिद्धान्तेन भवान् प्रतिलम्भितो मया यदि परं वर्द्धमानस्वामिसिद्धान्तेन नेति प्रतिभणता प्रतियोधित, सोऽयं जीवप्रदेशिकानां धर्माचार्य इति २ ०४११॥ तथा आषाढः, येन हि श्वेतव्यां नगर्या पोलासे उद्याने स्वशिष्याणां प्रतिपन्नागाढयोगाना रात्री हृदयशूलेन मरणमा दीप अनुक्रम [६८८६८९] + Swataneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~825~ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा |||| दीप अनुक्रम [६८८ ६८९] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५८७ ] + गाथा- १ स्थान [७], उद्देशक [-], साद्य देवेन भूत्वा तदनुकम्पया स्वकीयमेव कडेवरमधिष्ठाय सर्वा सामाचारी अनुप्रवर्त्तयता योगसमाप्तिः शीघ्रं कृतां, वन्दित्वा तानभिहितं च क्षमणीयं भदन्ताः । यन्मया यूयं वन्दनं कारिताः, यस्य च शिष्या इयच्चिरमसंयतो वन्दितो|ऽस्माभिरिति विचिन्त्याव्यक्तमतमाश्रिताः, तथाहि -" को जाणइ किं साहू देवो वा तो न बंदणिजोति । होजाsसंजयनमणं होज मुसावायममुगो ति ॥ १ ॥” [ को जानाति किमयं साधुर्देवो वाडतो न वंदनीय इति भवेदसंयतनमनं भवेद्वा मृषावादोऽमुकोऽयमिति ॥ १॥ ] इति, यच्छिष्यांश्च प्रति- "धेरवयणं जइपरे संदेहो किं सुरोति साहुति । देवे कहन्न संका? किं सो देवो अदेवोति ॥ २ ॥ तेण कहियन्ति व मई देवोऽहं देवदरिसणाओ य । साहुत्ति अहं कहिए समाणरूवंमि किं संका ? ॥ ३ ॥ देवस्स व किं वयणं सच्चंति न साहुरूवधारिस्स । न परोप्परंपि बंदह जं जाणंतावि जयओति ||४||” [स्थविरवचनं यदि परं किमयं सुरः साधुरिति परस्मिन् संदेहः देवे न कथं शंका किंस देवोऽदेवो वेति ॥ १॥ तेन देवोऽहमिति कथितं दर्शनाच्च देव इति मतिः अहं साधुरिति कथिते समानरूपे का शंका ? ||२|| देवस्य वा वचनं किं सत्यं इति साधुरूपधारिणो न यत्परस्परं यतयोऽपि जानन्तो न वंदध्ये ॥ १ ॥ ] एवं चोच्यमाना अप्यप्रतिपद्यमाना यद्विनेया साद्वहिष्कृता विहरन्तश्च राजगृहे बलभद्राभिधानराजेन कटकमर्थेन मारणमादिश्य कथमस्मान् यतीन् | श्रावकत्वं मारयसीति ब्रुवाणा न वयं जानीमः के यूयं चौरा वा चारिका बेति प्रत्युत्तरदानतः प्रतिबोधिताः सोऽयमव्यक्तमतधर्माचार्यो, न चायं तम्मतप्ररूपकत्वेन किन्तु प्रागवस्थायामिति । तथा अश्वमित्रो, वो हि महागिरिशिष्यस्य कोण्डिन्याभिधानस्य शिष्यो मिथिलायां नगर्यो लक्ष्मीगृहे चैत्ये अनुप्रवादाभिधाने पूर्वे नैपुणिके वस्तुनि For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [ ०३ ] ~826~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [५८७] +गाथा- १ (०३) प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः स्वरूप ॥४१२॥ [५८७] गाथा छिन्नच्छेदननयवक्तव्यतायां 'पडप्पन्नसमयनेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव चेमाणियत्ति, एवं बिईयाइसमएसु बत्त- स्थाना० सव्व'मित्येवंरूपमालापकमधीयानो मिथ्यात्वमुपगतः, बभाण च-यदि सर्व एव वर्तमानसमयसञ्जाता व्यवच्छेत्स्यन्ति उद्देशः३ तदा कुतः कर्मणां वेदनमिति, आह च-"एवं च को कम्माण वेयर्ण सुकयदुकयाणंति । उपायाणंतरओ सन्त्रस्स- निववि णाससभावा ॥१॥"[एवं च सुकृतदुष्कृतकर्मणां कुतो वेदनं इति, उत्सादानन्तरं सर्वस्यापि नाशसद्भावात् ॥१॥ यश्चैवं प्ररूपयन् गुरुणा भणित:-"एगनयमपणमिदं सुत्तं बच्चाहि मा हु मिच्छत्तं । निरवेक्खो सेसाणवि नयाण हि सू०५८७ ययं वियारेहि ॥१॥ न हि सब्बहा विणासो अद्धापज्जायमेत्तानासंमि । (अद्धापयायाः-कालकृतधाः > सपरपज्जा-५ याणतधम्मिणो वत्थुणो जुत्तो॥२॥ अह सुत्ताउत्ति मई नणु सुत्ते सासयंपि निद्दिढ । वत्धुं दवहाए असासयं पज यहाए ॥ ३ ॥ तत्थवि न सब्वनासो समयादिविसेसणं जओऽभिहियं । इहरा न सवणासे समयादिविसेसणं जुत्त&॥४॥" म्ति [ इदमेकनयमतेन सूत्रं मा ब्रीमिथ्यात्वं निरपेक्षः शेषाणामपि नयानां (मत) हितदं हृदयं वा विचारय ॥१॥ स्वपरपोथैरनन्तधर्मिणो वस्तुनोऽद्धापर्यायमात्रनाशे सर्वथा विनाशो न युक्तः ॥२॥ अथ सूत्रादितिमतिः ननु सूत्रे शाश्वतमपि निर्दिष्टं वस्तु । द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया अशाश्वतं ॥ ३॥ तत्रापि न सर्वथा नाशः समयादि|विशेषणं यतोऽमिहितं । इतरथा सर्वनाशे समयादिविशेषणं न युक्तम् ॥४॥] इदं चाप्रतिपद्यमान उद्घाटितः, नायश्च काम्पिल्ये शुल्कपालश्रावकार्यमाणोऽस्माभियं श्रावकाः श्रुताः तत्कथं साधून मारयथेति वदन् युष्मत्सिआदान्तेन प्रबजिताः श्रावकाश्च ये ते व्यवच्छिन्ना यूयं वयं चान्ये इति दत्तप्रत्युत्तरः सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः, सोऽयं सामु ||१|| XXXAMACHAR 5+% दीप 4 -% ॥४१२॥ अनुक्रम [६८८६८९] % % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~827~ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा |||| दीप अनुक्रम [६८८ ६८९] “स्थान” स्थान [७], - अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ५८७ ] + गाथा- १ |च्छेदिकानां धर्माचार्य इति ४ । तथा 'गंग' इति, यो हि आर्यमहागिरिशिष्यस्य धनगुप्तस्य शिष्यः उल्लुकातीराभिघाननगराच्छरद्याचार्यवन्दनार्थं प्रस्थित उल्कां नदीमुत्तरन् खलतिना शिरसा दिनकरकरनिकरसम्पात सञ्जातमुष्णं पा दाभ्यां च शीतलजलजनितनितान्तशीतं वेदयंश्चिन्तयामास सूत्रेऽभिहितमेका क्रियैकदा वेद्यते शीता वोष्णा वा, अहं च द्वे क्रिये वेदयामि अतो द्वे क्रिये समयेनैकेन वेद्येते इति, गत्वा च गुर्वन्तिके वन्दित्वाऽभिदधावभिप्रायमात्मीयमाचार्याय, तेन चावाचि-मैवं वोचः, यतो नास्त्येकदा क्रियाद्वयवेदनं, केवलं समयमनसोरतिसूक्ष्मतया भेदो न लक्ष्यते, उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् एवं च प्रतिपादितः सन्नप्रतिपद्यमानो वहिष्कृतः अन्यदा राजगृहे महातपस्तीरप्रभाभिधाने नदविशेषे मणिनागनाम्नो नागस्य चैत्ये पर्षन्मध्ये स्वमतमावेदयन् मणिनागेन विसद्दर्पगर्भया भारत्याऽभिहितो-रे रे दुष्टशैक्ष! कस्मादस्मासु सत्स्वेवमप्रज्ञापनीयं प्रज्ञापयसि ?, यत इहैव स्थाने स्थितेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना प्रणिन्ये-यथैकदैकैव क्रिया वेद्यत इति, ततस्त्वं ततोऽपि रुष्टतरो जातः १, उर्दथेनं वादं, मा ते दोषात् नाश|विष्यामीति भयमापन्नः प्रतिबुद्धः सोऽयं क्रियाणां धर्माचार्य इति ५ । तथा 'छल'त्ति, द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवाय लक्षणपटूपदार्थप्ररूपकत्वाद् गोत्रेण च कौशिकत्वात् पडुलुको, यो हि नामान्तरेण रोहगुसो, यश्चान्तरख्यां पुर्या भूतगुहाभिधानव्यन्तरायतने व्यवस्थितानां श्रीगुप्साभिधानानामाचार्याणां वन्दनार्थं ग्रामान्तरादागच्छन् प्रवादिप्रदापितपटहकथ्य निमाकर्ण्य सदर्प च तं निषेध्याचार्यस्य तन्निवेद्य ततो मायूर्यादिविद्या उपादाय राजकुलमतिगत्य बलश्रीनाम्नो नरनायकस्याग्रतः पोहशालाभिधानपरिव्राजकमवादिनमाहूय तेन च जीवाजीवलक्षणे राशिद्वये स्थापिते For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~828~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [५८७] +गाथा- १ (०३) प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा ||१|| श्रीस्थाना-साततिभाप्रतिघाताय नोजीवलक्षणं तृतीयं राशि व्यवस्थाप्य तद्विद्यानां स्वविद्याभिः प्रतिघातकरणेन तं निगृह्य गुरु- I७ स्थाना. मसूत्रसमीपमागत्य तन्निवेदितवान् , यश्च गुरुणा अभिहितो, यथा-गच्छ राजसभामनुप्रविश्य ब्रूहि राशियप्ररूपणमपसि उद्देशा३ वृत्तिः द्धान्तरूपं वादिपरिभधाय मया कृतमिति, ततो योऽभिमानादाचार्य प्रत्यवादीत्-यथा राशित्रयमेवास्ति, तथाहि- | निझव॥४१३॥ जीवा:-संसारस्थादयः अजीवा:-घटादयः नोजीवास्तु दृष्टान्तसिद्धाः, यथा हि दण्डस्यादिमध्याग्राणि भवन्तीत्येवं स्वरूप सर्वभावानां त्रैविध्यमिति, यश्च राजसमक्षमाचार्येण कुत्रिकापणे जीवयाचने पृथिव्यादिजीवलाभात् अजीवयाचने सू० ५८७ अचेतनलेष्ट्रादिलाभात् नोजीवयाचनेऽचेतनलेष्ट्रवादिलाभाच्च निगृहीतः, सोऽयं त्रैराशिकधर्माचार्य इति ६ । तथा गोसामाहिल इति, यो हि दशपुरनगरे आर्यरक्षितस्वामिनि दिवं गते आचार्यश्रीदुर्चलिकापुष्पमित्रे गणं परिपाल यति विन्ध्याभिधानसाधोरष्टमं कर्मप्रवादाभिधानं पूर्वमाचार्यादुपश्रुत्य प्रत्युच्चारयतः कर्मवन्धाधिकारे किश्चित्कर्म जीवप्रदेशैः स्पृष्टमात्र कालान्तरस्थितिमप्राप्य विघटते शुष्ककुब्यापतितचूर्णमुष्टिवत् किश्चित्पुनः स्पृष्टं बद्धं च कालाजन्तरेण विघटते आ लेपकुड्ये सोहचूर्णवत् किंचित्पुनः स्पृष्टं बद्धं निकाचितं जीवेन सहकत्वमापन्नं कालान्तरेण वेद्यते इत्येवमाकर्योक्तवान्-नम्वेवं मोक्षाभावः प्रसजति, कधी, जीवात् कर्म न वियुज्यते, अन्योऽग्याविभागवद्धत्वात्, स्वप्रदेशवत्, उक्तं च-"सो भणइ सदोस बक्खाणमिणंति पावइ जओ ते । मोक्खाभावो जीवप्पएसकम्माविभागाओ ॥१॥ नहि कम्मं जीवाओ अवेइ अविभागओपएसव्व । तदणवगमादमोक्खो जुत्तमिणं तेण वक्खाणं ॥२॥"ISI इति [श्रुत्वा भणति इदं व्याख्यानं सदोषमिति यतो भवतां प्रामोति मोक्षाभावो जीवप्रदेशकर्मणोरविभागात् ॥१॥ दीप ॥४१३ अनुक्रम [६८८६८९] antantiminafimate Sinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~829~ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा |||| दीप अनुक्रम [६८८ ६८९] Educator "स्थान" स्थान [७], - अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ५८७ ] + गाथा- १ नैव कर्म जीवादपैति प्रदेश इवाविभागात्तदनपगमादमोक्षस्तेनेदं व्याख्यानं युक्तं ( स्पृष्टमात्रतारूपं ) ॥२॥ ] तथा - जीवः कर्म्मणा स्पृष्टो न तु धय्यते, वियुज्यमानत्वात्, कशुकनेव तद्वानिति, ततो विन्ध्य साधुनैतस्मिन्नाचार्यायार्थे निवेदिते यस्तेनाभिहितो - ( आचार्यादवधार्यार्थे गोष्ठामाहिलो विन्ध्येनोक्तः, ) भद्र! यदुक्तं स्वया जीवात् कर्म न वियुज्यत इति, तत्र प्रत्यक्षवाधिता प्रतिज्ञा आयुः कर्म्मवियोगात्मकस्य मरणस्य प्रत्यक्षत्वात् हेतुरप्यनैकान्तिकोऽन्योऽन्याविभासम्बद्धानामपि क्षीरोदकादीनामुपायतो वियोगदर्शनात् दृष्टान्तोऽपि न साधनधर्मानुगतः, स्वप्रदेशस्य वियुतत्वासिद्धेस्तद्रूपेणानादिरूपत्वाद् भिन्नं च जीवात् कर्मेति, यत्रोक्तं- “जीवः कर्म्मणा स्पृष्टो न बध्यते इत्यादि,” तत्र किं प्रतिप्रदेशं स्पृष्टो नभसेवोत त्वमात्रे कशुकेनेव ?, यद्याद्यः पक्षः तदा दृष्टान्तदान्तिकयोर्वैषम्यं कशुकेन प्रतिप्रदेशमस्पृष्टत्वाद्, अथ द्वितीयः, ततो नापान्तरालगत्यनुयायि कर्म, पर्यन्तवर्त्तित्वाद्, बाह्याङ्गमखवद् एवं सर्वो मोक्षभाक् कर्मानुगमरहितत्वात् मुक्तवद्, इत्यादि प्रतिपाद्यमानो यो नैतत्प्रतिपन्नवानुद्घाटितश्चेति सोऽयमवद्धिकधर्माचार्यः इति । उत्पत्तिनगराणि सप्तानां क्रमेण सप्तैव 'होत्य'त्ति सामान्येन वर्त्तमानस्येऽपि नगराणां तद्विशेषगुणातीतत्वेनातीत निर्देशः, 'सावत्थी' गाहा, ऋषभपुरं राजगृहं उका नदी तत्तीरवर्त्तिनगरमुकातीरं 'पुरी'ति नगरी अन्तरंजीति तन्नाम, इह च मकारोऽलाक्षणिकः, 'दसपुर'त्ति अनुस्वारलोपादिति । एते च निहवाः संसारे पर्यटन्तः सातासातभोगिनो भविष्यन्तीति तत्स्वरूपं सूत्रद्वयेनाह सातावेयणिञ्चस्स कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पं० तं० मणुन्ना सहा मणुण्णा रुवा जाब मणुन्ना फासा मणोद्दता For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~830~ Jibrary org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८८] (०३) पाखाना प्रत सूत्रांक [५८८] ४१४॥ ॐॐॐॐॐ वतिसुहता । असातावेयणिजस्स णं कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पं०, तं०-अमणुन्ना सदा जाब पतिदुहता (सू० ७ स्थाना ५८८) महाणक्खत्ते सत्ततारे पं०, अभितीयादिता सत्त णक्खत्ता पुब्वदारिता पं० सं०-अमिती सवणो धगिट्ठा | उद्देशः ३ सतमिसता पुज्या भवता उत्तरा भरवता रेवती, अस्सणितादिता णं सत्त णक्खत्वा दाहिणदारिता ५०, तं०-अ सातासास्सिणी भरणी कित्तिता रोहिणी मिगसिरे अहा पुणध्वसू, पुस्सादिता णं सत्त णक्खत्ता अवरदारिता पं०, तं--पुस्सो तानुभवः भसिलेसा मघा पुवा फरगुणी उत्तरा फग्गुणी हत्थो चित्ता, सातितातिया णं सत्त णक्यत्ता उत्तरदारिता पं०, तं० पूर्वादिद्वा -साति पिसाहा अणुराहा जेट्ठा मूलो पुब्बासाढा उत्तरासाढा (सू० ५८९) जंबूदीवे दीवे २ सोमणसे मक्खार- राणि नक्षपव्यते सत्त कूदा ५० सं०-सिद्धे १ सोमणसे २ तह बोद्धव्वे मंगलावतीकूडे ३ । देवकुरु ४ विमल ५ कंपण ६ त्राणि कूविसिहकूडे ७ त बोडब्बे ॥ १॥ जंबूदीवे २ गंधमायणे वक्खारपब्बते सत्त कूडा पं० सं०-सिद्ध त गंधमातण टानि योबोद्धब्वे गंधिलावतीफूटे । उत्तरकुरू फलिहे लोहितक्ख आणदणे चेव ॥ १॥ (सू०५९०) वितिविताणं सत्त जा नयश्चयतीकुलकोडिजोणीपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता (सू० ५९१) जीवाणं सत्तट्ठाणनिन्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु नादि पा चिणंति वा चिणिस्संति वा तं०-नेरतियनिव्वत्तिते जाब देवनिव्वत्तिए एवं चिण जाव णिजरा चेव (सू० ५५२) सू०५८८सत्तपतेसिता संधा अर्णता पण्णत्ता सत्तपतेसोगाढा पोग्गला आव सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता (सू०५९३) सत्तमहाणं सत्तमं सत्तमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ x॥४१४॥ 'साये'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं, 'अणुभावे'त्ति विपाकः उदयो रस इत्यर्थः, मनोज्ञाः शब्दादयः सातोदयकारणत्वाद-18 दीप अनुक्रम [६९८] ५९३ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~831~ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक - मूलं [१९३] +गाथा- २ (०३) BARSA प्रत सूत्रांक [५९३] गाथा नुभावा एवोच्यन्ते, तथा मनसः शुभता मनःशुभता, साऽपि सातानुभावकारणत्वारसातानुभाव उच्यते, एवं वचःशुभताऽपि, मनःसुखता वा सातानुभावः, तत्स्वरूपत्वात् तस्याः, एवं वाक्सुखताऽपीति, एवमसातानुभावोऽपि ॥सातासाताधिकारात् तद्वतां देवविशेषाणां प्ररूपणाय सूत्रपञ्चकमाह-'महे'त्यादि सुगम, नवरं पूर्व द्वारं येषामस्ति तानि पूर्वद्वारिकाणि, पूर्वस्यां दिशि गम्यते येष्वित्यर्थः, एवं शेषाण्यपि सप्त सप्तेति, इह चार्थे पञ्च मतानि सन्ति, यत आह | चंद्रप्रज्ञस्याम्-"तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पन्नताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-कत्तिआइआ सत्त नक्खत्ता पुब्बदारिया पन्नत्ता" एवमन्ये मघादीन्यपरे धनिष्ठादीनि इतरेऽश्चिन्यादीनि अपरे भरण्यादीनि, दक्षिणापरोत्तरद्वाराणि च सप्त सप्त यथामतं क्रमेणैव समवसेयानीति, 'वयं पुण एवं क्यामो-अभियाइया णं सत्त नक्खत्ता पुब्बदारिया पन्नत्ता, एवं दक्षिणद्वारिकादीन्यपि क्रमेणैवेति, तदिह षष्ठं मतमाश्रित्य सूत्राणि प्रवृत्तानि, लोके तु प्रथम मतमाश्रित्यैतदभि-13 धीयते, यदुत-"दहनाद्यमृक्षसप्तकमैन्यां तु मघादिकं च याम्यायाम् । अपरस्यां मैत्रादिकमथ सौम्यां दिशि धनिष्ठादि |॥१॥ भवति गमने नराणामभिमुखमुपसर्पतां शुभप्राप्तिः । अथ पूर्वमृक्षसप्तकमुद्दिष्टं मध्यममुदीच्याम् ॥ २॥ पूर्वायामौदीच्यां प्रातीच्या दक्षिणाभिधानायां । याम्यां तु भवति मध्यममपरस्यां यातुराशायाम् ॥ ३॥ येऽतीत्य यान्ति मूढाः परिघाख्यामनिलदहनदिग्रेखाम् । निपतन्ति तेऽचिरादपि दुर्व्यसने निष्फलारम्भाः॥४॥" इति ॥ देवाधिकारादेवनिवासकूटसूत्रद्वयं-'जंबू' इत्यादि कण्ठ्यं, केवलं 'सोमणसे'त्ति सौमनसे गजदन्तके देवकुरूणां प्राचीने 'कूटानि शिखराणि, 'सिद्धे' गाहा, सिद्धायतनोपलक्षितं सिद्धकूट मेरुप्रत्यासन्नमेवं सर्वगजदन्तकेषु सिद्धायतनामि, शेषाणि ततः ||२|| % दीप अनुक्रम [६९०६९८] %* का मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~832~ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक -], मूलं [५९३] +गाथा- २ (०३) श्रीस्थानाझ-सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [५९३]] गाथा ॥४१५॥ राणि नक्ष परंपरयेति, 'सोमणसे'त्ति सौमनसकूट तत्समाननामकतदधिष्ठातृदेवभवनोपलक्षितं, मङ्गलावतीविजयसमनामदेवस्य | ७स्थाना मङ्गलावतीकूट, एवं देवकुरुदेवनिवासो देवकुरुकूटमिति, विमलकाञ्चनकूटे यथार्थे क्रमेण च वत्सावत्समित्राभिधाना- उद्देशः३ धोलोकवासिदिकुमारीद्वयनिवासभूते, वशिष्टकूटं तन्नामदेवनिवासः, एवमुत्तरत्रापि, गन्धमादनो गजदन्तक एवोत्तर-18सातासाकुरूणां प्रतीचीनः, तत्र 'सिद्धे' गाहा, कण्ठ्या, नवरं स्फाटिककूटे लोहिताक्षकूटे अधोलोकनिवासिभोगकराभोगव| त्यभिधानदिकुमारीद्वयनिवासभूते इति ॥ कूटेष्वपि पुष्करिणीजले द्वीन्द्रियाः सन्तीति द्वीन्द्रियसूत्रम् 'बेईदियाण'- पूर्वादिद्वामित्यादि, जाती-द्वीन्द्रियजातौ याः कुलकोटयः तास्तथा ताश्च ता योनिप्रमुखाश्च-द्विलक्षसङ्ख्यद्वीन्द्रियोत्पत्तिस्थानद्वा-18 रकास्ता जाति कुल कोटियोनिप्रमुखाः, इह च विशेषणं परपदं प्राकृतत्वात् , तासां शतसहस्राणि-लक्षाणीति, इदमुक्त त्राणि कूभवति-द्वीन्द्रियजाती या योनयस्तत्प्रभवा याः कुलकोटयस्तासां लक्षाणि सप्त प्रज्ञप्तानीति, तत्र योनिर्यथा गोमयः तत्र चैकस्यामपि कुलानि विचित्राकाराः कृम्यादय इति । शेषा ध्रुवगण्डिका ससम्बन्धा पूर्ववब्याख्येयेति ॥ इति श्रीमद- नयश्चयभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे सप्तस्थानकाभिधानं सप्तममध्ययनं समासम् ।। नादि सू०५८८म इति श्रीमदभयसूरिसूनितविवरणयुतं सप्तमं सप्तस्थानाध्ययनं समाप्तम् ।। ५९३ ॥४१५॥ ||२|| | टानि यो दीप अनुक्रम [६९० ॐ45 ६९८ JABERatin intimationa Marwajansionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र सप्तमं स्थानं परिसमाप्त अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित उद्देशकः वर्तते ~833~ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५९४] दीप अनुक्रम [६९९ ] स्था० ७० 56496**** Education intimation "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्तिः) स्थान [८], उद्देशक - मूलं (५९४) - www...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... अथ अष्टमं स्थानं आरभ्यते अथाष्टमस्थानकाख्यमष्टमाध्ययनं । व्याख्यातं सप्तममध्ययनमधुना सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेवाष्टस्थान काख्यमष्टममध्ययनमारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् - अहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति एगलविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विद्दित्तते तं० -- सड्डी पुरिसजाते लये पुरिसजाए मेहावी पुरिसजाते बहुस्सुते पुरिसजाते सचिमं अप्पाद्दिकरणे घितिमं वीरिवसंपन्ने ( सू० ५९४ ) अट्ठविधे जोणिसंगहे पं० तं०--अंडगा पोतगा जाव उच्भिगा उववातिता, अंडगा अट्ठगतिता अट्ठाइआ पं० वं० – अंडर अंडएम ववजमाणे अंडरहिंतो वा पोततेहिंतो वा जाब उबवातिदेहिंतो वा उबवजेज्जा, से चैव णं से अंढते अंडगतं विप्पजह्माणे अंडगचाते वा पोतगत्ताते वा जाब उबयातितत्ताते वा गच्छेजा, एवं पोतगावि, जराउजावि, सेसाणं गतीरागती णत्थि (सू० ५९५ ) जीवा णमट्ट कम्मपगडीतो चिर्णिमु वा चिति वा चिणिस्संति वा, वं०-गाणावरणिज्वं दरिसणावर णिज्वं वेयणिनं मोहणिलं आउयं नामं गोत्तं अंतरातितं, नेरइया णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिर्णिसु वा ३, एवं चैव, एवं निरंतरं जाव वैमाणियाणं २४, जीवा णमट्ठ कम्मपगडीओ उवचिर्णिसु वा ३ एवं चैव, 'एवं चिण १ उवचिण २ बंध ३ उदीर ४ वे ५ तह जिरा ६ चेव । एते छ चवीसा २४ दंडगा भाणियन्त्रा ( सू० ५९६ ) For Parts Only ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] - ~ 834 ~ 1-%*%*%************** www.library.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९६] (०३) श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः ॥४१६॥ प्रत सूत्रांक [५९६] अष्टकर्म च यादि 'अहाही त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहाय सम्बन्धः-अनन्तरं पुगला उक्ताः, ते च कार्मणाः प्रतिमाविशेषप्रतिपत्तिमतो विशेषेण निर्जीर्यन्त इत्येकाकिविहारप्रतिमायोग्यः पुरुषो निरूप्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहितादिचर्चस्तुउद्देशः३ प्रसिद्ध एव, नवरं अष्टाभिः स्थानैः-गुणविशेषैः सम्पन्नो-युक्तोऽनगार:-साधुरहेति-योग्यो भवति 'एगल्ल'त्ति एका-1 प्रतिमाहाँ किनो विहारो-प्रामादिचर्या स एव प्रतिमा-अभिग्रहः एकाकिविहारपतिमा जिनकल्पप्रतिमा मासिक्यादिका वा भिक्षु- गुणाः योप्रतिमा तामुपसम्पद्य-आश्रित्य णमित्यलङ्कारे 'विहां प्रामादिषु चरितुं, तद्यथा--'सद्धि'त्ति श्रद्धा-तत्वेषु श्रद्धा-IX| निसंग्रहः नमास्तिक्यमित्यर्थोऽनुष्ठानेषु चा निजोऽभिलाषस्तद्वत् सकलनाकिनायकैरप्यचलनीयसम्यक्त्वचारित्रमित्यर्थः, पुरुषजातं -पुरुषप्रकारः १, तथा सत्य-सत्यवादि, प्रतिज्ञाशूरत्वात् , सन्यो हितत्वाद्वा सत्यं २, तथा मेधा-श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत् मेधावि, अथवा मेराए धावतित्ति मेधावि-मर्यादावर्ति ३, तथा मेधावित्वादहु-प्रचुरं श्रुतं-आगमः सूत्रतोऽर्थतश्च सू०५९४. यस्य तद्बहुश्रुतं, तच्चोत्कृष्टतोऽसम्पूर्णदशपूर्वधरं जघन्यतो नवमस्य तृतीयवस्तुवेदीति ४, तथा शक्तिमत्-समर्थ पञ्च- ५९६ विधकृततुलनमित्यर्थः, तथाहि--"तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य । तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवजओ ॥१॥"५, [तपसा सत्त्वेन सूत्रेणैकत्वेन बलेन च पंचधा तुलना उक्ता जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्य ॥१॥]'अल्पा#धिकरणं' निष्कलह 'प्रतिमत' चित्तस्वास्थ्ययुक्तमरतिरत्यनुलोमप्रतिलोमोपसर्गसहमित्यर्थः ७, वीर्य-उत्साहातिरे-IN कस्तेन संपन्नमिति ८, इहाद्यानामेव चतुर्णी पदानां प्रत्येकमन्ते पुरुषजातशब्दो दृश्यते ततोऽन्त्यानामध्ययं सम्बन्धनीय | इति । अयं चैवंविधोऽनगारः सर्वप्राणिनां रक्षणक्षमो भवतीति तेषामेव योन्याः सङ्गहं गत्यागती चाह-'अढविहे दीप अनुक्रम [७०१] ACCE ॥४१६॥ JABERatinintamational sirwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~835~ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५९६ ] दीप अनुक्रम [ ७०१ ] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ५९६ ] स्थान [८], त्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगमं, नवरमौपपातिका देवनारकाः, 'सेसाणं'ति अण्डजपोतजजरायुजवर्जितानां रसजादीनां ग तिरागतिश्च नास्तीत्यष्टप्रकारेति शेषः, यतो रसजादयो नौपपातिकेषु सर्व्वेषूपद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियाणामेव तत्रोत्पत्तेः, नाप्योपपातिका रसजादिषु सर्वेष्वप्युपपद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियैकेन्द्रियेष्वेव तेषामुपपत्तेरिति अण्डजपोतजजरायुजसूत्राणि त्रीण्येव भवन्तीति । अण्डजादयश्च जीवा अष्टविधकर्म्मचयादेर्भवन्तीति चयादीन् षट् क्रियाविशेषान् सामान्यतो नारकादिपदेषु च प्रतिपादयन्नाह - 'जीवा ण' मित्यादि, प्रागिव व्याख्येयं नवरं चयनं व्याख्यानान्तरेणासकलनं उपचयनंपरिपोषणं बन्धनं-निर्मापणं उदीरणं करणेनाकृष्य दलिकस्योदये दानं वेदनं-अनुभव उदय इत्यर्थः, निर्जरा- प्रदे शेभ्यः शटनमिति, लाघवार्थमतिदिशन्नाह - 'एवं चेव'त्ति यथा चयनार्थः कालत्रयविशेषतः सामान्येन नारकादिषु | चोक्तः एवमुपचयार्थोऽपीति भावः, 'एवं चिणे' त्यादिगाथोत्तरार्द्ध प्राग्वत् 'एए छे'त्यादि, यतश्चयनादिपदानि पड् अत सामान्यसूत्रपूर्वकाः षडेव दण्डका इति । अष्टविधकर्मणः पुनश्चयादिहेतुमासेव्य तद्विपाकं जानन्नपि कर्म्मगुरुत्वात् कश्चिन्नालोचयतीति दर्शयन्नाह - Education infamational अहिं ठाणेहिं माती मायं कट्टु नो आलोतेजा नो पडिकमेजा जाव नो पढिवजेज्या, तं० करिंसु बाई १ करेमि वाऽहं २ करिस्सामि वा ३ अकिन्ती वा मे सिया ४ अवण्णे वा मे सिया ५ अवणए वा मे सिया ६ कित्ती वा मे परिहाइस्सइ ७ जसे वा मे परिहाइस्सर ८ । अहि ठाणेहिं माई मायं कटु आलोएजा जाव पडिवञ्जेज्जा, तंजहा- मा तिस्स णं अस्सि लोए गरहिते भवति १ उनवाए गरहिते भवति २ आजाती गरहिता भवति ३ एगमवि माती मातं For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~836~ www.incibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) श्रीस्थानाअसूत्र ४८स्थाना उद्देशः ३ आलोचकेतरगुणदोषाः ॥४१७॥ प्रत सूत्रांक [५९७] सू०५९७ कटु नो आलोएना जाव नो पडिवज्जेज्जा णत्थि तस्स आराणा ४ एगमवि मायी मायं कटु आलोएजा आव पटिवज्जेज्जा अस्थि तस्स आराहणा ५ बहुतोचि माती मायं कटु नो आलोएजा जाव नो पढिवज्जेज्जा नस्थि तस्स भाराधणा ६ बहुओवि माती मायं कटु आलोएला जाव अस्थि तस्स आराहणा ७ आयरियउवझायस्स वा मे अतिसेसे नाणदसणे समुप्पजेजा, से तं मममालोएज्जा माती णं एसे ८ । माती णं मातं कट्ट से जहा नामए अयागरेति वा तंबागरेति वा तउआगरेति वा सीसागरेति वा रुप्पागरेति वा सुवन्नागरेति वा तिलागणीति वा तुसागणीति वा बुसागणीति या णलागणीति वा दलागणीति वा सोंडितालिच्छाणि वा भंडितालिच्छाणि वा गोलियालिच्छाणि वा कुंभारावातेति वा कवेलुवाबातेति वा इट्टावातेति वा जंतवाउचुलीति वा लोहारंवरिसाणि वा तत्ताणि समजोतिभूताणि किंसुकफुल्लसमाणाणि पक्षासहरसाई विणिम्मुतमाणाई २ जालासहस्साई पमुंचमाणाई इंगालसहस्साई परिफिरमाणाई अंतो २ झिवायति एवामेष माती मार्य कट्ठ अंतो २ झियायइ जतिवि त णं अन्ने केति वदति संपि तणं भाती जाणति अहमेसे अभिसचिजामि २, माती णं मात कटू अणालोतितपरिकते कालमासे कालं किचा अण्णासरेसु देवलोगेसु देवदत्ताते उववत्तारो भवंति, सं०-नो महिडिएसु जाव नो दूरंगतितेसु नो चिरद्वितीएसु, से णं तत्थ देवे भवति णो महिदिए जाव नो चिरठितीते, जावि त से तत्थ बाहिरभंतरिया परिसा भवति साविय शं नो आढाति नो परियाणाति णो महरिहेणमासणेणं उवनिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्वारि पंच देवा अवुत्ता घेव अम्भुईति-मा बहुं देवे! भासत, सेणं ततो देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव दीप अनुक्रम [७०२] ॥४१७॥ TIGI CINEairan . manminary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~837~ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] ASUSSEXUASSASASXAS माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति, ६०-अंचकुलाणि वा पंतकुलाणि वा तुच्छकुलाणि वा दरिरकुलाणि वा मिक्खागकुलाणि वा किवणकुलाणि वा सहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताते पञ्चायाति, सेणं तत्थ पुमे भवति दुवे दुवने दुग्गंधे दुरसे हुफासे अणिढे अकते अप्पिते अमणुण्णे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिदुसरे अकंतसरे अपितस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाएजवयणपञ्चायाते, जाविय से तत्थ बाहिरभंतरिता परिसा भवति सावि त णं णो आढाति णो परिताणति नो महरिहेणं आसणेणं उबणिमंतेति, भासंपि व से भासमाणस्स जाब चत्तारि पंच जणा अं. बुत्ता चेव अग्भुट्ठति-मा बहुं अजउत्तो! भासउ.२ । माती णं मातं कट्ट आलोचितपडिकते कालमासे कालं किया अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं०-महिडिएसु जाव चिरहितीसु, से णं तत्थ देवे भवति महिसीए जाव चिरहितीते हारविरातितवच्छे कहकतुडितथंमितभुते अंगदकुंडलमउडगंडतलकन्नपीढधारी विचित्तहत्याभरणे विचित्तवत्थाभरणे विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्वपरिहिते कल्लाणगपवरगंधमलाणुलेवणधरे भासुरबोंदी पलंबवणमालधरे दिवेणं बनेणं दिवेणं गंधेणं दिब्वेणं रसेणं दिव्वेणं फासेण दिवेणं संघातेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इट्टीते दिव्वाते जूतीते दिवाते पभाते दिवाते छायाते दिखाए अञ्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाते लेस्साए दस दिसाओ उज्जोवेभाणा पभासेमाणा मयाऽहतणट्टगीतवातिततंतीतलतालतुडितघणगुतिंगपदुप्पवातितरवेणं विश्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह जावि त से तत्थ बाहिरमंतरवा परिसा भवति सावित माढाइ परियाणाति महारिहेण आसणेणं स्वनिमंतेति भासंपित से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा अवुत्ता चेव अन्मुट्ठिति-बहुं देवे! भासउ २, सेणं दीप अनुक्रम [७०२] Singtonary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~838~ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) श्रीस्थाना वृत्तिः IC प्रत सूत्रांक [५९७] तो देवलोगातो आउक्खएणं ३ जाव चइत्ता इहेव माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति, स्थाई जाव बहुजणस्स ८स्थाना अपरिभूताई तहपगारेसु कुलेसु पुमत्ताते पञ्चाताति, से णं तत्थ पुमे भवति सुरूने सुबन्ने सुगंधे सुरसे मुफासे इठे कंते जाव उद्देशः३ मणामे अहीणस्सरे जाव मणामस्सरे आदेजवतणे पञ्चायाते, जाऽविय से तत्व बाहिरभंतरिता परिसा भवति सावित आलोचणं आढाति जाव बहुमजउत्ते! भासउ २ (सू० ५९७) & केतरगुण'अट्टही'त्यादि, मायीति मायावान् 'माय'ति गुप्तत्वेन मायाप्रधानोऽतिचारो मायैव तां कृत्वा' विधाय 'नो आ-I ४ लोचयेद्' गुरवे न निवेदयेत्, नो प्रतिक्रमेत्-न मिथ्यादुष्कृतं दद्यात् जावकरणात् नो निंदेजा-खसमक्षं नो गरहेज्जासू०५९७ |-गुरुसमक्ष नो विउद्देजा-न व्यावत्तेतातिचारात् नो चिसोहेजा-न विशोधयेदतिचारकल शुभभावजलेन नो अ-18 शकरणतया-अपुनःकरणेनाभ्युत्तिष्ठिद्-अभ्युत्थानं कुर्यात् नो यथार्ह तपःकर्म-प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यतेति, तद्यथा'करेसुं वाऽहंति कृतवांश्चाहमपराध, कृतत्याच कथं सस्य निन्दादि युज्यते, तथा 'करेमि वाऽहं ति साम्प्रतमपि त-18 महमतिचारं करोमीति कीदृश्यनिवृत्तस्यालोचनादिक्रिया?, तथा करिष्यामि वाऽहमिति न युक्तमालोचनादीति ३, शेष सष्टम् , नवरमकीर्तिः-एकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरवर्ण:-अयशः सर्वदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरेव, एतद्वयमविद्यमानं मे भविव्यतीति, अपनयो वा-पूजासत्कारादेरपनयनं मे स्यादिति, तथा कीर्तिर्यशो वा विद्यमानं मे परिहास्यतीति ॥ उतार्थस्य IR४१८॥ N विपर्ययमाह-'अट्टही'त्यादि सुगम, नवरं मायीत्यासेवावसर एव नालोचनाद्यवसरेऽपि, मायिन आलोचनाद्यप्र वृत्तः, मायां-अपराधलक्षणां कृत्वा आलोचयेदित्यादि, मायिनो ह्यनालोचनादावयमनर्थः, यदुत-'अस्सिति अर्थ दीप अनुक्रम [७०२] Juniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~839~ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) *** प्रत सूत्रांक [५९७] लोको-जन्म गर्हितो भवति, सातिचारतया निन्दितत्वादित्युक्तं च-"भीउब्विग्गनिलुको पायडपच्छन्नदोससयकारी। अप्पच्चयं जणंतो जडस्स धी जीवियं जियइ ॥१॥" इति, [भीतोद्विग्नो गोपायन् प्रकटं प्रच्छन्नं च दोषशतकारकः । अप्रत्ययं जडस्य जनयन घिग् जीवितं जीवति ॥१॥] इत्येकं १, तथा 'उपपातो' देवजन्म गहितः किस्वि-II पिकादित्वेनेति, उक्तं च-“तवतेणे वइतेणे, रूवतेणे य जे नरे । आयारभावतेणे य, कुब्बई देवकिग्विसं ॥१॥" &ा[तपास्तेनो वचस्तेनः रूपस्तेनश्च यः नरः । आचारभावस्तेनश्च करोति देवकिल्विषं ॥१॥] इति द्वितीयं, आ जातिः-ततश्च तस्य मनुष्यजन्म गर्हिता जात्यैश्वर्यरूपादिरहिततयेति, उक्तं च-"तत्तोवि से चइत्ताणं, लम्भिही एल४मूअगं । नरगं तिरिक्खजोणि वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥१॥"[ततोऽपि स न्युत्वा प्राप्स्यत्येडकमूकतां नरके तिये | लाग्योनिं च यत्र सुदुर्लभा चोधिः॥१॥] तृतीय, तथा एकामपि मायी मायां-अतिचाररूपां कृत्वा यो नालोचयेदि-I त्यादि, नास्ति तस्याराधना ज्ञानादिमोक्षमार्गस्येत्यनर्थ इति, उक्तं च-“लज्जाए गारवेण य बहुस्सुयमएण वावि दु४चरियं । जे न कहिंति गुरूणं न हु ते आराहगा होति ॥१॥"[लजया गौरवेन च बहुश्रुतत्वमदेन धा दुश्चरितमपि ये गुरुभ्यो न कथयन्ति ते नैवाराधका भणिताः॥१॥] तथा-"नवि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइओ कुद्धो॥२॥ कुणइ भावसलं अणुद्धियं उत्तमढकालंमि । दुलहबोहीअत्तं अर्णतसंसारियत्तं वा ॥३॥” इति [ शस्त्रं वा विषं वा दुष्पयुक्तो वेतालो वा नैव तत्करोति दुष्प्रयुक्तं यंत्र वा प्रमादिनः क्रुद्धः सो वा ॥ १॥ यदनुवृतं भावशल्यमुत्तमार्थकाले करोति दुर्लभबोधिकत्वमनन्तसंसारिकत्वं च ॥२॥] चतुर्थे, तथा & 64544 4*4-*-* दीप अनुक्रम [७०२] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~840~ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] श्रीस्थाना- Iएकामपीत्यादिना वर्धप्राप्तिरुक्तति, यदाह-"उद्धरियसब्वसल्लो भत्तपरिना' धणियमाउत्तो । मरणाराहणजत्तो च- 1 स्थाना० असूत्र- दगवेज्झं समाणेइ ॥१॥" इति, [ उद्धृतसर्वशल्यः भक्तपरिज्ञायां गाढमायुक्ता मरणाराधनायुक्तः चन्द्रकवेध्यं संपूर-18| पर-दउद्देशः३ वृत्तिः यति ॥१॥] पञ्चममपि, एवं बहुत्वेनापि अनालोचनादावालोचनादौ वाऽनर्थोऽर्थश्च पष्ठसप्तमे, तथाऽऽचार्योपाध्यायस्य आलोच वा मे अतिशेष ज्ञानदर्शनं समुत्सद्येत, स च मामालोकयेत् माई णमेष इत्युल्लेखेनेत्येवं भयादालोचयतीत्यष्टम, योपं जा केतरगुण॥४१९॥ सूत्रं 'अयं लोक उपपात आजातिश्च गर्हिते'त्यस्य पदत्रयस्य विवरणतया अवगन्तव्यं, तत्र मायी मायां करवेति, इन दोषाः है कीदृशो भवेदुच्यत इति वाक्यशेषो दृश्यः, 'स' इति यो भवतोऽपि प्रसिद्धः यथेति दृष्टान्तोपन्यासे 'नामए'त्ति स-1 सू०५९७ म्भावनायामलङ्कारे वा अयआकरो-लोहाकरः यत्र लोहं ध्मायते इतिरुपदर्शने वा विकल्पे तिला-धान्यविशेषास्तेषामव-15 दयवा अपि तिलास्तेषामग्निः-तद्दहनप्रवृत्तो वहिस्तिलाग्निः, एवं शेषा अप्यग्निविशेषा, नवरं तुषाः कोद्रवादीनां बुसं-टू यवादीनां कडङ्गरो नलः-शुपिरसराकारः दलानि-पत्राणि सुण्डिका:-पिटकाकाराणि सुरापिष्टस्वेदनभाजनानि कवेल्यो । वा सम्भाव्यन्ते तासां लिंछाणि-गुलीस्थानानि सम्भाव्यन्ते, उक्कं च वृ । “गोलियसोडियभंडियलिच्छाणि अग्ने-10 राश्रयाः" अन्यैस्तु देशभेदरूच्या एते पिष्टपाचकाम्यादिभेदा इत्युक्तं, मयाऽप्येतदुपजीव्यैव सम्भावितमिति, तथा भ|ण्डिका-स्थाल्यः ता एव महत्यो गोलिकाः, प्रतीतं चैतच्छन्दद्वयं, लिंछानि तान्येवेति, कुम्भकारस्यापाको-भाण्डपचन| स्थानं कवेलुकानि-प्रतीतानि तेषामापाका-प्रतीत एवं 'जंतवाडचुल्ली इक्षुयन्त्रपाटचुली 'लोहारंपरिसाणि वत्ति||2|| लोहकारस्याम्बरीषा-भ्राष्ट्रा आकरणानीति लोहकाराम्बरीषा इति, तप्तानि-उष्णानि समानि-तुल्यानि जाज्वल्यमान दीप अनुक्रम [७०२] Sindibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~841~ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] त्वात् ज्योतिषा-बहिना भूतानि-जातानि यानि तानि समयोतिर्भूतानि, किंशुकफुलं-पलासकुसुमं तत्समानानि रक्कतया उल्का इव उल्का-अग्निपिण्डास्तत्सहस्राणीति प्राचुर्यख्यापर्क विनिर्मुञ्चन्ति विनिर्मुश्चन्तीति भृशार्थे द्विवचनं अजारा-लघुतराग्निकणास्तत्सहस्राणि प्रविकिरन्ति २'अंतो अंतो' अन्तरन्तः 'झियायंति मायन्ति इन्धनैर्दीप्यन्त इति दृष्टान्तो, दान्तिकस्वेवमेवेत्यादि, पश्चात्तापाग्निना ध्मायति-जाज्वल्यते, 'अहमेसें'त्ति अहमेषोऽभिशको अहमेषोऽभिशय इति-एभिरह दोपकारितया आशझो-सम्भाव्ये इति, उक्तं हि-"निच्च संकियभीओ गम्मो सब्धस्स खलियचारित्तो। साहुजणरस अवमओ मओऽवि पुण दुग्गई जाइ॥१॥" [नित्यं शकित्तभीतो गम्यः सर्वस्य स्खलितचारित्रः साधुहाजनेनावमतः मृतोऽपि पुनर्दुर्गतिं याति ॥१॥] अनेनानालोचकस्यायं लोको गहितो भवतीति दर्शितं, 'से णं तस्से-15 त्यादिना पाठान्तरेण मायी णं मायं कट्ठ इत्यादिना वा उपपातो गर्हितो भवतीति दर्श्यते, 'कालमासे'त्ति मरणमासे उपलक्षणत्वान्मरणदिवसे मरणमुहूर्चे 'कालं किचा'मरणं कृत्वा अन्यतरेषु व्यन्तरादीनां 'देवलोकेषु' देवजनेषु मध्ये "उववत्तारोत्ति वचनव्यत्ययादुपपत्ता भवतीति, नो महर्दिकेषु परिवारादिऋच्या नो महाद्युतिषु शरीराभरणादिदीप्त्या नो महानुभागेषु वैक्रियादिशक्तितः नो महाबलेषु-प्राणवत्सु नो महासौख्येषु नो महेशाख्येषु चा नो दूरंगतिकेषु-न सौधर्मादिगतिषु नो पिरस्थितिकेषु-एकब्यादिसागरोपमस्थितिकेषु वापि च 'से' तस्य 'तत्र' देवलोकेषु 'बाह्या' अप्रत्यासन्ना दासादिवत् 'अभ्यन्तरा' प्रत्यासन्ना पुत्रकलत्रादिवत् 'परिषत् परिवारो भवति सापि 'नो आद्रियते' नादरं करोति, 'नो परिजानाति' स्वामितया नाभिमन्यते 'नो नैव महच्च तह च-योग्यं महार्ह तेनासने दीप GAR अनुक्रम [७०२] CAMERatinा ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~842~ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] दीप अनुक्रम [७०२] श्रीस्थाना नसूत्रवृत्तिः ॥ ४२० ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५९७ ] स्थान [८], उद्देशक [-1, नोपनिमन्त्रयते, किंबहुना ?, दौर्भाग्यातिशयात्तस्य यावच्चतुःपञ्चाः देवा भाषणनिषेधायाभ्युत्तिष्ठन्ति प्रयतन्ते, कथं ?, 'मा बहु' मित्यादि, अनेनोपपात गर्होता, आजातिगर्हितत्वं तु 'से ण'मित्यादिनाऽऽचष्टे, 'से'सि सोडनालोचकस्ततोव्यन्तरादिरूपाद् देवलोकादवधेः आयुः कर्म्मपुद्गलनिर्जरणेन भवक्षयेण आयुः कर्मादि निबन्धन देवपर्यायनाशेन स्थितिक्ष|येण- आयुःस्थितिबन्धक्षयेण देवभवनिबन्धनशेषकर्मणां वा, अनन्तरं- आयुःक्षयादेः समनन्तरमेव 'च्यवं' च्यवनं 'च्युत्वा' कृत्वा 'इहैव' प्रत्यक्षे मानुष्यके भवे पुंस्तया प्रत्याजायत इति सम्बन्धः केषु कुलेषु कुटुम्बकेषु अन्वयेषु वा किंविधेषु ?' यानि इमानि' वक्ष्यमाणतया च प्रत्यक्षाणि भवन्ति, तद्यथा - अन्तकुलाणि-वरुटपिकादीनां प्रान्तकुलानि चण्डालादीनां तुच्छकुलानि - अल्पमानुषाणि अगम्भीराशयानि वा दरिद्रकुलानि - अनीश्वराणि कृपणकुलानि - तर्क |णवृत्तीनि नटननाचार्यादीनां भिक्षाककुलानि भिक्षणवृत्तीनि तथाविधलिङ्गिकानां च तथाप्रकारेण्वन्तकुलादिष्वित्यर्थः, प्रत्यायाति प्रत्याजायते वा 'पुमि'त्ति पुमान् 'अणिट्टेत्यादि इष्यते स्म प्रयोजनवशादितीष्टः कान्तः कान्तियोगात् प्रिय:- प्रेमविषयः मनोज्ञः - शुभस्वभावः मनसा अम्यते गम्यते सौभाग्यतोऽनुस्मर्यत इति मनोऽमः एतन्निषेधात् प्रकृतविशेषणानि तथा हीनस्वरः - इस्वस्वरस्तथा दीनो- दैन्यवान् पुरुषस्तत्सम्बन्धित्वात्स्वरोऽपि दीनः स स्वरो यस्य स तथा, अनादेयवचनश्वासी प्रत्याजातश्चेति अथवा प्रथमैकवचनलोपादनादेयवचनो भवति प्रत्याजातः सन्निति, शेषं कण्ठ्यं यावद् 'भासउ'त्ति, अनेन प्रत्याजातिगर्हितत्वमुक्तमिति, 'माथी'त्यादिना आलोचक स्येह लोकादिस्थानत्रयागर्हितत्वमुकविपर्ययस्वरूपमाह-हारेण विराजितं वक्षः-उरो यस्य स तथा कटकानि प्रतीतानि तुटितानि - बाह्राभरणविशेषास्तैः Education intol Forest Use Only ८ स्थाना० उद्देशः ३ आलोचकेतरगुणदोषाः सू० ५९७ ~843~ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ॥ ४२० ॥ www.joncibrary.org Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] |स्तम्भितौ स्तब्धीकृती भुजौ-बाहू यस्य स तथा । 'अंगदें'त्यादि, कर्णावेव पीठे-आसने कुण्डलाधारत्वाकर्णपीठे, मृष्टेभ्रष्टे गण्डतले च-कपोलतले च कर्णपीठे च यकाभ्यां ते मृष्टगण्डतलकर्णपीठे ते च ते कुण्डले चेति विशेषणोत्तरपदः । प्राकृतत्वात्कम्र्मधारयः, अङ्गदे च केयूरे बाह्वाभरणविशेषावित्यर्थः, कुण्डलमृष्टगण्डतलकर्णपीठे च धारयति यः सर तथा, अथवा अङ्गदे च कुण्डले च मृष्टगण्डतले कर्णपीठे च-कर्णाभरणविशेषभूते धारयति यः स तथा, तथा विचि त्राणि-विविधानि हस्ताभरणानि-अङ्गलीयकादीनि यस्य स तथा, तथा विचित्राणि वस्त्राणि चाभरणानि च यस्य वखालण्येव वाऽऽभरणानि-भूषणानि अवस्थाभरणानि वा-अवस्थोचितानीत्यर्थो यस्य स तथा, विचित्रा मालाश्च-पुष्पमाला मौलिश्च-शेखरो यस्य विचित्रमालानां वा मौलिर्यस्य स तथा, कल्याणकानि-माङ्गल्यानि प्रवराणि-मूल्यादिना वस्त्राणि परिहितानि-निवसितानि येन तान्येव वा परिहितो-निवसितो यः स तथा, कल्याणकं प्रवरं च पाठान्तरेण प्रवरगन्धं च माल्य-मालायां साधु पुष्पमित्यर्थः अनुलेपनं च-श्रीखण्डादिविलेपनं यो धारयति स तथा, भास्वरा-दीमा बोन्दी-शरीरं यस्य स तथा, प्रलम्बा या वनमाला-आभरणविशेषस्तां धारयति यः स तथा, दिव्येन-स्वर्गसम्बन्धिना प्रधानेनेत्यर्थो वणोंदिना युक्त इति गम्यते, सङ्घातेन संहननेन-वज्रर्षभनाराचलक्षणेन संस्थानेन-समचतुरस्त्रलक्षणेन च्या-1 | विमानादिरूपया युक्त्या-अन्यान्यभक्तिभिस्तथाविधद्रव्ययोजनेन प्रभया-प्रभावेन माहात्म्येनेत्यर्थः, छायया-प्रतिषिम्वरूपया अश्चिषा-शरीरनिर्गततेजोज्यालया तेजसा-शरीरस्थकाम्त्या लेश्यया-अन्तःपरिणामरूपया शुक्लादिकया उद्योतयमानः-स्थूलवस्तूपदर्शनतः प्रभासयमानस्तु-सूक्ष्मवस्तूपदर्शनत इति, एकार्थिकत्वेऽपि चैतेषां न दोषः, उत्कर्षप्रति दीप SAXXXA4% अनुक्रम [७०२] JAMERICA P andiorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~844~ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] दीप अनुक्रम [७०२] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४२१ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ५९७ ] स्थान [८], |पादकत्वेनाभिहितत्वादिति महता प्रधानेन बृहता वा वेणेति सम्बन्धः, अहतः - अनुबद्धो रवस्यैतद्विशेषणं नाव्यंनृत्तं तेन युक्तं गीतं नाव्यगीतं तच्च वादितानि च तानि शब्दवन्ति कृतानि तन्त्री च-वीणा तली च-हस्तौ तालाश्चकंशिकाः 'तुडिय'त्ति सूर्याणि च पटहादीनि वादिततन्त्रीतलतालतूर्याणि तानि च तथा घनो - मेघस्तदाकारो यो मृदङ्गो ध्वनिगाम्भीर्यसाधर्म्यात् स चासौ पटुना-दक्षेण प्रवादितश्च यः स धनमृदङ्गपटुप्रवादितः स चेति द्वन्द्वे तेषां रवः-शव्दस्तेन करणभूतेन, अथवा 'आह-य'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धं यन्नाव्यं तेन युक्तं यत्तद्गीतं, शेषं तथैव, इह च मृदङ्गग्रहणं तूर्येषु मध्ये तस्य प्रधानत्वात्, यत उच्यते - 'मद्दलसाराई तूराई'ति, भोगार्हा भोगाः शब्दादयो भोगभोगास्तान् भुञ्जान:- अनुभवन् विहरति-क्रीडति तिष्ठति वेति, भाषामपि च 'से' तस्य भाषमाणस्यास्तामेको द्वौ वा सौभाग्यातिशयात् यावच्चत्वारः पञ्च वा देवा अनुक्ता एव-केनाप्यप्रेरिता एव भाषणप्रवर्त्तनाय बहोरपि भाषितस्य स्वबहुमतत्वख्यापनाय चाभ्युत्तिष्ठन्ति ब्रुवते च 'बहु'मित्यादि, अभिमतमिदं भवदीयं भाषणमिति हृदयं, अनेनालोचकस्योपपातागर्हितत्वमुकं, एतद्भणना दिहलो का गर्हितत्व लघुताह्रादादिआलोचनागुणसद्भावेन वाध्यं, आलोचनागुणाश्चैते - "ल| हुयाल्हाइयजणणं अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही । दुक्करकरणं आढा निस्सलत्तं च सोहिगुणा ॥ १ ॥” [ लघुताऽऽहादिताजननं आत्मपरनियंतृताऽऽर्जवं शोधिः दुष्करकरणं आदरः निःशस्यत्वं च शोधिगुणाः ॥ १ ॥ ] इदानीं तस्यैव प्रत्याजात्यगर्हितत्वमाह - 'से ण'मित्यादिना, 'अडाई'ति धनवन्ति यावत्करणात् ' दित्ताई' - दीप्तानि प्रसिद्धानि तानि यादवन्ति 'विच्छिन्न विभवणसयणासण जाणवाहणाई' तत्र विस्तीर्णानि - विस्तारवन्ति विपुलानि बहूनि भवनानि Education intemational For Fans Only ८ स्थाना० उद्देशः ३ आलोच. केतरगुण दोषाः सू० ५९७ ~845~ ॥ ४२१ ॥ www.jancibrary.org [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] 18|गृहाणि शयनानि-पर्यादीनि आसनानि-सिंहासनादीनि यानानि-रथादीनि वाहनामि च-वेगसरादीमि येषु कुलेषु तानि तथा, कचिद् 'वाहणाइमाईति पाठस्तत्र विस्तीर्णविपुलैर्भवनादिभिराकीर्णानि-सङ्कीर्णानि युक्तानीत्यर्थः इति व्याख्येयं, तथा 'बहुधणबहुजायस्वरययाई बहु धनं-गणिमधरिमादि येषु तानि तथा बह जातरूपं च-सुवर्ण रजतं च रूप्यं येषु तानि तथा, पश्चात्कर्मधारयः, 'आओगपओगसंपउत्ताई' आयोगेन-द्विगुणादिलाभेन द्रव्यस्थ प्रयोग:-अद्र धमर्णानां दानं तत्र सम्पयुक्तानि-व्यापृतानि तेन वा संप्रयुक्तानि-संगतानि तानि तथा, 'विच्छवियपउरभत्तपाणाई' विच्छते-त्यक्ते बहुजनभोजनावशेषतया विच्छ देवती वा-विभूतिमती विविधभक्ष्यभोज्यचूष्यलेह्यपेयाद्याहारभेदयुक्त तया प्रचुरे भक्तपाने येषु तानि तथा, 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूयाई बहवो दासीदासा येषु तानि तथा गावो ४ महिष्यश्च प्रतीताः गवेलका-उरभास्ते प्रभूता:-प्रचुरा येषु तानि तथा पश्चात्कर्मधारया, अथवा बहवो दास्यादयः प्रदभूता जाता येषु तानि तथा, बहुजनस्याप्यरिभूतानि अपरिभवनीयानीत्यर्थः, तृतीयार्थे वा पठी, ततो बहुजनेनापरि-1 भूतानि-अतिरस्कृतानि 'अबउसे'त्ति आर्ययोः-अपापकर्मवतोः पित्रोः पुत्रो यः स तथा, अनेनालोचकस्यानालोचकप्रत्याजातिविपर्यय उक्ता ॥ कृतालोचनाद्यनुष्ठानाश्च संवरवस्तो भवन्तीति संवरं तद्विपर्यस्तमसंबरं चाह अवविहे संवरे ५००--सोइरियसंवरे जाव फासिदियसंवरे मणसंवरे वतिसंवो कायसंवरे, अलविहे असंवरे पं० ०-सोर्तिदिअअसंवरे जाव कायनसंघरे (सू० ५९८) अह फासा पं०२०-ककडे मउते गरुते छहते सीते लस्था०७१ दीप अनुक्रम [७०२] ratorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~846~ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९९] (०३) श्रीस्थाना वृत्तिः ॥४२२॥ प्रत सूत्रांक [५९९] सिणे निखे लुक्से (सू०५९९ ) अद्वविधा लोगठिती पं० २०-मागासपतिद्विते बाते १ वातपतिद्विते उदही २ स्थाना० एवं जया छट्ठाणे जाव जीवा कम्मपतिहिता अजीवा जीवसंगहीता जीवा कम्मसंगहीता (सू०६००) उद्देशः३ 'अट्ठविहे त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, अनन्तरं कायसंवर उक्तः, कायश्चाष्टस्पों भवतीति स्पर्शसूत्र, कण्ठ्यं चेति, स्पर्शा-18 संवरेतराः श्चाष्टावेवेति लोकस्थितिरियमितो लोकस्थितिविशेषमाह-'अट्ठविहे'त्यादि, कण्ठ्यं, 'एवं जहा छहाणे इत्यादि, तत्र स्पर्शालोचैत्र-उदधिपइट्ठिया पुहवी, धनोदधावित्यर्थः ३ पुढविपइडिया तसा थावरा पाणा मनुष्यादय इत्यर्थः ४ अजीवा जीव- कस्थितिः पइट्ठिया, शरीरादिपुद्गला इत्यर्थः ५ जीवा कम्मपइडिया कर्मवशवर्तित्वादिति ६ अजीवाः पुद्गलाकाशादयो जीः गणिसंपसङ्गृहीताः-स्वीकृताः अजीवान् विना जीवानां सर्वव्यवहाराभावात् ७ जीवाः कर्मभिः-ज्ञानावरणादिभिः सङ्गृहीता- द: निधबद्धाः ८, षष्ठपदे जीवोपग्राहकत्वेन कर्मण आधारता विवक्षितेह तु तस्यैव जीवबन्धनतेति विशेषः ॥ इदं च लोकस्थि- यः समित्यादि स्वसम्पदुपेतगणिवचनात् ज्ञायत इति गणिसम्पदमाह तयः अडविहा गणिसंपता पं० २०-आचारसंपया १ सुयसंपता २ सरीरसंपता ३ वतणसंपता ४ वातणासंपता ५ मतिसं- सू०५९८. पता ६ पतोगसंपता ७ संगहपरिण्णाणाम अट्ठमा ८ (सू०६०१) एगमेगे णं महानिही अट्ठचकवालपतिहाणे अट्ठहजोषणाई उर्दू उच्चत्तेणं पन्नत्ते (सू०६०२) अट्ट समितीतो पं० सं०-ईरियासमिति भासासमिति एसणा० आया णभंडमत्त० उच्चारपासवण मणस वइस० कायसमिती (सू०६०३) 'अविहा गणिसंपयेत्यादि गणः-समुदायो भूयानतिशयवान् वा गुणानां साधूनां वा यस्यास्ति स गणी-आचा दीप अनुक्रम [७०४] ॐ4-15 % 99-2 % JABERatinintamational wwlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~847~ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६०३ ] दीप अनुक्रम [७०८] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६०३ ] स्थान [८], उद्देशक [-1, - र्यस्तस्य सम्पत्-समृद्धिर्भावरूपा गणिसम्पत् तत्राचरणमाचार:- अनुष्ठानं स एव सम्पत्- विभूतिस्तस्य वा सम्पत्-सम्पत्तिः प्राप्तिः आचारसम्पत्, सा च चतुर्द्धा तद्यथा-संयमधुवयोगयुक्तता, चरणे नित्यं समाभ्युपयुक्ततेत्यर्थः १ असंप्रग्रहः आत्मनो जात्याद्युत्सेकरूपग्राहवर्जनमिति भावः २ अनियतवृत्तिः अनियतविहार इति योऽर्थः ३ वृद्धशीलता वपुर्मनसो निर्विकारतेतियावत् ४, एवं श्रुतसम्पत्, साऽपि चतुर्द्धा तद्यथा - बहुश्रुतता युगप्रधानागमतेत्यर्थः १ परिचितसूत्रता २ विचित्रसूत्रता स्वसमयादिभेदात् ३ घोषविशुद्धिकरता च उदात्तादिविज्ञानादिति ४, शरीरसम्पञ्चतुर्द्धा, | तद्यथा-आरोहपरिणाहयुक्तता उचितदैर्घ्यविस्तरतेत्यर्थः १ अनघत्रपता अलज्जनीयाङ्गतेत्यर्थः २ परिपूर्णेन्द्रियता ३ स्थिरसंहननता चेति ४, वचनसम्पन्ञ्चतुर्द्धा तद्यथा - आदेयवचनता १ मधुरवचनता २ अनिश्रितवचनता मध्यस्थवचनतेत्यर्थः ३ असन्दिग्धवचनता चेति ४, वाचनासम्पच्चतुर्द्धा तद्यथा - विदित्वोदेशनं १ विदित्वा समुद्देशनं परिणामिकादिकं शिष्यं ज्ञात्वेत्यर्थः २ परिनिर्वाप्य वाचना, पूर्वदत्तालापकानधिगमय्य शिष्यं पुनः सूत्रदानमित्यर्थः ३ अर्थनिर्यापणा, अर्थस्य पूर्वापरसाङ्गत्येन गमनिकेत्यर्थः ४, मतिसम्पच्चतुर्द्धा, अवग्रहेहापायधारणाभेदादिति, प्रयोगसम्पञ्चतुर्द्धा, इह प्रयोगो वादविषयस्तत्रात्मपरिज्ञानं वादादिसामर्थ्यविषये १ पुरुषपरिज्ञानं किंनयोऽयं वाद्यादिः २ क्षेत्रपरिज्ञानं ३ वस्तुपरिज्ञानं वस्त्विह वादकाले राजामात्यादि ४, सङ्ग्रहपरिज्ञा सङ्ग्रहः-स्वीकरणं तत्र परिज्ञा-ज्ञानं नाम अभिधानमष्टमीसम्पत्, सा च चतुर्विधा, तद्यथा - बालादियोग्यक्षेत्रविषया १ पीठफलकादिविषया २ यथासमयं स्वाध्यायभिक्षादिविषया ३ यथो चितविनयविषया चेति ४ ॥ आचार्या हि गुणरत्ननिधानमिति निधानप्रस्तावान्निधिव्यतिकरमाह- 'एकेत्यादि, ए Education intimational For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ~848~ www.janbay.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०३] (०३) श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥ ४२३ ॥ प्रत सूत्रांक [६०३] कैको महानिधिश्चक्रवर्तिसम्बन्धी अष्टचक्रवालप्रतिष्ठान:-अष्टचक्रप्रतिष्ठितः, मञ्जूषावत् , तत्स्वरूप घेदम्-"नवजो- स्थाना. यणविच्छिन्ना बारसदीहा समूसियां अट्ट । जक्खसहस्सपरिवुडा चकट्ठपइद्विया नववि ॥१॥" [नवापि नवयोजन- उद्देशः३ विस्तीर्णानि द्वादशदीर्घानि अष्टसमुच्छ्रितानि यक्षसहस्रपरिवृतानि चक्राष्टकप्रतिष्ठितानि ॥१॥] द्रव्यनिधानवक्तव्य-12 आचार्यातोक्ता, भावनिधानभूतसमितिस्वरूपमाह-'अट्ट समिई त्यादि, सम्यगितिः-प्रवृत्तिः समितिः, ईर्यायां गमने समिति लोचक योर्गुणाः चक्षुर्व्यापारपूर्वतयेतीर्यासमितिः, एवं भाषायां निरवद्यभाषणतः, एषणायामुद्गमादिदोषवर्जनता, आदाने ग्रहणे भा प्रायश्चित्त ण्डमात्रायाः-उपकरणमात्राया भाण्डस्य वा-वस्त्राद्युपकरणस्य मृन्मयादिपात्रस्य वा मामस्य च-साधुभाजनविशेषस्य मदार निक्षेपणायां च समितिः सुप्रत्युपेक्षितसुप्रमार्जितक्रमेणेति, उच्चारप्रश्रवणखेलसिङ्घानजल्लानां पारिष्ठापनिकायां समिति। सू०६०स्थण्डिलविशुद्ध्या विक्रमेण, खेलो-निष्ठीष सिंघानो-नासिकाश्लेष्मेति, मनसा कुशलतायों समिति, वाचोऽकुक्षछत्व ६०४ निरोधे समितिः, कायस्थ स्थानादिषु समितिरिति ॥ समितिब्बतिचारादावालोचना देयेत्यालोचनाचार्यख्यालोकशाधोः पायबित्तस्य च स्वरूपाभिधानाय सूत्रत्रयमाह अट्ठाई ठाणेहि संपन्ने अणगारे नरिक्षति भाटीनणा पडिच्छिचए, ०-आतारवं आहारखं बवहारवं ओवीला पकुवरी अपरिस्साती निजावते अवातरंसी । अवहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोइत्तते, --जातिसंवन्ने कुलसंपने विणयसंपने गाणसंपन्ने सणसंपन्ने चरित्तसंपन्ने खंते दंते (सू०६०४) अवविहे पायच्छिले पं० सं० दीप अनुक्रम [७०८] ॥४२३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~849~ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०५] (०३) प्रत सूत्रांक [६०५] आलोयणारिहे पदिकमणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तवारिहे छेयारिहे मूलरिद (सू०६०५) भट्ठ मत वाणा पं० ०-जातिमते कुलमते बलमते रूवमते तव० सुतक लाभ० इस्सरितमते (सू०६०६) 'अहाही त्यादि सगम, नवरं 'आयार'ति ज्ञानादिपञ्चप्रकाराचारवान ज्ञानासेवनाभ्या, 'आहारव'न्ति अवधारणावान् आलोचकेनालोच्यमानानामतीचाराणामिति, आह च-"आयारवमायारं पंचविहं मुणइ जी अ आवरइ । आहारवमवहारे आलोईतस्स सम्वति ॥१॥"[आचारवानाचारं पंचविध जानाति यश्चाचरति आधारवानवधारयत्यालोचयतः। सर्वमपि ॥२॥] 'ववहारवं'ति आगमश्रुताज्ञाधारणाजीतलक्षणानां पश्चानामुक्तरूपाणां व्यवहाराणां ज्ञातेति, 'ओवीलए ति अपनीडयति-विलज्जीकरोति यो लज्जया सम्यगनालोचयन्तं सर्वं यथा सम्यगालोचयति तथा करोतीत्यपनीडका, अभिहितं च-“वषहारव ववहारं आगममाई उ मुणइ पंचविहं । ओवीलुवगृहतं जह आलोएड तं सव्वं ॥१॥" ति [व्यवहारवान व्यवहारमागमादिपंचविघं जानाति अपनीडयत्यनालोचयन्तमालोचयति यथा तत् सर्वे ॥१॥] 'पकुच्चए'त्ति आलोचिते सति यः शुद्धिं प्रकर्षण कारयति स प्रकारीति, भणितं च-"आलोहयमि सोहिं जो कारावेइ सो पकु-16 व्वीओ।" इति, [आलोचिते यः शोधि कारयति स प्रकारी।] 'अपरिस्साईत्ति न परिश्रवति-नालोचकदोषानु8 पश्रुत्यान्यस्मै प्रतिपादयति य एवंशीलः सोऽपरिधावीति, यदाह-"जो अन्नस्स र दोसे न कहेई व अपरिसाई सो|| दाहोद ॥"[योऽन्यस्य दोषान् न कथयति एषोऽपरिश्राची भवति ॥१॥] इति, 'निजवए'ति निर्यापयति तथा करीति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापक इति, न्यगादि च-"निज्जवओ तह कुणई निव्वहई जेण पच्छि %%A4% 94545645625* दीप अनुक्रम [७१०] JHTranatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~850~ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६०६ ] दीप अनुक्रम [७११] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६०६ ] स्थान [८], उद्देशक [-1, वृत्तिः ॥ ४२४ ॥ श्रीस्थानात "न्ति, निर्यापकस्तथा करोति निर्वाहयति येन प्रायश्चित्तं ] 'अवायदसि'त्ति अपायान्-अनर्थान् शिष्यचित्तभङ्गाङ्गसूत्र- निवहादीन् दुर्भिक्षदौर्बल्यादिकृतान् पश्यतीत्येवंशीलः सम्यगनालोचनायां वा दुर्लभबोधिकत्वादीन् अपायान् शिष्यस्य दर्शयतीति अपायदशांति, भणितं च - "दुब्भिक्खदुम्बलाई इहलोए जाणए अवाए उ । दंसेइ य परलोए दुल्लहबोहित्ति ५ संसारे ॥ १२॥” इति [ दुर्भिक्षदुर्बलत्वादिकानिह लोकेऽपायान् ज्ञापयेत् दर्शयति च परलोके च संसारे दुर्लभबोधित्वमिति ॥ १२॥] 'असदोस'त्ति आत्मापराधमिति, जातिकुले मातापितृपक्षी, तत्सम्पन्नः प्रायोऽकृत्यं न करोति, कृत्वापि पश्चात्तापादालोचयतीति तग्रहणं, यदाह - "जाईकुलसंपन्नो पायमकिञ्चं न सेवई किंचि । आसेवितं च पच्छा तग्गुणओ संममालोप ॥१॥” इति [जातिकुलसम्पन्नः प्रायः किंचिदकृत्यं न सेवते आसेव्य च पश्चात् तद्गुणतः सम्यगालोचयेत् ॥ १॥ ] विनयसम्पन्नः सुखेनैवालोचयति, तथा ज्ञानसम्पन्नो दोषविपाकं प्रायश्चित्तं वाऽवगच्छति, यतोऽवाचि-"नाणेण उ संपन्नो दोसविवागं वियाणिडं घोरं आलोएइ सुहं चिय पायच्छित्तं च अवगच्छे ॥ १ ॥ इति, [ज्ञानसंपन्नस्तु घोरं दोषविपाके विज्ञाय सुखमेवालोचयति प्रायश्चित्तं वाऽवगच्छति ॥ १ ॥ ] दर्शनसम्पन्नः शुद्धोऽहमित्येवं श्रद्धत्ते, चारित्रसम्पन्नो भूयस्तमपराधं न करोति सम्यगालोचयति प्रायश्चित्तं च निर्वाहयतीति, उक्तं च-- "सुद्धो तहत्ति सम्मं सदृहई दंसणेण संपन्नो चरणेण उ संपन्नो न कुणइ भुज्जो तमवराहं ॥ १ ॥” इति [ तथा शुद्ध इति सम्यक् श्रद्धत्ते दर्शनसम्पन्नः चरणसंपनस्तु भूयस्तमपराधं न करोति ॥ १ ॥ ] क्षान्तः परुषं भणितोऽप्याचार्यैर्न रुष्यतीति, आह च - "संतो आयरिएहिं फरुसं भणिओऽवि नवि रूसे"त्ति, [ क्षान्तः आचार्यैः परुषं भणितोऽपि नैव रुप्येत् ॥ ] दान्तः प्रायश्चित्तं दत्तं बोढुं For False ८ स्थाना० उद्देशः र आचार्या लोचक योर्गुणाः प्रायश्चितं मदाः सू० ६०५६०६ ~851~ ॥ ४२४ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र- [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ibrary org Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०६] (०३) प्रत सूत्रांक [६०६] समों भवतीति, आह च-"दंतो समत्थो वोढुं पच्छित्तं जमिह दिजए तस्स" इति, [दान्तः वोढुं समर्थः प्राय*श्चित्तं यदिहापराघे दत्तं तस्य ॥] 'आलोयणे'त्यादि, व्याख्यातं प्रायः, जात्यादिमदेषु सत्स्वालोचनायां न प्रवर्त्तत इति मदस्थानसूत्रं, गतार्थ, नवरं मदस्थानानि-मदभेदाः, इह च दोषाः 'जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद्भवति दुःखितश्चेह । जात्यादिहीनतां परभवे च निःसंशयं लभते ॥' इति ॥वादिनां हि प्रायः श्रुतमदो भवतीति वादिविशेषान् दर्शयन्नाह अट्ट अकिरियावाती पं० ०–एगावाती १ अणेगावाती २ मितवादी ३ निम्मितवादी ४ सायवाती ५ समुच्छेदवाती ६ णितावादी ७ण संति परलोगवाती ८ (सू०६०७) ४ 'अट्ठ अकिरिए'त्यादि, क्रिया-अस्तीतिरूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी सैवायथावस्तुविषयतया कुत्सिता अक्रिया नमः कुत्सार्थत्वात्तामकियां वदन्तीत्येवंशीलाः अक्रियावादिनो, यथावस्थितं हि वस्त्वनेकान्तात्मक तन्नास्त्येकान्ता स्मकमेव चास्तीति प्रतिपत्तिमन्त इत्यर्थः, नास्तिका इति भावः, एवंवादित्वाचैते परलोकसाधकक्रियामपि परमार्थतो| ४न बदन्ति, तन्मतवस्तुसत्त्वे हि परलोकसाधकक्रियाया अयोगादित्यक्रियावादिन एव ते इति, तत्रैक एवात्मादिरर्थ & इत्येवं वदतीत्येकवादी, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वादिति, उक्तं चैतन्मतानुसारिभिः-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यव स्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥” इति, अपरस्त्वात्मैवास्ति नान्यदिति प्रतिपन्नः, तदुक्तम् "पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् , उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनाधिरोहति यदेजति यजति यहरे यदु अन्तिके &ायदन्तरस्य सर्वस्यास्य बाह्यत" इति, तथा “नित्यज्ञानविवर्तोऽयं, क्षितितेजोजलादिका आत्मा तदात्मकश्चेति, सङ्गिरन्ते 455555555455 दीप अनुक्रम [७११] RAIDrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~852~ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०७] (०३) प्रत सूत्रांक [६०७] श्रीस्थाना- परे पुनः॥१॥” इति, शब्दाद्वैतवादी तु सबै शब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपन्नः, उक्त प-"अनादिनिधनं ब्रह्म स्थाना० असूत्र- शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थभावेन, प्रक्रिया जगतो यतः॥१॥” इति, अथवा सामान्यवादी सर्वमेवैकं प्रतिप- उद्देशः ३ वृत्तिः द्यते, सामान्यस्यैकत्वादित्येवमनेकधैकवादी, अक्रियावादिता चास्य सद्भूतस्यापि तदन्यस्य नास्तीति प्रतिपादनात् आ- अक्रिया॥४२५॥ माद्वैतपुरुषाद्वैतशब्दाद्वैतादीनां युक्तिभिरघटमानानामस्तित्वाभ्युपगमाच, एवमुत्तरत्रापीति १, तथा सत्यपि कथञ्चिदे- वादिनः करवे भावानां सर्वथा अनेकत्वं वदतीत्यनेकवादी, परस्परविलक्षणा एवं भावास्तथैव प्रमीयमाणत्वात्, यथा रूपं रूपत-1 है येति, अभेदे तु भावानां जीवाजीवबद्धमुक्तसुखितदुःखितादीनामेकत्वप्रसङ्गात् दीक्षादिवैयर्थ्यमिति, किश-सामान्यम जीकृत्यैकत्वं विवक्षितं परैः, सामान्य च भेदेभ्यो भिन्नाभिन्नतया चिन्त्यमान न युज्यते, एवमवयवेभ्योऽवयवीर धर्मेभ्यश्च धर्मीत्येवमनेकवादी, अस्याप्यक्रियावादित्वं सामान्यादिरूपतयैकत्वे सत्यपि भावानां सामान्यादिनि पेन तनिषेधनादिति, न च सामान्य सर्वथा चास्ति, अभिन्नज्ञानाभिधानाभावप्रसङ्गात् , सर्वथा वैलक्षण्ये चैकपरमाPणुमन्तरेण सर्वेषामपरमाणुत्वप्रसङ्गात् , तथा अवयविनं धम्मिणं च विना न प्रतिनियतावयवधर्मव्यवस्था स्थान, भेदाभेदविकल्पदूषणं च कथञ्चिद्वादाभ्युपगमनेन निरवकाशमिति २, तथा अनन्तानन्तत्वेऽपि जीवानां मितान्है परिमितान् वदति 'उत्सन्नभव्यकं भविष्यति भुवन'मित्यभ्युपगमात्, मितं वा जीवं-अङ्गठपर्वमा श्यामाकतन्दुलमा वा वदति न स्वपरिमितमसावेयप्रदेशात्मकतया अङ्गलासययभागादारभ्य यावालोकमापूरयतीत्येवमनियतप्रमाण-12 ॥४२५॥ तया चा, अथवा मितं सप्तद्वीपसमुद्रात्मकतया लोकं वदत्यन्यथाभूतमपीति मितवादीति, तस्याप्यक्रियावादित्वं वस्तु दीप अनुक्रम [७१२] wwwjainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~853~ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६०७ ] दीप अनुक्रम [७१२] Education 1 “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६०७ ] स्थान [८], उद्देशक [-], तत्त्वनिषेधनादेवेति १ तथा निर्मितं- ईश्वर ब्रह्मपुरुषादिना कृतं लोकं वदतीति निम्मितवादी, तथा चाहुः "आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ १ ॥ तस्मिन्ने कार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैत्र, प्रणष्टोरगराक्षसे ॥ २ ॥ केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥ तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृद्यं काश्चनकर्णिकम् ॥ ४ ॥ तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डीयज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ॥ ५ ॥ अदितिः सुरसङ्घानां दिति| रसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६ ॥ कटुः सरीसृपाणां सुलखा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ७ ॥” इति प्रमाणयति चासौ बुद्धिमत्कारणकृतं भु वनं संस्थानवत्त्वात् घटवदित्यादि, अक्रियावादिता चास्य 'न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनादकृत्रिम भुवन स्याकृत्रि मतानिषेधात् न चेश्वरादिकर्तृकत्वं जगतोऽस्ति, कुलालादिकारकवैयर्थ्यप्रसङ्गात् कुलालादिवच्चेश्वरादेर्बुद्धिमत्कारणस्यानीश्वरताप्रसङ्गात् किश्व-ईश्वरस्थाशरीरतया कारणाभावात् क्रियास्वप्रवृत्तिः स्यात् खशरीरत्वे च तत्शरीरस्थापि कर्त्रन्तरेण भाव्यं, एवं चानवस्थाप्रसङ्ग इति ४, तथा सातं सुखमभ्यसनीयमिति वदवीति सातवादी, तथाहि भवत्वेववादी कश्चित् सुखमेवानुशीलनीयं सुखार्थिना, न त्वसातरूपं तपोनियमब्रह्मचर्यादि, कारणानुरूपत्वात् कार्यस्थ, नहि शुक्लैस्तन्तुभिरारब्धः पटो रक्को भवति अपि तु शुक्ल एव, एवं सुखासेवनात् सुखमेवेति उक्तं च-"मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चापरा । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥ १ ॥" अ | For Fans at Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~854~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः brary org Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०७] (०३) प्रत सूत्रांक [६०७] श्रीस्थाना- क्रियावादिता चास्य संयमतपसोः पारमार्थिकप्रशमसुखरूपयोः दुःखत्वेनाभ्युपगमात् कारणानुरूपकार्याभ्युपगमस्य च स्थाना. सूत्र- विषयसुखादननुरूपस्य निर्वाणसुखस्याभ्युपगमेन बाधितत्वादिति ५, तथा समुच्छेद-प्रतिक्षणं निरन्वयनाशं वदति यः | उद्देशः३ वृत्ति स समुच्छेदवादी, तथाहि-वस्तुनः सत्त्वं कार्यकारित्वं, कार्याकारिणोऽपि वस्तुत्वे खरविषाणस्यापि सत्त्वप्रसङ्गात्, कार्य अक्रिया च नित्यं वस्तु क्रमेण न करोति, नित्यस्यैकस्वभावतया कालान्तरभाविसकलकार्यभावप्रसङ्गात्, न चेदेवं प्रतिक्षणं स्व- | वादिनः ॥४२६॥ भावान्तरोसत्या नित्यत्वहानिरिति, योगपोनापि न करोति अध्यक्षसिद्धत्वाद्योगपद्याकरणस्य, तस्मात् क्षणिकमेव वस्तु सू०६०७ कार्य करोतीति, एवं च अर्थक्रियाकारित्वात् क्षणिक वस्त्विति, अक्रियावादी चायमित्थमवसेयः-निरन्वयनाशाभ्युप-12 गमे हि परलोकाभावः प्रसजति, फलार्थिनां च क्रियास्वप्रवृत्तिरिति, तथा सकलक्रियासु प्रवर्तकस्यासस्येयसमयसम्भ-18 व्यनेकवर्णो लेखवतो विकल्पस्य प्रतिसमयक्षयित्वे एकाभिसन्धिप्रत्ययाभावात् सकलव्यवहारोच्छेदः स्यादत एवैकान्त क्षणिकात् कुलालादेः सकाशादर्थक्रिया न घटत इति, तस्मात् पर्यायतो वस्तुसमुच्छेदव द्रव्यतस्तु न तथेति ६, तथा ४ानियत-नित्यं वस्तु बदति यः स तथा, तथाहि-नित्यो लोका, आविर्भावतिरोभावमात्रत्वादुखादविनाशयोर, तथा अ-| &सतोऽनुवादाच्छशविषाणस्येव सतश्चाविनाशात् घटवत्, नहि सर्वथा घटो विनष्टा, कपालाद्यवस्थाभिस्तस्य परिणत खात्, तासां चापारमार्थिकत्वात् , मृत्सामान्यस्यैव पारमार्थिकत्वात् , तस्य चाविनष्टत्वादिति, अक्रियावादी चायमेका४ान्तनित्यस्य स्थिरैकरूपतया सकलक्रियाविलोपाभ्युपगमादिति ७, तथा 'न सन्ति परलोगे वा' इति नेति-न विद्यते ॥ ४२६ ॥ शान्तिश्च-मोक्षः परलोकश्च-जन्मान्तरमित्येवं यो वदति स तथा, तथाहि-नास्त्यात्मा प्रत्यक्षादिप्रमाणाविषयत्वात् दीप अनुक्रम [७१२] Indiray.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~855~ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०७] (०३) प्रत सूत्रांक [६०७] RORS-461 खरविषाणवत् , तदभावान पुण्यपापलक्षणं कर्म, तदभावान्न परलोको नापि मोक्ष इति, यश्चैतचैतन्यं ततधर्म इति, अस्याक्रियावादिता स्फुटैव, न चैतस्य मतं सङ्गच्छते, प्रत्यक्षाद्यप्रवृत्त्याऽऽत्मादीनां निराकर्तुमशक्यत्वात् , सत्यपि वस्तुनि प्रमाणाप्रवृत्तिदर्शनादागमविशेषसिद्धत्वाच, भूतधर्मतापि न चैतन्यस्य, [अविकृतपित्ताद्याधारभूतभूता इति भावः]8 विवक्षितभूताभावेऽपि जातिस्मरणादिदर्शनादिति, एषां चेह वादिनामष्टानामपि दिग्मात्रमुपदर्शितं, विशेषस्त्वन्यतो ज्ञेय ऊह्यो वेति ॥ एते च वादिनः शास्त्राभिसंस्कृतबुद्धयो भवन्तीत्यष्टस्थानकावतारीणि शास्त्राण्याह अविहे महानिमित्त पं० सं०-भोमे उप्पाते सुविणे अंतलिक्खे अंगे सरे लक्खणे वंजणे (सू०६०८) अविधा वयणविभत्ती पं० --निदेसे पढमा होती, वीतिया उवतेसणे । ततिता करणंमि कत्ता, चउत्थी संपदावणे ॥१॥ पंचमी त अवाताणे, छट्ठी सस्सामिवादणे । सत्तमी सन्निहाणत्थे, अट्ठभी आमंतणी भवे ॥२॥ तस्थ पढमा विभत्ती निहेसे सो इमो अहं वत्ति १ । बितीता उण उवतेसे भण कुण व तिमं व तं वत्ति ॥३॥ ततिता करणंमि कया णीतं च कतं च तेण व मते वा ३ । हंदि णमो साहाते हवति चउत्थी पदाणमि ॥ ४ ॥ अवणे गिण्हसु तत्तो इत्तोत्ति व पंचमी अवादाणे । छट्ठी तरस इमस्स व गतस्स वा सामिसंबंधे ॥५।। हवइ पुण सत्तमी तमिमंमि आहारकालभाचे त । आमंतणी भवे अहमी उ जहहे जुषाणची ॥६॥ (सू०६०९) अट्ठ ठाणाई छउमस्थेणं सबभावेणं ण याणति न पासति, २०-धम्मस्थिगात जाब गंधं वात, एताणि चेव उष्पन्ननाणदसणधरे अरहा जिणे केवली जाणइ पास जाव गंध ARRASSABSERS दीप अनुक्रम [७१२] Mandinraryan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~856~ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६१०] गाथा १-५ दीप अनुक्रम [७२१] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४२७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र -३ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [६१०] + गाथा १-५ स्थान [८], वा (सू० ६१० ) अट्ठविधे आउवेदे पं० तं० कुमारमिथे कायतिगिच्छा सालाती सहहत्ता जंगोली भूववेजा खार रसावणे (सू० ६११ ) 'अट्ठ महानिमित्ते'त्यादि, अतीतानागतवर्त्तमानानामतीन्द्रियभावानामधिगमे निमित्तं - हेतुर्यद्वस्तुजातं तनिमित्तं तदभिधायकशास्त्राण्यपि निमित्तानीत्युच्यन्ते तानि च प्रत्येकं सूत्रवृत्तिवार्त्तिकतः क्रमेण सहस्रलक्ष कोटीप्रमाणानीतिकृत्वा महान्ति च तानि निमित्तानि चेति महानिमित्तानि, तत्र भूमिविकारो भौमं भूकम्पादि तदर्थं शास्त्रमपि भौममेवमन्यान्यपि वाच्यानि १, नवरमुदाहरणमिह - 'शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यश्च राजा राज्यं च पीडयते ॥ १ ॥ इत्यादि, उत्पादः सहजरुधिरवृष्ट्यादिः २, स्वप्नो यथा 'मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने, पुरीषं वाऽतिलोहितम् । प्रतिबुद्ध्येत् तदा कश्चिलभते सोऽर्थनाशनम् ॥ १ ॥ इति ३, अन्तरिक्षं - आकाशं तत्र भवमान्तरिक्षं गन्धर्व्वनगरादि, यथा 'कपिलं सस्यघाताय, माजिष्टं हरणं गवाम् । अव्यक्तवर्ण कुरुते, बलक्षोभं न संशयः ॥ १ ॥ गन्धर्वनगरं स्निग्धं, १ | सप्राकारं सतोरणम् । सौम्यां दिशं समाश्रित्य राज्ञस्तद्विजयंकरम् ॥ २ ॥ इत्यादि ४, अ-शरीरावयवस्तद्विकार आङ्गं शिरःस्फुरणादि, यथा 'दक्षिणपार्श्वे स्पन्दनमभिधास्ये तत्फलं स्त्रिया वामे । पृथिवीलाभः शिरसि स्थानविवृद्धि| ललाटे स्याद् ॥ १ ॥ इत्यादि ५, स्वर:- शब्दः षड्जादिः, स च निमित्तं यथा - 'सज्ज्ञेण लब्भई विसिं, कथं च न वि. णस्सइ । गावो मित्ता य पुत्ता य, नारीणं चेव वल्लभो ॥ १ ॥ इत्यादि, शकुनरुतं वा यथा – “विविचिविसद्दो पुन्नो, सामाए सूलिसूलि धन्नो उ । चेरी चेरी दित्तो चिकुत्ती लाभ हे उत्ति ॥ १ ॥" इत्यादि ६, लक्षणं स्त्रीपुरुषादीनां यथा सू० ६०८ ६११ For False ८ स्थाना० उद्देशः २ निमित्तं विभक्तयः ~ 857 ~ छद्मस्त रज्ञेयाज्ञे यानि आ युर्वेदः ॥ ४२७ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ibrary.org Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६११] (०३) प्रत सूत्रांक [६११] -"अस्थिध्यर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गती यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥१॥" इत्यादि ७, व्यञ्जनं-मषादि, यथा-'ललाटकेशः प्रभुत्वायेंत्यादि ८॥ एतानि च शाखाणि वचनविभक्तियोगेनाभिधेयप्रतिपादकानीति वचनविभक्तिस्वरूपमाह-'अट्टविहा वयणविभत्ती'त्यादि, उच्यते एकत्वद्वित्वबहुत्वलक्षणोऽधों यस्तानि वचनानि विभण्यते कर्तृत्वकर्मत्वादिलक्षणोऽर्थों यया सा विभक्तिः वचनात्मिका विभक्तिर्वचनविभक्तिः, 'सु औ जसि'त्यादि, 'निद्देसे सिलोगो, निर्देशनं निर्देश:-कर्मादिकारकशक्तिभिरनधिकस्य लिङ्गार्थमात्रस्य प्रतिपादन तत्र प्रथमा भवति, यथा स वा अयं वाऽऽस्ते अहं वा आसे १, तथा उपदिश्यत इत्युपदेशन-उपदेशक्रियाया व्याप्यमुपलक्षणत्वादस्य क्रियाया यव्याप्यं तत् कर्मेत्यर्थस्तत्र द्वितीया, यथा भण इमं श्लोकं कुरु वा तं घटं ददाति तं याति ग्राम |२, तथा क्रियते येन तत्करणं-कियां प्रति साधकतमं करोतीति वा करणः-कर्ता 'कृत्यल्युटो बहुल' (पा०३-३-११३) मिति वचनादिति, तत्र करणे तृतीया कृता-विहिता, यथा नीतं सस्यं तेन वाकटेन कृतं कुण्डं मयेति ३, तथा 'संपदावणे'त्ति सत्कृत्य प्रदाप्यते यस्मै उपलक्षणत्वात् सम्प्रदीयते वा यस्मै स सम्प्रदापनं सम्प्रदानं वा, तत्र चतुथीं, यथा भिक्षवे| | भिक्षा दापयति ददाति वेति, सम्प्रदापनस्योपलक्षणत्वादेव नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाडलंवषड्युक्ताच्च चतुर्थी भवति, नमः शाखायै-वैरादिकायै, नमःप्रभृतियोगोऽपि कैश्चित्सम्प्रदानमभ्युपगम्यते इति चतुर्थी ४, 'पञ्चमी'ति श्लोकः, अपादीयते । अपायतो-विश्लेषत आ-मर्यादया दीयते 'दो अवखण्डन' इति वचनात् खण्ड्यते-भिद्यते आदीयते वा-गृह्यते यस्मात्तदपादानमवधिमात्रमित्यर्थस्तत्र पञ्चमी भवति, यथा-अपनय ततो गृहातान्यमितो वा कुशलाहाणेति ५,४ दीप अनुक्रम [७२२] ONGCAR1 Inangionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~858~ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६११] (०३) प्रत सूत्रांक [६११] श्रीस्थाना- छट्ठी सस्सामिवायणेत्ति स्वं च स्वामी च स्वस्वामिनी तयोर्वचनं-प्रतिपादनं तत्र स्वस्वामिवचने-स्वस्वामिसम्बन्धे स्थाना० नसूत्र- इत्यर्थः, षष्ठी भवति, यथा-तस्यास्य या गतस्य वाऽयं भृत्यः, 'वायणे'तीह प्राकृतत्वाद् दीर्घरवं , सनिधीयते क्रिया उद्देश ३ वृत्तिः अस्मिन्निति सन्निधानं-आधारस्तदेवार्थः सन्निधानार्थस्तत्र सप्तमी, विषयोपलक्षणत्वाञ्चास्य काले भावे च क्रियाविशेषणे, निमित्तं तत्र सन्निधाने तद्भक्तमिह पात्रे, तत्सप्तच्छदवनमिह शरदि पुष्यति, पुष्यनक्रिया शरदा विशेषिता, तत् कुटुम्बकमिह विभक्तयः ॥४२८॥ लगवि दुह्यमानायां गतं, इह गमनक्रिया गोदोहनभावेन विशेषितेति ७, अष्टम्यामन्त्रणी भवेदिति, सु औ जसिति, छद्मस्थेत प्रथमाऽपीयं विभक्तिरामन्त्रणलक्षणस्यार्थस्य कर्मकरणादिवत् लिङ्गार्थमात्रातिरिक्तस्य प्रतिपादकत्वेनाष्ठम्युक्ता, यथा हे रज्ञेयाज्ञेयुवनिति श्लोकद्वयार्थः । उदाहरणगाथास्तु व्याख्यातानुसारेण भावनीयाः, 'तत्थ'गाहा 'तइया'गाहा, इह 'हंदी'त्युप्र-12 यानि आ. दर्शने 'पयाणमिति सम्प्रदाने, 'अवणे गाहा 'अवणे'त्ति अपनयेत्यर्थः, इदं चानुयोगद्वारानुसारेण व्याख्यातं, आद- युर्वेदः शेषु तु 'अमणे' इति दृश्यते, तत्र च ख्यामन्त्रणतया गमनीयं, हे अमनस्के इत्यर्थः ॥ अथ वचनविभक्तियुक्तशास्त्रसं- सू०६०८स्कारात् किं छमस्थाः साक्षाददृश्यार्थान् विदन्ति ?, उच्यते, नेत्याह-'अट्ठट्ठाणे त्यादि व्याख्यातं प्राक्, नवरं याव-12 करणात् 'अधम्मत्थिकायं २ आगासत्थिकायं ३ जीवमसरीरपडिबद्धं ४ परमाणुपोग्गलं ५ सद्द६ मिति द्रष्टव्यमिति, एतान्येव जिनो जानातीत्याह च-'एयाणी'त्यादि, सुगमं ।। यथा धर्मास्तिकायादीन् जिनो जानाति तथाऽऽयुर्वेदमपि जानाति, स चायं-'अट्टविहे आउब्वेए' इत्यादि, आयु:-जीवितं तद्विदन्ति रक्षितुमनुभवन्ति चोपक्रमरक्षणे विदन्ति वा-लभन्ते यथाकालं तेन तस्मात्तस्मिन् वेत्यायुर्वेदः-चिकित्साशास्त्रं तदष्टविध, तद्यथा-कुमाराणां-बालकानां | दीप अनुक्रम [७२२] wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~859~ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६११] (०३) प्रत सूत्रांक [६११] INIभृतौ-पोषणे साधु कुमारभृत्यं, तद्धि तत्रं कुमारभरणक्षीरदोषसंशोधनार्थं दुष्टशून्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थ । चेति १ कायस्थ ज्वरादिरोगग्रस्तस्य चिकित्साप्रतिपादकं तत्रं कायचिकित्सा, तत्तन्त्र हि मध्याजसमाश्रितानां ज्चराती-1 ४साररतशोफोन्मादप्रमेहकुष्ठादीनां शमनार्थमिति २ शलाकायाः कर्म शालाक्यं तत्प्रतिपादकं तन्त्रं शालाक्यं, एतद्धि चक्रगतानां रोगाणां श्रवणवदननयनघ्राणादिसंश्रितानामुपशमनार्थमिति ३ शल्यस्य हत्या-हननमुद्धारः शल्यहत्या तत्प्रतिपादक तन्त्रमपि शल्यहत्येत्युच्यते, तद्विधतृणकाष्ठपाषाणपांसुलोहलोष्ठास्थिनखपायाऽजान्तर्गतशल्योद्धरणार्थमिति ४४ 'जङ्गोली ति विषविघाततन्त्रमगदतन्त्रमित्यर्थः, तद्धि सर्पकीटलूनादष्टविषनाशनार्थ विविधविषसंयोगोपशमनार्थ चेति ५भूतादीनां निग्रहार्थं विद्यातन्त्र भूतविद्या, सा हि देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षःपितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्ति कर्माबलिकरणादिग्रहोपशमनार्थेति ६ 'क्षारतन्त्र'मिति क्षरणं क्षारः शुक्रस्य तद्विषयं तत्रं यत्र तत्तथा, इदं हि सुश्रुतादिपु पाजीकरणतन्त्रमुच्यते, अवाजिनो वाजीकरणं रेतोवृद्ध्या अश्वस्येव करणमित्यनयोः शब्दार्थः सम एवेति, तत् | तत्रं हि अल्पक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थमिति ७ रसा-अमृतरसस्तस्यायनं-प्राप्तिः | रसायनं, तद्धि वयःस्थापनमायुर्मेधाकरणं रोगापहरणसमर्थं च तत्प्रतिपादक शाखं रसायनतन्त्रमिति ॥ कृतरसायनश्च देववनिरुपक्रमायुर्भवतीति देवप्रस्तावाद्देवानामष्टकाम्याह सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अडग्गमहिसीओ पं० त०-पउमा सिवा सती अंजू अमला अच्छरा णवमिया रोहिणी १ ईसाणरस देविंदस्स देवरनो अट्ठम्गमहिसीओ पं००-कण्हा कण्हराती रामा रामरक्खिता वसू वसुगुत्ता वसुमित्ता दीप अनुक्रम [७२२] Jinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~860~ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६१२] (०३) श्रीस्थानागसूत्र वृत्तिः ॥४२९॥ प्रत सूत्रांक [६१२] वसुंधरा २ सकास्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारत्नो अट्ठग्गमहिसीओ पं०३ ईसाणस्स पं देविदस्स देवरन्नो वेसमणरस महारस्रो अवगमहिसीओ पं० ४ अट्ठ महम्गहा पं० सं०---चंदे सूरे सुके युहे बहस्सती अंगारे सणिचरे केऊ ५ (सू० ६१२) अट्ठविधा तणवणस्सतिकातिया पं० सं०-मूले कंदे संधे तया साले पवाले पत्ते पुप्फे (सू० ६१३) चरिदिया णं जीवा असमारभमाणस्स अटुविधे संजमे कजति, तं०-चक्खुमातो सोक्खातो अवयरोवित्ता भवति, चक्नुमतेणं दुपयेणं असंजोएत्ता भवति, एवं जाय फासामातो सोक्खातो अवयरोवेत्ता भवति फासामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति । चरिंदिया णं जीवा समारभमाणस्स अट्टविधे असंजमे कजति, २०-चक्खुमातो सोक्खाओ बवरोधेसा भवति, चक्खुमतेणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति, एवं जाव फासामातो सोक्यातो (सू० ६१४) अट्ठ सुद्धमा पं०२०-पाणमुहुमे १ पणगसुहुमे २ वीयसुहुमे ३ हरितसुहुमे ४ पुष्फसुहुमे ५ अंडसुहुमे लेणसुरमे ७ सिणेहसुहुमे ८ (सू० ६१५) भरहस्स णं रन्नो चाउरंतचकवहिस्स अट्ठ पुरिसजुगाई अणुवर्ण सिद्धाइं जाव सम्वदुक्खप्पहीणाई, तं०-आदिधजसे महाजसे अतिवले महावले तेववीरिते कित्सवीरिते इंडवीरिते जलवीरिते (सू०६१६)पा. सस्स गं अरहओ पुरिसादाणितस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा होत्या, तं०-मुझे अजपोसे वसिढे बंभचारी सोमे सिरिधरिते वीरिते भइजसे (सू०६१७) तत्र 'सकस्से'त्यादि सूत्रपञ्चकं सुगम, नवरं महाग्रहा-महानिर्थसाधकत्वादिति । महाग्रहाश्च मनुष्यतिरश्चामुपघातानुग्रहकारिणो बादरवनस्पत्युपघातादिकारित्वेनेति बादरवनस्पतीनाह-'अट्ठविहे'त्यादि, सुगम, नवरं 'तणवण- 1८स्थाना० | उद्देशः ३ अग्रमहिव्याद्या मू| लाद्या चतुरक्षसंयमेतरौ सूश्माणि सू|र्ययशाद्या पार्श्व गणिनः सू०६१२ ६१७ ॥४२९॥ दीप अनुक्रम [७२३] -%264562 NERAT rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~861~ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६१७] (०३) प्रत सूत्रांक [६१७] स्सइ'त्ति बादरवनस्पतिः, कन्दः-स्कन्धस्याधः स्कन्धः स्धुडमिति प्रतीतं त्वक्-छाली शाला-शाखा प्रवालं-अङ्करः पत्रपुष्पे प्रतीते । एतदाश्रयाश्चतुरिन्द्रियादयो जीवा भवन्तीति चतुरिन्द्रियानाश्रित्य संयमासंयमसूत्रे, ते च प्रागिवेति । सूक्ष्माण्यप्याश्रित्य संयमासंयमौ स्त इति तान्याह-'अह सुहुमत्यादि, सूक्ष्माणि श्लक्ष्णत्वादल्पाधारतया च, तत्र प्राणसूक्ष्म-18 अनुद्धरिः कुन्धुः स हि चलन्नेव विभाव्यते न स्थितः सूक्ष्मत्वादिति १ पनकसूक्ष्म पनकः-उल्ली, स च प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनो भवति, स एव सूक्ष्ममिति एवं सर्वत्र २ तथा बीजसूक्ष्म-शाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिकाः लोके या तुषमुखमित्युच्यते ३ हरितसूक्ष्म-अत्यन्ताभिनवोदिन्नपृथिवीसमानवर्ण हरितमेवेति ४ पुष्पसूक्ष्म-वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि तद्वणोनि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते ५ अण्डसूक्ष्म-मक्षिकाकीटिकागृहकोकिलाब्राह्मणीकृकलास्याद्यण्डकमिति ६ लयनसूक्ष्मं लयन-आश्रयः सत्त्वानां, तच्च कीटिकानगरकादि, तत्र कीटिकाश्चान्ये च सूक्ष्माः सत्वा भवतीति ७ स्नेहसूक्ष्ममवश्यायहिममहिकाकरकहरतनुरूपमिति ८ । अनन्तरोक्तसूक्ष्मविषयसंयममासेव्य ये अष्टकतया सिद्धास्तानाह-'भरहस्से'त्यादि कण्ठ्यं, किन्तु 'पुरिसजुगाईति पुरुषा युगानीव-कालविशेषा इव क्रमवृत्तित्वात् पुरुषयुगानि 'अनुबई' सन्ततं यावत्करणात् 'बुद्धाई मुकाई परिनिचुडाईति, एतेषां चादित्ययश:४|प्रभृतीनामिहोतक्रमस्यान्यथात्वमप्युपलभ्यते, तथाहि-"राया आइच्चजसे महाजसे अइवले अबलभदे । बलविरि यकत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य ॥१॥” इति [आदित्ययशा राजा महायशा अतिबलः बलभद्रः बलवीर्यः कार्तवीर्यः जलवीर्यः दंडवीर्यः॥१॥] इह चान्यथात्वमेकस्यापि नामान्तरभावादू गाथानुलोम्याच्च सम्भाव्यत दीप अनुक्रम [७२८] Handiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~862~ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६१७] दीप अनुक्रम [७२८] ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४३० ॥ ८ स्थाना० उद्देशः ३ दर्शनानि ४ * उपमाद्वा श्रीस्थाना- इति । संयमवदधिकारात् संयमवतामेवाष्टकान्तरमाह - 'पासे' त्यादि व्यक्तं, किंतु 'पुरिसादाणीयस्स' त्ति पुरुषाणां मध्ये आदीयत इत्यादानीय उपादेय इत्यर्थः, गणा-एकक्रियावाचनानां साधूनां समुदायाः गणधराः - तन्नायका आचार्याः भगवतः सातिशयानन्तरशिष्याः, आवश्यके तूभयेऽपि दश श्रूयन्ते, "दस नवगं गणाण माणं जिणिंदाणं" ४ देश नैव जिनेन्द्राणां गणानां मानं ॥ ] इति वचनात् 'जावइया जस्स गणा तावड्या गणहरा तस्से'ति [ यस्य यावन्तो गणास्तावन्त एव गणधरास्तस्य ॥ १ ॥ ] वचनाच, तदिहाल्पायुष्कत्वादिकं कारणमपेक्ष्य द्वयोरविवक्षणमिति सम्भाव्यते, न चाष्टस्थानकानुरोध इह समाधानं वक्तुं शक्यते, पर्युपणाकल्पेऽप्यष्टानामेवाभिधानादिति । गणध- ४ कृद्भूमिः राश्च दर्शनवन्त इति दर्शनं निरूपयन्नाह नेम्यन्त “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६१७] स्थान [८], उद्देशक [-], Jus Education अद्वविधे दंसणे पं० [सं० सम्महंसणे मिच्छदंसणे सम्मामिच्छदंसणे चक्खुदंसणे जाव केवलदंसणे सुविणदंसणे (सू० ६१८) अट्ठविधे अद्धोवमिते पं० तं पलितोबमे सागरोवमे उस्सप्पिणी ओसप्पिणी पोग्गलपरियट्टे तीतद्धा अणागतद्धा सव्वद्धा (सू० ६१९ ) अरहतो णं अरिट्टनेमिस्स जाव अट्टमातो पुरिसजुगातो जुगंतकरभूमी दुवासपरियाते अंतमकासी (सू० ६२० ) । समणेणं भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे भवेत्ता अगारातो अणगारितं पञ्चाविता, तं० - वीरंगय वीरजसे संजयएणिज्जते य रावरिसी । सेयसिवे उदायणे [ तह संखे कासिद्धणे ] ( सू० ६२१) 'अवि दंसणे' इत्यादि कण्ठ्यं केवलं स्वप्रदर्शनस्याचक्षुर्दर्शनान्तर्भावेऽपि सुप्तावस्थोपाधितो भेदो विवक्षित इति । सम्यग्दर्शनादेव स्थितिप्रमाणमौपम्याद्धया भवतीति तां प्ररूपयन्नाह - 'अट्ठविहे अद्धोमिए' इत्यादि सुगमं, For Fans Only वीरराजर्षयः ५ सू० ६१८६२१ ~863~ ॥ ४३० ॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६२१] दीप अनुक्रम [७३२] Educator “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [६२१] स्थान [८], नवरं औपम्यमुपमा पल्यसागररूपा तत्प्रधाना अद्धा कालोऽद्धौपम्यं राजदन्तादिदर्शनात् पत्येनोपमा यत्र काले परिमाणतः स पस्योपर्म, रूढितो नपुंसकलिङ्गता, एवं सागरोपमं, अवसर्पिण्यादीनां तु सागरोपमनिष्पन्नत्वादुपमाकालत्वं भावनीय, समयादिस्तु शीर्षप्रहेलिकान्तः कालोऽनुपमाकाल इति । कालाधिकारादिदमपरमाह- 'अरहओ इत्यादि, जाव अट्टमाउ'त्ति अष्टमं पुरुषयुगं - अष्टपुरुषकालं यावत् युगान्तकरभूमिः पुरुषलक्षणयुगापेक्षयाऽन्तकराणांभवक्षयकारिणां भूमिः कालः सा आसीदिति इदमुक्तं भवति - नेमिनाथस्य शिष्यप्रशिष्यक्रमेणाष्टौ पुरुषान् यावन्निर्वाणं गतवन्तो न परत इति, तथा पर्यायापेक्षयाऽप्यन्तकरभूमिः प्रसङ्गादुच्यते - 'दुवास त्ति द्विवर्षमात्रे केवलिपर्याये नेमिनाथस्य जाते सति साधवो भवान्तमकार्षुरिति । तीर्थकरवतव्यताधिकारादिदमाह - 'समणेण 'मित्यादि सुगमं, नवरं 'भवित्त'ति अन्तर्भूतकारितार्थत्वात् मुण्डान् भावयिखेति दृश्यं, 'वीरंगए' इत्यादि 'तह संखे कासितबद्धणए' | इत्येवं चतुर्थपादे सति गाथा भवति, न चैवं दृश्यते पुस्तकेष्विति एते च यथा प्रब्राजितास्तथोच्यते, तत्र वीराङ्गको वीरयशाः संजय इत्येते प्रतीताः, एणेयको गोत्रतः, स च केतकार्द्धजनपदश्वेतंचीनगरीराजस्य प्रदेशिनाम्नः श्रमणोपासकस्य निजकः कश्चिद्राजर्षिः, तथा सेये आमलकल्पानगर्याः स्वामी, यस्यां हि सूर्यकाभो देवः सौधर्मात् देवलोकाद् भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवततार नाव्यविधिं चोपदर्शयामास, यत्र च प्रदेशिराजचरितं भगवता प्रत्यपादीति, तथा शिवः हस्तिनागपुरराजो, यो ह्येकदा चिन्तयामास - अहमनुदिनं हिरण्यादिना वृद्धिमुपगच्छामि यतस्ततो ऽस्ति पुराकृतकर्मणां फलमतोऽधुनापि तदर्थमुद्यच्छामीति ततो व्यवस्थाप्य राज्ये पुत्रं कृत्वोचितमखिलकर्त्तव्यं दि Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~864~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२१] (०३) प्रत सूत्रांक [६२१] श्रीस्थाना- प्रोक्षिततापसतया प्रवत्राज, ततः षष्ठंषष्ठेन तपस्यतस्तथोचितमातापयतः परिशटितपत्रादिना पारयतो विभङ्गज्ञान- स्थाना लसूत्र- मुपदे, तेन च विलोकयानकार सप्त द्वीपान सप्त समुद्रानिाते, उत्पन्नं च मे दिव्यज्ञानमित्यवष्टम्भादागत्य नगरे बहुज-18 उद्देशः ३ वृत्तिः नस्य यथोपलब्धं तत्त्वमुपदिदेश, तदा च तत्र भगवान् विजहार गौतमश्च भिक्षा भ्राम्यन् जनाच्छिवप्ररूपणां शुश्राव, दादर्शनानि उपमादा॥४३१॥ गत्वा च भगवन्तं प्रपच्छ, भगवांस्त्वसवयेयान् द्वीपसमुद्रान् प्रज्ञापयामास, भगवतूचनं च जनात् श्रुत्वा शिवः श-IN हाविन्तः, ततस्तस्य विभङ्गः प्रतिपपात, ततोऽसौ भगवति जातभक्तिभंगवत्समीपं जगाम, स भगवता प्रकटिताकृतो जा ६ नेम्यन्ततसर्वज्ञप्रत्ययः प्रवत्राज, एकादश चाङ्गानि पपाठ सिद्धश्चेति, तथा उदायमः सिन्धुसीवीरादीनां षोडशानां जनपदानां कृमिः वीतभयप्रमुखानां त्रयाणां त्रिषष्यधिकानां नगरशतानां दशानां च मुकुटबद्धानां राज्ञां स्वामी श्रमणोपासका, येन चण्डप्रद्योतमहाराज उज्जयनी गत्वा उभयबलसमक्षं रणाङ्गणे रणकर्मकुशलेन करिवरगिरेनिंपात्य बद्धो मयूरपिच्छेन पूललाटपट्टे अङ्कितच, तथाऽभिजिन्नामानं स्नेहानुगतानुकम्पया राज्यगृद्धोऽयं मा दुर्गतिं यासीदिति भावयता स्वपुत्रं || दसू०६१८राज्ये अव्यवस्थाप्य केशिनामानं च भागिनेयं राजानं विधाय महावीरसमीपे प्रवत्राज, यकदा तत्रैव नगरे विजहार, उत्पन्नरोगश्च वैद्योपदेशाद्दधि बुभुजे राज्यापहाराशङ्किना च केशिराजेन विषमिश्रदधिदापनेन पञ्चत्वं गमितः यद्गुणपक्षपातिन्या च कुपितदेवतया पाषाणवर्षेण कुम्भकारशच्यातरवर्ज सर्च तन्नगरं न्यपातीति, तथा शङ्खः काशीवर्द्धनो| वाणारसीनगरीसम्बन्धिजनपदवृद्धिकर इत्यर्थः, अयं च न प्रतीतः, केवलमलकाभिधानो राजा वाराणस्यां भगवता प्र- G ||४३१॥ दीप ६२१ अनुक्रम [७३२] antaintindiane ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~865~ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६२१] दीप अनुक्रम [ ७३२] %% % *% "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्तिः) स्थान [८], उद्देशक [-1 मूलं [ ६२१] त्राजितोऽन्तकृदशासु श्रूयते स यदि परं नामान्तरेणायं भवतीति ॥ एते चाहारादौ मनोज्ञामनोज्ञे समवृत्तय इति प्रस्तावादाहारस्वरूपमाह अट्ठविहे आहारे पं० [सं० मणुण्णे असणे पाणे साइमे साइमे अमणुण्णे जाव साइमे ( सु० ६२२) उपि सर्णकुमा रमाहिंदाणं कप्पाणं देहिं बंभलोगे कप्पे रिट्ठविमाणे पत्थडे एत्य णमक्खाडगसम चडरंस संठाणसंठितातो अट्ठ कण्हातीतो पं० [सं० पुरच्छिमेणं दो कण्हरातीतो दाहिणेणं दो कण्डराइओ पचच्छिमेणं दो कव्हराइओ उत्तरेणं दो कण्हाइओ, पुरच्छिमा अध्यंतरा कण्हराती दाहिणं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, दाहिणा अब्भंवरा कव्हराती पञ्चच्छिमगं बाहिरं कन्दराई पुट्ठा, पथच्छिमा अब्भंवरा कण्हराती उत्तरं बाहिरं कण्हराई पुडा, उत्तरा अब्भंतरा कण्हराती पुरच्छिमं बाहिरं कण्हातीं पुट्ठा, पुरच्छिमपचच्छिमिलाओ वाहिराओ दो कन्हरातीतो छलंसातो, उत्तरदाहिणाओ वा हिराओ दो कण्हरातीतो संसाओ, सव्वाजोऽवि णं अभंतर कण्हरातीतो चउरंसाओ १ एतासि णं अट्ठण्हं कण्हरातीणं अट्ट नामधेजा पं० [सं० कण्डरातीति वा मेहरातीति वा मघाति वा माघवतीति वा वातफलिहेति वा वासपलिक्खोभेति वा देवपलिदे वा देवपलिक्खोमेति वा २ एतासि णं अटुण्डं कव्हरातीणं असु उवासंतरेसु अट्ट लोगंतितविमाणा पं० [सं० अशी अश्विमाली वतिरोभणे पभंकरे चंदामे सूराभे सुपइट्टाभे अग्गियामे ३ एतेसु णं अट्ठसु लोगतितविमासु अद्वविधा लोगंतिता देवा पं० सं०-सारसतमाइवा बण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिता अन्वावाहा अभिगचा चैव बोद्धवा || १ || ४ एतेसि णमट्टं लोगंतितदेवाणं अजहण्णमणुकोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५ ( सू० ६२३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... - www...... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] For Fast Use Only - ~866~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः bayo Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक - मूलं [६२४] + गाथा-१ (०३) प्रत सूत्रांक [६२४] गाथा ||१|| श्रीस्थाना अट्ठ धम्मस्थिगातमज्मपतेसा पं० अह अधम्मत्थिगात. एवं चेव अट्ट आगासस्थिगा० एवं चेव अह जीवमझपएसा कारस्थाना इसूत्रपं० (सू०६२४) उद्देशः ३ वृत्ति: 'अविहे त्यादि सुगर्म । आहारद्रव्याणि रसपरिणामविशेषवन्त्यमनोज्ञान्यनन्तरमुक्तान्यथ क्षेत्रविशेषान् पुद्गलगत- आहारः वर्णपरिणामविशेषवत्त्वेनामनोज्ञान् कृष्णराज्यभिधानान् प्रतिपादयन् सूत्रपञ्चकमाह-उम्पि'इत्यादि सुगम, नवरं कृष्णरा-. ॥४३॥ 'उप्पिति उपरि 'हेडिंति अधस्तात् ब्रह्मलोकस्य रिष्ठाख्यो यो विमानप्रस्तटस्तस्येति भावः, आखाटकवत्सम-तुल्यं ज्याद्याःमसर्वासु दिक्षु चतुरस्र-चतुष्कोणं यत्संस्थानं-आकारस्तेन संस्थिताः आखाटकसमचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः कृष्णराजयः ध्यप्रदेशाः -कालकपुद्गलपतयस्तयुक्तक्षेत्रविशेषा अपि तथोच्यन्त इति, यथा च ता व्यवस्थितास्तथा दयते-'पुरच्छिमे गति मासू०६२२ पुरस्तात् पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः, द्वे कृष्णराजी, एवमन्यास्वपि द्वे द्वे, तत्र प्राक्तनी यकाऽभ्यन्तरा कृष्णराजी सा दाक्षि- ६२४ णात्यां वाह्यां तां 'स्पृष्टा' सृष्टवत्ती, एवं सर्या अपि वाच्यार, तथा पौरस्त्यपाश्चात्ये द्वे बाह्ये कृष्णराजी पडने-पटो-1 टिके औत्तरदाक्षिणात्ये द्वे बाह्ये कृष्णराज्यौ व्यने सर्वाश्चतस्रोऽपीत्यर्थोऽभ्यन्तराश्चतुरस्राः, नामान्येव नामधेयानि, कृष्णराजी कृष्णपुद्गलपतिरूपत्वाद् इतिरुपप्रदर्शने वा विकल्पे मेघराजीव या सा मेघराजीति चाभिधीयते कृष्णत्वात् तथा मघा-पष्ठपृथिवी तद्वदतिकृष्णतया सा मघेति वा माघवती-सप्तमपृथिवी तद्वद्या सा माघवतीति वातपरिघादीनि तु तमस्कायसूत्रवड्याख्येयानीति । एतासामष्टानां कृष्णराजीनामष्टस्ववकाशान्तरेषु-राजीद्वयमध्यलक्षणेष्वष्टौ | ॥४३२॥ डोलोकान्तिकविमानानि भवन्ति, एतानि चैवं प्रज्ञत्यामुच्यन्ते-अभ्यन्तरपूर्वाया अने अधिर्विमानं तत्र सारस्वता देवासाला 以中六中六中式中。 दीप अनुक्रम [७३६] www.janabrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~867~ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२४] (०३) प्रत अर्चिः सूत्रांक [६२४] गाथा ||१|| IMIपूर्वयोः कृष्णराज्योर्मध्ये अधिौलीविमाने आदित्या देवाः, अभ्यन्तरदक्षिणाया अग्रे वैरोचने विमाने वहयः, दक्षिणयोकामध्ये शुभारे विमाने वरुणा, अभ्यन्तरपश्चिमाया अग्रे चन्द्राभे गई तोयाः, अपरयोर्मध्ये सूराभे तुपिताः, अभ्यन्तरोत्तराया। अग्रे अङ्काभेऽव्यावाधार, उत्तरयोर्मध्ये सुप्रतिष्ठाभे आग्नेयाः, बहुमध्यभागे रिष्ठाभे विमाने रिष्ठा देवा इति, स्थापना चेयं| पूर्वी 'अजहन्नुकोसेणं'ति जघन्यत्वोत्कर्षाभावेनेत्यर्थः, ब्रह्मलोके हि जघन्यतः सप्त सागरोपमाण्युत्कृष्टतस्तु दशेति लोकान्तिकानां त्वष्टाविति । कृष्णराजयो यूआर्घिमौलि लोकस्य मध्यभागवृत्तय इति धम्मोदीनामपि मध्यभागवृत्तिकस्याष्टकचतुष्टयस्या || विष्करणाय सूत्रचतुष्टयं-'अदु धम्मे' त्यादि, स्फुटं, नवरं धर्माधर्माकाशानां मध्यप्रदेशास्ते ये रुचकरूपा इति, जीवस्यापि केवलिसमुद्घाते रुचकस्था एव ते अन्यदा त्वष्टावविचला ये ते मध्यप्रदेशाः, शेषास्त्वावर्त्तमानजलमिवानवरतमुद्वर्तनपरिवर्तनपरास्तत्स्वभावाये ते अमध्यप्रदेशा इति । जीवमध्यप्रदेशादिप-1| दार्थप्रतिपादकास्तीर्थकरा भवन्तीति प्रकृताध्ययनावतारिणी तीर्थङ्करवक्तव्यतां सूत्रद्वयेनाहअरहता णं महापउमे अट्ठ रायाणो मुंडा भवित्ता अगारातो अणगारित पठवावेस्सति, तं०-पउभं पठमगुम्म नलिणं नलिन मुपविष्टाम' श्वैरोचन म JAMEETD WEBABEE ५चन्द्राम दक्षिणा ४प्रमड़कर धराम दीप अनुक्रम [७३६] Dinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~868~ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२५] (०३) प्रत सूत्रांक [६२५] श्रीस्थानागुम्मै परमवतं धणुद्धतं कणगरहं भरहं १ (सू० ६२५) कण्हस्स गं वासुदेवरस अट्ठ अम्गमहिसीओ भरहतो णं अरिट ८ स्थाना० सूत्र नेमिस्स अंतिते मुंडा भवेत्ता अगारातो अणगारितं पव्वतिता सिद्धाओ जाव सम्बदुक्सप्पहीणाओ, ०-पउमावती उद्देशः३ वृत्तिः गोरी गंधारी लक्खणा मुसीमा जंबवती सभामा रुप्पिणी कण्हअग्गमहिसीओ २ (सू० ६२६) वीरितपुष्वस्स णं अट्ठ महापद्मचत्थू अट्ठ चूलिआवत्थू पं० (सू०६२७) . राजर्षयः ॥४३३॥ - 'अरहा 'मित्यादि सुगम, नवरं 'महापउमें त्ति महापद्मो भविष्यदुत्सर्पिण्यां प्रथमतीर्थकरः श्रेणिकराजजीव इति सिद्धकृ इहैव नवस्थानके वक्ष्यमाणव्यतिकर इति, 'मुंडा भवित्त'त्ति मुण्डान भावयित्वेति । कृष्णाग्रमहिषीवक्तव्यता त्वन्त-1 ष्णाग्रमकृशाङ्गादवसेवा, सा चेयं-किल द्वारकावत्यां कृष्णो वासुदेवो बभूव, पद्मावत्यादिकास्तस्य भार्या अभूवन , अरिष्ठ-14 हिष्यःवीनेमिस्तत्र विहरति स्म, कृष्णः सपरिवारः पद्मावतीप्रमुखाश्च देव्यो भगवन्तं पर्युपासासिरे, भगवांस्तु तेषां धर्ममाचख्यौ, येप्रवादव ततः कृष्णो वन्दित्वाऽभ्यधात्-अस्या भदन्त! द्वारकावत्या द्वादशनवयोजनायामविस्ताराया धनपतिनिम्मितायाः प्र- स्त्वाद्याः दत्यक्षदेवलोकभूतायाः किंमूलको विनाशो भविष्यति?, भगवान् त्रिभुवनगुरुर्जगाद-सुराग्निदीपायनमुनिमूलको विनाशो ०६२५ भविष्यतीति निशम्य मधुमथनो मनस्येवं विभावितवान्-धन्यास्ते प्रद्युम्नादयो ये निष्क्रान्ताः अहमधन्यो भोगमूच्छितो ६२७ ४ान शक्नोमि प्रबजितुमिति, ततस्तमहन्नवादीद्-भोः! कृष्ण न भवत्ययमर्थों यद्वासुदेवाः प्रव्रजन्ति, कृतनिदानत्वात्तेषां,151 अथाहं भदन्त ! कोत्सत्स्ये?, भुवनविभुराह-दग्धायां पुरि पाण्डुमथुरां प्रति चलितः कौशाम्बकानने न्यग्रोधस्याधः 18॥४३३॥ सुप्तो जराकुमाराभिधानभात्रा काण्डेन पादे विद्धः कालं कृत्वा वालुकप्रभायामुत्पत्स्यसे, एवं निशम्य यदुनन्दनो दीन दीप अनुक्रम [७३७] ASSAXX JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~869~ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६२७] दीप अनुक्रम [७३९] स्था० ७३ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-1, मूलं [६२७] मनोवृत्तिरभवत्, ततो जगद्गुरुरगादीत् मा दैन्यं त्रज यतस्ततस्त्वमुदृत्याऽऽगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भारते वर्षेऽममाभिधानो द्वादशोऽर्हन् भविष्यसीति श्रुत्वा जहर्ष सिंहनादादि च चकार ततो जनार्द्दनो नगरीं गत्वा घोषणां कारयाशकार यदुतार्हता नेमिनाथेनास्या नगर्या विनाशः समादिष्टस्ततो यः कोऽपि तत्समीपे प्रव्रजति तस्याहं निष्क्रमणमहिमानं वितनोमीति निशम्य पद्मावतीप्रभृतिका देव्योऽवादिषुः-वयं युष्माभिरनुज्ञाताः प्रत्रजामः, ततस्ता महान्तं निष्क्रमणमहिमानं कृत्वा नेमिजिननायकस्य शिष्यिकात्वेन दत्तवान्, भगवांस्तु ताः प्रत्राजितवान्, ताश्च विंशतिवर्षाणि प्रत्रज्या पर्याय परिपाल्य मासिक्या संलेखनया चरमोच्छ्रासनिःश्वासाभ्यां सिद्धा इति । एताश्च सिद्धा वीर्यादिति वीर्याभिधायिनः पूर्वस्य स्वरूपमाह - ' वीरियपुच्चे'त्यादि, वीर्यप्रवादाख्यस्य तृतीयपूर्वस्य वस्तूनि - मूलवस्तूनि अध्ययनविशेषा आचारे ब्रह्मचर्याध्ययनवत् चूलावस्तूनि त्वाचारा प्रवदिति ॥ वस्तुवीर्यादेव गतयोऽपि भवन्तीति ता दर्शयन्नाह - अट्ट गतितो पं० [सं० णिरतगती तिरियगई जान सिद्धिगती गुरुगती पणो णगती पभारगती (सू० ६२८) गंगासिंधुरतारतवतिदेवीणं दीवा अट्ठ २ जोयणाई आयामविक्रमेणं पं० ( सू० ६२९) उका मुहमेहमुहविज्जुमुह विज्जुदंतदीवाणं दीवा अट्ठ २ जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पं० (सू० ६३०) कालोते णं समुद्दे अट्ट जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्संभेणं पन्नत्ते (सू० ६३१) अभ्यंतरपुक्खर द्वे णं अट्ठ जोयणसय सहस्साई चक्कवालबिक्संभेणं पं०, एवं बाहि रक्खरद्धेवि (सू० ६३२) एगमेगस्स णं रनो चाउरंतचकवट्टिस्स अट्ठसोवन्निते काकिणिरयणे छन्सले दुबालसंसिते अटुकणिते अधिकरणिसंठिते पं० (सू० ६३३) मागधस्स णं जोयणस्स अट्ठ धणुसहस्साई निघते पं० ( सू० ६३४ ) For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~870~ www.jancibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३४] दीप अनुक्रम [७४६] 食 वृत्तिः ॥ ४३४ ॥ "स्थान" स्थान [८], - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ६३४ ] स्थाना० उद्देशः ३ गतिगंगादिलीपा 'अह गईओ' इत्यादि, सुगमं, नवरं 'गुरुगइ'ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य गौरवेण - ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्गमनस्वभावेन या परमाण्वादीनां स्वभावतो गतिः सा गुरुगतिरिति, या तु परप्रेरणात् सा प्रणोदनगतिर्वाणादीनामिव, या तु द्रव्यान्त| राक्रान्तस्य सा प्राग्भारगतिर्यथा नावादेरधोगतिरिति । अनन्तरं गतिरुतेति गतिमतीनां गङ्गादिनदीनामधिष्ठातृदेवीद्वीपस्वरूपमाह - 'गंगे' त्यादि कण्ठ्यं, नवरं गङ्गाया भरतैरवतनद्यस्तदधिष्ठातृदेवीनां निवासद्वीपा गङ्गादिप्रपातकुण्डमध्यवर्त्तिनः । द्वीपाधिकारादन्तरद्वीपसूत्रं तत एव द्वीपवतः कालोदसमुद्रस्य प्रमाणसूत्रं तदनन्तरभाविनः पुष्करा- ७न्तरद्वीपभ्यन्तरार्द्धस्य बाह्यार्द्धस्य च सूत्रे, सुगमानि चैतानि नवरमुल्कामुखमेघमुख विद्युन्मुखविद्युद्दन्तशब्देषु प्रत्येकं द्वीपशब्दः सम्बध्यते, ततश्चल्कामुखद्वीपादयो णमित्यलङ्कारे द्वीपा हिमवतः शिखरिणश्च वर्षधरपर्वतस्य पूर्वयोर्दष्टयोरपरयोश्च सप्तानां सप्तानामन्तरद्वीपानां मध्ये षष्ठोऽन्तरद्वीपः अष्टावष्टौ योजनशतानि आयामविष्कम्भेन प्रज्ञप्तः । पुष्करार्द्धे च चक्रिणो भवन्तीति तत्सत्करलविशेषस्याष्टस्थानकेऽवतारं कुर्वनाह - 'एगमेगे' इत्यादि, एकैकस्य राज्ञअतुरन्तचक्रवर्त्तिन इत्यत्रान्यान्यकालोत्पन्नानामपि तुल्यकाकणीरत्नप्रतिपादनार्थमेकैकग्रहणं निरुपचरितराजशब्दविषयज्ञापनार्थ राजग्रहणं षट्खण्डभरतादिभोक्तृत्वप्रतिपादनार्थे चतुरन्तचक्रवर्त्तिग्रहणमिति, अष्टसौवर्णिकं काकणिरलं, सुवर्णमानं तु चत्वारि मधुरतॄणफलान्येकः श्वेतसर्षपः षोडश श्वेतसर्षपा एक धान्यमापकफलं द्वे धान्यमापफले एका गुञ्जा पश्च गुञ्जाः एकः कर्ममापकः षोडश कर्म्ममापकाः एकः सुवर्णः, एतानि च मधुरतृणफलादीनि भरतकालभावीनि गृह्यन्ते, यतः सर्वचक्रवर्त्तिनां तुल्यमेव काकणिरत्नमिति, पतलं द्वादशास्त्रि अष्टकर्णिकं अधिकरणीसं For Free On कालोद पुष्करार्धकाकणीयोजनानि सू० ६२८६३४ ~871~ ॥ ४३४ ॥ incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३४] (०३) प्रत सूत्रांक [६३४] स्थितं प्रज्ञप्तमिति, तन्न तलानि-मध्यखण्डानि अश्रयः-कोव्यः कर्णिकाः-कोणविभागाः अधिकरणिक-सुवर्णकारोपकरणं प्रतीतमेवेति, इदश्च चतुरङ्गलप्रमाणं 'चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागणी नेय'त्ति वचनादिति । अङ्गलप्रमाणनिष्पन्नं योज४ नमानमाह-मागहें'त्यादि, मगधेषु भवं मागधं-मगधदेशव्यवहुसं तस्य योजनस्य-अध्वमानविशेषस्याष्ट धनुःसह खाणि निहारो निर्गमः प्रमाणमितियावत् 'निहत्ते'त्ति क्वचित्पाठः तत्र निधत्तं-निकाचितं निश्चितं प्रमाणमिति गमम्यते, इदं च प्रमाणं परमाण्वादिना क्रमेणावसेयं, तथाहि-“परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च वालस्स । लिक्खा जया |य जवो अट्ठगुणविवद्धिया कमसो ॥१॥"[परमाणुखसरेणू रथरेणुर्यालख्यानं च लिक्षा यूका च यवोऽष्टगुणविवर्द्धिताः क्रमशः ॥१॥] तत्र परमाणुरनन्तानां निश्चयपरमाणूनां समुदयरूपः, ऊर्ध्वरेवादि(उरलक्ष्मणश्लक्ष्णिका)भेदा अनुयोगद्वाराभिहिता अनेनैव सङ्गहीता दृश्या, तथा पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति-गच्छतीति बसरेणुः, रथगमनोत्खातो रथरेणुरिति, एवं चाष्टौ यवमध्यान्यंगुलं, चतुर्विंशतिरंगुलानि हस्तः, चत्वारो हस्ता धनुः, द्वे सहने धनुषां गव्यूतं, चत्वारि गव्यूतानि योजनमिति, मागधग्रहणात् क्वचिदन्यदपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितं, तत्र यस्मिन् देशे पोडशभिर्धनुःशतैर्गच्यूतं स्यात्तत्र पनिः सहस्रश्चतुर्भिः शतधनुषां योजनं भवतीति ॥ योजनप्रमाणमभिधायाष्टयोजनतो जम्ब्वादीनां प्रमाणप्रतिपादनाय सूत्रचतुष्टयमाह जंघू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं बहुमज्झदेसभाए अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं सातिरेगाई अट्ठ जोयणाई सब्वगगेणं पं०१, कूडसामली णं मह जोषणाई एवं चेव २ (सू०६३५) तिमिसगुहा णमट्ठ जोयणाई उद्धं पचत्तेणं ३ खंडप्पवा दीप अनुक्रम [७४६] andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~872~ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम love -७८१] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४३५ ।। Educational "स्थान" - अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक (-1. स्थान [८], गुहा णं अट्ठ जोषणाई उद्धं उच्चतेणं एवं चेव ४ (सू० ६३६) जंबूमंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं सीवाते महानतीते भतोफूले भट्ट वक्खारपब्वया पं० तं० चित्तकूडे पन्हकूडे नलिणकूडे एगसेले तिकूडे बेसमणकूडे अंजणे मायंजणे १ । जंबूमंदरपचछिमेणं सीतोताते महानतीते उभतोफूले अट्ठ वक्खारपव्यता पं० तं० अंकावती पन्हावती आसीविसे सुहावहे चंदपन्वते सूरपन्वते नागपब्बते देवपव्वते २ । जंबूमंदरपुरच्छि मेणं सीताते महानतीते उत्तरेणं अट्ठ चक्षवट्टिविजया पं० [सं० कच्छे सुकच्छे महाकच्छे कच्छगावती आवते जाव पुक्खलावती ३ जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महानतीते दाहिणेणमट्ठ चकवट्टिविजया पं० तं०-बच्छे सुवच्छे जाव मंगलावती ४, जंबूमंदरपचच्छिमेण सीतोतामहानदीते दाहिणेणं अट्ठ चकवट्टिविजया पं० तं० पम्हे जाव सलिलावती ५, जंबूमंदरपञ्चत्थिमेणं सीतोताप महानदीए उत्तरेण भट्ट चकवट्टिविजया पं० वं०प्पे सुवप्पे जाव गंधिठावती ६ जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते मद्दानतीते उत्तरेणम रायद्दाणीतो पं० [सं० खेमा खेमपुरी चैव जाव पुंडरीगिणी ७, जंबूमंदरपुर० सीताए महाणईए दाहिणेणं अट्ठ रायहाणीतो पं० [सं० सुसीमा कुंडला चेव जाव रयणसंचया ८, जंबूमंदरपञ्चच्छिमेणं सीभोदाते महादी दाहिणं अट्ठ राहाणीमो पं० [सं० आसपुरा जाव बीतसोगा ९, जंबूमंदरपच० सीतोताते महानतीते उत्तरेणमट्ठ रायहाणीओ पं० [सं० - विजया बेजयंती जाव अच्क्षा १० (सू० ६३७) जंबूनंदरपुर० सीताते महानदीए उत्त रेण उकोसपर अट्ट अरहंता अट्ठ चावट्टी अट्ट बलदेवा अट्ठ वासुदेवा उप्पलिंसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा ११, जंबूमंदरपुरच्छि० सीताए दाहिणेणं एकोसपए एवं चेद १२ जंबूमंदरपचस्थि० सीओयाते महाणदीए दाहिणेणं को मूलं [६३६-६४४] + गाथा: --------... For Fans Only ~ 873 ~ ८ स्थाना० उद्देशः ३ जम्बूगुहा वक्षारनग री अईदा - दिदीर्घव ताद्व्यचूलिकादिहस्तिकूट कल्पादि सू० ६३५६४४ ॥ ४३५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते www.ancibrary.org Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम love -७८१] SRASPSC+৬+৬ল৬+ Education "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], स्थान [८], - सपए एवं चैव १३ एवं उत्तरेणवि १४ (सू० ६३८) जंबूमंदरपुर० सीताते महानईए उत्तरेणं अट्ठ दीइवेयड़ा अट्ठ तिमि सगुहाओ अट्ठ खंडगप्पवातगुहा अट्ट कयमालगा देवा अट्ठ णट्टमालगा देवा अट्ठ गंगाकुंडा अट्ठ सिंधुकुंडा अठ्ठ गंगातो अट्ट सिंधूओ अट्ठ उसभकूडा पब्बता अट्ट उसभकूडा देवा पं० १५, जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महानतीते दाहिणेणं अट्ठ दीहवेभट्ठा एवं चैव जाव अट्ठ उसभकूढा देवा पं०, नवरमेत्य रत्तारत्तावतीतो तासिं चेव कुंडा १६, जंबूमंदरपचच्छिमे णं सीतोताए महानदीते दाहिणेणं अट्ठ दीहवेयड़ा जाव अटु नट्टमालगा देवा अट्ठ गंगाकुंडा अटू सिंधुकुंडा अ गंगातो rg सिंधूओ अ सभकूटपव्वता अट्ठ उसभकूडा देवा पण्णत्ता १७, जंबूमंदरपचत्थि० सीओताते महानतीते उत्तरेणं अङ्क दीइवेयडा जाब अट्ठ नट्टमालगा देवा अट्ठ रक्तकुंडा अट्ठ रत्तावतिकुंडा अट्ठ रचाओ जाब अट्ठ उसभकूडा देवा पं० १८ ( सू० ६३९) मंदरचूलिया णं बहुमज्झदेसभाते अट्ठ जोयणाई विक्रमेणं पं० १९ ( सू० ६४०) धायइसंख पुरस्थिमद्धेणं धायतिरुक्खे अट्ट जोयणाई उडूं उश्चत्तेणं प० बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाई अट्ट जोयणाई सध्वणं पं० एवं घायइरुक्खातो आढवेत्ता सचेच जंबूदीवचत्तव्वता भाणियव्वा जाव मंदरचूलियत्ति एवं पचच्छिमद्धेवि महाधाततिरुक्खातो आढवेत्ता जाव मंदरचूलियत्ति एवं पुक्खरवर दीवढपुरच्छिमद्धेवि पडमरुक्खाओ आढवेत्ता जान मंदरचूलियत्ति एवं पुक्खरवरदीवपञ्चत्थि० महापचमरुक्खातो जाव मंदरचूलितति (सू० ६४१ ) जंबूदीवे २ मं पवते मसालवणे मह दिसाहत्यिकूडा पं० तं०पमुत्तर नीलवंते सुहत्थि अंजणागिरी कुमुते य । पलासते वहिंसे (अट्टमए) रोयणागिरी ॥ १ ॥ १ जंबूदीवस्स णं दीवस्स जगती अद्ध जोयणारं स उचत्तेणं बहुमज्झदेसभाते अट्ट जोयणाई www...... मूलं [६३६-६४४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] - For PPs Use Only ~ 874 ~ anbay.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [6.3 -६४४] दीप अनुक्रम Love -७८१] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४३६ ॥ Education intentional "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1. स्थान [८], - मूलं [६३६-६४४] + गाथा: विक्खभेण २ ( सू० ६४२ ) जंबूदीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेयं महाहिमवंते वासइरपवते अड कूडा ० ० सिद्धे महहिमवंते हिमवंते रोहिता हरीकूडे । हरिकंता हरिवासे वेरुलिते चैव कूडा उ ॥ १॥ ३ अंबूमंदरउत्तरेणं रुपि वासहरपव्क्ते अष्ट कूढा पं० तं० - सिद्धे य रुप्पी रम्मग नरकंता बुद्धि रुप्पकूडे या । हिरण्यवते मणिकंचणे व रुप कूडा उ ॥ १ ॥ ४ जंबूमंदरपुरच्छिमेणं रुवगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पं० तं० रिद्वे तवणिज कंचण रयत दिसास्रोलि पळंबे य । अंजण अंजणपुरते रुयगस्स पुरच्छिमे कूडा ॥ १ ॥ १ तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरितानो महिड्डियाको नाव पओिवमतितातो परिवसंति तं गंदुत्तरा य णंदा, आणंदा दिवद्वणा । विजया य वैजयंती, जयंती अपरा जिया ।। १ ।। २ नंबूमंदरग्राहिणेणं रुतगवरे पव्वते भट्ट कूडा पं० [सं० कणते कंचणे पउमे नलिये ससि दिवाकरे ग्रेव । बेसमणे बेरुलिते रुयगस्स उ दाहिणे कूडा ॥ १ ॥ ३ वत्थ णं अह दिसाकुमारिमहत्तरियातो मछिट्टियातो जान पविमतितातो परिवर्तति तं समाहारा सुप्पतिष्णा, सुप्पबुद्धा जसोहरा । उच्छिवती सेसवती, चित्तगुत्ता बसुंधरा || १ || ४ जंबूमंदरपथ० रुयगबरे पञ्चते अङ्क कूडा पं० वं० सोत्थिते व अमोहे य, हिमवं मंदरे तदा । क्रम दत्तगुत्तमे चंदे, अट्टमे त सुदंसणे ॥ ९ ॥ ५ तत्थ णमट्ठ दिसाकुमारिमत्तरियाओ महिट्टियातो जाव पछिओवमहिती तातो परिवसंति तं ० - इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पडमावती । एगनासा णवमिता, सीता भद्दा त अटुमा ॥ १ ॥ ६ जंबूमंदरउत्तरअगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पं० [सं० - रमणे रयणुचते ता, सव्वरवण रयणसंचते चैव । विजये य विजयंते जयंते अपराजिते ।। १ ।। ७ तत्थ णं अट्ठ दिखाकुमारिमद्दत्तरियातो महट्टिताओ जाव पलिओनम द्वितीताओ परिवसंत For Free Only ~ 875 ~ ८ स्थाना० उद्देशः ३ जम्बूगुद्दा वक्षारनग री अर्हदा ताद्व्यचूलिकादिहस्तिकूटकल्पादि, सू० ६३५६४४ ।। ४३६ ।। www.joncibrary.org ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: (०३) SAX प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] सं०-अलंबुसा मितकेसी पॉडरि गीतबारुणी । आसा य सञ्चगा चेव, सिरी हिरी व उत्तरतो ॥१॥ ८ अट्ट आहेलोगवत्थव्वातो दिसाकुमारिमहत्तरितातो पं० त०-मोगकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी । सुवच्छा वच्छमित्ता य, वारिसेणा बलाहगा ॥१॥१ अह उड़लोगवस्थव्वाओ दिसाकुमारिमहत्तरितातो पं०२०-करा मेघवती, सुमेघा मेषमालिणी । तोयधारा विचित्ता य, पुष्फमाला अणिदिता ॥ १॥ २ (सू० ६४३) अट्ठ कंप्पा तिरित्तमिस्सोववन्नगा पं० तं०-सोहम्मे जाव सहस्सारे ३, एतेसु णमट्ठसु कप्पेसु अह इंदा पं० सं०-सके जाव सहस्सारे ४, एतेसि ण अट्ठण्डभिदाणं अट्ठ परियाणिया विमाणा पं० २०-पालते पुण्फते सोमणसे सिरिवच्छे गंदावते कामकमे पीतिमणे विमले ५ (सू० ६४४ 'जंबू ण'मित्यादि, जम्बूः-वृक्षविशेषस्तदाकारा सर्वरत्नमयी या सा जम्बूर, यया अयं जम्बूद्वीपोऽभिधीयते, सुदर्श-| नेति तस्या नाम, सा चोत्तरकुरूणां पूर्वाद्धे शीताया महानद्याः पूर्वेण जाम्बूनदमययोजनशतपञ्चकायामविष्कम्भस्य द्वादशयोजनमध्यभागपिण्डस्य क्रमपरिहाणितो द्विगव्यूतोच्छ्रितपर्यन्तस्य द्विगव्यूतोच्छ्रितपञ्चधनुःशतविस्तीर्णपद्मवरवेदिकापरिक्षिप्तस्य द्विगब्यूतोच्छितसच्छनतोरणचतुरिस्य पीठस्य मध्यभागव्यवस्थितायां चतुर्योजनोच्छ्रितायामष्टयोजनायामविष्कम्भायां मणिपीठिकायां प्रतिष्ठिता द्वादशवेदिकागुप्ता, 'अट्ट जोयणाईमित्यादि अष्ट योजनान्यूर्वोच्चत्वेन बहुमध्यदेशभागे-शाखाविस्तारदेशे अष्ट योजनानि विष्कम्भेण सातिरेकाणि-अतिरेकयुक्तान्युर्योधगम्यूतिद्वयेनाधिकानीति | भावः सवग्रेिण-सर्वपरिमाणेनेति, तस्याश्च चतस्रः पूर्वादिदिक्षु शाखाः, तत्र पूर्वशाखायां "भवर्ण कोसपमाणं सणिज्ज | दीप अनुक्रम [७४६-७८१] NA andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~876~ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम [७४६ -७८१] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ६३६- ६४४] + गाथा: उद्देशक [-], स्थान [८], ॥ ४३७ ॥ श्रीस्थाना- | तत्थऽणाढियसुरस्स | तिसु पासाया सालेसु तेसु सीहासणा रम्मा ॥ १॥ ते पासाया कोसंसमूसिया कोसमद्धविच्छिन्ना । ङ्गसूत्र- ४ विडिमोषरि जिणभवणं कोसद्धं होइ विच्छिन्नं ॥ २ ॥ देसूणकोसमुचं जंबू अट्ठस्सएण जंबूर्ण । परिवारिया विराय वृत्तिः तत्तो अप्पमाणाहिं ॥ ३ ॥ [भवनं क्रोशप्रमाणं शयनीयं तत्रानादृतमुरस्य । त्रिषु शाळेषु प्रासादाः तेषु सिंहासनानि रम्याणि ॥ १ ॥ ते प्रासादाः कोशसमुच्छ्रिताः अर्धक्रोशविस्तीर्णाः विडिमोपरि जिनभवनं क्रोशार्द्धविस्तीर्ण भवति ॥ २ ॥ देशोनक्रोशोचं जंबूनामष्टशतेन परिवृता जंबूर्विराजते ततोऽर्धप्रमाणाभिः ॥ ३ ॥ ] तथा त्रिभिर्योजनशतप्रमाणैर्वनैः संपरिक्षिप्ता- "जंबूओ पन्नास दिसि विदिसिं गंतु पढम वणसंडं चउरो दिसासु भवणा विदिसामु य होंति पा | साया ॥ १ ॥ कोसपमाणा भवणा चढवावीपरिगया य पासाया । कोसद्धवित्थरा कोसमूसियाऽणाढियसुरस्स ॥ २ ॥ पंचेव धणुसयाई ओवेहेणं हवंति बाबीओ। कोसद्धवित्थडाओ को सायामाउ सब्वाउ ॥ ३ ॥ इति “पासायाण चरण् भवणाण य अंतरे कूडा ॥” [जंबूतः पंचाशदिक्षु विदिक्षु गत्वा प्रथमवनखंडं चतसृषु दिक्षु चत्वारि भवनानि विदिक्षु प्रासादाच | भवन्ति ॥ १ ॥ कोशप्रमाणानि भवनानि चतुर्वापीपरिगताश्च प्रासादाः क्रोशार्द्ध विस्तराः क्रोशोच्छ्रिताः अनादृतसुरस्य ॥ २ ॥ वाप्यः उद्वेधेन पंचधनुः शतानि भवंति कोशार्धविस्तृताः क्रोशायामा एव सर्वाः ॥ ३ ॥ चतुर्णा प्रासादानां |भवनानां चान्तरे कूटाः ॥ ] तानि चाष्टौ यदाह – “अडुसभकूडतुला सब्बे जंबूणयामया भणिया । तेसुवरिं जिणभवणा कोसपमाणा परमरम्मा ॥ १ ॥” इति [ ऋषभकूटतुल्या अष्टी सर्वे जांबूनदमया भणिताः तेषामुपरि जिनभव| नानि क्रोशप्रमाणानि परमरम्याणि ॥ १ ॥ ] कूटशाल्मली जम्बूतुल्यवक्तव्यता, यदाह - "देवकुरुपच्छिम गरुतावासस्स For Fans Only ८ स्थाना० उद्देशः ३ जम्बूगुहावक्षारनग री अर्हदादिदीर्घवे ~877~ ताठ्यचूलिकादि हस्तिकूटकल्पादि सू० ६३५६४४ ॥ ४३७ ॥ Tantrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: (०३) %A5 प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] % सामलिदुमस्स । एसेव गमो नवरं पेढं कूडा य रययमया ॥१॥" इति [ देवकुरुपश्चिमा गरुडावासस्य शाल्मलिद्धहमस्य एष एव गमो नवरं पीठं कूटाश्च रजतमयाः॥१॥] अत एव एवं चेवे'त्युक्तं, गुहासूत्रे व्यके । जम्ब्वादीनि च | वस्तूनि जम्बूद्वीपे भवन्तीति जम्बूद्वीपाधिकारात्तगतवस्तुप्ररूपणाय क्षेत्रसाधम्या धातकीखण्डपुष्कराद्धंगतवस्तुमरू|पणाय च जम्बू इत्यादिक सूत्रप्रपश्चमाह-सूत्रसिद्धश्चार्य, नवरं सूत्राणामयं विभागो-वे आये वक्षस्काराणां २ चत्वारि च प्रत्येक विजयनगरीतीर्थकारादिदीर्घवैतान्या दीना १८ मे चूलिकायाः १९, एवं धातकीपंडादौ धातक्यादिसूत्रपू*ण्येतान्येव द्विद्धिर्भवन्तीति, तथा मालवच्छेलं मेरोः पूर्वोत्तरविदिग्व्यवस्थित लक्षणीकृत्य प्रदक्षिणया वक्षारा विजभयाश्च व्यवस्थाप्यन्त इति, तत्र चक्रवर्तिनो विजयन्ते येषु यान् वा ते चक्रवर्तिविजया:-क्षेत्रविभागा इति, 'जाब पु क्खलावईत्ति भणनात् 'मंगलायत्ते पुक्खले'त्ति द्रष्टव्यं, 'जाव मंगलावईत्तिकरणात् 'महावच्छे बच्छावई रम्मे रम्मए रमणिजे' इति दृश्यं, 'जाव सलिलावईत्तिकरणात् 'सुपम्हे महापम्हे पम्हावई संखे नलिणे कुमुए'त्ति दृश्य, 'जाव गंपिलावईत्तिकरणात् 'महावप्पे वप्पाबई वग्गू सुवग्गू गंधिले'त्ति दृश्यं 'खेमपुरा चेव जाव'त्तिकरणात् 'अरिहा रिद्वावई खम्गी मंजूसा उसहपुरी'ति दृश्य, 'सुसीमा कुण्डला चेव जाव'त्तिकरणात् 'अपराजिया पहकरा अंकावई पम्हावई सुभा' इति दृश्य, 'आसपुरा जाव'त्तिकरणात् 'सीहपुरा महापुरा विजयपुरा अवराजिया अवरा असोग'त्ति दृश्य, वैजयन्ती जावत्तिकरणात् 'जयन्ती अवराजिया चक्कपुरा खग्गपुरा अवज्झत्ति दृश्य, एताश्च क्षेमादिराजधान्यः कच्छादिविजदयानां शीतादिनदीसमासनखण्डनयमध्यमखण्डे भवंति नवयोजनविस्तारा द्वादशयोजनायामाः। मासु च तीर्थकरा % दीप अनुक्रम [७४६-७८१] 545%A5%* ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~878~ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम [७४६ -७८१] श्रीस्थानाससूत्र वृत्तिः ॥ ४३८ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ६३६ - ६४४] + गाथा: स्थान [८], दयो भवन्तीति 'अट्ट अरहंत'त्ति उत्कृष्टतोऽष्टावर्हन्तो भवन्तीति, प्रत्येकं विजयेषु भावात् एवं चक्रवर्त्यादयोऽपि, एवं च चतुर्ष्वपि महानदीकूलेषु द्वात्रिंशत्तीर्थकरा भवन्तीति, चक्रवर्त्तिनस्तु यद्यपि शीताशीतोदानयोरेकैकस्मिन् कूले अष्टाषष्टावुपद्यन्त इत्युच्यते तथापि सर्वविजयापेक्षया नैकदा ते द्वात्रिंशद्भवन्ति, जघन्यतोऽपि वासुदेव चतुष्टयाविरहितत्वान्महाविदेहस्य, यत्र च वासुदेवस्तत्र चक्रवर्त्ती न भवतीति तस्मादुत्कृष्टतोऽप्यष्टाविंशतिरेव चक्रवर्त्तिनो भवन्ति, एवं जघन्यतोऽपि चक्रवर्त्तिचतुष्टयसम्भवाद्वासुदेवा अप्यष्टाविंशतिरेव यासुदेवसहचरत्वाद्बलदेवा अध्येवमिति । 'दीवेय'ति दीर्घग्रहणं वर्त्तलवैताढ्य व्यवच्छेदार्थ, गुहाष्टकयोर्यथाक्रमं देवाष्टके इति, गङ्गाकुण्डानि नीलवद्वर्षधरपर्वतदक्षिणनितम्बस्थितानि पष्टियोजनायामविष्कम्भाणि मध्यवसिंगङ्गा देवी सभवन द्वीपानि त्रिदिसतोरणद्वाराणि येभ्यः प्रत्येकं दक्षिणतोरणेन गङ्गा विनिर्गत्य विजयानि विभजन्त्यो भरतगङ्गावच्छीतामनुप्रविशन्तीति, एवं सिन्धुकुण्डान्यपि । 'अट्ठ उसमफूड'ति अष्टौ ऋषभकूटपर्वता अष्टास्वपि विजयेषु तद्भावात् ते च वर्षधरपतप्रत्यासन्ना म्लेच्छखण्डत्रयमध्यखण्डवर्त्तिनः सर्वविजय भरतैरवतेषु भवन्ति, तत्प्रमाणं चेदम्- “सम्वेवि उसभकूडा उब्विद्धा अट्ठ जोयणा होंति । वारस अट्ट य चउरो मूले मज्नुवरि विच्छिन्ना ॥ १ ॥ [सर्वेऽपि ऋषभकूटा अष्टयोज नान्युद्विद्धाः भवन्ति । मूले मध्ये उपरि च द्वादशाष्टौ चत्वारि विस्तीर्णाः ॥ १ ॥ ] इति, देवास्तनिवासिन एवेति, नवरं 'एत्थ रत्तारतावईओ तासिं चैव कुंड'ति, शीताया दक्षिणतोऽपि अष्टौ दीर्घवेताच्या इत्यादि सर्वं समानं केवलं गंगासिन्धुस्थाने रक्तारक्तवत्यौ वाध्ये, गङ्गादिकुण्डस्थानेऽपि रक्तादिकुण्डानि याच्यानीति, तथाहि-- 'अट्ठ रत्ताकुण्डा प Forest Use Only ८ स्थाना० उद्देशः ३ ~879~ जम्बूगुहावक्षारनग री अईदा - दिदीर्घवै ताढ्यचूलिकादि हस्तिकूट कल्पादि सू० ६३५६४४ ॥ ४३८ ॥ www.lancebrayyorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम [७४६ -७८१] aus Educat “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ६३६ - ६४४] + गाथा: उद्देशक [-], स्थान [८], नता अट्ठ रसचईकुण्डा अट्ठ रत्ताओं अट्ठ रत्तवईओ' तथा निषधवर्षधरपर्व्वतोत्तरनितम्बवसनि पष्टियोजनप्रमाणानि रक्तारक्तवतीकुण्डानि येभ्य उत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ताः शीतामनुपतन्तीति, तथा धातकीमहाधातकीपद्ममहापझवृक्षाः जम्बूवृक्षसमानवक्तव्याः, यदाह - "जो भणिओ जंबूए बिही उ सो चेव होइ एएसिं । देवकुरासुं सामलिरुक्खा जह जंबूदीवम्मि ॥ १ ॥” इति [य एव विधिर्जग्ध्वा भणितः स एव एतेषां (घातक्यादीनां ) भवति देवकुरुषु शाल्मली वृक्षा यथा जंबूद्वीपे ॥ १॥ ] क्षेत्राधिकारात् 'जंबुद्दीवे' त्यादि सूत्रचतुष्टयं, सुगमं, नवरं 'भद्दसालवणेत्ति मेरुपरिक्षेपतो भूम्यां भद्रशालधनमस्ति तत्राष्टौ शीताशीतोदयोरुभयकूलवत्तनि पूर्वादिषु दिक्षु हस्त्याकाराणि कूटानि दिशाहस्तिकूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- 'पउने' सिलोगो, कण्ठ्यः नवरमस्य सप्रसंगो विभागोऽयम् - " मेरुओ पन्नासं दिसि विदिसिं गंतु भद्दसालवणं । चउरो सिद्धाययणा दिसासु विदिसासु पासाया ॥ १ ॥ छत्तीसुद्धा पणवीसवित्थडा दुगुण मायताययणा । चउवाविपरिक्खित्ता पासाया पंचसयउच्चा ॥ २ ॥ ईसाणस्सुसरिमा पासाया दाहिणा य सकस्स । अट्ट य हवंति कूडा सीतोसीतोदुभयकूले ॥ ३ ॥ दो दो चउद्दिसिं मंदरस्स हिमवंतकूडसमकष्पा । पउमुत्तरोऽत्थ पढमो पुब्विम सीउत्तरे कूले ॥४॥ तत्तो य नेलवंते सुहत्थि तह अंजणागिरी कुभुए। तहय पलासवडसे अट्टमए रोयणगिरी या ॥ ५ ॥" इति [मेरुतः दिक्षु विदिक्षु च पंचाशयोजनीं गत्वा भद्रशालबनं दिक्षु चत्वारि सिद्धायतनानि विदिक्षु प्रासादाः ॥ १ ॥ पत्रिंशदुच्चानि पश्चविंशतिविस्तृतानि द्विगुणायतान्यायतनानि पंचशतोचा वापीचतुष्कपरिक्षिप्ताः प्रासादाः ॥ २ ॥ उत्तरत्या ईशानस्य दाक्षिणात्याश्च शक्रस्य प्रासादाः शीताशीतोदो भय कूलयोरष्टौ कूटानि भवन्ति ॥ ३ ॥ मेरोश्चतसृषु For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~880~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम [७४६ -७८१] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४३९ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ६३६ - ६४४] + गाथा: उद्देशक [-], स्थान [८], दिक्षु द्वौ द्वौ हिमवत्कूटसमाः अत्र प्रथमः पद्मोत्तरः पौरस्त्ये शीताया उत्तरकूले ॥ ४ ॥ ततश्च नीलवान् सुहस्ती तथा जनगिरिः कुमुदः तथा पलाशावतंसकः अष्टमो रोचनगिरिश्च ॥५॥ ] जगती वैदिकाधारभूता पाठी । 'सिद्ध' गाहा, सिद्धायतनोपलक्षितं कूटं सिद्धकूटं तच्च प्राच्यां ततः क्रमेणापरतः शेषाणि, महाहिमवत्कूटं तद्गिरिनायक देवभवनाधिष्ठितं, हैमवतकूटं हैमवद्वर्षनायक देवावासभूतं, रोहित कूटं रोहिताख्यनदीदेवता सत्कं हीकूटं महापद्माख्यतत्दनिवासि हीनामक देवता सत्कं हरिकान्ताकूटं तन्नामनदीदेवतासत्कं हरिवर्षकूटं हरिवर्षनायकदेवसत्कं वैडूर्यकूटं तद्रत्नमयत्वादिति, अनेनैव क्रमेण रुक्मिकूटान्यप्यूह्यानि, तगाथा 'सिद्धे रूप्पी'त्यादि, कण्ठ्यम्, 'जंबूदीवे'त्यादि, क्षेत्राधिकारात् रुचकाश्रितं सूत्राष्टकं, कण्ठ्यं, नवरं जम्बूद्वीपे यो मन्दरस्तदपेक्षया प्राच्यां दिशि रुचकवरे रुचकद्वीपवर्त्तिनि प्रावर्णितस्वरूपे चक्रवालाकारे अष्टौ कूटानि, तत्र 'रिट्टे'त्यादि गाथा स्पष्टा तेषु च नन्दोत्तराद्याः दिक्कुमार्यो वसन्ति भगवतोऽर्हतो या जन्मन्यादर्शहस्ता गायन्त्यस्तं पर्युपासते, एवं दाक्षिणात्या भृङ्गारहस्ता गायन्ति, एवं प्रतीच्याः ताल- 5 हस्तिकूटवृन्तहस्ताः, एवमौदीच्याश्चामरहस्ताः, देवाधिकारादेव 'अट्ठ अहे' इत्यादिपञ्चसूत्री कण्ठ्या, नवरं 'अहेलोगवरथब्बाओ'त्ति, “सोमणसगंधमायणविज्जुप्पभमालवंतवासीओ । अट्ठ दिसिदेवयाओ वत्थन्याओ अहे लोए ॥ १ ॥” इति, [[ सौमनसगन्धमादन विद्युत्प्रभ माल्यवद्वासिन्यः अष्टौ दिग्देव्यः अधोलोकवास्तव्याः ॥ १ ॥ ] भोगंकराद्या अष्टौ ने ६४४ या अर्हतो जन्मभवन संवर्त्तकपवनादि विदधतीति ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः तथा च - "नंदणवणकूडेसुं पयाओ उठोयवस्थब्वाज"त्ति, [ नन्दनवन कूटेषु एता उर्ध्वलोकवास्तव्याः ॥ ] याः अववईलकादि कुर्वन्तीति । 'तिरियमिस्सोववन्न कल्पादि सू० ६३५ ॥ ४३९ ॥ Forsy ८ स्थाना० उद्देशः ३ जम्बू गुहा वक्षारनग री अर्हदादिदीर्घव ~881~ ताढयचूलिकादि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] गत्ति अष्टसु तिर्यश्चोऽप्युत्पद्यन्ते इति भूतभवापेक्षया तिर्यग्भिमिश्रास्तिर्यनिश्रास्ते मनुष्या उपपन्ना-देवतया जाता येषु दते तिर्यडिमश्रोपपन्नका इति, परियायते-गम्यते यैस्तानि परियानानि तान्येव परियानिकानि परियानं वा-गमनं प्रयो जनं येषां तानि परियानिकानि यानकारकाभियोगिकपालकादिदेवकृतानि पालकादीन्यष्टौ क्रमेण शक्रादीनामिन्द्राणामिति । देवत्वं च तपश्चरणादिति तद्विशेषमाह अहमियाणं भिक्खुपडिमाणं चरसट्ठीते राईदिएहिं दोहि य अट्ठासीतेहिं मिक्खासतेहिं अहासुत्ता जाप अणुपालितावि भवति (सू०६४५) अद्वविधा संसारसमावनगा जीवा पं० २०-पढमसमयनेरतिता अपढमसमयनेरतिता एवं जाव अपढमसमयदेवा १ अवविधा सम्बजीवा पं० २०-नेरतिता तिरिक्खजोणिता तिरिक्सजोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीको देवा देवीओ सिद्धा २ अथवा अढविधा सव्वजीवा पं० --आभिणिबोहितनाणी जाव केवलनाणी मतिमन्नाणी सुतअण्णाणी विभंगणाणी ३ (सू०६४६) अट्ठविधे संजमे पं० सं०-पढमसमयमुहुमसंपरागसरागसंजमे अपढमसमयसुहमसंपरायसरागसंजमे पढमसमयबादरसंजमे अपहमसमयबादरसंयमे पढमसमयउवसंतकसायवीतरायसंजमे अपढमसमयमवसंतकसाथवीतरागसंजमे पढ़मसमयखीणकसायवीतरागसंजमे अपढमसमयखीण. (सू०६४७) अट्ठ पुढबीओ पं० सं०-रवणप्पभा जाब अहे सत्तमा ईसिपन्भारा १ ईसीपम्भाराते णं पुढवीते बहुमज्मदेसभागे अगुजोयगिए दीप अनुक्रम [७४६-७८१] १ दशमे स्थानके वक्ष्यन्ति यद् भाभियोगिका बिमानीभवन्तीति ।। स्था०७४|| landiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~882~ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६४५-६४८] (०३) श्रीस्थाना वृत्तिः ।।४४०॥ प्रत सूत्रांक [६४५-६४८] खेते मह जोयणाई माहलेणं पण्णास २ ईसिपम्भारात णं पुढवीते अट्ठ नामधेजा पं० त०-ईसिति वा ईसिपब्भाराति स्थाना वा तणूति वा तणुतणूद वा सिद्धीति वा सिद्धालतेति वा मुचीति वा मुत्तालतेति वा ३ (सू०६४८) R|उद्देशः३ 'अहमिए'त्यादि, अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां सा तथा, या ह्यष्टाभिर्दिनानामष्टकैः पूर्यते तस्यामष्टावष्टमदिनानि, प्रतिमासभवन्त्येव, तत्र चाष्टावष्टकानि चतुःषष्टिर्भवत्येव, तथा प्रथमाष्टके एका दत्तिर्भोजनस्य पानकस्य च एवं द्वितीये द्वे एवम बंजीवसंटमेऽष्टौ, ततो द्वे शते अष्टाशीत्यधिक भिक्षाणां सर्वाग्रतो भवत इति, 'अहासुत्सा' 'अहाकप्पा अहामग्गा अहातचा यमपृथ्व्यः सम्मं कारण फासिया पांलिया सोहिया तीरिया किट्टिया आराहिया' इति यावत्करणात दृश्यं 'अणुपालिय'त्ति आत्म- सू०६४५. संयमानुकूलतया पालिता इति । तपश्च न सर्वेषामपि संसारिणामिति सम्बन्धात् संसारिणो जीवाधिकारात् सर्वजी- ६४८ वांश्च प्रतिपादयन् 'अट्टविहे'त्यादि सूत्रत्रयमाह, कण्ठवं चेदम् , नवरं प्रथमसमयनैरयिका नरकायुप्रथमसमयोदये इतरे वितरस्मिन् एवं सर्वेऽपि १, अनन्तरं ज्ञानिन उक्तास्ते च संयमिनोऽपि भवन्तीतिसम्बन्धात् संयमसूत्र, तत्र 'संयमे त्ति |चारित्रं, स चेह सापद् द्विधा-सरागवीतरागभेदात् , तत्र सरागो द्विधा-सूक्ष्मवादरकषायभेदात्, पुनस्तौ प्रथमाप्रथमसमयमेदाद् द्विधा, एवं चतुर्दा सरागसंयम इति, तत्र प्रथमः समयः प्राप्तौ यस्य स तथा, सूक्ष्म:-किट्टीकृतः सम्परायः -कषायः सञ्जवलनलोभलक्षणो घेद्यमानो यस्मिन् स तथा, सह रागेण-अभिष्वङ्गालक्षणेन यः स सरागः स एव संयमः । सरागस्य षा साधो संयमो यः स तथा पश्चात्कर्मधारय इत्येका, द्वितीयोऽयमेव अप्रथमसमयविशेषित इति, अर्थ च ४४०॥ द्विषिधोऽपि श्रेणियापेक्षया पुनविध्यं लभमानोऽपि न विवक्षित इति चतुर्दा नोकर, तथा बादरा-अकिहीकताः। दीप अनुक्रम [७८२-७८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~883~ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६४५-६४८] (०३) प्रत सूत्रांक [६४५-६४८] ॥ सम्परायाः-सञ्जवलनक्रोधादयो यस्मिन् स तथा, वीतरागसंयमस्तु श्रेणिद्वयाश्रयणाद् द्विविधा, पुनः प्रथमाप्रथमसमयभेदेनैकैको द्विविध इति चतुर्दा, सामस्त्येन चाष्टधेति । संयमिनश्च पृथिव्यां भवन्तीति पृथिवीसूत्रत्रय कण्ठ्यं, नवरमष्टयोजनिक क्षेत्रमायामधिष्कम्माभ्यामिति गम्यते । ईपलाग्भाराया ईषदिति वा नाम रत्नप्रभाद्यपेक्षया इस्वत्वात् तस्याः १ एवं प्राग्भारस्य इस्वत्वादीषयाग्भारेति वा २ अत एव तनुरिति वा तन्वीत्यर्थः ३ अतितनुत्वात्तनुतनुरिति वा ४ सिद्ध्यन्ति तस्यामिति सिद्धिरिति वा ५ सिद्धानामाश्रयत्वात् सिद्धालय इति वा ६ मुच्यन्ते सकलकर्मभिस्तस्यामिति मुक्तिरिति वा ७ मुक्तानामाश्रयत्वान्मुक्तालय इति वेति ८ । सिद्धिश्च शुभानुष्ठानेश्वप्रमादितया भवतीति तानि तद्विषयत आह अट्ठहिं ठाणेहिं समं संघडितम्ब जतितव्वं परवामितव्वं अस्सि च णं अट्रे णो पमातेतव्यं भवति-असुयाणं धम्माणं सम्म सुणणताते अभुतण्वं भवति १ सुताणं धम्माणं ओगिण्हणयाते उवधारणयाते अग्भुटेतव्वं भवति २ पावाणं कम्माणं संजमेणमकरणताते अब्भुद्रयव्वं भवति ३ पोराणाण कम्माणं तवसा बिगिचणताते विसोहणताते अम्भुढेतवं भवइ ४ असंगिहीतपरितणस्स संगिहणताते अन्भुट्टेयवं भवति ५ सेहं आयारगोयरगहणताते अन् द्वेयध्वं भवति ६ गिलाणस्स अगिलाते वेयावश्वकरणताए अन्मुडेयवं भवति ७ साहम्मिताणमधिकरणंसि उप्पण्णंसि तत्व अनिस्सिसोपस्सितो अपक्खग्गाही मज्झत्थभावभूते कह णु साहम्मिता अप्पसदा अप्पझंझा अप्पतुमंतुमा उवसामणताते अम्भुहेयव्यं भवति १० (सू०६४९) महामुकसहस्सारेसुणं कप्पेसु विमाणा अट्ठ जीयणसताई सह उचनेणं पन्नता Short दीप अनुक्रम [७८२-७८५] JABERatinima andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~884~ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६५०] (०३) श्रीस्थाना असत्र यत्तिः ॥४४१॥ प्रत सूत्रांक [६५० *443%A5% (सू० ६५०) अरहतो णं अरिहनेमिस्स अट्ठसया वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते वादे अपराजिताण: उकोसिया । स्थाना. वाविसंपया हुत्था (सू० ६५१) उद्देशा३ "अट्टही त्यादि, कण्ठ्यं, नवरं अष्टासु स्थानेषु-वस्तुषु सम्बग्घटितव्यं-अप्राप्तेषु योगः कार्यः यतितव्य-प्राप्तेषु तदवियो-18 यतनीयगार्थ यतः कार्यः पराक्रमितव्यं-शक्तिक्षयेऽपि तत्सालने पराक्रमः-उत्साहातिरेको विधेय इति, किंबहुना?-एवं एतस्मिन्- | स्थानक| अष्टस्थानकलक्षणे वक्ष्यमाणेऽर्थे न प्रमादनीय-न प्रमादः कार्यों भवति, अश्रुतानाम्-अनाकर्णितानां धर्माणां-श्रुतमे- ल्पवादिनः | दानां सम्यक् श्रवणतायां श्रवणताय वाऽभ्युत्थातव्यं-अभ्युपगन्तव्यं भवति १,एवं श्रुतानां-श्रोत्रेन्द्रियविषयीकृतानाम- सू०६४९वग्रहणतायै-मनोविषयीकरणाय उपधारणताये--अविच्युतिस्मृतिवासनाविषयीकरणायेत्यर्थः २, 'विकिंचणयाए'त्ति विवेचना निर्जरेत्यर्थः, तस्यै, अत एवात्मनो विशुद्धिः-विशोधना अकलङ्कत्वं तस्यै इति ३, असहीतस्य-अनाश्रितस्य परिजनस्य-शिष्यवर्गस्येति ४, 'सेहति विभक्तिपरिणामाच्छैक्षस्य-अभिनवप्रवजितस्य 'आयारगोयरति आचार-सा-16 |धुसमाचारस्तस्य गोचरो-विषयो व्रतषट्रादिराचारगोचरः अथवा आचारश्च-ज्ञानादिविषयः पञ्चधा गोचरच-भिक्षाचर्ये-| त्याचारगोचरं, इह विभक्तिपरिणामादाचारगोचरस्य ग्रहणतायां-शिक्षणे शैक्षमाचारगोचरं ग्राहयितुमित्यर्थः ६, 'अगिलाए'त्ति अग्लान्या अखेदेनेत्यर्थः, वैयावृत्त्यं प्रतीति शेषः ७, 'अधिगरणंसित्ति विरोधे, तत्र साधर्मिकेषु निश्रितंरागः उपाश्रितं-द्वेषः अथवा निश्रित-आहारादिलिप्सा उपाश्रित-शिष्यकुलाद्यपेक्षा तद्वर्जितो यः सोऽनिधितोपाश्रितः।। ४४१॥ न पक्ष शाखबाधितं गृहातीत्यपक्षनाही, अत एवं मध्यस्थभावं भूता-प्राप्तो यः स तथा, स भवेदिति शेषः, तेन च दीप अनुक्रम [७८७] *RACK IBERatinintamational w wjainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~885~ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६५१] (०३) प्रत सूत्रांक [६५१] तथाभूतेन कथं नु?-केन प्रकारेण साधम्मिका:-साधवोऽल्पशब्दाः-विगतराटीमहाध्यनयः अल्पझंझा-विगततथाविध|विप्रकीर्णवचनाः अल्पतुमन्तुमा:-विगतकोधकृतमनोविकारविशेषा भविष्यन्तीति भावयतोपशमनायाधिकरणस्याभ्युस्थातव्यं भवतीति । अप्रमादिनां देवलोकोऽपि भवतीति देवलोकप्रतिबद्धाष्टकमाह-'महामुक्के'त्यादि कण्ठ्यं, अनन्तरोक्तविमानवासिदेवैरपि वस्तुविचारे न जीयन्ते केचिद्वादिन इति तदष्टकमाह-'अरहओं इत्यादि, सुगम । एतेषां च नेमिनाथस्य विनेयानां मध्ये कश्चित्केवलीभूत्वा वेदनीयादिकर्मस्थितीनामायुष्कस्थित्या समीकरणा) केवलिसमुद्घातं कृतवानिति समुद्घातमाह भट्ठसमतिए केवलिसमुग्पाते पं० सं०-पढमे समए दंडं करेति बीए समए कवाडं करेति ततिए समते मंधान करेति घउत्थे समते लोग पूरेति पंचमे समए लोगं पडिसाहरति छढे समए मंथं पढिसादरति सत्तमे समए कबाद पडिसाह रति अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति (सू० ६५२) _ 'अडे'त्यादि, तत्र समुद्घातं प्रारभमाणः प्रथममेवावजीकरणमभ्येति, अन्तमौर्तिकं उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपमित्यर्थः, ततः समुद्घातं गच्छति, तत्र च प्रथमसमये स्वदेहविष्कम्भमूर्चमधश्चायतमुभयतोऽपि लोकास्तगामिनं जीवप्रदेशसवात दण्डमिव दण्डं केवली ज्ञानाभोगतः करोति, द्वितीये तु तमेव दण्ड पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात् पावतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं करोति, तृतीये तदेव दक्षिणोत्तरदिग्दर्य प्रसारणान्मन्धानं करोति लोकान्तप्रापिणमेवेति, एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं भवति, मन्थान्तराण्यपूरितानि भवन्ति अनुश्रेणिगमनाजीवप्रदेशा दीप अनुक्रम [७८८] JanEaal N arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~886~ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६५२ ] दीप अनुक्रम [७८९] श्रीस्थानानामिति, चतुर्थे तु समये मन्थान्तराण्यपि सकललोकनिष्कुटैः सह पूरयति, ततश्च सकलो लोकः पूरितो भवतीर्ति, तदनन्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्तप्रतिलोमं मन्थान्तराणि संहरति जीवप्रदेशान् सकर्मकान् सङ्कोचर्यति, षष्ठे मन्थानमुपसंहरति, घनतरसंकोचात्, सप्तमे कपाटमुपसंहरति, दण्डात्मनि सङ्कोचात्, अष्टमे दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवति, तत्र च "औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमपष्ठद्वितीयेषु ॥ १ ॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थ के पश्चमे तृतीये च । समयत्रये च तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमाद् ॥ २ ॥” इति वामन सोस्स्वप्रयोकैव, प्रयोजनाभावादिति, अतोऽभिहितमष्टौ समयाः यस्मिन् सोऽष्टसमयः स एवाष्टसामयिकः केवलिनः समुद्धातोः केवलिसमुद्घातो न शेष इति । अनन्तरं केवलिनां समुद्घातवक्तव्यतोक्ता, अथाकेवलिनां गुणवतां देवत्वं भवतीति देवाधिकारवत् समणस्सेत्यादि सूत्रपञ्चकं समणस्स णं भगवतो महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववातिवाणं गतिकल्लाणाणं जाब आगमेसिभद्दाणं उकोसिता अणुत्तवातितसंपया हुत्या १ (सू० ६५३ ) अट्ठविधा वाणमंतरा देवा पं० [सं० पिसाया भूता जक्ला रक्खसा किन्नरा किंपुरिसा महोरगा गंधब्बा २ एतेसि णं अट्ठण्हं वाणमंतरदेवाणं अट्ठ चेतितरुक्खा पं० तं० कलंबो अ पिसायाणं, वडो जक्खाण चेतितं । तुलसी भूयाणं भवे, रक्खसाणं च कंडओ ॥ १ ॥ असोओ किन्नराणं च, किंपुरिसाण व संपतो । नागरुक्खो भुवंगाणं, गंधब्बाण य तेंदुओ || २ || ३ ( सू० ६५४ ) इमीसे रयणप्पभाते पुढवीते बहुसमरमणिजामी भूमिभागाओ अट्ठजोयणसते उड़बाहाते सूरविमाणे चारं चरति ४ ( सू० ६५५) अट्ठ नखत्ता चंदेणं सद्धि पमदं जोर्ग ज्ञसूत्रवृतिः ॥ ४४२ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [८], उद्देशक [-1, मूलं [६५२ ] Education intemational For Fans at Use Only ४ ४ ~887~ ८ स्थाना० उद्देशः ३ समुद्धाताः अनुत्तराः | देवाः सूर्य चाराः प्रमर्दयोगः द्वीपद्वाराणि कर्म स्थितिः कु-लुकोटी पुद्गलादि सू० ६५२६५५ ॥ ४४२ ॥ www.ncbrary.org [०३], अंग सूत्र - [ ०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६५६] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [६५६] * जोति त०–कत्तिता रोहिणी पुणन्वसू महा चित्ता विस्साहा अणुराधा जेट्ठा ५ (सू०६५६) जंबुहरीवस्स णं दीवस्स दारा अट्ठजोयणाई उई उपत्तेणं पन्नत्ता १ सब्वेसिपि दीवसमुदाणं दारा अट्ठजोयणाई उई उच्चत्तेणं पन्नत्ता २ (सू०६५७) पुरिसवेयणिज्जस्स णं कम्मस्स जहन्नेणं अट्ठसंबच्छराई बंधठिती पन्नता १ जसोकित्तीनामएणं कम्मस्स जहण्णेणं अट्ठ मुहुताई बंधठिती पं०२ उचगोयस्स णं कम्मस्स एवं चेव ३ (सू०६५८) तेइंदियाणमट्र जातीकुलकोडीजोणीपमुहसत सहस्सा पं० (सू०६५९) जीवा णं अट्ठठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति वा चिणि[संति था, तं०-पढमसमयनेरतितनिव्वत्तिते जाव अपढमसमयदेवनिव्वत्तिते, एवं चिणउवचिण जाव मिजरा व अहपतेसिता खंधा अणता पण्णत्ता, अट्ठपतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जावं अद्वगुणलुक्या पोग्गला अणंता पण्णता (सू० ६६०) अट्ठमं ठाणं सम्मत्तं ॥ अट्ठमं अज्झायणं सम्मत् ॥ सुगम, नवरं अनुत्तरेषु-विजयादिविमानेषूपपातो येषामस्ति तेऽनुत्तरोपपातिकास्तेषां साधूनामिति गम्यते, तथा गतिःदेवगतिलक्षणा कल्याणा येषां, एवं स्थितिरपि, तथा आगमिष्यद्भद्र-निर्वाणलक्षणं येषांते तथा तेषां । चैत्यवृक्षा मणिपीठिदोकानामुपरिवर्तिनः सर्वरत्नमया उपरिच्छत्रध्वजादिभिरलङ्कताः सुधादिसभानामग्रतो ये श्रूयन्ते त एत इति सम्भा व्यते ये तु "चिंधाई कलंबझए सुलस बडे तहय होइ खटुंगे । असोय चंपए या नागे तह तुंबरू चेव ॥१॥" इति, [चिह्नानि कलंबो ध्वजः सुलसः वटः तथा च भवति खट्रांगः । अशोकश्चंपकश्च नागस्तथा तुंबरुश्चैव ॥१॥] ते चिहभूता एतेभ्योऽन्य एवेति, 'कलंबो' इत्यादि श्लोकद्वयं कण्ठ्यं नवरं 'भुयंगाणं'ति महारगाणामिति । 'चारं चरईत्ति गाथा दीप अनुक्रम [७९५] JABERDASTI मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~888~ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६०] श्रीस्थानाचारं करोति, चरतीत्यर्थः, 'पमईति प्रमई:-चन्द्रेण स्पृश्यमानता सलक्षणं योगं च योजयन्त्यात्मनश्चन्द्रेण सार्द्ध कदाचित् स्थाना. सूत्र- न तु तमेव सदैवेति, उक्तं च-"पुणब्बसुरोहिणिचित्ता महजेडणुराह कित्तियविसाहा । चंदस्स उभयजोगो" इति [पुनर्वसू उद्देशः३ रोहिणी चित्रा मघानुराधा ज्येष्ठा कृत्तिका विशाखा एतेषां चंद्रेणोभयथा योगः (दक्षिणोत्तरयोः)] यानि च दक्षि- समुदाताः णोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद्भवन्ति, यतो लोकश्रीटीकाकृतोतं-"एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि-2 ॥४४३॥ चन्द्रस्य दक्षिणेनोत्तरेण च युज्यन्ते कथञ्चिञ्चन्द्रेण भेदमप्युपयान्ती"ति, एतत्फलं चेदम्-"एतेषामुत्तरगा ग्रहाः सुभि-18 देवाः सूर्यक्षाय चन्द्रमा नितरा"मिति । देवनिवासाधिकारादेवनिवासभूतजम्बूद्वीपादिद्वारसूत्रद्वयं । देवाधिकाराद्देवत्वभाविकर्म- चारा: प्रविशेषसूत्रत्रयम्, कर्माधिकारात्तन्निबन्धनकुलकोटिसूत्रं, त्रीन्द्रियादिवैचित्र्यहेतुकर्मपुद्गलसूत्राणि च सुगमानि, नवरं मर्दयोगः 'जाती'त्यादि जाती-त्रीन्द्रियजाती कुलकोटीनां योनिप्रमुखाणा-योनिद्वारकाणां याने शतसहस्राणि तानि तथेति ॥ द्वीपद्वारा णि कर्म स्थितिः कुइति श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे लुकोटी___ऽष्टस्थानकाख्यमष्टममध्ययनं समाप्तम् ।। श्लोकाः ७२० पुद्गलादि सू०६५६ दीप अनुक्रम [७९९] ॥४४३॥ FDPartonwEPMARUP-Only अत्र अष्टमं स्थानं परिसमाप्तं अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~889~ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६६१] दीप अनुक्रम [८०० ] ·56+++++ Education intimational "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [९], उद्देशक [-1 मूलं [ ६६१] व्याख्यातमष्टममध्ययनमधुना सङ्ख्या क्रमसम्बद्धमेव नवमस्थानकाख्यं नवममध्ययनमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सह सम्बन्धः सङ्ख्याक्रमकृत एवैकः सम्बन्धान्तरं तु पूर्वस्मिन् जीवादिधर्म्मा उक्ताः इहापि त एवेत्येवं सम्बन्धस्यास्यादिसूत्रम्नवहिं ठाणेहिं समणे णिगंधे संभोतितं विसंभोतितं करेमाणे णातिक्कमति, तं० आयरियपढिणीयं उवज्झायपढिणीयं थेरपडिणीयं कुल० गण० संघ० नाण० दंसण० चरित्तपडिणीयं (सू० ६६१) णव बंभचेरा पं० तं सत्यपरिना लोगविजओ जाव उवाणसुयं महापरिण्णा (सू० ६६२ ) नव बंभचेरगुतीतो पं० तं० विवित्साई सयणासणाई सेवित्ता भवति णो इत्थिसंसत्ताइं नो पसुसंसत्ताई नो पंडगसंसत्ताई १ नो इत्थिणं कई कद्देत्ता २ नो इत्थिठाणाई सेवित्ता भवति ३ णो इत्थीणमिंदिताई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ ४ णो पणीतरसभोती ५ णो पाणभोयणस्स अतिमत्तं आहारते सता भवति ६ णो पुव्वरतं पुम्वकीलियं समरेता भवति ७ णो सदाणुवाती जो रूवाणुवाती णो सिलोगाणुवाती ८ णो सातसोक्खपढिबद्धे यावि भवति ९ णव गंभचेरमगुत्तीओ पं०सं० णो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... अथ नवमं स्थानं आरभ्यते - ॥ अथ नवस्थानकाख्यं नवमाध्ययनम् ॥ www...... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] For Fans at Use Only - ~ 890~ www.joncibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६३] (०३) श्रीस्थाना प्रत सूत्रांक 2 कारणानि ॥४४४॥ [६६३] 555555 विविताई सयणासणाई सेवित्ता भवइ, इत्थीसंसलाई सुसंसत्ताई पंडगसंसत्ताई इत्यौण कह हिस्सा भया इत्या स्थाना. ठाणाई सेवित्ता भवति इत्थीण इंदियाई जाव निझाइत्ता भवति पणीयरसभोई पाणभोषणस भइमायमाहारए सकी उद्देशः ३ भवछ पुन्वरयं पुल्वकीलियं सरिता भवइ सहाणुबाई रूवाणुवाई सिलोगाणुबाई जाव सायासुक्खपडिषी वावि भवति विसंभोग(सू० ६६३) 'नवहिं ठाणेहिं समणे' इत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वसूत्रे पुद्गला वर्णितास्तद्विशेपोदयाच ब्रह्मचर्या#कश्चिमणभावमुपगतोऽपि धर्माचार्यादीनां प्रत्यनीकतां करोति, तं च विसम्भोगिक कुर्वक्षपरः सुश्रमणो माज्ञामति- णि गुप्त्य कामतीतीहाभिधीयत इत्येवसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, सा च सम्बन्धत एवोकेति । स्वयं ब्रह्मचर्यव्यवस्थित एव चैवं | करोतीति तदभिधायकाध्ययनानि दर्शयन्नाह-नव वंभचेरेत्यादि, ब्रह्म-कुशलानुष्ठानं तच्च तच्च चासेव्यमिति ब सू०६६१मचर्य संयम इत्यर्थः तत्प्रतिपादकान्यध्ययनान्याचारप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानि ब्रह्मचर्याणि, तत्र शखं द्रभावभे-II दादनेकविध तस्य जीवशंसनहेतोः परिज्ञा-ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यानं यत्रोच्यते सा शखपरिज्ञा १, 'लोकविजओ'त्ति | भावलोकस्य रागद्वेषलक्षणस्य विजयो-निराकरणं यत्राभिधीयते स लोकविजयः २ 'सीओसणिज्जति शीता:-अनु-12 कूलाः परीपहा उष्णा:-प्रतिकूलास्तानाश्रित्य यत्कृतं सच्छीतोष्णीयम् ३ 'सम्मति सम्यक्रवमचलं विधेयं न ताप-IN सादीनां कष्टतपासे विनामष्टगुणैश्वर्यमुदीक्ष्य दृष्टिमोहः कार्य इति प्रतिपादनपर सम्यक्त्वं ४ 'आवंती'ति आद्यपदेन ॥४४४॥ नामान्तरेण तु लोकसारा, ताज्ञानाद्यसारत्यागेन लोकसाररत्नत्रयोद्युक्तेन भाव्यमित्येवम) लोकसारः ५ 'धूर्य'ति दीप ६६३ अनुक्रम [८०२] JAMERatunintamational Simlanmorary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~891~ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६६३] दीप अनुक्रम [८०२] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [९], उद्देशक [-1, मूलं [ ६६३ ] धूर्त-सङ्गानां स्वजनं तत्प्रतिपादकं धूतमिति ६ 'विमोहो ति मोहसमुत्थेषु परपोष सर्वेषु प्रादुर्मुसेषु विमोहो भवेत् तान् सम्यक् सहेतेति यत्राभिधीयते स विमोहः ७ महावीरासेवितस्योपधानस्य तपसः प्रतिपादकं श्रुर्त-ग्रन्थ उपधानश्रुतमिति ८ महती परिज्ञा- अन्तक्रियालक्षणा सम्यग्विधेयेतिप्रतिपादनपरं महापरिज्ञेति ९ ब्रह्मचर्यशब्देन मैथुनविरतिरप्यभिधीयत इति ब्रह्मचर्यगुप्तीः प्रतिपादयन्नाह - 'नवे' त्यादि, ब्रह्मचर्यस्य मैथुनत्रतस्य गुप्तयो- रक्षाप्रकाराः ब्रह्मचर्यगुप्तयः, 'विविक्तानि स्त्रीपशुपण्डकेभ्यः पृथग्वर्त्तीनि शयनासनानि-संस्तारकपीठकादीनि उपलक्षणतया स्थानादीनि च 'सेविता' तेषां सेवको भवति ब्रह्मचारी, अन्यथा तद्वाधासम्भवात्, एतदेव सुखार्थं व्यतिरेकेणाह -नो स्त्रीसंसक्तानि-नो देवीनारीतिरक्षीभिः समाकीर्णानि सेविता भवतीति सम्बध्यते, एवं पशुभिः - गवादिभिः, तत्संसक्तौ हि तस्कृतविकारदर्शनात् मनोविकारः सम्भाव्यत इति, पण्डकाः- नपुंसकानि, तत्संसक्ती खीसमानो दोषः प्रतीत एवेत्येकम् १, नो स्त्रीणां केवलानामिति गम्यते 'कथा' धर्मदेशनादिलक्षणवाक्यप्रतिबन्धरूपां यदिवा 'कर्णाटी सुरतोपचारकुशला लाटी विदग्धप्रिया' इत्यादिकां प्रागुक्तां वा जात्यादिचातूरूपां कथविता - तत्कथको भवति ब्रह्मचारीति द्वितीयं २, 'नो इत्थिगणाई'तीह सूत्रं दृश्यते केवलं 'नो इत्थिठाणाई'ति सम्भाव्यते उत्तराध्ययनेषु तथाऽधीतत्वात् प्रक्रमानुसारित्वाच्चास्येतीदमेव व्याख्यायते-नो स्त्रीणां तिष्ठन्ति येषु तानि स्थानानि निषद्याः स्त्रीस्थानानि तानि सेविता भवति ब्रह्मचारी, कोऽर्थः । खीभिः सहैकासने नोपविशेद्, उत्थितास्वपि हि तासु मुहूर्त्ते नोषविशेदिति, दृश्यमानपाठाभ्युपगमे त्वेवं व्याख्या -नो स्त्रीगणानां पर्युपासको भवेदिति ३ नो खीणामिन्द्रियाणि नयननासिकादीनि मनो ह For Final P मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 892~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ibrary.org Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६३] (०३) प्रत सूत्रांक [६६३] श्रीस्थाना- रन्ति-दृष्टमात्राण्याक्षिपन्तीति मनोहराणि, तथा मनो रमयन्ति-दर्शनानन्तरमनुचिन्त्यमानान्याहादयन्तीति मनोर- ९ स्थाना. सूत्र- मानि आलोक्यालोक्य 'निर्याता' दर्शनानन्तरमतिशयेन चिन्तयिता यथाऽहो सलवणत्वं लोचनयोः ऋजुत्वं नाशा- उद्देशः३ वृत्तिः KI वंशस्येत्यादि भवति ब्रह्मचारीति ४ 'नो प्रणीतरसभोगी' नो गलस्नेहविन्दुभोक्ता भवति ५ नो पानभोजनस्य रूक्ष-15 स्याप्यतिमात्रस्य "अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वाउपवियारणट्ठा छन्भायं ऊणयं कुज्जा ॥१॥" | तत्त्वानि ॥४४५॥ [अर्धमशनस्य सव्यञ्जनस्य कुर्यात् द्रवस्य द्वौ भागौ। वायुप्रविचारणार्थ षष्ठं भागमूनं कुर्यात् ॥१॥] इत्येवंविधप्रमाणाति सर्वजीवाः क्रमेणाहारकः-अभ्यवहा 'सदासर्वदा भवति, खाद्यस्वाद्ययोरुत्सर्गतो यतीनामयोग्यत्वासानभोजनयोग्रहणमिति रोगहेतवः |६ 'नो पूर्वरतं नो गृहस्थावस्थायां स्त्रीसम्भोगानुभवनं तथा 'पूर्वक्रीडितं तथैव द्यूतादिरमणलक्षणं 'स्मर्त्ता' चिन्त सू०६६४यिता भवति ७'नो शब्दानुपातीति शब्द-मन्मनभाषितादिकमभिष्वङ्गहेतुमनुपतति-अनुसरतीत्येवंशीलः शन्दानुपाती एवं रूपानुपाती श्लोक-ख्यातिमनुपततीति श्लोकानुपातीति पदत्रयेणाप्येकमेव स्थानकमिति ८ 'नो सातसौख्यप्रतिवद्ध' इति सातात्-पुण्यप्रकृतेः सकाशाद्यत्सौख्य-सुखं गन्धरसस्पर्शलक्षणं विषयसम्पाद्य तत्र प्रतिबद्धः-तत्सरो - झचारी, सातग्रहणादुपशमसौख्य प्रतिबद्धतायां न निषेधः, वापीति समुच्चये, भवति ९ । उक्तविपरीताः अगुप्तयोऽ|प्येवमेवेति । उक्तरूपं नवगुप्तिसनाथं च ब्रह्मचर्य जिनैरभिहितमिति जिनविशेषौ प्रकृताध्ययनावतारद्वारेणाह M४४५॥ अभिणदणाभो पं अरहमओ सुमती अरहा नवदि सागरोजमकोडीसयसहस्सेहिं विइकतेहि समुप्पन्ने (सू०६६४) नव सम्भावपयस्था पं० सं०-जीवा अजीवा पुण्ण पानो आसको संवरो निज्जरा बंधो मोक्खो ९ (सू०६६५) णवविहा दीप अनुक्रम [८०२] -4- JABERatin intimationa traingionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~893~ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६६] (०३) प्रत सूत्रांक [६६६] संसारसमावनगा जीवा पं० तं०-पुढविकाइया जाव वणस्पइकाइया वेइंदिया आव पंचिदितत्ति १ पुढयिकाइया नवगड्या नवआगतिता पं० त०-पुढवीकाइए पुढविकाइएमु उपवजमाणे पुढ विकाइएहितो वा जाव पंचिदियेहितो वा उववजेजा, से चेवणं से पुढ विकाइए पुढविकायत्तं विपजहमाणे पुढविकाइयत्ताए जाव पंचिंदियचाते वा गच्छेजा २ एवमाउकाइयावि ३ जाव पंचिंदियत्ति १० णवविधा सब्बजीवा पं० २०-एगिदिया वेइंदिया तेईदिया चरिबिया नेरतिता पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा ११ अववा गवविहा सन्यजीवा पं० सं०-पढमसमयनेरतिता अपढमसमयनेरतिता जाव अपढमसमयदेवा सिद्धा १२ । नवविहा सव्वजीवोगाहणा पं० २०-पुड विकाइओगाहणा आउकाइओगाहणा जाव पणस्सइकायगाहणा बेईदियओगाहणा तेइंदियओगाहणा परिदियोगाहणा पंचिंदियओगाहणा १३ जीवाणं नवहिं ठाणेहि संसार वत्तिमुवा पत्तंति वा बप्तिस्संति वा, तं०-गुढविकाइयत्ताए जाव पंचिंदियत्ताए १४ (सू० ६६६) णवहिं ठाणेहिं रोगुष्पत्ती सिया तं०-अजासणाते अहितासणाते अतिणिदाए अतिजागरितेण उच्चार निरोहेणं पासवणनिरोहेणं अद्भाणगमणेणं भोवणपतिकूलताते इंदियस्थविकोवणयाते १५ (सू० ६६७) 'अभिणंदणे त्यादि कण्ठ्यं । अभिनन्दनसुमतिजिनाभ्यां च सद्भूताः पदार्थाः प्ररूपितास्ते च नवेति तान् दर्शयसाह-नव सम्भावे'त्यादि, सद्भावेन-परमार्थेनानुपाचारणेत्यर्थः पदार्था-वस्तूनि समावपदार्थाः, तद्यथा-जीवाः सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणा, अजीवास्तद्विपरीताः, पुण्य-शुभप्रकृतिरूपं कर्म पापं-तद्विपरीत कमैंव आश्रूयते-गृह्यते कर्मानेनेत्यानवः शुभाशुभकर्मादानहेतुरिति भावः, संवरः-आश्रवनिरोधो गुप्त्यादिभिः, निर्जरा विपाकात् तपसा वा दीप अनुक्रम [८०५] स्था०७५ IASneaarya मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~894~ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६६७] दीप अनुक्रम [८०६] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४४६ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ६६७ ] स्थान [९], उद्देशक [-1, कर्म्मणां देशतः क्षपणा, बन्धः-आश्रवैरात्तस्य कर्म्मण आत्मना संयोगः, मोक्ष:- कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यवस्थानमिति, ननु जीवाजीवव्यतिरिक्ताः पुण्यादयो न सन्ति, तथाऽयुज्यमानत्वात्, तथाहि - पुण्यपापे कर्म्मणी बन्धोऽपि तदात्मक एवं कर्म्म च पुलपरिणामः पुद्गलाश्चाजीवा इति, आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य स चात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः ?, संवरोऽप्याश्रवनिरोधलक्षणो देशसर्व्वभेद आत्मनः परिणामो निवृत्तिरूपो, निर्जरा तु कर्म्मपरिशाटो जीवः कर्म्मणां यत् पार्थक्यमापादयति स्वशक्त्या, मोक्षोऽप्यात्मा समस्तकर्म्मविरहित इति, तस्माज्जीवाजीवौ सद्भावपदार्थाविति वक्तव्यं, अत एवोक्तमिहैव "जदस्थि च णं लोए तं सव्वं दुप्पडोयारं, तंजहा जीवचेअ अजीवच्चअ” अत्रोच्यते, सत्यमेतत्, किन्तु यावेव जीवाजीवपदार्थों सामान्येनोक्तौ तावेवेह विशेषतो नवधोक्ती, सामान्यविशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः, तथेह मोक्षमार्गे शिष्यः प्रवर्त्तनीयो न सङ्ग्रहाभिधानमात्रमेव कर्त्तव्यं, स च यदैवमाख्यायते यदुताश्रवो बन्धो बन्धद्वारायाते च पुण्यपापे मुख्यानि तत्त्वानि संसारकारणानि संवरनिर्जरे च मोक्षस्य तदा | संसारकारणत्यागेनेतरत्र प्रवर्त्तते नान्यथेत्यतः पद्बोपन्यासः मुख्यसाध्यख्यापनार्थे च मोक्षस्येति । अत्र च पदार्थनवके प्रथमो जीवपदार्थोऽतस्तद्भेदगत्यागत्यवगाहनासंसारनिर्वर्तन। गोत्पत्तिकारणप्रतिपादनाय 'नवविहे 'त्यादिसूत्रप |ञ्चदशकमाह, सुगमं चेदं नवरं अवगाहन्ते यस्यां सा अवगाहना-शरीरमिति, 'वत्तिंसु व'त्ति संसरणं निर्वर्त्तितवन्तः - अनुभूतवन्तः, एवमन्यदपि, 'अच्चासणघाए'त्ति अत्यन्तं सततमासनं - उपवेशनं यस्य सोऽत्यासनस्तद्भावस्तत्ता तया, अशोंविकारादयो हि रोगा एतया उत्पद्यन्त इति अथवा अतिमात्रमशनमत्यशनं तदेवात्यशनता, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वात् For Furts at Use Only ९ स्थाना० उद्देशः र जिनान्तरं तवानि सर्वजीवाः रोग हेतवः सू० ६६६ ६६७ ~895~ ॥ ४४६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ibrary org Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६६७] दीप अनुक्रम [८०६] Educat “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ६६७ ] स्थान [९], उद्देशक [-1, तया, सा वाजीर्णकारणत्वात् रोगोत्पत्तये इति, 'अहियासणयाए' ति अहितं- अननुकूलं टोलपाषाणाद्यासनं यस्य स तथा, शेषं तथैव, तया, अहिताशनतया वा, अथवा 'साऽजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यसनमुच्यते ।' इति वचनात् तद|ध्यसनं-अजीर्णे भोजनं तदेव तत्ता तयेति, भोजनप्रतिकूलता-प्रकृत्यनुचितभोजनता तया, इन्द्रियार्थानां शब्दादिविषयाणां विकोपनं-विपाकः इन्द्रियार्थविकोपनं कामविकार इत्यर्थः, ततो हि ख्यादिष्वभिलाषादुन्मादादिरोगोत्पत्तिः, यत उक्तम्- " आदावभिलाषः १ स्वाच्चिन्ता तदनन्तरं २ ततः स्मरणम् ३। तदनु गुणानां कीर्त्तन ४ मुद्वेगश्च ५ प्रलापश्च ६ उन्माद ७ स्तदनु ततो व्याधि ८ जडता ९ ततस्ततो मरणम् १० ||१||" इति विषयाप्राप्ती रोगोत्पत्तिरत्यासक्तावपि राजयक्ष्मादिरोगोत्पत्तिः स्यादिति शारीर रोगोत्पत्तिकारणान्युक्तान्यथान्तररोगकारणभूतकर्मविशेष भेदाभिधानायाह वविधे दरिसणावरणिजे कम्मे पं० तं निद्दा निदानिद्दा पयला पयलापयला थीणगिद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्स्तुदंसणावरणे अवधिदंसणावरणे केवलदंसणावरणे ( सूं० ६६८ ) अभिती णं णक्खते सातिरेगे नव मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोगं जोतेति, अभीतिजतिआ णं णवनक्खता णं चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोर्वेति, सं०-अभीती सवणो धणिट्ठा जाव भरणी (६६९) इमीसेणं रयणप्पभाते पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ णवजोअणसताई उद्धं अवाहाते वरिले तारारूवे पारं परति ( सू० ६७०) जंबूदीवे णं दीवे णवजोयणिआ मच्छा पविसिसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा (सू० ६७१) अंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसपिणीते णव बलदेववासुदेवपियरो हुत्या सं०पयावती त गंभे य, रोहे सोमे सिवेतिता । महासीहे अगिसीहे, दसरह नवमे य यसुदेवे ॥ १ ॥ इत्तो आढत्तं जघा For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~896~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः borg Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६७२] दीप अनुक्रम [८१४] श्रीस्थाना इसूत्रवृत्तिः ॥ ४४७ ॥ Educato “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६७२ ] + गाथा: स्थान [९], उद्देशक [-], समवाये निरवसेसं जाव एगा से गम्भवसही सिजिझस्सति आगमेस्सेणं । जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेस्साए उस्सपिणी नव बलदेववासुदेवपितरो भविस्संति, नव बलदेव० मायरो भावस्संति एवं जधा समवाते निरवसेसं जाव महाभीमसेन सुग्गी अपच्छिमे । एए खलु पडिसत्तू कितीपुरिसाण वासुदेवाणं । सब्वेवि चकजोही हम्मेहंती सचकेहिं ॥ १ ॥ ( सू० ६७२ ) 'नवे'त्यादी, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधो दर्शनं तस्यावरणस्वभावं कर्म दर्शनावरणं तत् नवविधं तत्र निद्रापञ्चकं तावत् 'द्रा कुत्सायां गती' नियतं द्वाति-कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा सुखप्रबोधा स्वापावस्था नखच्छोटिकामात्रेणापि यत्र प्रवोधो भवति तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रेति कार्येण व्यपदिश्यते, तथा निद्रातिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा शाकपार्थिवादित्वात् मध्यपदलोपी समासः, सा पुनर्दुःखप्रबोधा स्वापावस्था, तस्यां प्रत्यर्थमस्फुटतरी भूत चैतन्यत्वादुःखेन बहुभिर्घोलनादिभिः प्रबोधो भवत्यतः सुखप्रबोधनिद्रापेक्षया अस्या अतिशायिनीत्वं तद्विपाकवेद्या कर्म्मप्रकृतिरपि कार्यद्वारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते, उपविष्ट उर्ध्व स्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला, सा छुपविष्टस्योर्ध्वस्थितस्य वा घूर्णमानस्य स्वतुर्भवति, तथाविधविपाकवेद्या कर्म्मप्रकृतिरपि प्रचलेति उच्यते, तथैव प्रचलातिशायिनी प्रचलाप्रचलाप्रचला, सा हि चङ्क्रमणादि कुर्वतः स्वतुर्भवत्यतः स्थानस्थितस्वनुभवां प्रचलामपेक्ष्यातिशायिनी तद्विपाका कर्म्मप्रकृतिरपि प्रचलाप्रचला, स्त्याना - बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना गृद्धिः - अभिकाङ्क्षा जाग्रदवस्थाऽव्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः, तस्यां For P ९ स्थाना० उद्देशः ३ निद्रादिनक्षत्रयो गौ तार कावाधा मत्स्या रामाद्याः सू० ६६८६७२ ~897~ ॥ ४४७ ॥ Mainbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७२] (०३) प्रत सूत्रांक [६७२]] हि सत्यां जायदवस्थाध्यवसितमर्थमुस्थाय साधयति स्त्याना वा-पिण्डीभूता ऋद्धिा-आत्मशक्तिरूपाऽस्यामिति स्त्या नर्द्धिरित्यप्युच्यते, तद्भावे हि स्वप्तः केशवार्द्धवलसदृशी शक्तिर्भवति, अधवा स्त्याना-जडीभूता चैतन्यर्द्धिरस्यामिति 18|स्त्यानद्धिरिति, तादृशविपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानद्धिः स्त्यानगृद्धिरिति वा, तदेवं निद्रापञ्चकं दर्शनावरणक्ष योपशमालुब्धात्मलाभानां दर्शनलब्धीनामावारकमुक्तमधुना यद्दर्शनलब्धीनां मूलत एव लाभमावृणोति तदिदं दर्शPIनाधरणचतुष्कमुच्यते, चक्षुषा दर्शन-सामान्यग्राही बोधश्चक्षुर्दर्शनं तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं, अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जे-12 |न्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा यद्दर्शनं तदचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणमचक्षुर्दर्शनावरणं, अवधिना-रूपिमर्यादया अवधिरेव वा करणनिरपेक्षो बोधरूपो दर्शनं-सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणं, तथा केवलं-उक्तस्वरूपं तच्च है। तद्दर्शनं च तस्यावरणं केवलदर्शनावरणमित्युक्तं नवविधं दर्शनावरणं । जीवानां कर्मणः सकाशानक्षत्रादिदेवत्वं तिर्यक्त्वं 18 मानुषत्वं च भवतीति नक्षत्रादिवक्तव्यताप्रतिबद्धं सूत्रवृन्द 'अभीत्यादि हम्मिहति सचक्केहिं' इत्येतदन्तमाह सुगमंच, नवरं 'साइरेग'त्ति सातिरेकानव मुहूर्तान् यावच्चतुर्विशत्या मुहूर्तस्य द्विषष्टिभागैः षट्पष्ट्या च द्विषष्टिभागस्य सप्त-६ पष्टिभागानामिति, 'उत्तरेण जोग'ति उत्तरस्यां दिशि स्थितानि, दक्षिणाशास्थितचन्द्रेण सह योगमनुभवन्तीति भावः, 'बहुसमरमणिलाउ'त्ति अत्यन्तसमो बहुसमोऽत एव रमणीयो-रम्यस्तस्माद्भूमिभागात् न पर्वतापेक्षया नापि श्व-18 है धापेक्षयेति भावः, 'आयाधाए'त्ति अन्तरे कृत्वेति वाक्यशेषः, 'उचरिल्ले ति उपरितनं तारारूप-तारकजातीय 'चारं' धमणं 'चरति' आचरति, 'नवजोयणिय'त्ति नव योजनायामा एवं प्रविशन्ति, लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चशत-12 CARRASSACROS दीप अनुक्रम [८१४] Indiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~898~ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७२] (०३) श्रीस्थाना- असूजन वृत्तिः ॥४८॥ प्रत सूत्रांक [६७२]] योजनायामा मत्स्या भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति, स्थाना. 'पयावई'त्यर्द्ध श्लोकस्योत्तरं तु गाथापश्चार्द्धमिति, सङ्केपायातिदिशन्नाह-एत्तो'त्ति इतः सूत्रादारब्धं 'जहा समाए'ति ४ समवाये चतुर्थांगे यथा तथा निरवशेष ज्ञेयं, तच्चार्थत इदं-नव वासुदेवबलदेवानां मातापितरस्तेषामेव नामानि-पूर्व- ट्रानिधान भवनामानि धर्माचार्या निदानभूमयो-निदानकारणानि प्रतिशत्रवो गतयश्चेति, किमन्तमेतदित्याह-जाव एकाल प्रकरणं इत्यादि गाथापश्चाई, पूवार्द्ध विदमस्याः-'अटुंतकडा रामा इक्को पुण बंभलोयकप्पंमि'त्ति । 'सिन्झिस्सइ आगमिका सू०६७३ स्सेणं'ति आगमिष्यति काले सेत्स्यति णमिति वाक्यालङ्कारे तृतीया वेयमिति, तथा 'जंबूदी।' त्यादावागाम्युत्सर्पिणी-12 सूत्रे 'एवं जहा समवाए' इत्याचतिदेशवचनमेवमेव भावनीयं यावत्पतिवासुदेवसूत्रं महाभीमसेनः सुग्रीवश्चापश्चिम | इत्येतदन्तं, तथा 'एते गाहाएते अनन्तरोदिता नव प्रतिशत्रवः 'किसीपुरिसाण'त्ति कीर्तिप्रधानाः पुरुषाः कीर्ति पुरुषास्तेषां, 'चकजोहि'त्ति चक्रेण योर्दू शीलं येषां ते चक्रयोधिनः 'हमीहंतित्ति हनिष्यन्ते स्वचरिति । इह महाWIपुरुषाधिकारे महापुरुषाणां चक्रवर्तिनां सम्बन्धिनिधिप्रकरणमाह एगमेगे णं महानिधी णं णव णव जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ते एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचकवहिस्स नव महानिहओ पं० सं०-णेसप्पे १ पंहुयए २ पिंगलते ३ सव्वरयण ४ महापउमे ५ । काले य ६ महाकाले ७ माणवग ८ महा ॥४४८॥ निही संसे ९ ॥१॥ सप्पगि निवेसा गामागरनगरपट्टणाणं च । दोणमुहमडबाणं खंधाराणं गिहाणं च ॥ २॥ गणियस्स य बीयाणं माणुम्माणुस्स जं पमाणं च । धन्नस्स य बीयाणं उप्पत्ती पंडते भणिया ॥३॥ सध्या भाभ दीप अनुक्रम [८१४] ॐॐॐॐॐ JAMERatinalman Anatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~899~ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ॥१-१४॥ दीप अनुक्रम [८१५ -८९] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1. Education into स्थान [९], रणविधी पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं । आसाण य हत्थीण य पिंगलगनिहिंनि सा भणिया ॥ ४ ॥ रयणाई सcarrणे चोस पवराई चक्कवट्टिस्स । उप्पनंति एगिंदियाई पंचिंदियाई च ॥ ५ ॥ वत्थाण य उप्पत्ती निप्पत्ती चैव सव्वभत्तीणं । रंगाण य धोयाण य सव्वा एसा महापउमे ॥ ६ ॥ काले कालण्णाणं भव्वपुराणं च ती बासेसु । सिप्पसतं कम्माणि य तिनि पयाए हियकराई ॥ ७ ॥ छोहस्स य उप्पत्ती होइ महाकालि आगराणं च । रुप्परस सुवन्नस्स मणिमन्तिसिलपवालाणं ॥ ८ ॥ जोधाण य उप्पत्ती आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धनीती माणवते दंडनीती य ॥ ९ ॥ नट्टविड़ी नाङगविही कव्वस्स चडव्विहस्स उत्पत्ती । संखे महानिहिम्मी तुडियंगाणं च सब्बे सिं ॥ १० ॥ चकट्टपणा अगुस्सेहा य नव य विक्खंभे । बारसदीहा मंजूससंठिया जहवीई मुद्दे ॥ ११ ॥ वेरुलियमणिकवाडा कणगमया विविधरयणपडिपुन्ना । ससिसूर चकलक्खणअणुसमजुगबाहुवतणा त ॥ १२ ॥ पलिओवमद्वितीया निहिसरिणामा य तेसु खलु देवा । जेसिं ते आवासा अकिना आदिवना वा ॥ १३ ॥ एए ते नवनिओ पभूतधणरयसंचयसमिद्धा । जे वसमुवगच्छंती सम्बेसि चकवट्टीणं ॥ १४ ॥ ( सू० ६७३ ) 'एगमेगे' इत्यादि सुगमं, नवरं “नेसप्पे १ पंडुयए २ पिंगले ३ सव्वरयण ४ महापउमे ५ । काले अ ६ महाकाले ७ माणवगमहानिही ८ संखे ९ ॥ १ ॥” [ नैसर्पः पाण्डुकः पिंगलः सर्वरत्नः महापद्मः कालच महाकालः माणवकः शंख इति नव महा निधयः ॥ १ ॥ ] 'नेसप्पंमि' गाहा, इह निधीनतन्नायकदेवयोरभेदविवक्षया नैसप्प देवस्तस्मिन् सति तत इत्यर्थः, निवेशा:- स्थापनानि अभिनव ग्रामादीनामिति, अथवा चक्रवर्त्तिराज्योपयोगीनि द्रव्याणि सर्वाण्यपि नवसु मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... - www...... मूलं [६७३] + गाथा: - ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Use Only ~ 900 ~ bryog Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७३] (०३) प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ||१-१४|| श्रीस्थाना- निधिष्ववतरन्ति, नव निधानतया व्यवहियन्त इत्यर्थः, तत्र ग्रामादीनामभिनवानां पुरातनानां च ये सन्निवेशा-निवे- स्थाना० नसूत्र- शनानि ते नैसनिधी वर्तन्ते, नैसर्पनिधितया व्यवड़ियन्त इति भावः, तत्र ग्रामो-जनपदपायलोकाधिष्ठितः आकरो|| उद्देशः ३ वृत्तिः -यत्र सन्निवेशे लवणाद्युत्पद्यते, न करो यत्रास्ति तनकर पत्तनं-देशीस्थानं द्रोणमुखं-जलपथस्थलपधयुक्तं मडंब-अ- निधान विद्यमानप्रत्यासन्नवसिम स्कन्धावार:-कटकनिवेशो गृह-भवनमिति । 'गणित'गाहा, गणितस्य-दीनारादिपूगफला-12 प्रकरणं ॥४४९॥ दिलक्षणस्य, चकारस्य व्यवहितः सम्बन्धः स च दर्शयिष्यते, तथा बीजानां-तन्निवन्धनभूतानां तथा मानं सेतिकादिसू० ६७३ तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्यादि मेयमिति भावः, तथोन्मानं-तुलाकादि तद्विषयं यत्तदप्युन्मानं खण्डगुडादि ध- रिममित्यर्थः, ततो द्वन्द्वसमाहारः कार्यस्ततस्तस्य च, किमित्याह-यामाणं, चकारो व्यवहितसम्बन्ध एव, तथैव दर्श-12 यिष्यते, तसाण्डु के भणितमिति लिङ्गपरिणामेन सम्बन्धः, तथा धान्यस्य-व्रीह्यादेवींजानां च-तद्विशेषाणामुसत्तिश्च|४| या सा पाण्डुके-पाण्डुकनिधिविषया, तव्यापारोऽयमिति भावो, भणिता-उक्ता जिनादिभिरिति २। 'सब्बा' गाहा कण्ठ्या ३। 'रयण'गाहा, अक्षरघटनैव-रलान्यकेन्द्रियाणि चक्रादीनि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि सप्त उत्पद्यन्ते |-भवन्ति यानि चक्रवर्तिनस्तानि सर्वाणि 'सर्वरत्ने' सर्वरत्ननामनि निधी द्रष्टव्यानीति | 'वस्थाण'गाहा, वखाणां वाससां योत्पत्तिः सामान्यतो या च विशेषतो निष्पत्ति:-सिद्धिः सर्वभक्तीनां-सर्ववस्त्रप्रकाराणां सर्क वा भक्तयःलाप्रकारा येषां तानि तथा तेषां, किंभूतानां वखाणामित्याह-रङ्गाणा-रणवतां रक्तानामित्यर्थः, धौताना-शुद्धस्वरूपाणां, ४ सवैषा महापझे-महापानिधिविषया ५। 'काले गाहा, 'काले' कालनामनि निधौ ‘कालज्ञान' कालस्य शुभाशुभरूपस्य 4-% दीप अनुक्रम [८१५ -८२९] JABERatinintamational wwwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~901~ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७३] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ||१-१४|| FACOCAKACADAM ज्ञानं वर्तते, ततो ज्ञायत इत्यर्थः, किम्भूतमित्याह-भाविवस्तुविषयं भव्य पुरातनवस्तुविषयं पुराण, चशब्दाद् वर्त्तमानवस्तुविषयं वर्तमानं, 'तीसु वासेसु'त्ति अनागतवर्षत्रयविषयमतीतवर्षत्रयविषयं चेति, तथा शिल्पशतं कालनिधी वर्त्तते, शिल्पशतं च घट १ लोह २ चित्र ३ वस्त्र ४ नापित ५ शिल्पानां प्रत्येक विंशतिभेदत्वादिति, तथा कर्माणि च कृषिवाणिज्यादीनि कालनिघाविति प्रक्रमः, एतानि च त्रीणि कालज्ञानशिल्पकर्माणि प्रजाया:-लोकस्य हितकराणि ५ निर्वाहाभ्युदयहेतुत्वेनेति ६ 'लोहगाहा, लोहस्य चोत्पत्तिर्महाकाले निधो भवति-वर्तते, तथा आकराणां च लोहादिहै सरकानामुत्पत्तिराकरीकरणलक्षणा, एवं रूप्यादीनामुत्पत्तिः सम्बन्धनीया केवलं मणयः-चन्द्रकान्तादयः मुक्ता मुक्ताफलानि शिला:-स्फटिकादिकाः प्रवालानि-विद्रुमाणीति ७ "जो'गाहा योधाना-शूरपुरुषाणां योत्पत्तिरावरणानां ४-समाहानां प्रहरणानां-खड़ादीनां सा युद्धनीतिश्च-व्यूहरचनादिलक्षणा माणवके निधी निधिनायके वा भवति, ततः प्रवर्तत इति भावः, दण्डेनोपलक्षिता नीतिर्दण्डनीतिश्च-सामादिश्चतुर्विधा, अत एवोक्तमावश्यके-सेसा उ दंडनीई माणवगनिहीउ होइ भरहस्स'त्ति का 'नट्ट'गाहा, नाम्यं-नृत्यम् , तद्विधिः-तत्करणप्रकारः, नाटक-चरितानुसारि नाटकलक्षणोपेतं तद्विधिश्च, इह पददये द्वन्द्वः तथा काव्यस्य चतुर्विधस्य धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थप्रतिवद्धग्रन्थस्य १ अ-1 धवा संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसङ्कीर्णभाषानिबद्धस्य २ अथवा समविषमार्द्धसमवृत्तबद्धतया गद्यतया चेति ३ अथवा गद्यप-८ द्यगेयवर्णपदभेदबद्धस्येति उत्पत्तिः-प्रभवः शके महानिधौ भवति, तथा तूर्याङ्गाणां च-मृदङ्गादीनां सर्वेपामिति ९110 'चक गाहा, चक्रेष्वष्टासु प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा--अवस्थानं येषां ते तधा, अष्टौ योजनान्युत्सेधः-उच्छ्रयो येषां ते तथा, दीप अनुक्रम [८१५ -८२९] HEairat Morayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~902~ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७३] + गाथा (०३) श्रीस्थाना- हसूत्रवृत्तिः ॥४५॥ प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ||१-१४|| 4545455295%455-45515 नव योजनानीति गम्यते विष्कम्भे-विस्तरे निधय इति शेषः, द्वादशयोजनानि दीर्घा मषा:-प्रतीताः तत्संस्थिताः- ९ स्थाना तसंस्थानाः, जाहव्या:-गङ्गाया मुखे भवन्तीति । 'वेरुलिय'गाहा, वैदूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा, मयश- उद्देशः ३ ब्दस्य वृत्त्या उक्तार्थतेति, कनकमया:-सौवर्णा विविधरत्नप्रतिपूर्णाः प्रतीतं शशिसूरचक्राकाराणि लक्षणानि-चिहानि विकृतययेषां तें तथा अनुसमाः-अनुरूपा अविषमाः 'जुग'त्ति यूपः तदाकारा वृत्तत्वाद्दीर्घत्वाच्च बाहवो-द्वारशाखा वदनेषु श्छिद्राणि मुखेषु येषां ते तथा ततः पदवयस्य कर्मधारये शशिसूरचक्रलक्षणानुसमयुगबाहुवदना इति, चः समुचये । 'पलि'-&ा पुण्यं पापं गाहा, 'निहिसरिनाम'त्ति निधिभिः सहक्-सदृक्षं नाम येषां देवानां ते तथा, येषां देवानां ते निघयः आवासाः- पापश्चतं आश्रयाः, किम्भूताः?-'अक्रेया' अक्रयणीयाः, सर्वदैव तत्सम्बन्धित्वात्, आधिपत्यं च-स्वामिता च तेषु येषां देवा- सू०६७४. नामिति प्रक्रमा, 'एते ते'गाहा, कण्ठ्या। अनन्तरं चित्तविकृतिविगतिहेतवो निधय उक्ताः अधुना तथाविधा एव ६७८ विकृतीः प्रतिपादयन्नाह गव विगतीतो पं० सं०-खीर दधि णवणीतं सपि तेलं गुलो महुँ मज मंसं (सू० ६७४) णवसोतपरिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, सं०-दो सोत्ता दो णेत्ता दो घाणा मुहं पोसे पाऊ (सू० ६७५) शवविधे पुन्ने पं० सं०-अन्नपुन्ने १ पाणपुणे २ वस्यपुग्ने ३ लेणपुणे ४ सयणपुग्ने ५ मणपुन्ने ६ वतिपुण्णे ७ कायपुण्णे ८ नमोकारपुष्णे ९ (सू० ६७६) X४५०॥ णव पावस्सायतणा पं० सं०-पाणातिवाते मुसाबाते जाव परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे (सू० ६७७) नवविधे दीप अनुक्रम RSS [८१५ -८२९] JABERatina donoraryog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~903~ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७८] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [६७८] ROGRICA पावसुवपसंगे पं०२०-पाते १ निमित्ते २ मंते ३ आतिक्खिते ४ तिगिल्छते ५ । कला ३ आवरणे ७ उन्नाणे ८ मिच्छापावतणेति त ९॥ १॥ (सू०६७८) 'नव विगईओं' इत्यादि गतार्थ तथाप्युच्यते किश्चित्-'विगईओ'त्ति विकृतयो विकारकारित्वात् , पक्वान्नं तु कदाचिदविकृतिरपि तेनैता नव, अन्यथा तु दशापि भवन्तीति, तथाहि-"एक्केण चेव तवओ पूरिजइ पूयएण जो ताओ। | बिईओऽवि स पुण कप्पद निविगई लेबडो नवरं ॥ १॥” इति [एकेन चैव तपकः पूर्यतेऽपूपेन यस्ततो द्वितीयोऽपि स पुनः कल्पते निर्विकृति कस्य लेपकृत् नवरं ॥१॥] (द्वितीयोऽपि विकृतिर्न भवतीति भावः > तत्र क्षीरं पञ्चधा -अजैडकागोमहिष्युष्ट्रीभेदात् , दधिनयनीतघृतानि चतुर्द्धंयोष्ट्रीणां तदभावात् , तैलं चतुर्दा-तिलातसीकुसुम्भसर्षपभेदात् , गुडो द्विधा-द्रवपिण्डभेदात् , मधु त्रिधा-माक्षिककौन्तिकभ्रामरभेदात् , मद्यं द्विधा-काष्ठपिष्टभेदात, मांस विधा-जलस्थलाकाशचरभेदादिति । विकृतयश्चोपचयहेतवः शरीरस्येति तस्यैव स्वरूपमाह-नवेत्यादि, नवभिः श्रोतोभिः-छिद्रैः परिश्रवति-मलं धरतीति नवश्रोतःपरिश्रवा बोन्दी-शरीरमौदारिकमेवैवंविधंदे श्रोत्रे-कणों नेत्रेनयने प्राणे-नासिके मुख-आस्वं पोसएत्ति-उपस्था पायु:-अपानमिति । एवंविधेनापि शरीरेण पुण्यमुपादीयत इति पुण्यभेदानाह–'पुग्ने'त्यादि, पात्रायान्नदानाद् यस्तीर्थकरनामादिपुण्यप्रकृतिबन्धस्तदन्नपुण्यमेवं सर्वत्र, नवरं 'लेण'ति ल| यनं-गृहम् , शयन-संस्तारको मनसा गुणिषु तोषात् वाचा प्रशंसनात् कायेन पर्युपासनानमस्काराच्च यत्पुण्यं तन्मन:-11 पुण्यादीनि, उक्तंच-"अन्नं पानं च वस्त्रं च, आलयः शयनासनम् । शुश्रूषा बन्दनं तुष्टि, पुण्यं नवविधं स्मृतम् । गाथा NCR5R दीप अनुक्रम [८३० -८३५] JABERatin intimations wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~904~ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७८] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [६७८] श्रीस्थाना- ॥१॥" इति । पुण्यविपर्यासरूपस्य पापस्य कारणान्याह-नव पावस्से'त्यादि कण्ठयं, नवरं पापस्य-अशुभप्रकृति- ९ स्थाना. सूत्र- रूपस्यायतनानि-बन्धहेतब इति । पापहेत्वधिकारात् पापश्रुतसूत्रं, कण्ठयम् , नवरं पापोपादानहेतुः श्रुतं-शाखं पाप- उद्देशः३ वृत्तिः श्रुतं तत्र प्रसङ्गः-तथाऽऽसेवारूपः विस्तरो वा-सूत्रवृत्तिवार्तिकरूपः पापश्रुतप्रसङ्गः, 'उप्पाए'सिलोगो तत्रोत्पात:- वस्तूनि प्रकृतिविकाररूपः सहजरुधिरवृष्ट्यादि तत्प्रतिपादनपरं शास्त्रमपि तथा राष्ट्रोत्पातादि, तथा निमित्तं-अतीतादिपरि-18 गणाः ॥४५१॥ ज्ञानोपायशाखं कूटपर्वतादि २ मन्त्रो-मन्त्रशास्त्रं जीवोद्धरणगारुडादि ३ 'आइक्खिए'त्ति मातङ्गविद्या यदुपदे- सू०६७२| शादतीतादि कथयन्ति डोण्ड्यो बधिरा इति लोकप्रतीताः ४ चैकित्सिक-आयुर्वेदः ५ कला-लेखाद्याः गणितप्रधानाः शकुनरुतपर्यवसाना द्वासप्ततिस्तच्छाखाण्यपि तथा ६ आवियते आकाशमनेनेत्यावरण-भवनप्रासादनगरादि तलक्ष-18 दणशास्त्रमपि तथा वास्तुविवेत्यर्थः ७ अज्ञान-लौकिकश्रुतं भारतकाव्यनाटकादि ८ मिथ्याप्रवचन-शाक्यादिती विंकशासनमिति ९ एतच्च सर्वमपि पापश्रुतं संयतेन पुष्टालम्बनेनासेव्यमानमपापश्रुतमेवेति, इतिरेवंप्रकारे, 'चः समु४ चये ॥ उत्पतादिश्रुतवन्तश्च निपुणा भवन्तीति निपुणपुरुषाभिधानायाह नव वणिता वत्थू पं० सं०--संखाणे निमिचे कातिते पोराणे पारिहस्थिते परसंहिते वातिते भूतिकम्मे तिगिच्छते (सू०६७९) समणस्स णं भगवतो महावीररस णव गणा हुत्या, तं०-गोदासे गणे उत्तरबलिस्सहगणे उदेहगणे चारगगणे उदयातितगणे विस्सवातितगणे कामबुितगणे माणवगणे कोडिलगणे ५ (सू० ६८०) समणेणं भगवता महा गाथा ॥४५१॥ दीप अनुक्रम [८३० -८३५] Janeiorary on मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 905~ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८१] (०३) प्रत सूत्रांक [६८१] वीरेणं सभणाणं णिगंधाणं णवकोढिपरिसुद्धे मिक्खे पं० २०–ण हणइ ण हणावइ हणतं णाणुजाण ण पतति ण पतावेति पर्तते गाणुजाणति ण किणति न कितावेति किर्णतं गाणुजाणति (सू०६८१) 'नव निउणे त्यादि, निपुणं-सूक्ष्म ज्ञानं तेन चरन्तीति नैपुणिकाः निपुणा एव वा नैपुणिकाः 'वत्थु'त्ति आचार्यादिपुरुषवस्तूनि पुरुषा इत्यर्थः, 'संखाणे' सिलोगो, सङ्ख्यान-गणितं तद्योगात्पुरुषोऽपि तथा, सङ्ख्याने वा विषये निपुण इति, एवमन्यत्रापि, नवरं निमित्-चूडामणिप्रभृति कायिक-शारीरिकम् इडापिङ्गलादि प्राणतत्त्वमित्यर्थः, पुराणो|वृद्धः, स च चिरजीवित्वाद् दृष्टबहुविधव्यतिकरत्वान्नपुणिक इति, पुराणं वा-शास्त्रविशेषः तज्ज्ञो निपुणप्रायो भवति, 'पारिहस्थिए'त्ति प्रकृत्यैव दक्षः सर्वप्रयोजनानामकालहीनतया कर्त्तति, तथा पर:-प्रकृष्टः पण्डितः परपण्डितो-बहुशास्त्रज्ञः परो वा-मित्रादिः पण्डितो यस्य स तथा, सोऽपि निपुणसंसर्गानिपुणो भवति, वैद्यकृष्णकवदिति, वादीवादलब्धिसम्पन्नो यः परेण न जीयते मन्त्रवादी वा धातुवादी वेति, ज्वरादिरक्षानिमित्तं भूतिदानं भूतिकर्म तत्र निपुणः, तथा चिकित्सिते निपुणः, अथवा अनुभवादाभिधानस्य नवमपूर्वस्य नैपुणिकानि वस्तूनि-अध्ययनविशेषा एवेति । एते च नैपुणिकाः साधवो गणान्तर्भाविनो भवन्तीति गणसूत्रं-'समणस्सेत्यादि सूत्रं कण्ठयं, नवरं गणा:|एकक्रियावाचनानां साधूनां समुदाया:, गोदासादीनि च तन्नामानीति । उक्तगणवर्तिनां च साधूनां यद्भगवता प्रज्ञप्तं | | तदाह-समणेण'मित्यादि, नवभिः कोटिभिः-विभागैः परिशुद्धं-निर्दोष नवकोटिपरिशुद्ध भिक्षाणां समूहो भैक्षं | प्रज्ञप्तं, तद्यथा-न हन्ति साधुः स्वयमेव गोधूमादिदलनेन न घातयति परेण गृहस्थादिना मन्तं न-नैव अनुजानाति र दीप अनुक्रम [८३८] स्था०७E TIMIRary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~906~ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६८१] दीप अनुक्रम [८३८] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ।। ४५२ ।। "स्थान" अंगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्तिः) स्थान [९], उद्देशक [-1. मूलं [ ६८१] Education intimational अनुमोदनेन तस्य वा दीयमानस्याप्रतिषेधनेन 'अप्रतिषिद्धमनुमत' मिति वचनात् हननप्रसङ्गजननाञ्चेति, आह द "कामं सयं न कुब्बइ जाणतो पुण तहवि तग्गाही । बड्डेइ तष्पसंगं अगिण्हमाणो उ वारेइ ॥ १ ॥” इति [ कामं न करोतीति सत्यं तथापि जानानस्तद्ग्राही पुनस्तत्प्रसंगं वर्धयति अगृह्णानस्तु वारयति ॥ १ ॥ ] तथा हतं- पिष्टं सत् गोधूमादि मुद्रादि वा अहतमपि सन्न पचति स्वयं, शेषं प्राग्वत्, सुगमं च, इह चाद्याः पट् कोटयोऽविशोधिकोट्यामवत| रन्ति आधाकर्मादिरूपत्वात् अन्त्यास्तु तिस्रो विशोधिकोट्यामिति, उक्तं च-- "सा नवहा दुह कीरइ उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । छसु पढमा ओयरई कीयतियंमी विसोही उ ॥ १ ॥” इति [ सा नवविधा कोटी द्विधा क्रियते उहू| मकोटिविंशोधिकोटिश्च । पट्सु प्रथमावतरति क्रीतत्रिके विशोधिरेव ॥ १ ॥ ] नवकोटीसुद्धाहारग्राहिणां कथञ्चिन्निर्वाणाभावे देवगतिर्भवत्येवेति देवगतिगतवस्तुस्तोममभिधित्सुः 'ईसाणस्से'त्यादि सूत्रनवकमाह - ईसाणस्स णं वैविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारनो णव अग्गमहिसीओ पं० (सू० ६८२ ) ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अग्गमहिसणं णव पलिओ माई ठिती पं० ईसाणे कप्पे उकोसेणं देवीणं णव पलिभोवमाई ठिती पं० ( सू० ६८३) नव देवनिकाया पं० तं०- "सारस्स्यमाइच्चा वण्ही वरुणा य गद्दतोया व तुसिया अव्वाबाहा अग्गिया चैव रिट्ठा य ॥ १ ॥" अव्वाबाहाणं देवानं नव देवा नव देवसया पं० एवं अग्गिश्चावि, एवं रिट्ठावि (सू० ६८४) गव गेवेज्जविमाणपत्थडा पं० तं० हेट्ठिमहेट्ठिमगेविज्जविमाणपत्थडे हेहिममज्झिमगेविज्जविमाणपत्थडे हेहिमउवरिमगेविज्यविमाणपत्थडे मज्झिमट्ठिमगेविज्जविमाणपत्थडे मज्झिममज्झिमगेविज्जविमाणपत्थडे मज्झिमउवरिम ---------- For Fans Only ९ स्थाना० उद्देशः ३ ईशानव रुणेशाना ~907 ~ ग्रमहिषी लोकान्तिकमैवेयकाः सू० ६८२६८५ ॥ ४५२ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते www.jincibrary.org Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६८५] दीप अनुक्रम [८४५] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ६८५] + गाथा Jus Education International स्थान [९], विविमाणपत्थडे उवरिमदेद्विमगेवे० उबरिममज्झिम० उवरिम२ गेविजविमाणपत्थडे, एतेसि णं णवण्डं गेविज्जविमाणपत्थडाणं णव नामधिजा पं० तं भद्दे सुभद्दे सुजाते सोमणसे पितदरिस । सुदंसणे अमोहे व सुप्पबुद्धे जसोघरे || १ | ( सू० ६८५ ) सुगमं चेदम्, नवरं 'नव पलिओषमाई'ति नचैव, तासां सपरिग्रहत्वाद् उक्तं च - " सपरिग्गहेयराणं सोहंमीसाण | पलिय १ साहीयं २ । उक्कोस सत्त पन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥ १ ॥” इति [ सौधर्मेशानयोः सपरिग्रहाणां इतरासां |च देवीनां पल्यमधिकं च उत्कृष्टं सप्त पञ्चाशत् नव पञ्चपञ्चाशञ्च ॥ १ ॥ ] 'सारस्स्य' गाहा सारस्वताः १ आदित्या २ वह्नयः ३ वरुणा ४ गर्द्दतोयाः ५ तुषिता ६ अन्यावाधा ७ आग्नेयाः ८, एते कृष्णराज्यन्तरेष्वष्टासु परिवसन्ति, रिष्ठास्तु कृष्णराजिमध्यभागवर्त्तिनि रिष्ठाभविमानप्रस्तटे परिवसन्तीति ॥ अनन्तरं मैवेयकविमानानि उक्तानि तद्वासिनश्चायुष्मन्तो भवन्तीत्यायुः परिमाणभेदानाह नवविहे आउपरिणामे पं० [सं० गतिपरिणामे गतिबंधणपरिणामे ठिइपरिणामे ठितिबंधणपरिणामे उडूंगारवपरिणामे अहेगारवपरिणामे तिरितंगारवपरिणामे दीइंगारवपरिणामे रहस्संगारवपरिणामे ( सू० ६८६ ) णवणवमिता णं भिक्खुपडिमा एगासीते रातिदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्सासतेहि अधासुत्ता जाब आराहिता ताचि भवति ( सू० ६८७ ) वविधेपायच्छते पं० [सं० आलोयणारिहे जाब मूलारिहे अणवठप्पारिधे (सू० ६८८ ) For False मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~908~ anirg "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८८] (०३) श्रीस्थाना सूच- वृत्तिः ॥४५३॥ प्रत सूत्रांक [६८८] 'नवविहे'त्यादि, 'आउपरिणामे'त्ति आयुषः-कर्मप्रकृतिविशेषस्य परिणामः-स्वभावः शक्तिः धर्म इत्यायुःपरिणामः, स्थाना. तत्र गतिर्देवादिका तां नियतां येन स्वभावेनायुजीवं मापयति स आयुषो गतिपरिणामः १, तथा येनायुःस्वभावेन प्रति-INउद्देशः ३ नियतगतिकर्मवन्धो भवति यथा नारकायु:स्वभावेन मनुष्यतिर्यग्गतिनामकर्म बध्नाति न देवनरकगतिनामकर्मेति स आयुःपगतिवन्धनपरिणामः २, तथा आयुषो या अन्तर्मुहर्तादित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमान्ता स्थितिर्भवति सा स्थितिपरिणामः ३, रिणामाः तथा येन पूर्वभवायुःपरिणामेन परभवायुषो नियतां स्थिति बन्नाति स स्थितिबन्धनपरिणामः, यथा तिर्यगायुःपरिणा- | भिक्षुप्रतिमेन देवायुप उत्कृष्टतोऽप्यष्टादश सागरोपमाणीति ४ तथा येनायुःस्वभावेन जीवस्योर्ध्वदिशिगमनशक्तिलक्षणः परिणामो माः प्रायभवति स ऊर्ध्वगौरवपरिणामा, इह गौरवशब्दो गमनपर्यायः ५, एवमितरौ द्वाविति ६-७, तथा यत आयुःस्वभावाज्जीवस्य श्चित्तानि दीर्घ-दीर्घगमनतया लोकान्तात् लोकान्तं यावद् गमनशक्तिर्भवति स दीर्घगौरवपरिणामः ८, एवं च यस्माद्रस्व गमनं स सू०६८६इस्वगौरवपरिणामः, सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वार इति, अन्यथाप्यूह्यमेतदिति ९॥ अनन्तरमायुःपरिणाम उक्तः, तत्रैव चायु:- ६८८ परिणामविशेषे सति तपाशक्तिर्भवतीति तपोविशेषाभिधानायाह-नवनवमिए'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं नव नवमानि| दिनानि यस्यां सा नवनवमिका नवनवमानि च भवन्ति नवसु नवकेष्विति तत्परिमाणेयमिति, नव च नवकान्येकाशीतिरितिकृत्वा एकाशीत्या रात्रिन्दिवैः-अहोरात्रैर्भवति, तथा प्रथमनवके प्रतिदिनमेका दत्तिः पानकस्य भोजनस्य चेत्येवमेकोत्तरया वृद्ध्या नवमे नवके नव नव दत्तयः, ततश्च सर्वसङ्कलनया चतुर्भिश्च पश्चोत्तरेर्भिक्षाशतेयथासूत्रं यथाकल्पं ॥४५ ॥ यथामार्ग यथातत्त्वं सम्यक्कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्तिता आराधिता चापि भवतीति । इयं च ज- दीप अनुक्रम [८४८] 94545656 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~909~ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६८८] दीप अनुक्रम [८४८] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [९], उद्देशक [-1 मूलं [६८८] - न्मान्तरकृतपापकर्म्मप्रायश्चित्तमिति प्रायश्चित्तनिरूपणसूत्रं तच्च गतार्थमिति । प्रायश्चित्तं च भरतादिक्षेत्रेष्वेवेति तङ्गतबस्तुविशेषप्रतिपादनाय 'जंबूदीवेत्यादि एरवए कूडनामाई' इत्येतदन्तं सूत्रप्रपचमाह - जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे दीहवेतट्टे नव कूडा पं० तं० - सिद्धे १ भरहे २ खंडग ३ माणी ४ वेयडू ५ पुन ६ तिमि सगुहा ७ । भरहे ८ वेसमणे ९ या भरहे कूडाण णामाई ॥ १ ॥ जंबूमंदिरदाहिणेणं जिसमे वासहरपब्बते णव कूडा पं० [सं० - सिद्धे १ निसहे २ हरिवास ३ विदेह ४ हरि ५ थिति ६ अ सीतोता ७। अवरविदेदे ८ रुयगे ९ जिसमे कूडाण नामानि || १|| जंबूमंदरपव्वते णंदणवणे णव कूडा पं० तं० गंदणे १ मंदरे २ चैत्र निसद्दे ३ हेमवते ४ रयय ५ रुपए ६ य सागरचित्ते ७ वइरे ८ बलकूडे ९ चैव बोद्धव्वे ॥ १ ॥ जंबूमालवंतवक्खारपन्वते णव कूडा पं० [सं० सिद्धे १ य मालवंते २ उत्तरकुरु ३ कच्छ ४ सागरे ५ रयते ६ । सीता ७ तह पुण्णणामे. ८ हरिस्सहकूडे ९ य बोद्धव्ये ॥ १ ॥ जंबू० कच्छे दीवेयडे नव कूढा पं० [सं० सिद्धे १ कच्छे २ खंडग ३ माणी ४ वेयडू ५ पुण ६ तिमिस गुहा ७। कच्छे ८ वेसमणे या ९ कच्छे कूडाण णामाई ॥ १ ॥ जंबू सुकच्छे दीहवेयडे णव कूडा पं० [सं० सिद्धे १ सुकच्छे २ खंडग ३ माणी ४ बेधडू ५ पुन्न ६ तिमिसगुहा ७ सुकच्छे ८ वेसमणे ९ वा सुकच्छि कूडाण णामाई ॥ १ ॥ एवं जान पोक्खावर्तिमि दीहवेयडे, एवं वच्छे दीवेयडे एवं जाव मंगलावर्तिमि दीहवेहडे । जंबूविजुष्पभे वखापवते नव कूडा पं० सं०- सिद्धे १ अ विजुणाने २ देवकूरा ३ पद ४ कणग ५ सोबत्थी ६ । सीतोताते ७ सजले ८ हरिकूडे ९ चेन बोद्धब्बे ॥ १ ॥ जंबू० पम्छे दीवेयडे णव कूडा पं० नं० - सिद्धे १ पन्हे २ खंडग ३ For Fans at Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] www...... - ~ 910 ~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ibrary.org Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८९] + गाथा: (०३) श्रीस्थानालसूत्रवृत्ति प्रत सूत्रांक [६८९]] एस्थाना० उद्देशः३ वैताब्यादिकूटाधिकारः सू०६८९ ॥४५४॥ माणी ४ वेगढ़ ५ एवं चेव आव सलिलावर्तिमि दीहवेयड़े, एवं वप्पे दीहवेयड़े एवं जाव गंधिलावतिमि वीहवेगड़े नव कूडा पं० सं०-सिद्धे १ गंधिल २ खंडग ३ माणी ४ वेयड ५ पुन्न ६ तिमिसगुहा । गंधिलावति ८ वेसमण ९ कूडाणं होति णामाई ॥१॥ एवं सत्वेसु दीहवेयडेसु दो कूडा सरिसणामगा सेसा ते चेव, जंबूमंदरेणं उत्तरेणं नेलवते वासहरपव्यते णव कूडा पं० सं०-सिद्ध १ निलवंत २ विदेह ३ सीता ४ कित्ती त ५ नारिकता ६५ । अवरविदेहे रम्मगकूडे ८ उवर्दसणे ९ चेव ॥१॥ जंबूमंदरउत्तरेणं एरवते दीहवेतड़े नव कूडा पं० त०-सिद्धे १ रयणे २ खंडग ३ माणी ४ वेयड ५ पुण्ण ६ तिमिसगुहा । एरवते ८ वेसमणे ९ एरवते कूडणामाई ॥१॥ (सू०६८९) सुगमश्चार्य, नवरं भरतग्रहणं विजयादिव्यवच्छेदार्थ दीर्घग्रहणं वर्तुलवताब्यव्यवच्छेदार्थमिति, "सिद्धेगाहा, तत्र सिद्धायतनयुक्तं सिद्धकूटं सक्रोशयोजनपट्रोच्यमेतावदेव मूले विस्तीर्ण एतदोपरि विस्तारं क्रोशायामेनार्द्धक्रोशवि कम्भेण देशोनकोशोचेनापरदिगद्वारवर्जपश्चधनु शतोच्छ्रयतदर्द्धविष्कम्भद्वारत्रयोपेतेन जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतान्वितेन | सिद्धायतनेन विभूषितोपरितनभागमिति, तच्च वैताढये पूर्वस्यां दिशि शेषाणि तु क्रमेण परतस्तस्मादेवेति भरतदेवप्रा. मासादावतंसकोपलक्षितं भरतकूट, 'खंडग'त्ति खण्डप्रपाता नाम वैताड्यगुहा यया चक्रवर्ती अनार्यक्षेत्रात् स्वक्षेत्रमाग |च्छति तदधिष्ठायकदेवसम्बन्धित्वात् खण्डप्रपातकूटमुच्यते, 'माणी'ति माणिभद्राभिधानदेवावासत्वान्माणिभद्रकूटं 'वेमायत्ति वैताम्यगिरिनाथदेवनिवासाद्वैतादयकूटमिति पुग्नत्ति पूर्णभद्राभिधानदेवनिवासात्पूर्णभद्रकूट तिमिसगुहा नाम गुहा यया स्वक्षेत्राचक्रवत्ती चिलातक्षेत्रे याति तदधिष्ठायकदेवावासात् तिमिसगुहाकूटमिति, "भरहे'त्ति तथैव, वैश्रम दीप अनुक्रम [८४९ ॐॐॐॐॐ का॥४५४॥ -८६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~911~ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८९] + गाथा: (०३) * प्रत सूत्रांक [६८९] णलोकपालावासत्वाद्वैश्रमणकूटमिति । 'सिद्धेगाहा, सिद्धेत्ति सिद्धायतनकूटं तथा निषधपर्वताधिष्ठातृदेवनिवासोपेत निषधकूटं हरिवर्षस्य क्षेत्रविशेषस्याधिष्ठातृदेवेन स्वीकृतं हरिचर्षकूट, एवं विदेहकूटमपि, हीदेवीनिवासो होकूट, एवं धृतिकूट, शीतोदा नदी तद्देवीनिवासः शीतोदाकूट, अपरविदेहकूटं विदेहकूटवदिति, रुचकश्चक्रवालपर्वतः तदधिष्ठा४ातृदेवनिवासो रुचककूटमिति । 'नंदणे'त्ति नन्दनवन मेरोः प्रथममेखलायां तत्र नव कूटानि 'नंदण'गाहा, तत्र नन्द-13 ★ नवने पूर्वादिदिक्षु चत्वारि सिद्धायतनानि विदिक्षु चतुश्चतुःपुष्करिणीपरिवृताश्चत्वारः प्रासादावतंसकाः, तत्र पूर्वस्मासिद्धायतनादुत्तरत उत्तरपूर्वस्थप्रासादाद्दक्षिणतो नन्दनकूट, तत्र देवी मेघङ्करा १, तथा पूर्वसिद्धायतनादेव दक्षिणतो |दक्षिणपूर्वप्रासादादुत्तरतो मन्दरकूट, तत्र मेघवती देवी, अनेन क्रमेण शेषाण्यपि यावदष्टम, देव्यस्तु निषधकूटे सुमेघा|४ है हमवतकूटे मेघमालिनी रजतकूटे सुवच्छा रुचककुटे वच्छामित्रा सागरचित्रकूटे वैरसेना वैरकूटे बलाहकेति बलकूट तु मेरोरुत्तरपूर्वस्यां नन्दवने तत्र बलो देव इति । 'मालवंते' इत्यादि, 'सिद्धेगाहा, माल्यवान्पूर्वोत्तरी गजदन्तपर्वतः तत्र सिद्धायतनकूट मेरोरुत्तरपूर्वतः, एवं शेषाण्यपि, नवरं सिद्धकूटे भोगादेवी रजतकूटे भोगमालिनी देवी शेषेषु स्वसमाननामानो देवाः, हरिसहकूटं तु नीलवत्सर्वतस्य नीलवत्कूटाद् दक्षिणतः सहस्रप्रमाणं विद्युत्प्रभवति हरिकूटं नन्दनवनवर्ति बलकूटं च, शेषाणि तु प्रायः पञ्चयोजनशतिकानीति, एवं कच्छादिविजयवैताध्यकूटान्यपि व्याख्यातानुसारेण" ज्ञेयानि, नवरं एवं 'जाव पुक्खलावईमी'त्यादौ यावत्करणान्महाकच्छाकच्छावतीआवर्तमङ्गलावर्तपुष्कलेषु सुकच्छवद्वैताब्येषु सिद्धकूटादीनि नव नव कूटानि वाच्यानि, नवरं द्वितीयाष्टमस्थानेऽधिकृतविजयनाम वाच्यमिति, एवं 'व 5***** दीप अनुक्रम [८४९ -८६८] *** anatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~912~ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६८९] दीप अनुक्रम [८४९ -८६८] श्रीस्थानासूत्र वृत्तिः ॥ ४५५ ।। “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ६८९ ] + गाथा: स्थान [९], उद्देशक [-], च्छेति शीताया दक्षिणे समुद्रासन्ने एवं 'जाब मंगलावईमी'त्यत्र यावत्करणात् सुवच्छ महावच्छ्वच्छावतीरम्यरम्यकरमणीयेषु प्रागिव कूटनवकं दृश्यमिति । विद्युत्प्रभो देवकुरुपश्चिमगजदन्तकः, तत्र नव कूटानि पूर्ववन्नवरं दिक्कुमायौं वारिसेनाबलाहकाभिधाने क्रमेण कनककूटस्वस्तिककूटयोरिति, 'पम्हे'ति शीतादाया दक्षिणेन विद्युत्प्रभाभिधानगजदन्तकप्रत्यासन्नविजये 'जाव सलिलाव मी'त्यत्र यावत्करणात् सुपक्ष्ममहापक्ष्मपक्ष्मावतीशङ्खनलिनकुमुदेषु प्रागिव नव नव कूटानि वाध्यानि, 'एव' मित्युक्ताभिलापेन 'वप्पे'ति शीतोदाया उत्तरेण समुद्रप्रत्यासन्ने विजये 'जाब गंधिठावईमीत्यत्र यावत्करणात् सुवप्रमहावप्रवप्रावतीकच्छावतीवल्गुसुवल्गुगंधिलेषु नव नव कूटानि प्रागिव दृश्यानीति । पुनः पक्ष्मादिविजयेषु षोडशस्वतिदिशति 'एवं सच्चेसु' इत्यादिना, कूटानां सामान्यं लक्षणमुक्तमिति विशेषार्थिना तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिर्निरूपणीया, एवं नीलवत्कूटानि एरवतकूटानि च व्याख्येयानीति । इयं कूटवक्तव्यता तीर्थकरैरुक्तेति प्रकृतावतारिणीं जिनवक्तव्यतामाह पासे णं अरहा पुरिसादाणिए वज्जरिसणारातसंघयणे समचउरंसठाणसंठिते नव रयणीओ उहूं उच्चतेणं हुस्था ( सू० ६९०) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तित्यंसि णवहिं जीवेहिं तित्थगरणामगोते कम्मे णिव्वति सेणिवेणं सुपासेणं उदाविणा पोट्टिलेणं अणगारेणं दढाउणा संखेणं सततेणं सुलसाए साविताते रेवतीते ९ ( सू० ६९१ ) 'पास' त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं 'तिस्थगरनामे' ति तीर्थ करत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकरनाम तच्च गोत्रं च-कर्मविशेष एवेत्येकवद्भावात् तीर्थकर नामगोत्रमिति अथवा तीर्थकरनामेति गोत्रं - अभिधानं यस्य तत्तीर्थकर नामगोत्रमिति, Forest Use Only ९ स्थाना० उद्देशः ३ पार्श्वशरीरमानं बी रतीर्थे भा विजिना: सु० ६९०६९१ ~913~ ।। ४५५ ।। [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते cibrary org Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९१] (०३) प्रत सूत्रांक [६९१] Piश्रेणिको राजा प्रसिद्धस्तेन १, एवं सुपाश्चों भगवतो वर्द्धमानस्य पितृव्यः २, उदायी कोणिकपुत्रः, यः कोणिकेऽप४कान्ते पाटलिपुत्रं नगरं न्यधीविशत् यश्च स्वभवनस्य विविक्कदेशे पर्वदिनेष्वाह्वय संविनगीतार्थसद्गुरूस्तत्पर्युपासनापरा यणः परमसंवेगरसप्रकर्षमनुसरन् सामायिकपौषधादिकं सुश्रमणोपासकमायोग्यमनुष्ठानमनुतिष्ठते एकदा च निशि देशनिर्बाटितरिपुराजपुत्रेण द्वादशवापिंकद्रव्यसाधुना कृतपौषधोपवासः सुखप्रसुप्तः कङ्कायाकत्तिकाकण्ठकर्त्तनेन विनाशित द्र इति ३, पोहिलोऽनगारोऽनुत्तरोपपातिकाङ्गेऽधीतो हस्तिनागपुरनिवासी भद्राभिधानसार्थवाहीतनयो द्वात्रिंशद्भा-18 योत्यागी महावीरशिष्यो मासिक्या संलेखनया सर्वार्थसिद्धोपपन्नः महाविदेहात्सिद्धिगामी. अयं विह भरतक्षेत्रात सि-| |द्धिगामी गदित इति ततोऽयमन्यः सम्भाव्यत इति ४, रढायुरप्रतीतः ५, शङ्खशतको श्रावस्तीश्रावको, ययोरीदृशी वक्तव्यता-किल श्रावस्त्यां कोष्ठके चैत्ये भगवानेकदा विहरति स्म, शङ्खादिश्रमणोपासकाश्चागतं भगवन्तं विज्ञाय व|न्दितुमागताः, ततो निवर्तमानांस्तान् शङ्खः खल्वाख्याति स्म-यथा भो देवानांप्रिया! विपुलमशनाद्युपस्कारयत ततस्त|सरिभुजानाः पाक्षिकं पर्व कुर्वाणा विहरिष्यामः, ततस्ते तातिपेदिरे, पुनः शङ्गोऽचिन्तयत्-न श्रेयो मेऽशनादि भुञ्जानस्य पाक्षिकपौषधं प्रतिजाग्रतो विहर्नु श्रेयस्तु मे पौषधशालायां पौषधिकस्य मुक्ताभरणशस्त्रादेः शान्तवेषस्य विहर्तु, अथ स्वगृहे गत्वा उत्पलाभिधानस्वभार्या या वार्ता निवेद्य पौषधशालायां पौषधमकार्षीत्, इतश्च तेऽशनाद्युपस्कारयांचक्रुः एकत्र च समवेयुः शङ्ख प्रतीक्षमाणास्तस्थुः, ततोऽनागच्छति शङ्के पुष्कलीनामा श्रमणोपासकः शतक इत्यपरनाम शजस्याकारणार्थं तद्गृह जगाम, आगतस्य चोत्पला श्रावकोचितप्रतिपत्तिं चकार, ततः पौषधशालायां स विवेश दीप अनुक्रम [८७०] JanEainALI Khandrarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~914~ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९१] (०३) श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥४५६॥ [६९१] *ॐ*5 ४ापथिकी प्रतिचक्राम, शङ्खमभ्युवाच-यदुतोपस्कृतं तदशनादि तद् गच्छामः श्रावकसमवायं भुजमहे तदशनादि प्रति- स्थाना. जागृमा पाक्षिकपौषधं, तत उवाच शङ्कः-अहं हि पौषधिको नागमिष्यामीति, ततः पुष्कली गत्वा श्रावकाणां तत्लाउद्देशः ३ निविवेद ते तु तदनु बुभुजिरे, शसस्तु प्रातः पौषधमपारयित्वैव पारगतपादपद्मपणिपतनार्थं प्रतस्थौ, प्रणिपत्य च तमु- पार्श्वशरीचितदेशे उपविवेश, इतरेऽपि भगवन्तं वन्दित्वा धम्मै च श्रुत्वा शङ्कान्तिकं गत्वा एवमूचुः-सुष्टु त्वं देवानांप्रिय! अ- रमानं वीस्मान् हीलयसि, ततस्तान् भगवान जगाद-मा भो यूयं शङ्ख हीलयत शङ्खो यहीलनीयः, यतोऽयं प्रियधर्मा दृढधर्मा रतीर्थे भाच, तथा सुदृष्टिजागरिको जागरित इत्यादि ६-७, सुलसा राजगृहे प्रसेनजितो राज्ञः सम्बन्धिनो नागाभिधानस्य विजिनाः रथिकस्य भायों बभूव, यस्याश्चरितमेवमनुश्रूयते-किल तया पुत्रार्थ स्वपतिरिन्द्रादीन् नमस्यन्नभिहितः-अन्यां परिण- सू०६९०. येति, स च यस्तव पुत्रस्तेनेह प्रिये! प्रयोजनमिति भणित्वा न तत् प्रतिपन्नवान् , इतश्च तस्याः शकालये सम्यक्त्वप्र- ६९१ शंसां श्रुत्वा तत्परीक्षार्थ कोऽपि देवः साधुरूपेणागतस्तं च वन्दित्वा बभाण-किमागमनप्रयोजनम् !, देवोऽवादीत्-तवण गृहे लक्षपार्क तैलमस्ति तच्च मे वैद्येनोपदिष्टमिति तद्दीयता, ददामीत्यभिगता गृहमध्ये अवतारयन्त्याश्च भिन्नं देवेन तद्भाजनं एवं द्वितीय तृतीयं चेत्येवमखेदां दृष्ट्वा तुष्टो देवो द्वात्रिंशतं च गुटिका ददौ, एकैकां खादेद्वात्रिंशत्ते सुता भविष्यन्ति प्रयोजनान्तरे चाहं स्मर्तव्य इत्यभिधाय गतोऽसौ, चिन्तितं चानया-सर्वाभिरप्येक एव मे पुत्रो भूयादिति सर्वाः पीताः, आहूता द्वात्रिंशत्पुत्राः वर्धते स्म जठरमरतिश्च ततः कायोत्सर्गमकरोत् आगतो देवो निवेदितो| ॥४५६॥ व्यतिकरो विहितो महोपकारो जातो लक्षणवत पुत्रगण इत्यादि ७, तथा रेवती भगवत औषधदात्री, कथं , किलै दीप अनुक्रम [८७०] 4% wlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~915~ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९१] (०३) ॐॐॐ -43+5+% 9 प्रत सूत्रांक [६९१] कदा भगवतो मेण्डिकमामनगरे विहरत: पित्तज्वरो दाहबहुलो बभूव लोहितवर्चश्च प्रावर्त्तत, चातुर्वर्ण्य च व्याकरोति म यदुत गोशालकस्य तपस्तेजसा दग्धशरीरोऽन्तः षण्मासस्य कालं करिष्यतीति, तत्र च सिंहनामा मुनिरातापना-18 ऽवसान एवममन्यत-मम धर्माचार्यस्य भगवतो महावीरस्य ज्वररोगो रुजति, ततो हा वदिष्यन्त्यन्यतीथिकाः यथा छदास्थ एवं महावीरो गोशालकतेजोऽपहतः कालगत इति एवम्भूतभावनाजनितमानसमहादुःखखेदितशरीरो मालुककच्छाभिधानं विजनं बनमनुप्रविश्य कुहुकुहेत्येवं महाध्वनिना प्रारोदीत्, भगवांश्च स्थविरेस्तमाकार्योक्तवान्-हे सिंह! यत्वया व्यकल्पि न तद्भावि, यत इतोऽहं देशोनानि षोडश वर्षाणि केवलिपर्यायं पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वं नगरमध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थं द्वे कूष्माण्डफलशरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनं, तथाऽन्यदस्ति तद्गृहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोनिवृत्तिकारकं कुक्कुटमासकं बीजपूरककटाहमित्यर्थः, तदाहर, तेन नः प्रयोजनमित्येवमुक्तोऽसौ तथैव कृतवान्, रेवती च सबहुमानं कृतार्थमात्मानं मन्यमाना यथायाचितं तत्याने प्रक्षिप्तवती, | तेनाप्यानीय तद्भगवतो हस्ते विसृष्टं, भगवतापि वीतरागतयैवोदरकोठे निक्षिप्त, ततस्तत्क्षणमेव क्षीणो रोगो जाता, जातानन्दो यतिवर्गो मुदितो निखिलो देवादिलोक इति । अनन्तरं ये तीर्थकरा भविष्यन्ति ते प्रकृताध्ययनानुपातेनोक्ता अधुना तु ये जीवाः सेत्स्यन्ति तथैव तानाह एस णं अळो! कण्हे वासुदेवे १ रामे बलदेवे २ उदये पेढालपुत्ते ३ पुट्टिले ४ सतते गाहावती ५ दारुते नितंठे ६ 5 दीप अनुक्रम [८७०] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 916~ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९२] दीप अनुक्रम [८७१] श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः 11840 11 “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ६९२ ] स्थान [९], सच्चती नियंठीपुत्ते ७ साबितयुद्धे अम्बढे परिव्यायते ८ अजाविर्ण सु पासा पासादचिज्ञा ९ आगमेस्साते उस्सप्पिणीते धम्मं पन्नवतित्ता सिम्झिहिन्ति जाव अंतं काङ्क्षिति (सू० ६९२ ) 'एस ण' मित्यादि, तत्र 'एष' इति वासुदेवानां पश्चिमोऽनन्तरकालातिक्रान्त इति 'अज्जो'ति आमन्त्रणवचनं भगवान् महावीरः किल साधूनामन्त्रयति हे आर्या ! 'उदये पेढालपुत्ते 'ति सूत्रकृतद्वितीयश्रुतस्कन्धे नालन्दीयाध्ययनाभिहितः, तद्यथा-उदकनामाऽनगारः पेढालपुत्रः पार्श्वजिनशिष्यः, योऽसौ राजगृहनगरवाहिरिकाया नालन्दाभिधानायाः उत्तरपूर्वस्यां दिशि हस्तिद्वीपवनखण्डे व्यवस्थितः, तदेकदेशस्थं गौतमं संशयविशेषमापृच्छय विच्छिनसंशयः सन् चतुर्यामधर्मे विहाय पञ्चयामं धर्मे प्रतिपेदे इति । पोट्टिशतकावनन्तरोक्तावेव । दारुकोऽनगारो वासु| देवस्य पुत्रो भगवतोऽरिष्टनेमिनाथस्य शिष्योऽनुत्तरोपपातिकोक्त चरित इति, तथा सत्यकिर्निर्ग्रन्थीपुत्रो यस्येदृशी वक्तव्यता-किल चेटकमहाराजदुहिता सुज्येष्ठाभिधाना वैराग्येण प्रत्रजिता उपाश्रयस्यान्तरातापयति स्म, इतञ्च पेढालो नाम परिव्राजको विद्यासिद्धो विद्या दातुकामो योग्यपुरुषं गवेपयति यदि ब्रह्मचारिण्याः पुत्रो भवेत्ततः सुन्यस्ता विद्या |भवेयुरिति भावयंस्तां चातापयन्तीं दृष्ट्वा धूमिकाव्यामोहं कृत्वा बीजं निक्षिप्तवान् गर्भः सम्भूतो दारको जातो, निर्म|न्धिकासमेतो भगवत्समवसरणं गतः, तत्र च कालसन्दीपनामा विद्याधरो भगवन्तं वन्दित्वा पप्रच्छ - कुत्तो मे भयं १, स्वामी व्याकार्षीत् एतस्मात्सत्यकेः, ततोऽसौ तत्समीपमुपागत्यावज्ञया तं प्रति वभाण - अरे रे मां एवं मारयिष्यसि ?, इति भणित्वा पादयोः पातितः, ततोऽन्यदा साध्वीभ्यः सकाशादपहृत्य पितृविद्याधरेण विद्याः ग्राहितो, अथ रोहिण्या Forest Use Only ९ स्थाना० उद्देशः ३ भावि सिद्धाः सू० ६५२ ~917~ ।। ४५७ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते bryog Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९२] (०३) प्रत सूत्रांक [६९२]] विद्यया पञ्चसु पूर्वभवेषु मारितः, षष्ठभवे षण्मासावशेषायुपा तेनासी नेष्टा, इह तु सप्तमे भवे सिद्धा, तल्ललाटे विवर विधाय तच्छरीरमतिगता, ललाटच्छिद्रं च देवतया तृतीयमक्षि कृतं, तेन च स्वपिता स च कालसन्दीपो मारितः, | विद्याधरचक्रवर्तित्वं च प्रापि, ततोऽसौ सर्वीस्तीर्थकरान वन्दित्वा नाव्य चोपदांभिरमते स्मेति । तथा श्राविकांश्रमणोपासिकां सुलसाभिधानां बुद्धः-सर्वज्ञधर्मे भावितेयमित्यवगतवान् श्राविका वा बुद्धा-ज्ञाता येन स श्राविकाबुद्धः 'अंमडों अंमडाभिधानः परित्राजकविद्याधरश्रमणोपासकः, अयं चार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेद-चम्पाया न गर्याः अम्बडो विद्याधरश्रावको महावीरसमीपे धर्ममुपश्रुत्य राजगृहं प्रस्थितः, स च गच्छन् भगवता बहुसत्त्वोपकासराय भणितः,-यथा सुलसानाविकायाः कुशलवातौ कथयेः, स च चिन्तयामास-पुण्यवतीय यस्याखिलोकनाथः स्वकी यकुशलवा प्रेषयति, का पुनस्तस्या गुण इति तावत्सम्यक्त्वं परीक्षे, ततः परिव्राजकपधारिणा गत्वा तेन भणि-16 ताऽसौ-आयुष्मति! धर्मों भवत्या भविष्यतीत्यस्मभ्यं भक्त्या भोजनं देहि, तया भणितम्-येभ्यो दत्ते भवत्यसौ ते विदिता एव, ततोऽसावाकाशविरचिततामरसासनो जनं विस्मापयते स्म, ततस्तं जनो भोजनेन निमन्त्रयामास, स तु नैच्छत्, लोकास्तं प्रपच्छ-कस्य भगवन्! भोजनेन भागधेयवत्वं मासक्षपणपर्यन्ते संवर्द्धयिष्यति', स प्रतिभणति स्म-सुलसायाः, ततो लोकस्तस्या बर्द्धनकं न्यवेदयत्, यथा तव गेहे भिक्षुरयं बुभुक्षुः, तयाऽभ्यधायि-किं पाख|ण्डिभिरस्माकमिति, लोकस्तस्मै न्यवेदयत्, तेनापि व्यज्ञायि-परमसम्यग्दृष्टिरेषा या महातिशयदर्शनेशिन रष्टिव्या-1 मोहमगमदिति, ततो खोकेन सहासौ तद्न्हे नेषेधिकी कुर्वन् पञ्चनमस्कारमुबारयन् प्रविवेश, साऽप्यभ्युत्थानादिका स्था०७७ दीप अनुक्रम [८७१] L ADTAProm मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~918~ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९२] दीप अनुक्रम [८७१] श्रीस्थानासूत्र वृत्तिः ॥ ४५८ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1, मूलं [ ६९२ ] स्थान [९], ९ स्थाना० प्रतिपत्तिमकरोत् तेनाप्यसानुपबृंहितेति यश्चापपातिकोपाङ्गे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते, तथा आर्यापि - आर्यिकाऽपि सुपार्श्वाभिधाना पार्श्वपीया पार्श्वनाथशिष्यशिष्या, चत्वारो यामा - महाव्रतानि यत्र ४ उद्देशः ३ ४ स चतुर्यामस्तं प्रज्ञाप्य सेत्स्यन्ति १, एतेषु च मध्यमतीर्थकरत्वेनोत्पत्स्यन्ते केचित्केचित्तु केवलित्वेन, 'भवसिद्धिओ उ भयवं सिज्झिस्सइ कण्हतित्थंमी'ति वचनादिति भावः, शेषं स्पष्टं । अनन्तरसूत्रोकस्य श्रेणिकस्य तीर्थकरत्वाभिधानायाह-'एस णमित्यादि जस्सीलसमाचारों इत्यादिगाधापर्यन्तं सूत्र एसओ ! सेजिए राया भिभिसारे कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीते सीमंतते नरए चउरासीतिवाससहस्सद्वितीयंसि निरयंसि णेरइयत्ताए उववज्जिहिति से णं तत्थ रइए भविस्सति काले कालोमासे जाव परमकिण्हे' वन्नेणं से णं तत्थ वेवणं वेदिहिती उज्जलं जाव दुरहियासं, से णं ततो नरतातो उबट्टेत्ता आगमेसाते उस्सप्पिणीते व जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयडगिरिपायमूले पुंडेसु जणवत्तेसु सतदुबारे नगरे संमुइस्स कुलकरस्स मेंहाए मारियाए कुच्छिसि पुमत्ताए पश्चायाहिती, तए णं सा मद्दा भारिया नवहूं मासाणं बहुपडिपुष्णाण अट्टमाव राईदियाणं वीतिताणं सुकुमालपाणिपातं अहीणपडिपुनपंचिदियसरीरं लक्खणर्वजणजाब सुरुवं दारगं पचाहिती, जं रयचिणं से दारए पयाहिती तं स्यणिं च णं सत्तदुबारे गरे सभंतरचा हिरए भारग्गसो य कुंभग्गसो पउमवासेत रणवासेत बासे वासिहिति, तए णं तस्स दारयस्त अम्मापियरो एकारसमे दिवसे वइकंते जाव बारसाहे दिवसे अग्रमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्कण्णं नामधिलं काहिंति जम्हा णं अहमिमंसि दारगंसि जातंसि समाणंसि सयदु Forest Use Only महापद्म चरितं सू० ६९३ ~919~ ॥ ४५८ ॥ incibrary.org [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] बारे नगरे सम्भितरवाहिरए भारग्गसो य कुभग्गसो य पउमवासे य रषणवासे व वासे बढ़े होक मम्हामिमस्स दारगस्स नामधि महापउमे, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज काहिति-महापउमेसि, सए ण महापधर्म दारगं अम्मापितरो सातिरेगं अहवासजातगं जाणित्ता महता रायामिसेएणं अभिसिंचिहिति, से ण सत्य राया भषिस्सति महता हिमवंतमहत्तमलवमंदररायवनतो जाव रज पसाहेमाणे विहरिरसति, तते णं तस्स महापजमस्स रनो अग्नया कयाइ दो देवा महिनिया जाव महेसक्खा सेणाकम्मं काहिति, तं०-पुनभइते माणिभरते, तए ण सप्तवारे नगरे बहवे रातीसरतलपरमाउंवितकोढुंबितइन्भसेडिसेणावतिसत्यवाहप्पमितयो अन्नमन्नं सदावेहिति एवं प्रतिस्संति जम्हा णे देवाणुपिया! अम्ह महापजमस्स रन्नो दो देवा महिडिया जाव महेसक्खा सेनाकम्मं करेंति, तं०-पुनभहे त माणिभरे वतं होऊ णमम्हं देवाणुप्पिया! महापउमस्स रनो दोशेवि मामधेज्जे देवसेणे, तते णं तस्स महापउमस्स दोगेवि मामधेने भविस्सह देवसेणेति २, नए ण तस्स देवसेणस्स रनो अन्नता कताती सेयसंखतलविमलसग्निकासे चउईते हस्थिरयणे समुष्पजिहिति, तए णं से देवसेणे राया स सेयं संखतलविमलसन्निकासं चउदंतं हस्थिरवणं दुरूढे समाणे संतदुवार मगर मझमजोणं अभिक्खणे २ अतिजाहि त णिजाहि त, तते णं सतदुवारे गरे बहये रातीसरतलवरजाय अन्नमन्नं सदाविति २ एवं वासंति-जम्हा ण देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रन्नो सेते संखवलविमलसन्निकासे पर्दते स्थिरयणे समुपने त होऊ णमम्हं देवाणुप्पिया! देवसेणस्स रन्नो तश्चेवि नामधेजे विमलवाहणे, तते ण तस्स देवसेणस्स रनो सञ्चेवि णामधेजे भविस्सति विमलवाहणे २, तए ण से विमलवाहणे राया तीसं बासाई अगारवासमझे वसित्ता अम्मापितीहि SSSSSSSS दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] JAMEaiahindi K ainturyom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~920~ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) 5 श्रीस्थानालसूत्रवृत्तिः ९स्थाना उद्देश:३ महापन चरितं सू०६९३ प्रत सूत्रांक [६९३] % ॥४५९॥ % % देवत्तगतेहिं गुरुमहत्तरतेहिं अब्भणुनाते समाणे उदुंमि सरए संयुद्धे अणुत्तरे मोक्समग्गे पुणरवि लोगंतितेहिं जीयकपितेहिं देवेदि ताहि इटाहिं कतादि पियाहि मणुनाहि मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं धन्नाहिं सिवाहिं मंगलादि सस्सिरीआदि वग्गूहिं अभिणविजमाणे अभिथुवमाणे य बहिया सुभूमिभागे उजाणे एग देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पश्ययाहिति, तस्स णं भगवंतस्स साइरेगाई दुवालस बासाई निवं पोसहकाए चियत्तदेहे जे केई उक्सग्गा उप्पजति तं०-दिव्या वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्म सहिस्सद खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहियासिस्सइ, तए णं से भगवं ईरियासमिए भासासमिए जाव गुत्तर्वभयारि अममे अकिंचणे छिन्नगंथे निरुपलेये कंसपाईव मुक्तोए जहा भावणाए जाव सुहृयहुयासणेतिव तेयसा जलंते ॥ कंसे संखे जीये गगणे वाते व सारए सलिले । पुक्खरपत्ते कुंमे विहगे खम्गे य भारंडे ॥ १ ॥ कुंजर वसहे सीहे नगराया चेव सागरमखोभे । चंदे सूरे कणगे बसुंधरा चेच मुटुबद्दुए ।। २ ।। नस्थिणे तस्स भगवंतस्स कथइ पटिबंधे भवइ, से य पडिबंधे चउबिहे पं० २०-अंडए वा पोयएइ वा उागहेइ वा पगहिएइ वा, ज णं जणं दिसं इच्छा तं गं तं णं दिस अपडिबढे सुविभूए लहुभूए अणप्पगंथे संजमेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सइ, तस्स गं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं अणुत्तरेणं ईसणेणं अणुवधरिएणं एवं आलएणं विहारेणं अजवे महवे लाघवे खंती मुत्ती गुत्ती सच संजम तवगुणसुचरियसोवचियफलपरिनिव्याणमम्गेणं अप्पाणं भाषमाणस्स झाणतरियाए वट्टमाणस्स अणते अणुत्तरे गिव्याघाए जाव केवळवरनाणदसणे समुप्पजिदिति, तए णं से भगवं अरह जिणे भविस्सइ, केवली सम्पन्नू सम्पदरिसी सदेवमणुभासु * दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] % ॥४५९॥ - JABERatinintamational wwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~921~ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] रस्स लोगस्स परियागं जाणइ पासइ सव्वलोए - सम्वजीवाणं आगई गति ठियं चयर्ण उववाय तक मणोमाणसियं मुत्तं कई परिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं अरहा अरहस्स भागी तं तं कालं मणसवयसकाइए जोगे बढमाणाणं सब्बलोए सन्मजीवाण सम्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरद, तए णं से भगवं तेणं अणुत्तरेणं केवलवरनाणदसणेणं सदेवमणुभासुरलोग अभिसमिया समणाणं निर्गवाणं [जे केइ उवसम्गा उप्पजति, 40-दिव्या वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उत्पने सम्मं सहिस्सइ खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहियासिरसइ, तते ण से भगवं अणगारे भविस्सति ईरियास मिते भास० एवं जहा बद्धमाणसामी तं चेव निरवसेस जाव अब्बावारविउसजोगजुत्ते, तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स दुवालसहि संवच्छरेहिं बीतिकतेहिं तेरसहि य पक्वेहिं तेरसमस्त ण संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अणुत्तरेणं णाणेणं जहा भावणाते केवलवरनाणदसणे समुप्पजिहिन्ति जिणे भविस्सति केवली सम्पन्नू सन्यदरिसी सणेरईए जाव] पंच महब्बयाई सभावणाई उच्च जीवनिकायधम्म देसेमाणे विहरिस्सति से जहाणामते अज्जो ! मते समणाणं निग्गथाणं एगे आरंभठाणे पण्णत्ते, एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंधाणं एग आरंभट्ठाणं पण्णवेहिति से जहाणामते अजो मते समणाणं निगंयाणं दुवि बंधणे पं० २०-पेजवंधणे दोसबंधणे, एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंधाणं दुविहं बंधणं पन्नवेहिती, तं०-पेजबंधणं च दोसपंधणं च, से जहानामते अजो मते समणा निर्गथाणं सओ दंडा पं०२०-मणदंडे ३ एवामेव महापउमेवि समणाणं निग्गंथाणं ततो दंडे पण्णवेदिति, सं०-मणोदंदं ३, से जहा नामए एएणं अमिलावणं चत्तारि कसाया पं० २०-कोहकसाए ४ पंच कामगुणे पं००-सरे ५ छज्जीवनि दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] JABERatun ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~922~ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] (०३) श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ९स्थाना उद्देशः महापा चरितं सू०६९३ ॥४६ ॥ BASE काता पं० ०-पुढविकाइया जाव तसकाइया, एवामेव जाव तसकाइया, से जहाणामते एएणं अमिलावेणं सत्त मयद्वाणा पं० त० एवामेव महापउमेवि अरहा समणार्ण निग्गंधाणं सत्त भयद्वाणा पनवेहिति, पबमह मयहाणे, 4 बम गुत्तीओ दसविधे समणधम्मे एवं जाव तेत्तीसमासातणाउत्ति से जहानामते अजो! मते समणाण निगंथाण मगभावे मुंजभावे अण्हाणते अदंतवणे अच्छत्तए अणुवाहणते भूमिसेजा फलगसेजा कटुसेजा केसलोए भरवासे परपर. पवेसे जाव लढावलद्धवित्तीत पन्नत्ताओ एवामेव महापलमेवि अरहा समणाणं निग्गंथाणं गग्गभाव जाव लद्धावलवित्ती पण्णवेहिती, से जहाणामए अजो! मए समणाणं नि० आधाकम्मिएति वा उदेसितेतिवा मीसज्जाएति का अझोयरएति वा पूतिए कीते पामिचे अच्छेजे अणिसहे अमिहडेति वा कतारभत्तेति वा दुभिक्खभने गिलाणभत्ते बहलिताभत्तेह वा पाहुणभत्तेइ वा मूलभोयणेति वा कंदो० फलभो० वीयभो० हरियभोयणेति वा पडिसिद्ध, वाय महापउमेवि अरहा समणार्ण आधाकम्मितं वा जाब हरितभोयणं वा पडिसेहिस्सति, से जहानामते अजों! मई सगणाण पंचमहब्बतिए सपदिकमणे अचेलते धम्मे पण्णत्ते एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णियाण पंचमहन्वतितं जाप अचेलग धम्म पण्णवेहिती, से जहानामए अजो! मए पैचाणुरुवतिते सत्तसिक्खापतिते दुवालसविघे सावगधम्मे पण्णते एवामेव महापउमेवि अरहा पंचाणुव्यतितं जाव सायगधर्म पण्णवेस्सति, से जहानामते अजो! मए समणाण० सेजातरपिंडेति वा रायपिंटेति वा पडिसिद्धे एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं सेज्जातरपिंडेति वा पढिसेहिस्सति, से जपाणामते अमो! मम णव गणा इगारस गणधरा एवामेव महापउमस्सवि अरिहती णव गणा एगारस गणपरा भविस्सति, [६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] AmEainuMAN Aandibrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~923~ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] से जहानामते अजौ ! अहं तीसं वासाई अगारबासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते दुवालस संपराई तेरस पक्खा छउमत्थपरियागं पाउणित्ता तेरसहिं पक्सहिं ऊणगाई तीसं वासाई केवलिपरियागं पाउँणित्ता पायालीस वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता बावत्तरि वासाई सवाउयं पालइत्ता सिज्हिास्सं जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेस्स एवामेव महापउमेवि अरहा तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता जाव पविहिती दुवालस संवच्छाराई जीव बावत्तरिवासाई सव्वालयं पालइत्ता सिज्झिहिती जाव सन्बदुक्खाणमंत काहिती-"जंसीलसमायारो अरहा तिथंकरो महावीरी । तस्सी लसमायारो होति उ भरहा महापउभे ॥१॥" (सू०६९३) (इति श्री महापाचारित्रं संपूर्णमिति) * सुगम चैतत्, नवरं एषः-अनन्तरोक आर्या इति श्रमणामन्त्रणं 'भिभित्ति ढक्का सा सारो यस्य स तथा, किल तेन कुमारत्वे प्रदीपनके जयदका गेहान्निष्काशिता ततः पित्रा भिंभिसार उक्त इति, सीमंतके नरकेन्द्र के प्रथमप्रस्तट वर्तिनि चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिषु नरकेषु मध्ये नारकत्वेनोसत्स्यते, कालः स्वरूपेण कालावभास:-काल एवावभा४सते पश्यतां यावत्करणात् 'गंभीरलोमहरिसे गम्भीरो महान् लोमहर्षो-भयविकारो यस्य स तथा, 'भीमो' विकरालः 'उत्तासणओं उद्वेगजनकः, 'परमकिण्हे बन्नेण'ति प्रतीतं, स च तत्र नरके वेदनां वेदयिष्यति, उज्वलां-विपक्षस्य लेशेनाप्यकलङ्कितां यावत्करणात् त्रीणि मनोवाकायबलानि उपरिमध्यमाधस्तनकायविभागान् वा तुलयति-जयतीति ४त्रितुला तां, कचिद्विपुलामिति पाठः, तत्र विपुला-शरीरव्यापिनी तों, तथा प्रगाढां-प्रकर्षवती कटुका-कटुकरसोत्या&ादिता कर्कशा-कर्कशस्पर्शसम्पादितां अथवा कटुकद्रव्यमिव कटुकामनिष्टा, एवं कर्कशामपि, चण्डा-वेगवती झटि-13 KिA4%A5 दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] JABERatinintamationa walanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~924~ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] श्रीस्थाना-IP त्येव मूच्छोलादिका, वेदना हि द्विविधा-सुखा दुःखा चेति, सुखान्यवच्छेदार्थ दुःखामित्याह, दुर्गा-पर्वतादिदुर्गमिव कध- स्थाना. गसूत्र- मपि लवयितुमशक्यां दिव्या-देवनिर्मिता, किंबहुना?-दुरपिसहा-सोदुमशक्यामिति, इहैव जम्बूद्वीपे, नासङ्ख्येयतमे,31 उद्देशः ३ वृत्तिः 'पुमत्ताए'त्ति पुंस्तया 'पञ्चायाहिद'त्ति प्रत्याजनिष्यते, 'बहुपडिपुन्नाण'ति अतिपरिपूर्णानामर्द्धमष्टम येषु तान्यष्टि-I महापामानि तेषु रात्रिन्दिवेषु-अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु, इह षष्ठी सप्तम्यर्थे, सुकुमारी-कोमलौ पाणी च पादौ च यस्य स सुकु-IN चरित ॥४६१॥ मारपाणिपादस्तं, प्रतिपूर्णानि स्वकीयस्वकीयप्रमाणतः प्रतिपुण्यानि वा-पवित्राणि पञ्च इन्द्रियाणि-करणानि यस्मिंस्त-| सू०६९३ तथा अहीनमङ्गोपाङ्गप्रमाणतः प्रतिपूर्णपश्चेन्द्रियं प्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियं वा शरीरं यस्य सोऽहीनप्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरः अहीनप्रतिपुण्यपश्चेन्द्रियशरीरो वा तं, तथा लक्षणं-पुरुषलक्षणं शास्त्राभिहितं अस्थिवर्धाः सुखं मांस' इत्यादि, मानोमानादिकं वा व्यञ्जनं-मपतिलकादि गुणा:-सौभाग्यादयः अथवा लक्षणव्यञ्जनयोर्ये गुणास्तैरुपेतो लक्षणव्यञ्जनगुणोपेतः, उववेओत्ति तु प्राकृतत्वाद्वर्णागमतः, अथवा उप अपेत इति स्थिते शकन्धवादिदर्शनादकारलोप इत्युपपेत इति लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतस्तं, लक्षणव्यञ्जनस्वरूपमिदमुक्तम्-"माणुम्माणपमाणादि लक्षणं पंजणं तु मसमाई। सहजं च लक्खणं बंजणं तु पच्छा समुप्पनं ॥१॥” इति [लक्षणं मानोन्मानप्रमाणादि मपादिव्यंजनं अथवा सहज लक्षणं पश्चात्समुत्पन्नं तु व्यंजनं ॥१॥] लक्षणमेवाधिकृत्य विशेषणान्तरमाह-'माणुम्माणे'त्यादि, तत्र मान-जलद्रोणप्रमाणता, सा ह्येवं-जलभृते कुण्डे प्रमातव्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुण्डान्निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति ॥४६१॥ तदा स पुरुषः मानोपपन्न इत्युच्यते, उन्मानं तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता, प्रमाण-आत्माखलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलो 495 दीप अनुक्रम - [८७२ -८७६] CA JABERatinintamational wjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~925~ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] छ्यता, उक्त प-"जलदोण १ मद्धभार २ समुहाई समुस्सिओ व जो नव उ ३ माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु ल४ खणं एयं ॥१॥" इति [जलद्रोणो मानमर्द्धभारमुन्मानं स्वमुखानि नवसमुच्छ्रितो वस्तु प्रमाणं त्रिविधं एतल्लक्षणं | खलु] ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुष्टु जातानि सर्वाण्यङ्गानि-शिरम्मभृतीनि यस्मिंस्तत् तथाविधं सुन्दरमङ्ग| शरीरं यस्य स तथा तं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्ण सुजातसर्वाङ्गसुन्दरा, तथा शशिवत्सौम्याकारं कान्त-कमनीयं प्रियं-प्रेमावह दर्शनं यस्य स शशिसौम्याकारकान्तप्रियदर्शनस्तं, अत एव सुरूपमिति दारकं प्रजनिष्यति भद्रेति सम्बन्धः, 'जं रयणि च'त्ति यस्यां च रजन्यां 'तं रयणिं चत्ति तस्यां रजन्यां पुनरिति, अर्द्धरात्र एव च तीर्थकरो सत्तिरिति रजनीग्रहणं, 'से दारए पयाहित्ति स दारकः प्रजनिष्यते उत्सत्स्यत इति, 'सभितरवाहिरए'त्ति सहाट्राभ्यन्तरेण बाह्यकेन च नगरभागेन यनगरं तत्र, सर्वत्र नगर इत्यर्थः, विंशत्या पलशतर्भारो भवति अथवा पुरुषो-15 हक्षेपणीयो भारो भारक इति यः प्रसिद्धः अग्रं-प्रमाणं ततो भार एवाग्रं भाराग्रं तेन भाराग्रेण भाराप्रशो-भारपरि माणतः, एवं कुम्भाग्रशो, नवरं कुम्भ आढकषट्यादिप्रमाणतः, पद्मवर्षश्च रलवर्षश्च वर्षिष्यति भविष्यतीत्यर्थः, 'जावत्ति करणात् 'निव्वत्ते असुइजाइकम्मकरणे संपत्ते'त्ति दृश्य, तत्र 'निवृत्ते' निर्वर्तित इत्यर्थः पाठान्तरतः निव्वत्ते वा निवृत्ते-उपरते अशुचीनां-अमेध्यानां जातकर्मणां-प्रसवव्यापाराणां करणे-विधाने सम्प्राप्ते-आगते 'बारसाहदिवसे'ति द्वादशानां पूरणो द्वादशः स एवाख्या यस्य स द्वादशाख्यः स चासौ दिवसश्चेति विग्रहः, अथवा द्वादर्श च तदहश्च द्वादशाहस्तन्नामको दिवसो द्वादशाहदिवस इति, 'अयंति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्न 'एयारूवंति एतदेव दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~926~ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] श्रीस्थाना- असूत्र दृत्ति ॥४२॥ OCTORS रूप-स्वभावो यस्य न मात्रयापि प्रकारान्तरापनमित्यर्थः, किं तत्-नामधेर्य-प्रशस्तं नाम, किंविधम् ?-गौण नै पा-131९ स्थाना. रिभाषिक, गौणमित्यमुख्यमपि स्यादित्याह-गुणनिष्पन्न' इति गुणानाश्रित्य पद्मवर्षादीनिष्पन्नं गुणनिष्पन्नमित्यक्षर- उद्देशः ३ घटना, 'महापउमे महापउमे'त्ति तपित्रोः पर्यालोचनाभिलापानुकरणं, 'तए 'ति पर्यालोचनानन्तरं 'महापउम इति महापद्म इत्येवंरूपं 'साइरेगट्ठवासजायगे'ति सातिरेकाणि-साधिकान्यष्टौ वर्षाणि जातानि यस्य स तथा तं, 'राय-13 चरितं |वनओ'त्ति राजवर्णको वक्तव्यः, स चाय-महयाहिमवन्तमहन्तमलयमंदरमहिंदसारे' महता-गुणसमूहेनान्तर्भूतभावप्र-13ासू०६९३ त्ययत्वाद्वा महत्तया हिमांश्च-वर्षधरपर्वतविशेषः महांश्चासौ मलयश्च विन्ध्य इति चूर्णिकार महामलयः सम-2 दरब-मेरुः महेन्द्रश्च-शकादिः ते इव सारः-प्रधानो यः स तथा, 'अचंतविसुद्धदीहरायकुलवंसप्पसूए' अत्यन्त विशुजा सर्वथा निर्दोषः दीर्घश्च-पुरुषपरम्परापेक्षया यो राज्ञां-भूपालानां कुललक्षणो वंश:-सन्तानस्तत्र प्रसूता-जातो वाडा स तथा 'निरन्तरं रायलक्खणविराइयंगुवंगे' नैन्तर्येण राजलक्षणैः-चक्रस्वस्तिकादिभिर्विराजितान्यजानि-शिराप्र-II मृतीन्युपाङ्गानि च-अङ्गल्यादीनि यस्य स तथा, 'बहुजणबहुमाणपूइए सवगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए'त्ति प्रतीत 'मु-४ डाभिसित्ते' पितृपितामहादिभिर्मूर्धन्यभिषिक्तो यः स तथा, 'माउपिउसुजाए' सुपुत्रो विनीतत्वादिनेत्यर्थः, 'देव-पा प्पत्ते' दयाप्राप्तो दयाकारीत्यर्थः सीमडूरे-मर्यादाकारी 'सीमन्धरे' मर्यादा पूर्वपुरुषकृती धारयति-नात्मनापि लीपयति यः स तथा खेमंकरो-नोपद्वकारी खेमधरे-क्षेमं धारयत्यन्यकृतमिति यः स तथा, 'माणुरिंसदे जणवयपियार लोकपिता वत्सलत्वात् , 'जणवयपुरोहिए' जनपदस्य पुरोधा:-पुरोहितः शान्तिकारीत्यर्थः, 'सेतुकरें' सेतु-मार्गमा-& दीप अनुक्रम [८७२ ॥४६२।। -८७६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~927~ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६९३ ] + गाथा: स्थान [९], उद्देशक [-], पङ्गतानां निस्तरणोपायं करोति यः स तथा 'केतुकरे' चिन्हकरः अद्भुतकारित्वादिति, 'नरपवरे' नरैः प्रबरः मेरा वा प्रवरा यस्य स तथा 'पुरिसवरे' पुरुषप्रधानः 'पुरिससीहे' शौर्याद्यधिकतया, 'पुरिस आसीदिसे' शोपसंमर्थत्वात् 'पुरिसपुंडरीए' पूज्यत्वात् सेव्यत्वाच्च, 'पुरिसवरगंधहत्थी' शेषराजगजविजयित्वात्, 'अड्डे' धनेश्वरत्वात् 'दित्ते' दकत्वात् 'वित्ते' प्रसिद्धत्वात् 'विच्छिन्नविपुलभवणसयणासण जाणवाहणाइने' पूर्ववत् 'बहुधणबहुजायस्वरयाएं आओगपओगसंपत्ते' आयोगप्रयोगा-द्रव्यार्जनोपायविशेषाः सम्प्रयुक्ताः प्रवर्त्तिता येन स तथा, 'विच्छंडियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसग बेल गप्पभूए पडिपुन्नजतकोसकोट्ठागारायुहागारे' यन्त्राणि - जलयन्त्रादीनि कोश:- श्रीगृहं कोष्ठागारं धान्यागारं आयुधागारं प्रहरणकोशः 'बलवं' हस्त्यादिसैन्ययुक्तः 'दुब्बलपञ्चामित्ते' अवलप्रातिवेशिकराजः, 'ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्भियकंटयं अकंटयं एवं ओहयसत्तुं' उपहता राज्यापहारात् निहता मारणान्मलिता मानभञ्जनादुद्धृता देशनिष्काशनात्कण्टका- दायादा यत्र राज्ये तत्तथा, अत एवाकण्टकं एवं शत्रवोऽपि, नवरं शत्रवस्तेभ्योऽन्ये, 'पराईयसत्तुं' विजयवत्त्वादिति, 'ववगयदुभिक्खं मारिभयविध्यमुकं खेमं सिवं सुभिक्खं पसनबिडमर' डिम्बानि-विघ्ना उमराणि - कुमारादिव्युत्थानादीनि, 'रज्जं पसासेमाणे'त्ति पालयन् 'विहरिस्सह'ति । 'दो देवा महद्धिया' इत्यत्र यावत्करणात् 'महज्जुइया महाणुभागा महायसा महाबले 'ति दृश्यं, 'सेणाकम्मं ति सेनायाःसैन्यस्य कर्म-व्यापारः शत्रुसाधनलक्षणः सेनाविषयं वा कर्म- इतिकर्त्तव्यतालक्षणं सेनाकर्म्म, पूर्णभद्रश्च दक्षिणयक्षनिकायेन्द्रः माणिभद्रश्च - उत्तरयक्षनिकायेन्द्रः, 'बहवे राईसरे त्यादि, राजा - महामाण्डलिकः ईश्वरो-युवराजो माण्ड For Fast Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~928~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) श्रीस्थानाजसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [६९३] ॥४६३॥ लिकोऽमात्यो वा, अन्ये च व्याचक्षते-अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इति, तलवरः-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धभू-8/९ स्थाना० पितो माडम्बिका-छिन्नमडम्बाधिपः, कौटुम्चिका कतिपय कुटुम्बप्रभुरिभ्यः-अर्थवान् , स च किल यदीयपुञ्जीकृतद्र उद्देशः३ व्यराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावताऽर्थेनेति भावः, श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः पुर- महापद्मज्येष्ठो वणिक, सेनापतिः-नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्वरवपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः, सार्थवाहकः-४ चरितं सार्थनायकः एतेषां द्वन्द्वः, ततश्च राजादयः प्रभृतिः-आदिर्येषां ते तथा, 'देवसेणे'त्ति देवावेव सेना यस्य देवाधिष्ठिता सू०६९३ वा सेना यस्य स देवसेन इति, 'देवसेणाती'ति देवसेन इत्येवंरूपं, 'सेते'त्यादि श्रेयान्-अतिप्रशस्यः श्वेतो वा कीहदागित्याह-चालतलेन-कम्बुरूपेण विमलेन-पङ्कादिरहितेन सन्निकाश:-सङ्काशः सदृशो यः स शतलविमलसन्निकाशा, 'दुरूढे'त्ति आरूढः 'समाणे ति सन् 'अतियास्यति' प्रवक्ष्यति निर्यास्यति' निर्गमिष्यतीति, कचिद्वर्तमान निर्देशोरश्यते स च तत्कालापेक्ष इति, एवं सर्वत्र, 'गुरुमहत्तरएहिं ति गुवों:-मातापित्रोमहत्तरा:-पूज्या अथवा गौरवाहेत्वेन गुरवो महत्तराश्च वयसा वृद्धत्वाचे ते गुरुमहत्तराः 'पुणरवित्ति महत्तराभ्यनुज्ञानानन्तरं लोकान्ते-लोकाग्रलक्षणे सिवस्थाने भवा लोकान्तिकाः, भाविनि भूतबदुपचारन्यायेन चैवं व्यपदेशः, अन्यथा ते कृष्णराजीमध्यवासिनो, लोकान्तभावित्वं च तेषामनन्तरभव एव सिद्धिगमनादिति, 'जीतकल्पः' आचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलक्षणो विद्यते येषां| ते जीतकल्पिकार, आचरितमेव तेषामिदं नतु तैस्तीर्थकरः प्रतिबोध्यते, स्वयंबुद्धत्वाद्भगवत इति, 'ताहिन्ति ता|भिर्विवक्षिताभिः 'वग्गृहिते वाग्भिर्यकाभिरानन्द उत्पद्यत इति भावः, 'इष्टाभिः'इष्यन्ते स्म याः कान्ताभि-कम दीप अनुक्रम [८७२ ॥४६३॥ -८७६] wwwsaneioraryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~929~ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] स्था० ७८ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [ ६९३ ] + गाथा: नीयाभिः प्रियाभिः - प्रेमोत्यादिकाभिः, विरूपा अपि कारणवशात् प्रिया भवन्तीत्यत उच्यते- मनोज्ञाभिः - शुभस्वरूपाभिः मनोज्ञा अपि शब्दतोऽर्थतो न हृदयङ्गमा भवन्तीत्याह - 'मणामाहिं'ति मनः अमन्ति-गच्छन्ति यास्ताः तथा ताभिरुदारेण - उदात्तेन स्वरेण प्रयुक्तत्वादर्थेन वा युक्तत्वादुदाराभिः कल्यं आरोग्यं अणन्ति-शब्दयन्तीति कल्याणास्ताभिः शिवस्य - उपद्रवाभावस्य सूचकत्वाच्छिवाभिः धनं लभन्ते धने वा साध्थ्यो धन्यास्ताभिः मङ्गले- दुरित| क्षये साध्व्यो मङ्गल्यास्ताभिः सह श्रिया वचनार्थशोभया यास्ताः सश्रीकास्ताभिः वाग्भिरिति सम्बन्धितं अभिनन्द्यमानः-समुहास्यमानः, 'वहिय'ति नगराइ हस्तादिति । इतो वाचनानन्तरमनुश्रित्य लिख्यते- 'साइरेगाइ 'न्ति अर्द्धसप्तमैर्मासैर्द्वादश वर्षाणि यावत् व्युत्सृष्टे काये परिकर्म्मवर्जनतस्त्यते देहे परीषहादिसहनतस्तथा सक्ष्यति उत्पत्स्यमानेधूपसर्गेषु भयाभावतः क्षमिष्यत्युत्सन्नेषु क्रोधाभावतः तितिक्षिष्यति दैन्याभावतः अध्यासिष्यते अविचलतयेति, 'जाव गुत्ते'त्तिकरणादिदं दृश्यं - 'एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्लेवणासमिए' भाण्डमात्राया आदाने निक्षेपे च समित इत्यर्थः, 'उच्चारपासवण खेल सिंघाणजहपारिठावणियासमिए' खेलो- निष्ठीवनं सिंघाणो- नासिकाश्लेप्मा जहोमलः, 'मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते' 'गुत्ते' गुप्तत्याद् त्रिगुप्तात्मेत्यर्थः, 'गुत्सिंदिए' स्वविषयेषु रागादिनेन्द्रियाणामप्रवृत्तेः, 'गुत्तभचारी' गुप्तं नवभिर्ब्रह्मचर्यगुप्तिभी रक्षितं ब्रह्म-मैथुनविरमणं चरतीति विग्रहः, तथा 'अममे' अविद्यमानममे| त्यभिलापो निरनुषङ्गवात् 'अकिंचणे'नास्ति किंचणं-द्रव्यं यस्य स तथा, 'छिन्नग्रन्थे' छिन्नो ग्रन्थो धनधान्यादिस्तप्रतिबन्धो वा येन स तथा, कचित् 'किन्नग्गन्थे' इति पाठस्तत्र कीर्णः क्षिष्ठः, 'निरुवलेवे' द्रव्यतो निर्मलदेहत्वात् भा For Past Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~930~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः cibrary.org Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] -SCRECOM श्रीस्थाना- वतो बन्धहेत्वभावानिर्गत उपलेपो यस्मादिति निरुपलेपः, एतदेवोपमानैरभिधीयते-'कंसपातीव मुक्कतोये' कांस्यपा- स्थाना० इसूत्र त्रीव-कांस्यभाजनविशेष इव मुक्त-त्यक्तं न लग्नमित्यर्थः तोयमिव बन्धहेतुत्वात्तोयं-कोहो येन स मुक्ततोयः यथा भा- उद्देश ३ वृत्तिः बनायामाचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धपञ्चदशाध्ययने तथा अयं वर्णको वाच्य इति भावः, कियदूरं यावदित्याह-जाव* महापन Aमुहुये'त्यादि, सुष्ट हुतं-क्षिप्तं घृतादीति गम्यते यस्मिन् स सुहुतः स चासौ हुताशनश्च-वह्निरिति सुहुतहुताशनस्त- चरितं ॥४६४॥ द्वत्तेजसा-ज्ञानरूपेण तपोरूपेण वा ज्वलन्-दीप्यमानः, अतिदिष्टपदानां सहं गाथाभ्यामाह-'कंसें'गाहा, 'कुंजर' सू०६९३ गाहा, 'कंसे'त्ति 'कंसपाईव मुकतोये' संखेत्ति 'संखे इव निरङ्गणे रङ्गणं-रागाद्युपरञ्जनं, तस्मान्निर्गत इत्यर्थः, 'जी'त्ति 'जीव इव अप्पडिहयगई' संयमे गतिः-प्रवृत्तिन हन्यते अस्य कथचिदिति भावः, 'गगणे'त्ति 'गगनमिव निरा-12 लम्बणे' न कुलग्रामाद्यालम्बन इति भावः, 'वाये यत्ति 'वायुरिव अप्पडिबद्धे' प्रामादिष्वेकरात्रादिवासात् 'सारपस-1 लिले'त्ति 'सारयस लिलं व सुद्धहियए' अकलुषमनस्त्वात् , 'पुकखरपतेत्ति 'पुक्खरपत्तंपिव निरुवलेवे' प्रतीतं, 'कुम्मे त्ति 'कुम्मो इव गुत्तिं दिए' कच्छपो हि कदाचिदवयवपश्चकेन गुप्तो भवत्येवमसावपीन्द्रियपञ्चकेनेति, 'विहगें'ति 'विहग इव विष्पमुके' मुक्तपरिच्छदत्वादनियतवासाच्चेति, 'खग्गे यत्ति 'खग्गिविसाणंव एगजाए' खन:-आटव्यो जीवस्तस्य विषाण-शृङ्गं तदेकमेव भवति तद्वदेकजात:-एकभूतो रागादिसहायवैकल्यादिति, "भारुडे'त्ति 'भारुडपक्खीव अप्प ॥४६४॥ मत्ते' भारुण्डपक्षिणोः किलैकं शरीरं पृथग्ग्रीवं त्रिपादं च भवति, तौ चात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभेते इति तेनोपमेति ॥१॥'कुंजरे'त्ति 'कुंजरो इव सोंडीरें हस्तीव शूरः कषायादिरिपून प्रति, 'वसभे'त्ति 'वसभी इस जायथामें। दीप अनुक्रम + [८७२ -८७६] Mandinrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~931~ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] गौरिवोत्पन्नवला, प्रतिज्ञातवस्तुभरनिर्वाहक इत्यर्थः, 'सीहे'त्ति 'सीहो इव दुद्धरिसे' परीपहादिभिरनभिभवनीय इत्यर्थः, नगराया चेवत्ति 'मंदरो इव अप्पकंपे' मेरुरिवानुकूलाद्युपसगैरविचलितसत्त्वः, 'सागरमक्खोहि'त्ति मकारोऽलाक्षणिक सागरवदक्षोभः सागराक्षोभ इति सूत्रसूचा, सूत्रं च 'सागरो इव गंभीरे' हर्षशोकादिभिरक्षोभितत्वादिति, 'चंदे'त्ति 'चंदे| WIइव सोमलेसे अनुपतापकारिपरिणामः, 'सूरेत्ति 'सूरे इव दित्ततेए' दीप्ततेजा द्रव्यतः शरीरदीत्या भावतो ज्ञानेन, कणगे'त्ति 'जच्चकणगंपिव जायरूमें जातं-लब्ध रूप-स्वरूप रागादिकुद्रव्यविरहाद् येन स तथा, 'वसुंधरा चेव'त्ति लवसुंधरा इव सब्बफासविसहे' स्पर्शा:-शीतोष्णादयोऽनुकूलेतराः, 'सुहुयहुए'त्ति व्याख्यातमेवेति, 'नत्थी'त्यादि, नास्ति तस्य भगवतो महापद्मस्यायं पक्षः, यदुत कुत्रापि प्रतिबन्धः-स्नेहो भविष्यतीति, 'अण्डए इ बत्ति अण्डजो-हंसादिः ममायमित्युल्लेखेन वा प्रतिबन्धो भवति, अथवा अण्डक मयूर्यादीनामिदं रमणकं मयूरादेः कारणमिति प्रतिबन्धः स्यादित्यथबाउण्ड पट्टसूत्रजमिति वा, पोतजो हस्त्यादिरयमिति वा प्रतिबन्धः स्यात्, अथवा पोतको बालक इति वा,13 अथवा पोतकं वस्त्रमिति वा प्रतिवन्धः स्यात्, आहारेऽपि च विशुद्धे सरागसंयमवतः प्रतिबन्धः स्यादिति दर्शयतिछाउगहिए इबत्ति अवगृहीत-परिवेषणार्थमुत्पादितं प्रगृहीतं-भोजनार्थमुलाटितमिति, अथवा अवग्रहिकमिति-अवग्रहो स्यास्तीति वसतिपीठफलकादिः, औपग्रहिकं वा दण्डकादिकमुपधिजातं, तथा प्रकर्षेण ग्रहोऽस्येति प्रग्रहिकम्-औधिकमु. पकरणं पात्रादीनि, अथवा अण्डजे वा पोतजे चेत्यादि व्याख्येयमिकारस्वागमिक इति, 'जन्नं ति यां यां दिशं णमिति वाक्यालबारे तुशब्दो वा अयं तदर्थ एव, इच्छति तदा विहर्नुमिति शेषः, तां तां दिशं स विहरिष्यतीति सम्ब दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] JAMERatindiN Dramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~932~ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] ङ्गसूत्रवृत्तिः ।। ४६५ ।। “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६९३ ] + गाथा: श्रीस्थाना- न्धः, सप्तम्यर्था वेयं द्वितीया तस्यां तस्यामित्यर्थः शुचिभूतो भावशुद्धितो लघुभूतोऽनुपधित्वेन गौरवत्यागेन च * 'अणुष्पग्गंथे'त्ति अनुरूपतया - औचित्येन विरतेर्न स्वपुण्योदयादणुरपि वा सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो ग्रन्थो - धनादिर्यस्य ५४ यस्माद्वाऽसावनुप्रग्रन्थः अपेर्वृत्त्यन्तर्भूतत्वादणुप्रग्रन्थो वा अथवा 'अणुप्प'त्ति अनर्थः अनर्पणीयः अढौकनीयः परेपामाध्यामिकत्वात् ग्रन्थवत् द्रव्यवत् ग्रन्थो - ज्ञानादिर्यस्य सोऽनग्रन्थ इति, "भावेमाणे 'ति वासयन्नित्यर्थः, 'अणुतरेणं'ति नास्त्युत्तरं प्रधानमस्मादित्यनुत्तरं तेन, 'एव' मिति अनुत्तरेणेति विशेषणमुत्तरत्रापि सम्बन्धनीयमित्यर्थः, 'आलयेन' वसत्या विहारेणैकरात्रादिना आर्जवादयः क्रमेण मायामानगौरव क्रोध लोभनिग्रहाः गुप्तिर्मनः प्रभृतीनां तथा सत्यं च द्वितीयं महाव्रतं संयमश्च प्रथमं तपोगुणाश्च अनशनादयः सुचरितं सुष्ठासेवितं 'सोचवियं'ति प्राकृ तत्वाच्छीचं च-तृतीयं महाव्रतं, अथवा 'विय'त्ति विश्व विज्ञानमिति द्वन्द्वस्ततश्चैतान्येवैता एव वा 'फल'त्ति फलप्रधानः परिनिर्वाणमार्गो-निर्वृतिनगरीपथः सत्यादिपरिनिर्वाणमार्गस्तेन, ध्यानयोः - शुक्लध्यानद्वितीयतृतीयभेदलक्षणयोरन्तरं - मध्यं ध्यानान्तरं तदेव ध्यानान्तरिका तस्यां वर्त्तमानस्य शुकस्य द्वितीयाद्भेदादुत्तीर्णस्य तृतीयमप्राप्तस्येत्यर्थः, अनन्तमनन्तविषयत्वात् अनुत्तरं सर्वोत्तमत्यात् निर्व्याघातं धरणीधरादिभिरप्रतिहतत्वात् निरावरणं सर्वावरणापगमात् कृत्स्नं सर्वार्थविषयत्वात् प्रतिपूर्ण स्वरूपतः पौर्णमासीचन्द्रवत् केवलमसहायमत एव वरं ज्ञानदर्शनं प्रतीतं केवलवरज्ञान दर्शनमिति 'अरह'त्ति अर्हन् अष्टविधमहाप्रातिहार्यरूपपूजायोगात् जिनो रागादिजेतृत्वात् केवली परिपूर्ण ज्ञानादित्रययोगात् सर्वज्ञः सर्वविशेषार्थबोधात् सर्वदश सकलसामान्यार्थावबोधात् ततश्च सह देवैश्व वैमानिक Education intimat स्थान [९], उद्देशक [-], For Fans Only ९ स्थाना० उद्देशः ३ 8 महापद्म चरितं सू० ६९३ ~933~ ॥ ४६५ ।। www.g [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] +ACASNACASSAMACHAR ज्योतिष्कलक्षणैर्मत्यैश्च-मनुजैरसुरैश्च-भवनपतिव्यन्तरलक्षणैर्यः स सदेवमासुरस्तस्य लोका-पश्चास्तिकायात्मकस्तस्य 'परियागं'ति जातावेकवचनमिति पर्यायान्-विचित्रपरिणामान् 'जाणइ पासइत्ति ज्ञास्यति द्रक्ष्यति चेत्यर्थः, एतच्च देवादिग्रहणं प्रधानापेक्षमन्यथा सर्वजीवानां सर्वपर्यायान् ज्ञास्यति, अत एवाह-'सब्बलोए' इत्यादि, 'चयण ति वैमानिकज्योतिष्कमरणं उपपात-नारकदेवानां जन्म तर्क-विमर्श मना-चित्तं मनसि भवं मानसिकं-चिन्तितं वस्तु भुक्तमोदनादि कृतं घटादि प्रतिषेवितं-आसेवितं प्राणिवधादि आविष्कर्म-प्रकटक्रियां रहकर्म-विजनव्यापार ज्ञास्थतीत्यनुवर्तते, तथा 'अरहा' न विद्यते रहो-विजनं यस्य सर्वज्ञत्वादसावरहाः, अत एव रहस्यस्य-प्रच्छन्नस्याभावोऽरहस्य तद्भजते इत्यरहस्यभागी, तं तं कालं आश्रित्येति शेषा, सप्तमी वेयमतस्तस्मिंस्तस्मिन् काल इत्यर्थः, 'मणसवयसकाइएत्ति मानसश्च वाचसश्च कायिकश्च मानसवाचसकायिकं तत्र योगे-व्यापारे इस्वत्वं च प्राकृतत्वादिति, वर्तमानानां -व्यवस्थितानां सर्वभावान्-सर्वपरिणामान् जानन् पश्यन्विहरिष्यति, 'अभिसमेचत्ति अभिसमेत्य अवगम्य, 'सभावणाई'ति सह भावनाभिः प्रतिव्रतं पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिर्यानि तानि सभावनानि तासां च स्वरूपमावश्यकान्मन्तव्यं षड्जीवनिकायान् रक्षणीयतया 'धम्मति एवंरूपं चारित्रात्मक सुगतौ जीवस्य धारणाद् धर्म श्रुतधर्म च देशयन्-प्ररूपयन्निति, अथ महापास्यात्मनश्च सर्वज्ञत्वात् सर्वज्ञयोश्च मताभेदाभेदे चैकस्यायथावस्तुदर्शनेनासर्वज्ञताप्रस ङ्गादित्युभयोभगवान् समां वस्तुप्ररूपणां दर्शयन्नाह--'से जहें'त्यादि, 'से' इत्यथार्थों अथशब्दश्च वाक्योपन्यासार्थः Pायथेत्युपमानार्थः, 'नाम ए'त्ति वाक्यालङ्कारे 'अजो'त्ति हे आर्याः शिष्यामन्त्रणं, 'एगे आरंभट्ठाणे'त्ति आरम्भ 54856564545453 दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~934~ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४६६ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [ ६९३ ] + गाथा: Education into ४ एव स्थानं-वस्तु आरम्भस्थानमेकमेव, तत्तत्प्रमत्तयोगलक्षणत्वात् तस्य यदाह - "सब्बो पमतजोगो समणस्स उ होइ आरंभो” इति, [सर्वः प्रमत्तयोगः भवति आरंभ एव भ्रमणस्य ॥ ] इतः शेषमावश्यके प्रायः प्रसिद्धमिति न लिखितं, तथा फलकं प्रतलमायतं का स्थूलमायतमेव लब्धानि च सन्मानादिनाऽपलब्धानि च न्यक्कारपूर्वकतया यानि भक्कादीनि तैर्वृत्तयो निर्वाहा लब्धापलब्धवृत्तयः, 'आहाकम्मिए इ वत्ति आधाय-आश्रित्य साधून कर्म्म-सचेतनस्याचेतनीकरणलक्षणा अचेतनस्य वा पाकलक्षणा क्रिया यत्र भक्तादौ तदाधाकर्म्म तदेवाधाकस्मिकम् उक्तं च- "सञ्चितं जमचित्तं साहूणऽद्वाए कीरए जं च । अचित्तमेव पच्चर आहाकम्मं तयं भणियं ॥ १ ॥” [ साध्वर्थे सचित्तं यदचित्तं ४ क्रियते अचित्तस्य पाकादि वा तदाधाकर्म भणितं ॥ १ ॥ ] इह चेकारः सर्वत्रागमिकः इतिशब्दो वाऽयमुपप्रदर्शनार्थपरो वा विकल्पार्थः, 'उद्देसियं' ति अर्थिनः पाखण्डिनः श्रमणान्निर्ग्रन्धान् वोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यद्भक्तं वितीर्यते तदौदेशिकमिति, उद्देशे भवमौदेशिक मितिशब्दार्थः, यद्वा तथैव यदुद्धरितं सद् दध्यादिभिर्विमिश्रय दीयते तापयित्वा वा तदपि तथैवेति, इहाभिहितम् - "उद्देसिय साहुमाई ओमन्वय भिक्खवियरणं जं च । उद्धरियं मीसेडं तबिडं उद्दे सियं तं तु ॥ १ ॥” इति [ अवमात्यये साध्वादीनुद्दिश्य यद्भिक्षावितरणं यद्वा उद्धृतं मिश्रयित्वा तापयित्वा दानं तदौदेशिकमेव ॥ १ ॥ ] 'मीसजाए व 'ति गृहिसंयतार्थमुपस्कृततया मिश्र जातं - उत्पन्नं मिश्रजातं यदाह - "पढमं 3 चिय गिहिसंजय मीसं उवक्खड मीसगं तं तु ॥” इति [ प्रथममेव गृहिसंयत मिश्रमुपस्करोति तन्मिश्रमेव ॥ ] 'अज्झोयरए'ति स्वार्थमूलाग्रहणे साध्वाद्यर्थं कणप्रक्षेपणमध्यवपूरकः, आह च - " सट्टा मूलद्दहणे अज्झोयर होइ ॥ ४६६ ॥ Forest Use Only ९ स्थाना० उद्देशः र महापद्म चरितं सू० ६९३ ~ 935~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) ॐ + प्रत सूत्रांक [६९३] पक्सवो" इति, [मूलात् स्वार्थ पाके प्रक्षेपः साध्वर्थमध्यवपूरकः॥ ] 'पूईए'त्ति शुद्धमपि कर्माद्यवयवैरपवित्री-12 कतं पृतिक, उक्तंच-"कम्मावयवसमेयं संभाविजइ जयं तु तं पूई ॥” इति [आधाकर्मावयवसमेतं संभाव्यते यत्तत्पूतिकं ॥] 'कीए'त्ति द्रव्येण भावेन वा क्रीतं-स्वीकृतं यत्तत्क्रीतमिति, यतोऽभ्यधायि-"दबाइएहि किणणं साहूगढाइ कीयं तु ॥” इति [द्रव्याद्यैः क्रीणनं साध्वर्थ तस्क्रीतन्तु ॥] 'पामिचं' अपमित्यक-साध्वर्थमुद्धारगृहीतं, यतोऽभिहितम्-“पामि साहूणं अठा उच्छिदिउँ दियावेई" इति [साध्वध उद्यतकं गृहीत्वा ददाति प्रामित्यक] 'आच्छेयं बलाद् भृत्यादिसकमाच्छिद्य यत्स्वामी साधवे ददाति, भणितं च-"अच्छेज्ज चाछिंदिय जं सामी भिच्चमाईणं" इति [ भृत्यादिभ्य आच्छिद्य यत्स्वामी दत्ते तदाच्छेचं ] "अनिसृष्टं साधारणं बहूनामेकादिना अननुज्ञातं दीयमान, आह च-"अणिस? सामन्नं गोट्ठियमाईण दयउ एगस्स" इति [गोष्ठ्यादीनां सामान्य एकस्य ददतोऽनिसृष्टं ॥ अभ्याहृतं स्वग्रामादिभ्य आहृत्य यद्ददाति, यतोऽवाचि-"सग्गामपरग्गामा जमाणियं अभिहडं तय होइ" इति [स्वग्रामपरग्रामाचदानीतं तदभ्याहृतं भवति ।।] [अध्यवपूरकादीनां स्वरूपमुक्तं न तु व्युत्पत्तिरित्याह-'एषा'मित्यादि]] &ाएषां शब्दार्थः प्रायः प्रकट एवेति, कान्तारभक्कादय आधाकादिभेदा एव, तत्र कान्तारं-अटवी तत्र भक्त-भोजनं यत्साध्वाद्यर्थं तत्तधा, एवं शेषाण्यपि, नवरं ग्लानो-रोगोपशान्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो वा यद् दीयते, तथा बई लिकामेघाडम्बरं तत्र हि वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकलोको भवतीति गृही तदर्थे विशेषतो भक्त दानाय निरूपयतीति, प्रा. घूर्णका-आगन्तुकाः भिक्षुका एव तदर्थं यद्भक्तं तत्तथा, प्राघूर्णको वा गृही स यद्दापयति तदर्थ संस्कृत्य तत्तथा, मूल दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~936~ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ६९३ ] + गाथा: ङ्गसूत्रवृतिः ॥ ४६७ ॥ स्थान [९], उद्देशक [-], श्रीस्थाना- पुनर्नवादीनां तस्य भोजनं तदेव वा भोजनं भुज्यत इति भोजनमितिकृत्वा, कन्दः- सूरणादिः फलं त्रपुष्यादि बीजं ४ दाडिमादीनां हरितं मधुरतृणादिविशेषः, जीववधनिमित्तत्वाच्चैषां प्रतिषेध इति । 'पंचमहव्वइए' इत्यादि प्रथमपश्चिमती|र्थकराणां हि पञ्च महाव्रतानि शेषाणां महाविदेहजानां च चत्वारीति पञ्चमहाव्रतिकः, एवं सह प्रतिक्रमणेन - उभयसन्ध्यमावश्यकेन यः स तथा अन्येषां तु कारणजात एव प्रतिक्रमणमिति, उक्तं च "सपडिकमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छि | मस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं ॥१॥” इति [पूर्वस्य पश्चिमस्य जिनस्य साधोः सप्रतिक्रमणो १ सू० ६९३ धर्मः मध्यमजिनसाधूनां कारणजाते प्रतिक्रमणं ॥ १ ॥ ] तथा अविद्यमानानि - जिनकल्पिक विशेषापेक्षया असस्वादेव हैं। स्थविरकल्पिकापेक्षया तु जीर्णमलिनखण्डितश्वेताल्पत्वादिना चेलानि-वस्त्राणि यस्मिन् स तथा धर्म्मः- चारित्रं, न च सति चेले अचेलता न लोके प्रतीता, यत उक्तम्- “जह जलमवगाहंतो बहुचेलोऽवि सिरवेढियकडिल्लो । भन्नइ नरो अचेलो तह मुणओ संत चेलावि ॥१॥" [ यथा जलमवगाहयन् बहुचेलोऽपि शिरोवेष्टितकटीवस्त्रः नरोऽचेलो भण्यते तथा मुनयः सच्चेला अपि ॥ १ ॥ ] अतः “परिसुद्धजुन्न कुच्छि यथोवानिय अक्ष भोग भोगेहिं । मुणओ मुच्छारहिया संतेहिं अवेलया होति ॥ १ ॥ [ श्वेतजीर्णकुथित स्तोकानियतान्यभोगभोगैः मूर्च्छारहिता मुनयः सत्स्वपि अचेलका भवन्ति ॥ १ ॥ ] ( अनियतैरन्यभोगे च सति भोग्यैरित्यर्थः न च वस्त्रं संसक्तिरागादिनिमित्ततया चारित्रविघातायाध्यात्मशुद्धेः शरीराहारादिवदिति, न हि शरीराद्यूकादिसंसक्तिर्न भवति रागो वा नोत्पद्यते, उक्तं च---"अह कुणसि थुलवत्थाइएस | मुच्छं धुवं सरीरेऽवि । अकेजदुल्लभतरे काहिति मुच्छं विसेसेणं ॥ १ ॥” इति [ स्थूलवस्त्रादिषु मूर्च्छामथ करोषि धुर्व For Parts at Use Only ९ स्थाना० उद्देशः ३ महापद्म चरितं ~937~ ॥ ४६७ ॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [ ६९३ ] + गाथा: शरीरेऽपि अक्रेयदुर्लभतरे विशेषेण मूर्च्छा करिष्यसि ॥ १ ॥ ] ( अक्रयणीय इत्यर्थः > अध्यात्मशुज्यभावेऽचेलकत्वमपि न चारित्राय, यथोक्तम् - " अपरिग्गहाचि परसंतिएसु मुच्छा कसायदोसेहिं । अविणिग्गहियप्पाणो कम्ममलमणंतमजीते ॥ १ ॥” [ अपरिग्रहा अपि परकीयेषु मूर्च्छाकपायदोषः अविनिगृहीतात्मानः अनन्तं कर्ममलमर्जयन्ति ॥ १ ॥ ] इति, | जिनोदाहरणादचेलकत्वमेव श्रेय इति न वक्तव्यमेतत्, यतोऽभ्यधायि - "न परोवएसविसया न य छउमत्था परोवएसपि । दिंति न य सीसवग्गं दिवखंति जिणा जहा सव्वे ॥ १ ॥ तह सेसेहि य सव्वं कर्ज जइ तेहिं सव्वसाहम्मं एवं च कओ तिरथं? न चेदचेत्ति को गाहो ? ॥ २ ॥ [ जिनाः सर्वे न परोपदेशवशगाः न च छद्मस्थाः । परस्योपदेशमपि नच ददति न च शिष्यवर्ग दीक्षयंति यथा ॥ १ ॥ तथा शेषैश्च सर्व कार्य यदि तैः सर्वसाधर्म्य एवं च कुतः | तीर्थ? न चेदचेल इति को ग्राहः ( आग्रहः) ॥ २ ॥ ] अपि च- उचितचेलसद्भावे चारित्रधम्र्म्मो भवत्येव तदुपकारित्वाच्छरीराहारादिवदिति, अथ कथं चेलस्य चारित्रोपकारितेति चेत्, उच्यते, शीतादित्राणतो जीवसंसक्तिनिमित्ततृणप रिहारादिहेतुत्वात् उक्तं च-- “तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुकझाणट्टा दिई कप्परगहणं गिलाणमरणट्टया चेव ॥ १ ॥” इति [ तृणग्रहणानलसेवानिवारणाय धर्मशुक्रुध्यानार्थं कल्पग्रहणं दृष्टं ग्ठानार्थाय मरणार्थाय चैव ॥ १ ॥ ] तथा 'सेज्जायरे' ति शेरते यस्यां साधवः सा शय्या तथा तरति भवसागरं इति शय्यातरी वसतिदाता तस्य पिण्डो भक्तादिः शय्यातरपिण्डः, स च अशनादि ४ र्वखादि ४ शूच्यादि ४ श्वेति, तग्रहणे दोषास्त्वमी- “तित्थंकरपडिकुट्टो अन्नायं उग्गमोऽवि य न सुज्झे । अविमुक्ती अलाघवता दुइहसेजा विउच्छेओ ॥ १ ॥” इति [ तीर्थकरप्रतिक्रुष्टः अ For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~938~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६९३] ॥४६८॥ % % श्रीस्थाना- ज्ञातत्वमुद्गमोऽपि च न शुज्यति अविमुक्तिरलाघवता दुर्लभा शय्या ब्युच्छेदश्च ॥१॥" राज्ञः-चक्रवर्तिवासुदेवादेःस्थाना० गसूत्रIR पिण्डो राजपिण्डः, इदानीमुभयोरपि जिनयोः समानतानिगमनार्थमाह-'जस्सील'गाहा, यो शीलसमाचारी-स्वभा- उद्देशः ३ वानुष्ठाने यस्य स यच्छीलसमाचारः तायेव शीलसमाचारौ यस्य स तथेति ॥ महापद्मजिनो हि महावीरवदुत्तरफाल्गुनी- पश्चाद्भागनक्षत्रजन्मादिव्यतिकर इति नक्षत्रसम्बन्धानक्षत्रसूत्र | विमानकुणा णक्वत्ता चंदस्स पच्छंभागा पं० सं०-अभिती समणो धणिट्ठा रेवति अस्सिणि मगसिर पूसो । इत्यो चित्ता य | लकरतीसहा पठभागा णव हवंति ॥ १ ॥ (सू० ६९४) आणतपाणतआरणचुतेसु कप्पेसु विमाणा णव जोयणसयाई उद्धं न्तरद्वीउन्नत्तेणं पं० (सू० ६९५) विमलवाहणे णं कुलकरे णव धणुसताई उद्धं उच्चत्तेणं हुल्ला (सू० ६९६) उसमे णं अरहा पवीथीनोकोसलिते णं इमीसे ओसप्पिणीए णवहि सागरोवमकोडाकोडीहिं बिईकंताहि तित्थे पवत्तिते (सू०६९७) पणदंत- कषायकुलढवंतगूढदंतसुद्धदंतदीवाणं दीवा वणवजोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णता (सू०६९८) सुबास्स णं महाग- लकोटीपाहस्स णव वीहीओ पं० त०-हयवीही गतवीही णागवीही वसहवीही गोवीही उरगयीही अववीही मितवीही वेसा- पपुद्गलाः गरवीही (सू०६९९) नवविधे नोकसायवेयणिज्जे कम्मे पं० त०-इत्यिवेते पुरिसदेते णपुंसगते हासे रती अरह सू०६९४भये सोगे दुगुंछे (सू०७००) चरिदियाणं णव जाइकुलकोडीजोणिपमुहसयसहस्सा पण्णता, भुयगपरिसप्पथलयर ७०३ पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं नवजाइकुलकोडिजोणिपगुहसयसहस्सा पण्णत्ता (सू०७०१) जीवा णं णवट्ठाणनि- | ॥४६८॥ वत्तिते पोग्गले पावकम्मचाते चिणिसु वा ३ पुढविकाइयनिवचिते जाव पंचिंदितनिवतिते, एवं चिणउवचिण जाव णि % दीप अनुक्रम % [८७२ % -८७६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~939~ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [७०३] (०३) * * * * * * * प्रत सूत्रांक [७०३] * * जरा चेव (सू०७०२) णव पएसिता खंधा अर्णता पण्णत्ता नवपएसोगाढा पोग्गला अर्णता पण्णत्ता जाव णवगुण लुक्खा पोग्गला अणता पण्णत्ता (सू०७०३) नवमं ठाणं नवमझयणं समत्तं ॥ कण्ठवं, च नवरं 'पच्छंभाग"ति पश्चाद्भागश्चन्द्रेण भोगो येषां तानि पश्चाद्भागानि चन्द्रोऽतिक्रम्य यानि भुले, पृष्ठ 2 मादत्वेत्यर्थः, 'अभिई गाहा, अस्सीइ'त्ति अश्विनी मतान्तरं पुनरेवम्-"अस्सिणिभरणी समणो अणुराहधणिद्वरेवईसो । मियसिरहत्थो चित्ता पच्छिमजोगा मुणेयचा ॥१॥” इति [अश्विनी भरणी श्रवणं अनुराधा धनिष्ठा रेवती पुष्यः मगशिरः हस्तश्चित्रा पश्चिमयोगानि ज्ञातव्यानि ॥१॥] नक्षत्रविमानव्यतिकर उक्त इति विमानविशेषव्यतिकरसूत्र, व्यक्तं । अनन्तरं विमानानामुच्चत्वमुक्तमिति कुलकरविशेषस्योच्चत्वसूत्र कुलकरसम्बन्धादृषभकुलकरसूत्रं ऋषभो मनुष्य इत्यन्तरदीपजमनुष्यक्षेत्रविशेषप्रमाणसूत्रं च, सुगमानि चैतानि, नवरं धनदन्तादयः सप्तमा अन्तरद्वीपाः । नवयोजनशतानीत्युक्तमिति समधरणीतलादुपरिष्टान्नवयोजनशताभ्यन्तरचारिणो ग्रहविशेषस्य व्यतिकरमाह-सुक्कस्से त्यादि, शुऋस्य महाग्रहस्य नव वीथय:-क्षेत्रभागाः प्रायस्त्रिभित्रिभिर्नक्षत्रैर्भवन्ति, तत्र हयसंज्ञा वीथी हयवीथीत्येवं सर्वत्र, संज्ञा च व्यवहार विशेषार्थ, या चेह हयवीथी साऽन्यत्र नागवीथीति रूढा नागवीधी चैरावणपदमिति, एतासां च लक्षणं भद्रबाहुप्रसिद्धाभिरार्याभिः क्रमेण लिख्यते-भरणी स्वात्याग्नेयं ३ नागाख्या १ वीथिरुत्तरे मागें । रोहिण्यादि ३रिभाख्या २ चादित्यादिः सुरगजाख्या ३ ॥ १ ॥ (आग्नेयं-कृत्तिका, आदित्यं पुनर्वसुरिति) वृषभाख्या ४ पैव्यादिः ३ श्रवणादि ३मध्यमे जरगवाख्याः ५। प्रोष्ठपदादि ४ चतुष्के गोवीधि ६ स्तासु मध्यफलम् ॥ २॥ (पैञ्यं-1 * दीप अनुक्रम [८८७] ***** ** JABERatininim मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~940~ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [७०३] (०३) वृत्तिः प्रत सूत्रांक [७०३] श्रीस्थाना- मघा मध्यमे इति-मार्गे प्रोष्ठपदा-पूर्वभद्रपदा > अजवीथी ७ हस्तादि ४ मंगवीधी ८ वैन्द्रदेवतादि स्यात् । दक्षिण- ९ स्थाना. सूत्र- मार्गे वैश्वानाषाढवयं ब्राह्वयम् ॥ ३॥ (इन्द्र देवता--ज्येष्ठा ब्राहृयामभिजिदिति > एतासु भृगुर्षिचरति नागगराव- | उद्देशः३ तीषु वीथिषु चेत् । बहु वर्षेत् पर्जन्यः सुलभौषधयोऽर्थवृद्धिश्च ॥४॥ पशुसंज्ञासु च ३ मध्यमसस्यफलादिर्यदा चरेद्प श्चाद्भाग भृगुजः । अजमृगवैश्वानरवीधिष्वर्थभयादितो लोकः ।। ५ ॥ इति । वीधिविशेषचारेण च शुक्रादयो ग्रहा मनुजादी- विमानकु॥४६९॥ नामनुग्रहोपघातकारिणो भवन्तीति द्रव्यादिसामय्या कर्मणामुदयादिसद्भावादितेसम्बन्धात् प्रस्तुताध्ययनावतारि कर्म- लकरतीस्वरूपमाह-'नवविहे'त्यादि, इह नोशब्दः साहचर्यार्थः कषायैः-क्रोधादिभिः सहचरा नोकषायाः, केवलानां नैषां प्रार्थान्तरद्वीप्राधान्यं किन्तु यैरनन्तानुबन्ध्यादिभिः सहोदयं यान्ति तद्विपाकसदृशमेव विपाकमादर्शयन्तीति, बुधग्रहवदन्यसंसर्ग- पवीथीनो मनुवर्त्तन्ते, एवं च नोकषायतया वेद्यते यत्कर्म तन्नोकषायवेदनीयमिति, तब यदुदयेन स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः पित्तो- कषायकुकादयेम मधुराभिलाषवत् स फुफुकाग्निसमानः स्त्रीवेदः, यदुदयेन पुंसः स्त्रियामभिलापः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषवत् हालकोटीपादस दावाग्निज्वालासमानः पुंवेदो, यदुदये नपुंसकस्य खीपुंसयोरुभयोरभिलाषः पित्तश्लेष्मणोरुदये मजिताभिलाष-12 पपुद्गलाः वत् स महानगरदाहाग्निसमानो नपुंसकवेद इति, यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत्कर्म हास्य, यदुदयेन सचि- सू०६९४त्ताचित्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते तद्रतिकर्म, यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते तदरतिकर्म, यदुदयेन भयवर्जि-II ७०३ तस्यापि जीवस्येहलोकादि सप्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तद्भयकर्म, यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीवस्याक्रन्दनादिः शोकोहा॥४९ जायते तच्छोककर्मेति, यदुदयेन च विष्ठादिबीभत्सपदार्थेभ्यो जुगुप्सते तज्जुगुप्साकम्र्मेति । अनन्तरं कर्मोक्तं, तद्वशव-1 दीप अनुक्रम [८८७] SaamlaiatuMR ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~941~ Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [७०३] (०३) % % तिनश्च नानाकुलकोटीभाजो भवन्तीति कुलकोटिसूत्रे तद्गताश्च कर्म चिन्वन्तीति चयादिसूबषटुं, कर्मापुद्गलप्रस्तावात् पुद्गलसूत्राणि, सुगमानि चैतानि, नवरं 'नव जाई'त्यादि, चतुरिन्द्रियाणां माती यानि कुलकोटीनां योनिप्रमुखाणां-योनिद्वारकाणां शतसहस्राणि तानि तथा, भुजैर्गच्छन्तीति भुजगाः-गोधादय इति । इति नवमस्थानकविवरणम् ।। % 1 प्रत सूत्रांक [७०३] दीप अनुक्रम [८८७] CAKACACCALCCARCISCE BREARTeam892098 इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानास्यतृतीयाङ्गविवरणे नवस्थानकाख्यं नवममध्ययनं समाप्तम् ॥ श्लोकाः ७०७ स्था० ७२ C handrarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र नवमं स्थानं परिसमाप्तं ~942~ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७०४] (०३) य अथ दशमस्थानाध्ययनम् । १०स्थाना. श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॐ4 प्रत सूत्रांक [७०४] लोकस्थितिः ॥४७०॥ सू०७०४ * * अथ सङ्ख्याविशेषसम्बन्धमेव दशस्थानकाध्ययनमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने जीवाजीवा नवत्वेन प्ररूपिता इह तु त एव दशत्वेन निरूप्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्य चतुरनुयोगद्वारस्यास्वेदमादि सूत्रम्- दसविधा लोगहिती पं० त०-जण्णं जीवा उदाइत्ता २ तत्थेव २ भुजो २ पञ्चायंति एवं एगा लोगट्टिती पण्णत्ता १ जणं जीवाणं सता समियं पावे कम्मे कजति एवंपेगा लोगहिती पण्णत्ता २ जणं जीवा सया समितं मोहणिजे पावे कम्मे काति एवंपेगा लोगद्रुिती पण्णता ३ ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति अजीवा वा जीवा भविसंति एवंप्पेगा छोगहिती पण्णता ४ ण एवं भूतं ३ जं तसा पाणा बोरिछजिस्संति थावरा पाणा वोच्छिजिस्संति तसा पाणा भविस्संति वा एवंपेगा लोगद्विती पण्णत्ता ५ ण एवं भूतं ३ जे लोगे अलोगे भविस्सति अलोगे वा लोगे भघिस्सति एवंप्पेगा लोगहिती पण्णत्ता ६ ण एवं भूतं वा ३ जे लोए अलोए पविस्सति अलोए वा लोए पविस्सति एवंप्पेगा लोगद्विती ७ जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा जाव ताव जीवा ताव ताव लोए एवंप्पेगा लोगहिती ८ जाव ताव जीवाण त पोग्गलाण त गतिपरिताते ताव ताव लोए जाव ताव लोगे ताव ताव जीवाण य पोग्गलाण त गतिपरिताते एवंपेगा लोगद्विती ९ सब्बेसुवि णं लोगतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोग्गला लुक्सत्ताते कजति जेणं जीवा व पोग्गला त नो संचायति बहिना लोगता गमणयाते एवंप्पेगा लोगडिती पण्णचा १० (सू०७०४) दीप अनुक्रम [८८८] * *% 54554 ४७०॥ % % % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ दशमं स्थानं आरभ्यते अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~943~ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७०४] (०३) प्रत सूत्रांक [७०४] 'दसविहा लोगेंत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्व नवगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ता इत्युक्तं ते चासङ्ख्येयप्रदेशे लोके संमान्तीति लोकस्थितिरतः सैवेहोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, इहापि संहितादिचर्चः | प्रथमाध्ययनवत् केवलं लोकस्य-पश्चास्तिकायात्मकस्य स्थितिः-स्वभावः लोकस्थितियेदित्युद्देशे णमिति वाक्यालङ्कारे | है'उद्दाइत्त'त्ति अपद्राय मृत्वेत्यर्थः, 'तत्थेव'त्ति लोकदेशे गतौ योनौ कुले वा सान्तरं निरन्तरं बौचित्येन भूयो भूय: पुनः पुनः 'प्रत्याजायन्ते' प्रत्युत्पद्यन्त इत्येवमप्येका लोकस्थितिरिति, अपिशब्द उत्तरवाक्यापेक्षया, अपिः कचिन्न टू श्यते, अथ द्वितीया-'जन्न' मित्यादि, सदा-प्रवाहतोऽनाद्यपर्यवसितं काले 'समिय'ति निरन्तरं पापं कर्म-ज्ञाना वरणादिकं सर्वमपि मोक्षविवन्धकत्वेन सर्वस्यापि पापत्वादिति क्रियते-बध्यते इत्येवमप्येका अन्येत्यर्थः, सततं कर्म-18 बन्धनमिति द्वितीया २,'मोहणिजे ति मोहनीयं प्रधानतया भेदेन निर्दिष्टमिति सततं मोहनीयबन्धनं तृतीया ३, जीवाजीवानामजीवजीवत्वाभावश्चतुर्थी -४, बसानां स्थावराणां चाव्यवच्छेदः पञ्चमी ५, लोकालोकयोरलोकलोकत्वे& नाभवनं षष्ठी ६, तयोरेवान्योऽन्याप्रवेशः सप्तमी ७,'जाव ताव लोए ताव ताव जीव'त्ति यावल्लोकस्तावज्जीवाः, यावति क्षेत्रे लोकव्यपदेशस्तावति जीवा इत्यर्थः, 'जाव ताव जीवा ताव ताव लोए'त्ति, इह यावज्जीवास्तावत्ता-17 * वल्लोको, यावति यावति क्षेत्रे जीवास्तावत्क्षेत्रं लोक इति भावार्थः, 'जाव तात्यादिवाक्यरचना तु भाषामात्रमित्य-13 टमी ८, यावज्जीवादीनां गतिपर्यायस्तावलोक इति नवमी ९, सर्वेषु लोकान्तेषु 'अबद्धपासपुट्ठ'त्ति बद्धा-गाढश्लेषाः पाचस्पृष्टाः-छुप्तमात्रा ये न तथा तेऽबद्धपावस्पृष्टाः रूक्षद्रव्यान्तरेणेति गम्यते तत्सम्पकोंदजातरूक्षपरिणामाः सन्त दीप अनुक्रम [८८८] IBEastr K inraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~944~ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ७०४] दीप अनुक्रम [ece] श्रास्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४७१ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ७०४ ] स्थान [१०], १० स्थाना. उद्देशः इति भावः, लोकान्ते स्वभावात् पुद्गलाः रूक्षतया क्रियन्ते- रूक्षतया परिणमन्ति, अथवा लोकान्तस्वभावाद्या रूक्षता * भवति तथा ते पुद्गला अबद्धपार्श्वस्पृष्टाः परस्परमसम्बद्धाः क्रियन्ते, किं सर्वधा?, नैवं, अपि तु तेनेत्यस्य गम्यमा४. नत्वात्तेन रूपेण क्रियन्ते येन जीवाः सकर्म्मपुद्गलाः, पुङ्गलाश्च परमाण्वादयो, 'नो संचायति'त्ति न शक्नुवन्ति बहि- १ निर्धाराचाः स्तालोकान्ताद् गमनतायै गन्तुमिति, छान्दसत्त्वेन तुमर्थे युटूप्रत्ययविधानादिति, एवमप्यन्या लोकस्थितिर्दशमी, शेषं कण्ठ्यमिति ॥ लोकस्थितेरेव विशिष्टवक्तृनिसृष्टा अपि शब्दपुङ्गला लोकान्त एव गच्छन्तीति प्रस्तावाच्छन्दभेदानाह - दसविहे सद्दे पं० [सं० नीहारि १ पिंडिमे २ लुक्खे ३, मिने ४ जनारि ५ इव । दीहे ६ रहस्से ७ पुहुते ८ त काकणी ९ खिखिणिस्सरे १० ॥ १ ॥ ( सू० ७०५) दस इंदियत्यातीता पष्णता पं० [सं० देसेणवि एगे सहाई सुर्ण सब्वेणवि एगे सहाई सुजिंसु देसेणवि एगे रूवाई पासिसु सव्वेणवि एगे रुवाई पासिंधु, एवं गंधाई रसाई फासाई जब सब्वेणवि एगे फासाई पढिसंवेदेंसु, दस इंदियत्था पहुप्पन्ना पं० [सं० देसेणदि एगे सदाई सुर्णेति सब्वेणवि एंगे सदा सुणेति, एवं जाव फासाई, दस इंदियत्या अणागता पं० [सं० देसेणवि एगे सहाई सुणिरसंति सब्वेणवि एगे सहाई सुणेस्संति एवं जाव सब्वेगवि एगे फासाई पढिसंवेदेस्संति (सू०७०६) 'दसविहे' इत्यादि, 'नीहारी' सिलोगो, निर्हारी घोषवान् शब्दो घण्टाशब्दवत् पिण्डेन निर्वृत्तः पिण्डिमो-घोषव जितः ढक्कादिशब्दवत् रूक्षः काकादिशब्दवत् भिन्नः कुष्ठाद्युपहतशब्दवत् झर्झरितो जर्जरितो या सतश्रीरुकरटिकादिवाशब्दवत् दीर्घो दीर्घवर्णाश्रितो दुस्त्रव्यो वा मेघादिशब्दवत् इस्वो-हस्ववर्णाश्रयो विवक्षया लघुर्वा श्रीणादि For Fans Only ४ ~945~ शब्दाः इ न्द्रियार्थाः सू० ७०५ ७०६ ॥ ४७१ ।। www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७०६] (०३) प्रत सूत्रांक [७०६] शब्दयत् , 'पुहसे यत्ति पृथक्त्वे-अनेकत्वे, कोऽ!ी-नानासूर्यादिद्रव्ययोगे या स्वरो यमलशाहादिशब्दवत् स मृयत्व इति, 'काकणीति सूक्ष्मकण्ठगीतध्वनिः काकलीति यो रूढः 'खिंखिणी'ति किंकिणी-शुद्रघण्टिका तस्याः स्वरो-ध्वनिः | किङ्किणीस्वरः । मनन्तरं शब्द उक्का, स चेन्द्रियार्य इति कालभेदेनेन्द्रियार्थान् प्ररूपयन्सूत्रत्रयमाह-दस इंखियेत्यादि, कण्ठ्यं, नवरं 'देसेणचित्ति विवक्षितशब्दसमूहापेक्षया देशेन-देशतः कांश्चिदित्यर्थः, एकः कश्चिछुत्वानिति ।। 'सब्वेविति सर्वतया सर्वानित्यर्थः, इन्द्रियापेक्षया वा श्रोत्रेन्द्रियेण देशतः सम्भिन्मोतोलब्धियुक्तावस्थायां सः18 न्द्रियः सर्वतोऽधचैककर्णेन देशत उभाभ्यां सर्वतः, एवं सर्वत्र, 'पडप्पन्नति अत्युसमा वर्तमानाः । इन्द्रियार्थाश्च पुन्न-18/ लधर्मा इति पुद्गलस्वरूपमाह दसहिं ठाणेहिमचिछने पोग्गले चलेज्जा, ०-आहारिजमाणे वा चलेजा परिणामेनमाणे वा चलेगा उस्ससिजमाणे का बलेमा निस्ससिकामाणे वा चलेजा वेदेमाणे वा चलेजा णिजरिजमाणे वा चलेजा विउबिजमाणे वा चलेजा परिवारिजमाणे वा चलेका जक्खाति? वा चलेज्या वासपरिग्गहे वा चलेखा (सू० 1800) क्सहिं छाणेहिं कोधुफ्ती सिया तं०-गणुभाई मे सदफरिसरसरूवगंधाइमबहरिसु १ अमणुनाई मे सहफरिसरसरूवगंधाई अवहरिसु २ मणुण्णाई मे सफरिसरसरूवगंधाई अवाहद ३ अमणुमाई में सहफरिसावांधाई 'सवहरति ४ मणुष्णाई में सर जाव अक्हरिश्सति ५ श्रमणुषणाई मे सह गाव उवहरिस्सति ६ मणुष्णाई मे सर जाच गंधाई अवहरिसु वा भवाहरद अवहरिसाति-अमणुणाई मे सह जाच चवहरिसुथा उवहरति उवहरिस्सति ८ गाण्णामणुष्णाई सरजाम अवहरिसु अवाई ECRACANCE दीप अनुक्रम [८९१] Allionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~946~ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७०८] दीप अनुक्रम [८९३] श्रीस्थाना नसूत्र वृत्तिः ॥ ४७२ ॥ Jus Educato ***** “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [७०८ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], रति अवहरिस्सर उपहरिं उदरति उहरिस्सति ९ अहं च णं आयरियडवज्झायाणं सम्मं बट्टामि ममं च णं आयरिउवज्झाया मिच्छ्रं पडिवन्ना १० (सू० ७०८) दुसविधे संजमे पं० [सं० पुढचिकातितसंजमे जाव वणस्सतिकायसंजमे बेइंदितसंजमे दिवसंजमे चढरिंदिवसंजमे पंचिदियसंजमे अजीवकायसंजमे दसविधे असंजमे पं० सं०--- पुढविकातित असंजमे आउ० तेड० वाड० वणस्सति० जाव अजीवकायअसंजमे । इसविधे संवरे पं० तं-सोलिंदिय संवरे जाव फार्सिदितसंवरे मण० वय० काय० उवकरणसंवरे सूचीकुसग्गगसंवरे । सविधे असंवरे पं० [सं० सोतिंदितजसंवरे जाव सूचीकुसग्गअसंवरे ( सू० ७०९ ) पुजलचलना कोधोत्पति हेतवः सं यमाद्याः ७०९ 'दसही' त्यादि स्पष्टं, नवरं 'अच्छिन्ने' त्ति अच्छिन्नः - अपृथग्भूतः शरीरे विवक्षितस्कन्धे वा सम्बद्धः चलेत्-स्थानान्तरे गच्छेत् 'आहारेजमाणे'त्ति आहियमाणः खाद्यमानः पुद्गलः आहारे वा अभ्यवाहियमाणे सति पुद्गलश्लेत् परिण- सू० ७०७म्यमानः पुद्गल एवोदराग्निना खलरसभावेन परिणम्यमाणे वा भोजने उच्छ्रयमानः उच्छ्रासवायुपुद्गलः उच्स्यमाने ४ वा-उच्छसिते क्रियमाणे एवं निःश्वस्यमानो निःश्वस्यमाने वा वेद्यमानो निर्जीर्यमाणश्च कर्म्मपुद्गलोऽथवा बेद्यमाने नि. जीर्यमाणे च कर्म्मणि वैक्रियमाणो वैक्रियशरीररतया परिणम्यमानः वैक्रियमाणे वा शरीरे परिचार्यमाणो-मैथुनसं | ज्ञाया विषयी क्रियमाणः शुक्रपुद्गलादिः परिवार्यमाणे वा भुज्यमाने स्त्रीशरीरादौ शुक्रादिरेव यक्षाविष्टो भूताद्यधि- ४ ष्ठितः यक्षाविष्टे वा सति पुरुषे यक्षावेशे वा सति तच्छरीरलक्षणः पुद्गलः वातपरिगतो- देहगत वायुप्रेरितः वातपरिगते वा देहे सति बाह्यवातेन वोत्क्षिप्त इति । पुद्गलाधिकारादेव पुगलधर्मानिन्द्रियार्थानाश्रित्य यद्भवति तदाह - 'दसही' ॥ ४७२ ॥ For Fans Only १० स्थाना. उद्देशः २ ~947~ janesbrary org [०३], अंग सूत्र [०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७०९] (०३) 15 ॐॐॐ प्रत सूत्रांक [७०९]] ४त्यादि गतार्थ नवरं स्थानविभागोऽयम्-तत्र मनोज्ञान् शब्दादीन मेऽपहृतवानित्येवं भावयतः क्रोधोत्पत्तिः स्यादित्येकं, हैं एवं अमनोज्ञानुपहृतवान्-उपनीतवान्, इह चैकवचनबहुवचनयोने विशेषः प्राकृतत्वादिति द्वितीयं, एवं वर्तमाननि देशेनापि द्वयं भविष्यतापि द्वयमित्येवं षट्, तथा मनोज्ञानामपहारतः कालत्रयनिर्देशेन सप्तमः, एवममनोज्ञानामुपहारतोऽष्टम, मनोज्ञामनोज्ञानामपहारोपहारतः कालत्रयनिहेंशेन नवर्म, अहं चेत्यादि दशमं 'मिच्छति वैपरीत्यं विशेषेण प्रतिपन्नौ विप्रतिपन्नाविति । कोधोत्पत्तिः संयमिना नास्तीति संयमसूत्रं, संयमविपक्षश्चासंयम इत्यसंयमसूत्रमसंयमविपक्षः संवर इति संवरसूत्र संवरविपरीतोऽसंवर इत्यसंवरसूत्रं, सुगमानि चैतानि, नवरमुपकरणसंवरः-अप्रतिनियताकल्पनी यवस्वाद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वखाद्युपकरणस्य संवरणमुपकरणसंवरः, अयं चौधिकोपकरणापेक्षा तथा शूच्याः * कुशाग्राणां च शरीरोपघातकत्वाद्यसंवरणं-सङ्गोपनं स शूचीकुशाग्रसंवरः, एष तूपलक्षणत्वात्समस्तीपग्रहिकोपकरणापेक्षो द्रष्टव्यः, इह चान्त्यपदद्वयेन द्रव्यसंवरावुक्ताविति । असंवरस्यैव विशेषमाह दसहि ठाणेहि महर्मतीति धमिजा, तं०-जातिमतेण वा कुलमएण वा जाव इस्सरियमतेण वा ८ णागसुपन्ना वा में अंतितं हब्बमागच्छंति ९ पुरिसधम्मातो वा मे उत्तरिते अहोधिते णाणदसणे समुप्पन्ने १० (सू०७१०) दसविधा समाधी पं० २०-पाणातिषायवेरमणे मुसा० अदिन्ना० मेहुण०परिग्गहा० ईरितासमिती भासासमिती एसणासमिती आयाण. उञ्चारपासवणखेलसिंघाणगपारिहावणितासमिती, दसविधा असमाधी पं० त०-पाणातिवाते जाव परिग्गहे ईरिता:समिती जाप उधारपासवणखेलसिंघाणगपारिद्वावणियाऽसमिती (सू० ७११) दसविधा पव्वजा पं० सं०-उंदा १ दीप अनुक्रम [८९४] *5*555 PRAMIntaryam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~948~ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१२] + गाथा (०३) श्रीस्थानासूत्र SAKACK वृत्तिः ॥ ४७३॥ प्रत सूत्रांक [७१२]] रोसा २ परिजुना विणा ४ प्रळिस्सुता ५ येव । सारणिता ६ रोगिणीता ७ अणादिता ८ देवसमती ५॥१॥ १०स्थाना. पच्छाणुवंचिता १० 1 दसविधे समणधम्मे पं० २०-वंती मुत्ती अजये मरवे लाघवे सचे संजमे तवे चिताते श्रम- | उद्देशः ३ परमाले रसविणे वेवावचे पं० ०-आयरियवेयाबचे १ उबज्झायवेयावचे २ थेरवेयावचे ३ तबस्सि० ४ गिलाण. ५ स्तम्भाः सेह० कुछ. ७ गण. ८ संघयावचे ९ साहम्मियवेवावचे १०(सू० ७१२) । सविधे जीवपरिणामे पं० समाधी[सं०-गति परिणाये इंदितपरिणामे कसायपरिणामे लेसा जोगपरिणामे उवओग० णाण. सण चरित० देतपरिणामे । दातरेप्रव्रज्यादसपिधे अजीवपरिणामे पं०, तं०-धणपरिणामे गति० संठाणपरिणामे मेद० वण्ण रस. गंध. फास. *श्रमणधअगुरुलहु० सरपरिणामे (सू० ७१३) ४ मवैया 'सही'त्यादि, स्पष्ट, नवरं 'अहमंतीति अहं अंता इति अन्तो-जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्यास्तीत्यन्तः अहमेवात्य जीवा जीवपरिजात्यादिभिरुत्तमत्या पर्यम्तवत्ती, अथवाऽनुस्वारप्राकृततयेति अहं अतिः-अति शयवानिति एवंविधोल्लेखेन 'चंभिजति है स्तनीयात्-स्तब्धो भवेत् मादित्यः, यावत्करणात् 'बलमएण रूवमएण सुयमपण तवमएण लाभमएणेति श्य, णाम: तथा 'नागसुबोति नागकुमाराः सुपर्णकुमाराव या विकल्पार्थः मे-मम अन्तिक-समीपं 'हब्ब'शीप्रमागच्छन्तीति. सू०७१० |पुरुषाणां-प्राकृतपुरुषाणां धर्मो-ज्ञानपर्यायलक्षणस्तस्माद्वा सकाशात् उत्तर:-प्रधानः स एवौत्सरिक: "अहोधियति नि-II १९ कायतक्षेत्रविषयोऽवधिस्ताद ज्ञानदर्शनं प्रतीतमिति । उत्तमदविलक्षणः समाधिरिति तत्सूत्रमेतद्विपक्षोऽसमाधिरिति शसूत्रं ४७३॥ समाधीतरबोसायः ममनोति असून, भाज्यावसथा श्रमणामस्तद्विशेषवा वैयावृत्त्यमिति तत्सूत्रे जीवधमोचित इति || दीप अनुक्रम [८९९] JABERatin intimational wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~949~ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१३] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [७१३]] बीवपरिणामसूबमेतद्विलक्षणत्वादजीवपरिणामसूत्र, सुगमानि चैतावि, नवरं 'समाहिति समाधान समाधि-समता सामान्यतो रामायभाव इत्यर्थः, स चोपाधिभेदादशधेति । 'दागाहा, ''चि छन्दात् स्वकीयादभिप्रायविशेषागो-15 विन्दवाचकस्वेव सुन्दरीनन्दस्येव वा, परकीयादा धातृवनभवदत्तस्येव या सा छंदा 'रोसा य'ति रोषात् शिवभूतेरिव या सा रोषा 'परिजुषणति परिधुना दारिद्रयात्काष्ठहारकस्येव या सा परिघूना 'सुविणे'ति स्वमात् पुष्प-12 चूलापा इव या स्वप्ने वा या प्रतिपचते सा स्वमा 'पडिसुया चेव'चि प्रतिश्रुतात्-प्रतिज्ञानाद् या सा प्रतिश्रुता शालिभद्रभगिनीपतिघन्पकस्येव 'सारणिय'त्ति स्मारणाघा सा स्मारणिका मल्लिनाथस्मारितजन्मान्वराणां प्रतिमुख्यादिराजामामिव 'रोगिणिय'ति रोगः मालम्बनतया विद्यते यस्यां सा रोपिणी सैव रोगिणिका सनत्कुमाx रस्येव 'अणादिय'त्ति अनाहताद-अनादराया सा अनाहता नदिषेणस्येव अनाहतस्य वा-शिथिलस या सा तथा हादेवसत्तित्ति देवसंज्ञप्ते-देवप्रतिबोधनाद्या सा तथा मेतार्यादेरिवेति, 'वच्छाणुबंधा वंचि गाथातिरिकं वत्स: पुत्रस्तदनुबन्धो यस्यामस्ति सा वत्सानुबन्धिका, वैरखामिमातुरिवेति, श्रमणधम्मों व्याख्यान एव, नवरं 'चियाए'त्ति त्यामो दानधर्म इति । व्यावृत्तो व्यापृतो चा व्यापारस्तत्कर्म वैवावृत्त्वं वैयापृत्त्वं बा भकपानादिभिरुपष्टम्भ | इत्यर्थः, 'साहमिय'त्ति समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरन्तीति साधम्मिकारपाधवः । 'परिणामे' त्यादि, परिणमनं परिणामस्तद्भावगमनमित्यर्थः, यदाह-"परिणामो यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानं ।। च सर्वथा बिनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः॥१॥" द्रग्यानियस्येति, "मसर्यवेण नाशः मादुर्भावोऽसता च पर्ययतः। द्रव्याणां SSCACACAN दीप अनुक्रम [९००] SAR ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 950~ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१३] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [७१३] श्रीस्थाना- परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य ॥१॥" इति, जीवस्य परिणामः २ इति विग्रहः, स च प्रायोगिकः, तत्र १० स्थाना. सूत्र- गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः, एवं सर्वत्र, गतिश्चेह गतिनामकर्मोदयान्नारकादिव्यपदेशहेतुः तपरिणामश्चाss- उद्देशः ३ वृत्तिः भवक्षयादिति, सच नरकगत्यादिश्चतुर्विधः, गतिपरिणामे च सत्येवेन्द्रियपरिणामो भवतीति तमाह-इंदियपरिमाणामेति स च श्रोत्रादिभेदात् पञ्चधेति, इन्द्रियपरिणती चेष्टानिष्टविषयसम्बन्धाद्रागद्वेषपरिणतिरिति तदनन्तरं क-13समाधीतपायपरिणाम उक्त, स च क्रोधादिभेदाच्चतुर्विधः, कषायपरिणामे च सति लेश्यापरिणतिर्नतु लेश्यापरिणती कषाय-6 पाय- रेवण्यापरिणतिः, येन क्षीणकषायस्यापि शुक्ललेश्यापरिणतिर्देशोनपूर्वकोटिं यावद् भवति, यत उक्तम्-"मुहुत्त तु जहन्ना उ-II श्रमणधकोसा होइ पुब्बकोडीओ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायब्वा सुक्कलेस्साए ॥१॥" इति [शुक्लेश्याया जघन्या स्थिति-कामवैयावृमुहर्ता नववर्षोना पूर्वकोटी उत्कृष्टा ज्ञातव्या भवति ॥१॥] अतो लेश्यापरिणाम उक्तः, स च कृष्णादिभेदात्त्य जीवापोटेति, अयं च योगपरिणामे सति भवति, यस्मानिरुद्धयोगस्य लेश्यापरिणामोऽपैति, यता-समुच्छिन्नक्रियं ध्यान- जीवपरिमलेश्यस्य भवतीतिलेश्यापरिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः, सच मनोवाकायभेदानिधेति, संसारिणां च योगप-13 रिणतावुपयोगपरिणतिर्भवतीति तदनन्तरमुपयोगपरिणाम उक्तः, सच साकारानाकारभेदाद द्विधा, सति चोपयोग- सू०७१०परिणामे ज्ञानपरिणामोऽतस्तदनन्तरमसाचुक्ता, स.चाभिनिवोधिकादिभेदात् पञ्चधा, तथा मिथ्यादृष्टेज्ञानमयज्ञान-II ७१३ मित्यज्ञानपरिणामो मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणस्त्रिविधोऽपि विशेषग्रहणसाधात् ज्ञानपरिणामग्रहणेन गृ-४॥४७४॥ &ाहीतो द्रष्टव्य इति, ज्ञानाज्ञानपरिणामे च सति सम्यक्त्वादिपरिणतिरिति ततो दर्शनपरिणाम उक्का, स च त्रिधा-स णामः दीप अनुक्रम [९००] AMERatinine मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 951~ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१३] + गाथा (०३) ** **** प्रत सूत्रांक [७१३] 55555555555 म्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रभेदात्, सम्यक्त्वे सति चारित्रमिति ततस्तपरिणाम उक्तः, सच सामायिकादिभेदात् प्रश्नति, ख्यादिवेदपरिणामे चारित्रपरिणामो न तु चारित्रपरिणामे वेदपरिणतिर्यस्मादवेदकस्यापि यथाख्यातचारित्रपरिणतिर्दृष्टेति || चारित्रपरिणामानन्तरं वेदपरिणाम उक्का, स च ख्यादिभेदात् त्रिविध इति । अजीवेत्यादि, अजीवानां-पुद्गलानां परिणामोऽजीवपरिणामः, तत्र बन्धन-पुद्गलानां परस्परं सम्बन्धः संश्लेष इत्यर्थः स एव परिणामो बन्धनपरिणामः, एवं सर्वत्र, बन्धनपरिणामलक्षणं चैतत्-"समनिद्धयाए बंधो न होइ समलुक्खयायवि न होइ । बेमायनिजलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥"[समस्निग्धतया बंधो न भवति समरूक्षतयापि न भवति विमात्रस्निग्धरूक्षत्वेन स्कन्धानां बन्धः ॥१॥] एतदुक्तं भवति-समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमाण्वादिना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्यापि ||* समगुणरूक्षेणेति, यदा विषमा मात्रा तदा भवति चन्धो, विषममात्रानिरूपणार्थमुच्यते "निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएणं,12 लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवजो विसमो समो वा ॥१॥” इति [स्निग्धस्य | द्विकाधिकेन स्निग्धेन रूक्षस्य द्विकाधिकेन रूक्षेण रूक्षेण स्निग्धस्य बन्ध उपपद्यते विषमः समो वा जघन्यवयः॥१॥] जागतिपरिणामो द्विविधः-स्पृशद्गतिपरिणाम इतरश्च, तत्राद्यो येन प्रयत्नविशेषात् क्षेत्रप्रदेशान् स्पृशन् गच्छति, द्वितीयस्तु येनास्पृशशेव तान् गच्छति, न चायं न सम्भाव्यते, गतिमद्रव्याणां प्रयत्नभेदोपलन्धेः, तथाहि-अभ्रकपहर्म्यतलगतविमुक्ताश्मपातकालभेद उपलभ्यते अनवरतगतिप्रवृत्तानां च देशान्तरप्राप्तिकालभेदश्चेत्यतः सम्भाव्यतेऽस्पृशगतिपरिणाम इति, अथवा दीर्घहस्वभेदात् द्विविधोऽयमिति, संस्थानपरिणामः परिमण्डलवृत्तव्यत्रचतुरस्रायतभेदात् पञ्चविधः, ***** दीप अनुक्रम [९००] **** Manminaryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~952~ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१३] + गाथा (०३) श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः ॥४७५॥ प्रत सूत्रांक [७१३] हक्क भेदपरिकामा पञ्चधा, तब खण्डभेदः शिवमपिण्डस्वेव १ प्रतरयेदोऽचपटलदेव २ अनुवटभेदो बंधस्वर ३ पूर्णभेद: १०स्थाना. वर्णनं ४ उत्कारिकाभेदः समुत्कीर्वमाणमस्खकस्वेवेति, वर्णपरिणामः पबघा गन्धपरिष्यामो द्विधा रसपरिणाम पवधा उद्देशः सर्वपरिणामोऽष्टया, न गुरुकमधोगमनस्वभावं व लघुकमूर्ध्वगमनस्वभावं बदबं बदगुरुकलघुक-अत्यम्बा धाम-5 अस्वामनकर्मद्रव्यादि तदेव परिणामः परिणामतदतोरभेदात् अगुरुठघुकपरिणामः पतम्रहणेचैतद्विपक्षोऽपि गृहीतो प्रचा ध्यायिक तत्र गुरुकंप विवक्षया लघुकं च विवक्षयैव यद् द्रव्वं तद्रुकलघुक बौदारिकादि स्थूलतरमित्यर्थः, इदमुलस्वरूप द्वि- सू०७१४ विधं वस्तु निश्चयववमतेन व्यवहारतस्तु चतुर्दा, तत्र गुरुक-अधोगमनस्वमाचं वजादि लघुक-कचेगममतभावं भूमावि गुरुकलघुकं-तिर्यग्गामि वायुज्योतिकविमानादि अगुरुलघुक-आकाशादीति, आह र भाष्यकारा--"विच्छययो सम्वगुरू सबछडे धान बिजई दनं । बायरचिह गुरुङहुयं अगुरुल्हु सेसषं दम्ब ॥१॥ गुरुयं लहु उपाय योभयमिति बावहारिवनयल्सा । दब ले १ दीवो २ वाऊ वोमं । जहासंसं ॥२॥" इति [निश्चयतः सर्वगुरु सचेषु वा द्रव्यं न विद्यते बादरं शह गुरुसघुकं शेषं द्रव्यमगुरुलघुकं ॥१॥गुरु लघु उभयं अनुभवं च द्रव्य व्यवहारनवोति - दीपः २ वायुः ३ व्योम ४ यथासंख्यं ॥२॥] शब्दपरिणामः शुभाशुभभेदात् द्विधेति । बजीवपरिणामाधिकारात्मा पुगठनक्षणाजीवपरिणाममन्तरिक्षलक्षणाजीवपरिणामोपाधिकमखाध्यापिकव्यपदेश्य 'दबबिहे'स्यादिना सूत्रेणा बसविणे अवनिक्लिाते असन्माइए पं० ०-वभावाते दिनिदाघे मजिवे विजुवे निग्माते बूबवे जस्खालिचे भूमिका महिला स्वाचा । वसविहे बोधळिते भसाखिये पं००-महिमचं सोणिते भमुतिमामंते मुखाणमामले पंदो दीप अनुक्रम [९००] ||४७५॥ कककक Joindiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 953~ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१४] (०३) प्रत सूत्रांक [७१४] बराते सूरोवराए पडणे रायचुग्गहे खचसयरस अंतो ओरालिए सरीरगे (सू०७१४) पंचिंवियाण जीवाणं असमारभमाणस्स दसविधे संजमे कजति, तं०-सोयामताओ सुक्खाओ अवयरोवेत्ता भवति सोतामतेण दुक्खेणं असंजोगेचा भवति एवं जाव फासामतेणं दुक्खणं असंजोएत्ता भवति, एवं असंयमोवि भाणिवम्बो (सू० ७१५) तत्र 'अंतलिक्खए'ति अन्तरिक्ष-आकाशं तत्र भवमान्तरीक्षक स्वाध्यायो-वाचनादिः पञ्चविधो यथासम्भव यस्मिन्नस्ति तत्स्वाध्यायिकं तदभावोऽस्वाध्यायिकं तत्रोल्का-आकाशजा तस्याः पातः उल्कापातः, तथा दिशो दिशि वा| दाहो दिगाहा, इदमुक्तं भवति-एकतरदिग्विभागे महानगरप्रदीपनकमिव य उद्योतो भूमावप्रतिष्ठितो गगनतलवती | स दिशाह इति, गर्जित-जीमूतध्वनिः, विद्युत्-तडित् निर्घातः-साभ्रे निरत्रे वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितध्वनिः, 'जूयए'त्ति सन्ध्याममा चन्द्रप्रभा च ययुगपद् भवतस्तत् जुयगोत्ति भणितं, सन्ध्याप्रभाचन्द्रप्रभयोर्मिनत्वमिति भावः, तत्र चन्द्रप्रभाऽऽवृता सन्ध्या अपगच्छन्ती न ज्ञायते शुक्लपक्षप्रतिपदादिषु दिनेषु, सन्ध्याच्छेदे वाऽज्ञायमाने काल-14 बेला न जानन्त्यतखीणि दिनानि प्रादोषिकं कालं न गृह्णन्ति ततः कालिकस्यास्वाध्यायः स्यादिति, उल्कादीनां चेदं स्वरूप-"दिसिदाहो छिन्नमूलो उकसरेहा पयासजुत्ता वा । संझाछेयावरणो जुयओ सुक्के दिणे तिन्नि ॥१॥"[छिनमूलो दिगाहः सरेखा प्रकाशयुक्ता वा उल्का संध्याछेदावरणस्तु यूपक एव शुक्ले त्रीणि दिनानि ॥१॥] 'जक्खालितंति यक्षादीधमाकाशे भवति, एतेषु स्वाध्यायं कुर्वतां क्षुद्रदेवता छलनां करोति, धूमिका-महिकाभेदो वर्णतो - मिका धूमाकारा धूवेत्यर्थः, महिका प्रतीता, एतच्च द्वयमपि कार्तिकादिषु गर्भमासेषु भवति, तब पतनानन्तरमेव SACREACOCAXC4%CASSADORDS दीप अनुक्रम [९०१] स्था०८० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~954~ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७१५] दीप अनुक्रम [९०२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः 24x6 Jus Educato "स्थान" स्थान [१०], उद्देशक [-], - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [७१५] |१० स्थाना. सूक्ष्मत्वात्सर्वमप्कायभावितं करोतीति, 'रयडग्धाएं'त्ति विश्वसापरिणामतः समन्ताद्रेणुपतनं रजउद्घातो भण्यते । अस्वाध्यायाधिकारादेवेदमाह - 'दसविहे ओरालिए' इत्यादि, औदारिकस्य- मनुष्यतिर्यक्शरीरस्येदमौदारिकमस्वाध्या- ५ उद्देशः ‍ ४. विकं तत्रास्थिमांसशोणितानि प्रतीतानि, तत्र पञ्चेन्द्रियतिरश्चामस्वाध्यायिकं द्रव्यतोऽस्थिमांसशोणितानि ग्रन्थान्तरे + अस्वाॐ चर्माप्यधीयते, यदाह - "सोणिय मंसं चम्मं अट्ठीवि य होंति चत्तारि” इति [ शोणितं मासं चर्मास्थि भवन्त्यपि च॥ ४७६ ॥ ॐ स्वारि ॥ ] क्षेत्रतः पष्टिहस्ताभ्यन्तरे, कालतः सम्भवकाला द्यावत् तृतीया पौरुषी मार्जारादिभिर्मूषिकादिव्यापादनेऽहोरात्रं ध्यायिकं सू० ७१५ चेति, भावतः सूत्रं नन्यादिकं नाध्येतव्यमिति, मनुष्यसम्बन्ध्यप्येवमेव, नवरं क्षेत्रतो हस्तशतमध्ये कालतोऽहोरात्रं यावत् आर्त्तवं दिनत्रयं स्त्रीजन्मनि दिनाष्टकं पुरुषजन्मनि दिनसप्तकं अस्थीनि तु जीवविमोक्षदिनादारभ्य हस्तशताभ्यन्तरस्थितानि द्वादश वर्षाणि यावदस्वाध्यायिकं भवति, चिताग्निना दग्धान्युदकवाहेन वा व्यूढान्यस्वाध्यायिकं न भवति, भूमिनिखातान्यस्वाध्यायिकमिति तथा अशुचीनि - अमेध्यानि मूत्रपुरीषाणि तेषां सामन्तं समीपमशुचिसामन्तमस्वाध्यायिकं भवति, उक्तं च कालग्रहणमाश्रित्य - "सोणियमुत्तपुरीसे घाणालोयं परिहरेज्जा" इति [शोणितमूत्रपुरी[षेषु घाणालोकौ परिहरेत्] श्मशानसामन्तं - शवस्थानसमीपं चन्द्रस्य चन्द्रविमानस्योपरागो - राहुविमानतेजसोपरञ्जनं चन्द्रोपरागो ग्रहणमित्यर्थः, एवं सूरोपरागोऽपि, इह चेदं कालमानं यदि चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहणे सति सग्रहोऽन्यथा वा निमज्जति तदा ग्रहणकालं तद्वात्रिशेषं तदहोरात्रशेषं च ततः परमहोरात्रं च वर्जयन्ति, आह च - "चंदिमसूरुवरागे निग्धाए गुंजिए अहोरसं" इति [चन्द्रसूर्योपरागे निर्घाते गुंजितेऽहोरात्रं ] आचरितं तु यदि तत्रैव रात्रौ दिने या मुक्तस्तदा चन्द्रग्रहणे For Fans Only ॥ ४७६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~955~ bray or Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१५] (०३) प्रत सूत्रांक [७१५]] तस्या एव रात्रेः शेष परिहरन्ति, सूर्यग्रहणे तु तद्दिनशेष परिहत्यानन्तरं रात्रिमपि परिहरन्तीति, आह च-"आइन्नं का दिणमुके सोच्चिय दिवसो व राई य ।" इति [आचीर्णं दिनमुक्त स एव दिवसः रात्रि ॥] चन्द्रसूर्योपरागयोश्चौदारिकत्वं तद्विमानपृथिवीकायिकापेक्षयाऽवसेयमान्तरीक्षकत्वं तु सदपि न विवक्षितं, आन्तरीक्षवेनोकेभ्य आकस्मिकेभ्य उल्कादिभ्यश्चन्द्रादिविमानानां शाश्वतत्वेन विलक्षणत्वादिति, 'पडणेत्ति पतन-मरणं राजामात्यसेनापतिग्रामभोगिकादीनां, तत्र यदा दण्डिका कालगतो भवति राजा वाऽन्यो यावन्न भवति तदा सभये निर्भये वा स्वाध्याय वर्जयतीति निर्भय-12 श्रवणानन्तरमप्यहोरात्र वर्जयन्तीति ग्राममहत्तरेऽधिकारनियुक्त बहुस्वजने वा शय्यातरे वा पुरुषान्तरे वा सप्तगृहाभ्य-1X भन्तरमृतेऽहोरात्रं स्वाध्यायं वर्जयन्ति शनैर्वा पठन्ति, निर्दुःखा एत इति गहीं लोको मा कादिति, आह च-"मय-IA काहर पगए बहुपक्खिए य सत्तधर अंतर मयंमि । निहुक्खत्ति य गरहा न पढंति सणीयगं वावि ॥१॥" इति [ महत्तरे प्रगते बहुपाक्षिके च (शय्यातरे वा) सप्तगृहाभ्यन्तरे मृते निखा इति गति न पठन्ति शनैर्वा ॥१॥] तथा 'रायवुग्गहे'त्ति राज्ञां सङ्ग्राम उपलक्षणत्वात्सेनापतिग्रामभोगिकमहत्तरपुरुषस्त्रीमल्लयुद्धान्यस्वाध्यायिक, एवं पाशुपि|पादिभण्डनान्यपि, यत एते प्रायो व्यन्तरबहुलास्तेषु प्रमत्तं देवता छलयेन्निर्दुःखा एत इत्युडाहो वाऽप्रीतिकं वा भवेदित्यतो यद्विग्रहादिकं यचिरकालं यस्मिन् क्षेत्रे भवति तत्र विग्रहादिके तावत्कालं तत्र क्षेत्रे स्वाध्याय परिहरन्तीति, उक्तं च-"सेणाहिव भोइय मयहरे य पुंसिस्थिमल्लयुद्धे य । लोहाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाह अचियत्तं ॥१॥ इति, [सेनाधिपभोजिकमहत्तराणां पुस्त्रियोर्मल्लानां युद्धे च पांशुपिष्टादिभंडने वा गुह्यकः उड्डाहो ऽप्रीतिश्च ॥१॥] तथो 1345625*5%-5THS दीप अनुक्रम [९०२] Dinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~956~ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१५] (०३) श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः ॥४७७॥ प्रत सूत्रांक [७१५]] SSC+S+C पाश्रयस्य-वसतेरन्तः-मध्ये वर्तमानमौदारिक मनुष्यादिसत्कं शरीरकं यधुद्भिन्नं भवति तदा हस्तशताभ्यन्तरेऽस्वा- १० स्थाना. ध्यायिक भवति, अथानुदिनं तथापि कुत्सितत्वादाचरितत्वाच हस्तशतं वय॑ते, परिष्ठापिते तु तत्र तत्स्थानं शुद्ध | उद्देशा३ भवतीति । पञ्चेन्द्रियशरीरमस्वाध्यायिकमित्यनन्तरमुक्तमिति पश्चेन्द्रियाधिकारात्तदानितसंयमासंयमसूत्रे गतार्थे । संय-3 सूक्ष्माणि मासंयमाधिकारात् तद्विषयभूतानि सूक्ष्माणि प्ररूपयन्नाह नधारादस सुदुमा पं० सं०-पाणसुहुमे पणगमुहुमे जाब सिणेहसुहुमे गणियसुहुमे मंगमुहुमे (सू०७१६) जंबूमंदिरवाहि जधान्या जेणं गंगासिंधुमहानदीओ दस महानतीओ समप्पेंति, तं-जषणा १ सरऊ २ आवी ३ कोसीमही ५ सिंधू ६ मेरु रुषविवच्छा ७ विभासा ८ एरावती ९ चंद्रभागा १० । जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तारत्तवतीओ महानदीओ दस महानदीओ सम कादिः प्पेंति, सं०-किण्हा महाकिण्हा नीला महानीला तीरा महातीरा इंदा जाव महाभोगा (सू०७१७) जंबुडीवे.२ भरह- सू०७१६वासे दस रायहाणीओ पं० ०-चंपा १ महुरा २ वाणारसी ३ य सावत्थी ४ तहत सातेतं ५ । हस्थिणउर ६ कपिलं ७२० ७ मिहिला ८ कोसंवि ९ रायगिई १०॥१॥ एयासु णं दसरायहाणीसु दस रायाणो मुंडा भवेत्ता जाव पन्चतिता, तं०-भरहे सगरो मघवं सर्णकुमारो संती कुंथू अरे महापउमे हरिसेणो जयणामे (सू०७१८) बुरीवे २ मंवरे पव्यए दस जोषणसयाई उब्वेहेणं धरणितले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं उवरि दसजोयणसयाई चिक्वंभेषं दसदसाई जोषणसहस्साई सम्बग्गेणं पं०(सू०७१९) जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पञ्चयस्स बहुमज्झदेसभागे इमीसे रयणप्प ॥४७७॥ भाते पुढवीते उबरिमहिलेसु सुहगपत्तरेसु, एत्य णमट्टपतेसिते रुयगे पं० जओ णमिमातो बस दिसाओ पवईति, 4%C4 दीप अनुक्रम [९०२] +CAN 5 2 AnEaina Horon मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~957~ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२०] + गाथा (०३) *SCRC प्रत सूत्रांक [७२०]] सं०-पुरच्छिमा १ पुरच्छिमदाहिणा २ दाहिणा ३ दाहिणपचत्थिमा ४ पचत्थिमा ५ पञ्चस्विमुत्तरा ६ उत्तरा ७ उत्तरपुरच्छिमा ८ उद्धा ९ अहो १०, एएसि णं दसण्हं दिसाणं दस नामधिज्जा पं० २०-ईवा अग्गीय जमा णेरती वारुणी व वायन्या । सोमा ईसाणाविय विमला ये तमा व बोद्धत्वा ॥१२॥ लवणस्स णं समुदस्स दस जोयणसहस्साई गोतिस्थविरहिते सेते ५०, लवणस्स णे समुहस्स दस जोयणसहस्साई उदगमाले पन्नत्ते, सव्वेवि णे महापाताला दसदसाई जोयणसहस्साइमुन्हेणं पण्णत्ता, मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पन्नचा, बहुमजावेसभागे एगपएसिताते सेढीए दससाई जोयणसहस्साई विक्संमेणं पन्नत्ता, उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई विक्वंमेणं पण्णता, सेसि णं महापातालाणं कुछा सम्ववइरामया सन्बत्यसमा वस जोयणसवाई बाहुल्लेणं पन्नचा, सब्वेवि पं खुदा पाताला दस जोयणसताई उम्मेहेणं पं०, मूले सदसाई जोषणाई विक्खंभेणं, बहुमज्झदेसभागे एगपएसिवाते सेढीते दस जोयणसताई विक्खमेण पं०, स्वरि मुहमूले वसदसाई जोयणाई विखंभेणं पं०, तेसि णं खुशापातालाणं कुझा सव्ववइरामता सव्वत्थ समा इस जोवणाई बाहलेणं पण्णत्ता (सू०७२०) धायतिसंङगा पं मंदरा इसजोयणसयाई छब्बहेणं धरणितले देसूणाई दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं उपरि दस जोवणसयाई विक्खंभेणं प० । पुक्खरघरदीवद्धगा णं मंदरा यस जोयण एवं थेव (सू० ७२१) सल्वेविणं वट्टवेयद्धपब्बता दस जोयणसयाई उद्धं उच्चचेणं दस गाउयसयाइमुज्येहेणं सध्वस्यसमा पाहगसंठाणसंठिता, दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पं० (सू०७२२) अंबुद्दीवे २ दस खेता पं० सं०-भरहे एरवते हेमवते हेरनवते हरिवस्से रम्मगवस्से पुन्वविदेहे अवरविदेहे देवकुरा उत्तरकुरा (सू०७२३) माणुमुत्तरे णं पञ्चते मूले दीप अनुक्रम [९११] AmEaARI Shaniprayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 958~ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२४] (०३) श्रीस्थाना वृत्ति ॥४७८॥ प्रत सूत्रांक [७२४] दस मावीसे जोवणसते विक्खंभेणं पं० (सू०७२४) सव्वेवि णमंजणगपव्वता दस जोयणसयाइमुख्हेणं मूले दस १०स्थानाजोयणसहस्साई विक्खंभेणं उबर दस जोधणसत्ताई विखंभेणं पन्न०, सव्वेवि णं दहिमुहपब्बता दस जोयणसताई उद्देशः३ उन्हेण सम्बत्यसमा पलासंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पं०, सब्वेवि णं रतिकरगपन्नता दस जोय धातकीमेणसताई उद्धं, सचत्तेणं दसगाउयसत्ताई उव्येहेणं सब्वत्थसमा झलरिसंठिता दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पं० (सू० ७२५) रुयगवरे णं पब्बते दस जोयणसवाइं उब्बेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विसंमेणं उबरिं दस जोयणस त्राणि माताई विखंभेणं पं० । एवं कुंडलवरेवि (सू० ७२६) । नुषोत्तरः 'दस सुहुमें'त्यादि, प्राणसूक्ष्म-अनुद्धरितकुन्थुः पनकसूक्ष्म-उल्ली यावत्करणाविदं द्रष्टव्यं, बीजसूक्ष्म-ग्रीह्यादीनां अञ्जनदनखिका हरितसूक्ष्म-भूमिसमवर्ण तृणं पुष्पसूक्ष्म-घटादिपुष्पाणि अण्डसूक्ष्म-कीटिकाद्यण्डकानि लयनसूक्ष्म-कीटि धिमुखरकानगरादि स्नेहसूक्ष्म-अवश्यायादीत्यष्टमस्थानकभणितमेव इदमपरं गणितसूक्ष्म-गणितं सङ्कलनादि तदेव सूक्ष्मं सूक्ष्म-13 तिकरारुबुद्धिगम्यत्वात् , श्रूयते च वज्रांतं गणितमिति, 'भङ्गसूक्ष्म' भङ्गा-भङ्गका वस्तुविकल्पास्ते च द्विधा-स्थानभङ्गकाः कमभ- चककु काश्च, तत्राद्या यथा द्रव्यतो नामैका हिंसा न भावतः १ अन्या भावतो न द्रव्यतः २ अन्या भावतो द्रव्यतश्च ३ | ण्डली अन्या न भावतो नापि द्रव्यतः ४ इति, इतरे तु द्रव्यतो हिंसा भावतश्च १ द्रव्यतोऽन्या न भावतः २न द्रव्यतोऽन्यासू०७२१भावतः१ अन्या न द्रव्यतो न भावतः ४ इति तलक्षणं सूक्ष्म भङ्गसूक्ष्म, सूक्ष्मता चास्य भजनीयपदबहुषे गहनभा-1&l ७२६ वेन सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वादिति । पूर्व गणितसूक्ष्ममुक्तमिति तद्विषयविशेषभूतं प्रकृताध्ययनावतारितया जंबुद्दीवेत्यादि ॥४७८।। दीप अनुक्रम [९१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 959~ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२६] दीप अनुक्रम [१७] Educat “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ७२६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], गङ्गासूत्रादिकं कुण्डलसूत्रावसानं क्षेत्रप्रकरणमाह, कण्ठ्यश्चेदम्, नवरं गङ्गां समुपयान्ति दशानामाद्याः पञ्च इतराः सिन्धुमिति, एवं रक्तासूत्रमपि नवरं यावत्करणात् 'इंदसेणा वारिसेण'त्ति द्रष्टव्यमिति । 'रायहाणीओ'त्ति राजा धीयते विधीयते अभिषिच्यते यासु ता राजधान्यः- जनपदानां मध्ये प्रधाननगर्यः, 'चंपा' गाहा, चम्पानगरी अङ्गजन|पदेषु मथुरा सूरसेनदेशे वाराणसी काश्यां श्रावस्ती कुणालायां साकेतमयोध्येत्यर्थः कोशलेषु जनपदेषु, 'हत्थिणपुरं'ति नागपुरं कुरुजनपदे काम्पिल्यं पाञ्चालेषु मिथिला विदेहे कोशाम्बी वत्सेषु राजगृहं मगधेष्विति एतासु किल साधवः उत्सर्गतो न प्रविशन्ति तरुणरमणीयपण्यरमण्यादिदर्शनेन मनःक्षोभादिसम्भवात् मासस्यान्तर्द्धिस्त्रिर्वा प्रविशतां त्वाज्ञादयो दोषा इति एताश्च दशस्थानकानुसारेणाभिहिता न तु दशैवैताः अर्द्धपदिशतावार्थजनपदेषु पत्रिंशतेर्नगरीणामुक्तत्वादिति, अयं च न्यायोऽन्यत्र ग्रन्थे तेषु तेषु प्रायश्चित्तादिविचारेषु प्रसिद्ध एवेति, व्याख्यातं च दशराजधानीग्रहणे शेषाणामपि ग्रहणं निशीथ भाष्ये, यदाह - "दसरायहाणिगहणा सेसाणं सूयणा कया हो । मासस्संतो दुगतिग ताओं अइंतंमि आणाई ॥ १ ॥ दोषाश्चेह - "तरुणावेसित्थिविवाहरायमाईसु होइ सइकरणं । आउजगीयसद्दे इत्थीसद्दे य सवियारे ॥ २ ॥” इति । [ दशराजधानीग्रहणाच्छेषाणां सूचना कृता भवति मासान्तर्द्विः त्रिः ताः प्रविशत आज्ञादि ॥ १ ॥ तरुणा वेश्यास्त्री विवाहरागा (राजा) दिषु भवति स्मृतिकरणं आतोद्यगीतशब्दे खीशब्दे च सविकारे ॥ १ ॥ ] 'एताखिति अनन्तरोदितासु दशस्वार्यनगरीषु मध्ये अन्यतरासु कासुचिदश राजानः चक्रवर्त्तिनः प्रत्रजिता |इत्येवं दशस्थानकेऽवतारस्तेषां कृतः, द्वौ च सुभूमब्रह्मदत्ताभिधानौ न प्रमजिती नरकं च गताविति, तत्र भरतसगरौ For FPs Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~960~ janibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२६] (०३) ॥४७९ प्रत सूत्रांक [७२६] श्रीस्थाना- प्रथमद्वितीयौ चक्रवतिराजौ साकेते नगरे विनीताऽयोध्यापर्याये जातौ प्रश्नजितौ च, मघवान् श्रावस्त्यां, सनत्कुमारा- १०स्थाना. इसूत्र- दयश्चत्वारो हस्तिनागपुरे महापद्मो वाणारस्यां हरिषेणः काम्पिल्ये जयनामा राजगृहे इति, न चैतासु नगरीषु क्रमेणैते | ४ उद्देशः३ वृत्तिः राजानो व्याख्येयाः ग्रन्थविरोधात् , उक्तं च-"जमण विणीय उज्झा सावत्थी पंच हरिधणपुरंमि । वाणारसि कंपिल्ले सूक्ष्मादिः रायगिहे चेव कंपिल्ला ॥१॥" इति, [जन्म विनीताऽयोध्या श्रावस्तीषु पंच हस्तिनापुरे वाराणस्यां कोपिल्ये रोजगृहे ०७२१ चैव कोपिल्ये ॥१॥] अप्रत्रजितचक्रवर्तिनी तु हस्तिनागपुरकाम्पिल्ययोरुत्पन्नाविति, ये च यत्रोत्पन्नास्ते तत्रैव प्रन- ७२६ |जिता इति, इदमावश्यकाभिप्रायेण व्याख्यातं, निशीथभाष्याभिप्रायेण तु दशस्वेतासु नगरीषु द्वादश चक्रिणो| जाताः, तत्र नवस्खे कैका एकस्यां तु त्रय इति, आह च-"चंपा महुरा वाणारसी य सावस्थिमेव साकेयं । हस्थिण. पुरकंपिल्लं मिहिलाकोसंबिरायगिहं ॥१॥संती कुंथू य अरो तिन्निवि जिणचक्कि एक्कहिं जाया । तेण दस होति जत्थ व | केसव जाया जणाइन्न ॥३॥"त्ति, पंपा मधुरा वाणारसी च श्रावस्ती एव साकेत हस्तिनापुर कांपिल्यं मिथिला कोशांबी राजगृहं ॥१॥ शान्तिः कुन्धुश्चारस्त्रयो जिनचक्रिणः एकत्र जाताः तेन दश भवति यत्र वा केशवा जाता जनाकीर्णोः ॥२॥ मन्दरो-मेरुः, 'उब्वेहेणन्ति भूमाववगाहता, 'विष्कम्भेण' पृथुत्वेन 'उपरि पण्डकवनप्रदेशे दशशतानि सहस्रमित्यर्थः, दशदशकामि शतमित्यर्थः, केषां?-योजनसहस्राणां, लक्षमित्यर्थः, ईदृशी च भणितिदेशस्था-1 नकानुरोधात्, 'सर्वाग्रेण सर्वपरिमाणत इति 'उवरिमहेडिल्लेसु'त्ति उपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकातरयोः, सर्वेषां ॥४७९॥ ६ मध्ये तयोरेव लघुत्वात् , तयोरष उपरि च प्रदेशान्तरवृद्ध्या वर्धमानतरत्वालोकस्येति, 'अट्ठपएसिए'त्ति अष्टौ म-18 4564564562 दीप अनुक्रम [९१७] 156364 landinrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 961~ Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२६] दीप अनुक्रम [९१७] Educat “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ७२६ ] स्थान [१०], देशा यस्मिनित्यष्टप्रदेशिकः, स्वार्थिकप्रत्ययविधानादिति, तत्र चोपरितने प्रतरे चत्वारः प्रदेशा गोस्तनवदितरत्रापि चत्वारस्तथैवेति, 'इमाउ'त्ति वक्ष्यमाणाः 'दस'त्ति चतस्रो द्विप्रदेशादयो व्युत्तराः शकटोद्धिसंस्थाना महादिशश्चतस्र एव एकप्रदेशादयोऽनुत्तरा मुक्तावलीकल्पा विदिशः, तथा द्वे चतुष्प्रदेशादिके अनुत्तरे ऊर्ध्वाधोदिशाविति, 'पवईति'चि प्रवहंति प्रभवन्तीत्यर्थः, 'इंदा' गाहा, इन्द्रो देवता यस्याः सा ऐन्द्री एवमाशेयी याम्येत्यादि, विमला वितिमि रत्वादूर्ध्वदिशो नामधेयं, तमा अन्धकारयुक्तत्वेन रात्रितुल्यत्वादधोदिशश्चेति । 'लवणस्से त्यादि, गवां तीर्थ - तडागादाववतारमार्गे गोतीर्थ, ततो गोतीर्थमित्र गोतीर्थ-अवतारवती भूमिः, तद्विरहितं सममित्यर्थः, एतच्च पञ्चनवतियोजनसहस्राण्यर्वाग्भागतः परभागतश्च गोतीर्थरूपां भूमिं विहाय मध्ये भवतीति, 'उदकमाला' उदकशिखा वेलेत्यर्थः, दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भतः उच्चैस्त्वेन पोडशसहस्राणीति, समुद्रमध्यभागादेवोत्थितेति, 'सव्वेवी'त्यादि, सर्वेऽपीति पूर्वादिदिक्षु तद्भावाञ्चत्वारोऽपि 'महापातालाः' पातालकलशाः वलयामुखकेऊरजूय कईश्वरनामानश्चतुः स्थानकाभिहिताः, क्षुलकपातालकलशव्यवच्छेदार्थं महाग्रहणं, दशदशकानि शतं योजनसहस्राणां लक्षमित्यर्थः, 'उद्वेधेन' गाधेनेत्यर्थः 'मूले' बुभे दशसहस्राणि मध्ये लक्षं, कथं?, मूलविष्कम्भावुभयत एकैकप्रदेशवृज्या विस्तरं गच्छतां वा एकप्रदेशिका श्रेणी भवति तथा अनेन प्रदेशवृद्धिरुपदर्शिता, अथवा एकप्रदेशिकायाः श्रेण्या अत्यन्तमध्ये, ततोऽप उपरि च प्रदेशोनं लक्षमित्यर्थः, तथा उपरि, किमुक्तं भवति ? - अत आह— 'मुखमूले' मुखप्रदेशे, 'कुडु'चि कुख्यानि भित्तय इत्यर्थः सर्वाणि च तानि वज्रमयानि चेति वाक्यं, 'सर्वेऽपी'ति सप्तसहस्राण्यष्टशतानि चतुरशीत्यधिकानीत्ये For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~962~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२६] (०३) १० स्थाना. उद्देशः ३ सूक्ष्मादिः सू०७२१ प्रत सूत्रांक [७२६] ७२६ श्रीस्थाना-18 सङ्ख्याः क्षुल्लका महदपेक्षया, उद्वेघेन मध्यविष्कम्भेण च सहस्र, मूले मुखे च विष्कम्भेण शतं, कुङ्यवाहल्येन च सूत्र- दश । 'धायई' इत्यादि, 'मंदर'त्ति पूर्वापरौ मेरू, तत्स्वरूपं सूत्रसिद्धं, विशेष उच्यते-"धायइसंडे मेरू चुलसीइसहस्स वृत्तिः ऊसिया दोवि । ओगाढा य सहस्सं होति य सिहरम विच्छिन्ना ॥१॥ मूले पणनउइसया चउणउइसया य होति घर॥४८॥ णियले” इति, [घातकीखंडे मेरू चतुरशीतिसहस्राणि उच्छ्रितौ भवतः सहस्रमवगाढौ शिखरे च विस्तीर्णों द्वावपि भवतः ॥१॥ पंचनवतिशतानि भूले चतुर्नवतिशतानि धरणितले च भवतः॥] सर्वेऽपि वृत्तवैतान्यपर्वताः विंशतिः प्रत्येक पञ्चसु हैमवतैरण्यवतहरिवर्षरम्यकेष्वेषां शब्दावतीविकटावतीगन्धावतीमालवपर्यायाख्यानां भावादिति, वृत्तग्रहणं दी वैताढ्यव्यवच्छेदार्थमिति, मानुषोत्तरश्चक्रवालपर्वतः प्रतीतः, अञ्जनकाश्चत्वारो नन्दीश्वरद्वीपवर्तिनः, दधिमुखाः प्रत्येकमञ्जनकानां दिक्कतुष्टयव्यवस्थितपुष्करिणीमध्यवर्तिनः षोडशेति, रतिकरा नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थिताः चत्वा|रश्चतु:स्थानकाभिहितस्वरूपाः । रुचको-रुचकाभिधानत्रयोदशद्वीपवती चक्रवालपर्वतः । कुण्डला-कुण्डलाभिधान एकादशद्वीपवर्ती चक्रवालपर्वत एव, 'एवं कुण्डलवरेऽवी'त्यनेनेह कुण्डलवर उद्वेधमूलविष्कम्भोपरिविष्कम्भ रुचकवर पर्वतसमान उक्तो, द्वीपसागरप्रज्ञत्या त्वेवमुक्तः-"दस चेव जोयणसए बावीसे वित्थडो उ मूलंमि । चत्तारि जोयण[सए चउवीसे वित्थडो सिहरि ॥१॥" इति [द्वाविंशत्यधिकानि दशयोजनशतानि मूले विस्तृतः चतुर्विंशदधिकानि चतुर्योजनशतानि शिखरे विस्तृतः (कुंडलवरः) अत्र तुल्यं ॥१॥] रुचकस्यापि, तत्रायं विशेष उक्त:-मूलविष्कम्भो दीप अनुक्रम [९१७] ॥४८ ॥ AnEaiamom Janeiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~963~ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२६] (०३) प्रत सूत्रांक [७२६] दश सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि शिखरे तु चत्वारि सहस्राणि चतुर्विंशत्यधिकानीति । अनन्तरं गणितानुयोग उक्तः, अथ द्रव्यानुयोगस्वरूपं भेदत आह दसविहे दविवाणुओगे पं० सं०-दबियाणुओगे १ माउयाणुओगे २ एगडियाणुओगे ३ करणाणुओगे १ अप्पितणपिते ५ भाविताभाविते ६ पाहिराबाहिरे ७ सासयासासते ८ तहणाणे ९ अतहणाणे १० (सू० ७२७) 'दसविहे दविए'त्यादि, अनुयोजन-सूत्रस्यार्थेन सम्बन्धनं अनुरूपोऽनुकूलो वा योगः-सूत्रस्याभिधेयार्थ प्रति व्यापारोऽनुयोगः, व्याख्यानमिति भावः, स च चतुर्दा व्याख्येयभेदात्, तद्यथा-चरणकरणानुयोगो धर्मकथानुयोगो गणितानुयोगो द्रव्यानुयोगच, तत्र द्रव्यस्य-जीवादेरनुयोगो-विचारो द्रव्यानुयोगः, स च दशधा, तत्र 'दबियाणु ओगे'त्ति यज्जीवादेव्यत्वं विचार्यते स द्रव्यानुयोगो, यथा द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायान दूयते वा तेस्तैः पर्यापायरिति द्रव्य-गुणपर्यायवानर्थः, तत्र सन्ति जीवे ज्ञानादयः सहभावित्वलक्षणा गुणाः न हि तद्वियुक्तो जीवः कदाचनापि|| सम्भवति, जीवत्वहानेः, तथा पर्याया अपि मानुषत्वबाल्यादयः कालकृतावस्थालक्षणास्तत्र सन्त्येवेति, अतो भवत्यसौ गुणपर्यायवत्त्वात् द्रब्यमित्यादि द्रव्यानुयोगः १, तथा 'माउयाणुओगे'त्ति इह मातृकेव मातृका-प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणा पदत्रयी तस्या अनुयोगो, यथा उत्पादवज्जीवद्रव्यं बाल्यादिपर्यायाणामनुक्षणमुसत्तिदर्शनाद् अनुसादे च वृद्धाद्यवस्थानामप्राप्तिप्रसङ्गादसमजसापत्तेः, तथा व्ययवज्जीवद्रव्यं प्रतिक्षणं बाल्याद्यवस्थानां व्ययदर्शनादब्ययत्वे च सर्वदा बाल्यादिप्राप्तेरसमञ्जसमेव, तथा यदि सर्वथाऽप्युत्पादव्ययवदेव तत् न केनापि प्रकारेण ध्रुवं स्यात्तदा दीप 84%9 SEKASHARE अनुक्रम [९१७] Sanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~964~ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२७] दीप अनुक्रम [१८] श्रीस्थानासूत्र वृत्तिः ॥ ४८१ ॥ "स्थान" स्थान [१०], - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [७२७] | अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्राध्या पूर्वद्दष्टानुस्मरणाभिलाषादिभावानामभावप्रसङ्गेन च सकलेहलोक परलोकालम्बनानुष्ठानानामभावतोऽसमञ्जसमेव, ततो द्रव्यतयाऽस्य प्रौव्यमित्युत्पादव्ययधौव्ययुक्तमतो द्रव्यमित्यादि मातृकापदानुयोगः २, तथा 'एगट्टियाणुओग'त्ति एकश्चासावर्थश्च - अभिधेयो जीवादिः स येषामस्ति त एकार्थिकाः -दशब्दास्तैरनुयोगस्तत्कथनमित्यर्थः, एकार्थिकानुयोगो यथा जीवद्रव्यं प्रति जीवः प्राणी भूतः सवः, एकार्थिकानां वाऽनुयोगो यथा जीवनात् प्राणधारणाज्जीवः प्राणानां उच्छ्रासादीनामस्तित्वात् प्राणी, सर्वदा भवनाद्भूतः सदा सत्त्वात्सत्त्वः इत्यादि ३, तथा 'करणाणुओगोत्ति क्रियते एभिरिति करणानि तेषामनुयोगः करणानुयोगः, तथाहि - जीवद्रव्यस्य | कर्तुर्विचित्रक्रियासु साधकतमानि कालस्वभावनियतिपूर्वकृतानि नैकाकी जीवः किञ्चन कर्त्तुमलमिति, मृद्रव्यं वा कुलालचक्रचीवरदण्डादिकं करणकलापमन्तरेण न घटलक्षणं कार्य प्रति घटत इति तस्य तानि करणानीति द्रव्यस्य कर णानुयोग इति ४, तथा 'अप्पियाणपिए'त्ति द्रव्यं ह्यर्पितं विशेषितं यथा जीवद्रव्यं, किंविधं ? -संसारीति, संसार्यपि सरूपं त्रसरूपमपि पञ्चेन्द्रियं तदपि नररूपमित्यादि, अनर्पितं अविशेषितमेव, यथा जीवद्रव्यमिति, ततश्चार्पितं च तदनपितं चेत्यर्पितानष्पितं द्रव्यं भवतीति द्रव्यानुयोगः ५, तथा 'भाविया भाविएत्ति भावितं त्रासितं द्रव्यान्तर|| संसर्गतः अभावितमन्यथैव यत्, यथा जीवद्रव्यं भावितं किञ्चित्, तच प्रशस्तभावितमितरभावितं व तत्र प्रशस्त| भावितं संविद्मभावितमप्रशस्त भाषितं चेतरभावितं, तत् द्विविधमपि वामनीयमवामनीयं च तत्र वामनीयं यत्संसर्गजं गुणं दोषं वा संसर्गान्तरेण वमति, अवामनीयं त्वन्यथा, अभावितं त्वसंसर्गप्राप्तं प्राप्त संसर्ग वा वञ्चतन्दुलकल्पं न For Fans at Use Only १० स्थाना. उद्देशः २ ~965~ द्रव्यानुयोगः सू० ७२७ ॥ ४८१ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते cibrary.org Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२७] (०३) 85%25% 85%25% प्रत सूत्रांक [७२७] वासयितुं शक्यमिति, एवं घटादिक द्रव्यमपि, ततश्च भावितं च अभावितं च भावताभावितम् , एवम्भूतो विचारो द्रव्यानुयोग इति ६, तथा 'बाहिराबाहिरे'त्ति बाह्याबाह्य, तत्र जीवद्रव्यं बाह्यं चैतन्यधर्मेणाकाशास्तिकायादिभ्यो। विलक्षणत्वात्तदेवावाह्यममूर्त्तत्वादिना धर्मेण अमूर्तस्वादुभयेषामपि, चैतन्येन वा अबाह्यं जीवास्तिकायाचैतन्यलक्षणस्वादुभयोरपि, अथवा घटादिद्रव्यं बाह्यं कर्मचैतन्यादि स्वबाह्यमाध्यात्मिकमितियावदिति, एवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ७, तथा 'सासयासासए'त्ति शाश्वताशाश्वतं, तत्र जीवद्रव्यमनादिनिधनत्वात् शाश्वतं तदेवापरापरपर्यायप्राप्तितोऽशाश्वतमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ८, तथा 'तहनाण'त्ति यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानं सम्यग्दृष्टिजीवद्रव्यं तस्यैवावितथज्ञानत्वात् , अथवा यथा तवस्तु तथैव ज्ञानं-अवबोधः प्रतीतियस्मिंस्तत्तथा ज्ञानं, घटादिद्रव्यं घटादितयैव प्रतिभासमानं जैनाभ्युपगतं वा परिणामि परिणामितयैव प्रतिभासमानमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ९, 'अतहणाणे'त्ति अतथाज्ञानं मिथ्यादृष्टिजीवद्रव्यमलातद्रव्यं वा वक्रतयाऽवभासमानमेकान्तवाद्यभ्युपगतं वा | वस्तु, तथाहि-एकान्तेन नित्यमनित्यं वा वस्तु तैरभ्युपगतं प्रतिभाति च तपरिणामितयेति तदतथाज्ञानमित्येवमन्यो| द्रव्यानुयोग इति १० ॥ पुनर्गणितानुयोगमेवाधिकृत्योसातपर्वताधिकारमच्युतसूत्रं यावदाह चमरस्स णं असुरिंदरस असुरकुमाररमो तिगिच्छिकूडे उत्पातपब्बते मूले दसवावीसे जोयणसते विक्वंमेणं पं० । धमरस्स णं असुरिन्दस्स असुरकुमाररन्नो सोमस्स महारो सोमप्पभे उप्पातपब्बते इस जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं दस गाउयसताई उन्हेणं मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पं० । चमरस्स णमसुरिदस्स असुरकुमाररण्णो जमस्स महारो दीप अनुक्रम [९१८] स्था० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~966~ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२८] दीप अनुक्रम [९१९] श्रीस्थाना झसूत्रवृत्तिः ॥ ४८२ ॥ 961 6 % “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [७२८ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], अमप्पने उप्पातपथ्य एवं चैव, एवं वरुणस्सवि, एवं वेसमणस्सवि । बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वतिरोवणरनो रुगिंदे पातपव्वते मूले दसबावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पं० । बलिस्स णं बहरोयदिस्स सोमरस एवं चैव जधा चमरस्स arrer तं चैव सवि । धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररनो धरणप्पमे उप्पातवते दस जोयणसयाई उचणं दस गाय सताई उब्बेद्देणं मूले दस जोयणसताई विक्संभेणं । धरणस्स नागकुमारिंदरस णं नागकुमा ररण्णो कालवास्स महारण्णो महाकालप्पने उप्पातपञ्चते जोयणसयाई उद्धं एवं चैव, एवं जाव संखवालस्स, एवं भूतानंदस्सवि, एवं लोगपालाणंपि से जहा धरणस्स एवं जाव थणितकुमाराणं सलोगपालाणं भाणियव्वं, सव्वेसिं उपायपव्वया भाणियन्वा सरिसणामगा । सकस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सप्पने उप्पातपव्वते दस जोयणसहस्साई उद्धं उश्चत्तेणं दस गाउयसद्स्साई उब्बेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई बिक्खंभेणं पं०, सकस्स णं देविंदस्स देव० सोमरस महारन्नो जधा कस्स तथा सव्वेसिं लोगपालाणं सव्वेसिं च इंदाणं जाव अच्चुयत्ति, सव्वेसिं पमाणमेगं ( सू० ७२८) 'चमरस्से'त्यादि, सुगमं नवरं 'तिगिंछिकूडे 'त्ति तिगिंछी- किंजल्कस्तत्प्रधान कूटत्वात्तिगिच्छिकूटः, तत्प्रधानत्वं च कमलबहुलत्वात्संज्ञा चेयं, 'उप्पावर'त्ति उत्पतनं - ऊर्द्धगमनमुत्पातस्तेनोपलक्षितः पर्वत उत्पातपर्वतः स च रुचकवराभिधानात् त्रयोदशात्समुद्राद्दक्षिणतोऽसङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानतिलय यावदरुणवरद्वीपारुणवरसमुद्रौ तयोररुणवरसमुद्रं दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्य भवति, तत्प्रमाणं च “सत्तरस एकवीसाई जोयण- २ ॥ ४८२ ॥ सयाई सो समुब्बिद्धो । दस चैव जोयणसए बावीसे वित्थडो हेट्ठा ॥ १ ॥ चत्तारि जोयणसए चवीसे वित्थडो उम Education Intel For at Unity |१० स्थाना. उद्देशः ३ उत्पात पर्वताः सू० ७२८ ~967 ~ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२८] (०३) प्रत सूत्रांक [७२८] झमि । सत्तेव य तेवीसे सिहरतले वित्थडो होइ ॥ २॥" इति [ सप्तदशैकविंशतियोजनशतानि स समुद्विद्धः । दश साचैव योजनशतानि द्वाविंशत्यधिकान्यधः विस्तृतः॥१॥ चतुर्विशत्यधिकचतुर्योजनशतानि मध्ये विस्तृतः त्रयोविंशत्यदूधिकसप्तशतानि शिखरतले विस्तृतः भवति ॥ २॥] स च रत्नमयः पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च परिक्षिप्तः, तस्य च मध्येऽशोकावतंसको देवप्रसाद इति । 'चमरस्सेत्यादि, 'महारनों चि लोकपालस्थ सोमप्रभ उत्सातपर्वतः अरुणोदसमुद्र एव भवति, एवं यमवरुणवैश्रमणसूत्राणि नेयानीति । 'बलिस्से त्यादि, रुचकेन्द्र उत्सातपर्वतोऽरुणोदसमुद्रे एव भवति, यथोक्तम्-"अरुणस्स उत्तरेण वायालीसं भये सहस्साई । ओगाहिऊण उदहिं सिलनिचओ रायहाणीओ ॥१॥” इति INI अरुणस्योत्तरस्यां द्विचत्वारिंशतं सहस्राण्यवगाह्योदधिं पर्वतः तत्र चतस्रो राजधान्यः॥१॥] 'वलिस्से'त्यादि, 'वईत्यादि सूत्रसूचा, एवं च दृश्यं 'वइरोयणिंदस्स वइरोयणरनो सोमस्स य महारन्नो' 'एवं चेवत्ति अतिदेशः, एतभावना-जहे'त्यादि, यथा यत्प्रकारं चमरस्य लोकपालानामुत्पातपर्वतप्रमाणे प्रत्येक चतुर्भिः सूत्रैरुक्तं तं चेवत्ति | तलाकारमेव चतुर्भिः सूत्रः बलिनोऽपि वैरोचनेन्द्रस्यापि वक्तव्यं, समानत्वादिति, "धरणस्से त्यादि, धरणस्योसातपर्वतोऽरुणोद एव समुद्रे भवति, 'धरणस्से'त्यादि प्रथमलोकपालसूत्रे 'एवं चेच'त्तिकरणात् 'उच्चत्तेणं दस गाउयसयाई उन्हेण मित्यादि सूत्रमतिदिष्ट, 'एवं जाव संखपालस्सत्तिकरणाच्छेषाणां त्रयाणां लोकपालानां कोलवालसेलयालस-1 पखवालाभिधानानामुत्पातपर्वताभिधायीनि त्रीण्यन्यानि सूत्राणि दर्शयति । 'एवं भूयाणंदस्सवित्ति भूतानन्दस्यापि औदीच्यनागराजस्यापि उत्पातपर्वतस्तस्य नाम प्रमाणं च वाच्यं, यथा धरणस्येत्यर्थः, भूतानन्दप्रभश्चोत्पातपर्वतोऽरुणो दीप अनुक्रम [९१९] JAMEaiahindi N imran.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 968~ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२८] (०३) प्रत सूत्रांक [७२८] श्रीस्थाना-दाद एव भवति, केवलमुत्तरतः, 'एवं लोगपालाणवि सेत्ति 'सें तस्य भूतानन्दस्य लोकपालानामपि, एवमुत्पातपर्वत- १० स्थानाशसूत्रप्रमाणं यथा धरणलोकपालानामिति भावः, नवरं तन्नामानि चतुःस्थानकानुसारेण ज्ञातव्यानीति, 'जहा धरणस्से'ति उद्देशः ३ वृत्तिः यथा धरणस्य एवमिति-तथा सुपर्णविद्युत्कुमारादीनां ये इन्द्रास्तेषामुत्पातपर्वतप्रमाणं भणितव्यं, किंपर्यन्तानां तेषा- उत्पात मित्यत आह-'जाव थणियकुमाराणंति प्रकटं, किमिन्द्राणामेव नेत्याह-सलोगपालाण'ति, तल्लोकपालानामपी- पर्वताः ॥४८॥ त्यर्थः, 'सव्वेसिमित्यादि, सर्वेषामिन्द्राणां तल्लोकपालानां चोत्पातपर्वताः सहनामानो भणितव्याः, यथा धरणस्य सु०७२८ धरणप्रभा, प्रथमतलोकपालस्य कालवालस्य कालवालप्रभ इत्येवं सर्वत्र, ते च पर्वताः स्थानमसी कृत्यैवं भवन्ति-"अ सुराणं नागाणं उदहिकुमाराण होति आवासा । अरुणोदए समुद्दे तत्व य तेसि उपाया ॥१॥ दीवदिसाअम्गीणं पथणियकुमाराण होति आवासा । अरुणवरे दीवमि उ तत्धेव य तेसि उपाया ॥२॥” इति [असुराणां नागानां उद-14 धिकुमाराणां भवन्त्यावासाः । अरुणोदके समुद्रे तत्रैव च तेषामुत्पाताः ॥१॥द्वीपदिगनीनां स्तनितकुमाराणां भवन्त्यावासाः । अरुणवरे द्वीपे तु तत्रैव च तेषामुत्पाताः ॥२॥] 'सकस्से' त्यादि, कुण्डलवरद्वीपकुण्डलपर्वतस्याभ्यन्तरे। दक्षिणतः पोडश राजधान्यः सन्ति, तासां चतसृणां चतसृणां मध्ये सोमप्रभयमप्रभवरुणप्रभवनमणप्रभाख्या उत्पातपर्वताः सोमादीनां शकलोकपालानां भवन्ति, उत्तरपार्वे तु एवमेवेशानलोकपालानामिति, यथा शक्रस्य तथाऽच्युतान्तानामिन्द्राणां लोकपालानां चोत्पातपर्वता वाच्या, यतः सर्वेषामेकं प्रमाण, नवरं स्थानविशेषो विशेषसूत्रादवग-181 न्तव्यः । योजनसहस्राधिकारादेव योजनसाहसिकावगाहनासूत्रत्रयम् दीप अनुक्रम [९१९] X ॥४८ ॥ JAMER ana K norary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~969~ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२९] दीप अनुक्रम [९२०] Education intam "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-1. स्थान [१०], मूलं [२९] - बायरवणस्सतिकातिताणं उक्कोसेणं दस जोयणसयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता, जलचरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिताणं कोसेणं दस जोयणसताई सरीरोगाहणा पन० उरपरिसप्पथलचरपंचिदिवतिरिक्खजोणिताणं उकोसेणं एवं चैव ( सू० ७२९) संभवाओ णमरहातो अभिनंदणे अरहा दसहिं सागरोवमकोडिसतसहस्सेहिं वीतिकंतेहिं समुप्पने (सू० ७३०) दसविद्दे अनंतते पं० [सं० णामाणंतते ठवणाणंसते दुब्बाणवते गणणाणंतते पदसाणंतते एगतोणंतते दुहतोणंतते देसवित्थाराणंतते सव्ववित्थाराणंतते सासयाणंतते ( सू० ७३१) उप्पायपुव्वस्स णं दस क्ल्यू पं० अस्थिणत्थिष्पवातपुवरस णं दस चूलवत्थू पं० ( सू० ७३२) दसबिदा पडिसेवणा पं० [सं० प १ पमाय २ णाभोगे ३, आउरे ४ आवती ५ त । संकिते ६ सहसकारे ७ भय ८ प्पयोसा ९ य वीमंसा १० ॥ १ ॥ दस आलोयणादोसा पं० तं०—-आकंपइत्ता १ अणुमाणइत्ता २ जंदि ३ वायरं ४ च सुमं वा ५ छष्णं ६ साउलगं ७ बहुजण ८ अव्वत ९ तस्सेवी १०|| १ || दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोएचते, सं० [जासंपन्ने कुलसंपन्ने एवं अधा अट्टहाणे जाव खंते दंते अमावी अपच्छातावी, दुसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तंजा - आयारखं अवहारवं जाव अवाससी पितधम्मे दधम्मे, दुसविधे पायच्छिते पं० तं० आलोयणारिद्दे जाव अणवट्टप्पारि पारंचियारिहे (सू० ७३३) 'वाद' त्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'बादरे'त्ति वादराणामेव न सूक्ष्माणां तेषामङ्गुला सङ्ख्ये य भागमात्रावगाहनत्यात्, जघन्यतोऽपि मा भूदतः 'उकोसेणं' त्यभिहितं दश योजनशतानि उत्सेधयोजनेन, न तु प्रमाणयोजनेन, "उस्सेहप एवं www...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] For Parts Only - ~970 ~ www.jandibrayyorg "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७३३] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७३३] 454505645 श्रीस्थाना- माणाउ मिणे देह” [उत्सेधप्रमाणेन देहं मिनुयात् ] इति वचनात् , शरीरस्यावगाहना-येषु प्रदेशेषु शरीरमवगाढं १० स्थाना, सूत्र- सा शरीरावगाहना, सा च तथाविधनद्या(दा)दिपझनालविषया द्रष्टव्येति । 'जलचरेत्यादि, इह जलचरा मत्स्याः गर्भजाउद्देशः ३ वृत्तिः इतरे च दृश्याः, “मच्छजुयले सहस्स" [मत्स्ययुगले सहनं] मिति वचनात् , एते च किल स्वयम्भूरमण एव भवन्तीति। अवगाह 'उरगे'त्यादि उरम्परिसप्पो इह गर्भजा महोरगा दृश्याः, "उरगेसु य गब्भजाईसु"[गर्भजातेषूदकेषु] । इति वचनात्, ॥४८४॥ माएते किल बाह्यद्वीपेषु जलनिश्रिता भवन्ति, 'एवं चेव'त्ति 'दसजोयणसयाई सरीरोगाहणा पन्नत्ते'ति सूत्रं वाच्यमित्यर्थः। न्तरं अनएवंविधाश्चार्था जिनईर्शिता इति प्रकृताध्ययनावतारि जिनान्तरसूत्रं 'सम्भवेत्यादि, सुगर्म । अभिहितप्रमाणाश्चावगाहना तं वसूनि दयोऽन्येपि पदाथों जिनैरनन्ता दृष्टा इत्यनन्तकं भेदत आह-दसविहे'त्यादि नामानन्तक-अनन्तकमित्येषा नामभूता प्रतिषवा द्या वर्णानुपूर्वी यस्य वा सचेतनादेर्वस्तुनोऽनन्तकमिति नाम तन्नामानन्तक स्थापनानन्तक-यदक्षादावनन्तकमिति स्थाप्यते, द्रव्यानन्तक-जीवद्रव्याणां पुद्गलद्रव्याणां वा यदनन्तत्वं, गणनानन्तकं यदेको द्वौत्रय इत्येवं सञ्चयाता असङ्ख्याता अ- ०७२ नन्ता इति सझयामात्रतया सङ्ख्यातव्यानपेक्षं सङ्ख्यानमात्रं व्यपदिश्यत इति, प्रदेशानन्तक-आकाशप्रदेशानां यदानन्त्यमिति, एकतोऽनन्तकमतीताद्धा अनागताद्धा बा, द्विधाऽनन्तकं सर्वाद्धा, देशविस्तारानन्तकै एक आकाशपतरः, सर्वविस्तारानन्तक-सर्वाकाशास्तिकाय इति, शाश्वतानन्तकमक्षयं जीवादिद्रव्यमिति । एवंविधार्थाभिधायकं पूर्वगतश्रुतमिति पूर्वश्रुतविशेषमिहावतारयन् सूत्रद्वयमाह-उपाय'त्यादि, उत्पातपूर्व प्रथमं तस्य दश वस्तूनि-अध्यायविशेषाः, अ|स्तिनास्तिप्रवादपूर्वं चतुर्थं तस्य मूलवस्तूनामुपरि चूलारूपाणि वस्तूनि चूलावस्तूनि । पूर्वगतादिश्रुतनिषिद्धवस्तूनां साधो गाथा: दीप अनुक्रम [९२८] 15645%258 Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~971~ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] (०३) प्रत सूत्रांक [७३३] 5-259490-%2 यद्विधा प्रतिषेवा भवति तद्विधा तां दर्शयन्नाह-दसविहे'त्यादि, प्रतिषेवणा-प्राणातिपाताद्यासेवनं, 'दप्प'सिलोगो, दप्पो-बलानादि, 'दप्पो पुण वग्गणाईओ' [दपः पुनर्घलानादिकः] इति वचनात् , तस्मादागमप्रतिषिद्धमाणातिपा-1 ताद्यासेवा या सा दर्पप्रतिषेवणेति, एवमुत्तरपदान्यपि नेयानि, नवरं प्रमादः-परिहासविकथादिः, "कंदप्पाइ पमाओ" कंदर्पादिः प्रमाद] इति वचनाद्, विधेयेष्यप्रयत्लो वा, अनाभोगो-विस्मृतिः, एषां समाहारद्वन्द्वस्तत्र, तथा आतुरे-ग्लाने सति प्रतिजागरणार्थमिति भावः, अथवा आत्मन एवातुरत्वे सति, लुप्तभावप्रत्ययत्वात् , अयमर्थ:-क्षुपिपासाव्याधिभिर भाभिभूतः सन् यां करोति, उक्तं च-"पढमबीयदुओ वाहिओ व जं सेव आउरा एसा" इति [क्षुधातृपोपद्रुतो व्याधितो वा यत्सेवते एषा आतुरा] तथा आपत्सु द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधासु, तत्र द्रव्यतःप्रासुकद्रव्यं दुर्लभं क्षेत्रतोऽध्वप्रतिपन्नता कालतो दुर्भिक्षं भावतो ग्लानत्वमिति, उक्तं च-"दव्वाइअलंभे पुण चउबिहा आयया होई" इति [द्रव्याघलाभे पुनः चतुर्विधा आपदो भवन्ति । तथा शङ्किते एपणेऽप्यनेषणीयतया "जं संके तं समावजे"[यत्शयत तत्समापद्येत ॥] इति वचनात्, सहसाकारे-अकस्मात्करणे सति, सहसाकारलक्षणं चेदम्-"पुवं अपासिऊणं पाए छूट मि जं पुणो पासे । न चएइ नियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं ॥१॥” इति [ पूर्वमदृष्ट्वा पादे त्यक्ते यत्पुनः पश्यति । न च निवर्तयितुं शक्नोति सहसाकरणमेतत् प्रायः ॥ १॥] भयं च-भीतिः नृपचौरादिभ्यः प्रद्वेषश्च-मात्सर्य भयप्रद्वेष तस्माच प्रतिषेवा भवति, यथा राजाद्यभियोगान्मार्गादि दर्शयति सिंहादिभयाद्वा वृक्षमारोहति, उक्तं च-"भयमभिउग्गेण सीहमाइ बत्ति" [अ|भियोगेन सिंहादि वा भयं] इह प्रद्वेषग्रहणेन कषाया विवक्षिताः, आह च-"कोहाईओ पओसो"त्ति [क्रोधादिका गाथा: दीप अनुक्रम [९२८] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~972~ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ७३३] गाथा: दीप अनुक्रम [९२८] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ७३३] स्थान [१०], श्रीस्थाना हसून ॐ वृतिः प्रद्वेषः ] तथा विमर्श:- शिक्षकादिपरीक्षा, आह च "वीमंसा सेहमाईणं" इति [ शिष्यादीनां परीक्षा ] ततोऽपि प्रतिषेवापृथिव्यादिसङ्घङ्घादिरूपा भवतीति । प्रतिषेवायां चालोचना विधेया, तत्र च ये दोषास्ते परिहार्या इति दर्शनायाह- 'दसे' त्यादि, 'आकंप' गाहा, आकम्प्य आवर्ज्येत्यर्थः, यदुक्तम् — “वेयावच्चाईहिं पुत्रं आगंपइस आयरिए । आलोएइ कह मे थोवं वियरिज्ज पच्छित्तं १ ॥१॥” इति [ वैयावृत्त्यादिभिः पूर्व आचार्यमाकंप्यालोचयति कथं मम स्तोकं प्रायश्चित्तं दद्यात् ॥ १ ॥] 'अणुमाणइत्ता' अनुमानं कृत्वा, किमयं मृदुदण्ड उतोग्रदण्ड इति ज्ञात्वेत्यर्थः, अय★ मभिप्रायोऽस्य यद्ययं मृदुदण्डस्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति, उक्तं च- "किं एस उग्गदंडो मिउदंडो वत्ति ॐ एवमणुमाणे । अन्ने पलिंति थोवं पच्छित्तं मज्झ देहिज्जा ॥ १ ॥” इति [ किमेष उम्रदंडो मृदुदंडो वेत्यनुमायैवं ॥ ४८५ ॥ ७३३ अन्यान् आलोचयति मम स्तोकं प्रायश्चित्तं दद्यात् ॥ १ ॥ ] 'जं दिनं'ति यदेव दृष्टमाचार्यादिना दोषजातं त देवालोचयति नान्यं दोषं, आचार्यरञ्जनमात्रपरत्वेनासंविग्नत्वादस्येति उक्तं च--"दिट्ठा व जे परेणं दोसा वियडेइ ते है सू० ७२९चिय न अने । सोहिभया जाणंतु त एसो एयावदोसो उ ॥ १ ॥” इति [ ये परेण दोषा दृष्टास्तानेव प्रकटयति नान्यान् । शोधिभयात् जानन्तु वा एष एतावदोष एव ॥ १ ॥ ] 'वायरं वत्ति बादरमेवातिचारजातमालोचयति न सूक्ष्ममिति, 'सुमं व'ति सूक्ष्ममेव वाऽतिचारमालोचयति यः किल सूक्ष्ममालोचयति स कथं वादरं सन्तं नालोच | यत्येचं रूप भाव सम्पादनायाचार्यस्येति, आह च – “वायर वडुवराहे जो आलोएड सुहुम नालोए। अहवा मुहुमा लोए वरमन्नंतो उ एवं तु ॥ १॥ जो सुहुने आठोए सो किह नालोय बायरे दोसे ?" ति ॥ इति [बादरः बृहतोऽपराधान् आलो For Fans Only १० स्थाना. उद्देशः ३ अवगाह ना जिनान्तरं अनतं वसूनि प्रतिषेवा द्याः ~973~ ।। ४८५ ।। Raincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] (०३) प्रत सूत्रांक [७३३] CCCCCCCCSAX चयति सूक्ष्मानालोचयति अथवा सूक्ष्मानालोचयति परमेवं मन्वानः॥१॥-यः किल सूक्ष्मानालोचयति कथं स न बादरान दोषानालोचयति ॥] 'छन्नति प्रच्छन्नमालोचयति यथाऽऽत्मनैव शृणोति नाचार्यः, भणितं च-"छन्नं तह आलोए जह नवरं अप्पणा सुणइ ॥" इति, [छन्नं तथालोचयति यथाऽऽत्मनैव शृणोति परं] 'सदाउलयं ति शब्देनाकुलं है। शब्दाकुलं-बृहच्छब्द, तथा महता शब्देनालोचयति यथाऽन्येऽप्यगीतार्थास्ते शृण्वन्तीति, अभाणि च-"सद्दाउल ६ बड्डेणं सद्देणालोय जह अगीयावि बोहेइ ॥" इति [शब्दाकुलं बृहता शब्देनालोचयति यथा अगीतार्था अपि बोध यति ॥] 'बहुजणं'ति बहवो जना-आलोचनाचार्याः यस्मिन्नालोचने तद्बहुजनं, अयमभिप्राय:-"एकस्सालोएत्ता जो आलोए पुणोवि अन्नस्स । ते चेष य अवराहे त होइ बहुजणं नाम ॥१॥” इति, [एकस्यालोच्य पार्वे यः पुनरन्यस्याप्यालोचयति तानेवापराधान् तद्भवति वहुजनं नाम ।। १॥] अव्यक्तस्य-अगीतार्थस्य गुरोः सकाशे यदालोचन तत्सम्बन्धादव्यक्तमुच्यते, उक्तं च-"जो य अगीयस्थस्सा आलोए तं तु होइ अन्वतं" इति [यश्चागीतार्थस्यालोचयति तत्तु भवत्यव्यक्तं ॥] 'तस्सेवित्ति ये दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदालोचनं स तत्सेविलक्षण आलोचनादोषः, तत्र चायमभिप्रायः आलोचयितु:-"जह एसो मतुल्लो न दाही गुरुगमेव पच्छित्तं । इय जो किलिडचित्तो विन्ना आलोयणा सेणं ॥१॥" इति [यथैष मनुल्यो (दोषेणेति) न गुरु प्रायश्चित्तं दास्यति इति यः लिष्टचित्तः तेनालोचना दत्ता एव (सतमित्यर्थः)॥१॥] एतदोषपरिहारिणाऽपि गुणवत एवालोचना देयेति तद्गुणा-| नाह-'दसहि ठाणेही'त्यादि, एवं अनेन क्रमेण यथाऽष्ट स्थानके तथा इदं सूत्रं पठनीयमित्यर्थः, कियहूरं यावत्खते गाथा: दीप अनुक्रम [९२८] Tiandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~974~ Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] (०३) प्रत सूत्रांक [७३३]] गाथा: श्रीस्थाना- दंतेत्तिपदे, तथाहि-'विणयसंपन्ने नाणसंपन्ने दसणसंपन्ने चरणसंपन्नेत्ति, 'अमायी अपच्छाणुताषीति पदद्वयमिहाधिक १० स्थानासूत्र- प्रकटं च, नवरं ग्रन्धान्तरोक्तं तत्स्वरूपमिदं-"नो पलिउंचे अमायी अपच्छयावी न परितप्पे'त्ति। [नापहवीतामायी उद्देशः ३ अपश्चात्तापी न परितप्येत् ] एवंभूतगुणवताऽपि दीयमानाऽऽलोचना गुणवतैव प्रत्येष्टव्येति तद्गुणानाह-दसही- अवगाह ना जिना॥४८ ॥ कात्यादि, 'आयारवं'ति ज्ञानाद्याचारवान् १ 'अवहारवंति अवधारणावान् २ जावकरणात् 'ववहारवं' आगमा न्तरं अनदिपञ्चप्रकारव्यवहारवान् ३ 'उध्वीलए' अपनीडकः लज्जापनोदको यथा परः सुखमालोचयतीति ४ 'पकुब्बी' आ-14 न्तं वसूनि लोचिते शुद्धिकरणसमर्थः ५ 'निज्जवए' यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निर्वोदुमलं भवतीति ६ 'अपरिस्साची' प्रतिषेवाआलोचकदोषानुपश्रुत्य यो नोगिरति ७ 'अवायदंसी' सातिचारस्य पारलौकिकापायदशीति पूर्वोक्तमेय ८ 'पियधम्मे द्या: ९ दधम्म' १. त्ति अधिकमिह प्रियधर्मा-धर्मप्रियः दृढधा य आपद्यपि धर्मान्न चलतीति । आलोचितदो-18 सू०७२९पाय प्रायश्चित्तं देयमतस्तत्मरूपणसूत्र-आलोचना-गुरुनिवेदनं तवैव यच्छुख्यत्यतिचारजातं तत्तदर्हत्वादालोचनाह, त- ७३३ छुयर्थं यत्नायश्चित्तं तदप्यालोचनाहै, तच्चालोचनैवेत्येवं सर्वत्र, यावत्करणात् 'पडिकमणारिहे' प्रतिक्रमणं-मिथ्या|दुष्कृतं तदह 'तदुभयारिहे' आलोचनाप्रतिक्रमणाहमित्यर्थः 'विवेगारिहे' परित्यागशोध्यं 'घिउसग्गारिहे' कायो-12 सर्गार्ह 'तवारिहे' निर्विकृतिकादितपःशोध्यं 'छेदारिहे' पर्यायच्छेदयोग्यं 'मूलारिहे' व्रतोपस्थापनाह 'अणवट्ठ-13 पारिहे' यस्मिन्नासेविते कञ्चन कालं व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाचीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्याई,1% दीप अनुक्रम [९२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~975~ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [633] गाथा: दीप अनुक्रम [९२८] Education from "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [१०], उद्देशक [-1. मूलं [३३] 'पारश्चियारिहे' एतदधिकमिह, तत्र यस्मिन् प्रतिषेविते लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिः पाराचिको बहिर्भूतः क्रियते तत्पाराचिकं तदर्हमिति । पाराश्चिको मिथ्यात्वमप्यनुभवेदतो मिथ्यात्वनिरूपणाय सूत्रम् - दसविधे मिच्छते पं० [सं० - अधम्मे धम्मसण्णा धम्मे अधम्मसण्णा अमग्गे मग्गसण्णा मग्गे उम्मग्गसन्ना अजीबेसु जीवसन्ना जीवेसु अजीवसन्ना असाहुसु साहुसन्ना साहुसु असाहुसण्णा अमुत्तेसु मुत्तसन्ना मुत्तेमु अमुत्तमण्णा ( सू० ७३४) चंदप्यभे णं अरहा दस पुव्वसतसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, धम्मे णमरहा दस वाससय सहस्साई सब्वायं पालहत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, णमो णमरहा दस बाससहस्साई सब्बाउयं पालता सिद्धे जाव पहीणे, पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालता हट्टीते तमाए पुढवीए नेर तित्ताते उववन्ने, मी अरहा दस घणू उ उच्चत्तेणं दस व वाससयाई सब्वाच्यं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, कण्हे णं वासुदेवे दस घणूई उद्धं उच्चत्तेणं दस य वाससयाई सब्वाच्यं पाठइत्ता तचाते वालुयप्पभाते पुढवीते नेरतियत्ताते उघवन्ने, (सू० ७३५ ) दसविहा भवणवासी देवा पं० तं० असुरकुमारा जाव धणियकुमारा। एएसि णं दसविधाणं भवणवासीणं देवाणं दस चेतितरुक्खा पं० [सं० आसत्थ १ सचिवन्ने २ सामलि ३ उंबर ४ सिरीस ५ दहिवने ६ । बंजुल ७ पलास ८ वप्पे तते - - ९ कविताररुक्खे १० ।। १ ।। (सू० ७३६ ) दसविधे सोक्खे पं० नं० - आरोग्ग १ दीहमा २ अजं ३ काम ४ भोग ५ संतोसे ६ । अस्थि ७ सुभोग ८ निक्खम्ममेव ९ तत्तो अणाबाहे १० || १ || (सू० ७३७ ) दसविधे उवघाते पं० [सं० उगामोवघाते उप्पायगोवघाते जह पंचठाणे, जाव परिहरणोवघाते णाणोवघाते दंसणोवघाते चरित्तो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... www...... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] For PPs Use Only - ~976~ Melancibrary.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७३८] + गाथा: (०३) का प्रत सूत्रांक [७३८] श्रीस्थाना वघाते अधियत्तोवघाते सारक्खणोवधाते दसविधा विसोही पं० त०-उपगमविसोही उप्पायणविसोही जाव सारक्खण- १० स्थाना. सूत्रविसोही (सू०७३८) . उद्देशः३ तत्र अधर्मे-श्रुतलक्षणविहीनत्वादनागमे अपौरुषेयादी धर्मसंज्ञा-आगमबुद्धिमिथ्यात्वं, विपर्यस्तत्वादिति १ मिथ्यावं धर्मे-कपच्छेदादिशुद्ध सम्यक् श्रुते आप्तवचनलक्षणेऽधर्मसंज्ञा सर्व एव पुरुषा रागादिमन्तोऽसर्वज्ञाश्च पुरुषत्वादहमि-15 शलाका: ॥४८७॥ | वेत्यादिप्रमाणतोऽनाक्षास्तदभावात्तत्तदुपदिष्टं शास्त्रं धर्म इत्यादिकुविकल्पवशादनागमबुद्धिरिति २ तथा उन्मार्गो- भवनवानिवृतिपुरी प्रति अपन्थाः वस्तुतत्त्वापेक्षया विपरीतश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपस्तत्र मार्गसंज्ञा-कुबासनातो मार्गबुद्धिः ३] सि चैत्यवृतथा मार्गेऽमार्गसंज्ञेति प्रतीत ४ तथा अजीवेषु-आकाशपरमाण्वादिषु जीवसंज्ञा 'पुरुष एवेद'मित्याचभ्युपगमादिति | क्षाः उपतथा 'क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाकाशचन्द्रसूर्याख्याः । इति मूर्तयो महेश्वरसम्बन्धिन्यो भवन्त्यष्टी ॥.१ ॥" घाताद्या इति ५, तथा जीवेषु-पृथिव्यादिष्वजीवसंज्ञा यथा न भवन्ति पृथिव्यादयो जीवाः उच्छ्रासादीनां प्राणिधर्माणामनु- सू०७३४. पलम्भादू घटवदिति ६ तथाऽसाधुषु-पहजीवनिकायवधानिवृत्तेष्वौद्देशिकादिभोजिष्वब्रह्मचारिषु साधुसंज्ञा, यथा-पद ७५८ |साधव एते सर्वपापप्रवृत्ता अपि ब्रह्ममुद्राधारित्वादित्यादिविकल्परूपेति ७ तथा साधुषु-ब्रह्मचर्यादिगुणान्वितेषु असाधु3 संज्ञा, एते हि कुमारप्रव्रजिता नास्त्येषां गतिरपुत्रत्वात् स्नानादिविरहितत्वाद्वेत्यादिविकल्पात्मिकेति ८ तथाऽमुक्तेषु-18 दसकम्मसु लोकव्यापारप्रवृत्तेषु मुक्तसंज्ञा, यथा-'अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा । मोदन्ते निवृतात्मान-पत स्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥” इत्यादिविकल्पात्मिकेति ९ तथा मुक्केषु-सकलकर्मकृतविकारविरहितेष्वनन्तज्ञानदर्श गाथा: दीप अनुक्रम [९३५] Santaintine Maintary on मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~977~ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७३८] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७३८] नसुखवीर्ययुक्तेषु अमुक्तसंज्ञा, न सम्त्येवेदशा मुक्ताः, अनादिकर्मयोगस्य निवर्तयितुमशक्यत्वादनादित्वादेव आकाशा-18 स्मयोगस्येवेति,न सन्ति वा मुक्ताः मुक्तस्य विध्यातदीपकल्पत्वादात्मन एव वा नास्तित्वादित्यादिविकल्परूपेति १०। अननन्तरं मिथ्यात्वविषयतया मुक्ता उक्ताः, इदानीं तदधिकारातीर्थकरत्रयस्य दशस्थानकानुपातेन मुक्तत्वमभिधीयते-च-1 दप्पभे गं' इत्यादि सूत्रत्रयमपि कठ्यं, नवरं सिद्धे 'जाव'त्ति यावत्करणात् 'सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतकडे सव्वदुक्खप्पही-18 'त्ति सूत्रं द्रष्टव्यमिति, उक्ततीर्थकराश्च महापुरुषा इति तत्सम्बन्धि 'पुरिससीहे त्यादिसूबत्रयं कण्ठ्यं । नरविकतयेति प्रागुक्त, नारकासन्नाश्च क्षेत्रतो भवनवासिन इति तद्तं सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं-"असुरा १ नाग २ सुवन्ना ३ विग्जू ४ अग्गी ५ य दीव ६ उदही ७य । दिसि ८ पवण ९ थणियनामा १० दसहा एए भवणवासी ॥१॥” इति, अनेन क्रम-18 णाश्वत्थादयश्चैत्यवृक्षा ये सिद्धायतनादिद्वारेषु श्रूयन्त इति । प्राग्भवनवासिनो देवा उक्तास्तेषां च किल सुखं भवतीति सुखं सामान्यत आह–'दसविहें'त्यादि, 'आरोग'गाहा, आरोग्य-नीरोगता १दीर्घमायुः-चिरं जीवितं, शुभ|मितीह विशेषणं दृश्यमिति २,'अहुज'त्ति आध्यत्वं-धनपतित्वं सुखकारणत्वात्सुखं, अथवा आध्यैः क्रियमाणा इज्यापूजा आयेज्या, प्राकृतत्वादहेजत्ति ३, 'काम'त्ति कामौ-शब्दरूपे सुखकारणत्वात् सुखं ४, एवं भोगे'त्ति भोगा:-गन्धरसस्पर्शाः ५, तथा सन्तोपः-अल्पेच्छता तत्सुखमेव आनन्दरूपत्वात्सन्तोषस्य, उच-"आरोगसारियं माणुसतणं सच्चसारिओ धम्मो । विज्जा निच्छयसारा सुहाई संतोससाराई ॥१॥” इति [आरोग्यसारं मनुष्यत्वं सत्यसारो 8 धर्मः । विद्या निश्चयसारा सुखानि संतोपसाराणि ॥१॥]६, 'अस्थिति येन येन यदा यदा प्रयोजनं तत्तत्तदा त-16 गाथा: दीप अनुक्रम [९३५] स्था०८२ Samirary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~978~ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७३८] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७३८] गाथा: श्रीस्थाना- दाऽस्ति-भवति जायते इति सुखमानन्दहेतुत्वादिति ७, 'मुह भोग'त्ति शुभ:-अनिन्दितो भोगो-विषयेषु भोगक्रि- १०स्थाना. सूत्र- येति स सुखमेव सातोदयसम्पाद्यत्वात् तस्येति ८, तथा 'निक्खम्ममेव'त्ति निष्क्रमणं निष्क्रमा-अविरतिजम्बाला-18 उद्देश:३ वृत्तिः दिति गम्यते, प्रनग्येत्यर्थः, इह च द्विर्भावो नपुंसकताच प्राकृतत्वात्, एवकारोऽवधारणे, अयमर्थ:-निष्क्रमणमेव भव- मिथ्यात्वं स्थानां सुखं, निरावाधस्वायत्तानन्दरूपत्वात् , अत एवोच्यते-'दुवालसमासपरियाए समणे निग्गंधे अणुत्तराणं दे- शलाकाः ॥४८८॥ वाणं तेउल्लेसं वीइवयईत्ति, तथा "नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहि-| भवनवातस्य ॥ १ ॥” इति, शेषसुखानि हि दुःखप्रतीकारमात्रत्वात् सुखाभिमानजनकत्वाच्च तत्त्वतो न सुखं भवतीति ९, सिचैत्यवृ'तत्तो अणावाहि'त्ति ततो-निष्क्रमणसुखानन्तरं अनावाचं-न विद्यते आवाधा-जन्मजरामरणक्षुपिपासादिका यत्रक्षा : उपतदनांबा, मोक्षसुखमित्यर्थः, एतदेव च सर्वोत्तम, यत उक्तम्-नवि अस्थि माणसाणं तं सोक्खं नविय सम्बदे- 1घाताद्याः वाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाह उवगयाणं ॥१॥” इति, १० [नाप्यस्ति मनुष्याणां तत्सौख्यं नापि च सर्वदे- & सू०७३४वानां । यसिद्धानां सौख्यमव्यायाधमुपगतानां ॥१॥] निष्क्रमणसुखं चारित्रसुखमुक्तं, तच्चानुपहतमनावाधसुखायेत्य मा ७३८ तश्चारित्रस्तरसाधनस्य भक्तादेानादेश्वोपघातनिरूपणसूत्र, तत्र यदुद्गमेन-आधाकादिना पोडशविधेनोपहननं-वि-1 राधनं चारित्रस्याकल्प्यता वा भक्तादेः स उगमोपघातः १, एवमुत्पादनया-धाच्यादिदोषलक्षणया यः स उत्पादनोप-1 घातः, 'जहा पंचट्ठाणे'त्तिभणनात् तत्सूत्रमिह दृश्य, कियत्?, अत आह-'जाव परी'त्यादि, तवेदम्-'एसणो- n सावधाए' एषणया-शङ्कितादिभेदया यः स एपणोपघातः 'परिकम्मोवघाए' परिकर्म-वस्त्रपात्रादिसमारचनं तेनोपघातः दीप अनुक्रम [९३५] ॐ5 पा Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~979~ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३८] + गाथा: (०३) ANS प्रत सूत्रांक [७३८] स्वाध्यायस्य श्रमादिना शरीरस्य संयमस्य वोपघातः परिकर्मोपघातः, 'परिहरणोवघाए' परिहरणा-अलाक्षणिकस्याकल्यस्य वोपकरणस्याऽऽसेवा तया यः स परिहरणोपधातः, तथा ज्ञानोपघातः श्रुतज्ञानापेक्षया प्रमादतः, दर्शनोपघातः शङ्कादिभिः, चारित्रोपघातः समितिभङ्गादिभिः, अचियत्तोवधाए'त्ति अचियत्तम्-अप्रीतिकं तेनोपघातो विनयादेः, 'सारक्खणोवघाए'त्ति संरक्षणेन शरीरादिविषये मूच्छा उपघातः परिग्रह विरतेरिति संरक्षणोपघात इति । उपघातविपक्षभूतविशुद्धिनिरूपणाय सूत्रम्, तत्रोद्मादिविशुद्धिर्भक्तादेर्निरवधता, जावत्तिकरणात् एसणेत्यादि वाच्यमित्यर्थः, तत्र परिकर्मणा-वसत्यादिसारवणलक्षणेन क्रियमाणेन विशुद्धियों संयमस्य सा परिकर्मविशुद्धिः परिहरणया-वस्त्रादेः शा खीययाऽऽसेवनया विशुद्धिः परिहरणाविशुद्धिः, ज्ञानादित्रयविशुद्धयस्तदाचारपरिपालनातः, अचियत्तस्य-अप्रीतिकस्य प्राविधिस्तनिवर्तनादचियत्तविशोधिः, संरक्षणं संयमार्थ उपध्यादेस्तेन विशुद्धिश्चारित्रस्येति संरक्षणविशुद्धिः, अथवोद्ग माधुपाधिका दशप्रकाराऽपीयं चेतसो विशुद्धिर्विशुद्यमानता भणितेति । इदानी चित्तस्यैव विशुद्धिविपक्षभूतमुपध्याधुपाधिक सइक्केशमभिधातुमुपक्रमते, तत्र सूत्रम् दसविधे संकिलेसे पं० -उबहिसंकिलेसे उबस्सयसंकिलेसे कसायसंकिलेसे भत्तपाणसंकिलेसे मणसंकिलेसे वतिसंकिलेसे कावसंकिलेसे गाणसंकिलेसे दंसणसंकिलेसे चरित्तसंकिलेसे । दसविहे असंकिलेसे पं० तं०-उबहिअसंकिलेसे जाव चरित्तसंकिलेसे । (सू० ७३९) सविधे बले पं० सं०-सोतिवितवले जाव फासिदितवले णाणवले दसणबले चरित्तबले तपबले वीरितबले (सू०७४०) गाथा: दीप %25345%%% अनुक्रम [९३५] JAMERatml ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 980~ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४०] (०३) श्रीस्थाना- झसूत्र वृत्तिः 11४८९॥ प्रत सूत्रांक [७४०] ACANCELCOC भाषा: 'दसेत्यादि, सड्केशः-असमाधिः, उपधीयते-उपष्टभ्यते संयमः संयमशरीरं वा येन स उपधिः-वखादिस्तद्विषयः | १०स्थाना. सड़केशः उपधिसडक्लेशः, एवमन्यत्रापि, नवरं 'उवस्सय'त्ति उपाश्रयो-वसतिस्तथा कषाया एवं कषायैर्वा सडक्लेशः उद्देशः३ कषायसहकेशः तथा भक्तपानाश्रितः सङ्क्लेशो भक्तपानसकेशः तथा मनसो मनसि वा सकेशो वाचा सहक्लेशः संक्लेशेतरे कायमाश्रित्य सड्क्लेश इति विग्रहः, तथा ज्ञानस्य सडक्लेश:-अविशुद्यमानता स ज्ञानसडनक्केशः, एवं दर्शनचारित्रयो- बलानि रपीति । एतद्विपक्षोऽसङ्केशस्तमधुनाऽऽह-दसे'त्यादि, कण्ठ्यं । असङक्लेशश्च विशिष्टे जीवस्य वीर्यबले सति भव सत्याद्या तीति सामान्यतो बलनिरूपणायाह-दसे त्यादि, श्रोत्रेन्द्रियादीनां पञ्चानां बलं-स्वार्थग्रहणसामर्थ्य 'जाव'त्ति चक्षुरिन्द्रियबलादि वाच्यमित्यर्थः, ज्ञानबलं-अतीतादिवस्तुपरिच्छेदसामर्थ्य चारित्रसाधनतया मोक्षसाधनसामर्थ्य बा, सू०७३९ दर्शनबलं सर्ववेदिवचनप्रामाण्यादतीन्द्रियायुक्तिगम्यपदार्थरोचनलक्षणं चारित्रबलं यतो दुष्करमपि सकलसङ्गवियोग ७४१ करोत्यारमा यच्चानन्तमनाबाधमैकान्तिकमात्यन्तिकमात्मायत्तमानन्दमाप्नोति, तपोबलं यदनेकभवार्जितमनेकदुःखकारणं निकाचितकर्मग्रन्धि क्षपयति, वीर्यमेव बलं वीर्यवलं, यतो गमनागमनादिकासु विचित्रासु क्रियासु वर्तते, यच्चापनीय सकलकलुषपटलमनवरतानन्दभाजनं भवतीति । चारित्रबलयुक्तः सत्यमेव भाषत इति तनिरूपणायाह दसविहे सर्व पण्णत्ते-जणवय १ सम्मय २ ठवणा ३ नामे ४ रुवे ५ पश्चसच्चे ६ य । ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ इसमे ओवम्मसचे व १०॥ १॥ दसविधे मोसे पं० त०-कोघे १ माणे २ माया ३ लोभे ४ पिजे ५ तहेव पोसे ६ ॥४८९॥ य । हास ७ भते ८ अक्खातित ९ उवधातनिस्सिते दसमे १० ॥२॥ दसविधे सचामोसे पं० सं०-पन्नमी दीप C अनुक्रम [९३७] SAMEairahimAALE andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~981~ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७४१] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७४१] सते १ विगतमीसते २ जपण्णविगतमीसते ३ जीवमीसए ४ अजीवमीसए ५ जीवाजीवमीसए ६ अणतमीसए ७ परित्तमीसए ८ अद्धामीसए ९ अद्धद्धामीसए १० (सू० ७४१) 'दसविह'त्यादि, सन्तः-प्राणिनः पदार्था मुनयो वा तेभ्यो हितं सत्यं दशविध तत्वज्ञप्त, तद्यथा-'जणवर्य'गाहा, 'जणवय'त्ति सत्यशब्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, ततश्च जनपदेषु-देशेषु यद्यदर्थवाचकतया रूढं देशान्तरेऽपि तत्तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमानं सत्यमवितधमिति जनपदसत्यं, यथा कोकणादिषु पयः पिच्चं नीरमुदकमित्यादि, सत्यत्वं चास्यादुष्टविवक्षाहेतुस्वान्नानाजनपदेविष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद् व्यवहारप्रवृत्तः, एवं शेषेष्वपि भावना कार्येति, 'समय'ति संमतं च तत् सत्यं चेति सम्मतसत्य, तथाहि-कुमुदकुवलयोत्सलतामरसानां समाने पङ्कसम्भवे गोपालादीना-181 मपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति अतस्तत्र संमततया पङ्कजशब्दः सत्यः कुवलयादावसत्योऽतमतत्वादिति, 'ठव-1 पण'त्ति स्थाप्यत इति स्थापना यल्लेप्यादिकाहेदादिविकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापनासत्यं, यथा अजिनोऽपि जिनोऽयमनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति, 'नामेति नाम-अभिधानं तत्सत्यं नामसत्यं, यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलबर्द्धन उच्यते एवं धनवर्द्धन इति, 'रूवेत्ति रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यं, यथा प्रपञ्चयतिः प्रत्रजितरूपं धारयन् प्रत्रजित उच्यते न चासत्यताऽस्येति, 'पडचसचे यति प्रतीत्य-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं प्रतीत्यसत्यं, यथा अनामिकाया दीर्घत्व | इस्वत्वं चेति, तथाहि-तस्थानन्तपरिणामस्व द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणसन्निधाने तत्तद्रूपमभिव्यज्यत इति सत्यता, SASAISISSRUSARESEARCH गाथा दीप अनुक्रम [९३८ -९४२] IndiaTay.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 982~ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७४१] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७४१] ॥४९॥ श्रीस्थाना- 'ववहात्ति व्यवहारेण सत्यं व्यवहारसत्यं, यथा दह्यते गिरिः गलति भाजनं, अयं च गिरिगततृणादिदाहे व्यवहार स्थाना. असूत्र- प्रवर्तते, उदके च गलति सतीति, 'भाव'त्ति भावं-भूयिष्ठशुक्लादिपर्यायमाश्रित्य सत्यं भावसत्य, यथा शुक्ला बला-II उद्देशः३ केति, सत्यपि हि पञ्चवर्णसम्भवे शुक्लवर्णोत्कटत्वात् शुक्लेति, 'जोगे'त्ति योगतः-संवन्धतः सत्यं योगसर्त्य, यथा दण्ड-18 सत्याद्या योगाद् दण्डः छत्रयोगाच्छत्र एवोच्यत इति, दशममौपम्यसत्यमिति उपमैवौपम्यं तेन सत्यमौपम्यसत्यं यथा समु-18 भाषाः द्रवत्तडाग देवोऽयं सिंहस्त्वमिति, सर्वत्रकारः प्रथमैकवचनाओं द्रष्टव्य इहेति । सत्यविपक्षं मृपाह-'दसे'त्यादि, 'मो- सू०७४१ सेत्ति प्राकृतत्वात् मृषाऽनृतमित्यर्थः, 'कोहेंगाहा, 'कोहे'त्ति क्रोधे निश्रितमिति सम्बन्धात् क्रोधाश्रितं-कोपाश्रितं] मृत्यर्थः, तच्च यथा क्रोधाभिभूतः अदासमपि दासमभिधत्त इति, माने निश्रितं यथा मानाध्मातः कश्चित् केनचिदल्पधनोऽपि पृष्टः सन्नाह-महाधनोऽहमिति, 'माय'त्ति मायायां निश्रितं यथा मायाकारप्रभृतय आहुः-'नष्टो गोलकः' इति, 'लोभेति लोभे निश्रितं वणिप्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेस्थं क्रीतमित्यादि, 'पिज्जत्ति प्रेमणि नि:श्रितं अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि, 'तहेव दोसे यत्ति द्वेषे निश्रितं, मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि, 'हासे'त्ति हासे निश्रितं यथा कन्दपिकाणां कस्मिंश्चित्कस्यचित्सम्बन्धिनि गृहीते पृष्टानां न दृष्टमित्यादि, 'भयेत्ति भयनिश्रित तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसाभिधानं, 'अक्खाइय'त्ति आख्यायिकानिश्रितं तत्प्रतिबद्धोऽसालापः, 'उव घायनिस्सिएत्ति उपघाते-प्राणिवघे निश्रित-आश्रितं दशमं मृषा, अचौरे चौरोऽयमित्यभ्याख्यानवचनं, मृषाशब्द-| शास्त्वव्यय इति । सत्यासत्ययोगे मिश्र वचनं भवतीति तदाह-'दसे त्यादि, सत्यं च तन्मृषा चेति प्राकृतत्वात् सच्चा गाथा * * SWARA दीप अनुक्रम * [९३८ ॥४९ ॥ -९४२] JABERatinintamational wjanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~983~ Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७४१] + गाथा: (०३) CASCR प्रत सूत्रांक [७४१] 5450564560 मोसंति, 'उप्पन्नमीसए'त्ति उत्पन्नविषयं मिश्र-सत्यामृषा उत्पन्न मिश्रं तदेवोत्पन्नमिश्रक, यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिन्नद्य: दश दारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभावे व्यवहारतोऽस्य सत्यामृपात्वात् , श्वस्ते शतं दास्यामीत्यभिधाय पञ्चाशत्यपि दत्तायां लोके मृषात्वादर्शनादनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव वा मृषात्वसिद्धेः, सर्वथा क्रियाऽभावेन सर्वथा व्यत्ययाद्, एवं विगतादिष्यपि भावनीयमिति १, 'विगतमीसए'त्ति विगतविषयं मिश्रकं विगतमिश्रक, यथैकं ग्राममधिकृत्यास्मिनद्य दश वृद्धा विगता इत्यभिदधतो न्यूनाधिकभावे मिश्रमिति २, 'उप्पन्नविगयमीसए'त्ति उत्पन्नं च विगतं च उत्पन्नविगते तद्विषयं मिश्रकं उत्पन्नविगतमिश्रक, यथैक पत्तनमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका जाताः दश च वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभाव इति ३, 'जीवमीसए'त्ति जीवविषयं मिश्र-सत्यासत्यं जीवमिश्र, यथा जीवन्मृतकृमिराशी जीवराशिरिति ४, "अजीवमीसए'त्ति अजीवानाश्रित्य मिश्रमजीवमिश्र, यथा तस्मिन्नेव प्रभूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति ५, 'जीवाजीवमिस्सए'त्ति जीवाजीवविषयं मिश्रकं जीवाजीवमिश्रक यथा तस्मिन्नेव जीवन्मृतकृमिराशी प्रमाणनियमेनैतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकत्वे ६, 'अणंतमीसए'त्ति अनन्तविषयं मिश्रकमनन्तमिश्रकं यथा मूलकन्दादौ परीतपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधतः ७, 'परित्तमिस्सए'त्ति परीत्तविषयं मिश्रक परीत्तमिश्रकं यथा अनन्तकायले शवति परीत्ते परीचोऽयमित्यभिदधतः ८,'अद्धामिस्सएत्ति कालविषयं सत्यासत्यं यथा कश्चित् कस्मिंश्चित्प्रयोजने सहायांस्स्वरयन् परिणतप्राये वा वासरे एव रजनी वर्तत इति ब्रवीति ९, 'अद्धामी-13 सए'त्ति अद्धा-दिवसो रजनी वा तदेकदेशः प्रहरादिः अद्धद्धा तद्विषयं मिश्रक-सत्यासत्यं अद्धाशामिश्रक, यथा| गाथा दीप अनुक्रम BARABAS [९३८ -९४२] K Morayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~984~ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७४१] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७४१] गाथा श्रीस्थाना- कश्चित् कस्मिंश्चित्प्रयोजने प्रहरमात्र एवं मध्याहू इत्याह । भाषाधिकारात् सकलभाषणीयार्थव्यापकं सत्यभाषारूपं दृष्टि- १०स्थाना. असूत्र-8 वादं पर्यायतो दशधाऽऽह उद्देशः३ वृत्ति दिद्विवायरस णं दस नामधेजा पं० त०-दिहिवातेति या हेउवातेति वा भूयवातेति वा तथावातेति वा सम्मावातेति वा दृष्टिवाद धम्मावातेति या भासाविजतेति वा पुब्बगतेति वा अणुजोगगतेति वा सबपाणभूतजीवसत्तसुहावद्देति वा (सू० ७४२) | नामानि ॥४९॥ 'विट्ठी'त्यादि, दृष्टयो दर्शनानि वदनं वादः दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः दृष्टीनां वा पातो यस्मिन्नसौ दृष्टिपातः, सर्व-18 | सू०७४२ नयदृष्टय इहाख्यायन्त इत्यर्थः, तस्य दश नामधेयानि नामानीत्यर्थः, तद्यथा-दृष्टिवाद इति प्रतिपादितमेव, इतिशब्द | उपप्रदर्शने वाशब्दो विकल्पे, तथा हिनोति-गमयति जिज्ञासितमर्थमिति हेतुः-अनुमानोत्थापकं लिङ्गमुपचारादनुमानमेव |वा तद्वादो हेतुवादः, तथा भूता:-सद्भूताः पदार्थास्तेषां वादो भूतवादः, तथा तत्त्वानि-वस्तूनामैदम्पर्याणि तेषां वाद-IX स्तत्त्ववादस्तध्यो वा-सत्यो वादस्तथ्यवादः, तथा सम्बग्-अविपरीतो वादः सम्यग्वादः, तथा धम्मोणा-वस्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा-चारित्रस्य वादो धर्मवादः, तथा भाषा-सत्यादिका तस्या विघयो-निर्णयो भाषाविचयः, भाषाया वा-याची विजयः-समृद्धियस्मिन् स भाषाविजयः, तथा सर्वश्रुतात्पूर्व क्रियत इति पूर्वाणि-उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश तेषु गसः|अभ्यन्तरीभूतस्तत्स्वभाव इत्यर्थ इति पूर्वगतः, तथाऽनुयोगः-प्रथमानुयोगस्तीर्थकरादिपूर्वभवादिव्याख्यानग्रन्थो गण्डिकानुयोगश्च भरतनरपतिवंशजानां निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्तव्यताव्याख्यानग्रन्थ इति द्विरूपेऽनुयोगे गतोऽनुयोग-IDI४९१॥ गतः, एतौ च पूर्वगतानुयोगगतौ दृष्टिवादांशावपि दृष्टिवादतयोक्ती अवयवे समुदायोपचारादिति, तथा सर्वे--विश्वे ते दीप अनुक्रम [९३८ -९४२] JanEainaam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~985~ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४२] (०३) A R प्रत सूत्रांक [७४२] ते प्राणाच-द्वीन्द्रियादयो भूताश्च-तरवः जीवाश्च-पञ्चेन्द्रियाः सत्वाश्च-पृथिव्यादयः इति द्वन्द्वे सति कर्मधारया. ततस्तेषां मुखं शुभं वा आवहतीति सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहः, सुखावहत्वं च संयमप्रतिपादकत्वात् सस्थानां| निर्वाणहेतुत्वाचेति । प्राणादीनां सुखावहो दृष्टिवादोऽशखरूपत्वात् शस्त्रमेव हि दुःखावहमिति शस्त्रारूपणायाह दसविधे सत्थे पं०२०-सस्थमग्गी १ विसं २ लोणं ३, सिणेहो ४ खार ५ मंबिलं ६ । दुष्पउत्तो मणो ७ वाया ८, काथा ९ भावो त अविरती १० ॥ १ ॥ दसविहे दोसे पं० २०-तजातदोसे १ मतिभंगदोसे २ पसस्थारदोसे ३ परिहरणदोसे ४ । सलक्षण ५ कारण ६ हेउदोसे ७, संकामणं ८ निग्गह ९ वत्थुदोसे १० ॥१॥ दसविधे विसेसे पं० त०-पत्थु १ सजातदोसे २ त, दोसे एगद्वितेति ३ त । कारणे ४ त पडुप्पण्णे ५, दोसे ६ निव्वे ७ हिममे ८ । ॥१॥ अत्तणा ९ वणीते १० त, विसेसेति त, ते दस ।। (सू०७४३) 'दसेत्यादि, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रं, 'सत्धं सिलोगो, शस्त्रं-हिंसक वस्तु, तब द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतस्तावदुच्यते-अग्नि:-अनलः, स च विसदृशानलापेक्षया स्वकायशवं भवति, पृथिव्यायपेक्षया तु परकायशस्त्रं १ विपं-स्थावरजङ्गमभेदं २ लवणं-प्रतीतं ३ स्नेहा-तैलघृतादि ४ क्षारो-भस्मादि ५ अम्ल-काञ्जिकं ६ 'भावो यत्ति इह द्रष्टव्यं तेन भावो-भावरूपं शखं, किं तदित्याह-दुष्पयुक्तं-अकुशलं मनो-मानसं ७ वागू-वचनं दुष्पयुक्ता ८ कायश्च-शरीरं दुष्प्रयुक्त एव ९, इह च कायस्य हिंसाप्रवृत्ती खगादेरुपकरणत्वात् कायग्रहणेनैव तद्रहणं द्रष्टव्यमिति, अविरतिश्च-अप्रत्याख्यानमथवा अविरतिरूपो भावः शस्त्रमिति १०॥ अविरत्यादयो दोपाः शस्त्रमित्युक्तमिति दोष दीप अनुक्रम [९४३] RECAUSERSANS A natorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 986~ Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४३] + गाथा प्रत सूत्रांक [७४३] NCES गाथा श्रीस्थाना- प्रस्तावाद्दोषविशेषनिरूपणायाह-'दसविहे'त्यादि, 'तलाय त्यादि वृत्तं, एते हि गुरुशिष्ययोर्वादिप्रतिवादिनोळ वादा- १० स्थाना. अस्त्र- श्रया इव लक्ष्यन्ते, तत्र तस्य गुवोदेजांत-जातिः प्रकारो वा जन्ममर्मकर्मादिलक्षणः तजातं तदेव दूषणमितिकृत्या उद्देशः ३ वृत्तिः दोषस्तजातदोषः, तथाविधकुलादिना दूषणमित्यर्थः, अथवा तस्मात्-प्रतिवाद्यादेः सकाशाजातः क्षोभान्मुखस्तम्भादि-IN लक्षणो दोपस्तजातदोषः १ तथा स्वस्यैव मतेः-युद्धेर्भङ्गो-विनाशो मतिभङ्गो-विस्मृत्यादिलक्षणो दोषो मतिभङ्गादोषः २, विशेषः ॥४९२॥ तथा प्रशास्ता-अनुशासको मर्यादाकारी सभानायकः सभ्यो वा तस्माद् द्विष्टादुपेक्षकाद्वा दोषः प्रतिवादिनो जयदा-13 सू०७४३ नलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनः प्रमेयस्मारणादिलक्षणो वा प्रशास्तृदोषः ३, इह स्थाशब्दो लघुश्रुतिरिति, तथा परिदाहरणं-आसेवा स्वदर्शनस्थित्या लोकरुन्या वा अनासेव्यस्य तदेव दोषः परिहरणदोषः, अथवा परिहरणं-अनासेवन सभारूढया सेव्यस्य वस्तुनस्तदेव तस्माद्वा दोपः परिहरणदोषः अथवा वादिनोपन्यस्तस्य दूपणस्य असम्बपरिहारो जात्युत्तरं परिहरणदोष इति, यथा बौद्धेनोक्तमनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति, अब मीमांसकः परिहारमाह-ननु| घटगतं कृतकत्वं शब्दस्यानित्यत्वसाधनायोपन्यस्यते शब्दगतं वा?, यदि घटगतं तदा तच्छब्दे नास्तीत्यसिद्धता हेतोः, अथ &|शब्दगतं तन्मानित्यत्वेन व्याप्तमुपलब्धमित्यसाधारणानकान्तिको हेतुरित्ययं न सम्यक् परिहारः, एवं हि सर्वानुमानो-14 च्छेदप्रसङ्गः, अनुमानं हि साधनधर्ममात्रात् साध्यधर्ममात्रनिर्णयात्मक, अन्यथा धूमादनलानुमानमपि न सियेत् । तथाहि-अग्निरत्र धूमाद्यथा महानसे, अत्र विकल्प्यते-किमत्रेतिशब्दनिर्दिष्टपर्वतैकप्रदेशादिगतधूमोऽग्निसाधनायो-13 पात्तः उत महानसगतो?, यदि पर्वतादिगतः सोऽग्निना न व्याप्तः सिद्ध इत्यासाधारणानकान्तिको हेतुः, अथ महान दीप अनुक्रम [९४४-९४९] JABERatinintamational Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 987~ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४३] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [७४३]] AXXX गाथा सगतस्तदा नासौ पर्वतकदेशे वर्तत इत्यसिद्धो हेतुरिति अयं परिहरणदोप इति ४, तथा लक्ष्यते-तदन्यव्यपोहेनावधार्यते वस्त्वनेनेति लक्षणं स्वं च तलक्षणं च स्वलक्षणं यथा जीवस्योपयोगो यथा वा प्रमाणस्य स्वपरावभासकज्ञा-1 नत्वं ५, तथा करोतीति कारणं-परोक्षार्थनिर्णयनिमित्तमुपपत्तिमात्र यथा निरुपमसुखः सिद्धो ज्ञानानाबाधप्रकर्षात्, नात्र किल सकललोकमतीतः साध्यसाधनधानुगतो दृष्टान्तोऽस्तीत्युपपत्तिमात्रता ६, दृष्टान्तसमावेऽस्यैव हेतुव्यपदेशः स्यात्, तथा हिनोति-गमयतीति हेतुः साध्यसद्भावभावतदभावाभावलक्षणः, ततश्च स्वलक्षणादीनां द्वन्द्वः, तेषां दोपः स्वलक्षणकारणहेतुदोषः, इह काशब्दः छन्दोऽथ द्विबद्धो ध्येयः ७, अथवा सह लक्षणेन यौ कारणहेतू तयोदोष इति विग्रहः तत्र लक्षणदोषोऽव्याप्तिरतिर्व्याप्तिर्वा, तत्राव्याप्तिर्यथा यस्यार्थस्य सन्निधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रति|भासभेदस्तरस्वलक्षणमिति, इदं स्वलक्षणलक्षणं, इदं चेन्द्रियप्रत्यक्षमेबाश्रित्य स्यात् न योगिज्ञानं, योगिज्ञाने हि न सन्निधानासन्निधानाभ्यां प्रतिभासभेदोऽस्तीत्यतस्तदपेक्षया न किश्चित्स्वलक्षणं स्यादिति, अतिव्याप्तिर्यथा अर्थोपलब्धि-४ हेतुः प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं, इह चार्थोपलब्धिहेतुभूतानां चक्षुर्दध्योदनभोजनादीनामानन्त्येन प्रमाणेयत्ता न स्यात्, का अथवा दार्शन्तिकोऽो लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं-दृष्टान्तस्तद्दोषः--साध्यविकलत्वादिः, तत्र साध्यविकलता यथा नित्यः | शब्दो मूर्तत्वाद् घटवद्, इह घटे नित्यत्वं नास्तीति कारणदोषः साध्यं प्रति तव्यभिचारो यथा अपौरुषेयो वेदो| वेदकारणस्यायमाणत्वादिति, अश्रूयमाणत्वं हि कारणान्तरादपि सम्भवतीति हेतुदोषोऽसिद्धविरुद्धानकान्तिकत्व|लक्षणः, तत्रासिद्धों यथाऽनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वाद् घटवदिति, अत्र हि चाक्षुषत्वं शब्दे न सिद्ध, विरुद्धो यथा नित्यः शब्दः 545%25%95555 दीप अनुक्रम [९४४-९४९] Tangibrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 988~ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४३] + गाथा प्रत सूत्रांक [७४३] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः 5645-45-k | उद्देशः३ ॥४९३॥ गाथा कृतकत्वात् घटबद्, इह घटे कृतकत्वं नित्यत्वविरुद्धमनित्यत्वमेव साधयतीति, अनैकान्तिको यथा नित्यः शब्दः प्रमे ४१०स्थाना. यत्वादाकाशव, इह हि प्रमेयत्वमनित्येष्वपि वर्तते, ततः संशय एवेति ७ तथा सङ्ग्रामणं-प्रस्तुतप्रमेयेऽप्रस्तुतप्रमेयस्य | प्रवेशनं प्रमेयान्तरगमनमित्यर्थः अथवा प्रतिवादिमते आत्मनः संक्रामणं परमताभ्यनुज्ञानमित्यर्थः तदेव दोष इति८, शस्त्रदोषतथा निग्रहः-छलादिना पराजयस्थानं स एव दोषो निग्रहदोष इति, तथा वसतः-साध्यधर्मसाधनधवित्रेति वस्तु-प्र विशेष करणात् पक्षस्तस्य दोषः-प्रत्यक्षनिराकृतत्वादिः, यथा अश्रावणः शब्दः, शब्दे ह्यश्रावणत्वं प्रत्यक्षनिराकृतमिति । एतेषा सू०७४३ मेव तज्जातादिदोषाणां सामान्यतोऽभिहितानां तदन्येषां चार्धानां सामान्यविशेषरूपाणां सतां विशेषाभिधानायाह'दसे'त्यादि, विशेषो भेदो व्यक्तिरित्यनान्तरं, 'वत्थु' इत्यादिः सार्द्धः श्लोकः, वस्विति प्राक्तनसूत्रस्यान्तोको यः पक्षः, 'तज्जात मिति तस्यैवादावुक्त प्रतिवाद्यादेर्जात्यादि तद्विषयो दोषो वस्तुतज्जातदोषः, तत्र वस्तुदोषा-पक्षदोषस्तजातदोषश्व-जात्यादिहीलनमेतौ च विशेषौ दोषसामान्यापेक्षया, अथवा वस्तुदोषे-वस्तुदोषविषये विशेषो-भेदः प्रत्यक्षनिराकृतत्वादिः, तत्र प्रत्यक्षनिराकृतो यथा अश्रावणः शब्दः, अनुमाननिराकृतो यथा नित्यः शब्दः, प्रतीतिनिराकृतो यथा अचन्द्रः शशी, स्ववचननिराकृतो यथा यदहं वच्मि तन्मिध्येति, लोकरूढिनिराकृतो यथा शुचि नरशिरःकपालमिति, तज्जातदोपविषयेऽपि भेदो जन्ममर्मकर्मादिभिः, जन्मदोषो यथा-कच्छुलवाए घोडीए जाओ जो गहहेण छूढेण । तस्स महायणमझे आयारा पायडा होति ॥१॥" [कच्छूलायां वडवायां यो गदर्भेन क्षिप्तेन जातः ॥४९३ ॥ तस्य महाजनमध्ये आकाराः प्रकटा भवन्ति ॥१॥] इत्यादिरनेकविधः २, चकारः समुच्चये, तथा 'दोसे'त्ति पूर्वोक्त दीप अनुक्रम [९४४-९४९] Haneiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 989~ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४३] + गाथा (03) प्रत सूत्रांक [७४३]] सूत्रे ये शेपा मतिभङ्गादयोऽष्टावुक्तास्ते दोषा दोषशब्देनेह सहीताः, ते च दोषसामान्यापेक्षया विशेषा भवन्त्येवेति दिदोषो-विशेषः, अथवा 'दोसे'त्ति दोषेषु-शेषदोपविषये विशेषो-भेदः, स चानेकविधः स्वयमूह्यः ३, 'एगट्ठिए यत्ति एक श्चासावर्थश्च-अभिधेयः एकार्थः स यस्यास्ति स एकार्थिकः एकार्थवाचक इत्यर्थः, इतिः-उपप्रदर्शने चः समुच्चये, सच शब्दसामान्यापेक्षवैकार्थिको नाम शब्दविशेषो भवति, यथा घट इति, तथा अनेकाथिको यथा गौः, यथोक-दिशि १ दृशि २ वाचि ३ जले ४ भुवि ५ दिवि ६ वजे ७ इंशी ८ पशौ ९ च गोशब्दः" इति, इहैकाधिकविशेषग्रहणेनानेका र्थिकोऽपि गृहीतस्तद्विपरीतत्वात्, न चेहासौ गण्यते, दशस्थानकानुरोधात्, अथवा कथञ्चिदेकाथिके शब्दग्रामे यः पू कथञ्चिद्भेदः स विशेषः स्यादिति प्रक्रमः, 'इय'त्ति पूरणे, यथा शकः पुरन्दर इत्यत्रैकार्थे शब्दद्वये शकनकाल एव शक्रः|8 है पूरणकाल एव पुरन्दरः एवंभूतनयादेशादिति, अथवा दोषशब्द इहापि सम्बयते, ततश्च,न्यायोब्रहणे शब्दान्तरा पेक्षया विशेष इति ४, तथा कार्यकारणात्मके वस्तुसमूहे कारणमिति विशेषः, कार्यमपि विशेषो भवति, न चेहोक्को, दशस्थानकानुवृत्तेः, अथवा कारणे-कारणविषये विशेषो-भेदो यथा परिणामिकारणं मृत्खिण्डः, अपेक्षाकारणं दिग्देशकाला|काशपुरुषचक्रादि, अथवोपादानकारण-मृदादि निमित्तकारणं-कुलालादि सहकारिकारणं-चक्रचीवरादीत्यनेकधा कारणं, अथवा दोषशब्दसम्बन्धात् पूर्वव्याख्यातः कारणदोषो दोषसामान्यापेक्षया विशेष इति चः समुच्चये, तथा प्रत्युत्पन्नोIQाया-मानिकः अभूतपूर्व इत्यर्थः दोप:-गुणेतरः, स चातीतादिदोषसामान्यापेक्षया विशेषः५, अथवा प्रत्युत्पन्ने-सर्वथा वस्तु-18 न्यभ्युपगते विशेषो यो दोषोऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादिः स दोषसामान्यापेक्षया विशेष इति ६, तथा नित्यो यो दोपोड गाथा सरकA दीप अनुक्रम [९४४ -९४९] स्था०८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~990~ Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ཙྪིཎྞ ཝཱ ཟླ - ཊྛལླཱཟླ ཟླ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ७४३] + गाथा उद्देशक [-], स्थान [१०], ॥ ४९४ ॥ श्रीस्थाना- ४ भव्यानां मिथ्यात्वादिरनाद्यपर्यवसितत्वात् स दोषसामान्यापेक्षया विशेषोऽथवा सर्वथा नित्ये वस्तुन्यभ्युपगते यो दोषो झसूत्र बालकुमाराद्यवस्थाऽभावापत्तिलक्षणः स दोषसामान्यापेक्षया दोषविशेष इति ७ तथा 'हिअट्टमे त्ति अकारमश्लेषादवृत्तिः * धिकं वादकाले यसरप्रत्यायनं प्रत्यतिरिक्तं दृष्टान्तनिगमनादि तद्दोषः, तदन्तरेणैव प्रतिपाद्यप्रतीतेस्तदभिधानस्यानर्थकत्वादिति, आह च - "जिणवयणं सिद्धं चैव भन्नए कत्थई उदाहरणं । आसज उ सोयारं हेऊवि कहिंचि भनेजा ॥ १ ॥ तथा कस्थह पंचावयवं दसहा वा सव्वहा न पडिकुद्धं ।” इति [ जिनवचनं सिद्धमेव तथापि कचिदुदा| हरणं भण्यते श्रोतारमासाद्य हेतुमपि कुत्रापि कथयेत् ॥ १ ॥ कुत्रचिसंचावयवं दशधा वा सर्वथा न प्रतिकुष्टं ॥ ] ततश्वाधिकदोषो दोषविशेषत्वाद्विशेष इति अथवाऽधिके दृष्टान्तादौ सति यो दोषो दूषणं वादिनः सोऽपि दोषविशेष एव, अयं चाष्टम आदितो गण्यमान इति ८, 'असण'त्ति आत्मना कृतमिति शेषः, तथा उपनीतं प्रापितं परेणेति शेषः, वस्तुसामान्यापेक्षयाऽऽत्मकृतं च विशेषः, परोपनीतं चापरो विशेष इति भावः ९, चकारयोर्विशेषशब्दस्य च प्रयोगो भावनावाक्ये दर्शितः, अथवा दोषशब्दानुवृत्तेरात्मना कृतो दोषः परोपनीतश्च दोष इति दोषसामान्यापेक्षया विशे पावेतौ इति, एवं ते विशेषा दश भवन्तीति, इहादर्शपुस्तकेषु 'निज्जेऽहिअट्ठमेत्ति दृष्टं न च तथाऽष्टौ पूर्यन्त इति, निच्चे इति व्याख्यातं, इहोक्तरूपा विशेषादयो भावा अनुयोगगम्याः, अनुयोगश्चार्थतो वचनतश्च तत्रार्थतो यथा - "अहिंसा संजमो तवो" इत्यत्राहिंसादीनां स्वरूपभेदप्रतिपादनं, वचनानुयोगस्त्वेषामेव शब्दाश्रितो विचार इति, तदिह वचनानुयोगं भेदत आह For Full १० स्थाना. उद्देशः ३ ~991~ चकाराद्य नुयोगः सू० ७४४ ॥ ४९४ ॥ www.jancibrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४४] (०३) प्रत सूत्रांक [७४४] सविधे सज्ञावाताणओगे पं० सं०-चंकारे १ मंकारे २ पिंकारे ३ सेतंकारे ४ सातकरे ५ एगत्ते ६ पुधत्ते ७ संजूहे ८ संकामिते ९ मिन्ने १० (सू०७४४). 'दसे त्यादि, शुद्धा-अनपेक्षितवाक्यार्थी या वाक्-वचनं सूत्रमित्यर्थः तस्या अनुयोगो-विचारः शुद्धवागनुयोगः, सूत्रे लाच अपुंवद्भावः प्राकृतत्वात् , तत्र चकारादिकायाः शुद्धवाचो योऽनुयोगः स चकारादिरेव व्यपदेश्यः, तत्र 'चंकात्ति अत्रानुस्वारोऽलाक्षणिको यथा 'सुंके सणिंचरे' इत्यादो, ततश्चकार इत्यर्थः, तस्य चानुयोगो, यथा चशब्दः समाहारेतरेतरयोगस मुच्चयान्वाचयावधारणपादपूरणाधिकवचनादिष्विति, तत्र “इत्थीओ सयणाणि य" इति, इह सूत्रे चकार: समुच्चयार्थः स्त्रीणां शयनानां चापरिभोग्यतातुल्यतत्वप्रतिपादनार्थः १, 'मंकारे'त्ति मकारानुयोगो यथा 'समणं व माहणं वा' इति सूत्रे माशब्दो निषेधे, अथवा 'जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेवें'त्यत्र सूत्रे जेणामेव इह मकार आगमिक एव, येनैवेत्यनेनैव विवक्षितप्रतीतेरिति २, 'पिंकारे'त्ति अकारलोपदर्शनेनानुस्वारागमेन चापिशब्द उक्तस्तदनुयोगो यथा अपिः सम्भावनानिवृत्त्यपेक्षासमुच्चयगोशिष्यामर्षणभूषणप्रश्नेविति, तत्र 'एवंपि एगे आसासे' इत्यत्र सूत्रे एवमपि अन्यथाऽपीति प्रकारान्तरसमुच्चयार्थोऽपिशब्द इति ३, 'सेयंकरें'त्ति इहाप्यंकारोऽलाक्षणिकस्तेन सेकार इति, | तदनुयोगो यथा 'से भिक्खू धे'त्यत्र सूत्रे सेशब्दोऽथार्थः, अथशब्दश्च प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनस| मुच्चयेष्वित्यानन्तर्यार्थः सेशब्द इति, क्वचिदसावित्यर्थः, कचित्तस्येत्यर्थः, अथवा 'सेयंकार' इति श्रेय इत्येतस्य करणं श्रेयस्कारः, श्रेयस उच्चारणमित्यर्थः, तदनुयोगो यथा 'सेयं मे अहिजिउं अज्झयण'मित्यत्र सूत्रे श्रेया-अतिशयेन प्रशस्य दीप अनुक्रम [९५०] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~992~ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४४] (०३) ॥४९५॥ प्रत सूत्रांक [७४४] श्रीस्थाना- कल्याणमित्यर्थः, अथवा 'सेयकाले अकम्मं वावि भवई त्यत्र सेयशब्दो भविष्यदर्थः४, 'सायंकारे'त्ति सायमिति निपातः G१०स्थाना. गसूत्र- सत्यार्थस्तस्मादू 'वर्णात्कार' इत्यनेन छान्दसत्वारकारप्रत्ययः करणं या कारस्ततः सायंकार इति तदनुयोगो यथा सत्यं | उद्देश:३ वृत्तिः तथावचनसद्भावप्रश्नेविति, एते च चकारादयो निपातास्तेषामनुयोगभणनं शेषनिपातादिशब्दानुयोगोपलक्षणार्थमिति ५, चकाराद्य 'एगते'त्ति एकत्वमेकवचनं तदनुयोगो यथा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इत्यत्रैकवचनं सम्यग्दर्शनादीनां समु- नुयोगः 3 दितानामेवैकमोक्षमार्गस्वख्यापनार्थ, असमुदितत्वे त्वमोक्षमार्गतेति प्रतिपादनार्थमिति ६, 'पुहुत्तेत्ति पृथक्त्व-भेदो सू०७४४ द्विवचनबहुवचने इत्यर्थः, तदनुयोगो यथा 'धम्मस्थिकाये धम्मत्थिकायदेसे धम्मत्थिकायप्पदेसा' इह सूत्रे धर्मास्तिका-४ यप्रदेशा इत्येतद्वहुवचनं तेषामसङ्ख्यातत्वख्यापनार्थमिति ७, 'संजूहें'त्ति सङ्गतं-युक्तार्थ यूछ-पदानां पदयोर्वा समूहः संयूथं, समास इत्यर्थः, तदनुयोगो यथा 'सम्यग्दर्शनशुद्धं सम्यग्दर्शनेन सम्यग्दर्शनाय सम्यग्दर्शनाद्वा शुद्धं सम्यग्दर्शन शुद्धमित्यादिरनेकधा इति ८, 'संकामिय'त्ति सङ्कामितं विभक्तिवचनाद्यन्तरतया परिणामितं तदनुयोगो यथा-'साहूर्ण *वंदणेणं नासति पावं असंकिया भावा' इह साधूनामित्येतस्याः षष्ट्याः साधुभ्यः सकाशादित्येवं लक्षणं पञ्चमीत्वेन विपपरिणामं कृत्वा अशङ्किता भावा भवन्तीत्येतत्पदं सम्बन्धनीयं, तथा “अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चई" इत्यत्र सूत्रे न स त्यागीत्युच्यते इत्येकवचनस्य बहुवचनतया परिणामं कृत्वा न ते त्यागिन उच्यन्त इत्येवं पदघटना कार्येति ९, I'भिन्न मिति क्रमकालभेदादिभिभिन्न-विसदृशं तदनयोगो यथा-'तिविहं तिविहेण'मिति सङ्ग्रहमुक्त्वा पुनः 'मणेण'-1|| [मित्यादिना तिविहेणंति विवृतमिति क्रमभिन्न, क्रमेण हि तिविहमित्येतन्न करोम्यादिना विवृत्य ततखि विधेनेति विव- ॥ ४९५ ॥ दीप NAGAR अनुक्रम [९५०] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~993~ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४४] (०३) SC+ प्रत सूत्रांक [७४४] रणीयं भवतीति, अस्य च क्रमभिन्नस्यानुयोगोऽयं यथाक्रमविचरणे हि यथासङ्ग्यदोषः स्यादिति तत्परिहारार्थ क्रमभेदः, तथाहि-नं करोमि मनसा न कारयामि वाचा कुर्वन्तं नानुजानामि कायेनेति प्रसज्यते, अनिष्टं चैतत्प्रत्येकपक्षस्यैवेष्टत्वात्, तथाहि-मनःप्रभृतिभिर्न करोमि तैरेव न कारयामि तैरेव नानुजानामीति, तथा कालभेदोऽतीतादिनिर्देशे प्राप्ते वर्त|मानादिनिर्देशो यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञत्यादिषु ऋषभस्वामिनमाश्रित्य 'सके देविंदे देवराया वंदति नमसति'त्ति सूत्रे, तदनुयोगश्चाय-वर्तमाननिर्देशखिकालभाविध्वपि तीर्थकरेग्वेतच्यायप्रदर्शनार्थ इति, इदं च दोषादिसूत्रत्रयमन्यथापि विमर्शनीयं, गम्भीरत्वादस्येति । वागनुयोगतस्त्वर्थानुयोगः प्रवर्त्तत इति दानलक्षणस्यार्थस्य भेदानामनुयोगमाह बसविहे दाणे पं० सं०-अणुकंपा १ संगहे २ चेव, भये ३ कालुणितेति य ४ । लज्जाते ५ गारवेणं च ६, अहम्मे उण सत्तमे ७ ॥ १॥ धम्ो त अट्टमे जुत्ते ८, काहीति त ९ कति त १० ॥ दसविधा गती पं०२०-निरयगती निरयविगाहगई तिरियगती तिरियविहगगई एवं जाब सिद्धिगइ सिद्धिविग्गहगती (सू०७४५) दस मुंडा पन्नता पं. तं०-सोविदितमुंडे जाव फासिंदितमुंडे कोहमुंडे जाव लोभमुंडे दसमे सिरमुंडे (सू०७४६) सविधे संखाणे पं० त०-परिकम्म १ ववहारो २ रज्जू ३ रासी ४ कलासक्ने ५ य । जावंतावति ६ वग्गो ७ घणो ८ त तह बग्ग वग्गो ९ वि ॥१॥ कप्पो त १० (सू०७४७) 'दसे'त्यादि, 'अणुकंपे'त्यादि श्लोकः सार्द्ध, 'अनुकंपत्ति दानशब्दसम्बन्धादनुकम्पया-कृपया दानं दीनानाथविषयमनुकम्पादानमथवा अनुकम्पातो यद्दानं तदनुकम्पैवोपचारात्, उक्तं च वाचकमुख्यैरुमाखातिपूज्यपादै-"कृ दीप CROCRACTICAL अनुक्रम [९५०] JAMERIAL P oran.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~994~ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७४७] + गाथा: (०३) प्रत CASSES सूत्रांक | मुण्डाः सं [७४७] ७४७ श्रीस्थाना- पणेऽनाथदरिद्रे व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भवेद्दानम् ॥१॥" सणं सङ्ग्रहा-व्यसनादौ १० स्थाना. सूत्र- |सहायकरणं तदर्थं दानं सत्रहदानं, अथवा अभेदाहानमपि सङ्ग्रह उच्यते, आह् च-"अभ्युदये व्यसने वा यत्कि उद्देशः३ वृत्तिः श्चिहीयते सहायार्थम् । तत्समहतोऽभिमतं मुनिभिनं न मोक्षाय ॥१॥” इति, तथा भयात् यद्दानं तत् भयदान, दानानि भयनिमित्तत्वाद्वा दानमपि भयमुपचाराद् इति, उक्तं च-"राजारक्षपुरोहितमधुमुखमावल्लदण्डपाशिषु च । यद्दीयते ॥४९६॥ ४ भयार्थात्तद्भयदानं बुधै यम् ॥१॥" इति ३, 'कालुणिए इय'त्ति कारुण्य-शोकस्तेन पुत्रवियोगादिजनितेन तदी- ख्यानं यस्यैव तल्पादेः स जन्मान्तरे सुखितो. भवत्वितिवासनातोऽन्यस्य वा यद्दानं तत्कारुण्यदानं, कारुण्यजन्यत्वाद्वा दान- सू०७४५दिमपि कारुण्यमुक्तमुपचारादिति ४, तथा 'लजया हिया दानं यत्तल्लज्जादानमुच्यते, उक्तं च-"अभ्यर्थितः परेण तु यदान जनसमूहमध्यगतः। परचित्तरक्षणार्थं लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ॥१॥" इति, ५, 'गारवेणं च'त्ति गौरवेण-गर्वेण यद्दीयते & तद् गौरवदानमिति, उक्तं च-"नटनर्समुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः। यद्दीयते यशोऽथ गर्वेण तु तद्भवेद्दा-12 नम् ॥१॥"६, अधर्मपोषकं दानमधर्मदानं, अधर्मकारणत्वाद्धा अधर्म एवेति, उकं च-"हिंसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः। यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय ॥१॥" इति ७, धर्मकारणं यत्तद्धर्मदानं धर्मे एव वा, उक्तं च-"समतृणमणिमुक्तभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः। अक्षयमतुलमनन्तं तदानं भवति धर्माय ॥१॥" इति, ८,12 'काही इय'त्ति करिष्यति कञ्चनोपकारं ममायमितिबुद्धा यद्दान तत्करिष्यतीति दानमुच्यते ९, तथा कृतं ममानेन तत्प्रयोजनमिति प्रत्युपकारार्थ यद्दानं तत्कृतमिति, उक्कं च-"शतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन । अह गाथा: दीप अनुक्रम [९५१-९५६] ॥४९॥ SHATSniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~995~ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक -], मूलं [७४७] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७४७] मपि ददामि किश्चिात्युपकाराय तद्दानम् ॥ १॥” इति १० । उक्तलक्षणाद्दानाच्छुभाशुभा गतिर्भवतीति सामान्यतो गतिनिरूपणायाह-'दसे'त्यादि, 'निरयगतित्ति निर्गता अयात्-शुभादिति निरया-नारकाः तेषां गतिर्गम्यमानत्वान्नरकगतिस्तद्गतिनामकमोदयसम्पाद्यो नारकत्वलक्षणः पर्यायविशेषो वेति नरकगतिः, तथा निरयाणा-नारकाणां विग्रहात्-क्षेत्रविभागानतिक्रम्य गतिः-गमनं निरयविग्रहगतिः स्थितिनिवृत्तिलक्षणा ऋजुवक्ररूपा विहायोगतिकर्मापाद्या वेति, एवं तिर्यड्नरनाकिनामपीति, 'सिद्धिगति' इति सिद्ध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः सा| चासौ गम्यमानत्वात् गतिश्चेति सिद्धिगतिः-लोकाग्रलक्षणा, तथा 'सिद्धविग्गहगई'त्ति सिद्धस्य-मुक्तस्य विग्रहस्य-आप्रकाश विभागस्यातिक्रमण गतिः-लोकान्तप्राप्तिः सिद्धविग्रहगतिरिति, विग्रहगतिर्वक्रगतिरप्युच्यते परं सिद्धस्य साना-1 &ास्तीति तत्साहचर्याचारकादीनामयसी न व्याख्यातेति, अथवा द्वितीयपदैर्नारकादीनां वक्रगतिरुक्का, प्रथमैस्तु निवि- शेषणतया पारिशेष्यारजुगतिः, 'सिव्हिगह'त्ति सिद्धौ गमनं निर्विशेषणबाच्चानेन सामान्यासिद्धिगतिरुक्का, 'सिद्धि-I&ी विग्गहगई'त्ति सिद्धावविग्रहेण-अवक्रेण गमनं सिद्ध्यविग्रहगतिः, अनेन च विशेषापेक्षायां विशिष्टा सिद्धिगतिरुक्का, सामान्यविशेषविवक्षया चानयो द इति । सिद्धिगतिर्मुण्डानामेव भवतीति मुण्डनिरूपणायाह-दसे त्यादि, मुण्डयति-अपनयतीति मुण्डः, स च श्रोत्रेन्द्रियादिभेदाद् दशधेति, शेष सुगम । मुंडा दशेति सङ्ख्यानमतस्तद्विधय उच्यन्ते, 'दसे'त्यादि, 'परिकम्म गाहा, परिकर्म-संकलिताद्यनेकविध गणितज्ञप्रसिद्धं तेन यत्सायेयस्य सत्यानं-परिगणन तदपि परिकर्मेत्युच्यते १, एवं सर्वत्रेति, 'व्यवहार' श्रेणीव्यवहारादिः पाटीगणितप्रसिद्धोऽनेकधा २, 'रज्जु'त्ति, 554 गाथा: दीप अनुक्रम [९५१-९५६] JABERatinintamational matorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~996~ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७४७] गाथा: दीप अनुक्रम [९५१ -९५६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४९७ ॥ Educator “स्थान” - अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [७४७] + गाथा: उद्देशक [-1, स्थान [१०] रजवा यत्सङ्ख्यानं तद्रज्जुरभिधीयते तच्च क्षेत्रगणितं ३, 'रासि'त्ति धान्यादेरुत्करस्तद्विषयं सङ्ख्यानं राशिः, स च पाठ्यां राशिव्यवहार इति प्रसिद्धः ४, 'कलासवन्ने य'ति कलानाम्-अंशानां सवर्णनं सवर्णः सवर्णः सदृशीकरणं यस्मिन् सझ्याने तत्कलासवर्ण ५, 'जावंतावह'त्ति 'जावं तावन्ति वा गुणकारोत्ति वा एगट्ठे मिति वचनाद् गुणकारस्तेन यत्सझ्यानं तत्तथैवोच्यते तच्च प्रत्युत्पन्नमिति लोकरूढं, अथवा यावतः कुतोऽपि तावत एव गुणकराद्यादृच्छिकादित्यर्थः यत्र विवक्षितं सङ्कलितादिकमानीयते तद्यावत्तावत्सङ्ख्यानमिति, तत्रोदाहरणम् -'गच्छो वाञ्छाभ्यस्तो बाञ्छयुतो गच्छ सगुणः कार्यः । द्विगुणीकृतवान्छहृते वदन्ति सङ्कलितमाचार्याः ॥ १ ॥' अत्र किल गच्छो दश १०, ते च बान्ध्या याहच्छिक गुणकारेणाष्टकेनाभ्यस्ताः जाताऽशीतिः, ततो वाञ्छायुतास्ते अष्टाशीतिः ८८, पुनर्गच्छेन दशभिः सकुणिता अष्टौ शतान्यशीत्यधिकानि जातानि ८८०, ततो द्विगुणीकृतेन यादृच्छिकगुणकारेण षोडशभिर्भागे हृते यलभ्यते तदशानां सङ्कलितमिति ५५ इदं च पाटीगणितं श्रूयते इति ६, यथा वर्ग:-संख्यानं यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः 'सदृशद्विराशिघात' इति वचनात् ७ 'घणो य'त्ति घनः सङ्ख्यानं यथा द्वयोर्धनोऽष्टी 'समत्रिराशिहति' रिति वचनात् ८, 'वग्गवग्गो'ति वर्गस्य वर्गो वर्गवर्गः, स च सङ्ख्यानं, यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारश्चतुर्णी वर्गः षोडशेति, अपिशब्दः समुच्चये ९, 'कप्पे यति गाथाधिकं तत्र कल्पः-छेदः क्रकचेन काष्ठस्य तद्विषयं सङ्ख्यानं कल्प एव यत्साव्यां क्राकचव्यवहार इति प्रसिद्धमिति, इह च परिकर्म्मादीनां केषाञ्चिदुदाहरणानि मन्दबुद्धीनां दुरवगमानि भविष्यन्त्यतो न प्रदर्शितानीति १० । दश मुण्डा उक्तास्ते च प्रत्याख्यानतो भवन्तीति प्रत्याख्याननिरूपणायाह Forest Use Only १० स्थाना. उद्देशः ३ दानानि ~997~ मुण्डाः ख्यानं सु० ७४५७४७ ॥ ४९७ ॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४८] (०३) *45 प्रत सूत्रांक [७४८] वसविधे पथक्खाणे पं०-अणागय १ मतिकतं २ कोडीसहियं ३ नियंटितं ४ चेव । सागार ५ मणागारं ६ परि माणकदं७ निरवसेसं ८॥१॥ संकेयं ९ चे अद्धाए १०, पञ्चक्खाणं दुसविहं तु ॥ (सू०७४८) 'दसविहे त्यादि प्रतिकूलतया आ-मर्यादया ख्यानं-प्रकथनं प्रत्याख्यानं निवृत्तिरित्यर्थः, 'अणागय गाहा सा , 'अणागय'त्ति अनागतकरणादनागतं-पर्युषणादावाचार्यादिवैयावृत्त्यकरणान्तरायसद्धावादारत एव तत्तपःकरणमित्यर्थः, उकं च-"होही पज्जोसवणा मम य तया अंतराइयं होजा। गुरुवेयावच्चेण तवस्सि गेलनयाए वा ॥१॥ सो दाइ तवोकम्म पडिवजइ तं अणागए काले । एवं पञ्चक्खाणं अणागयं होइ नायचं ॥२॥"[भविष्यति पर्युषणा मम च तदाऽऽन्तरायिक भविष्यति आचार्यस्य वैयावृत्त्येन तपस्विनो ग्लानतया वा ॥१॥ स तदा तपःकर्म प्रतिपद्यते तदतीते काले एतत्प्रत्याख्यानमनागतं भवति ज्ञातव्यं ॥२॥] १ 'अइक्वंतंति एवमेवातीते पर्युषणादौ करणादतिक्रान्तं, आह च"पज्जोसवणाए तवं जो खलु न करेइ कारणज्जाए । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलनयाए का ॥१॥ सो दाइ तवोकम्म पडिबज्जइ ते आइच्छिए काले । एवं पञ्चक्खाणं अइकतं होइ नायब्वं ॥२॥” इति [पर्युषणायां यः खलु तपो न करोति. कारणजातेन गुरुवैयावृत्त्येन तपस्विनो ग्लानवैयावृत्त्येन वा ॥१॥ स तदा तपाकर्म प्रतिपद्यते तदतीते काले एतात्याख्यानमतिकान्तं भवति ज्ञातव्यं ॥२॥] २, 'कोडीसहियंति कोटीभ्यां-एकस्य चतुर्थादेरन्तविभागोऽपरस्य चतुर्थादेरेवारम्भविभाग इत्येवलक्षणाभ्यां सहित-मिलितं युक्तं कोटीसहितं मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटेश्चतुर्थादेः कर-5 दाणमित्यर्थः, अभाणि च-"पट्ठवणओ उ दिवसो पञ्चक्खाणस्स निट्ठवणओ य । जहियं समिति दुनि उ तं भन्नइ दीप ENERAS अनुक्रम सम्मक [९५७ -९५८]] B P inatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~998~ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७४८] दीप अनुक्रम [९५७ - ९५८] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ७४८ ] स्थान [१०], श्रीस्थाना- ४ को डिसहियं तु ॥ १ ॥ इति [ प्रत्याख्यानस्य प्रस्थापकनिष्ठापकदिवसौ द्वावपि यत्र समितस्तद्भण्यते कोटीसहितं ॥ १॥] ३, 'नियंटियं'ति नितरां यन्त्रितं प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानत्वाद्यन्तरायभावेऽपि नियमात्कर्त्तव्यमिति हृदयं, एतच्च प्रथमसंहननानामेवेति, अभ्यधायि च – “मासे मासे य तवो अमुगो अमुगदिवसे य एवइओ । हट्ठेण गिलाणेण व कायच्चो | जाव ऊसासो ॥ १ ॥ एवं पञ्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं । जं गिण्हंतऽणगारा अणिस्सियप्पा अपडिबद्धा ॥ २ ॥ चोदसपुब्वी जिणकप्पिएस पढमंमि चैव संघयणे । एयं वोच्छिन्नं खलु थेरावि तथा करेसीया ॥३॥” इति, [मासि मासि चामुकं तपोऽमुकदिवसे इयन्तं कालं हृष्टेन वा ग्लानेन वा कर्त्तव्यं यावदुच्छासः ॥ १ ॥ एतन्नियंत्रितं धीरपुरुषप्रज्ञतं | प्रत्याख्यानं यदनिश्रितात्मानोऽप्रतिबद्धा अनगारा गृह्णन्ति ॥ २॥ चतुर्दशपूर्विजिनकल्पिकयोरेतत् प्रथम एव संहनने तदा | स्थविरा अपि अकार्षुर्युच्छिन्नं च एतत् ॥ २॥] ४, 'सागारं 'ति आक्रियन्त इत्याकाराः प्रत्याख्यानापवाद हेतवोऽनाभोगाद्यास्तैराकारैः सहेति साकारं ५, 'अणागारं 'ति अविद्यमाना आकारा- महत्तराकारादयो निच्छिन्नप्रयोजनत्वात् प्रतिपत्तुर्यस्मिंस्तदनाकारं तत्रापि अनाभोगसहसाकारावाकारौ स्यातां मुखेऽङ्गुल्यादिप्रक्षेपसम्भवादिति ६, 'परिमाणकर्ड'ति परिमाणंसङ्ख्यानं दत्तिकवलगृहभिक्षादीनां कृतं यस्मिंस्तत्परिमाणकृतमिति, यदाह - "दत्तीहि व कवलेहिं व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दव्वेहिं । जो भत्तपरिच्चायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥ १ ॥” इति [दत्तिभिः कवलैर्वा गृहैर्भिक्षाभिरथवा द्रव्यैः यो भक्तपरित्यागं करोत्येतत् परिमाणकृतं ॥१॥] ७, 'निरवसेसं 'ति निर्गतमवशेषमपि अल्पाल्पमशनाद्याहारजातं यस्मात्तत् निरवशेषं वा सर्व्वमशनादि तद्विषयत्वान्निरवशेषमिति, अभिहितञ्च - "सव्वं असणं सव्वं च पाणगं सब्वखज्जपेज नसूत्र वृत्तिः ॥ ४९८ ॥ Forsy १० स्थाना. उद्देशः श् प्रत्याख्यानानि सू० ७४८ ~999~ ॥ ४९८ ॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४८] (०३) प्रत सूत्रांक [७४८] विहिं । परिहरइ सव्वभावेण एवं भणियं निरवसेसं ॥१॥" इति, [सर्वमशनं सर्वच पानकं सर्वखाद्यपेयविधि सर्वभावेन परिहरति एतन्निरवशेष भणितं ॥१॥], 'संकेययं चेव'त्ति केतनं केतः-चिह्नमङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्धिगृहादिकं स एव केतकः सह केतकेन सकेतकं ग्रन्थादिसहितमित्यर्थः, भणितं च-"अंगुट्टमुट्टिगंठीघरसेउस्सासथिबुगजोइक्खे । भणियं सकेयमेयं धीरेहि अणतणाणीहिं ॥१॥” इति [अंगुष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेदोच्छासस्तिबुकदीपानाश्रित्य प्रत्याख्यानमेतत्संकेतं भणितं धीरैरनन्तज्ञानिभिः॥१॥]९'अद्धाए'त्ति अद्धायाः कालस्य पौरुष्यादिकालमानमाश्रित्येत्यर्थः, न्यगादि च-"अद्धापच्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं । पुरिमद्धपोरसीहिं मुहुत्तमासद्धमासेहिं ॥१॥" इति [तदद्धाप्रत्याख्यानं यत्कालप्रमाणच्छेदेन पुरिमार्द्धपौरुषीमुहर्तमासार्द्धमासैः॥१॥] १० । 'पञ्चक्खाणं दसविधं तुति प्रत्याख्यानशब्दः सर्वत्रानागतादौ सम्बध्यते तुशब्द एवकारार्थः ततो दश विधमेवेति, इहोपाधिभेदात् स्पष्ट एव भेद इति न पौनरुत्यमाशङ्कनीयमिति । प्रत्याख्यान हि साधुसामाचारीति तदधिकारादन्यामपि सामाचारी निरूपयन्नाह दसविहा सामायारी पं० सं०-इच्छा १ गिच्छा २ तहकारो ३, आवस्सिता ४ निसीहिता ५ । आपुच्छणा ६ य पतिपुक्छा ७, छंदणा ८य निमंतणा ९ ॥१॥ उपसंपया १० य काले सामायारी भवे दसविहा उ ॥ (सू० ७४९) समणे भगवं महावीरे छउमत्वकालिताते अंतिमरातितंसी इमे दस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धे जहा–एगं च णं महाघोररुवदित्तधरं तालपिसायं सुमिणे पराजितं पासित्ता णं पडिबुद्धे १, एगं च णं महं सुकिलपक्खग पुसकोइलगं सुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धे, २, एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुसकोइलं सुविणे पासित्ता णं पडिबुछ ३, एगं च णं मई दीप अनुक्रम [९५७ -९५८]] I Minrayom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1000 ~ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः १०स्थाना. उद्देशः३ सामाचार्यः वीरस्वनाः सू०७४९. ७५० ॥४९ ॥ प्रत सूत्रांक [७५०] SASAASAASAASAASAASAASAN दामदुर्ग सम्बरषणामयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे ४ एगं च णं महं सेतं गोवर्ग सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे ५, एगं च णं महं पतमसर सम्बओ समंता कुसुमितं सुनिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे ६, एगं च णं महासागर उम्मीवीचीसहस्सफलितं भुयाहि तिणं सुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धे ७, एर्ग च णं महं दिणयरं तेयसा जलंत मुर्मिणे पासित्ता गं परिबुद्धे ८, एवं च णं महं हरिवेरुलितवन्नाभेणं नियतेणमंतेणं माणुसुत्तर पम्वतं सव्वतो समंता आवेदिय परिवेढियं सुमिणे पासित्ता ण पडिबुद्धे ९, एगं च णं मई मंदरे पवते मंदरचूलियानो उपरि सीहासणवरगयम चाणं सुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धे १० । जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदिचधरं तालपिसात सुमिणे परातितं पासित्ता पं पडिबुद्धे तन्नं समणेणं भगवता महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलाओ उग्घाइते १, जं ने समणे भगवं महावीरे एगं मई सुबिलपक्वर्ग जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे सुकज्झाणोवगए विहरद २, जण समणे भगवं महावीरे एग महं चित्तविचित्तपक्खा जाव पडिबुद्धे तं गं समणे भगवं महावीरे ससमतपरसमयितं चित्तविचित्तं दुवालसंगं गणिपिडगं आपवेति पण्णवेति परूवेति सेति निदंसेति उवदंसेति तं-आधार जाबविट्ठीवार्य ३, जन समणे भगवं महावीरे एग मह दामदुर्ग सम्बरयणा जाव पडिबुद्धे तं नं समणे भगवं महावीरे दुविहं धम्म पण्णवेति, ०-अगारधर्म च अणगारधम्मं च ४ जेणं समणे भगवं महावीरे एगं महं सेतं गोवरगं सुमिणे जाव पहियुद्धतं समण स्स भगवो महावीरस्स चाउवण्णाइण्णे संघे तं०-समणा समणीओ सावगा सावियाओ ५ जं गं समणे भगवं महावीरे एग महं पउमसर आव पडिबुद्धे तं गं समणे भगवं महावीरे चउठिवहे देवे पण्णवेति, सं०-भवणवासी वाणमंतरा दीप अनुक्रम [९५९-९६१] ॥४९९॥ Aansorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1001 ~ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) S+ प्रत सूत्रांक [७५०] LSACAREEREST जोइसवासी पेमाणवासी ६ जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं उम्मीवीचीजाव पडिबुद्धे त ण समणेणं भगवता महावीरेणं अणातीते अणवदग्गे दीहमद्धे चाउर्रनसंसारकतारे तिन्ने ७ जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं विणकर जाव पडिबुद्ध तन्नं समणस्स भगवतो महावीरस्स अणते अणुत्तरे जावसमुप्पन्ने ८ जण्णं समणे भगवं एग महं हरियेरुलित जाव पडिबुद्धे तण्णं समणस्स भगवतो महावीरस्स सदेवमणुयासुरे लोगे उराला कित्तिवन्नसहसिलोगा परिगुन्वति इति खलु समणे भगवं महावीरे इति० ९ जणं समणे भगवं महावीरे मंदरे पञ्चते मंदरचूलिवाए उपरि जाव पटिबुद्धे तं गं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराते परिसाते मझगते केवलिपन्नत्तं धर्म आघवेति पण्णवेति जाव उपदंसेति १० (सू० ७५०) 'दसे'त्यादि, समाचरणं समाचारस्तावः सामाचार्य तदेव सामाचारी संव्यवहार इत्यर्थः, 'इच्छे'त्यादि सार्द्धश्लोकः, 'इच्छा'इति, एषणमिच्छा करणं कारः, तत्र कारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, इच्छया-बलाभियोगमन्तरेण कार इच्छाकारः इच्छाक्रियेत्य, इच्छा चेच्छाकारेण ममेदं कुरु, इच्छाप्रधानक्रियया न बलाभियोगपूर्विकयेति भावार्थः, अस्य च प्रयोगः स्वार्थ परार्थं वा चिकीर्षन् यदा परमभ्यर्थयते, उक्तं च-"जइ अब्भत्थेज परं कारणजाए करेज से | |कोइ । तत्थ उ इच्छाकारो न कप्पइ बलाभिओगो उ ॥१॥" इति [यदि परं कोऽपि कारणेऽभ्यर्थयेत्तत्र तस्य कुर्यादिच्छाकारं न कल्पते बलाभियोगो यस्मात् ॥१॥] तथा मिथ्या वितथमनृतमिति पर्यायाः, मिथ्याकरणं मिथ्याकारः मिथ्याक्रियेत्यर्थः, तथा च संयमयोगे वितथाचरणे विदितजिनवचनसाराः साधवस्तरिक्रयाचैतथ्यप्रदर्शनाय मिथ्याकारं AAAAAAACCES दीप अनुक्रम [९५९-९६१] स्था०८४ Manmintarmom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1002~ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) ॥५०० प्रत सूत्रांक [७५०] श्रीस्थाना- कुर्वते, मिथ्याक्रियेयमिति हृदयं, भणितं च-"संजमजोगे अब्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एयंति विया- १०स्थाना. झसूत्र- पाणिऊण मिच्छत्ति कायर्व ॥१॥” इति [संयमयोगेऽभ्युत्थितेन यत्किंचिद्वितथमाचरितं एतन्मिथ्येति विज्ञाय मिथ्या-18| उद्देशः । वृत्तिः कारः कर्त्तव्यः॥१॥] तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नादिगोचरः, यथा भवद्भिरुकं तथैवेदमित्येवस्वरूपः, गदितं सामाचार्यः जाच-“वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअत्थकहणाए । अवितहमयति तहा पडिसुणणाए तहकारो॥१॥" इति, [वाच- वीरस्वताः जानापतिश्रवणयोः उपदेशे सूत्रार्थकथने अवितथमेतदिति तथाकारः प्रतिश्रवणे च तथाकारः॥१॥] अयं च पुरुषविशेष- सू०७४९ विषय एवं प्रयोक्तव्य इति, अगादि.च-"कप्पाकप्पे परिनिवियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स । संजमतवहगस्स उ अविगप्पेणं तहकारो ॥१॥” इति [कल्प्याकल्प्ययोः परिनिष्ठितस्य ज्ञानादिषु स्थानेषु पञ्चसु स्थितस्य संयमतपोवर्तकस्याविकल्पेन तथाकारः ॥१॥] ३, 'आवस्सिया यत्ति अवश्यकर्त्तव्योगनिष्पन्नाऽऽवश्यकी, 'चः समुच्चये, एतत्प्रयोग आश्रया-18 निर्गच्छतः आवश्यकयोगयुक्तस्य साधोर्भवति, आह हि-"कजे गच्छंतस्स उ गुरुनिसेण सुत्तनीईए । आवस्सियत्ति || नेया सुद्धा अन्नस्थजोगाओ॥१॥" [सूत्रनीत्या गुर्वाज्ञया गच्छतः कायें आवश्यकी शुद्धा ज्ञेयेत्यम्वर्थयोगात् ॥१॥] (अन्वर्थयोगादित्यर्थे।> तथा निषेधेन निर्वृत्ता नैषधिकी-व्यापारान्तरनिषेधरूपा, प्रयोगश्चास्या आश्रये प्रविशत इति, यत आह-"एवोग्गहप्पवेसे निसीहिया तह निसिद्धजोगस । एयस्सेसा उचिया इयरस्स (अनिषिद्धयोगस्य >न चेव नस्थित्ति |॥१॥ (अन्वों नास्तीतिकृत्वेत्यर्थः>" [एवमवग्रहप्रवेशे तथा निषिद्धयोगस्य नैषेधिकी। एतस्यैपोचिता इतरस्यैषा नोचितैव | अन्धर्थों नास्तीति हेतोः॥१॥] तथा आपृच्छनमापृच्छा सा विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेषु गुरोः कार्यों, चशब्दः पूर्व ROSECSIRSAR4564 ७५० दीप अनुक्रम [९५९-९६१] ॥ ५०० Swatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1003~ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) प्रत सूत्रांक [७५०] *वत्, इहोक्तम्-"आपुच्छणा उ कज्जे गुरुणो तस्संमयस्स वा नियमा। एवं खु तयं सेयं जायइ सइ निजराहेऊ ॥१॥" इति [कार्ये गुरोः तत्संमतस्य वा नियमादाप्रच्छनं एवं खलु तत् श्रेयो जायतेऽसकृत् निर्जराहेतुः॥१॥ तथा प्रतिपृच्छा-2 प्रतिप्रश्नः, सा च प्राग्नियुक्तेनापि करणकाले कार्या, पूर्व निषिद्धेन वा प्रयोजनतस्तदेव क कामेनेति, यदाह-"पडिपुछणा उ कजे पुब्बनिउत्तस्स करणकालम्मि । कज्जन्तरादिहे निद्दिट्टा समयकेहिं ॥१॥” इति [कार्ये पूर्व नियुक्तस्य. करणकाले प्रतिप्रच्छना कार्यान्तरार्थ समयकेतुभिनिद्दिष्टा ॥१॥] तथा छन्दना च-पारगृहीतेनाशनादिना कार्या, इहा वाचि-"पुब्बगहिएण छंदण गुरुआणाए जहारिहं होइ । असणादिणा उ एसा णेयेह विसेसविसयत्ति ॥१॥" [पूर्वगृ-18 माहीतेनाशनादिना गुर्वाज्ञया यथाहाणां निमन्त्रणं एषा ज्ञेया विशेषविषयेति छंदना ॥१॥] तथा निमन्त्रणा-अगृहीतेनै वाशनादिना भवदर्थमहमशनादिकमानयाम्येवंभूता, इहार्थे अभ्यधायि-"सज्झाया उवाओ (श्रान्तः> गुरुकिच्चे ट्रासेसगे असंतमि । तं पुच्छिऊण कजो सेसाण निमंतणं कुज्जा ॥१॥" इति [स्वाध्यायाच्छ्रान्तो गुरुकृत्ये शेषेऽसति तं | IIपृष्टवा कार्ये शेषाणां निमंत्रणं कुर्यात् ॥१॥] तथा 'उवसंपय'त्ति उपसंपत्-इतो भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः, सा चार ज्ञानदर्शनचारित्रार्थत्वात् त्रिधा, सत्र ज्ञानोपसम्पत् सूत्रार्थयोः पूर्वगृहीतयोः स्थिरीकरणार्थ तथा वित्रुटितसन्धानार्थं तथा प्रथमतो ग्रहणार्थमुपसम्पद्यते, दर्शनोपसम्पदप्येवं, नवरं दर्शनप्रभावकसम्मत्यादिशास्त्रविषया, चारित्रोपसम्पच है वयावृत्त्यकरणार्थ क्षपणार्थं चोपसम्पद्यमानस्येति, भणितं हि-"उवसंपया य वितिहा नाणे तह दसणे चरित्ते य । हादसणनाणे तिविहा दुविहा य चरित्तअट्ठाए ॥१॥ वत्तणसंधणगहणे सुत्तरथोभयगया उ एसत्ति । वेयावच्चे खमणे | दीप अनुक्रम [९५९ -९६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1004 ~ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥५०१॥ प्रत सूत्रांक [७५०] 15 काले पुण आवकहियत्ति ॥२॥” इति, [उपसंपच्च त्रिविधा ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च दर्शनज्ञानयोस्त्रिविधा चारि-15 १० स्थाना. त्रार्थ द्विविधा ॥१॥ आवर्तनसन्धानग्रहणानि सूत्रार्थोभयगतान्येते वैयावृत्त्ये तपसि कालतः पुनर्यावस्कथं ॥२॥] उद्देशः३ 'काले'त्ति उपक्रमणकाले आवश्यकोपोद्घातनिर्युक्त्यभिहिते सामाचारी दशविधा भवति ॥ इयं च सामाचारी महावी-1 सामाचार्यः रणेह प्रज्ञापिता अतो भगवन्तमेवोररीकृत्य दवास्थानकमाह-समणे'त्यादि सुगम, नवरं 'छउमत्थकालियाएं'त्ति प्राकृ-1|वीरस्वमाः |तत्वात् छद्मास्थकाले यदा किल भगवान् त्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुखमहापयादिषु पटुपटहप्रतिरवोघोषणापूर्व यथाकाम-I सू०७४९मुपहतसकलजनदारिद्यमनवच्छिन्नमदं यावन्महादानं दत्त्वा सदेवमनुजासुरपरिषदा परिवृतः कुण्डपुरानिर्गत्य ज्ञात- ७५० खण्डवने मार्गशीर्षकृष्णदशम्यामेकका प्रव्रज्य मनःपर्यायज्ञानमुखाद्याष्टी मासान् विहृत्य मयूरकाभिधानसन्निवेशबहिः| स्थानां दूयमानाभिधानानां पाखण्डिकानां सम्बन्धिन्येकस्मिन्नुटजे तदनुज्ञया वर्षावासमारभ्य अविधीयमानरक्षतया | पशुभिरुपयमाणे उटजेप्रीतिकं कुर्वाणमाकलव्य कुटीरकनायकमुनिकुमारकं ततो वर्षाणाम मासे गतेऽकाल एव | निर्गस्यास्थिकग्रामाभिधानसन्निवेशाद् बहिः शूलपाणिनामकयक्षायतने शेष वर्षावासमारेभे, तत्र च यदा रात्री शूल-15 | पाणिर्भगवतः क्षोभणाय झटिति टालिताट्टालकमट्टहास मुञ्चन् लोकमुत्रासयामास तदा विनाश्यते स भगवान देवे| नेति भगवदालम्बना जनस्याधृति जनितवान् पुनर्हस्तिपिशाचनागरूपैर्भगवतः क्षोभं कर्तुमशक्नुवन् शिराकर्णनासादन्तनखाक्षिपृष्ठिवेदनाः प्राकृतपुरुषस्य प्रत्येक प्राणापहारप्रवणाः सपदि सम्पादितवान् तथापि प्रचण्डपवनमहतसुरगिरि ॥५०१॥ शिखरमिवाविचलनावं वर्द्धमानस्वामिनमवलोक्य श्रान्तः सन्नसौ जिनपतिपादपद्मवन्दनपुरस्सरमाचचक्षे-क्षमस्व क्षमा-1 4%ACHARACC दीप अनुक्रम [९५९-९६१] S wjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1005~ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) प्रत सूत्रांक [७५०] श्रमण इति तथा सिद्धार्थाभिधानो व्यन्तरदेवस्तन्निग्रहार्थमुद्दधाव, बभाण च-अरे रे शूलपाणे अप्रार्थितप्रार्थक हीनपुण्यचतुर्दशीक श्रीहीधृतिकीर्तिवर्जित दुरन्तप्रान्तलक्षण! न जानासि सिद्धार्थराजपुत्रं पुत्रीयितनिखिलजगजीवं जीवितसममशेषमुरासुरनरनिकायनायकानामेनं च भवदपराधं यदि जानाति त्रिदशपतिस्ततस्त्वां निर्विषयं करोतीति, श्रुत्वा। चासौ भीतो द्विगुणतरं क्षयमयति स्म, तथा सिद्धार्थश्च तस्य धर्ममचकथत्, स चोपशान्तो भगवन्तं भक्तिभरनिर्भरमानसो गीतनृत्तोपदर्शनपूर्वकमपूपुजत्, लोकश्च चिन्तयाञ्चकार-देवार्यकं विनाश्येदानी देवः क्रीडतीति, स्वामी च देशोनांश्चतुरो यामानतीव तेन परितापितः प्रभातसमये मुहूर्चमात्रं निद्राप्रमादमुपगतवान् तत्रावसरे इत्यर्थोऽधवा छद्म-31 स्थकाले भवा अवस्था छद्मस्थकालिकी तस्यां 'अंतिमराइयंसित्ति अन्तिमा-अन्तिमभागरूपा अवयवे समुदायोपचारात् सा चासो रात्रिका चान्तिमरात्रिका तस्यां रात्रेरवसान इत्यर्थः महान्तः-प्रशस्ताः स्वप्ना-निद्राविकृतविज्ञानप्रतिभातार्थविशेषास्ते च ते चेति महास्वमास्तान् 'स्वपने स्वापक्रियायां 'एगं चेति चकार उत्तरस्थमापेक्षया समुच्चयार्थः 'महाघोरं' अतिरौद्र रूपम्-आकारं 'दीसं ज्वलितं दृप्त वा-दर्पवद्धारयतीति महाघोररूपदीधधरस्तद्वधरो वा, प्राकृतत्वादुत्तरत्र विशेषणन्यासः, तालो-वृक्षविशेषस्तदाकारो दीर्घत्वादिसाधात् पिशाचो-राक्षसस्तालपिशाचस्तं 'पराजित निराकृतमात्मना १ 'एगं च'त्ति अन्यं च 'पुंसकोकिलगंति पुमांश्चासौ कोकिलश्च-परपुष्टः पुंस्कोकिलकः स च किल कृष्णो भवतीति शुक्लपक्ष इति विशेषितः २ 'चित्तविचित्तपक्ख'चि चित्रेणेति-चित्रकर्मणा विचित्री-विविधवर्णविशेषवन्तौ पक्षौ यस्य स तथा ३ 'दामदुर्गति मालाद्वयं ४ 'गोवग्गं'ति गोरूपाणि ५ 'पउमसर'त्ति प %ALE दीप अनुक्रम [९५९ CAN -९६१] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1006~ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥५०२॥ प्रत सूत्रांक [७५०] OCTORSECON मानि यत्रोत्सद्यन्ते सरसि तसद्मसरः 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु च कुसुमानि-पद्मलक्षणानि जातानि यत्र १०स्थाना. तत्कुसुमितं ६ 'उम्मीवीइसहस्सकलियंति ऊर्मयः-कलोलाः तल्लक्षणा या वीचयस्ता ऊम्मिवीचयः, वीचिशब्दो उद्देशः३ हि लोकेऽन्तरार्थोऽपि रूढः, अथवोम्मेिवीच्योविंशेषो गुरुत्वलघुत्वकृतः, क्वचिद्वीचिशब्दो न पठ्यते एवेति, अम्मिवी-सामाचार्यः चीनां सहस्रैः कलितो-युक्तो यः स तथा तं 'भुजाभ्यां बाहुभ्यामिति ७ तथा दिनकरं ८ एकेन च णमित्यलङ्कारे वीरस्वमाः 'महन्ति महता छान्दसत्वात् एगं च णं महंति पाठे मानुषोत्तरस्यैते विशेषणे 'हरिवेरुलियवन्नामेणं'ति हरिः- सू०७४९पिनो वर्णः बैडूर्य-मणिविशेषस्तस्य वर्णों-नीलो वैडूर्यवर्णः, ततो द्वन्द्वः तद्वदाभाति यत्तद्धरिवैडूर्यवर्णाभं तेन, अथवा ७५० हरिवनीलं तच तद्वैडूर्य चेति शेषं तथैव, निजकेन-आत्मीयेनांत्रेण-उदरमध्यावयवविशेषेण 'आवेढियं'ति सकृदावेष्टितं 'परिवेढिय'ति असकृदिति ९ 'एगं च णं महति आत्मनो विशेषणं 'सिंहासणवरगर्य'ति सिंहासनानां मध्ये यदर तत्सिंहासनवरं तत्र गतो-व्यवस्थितो यस्तमिति १० । एतेषामेव दशानां महास्वमानां फलप्रतिपादनायाह'जन्न'मित्यादि सुगर्म, नवरं 'मूलओं'त्ति आदितः सर्वथैवेत्यर्थः, 'उद्धाइए' उद्घातितं विनाशितं विनाशयिष्यमाणत्वेनोपचारात्, सूत्रकारापेक्षया त्वयमतीतनिर्देश एवेत्येवमन्यत्रापि, 'ससमयपरसमइयंति स्वसिद्धान्तपरसिद्धान्ती यत्र स्त इत्यर्थः, गणिन:-आचार्यस्य पिटकमिव पिटक-वणिज इव सर्वस्वस्थानं गणिपिटकं 'आधवेह'त्ति आख्यापयति|४ सामान्यविशेषरूपतः प्रज्ञापयति सामान्यतः प्ररूपयति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन दर्शयति तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिकियादशेनेन,&५०२।। इयं क्रियेभिरक्षरैरुपात्ता इत्थं क्रियत इति भावना, निदंसेइ'त्ति कथञ्चिदगृह्णतः परानुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्द 554 दीप अनुक्रम [९५९-९६१] 45ॐ JABERatinintamational Sarwaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1007~ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) प्रत सूत्रांक [७५०] यति निदर्शयति 'उवदंसेइति सकलनययुक्तिभिरिति ३, 'चाउवण्णाइण्णे'त्ति चत्वारो वर्णाः-श्रमणादयः समा&ाहता इति चतुर्वर्णं तदेव चातुर्वर्ण्य तेनाकीर्णः-आकुलश्चातुर्वर्ण्याकीर्णः अथवा चत्वारो वर्णाः-प्रकारा यस्मिन् स तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , चतुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिभिर्महागुणैरिति चतुर्वर्णाकीर्णः, 'चउबिहे देवे पन्नवेह'त्ति वन्दनकुतूहलादिप्रयोजनेनागतान् प्रज्ञापयति-जीवाजीवादीन् पदार्थान् बोधयति-सम्यक्त्वं ग्राहयति शिष्यीकरोतीतियावत् , लोकेभ्यो वा तान् प्रकाशयति, 'अणंते' इत्यादी सूत्रे यावत्करणात् 'निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे | | केवलवरनाणदसणे'त्ति दृश्यमिति, 'सदेवे'त्यादि, सह देवैः-वैमानिकज्योतिर्मनुजैः-नरैरसुरेश्व-भवनपतिव्यन्तरैश्च वर्तत इति सदेवमनुजासुरस्तत्र लोके-त्रिलोकरूपे 'उराल'त्ति प्रधानाः कीर्तिः सर्वदिग्व्यापी साधुवादः वर्ण:-एकदिव्यापी शब्द:-अर्द्धदिग्व्यापी श्लोकः-तत्तत्स्थान एव श्लाघा एषां द्वन्द्वः तत एते 'परिगुब्बंति' परिगुप्यन्ति व्याकु लीभवन्ति सततं भ्रमन्तीत्यर्थः, अथवा परिगूयन्ते-गूधातोः शब्दार्थत्वात् संशब्द्यते इत्यर्थः, पाठान्तरतः परिभ्राम्यन्ति, है कथमित्याह-'इति खल्वि'त्यादि, इतिः-एवंप्रकारार्थः खलुक्यालङ्कारे ततश्चैवंप्रकारो भगवान् सर्वज्ञानी सर्वदशी सर्वसंशयव्यवच्छेदी सर्वबोधकभाषाभाषी सर्वजगज्जीववत्सलः सर्वगुणिगणचक्रवत्ती सर्वनरनाकिनायकनिकायसेवितचरण४ युग इत्यर्थः, 'महावीर' इति नाम, एतदेवावर्त्यते श्लाघाकारिणामादरख्यापनार्थमनेकत्वख्यापनार्थ चेति, 'आघवेई'&ा त्यादि पूर्ववत् । स्वमदर्शनकाले भगवान सरागसम्यग्दर्शनीति सरागसम्यग्दर्शनं निरूपयवाह दीप अनुक्रम [९५९ 454554 -९६१] dilanmitraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1008~ Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५१] (०३) प्रत सूत्रांक [७५१] म्यग्दर्शनं श्रीस्थाना- दसविधे सरागसम्मईसणे पन्नत्ते, ६०-निसग्गु १ वतेसाई २ आणरुती ३ सुत्त ४ बीतरुतिमेव ५ । अभिगम ६ १०स्थाना. वित्थाररुती ७ किरिया ८ संखेव ९ धम्मरुती १० ॥१॥ (सू० ७५१) उद्देशः३ 'दसविहे'त्यादि, सरागस्य-अनुपशान्ताक्षीणमोहस्य यत्सम्यग्दर्शनं-तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्तथा, अथवा सरागं च तत्स- दशधा स॥५०॥ म्यग्दर्शनं चेति विग्रहः सरागं सम्यग्दर्शनमस्येति वेति, 'निसग्ग'गाहा, रुचिशब्दः प्रत्येक योज्यते, ततो निसर्गः-स्व-IN |भावस्तेन रुचि:-तस्वाभिलापरूपाऽस्येति निसर्गरुचिनिसर्गतो वा रुचिरिति निसर्गरुचिः, यो हि जातिस्मरणप्रतिभादि-13/ |सू०७५१ रूपया स्वमत्याऽवगतान् सद्भूतान् जीवादीन् पदार्थान् श्रद्दधाति स निसर्गरुचिरिति भावः, यदाह-"जो जिणदिट्टेल भावे चउबिहे (द्रव्यादिभिः> सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नहत्ति य निसग्गरुइत्ति नायन्यो ॥१॥” इति [द्रव्यादिचतुर्विधान भावान् यो जिनदृष्टान् भावेन श्रद्धत्ते एवमेवैते नान्यथेति च निसर्गरुचितिव्यः सः॥१॥] तथोपदेशोगुर्वादिना कथनं तेन रुचिर्यस्येत्युपदेशरुचिः तत्पुरुषपक्षः स्वयमूह्यः सर्वत्रेति, यो हि जिनोक्तानेव जीवादीनान् तीर्थकरशिष्यादिनोपदिष्टान् श्रद्धत्ते स उपदेशरुचिरिति भावः, यत आह-"एए चेव उ भावे उबइढे जो परेण सद्दहइ । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुई मुणेयव्यो ॥१॥" इति [यः परेण छद्मस्थेन जिनेन वोपदिष्टानेतानेव भावान् श्रहैद्धत्ते स उपदेशरुचि तव्यः ॥१॥] तथाऽऽज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचिर्यस्य स तथा, यो हि प्रतनुरागद्वेषमि थ्याज्ञानतयाऽऽचार्यादीनामाज्ञयैव कुमहाभावाजीवादि तथेति रोचते माषतुषादिवत् स आज्ञारुचिरिति भावः, भ- D ५०३॥ ट्राणितं च-"रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई होइ ॥१॥" इति, दीप अनुक्रम [९६२-९६३] CASSES mo Mainiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1009~ Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५१] दीप अनुक्रम [९६२ -९६३] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [७५१] स्थान [१०], [सम्यक्त्वावर करागद्वेष मोहाज्ञानानि यस्यापगतानि भवंति आज्ञाया रोचयन् स खलु आज्ञारुचिर्भवति ॥ १ ॥] 'सुतबीयरुमेव 'ति इहापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् सूत्रेण-आगमेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः, यो हि सूत्रागममधीयानस्तैनैवाङ्गप्रविष्टादिना सम्यक्त्वं लभते गोविन्दवाचकवत् स सूत्ररुचिरिति भावः, अभिहितं च--"जो सुत्तमहिजंतो सुरण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइत्ति नायब्वो ॥ १ ॥” इति [यः सूत्रमधीयानः श्रुतेनावगाहते तु सम्यक्त्वं अंगेनांगबाह्येन वा स सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ||१|| ] तथा बीजमिव बीजं यदेकमध्यनेकार्थप्रतिबोधोत्पादकं वचस्तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचिः, यस्य ह्येकेनापि जीवादिना पदेनावगतेनानेकेषु पदार्थेषु रुचिरुपैति स बीजरुचिरिति भावः, गदितं च "एगपएणेगाई पयाई जो पसरई उ सम्मत्ते । उदन्व तिलबिंदू सो बीयरुइति नायव्व ॥ १ ॥" [एकपदेनानेकानि पदानि योऽवगाहते लभते च सम्यक्त्वं उदके इव तैलविन्दुः स बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ ] इति, 'एवे 'ति समुच्चये, तथा 'अभिगमवित्थाररुद' ति इहापि प्रत्येकं रुचिशब्दः सम्बन्धनीयः, तत्राभिगमो-ज्ञानं ततो रुचिर्यस्य सोऽभिगमरुचिः, येन ह्याचारादिकं श्रुतमर्थतोऽधिगतं भवति सोऽभिगमरुचिः, अभिगमपूर्वकत्वात्तचेरिति भावः, गाथाऽत्र - "सो होइ अभिगमरुई सुअनाणं जस्स अत्थओ दिहं । एक्कारस अंगाई पइन्नयं दिट्टिवाओ य ॥ १ ॥” इति [सोऽभिगमरुचिर्भवति येनार्थतः श्रुतज्ञानं दृष्टं एकादशांगानि प्रकीर्णकानि दृष्टिवादश्च ॥ १ ॥] तथा विस्तारो - व्यासस्ततो रुचिर्यस्य स तथेति, येन हि धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां सर्वपर्यायाः सर्वैर्नयप्रमाणैर्ज्ञाता भवन्ति स विस्ताररुचिः, ज्ञानानुसारिरुचित्वादिति, न्यगादि च-- “ दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 1010~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५१] (०३) १०स्थाना. प्रत सूत्रांक [७५१] वेदनाः सू०७५२ ॥५०४॥ श्रीस्थाना- जस्स उवलद्धा । सम्बाहि नयविहीहिं वित्थाररुई मुणेयब्वो ॥१॥” इति [द्रव्याणां सर्वे पर्यायाः सर्वप्रमाणैः सर्वनय- असूब विधिभिर्येनोपलब्धाः विस्ताररुचितिव्यः॥१॥] तथा क्रिया-अनुष्ठानं रुचिशब्दयोगात् तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारूचिः, वृत्तिः इदमुक्तं भवति-दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो रुचिरस्तीति स क्रियारुचिरिति, उक्तंच-"नाणेण दंसणेण य तवे चरिते य समिइगुत्तीसु । जो किरियाभावरूई सो खलु किरियाई होइ ॥१॥” इति [ज्ञाने दर्शने तपसि चारित्रे च समिति- & गुप्त्योः यः भावतः क्रियारुचिः स खलु क्रियारुचिर्भवति ॥१॥] तथा सङ्गेपः-सनहस्तत्र रुचिरस्येति सङ्केपरुचिा, यो ह्यप्रतिपन्नकपिलादिदर्शनो जिनप्रवचनानभिज्ञश्च सङ्केपेणैव चिलातिपुत्रवदुपशमादिपदत्रयेण तत्त्वरुचिमवासोति स सझेपरुचिरिति भावः, आह च-"अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइत्ति होइ नायब्बो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ |य सेसेसु ॥१॥" इति [अनभिगृहीतकुदृष्टिः अविशारदः प्रवचने संक्षेपरुचिरिति ज्ञातव्यः शेषेष्वनभिगृहीतः॥१॥ तथा धर्मे-श्रुतादौ रुचिर्यस्य स तथा, यो हि धर्मास्तिकायं श्रुतधम्मै चारित्रधर्म च जिनोक्तं श्रद्धत्ते स धर्मरुचिरिति शेयः, यदगादि-"जो अस्थिकायधर्म सुयधर्म खलु चरित्तधम्मं च । सदहा जिणाभिहियं सो धम्मरुइत्ति ना| यब्वो ॥१॥ इति [योऽस्तिकायधर्म श्रुतधर्म खलु चारित्रधर्म च जिनाभिहितं श्रद्दधाति स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः | 2॥१॥] १०॥ अयं च सम्यग्दृष्टिदशानामपि संज्ञानां क्रमेण व्यवच्छेदं करोतीति ता आह दस सण्णाभो पं० --आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा ४ कोहसण्णा जाव लोभसण्णा ८ लोगसण्णा ९ ओहसण्णा १०, नेरतिताणं दस सण्णातो एवं चेन, एवं निरंतर जाव वेमाणियाणं २४ (सू० ७५२) नेरइया ण दसवि दीप अनुक्रम [९६२-९६३]] 464562-56-456%% ॥५०४॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1011~ Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५३] (०३) 15 प्रत सूत्रांक [७५३] धं यणं पाणुभवमाणा विहरति, तं०-सीतं १ उसिणं २ खुधं ३ पिवासं ४ कहुं ५ परमं ६ भयं ७ सोगं ८ जरं ९ वाहिं १० (सू० ७५३) 'दसे'त्यादि, संज्ञान संज्ञा आभोग इत्यर्थः, मनोविज्ञानमित्यन्ये, संज्ञायते वा आहाराद्यर्थी जीवोऽनयेति संज्ञा-वेदनीयमोहनीयोदयाश्रया ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्रा आहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः, सा चोपाधिभेदाद्भिद्यमाना दशप्रकारा भवतीति, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयात् कवलाद्याहारार्थ पुद्गलोपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्याहारसंज्ञा, तथा भयवेदनीयोदयागयोद्धान्तस्य दृष्टिबदनविकाररोमाश्चोझेदादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति भयसंज्ञा, तथा पुंवेदोदयाम्मैथुनाय ख्यङ्गालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा च क्रियैव संज्ञायतेऽनयेति मैथुनसंज्ञा, तथा लोभो दयात् प्रधानभवकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सच्चित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया च संज्ञायतेऽनयेति परिग्रहसंज्ञा, तथा क्रोधोदयालत्तदावेशगर्भा प्ररूक्षमुखनयनदन्तच्छदचेष्टिव संज्ञायतेऽनयेति क्रोधसंज्ञा, तथा मानोदयादहकारास्मिकोत्सेकादिपरि-1 णतिरेव संज्ञायतेऽनयेति मानसंज्ञा, तथा मायोदयेनाशुभसंक्लेशादनृतसम्भाषणादिक्रियेच संज्ञायतेऽनयेति मायासंज्ञा, |तथा लोभोदयालालसत्वान्वितात्सचित्तेतरव्यप्रार्थनैव संज्ञायतेऽनयेति लोभसंज्ञा, तथा मतिज्ञानाचावरणक्षयोपशमा-13 च्छन्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोक| संज्ञा १०, ततश्चौघसंज्ञा दर्शनोपयोगः लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोग इति, व्यत्ययमन्ये, अन्ये पुनरित्थमभिदधति-सामान्यप्रवृत्तिरोषसंज्ञा लोकदृष्टिलॊकसंज्ञा, एताश्च सुखप्रतिपत्तये स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियानधिकृत्योकाः, एकेन्द्रियादीनां तु ॐॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [९६५] CCCCCCCE ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1012~ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५३] (०३) श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत राज्ञेयजे ॥५०५॥ सूत्रांक [७५३] विपाकद SACROSSROSk प्रायो यथोक्तक्रियानिवन्धनकर्मोदयादिपरिणामरूपा एवावगन्तव्याः, यावच्छन्दी व्याख्याताओं, एता एव सर्वजीवेषु-१० स्थाना. चतुर्विंशतिदण्डकेन निरूपयति-नेरइये'त्यादि, 'एवं चेच'त्ति यथा सामान्यसूत्रे एवमेव नारकसूत्रेऽपीत्यर्थः, 'एवं नि- उद्देशः३ रन्तरमिति यथा नारकसूत्रे संज्ञास्तथा शेषेष्वपि वैमानिकान्तेष्वित्यर्थः । अनन्तरसूत्रे वैमानिका उक्काः, ते च सुख-13 छद्मस्थेतवेदना अनुभवन्ति, तद्विपर्यस्तास्तु नारका या वेदना अनुभवन्ति ता दर्शयति-नेरइया' इत्यादि, कण्ठ्यं, नवरं वेदनांपीडा, तत्र शीतस्पर्शजनिता शीता तां, सा च चतुर्थ्यादिनरकपृथ्वीविति, एवमुष्णां प्रथमादिषु, क्षुध-बुभुक्षां पिपासां- याः कर्मतृषं कण्डूं-खर्जु 'परज्झंति परतन्त्रतां भयं-भीति शोक-दैन्यं जरां-वृद्धत्वं व्याधि-ज्वरकुष्ठादिकमिति । अमुं च वेदनादिकममूर्त्तमर्थं जिन एव जानाति न छद्मस्थो यत आह शाद्या दस ठाणाई छमस्थे णं सच्वभावेणं न जाणति ण पासति, ०-धम्मत्थिगातं जाव वातं, अयं जिणे भविस्सति वा ण वा सू०७५४ ७५५ भविस्सति अयं सम्बदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति, एताणि चेव उप्पन्ननाणसणधरे [अरहा] जाव अर्थ सम्वदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति (सू० ७५४) दस दसाओ पं० त०-कम्मविवागदसाओ उवासगदसामो अंतगढदसाओ अणुत्तरोचवायदसाओ आयारदसाओ पण्हावागरणदसाओ बंधदसाओ दोगिद्धिदसाओ दीदवसाओ संखेवित्तदसाओ । कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा पं० सं०-मियापुत्ते १ त गोत्तासे २, अंडे ३ सगदेति यावरे ॥५०५॥ ४। माहणे ५ दिसणे ६त, सोरियत्ति ७ उदुंबरे ८ ॥१॥ सहसुराहे आमलते ९ कुमारे लेहती १० दीप SACCE अनुक्रम [९६५] JABERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1013~ Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५५] + गाथा: (03) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] SURESHX 64 इति । खवासगदसाणं दस अज्झयणा पं० २०-आगंदे १ कामदेवे २ अ, गाहावति चूलणीपिता ३ । सुरादेवे ४ चुलसतते ५, गाहावति कुंडकोलिते ६॥१॥ सहालपुत्ते ७ महासत्तते ८, णंदिणीपिया ९ सालतियापिता १०-३ । अंतगडदसाणं पस अज्झयणा पं० सं०-णमि १ मातंगे २ सोमिले ३ रामगुत्ते ४ सुदंसणे ५ पेव । जमाली ६ त भगाली १७किकमे ८ पलतेविय ९॥९॥ काले अंबडपुत्ते त१०, एमेते दस आहिता ४॥ अणुत्तरोववातियदसाणं दस अश्मयणा पं००-इंसिदासे व १ घण्णे त २, सुणक्खत्ते य ३ कातिते ४ [तिय] । सट्ठाणे ५ सालिभरे त ६, आणंदे ७ तेतली ८ तित ॥१॥दसमभदे ९ अतिमुचे १०, एमेते दस आहिया ५॥ आयारदसाणं दस अज्झयणा पं०२०-पीसं असमाहिट्ठाणा १ एगवीसं सबला २ तेत्तीसं आसावणातो ३ अढविहा गणिसंपया ४ यस चित्तसमाहिहाणा ५ पगारस भवासगपडिमातो ६ वारस मिक्खुपडिमातो ७ पजोसवणा कप्पो ८ तीसं मोहणिजहाणा ९ आजाइहाणं १०६ । पण्हावागरणवसाणं दस अझयणा पं० ०-उवमा १ संखा २ इसिभासियाई ३ आयरियभासिताई ४ महावीरभासिआई५ खोमगपसिणाई ६ कोमलपसिणाई ७ अदागपसिणाई ८ अंगुटुपसिणाई ९ बाहुपसिणाई १०.७ । बंधवंसाणं बस अझयणा पं० सं०-धे १ व मोक्खे २ य देवद्धि ३ दसारमंडलेवित ४ आयरियविष्पडिवत्ती ५ वझावविपरिवत्ती ६ भावणा ७ विमुची ८ सातो ९ कम्मे १०-८ । दोगेहिदसाणं दस अज्झयणा पं० २०-वाते १ विवाते २ उववाते ३ मुक्खित्ते कसिणे ४ वायालीसं सुमिणे ५ तीसं महासुमिणा ६ बावत्तरि सव्वसुमिणा ७ हारे ८ रामे ९ गुत्ते १० एमेते दस आदिवा ९। दीहदसाणं दस अज्झयणा पं० तं०-चंदे १ सूरते २ सुके ३ त सिरिदेवी ४ पभावती ५ दीव गाथा: ** SCSSC * दीप अनुक्रम [९६६-९७६] व्या०८५ GASGle Gaindiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1014~ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ५०६ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५५] + गाथा: उद्देशक [-1, Education Intimation स्थान [१०], १० स्थाना. उद्देशः ३ छद्मथेत राज्ञेय याः कर्मविपाकदशाद्याः समुहोबती ६ बहुपुत्ती ८ मंदति व ९ मेरे संभूतविजते ८ थेरे पन्छ ९ ऊसासनीसासे १०-१० । संसेवितदसार्ण दस या पं० [सं० सुडिया विमाणपविभत्ती १ महडिया विमाणपविभत्ती २ अंगचूलिया ३ नमाचूलिया ४ विवा हलिया ५ अरुणोदवाते ६ वरुणोववार ७ गहलोदवाते ८ वेलंधरोचवाते ९ वेसमणोववाते १०-११ (सू० ७५५) दस सागरोवमकोडाकोडीओ काठो उस्सप्पिणीते दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसंपिणीते (सू० ७५६) 'दसे त्यादि गतार्थ, नवरं छद्मस्थ इह निरतिशय एव द्रष्टव्योऽन्यथाऽवधिज्ञानी परमाण्वादि जानात्येव, 'सव्वभावेणं' ति सर्वप्रकारेण स्पर्शरसगन्धरूपज्ञानेन घटमिवेत्यर्थः, धर्मास्तिकायं यावत्करणादधर्मास्तिकायं आकाशास्ति कार्यं जीवमशरीरप्रतिबद्धं परमाणुपुद्गलं शब्दं गन्धमिति, 'अय' मित्यादि द्वयमधिकमिह तत्रायमिति - प्रत्यक्षज्ञानसाक्षारकृतो 'जिन' केवली भविष्यति न वा भविष्यतीति नवमं तथाऽयं 'सव्वे' त्यादि प्रकटं दशममिति । एतान्येव ४ सू० ७५५छडास्थानवबोध्यानि सातिशयज्ञानादित्वाजिनो जानातीति, आह च- 'एयाई' इत्यादि, यावत्करणात् 'जिणे अरहा केवली सव्वण्णू सव्यभावेण जाणइ पासइ, तंजहा-धम्मत्धिकाय' मित्यादि, यावद्दशमं स्थानं तथोक्तमेवेति । सर्वज्ञत्वादेव यान् जिनोऽतीन्द्रियार्थप्रदर्शकान् श्रुतविशेषान् प्रणीतवांस्तान् दशस्थानकानुपातिनो दर्शयन्नाह - 'दस दसे- ४ त्याद्येकादश सूत्राणि, तत्र 'दस' त्ति दशसङ्ख्या 'दसाउति दशाधिकाराभिधायकत्वाद्दशा इति बहुवचनान्तं खीलिङ्गं शास्त्रस्याभिधानमिति, कर्म्मणः - अशुभस्य विपाकः फलं कर्मविपाकः तत्प्रतिपादिका दशाध्ययनात्मकत्वादशाः कर्म्मविपाकदशाः, विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धः, द्वितीयश्रुतस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मक एव, न चा ७५६ ॥ ५०६ ॥ Forsy www.g मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~1015~ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] साविहाभिमतः, उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्वादिति, तथा साधून उपासते-सेवन्त इत्युपासका:-श्रावकास्तगतक्रियाकलापप्रतिबद्धाः दशा-दशाध्ययनोपलक्षिता उपासकदशाः सप्तममङ्गमिति, तथा अन्तो-विनाशः स च कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो यैस्तेऽन्तकृतः ते च तीर्थकरादयस्तेषां दशाः अन्तकृद्दशा, इह चाष्टमाङ्गस्य प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्सङ्ख्ययोपलक्षितत्वादन्तकृद्दशा इत्यभिधानेनाष्टममनमभिहितं, तथा उत्तर-प्रधानो नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरः उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः अनुत्तरश्चासाचुपपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिख्या| दिविमानपञ्चकोपपातिन इत्यर्थस्तद्वक्तव्यताप्रतिवद्धा दशा-दशाध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशाः नवममङ्गमिति, तथा चरणमाचारो ज्ञानादिविषयः पश्चधा आचारप्रतिपादनपरा दशा-दशाध्ययनामिका आचारदशा, दशाश्रुतस्कन्ध इति या रूढाः, तथा प्रश्नाच-पृच्छाः व्याकरणानि च-निर्वचनानि प्रश्नव्याकरणानि तत्प्रतिपादिका दशाः-दशाध्ययनात्मिकाः प्रश्नव्याकरणदशाः दशममङ्गमिति, तथा बन्धदशाद्विगृद्धिदशादीर्घदशासङ्गेपिकदशाश्चास्माकमप्रतीता इति । कर्मविपाकदशानामध्ययनविभागमाह-कम्मे'त्यादि, 'मिगे'त्यादि श्लोकः सार्ब, मृगा-मृगग्रामाभिधाननगरराजस्य विजयनानो भार्या तस्याः पुत्रो मृगापुत्रः, तत्र किल नगरे महावीरो गौतमेन समवसरणागतं जात्यन्धनरमवलोक्य पृष्टो-भदन्त ! अन्योऽपीहास्ति जात्यन्धो?, भगवांस्तं मृगापुत्रं जात्यन्धमनाकृतिमुपदिदेश, गौतमस्तु कुतूहलेन तद्दर्शनार्थं तदहं जगाम, मृगादेवी च वन्दित्वाऽऽगमनकारणं पप्रच्छ, गौतमस्तु त्वत्पुत्रदर्शनार्थमित्युवाच, ततः सा भूमिगृहस्थं तदुद्घाटनतस्तं गौतमस्य दर्शितवती, गौतमस्तु तमतिघृणास्पदं दृष्ट्वाऽऽगत्य च भगवन्तं पप्रच्छ गाथा: - दीप अनुक्रम - [९६६ - -९७६] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1016~ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] हात्तः प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] विपाकद श्रीस्थाना- कोऽयं जन्मान्तरेऽभवत्, भगवानुवाच-अयं हि विजयवर्द्धमानकाभिधाने खेटे मकायीत्यभिधानो लंचोपचारादि- १०स्थाना. |भिर्लोकोपतापकारी राष्ट्रकूटो बभूष, ततः पोडशरोगातङ्काभिभूतो मृतो नरकं गतः, ततः पापकर्मविपाकेन मृगापुत्रो || उसूत्र | उद्देशः३ लोटाकारोऽव्यकेन्द्रियो दुर्गन्धिर्जातः, ततो मृत्वा नरकं गन्ता इत्यादि तद्वक्तव्यताप्रतिपादकं प्रथममध्ययनं मृगापुत्र-18 | छद्मस्थेत॥५०७॥ मुक्तमिति १, 'गोत्तासे'त्ति गोस्वासितवानिति गोत्रासः, अयं हि हस्तिनागपुरे भीमाभिधानकूटग्राहस्योत्पलाभिधानापाः भार्यायाः पुत्रोऽभूत्, प्रसवकाले चानेन महापापसत्त्वेनाराव्या गावस्त्रासिता, यौवने चायं गोमांसान्यनेकपा याः कर्मभक्षितवान् ततो नारको जातः, ततो वाणिजग्रामनगरे विजयसार्थवाहभद्राभार्ययोरुज्झितकाभिधानः पुत्रो जातः,8 स च कामध्वजगणिकार्थे राज्ञा तिलशो मांसच्छेदनेन तत्वादनेन च चतुष्पधे विडम्ब्य व्यापादितो नरकं जगामेति । | शाद्याः गोत्रासवक्तव्यताप्रतिवद्धं द्वितीयमध्ययनं गोत्रासमुच्यते, इदमेव चोज्झितकनाना विपाकश्रुते उज्झितकमुच्यते २ सू०७५५ ७५६ 'अंडे'त्ति पुरिमतालनगरवास्तव्यस्य कुकुटाद्यनेकविधाण्डकभाण्डव्यवहारिणो वाणिजकस्य निन्नकाभिधानस्य पापवि-13/ तपाकप्रतिपादकमण्डमिति, स च निन्नको नरकं गतस्तत उद्भुत्तोऽभग्नसेननामा पल्लीपतिर्जातः, स च पुरिमतालनगर वास्तव्येन निरन्तरं देशलूषणातिकोपितेन विश्वास्याऽऽनीय प्रत्येक नगरचत्वरेषु तदग्रतः पितृव्यपितृव्यानीप्रभृतिकं खज नवर्ग विनाश्य तिलशो मांसच्छेदनरुधिरमांसभोजनादिना कदर्थयित्वा निपातित इंति, विपाक श्रुते चाभग्नसेन इतीदद मध्ययनमुच्यते ३, 'सगडेत्ति यावर शकटमिति चापरमध्ययन, तत्र शाखांजन्यां नगर्या सुभद्राख्यसार्थवाहभद्रा-पा भिधानतद्भार्ययोः पुत्रः शकटः, स च सुसेनाभिधानामात्येन सुदर्शनाभिधानगणिकाव्यतिकरे सगणिको मांसच्छेदा MARAVADIC गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1017~ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [७५६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], दिनाऽत्यन्तं कदर्थयित्वा विनाशितः, स च जन्मान्तरे छगलपुरे नगरे छन्निकाभिधानः छागलिको मांसप्रिय आसीदित्येतदर्थप्रतिबद्धं चतुर्थमिति ४, 'माहणे'त्ति कोशाम्यां बृहस्पतिदत्तनामा ब्राह्मणः स चान्तःपुरव्यतिकरे उदयनेन राज्ञा तथैव कदर्थयित्वा मारितो जन्मान्तरे चासावासीत् महेश्वरदत्तनामा पुरोहितः, स च जितशत्रो राज्ञः शत्रुजयार्थ ब्राह्मणादिभिर्होमं चकार, तंत्र प्रतिदिनमेकैकं चातुर्वर्ण्यदारकमष्टम्यादिषु द्वौ द्वौ चतुर्मास्यां चतुरश्चतुरः षण्मा| स्यामष्टावष्टौ संवत्सरे पोडश २ परचक्रागमे अष्टशतं २ परचक्रं च जीयते, तदेवं मृत्वाऽसौ नरकं जगामेत्येवंत्राह्मणवक्तव्यतानिबद्धं पञ्चममिति ५, 'नन्दिसेणे य'त्ति मधुरायां श्रीदामराजसुतो नंदिषेणो युवराजो विपाकश्रुते च नन्दिवर्द्धनः श्रूयते स च राजद्रोहव्यतिकरे राज्ञा नगरचत्वरे तप्तस्य लोहस्य द्रवेण स्नानं तद्विधसिंहासनोपवेशनं क्षारतैलभृतकलशे राज्याभिषेकं च कारयित्वा कष्टमारेण परासुतां नीतो नरकमगमत् स च जन्मान्तरे सिंहपुरनगरराजस्य सिंहरथाभिधानस्य दुर्योधननामा गुष्ठिपालो बभूव अनेकविधयातनाभिर्जनं कदर्थयित्वा मृतः नरकं गतवानित्येवमर्थे षष्ठमिति ६, 'सोरियत्ति शौरिकनगरे शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धपुत्रः, स च मत्स्यमांसप्रियो गलवलग्नमत्स्य कण्टको महाकष्टमनुभूय मृत्वा नरकं गतः, स च जन्मान्तरे नन्दिपुरनगरराजस्य मित्राभिधानस्य श्रीको नाम महानसिकोऽभूत् जीवघातरतिः मांसप्रियश्च, मृत्वा चासौ नरकं गतवानिति सप्तमं इदं चाध्ययनं विपाकश्रुतेऽष्टममधीतं ७, 'उदुम्बरे'त्ति पाडलीषण्डे नगरे सागरदत्तसार्थवाहसुतः उदुम्बरदत्तो नाम्नाऽभूत् स च पोडशभिरोगेरे कदाभिभूतो महाकष्टमनुभूय मृतः, स च जन्मान्तरे विजयपुरराजस्य कनकरथनाम्नो धन्वन्तरिनामा वैद्य For Fast Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 1018~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ibrary.org Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत सुत्रांक [७५४-७५६] श्रीस्थाना- आसीत् मांसप्रियो मांसोपदेष्टा चेतिकृत्वा नरकं गतवानित्यष्टमं ८, 'सहसुहात्ति सहसा-अकस्माद्दाहः-प्रकृष्टो | १.स्थाना. भदाहः सहसोहाहः सहस्राणां वा लोकस्योद्दाहः सहस्रोदाहा, 'आमलए'त्ति रश्रुतेलश्रुतिरित्यामरका-सामस्त्येम मारिः, | उद्देशः ३ एवमर्थप्रतिवद्ध नवम, तत्र किल सुप्रतिष्ठे नगरे सिंहसेनो राजा श्यामाभिधानदेव्यामनुरक्तस्तद्वचनादेवैकोनानि छद्मस्थेतपञ्च शतानि देवीनां तां मिमारयिषूणि ज्ञात्वा कुपितः सम् तन्मावणामेकोनपञ्चशतान्युपनिमाय महत्यगारे आवास | राज्ञेयज्ञे॥५०८॥ दत्त्वा भक्कादिभिः संपूण्य विश्रब्धानि सदेवीकानि सपरिवाराणि सर्वतो द्वारवन्धनपूर्वकमग्निप्रदानेन दग्धवान् ततो- याः कर्मIsसी राजा मूत्वा च पठ्यां गत्वा रोहीतके नगरे दत्तसार्थवाहस्य दुहिता देवदत्ताभिधानाऽभवत् सा च पुष्पम- विपाकदKIम्दिना राज्ञा परिणीता स च मातुर्भक्तिपरतया तत्कृत्यानि कुर्वन्नासामास तया च भोगविनकारिणीति तन्मातुचल-II शाज्ञा लोहदण्डस्यापानप्रक्षेपात्सहसा दाहेन वधो व्यधायि राज्ञा चासौ विविधविडम्बनाभिविंडस्थ्य विनाशितेति विपाकश्रुते सू०७५५देवदत्ताभिधानं नवममिति ९, तथा 'कुमारे लेच्छई इय'त्ति कुमारा-राज्याहार, अथवा कुमारा:-प्रथमवयस्थास्तान४ ७५६ |'लेच्छई इय'त्ति लिप्सूच-वणिज आश्रित्य दशममध्ययनमितिशब्दश्च परिसमाप्तौ भिशकमक्ष, अयमत्र भावार्थ:-यदुत इन्द्रपुरे नगरे पृथिवीश्रीनामगणिकाऽभूत्, सा च बहून् राजकुमारवणिक्पुत्रादीन् मन्त्रचूर्णादिभिर्वशीकृत्योदारान् भोगान् भुक्तवती षठ्यां च गत्वा बर्द्धमाननगरे धनदेवसार्थवाहदुहिता अख़रित्यभिधाना जाता सा च विजयराजपरिणीता योनिशूलेन कृच्छं जीवित्वा नरकं गतेति, अत एव विपाकभुते अन इति दशममध्ययनमुच्यत इति |१०॥ उपासकदशा विवृण्वन्नाह बसें'त्यादि, 'आनन्दे' सार्थः श्लोका, 'आमंसि आनन्दो वाणिजप्रामाभिधा गाथा: 595% दीप अनुक्रम [९६६-९७६] JABERatinintamational marwjanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1019~ Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] Educate "स्थान" स्थान [१०], - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६ ] उद्देशक [-], ननगरवासी महर्द्धिको गृहपतिर्महावीरेण घोषित एकादशोपासकप्रतिमाः कृत्वोत्वनावधिज्ञानो मासिक्या संलेखनया सौधर्ममगमदिति वक्तव्यताप्रतिबद्धं प्रथममध्ययनं आनन्द एवोच्यत इति १, 'कामदेवे 'ति कामदेवश्चम्पानगरीवास्तव्यस्तथैव प्रतिबुद्धः परीक्षा कारिदेवकृतोपसर्गाविचलितप्रतिज्ञस्तथैव दिवमगमदित्येवमर्थं द्वितीयं कामदेव इति २, 'गाहावह चूलणीपिय'त्ति चुलनीपितृनाम्ना गृहपतिर्वाणारसीनिवासी तथैव प्रतिबुद्धः प्रतिपन्नप्रतिमो विमर्शकदेवेन मातरं त्रिखण्डीक्रियमाणां दृष्ट्वा क्षुभितश्चलितप्रतिज्ञो देवनिग्रहार्थमुद्दधाव पुनः कृतालोचनस्तथैव दिवं गत इतिवकव्यताप्रतिबुद्धं चुलनीपितेत्युच्यते ३, 'सुरादेवे'त्ति सुरादेवो गृहपतिर्वाराणसी निवासी परीक्षकदेवस्य षोडश रोगातङ्कान् भवतः शरीरे समकमुपनयामि यदि धर्म न त्यजसीतिवचनमुपश्रुत्य चलितप्रतिज्ञः पुनरालोचितप्रतिक्रान्तस्तथैव ||दिवं गत इतिवक्तव्यताभिधायकं सुरादेव इति ४, 'चुल्लसयए'त्ति महाशतकापेक्षया लघुः शतकः चुल्लशतकः, स चालम्भिकानगरवासी देवेनोपसर्गकारिणा द्रव्यमपहियमाणमुपलभ्य चलितप्रतिज्ञः पुनर्निरतिचारः सन् दिवमगमद् यथा तथा यत्राभिधीयते तचुलशतक इति ५, 'गाहावइ कुंडकोलिएत्ति कुंडकोलिको गृहपतिः काम्पील्यवासी धर्मध्यानस्थो यथा देवस्य गोशालकमतमुद्राहयत उत्तरं ददौ दिवं च ययौ तथा यत्र अभिधीयते तत्तथेति ६, 'सद्दालपुते त्ति सहालपुत्रः पोलासपुरवासी कुम्भकारजातीयो गोशालकोपासको भगवता बोधितः पुनः स्वमतग्राहणोद्य तेन गोशाल केनाक्षोभितान्तःकरणः प्रतिपन्नप्रतिमश्च परीक्षकदेवेन भार्यामारणदर्शनतो भग्नप्रतिज्ञः पुनरपि कृतालोचनस्तथैव दिवं गत इतिवतव्यताप्रतिबद्धं सद्दालपुत्र इति ७, 'महासयपत्ति महाशतकानाम्नो गृहपते राजगृहनगरनि For Final P मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~1020~ cibrary org Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥५०९॥ वासिनस्त्रयोदशभार्यापतेरुपासकप्रतिमाकृतमतेरुत्पन्नावधिसंजाताधिगते रेवत्यभिधानस्वभार्याकृतानुकूलोपसर्गाचलमतेः १० स्थाना. संलेखनाजातदिविगतर्वक्तव्यतानिवद्धं महाशतक इति ८, 'नंदिणीपिय'त्ति नन्दिनीपितॄनामकस्य श्रावस्तीवास्तव्यस्य उद्देशः३ भगवता बोधितस्य संलेखनादिगतस्य वक्तव्यतानिवन्धनान्नंदिनीपितृनामकमिति ९, 'सालइयापिय'त्ति सालइ-हैं। छद्मस्खेतकापितॄनाम्नः श्रावस्तीनिवासिनो गृहमेधिनो भगवतो बोधिलाभिनोऽनन्तरं तथैव सौधर्मगामिनो वक्तव्यतानिबद्धं राज्ञेयजेसालेपिकापितॄनामकं दशममिति १० दशाप्यमी विंशतिवर्षपर्यायाः सौधर्मे गताश्चतुःपल्योपमस्थितयो देवा जातायाः कर्ममहाविदेहे च सेत्स्यन्तीति ॥ अथान्तकृद्दशानामध्ययनविवरणमाह-अंतगडे'त्यादि, इह चाष्टौ वर्गास्तत्र प्रथमवर्गे विपाकददशाध्ययनानि, तानि चामूनि-नमी'त्यादि साई रूपकम् , एतानि च नमीत्यादिकान्यन्तकृत्साधुनामानि अन्तकृद्दशा-12 शाद्याः अप्रथमवर्गेऽध्ययनसङ्घहे नोपलभ्यन्ते, यतस्तत्राभिधीयते-"गोयम १ समुद्द २ सागर ३ गंभीरे ४ चेव होइ थिमिए ५ यासू०७५५अयले ६ कपिल्ले ७ खलु अक्खोभ ८ पसेणई ९ विण्हू १०॥१॥" इति [गौतमः १ समुद्रः २ सागरः ३ गंभीर ४ चैव भवति स्तिमितश्च ५ अचलः ६ कांपील्यः ७ अक्षोभ्यः ८ प्रसेनजित् ९ विष्णुः १० ॥१॥] ततो वाचनान्तरापेक्षाणीमानीति सम्भावयामः, न च जन्मान्तरनामापेक्षयैतानि भविष्यन्तीति वाच्यं, जन्मान्तराणां तत्रानभिधीयमानत्वादिति ॥ अधुनानुत्तरोपपातिकदशानामध्ययनविभागमाह-'अणुत्तरों इत्यादि, इह च यो वास्तत्र तृतीयवर्गे दृश्यमानाध्ययनैः। कैश्चित् सह साम्यमस्ति न सर्वैः, यत इहोक्तम्-'इसिदासे'त्यादि, तत्र तु दृश्यते-“धन्ने य सुनक्खत्ते, इसिदासे |य आहिए । पेल्लए रामपुत्ते य, चंदिमा पोट्टिके इय ॥१॥ पेढालपुत्ते अणगारे, अणगारे पोट्टिले इय । विहल्ले दसमे वुत्ते, गाथा: दीप अनुक्रम [९६६-९७६] हा॥५०९॥ C+Coo wwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~1021~ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] SHएमए दस आहिया ॥२॥” इति [धन्यश्च सुनक्षत्रः ऋषिदासश्चाख्यातः पेल्लको रामपुत्रश्चंद्रमाः प्रोष्ठक इति ॥शा पेढालपु नोऽनगारः पोट्टिलश्च विहल्लः दशम उक्तः एवमेते आख्याता दश ॥२॥] तदेवमिहापि वाचनान्तरापेक्षयाऽध्ययनवि-18 भाग उक्तो न पुनरुपलभ्यमानवाचनापेक्षयेति, तत्र धन्यकसुनक्षत्रकथानके एवं-काकन्यां नगर्यो भद्रासार्थवाहीसुतो धन्यको नाम महावीरसमीपे धर्ममनुश्रुत्य महाविभूत्या प्रबजितः षष्ठोपवासी उज्झ्यमानलब्धाचाम्लपारणो विशिष्टत-10 पसा क्षीणमांसशोणितो राजगृहे श्रेणिकमहाराजस्य चतुर्दशानां श्रमणसहस्राणां मध्येऽतिदुष्करकारक इति महावीरेण व्याहृतस्तेन च राज्ञा सभक्तिकं वन्दित उपबृंहितश्च कालं च कृत्वा सर्वार्थसिद्धविमान उखन्न इति, एवं सुनक्षत्रोऽपीति, कार्तिक इति हस्तिनागपुरे श्रेष्ठी इभ्यसहस्रप्रथमासनिकः श्रमणोपासको जितशत्रुराजस्याभियोगाच्च परिव्राजकस्य IIमासक्षपणपारणके भोजनं परिवेषितवान् तमेव निर्वेदं कृत्वा मुनिसुव्रतस्वामिसमीपे प्रत्रयां प्रतिपन्नवान् द्वादशाङ्ग धरो भूत्वा शक्रत्वेनोसन्न इत्येवं यो भगवत्यां श्रूयते सोऽन्य एव अयं पुनरन्योऽनुत्तरसुरेखूपपन्न इति, 'शालिभद्र इति यः पूर्वभवे सङ्गमनामा वत्सपालोऽभवत् , सबहुमानं च साधवे पायसमदात् , राजगृहे गोभद्रश्रेष्ठिनः पुत्रत्वेनोत्पन्नो, देवीभूतगोभद्रवेष्ठिसमुपनीतदिव्य भोजनवसन कुसुमविलेपनभूषणादिभिर्भोगाडैरङ्गनानां द्वात्रिंशता सह सप्तभूमिकरम्यहऱ्यातलगतो ललति स्म, वाणिजकोपनीतलक्षमूल्यबहुरत्नकम्बला गृहीता भद्रया शालिभद्रमात्रा वधूनां पादप्रोञ्छनीकृताश्चेतिश्रवणाजातकुतूहले दर्शनार्थ गृहमागते श्रेणिकमहाराजे जनन्याऽभिहितो-यथा त्वां खामी द्रष्टुमिच्छतीत्यवतर प्रासादशृङ्गात् स्वामिनं पश्येतिवचनश्रवणादस्माकमप्यन्यः स्वामीति भावयन् वैराग्यमुपजगाम गाथा: दीप अनुक्रम [९६६-९७६] 294-9-964 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1022~ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) असच-tla प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] श्रीस्थाना- बर्द्धमामखामिसमीपे च प्रवधाज, विकृष्टतपसा क्षीणदेहः शिलातले पादपोपगमनविधिनाऽनुत्तरसुरेपूत्पशवानिति १० स्थाना. सोऽयमिह सम्भाव्यते, केवलमनुत्तरोपपातिकाी नाधीत इति, 'तेतलीतिय'ति तेतलिसुत इति यो ज्ञाताध्ययने उद्देशः ३ वृत्तिः श्रूयते, स नायं, सस्य सिद्धिगमनश्रवणात , तथा दशार्णभद्रो दशार्णपुरनगरवासी विश्वंभराविभुः यो भगवन्तं महा- छद्मस्थेत वीरं दशार्णकूटनगरनिकटसमवसतमुखानपालवचनादुपलभ्य यथा न केनापि वन्दितो भगवांस्तथा मया वन्दनीय राज्ञेयज्ञे॥५१०॥ इति राज्यसम्पदवलेषाद्भक्तितश्च चिन्तयामास, ततः प्रातः सविशेषकृतस्नानविलेपनाभरणादिविभूपः प्रकल्पितप्रधान- या कर्मद्विपपतिपृष्ठाधिरुढो वल्गनादिविविधक्रियाकारिसदपसर्पच्चतुरङ्गसैन्यसमन्वितः पुष्पमाणवसमुधुष्यमाणामणितगु-IPाविपाकदणगणः सामन्तामात्यमन्त्रिराजदौवारिकदूतादिपरिवृतः सान्तःपुरपौरजनपरिगत आनन्दमयमिव सम्पादयम् मही-18I शाद्या मण्डलमाखण्डल इवामरावत्या नगरानिर्जगाम निर्गत्य च समवसरणमभिगम्य यथाविधि भगवन्तं भव्यजननलिन- सू०७५५ बनविवोधनाभिनवभानुमन्तं महाचौरं वन्दित्वोपविवेश, अवगतदशार्णभद्रभूपाभिप्राय च तन्मानविनोदनोधर्व कृता-II ७५६ काष्टमुखे प्रतिमुखं विहिताष्टदन्ते प्रतिदन्तं कृताष्टपुष्करिणीके प्रतिपुष्करिणि निरूपिताष्टपुष्करे प्रतिपुष्करं विरचि ताष्टदले प्रतिदलं विरचितद्वात्रिंशद्बद्धनाटके वारणेन्द्रे समारूढं स्वश्रिया निखिलं गगनमण्डलमारपूरबन्तममरपतिमवलोक्य कुतोऽस्मादृशामीहशी विभूतिः कृतोऽनेन निरवद्यो धर्म इति ततोऽहमपि सं करोमीति विभाव्य प्रवनाज, जितोऽहमधुना खयेति भणित्वा यमिन्द्रःप्रणिपातेति सोऽयं दशार्णभद्रः सम्भाव्यते परमनुत्तरोपपातिका माधीता, कचित्सिद्धश्च श्रूयत इति, तथा अतिमुक्ता एवं श्रूयते अन्तकृदशाओं-पोलासपुरे नगरे विजयस्य राजः श्रीमाझ्या गाथा: दीप अनुक्रम [९६६-९७६] JABEnatural Handiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~1023~ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] देव्या अतिमुक्तको नाम पुत्रः पवार्षिको गौतमं गोचरगतं दृष्ट्वा एवमवादीत्-के यूयं किं वा अटथ!, ततो गीतमोऽवादीत्-श्रमणा वयं भिक्षार्थं च पर्यटामः, तर्हि भदन्तागच्छत तुभ्यं भिक्षां दापयामीति भणित्वा अङ्गल्या भगवन्तं गृहीत्वा स्वगृहमानैषीत्, ततः श्रीदेवी हृष्टा भगवन्तं प्रतिलम्भयामास, अतिमुक्तका पुनरवोचत्-यूयं क सथ, भगवानुवाच-भद्र! मम धर्माचार्याः श्रीवर्द्धमानस्वामिन उद्याने वसंति तत्र वयं परिवसामा, भदन्त ! आगच्छाम्यह भवद्भिः सार्धं भगवतो महावीरस्य पादान् वन्दितुं', गौतमोऽवादीत्-यथासुखं देवानां प्रिय!, ततो गौतमेन सहागत्यातिमुक्तकः कुमारो भगवन्तं वन्दते, स धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद्धो गृहमागत्य पितरावब्रवीत् यथा संसारान्निविष्णोऽहं अनजामीत्यनुजानीतं मां युवां, तावूचतुः-बाल! त्वं किं जानासि ?, ततोऽतिमुक्ककोऽवादीत्-हे अम्बतात! यदेवाह जानामि तदेव न जानामि, यदेव न जानामि तदेव जानामि, ततस्ती तमवादिष्टां-कथमेतत् ?, सोऽब्रवीत्-अम्बतात। जानाम्यहं यदुत-जातेनावश्यं मर्त्तव्यं, न जानामि तु कदा वा कस्मिन् वा कथं वा फियश्चिराद्वा, तथा न जानामि | कैः कर्मभिर्निरयादिषु जीवा उत्पद्यन्ते एतत्पुनर्जानामि यथा स्वयंकृतैः कर्मभिरिति, तदेवं मातापितरौ प्रतिबोध्य प्रवत्राज तपः कृत्वा च सिद्ध इति, इह स्वयमनुत्तरोपपातिकेषु दशमाध्ययनतयोक्तस्तदपर एवायं भविष्यतीति, 'दस आहिय'त्ति दशाध्ययनान्याख्यातानीत्यर्थः ॥ आचारदशानामध्ययनविभागमाह-आयारे'त्यादि, असमाधिः-ज्ञानादिभाषप्रतिषेधोऽप्रशस्तो भाव इत्यर्थः तस्य स्थानानि-पदानि असमाधिस्थानानि-बैरासेवितैरात्मपरोभयानामिह परब चोभयत्र वा असमाधिरुत्पद्यते तानीति भावः, तानि च विंशतिः दुतचारित्वादीनि तत वावगम्यानीति, सत्यतिपादकम-13 गाथा: दीप अनुक्रम [९६६-९७६] aindiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1024 ~ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] श्रीस्थाना- ध्ययनमसमाधिस्थानानीति प्रथम, तथा एकविंशतिः 'शवलाः' शबलं-कबुरं द्रव्यतः पटादि भावतः सातिचारं चारित्रं, १० स्थाना. सूत्र- भाइह च शबल चारित्रयोगाच्छबलास्साधवस्ते च करकर्मप्रकारान्तरमैधुनादीन्येकविंशतिपदानि तवैवोक्तरूपाणि सेव- उद्देशः ३ वृत्तिः माना उपाधित एकविंशतिर्भवन्ति तदर्थमध्ययनं एकविंशतिशबला इत्यभिधीयते २, 'तेत्तीसमासायणा'त्ति ज्ञाना- छद्मस्थेत दादिगुणा आ-सामस्त्येन शात्यन्ते-अपध्वस्यन्ते यकाभिस्ता आशातना-रत्नाधिकविषयाविनयरूपाः पुरतोगमनादिका-1|| राज्ञेयजे॥५११॥ स्तत्प्रसिद्धास्त्रयस्त्रिंशद्देदा यत्राभिधीयन्ते तदध्ययनमपि तथोच्यत इति ३, 'अट्टे'त्यादि, अष्टविधा गणिसम्पत् आ- याः कर्मचारश्रुतशरीरवचनादिका आचार्यगुणरिष्ट स्थानकोकरूपा यत्राभिधीयते तदध्ययनमपि तथोच्यत इति ४, 'दसे- विपाकदत्यादि, दश चित्तसमाधिस्थानानि येषु सत्सु चित्तस्य प्रशस्तपरिणतिर्जायते तानि तथा, असमुत्पन्नपूर्वकधर्मचिन्तोत्सा-FI शाद्याः दादीनि तत्रैव प्रसिद्धान्यभिधीयन्ते यत्र तत्तथैवोच्यत इति ५, 'एक्कारे त्यादि, एकादशोपासकानां-श्रावकाणां प्रतिमा सू०७५५-प्रतिपत्तिविशेषाः दर्शनव्रतसामायिकादिविषयाः प्रतिपाद्यन्ते यत्र तत्तथैवोच्यत इति ६, 'बारसेत्यादि, द्वादश भिक्षूणां || ७५६ प्रतिमा:-अभिग्रहा मासिकीद्विमासिकीप्रभृतयो यत्राभिधीयन्ते तत्तथोच्यते, 'पजों' इत्यादि, पर्याया ऋतुवद्धिका द्र व्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धिन उत्सृज्यन्ते-उज्झ्यन्ते यस्यां सा निरुतविधिना पर्यासवना अथवा परीति-सर्वतः क्रोधादिभावेभ्यः उपशम्यते यस्यां सा पर्युपशमना अथवा परि:-सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्ततिदिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान वसनं निरुकादेव पर्युषणा तस्याः कल्प:-आचारो मर्यादेत्यर्थः पर्योसवनाकल्पः पर्युपशमनाकल्पः पर्युषणाकल्पो वेति, 5॥५११॥ स च 'सकोसजोयणं विगइनवय'मित्यादिकस्तत्रैव प्रसिद्धस्तदर्थमध्ययनं स एवोच्यत इति ८, 'तीसमित्यादि, त्रिंश-I गाथा: SASEAN दीप अनुक्रम [९६६-९७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1025~ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] स्थान ८६ Education! "स्थान" स्थान [१०], - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६ ] उद्देशक [-], | न्मोहनीय कर्मणो वन्धस्थानानि-बन्धकारणानि 'वारिमन्झेऽवगाहिता, तसे पाणे विहिंसईत्यादिकानि तत्रैव प्रसिद्धानि | मोहनीयस्थानानि तत्प्रतिपादकमध्ययनं तथैवोच्यत इति ९, 'आजाइट्ठाण' मिति आजननमाजातिः - सम्मूर्च्छनगमोंपपाततो जन्म तस्याः स्थानं संसारस्तत्सनिदानस्य भवतीत्येवमर्थप्रतिपादन परमाजातिस्थानमुध्यत इति १० ॥ प्रश्नव्याकरणदशा इहोकरूपा न दृश्यन्ते दृश्यमानास्तु पञ्चाश्रवपञ्चसंवरात्मिका इति इहोकानां तूपमादीनामध्य यनानामक्षरार्थः प्रतीयमान एवेति, नवरं 'पसिणाई'ति प्रश्नविद्याः यकाभिः क्षौमकादिषु देवतावतारः क्रियत इति, तत्र क्षीमर्क-वस्त्रं अद्दागो- आदर्शः अङ्गुष्ठो हस्तावयवः बाहवो भुजा इति ॥ बन्धदशानामपि बन्धाद्यध्ययनानि श्रौतेनार्थेन व्याख्यातव्यानि । द्विगृद्धिदशाश्च स्वरूपतोऽप्यनवसिताः । दीर्घदशाः स्वरूपतोऽनवगता एव तदध्ययनानि तु कानिचिन्नरकावलिकाश्रुतस्कन्धे उपलभ्यन्ते तत्र चन्द्रवतव्यताप्रतिबद्धं चन्द्रमध्ययनं तथाहि - राजगृहे महावीरस्य चन्द्रो ज्योतिष्कराजो वन्दनं कृत्वा नाट्यविधिं चोपदर्श्य प्रतिगतो, गौतमश्च भगवन्तं तद्वक्तव्यतां पप्रच्छ, भगवांश्चोवाच श्रावस्त्यामङ्गजिनामा अयं गृहपतिरभूत् पार्श्वनाथसमीपे च प्रत्रजितो विराध्य च मनाक् श्रामण्यं चन्द्रतयो पन्नो महाविदेहे च सेत्स्यतीति, तथा सूरब कव्यताप्रतिबद्धं सूरं, सूरवकन्यता च चन्द्रवत्, नवरं सुप्रतिष्ठो नाम्ना बभूवेति, शुक्रो ग्रहस्तद्वक्तव्यता चैवं-राजगृहे भगवन्तं वन्दिखा शुके प्रतिगते गौतमस्य तथैव भगवानुवाच- बाणारस्यां | सोमिलनामा ब्राह्मणोऽयमभवत्, पार्श्वनाथं चापृच्छत्-ते भंते! जवणिज्जं', तथा 'सरिसवया मासा कुलत्थाय ते भोज्जा ? एगे भवं दुवे भव'मित्यादि, भगवता चैतेषु विभकेष्याक्षिप्तः श्रावको भूत्वा पुनर्विपर्यासादारामादि लौकिकच For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~1026~ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] ॥५१॥ मस्थानानि कारयित्वा दिक्पोक्षकतापसत्वेन प्रव्रज्य प्रतिषष्ठपारणकं क्रमेण पूर्वादिदिग्भ्य आनीय कन्दादिकमभ्यवज- स्थाना. हार, अन्यदाऽसौ यत्र वचन गर्नादौ पतिष्यामि तत्रैव प्राणांस्त्यक्ष्यामीत्यभिग्रहमभिगृह्य काष्ठमुद्रया मुखं बद्भा उत्त- उद्देशः ३ राभिमुखः प्रतस्थौ, तत्र प्रथमदिवसेऽपराह्नसमयेऽशोकतरोरधो होमादिकर्म कृत्वोवास, तत्र देवेन केनाप्युक्तः-अहो । छद्मस्थेतसोमिलब्राह्मणमहर्षे ! दुष्पवजितं ते, पुनर्द्वितीयेऽहनि तथैव सप्तपर्णस्याध उपित उक्तः, तृतीयादिषु दिनेष्वश्वत्थवटो- राज्ञेयज्ञेदुम्बराणामघ उषितः भणितो देवेन, ततः पञ्चमदिनेऽवादीदसौ-कथं नु नाम मे दुष्प्रनजितं?, देवोऽवोचत्-त्वं पार्श्व-IR याः कर्मनाथस्य भगवतः समीपेऽणुव्रतादिकं श्रावकधर्म प्रतिपद्याधुना अन्यथा वर्तस इति दुष्प्रनजितं तव, ततोऽद्यापि तमे- विपाकदवाणुनतादिकं धर्म प्रतिपद्यस्व येन सुप्रनजितं तव भवतीत्येवमुक्तस्तथैव चकार, ततः श्रावकत्वं प्रतिपाल्यानालोचित-2 शायाः प्रतिक्रान्तः कालं कृत्वा शुक्रावतंसके विमाने शुक्रत्वेनोत्पन्न इति । तथा श्रीदेवीसमाश्रयमध्ययनं श्रीदेवीति, तथाहि- सू०७५५सा राजगृहे महावीरवन्दनाय सौधर्मादाजगाम, नाट्यं दर्शयित्वा प्रतिजगाम च, गौतमस्तत्पूर्वभव पप्रच्छ, भगवास्त जगाद-राजगृहे सुदर्शनश्रेष्ठी बभूव प्रियाभिधाना च तद्भार्या तयोः सुता भूतानाम बृहत्कुमारिका पार्श्वनाथसमीपे प्रवजिता शरीरबकुशा जाता सातिचारा च मृत्वा दिवं गता महाविदेहे च सेत्स्यतीति । तथा प्रभावती-चेटकदुहिता वीतभयनगरनायकोदायनमहाराजभार्या यया जिनबिम्बपूजार्थं स्नानानन्तरं चेच्या सितवसनाप्पणेऽपि विभ्रमाद्रक्तवशासनमुपनीतमनवसरमनयेति मन्यमानया भन्युना दर्पणेन चेटिका हता मृता च, ततो पैराग्यादनशनं प्रतिपद्य देव-1 तया यया बभूवे, यया चोजयिनीराज प्रति विक्षेपेण प्रस्थितस्य ग्रीष्मे मासि पिपासाभिभूतसमस्तसैन्यस्योदायनमहारा-1 गाथा: st ७५६ दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] JABERatinintamational wwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1027~ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] जस्य स्वच्छशीतलजलपरिपूर्णत्रिपुष्करकरणेनोपकारोऽकारीत्येवंलक्षणप्रभावतीचरितयुक्तमध्ययन प्रभावतीति सम्भाव्यते, न चेदं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धे दृश्यत इति पञ्चम, तथा बहुपुत्रिकादेवीप्रतिबद्धं सैवाध्ययनमुच्यते, तथाहि राजगृहे महावीरवन्दनार्थं सीधाहहुपुत्रिकाभिधाना देवी समवततार, पन्दित्वा च प्रतिजगाम, केयमिति पृष्टे गौहै तमेन भगवानवादीत-वाराणस्यां नगर्यां भद्राभिधानस्य सार्थवाहस्य सुभद्राभिधाना भार्येयं बभूव, सा च वन्ध्या पुत्रार्थिनी भिक्षार्थमागतमार्यासंघाटकं पुत्रलाभ पप्रच्छ स च धर्ममचकयत् प्रात्राजीच्च, सा बहुजनापत्येषु प्रीत्याऽभ्य-| गोद्वर्तनापरायणा सातिचारा मृत्त्वा सौधर्ममगमत् , ततश्च्युता च विभेले सन्निवेशे ब्राह्मणीवेनोत्पत्स्यते, ततः पितृभागिनेयभार्या भविष्यति युगलप्रसवा च, सा षोडशभिर्वः द्वात्रिंशदपत्यानि जनयिष्यति, ततोऽसौ तन्निर्वेदादार्याः | प्रक्ष्यति ताश्च धर्म कथयिष्यन्ति श्रावकत्वं च सा प्रतिपत्स्यते, कालान्तरे प्रबजिष्यति, सौधर्मे चेन्द्रसामानिकतयोत्पद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति । तथा स्थविर:-सम्भूतविजयो भद्रबाहुस्वामिनो गुरुभ्राता स्थूलभद्रस्य सगडालपुत्रस्य दीक्षादाता तद्वक्तव्यताप्रतिवद्धमध्ययनं स एवोच्यत इति नवमं, शेषाणि वीण्यप्रतीतानीति । संक्षेपिकदशा अप्यनवग-1 तस्वरूपा एव, तदध्ययनानां पुनरयमर्थः-'खुड्डिए'त्यादि, इहावलिकाप्रविष्टेतरविमानप्रविभजनं यत्राध्ययने तद्विमानाविभक्तिः, तच्चैकमल्पग्रन्थार्थं तथाऽन्यन्महाग्रन्धार्थमतः क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिमहती विमानप्रविभक्तिरिति, अङ्गस्य -आचारादेश्चलिका यथाऽऽचारस्यानेकविधा, इहोक्तानुक्कार्थसाहिका चूलिका, 'बग्गचूलिय'त्ति इह च वर्गः-अध्ययनादिसमूहो, यथा अन्तकृदशास्वष्टौ वर्गास्तस्य चूलिका वर्गचूलिका, 'विवाहचूलिय'त्ति व्याख्या-भगवती तस्याथलिका गाथा: X- 24 दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1028~ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] प्रत सुत्रांक [७५४-७५६] तयश्च श्रीस्थाना- व्याख्याचूलिका, 'अरुणोपपात' इति इहारुणो नाम देवस्तत्समयनिबद्धो ग्रन्धस्तदुपपातहेतुररुणोपपातो, यदा तदध्ययनमु-₹१०स्थाना. हसूत्र पयुक्तः सन् श्रमणः परिवत्यति तदाऽसावरुणो देवः स्वसमयनिबद्धत्वाच्चलितासनः सम्धमोग्रान्तलोचनः प्रयुक्तावधिस्त-1Vउद्देशः ३ वृत्तिः द्विज्ञाय हष्टप्रहृष्टश्चलचपल कुण्डलधरो दिव्यया युत्या दिव्यया विभूत्या दिव्यया गत्या यत्रैवासी भगवान् श्रमणस्तत्रैवोपाग-18नारकभे च्छति, उपागत्य च भक्तिभरावनतवदनो विमुक्तवरकुसुमवृष्टिरवपतति, अवपत्य च तदा तस्य भ्रमणस्य पुरतः स्थित्वाादा स्थि॥५१३॥ अन्तर्हितः कृताञ्जलिक उपयुक्तः संवेगविशुद्यमानाध्यवसानः शृण्वंस्तिष्ठति, समाप्ते च भणति-सुस्वाध्यायितं सुस्वाध्या-1 ४.यितमिति, वरं वृणीष्य २ इति, ततोऽसाविहलोकनिपिपासः समतृणमणिमुक्तालेष्टुकाञ्चनः सिद्धिवधूनिर्भरानुगतचित्तः सू०७५७ |श्रवणः प्रतिभणति-न मे वरेणार्घ इति, ततोऽसावरुणो देवोऽधिकतरजातसंवेगः प्रदक्षिणां कृत्वा वन्दित्वा नमस्थित्वा प्रतिगच्छति, एवं वरुणोपपातादिष्वपि भणितव्यमिति । एवंभूतं च श्रुतं कालविशेष एव भवतीति दशस्थानकावतारि तत्स्वरूपमाह--'दसही'त्यादि सूत्रद्वयं सुगमं । यथोपाधिवशात् कालद्रव्यं भेदवत्तथा नारकादिजीवद्रव्याण्यपीत्याह दसविधा नेरश्या पं०२०-अणंतरोचवन्ना परंपरोववन्ना अणंतरावगाढा परंपरावगाढा अणंतराहारगा परंपराहारगा अणंतरपजत्ता परंपरपज्जत्ता चरिमा अचरिमा, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया २४ । चउत्थीते णं पंकप्पभाते पुढवीते दस निरतावाससतसहस्सा पं० १ रयणप्पभाते पुढबीते जहन्नेणं नेरतिताणं दसवाससहस्साई ठिती पं० २ पस्थीते गं पंकप्पभाते पुढधीते उकोसेणं नेरतिताणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णचा ३ पंचमाते णं धूमप्पमाते पुढवीते जहनेणं नेरइयाणं दस सागरोधमाई ठिती पं०४ असुरकुमाराणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ठिती पं०, एवं जाव थणियकुमाराणं १४ वाय गाथा: - दीप अनुक्रम [९६६-९७६] ॥ ५१३॥ - २ 1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~ 1029~ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५७] दीप अनुक्रम [९७७] "स्थान" स्थान [१०], - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [७५७ ] raणसतिकातिताणं उकोसेणं दसवाससहस्साई ठिती पं० १५ वाणमंतरदेवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साई ठिई पं० १६ भलोगे कप्पे उकोलेणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पं० १७ संतते कप्पे देवाणं जहणणेणं दस सागरोबमाई ठिती पं० १८ (सू० ७५७) 'दसविहे 'त्यादि, सूत्राणि चतुवैिशतिः, न विद्यते अन्तरं व्यवधानमस्येत्यनन्तरो - वर्त्तमानः समयः तत्रोपपन्नका अनन्तरोपपन्नकाः येषामुत्पन्नानामेकोऽपि समयो नातिक्रान्तस्त एत इति, येषां तूत्पन्नानां व्यादयः समया जातास्ते पर | म्परोपपन्नकाः परम्परसमयेषूपपन्नत्वात् तेषामित्ययं कालविशेषोपाधिकृतो भेदः, तथा विवक्षितप्रदेशापेक्षया अनम्तर - प्रदेशेष्ववगाढा अवस्थिता अनन्तरावगाढाः अथवा प्रथमसमयावगाढा :- अनन्तरावगाढा एतद्विलक्षणाः परम्पराव गाढाः, अयं क्षेत्रतो भेदः, तथा अनन्तरान् - अव्यवहितान् जीवप्रदेशैराक्रान्ततया स्पृष्टतया वा पुद्गलानाहारयन्तीत्यनन्तराहारकाः, ये तु पूर्व व्यवहितान् सतः पुद्गलान् स्वक्षेत्र मागतानाहारयन्ति ते परम्पराहारकाः, अथवा प्रथमसमयाहारका अनन्तराहारकाः इतरे खितरे, अयं तु द्रव्यकृतो भेद इति, न विद्यते पर्याप्तत्वेऽन्तरं येषां ते अनन्तरास्ते च ते पर्याप्तकाश्चेत्यनन्तरपर्याप्तकाः, प्रथमसमयपर्याप्तका इत्यर्थः इतरे तु परम्परपर्याप्तकाः, अयं भावकृतो भेदः, पर्याप्तेर्भावत्वादिति चरमनारकभवयुक्तत्वाश्चरमाः न पुनर्नारका भविष्यन्ति ये इति भावस्तद्विपरीता अचरमाः, अयमपि भावकृत एव भेदः, चरमाचरमत्वयोर्जीवपर्यायत्वादिति । 'एव' मित्यादि नारकवद्दशप्रकारत्वमिदं नैरन्तर्येण चतु विंशतिदण्डको तानां वैमानिकान्तानामपि योजनीयमिति । दण्डकस्यादौ दशधा नारका उक्ताः अथ तदाधारान् नार For FPs Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~1030~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः cibrary org Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५७] (०३) श्रीस्थाना- लसूत्र- वृत्तिः ॥५१४॥ प्रत सूत्रांक [७५८] कादिस्थितिं च दशस्थानानुपाततो निरूपयन् 'चउत्थीए'त्यादिसूत्राष्टादशकमाह, सुगम चैतदिति । अनन्तरं लान्तक- १०स्थाना देवा उक्तास्ते च लब्धभद्रा इति भद्रकारिकर्मकारणान्याह उद्देशः ३ दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसिभहत्ताए कम्मं पगरेंति, तं-अणिदाणताते १ दिद्विसंपन्नयाए २ जोगवाहियत्ताते ३ आगमिखंतिखमणताते ४ जितिदियताते ५ अमाइलताते ६ अपासत्यताते ७ सुसामण्णताते ८ परयणवच्छलयाते ९ पक्ष्यण ष्यद्भद्रताउम्भावणताए १० (सू० ७५८) हेतवः 'दसही'त्यादि, आगमिष्यद्-आगामिभवान्तरे भावि भद्र-कल्याणं सुदेवत्वलक्षणमनन्तरं सुमानुषत्वप्रात्या मो-13 क्षप्राप्तिलक्षणं च येषां ते आगमिष्यमद्रास्तेषां भावः आगमिष्यद्भद्रता तस्यै आगमिष्यभद्रताय तदर्थमित्यर्थः आगमिव्यद्रितया वा कर्म-शुभप्रकृतिरूपं प्रकुर्वते-बन्नन्ति, तद्यथा-निदायते-लूयते ज्ञानाद्याराधनालता आनन्दरसोपेतमोक्षफला येन पशुनेव देवेन्द्रादिगुणद्धिप्रार्थनाध्यवसानेन तन्निदानं अविद्यमानं तद्यस्य सोऽनिदानस्तद्रावस्तत्ता तया हेतुभूतया निरुत्सुकतयेत्यर्थः १, रष्टिसम्पन्नतया-सम्यग्दृष्टितया २, योगवाहितया-श्रुतोपधानकारितया योगेन वासमाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही तद्भावस्तत्ता तया ३, क्षान्त्या क्षमत इति शान्तिक्षमणः, क्षान्तिमहणमसमर्थताव्यवच्छेदार्थ यतोऽसमर्थोऽपि क्षमत इति क्षान्तिक्षमणस्य भावस्तत्ता तया ४, जितेन्द्रियतयाकरणनिग्रहेण ५, 'अमाइल्लयाए'त्ति माइलो-मायावांस्तत्प्रतिषेधेनामायावांस्तद्भावस्तत्ता तया ६, तथा पार्वेचहिज्ञों-13/॥५१४॥ नादीनां देशतः सर्वतो वा तिष्ठतीति पार्श्वस्था, उक्तं च-"सो पासत्थो दुविहो देसे सब्वे य होइ नायब्यो । सब्बंमि | दीप SANSAR अनुक्रम [९७८] ACADCALCCAUSA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~1031~ Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५८] दीप अनुक्रम [९७८] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [७५८ ] स्थान [१०], नाणदंसणचरणाणं जो उपासत्थो ॥ १ ॥ देसंमि उ पासत्थो सेज्जायरभिहडनीयपिडं च । नीयं व अग्गपिंड भुंजइ निकारणे चैव ॥ २ ॥" इत्यादि, [स पार्श्वस्थो द्विविधो देशतः सर्वतश्च भवति ज्ञातव्यः ज्ञानदर्शनचरणानां यस्तु पार्श्वस्थः स सर्वपार्श्वस्थः ॥ १ ॥ देशतः पार्श्वस्थः शय्या तराभिहृत नित्यपिण्डानि नियताम्रपिंडे च निष्कारणे एव भुनक्ति ॥ २ ॥ ] ( नियतपिण्डो यथा - मयैतावद्दातव्यं भवता तु नित्यमेत्र ग्राह्यमित्येवं नियततया यो गृह्यते 'नीय' मिति नित्यः सदा अग्रपिण्डः अप्रवृत्ते परिवेषणे आदावेव यो गृह्यत इति > पार्श्वस्थस्य भावः पार्श्वस्थता न साऽपार्श्वस्थता तया ७, तथा शोभनः- पार्श्वस्थादिदोषवर्जिततया मूलोत्तरगुणसम्पन्नतया च स चासौ श्रमणश्च साधुः सुश्रमणस्तद्भावस्तत्ता तया ८, तथा प्रकृष्टं प्रशस्तं प्रगतं वा वचनं-आगमः प्रवचनं द्वादशाङ्गं तदाधारो वा सङ्घस्तस्य वत्सलता - हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्रवचनवत्सलता तथा ९, तथा प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्योद्भावनं प्रभावनं प्रावचनिकत्वधम्| कथावादादिलब्धिभिर्वर्णवादजननं प्रवचनोद्भावनं तदेव प्रवचनोद्भावनता तयेति १० ॥ एतानि चागमिष्यद्भद्रताकारणानि कुर्वता आशंसाप्रयोगो न विधेय इति तत्स्वरूपमाह | दसविहे आससप्पओगे पं० तं० इहलोगासंसप्पओगे १ परखोगासंसप्पओगे २ दुहतोलोगासंसप्पतोगे ३ जीविवासंसप्पतोगे ४ मरणासंसयपतोगे ५ कामासंसप्पतोगे ६ भोगासंसंप्पतोगे ७ लाभासंसप्पतोगे ८ पूयासंसप्पतोगे ९ सकासंपतोगे १० (सू० ७५९) 'दसे' त्यादि, आशंसनमाशंसा-इच्छा तस्याः प्रयोगो-व्यापारणं करणं आशंसेव वा प्रयोगो-व्यापारः आशंसाप्रयोगः, Education Intamation Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 1032~ www.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५९] (०३) सूत्र वृत्ति प्रत सूत्रांक [७५९]] श्रीस्थाना- सूत्रे च प्राकृतत्वात् आससप्पओगेत्ति भणितं, तत्र इह-अस्मिन् प्रज्ञापकमनुष्यापेक्षया मानुषत्वपर्याये यो वर्तते लोकः १०स्थाना. ४ा-प्राणिवर्गः स इहलोकस्तद्व्यतिरिक्तस्तु परलोकः, तत्रेहलोकं प्रति आशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणाचक-दू उद्देशः३ वादिरितीहलोकाशंसाप्रयोगः, एवमन्यत्रापि विग्रहः कार्यः १, परलोकाशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणा-IA आशंसा |दिन्द्र इन्द्रसामानिको वा २, द्विधालोकाशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमिन्द्रस्ततश्चक्रवत्ती, अथवा इहलोके-इहजन्मनि प्रयोगाः ॥ ५१५॥ किञ्चिदाशास्ते एवं परजन्मन्युभयत्र चेति ३, एतत्रयं सामान्यमतोऽन्ये तद्विशेषा एव, अस्ति च सामान्यविशेषयोर्विव- धर्माश्च क्षया भेद इत्याशंसाप्रयोगाणां दशधात्वं न विरुध्यते, तथा जीवितं प्रत्याशंसा-चिरं मे जीवितं भवत्विति जीविताशं-| सू०७५९| साप्रयोगः ४, तथा मरणं प्रत्याशंसा-शीघ्रं मे मरणमस्त्विति मरणाशंसाप्रयोगः ५, तथा कामौ-शब्दरूपे तो मनोज्ञी ७६० | मे भूयास्तामिति कामाशंसाप्रयोगः ६, तथा भोगा-नान्धरसस्पर्शास्ते मनोज्ञा मे भूयासुरिति भोगाशंसाप्रयोगः ७, तथा कीर्तिश्रुतादिलाभो भूयादिति लाभाशंसाप्रयोगः ८, तधा पूजा-पुष्पादिपूजन मे स्यादिति पूजाशंसाप्रयोगः ९, सत्कारः -प्रवरवस्त्रादिभिः पूजनं तन्मे स्यादिति सत्काराशंसाप्रयोग इति १० ।। उक्कलक्षणादप्याशंसाप्रयोगात् केचिद् धर्ममाचरन्तीति धर्म सामान्येन निरूपयन्नाहदसविधे धम्मे पं० २०-गामधम्मे १ नगरधम्मे २ रखधम्मे ३ पासंडवम्मे ४ कुलधम्मे ५ गणधम्मे ६ संघधम्मे ७ ॥५१५॥ सुयधम्मे ८ चरित्तथम्मे ९ अस्थिकायधम्मे १० (सू०७६०) 'दसे'त्यादि, मामा-जनपदाश्रयास्तेषां तेषु वा धर्मः-समाचारो व्यवस्थेति प्रामधर्मः, स च प्रतिग्राम भिन्न इति,IA दीप अनुक्रम [९७९] Indorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~1033~ Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७६०] दीप अनुक्रम [९८०] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ७६० ] स्थान [१०], उद्देशक [-], अथवा ग्रामः इन्द्रियग्रामो रुदेस्तद्धम्म-विषयाभिलाषः १, नगरधम्र्मो-नगराचारः सोऽपि प्रतिनगरं प्रायो भिन्न एव २, राष्ट्रधम्म- देशाचारः ३, पाखण्डधर्म्मः पाखण्डिनामाचारः ४, कुलधर्म्मः - उग्रादिकुलाचार, अथवा कुठं चान्द्रादिकमार्हतानां गच्छसमूहात्मकं तस्य धर्म्मः- सामाचारी ५, गणधर्म्मा महादिगणव्यवस्था जैनानां वा कुलसमुदायो गणः- कोटिकादिस्तद्धर्म्मः- तत्सामाचारी ६, सहधर्म्मा-गोष्ठीसमाचारः आर्हतानां वा गणसमुदायरूपश्चतुर्वर्णो वा सहस्तद्धर्मः- तत्समाचारः ७, श्रुतमेव- आचारादिकं दुर्गतिप्रपतज्जीवधारणात् धर्म्मः श्रुतधर्म्मः ८, चयरिक्तीकरणाचारित्रं तदेव धर्म्मश्चारित्रधर्मः ९, अस्तयः - प्रदेशास्तेषां कायो - राशिरस्तिकायः स एव धर्मों-गतिपर्याये जीवपुद्गलयोर्द्धारणादित्यस्तिकायधर्म्मः १० ॥ अयं च ग्रामधर्मादिर्धर्मः स्थविरैः कृतो भवतीति स्थविरान्निरूपयति दुसरा पं० तं०-गामधेरा १ नगरबेरा २ रधेरा ३ पसत्थारथेरा ४ कुलवेरा ५ गणथेरा ६ संघथेरा ७ जातिधेरा ८ अधेरा ९ परितायथेरा १० (सू० ७६१) दस पुत्ता पं० [सं० अन्तते १ खेतते २ दिनते ३ विष्णते ४ उरसे ५ मोहरे ६ सोंडीरे ७ संबुद्धे ८ उवयातिते ९ धम्मंतेवासी १० । ( सू० ७६२ ) 'दसे' त्यादि, स्थापयन्ति-दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्गे स्थिरीकुर्वन्तीति स्थविराः, तत्र ये ग्रामनगरराष्ट्रेषु व्यवस्थाकारिणो बुद्धिमन्त आदेयाः प्रभविष्णवस्ते तत्स्थविरा इति १-२-३ प्रशासति - शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तारः-धम्र्मोपदेशकास्ते च ते स्थिरीकरणात् स्थविराश्चेति प्रशास्तुस्थविराः ४, ये कुलस्य गणस्य सङ्घस्य च लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणस्त| अङ्कुश्च निग्राहकास्ते तथोच्यन्ते ५.६-७, जातिस्थविराः षष्टिवर्षप्रमाणजन्मपर्यायाः ८, श्रुतस्थविरा:- समवायायङ्गधारिणः ९, For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~1034~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७६२] दीप अनुक्रम [९८२] “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [७६२] स्थान [१०], वृत्तिः ॥ ५१६ ॥ श्रीस्थाना- ४ पर्याय स्थविरा - विंशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्या पर्यायवन्त इति १० ॥ स्थविराश्च पुत्रवदाश्रितान् परिपालयन्तीति पुत्रनिरूपणायाह सूत्र- - 'दस पुत्ते'त्यादि, पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादामिति पुत्रः सूनुः, तत्र आत्मनः पितृशरीराज्जातः आत्मजः, यथा भरतस्यादित्ययशाः १, क्षेत्रं भार्या तस्या जातः क्षेत्रजो, यथा पण्डोः पाण्डवाः लोकरूच्या तद्भार्यायाः कुन्त्या एव तेषां पुत्रत्वात् न तु पण्डोः धर्मादिभिर्जनितत्वादिति २, 'दिन्नए'ति दत्तकः पुत्रतया वितीर्णो यथा बाहुबलिनोऽनिलवेगः श्रूयते स च पुत्रवत्पुत्रः, एवं सर्वत्र ३, 'विष्णए'ति विनयितः शिक्षां ग्राहितः, 'उरसे'ति उपगतोजातो रसः पुत्रस्नेहलक्षणो यस्मिन्पितृस्नेहलक्षणो वा यस्यासावुपरसः उरसि वा हृदये स्नेहाद्वर्त्तते यः स ओरसः ५, मुखर एवं मौखरो मुखरतया चाटुकरणतोय आत्मानं पुत्रतया अभ्युपगमयति स मौखर इति भावः ६, शोंडीरो यः शौर्यवता शूर एव रणकरणेन वशीकृतः पुत्रतया प्रतिपद्यते यथा कुवलयमालाकथायां महेन्द्रसिंहाभिधानो राजसुतः श्रूयते ७, अथवाऽऽत्मज एव गुणभेदाद्भिद्यते, तत्र 'विन्नए'न्ति विज्ञकः - पण्डितोऽभयकुमारवत्, 'उरसे' त्ति उरसा वर्त्तत इति ओरसो-बलवान् बाहुबलीवत् शोण्डीर:- शूरः वासुदेववत् गर्वितो वा शौण्डीर' 'शौड गर्व' इति वचनात्, 'संबुद्धे' ति संवर्द्धितो भोजनदानादिना अनाथपुत्रकः ८, 'उवजाइय'त्ति उपयाचिते देवताराधने भवः औपयाचितकः, अथवा अवपातः - सेवा सा प्रयोजनमस्येत्यावपातिकः-सेवक इति हृदयं ९, तथा अन्ते समीपे वस्तुं शीलमस्येत्यन्तेवासी, धर्मार्थमन्तेवासी धर्म्मान्तेवासी, शिष्य इत्यर्थः १० ॥ धर्म्माम्तेवासित्वं च छद्मस्थस्यैव न केवलिनोऽनुत्तरज्ञानादित्वात् कानि कियन्ति च तस्यानुत्तराणीत्याह Forest Use Only १० स्थाना. उद्देशः ३ स्थविरा: ~ 1035~ पुत्राश्च सु० ७६१७६२ ।। ५१६ ।। waincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६३] (०३) प्रत सूत्रांक [७६३] केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पं० त०-अणुत्तरे जाणे अणुत्तरे दसणे अणुत्तरे चरिते अणुत्तरे तवे अत्तरे वीरिते अणुतरा खंती अणुत्तरा मुत्ती अणुत्तरे अजवे अणुत्तरे महवे अणुत्तरे लायवे १० (सू० ७६३) समतखेत्ते णं दस कुरातो पं०२०-पंच देवकुरातो पंच उत्तरकुरातो, तत्थ णं दस महतिमहालया महादुमा पं० सं०-जंबू सुर्वसणा १ धायतिरक्खे २ महाधावतिरुक्से ३ पउमरुक्खे ४ महापउमरुक्खे ५ पंच कूडसामलीओ १०, तत्व णं दस देवा महिडिया जाव परिवसति, सं0-अणाढिते जंबुद्दीवाधिपती सुदंसणे पियदसणे पोंडरीते महापोंगरीते पंच गरुला येणुदेवा १० (सू०५६४) दसहि ठाणेहिं ओगाढं दुस्सम जाणेज्जा, तं०-अकाले बरिसइ काले ण परिसइ असाहू पूइज्जति साहू ण पूइजंति गुरुसु जणो मिच्छं पतिवन्नो अमणुण्णा सदा जाव फासा १० । दसहि ठाणेदि ओगाई सुसमं जाणेजा तं.-अकाले न परिसति तं व विपरीतं जाव मणुण्णा फासा (सू० ७६५) सुसमसुसमाए णं समाए दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए हवमागच्छंति, सं०-मत्तंगता १ व भिंगा २ तुडितंगा ३ दीव ४ जोति ५ चित्तंगा ६ । चि तरसा ७ मणियंगा ८ गेहागारा ९ अणितणा १० त ॥१॥ (सू० ७६६) 'दसे'त्यादि, नास्त्युत्तर-प्रधानतरं येभ्यस्तान्यनुत्तराणि, तत्र ज्ञानावरणक्षयात् ज्ञानमनुत्तरं एवं दर्शनावरणक्षया-1 दर्शनमोहनीयक्षयादा दर्शनं, चारित्रमोहनीयक्षयाच्चारित्रं, चारित्रमोहक्षयादनम्तवीर्यत्वाञ्च तपः-शुक्लध्यानादिरूपं वी-12 यन्तिरायक्षयाद् वीर्य, इह च तपःक्षांतिमुक्त्यार्जवमाईवलाघवानि चारित्रभेदा एवेति चारित्रमोहनीयक्षयादेव भव-13 *RECOctor दीप 55623 अनुक्रम [९८३] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1036~ Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६६] (०३) सूत्र प्रत सूत्रांक [७६६] श्रीस्थाना मन्ति , सामान्यविशेषयोश्च कथचि दाद् भेदेनोपतानीति । केवली च मनुष्यक्षेत्र एव भवतीति दश स्थानकानुपाति- थाना. पदार्थ 'समयेत्यादिक 'पुक्खरवरदीवडपचच्छिमद्धेवी'त्येतदन्तं समयक्षेत्रप्रमाणमाह, कण्ठवं चैतत् , नवरं 'मत्संगे | उद्देशः ३ वृत्तिः त्यादि गाथा, मत्त-मदस्तस्याङ्ग-कारण मदिरा तद्ददतीति मत्ताकदार, चः समुच्चये, 'भिंग'त्ति भृतं-भरणं पूरणं तत्रा अनुत्तराशानि-कारणानि भृताङ्गानि भाजनानि, न हि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं बिना भवतीति तत्सम्पादकत्वाद् वृक्षाः अपि ॥५१७॥ [णि कुर्वा| भृताङ्गाः, प्राकृतस्वाच्च भिंगा उच्यन्ते, त्रुटितानि-तूर्याणि तत्कारणत्वात् त्रुटिताङ्गा:-तूर्यदायिनः,उक्तं च-"मत्तंगे। द्याः दुष्पय मज्जं १ (संपज्जइ) भायणाणि भिंगेसु २ । तुडियंगेसु य संगततुडियाई बहुप्पगाराई ३ ॥१॥" [मद्यं मद्यांगेषु १ ॥ भंगेषु भाजनानि २ तूर्यागेषु च संगततूर्याणि बहुप्रकाराणि ॥१॥] "दीवजोइचित्तंगा" इति इहाङ्गशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततो दीपः-प्रकाशकं वस्तु तत्कारणत्वाद्दीपाङ्गा,ज्योतिः-अग्निस्तत्र च सुषमसुषमायामग्नेरभावाज्योतिरिव पातापासू०७६३यद्वस्तु सौम्यप्रकाशमिति भावस्तत्कारणत्वात् ज्योतिरङ्गाः, तथा चित्रस्य-अनेकविधस्थ विवक्षाप्राधान्याम्मास्यस्य | कारणत्वाच्चित्राङ्गाः, तथा चित्रा-विविधा मनोज्ञा रसा-मधुरादयो येभ्यस्ते चित्ररसा भोजनाका इति भावः, उकं च -"दीवसिहाजोइसनामया य ४-५ एए करिति उज्जोयं । चित्तंगेसु य मलं ६ चित्तरसा भोयणढाए ७॥१॥" दीपशिखाज्योतिःसनाम्नी कुरुत उद्योतमेते चित्रांगेषु माल्यं भोजनार्थ चित्ररसाः॥१॥] मणीनां-मणिमयाभरणानां कारणत्वान्मण्यङ्गाः आभरणहेतवः, गेह-गृहं तद्वदाकारो येषां ते गेहाकाराः, 'अणियय'त्ति वस्त्रदायिनः, उक्तं च ॥ ५१७॥ "मणियंगेसु य भूसणवराई ८ भवणाई भवणरुक्खेसु ९ । आइन्नेसु य धणियं वत्थाई बहुप्पगाराई १० ॥१॥" इति । दीप अनुक्रम [९८७] 5% wwjandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1037~ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६६] (०३) + + प्रत सूत्रांक [७६६] + SIमण्यंगेषु च वरभूषणानि भवनवृक्षेषु पराणि भवनानि आकीर्णेषु च बहुप्रकाराणि वस्त्राणि गाढं ॥१॥] कालाधिकारादेव कालविशेषभाषिकुलकरवक्तव्यतामाह जंबूदीवे २ भरहे वासे तीताते उस्सप्पिणीते दस कुलगरा हुत्था, -"सयजले सयाऊ य अर्णतसेणे त अमितसेणे त । तकसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे त सत्तमे ॥ १ ॥ वढरहे दसरहे सबरहे ॥ जंबूदीये २ भारहे चासे आगमीसाते उस्सप्पिणीए दस कुलगरा भविस्संति, तं०-सीमकरे सीमंधरे खेभंकरे खेमंधरे विमलवाहणे संमुसी पष्टिसुते दढधणू दसधणू सतधणू । (सू० ७६७) जंबुद्दीवे २ मंद्ररस्स पव्वयस्स पुरछिमेणं सीताते महानतीते उभतो कूले दस वक्खारपब्वता पं० २०-मालवंते चित्तकूडे विचित्तकूडे बंभकूड़े जाव सोमणसे । जंबुमंदरपचत्विमे सीओताते महानतीते उभतो कूले दस वक्खारपब्वता पं० त०-विजुप्पभे जाव गंधमातणे, एवं धायसंडपुरच्छिमद्धेवि बक्खारा भाणिअव्या जाव पुक्खरवरदीवद्धपञ्चत्थिमद्धे (सू० ७६८) दस कप्पा इंदाहिडिया पं० ० -सोहम्मे जावसहस्सारे पाणते अधुए, एतेसु णं दससु कप्पेसु दस इंदा पंत-सके ईसाणे आव अक्षुते, पतेसु णं दसण्इं इंदाणं दस परिजाणितविमाणा पं० २०-पालते पुप्फए जाब विमलबरे सव्वतोभरे (सू० ७६९) 'जंबुद्दीवेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठयं, नवरं 'तीयाए'त्ति अतीतायां 'उस्सप्पिणीए सि उत्सपिण्यां कुलकरणशीला कुलकरा:-विशिष्टबुद्धयो लोकव्यवस्थाकारिणः पुरुषविशेषाः, 'आगमिस्साए'ति आगमिष्यन्त्यां, वर्तमाना तु अवसपिणी सा च नोक्ता, तत्र हि सप्तैव कुलकराः, कचित्पश्चदशापि दृश्यम्त इति । पुष्कराद्धक्षेत्रस्वरूपमभिहितं पागतः दीप S अनुक्रम [९८७] स्था०८७ Manorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1038~ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६९] (०३) श्रीस्थाना वृत्तिः ॥५१८॥ प्रत सूत्रांक [७६९] क्षेत्राधिकारादेव कल्पानाश्रित्य दशकमाह-दशे'त्यादि, सौधर्मादीनामिन्द्राधिष्ठितत्वमेतेष्विन्द्राणां निवासादानतारण- १०स्थाना योस्तु तदनधिष्ठितत्वं तन्निवासाभावात् , स्वामितया तु तावप्यधिष्ठितावेवेति मन्तव्यं, यावत्करणात् 'ईसाणे २ सण-|| | उद्देशः३ कुमारे ३ माहिंदे ४ बंभलोए ५ लंतगे ६ सुके ७'त्ति दृश्यमिति, यत एवैतेषु इन्द्रा अधिष्ठिता अत एवैते दशेन्द्रा भवन्तीति कुलकराः दर्शयितुमाह-एएम' इत्यादि, शक्रा-सौधर्मेन्द्रः, शेषा देवलोकसमाननामानः, शेष सुगममिति ॥ इन्द्राधिकारादेव | वक्षस्कातद्विमानान्याह-एते'इत्यादि, परियानं-देशान्तरगमनं तत् प्रयोजनं येषां तानि परियानिकानि गमनप्रयोजनानी-II राद्याः त्यर्थः यानं-शिविकादि तदाकाराणि विमानानि-देवाश्रया यानविमानानि न तु शाश्वतानि, नगराकाराणीत्यर्थः, पुस्त- इंद्राद्याः कान्तरे यानशब्दो न दृश्यते, 'पालए' इत्यादीनि शक्रादीनां क्रमेणावगन्तव्यानीति, यावत्करणात् 'सोमणस्से ३ सि- प्रतिमा रिवच्छे ४ नंदियावत्ते ५ कामकमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८' इति द्रष्टव्यमिति, आभियोगिकाश्चैते देवा विमानीभव- जीवाश्च न्तीति । एवंविधविमानयायिनश्चन्द्राः प्रतिमादिकात् तपसो भवन्तीति दशकानुपातिनी प्रतिमा स्वरूपत आह दस दसमिता णं भिक्खुपडिमा ण एगेण रातिदियसवेणं अद्धछडेहि य मिक्खासतेहिं अहासुत्ता जाव आराधितावि भवति (सू० ७७०) दसविधा संसारसमावन्नगा जीवा ५००-पढमसमयएगिदिता अपढमसमयएगिदिता एवं जाव अपदमसमयपविदिता १ बसविधा सम्बजीवा पं० २०-पुढविकाइया जाव वणस्सइकासिता दिया जाव पं.. दिता अणिदिता २ अथवा दसविधा सम्बजीवा पं० तं०-पढमसमयनेरतिया अपढमसमयनेरतिता आप अपढमसम ॥५१८॥ यदेवा पढमसमयसिद्धा अपढमसमयसिद्धा ३ (सू०७७१) सू०७६७ दीप अनुक्रम [९९२] JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1039~ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७१] (०३) प्रत सूत्रांक [७७१] ॐ5555 'दसेत्यादि, दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका दशदशकनिष्पन्नेत्यर्थः, भिक्षूणां प्रतिमाः-प्रतिज्ञा भिक्षुप्रतिमाः, 'एकेने त्यादि, दश दशकानि दिनानां शतं भवतीति, प्रथमे दशके दश भिक्षा द्वितीये विंशतिरेवं दशमे शतं सर्वमीलने पश शतानि पश्चाशदधिकानि भवन्तीति, 'अहामुत्त'मित्यादि, अहामुत्तं-सूत्रानतिक्रमेण, यावत्करणात 'अ-12 हाअत्यं' अर्थस्य-निर्युक्त्यादेरनतिक्रमेण 'अहातच' शब्दार्थानतिक्रमेण 'अहामग्गं' क्षायोपशमिकभावानतिक्रमण 'अ-| हाकप्पं तदाचारानतिक्रमेण सम्यक्कायेन न मनोरथमात्रेण 'फासिया' विशुद्धपरिणामप्रतिपत्त्या 'पालिया' सीमां यावत्तपरिणामाहान्या 'शोधिता निरतिचारतया शोभिता वा तत्समाप्तावुचितानुष्ठानकरणतः, 'तीरिता' तीरं नीता प्रतिज्ञातकालोपर्यप्यनुष्ठानात्, कीर्तिता नामतः इदं चेदं च कर्त्तव्यमस्यां तत्कृतं मयेत्येवमिति, आराधिता सर्वपदमीलनात् 'भवति' जायत इति । प्रतिमाभ्यासः संसारक्षयाथै संसारिभिः क्रियत इति संसारिणो जीवान् जीयाधिकारात् सर्वजीवांश्च 'दसे'त्यादिना सूत्रत्रयेणाह, तच्च सुगम, नवरं प्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते प्रथमसमयास्ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः, विपरीतास्त्वितरे, एवं द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया वाच्याः, आह च-'एवं जावेत्यादि, 'अणिदिय'त्ति अनिन्द्रियाः सिद्धाः अपर्याप्ताः उपयोगतः केवलिनश्चेति ॥ संसारिपर्यायविशेषप्रतिपादनायैवाह वाससताउस्स णं पुरिसस्स दस दसाओ पं० २०-बाला १ किड्डा २ य मंदा ३ य, बला ४ पन्ना ५ य हायणी ६ । पर्वाचा ७ पडभारा ८ य, मुंमुही ९ सावणी १० तधा ।। (सू०७७२) 'वासे'त्यादि, वर्षशतमायुयंत्र काले मनुष्याणां स वर्षशतायुष्कः कालस्तत्र यः पुरुषः सोऽप्युपचाराद् वर्षशतायुष्का, दीप अनुक्रम [९९४] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1040~ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७२] (०३) श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः ॥५१९॥ प्रत सूत्रांक [७७२] मुख्यवृत्त्या वर्षशतायुषि पुरुषे गृह्यमाणे पूर्वकोव्यायुष्कपुरुषकाले वर्षशतायुषः पुरुषस्य कस्यचित्कुमारत्वेऽपि बालादि-1|१०स्थाना. दशादशकसमाप्तिः स्यात् न चैवं तत उपचार एव युक्त इति, 'दशे'ति संख्या, दसाउ'त्ति वर्षदशकप्रमाणाः कालकृता दशकममाणाः कालकृताउद्देशः ३ अवस्थाः इह च वर्षशतायुम्रहणं विशिष्टतरदशस्थानकानुरोधात् विशिष्टतरत्वं च दशस्थानकस्यैवं वर्षदशकप्रमाणा दशा 51 दशादशकं दशेति, अन्यथा पूर्वकोट्यायुषोऽपि बालाद्या दशावस्था भवन्त्येव, केवलं दशवर्षप्रमाणान भवन्ति, बहुवर्षा वा अल्पवर्षा सू०७७२ वा स्युरिति भावः, तत्र बालस्वेयमवस्था धर्मधर्मिमणोरभेदादाला, स्वरूपं चास्या:-"जायमेत्तस्स जंतुस्स, जा सा| पदमिया दसा । न तत्थ सुहदुक्खाई, बहुं जाणंति बालया ॥१॥” इति, [जातमात्रस्य जन्तोयो सा प्रथमा दशा तत्र | | सुखदुःखानि न बहुजानन्ति इति वाला ॥१॥] तथा क्रीडाप्रधाना दशा क्रीडा, उक्तं च-"बिइयं च दस पत्तो, माणा-1 कीडाहिं कीडइ । न तत्थ कामभोगेहि, तिब्वा उप्पजए मई ॥१॥"[द्वितीयां क्रीडादशां प्राप्तो नानाक्रीडाभिः क्रीडते न तत्र कामभोगेषु तीत्रा मतिरुत्पद्यते ॥१॥] तथा मन्दो-विशिष्टबलबुद्धिकार्योपदर्शनासमर्थो भोगानुभूतावेव च | समर्थों यस्यामवस्थायां सा मन्दा, उक्तं च-"तइयं च दसं पत्तो, आणुपुबीएँ जो नरो। समस्थो भुंजिउँ भोए, अइ से अस्थि घरे धुवा ॥१॥" इति, [तृतीयां मंददशां प्राप्तः आनुपूर्व्या यो नरः यदि तस्य निश्चिता भोगा पूरे सम्ति तान् भोक्तुं समर्थः ॥१॥] भोगोपार्जने तु मन्द इति भावना, तथा यस्यामवस्थायां पुरुषस्य बलं भवति सा वळयोगान्8 बला, उकं च-"चउत्थी य बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्थो बलं दरिसेउं, जइ होइ निरुवदयो ॥१॥ इति, [चतुर्थी च बला नाम यां दशामानितो नरः बलं दर्शयितुं समर्थः यदि भवति मिरुपद्रवः ॥१॥] तथा प्रज्ञा-2 1311५१९॥ AKACKAKARA दीप अनुक्रम [९९६] IM Gaindiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1041~ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७२] (०३) + + प्रत सूत्रांक [७७२] बुद्धिरीप्सितार्थसम्पादनविषया कुटुम्बकाभिवृद्धिविषया वा तद्योगाद्दशापि प्रज्ञा प्रकर्षेण जानातीति वा प्रज्ञा दशा तस्या एव कर्तृत्वविवक्षयेति, उक्तं च-"पंचमि च दस पत्तो, आणुपुष्वीरें जो नरो । इच्छियत्वं विचिंतेइ, कुडुबं चा४ भिकंखइ ॥ १॥" इति [आनुपूा यो नरः पंचमी दशां प्राप्तः स इप्सितार्थं विचिन्तयति कुटुंब चाभिकांक्षते ॥१॥ तथा हापयति पुरुषमिन्द्रियेष्विति-इन्द्रियाणि मनाक् स्वार्थग्रहणापटू नि करोतीति हापयति प्राकृतत्वेन च हायणित्ति, आह च-"छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरजई य कामेसु, इंदिएमु य हाय ॥१॥" इति [षष्ठी हायनी नानी यां नरो दशामाश्रितः कामेषु विरज्यते इंद्रियाणि च हीयते ॥१॥] तथा प्रपश्चते-व्यक्तीकरोति प्रप चयति वा-विस्तारयति खेलकासादि या सा प्रपञ्चा प्रपश्चयति घा-नसयति आरोग्यादिति प्रपशा, आह प-"सत्तम Pाच दस पत्तो, आणुपुब्बी' जो नरो । निच्छूहइ चिक्कणं खेलं, खासई य अभिक्खणं ॥१॥" इति [सप्तमी प्रपंचा दशां प्राप्त आनुपूा यो नरः चिकणं श्लेष्माणं निष्काशयति अभीषणं फासते च॥१॥] तथा प्राग्भारमीपदवनतमु&ाच्यते तदेवंभूतं गात्रं यस्यां भवति सा प्रारभारा, यतः-"संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमि दस । नारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ॥१॥" इति, [संकुचितवलिचर्मा स्यात् सम्प्राप्तोऽष्टमी दशा नारीणामनभिप्रेतः जरया परिणामितः॥१॥] तथा मोचनं मुक् जराराक्षसीसमाक्रान्तशरीरगृहस्य जीवस्य मुचं प्रति मुख-आभिमुख्यं यस्यां सा मुथुखीति, तरस्वरूपं चेदम्-"नवमी मुंमुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ । जराघरे विणरसते, जीवो वसइ अका. मओ ॥१॥” इति [नवमी उन्मुखीनानी यां दशां नर आश्रितः जरया गृहे विनश्यति जीवितेऽपि अकामा +ONAL दीप क अनुक्रम [९९६] Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1042~ Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७२] (०३) श्रीस्थाना ॥५२०॥ प्रत सूत्रांक [७७२] सू०७७३ वसति ॥१॥] ('जीवे'त्ति जीविते, 'जीवो'त्ति वा नरलक्षणो जीव इत्यर्थः> तथा शाययति-स्वापयति निद्रावन्त १०स्थानाकरोति या शेते वा यस्यां सा शायनी शयनी वा, तथेति समुच्चये, तत्स्वरूपमिदम्-"हीणभिन्नस्सरो दीणो, विवरीओ उद्देशः३ विचित्तओ । दुबलो दुक्खिओ वसई, संपत्तो दस िदसं ॥१॥” इति । [हीनभिन्नस्वरो दीनो विपरीतो विचित्तः मूलादीनि दुर्बलो दु:खितो वसति दशमी दशा संप्रातः॥१॥] अनन्तरं पुरुषदशा उक्ताः, अथ पुरुषसमानधर्मकाणां वनस श्रेणयः तीनां ताः प्रकारान्तरत आह मवेयकं तेदसविधा तणवणस्सतिकातिवा पं० सं०-गूले कदे जाव पुप्फे फले बीये (सू०७७३) सम्बतोचि णं विजाहरसे |जोलेश्याः ढीभो दसदसजोवणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता, सम्वतोवि णं अमिओगसेढीओ दस दस जोयणाई विक्वंभेणं पं० (सू० ७७४) गेविजगविमाणाणं दस जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता (सू० ७७५) दसहि ठाणेहिं सह तेतसा ७७६ भासं कुला, सं०-केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेजा, से व अशासातिते समाणे परिकुविते, तस्स तेतं निसिरेजा, से सं परितावेति, सेतं परितावेत्ता तामेव सह तेतसा भासं कुजा १, केति तदारूवं समर्ण माहणं पा अचासातेजा से य अशासातिते समाणे देवे परिकुविए तस्स तेयं निसिरेजा सेत्तं परितावेति सेत्तं २ तमेव सह तेतसा भासं कुजा २, केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अचासातेजा, से य अच्चासातिते समाणे परिकुविए देवे त परिकुविते, दुहतो पडिण्णा तस्स तेयं निसिरेजा ते तं परिताविति ते तं परितावेत्ता तमेव सह तेतसा भासं कुला ३, केति तहारूवं ॥५२०॥ समणं वा माहणं वा अञ्चासादेज्जा से य अच्चासातिते परिकुविए तस्स तेयं निसिरेजा तत्थ फोडा संमुच्छंति ते फोडा दीप अनुक्रम [९९६] aantaratadine Sansorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1043~ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७६] दीप अनुक्रम [१०००] Educat "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [१०], उद्देशक [-1. मूलं [७७६] भिवंति ते फोडा भिन्ना समाणा तामेव सह तेतसा भासं कुआ ४ केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अवासातेजा से य अच्चासादिते देवे परिकुबिए तस्स तेयं मिसिरेक्षा, तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा मिज्जंति, ते फोडा भिन्ना समाणा तमेव सह तेतसा भासं कुजा ५, केवि तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासाएजा से त अच्चासातिते परिकुविए देवेवि य परिकुविए ते दुहतो पडिण्णा ते तस्स तेतं निसिरेला, तस्थ फोडा संमुच्छंति सेसं तहेव जाव भासं कुजा ६, केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अवासातेजा से य अञ्चासातिते परिकुविए तस्स तेतं निसिरेजा, तत्थ फोडा संमुच्छंति ते फोडा भिजंति तत्थ पुला संमुच्छंति ते पुछा भिनंति ते पुला भिन्ना समाणा तामेव सह तेयसा भासं कुजा ७ एते तिनि आलावा भाणितब्बा ९, केति तहारूवं समणं वा भाषणं वा अवासातेमाणे तेतं निसिरेखा से त तस्थ णो कम्मर णो पकम्मति, अंचियं २ करेति करेत्ता आताहिणपयाहिणं करेति २ सा उ बेद्दासं उत्पतति २ से णं ततो पहिले पडिणियत्तति २ ता तमेव सरीरगमणुदमाणे २ सह तेतसा भासं कुजा जहा वा गोसालस्स खलिपुत्रस तवेवेते १० ( सू० ७७६) - 'दसे त्यादि, तृणवद्वनस्पतयः तृणवनस्पतयः, तृणसाधर्म्य च वादरत्वेन तेन सूक्ष्माणां न दशविधत्वमिति, मूलं जटा कन्दः-स्कन्धाधोवर्त्ती यावत्करणात् 'संधे'त्यादीनि पञ्च द्रष्टव्यानि तत्र स्कन्धः - स्थुडमिति यत्प्रतीतं स्वकु-वल्कः शाला शाखा मवाल अङ्कुरः पत्र - पर्ण पुष्पं कुसुमं फलं प्रतीतं बीजं मिंजेति । दशस्थानकाधिकार एव इदमपरमाह--' सब्बे'त्यादि सूत्रद्वयं, सर्वा:- सर्वदीर्घवतान्यसम्भवाः विद्याधर श्रेणयः - विद्याधरनगर मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... www...... ..आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] For Fans at Use Only - ~ 1044 ~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः bay.org Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७६] दीप अनुक्रम [१०००] श्रीस्थानानसूत्र वृत्तिः ॥ ५२१ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ७७६ ] स्थान [१०], णयः, दीर्घवैताया हि पञ्चविंशतियोंजनान्युच्चैस्त्वेन पञ्चाशश्च मूलविष्कम्भेण तत्र दश योजनानि धरणीतलादतिक्रम्य दश योजनविष्कम्भा दक्षिणत उत्तरतश्च श्रेणयो भवन्ति, तत्र दक्षिणतः पञ्चाशन्नगराणि, उत्तरतस्तु पष्टिरिति भरतेषु, ऐरवतेषु तदेव व्यत्ययेन, विजयेषु तु पञ्चपञ्चाशत्पञ्चपञ्चाशदिति । तथा विद्याधर श्रेणीनामुपरि दश योजनान्यतिक्रम्य दशयोजनविष्कम्भा उभयत आभियोगिकदेवश्रेणयो भवन्ति, तत्राभियोगः- आज्ञा तथा चरन्तीत्याभियोगिका देवाः शक्रादिसम्बन्धिनां लोकपालानां सोमयमवरुणवैश्रमणानां सम्बन्धिनो व्यन्तरा इति, तच्छ्रेणीनामुपरि पर्वतः पञ्च योजनान्युच्चतया दश विष्कम्भत इति । आभियोगिक श्रेणयो हि देवावासा इत्यधुना तद्विशेषानाह - 'गेवेजे 'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं प्राग्देवानामावासा उक्ताः, देवाश्च महर्द्धिका भवन्त्यतो देवानां मुनीनां च महर्द्धिकतोपवर्णनाय तेजोनिसर्गप्रकारप्रतिपादनायाह - 'दसही' त्यादि, दशभिः स्थानैः प्रकारैः सह सार्द्ध ४ तेजसा तेजोलेश्यया वर्त्तमानमनाये 'भास'न्ति भस्मेव भस्मवत् कुर्यात् विनाशयेदित्यर्थः, श्रवण इति गम्यते, तद्यथा — केइति कश्चिदनार्य कर्मकारी पापात्मा तथारूपं तेजोलब्धिप्राप्तं श्रमणं - तपोयुक्तं माहनं मा हनमा विनाशय इ| त्येवंप्ररूपणाकारिणं वाशब्दौ विशेषणसमुच्चयार्थी अत्याशातयेद् - आत्यन्तिकीमाशातनां तस्य कुर्यात्, 'से प'त्ति स च श्रमणोऽत्याशातितः- उपसर्गितः परिकुपितः - सर्वथा क्रुद्धः सन् 'तस्स'त्ति उपसर्गकर्तुरुपरि तेजः- तेजोलेश्यारूपं निसृजेत् क्षिपेत् 'से'ति 'स' श्रमणः तमित्युपसर्गकारिणं परितापयति- पीडयति तं परिताप्य 'सामेवे 'ति तमेव ते ३ ॥ ५२१ ॥ जसा परितापितं दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् सहापेर्गम्यमानत्वात् तेजसापि तेजोलेश्यायुक्तमपीत्यर्थः बलवत्त्वात् साधुतेजस * Forsy १० स्थाना. उद्देशः श् मूलादीनि श्रेणयः 8 ग्रैवेयकं ते ~1045~ जोलेश्याः सू० ७७३ ७७६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७६] (०३) प्रत सूत्रांक [७७६]] इति 'भासं कुजत्ति प्रसिद्धमित्येक, शेषाणि नवापि सुगमानि, नवरं 'से य अचासाइय'त्ति स च मुनिरत्याशातिदातस्तदनन्तरमेव च तपक्षपाती देवः परिकुपितः सन् तं भस्म कुर्यादिति द्वितीयमुभावपि परिकुपितो ते पहओ'त्ति ती द्वी मुनिदेवी 'पडिन्न'त्ति उपसर्गकारिणो भस्मकरणं प्रति प्रतिज्ञायोगात् प्रतिज्ञी-कृतप्रतिज्ञी हन्तव्योऽयमित्यभ्युपगतावितियावदिति तृतीय, चतुर्थे श्रमणस्तेजोनिसर्ग कुर्यात्, पञ्चमे देवः पष्ठे उभाविति, केवलमय विशेषः 'तो'ति उपसर्गकारिणि 'स्फोटा' स्फोटकाः समुत्पद्येरन् अग्निदग्धे इव, ते च स्फोटकाः भिद्यन्ते-स्फुटन्ति, ततस्ते भिमाः सन्तस्तमेवोपसर्गकारिणं सह तेजसा-तेजोलेश्यावन्तमपि श्रमणदेवतेजसोर्वलवत्त्वात् तेजसोपहननीयस्वाद भस्म कुर्यु:निपातयेयुरिति, सप्तमाष्टमनवमेष्वपि तथैव, नवरं तत्र स्फोटाः सम्मूर्च्छन्ति भिद्यन्ते च ततस्तत्र पुलाः-पुलाकिका लघुत रस्फोटिकाः सम्मूर्च्छन्ति ततो भिद्यन्ते, ते च पुलाः भिन्नाः सन्तस्तमेवोपसर्गकारिणं सहैव तेजसा भस्म कुर्युरित्येतानि है नव स्थानानि साधुदेवकोपाश्रयाणि, दशमं तु वीतरागाश्रयं, तत्र 'अचासाएमाणे'त्ति उपसर्ग कुर्वन् गोशालकवत्तेजो निसृजेत, 'से य तत्थति तच्च तेजस्तन-श्रमणे निसृष्टं महावीर इव नो क्रमते ईषत् नो प्रक्रमते प्रकर्षण न प्रभवती-101 त्यर्थः केवलं 'अंचिअंचिय'ति उत्पतनिपता पार्श्वतः करोति, ततश्चादक्षिणत:-पार्थात् प्रदक्षिणा-पार्श्वभ्रमणमाद-18 क्षिणप्रदक्षिणा तां करोति, ततश्चोर्द्धम्-उपरि दिशि 'वेहासंति विहाय आकाशमित्यर्थः उत्सतति, उत्सत्य च 'से'त्ति तसे जः ततः श्रमणशरीरसन्निधेस्तन्माहात्म्यप्रतिहतं सत् प्रतिनिवर्त्तते प्रविनिवृत्त्य च तदेव शरीरकमुपसर्गकारिसम्बन्धि | यतस्तन्निर्गतं तमनुदहन्-निसर्गानन्तरमुपतापयन् किंभूतं शरीरक?-सह तेजसा वर्तमानं-तेजोलम्धिमत् भस्म कुर्यादिति, दीप अनुक्रम [१०००] Santaintima मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1046~ Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७६] दीप अनुक्रम [१०००] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ५२२ ॥ Jus Educatio “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ७७६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], १० स्थाना. उद्देशः ३ श्रेणयः ग्रैवेयकं ते जोलेश्याः अयमकोपस्यापि वीतरागस्य प्रभावो यत्यरतेजो न प्रभवति, अत्रार्थे दृष्टान्तमाह — 'जहा वा' यथैव गोशालकस्य-भगवच्छिष्याभासस्य मङ्गल्यभिधानमपुत्रस्य मश्च चित्रफलकप्रधानो भिक्षुकविशेषः, 'तवेतेए'त्ति तपोजनितत्वात्तपः किं तत् ? - तेजस्तेजोलेश्येति, तत्र किलैकदा भगवान् महावीरः श्रावस्त्यां विहरति स्म गोशालकश्च तत्र च गौतमो + मूलादीनि | गोचरगतो बहुजनशब्दमश्रौषीत् - यथा इह श्रावस्त्यां द्वौ जिनौ सर्वज्ञौ - महावीरो गोशालकश्चेति श्रुखा भगवदन्तिकमागत्य गोशालकोत्थानं पृष्टवान्, भगवांश्चोवाच- यथा अयं शरवणग्रामे गोबहुलब्राह्मणगोशालायां जातो मललिनान्नो मङ्गस्य सुभद्राभिधानतद्भार्यायाश्च पुत्रः षड् वर्षाणि यावच्छास्थेन मया सार्द्धं विहृतोऽस्मत्त एव बहुश्रुती भूत इति नायं जिनो न च सर्वज्ञः, इदं च भगवद्वचनमनुश्रुत्य बहुजनो नगर्याः त्रिकचतुष्कादिषु परस्परस्य कथयामास-गोशालको मलिपुत्रो न जिनो न सर्वज्ञः, इदं च ठोकवचनमनुश्रुत्य गोशालकः कुपितः आनन्दाभिधानं च भगवदन्तेवासिनं गोचरगतमपश्यत् तमवादीच्च भो आनन्द ! एहि तावदेकमौपम्यं निशामय, यथा केचन वणिजो 2 ऽर्थार्थिनो विविधपण्यभृतशकटा देशान्तरं गच्छन्तो महाटवीं प्रविष्टाः पिपासितास्तत्र जलं गवेषयन्तश्चत्वारि वल्मीकशिखराणि शालवृक्षस्यान्तरद्राक्षुः क्षिप्रं चैकं विचिक्षिपुस्ततोऽतिविपुलम मलजलमवापुः, तत्पयो यावत्पिपासमापीतवन्तः पयःपात्राणि च पयसा परिपूरयामासुः, अपायसम्भाविना वृद्धेन निवार्यमाणा अप्यतिलोभाद् द्वितीयतृतीयशिखरे विभिदुः, तयोः क्रमेण सुवर्ण च रलानि च समासादयामासुः पुनस्तथैव चतुर्थ भिन्दानाः घोरविषमतिकायमअनपुञ्जतेजसमतिचञ्चलजिह्वायुगलमना कलितकोपप्रसर महीश्वरं सङ्घट्टितवन्तः ततोऽसौ कोपाद्वल्मीकशिखरमारुह्य सू० ७७३७६७ For Full ॥ परर ॥ ~ 1047~ tacibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७६] (०३) ॐ प्रत सूत्रांक [७७६]] मार्तण्डमण्डलमवलोक्य निनिमेषया दृष्ट्या समन्तादवलोकयंस्तान भस्मसाञ्चकार, तन्निवारकवृद्धवाणिजकं तु न्यायदकाशीत्यनुकम्पया वनदेवता स्वस्थानं सजहारेति, एवं त्वदीयधर्माचार्यमात्मसम्पदाऽपरितुष्टमस्मदवर्णवाद विधायिनमहं 12 |स्वकीयेन तपस्तेजसाध्यैव भस्मसात्करिष्यामीत्येप प्रचलितोऽहं, त्वं तु तस्येममर्थमावेदय, भवन्तं च वृद्धवाणिजमिव || न्यायवादित्वादक्षिष्यामीति श्रुत्वाऽसावानन्दमुनिभींतो भगवदन्तिकमुपागत्य तत्सर्वमावेदयत्, भगवताण्यसावभिहिता-एष आगच्छति गोशालकस्ततः साधवः शीघ्रमितोऽपसरन्तु प्रेरणां च तस्मै कश्चिदपि मा दादिति गौतमादीनां निवेदयेति, तथैव कृते गोशालक आगत्य भगवन्तमभि समभिदधौ-सुष्टु आयुष्मन् काश्यप! साधु आयुष्मन् काश्यप। मामेवं वदसि-गोशालको मङ्खलिपुत्रोऽयमित्यादि, योऽसौ गोशालकस्तवान्तेवासी स देवभूयं गतः अहं वन्य एव तमच्छरीरकं परीषहसहनसमर्थमास्थाय वत्तें इत्यादिकं कल्पितं वस्तूग्राहयन् तत्प्रेरणाप्रवृत्तयोद्धयोः साध्योः सर्वानुभू तिसुनक्षत्रनामोस्तेजसा तेन दग्धयोभगवताभिहितो-हे गौशालक ! कश्चिच्चौरो प्रामेयकैः प्रारभ्यमाणस्तथाविधं दुर्गमलभमानोऽजल्या तृणेन शूकेन वाऽऽत्मानमावृण्वन्नावृतः किं भवति?, अनावृत एवासौ, त्वमप्येवमन्यथाजल्पनेनात्मानमाच्छादयन् किमाच्छादितो भवसि ?, स एव त्वं गोशालको यो मया बहुश्रुतीकृतस्तदेवं मा वोचः, एवं भगवतः समभावतया यथावत् अवाणस्य तपस्तेजोऽसौ कोपान्निससर्ज, उच्चावचाक्रोशैश्चाक्रोशयामास, तत्तेजश्च भगवत्यप्रभवत् |तं प्रदक्षिणीकृत्य गोशालकशरीरमेच परितापयदनुप्रविवेश, तेन च दग्धशरीरोऽसौ दर्शितानेकविधविक्रियः सप्तमरात्री |कालमकार्षीदिति । महावीरस्य भगवतो नमन्निखिलनरनाकिनिकायनायकस्यापि जघन्यतोऽपि कोटीसचयभक्तिभरनि दीप अनुक्रम [१०००] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1048~ Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७६] दीप अनुक्रम [१०००] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ५२३ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], स्थान [१०], मूलं [ ७७६ ] र्भरामरपट्पदपटल जुष्टपादपद्मस्यापि विविधऋद्धिमद्ध रविनेयसहस्रपरिवृतस्यापि स्वप्रभावप्रशमितयोजनशतमध्यगतवैरमारिविहरदुर्भिक्षाद्युपद्रवस्याप्ययमनुत्तरपुण्य सम्भारस्यापि यगोशालकेन मनुष्यमात्रेणापि चिरपरिचितेनापि शिष्यकल्पेनाप्युपसर्गः क्रियते तदाश्चर्यमित्याश्चर्याधिकारादिदमाह दस अच्छेरगा पं० तं उवसग्ग १ गम्भहरणं २ इत्थीतित्थं ३ अभाविया परिसा ४ कण्ट्स्स अवरकंका ५ उत्तरणं चंदसुराणं ६ ॥ १ ॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती ७ चमरुप्पातो व ८ अट्ठसयसिद्धा ९ । अस्संजतेसु पूजा १०, इसवि अणंतेण कालेन ॥ २ ॥ ( सू० ७७७) 'दसे'त्यादि आ-विस्मयतश्चर्यन्ते - अवगम्यन्त इत्याश्चर्याणि अद्भुतानि, इह च सकारः कारस्करादित्वादिति, 'उबसग्गेत्यादि गाथाद्वयं उपसृज्यते क्षिप्यते च्याव्यते प्राणी धर्मादेभिरित्युपसर्गा-देवादिकृतोपद्रवाः, ते च भगवतो म हावीरस्य छद्मस्थकाले केवलिकाले च नरामरतिर्यकृता अभूवन् इदं च किल न कदाचिद्भूतपूर्व तीर्थकरा हि अनुत्त रपुण्य सम्भारतया नोपसर्गभाजनमपि तु सकलनरामरतिरक्षां सत्कारादिस्थानमेवेत्यनन्त कालभाव्ययमथ लोकेऽद्भुतभूत इति १ तथा गर्भस्य- उदरसत्त्वस्य हरणं- उदरान्तरसङ्क्रामणं गर्भहरणं एतदपि तीर्थकरापेक्षयाऽभूतपूर्व सद्भगवतो महावीरस्य जातं, पुरन्दरादिष्टेन हरिणेगमेषिदेवेन देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात्रिशलाभिधानाया राजपक्या उदरे सङ्क्रमणाद्, एतद्ध्यनन्तकालभावित्वादाश्चर्यमेवेति ३, तथा स्त्री-योषित्तस्यास्तीर्थ करवे नोत्पन्नायाः तीर्थ-द्वादशाङ्गं सो वा स्त्रीतीर्थे, तीर्थ हि पुरुषसिंहाः पुरुषवरगन्धहस्तिनस्त्रिभुवनेऽप्यव्याहतप्रभुभावाः प्रवर्त्तयन्ति इह त्ववसर्पिण्यां मि- 2 ॥ ५२३ ॥ For Fans Only १० स्थाना. उद्देशः ३ ~ 1049~ आश्चर्य दशकं सू० ७७७ acibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७७] (०३) प्रत सूत्रांक [७७७] पिलानगरीपतेः कुम्भकमहाराजस्य दुहिता मयभिधाना एकोनविंशतितमतीर्थकर स्थानोत्पन्ना तीर्थ प्रवर्तितवती-13 त्यनन्तकालजातस्यादस्य भाषस्याभर्यतेति ३, तथा अभव्या-अयोग्या चारित्रधर्मस्य पर्षत्-तीर्थकरसमवसरणश्रोतहा लोका, धूयते हि भगवत्तो बर्द्धमाश्य जृम्भिकग्रामनगराद्धहिरुत्पन्नकेवलस्य तदनन्तरं मिलितचतुर्विधदेवनिकायविर-IN चितसमवसरणस्य भक्तिकुतूहलाकृष्टसमायातानेकनरामरविशिष्टतिरश्चां स्वस्वभाषानुसारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्व-1 ४ मिना कल्पपरिपालामाक्षेत्र धर्मकथा बभूष, यतो न केनापि तत्र विरतिः प्रतिपन्ना, न चैतत्तीर्थकृतः कस्यापि भूतपूर्वमि तीदमाश्चर्यमिति ५, तथा कृष्ण-नयमवासुदेवस्य अवरकता राजधानी गतिविषया जातेत्यष्यजातपूर्ववादाश्चर्य, IM अषते हि पाण्डवभार्या द्रौपवीपातकीखण्डभरतक्षेत्रापरकङ्काराजधानीनिवासिपद्मराजेन देवसामध्ये नापहृता, द्वारका-115/ बतीधास्तव्यथा कृष्णो वासुदेवो नारदावुपलब्धतमतिकरः समाराधितसुस्थिताभिधानलवणसमुद्राधिपतिर्देवः पञ्चभिः पाण्डवैः सह द्विषोजमलक्षप्रमाण जलधिमतिक्रम्ब पद्मराज रणविमर्दैन विजित्य द्रौपदीमानीतवान्, तत्र च कपिलवासदेवो मुनिसुव्रतजिनात् कृष्णवासुदेवागमनवासामुपलभ्य सबहुमानं कृष्णदर्शनार्थमागतः, कृष्णश्च तदा समुद्रमुलक्ष्यति । स्म, ततस्तेन पाश्चजम्बः पूरिता मुष्णेनापि तथैव ततः परस्परशशब्दश्रवणमजायतेति ५, तथा भगवतो महावीरस्य 18|कदनामवतणमाकाशात् समवसरणभूम्यां चन्द्रसूर्ययोः शाश्वतविमानोपेतयोबभूवेदमप्याश्चर्यमेवेति ५ तथा हरे-पुरुष विशेषस्य बंका-पुत्रपौमाधिपरम्परा हरिवंशस्ताहक्षणं यत्कुलं तस्योत्पत्तिः हरिवंशकुलोत्पत्तिः कुलं ह्यनेकधा अतो हरिवंशेन विशिष्यते, एलीमेवेति खते हिमालदेवापेक्षया यत्तृत्तीय हरिचर्षाख्यं मिथुनकक्षेत्रं ततः केनापि पूर्वविरोधिना दीप A4% अनुक्रम [१००३] wwsaneiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1050 ~ Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७७] (०३) श्रीस्थाना सूत्रवृत्ति : ॥ ५२४॥ प्रत सुत्रांक [७७७]] CkARC5665%3545615 व्यन्तरसुरेण मिथुनकमेकं भरतक्षेत्रे क्षिप्तं, तच्च पुण्यानुभावाद्राज्यं प्राप्तं, ततो हरिवर्षजातहरिनाम्नो पुरुषाद्यो वंशः स १०स्थाना. तथेति ७, तथा चमरस्य-असुरकुमारराजस्योपतन-ऊर्ध्वगमनं चमरोत्सातः, सोऽप्याकस्मिकत्वादाश्चर्यमिति, श्रूयते हि उद्देशः३ चमरचश्चाराजधानीनिवासी चमरेन्द्रोऽभिनवोत्पन्नः सर्वमवधिनाऽऽलोकयामास, ततः स्वशीर्षोपरि सौधर्मव्यव- II आश्चर्यकास्थितं शर्क ददशें, ततो मत्सराध्मातः शकतिरस्काराहितमतिरिहागत्य भगवन्तं महावीर छद्मस्थावस्थमेकरात्रिकी प्र-II दशक तिमा प्रतिपन्नं सुंसुमारनगरोद्यानवर्तिनं सबहुमानं प्रणम्य भगवंस्त्वत्पादपङ्कजवनं मे शरणमरिपराजितस्येति विकल्प्य है सू०७७७ विरचितघोररूपो लक्षयोजनमानशरीरः परिघरत्नं प्रहरणं परितो भ्रमयन् गर्जनास्फोटयन् देवांस्त्रासयन्नुत्पपात, सौधसावतंसकविमानवेदिकायां पादन्यासं कृत्वा शक्रमाक्रोशयामास, शक्रोऽपि कोपाजाज्वल्यमानस्फारस्फुरत्स्फुलिङ्गश-12 तसमाकुलं कुलिशं तं प्रति मुमोच, स च भयात् प्रतिनिवृत्त्य भगवत्पादौ शरणं प्रपेदे, शक्रोऽप्यवधिज्ञानावगततद्व्यतिकरस्तीर्थकराशातनाभयात् शीघ्रमागत्य वज्रमुपसंजहार, बभाण च मुक्कोऽस्यहो भगवतः प्रसादात् नास्ति मत्तस्ते भयमिति ८, तथाऽष्टाभिरधिकं शतमष्टशतं अष्टशतं च ते सिद्धाश्च-निवृताः अष्टशतसिद्धाः, इदमप्यनन्तकालजातमित्याश्चर्यमिति ९, तथा असंयता:-असंयमवन्त आरम्भपरिग्रहप्रसक्ता अब्रह्मचारिणः तेषु पूजा-सत्कारः, सर्वदा हि किल संयता एवं पूजाहोर, अस्यां स्ववसर्पिण्या विपरीतं जातमित्याश्चर्य, अत एवाह-दशाप्येतानि अनन्तेन कालेन-अनन्तकालात् संवृत्तानि अस्थामवसर्पिण्यामिति । अनन्तरसूत्रे चमरोत्पात उक्तः स च रत्नप्रभायाः सञ्जात इति रमप्रभावक्तव्यतामाह - - दीप * * अनुक्रम [१००३] AIMERatinandana Standinary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1051~ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७८] (०३) प्रत सूत्रांक [७७८] इमीसे ण रयणप्पभाते पुढवीए रयणे कंडे दस जोअणसयाई बाहलेणं पन्नत्ते, इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए वतरे कंडे दस जोयणसताई बाहलेणं पण्णते, एवं बेरुलिते १ लोहितक्खे २ मसारगले ३ हंसगम्भे ४ पुलते ५ सोगंधिते ६ जोतिरसे ७ अंजणे ८ अंजणपुलते ९ रतते १० जातरूवे ११ अंके १२ फलिहे १३ रिहे १४ जहा रयणे तहा सो उसविधा भाणितब्वा (सू०७७८) 'इमीसे ण'मित्यादि, येयं रज्जुरायामविष्कम्भाभ्यामशीतिसहस्राधिकं योजनलक्षं बाहल्यतः उपरि मध्येऽधस्ताच्च ४ यस्याः खरकाण्डपङ्कबहुलकाण्डजलबहुलकाण्डाभिधानाः क्रमेण षोडशचतुरशीत्यशीतियोजनसहस्रबाहल्या विभागाः ★ सन्ति, 'इमीसे'त्ति एतस्याः प्रत्यक्षासमायाः रत्नानां प्रभा यस्यां रक्षा प्रभाति-शोभते या सा रत्नप्रभा तस्याः पृथिकाव्या-भूमेर्यत्तत् खरकाण्डं तत्षोडशविधरलात्मकत्वात् षोडशविध, तत्र यः प्रथमो भागो रक्षकाण्डं नाम तद्दशयोजन शतानि बाहल्येन, सहस्रमेकं स्थूलतयेत्यर्थः, एवमन्यानि पञ्चदशापि सूत्राणि वाच्यानि, नवरं प्रथम सामान्यरलात्मक है शेषाणि तद्विशेषमयानि, चतुर्दशानामतिदेशमाह-एवं'मित्यादि, 'पूर्व'मिति पूर्वाभिलापेन सर्वाणि वाच्यानि, 'वेरु लिय'त्ति वैडूर्यकाण्डं, एवं लोहिताक्षकाण्डं मसारगल काण्डं हंसगर्भकाण्डमेवं सर्वाणि, नवरं रजतं-रूप्यं जातरूपं| सुवर्णमेते अपि रने एवेति ॥ रत्नप्रभाप्रस्तावात् तदायद्वीपादिवक्तव्यता सूत्रचतुष्टयेनाह सब्वेवि णं दीवसमुरा दसजोयणसताई उम्वेहेणं पण्णत्ता । सब्वेवि णं महादहा दस जोवणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता । सम्वेवि गं सलिलकुंडा दसजोषणाई जब्बेहेणं पण्णत्ता । सियासीओया णं महानदीओ मुद्दमूले दस दस जोयणाई उम्मेहेणं पण्णचाओ दीप अनुक्रम [१००४] * JABERatinintimationa Tangibrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1052~ Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७९] (०३) श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः ॥५३५॥ प्रत सूत्रांक [७७९]] (सू०७७९) कत्तियाणक्सत्ते सम्बवाहिरातो मंडलातो दसमे मंडले पार चरति, अणुराधानक्खत्ते सव्वम्भतरातो मं- १० स्थाना. हलातो इसमे मंडले चारं चरति (सू०७८०) दस णक्खत्ता णाणस्स विद्धिकरा पण्णत्ता, सं०-मिगसिरमहा पुस्सो उद्देश ३ तिनि य पुवाई मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तहा इस बुद्धिकराई णाणस्स ।। १॥ (सू० ७८१) काण्डानि 'सब्वेत्यादि सुगम, नवरमुद्वेधः उंडतंति भणिय होइ, द्वीपानां जंडत्तणाभावेऽवि अधोदिशि सहन्नं यावद्वीपव्यप- द्वीपाद्युदेशो, जंबूद्वीपे तु पश्चिमविदेहे जगतीमत्वासत्तौ इंटत्तमपि अस्थिति ॥ महाइदाः हिमवदादिषु पद्मादयः, 'सलिल कुं- विधानइति सलिलानां-गङ्गादिनदीनां कुण्डामि-प्रपातकुण्डानि प्रभवकुण्डानि च सलिलाकुण्डानीति, 'मुहमूले'ति समुद्र-II क्षत्रमण्डप्रवेशे । द्वीपसमुद्राधिकारात् तद्वर्तिनक्षत्रसूत्रत्रवमाह-कत्तिए'त्यादि, इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिक मण्डलशतं | | ले ज्ञानभवति पन्द्रय पञ्चदश नक्षत्राणां त्वष्टी, मण्डलं च मार्ग उच्यते, तश्च यथास्वं सूर्यादिविमानतुल्पविष्कम्भ, तत्र नक्षत्राणि जम्बूद्वीपस्थाशीत्यधिके योजनशते पञ्चषष्टिः सूर्यस्य मण्डलानि भवन्ति, चन्द्रस्य पञ्च, नक्षत्राणां है, तथा लवणसमुद्र सू०७७२| त्रीणि त्रिंशदधिकामि योजनशताब्यवगाय एकोनविंशत्यधिकं पूर्वल मण्डलशतं भवति, पन्द्रस्य दस, मकवाणांच षट्, एतेषां च सर्वकालं सुमेरो पाक्त्वारिंशति योजनानां सहस्रेषु त्रिंशदधिकेषु च त्रिषु शतेषु भवति, सर्वाभ्यन्तरं च चतुश्चत्वारिंपति सहानेषु अष्टामुप विशत्यधिकेषु सत्तेषु भवतीति, एवं च कृत्तिकानक्षत्रं सर्ववाहात् 'मण्डलाउ'त्ति चन्द्रमण्डलाइसमेन्द्रमण्डले सम्बन्तरात् पर इत्यर्थः 'चारं चरति भ्रमणमाघरति, अनुराधानधनं सर्वाभ्य ॥५२५॥ न्तराद पन्द्रस्य मण्डला रसमे चामण्डले सर्वनाशाखा इल चारं करतीति व्याख्यातमेवेति । 'विद्धिकराईति है दीप ७८१ अनुक्रम [१००५] Sanlaintuinhalind andibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1053~ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७८१] (०३) प्रत सूत्रांक [७८१] ESSASSASSEKASEX एतनक्षत्रयुक्त चन्द्रमसि सति ज्ञानस्य-श्रुतज्ञानस्योदेशादिर्यदि क्रियते तदा ज्ञानं समृद्धिमुपयाति-अभिप्रेमाचीवसे -1 यते व्याख्यायते पार्षते वेति, भवति च कालविशेषस्तथाविधकार्येषु कारणं, क्षयोपशमादिहेतुत्वासस्य, पदाह-उद-14 यक्सयलोपसमोवसमा जंच कम्मुणो भणिया । दवं खेसं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥१॥" इति, [ज्दयक्ष-13 यक्षयोपशमोपशमा बच कर्मणो भणिताः । द्रव्यं क्षेत्र कालं भवं च भावं च संप्राप्य ॥१॥] तद्यथा 'मिगलिरगाहा कण्ठ्या । द्वीपसमुद्राधिकारादेव द्वीपचारिजीववक्तव्यतां सूत्रद्वयेनाह बसप्पपयलयरपंचिपियतिरिक्खजोणिताणं बस जातिकुलकोडिजोणिपमुहसतसहस्सा पण्णता, डरपरिसप्पयलयरपंचिदियतिरिक्सजोणिताणं वस जातिकुलकोडिनोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता (सू०७८२) चप्पयेत्यादि, चत्वारि पदानि-पादा येषां ते चतुष्पदास्ते च ते स्थले परन्तीति स्थलचराति चतुष्पदस्थलचरास्ते च ते पञ्चेन्द्रियाति विमहा, पुनस्तिर्यग्योनिकाश्चेति कर्मधारयः, तेषां 'बशेति दशैव, 'जाती' पश्चेम्ब्रियजाती दी यानि कुसकोटीना-जातिविशेषलक्षणानां [त्रतानां] योनिप्रमुखाणि-उत्पत्तिस्थानद्वारकाणि शतसहस्राणि-लक्षावि तानि तथा प्रमानि सक्दिा, तत्र योनिर्वथा गोमयो द्वीन्द्रियाणामुत्पत्तिस्थान, कुलानि तत्रैकत्रापि बीमिद्रयाणा कुम्याद्य नेकाकारावि प्रतीतानीति, तथा उरा-पालन परिसपन्ति-सञ्चरन्तीत्युर परिसास्ते च ते स्थलचरावेत्यादि तथैव ॥ पजीवविश्वं दक्षताणकमभिधाकाथुनाऽजीवस्वरूपपुद्गलविण्यं तदाह जीवर इसठाणनियत्तिता पोगले पानकमत्ताए चिणिसु वा ३, तंजहा-पटनसमयपगिदियनिव्वत्तिए जाव फासिं ACCRACKERACK दीप अनुक्रम [१००८] JAMEaintimat Morayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1054~ Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७८३] (०३) श्रीस्थाना +5+5 ॥५२६॥ प्रत सूत्रांक [७८३]] वियनिव्वतिते, 'एवं चिण उवधिण बंध उदीर येय तह णिजरा चेव' । दसपतेसिवा खंधा अणता पण्णत्ता दसपतेसो. १०स्थाना. गाढा पोग्गला अणंता पणत्ता वससमतठितीता पोग्गला अणंता पण्णत्ता दसगुणकालगा पोग्गला अर्णता पण्णचा, उद्देशः३ एवं वन्नेहिं गंधेहि रसेहिं फासेहिं दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । (सू० ७८३) सम्म च ठाण मिति दसमं कुलकोबार ठाणं सम्मत्तं १०, दसम अझयणं सम्मत्तं १० । इति श्रीस्थानाङ्गं तृतीयाङ्गं समाप्तं ॥ (पन्धान ३७००) पुद्गलाः 'जीवा 'मित्यादि, अथवा जातियोनिकुलादिविशेषा जीवाणां कर्मणश्चयोपचयादिभ्यो भवन्तीति त्रिकालभा-||२|| सू०७८२| विनो दशस्थानकानुपातेन कर्मणश्चयादीनाह-'जीवा 'मित्यादि, जीवा-जीवनधर्माणो न सिद्धा इति भावः, णमिति वाक्यालङ्कारे दशभिः स्थानः प्रथमसमयैकेन्द्रियत्वादिभिः पर्यायैः हेतुभिर्ये निवर्तिता-बन्धयोग्यतया निष्पादितास्ते तथा दशभिः स्थाननिर्वृत्तिर्वा येषां ते तथा तान् पुद्गलान्-कर्मवर्गणारूपान् पापं-घातिकर्म सर्वमेव वा | कर्म तच्च तक्रियमाणत्वात् कर्म च पापकर्म तद्भावस्तत्ता तया पापकर्मतया 'चिणिसुत्ति चितवन्तो गृहीतवन्तः |चिन्वन्ति-गृहन्ति चेष्यन्ति-गृहीष्यन्त्यनेनात्मनां त्रिकालान्वयित्वमाह, सर्वथा अनन्वयित्वेऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्रसङ्गादिति, वाशब्दा विकल्पार्थाः, तद्यथा-प्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते तथा ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति प्र| थमसमयैकेन्द्रियास्तैः सद्भिर्ये निर्वर्तिताः-कर्मतयाऽऽपादिता अविशेषतो गृहीतास्ते तथा तान, एतद्विपरीतैरप्रथम*समयैकेन्द्रियनिर्तिता येते तथा तान्, एवं द्विभेदता द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाणां प्रत्येकं वाच्येति, एतदेवातिदेशेनाह | ॥ ५२६॥ -'जावे'त्यादि, यथा चितवन्त इत्यादि कालत्रयनिर्देशेन सूत्रमुक्तमेवमुपचितवन्त इत्यादीन्यपि पश्च वक्तव्यानीत्येत दीप 55015555 अनुक्रम [१०१०] wwwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 1055~ Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७८३] (०३) प्रत सूत्रांक [७८३] ॐ देवाह-एवं चिणे'त्यादि, इह चैवमक्षरघटना-चिणत्ति-यथा चयनं कालत्रयविशेषितमुक्तमेवमुपचयो बन्ध उदीरणा है वेदना निर्जरा च वाच्या, 'चेव'त्ति समुच्चये नवरं चयनादीनामयं विशेषः-चयनं नाम कषायादिपरिणतस्य कर्मपुद्गकालोपादानमात्रं, उपचयनं गृहीतानां ज्ञानावरणादिभावेन निषेचनं बन्धन-निकाचनं उदीरणा करणत उदये प्रवेशनं | वेदनं-अनुभवन निर्जरा-जीवप्रदेशेभ्यः परिशटनमिति । पुद्गलाधिकार एवेदमाह-दसे'त्यादि सूत्रवृन्दं सुगम च, & नवरं दश प्रदेशा येषां ते तथा त एव दशप्रदेशिका-दशाणुकाः स्कन्धाः -समुच्चया इति द्रव्यतः पुगलचिन्ता, तथा दशसु मा प्रदेशेष्वाकाशस्थावगाढा-आश्रिता दशप्रदेशावगाढा इति क्षेत्रतः तथा दश समयान स्थितिर्येषां ते तथेति कालतः तथा||2 || दशगुणः-एकगुणकालापेक्षया दशाभ्यस्तः कालो-वर्णविशेषो येषां ते दशगुणकालकाः एवमन्यैश्चतुर्भिवणेद्वाभ्यां गन्धा-|| & भ्यां पञ्चभी रसैरष्टाभिः स्पर्शः विशेषिताः पुद्गलाः अनन्ता बाच्याः, अत एवाह-'एव'मित्यादि, 'जाव दसगुणलुक्खा पोग्गला अणता पन्नते'त्यनेन भावतः पुद्गलचिन्तायां विंशतितम आलापको दर्शितः । इह चानन्तशब्दोपादानेन वृ-12 द्यादिशब्देनेवान्तमङ्गलमभिहितं, अयं चानन्तशब्द इह सर्वाध्ययनानामन्ते पठित इति सर्वेष्यप्यन्तमङ्गलतया बोद्धव्य है इति । तदेवं निगमितमनुगमद्वारांशभूतं सूत्रस्पर्शकनियुक्तिद्वारं, शेषद्वाराणि तु सर्वाध्ययनेषु प्रथमाध्ययनवदनुगमनीया नीति ॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे दशस्थानकाख्यं दशममध्ययनं समाप्त४ मिति । ग्रंथाग्रं १७१४॥श्रीः। तत्समाप्तौच समाप्तं स्थानाङ्गविवरणं, तथा च यदादावभिहितं स्थानाङ्गस्य महानिधानस्ये-४ वोन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यत इति तच्चन्द्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्धविहारहारिचरितश्रीवर्धमानाभिधानमुनिपति दीप अनुक्रम [१०१० ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~1056~ Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७८३] दीप अनुक्रम [१०१० श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृति: ॥ ५२७ ॥ “स्थान” - अंगसूत्र-३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [ ७८३] स्थान [१०], पादोपसेविनः प्रमाणादिब्युत्पादनप्रवणप्रकरणप्रवन्धप्रणायिनः प्रबुद्धप्रतिबन्धप्रवक्तृ प्रवीणाप्रतिहतप्रवचनार्थप्रधानवाकूप्रसरस्य सुविहितमुनिजनमुख्यस्य श्रीजिनेश्वराचार्यस्य तदनुजस्य च व्याकरणादिशास्त्रकर्तुः श्रीबुद्धिसागराचार्यस्य चरणकमलचरीककल्पेन श्रीमदभयदेवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसन्तानवर्त्तिना महाराज वंशजन्मनेव संवि नमुनिवर्गश्रीमदजितसिंहाचार्यान्तेवासियशोदेवगणिनामधेयसाधोरुत्तरसाधकस्येव विद्याक्रियाप्रधानस्य साहाय्येन समर्थितं । तदेवं सिद्धमहानिधानस्येव समापिताधिकृतानुयोगस्य मम मङ्गलार्थ पूज्यपूजा-नमो भगवते वर्त्तमानतीर्थनाथाय श्रीमन्महावीराय नमः प्रतिपन्थिसार्थप्रमथनाय श्रीपार्श्वनाथाय नमः प्रवचनप्रबोधिकायै श्रीप्रवचनदेवतायै नमः प्रस्तुतानुयोगशोधिकायै श्रीद्रोणाचार्यप्रमुखपण्डितपर्षदे नमश्चतुर्वर्णाय श्रीश्रमणसङ्घभट्टारकायेति । एवं च निजवंशवत्सलराजसन्तानिकस्येव ममासमानमिममायासमतिसफलतां नयन्तो राजवंश्या इव वर्द्धमानजिनसन्तानवर्त्तिनः स्वीकुर्वन्तु यथोचितमितोऽर्थजातमनुतिष्ठन्तु सुष्टश्चित पुरुषार्थसिद्धिमुपयुञ्जताश्च योग्येभ्योऽन्येभ्य इति ॥ किं च सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्व वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ १ ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाश्च कुत्रचित् ॥ २ ॥ भ्रूणानि सम्भवन्तीह केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः ॥ ३ ॥ शोध्यं चैतज्जिने भक्तैर्मामवद्भिर्दयापरः । संसारकारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ॥ ४ ॥ कार्या न चाक्षमाऽस्मासु, यतोऽस्माभिरनामहै । एतद् गमनिकामात्रमुपकारीति चर्चितम् ॥ ५ ॥ Education Intimational For Fans Only १० स्थाना. उद्देशः ३ प्रशस्तिः ~ 1057 ~ ।। ५२७ ॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते अत्र दशमं स्थानं परिसमाप्तं मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित आगम - ३. अंगसूत्र - ३ 'स्थान' परिसमाप्तं Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स 'पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “स्थानाङ्गसूत्र” |मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “स्थान” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remembar it's a Net Publications of 'jain_e_library ~1058~