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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[30]
गाथांक
१-३
दीप
अनुक्रम [९०-९४]
"स्थान".
स्थान [२] उद्देशक (01. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .. आगमसूत्र [०३ ], अंग सूत्र [०३]
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अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः)
जोगा दो कबडगा दो अयकरगा दो दुंदुभगा दो संखा दो संखवन्ना दो संखवन्नाभा दो कंसा दो कंसवन्ना दो कंसवन्नाभा दो रुप्पी दो रुप्पाभासा दो णीला दो णीलोभासा दो भासा दो भासरासी दो तिला दो तिलपुरफवण्णा दो दगा दो दुगपंचवन्ना दो काका दो ककंधा दो इंदग्गीवा दो धूमकेऊ दो हरी दो पिंगला दो बुद्धा दो सुधा दो बहस्सती दो] राहू दो अगत्थी दो माणवगा दो कासा दो फासा दो धुरा दो पमुहा दो वियडा दो बिसंधी दो नियता दो पल्ला दो जडिया लगा दो अरुणा दो अग्गिहा दो काला दो महाकालगा दो सोत्थिया दो सोवस्थिया दो वद्धमाणगा दो प्रैससमाणगा दो अंकुसा दो पलंबा दो निचालोगा दो शिशुजोता दो सयंप्रभा दो ओभासा दो सेयंकरा दो खेमंकरा दो आभंकरा दो पकरा दो अपराजिता दो अरया दो असोगा दो विगतसोगा दो विमला दो वितत्ता दो चितथा दो बिसाला दो साल दो सुता दो अणियट्टा दो एगजडी दो दुजड़ी दो करकरिगा दो रायग्गला दो पुल्फकेतू दो भावकेऊ । ( सू० ९०)
'जंबुद्दीवे' इत्यादि सूत्रद्वयं, 'पभासिंसु व ेत्ति प्रभासितवन्तौ वा प्रकाशनीयमेवं प्रभासयतः प्रभासयिष्यतः, चन्द्रयोश्च सौम्यदीप्तिकत्वात् प्रभासनमात्रमुक्तम्, आदित्ययोश्च खररश्मित्यात्तापितवन्तौ वा एवं तापयतस्तापयिष्यत इति वस्तुनस्तापनमुक्तम् अनेन कालत्रयप्रकाशनभणनेन सर्वकालं चन्द्रादीनां भावानामस्तित्वमुक्तम्, अत एव चोच्यते'न कदाचिदनीदृशं जगदिति, न वा विद्यमानस्य जगतः कर्त्ता कल्पयितुं युक्तः, अप्रमाणकत्वात्, अथ यत्सन्निवे
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१ मे या दर्शपाठेन च संवदत इति नाइनीये.
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मूलं [९०, गाथा-३]
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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