Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरशासन-संघ-ग्रन्थमाला । श्रीयतिवृषभाचार्य-विरचित-चूर्णिसूत्र समन्वित श्रीमद्भगवद्-गुणधराचार्य-प्रणीत कसाय पाहुड सुत्त सम्पादक, हिन्दी-अनुवादक, और प्रस्तावना-लेखक पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ TAIN प्रकाशक वीर शासन-संघ, कलकत्ता वि० सं० २०१२] द्वि० भाद्रपद, श्री वीर नि० सं० २४८१ [ सितम्बर, ई० सन् १९५५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUBLISHER CHHOTELAL JAIN Secy., ŚRĪ VIRA ŚĀSANA SANGHA 29, INDRA BISWAS ROAD. CALCUTTA 37 प्राप्ति-स्थान (१) वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, देहली (२) वीर शासन संघ २९, इन्द्र विश्वास रोड कलकत्ता ३७. PRINTED BY OM PRAKASH KAPOOR JNANAMANDAL YANTRALAYA BANARAS Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRĪ VĪRA ŠĀSAŅA SANGHA SERIES KASAYA PĀHUDA SUTTA BY GUNADHARĀCHARYA' WITH THE CHŪRNI SŪTTRA OF YATIVRSABHĀCHARYA TRÁNSLATED AND EDITED BY PANDIT HIRALAL JAIN Sidhantasāstri, Nyāyatirtha Published by SRI VĪRA SASANA SANGHA CALCUTTA, 1955 Vikranı Samvat 2012-Bhadrapad Vira Nirvana Samvat, 2481 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलायरणं जयइ धवलंगतेएणाबूरियसयलभुवणभवणगणो । केवलणाणसरीरो अणंजणो णामओ चंदो ॥१॥ तित्थयरा चउवीस वि केवलणाणेण दिवसचट्ठा । पसियंतु सिवसरूवा तिहुवणसिरसेहरा मज्झं ॥२॥ सो जयह जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढपदिविंबं दीसइ वियसियसयवत्तगभगउरो वीरो ॥ ३ ॥ अंगंगवज्झणिम्मी अणाइमभंतणिम्मलंगाए । सुयदेवयअंवाए णमो सया चक्खुमइयाए ॥ ४ ॥ णमह गुणरयणभरियं सुअणाणामियजलोहगहिरमपारं । गणहरदेवमहोवहिमणेयणयभंगभंगितुंगतरंगं ॥ ५ ॥ जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं वंदे ॥६॥ गुणहरवयणविणिग्गयगाहाणत्थोवहारिओ सव्वो। जेणजमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥७॥ जो अञ्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ॥ ८॥ पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणहरवसहं । दुसहपरीसहवसहं जइवसहं धम्मसुत्तपाडरवसहं ॥ ९ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य प्रस्तुत ग्रन्थ कसायपाहुडसुत्तको पाठकोंके हाथोंमे उपस्थित करते हुए आज मेरे हर्षका पारावार नहीं है। बहुत दिनोंसे मेरी प्रबल इच्छा थी कि मूल दि० जैन वाङ्मयके सर्व प्राचीन इन मूल आगमसूत्रों को प्रकाशमें लाया जाय । स्वराज्य-प्राप्तिके पश्चात् भारत सरकार और प्राचीन इतिहासकारोंने देशकी प्राचीन भाषाओंमें रचित साहित्य के आधार पर प्राचीन संस्कृति और भारतीय इतिहासके निर्माण के लिए तथा अपने विलुप्त गौरवको संसारके समक्ष उपस्थित करनेके लिए प्राचीन ग्रन्थोंकी खोज-शोध प्रारम्भ की। इस प्रकारके प्रकाशनोंसे भारतीय इतिहासके निर्माताओं और रिचर्स स्कालरोंको अपने अनुसन्धानमें बहुत कुछ सुविधाएं प्राप्त होंगी, इस उद्देश्यसे भी मूल आगम और उनके चूर्णिसूत्रोंको प्रकट करना उचित समझा गया। . भ० महावीरके जिन उपदेशोंको उनके प्रधान शिष्योंने जिन्हे कि साधुओंके, विशाल गणों और संघोंको धारण करने और उनकी सार-संभाल करनेके कारण गणधर कहा जाता है, संकलन करके निबद्ध किया, वे उपदेश 'द्वादशाङ्ग श्रुत' के नामसे संसारमे विश्रुत हुए। यह द्वादशाङ्ग श्रुत कई शताब्दियों तक प्राचार्य-परम्पराके द्वारा मौखिक रूपसे सर्वसाधारणमें प्रचलित रहा। किन्तु कालक्रमसे जब लोगोंकी ग्रहण और धारणा शक्तिका ह्रास होने लगा, तब श्रुतरक्षाकी भावनासे प्रेरित होकर कुछ विशिष्ट ज्ञानी आचार्योंने उस विस्तृत श्रुतके विभिन्न अंगोंका उपसंहार करके उसे गाथासूत्रोंमें निबद्ध कर सर्वसाधारणमें उनका प्रचार जारी रखा। इस प्रकारके उपसंहृत एव गाथासूत्र-निबद्ध द्वादशाग जैन वाड्मयके भीतर अनुसधान करने पर ज्ञात हुआ है कि कसायपाहुड ही सर्व प्रथम निबद्ध हुआ है । इससे प्राचीन अन्य कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है । ___ भ० महावीरके विस्तृत और गंभीर प्रवचनोंको गणधरोंने या उनके पीछे होने वाले 'विशिष्ट ज्ञानियोंने सूत्ररूपसे निबद्ध किया । सूत्रका लक्षण इस प्रकार किया गया है अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्गूढनिर्णयम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥ अर्थात् जिसमे थोड़ेसे असंदिग्ध पदोंके द्वारा सार रूपसे गूढ़ तत्त्वका निर्णय किया गया हो, उसे सूत्र कहते हैं । इस प्रकारकी सूत्र-रचनाओंको आगममें चार प्रकारसे विभाजित किया गया है सुत्तं गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । ' सुयकेवलिणा कहियं अभिन्नदसपुग्विणा कहिय । (सुत्त पाहुड) अर्थात् गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न-दशपूर्वी आचार्योंके वाक्योंको या उनके द्वारा रची गई रचनाओंको सूत्र कहते हैं। उक्त व्यवस्थाके अनुसार पूर्वोके एक देशके वेत्ता होनेसे श्रीगुणधराचार्यकी प्रस्तुत कृति भी सूत्रसम होनेसे सूत्ररूपसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई है। यही कारण है कि उस पर चूर्णिसूत्रोंके प्रणेता आ० यतिवृषभने कसायपाहुडकी गाथाओंको 'सुत्तगाहा' या 'गाहासुत्त' रूपसे अपनी चूर्णिमें उल्लेख किया है। स्वयं ग्रन्थकारने भी अपनी गाथाओंको 'सुत्तगाहा' के रूपमे निर्देश Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है | जयधवलाकार ने लिखा है II गाथासूत्राणि सूत्राणि चूणिसूत्रं तु वार्तिकम् । टीका श्रीवीरसेनीया शेपाः पद्धति - पंजिकाः ||२६|| ( जयधवला प्रशस्ति) अर्थात् कसायपाहुडके गाथासूत्र तो सूत्ररूप हैं और उनके चूर्णिसूत्र वार्तिकस्वरूप हैं। श्री वीरसेनाचार्य - रचित जयधवला टीका है । इसके अतिरिक्त गाथासूत्रोंपर जितनी व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, वे या तो पद्धतिरूप हैं या पजिकारूप हैं । स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत ग्रंथके गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्तिसे देखते हैं, यह उन्हींके शब्दों में देखिए। एक स्थल पर शिष्यके द्वारा यह शका किये जाने पर कि कैसे जाना ? इसके उत्तर में वीरसेनाचार्य कहते है यह " एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहख - जंबुसामियादि श्राइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परियमिय अज्जमंखु - गागहत्थीहितो जयिवसहमुहणयियचुरिण सुत्तायारेण परिणददिव्वज् णिकिरणादो व्यदे | ( जयध०० पत्र ३१३) अर्थात् “विपुलाचलके † शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकरसे प्रगट होकर गौतम, लोहार्य और जम्बूस्वामी आदिकी आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्यको प्राप्त होकर गाथास्वरूपसे परिणत हो पुनः आर्यमंतु और नागहस्तीके द्वारा यतिवृपभको प्राप्त होकर और उनके मुख-कमलसे चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते है ।" पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि जो दिव्यध्वनि भ० महावीरसे प्रगट हुई, वही गौतमादिके द्वारा प्रसारित होती हुई गुणधराचार्यको प्राप्त हुई और फिर वह उनके द्वारा गाथारूपसे परिणत होकर आचार्य परम्पराद्वारा आर्यमंतु और नागहस्तीको प्राप्त होकर उनके द्वारा यतिवृपभको प्राप्त हुई और फिर वहीं दिव्यध्वनि चूर्णि सूत्रो के रूपमें प्रगट हुई, इसलिए चूर्णिसूत्रों में निर्दिष्ट प्रत्येक बात दिव्यध्वनिरूप ही है, इसमें किसी प्रकार के सन्देह या शङ्काकी कुछ भी गुंजायश नहीं है । प्रस्तुत कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों में जिस ढंग से वस्तुतत्त्वका निरूपण किया गया है उसीसे 'वह सर्वज्ञ-कथित हैं' यह सिद्ध होता है । जैनोंके अतिरिक्त अन्य भारतीय साहित्य में चूर्णि नामसे रचे गये किसी साहित्यका पता नहीं लगता । जैनोंकी दि० श्वे० दोनों परम्पराओं में चूर्णिनामसे कई रचनाएँ उपलब्ध हैं, किन्तु दोनों ही परम्पराओं में अभी तक दिगम्बर श्र० यतिवृपभसे प्राचीन किसी अन्य चूर्णि - कारका पता नहीं लगा है। प्रस्तुत कसायपाहुडपर आ० यतिवृपभकी चूर्णि पाठकों के समक्ष उपस्थित हैं । इसके अतिरिक्त कम्मपयडी, सतक और सित्तरी नामक कर्म-विषयक तीन अन्य ग्रन्थों पर उपलब्ध चूर्णियां भी प्रा० यतिवृषभ-रचित है, यह इस ग्रन्थकी प्रस्तावना में सप्रमाण सिद्ध किया गया है । उक्त चूर्णिवाले चारों ग्रन्थोका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १. कसायपाहुडचूर्णि - श्र० गुणधर-प्रणीत २३३ गाथात्मक कसायपाहुड - प्रन्थ मे 'वोच्यामि सुत्तगाहा जविगाहा जम्मि प्रत्यम्मि ॥ २ ॥ पचेव सुत्तगाहा दमणमोहस्स खवरेणाए ॥ ५ ॥ एदा सुत्तगाहाओ तुरा प्रष्णा भानगाहाय || १० || कसायपाट यह विहारप्रान्तके राजगिरिके समीपस्थ पर्वतका नाम है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कषायोंकी विविध दशाओंका वर्णन करके उनके दूर करनेका मार्ग बतलाया गया है और यह प्रगट किया गया है कि किस कपायके दूर होनेसे कौन-सा आत्मिक गुण प्रगट होता है । इस पर आ० यतिवृषभने छह हजार श्लोक-प्रमाण चूर्णिसूत्र रचे हैं। २. कम्मपयडीचूर्णि-श्रा० शिवशर्मने कर्मोके बन्धन, सक्रमण, उद्वर्तना,अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचित इन आठ करणोंका तथा कर्मोके उद्य और सत्त्वका ४७५ गाथाओंमें बहुत सुन्दर वर्णन किया है, यह ग्रन्थ कम्मपयडी या कर्मप्रकृति नामसे प्रसिद्ध है । इस पर आः यतिवृषभने लगभग सात हजार श्लोक-प्रमाण-चूर्णिकी रचना की है। ३. सतकचणि-आठों कर्मोंके भेद-प्रभेद बताकर किस-किस प्रकारके कार्य करनेसे किस-किस जातिके कर्मका बन्ध होता है, इस बातका वर्णन मात्र १०० गाथाओं में आ० शिव. शर्मने किया है, अतएव यह रचना 'सतक' या 'बन्ध-शतक' नामसे प्रसिद्ध है। इसपर दो चर्णियोंके रचे जानेके उल्लेख ग्रन्थों में पाये जाते हैं-लघुशतकचूर्णि और वृहच्छतकचूर्णि । वृहच्छतकर्णि अभी तक उपलब्ध नहीं है, अतएव वह किसकी कृति है, इस वारेमें अभी कळ भी नहीं कहा जा सकता । शतककी लघुचूर्णि मुद्रित हो चुकी है और वह तुलना करनेपर आ० यतिवृषभकी कृति सिद्ध होती है । इसका प्रमाण तीन हजार श्लोकके लगभग है। ४. सित्तरीचर्णि-इसमें आठो मूल कर्मोंके तथा उनके उत्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंका स्वतत्र रूपसे और जीवसमास-गुणस्थानोके आश्रयसे विवेचन किया गया है और अन्त में मोहकर्मकी उपशमविधि और क्षपणाविधि बतलाई गई है । उक्त सर्व वर्णन मात्र ७० गाथाओमें किये जानेसे यह सित्तरी या सप्ततिका नामसे प्रसिद्ध है। इसके रचयिताका नाम अभी तक अज्ञात है । इसकी जो चूणि प्रकाशमे आई है, उसके रचयिताका नाम भी अभी तक अज्ञात ही है। किन्तु छान-बीन करने पर वह भी आ० यतिवृषभकी रचना सिद्ध होती है। सित्तरीचूर्णिका भी प्रमाण लगभग ढाई हजार श्लोकके है। उक्त चारों चर्णियां गद्यमें रची गई है, और उनकी भाषा प्राकृत ही है । सतक और सित्तरीचर्णिमें जहाँ कहीं सस्कृतमें भी कुछ वाक्य पाये जाते हैं, पर वे या तो प्रक्षिप्त हैं, या फिर भाषान्तरित । यद्यपि ये चारों ही चूर्णिया अन्य आचार्य-प्रणीत ग्रन्थों पर रची जानेसे व्याख्यारूप हैं, तथापि उनमें यतिवृषभका व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और मूलके अतिरिक्त कई विषयोंका प्रकरणवश स्वतत्रतापूर्वक विशिष्ट वर्णन किये जानेसे उनकी मौलिक आगमिकताकी छाप भी पाठकके हृदयपर अकित हुए विना नहीं रहती। चूर्णिसूत्रोंकी रचना-शैलीसे ही उनकी अति-प्राचीनता प्रमाणित होती है। श्वेताम्बर भण्डारोंमे ऐसे कई प्राचीन दि० जैन ग्रन्थ सुरक्षित रहे हैं, जो कि अभी तकके अन्वेपित दि० भण्डारोंमें उपलब्ध नहीं हुए। जैसे सिघी ग्रन्थमाला कलकत्तासे प्रकाशित अकलंकदेवका सभाष्य प्रमाणसग्रह, सिद्धिविनिश्चयटीका, इत्यादि । ' इस प्रकारके ग्रन्थोंमेंसे अनेक ग्रन्थोंपर श्वे०आचार्योंने टीकाएँ रच करके उन्हें अपनाया और पठन-पाठनके द्वारा सर्व-साधारणमें उनका प्रचार सुलभ रखा, इसके लिए दि० सम्प्रदाय उनका आभारी है। किन्तु दि० भण्डारोंमें उन ग्रन्थोंके न पाये जानेसे कई ग्रन्थोंके मूल रच. यिताओंके या तो नाम ही विलुप्त हो गए, या कई ग्रन्थ-प्रणेताओके नाम सदिग्ध कोटिमें आगये, और कईयों के नाम भी नामान्तरित हो गये। . ऐसे विलुप्त कई ग्रन्थकारोंकी कीर्विको पुनरुज्जीवित करनेके लिए प्रस्तुत ग्रन्थ बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , आ० यतिवृषभकी स्वतत्र कृतिके रूपसे तिलोयपण्णत्ती प्रसिद्ध है । इसमे तीनों लोकोंकी रचना, उसका विस्तार, स्वर्ग नरक, क्षेत्र, नदी, पर्वत और तीर्थंकरादि-सम्बन्धी कुछ विशिष्ट बातों आदिका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गय है । तिलोय पण्णत्तीके अध्ययन करनेसे पता चलता है, कि उसके रचयिताने अपने समयमे प्राप्त होने वाले तत्तद्विषयक सर्व उपदेशोंका उसमें सग्रह कर दिया है । तिलोयपण्णत्तीकी रचना प्राय गाथाओंमें की गई है और स्थान-स्थानपर क्षेत्रादि के आयाम, विस्तार आदिको अकोमे भी दिखाया गया है। इसका परिमाण आठ हजार श्लोक है । ग्यारहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध सैद्धान्तिक आ० नमिचन्द्र ने इसीका सार खींच करके एक हजार गाथाओमे त्रिलोकसार नामक ग्रन्थ रचा है जो कि अपनी संस्कृत और हिन्दी टीकाओके साथ प्रगट हो चुका है। चूर्णि' क्या वस्तु है, इस बातपर प्रस्तावनामें बहुत कुछ प्रकाश डाला गया है और यह बतलाया गया है कि श्रमण भ० महावीरके वीजपदरूप उपदेशके विश्लेपणात्मक विवरण की चूर्णि कहते है । इसीका दूसरा नाम वृत्ति भी है । यतिवृषभकी कसायपाहुडचूर्णि उक्त सर्व चूर्णियोंमे प्रौढ़ कृति है, वह टीका या व्याख्या रूप न होकर विवरणात्मक है, अतएव वह वृत्तिसूत्र या चूणिसूत्र नामसे प्रसिद्ध हुई है। वृत्तिसूत्रको आधार बना करके जो विशेप विवरण किया जाता है, उसे वार्तिक कहते है । वृत्तिसूत्रके प्रत्येक पदको लेकर जो व्याख्या की जाती है उसे टीका कहते है । वृत्तिसूत्रोंके केवल विपम पदोंकी निरुक्ति करके अर्थके व्याख्यान करनेको पजिका कहते हैं । मूलसूत्र और उसकी वृत्ति इन दोनोंके विवरणको पद्धति कहते हैं। श्रा० इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि कसायपाहुड पर आ० यतिवृषभ ने छह हजार श्लोक-प्रमाण चूर्णिसूत्र, उच्चारणाचार्यने बारह हजार उच्चारणावृत्ति, शामकुंडाचायेने ४८ हजार श्लोकप्रमाण पद्धति, तुम्बुलूराचार्यने चौरासी हजार चूडामणि और आ० वीरसेन जिनसेन ने सांठ हजार जयधवला टीका रची है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध समस्त जैनवाङमयमेसे कसायपाहुडपर ही सबसे अधिक व्याख्याएं और टीकाएं रची गई हैं । यदि उक्त समस्त टीकाओंके परिमाणको सामने रखकर मात्र २३३ गाथाओं वाले कसायपाहुडको देखा जाय, तो वह दा लाख श्लोक प्रमाणसे भी ऊपर सिद्ध होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ अपनी जयधवला नामक विशाल टीका और उसके अनुवाद के साथ वोसे प्रकाशित हो रहा है तथा अभी उसके पूर्ण प्रकाशित होने में अनेक वर्ष और लगेंगे। इधर स्वराज्य-प्राप्तिके बाद २-३ वर्षास प्राचीन प्राकृत और अपभ्रश साहित्यकी दिन पर दिन बढती हुई मागको देखकर कसायपाहुडके पूर्ण चूर्णिसूत्रोंको उनके हिन्दी अनुवादके साथ तुरन्त प्रगट करना उचित समझा गया। श्री० प० हारालालजा शास्त्री इन सिद्धान्तग्रन्थोके अनुवाद, सम्पादन, अनुसन्धान और परिशीलन में लगभग २५ वर्षांसे लगे हुए है। उन्होंने कई वर्षोंके कठिन परिश्रमके पश्चात् कसायपाहुडके चूणिसूत्रांका उद्धार करके उनका संकलन और हिन्दी अनुवाद तैयार किया है। कसायपाहुड जस प्राचान प्रन्थपर आ० यतिवृपभके महत्वपूर्ण चूर्णिसूत्रोंको देखकर और उनकी महत्ताका अनुभव कर मैन श्रीवीरशासन-संघ कलकत्चासे इसका प्रकाशन करना उचित समझा, और तदनुसार कसायपाहुड अपने चूर्णिसूत्र और हिन्दी अनुवादके साथ पाठकों के कर-कमलोंमे उपस्थित है । पं० हीरालालजीने इसके अनुवाद और सम्पादनमें जो श्रम किया है, उसका अनुभव ता पाठक करेंगे, में तो यहा केवल इतना ही कहूँगा कि उन्होंने प्रूफ-सशोधनमें भी अत्यन्त सावधानी रखी है और यही कारण है कि कहीं पर भी कोई प्रूफ-सशोधनसम्बन्धी अशुद्धि दृष्टिगोचर नहीं होती है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार प्रदर्शन अब (अन्तमे) मैं सबसे पहले मेरी भावनाके अमर-सृष्टा, अनेक ग्रन्थोंके सम्पादक, प्राच्य-विद्या-महार्णव, सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् , वीरसेवामन्दिरके संस्थापक, वयोवृद्ध व्र० जुगलकिशोरजी मुख्तारका आभार मानता हूँ, कि जिन्होंने सर्वप्रथम इन ग्रन्थोंका आरामे ६ मास बैठकर स्वाध्याय किया, एक हजार पेजके नोटस लिए और तीनों सिद्धान्त ग्रन्थों में प्रस्तुत ग्रन्थको. सर्वाधिक प्राचीन समझ कर प्रकाशित करनेका विचार कर श्री० प० हीरालालजीसे अपना अभिप्राय व्यक्त किया, उनसे चूर्णिसूत्रोंका संग्रह कराकर उन्हे मूल ताडपत्रीय प्रतिसे मिलान करने के लिए मूडबिद्री भेजा और उसका अनुवाद करनेको कहा । उन्होंने ही आजसे कई वर्ष पूर्व इस ग्रन्थको प्रकाशित करनेके लिए मुझे प्रेरित किया था । ग्रन्थके टाइप आदिका निर्णय भी उन्होंने ही किया और प्रस्तावना लिखनेके लिए आवश्यक परामश एव सूचनाएं भी उन्होने ही दीं। तथा अस्वस्थ दशामें भी मेरे साथ बैठकर प्रस्तावनाको आद्योपान्त सुना और यथास्थान सशोधनार्थ सुझाव प्रस्तुत किये । यही क्या, जैन समाज एवं जैन साहित्य और इतिहासके निर्माणके लिए की गई उनकी सेवाएं सुवर्णाक्षरों में लिखी जानेके योग्य हैं । उन्हे मैं किन शब्दोंमें धन्यवाद द? मैं ही क्या, सारा जैनसमाज उनका सदा चिर-ऋणी रहेगा। ग्रन्थको बनारसमें छपाने, टाइपोंका निर्णय करने और समय-समय पर मुझे और प० हीरालालजीको आवश्यक परामर्श देनेका कार्य काशी विश्वविद्यालयके बौद्ध दर्शनाध्यापक श्री०प० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने किया । भा० व० दि० जैन सघके प्रकाशन विभागके मंत्री श्री०प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने चूर्णिसूत्रों के निर्णयार्थ जयधवलाकी संशोधित प्रेसकापी देनेकी उदारता प्रकट की। श्रीगणेशवर्णी जैन ग्रन्थमालाके मन्त्री श्री० पं० फूल चन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने सदिग्य चूर्णिसूत्रोके निर्णयार्थ समय-समयपर अपना बहुमूल्य समय प्रदान किया और ग्रन्थ-सम्पादकको यथावश्यक सहयोग प्रदान किया। भारतीय ज्ञानपीठ काशीके व्यवस्थापक श्री पं० बाबूलालजी फागुल्लने बनारसमें पं० हीरालाल जीके ठहरनेकी तथा प्रेस और कागज आदिकी व्यवस्था की। उक्त कार्यो के लिए मैं बनारसकी उक्त विद्वञ्चतुष्टयीका आभारी हूँ। डॉ॰आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, एम.ए. डी.लिट, प्रोफेसर राजाराम कालेज कोल्हापुरने समय-समय पर आवश्यक सुझाव दिये और मुद्रित फार्मोंको देखकर उन्हे प्रकाशित करनेके लिए मुझे प्रोत्साहित किया, तथा अग्रेजीमें विषय-परिचय लिखनेकी कृपा की । इसके लिए में उनका आभारी हूँ। श्रीमान् रा० सा० लाला प्रद्युम्नकुमारजी जैन रइस (तीर्थभक्तशिरोमणि स्व० ला० जम्बूप्रसादजीके सुयोग्य सुपुत्र ) ने अपने पिताजीके द्वारा मंगाये हुए सिद्धान्तग्रन्थोकी कनड़ी प्रतिलिपियोंकी नागरी कराई, जिससे कि उत्तरभारतमें इन सिद्धान्त ग्रन्थोंका प्रचार सम्भव हो सका । उन्होंने पडितजीको समय-समय पर धवल और जयधवलके प्रति-मिलान और अनुवाद करनेके लिए प्रति-प्रदान करनेकी सुविधा देकर अपनी सच्ची जिनवाणीकी भक्ति और उदारता प्रकट की। इस गर्मी के मौसममे-जब कि प्रस्तावनाका लिखना पण्डितजीके लिये सम्भव नहीं था, अपने पास मसूरीमें ठहरा कर उनके लिये सभी प्रकारकी आवश्यक सुविधा प्रदान की इस सबके लिए लालाजीको जितना धन्यवाद दिया जाय, थोड़ा है । विद्वत्परिपदके शंका-समाधान विभागके मन्त्री श्री० ब्र० रतनचन्द्रजी मुख्तार (सहारनपुर) धर्मशास्त्रके मर्मज्ञ और सिद्धान्त-ग्रन्थों के विशिष्ट अभ्यासी हैं । प्रस्तुत ग्रन्थके बहुभागका आपने उसके अनुवाद-कालमें ही स्वाध्याय किया है और यथावश्यक संशोधन भी अपने हाथसे प्रेसकापीपर किये हैं। ग्रन्थका Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक फार्म मुद्रित होने के साथ ही आपके पास पहुंचता रहा है और प्रायः पूरा शुद्धिपत्र भी आपने ही बनाकर भेजा है, इसके लिए हम आपके कृतज्ञ हैं। जब ग्रन्थ प्रेसमें दे दिया गया और ग्रन्थ-सम्पादकको अपने अनुवादके संशोधनार्थ मृल जयधवलके मुद्रित संस्करणकी आवश्यकता प्रतीत हुई, तब श्री १०८ आ० शान्तिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्थाके मत्री श्रीमान् सेठ वालचन्द्र देवचन्द शाह वी० ए० बम्बईने स्वीकृति देकर और श्री० पं० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर सिवनी, सम्पादक-महाबन्धने उसकी प्रति प्रदान करके चूर्णिसूत्रोके निर्णय और अनुवादके संशोधनमें सहायता दी है। इसके लिये हम आपके भी आभारी है। सिद्धान्त-ग्रन्थोंके फोटो लेनेके लिये जब मैं २ वर्ष पूर्व मूडबिद्री गया, तब वहांके धर्मसस्थानके स्वामी श्री १०८ भट्टारक चारुकीर्तिजी महाराजने, तथा सिद्धान्त-वसतिमन्दिरके ट्रस्टी श्री० धर्मस्थल जी हैगडे, श्री० एम० धर्मसाम्राज्यजी मंगलोर, श्री के० वी० जिनराजजी हैगडे, श्री० डी० पुट्टस्वामी सम्पादक-कनडी पत्र विवेकाभ्युदय मैसूर, श्री देवराजजी एम० ए० एल एल वी० वकील, श्री० धर्मपालजी सेट्टी मूडबिद्री और श्री० पद्मराज सेट्टीने फोटो लेनेकी केवल स्वीकृति ही नहीं प्रदान की, बल्कि सर्व प्रकारकी रहन-सहनकी सुविधा और व्यवस्था भी की। श्री० पं० भुजवलीजी शास्त्री, श्री० एस् चन्द्रराजेन्द्रजी शास्त्री और श्री०प० नागराज शास्त्रीने प्रर्याप्त सहयोग प्रदान किया। प्रस्तुत ग्रन्थके मुद्रित होजाने पर जब कुछ संदिग्ध चूर्णिसूत्रोंके निर्णयार्थ जयधवलाकी ताडपत्रीय प्रतिसे मिलानकी आवश्यकता अनुभव की गई, तब ग्रन्थके मुद्रित फार्म श्री चन्द्रराजेन्द्रजी शास्त्रीके पास मूडविद्री भेजे गये और उन्होंने बड़ी तत्परता और सावधानीके साथ सभी संदिग्ध स्थलों पर ताड़पत्रीय प्रतिके पाठ लिखकर भेजे । साथ ही मूलप्रतिकी सूत्रारम्भके एवं सूत्र-समाप्तिके सूचक विराम चिह्न आदिकी कुछ विशिष्ट सूचनाएं भी भेजीं । शास्त्रीजीकी इस अमूल्य सेवाके लिये हम उन्हें खास तौरसे धन्यावद देते हैं । अन्तमें इतना और स्पष्ट कर देना मैं आवश्यक समझता हूँ कि श्री वीरशासनसंघके प्रकाशन प्रचारकी दृष्टिसे ही किये जाते हैं और इस कारण न्योछावरमें किञ्चिन्मात्र भी लाभ नहीं रखा जाता है। श्रावणकृष्णा प्रतिपदा वि० स० २०१२ । छोटेलाल जैन वीरशासनजयन्तीका २५१२ वा वर्प मन्त्री-श्रीवीरशासनसंघ कलकत्ता तीनो निद्धान्त अन्योकी एकमात्र उपलब्ध प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतियोके जीर्णाद्वारके लिये इन्हे नेशनल पारकाइब्ञ, नई दिल्लीमें भेजकर उनकी रक्षा करनेके प्रस्तावको स्वीकार कर उनका जीर्णोद्धार पूर्ण रूपसे कराने में भी प्राप लोग ही सहायक हुए है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य मेरे स्वप्न साक्षात् हुए-- __सन् १६२३ के दिसम्बरकी बात है, जब मै दि० जैन शिक्षा-मन्दिर जबलपुरमें न्यायतीर्थ और शास्त्रि परीक्षा पास करके जैन सिद्धान्त के उच्च ग्रन्थोंके अध्ययनके साथ बोर्डिंगके अंग्रेजी विभागके छात्रोंको धर्मशास्त्रके अध्यापनका भी कार्य कर रहा था, तब एक दिन रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न देखा कि मै श्रीधवल-जयधवल सिद्धान्त ग्रन्थोंका स्वाध्याय कर रहा हूँ। इतने में ही छात्रावासके नियमानुसार ४ बजे सोकर उठनेकी घंटी बजी। मैं चौंक कर उठा, हाथ मुंह धोकर प्रार्थनामें सम्मिलित हुआ और उसके समाप्त होने पर जैसे ही वापिस कमरेमें पैर रक्खा कि एक छात्रने कहा 'शास्त्री जी, आज कमरा माडनेकी आपकी बारी है।' मैंने बुहारी उठाई और एक ओरसे कमरा झाड़ना प्रारम्भ किया। अन्तमें जब मैं अपने पलंगके नीचे झाड़ रहा था, तो एक मोटा, छोटासा दोहरा हस्तलिखित शास्त्र-पत्र दिखाई दिया । मैंने उसे उठाकर प्रकाशमें पढ़ा तो यह देखकर मेरे आनन्दका पारावार न रहा कि उसमें एक ओर काली स्याहीसे मोटे अक्षरोंमे श्रीधवलकी और दूसरी ओर श्री जयधवलकी मंगल-गाथाएं लिखी हुई हैं। मैंने उन्हे अपने मस्तकपर रख अपनेको धन्य समझा और सन्दूकमें सुरक्षित रखकर सोचने लगा-यह कैसा स्वप्न है कि देखने के साथ ही वह साक्षात् सफल हो रहा है। इसके पश्चात् सन् २४के अक्टूबरकी बात है,जब मै बनारसके स्याद्वादमहाविद्यालयमें धर्माध्यापक था और विद्यालयमें ही सोया करता था, एक दिन फिर रात्रिके अन्तिम याममें स्वप्न देखा कि मै पुनः धवल-जयधवलका स्वाध्याय कर रहा हूँ। इतने में ही विद्यालयके छात्रोंके सोकर उठनेकी घंटी बजी, मेरी भी नींद खुली, और मै तत्काल देखे हुए स्वप्न पर विचार करने लगा। सन्दूकमेंसे मंगलगाथाओंवाले उस पत्रको उठाया, मस्तक पर रखा और एक वार उनका भक्ति और श्रद्धापूर्वक पाठकर प्राभातिक कार्यों में लग गया। दिनको सहारनपुरसे विद्यालयके मंत्री बा० सुमतिप्रसादजी-जो कि उन दिनों वहीं सर्विसमें थे-का तार विद्यालयके सुपरिन्टेन्डेन्टके नामसे आया, 'प० हीरालालजी को यहाँके वार्षिक उत्सवमें शास्त्र-प्रवचनके लिये भेजो।' मै बनारससे रवाना होकर यथासमय सहारनपुर पहुंचा। मुझे वहांके सुप्रसिद्ध तीर्थभक्तशिरोमणि, धर्मवीर (स्व०) लाला जम्बूप्रसाद जी जैन रईसकी कोठी पर ठहराया गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब मैं स्नानादिसे निवृत्त हो कर उनके निजी मन्दिरमें दर्शनार्थ गया, तब क्या देखता हूँ कि एक दक्षिणी सज्जन प्राकृत भाषामें कोई ग्रन्थ बांचकर सुना रहे हैं और दूसरा एक लेखक तीव्र गतिसे उन्हे लिखता जा रहा है । मैं पासमें बैठ गया और ध्यानसे सुनने लगा कि क्या विषय चल रहा है ? 'ये कौनसे ग्रन्थ हैं, इस प्रश्नके उत्तरमें मुझे बतलाया गया कि मूडबिद्री के भण्डारसे सिद्धान्तग्रन्थों की प्रतिलिपि यहाँ आई है और अब उनकी नागरी प्रतिलिपि की जा रही है । मुझे अभी ३ दिन पूर्व बनारसमें देखे हुए स्वप्नकी बात याद आई और मैंने इन सिद्धान्त ग्रन्थोंके साक्षात् दर्शन करके अपनेको भाग्यशाली माना, तथा जितने दिन वहा रहा-प्रतिदिन प्रातःकाल २ घटे उनका स्वाध्याय करता रहा। अन्तिम दिन जब वहासे वापिस आने लगा तो मन्दिरमें जाकर सिद्धान्तग्रन्थोंकी वन्दना की और मनमें प्रतिज्ञा की कि जीवनमें एक वार इन ग्रन्थोंका अवश्य स्वाध्याय करूगा। वे दोनो पत्र अब विलकुल जीर्ण-शीर्ण हो गये हैं, फिर भी वे आज मेरे पास सुरक्षित है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIII सन् ३२ की बात है, जब मैं भा० व० दि० जैन महासभा के महाविद्यालय व्यावर में धर्माध्यापक था, स्वप्न में देखा, कोई कह रहा है -- 'तेरे निवासस्थान के पास ही किसी दूसरे नगर में सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, जा, और उनका स्वाध्याय करके जीवन सफल कर' । जागनेपर मैने व्यावर और अपने देशके समीपस्थ सभी ग्राम-नगरोंपर दृष्टि दौड़ाई कि क्या किसी स्थानके शास्त्र भण्डारमे उक्त सिद्धान्त ग्रन्थोंका होना संभव है ? कहीं कुछ पता न चला और अपने पास सुरक्षित रखे उन मंगल-पद्योंका पाठ करके अपनी नोटबुकके प्रारम्भ में एक संकल्प लिखा कि जीवन में यदि अवसर मिला तो मैं इन सिद्धान्तग्रन्थोंका केवल स्वाध्याय ही नहीं करूँगाबल्कि उनका हिन्दी में अनुवाद भी करूंगा । ļ उन दिनों उज्जैनके प्रसिद्ध उद्योगपति रा० ब० जैनरत्न सेठ लालचन्दजी सेठीसे पत्र-व्यवहार चल रहा था, अन्त में मै सन् ३३ के प्रारम्भमें उनके पास उज्जैन पहुँचा । कुछ ही दिनों के पश्चात् वे झालरापाटन गये, साथ में मुझे भी ले गये। उन दिनों वहांके ऐलक पन्नालाल दि० 'जैन सरस्वती भवनमें श्री धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थोंको प्रतिलिपि श्रीमान पं० पन्नालालजी सोनीकी देख-रेख में हो रही थी । लगभग ४ मास वहां ठहरा और प्रतिदिन ४ घटे उन सिद्धान्त ग्रन्थोंमेंसे धवल-सिद्धान्तका स्वाध्याय कर उनके मूलसूत्रों का संकलन करता रहा, जो कि आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। झालरापाटन में रहते और सिद्धान्त-ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पहले धवल - सिद्धान्तका स्वाध्याय करना चाहिए -- क्योंकि उसके विना जयधवलको समझना असम्भव है । झालरापाटन में रहते हुए मैंने पट्खंडागम ( धवल सिद्धान्त ) के प्रथम खंड जीवस्थानका स्वाध्यायकर उसके पूरे सूत्रोंका संकलन कर लिया | उज्जैन वापिस आनेपर मैंने अनुभव किया कि तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद - विरचित सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय'के आठवें सूत्र पर जो विस्तृत टीका है, वह प्रायः जीवस्थानके सूत्रोका संस्कृत रूपान्तर ज्ञात होता है । और तभी मैंने दोनोंका तुलनात्मक अध्ययनकर एक लेख लिखा, जो कि सन् ३८ के जैनसिद्धान्तभास्करके भाग ४ किरण ४में प्रकाशित हुआ है। उज्जैनमे रहते हुए अनेकों बार मेरा झालरापाटन जाना हुआ और मैंने वहां महीनों रह करके उक्त सिद्धान्तग्रन्थोका स्वाध्याय किया । साथ ही श्रीधवल सिद्धान्तका अनुवाद भी मैने प्रारम्भ कर दिया । इसी बीच सुनने में आया कि भेलसा-निवासी श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी जैन साहित्यके उद्धार और प्रकाशनार्थ १० हजारका दान दिया है । सन् ३४ के अन्तमं प्रो० हीरालालजी द्वारा सम्पादित जयधवलका एक फार्मवाला नमूना भी देखनेको मिला और उसपर अनेकों विद्वानों द्वारा की गई समालोचनाए और टीका-टिप्पणियां भी समाचार-पत्रोंमें देखने और पढ़ने को मिलीं । सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ प० जुगलकिशोरजी मुख्तार सरसावा, प्रसिद्ध दार्शनिक प्रज्ञाचतु प० सुखलालजी संघवी और प्रा० आ० नं० उपाध्याय कोल्हापुर श्रादिने जयधवल के उस एक फार्म के अनुवाद और सम्पादन में शब्द और अर्थगत अनेकों अशुद्धियों को बतला करके यह प्रकट किया था कि इन सिद्धान्त - ग्रन्थका सम्पादन और अनुवाद प्रो० हीरालालजी के वशका नहीं है। इसी समय प्रो० हीरालालजीके साथ मेरा पत्र-व्यवहार प्रारम्भ हुआ और यह निश्चय हुआ कि मै उज्जैन में रहते हुए ही धवलसिद्धान्तका अनुवाद करता रहूँ और जब एक भागका अनुवाद तैयार हो जाय, तब उसे प्रेस में दे दिया जाय। मेरे पास प्रां० हीरालाल जीने श्रमरावती और आराकी प्रतियों के प्रारम्भके १००-१०० पत्र भी भिजवा दिये। झालरापाटनकी प्रति तो मुझे पहले से ही सुलभ थी, तीनों का मिलान करते हुए मुझे अनुभव हुआ कि सभी प्रतियां अशुद्ध हैं और उनमें स्थान-स्थान पर लम्बे-लम्बे पाठ छूटे हुए हैं--खासकर अमरा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IX वतीकी प्रति तो बहुत ही अशुद्ध निकली, क्योंकि वह सीताराम शास्त्रीके हाथकी लिखी हुई नहीं थी। तीनों प्रतियोंमे केवल आरावाली प्रति ही उनके हाथकी लिखी हुई थी। इस वातसे मैने प्रो० हीरालालजीको भी अवगत कराया । वे अनुवाद और मूलकी प्रेसकापीको भेजनेके लिए आग्रह कर रहे थे, उनकी इच्छा थी कि ग्रन्थ जल्दी-से-जल्दी प्रेसमें दे दिया जाय । पर मैंने उन्हे स्पष्ट लिख दिया कि जब तक सहारनपुरकी प्रतिसे मिलान नहीं हो जाता, तब तक मैं ग्रन्थको प्रेसमें नहीं देना चाहता । लेकिन सहारनपुरकी प्रतिसे मिलान करना भी आसान काम नहीं था, क्योंकि ऐसा सुना जाता था कि सहारनपुर वाले छापेके प्रबल विरोधी हैं, फिर दिगम्बरोंके परम मान्य श्राद्य सिद्धान्त-ग्रन्थोंको छपानेके लिए प्रति-मिलानकी सुविधा या आज्ञा कैसे प्रदान करेंगे? चूँ कि मै सन् २४ मे सहारनपुर जा चुका था और स्व० लाला जम्बूप्रसादजीके सुयोग्य पुत्र रा० सा० ला० प्रद्युम्नकुमारजीसे परिचय भी प्राप्त कर चुका था, अतएव मैने यही उचित समझा कि सहारनपुर जाकर लालाजीसे मिलकर और उनकी आज्ञा लेकर वहांकी प्रतिसे अपनी ( अमरावतीवाली) प्रतिका मिलान कर रिक्त पाठोंको पूरा और अशुद्ध पाठोंको शुद्ध किया जाय । तदनुसार सन् ३७ की गर्मियोंमें सहारनपुर गया । वहां पहुंचनेपर ज्ञात हुआ कि लालाजी तो मसूरी गये हुए हैं । मै उनके पास मसूरी पहुंचा, सारी स्थिति उन्हें सुनाई और मिलानके लिए प्रति देनेकी आज्ञा मांगी। उन्होंने कहा-यद्यपि हमारा घराना और हमारे यहांकी समाज छापेकी विरोधी है, क्योंकि ग्रन्थके.छपने आदिमें समुचित विनय नहीं होती. सरेसके वेलनोंसे ग्रन्थ छपते हैं, आदि । तथापि जब उक्त सिद्धान्त-ग्रन्थ छपने ही जा रहे है, तो उनका अशुद्ध छपना तो और भी अनिष्ट-कारक होगा, ऐसा विचार कर और 'जिनवाणी शुद्धरूपमें प्रकट हो' इस श्रत-वात्सल्यसे प्रेरित होकर प्रति-मिलानकी सहर्प अनुमति दे दी। मैने सहारनपुर जाकर वहॉकी प्रतिसे अमरावतीकी प्रतिका मिलान-कार्य प्रारम्भ कर दिया। पर गर्मी के दिन तो थे ही, और सहारनपुरकी गर्मी तो प्रसिद्ध ही है, वहाँ १५ दिन तक मिलान-कार्य करनेपर भी बहुत कम कार्य हो सका। मै मसूरीके ठडे मौसमकी बहार हाल में ही ले चुका था, अतः सोचा, क्यों न लालाजीसे सिद्धान्त-ग्रन्थकी प्रति मसूरी लानेकी आज्ञा प्राप्त करूँ ? और दुवारा मसूरी जाकर अपनी भावना व्यक्त की । लालाजीने कुछ शर्तोंके साथ ® मसूरीमें ग्रन्थराजको लाने, प्रति-मिलान करने और अपने पास ठहरनेकी स्वीकृति दे दी और मै सहारनपुरसे धवलसिद्धान्तकी प्रति लेकर मसूरी पहुंचा । गर्मी भर लालाजीके पास रहा और श्री जिनमन्दिरमें बैठकर प्रति-मिलानका कार्य करता रहा ।। जब धवलसिद्धान्तके प्रथम खड जीवस्थानका मिलान पूरा हो गया, तो मसूरीसे लौटते हुए सरसावा जाकर श्रद्धेय प० जुगलकिशोरजी मुख्तारसे मिला, सर्व वृत्तान्त सुनाया और अब तकके किये हुए अनुवाद और प्रतिमिलानके कार्यको भी दिखाया। वे सर्व कार्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए, कुछ सशोधन सुझाए और जरूरी सूचनाए दी। मैंने उन सबको स्वीकार किया और वापिस उज्जैन आगया। उज्जैन श्राकर सशोधित पाठोंके अनुसार अनुवादको प्रारम्भसे देखा, यथास्थान सशोधन किये, टिप्पणियां दीं और इस सबकी सूचना प्रो० हीरालालजीको दे दी। प्रो० हीरालालजी मुझे उज्जैनकी नौकरी छोडकर अमरावती आनेका आग्रह करने 4६ ग्रन्थराज लकडीकी पेटीमें रखकर लावें, जूते पहने न लाये जावें और शूद्र कुलीके ऊपर वोझ उठवा कर न लाये जायें । तदनुसार मैं राजपुरसे कुलीके ऊपर अपना सामान रखाकर और ग्रन्थराजकी प्रति अपने मस्तकपर रख करके पैदल ही पगडडीके रास्तेसे मसूरी पहुंचा था। सहारनपुरकी प्रतिसे मिलान करके जो पाठ लिये थे, उनमेंसे एक पृष्ठका चित्र धवलाके प्रथम भागमें मुद्रित है, जिसमें कि मेरे हस्ताक्षर स्पष्ट दिखाई देते है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगे। पर मेरी भीतरी इच्छा यही थी कि उज्जैनमें रहते हुए ही सिद्धान्त-ग्रन्थोंके अनुवादका कार्य करता रहै। अत' लगभग एक वर्ष इमी दुविधामे निकल गया। सन् ३८ के अन्तमे श्री० नाथूरामजी प्रेमीका पत्र मिला,जिसमे उन्होंने लिखा था-'आप दो घोडोंकी सवारी करना चाहते है, पर यह सम्भव नहीं। या तो आप उज्जैनकी नौकरी छोडवर अमरावती चल जाइए, या फिर जो कुछ भी अनुवादादि आपने किया हो उसे प्रो० हीरालालजीको भेजकर अपना पारिश्रमिक ले लीजिए और इस कामको छोड़ दीजिए । जहां तक मैं जानता हूं आप उज्जैनकी नौकरी छोड नहीं सकेंगे, इत्यादि । पत्र बहुत लम्बा था और नौकरी छोडनेकी बात मेरे लिए चुनौती थी। मैने कई दिन तक ऊहापोह के बाद उज्जैन छोड़ने का निश्चय किया। आखिर मैं सन २८ के दिसम्बरमै उज्जैन की नौकरी छोड़कर अमरावती पहुंच गया। प्रो०सा के परामर्शके अनुसार १जनवर। सन् ३६ से वहां अाफिन व्यवस्था करली गई। आफिसव्यवस्थाके कुछ दिन बाद ही श्री० प० फून वन्द्र जी शास्त्री भी बुला लिये गये थे और हम दोनो मिल कर कार्य करने लगे । इसी वर्ष के अन्तम धवला का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। जब इनर टाइटिल पेन प्रेस में दिया गया और उसके ऊपर अपना अनुवादकके रूपमें नाम न देखा, तो मैने उसका विरोध किया और आगे काम न करने के लिये त्यागपत्र भी प्रस्तुत कर दिया। मुझे इस बात से बहुत धक्का लगा कि प्रो० सा० हमारा नाम अनुवादकके रूपमें क्यों नहीं दे रहे हैं, जबकि अनुवाद हमारा किया हुआ है और जिसे कि मै अमरावती पहुंचनेके ३ वर्ष पूर्वसे करता आ रहा हूँ। (पीछे इस बात को उन्होंने धवलाके प्रथम भागके प्राक्कथनमे स्वय स्वीकार किया है।) धवलाके प्रथम भागका प्रकाशन-समारम्भ श्री प्रेमीजीके द्वारा अमरावतीमे ही सम्पन्न हुआ था। समारोह में स्व० श्रीमान् प० देवकीनन्दनजी कारंजा और मेरे श्वसुर स्व. दया चन्द्रजी बजाज रहली (सागर) भी पधारे थे । प्रेमीजी के साथ उन सब लोगोंने मुझपर भारी दवाव डाला, अपने नामके मोह छोड़नेकी बात कही, पर जब मैं किसी प्रकारसे भी त्यागपत्र वापिस लेनेको तैयार नहीं हुआ तव अन्त में सह-सम्पादकके रूपमें हम लोगोंका नाम दे दिया गया । यद्यपि मैने त्यागपत्र वापिस ले लिया, तथापि मेरे चित्तको बड़ी चोट लगी कि केसी विलक्षण वात है, काम हम करें और नाम दूसरोंका हो । जब बहुत प्रयत्न करने पर भी चित्त शान्त नहीं हुआ,तब मैंने यह स्थिर किया कि जयधवलाका अनुवाद मै स्वतन्त्रता-पूवक करूगा । इसके लिये पहले उसके मूलकी प्रेसकापी तैयार करनेका सकल्प किया और सन् ३६ के दिसम्बरसे ही अपने घर पर जयधवलाकी ग्रेसकापी करना प्रारम्भ कर दिया। मन ही मन स्थिर किया कि जिस दिन भी जयधवलाकी पूरी प्रेमकापी तैयार हो जायगी उसी दिन धवला-आफिससे सम्बन्ध विच्छेद कर लूँगा । दा वपके भीतर धवलाक तीन भाग प्रकाशित हुए और इबर ठीक दो वर्पक कठिन परिश्रम के बाद ६० हजार श्लोकोंके प्रमाणवाली जयधवलाकी प्रसकापी भी मैंने तैयार बर ला, जिराक कि फुलस्केप पृष्ठोंकी सख्या साढ़े सात हजारसे ऊपर थी। इसी समय एक देवा घटना घटी, श्री० पं० फूलचन्दजीके पुत्र की सख्न बीमारी का नार घरसे श्राया और व देश चल गये । दुर्भाग्यवश उनके पुत्रका देहान्त हो गया और उन्होंने अमरावती न आने का निश्चय प्रो- सा० का लिख भेजा । जिस दिन मै त्यागपत्र लेकर प्रो० सा० को देने के लिये उनके पास पहुचा, तो उन्होने उक्त समाचार सुनाया और पूछा कि क्या अवले श्राप यागेके अनुवादादिया काय सभाल लेगे? मैं बड़ी दुविधामे पड़ा कि यह क्या हो रहा है । जिस दिन मैं धवला-श्राफिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता था. उस दिन प-फूलचन्द्रजीने सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया ।।। अन्तमे मैंने अपना त्यागपत्र अपनी जयमे ही रहने दिया और धवला-श्राफिमम यथापूर्व कार्य करता रहा । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XÍ इसी बीच सन ४० में मै सहारनपुर जैनयुवक समाजकी ओरसे पर्युषण पर्वमै शास्त्रप्रवचनके लिए आमंत्रित किया गया। वहांसे श्रीमुख्तार सा० से मिलने के लिये सरसावा भी गया और उस वर्ष घटित हुई घटनाओं को सुनाया । जयधवलाके प्रेसकापी कर लेने की बात सुनकर श्री मुख्तार सान्ने अपनी इच्छा व्यक्त की कि यदि आप जयधवलामेसे कसायपाहुड मूल और उसकी चूर्णिका उद्धार करके और अनुवाद करके हमें दे सकें, तो हम वीर सेवामन्दिरकी ओरसे उसे प्रकाशित कर देगे । मैने उनको इसकी स्वीकृति दे दी। अनुवाद, टिप्पणी आदिके विषयमें विचार-विनियम भी हुआ और एक रूप-रेखा लिखकर मुझे दे दी गई कि इस रूपमें कार्य होना चाहिए । मैं उस रूप-रेखा को लेकर वापिस अमरावती आगया। दिनमें धवला-आफिस जाकर धवलाके अनुवाद और सम्पादनका कार्य करता और रातमें घर पर कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंका संकलन करता । चूर्णिसूत्रोंके संकलन करते हुए यह अनुभव हुआ कि उनका ६० हजार प्रमाणवाली विशाल जयधवला टीकामेंसे छांटकर निकालना सागरमे गोता लगाकर मोती बटोरने जैसा कठिन कार्य है। यद्यपि सन् ४१ के भाद्रपद शुक्ला १३ का मैने चूर्णिसूत्रोंका सकलन पूरा कर लिया, तथापि सैंकड़ों स्थान सदिग्ध रहे कि वे चूर्णिसूत्र हैं, या कि नहीं ? मैने इसकी सूचना श्री० मुख्तार सा० को दी, उन्होने मुझे सरसावा बुलाया। मैंने वहां जाकर चूर्णिसूत्रोंकी कापी दिखाई और साथमें सदिग्ध स्थल । अन्तमें यह तय हुआ कि मूडबिद्री जाकर ताडपत्रीय प्रतिसे चूर्णिसूत्रों का मिलान कर लिया जाय और वहां जाने-आनेके व्ययका भार वीरसेवा-मन्दिर वहन करे । सन् ४२ की फरवरीमें मैं अमरावतीसे मूडबिद्री गया और वहां १५ दिन ठहरकर स्व. श्री० पल्लोकनाथजी शास्त्री और नागराजजी शास्त्रीके साथ "बैठकर ताडपत्रीय प्रतिसे चूर्णिसूत्रोंका मिलान करके वापिस आगया और घरपरे धवलाके प्रूफ-रीडिंग आदिसे जो समय बचता, उसमें चूर्णिसूत्रोंका अनुवाद करने लगा । जब कुछ अंशका अनुवाद तैयार हो गया, तो मैने उसे श्री मुख्तार साल के पास भेज दिया। साथ ही उनके द्वारा बतलाये गये टाइपों में एक नमूना-पत्र भी मुद्रित कराया और उसे देखने के लिये उनके पास भेज दिया । जब ग्रन्थको प्रेसमे देनेकी बात श्री० मुख्तार सा० ने पत्र में लिखी, तो मैने उनसे यह पूछना उचित समझा कि ग्रन्थके ऊपर मेरा नाम किस रूपमें रहेगा। उनका उत्तर पाया कि ग्रन्थके ऊपर तो 'सम्पादक' के रूप में मेरा नाम रहेगा। हां, भीतर अनुवादादि जो कार्य आप करेंगे उस रूपमें आपका नाम रहेगा । मुझे तो इस ‘सम्पादक' नामसे पहले से ही चिढ़ थी, कि आखिर यह क्या बला है ? तब मैने 'सम्पादक और प्रकाशक' शीर्षक एक छोटा सा लेख लिख करके अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ' श्री मुख्तार सा० को भेजा । उन्होंने न तो उसे अनेकान्तमें प्रकाशित ही किया, न मुझे कोई उत्तर दिया । प्रत्युत प्रो० हीरालालजी को एक बन्द पत्र लिखकर उस लेखकी सूचना उन्हे दी और लिखा कि ऐसा ज्ञात होता है कि आपका और उनका कोई मत-भेद सम्पादकके नामको लेकर हो गया है। और न जाने क्या-क्या लिखा ? भाग्यकी बात है कि जिस समय यह पत्र आया उस समय मै और प्रो० सा० आमने-सामने बैठे हुए प्रति-मिलान कर रहे थे । श्री मुख्तार सा०के अक्षर पहिचान करके उन्होंने उसे तत्काल खोल कर पढ़ना प्रारम्भ किया और ज्यो ज्यों वे उसे पढ़ते गये, उनके बदले हुए भावोंकी छाया मुखपर अंकित होती गई। मै यह सब पूरे ध्यान सेदेख रहा था। पत्र पढ़ चुकने पर उन्होंने पूछा - क्या आपने कोई लेख इस प्रकारका पत्रोंमें प्रकाशनार्थ भेजा है ? मैंने सब बातें यथार्थ रूपमें कहीं । सुनकर बोले आप उस लेखको वापिस मंगा लीजिये । मैंने कह दिया, यह तो संभव नहीं है । मेरा उत्तर सुनकर वे कुछ अप्रतिभसे होकर बोले-तब ऐसो अवस्थामें यहां कार्य करना सभव नहीं ! वान बढ़ चली और मेरा धवला Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XII आफिस से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। कुछ दिनोके बाद ता० १८-५-४२ का लिखा एक लम्बा पत्र श्री० मुख्तार सा० का आया, जिसमें सम्पादक-पक्षमे बहुत सी दलीलें देकर यह दिखानेका यत्न किया गया था , कि मुझे सम्पादक न माननेका क्या कारण है ? xxx मालूम होता है कि आप किसी लोभ-मोहादिके प्रलोभनमें फंस गये हैं, अतः यह बखेड़ा उठाया है, आदि । अन्तमे आपने लिखा था कि मूडबिद्री जाने आनेमे आपने संस्थाकी एक रकम खर्च कराई और अब यह अडगा लगा रहे हैं, आदि । मैने सम्पादक-सम्बन्धी बातोंके बारे में तो यह लिख दिया कि पहले आप मेरे उस लेख को अनेकान्तमे प्रकाशित कीजिये पीछे जो भी आप उसपर सम्पादकीय टिप्पणीमे लिखना चाहे-लिखिए। साथ ही यह भी लिख दिया कि यदि आप उस लेखको प्रकाशित नहीं करना चाहते हों, तो मुझे तुरन्त बैरग वापिस कर देवें, जिससे कि मै अन्य पत्रोंमे प्रकाशित करा सकूँ । और जब तक मुझे मेरे लेखका समुचित समाधान नहीं मिल जाता, तब तक मै आपको या किसीको सम्पादक मानने के लिये तैयार नहीं हूँ। भले ही मेरा यह ग्रन्थ अप्रकाशित पड़ा रहे ? रह गई मूडविद्री जाने-आने में खर्च हुए रुपयों की बात, सो ग्रन्थका जितना अश आपके पास पहुंच चुका है उसकी उतने रुपयोकी वी० पी० करके अपना रुपया मेरे से वसूल कर लीजिये और मेरी प्रेसकापी मुझे वापिस कर दीजिए । अन्तमें ८०) रुपये उन्हे भेज दिये गये और मैने अपनी प्रेसकापी अपने पास वापिस मंगा ली। ___ इसी बीच मथुरा संघसे जयधवलाके प्रकाशनकी योजना बनी और मैंने जयधवलाकी पूरी प्रेसकापी उन्हें दे दी। इस प्रकार मेरा धवला और जयधवलासे तो सम्बन्ध-विच्छेद हुआ ही, श्रीमुख्तार सा०से भी कसायपाहुडके प्रकाशन-सम्बन्धी सब बाते समाप्त हो गई और मै अमरावती छोड़ कर वापिस उज्जैन आ गया । अप्रासगिक होते हुए भी यहां इतना लिखना अनुचित न होगा कि अमरावतीमें ही रहकर सिद्धान्त-प्रथोंके अनुवादादि करनेके विचारसे मैने अमरावतीमें एक मकान भी खरीद लिया था और अपने पठन-पाठनकी सुविधाके अनुकूल वनवा भी लिया था। मगर जब सिद्धान्त-ग्रंथोके अनुवाद और सम्पादुनादिसे एक प्रकारसे सर्वया सम्बन्ध-विच्छेद-सा हो गया, तो दिलको बडी चोट लगी और उज्जैन आनेके एक वर्ष बाद अमरावती जाकर वहांका मकान भी बेच आया । इस प्रकार मध्यलोकके मध्यभारतकी मध्यभूमि उज्जैनसे मैं सकुटुम्ब सदेह अमरावती (स्वर्ग) भी पहुँच गया, और पूरे ५ वर्षे वहा रह कर अन्त में अपने सर्व कुटुम्बके साथ पुन सदेह हो वापिस मध्यलोकमे आगया। उक्त घटनाओंका मन पर जो असर हुआ, वह प्रयत्न करने पर भी लम्बे समय तक दूर नहीं हो सका और सन् ४४ मे पुन' उज्जैन आने के बादसे ही बरावर इस अवसरकी प्रतीक्षा करता रहा कि चित्त कुछ शान्त हो और मै मूल पखण्डागम और कसायपाहुडके चूणिसूत्राकार अनुवाद पूरा कर सकं । चूर्णिसूत्रोंके ऊपर जयधवलाके आधारसे मैंने विस्तृत टिप्पणियाँ ले रखी थीं, अतएव जब कभी समय मिलता और चित्त शान्त होता, मै अनुवाद करता रहा । पर इस दिशामे कुछ प्रगतिशील कार्य नहीं हो सका । अबकी बार उज्जैन आने पर नौकरी करनेमें चित्त नहीं लगा और हर समय ऐसा प्रतीत हो कि यहा रहकर तू अपने जीवनके इन कीमती क्षणोको व्यर्थ खो रहा है ? फलस्वरूप मैंने सन् ४६ के अन्तमें उज्जैनकी नौकरी छोड़ दी। भा०व० दि० जैन सबके उस समय के प्रधानमत्री पं० राजेन्द्रकुमारजीको जैसे ही मेरे उज्जैनकी नौकरी छोड़नेकी बात ज्ञात हुई उन्होंने मेरे द्वारा तैयार किये हुए चूर्णिसूत्रादिको प्रकाशित करनेका वचन देकर मुझे मथुग बुला लिया और सरस्वती-भवनकी व्यवस्था मुझे सौंप दी। या रहते हुए मैंने छहढाला, द्रव्यसंग्रह और रत्नकरण्डश्रावकाचारके स्वाध्यायोपयोगी नये Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIIi भाष्य लिखे, जिनमे आदिके दोनों ग्रन्थ सबसे मुद्रित हो चुके हैं । सघमें रहते हुए अचानक ललितपुरसे तार द्वारः एक सब टकी सूचना मिली और मै अवकाश लेकर घर चला आया । इस सकटमे पूरे तीन वर्ष व्यतीत हुए और हजारों रुपये बवाद । दुकानका सारा कारोबार ठप्प होगया और हम सब भाई पुन. नौकरी करनेके लिए विवश हुए। इस प्रकार सन् ४३ से ४६ तकके ६ वर्षके भीतर घरू झझटोंके कारण इन सिद्धान्त-ग्रन्थोंका मै कुछ भी कार्य न कर सका । इस समय मै नौकरीकी चिन्तामें था, कि सहारनपुरसे मेरे चिरपरिचित और अतिस्नेही ला०जिनेश्वरदासजीका पत्र पहुंचा कि आप यहां चले अाइए और गुरुकुलके आचार्यका भार संभालिए । पत्र पाते ही मै सन् ४६ की जुलाईमे सहारनपुर आगया । पहले दिन तो गुरुकुलका चार्ज सभाला और दूसरे दिन श्रीमान् ला० प्रद्युम्नकुमारजीके मन्दिरमे जाकर सिद्धान्त ग्रन्थोका सभाला और वेदक अधिकारसे चूर्णिसूत्रोंका अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया । वर्षों की प्रतीक्षाके बाद यहा रहते हुए प्रतिदिन प्रात काल ७॥ से ६॥ बजे तक लालाजीकी कोठीके एक बड़े एकान्त, शान्त कमरे में बैठकर मैं अनुवादका कार्य करता रहा । जब गुरुकुल वहासे हस्तिनापुर पहुंचा, तो सहारनपुकी प्रतिको वहा भी लेगया और अनुवादका कार्य बराबर जारी रखा । इसी बीच गुरुकुलमें रहते हुए खातौली जाना हुआ और ला० त्रिलोकचन्द्रकी आदिकी कृपासे वहाके मन्दिरजीकी धवल-जयधवलकी पूरी दोनों प्रतियां लेता आया। सन् ५८ के अप्रैलके अन्तमे गुरुकुल छोड़ दिया और सस्ती ग्रन्थमालामे क्षुल्लक चिदानन्दजी महाराजने मुझे दिल्ली बुला लिया। यहांपर धर्मपुरा पचायती मन्दिरकी जयधवल-प्रति भी मुझे सुलभ हो गई और कसायपाहुडके अनुवादका काम जारी रहा । यहाँ आनेपर दिल्लीकी गर्मीको सहन न कर सका और चकरौता चला गया-जोकि शिमला और मसूरीके समकक्ष ही ठडा स्थान है। वहां रहकर काफी बड़े अंशका अनुवाद किया । घटनाचक्रसे विभिन्न नौकरियोंको करते हुए मैंने ३ वषे दिल्लीमे व्यतीत किये और दोनों सिद्धान्त-प्रन्थोंके मूल सूत्रोका अनुवाद अवकाशके अनुसार करता रहा। अन्तमे सन् ५१के सितम्बर में षटखण्डागमके मूलसूत्रोंका सङ्कलन और अनुवाद पूरा किया और सन् ५३ के मार्च में कसायपाहुडके अनुवादको भी पूरा कर लिया। जब मैं धवल और जयधवल दानोंसे ही तथा सचूर्णि कसायपाहुडके प्रकाशनसे हाथ धो बैठा, तो मैंने महाधवल ( महाबन्ध ) को हाथमे लेने का विचार किया। सन् ४२ मे जब चूर्णिसूत्रों के मिलानके लिए मूडबिद्री गया था, तब महाबन्धके भी एक वार आद्योपान्त पत्रे उलट आया था और चारों अधिकारोंके अनुयोगद्वार-सम्बन्धी कुछ नोट्स भी ले आया था, तभीसे यह भावना हृदयमे घर कर गई थी। पर तब तक महावन्धको प्रति मूडबिद्रीसे बाहिर कहीं नहीं आई थी। समय आनेपर पं० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर सिवनीके प्रयत्नसे महाबन्धकी प्रतिलिपि भी बाहिर आई और उन्होंने अपने साथियोके साथ उसका अनुवाद भी प्रारम्भ किया। मुझे भी दिखाकर परामर्श लिया गया और कुछ दिनो बाद महाबन्धका एक भाग भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित भी होगया । सम्पादकके नामको लेकर वहां भी विवाद उठा था और उनके दोनों साथियोका सम्बन्ध टूट गया था। प्रत जब आगेके अनुवादादि की बात चली और मुझसे उसमे सहयोग देने के लिए कहा गया, तो मैने उसे अस्वीकार कर दिया, क्योंकि सम्पादनके नामको लेकर ही मेरा धवला और कसायपाहुडसे सम्बन्ध विच्छेद हुआ और उसीके निमित्तसे दिवाकरजीके दोनो साथी अलग हुए थे । कुछ कारणोंसे जब महाबन्धके आगेके भागोंका प्रकाशन रुक गया और जब मै श्री १०५ क्षु० पूर्णसागरजीके पास दिल्ली में काम कर रहा था, तब ज्ञानपोठ काशीके मन्त्री श्री गोयलीयजी अपने किसी कामसे दिल्ली आये। मेरी उनसे भेट हुई और उन्होंने महाबन्धके आगेके भागोंका सम्पादन करने के लिए कहा। मैंने उनसे कहा कि जो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIV प्रति वाहिर आई हैं, प्रथम तो उसका मिलना ही कठिन है और यदि मिल भी जाय, तो उसके ऊपर पूर्ण शुद्ध होनेका विश्वास नहीं किया जा सकता है। अतएव उसका ताडपत्रीय प्रतिसे मिलान करानेकी सुविधा यदि आप देवें, या मेरे मूडबिद्री जाकर मिलान करनेका भार ज्ञानपीठ वहन करे, तो मैं आपके प्रस्तावको स्वीकार कर सकता हूँ। उन्होंने मूडबिद्री जाने-आनेके भारको उठानेसे इनकार करते हुए कहा कि आप उस भारको स्वयं वहन कीजिए और सम्पादनपारिश्रमिकम जाड़कर उसे वसूल कर लीजिए । अन्तम पारिश्रमिकका एक अनुमानिक विवरण लिखकर उन्हे दे दिया गया। उन्होंने कहा कि मै कमेटीसे विचार-विनिमय करके लिखूगा । करीब ६ मासके पश्चात् गोयलीयजीका पत्र आया कि यदि आप स्वयम्भू कविके अपभ्र शरामायणके अनुवादका कार्य कर सकें, तो ज्ञानपीठ वह काम आपसे करानेके लिए तैयार है। मैंने उनके इस पत्रका उत्तर दिया कि लगभग एक वर्षसे जिस महाबन्धका सम्पादन मुझसे कराने की चर्चा चल रही थी, उसका तो आपने कोई उत्तर नहीं दिया, फिर यह नया प्रस्ताव कैसा । उत्तर आया कि आपके पारिश्रमिककी मांग कुछ अधिक थी, अतः उसका सम्पादन तो पं० फूल चन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीको सौंप दिया गया है। चूं कि आप घर पर इस समय अवकाशमे है, इसलिए उक्त प्रस्ताव आपके सामने रखा गया है, आप इसे स्वीकार कर उसके एक अंशका अनुवाद डा० हीरालालजीके पास स्वीकृतिके लिए नागपुर भेज दीजिये। मैंने उनके इस पत्रका कोई उत्तर नहीं दिया और अपने अतीत जीवनपर विहगावलोकन करने लगा--कि कहॉ तो एक वार मेरे स्वप्न साक्षात् हो रहे थे, और कहां अब हाथमें आए हुए ये सिद्धान्तग्रन्थ क्रम-क्रमसे मेरे हाथसे निकलते जा रहे हैं ? ___ इस बीच सन् ५२ के भादोंमे अकस्मात् मेरे पञ्चीस वर्षीय विवाहित ज्येष्ठ पुत्रका देहान्त हो गया। यह मेरे लिए वज्रप्रहार था, इससे मै इतना अधिक आहत हुआ कि पूरे दो वर्ष तक घरसे बाहिर नहीं जासका और अपने चित्तको सम्भालने के लिए कुछ ग्रन्थोंका अनुवादादि करता रहा । जिसके फल-स्वरूप वसुनन्दिश्रावकाचार और जिनसहस्रनाम ये दो ग्रन्थ तैयार किये, जो बाद में ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित हुए। पटखडागममूलसूत्रों और कसायपाहडचूर्णिसूत्रोंके आद्योपान्त अनुवाद मेरे पास तैयार थे ही, अत. जनवरी सन् १९५४ में जिनसहस्रनाम के प्रकाशित होते ही उक्त दोनो ग्रन्थोंको भी प्रकाशित करनके लिए गोयलीयजीसे कहा । उन्होंने उत्तर दिया--हमारे यहांकी व्यवस्था आपको ज्ञात है । आप नागपुर चले जाइए और प्राकृत विभागके प्रधान सम्पादक डा० हीरालालजीसे स्वीकृति ले आइए, हम तुरन्त ही दोनों ग्रन्थोंको ज्ञानपीठसे प्रकाशित कर देंगे । मै फरवरी सन ५४ में उक्त दोनों ग्रन्थोको भारतीयज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशनार्थ स्वीकृति लेनेके लिए डॉ० हीरालालजीके पास नागपुर गया और उनके यहा ही तीन दिन ठहरा । अनुवाद और मूलका प्रेसकापी आदि सब कुछ उन्हे दिखाया और भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशनार्थ स्वीकृति देनेके लिए निवेदन किया । पर डॉ॰होरालाल जीने यह कहकर स्वीकृति देने से इनकार कर दिया कि यदि ये दोनो मूलग्रन्थ छप जावेंगे,तो धवला-जयधवलाका प्रकारान रुक जावेगा क्योंकि फिर इन टीका ग्रन्थोंको कौन खरीदेगा? मुझे उनकी यह दलील समझमे नहीं आई कि मूल-ग्रन्थक प्रकाशमं श्रानेसे टीकाओंका प्रकाशन क्यो रुक जावेगा ? अन्त में हताश होकर देश लौट आया । हा, चलते समय डा० सा० ने यह अवश्य कहा, कि यदि धवनाके परे भाग प्रकाशित होने तक श्राप रुके रहेगे, तो आपके पटखडागमके मृल और अनुवादको हम प्रकाशित कर देगे। गतवर्ष मार्च सन् ५४ में मैं वीरमंबामन्दिर बुला लिया गया और उसके नूतन भवनके शिलान्यासके अवसरपर श्रीमान बा० छोट लालजी जैन क्लकत्तासे दिल्ली पचारे और वीरसंवामन्दिरमे ही ठहरे । करीब एक मास साथमे रात-दिन उठना-बैठना हुआ और मैंने उनकी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV प्राचीन जैन वाड्मयके प्रकाशनमें अभिरुचि देखी । अवसर पाकर एक दिन मैंने उन्हें उक्त दोनों ग्रन्थोंकी प्रेसकापियां दिखाकर ऊपर लिखा सर्व वृत्तान्त सुनाया और कहा कि भारतीय-ज्ञानपीठके आप भी ट्रस्टी है क्या बैठकके समय डा. हीरालाल नी और डा० उपाध्यायसे आप पूछनेकी कृपा करेंगे कि वे लोग इनके प्रकाशनकी क्यों स्वीकृति नहीं देते ? उन्होंने सर्व बाते ध्यानसे सुनकर पूछा कि इन दानों ग्रन्योंके पफाशनम क्या व्यय होगा और मैने एक आनुमानिक व्ययका हिसाब लिखकर उन्हे दे दिया। कुछ दिन बाद श्रीमान् वा छं टेलालजीका कलकत्ता पहुँचने पर पत्र मिला कि साहू श्रीशान्तिप्रसाद जी तो इग समय रसिया गये है, वहाँ से दिवाली तक लौटेंगे। यदि आप चाहें, तो अन्य सस्थान प्रकाशनकी ग.जना की जा सकती है। मैंने उत्तरमें स्वीकृति दे दी । पर्युपणपर्वमें श्रीमुख्तार ग्नान मुझे कलकत्ता भेजा और कहा कि उक्त ग्रन्थोंकी प्रेसकापी साथ में ले जाइए, तथा जहाँ बापूजी -चित समझे पहले कमा पपाहडको छपने के लिए देदीजिए । मै यथासमय दशलाक्षणी पर्वपर कलकत्ता पहुचा और श्री वीजीकी जयन्तीपर बाबूजीके ही साथ ईसरी भी श्राया। इसी समय दिल्लीस श्री० मुख्तारसा भी ईसरी पधारे । दोनों महाशयोंने प्रेस आदिके व वन श्री १० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य परामर्श किया और बनारसमें ग्रन्थ छपनेका निश्चय कर मुझे बनारस जानकी व्यवस्था कर दी। यासीज वदी ६ ता० २१ सितम्बर सन् ५४ को मै बनारस पहुँच गया और ज्ञानमण्डल गन्त्रालयसे बात-चीत पक्की करके ग्रन्थ प्रेसमें दे दिया । लगभग ८ मासमें ग्रन्थ छपकर तैयार हो गया। पर प्रस्तावना तो लिखना तो शेष था। इसी बीच विवाहित पुत्रीकी मृत्यु के समाचार पाकर मै दश चला गया। देशमें ठीक श्रुतपंचमीके दिन बाबूजीफा पत्र मिला, कि हमारी इच्छा तो इसी श्रुतपचमीपर ही ग्रन्थको प्रकाशित करनेकी थी, मगर वह पूरी न हो सकी। अब वीरशासन जयन्ती (श्रावणकृष्णा १) के दिन तो इसे प्रकाशित कर ही देना चाहिए। आपने प्रस्तावना लिखना प्रारम्भ कर दिया होगा। उसके लिए पूज्य मुख्तार सा० से परामर्श करना आवश्यक है, इत्यादि । मैं पत्र पाते ही उसी दिन घरसे दिल्ली चला आया और बाबूजीके साथ बैठकर पू० मुख्तार सा० से प्रस्तावनाके मुद्दोपर विचार-विनिमय किया, तथा प्रस्तावना-सम्बन्धी अपने सब नोट्स उन्हें दिखाए । अन्त में एक रूप-रेखा तैयार की गई और मैंने प्रस्तावना लिखना प्रारम्भ कर दिया । पर गर्मीकी अधिकतासे प्रयत्न करनेपर भी दिन भरमे एक पेज लिखना कठिन हो गया। प्रस्तावनाको जल्दीसे प्रेसमें देना जरूरी था। अतः मैं मसूरी चला गया और श्रीमान् रा० सा० लाला प्रद्युम्नकुमारजी रईस सहारनपुरवालों के पास जाकर ठहर गया। मैं अपनी आध्यात्मिक शान्ति के लिए जीवनमें जिम एकान्त, शान्त वातावरणकी कल्पना किया करता हूँ, वह मुझे मसूरीमें रा० सा० ला० प्रद्युम्नकुमारजीके पास आकर मिला। उन्होंने मेरे अनुकूल सर्व व्यवस्था कर दी और मैं भी २-१ अपवादोंको छोड़कर अखण्ड मौन लेकर प्रस्तावना लिखने में लग गया और प्रस्तावनाका बहुभाग लिखकर वापिस दिल्ली आगया । श्री मुख्तार सा० के साथ बा० छोटेलालजी और प० परमानन्दजी शास्त्रीने प्रस्तावनाको सुना, आवश्यक सुझाव दिये और तदनुसार यह प्रस्तावना विज्ञ पाठकों के सम्मुख..पस्थित है। कसायपाहुड जैसे महान् ग्रन्थके ऊपर प्रस्तावना लिखने के लिए और समस्त जैन वाङ्मयके भीतर उपलब्ध कर्म-साहित्यके साथ उसकी तुलना करने के लिए कम-से-कम एक वर्पका समय अपेक्षित था, लेकिन वीर-शासन-सघके मंत्रीजीकी इच्छा इसे जल्दीसे जल्दी स्वाध्याय-प्रेमी जिज्ञासु पाठकोंके सम्मुख उपस्थित करनेकी थी, अतएव इस अल्प समयमें मेरेसे जो कुछ भी बन सका, वह पाठकोंके सम्मुख उपस्थित है। सम्पादनके विषयमें दो एक बातें कहना आवश्यक है । श्री० मुख्तार सा० क परामर्शानुसार प्रायः समग्र चूर्णिसूत्रोंके विशेष अर्थकी बोधक टिप्पणिया प्रारम्भसे अन्त तक तैयार की Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XVI गई थीं। किन्तु सन् ४२ में इसका प्रकाशन रुक गया और अब तक जब कि यह ग्रन्थ प्रेसम दिया गया, जयधवलाके सानुवाद दो भाग प्रगट हो चुके थे और तीसरा-चौथा भाग प्रेसमे था, अतएव यह उचित समझा गया कि प्रारम्भको टिप्पणियाँ न दी जावे । तदनुसार सक्रम-अधिकारसे टिप्पणियां देना प्रारम्भ किया गया । परन्तु जब ग्रन्थका कलेवर बढ़ता हुआ दिखा, तब बा० छोटेलालजीके लिखनेसे आगे टिप्पणियां देना बन्द कर दिया गया। कसायपाहुडके अनुवादका प्रारम्भ सन् ४१ मे किया और उसकी समाप्ति सन् ५३ मे हुई। इस १२ वर्षके लम्बे समयमे मुझे अनेक विकट परिस्थितियोंसे गुजरना पड़ा, शारीरिक, मानसिक आधि-व्याधियोंके अतिरिक्त को टुम्बिक विडम्बनाओ, आथिक सकटो एव ३ष्ट-वियोग और अनिष्ट सयोगोंका भी सामना करना पडा, अतएव अनुवादम आदिसे अत तक एक रूपताको मैं कायम न रख सका । प्रतियोके सर्वत्र सुलभ न रहने और मानसिक शान्तिके दुर्लभ रहनेसे अनुवादको प्रारम्भसे अन्ततक दुवारा सशोधन भी न कर सका । जव प्रथ प्रेसम दे दिया गया, नब स्थितिविभक्तिवाले अशकी जयधवलाकी प्रति प्रयत्न करने पर भी कहींसे नहीं मिल सकी। इसलिए इस स्थलका सम्पादन बिलकुल अधेरेमें हुआ । यही कारण है कि इस अशम अशुद्धियां कुछ अधिक रह गई और एक सूत्र भी मुद्रित होनेसे रह गया,जिनकी ओर मेरा ध्यान मेरे सहाध्यायी ज्येष्ठबन्धु श्रीमान् प०फूल चन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीने खींचा। संक्रम प्रकरणके प्रायः सभी विशेषार्थ उन्हींके सहयोगसे लिखे गये। तथा इससे आगेके समस्त चूर्णिसूत्रोंके निर्णयम उनका भरपूर सहयोग रहा, इसके लिए मैं उनका अत्यधिक आभारी हूँ।। श्रद्धेय, वयोवृद्ध, ब्र० श्रीमान् प० जुगलकिशोरजी मुख्तार सा० का मैं आदिसे अन्त तक अाभारी हूं। उन्होंने ही मुझे इस कार्यके लिए प्रेरित किया और उनके ही सौजन्यसे यह प्रथ निर्विघ्नतासे प्रकाशित हो सका है। श्रीमान् बा० छोटेलालजी सा० कलकत्ताका आभार मै किन शब्दों में व्यक्त करूँ ? जिन्होंने कि इस ग्रन्थके प्रेसमें दिये जाने के पश्चात् प्रकाशित न करने के लिए उठाये गये विरोधके बावजूद भी प्रकाशन बन्द नहीं किया। यह उनकी दृढ़ता और दूरदर्शिताका ही फल है कि ग्रन्थ अपने वर्तमानरूपमें पाठकोंके सामने उपस्थित है । जन्म-जात श्रीमान होते हुए भी आप श्रीमत्ताके अहंकारसे कोशों दूर हैं । स्वभावके अत्यन्त सरल, निरभिमानी और विचारक हैं। दि. सम्प्रदायके पुरातन साहित्यके प्रकाशमें लानेकी आपकी प्रवल अभिलापा है। आप वीरसेवामन्दिर के अध्यक्ष और वीरशासन सबके मन्त्री हैं। घरू कारोवारको छोड़कर श्राप आजकल उक्त दोनो सस्थाओंके ही अभ्युत्थानके लिए स्वास्थ्यकी भी चिन्ता न करके अनिश सलग्न हैं । आपक द्वारा पू० मुख्तार सा० के सहयोगसे जैन-साहित्य के अनेक अलभ्य और अनुपम ग्रन्थोंके प्रकाशम आनेकी बहुत कुछ आशा है। आप दोनों स्वस्थ रहते हुए दीर्घायु हाँ, ऐसी मङ्गल कामना है। परिशिष्टान्त मूलग्रन्थ वनारसकं ज्ञानमण्डल यन्त्रालयमे मुद्रित हुआ और प्रकाशकीय बक्तव्यसे लेकर शुद्धिपत्र तकका अश सन्मतिप्रेस किनारी बाजार, दिल्लीमे छपा । मुद्रणकालने दोनों ही प्रेसके सुचालक और व्यवस्थापक महोदयोका बहुत ही सौजन्यपूर्ण व्यवहार रहा हैअतएव मैं आप लोगोंका आभारी हूँ। प्रस्तुत ग्रन्थ अगाध और दुर्गम है, इसलिए पर्याप्त सावधानी रखनेपर भी जहा कहीं जो कुछ मूल या अर्थमें भूल रह गई हो, उसे विशेष ज्ञानी जन संशोधन करके क्योकि पढ़ें, 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे की उक्ति के अनुसार चूक होना बहुत सम्भव है। द्वि० भाद्रपद शुक्ला २ म० २०१२) जिनवाणी-मुधारस-पिपासु१८-६-५५ होरालाल Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ग्रन्थकी पूर्व पीठिका और ग्रन्थ-नाम प्रस्तुत ग्रन्थका सीधा सम्बन्ध अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरसे उपदिष्ट और उनके ' प्रधान शिष्य गौतम गणधर-द्वारा ग्रथित द्वादशाङ्ग श्रुतसे है । द्वादशाङ्ग श्रुतका बारहवा अग दृष्टिवाद है । इसके पांच भेद है-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका। इनमेंसे पूर्वगत श्रुत के भी चौदह भेद हैं-१ उत्पादपूर्व, २ अप्रायणीय, ३ वीर्यप्रवाद, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ आत्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, ६ प्रत्याख्यानप्रवाद १० विद्यानुवाद, ११ कल्याणप्रवाद, १२ प्राणावाय, १३ क्रियाविशाल और १४ लोकबिन्दुसार । ये चौदह पूर्व इतने विस्तृत और महत्वपूर्ण थे कि इनके द्वारा पूरे दृष्टिवाद अंगका उल्लेख किया जाता था, तथा ग्यारह अंग और चौदह पूर्वसे समस्त द्वादशाङ्गा श्रुतका ग्रहण किया जाता था। प्रस्तुत ग्रन्थकी उत्पत्ति पांचवें ज्ञानप्रवादपूर्वकी दशवी वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुडसे हुई है । पेज्ज नाम प्रेयस् या रागका है और दोस नाम द्वेपका । यतः क्रोधादि चारों कषायों और हास्यादि नव नो कषायोंका विभाजन राग और द्वेषके रूपमे किया गया है, अतः प्रस्तुत ग्रन्थका मूल नाम पेज्जदोसपाहुड है और उत्तर नाम कसायपाहुड है । चूर्णिकारने इन दोनों नामोंका उल्लेख और उनकी सार्थकताका निर्देश पेज्जदोसविहत्ती नामक प्रथम अधिकारके इक्कीसवे और बाईसवें सूत्रमे स्वयं ही किया है । __ कषायोंकी विभिन्न अवस्थाओंके वर्णन करने वाले पदोंसे युक्त होने के कारण प्रस्तुत ग्रन्थका नाम कसायपाहुड रखा गया है, जिसका कि संस्कृत रूपान्तर कपायप्राभृत होता है। ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय और महत्व प्रस्तुत ग्रन्थमें क्रोधादि कषायोकी राग-द्वेप रूप परिणतिका उनके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-गत वैशिष्टय का, कपायोके बन्ध और संक्रमणका, उदय और उदीरणाका वर्णन करके उनके उपयोगका, पर्यायवाची नामोंका, काल और भावकी अपेक्षा उनके चार-चार प्रकारके स्थानोंका निरूपण किया गया है । तदनन्तर किस कषायके अभावसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है, किस कपायके क्षयोपशमादिसे देशसंयम और सकलसंयमकी प्राप्ति होती है, यह बतला करके कषायोंकी उपशमना और क्षपणाका विधान किया गया है । यदि एक ही वाक्यमें कहना चाहें तो इसी वातको इस प्रकार कह सकते है कि इस ग्रन्थमें कपायोंकी विविध जातिया बतला करके उनके दूर करनेका मार्ग बतलाया गया है। कसायपाहुडकी रचना गाथासूत्रोंमे की गई है। ये गाथासूत्र अत्यन्त ही सक्षिप्त और गूढ अर्थको लिये हुए हैं । अनेक गाथाएँ तो केवल प्रश्नात्मक है जिनके द्वारा वर्णनीय विपयके + जीवादि द्रव्योके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक त्रिपदी स्वरूप पूर्ववर्ती या सर्व प्रथम - होने वाले । उपदेशोको पूर्वगत कहते हैं और आचारादिसे सम्बन्ध रखने वाले तथा दूसरोंके द्वारा पूछे गये प्रश्नोके समाधानात्मक उपदेशोको अंग कहते हैं । यत तीर्थंकरोका उपदेश गणघरोके द्वारा सुनकर नाचारोग आदि १२ अगोके रूप में निबद्ध किया जाता है, अत. उसे द्वादशाग श्रुत कहते हैं। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कसाय पाहुडसुत्त बारेमें प्रश्न मात्र ही किया गया है । कुछ गाथाऍ ऐसी भी है कि जिनमें प्रतिपाद्य विषयकी सूचेना भी की गई है | कुछ प्रश्नात्मक गाथासूत्र ऐसे भी है कि जिनको दुरूह समझकर ग्रन्थकारने स्वयं ही उनका उत्तर भाष्य-गाथाऍ रच करके दिया है । यदि इन भाष्य - गाथाओंकी रचना ग्रन्थकारने स्वय न की होती, तो आज उनके प्रतिपाद्य अर्थका जानना कठिन ही नहीं, असम्भव होता । यही कारण है कि जयधवलाकारने इन गाथाओंको 'अनन्त अर्थ से गर्भित' कहा है ‡ । गाथाओंका महत्व इससे ही सिद्ध है कि गणधर प्रथित जिस पेज्जदोस पाहुडमें सोलह हजार मध्यम पद थे अर्थात् जिनके अक्षरोंका परिमाण दो कोडाकोडी, इकसठ लाख सत्तावन हजार दो सौ बानवे करोड़, बासठ लाख, आठ हजार था, इतने महान विस्तृत ग्रन्थ का सार या निचोड़ मात्र २३३ गाथाओं में खींच करके निबद्ध कर दिया है । इससे प्रस्तुत ग्रन्थके महत्वका और ग्रन्थकारके अनुपम पाण्डित्यका अनुमान पाठक स्वयं लगा सकेंगे । कसायपाहुड की अन्य ग्रन्थोंसे तुलना जिस प्रकार ज्ञानप्रवादपूर्व-गत विस्तृत पेज्जदोसपाहुडका उपसहार करके सक्षिप्त रूपमें गाथाओं के द्वारा कसायपाहुडकी रचना की गई, उसी प्रकार उस समय दिन पर दिन 'लुप्त होते हुए श्रुतके विभिन्न अङ्ग और पूर्वोका उपसंहार करके भिन्न भिन्न रूप से अनेक प्रकरणोंकी गाथा - बद्ध रचना तत्तद्विषय के पारगामी आचार्यांने की है । शतकप्रकरणका उपसंहार करते हुए उसके रचयिता लिखते है - एसो बंधसमासो विंदुक्खेवेण नि कोइ । कम्मप्पवायसुयसागरस्स स्सिदमे वा ॥ १०४ ॥ अर्थात् यह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशवन्ध विषयक कुछ थोड़ा सा कथन मैंने कर्मप्रवादरूप श्रुतसागरके बिन्दु ग्रहणरूपसे निष्यन्दमात्र अत्यन्त संक्षिप्तरूपमे किया है । इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि शतकप्रकरणका उद्गमस्थान कर्मप्रवाद नामका आठवां पूर्व है और यह प्रकरण उसीका संक्षिप्त संस्करण है । कर्मों वन्ध, उदय और सत्त्वसम्बन्धी स्थानोके भंगों का प्रतिपादन करने वाला एक सित्तरी नामक सत्तर गाथात्मक प्रकरण है । उसका प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैंसिद्ध एहि महत्थं बंधोदय संतपगइठाणाणं । वोच्छं सुख संखेवं नीसंदं दिडिवायस्स ॥ १ ॥ अर्थात् — कर्मोंके बन्ध, उदय और सत्त्वप्रकृतियों के स्थानोंका मै सिद्धपदो के द्वारा संक्षेपरूप से कथन करता हूँ, सो हे शिष्य तुम सुनो। यह कथन संक्षेपरूप होते हुए भी महार्थक है और दृष्टिवाद का निष्यन्दरूप है, अर्थात् निचोड़ है । इस गाथाके चतुर्थ चरणकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं 'निस्संदं दिडिवायस्स' चि परिकम्म १ सुत्त २ पढमासुयोग ३ पुन्यगय ४ चूलियामय ५ पंचविहमूलभेयस्स दिडिवायस्स, तत्थ चोदसरहं पुत्राणं पीयाओ + श्रतत्यगन्भायो । जयघ० । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अग्गेणीयपुवाओ, तस्स वि पंचमवत्थूउ, तस्स वि वीसपाहुड परिमाणस्स कम्मपगडिणामधेज्ज़ चउत्थं पाहुडं, तो नीणियं, चउवीसाणुअोगद्दारमइयमहराणवस्सेव एगो विंदू । (सित्तरी चुण्णी पृ०२) अर्थात् बारहवें दृष्टिवाद अगके दूसरे अग्रायणीय पूर्वकी पंचमवस्तुके अन्तर्गत जो चौथा कर्मप्रकृतिप्राभृत है, और जिसमें कि चौबीस अनुयोगद्वार हैं, उनका यह प्रकरण एक बिन्दुमात्र है। __इसी प्रकार दिन पर दिन विलुप्त या विच्छिन्न होते हुए महाकम्मपयडिपाहुडका आश्रय लेकर छक्खंडागम और कम्मपयडीकी रचना की गई है। इन दोनोंमें अन्तर यह है कि कम्मपयडीकी रचना गाथाओंमें हुई है, जबकि छक्खंडागमकी रचना गद्यसूत्रोंमें हुई है। कम्मपयडीके चूर्णिकार ग्रन्थके प्रारम्भमें लिखते है दुस्समाबलेण खीयमाणमेहाउसद्धासंवेग-उज्जमारंभं अज्जकालियं साहुजणं अणुग्घेत्तुकामेण विच्छिन्नकम्मपयडिमहागंथत्थसंबोहणत्थं पारद्धं आयरिएणं तग्गुणणामगं कम्मपयडीसंगहणी णाम पगरणं । ( कम्मपयडी पत्र १) - अर्थात् इस दुःषमा कालके बलसे दिन पर दिन क्षीण हो रही है बुद्धि, आयु, श्रद्धादिक जिनको ऐसे ऐदयुगीन साधुजनोंके अनुग्रहकी इच्छासे विच्छिन्न होते हुए कम्मपयडिनामक महाग्रन्थके अर्थ-संबोधनार्थ प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता आचार्यने यथार्थ गुणवाला यह कम्मपयडी संग्रहणी नामक प्रकरण रचा है। षट्खंडागमकी रचनाका कारण बतलाने हुए धवलाटीकामें लिखा है कि xxx महाकम्मपडिपाहुडस्स बोच्छेदो होहदि त्ति समुप्पएणबुद्धिणा पुणो दब्वपमाणाणुगममादि काऊण गंथरचणा कदा। (धवला पु० १ पृ०७१) इस प्रकार हम देखते हैं कि दिन पर दिन होते हुए श्रुतविच्छेदको देखकर ही श्रुतरताकी दृष्टिसे उक्त ग्रन्थोंकी रचना की गई है। षट्खंडागम, कम्मपयडी, सतक और सित्तरी, इन चारों ग्रन्थोंकी रचनाके साथ जब हम कसायपाहुडकी रचनाका मिलान करते हैं, तो इसमें हमें अनेक विशेषतऐं दृष्टिगोचर होती हैं पहली विशेषता यह है कि जब षट्खडागम आदि ग्रन्थोंके प्रणेताओंको उक्त ग्रन्थोंकी उत्पत्तिके आधारभूत महाकम्मपयडिपाहुडका आंशिक ही ज्ञान प्राप्त था, तब कसायपाहुडकारको पांचवें पूर्वकी दशवीं वस्तुके तीसरे पेज्जदोसपाहुडका परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त था। दूसरी विशेषता यह है कि कसायपाहुडकी रचना अति संक्षिप्त होते हुए भी एक सुसम्बद्ध क्रमको लिए है और ग्रन्थके प्रारम्भमें ही ग्रन्थ-गत अधिकारों के निर्देशके साथ प्रत्येक अधिकार-गत गाथाओंका भी उल्लेख किया गया है । पर यह वात हमें पट्खंडागमादि किसी भी अन्य ग्रन्थमें दृष्टिगोचर नहीं होती है। __प्रन्थके प्रारम्भमें मंगलाचरणका और अन्तमें उपसंहारात्मक वाक्योंका अभाव भी कसायपाहुडकी एक विशेषता है । जवकि कम्मपयडी, सतक और सित्तरीकार आचार्य अपने अपने ग्रन्थोंके आदिमें मंगलाचरण कर अन्तमें यह स्पष्ट उल्लेख करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त कि मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक सावधानी रखने पर भी जो कुछ भूल रह गई हो, उसे दृष्टिवादके ज्ञाता आचार्य शुद्ध करें ।। कसायपाहुडका षट्खंडागमसे पूर्ववर्तित्व श्रा० धरसेनसे महाकम्मपयडिपाहुडका ज्ञान प्राप्त करके पुष्पदन्त और भूतबलिने जो ग्रन्थ-रचना की, वह षट्खंडागम नामसे प्रसिद्ध है। यह रचना किसी एक पूर्व या उसके किसी एक पाहुड पर अवलम्बित न होकर उसके विभिन्न अनुयोगद्वारोंके आधार पर रची गई है, इसलिए वह खंड-आगम कहलाती है। पर कसायपाहुडकी रचना ज्ञानप्रवादपूर्वके पेजदोसपाहुडकी उपसंहारात्मक होने पर भी मौलिक, अखंड, अविकल एवं सर्वाङ्ग है। ऐसा प्रतीत होता है कि कसायपाहुडकी गाथा-निवद्ध यह रचना आगमाभ्यासियोंको कण्ठस्थ करनेके लिए की गई थी। इस रचनामें कितनी ही गाथाएँ वीजपद-स्वरूप हैं, जिनके कि अर्थका व्याख्यान वाचकाचार्य, व्याख्यानाचार्य या उच्चारणाचार्य करते थे । यही कारण है कि कसायपाहुडकी रचना होने के बाद कितनी ही पीढ़ियो तक उसका पठन-पाठन मौखिक ही चलता रहा और और उसके लिपिबद्ध या पुस्तकारूढ होनेका अवसर ही नहीं आया। इस बात की पुष्टि जयधवलाकारके निम्न-लिखित वाक्योंसे भी होती है"' "पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाम्रो पाइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ अज्जमंखणागहत्थीणं पत्ताओ । पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं ।" - (जयध० भा० १ पृ०६८) अर्थात् गुणधराचार्यके द्वारा १८० गाथाओंमें कसायपाहुडका उपसंहार कर दिये जाने पर वे ही सूत्र-गाथाएँ आचार्यपरम्परासे आती हुई आर्यमंच और नागहस्तीको प्राप्त हुई। पुनः उन दोनों ही प्राचार्योंके पादमूलमे बैठकर उनके द्वारा गुणधराचार्यके मुखकमलसे निकली हुई उन एक सौ अस्सी गाथाओंके अर्थको भले प्रकारसे श्रवण करके प्रवचन के वात्सलसे प्रेरित होकर यतिवृपभ भट्टारकने उनपर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। इस उद्धरणमें 'आइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ' और 'सोऊण' ये दो पद - बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और उनसे दो बातें फलित होती है-एक तो यह है कि उक्त गाथाएँ आर्यमंच और नागहस्तीको प्राप्त होने के समय तक लिपिवद्ध नहीं हुई थीं, उन्हे मौखिक पर• म्परासे ही प्राप्त हुई थीं। दूसरी यह है कि गुणधरका समय आर्यमंतु और नागहस्तीसे इतना अधिक पूर्वकालिक है कि वीचमे आचार्यों की अनेक पीढ़ियाँ बीत चुकी थीं। + इय कम्मप्पगडीयो जहा सुय नीयमप्पमइणा वि । सोहियणाभोगकय कहतु वरदिट्ठिवायन्नू ॥ ( कम्मपयडी) बंधविहारणसमासो रइयो अप्पसुयमदमइणा उ । त वधमोक्खणिउणा पूरेऊण परिकहेति ॥ १०५ ॥ ( सतक ) जो जत्य अपडिपुन्नो अत्यो अप्पागमेण बद्धो त्ति । त समिऊरण बहुसुया पूरेऊरण परिकहिंतु ।। ७१ ॥ (मित्तरी) - पूर्वकालमें पठन-पाठनकी यह पद्धति थी कि पहले मूल मूत्रोंका उच्चारण कराया जाता था और "पोछे उनके अयंका व्याम्यान किया जाता था । वेदोके भी पठन-पाठनकी यही पद्धति रही है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ प्रस्तावना अनु कसा पाहुडके १५ अधिकारों में से प्रारम्भके ६ अधिकारोंमें कर्मों के प्रकृति, स्थिति, भाग और प्रदेश सम्बन्धी बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्त्व और संक्रमणका जो वर्णन किया गया है, उस सबका आधार महाकम्मपयडिपाहुड है और यतः गुणधराचार्य के समय में महाकम्मपयडिपाहुडका पठन-पाठन बहुत अच्छी तरह प्रचलित था, अत उन्होंने प्रारम्भके ५ अधिकारों पर कुछ भी न कहकर उक्त अधिकारों के विषय से सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंके पृच्छारूप तीन ही गाथासूत्रों को कहा । यह एक ऐसा सबल प्रमाण है, कि जिससे कसायपाहुडका षट्खंडागमसे पूर्ववर्तित्व स्वतः सिद्ध होता है । आगे चूर्णिसूत्रों के ऊपर विचार करते समय इस विषय पर विशद प्रकाश डाला जायगा । गुणधर और धरसेन दि० परम्परा में जो आचार्य श्रुत- प्रतिष्ठापक के रूपमे ख्याति प्राप्त हैं उनमें आचार्य गुणधर और ० धरसेन प्रधान हैं। आ० धरसेनको द्वितीय पूर्व-गत पेज्जढोसपाहुडका ज्ञान प्राप्त था, और आ० गुणधरको पचम पूर्व-गत पेज्जदोसपाहुडका ज्ञान प्राप्त था । इस दृष्टिसे निम्न अर्थ फलित होते हैं १ - श्र० धरसेनकी अपेक्षा श्र० गुणधर विशिष्ट ज्ञानी थे । उन्हें पेज्जदोसपा हुडके अतिरिक्त महाकम्मपयडिपाहुडका भी ज्ञान प्राप्त था, जिसका साक्षी प्रस्तुत कसायपाहुड ही है, जिसमें कि महाकम्मपयडिपाहुडसे सम्बन्ध रखने वाले विभक्ति, बन्ध, संक्रमण और उदय, उदीरणा जैसे पृथक् अधिकार दिये गये हैं । ये अधिकार महाकम्मपय डिपाहुडके २४ अनुयोगद्वारोंमेंसे क्रमशः छठे, बारहवें और दशवें अनुयोगद्वारोंसे सम्बद्ध है । महाकम्मपय डिपाहुडका चौबीसवाँ अल्पबहुत्व नामक अनुयोगद्वार भी कसायपाहुडके सभी अर्थाधिकारोंमे व्याप्त है । इससे सिद्ध होता है कि आ० गुणधर महाकम्मपयडिपाहुडके ज्ञाता होने के साथ पेज्जदोसपाहुड-के ज्ञाता और कसायपाहुडके रूपमें उसके उपसंहारकर्ता भी थे । इसके विपरीत ऐसा कोई भी सूत्र उपलब्ध नहीं है, जिससे कि यह सिद्ध हो सके कि ० धरसेन पेज्जदोसपाहुडके भी ज्ञाता थे । २ - ० धरसेनने स्वय किसी ग्रन्थका उपसहार या निर्माण नहीं किया है, जबकि श्र० गुणधरने प्रस्तुत ग्रन्थ में पेज्जदोसपाहुडका उपसंहार किया है । अतएव श्र० धरसेन जय वाचकप्रवर सिद्ध होते हैं, तब श्र० गुणधर सूत्रकारके रूपमें सामने आते हैं । ३ - श्र० गुणधरकी प्रस्तुत रचनाका जब हम पट्खडागम, कम्मपयडी, सतक और सित्तरी आदि कर्म-विषयक प्राचीन ग्रन्थोंसे तुलना करते है, तब श्र० गुणधर की रचना अतिसंक्षिप्त, असंदिग्ध, बीजपद युक्त, गह्न और सारवान् पदोंसे निर्मित पाते हैं, जिससे कि उनके सूत्रकार होने से कोई संदेह नहीं रहता । यही कारण है कि जयधवलाकारने उनकी प्रत्येक गाथा को सूत्रगाथा और उसे अनन्त अर्थसे गर्भित बतलाया है । कर्मोंके सक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षणादि विषयक प्रतिगहन तत्त्वका इतना सुगम प्रतिपादन अन्य किसी ग्रन्थमें देखनेको नहीं मिलता । इस प्रकार आ० गुणधर आ० धरसेनकी अपेक्षा पूर्ववर्ती और ज्ञानी सिद्ध होते हैं । पुष्पदन्त और भूतबलि आ० धरसेन- उपदिष्ट महाकम्मपयडिपाहुडका आश्रय लेकर उसपर पटूखंडागम सूत्रोंके रचयिता भगवन्त पुष्पदन्त और भूतबलि हुए हैं । यद्यपि कसायपाहुडकी रचना के अत्यन्त संक्षिप्त और गाथासूत्ररूप होने से गद्यसूत्रों में रचित और विस्तृत परिमाणवाले पटूखंडागम के साथ उसकी तुलना करना सभव नहीं है, तथापि सूक्ष्मदृष्टिसे दोनों ग्रन्थों के अवलोकन करने पर ۱ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि पखंडागमकी रचना पर कसायपाहुडका प्रभाव अवश्य रहा है। यहां पर उस प्रभावकी कुछ चर्चा करना अनावश्यक न होगा। _ कसायपाहुडमे सम्यक्त्वनामक अर्थाधिकारके भीतर दर्शनमोह-उपशामना और दर्शनमोह-क्षपणा नामक दो अनुयोगद्वार हैं। उनके प्रारम्भमें इस बातका विचार किया गया है कि कर्मोंकी कैसी स्थिति आदिके होनेपर जीव दर्शनमोहका उपशम, क्षय या क्षयोपशम करनेके लिए प्रस्तुत होता है। इस प्रकरणकी गाथा नं० ६२ के द्वितीय चरण 'के वा अंसे निबंधदि' द्वारा यह पृच्छा की गई है कि दर्शनमोहके उपशमनको करनेवाला जीव कौन-कौन कर्म-प्रकृतियोंका वन्ध करता है ? आ० गुणधरकी इस पृच्छाका प्रभाव हम पट्खंडागमकी जीवस्थानचूलिकाके अन्तर्गत तीन महादंडक चूलिकासूत्रोंमें पाते हैं, जहां पर कि स्पष्ट रूपसे कहा गया है "इदाणि पढमसम्मत्ताहिमुहो जाओ पयडीओ बंधदि, ताओ पयडीओ कित्तइस्सामो।" (षटखं. पु०६प्रथम महादंडकचलिका सूत्र १) अर्थात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ जीव जिन प्रकृतियोंको बांधता है, उन प्रकृतियोंको कहते हैं। इस प्रकारसे प्रतिज्ञा करनेके अनन्तर आगेके तीन महादंडकसूत्रोंके द्वारा उन प्रकृतियोंका नाम-निर्देश किया गया है। इससे श्रागे कसायपाहुडकी गाथा नं०६४ के 'ओवट्ट दूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि' इस पृच्छाका प्रभाव सम्यक्त्वोत्पत्तिचूलिकाके निम्न सूत्र पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, जिसमें कि उक्त पृच्छाका उत्तर दिया गया है___ "श्रोहट्टदूण मिच्छत्तं तिषिण भागं करेदि सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ।” (षट्वं० पु०६ सम्य० सूत्र ७) - अब इससे आगेकी गाथा नं०६४ का मिलान उसी सम्यक्त्वचूलिकाके सूत्र नं०६ से कीजिए उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि ? चदुसु वि गदीसु उवसामेदि । चदुसु वि गदीसु उवसातो पंचिदिएसु उवसामेदि, णो दंसणमोहस्सुवसामगो दु एइंदिय-विगलिदिएसु। पंचिदिएसु उवचदुसु वि गदीसु वोद्धव्यो। सामेंतो सगणीसु उवसामेदि, णो असरणीपंचिदियो य सरणी सु । सगणीसु उवसातो गठभोवक्कंणियमा सो होइ पज्जत्तो॥ तिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । (कसाय० गा०६४) गम्भोवक्कंतिएसु उवसातो पज्जचएसु उवसामेदि, णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु उवसातो संखेज्जवस्साउगेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेसु वि । (पटखं० पु० ६ सम्म० चू० सू०६) इसी प्रकार दर्शनमोहक्षपणा-सम्बन्धी गाथा नं० ११० का भी मिलान इसी चूलिकाके सूत्र नं० १२और १३ से कीजिए Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दंसणमोहक्खवणापट्टो कम्मभूमिजादो दु । शियमा म सगदीए बिगो चावि सव्वत्थ ॥ ( कसाय० गा० ११० ) ७ दंसणमोहणीयं कम्मं खवेदु माढवेंतो कहि वेद १ अड्ढाइज्जेसु दीवजिया केवली तित्थयरा तम्हि आढवेदि समुद्देसु पएणारसकम्मभूमीसु जम्हि पुरा चदुसु वि गदीसु || १२ || ट्टि गिट्ठवेदि ॥ १३ ॥ ( षट्खंडा० पु० ६ सम्य० चू० ) पाठक इस तुलनासे स्वयं ही यह अनुभव करेंगे कि कसायपाहुडकी गाथासूत्रोंके बीजपदोकी षट्खंडागम-सूत्र में भाष्यरूप विभाषा की गई है । उक्त तुलनासे यह स्पष्ट है कि पुष्पदन्त और भूतबलिरचित षट्खंडागमसूत्रों की रचना कसायपाहुडसे पीछेकी है और उसपर कसायपाहुडका स्पष्ट प्रभाव है इसीसे इन दोनोंका तथा उनके गुरु धरसेनाचार्यका आ० गुणधरसे उत्तरकालवर्ती होना सिद्ध है । गुणधर और शिवशर्म आ० शिवशर्मके कम्मपयडी और सतक नामक दो ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं । इन दोनों ही ग्रन्थोंका उद्गमस्थान महाकम्मपय डिपाहुड है, इससे वे द्वितीय पूर्वके एकदेश ज्ञाता सिद्ध होते हैं । कम्मपयडीके साथ जब हम कसायपाहुडकी तुलना करते हैं तब दोनोमें हमें एक मौलिक अन्तर दृष्टिगोचर होता है और वह यह कि कम्मपथडीमे महाकम्मपय डिपाहुडके २४ अनुयोगद्वारोंका नहीं, किन्तु बन्धन, उदय, संक्रमणादि कुछ अनुयोगद्वारों से सम्बन्ध रखने वाले विषयोंका प्रतिपादन किया गया है, जबकि कसायपाहुडमें पूरे पेज्जदोसपाहुडका उपसंहार किया गया है । इस प्रकार कम्मपयडीके रचयिता उस समय हुए सिद्ध होते हैं - जबकि महाकम्मपयडिपाहुडका बहुत कुछ अश विच्छिन्न हो चुका था । और यही कारण है कि कम्प सतक, इन दोनों ही ग्रन्थों के अन्त मे अपनी अल्पज्ञता प्रकट करते हुए उन्होंने दृष्टिवादके ज्ञाता आचार्यों से उसे शुद्ध करनेकी प्रार्थना की है । पर कसायपाहुडके अन्त में ऐसी कोई बात नहीं पाई जाती जिससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसके कर्ता उस विषय के पूर्ण ज्ञानी थे । दूसरी बात जो तुलनासे हृदय पर अकित होती है, वह यह है कि कम्मपयडी एक संग्रह ग्रन्थ है | क्योंकि उसमे अनेकों प्राचीन गाथाएं यथास्थान दृष्टिगोचर होती हैं, जिससे कि उसके सग्रह-ग्रन्थ होनेकी पुष्टि होती है । स्वय कम्मपयडीकी चूर्णिमें उसके कर्त्ताने उसे कम्मपयडी-संग्रहणी नाम दिया है और सतकचूर्णि में भी इसी नामसे अनेक उल्लेख देखनेको मिलते है जोकि उसके सग्रहत्व के सूचक हैं। पर कसायपाहुडकी रचना मौलिक है यह बात उसके किसी भी अभ्यासींसे छिपी नहीं रह सकती । और उसका कम्मपयडी दिसे पूर्वमें रचा जाना तो असंदिग्धरूपसे सिद्ध है । यही कारण है कि कम्मपयडीके संक्रमकरण में कसायपाहुडके संक्रमअर्थाधिकारकी १३ गाथाए साधारण से पाठ भेद के साथ अनुक्रमसे ज्यों की त्यों पाई जाती हैं । कसायपाहुडमें उनका गाथा क्रमाङ्क २७ से ३६ तक है और कम्मपयडीके संक्रम अधिकार में उनका क्रमाङ्क १० लेकर २२ तक है। इसके अतिरिक्त कम्मपयडीके उपशमनाकरणमें कसायपाहुडके दर्शनमोहोपशमना अर्थाधिकारकी चार गाथाएं कुछ पाठभेदके साथ पाई जाती हैं। कसायपाहुडमें उनका क्रमाङ्क १००, १०३, १०४ और १०५ है और कम्मपयडीके उपशमनाकरणमे उनका क्रमाङ्क २३ से २६ तक है। इससे भी कसायपाहुडकी प्राचीनता और कम्मपयडीकी संग्रहणीयता सिद्ध होती है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त आर्यमंच और नागहस्ती आर्यमंक्षु और नागहस्ती कर्मसिद्धान्तके महान् वेत्ता और आगमके पारगामी आचार्य हो गये हैं । अभी तक इन दोनों आचार्यों का परिचय और उल्लेख श्वे० परम्पराके आधार पर किया जाता रहा है, किन्तु अब दि० परम्पराके प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थों की धवला-जयधवला टीकाओंके प्रकाशमें आनेसे इन दोनो आचार्य-पुङ्गवोंके विषयमें बहुत कुछ गलतफहमी दूर हुई है और उनके समय-विषयक बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हुई है । जयधवलाकार आo वीरसेनने अपनी टीकाके प्रारम्भमे दोनों प्राचार्योंको इस प्रकारसे स्मरण किया है गुणहर-वयण-विणिग्गय-गाहाणत्थो ऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥ ७ ॥ जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।। ८ ॥ अर्थात् जिन आर्यमंतु और नागहस्तीने गुणधराचार्य के मुखकमलसे विनिर्गत (कसायपाहडकी ) गाथाओंके सर्व अर्थको सम्यक् प्रकारसे अवधारण किया, वे हमे वर प्रदान करें । जो आर्यमंलुके शिष्य हैं और नागहस्तीके अन्तेवासी है, वृत्तिसूत्रके कर्ता वे यतिवृषभ मुझे वर प्रदान करें। इस उल्लेखसे तीन बाते फलित होती है १ आर्यमंच और नागहस्ती समकालीन थे। २ दोनो कसायपाहुडके महान् वेत्ता थे । ३ यतिवृषभ दोनोंके शिष्य थे और उन्होने दोनोके पास कसायपाहुडका ज्ञान प्राप्त किया था । यद्यपि आ० यतिवृषभने अपनी प्रस्तुत चूर्णिमें या अन्य किसी ग्रन्थमे अपनेको आर्यमंतु और नागहस्तीके शिष्य रूपमें उल्लेखित नहीं किया है और न अन्य किसी आचार्यका ही अपनेको शिष्य बतलाया है, तथापि जिस प्रकारसे कुछ सैद्धान्तिक विशिष्ट स्थलों पर उन्होंने 'एत्थ वे उवएसा' कहकर जिन दो उपदेशोंकी सूचना की है, उनसे इतना अवश्य स्पष्ट ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने समयके दो महान् ज्ञानी गुरुओंसे विशिष्ट उपदेश अवश्य प्राप्त किया था। और इसलिए जयधवलाकार वीरसेनने जो उन्हे आर्यमंक्षुका शिष्य और नागहस्तीके अन्तेवासी होनेका उल्लेख किया है, उसमे सन्देहके लिए कोई स्थान नहीं रहता। नन्दिसूत्रकी पट्टावलीमे आर्यमंक्षुका परिचय इस प्रकार दिया गया है भणगं करगं झणगं पभावगं णाण-दसणगुणाणं । वंदामि अञ्जमंगु सुयसागरपारगं धीरं ।। २८ ॥ अर्थात् जो कालिक आदि सूत्रोंके अर्थ-व्याख्याता हैं, साधुपदोचित क्रिया कलापके कराने वाले हैं, धर्मध्यानके ध्याता या विशिष्ट अभ्यासी है, ज्ञान और दर्शन गुणके महान प्रभावक हैं, धीर-वीर हैं अर्थात् परीपह और उपसर्गाके सहन करनेवाले है और श्रुतसागरके पारगामी हैं, ऐसे आर्यमंगु या आर्यमञ्ज आचार्यको मैं वन्दना करता हूँ। श्व० पट्टावलीमे इन्हें आर्यसमुद्रका शिष्य बतलाया गया है। उक्त पट्टावलीमें प्रार्थनागहस्तीका परिचय इस प्रकार पाया जाता है पुरणो तेसि दोण्ह पि पादमूले असीदिसदगाहाण गुणहरमुहकमलविरिणग्गयाणमत्य सम्म सोऊप पयिवसहभटारएण पवयवच्छलेण चुपिणसुत्त कय । जयघ० भा० १ पृ० ८८ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी वड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अज्जण गहत्थीणं । वागरण - करण भंगिय-कम्मपयडीपहा गाणं ||३०|| ε अर्थात् जो संस्कृत और प्राकृत भाषाके व्याकरणों के वेत्ता हैं, करण-भगी अर्थात् पिंडशुद्धि, समिति, गुप्ति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखन और अभिग्रहकी नाना विधियोंके ज्ञाता हैं और कर्मप्रकृतियों के प्रधानरूपसे व्याख्याता हैं, ऐसे श्रार्यनागहस्तीका यशस्वी वाचकवंश वृद्धि को प्राप्त हो । श्वे० पट्टावली में इन्हे आर्यनन्दिलक्षपणकका शिष्य बतलाया गया है। दोनों आचार्यों की प्रशंसा में प्रयुक्त उक्त दोनों पद्योके विशेषण - पदों से यह भलीभांति सिद्ध है कि ये दोनों ही आचार्य श्रुतसागरके पारगामी सिद्धान्त ग्रन्थोंके महान् वेत्ता, प्रभावक, कर्मशास्त्र के व्याख्याता और वाचकवंश - शिरोमणि थे । इसलिए आ० वीरसेन के उल्लेखानुसार यह सुनिश्चित है कि ये दोनों आचार्य कसायपाहुडकी गाथाओंके मर्मज्ञ थे और उन दोनों के पासमें आ॰ यतिवृषभने उनका पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था । I 1 आ० वीरसेनने यतिवृपभको आर्यमंक्षुका शिष्य और नागहस्तीका अन्तेवासी प्रगट किया है । यद्यपि शिष्य और अन्तेवासी ये दोनो शब्द एकार्थक माने जाते हैं, तथापि शब्दशास्त्रकी दृष्टि से दोनों शब्द अपना पृथक-पृथक महत्व रखते है । गुरुसे ज्ञान और चारित्र - विषयक शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करनेवालेको शिष्य कहते है । किन्तु जो गुरुसे ज्ञान और चारित्रकी शिक्षा प्राप्त करने के अनन्तर भी गुरुके जीवन पर्यन्त उनकी सेवा-सुश्रूषा करते हुए उनके चरण - सान्निध्य मे रहकर अनवरत ज्ञानकी आराधना करता रहे, उसे अन्तेवासी कहा जाता है । शब्द-व्युत्पत्तिसे फलित उक्त अर्थको यदि यथार्थ माना जाय, तो मानना पड़ेगा कि आ० वीरसेन-द्वारा प्रयुक्त दोनों पद अन्वर्थ और अत्यन्त महत्व - पूर्ण हैं । यहां यह प्रश्न स्वतः उठता है कि जब यतिवृषभने श्रार्यमक्षु और नागहस्ती, इन दोनों ही आचार्योंसे ज्ञान प्राप्त किया, तब क्या कारण है कि वे एकके उपदेशको पवाइज्जमान और दूसरेके उपदेशको अपवाइज्जमान कहें ? यतिवृषभ-द्वारा प्रयुक्त इन दोनों पदों के अन्तस्तल में अवश्य कोई रहस्य अन्तर्निहित है ? दि० परम्परामें तो जयधवला टीकाके अतिरिक्त आर्यमंतु और नागहस्तीका उल्लेख अन्यत्र मेरे देखने में नहीं आया, किन्तु श्वे ० परम्परा में उनके जीवन परिचयका कुछ उल्लेख मिलता है । आ० आर्यमक्षुके विषय में बतलाया गया है कि एक बार वे विहार करते हुए मथुरापुरी पहुँचे । वहां पर श्रद्धालु, भक्त और निरन्तर सेवा सुश्रूपा -रत शिष्योंके व्यामोहसे, तथा रस- गारव आदिके वशीभूत होकर वे विहार छोड़ करके वहीं रहने लगे। धीरे-धीरे उनका श्रामण्य शिथिल हो गया और वे वहीं मरणको प्राप्त हुए । यदि यह उल्लेख सत्य है तो इससे यह भी सिद्ध है कि आर्यमंतुके साधु आचारसे शिथिल हो जानेके कारण उनकी शिष्य परम्परा आगे नहीं चल सकी । और यह सब यत. यतिवृषभके जीवन-कालमे ही घटित हो गया, अतः उन्होंने उनके उपदेशको अपवाइज्जमान कहा और नागहस्तीकी शिष्य परम्परा आगे चलती रही, इसलिए उनके उपदेशको पवाइज्जमान कहा । इस प्रकार आर्यमंतु और नागहस्ती समकालिक सिद्ध होते हैं और इसलिए श्वे० पट्टावलियोंमें जो दोनोंके बीच लगभग १५० वर्षोंका अन्तर बतलाया गया है, वह बहुत कुछ आपत्ति के योग्य जान पड़ता है । * देखो श्रभिधानराजेन्द्र 'अज्जमंग' शब्द | Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुंडसुत्त कसायपाहुड पर एक दृष्टि १. नामकी सार्थकता-प्रस्तुत मूलग्रन्थका नाम यद्यपि श्री गुणधराचार्यने प्रथम गाथामे उद्गमस्थानकी अपेक्षा 'पेज्जदोसपाहुड' का संकेत करते हुए 'कसायपाहुड' ही दिया है, तथापि चूर्णिकार यतिवृपभने उसके दो नाम स्पष्ट रूपसे कहे हैं। यथा तस्स पाहुउस्स दुवे नामधेज्जाणि । तं जहा--पेज्जदोसपाहुडेत्ति वि, कसायपाहुडेचि वि । ( पेज्जदो० सू० २१ ) अर्थात् ज्ञानप्रवादपूर्वकी दशवीं वस्तुके उस तीसरे पाहुडके दो नाम है-पेज्जदोसपाहुड और कसायपाहुड। इनमें से प्रथम नामको चूर्णिकारने अभिव्याकरणनिष्पन्न और दूसरे नामको नयनिष्पन्न कहा है। किन्तु आगे चलकर सम्यक्त्व नामक अधिकारका प्रारम्भ करते हुए स्वयं चूर्णिकारने कसायपाहुड नामका ही निर्देश किया है । यथा कसायपाहुडे सम्मत्ते त्ति अणियोगद्दारे अधापवत्तकरणे इमारो चत्तारि सुत्तगाहारो परूवेयव्यानो । ( सम्यक्त्व० सू० १) तथा जयधवलाकारने प्रत्येक अधिकारके प्रारम्भमें और अन्तमें इसी नामका प्रयोग किया है । यहां तक कि पन्द्रहवें अधिकारकी चूलिका-समाप्ति पर 'एवं कसायपाहुडं समच' लिखकर प्रस्तुत ग्रन्थके कसायपाहुड नाम पर अपनी मुद्रा अकित कर दी है। परवर्ती आचार्यों और ग्रन्थकारोने भी अधिकतर इसी नामका उल्लेख किया है । ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न किया जा सकता है कि फिर हमने इसका 'कसायपाहुडसुत्त' ऐसा नामकरण क्यों किया ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि यद्यपि १८० या २३३ गाथात्मक-ग्रन्थका नाम कसायपाहुड ही है, किन्तु प्रस्तुत सस्करणमें यह कसायपाहुड अपने ६ हजार श्लोक-प्रमित चूर्णिसूत्रोंके साथ मुद्रित है, अतएव उसके परिज्ञानार्थ 'कसायपाहुडसुत्त' ऐसा नाम दिया गया है। श्रा० वीरसेनने धवला और जयधवलाटीकामें नामैकदेशरूपसे 'पाहुडसुत्त' का पचासों वार उल्लेख किया है, तथा जिनसेनने जयधवलाकी प्रशस्ति में 'पाहुडसुत्ताणमिमा' जयधवला सएिणया टीका' कहकर 'पाहुडसुत्त' नामकी पुष्टि की है। २. मूलग्रन्थका प्रमाण-कसायपाहुडकी गाथा-संख्या वस्तुतः कितनी है, यह प्रश्न आज भी विचारणीय बना हुआ है। इसका कारण यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थकी दूसरी गाथा 'गाहासदे असीदे' में स्पष्ट रूपसे १८० गाथाओंके १५ अर्थाधिकारोंमे विभक्त होनेका उल्लेख है । यह प्रश्न जयधवलाकार वीरसेनस्वामीके भी, सामने था और उनके सामने भी कितने ही आचार्य इस बातके कहनेवाले थे कि एकसौ अस्सी गाथाओको छोड़कर शेप ५३ गाथाएं नागहस्ती आचार्य-द्वारा रची हुई हैं । । किन्तु वीरसेनस्वामीने इस मतके खंडनमें जो युक्ति दी है, वह कुछ अधिक बलवती मालूम नहीं होती। वे कहते हैं कि यदि 'सम्बन्ध-गाथाओं, श्रद्धा 29 तत्तो सम्मत्ताणुभागो अणतगुणहीणो त्ति पाहुडसुत्ते रिणद्दिद्वत्तादो । धवला जीव० चू० । । असीदिसदगाहारो मोत्तूण अवसेससबधद्धापरिमाणणिद्देस-संकमणगाहामो जेण गागहत्यिप्रायरियकयानो, तेरण 'गाहासदे असीदे' त्ति भरिणदूण णागहत्यिनायरिएण पइज्जा कदा, इदि केवि . वक्खाणाइरिया भणति । जयघ० भा० १ पृ० १८३. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना परिमाणनिर्देश करनेवाली गाथाओं और संक्रम-विषयक गाथाओंके विना एकसौ अस्सी गाथाएं ही गुणधरभट्टारकने कही हैं, ऐसा माना जाय, तो उनके अज्ञानताका प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए, अर्थात् २३३ ही गाथाओंको गुणधर-रचित मानना चाहिए।' पाठक स्वयं अनुभव करेगे कि वीरसेनस्वामीका यह उत्तर चित्तको कुछ समाधानकारक नहीं है, खासकर उस दशामें-जबकि 'गाहासदे असीदे' की प्रतिज्ञा पाई जाती है और जबकि वीरसेनस्वामीके सामने भी उस प्रतिज्ञाके समर्थक अनेक व्याख्यानाचार्य पाये जाते थे ! दूसरी बात यह है कि प्रारम्भकी १२ सम्बन्ध-गाथाओं और श्रद्धापरिमाण-निर्देश करनेवाली ६ गाथाओं पर एक भी चूर्णिसूत्र नहीं पाया जाता है । तीसरी बात यह है कि उक्त अठारह गाथाओंके अधिकार-निर्देश करनेवाली दोनों गाथाओंके बाद चूर्णिकार कहते हैं कि 'एत्तो सुत्तसमोदारो' अर्थात् अब इससे आगे कसायपाहुडसूत्रका समवतार होता है। संक्रम-अधिकार वाली ३५ गाथाओंमेंसे ५ को छोड़कर शेष ३१ पर भी एक भी चूर्णिसूत्र नहीं पाया जाता । तथा उनमेंकी अनेक गाथाओंके कम्मपयडीके संक्रमणाधिकारमें पाये जानेसे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि वे गाथाएं कसायपाहुडकी नहीं हैं। इन सब बातोंसे यही निष्कर्ष निकलता है कि उक्त ५३ गाथाएं गुणधर-रचित नहीं हैं और इसलिए वे कमायपाहुडकी भी अंग नहीं हैं। इस बातका पोषक सबसे प्रबल प्रमाण 'तिएणेदा गाहारो पंचसु अत्थेसु णादव्या' यह गाथांश है, जिसमें स्पष्ट रूपसे कहा गया है कि प्रारम्भके पाच अर्थाधिकारोंमें 'पेज्जं वा दोसो वा' इत्यादि तीन गाथाएं जानना चाहिए । अतएव उक्त ५३ गाथाओंको आचार्य नागहस्तीके द्वारा प्रणीत या उपदिष्ट मानना चाहिए। अथवा यह भी संभव है कि १८० गाथाओंमे पेज्जदोसपाहुडका उपसंहार कर चुकने के बाद प्रस्तावना, विषयसूची और परिशिष्टके रूपमें उक्त ५३ गाथाओंकी गुणधराचार्यने पीछेसे रचना की हो । ३. अधिकारों के विषयमें मतभेद–कसायपाहुडके १५ अर्थाधिकारोंके वारेमे मतभेद पाया जाता है । कसायपाहुडकी मूलगाथा १ और २ में स्पष्ट रूपसे १५ अधिकारोंका निर्देश होने पर भी चूर्णिकारने 'अत्थाहियारो परणारसविहो अण्णण पयारेण 'कहकर उनसे भिन्न ही १५ अर्थाधिकार बतलाये हैं। यद्यपि जयधवलाकारने बहुत कुछ ऊहापोह के पश्चात् यह बतलाया है कि दोनों प्रकारोंमें कोई विरोध नहीं है, चूर्णिकारने 'अन्य प्रकारसे भी १५ अर्थाधिकार संभव हैं, कहकर उनकी एक रूपरेखा दिखाई है, सो उनके अनुसार और भी प्रकारसे १५ अर्थाधिकार संभव हो सकते हैं कहकर जयधवलाकारने एक और भी तीसरे प्रकारसे अर्थाधिकारोंका निरूपण किया है । पर अधिकारों के निर्देश करनेवाली दोनों गाथाओंपर गहराईसे विचार करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि गुणधराचार्यके मतानुसार १५ अर्थाधिकार इस प्रकारसे होना चाहिए तण्ण घडदे, सबधगाहाहि श्रद्धापरिमाणणिद्दे सगाहाहि सकमगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाम्रो चेव भगतस्स गुणहरभडारयस्स प्रयाणत्तप्पसगादो। तम्हा पुवुत्तत्थो चेव घेत्तव्यो । जयध० भा० १ पृ० १८३ ® देखो पृ० १३ । । देखो पृ० १४ और १५, तथा जयधवला भा० १ पृ० १६२ से १९६ तक । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त - १. पेज्ज या प्रेय-अधिकार ७. चतुःस्थान-अधिकार २. दोस या द्वेष-अधिकार ८. व्यंजन-अधिकार ३. विभक्ति-अधिकार ( जिसमें कि प्रकृति, ६, दर्शनमोहोपशामना-अधिकार स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविभक्ति, | १०. दर्शनमोह-क्षपणा-अधिकार तथा क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक भी ११. संयमासंयम-अधिकार सम्मिलित हैं) १२. संयम-अधिकार ४. बन्धक-अधिकार १३. चारित्रमोहोपशामना-अधिकार ५. वेदक-अधिकार १४. चारित्रमोहक्षपणा-अधिकार ६. उपयोग-अधिकार १५. अद्धापरिमाण निर्देश किन्तु चूर्णिकारको जिस प्रकारसे विपयका प्रतिपादन करना अभीष्ट था, उसी प्रकारसे उन्होंने अधिकारोंका विभाजन किया है, ऐसा चूर्णिसूत्रोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है। ४ गाथाओंका विभाजन-उपर्युक्त १५ अधिकारोंमें १८० गाथाओंका विभाजन इस प्रकारसे किया गया है प्रारम्भके ५ अधिकारोंमें ३, वेदकमें ४, उपयोगमें ७, चतुःस्थानमें १६, व्यजनमें ५, दर्शनमोहोपशमनामें १५, दर्शनमोहक्षपणामें ५, सयमासंयम और संयम अधिकारमें १, चारित्रमोहोपशामनामे ८ और चारित्रमोहक्षपणामें ११४ गाथाए निबद्ध हैं। इन सबका योग (३+४+ ७+१६+५+ १५+५+१++११४ = १७८ ) एकसौ अठहत्तर होता है । इनमें अधिकारोंका निर्देश करनेवाली प्रारंभकी २ गाथाओंको मिला देने पर कसायपाहुडकी सर्व-गाथाओंका योग १८० हो जाता है । यदि ऊपर वतलाई गई ५३ गाथाओंको भी गुणधर-रचित माना जाय, तो सर्व गाथाओंका योग (१८०+५३=२३३) दो सौ तेतीस होता है। ५ गाथाओका वर्गीकरण-चूर्णिसूत्रोके अनुसार कसायपाहुडकी मूल १८० गाथाओंका तीन प्रकारसे वर्गीकरण किया जा सकता है-१ सूचनासूत्रात्मक, २ पृच्छासूत्रात्मक और ३ व्याकरणसूत्रात्मक । १. सूचनासूत्रात्मक-गाथाएं-जिन गाथाओंके द्वारा प्रतिपाद्य विषयकी सूचनामात्र की गई है, किन्तु उसका कुछ भी वर्णन नहीं किया गया है, उन्हे सूचनासूत्रात्मक गाथाएं जानना चाहिए। ऐसी गाथाओंको चूर्णिकारने 'ऐसा गाहा सूचणासु' कहकर स्पष्टरूपसे सूचनासूत्र कहा है । वर्गीकरणकी दृष्टि से मूल-गाथाङ्क ४, ५, १४, ६२, ७०, ११५, १७६ और १८० को सूचनासूत्र जानना चाहिए। २. पृच्छासूत्रात्मक गाथाएं-जिन गाथाओंके द्वारा प्रतिपाद्य विषयके विवेचन करनेके लिए प्रश्न उठाये गये हैं, उन्हे चूर्णिकारने पृच्छासूत्र कहा है। चारित्रमोहक्षपणानामक पन्द्रहवे अधिकारकी प्रायः सभी मूल-गाथाए पृच्छासूत्रात्मक है। शेप अधिकाराम भी इस प्रकारके गाथासूत्र हैं, मूलगाथाओं में उनका विवरण इस प्रकार है-३, ६ से १३, १५-१६, २१, २८. ३१, ३० से ४१, ६३से ६७, ७१, ७७, ८६,६४,६८, १०२, १०४, १०६, ११३, ११६, १२६, १३३, १३८, १४१, १४६, १५१, १५४, १६०, १६१, १६३, १६५ से १६ और १७६ ।। ३. व्याकरणसूत्रात्मक गाथाएं-जिन गाथाओंमें पृच्छासूत्रोंके द्वारा उठाए गये प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है, अथवा प्रतिपाद्य विपयका प्रतिपादन या अव्याख्यात अर्थका छ देखो पृ० ५८५, नू० २२६ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना व्याख्यान किया गया है, ऐसी गाथाओंको चूर्णिकारने 'एदं सव्वं वागरणसुतं' कहकर उन्हें व्याकरणगाथासूत्र संज्ञा दी है। चारित्रमोहक्षपणाकी दो एक गाथाओंको छोड़कर सभी भाष्यगाथाओंको व्याकरणसूत्र जानना चाहिए। शेष अधिकारोंमें भी इस प्रकारके विपयका वर्णन करनेवाले व्याकरणसूत्र पाये जाते है । मूल गाथाओं में उनकी संख्या इस प्रकार है-१७ से २०, २२ से २७, २९, ३०, ३२ से ३७, ४२ से ६१, ६८, ६६, ७२, ७६ से ७८ से १८,६० से ६३, ६५ से १७, ६६ से १०१, १०३, १०५ से १०८, ११० से ११२, ११४, ११५, ११७ से १२८, १३० से १३२, १३४ से १३७, १३६, १४०, १४२ से १४५, १४७ से १५०, १५२, १५३, १५५ से १५६, १६२, १६४, १७० से १७५, १७७ और १७८ ।। उक्त विभाजन १८० मूलगाथाओंका है । शेष रही ५३ गाथाओंका वर्गीकरण इस प्रकार है-सम्बन्ध-गाथाएं, अद्धापरिमाण-गाथाएं और संक्रमवृत्ति-गाथाएं। सम्बन्ध गाथाओंमे प्रस्तुत ग्रन्थके १५ अधिकारोंकी गाथाओंका निर्देश किया गया है; अतएव इनको विषयानुक्रमणी या विषयसूचीरूप होनेसे सूचनासूत्र कहा जा सकता है। श्रद्धापरिमाणकी १२ गाथाओंमें कालके अल्पबहुत्वका तथा संक्रमवृत्तिकी ३५ गाथाओंमें संक्रमणका विवेचन होनेसे उन्हें व्याकरणसूत्र मानना चाहिए। ६.व्यवस्थाभेद-गाथासूत्रकारने चारित्रमोहनीयकर्मके प्रस्थापक (क्षय करनेवाले)जीवके विषयमे 'संकामयपट्टवयरस परिणामो केरिसो हवे' इससे लेकर 'किंद्विदियाणि कम्माणि' इस गाथा तककी चार गाथाओंको चारित्रमोहक्षपणाधिकारके अन्तर्गत कहा है, फिर भी चूर्णिकारने उन्हें दर्शनमोहके उपशमको प्रारम्भ करनेवाले जीवकी प्ररूपणाके समय सम्यक्त्व-अधिकारके प्रारम्भमें कहा है और उनपर वही चूणिसूत्र भी रचे है। पर इसमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योंकि गाथासूत्रकारने उन्हे अन्तदीपकरूपसे चारित्रमोहक्षपणाधिकारमें कहा है, किन्तु चूर्णिकारने आदिदीपकरूपसे उनका प्रतिपादन दर्शनमोहोपशमनाप्ररथापकके विषयमें किया है। उन चारों गाथाओंका प्रतिपादन दर्शनमोहोपशम-प्रस्थापकके समान दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापक', संयमासंयम-प्रस्थापक, संयमप्ररथापक", चारित्रमोहोपशमना-प्रस्थापक, और चारित्रमोहक्षपणा-प्रस्थापकके लिए भी आवश्यक है । यही कारण है कि दर्शनमोहोपशनाप्रस्थापकका आश्रय लेकर प्रारंभमें ही चूर्णिकारने उन चारों ही गाथाओंकी विभाषा ( व्याख्या) की है और आगे उक्त चारों अधिकारोंके आरम्भमें समर्पण-सत्रोंके द्वारा उन चारों ही गाथाओंकी विभाषा करनेके लिए उच्चारणाचार्यों और व्याख्यानाचार्योंको सूचना कर दी है । यदि चूर्णिकार ऐसा न करते, तो अभ्यासीको यह पता भी न लगता, कि उन गोथाओंके व्याख्यानकी आवश्यकता इसके पूर्व भी उक्त स्थलों पर है। ७. गाथाओंकी गम्भीरता और अनन्तार्थगर्भिता-कसायपाहडकी किसी-किसी गाथाके एक-एक पदको लेकर एक-एक अधिकारका रचा जाना तथा तीन गाथाओंका पांच अधिकारों में निबद्ध होना ही गाथासूत्रोंको गम्भीरता और अनन्त-अर्थ-गर्भिताको सचित करता है । वेदक अधिकारकी 'जो जं संकामेदि य' (गाथाङ्क ६२) गाथाके द्वारा चारों प्रकारके बन्ध, चारों प्रकारके संक्रमण, चारों प्रकारके उदय, चारों प्रकारकी उदीरणा और चारों प्रकारके सत्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्वकी सूचना निश्चयतः उसके गाम्भीर्य और अनन्तार्थगर्भित्वकी साक्षी है । पृ०६४२। १ देखो पृ० ८८३, सू० १४३१। २ 'चत्तारि य पट्ठवए गाहा' गा० ७। ३ देखो ४ देखो पृ०६६१ । ५ देखो पृ०६६६ । ६ देखो पृ० ६८१ । ७ देखो पृ० ७३८ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त यदि इन गाथासूत्रोंमें अन्तर्निहित अनन्त अर्थको चूर्णिकार व्यक्त न करते, तो आज उनका अर्थबोध होना असंभव था। ८. एक प्रश्न-जबकि कसायपाहुडको पन्द्रह अधिकारोंमें विभक्त किया गया है और सभी अधिकारोंकी गाथाएं भी पृथक्-पृथक् निरूपण की गई हैं, तब क्या कारण है कि प्रारम्भके ५ अधिकारोंमें केवल ३ गाथाएं ही बतलाई गई हैं ? क्या वेदक, उपयोग, व्यंजन आदि शेष अधिकारोंके समान प्रारम्भके ५ अधिकारों में भी थोड़ी बहुत गाथाओंको नहीं रचा जा सकता था ? यदि हां, तो फिर क्यों नहीं वैसा किया गया, और क्यों ३ गाथाओंके द्वारा ही ५ अधिकारोंके प्रतिपाद्य विपयका निर्देश कर दिया गया? यह एक प्रश्न ग्रन्थके प्रत्येक अभ्यासीके हृदयमें उठे विना नहीं रह सकता ? यद्यपि इस प्रश्नका उत्तर सहज नहीं है, तथापि गुणधराचार्यके समयकी स्थितिका अध्ययन करनेसे उक्त प्रश्नका बहुत कुछ समाधान हो जाता है । प्रारम्भके ५ अध्यायों पर रचे गये चूर्णिसूत्रोंके अध्ययनसे पता चलता है कि इन अधिकारोंका प्रतिपाद्य विषय वही है, जोकि महाकम्मपयडिपाहुडमें वर्णन किया गया है । कसायपाहुडका उद्गमस्थान पांचवें पूर्वकी दशवीं वस्तुका तीसरा पेज्जदोसपाहुड है, जबकि महाकम्मपयडिपाहुड दूसरे पूर्वकी पंचम वस्तुका चौथा पाहुड है । गुणधराचार्य पांचवें पूर्वके पूर्ण पाठी भले ही न हों, पर उसके एक देशपाठी तो निश्चयतः थे ही । अतः यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है कि वे महाकम्मपयडिपाहेडके भी पारंगत थे। उनके द्वारा कसायपाहुडका रचा जाना यह सिद्ध करता है कि उनके समयमें उक्त पंचम पूर्वगत पाहुडोंके ज्ञानका भी हास होने लगा था । साथ ही कसायपाहुडके प्रारम्भिक ५ अधिकारोंपर गाथासूत्रोंका न रचा जाना और मात्र ३ गाथाओंके द्वारा उनके प्रतिपाद्य विपयकी सूचनामात्र करना यह सिद्ध करता है कि यतः उनके समयमें महाकम्मपयडिपाहुडका पठन-पाठन अच्छी तरहसे प्रचलित था, अत. उन्होंने उन अधिकारोंपर गाथाओंकी रचना करना अनावश्यक समझा और मात्र ३ गाथाओंके द्वारा उसकी सूचना करदी। किन्तु कसायपाहुडकी गाथाओंको यतिवृपभके पास तक पहुंचते-पहुंचते मध्यवर्ती कालमें महाकम्मपयडिपाहुडके ज्ञानका बहुत कुछ अंशोंमे विच्छेद हो गया था, और जो कुछ उसका आशिक-ज्ञान बचा था, वह पखंडागम, कम्मपयडी, आदि प्रकीर्णक ग्रन्थोंमे निबद्ध हो चुका था, अतः उन्होंने प्रारम्भके ५ अधिकारोंका विशद व्याख्यान करना उचित समझा । यही कारण है कि जब गुणधराचार्यने प्रारम्भके ५ अधिकारोंपर केवल ३ गाथाएं रची, तब यतिवृपभने उनपर ३२४१ चूर्णिसूत्र रचे, जो कि समस्त चर्णिसूत्रोंकी संख्याके आधेके लगभग हैं; क्योंकि कसायपाहुडके समस्त चूर्णिसूत्रोंकी संख्या ७००६ है। यहां एक वात और भी ज्ञातव्य है कि प्रारम्भके पांच अधिकारोंके चूर्णिसूत्रोंकी उक्त संख्या वास्तवमें पांचकी नहीं, अपि तु चारकी ही है, क्योंकि बन्धनामक चौथे अधिकारपर तो यतिवृपभने मात्र ११ सूत्रों के द्वारा प्रतिपाद्य विषयकी सूचना भर की है और उनमे स्पष्टरुपसे यह कहा है कि बन्धके चारों भेदोंका अन्यत्र बहुत विस्तारसे वर्णन किया गया है (अतः हक उनका वर्णन यहां नहीं करते हैं )। जयधवलाकार इस स्थलपर लिखते है कि यहाँ पर समस्त महावन्धके-जिसका कि प्रमाण ३० हजार श्लोकपरिमाण हैं-प्ररूपण करने पर बन्धनामक चौथा अधिकार पूर्ण होता है । यदि तिवृपभ संक्रमण अधिकारके समान अति संक्षेपसे भी चारों प्रकारके बन्धोंका निरूपण करते, तो भी उक्त अधिकारके चूर्णिसूत्रोंकी संख्या लगभग दो हजारके अवश्य होती, क्योंकि अकेले संक्रमण अधिकारके चूर्णिसूत्रोंकी संख्या१८५३ है, जबकि बहुतसे अनुयोगद्वारोंके विवेचनका भार चूर्णिकारने उच्चारणाचार्यों पर छोड़ा है । यदि संक्रमणके समान बन्ध अधिकारके चूर्णिसूत्रोंकी काल्पनिक संख्या दो हजार ही मानी जावे, तो प्रारम्भके ५ अधिकारोंके चूर्णिसूत्रोंकी संख्या कम-से-कम ५ हजार अवश्य होती। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस विवेचनसे जहां उक्त प्रश्नका भलीभॉति समाधान होता है, वहां यह एक विशिष्ट बात भी अभिज्ञात होती है कि गुणधराचार्य महाकम्मपयडिपाहुडके पूर्ण वेत्ता थे। तथा जिस प्रकार गुणधराचार्यने अपने समयमें पंचम पूर्वगत पेज्जदोसपाहुडका ज्ञान विलुप्त होते हुए देखकर उसका कसायपाहुडके रूपमें उपसंहार करना उचित समझा,ठीक उसी प्रकारसे धरसेनाचार्यने अपने समयमें दिन-पर-दिन महाकम्मपयडिपाहुडके ज्ञानको विलुप्त होते हुए देखकर तथा अपनी अल्पायुपर ध्यान देकर श्रुतरक्षाके विचारसे भूतबलि और पुष्पदन्तको बुलाकर उसे समर्पण करना उचित समझा । इससे गुणधराचार्यका धरसेनाचार्यसे पूर्ववर्ती होना और भी असंदिग्धरूपसे स्वतः सिद्ध हो जाता है। गाथासूत्रोंके पठन-पाठनके अधिकारी--गाथासूत्रोंकी रचना-शैलीको देखते हुए यह सहजमें ही ज्ञात हो जाता है कि इनकी रचना उच्चारणचार्यों, व्याख्यानाचार्यों या वाचकाचार्योको लक्ष्यमें रखकर की गई है, जो कि उस समय प्रचुरतासे पाये जाते थे । ये लोग एक प्रकारसे उपाध्यायपरमेष्ठी हैं । यदि ये व्याख्यान करनेवाले आचार्य गाथाओंके अन्तर्निहित अर्थका शिष्योंको व्याख्यान न करते, उन्हें स्पष्ट प्रकट करके न बतलाते, तो उनका अर्थ-परिज्ञान असंभव-सा था। इसका कारण यह है कि अनेक गाथासूत्र केवल प्रश्नात्मक हैं और उनमें प्रतिपाद्य विषयका कुछ भी प्रतिपादन नहीं करके उसके प्रतिपादनका संकेतमात्र किया गया है। गुरु-परम्परासे प्राप्त अर्थका अवधारण करनेवाले आचार्योंके बतलाये विना उनके अर्थका ज्ञान हो नहीं सकता है। जो प्रश्नात्मक या पृच्छासूत्रात्मक गाथाएं हैं, उन्हें एक प्रकारके नोट्स, यादी-विषयको स्मरण करानेवाली सूची--या तालिका कहना चाहिए । गाथासूत्रोंमें आये हुए 'एव सव्वत्थ कायव्वं जैसे पदोंके द्वारा भी इसी बातकी पुष्टि होती है । यही कारण है कि गुणधरप्रथित उक्त गाथाएं आचार्य-परम्परासे व्याख्यात होती हुई आर्यमंच और नागहस्ती जैसे महावाचकोंको प्राप्त हुई, जोकि अपने समयके सर्व-वाचकों या व्याख्यानाचार्योंमें शिरोमणि, अग्रणी, या सर्वश्रेष्ठ थे और यही कारण है कि उन दोनोंसे यतिवृषभने गाथासूत्रोंके अर्थका सम्यक प्रकारसे अवधारण किया। कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंपर एक दृष्टि जयधवलाकारके उल्लेखानुसार श्रा० यतिवृषभने आर्यमंतु और नागहस्ती के पास कसायपाहुडकी गाथाओंका सम्यक् प्रकार अर्थ अवधारण करके सर्व प्रथम उन पर चूर्णिसूत्रो की रचना की । आ० इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे भी इसकी पुष्टि होती है । दोनोंने ही उनके इन चूर्णिसूत्रोंको वृत्तिसूत्र कहा है।। धवला और जयधवला टीकाओंमें चूर्णिसूत्रोंका सहस्रों वार उल्लेख होने पर भी चूर्णिसूत्रका कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं हुआ। हां, वृत्तिसूत्रका लक्षण जयधवलामें अवश्य उपलब्ध है, जो कि इस प्रकार है सुत्तस्सेव विवरणाए सखिचसद्दरयणाए संगहियसुत्तासेसत्थाए वित्तिसुत्तववएसादो। (जयध० अ० प० ५२) * पृ० ६०५, गा० ८५ । * पुणो तेसिं दोण्ह पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविरिणग्गयाणमत्यं सम्म सोऊण जयिवसहभडारएण पवयरणवच्छलेण चुएिणसुत्त कय । जयघ० भा० १ पृ० ८८.. - तेन ततो यतिपतिना तद्गाथावृत्तिसूत्ररूपेण । रचितानि षट्सहस्रग्रन्थान्यथ चूर्णिसूत्राणि ॥ इन्द्र० श्रु० श्लो० १५६. + सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वर देऊ ॥ जयघ० भा० १ पृ० ४. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत अर्थात् जिसकी शब्द- रचना संक्षिप्त हो, और जिसमें सूत्रगत अशेष अर्थोका संग्रह किया गया हो, सूत्रके ऐसे विवरणको वृत्तिसूत्र कहते हैं । १६ वृत्तिसूत्रका उक्त लक्षण यतिवृपभके चूर्णिसूत्रों पर पूर्णरूपसे घटित होता है । उनको शब्द-रचना संक्षिप्त है, और सूत्र - सूचित समस्त अर्थीका उनमें विवरण पाया जाता है | पर इतना होने पर भी यह बात तो अन्वेषणीय बनी ही रहती है कि आखिर इस 'चूर्णि' पदका अर्थ क्या है और क्यों यतिवृपभके इन वृत्तिसूत्रोको 'चूर्णिसूत्र' कहा जाता है। श्वे० आगमों पर भी चूर्णियां रची गई हैं, पर उन्हें या उनमें से किसीको भी 'चूर्णि सूत्र' नाम दिया गया हो, ऐसा हमारे देखने में नहीं आया । श्वे० ग्रन्थोंमें एक स्थान पर 'चूर्णिपद' का लक्षण इस प्रकार दिया गया है अत्थबहुलं महत्थं हेउ -निवाश्रवसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं गम-णयसुद्धं तु चुण्णपयं ।। अर्थात् जो अर्थ बहुल हो, महान् अर्थका धारक या प्रतिपादक हो, हेतु, निपात और उपसर्गसे युक्त हो, गम्भीर हो, अनेक पाद-समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो, अर्थात् जिसमे वस्तुका स्वरूप धारा प्रवाह से कहा गया हो, तथा जो अनेक प्रकारके गम— - जानने के उपाय और नयोंसे शुद्ध हो, उसे चौर्ण अर्थात् चूर्णिसम्बन्धी पद कहते हैं । चूर्णिपदकी यह व्याख्या यतिवृषभाचार्य के चूर्णिसूत्रोंपर अक्षरशः घटित होती है । चूर्णिपदका इतना स्पष्ट अर्थ जान लेनेके पश्चात् भी यह शका तो फिर भी उठती है कि 'वृत्ति' के स्थान पर 'चूर्ण' पदका प्रयोग क्यों किया गया और जैनसाहित्य में ही क्यों यह पद अधिकता से व्यवहृत हुआ ? जब कि जैनेतर साहित्य में वृत्ति, विवृति आदि नाम ही व्यवहृत एवं प्रचलित दृष्टिगोचर होते हैं ? 'चूर्णि ' पदकी निरुक्ति पर ध्यान देनेसे हमें उक्त शंकाका समाधान मिल जाता है । संस्कृत में चूर्ण धातु पेपण या विश्लेषण के अर्थ में प्रयुक्त होती है । किसी गेहूं चना आदि बीजके पिसे हुए अंशको चूर्ण कहते हैं और अनेक प्रकारके चूके समुदायको चूणि कहते हैं । तीर्थंकर भगवान् की दिव्यध्वनिको अनन्त अर्थसे गर्भित X वीजपद रूप कहा गया है और बीजपढ़का लक्षण धवलामें इस प्रकार दिया गया है संखितसद्दरयण मणं तत्थावगमहेदुभूदा रोगलिंग संगयं बीजपदं णाम || ( धवला श्र० ५० ५३६ ) अर्थात् जिसकी शब्द रचना सक्षिप्त शब्दों से हुई हो, जो अनन्त अर्थो के ज्ञान के कारणभूत हो, अनेक प्रकार के लिंग या चिन्होंसे संगत हो, ऐसे पढ़को बीजपद कहते हैं | कसा पाहुडकी गाथासूत्रोंमें ऐसे वीजपद प्रचुरतासे पाये जाते हैं । उन वीजपदोंका आ० यतिवृपने अपनी प्रस्तुत वृत्ति में बहुत उत्तम प्रकारसे विपलेश्ण - पूर्वक विवरण किया है, अतः उनकी यह वृत्ति चूर्णिके नामसे प्रसिद्ध हुई है । कसायपाहुढकी गाथाओंमे किस प्रकारके या कौनसे बीज पद प्रयुक्त हुए हैं और व किस प्रकार अनन्त अर्थसे गर्भित हैं, तथा उनका प्रस्तुत चूर्णि सूत्रोंमें किस प्रकार से विश्लेपण छ देखो श्रभिधानराजेन्द्र 'चुगपद' | x श्रणं तत्यगभ वीजपद घडिय सरीरा । जयघ० भा० १५० १२६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रस्तावना करके उनके अन्तर्निहित अर्थके रहस्यका उद्घाटन चूर्णिकारने किया है, इस बातके परिज्ञानार्थ कुछ बीजपद उदाहरणके रूपमे उपस्थित किये जाते हैं । कर्मविभक्ति का वर्णन करते हुए कसायपाहुडकी चौथी मृलगाथाका अवतार किया गया __ है, जो कि इस प्रकार है पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती तह द्विदीए अणुभागे । उक्कस्समणुक्कस्सं झीणमझीणं च ठिदियं वा ॥ इसमें बतलाया गया है कि कर्मविभक्तिके विषयमें मोहनीय कर्मकी प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, उत्कृट-अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिककी प्ररूपणा करना चाहिए। शाशासत्रकारने कर्मविभक्तिके वर्णन करने के लिए इतनी मात्र सूचना करनेके अतिरिक्त और कुछ भी वर्णन नहीं किया है । चूर्णिकारने गाथाके प्रत्येक पदको बीज पद मान करके प्रकृतिविभक्तिका १२६ सूत्रोंमें, स्थितिविभक्तिका ४०७ सूत्रोंमें, अनुभागविभक्तिका १८६ सूत्रों में प्रदेशविभक्तिका २६२ सूत्रोंमें, क्षीणाक्षीणका १४२ सूत्रोंमे और स्थित्यन्तिकका १०६ सूत्रों में वर्णन करके उसी बीजपदके नामसे पृथक् पृथक् अधिकारकी रचना की है । उक्त बीज पदोंके व्याख्यारूप उक्त अधिकारोमे भी तद्गत विषयोंका कुछ प्रारम्भिक वर्णन करके शेष कथनके वर्णनका भार व्याख्यानाचार्यों या उच्चारणाचार्यों पर छोड़ दिया गया है। यदि प्रत्येक वीजपदके अन्तनिहित पूर्ण रहस्यका वर्णन चूर्णिकार करते, तो चूर्णिसूत्रोकी संख्या कई हजार होती। जिन बातोंके प्ररूपण करनेका भार चूर्णिकारने उच्चारणाचार्यों पर छोड़ा है, उच्चारणाचार्यने उसका वर्णन किया है और उस उच्चारणावृत्तिका प्रमाण १२ हजार श्लोकपरिमाण हो गया है। पर चूर्णिकारने 'वृत्तिसूत्र' इस नामके अनुरूप अपनी रचना संक्षिप्त, पर अर्थ-बहल पदोंके द्वारा ही की है, इसलिए पर्याप्त प्रमेयका प्रतिपादन करने पर भी उनके चूर्णसूत्रोंकी ग्रन्थ-सख्या ६ हजार श्लोक-प्रमाण ही रही है । चूर्णिकारने बीजपदोंका स्वयं भी अपनी चूर्णिमें उल्लेख किया है। यथा सेसाण पि कम्माणमेदेण वीजपदेण णेदव्वं । (स्थिति० सू० ३४२ ) सेसाणं कम्माणमेदेण बीजषदेण अणुमग्गिदव्वं । (स्थिति० सू० ३५२) जयधवलाकारने कसायपाहुडचूर्णिके अनेक सूत्रोंको विभिन्न नामोंसे उल्लेख किया है, जिन्हे इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है—१ उत्थानिकासृत्र, २ अधिकारसूत्र, ३ श्राशकासत्र ४ पृच्छासूत्र, ५ विवरण सूत्र, ६ समर्पणसूत्र और ७ उपसहारसूत्र। १ उत्थानिकासूत्र-जिनके द्वारा आगे वर्णन किये जाने वाले विपयकी सूचना की गई, उन्हें उत्थानिकासूत्र कहा गया है । जैसे-एत्तो सुत्तसमोदारो ( पेज्जदो० सू० ८७) इमा अण्णा परूवणा (प्रदेशवि० सू० ६६ ) कालो (प्रदेशावि० स०६७) अंतरं ( प्रदेशवि० सू० १०८) इत्यादि। २ अधिकारसूत्र-अधिकार या अनुयोगद्वारके प्रारम्भमे दिये गये सूत्रोंको अधिकार सूत्र कहा गया है । जैसे-एचो अणुभागविहत्ती ( अनुभा० सू० १ ) एत्तो पदणिक्खेवो (स्थिति० सू० ३१५) एत्तो वड्ढी ( स्थिति० सू० ३२७) आदि । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ कसायपाहुँडसुत्त ३ आशंकासत्र-किसी विपयका वर्णन करते हुये तद्गत विशेष वक्तव्य के लिए शंका उठाने वाले वाक्योंको आशंकासूत्र कहा गया है। जैसे-अट्ठावीसं केण कारणेण ण संभवइ ? ( संक्रम० स.० १३४ ) कधं ताव णोजीवो ? (पेज्जदो० स.० ५५) आदि । ४ पृच्छासूत्र-वक्तव्य विषयकी जिज्ञासा प्रकट करनेवाले सूत्रोंको पृच्छासूत्र कहा गया है। जैसे-छव्वीससंकामया केवचिरं कालादो होति ? ( संक्रम० १६४) तथा तं जहा, जहा, जधा आदि । ५ विवरणसूत्र-प्रकृत विषयके विवरण या व्याख्यान करनेवाले सूत्रोंको विवरणसूत्र कहा गया है। जैसे—णामं छविह, पमाणं सत्तविहं, वत्तव्वदा तिविहा (पेज्जदो० स ० ३, ४, ५,) आदि। ६ समर्पणसूत्र-किसी वक्तव्य वस्तुके अांशिक विवरणके पश्चात् तत्समान शेष वक्तव्यके भी जान लेनेकी, अथवा उच्चारणाचार्योंको उनके प्ररूपण करनेकी सूचना करनेवाले स्त्रोंको अर्पण या समर्पणसूत्र कहा गया है । जैसे-गदीसु अणुमग्गिदव्वं (स्थिति० सू० २३) जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसाणं कम्माणं ( स्थिति सू० ३८२) एत्तो मूलपयडिअणुभागविहत्ती भाणिदव्वा । (अनुभा० २) इत्यादि । ७ उपसंहारसूत्र--प्रकृत विषयका उपसहार करनेवाले सूत्रोंको उपंसहारसूत्र कहा गया है । जैसे- एसा ताव एका परूवणा (प्रदेश० स ० ६८ ) तदो तदियाए गाहाए विहासा समत्ता ( उपयो० सू० १८२ ) तदो छट्ठी गाहा समत्ता भवदि । ( उपयो० सू८२७३) इत्यादि। चर्णिसूत्रोंकी रचना किसके लिए ? जिस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थके गाथासूत्रोकी रचना उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्योंको लक्ष्यमें रखकर की गई है, उसी प्रकारसे चूर्णिसूत्रोंकी रचना भी उन्हींको लक्ष्यमे रख करके की गई है, यह बात भी चूर्णिसूत्रोंके अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञात हो जाती है । चूर्णिसूत्रोमे आये हुए, 'भाणियचा, णेदवा, कायव्वा, परवेयव्वा आदि पदोंका प्रचुरतासे प्रयोग इस वातका साक्षी है । जयधवलाकारने इन पदोंका अर्थ करते हुए स्पष्ट शब्दोंमे लिखा है कि उच्चारणाचार्य इसके अर्थका प्रतिबोध शिष्योंको करावे । परिशिष्ट नं०६ मे दिये गये स्थलोंके निर्देशसे उक्त कथनके स्वीकार करने में कोई सन्देह नहीं रह जाता है । चूर्णिकारने जिस अर्थका व्याख्यान नहीं किया है, उनके व्याख्यानका भार या उत्तरदायित्व उन्होंने उच्चारणचार्यों और व्याख्यानाचार्योंके ऊपर छोड़ा है। चूर्णिसूत्रोमे उच्चारणचार्योंके लिए इस प्रकार की सूचना दो सौसे भी अधिक पार की गई है और उक्त सूचनाके लिए कुछ विशिष्ट पदोका प्रयोग किया गया है। ___ उच्चारणाचार्योको जिन पदोंके प्रयोग-द्वारा यह भार सौंपा गया है, जरा उनपर भी दृष्टिपात कीजिए 28 एदस्म दब्बस्स प्रोवट्टणं ठविय मिस्सारणमेत्य अत्यपडिवोहो कायब्बो | जयप० Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना - पृष्ठ प्रयुक्त पद अर्थ ६७२ अणुगतव्य, ४१ अणुगंतव्वाणि । ( जानना चाहिए) ४६५ अणुचिंतिऊण णेदव्व । (चिन्तवन करके ले जाना चाहिए ) ६६ अणुमग्गिदव्वं, १२० अणुमग्गियव्यो । (अनुमार्गण करना चाहिए) ६५७ अणुसवण्णेदव्वाओ, ७३७ अणुभासिव्वाओ । ( वर्णन करना चाहिए) ४४० एदाणुमाणिय णेदव्व । ( इसके द्वारा अनुमान करके बतलाना चाहिए ) ६४२ ओट्टिदव्वाओ । ( स्थापित करना चाहिए) १०१ कायव्वं, ३४ कायव्वा, २०० कायव्यो, १७५ कायव्वाश्रो, ६१ काव्वाणि । (प्ररूपणं करना चाहिए) ३६३ काऊण । (करके) ६६३ गेण्हियव्वं । (ग्रहण करना चाहिए ) ११६ जाणिदव्यो, ११६ जाणियव्यो, ४११ जाणिदूण णेदव्वं । ( जानना चाहिए) १८ ठवणिज्ज, ४६७ ठवणीयं, ४५ थप्पा । ( स्थापित करना चाहिए) ७११ दट्ठव्वं । (जानना चाहिए) १६, २८, णिक्खिवियव्वं, १६ णिविखवियव्वो, ४५ णिक्खिवियव्वा । (निक्षेप करना चाहिए) ४४० णेदव्वं, ५६ णेदव्या, १११ णेदव्वाणि, ६२ णेदव्वो । (ले जाना चाहिए) १६४ परूवेदव्याणि ६७८ परूवेयव्वाणि, ६१४ परूवेयव्वाओ। (प्ररूपण करना चाहिए ) ४३७, बंधावेयव्वो, बधावेयव्वाओ, ४५३ बधावेदूण बंधावेयव्यो । ( बन्ध कराना चाहिए ) ६४२ भाणियव्य, १४७ भाणिदव्वा, ३४८ माणिदव्यो, ५०० भाणियव्वा, ५२६ भाणिव्वाणि ३६४ भाणिदव्व । (कहलाना चाहिए ) ४६७ मग्गिदूण मग्गियव्या, ६१६ मग्गियव्व, ६१६ मग्गियव्यो । (अन्वेषण करना चाहिए) ४६७ मग्गियूण कायव्वा । (अन्वेषण करके प्ररूपण करना चाहिए) '५७६ वत्तव्य । (कहना चाहिए) ६६६ विहासियूण, ७१३ विहासियव्वाणि, ७३८ विहासियव्याओ, ४३२ विहासेयव्वं । (विशेष व्याख्यान करना चाहिए) ४१२ साधेदूण णेदव्यो । (साध करके बतलाना चाहिए) ४१२ साहेयव्य, ५२४ साहेयव्यो । ( साधन करना चाहिए) ऊपर दिये गये पदोंके प्रयोगसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि चूर्णिसूत्रोंकी रचना उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्योंके लिए की गई है और उन्हे उपर्युक्त पदोंके प्रयोग-द्वारा यह भार सौंपा गया है कि वे चूर्णिसूत्रोंमें नहीं कहे गये तत्त्वका प्रतिपादन शिष्योको अच्छी तरहसे प्ररूपण करें और उन्हे उसका बोध करावे । चूर्णिसूत्रोंकी रचनाशैली चूर्णिसूत्रोंकी रचना संक्षिप्त होते हुए भी बहुत स्पष्ट, प्राञ्जल और प्रौढ है; कहीं एक शब्दका भी निरर्थक प्रयोग नहीं हुआ है। कहीं-कही सख्यावाचक पदके स्थान पर गणनाकोका भी प्रयोग किया गया है,नो जयववलाकारने उसको भी महत्ता ओर सार्थकता प्रकट की है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसोयपाहुइँसुत्ते चूर्णिसूत्रोके अध्ययनसे बात होता है कि चूर्णिकारके सामने जो आगमसूत्र उपस्थित थे और उनमें जिन विषयोका वर्णन उपलब्ध था, उन विपयोंको प्रायः यतिवृपभने छोड़ दिया है। किन्तु जिन विषयों का वर्णन उनके सामने उपस्थित आगमिक साहित्यमे नहीं था और उन्हे जिनका विशेष ज्ञान गुरु-परम्परासे प्राप्त हुआ था, उनका उन्होंने प्रस्तुत चूर्णिमे विस्तारके साथ वर्णन किया है। इसके साक्षी वन्ध और संक्रम आदि अधिकार है। यतः महाबन्धम चारों प्रकारोंके बन्धोंका अति विस्तृत विवेचन उपलव्ध था, अतः उसे एक सूत्रमें ही कह दिया कि 'वह चारों प्रकारका वन्ध बहुशः प्ररूपित है। किन्तु संक्रमण सत्त्व उदय और उदीरणाका विस्तृत विवेचन उनके समय तक किसी ग्रन्थमें निबद्ध नहीं हुआ था, अतएव उनका प्रस्तुत चूर्णिमें बहुत विशद एवं विस्तृत वर्णन किया है । इसीसे यह भी ज्ञात होता है कि यतिवृपभका आगमिक ज्ञान कितना अगाध, गंभीर और विशाल था। . प्रस्तुत चूर्णिसूत्रोंमे पखंडागमसूत्रोंका प्रतिविम्ब और शैलीका अनुसरण दृष्टिगोचर होता है । पटखडागमके द्रव्यानुगम, क्षेत्र, स्पर्शन, काल और अन्तरादि प्ररूपणाओमें जिस प्रकार 'केवडिया, केवडि खेत्ते, केवचिर कालादो होति' आदि पृच्छाओंका उद्भावन करके प्रकृत विपयका निरूपण किया गया है, ठीक उसी प्रकारसे प्रस्तुत चूर्णिसूत्रोमे भी वही शैली और क्रम दृष्टिगोचर होता है । पखंडागमके छठे खंड महाबन्धमें चारों बन्धोंका जिन २४ अनुयोग-द्वारोंसे निरूपण किया गया है, प्रस्तुत चूर्णिमे भी चारों विभक्तियों और चारों प्रकारके संक्रमणोंका उन्हीं अनुयोग-द्वारोंसे वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा पाते है । भेद केवल इतना है कि महाबन्धमे प्रत्येक वन्धका चौवीस अनुयोगद्वारोसे प्रोव ( १४ गुणस्थानों) और आदेश (१४ मार्गणाओं) की अपेक्षा प्रकृत विषयका पृथक पृथक स्पष्ट विवेचन किया गया है, तो प्रस्तुत चूर्णिसूत्रों में दोचार मुख्य अनुयोगद्वारोंसे ओघकी अपेक्षा प्रकृत विपयका वर्णन कर आदेशकी अपेक्षा गति आदि एकाध मार्गणाका वर्णन किया गया है और शेप मार्गणाओं और अनुयोगद्वारोकी अपेक्षा प्रकृत विपयके वर्णन करनेका भार उच्चारणाचार्योंके ऊपर छोड़ दिया है। यही कारण है कि यतिवृपभ-द्वारा सौंपे गये उत्तरदायित्वका निर्वाह करने के लिए उच्चारणाचार्योंने उन-उन अव्याख्यात स्थलोका व्याख्यान किया और किसी विशिष्ट आचार्यने उसे लिपि-बद्ध करके पुस्तकारुढ कर दिया, जो कि उच्चारणावृत्ति नामसे प्रसिद्ध है। स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविभक्तिके प्रारम्भमें महावन्ध और उच्चारणावृत्तिसे दिये गये विस्तृत टिप्पणोंसे उक्त कथनकी सचाईम कोई संदेह नहीं रहा जाता है । चूर्णिसूत्रोंकी संख्या और परिमाण-इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार चूर्णिसूत्रोका परिमाण ६ हजार श्लोक-प्रमाण है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है, किन्तु उनकी संख्या कितनी रही है, इसका कहींसे कुछ पता नहीं चलता। हॉ, जयधवला टोकासे इतना अवश्य ज्ञात होता है कि प्रस्तुत चूर्णिका प्रत्येक वाक्य उन्हे सूत्ररूपसे अभीष्ट रहा है, इसलिये स्थान-स्थान पर उन्होंने 'उपरिमसुत्तमाह, सुत्तद्दयमाह' इत्यादि पदोंका प्रयोग किया है। जयधवला टीकाके अनुसार ऐसे पृथक्-पृथक् सूत्ररूपसे प्रतीत होने वाले सूत्रोंके प्रारम्भमें सख्या-वाचक अंक दिये गये है, जिससे कि किये गये अनुवादके साथ मूलसूत्रोंके अर्थका मिलान भी किया जा सके और कसायपाहुड-चूर्णि के समस्त सूत्रीकी सख्या भी जानी जा सके । इस प्रकार कसायपाहुडके विभिन्न प्रकरणों के चूर्गिसूत्रोंकी संख्या इस प्रकार है ही देखो बन्धाधिकार मू० ११ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र-संख्या २५ १४० १४२ ७०६ ३०८ ७४० प्रेस्तावना अधिकार-नाम सूत्र-संख्या अधिकार-नाम प्रेयोद्वेषविभक्ति ११२ वेदक ६६८ प्रकृतिविभक्ति १२६ उपयोग ३२१ स्थितिविभक्ति ४०७ चतुःस्थान अनुभागविभक्ति १८६ व्यजन प्रदेशविभक्ति २६२ दर्शनमोहोपशामना क्षीणाक्षीणाधिकार दर्शनमोहक्षपणा १२८ स्थित्यन्तिक १०६ संयमासयमलब्धि ६० बन्धक संयमलब्धि प्रकृतिसंक्रमण २६५ चारित्रमोहोपशामना स्थितिसंक्रमण चारित्रमोहक्षपणा १५७० अनुभागसक्रमण ५४० पश्चिमस्कन्ध प्रदेशसंक्रमण समस्त योग ७०० जयधवला टीकाके आद्योपान्त आलोड़नसे चूर्णिसूत्रोंके विपयमे कुछ नवीन बातों पर भी प्रकाश पड़ता है । जैसे (१) पूर्व सूत्र-द्वारा किसी विषयका प्रतिपादन कर चुकनेके बाद तद्गत विशेषताको बतलानेके लिए 'णवरि' कह कर कहीं पृथक् सूत्ररूपसे उसे अंकित किया गया है, तो कहीं उसे पूर्व सूत्रमें ही सम्मिलित कर दिया गया है। अपृथक्त्वताके उदाहरण१. पृ० १२, सू० ११. एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण । णवारि अतोमुहत्तणाओ। २. पृ० ३२६, सू० १५४. एवं सेसाणं पयडीणं । णवरि अवत्तव्यया अस्थि । ३. पृ० ३६२, सू० १६४. एव सम्मामिच्छत्तस्स वि । णवरि सम्मत्तं विजमाणेहि ____ भणियव्वं । ४. पृ० ३८१, सू० ३८६. एवं सेसाणं कम्माणं । णवरि अवतव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण संखेज्जा समया । इत्यादि जयधवला टीकामें इन सभी सूत्रोंके 'णवरि' पदसे आगेके अशकी टीका एक साथ ही की गई है, इसलिए इन्हे विभिन्न सूत्र न मानकर एक ही सूत्र माना गया और तदनुसार ही उन पर एक नम्बर दिया गया है। (२) अब कुछ ऐसे उद्धरण दिये जाते हैं, जहॉपर 'णवरि' पदसे आगेके अशको भिन्न सूत्र मानकर जयधवलाकारने उत्थानिका-पूर्वक पृथक् ही टीका लिखी है१. पृ० ११६, सू० १८३. एवं णवु सयवेदस्स । १८४. णवरि णियमा अणुक्कस्सा । २. पृ० १३१, सू० २८४. सेसाणं कम्माणं वित्तिया सव्वे सव्वद्धा। २८५. णवरि अणंताणुबंधीणमवत्तव्यढिदिविहत्तियाण जहएणेण एगसमत्रो । ३. पृ० १३६, सू० ३२६. एवं सव्यकम्माणं । ३३०. णवरि अणंताणुबंधीणमवत्तव्वं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्वाणमसंखेज्जगुणवड्ढी अवत्तव्यं च अस्थि । ४. पृ० ३३३, सू० १६६. सेसाणं मिच्छत्तभंगो । १६७. णवरि अवतव्यसंकामया भजियव्वा । इत्यादि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त (३) चूर्णिसूत्रोंमे कुछ सूत्र ऐसे भी हैं, जो वस्तुतः एक थे, किन्तु टीकाकारने व्याख्याकी सुविधाके लिए उन्हे दो सूत्रोमें विभाजित कर दिया है । जैसे१. पृ० १७७, सू० २. तत्थ मूलपयडिपदेसविहत्तीए गदाए । (पृ०१८४) ३. उत्तर पयडिपदेसविहत्तीए एगजीवेण सामित्तं । २. पृ० ४६७, सू० ६. एदाणि वेवि पत्तेगं चउवीसमणियोगद्दारेहि मग्गियण । १०. तदो पयडिट्ठाण-उदीरणा कायव्या । ३. पृ० ५१६ सू० ३८४. मूलपयडिपदेसुदीरणं मग्गियूण । ३८५. तदो उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च समुक्त्तिणादि-अप्पाबहुअंतेहिं अणियोगद्दारेहि मग्गियव्या । इत्यादि ऊपर दिये गये इन तीनो ही उद्धरणों में अंकित सूत्र वस्तुतः दो-दो नहीं, किन्तु एकएक ही हैं, किन्तु जयधवलाकारको उक्त तीनों ही स्थलोपर उच्चारणावृत्ति के आश्रयसे कुछ वक्तव्यविशेष कहना अभीष्ट था, इसलिए उपयुक्त तीनों सूत्रोंके 'गदाए' और 'मग्गियूण' पदोसे उन्हें विभाजित कर पूर्वार्ध और उत्तरार्धकी पृथक् पृथक् टीका की है। इसी प्रकार प्रायः सभी स्थलों पर 'तं जहा' को पृथक् सूत्र माना है, तो कहीं कहीं उसे पूर्व या उत्तर सूत्रके साथ सम्मिलित कर दिया गया है । यथा१. पृ० ४६, सू० २६. पदच्छेदो । तं जहा-पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति त्ति एसा पयडिविहत्ती । २. पृ० ६१, सू० ७. तं जहा । तत्थ अट्ठपदं-एया द्विदी हिदिविहत्ती, अणेयाश्रो द्विदीओ हिदिविहत्ती । ___ हमने दो-एक अपवादोंको छोड़कर प्रायः उक्त प्रकारके सर्व स्थलो पर जयधवलाटीकाका अनुसरण किया है, अतएव जहाँ पर जितने अंशकी पृथक् टीका की गई है, वहाँ पर हमने उतने अंश पर पृथक् सूत्राङ्क दिया है। चूर्णिकारकी गाथा-व्याख्यानपद्धति--कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंपर आद्योपान्त दृष्टि डालने पर पाठकको उनकी गाथा-व्याख्यानपद्धतिका सहजमे ही बोध हो जाता है। वे सर्व-प्रथम वक्ष्यमाण गाथाका अवतार करने के लिए उसकी उत्थानिका लिखते हैं, पुनः उसकी समुत्कीर्तना और तत्पश्चात् उसकी विभापा करते है। गाथासूत्रोंके उच्चारणको समुत्कीर्तना कहते हैं और गाथासूत्रसे सूचित अर्थ के विषय-विवरण करने को विभापा+ कहते हैं । विमापा भी दो प्रकारकी होती हैं एक प्ररूपणाविभापा और दूसरी सूत्रविभापा । जिसमें सूत्रके पदोंका उच्चारण न करके सूत्र-द्वारा सूचित किये गये समस्त अर्थकी विस्तारसे प्ररूपणा की जाती है, उस प्ररूपणाविभापा कहते है और जिसमें गाथासूत्रके अवयवभूत पदोके अर्थका परामर्श करते हुए सूत्र-स्पर्श किया जाता है उसे सूत्रविमापा कहते हैं। & समुक्तित्तण णाम उच्चारणविहासण णाम विवरण । जयघ० + सुत्तेण मूचिदत्यस्म विसेसियूण भासा विहासा विवरण ति वुत्त होदि । जयव० * विहासा दुविहा होदि-गरूवरणाविहासा मुत्तविहामा चेदि । तत्य पावणाविहामा णाम सुत्तपदाणि अणुच्चारिय सुत्तसूचिदासेसत्यस्स वित्यरपरूपणा । मुतविहासा णाम गाहामुत्तारणमवयवत्य. परामरसमुहेण सुत्तफासो । जयव० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रस्तुत चूर्णिमें कसायपाहुडके गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तना तो यथास्थान सर्वत्र की गई है, पर विभाषाके प्रकारमें अन्तर दृष्टिगोचर होता है । कहीं पर प्ररूपणाविभाषा की गई है, तो कहीं पर सूत्रविभापा । सूत्रविभापाके उदाहरण के लिए पृ० ४६ पर 'पयडीए मोहणिज्जा' इस २२ वीं गाथाकी और पृ० २५३ पर 'संकम-उवकमविही' इत्यादि २४, २५ और २६ वीं गाथाकी व्याख्या देखना चाहिए, जहाँपर कि 'पदच्छेदो' कहकर गाथासूत्रके एक-एक पदका उच्चारण करते हुए उनसे सूचित अर्थको प्रकट किया गया है । पर इस प्रकारकी सूत्रविमापा समग्र ग्रन्थमे बहुत कम गाथाओंकी दृष्टिगोचर होती है । चूर्णिकारने अधिकांशमें गाथासूत्रोंकी प्ररूपणाविभाषा ही की है। अनेक गाथासूत्र ऐसे भी हैं, जिनकी दोनों ही प्रकार की विभापा उनके सुगम होनेसे नहीं की गई है और समुत्कीर्तनामात्र करके लिख दिया है कि इसकी समुत्कीर्तना ही विभाषा है। यदि आ० गुणधर-प्रणीत गाथासूत्रोंकी संख्या २३३ ही मानी जाय, तो ५३ गाथासूत्र ऐसे हैं, जिनपर कि एक भी चूर्णिसूत्र नहीं लिखा गया है । ऐसे गाथासूत्रोंके क्रमाक इस प्रकार है-२, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, १०, ११, १२, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५. ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८ तथा ८६,८७, ८८, ८६ और ६० । गाथाङ्क १ पर जो चूर्णिसूत्र है, वे प्रथम गाथाके प्ररूपणाविमापात्मक न होकर उपक्रमपरिभाषात्मक है । गाथाङ्क १३-१४ पर वस्तुतः व्याख्यात्मक एक भी चूणिसूत्र नहीं है, अपितु चूर्णिकारने अपनी दृष्टि से एक नये प्रकारसे क्सायपाहुडके १५ अधिकारोका प्रतिपादन किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कसायपाहुडकी १८० गाथाओंसे वाह्य जो ५३ गाथाएं हैं और जिनके कि गुणधर-प्रणीत होनेके विषयमें मतभेद है, उनमें से २४. २५ और २६ इन तीन नम्बर वाली गाथाओं पर ही चूर्णिसूत्र उपलब्ध हैं, शेष ५० गाथाओंकी चूर्णिकारने कुछ भी व्याख्या नहीं की है । इस प्रकार केवल १८३ गाथाओं पर ही चूर्णिसूत्र उपलब्ध होते हैं । इनमें भी २० गाथाएं ऐसी है, जिन पर कि नाममात्रको चूर्णिसूत्र मिलते हैं । गाथाङ्क १५५ पर पृ० ७७८ में कहा गया है ४०३. एदिस्से एक्का भासगाहा । ४०४ तिस्से समुक्त्तिणा च विहासा च कायव्वा । ४०५, तं जहा। ये चूर्णिसूत्र भी विभाषात्मक न होकर पूर्वापर सम्बन्ध-द्योतक या उत्थानिकात्मक है। उक्त प्रकारके गाथासूत्रोंकी क्र मसख्या इस प्रकार है-१३६, १५५, १५७, १६२, १६८, १८४, १८६, १६१, १६४, १६७, १९८, १६६, २०४, २०७, २१४, २१६, २१८, २२६, २३२ और २३३ । कुछ गाथाएं ऐसी भी हैं, जिनकी पृथक-पृथक विभाषा नहीं की गई है, किन्तु एक प्रकरण या अधिकारसम्बन्धी गाथाओंकी एक साथ समुत्कीर्तना करके पीछेसे उनकी प्ररूपणाविभापा कर दी गई है। जैसे वेदक अधिकारमें ५६ से ६२ तककी ४ गाथाओंकी, उपयोग अधिकारमें ६३ से लेकर ६६ तक ७ गाथाओंकी, चतुःस्थान अधिकारमें ७० से लेकर ८५ तक १६ गाथाओंकी, व्यंजन अधिकारमें ८६ से लेकर ६८ तक ५ गाथाओंकी, सम्यक्त्व अधिकारमें १ से १४ तक ४ गाथाओंकी तथा ६५ से लेकर १०६ तक १५ गाथाओंकी, दर्शनमोहक्षपणामें ११० से लेकर ११४ तक ५ गाथाओंकी, और चारित्रमोहोपशामना-अधिकारमें ११६ से लेकर १२३ तक * विहासा एसा । ( देखो पृ० ८२७, पक्ति Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ कसायपाहुडसुत्त आठ गाथाओं की एक साथ समुत्कीर्तना करके पीछे उनमें यथावश्यक कुछ गाथाओं की प्ररूपणाविभापा करके शेपकी प्ररूपणाका भार उच्चारणाचार्योंपर छोड़ दिया गया है । केवल एक चारित्रमोहक्षपणा नामक पन्द्रहवां अधिकार ही ऐसा है कि जिसके ११० गाथाओं की चूर्णिकारने पृथक्-पृथक् उत्थानिका, समुत्कीर्तना और विभापा की है । जहा यह पन्द्रहवां अधिकार गाथा - सूत्रों की अपेक्षा सबसे बड़ा है, वहां इसके चूर्ण सूत्रों की संख्या भी सबसे अधिक अर्थात् १५७२ है । यहां एक बात ध्यान देने जैसी है कि चूर्णिकारने सुगम होनेसे व्यंजन नामक अधिकारकी ५ गाथाओं मे से किसी पर भी एक चूर्णिसूत्र नहीं लिखा है । केवल उत्थानिक रूप से अधिकारका आरम्भ करते हुए '१. वंजणे ति अणियोगद्दारस्स सुतं । २. तं जहा ।' ये दो सूत्र ही लिखे हैं । कहने का सारांश यह है कि चूर्णिकारने जिन गाथासूत्रोको सुगम समझा, उनकी विभापा नहीं की है और जिन गाथासूत्रों पर जहां जो विशेष बात कहना जरूरी समझा है, वहां उसे कहा है । चूर्णिकारके व्याख्यानकी एक विशेषता यह है कि जहां कहीं उन्हे कुछ विशेष बात कहना होती है, वहां वे स्वयं ही 'कथं' केण कारण, कधं सत्थाणपदाणि भवन्ति, आदि कहकर पहले शंकाका उद्भावन करते हैं और पीछे उसका सयुक्तिक समाधान करते हैं । इसके लिए देखिए पृ० २२, २३, २६, १८६, १६३, २०६, २१४, ३१६, ३१७, ४६३, ५८६, ५६१, ६१६, ६६२, ७१५, ७८६, ८३३, ८५७ ८६२, ८७४, ८८१,८४,८७,८६०, ८६२ इत्यादि । क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक अधिकारों का वर्णन तो आशका को उठाकर ही किया गया है । चारों विभक्तियोंका, सक्रम और उदीरणा अधिकार में स्वामित्व, काल और अन्तरादिक अनुयोगद्वारोंका वर्णन पृच्छापूर्वक ही किया गया है । 1 दो प्रकार के उपदेशों का उल्लेख चूर्णिकारने कुछ विशिष्ट स्थलों पर दो प्रकार के उपदेशोका उल्लेख किया है । उनमेसे उन्होंने एकको 'पवाइज्जत उपदेश' कहा है और दूसरेको अन्य उपदेश' कहकर सूचित किया है । जिसका अर्थ जयधवलाकारने 'अपवाइज्जत उपदेश' किया है । जहाँ जहाँ ऐसे मत-भेदोंका उल्लेख चूर्णिकार ने किया है वहां वहां जयधवलाकार ने उनके अर्थका भी कुछ न कुछ स्पष्टीकरण किया है । जयधवलाकारने पवाइज्जंत या पवाइज्जमान (प्रवाह्यमान) उपदेशको आर्य नागहस्तीका और अपवाइज्जंत या अपवाइज्जमान (श्रप्रवाह्यमान ) उपदेशको आर्यमं चुका बतलाया है । प्रायः सर्व स्पष्टीकरणों में उक्त समता होते हुए भी दो एक स्थलों पर कुछ विषमता या विभिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । यथा (१) पृ० ५६२ पर कपायोंके उपयोग-कालका श्रल्पबहुत्व बतलाते हुए सर्व प्रथम चूर्णिकारने इस मतभेदका उल्लेख किया है । जो इस प्रकार है १६. पवाइज्जंतेण उचदेसेण श्रद्धाणं विसेसो तोमुहुच । अर्थात् प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा क्रोधादि कपायोंके उपयोगकालगत विशेषताका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है | इस पर टीका करते हुए जयधवलाकार लिखते हैं "को बुरा पवाइज्जतोवएसो णाम बुतमेदं १ सच्चाइरियसम्मदो चिरकालम Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना व्योच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए पवाइज्जदे परणविज्जदे, सो पवाइज्जतोवएसो त्ति भएणदे । अथवा अज्जमखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जतो त्ति घेत्तव्यं ।" अर्थात् जो उपदेश सर्व प्राचार्योंसे सम्मत है, चिरकालसे अविच्छिन्न सम्प्रदायक्रमसे आ रहा है और शिष्य-परम्पराके द्वारा प्रवाहित किया जारहा है-जिज्ञासु जनोंको प्रज्ञापित किया जारहा है-उसे पवाइज्जत उपदेश कहते हैं । ( इससे विपरीत उपदेशको अपवाइज्जंत उपदेश जानना चाहिए। ) अथवा भगवन्त आर्यमञ्जका उपदेश अपवाइज्जंत और नागहस्तिक्षपणकका उपदेश पवाइज्जत जानना चाहिए । यद्यपि इस अवतरणमें स्पष्टरूपसे आर्यमंतुके उपदेशको अप्रवाह्यमान और नागहस्तीके उपदेशको प्रवाह्यमान बतलाया गया है, तथापि आगे चलकर जो उन्होंने उक्त शब्दोंका अर्थ किया है, वह उनकी स्थितिको सन्देहकी कोटिमें डाल देता है। यथा (२) उक्त स्थलसे आगे चूर्णिकार कहते है४५. तेसि चेव उवदेसेण चोदसजीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि । ___ (पृ० ५६४ सू० ४५) इस सूत्रका अर्थ करते हुए जयधवलाकार कहते हैं "तेसि चेव भयवंताणमज्जमखु-णागहत्थीणं पवाइज्जतेणुवएसेण चोद्दसजीवसमासेसु जहएणुकस्सपदविसेसिदो अप्पाबहुअदंडो एत्तो भणिहिदि भणिष्यत इत्यर्थः ।" अर्थात् उन्हीं भगवन्त आर्यमंच और नागहस्तीके प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार चौदह जीवसमासोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कषायोंके काल-सम्बन्धी अल्पबहुत्व-दंडकको कहेगे। पाठकगण यहा स्वयं अनुभव करेंगे कि जयधवलाकारका यह पूर्वापर-विरुद्ध कथन कैसा ? इसके पूर्व इसी प्रकरणके १६ वें चूर्णिसूत्रकी व्याख्या करते हुए जब वे आर्यमंक्षुके उपदेशको अप्रवाह्यमान और नागहस्तीके उपदेशको प्रवाह्यमान बतला आये हैं, तब यहां पर ४५ वें सूत्रकी व्याख्यामें उन दोनों ही प्राचार्योंके उपदेशको प्रवाह्यमान कैसे कह रहे हैं ? निश्चयतः जयधवलाकारका यह कथन पाठकको सन्देहकी कोटिमें डाल देता है। धवलाकारने षट्खंडागमकी व्याख्यामें अनेक स्थानों पर उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिण प्रतिपत्तिका उल्लेख किया है। ज्ञात होता है कि नागहस्तीकी प्रवाह्यमान उपदेश-परम्परा आगे चलकर दक्षिण प्रतिपत्तिके नामसे और आर्यमंचकी अप्रवाह्यमान उपदेश-परम्परा उत्तर प्रतिपत्तिके नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई है। । उक्त दो स्थलोंके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर भी चूर्णिकारने उक्त दोनों प्रकारके उपदेशोंका अनेक वार उल्लेख किया है, जिसे परिशिष्ट नं० ७ से जानना चाहिए । यतः आचार्य यतिवृपभने आर्यमंतु और नागहस्ती दोनोंसे ही आगम-विपयक ज्ञान प्राप्त किया था और जयधवलाकारने उन्हे दोनोंका शिष्य बतलाया है, अतः इतना तो सुनिश्चित __ है कि चूर्णिकारने दोनो उपदेशोंके द्वारा अपने दोनों गुरुओंके मत-भेदोंका निर्देश किया है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कसाय पाहुडसुत्त चूर्णिकारकी स्पष्टवादिता - कसायपाहुडचूर्णिके अध्ययनसे जहां चूर्णिकार के अगाध पांडित्य और विशाल आगम-ज्ञानका पता लगता है, वहां प्रस्तुत चूर्णिमे एक उल्लेख ऐसा भी है, जिससे कि उनकी स्पष्टवादिताका भी पता चलता है । चारित्रमोहक्षपरणा-अधिकार में क्षपककी प्ररूपणा करते हुए, यवमध्यकी प्ररूपणा करना आवश्यक था । उस स्थल पर चूर्णिकार उसे न कर सके । आगे चलकर प्रकरणकी समाप्ति पर चूर्णिकार लिखते हैं "जवमज्यं कायव्वं, विस्सरिदं लिहिदु । ” - ( पृ० ८४०, सू० ६७६ ) अर्थात् यहां पर यवमध्यकी प्ररूपणा करना चाहिए । पहले क्षपक- प्रायोग्य प्ररूपणा के अवसर में हम लिखना भूल गये । इतने महान् आचार्यकी यह स्पष्टवादिता देखकर कौन उनकी वीतरागता पर मुग्ध हुए विना न रहेगा ? इस उल्लेख से जहाँ चूर्णिकार के हृदयकी सरलता और निरहकारिताका पता लगता है, वहां एक नई बातका और भी पता लगता है कि कसायपाहुडकी चूर्णि उन्होंने अपने हाथसे लिखी थी, यही कारण है कि वे 'लिहिदु" पदका प्रयोग कर रहे हैं। यदि उन्होंने यह चूर्णि बोल करके किसी और के द्वारा लिखाई होती, तो 'लिहिदु' प्रयोग न करते और उसके स्थान पर 'भणिदु' या 'परूवेदु' जैसे किसी अन्य पदका प्रयोग करते । यहां यह पूछा जासकता है कि जब उन्होंने प्रस्तुत चूर्णिको अपने ही करकमलों से लिखा है, तब वह यवमध्यरचना जहाँ आवश्यक थी, वहीं पीछे उसे क्यों नहीं लिख दिया ? इसका उत्तर जवलाकार ने यह दिया है कि वीतरागी और आगमके वेत्ता यतिवृपभ जैसे श्राचार्यसे ऐसी भूल होना संभव नहीं है । शिष्यों को प्रकृत अर्थ संभलवानेके लिए उन्होंने वस्तुतः अन्त दीपकरूप से उसका यहां उल्लेख किया है । जो कुछ भी हो, पर चूर्णिकारकी उक्त स्पष्टवादितासे उनकी वीतरागता, निरहंकारिता सरलता और महत्ताका अवश्य आभास मिलता है । उच्चारणावृत्ति उच्चारणावृत्ति क्या है ? - चूर्णिकारने प्रस्तुत ग्रन्थकी व्याख्यामे जिन-जिन विपयों की प्ररूपणा अत्यन्त आवश्यक समझी, उनकी प्ररूपणा ओघ (सामान्य) से करके आदेश (विशेप) से या तो प्ररूपणा ही नहीं की, अथवा गति, इन्द्रिय आदि एकाध मार्गणासे करके, शेष मार्गणाओंकी प्ररूपणा करनेका भार समर्पण सूत्रों के द्वारा उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्योंको सौंपा है, जिसका अनुमान पाठकगण परिशिष्ट नं० ६ से लगा सकेंगे । भ० महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका उपदेश श्रुतकेवलियोंके समय तक तो मौखिक ही चलता रहा । किन्तु उनके पश्चात् विविध अंगों और पूर्वोके विषयोंको कुछ विशिष्ट आचार्याने उपसंहार करके गाथा-सूत्रोंमे निवद्ध किया । गाथा शब्दका अर्थ है-गाये जाने वाले गीत । और सूत्र का अर्थ है - महान और विशाल अर्थके प्रतिपादक शब्दोंकी संक्षिप्त रचना, जिसमें कि सांकेतिक बीज पके द्वारा विवक्षित विपयका पूर्ण समावेश रहता है । इस प्रकारके गाथासूत्रोंकी रचना करके उनके रचयिता श्राचार्य अपने सुयोग्य शिष्यों को गाथासूत्रों के द्वारा सूचित अर्थके उच्चारण करने की विधि और व्याख्यान करनेका प्रकार बतला देते थे और वे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लग जिज्ञासु जनोको गुरु-प्रतिपादित विधिसे उन गाथासूत्रोंका उच्चारण और व्याख्यान किया करते थे। इस प्रकारके गाथासूत्रोंके उच्चारण या व्याख्यान करनेवाले आचार्योंको उच्चारणाचार्य, व्याख्यानाचार्य या वाचक कहा जाता था। गुणधराचार्य-द्वारा कसायपाहुडके गाथासूत्रों के रचे जाने पर उन्होंने उनका अर्थ अपने सुयोग्य शिष्योंको पढ़ाया और वह शिष्य-परम्परासे आ० आर्यमंच और नागहस्तीको प्राप्त हुआ । उन दोनोंसे आ० यतिवृषभने गाथासूत्रोंके अर्थका सम्यक् अवधारण करके प्रस्तुत चूर्णिको रचा। किन्तु कसायपाहुडके गाथासूत्रोंके अनन्त अर्थगर्भित होनेसे सर्व अर्थका चूर्णिमे निबद्ध करना असंभव देख प्रारम्भिक कुछ संक्षिप्त वर्णन करके विशेष वर्णन करनेके लिए समर्पण-सूत्र रचकर उच्चारणाचार्योंको सचना कर दी। किन्तु जब कुछ समयके पश्चात् इस प्रकारसे समर्पित अर्थके हृदयंगम करनेकी ग्रहण और धारणाशक्ति भी लोगोंकी क्षीण होने लगी, तो समर्पणसूत्रोंसे सूचित और गुरुपरम्परासे उच्चारणपूर्वक प्राप्त उक्त अर्थको किसी विशिष्ट आचार्यने लिपिवद्ध कर दिया। यतः वह लिपिबद्ध उच्चारणा किसी आचार्यकी मौलिक या स्वतंत्र कृति नहीं थी, किन्तु गुरुपरम्परासे प्राप्त वस्तु थी अतः उसपर किसी आचार्यका नाम अंकित नहीं - किया गया और पूर्व कालीन उच्चारणाचार्योंसे प्राप्त होने तथा उत्तरकालीन उच्चारणाचार्योंसेप्रवाहित किये जाने के कारण उसका नाम उच्चारणावृत्ति प्रसिद्ध हुआ। जयधवलाकारने उच्चारणा, मूल-उच्चारणा, लिखित-उच्चारणा, पप्पदेवाचार्य-लिखित उच्चारणा और स्व-लिखित उच्चारणाका उल्लेख किया है। इन विविध संज्ञाओंवाली उच्चारणाओंके नामों पर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि चूर्णिसूत्रो पर सबसे प्रथम जो उच्चारणा की गई, वह मूल-उच्चारणा कहलाई। गुरु-शिष्य-परम्परासे कुछ दिनों तक उस मूल-उच्चारणाके उच्चारित होनेके अनन्तर जब वह समष्टिरूपसे लिखी गई, तो उसीका नाम लिखितउच्चारणा हो गया। इस प्रकार उच्चारणाके लिखित हो जाने पर भी उच्चारणाचार्योंकी परम्परा तो चालू ही थी, अतएव मौखिकरूपसे भी वह प्रवाहित होती हुई प्रवर्तमान रही । तदनन्तर कुछ विशिष्ट व्यक्तियोंने अपने विशिष्ट गुरुओंसे विशिष्ट उपदेशके साथ उस उच्चारणाको पाकर व्यक्तिरूपसे भी लिपिबद्ध किया और वह 'वप्पदेवाचार्य-लिखित उच्चारणा, वीरसेन-लिखित उच्चारणा आदि नामों से प्रसिद्ध हुई। विभिन्न, विशिष्ट आचार्योंसे उच्चारित होते रहने के कारण कुछ सूक्ष्म विषयों पर मत-भेदका होना स्वाभाविक है । यही कारण है कि कितने ही स्थलों पर उच्चारणाओंके मत-भेद के उल्लेख जयधवलामें दृष्टिगोचर होते हैं । यथा "चुएिणसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए च अतोमुहुचमिदि भणिदो। अम्हहिं लिहिदुच्चारणाए पुण जहएणेण एगसनो, उक्कस्सेण संखेज्जा समया, इदि परूविदो।" जयध०। ___अर्थात् प्रकृत विषयका जघन्य और उत्कृष्ट काल चूर्णिसूत्रमे और वप्पदेवाचार्य-लिखित उच्चारणामें तो अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है, किन्तु हमारे ( वीरसेन ) द्वारा लिखित उच्चारणामे जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय बतलाया गया है। __ कसायपाहुडके प्रस्तुत चूर्णिसूत्रो पर रची गई उक्त उच्चारणावृत्तिका प्रमाण बारह हजार श्लोक-परिमाण था। यह स्वतंत्ररूपसे आज अनुपलब्ध है, पर उद्धरणरूपसे उसका बहु भाग आज भी जयधवला में उपलब्ध है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कसायपाहुडसुत् कसा पाहुडकी अन्य टीकाएं इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके अनुसार कसायपाहुडके गाथासूत्रों पर चूर्णिसूत्र और उच्चारणावृत्तिके पश्चात् 'पद्धति' नामक टीका रची गई। इसका परिमाण १२ हजार श्लोक था और इसके रचयिता शामकुंडाचार्य थे। जयधवलाकार के अनुसार जिसमें मूल सूत्र और उसकी वृत्तिका विवरण किया गया हो, उसे 'पद्धति' कहते है । यह पद्धति संस्कृत, प्राकृत और कर्णाटकी भाषा में रची गई उक्त पद्धतिके रचे जानेके कितने ही समय के पश्चात् तुम्बलूराचार्यने षट्खंडागमके प्रारम्भिक ५ खंडोपर तथा कसायपाहुड पर कर्णाटकी भाषामे ८४ हजार श्लोकप्रमाण चूडामणि नामकी एक बहुत विस्तृत व्याख्या लिखी + | इसके पश्चात् इन्द्रनन्दिने बप्पदेवाचार्य के द्वारा भी कसा पाहुड पर किसी टीकाके लिखे जानेका उल्लेख किया है, पर उसके नाम और प्रमाणका उन्होंने कुछ स्पष्ट निर्देश नहीं किया है X | वर्तमानमें शामकुंडाचार्य - रचित पद्धति, तुम्बलूराचार्य - रचित चूडामणि और वप्पदेवाचार्य - रचित टीका ये तीनों ही अनुपलब्ध हैं । इन सबके पश्चात् कसायपाहुड और उसके चूर्ण - सूत्रों पर जयववला टीका रची गई जिसके २० हजार श्लोक - प्रमित प्रारंभिक भागको वीरसेनाचार्यने रचा और उनके स्वर्गवास होजाने पर शेष भागको जिनसेनाचार्यने पूरा किया | जयधवला ६० हजार श्लोक प्रमाण है और आज सर्वत्र लिखित और मुद्रित होकर उपलब्ध है । चूर्णिकारके सम्मुख उपस्थित श्रागम-साहित्य यह तो निश्चित है कि आ० यतिवृपभने कसायपाहुडकी मात्र २३३ गाथाओं पर जो विस्तृत चूर्णिसूत्र रचे हैं, वह उनके अगाध ज्ञानके द्योतक हैं । यद्यपि यतिवृषभको आर्यम और नागहस्ती जैसे अपने समय के महान आगम-वेत्ता और कसायपाहुडके व्याख्याता आचार्योंसे प्रकृत विषयका विशिष्ट उपदेश प्राप्त था, तथापि उनके सामने और भी कर्म-विषयक आगमसाहित्य अवश्य रहा है, जिसके कि आधार पर वे अपनी प्रौढ़ और विस्तृत चूर्णिको सम्पन्न कर सके हैं और कसायपाहुडकी गाथाओं के एक-एक पदके आधार पर एक-एक स्वतन्त्र अधिकारकी रचना करनेमें समर्थ हो सके हैं । उपलब्ध समस्त जैनवाङ्मयका अवगाहन करने पर ज्ञात होता है कि चूर्णिकार के सामने कर्म-साहित्यके कमसे कम पटखंडागम, कम्मपयडी, सतक और सित्तरी ये चार ग्रन्थ अवश्य विद्यमान थे । पट्खडागमके उनके सम्मुख उपस्थित होने का संकेत हमें उनकी सूत्र- रचनाशैलीके अतिरिक्त समर्पण - सूत्रों से मिलता है, जिनमें कि अनेकों बार सत्, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारोंसे विविध विषयोंके प्ररूपण करनेकी सूचना उन्होंने उच्चारणाचार्यों के लिए की हैं | | मुत्तवित्ति विवरणाए पद्ध ईववएसादो । जयव० प्राकृतसंस्कृत कर्णाटभापया पद्धति परा रचिता । इन्द्र० श्रु० श्लो० १६४, + चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्यरचनया युक्ताम् । कर्णाटभापयाऽकृत महती चूडामरिंग व्याख्याम् || १६६ ।। इन्द्र० श्रु० x, देखो इन्द्र० श्रुता० श्लोक ८७३-१७६ । 9 देखो कमा० ० ६५७, ६६५, ६७२ आादि । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तविना चूँकि षट्खडागमके प्रथम खंड जीवट्ठाणमें उक्त आठों प्ररूपणाओं या अनुयोगद्वारोका विस्तृत विवेचन किया जा चुका था, अतएव उन्होंने अपनी रचनामें उनपर कुछ लिखना निरर्थक या अनावश्यक समझा । इसी प्रकार षटखंडागमके छठे खड महाबन्धमें बन्धके चारो प्रकारोंका चौबीस अनुयोगद्वारोसे अति विस्तृत विवेचन उपलब्ध होनेसे उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थके चौथे अर्थाधिकारमें बन्धका कुछ भी वर्णन न करके लिख दिया कि वह चारों प्रकारका बन्ध बहुशः प्ररूपित है , अतएव हम उस पर कुछ भी नहीं लिख रहे हैं। चूर्णिकार-द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश विभक्तियोंके स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंके वर्णन षट्खंडागमके बन्धस्वामित्वनामक दूसरे और वेदना नामक चौथे खडके आभारी हैं, यह दोनोंके तुलनात्मक अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । उदाहरणके रूपमें यहाँ दोनो ग्रन्थोका एक-एक उद्धरण दिया जाता है। कसायपाहुड-चूर्णि __षखंडागम-सूत्र सुहुमणिगोदेसु कम्मट्ठिदिमच्छि- जो जीवो सुहुमणिगोद-जीवेसु पदाउो । तत्थ सव्यवहुआणि अपजत्त- लिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं भवग्गहणाणि दीहाओ अपजत्तद्धाओ कम्मट्ठिदिमच्छिदो। तत्थ य संसरमाणस्स तप्पाप्रोग्ग-जहएणयाणि जोगट्ठाणाणि | बहुआ अपज्जत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा। अभिक्खं गदो । तदो तप्पाओग्गजह- | दीहाओ अपज्जत्तद्धाो रहस्सायो पजएिणयाए वड्ढीए वड्ढिदो । जदा जदा | त्तद्धाो । जदा जदा आउअं बंधदि, तदा आउअं बंधदि, तदा तदा तप्पाओग्गउक- । तदा तप्पाओग्गुक्कस्सएण जोगेण बंधदि । स्सएसु जोगट्ठाणेसु बंधदि । हेडिल्लीणं उवरिल्लीण द्विदीणं णिसेयस्स जहएणपदे द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदेसं तप्पाप्रोग्गं | हेछिल्लीणं ट्टिदीण णिसेयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सविसोहिमभिक्खं गदो, जाये अभव- बहुसो बहुसो जहएणाणि जोगट्ठाणाणि सिद्धियपाओग्गं जहण्णगं कम्मं कदं गच्छदि। बहुसो बहुसो मंदसंकिलेसपरितदो तसेसु आगदो संजमासंजमं संजमं | णामो भवदि । xxxएवं णाणाभवसम्मत्तं च बहुसो लद्धो । चत्तारि वारे गहणेहि अट्ठसंजमकंडयाणि अणुपालकसाए उवसामित्ता तदो वे छावद्विसाग- | इत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदूण नदो दंसण- दोवमस्सासखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमामोहणीयं खवेदि । अपच्छिम-द्विदिखंडय- | संजमकंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च अणुमवणिज्जमाणयमवणिदमुदयावलियाए जं पालइत्ता xxx खवणाए अब्भुट्ठिदो तं गलमाण तं गलिदं, जाधे एकिस्से द्वि- चरिमसमयछदुमत्थो जादो । तस्स चरिमदीए दुसमयकालहिदिग सेस ताधे मिच्छ- समयछदुमत्थस्स णाणावरणीयवेदणा तस्स जहएणयं पदेससंतकम्म। दव्वदो जहएणा। (प्रदेशवि० सू० २१) (वेदणाखंड, वेयणदव्वविहाण) * देखो पृ० २४६ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त उपयुक्त दोनो उद्धरणोंके अन्तिम भागमे जो भेद दृष्टिगोचर होता है, उसका कारण यह है कि एकमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेश-सत्कर्मका स्वामित्व बतलाया गया है, तो दूसरेमें ज्ञानावरणीय कर्मकी जघन्यवेदनाका स्वामित्व बतलाया गया है। वेदनाखडमें आठो मूल कर्मोंके वेदना-स्वामित्वका ही वर्णन किया गया है, उत्तर प्रकृतियोंका नहीं। किन्तु कसायपाहुडमें तो केवल एक मोहकर्मके उत्तर प्रकृतियोंका ही स्वामित्व बतलाया गयाहै, अतएव जहाँ जितने अंशमें उनके स्वामित्वमे भेद होना चाहिए, उसे चूर्णिकारने तदनुरूप बतलाया है । वेदनाखडका उक्त सूत्र बहुत लम्बा है, अतएव जो अश जहाँ पर छोड़ दिया है, उस स्थल पर xxx यह चिह्न दिया गया है। छोड़े गये अंशमें जो बात कही गई है, वह चूर्णिकारने 'अभवसिद्धियपा ओग्गं जहएणगं कम्मं कदं' इस एक वाक्यमें ही कहदी है। इसी प्रकार और भी जो थोड़ा बहुत शब्द-भेद दृष्टिगोचर होता है, उसे भी चर्णिकारने संक्षिप्त करके अपने शब्दोमें कह दिया है, वस्तुत' कोई अर्थ-भेद नहीं है। ऊपर बतलाये गये चूर्णिसूत्र और षटूखंडागमसूत्रकी समतासे जयधवलाकार भी भलीभांति परिचित थे और यही कारण है कि दोनों सत्रोंमें जो एक खास अन्तर दिखाई देता है, उसका उन्होंने अपनी टीकामे शंका उठाकर निम्न प्रकारसे समाधान भी किया है । जयधवलाका वह अंश इस प्रकार है वेयणाए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेरणियं कम्मठिदिं सुहुमेइं दिएसु हिंडाविय तसकाइएसु उप्पाइदो । एत्थ पुण कम्मठिदि संपुगणं भमाडिय तसत्तं णीदो। तदो दोण्हं सुत्ताणं जहाऽविरोहो तहा वत्तव्यमिदि । जइवसहाइरिओवएसेण खविदकम्मंसियकालो कम्मठिदिमेत्तो, 'सुहुमणिगोदेसु कम्मठिदिमच्छिदाउओ' त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो । भूदवलिपाइरिअोवएसेण पुण खविदकम्मंसियकालो कम्मट्ठिदिमेतो पलिदोवमस्स अमंखेज्जदिभागेणूणं । एदेसिं दोण्हमुवदेसाणं मझे सच्चेणेक्केणेव होदव्यं । तत्थ सच्चत्तणेगदरणिएणो णत्थि त्ति दोएहं पि संगहो कायव्यो । जयध० . अर्थात् पट्खंडागमके वेदनानामक चौथे खंडमे पल्योपमके असंख्यातवे भागसे न्यून कमेस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्मएकेन्द्रियोमे घुमाकरके त्रसकायिकोंमें उत्पन्न कराया गया है। किन्तु यहां पर प्रकृत चूर्णिसूत्रमें, तो उसे सम्पूर्ण कर्मस्थितिप्रमाण सूक्ष्मएकेन्द्रियोंमे घुमाकरके सपनेको प्राप्त करा गया है ? ( इसका क्या कारण है ? ऐसा पूछने पर जयधवलाकार कहते है कि ) यद्याप यह दोनों सूत्रों (आगमों) मे विरोध है, तथापि जिस प्रकारसे अविरोध संभव हो, उस प्रकारसे इसका समाधान करना चाहिए। यतिवृपभाचार्यके उपदेशसे क्षपित-कर्माशिकका काल पूरी कर्मस्थितिमात्र है, अन्यथा प्रकृत सूत्रमे 'सूक्ष्मनिगोदियोंमे कर्मस्थिति तक रहा' इस प्रकारका निर्देश नहीं हो सकता था। किन्तु भूतबलि प्राचार्य के उपदेशसे क्षपितकर्माशिकका काल पल्योपमर्क असंख्यातवें भागसे न्यून कर्मस्थितिमात्र है। इन दोनों परस्पर-विरोधी उपदेशों से सत्य तो एक ही होना चाहिए । किन्तु किसी एककी सत्यताका निर्णय (आज केवली या श्रुतकेवलीके न होने से ) संभव नहीं है, अतएव दोनोंका ही संग्रह करना चाहिए। उक्त शंका-समाधानमें, जिस सैद्धान्तिक भेदका उल्लेख किया गया है, वह उपयुक्त दोनों उद्धरणोंके प्रारम्भमें ही दृष्टिगोचर हो रहा है । जययवलाकारके इस शंका-समाधानसे भी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यही सिद्ध होता है कि भूतबलिप्रणीत षटूखंडागमसूत्रका यतिवृपभ पर प्रभाव होते हुए भी कुछ सैद्धान्तिक मान्यताओंके विषयमे दोनोंका मतभेद रहा है । पर मत-भेद भले ही हो, किन्तु यतिवृषभके सामने पखंडागमका उपस्थित होना तो इससे सिद्ध ही है। यतिवृषभके सम्मुख षट्खंडागमके अतिरिक्त जो दूसरा आगम उपस्थित था वह है कर्म-साहित्यका महान् ग्रन्थ कम्मपयडी । इसके सग्रहकर्ता या रचयिता शिवशर्म नामके आचार्य हैं और इस ग्रन्थ पर श्वेताम्बराचार्योंकी टीकाओंके उपलब्ध होनेसे अभी तक यह श्वेताम्बर सम्प्रदायका ग्रन्थ समझा जाता है । किन्तु हाल में ही उसकी चूर्णिके प्रकाशमें आनेसे तथा प्रस्तत कसायपाहुड की चूर्णिका उसके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे इस बातमें कोई सन्देह नहींरह जाता है कि कम्मपयडी एक दिगम्बर-परम्पराका ग्रन्थ है और अज्ञात आचार्यके नामसे मुद्रित और प्रकाशित उसकी चूर्णि भी एक दिगम्बराचार्य इन्हीं यतिवृषभकी ही कृति है। कम्मपयडीचूर्णिकी तुलना कसायपाहुडकी चूर्णिके साथ आगे की जायगी। अभी पहले यह दिखाना अभी है कि यतिवृषभके सम्मुख कम्मपयडी थी और वे उससे अच्छी तरह परिचित थे, तथा उसका उन्होंने कसायपाहुडकी चूर्णिमें भरपूर उपयोग किया है। (१) कसायपाहडके 'पयडीए मोहणिज्जा' इतने मात्र बीज पदको आधार बनाकर चूर्णिकारने प्रकृतिविभक्ति नामक एक स्वतंत्र अधिकारका निर्माण किया है। उसमें मोहकर्मके १५ प्रकृतिस्थान इस प्रकार बतलाए गये है पृ० ५७ सू० ४०० पयडिट्ठाणविहत्तीए पुव्वं गमणिज्जा ठाणसमुक्त्तिणा। ४१. अत्थि अट्ठावीसाए सत्तावीसाए छव्वीसाए चउवीसाए तेवीसाए वावीसाए एकवीसाए तेरसण्हं वारसरहं एक्कारसण्हं पंचएहं चदुण्हं तिण्हं दोण्हं एक्किस्से च (१५) । अर्थात् मोहकर्मके २८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और १ प्रकृतिरूप पन्द्रह प्रकृतिसत्त्वस्थान होते हैं। उक्त प्रकृतिसत्त्वस्थानोंका आधार कम्मपयडीके सत्ताधिकारकी यह निम्न गाथा है एगाइ जाव पंचगमेक्कारस बार तेरसिगवीसा । विय तिय चउरो छस्सत्त अट्ठवीसा य मोहस्स ॥१॥ कम्मपयडीमें इसकी चूर्णि इस प्रकार है १, २, ३, ४, ५, ११, १२, १३, २१, २२, २३, २४, २६, २७, २८ एयाणि मोहणिज्जस्स संतकम्मट्ठाणाणि । ___ यतः गाथामे मोहके सत्त्वस्थान शब्द-संख्यामें बतलाए गये हैं, अतः चूर्णिकारने लाघवके लिए उन्हे उसकी चूर्णिमें अक-सख्यामें गिना दिये हैं । पर कसायपाहुडकी चूर्णिमें तो उक्त प्रकरण चूर्णिकार अपना स्वतंत्र ही लिख रहे हैं, अत उन्होंने वहां पर उन्हे शब्दोंमें पृथक्पृथक् गिनाना ही उचित समझा। इसी प्रकार स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविभक्तिके चूणिसूत्रोंका आधार कम्मपयडीके सत्ताधिकारकी गाथाएँ है, यह बात दोनोंकी तुलनासे भलीभांति ज्ञात हो जाती है। (२) स्थितिविभक्तिमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायोकी जघन्य स्थितिविभक्ति इस प्रकार बतलाई गई है Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त प० ६४, सू० १६. मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-वारसकसायाणं जहएणट्ठिदिविहत्ती एगा ट्ठिदी दुसमयकालठिदिया ।' यही बात सूत्ररूपसे कम्मपयडीमे इस प्रकार कही हैसेसाण ठ्ठिई एगा दुसमयकाला अणुदयाणं ॥ १६ ॥ (कम्मप सत्ताधि०) पाठक दानोंकी समताके साथ सहज ही समझ सकेंगे कि उक्त चूर्णिका आधार कम्मपयडीकी यह गाथा है। (३) अनुभागविभक्तिमें मोहकर्मके तीन प्रकारके सत्कर्मस्थान इस प्रकार बतलाये गये हैं-- १० १७५, सू० १८६. संतकम्मट्ठाणाणि तिविहाणि-बंधसमुप्पत्तियाणि हदसमुप्पत्तियाणि हदहदसमुप्पत्तियाणि । १८७. सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियाणि । १८८. हदसमुप्पत्तियाणि असंखेज्जगुणाणि । १८६. हदहदसमुप्पत्तियाणि असंखेज्जगुणाणि । अर्थात् सत्कर्मस्थान तीन प्रकारके है-बन्धसमुत्पत्तिकस्थान, हतसमुत्पत्तिकस्थान और हतहतसमुत्पत्तिकस्थान । इनमें वन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे कम हैं, उनसे हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणित है और उनसे हतहतसमुत्पत्तिकस्थान असख्यातगुणित हैं। अब देखिए कि ऊपर जो बात कसायपाहुड-चूर्णिमे ४ सूत्रोंके द्वारा कही गई है, वही कम्मपयडीमे सूत्ररूपसे कितने संक्षेपमे कही गई है 'बंधहयहयहउप्पत्तिगाणि कमसो असंखगुणियाणि ।' ( कम्मप० सत्ताधि०) (४) प्रदेशविभक्तिमे प्रदेशसत्कर्मके जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्वसम्बन्धी जो चूर्णिसूत्र है, उन सवका आधार कम्मपयडीके सत्ताधिकारान्तर्गत प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व-प्रतिपादक गाथाएं हैं, यह बात प्रदेशविभक्तिके पृ० १८५ से लेकर १६७ पृष्ठ तक दी गई टिप्पणियोंसे भलीभांति जानी जा सकती है। यहां केवल उनमें से एक उदाहरण दिया जाता है। कसायपाहुड-चूर्णिमें पृच्छापूर्वक जो नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशस्वामित्व बतलाया गया है, वह इस प्रकार है पृ. १८६, सू० १०. णवुसयवेदस्स उकस्सय पदेससंतकम्मं कस्स १ ११. गुणिदकम्मसियो ईसाणं गदो तस्स चरिमसमयदेवस्स उक्स्स यं पदेससंतकम्मं । अब इसका मिलान कम्मपयडीकी निम्न गाथासे कीजिएपरिसवरस्स उ ईसाणगस्स चरिमम्मिसमयम्मि ॥ २८ ॥ गाथा-पठित 'वरिसवरस्स' का अर्थ नपुसकवेद है । (५) कसायपाहुडकी संक्रमप्रकरण-सम्बन्धी न० २७ से ३६ तक की १३ गाथाए कुछ शब्दगत पाठ-भेदके साथ कम्मपयडीके संक्रमप्रकरणमें नं० १० से २२ तक ज्यों-की-त्यों पाई जाती हैं, यह बात पहले बताई जा चुकी है। दोनों ग्रन्थोंकी गाथाओंकी तुलनाके लिए कम्मपयडीकी इन गाथओको टिप्पणियोंमे दिया गया है, सो जिन्नासुयोको पृ०२६० से २७१ तकको कसायपाहुड की गाथाओंको और उनके नीचे टिप्पणीमें दी हुई कम्मपयडीकी गाथाओंको देखना चाहिए । (६) स्थिति संक्रमाधिकारमें स्थितिसंक्रमका अर्थपद इस प्रकार दिया है-- Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५० ३१० सू० २. तत्थ अट्ठपद - जा हिदी श्रोकडिज्जदि वा उक्कडिज्जदि वा अपयडिं सकामिज्जइ वा सो दिट्ठदिसंकमो । अब उक्त चूर्णि सूत्रकी तुलना कम्मपयडीके स्थितिसक्रमाधिकारकी निम्न गाथासे कीजिए ठिइसकमो ति बुच्च मूलुत्तरपगइतो उ जा हि ठिई । उचट्टिया व श्रवट्टिया व पगइ गिया वरणं ॥ २८ ॥ विषयके जानकार सहजमे ही समझ सकेंगे कि जो अर्थ 'कड्डिज्जदि' आदि पदों के द्वारा प्रगट किया गया है, वही 'उव्वट्टिया' आदि पदों का है । (७) अनुभाग-सक्रमाधिकार मे अनुभागसक्रमका अर्थपद इस प्रकार दिया हैपृ० ३४५, सू० २. तत्थ श्रट्टपदं । ३. अणुभागो ओकड्डिदो वि संकमो, उक्कsat faiकमो, पयडिं गी दो वि संकमो । अब उक्त चूर्णि सूत्रकी तुलना कम्मपयडीकी निम्न गाथा से कीजिएतत्थदुपयं उच्चट्टिया व श्रवट्टिया व अविभागा । भागसंकमो एस अपगई शिया वा वि ॥ ४६ ॥ (सक्रमावि०) पाठक स्वय देखेंगे कि दोनों में कितनी अधिक शब्द और अर्थगत समता है । (८) प्रदेश - संक्रमाधिकार में प्रदेशसंक्रमका स्वरूप और उसके भेद इस प्रकार बतलाये गये हैं पृ० ३६७, स्व० ६. जं पदेसग्गमरणपयडि णिज्जदे, जत्तो पयडीदो तं पदेसग्गं णिञ्जदि तिस्से पयडीए सो पदेससंकमो । ६. एदेण श्रट्ठपदेश तत्थ पंचविहो संकमो । १०• तं जहा । ११. उन्बेलण संकमा विज्झादसंकमा अधापवत्तसंकमा गुणसंकमो सव्वसंकमा च । अब इन चूर्णि सूत्रोंका मिलान कम्मपयडीकी निम्न गाथा से कीजिए --- जं दलियम पाईं जिइ सो संकमो पएसस्स । उव्वलो विभा हापवत्तो गुण सव्वा ॥ ६० ॥ पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि एक गाथामे कहे हुए तत्त्वको चूर्णिकारने किस प्रकार से ४ सूत्रोंमें कहा है । इसके अतिरिक्त प्रदेश-सक्रमाधिकारके स्वामित्व सम्बन्धी सभी चूर्णिसूत्रांका आधार कम्मपयडीके प्रदेश - संक्रमकी स्वामित्व - प्ररूपक गाथाएँ हैं, यह बात प्रस्तुत ग्रन्थके . उक्त प्रकरणमें टिप्पणियों द्वारा स्पष्ट दिखाई गई है, जो कि पाठकगण पृष्ठ ४०१ से ४०७ तककी टिप्पणियों मे दी गई कम्मपयडीकी गाथाओं के साथ वहांके चूर्णिसूत्रोंको मिलान करके भली भाँति जान सकते हैं । (६) स्थितिसंक्रम-अधिकार के अर्न्तगत संक्रमण किये जाने वाले कर्म - प्रदेशों की प्रतिस्थापना और निक्षेपका वर्णन आया है, वह सम्पूर्ण वर्णन कम्मपयडीके गाथाओं का आभारी है । उदाहरणके तौर पर एक उद्धरण दोनोका प्रस्तुत उद्वर्तनापवर्तन करणकी किया जाता है Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसा पाहुडें पृ० ३१६, सूं०२६. उक्कस्सयो पुण विखेवो केत्ति १ २७, जत्तियाँ उक्कस्सिया कम्मट्ठिदी उक्कस्सियाए आवाहाए समयुत्तरावलियाए च ऊणा ततिश्रो उक्त क्खेिवो । ३४ उत्कृष्ट निक्षेपके उक्त प्रमाणको कम्मपयडीकी निम्न गाथासे मिलान कीजिएश्रावलि असंखभागाइ जाव कम्महि त्ति शिक्खेवो । समउत्तरालियाए सावाहाए भवे ऊणे || २ || ( उद्वर्तनापवर्तनाकरण) (१०) वेदक अधिकारमें प्रकृति - उदीरणा के स्थान इस प्रकार बतलाये गये हैंपृ० ४६८, सू० १२. अत्थि एक्किस्से पयडीए पवेसगो । १३. दोहं पयडीणं पवेसगो । १४. तिहं पयडीणं पवेसंगो रात्थि । १५, चउरहं पयडीणं पवेसगो । १६. एतो पाए गिरंतरमत्थि जाव दसरहं पयडीणं पवेसगो । अर्थात् मोहकर्म के प्रकृतिउदीरणा स्थान १, २, ४, ५, ६, ७, ८, ६ और १० प्रकृतिरूप ६ होते हैं । इन्हीं स्थानोंको कम्मपयडीमें इस प्रकार कहा गया है पंचरहं च चउरहं विइए एक्काड़ जा दसरहं तु । तिगहीणाइ मोहे मिच्छे सत्ता जाव दस || २२ || ( उदीरणाकरण) (११) वेदक अधिकारमें मोहकी अनुभाग- उदीरणा के स्वामित्वका वर्णन कम्मपयडी के अनुभाग उदीरणाके स्वामित्वसे ज्यों का त्यों मिलता है । यहाँ दोनोंकी समता - परिज्ञानार्थ एक उदाहरण प्रस्तुत है— पृ० ५०५ ० २६२. हस्स रदी मुक्कस्सा णुभागउदीरणा कस्स १ २६३. सदार - सहस्सार देवस्स सव्वसंकिलिङ्कस्स । इसका मिलान कम्मपयडीकी गाथासे कीजिए हास - रईणं सहस्सार गस्स पजत देवस्स ॥ ६१ ॥ ( अनुभागउदी० ) (१२) कसा पाहुडके अनुभागसंक्रमका एक अल्पबहुत्व इस प्रकार है पृ० ३४६, सू० ११. एत्थ अप्पा हु । १२. सव्वत्थोवाणि पदेसगुणहाfugi तरफदयाणि । १३. जहरण क्खेिवे । तगुणो । १४ जहणिया अइच्छावरणा अणंतगुणा । १५. उक्कस्सयमणुभागकंडयमणंतगुणं । १६. उक्कस्सिया अच्छावणाएगाए वग्गणाए ऊणिया । १७. उक्कल्सश्र णिक्खेवे। विसेसाहियो । १८, उक्कस्स बंधो विसेसाहियो । उक्त चूर्णिसूत्रोंका मिलान कम्मपयडीकी निम्न गाथाओंसे कीजिएथोवं परसगुणहाणि अंतरं दुसु जहन्ननिक्खेवो । कमसे तगुणि दुसु वि हत्थावरणातुल्ला ॥ = ॥ वाघाएणुभागक्कं डगमेक्काइवग्गणाऊणं । उक्कस्सो क्खेिवो ससंतबंधा य सविसेसो || ६ || ( उद्वर्तनापवर्तनाकरण ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (१८) कसायपाहुडके सम्यक्त्व अधिकारकी १०४, १०७, १०८ और १०६ नम्बरवाली ४ गाथाएँ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ कम्मपयडीके उपशमनाकरणमें क्रमश: गाथा नं० २३, २४, २५ और २६ पर पाई जाती हैं। यहाँ एक विशेष बात यह ज्ञातव्य है कि कम्मपयडीमें तो उक्त गाथाओं पर चूणि पाई जाती है, पर कसायपाहुडमें अन्य अनेक गाथाओंके समान सरल होनेसे इन गाथाओं पर चूर्णि नहीं लिखी गई है। . (१४) दर्शनमोह-उपशामकके परिणाम, योग, उपयोग और लेश्यादिका वर्णन कसायपाहुडचूर्णिमें इस प्रकार किया गया है पृ० ६१५, सू० ७. परिणामो विसुद्धो । ८. पुव्वं पि अंतोमुहुत्तप्पहुडि अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो अागदो । ६. जोगे ति विहासा । १०. अण्णदरमणजोगो वा अएणदरवचिजोगो वा ओरालियकायजोगो वा वेउब्वियकायजोगो वा । १४. उवजोगे त्ति विहासा । १५. णियमा सागास्वजोगो । १६. लेस्सा त्ति विहासा । १७. तेउ-परम-सुक्कलेस्साणं णियमा वड्ढमाणलेस्सा। इन सब सूत्रोंकी तुलना कम्मपयडीकी निम्न गाथासे कीजिये और देखिए कि किस खूबीके साथ सर्व सूत्रोंके अर्थका एक ही गाथामें समावेश किया गया है पुव्वं पि विसुझतो गंठियसत्ताणइक्कमिय सोहि । अन्नयरे सागारे जोगे य विसुद्धलेसासु ॥ ४ ॥ (१५) संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करके यदि कोई नीचे गिर कर फिर ऊपर चढ़ता है तो उसका वर्णन कसायपाहुडचूर्णिमें इस प्रकार किया गया है पृ० ६६२, सू० २६. जदि संजमासंजमादो परिणामपच्चएण णिग्गदो पुणोवि परिणामपञ्चएण अंतोमुहुत्तेण पाणीदो संजमासंजम पडिवाइ, तस्स वि णस्थि द्विदिघादो वा अणुभागधादा वा । ३० जाव संजदासंजदो ताव गुणसे ढिं समए समए करेदि । विसुज्झतो असंखेजगुणं वा संखेजगुणं वा संखेजभागुत्तरं वा असंखेजभागुत्तरं वा करेदि । संकिलिस्संतो एवं चेव गुणहीणं वा विसेसहीणं वा करेदि । उक्त सन्दर्भका मिलान कम्मपयडीकी इस गाथासे कीजिएपरिणामंपच्चयाओ णाभोगगया गया अकरणाउ । गुणसेढी सिं निच्चं परिणामा हाणिवुढिजुया ॥ ३० ॥ ( उपशमनाक०) (१६) चारित्रमोह-उपशामनाधिकारमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अन्तर्गत होनेवाले कार्य-विशेषोंका वर्णन करते हुए चूर्णिकार कहते हैं पृ० ६८८, सू० ११५. तदो असंखेजाणं समयपवद्धाणमुदीरणा च । ११६. तदो संखेज्जेसु ठिदिबंधसहस्सेसु मणपजवणाणावरणीय-दाणंतराइयाणमणुभागो बंधेण देसघादी होइ । ११७. तदो संखेज्जेसु द्विदिवंधेसु गदेसु श्रोहिणाणावररणीयं अोहिदंसणावरणीयं लाभंतराइयं च बंधेण देसघादि करेदि । ११८. तदो संखे Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त ज्जेसु द्विदिवंधेसु गदेसु सुदणाणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं भोगतराइयं च वधेण देसघादि करेदि । ११६. तदो संखेज्जेसु द्विदिवंधेसु गदेसु चक्खुदंसणावरणीयं बंधेण देसघादि करेदि । १२०. तदो संखेज्जेसु हिदिबंधेसु गदेसु आभिणिवोहियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च बंधेण देसघादिं करेदि । १२१. संखेज्जेसु द्विदिधेसु गदेसु वीरियंतराइयं बंधेण देसघादि करेदि । १२२. एदेसि कम्माणमखवगो अणुवसामगो सब्बो सव्वघादिं बंधदि । अब उक्त सर्व चूर्णिसूत्रोके आधारभूत कम्मपयडीकी गाथाओको देखिए अहुदीरणा असंखेज्जसमयपवद्धाण देसघाइत्थ । दाणंतरायमणपजवं च तो अोहिदुगलाभो ॥ ४० ॥ सुयभोगाचखूओ चक्खू य ततो मई सपरिभोगा। विरियं च असे ढिगया बंधंति ऊ सव्वघाईणि ॥ ४१ ॥ ( उपश०) पाठक स्वयं ही अनुभव करेंगे कि इन दोनों गाथाओंमें प्रतिपादित अर्थको किस सुन्दरनाके साथ चूर्णिसूत्रोंमे स्पष्ट किया गया है। ___ कसायपाहुडचूर्णिमे उपर्युक्त स्थलसे अर्थात् पृ० ६८८ से लेकर पृ० ७२१ तकके सर्वचूर्णिसूत्रोंका अाधार कम्मपयडीके इसी उपशमनाकरणकी न० ४२ से लेकर ६५ तक की गाथाएँ हैं यह किसी भी तुलना करने वाले व्यक्तिसे अव्यक्त न रहेगा। विस्तारके भयसे यहाँ आगेके उद्धरण नहीं दिये जा रहे है। उक्त तुलनात्मक अवतरणोंसे स्पष्ट है कि चूर्णिकारके सम्मुख कम्मपयडी अवश्य रही है। फिर भी उक्त सर्व प्रमाणोंसे जोरदार और प्रबल प्रमाण स्वयं यतिवृपभाचार्यके द्वारा किया गया वह उल्लेख है, जिसमें कि उन्होंने स्वयं ही कम्मपयडीका उल्लेख किया है। इसी उपशमनाधिकारमे देशकरणोपशमनाके भेद बतलाते हुए कहा है पृ० ७०८, मृ० ३०३. देसकरणोवमामणाए दुवे णामाणि देसकरणोवसामणा ति वि अप्पसत्थ-उवसामणा ति वि । ३०४. एसा कम्मपयडीसु । अर्थात् देशकरणोपशामनाके दो नाम हैं-देशकरणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । इस देशकरणोपशामनाका वर्णन कम्मपयडी में किया गया है। यहाँ पर श्रा० यतिवृपभने जिम कम्मपयडीका उल्लेख किया है, वह निश्चयत' यही उपलब्ध कम्मपयडी है क्योंकि, इसमें उपशमना प्रकरणके भीतर गाथाङ्क ६६ से लेकर ७१ वीं गाथा तक देशोपशमनाका वर्णन किया गया है। कम्मपयडीके चूर्णिकार देशोपशामनाके वर्णन करनेके लिए गाथाका अवतार करते हुए कहते है सव्वसामणा सम्मता । इयाणिं देसोपसमणा । तीसे इमे भेयापगइ-ठिई-अणुभाग'पएसमूलुत्तराहि पविभत्ता। देसकरणावममणा तीए समियस्स अट्ठपयं ॥ ६६ ।। ( उपशमना० ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अर्थात् देशकरणोपशमनाके चार भेद हैं-प्रकृतिदेशोपशमना, स्थितिदेशोपशमना, अनुभागदेशोपशमना और प्रदेशदेशोपशमना । इन चारों ही प्रकार वाली देशोपशमनाओंके भी मूलप्रकृतिदेशोपशमना और उत्तरप्रकृतिदेशोपशमनाकी अपेक्षा दो दो भेद हैं। उस देशकरणोपशमनाका यह अर्थपद है। अर्थात् अब आगे उसका लक्षण कहते हैं। इस प्रकार देशकरणोपशमनाका निरूपण कम्मपयडीमें ६ गाथाओंके द्वारा किया गया है। यतिवृषभके द्वारा इस प्रकार कम्मपयडीका स्पष्ट उल्लेख होने पर तथा कम्मपयडीमें देशकरणोपशमनाका वर्णन पाये जाने पर कोई कारण नहीं है कि कम्मपयडीका उनके सम्मुख अस्तित्व न माना जाय । प्रश्न-कम्मपयडीमें देशकरणोपशमनाका वर्णन क्यों किया, कसायपाहुडमें क्यों नहीं किया ? उत्तर—मोहकर्मकी सर्वोपशमना ही होती है, देशोपशमना नहीं। तथा शेष सात कर्मोकी देशोपशमना ही होती है, सर्वोपशमना नहीं। चकि, कषाय मोहकर्मका ही भेद है, अतः कसायपाहुडमें उसकी सर्वोपशमनाका वर्णन किया गया। किन्तु शेष कर्मोंका वर्णन कसायपाहुडमें नहीं है, अतः देशोपशमनाका वर्णन उसमें नहीं किया गया। पर कम्मपयडीमें तो आठों ही कर्मोंका वर्णन किया गया है, अतएव उसमें देशोपशमनाका वर्णन किया जाना सर्वथा उचित है। . इसके अतिरिक्त आव्यतिवृषभको जिन आर्यनागहस्तीका शिष्य या अन्तेवासी बताया जाता है, और जिनके उपदेशको पवाइज्जत उपदेश कह करके ऑ० यतिवृपभने प्रकृत विषयके प्रतिपादन करने में अनुसरण करके महत्ता प्रदान की है, उनके लिए पट्टावलीकी पूर्वोद्धृत गाथामें 'कम्मपयडीपहाणाणं' विशेषण दिया गया है। जब यतिवृषभके गुरु कम्मपयडीके प्रधान व्याख्याताओंमें थे, तो यतिवृषभके सामने तो उसका होना स्वतः सिद्ध है। ___ एक खास बात और भी ध्यान देनेके योग्य है कि दि० परम्परामें आ० भूतबलि और यतिवृषभका एक मत-भेद नवें गुणस्थानमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियोंके विषयमें है। आ० भूतबलिके उपदेशानुसार नवें गुणस्थानमें पहले १६ प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है, पीछे आठ मध्यम कषायोंकी। किन्तु यतिवृषभ पहले पाठ मध्यम कषायोंकी सत्त्वव्युच्छित्ति कहते हैं और पीछे १६ प्रकृतियोंकी । यतिवृषभ इस विषयमें स्पष्टरूपसे कम्मपयडीका अनुसरण कर रहे हैं,क्योंकि उसमें पहले आठ मध्यम कषायोंकी और पीछे १६ प्रकृतियोंकी सत्त्वव्युच्छिवि बतलाई गई है । यथा खवगाणियट्टि-श्रद्धा संखिज्जा होंति अढ वि कसाया। णिरय-तिरिय तेरसगं णिद्दाणिद्दातिगेणुवरि ॥ ६॥ ( सत्ताधि०) अर्थात् क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके सख्यात भाग व्यतीत होने पर पहले आठों ही मध्यम कषायोंकी सत्त्वव्युच्छिति होती है । तत्पश्चात् नरक और तिर्यग्गति-प्रायोग्य तेरह तथा निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये तीन, इस प्रकार सोलह प्रकृतियोंकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। ___ कम्मपयडीके उक्त प्रमाणसे स्पष्ट है कि यत' आ० यतिवृपभ प्रायः सभी सैद्धान्तिक मत-भेदोंके स्थलों पर कम्मपयडीका अनुसरण करते है, अतः कम्मपयडी उनके सम्मुख अवश्य Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त यतः श्रा० यतिवृषभने सतक और सित्तरी पर चूर्णि रची है, जैसा कि आगे सिद्ध किया गया है-अतः इन दोनोका उनके सम्मुख उपस्थित होना स्वाभाविक ही है । उपसंहार-ऊपरके इस समग्र विवेचनका फलितार्थ यह है कि कसायपाहुड-चूर्णिकारके सम्मुख षट्खंडागमसूत्र, कम्मपयडी सतक और सित्तरी अवश्य रहे हैं। चूर्णिकार यतिवृषभकी अन्य रचनाएं आ० यतिवृषभकी दूसरी कृतिके रूपसे तिलोयपएणत्ती प्रसिद्ध है और वह सानुवाद मुद्रित होकर प्रकाशमें भी आ चुकी है। हालांकि, उसके वर्तमानरूपमें अनेक प्रक्षिप्त स्थल ऐसे पाये जाते हैं, जिनके कि यतिवृषभ-द्वारा रचे जाने में सन्देह है। आ० यतिवृषभने प्रस्तुत कसायपाहुड-चूर्णि और तिलोयपण्णत्तीके अतिरिक्त अन्य कौन-कौन-सी रचनाएं की, यह विषय अद्यावधि अन्वेषणीय बना हुआ है । चूर्णिसाहित्यका अनुसन्धान करने पर कुछ और रचनाएं भी आ० यतिवृषभके द्वारा रचित जात होती हैं, अतएव यहाँ उनपर कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है। कम्मपयडीका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है और यह बतलाया जा चुका है कि वह आ० यतिवृषभके सामने उपस्थित ही नहीं थी, बल्कि उन्होंने प्रस्तुत चूर्णिमे उसका भर-पूर उपयोग भी किया है । उस कम्मपयडीकी एक चूणि अभी कुछ दिन पूर्व श्री मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई (गुजरात) से प्रकाशित हुई है जिसपर किसी कर्ता-विशेषका नाम नहीं दिया गया है किन्तु 'चिरन्तनाचार्य-विरचित-चूा समलंकृता' ऐसा वाक्य मुद्रित है, जिसका कि अर्थ हैकिसी प्राचीन आचार्य से विरचित चूर्णिसे युक्त यह कर्मप्रकृति है । अर्थात् उसके कर्ता अभीतक अज्ञात हैं । उस चूर्णिका जव हम कसायपाहुड-चूर्णिके साथ तुलनात्मक अध्ययन करते हैं, तो उसके श्रा० यतिवृपभ-रचित होनेमे सन्देहकी कोई गुजायश नहीं रह जाती है। यहां पर दोनों चूर्णिोंके कुछ समान अवतरण प्रस्तुत किये जाते हैं। ऊपर कम्मपयडीकी जिन गाथाओंको कसायपाहुड-चूर्णिका आधार बताया गया है, उन सबकी चूर्णि कसायपाहुडके उक्त स्थलवाले चूर्णिसूत्रोंके साथ प्रायः शब्दशः समान है, अर्थतः तो पूर्ण साम्य है ही। फिर भी दोनोंके कुछ अन्य समान अवतरण देना इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि जिससे पाठकगण भी उनपर स्वयं विचार कर सकें। (१) मोहकर्मके १, २, ३, ४, ५, ११, १२, १३, २१, २२, २३, २४, २६, २७, और २८ प्रकृतिरूप १५ प्रकृतिसत्त्वस्थान होते हैं, इनकी प्रकृतियोंका वर्णन कसायपाहुडचूर्णि और कम्मपयडीचूर्णिमें समान होते हुए भी अनुलोम प्रतिलोमक्रमसे किया गया है। नीचे दिये जाने वाले दोनोंके अवतरणोंसे दोनों चूर्णियोंके एक-कर्तृक होनेकी पुष्टि बहुत कुछ अंशमें होती है। कसायपा० पृ० ५८, मू० ४२. एक्स्सेि विहत्तियो को होदि ? लोहसंजलणो ४३. दोण्हं विहचिो को होदि ? लोहो माया च । ४४. तिरह विहची लोहसंजलण-मायासंजलण-माणसंजलणाओ। ४५. चउराहं विहत्ती चत्वारि संजलणाओ। ४६. पंचएहं विहत्ती चचारि संजलणाश्रो पुरिसवेदो च । ४७. एकारसण्हं विहत्ती एदाणि चेव पंच छएणोकसाया च । ४८. पारसएहं विहत्ती एदाणि चव इत्थिवेदो च । ४६. तेरसण्हं विहत्ती एदाणि चेव णसयवेदो च । ५०. एक्कवीसाए विहवी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रस्तावना एदे चेव अट्ठ कसाया च । ५१. सम्मत्तेण बावीसाए विहत्ती । ५२, सम्मामिच्छत्तण तेवीसाए विहत्ती । ५३. मिच्छतेण चदुवीसाए विहत्ती । ५४. अट्ठावीसादो सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु अवणिदेसु छब्बीसाए विहत्ती । ५५. तत्थ सम्मामिच्छत्ते पक्खित्ते सत्तावीसाए विहत्ती । ५६. सव्वाश्रो पयडीओ अट्ठावीसारो विहत्ती । कसायपाहुडचूर्णिमें उसकी स्वीकृत वर्णन-शैलीसे मोहके उक्त १५ सत्त्वस्थानोकी प्रकृतियोका वर्णन अनुलोम क्रमसे किया गया है । पर इन्हीं सत्त्वस्थानोंका वर्णन कम्मपयडीमे प्रतिलोमक्रमसे किया गया है, जिसका निर्देश स्वयं ही चूर्णिकार कर रहे हैं । यथा (चू० ) १, २, ३, ४, ५, ११, १२, १३, २१, २२, २३, २४, २६, २७, २८ एयाणि मोहणिज्जस्स संतकम्मट्ठाणाणि । सुहगहणणिमित्तं विवरीयाणि वक्खाणिज्जति । तत्थ अट्ठावीसा सव्वमोहसमुदतो । ततो सम्म ते उव्वलिए सत्तावीसा । ततो संमामिच्छत्ते छव्वीसा, अणादिमिच्छदिहिस्स वा छव्वीसा । अट्ठावीसातो अणंताणुबंधिविसंजोजिए चउवीसा । ततो मिच्छत्ते खविते तेवीसा । ततो संमामिच्छत्ते खविते बावीसा । ततो संमत्ते खविते एक्कवीसा । ततो अट्ठकसाते खविते तेरस । ततो नपुंसगवेदे खविते बारस । ततो इत्थिवेए खविए एक्कारस । ततो छन्नोकसाते खविते पंच । ततो पुरिसवेए खविए चत्तारि । ततो कोहसंजलणे खविते तिन्नि । ततो माणसंजलणे खविते दोन्नि । ततो मायासंजलणाते खविते एको लोभो । (कम्मप० सत्ता० पृ० ३४) पाठक देखेंगे कि कसायपाहुडचूर्णिमें अनुलोम या पूर्वानुपूर्वीसे वर्णन किया गया है और कम्मपयडीचूर्णिमें वही प्रतिलोम या पश्चादानुपूर्वीसे किया गया है। इस प्रतिलोम क्रमसे कहनेका कारण उसके प्रारम्भ में ही चूर्णिकारने बतला दिया है कि कथनकी सुविधाके लिए वे ऐसा कर रहे हैं। (२) सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व कसायपाहुडचूर्णिमें इस प्रकार बतलाया गया है पृ० १८५-८६, सू० ८. गुणिदकम्मंसियो दंसणमोहणीयक्खवप्रो जम्मि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तम्मि सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसविहत्तिो । ६. सम्मत्तस्स वि तेणेव जम्मि सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते पक्खित्तं तस्स सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंवकम्मं । __ अब इसका मिलान कम्मपयडीकी चूर्णिसे कीजिए ततो लहुमेव खवणाए अभुट्टिो जम्मि समये मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते सव्यसंकमेण संकंतं भवति, तम्मि समये सम्मामिच्छत्स्स उक्कोसपदेससंतं भवति । जम्मि समये सम्मामिच्छर सम्मत्ते सव्वसंकमेण संकंतं भवइ, तम्मि समये सम्मत्चस्स उक्कोसपदेससंतं भवति । ( कम्मप० सत्ता० पृ० ५७ ) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कॅसाय पाहुडे (३) कसायपाहुडचूर्णिमें नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्वका स्वामित्व इस प्रकार बतलाया गया है ૪૦ पृ० १८६, सू० १०• णघु सयवेदस्स उक्कस्तयं पदेस संतकम्मं कस्स १११. गुणिक मंसि ईसा गदो तस्स चरिमसमयदेवस्स उक्कस्तयं पदेससंतकम्मं । उक्त चूर्णिका मिलान कम्मपयडी चूर्णि से कीजिए सो चैव गुणि यकम्मंसिगो सव्वावासगाणि काउं ईसाणे उत्पन्नो । तत्थ संकिलेसेणं भूयो नपुं सगवेयमेव बंधति । तत्थ बहुगो पदेसणिचयो भवति, तस्स चरिमसमये वट्टमाणस्स उक्कोसपदेससंतं । ( कम्मप० सत्ता० पृ० ५७ ) कम्मपयडीचूर्णिमे जो बात जरा स्पष्टीकरण के साथ कही गई है, वही कसायपाहुडचूर्णिमें उसकी शैलीके अनुसार संक्षिप्तरूपसे कही है । (४) स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व के स्वामित्वका वर्णन कसायपाहुडचूर्णि में इस प्रकार किया गया है पृ० १८६, सू० १२. इत्थिवेदस्स उक्कस्सयं पदेस संतकम्मं कस्स १ १३. गुणिदकम्मंसि संखेज्जवरसाउए गदो, तम्मि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण जम्हि पूरिदो तस्स इत्थवेदस्स उक्कस्तयं पदेससंतकम्मं । अब उक्त चूर्णिसूत्रों का मिलान कम्मपयडी चूर्णि से कीजिए— ईसाणे नपुं सगवेयं पुञ्चपरगेण पूरिता ततो उव्वट्टित्त लहुमेव 'असंखवासी सु' त्ति - भोगभूमिगेसु उप्पन्नो । तत्थ 'पल्लासंखियभागेण पूरिए इत्थवेयस्स' चि तत्थ संकिलेसेणं पलियोवमस्स असंखेज्जे का लेणं इत्थवे पूरितो भवति, तंमि समते इत्थिवेयस्स उक्कोसपदेससंतं । ( कम्मप० सत्ता० पृ० ५८ ) 1 इस उद्धरण में जो उद्धृत वाक्यांश है, वह कम्मपयडीके उस गाथाके है, जिसपर कि उक्त चूर्णि लिखी गई है। दोनोंके मिलानसे पाठक इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि दोनों चूर्णियोकी रचना समान होते हुए भी और दोनों में अपनी-अपनी रचनाको विशिष्टता होते हुए भी एक कर्तृकताकी छाप स्पष्ट है । (५) कसायपाहुडर्णिमें संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभके उत्कृष्ट प्रदेशसकर्मका स्वामित्व इस प्रकार बतलाया गया है पृ० १८७, सू० १६. तेणेव जाधे पुरिसवेद - छोकसायाणं पदेसग्गं कोधसंजलणे पक्खित्तं ताधे को संजलणस्स उक्कस्तयं पदेससंतकम्मं । १७. एसेव कोधो जाधे माणे पक्खितो ताधे माणस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । १८. एसेवमाणो air माया पक्खिचो ताधे मायासजलणस्स उक्कस्यं पढ़े सतकम्मं । १६. एसेव माया जाधे लोभसंजलणे पक्खित्ता ताथे लोभसंजलणस्स उक्कस्तयं पदेस संतकंम्म | अब उक्त चूर्णिसूत्रोंका मिलान कम्मपयडी - चूर्णि से कीजिए Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. P DR. - ग The प्रस्तावना ४१ जंमि समते पुरिसवेतो सव्यसंकमेण कोहसंजलणाए संकेतो भवति तंमि समते कोहसंजलणाते उक्कोसपदेससंतं भवति । तस्सेव जूमि समते कोहसंजलणा माणसंजलणाए सव्वसंकमेण संकंता तमि समते माणसजलेगा उक्कीसं पदेससंतं भवति । तस्सेव जंमि समए माणसजलणी 'मायसिजलगाए सव्वस कमेण संकेता भवति तंमि समते मायासंजलणाए उकोसं पदेससंत । तस्सव जैम्मि समते मायासंजलणा लोभसंजलणाए सव्यसंकमेण संकंता भवति तंमि समते लोभसंजलणाए से उक्कोसं पदेससंतं । (कम्मप० सत्ता० पृ० ५६ ) चूकि कम्मपयडीकी चूर्णि उसकी गाथाओकी व्याख्यात्मक है, अतः उसमे 'जम्मि समते,' सव्वसकमेण आदि पदोंका प्रयोग विषयके स्पष्टीकरणार्थ किया गया है, पर वस्तुतः दोनोंमें निरूपित तत्त्व एक ही है और दोनोंकी रचना शैली भी एक है। (६) कसायपाहुडचूर्णिमें सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व इस प्रकार बतलाया गया है प. १८६, सू० ३१. सम्मामिच्छत्तस्स जहएणयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ३२. तथा चेव सुहुमणिगोदेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदूण तदो तसेसु संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लभ्रूण चत्तारि वारे कसाए उवसामेदूण वे छावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालैदूण मिच्छत्तं गदो दीहाए उव्वेल्लणद्धाए उव्वेलिद तस्स जाधे सव्वं उव्वेलिदं, उदयावलिया गलिदा, जाधे दुसमयकालडिदियं एक्कम्मि द्विदिविसेसे सेसं, ताधे सम्मामिच्छत्तस्स जहएणं पदेससंतकम्मं । xxxएवं चेव सम्मत्तस्स वि । अब उक्त चूर्णिसूत्रका मिलान कम्मपयडीकी चूर्णिसे कीजिए xxxसम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वे छावट्ठीतो सागरोवमाणं सम्मत्तं अणुपालेत्तु पच्छा मिच्छत्तं गतो चिरउव्वलणाए अप्पप्पणो उव्वलणाते प्रावलिगाते उवरिमं द्वितिखंडगं संकममाणं संकेतं, उदयावलिया खिज्जति जाव एगट्ठितिसेसे दुसमयकालद्वितिगे जहन्नं पदेससंतं । पाठक देखेंगे कि दोनों चूर्णियोंमें कितना अधिक साम्य है। भेद केवल इतना ही है कि कसायपाहुडचूर्णिमें सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म-स्वामित्व वता करके पीछेसे तद्नुसार ही सम्यक्त्वप्रकृतिके स्वामित्वका वर्णन जाननेको कहा गया है, जबकि कम्मपयडीचूर्णिमे दोनों प्रकृतियों के स्वामित्वका निरूपण एक साथ किया गया है और इसका कारण यह है कि उसकी मूलगाथामें भी दोनोंका स्वामित्व एक साथ प्रतिपादन किया गया है। (७) आठ मध्यमकषायोंके जघन्य प्रदेशसत्कर्म-स्वामित्वको बतलाते हुए कसायपाहुडचूर्णिमें कहा गया है पृ० १६०, ३६ अभवसिद्धियपाओग्गजहएणयं काऊण तसेसु आगदो संजमासंजमं संजम सम्मत्तं च बहुसो लभ्रूण चतारि वारे कमाए उत्सामिदूण एइंदियं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमच्छिदूण कम्मं हदसमुप्पत्तियं कादूण काल गदो तसेसु आगदो कसाए खवेदि, अपच्छिमे डिदिखंडए अवगदे अधट्ठिदिगलणाए उदयावलियाए गलतीए एकिस्से द्विदीए सेसाए तम्मि जहणणयं पदं । ४०. तदोपदेसुत्तरं । ४१. णिरंतराणि हाणाणि जाव एगहिदिविसेसस्स उक्कस्सपदं । ४२. एदमेगं फद्दयं । ४३. एदेण कमेण अट्ठएहं पि कसायाणं समयूणावलियमेत्ताणि फद्दयाणि उदयावलियादो। ४४, अपच्छिमट्टिदिखंडयस्स चरिमसमय-जहएणपदमादि कादूण जावुकस्सपदेससंतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं । अव उक्त चूर्णिसन्दर्भका कम्मपयडीकी निम्नलिखित चूर्णिसे मिलान कीजिए अभवसिद्धियपातोग्गं जहन्नगं पदेससंतकम्मं काऊण तसेसु उववन्नो । तत्थ देसविरतिं विरतिं च बहुयातो वारातो लघृण चत्तारि वारे कसाते उवसामेऊण ततो पुणो एगिंदियाएसु उप्पन्नो, तत्थ पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभागं अत्थिऊणं पुणो तसेसु उप्पन्नो । तत्थ खवणाए अब्भुद्वितो तस्स चरिमे द्वितिखंडगे अवगते उदयावलियाए गलतीए एगद्वितीसेसाए श्रावलियाए दुसमय-कालद्वितीयं तहिं जहन्नगं पदेससंतं भवति । एवं सव्वजहन्नयं पदेससंतं । सव्वजहन्नतो पदेससंते एगे कम्मखंडपोग्गले पक्खित्ते अन्नं पदेससंतं तम्मि ठितिविसेसे लब्भति । एवं एक्केक्क पक्खिवमाणस्स अणंताणिं तम्मि द्वितिविसेसे लम्भंति जाव गुणियकम्मंसिगस्स तम्मि द्वितिविसेसे उक्कोसं पदेससंतं । एत्तो उक्कोसतरं तस्मि द्वितिविसेसे अन्नं पदेससंतं नत्थि । एयं एक्कं फड्डगं । दोसु द्वितिविसेसेसु एएणेव उवाएण वितियं फड्डगं । तिसु द्वितिबिसेसेसु ततियं फड्डगं । एवं जाव आवलियाए समऊणाते जत्तिया समया तत्तिगाणि फड्डगाणि, चरिमस्स द्वितिखंडस्स चरिमसंछोभसमयं आदि काउं जाव अप्पप्पणो उक्कोसगं पदेससंतं ताव एवं पि एगफड्डगं सव्वहितिगयं जहासंभवेण । (कम्म० सत्ता० पृ०६७) पाठक देखेंगे कि इस उद्धरणमें ऊपरका आधा भाग तो शब्दशः समान है ही। साथ ही पीछेका आधा भाग भी अर्थकी दृष्टि से विल्कुल समान है । कम्मपयडीके इस पीछेके भागके विस्तृत अंशको सक्षिप्त करके कसायपाहुडकी चूर्णिमें उसे प्राय उन्हीं शब्दों में कह दिया गया है। (5) कसायपाहुडकी संक्रमणअधिकारवाली 'अट्ठावीस चउवीस' इत्यादि २७ नं० की गाथा पर जो विस्तृत चूर्णिसूत्र हैं, वे सब कम्मपयडीके संक्रमण-प्रकरणकी 'अठ्ठ-चउरहियवीस' इस १० वी गाथाकी चूर्णिसे शब्द और अर्थकी अपेक्षा पूर्ण समान हैं। इसके अतिरिक्त एक समता दोनों में यह भी है कि उससे आगेकी गाथाओं पर-जो कि दोनोंमे समानरूपसे पाई जाती हैं-चूर्णि न तो कसायपाहुडमे ही मिलती है और न कम्मपयडीम भी । क्या यह समता भी आकस्मिक ही है ? अवश्य ही उक्त समता दोनोचूर्णियोंके एक कर्तृत्वको द्योतक है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४३ (६) संयमासंयमलब्धि में संयमासयम से गिरनेवाले देशसंयतका वर्णन इस प्रकार से किया गया है पृ० ६६३, सू० ३२. जदि संजमा संजमादो पडिव दिदू गुंजाए मिच्छत्तं गंतू तदो संजमासंजमं पडिवजह अंतोमुहुत्तेण वा विप्पकट्ठेय वा कालेय, तस्स वि संजमा संजमं पडिवज्जमाण्यस्स एदाणि चैव करणाणि कादव्वाणि । इन चूर्णिसूत्रों का मिलान कम्मपयडीचूर्णि से कीजिए - पु भो देसविरतितो विरतीतो वा वि पडियो आभोएणं मिच्छत्तं गंतु पुणो देसविरतिं वा विरतिं वा पडिवज्जेति अंतोमुहुचेणं वा विगिट्ठेण वा काले तस्स पडिवज्जमाणस्स एयाणि चैव करणाणि गियमा काऊ पडिवज्जियन्त्रं । ( उपशमनाकरण, पृ० २२ ) पाठकगण दोनोंकी समताका स्वयं अनुभव करेंगे। जो थोड़ासा भेद 'विरति' पदका है, उसका कारण यह है कि कम्मपयडी में देशविरति और सर्वविरतिका एक साथ वर्णन किया गया है, जब कि कसायपाहुडचूर्णि में ये दोनों अधिकार भिन्न-भिन्न हैं । (१०) चारित्रमोहकी उपशमना करनेके लिए वेदकसम्यग्दृष्टिको पहले अनन्तानुबन्धीकषायकी विसंयोजना करना आवश्यक है । इसका वर्णन कसायपाहुडचूर्णि में इस प्रकार किया गया है पृ० ६७८, सू० ४. वेदयसम्माहट्टी प्रतारणुबंधी विसंजोएदू कसा उवसामेदुं णो उट्ठादि । ५ सो ताव पुव्वमेव श्रताणुबंधी विसंजोएदि । ६. तदो ताणुबंधी विसंजोएंतस्स जाणि करणाणि ताणि सव्वाणि परूवेयव्वाणि । • अब इसी बातको कम्मपयडी चूर्णिमें किस प्रकार कहा गया है सो उसे भी देखिए - चरित्तुवसमणं काउंकामो जति वेयगसम्मद्दिट्ठी तो पुवं अताणुबंधियो नियमा विसंजोएति । एएण कारणेण विरयागं अगंताणुबंधिविसंजोयणा भन्नति । ( कम्मप० उपश० पृ० २३ ) यहां यह बात ध्यान में रखनेके योग्य है कि श्वे० आचार्य चारित्रमोहकी उपशमना करनेवालेके लिए अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना आवश्यक नहीं समझते हैं, तव कम्मपयडीचूर्णि और कसायपाहुडचूर्णिकार दोनों इस विषय में एक मत हैं और उनकी यह मान्यता दि० मान्यता के सर्वथा अनुरूप ही है । (११) दर्शनमोहक्षपणाके प्रस्थापक जीवके अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करने के प्रथम समयकी क्रियाओंका वर्णन कसायपाहुडचूर्णिमें इस प्रकार किया गया है पृ० ६४६, सू० ४०. पढमसमय- प्रणिय ट्टिकरणपविट्ठस्स अपुत्रं द्विदिखंडयमपुव्वमणुभागखडयमपुव्वो द्विदिवधो, तहा चेव गुणसेढी । ४१. ऋणिय ट्टिकरणस्स Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ कसायपाहुडसुत्त पढमसमये दंसणमोहणीयमप्पसत्थमुवसामणाए अणुवसंतं, सेसाणि कम्माणि उवसंताि च वसंताणि च । अब इसी वर्णनको कम्मपयडीचूर्णि से मिलान कीजिए— पढमसमायिट्टि पट्टिस्स पुत्रं ट्टितिखंडगं पुण्यं श्रणुभागखंडगं अपुच्चो डितिबंधो, पुण्या गुणसेढी । श्रणियट्टिस्स पढमसमते दंसणमोहणीयंअप्पसत्थुवसामणाहितणिकाचरणेहिं अनुपसंतं, सेसाणि कम्माणि उवसंताणि वसंताणि य । ( कम्मप० उपश० पृ० २५ ) पाठक स्वयं अनुभव करेगे कि दोनों उद्धरणोंमें शब्दशः समता है । (१२) उक्त दर्शनमोहक्षपकके अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात भाग व्यतीत होनेपर जो कार्य-विशेप होते हैं, उनका वन कसायपाहुडमे इस प्रकार किया गया है पृ० ६४७, सु० ४३. तदो दिट्ठदिखंडयसहस्सेहिं अणियट्टिश्रद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु अस रिट्रिट्ठदिवधेण दंसणमोहणीयस्स दिट्ठदिसंतकम्मं समगं । ४४. तदोदिखंडयपुत्ते चउरिं दियवधेण ट्ठिदिसंत कम्मं समगं । ४५ तदो ट्रिट्ठदिखंडयपुधत्तेण तीइ दियबंधेण दिट्ठदिसंतकस्य समग । ४६. तदो ट्ठदिखंडयपुध तेण बीइ दियबंधेण ट्ठिदिसंतकम्मं समगं । ४७ तदो ट्ठिदिखं जयपुध तेरा एइंदियबंधेण ट्ठिदिसंतकम्म समगं । ४८ तदो ट्ठिदिखंडयपुधत्तेण पलिदोवमट्ठिदिगं जाद दंसणमोहणीय द्विदिसंतकम्मं । अब उक्त उद्धरणका कम्मपयडीचूर्णि से मिलान कीजिए— 1 यिपिढमसमते सणमोहणीयस्स द्वितिसंतकम्मं खंडिज्रमाणं खंडिज्ज - माणं सन्निपंचिदियसंतकम्म डितिसमगं होति । ततो द्वितिखंडगपुहुत्ते गते चउरिंदियसंतकम्मद्वितिसमगं होति । ततो ततिएहिं चेत्र ठितिकंडगेहिं गएहिं तेई दियसंत समगं, ततो तचिएहिं चैव द्वितिखंडगेहिं गएहिं वेइं दियसंतसमगं, एवं एगिंदियसत्तसमगं हितकम्मं होइ । ततो द्वितिखंडगपुहुत्ते जायं पलियो मट्ठितियं दंसणमोहणिज्जद्वितिसंतकम्मं । ( कम्मप० उपश० पृ० ३६ ) पाठकगण दोनो चूर्णियों की समताका स्वयं ही अनुभव करेंगे। (१३) चारित्रमोहोपशामनाधिकार में सर्वघाती प्रकृतियो को देशघाती करनेके पश्चात् अन्तरकरएकी क्रियाका वर्णन इस प्रकार किया गया है - पृ० ६८६, सू० १२७. तदो देसवादिकरणादो संखेज्जेस ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु अंतरकरणं करेदि । १२८. बारसहं कसायाणं णवराहं गोकमायवेदणीयाणं च । णत्थि अण्णरच कम्मस्य अंतरकरणं । १२६. जं संजलणं वेदयदि, जं च वेदं वेदयदि एदेमिं दोएहु कम्माणं पढमट्टिढी तो मुहुतिगात्र ठवेण अंतरकरणं करेदि । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ प्रस्तावना अब उक्त सन्दर्भका मिलान कम्मपयडीचूर्णि से कीजिए— ततो देसघातीकरणात संखेज्जेसु द्वितिबंधसहस्सेसु गतेसु 'संजमघाती' ति चरितमोहाणं अताणुबंधिवज्जाणं । बारसरहं कसायाणं वराहं गोकसायाणं एएसं एक्कवीसाए कम्माणं अंतरं करेति । 'पढमहिय अन्नयरे संजलणवेयाणं वेइज्जतीण कालसमा ' चि चउरहं संजलगाणं तिरहं वेयाणं अन्नयरस्स वेतिज्जमा - स्पष्पणो वेयणाकालतुल्लं पढमं ट्ठिति करेति । (कम्मप० उपश० पृ० ४८ A ) पाठक दोनोंकी समताका स्वय अनुभव करेंगे । इस अवतरण के बीच में जो उद्धृत अंश है, वह कम्मपयडीकी मूलगाथाका है, जिसकी कि यह चूर्णि है । (१४) इसी प्रकरणमें दोनों ग्रन्थोंकी चूर्णियोंके समता वाले कुछ अन्य सन्दर्भ इस प्रकार हैं— कसायपा० पृ० ६७०, सू० १३५. अंतरं करेमाणस्स जे कम्मंसा बज्यंति, वेदिज्जति तेसिं कम्माणमंतर हिंदीओ उकेरेंतो तासि द्विदीयं पदेसम्म बंधपयडीणं पढमहिदी च देदि, विदियट्ठिदीए च देदि । १३६ जे कम्मंसा बज्मंति, वेदिज्जंति, तेसिमुक्कीरमाणं पदेसग्गं सत्थाणे ण देदि; बज्झमाणीणं पयडीरामणुक्कीरमाणीसु द्विदी देदि । १३७ जे कम्मसा ग वज्यंति, वेदिज्जंति च ; तेसिमुक्कीरमाणयं पदेसम् अप्पप्पणी पढमट्टिदीए च देदि, वज्झमाणीणं पयडीरामणुक्कीरमाणीसु च द्विदी देदि । १३८. जे कम्मंसा ण बज्भंति, ग वेदिज्जंति, तेसिमुक्कीरमाणं पदेसग्गं बज्झमाणीणं पयडीरामणुक्कीरमाणीसु द्विदीसु देदि । १३६. एदेश कमेण अंतरमुक्कीरमाणमुक्किएणं । अब उक्त सूत्रप्रबन्धका मिलान कम्मपयडीचूर्खिसे कीजिए अंतर करें तो जे कम्मंसे बंधति वेदेति तेसिंउ क्किरिमाणं दलियं पढमे विइए चट्टिईए देति । जे कम्मंसा व वज्यंति वेतिज्जंति तेसि उक्किरिजमाणा पोग्गले पढमति क्रिजमाणीसु देति । जे कम्मंसा वज्भंति, न वेयिज्जंति तेसिं उक्तिरिज्जमाणगं दलियं अणुक्किरिज्जमाणीसु वितियट्ठितीसु देति । जे कम्मंसा बज्झंति, ण वेतिज्जंति तेसिं उक्किरिज्जमारणं पदेसग्ग' सत्थाणे ण दिज्जति परट्ठाणे दिज्जति । एए विहिरणा अंतरं उच्छिन्नं भवति । (कम्मप० उपशमना० प्र०४८ ) दोनों अवतरणों में कितना अधिक साम्य है, यह दर्शनीय है । (१५) कसायपा० पृ० ६६४ सू० १५८. गवु सयवेदस्स पढमसमयउवसा मगस्स जस्स वा तस्स वा क्रम्मस्स पदेसग्गस्स उदीरणा थोवा । १५६ उदयो असंखेज्जगुणो । १६० णबु ंसयवेदस्स पदेसग्ग मरणपय डि संकाभिज्ज माण्यमसंखेज्जुगुणं । १६१. उब Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कसायपाहुडसुत्त सामिज्जमाणयमसंखेज्जगुणं । xx १६५ एवं संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु णव सयवेदो उवसामिज्जमाणो उवसंतो। अब उक्त अवतरणका मिलान कम्मपयडीचूर्णिसे कीजिए तस्स उवसामणपढमसमयपभिति जस्स व तस्स व कम्मस्स उदीरणा थोवा । उदो असंखेजगुणो । उवसामिजमाणणपुसगवेयस्स पदेसग्ग असंखेजगुणं । नपुंसगवेयस्स अन्नपगतिं संकामिजमाणग पदेसगं असंखेजगुणं । xxx एवं संखेज्जेसु टितिबंधसहस्सेसु गएसु नपुंसगवेो उवसंतो भवति । (कम्मप० उपश० पृ० ६६ A) (१६) कसायपा० पृ० ६६६, सू० १७६. इत्थिवेदे उवसंते ( से ) काले सत्तण्हं णोकसायाणं उवसामगो । १८०. ताधे चेव अण्णं द्विदिखंडयमण्णमणुभागखंडयं च आगाइदं । अण्णो च द्विदिवंधो पत्रद्धो । १८१. एवं संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु सत्तएहं णोकसायाणमुवसामणद्धाए संखेज्जदिमागे गदे तदो णाम-गोदवेदणीयाणं कम्माणं संखेज्जवस्सटिदिगो बंधो ।xxx १८६. एदेण कमेण द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु सत्त णोकसाया उवसंता । उक्त सूत्रोंका मिलान कम्मपयडीकी निम्न लिखित चूर्णिसे कीजिए ततो इत्थिवेए उवसंते से काले नपुसगवेय-इत्थिवेयवजा सत्त णोकसाते उवसामेउं बाढवेति । ताहे चेव अन्नं द्वितिखंडगं अन्नं अणुभागखंडगं अएणं च द्वितिबंधं पट्टई । एवं संखेज्जेसु द्वितिबंधसहस्सेसु गदेसु 'संखतमे संखवासितो दोएहं' ति सत्तरहं नोकसायाणं उवसामणद्धाए संखेजतिभागे गए तो 'दोण्ह' ति-णामगोयाणं एएसिं तंमि काले संखेजवासिगो चेव द्वितिबंधो। xxx एएण विहिणा संखेजसु ट्टितिबंधसहस्सेसु गतेसु सत्त वि णोकसाया उवसंता भवंति ।। (कम्मपयडी, उपश० पृ० ५५ A ) पाठक दोनों उद्धरणोंकी समताका स्वय अनुभव करेंगे। बीचमें जो उद्धृत अंश है, वह कम्मपयडीकी गाथाका हैं, जिसके कि आधार पर उक्त चूर्णि रची गई है। (१७) कसायपा० पृ० ६६८, सू० २०६. एदेण कमेण जाधे आवलिपडिप्रावलियानो सेसानो कोहसंजलणस्स ताधे विदियट्ठिदीदो पढमहिदीदो आगालपडिअागालो वोच्छिएणो । २०७. पडियावलियादो चेव उदीरणा कोहसंजलणस्स । २०८. पडिप्रावलियाए एक्कम्हि समए सेसे कोहसंजलणस्स जहएिणया ठिदि-उदीरणा । २०६. चदुण्हं संजलणाणं ठिदिवंधो चत्तारि मासा । २१०. सेसाणं कम्माणं ट्टिदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि । (कम्मप० उपश० पृ०५७ A) अब उक्त सूत्रोंका मिलान कम्मपयडीचूर्णिसे कीजिए Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रस्तावना जाव प्रावलिय-पडिआवलिगसेसा कोहसंजलणाए ताहे वितियट्ठितितो अागालो वोच्छिन्नो, पडिआवलिगातो उदीरणा एति, कोहसंजलणाए पडिप्रावलिगाते एगंमि समते सेसे कोहसंजलणाए जहन्निगा ट्ठितिउदीरणा, तंमि समते चत्तारि मासा ठिबंधो संजलणाणं, सेसकम्माणं संखेजाणि वरिससहस्साणि ट्ठितिबंधो । (कम्मप० उपश० पृ० ५७ A) (१८) कसायपाहुड पृ० ७०५, सू० २८१. विदियसमए उदिएणाणं किट्टीणमग्गग्गादो असंखेजदिभागं मुचदि हेट्ठदो अपुबमसंखेजदिपडिभागमाफुददि । एवं जाव चरिमसमयसुहुमसांपराइयो ति। २८२. चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमंतोमुहुत्तिो ठिदिबंधो । २८३. णामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधो सोलस मुहुत्ता । २८४. वेदणीयस्स ठिदिबंधो चउबीस मुहुत्ता । २८५. से काले सव्वं मोहणीयमुवसंतं । उक्त सूत्रोंका मिलान कम्मपयडीचूर्णिसे कीजिए___ वितियसमते उदिन्नाणं असंखेजइभागं मुयंति, हेट्ठतो अपुव्वं असंखेजतिभागं गेएहति, एवं जाव सुहुमरागचरिमसमतो । xxx जाव सुहुमरागचरमसमय त्ति । (चरिमसमय-) सुहुमरागस्स नाणावरण-दसणावरण-अंतरातियाणं अंतोमुहुत्तिगो ट्ठितिबंधो नामगोयाणं सोलसमुहुत्तिगो ट्ठितिबंधो। वेयणिज्जस्स चउवीसमुहुत्तितो ठितिबंधो । से काले सव्वं मोहं उवसंतं भवति । (कम्मप० उपश० पृ० ६६-६७) ___ (१६) उपशमश्रेणीसे जीव किन कारणोंसे गिरता है, इस विषयका जो वर्णन दोनों अन्थोंकी चूर्णियोंमें उपलब्ध है, उसका नमूना देखिए कसायपा० पृ० ७१४, सू० ३७६. दुविहो पडिवादो भवक्खएण च उवसामणद्धाक्खएण च । ३८०. भवक्खएण पदिदस्स सव्वाणि करणाणि एगसमएण उग्धादिदाणि । ३८१, पढमसमए चेव जाणि जाणि उदीरिज्जति कम्मणि ताणि उदयावलियं पवेसिदाणि, जाणि ण उदीरिज्जंति ताणि वि ओकड्डियूण आवलियबाहिरे गोवुच्छाए सेढीए णिक्खित्ताणि । ३८२. जो उवसामणद्धाक्खएण पडिवददि तस्स विहासा । अब उक्त चूर्णिसूत्रोंका मिलान कम्मपयडीचूर्णिसे कीजिए इयाणि पडिवातो सो दुविहो-भवक्खएण उपसमद्धक्खएण य । जो भवक्खएण पडिवडइ तस्स सव्वाणि करणाणि एगसमतेण उग्घाडियाणि भवंति । पढमसमते जाणि उदीरिज्जंति कम्माणि ताणि उदयावलिगं पवेसियाणि, जाणिं ण उदीरिज्जति ताणि उक्कड्डिऊण उदयावलियबहिरतो उवरिं गोयुच्छागितीते सेढीते रतेति । जो उवसमद्धाक्खएणं परिपडति तस्स विभासा । (कम्मप० उपशा० पृ०५२ A) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कसायपाहुडसुत पाठक स्वयं अनुभव करेंगे, कि दोनों पाठोंमें कितना अधिक साम्य है । (२०) उपशमश्रेणीसे गिरनेवाले जीवका पतन किन-किन गुणस्थानोमे होता है, इसका वर्णन कसायपाहुडचूर्णिमें इस प्रकार किया गया है पृ० ७२६, सू० ५४२. एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए अनंतरदो असजम पि गच्छेज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, दो वि गच्छेज्ज । ५४४. छसु प्रावलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । ५४४. आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुसगदि वा गंतु। णियमा देवगदिं गच्छदि । ५४५. हंदि तिसु आउएस एक्केण नि बद्धेण आउगेण ण सक्को कसाए उवसामेदु। अब उक्त कसायपाहुडचूर्णिका कम्मपयडीकी निम्न चूर्णिसे मिलान कीजिए-- __पमत्तापमत्तसंजयट्ठाणेसु अणेगारो परिवत्तीत्तो काउ' 'हेडिल्लाणंतरदुगं श्रासाणं वा वि गच्छिज' ति-हिंडिलाणंतरदुगं ति देसविरओ असंजयसम्मदिट्ठी वा होजा, ततो परिवडमाणो आसाणं वा वि गच्छेज्ज त्ति-कोति सासायणतणं गच्छेजा । (पृ०७४) उवसमसम्मत्तद्धाए वट्टमाणो जति कालं करेइ धुवं देवो भवति । जई सासायण कालं करेति सो वि नियमा देवो भवति । किं कारणं ? भन्नति-'तिसु आउगेसु बद्धेसु जेण सेढिं न आरुहइ' त्ति-देवाउगवज्जेसु आउगेसु बढेसु जम्हा उवसामगो सेढीते अणुरुहो भवति तम्हा सासायणा वि देवलोगे जाति । __ (कम्मप० उप० पृ० ७३) यद्यपि कसायपाहुडचूर्णिका कम्मपयडीचर्णिके साथ मिलान करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि दोनोंके रचयिता आ० यतिवृपभ ही है, तथापि इससे भी अधिक पुष्ट और सवल प्रमाण हमें तिलोयपएणत्तीके अन्तमे पाई जानेवाली उस गाथासे भी उपलब्ध होता है, जिसमें कि स्पष्टरूपसे कम्मपयडीकी चर्णिका उल्लेख किया गया है । वह गाथा इस प्रकार है चुण्णिसरूवट्टकरणसरूवपमाण होइ किं जत्तं । अट्ठसहस्सपमाणं विलोय पणाचणामाए ॥७७॥ इसमें बतलाया गया है कि पाठ करणोंके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाली कम्मपयडीका और उसकी चूर्णिका जितना प्रमाण है, उतने ही आठ हजार श्लोक-प्रमाण इस तिलोयपएणत्तीका परिमाण है। इसका अभिप्राय यह है कि क्रम्मपयडीकी गाथाऐ लगभग ६०० श्लोक प्रमाण हैं, क्योंकि एक गाथाका प्रमाण सामान्यत सवा-श्लोक-पमाण माना जाता है और कम्मपयडीकी चूर्णिका प्रमाण लगभग साढ़े सात हजार श्लोक प्रमाण है, इस प्रकार दोनों का मिल करके जो प्रमाण होता है, वही पाठ हजार श्लोक-प्रमाण तिलोयपएणत्तीका प्रमाण बतलाया गया है। यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि कम्मपयडीमें बन्धन आदि पाठ करणोंका स्वरूप प्रतिपादन किया गया है जैसा कि उसकी पहली और दूसरी गाथासे स्पष्ट है । व दोनों गाथाएं इस प्रकार हैं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सिद्धं सिद्धत्थसुयं बंदिय णिद्धोयसव्वकम्ममलं । कम्मट्ठगस्स करणद्वगुदयसंताणि चोच्छामि ॥१॥ बंधण-संकमणुव्वट्टणा य अवचट्टणा उदोरणया । उवसामणा णिवत्ती णिकायणा च त्ति करणाई ॥२॥ प्रथम गाथामें सिद्धस्वरूप सिद्धार्थसुत महावीरस्वामीको नमस्कार करके आठ कर्म सम्बन्धी आठो करणोंके तथा उनके साथ उदय और सत्त्वके कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है और दुसरी गाथामें पाठ करणोंके नाम गिनाये गये हैं, जिनका कि वर्णन कम्मपयडीमें किया गया है। आठ करण इस प्रकार हैं-१.बन्धनकरण, २.सक्रमणकरण, ३. उद्वर्तनाकरण, ४. अपवर्तनाकरण, ५. उदीरणाकरण, ६. उपशामनाकरण, ७. निधत्तीकरण, और ८. निकाचनाकरण । इन आठों ही करणों के स्वरूपादिका कम्मपयडीमें विस्तृत निरूपण किया गया है और चूर्णिकारने अपनी चूर्णिमें उनके स्वरूपका बहुत सुन्दर विवेचन किया है, इसलिए तिलोयपणत्तीके अन्त में उन्होंने अपनी पूर्व रचनाके परिमाणका उल्लेख करते हुए उसके साथ तिलोयपण्णत्तीके भी परिमाणका उक्त गाथामें निर्देश कर दिया है । तथा निकाचनाकरणके अन्त में चर्णिकारने एवं अट्ट वि करणाणि समत्ताणि' इस प्रकारका वाक्य भी दिया है । जिससे सिद्ध है कि कम्भपयडीकी चूर्णि भी श्रा० यतिवृषभकी ही कृति है। यहां यह बात ध्यानमें रखना चाहिए कि उदय और सत्त्वको करणोंके अन्तर्गत नहीं गिना गया है और यही कारण है कि जहाँ पर आठ करणोंका स्वरूप समाप्त हुआ है, वहां चूर्णिकारने स्पष्टरूपसे लिखा है कि 'इस प्रकार आठों ही करणोंका स्वरूप समाप्त हुआ। कम्मपयडी, सतक और सित्तरीकी चर्णियोंके रचयिता एक हैं ____ कम्मपयडीचूर्णिके कर्ता रूपसे अभी तक किसी प्राचार्यके नामका कहीं कोई निर्देश नहीं मिलता है, तथापि कम्मपयडीके सम्पादकोंने उक्त ग्रन्थकी प्रस्तावनामें उसे अनुश्रुतिके अनुसार जिनदासमहत्तर-प्रणीत होनेकी सभावना व्यक्त की है, जो कि सभावना मात्र ही है, वास्तविक नहीं, क्योंकि उसकी पुष्टिमें कोई भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया है । सित्तरीचूर्णिको कुछ लोग चन्द्रपिमहत्तर-द्वारा रचित होनेका अनुमान करते हैं, पर सित्तरीचूर्णिकी प्रस्तावनामें उसके सम्पादकोंने यह स्पष्टरूपसे लिखा है कि चन्द्रर्षिमहत्तर न तो सित्तरीके रचियता है और न उसकी चूर्णि ही उनकी रची हुई है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि चन्द्रर्पिमहत्तरने अपने पचसंग्रहके प्रारम्भमें सतक, सित्तरी आदि प्राचीन ग्रन्थोंका उल्लेख किया है और यह भी लिखा है कि एक स्थल पर सित्तरीचर्णिकारका मत चन्द्रपिमहत्तरके विरुद्ध जाता है। इससे यह सिद्ध है कि चन्द्रपिमहत्तर सित्तरीचूर्णि के प्रणेता नहीं हैं । ___ मुद्रित सतकचूर्णि पर कोई सम्पादकीय वक्तव्य या प्रस्तावना आदि नहीं है और न उसके आदि या अन्तमें कहीं चूर्णिकारके रूपमें किसी आचार्यके नामका उल्लेख है, तथापि मुद्रित सित्तरीचर्णिमे श्री शान्तिनाथजी भडार खंभातने प्राप्त सतकचूर्ति के अन्तिमपत्रके उत्तरार्घका फोटो दिया है, जिसमे अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है "कृतिराचार्यश्रीचन्द्रमहत्तरशितांवरस्य । शतकस्य ग्रन्थस्य । प्रशस्तच्... । दि ३ शनौ लिखितेति ।" Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त परन्तु यह सतकचूर्णिके अन्तमें पाई जानेवाली पुष्पिका किसी लेखक-द्वारा लिखी गई है, यह बात उक्त पंक्तिकी रचनासे ही स्पष्ट है और श्रीचन्द्रमहत्तरके नामके साथ 'शिताम्बर' पदका प्रयोग तो उसकी अवास्तविकताका और भी अधिक परिचायक है, क्योंकि, प्रथम तो उसके देनेके कोई आवश्यकता ही नहीं थी, दूसरे दि० परम्परामें श्रीचन्द्रमहत्तर नामके कोई भी व्यक्ति नहीं हुए है। फिर भी यहां पर 'शितांबर' पद संस्कृत या प्राकृत दोनों भाषाओंके अनुसार अशुद्ध है। ज्ञात होता है कि सित्तरीचूर्णिकी दिगम्बराम्नायताके अपलापके लिए उक्त वाक्य पीछेसे जोड़ा गया है। सतकचूर्णि और सित्तरीचूर्णि भी प्रा० यतिवृषभ-रचित हैं सतक और सित्तरी नामक दो ग्रन्थों का परिचय पहले दिया जा चुका है। इन दोनों ही प्रकरणों पर चूर्णियां पाई जाती हैं और वे मुद्रित होकर प्रकाशमे भी आ चुकी हैं। सतक या शतकप्रकरणकी चूर्णि राजनगरस्थ श्रीवीरसमाजकी ओरसे वि० सं० १६७८ में प्रकाशित हुई है और सित्तरी या सप्ततिकाकी चूर्णि श्री मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई (गुजरात ) से वि० स० १९६६ में प्रकाशित हुई है। दोनों ही प्रकरणों पर जो चूर्णियां प्रकाशित हुई हैं, उनपर किसी आचार्यका रचयितारूपसे नाम नहीं दिया गया है। शतकप्रकरणकी चूणिके ऊपर 'पूर्वाचार्यकृतचूर्णिसमलंकृतं श्री शतकप्रकरणम्' ऐसा वाक्य मुद्रित है । इसी प्रकार सित्तरीचूर्णिके आरम्भमें भी पाईणायरियकयचुरिणसमेया' ऐसा वाक्य मुद्रित है, जिसका अर्थ होता है-'प्राचीन आचार्यकृत चूर्णिसमेत' । अर्थात् इसके रचयिताका नाम भी अभी तक अज्ञात ही हैं। इन दोनों चूणियोंका अन्तर-आलोडन करके जब हम कम्मपयडीचूणि के साथ मिलान करते हैं, तब इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि कम्मपयडीचर्णिके तथा इन दोनों चणियोंके रचयिता भी एक ही आचार्य हैं। और ये दोनों चूर्णियां भी उनकी ही कृतियां हैं, जिन्होंने कि कम्मपयडीचूर्णि और कसायपाहुडचूणिको रचा है। पाठकोंके निश्चयार्थ उक्त चूर्णियोंमेंसे कुछ ऐसे अवतरण दिये जाते हैं, जिनसे कि उक्त चारों ही चूर्णियोंकी एक-कत कता सिद्ध होती है-- (१) कम्मपयडीके वन्धनकरणमें वन्धके चारों भेदोंका लक्षण कह करके लिखा है मूलपगति-उत्तरपगतीणं विगप्पसामित्तभेदेण य जहा बंधसयगे भणिता, तहा चेव इहावि भाणियव्या। अर्थात् मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियोंके विकल्प और स्वामित्वका जैसा वर्णन चन्धशतकमें किया गया है, वैसा ही वर्णन यहां पर भी करना चाहिए। इस उद्धरणसे यह सिद्ध है कि कम्मपयडीचूर्णिकार शतकप्रकरणसे जिसे कि बन्धशतक भी कहते हैं, भलीभांति परिचित थे । अब देखिए कि शतकर्णिकार वर्गणाश्रोके भेदोंका वर्णन करते हुए क्या लिखते हैं 'एतासिं अत्थो जहा कम्मपगडिसंगहणीए ।' ( मतकचूर्णि पत्र ४३) अर्थात् उक्त वर्गणाओंका अर्थ जैसा कम्मपयडिसंग्रहणीमें कहा, वैसा ही यहां पर जानना चाहिए। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५१ यहां यह जानने योग्य बात है कि वर्गणाओं का अर्थ कम्मपयडीकी गाथाओं में नहीं, किन्तु कम्मपयडीकी चूर्णिमें किया गया है। मूलगाथाओं मे तो वर्गणाओं के नाममात्र ही कहे गये है । इसके विशेष परिज्ञानार्थ कम्मपयडीके बन्धनकरणके १८, १६ और २० वीं गाथाओं पर लिखी हुई विस्तृत चूर्णिको देखना चाहिए । इस उद्धरणसे दो बातें सिद्ध होती है - पहली यह कि सत्कचूर्णि और कम्मपयडी - चूर्णिके रचयिता एक ही आचार्य हैं । दूसरी यह कि सतकचूर्णि से पहले कम्मपयडी चूर्णिकी रचना (२) अव सित्तरीचूर्णिसे कुछ ऐसे उद्धरण दिये जाते हैं जिनसे कि सित्तरीचूर्णि और कम्मपयडीचूर्णिके रचयिता एके सिद्ध होते हैं- (अ) उचट्टणा विही जहा कम्मपगडीसंगहणीए उचलणसंकमे तहा भाणियां । ( सित्तरी, पत्र ६१ । २ ) (a) तत्थ मिच्छद्दिस्सि मिच्छच उत्रसामणे विही जहा कम्मपगडी संगहणीए पढमसम्मत्तं उप्पाएंतस्स सा चैव भाणियव्वा । (स) अंतरकरणविही जहा कम्मपगडी संगहणीए । ( सित्तरी, पत्र ६४ / १ ) (ह) पढमट्ठितिकरणं जहा कम्मपग डिसंगहणीए । ( सित्तरी, पत्र ६५ / १ ) उक्त चारों उद्धरणोंमें जिन बातोंके विशेष-वर्णन देखने के लिए कम्मपय डिसंगहणीका उल्लेख किया गया है, उन सबका वर्णन मूलकम्मपयडीमें नहीं, अपितु कम्मपयडीकी चूर्णि में किया गया है, जोकि कम्मपयडीचूर्णि में निर्दिष्ट स्थानों पर पाया जाता है। इन उद्धरणोंसे भी दो बातें सिद्ध होती हैं- पहली यह कि सित्तरीचूर्णि और कम्मपयडीचूर्णिके रचयिता एक ही आचार्य हैं। दूसरी यह कि सित्तरीचूर्खिसे पहले कम्मपयडी - चूर्णिकी रचना हो चुकी थी । (३) अब सित्तरीचूर्ण में से ही कुछ ऐसे उद्धरण दिये जाते है, जिनमे कि स्पष्ट रूप से कसाय पाहुडचूर्णिका उल्लेख किया गया है (अ) तं वेयंतो वितिय कट्टडीओ तइयकिट्टीओ य दलियं घेणं सुहुमसांपराइयकिट्टी करे । तेसिं लक्खणं जहा कसायपाहुडे । (ब) एत्थ पुव्वकरण-अणियट्टिश्रद्धासु गाइ वतव्त्रगाईं जहा कसायपाहुडे कम्मपगडिसंगहणीए वा तहा वचव्वं । ( सित्तरी, पत्र ६२ / २ ) (स) चविधगस्स वेदोदर पुरिसवेदबंधे य जुग फिट्टे एकमेव उदयद्वाणं लब्भति । तं जहा - चउरहं संजलखाण एगयरं । एत्थ चचारि लंगा । × × × तं च कसा पाहुडादिसु विडति चिकाउ परिसेसिय । । ( सित्तरी पत्र १२ / २ ) इन उपर्युक्त उद्धरणोंसे तीन बातें सिद्ध होती हैं - पहली यह कि सित्तरीचूर्णि और कसायपाहुडचूर्णिके रचयिता एक ही आचार्य हैं । दूसरी यह कि कसायपाहुडचूर्णिकी रचना के पश्चात् सित्तरीचूर्णिकी रचना की गई है। और तीसरे उद्धरण से तीसरी बात यह सिद्ध होती है। कि उक्त तीनों ही चूर्णियोंके रचायेना एक ही आचार्य हैं । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुडसुत्त इस प्रकार समुच्चयरूपसे समीक्षण करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सतकचूर्णि, सित्तरीचूर्णि, कसायपाहुडचूर्णि और कम्मपयडीचूर्णि इन चारों ही चूर्णियोंके रचयिता एक ही आचार्य हैं । यतः कसायपाहुडचूर्णिके रचयिता आ० यतिवृपभ प्रसिद्ध ही हैं और शेप तीन चूर्णियोंके रचयिता वे उपर्युक्त उल्लेखोंसे सिद्ध होते हैं, अतः उक्त चारों चूर्णियोकी रचनाएं आ० - यतिवृपभकी ही कृतियाँ हैं, यह बात असदिग्धरूपसे निर्विवाद सिद्ध हो जाती है । उक्त चारों चूर्णियोके रचे जानेका क्रम इस प्रकार सिद्ध होता है १. कम्मपयडी चूर्णि — क्योंकि, इसमें किसी अन्य चूर्णिका उल्लेख नहीं है । २. सतकचूर्णि - क्योंकि, इसमें कम्मपयडीसंगहणीका उल्लेख है । પૂર ३. कसायपाहुडचूर्णि, क्योंकि सित्तरीचूर्णिमें इसका उल्लेख किया गया है । ४. सित्तरीचूर्ण, क्योकि, सित्तरीचूर्णिका उल्लेख उपर्युक्त तीनो ही चूर्णियोंमे नहीं किया गया है । तिलोयपण्णत्तीके अंत में पाई जानेवाली 'चुसिरुवटुकररण' इत्यादि गाथा के उल्लेख से "यह भी सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्तीकी रचना के पूर्व कम्मपयडीचूर्णिकी रचना हो चुकी थी । इस प्रकार आज हमे आ० यतिवृपभकी पांच रचनाए उपलब्ध है, इनमे से अभी तक कसा पाहुडचूर्णिके अतिरिक्त शेष सभी रचनाएं मुद्रित होकर प्रकाश मे आ चुकी थीं। हर्प है कि कसा पाहुडचूर्णि सर्व प्रथम उसकी ६० हजार श्लोक- प्रमाण जयधवलाटीका में से उद्धार होकर हिन्दी अनु वादके साथ पाठकोंके सम्मुख उपस्थित है । यहां यह बात उल्लेखनीय है कि अभी तक आ० यतिवृपभको उक्त पांच रचनाओ मं से तिलोय पण्णत्ती और कसायपाहुडचूर्णि दि० भंडारों और दि० सस्थाओ से तथा शेप तीन रचनाएं श्वे० भडारों और श्वे० संस्थाओंसे प्रकाशमे आई हैं । एक कता कुछ अन्य भी प्रमाण उपर्युक्त विवेचनसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि कम्मपयडी आदि चारो ही ग्रन्थों की चूर्णियों के प्रणेता एक ही आचार्य हैं और वे यतिवृषभ हैं, यह भी उक्त ग्रन्थों के ऊपर दिये गये उद्धरणोंसे भलीभाति सिद्ध है। फिर भी पाठक शका कर सकते है और कह सकते हैं कि एक आचार्य अपनी रचनाके भीतर अन्य आचार्यकी रचनाका उल्लेख भी तो इन्हीं शब्दों में कर सकता है ? अतएव ऐसी शंका करनेवालोंके पूर्ण समाधान के लिए उक्त चूर्णियों में से कुछ ऐसे समान शब्दों, पदों और अर्थवाली वाक्य रचनाओ के यहाँ कुछ अवतरण दिये जाते हैं, जिनसे कि उन सबके एक-कट के होने में कोई भी सन्देह नहीं रह जायगा । (१) सर्व-प्रथम तीनो चूणियों के मङ्गलपद्यों पर दृष्टिपात कीजिए । सतकचूर्णिके मङ्गलपद्य इस प्रकार हैं सिद्धो गिद्धू कम्मो सद्धम्मपायगो तिजगण हो । सन्चजगुञ्जयकरी मोहवयणो जयः वीरो || १ || सव्वेवि गणहरिंदा सव्वजगीसेग लद्धसकारा | सव्वजगमज्झयारे सुयकेवलियो जयंति सया ||२|| जिाहर मुहसंभूया गणहर- विरइयसरीरपविभागा । भवियजय हिदयदइया सुयमयदेवी सया जयः ||३|| Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उक्त पद्योंमेसे प्रथम पद्यमे वीर भगवानको दूसरेमे गणधरों और श्रुतकेवलियोंका और तीसरेमे श्रुतमयदेवी जिनवाणीको नमस्कार किया गया है । अव सित्तरीके मङ्गलपद्योंको देखिए-- सिद्धिविबधणबंधुदय-संतखवणविहिदेसिनो सिद्धो । भगव भब्वजणगुरू विक्खायजसो जयइ वीरो ॥१॥ एक्कारस वि गणहरा सन्वे वइगोयरस्स पारगया। सव्वसुयाणं पभवा सुयकेवलिणो जयंति सया ॥२॥ उक्त पद्योंमेसे प्रथम पद्यमे वीर भगवान्को और दूसरे पद्यमे गणधर और श्रुतकेवलियोंको नमस्कार किया गया है । यद्यपि यहाँ पर श्रुतदेवीको पृथक् स्मरण नहीं किया, तथापि 'सव्वसुयाणं पभवा' पदके द्वारा प्रकारान्तरसे श्रुतदेवीका स्मरण कर ही लिया गया है। दोनों मंगलपद्योंमें रेखाङ्कित-पद्य तो एकसे हैं ही, कितु अन्य भी विशेषणपदोंमे अर्थकी दृष्टिसे साम्य है, इस बातको पाठक स्वयं ही अनुभव करेंगे। अव कम्मपयडी के मगल पद्यको दृष्टिगोचर कीजिये जयइ जगहितदमवितहममियगभीरत्थमणुपमं णिउणं । जिणवयणमजियममियं सव्वजणसुहावहं जयइ ॥१॥ यद्यपि इस पद्यमें प्रकटरूपसे जिन-प्रवचन अर्थात् जिनवाणीका जयनाद किया गया है तथापि, 'जिन-वचन' के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वे उपयुक्त दोनो चूणियों के मगल-पद्योंमे वीर जिन और गणधरोंके लिए प्रयुक्त पदोंका आशय रखते हैं, और इस प्रकार अप्रेकटरूपसे इस एक ही पद्य द्वारा जिन-वचनके साथ ही उन प्रवचनोंके जन्मदाता वीर भगवान्का और व्याख्याता गणधर और श्रुतकेवलियोंका भी स्मरण किया गया है, ऐसा समझना चाहिए। (२)अब उक्त तीनों चूर्णियोंके ग्रन्थावतार करने वाले उत्थानिका वाक्योंको देखिए । सतकचूर्णिमें ग्रन्थावतार इस प्रकार किया गया है "सम्मदंसणणाणचरणतवमएहि सत्थेहि अट्ठविहकम्मगंठिं जाइ-जरा-मरणरोगअन्नाणदुक्खबीयभूयं छिदित्ता अजरममरमरुजमक्खयमव्याबाह परमणिबुइसुहं कह नाम भव्वसत्ता पावज ति आयपरहितेसीणं साहूणं पबित्ति । अत्रो अञ्जकालियाणं साहूणं दुस्समाणुभावेणं आयु पलमेहाकाणाइगुणेहि परिहीयमाणाण अणुग्गहत्थं आयरिएण कयं सयपरिमाणणिफन्नणामगं सतग ति पगरणं ।' अब कम्मपयडीचूर्णिकी उत्थानिका देखिये "सम्मदसणणाणचरित्तलक्खणेणं पंडियवीरिय-परिणामेणं परिणता परमकेवलाइसयजुत्ता अणंतपरिणति-णिव्वुइसुहसंपत्तिभागिणो कहं णु णाम भन्दजीवा होहित्ति एस अहिगारो आय-परहिएसीणं साहूणं तन्निस्सेयससाहण-विहाणपरे य Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसायपाहुडसुत्त इमंमि जिणसासणे दुस्समावलेण खीयमाणमेहाउसद्धा-संवेगउजमारंभं अञ्जकालिय साहुजणं अणुग्धेत्तुकामेण विच्छिन्नकम्मपयडिमहागंथत्थसंबोहणत्थं भारद्धं आइरिएणं तग्गुणणामगं कम्मपयडीरागहणी णाम पगरणं । अव सित्तरीचूर्णिकी उत्थानिका देखिये सुह-दुक्ख-तकारणसरूवपरिगणाणामो सव्वजीवाणं सोक्खकारणाऽऽयाणदुक्खकारणपरिच्चागनिमित्तो सव्वदुक्खविमोक्खलक्खणो परमसुहलंभो ति सुहदुक्ख-तकारणनिदेसो कायन्यो । दोसोवसामणाश्रो उत्तरकालं आरोग्गसुहलंभ इव सो सुहो सभावित्रो त्ति पढमममेव दुक्ख-तकारणपरूवणं परमरिस करेंति त्ति पच्छा सुहकारण-सुहाण परूवणं त्ति | ताई च कम्मपगयातिमहागंथेसु भणियाई । ते य गंथा दुरवगाह ति काउं कालदोसोपहयमेहाऽऽउ-बलाणं अजकालियाणं साहूणं अणुग्गहत्थं आयरिएण कयं पमाणणिप्पएणनामयं सत्तरि त्ति पगरणं । पाठक तीनों उत्थानिकाओंकी समता और एकताका स्वय ही अनुभव करेंगे । प्रथम और द्वितीय उत्थानिकामे तो आदिसे अन्ततक कितना अधिक शब्द-साम्य है, यह बतलानेकी आवश्यकता नहीं है, तीसरी उत्थानिकाके प्रारम्भिक भागका भी वही आशय है, जो कि प्रथम और द्वितीय उत्थानिकाओके प्रारम्भिक भागोका है । अन्तिम भाग तो शब्दशः और अर्थशः समान है ही। इस प्रकार उक्त तीनों ग्रन्थोके मंगल-पद्योंकी तथा उत्थानिकाओंकी रचना-शैली और शब्द-विन्याससे स्पष्ट है कि तीनो चूर्णियोंके रचयिता एक ही आचार्य हैं । यह शका की जा सकती है कि उपर्युक्त समता और तुलनासे भले ही तीनों ग्रन्थोंकी चूर्णिके कर्ता एक सिद्ध हो जावे, परन्तु कसायपाहुडचूर्णिके प्रारम्भमे न तो मंगलाचरण ही किया गया है और न कोई उत्थानिका ही दी गई है, फिर उसकी उक्त तीनों चूर्णियोंके साथ समता तुलना या एक्ता कैसे सम्भव है, और कैसे इन तीनोके साथ उसके भी रचयिताके एकत्वकी संभावना की जा सकती है ? इस शंकाका समाधान यह है कि यतः कम्मपयडी, सतक और सित्तरीके रचयिताओंने अपने-अपने ग्रन्थके प्रारम्भमे मगलाचरण किया है और साथ ही अपने-अपने प्रतिपाद्य विपयके सम्बन्धादिको भी प्रकट किया है, अतः उनमें उसी सरणीका अनुसरण चर्णिकारने किया है। किन्तु कसायपाहुडकी रचना अतिसक्षिप्त होनेसे यतः ग्रन्थकारने ही जब प्रारम्भमे न मंगलाचरण ही किया और न सम्बन्ध, अभिधेयादिको भी कहा, तब चर्णिकारने भी ग्रन्थकारका अनुसरण कर न मगल चरण हो किया और न कोई उत्थानिका ही लिखी, और इस प्रकार मूलग्रन्थकी सूत्रात्मक सक्षिप्त रचनाक समान अपनी चूर्णिको भी अतिसक्षिप्त, असंदिग्ध एवं सारवान् पदोस रचा । यही कारण है कि फसायपाहुडचूर्णिकै प्रत्येक वाक्यको उसके टीकाकारोंने सूत्रसंज्ञा दी है और इसलिए उसका प्रत्येक वाक्य 'चूर्णिसूत्र' नामसे ही प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है। १-जोनों ग्रन्थोंके मगलपद्योका अवतार उसके सम्बन्ध-अभिधेयको बतलाते हुए इस प्रकार किया गया है Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (४) 'तस्साइमा गाहा तित्थकरगुणत्थुइपणामपरा पगरणपिंडत्थनिद्देसत्था' (कम्मपयडी, पत्र १) 'तस्स पगरणस्स इमा आइमा गाहा मगलाभिधेयाधारसत्थसंवधत्था' (सतक, पत्र १) 'तस्स मंगलाऽभिधेयणिद्देस-संबंधत्था पढमगाहा,- (सित्तरी, पत्र १) अब उपर्युक्त चारों चूर्णियोंसे कुछ ऐसे उद्धरण दिये जाते हैं, जिनकी शब्द-विन्यासपदावली एक-सी है, तथा भावभंगी और कथन-शैली भी समान है-- (१) सेसाणि जधा सम्मादिट्ठीए बंधे तधा णेदव्याणि । ( कसा० पृ० १७४, सू० १८४) xxx पगइ-ठिति-अणुभागप्पएसपगारेण नेयव्याणि । (सितरी, पृ० ५४/२) (२) एवमणुमाणिय सामित्तं णेदव्वं । ( कसा पृ० ४६१, सू० १६३) एत्थ सामित्तं णेयव्यं । ( सतकचू० पृ० २७/१) (३) आदेसकसारण जहा चित्तकस्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिदणिडालो भिउडि काऊण । ( कसा० पृ० २४, सू० ५६ ) कोहोदए जीवो तप्पजायपरिणो होइ सरीरमवि तिवलियणिडालं पसिन्नमुहं भिउडीमभिवंजइ । ( सतकचू०, पृ०४ ) एदेण अट्ठपदेण । ( कसा० पृ०६२, सू० ८, पृ० १२३, सू० २३६) एएण अट्ठपदेण । ( सतकचू०, पृ० २८/२) (५) सेसाणं पि कम्माणमेदेण बीजपदेण णेदव्यं ( कसा०, पृ० १३६, सू० ३५२) सेसाणं कम्माणमेदेण वीजपदेण अणुमग्गिदव्वं ( कसा० पृ० १३६, सू० ३५२) एतेण वीजेण वक्ष्यमाणं (१) जहन्नगं णेतव्वं जहासंभवं । (सतकचू० पृ० ४८/१) एदाणुमाणिय सेसाणं पि क्सायाणं कायव्यं । (कसा० पृ० ६१०, सू० २४ ) तेणऽणुमाणेणं कायादिगेसु वि मग्गणट्ठाणेसु भाणियव्यं । ( सित्तरी पृ० ५४।२) (७) णाणाजीवहिं भंगविचयो भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं च एदाणि भाणिदव्वाणि । (कसा० ५२६, सू० ४५६) पंचिदियाणं सव्वाणि बंधट्ठाणाणि सविगप्पाणि भाणियव्वाणि । (सित्तरी, पृ० ५३।२) (८) सेसेसु पदेसु जधा पुरिसवेदेण उवट्ठिदस्स अहोणम दिरित्तं तव्थ णाणत्तं । (कसा०, १०८६४, सू० १५५६) एवं जा वितीयफड्डगस्स परूवणा भणिया, सा ततियफड्डगस्स वि अहीण मणतिरिचा भाणियव्वा । ( कम्मप० पृ० २६।१) (8) णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं संकामगा-पुव्वं ति भाणिदव्यं ।। (कसा० पृ० ३६४, सू० १७४) नवरं वावीस-एगवीससंताणं परभवो न भाणियव्वो । (सित्तरी पृ० १२२) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त (१०)- कम्हा ? जेण एगिदियादयो जाव पंचिदिया सव्वे तिरिय त्ति काउं । (सतकचू० पृ०५) किंकारणं ? भएणति-अतिचिरकालद्वातिणि ठाणा थोवा भवंति ति काउं । (कम्मप० पृ० ३३।२) ऊपर दिये गये अवतरणोंसे पाठक स्वयं ही अनुभव करेंगे कि उपर्युक्त चारों चूर्णियाँ एक ही आचार्यको कृतियां हैं। कम्मपयडीचूर्णिको भाषाके विषयमें यह बात ध्यान देनेके योग्य है कि मुद्रित कम्मपयडीचणि में जिस प्रकारको भापा आज उपलब्ध है, वैसी पहले नहीं थी, किन्तु कसायपाहुडचूर्णिकी भापाके ही समान थी। कम्मपयडीके संस्कृतटीकाकार आ० मलयगिरिने अपनी टीकामें-जोकि चूर्णिके आधार पर ही रची गई है जहाँ कहीं अपने कथनकी पुष्टिके लिए चर्णिके कुछ वाक्योंको उद्धृत किया है, उन वाक्योंकी भापा मुद्रित चर्णिकी भापासे भिन्न है और कसायपाहुडचूर्णि की भापाके समान है। प्रा० मलयगिरिके ५०० वर्ष पश्चात् सत्तरहवीं शताब्दीमें उ० यशोविजयजीने कम्मपयडीपर जो विस्तृत संस्कृतटीका रची है, उसमें भी चार-छह स्थलोंपर चूर्णि के उद्धरण दिये हैं, उनकी भी भापा मुद्रित चूर्णिसे भिन्न है । इससे ज्ञात होता है कि आजसे ढाई-तीनसौ वर्षके पहले तक कम्मपयडीचर्णिकी भापा विभिन्न रही है । किन्तु इन ढाई-तीनसौ वोके भीतर ही किसी समय जानबूझकर उक्त चर्णिकी भापा परिवर्तित की गई है, ऐसा निश्चय मुद्रित कम्मपयडीचूर्णिके पालोड़नसे होता है । भाषामे किस प्रकारका परिवर्तन किया गया है, इसके लिए एक नमूना उपस्थित किया जाता है . 'ताओ किट्टीओ पढमसमए केवडियाओ णिव्यत्तेदि' ? इस वाक्यका भाषापरिवर्तन इस प्रकार किया गया है तातो किट्टीतो पढमसमते केवडियातो णिव्यत्तेति ? मुद्रित सम्पूर्णकी भापा इसी प्रकारकी है। यहां पर कम्मपयडीकी दोनों संस्कृतटीकाओं से ऐसे कुछ अवतरण दिये जाते है, जिनसे कि भापा-परिवर्तनका निश्चय पाठकोंको भलीभांति से हो सके(१) मुद्रित पाठ-'पिण्डपगडीतो नामपगडीतो' । (कम्मप० बन्ध० ५० ७२ पृ० १) सस्कृत टीकागतपाठ-'पिडपगईश्रो णामपगईओ' । ( कम्मप० बन्ध० प० ७२ पृ०२) (२) मुद्रितपाठ-'पृहत्तसहो वहत्तवाची'। (कम्मप० वन्ध० प० १६३ पृ० २) सं० टीकागत पाठ-'पुहत्तसदो बहत्तवाड ति। (कम्मप० बन्ध० ५० १६४ पृ० १) (३) मुद्रित पाठ-'बन्धद्वितीतो संतकम्मदिती संखेजगणा' । (कम्मप० संक० प० ५६ पृ०१) म. टीकागत पाठ-'बंधद्धिईयो संतकम्मढिई संखिजगुणा' । (कम्मप० संक० ५० ५६) (१) मुद्रितपाठ-'एत्थ वाघात इति द्वितिघातो' । ( कम्मप० सक० ५० १४६ पृ० १) सं० टीकागतपाठ--'ठियायो एत्थ होड वाघायो । (कम्मप० सक० ५० १४७ पृ० २) (५) मुद्रितपाठ-'तं बारिसे न मिलति ति ण इच्छिजति । ( कम्मप० सत्ता० प० ३७ ) सं० ठोकागत पाठ-'तं आरिसे न मिलह तेण ण इच्छिाई' । (कम्मपसत्ता०प० २७ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना क्या षट्खंडागमसूत्र भी चूर्णिसूत्र हैं ? यद्यपि अन्य किसी भी आचार्यने पखंडागमके सूत्रोंका चूर्णिसूत्रोंके रूपसे उल्लेख किया हो, यह हमारे देखनेमे नहीं आया, तथापि उसकी धवला टीकामें उसके रचयिता स्वयं आ० वीरसेनने एक स्थल पर षट्खंडागमसूत्रका चूर्णिसूत्ररूपसे उल्लेख किया है। षट्खंडागमके चौथे वेदनाखंडमें कुछ वीजपदरूप गाथासूत्र आये हैं, और उन गाथासूत्रोंके व्याख्यात्मक अनेक सूत्रोंकी रचना प्रा० भूतबलिने की है। उन्हीं गाथासूत्रोंकी टीका करते हुए धवलाकार लिखते हैं तिय' इदि वुत्ते ओहिणाणावरणीय--प्रोहिदसणावरणीय-लाहंतराइयाणं अणुभागं पेक्खिदूण अण्णोरणेण समाणाण गहणं । कथं समाणत्तं णव्वदे ? उवरि भएणमाणचुरिणसुत्तादो। (धवला० ताम्र० पृ० ४७३।२) __ अर्थात् गाथा-पठित 'तिय' पदसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभागकी समानताका ज्ञान कैसे होता है ? इस प्रश्न के उत्तरमें कहा गया है कि आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे उक्त समानताका ज्ञान होता है। जिस प्रकार कसायपाहुडके बीजपदरूप गाथासूत्रों पर आ० यतिवृषभने प्रस्तुत चूर्णिसूत्र रचे हैं, ज्ञात होता है उसी प्रकारसे महाकम्मपयडिपाहुडके भी बीजपदरूप गाथासूत्र रहे हैं और उनका अधिकांश भाग धरसेनाचार्यसे भूतबलिको प्राप्त हुआ था और उनका ही आश्रय लेकर षटखंडागमसूत्रोंकी रचना की गई है। यही कारण है कि वीरसेनाचार्यने उन्हें 'चूर्णिसूत्र' रूपसे उल्लेख किया है। ये बीजपदरूप गाथासूत्र किस प्रकारके रहे हैं,यहां उनका एक उद्धरण दिया जाता है सादं जसुच्च-दे कं ते-आ-वे-मणु-अणंतगुणहीणा । मिच्छ के-यं सादं चीरिय-अणंताणु-संजलणा ॥ इस गाथामें विवक्षित कर्म-प्रकृतियोंका एक-एक या दो-दो अक्षररूप पदोंके द्वारा संकेत किया गया है । यथा-'दे' से देवगति, 'क' से कार्मणशरीर और 'ते' से तैजसशरीरका । ऐसी तीन गाथाओंके आधार पर आ० भूतबलिने चौंसठ सूत्रोंकी रचना की है। इस प्रकारके बीजपदात्मक कुछ गाथासूत्र केवल वेदना और वर्गणाखंडमें ही पाये जाते हैं। गुणधर और यतिवृषभका समय ___ जयधवलाके सम्पादकोंने उसके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें आ० गुणधर और यतिवृषभके समयका निर्णय करनेके लिए बहुत कुछ विचार किया है, जिसे यहां दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है । उस सबको ध्यान में रखते हुए मेरे विचारसे-जैसा कि प्रस्तावनाके प्रारम्भमें बतलाया गया है-आ० गुणधर धरसेनाचार्यसे बहुत पहले उस समय हुए हैं, जव कि महाकम्मपयडिपाहुडका पठन-पाठन अविच्छिन्न धारा-प्रवाहसे चल रहा था । और इस कारणसे उनका समय वी०नि० ६८३ से पीछे न होकर लगभग दो सौ वर्ष पूर्व होना चाहिए। गुणधराचार्यके समयका ठीक-ठीक निश्चय करनेके लिए यद्यपि हमारे पास अभी समुचित साधन नहीं हैं, तथापि आ० अर्हद्वलि-द्वारा स्थापित संघोंमेंसे एकका नाम 'गुणधर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त संघ' रखा जानेसे इतना तो सुनिश्चित है कि वे अर्हद्वलिसे पहले हो चुके हैं । यतः अहंदुबलिका समय प्राकृत पट्टावलीके अनुसार वी० नि० ५६५ या वि० सं० ६५ सिद्ध है, अतः गुणधराचार्यका समय उनसे पूर्व सिद्ध होता है । गुणधरकी परम्पराको ख्याति प्राप्त करने में लगभग सौ वर्ष लगना स्वाभाविक है, अतएव पट्खडागमकार श्री धरसेनाचार्यसे कसायपाहुडके प्रणेता श्री गुणधराचार्य लगभग दो सौ वर्ष पूर्ववर्ती सिद्ध होते है और इस प्रकार उनका समय विक्रमपूर्व एक शताव्दी सिद्ध होता है । आ० यतिवृषभने अपनी तिलोयपरणत्तिमें भ० महावीरके निर्वाणसे लेकर एक हजार वर्ष तक होनेवाले राजाओंके कालका उल्लेख किया है, अतः उसके पूर्व तो उनका होना सम्भव वहीं है । और यत. विशेपावश्यकभाष्यकार श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्यमें चूर्णिकार यतिवृपभके आदेशकपाय-विपयक मतका उल्लेख किया है और विशेपॉवश्यकभाष्यकी रचनाके शक सं० ५३१ (वि० सं० ६६६) में होनेका उल्लेख मिलता है, अतः वे वि० स० ६६६ के बादके भी विद्वान् नहीं हो सकते । ... आ० यतिवृषभ पूज्यपादसे पूर्व में हुए है । इसका कारण यह है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धिमें उनके एक मत-विशेषका उल्लेख किया है 'अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादश भागा न दत्ता। अर्थात् जिन प्राचार्योंके मतसे सासादन गुणस्थानवी जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मतकी अपेक्षा बारह बटे चौदह भाग स्पर्शन-क्षेत्र नहीं कहा गया है। . यहां यह बात ज्ञातव्य है कि सासादनगुणस्थानवाला यदि मरे तो नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है, यह आ० यतिवृपभका ही मत है ऐसा लब्धिसार-क्षपणासारके कर्ता आ० नेमिचन्द्रने स्पष्ट शब्दोंमे कहा है. जदि मरदि सासणो सो णिरय-तिरिक्खं णरं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेणं ॥ ३४६ ॥ आदेसकसाए। जहा चित्तकम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिदणिडालो भिउडि काऊण' यह कसायपाहुडके पेज्जदोसविहत्ती नामक प्रथम अधिकारका ५९ वा सूत्र है। इसका अर्थ है कि क्रोधके कारण जिसकी भकुटि चढी हुई है और ललाटपर तीन वली पड़ी हुई हैं, ऐसे क्रोधी मनुप्यको चित्रमें लिखित आकार प्रादेशकपाय है। किन्तु विगेपावश्यकभाष्यकार कहते हैं कि अन्तरगम कपायका उदय नही होने पर भी नाटक आदि में केवल अभिनयके लिए जो कृत्रिम फ्रोध प्रकट करते हुए क्रोधी पुरुषका स्वाग धारण किया जाता है, वह आदेशकपाय है। इस प्रकारसे प्रादेशकपायका स्वरूप वतला करके भाष्यकार कसायपाहुचरिणमें निर्दिष्ट स्वरुपका 'केइ' कह करके इस प्रकारसे उल्लेख करते है आएसओ कसाश्रो कइयवकयभिउडिभंगुराकारो। केई चित्ताइगो ठवणाणत्यंतरो सोऽय ।।२६८१|| अर्थात् कितने ही प्राचार्य क्रोधीके चित्रादिगत प्राकारको प्रादेशकपाय महते हैं, परन्तु यह स्थापनाकपायसे भिन्न नही है, इसलिए नाटकादिके नकली शोधोके स्वागको ही श्रादेगापाय मानना चाहिए। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५६ अर्थात् यतिवृषभाचार्यके वचनानुसार यदि सासादनगुणस्थानवर्ती मरता है, तो नियमसे देव होता है । ० यतिवृषभने कसायपाहुडकी चूर्णिमें अपने इस मतको इस प्रकार से व्यक्त किया है आसाणं पु गदो जदि मरदि, ण सको गिरयगदि तिरिक्खगदिं मंगुसगदिं वागंतु । शियमा देवरादिं गच्छदि । ( कसा० अधि० १४, सू० ५४४ ) इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है । इन उल्लेखोंसे स्पष्ट रूपसे यह सिद्ध है कि आ० यतिंवृपभ ० पूज्यपाद से पहले हुए हैं । यतः पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दिने वि० सं०५२६ मे द्रविड़ संघकी स्थापना की है और यतिवृषभके मतका पूज्यपादने उल्लेख किया है, अतः उनका वि० सं० ५२६ के पूर्व होना निश्चित है । इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि यतिवृषभका समय विक्रमकी छठी शताब्दिका प्रथम चरण है । 7 कसा पाहुडका अन्य ग्रन्थकारों पर प्रभाव कसायपाहुडकी रचनाके पश्चात् रचे गये -ग्रन्थोंका आलोड़न करनेसे ज्ञात होता है कि वह अपने विपयका इतना सुसम्बद्ध, गहन होते हुये भी सुगम एवं अनुपम ग्रन्थ है कि परवर्ती ग्रन्थकारोंने उसके कई विषयों का स्पर्श भी नहीं किया है । हा, गाथा - सूत्रों से सूचित बन्धका भूतबलि ने अपने महाबन्धमें बन्ध-संक्रमण और उदय - उदीरणाका शिवशर्नने अपनी कम्मपयडीमें और सम्यक्त्व, देशसयम-सयमलब्धि तथा क्षपणाका नेमिचन्द्रने क्रमशः अपने लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ मे अवश्य ही विभाषात्मक विवेचन किया है । किन्तु उसके प्रेयोद्वेषविभक्ति, उपयोग, चतुःस्थान और व्यजन नामक अधिकारोंपर किसी परवर्ती ग्रन्थकारने कुछ अधिक प्रकाश डालकर विवेचन किया हो, यह हमारे देखने में नहीं आया । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि गुणधराचार्य के पश्चात् पेज्जदोसपाहुड-विषयक उक्त अधिकारोंका ज्ञान अधिकाशमें विलुप्त ही हो गया । जो कुछ भी तद्विषयक थोड़ा-बहुत ज्ञान अवशिष्ट रहा था, उसे पीछे होने वाले आचार्योंने कसायपाहुडका टीकाकार बन करके अपनी-अपनी रचनाओं में निबद्ध कर दिया । यही कारण है कि इस ग्रन्थ पर विभिन्न आचार्योंने चूर्णि उच्चारणावृत्ति, पद्धति, चूडामणि और जयधवला नामसे प्रसिद्ध अनेक भाष्य और टीका- ग्रन्थ रचे, जिनका कि प्रमाण दो लाख श्लोकों के लगभग है । कसायपाहुडके जिन विषयों पर परवर्ती ग्रन्थकारोने अपनी रचनाओं में कुछ अधिक प्रकाश डाला है, उनमें भी इसकी अनेक गाथाएं ज्यों की त्यों या साधारण से पाठ भेदके साथ पाई जाती है, जिनकी सख्या कम्मपयडीमें १७ और लब्धिसार- क्षपणासार में १५ है । जिनका विवरण इस प्रकार है - कसायपाहुडकी गाथाङ्क २७ से लेकर ३६ तककी १३गाथाएँ तथा १०४,१०७, १०८, १०६ ये चार गाथाऍ कम्मपयडीमे गाथा ११२ से लेकर १२४ तक, तथा ३३३ से लेकर ३३६ तक क्रमशः पाई जाती है । इसी प्रकार कसा पाहुडकी ६७, ६८, १०३, १०८, ११०, १३८, १३६, १४३, १४४, १४६, १४८, १५२, १५३, १५४ और १५६ नम्बर वाली १५ गाथाएँ क्रमशः लब्धिसार-क्षपणासारमें ६६, १०१, १०२, १०६, ११०, ४३५, ४३६, ४५०, ४३८, ४५१, ४५२, ३६८, ३६६, ४०० और ४०१ नम्बर पर पाई जाती हैं। श्र० नेमिचन्द्र ने अपने लब्धिसार-क्षपणासारमें कसायपाहुडकी उक्त गाथाओं को ज्योंका त्यों अपनानेके अतिरिक्त अनेक गाथाओं का आशय लेकर भी अनेक गाथाएँ रची हैं। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त इसके अतिरिक्त उक्त अधिकारों पर रचे हुए यतिवृपभके चूर्णिसूत्रों के आधार पर प्रायः शेष सर्व ही गाथाओंकी रचना की है। यदि सीधे शब्दोंमें कहा जाय तो यह कह सकते हैं कि सचूर्णि कसायपाहुडके सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमलब्धि नामक तीन अधिकारोंका लब्धिसारमें तथा क्षपणाधिकारका क्षपणासारमें सार खींच करके रख दिया है और इस प्रकार उनका उक्त ग्रन्थ अपने नामको ही सार्थक कर रहा है। इसी प्रकार कसायपाहुडके क्षपणाधिकारके गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रोंके आधार पर माधवचन्द्र त्रैविद्यने अपने संस्कृत क्षपणासारकी रचना की है । यह ग्रन्थ प्रायः चूणिसूत्रोंके छायात्मक संस्कृत गद्य में यथासंभव और यथावश्यक पल्लवित एवं परिवर्धित करते हुए लिखा गया है। अभी कुछ दिनों पूर्व ही इसकी प्रतियां जयपुरके तेरहपंथी बड़ा मन्दिरके शास्त्रभंडारसे उपलब्ध हुई हैं । ग्रन्थके सामने न होनेसे इच्छा होते हुए भी हम उसके यहां पर तुलनात्मक उद्धरण देनेसे वंचित हैं। .. कसायपाहुडकी मूल गाथाओं और उसके चूर्णिसूत्रोंका श्रीचन्द्रर्षि महत्तरने अपने पंचसंग्रहमें यथास्थान भरपूर उपयोग किया है, इसे उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है । पंचसग्रहका प्रारम्भ करते हुए उन्होंने स्वयं ही लिखा है 'सयगादि पंच गंथा जहारिहं जेण एत्थ संखित्ता ।' इसकी टीका करते हुए आ० मलयगिरिने ही लिखा है'पञ्चानां शतक-सप्ततिका-कषायप्राभूत-सत्कर्म-कर्मप्रकृविलक्षणानां ग्रन्थानां' अर्थात् मैंने अपने इस पंचसंग्रहमें शतक-सप्ततिका-कषायप्राभूत सत्कर्मप्राभृत और कर्मप्रकृति नामक पांच ग्रन्थोंका संक्षेपसे यथायोग्य वर्णन किया है। इस उल्लेखसे कसायपाहुडका महत्त्व और प्राचीनत्व दोनों ही स्पष्टरूपसे सिद्ध हैं। विषय-परिचय संसार-परिभ्रमणका कारण यह तो सभी आस्तिक मतवाले मानते हैं कि यह जीव अनादिकालसे संसारमें भटक रहा है और जन्म-मरणके चक्कर लगाते हुए नाना प्रकारके शारीरिक और मानसिक कष्टोंको भोग रहा है । परन्तु प्रश्न यह है कि जीवके इस ससार-परिभ्रमणका कारण क्या है ? सभी आस्तिककवादियोंने इस प्रश्न के उत्तर देनेके प्रयास किया है। कोई ससार-परिभ्रमणका कारण अष्टको मानता है, तो कोई अपूर्व, दैव, वासना, योग्यता आदिको बतलाता है। कोई इसका कारण पुरातन कर्मोंको कहता है, तो कोई यह सब ईश्वर-कृत मानकर उक्त प्रश्नका समाधान करता है । पर विचारकोंने काफी ऊहापोहके वाद यह स्थिर किया कि जब ईश्वर जगत्का कर्ता ही सिद्ध नहीं होता तब उसे संसार-परिभ्रमणका कारण भी नहीं माना जा सकता, और न उसे सुख-दु.खका दाता ही मान सकते है । तब फिर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ये अदृष्ट, देव, कर्म आदि क्या वस्तु है ? संक्षेपमें यहां पर उनका कुछ विचार किया जाता है। नैयायिक वैशेषिक लोग प्रप्टको आत्माका गुण मानते हैं। उनका कहना है कि हमारे किसी भी भले या बुरे कार्यका संस्कार हमारी आत्मा पर पड़ता है और उससे अात्माम Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६१ श्रदृष्ट नामक गुण उत्पन्न होता है । यह तब तक श्रात्मामें बना रहता है जब तक कि हमारे भले या बुरे कार्यका फल हमें नहीं मिल जाता है । सांख्य लोगों का कहना है कि हमारे भले-बुरे कार्योंका संस्कार प्रकृति पर पड़ता है और इस प्रकृति-गत संस्कार से सुख-दुःख मिला करते हैं । बौद्धों का कहना है कि हमारे भले-बुरे कार्योंसे चित्तमें वासनारूप एक संस्कार पड़ता है जो कि आगामी कालमें सुख-दुःखका कारण होता है । इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकोंका इस विषय में प्रायः एक मत है कि हमारे भले-बुरे कार्योंसे आत्मामें एक संस्कार उत्पन्न होता है और यही हमारे सुख-दुःख, जीवन-मरण और संसार-परिभ्रमणका कारण है । परन्तु जैन दर्शनकी यह विशेषता है कि जहां वह भले-बुरे कार्योंके प्रेरक विचारोंसे आत्मामें संस्कार मानता है, वहां वह उस सरकार के साथ ही एक विशेष जातिके सूक्ष्म पुद्गलों का आत्मासे सम्बन्ध होना भी मानता है । इसी बातको श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने अपने प्रवचनसार में इस प्रकार कहा हैपरिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं गाणावरणादिभावेहिं ॥ ६५ ॥ जब राग-द्वेषसे युक्त आत्मा शुभ या अशुभ कार्य में परिणत होता है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूपसे परिणत होकर आत्मामें प्रवेश करती है । कहनेका साराँश यह है कि किसी भी भले या बुरे कार्यको करने के लिए आत्मा के जो अच्छे या बुरे भाव होते हैं, उनका निमित्त पाकर सूक्ष्म पुद्गल कर्मरूपसे परिणत होकर आत्मासे बँध जाते है और कालान्तर में वे सुख या दुःखरूप फल देते है । कर्मबन्धसे जीव संसार-चक्रमें किस प्रकार परिभ्रमण करता है, इसका विवेचन श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने पंचास्तिकाय में इस प्रकार किया है जो खलु संसारत्थो जीवो ततो दु होदि परिणामो | परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिंदु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२६ ॥ जो जीव संसार में स्थित हैं, उसके राग-द्वेषरूप परिणाम उत्पन्न होते हैं । उन रागद्वेषरूप परिणार्मोके निमित्तसे नये कर्म बंधते हैं । कर्मों के उदयसे देव -मनुष्यादि गतियोंमें जन्म लेना पड़ता है । गतियोंमें जन्म लेने पर देह प्राप्त होता है । देहकी प्राप्तिसे इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । इन्द्रियोंसे विषयों का ग्रहण होता है । विषयोंके ग्रहणसे राग और द्वे परूप परिणाम होते हैं । इस प्रकार संसार-चक्रमें परिभ्रमण करते हुए जीवके राग-द्वेषरूप भावोंसे कर्म-बन्ध और कर्म - बन्धसे राग-द्वेषरूप भाव होते रहते हैं । उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि संसारके परिभ्रमणका कारण कर्मबन्ध है और कर्मबन्धका कारण राग-द्वेष है। राग-द्वेषका ही दूसरा नाम कषाय है । राग-द्वेषका भी मुल कारण मोह या अज्ञान है । आत्माके वास्तविक स्वरूपकी जानकारी या विपरीत जानकारीका नाम मोह है । इस प्रकार राग-द्वेष और मोह ही ससार - परिभ्रमण के कारण हैं और इनके कारण ही जीव नाना प्रकारके कष्टोंको भोगा करता है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त कर्मका स्वरूप और कर्मवन्धके कारण कर्म शब्दका अर्थ क्रिया है, अर्थात् जीव (प्राणी)के द्वारा की जानेवाली क्रियाको कर्म कहते हैं । कर्म शब्दका ऐसा व्युत्पत्ति-फलित अर्थ होनेपर भी जैन-मान्यताके अनुसार इतना विशेष जानना आवश्यक है कि संसारी जीवके प्रति समय जो मन, वचन और कायकी परिस्पन्द (हलन-चलन) रूप क्रिया होती है, उसे योग कहते है और योगके निमित्तसे वे सूक्ष्म पुद्गल जिन्हें कि कर्म-परमाणु कहते है आत्माकी ओर आकृष्ट होते हैं और आत्माके राग-द्वेपरूप कपायका निमित्त पाकर आत्मासे संबद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार कर्म-परमाणुओको आत्माके भीतर लानेका कार्य योग करता है और उसका आत्म-प्रदेशोंके साथ बन्ध करानेका कार्य कपाय अर्थात् आत्माके राग-द्वेषरूप भाव करते हैं । जैन-परिभाषाके अनुसार मन-वचन-कायकी चचलतासे कर्मरूप सूक्ष्म परमाणुओंका आत्माके भीतर आना आस्रव कहलाता है और रागद्वेषरूप कषायोंके द्वारा उनका आत्म-प्रदेशोंके साथ संबद्ध होना बन्ध कहलाता है । उपयुक्त विवेचनका सार यह है कि आत्माकी योगशक्ति और कषायं ये दोनों ही कर्म-बन्धके कारण हैं । यदि आत्मासे कषाय दूर हो जाय, तो योगके रहने तक कर्म-परमाणुओंका आगमन तो अवश्य होगा,किन्तु कषायके न होनेके कारण वे आत्माके भीतर ठहर नहीं सकेंगे। दृष्टान्तके तौर पर योगको वायुकी, कषायको गोंदकी, आत्माको दीवारकी और कर्म-परमाणुओंको धूलिकी उपमा दी जा सकती है । यदि दीवार पर गोंदका लेप लगा हो, तो वायुके द्वारा उड़नेवाली धूलि दीवार पर आकर चिपक जाती है। यदि दीवार निर्लेप और सूखी हो, तो वायुके द्वारा उड़ कर आनेवाली धूलि दीवारपर न चिपक कर तुरन्त झड़ जाती है। यहाँ धूलिका हीनाधिक परिमाणमें उड़कर आना वायुके वेग पर निर्भर है । यदि वायुका वेग तीव्र होगा, तो धूलि भी अधिक भारी परिमाणमें उड़ती है और यदि वायुका वेग मन्द होगा, तो धूलि भी कम परिमाणमें उड़ती है । । इसी प्रकार दीवार पर धूलिका कम या अधिक दिनों तक चिपके रहना उस पर लगे गोंदके लेप आदिकी चिपकानेवाली शक्तिकी हीनाधिकता पर निर्भर है । यदि दीवार केवल पानीसे गीली है, तो उसपर लगी धूलि जल्दी झड़ जाती है और यदि तेल या गोंदका लेप दीवारपर लगा हो, तो बहुत दिनों में झड़ती है। यही बात योग और कषायके बारेमें जानना चाहिए। योगशक्तिकी तीव्रता और मन्दताके अनुसार आकृष्ट होनेवाले कर्म-परमाणुओंका परिमाण भी हीनाधिक होता है । यदि योगशक्ति उत्कृष्ट होती है तो कर्मपरमाणु भी अधिक संख्यामें आत्माकी ओर श्राकृष्ट होते हैं और यदि योगशक्ति मध्यम या जघन्य होती है तो कर्मपरमाणु भी तदनुसार उत्तरोत्तर अल्प परिमाणमें आत्माकी ओर आकृष्ट होते हैं। इसी प्रकार कषाय यदि तीव्र होती है तो कर्म-परमाणु आत्माके साथ अधिक दिनों तक बंधे रहते हैं और फल भी तीव्र देते है । और यदि कषाय मन्द होती हैं, तो परमाणु कम समय तक आत्मासे वधे रहते है और फल भी कम देते हैं । यद्यपि इसमें कुछ अपवाद है, तथापि यह एक साधारण नियम है । कर्मवन्धके भेद इस प्रकार योग और कषायके निमित्तसे आत्माके साथ कर्म-परमाणुओका जो बन्ध होता है वह चार प्रकारका होता है--प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्ध । प्रकृतिनाम स्वभावका है । आनेवाले कर्मपरमाणुओंके भीतर जो आत्माके ज्ञान-दर्शनादिक गुणों' के घातनेका स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। स्थिति नाम कालकी मर्यादाका है । कर्म-परमाणुओंके आने के साथ ही उनकी स्थिति भी बन्ध जाती है, कि ये अमुक समय तक Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ प्रस्तावना आत्माके साथ बधे रहेंगे। कर्मोंके फल देनेकी शक्तिको अनुभाग कहते हैं । कर्म-परमाणुओंमें आनेके साथ ही तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्ति भी पड़ जाती है, इसीको अनुभागबन्ध कहते हैं । आनेवाले कर्म-परमाणुओंके नियत परिमाणमे आत्मासे संबद्ध होनेको प्रदेशबन्ध कहते है। इन चारों प्रकारोंके बन्धोंमेसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग है और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्धका कारण कपाय है । अर्थात् आत्माके भीतर आने वाले कर्म-परमाणुओंमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना और उनका हीनाधिक सख्यामें बन्ध होना ये दो काम योग पर निर्भर हैं। तथा उन्हीं कर्म-परमाणुओं का आत्माके साथ कम या अधिक काल तक ठहरे रहना और तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्तिका पड़ना ये दो काम कषायके आश्रित है। प्रकृतिबन्ध-उपर्युक्त चारों प्रकारके वन्धोंमेंसे प्रकृतिबन्यके आठ भेद हैं-१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नाम,७ गोत्र और ८ अन्तराय। ज्ञानावरणकर्म आत्माके ज्ञानगुणका आवरण करता है, अर्थात् उसके ज्ञानगुणको ढक देता है, या प्रगट नहीं होने देता । इस कर्मके निमित्तसे ही कोई अल्प-ज्ञानी और कोई विशेप-ज्ञानी देखा जाता है । दर्शनावरणकर्म दर्शनगुणका अर्थात् देखनेकी शक्तिका आवरण करता है। वेदनीयकर्म आत्माको सुख या दुःख का वेदन कराता है । आत्मामें राग, द्वष और मोह को उत्पन्न करनेवाले कर्मको मोहनीय कहते हैं। इस कर्मके उदयसे प्रथम तो आत्माको यथार्थ सुखके मार्गका भान ही नहीं होता । दूसरे यदि सत्यार्थ मार्गका भान भी हो जाय, तो उसपर वह चलने नहीं देता । मनुष्य, पशु ओर जीव-जन्तु आदि प्राणियोंके शरीरमें नियत काल तक रोक कर रखने वाले कर्मको आयुकर्म कहते हैं। आयुकर्मके उदयको जन्म और उसके विच्छेदको मरण कहते हैं। नाना प्रकारके भले-बुरे शरीर, उनके विविध अग और उपांगों आदिकी रचना करनेवाले कर्मको नामकर्म कहते हैं। अच्छे या बुरे संस्कारों वाले कुल, वंश आदिमें उत्पन्न करनेवाले कर्मको गोत्रकर्म कहते हैं । इच्छित या मनोऽभिलपित वस्तुकी प्राप्तिमें विघ्न करने वाले कर्मको अन्तराय कहते हैं। इन आठ कर्मोंमेंसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म कहलाते हैं, क्योंकि ये चारों ही आत्माके ज्ञानदर्शनादि अनुजीवी गुणोंका घात करते हैं। शेष चार अघातिया कर्म कहलाते हैं, क्योंकि वे आत्माके गुणोंका घात करनेमे असमर्थ हैं। घातिया कर्मों में भी दो विभाग हैं-देशघाती और सर्वघाती । जो कर्म आत्माके गुणका एक देश घात करता है, वह देशघाती कहलाता है और जो आत्म-गुणका पूर्णरूपसे घात करता है, वह सर्वघाती कहलाता है। अघातिया कर्मोमें भी दो भेद हैं-पुण्यकर्म और पापकर्म। चारों घातियाकर्म पापरूप ही होते हैं । अघातिया कर्मों में साता वेदनीय, शुभ आयु, नामकर्मकी शुभ प्रकृतियां और उच्चगोत्र पुण्यकर्म है, और शेष प्रकृतियां पापकर्म है। • उपर्युक्त आठ कर्मों में जो मोहनीय कर्म है, वह राग, द्वेष और मोहका जनक होनेसे सर्व कर्मोंका नायक माना गया है, इसलिए सबसे पहले उसके दूर करनेका ही महर्षियोंने उपदेश दिया है । मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-एक दर्शन मोहनीय और दूसरा चारित्र मोहनीय । दर्शनमोहनीय कर्म जीवको आत्मस्वरूपका यथार्थ दर्शन नहीं होने देता, उसे संसारकी मायामें मोहित करके रखता है, इसलिए उसे राग, द्वेष और मोहकी त्रिपुटीमे 'मोह' नामसे पुकारते हैं। दूसरा भेद जो चारित्रमोहनीयकर्म है, उसके उदयसे जीव सांसारिक वस्तुओंमेसे किसीको भला जान कर उसमें राग करता है और किसीको बुरा जानकर उससे द्वेष करता है । क्रोध, मान, माया और लोभ रूप जो चारों कपाय लोकमें प्रसिद्ध है, वे इसी कर्मके उदयसे होती हैं । इन चारों कपायोको राग और उपमे विभाजित किया गया है। चूर्णिकारने विभिन्न नयोकी अपेक्षा कपा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कसायपाहुडसुत या विभाजन राग और द्वेषमें किया है। मोटे तौर पर क्रोध और मानको द्वेपरूप माना गया है, क्योंकि, इनके करनेसे दूसरों को दुःख होता है । तथा माया और लोभको रागरूप माना गया है, क्योंकि इन्हें करके मनुष्य अपने भीतर सुख, आनन्द या हर्षका अनुभव करता है । प्रस्तुत ग्रन्थ पन्द्रह अधिकारों में विभक्त है और उनमें राग-द्वेष- मोहका तथा कपायों की बन्ध, उदय और सत्त्व आदि विविध दशाओं का विस्तृत व्याख्यान किया गया है। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १ पेजदोसविभक्ति – इस अधिकारमें कषायका अनेक दृष्टियोंसे राग-द्वेषमें विभाग कर यह बतलाया गया है कि राग-द्वेष और कषाय क्या वस्तु हैं, इनके कितने भेद हैं, वे किसके होते हैं,. कब होते हैं और होने पर वे कितनी देर तक रहते हैं । इनका अन्तरकाल क्या है और इनके धारण करनेवाले जीव किस प्रकारके हीनाधिक परिमाण में पाये जाते हैं । विभक्ति महाधिकार — इस अधिकार में वस्तुतः प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक ये छह अवान्तर अधिकार है । - प्रकृतिविभक्ति - योग के निमित्तसे आत्मा के भीतर आनेवाले पुद्गल कर्मोमें जो ज्ञान-दर्शनादि गुणोंके रोकने या श्रावरण करनेका स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृति कहते हैं । विभक्ति शब्दका अर्थ विभाग है । आठ कर्मों में से प्रस्तुत ग्रन्थमें केवल एक मोहनीय कर्मका ही वर्णन किया गया है । मोहनीय कर्मके मूल भेद दो और उत्तरभेद अट्ठाईस बतलाये गये हैं, उनका एक-एक रूपसे तथा अट्ठाईस, सत्ताईस आदि प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानों की अपेक्षा इस अधिकार में विस्तृत विवेचन किया गया है । २ स्थितिविभक्ति-आने वाले कर्म आत्मा के भीतर जितने समय तक विद्यमान रहते हैं, उनकी काल-मर्यादाको स्थिति कहते हैं । प्रस्तुत अधिकार में मोहनीय कर्मके अट्ठाईस भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन अनेक अनुयोगद्वारोंसे किया गया है। ३ अनुभागविभक्ति - कर्मों के फल देनेकी शक्तिको अनुभाग कहते हैं । फल देनेकी तीव्रता और मन्दताकी अपेक्षा अनुभाग लता, दारु (काष्ठ) अस्थि (हड्डी) और शैल के रूपसे चार प्रकारका होता है | लता नाम बेल का है । जिस प्रकार लता बहुत कोमल होती है, उससे काष्ठ अधिक कठोर होता है, काष्ठसे हड्डी और भी कठोर होती है और पत्थरकी शिला सबसे † मोहकर्मके मूलमें दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति । चारित्रमोहनीयकर्मके भी दो भेद है - कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। कषायवेदनीयके १६ भेद है - प्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ श्रौर संज्वलनक्रोध, मान, माया, लोभ । नोकषायवेदनीयके ε भेद है - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद श्रौर नपु सकवेद । इस प्रकार सर्व मिलाकर चारित्रमोहनीयकर्मके २५ भेद होते है और दोनो के भेद मिलाकर मोहकर्मके २८ भेद हो जाते हैं । इनमेंसे श्रनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार प्रकृतिया श्रौर दर्शनमोहकी तीन प्रकृतिया, ये सात प्रकृतिया आत्माके सम्यग्दर्शन गुरगका घात करती हैं और इन सातोंके प्रभाव होनेपर आत्माका उक्त गुण प्रकट होता है । इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणकपाय देशसयमकी, प्रत्याख्यानावररणकपाय सकलसयमकी श्रीर संज्वलनकपाय यथास्यातसयमकी घातक हैं । नवो नोकषाय उत्पन्न हुए चारित्रके भीतर प्रतीचार, मल या दोष उत्पन्न करते रहते है । जब श्रात्माके भीतरसे कपाय और नोकपायका प्रभाव हो जाता है, तब श्रात्मामें वीतरागतारूप शान्त दशा प्रकट हो जाती है । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अधिक कठोर होती है, उसी प्रकारसे कर्मों के भीतर भी हीनाधिकरूपसे चार प्रकारके फल देनेकी शक्ति पाई जाती है। अनुभागविभक्तिमें मोहकमके अनुभागका उक्त चारों प्रकारोंसे वर्णन किया गया है। प्रदेशविभक्ति- एक समयमें आत्माके भीतर आनेवाले कर्म-परमाणुओंका तत्काल सर्व कर्मीमें विभाजन हो जाता है । उसमेंसे जितने कर्म-प्रदेश मोहनीयकर्मके हिस्से में आते हैं, उनका भी विभाग उसके उत्तर भेद-प्रभेदों में होता है। मोहकर्मके इस प्रकारके प्रदेश-सत्त्वका वर्णन इस प्रदेशविभक्तिनामक अधिकार में अनेक अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा किया गया है। क्षीणाक्षीणाधिकार-किस स्थितिमें अवस्थित कर्म-प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्पण, संक्रमण और उदयके योग्य एवं अयोग्य होते हैं, इस बातका विवेचन क्षीणाक्षीण अधिकारमें किया गया है। कर्मोंकी स्थिति और अनुभागके बढ़नेको उत्कर्पण, घटनेको अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूपसे परिवर्तित होनेको संक्रमण कहते हैं । सत्तामें अवस्थित कर्मका समय पाकर फलप्रदान करनेको उदय कहते हैं । जो कर्म-प्रदेश उत्कर्पण, अपकर्पण, संक्रमण और उदयके योग्य होते हैं, उन्हें क्षीणस्थितिक कहते हैं, तथा जो कर्म-प्रदेश उत्कर्पण, अपकर्पण, संक्रमण और उदयके योग्य नहीं होते हैं उन्हें अक्षीणस्थितिक कहते हैं । प्रस्तुत अधिकारमें इन दोनों प्रकारके कर्मोंका वर्णन किया गया है। स्थित्यन्तिक-अनेक प्रकारकी स्थितियोंको प्राप्त होनेवाले कर्म-परमाणुओंको स्थितिक या स्थित्यन्तिक कहते हैं । ये स्थिति-प्राप्त कर्म-प्रदेश उत्कृष्टस्थिति, निपेकस्थिति. यथानिषेकस्थिति और उदयस्थितिके भेदसे चार प्रकारके होते हैं । जो कर्म बंधने के समयसे लेकर उस कर्मकी जितनी स्थिति है, उतने समय तक सत्तामे रहकर अपनी स्थितिके अन्तिम समयमें उदयको प्राप्त होता है, उसे उत्कृष्टस्थितिप्राप्त कर्म कहते है । जो कर्मप्रदेश बन्धके समय जिस स्थितिमें निक्षिप्त किया गया है, तदनन्तर उसका उत्कर्षण या अपकर्पण होनेपर भी उसी स्थितिको प्राप्त होकर जो उदय-कालमें दिखाई देता है, उसे निपेकस्थितिप्राप्त-कर्म कहते हैं । बन्धके समय जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है यदि वह उत्कर्पण और अपकर्षण न होकर उसी स्थिति के रहते हुए उदयमे आता है, तो उसे यथानिषेकस्थिति-प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म जिस किसी स्थितिको प्राप्त होकर उदयमें आता है, उसे उदय स्थिति-प्राप्त कर्म कहते हैं । प्रकृत अधिकारमें इन चारों ही प्रकारोंके कर्मोंका वर्णन किया गया है। ____ उपर्युक्त छह अधिकारोंमेंसे प्रारम्भके दो अधिकारोंका वर्णन स्थितिविभक्ति नामक दूसरे अधिकारमें किया गया है और शेष चारों अधिकारोंका अन्तर्भाव अनुभागविभक्तिमें किया गया है । अतएव दूसरे अधिकारका नाम स्थितिविभक्ति और तीसरे अधिकारका नाम अनुभागविभक्ति जानना चाहिए। ४ वन्ध-अधिकार-जीवके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योगके निमित्तसे पुद्गल-परमाणुओंका कर्मरूपसे परिणत होकर जीवके प्रदेशोंके साथ एक क्षेत्ररूपले बंधनेको बन्ध केहते हैं । बन्ध के चार भेद पहले बतलाये जा चुके हैं। प्रकृत अधिकारमे उनका वर्णन किया गया है। ५ संक्रम-अधिकार-बंधे हुए कर्मोंका यथासभव अपने अवान्तर भेदोंमें संक्रान्त या परिवर्तित होनेको सक्रम कहते है। बन्धके समान संक्रम के भी चार भेद हैं-१प्रकृतिसक्रम २ स्थितिसंक्रम, ३ अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम । एक कर्म-प्रकृतिके दूसरी प्रकतिरूप हो Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त जानेको प्रकृतिसंक्रम कहते हैं। जैसे सातावेदनीयका असातावेदनीयरूपसे परिणत हो जाना । विवक्षित कर्मकी जितनी स्थिति पड़ी थी, परिणामोंके वशसे उसके हीनाधिक होनेको या अन्य प्रकृतिकी स्थितिरूपसे परिणत हो जाने को स्थितिसंक्रम कहते है। सातावेदनीय आदि जिन प्रकृतियों में जिस जातिके सुखादि देनेकी शक्ति थी, उसके हीनाधिक होने या अन्य प्रकृतिके अनुभागरूपसे परिणत होनेको अनुभागसक्रम कहते हैं । विवक्षित समयमे आये हुए कर्मपरमाणुओंमेसे विभाजनके अनुसार जिस कर्म-प्रकृतिको जितने प्रदेश मिले थे, उनके अन्य प्रकृति-गत प्रदेशोंके रूपसे संक्रान्त होनेको प्रदेशसंक्रमण कहते है। इस अधिकारमें मोहकर्मके उक्त चारों प्रकारके संक्रमका अनेक अनुयोगद्वारोंसे बहुत विस्तृत विवेचन किया गया है। ६ वेदक-अधिकार--इस अधिकारमें मोहनीय कर्मके वेदन अर्थात् फलानुभवनका वर्णन किया गया है । कर्म अपना फल उदयसे भी देते हैं और उदीरणासे भी देते हैं। स्थितिके अनुसार निश्चित समय पर कर्म के फल देनेको उदय कहते हैं। तथा उपाय-विशेपसे असमयमें ही निश्चित समयके पूर्व फलके देनेको उदीरणा कहते हैं । जैसे डालमें लगे हुए श्रामका समय पर पक कर स्वय गिरना उदय है । तथा पकनेके पूर्व ही उसे तोड़कर पाल आदिमें रखकर समयके भी बहुत पहले उसका पका लेना उदीरणा है। ये दोनों ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेद से चार-चार प्रकारके होते है । इन सवका प्रकृत अधिकारमें अनेक अनुयोगद्वारोंसे बहुत विस्तार-पूर्वक वर्णन किया गया है।। ७ उपयोग-अधिकार—जीवके क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामोंके होनेको उपयोग कहते हैं । इस अधिकारमे क्रोधादि चारों कपायोंके उपयोगका वर्णन किया गया है और बतलाया गया है कि एक जीवके एक कषायका उदय कितने काल तक रहता है, किस गतिके जीवके कौनसी कपाय वार-बार उदयमे आती है, एक भवमे एक कपायका उदय कितने वार होता है और एक कपायका उदय कितने भवों तक रहता है ? जितने जीव वर्तमान समयमें जिस कपायसे उपयुक्त है, क्या वे उतने ही पहले उसी कषायसे उपयुक्त थे और क्या आगे भी उपयुक्त रहेंगे ? इत्यादि रूपसे कषाय-विषयक अनेक ज्ञातव्य वातोंका बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन इस उपयोग-अधिकारमें किया गया है । ८ चतु:स्थान-अधिकार--घातिया कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिकी अपेक्षा लता, दारु, अस्थि और शैलरूप चार स्थानोंका विभाग किया जाता है, उन्हे क्रमश. एकरथान द्विस्थान, त्रिस्थान और चतु.स्थान कहते हैं । इस अधिकारमे क्रोधादि चारों कपायोंके उक्त चारों स्थानोंका वर्णन किया गया है, इसलिए इस अधिकारका नाम चतु स्थान है। इसमें बतलाया गया है कि क्रोध चार प्रकारका होता है-पापाण-रेखाके समान, पृथ्वी-रेखा के समान, वालु-रेखाके समान और जल-रेखाके समान । जैसे-जल में खींची हुई रेखा तुरन्त मिट जाती है और वालु, पृथ्वी और पापाणमें खींची गई रेखाएँ उत्तरोत्तर अधिक-अधिक समयमें मिटती हैं, इसी प्रकारसे क्रोधके भी चार प्रकारके स्थान है, जो हीनाधिक कालके द्वारा उपशमको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकारसे मान, माया और लोभके भी चार-चार स्थानोंका वर्णन इस अधिकारमें किया गया है। इसके अतिरिक्त चारों कपायोंके सोलह स्थानों से कौन सा स्थान क्सि स्थानसे अधिक होता है, और कौन किससे हीन होता है, कौन स्थान सर्वघाती है और कौन स्थान देशघाती है ? क्या सभी गतियोंमें सभी स्थान होते हैं, या कहीं कुछ अन्तर है ? किस स्थानका अनुभवन करते हुए किस स्थानका बन्ध होता है, और किस किस स्थानका वन्ध नहीं करते हुए किस स्थानका बन्ध नहीं होता, इत्यादि अनेक सैद्धान्तिक गहन वातोंका निरूपण इस अधिकारमें किया गया है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनां ६७ 8 व्यंजन - अधिकार - व्यंजन नाम पर्यायवाची शब्दका है । इस अधिकारमें क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों ही कपायोंके पर्यायवाचक शब्दोका निरूपण किया गया है । जैसे—क्रोधके क्रोध, रोष, अक्षमा, कलह, विवाद आदि । मानके मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव आदि । मायाके माया, निकृति, वचना, सातियोग और अनृजुता आदि । लोभके लोभ राग, निदान, प्रेयस्, मूर्च्छा आदि । कषायके इन विविध नामांक द्वारा कपाय - त्रिपयक अनेक ज्ञातव्य बातों पर नया प्रकाश पड़ता है । १० दर्शन मोहोपशमना - अधिकार - जिस कर्मके उदयसे जीवको अपने स्वरूपका दर्शन, साक्षात्कार और यथार्थ प्रतीति या श्रद्धान नहीं होने पाता, उसे दर्शन मोहकर्म कहते हैं । इस कर्मके परमाणुओं का एक अन्तर्मुहूर्त के लिए अन्तर रूप अभाव करने या उपशान्त रूप अवस्थाके करनेको उपशम कहते हैं । इस दर्शनमोहके उपशमनकी अवस्थामें जीवको अपने असली स्वरूपका एक अन्तमुहूर्त के लिए साक्षात्कार हो जाता है । उस समय वह जिस परम आनन्दका अनुभव करता है, वह वचनोंके अगोचर है । इस अधिकार मे इसी दर्शनमोहके उपशमन करनेवाले जीवके परिणाम कैसे होते हैं, उसके कौनसा योग, कौनसा उपयोग, कौनसी कपाय, कौनसी लेश्या और कौनसा वेद होता है, इन सर्व बातों का विवेचन करते हुए उन परिणाम-विशेपका विस्तारसे वर्णन किया गया है जिनके कि द्वारा यह जीव इस अलब्ध- पूर्व सम्यक्त्व-रत्नको प्राप्त करता है | दर्शनमोहके उपशमनको चारो ही गतियों के जीव कर सकते हैं, किन्तु उसे सज्ञी पचेन्द्रिय और पर्याप्तक नियमसे होना चाहिए | अन्त में इस प्रथमोपशमसम्यक्त्वी अर्थात् प्रथम वार उपशमसम्यग्दर्शनको प्राप्त करने वाले जीवके कुछ विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओं का वर्णन किया गया है । ११. दर्शन मोहक्षपणा अधिकार - ऊपर दर्शनमोहकी जिस उपशम अवस्थाका वर्णन किया गया है, वह एक अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् ही समाप्त हो जाती है और फिर वह जीव पहले जैसा ही आत्म-दर्शन से वचित हो जाता है । आत्म-साक्षात्कार सदा बना रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उस दर्शनमोह कर्मका सदा के लिए क्षय ( खातमा) कर दिया जाय । और इसके लिए जिन खास बातों की आवश्यकता होती है, उन सबका विवेचन इस अधिकारमें किया गया है । इसमें बतलाया गया है कि दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ कर्मभूमिका उत्पन्न हुआ मनुष्य ही कर सकता है । हॉ, उसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है | दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करने वाले मनुष्य के कमसे कम तेजोलेश्या अवश्य होना चाहिए | दर्शनमोहकी क्षपणाका काल अन्तर्मुहूर्त है । इस क्षपण - क्रिया के समाप्त होने के पूर्व ही यदि उस मनुष्य की मृत्यु हो जाय, तो वह अपनी आयु बन्ध के अनुसार यथासंभव चारो ही गतियों में उत्पन्न हो सकता है । मनुष्य जिस भवमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है, उसके अतिरिक्त अधिकसे अधिक तीन भव और धारण करके संसारसे मुक्त हो जाता है, और सदा के लिए शाश्वत आनन्दको प्राप्त कर लेता है । १२ संयमासंयम लब्धि-अधिकार- - जब आत्माको अपने स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है और वह मिथ्यात्वरूप कर्दम (कीचड़ ) ले निकल कर और निर्मल सरोवर में स्नान कर सरोवर के तट पर स्थित शिला तलपर अवस्थित हो जाता है, तब उसके आनन्दका पारावार नहीं रहता है और फिर वह इस बातका प्रयत्न करता है कि अब इस निंद्य, अलंध्य कर्दममें पुन: मेरा पतन न होवे | इस प्रकार से विचार कर सांसारिक विषय-वासनारूपी कीचड़ से जितने अशमं संभव होता है, उतने अंश में वह बचनेका प्रयत्न करता है, इसीको संयमासंयम-लब्धि कहते हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त शास्त्रीय परिभाषाके अनुसार अप्रत्याख्यानावरण कपायके उदयके अभावसे देशसंयमको प्राप्त करने वाले जीवके जो विशुद्ध परिणाम होते हैं, उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। इसके निमित्तसे जीव श्रावकके व्रतोंको धारण करने में समर्थ होता है । प्रकृत अधिकारमें संयमासंयमलब्धिके लिए आवश्यक सर्व कार्य-विशेषोका विस्तारसे वर्णन किया गया है। १३ संयमलब्धि-अधिकार-प्रत्याख्यानावरण कषायके अभाव होने पर आत्मामें संयमलब्धि प्रकट होती है, जिसके द्वारा आत्माकी प्रवृत्ति हिंसादि पॉचो पापोंसे दूर होकर अहिंसादि महाव्रतोंके धारण और पालनकी होती है। संयमके प्राप्त कर लेने पर भी कपायके उदयानुसार परिणामोंका कैसा उतार-चढ़ाव होता है, इस वातका प्रकृत अधिकारमें विस्तृत विवेचन करते हुए संयमलब्धि-स्थानोंके भेद बतला करके अन्तमे उनके अल्पबहुत्वका वर्णन किया गया है। १४ चारित्रमोहोपशोमना-अधिकार--इस अधिकार में चारित्रमोहनीय कर्मके उपशमका विधान करते हुए बतलाया गया है कि उपशम कितने प्रकारका होता है, किस किस कर्मका उपशम होता है, विवक्षित चारित्रमोह-प्रकृति की स्थिति के कितने भागका उपशम करता है, कितने भागका संक्रमण करता है और कितने भागकी उदीरणा करता है ? विवक्षित चारित्रमोहनीय प्रकृतिका उपशम कितने कालमें करता है, उपशम करने पर सक्रमण और उदीरणा कब करता है ? उपशामकके आठ करणोंमेसे कब किस करणकी व्युच्छत्ति होती है, इत्यादि प्रश्नोंका उद्भावन करके विस्तारके साथ उन सबका समाधान किया गया है। अन्त में बतलाया गया है कि उपशामक जीव एक वार वीतराग दशाको प्राप्त करनेके बाद भी किस कारणसे नीचेके गुणस्थानों में गिरता है और उस समय उसके कौन-कौनसे कार्य-विशेप किस क्रमसे प्रारम्भ होते हैं ? १५ चारित्रमोहक्षपणा-अधिकार-चारित्रमोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंका क्षय किस किस क्रमसे होता है, किस किस प्रकतिके क्षय होने पर कहा पर कितना स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व रहता है, इत्यादि कार्य-विशेषोंका इस अधिकार में बहुत विस्तारसे वर्णन किया गया है । अन्तमें बतलाया गया है कि जब तक यह जीव कषायोंका क्षय होजाने पर और वीतराग दशाक प्राप्त कर लेने पर भी छद्मस्थ पर्यायसे नहीं निकलता है, तब तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका नियमसे वेदन करता है । तत्पश्चात् द्वितीय शुक्लध्यानसे इन तीनों घातिया कौका भी समूल नाश करके सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी होकर वे धर्मोपदेश करते हुए आर्यक्षेत्रमे विहार करते हैं। पश्चिमस्कन्ध अधिकार-सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होजानेके पश्चात् भी सयोगिजिन. के चार अघातिया कर्म शेप रह जाते हैं, और उनके क्षय हुए विना सिद्ध अवस्था प्राप्त होती नहीं है, अतएव उनके क्षयका विधान चूर्णिकारने पश्चिमस्कन्धनामक अधिकारके द्वारा किया है । इसमें बतलाया गया है कि संयोगिजिन किस प्रकारसे केवलिसमुद्धावकरते हुए अघातिया कर्मोंका क्षय करके मुक्तिको प्राप्त करते हैं और सदाके लिए अजर, अमर वन करके अनन्त सुखके भागी बन जाते हैं। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थमे जीवोंको संसार-परिभ्रमण कराने वाले कपायोंके राग-द्वपास्मक स्वरूपका विविध प्रकारोंसे वर्णन करके उनसे विमुक्त होनेका मार्ग बतलाया गया है। . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १४ विपय पृष्ठ विषय प्रन्थकारके द्वारा कसायपाहुडकी उत्पत्ति- प्रकृति-स्थानोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा __ स्थानका निर्देश १ भंगविचय निरूपण सायपाइडके उपक्रमका प्रकृति-स्थानोंका अल्पबहुत्व निरूपण २ भुजाकार, अल्पतर और अवस्थितग्रन्थकार-द्वारा कसायपाहुडके पन्द्रह अधि- विभक्तिके निरूपणकी सूचना ___ कारों में विभक्त गाथाओंका निर्देश ४ भुजाकारादि विभक्तियोंका एक जीवकी अट्ठाईस मूल गाथाओंकी भाष्य अपेक्षा काल-निरूपण गाथाओंका निरूपण १० प्रकृतिविभक्तिमें पदनिक्षेप और वृद्धिके ग्रन्थकार-द्वारा कसायपाहुडके पन्द्रह ___ अनुमार्गणकी सूचना अधिकारोंका निरूपण १३ चूर्णिकार-द्वारा अन्य प्रकारसे पन्द्रह स्थिति-विभक्ति ८०-१४६ ___अधिकारोंका वर्णन कसायपाहुडके दूसरे नामका निर्देश १६ । स्थितिविभक्तिके उत्तरभेदोंका निरूपण ८० पेज्ज पदकी निक्षेपोंमे योजना और स्थितिविभक्तिका तेईस अनुयोग-द्वारोनयोंमें विभाजन __ से निरूपण दोस पदकी निक्षेपोंमें योजना और उत्तरप्रकृति स्थितिविभक्तिका अर्थपद नयोंमें विभाजन १६ मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी उत्कृष्टस्थिति पाहुड शब्दका निक्षेप और उसकी निरुक्ति २८ विभक्ति का निरूपण ग्रन्थकार-द्वारा अनाकार-उपयोग आदि मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी जघन्य स्थितिपदोंके कालका निरूपण विभक्तिका निरूपण नयोंकी अपेक्षा पेज्ज और दोसका मिथ्यात्व आदि कर्मों के उत्कृष्ट और ___ स्वामित्वादि अनुयोगोंसे निरूपण ३४ जघन्य स्वामित्वका निरूपण ६७ प्रकृति-विभक्ति ४५-७६ मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट और विभक्ति पदका निक्षेपों की अपेक्षा भेद जघन्य स्थितिविभक्तिके कालका निरूपण ४५ निरूपण १०२ कर्म-विभक्तिका ग्रन्थकारके द्वारा मिथ्यात्व आदि कर्मोकी उत्कृष्ट और निरूपण जघन्य स्थितिविभक्तिके अन्तरका प्रकृतिविभक्ति के उत्तरभेदोंका स्वामित्व १०४ आदि अनुयोगोंके द्वारा निरूपण ५० नाना जीवोंकी अपेक्षा स्थितिविभक्तिप्रकृति-स्थान-विभक्तिकी स्थान समु __का भग-विचय १०६ कीर्तना ५७ नाना जीवोंकी अपेक्षा स्थितिविभक्तिका प्रकृति-स्थानोके स्वामित्वका निरूपण ५८ अन्तर-निरूपण ११० प्रकृति-स्थानोंके कालका " ६१ स्थिति-विभक्तिके सन्निकर्षका निरूपण १११ प्रकृति-स्थानोके अन्तरका " ७० स्थितिविभक्तिका अल्पबहुत्व .१२१ निरूपण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ।इस १८४ केसयिपाहुडसुत भुजाकार अल्पतर, अवस्थित और मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी अनुभागश्रवक्तव्यविभक्तिके अर्थपदका विभक्तिके उत्कृष्ट और जघन्य वर्णन १२३ अन्तरका निरूपण १६५ भुजाकार स्थिति-विभक्तिके कालका एक नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभाग जीवकी अपेक्षा निरूपण १२५ विभक्तिका भग-विचय १६६ भुजाकारस्थिति-विभक्तिका नाना नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभाग___ जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय १३० विभक्तिक काल १६८ भुजाकार स्थिति विभक्ति का नाना नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभागजीवोंकी अपेक्षा काल विभक्तिका अन्तर भुजाकार स्थितिविभक्तिका नाना जीवों- अनुभागविभक्तिका अल्पबहुत्व १७१ की अपेक्षा अन्तर १३१ सत्कर्मस्थानोंके भेद और उनके अल्पभुजाकार स्थितिविभक्ति के सन्निकर्पका बहुत्वका निरूपण निरूपण २३२ प्रदेश-विभक्ति १७७-२१२ भुजाकार स्थितिविभक्तिका अल्पबहुत्व १३४ प्रदेशविभक्तिके उत्तर भेदोंका निरूपण १७७ भुजाकार स्थितिविभक्तिके पदनिक्षेप मूलप्रकृति-प्रदेशविभक्तिका बाईस का वर्णन १३५ अनुयोगद्वारोंसे निरूपण , स्थितिविभक्तिके वृद्धिका निरूपण १३६ उत्तरप्रकृति-प्रदेशविभक्तिके स्वामित्वका वृद्धिकी अपेक्षा स्थितिविभक्ति के काल निरूपण का निरूपण १३७ उत्तरप्रकृति-प्रदेशविभक्तिका काल १४८ वृद्धिकी अपेक्षा अन्तरका निरूपण १३६ उत्तरप्रकति-प्रदेशविभक्तिका अन्तर वृद्धिकी अपेक्षा स्थिति विभक्तिका अल्प- . नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्तरप्रकृतिबहुत्व १४० प्रदेशविभक्तिका भगविचय स्थितिसत्कर्मस्थानोंका निरूपण अनिवृत्ति करण आदि पदोंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्तरप्रकृति____ सम्बन्धी अल्पबहुत्व १४४ प्रदेशविभक्तिका काल और अन्तर २०० स्थितिसत्कर्मस्थानोंका अल्पवहुत्व उत्तरप्रकृति-प्रदेशविभक्तिके उत्कृष्ट प्रदेश१४५ सत्कर्मका अल्पबहुत्व २०१ अनुभाग-विभक्ति . १४७-१७६ उत्तरप्रकृति-प्रदेशविभक्तिके जघन्य प्रदेशअनुभागविभक्तिके उत्तर-भेदोंका निरूपण १४७ सत्कर्म-अल्पबहुत्वका सकारण मूल अनुभागविभक्तिका तेईस अनु निरूपण २०६ ___ योगद्वारोंसे निरूपण १५- नरकगतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मके अल्पमोहनीयकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंके देश बहुत्वका निरूपण घाती सर्वघाती अशोका विभाजन १५७ एकेन्द्रियों में जघन्य प्रदेशसत्कर्मके अल्पघातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाके द्वारा मोह बहुत्वका निरूपण २१० कर्मके उत्तरभेदोंका निरूपण १५८ क्षीणाक्षीणाधिकार २२३-२३४ मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी अनुभाग- उत्कर्पण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय विभक्तिका स्वामित्व-निरूपण १६० ___ की अपेक्षा काँके क्षीणस्थितिक मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी अनुभाग- और क्षीणस्थितिकका निरूपण २१३ विभक्तिके उत्कृष्ट और जघन्य उत्कर्पणादि चारो पदोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट कालका निरूपण .. १६३ क्षीणस्थितिकका स्वामित्व १४१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ उत्कर्षणादि चारों पदों की अपेक्षा जघन्य क्षीरस्थितिक स्वामित्वका निरूपण क्षीरस्थितिक प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व २३१ स्थितिक अधिकार २३५-२४७ - उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक, निषेकस्थितिप्राप्तक, "यथानिषेक स्थितिप्राप्तक और उदयस्थितिप्राप्तक कर्मोंकी समुत्कीर्तना और उनका प मिथ्यात्व आदि कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक आदिका स्वामित्व उत्कृष्टस्थितिप्राप्तक आदि कर्मों के अल्पबहुत्वका निरूपण - अधिकार ग्रन्थकार द्वारा बंध और संक्रमणकी सूचना संक्रम- श्रर्थाधिकार सक्रमणका उपक्रम - निरूपण प्रकृतिसंक्रमणका ग्रन्थकारद्वारा निर्देश प्रकृतिसंक्रमण के स्वामित्वका निरूपण प्रकृतिसक्रम कालका प्रकृतिसंक्रमके अन्तरका नाना जीवों की अपेक्षा प्रकृतिसंक्रमका 33 भंग-विचय ,, विषय-सूची प्रकृतिसक्रम के सन्निकर्षका निरूपण प्रकतिसक्रमका अल्पबहुत्व प्रकृतिस्थान संक्रमकी समुत्कीर्तना प्रकृति - प्रतिग्रहस्थानों का वर्णन प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रमस्थान संक्रमस्थानोंके प्रतिमहस्थानोंका चित्र सत्त्व स्थानोंमें संक्रमस्थानोंका वर्णन गुणस्थानों में संक्रमस्थान और प्रतिग्रह स्थानों का चित्र मार्गणास्थानों में संक्रमस्थान २३५ मार्गणाओं में संक्रमस्थानों और प्रतिग्रहस्थानोंका विवरण मोहनीय कर्मके सत्त्वस्थानोंमें सक्रमस्थानोंका चित्र २३६ २४८-२४६ २४५ २४८ २५०-४६४ c २५२ २५५ २५६ २५७ " २५८ २५६ २६० २६१ २६३ २७० २७१ २७२ २७३ २७६ २८३ मोहनीयकर्मके वंधस्थानो में संक्रम स्थानोंका चित्र संक्रमस्थानोंकी प्रकृतियोंका निरूपण संक्रमस्थानों के कालका संक्रमस्थानोंके अन्तरका संक्रमस्थानोंके अल्पबहुत्वका 33 स्थिति-संक्रमाधिकार स्थितिसंक्रमके भेद और अर्थपद स्थिति के निक्षेप और अतिस्थापनाका वर्णन निर्व्याघातकी अपेक्षा निक्षेप और २८६ २८६ २६५ "" ३०१ " ३०७ ३१०-३४४ प्रतिस्थापनाका वर्णन व्याघातकी अपेक्षा निक्षेप और अतिस्थापनाका वर्णन स्थितिसंक्रमसम्बन्धी वर्णन श्रद्धाच्छेदका उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिसंक्रमके स्वामित्वका वर्णन एक जीवकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमके काल और अन्तरका वर्णन नाना जीवोंकी अपेक्षा स्थितिसक्रमका भंगविचय नाना जीवोंकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमके कालका वर्णन स्थितिसक्रमका श्रोघकी अपेक्षा. अल्प बहुत्व नरकगतिकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमका ७१ अल्पबहुत्व भुजाकारस्थितिसक्रमका स्वामित्व भुजाकार स्थितिसक्रमका काल भुजाकार स्थिति सक्रमका तर नाना जीवों की अपेक्षा भुजाकार स्थिति सक्रमका भगविचय नाना जी की अपेक्षा भुजाकार स्थितिसंक्रमका काल नाना जीवों की अपेक्षा भुजाकार स्थिति ३१० ३११ ३१५ ३१६ ३१८ ३१६ ३२२ ३२३ 33 5 ३२४ ३२६ ३२८ ३२६ ३३१ ३३३ 33 सक्रमका अन्तर ३३४ मुजाकार स्थितिसंक्रामकोंका अल्पबहुत्व ३३५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडसुत्त ३७५ पदनिक्षेपकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमका भुजाकार-अनुभानसंक्रमका अर्थपद ३७३ स्वामित्व ३३७ भुजाकार अनुभागमक्रमका स्वामित्व ३७४ पदनिक्षेपकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमका एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार-ठानुभाग अल्पबहुत्व ३४० संक्रमका काल वृद्धिकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमकी समु एक जीवकी अपेक्षा भुजाकारकीर्तना ___३४१ अनुभागसंक्रमका अन्तर ३७७ वृद्धिकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमका अल्प नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजाकारबहुत्व अनुभागसक्रमका भगविचय ३७६ अनुभाग संक्रम ३४५-३६६ नानाजीवोंकी अपेक्षा भुजाकारअनुभागसंक्रमके भेद और उनका अनुभागका काल अर्थपद ३५५ नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजाकारअपकर्षणकी अपेक्षा निक्षेप और अति अनुभागसंक्रमका अन्तर स्थापनाका निरूपण ३४६ भुजाकार-अनुभागसक्रमका अल्पबहुत्व ३८२ अपकर्पणकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप आदि पदनिक्षेपकी अपेक्षा अनुभागसंक्रमकी पदोंका अल्पबहुत्व प्ररूपणा उत्कर्षणकी अपेक्षा निक्षेप और अति- पदनिक्षेपकी अपेक्षा अनुभागसंक्रमका - स्थापनाका निरूपण ३४७ स्वामित्व ३८२ उत्कर्पणकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप आदि पदनिक्षेपकी अपेक्षा अनुभागसक्रमका ___पदोंका अल्पबहुत्व .. ३४८ अल्पबहुत्व अनुभागसंक्रमकी घानिसंज्ञा और स्थान- वृद्धिकी अपेक्षा अनुभागसंक्रमकी संज्ञाका निरूपण ३४६ समुत्कीर्तना अनुभागसंक्रमका स्वामित्व ३५१ वृद्धिको अपेक्षा अनुभागसंक्रमका एक जीवकी अपेक्षा अनुभागसंक्रमका स्वामित्व काल ३५४ वृद्धिकी अपेक्षा अनुभागसक्रमका अल्प एक जीवकी अपेक्षा अनुभागसंक्रमका बहुत्व ३६० अन्तर ३५७ अनुभागसंक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा ३६२ अनुभागसंक्रमके संन्निकर्षका निरूपण ३६ अनुभागसंक्रमस्थानोंका अल्पबहुत्व ३६४ नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभागसक्रम प्रदेश-सक्रम ३६७.४६४ का भंगविचय ३६३ नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभागसंक्रम- प्रदेशसक्रमका अर्थपद ३६७ का काल ३६४ प्रदेशसंक्रमके भेद और उनका स्वरूप , नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभागसक्रम प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट स्वामित्व ४०१ ४०५ का अन्तर प्रदेशसक्रमका जघन्य स्वामित्व ओघकी अपेक्षा अनुभागसंक्रमका अल्प- एक जीवकी अपेक्षा प्रदेशसक्रमका काल ४१० वहुत्व ३६८ एक जीवकी अपेक्षा प्रदेशसक्रमका ४१० नरकगतिकी अपेक्षा अनुभागसक्रमका अन्तर अल्पबहुत्व ३७१ प्रदेशसक्रमका सन्तिकर्प एकेन्द्रियोंमें अनुभागसक्रमका अल्प- आघकी अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका वहुत्व अल्पवहुत्व ४११ २८3 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकगतिकी अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का अल्पबहुत्व एकेन्द्रियों की अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशसक्रम का अल्पबहुत्व श्रधकी अपेक्षा जघन्य प्रदेश संक्रमका अल्पबहुत्व नरकगतिकी अपेक्षा जघन्य प्रदेशसंक्रम का अल्पबहुत्व एकेन्द्रियों की अपेक्षा जघन्य प्रदेश सक्रमका अल्पबहुत्व भुजाकार प्रदेशसक्रमका अर्थपद भुजाकार प्रदेशसक्रमकी समुत्कीर्तना भुजाकार प्रदेश क्रमका स्वामित्व एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार प्रदेशसंक्रमका काल एक जीव की अपेक्षा मुजाकार प्रदेश सक्रमका अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा भुजाकार प्रदेशसक्रमका भंगविचय नाना जीवों की अपेक्षा भुजाकार प्रदेशसंक्रमका अन्तर भुजाकार प्रदेशसक्रमका अल्पबहुत्व पदनिक्षेपकी अपेक्षा प्रदेशसंक्रमकी प्ररूपणा पदनिक्षेपकी अपेक्षा उत्कष्ट प्रदेशसंक्रमका स्वामित्व पदनिक्षेपकी अपेक्षा जघन्य प्रदेशसंक्रमका स्वामित्व पदनिक्षेपकी अपेक्षा प्रदेश क्रमका अल्पबहुत्व वृद्धिकी अपेक्षा प्रदेशसक्रमकी समुत्कीतना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व प्रदेशसक्रमस्थानों की प्ररूपणा की अपेक्षा प्रदेश- संक्रम-स्थानोंका अल्पबहुत्व नरकगतिकी अपेक्षा प्रदेशसंक्रमस्थानों का अल्पबहुत्व एकेन्द्रियों की अपेक्षा प्रदेशसंक्रमस्थानों का अल्पबहुत्व विषय-सूची ४१४ ४१५ ४१७ ४१६ ४२१ ४२२ ४२३ ४२४ ४२७ ४२३ ४३६ ४४० ४४२ ४४४ ४४५ ४५० ४५८ ४५६ ४६२ वेदर्थाधिकार और ग्रन्थकारके द्वारा उदय और उदीरणासम्बन्धी प्रश्नोंका उद्भावन एकैकप्रकृति - उदीरणा के भेद उनका चौबीस अनुयोग-द्वारों से वर्णनकी सूचना प्रकृतिस्थान - उदीरणाकी समुत्कीर्तना उदीरणास्थानोंकी प्रकृतियोंका निर्देश और उनके भंग एक जीवकी अपेक्षा उदीरणास्थानोंका काल और अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा उदीरणास्थानोंका भगविचय, काल और अन्तर उदीरणा स्थानोंकासन्निकर्ष उदीरणास्थानोंका अल्पबहुत्व भुजाकार - प्रकृति उदीरणाका स्वामित्व एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार-प्रकृतिउदीरणाका काल एकजीवकी अपेक्षा भुजाकार-प्रकृतिउदीरणाका अन्तर मुजाकारप्रकृति- उदीरणाका अल्पबहुत्व ४८२ उदीरणास्थानों का वर्णन ४८० ४८३ एक जीवकी अपेक्षा उदीरणास्थानोंका काल उदीरणास्थानोंका अल्पबहुत्व स्थिति - उदीरणाके ७३ ४६५-५५५ कृष्ट अनुभाग- उदीरणाका स्वामित्व जघन्य अनुभाग उदीरणाका स्वामित्व एक जीवकी अपेक्षा अनुभाग उदीरणाका काल एक जीवकी अपेक्षा अनुभाग उदीरणा का अन्तर ४६५ ४६७ ४६८ ४६६ ४७४ 34 ४६६ ४५४ उत्तर-भेदों का स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंसे वर्णनकी सूचना अनुभाग उदीरणाका अर्थपद अनुभाग उदीरणाके उत्तरभेदों का वर्णन ५०० ४५६ मिध्यात्व आदि कर्मों की घातिसंज्ञा और स्थान सज्ञाका वर्णन "" "" ४७५ ४७६ ४७८ ४७८ ४६२ ४६६ ५०१ ५०३ ५०५ ५०८ ५१० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रोधको अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अल्पबहुत्व ओघको अपेक्षा जघन्य अनुभाग उदीरणाका अल्पबहुत्व नरकगतिकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग कसायपाहुडसुत्त उदीरणाका अल्पबहुत्व प्रदेशउदीरणाके उत्तर भेदों का निरूपण उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका स्वामित्व 99 जघन्य प्रदेशउदीरणाका एक जीवकी अपेक्षा प्रदेशउदीरणाका काल एक जीवकी अपेक्षा प्रदेशउदीरणाका अन्तर प्रदेशउदीरणाका सन्निकर्ष की अपेक्षा प्रदेशउदीरणांका अल्पबहुत्व नरकगति की अपेक्षा प्रदेशउदीरणाका अल्पबहुत्व प्रकृति की अपेक्षा अल्पबहुत्व स्थितिकी अपेक्षा बन्धादि पांच पदका अल्पबहुत्व अनुभाग की अपेक्षा वन्धादि पाँच पदो का अल्पबहुत्व प्रदेशों की अपेक्षा बन्धादि पाँच पदोका अल्पबहुत्व उपयोग-अर्थाधिकार ग्रन्थकार-द्वारा कपायोंके उपयोग सम्बन्धी पृच्छाओंका उद्भावन चूर्णिकार-द्वारा उक्त पृच्छाओंके उपयोग कालका अल्पवद्दुत्व की अपेक्षा कपार्यो के उपयोगकालका अल्पबहुत्व प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा चतुर्गतिके उपयोगकालका अल्पबहुत्व चौदह जीवसमासॉकी अपेक्षा कपायों के ५१२ उपयोगकालका अल्पबहुत्व कौन जीव किस कपायमें लगातार कितनी देर तक उपयुक्त रहता है, इस शंकोका समाधान ५१५ ५१७ ५१८ ५१६ ५२२ ५२३ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५३३ ५४६ ५६५-५७६ ५३४ ५४४ ५५६ ५६० ५६१ ५६२ ५६४ ५६८ ५७० चारों गतियों की अपेक्षा कषायोंके उपयोगपरिवर्तनवारों का वर्णन कपायोंके उपयोग परिवर्तनवारोंका अल्प० ५७२ कपाय - सम्बन्धी उपयोगवर्गणाओंका और आदेशको अपेक्षा वर्णन ५७८ प्रवाहमान और प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा कषाय और उनके अनुभागका वर्णन नौ पदोंकी अपेक्षा कषायोंके उदयस्थानों में कषायोंके उपयोगकाल - सम्वन्धी अल्पबहुत्वका वर्णन सह कषायोपयोग-वर्गणाओं में उपयुक्त जीवा वर्णन वर्तमानकालमें मानकपायसे उपयुक्त जीवोंका अतीतकाल में मान, नोमान और मिश्रकालका वर्णन मानके समान शेप कपायोंके त्रिविधकालका निरूपण चारों कपायोंके उपयुक्त वारह पढ़ोंका ५८० ५८२ ५८५ ५.८७ 13 ५६० अल्पबहुत्व कषायोदयस्थान और कषायोपयोग-कालस्थानरूप उपयोगवर्गणाओं का वर्णन ५६१ प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान उपदेशों की अपेक्षा त्रस जीवोंके कषायोदयस्थानोंका वर्णन कषायोंकी प्रथमादिक तीन प्रकारकी अल्पबहुत्व श्रेणियोका निरूपण चतुःस्थान-अर्थाधिकार क्रोधादि चारों कषायों के चार-चार स्थानों का वर्णन ५६३ ५६५ ५६७-६१० ५६७ चारों कपायोंके सोलहों स्थानोंके स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका वर्णन ६०० कपायोंके स्थानोंका मार्गणास्थानों में वर्णन ६०४ कपायों के लतासमान आदि स्थानों के बन्धक अन्वक आदिका विचार कपायोंके स्थानोका निक्षेप-निरूपण ૬ ६०७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधके चारों स्थानोंके कालकी अपेक्षा और शेष कषायोंके स्थानोंका भावकी अपेक्षा निदर्शन- निरूपण व्यंजन अधिकार क्रोध, मान, माया और लोभके पर्यायवाची नामोंका निरूपण सम्यक्त्व - अर्थाधिकार दर्शनमोहके उपशमन करनेवाले जीवके परिणाम, योग, कषाय, उपयोग लेश्यादि सम्बन्धी प्रश्नोंका ग्रन्थकारद्वारा उद्भावन और चूर्णिकार द्वारा ६०८ ६११-६१३ उनका समाधान दर्शन मोह - उपशामक के बन्ध और उदयसम्बन्धी प्रकृतियोंका निरूपण अधःप्रवृत्त आदि तीनों करणों के स्वरूपका ६११ ६१४-६३८ निरूपण चरमसमयवर्ती मिथ्यादृटिके तदनन्तर समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति का वर्णन दर्शनमोह - उपशामक - सम्बन्धी पचीस पदवाले अल्पबहुत्वका वर्णन दर्शनमोहका उपशमन करने योग्य गति आदिका वर्णन दर्शनमोहक्षपणा-प्रस्थापकका विषय सूची स्वरूप और तत्संबंधी कुछ अन्य विशेषका वर्णन दर्शन मोह क्षपकके अपूर्वकरण में होनेवाली क्रियाओं का वर्णन दर्शन मोहक्षपकके अनिवृत्तिकरण में होने वाले स्थितिघात आदिका वर्णन सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थिति सत्त्व के विषय में प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान उपदेशों का उल्लेख ६१४ ६१७ ६२२ ६२८ ६२६ दर्शनमोह - उपशामककी निर्व्याघातताका निरूपण उपशामक-सम्बन्धी कुछ विशेषताओंका ६३२ निरूपण दर्शनमोहक्षपणा - अर्थाधिकार ६३६-६५७ ६३० ६३१ ६४४ ६४७ प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा अपूर्वकरण और निवृत्तिकरण में होने वाले क्रियाविशेषों का वर्णन कृतकृत्यवेदक- श्रवस्थाका और उसमें मरण आदिका वर्णन दर्शन मोहक्षपक के अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर प्रथम समयवर्ती कृतकृत्य वेदक होने तक मध्यवर्ती काल में होने वाले स्थितिकाण्डकघात आदि पदका अल्पबहुत्व संयमलब्धि श्रर्थाधिकार ६३६ संयमको प्राप्त करनेवाले जीवके संभव क्रियाओं का वर्णन संयमको प्राप्त करनेवाले जीवके पूर्वकरणके प्रथम समय से लेकर अधःवृत्तसंयत होने तकके मध्यवर्ती कालमें सभव पोंका अल्पबहुत्व सयमलब्धिस्थानोंके भेदों का वर्णन संग्रमलब्धिस्थानोंका अल्पबहुत्व ६४६ ७५ ६५० ६५३ ६५५ ६५८ संयम संयम लब्धि अधिकार ६५८-६६८ संयमासयमको प्राप्त करनेवाले जीवके परिणामोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि और पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति आदिका वर्णन प्रथम समयवर्ती संयतासंयतके स्थितिकाण्डक, गुणश्रेणी आदिका वर्णन ६६२ अधःप्रवृत्तसंयतासंयत की विशेष क्रियाका वर्णन सयमासंयमको प्राप्त करनेवाले जीव के पूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर सयमा संयमको प्राप्त कर एकातानुवृद्धिसे बढ़ने के काल तक संभव पदोंका अल्पबहुत्व संयमासयम लब्धिस्थानोंका वर्णन सयमा सयम लब्धिस्थानोंकी तीव्रमन्दताका अल्पबहुत्व , ६६४ ६६६ " ६६६-६७५ ६६६ ६७० ६७२ ६७३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ कसायपाहुडसुत्त ७२६ चारित्रमोहोपशामना अधिकार ६७६-७३७ उपशान्तकषायगुणस्थानसे गिरनेका उपशामना कितने प्रकारकी होती है, सकारण निरूपण ७१४ किस-किस कर्मका उपशम होता है, गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिकसंयतकी और कौन-कौन कर्म उपशान्त या विशेष क्रियाओंका वर्णन ७१५ अनुपशान्त रहता है,इत्यादि प्रश्नों गिरनेवाले बादरसाम्परायिक संयतकी का ग्रन्थकारद्वारा उद्भावन और विशेष क्रियाओंका विधान ७१६ समाधान उक्त जीवके सम्भव स्थितिबन्धोंके अल्प चारित्रमोह-उपशामक वेदकसम्यग्दृष्टि बहुत्वोंका निरूपण ___ की विशेष क्रियाओंका वर्णन ६७८ गिरनेवाले बादर साम्परायिकसंयतके क्षायिकसम्यग्दृष्टि-उपशामककी विशेष मोहनीय कर्मका अनानुपूर्वीसंक्रम, क्रियाओंका वर्णन ६८१ तथा ज्ञानावरणादि-कर्मोंकी प्रकधारित्रमोहोपशामकके अपूर्वकरण तियोंके सर्वघाती होनेका विधान ७२२ और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें गिरनेवाले अपूर्वकरणसंयतके प्रगट होनेहोनेवाले स्थितिबंध आदिका वर्णन ६२ वाले करणोंका, सम्भव प्रकृतियोंकी अन्तरकरणके अनन्तर प्रथम समयमें उदीरणा और बन्धका विधान ७२५ एक साथ प्रारम्भ होनेवाले सात गिरनेवाले अधःप्रवृत्तसंयतकी विशेषक्रियाविशेषोंका वर्णन ६६० क्रियाओंका वर्णन छह श्रावलियोंके व्यतीत होने पर ही पुरुषवेद और मानके उदयके साथ श्रेणी क्यों उदीरणा होती है इस चढ़नेवाले जीवको विभिन्नताओंका प्रश्नका सकारण निरूपण ६६१ वर्णन ७२७ स्त्रीवेदके उपशमनका विधान ६६४ पुरुषवद आर मायाक साथ श्रेणी चढ़नेसात नोकषायोंके उपशमनका " वाले जीवकी विभिन्नताओंका वर्णन ७२६ प्रथमसमयवर्ती अवेदी उपशामकके पुरुषवेद और लोभके साथ श्रेणी चढ़नेस्थितिबंध आदिका निरूपण ६६७ वाले जीवकी विभिन्नताओंका वर्णन - .. अनुभागकृष्टियोंका ७३० " ७०२ कृष्टियोंकी तीव्रमन्दताका अल्पवहत्व ७०३ नपु सकवेद के उदयके साथ श्रेणी चढने वाले उपशामककी विभिन्नताओंका कृष्टिकरणकालका निरूपण वर्णन ७३१ प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक उप___ शामककी विशेष क्रियाओंका वर्णन ७०४ पुरुषवेद और क्रोधके साथ श्रेणी चढ़नेउपशान्तकपाय वीतरागसंयतकी विशेष वाले प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरणक्रियाओंका वर्णन संयतसे लेकर गिरनेवाले चरम ७०५ उपशामनाके भेद-प्रभेदोंका निरूपण ७०७ समयवर्ती अपूर्वकरणसंयतके सम्भव उपशमन-योग्य कर्मोका निरूपण मध्यवर्ती पदोंका अल्पवहुत्व ७३१-७३७ ७०६ स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा चारित्रमोहक्षपणा-अर्थाधिकार ७३८-८६६ __ उपशामकके उदय-उदीरणा आदि चारित्रमोह-क्षपकके परिणाम, योग, पदोंका अल्पबहुत्व उपयोग, लेश्या आदिका वर्णन ७३८ आठ प्रकारके करणोंका निर्देश और चारित्रमोहका क्षपण करनेके पूर्व ही बन्ध कौन करण कहाँ विच्छिन्न होजाता और उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली है इस बातका निरूपण ७१२ प्रकृतियोंका वर्णन ७३६ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वकरण- प्रविष्ट चारित्र मोहक्षपणाप्रस्थापक स्थितिघात आदि क्रियाविशेषका निरूपण निवृत्तिकरणप्रविष्ट चारित्रमोहक्षपकआवश्यका निरूपण निवृत्तिकरण क्षपकके बंधनेवाले कर्मोंके स्थितिबन्ध-सम्बन्धी अल्पबहुत्वोंनिरूपण अनिवृत्तिकरण क्षपकके सम्भव सत्कर्मोंके स्थिति सत्त्वों का अल्पव आठ मध्यम कषायोंके और निद्रानिद्रादि सोलह प्रकृतियोंके क्षपणका विधान चार संज्वलन और नव नोकषाय इन तेरह कर्मोंके अन्तरकरणका विधान नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके क्षपणका विधान सात नोकषायके क्षपकके स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व ग्रन्थकारद्वारा संक्रमण - प्रस्थापककी विशेष क्रियाओं का निरूपण अपवर्तन का अर्थ आनुपूर्वी संक्रमणका स्वरूप संक्रमण-प्रस्थापकके बन्ध, उदय और संक्रमणके समानता और असमाताका वर्णन अनुभाग और प्रदेश- सम्बन्धी बन्ध, उदय और संक्रमण -विषयक स्वस्थान- अल्पबहुत्वका निरूपण अन्तरकरण करनेवाले क्षपकके स्थिति और अनुभाग के उत्कर्षण और अपकर्षणा विधान अपवर्तित द्रव्यके निक्षेप, प्रतिस्थापना आदिका निरूपण अपकर्षित, उत्कर्षित और संक्रमित द्रव्य के उत्तरकाल में वृद्धि हानि और अवस्था का वर्णन जघन्य - उत्कृष्ट निक्षेप और अतिस्थापाके प्रमाणका वर्णन विषय-सूची ७४१ ७४३ ७४५ ७४८ ७५१ ७५२ ७५३ ७५४ ७५६ ७६१ ७६४ ७६८ ७७१ ७७३ ७७४ ७७७ ७७६ उत्कर्षित या पकर्षित स्थितिका बध्य मान स्थिति के साथ हीनाधिकताका निरूपण वृद्धि, हानि और अवस्थान संज्ञाओंका स्वरूप और उनका अल्पबहुत्व अश्वकर्णकरणका विधान अपूर्वस्पर्धक करने का " पूर्वस्पर्धकोंका अल्पबहुत्व द्वितीयादिसमयवर्ती अश्वकर्णकरण - कारककी विशेष क्रियाओंका निरूपण अश्वकर्णकरणकारकके अन्तिमसमय में स्थितिबंध और स्थितिसत्त्वका अल्पबहुत्व कृष्टिकरणकालका निरूपण प्रथम समय में की गई कृष्टियों की तीव्र-मन्दताका अल्पबहुत्व कृष्टि-अन्तरोंका अल्पबहुत्व कृष्टिकरणकाल के अन्तिम समय में स्थितिबंध और स्थितिसत्त्वका अल्पबहुत्व प्रन्थकारद्वारा कृष्टियों-सम्बन्धी पृच्छाओंका उद्भावन और उनका समाधान कृष्टि वेदक के प्रदेशा निरूपण कृष्टिवेदक के उदयस्थिति-सम्बन्धी यवमध्य-रचनाका ७७ उदयस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रोंका अल्पबहुत्व कृष्टिवेदक पूर्वभवों में बाँधे हुए कर्मोंका गति आदि मार्गणाओं में भजनीय अभजनीयताका वर्णन कृष्टि॒िवेदकके एक समयबद्ध और भववद्ध कर्मों का वर्णन : ७८२ ७८५ ७८७ ७८६ ७६० ७६४ ७६७ " ७६८ ७६६ अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा कृष्टियोंकी हीनाधिकताका वर्णन ८११ प्रथम समयवर्ती कृष्टियोंके स्थितिसत्त्वका निरूपण ८०३ ८०५ =१६ ८१७ ८१८ ८२० ८२६ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 कृवेिदक के बध्यमान कर्मप्रदेशाप्रोका कृष्टियों में संक्रमणको सम्भवताका वर्णन विवक्षित स्थितिविशेष और अनुभागविशेषों में भववद्धशेष और समयप्रवद्धशेष प्रदेशाग्रोंका वर्णन एक स्थितिविशेषमें सामान्य स्थिति और असामान्यस्थितिका निरूपण प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा निर्लेपनस्थानोंका वर्णन ८३८ समयबद्धशेषका एक स्थिति आदिमें ८४१ सम्भव-असम्भवनाका वर्णन सामान्य असामान्य स्थितियोंकी सान्तर कसायपाहुडसुत्त का समाधान क्रोध की प्रथम कृष्टिवे के प्रथम-स्थिति में समयाधिक आवलीकाल शेप रहने तक सम्भव कार्य-विशेपोंका वर्णन कृष्टि के सक्रमण किये जानेवाले प्रदेश की विशेष विधिका निरूपण क्रोधकी द्वितीय कृटिवेदकके प्रथम समयमें शेष ग्यारह सग्रहकृष्टियों की अन्तरकृष्टियों के अल्पबहुत्वका निरुपण समः कृष्टियोंके क्र की द्वितीय कृष्टि वेदकके चरम समयमें होनेवाले स्थितिबन्ध और स्थितिमत्त्वका अल्पबहुत्व ८३१ ८३३ ८४७ निरन्तरताका निर्देश समयप्रवद्ध और भववद्ध प्रदेशाओं के निर्लेपनस्थानों के यवमध्यका वर्णन ८४५ निर्लेपनस्थानोंके अल्पबहुत्वका वर्णन प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदकके स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व कृटिवेटकके मोहनीयके अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तनाका निरूपण क्रोधादिकपायोंके संग्रहकृष्टियोंकी वध्यमान अवध्यमानताका निरूपण पूर्वकृष्टियों के निर्वृत्ति-विपयक शकाओं ८३४ ८४२ ८४६ ८५० ८५१ ८५२ ८५५ ८५६ ८५७ ८५८ मानकी प्रथम कृष्टिके और शेष कृष्टियोंके वेदकके सम्भव कार्य-विशेषोंका वर्णन मायाकी प्रथम कृष्टि और शेष कृष्टियोंके वेदकके सम्भव कार्य-विशेप का निरूपण लोभ की प्रथम कृष्टि और शेष कृष्टियोंके वेदकके सम्भव कार्य-विशेषोंनिरूपण सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिवेढककी अतरकृष्टियों का अल्पबहुत्व सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में प्रथमादि समय में दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररूपणा सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारक के कष्टियोंमें दृश्यमान प्रदेशाकी श्रेणि प्ररूपणा प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके उत्कर्षण किये जानेवाले प्रदेशाप्रकी श्रेणिप्ररूपणा मोहकर्मके कृष्टिकरण हो जानेपर होने वाले वन्ध, उदद्यादि विषयक शंकाओं का उद्भावन और उनका समाधान ग्रन्थकार द्वारा चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक और सूक्ष्मसाम्परायिक बंधने वाले कर्मोंका अल्पबहुत्व सूक्ष्मसाम्परायिकके वेदन किये जानेवाले देशघाती और सर्वघाती मति श्रुतज्ञानावरणका निरूपण कृष्टिवेदक क्षपकके शेप कमोंके वेदकअवेदकताका निरूपण कृष्टिकरण कर देनेपर संभव विचारांका निरूपण क्षपकके कृष्टियोंके वेदन-अवेदनसम्वन्धी शंकाओं का ग्रन्थकार के द्वारा उद्भावन और समाधान ८५६ ८६० = ६१ ८६२ ८६५ ८६६ ८७० ८७३ ८७४ ८५५ ८৬9 ८८ ८७६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ७३ कृष्टियोंके वेदन या क्षपणकालमें उनके प्रन्थकार-द्वारा कपायोंके क्षीण हो जाने बन्धक या प्रबन्धक रहनेका पर संभव वीचारोंके जाननेकी निरूपण सूचना कष्टि-क्षपण-कालमें उनके स्थिति और क्षपणा-सम्बन्धी अन्तिम संग्रहणी मूलअनुभागके उदीरणा-सक्रमणादि गाथा-द्वारा प्रकृत अर्थका उपसंहार " विषयक शकाओंका उद्भावन और कषायोके क्षय हो जानेके पश्चात् शेष समाधान ८८२ तीन घातिया कर्मोंके क्षय हो जाने एक कृष्टिसे दूसरी कृष्टिका वेदन करता पर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर तीर्थहुश्रा क्षपक पूर्व-वेदित कृष्टिके शेष प्रवर्तनके लिए केवलीके विहारका अशको क्या उदयसे संक्रान्त करता निरूपण ८६६ है, या उदीरणासे ? इस शकाका समाधान ८८६ क्षपणाधिकार-चूलिका ८६७-८६६ क्रोधादि विभिन्न कपार्योके उदयसे श्रेणी चढ़नेवाले पुरुषवेदी क्षपकके होने बारह सूत्रगाथओंके द्वारा मोहनीय कर्मवाली विभिन्नताओंका निरूपण ८६० न के क्षपणका उपसंहारात्मक निरूपण ८६७ स्त्रीवेद और नपुसकवेदके उदयसे पश्चिमस्कन्ध-अर्थाधिकार ६००-६०६ श्रेणी चढ़ने वाले क्षपककी विभिन्नताओंका निरूपण ८६३ केवलिसमुद्घातका निरूपण १०० चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक केवलिसमुद्घातके चौथे समयके पश्चात् क्षपकके होनेवाले स्थितिबन्ध और होने वाले कार्य-विशेषोंका निरूपण ६०२ स्थितिसत्त्वका निरूपण ८६४ योगनिरोधका वर्णन ६०४ क्षीणकपाय-वीतराग-छद्मस्थके कार्य- कृष्टिकरणका वर्णन विशेषोंका निरूपण , शैलेशी अवस्थाका वर्णन १०५ परिशिष्ट ६.२६ ६३० १ कसायपाहुड-सुत्तगाहा २ गाथानुक्रमणिका ३ चूर्णि-उद्धृत-गाथा-सूची ४ प्रन्थनामोल्लेख ६०७ ५ विशिष्ट-प्रकरण-उल्लेख १२६ ६ विशिष्ठ-समर्पण-सूत्र-सूची ६२६ ७ पवाइज्जत-अपवाइज्जंत१२६ उपदेशोल्लेख W Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ३३ ८ मानकषायका उत्कृष्टकाल विशेष अधिक है मानकपायका उत्कृष्ट काल दुगुरणा है ३७ एक जीव लव्ध्यपर्याप्तक मनुष्य श्रविभक्तिका २४ एक अजीव ५१ ६ सामायिक छेदोपस्थापना ५२ २० विभक्तिका ५२ २६ अनाहा ५३ १४ उत्कृष्ट काल ५३ १६ उत्कृष्टकाल सभीका उत्कृप्ट काल ५४ १८ श्रदारिकमिश्र काययोगी, कामरणकाययोगी श्रदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाय रोगी - हारक -ग्राहारकमिश्र काययोगी, कार्मरणकाययोगी ५४ २२ और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य २४ छव्वीस, तेईस ५७ १८ पुद्गल परिवर्तन ૬ कभी कभी होने वाले भव्योके वन्चको = ६८ ८४ ८४ १२ स्थितिवन्ध TE ४ है । मोहनीय ६४ २२ संख्यात भाग & E २६ क्षपण १०३ ११० १११ ७ १० उत्कृष्ट काल और अन्तर्मुहूर्त ११ ग्रावलीके 22 एमा द्विदित्ति ३१ होता है ।। १४४ ११२ २२ उत्कृष्ट ११६ १६ प्रकृतिवन्धका १४५ २४ क्रोधसज्वलन १४५ २५ है । लोभ शुद्धि-पत्र ६ वह दो १४७ १५४ ११ है । जघन्य १५५ ६ उसने १६७ २० अनेक विभक्ति १६७ २१ अनेक विभक्तिजीव विभक्ति १७७ ३ पदेसवित्तीय १८० १ सादि, अनादि २०० ४ होते हैं आहा X सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धिचतुष्कका जघन्य छब्बीस, चौवीस, तेईस श्रर्धपुद्गलपरिवर्तन भव्यके क्षयको प्राप्त होने वाले बन्दको स्थितिविभक्ति है । अनुत्कृष्टका अन्तर नही है । मोहनीय संख्यात बहु भाग X उत्कृष्टकाल प्रन्तर्मुहूर्त प्रगुल के एग हिदित्ति । वरि चरिमुव्वेल्लए कंडय चरिमफालीए ऊणा । प्रमाण वाला होता है । किन्तु चरमउद्वे लनाकाडकको अतिम फालीसे न्यून है, इतना विशेष जानना चाहिये || १४४ || अनुत्कृष्ट प्रकृतिका मायासज्वलन है । मायासज्वलनके स्थितिसत्कर्मस्थानसे लोभ संज्वलन के स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । लोभ दो है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोने सर्व लोक स्पृष्ट किया है । जघन्य उतने अनेक उत्कृष्ट विभक्ति अनेक उत्कृष्ट विभक्तिजीव उत्कृष्ट विभक्तिपदेस वित्ती श्रनादि नही होते हैं Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० २७० २७१ २७१ ५ विभक्तिवाले' "जीव अविभक्तिवाला विभक्ति ... .. २५८ ११ असंक्रामक २५८ १२ जीव संक्रामक होता है। २६४ १५ सतरह २६५ ६ सम्यग्मिथ्यात्व २६५ २७ सत्ताकी २६६ ५ जाता है । सासादन · ****** २६ १६, १७, १५ १७१८, १२ २७ अपेक्षा ३ २७२ ३२ १० सूक्ष्मसाम्पराय |२| '''" प्रकृतिक सक्रम २७५ ७ २७५ ८ दो प्रकार के क्रोध दो प्रकारके मान और दो प्रकारके माया नो, छह और तीन प्रकृतिक २७५ ६ २७५ १७ उन्नीस २५४ ६ स्त्री वेदका उपशमन कर देनेके श्रनन्तर २८४ १२ छह २६५ १० और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके ३०५ १० इक्कीस शुद्धि - पत्र ३१३४ की जा सकती हैं। ३२५ १७-१८ इस से सख्यातगुणित है । ३२३ २ हिदिउणीररा ३३० ८ लिए मिध्यात्व में जाकर ३५५ १२ कर्मोके अनुभाग " अपेक्षा जघन्यकाल ३५६ २० जघन्य ३५६ ८ एयसम । ३६० ε समय और ३६२ २९ उन्नीस ४१० २० जघन्य काल ४२४ २२ चरमसमयवर्ती ५०१ १८ उत्कृष्ट ५०१ १६ त्रिस्थानीय भेद • ५०२ ७ सर्वघाती है । ५०२ ८ उत्कृष्ट ५१६ १६ हीन १८ हीन "" ५५२ ७ श्रव प्रदेश की ८१ श्रविभक्तिवाला जीव विभक्तिवाला प्रविभक्ति संक्रामक जीव असंक्रामक होता है सात सम्यक्त्व उपशमसम्यवत्वकी जाता है । सतरह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान असयतक्षायिक सम्यग्दृष्टिके होता है । - सासादन १६, ७, १५ १८, १३, १२ अपेक्षा २, ३ १० सूक्ष्मसाम्पराय | १॥ प्रकृतिक तथा ११ प्रकृतिक सक्रम दो प्रकारके क्रोध, सज्वलन क्रोध, दो प्रकारके मान, सज्वलन मान, दो प्रकारके माया और संज्वलन माया नौ, आठ, छः, पाँच, तीन और दो प्रकृतिक इक्कीस X सात सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्हण्टिके उन्नीस की जा सकती हैं, ( किन्तु स्तिबुकसक्रमण हो सकता है ) X दिउदीरणा लिए सम्यग्मिथ्यात्व में जाकर कर्मोके जघन्य अनुभाग ..... " अपेक्षा काल श्रजघन्य एम तोहुतो । समय व अन्तर्मुहूर्त और इक्कीस जघन्य श्रन्तरकाल X अनुत्कृष्ट त्रिस्थानीय चतु स्थानीय भेद देशघाती है । उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा सर्वघाती है। धनुत्कृष्ट X X श्रव जघन्य प्रदेशोकी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त ५६४ २५,२६ निगोदिया २८,२६ ५६५ १५ है । उसी है। उसी वादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके माया का उत्कृष्ट काल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है । उसी ५७० ६-१० किन्तु पुन लौटकर क्रोधकषायसे किन्तु पुत्र. लौटकर क्रोधकषायसे उपयुक्त रहकर उपयुक्त होगा। तत्पश्चात् मानको उल्लघन करके लोभको प्रास होगा ६१८ ७ बंधसे पहले ही उपशमसे पहले ही बन्धसे ६३८ १७ परिणामो होना परिणामोका होना ६६२ ४ अणुभागखेडयं अणुभागखंडयं ६७० २२ अनिवृत्तिकरण अपूर्वकरण ६८७ ६ तिण्हं पि कम्माणं णस्थि वियप्पो तिएहं पि कम्माणं ठिदिवधस्स वेदणीयस्स हिदि वंधादो ओसरंतस्स णस्थि वियप्पो ६६० २७ लोभका सक्रमण लोभका असक्रमण ७२६ ६ चडमाणस्स माणस्स ८२२ १२ देव या नरकगतिसे आकर तिर्यंच या नित्यनिगोदसे निकलकर मनुष्यमें उत्पन्न होकर मनुष्योमें ही कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहकर ८३८ ३ ६६४ ८६१ २६ माया मान ताडपत्रीय प्रतिसे संशोधित पाठ पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ ताडपत्रीय प्रतिपाठ ५१ ५ एदेसु परिणयोगद्दारेसु तदो एवं ३३७ ५ अंतोमुहुत्तं सकामेमाणो सकमाणो ६२८ ४ असखेज्जगुणहीण पदेसग्ग असंखेज्जगुणहीण ६३० ११ अभिजोग्ग-अरणभिजोग्गे अभिजोग्गमणभिजोग्गे ६४६ ४ तदो तम्हि ६५० ५ संखेज्जभागिगं संखेज्जदिभागिगं ६५२ ६ ताव जाव ताव असखेज्जगुरण जाव ६६१ १ जहण्णय ठिदिखंडय ठिदिखंडय जहण्णय ६६६ ६ पडिवज्जमाणस्स पडिवज्जमाणगस्स ६७१ १२ अरणवड्ढिदेण अणुवडिढदेण ६८६ ८ असखेज्जगुणादो असखेज्जादो ७२४ ४ कम्मारण कम्मपयडीग Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २१५ पर दिये गये विशेषार्थके स्थानपर निम्न विशेषार्थ पढ़िये विशेषार्थ-किसी भी विवक्षित कर्मके बंधनेके पश्चात् सर्व कर्मस्थिति व्यतीत हो चुकी हो, केवल एक समय अधिक उदयावली प्रमाण कर्मस्थिति शेष रह गई हो, उस कर्मके अबशेष प्रदेशाग्र उत्कर्षणके योग्य नहीं हैं, क्योंकि किसी भी कर्मका कर्मस्थिति प्रमाण तक ही उत्कर्षण हो सकता है उसके आगे उत्कर्षण होना असंभव है । इसी प्रकार जिस कर्मकी केवल दो समय अधिक उदयावली प्रमाण कर्मस्थिति शेष रह गई,उस कर्मके प्रदेशाग्र उत्कर्षणके योग्य नहीं है । इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते हुए जिस कर्म बन्धकी केवल जघन्य अबाधामात्र कर्मस्थिति शेष रहगई है उसके प्रदेशाग्र भी उत्कर्षणके योग्य नहीं हैं। क्योंकि उत्कर्षण के लिए यह नियम है कि जो नवीन कर्मवध रहा है उसकी अबाधाको छोड़कर जो निषेक-रचना हुई है उन नवीन निषेकोंमें उत्कर्षण किया हुआ द्रव्य निक्षिप्त किया जाता है, नवीन बधे हुए कर्मकी अबाधामें निषेक रचना नहीं है अतः अबाधामें उत्कर्षण किया जाने वाला द्रव्य नहीं दिया जाता। किंतु पूर्व कर्मकी केवल जघन्य अबाधामात्र कर्मस्थिति शेष रह गई थी और वह जघन्य अबाधासे आगे अर्थात् अपनी कर्मस्थितिसे आगे उत्कर्पण नहीं हो सक्ता है अत. वह कर्म जिसकी कर्मस्थिति जघन्य अबाधामात्र शेष रह गई है उस कर्मके प्रदेशाग्र भी उत्कर्षणके योग्य नहीं हैं । जिस कर्मकी सर्व कर्मस्थिति व्यतीत हो चुकी है । केवल एक समय अधिक जघन्य अबाधाप्रमाण कर्मस्थिति शेष रह गई है तो उस कर्मके अन्तिम निषेकको छोड़कर शेष अबाधा निषेकोंका द्रव्य उत्कर्षण होकर, नवीनकी जघन्य अबाधाके ऊपर रचे गए, प्रथम निषेक दिया जा सकता है । इसीप्रकार एक एक समय बढ़ते बढ़ते जिस कर्मकी बर्ष, वर्ष पृथक्त्व प्रमाण, सागर या सागरपृथक्त्वप्रमाण कर्मस्थिति शेष रह गई है, उस कर्मकी शेष रही हुई स्थितिके सर्व प्रदेशाग्र उत्कर्षण के योग्य है । किन्तु उदयावली में प्रविष्ट . प्रदेशाग्र उत्कर्षण-योग्य नहीं हैं । उदाहरणके लिए मान लीजिए-किसी कर्मकी कर्मस्थिति ७० समय (७० कोडाकोडी सागर) है । ४ समय आवलीका प्रमाण है । १० समय जघन्य अबाधाका प्रमाण है। कर्मबंधके समयसे यदि उसके ६५ समय व्यतीत हो गये, केवल एक समय अधिक श्रावली (४+१=५) शेष रहगई है, (अथवा जिस कर्मकी एक समय अधिक उदयावली कम कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है) उस कर्मकी शेष रही हुई स्थिति (५ समयों) के निषेकोंका द्रव्य उत्कर्षण योग्य नहीं है। क्योंकि जो उस समय नवीन कर्म बंध रहा है उसकी जघन्य अबाधा १० समय है । किन्तु जिस कर्मकी स्थिति १० समयसे अधिक शेष रह गई है उस शेष स्थितिके प्रदेशाग्र उत्कर्षण-योग्य है, क्योंकि उसका द्रव्य जघन्य अबाधा १० समयसे ऊपर नवीन बधे हुए कर्मके प्रथम निपेकमें दिया जा सकता है । एम. एल. जैन के प्रबन्ध से सन्मति प्रेस, २०१६ किनारी बाजार देहली मे मुद्रित । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाकारका मंगलाचरण सकल कर्म रज दूर कर, सर्व पूज्य पद पाय । सिद्धि-योग्य अरहंतको, वंदू शीस नवाय ॥१॥ अष्टकर्मको नष्ट कर पा अष्टम क्षितिराज । 7 अक्षय अगणित गुण-धनी, जयवंतो शिवराज ||२|| जो शिव - मग पर नित्य ही चलें चलावें श्राप | ये गणधर आचार्य मम, हरें सकल संताप || ३ || उपदेशें शिवमार्गको, पाठक बन सुखदाय । ध्यान धरें निजरूपका, यशोमूर्ति उवाय ||४|| साधें श्रतम रूपको, धुनें पाप दुखदाय । वे असहाय सहाय कर, मेरी करहिं सहाय ॥ ५॥ वीरवदन-निर्गत-अमल-ज्ञान-सलिल-मय-धार । वहा वहा जगदम्ब ! तू, करे जगत उपकार || ६ || नय-कर- रवि, श्रुत-धर तथा, विनिहत मदन प्रसार । श्रीगुणधरको वन्दना, करता वारंवार ||७|| बहु-नय- गर्भित, गहन प्रति, अमित अर्थ- संयुक्त । जिन कसायपाहुड रचा, अनुपम गाथा युक्त ||८|| यतियोंमें वर वृषभ हैं, श्री यतिवृषभ महन्त । चूर्णिसूत्र के रचयिता, वन्दु सदा नमन्त ॥ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Adina AN श्रीयतिवृषभाचार्य-विरचित-चूर्णिसूत्र-समन्वित श्रीगुणधराचार्य-प्रणीत कसाय पाहुड सुत्त पुवम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए । पेज्ज ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ॥१॥ राग द्वेष जग-मूल हैं, उनका मूल कषाय । वीतराग जिनदेवको, वन्दूं शीस नवाय ॥ जिन राग और द्वेपके वशीभूत होकर ये सर्व जीव दुखी हो रहे है, अपने आप का स्वरूप भूल रहे है और एक दूसरेको सुख-दुःखका दाता मान रहे है, उन्ही राग और द्वेपके बोध कराने और उनसे मुक्ति पानेका मार्ग बतलानेके लिए भव्यजीवोके हितार्थ श्री गुणधराचार्यने इस पेज्जदोसपाहुड अथवा कसायपाहुडका निर्माण किया है । पेज नाम प्रिय या रागका है, और दोस नाम अप्रिय या द्वेषका है । ये राग और द्वेप ही संसारके मूल कारण है। राग और द्वेप की उत्पत्ति कपायोसे होती है, अतएव कषायोकी विभिन्न अवस्थाओका बोध कराकर उनसे मुक्ति पानेका मार्ग बतलानेके लिए इस ग्रन्थका अवतार हुआ है। ___ श्रीगुणधराचार्य इस ग्रन्थके सम्बन्ध आदि बतलानेके लिए गाथासूत्र कहते है-- पाँचवें पूर्वकी दसवी वस्तुमें पेज्जपाहुड नामक तीसरा अधिकार है, उससे यह 'कसायपाहुड' उत्पन्न हुआ है ॥१॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा कसायपाहुडके नाम-उपक्रमका निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा श्रोताजन विवक्षित प्राभृतके समीपवर्ती किये जाते है, अर्थात् जिससे श्रोता Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १ पेजदोस वित्ती १. णाणप्पवादस्स पुञ्चस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स पंचविहो उवक्कमो । तं जहा – आणुपुच्ची णामं पमाणं वत्तव्वदा अत्थाहियारो चेदि । २. आणुपुव्वी तिविहा । ओको विवक्षित प्राभृतके नाम, विषय आदिका बोध होता है उसे उपक्रम कहते है । इस उपक्रमका निरूपण विवक्षित शास्त्र के सम्बन्ध, प्रयोजन आदिको बतलानेके लिए किया जाता है । पूर्वशब्द दिशा आदि अनेक अर्थोंका वाचक है, तथापि यहाँ पर प्रकरणवश बारहवे दृष्टिवाद अंगके अवयवभूत पूर्वगत अधिकारका ग्रहण किया गया है । वस्तु शब्द भी यद्यपि अनेको अर्थोमे रहता है, तो भी प्रकरणके वशसे पूर्वगतके अन्तर्गत अधिकारोका वाचक लिया गया है । वस्तुके अवान्तर अधिकारको पाहुड कहते है । इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि पूर्वगतके चौदह अधिकारोमेसे पॉचवा भेद ज्ञानप्रवाद पूर्व है । इसके भी वस्तु नामक वारह अवान्तर अधिकार हैं, उनमेसे प्रकृतमे दशवा वस्तु अधिकार अभीष्ट है । इसके भी अन्तर्गत बीस पाहुड नामके अर्थाधिकार है, उनमेसे तीसरे पाहुडका नाम पेज्जपाहुड है । इससे इ कसायपाहुडकी उत्पत्ति हुई है । इस सम्बन्ध के बतलाने के लिए ही इस गाथाका अवतार हुआ है | गाथामे आये हुए 'तु' शब्दसे शेष उपक्रम भी सूचित कर दिये गये हैं । अब यतिवृपभाचार्य उक्त गाथासे सूचित उपक्रमोका निरूपण करते है- चूर्णिसु० - ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवे पूर्वके अन्तर्गत दशवी वस्तुके तृतीय प्राभृतका उपक्रम पाँच प्रकारका है। वह इस प्रकार है - - आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थ - धिकार ॥१॥ 1 विशेषार्थ — प्रतिपादन किये जानेवाले ग्रन्थकी क्रम- परम्पराको बतलाना आनुपूर्वी - उपक्रम कहलाता है । प्रतिपाद्य ग्रन्थके सार्थक या असार्थक नामको कहना नाम - उपक्रम है । लोक आदिके द्वारा उसके प्रमाणको कहना प्रमाण - उपक्रम है । ग्रन्थमे कहे जानेवाले विषयको बतलाना वक्तव्यता- उपक्रम है । ग्रन्थके अधिकार, अध्याय या प्रकरणोकी संख्याको बतलाना अर्थाधिकार उपक्रम कहलाता है । इन पांच उपक्रमो के द्वारा विवक्षित वस्तुका सम्यक् प्रकार वोध होता है, इसलिए ग्रन्थके आदिमे इनका वर्णन किया जाता है । अब चूर्णिकार, उक्त पॉचो उपक्रमोके संख्या - प्ररूपणपूर्वक उनका विशेष निरूपण करते हैं- चूर्णिसू० - आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है ||२|| विशेषार्थ -- पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वीके भेदसे आनुपूर्वीउपक्रम के तीन भेद हैं । जो वस्तु जिस क्रमसे विद्यमान है, अथवा जिस प्रकार सूत्रकारोने उपदिष्ट की है, उसे उसी क्रमसे गिनना पूर्वानुपूर्वी है । जैसे -- चौवीस तीर्थंकरोको वृषभ, अजित आदिके क्रमसे गिनना । इससे प्रतिकूल क्रमद्वारा गिनती करना पश्चादानुपूर्वी है । जैसे उन्ही तीर्थकरो को वर्धमान, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदिके विपरीत क्रमसे गिनना । इन दोनो क्रमों को छोड़ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १] उपक्रमादि-निरूपण ३. णामं छव्विहं । ४. पमाणं सत्तविहं । कर जिस किसी भी क्रम से गिनती करनेको यथातथानुपूर्वी कहते है । जैसे -- वासुपूज्य, सुपार्श्वनाथ, शान्तिनाथ इत्यादि यद्वा तद्वा क्रम से उन्हीं तीर्थंकरोकी गिनती करना । प्रकृत यह कसायपाहुड पाँच ज्ञानोमेसे पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा दूसरे से, पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा चौथेसे, और यथातथानुपूर्वीकी अपेक्षा प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ या पंचम स्थानीय श्रुतज्ञानसे निकला है । इसी प्रकार अंगबाह्य और अंग-प्रविष्टके भेद-प्रभेदोमे भी तीनो आनुपूर्वी लगाकर कसायपाहुडकी उत्पत्तिको समझ लेना चाहिए । चूर्णिसू० – नाम - उपक्रमके छह भेद होते है ॥ ३ ॥ विशेषार्थ - गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, उपचयपद और अपचयपदके भेदसे नाम-उपक्रम के छह भेद है । गुणोसे निष्पन्न हुए सार्थक नामोको गौण्यपद कहते है । जैसे—समस्त तत्त्वके ज्ञाताको सर्वज्ञ कहना, राग-द्वेषादिसे रहित पुरुपको वीतराग कहना, इत्यादि । जो नाम गुणोसे उत्पन्न नही होते है - अर्थशून्य होते हैं - उन्हे नोगो - ण्यपद कहते है । जैसे- दरिद्र पुरुषको भूपाल, निर्बलको सहस्रमल्ल और आँखोके अन्धेको नयनसुख आदि कहना । किसी वस्तुके संयोगसे जो नाम होते है, उन्हें आदानपद कहते है । जैसे- दंडेवालेको दंडी, छत्रधारीको छत्री आदि कहना । प्रतिपक्ष के निमित्तसे होनेवाले नामो को प्रतिपक्षपद कहते है । जैसे - विधवा, रंडुआ आदि । किसी अंगविशेषके बढ़ जानेसे रखे गए नामोको उपचयपद कहते है । जैसे --मोटे पैरवालेको गजपद, लम्बे कानवालेको लम्ब कर्ण, इत्यादि कहना । किसी अंगविशेषके छिन्न हो जाने से कहे जानेवाले नामोको अपचयपद कहते है । जैसे -- कटे हुए कानवालेको छिन्नकर्ण और कटी हुई नाकवालेको नकटा कहना । प्रकृतमे कसायपाहुड और पेज्जदोसपाहुड ये नाम गौण्यपदनाम है, क्योकि, द्वेषरूप क्रोधादि कपायोंका और प्रयरूप लोभादि कपायोका, तथा उनके बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि भेदोका नाना अधिकारोसे इस ग्रन्थमे वर्णन किया गया है । m' चूर्णिसू० – प्रमाण - उपक्रम सात प्रकारका है ॥४॥ 1 विशेषार्थ -- जिसके द्वारा पदार्थोंका निर्णय किया जावे, उसे प्रमाण कहते है नाम, स्थापना, संख्या, द्रव्य, क्षेत्र, काल और ज्ञान -प्रमाण के भेदसे प्रमाण उपक्रम सात भेद होते हैं' । 'प्रमाण' यह शब्द नामप्रमाण है । काष्ठ, शिला आदिमे विवक्षित वस्तु के न्यासको स्थापनाप्रमाण कहते है । अथवा मति, श्रुत आदि ज्ञानोका तदाकार या अतढ़ाकार रूपसे निक्षेप करना स्थापनाप्रमाण है । द्रव्य या गुणो की शत, सहस्र, लक्ष आदि संख्याको संख्याप्रमाण कहते है । पल, तुला, कुडव आदि को द्रव्यप्रमाण कहते है । अंगुल, हस्त, धनुप, योजन आदिको क्षेत्रप्रमाण कहते हैं । समय, आवली, मुहूर्त, पक्ष, मास आदिको कालप्रमाण कहते है । मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानके भेदसे ज्ञानप्रमाण पाँच प्रकारका है । प्रकृतमे नाम, संख्या और श्रुतज्ञान, ये तीन प्रमाण ही विवक्षित है, क्योकि, यहाँ पर अन्य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती ५. वत्तव्बदा तिविहा । ६. अत्थाहियारो पण्णारसविहो । गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि । वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अथम्मि ॥२॥ की विवक्षा नहीं है । 'कसायपाहुड' इस नामकी अपेक्षा नामप्रमाण, अपने अवान्तर अधिकारोकी या ग्रन्थके पदोकी अपेक्षा संख्याप्रमाण और ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्वसे उत्पन्न होनेके कारण श्रुतज्ञानप्रमाणकी प्रकृतमे विवक्षा की गई है। चूर्णिसू०-वक्तव्यता-उपक्रम तीन प्रकारका है ॥५॥ विशेषार्थ-स्वसमयवक्तव्यता, .परसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यताके भेदसे वक्तव्यता-उपक्रमके तीन भेद होते है। जिसमे स्वसमयका-अपने सिद्धान्तका-विवेचन किया जाय, उसे स्वसमयवक्तव्यता कहते है । जिसमे परसमयका--अन्य मतमतान्तरोका-- प्रतिपादन किया जाय, उसे परसमयवक्तव्यता कहते है। जिसमे स्व और पर, इन दोनो प्रकारके समयोका (सिद्धान्तोका) निरूपण किया जाय, उसे तदुभयवक्तव्यता कहते हैं । इनमेंसे इस कसायपाहुडमे स्वसमयवक्तव्यताका ही ग्रहण है । क्योकि, इसमे केवल स्वसमयप्रतिपादित राग-द्वेप या कषायो का ही वर्णन किया गया है। - चूर्णिसू०-अर्थाधिकार पन्द्रह प्रकारका है ॥६॥ विशेषार्थ-ज्ञानके पाँच अर्थाधिकार है। उनमेसे श्रुतज्ञानके दो अधिकार है-- अंगवाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगवाह्यके सामयिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि चौदह अर्थाधिकार हैं। अंगप्रविष्ट के आचारांग, सूत्रकृतांग आदि वारह अधिकार है । इनमेसे दृष्टिवाद नामक वारहवे अर्थाधिकारके भी परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, ये पाँच अर्थाधिकार है । इनमेसे पूर्वगतके चौदह अर्थाधिकार है—१ उत्पादपूर्व, २ आग्रायणीपूर्व, ३ वीर्यानुप्रवाद, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ आत्मप्रवाद, ८ कर्मप्र. वाद, ९ प्रत्याख्यानप्रवाद, १० विद्यानुवाद, ११ कल्याणवाद, १२ प्राणावायप्रवाद, १३ क्रियाविशाल और १४ लोकविन्दुसार। इनमेसे ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवे अर्थाधिकारके वस्तु नामक बारह अर्थाधिकार है । जिनमेसे दसवे वस्तु अधिकारके अन्तर्गत तृतीय प्राभृतसे इस ग्रन्थकी उत्पत्ति हुई है। प्रकृत ग्रन्थके पन्द्रह अर्थाधिकार हैं, जो कि आगे कहे जानेवाले हैं, यह बतलानेके लिए इस चूर्णिसूत्रका अवतार हुआ है । ___अव इन पन्द्रह अर्थाधिकारोके नामनिर्देशके साथ एक-एक अधिकारमे कितनी कितनी गाथाएँ निबद्ध है, इस वातको वतलाते हुए गुणधराचार्य प्रतिनासूत्र कहते हैं-- इस कसायपाहुडमें एक सौ अस्सी गाथासूत्र हैं। वे गाथासूत्र पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त हैं। उनमेंसे जिस अर्थाधिकारमें जितनी जितनी सूत्रगाथाएँ प्रतिवद्ध हैं, उन्हें मैं ( गुणधराचार्य ) कहूँगा ॥२॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार-गाथा - निरूपण पेज-दोसविहत्ती द्विदि अणुभागे च बंधगे चेव । तिण्दा गाहाओ पंचसु अत्थेसु णादव्वा ||३|| गा० ३ ] विशेषार्थ - इस गाथाके द्वारा गुणधराचार्यने तीन प्रतिज्ञाओकी सूचना की है । जो कसायपाहुड गौतम गणवर ने सोलह हजार पदोके द्वारा कहा है, उसे मैं एक सौ अस्सी गाथाओके द्वारा ही कहता हूँ, यह प्रथम प्रतिज्ञा है । गौतम गणधर से रचित कसा पाहुड में अनेक अर्थाधिकार है, उन्हें मैं पन्द्रह अर्थाधिकारोसे ही निरूपण करता हूँ, यह द्वितीय प्रतिज्ञा है । तथा, एक एक अर्थाधिकारमे इतनी इतनी गाथाएँ है, यह तृतीय प्रतिज्ञा है । इसीके अनुसार आगे विभिन्न अधिकारोमे गाथाओकी संख्या बतलाई गई है । प्रेयोद्वेषविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, बन्धक अर्थात् बन्ध और संक्रम, इन पाँच अर्थाधिकारोंमें 'पेज्जं वा दोसं वा' इत्यादि प्रथम गाथा, 'पयडी मोहणिज्जा' इत्यादि द्वितीय गाथा, 'कदि पयडीओ बंधदि' इत्यादि तृतीय गाथा, ये तीन गाथाएँ निबद्ध हैं, ऐसा जानना चाहिए || ३ || विशेषार्थ — गाथा-पठित 'पेज्ज दोस' इस पदके निर्देशसे 'पेज्जं वा दोसं वा' इत्यादि प्रथम गाथाकी सूचना की गई है । 'विहत्ती द्विदि अणुभागे च' इस पदके द्वारा 'पडी य मोहणिज्जा' इत्यादि द्वितीय गाथा सूचित की गई है । 'बंधगे चेव' इस पद के द्वारा 'कदि पयडीओ बंधदि' इत्यादि तृतीय गाथाका निर्देश किया गया है । उक्त तीनो गाथाएँ जिन पॉच अर्थाधिकारोने निबद्ध हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं- १ प्रोद्वेपविभक्ति २ स्थितिविभक्ति ३ अनुभागविभक्ति ४ अकर्मबंधक (बंध ) और ५ कर्मबंधक ( संक्रम ) । इन पाँच अधिकारोमें प्रकृतिविभक्ति और प्रदेशविभक्तिको पृथक् नहीं कहा गया है, इसका कारण यह है कि ये दोनो विभक्तियाँ स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति, इन दोनोमे ही प्रविष्ट है, क्योकि, प्रकृति और प्रदेशविभक्तिके बिना स्थिति और अनुभागविभक्ति हो ही नही सकती है । इसी प्रकार क्षीणाक्षीणप्रदेश और स्थित्यन्तिकप्रदेश, ये दोनो अधिकार भी उनमे ही प्रविष्ट समझना चाहिए, क्योकि, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति इन दोनोके विना क्षीणाक्षीणप्रदेश और स्थित्यन्तिक वन नहीं सकते हैं । अथवा, प्रोद्वेषविभक्तिमे प्रकृतिविभक्ति प्रविष्ट है, क्योकि, द्रव्य और भावस्वरूप प्र योद्वेपके अतिरिक्त प्रकृतिविभक्तिका अभाव है । प्रदेशविभक्ति, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक, ये तीनो अधिकार प्रयोद्वेप, स्थिति और अनुभागविभक्तियोमे प्रविष्ट है, क्योकि, ये तीनो विभक्तियाँ प्रदेश -विभक्ति आदिकी अविनाभावी है । अथवा, 'अणुभागे चेदि' इस चरण मे पठित 'च' शब्दसे सूचित प्रदेशविभक्ति, स्थित्यन्तिक और क्षीणाक्षीण इन तीनोको मिलाकर एक चौथा अधिकार हो जाता है । बंध और संक्रम, इन दोनोको लेकरके पॉचवॉ अर्थाधिकार होता है । इन पॉच अर्थाधिकारोमे पूर्वोक्त तीन गाथाऍ निवद्ध हैं । विभक्ति नाम विभागका है । कर्मोंके स्वभाव - सम्वन्धी विभागको प्रकृतिविभक्ति कहते Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती चत्तारि वेदयम्मि दु उवजोगे सत्त होति गाहाओ। सोलस य बउटाणे वियंजणे पंच गाहाओ ॥४॥ हैं । कर्मोंके जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति-सम्बन्धी विभागको स्थितिविभक्ति कहते हैं। कर्मों के लता, दारु, अस्थि, शैलरूप देशघाति सर्वघाति शक्तिको, तथा गुड़, खॉड़, शक्कर, अमृतरूप पुण्य-प्रकृतियोके और निम्ब, कॉजीर, विप, हालाहलरूप पाप-प्रकृतियोके फल देनेकी शक्तिके विभागको अनुभागविभक्ति कहते है। कर्म-प्रदेशोका विभिन्न प्रकृतियोरूप वटवारा होना, उनका आंशिक या सामूहिक रूपसे निर्जीर्ण होना, अपने समयपर या आगे पीछे उदय आना, आदि कार्य प्रदेशविभक्तिके अन्तर्गत है । इसी कारण क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक नामक दो अधिकारोंका प्रदेशविभक्तिमे अन्तर्भाव किया गया है । जो कर्म-प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण आदिके रूपसे परिवर्तित किये जा सकते है, उनकी 'क्षीण' संज्ञा है और जो उत्कर्षण, अपकर्पण आदिके द्वारा परिवर्तनके अयोग्य होते है, उन्हे 'अक्षीण' कहते है । इन दोनो प्रकारके कर्म-प्रदेशोका वर्णन क्षीणाक्षीण नामक अधिकारमे किया गया है । जघन्य, उत्कृष्ट और अधानिपेक, उदयनिषेक आदि विवक्षित स्थितिको प्राप्त हुए काँका उदयमे आकर अन्त होनेको स्थित्यन्तिक कहते है । इस प्रकार प्रकृतिविभक्ति आदिके द्वारा आठो कर्मोंका ग्रहण प्राप्त होता है, पर इस प्रकृत कपायप्राभृतमे एक मोहनीय कर्मका ही विस्तृत वर्णन किया गया है, अतः उसकी ही विभिन्न प्रकृतियोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-सम्बन्धी विभागोकी भी विभक्ति संज्ञा सार्थक हैं। वन्धक अधिकारमे बन्ध और संक्रम नामके दो अधिकार है। मिथ्यादर्शनादि कारणोसे कार्मण पुद्गल-स्कन्धोका जीवके प्रदेशोके साथ एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धको वन्ध कहते हैं और बंधे हुए कर्मोंका यथासम्भव अपने अवान्तर भेदोमे परिवर्तित होनेको संक्रम कहते है। वन्ध और संक्रमको एक वन्धक संज्ञा देनेका कारण यह है कि वन्धके दो भेद हैं:--अकर्मवन्ध और कर्मवन्ध । नवीन वन्धको अकर्मवन्ध और बंधे हुए कर्मों के परस्पर संक्रान्त होकर बंधनेको कर्मवन्ध कहते हैं। अतः कर्मबन्धका नाम संक्रम कहा गया है। यद्यपि प्रकृत गाथामे अधिकारसूचक पेज्जदोस, स्थिति, अनुभाग और वन्धक ये चार पद ही आये हैं, तथापि 'ये तीन गाथाएँ पॉच अर्थोंमे जानना चाहिए' ऐसी स्पष्ट सूचना भी सूत्रकार कर रहे है । अतः जयधवलाकारने अपनी टीकामे बहुत ऊहापोहके पश्चात् सूत्रकार गुणधराचार्य, चूर्णिकार यतिवृपभाचार्य और अपने मतके अनुसार विभिन्न युक्तियोके वलपर तीन प्रकारके अधिकारोकी कल्पना की है, जैसा कि आगे कोप्टकमे स्पष्ट किया गया है। वेदक नामका छठा अर्थाधिकार है, उसमें चार सूत्रगाथाएँ निबद्ध हैं । उपयोग नामका सातवॉ अर्थाधिकार है, उसमें सात सूत्रगाथाएँ निवद्ध है। चतुःस्थान नामका आठवाँ अर्थाधिकार हैं, उसमें सोलह सूत्रगाथाएँ निबद्ध हैं । व्यंजन नामका नवाँ अर्थाधिकार है, उसमें पाँच सूत्रगाथाएँ निबद्ध हैं ॥४॥ ahothotho Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०५] अधिकार-गाथा-निरूपण दंसणमोहस्सुवसामणा पण्णारस होंति गाहाओ । पंचैव सुतगाहा दंसणमोहस्स खवणाए ||५|| 60 विशेषार्थ - राग-द्वेपके उत्पादक कषाय है और कपायोका मूल आधार मोहकर्म है । राग-द्वेष या कषायों के वेदनको - उदयको - प्रतिपादन करनेवाला वेदक नामका अर्थाधिकार है । इसमें 'कदि आवलियं पवेसेइ' इस गाथाको आदि लेकर 'जो जं संकामेदि य' इस गाथा तक चार सूत्रगाथाएँ हैं । इस अर्थाधिकार तक सूत्र गाथाओकी संख्या सात (३+४ = ७) होती है । कषायोका उपयोग कितने काल तक रहता है. किस गतिके जीव किस कपायमे कितनी देर तक उपयुक्त रहते हैं, इत्यादिरूपसे कषायोमे उपयुक्त दशाका वर्णन करनेवाला सातवा अर्थाधिकार है । इसमे 'केवचिरं उवजोगो' इस गाथासे लेकर 'उवजोग-वग्गणाहि य अविरहिदं' इस गाथा तक सात सूत्रगाथाएँ हैं । इस अर्धाधिकार तक सूत्रगाथाओकी संख्याका योग चौदह (३+४+७ = १४) होता है । अनन्तानुबन्धी आदि कषायोके शैलरेखा, पृथिवी - रेखा, धूलिरेखा और जलरेखा, इन चार स्थानोसे वर्णन करनेवाले अर्थाधिकारको 'चतु:स्थान' अर्थाधिकार कहते है । इस अर्थाधिकार मे 'कोहो चउव्विहो वृत्तो' इस गाथासे लेकर 'असण्णी खलु बंधइ' इस गाथा तक सोलह गाथाऍ निबद्ध हैं । यहाँ तक समस्त सूत्रगाथाओ की संख्या तीस (३+४+७+१६= ३०) होती है । क्रोधादि कपायोके एकार्थकपर्यायवाची नामोको प्रतिपादन करने वाला 'व्यंजन' नामका अर्थाधिकार है । इस अधिकारमे 'कोहो य कोप रोसो य' इस गाथासे लेकर 'सासद पत्थण लालस' इस गाथा तक पाँच सूत्र - गाथाएँ सम्बद्ध हैं । यहाँ तक सर्व सूत्रगाथाओकी संख्या पैतीस (३+४+७+१६+ ५ = ३५) होती है । 1 - दर्शन मोह - उपशामना नामका दशवाँ अर्थाधिकार है, उसमें पन्द्रह सूत्रगाथाएँ निबद्ध हैं | दर्शनमोह-क्षपणा नामका ग्यारहवाँ अर्थाधिकार है, उसमें पॉच ही सूत्रगाथाएँ निवद्ध हैं ||५|| विशेषार्थ - दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमन करनेवाले जीवके परिणाम कैसे होते हैं, उसके कौन कौनसे योग, कौन कौनसी लेश्याऍ, कषाय, वेद आदि होते हैं, इत्यादि वर्णन करनेवाला दर्शनमोह - उपशामना नामका दशवॉ अर्थाधिकार है । इसमे 'दंसणमोहस्सुवसा - मगो' इस गाथासे लेकर ' सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो वा' इस गाथा तक पन्द्रह सूत्रगाथाएँ सम्बद्ध हैं । इस अधिकार तक समस्त गाथाओकी संख्या पचास ( ३+४+७+१६+ ५ + १५ =५० ) होती है | दर्शनमोहनीयकर्मका क्षय कौन जीव करता है, किन किन कर्म - प्रकृतियोके क्षय होनेपर क्षायिकसम्यक्त्व होता है, किस किस गतिमे और कितने काल तक दर्शनमोहकी क्षपणा होती है, इत्यादि वर्णन दर्शन मोह-क्षपणा नामके ग्यारहवें अर्थाधिकारमे किया गया है । इस अधिकार मे 'दंसणमोहक्खवणापट्टवगो' इस गाथासे लेकर 'संखेजा च Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती लद्धी य संजमासंजमस्स लद्धी तहा चरित्तस्स । दोसु वि एका गाहा अटेवुवसामणद्धम्मि ॥६॥ चत्तारि य पट्टवए गाहा संकामए वि चत्तारि। ओवट्टणाए तिणि दु एकारस होति किट्टीए ॥७॥ मणुस्सेसु' इस गाथा तक पाँच सूत्रगाथाएँ निवद्ध हैं। यहाँ तक समस्त गाथाओका जोड़ पचवन ( ३+४+ ७ + १६ + ५ + १५ + ५=५५ ) होता है । कितने ही आचार्य, दर्शनमोहकी उपशामना और दर्शनमोह-क्षपणा, इन दोनो ही अधिकारो को एक सम्यक्त्व अधिकारके अन्तर्गत कहते हैं । उनकी उक्त पक्षके समर्थन मे युक्ति यह है कि यदि इन दोनो अधिकारोको एक न माना जाय, तो 'अद्धापरिमाण' नामके अधिकार के साथ सोलह अधिकार हो जाते हैं । इसपर जयधवलाकारने यह समाधान किया है कि गुणधराचार्यने जिन एक सौ अस्सी गाथाओके द्वारा कसायपाहुड के कहनेकी प्रतिज्ञा की है, उनमे अद्धापरिमाण-अर्थाधिकारसे प्रतिवद्ध गाथाएँ नहीं पाई जाती हैं, इसलिए इसे पृथक अधिकार न मानकर सभी अधिकारोमे साधारणरूपसे व्याप्त अधिकार मानना चाहिए। गुणधराचार्यने यही बात 'अद्धापरिमाण-णिदेसो' इस अन्तदीपक पदके द्वारा सूचित की है। संयमासंयम-लब्धि नामका बारहवाँ अर्थाधिकार है और चारित्र-लब्धि नामका तेरहवॉ अर्थाधिकार है । इन दोनों ही अर्थाधिकारोंमें एक गाथा निबद्ध है । चारित्रमोह -उपशामना नामका चौदहवाँ अर्थाधिकार है। इसमें आठ सूत्रगाथाएँ सम्बद्ध हैं ॥६॥ विशेषार्थ-देशचारित्रकी प्राप्ति किस प्रकार होती है, इस बातका वर्णन संयमासंयमलब्धि नामक अर्थाधिकारमे किया गया है । सकलचारित्रकी प्राप्ति कैसे होती है, चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम आदि किस प्रकार होता है, इत्यादि वर्णन चारित्रलब्धि नामके तेरहवे अर्थाधिकारमे किया गया है। संयमासंयमलब्धि और चारित्रलब्धि, इन दोनो अर्थाधिकारोमे 'लद्धी य संजमासंजमस्स' यह एक ही गाथा निबद्ध है। यहाँ तक समस्त गाथाओका जोड़ छप्पन ( ५६ ) होता है। चारित्रमोहकर्मका उपशम किस प्रकार होता है, उपशम-श्रेणीमे कहॉपर क्या क्या आवश्यक कार्य होते हैं, इत्यादि वर्णन चारित्रमोह-उपशामना नामक चौदहवें अधिकारमे किया गया है। इस अधिकारमे 'उवसामणा कदिविधा' इस गाथासे लेकर 'उवसामणाखएण दु अंसे बंधदि' इस गाथा तक आठ गाथाएँ निबद्ध हैं । इस अधिकार तक सब गाथाआंका जोड़ चौसठ (३+४+ ७ + १६ + ५ + १५ + ५ + १+८= ६४ ) होता है। चारित्रमोहकी क्षपणाका जो जीव प्रस्थापक होता है, उसके विषयमें चार Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०८] अधिकार-गाथा-निरूपण चत्तारि य खवणाए एका पुण होदि खीणमोहस्स । एका संगहणीए अट्ठावीसं समासेण ॥८॥ गाथाएँ हैं । संक्रमणमें चार गाथाएँ प्रतिबद्ध हैं। अपवर्तनामें तीन गाथाएँ और कृष्टीकरणमें ग्यारह गाथाएँ निबद्ध हैं ॥७॥ विशेषार्थ- चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयका प्रारम्भ करनेवाला जीव 'प्रस्थापक' कहलाता है । उसके विषयमे 'संकामयपट्टवयस्स परिणामो केरिसो हवे' इस गाथासे लेकर 'किंद्विदियाणि कम्माणि' इस गाथा तक चार गाथाएँ निबद्ध है। चारित्रमोहनीयके क्षपण करनेवाले जीवकी नवे गुणस्थानमे अन्तरकरणके पश्चात् 'संक्रामक' यह संज्ञा हो जाती है । उसके विषयमे 'संकामणपट्ठव०' इस गाथासे लेकर 'बंधो व संकमो वा उदयो वा' इस गाथा तक चार गाथाएँ निवद्ध हैं। चारित्रमोहकी स्थितिके ह्रास करनेको अपवर्तना कहते हैं । इसके विषयमें 'कि अंतरं करेतो' इस गाथासे लेकर 'हिदि अणुभागे अंसे' इस गाथा तक तीन गाथाएँ निबद्ध हैं। कषायोके खण्ड करनेको कृष्टीकरण कहते हैं। इसके विषयमें 'केवडिया किट्टीओ' इस गाथासे लेकर 'किट्टीकदम्मि कम्मे के वीचारा दु मोहणीयस्स' इस गाथा तक ग्यारह गाथाएं निबद्ध है। कृष्टियोंकी क्षपणामें चार गाथाएँ निबद्ध हैं । क्षीणमोह-वीतराग-छद्मस्थके विषयमें एक गाथा है। संग्रहणीके विषयमें एक गाथा सम्बद्ध है । इस प्रकार सव मिलाकर चारित्रमोह-क्षपणा नामके पन्द्रहवें अर्थाधिकारमें अट्ठाईस गाथाएँ प्रतिबद्ध हैं ॥८॥ विशेषार्थ-चारो संज्वलन कपायोकी जो बारह कृष्टियाँ की जाती हैं उनके क्षपणाका प्रतिपादन करनेवाली 'किं वेदेतो किट्टि खवेदि' इस गाथासे लेकर 'किट्टीदो किट्टि पुण' इस गाथा तक चार गाथाएँ हैं। मोहकर्मकी समस्त प्रकृतियोके क्षीण हो जानेपर क्षीणमोह संज्ञा प्राप्त होती है। उसके विपयमे 'खीणेसु कसाएसु य सेसाणं' यह एक गाथा है। समस्त अधिकारके उपसंहार करनेवाली गाथाको संग्रहणी कहते हैं। ऐसी 'संकामणमोवट्टण०' यह एक गाथा है । इस प्रकार इन सब गाथाओका योग (४+४+३+ ११ +४+ १ + १ =२८ ) अट्ठाईस होता है । चारित्रमोहकी क्षपणा-सम्बन्धी इन अट्ठाईस गाथाओको पूर्वोक्त चौसठ गाथाओमे मिला देनेपर समस्त गाथाओका जोड़ (६४ + २८=९२) वानवै होता है। चारित्रमोहक्षपणा नामके पन्द्रहवें अर्थाधिकारमें जो अट्ठाईस गाथाएँ वतलाई गई हैं', उनमे सूत्रगाथाएँ कितनी हैं और असूत्रगाथाएँ कितनी है, यह बतलानेके लिए आचार्य दो गाथासूत्र कहते हैं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती किट्टीकयवीचारे संगहणी खीणमोहपट्रवए । सत्तेदा गाहाओ अण्णाओ सभासगाहाओ ॥९॥ संकामण ओवट्टण किट्टीखवणाए एकवीसं तु । एदाओ सुहगाहाओ सुण अण्णा भासगाहाओ' ॥१०॥ पंच य तिणि य दो छक चउक्क तिमि तिणि एका य । चत्तारि य तिणि उभे पंच य एक तह य छकं ॥११॥ तिणिण य चउरो तह दुग चत्तारि य होति तह चउकं च । दो पंचव य एका अण्णा एका य दस दो य॥१२॥ -~ कृष्टि-सम्बन्धी ग्यारह गाथाओं से ग्यारहवी वीचार-सम्बन्धी एक गाथा, संग्रहणी-सम्बन्धी एक गाथा, क्षीणमोह-सम्बन्धी एक गाथा और प्रस्थापक-सम्बन्धी चार गाथाएँ; इस प्रकार ये सात गाथाएँ सूत्रगाथाएँ नहीं हैं। इनके सिवाय शेष अन्य सभाष्य गाथाएँ हैं । संक्रामण-सम्बन्धी चार गाथाएँ, अपवर्तना-सम्बन्धी तीन गाथाएँ, कृष्टि-सम्बन्धी दश गाथाएँ और कृष्टि-क्षपणा-सम्बन्धी चार गाथाएँ; ये सब मिलाकर इक्कीस सूत्र-गाथाएँ हैं। अब इन इक्कीस सूत्र-गाथाओंकी जो अन्य भाष्य-गाथाएँ हैं, उन्हें सुनो ।।९-१०॥ विशेषार्थ-पृच्छारूपसे अनेक अर्थोंकी सूचना करनेवाली गाथाओको सूत्रगाथा कहने हैं और उन पृच्छाओका अर्थ-व्याख्यान करनेवाली गाथाओको भाष्यगाथा अथवा असूत्रगाथा कहते हैं। प्रकृतमे उक्त इक्कीस मूल गाथाओके अर्थके व्याख्यान करनेवाली छियासी अन्य भी गाथाएँ पाई जाती है, जिन्हे भाष्यगाथा गाथा कहते हैं । वे भाष्य-गाथाएँ कौन-कौन हैं, और किस-किस अर्थम कितनी-कितनी भाष्यगाथाएँ हैं, यह बतलाते हुए भाष्य-गाथाओंके प्ररूपण करनेके लिए आगे की दो सूत्र-गाथाएँ कहते हैं--- चारित्रमोहक्षपणा-सम्बन्धी इक्कीस सूत्र-गाथाओंकी भाष्य-गाथा-संख्या क्रमशः पाँच, 'तीन, दो और छह', चार, तीन, तीन, एक, चार, तीन, दो, 'पाँच, एक और छह', तीन, चार, दो, चार, चार, दो, पाँच, एक, एक, दश और दो है ॥११-१२॥ विशेपार्थ-नवे गुणस्थानमै अन्तरकरण करनेपर जीव संक्रामक कहलाता है, १ तत्थ मूलगाहाओ णाम सुत्तगाहाओ, पुच्छामेत्तेण सूचिदाणेगत्थाओ। भासगाहा सवपेक्खाओ। मासगाहामओ चि वा वक्खाणगाहाओ त्ति वा विवरणगाहाओ ति वा एयहो। जयध. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ९-१२] - अधिकार-गाथा-निरूपण उसके वर्णनमे चार मूल गाथाएँ हैं । उनमेसे 'संकामणपट्ठवगस किंडिदियाणि पुव्ववद्धाणि' यह प्रथम मूल सूत्र-गाथा है। इसके अर्थका व्याख्यान करनेवाली पाँच भाष्य-गाथाएँ है । जो कि 'संकामणपट्ठवगस्स' इस गाथासे लेकर 'संकंतम्मि च णियमा' इस गाथा तक जानना चाहिए । 'संकामणपट्ठवगो' इस संक्रमण-सम्बन्धी दूसरी गाथाके तीन अर्थ है । उनमेसे 'संकामणपट्ठवओ के बंधदि' इस प्रथम अर्थमे तीन भाष्य-गाथाएँ हैं। जो कि 'वस्ससदसहस्साई' इस गाथासे लेकर 'सव्वावरणीयाणं जेसि' इस गाथा तक जानना चाहिए । 'के च वेदयदि अंसे' इस दूसरे अर्थमे दो भाष्य-गाथाएँ प्रतिबद्ध हैं। जिनमे पहली 'णिद्दा य णीचगोदं' और दूसरी 'वेदे च वेदणीए' इत्यादि गाथा है । 'संकामेदि य के के' इस तीसरे अर्थमे छह भाष्य गाथाएँ हैं। जो कि 'सव्वस्स मोहणीयस्स' इस गाथासे लेकर 'संकामयपछ्वगो माणकसायस्स' इस गाथा तक जानना चाहिए । 'बंधो व संकमो वा' इस तीसरी मूलगाथाकी चार भाष्य-गाथाएँ हैं। जो कि 'बंधेण होदि उदओ अहिओ' इस गाथासे लेकर 'गुणसेढि अणंतगुणेणूणाए' इस गाथा तक जानना चाहिए । 'बंधो व संकमो वा उदओ वा' इस चौथी मूलगाथाकी तीन भाष्य गाथाएँ हैं। जो कि 'बंधोदएहिं णियमा' इस गाथासे लेकर 'गुणदो अणंतहीणं वेदयदि' इस गाथा तक होती हैं। इस प्रकार 'संकामए वि चत्तारि' इस गाथाखंडकी २३ भाष्य-गाथाएँ कही गई। अपवर्तना-सम्बन्धी तीन मूलगाथाएँ हैं। उनमेसे 'किं अंतरं करेंतो' इस पहली मूलगाथाकी तीन भाष्य गाथाएँ है। जो कि !ओवट्टणा जहण्णा आवलिया' अणिया तिभागेण' इस गाथासे लेकर 'ओकट्टदि जे अंसे' इस गाथा तक हैं। 'एकं च हिदिविसेसं' इस दूसरी मूलगाथाकी ‘एकं च छिदिविसेसं तु असंखेज्जेसु' यह एक भाप्यगाथा है। 'छिदिअणुभागे अंसे' इस तीसरी मूलगाथाकी चार भाष्य-गाथाएँ हैं । जो कि 'ओवट्टेदि छिदि पुण' इस गाथासे लेकर 'ओवट्टणमुव्वट्टण किट्टीवज्जेसु' इस गाथा तक जानना चाहिए। इस प्रकार अपवर्तनासम्बन्धी तीनो मूलगाथाओकी भाष्यगाथाएँ कही गई। कृष्टि-सम्बन्धी ग्यारह मूलगाथाएँ हैं। उनमें 'केवडिया किट्टीओ' यह पहली मूलगाथा है। इसके अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीन भाष्यगाथाएँ हैं, जो कि 'बारह णव छ तिण्णि य किट्टीओ होति' इस गाथासे लेकर 'गुणसेढी अणंतगुणा लोभादी' इस गाथा तक जानना चाहिए । 'कदिसु च अणुभागेसु च' इस दूसरी मूलगाथाकी दो भाष्यगाथाएँ हैं, जो कि 'किट्टी च हिदिविसेसेसु' इस गाथासे लेकर 'सव्वाओ किट्टीओ विदियट्टिदीए' इस गाथा तक जानना चाहिए । 'किट्टी च पदेसग्गेणाणुभागग्गेण' इस तीसरी मूलगाथाके तीन अर्थ हैं। उनमेसे 'किट्टी च पदेसग्गेण' इस प्रथम अर्थमे पाँच भाष्यगाथाएँ हैं। जो कि 'विदियादो पुण पढमा' इस गाथासे लेकर 'एसो कमो च कोहे' इस गाथा तक जानना चाहिए। 'अणुभागग्गेण' इस दूसरे अर्थमे 'पढमा च अणंतगुणा विदियादो' यह एक ही भाष्यगाथा है । 'का च कालेण' इस तीसरे अर्थमे छह भाष्यगाथाएँ हैं, जो कि 'पढमसमय-किट्टीणं कालो' Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १ पेजदोस विहती I इस गाथा से लेकर 'वेदगकालो किट्टी य' इस गाथा तक जानना चाहिए । 'कदिसु गढ़ीसु भवेसु अ' इस चौथी मूलगाथाकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'दोसु गदीसु अभाणि' इस गाथासे लेकर 'उकस्से अणुभागे दिदि उक्कस्साणि' इस गाथा तक जानना चाहिए | 'पज्जत्तापज्जत्त ेण तथा' इस पॉचवी मूलगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'पज्जत्तापज्जत्ते मिच्छत्ते' इस गाथासे लेकर 'कम्माणि अभज्जाणि दु' इस गाथा तक जानना । 'किंलेस्साए वद्धाणि' इस छठी मूलगाथाकी दो भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'लेस्सा साद असादे च' इस गाथासे लेकर 'दाणि पुव्ववद्धाणि' इस गाथा तक जानना । ' एगसमय पवद्धा पुण अच्छुद्धा ' इस सातवी मूलगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'छण्हं आवलियाणं अच्छुद्धा' इस गाथासे लेकर 'एढ़े समयपवद्धा' इस गाथा तक जानना । ' एगसमयपवद्धाणं सेसाणि' इस आठवी मूलगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'एक्कम्मि ट्ठिदिविसेसे' इस गाथासे लेकर 'एढ़ेण अंतरेण दु' इस गाथा तक जानना । 'किट्टीकदम्मि कम्मे' इस नवी मूलगाथाकी दो भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'किट्टीकदम्मि कम्मे णामागोदाणि' इस गाथासे लेकर 'किट्टीकदम्मि कम्मे सादं सुहणाममुच्चगोदं च' इस गाथा तक जानना । 'किट्टीकदम्मि कम्मे के वंधदि ' इस दशवीं मूलगाथाकी पॉच भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'दससु च वस्सस्संतो वंधदि' इस गाथासे लेकर ‘जसणाममुच्चगोदं वेदयदे' इस गाथा तक जानना । 'किट्टीकदम्मि कम्मे के वीचारा दु मोहणीयस्स' इस ग्यारहवी मूलगाथाकी कोई भाप्यगाथा नहीं है, क्योकि, वह सुगम है । इस प्रकार कृष्टि सम्बन्धी ग्यारह मूलगाथाओकी भाष्यगाथाएँ कही गई । कृष्टी क्षपणामे चार मूलगाथाएँ प्रतिवद्ध हैं । उनमेसे 'किं वेदेंतो किट्टि खवेदि' यह पहली मूलगाथा है । इसकी 'पढमं विदियं तदियं वेदेतो' यह एक भाष्यगाथा है । 'जं वेदेतो किट्टि खवेदि' इस दूसरी मूलगाथाकी 'जं चावि संछुहंतो खवेदि किट्टि ' यह एक भाष्यगाथा है । 'जं जं खवेदि किट्टिं' इस तीसरी मूलगाथाकी दश भाष्यगाथाएँ हैं । वे 'बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु ठिदिविसेसेसु' इस गाथासे लेकर 'पच्छिम आवलियाए समयूणा' इस गाथा तक जानना । 'किट्टीदो किट्टि पुण संकमदि' इस चौथी मूलगाथाकी दो भाष्यगाथाएँ है । वे 'किट्टी किंहिं पुण संकमदे णियमसा' इस गाथासे लेकर 'समयूणाच विट्ठा आवलिया' इस गाथा तक जानना । इस प्रकार कृष्टियोकी क्षपणा सम्बन्धी चारो मूलगाथाओकी भाष्यगाथाएँ कही गई । १२ उक्त दो गाथाओ से कही गई समस्त भाष्यगाथाओकी संख्याका योग ध्यासी ( 9+′3⁄4+R+&'+8+3+3+8+8+3+2+′4+?+&’+3+8+2+8+ ४+२+५+१+१+१०+२=८६ ) होता है । इन छयासी गाथाओमे पूर्वोक्त अट्ठाईस मूलगाथाओके मिला देनेपर चारित्रमोहनीयके क्षपणा नामक पन्द्रहवे अर्थाधिकारमें निवद्ध गाथाओकी संख्या एक सौ चौदह होती है । इनमें प्रारम्भिक चौदह अर्थाधिकारोकी चौसठ गाथाओके मिला देनेपर समस्त गाथाओकी संख्या एक सौ अठहत्तर हो जाती है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १३-१४ अर्थाधिकार-निरूपण (१) पेज-दोसविहत्ती द्विदि अणुभागे च बंधगे चेय । वेदग उवजोगे वि य चउट्ठाण वियंजणे चेय ॥१३॥ सम्मत्त देसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दंसण-चरित्तमोहे अदुधापरिमाणणिद्देसो ॥१४॥ ७. अत्थाहियारो पण्णारसत्रिहो अण्णेण पयारेण । अब कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकारोके निरूपण करनेके लिए गुणधराचार्य दो सूत्रगाथाएँ कहते हैं कसायपाहुडमें वर्णन किये जानेवाले पन्द्रह अर्थाधिकारों के नाम इस प्रकार हैं-१ प्रेयोद्वेषविभक्ति, २ स्थितिविभक्ति, ३ अनुभागविभक्ति, ४ अकर्मवन्धकी अपेक्षा बन्धक, ५ कर्मबन्धकी अपेक्षा बन्धक अर्थात् संक्रामक, ६ वेदक, ७ उपयोग, ८ चतुःस्थान, ९ व्यञ्जन, १० दर्शनमोह-उपशामना, ११ दर्शनमोह-क्षपणा, १२ देशविरति, १३ सकलसंयम, १४ चारित्रमोह-उपशामना, और १५ चारित्रमोह-क्षपणा । ये पन्द्रहों अर्थाधिकार दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों मोहकर्मप्रकृतियोंसे ही सम्बन्ध रखते हैं । (शेप सात कर्मोंका इस कसायपाहुडमें कोई प्रयोजन नहीं है । ) अद्धापरिमाण नामका कालप्रतिपादक अर्थाधिकार उक्त पन्द्रहों अर्थाधिकारों में प्रतिवद्ध समझना चाहिए ॥१३-१४॥ विशेषार्थ-ये दोनों सम्बन्ध-गाथाएँ कही जाती हैं। इनको उपयुक्त एक सौ अठहत्तर गाथाओमे मिला देनेपर ( १७८ +२=१८० ) कसायपाहुडकी एक सौ अस्सी गाथाएँ हो जाती हैं, जिनकी कि सूचना गुणधराचार्यने 'गाहासदे असीदे' इस प्रथम प्रतिज्ञा द्वारा की थी। इन एक सौ अस्सी गाथाओके अतिरिक्त बारह अन्य भी सम्बन्ध गाथाएँ हैं । अद्धापरिमाणके निर्देश करनेवाली छह गाथाएँ हैं । तथा, 'संकमउवकमविहीं' इस गाथासे लेकर पैतीस संक्रमवृत्ति-अर्थात् प्रकृतियोका संक्रमण बतानेवाली गाथाएँ कहलाती है। इन सवको पूर्वोक्त एक सौ अस्सी गाथाओंमें मिला देनेपर ( १२+६+ ३५-+१८०२३३ ) दो सौ तेतीस समस्त गाथाओका जोड़ हो जाता है। ये सभी गाथाएँ गुणधराचार्यके मुख-कमलसे विनिर्गत है। गुणधराचार्यके उपदेशानुसार पन्द्रह अर्थाधिकारोंका निरूपण करके अब यतिवृषभाचार्य अन्य प्रकारसे पन्द्रह अर्थाधिकारोको कहते है चूर्णिसू०- अन्य प्रकारसे अर्थाधिकारके पन्द्रह भेद है ॥७॥ विशेषार्थ-गुणधराचार्यके द्वारा पन्द्रह अर्थाधिकारोके निरूपण कर दिये जानेपर यतिवृपभाचार्य अन्य प्रकारसे पन्द्रह अर्थाधिकारोको बतलाते हुए क्यो न गुणधराचार्यके विराधक समझे जायं ? इस शंकाका समाधान यह है कि यतिवृपभाचार्य, अन्य प्रकारसे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कसाय पाहुड सुस्त [१ पैजदोसविहतः । ८. तं जहा-पेजदोसे (१) । ६. विहत्ती द्विदि अणुभागे च (२) । १०. बंधगेत्ति, बंधो च (३), संकमो च (४) । ११. वेदए त्ति उदओ च (५), उदीरणा च (६) । १२. उवजोगे च (७)। १३ चउठाणे व (८)। १४. वंजणे च (९)। १५. सम्मत्तेत्ति दंसणमोहणीयस्स उवसामणा च (१०), दंसणमोहणीयक्खवणा च (११) ।१६. देसविरदी च (१२) । १७ संजमे उवसामणा च खवणा च चरित्तमोहणीयस्स उवसामणा च (१३), खवणा च (१४) । १८. दंसणचरित्तमोहेत्ति पदपरिवूरणं । १९. अद्धापरिमाणणिद्देसो त्ति (१५) । २०. एसो अत्थाहियारो पण्णारसविहो । पन्द्रह अर्थाधिकारीको बतलाते हुए भी गुणधराचार्य विराधक नहीं हैं, क्योकि, वे उनके बतलाए हुए अर्थाधिकारोका निषेध नहीं कर रहे हैं । किन्तु, अभिप्रायान्तरकी अपेक्षा पन्द्रह अर्थाधिकारोकी एक नवीन दिशा दिखला रहे हैं। चूर्णिसू०-वे पन्द्रह अर्थाधिकार इस प्रकार हैं-१ प्रयोद्वेप अर्थाधिकार, २ स्थिति-अनुभागविभक्ति अर्थाधिकार, ३ बंधक अर्थाधिकार, ४ संक्रम अर्थाधिकार, ५ वेदक या उदय-अर्थाधिकार, ६ उदीरणा अर्थाधिकार, ७ उपयोग अर्थाधिकार, ८ चतुःस्थान अर्थाधिकार, ९ व्यंजन अर्थाधिकार, १० सम्यक्त्व अधिकारके अन्तर्गत दर्शनमोहनीय-उपशामना अर्थाधिकार, ११ दर्शनमोहनीय-क्षपणा अर्थाधिकार, १२ देशविरति अर्थाधिकार, १३ संयम अर्थाधिकारके अन्तर्गत चारित्रमोहनीय-उपशामना अधिकार, १४ चारित्रमोहनीयक्षपणा अर्थाधिकार और १५ अद्धापरिमाण अधिकार । यह पन्द्रह प्रकारका अर्थाधिकार है । गाथामे 'दसणचरित्तमोहे' यह पद पादकी पूर्तिके लिए दिया गया है ।।८-२०॥ विशेपार्थ-स्थिति-अनुभागविभक्ति नामक दूसरे अर्थाधिकारमे प्रकृतिविभक्ति, क्षीणाक्षीण-प्रदेश और स्थित्यन्तिक-प्रदेश अर्थाधिकारोंका भी ग्रहण किया गया है, क्योकि प्रकृतिविभक्ति आदिके विना स्थिति और अनुभागविभक्ति नहीं बन सकती है। यहां यह आशंका की जा सकती है कि यह कैसे जाना कि यतिवृषभाचार्यने ये उपयुक्त ही पन्द्रह अर्थाधिकार माने हैं ? इसका समाधान यह है कि इन प्रत्येक अर्थाधिकारोके नाम-निर्देशक पश्चात् यतिवृषभाचार्य-द्वारा स्थापित १,२ आदिसे लेकर १५ तकके अंक पाये जाते हैं। दूसरे, आगे चलकर इसी क्रमसे चूर्णि-सूत्रोके द्वारा उक्त अर्थाधिकारीका प्रतिपादन किया गया है, इससे जाना जाता है कि यतिवृपभाचार्यने ये उपयुक्त ही पन्द्रह अर्थाधिकार माने हैं। जयधवलाकारने अन्य प्रकारसे भी कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकार कहे हैं --१ प्रयोद्वेष अर्थाधिकार, २ प्रकृतिविभक्ति अर्थाधिकार, ३ स्थिविविभक्ति अर्थाधिकार, ४ अनुभागविभक्ति अर्थाधिकार, ५ प्रदेशविभक्ति, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक अर्थाधिकार, ६ वन्धक अर्थाधिकार, ७ वेदक अर्थाधिकार, ८ उपयोग अर्थाधिकार, ९ चतुःस्थान अर्थाधिकार, १० व्यञ्जन अर्थाधिकार, ११ सम्यक्त्व अर्थाधिकार, १२ देश-विरति अर्थाधिकार, १३ संयम अर्थाधिकार, १४ चारित्रमोह-उपशामना अर्थाधिकार, और १५ चारित्रमोह Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १३-१४] अर्थाधिकार-निरूपण क्षपणा अर्थाधिकार । अद्धापरिमाण निर्देश नामक कोई स्वतन्त्र अर्थाधिकार नहीं है, क्योकि, वह सभी अर्थाधिकारोमं सम्बद्ध है, यही कारण है कि गुणधराचार्यने अन्तदीपक रूपसे सब अधिकारोके अन्तमे कहते हुए भी तत्सम्बन्धी गाथाओको सव अर्थाधिकारोसे पूर्व में कहा है। इसी प्रकारसे मूल दृष्टिकोणको ध्यानमे रखते हुए भिन्न-भिन्न दिशाओसे भी कसायपाहुडके पन्द्रह अधिकार जानना चाहिए । ___ उपरि-दर्शित तीनो प्रकारके अर्थाधिकारोका चित्र इस प्रकार है गाथासूत्रकार सम्मत | चूर्णिकार-सम्मत जयधवलाकार-सम्मत १ | पेज्जदोसविभक्ति पेज्जदोसविभक्ति | पेज्जदोसविभक्ति स्थिति-अनुभागविभक्ति २ स्थितिविभक्ति (प्रकृति-प्रदेशविभक्तिक्षीणाक्षीण प्रकृतिविभक्ति और स्थित्यन्तिक) ३ | अनुभागविभक्ति बन्ध | स्थितिविभक्ति वन्ध ४ (प्रदेशविभक्ति क्षीणाक्षीण संक्रम अनुभागविभक्ति और स्थित्यन्तिक) संक्रम प्रदेश-क्षीणाक्षीण और उदय स्थित्यन्तिक विभक्ति वेदक उदीरणा बन्धक __ | | उपयोग उपयोग वेदक | १ | 0 | " 2 चतुःस्थान चतुःस्थान उपयोग | व्यंजन व्यंजन चतुःस्थान १० | दर्शनमोहोपशामना दर्शनमोहोपशामना व्यंजन ११ | दर्शनमोहक्षपणा दर्शनमोहक्षपणा सम्यक्त्व १२ | संयमासंयमलब्धि देशविरति देशविरति १३ चारित्रलब्धि चारित्रमोहोपशामना संयमलब्धि १४ | चारित्रमोहोपशामना चारित्रमोहक्षपणा चारित्रमोहोपशामना १५ | चारित्रमोहक्षपणा अद्धापरिमाणनिर्देश चारित्रमोहक्षपणा - गुणधराचार्य ने प्रथम गाथासूत्रमे इस ग्रन्थके पेजदोसपाहुड और कसायपाहुड ये दो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [पेजदोसविहत्ती २१ तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेजाणि । तं जहा-पेजदोसपाहुडेत्ति चि, कसायपाहुडेत्ति वि । तत्थ अलिवाहरण-णिप्पण्णं पेजदोसपाहुडं । २२. णयदो णिप्पणं कसायपाहुडं । २३. तत्थ पेज्ज णिक्विवियव्व-णामपेज्ज ठवणपेज्जं दव्यपेज्जं भावपेज्जं चेदि। नाम किस अभिप्रायसे कहे हैं इस बातको वतलाते हुए यतिवृपभाचार्य चूर्णिसूत्र कहते है चूर्णिसू० ---- उस पाहुडके दो नाम हैं । वे इस प्रकार हैं:-पेजदोसपाहुड (प्रयोद्वेषप्राभृत) और कसायपाहुड (कपाथप्राभृत)। इनमेसे पेज्जदोसपाहुड यह अभिव्याहरणसे निष्पन्न हुआ अर्थानुसारी नाम है ॥२१॥ विशेपार्थ-अपनेमे प्रतिवद्ध अर्थके व्याहरण अर्थात् कथनको अभिव्याहरण कहते हैं । पेजदोसपाहुड यह अभिव्याहरण-निष्पन्न नाम है, क्योकि पेज रागभावको कहते हैं और दोस नाम द्वेषभावका है। ये राग और द्वेषरूप अर्थ न केवल पेज शब्दके द्वारा कहे जा सकते है और न केवल दोस शब्दके द्वारा ही। यदि इन दोनो अर्थोंका कथन केवल पेज या दोस शब्दके द्वारा माना जाय, तो राग और द्वेषमें पर्यायभेद नहीं वनेगा । यतः राग और द्वेषमें पर्याय-भेद पाया जाता है, अत: इनके वाचक शब्द भी स्वतंत्र ही होना चाहिए। इस प्रकार राग और द्वेष-जो कि संसार-परिभ्रमणके कारण हैं-उनके बंध और मोक्षका इस पाहुड-प्राभूत या शास्त्रमे वर्णन किया गया है। इसलिए पेजदोसपाहुड यह अभिव्याहरण-निष्पन्न अर्थानुसारी नाम है। पेनदोसपाहुड यह नाम समभिरूढनयकी अपेक्षा जानना चाहिए, क्योकि समभिरूढनय अविवक्षित अनेक अर्थों को छोड़कर विवक्षित एक अर्थको ही ग्रहण करता है। चूर्णिस०-कसायपाहुड यह नाम नयसे निष्पन्न है ॥२२॥ विशेषार्थ-जीवके उत्तमक्षमा आदि स्वाभाविक भावोके या चारित्ररूप धर्मके विनाश करनेसे क्रोध आदि कपाय कहे जाते हैं । कपाय सामान्य है तथा राग और द्वेष विशेप हैं। कपायका पेज और दोस दोनोमे अन्वय पाया जाता है, अतएव कसायपाहुड यह नाम द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा जानना चाहिए । तथा राग और द्वेष कपायोसे उत्पन्न होते हैं। इस ग्रन्थमे कपायोंकी इन्ही रागद्वेपरूप पर्यायोका वर्णन किया गया है इस अपेक्षा पेजदोसपाहुड यह नाम पर्यायाथिक नयकी अपेक्षासे निष्पन्न हुआ है, तथापि उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है । क्योकि, चूर्णिकारको उसका अभिव्याहरण-निष्पन्न अर्थ वताना अभीष्ट है । पेज, दोस, कसाय और पाहुड, ये सब शब्द अनेक अर्थोंमे वर्तमान हैं, इसलिए प्रयोजनभूत अर्थके निरूपण करनेके लिए यतिवृपभाचार्य निक्षेपसूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-~-उनमेसे पहले पेन्ज अर्थात् प्रेय का निक्षेप करना चाहिए-नामप्रेय, स्थापनाप्रय, द्रव्यप्रय और भावप्रय ।।२३।। १ अहिमुहल्स अप्पाणम्मि पडिबद्धस्त अत्यस्स बाहरण कद्दण, अभिवाहरणं । तेण णिप्पण्ण अभिवाहरणणिप्पण। जयध Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपोंमें नय-योजना १७ २४. गम - संगह ववहारा सत्रे इच्छति । २५. उजुसुदो ठवणवज्जे । गा० १३-१४ ] २६. ( सद्दणस्स ) णामं भावो च । विशेषार्थ - प्रय यह शब्द प्रेयनामनिक्षेप है । किसी चेतन या अचेतन पदार्थ मे 'यह वही है' इस प्रकार से प्रयभावकी स्थापना करनेको प्रेयस्थापनानिक्षेप कहते है । अतीत या अनागत कालमे रागरूप होनेवाले या वर्तमान मे रागविषयक ज्ञानसे रहित पुरुपको प्रयद्रव्यनिक्षेप कहते है । वर्तमानकालमें रागभावसे परिणत या रागशास्त्र के ज्ञायक पुरुषको प्रयभावनिक्षेप कहते है । अब चूर्णिकार उक्त निक्षेपोके स्वामिस्वरूप नयोका निरूपण करते है. चूर्णिसू० – नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय, ये तीनो द्रव्यार्थिकनय उपयुक्त सभी निक्षेपको स्वीकार करते है ॥२४॥ विशेषार्थ- — यतः नामनिक्षेप तद्भव - सामान्य और सादृश्यसामान्यको अवलम्वन करके प्रवृत्त होता है, स्थापनानिक्षेप भी सादृश्य-सामान्यको अवलम्बन करता है और द्रव्यनिक्षेप भी दोनो प्रकारके सामान्योके निमित्तसे होता है; अतएव इन तीनो निक्षेपोके स्वामी नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय होते है, क्योकि, ये तीनो द्रव्यार्थिकनय है और सामान्यको विषय करना ही द्रव्यार्थिकनयका काम है । वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते हैं, इसलिए, अथवा द्रव्यको छोड़कर पर्याय पाई नहीं जाती है, इसलिए भावनिक्षेपके भी स्वामी उक्त तीनो द्रव्यार्थिकनय बन जाते है । चूर्णिसू० -- ऋजुसूत्रनय स्थापनानिक्षेपको छोड़कर शेप तीन निक्षेपोको ग्रहण करता है ॥२५॥ विशेषार्थ- - ऋजुसूत्रनय स्थापनानिक्षेपको विषय नही करता है, इसका कारण यह है कि इस नयमे सादृश्यलक्षण सामान्यका अभाव है । और, सादृश्य अथवा एकत्वके विना स्थापनानिक्षेप संभव नही हैं । इसलिए ऋजुसूत्रनय स्थापनानिक्षेपको छोड़कर शेष तीन निक्षेपको ही ग्रहण करता है । चूर्णिसू० - नामनिक्षेप और भावनिक्षेप शब्दनयके विषय हैं ॥२६॥ 01 1 विशेषार्थ - व्यंजननय, पर्यायनय और शब्दनय, ये तीनो एकार्थक नाम हैं । शब्दजयके शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत, ये तीन भेद हैं । ये तीनो ही नय नामनिक्षेप और भावनिक्षेपको विषय करते है, क्योकि, शब्दनयोमे स्थापनानिक्षेप और द्रव्यनिक्षेपका व्यवहार नहीं हो सकता है । पहले बतलाये गये चार निक्षेपोमेसे आदिके दो निक्षेपोका अर्थ सुगम है, अतएव उन्हे न कहकर द्रव्यनिक्षेपके भेदरूप नोआगम द्रव्यप्रयका स्वरूप - निरूपण करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं--- ३ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती २७. णोआगमदव्वयेज्ज तिविहं-हिदं पेज्ज, सुहं पेज्जं, पियं पेज्ज । गच्छगा च सत्त भंगा। २८. एदं णेगमस्स । २९. संगह-ववहाराणं उजुसुदस्स च सव्वं दवं पेज्ज । ३०. भावपेज्जं ठवणिज्जं ।। चूर्णिसू०-नोकर्मतव्यतिरिक्त-नोआगमद्रव्यप्रय तीन प्रकारका है--हितप्रय, सुखप्रय और प्रियप्रय । इन तीनोके गच्छसम्बन्धी सात भंग होते है ॥२७॥ विशेपार्थ-रोगादिके उपशमन करनेवाले द्रव्यको हितप्रय कहते है । जैसे--पित्तज्वरादिके उपशमनका कारणस्वरूप कडवी गिलोय आदि । जीवके आल्हादके कारणभूत द्रव्यको सुखमय कहते है । जैसे--भूखे पुरुषको मिष्टान्न और प्यासे पुरुपको शीतल जल। अपनी रुचिके विपयभूत द्रव्यको प्रियप्रय कहते है । जैसे---स्त्री, पुत्र, मित्रादि । इस प्रकार नोआगमद्रव्यप्रयके ये तीन एक-संयोगी स्वतन्त्र भंग हुए । अब द्विसंयोगी भंग कहते कहते है--द्राक्षाफल हितरूप भी हैं और सुखरूप भी है, क्योकि, पित्तज्वरवाले पुरुपके स्वास्थ्य और आल्हादका कारण है (१)। निम्ब हितरूप भी है और प्रिय भी है, क्योकि, तिक्तप्रिय पित्तज्वराभिभूत पुरुषके स्वास्थ्य और अनुरागका कारण है (२)। दुग्ध सुखकर भी है और प्रिय भी है, क्योकि, आमव्याधिसे पीड़ित एवं मधुर-प्रिय पुरुषके आल्हाद और अनुरागका कारण है। किन्तु , उक्त पुरुपके लिए दुग्ध हितकारक नहीं है, क्योकि, वह आमका वर्धक होता है (३) । इस प्रकार ये द्विसंयोगी तीन भंग हुए । मिश्री-मिश्रित दुग्ध हित, सुख और प्रिय है, क्योकि स्वस्थ पुरुषके आल्हाद, सुख और अनुरागका कारण होता है । यह त्रिसंयोगी एक भंग है । उक्त सब भंग मिलाकर नोकर्मतव्यतिरिक्त-नोआगमद्रव्यप्रयके सात भंग हो जाते हैं। चूर्णिसू०--यह नोआगम-द्रव्यमेयनिक्षेप नैगमनयका विपय है ॥२८॥ " विशेषार्थ-इस निक्षेपको नैगमनयका विषय बतलानेका कारण यह है कि एक ही वस्तुमं युगपत् और क्रमशः हित, सुख और प्रियभाव माना गया है, तथा हित, सुख और प्रियस्वरूप पृथग्भूत भी द्रव्योके प्रेयभावकी अपेक्षा एकत्व देखा जाता है ।। चूर्णिसू०--संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा सर्व द्रव्य प्रेय है ॥२९॥ . विशेषार्थ-प्रत्येक द्रव्य किसी न किसी जीवके, किसी न किसी कालमे प्रिय देखा जाता है। यहॉतक कि मरणका कारणभूत विप भी जीवनसे निराश हुए जीवोके प्रिय देखा जाता है । इसलिए उक्त तीनो नयोकी दृष्टिमे सभी द्रव्य प्रेय हैं। . चूर्णिसू०-भावप्रेयनिक्षेपको स्थापित करना चाहिए ।।३०॥ विशेषार्थ-भावप्रेयनिक्षेपका वर्णन करना क्रमप्राप्त था, किन्तु वह वहुवर्णनीय है, और इस ग्रन्थका प्रधान विषय है, इस कारण चूर्णिसूत्रकार उसे स्थापित कर रहे हैं, क्योकि, आगे यथावसर अनेक अनुयोगद्वारांसे विस्तारपूर्वक उसका वर्णन किया जायगा । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “गा० १३-१४] द्वेषमे निक्षेप-निरूपण - ३१. दोसो णिक्विवियव्यो-णामदोसो ठवणदोसोदव्यदोसो भावदोसो चेदि । ३२. णेगम-संगह-बवहारा सव्वे णिक्खेवे इच्छंति । ३३. उजुसुदो ठवणवज्जे । ३४. सद्दणयस्स णामं भावो च। ३५. णोआगमदव्वदोसो णाम जंदव्वं जेण उवघादेण उवभोगं ण एदि तस्स दव्यस्स सो उवघादो दोसो णाम | ३६ तं जहा । ३७. साडियाए अग्गिदद्ध वा मूसयभक्खियं वा एवमादि । अब द्वेषका निक्षेप करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते है-- चूर्णिस०--द्वेपका निक्षेप करना चाहिए- नामद्वेष, स्थापनाद्वेप, द्रव्यद्वेप और भावद्वेष ॥३१॥ विशेषार्थ--'द्रुप' इस प्रकारके नामको नामद्वेष कहते है। किसी चेतन या अचेतन पदार्थमे द्वेपभावके न्यासको स्थापनाद्वेष कहते है । अतीत या अनागतकालमे द्वेषरूप होनेवाले जीवको द्रव्यद्वेष कहते है। वर्तमानकालमे द्वेषभावसे परिणत पुरुषको भावद्वेप कहते है। __ अब उक्त चारो प्रकारके द्वेषनिक्षेपोके स्वामिस्वरूप नयोके प्रतिपादन करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते है-- चूर्णिसू०-नैगम, संग्रह और व्यवहारनय सर्व द्वेषनिक्षेपोको स्वीकार करते है। इसका कारण यह है कि द्वेषका आधार द्रव्य ही होता है और द्रव्यको विषय करना द्रव्यार्थिकनयोका कार्य है । ऋजुसूत्रनय स्थापनानिक्षेपको छोड़कर शेष तीन निक्षेपोकोनामद्वेष, द्रव्यद्वेप और भावद्वेपको-विषय करता है क्योकि, इस नयम स्थापनाद्वेपको विपय करना संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि ऋजुसूत्रनय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे पदार्थोंको भेदरूप ग्रहण करता है, इसलिए उनमे एकत्व नही हो सकता है और इसीलिए बुद्धिके द्वारा अन्य पदार्थमे अन्य पदार्थकी स्थापना नहीं की जा सकती है । शब्दनयके नामद्वेप और भावद्वेष विषय है इसका कारण यह है कि शब्दनयोमे स्थापना और द्रव्यनिक्षेपका व्यवहार संभव नही है ॥३२-३४॥ अब, नामद्वेष , स्थापनाद्वेष, और आगमद्रव्यद्वषनिक्षेप तथा नोआगमद्रव्यद्वेषके भेदस्वरूप ज्ञायकशरीर और भव्यद्रव्यनिक्षेप सुगम है, इसलिए उनका स्वरूप नहीं कहकर तद्वयतिरिक्तनोआगमद्रव्यद्वपके स्वरूपनिरूपणके लिए उत्तरसूत्र कहते है चूर्णिसू०---जो द्रव्य जिस उपाघातके निमित्तसे उपभोगको नहीं प्राप्त होता है, वह उपचात उस द्रव्यका द्वेष कहलाता है. इसीका नाम तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यद्वेषनिक्षेप है । जैसे-साड़ीका अग्निसे दग्ध होना, मूषकोंसे खाया जाता, इत्यादि ॥३५-३७॥ विशेषार्थ-शरीर-संस्कारके कारणभूत साडी आदि . उपभोग्य वस्तुओंको यदि अचानक अग्नि लग जाय, अथवा चूहे काट खायें, या इसी प्रकारका अन्य भी कोई उपद्रव हो जाय, तो निमित्तशास्त्रके अनुसार उनका फल दुर्भाग्यकी प्राप्ति, सन्तति और सम्पत्तिका Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ १ पेज्जदोसविहती ३८. भावदोसो ठवणिजो । ३९. कसाओ ताव णिक्खिवियन्वो णामकसाओ ठवणकसाओ दव्वकसाओ पच्चयकसाओ समुप्पत्तियकसाओ आदेसकसाओ रसकसाओ भावकसाओ चेदि । ४०. गमो सव्वे कमाए इच्छदि । ४१. संगह-ववहारा समुप्पत्तियकसायमा देसकसायं च अवर्णेति । 1 २० विनाश, इत्यादि होता है । अतएव अग्निदाह, मृषकभक्षण, टिड्डीपात, छत्रभंग आदिको तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यरूप उपघातद्वेप कहा है । चूर्णि सू० - भावद्वेषको स्थापन करना चाहिए | क्योकि, उसका वक्तव्य विषय अधिक है । अतएव पहले अल्प वक्तव्योंका निरूपण करके पीछे भावद्वेषका प्रतिपादन किया जायगा ||३८|| उक्त प्रकारसे प्रय और द्वेप, इन दोनोका निक्षेप करके अब कषायके भी निक्षेपके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं -- चूर्णि सू० -अब कपायोका निक्षेप करना चाहिए - ( वह कपायनिक्षेप आठ प्रकारका होता है — ) नामकषाय, स्थापनाकपाय, द्रव्यकपाय, प्रत्ययकपाय, समुत्पत्तिकषाय, आदेशकषाय, रसकषाय और भावकषायनिक्षेप || ३९ || यतः कपायोके स्वामिभूत - नयोको बतलाये विना कपायनिक्षेपोका अर्थ भलीभाँति समझ में नहीं आ सकता, अतएव अब चूर्णिसूत्रकार उक्त कपायनिक्षेपोके अर्थको छोड़ करके कषायनिक्षेपोके स्वाभिस्वरूप नयोके निरूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं - चूर्णि सू 01 - नैगमनय ऊपर बतलाये गये सभी आठो प्रकारके - कपायनिक्षेपोको स्वीकार करता है । इसका कारण यह है कि नैगमनय भेद और अभेद, अथवा संग्रहके द्वारा सर्व - लोकवर्त्ती पदार्थोंको विषय करता है, अर्थात् समस्त लोकव्यवहार नैगमनयके आश्रित ही चलता हैं, इसलिए उसमे सभी कपायनिक्षेपोका विपय होना संभव है ॥ ४० ॥ चूर्णि सू० - - संग्रहनय और व्यवहारनय समुत्पत्तिककषाय और आदेशकपायको विषय नही करते है ॥४१॥ विशेषार्थ - संग्रहनय और व्यवहारनय, समुत्पत्तिककपाय और आदेशकषायको विषय नहीं करते हैं, किन्तु शेष छह प्रकारके कपायनिक्षेपोको विषय करते है । इसका कारण यह है कि समुत्पत्तिककपायका प्रत्ययकपायमे अन्तर्भाव हो जाता है । क्योंकि, प्रत्यय दो प्रकारका होता है— आभ्यन्तर और बाह्य । अनन्तानन्त कर्मपरमाणुओके समागम से समुत्पन्न, जीवप्रदेशो के साथ एकताको प्राप्त, प्रकृति, स्थिति और अनुभाग के भेदस्वरूप क्रोधादि द्रव्यकर्मस्कन्धको आभ्यन्तर प्रत्यय कहते हैं । क्रोधादिभाव कपायोकी उत्पत्ति के कारणभूत जीवाजीवादि बाहरी द्रव्योको बाह्य प्रत्यय कहते हैं । इसलिए कपायोत्पत्ति के कारण-की अपेक्षा कोई भेद न होनेसे समुत्पत्तिककषायका प्रत्ययकपायमे अन्तर्भाव हो जाता है । इसी प्रकार आदेशकषाय भी स्थापनाकपायमे प्रविष्ट हो जाती है, क्योकि, आदेश पाय Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १३-१४] कषायोंमें निक्षेप-निरूपण ४२. उजुसुदो एदे च ठवणं च अवणेदि । ४३. तिण्हं सद्दणयाणं णामकसाओ भावकसाओ च । ४४. णोआगमदबकसाओ जहा सजकसाओ सिरिसकसाओ एवमादि । ४५. पच्चयकसाओ णाम कोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो कोहो होदि, तम्हा तं कम्म पच्चयकसाएण कोहो । सद्भावस्थापनात्मक है, अतएव सद्भाव और असद्भावरूप स्थापनाकषायमे उसका अन्तर्भाव होना स्वाभाविक है। चूर्णिसू-ऋजुसूत्रनय, इन उपयुक्त समुत्पत्तिककपाय और आदेशकषायको तथा स्थापनाकपायको विषय नहीं करता है; क्योकि, ऋजुसूत्रनयका विषय एक समयवर्ती पदार्थ है, इसलिए उसमें उक्त निक्षेप संभव नहीं है । शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत, इन तीनों शब्दनयोके नामकषाय और भावकषाय विषय हैं, शेष छह कषाय नहीं ॥४२-४३।। नामकषाय, स्थापनाकपाय, आगमद्रव्यकपाय, नोआगमज्ञायकशरीरकपाय और भव्यकपाय, इनका अर्थ सुगम है, इसलिए चूर्णिकार उन्हे नहीं कहकर नोआगमतद्वधतिरिक्तद्रव्यकपायके अर्थका निरूपण करते है चूर्णिसू०-सर्जकषाय, शिरीषकषाय, इत्यादि नोआगमतद्वयतिरिक्त द्रव्यकषाय है ॥४४॥ विशेषार्थ-सर्ज और शिरीप नामके वृक्ष होते हैं, उनके कषैले रसको क्रमशः सर्जकपाय और शिरीपकषाय कहते है। नैगमनयकी अपेक्षा कभी द्रव्य भी कषाय रसका विशेषण होता है और कभी कपायरस भी द्रव्यका विशेषण होता है, इसलिए द्रव्यके कपायको भी द्रव्य-कपाय कहते है, और कपायरूप द्रव्यको भी द्रव्य-कषाय कहते हैं । इस अपेक्षा सर्जकषाय, शिरीपकषाय, अमलककपाय इत्यादिको नोआगमतद्वयतिरिक्त द्रव्यकपाय जानना चाहिए। अब प्रत्ययकपायका स्वरूप कहते है चूर्णिसू०-क्रोधवेदनीयकर्मके उदयसे जीव क्रोधकपायरूप होता है, इसलिए प्रत्ययकपायकी अपेक्षा वह क्रोधकर्म क्रोध कहलाता है ॥४५॥ विशेषार्थ-यहॉपर क्रोधवेदनीय नामक द्रव्यकर्मको प्रत्ययकपाय कहा गया है, इसका कारण यह है कि द्रव्यकर्मके उदयसे ही क्रोधादि कपाय उत्पन्न होते हैं। यही वात मान, माया और लोभप्रत्ययकपायके विषयमे भी जानना चाहिए । प्रत्ययकपाय, समुत्पत्तिककषायसे भिन्न है, इसका कारण यह है कि जो जीवसे अभिन्न होकर कपायोको उत्पन्न करता है, उसे प्रत्ययकपाय कहते है । तथा, जो जीवद्रव्यसे भिन्न होकरके भी कपायोको उत्पन्न करता है, उसे समुत्पत्तिककपाय कहते हैं। इस प्रकारसे दोनो कपायोमे भेट पाया जाता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविही ४६. एवं माणवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो माणो होदि, तम्हा तं कम्म पञ्चयकसाएण माणो। ४७. मायावेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो माया होदि, तम्हा तं कम्मं पञ्चय कसाएण माया । ४८. लोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो लोहो होदि तम्हा तं कम्मं पच्चयकसाएण लोहो । ४९. एवं णेगम-संगहववहाराणं । ५०. उजुसुदस्स कोहोदयं पडुच जीवो कोहकसाओ । ५१. एवं माणादीणं वत्तव्यं । ५२. समुप्पत्तियकसाओ णाम कोहो सिया जीवो सिया णो जीवो। एवमट्ठ भंगा। ५३. कधं ताव जीवो?५४. मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो मणुस्सो कोहो । चूर्णिसू०-इसी प्रकार मानवेदनीयकर्मके उदयसे जीव मानस्वरूप होता है, इसलिए वह कर्म मानप्रत्ययकपाय है । मायावेदनीयकर्मके उदयसे जीव मायास्वरूप होता है, इसलिए वह कर्म मायाप्रत्ययकपाय है । लोभवेदनीयकर्मके उदयसे जीव लोभस्वरूप होता है, इसलिए वह कर्म लोभप्रत्ययकषाय कहलाता है ॥४६-४८॥ चूर्णिसू०-यह प्रत्ययकणय नैगम, संग्रह और व्यवहार, इन तीनो द्रव्यार्थिकनयोका विषय है। क्योकि, कार्यसे अभिन्न कारणके ही प्रत्ययपना माना गया है । क्रोधकपायके उदयकी अपेक्षा जीव क्रोधकपाय कहलाता है, इसलिए ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिसे जीव ही क्रोधकपाय है। इसी प्रकार मान, माया आदि कपायोका भी नय-विषयक व्यवहार करना चाहिए ।।४९-५१॥ अब समुत्पत्तिककपायका स्वरूप कहते है चूर्णिसू०-समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्वचित् जीव क्रोध है, क्वचित् नोजीव (अजीव) क्रोध है । इस प्रकार आठ भंग होते हैं ॥५२॥ विशेषार्थ-जिस चेतन या अचेतन पदार्थके निमित्तसे क्रोधादि कपाय उत्पन्न होते हैं, वह पदार्थ समुत्पत्तिककषाय कहलाता है। किसी समय एक चेतन या अचेतन पदार्थके निमित्तसे क्रोधादिक उत्पन्न होते है और कभी अनेक चेतन और अचेतन पदार्थों के निमित्तसे क्रोधादिक उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए इन चारोकी अपेक्षा समुत्पत्तिककपायके आठ भंग हो जाते है। जो कि इस प्रकार है-१ एक जीवकषाय, २ एक नोजीवकपाय, ३ अनेक जीवकपाय, ४ अनेक नोजीवकपाय, ५ एक जीव, एक नोजीवकपाय, ६ एक जीव, अनेक नोजीवकपाय, ७ अनेक जीव, एक नोजीवकषाय, और ८ . अनेक जीव, अनेक नोजीव कषाय । इनका अर्थ चूर्णिसूत्रकार आगे स्वयं कहेगे। अब आठो भंगोके उदाहरण प्ररूपण करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैशंकाचू०-समुत्पत्तिककपायकी अपेक्षाजीव क्रोध कैसे है ? ॥५३॥ समाधानचू०--जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है, वह मनुष्य समुत्पत्तिककपायकी अपेक्षा क्रोध है ॥५४॥ विशेषार्थ-किसी मनुष्यके आक्रोश--गालीगलौज-के सुननेसे कर्म-कलंकित Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गां० १३-१४ ] . कषायोंमें निक्षेप-निरूपण २५. - ५५. कधं ताव णोजीवो ? ५६. कट्ठ वा लेंडं वा पडुच्च कोहो समुप्पण्णो तं कहूं. वा लेंडे वा कोहो । ५७. एवं जं पडुच्च कोहो समुप्पजदि जीवं वा णोजीवं वा जीवे वा णोजीवे वा मिस्सए वा सो समुप्पत्तियकसाएण कोहो । जीवके क्रोधकषाय उत्पन्न होती हुई देखी जाती है, इसलिए नैगमनयकी अपेक्षा वह मनुष्य क्रोध कह दिया जाता है । यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि अन्य पुरुषके निमित्तसे अन्य पुरुषमे क्रोध कैसे उत्पन्न हो जाता है ? क्योकि, जिस पुरुपमे क्रोध उत्पन्न हुआ है, उसमे शक्तिरूपसे या कपायोदयसामान्यकी अपेक्षा तो क्रोध विद्यमान ही था, केवल विशेषरूपसे व्यक्त नहीं था, उस व्यक्तिका निमित्तकारण आक्रोशवचन बोलनेवाला अन्य पुरुप हो जाता है इसलिए उसे ही क्रोध कहा है । यही बात मान, माया और लोभकषायोके विषयमे भी जानना । शंकाचू०-समुत्पत्तिककपायकी अपेक्षा अजीव क्रोध कैसे है ? ॥५५॥ समाधानचू०-जिस काठ, अथवा ईट, पत्थर आदिके टुकड़ेके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा वह काठ अथवा ईट, पत्थर आदि क्रोध कहे जाते है ॥५६॥ विशेषार्थ–एक जीव तो दूसरे जीवके ताडन, मारण, बध-बंधनादिके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न कर देता है, यह बात युक्ति-संगत है, किन्तु जो अजीव सर्व प्रकारकी चेष्टा, क्रिया आदि करनेसे रहित है, वह कैसे जीवके क्रोध उत्पन्न कर देता है ? ऐसी आशंकाका चूर्णिकारने यह समाधान किया है कि किसीके पैरमे काटा आदिके लग जानेसे क्रोध उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । तथा अपने अंगमे पत्थर आदिके निमित्तसे चोट पहुंचनेपर रोप द्वारा दांत किटकिटाते हुए बन्दर आदि देखे जाते है । इसलिए अजीव पदार्थ भी क्रोधोत्पत्तिमें निमित्त होता है, यह सिद्ध है । चूर्णिसू०-इस प्रकारसे जिस चेतन वा अचेतन पदार्थकी अपेक्षा क्रोध उत्पन्न होता है, वह एक जीव, अथवा एक अजीव, अथवा अनेक जीव, अथवा अनेकं अजीव, अथवा मिश्र-जीव-अजीव भी समुत्पत्तिककपायकी अपेक्षा क्रोधकपाय कहे जाते है ॥५७॥ विशेषार्थ-समुत्पत्तिककपायके पूर्वोक्त आठ भंगोमेंसे आदिके दो भंगोका अर्थ चूर्णिकारने स्वयं कह दिया है। शेप भंगोका अर्थ इस प्रकार जानना चाहिए-अनेक जीव भी. क्रोधोत्पत्तिके कारण होते है, जैसे--- शत्रु की सेनाको देखकर क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है (३) । अनेक अजीव पदार्थ भी क्रोधकी उत्पत्तिके कारण होते है, जैसे-अपने लिए अनिष्टभूत शत्रुओके चित्र, मूर्तियाँ और उनके भवनादिके देखनेसे क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है । (४) । एक जीव और एक अजीव पदार्थ भी क्रोधकी उत्पत्ति के कारण होते है, जैसे-तलवार हाथमे लिए हुए शत्रुको आता देखकर क्रोध उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है (५) । एक जीव और अनेक अजीव भी क्रोधोत्पत्तिके कारण होते है, जैसे Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१ पैदोस वित्ती ५८. एवं माणमाया लोभाणं । ५९. आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिदणिडालो भिउडिं काऊण । ६०. माणो थो लिक्खदे | ६१. मायाणिगृहमाणो लिक्खदे । ६२. लोहो णिव्वाइदेण पंपागहिदो लिक्खदे । ६३. एवमेदे कटुकम्मे वा पोत्तकम्मे वा, एस आदेसकसाओ णाम । २४ शस्त्राखोसे सुसज्जित शत्रुको देखकर क्रोध उत्पन्न होता है ( ६ ) अनेक जीव और एक अजीव भी क्रोधोत्पत्ति के कारण होते हैं, जैसे- एक रथपर सवार, अथवा एक तोपको उठाये हुए अनेक शत्रुपक्षीय योद्धाओको देखकर क्रोध उत्पन्न होता है । ( ७ ) अनेक जीव और अनेक अजीव भी क्रोधोत्पत्तिके कारण होते है, जैसे- नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित शत्रु - सेना को देखकर क्रोध उत्पन्न होता है (८) । PRE चूर्णिसु० - जिस प्रकार समुत्पत्तिककपायकी अपेक्षा क्रोधके आठ भंग कहे हैं, उसी प्रकार मान, माया और लोभके भी आठ आठ भंग जानना चाहिए || ५८ || विशेषार्थ- - यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि अजीव पदार्थ मानक पाय आदिकी उत्पत्तिके कारण कैसे होते हैं ? क्योकि अपने रूप, यौवन, धनादिके गर्वसे गर्वित पुरुषके शृंगारके वस्त्र, अलंकार, सवारीकी मोटर, वग्घी और रहनेके मकान आदि मानकपायकी उत्पत्ति के कारण देखे जाते है । इसी प्रकार माया और लोभकपायके भी दृष्टान्त जान लेना चाहिए । अब आदेशकपायके स्वरूपनिरूपण के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिसू० - चित्रमे लिखे हुए कषायोके आकारको आदेशकपाय कहते हैं । जैसेचित्र-लिखित रोप- युक्त, मस्तकपर त्रिवली पाड़े हुए और भृकुटि चढाए हुए पुरुपका आकार आदेश क्रोधकषाय है । चित्र - लिखित स्तब्ध - देव, गुरु, शास्त्र, माता, पिता, स्वामी आदिकी विनय नही करनेवाला - अभिमानी पुरुपका आकार आदेशमानकपाय है। चित्र- लिखित निगूह्यमान - छल, प्रपंच करता हुआ - पुरुपका आकार आदेशमायाकपाय है । णिव्वाइद अर्थात् संसार भरकी सम्पदाके संचय करनेकी अभिलापासे युक्त, और पंपागृहीत अर्थात् कृपण, लम्पटी या कंजूस - पुरुपका चित्र - लिखित आकार आदेशलोभकपाय है ॥५९-६२ ॥ विशेषार्थ — आदेशकषाय, और स्थापनाकपायमे परस्पर क्या भेद है, ऐसी आशंका नही करना चाहिए | क्योकि सद्भावस्थापनारूप कपायकी प्ररूपणा और कषायबुद्धिको आदेशकषाय कहते हैं । तथा कषाय-विषयक तदाकार और अतदाकार स्थापनाको स्थापनाकषाय कहते हैं । इस प्रकार दोनो कषायोका भेद स्पष्ट है । । 0 चूर्णिसू०- - इस प्रकार काष्ठकर्ममें, अथवा पोत्थकर्ममे अथवा शैलकर्म आदिमें उत्कीर्ण या निर्मित कपायोके ये आकार आदेशकपाय कहलाते हैं ॥ ६३ ॥ विशेषार्थ — लकड़ीकी पुतली आदि बनानेको काष्ठकर्म उत्कीर्ण करनेको शैलकर्म कहते हैं । पोथी, कागज आदिपर चित्र कहते है । पापाणमें मूर्त्तिके लिखनेको पोत्थकर्म कहते + Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १३-१४] कषायोंमें निक्षेप-निरूपण ६४. एदं णेगमस्स । ६५. रसकसाओ णाम कसायरसं दव्यं, दव्याणि वा कसाओ । ६६. तव्वदिरित्त दवं, दव्वाणि वा णोकसाओ । ६७. एदं णेगम-संगहाणं । ६८. ववहारणयस्स कसायरसं दव्वं कसाओ, तव्वदिरित दव्यं णोकसाओ । कसायरसाणि दब्वाणि कसाया, तव्यदिरित्ताणि दव्याणि णोकसाया । हैं । भित्ती-दीवाल-आदिपर चित्राम करनेको लेप्यकर्म कहते हैं । इनमें अथवा इस प्रकारके अन्य भी कर्मोंमे क्रोधादि कषायोके जो आकार उकेरे, खोदे, बनाये या लिखे जाते है, वे सब आदेशकषाय कहलाते है। अव इन कपायोके स्वामिभूत नयोका प्रतिपादन करते है चूर्णिसू०-यह समुत्पत्तिककषाय और आदेशकपाय नैगमनयके विषय होते है। इसका कारण यह है कि शेष नयोके विषयभूत प्रत्ययकषाय और स्थापनाकषायमे यथाक्रमसे समुत्पत्तिककषाय और आदेशकषायका अन्तर्भाव हो जाता है ॥६४॥ अब रसकषायके स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं चूर्णिसू०-कसैले-रसवाला एक द्रव्य अथवा अनेक द्रव्य रसकषाय कहलाते है ॥६५॥ अब नोकपायका स्वरूप कहते है चूर्णिसू०-रसकषायसे व्यतिरिक्त एक द्रव्य, अथवा अनेक द्रव्य नोकषाय कहलाते है । यह नोकषाय नैगमनय और संग्रहनयका विषय है । क्योकि, इस नोकषायमे कषायसे भिन्न समस्त द्रव्योका संग्रहस्वरूप व्यवहार देखा जाता है ॥६६-६७॥ चूर्णिसू०-व्यवहारनयकी अपेक्षा कपायरसवाला एक द्रव्य कषाय है, और उससे व्यतिरिक्तद्रव्य नोकपाय है । तथा कपायरसवाले अनेक द्रव्यकषाय कहलाते है और कपायरसवाले द्रव्योसे भिन्न द्रव्य नोकषाय कहलाते हैं ॥६८॥ विशेषार्थ नैगमनय भेद और अभेदको प्रधानता और अप्रधानतासे विषय करता है, तथा संग्रहनय एक या अनेकको एक रूपसे ग्रहण करता है, इसलिए इन दोनो नयोकी अपेक्षा कपाय-रसवाले एक या अनेक द्रव्योको एकवचन कषायशब्दके द्वारा कहनेमे कोई आपत्ति नहीं आती। परन्तु व्यवहारनय एकको एकवचनके द्वारा और वहुतको वहुवचनके द्वारा ही कथन करता है, क्योकि वह भेदकी प्रधानतासे वस्तुको विपय करता है। यदि व्यवहारनयकी अपेक्षा एक वस्तुको बहुवचनके द्वारा कहा जायगा, तो श्रोताको संदेह होगा कि वस्तु तो एक है और यह उसे बहुवचनके द्वारा क्यो कह रहा है। यही संदेह बहुत वस्तुओको एकवचनके द्वारा कहनेमे भी होगा । अतएव नैगम और संग्रहनयके द्वारा एक द्रव्य या अनेक द्रव्योको एकवचनसे कहे जानेपर भी असंदिग्ध प्रतीतिके लिए व्यवहारनय एक द्रव्यको एक वचनके द्वारा और अनेक द्रव्योको वहुवचनके द्वारा ही कथन करता है, यही तीनो नयोके विपयोमे अन्तर है । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १ पेजदोसविहत्ती ६९. उजुसुदस्स कसायरसं दव्वं कसाओ, तव्चदिरित्तं दव्वं णोकसाओ, णाणाजीवेहि परिणामियं दव्वमवत्तव्यं । ७०. गोआगमदो भावकसाओ कोहवेयओ जीवो वा जीवा वा कोहकसाओ । ७१. एवं माण- माया लोभाणं । ७२. एत्थ छ अणियोगद्दाराणि । ७३. किं कसाओ ? ७४. कस्स कसाओ ? ७५. केण कसाओ ? ७६. कहि कसाओ ? ७७. केवचिरं कसाओ १७८. कहविहो कसाओ ? ७९ एत्तिए । २६ चूर्णिसू० - ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा कपायरसवाला द्रव्य कपाय है, और उससे व्यतिरिक्त द्रव्य नोकषाय है । तथा नानाजीवोसे परिणभित द्रव्य अवक्तव्य है ॥६९॥ विशेषार्थ - ऋजुसूत्रनय द्रव्यकी एक क्षणवर्ती पर्यायको ही ग्रहण करता है और एक समयमे एक ही पर्याय होती है, अतएव इस ऋजुसूत्रकी दृष्टिसे कपायरसवाला एक द्रव्य कपाय और उससे भिन्न एक द्रव्य नोकपाय है । तथा नाना जीवोके द्वारा ग्रहण किये गये अनेक द्रव्य अवक्तव्य है, क्योकि ऋजुसूत्रनय एक समय मे अनेक पर्यायोको विषय नहीं करता है । इसका कारण यह है कि इस नयकी अपेक्षा एक समयमे एक ही उपयोग होता है और एक उपयोग अनेक विपयोको ग्रहण नहीं कर सकता । आगमभावकषायनिक्षेपका अर्थ सुगम है, इसलिए उसका वर्णन न करके अव नोआगमभावकषायका स्वरूप कहते है चूर्णिसू० - क्रोधकषायका वेदन- अनुभवन करनेवाला एक जीव, तथा क्रोध कषायके वेदक अनेक जीव नोआगमभाव क्रोधकपाय कहलाते है । इसी प्रकार मान, माया और लोभ, इन तीनोका स्वरूप जानना चाहिए ॥ ७०-७१ ॥ 1 विशेषार्थ - जिस प्रकार क्रोधके वेदक एक और अनेक जीव नोआगमभाव क्रोधकपाय कहे जाते हैं, उसी प्रकार मानकपायके वेदक एक और अनेक जीव नोआगम-भावमानकषाय, मायाकषायके वेदक एक और अनेक जीव नोआगमभावमायाकपाय, तथा लोभकषायके वेदक एक और अनेक जीव नोआगमभावलोभकषाय कहलाते है । इस प्रकार निक्षेपोके द्वारा कपायोका स्वरूप निरूपण करके अब चूर्णिकार निर्देश, स्वामित्व, साधन अधिकरण, स्थिति और विधान, इन छह अनुयोगद्वारोसे कपायोका व्याख्यान करते है— चूर्णिम् ० - यहॉपर छह अनुयोगद्वार होते हैं । वे इस प्रकार है -- कषाय क्या वस्तु है ? कपाय किसके होता है ? कपाय किससे होता है ? कपाय किसमे होता है ? कषाय कितने काल तक होता है ? और कपाय कितने प्रकारका होता है ? ये छह अनुयोगद्वार होते है । इतने ही अनुयोगद्वार कपायोके समान प्रय और द्वेपमे भी निरूपण करना चाहिए ॥७२-७९॥ विशेषार्थ —भावकषायोके विशद स्वरूप वर्णनके लिए यहॉपर निर्देश, आदि प्रसिद्ध छह अनुयोगद्वारोका व्याख्यान किया जा रहा है । नाम, स्थापना आदि शेष स्वामित्व Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १३-१४] निर्देशादि अनुयोगोंसे कषाय-प्ररूपण सात प्रकारके कपायोंका इन अनुयोगद्वारोसे वर्णन नहीं करनेका कारण यह है कि प्रकृत ग्रन्थमे उनका कोई प्रयोजन नहीं है । अब उन छहो अनुयोगद्वारोसे कषायोका व्याख्यान किया जाता है । (१) कपाय क्या वस्तु है ? नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र, इन चारो अर्थनयोकी अपेक्षा क्रोधादि चारो कषायोका वेदन या अनुभवन करनेवाला जीव ही कषाय है, क्योकि, जीवद्रव्यको छोड़कर अन्यत्र कषाय पाये नहीं जाते है । शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत, इन तीनो शब्दनयोकी अपेक्षा द्रव्यकर्म और जीवद्रव्यसे भिन्न क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारो कपाय कहलाते है, क्योकि, शब्दनय द्रव्यको विषय नहीं करते हैं । इस प्रकारका वर्णन करना निर्देश अनुयोगद्वार है (२) कषाय किसके होता है ? नैगमादि चारो अर्थनयोकी अपेक्षा कषाय जीवके होता है, अर्थात् कपायका स्वामी जीव है, क्योकि, अर्थनयोकी अपेक्षा जीव और कषायोके भेदका अभाव है। तीनो शब्दनयोकी अपेक्षा कषाय किसीके भी नहीं होता है, अर्थात् कषायका स्वामी कोई नहीं है, क्योकि, भावकपायोके अतिरिक्त जीवद्रव्य और कर्मद्रव्यका अभाव है । इस प्रकार कपायोके स्वामीका प्रतिपादन करना स्वामित्व अनुयोगद्वार है । (३) कपाय किसके द्वारा उत्पन्न होता है ? नैगमादि चारो अर्थनयोकी अपेक्षा कपाय अपने उपादान और निमित्तकारणोसे उत्पन्न होता है । किन्तु तीनों शब्दनयोकी अपेक्षा कपाय किसीके द्वारा नहीं उत्पन्न होता है । अथवा, अर्थनयोकी अपेक्षा कषाय औदयिकभावसे और शब्दनयोकी अपेक्षा परिणामिकभावसे उत्पन्न होता है, क्योकि इन नयोकी दृष्टिमे कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकारका वर्णन करना साधन अनुयोगद्वार है। (४) कषाय किसमे उत्पन्न होता है ? चारो अर्थनयोकी अपेक्षा राग-द्वेषके साधनभूत बाहरी वस्त्र, अलंकार आदि पदार्थोंमे उत्पन्न होता है। तीनो शब्दनयोकी अपेक्षा कपाय अपने आपमे ही स्थित है, अर्थात् कषायका अधिकरण कपाय ही है, अन्य पदार्थ नहीं, क्योकि, कषायसे भिन्न पदार्थ कषायका आधार हो नहीं सकता है । इस प्रकारके वर्णन करनेको अधिकरण अनुयोगद्वार कहते है । ( ५ ) कपाय कितने काल तक होता है ? नाना जीवोकी अपेक्षा कपाय सर्वकाल होता है । एक जीवकी अपेक्षा सामान्य कपायका काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त है । कपाय-विशेषकी अपेक्षा प्रत्येक कपायका जघन्य और उत्कृष्ट-काल अन्तमुहूर्त है। किन्तु, मरण और व्याघातकी अपेक्षा कपायका जघन्य-काल एक सभय है। इस प्रकारके वर्णन करनेको स्थिति अथवा काल नामक अनुयोगद्वार कहते हैं। (६) कपाय कितने प्रकारका होता है ? कपाय और नोकषायके भेदसे कपाय दो प्रकारका है, अनन्तानुबन्धी आदिके भेदसे चार प्रकारका है और उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा पच्चीस प्रकारका है। इस प्रकारसे कपायोके भेद-वर्णन करनेको विधान-नामक अनुयोगद्वार कहते है। जैसे इन छह अनुयोगद्वारोसे कपायका प्रतिपादन किया है, उसी प्रकार प्रेय और द्वेपका भी व्याख्यान करना चाहिए, क्योकि, उनके विना प्रेय और द्वेपका यथार्थ निर्णय हो नहीं हो सकता। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती ८०. पाहुडं णिक्खिवियव्वं-णामपाहुडं ठवणपाहुडं दव्यपाहुडं भावपाहुडं चेदि, एवं चत्तारि णिक्खेवा एत्थ होति । ८१. णोआगमदो दव्यपाहुडं तिविहंसचित्त अचित्तं मिस्सयं च । ८२. णोआगमदो भावपाहुडं दुविहं-पसत्थमप्पसत्थं च । ८३. पसत्थं जहा-दोगंधियं पाहुडं । ८४. अप्पसत्थं जहा-कलहपाहुडं । चूर्णिसू०-पाहुड या प्राभृत इस पदका निक्षेप करना चाहिए। नामप्राभृत, स्थापना प्राभृत, द्रव्यप्राभृत और भावप्राभृत, इस प्रकार प्राभृत्तके विषयमे चार निक्षेप होते हैं ॥८०॥ ___नाम, स्थापना, आगमद्रव्य, नोआगमद्रव्य, ज्ञायकशरीर, और भव्यद्रव्य, इन निक्षेपोका अर्थ सुगम होनेसे उन्हे न कहकर चूर्णिकार तद्वयतिरिक्तनोआगमद्रव्यनिक्षेपका स्वरूप कहते हैं चूर्णिसू०-तद्वयतिरिक्तनोआगमद्रव्यप्राभृत सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकार का है ॥८१॥ ' विशेषार्थ-प्राभृत अर्थात् भेट-स्वरूप भेजे गये हाथी, घोड़े आदि सचित्तनोआगमद्रव्यप्राभृत कहलाते है। सोना, चाँदी, माणिक, मोती, हीरा, पन्ना आदि उपहाररूप द्रव्यको अचित्तनोआगमद्रव्यप्राभृत कहते है। भेट स्वरूप भेजे जानेवाले सोने, चॉदी और जवाहरात आदिसे लदे हुए हाथी, घोड़े आदि मिश्रनोआगमद्रव्यप्राभृत है। चूंकि, भेट या उपहारमें दिये जानेवाले द्रव्य व्यवहारमे प्राभृत कहलाते है, इस अपेक्षा यहाँ प्राभृतका अर्थ किया गया है, और वे द्रव्य तीन प्रकारके होते हैं, इसलिए नोकर्स-तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यप्राभृतके तीन भेद किये गये है, ऐसा अभिप्राय समझना चाहिए। आगमभावप्राभृतका अर्थ सुगम है, इसलिए उसे न कहकर नोआगमभावप्राभृतनिक्षेपका स्वरूप कहते है - चूर्णिसू ०-नोआगमभावप्राभृत प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका होता है ॥८२॥ विशेषार्थ--आनन्दके कारणस्वरूप शास्त्रादि द्रव्यके समर्पणको प्रशस्तनोआगमभावप्राभृत कहते हैं । वैर, कलह आदिके कारणभूत द्रव्यके प्रस्थापनको अप्रशस्तनोआगमभावप्राभृत कहते है । इन दोनोकी अपेक्षा नोआगमभावप्राभृतके दो भेद हो जाते हैं । अब प्रशस्त और अप्रशस्तनोआगमभावप्राभृतका स्वरूप कहते हैं चूर्णिसू०-~-दोग्रन्थरूप पाहुडका समागम प्रशस्तनोआगमभावप्राभृत है। कलहजनक द्रव्यका समर्पण अप्रशस्तनोआगमभावप्राभृत है ॥८३-८४॥ विशेपार्थ-परमानन्द और आनन्दमात्रको 'दोग्रन्थिक' कहते है। किन्तु केवल परमानन्द और आनन्द रूप भावोका आदान-प्रदान संभव नहीं, अतः उपचारसे उनके कारणभूत द्रव्योके भेजनेको दोग्रन्थिक-प्राभृत कहा जाता है । इसके दो भेद है, परमानन्दप्राभृत और आनन्दमात्रप्राभृत । इनमे, केवलज्ञान और केवलदर्शनके द्वारा समस्त विश्वके Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १५] अद्धापरिमाण-निर्देश ८५. संपहि णिरुत्ती उच्चदे । ८६. पाहुडेत्ति का णिरुत्ती १ जम्हा पदेहि पुदं (फुडं ) तम्हा पाहुडं। आवलिय अणायारे चक्खिदिय-सोद-घाण-जिभाए। मण-वयण-काय-पासे अवाय-ईहा-सुदुस्सासे ॥१५॥ दर्शक, वीतराग तीर्थकरोके द्वारा उपदिष्ट, और भव्यजीवोके हितार्थ निर्दीप आचार्य-परम्परासे प्रवाहित, द्वादशांग वाणीके वचनसमूहको, अथवा उसके एक देशको परमानन्ददोग्रन्थिकप्राभृत कहते है । इसके अतिरिक्त सांसारिक सुख-सामग्रीके साधक पदार्थोके समर्पणको आनन्दमात्रप्राभृत कहते है । सर्प, गर्दभ, जीर्ण वस्तु और विप आदि द्रव्य कलहके कारण होते हैं । ऐसे द्रव्योका किसीको भेट-स्वरूप भेजना कलहपाहुड कहलाता है । इसे ही अप्रशस्तनोआगमभावप्राभृत कहते है। यहाँ प्राकृतमे इन उपयुक्त अनेक प्रकारके प्राभृतोमेसे स्वर्ग और मोक्ष-सम्बन्धी आनन्द और परम सुखके कारणभूत दोग्रन्थिकप्राभृतसे प्रयोजन है। . उत्थानिकाचू०-अब 'प्राभृत' इस पदकी निरुक्ति कहते है ॥८५॥ शंकाचू०–प्राभृत-इस पदकी निरुक्ति क्या है ? समाधान चू०-जो अर्थपदोसे स्फुट, संपृक्त या आभृत अर्थात् भरपूर हो, उसे प्राभृत कहते हैं ॥८६॥ विशेषार्थ-प्रकृष्टरूप तीर्थंकरोके द्वारा आभृत अथवा प्रस्थापित शास्त्रको प्राभृत कहते है । अथवा, प्रकृष्ट श्रेष्ठ विद्या-वित्तशील आचार्योके द्वारा अवधारित, व्याख्यात अथवा, आगत शास्त्रको प्राभूत कहते है। कपाय-विपयक श्रुतको-शास्त्रको-कपायप्राभृत कहते है । अथवा, कपाय-सम्बन्धी अर्थपदोसे परिपूर्ण शास्त्रको कषायप्राभूत कहते है। इसी प्रकार, राग और द्वेषके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको पेज्जदोसपाहुड या प्रयोद्वेपप्राभूत कहते है, जो कि कपायप्राभृतका ही दूसरा नाम है । इस प्रकार कपायप्राभृतका उपक्रम समाप्त हुआ। अव, जिसके जाने विना प्रस्तुत ग्रन्थके अधिकारोका ठीक ज्ञान नहीं हो सकता, और जो पन्द्रहो अधिकारोमे साधारणरूपसे व्याप्त है, उस अद्धा-परिमाणका गाथासूत्रकार सबसे पहले निर्देश करते है अनाकार दर्शनोपयोग, चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा इन्द्रिय-सम्बन्धी अवग्रहज्ञान, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, स्पर्शनेन्द्रिय-सम्बन्धी अवग्रहज्ञान, अवायज्ञान, ईहाज्ञान, श्रुतज्ञान और उच्छ्वास, इन सब पदोंका जघन्यकाल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष-विशेष अधिक है, तथापि वह संख्यात आवलीप्रमाण है ॥१५॥ विशेषार्थ-अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोगका जघन्यकाल आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सवसे कम है, तथापि वह अनेक आवलीप्रमाण है। इस अनाकार उपयोगसे चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी अवग्रहज्ञानका जघन्य काल विशेप अधिक है। चक्षुरिन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानके जघन्यकालमे श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानका जघन्य काल विशेप Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कसाय पाहुड सुत्त केवलदंसण- गाणे कसायसुकेकए पुधत्ते य । पडिवादुवसातय खवेंतए संपराए य ॥ १६ ॥ [ १ पेजदोस विहत्ती अधिक है । श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानके जघन्यकालसे प्राणेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानका जघन्यकाल विशेष अधिक है । प्राणेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानके जघन्यकाल से जिह्वेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानका जघन्यकाल विशेष अधिक है । जिह्वेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञान के जघन्यकाल से मनोयोगका जघन्यकाल विशेप अधिक है । मनोयोगके जघन्यकालसे वचनयोगका जघन्यकाल विशेप अधिक है । वचनयोगके जघन्यकालसे काययोगका जवन्यकाल विशेष अधिक है । काययोगके जघन्यकाल से स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानका जघन्यकाल विशेष अधिक है । स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानके जघन्यकालसे अवायज्ञानका जघन्यकाल विशेष अधिक है । अवायज्ञानके जघन्यकालसे ईहाज्ञानका जवन्यकाल विशेष अधिक है । ईहाज्ञानके जघन्यकालसे श्रुतज्ञानका जघन्यकाल विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानके जघन्य - कालसे उच्लासका जघन्यकाल विशेष अधिक है । यहॉपर अवाय और ईहाज्ञानके जघन्यकालका सामान्य निर्देश होनेसे स्पर्शन, रसना आदि किसी भी इन्द्रियसम्बन्धी अवाय और ईहाज्ञानका ग्रहण किया गया समझना चाहिए | धारणाज्ञानका पृथक् निर्देश न होनेका कारण यह है कि उसका अवायन्ज्ञानमे ही अन्तर्भाव कर लिया गया है, क्योकि, दृढ़ात्मक अवायज्ञानको ही धारणा कहते हैं । इसी - लिए उसका पृथक् निर्देश नहीं किया गया । I तद्भवस्थ- केवलीके केवलदर्शन, केवलज्ञान और सकषाय जीवके शुक्ललेश्या, इन तीनोंका; एकत्ववितर्कअवीचारशुक्लध्यान, पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्कुध्यान, प्रतिपाती उपशामक, आरोहक उपशामक और क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय संयत, इन सबका जघन्यकाल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है ||१६|| विशेषार्थ - तद्भवस्थ - केवलीके केवलदर्शन, केवलज्ञान और सकपाय जीवकी शुक्ललेश्या, इन तीनोका जघन्य काल परस्पर सदृश होते हुए भी उच्छ्वासके जघन्यकाल से विशेष अधिक है । इससे एकत्ववितर्क अवीचारशुक्लध्यानका जघन्य काल विशेष अधिक है । एकत्ववितर्क अवीचारशुक्लध्यानके जघन्य कालसे पृथक्त्वत्रितर्कवीचारशुक्रुध्यानका जघन्य काल विशेष अधिक है । पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यानके जघन्य कालकी अपेक्षा प्रतिपातीउपशान्तकपाय-गुणस्थान से गिरनेवाले - सूक्ष्मसाम्परायसयतका जघन्य काल विशेष अधिक है । प्रतिपाती सूक्ष्मसाम्परायसंयत के जघन्यकाल से उपशान्तकपाय - गुणस्थानमे चढ़नेवाले आरोहक सूक्ष्मसाम्परायसंयतका जघन्य काल विशेष अधिक है । आरोहक - उपशामक सूक्ष्मसाम्परायसंयतके जघन्य कालसे क्षपक श्रेणीवाले सूक्ष्मसाम्परायसंयतका जघन्य काल विशेप अधिक है । यहॉपर तद्भवस्थकेवलीसे अन्तःकृतकेवलीका अभिप्राय समझना चाहिए, क्योंकि, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १७-१८] अद्धापरिमाण-निर्देश माणद्धा कोहद्धा मायद्धा तहय चेव लोहद्धा । खुद्दभवग्गहणं पुण किट्टीकरणं च बोद्धव्वा ॥१७॥ संकामण-ओवट्टण-उवसंतकसाय-खीणमोहद्धा। उवसातय-अद्धा खत-अद्धा य बोद्धव्वा ॥१८॥ जो घोरातिघोर दुस्सह उपसर्ग सहन करते हुए केवलज्ञान प्राप्तकर शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष चले जाते हैं, उन्हींके केवलदर्शन और केवलज्ञानका यह जघन्य काल सम्भव है, अन्यके नहीं । मानकषाय, क्रोधकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय, तथा क्षुद्रभवग्रहण और कृष्टीकरण, इनका जघन्य काल उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है ऐसा जानना चाहिए ॥१७॥ विशेषार्थ--क्षपक सूक्ष्मसाम्परायसंयतके जघन्यकालसे मानकषायका जवन्य काल विशेप अधिक है। मानकपायके जघन्यकालसे क्रोधकषायका जघन्य काल विशेष अधिक है । क्रोधकषायके जघन्यकालसे मायाकपायका जघन्य काल विशेष अधिक है । मायाकपायके जवन्यकालसे लोभकपायका जघन्य काल विशेष अधिक है। लोभकषायके जघन्यकालसे लब्ध्यपर्याप्त जीवके क्षुद्रभवग्रहणका काल विशेष अधिक है। लब्ध्यपर्याप्त जीवके क्षुद्रभवग्रहणके कालसे कृष्टीकरणका काल विशेष अधिक है। यह कृष्टीकरण-सम्बन्धी जघन्य काल लोभकपायके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके होता है और कृष्टीकरण-क्रिया भी क्षपकश्रेणीके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अन्तमे होती है। __ संक्रामण, अपवर्तन, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह, उपशामक और क्षपक, इनके जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक जानना चाहिए ॥१८॥ विशेषार्थ-अन्तरकरण करनेपर नपुंसकवेदके क्षपण करनेको संक्रामण कहते हैं। नपुंसकवेदके क्षय कर देनेपर शेष नोकपायोके क्षपण करनेको अपवर्तन कहते है। ग्यारहवे गुणस्थानवर्ती जीवको उपशान्तकपाय और बारहवे गुणस्थानवर्ती जीवको क्षीणमोह कहते है। उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाला जीव जब मोहनीय कर्मका अन्तरकरण कर देता है, तव उसकी उपशामक संज्ञा हो जाती है। इसी प्रकार जब क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाला जीव मोहकर्मका अन्तरकरण कर देता है, तब उसकी क्षपक संज्ञा हो जाती है। इनका काल इस प्रकार है--कृप्टीकरणके जघन्यकालसे संक्रामणका जघन्य काल विशेप अधिक है । संक्रामणके जघन्य कालसे अपवर्तनका जघन्य काल विशेष अधिक है । अपवर्तनके जघन्य कालसे उपशान्तकपायका जघन्य काल विशेप अधिक है। उपशान्तकपायके जघन्य कालसे क्षीणमोह गुणस्थानका जघन्य काल विशेप अधिक है। क्षीणमोहके जघन्य कालसे उपशामकका जघन्य काल विशेप अधिक है। तथा उपशामकके जघन्य कालसे आपकका जघन्य काल विशेष अधिक है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ कसाय पाहुड सुत्त णिव्वाघादेणेदा होंति जहण्णाओ आणुपुवीए । एतो अणाणुपुव्वी उकस्सा होंति भजियव्वा ॥ १९॥ चक्खू सुदं पुधत्त माणोवाओ तहेव उवसंते । उवसामेंतय-अद्धा दुगुणा सेसा हु सविसेसा ||२०|| [ १ पेजदोसविहत्ती ये ऊपर बतलाये गये सर्व जघन्य काल निर्व्याघात अर्थात् मरण आदि व्याघातके विना होते हैं । ( क्योंकि, व्याघातकी अपेक्षा तो उक्त पदोंका जघन्य काल क्वचित् कदाचित् एक समय भी पाया जाता है । ) ये उपर्युक्त जघन्य काल-सम्बन्धी पद आनुपूर्वीसे कहे गए हैं । अब इससे आगे जो उत्कृष्ट काल-सम्बन्धी पद कहे जानेवाले हैं, उन्हें अनानुपूर्वी से अर्थात् परिपाटीक्रमके विना जानना चाहिए ॥१९॥ विशेषार्थ- - उपयुक्त चार गाथाओके द्वारा अनाकार उपयोगसे लेकर क्षपक जीव तकके स्थानोमे जो जघन्य काल वतलाया गया है, वह अपने पूर्ववर्ती स्थानकी अपेक्षा उत्तरवर्ती स्थानमे क्रमशः विशेष विशेष अधिक है, इस प्रकारकी आनुपूर्वी अर्थात् एक क्रमबद्ध परम्परासे कहा गया है । किन्तु अब इससे आगे उन्ही स्थानोका जो उत्कृष्ट काल कहा जायगा, वह आनुपूर्वीके विना ही कहा जायगा । इसका कारण यह है कि उपर्युक्त स्थानोमेसे कुछ स्थानोका उत्कृष्ट काल अपने पूर्ववर्ती स्थानोके उत्कृष्ट कालसे दुगुना है और कुछ स्थानोका कुछ विशेष अधिक है, अतएव उनमे आनुपूर्वी सम्भव नही है । यह बात आगे कहे जानेवाले उक्त स्थानोके उत्कृष्ट कालसे स्पष्ट हो जायगी । अब उपयुक्त पदोका उत्कृष्ट काल कहते है चक्षुरिन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यान, मानकषाय, अवायमतिज्ञान, उपशान्तकपाय और उपशामक, इनके उत्कृष्ट कालोंका परिमाण अपने पूर्ववर्ती पदके कालसे दुगुना दुगुना है । उक्त पदों के अतिरिक्त अवशिष्ट पदके उत्कृष्ट कालोंका परिमाण स्वपूर्व पदसे विशेष अधिक है ||२०|| विशेषार्थ - इस गाथासूत्रसे सूचित उत्कृष्ट अद्धापरिमाणसम्बन्धी अल्पवहुत्व इस १ प्रकार जानना चाहिए - मोहनीयकर्मके जघन्य क्षपण - कालसे चक्षुदर्शनोपयोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे चक्षुरिन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल दुगुना है । इससे श्रोत्रेन्द्रियज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे प्राणेन्द्रियज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे जिह्वेन्द्रियज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट का विशेष अधिक है । इससे मनोयोगका उत्कृष्ट काल विशेप अधिक है । इससे वचनयोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे काययोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे स्पर्शनेन्द्रियजनितज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे अवायज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल दुगुना है । इससे ईहाज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे श्रुतज्ञानो - Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १९-२० ] सूत्रका अवतार ३३ ८७. तो सुत्तसमोदारो । पयोगका उत्कृष्ट काल दुगुना है । इससे उच्छ्वासका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे तद्भवस्थकेवली के केवलज्ञान, केवलदर्शन और सकषायी जीवकी शुकुलेश्याका उत्कृष्ट काल स्वस्थानमे परम्पर सदृश होकर विशेष अधिक है । इससे एकत्ववितर्क - अवीचारशुक्लध्यानका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यानका उत्कृष्ट काल दुगुना है । इससे प्रतिपाती सूक्ष्मसाम्परायका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे आरोहक सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे मानकपायका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे कोवकषायका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे मायाकषायका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे लोभकपायका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे क्षुद्रभवग्रहणका उत्कृष्ट काल विशेप अधिक है । इससे कृष्टीकरणका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। संक्रामणका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे अपवर्तनका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे उपशान्तकपायका उत्कृष्ट काल दुगुना है । इससे क्षीणकपायवीतरागछद्मस्थका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे चारित्रमोहनीय उपशामकका उत्कृष्ट काल दुगुना है । इससे चारित्रमोहनीय क्षपकका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इस प्रकार अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाला अर्थाधिकार समाप्त हुआ । अब कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकारोंमेंसे प्रथम अर्थाधिकार कहने के लिए चूर्णि - कार प्रतिज्ञासूत्र कहते है चूर्णिसू०. ० - इस उपर्युक्त अद्धापरिमाण अर्थाधिकारके अनन्तर गाथासूत्रका समवतार होता है ॥ ८७ ॥ विशेषार्थ - इससे पहले कही गई बारह सम्बन्ध - गाथाएँ अद्धापरिमाण और अधिकार-निर्देश करनेवाली गाथाएँ भी तो गुणधराचार्य के मुख- कमलसे विनिर्गत होने के कारण 'सूत्र' ही है ? फिर उनकी सूत्रसंज्ञा न करके अब आगे कही जानेवाली गाथाओकी सूत्रसंज्ञा क्यों की जा रही है ? इस शंकाका समाधान यह है कि इस अल्पबहुत्वसे आगेकी सूत्र- गाथाऍ कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकारोने प्रतिबद्ध है । किन्तु पूर्वोक्त बारह सम्बन्ध-गाथाएँ और छह अद्धापरिमाण निर्देश करनेवाली गाथाएँ, तथा अधिकार-निर्देश करनेवाली दो गाथाएँ, किसी एक अर्थाधिकार से सम्बन्धित नहीं है, अपि तु सभी-पन्द्रहो- अर्थाधिकारो मे साधारणरूपसे सम्बद्ध है, इस बात के बतलाने के लिए 'एतो सुत्तसमोदारो' ऐसा प्रतिज्ञा सूत्र यतिवृपभाचार्यने कहा है । अतएव उक्त गाथाओंके गुणधराचार्य-प्रणीत होनेपर भी चूर्णिकारने आगे आनेवाली गाथाओकी ही सूत्रसंज्ञा की है । अब पेज्जदोसविहत्ती नामक प्रथम अर्थाधिकार मे प्रतिबद्ध गाथासूत्रको कहते है - ५. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती (३) पेज्जं वा दोसो वा कम्मि कसायम्मि कस्स व णयस्स । दुट्टो व कम्मि दब्वे पियायदे को कहिं वा वि ॥२१॥ ८८. एदिस्से गाहाए पुरिमद्धस्स विहासा' कायव्या । तं जहा-णेगम-संगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो । माया पेज्जं, लोहो पेज्ज । (३) किस-किस कपायमें किस-किस नयकी अपेक्षा प्रेय या द्वेपका व्यवहार होता है ? अथवा कौन नय किस द्रव्यमें द्वेषको प्राप्त होता है और कौन नय किस द्रव्यमें प्रियके समान आचरण करता है ? ॥२१॥ विशेपार्थ-इस आशंका-सूत्रका यह अभिप्राय है कि प्रेय और द्वेप किसे कहते है, उनका कपायोसे क्या सम्बन्ध है, वे प्रेय और द्वेप किस-किस नयके विषय होते है और यह राग-द्वेपसे भरा हुआ जीव किस द्रव्यको द्वेपकर या अपना अहितकारी समझकर उनमे द्वेपका व्यवहार करता है और किस द्रव्यको प्रियकर या हितकारी समझकर उसमे राग करता है ? इस प्रकारके प्रश्नोको उठाकर उनके समाधान करनेकी सूचना ग्रन्थकारने की है। इस प्रकार आशंका-सूत्र कहकर गुणधराचार्यने उसका उत्तर-स्वरूप सूत्र नहीं कहा, अतएव आगे व्याख्यान किये जानेवाला अर्थ निर्निवन्धन-सम्बन्ध, अभिधेय आदि रहित और दुरवहार-क्लिष्ट या दुरूह-न हो जाय, इसलिए यतिवृपभाचार्य उक्त आशंका-सूत्रसे सूचित अर्थका प्रतिपादन आगेके सूत्र-सन्दर्भ द्वारा करते है चूर्णिसू०--इस गाथाके पूर्वार्धकी विभापा-विशेष व्याख्या करना चाहिए । वह इस प्रकार है-नैगमनय और संग्रहनयकी अपेक्षा क्रोधकपाय द्वेप है, मानकपाय द्वेप है । मायाकपाय प्रय है और लोभकषाय प्रेय है ॥८८॥ विशेषार्थ-नैगम और संग्रहनयकी अपेक्षा क्रोधकपायको द्वेप कहनेका कारण यह है कि क्रोध करनेवाले पुरुषके क्रोधके निमित्तसे अगमे सन्ताप उत्पन्न होता है, शरीर कॉपने लगता है, मुखकी कान्ति फीकी पड़ जाती है। इसी प्रकार क्रोधकी अधिकतासे मनुष्य अन्धा, बहिरा और गूंगा भी हो जाता है। क्रोधी पुरुपकी स्मरणशक्तिका लोप हो जाता है । क्रोधान्ध पुरुप अपने माता, पिता, भाई, वहिन आदि स्ववन्धु-जनोको भी मार डालता है। इस प्रकार क्रोचकपाय सकल अनर्थोंका मूल है और इसीलिए उसे द्वेपरूप कहा है। क्रोधके समान ही उक्त दोनो नयोकी अपेक्षा मानकपायको भी द्वेप कहा गया है। इसका कारण यह है कि मानकषाय क्रोधकपायका अविनाभावी है, अर्थात् क्रोधक पश्चात् नियमसे उत्पन्न होता है। मानकपाय करनेवाला मानी पुरुप यद्यपि दूसरोको नीचा दिखाकर स्वयं उच्च बननेका प्रयत्न करता है, किन्तु प्रथम तो ऐसा करनेके लिए उसे १ सुत्तेण सूचिदत्थस्स विसेसिऊण भासा विभासा, विवरण ति बुत्त होइ । जयध० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१] नयोंकी अपेक्षा प्रेयोद्वेष-निरूपण अनेक असत्-उपायोका-कुमार्गोका-आश्रय लेना पड़ता है। दूसरे, जिसके लिए या जिसके ऊपर अभिमान किया जाता है, वह व्यक्ति भी प्रतिस्पर्धाके कारण सदा बदला लेनेकी चेष्टा किया करता है, और अवसर पाते ही अभिमानीको नीचा दिखाए विना नहीं रहता । इस प्रकार क्रोधके समान ही मानकषाय भी उपयुक्त अशेप दोपोका कारण होनेसे द्वेषरूप ही है। नैगम और संग्रहनयकी अपेक्षा मायाकपायको प्रेयरूप कहा गया है। इसका कारण यह है कि मायाका आधार सदा ही कोई प्रिय पदार्थ हुआ करता है। मनुष्य किसी प्रिय वस्तुके छिपानेके लिए ही मायाचारी करता है। क्रोध और मानकपायके समान मायाचारीका अभिप्राय साधारणतः दूसरेके दिलको दुखानेका नहीं हुआ करता है, किन्तु अपनी गोप्य वस्तुको गुप्त रखनेका ही हुआ करता है। दूसरी बात यह है कि मायाचारी पुरुष अपनी मायाचारीकी सफलतापर सन्तोषका अनुभव करता है। किन्तु क्रोधी और मानीकी ऐसी बात नहीं है, उसे तो सदा ही पीछे पछताना पड़ता है। क्वचित् कदाचित् मायाका प्रयोग क्रोध और मानकषायकी पुष्टिमे भी देखा जाता है, सो वहॉपर क्रोध और मानमूलक मायाकषाय जानना चाहिए, केवल मायाकषाय नही । यही बात क्रोध, मान और लोभके विपयमे भी जानना चाहिए। इस प्रकार उक्त दोनो नयोकी अपेक्षा मायाकपायको प्रेयरूप कहना युक्ति-युक्त ही है। लोभकपाय भी उक्त दोनो नयोकी अपेक्षा प्रेयरूप है । इसका कारण यह है कि लोभ धनोपार्जन, परिग्रह-संरक्षण, ऐश्वर्य-वृद्धि आदिके लिए किया जाता है । इन सभी वातोके मूलमे लोभीको अपने वर्तमान और आगामी सुखकी कामना हुआ करती है। मनुष्य अपने आपको, अपने कुटुम्बी जनोको, अपने सजातीय और स्वदेशीय बन्धुओको सुखी बनानेकी इच्छासे ही धन-संग्रह किया करता है। इस प्रकार लोभ करनेवालेकी दृष्टि वर्तमान और आगामी कालमे सुख-प्राप्तिकी ही रहती है। इसलिए नैगम और संग्रहनयकी दृष्टिसे लोभको प्रेयरूप कहना उचित ही है । अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, ये चारो नोकषाय नैगम और संग्रहनयकी अपेक्षा द्वेपरूप है, क्योकि, क्रोधकषायके समान ही ये भी अशान्ति और दुःखके कारण है । हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, ये पॉच नोकपाय प्रेयरूप हैं, क्योकि, लोभकयायके समान ये सभी नोकवाय प्रेयके कारण है। चूर्णिसूत्रमे नोकपायका पृथक् उल्लेख नही होनेपर भी सूत्रके देशामर्शक होनेसे उक्त सूत्रमें इन नोकपायोका अन्तर्भाव समझना चाहिए। यहाँ एक आशंका की जा सकती है कि क्रोधादिकपायो और अरति, शोकादि नोकपायोको द्वेपरूप ही मानना चाहिए, क्योकि, ये सभी कर्मास्रवके कारण हैं । फिर माया, लोभ और हास्य आदिको प्रेयरूप कैसे कहा १ इसका समाधान यह है कि यद्यपि यह सत्य है कि सभी कपाय और नोकपाय कर्मास्रवके कारण होते है। किन्तु यहॉपर वर्तमानकालिक या भविष्यकालिक प्रसन्नता मात्रकी ही विवक्षासे माया, लोभ और हास्यादिकको प्रेयरूप कहा है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १ पेजदोसविहत्ती ८९. ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोस्रो, लोहो पेज्जं । ९०. उजुसुदस्त कोहो दोसो, माणो णो दोसो णो पेज्जं, माया णो दोसो णो पेज्जं, लोहो पेज्जं । ३६ चूर्णिसृ० - व्यवहारनयकी अपेक्षा क्रोधकपाय द्वेप है, मानकषाय द्वेप है, मायाकपाय द्वेप है । किन्तु लोभकषाय प्रेय है || ८९ ॥ विशेषार्थ - क्रोध और मानकपायको द्वेप कहना तो उचित है, क्योंकि, लोकमे उन दोनो के भीतर द्वेष व्यवहार देखा जाता है । किन्तु मायाकपायमे तो द्वेपका व्यवहार नही पाया जाता है, अतः उसे द्वेष नही कहना चाहिए ? इस शंकाका समाधान यह है कि माया मे भी द्वेपका व्यवहार देखा जाता है । इसका कारण यह है कि माया करने से संसारमें अविश्वास उत्पन्न होता है, जिससे कोई उसका विश्वास नहीं करता । माया करने से लोक - निन्दा भी उत्पन्न होती है और लोक-निन्दित वस्तु प्रिय हो नही सकती है, क्योकि, लोक - निन्दासे सदा ही दुःख और अशान्ति उत्पन्न हुआ करती है । अतएव व्यवहारनयकी अपेक्षा मायाकपायको द्वेप कहना न्यायोचित है । इसी नयकी अपेक्षा लोभको प्रेय कहना भी उचित ही है, क्योकि, लोभसे संचित और रक्षित द्रव्यके द्वारा व्यवहारिक जगत्मे जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ देखा जाता है । इसी प्रकार व्यवहारकी स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी प्रेयरूप हैं, क्योकि, इनके निमित्तसे राग भावकी उत्पत्ति देखी जाती है । किन्तु शेष सात नोकपाय इस नयकी अपेक्षा द्वेपरूप है, क्योकि, व्यवहारमें शोक, अरति आदिसे द्वेपभाव उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । चूर्णिसू० - ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिसे क्रोधकषाय द्वेप है, मानकपाय नोट्ठेप और नोप्रेय है, मायाकपाय नोद्वेष और नोप्रेय है, तथा लोभकपाय प्रेय है ॥ ९० ॥ करते हुए वर्तमानम विशेषार्थ - ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा क्रोधकपायको द्वेप कहना उचित है, क्योकि, वह सकल अनर्थोंका मूल कारण है । लोभको प्रेय कहना उचित है, क्योकि, उससे हृदय आल्हादित होता है । किन्तु मान और मायाकपायको नोद्वेप और नोप्रेय कैसे कहा, क्योकि, राग और द्वेपसे रहित तो कोई कपाय पाया नही जाता ? इस शंकाका समाधान यह हैमान और मायाकपायको नोद्वेप कहनेका तो कारण यह है कि इनके अंग-संताप, चित्त-वैकल्य आदि नही उत्पन्न होते है । यदि कभी वहॉपर वह शुद्ध मानकपाय न समझकर क्रोध - मिश्रित मानकपाय प्रकार मान और मायाकषायको नोप्रेय कहना भी युक्ति-संगत है, अपेक्षा वर्तमानमें गर्व और छल-प्रपंच करते हुए आल्हादकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती । उक्त कथनसे यह सिद्ध हुआ कि मानकषाय और मायाकपाय न पूर्णरूपसे, प्रेयरूप ही हैं और न द्वेपस्वरूप ही । अतएव इन्हें नोप्रेय और नोद्वेष कहना सर्वप्रकारसे न्याय संगत है । कही होते भी है, तो समझना चाहिए । इसी क्योकि, ऋजु सूत्रनयकी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१] नयोंकी अपेक्षा प्रेयोद्वेप-निरूपण ९१. सदस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो दोसो। कोहो माणो माया णो पेज्ज, लोहो सिया पेज्जं । ९२. *दुट्टो व कम्हि दव्ये'त्ति । ९३. णेगमस्स । ९४. दुट्ठो सिया जीवे, सिया णो जीवे । एवमट्ठ भंगेसु । चूर्णिसू०-शब्दनयकी अपेक्षा क्रोधकपाय द्वेप है, मानकषाय द्वेप है, मायाकपाय द्वेप है और लोभकषाय भी द्वेष है । तथा, क्रोधकषाय, मानकषाय और मायाकपाय नोप्रेय है, लोभकपाय कथंचित् प्रेय है ॥९१॥ । विशेपार्थ-क्रोधादिक सभी कपाय कर्मास्रवके कारण हैं, इस लोक और परलोकका विनाश करनेवाली हैं, इसलिए उन्हे द्वेषरूप कहना उचित ही है । क्रोध, मान और मायाकपायको नोप्रेय कहनेका कारण यह है कि इनसे तत्काल जीवके न तो संतोप ही पाया जाता है, और न परम आनन्द ही । लोभकपायके कथंचित् प्रेयरूप कहनेका अभिप्राय यह है कि रत्नत्रयके साधन-सम्बन्धी लोभसे आगे जाकर स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति भी देखी जाती है। इनके अतिरिक्त सांसारिक वस्तु-विपयक लोभ नोप्रेय ही है, क्योकि, उससे पापोकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार उक्त गाथासूत्रके पूर्वार्धकी व्याख्याकर अब उसके तीसरे चरणका अर्थ कहनेके लिये यतिवृषभाचार्य उसका उपन्यास करते है चूर्णिसू०-'कौन नय किस द्रव्यमे द्वेवको प्राप्त होता है' ? नैगमनयकी अपेक्षा जीव किसी विशिष्ट क्षेत्र और किसी विशिष्ट कालमे एक जीवमे द्वेपको प्राप्त होता है, तथा कचित् कदाचित् एक अजीवमे द्वेषको प्राप्त होता है। इस प्रकार आट भंगोमे ट्रेप-व्यवहार जान लेना चाहिए ॥९२-९४॥ विशेषार्थ-वे आठ भंग इस प्रकार हैं-(१) जीव कभी कही एक जीवमे द्वेष करता है, (२) कभी कही अनेक जीवोमे द्वेप करता है, (३) कभी कही एक अजीवपर द्वेप करता है, (४) कभी कही अनेक अजीवोपर द्वेष करता है, (५) कभी एक जीव और एक अजीवपर, (६) कही अनेक जीव और एक अजीवपर, (७) कभी अनेक अजीव और एक अजीवपर और (८) कही अनेक जीव और अनेक अजीवोमे द्वेप करता है । इन आठो ही भेदोमे क्रोधकी उत्पत्ति अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, प्रत्यक्षमे ही कभी किसी जीवके दुर्व्यवहारके कारण क्रोध उत्पन्न होता है, तो कभी पैर आदिम कॉटा आदिके लग जानेस अजीव पदार्थके द्वारा भी क्रोधकी उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है । इस प्रकार नैगमनयकी अपेक्षा 'कौन किस द्रव्यम द्वेषभावको प्राप्त होता है' इस चरणसे संबंधित आठ भंगोका निरूपण जानना चाहिए। ॐ जयधवला-सपादकोंने इसे चूर्णिसूत्र नहीं माना, पर यह चूर्णिसूत्र है, जैसा कि दनी सूत्रकी जयधवलाटीकासे ही स्पष्ट है :-दुट्ठो व कम्हि दब्बे त्ति । एयत्स गाहावयवत्स अत्यो बुञ्चदि त्ति जाणाविदमेदेण सुत्तण । णेद परूवेदव्यं, सुगमत्तादो ? ण एस दोमो, मदमेहजणाणुगह परूविटत्तादो। जयध० भा० १ ० ३८०। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती ९५. 'पियायदे को कहिं वा वि' त्ति एत्थ वि णेगमस्स अट्ठ भंगा। ९६. एवं ववहारणयस्स । ९७. संगहस्स दुट्ठो सव्वदव्येसु । ९८. पियायदे सव्वदव्वेसु । ९९. एवमुजुसुअस्स १००. सदस्स णो सव्वदव्वेहि दुट्ठो, अत्ताणे चेव, अत्ताणम्मि पियायदे । अव चूर्णिकार उक्त गाथाके चतुर्थ चरणका अर्थ कहते हैं चूर्णिस०-'कौन नय किस द्रव्यमें प्रियरूप आचरण करता है', यहाँ पर भी नैगमनयकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं ॥९५॥ जिस प्रकार ऊपर द्वेपको आश्रय करके एक और अनेक जीव तथा अजीव-सम्बन्धी आठ भंग वतलाए गये हैं । उसी प्रकार यहाँ प्रेयको आश्रय करके आठ भंग जान लेना चाहिए । क्योकि, जैसे जीव, कभी किसी समय एक जीव और अनेक जीवोमे प्रेयभावका आचरण करता हुआ देखा जाता है, उसी प्रकार कभी एक अजीव भवनादिमे और अनेक अजीवरूप भोगोपभोगके साधनभूत हिरण्य, सुवर्ण, शय्या, आसन और खान-पानकी वस्तुओमे प्रिय आचरण करता हुआ देखा जाता है। इसी प्रकार शेप भंगोको भी लगा लेना चाहिए । नैगमनयकी अपेक्षा आठ भंग कहनेका कारण यह है कि यह नय संग्रह और असंग्रह-स्वरूप सभी पदार्थोंको विपय करता है। जिससे एक-अनेक, भेद-अभेद आदिके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाले भंगोंका इस नयमे समावेश हो जाता है । चूर्णिसू-इसी प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षासे द्वेप और प्रेयसम्बन्धी आठ भंग जानना चाहिए । क्योकि, इन उक्त आठो प्रकारके भंगोमे प्रिय और अप्रियरूपसे लोकसंव्यवहार देखा जाता है। संग्रहनयकी अपेक्षा कभी यह जीव सर्व चेतन और अचेतन द्रव्योमे निमित्तविशेषादिके वशसे द्वेषरूप व्यवहार करने लगता है । यहाँ तक कि कचित् कदाचित् प्रिय पदार्थोंमे भी अप्रियपना देखा जाता है। कभी सभी वस्तुओमे प्रिय आचरण करता है । यहाँ तक कि निमित्तविशेष मिलनेपर विषादिक अप्रिय एवं घातक वस्तुओंमें भी प्रिय , आचरण करता हुआ देखा जाता है । संग्रहनयके समान ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा भी यह जीव कभी सर्व द्रव्योमे द्वेषरूप आचरण करता है ॥९६-९९।। चूर्णिसू०-शब्दनथकी अपेक्षा जीव सर्वद्रव्योके साथ न तो द्वेष-व्यवहार करता है और न प्रिय-व्यवहार ही। किन्तु अपने आपमे ही द्वेष-व्यवहार करता है और अपने आपमे ही प्रिय आचरण करता है।। १००॥ विशेषार्थ-किसी अन्य चेतन या अचेतन पदार्थमे द्वेषभाव रखनेपर उसका फल अन्यको नहीं भोगना पड़ता है किन्तु अपने आपको ही भोगना पड़ता है, क्योकि, किसी पर क्रोध, द्वेप आदि करनेपर तत्काल उत्पन्न होनेवाले अंग-संताप, चित्त-वैकल्य आदि कुफल, और परभवमे उत्पन्न होनेवाले नरकादिकके दुःख जीवको ही भोगना पड़ते हैं। इसी प्रकार अन्यपर किया गया प्रिय आचरण भी अन्यको सुख पहुँचानेकी अपेक्षा अपने आपको ही सुख और शान्ति पहुंचाता है । इसलिए शब्दनयकी अपेक्षा जीव न किसी पर द्वेप करता है Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१ ] बारह अनुयोगों से प्रेयो द्वेष-निरूपण ३९ १०१. णेगमा संगहियस्स वत्तव्वएण वारस अणियोगद्दाराणि पेज्जेहि दोसेहि । १०२. एगजीवेण सामित्त कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ संतपरूवणा दव्यपमाणागमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भागाभागानुगमो अप्पा बहुगागमो चि । १०३ कालजोणी सामित्तं । और न किसीपर राग करता है । किन्तु अपने आपमे ही राग और द्वेषरूप आचरण करता है, यह बात सिद्ध हुई | चूर्णिसू० - असंग्राहिक नैगमनयके वक्तव्य से प्रेय और द्वेषकी अपेक्षा बारह अनुयोगद्वार होते है || १०१॥ विशेषार्थ - नैगमनयके दो भेद हैं- संग्राहिकनैगम और असंग्राहिकनैगम नय । उनमेसे असंग्राहिकनैगमनयकी अपेक्षा प्रेय और द्वेपके अर्थका प्रतिपादन करनेवाले बारह अनुयोगद्वार होते है, जिनके कि नाम आगे के सूत्रमे बतलाये गये है । तथा, संग्राहिकनैगमनय और शेष समस्त नयोकी अपेक्षा पन्द्रह अनुयोगद्वार भी होते हैं, इससे अधिक भी होते है और कम भी होते है, क्योकि, उक्त नयोकी अपेक्षा अनुयोगद्वारोकी संख्याका कोई नियम नही है । जयधवलाकारने अथवा कहकर इस सूत्रका एक और प्रकार से भी अर्थ किया है - असंग्राहिक नैगमनयके वक्तव्य से जो प्रेय और द्वेप चारो कषायोके विषय मे समानरूपसे विभक्त है, अर्थात् क्रोध और मान द्वेषरूप हैं, तथा माया और लोभ प्रेयरूप हैं, उनकी अपेक्षा वक्ष्यमाण बारह अनुयोगद्वार होते है । वे बारह अनुयोगद्वार इस प्रकार है चूर्णिसू०. ० - एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ॥१०२॥ विशेषार्थ - सत्प्ररूपणाको आदिमे न कहकर अनुयोग-द्वारोके मध्यमे क्यो कहा ? इस शंकाका समाधान- यह है कि यदि सत्प्ररूपणाको मध्यमे न कहकर उसे अनुयोगद्वारोके आदिमे कहते, तो वह एक - जीवविषयक ही रहती, क्योकि, आदिमे एक जीव- सम्वन्धी अनुयोगद्वारोका ही नाम - निर्देश किया गया है । किन्तु मध्यमे उल्लेख करनेसे उनका विषय साधारणतः एक और अनेक जीव-सम्बन्धी सत्ताका प्रतिपादन करना वन जाता है । इसलिए उसका अनुयोगद्वारोके मध्यमे नाम-निर्देश किया है । चूर्णिसू०-स्वामित्व अनुयोगद्वार कालानुयोगद्वारकी योनि है ॥ १०३॥ विशेषार्थ-स्वामित्वके निरूपण किये विना कालकी प्ररूपणा नहीं हो सकती है । अतएव स्वामित्वानुयोगद्वारको कालानुयोगद्वारकी योनि कहा है । स्वामित्वानुयोगद्वारकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | इनमे से पहले ओघ निर्देशकी अपेक्षा द्वेपके स्वामित्वका प्रतिपादन करते हैं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ कसाय पाहुड सुत्त [१ पंजदोसविहत्ती १०४. दोसो को होइ ? १०५. अण्णदरो णेरइयो वा तिरिक्खो वा मणुस्सो वा देवो वा । १०६. एवं पेज्जं । १०७. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । १०८. दोसो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्त । १०९. एवं पेजमणुगंतव्वं । ११०. आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु पेजदोसं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ । शंकाचू०-द्वेषरूप कौन होता है ? ॥१०४॥ समाधानचू०-कोई एक नारकी, अथवा तिर्यंच, अथवा मनुष्य, अथवा देव द्वेपरूप होता है, अर्थात् चारो गतिके जीव द्वेषके स्वामी है ॥१०५॥ अव ओपनिर्देशकी अपेक्षा प्रयके स्वामित्वका निरूपण करते है चूर्णिसू०-इसी प्रकार प्रेयके भी स्वामी जानना चाहिए । अर्थात् कोई एक नारकी, तिर्यच, मनुष्य और देव प्रेयका स्वामी है ।।१०६।। अव कालानुयोगद्वारके निरूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते है चूर्णिसू०-कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश निर्देश ।।१०७॥ उनमेसे पहले ओघनिर्देशकी अपेक्षा कालका निरूपण करते है चूर्णिसू०-द्वेप कितने काल तक होता है ? द्वेष जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा अन्तमुहूर्त तक होता है । अर्थात् द्वेपका जघन्य काल और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥१०८॥ अब ओघनिर्देशकी अपेक्षा प्रयके कालका निरूपण करते है चूणिसू०-इसी प्रकार प्रेयका भी काल जानना चाहिए । अर्थात् प्रेयका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त-प्रमाण है ।।१०९।। विशेषार्थ-यहॉपर प्रेय और द्वेपका जघन्य वा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही बतलाया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि प्रेय अथवा द्वेषसे परिणत जीवके मरण अथवा व्याघात होनेपर भी अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर एक या दो आदि समय-प्रमाण काल नहीं पाया जाता है । जीवहाणमे काल-प्ररूपणाके भीतर यद्यपि क्रोधादिकषायोके एक समयप्रमाण जघन्य कालकी प्ररूपणा की गई है, तथापि उसकी यहॉपर विवक्षा नहीं की गई है, क्योकि, वह इससे भिन्न आचार्य-परम्पराका उपदेश है। अब आदेशनिर्देशकी अपेक्षा प्रेय और द्वेषका जघन्य काल कहते है चूर्णिसू०-आदेशनिर्देशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमे नारकियोमे प्रेय और द्वेप कितने काल तक होता है ? जघन्य कालकी अपेक्षा एक समय होता है । अर्थात् नरकगतिमे नारकियोके प्रेय और द्वेपका जघन्य काल एक समय है ॥११०॥ विशेपार्थ-नारकियोमे द्वेपके एक समयप्रमाण जघन्य काल होनेका कारण यह है Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१] वारह अनुयोगोंसे प्रेयोद्वेष-निरूपण १११. *उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । ११२. एवं सव्वाणियोगद्दाराणि अणुगंतव्वाणि । कि कोई तिर्यंच या मनुष्य जीव द्वेपके उत्कृष्टकालमें अन्तमुहूर्त तक रहा। जब उस अन्तमुहूर्तकालमें एक समय शेष रह गया, तब वह मरकर नरकगतिमे उत्पन्न हुआ। इस प्रकार नरकगतिमे नारकियोके द्वेषका जघन्यकाल एक समयप्रमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार रागके भी जघन्यकालको जान लेना चाहिए। अब नारकियोके राग और द्वेषका उत्कृष्टकाल कहते हैं चूर्णिसू०-नरकगतिमे नारकियोके राग और द्वेषका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्तप्रमाण है ॥१११॥ विशेषार्थ-यद्यपि नारकियोको द्वेप-बहुल बताया गया है, तथापि-छेदन, भेदन, मारण, ताडन आदि करते हुए भी वे जिन क्रियाओ या व्यापारोमे आनन्दका अनुभव करते है, उनकी अपेक्षा उनमे रागभावकी भी संभावना पाई जाती है । इस प्रकारके रागभावमे अन्तमुहूर्तकाल रह करके पीछे द्वेपमे जानेवाले नारकीके रागका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सिद्ध हो जाता है। यही क्रम द्वैपके उत्कृष्ट कालमे भी लगा लेना चाहिए। जिस प्रकार नरकगतिमे राग और द्वेषके जघन्य तथा उत्कृष्ट कालका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे शेष गतियो और मार्गणाओमे भी राग-द्वेपके जघन्य और उत्कृष्ट कालोको जानना चाहिए । विशेष बात यह कि कषायमार्गणामे राग और द्वेषका जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त प्रमाण ही होता है क्योकि अन्तमुहूर्त के विना कषायका परिवर्तन नही होता । कार्मणकाययोगी जीवोमे राग और द्वेषका जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय होता है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमे भी राग और द्वेपका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समयप्रमाण जानना चाहिए । अब शेप अनुयोगद्वारोके वतलानेके लिए अर्पणसूत्र कहते है चूर्णिसू ०-जिस प्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार और कालानुयोगद्वारका निरूपण किया, उसी प्रकारसे शेप अनुयोगद्वारोको भी जानना चाहिए ॥११२॥ विशेपार्थ-चूर्णिसूत्रकारने शेप अनुयोगद्वारोके अर्थको सुगम समझकर उनका व्याख्यान नहीं किया है। किन्तु विशेष जिज्ञासुओंके लिए यहॉपर जयधवला टीकाके अनुसार उनका कुछ व्याख्यान किया जाता है (३) अन्तरानुगमकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है-ओघनिर्दश और आदेशनिर्देश । इनमेसे ओवनिर्देशकी अपेक्षा रागका जघन्य अन्तर एक 9 जयधवलाके सम्पादकोंने इसे भी चूर्णिसूत्र नहीं माना है, पर यह स्पष्टतः चूर्णिसूत्र है, क्योंकि इसके पूर्व नारकियों के पेज-दोसका केवल जघन्य काल ही कहा है, उत्कृष्ट काल नहीं । अतएव उसका प्रतिपादन होना ही चाहिए। स्वयं जयधवला टीकासे मी इसकी सूत्रता सिद्ध है। यथा-उकस्सेण अंतोमुहत्तं । कुदो, साभावियादो। (देखो-जयध० भा० १, पृ० ३८८) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती समय है । जैसे-कोई उपशमश्रेणीवाला सूक्ष्मसाम्परायसंयत-गुणस्थानवी जीव सर्व जघन्य एक समयमात्र उपशान्तकपाय गुणस्थानमे रहा और मरकर लोभकपायके उदयसे युक्त देव हुआ । इस प्रकार रागका एक समयप्रमाण जघन्य अन्तर सिद्ध हो गया। रागका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्रमाण है। जैसे कोई एक जीव लोभकषायके तीव्र उदयसे रागभावका सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अनुभव करता रहा । पुनः अन्तमुहूर्त कालके पूरा होनेपर क्रोधकषायका तीव्र उदय हो गया और वह रागभावसे अन्तरको प्राप्त होकर द्वेषभावका वेदक हो गया। सर्वोत्कृष्ट अन्तमुहूर्तकाल तक द्वेपका अनुभव कर लोभकपायके' उदयसे पुनः रागभावका वेदक हो गया। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध हो गया । इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें भी रागके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको जान लेना चाहिए । विशेष बात यह है कि रागका एक समयप्रमाण जघन्य अन्तर सर्वत्र संभव नहीं है, किन्तु आगमके अविरोधसे उसका यथासंभव निर्णय करना चाहिए । ओघनिर्देशकी अपेक्षा द्वेषका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्तप्रमाण है। जैसे-कोई क्रोधकषायके उदयसे द्वेषभावका वेदक जीव अपने कपायका काल समाप्त हो जाने पर अन्तर को प्राप्त हो लोभकषायके उदय. से रागभावका वेदक हो गया । और सर्व-जघन्य अन्तमुहूर्त्तकाल तक रागका अनुभव कर पुनः क्रोधकषायी हो गया । इस प्रकार जघन्य अन्तर लब्ध हुआ । इसी प्रकार उत्कृष्ट अन्तर भी जानना चाहिए । भेद केवल इतना ही है कि द्वेपसे अन्तरको प्राप्त होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तमुहूर्त्तकाल तक रागभावका अनुभवकर पुनः द्वेषको प्राप्त हुए जीवके उत्कृष्ट अन्तर होता है । ओघके समान आदेशमे भी द्वेषका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्रमाण होता है, सो यथानिर्दिष्ट रीतिसे सवमे लगा लेना चाहिए। (४) नाना जीवोकी अपेक्षा राग और द्वेषके संभव भंगोका निरूपण करनेवाले अनुयोगद्वारको 'नानाजीवेहि भंगविचयानुगम' कहते है । इस अनुयोगद्वारका भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा निर्देश किया गया है। ओघनिर्देशकी अपेक्षा कोई भंग नहीं है, क्योकि, राग नियमसे दशवे गुणस्थान तक पाया जाता है और द्वेष भी नवे गुणस्थान तक पाया जाता है। इसी प्रकार मार्गणाओमे भी नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचयागुगम जानना चाहिए। केवल लव्ध्यपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी आदि कुछ मार्गणाओमे राग और द्वेप-सम्बन्धी आठ आठ भंग होते हैं । वे आठ भंग ये है-(१) स्यात् राग, (२) स्यात् नोराग, (३) स्यात् अनेक राग, (४) स्यात् अनेक नोराग, (५) स्यात् एक राग और एक नोराग, (६) स्यात् एक राग और अनेक नोराग, (७) स्यात् एक नोराग और अनेक राग, तथा (८) स्यात् अनेक राग और अनेक नोराग । इसी प्रकार स्यात् द्वेप, स्यात् नोवैप इत्यादि क्रमसे द्वेषसम्बन्धी आठ भंग जानना चाहिए । (५) जीवोके अस्तित्वको निरूपण करनेवाली प्ररूपणा सत्प्ररूपणा कहलाती है। इसका भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारसे निर्देश किया गया है ओघकी अपेक्षा मिथ्या Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१] वारह अनुयोगोंसे प्रेयोद्वेष-निरूपण दृष्टि आदि नौ गुणस्थानोंमें रागी और द्वेपी जीवोका सर्वकाल अस्तित्व पाया जाता है । दशवे गुणस्थानमे केवल रागी जीवोका अस्तित्व पाया जाता है। आगेके गुणस्थानोंमें राग और द्वेपके धारक जीवोका अस्तित्व नहीं है, किन्तु राग-द्वेपसे रहित वीतरागी जीवोका अस्तित्व पाया जाता है। इसी प्रकार चौदह मार्गणाओमे भी रागी-द्वेषी जीवोके सत्त्व असत्त्वका निर्णय करना चाहिए । (६) रागी-द्वेषी जीवोके प्रमाणका निर्णय करनेवाला अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाणानुगम कहलाता है। इसके भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है। ओघनिर्देशकी अपेक्षा रागभावके धारक मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त है और द्वेषभावके धारक भी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त है सासादनादिगुणस्थानवर्ती असंख्यात है। आदेशनिर्देशकी अपेक्षा तिर्यग्गतिमे राग-द्वेषके धारक अनन्त जीव हैं और शेप गतियोमे असंख्यात है। इन्द्रियमार्गणामे एकेन्द्रियोमे अनन्त और विकलेन्द्रिय तथा सकलेन्द्रिय जीवोमें असंख्यात है। इस क्रमसे सभी मार्गणाओमे रागी द्वेपी जीवोका द्रव्यप्रमाण जान लेना चाहिए । ( ७ ) रागी द्वेषी जीवोके वर्तमानकालिक निवासके प्रतिपादन करनेवाले अनुयोगद्वारको क्षेत्रानुगम कहते है । इसका भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है। ओघनिर्देशकी अपेक्षा रागी और द्वेषी मिथ्यादृष्टि जीव सर्वलोकमे रहते है । सासादनादिगुणस्थानवर्ती रागी द्वेषी जीव लोकके असंख्यातवे भागमे रहते है। रागद्वेष-रहित सयोगिकेवली लोकके असंख्यातवें भागमे, असंख्यात बहुभागोमे और सर्वलोकमें रहते हैं । आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकी, मनुष्य और देव लोकके असंख्यातवे भागमें रहते है । तिर्यग्गतिके जीव सर्वलोकमे रहते है। इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव सर्वलोकमें और विकलेन्द्रिय जीव लोकके असंख्यातवे भागमे रहते है । सकलेन्द्रिय जीव लोकके असंख्यातवे भागमे, असंख्यात बहुभागमे और सर्वलोकमे रहते है। इस प्रकारसे शेष मार्गणाओके क्षेत्रको जान लेना चाहिए । (८) रागी द्वेषी जीवोके त्रिकालवर्ती निवासरूप क्षेत्रके प्रतिपादन करनेवाले अनुयोगद्वारको स्पर्शनानुगम कहते हैं। इसके भी ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ये दो भेद हैं । ओपनिर्देशकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि रागी द्वेषी जीवोने सर्व लोकका स्पर्श किया है । सासादनगुणस्थानवर्ती रागी द्वेषी जीवोने स्वस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवॉ भाग, विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा लोकनालीके चौदह भागोमेंसे आठ भाग, मारणान्तिकसमुद्धातकी अपेक्षा चौदह भागोमेसे वारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार शेप गुणस्थानोके रागी द्वेषी जीवोके यथासंभव त्रिकालगोचर स्पर्शनक्षेत्रको जान लेना चाहिए । (९) नाना जीवोकी अपेक्षा कालानुगमका भी दो प्रकारका निर्देश है। ओघनिर्देशकी अपेक्षा रागी द्वेपी जीव सर्व काल होते है, क्योकि, ऐसा कोई भी समय नहीं है, जब कि संसारमे रागी द्वेपी जीव न पाये जावे । आदेशनिर्देशकी अपेक्षा भी रागी द्वेपी जीव सर्वकाल हैं, केवल सान्तरमार्गणाओको छोड़कर। उनमेसे उपशमसम्यग्दृष्टि, वक्रियिकमिश्रकाययोगी, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य आदिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कसाय पाहुड सुत्त [ १ पेज्जदोसविहत्ती इसी प्रकार से शेष मार्गणाओंका यथासंभव काल जान लेना चाहिए । (१०) नानाजीवोकी अपेक्षा अन्तरानुगमका भी निर्देश दो प्रकारका है । ओघनिर्देशकी अपेक्षा रागी द्वेपी जीवोंका अन्तर नहीं है, क्योकि, सदैव रागी द्वेषी जीवोंका अस्तित्व पाया जाता है । इसी प्रकार सान्तरमार्गणाओको छोड़कर शेष मार्गणाओका भी अन्तर नहीं है । सान्तरमार्गणाओ में लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवा भाग है वैक्रियिकमिश्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट बारह मुहूर्त, आहारकमिश्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व, अपगतवेदी तथा सूक्ष्मसाम्परायिक जीवों का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तथा उपशमसम्यक्त्वी जीवोंका जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौवीस अहोरात्रप्रमाण अन्तर जानना चाहिए । (११) रागभावके धारक जीव सर्व जीवोके कितने भाग है और द्वेषभावके धारक जीव सर्वजीवोके कितने भाग हैं । इस प्रकारके विभाग के निर्णय करनेवाले अनुयोगद्वारको भागाभागानुगम कहते है । इस अनुयोगद्वारका भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है । उनमेसे ओधनिर्देशकी अपेक्षा रागभावके धारक जीव सर्वजीवोकी संख्याके ( जिनमे कि वीतराग सिद्ध सम्मिलित नहीं है ) साधिकद्विभाग है अर्थात् यदि रागी द्वेषी जीवोकी संख्याके समान चार भाग किये जावे तो उनमेसे दो भाग तो पूरे और कुछ अधिक जीव हैं । तथा द्वेषभावके धारक जीव दो भागो मेसे कुछ कम संख्याप्रमाण हैं । इसका कारण यह है कि द्वेषभावके धारक जीवोकी अपेक्षा रागभावके धारक जीव कुछ अधिक हैं, 1 क्योकि, समस्त देवराशिके लोभकषाय अधिक मात्रा पाई जाती है । इसी प्रकार मार्ग - णाओमें भी भागाभागको जान लेना चाहिए । (१२) रागी द्वेषी जीवोंके हीनाधिकता के प्रतिपादन करनेवाले अनुयोगद्वारको अल्पबहुत्वानुगम कहते है । इसका भी दो प्रकारका निर्देश है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश | ओघनिर्देशकी अपेक्षा द्वेषभाव के धारक जीव अल्प है और रागभावके धारक जीव उनसे विशेष अधिक है । आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें रागभावके धारक जीव कम हैं और द्वेषभावके धारक जीव उनसे संख्यातगुणित अधिक । | देवगति द्वेषभावके धारक जीव अल्प है और रागभावके धारक जीव संख्यातगुणित है । तिर्यंच और मनुष्योमे द्वेषभावके धारक जीव अल्प है । इसी क्रमसे यथासंभव शेप मार्गणाओमे भी रागी द्वेषी जीवोका अल्पवहुत्व जान लेना चाहिए | इस प्रकार योद्वेषविभत्ति समाप्त हुई । ઘર whanks Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडिविहत्ती १. 'विहत्ति हिदि अणुभागे च' त्ति अणियोगद्दारे विहत्ती णिक्खिवियव्वाणामविहत्ती ठवणविहत्ती दव्वविहत्ती खेत्तविहत्ती कालविहत्ती गणणविहत्ती संठाणविहत्ती भावविहत्ती चेदि । २. णोआगमदो दव्वविहत्ती दुविहा कम्मविहत्ती चेव णोकम्मविहत्ती चेव । ३. कम्मविहत्ती थप्पा । ४. तुल्लपदेसियं दव्वं, तुल्लपदेसियस्स दव्वस्स अविहत्ती । ५. वेमादपदेसियस्स विहत्ती । ६. तदुभएण अवत्तव्यं । प्रकृतिविभक्ति अब यतिवृपभाचार्य विभक्तिके प्ररूपण करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-'विहत्ति द्विदि अणुभागे च' इस गाथांशसे सूचित अनुयोगद्वारमे 'विभक्ति' इस पदका निक्षेप करना चाहिए-नामविभक्ति, स्थापनाविभक्ति, द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, गणनाविभक्ति, संस्थानविभक्ति, और भावविभक्ति ॥१॥ __ अपने स्वरूपमें प्रवृत्त और बाह्य अर्थकी अपेक्षासे रहित 'विभक्ति' यह शब्द नामविभक्ति है । तदाकार और अतदाकारसे स्थापितकी गई विभक्तिको स्थापनाविभक्ति कहते हैं। आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यविभक्ति दो प्रकारकी है। विभक्ति-विपयक प्राभृतका ज्ञायक किन्तु वर्तमानमे अनुपयुक्त जीवको आगमद्रव्यविभक्ति कहते है । इस प्रकार इन तीन निक्षेपोंका स्वरूप सुगम होनेसे उन्हे न कहकर अब नोआगमद्रव्यविभक्तिका स्वरूप कहनेके लिए यतिवृषभाचार्य उत्तर सूत्र कहते है चूर्णिसू०-नोआगमद्रव्यविभक्ति दो प्रकारकी है-कर्मद्रव्यविभक्ति और नोकर्मद्रव्यविभक्ति । कर्मद्रव्यविभक्तिको स्थापित करना चाहिए, क्योकि, वह बहुवर्णनीय है, तथा उसीसे प्रकृतमे प्रयोजन है ॥२-३॥ ___ अब चूर्णिकार नोकर्मद्रव्यविभक्तिका वर्णन करते हैं चूर्णिसू०-तुल्य-प्रदेशवाला एक द्रव्य तुल्य-प्रदेशवाले अन्य द्रव्यके साथ अविभक्ति अर्थात् समान है। वही द्रव्य विसदृश प्रदेशवाले द्रव्यके साथ विभक्ति अर्थात् असमान है। तथा तदुभय अर्थात् विभक्ति और अविभक्तिरूपसे युगपद् विवक्षित द्रव्य अवक्तव्य है ॥४-६॥ विशेपार्थ-विभक्ति, असमान, असदृश, भेद और विभाग एकार्थवाची शब्द है, तथा अविभक्ति, समान, सदृश, अभेद और अविभाग ये सब एकार्थवाची शब्द है । समान प्रदेशवाला द्रव्य समान प्रदेशवाले अन्य द्रव्यके सदृश होता है, किन्तु उनमेसे यदि एक द्रव्य एकादि प्रदेशोसे अधिक हो जाय तो वह पूर्व विवक्षित द्रव्यसे विसदृश कहलायगा । यह विसदृशता केवल प्रदेशोकी अपेक्षा ही जानना चाहिए, न कि सत्त्व, प्रमेयत्व आदि गुणोकी अपेक्षा, क्योकि उनकी अपेक्षा तो उन दोनोम प्रदेशकृत असमानता होते हुए भी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति ७. खेत्तविहत्ती तुल्लपदेसोगाई तुल्लपदेसोगाटस्स अविहत्ती । ८. कालविहत्ती तुल्लसमयं तुल्लसमयस्स अविहत्ती। ९. गणणविहत्तीए एक्को एक्कस्स विहत्ती। १०. संठाणविहत्ती दुविहा संठाणदो च संठाणवियप्पदो च । ११. संठाणदो वट्ट वट्टस्स अविहत्ती। १२. वट्ट तंसस्स वा चउरंसस्स वा आयदपरिमंडलस्स वा विहत्ती । सदृशता पाई जाती है। इसी प्रकार जव विभक्ति-अविभक्तिरूप द्रव्योके युगपत् कहनेकी विवक्षा की जाती है, तो वह द्रव्य अवक्तव्य हो जाता है। क्योकि समान-असमान प्रदेशवाले दो द्रव्य एक साथ किसी एक शब्दके द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं। इन तीनो भेदरूप द्रव्यविभक्तिको नोकर्मद्रव्यविभक्ति कहते है । चूर्णिसू ०-तुल्य-प्रदेशोसे अवगाढ क्षेत्र तुल्य-प्रदेशोसे अवगाढ क्षेत्रके साथ समान है, यह क्षेत्रविभक्ति है ॥७॥ विशेषार्थ-तुल्य-प्रदेशोसे अवगाढ (व्याप्त) क्षेत्र, अन्य तुल्य-प्रदेशोसे व्याप्त क्षेत्रके समान है। दो प्रदेश अधिक क्षेत्रके साथ असमान है समान और असमान प्रदेशवाले क्षेत्रको युगपत् कहनेकी अपेक्षा अवक्तव्य है । इस प्रकार इन तीनो भंगोकी अपेक्षा क्षेत्रसम्बन्धी विभक्ति या अविभक्तिको कहना क्षेत्रविभक्ति है । चूर्णिसू०-तुल्य-समयवाला द्रव्य अन्य तुल्य-समयवाले द्रव्यके साथ अविभक्ति है, यह कालविभक्ति है ॥८॥ विशेषार्थ-समान-समयवाला द्रव्य दूसरे समान-समयवाले द्रव्यके समान है । दो समय अधिक द्रव्य असमान है। समान और असमान समयवाले द्रव्योंको एक साथ कहनेकी अपेक्षा अवक्तव्य हैं। इस प्रकार इन तीनों भंगोकी अपेक्षा विभक्ति-अविभक्तिको कहना कालविभक्ति कहलाती है। चूर्णिसू०-एक संख्या एक संख्याके साथ समान है, यह गणनाविभक्ति है ॥९॥ विशेषार्थ-एक संख्याकी एक संख्याके साथ अविभक्ति है, अर्थात् विवक्षित एक संख्यावाला द्रव्य अन्य एक संख्यावाले द्रव्यके साथ समान है, विसश संख्याके साथ असमान है । तथा समान और असमान संख्याओकी युगपत् विवक्षा होने पर अवक्तव्य है। यह गणनाविभक्ति है। चूर्णिसू०-संस्थान और संस्थानविकल्पके भेदसे संस्थानविभक्ति दो प्रकार है॥१०॥ विशेषार्थ-त्रिकोण, चतुष्कोण, वृत्त आदि अनेक प्रकारके आकारोको संस्थान कहते हैं। तथा उन्हीं त्रिकोण, चतुष्कोण, वृत्त आदिके भेद-प्रभेदोंको संस्थान-विकल्प कहते है । चूर्णिसू०-वृत्त द्रव्य वृत्त द्रव्य के साथ सहश है । विवक्षित वृत्त द्रव्य त्रिकोण, चतुष्कोण, अथवा आयत-परिमंडल आकारवाले अन्य द्रव्यके साथ असहश है। (वृत्त और अवृत्त आकारवाले दो द्रव्य युगपत् कहनेकी अपेक्षा अवक्तव्य है।) यह संस्थानविभक्ति है ॥११-१२॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] संस्थानादिविभक्ति-निरूपण १३. वियप्पेण वट्टसंठाणाणि असंखेजा लोगा। १४. एवं तंस-चउरंस-आयद. परिमंडलाणं । १५. सरिसवट्ट सरिसवस्स अविहत्ती । १६. एवं सव्वत्थ | १७. जा सा भावविहत्ती सा दुविहा आगमदो य णोआगमदो य । १८. आगमदो उवजुत्तो पाहुडजाणओ। १९. णो आगमदो भावविहत्ती ओदइओ ओदइयस्स अविहत्ती । २०. ओदइओ उवसमिएण भावेण विहत्ती । २१. तदुभएण अवत्तव्यं । २२. एवं सेसेसु वि । चूर्णिमू०-उत्तर विकल्पोकी अपेक्षा वृत्तसंस्थान असंख्यातलोकप्रमाण है। इसी प्रकार त्रिकोण, चतुष्कोण और आयत-परिमंडल संस्थानोके भी उत्तर विकल्प असंख्यातलोकप्रमाण जानना चाहिए। सदृश-वृत्त आकार, अन्य सदृश-वृत्त आकारके सदृश होता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । यह संस्थानविकल्पविभक्ति है ॥१३-१६॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार वृत्तके तीन भंग कहे हैं, उसी प्रकारसे चतुष्कोण, पंचकोण, आदिके भी तीन-तीन भंग जानना चाहिए। तथा इसी प्रकारसे वृत्त, चतुष्कोण आदिके भेद-प्रभेदोके भी तीन-तीन भंग जानना चाहिए । इस प्रकार यह सब मिलाकर संस्थानविभक्ति कहलाती है। चूर्णिसू०--जो भावविभक्ति है, वह आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है ॥१७॥ विशेषार्थ-श्रुतज्ञानको आगमभाव कहते है और श्रुतज्ञानव्यतिरिक्त औदयिक आदि भावोको नोआगमभाव कहते हैं । इन दोनोके भेदसे भावविभक्तिके दो भेद होते है। चूर्णिसू०-भावविभक्ति-विषयक प्राभृतका ज्ञायक और वर्तमानमे उपयुक्त जीवको आगमभावविभक्ति कहते है । औदयिकभाव औदयिकभावके समान है। औदयिकभाव औपशमिकभावके साथ असमान है । तदुभयकी अपेक्षा अवक्तव्य है । यह नोआगमभावविभक्ति है ॥१८-२१॥ विशेषार्थ-नोआगमभावके पांच भेद होते है-औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक क्षायिक और पारिणामिकभाव । इनमे गति औदायिकभाव कषाय औदयिकभावके समान है, क्योकि, औदयिकभावकी अपेक्षा दोनोमे कोई भेद नहीं है। कषाय औदयिकभाव सम्यक्त्वऔपशमिकभावके साथ असमान है, क्योकि, उदय-जनितभावके साथ उपशम-जनितभावकी समानताका विरोध है । तदुभय अर्थात् औदयिकभाव औदयिक और औपशमिकभावके साथ युगपत् कहनेपर अवक्तव्य होता है, क्योकि, विभक्ति और अविभक्ति इन दोनो शब्दोके एक साथ कहनेका कोई उपाय नहीं है । यह नोआगमभावविभक्ति है। चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे शेष भावोमे भो जानना चाहिए ॥२२॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार औदयिकभावके औपशमिकभावके साथ विभक्ति और अवक्तव्य रूप दो भंग कहे हैं, उसी प्रकारसे क्षायिक, क्षायोपशिमक और पारिणामिकभावके साथ भी दो दो भंग होते है । जैसे-औदयिकभाव क्षायिकभावके साथ विभक्ति है, तथा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति २३. एवं सव्वत्थ (२)। २४. जा सा दव्वविहत्तीए कम्मविहत्ती तीए पयदं। २५. तत्थ सुत्तगाहा। (४) पयडीए मोहणिजा विहत्ती तह ट्रिदीए अणुभागे। . उकस्लमणुकस्सं झीणमझीण व ठिदियं वा ॥२२॥ औदयिक और क्षायिक, इन दोनो भावोंकी युगपद् विवक्षामे अवक्तव्य है । औदयिकभाव क्षायोपशमिकभावके साथ विभक्ति है, तथा औदयिक और क्षायोपशमिक, इन दोनो भावो की युगपद् विवक्षासे अवक्तव्य है । औदयिकभाव पारिणामिकभावके साथ विभक्ति है, तथा औदयिक और पारिणामिक, इन दोनो भावोकी युगपद् विवक्षामे अवक्तव्य है। चूर्णिसू० -इसी प्रकार सर्वत्र जानना (२) ॥२३॥ विशेषार्थ-जिस प्रकारसे औदयिकभावके स्व और परके संयोगसे तीन भंग कहे हैं, उसी प्रकारसे औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक, इन चारो भावोके भी स्व-परके संयोगसे पृथक्-पृथक् तीन तीन भंग जानना चाहिए । सूत्रके अन्तमे यतिवृषभाचार्यने (२) इस प्रकार दोका अंक लिखा है, जिसका अभिप्राय यह है कि द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, भावविभक्ति और संस्थानविभक्तिके जो तीन तीन भंग बतलाये है, उनमेंसे प्रकृतमे दो दो भंग ही ग्रहण करना चाहिए, क्योकि, विभक्तिका निक्षेप करते समय विभक्तिसे विरुद्ध अर्थवाली अविभक्तिका ग्रहण करना नही बन सकता है । यहाँ यह शंकाकी जा सकती है कि यदि ऐसा है, तो फिर सूत्रकारको ‘अवक्तव्यभंग' भी नहीं कहना चाहिए, क्योकि, उसमे भी विभक्तिके अर्थका अभाव है ? पर इसका समाधान यह है कि विभक्तिके विना विभक्ति और अविभक्ति, इन दोनोका संयोग संभव नहीं, और उसके विना अवक्तव्य भंग संभव नहीं, अतएव विभक्तिके साथ अवक्तव्य भंगका ग्रहण किया गया है। यहाँ यह भी शंका की जा सकती है कि उक्त दोनो भंगोकी बात चूर्णिकारने अक्षरोके द्वारा क्यो नहीं कही और (२) ऐसा दोका अंक ही क्यो लिखा ? इसका समाधान यह है कि यदि वे दो का अंक न लिखकर अपने अभिप्रायको अक्षरोके द्वारा व्यक्त करते, तो फिर उनकी इस चूर्णिकी 'वृत्तिसूत्र' संज्ञा न रहती, फिर उसे टीका, पद्धतिका आदि नामोसे पुकारा जाता । अतएव यहॉपर और आगे-पीछे जहाँ कही भी ऐसी बातोके व्यक्त करनेके लिए यतिवृषभाचार्यने अंक स्थापित किये है, वह उन्होने अपनी चूर्णिकी 'वृत्तिसूत्र' संज्ञा सार्थक करनेके लिए किये है । आचार्य यतिवृपभको वीरसेनाचार्यने 'सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ' इस मंगल-गाथामे 'वृत्तिसूत्र-कर्ता' के रूपमे ही स्मरण किया है । चूर्णिसू०-इन उपर्युक्त विभक्तियोमेसे यहॉपर द्रव्यविभक्तिके अन्तर्गत जो कर्मविभक्ति है, उससे प्रयोजन है । उसके विपयमें यह (वक्ष्यमाण) सूत्र-गाथा है ॥२४-२५॥ (४) मोहनीय कर्मकी प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, उत्कृष्टअनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिककी प्ररूपणा करना चाहिए ॥२२॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] चतुर्थमूलगाथार्थ - निरूपण ४९ २६. पदच्छेदो । तं जहा - पयडीए मोहणिजा विहत्ति त्ति एसा पयडि - विहत्ती (१) । २७. तह ट्ठिदी चेदि एमा ठिदिविहत्ती ( २ ) । २८. अणुभागे ति अणुभागविहत्ती (३) । २९. उक्कस्समणुक्कस्सं त्ति पदेसविहत्ती ( ४ ) । ३०. झीणमझीणं त्ति ( ५ ) । ३१. ठिदियं वा त्ति ( ६ ) । ३२. तत्थ पयडिविहति वण्णस्साम । ३३. पयडिविहत्ती दुविहा मूलपयडिविहत्ती च उत्तरपयडिविहत्ती च । 1 चूर्णि सू [० - अब इस गाथासूत्रका पदच्छेद- पदोका विभाग - उसके अर्थ - स्पष्टीकरण के लिए करते है । वह इस प्रकार है- 'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती' इस पदने यह प्रकृतिविभक्ति नामक प्रथम अर्थाधिकार सूचित किया गया है (१) ॥२६॥ विशेषार्थ - - पद चार प्रकारके होते है- अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद और व्यवस्था - पद । जितने अक्षरोसे अर्थका ज्ञान हो, उसे अर्थपद कहते है । वाक्य भी इसीका दूसरा नाम है । आठ अक्षरोके समूहको प्रमाणपद कहते है । सोलह सौ चौतीस कोटि, तेरासी लाख, अट्ठत्तर सौ अट्ठासी ( १६३४८३०७८८८ ) अक्षरोका मध्यमपद होता है । इसका उपयोग अंग और पूर्वोके प्रमाणमे होता है । जितने वाक्यसमूह से एक अधिकार समाप्त हो, उसे व्यवस्थापद कहते हैं । अथवा सुबन्त और तिडन्त पदोको भी व्यवस्थापद कहते है । प्रकृतमे यहॉपर व्यवस्थापदसे प्रयोजन है, क्योकि, उससे प्रकृत गाथाका अर्थ किया जा रहा है। चूर्णिसू० - गाथा - पठित 'तह हिदी चेदि' इस पदसे स्थितिविभक्ति नामक द्वितीय अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( २ ) । ' अणुभागे त्ति' इस पद से अनुभागविभक्ति नामक तृतीय अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ३ ) । ' उक्तस्समणुकस्सं ति' इस पद से प्रदेशविभक्ति नामक चतुर्थ अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ४ ) । 'झीणमझीणं ति' इस पदसे क्षीणाक्षीण नामक पंचम अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ५ ) । 'ठिदियं वा त्ति' इस पदसे ‘'स्थित्यन्तिक' नामक छठा अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ६ ) ॥२७-३१॥ विशेपार्थ - इस प्रकार यतिवृषभाचार्यके अभिप्रायसे इस गाथाके द्वारा उक्त छह अर्थाधिकार सूचित किये गये है । किन्तु गुणधराचार्य के अभिप्राय से स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति नामक दो अर्थाधिकार ही कहे गये है । उक्त दोनो आचार्योंके अभिप्रायोंमे कोई मतभेद नही समझना चाहिए, क्योकि, गुणधराचार्य सूत्रकार है, अतएव उनका अभिप्राय संक्षेपसे कहने का है । किन्तु यतिवृषभाचार्य वृत्तिकार है, अतएव वे उसी बात को विस्तार के साथ कह रहे हैं । चूर्णिस् [0- अब इन उपयुक्त छह अर्धाधिकारों से पहले प्रकृतिविभक्तिको वर्णन करेगे। प्रकृतिविभक्ति दो प्रकारकी है - मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति ।। ३२-३३॥ S Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ qe कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति ३४. मूलपयडिविहत्तीए इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि । तं जहा-सामित्त कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुगे त्ति । ३५. एदेसु अणियोगद्दारेसु परूविदेसु मूलपयडिविहत्ती समत्ता होदि । चूर्णिसू ०-इनमेसे मूलप्रकृतिविभक्तिमे ये आठ अनुयोगद्वार है। वे इस प्रकार हैं-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, तथा नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पवहुत्व । इन उपर्युक्त आठो अनुयोगद्वारीके प्ररूपण करनेपर मूलप्रकृतिविभक्ति समाप्त होती है ॥३४-३५॥ विशेषार्थ-यतिवृषभाचार्यने उक्त आठो अनुयोगद्वारोकी प्ररूपणा सुगम होनेसे नहीं की है । उनका संक्षेपसे वर्णन इस प्रकार जानना चाहिए-(१) गुणस्थानकी अपेक्षा मूलप्रकृतिविभक्तिका स्वामी कौन है ? मोहकर्मकी सत्ता रखनेवाला किसी भी गुणस्थानमे स्थित कोई भी जीव मोहनीयकर्मविभक्तिका स्वामी है। मार्गणाओकी अपेक्षा नारक, तिर्यच और देवोमे मोहकी अट्ठावीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले होनेसे सभी जीव स्वामी है, मनुष्यगतिमे यथासंभव प्रकृतियोकी सत्तावाले तदनुसार यथासंभव गुणस्थानवर्ती जीव स्वामी है। इसी प्रकारसे शेष इन्द्रिय आदि सभी मार्गणाआमे स्वामित्वका निर्णय कर लेना चाहिए । (२) गुणस्थानकी अपेक्षा मूलप्रकृतिविभक्तिका काल यथासंभव अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त है । मार्गणाओकी अपेक्षा नरकगतिमे मोहविभक्तिका जघन्यकाल दश हजार वर्ष और उत्कृष्टकाल तीस सागर है । तिर्यग्गतिमे मोहविभक्तिका धन्यकाल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टकाल अनन्तकाल या असंख्यात पुगलपरिवर्तनप्रमाण है । मनुष्योमे मोहविभक्तिका जघन्यकाल क्षुद्रभवप्रमाण और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि-वर्पपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्यप्रमाण है । देवगतिमे मोहविभक्तिका जघन्यकाल दश हजार वर्ष और उत्कृष्टकाल तेतीस सागरोपम है । इसी बीजपदके अनुसार इन्द्रिय आदि शेपमार्गणाओमे कालका निर्णय कर लेना चाहिए । (३) गुणस्थानकी अपेक्षा मूलप्रकृतिविभक्तिका अन्तर नहीं होता है । मार्गणाओंमे भी मूलप्रकृतिविभक्तिका अन्तर नहीं है । हॉ, उत्तरप्रकृतियोकी अपेक्षा यथासंभव पदोमे यथासंभव अन्तर, काल और स्वामित्व अनुयोगद्वारोके अनुसार जान लेना चाहिए । (४) गुणस्थानकी अपेक्षा मूलप्रकृतिविभक्तिका नानाजीवसम्बन्धी भंगविचय इस प्रकार हैमूलप्रकृतिकी विभक्ति नियमसे होती है और अविभक्ति भी नियमसे होती है । इसी प्रकारसे मनुष्यपर्याप्त, जसकाय, संयत, शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि आदि मागणामि मूलप्रकृतिकी विभक्ति और अविभक्ति नियमसे होती है। लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, उपशमसम्यग्दृष्टि आदिमे स्यात् विभक्ति होती है । औदारिकमिश्र, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, संत्री आदि मार्गणाओमे स्थात् अविभक्ति होती है स्यात् नहीं भी होती है, इत्यादि प्रकारसे शेप मार्गणाओम विभक्तिसम्बन्धी भंगविचय जान लेना चाहिए । ( ५ ) ओघसे नानाजीवोंकी अपेक्षा मूलप्रकृनिविभक्तिका सर्वकाल है। आदेशकी अपेक्षा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरभकृतिविभक्ति-निरूपण ३६. तदो उत्तरपयडिविहत्ती दुविहा-एगेगउत्तरपयडिविहत्ती चेव पयडिहाणउत्तरपय डिविहत्ती चेव । ३७ तत्थ एगेगउत्तरपयडिविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा-एगजीवेण सामित्त कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो परिमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो सण्णियासो अप्पावहुए त्ति । ३८. एदेसु अणियोगदारेसु परू विदेसु तदो एगेगउत्तरपयडिविहत्ती समत्ता । यथासम्भव सर्वकाल, क्षुद्रभव, अन्तर्मुहूर्त, पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग आदि काल जानना चाहिए । ( ६ ) ओघसे नानाजीवोकी अपेक्षा मूलप्रकृतिविभक्तिका अन्तर नहीं है । मार्गणाओमे यथासम्भव पदोकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर यथासम्भव जानना चाहिये । जैसे-सामायिक, छेदोपस्थाना आदिमे पल्यका असंख्यातवॉ भाग, सूक्ष्मसाम्परायचारित्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह मास आदि। (७) ओधकी अपेक्षा मूलप्रकृतिका भागाभागानुगम कहते है-मोहकी विभक्तिवाले जीव सर्वजीवराशिके अनन्त वहुभाग-प्रमाण है, किन्तु अविभक्तिवाले जीव अनन्तवे भाग है। इसी प्रकारसे नरकगति आदिमे अपनी-अपनी जीवराशिके प्रमाणसे सभी मार्गणाओमे भागाभाग जान लेना चाहिए। ध्यान रखनेकी बात यह है कि जिन राशियोका प्रमाण अनन्त है, वहॉपर अमन्तके बहुभाग और एक भागके रूपसे भागाभागका निर्णय करना । और जहॉपर राशिका प्रमाण असंख्यात है, वहॉपर असंख्यातके बहुभाग और एक भागरूपसे यथासंभव भागाभागका निर्णय करना चाहिए । (७) अब मूलप्रकृति-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका निर्णय करते है । ओघकी अपेक्षा मूलप्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव सवसे कम है और विभक्तिवाले जीव उनसे अनन्तगुणित है। इसी वीज पदके अनुसार मार्गणाओमे भी अल्पबहुत्वका निर्णय कर लेना चाहिए। चूर्णिसू०-अब उत्तरप्रकृतिविभक्तिका व्याख्यान करते है। वह दो प्रकारकी होती है-एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति ॥३६॥ विशेपार्थ-मोहनीयकर्म-सम्बन्धी अट्ठाईस प्रकृतियोकी जहॉपर पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की जाती है, उसे एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते है। तथा, जहॉपर अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस आदि सत्त्वस्थानोके द्वारा मोहकर्मके उत्तरप्रकृतियोकी प्ररूपणा की जाती है, उसे प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते है। चूर्णिसू०-उनमेमे एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्तिमे ये ( ग्यारह ) अनुयोगद्वार होते हैं । वे इस प्रकार है-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचयानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगस, अन्तरानुगम, मन्निकर्प और अल्पबहुत्व । इन ग्यारह अनुयोगद्वारोकं प्ररूपण किये जानेपर एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति नामका उत्तरप्रकृतिविभक्तिका प्रथम भेद समाप्त होता है ॥३७-३८॥ विशेपार्थ-एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्तिके उपयुक्त ग्यारह अनुयोगद्वाराको सुगम Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ २ प्रकृतिविभक्ति समझकर चूर्णिकारने उनका व्याख्यान नहीं किया है । किन्तु आज तो उनका ज्ञान दुर्गम है, अतः संक्षेपसे उन अनुयोगद्वारोंका यहाँ व्याख्यान किया जाता है । मोहनीयकर्म की एक एक करके सभी - अट्ठाईस - उत्तरप्रकृतियों के पृथक्-पृथक् स्वामियोंके वर्णन करनेवाले अनुयोगद्वारको स्वामित्वानुगम कहते है । इस स्वामित्वका निर्णय ओघ और आदेश इन दोनो के द्वारा किया जाता है । ओघकी अपेक्षा किये जानेवाले विचारको सामान्य निर्णय कहते हैं | आचार्योंने जिज्ञासुजनों की संक्षेपरुचिको देखकर उनके अनुग्रहार्थ ओयका निर्देश किया है । किन्तु जो जिज्ञासुजन विस्तारसे तत्त्वको जानना चाहते हैं, उनके अनुग्रहार्थं आदेशका निर्देश किया । इसी बात को दूसरे शब्दो में इस प्रकार भी कह सकते है कि तीव्रबुद्धिवाले भव्यजनोके लिए ओघसे वस्तु-निर्णय किया गया है और मन्दबुद्धि भव्योके उपकारार्थ आदेशसे वस्तु - निर्णय किया गया है । यही अर्थ आगे सर्वत्र प्रत्येक अनुयोगद्वार मे किये गये दोनो प्रकार के निर्देशोके विपयमे जानना चाहिए । 1 ओवप्ररूपणाके अनुसार मिध्यात्वप्रकृतिकी विभक्तिका स्वामी कोई भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिध्यादृष्टि जीव है । अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवके और जिस सम्यग्दृष्टि जीवने मिथ्यात्वका क्षय नही किया है, उसके मिध्यात्वविभक्ति होती है । मिथ्यात्वप्रकृतिकी अविभक्तिका स्वामी मिध्यात्वका क्षय करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिका स्वामी कोई एक मिध्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव है । इन्ही दोनो प्रकृतियोकी अविभक्तिके स्वामी क्रमशः सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलन या क्षपण करनेवाले मिध्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव है । अनन्तानुबन्धीकपाय - चतुष्ककी विभक्तिका स्वामी मिध्यादृष्टि, अथवा वह सम्यग्दृष्टि जीव है जिसने कि उसका विसंयोजन नहीं किया है । अनन्तानुबंधीकपायकी विभक्तिका स्वामी अनन्तानुवन्धी - चतुष्कका विसंयोजन करनेवाला कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव होता है । अप्रत्याख्यानावरणादि शेप बारह कषाय और हास्यादि नव नोकषायोकी विभक्तियोका स्वामी कोई एक सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव होता है । इन्ही प्रकृतियोकी अविभक्तिका स्वामी उस उस विवक्षित प्रकृति की सत्ताका क्षय करनेवाला कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव होता है । यह ओघसे स्वामित्वका निर्णय किया । इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस त्रसपर्याप्त पांचों मनोयोगी, पांचो वचनयोगी, काय - योगी, औदारिककाययोगी चक्षुदर्शनी अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यिक, भव्यसिद्धिक और अनाहारकजीवोके मोहकर्मकी विभक्ति-अविभक्तिका स्वामित्व जानना चाहिए । इसी प्रकार आदेश के शेष भेदोकी अपेक्षा भी प्रत्येक प्रकृतिके विभक्ति और अविभक्तिके स्वामित्वका निर्णय कर लेना चाहिए । (२) मोहनीयकर्मकी एक एक उत्तरप्रकृतिके विभक्ति - अविभक्तिसम्बन्धी कालकं प्रतिपादक अनुयोगद्वारको कालानुगम कहते है । ओवसे मिध्यात्व अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय और नव नोकपायोकी विभक्तिका काल अभव्योकी अपेक्षा अनादि - अनन्त हैं, तथा भव्य जीवोंकी अपेक्षा अनादि सान्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियो की 3 ५२ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति-निरूपण ५३ विभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्यके तीन असंख्यातवे भागसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर है । अनन्तानुवन्धी - चतुष्ककी विभक्तिका काल अनादि - अनन्त, अनादिसान्त और सादि- सान्त, ऐसे तीन प्रकारका है । उनमे से अनन्तातुवन्धीचतुष्कका सादिसान्त जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्धपुलपरिवर्तन है । इसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमे मिथ्यात्व, वारह कषाय और नव नोकषायविभक्तिका जघन्यकाल दश हजार वर्ष और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है । इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यमिध्यात्व और अनन्तानुवन्धी - चतुष्कका भी काल जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि इनका जघन्यकाल एक समय है । उत्कृष्टकाल सातो नरकोमे अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति-प्रमाण है । केवल सातवे नरकमे अनन्तानुबन्धी- चतुष्कका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है । तिर्यग्गतिमे बाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अनन्त काल है । अनन्तानुवन्धी - चतुष्कका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ अधिक तीन पल्य है | पंचेन्द्रियतिर्यच, पंचेन्द्रियतिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यच योनिमतियोमे बाईस प्रकृतियोका जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इन्ही जीवोके सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पूर्वकोटि-पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनीके अट्ठाईस प्रकृतियोका काल जानना चाहिए | पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तोके छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जवन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योका भी जानना चाहिए। देवगतिमे देवोके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका काल नारकियोके समान है । विशेषकी अपेक्षा भवनवासियोसे लेकर उपरिमग्र वैयक तक वाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति -प्रमाण जानना चाहिए | इन्ही देवोके सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धीचतुष्कका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । नव अनुदिश और पंच अनुत्तरोसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कपाय और नव नोकपायका जघन्य और उत्कृष्टकाल क्रमशः अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्यकाल क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त है । तथा उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थिति -प्रमाण है । इसी प्रकारसे इन्द्रियादि शेप मार्गणाओमे प्रत्येक प्रकृतिके विभक्ति-कालको जान लेना चाहिए | (३) विवक्षित प्रकृति-विभक्तिकाल के समाप्त हो जाने पश्चात् दुवारा उसी प्रकृतिसम्बन्धी विभक्तिकाल के प्रारम्भ होनेसे पूर्व तकके मध्यवर्ती विरह या अभावको अन्तरकाल कहते है और इसका अनुगम करनेवाले अनुयोगद्वारको अन्तरानुगम कहते है । ओघले मिथ्यात्व अप्रत्या 1 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाथ पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति ख्यानावरणादि वारह कपाय और नव नोकपायोकी विभक्तिका अन्तरकाल नहीं होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोंकी विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है । अनन्तानुवन्धीकपाय-चतुष्ककी विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एकसौ वत्तीस सागर है । इसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमे नारकियोंके वाईस प्रकृतियोका अन्तरकाल नहीं है । शेप छह प्रकृतियोमेंसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा अनन्तानुवन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । तथा इन्हीं छहो प्रकृातयोका उत्कृष्ट अन्तरकाल तेतीस सागर है । तिर्यग्गतिमें तिर्यंचोके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तरकाल ओघके समान है। अनन्तानुबंधी-चतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य है। शेष बाईस प्रकृतियोका अन्तरकाल नहीं है। पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यचपर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यच योनिमती जीवोके बाईस प्रकृतियोका अन्तरकाल नही है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अन्तरकाल तिर्यचसामान्यके समान है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोका अन्तरकाल जानना चाहिए । पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तोके सभी प्रकृतियोका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, नव अनुदिश, पंच अनुत्तरवासी, देव, सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त, जसलब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकपायी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिनानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, सर्व संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, अभव्य, सर्व सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि असंज्ञी और अनाहारक जीवोका अन्तरकाल जानना चाहिए । देवोसे सम्यक्त्वप्रकृति, और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है । इसी प्रकार शेप मार्गणाओमे भी प्रत्येक प्रकृतिकी विभक्तिके अन्तरकालको जानकर हृदयंगम करना चाहिए। (४) नानाजीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतियोके विभक्ति-अविभक्तिसम्बन्धी भंगों अर्थात् विकल्पोके अनुगम करनेवाले अनुयोगद्वारको नानाजीवभंगविचयानुगम अनुयोगद्वार कहते हैं । ओबसे मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोके विभक्ति और अविभक्ति करनेवाले जीव नियमसे होते है। इस लिए ओघकी अपेक्षा विभक्ति-अविभक्ति सम्बन्धी भंग नहीं होते हैं । किन्तु आदेशकी अपेक्षा (१) कदाचित् विवक्षित प्रकृतिकी विभक्तिवाला एक जीव होता है । (२) कदाचित् विवक्षित प्रकृतिकी अविभक्तिवाला एक जीव होता है। (३) कदाचित् विवक्षित प्रकृतिकी विभक्तिवाले अनेक जीव होते है । (४) कदाचित् विवक्षित प्रकृतिकी अविभक्तिवाले अनेक जीव होते है । (५) कदाचित विवक्षित प्रकृतिकी विभक्तिवाला एक जीव और Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ गा० २२ ] एकैक उत्तर प्रकृतिविभक्ति-निरूपण अविभक्तिवाला एक जीव होता है । (६) कदाचित् विवक्षित प्रकृतिकी विभक्तिवाला एक जीव और अविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं । (७) कदाचित् विवक्षित प्रकृतिकी विभक्तिवाले अनेक जीव और अविभक्तिवाला एक जीव होता है । (८) कदाचित् विवक्षित प्रकृतिकी विभक्ति और अविभक्तिवाले अनेक जीव होते है । इस प्रकार आठ आठ भंग तक होते है, जिन्हे जयधवला टीकासे जानना चाहिए । विस्तार के भयसे यहाॅ नहीं लिखा है । (५) मोहकर्मी उत्तरप्रकृतियोकी विभक्ति और अविभक्ति करनेवाले जीवो के संख्याप्रमाणके निर्णय करनेवाले अनुयोगद्वारको परिमाणानुगम कहते है । ओघसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियो के सिवाय शेष छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाले जीवोका परिमाण अनन्त है, और अविभक्तिवाले जीवोका भी परिमाण अनन्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाले जीवोका परिमाण असंख्यात है, किन्तु उन्हीकी अविभक्तिकरनेवाले जीवोका परिमाण अनन्त है । इसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा भी विभक्ति और अविभक्ति करनेवाले जीवोका परिमाण यथासंभव अनन्त, असंख्यात और संख्यात जान लेना चाहिए । (६) मोहकर्मसम्वन्धी उत्तरप्रकृतियोकी विभक्ति और अविभक्ति करनेवाले जीवोके वर्तमान निवासरूप क्षेत्रके निर्णय करनेवाले अनुयोगद्वारको क्षेत्रानुगम कहते हैं । ओवसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियो के अतिरिक्त शेप छब्बीस प्रकृतियो की विभक्ति करनेवाले जीवोका क्षेत्र सर्वलोक है, किन्तु अविभक्ति करनेवाले जीवोका क्षेत्र लोकका असंख्यातचॉ भाग, असंख्यात वहुभाग और सर्व लोक है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोकी विभक्तिवाले जीवोका क्षेत्र लोकका असंख्यातवा भाग है । इन्ही दोनो प्रकृतियो की अविभक्तिवाले जीवोका क्षेत्र सर्व लोक है । इसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा भी विभक्ति-अविभक्ति करनेवाले जीवीके क्षेत्रका निर्णय कर लेना चाहिए । ( ७ ) मोहकर्मसम्बन्धी उत्तर प्रकृतियोकी विभक्ति और अविभक्ति करनेवाले जीवोके त्रिकाल निवाससम्बन्धी क्षेत्रके निर्णय करनेवाले अनुयोगद्वारको स्पर्शनानुगम कहते है । ओसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियो के अतिरिक्त शेप छव्वीस प्रकृतियोकी विभक्तिवाले जीवोका स्पर्शन-क्षेत्र सर्व लोक है । इन्हीं छब्बीस प्रकृतियोकी अविभक्तिवाले जीवोका स्पर्शनक्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियांकी विभक्तिवाले जीवोका स्पर्शनक्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग, त्रसनालीके चौदह भागोमेसे कुछ कम आठ भाग, अथवा सर्व लोक है । इन्हीं दोनो प्रकृतियोकी अविभक्तिवाले जीवोका स्पर्शनक्षेत्र सर्व लोक है । इसी क्रम आदेशकी अपेक्षा भी स्पर्शनक्षेत्रका निर्णय कर लेना चाहिए । ( ८ ) पहले जो कालका निर्णय किया गया है वह एक जीवकी अपेक्षा किया गया है, अब उसी कालका निर्णय नाना जीवोकी अपेक्षा करते है । ओघसे मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियो की विभक्तियांका काल सर्व काल है, अर्थात् नानाजीवोकी अपेक्षा अठ्ठाईस प्रकृतियो की सत्तावाले Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुप्त [ २ प्रकृतिविभक्ति जीव सर्वकाल पाये जाते है । आदेशकी अपेक्षा भी कालका निर्णय ओधके ही समान है । केवल कुछ पदोंमे खास विशेषता है, जैसे- आहारककाययोगी जीवोके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । आहारक मिश्रयोगी जीवोके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । उपशमसम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्यो - पमका असंख्यातवाँ भाग है । इस प्रकार अन्यपदोके कालसम्बन्धी विशेषताको भी जान लेना चाहिए । ( ९ ) पहले एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका निर्णय किया गया है, अब नानाजीवोकी अपेक्षा अन्तरका निर्णय करते है । ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका अन्तर नहीं है, क्योकि नानाजीवोकी अपेक्षा सर्वकाल विभक्ति करनेवाले जीव पाये जाते हैं । इसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा भी अन्तर जानना चाहिए । केवल कुछ पढ़ो के अन्तरकालोमे विशेषता है, जैसे - लव्ध्यपर्याप्त मनुष्यके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमका असंख्यातवा भाग है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवो के छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका अन्तर जघन्य एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वारह मुहूर्त है, इत्यादि । (१०) मोहकी विवक्षित प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाला जीव अन्य अविवक्षित प्रकृतियोंकी विभक्ति करनेवाला है, अथवा अविभक्ति करनेवाला १ इस प्रकारके विचार करनेवाले अनुयोगद्वारको सन्निकर्प अनुयोगद्वार कहते है । ओघसे जो जीव मिथ्यात्व - की विभक्ति करनेवाला है, वह सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायचतुष्ककी कदाचित् विभक्ति करनेवाला भी होता है और कदाचित् अविभक्ति करनेवाला भी होता है, किन्तु इनके अतिरिक्त शेप प्रकृतियोकी नियमसे विभक्ति करनेवाला होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी विभक्ति करनेवाला जीव मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी - चतुष्ककी कदाचित् विभक्ति करनेवाला भी होता है और कदाचित अविभक्ति करनेवाला भी होता है । किन्तु इनके अतिरिक्त शेप प्रकृतियोकी नियमसे विभक्ति करनेवाला होता है । इसी प्रकार ओघसे अवशिष्ट प्रकृतियोका तथा आदेश से सर्वपदो में समस्त प्रकृतियोका यथासंभव सन्निकर्षं करना चाहिए । (११) मोहकर्मकी किस प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाले जीव किस प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाले जीवोसे अल्प होते हैं या अधिक ? इस प्रकारके निर्णय करने - वाले द्वारको अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार कहते हैं । ओघकी अपेक्षा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व - के विना शेष छत्रीस प्रकृतियोकी अविभक्ति करनेवाले जीव सबसे कम है । उन्हीकी विभक्ति करनेवाले जीव अनन्तगुणित है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति करनेवाले जीव सबसे कम है । उन्हीकी अविभक्ति करनेवाले जीव अनन्तगुणित है । आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाले जीव सबसे कम है । इन्हीकी अविभक्ति करनेवाले जीव उनसे असंख्यातगुणित है । इस प्रकारसे सभी मार्गणाओंमें अल्पबहुत्वका निर्णय यथासंभव जीवराशिके अनुसार कर लेना ५६ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ पा० २२) प्रकृतिस्थानविभक्ति-समुत्कीर्तना-निरूपण ३९. पयडिहाणविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा--एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवो पड्डि त्ति । ४०. पयडिहाणविहत्तीए पुव्वं गमणिज्जा हाणसमुक्तित्तणा। ४१. अस्थि अट्ठावीसाए सत्तावीसाए छव्वीसाए चउवीसाए तेवीसाए वावीसाए एकवीसाए तेरसण्हं पारसण्हं एक्कारसण्हं पंचण्डं चदुहं तिण्हं दोण्हं एकिस्से च (१५)। एदे ओघेण । चाहिए । इन अनुयोगद्वारोका विस्तृत वर्णन जयधवला टीकासे जानना चहिए । यहाँ केवल इन अनुयोगद्वारोका दिशा-परिज्ञानार्थ संक्षिप्त स्वरूप दिखाया गया है। इस प्रकार इन ग्यारह अनुयोगद्वारोके वर्णन समाप्त होनेपर एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्तिनामक प्रकृतिविभक्तिका प्रथम भेद समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-प्रकृतिस्थानविभक्तिमे ये अनुयोगद्वार है। जैसे-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि ॥३९॥ विशेषार्थ-प्रकृतिस्थान तीन प्रकारके होते है-बंधस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान । इनमेंसे बंधस्थानोंका वर्णन आगे कहे जानेवाले बंधक नामके अर्थाधिकारमे किया जायगा। उदयस्थानोका वर्णन आगे कहे जानेवाले वेदक नामके अर्थाधिकारमे किया जायगा। अतएव पारिशेपन्यायसे यहॉपर प्रकृतमे प्रकृतिसत्त्वस्थान विवक्षित है जिनका वर्णन उक्त तेरह अनुयोग द्वारोसे किया जायगा। चूर्णिमु०-प्रकृतिस्थानविभक्तिमे सत्त्वस्थानोकी समुत्कीर्तना सर्व-प्रथम जानना चाहिए॥४०॥ • विशेषार्थ-मोहकर्मके अट्ठाईस, सत्ताईस आदि सत्त्वस्थानोके कथन करनेको स्थानसमुत्कीर्तना कहते है । इसके परिबान हुए विना शेप अनुयोगद्वारोका ज्ञान भी भली-भाँति नहीं हो सकता है। अतएव सबसे पहले उसीका वर्णन करते है। चूर्णिसू०-मोहनीयकर्मके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, वारह, ग्यारह, पॉच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप (१५) पन्द्रह सत्त्वस्थान ओघकी अपेक्षा होते है ॥४१॥ विशेषार्थ-मोहनीयकर्मके मूलमे दो भेद हैं :-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं :-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति । चारित्रमोहनीयके भी दो भेद हैं :-कपायवेदनीय और नोकपायवेदनीय । कपायवेदनीयके १६ भेद है:अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । नोकपायवेदनीयके ए भेद है :-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुपबंद, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त - [२ प्रकृतिविभक्ति ४२. एक्किस्से विहत्तियो को होदि ? लोहसंजलणा। ४३. दोण्हं विहत्तिओ को होदि ? लोहो माया च । ४४. तिण्हं विहत्ती लोहसंजलण-मायासंजलणमाणसंजलणाओ। ४५. चउण्हं विहत्ती चत्तारि संजलणाओ। ४६. पंचण्हं विहत्ती चत्तारि संजलणाओ पुरिसवेदो च । ४७. एकारसण्हं विहत्ती एदाणि चेव पंच छण्णोकसाया च । ४८. वारसण्हं विहत्ती एदाणि चेव इत्थिवेदो च । ४९. तेरसण्हं विहत्ती एदाणि चेव णबुंसयवेदो च । ५०. एकवीसाए विहत्ती एदे चेव अढ कसाया च । ५१. सम्मत्तेण वावीसाए विहत्ती । ५२. सम्मामिच्छत्तेण तेवीसाए विहत्ती । नपुंसकवेद । इन सभी उत्तरप्रकृतियोके समूहसे अट्ठाईस प्रकृतियोका सत्त्वस्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिके कम करनेसे सत्ताईसका, उसमेसे भी सम्यग्मिथ्यात्वके कम करनेसे छब्बीसका, अट्ठाईसमेसे अनन्तानुबंधीचतुष्कके कम करनेसे चौवीसका, इसमेसे मिथ्यात्वके कम करनेसे तेईसका, सम्यग्मिथ्यात्वके कम करनेसे वाईसका और सम्यक्त्वप्रकृतिके कम कर देनेसे इक्कीसका सत्त्वस्थान होता है । इस इक्कीसमेंसे अप्रत्याख्यानावरणादि आठ कपायोके कम करनेसे तेरहका, इसमेसे नपुंसकवेद कम करनेसे वारहका, स्त्रीवेद कम करनेसे ग्यारहका, इसमेंसे भी हास्यादि छह नोकषाय कम करनेसे पांचका, उसमेसे भी एक पुरुपवेद कम करनेसे चारका सत्त्वस्थान हो जाता है। इसमेसे भी क्रोधसंज्वलनके कम करनेसे तीनका, मानसंज्वलनके कम करनेसे दोका और भायासंज्वलनके कम करनेसे एक प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होता है। चूर्णिसू०-एक प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाला कौन है ? केवल एक लोभसंज्वलनकी सत्तावाला जीव एक प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है। दो प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला कौन है ? लोभसंज्वलन और मायासंज्वलन, इन दो प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव दो प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है। लोभसंज्वलन, मायासंचलन और मानसंज्वलन, इन तीन प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव तीन प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है। चारों संज्वलन-कपायोकी सत्तावाला जीव चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। चार संज्वलन और पुरुपवेदकी सत्तावाला जीव पॉच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। चार संज्वलन, पुरुपवेद और हास्यादि छह नोकपाय इनकी सत्तावाला जीव ग्यारह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। स्त्रावदसहित उक्त प्रकृतिवाला अर्थात् चार संज्वलन, और नपुंसकवेदके विना शेप आठ नोकपाय, इनकी सत्तावाला जीव बारह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। नपुंसकवेद आर उक्त वारह प्रकृतियाँ अर्थात् चारो संज्वलन और नवो नोकपायोकी सत्तावाला जीव तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। उक्त तेरह प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरण आदि आठ कपायोकी सत्तावाला जीव इक्कीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है । सम्यक्त्वप्रकृति-सहित उक्त इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव वाईस प्रतिस्प सन्व Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ५३. मिच्छत्तेण चवीसाए विहत्ती । ५४. अट्ठावीसादो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु अवणिदेसु छब्बीसाए विहत्ती। ५५. तत्थ सम्मामिच्छत्ते पक्खित्ते सत्तावीसाए विहत्ती । ५६. सव्वा ओ पयडीओ अट्ठावीसाए विहत्ती । ५७. संपहि एसा । ५८. ( संदिट्ठी) २८ २७ २६ २४ २३ २२ २१ १३ १२ ११ ५ ४३२१। ५९. एवं गदियादिसु णेदव्या । ६०. सामित्त ति जं पदं तस्स विहासा पढमाहियारो। ६१. तं जहा-एकिस्से विहत्तिओ को होदि ? ६२. णियमा मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा खवओ एकिस्मे विहत्तीए सामिओ।। स्थानकी विभक्ति करता है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति-सहित उक्त वाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव तेईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। मिथ्यात्वप्रकृति-सहित उक्त तेईस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव चौवीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। अट्ठाईस प्रकृतियोमेसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोके अपनीत अर्थात् कम कर देनेपर शेप छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव छब्बीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। उक्त छब्बीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानमे सम्यग्मिथ्यात्वके प्रक्षेप करनेपर सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव सत्ताईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है । मोहकी सभी प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव अट्ठाईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है ।।४२-५६॥ - चूर्णिसू०-ओघकी अपेक्षा कहे गये इन पन्द्रह प्रकृतिस्थानोंकी अब यह अंकसंदृष्टि है-२८,२७,२६,२४,२३,२२,२१,१३,१२,११,५,४,३,२,१ ॥५७-५८॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे गति आदि मार्गणाओमे मोहनीयकर्मके उक्त सत्त्वस्थान यथासंभव जानकर लगाना चाहिए ॥५९॥ विशेषार्थ-सुगम समझकर चूर्णिकारने आदेशकी अपेक्षा उपयुक्त सत्त्वस्थानीका वर्णन नहीं किया है । अतः विशेष-जिज्ञासुजनोको जयधवला टीका देखना चाहिए। ग्रन्थविस्तारके भयसे हम भी नहीं लिख रहे हैं । चूर्णिसू०-'स्वामित्व' इस पदरूप जो प्रथम अनुयोगनामक अधिकार है, उसकी विभापा करते है । वह इस प्रकार है-लोभसंज्वलनप्रकृतिरूप एक प्रकृतिक स्थानकी विभक्ति करनेवाला कौन जीव है ? नियमसे क्षपक मनुष्य अथवा मनुष्यनी एक प्रकृतिरूप स्थानकी विभक्तिका स्वामी है ॥६०-६२॥ विशेषार्थ-यतः नरक, तिर्यंच और देवगतिमे मोहकर्मकी क्षपणाका अभाव है, अतः चूर्णिकारने सूत्रमे 'नियमसे' यह पद कहा । 'मनुष्य' इस पदसे भावपुरुपवेदी और भावनपुंसकवेदी मनुष्योका ग्रहण किया गया है, क्योकि भावस्त्रीवेदियोंके लिए 'मनुष्यनी' यह स्वतंत्र पद दिया गया है । 'क्षपक' पदसे उपशामक जीवोका प्रतिषेध किया गया है, क्योकि उपशमश्रेणीमें मोहकर्मकी एक भी प्रकृतिकी क्षय नही होता है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत [ २ प्रकृतिविभक्ति - ६३. एवं दोहं तिहं चउन्हें पंचण्हें एक्कारसहं वारसहं तेरहसहं विहतिओ । ६४. एकावीसाए विहत्तिओ को होदि १ खीणदंसणमोहणिजो । ६५. aratसाए वित्तिओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे समत्ते सेसे । ६० चूर्णिसू० - इसी प्रकार दो, तीन, चार, पाँच, ग्यारह, वारह और तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानोकी विभक्तिके स्वामी जानना चाहिए ॥ ६३ ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार से एक विभक्तिके स्वामीका निरूपण किया गया है, उसी प्रकार से दो से लेकर तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानोकी, विभक्ति करनेवाले भी नियमसे क्षपक मनुष्य अथवा मनुष्यनी होते है; क्योकि, मनुष्यगतिको छोड़कर अन्य गतियोमे कर्म-क्षपणके योग्य परिणामोका होना असम्भव है । इसलिए एक प्रकृति सत्त्वस्थानरूप एक विभक्तिके स्वामित्वके समान दो, तीन आदि सूत्रोक्त विभक्तियोके भी स्वामी जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि पाँच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति केवल मनुष्योमे ही होती है, मनुष्यनियोमे नहीं, क्योकि, उसके सात नोकपायोका एक साथ ही क्षय पाया जाता है । चूर्णिसू० - इक्कीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला कौन है ? दर्शन मोहनीयकर्मका क्षय करनेवाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव है ॥ ६४ ॥ चूर्णिसू० - कौन जीव वाईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है ? मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके क्षपित हो जानेपर तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके शेप रहनेपर मनुष्य अथवा मनुष्यनी कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव वाईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है ॥ ६५॥ विशेषार्थ - यहॉपर 'मनुष्य' पदसे पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी तथा 'मनुष्यनी' पदसे स्त्रीवेदी मनुष्योका अर्थ लिया गया है, सो यहॉपर तथा आगे भी जहाँ इन पढ़का प्रयोग हो, वहॉपर भावनपुंसकवेदी और भावस्त्रीवेदी मनुष्योको ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्यवेदी नपुंसक अथवा स्त्रीके क्षपकश्रेणीका आरोहण, तथा दर्शनमोहनीयका क्षपण आदि कुछ निश्चित कार्योंका प्रतिपेध किया गया है । यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि तो मरण कर चारो गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है, फिर यहॉपर मनुष्य अथवा मनुष्यनीको ही वाईस प्रकृतिकी विभक्तिका स्वामी कैसे कहा ? इसका समाधान दो प्रकारसे किया गया है । एक तो यह कि कुछ आचार्योंके उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवका मरण होता ही नहीं है, इसलिए सूत्रमे मनुष्य पद दिया गया है । कुछ आचार्योंका यह मत है कि कृतकृत्यवेदकका मरण होता है और वह चारो गतियो उत्पन्न हो सकता है, उनके मतानुसार सूत्रमे दिये गये 'मनुष्य' पदका यह अर्थ लेना चाहिए कि दर्शनमोहके क्षपणका प्रारंभ मनुष्यके ही होता है। हॉ, निष्ठापन चारों गतियोंमे हो सकता हैं । यतिवृपभाचार्यने आगे इन दोनो उपदेशोका उल्लेख किया है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ६१ ६६. तेवीसाए विहतिओ को होदि १ मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते खविदे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ते सेसे । ६७. चवीसाए विहत्तिओ को होदि १ अणंताणुधिविसंजोइ सम्मादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिड्डी वा अण्णय । ६८. छब्बीसाए विहतिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी णियमा । ६९. सत्तावीसाए 'विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी । ७० अट्ठावीसाए विहत्तिओ को होदि ९ सम्माइडी सम्मामिच्छाइड्डी मिच्छाइट्ठी वा । ७१. कालो । ७२. एक्किस्से विहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । • 1 चूर्णिसू० - कौन जीव तेईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है ? मिध्यात्वके क्षपित हो जानेपर और सम्यक्त्वप्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्वके शेष रहनेपर मनुष्य अथवा मनुष्यनी सम्यग्दृष्टि जीव तेईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है । हॉपर इतना विशेष जानना चाहिए कि मिध्यात्वका क्षय कर सम्यग्मिथ्यात्वको क्षपण करते हुए जीवका मरण नही होता है, ऐसा एकान्त नियम है ॥ ६६ ॥ चूर्णिसू० - कौन जीव चौवीस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? अनन्तानुबन्धीकषायचतुष्कके विसंयोजन कर देनेपर किसी भी गतिका सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यमिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतियोकी विभक्ति करता है ॥ ६७ ॥ विशेषार्थ - अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारो प्रकृतियोके कर्मस्कन्धोका अप्रत्याख्यानावरणादि अन्य प्रकृतिस्वरूपसे परिणमन करनेको विसंयोजन कहते हैं । इस विसंयोजनका करनेवाला नियमसे सम्यग्दृष्टि जीव ही होता है, क्योकि, उसके विना अन्य जीवके विसंयोजनाके योग्य परिणामोका होना असम्भव है । चूर्णिसू० - कौन जीव छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव होता है। कौन जीव सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव होता है। कौन जीव अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि अथवा मिध्यादृष्ट जीव अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति करता है ॥ ६८-७० ॥ चूर्णि सू० ० - अब उत्तर प्रकृतिसत्त्वस्थानकी विभक्तिका काल कहते है । एक प्रकृतिकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥७१-७२ ॥ विशेषार्थ - एक प्रकृतिकी विभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त है, ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि जब मोहकर्मकी संज्वलन लोभकपायनामक एक प्रकृति सत्ता रह जाती है, तब उसके विभक्त अर्थात् विच्छिन्न या विभाजन करनेमे जो जघन्य या उत्कृष्ट समय लगता * जयधवला-सम्पादकोने इसे भी चूर्णिसूत्र नहीं माना है । पर यह अवश्य होना चाहिए, अन्यथा आगे ७३ न० के सूत्रमे 'इसी प्रकार दो, तीन और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानोंका काल है' ऐसा कथन कैसे किया जाता ? (देखो जयधवला, भा० २ पृ० २३३ और २३७ ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति है, उसे एक प्रकृतिविभक्तिकाल कहते हैं। इस एक प्रकृतिकी विभक्ति तथा आगे कही जानेवाली दो, तीन, चार, पांच, ग्यारह, बारह और तेरह प्रकृतियोकी विभक्ति क्षपकश्रेणीमे ही होती है । क्षपकश्रेणीका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही है, अतएव इन सब विभक्तियोंका भी उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही सिद्ध होता है । तथापि उनके कालमें जो अपेक्षाकृत भेद है, उसका जान लेना आवश्यक है, तभी उन विभक्तियोका आगे कहे जानेवाला जघन्य और उत्कृष्ट काल समझमें आसकेगा। अतएव यहॉपर आपकश्रेणीका कुछ वर्णन किया जाता है । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबन्धीकषायचतुष्क इन सात मोहनीय-प्रकृतियोकी सत्तासे रहित, अथवा अवशिष्ट इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला नायिकसम्यग्दृष्टि जीव ही चारित्रमोहकी क्षपणाके लिए उद्यत होता है, इसका कारण यह है कि शुद्ध (निर्मल) दृढ़ श्रद्धानके विना चारित्रमोहका क्षय नहीं किया जा सकता है। अतएव क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयत क्षपकश्रेणीपर चढ़नेके पूर्व अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामसे प्रसिद्ध तीन करणोको करता है। इन तीनो करणोका पृथक्-पृथक् और समुदित काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही है। अधःप्रवृत्तकरणकालके समाप्त होने तक वह सातिशय अप्रमत्तसंयतकी अवस्थामें रहता है और प्रतिसमय अधिकाधिक विशुद्धि एवं आनन्द-उल्लाससे परिपूरित होता रहता है। अधःप्रवृत्तकरणका काल समाप्त होते ही वह अपूर्वकरण परिणामोको धारण कर आठवे गुणस्थानको प्राप्त होता है । इस गुणस्थानमे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ उन अपूर्व परिणामोंको प्राप्त करता है, जिन्हें कि इस समयके पूर्व कभी नहीं पाया था। उक्त दोनो परिणामोंके कालमे मोह-क्षयके लिए समुद्यत होता हुआ भी यह जीव किसी भी मोहप्रकृतिका क्षय नहीं करता है, किन्तु उनके क्षय करनेके योग्य अपने आपको तैयार करता है। अतएव इसकी उपमा उस सुभटसे दी जा सकती है, जिसने अभी किसी शत्रुका घात नहीं किया है, किन्तु शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित एवं वीर-रससे परिपूरित हो रणाङ्गणमे प्रवेश किया है । शस्त्रास्त्रोसे सुसज्जित होते समय भी वीर-रस प्रवाहित होने लगता है, किन्तु रणाङ्गणमें प्रवेश करनेका वीर-रस अपूर्व ही होता है । शस्त्रास्त्रोसे सुसज्जित होनेके समान अधःप्रवृत्तकरणको करनेवाला सातिशय-अप्रमत्तसंयत गुणस्थान है और वीर-रससे ओत-प्रोत हो रणानणमें प्रवेश करनेके समान अपूर्वकरण गुणस्थान है । अपूर्वकरणका काल समाप्त होते ही अनिवृत्तिकरण परिणामोको धारण करता हुआ नवे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त होता है और एक साथ स्थितिखंडन, अनुभागखंडन आदि आवश्यकोको करना प्रारम्भ कर देता है। जिस प्रकार रण-प्रारम्भ होनेकी प्रतिक्षण प्रतीक्षा करनेवाला सुभट रण-भेरी वजनेके साथ ही शत्रु-सैन्यपर धावा बोलकर मार-काट प्रारंभ कर देता है। इस अनिवृत्तिकरणगुणस्थानसम्बन्धी कालके संख्यात भाग जानेपर सर्वप्रथम अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क इन आठ कपायोका भय करता है और तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानविभक्तिका स्वामी होता है । पुनः अन्तर्मुहूर्तके Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ८३. पश्चात् स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति, तिर्यग्गति,नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, और चतुरिन्द्रियजाति; आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारणशरीर, इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय करता है । यद्यपि ये प्रकृतियाँ मोहकर्मकी नही है, किन्तु स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरणकी और शेप तेरह नामकर्मकी हैं । तो भी इनका क्षय इसी स्थलपर होता है । इनका क्षय करनेपर भी मोहकर्मके तेरह प्रकृतियोंकी विभक्तिका ही स्वामी है । इसके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त जाकर मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तराय इन दोनो प्रकृतियोके सर्वधाति बंधको देशवातिरूप करता है । इसके अन्तर्मुहर्त पश्चात् अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय, इन तीन प्रकृतियोके सर्वघातिबंधको देशघातिरूप करता है। इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय, इन तीन प्रकृतियोके सर्वघातिवंधको देशधातिरूप करता है । इसके अन्तमुहूर्त पश्चात् चक्षुदर्शनावरणीयकर्मके सर्वघातिबंधको देशघातिरूप करता है । इसके अन्तमुहूर्त पश्चात् मतिज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय, इन दो प्रकृतियोके सर्ववातिबंधको देशघातरूप करता है। इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् वीर्यान्तरायकर्मके सर्वघातिबंधको देशघातिरूप करता है । इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् चार संज्वलनकपाय और नव नोकपाय, इन तेरह चारित्रमोहप्रकृतियोका अन्तरकरण करता है । इसी समय आगे क्षपणाधिकारमे वतलाए जाने वाले सात आवश्यक करणोका एक साथ प्रारम्भ करता है। अन्तरकरणके द्वितीय समयसे लेकर एक अन्तर्मुहूर्त तक नपुंसकवेदका क्षय करता है और वारह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानविभक्तिका स्वामी होता है । इसके पश्चात् ही द्वितीय समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त तक स्त्रीवेदका क्षय करता है, और ग्यारह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान-विभक्तिका स्वामी होता है। तत्पश्चात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह नोकषायांका क्षय करनेके लिए सर्वसंक्रमणके द्वारा उन्हे क्रोधसंज्वलनमे संक्रमाता है। इस क्रियामे भी एक अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत होता है और इसी समय वह पांच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानविभक्तिका स्वामी होता है। तत्पश्चात् एक समय कम दो आवलीकालमे अश्वकर्णकरण करता हुआ पुरुषवेदका क्षय करता है और तभी वह चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानविभक्तिका स्वामी होता है। तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्तसे अश्वकर्णकरणको समाप्त कर चारो संज्वलनकपायोंमेसे एक एक कपायकी तीन तीन बादरकृष्टियाँ अन्तर्मुहूर्तकालसे करता है। पुनः कृष्टिकरणके पश्चात् क्रोधसंज्वलनकी तीनो कृष्टियां क्रमशः अन्तर्मुहूर्तकालसे क्षय करता है और तीन प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानविभक्तिका स्वामी होता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल-द्वारा क्रमशः मानसंज्वलनकी तीनो कृष्टियोका क्षय करता है और दो प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानविभक्तिका स्वामी होता है। पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल-द्वारा मायासंज्वलनकी तीनो कृष्टियोका क्षय करता हुआ लोभसंज्वलनकी प्रथम कृष्टिके भीतर दो समय कम दो आवलीप्रमाणकाल जाकर उनका क्षय करता है और एक प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानविभक्तिका स्वामी होता है। तत्पश्चात् यथाक्रमसे दो समय Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति ७३. एवं दोण्हं तिण्हं चदुण्हं विहत्तियाणं । ७४. पंचण्हं विहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुकस्सेण दो आवलियाओ समयूणाओ। ७५. एक्कारसण्हं वारसण्हं तेरसण्हं विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ७६. णवरि वारसण्हं विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण एगसमओ । कम दो आवली प्रमाणकालसे कम, लोभसंज्वलनकी प्रथम, द्वितीय वादरकृष्टि और सूक्ष्मलोभकृष्टिके क्षपण करनेका जो काल है, वही एक प्रकृतिसत्त्वस्थानकी विभक्तिका जघन्यकाल है । इस प्रकार एक प्रकृतिकी विभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। इसका उत्कृष्टकाल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होता है, तथापि वह जघन्यकालसे संख्यातगुणा होता है। एक प्रकृतिकी विभक्तिका जघन्यकाल तो पुरुपवेद और क्रोधकषायके साथ आपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके होता है, किन्तु उत्कृष्टकाल पुरुपवेद और लोभसंज्वलनकषायके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके होता है । इसका कारण यह है कि क्रोधसंज्वलनके उदयके साथ आपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके जिस समय मानसंज्वलनसम्बन्धी तीन कृष्टियोका क्षय होता है, उस समय लोभसंज्वलनके उदयके साथ आपकश्रेणीपर चढ़नेवाला जीव एक प्रकृतिकी सत्तावाला हो जाता है, इसलिए क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके मान, माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोके वेदनका जो काल है, वह सब लोभके उदयसे चढ़े हुए इस जीवके एक विभक्तिकालके भीतर आजाता है, अतएव इसका काल जघन्यकालसे संख्यातगुणा हो जाता है। ऊपर पूरी क्षपकश्रेणीका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाया गया है, और उसके भीतर होनेवाली इन अनेको विभक्तियोका काल भी पृथक् पृथक् अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है, फिर भी कोई विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योकि एक अन्तर्मुहूर्तके भी संख्यात भेद होते है, अतएव उन सव विभक्तियोके कालमे अपेक्षाकृत कालभेद सिद्ध हो जाता है। विभक्ति क्या वस्तु है, किस विभक्तिके कालका प्रारम्भ कहॉसे होता है, और समाप्ति कहॉपर होती है, इत्यादिका निर्णय ऊपरके विवेचनसे भली-भाँति हो जाता है । हॉ, अन्तरकरण, अश्वकर्णकरण, बादरकृष्टि आदि जो पारिभाषिक संज्ञाएँ आई है, सो उनका स्वरूप आगेके अधिकारोमें यथास्थान स्वयं चूर्णिकारने कहा ही है। चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे दो, तीन और चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तियोका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। पांच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिका कितनाकाल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कम दो आवलीप्रमाण है । ग्यारह, वारह, और तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेप वात यह है कि वारह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है ।।७३-७६।। - विशेपार्थ-बारह प्रकृतिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय इस प्रकार संभव है Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ७७. एकावीसाए विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ७८ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । कोई जीव नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़ा और अप्रत्याख्यानावरणादि आठ मध्यमकषायोका क्षयकर तेरह प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ। तत्पश्चात् नपुंसकवेदकी क्षपणाके आरम्भकालमे ही नपुंसकवेदका क्ष्य करता हुआ नपुंसकवेदको अपने क्षपणकालमे क्षय न करके स्त्रीवेदका क्षपण प्रारम्भ कर देता है । पुनः स्त्रीवेदके साथ नपुंसकवेदका क्ष्य करता हुआ तबतक जाता है जबतक कि स्त्रीवेदके पुरातन निषेकोके क्षपणकालका त्रिचरिमसमय प्राप्त होता है । पुनः सवेदकालके द्विचरमसमयमे नपुंसकवेदकी प्रथम स्थितिके दो समयमात्र शेप रहनेपर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके सत्तामे स्थित समस्त निपेकोको पुरुपवेदमे संक्रमित हो जानेपर तदनन्तर समयमे बारह प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है, क्योकि अभी नपुंसकवेदकी उदयस्थितिका विनाश नहीं हुआ है। इसके पश्चात् द्वितीय समयमे ही ग्यारह प्रकृतियोकी विभक्ति प्रारम्भ हो जाती है, क्योकि, उस समय पूर्वली स्थितिके निषेक फल देकर अकर्मस्वरूपसे परिणत हो जाते है । इस प्रकार बारह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिका जघन्यकाल एक समय सिद्ध हो जाता है। चूर्णिसू०-इक्कीस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है ॥७७॥ विशेषार्थ-इक्कीस प्रकृतिकी विभक्तिका जघन्यकाल इस प्रकार संभव है-मोहकर्मकी चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले किसी मनुष्यने तीनो करणोको करके दर्शनमोहनीयकी तीनो प्रकृतियोका क्षय किया और इक्कीस प्रकृतियोका सत्त्वस्थान पाया। पुनः सर्वलघु अन्तर्मुहर्तकालमे ही क्षपकश्रेणीपर चढ़कर आठ मध्यमकषायोका क्षय कर दिया। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त सिद्ध हो जाता है। चूर्णिसू०-इक्कीस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागरोपम है ॥७८॥ विशेषार्थ-उक्त काल इस प्रकार संभव है-मोहकर्मकी चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटिवर्पकी आयुवाले मनुष्योमें उत्पन्न हुआ । वहाँ गर्भसे लेकर आठ वर्षके पश्चात् दर्शनमोहनीयका क्षयकर इक्कीस प्रकृतिवाले सत्त्वस्थानकी विभक्तिका प्रारम्भ किया । पुनः दीक्षित होकर आठ वर्प कम पूर्वकोटिवर्पप्रमाण संयम पालन कर मरा और तेतीस सागरोपमकी आयुवाले अनुत्तरविमानवासी देवोमे उत्पन्न हुआ । वहॉपर तेतीस सागरकाल विताकर आयुके अन्तमे मरा और पूर्वकोटिवर्पकी आयुवाले मनुष्योमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर जब अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुकर्म या संसार अवशिष्ट रहा तब अप्रत्याख्यानावरणादि आठ कपायोका क्षयकर तेरह प्रकृतियोंकी विभक्ति करनेवाला हुआ। इस प्रकार आठवर्प और अन्तर्मुहर्त कम दो पूर्वकोटिवाने अधिक तेतीस मागरोपम इक्कीस Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ २ प्रकृतिविभक्ति ___७९. वानीसाए तेवीसाए विहत्तिओ केवचिरं झालादो ? जहणुकस्सेपंतोमुहुत्तं । ८०. चवीस-विहत्ती केयचिरं कालादो ? जहण्णेण अंतोसुहत्तं । ८१. उकस्सेण ये छावहि-सागरोबमाणि सादिरेयाणि । प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल पाया जाता है । ___ चूर्णिमू-वाईस और तेईस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना काल है ? दोनो विभक्तियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥७९॥ विशेषार्थ-तेईस प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाले जीवके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वले क्षपण कर देनेपर वाईस प्रकृतिकी विभक्तिका प्रारम्भ होता है और जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षीण होनेका अन्तिम समय नहीं आता है, तब तक वह बाईस प्रकृतिकी विभक्तिवाला रहता है। इस प्रकार बाईस प्रकृतिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्टकाल भी इतना ही हो सकता है, क्योकि, एक समयमे वर्तमान जीवोके अनिवृत्तिकरण परिणामोकी अपेक्षा कोई भेद नहीं होता है। तथा अनिवृत्तिकरणका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही है। तेईस प्रकृतिकी विभक्तिका काल इस प्रकार है-चौबीस प्रकृतिकी सत्तावाले जीवके द्वारा मिथ्यात्वके क्षय कर देनेपर तेईस प्रकृतिकी विभक्तिका प्रारम्भ होता है । पुनः जब तक सत्तामें स्थित समस्त सम्यग्मिथ्यात्वकर्म सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमित नहीं हो जाता, तब तक तेईस प्रकृतिकी विभक्तिवाला रहता है । इसका भी जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है, क्योकि, अनिवृत्तिकरणका काल अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है। चूर्णिसू०-चौबीस प्रकृतिकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है ।।८०॥ विशेषार्थ-मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला सम्यग्दृष्टि जीव जव अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजनकर चौबीस प्रकृतियोकी विभक्तिका प्रारम्भ करता है और सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल रह कर मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षपण करता है, तब उस जीवके चौवीस प्रकृतिकी विभक्तिका जघन्यकाल पाया जाता है। चूर्णिसू०-चौवीस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल कुछ अधिक दो छयासठ सागरोपम है ॥८१॥ विशेपार्थ-यह साधिक दोवार छयासठ अर्थात् एकसौ बत्तीस सागरोपमकाल इस प्रकार संभव है-चौदह सागरकी स्थितिवाले, और मोहकी छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाल लान्तव-कापिष्टकल्पवासी देवके प्रथम सागरमे जब अन्तर्मुहर्तकाल शेप रहा, तब वह उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और अतिशीघ्र अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजनकर, चौवीस प्रकृतिचोकी विभक्तिका प्रारम्भ किया। पुनः सर्वोत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वकालको विताकर द्वितीय सागरके प्रथम समयमे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर वहॉपर कुछ अधिक तेरह सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्वको पालनकर मग और पूर्वकोटिवर्षकी आयुवाले मनुष्योंमे उत्पन्न हुआ । इस Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ८२. छब्बीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? अणादि-अपञ्जवसिदो। ८३. अणादिसपजवसिदो। ८४. सादि-सपज्जवसिदो । ८५. तत्थ जो सादिओ सपञ्जवसिदो जहण्णेण एगसमओ। पूरे मनुष्यभवको सम्यक्त्वके साथ ही विताकर पुनः इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम वाईस सागरोपमकी आयुवाले आरण-अच्युतकल्पके देवोमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर पूरी आयुप्रमाण सम्यक्त्वके साथ रहकर पुनः पूर्वकोटिवर्षकी आयुवाले मनुष्योमे उत्पन्न हुआ । पुनः अपनी पूरी आयुप्रसाण सम्यक्त्वको परिपालन कर मरा और मनुष्यभवकी आयुसे कम इकतीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोमें उत्पन्न हुआ। जब अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुकर्म शेष रहा, तत्र सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में जाकर और वहॉपर अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः सस्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् मरणकर पूर्वकोटिवर्पकी आयुवाले मनुष्योम, पुनः उस मनुष्यायुसे कम बीस सागरोपमकी आयुवाले देवोस उत्पन्न हुआ। पुनः वहॉसे च्युत होकर पूर्वकोटिके मनुष्योंमे उत्पन्न हुआ और पुनः मनुष्यायुसे कस वाईस सागरोपमकी आयुवाले देवोमे उत्पन्न हुआ। पुनः पूर्वकोटिके मनुष्योमे जन्म लेकर फिर भी आठ वर्ष और एक अन्तर्मुहूर्त अधिक मनुष्यायुसे कम चौवीस सागरोपमकी आयुवाले देवोमे उत्पन्न हुआ । पुनः मरणकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर गर्भसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके बीतनेपर मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षयकर तेईस प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाला हो गया। इस प्रकार उक्त जीवके साधिक दोवार छयासठ सागरोपम चौबीस विभक्तिका उत्कृष्ट काल होता है । उक्त कालमे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षपणसम्बन्धी कालके जोड़ देनेपर साधिकताका प्रमाण आ जाता है। चूणि सू०-छब्बीस प्रकृतिका विसक्तिको कितना काल है ? अभव्य और अभव्यके समान दूरान्दूर भव्यकी अपेक्षा अनादि-अनन्तकाल है, क्योकि ऐसे जीवोके मोहकी छब्बीस प्रकृतियोका न आदि है और न अन्त है। भव्यकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृति की विभक्तिका काल अनादि-सान्त है, क्योकि अनादिकालसे आई हुई छब्बीस प्रकृतियोका सम्यक्त्वके प्राप्त करनेपर छब्बीस प्रकृतियो की विभक्तिका अन्त देखा जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर छमीस प्रकृति की विभक्तिको प्राप्त होनेवाले जीवकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतिकी विभक्तिका काल सादि-सान्त है। इन तीनो प्रकारोके कालोमेसे सादि-सान्त जघन्यकाल एक समय है ॥८२-८५॥ विशेषार्थ-वह एक समय इस प्रकार संभव है-सम्यक्त्वप्रकृतिके विना मोहकर्मकी सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई मिथ्याटष्टि जीव पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यन्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए उद्वेलनाकालमें अन्तर्मुर्तिकाल अवशेप रहनेपर उपशमसम्यक्त्व ग्रहण करनेके अभिमुख हुआ और अन्तरकरणको करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिमे सर्व गोपुच्छाओको गलाकर जिसके दो गोपुच्छाएँ शेप रह गई Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति ८६. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट* । ८७. सत्तावीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण एगसमओ। हैं, तथा जो द्वितीय स्थितिमे स्थित सम्यग्मिथ्यात्वकी चरम फालिको सर्वसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वके ऊपर प्रक्षिप्त कर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति-सम्बन्धी अन्तिम गोपुच्छाका वेदन कर रहा है वह मिथ्यादृष्टि जीव एक समयमात्र छब्बीस प्रकृतिको विभक्तिताको प्राप्त करके उसके उपरिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अट्ठाईस प्रकृतिकी सत्तावाला हो जाता है, तब उसके छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिका एक समयप्रमाण जघन्यकाल पाया जाता है। चूर्णिसू०-छव्वीस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्ट काल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ।। ८६।। विशेषार्थ-कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनो ही करणोको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और इस प्रकार उसने अनन्त संसारको छेदकर संसारमे रहनेके कालको अर्धपुदलपरिवर्तनप्रमाण किया । पुनः उपशमसम्यक्त्वका काल समाप्त होनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हो, सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोकी उद्वेलनाकर छब्बीस विभक्तिका प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक संसारमे परिभ्रमण कर जव अर्धपुद्गलपरिवर्तनमे सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल शेप रहा, तव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण किया, और अट्ठाईस प्रकृतिकी विभक्तिको प्राप्त हो, अन्तर्मुहूर्तकालमे ही आपकश्रेण्यारोहण, केवलज्ञानोत्पत्ति और समुद्धात आदि करता हुआ निर्वाणको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका देशोन पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्टकाल पाया जाता है। यहॉपर देशोनका अर्थ अर्धपुद्गलपरिवर्तनके कालमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलनाकालको कम करना है। __ चूर्णिसू ०-सत्ताईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है ।।८७॥ विगेपार्थ-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतिकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवने सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलनाकालमे अन्तर्मुहूर्तकाल अवशेष रहनेपर तीनो करणोको करके और अन्तरकरण कर मिथ्यात्वकी प्रथमस्थितिके द्विचरम समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी चरमफालीको सर्वसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वमे प्रक्षेप किया, तव प्रथमस्थितिके चरमसमयमे सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति प्रारंभ होती है। तदनन्तर द्वितीय समयमे उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर यतः यह अहाइस तकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हो जाता है, अतः सत्ताईस प्रकृतियाकी विभक्तिका जवन्यकाल एक समयप्रमाण कहा गया है । * ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट उपोग्गलपरियमिदि णयारलोव काऊण णिदित्तादो । ऊणस्स अद्धपोग्गलपरियदृस्स उवट्टपोग्गलपरियमिदि सण्णा । अथवा उपगन्टस्य हीनार्थवाचिनो ग्रहणात् । जयध° Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ८८. उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ८९. अट्ठावीसविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोसुहुत्तं । ९०. उक्कस्सेण बेछावहि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चूर्णिसू०-सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ॥८८॥ विशेपार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिजीवके द्वारा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना किये जानेपर सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति होती है । तत्पश्चात् सर्वोत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाणकालके द्वारा जवतक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता है, तबतक वह सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका स्वामी रहता है, अतः सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवां भाग कहा है। __चूर्णिसू०-अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तमुहूर्त है ॥८९॥ विशेषार्थ-मोहकी छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाले किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवने उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्ता स्थापित की, तथा सर्व-जघन्य अन्तमुहूर्तकाल तक उन अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्ताके साथ रहकर तत्पश्चात् अनन्तानुबन्धीकपायचतुष्कका विसंयोजन किया और चौबीस प्रकृतियोकी सत्ता प्राप्त की, तब उसके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्यकाल पाया जाता है । चूर्णिसू०-अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल सातिरेक दो छयासठ सागरोपम है ॥९०॥ विशेषार्थ-उक्त काल इस प्रकार संभव है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ । पीछे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्वप्रकृतिके पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट उद्वेलनाकालमे अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहनेपर सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होना चाहिए था, पर वह न होकर उद्वेलनाकालके द्विचरम समयमे मिथ्यात्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिके चरमनिपेकका अन्त करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् पूर्व निरूपित क्रमसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर और प्रथम वार छयासठ सागरोपमकालको सम्यक्त्वके साथ बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। पुनः पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलनाकालके चरमसमयमे उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर तदनन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो और पूर्वकी भॉति ही द्वितीय वार छयासठ सागरोपमकाल सम्यक्त्वके साथ बिताकर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलनाकालके द्वारा सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ । इस प्रकारसे पल्योपमके उक्त तीन असंख्यातवे भागोंसे अधिक दो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुए सुत्त. (२ प्रतिधिभत्ति ९१. अंतराणुगमेण एकिस्से विहलीए पत्थि अंतरं । ९२. एवं दोण्हं तिण्डं चउण्हं पंचण्हं एकारसह बारसण्हं तेरसह एकवीसाए बावीसाए तेवीसाए विहत्तियाणं । ९३. चउवीसाए विहत्तियस्स केवडियमंतरं ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ९४. उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरिय* । वार छयासठ सागरोपम अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका उत्कृष्ट काल होता है । चूर्णिसू०-अन्तरानुगमकी अपेक्षा एक प्रकृतिकी विभक्तिका अन्तर नहीं है।९१॥ विशेषार्थ-एक प्रकृतिकी विभक्तिके अन्तर न होनेका कारण यह है कि एक प्रकृतिकी विभक्ति क्षपकश्रेणीमें होती है और क्षपित हुए कर्माशोकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती है, क्योकि, मिथ्यात्व, असंयमादि जो संसारके कारण है, उनका क्षपकश्रेणीमे अभाव हो जाता है । अतः एक प्रकृतिकी विभक्तिका अन्तर नहीं होता है। चूर्णिम् ०-एक प्रकृतिकी विभक्तिके समान दो, तीन, चार, पॉच, ग्यारह, बारह, तेरह, इक्कीस, बाईस और तेईस प्रकृतिसम्बन्धी विभक्तियोंका भी अन्तर नहीं होता है, क्योकि, ये सभी विभक्तियाँ क्षपकश्रेणीमें ही उत्पन्न होती है ॥९२॥ चूर्णिसू०-चौवीस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥९३॥ विशेषार्थ-किसी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टिने अनन्तानुवन्धी कषायचतुष्कका विसंयोजनकर चौबीस प्रकृतियोकी विभक्तिका आरम्भ किया और अन्तमुहूर्तके पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त हो अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका करनेवाला हो गया। अन्तर्मुहूर्त अन्तरालके पश्चात् पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अनन्तानुबन्धी-चतुष्कका विसंयोजन कर चौवीस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हो गया । इस प्रकारसे चौबीस प्रकतियोकी विभक्तिका अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति के साथ अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल उपलव्ध हो गया। चूर्णिसू०-चौवीस प्रकृतियोंकी विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रसाण है ॥९४॥ विशेषार्थ-किसी अनादिमिथ्यादृष्टि जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तन-कालप्रमाण संसारके शेप रहनेपर प्रथम समयमें ही उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण किया और अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला होकर तथा उस अवस्थामे अन्तर्महर्तकाल रहकर अनन्तानुबन्धी कपायका विसंयोजन किया। इस प्रकार चौवीस विभक्तिका प्रारम्भ कर और मिथ्यात्वमे जाकर अन्तर - जयधवला-सम्पादकोने इस सूत्रको इस प्रकार माना है-'उकस्मेण उवट्टपोग्गलपरियह देसूणमदपोगालपरिय' । पर 'देसूणमद्धपोग्गलपरियट्ट' यह तो 'उपोग्गलपरियट' पदा अर्थ है, उसे भी सूत्रका अग मानना भूल है। इसके आगे-पीछे जहाँ कहीं भी ऐसा प्रयोग आया है, वहाँ सर्वत्र 'उवनः पोग्गलपरिय' इतना ही सूत्र कहा है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-अन्तर-निरूपण __ ९५. छब्बीसविहत्तीए केवडियमंतरं ? जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखे जदिभागो। ९६. उकस्सेण वेछावद्वि-सागरोचमाणि सादिरेयाणि । ९७. सत्तावीसविहत्तीए केवडियमंतरं ? जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् उपार्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक संसारमे परिभ्रमण कर संसारके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेष रह जाने पर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला हो, अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजनकर चौबीस विभक्तिवाला हुआ। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूतोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन-प्रमाण चौबीस विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है । यद्यपि प्रमत्त-अप्रमत्तादिसम्बन्धी और भी कुछ अन्तर्मुहूर्त होते है, किन्तु उन सवका समूह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होता है, इसलिए दो अन्तमुहूर्तोसे कम ही अर्धपुद्गलपरिवर्तन-प्रमाण चौवीस विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा गया है। चूर्णिसू०-छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना अन्तरकाल है १ जघन्य अन्तरकाल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ॥९५॥ विशेषार्थ-छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला कोई मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला होकर, छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिके अन्तरको प्राप्त हो, मिथ्यात्वमे जाकर सर्वजघन्य पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना करके पुनः छब्बीस प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाला हो गया । इस प्रकार इस जीवके छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिका पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है । चूर्णिसू०-छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम है ॥५६॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि अट्ठाईस और सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तियोका जो उत्कृष्ट काल पहले बतलाया गया है, वही छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल माना गया है । अतः छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो बार छयासठ अर्थात् एकसौ बत्तीस सागरसे कुछ अधिक होता है । चूर्णिसू०-सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ॥९७॥ ' विशेषार्थ-सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला कोई मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर और अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला होकर अन्तरको प्राप्त हुआ। पुनः मिथ्यात्वमे जाकर सर्वजघन्य उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हो गया। इस प्रकार. इस जीवके पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति ९८. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । ९९. अट्ठावीसविहत्तियस्स जहण्णेण एगसमओ । १००. उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । चूर्णिसू०-सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गलपरिवर्तन है ॥९८॥ विशेषार्थ-कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालके प्रथम समयमे सम्यक्त्वको ग्रहणकर यथाक्रमसे सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ। तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी भी उद्वेलनाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। जब उपापुद्गलपरिवर्तनकालमें सर्वजघन्य पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण काल शेष रहा, तव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त काल विताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलनाकालमे सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल शेप रहा, तब सम्यक्त्वके सन्मुख हो, अन्तरकरण करके और मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्विचरम समयमें सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलनाकर अन्तिम समयमे सत्ताईस प्रकृतियोंकी विभक्ति करनेवाला होकर क्रमसे सिद्धिको प्राप्त हुआ। ऐसे जीवके पहलेके पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण कालसे तथा अन्तिम अन्तर्मुहूर्तकालसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका पाया जाता है। , चूर्णिसू०-अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है।९९।। विशेषार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला कोई मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलनाकालमे अन्तर्मुहूर्त शेष रह जानेपर उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हो अन्तरकरण करके और मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्विचरम समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना कर अन्तिम समयमे सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ। तदनन्तर समयमे उसने उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर अट्ठाइस प्रकृतियो का सत्त्व उत्पन्न किया, तब उस जीवके अट्ठाइस प्रकृतियोकी विभक्तिका एक समयप्रमाण जघन्य अन्तरकाल उपलब्ध हुआ । चूर्णिसू०-अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल उपार्धपुद्गल परिवर्तन है ॥१००॥ विशेषार्थ-किसी अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने अर्धपुद्गल परिवर्तनके आदि समयमे उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण किया और अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ। इस प्रकार अट्ठाईस विभक्तिका आरम्भ कर और सर्वजघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना कर सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ और अन्तरको प्राप्त हो अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक संसारमे परिभ्रमण कर अन्तमे सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संसारके अवशेप रह जाने पर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला होकर क्रमशः अन्तर्मुहूर्तकालसे सिद्ध हो गया । इस प्रकार पूर्वके पल्योपमके असंख्यातवे भागसे और अन्तके अन्तर्मुहूर्तकालसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अट्ठाईस प्रकृतियोी विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल पाया जाता है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-भंगविचय-निरूपण १०१. णाणाजीवेहि भंगविचओ। जेसि मोहणीय-पयडीओ अत्थि, तेसु पयदं । १०२. सव्वे जीवा अट्ठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीस-एकवीससंतकम्मविहत्तिया णियमा अस्थि । १०३. सेसविहत्तिया भजियव्वा । १०४. सेसाणिओगद्दाराणि णेदव्वाणि । १०५. अप्पाबहुअं । चूर्णिसू०-अव नाना जीवोकी अपेक्षा जिन जीवोके मोहनीयकर्मकी प्रकृतियाँ पाई जाती है, उन जीवोमे सम्भव भंगोका विचय अर्थात् विचार यहॉपर किया जाता है। जो जीव अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाले है, सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाले है, छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिवाले हैं, चौबीस प्रकृतियोकी विभक्तिवाले हैं और इक्कीस प्रकृतियोकी विभक्तिवाले है, वे सब नियमसे है । अर्थात् इन स्थानोकी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीव नियमसे होते हैं । किन्तु उक्त स्थानोसे अवशिष्ट प्रकृतियोकी विभक्तिवाले जीव भजितव्य है । अर्थात् तेईस, बाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव कभी होते भी है और कभी नहीं भी होते है ॥१०१-१०३॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार शेष अनुयोगद्वारोको जानना चाहिए ॥१०४॥ विशेषार्थ-उपर्युक्त अनुयोगद्वारोके अतिरिक्त जो परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नानाजीवोकी अपेक्षा कालानुगम और अन्तरानुगम अनुयोगद्वार है, उनकी प्ररूपणा भी कहे गये अनुयोगद्वारोके अनुसार करना चाहिए। चूर्णिसूत्रकारने सुगम होनेके कारण उनकी प्ररूपणा नहीं की है, किन्तु इस सूत्र-द्वारा उनकी सूचनामात्र कर दी है। अतएव विशेष जिज्ञासु जन इन अनुयोगद्वारोके व्याख्यानको जयधवला टीकामे देखे । ग्रन्थ-विस्तारके भयसे यहाँ उनका वर्णन करना सम्भव नहीं है। चूर्णिसू०-अब प्रकृतिविभक्तिके स्थानोका अल्पबहुत्व कहते है ॥१०५॥ विशेषार्थ-अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-काल-सम्बन्धी अल्पबहुत्व और जीवसम्बन्धी अल्पवहुत्व । इनमेसे पहले काल-सम्बन्धी अल्पवहुत्वको जानना आवश्यक है, क्योकि उसके विना जीव-सम्बन्धी अल्पवहुत्वका यथार्थ ज्ञान नही हो सकता है। ओष और आदेशकी अपेक्षा कालसम्बन्धी अल्पवहुत्वके दो भेद है। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा पाँच प्रकृतियोकी विभक्तिका काल सबसे कम है। इससे लोभसंज्वलनकपायसम्बन्धी सूक्ष्म संग्रहकृष्टिके वेदनका काल संख्यातगुणा है। इसका कारण यह है कि पॉच विभक्तिके एक समय कम दो आवलीप्रमाण कालसे संख्यात आवलीप्रमाण सूक्ष्मकृष्टिके वेदनकालमै भाग देनेपर संख्यात रूप पाये जाते है । लोभसंज्वलनकी सूक्ष्म संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे लोभसंज्वलनकी दूसरी वादरकृष्टिका वेदनकाल विशेष अधिक है । यहॉपर विशेप अधिकका प्रमाण काल-अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वयोवो पचविहत्तियकालो । लोभसुहुमसगहकिडीवेदयकालो मखेजगुणो। लोभविदियवादरकिट्टीवेदवकालो विरोसाहिओ। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कसाय पाहुड सुत्त . [२ प्रकृतिविभक्ति संख्यात आवली है । तथा आगे भी जिन पदोमे कालका प्रमाण विशेप अधिक कहा जायगा, वहाँ वहाँ सर्वत्र संख्यात आवलीप्रमाण ही विशेप अधिक काल जानना चाहिए। लोभसंज्वलनकी दूसरी बादरकृष्टिके वेदनकालसे लोभसंज्वलनकी पहली बादरकृष्टिका वेदनकाल विशेप अधिक है। लोभसंज्वलनकी प्रथम वादरकृष्टिके वेदनकालसे मायासंज्वलनकी तृतीय संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेप अधिक है। मायासंज्वलनकी तृतीय संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे उसी मायासंज्वलनकी ही द्वितीय संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेष अधिक है । मायासंज्वलनकी द्वितीय संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे उसीकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेष अधिक है। मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे मानसंज्वलनकी तृतीय संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेप अधिक है । मानसंज्वलनकी तृतीय संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे उसीकी द्वितीय संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेप अधिक है। मानसंज्वलनकी द्वितीय संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे उसीकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेष अधिक है। मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे क्रोधसंज्वलनकी तृतीय संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेप अधिक है । क्रोधसंज्वलनकी तृतीय संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे उसीकी द्वितीय संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेप अधिक है । क्रोधसंज्वलनकी द्वितीय संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे उसीकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदनकाल विशेष अधिक है। क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदनकालसे चारो संज्वलनकपायोके कृष्टिकरणका काल संख्यातगुणा है। चारों संज्वलनकपायोके कृष्टिकरणकालसे अश्वकर्णकरणका काल विशेष अधिक है। अश्वकर्णकरणके कालसे हास्यादि छह नोकपायोके क्षपणका काल विशेप अधिक है। हास्यादि छह नाकपायोके क्षपणकालसे स्त्रीवेदके क्षपणका काल विशेष अधिक है। स्त्रीवेदके क्षपणकालसे नपुंसकवेदके क्षपणका काल विशेप अधिक है। नपुंसकवेदके क्षपणकालसे तेरह प्रकृतियोकी विभक्तिका काल संख्यातगुणा है। तेरह प्रकृतियोकी विभक्तिके कालसे वाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका काल संख्यातगुणा है । वाईस प्रकृतियोकी विभक्तिक कालसे तेईस प्रकृतियोकी विभक्तिका काल विशेप अधिक है। तेईस प्रकृतियोकी विभक्तिके कालसे सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका काल असंख्यातगुणा है। यहाँ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग हैं । सत्ताईस प्रकृतियांकी विभक्तिके कालसे इक्कीस प्रकृतियोकी लोभत्स पढमसगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ । मायाए तदियसगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ । तिरसे चेव विदियसग किट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ। पढमसगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ । माणवदियसगह किट्टीवेदयकालो विसेसाहियो । विदियसंगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ। पढमसगहकिट्टीवेदयकालो विसेलाहियो । कोहतदियसंगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ। विदियसगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ। पटमसगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ। चदुण्ह संजलणाण किट्टीकरणद्धा सखेजगुणा । अस्सकण्णकरणक्षा विसेसाहिया । छण्णोकसायखवणद्धा विसेसाहिया । इस्थिवेदखवणद्धा विसेसाहिया। णसयवेदखवणता विसेसाहिया । तेरसवित्तियकालो संखेनगुणो। वावीसवित्तियकालो सखेनगुणो । तेवीसविहत्तियकाला विसेसाहिओ । सत्तावीसवित्तियकालो असखेजगुणो। एकवीसवित्तिय कालो असखेनगुणो । चउवीसविदत्तियकालो सखेजगुणो । अट्टागमविहनियकालो विनेमाहिओ । छब्बीसविहनियालो अण तगुणो । जयघ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-अल्पवहुत्व-निरूपण १०६. सव्वत्थोवा पंचसंतकम्पविहत्तिया । १०७. एकसंतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा । १०८. दोण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । १०९. तिण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । ११०. एक्कारसण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । १११. बारसण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । ११२. चदुण्हं संतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा । ११३. तेरसहं संतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा । ११४. बावीससंतकम्मविभक्तिका काल असंख्यातगुणा है। इक्कीस प्रकृतियोकी विभक्तिके कालसे चौवीस प्रकृतियोंकी विभक्तिका काल संख्यातगुणा है। चौबीस प्रकृतियोकी विभक्तिके कालसे अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका काल विशेप अधिक है। यह विशेप अधिक काल पल्योपमके तीन असंख्यातवे भाग-प्रमाण है। अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिके कालसे छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्तिका काल अनन्तगुणा है । क्योकि, छब्बीस प्रकृतिकी विभक्तिका काल अनादि-अनन्त भी बतलाया गया है, तथा सादि-सान्त भी। सादि-सान्त उत्कृष्ट काल भी उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन कहा गया है, इसलिए इसका काल अनन्तगुणा कहा है। चार, तीन, दो और एक प्रकृतिकी विभक्तिका काल जघन्य भी होता है और उत्कृष्ट भी होता है। उनमेसे अन्य कपायके उदयसे आपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीवके जघन्य काल और स्वोदयसे चढ़े हुए जीवके उत्कृष्ट काल होता है । तथा, पाँच प्रकृतिकी विभक्तिसे लेकर तेईस प्रकृतियोकी विभक्ति तकका जघन्य और उत्कृष्ट काल सदृश होता है, केवल तेरह और वारह विभक्तिका जघन्य काल भी होता है, इतना विशेप जानना चाहिए । अब चूर्णिकार इसी काल-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका आश्रय लेकर जीव-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका प्ररूपण करते है चूर्णिसू ०-मोहनीयकर्मके पांच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव सबसे कम हैं; क्योकि, अन्य विभक्तियोकी अपेक्षा इसका काल केवल एक समय कम दो आवलीमात्र है ॥१०६॥ पांच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवासे एक प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाले जीव संख्यातगुणित हैं, क्योकि इस विभक्तिका काल संख्यात आवलीप्रमाण है ॥१०७॥ एक प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे दो प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव विशेप अधिक है ॥१०८॥ दो प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे तीन प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव विशेप अधिक है ॥१०९॥ तीन प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे ग्यारह प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव विशेप अधिक हैं ॥११०॥ ग्यारह प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे बारह प्रकृतियोंके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव विशेप अधिक है ॥१११॥ वारह प्रकृतियोंके सत्त्वम्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे चार प्रकृतियोंके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणित है ॥११२॥ चार प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे तेरह प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव संन्यात Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ २ प्रकृतिविभक्ति विहत्तिया संखेजगुणा । ११५. तेवीसाए संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । ११६. सत्तावीसाए संतकम्मविहत्तिया असंखेजगुणा । ११७. एकवीसाए संतकम्मविहत्तिया असंखेज्जगुणा । ११८. चउवीसाए संतकम्पिया असंखेज्जगुणा । ११९. अट्ठावीस संतकम्मिया असंखेजगुणा । १२०. छव्वीस चिहत्तिया अनंतगुणा । १२१. भुजगारो अप्पद अवद्विदो कायव्वो । ७६ リ गुण हैं ||१३|| तेरह प्रकृतियो के सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे वाईस प्रकृतियो के सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणित है ॥ ११४ ॥ वाईस प्रकृतियो के सत्त्वस्थान की विभक्तिवाले जीवोसे तेईस प्रकृतियोंकी सत्त्वविभक्तिवाले जीत्र विशेप अधिक है ||११५|| तेईस प्रकृतियो के सत्त्वस्थान की विभक्तिवाले जीवोसे सत्ताईस प्रकृतियो के सत्त्वस्थानवाले जीव असंख्यातगुणित है ॥ ११६ ॥ | सत्ताईस प्रकृतियो के सत्त्वस्थानवाले जीवोसे इक्कीस प्रकृतियो के सत्त्वस्थानवाले जीव असंख्यातगुणित है ॥ ११७ ॥ इक्कीस प्रकृतियोंके सत्त्वस्थानवाले जीवोसे चौबीस प्रकृतियोके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। ॥ ११८ ॥ चौवीस प्रकृतियो के सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे अट्ठाईस प्रकृतियो के सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित है ॥ ११९॥ अट्ठाईस प्रकृतियो के सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीवोसे छवीस प्रकृतियोंके सत्त्वस्थानकी विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणित ॥१२०॥ चूर्णि सू० ० - इस प्रकृतिविभक्तिके चूलिकारूपसे स्थित भुजाकार, अल्पतर और अवस्थितस्वरूप स्थानोका निरूपण करना चाहिए ॥ १२१ ॥ विशेषार्थ - भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित इन तीनो प्रकारकी विभक्तिको भुजाकारविभक्ति कहते है । इस भुजाकारविभक्तिमे सत्तरह अनुयोगद्वार होते है । वे इस प्रकार हैं- समुत्कीर्त्तना, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर; नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणाणुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पचहुत्व | चूर्णिकारने यहॉपर समुत्कीर्तना आदि शेप सोलह अनुयोगद्वारोको सुगम समझ कर या महाबन्ध आदि अन्य ग्रन्थोंमे विस्तृत निरूपण होनेसे उनका वर्णन नही किया है। केवल एक जीवकी अपेक्षा कालानुयोगद्वारका ही निरूपण किया है । क्योकि, शेष सभी अनुयोगद्वारोका मूल आधार कालानुयोगद्वार ही है । कालानुयोगद्वारके जान लेनेपर शेप अनुयोगद्वारोको बुद्धिमान् स्वयं जान सकते हैं । - तत्थ भुजगारविहत्तीए इमाणि सत्तारस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति । त जहासमुत्तिणा सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवविद्दत्ती अद्धवविहत्ती एगजीवेण सामित्तं वाले अतर गाणाजीवेहि भगविचओ भागाभागो परिमाण खेत्तं पोषण कालो अतरं भावो अप्पाबहुअ नेदि । जयध० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] भुजाकारविभक्ति-काल-ग्ररूपण ___ १२२. एत्थ एगजीवेण कालो । १२३. भुजगारसंतकम्मविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । १२४. अप्पदरसंतकम्मविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ । १२५. उक्कस्सेण वे समया । १२६. अवविदसंतकम्मविहत्तियाणं तिण्णि भंगा। चूर्णिसू०-उनमेसे यहॉपर एक जीवकी अपेक्षा काल कहते है । भुजाकारस्वरूप सत्त्वप्रकृतियोकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ॥१२२-१२३॥ विशेषार्थ-अल्प कर्म-प्रकृतियोकी सत्तासे बहुत कर्मप्रकृतियोकी सत्ताको प्राप्त होना भुजाकारविभक्ति कहलाती है। इस प्रकारकी भुजाकारविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल छब्बीस या सत्ताईस प्रकृतियोंकी विभक्ति करनेवाले जीवके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर अट्ठाईस प्रकृतियोका सत्त्व स्थापित करने पर एक समयप्रमाण पाया जाता है । इसी प्रकारसे चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त हो अट्ठाईस प्रकृतियोके सत्त्वको स्थापित करने पर भी भुजाकारविभक्तिका काल एक समयप्रमाण देखा जाता है । चूर्णिसू०-अल्पतरस्वरूप सत्त्वप्रकृतियोकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है ॥१२४॥ विशेषार्थ-बहुत कर्म-प्रकृतियोकी सत्तासे अल्प कर्म-प्रकृतियोकी सत्ताको प्राप्त होना अल्पतरविभक्ति कहलाती है। अट्ठाईस सत्त्वप्रकृतियोकी विभक्तिवाले जीवके अनन्तानुबन्धीचतुष्कके विसंयोजन कर चौबीस प्रकृतियोका सत्त्व स्थापित करने पर अल्पतरविभक्तिका काल एक समयप्रमाण पाया जाता है । इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोका उद्वेलन कर चुकने पर प्रथम समयमे, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति के क्षपण कर चुकने पर प्रथम समयमे, तथा क्षपकश्रेणीमे क्षपणयोग्य प्रकृतियोके क्षपण कर चुकने पर प्रथम समयमे भी अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। चूर्णिसू०-अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्टकाल दो समय है ॥१२५॥ विशेषार्थ-नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके सवेद भागके द्विचरम समयमे स्त्रीवेदके पर-प्रकृति रूपसे संक्रमण होकर तेरह प्रकृतियोकी सत्तासे वारह प्रकृतियोकी सत्ताको प्राप्त होनेपर, और तदनन्तर समयमे नपुंसकवेदकी उदयस्थितिको गलाकर बारह प्रकृतियोकी सत्तासे ग्यारह प्रकृतियोकी सत्ताको प्राप्त होनेपर लगातार अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल दो समयप्रमाण पाया जाता है। चूर्णिसू०-अवस्थित कर्म-प्रकृतियोकी सत्त्व-विभक्तिवाले जीवोंके कालके तीन भंग होते है ॥१२६॥ विशेषार्थ-जब मुजाकार और अल्पतर विभक्ति न हो, किन्तु एक सदृश ही १ त जहा केसि पि अणादिओ अपनवसिदो । केसि पि अणादिओ मपजवसिदो। केमि पि सादिओ सपजवसिदो । जयध० Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति १२७. तत्थ जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो तस्स जहण्णेण एगसमओ । १२८: उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । कर्मप्रकृतियोका सत्त्व बना रहे, तव अवस्थितविभक्ति कहलाती है। अवस्थितविभक्ति करनेवाले जीवोके तीन भंग होते है अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और आदि-सान्त । उन तीन प्रकारकी अवस्थित विभक्तियोंमेसे कितने ही जीवोमे अर्थात् अभव्य और नित्यनिगोदको प्राप्त हुए दूरान्दूर भव्योमे अनादि-अनन्तकालस्वरूप अवस्थितविभक्ति होती है, क्योकि उनमे भुजाकार और अल्पतरविभक्ति संभव ही नहीं है। कितने ही जीवोके अनादि-सान्तकालात्मक अवस्थितविभक्ति होती है । जैसे-जो जीव अनादिकालसे अभी तक छव्वीस प्रकृतियोकी सत्तारूपसे अवस्थित थे, उनके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेपर अवस्थितविभक्तिका काल अनादि-सान्त देखा जाता है। कितने ही जीवोके अवस्थितविभक्तिका काल सादि-सान्त देखा जाता है, जिन्होने -कि पहले कभी उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर पुनः लगातार मिथ्यात्व-अवस्थाको धारण किया है। प्रकृतमे यह तीसरा भंग ही विवक्षित है । चूर्णिकारने इसीके जघन्य और उत्कृष्ट कालका आगे वर्णन किया है । चूर्णिसू०-इनमे जो सादि-सान्त अवस्थितविभक्ति है, उसका जघन्य काल एक समय है ॥ १२७॥ विशेषार्थ-अन्तरकरणको करके मिथ्यात्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिके द्विचरम समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिसे सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिको प्राप्त होनेपर एक समय अल्पतरविभक्तिको करके तत्पश्चात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके चरम समयमें सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिरूपसे एक समयमात्र अवस्थित रह कर, तदनन्तर समयमे ही सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अल्पतर और भुजाकार विभक्तिके मध्यमे सादि-सान्त अवस्थितविभक्तिका एक समय-प्रमाण जघन्य काल पाया जाता है। कहनेका अभिप्राय यह है कि अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय बतलानेके लिए मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम दो समय और उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेका प्रथम समय, इस प्रकार इन तीन समयोको ग्रहण करे । इनमेसे प्रथम समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना कर सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिको प्राप्त होकर अल्पतरविभक्ति करता है। दूसरे समयमे अवस्थितविभक्ति करता है और तीसरे समयमे उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिको प्राप्त होकर भुजाकारविभक्ति करता है। इस प्रकार अल्पतर और भुजाकार विभक्तिके मध्यमे अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकी अपेक्षा भी अवस्थित विभक्तिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। चूर्णिसू०-सादि-सान्त अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥१२८॥ - विशेपार्थ-किसी एक अनादिमिथ्यादृष्टि जीवने तीनो करणोको करके प्रथमोशम Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] शेष- अनुयोगद्वार - संसूचन १२९. एवं सव्वाणि अणिओगद्दाराणि णेदव्वाणि । १३०. पदणिक्खेवे बड्डी च अणुमग्गिदाए समत्ता पयडिविहत्ती | ७९ सम्यक्त्वको प्राप्त कर और अनन्त संसारको छेदकर उसे अर्धपुग परिवर्तनमात्र किया । पुनः सम्यक्त्वका काल समाप्त होते ही मिथ्यात्वमे जाकर और सर्वजघन्य उद्वेलनकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की उद्वेलनाकर अट्ठाईस विभक्ति - स्थान से सत्ताईस और सत्ताईससे छब्बीस, इस प्रकार अल्पतरविभक्ति करता हुआ छब्बीस प्रकृतिरूप अवस्थित - विभक्तिको प्राप्त हुआ । पुनः उद्वेलनाकालसम्बन्धी पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक उसी अवस्थित छब्बीस विभक्ति के साथ परिभ्रमणकर संसार के अन्तमुहूर्त मात्र शेष रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहणकर छब्बीस विभक्ति-स्थान से अट्ठाईस विभक्ति - स्थानको प्राप्तकर भुजाकारविभक्तिको करनेवाला हो गया। इस प्रकार पल्य के असंख्यातवें भाग से कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण सादि-सान्त अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल सिद्ध होता है । चूर्णिसु० - इसी प्रकार कालानुयोगद्वारके समान ही शेप समस्त अनुयोगद्वारोकी प्ररूपणा कर लेना चाहिए ॥ १२९ ॥ विशेषार्थ - चूर्णिकारने सुगम समझकर शेप अनुयोगद्वारोका निरूपण नही किया । विशेष जिज्ञासुओको जयधवला टीकाके अन्तर्गत उच्चारणावृत्ति देखना चाहिए । चूर्णिसू० - पदनिक्षेप और वृद्धि नामक अनुयोगद्वारोके यहाँ अनुमार्गण अर्थात् अन्वेषण करनेपर प्रकृतिविभक्ति नामक अर्थाधिकार समाप्त होता है ॥ १३० ॥ विशेषार्थ - ऊपर वर्णन किये गये अनुयोगद्वारोका जघन्य और उत्कृष्ट पदोके द्वारा निक्षेप अर्थात् निश्चय करने को पढ़निक्षेप कहते हैं । इस पदनिक्षेप अधिकारका समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, इन तीन अनुयोगांद्वारा वर्णन किया गया है । वृद्धि, हानि और अवस्थान, इन तीनोके वर्णन करनेवाले अधिकारको वृद्धिनामक अर्थाधिकार कहते है । इसका वर्णन समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचयानुगम, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम, इन तेरह अनुयोगद्वारोसे किया गया है । इन अनुयोगद्वारोसे दोनो अधिकारोके वर्णन करनेपर प्रकृतिविभक्तिनामक अर्थाधिकार समाप्त होता है । यतिवृषभाचार्यने उक्त अनुयोगद्वारोकी सूचना इस सूत्रसे की है । विशेप जिज्ञासुओको जयधवला टीका देखना चाहिए । इस प्रकार प्रकृतिविभक्ति समाप्त हुई । को पदणिक्खेवो णाम ? जहण्णुवत्सपदविसयणिच्छए खिर्वाद पाढेदि ति पदणिक्खेवो णाम । भुजगारविसेसो पदणिक्खेवो, जणुस्सर्वाड्डि-हाणिपरूवणादो । पटणिक्लेवविसेसो वट्टी, वनि-हाणीण भेदपरूवणादो । जयध Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठिदिविहत्ती १. ठिदिविहत्ती दुविहा मूलपयडिडिदिविहत्ती चेव उत्तरपयडिडिदिविहत्ती' चेव । २. तत्थ अट्ठपढ़ें-एगा ठिदी ठिदिविहत्ती, अणेगाओ ठिदीओ ठिदिविहत्ती । स्थितिविभक्ति पूर्व - वर्णित प्रकृति विभक्ति-द्वारा अट्ठाईस मोहप्रकृतियो के स्वभावसे परिचित शिष्यके लिए, प्रवाहरूपमे आदि-रहित, किन्तु एक एक समयमे बंधनेवाले समयप्रवद्धविशेपकी अपेक्षा सादि - सान्त उन्ही अट्ठाईस मोह - प्रकृतियोकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिको चौदह मार्गणास्थानका आश्रय लेकर प्ररूपण करनेके लिए इस स्थितिविभक्ति नामक अर्थाधिकारका अवतार हुआ है। चूर्णिसू०-स्थितिविभक्ति दो प्रकारकी है, मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति ॥ १॥ विशेषार्थ - एक समय मे बंधे हुए समस्त मोहकर्म - स्कन्धके प्रकृतिसमूहको मूलप्रकृति कहते है । कर्म-बंध होने के अनन्तर उसके आत्माके साथ बने रहने के कालको स्थिति कहते है । विभक्तिनाम भेद या पृथग्भावका है । अतएव मूलप्रकृति की स्थिति के विभागको मूल् प्रकृति-स्थितिविभक्ति कहते है । मोहकर्मकी पृथक्-पृथक् अट्ठाईस उत्तरप्रकृतियोंके स्थितिविभागको उत्तरप्रकृति-स्थितिविभक्ति कहते है | चूर्णिसू० ० - उक्त दोनों प्रकारकी स्थितिविभक्तियों का यह अर्थपद है - एक स्थिति स्थितिविभक्ति है और अनेक स्थितियॉ स्थितिविभक्ति हैं ||२|| विशेषार्थ - प्र - प्रकृत अधिकारके अर्थ-बोधक पदको अर्थपद कहते है । मोहसामान्यरूप मूलप्रकृतिक स्थितिको एक स्थिति कहते हैं । उत्तरप्रकृतिस्वरूप मोहकर्मकी स्थितियों को अनेक स्थिति कहते हैं । इस प्रकार एक स्थितिकी विभक्तिको भी स्थितिविभक्ति कहते हैं और अनेक स्थितियांकी विभक्तियांको भी स्थितिविभक्ति कहते है । यह स्थितिविभक्तिका अर्थ | १ एगसमयम्मि बढासेसमोहक मक्खंवाण पर्याडिसमूहो मूलपयडी णाम । तिस्से हिंदी मूलपयडिहिदी | वपुध अट्टावीसमोहपयडीणं हिदीओ उत्तरपयडिहिदी णाम । विहत्ती भेदो पृधभावो त्ति एयो । हिदीए वित्ती हिदिविद्दत्ती । जयध० २ किमपद णाम ? भणिस्समाण अहियारस्स जोणिभावेण अवदि त्यो अत्थपद णाम । जयध० ३ का हिंदी णाम ? कम्मसरुवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्संघाण कम्मभावमछडिय अच्छणकालले दिदी णाम । जयव० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-अनुयोगद्वार-निरूपण ३. तत्थ अणियोगद्दाराणि' । ४. सव्वविहत्ती जोसव्वविहत्ती उक्कस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहष्णविहत्ती सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवनिहत्ती अद्ध वविहत्ती एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं; णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं सणियासो अप्पाबहुअं च । भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डी च । चूर्णिसू०-उस मूलप्रकृति-स्थितिविभक्तिके प्ररूपण करनेवाले ये अनुयोगद्वार हैसर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्प और अल्पवहुत्व । तथा भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि ॥३-४॥ विशेषार्थ-चूर्णिकारने यद्यपि अल्पवहुत्व तक केवल इक्कीस ही अनुयोगद्वार स्थितिविभक्तिके निरूपण करने के लिए कहे है, तथापि जयधवलाकारने अल्पबहुत्वके अन्तमे पठित च-शब्दको अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेवाला मानकर उसके द्वारा सूत्रमें नहीं कहे गये अद्धाच्छेद, भागाभाग और भावानुगम, इन तीन अनुयोगद्वारोका और भी ग्रहण किया है। इसका कारण यह है कि स्थितिविभक्तिका मूल आधार स्थितिवन्ध है । और उसका महावन्धमे उपर्युक्त चौबीस अनुयोगद्वारोसे ही विस्तृत वर्णन किया गया है । इन चौवीस अनुयोगद्वारोसे मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति-सम्बन्धी स्थितिबन्धका यतः महावन्धमे अतिविस्तृत वर्णन किया गया गया है, अतः चूर्णिकारने उनका कुछ भी वर्णन न करके इनके द्वारा स्थितिविभक्तिके जानने या उच्चारणाचार्योको वर्णन करनेकी सूचनामात्र कर दी है। अतएव उच्चारणाचार्य और जयधवलाकारने महावन्धके अनुसार उक्त चौबीसो अनुयोगद्वारोसे स्थितिविभक्तिका निरूपण किया है । भेद केवल इतना है कि महाबन्धमे इन अनुयोगद्वारोसे आठो ही कर्मोके स्थितिवन्धका निरूपण किया गया है । परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थमे तो केवल मोहनीय कर्म ही विवक्षित है, अतः उनके द्वारा यहॉपर केवल मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धका विचार किया गया है। महावन्धमे इन चौवीसो अनुयोगद्वारोका क्रम इस प्रकार है १ अद्धाच्छेद, २ सर्ववन्ध, ३ नोसर्ववन्ध, ४ उत्कृष्टवन्ध, ५ अनुत्कृष्टवन्ध, ६ जघन्यवन्ध, ७ अजघन्यवन्ध, ८ सादिवन्ध, ९ अनादिवन्ध, १० ध्रुववन्ध, ११ अध्रुवबन्ध, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व १३ काल और १४ अन्तर, १५ तथा नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, १६ भागाभाग १७ परिमाण, १८ क्षेत्र, १९ स्पर्शन, २० काल, २१ अन्तर, २२ सन्निकप, २३ भाव और २४ अल्पबहुत्व । उच्चारणाचार्य और जयधवलाकारने इन्ही चौवीस अनुयोगद्वारोसे स्थितिविभक्तिकी प्ररूपणा १ किमणिओगद्दार णाम ? अहियारो भण्णमाणत्यत्स अवगमोवाओ । जयध० २ एत्य अतिल्लो च-सद्दो उत्तसमुचयहो । अप्पाबहुअ अंते ठिदो च-सहो अवृत्तसमुच्चयट्टो । तेण एदेसु अणियोगदारेसु अवुत्तत्स अडादाणिओगहारस्त भागाभाग-भावाणिओगहाराण च गहण कद । जयध० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति की है। प्रत्येक अनुयोगद्वारका वर्णन ओघ और आदेशसे किया गया है, किन्तु यहींपर ओघकी अपेक्षा मूलप्रकृति-स्थितिविभक्तिका कुछ वर्णन किया जाता है : 'अद्धाच्छेदप्ररूपणा-अद्धा अर्थात् कर्म-स्थितिरूप कालका अवाधा-सहित और अबाधा-रहित कर्म-निषेकरूपसे छेद अर्थात् विभागरूप वर्णन जिसमे किया जाय, उसे अद्धाच्छेद प्ररूपणा कहते है । इसका अभिप्राय यह है कि एक समयमे वंधनेवाले कर्म-पिण्डकी जितनी स्थिति होती है, उसमे एक निश्चित नियमके अनुसार अवाधाकाल पड़ता है । अवाधाकालका अर्थ है कि बंधा हुआ कर्म उतने काल तक बाधा नही देगा, अर्थात् उदयमें नही आवेगा । अवाधाकालसे न्यून जो शेष काल रहता है. उसे कर्म-निपेककाल कहते है । उसके भीतर विवक्षित समयमे बंधे हुए कर्मपिंडमे जितने कर्म-परमाणु है, उनका एक निश्चित व्यवस्थाके अनुसार विभाजन हो जाता है और तदनुसार ही वे कर्म-परमाणु अपने-अपने उदयकालके प्राप्त होनेपर फल देते हुए निर्जीर्ण हो जाते है। निषेकशब्दका अर्थ है-एक समयमे निपिक्त या निक्षिप्त किया गया कर्मपिण्ड । जितने समयोके द्वारा वह बंधा हुआ कर्म निर्जीर्ण होता है, वह कर्म-निपेककाल कहलाता है । अवाधाकालका निश्चित नियम यह है कि एक कोड़ाकोड़ी सागर-प्रमाण स्थितिवाले कर्मका अबाधाकाल सौ वर्प-प्रमाण होता है । प्रकृतमे मोहनीयकर्म विवक्षित है । उसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर-प्रमाण है, अतएव उसका अवाधाकाल सात हजार वर्प-प्रमाण होता है । इन सात हजार वर्षोंसे न्यून जो सत्तर कोडाकोड़ी सागर-प्रमाणकाल शेष रहता है, उसे निषेककाल कहते है । अन्तर्मुहूर्तसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तककी स्थितिवाले कर्मोंका अवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण होता है । यह मूलप्रकृतिकी अपेक्षा अद्धाच्छेदकी प्ररूपणा है । उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर होती है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोड़ी सागर है । नव नोकपायोकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवली कम चालीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है । इनमेसे दर्शनमोहकी तीनो प्रकृतियोका अबाधाकाल १ अद्धाच्छेदपरूवणा-अद्धाच्छेटो दुविधो-जहण्णओ उकस्सओ च । उक्कस्सगे पगद । दुविधो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य | तत्थ ओघेण x x x मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबधो सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ। सत्तवस्ससहस्साणि आवाधा। आवाधुणिया कम्महिदी कम्मणिगो। जहण्णगे पगद । दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेणxxx मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिवधो अतोमुहुत्त । अतोमुहुत्त आवाधा | आवाधूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । (महाब० ) अद्धाच्छेदो दुविहो-जहण्णओ उक्कत्सयो च Ixxx उक्कस्से पयद | दुविहो णिसो-ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उकस्सटिदिविहत्ती केत्तिया १ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ पडिबुप्णाओ | कुदो ? अकम्मसरूवेण हिदा कम्मइयवग्गणस्वधा मिच्छत्तादिपच्चएण मिच्छत्तकम्मसरूवेण परिणदसमए चेव जीवेण सह वधमागटा सत्तवाससहस्सावाध मोत्तण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीसु जहाकमेण णिसित्ता सत्तरिसागरोपमकोडाकोडिमेत्तकालं कम्मभावेच्छिय पुणो तेसिमकम्मभावेण गमणुवलभादो | जहष्ण-अदाछेदाणुगमेण दुविदो णि सोमोवेण आदेसेण य | तत्थ ओवेण मोहणीयत्स जहणिया अद्धा केत्तिया १ एगा हिदी एगगमइया । जय Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-अनुयोगद्वार - निरूपण सात हजार वर्ष होता है और चारित्रमोहकी सर्व प्रकृतियोका अवाधाकाल चार हजार वर्ष होता है । इस अवाधाकालसे न्यून जो ोप काल है उसे निपेककाल जानना चाहिए | इस प्रकारसे प्रत्येक कर्मके सम्पूर्ण स्थितिबन्धकाल, अबाधाकाल और निषेककालका विचार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा इस अद्वाच्छेद अनुयोगद्वारमे किया गया है । 'सर्वविभक्ति-नोसर्वविभक्ति प्ररूपणा - जिस कर्मकी जितनी सर्वोत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, उस सर्वके बॉधनेको सर्वबन्धविभक्ति कहते हैं और उसमे एक समय कमसे लगाकर नीचली स्थितियोके बन्धको नोसर्वबन्ध - विभक्ति कहते है । जैसे - मोहकर्म की पूरी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोका बन्ध करना सर्वबन्ध है और उसमे एक समय कमसे लगाकर सर्व-जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियो तकका बन्ध करना नोसर्ववन्ध है । इस प्रकार से सर्वमूल कर्मोके और उनकी उत्तरप्रकृतियोंके सर्वबन्ध और नोसर्वबन्धका विचार सर्वविभक्ति और नोसर्वविभक्ति नामक अनुयोगद्वारमे किया गया है । ८३ 'उत्कृष्ट- अनुत्कृष्टवन्धप्ररूपणा - जिस कर्मकी जितनी सर्वोकृष्ट स्थिति है, उसके बन्धकी उत्कृष्टवन्ध संज्ञा है । जैसे मोहनीयकर्मका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर - प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवन्ध होनेपर अन्तिम निपेकको उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा जायगा । उत्कृष्ट स्थितिवन्धमे से एक समय कम आदि जितने भी स्थितिविकल्प है उन्हे अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा जायगा । इस प्रकारसे सर्व मूलकर्मोंके और उनकी उत्तर प्रकृतियो के उत्कृष्टबन्ध और अनुत्कृष्टबन्धका विचार उत्कृष्ट विभक्ति और अनुत्कृष्टविभक्ति नामक अनुयोगद्वारमे किया गया है । जघन्य- अजघन्यवन्धप्ररूपणा - मोहकर्मकी सबसे जघन्य स्थितिको बांधना जघन्यवन्ध है और उससे अधिक स्थितिको बोधना अजघन्यवन्ध है । इस प्रकारसे सर्व कर्मोंके और १ सव्व णो सवबंधपरूवणा-यो सो सव्ववधो णोसव्ववधो णाम, तस्स इमो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओवेण मोहणीयस्स द्विदिवधो किं सव्ववधो, णोसव्ववधो ? सव्ववधो वा गोसव्वधो वा । सव्वाओ हिदीओ बधदित्ति सव्ववधो । तदो ऊणिय ब्रिटि बधदित्ति गोसव्ववधो ( महाव० ) । सव्वविद्दत्तिणोसव्वविहत्ति- अणुगमेण दुविहो गिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वाओ हिदीओ सव्ववित्ती । तद्रूण गोसव्ववित्ती | जयध० २ उक्कल अणुक्क सबंधपरूवणो-यो सो उक्कस्सबधो अणुक्कस्सबधो णाम, तस्स इमो गिद्देसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स विदिवधो किं उक्कस्सबधो अणुक्कस्तव घो ? उक्कस्सबधो वा, अणुक्कस्मबधो वा । सव्युकस्सिय ठिदिं वधदित्ति उस्सबधो । तदो ऊणिय वधदित्ति अणुक्कन्मबधो । ( महाव० ) । उक्स्म - अणुवस्स विहत्ति- अणुगमेण दुविहो गिद्देसो- ओण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सस्सिया ठिदी उक्वस्सविहत्ती । तदृणा अणुवस्सविहत्ती | जयध० ३ जण अजहण्णवंधपरूवणा-यो सो जहण्णवधो अजहृष्णवधो णाम, तत्स इमो गिद्देमोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओवेण मोहणीयत्म ठिदिवधो जहणणच वो, अजहण्णवधो ? जहण्णववो वा, अजद्दण्णन वो वा । सव्यजहणिय ठिदिं बधमाणम्म जइण्गव वो । तटो उवरि वधमाणस अजष्णवधो । (महा) | जद्दण्णाजणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओत्रेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वजहणट्विटी जहणउदिविद्दत्ती । तदुवरिमाओ अजणट्ठिदिविहत्ती । जयध० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति उनके उत्तर प्रकृतियोके जघन्यवन्ध और अजघन्यबन्धका विचार जघन्यविभक्ति और अजघन्यविभक्तिनामक अनुयोगद्वारमे किया गया है । 'सादि-अनादि तथा ध्रुव-अध्रुव वन्धप्ररूपणा-कर्मका जो बंध एक वार होकर और फिर रुककर पुनः होता है वह सादिवन्ध कहलाता है और बन्ध-व्युच्छित्तिके पूर्वतक अनादिकालसे जिसका वन्ध होता चला आरहा है वह अनादिबन्ध कहलाता है । अभव्योंके निरन्तर होनेवाले वन्धको ध्रुववन्ध कहते है और कभी कभी होनेवाले भव्योके बन्धको अध्रुववन्ध कहते हैं । इन चारो ही प्रकारके वन्धोका विचार क्रमशः सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति और अध्रुवविभक्ति नामके अनुयोगद्वारोमे किया गया है । "स्वामित्वनरूपणा-स्वामित्व-अनुयोगद्वारमे मोहकर्मका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य वन्ध किस-किस जीवके होता है इस वातका विचार किया गया है । जैसे-मोहकर्मकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध सर्व पर्याप्तियोसे पर्याप्त, साकार और जाग्रत उपयोगसे उपयुक्त, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोसे या ईषन्मध्यम परिणामोसे परिणत, किसी भी संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवके होता है। इस प्रकारसे सर्व कर्मोके और उनकी एक-एक प्रकृतिके स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणाम या विशुद्ध परिणामवाला जीव होता है । इस सबका विवेचन स्वामित्व अनुयोगद्वारमे किया गया है। बन्ध-कालप्ररूपणा-कालानुयोगद्वारमें एक जीव की अपेक्षा प्रत्येक कर्मका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्यरूप वन्ध लगातार कितनी देर तक होता है इस वातका विचार १ सादि-अणादि-धुव-अद्धवबंधपरूवणा-यो सो सादियबधो अणादियवधो धुवबधो अववधो णाम, तस्स इमो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्ताह कम्माण उकस्स० अणुकस्स० जहण्णबधो किं सादि० अणादिय० धुव० अश्व० ? सादिय अद्भुववधो । अजहण्णबधो । कि मादि० ४ १ सादियवधो वा अणाटियवधो वा धुववधो वा अदुवबंधो वा । ( महावं०)। सादि० ४ दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक० अणुक्क० जह० कि सादि० ४ १ सादि० अदुव० । अजह ° किं सादि० ४ १ अणादिय० धुवो वा अद्धवो वा | जयध० २ सामित्तपरूवणा-सामित्त दुविध-जहष्णयं उकस्सग च । उकस्सेण पगद । दुविधो णिहसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्हं कम्माण उकस्सटिदिबधो कत्स होदि ? अण्णदरस्स पचिंदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिस्सि सव्याहि पजत्तीहि पजत्तगस्स सागार-जागारुवजोगजुत्तरस उकास्सियाए ठिदीए उक्कस्सट्ठिदिस किलेसेण वट्टमाणयन्स अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स वा Ixxx जहण्णगे पगढ । दुविधो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहस्स जहण्णओ ठिदिवधो कस्स होदि १ अण्णदरस्स खवगअणियहिस्स चरिमे ममए वट्टमाणस्स । ( महाव०) । सामित्त दुविध-जहण्ण उकरम च । तत्थ उकस्से पयद । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्य ओघेण (मोहणीयस्स) उक्कन्सट्टिदी कस्स ? अष्णदरस्स, जो चउठाणियजवमज्झस्स उवरि अतोकोडाकोडिं बधतो अच्छिदो उकस्ससकिलेस गदो । तदो उकास्मट्टिदी पबद्धा, तत्स उक्कस्सय होदि Ixxx जहष्णए पयद । दुविहो णिह सो-ओषेण आदेसेण य । तत्य ओघेण मोहणीयस्स जद्दण्णट्दिी कस्स ? अण्णदरस्त खवगत्स चरिमसमयसकसायरस जहण्णटिठटी | जयघ० ३ बंधकालपरूवणा-वधकाल दुविध-जहष्णय उकस्मय च । उकम्सए पगट | दुवित्रो णिमाओघेण आदेमेण य । तत्थ मोघेण सत्तण्ह कम्माण उत्सओ टिटिबंधो केवचिर कालाटो होटि १ जाणेण Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-अनुयोगद्वार-निरूपण किया गया है। जैसे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और लगातार बंधनेका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट बन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है। जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजधन्यवन्धका अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त काल है । 'अन्तर-प्ररूपणा-अन्तर अनुयोगद्वारमे विवक्षित कर्मबन्ध होनेके अनन्तर पुनः कितने कालके पश्चात् फिर उसी विवक्षित प्रकृतिका बन्ध होता है इस मध्यवर्ती बन्धाभावरूप कालका विचार एक जीवकी अपेक्षा किया गया है। मोहकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है । जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नही है, क्योकि मोहनीयकर्मकी जघन्य स्थिति क्षपक जीवके दशवे गुणस्थानके अन्तिम समयमे होती है। अजघन्यबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। यह कथन महाबन्धकी अपेक्षा है । जयधवलाकारने तो मोहकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। नानाजीवोंकी अपेक्षा भंग-विचय-इस अनुयोगद्वारमे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंके उनके बन्ध नहीं करनेवाले जीवोके साथ कितने भंग होते हैं एगसमओ, उक्कस्सेण अतोमुहुत्त । अणुक्कस्सओ ठिदिवधो जहण्णेण अतोमुहुत्त । उक्कस्सेण अणतकालमसखेजा पोग्गलपरियट्टा Ixxx जहण्णए पगदं । दुविधो णि(सो-ओघेण आदेसेण य | तत्थ ओघेण सत्तण्ह कम्माण जपणढिदिवधकालो केवचिर कालादो होदि १ जह० उक० अतोमु ०। अजहण्ण केवचिर कालादो० १ अणादियो अपजवसिदो त्ति भगो। यो सो सादि० जह० अतो०, उक० अद्धपोग्गलपरियट्ट । (महाब०) । तत्थ उक्कस्सए पयद । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेरोण य । तत्य ओघेण मोणीयस्स उक्कस्सठ्दिी केवचिर कालादो होदि १ जहणेण एगसमओ । उकस्सेण अतोमुहुत्त । अणुक० केवचिर ० ? जह० अतोमुहुत्त । उक्क० अणंतकालमसखेजा पोग्गलपरियट्टा । जहण्णए पयद । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्त जणछिदी केवचिर कालादो होदि १ जहण्णुकस्सेण एगसमओ । अजहण्ण० अणादिओ अपजवसिदो, अणादिओ सपजवसिदो वा । जयध १ अंतरपरूवणा-बधतर दुविध-जहण्णय उकस्सयं च । उक्कस्सए पगद | दुविधो णिद्द सोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्ड कम्माण उकत्सठिदिवधतर जहण्णेण अतोमुहुत्त । उकस्सेण अणतकालमसखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सद्विदिवधतर जहणेण एगसमओ । उकस्सेण अतोमुहुत्त । xxx जहण्णए पगद । दुविधो णिहसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्ड कम्माण जह० णत्थि अतर | अज० जह० एगसमओ । उकस्सेण अतोमुहुत्त । ( महाव०)। अंतराणुगमो दुविहो-जहण्णमुक्कस्स चेटि । उकस्से पयद | दुविहो गिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओवेण उकत्सटिदि अतर केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण अतोमुहुत्त । उकत्सेण अणतकालम सखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सदिदि-अतर केवचिर कालादो होदि १ जोण एगसमओ। उकस्मेण अतोमुहुत्त | xxxजहण्णए पयद । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहण्णाजहण्णढिीण णत्यि अतर । जयधा २ णाणाजोवेहिं भंगविवयं दुविध-जहण्णय उक्त्सय च । उपस्सए पगढ । तत्थ दम अपदगाणावरणीयन्स उक्कन्सियाए ठिदीए बधगा जीवा ते अणुफस्सियाए अवधगा । ये अणुफस्सियाए टिटीए Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति इस वातका विचार किया गया है। जैसे कदाचित् सर्व जीव मोहकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित है । कदाचित् बहुतसे जीव मोहकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित है और एक जीव मोहकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुतसे जीव मोहकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित है और बहुतसे जीव मोहकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा तीन भंग होते है। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा कदाचित् सर्व जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं। कदाचित् बहुतसे जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले है और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित है। कदाचित् वहुतसे जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं और बहुतसे जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित है, ये तीन भंग होते है। इसी प्रकारसे नानाजीवोकी अपेक्षा जघन्य और अजवन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोके तीन-तीन अंग होते है। इस प्रकारसे प्रत्येक कर्मके बंधके साथ अन्य कर्मोंके भंगोका विचय इस अनुयोगद्वारमे किया गया है। भागाभागप्ररूपणा-कर्मोंकी उत्कृष्टस्थितिके बन्ध करनेवाले जीव सर्व जीवराशिके कितने सागप्रमाण है ? अनन्तवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्ध करनेवाले जीव कितने भागप्रमाण है ? सर्व जीवोके अनन्त बहुभागप्रमाण है। इसी प्रकार जघन्य स्थितिके वन्ध करनेवाले जीव अनन्तवे भाग है और अजघन्य स्थितिके वन्धक जीव अनन्त वहुभागप्रमाण है, इस प्रकारसे इस अनुयोगद्वारमे सर्व मूलकर्म और उनकी उत्तरप्रकृतियोके भागाभागका विचार किया गया है । प्रकृतमे मोहकर्मकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियोकी विभक्ति करनेबधगा जीवा, ते उक्कस्सियाए ठिदीए अवधगा।xxx एदेण अठ्ठपदेण दुविधो गिद्देसो-ओपेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अटठण्हं कम्माण उक्कस्सियाए ठिदीए सिया सव्वे अबधगा, सिया अवधगा य बधगो य, सिया अबधगा य बंधगा य । एव अणुक्कस्से वि, णवरि पडिलोम भाणिदव्वं । Xxx जहण्णगे पगद । त चेव अठ्ठपद कादव्व । तस्स दुविधो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओधेण सत्तण्ड कम्माण उकस्सभगो। ( महाव०)। णाणाजीवेहि भगविचयाणुगमेण भण्णमाणे तत्थ णाणाजीवेहि उक्कस्सभगविचए इदमपद-जे उकस्मस्स-विहत्तिया ते अणुक्कस्सस्स अवित्तिया, ने अणुकस्सस्स वित्तिया ते उक्कस्सस्म अवित्तिया । एदेण अठ्ठपदेण दुविहो णिसो-ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उकस्सट्टिबीए सिया सवे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च वित्तिया च । एव तिम्णि भगा ३ । अणुकरसटिठदीए सिया सव्वे विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अवित्तिया च Ixxx जहण्णयम्मि अठ्ठपद । त जहा-जे जहण्णस्स वित्तिया ते अजहण्णस्स अवित्तिया, जे अजहण्णस्स विहत्तिया ते जहण्णस्स अविहत्तिया। एटेण अट्ठपदेण दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहण्णढिीए मिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च वित्तिया च, एवं तिणि भगा। एवमजह । णवरि वित्तिया पुच भाणियव । जयध० १ भागाभागप्परूवणा-भागाभाग दुविध-जहष्णप उकस्सय च । उक्स्सए पगद । दुविधी णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अठ्ठण्ड पि कम्माण उकत्सटिदिव वगा सध्यजीवाण केवडियो भागो ? अणतभागो । अणुक्स्सििदवधगा जोवा सव्वजीवाण केवडिओ भागो? अणता भागा | XXX जहणणगे पगद । दुविधो णि सो-ओघेण आटेसेण या तत्य ओपेण सत्ताह कम्माण जद्द अजह उम्म Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-अनुयोगद्वार - निरूपण वाले जीव सर्व जीवोके अनन्तवे भाग है और अनुत्कृष्ट तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव अनन्तबहुभाग है, ऐसा जानना चाहिए । 'परिमाण प्ररूपणा - इस अनुयोगद्वार में एक समय के भीतर कर्मों की उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्ध करनेवाले जीवोके परिमाणका विचार किया गया है । जैसे - एक समयमे मोहकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके विभक्तिवाले जीव असंख्यात है । अनुत्कृष्ट स्थितिके विभक्तिवाले जीव अनन्त है । जघन्य स्थितिकी विभक्तिवाले जीव संख्यात है और अजघन्य स्थितिकी विभक्तिवाले जीव अनन्त है । इस प्रकारसे सर्व मूलकर्म और उनकी उत्तरप्रकृतियोकी विभक्तिवाले जीवोके परिमाणका वर्णन इस परिमाणअनुयोगद्वार से किया गया है । क्षेत्र प्ररूपणा - इस अनुयोगद्वारमे उत्कृष्ट स्थितिबन्धके बन्धक जीव कितने क्षेत्रमे रहते है, अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कितने क्षेत्रमे रहते हैं और जघन्य- अजघन्य स्थिति के बन्धक जीव कितने क्षेत्रमे रहते हैं, इस बातका विचार किया गया है । प्रकृतमे मोहनीयकर्म विवक्षित है, अतः उसकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवे भागमे रहते है और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सर्वलोकमे रहते है । इसी प्रकारसे जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोका क्षेत्र जानना चाहिए । इस प्रकारसे सर्व मूल कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियो के वर्तमानकालिक क्षेत्रको वर्णन इस अनुयोगद्वार मे किया गया है । 1 ८७ भगो । ( महाब० ) । भागाभागानुगमो दु विहो - जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । तत्थ उकस्से पयद | दुविहो णिद्द ेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उकस्सट्ठिदिविहत्तिया जीवा सव्वजीवाण कैवडिओ भागो ? अणतिमभागो । अणुक्कस्सट्ठिदिविहत्तिया जीवा सव्वजीवाण केवडिओ भागो ' अणता भागा । ××× जहण्णए पयद | दु विहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जणट्ठिदिविहत्तिया जीवा सव्वजीवाण केवडिओ भागो १ अणतिमभागो । अजहण्णठिदिविहत्तिया जीवा सव्वजीवाण केवडिओ भागो १ अणता भागा | जयध० १ परिमाणपरूवणा - परिमाण दुविध-जहण्णय उक्कस्सय च । उक्कस्सगे पगदं । दुविधो गिद्द सोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अट्टण्ट कम्माण उक्कत्सट्ठिदिवधा केवडिया ? असखेजा । अणुक्कस्सदिदिवधगा केवडिया ? अणता । XXX जहण्णए पगद । दुविधो गिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्ट कम्माण जहण्णट्ठिदिवधगा केत्तिया ? संखेजा । अजहण्ण ट्रिट्ठदिवधगा केत्तिया १ अणता । ( महाब ० ) परिमाणानुगमो दुविहो जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पयद । दुविहो गिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उक्कस्सट्ठिदिविहत्तिया जीवा केत्तिया ? असखेना | अणुक्कस्सट्ठिदिविहत्तिया जीवा केन्तिया १ अणता XXX | जहण्णए पयद । दुविहो गिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहण्णट्ठिदिविहत्तिया जीवा केत्तिया ? सखेजा । अजहण्णट्ठदिविहत्तिया जीवा केन्तिया १ अणता | जयध० २ खेत्तपरूवणा - खेत्त दुविव-जहणणयं उक्कस्य च । उकस्सए पगद | दुविवो हि सो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अट्टण्ट कम्माणं उक्कस्सट्ठिदिबंधगा जीवा केवडि खेत्ते ? लोगस्स अतखेजदिभागे | अणुवत्सट्ठिदिवधगा जीवा केवडि खेत्ते १ सव्वलोगे । XXX जहण्णगे पगद | दुविवो ेिसोओवेण आदेसेण य । तत्थ ओवेण सत्तण्ड कम्माणं जहण्णठिदिवधगा जीवा कैवडि सेते ? लोगस्स अससेजदिभागे । अजहणट्टिदिवधगा जीवा केवटि सेत्ते ? सव्चलोगे | ( महानं ० ) खेत्ताणुगमो दुविहोजहणओ उपस्सओ वेदि । उपस्मे पगद | दुविहो गिद्द े सो-ओवेण आदेसेण य । तत्य ओवेण मोहणीयत्स Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ कलाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति 'स्पर्शनप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमै कर्मोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अज- . घन्य स्थितिवन्ध करनेवाले जीवोके त्रिकाल-गोचर स्पृष्ट क्षेत्रका प्ररूपण किया गया है। जैसेमोहकर्मकी उत्कृष्टस्थितिकी विभक्तिवाले जीवोने कितना क्षेत्र स्पृष्ट किया है ? वर्तमानकालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग और अतीत-अनागत कालकी अपेक्षा देशोन आठ वटे चौदह, अथवा तेरह वटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट किया है । अनुत्कृष्टस्थिति-विभक्तिवाले जीवोने सर्वलोक स्पृष्ट किया है । जघन्यस्थिति-विभक्तिवाले जीवोने लोकका असंख्यातवॉ भाग और अजघन्यस्थिति-विभक्तिवाले जीवोने सर्वलोक स्पृष्ट किया है । इस प्रकारसे शेष सात मूल कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोकी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट, तथा जघन्य-अजधन्य स्थितिकी विभक्तिवाले जीवोके त्रिकाल-विपयक स्पृष्ट क्षेत्रका वर्णन किया गया है । कालप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमे नाना जीवो की अपेक्षा कर्मोकी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट और जघन्य-अजघन्य स्थितिका वन्ध कितने काल तक होता है, इस वातका विचार किया गया है । जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिबंधका जघन्यकाल एक समय है । और उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवॉ भाग है । अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका सर्वकाल है । मोहकर्मके जवन्य स्थितिवन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है। अजधन्यस्थितिके बंधनेका सर्वकाल है । इस प्रकारसे सर्व मूलकों और उत्तरप्रकृतियोके उत्कृष्टअनुत्कृष्ट तथा जघन्य-अजघन्य स्थितिके जघन्य-उत्कृष्ट वन्धकालका निरूपण किया गया है । उक्कस्सटिदिविहत्तिया केवडि खेत्ते ? लोगस्स असखेजदिभागे । अणुकत्सटिदिविहत्तिया केवडि खेत्ते ? सव्वलोए |xx x जहण्णए पयद । दुविहो णि सो ओघेण आदेसेण य । तत्य जोवण जण अजाण° उक्कस्समगो | जयध १ फोसणपरूवणा-फोसण दुविध-जहण्णय उकस्सय च । उकस्सए पगद । दुविधो णिद्द सोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओवेण सत्तण्ह कम्माण उक्कस्सठिदिवधगेहि केवडिग्र खेत्त फोसिद ? लोगरस असखेजदिमागो, अट्ठ-तेरह चोदसभागा वा देसूणा | अणुक्कसठिदिवधहि केवडिय खेत्त कोसिद ? सव्वलोगो। xx x जहणगे पगद । दुविधो णिद्द सो-ओवेण आदेसेण य । तत्थ ओवेण अट्टाह कम्माण जहण्ण-अजह्मणटिदिवंधगाण खेत्तभगो । ( महाव.)। पोसणाणुगमो दुविहो-जद्दण्णओ उक्कस्सओ च । उक्कत्से पयद । दुविहो णि(सो-ओघेण आदेशेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उक्कस्सटिदिवित्तिएहि केवडिय खेत्त पोसिद ? लोगस्स असखेजदिभागो, अठ्ठ तेरह चोदसभागा वा देसूणा । अणुक्कसहिदिविहत्तियाण खेत्तभगो।xxx जहण्णए पयद । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहण्णहिदिविहत्तिएहि केवडिय स्खेत्त पोसिट ? लोगस्स असखेजदिभागो। अजहण्णटिदिविहत्तियाण सवलोगो । जयध० २ कालपरूवणा-काल दुविध-जहष्णयं उक्कस्सय च । उक्स्स ए पगद । दुविधो णिहे सो. ओवेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्ह कम्माणं उत्सटिदिवघगा केवचिर कालादो होति १ जहणेण एगसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अणुक्कत्सटिदिवधगा देवचिर कालादो होति । सव्वदाxxx जहण्णगे पगद | दुविधो णिहेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्ट् कम्माण जण किदिवधगा केवचिर कालदो हॉति ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । अज० सम्बद्धा । ( महाय०)। काला णुगमो दुविदो जहाओ उक्कन्सओ चेटि । तत्य उक्त ए पयद । दविहो णिसो-ओघेण आटेगेण य। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिविभक्ति-अनुयोगद्वार - निरूपण 'अन्तरप्ररूपणा - इस अनुयोगद्वार मे नाना जीवो की अपेक्षा कर्मवन्धके अन्तरकालका निरूपण किया गया है। जैसे - मोहकर्मकी उत्कृष्टस्थिति-विभक्तिवाले जीवो के अन्तरका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके समय प्रमाण है । मोहनीयकी जघन्यस्थिति-विभक्तिके अन्तरका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल छह मास है । मोहकर्मकी अजघन्यस्थितिविभक्तिका अन्तर नही होता है । ८९ गा० २२ ] सन्निकर्ष प्ररूपणा - मोहकर्मकी विवक्षित प्रकृति के उत्कृष्टवन्धका करनेवाला जीव अन्यप्रकृतियोका क्या उत्कृष्टबन्ध करता है, अथवा क्या अनुत्कृष्टवन्ध करता है, इस प्रकार से एक प्रकृतिकी उत्कृष्टस्थितिके बन्धकके साथ दूसरी प्रकृतिकी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट आदि स्थिति के बन्धकका विचार किया गया है । जैसे- मिध्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिका वन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है । किन्तु वह उनका उत्कृष्टवन्ध भी करता है, और अनुत्कृष्टवन्ध भी करता है । यदि उत्कृष्ट - बन्ध करता है, तो उसे उत्कृष्टस्थितिबन्धमेंसे एक समय कमसे लेकर पल्यके असंख्यातवे भाग कम तक बाँधता है । इस प्रकारसे मोहकर्मकी शेष प्रकृतियोके साथ भी मिध्यात्वके उत्कृष्टअनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका विचार किया गया है । मोहकर्मकी प्रकृतियो के समान ही शेप कर्मोंकी तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उक्करसठि विहत्तिया केवचिर कालादो' जहणणेण एगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवस्त असखेजदिभागो । अणुक्क० के० १ सव्वद्धा । XXX जहण्णए पयद । दुविहो णिद्दसो - ओघेण आदेसेण य | ओघेण मोहणीयस्स जहण्णठिदिविहत्तिया केवचिर कालादो ? जहणेण एगसमओ । उक्कस्टेण सखेजा समया । अज० सव्वद्धा । जयध० १ अंतरपरूवणा - अतर दुविध-जहप्णय उक्कस्य च । उक्कस्साए पयट । दुविधो णिद्द सोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अटूट्ठण्ह कम्माण उक्कस्सट्रिट्ठदिवधतर जद्दण्णेण एगसभओ । उक्कस्से अगुलरस अससे० असखेज्जाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ । अणुक्कस्सट्ठिदिवधतर णत्थि । Xxx जहणए पगद | दुविधो निद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्ह कम्माण जद्दण्णट्ठदिवधतरं जणेण एगसमओ । उक्कस्सेण छम्मास । अज० णत्थि अतर (महाव ० ) अतराणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्करसओ चेदि । उक्कस्सए पयद । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उक्कस्सट्ठिदिविहत्तियाणमतर केवचिर कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अगुल्स्स असखेज्जदिभागो । अणुक्क० णत्थि अतर । XX X जहणए पयद । दुविदो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहणट्ठिविहत्तियाणमतर जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण छम्मासा | अज० णत्यि अतर । जयध० २ बंधसण्णियास परूवणा-चघसण्णियास दुविध-जहणय उक्कस्य च । उक्कस्सए पगद । दुविधो गिद्द सो- ओघेग आदेसेण य । तत्य ओघेण णाणावरणीयस्स उकस्सट्ठिदिं बघतो छह कम्माण णियमा बधगो । त तु उक्कस्सा वा, अणुक्कस्सा वा । उकस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि काढूण पलिदोवमत्स अससेजदिभागृण वधदि । आयुगस्स सिया वधगो, सिया अवधगो । जइ बधगो, णियमा उक्त्सा । आवाधा पुण भयणिना । एव छण्ट कम्माण | आयुगस्स उक्करसट्ठिदि बधतो सत्तण्ड कम्माण नियमा बधगा । त तु उक्का वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अशुक्कस्सा तिट्ठाणपदिद वधदि - अमखेनदिभागहीण वा १२ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति उत्तरप्रकृतियोमे भी इसी प्रकारसे सन्निकर्पका विचार इस अनुयोगद्वारमे किया गया है । यहाँ इतनी बात ध्यान रखनेके योग्य है कि मूल मोहनीयकर्ममे सन्निकर्प संभव नहीं है। भावारूपणा-भावानुगमकी अपेक्षा किसी भी मूलकर्म या उनकी उत्तरप्रकृतियोकी उत्कृष्ठ-अनुत्कृष्ट और जवन्य-अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले सर्वजीवोके एकमात्र औदयिकभाव पाया जाता है। अल्पबहुत्वप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमे सर्व कर्मोंकी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि स्थितिबन्ध करनेवाले जीवोके अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टस्थितिके विभक्तिवाले जीव सबसे कम है । इनसे अनुत्कृष्टस्थितिके विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणित है। जघन्यस्थिति-बन्धक जीव सबसे कम है । उनसे अजघन्यस्थिति-वन्धक जीव अनन्तगुणित है । इस प्रकारसे सर्व मूलकर्मोंकी और उनकी उत्तरप्रकृतियोकी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट और जघन्य-अजधन्य स्थितिवन्धकी विभक्तिवालोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए । भुजाकार-अनुयोगद्वारमे भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित इन तीनोका विचार किया जाता है । जो जीव कम स्थितिसे अधिक स्थितिको प्राप्त हो, उसे भुजाकार स्थितिविभक्तिवाला कहते है । जो अधिक स्थितिसे कम स्थितिको प्राप्त हो, उसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला कहते है और जिसकी पहले समयके समान दूसरे समयमे स्थिति रहे, उसे अवस्थित-स्थितिविभक्तिवाला कहते है । इस प्रकार मोहनीयकर्मकी तीनो प्रकारकी स्थितिवाले सखेजदिभागहीण वा, सखेजगुणहीण वा । (महाब०) । एत्थ मूलपयडिंटिदिविहत्तीए जदिवि सण्णियासो ण सभवइ, तो वि उत्तो, उत्तरपयडीसु तस्स सभवदसणादो । जयध० १ भावपरूवणा-भावाणुगमेण दुविध-जहण्णय उक्कस्सय च । उक्कस्सए पगद । दुविधो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अठ्ठण्ड कम्माण उक्कस्साणुक्कस्सििदवधगा त्ति को भावो ? ओदहओ भावो ।xxx जहण्णए पगद । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अट्टह कम्माणं जहण्ण-अजहण्णढिदिवधगा त्ति को भावो ? ओटइगो भावो । ( महाब०) भावाणुगमेण सम्वत्थ ओदइओ भावो | जयध० २ अप्पावहुगपरूवणा-अप्पाबहुग दुविध-जीव-अप्पाबहुग चेव द्विदि-अप्पाबहुगं चेव । जीव अप्पाबहुग तिविध-जहण्ण उक्कस्स जहण्णुक्कस्सय च । उक्कस्सए पगद । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्योवा अहं कम्माण उक्कस्सगठिदिवधगा जीवा । अणुक्कत्सगठिदिवधगा जीवा अणतगुणा Ixxx जहण्णए पगद । दुविधो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सत्ताह कम्माण सव्वत्थोवा जहण्णछिदिबंधगा जीवा । अजहण्णझिदिवधगा जीवा अणतगुणा । ( महाव०)। अप्पा. बहुगाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सयो चेदि । उक्कस्से पयद । दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सम्वत्थोवा मोहणीयस्स उक्कस्सठिदिविहत्तिया जीवा । अणुक्कत्सट्टिदिविहत्तिया जीवा अणतगुणा | xxx जहण्णए पयद । दुविहो णिद्देसो-ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण जह० अजह उक्करसभगो ! जयध० : भुजगारवंधो-भुजगारवधेत्ति तत्थ इम अट्टपद-जाओ एहि ट्ठिदीओ बघटि अणतरादि सक्काविद विदिक्कते समए अप्पदरादो बहुदर बधदि ति एसो भुजगारबधो णाम | अप्पटखये त्ति तत्थ इम अठ्ठपद-जायो एहि टिदोओ ववदि अणतर ओस्सरका विटविदिक्कते समए बहुदराटो अप्पदर बंधाद Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-अर्थपद-निरूपण ५. एदाणि चेव उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए कादवाणि । ६. उत्तरपयडिहिदिविहत्तिमणुमग्गइस्सामो । ७. तं जहा । तत्थ अट्ठपदं-एया हिदी हिदिविहत्ती, अणेयाओ द्विदीओ द्विदिविहत्ती। जीवोका पाया जाना संभव है। विवक्षितकर्मके बन्धका अभाव होकर पुनः उस कर्मका बन्ध करनेवालेको अवक्तव्यस्थिति-विभक्तिवाला कहते है। भुजाकारविभक्तिमे इनका विचार तेरह अनुयोगद्वारोसे किया गया है। उनके नाम इस प्रकार है-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व । पदनिक्षेप-भुजाकारबंधका जघन्य और उत्कृष्टपदोके द्वारा विशेप वर्णन करनेको पदनिक्षेप कहते है । इस अधिकारमे 'पद' शब्दसे वृद्धि, हानि और अवस्थान इन तीन पदोका ग्रहण किया गया है । ये तीनो पद उत्कृष्ट भी होते है और जघन्य भी । इस अनुयोगद्वारमे यह बतलाया गया है कि कोई एक जीव यदि प्रथम समयमे अपने योग्य जघन्य स्थितिवन्ध करता है और दूसरे समयमे वह स्थितिको बढ़ाकर बन्ध करता है, तो उसके वन्धमे अधिकसे अधिक कितनी वृद्धि हो सकती है और कमसे कम कितनी वृद्धि हो सकती है । इसी प्रकार यदि कोई जीव उत्कृष्ट स्थितिवन्ध कर रहा है और अनन्तर समयमे वह स्थितिको घटाकर वन्ध करता है, तो उस जीवके वन्धमे अधिकसे अधिक कितनी हानि हो सकती है और कमसे कम कितनी हानि हो सकती है। वृद्धि या हानिके न होनेपर जो ज्योका त्यो पूर्व प्रमाणवाला ही बन्ध होता है, वह अवस्थितबन्ध कहलाता है। इस प्रकार पदनिक्षेप अधिकारमे वृद्धि, हानि और अवस्थान, इन तीनोका विचार किया जाता है । वृद्धि-इस अनुयोगद्वारमे पड्गुणी हानि और वृद्धिके द्वारा स्थितिबन्धका विचार किया गया है। चूर्णिसू० -मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिमें बतलाये गये इन ही अनुयोगद्वारोको उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिमे भी प्ररूपण करना चाहिए ।। ५ ॥ चूर्णिसू०-अब उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका अनुमार्गण करते हैं । वह इस प्रकार है। उसमे यह अर्थपद है-एक स्थिति भी स्थितिविभक्ति है, और अनेक स्थितियाँ भी स्थितिविभक्ति है ॥ ६-७ ॥ विशेपार्थ-कर्मस्वरूपसे परिणत हुए कार्मण पुद्गलस्कन्धोके कर्मपना न छोड़कर रहनेके कालको स्थिति कहते है । कर्मकी ऐसी एक स्थितिको एकस्थिति कहते हैं । इस एक स्थितिकी विभक्ति होती है, क्योकि, एक समय कम, दो समय कम आदि स्थितियोसे उसमे भेद पाया जाता है । अथवा, सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके मोहकर्मके अन्तिम समयसम्बन्धी कर्मस्कन्धके त्ति एसो अप्पदरबधो णाम | अवछिदवधे त्ति तत्य इम अठ्ठपद-जाओ एहि ट्दिीओ बधदि अण तर ओसक्काविद-उस्सक्काविदविदिक्कते समए तत्तियाओ चेव बधादि त्ति एमो अवदिबंधो णाम । एदेण अठ्ठपदेण तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्वाराणि-समुक्कित्तणा सामित्त जाव अप्पाबहुगे त्ति । महाव० Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति ८. एदेण अट्ठपदेण । ९. पमाणाणुगमो । १०. मिच्छत्तस्स उक्कस्सडिदिविहत्ती सत्तरि-सागरोवम- कोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ । ११. एवं सम्मत्त सम्मागिच्छत्ताणं । णवरि अंतोमुहुत्तणाओ । ९२ कालको एक स्थिति कहते है, क्योकि, वह स्थिति एकसमय- मात्र निष्पन्न है । यह स्थिति भी स्थितिविभक्ति है, क्योकि वह द्विसमयादि स्थितियोंसे भिन्न है । उत्कृष्ट, दो समय कम उत्कृष्ट आदि क्रमसे अनेक प्रकारकी स्थितियाँ होती है, उन्हे अनेकस्थिति कहते है । अथवा, मोहकर्मकी उत्तरप्रकृतियोकी स्थितिको अनेक स्थिति कहते है, और उन स्थितियोकी विभक्तिको उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति कहते हैं । 2 चूर्णिसू० - इस अर्थपदके द्वारा उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका प्रमाणानुगम करते है । अर्थात् उन चौवीस अनुयोगद्वारोमे से पहले उत्तर प्रकृतियोके अद्धाछेदको कहते है | मिध्यात्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति पूरे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम कालप्रमाण है ।। ८-१० ।। विशेषार्थ - मिथ्यात्वकर्मकी यह उत्कृष्टस्थिति एक समयमे बंधनेवाले समयप्रबद्धकी अपेक्षा कही है, क्योकि, जो कार्मण-वर्गणाओका स्कन्ध जीवके मिथ्यादर्शन आदि वन्धकारणोसे मिथ्यात्वकर्मरूप परिणत होकर वन्धको प्राप्त होता है, उसकी उत्कृष्टस्थिति समयाधिक सात हजार वर्षप्रमाण अबाधाकालको आदि लेकर निरन्तर एक-एक समयकी अधिकता के क्रमसे पूरे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमकाल तक देखी जाती है । अव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहते है - चूर्णिसू० - इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिविभक्ति जानना चाहिए । विशेप बात यह है कि ये दोनो अन्तर्मुहूर्त कम होती है ॥ ११ ॥ विशेषार्थ - ऊपर मोहकर्मके मिथ्यात्वप्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका प्रमाण पूरे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम बताया गया है, उसमे एक अन्तर्मुहूर्त कम करनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिक उत्कृष्टस्थिति हो जाती है । तथा यही प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उत्कृष्टस्थितिविभक्तिका है । इसका कारण यह है कि सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनोको वन्धप्रकृतियो मे नही गिनाया गया है, क्योकि, अनादिमिध्यादृष्टि जीवके प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके पूर्व इनका अस्तित्व नहीं पाया जाता है । यहाँ यह शंका की जासकती है, कि जब ये दोनो वन्ध-प्रकृतियाँ नहीं हैं, तब इनका यह उपर्युक्त स्थितिकाल कैसे संभव हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि जब अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम वार सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, तब वह सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रथम समयमे मिध्यात्वद्रव्यके तीन विभाग कर देता है । जैसे कोढोको जॉतेसे दलनेपर तीन विभाग हो जाते हैं कुछ तो तुप-रहित शुद्ध चावल बन जाते हैं, कुछ आधे तुप-रहित हो जानेपर भी अर्ध-तुप-संयुक्त वने रहते है, और कुछ ज्योके त्यो अपने पूर्णरूपमे ही निकलते हैं । इसी प्रकार प्रथमोपगमसम्यक्त्व के उत्पन्न करनेवाले भावरूप यंत्र के ये द्वारा मिथ्यात्वरूप कोदोके ढले जानेपर मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-प्रमाणानुगम-निरूपण १२. सोलसण्हं कसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती चत्तालीससागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। १३. एवं णवणोकसायाणं, णवरि आवलिऊणाओ। १४. एवं सव्यासु गदीसु णेयव्यो। तीन भाग हो जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्वप्रकृतिके तीन भाग हो जानेपर अट्ठाईस मोहप्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यात्वको प्राप्त हो मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध कर अन्तर्मुहूर्त पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो और अवशिष्ट अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम स्थितिको सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमे ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमाता है। इस प्रकार इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम बन जाता है । इस प्रकार दर्शनमोहकी तीनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका प्रमाण वताकर अब चारित्रमोह-सम्बन्धी सोलह कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल बतलानेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिम् ०-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन, इन चारोके क्रोध, मान, माया और लोभरूप सोलह कपायोका उत्कृष्ट स्थिति-विभक्तिकाल पूरा चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है ॥१२॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट संक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा वॉधे हुये कार्मणवर्गणास्कन्धोंका सोलह कपायरूपसे परिणमन होकर सकल जीवप्रदेशोपर समयाधिक चार हजार वर्प-प्रमित आवाधाकालको आदि लेकर चालीस कोड़ाकोड़ीसागरोपमकाल तक निरन्तर कर्मस्वरूपसे अवस्थान पाया जाता है । अब नव नोकषायोका उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकाल कहने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-इसी प्रकार नव नोकषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि यह आवलिप्रमाण कम है ॥१३॥ विशेषार्थ-नव नोकषायोकी स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल एक आवली कम चालीस कोडाकोड़ी सागरोपम होता है । इसका कारण यह है कि सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेके अनन्तर और बंधावलीकालको विताकर एक आवली कम चालीस कोडाकोड़ी सागर-प्रमाण उक्त कपायकी स्थितिको नव नोकपायोमे संक्रमणकर देनेपर नव नोकपायोकी स्थिति-विभक्तिका सूत्रोक्त उत्कृष्टकाल सिद्ध हो जाता है । चूर्णिसू ०-जिस प्रकार ऊपर ओघकी अपेक्षा स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल बतलाया गया है, उसी प्रकार सभी गतियोमे जानना चाहिए ॥१४॥ विशेषार्थ-चूर्णिकारने इस सूत्रके द्वारा सर्वगतियोमे और शेप सर्वमार्गणाओमें अद्धाच्छेदके जाननेकी सूचना की है, सो विशेप जिज्ञासु जन इसके लिए जयधवला टीका को देखें। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति १५. एतो जहण्णयं । १६. मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त-वारसकसायाणं जहण्णदिविहत्ती एगा ट्ठिदी दुसमयका लट्ठिदिया । ९४ 1 चूर्णिसू० (० - अब इससे आगे स्थितिविभक्तिके जघन्य अद्धाच्छेदको कहते है । मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपायोकी स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल दो समयप्रमाण कालस्थितिवाली एक स्थिति है ॥ १५-१६ ॥ विशेषार्थ - मिध्यात्व आदि सूत्रोक्त चौदह मोहप्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिके उपयुक्त जघन्यकाल वतलानेका कारण यह है कि असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक जीव दर्शनमोहनीय कर्मकी क्षपणा के योग्य होते हैं, अतएव इन चारो गुणस्थानोसे कोई एक गुणस्थानवर्ती जीव - जिसने कि पहले ही अनन्तानुबन्धीचतुष्टयका अभाव कर दिया है - दर्शनमोहनीय कर्म की क्षपणाके लिए उद्यत हुआ तब अधःप्रवृत्तकरणके कालमे अनन्तगुणी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हो, अप्रशस्त कर्मो के अपने पूर्ववर्ती अनुभागबंधकी अपेक्षा अनन्तगुणितहीन अनुभागबंधको बॉधकर, तथा प्रशस्तकर्मों के अपने पूर्ववर्ती अनुभागवन्धसे अनन्तगुणित अधिक अनुभागबन्धको बॉधकर भी वह स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात और गुणश्रेणीरूप कर्म-प्रदेश-निर्जरासे उन्मुक्त ही रहता है । पुनः अपूर्वकरणके काल में प्रवेशकर प्रथम समय मे ही स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा और नही बॅधनेवाली मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो अप्रशस्त कर्मप्रकृतियां के गुणसंक्रमणको प्रारम्भ करता है । इन क्रियाविशेपोके द्वारा वह अपूर्वकरणके कालमे संख्यात हजार स्थितिकांडकोको, और स्थितिकांडकोसे संख्यातगुणित अनुभागकांडको के अपसरणोको करके तथा संख्यात हजार स्थितिबंधापसर के द्वारा उत्पन्न हुई गुणश्रेणीनिर्जरासे कर्मस्कन्धोको गलाता हुआ वह अनिवृत्तिकरणमे प्रवेश करता है | अनिवृत्तिकरणके कालमे भी हजारो स्थितिकांडकघाती और अनुभागकांडकघातोको करके और प्रतिसमय असंख्यातगुणी गुणश्रेणीके द्वारा कर्मस्कन्धोको गलाकर अनिवृत्तिकरण - कालके संख्यात भाग व्यतीत होनेपर उदयावलीसे बाहर स्थित पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिवाली मिथ्यात्वकी चरिमफालीको लेकर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो संक्रमाता हुआ, तथा उपरि-स्थित एक समय कम उद्यावलीप्रमाण स्थितियोको स्तियुकसंक्रमणके द्वारा संक्रमण करता है, उसके अन्तिम समय में मिथ्यात्व के एक निषेककी निषेकस्थिति दो समय कालप्रमाण पाई जाती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी आदि बारह कपायोके जघन्य स्थितिविभक्तिकालको जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि उनकी अपनी अपनी चरमफालियोंको परस्वरूपसे संक्रमणकर और उदयावली - प्रविष्ट निषेकस्थितियोको स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा संक्रामित करनेपर जब एक निषेक-स्थितिके काल में दो समय अवशिष्ट रह जाते हैं, तब उन उन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । इन सब कर्मोकी चरमफालियाँ अपने-अपने अनिवृत्तिकरणकालोके संख्यात भाग व्यतीत होनेपर पतित होती है । किन्तु, अनन्तानुबन्धी- कपायचतुष्टयकी चरमफाली अनिवृत्तिकरणकाल के Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-प्रमाणानुगम-निरूपण १७ सम्मत्त-लोहसंजलण-इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण्णद्विदि विहत्ती एगा हिदी एगसमयकालट्ठिदिया । १८. कोहसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती वे मासा अंतोमुहुत्तूणा। अन्तिम समयमे पतित होती है, ऐसा विशेप जानना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेपर भी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है, क्योकि, वहॉपर भी दो समयकालवाली एक निपेक-स्थिति पाई जाती है। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति, लोभसंज्वलन, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, इन कर्मप्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय-प्रमाण कालस्थितिवाली एक स्थिति है ॥१७॥ विशेषार्थ-सूत्रोक्त अर्थके स्पष्टीकरणके लिए यहॉपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिके कालको कहते है-सम्यग्मिथ्यात्वकी चरमफालीको सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमणकर देनेपर उस समय उसका स्थिति-सत्त्व आठ वर्पप्रमाण होता है । पुनः इस आठ वर्पप्रमाण स्थिति-सत्त्वका अन्तमुहूर्तमात्र स्थितिकांडकोके प्रमाणसे घात करता हुआ और सम्यक्त्वप्रकृतिका प्रतिसमय अपवर्तन करता हुआ वह संख्यात हजार स्थितिकांडकोके होने तक चला जाता है। तत्पश्चात् उनके व्यतीत होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी चरमफालिको नष्ट करनेके लिए ग्रहण करता हुआ कृतकृत्यवेदककालप्रमाण स्थितियोको छोड़कर शेपका ग्रहण करता है। पुनः उसे ग्रहणकर और गुणश्रेणीनिक्षेपके द्वारा निक्षिप्त कर अनिवृत्तिकरणके कालको समाप्त करता है । इस प्रकार प्रतिसमय अपवर्तन करता हुआ एकसमयकालप्रमाण एक स्थितिके उदयमे स्थित रहने तक उदयावली-प्रविष्ट स्थितियोको गलाता जाता है । उस समय सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार लोभसंज्वलन आदि शेप प्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिका जघन्य काल जयधवला टीकासे जान लेना चाहिए। पूर्वसूत्रमे कही गई मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व आदि प्रकृनियोकी जघन्य स्थितिविभक्ति एक समय कालप्रमाण नहीं कहनेका कारण यह है कि उनका सम्यक्त्वप्रकृति के समान स्वोदयसे क्षपण नही होता है। चूर्णिसू०-क्रोधसंज्वलनकपायकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल अन्तमुहूर्त कम दो मासप्रमाण है ॥१८॥ विशेषार्थ-चरित्रमोहका क्षपण करनेवाला जीव जब क्रोधसंज्वलनकी दो कृष्टियोका क्षय करके तीसरी कृष्टिका क्षय करता हुआ उसकी प्रथम स्थितिमे एक समय अधिक एक आवली-प्रमाण कालके शेप रहने पर क्रोधसंज्वलनके पूरे दो मासप्रमाण जघन्यबन्धको वॉधता है, तब एक समय कम दो आवलीप्रमाण क्रोधसंज्वलनके शुद्ध समयप्रवद्ध रहते है। क्योकि, उस समय उत्पादानुच्छेदके द्वारा क्रोधके पुरातन सत्त्वकी चरिमफालीका निःशंप विनाश पाया जाता है । तत्पश्चात् बंधावलीके अतिक्रान्त होनेपर, एक समय कम आवलीप्रमाण फालियोके पर-प्रकृतिरूपसे संक्रामित होनेपर, तथा दो समय कम दो आवली प्रमाण समयप्रबद्धोंके सम्पूर्णतः परस्वरूपसे चले जानेपर उस समय एक समय कम दो आवलीसे न्यून दो मास Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति १९. माणसंजलणस्स जहण्णद्विदिविहत्ती मासो अंतोमुहुत्तूणो । २०. मायासंजलणस्स जहणहिदिचिहत्ती अद्धमासो अंतोमुहुत्तूणो । २१. पुरिसवेदस्स जहण्णद्विदिविहत्ती अट्ट वस्ताणि अंतोमुहत्तूणाणि। २२. छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती संखेज्जाणि वस्साणि । प्रमाण क्रोधसंज्वलनकपायके चरम समयप्रबद्धकी स्थिति रहती है । यही क्रोधसंज्वलनकपायकी स्थितिविभक्तिका जघन्य काल है । चूर्णिसू०-मानसंचलनकपायकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त कम । एक मास है ॥१९॥ विशेषार्थ-चारित्रमोहका क्षपण करनेवाला जीव जब मानसंज्वलनकपायकी दो कृष्टियोका क्षय करके तीसरी कृष्टिका वेदन करता है, तव उस तीसरी कृष्टिकी प्रथमस्थितिके एक समय अधिक आवलीप्रमाण शेष रहनेपर मानकपायका चरमस्थितिबंध सम्पूर्ण एक मास रहता है। इससे ऊपर एक समय कम दो आवलीमात्र काल व्यतीत होनेपर चरमसमयप्रबद्धकी स्थितिमे अन्तर्मुहूर्त कम एक मासप्रमाण कालवाले निपेक पाये जाते है । यही मानसंज्वलनकपायकी स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल है । चूर्णिसू०-मायासंज्वलनकपायकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध मास है ॥२०॥ विशेषार्थ-यतः मायासंज्वलनकपायके चरमस्थितिबंधके निपेक अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध मासप्रमाण होते है, इसलिए, एक समय कम दो आवलीप्रमाण नवीन समयप्रबद्धोके गला देनेपर अन्तर्मुहूर्त कम अर्धमासमात्र निपेक-स्थितियाँ पाई जाती हैं, इस कारण यहीपर जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। चूर्णिसू०-पुरुषवेदकी जघन्यस्थितिविभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष है।। २१॥ विशेषार्थ-इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-चरिमसमयवर्ती सवेदी क्षपकके द्वारा पुरुपवेदका वाँधा हुआ जघन्य स्थितिबंध आठ वर्पप्रमाण होता है । किन्तु निपेकस्थितियाँ अन्तमुहूर्त कम आठ वर्पप्रमाण होती है, क्योकि, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवाधाकालमे निपेकोकी रचना नहीं होती है । पुनः एक समय कम दो आवली कालप्रमाण ऊपर जाकर अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्षप्रमाण पुरुपवेदकी निपेकस्थिति पाई जाती है। चूर्णिसू०-हास्य आदि छहो नोकपायोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल संख्यात वर्ष है ॥२२॥ विशेपार्थ-तीन वेटोंमेसे किसी एक वेद ओर चारों संज्वलनकपायोमेंसे किसी एक कपायके उदयसे आपकश्रेणीपर चढ़कर और यथाक्रमसे नपुंसकवेद तथा स्त्रीवंदका क्षपणकर. तत्पश्चात् छहो नोकपायोके क्षपणकालके चरम समयमे अन्तिम स्थितिकांडककी चरमफालीक Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण २३. गदीसु अणुमग्गिदव्वं । २४. एयजीवेण सामित्तं । २५. मिच्छत्तस्स उकस्सहिदिविहत्ती कस्स ? २६. उक्कस्सहिदि बंधमाणस्स । २७. एवं सोलसकसायाणं । २८. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती कस्स ? २९. मिच्छत्तस्स उक्कस्स हिदि बंधिदूण अंतोमुहुत्तद्ध पडिभग्गो' जो द्विदिघादमकादूण सबलहु सम्मत्त पडिवण्णो तस्स पढमसमयवेदयसम्मादिहिस्स । संख्यात वर्पप्रमाणकी स्थिति शेष रहनेपर छह नोकपायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अतएव उनकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल संख्यात वर्प उपलब्ध हो जाता है। ओघके समान ही आदेशमे भी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल जानना चाहिए, यह बतलानेके लिए यतिवृषभाचार्य समर्पणसूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-गतियोमे (तथा इन्द्रिय आदि शेष समस्त मार्गणाओमें) जघन्य स्थितिविभक्तिके कालका उक्त प्रकारसे अनुमार्गण करना चाहिए ॥२३॥ सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति आदि अनुयोगद्वारोके सुगम होनेसे उन्हे न कहकर एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वानुयोगद्वारके कहनेके लिए यतिवृपभाचार्य प्रतिज्ञासूत्र कहते है चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा स्थितिविभक्तिके स्वामित्वको कहते है ॥२४॥ स्वामित्व दो प्रकारका है, जघन्य और उत्कृष्ट । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा पृच्छापूर्वक उत्तर देते हुए उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति के स्वामित्वका निरूपण करते है चूर्णिसू०-मिथ्यात्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है ॥२५-२६॥ चूर्णिसू०-जिस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्वामित्वका निरूपण किया, उसी प्रकारसे अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका स्वामित्व जानना चाहिए, क्योकि, तीव्र संक्लेशसे उत्कृष्टस्थितिको बाँधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवमे ही इन सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका पाया जाना संभव है, अन्यत्र नहीं ॥२७॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर पुनः अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रतिभग्न हुआ अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे प्रतिनिवृत्त एवं तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे अवस्थित जो जीव स्थितिघातको नहीं करके सर्वलघुकालसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, ऐसे प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है ॥२८-२९॥ विशेषार्थ-मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला, तीव्र संक्लेशपरिणामी, साकार और जागृत उपयोगसे उपयुक्त जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वसे गिरकर १. पडिभग्गो उक्स्सटिदिवधुक्कस्ससकिलेसेहि पडिणियत्तो होदृण विसोहीए पडिदो त्ति मणिदं होदि । जयध० १३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति ३०.णवणोकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती कस्स १३१.कसायाणमुक्कस्सद्विदिं बंधिदण आवलियादीदस्स । ३२. एत्तो जहण्णयं । ३३. मिच्छत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ३४. मणुसस्स वा मणुसिणीए वा खविजमाणयमावलियपविहं जाधे दुसमयकालहिदिगं सेसं ताधे । ३५. सम्मत्तस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? ३६. चरिमसमय-अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । ३७. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? ३८. सम्मामिच्छत्तं खविजमाणं वा उव्वेल्लिजमाणं वा जस्स दुसमयकालट्ठिदियं सेसं तस्स खतस्स अन्तर्मुहूर्तकाल तक तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे अवस्थित हो स्थितिघातको न करके सर्वजघन्य अन्तमुहूर्तकालसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है, उसके प्रथम समयमे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यन्मिथ्यात्वमे संक्रमित होनेपर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, ऐसा जानना चाहिए । चूर्णिसू०-हास्य आदि नव नोकपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिको वॉधकर एक आवलीप्रमाण काल व्यतीत करनेवाले जीवके नव नोकषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इसका कारण यह है कि अचलावलीमात्र कालतक बॉधी हुई सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिका नोकषायोमे संक्रम नही होता है।।३०-३१॥ चूर्णि सू०-अव इससे आगे जघन्य स्थितिविभक्तिके स्वामित्वका निरूपण करते हैं-मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उदयावलीमे प्रविष्ट एवं क्षपण किया जानेवाला मिथ्यात्व जव दो समय-प्रमाणकालकी स्थितिवाला होकर शेप रहे, तब दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले मनुष्य अथवा मनुष्यनीके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ॥३२-३४॥ विशेपार्थ-यहाँ मनुष्यपद सामान्यरूपसे कहा गया है, अतएव उससे भावपुरुपवेदी और भावनपुंसकवेदी मनुष्योका ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यनीपदसे भी भावस्त्रीवेदी मनुष्यका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि, द्रव्यसे पुरुयवेटी जीवके ही दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण माना गया है । सूत्रमे जो 'आवलीप्रविष्ट' पद दिया है, उसका आशय यह है कि मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके पररूपसे संक्रान्त हो जानेपर उदयावलीमे प्रविष्ट निपेक ही पाये जाते है । उनके अधःस्थितिगलनसे गलते हुए जब दो समयको कालस्थितिवाला मिथ्यात्वका निपेक शेप रहता है, तब मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोका क्षय करके जो सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षय करनेके लिए तैयार है और जिसके दर्शनमोहके क्षय होनेमे एक समयमात्र शेप है, ऐसे चरमसमयवर्ती अक्षीण दर्शनमोहनीयकर्मवाले जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । सम्यन्मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? क्षपण किया जानेवाला, अथवा उद्वेलना किया जानेवाला सम्बन्मिथ्यात्वकर्म जब दो समयमात्र काल-स्थितिवाला Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२) स्थितिविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण वा उबेल्लंतस्स वा ३९. अणंताणुबंधीणं जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स १४०. अणंताणुबंधी जेण विसंजोइदं आवलियं पविठं दुसमयकालढिदिगं सेसं तस्स । ४१. अट्टहं कसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ४२. अट्ठकसायक्खवयस्स दुसमयकाल हिदियस्स तस्स । ४३. कोधसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ४४. खवयस्त चरिमसमय-अणिल्लेविदे कोहसंजलणे । ४५. एवं माण-मायासंजलणाणं । होकर शेप रहे, तव सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेवाले अथवा उद्वेलना करनेवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अनन्तानुवन्धी-कपायचतुष्टयकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जिसने अनन्तानुवन्धी-कपायचतुष्टयकी विसंयोजना की है और उदयावलीमे प्रविष्ट हुआ, अनन्तानुवन्धीचतुष्कका सत्त्व जव दो समयमात्र कालस्थितिवाला होकर शेप रहा है, उस समय उस जीवके अनन्तानुबन्धीकपायचतुष्टयकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अप्रत्याख्यानावरण आदि आठ मध्यम कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके' होती है ? अप्रत्याख्यानावरणादि आठ कषायोके क्षपण करनेवाले जीवके जब दो समयप्रमाण कालस्थितिवाले आठ कपाय शेप रहे, तब उसके उक्त आठो कषायोकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ॥३५-४२॥ विशेषार्थ-जब कोई संयत चरित्रमोहनीयकर्मकी क्षपणाके लिए उद्यत होकर अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको यथाविधि करके अनिवृत्तिकरणमे प्रवेशकर स्थिति तथा अनुभागसम्बन्धी बहुप्रदेशोका घात करके अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात भाग व्यतीत हो जानेपर आठ मध्यम कपायोका क्षपण प्रारंभकर असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा कर्मप्रदेशस्कंधोको गलाता हुआ संख्यात हजार अनुभागकांडकोका पतन करता है और उसी समय आठो कपायोके चरम स्थितिकांडको और अनुभागकांडकोको घात करनेके लिए ग्रहण करता है । पुनः उनकी चरमफालियोके निपतित हो जानेपर उदयावलीके भीतर एक समय कम आवलीप्रमाण निपेक पाये जाते है । उन निपेकोके यथाक्रमसे अधःस्थितिके द्वारा गलते हुए आठ कपायोमेसे जब जिस कर्मप्रकृतिकी दो समय-कालवाली एक स्थिति अवशिष्ट रहती है, तब उस प्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए । चर्णिसू०-संज्वलन क्रोधकपायकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? क्रोधसंज्वलनके चरमसमयमे निर्लेपन अर्थात् क्षपण नहीं करते हुए उस अवस्थामे वर्तमान क्षपकके संज्वलन क्रोधकपायकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार मानसंज्वलन और मायासंचलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति जानना चाहिए ॥४३-४५॥ विशेपार्थ-जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्तिके स्वामित्वका निरूपण किया है, उसी प्रकार मानसंज्वलन और मायासंचलनकी भी जघन्य स्थितिविभक्तिके स्वामित्वको जानना चाहिए । अर्थात् अनिर्लेपित मानसंचलनके चरमसमयमे वर्तमान आपकके मानसंज्वलनकी और अनिर्लेपित मायासंज्वलनके चरमसमयमे वर्तमान अपकके मायासंचलन Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति ४६. लोहसंजलणस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? ४७. खवयस्स चरिमसमयसकसायस्स । ४८. इत्थिवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ४९. चरिमसमयइत्थिवेदोदयखवयस्स । ५०. पुरिसवेदस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? ५१. पुरिसवेदखवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदपुरिसवेदस्स । ५२. णqसयवेदस्स जहण्णट्ठिदिविहत्ती कस्स ? ५३. चरिमसमयणqसयवेदोदयक्खवयस्स । ५४. छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ५५. खवयस्स चरिमे द्विदिखंडए वट्टमाणस्स । ५६. णिरयगईए णेरइएसु सम्मत्तस्स जहणहिदिविहत्ती कस्स ? ५७. चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । की जघन्यस्थिति विभक्ति होती है । चूर्णिमू०-लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? चरम-समयवर्ती सकषायी क्षपकके लोभसंज्वलनकषायकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ॥४६-४७॥ विशेषार्थ-अधःस्थितिगलनाके द्वारा द्विचरमादि निषेकोके गलानेवाले, स्थितिकांडकघातके द्वारा समस्त उपरितन स्थितिनिषेकोके घात करनेवाले, तथा उदयागत एक निपेकमे वर्तमान ऐसे चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक संयतके लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। चूर्णिसू०-खीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? स्त्रीवेदके चरम समयवर्ती उदयागत एक निपेक-स्थितिमें वर्तमान स्त्रीवेदी बादरसाम्परायिक संयत क्षपकके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। पुरुपवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? चरमसमयवर्ती और पुरुषवेदका जिसने अभी क्षपण नही किया है, ऐसे पुरुषवेदी वादरसाम्परायिक क्षपकके पुरुपवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। नपुंसकवेदकी जघन्यस्थितिविभक्ति किसके होती है ? नपुंसकवेदके चरमसमयवर्ती उदयागत एक निषेकस्थितिमे वर्तमान नपुंसकवेदके उदयवाले वादरसाम्परायिकसंयत क्षपकके नपुंसकवेदकी जघन्यस्थितिविभक्ति होती है। हास्य आदि छह नोकपायोकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? हास्यादि छह नोकषायोके अन्तिम स्थितिखंडमे वर्तमान क्षपकके छहो नोकपायोकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। नरकगतिमे नारकियों में सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जिसके दर्शनमोहनीयकर्मके क्षय करनेमे एक समय शेप है ऐसे नारकीके सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ॥४८-५७॥ विशेषार्थ-जो मिथ्यादृष्टि मनुष्य तीव्र आरंभ-परिणामोके द्वारा नरकायुका बंध कर चुका है, और पीछे तीर्थंकरके पादमूलको प्राप्त होकर और सम्यक्त्वको ग्रहण करके आयुके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रहनेपर तीनो करणोको करके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोको अनिवृत्तिकरणके कालमे क्षपणकर, सम्यक्त्वप्रकृतिके चरम स्थितिकांडककी चरमफालीको ग्रहण करके तथा उदयादि गुणश्रेणीरूपसे घात करके स्थित है, ऐसे जीवको कृतकृत्यवेदक कहते है । उसी अवस्थामे जीवनके समाप्त होनेके साथ ही कापोतलेश्यासे Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२) स्थितिविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण ५८. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? ५९. चरिमसमयउव्वेल्लमाणस्स। ६०. अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ६१. जस्स विसंजोइदे दुसमयकालट्ठिदियं सेसं तस्स । ६२. सेसं जहा उदीरणाए तहा कायव्यं । परिणत हो प्रथम पृथिवीमे उत्पन्न हुए, तथा चरमगोपुच्छाको छोड़कर शेप सर्व गोपुच्छाके गलानेवाले और एक समयकालवाली सम्यक्त्वप्रकृतिकी एक स्थितिमे वर्तमान ऐसे नारकी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। चूर्णिसू०-नारकियोमे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाले चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि नारकीके सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ॥५८-५९॥ विशेषार्थ-जब कोई नारकी सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और उसमे अन्तर्मुहूर्त रह करके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनोकी उद्वेलना प्रारम्भ कर सर्व प्रथम पल्योपमके असंख्यात भागमात्र स्थितिखंडोको यथाक्रमसे गिराकर सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता है और पुनः सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिखंडोको गिरा कर अन्तिम उद्वेलनाकांडककी अन्तिमफालीको गलाता है, तब एक समय कम आवलीप्रमाण गोपुच्छाए अवशिष्ट रहती है। पुनः उन्हे भी अध:स्थितिगलनाके द्वारा गला देनेपर दो समयकालवाली एक निपेकस्थिति देखी जाती है, उसी समय सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और लोभकपायकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीकपायके विसंयोजन करनेपर जिस जीवके उसकी दो समयकालप्रमाण स्थिति शेष रहती है, उसके अनन्तानुबन्धी कषायकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ॥६०-६१॥ चूर्णिसू०-शेष प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामित्व-निरूपण जैसा उदीरणामें कहा है, उस प्रकारसे करना चाहिए ॥६२॥ विशेषार्थ-अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कपाय, भय और जुगुप्सा, इन शेप प्रकृतियोमेंसे पहले मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिका स्वामित्व कहते है-जो असंजी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपने मिथ्यात्वके सागरोपमसहस्रप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवन्धमेसे पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र स्थितिसत्त्वको घातकर अपने योग्य जघन्य स्थितिसत्त्वको करके पुनः अन्तर्मुहूर्तंकाल तक जघन्य स्थितिसत्त्ववाले मिथ्यात्वको वॉधता हुआ अवस्थित रहता है कि इतनेमे ही जीवनके समाप्त हो जानेसे मरा और दो समयवाले एक विग्रहको करके नरकगतिमे नारकियोमे उत्पन्न हुआ । वहाँ वह विग्रहगतिसम्बन्धी उन दोनो ही समयोमे असंजी पंचेन्द्रियके योग्य मिथ्यात्वकी स्थितिको वॉधता है, क्योकि, असंज्ञी पंचेन्द्रियोसे आये हुए और संजी पंचेन्द्रियपर्याप्तकोमे उत्पन्न होकर जब तक शरीरको ग्रहण नहीं किया है, तब तक उस जीवके अन्तः Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त १०२ ६३. एवं सेसासु गदी अणुमग्गिदव्वं । [६४. कालो ।] ६५ मिच्छत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिसंतकम्पिओ केवचिरं कालादो होदि १ ६६. जहणेण एगसमओ । ६७. उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । [ ३ स्थितिविभक्ति कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिवन्ध करनेकी शक्तिका अभाव रहता है । इस प्रकार विग्रहगतिके दोनो समयोमे वर्तमान जीवके मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । इस ही जीवके अप्रत्याख्यानावरणादि वारह कषाय तथा भय और जुगुप्सा इन दो नोकपायोकी भी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । विशेषता केवल इतनी है कि जहाँ उसके मिथ्यात्वकी जवन्य स्थितिका वन्ध पल्योपमके संख्यातवे भागसे हीन सहस्र सागरोपम होता था, वहाँ उसी जीवके इन चौदह प्रकृतियोका स्थितिवन्ध सागरोपमसहस्रके पल्योपमके संख्यात भागसे कम सात भागोसेसे चार भाग - प्रमाण होता है । भय और जुगुप्साको छोड़कर शेष सात नोकपायोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामित्व भी इसी प्रकार जानना चाहिए | भेद केवल यह है कि हास्यादि जिन प्रकृतियोका वन्ध नरकगतिमे नही होता है, उनकी वन्ध-व्युच्छित्ति असंज्ञी पंचेन्द्रिय-भवके अन्तिम समयमे ही हो जाती है और उनकी प्रतिपक्षी अरति आदि प्रकृतियाँ नरकगतिमे उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे बँधने लगती है । अतएव अपनी-अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियो के वन्धकाल के अन्तिम समयमे, उन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामित्व जानना चाहिए । चूर्णिसू० - इसी प्रकार शेष गतियोमे स्वामित्वका अनुमार्गण करना चाहिए ॥ ६३॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार ऊपर नरकगतिमे सर्व प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिके स्वामित्वका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे शेष तीनो गतियो में मोहकर्मकी सर्वप्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिके स्वामित्वका अन्वेषण करना चाहिए । तथा इस सूत्र के देशामर्शक होनेसे इन्द्रिय आदि शेप मार्गणाओमे भी उसी प्रकारसे जघन्य स्थितिविभक्तिका निर्णय करना चाहिए । ऐसी सूचना चूर्णिकारने की है, अतएव विशेप जिज्ञासु जन महाबन्धके स्थितिबन्धप्रकरणमे और इस सूत्र पर उच्चारणाचार्य द्वारा की गई विस्तृत व्याख्याको जयधवला टीकामे देखे | 0 चूर्णिसू० - [अब स्थितिविभक्तिके कालका निर्णय करते हैं - ] मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्कर्मिक - बंध करके सत्त्व स्थापित करनेवाला जीव कितने काल तक होता है ? अर्थात् मिथ्यात्वक उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६४-६७॥ विशेषार्थ - जब कोई जीव एक समयकालमात्र मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बंध करके दूसरे समय मे उत्कृष्ट स्थितिका बंध नहीं करता है, उस समय उस जीवके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल एक समयप्रमाण पाया जाता है । मिथ्यात्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके बॉधनेका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण है । इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट दाह या संकुशको प्राप्त जीव ही मिध्यात्वप्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और उत्कृष्ट - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गी० २२ ] स्थितिविभक्ति-काल-निरूपण ६८. एवं सोलसकसायाणं । ६९. णव सयवेद - अरदि-सोग- भयदुगुंछाणमेवं चेव । ७० सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सट्टिदि विहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि १ ७१. जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । ७२. इथिवेद- पुरिसवेद-हस्स-रदीण मुकस्स डिदि - विहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि १ ७३. जहणेणं एगसमओ । ७४. उक्कस्सेण आवलिया । ७५. एवं सव्वासु गदीसु । ७६. जहण्णहिदिसंतकम्मियकालो । ७७ मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंक्लेशका काल अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण माना गया है, अतएव कारणके अनुरूप कार्यका होना स्वाभाविक है । चूर्णि ० - इसी प्रकार से सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल और अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण है । इस ही प्रकार नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, इन प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल जानना चाहिए || ६८-६९॥ १०३ चूर्णिसू० – सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है || ७०-७१ ॥ विशेषार्थ -‍ - सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोके उत्कृष्ट बन्ध करने - के एक समयमात्र जघन्य और उत्कृष्ट काल कहनेका कारण यह है कि मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला मिध्यादृष्टि जीव जब तीव्र संक्लेशसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ही वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करता है, तव वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमे ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । चूर्णिसू० - स्त्रीवेद, पुरुपवेद, हास्य और रति इन चार नोकपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति का कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल एक आवली -प्रमाण है ॥७२-७४॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि कपायोका कमसे कम एक समय या अधिक अधिक आवली - प्रमाण काल तक उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके एक समय या एक आवलीकालके अनन्तर इच्छित नोकपायका वध करके कपायोकी गलित शेप उत्कृष्ट स्थितिके उसमे संक्रमण कर देनेपर उनके बंधनेका नियम है । चूर्णिसू० - इसी प्रकार ओघके समान सभी गतियोमे भी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके कालकी प्ररूपणा जानना चाहिए ॥ ७५ ॥ चूर्णिसू० ० - अब जघन्य स्थितिसत्कर्मिक जीवोंके कालको कहते है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपाय, स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपु Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति सोलसकसाय-तिवेदाणं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । ७८. छण्णोकसायाणं जहण्णविदिसंतकम्मियकालो जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ७९. अंतरं । ८०. मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मिगं अंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ८१. उक्कस्समसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ८२. एवं णवणोकसायाणं, णयरि जहण्ोण एगसमओ। ८३. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सद्विदिसंतकसकवेद, इन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । क्योकि जघन्य स्थितिसत्त्वके उत्पन्न होनेके दूसरे ही समयमें इन प्रकृतियोका विनाश पाया जाता है । हास्य आदि छह नोकषायोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । ॥७६-७८॥ चूर्णिम् ०-अब मोहप्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कहते हैंमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपायोके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्ववाले जीवोका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ।।७९-८०॥ विशेषार्थ-सूत्रोक्त सत्तरह मोहप्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिवन्धको वॉधनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको छोड़कर अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धको अन्तर्मुहूर्तकाल तक वॉधकर पुनः उक्त प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिवन्ध करनेपर जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाया जाता है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि दोनो उत्कृष्ट स्थितिबंधोका मध्यवर्ती अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धकाल उक्त प्रकृतियोका अन्तरकाल कहलाता है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि मिथ्यात्वप्रकृति और सोलह कषायोका जघन्य अन्तर एक समयप्रमाण क्यो नहीं होता है ? इसका समाधान यह है कि उत्कृष्टस्थिति बांधकर प्रतिनिवृत्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तकालके विना उत्कृष्ट स्थितिवन्ध होना असंभव है। चूर्णिसू०-मिथ्यात्व और सोलह कपाय, इन सत्तरह मोहप्रकृतियोका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥८१॥ । विशेषार्थ-उक्त प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको वांधकर निवृत्त हुआ संजी पंचेन्द्रिय जीव अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धको उसके उत्कृष्ट बन्धकालके अन्तिम समय तक वॉधता हुआ समय व्यतीत करता है। तत्पश्चात् एकेन्द्रिय जीवोम उत्पन्न होकर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनकाल तक उनमे परिभ्रमण कर पुनः त्रस पंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवोमे उत्पन्न होकर पर्याप्त हो, उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हो, पुनः उक्त प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिबंधको करनेवाले जीवके आवलीके असंख्यातवें भाग-प्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमित उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है। चूर्णिसू०-इसी प्रकार हास्य आदि नव नोकपायोका अन्तरकाल जानना चाहिए । विशेप बात यह है कि इनका जघन्य अन्तरकाल एक समयमात्र है । सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूतेप्रमाण है ॥८१-८३॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गां० २२ ] स्थितिविभक्ति-अन्तर - निरूपण १०५ म्मियं तरं जहणेण अंतोमुहुतं । ८४. उकस्स मुवडूपोरगलपरियहं ८५. एतो जहण्णयंतरं । ८६. मिच्छत्त-सम्मत्त वारस कसाय-गवणोकसायाणं जहण्णट्टिदिविहत्तियस्स णत्थि अंतरं । ८७. सम्मामिच्छत्त- अणंताणुबंधीणं जहण्णट्ठिदिविहत्तियस्स अंतरं जहणेण अंतोनुहुत्तं । " विशेषार्थ - मिथ्यात्वकर्मके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्ववाले किसी जीवने वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व स्थापित किया और दूसरे ही समय मे अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वको प्राप्त होकर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल सम्यक्त्वके साथ रह कर मिथ्यात्वसे परिणत हो, पुनः उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर, अन्तर्मुहूर्त तक रह कर, वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके साथ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियो के उत्कृष्ट स्थिति - सत्त्वको प्राप्त हुए जीवके इन दोनो प्रकृतियो की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है । चूर्णिस् " (० - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥८४॥ विशेषार्थ - मोहकर्मकी छव्वीस प्रकृतियोका सत्त्व रखनेवाला कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उत्कृष्ट स्थितिको वांध कर प्रतिनिवृत्त हुआ स्थितिघात न करके और वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके उक्त दोनो प्रकृतियो के उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वको करके तथा सम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो कुछ कम अर्थपुद्गलपरिवर्तन तक परिभ्रमण करके पुनः तीनो करणीको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्तकर और मिथ्यात्वमे जाकर पुनः उत्कृष्ट स्थिति वध कर अन्तर्मुहूर्त से वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समय मे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमे संक्रमणकर देनेपर इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है । इन चूर्णिसू० ० - अब इससे आगे जघन्य स्थितिविभक्तिका अन्तर कहते हैं - मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, अप्रत्याख्यानावरण आदि वारह कषाय और हास्य आदि नव नोकपाय, तेईस प्रकृतियो की जघन्य स्थितिविभक्तिका अन्तर नही होता है । क्योकि, क्षयकर दिये गये कर्मोंकी पुनः उत्पत्ति नही होती है । । ८५-८६ ॥ चूर्णिसू० - सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चतुष्टय, इन पाच प्रकृतियो की जघन्य स्थितिविभक्ति का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८७ ॥ विशेषार्थ - उद्वेलनाके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके जयन्य स्थितिसत्त्वको करता हुआ कोई जीव सम्यक्त्वके अभिमुख होकर अन्तर सम्वन्धी चरमफाली को भी अपनीत करके तत्पश्चात मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति एक समय कम आवलीमात्र प्रवेश करके वहॉपर समय १४ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ३ स्थितिविभक्ति ८८. उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियड' । ८९. णाणाजीवेहि भंगविचओ । ६०. तत्थ अट्ठपदं । तं जहा । जो उकस्सिया ट्ठिदीए विहत्तिओ सो अणुक्कस्सियाए दिडीए ण होदि विहत्तिओ । ९१. जो अणुक्कस्सियाए हिदीए विहत्तिओ सो उक्कस्सियाए द्विदीए ण होदि विहत्तिओ । ९२. जस्स मोहणीयपयडी अत्थि तम्मि पदं । अकम्मे ववहारो णत्थि । ९३. एदेण अट्ठपदेण मिच्छत्तस्स सच्चे जीवा उकस्सियाए हिदीए सिया अविहत्तिया । ९४. सिया अविहत्तिया च १०६ ग्मिथ्यात्वकर्मकी जघन्य स्थितिसत्त्वको प्राप्त करके अन्तरको प्राप्त हो क्रमसे मिथ्यात्वकी प्रथमस्थितिको गलाकर, उपसमसम्यक्त्वको प्राप्त हो, अन्तर्मुहूर्त रहकर, वेदकसम्यक्त्वको प्राप्तकर पुनः अन्तर्मुहूर्त्तकालसे अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्कका विसंयोजनकर, पुनः अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरणको करके अनिवृत्तिकरण के कालके संख्यात भाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्वका क्षपणकर पुनः अन्तर्मुहूर्त के द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी चरमफालीको पर-स्वरूपसे संक्रमण करके यथाक्रमसे अधः स्थितिगलनाके द्वारा उदयावली के निषेको के गलने पर, दो समय कालवाली एक निपेकस्थितिके अवशेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका जघन्य अन्तरकाल प्राप्त होता है । इसी प्रकार अनन्तानुवन्धी कपायचतुष्ट्रयका भी जघन्य अन्तर जानना चाहिए | विशेषता केवल यह है कि अन्तर्मुहूर्त के भीतर दो वार अनन्ताबन्धी कषायका विसंयोजन करनेपर उनका जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । चूर्णिसू०. (०- उक्त पांचों मोह - प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ ८८ ॥ चूर्णिसू ०. ० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा भंग-विचय अर्थात् स्थितिविभक्तिके संभव भंगोका निर्णय किया जाता है । उसके विपयमे यह अर्थपद है । वह इस प्रकार है - जो जीव उत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिवाला है, वह अनुत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिवाला नही है । इसका कारण यह है कि उत्कृष्टस्थितिमे एक समय कम, दो समय कम आदि कालविशेपोका अभाव है । जो जीव अनुत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिवाला है, वह उत्कृष्टस्थितिकी विभक्तिवाला नही होता है । क्योकि, परस्परके परिहारद्वारा ही उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितियोका अवस्थान पाया जाता है । जिस जीवके माहनीयकर्म की प्रकृतियोका अस्तित्व है, उससे ही प्रकृतमें प्रयोजन है । क्योकि, कर्म-रहित जीवसे व्यवहार नहीं होता है ।। ८९-९२॥ चूर्णिस् [ ० - इस अर्थपदके द्वारा ' अव नाना जीव-सम्बन्धी भंगोका निर्णय किया जाता है - क्वचित् कदाचित् सर्व जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के विभक्तिवाले नही होते हैं, क्योकि, तीव्र संक्ल ेशवाले जीवोका होना प्रायः संभव नही है । कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नहीं करनेवाले होते है और एक जीव उत्कृष्ट विभक्ति करनेवाला होता है, क्योंकि किसी कालमे कदाचित् त्रिभुवनवर्ती अशेष जीवोके अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिक होते हुए उनमे से किसी एक जीवके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति देखी जाती है । कड़ाचित अनेक Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-भंगविचय-निरूपण १०७ विहत्तिओ च । ९५. सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च (३)। ९६. अणुक्कस्सियाए द्विदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । ९७ सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च । ९८. सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । ९९. एवं सेसाणं पि पयडीणं कायन्यो । १००. जहण्णए भंगविचए पयदं । १०१. तं चेव अट्ठपदं । १०२. एदेण अट्ठपदेण मिच्छत्तस्स सव्ये जीवा जहणियाए द्विदीए सिया अविहत्तिया। १०३. सिया जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नहीं करनेवाले और अनेक जीव उत्कृष्ट विभक्ति करनेवाले होते है । क्योकि, अनन्त जीवोके उत्कृष्ट विभक्ति नहीं करते हुए भी उनमे संख्यात अथवा असंख्यात जीवोके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकी संभावना पाई जाती है। इस प्रकारसे ये उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति-अविभक्तिसम्बन्धी उपयुक्त (३) तीन भंग होते है ॥९३-९५।। चूर्णिसू०-कदाचित् सर्व जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्टस्थितिकी विभक्ति करनेवाले होते है, क्योकि, किसी कालमे उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके विना त्रिभुवनवर्ती अशेप जीव अनुत्कृष्ट स्थितिमे ही अवस्थित पाये जाते है । कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्टस्थितिकी विभक्ति करनेवाले होते है और कोई एक जीव अनुत्कृष्टस्थितिकी विभक्ति नहीं करनेवाला होता है । इसका कारण यह है कि कभी किसी कालमे एक अनुत्कृष्ट स्थितिकी विभक्ति नहीं करनेवाले जीवके साथ शेप सकल जीव अनुत्कृष्टस्थितिकी विभक्ति करनेवाले पाये जाते है। कचित् कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी विभक्ति करनेवाले और अनेक जीव विभक्ति नहीं करनेवाले होते है । इसका कारण यह है कि कभी किसी कालमे अनुत्कृष्टस्थिति विभक्ति करनेवाले अनन्त जीवोके साथ संख्यात अथवा असंख्यात उत्कृष्टस्थिति विभक्ति करनेवाले भी जीव पाये जाते है ॥९६-९८॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार मिथ्यात्वप्रकृतिकी नाना जीवोके साथ भंगविचय-प्ररूपणाके समान शेप सम्यग्मिथ्यात्व आदि मोह-प्रकृतियोकी भी भंगविचय-प्ररूपणा करना चाहिए ॥१९॥ __ चूर्णिसू०-अब नानाजीवोकी अपेक्षा मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्ति-सम्बन्धी भंगविचय-प्ररूपणा की जाती है। यहॉपर भी वही अर्थपद है जो कि उत्कृष्टस्थिति विभक्तिमे ऊपर कह आये हैं । केवल यहाँ भंग कहते समय उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टके स्थानपर क्रमशः जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति कहना चाहिए । इस अर्थपदकी अपेक्षा सर्व जीव मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिकी कदाचित् विभक्ति करनेवाले नहीं होते है। क्योकि, कदाचित् सर्वजीवोका मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिमे ही अवस्थान देखा जाता है । कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-विभक्ति करनेवाले नहीं होते है और कोई एक जीव विभक्ति करनेवाला होता है । क्योकि, किसी समय मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिधारकोके साथ कोई एक जीव जघन्य स्थितिका धारक भी पाया जाता है। कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिकी विभक्ति नहीं करनेवाले और अनेक विभक्ति करनेवाले होते हैं, क्योकि, किसी कालमे अजघन्य स्थितिविभक्ति करनेवाले अनन्त जीवोके साथ संख्यात Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ १०८ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति अविहत्तिया च विहत्तिओ च । १०४. सिया अबत्तिया च विहत्तिया च । १०५ एवमेत्थ तिण्णि भंगा। १०६. अजहणियाए हिदीए सिया सब्जे जीवा विहत्तिया । १०७. सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च । १०८. सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । १०९. एवं तिणि अंगा। ११०. एवं सेसाणं पण्डीणं कायव्यो । १११. जधा उक्करसहिदिवंधे णाणाजीवेहि कालो तथा उक्करसहिदिसंतकम्मेण कायव्यो। ११२. णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदी जहण्णेण एगसमओ । ११३. उकस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। जघन्य स्थितिविभक्तिके करनेवाले भी जीव पाये जाते है । इस प्रकार यहाँ जघन्य स्थितिविभक्तिमे ये उपयुक्त तीन भंग होते हैं ॥१००-१०५॥ चूर्णिस्तू ०-मिथ्यात्यकी अजघन्य स्थितिकी विभक्ति करनेवाले कदाचित् सर्व जीव होते है । कदाचित् अनेक जीव विभक्ति करनेवाले होते है और कोई एक जीव विभक्ति नहीं करनेवाला होता है । कदाचित् अनेक जीव विभक्ति करनेवाले और अनेक जीव विभक्ति नहीं करनेवाले होते है। इस प्रकार मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिविभक्तिसम्बन्धी नानाजीवोकी अपेक्षा तीन भंग होते है। इस प्रकार शेप प्रकृतियोकी भी नानाजीवसम्बन्धी भंगविचयप्ररूपणा करना चाहिए ॥१०६-११०॥ अव नानाजीवोकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके कालका निरूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते है चूर्णिमू०-जिस प्रकारसे मोहकर्मप्रकृतियोंके उत्कृष्टस्थितिबन्धमे नानाजीवोकी अपेक्षा कालका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे यहॉपर भी सोहप्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति-सत्त्वका कालप्ररूपण करना चाहिए । अर्थात् सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोको छोड़कर शेप छब्बीस प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका जघन्यकाल एक समयमात्र है ॥१११-११२॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला और उत्कृष्ट स्थितिवाला मिथ्यादृष्टि जीव जब वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है, तव उसके प्रथम समयमे ही मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनोमे संक्रमण करता है, सो संक्रमण होनेके प्रथम समयमे ही इन दोनो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थिति-सत्त्व कमसे कस एक समयमात्र पाया जाता है । चूर्णिसू०-सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृनियोके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण है। इसका कारण यह है कि मोहकर्मके उत्कृष्ट स्थितिमत्त्ववाले मिथ्याप्टि जीव निरन्तर आवलीके अग्नंग्यातये भागमात्र काल तक ही वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होते हुए देखे जाने हैं ॥११३॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-नानाजीवापेक्षया काल-निरूपण ११४. जहण्णए पयदं । ११५ मिच्छत्त-सम्पत्त-बारसकसाय-तिवेदाणं जहण्णहिदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिओ ? ११६. जहण्णेण एगसमओ । ११७. उक्कस्सेण संखेजा समया । ११८. सम्मामिच्छत्त-अणंताणुवंधीणं च उक्कस्सजहण्ण-द्विदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिओ ? ११९. जहण्णेण एगसमओ । १२०. उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। १२१. छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्तिएहिणाणाजीवेहि कालो केवडिओ ? १२२. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहत्तं ।* अब नानाजीवोकी अपेक्षा जघन्य स्थितिविभक्तिका काल कहते है चर्णिसू०-जघन्य स्थितिविभक्ति प्रकृत है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय और तीनो वेद, इन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल नानाजीवोकी अपेक्षा कितना है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है ॥११४-११७॥ विशेषार्थ-इसका स्पष्टीकरण यह है कि इनकी द्विसमयकालवाली जघन्य निपेक स्थितिमेसे एक समयप्रमाणकाल ही प्रकृत है ओर इसका भी कारण यह है कि द्वितीय समयमे ही इन विवक्षित प्रकृतियोका निमूल विनाश पाया जाता है। इन्ही उक्त प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, क्योकि, मनुष्यपर्याप्तराशिसे विभिन्न समयोमे जघन्य स्थितिको प्राप्त होनेवाले नाना जीव संख्यात पाये जाते है । चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारो कपाय, इन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल नानाजीवोकी अपेक्षा कितना है ? जघन्यकाल एक समय है । क्योकि, दोसमय-कालवाली एक निपेकस्थितिका द्वितीय समयमे परस्वरूपसे परिणमन पाया जाता है। इन्हीं पांचों प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ॥११८-१२०॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले और अनन्तानुबन्धी-कपायचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोके आवलीके असंख्यातवे भागमात्र उपक्रमणकांडकोमेसे यहॉपर एक कांडकके उत्कृष्ट कालका ग्रहण किया गया है। चूर्णिसू०-हास्य आदि छह नोकपायोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल नानाजीवोकी अपेक्षा कितना है ? इनका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। क्योकि, यहॉपर चरम स्थितिकाण्डकसम्बन्धी उत्कीरणाकालका ग्रहण किया गया है ॥१२१. १२२॥ ओघम्मि छण्णोकसायाण जहणट्ठिदिकालो जहण्णुक्कस्मेण चुष्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए च अतोमुहुत्तमिदि मणिदो । अम्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जहण्णेण एगसमओ। उक्करण सखेजा ममया ति परूविदा, कालपहाणत्ते विवक्खिए तहोवल भादो । तेण छष्णोकसायाणमोवत्त ण विरस्टाटे । जयध अ. प. १८५. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति १२३. णाणाजीवेहि अंतरं । १२४. सव्वपयडीणमुक्कस्सद्विदिविहत्तियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १२५. जहष्णेण एगसमओ। १२६. उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो। १२७. एत्तो जहण्णयंतरं । १२८. मिच्छत्त-सम्मत्त-अदुकसायछण्णोकसायाणं जहणहिदिविहत्तिअंतरं जहणेण एगसमओ। १२९. उकस्सेण छम्मासा १३०. सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्तिअंतरं जहण्णेण एगसमओ । १३१. उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्त सादिरेगे । १३२. तिण्हं संजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णेण एगसमओ । १३३. उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं । १३४. लोभसंजलणस्स जहष्णद्विदिअंतरं जहण्णेण एगसमओ । १३५. उक्कस्सेण छम्मासा । १३६. इत्थि-णqसयवेदाणं चूर्णिसू०-अव नानाजीवोकी अपेक्षा स्थितिविभक्तिका अन्तर कहते है। सर्वमोहप्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोका अन्तरकाल कितना है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवे भाग प्रमाण है ॥१२३-१२६॥ विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वसे विद्यमान सर्वजीवोके अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके साथ एक समय रहकर तृतीय समयमे उत्कृष्ट स्थितिवन्धसे परिणत होनेपर उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका एक समय-प्रमाण अन्तर पाया जाता है। मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवे भाग काल-प्रमाण है। इसका कारण यह है कि जब एक स्थितिका उत्कृष्ट स्थितिवन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण पाया जाता है, तो संख्यात कोडाकोडी सागरोपम-प्रमित स्थितियांका कितना काल होगा, इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर अंगुलके असंख्यातवे भाग-प्रमाण अन्तरकाल उपलब्ध होता है । चूर्णिमू०-अव जघन्य स्थितिसत्त्वविभक्तिका अन्तर कहते है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अप्रत्याख्यानावरणादि आठ कषाय और हास्यादि छह नोकपाय, इन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। क्योकि, विवक्षित समयमे जघन्य स्थितिको करके तदनन्तर द्वितीय समयमे अन्तरको प्राप्त होकर पुनः तृतीय समयमे अन्य जीवोके जघन्य स्थितिको प्राप्त होनेपर एक समय-प्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त प्रकृतियोका उत्कृष्ट अन्तर छह मास है, क्योकि, आपक जीवोका इससे अधिक अन्तर पाया नहीं जाता है ॥१२७-१२९॥ चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी-कपायचतुष्क, इन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक चौबीस दिन-रात्रि है । क्रोध, मान और माया ये तीन संज्वलनकपाय तथा पुरुपवेद, इन प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक वर्प-प्रमाण है । लोभसंज्वलनकपायकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, इन दोनोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय, तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्ष है। इसका Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-सन्निकर्प-निरूपण १११ जहण्णद्विदिअंतरं जहण्णेण एगसमओ । १३७. उकस्सेण संखेजाणि वस्त्राणि । १३८. णिरयगईए सम्मामिच्छत्त-अणताणुवंधीण जहण्णट्ठिदिअंतरं जहणेण एगसमओ । १३९. उक्कस्सं चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । १४०. सेसाणि जहा उदीरणा तहा दव्वाणि । १४१. सण्णियासो । १४२. मिच्छत्तस्स उक्कस्सियाए द्विदीए जो विहत्तिओ सो सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सिया कम्मंसियो सिया अकम्मसियो । १४३. जदि कम्मंसियो णियमा अणुकस्सा | १४४. उकस्सादो अणुकस्सा अंतोमुहूतूणमादिं काढूण जाव एगा द्विदिति । कारण यह है कि अप्रशस्तवेदके उदयसे क्षपक श्रेणी पर चढ़नेवाले जीवोका बहुलतासे पाया जाना संभव नहीं है ॥१३०-१३७॥ चूर्णिसू० - नरकगतिमे सम्यग्मिथ्यात्व और चारो अनन्तानुबन्धी कपायोकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौवीस दिन-रात्रि है । शेष प्रकृतियोका अन्तरकाल जैसा उदीरणामे कहा है, उस प्रकार से जानना चाहिए ।। १३८-१४० ॥ चूर्णिसू ० - अब स्थितिविभक्तिसम्बन्धी सन्निकर्ष कहते है । जो जीव उत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो कदाचित् सत्त्ववाला होता है और कदाचित् असत्त्ववाला होता है ।। १४१-१४२॥ मिथ्यात्व की प्रकृतियो का विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि यदि अनादिमिध्यादृष्टि अथवा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना किया हुआ सादिमिध्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है, तो वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियो की सत्ता से रहित होता है । किन्तु जो सादिमिथ्यादृष्टि है और जिसने इन दोनो प्रकृतियोके सत्त्वकी उद्वेलना नही की है, वह यदि मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है, तो वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोकी सत्तावाला होता है । चूर्णिस०- यदि उपर्युक्त जीव उक्त दोनो प्रकृतियोकी सत्तावाला होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला होता है ॥ १४३ ॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके वेदकसम्यक्त्व उत्पन्न करनेके प्रथम समयमे ही पाई जाती है, इससे उसका मिथ्यादृष्टि जीवके पाया जाना असंभव है । अतएव मिथ्यात्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति के वन्धकालमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिसत्ता नियमसे अनुत्कृष्ट ही होती है । चूर्णिसू० - वह अनुत्कृष्ट स्थिति सत्त्व उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक अन्तर्मुहूर्त कमको आदि करके एक स्थिति तकके प्रमाणवाला होता है ॥ १४४ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति १४५. सोलसकसायाणं किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? १४६. उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । १४७. उक्कस्सादो अणुकस्सा समयूणमादि कादण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणा त्ति । १४८. इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदीणं णियमा अणुक्कस्सा | १४९, उक्करसादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । १५०. णसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं विहत्ती किमुक्कस्सा किमणुकस्सा ? १५१. उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धवाले जीवके अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायोका स्थितिसत्त्व क्या उत्कृष्ट होता है अथवा क्या अनुत्कृष्ट होता है ? उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है ॥१४५-१४६॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके वॉधते समय सोलह कषायोका उत्कृष्ट स्थितिबंध हो, तो स्थितिसत्त्व उत्कृष्ट होगा। और यदि उत्कृष्ट स्थितिबंध न हो तो स्थितिसत्त्व अनुत्कृष्ट होगा। चूर्णिसू०-वह अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्व उत्कृष्ट स्थितिमे एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम स्थिति तकके प्रमाणवाला होता है ॥१४७॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके सोलह कपायोका अनुत्कृष्ट स्थितिबंध अधिकसे अधिक एकसमय कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम होता है। पुनः इससे नीचे दोसमय कम, तीन समय कम, चार समय कम, इस प्रकारसे घटता हुआ एक समय-हीन अवाधाकांडकसे कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तकका कमसे कम अनुत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। एक अबाधाकांडका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवा भाग होता है । इससे नीचे उक्त मिथ्यावष्टि जीवके सोलह कषायोका अनुत्कृष्ट स्थितिबंध संभव नही है । चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबंध करनेवाले जीवके स्त्रीवेद, पुरुपवेद, हास्य और रति, इन चार प्रकृतियोका स्थितिसत्त्व नियमसे उत्कृष्ट होना है ।।१४८॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि मिथ्यात्व वा अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपायोका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध होते समय इन चारो प्रकृतियोका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध नहीं होता है, क्योकि, ये प्रशस्तरूप हैं। चूर्णिसू०-वह अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्व उत्कृष्ट स्थितियोसे एक अन्तर्मुहूर्त कमको आदि करके अन्तःकोडाकोडी सागरोपम तकके प्रमाणवाला होता है ॥१४९।। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध करनेवाले जीवके नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन पांच प्रकृतियोंकी स्थितिसत्त्वविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा क्या अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है ॥१५०-१५१।। विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिकेचांधते समय यदि सोलह कपायोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता है, तो इन नपुंसकवेदादि पांची नोकपायांका Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-सन्निकर्ष-निरूपण ११३ १५२. उक्कस्सादो अणुकस्सा समऊणमादि कादूण जाव वीससागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणाओ त्ति । १५३. सम्मत्तस्स उक्कस्सद्विदिविहत्तियस्स मिच्छत्तस्स हिदि विहत्ती किमुक्कस्सा किमणुकस्सा ? १५४. णियमा अणुक्कस्सा । १५५. उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तुणा । १५६. णस्थि अण्णो वियप्पो । १५७. सम्मामिच्छत्तहिदिविहत्ती किमुक्कस्सा किमणुकस्सा ? भी उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व नहीं होता है, क्योकि, सोलह कषायोसे ही इन पांचो नोकषायोके - उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वकी उत्पत्ति होती है। तथा मिथ्यात्व और सोलह कपायोके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व होने पर इन नपुंसकवेदादि पांचो नोकषायोका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता है । इसका कारण यह है कि बंधावलीके भीतर बँधनेवाली कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण नहीं होता है, किन्तु बंधावलीके अतिक्रान्त होने पर कपायोकी बंधी हुई उत्कृष्ट स्थितिका नपुंसकवेदादिरूपसे संक्रमण होता है। उस अवस्थामे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके साथ इन प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । चूर्णिसू०-उन नपुंसकवेदादि पांचो नोकषायोकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमेंसे एक समय कमसे लगाकर पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम वीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तकके प्रमाणवाली होती है ॥१५२॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ॥१५३-१५४॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वका बन्ध नहीं होता है अतएव उसके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका पाया जाना असंभव है । और प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि जीवमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती नहीं है, क्योकि, अप्रतिग्रहरूप सम्यक्त्वकर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवमे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमण हो नहीं सकता। चूर्णिम् ०-वह मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमेस एक अन्तर्मुहूर्तसे कम अपनी स्थितिप्रमाण होती है। इसमे अन्य कोई विकल्प नहीं है ॥१५५-१५६॥ विशेषार्थ-इसका अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व होनेपर जैसे अन्य कर्मोंकी स्थितिविभक्तिके अनेक विकल्प या भेद पाये जाते है, उस प्रकारसे मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके अनेक भेद नहीं पाये जाते है। यदि ऐसा न माना जाय, तो सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके एक-विकल्पता बन नहीं सकती है। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके सम्यन्मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा क्या अनुत्कृष्ट होती है. ? नियममे उत्कृष्ट होती है ॥१५७-१५८॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कलाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति १५८. णियमा उक्कस्सा ।१५९. सोलसकसाय-णवणोकसायाणं द्विदिविहत्ती किमु कस्सा अणुकस्सा १-१६०,णियमा अणुक्कस्ला ।१६१. उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुत्तुणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणा त्ति । १६२. एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि । १६३. जहा मिच्छत्तस्स, तहा सोलसकसायाणं। १६४. इत्थिवेदस्स उकस्सद्विदिविहत्ति यस्स मिच्छत्तस्स हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा, अणुक्कस्सा ? १६५. णियमा अणुक्कस्सा । १६६. उकस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादण जाव पलिदोवमस्स विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्तसे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिका प्रथमसमयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे एक साथ संक्रमण देखा जाता है । चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके सोलह कपायों और नव नोकपायोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा क्या अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ॥१५९-१६०॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले प्रथमसमयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवमे सोलह कपायो और नव नोकपायोके उत्कृष्ट स्थितिबंधके योग्य तीव्र संक्लेशसे सहित मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय नहीं पाया जाता । चूर्णिसू०-वह अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्व उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक अन्तर्मुहूर्त कमसे लगाकर पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम अपनी उत्कृष्ट स्थि तिप्रमाणवाला होता है ॥१६१॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि एक समय-हीन एक अवाधाकांडकसे कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमसे नीचे उक्त जीवके सोलह कषाय और नव नोकपायोका स्थितिसत्त्व पाया नहीं जाता। - चूर्णिसू०-जिस प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका आश्रय लेकर उसके साथ शेष प्रकृतियोकी स्थितिविभक्तियोका सन्निकर्प किया गया है, उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिको निरुद्ध कर शेप कर्म-प्रकृतियोकी स्थितियोका सन्निकर्प करना चाहिए। क्योकि, दोनोके सन्निकर्पमे कोई भेद नहीं है। तथा जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको निरुद्ध कर मोहकी शेष प्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिका सन्निकर्प किया है, उसी प्रकार पृथक् पृथक् सोलह कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिको निरुद्ध कर शेष मोह-प्रकृतियोकी स्थितियोका सन्निकर्प करना चाहिए ॥१६२-१६३॥ . चूर्णिसू०-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। क्योंकि स्त्रीवेदके बंधकालमे मिथ्यात्वी उत्कृष्ट स्थितिका बंध नहीं होता है। वह अनुत्कृष्ट स्थिति सत्त्व उत्कृष्ट स्थितिबंधमेसे एक समय कमको आदि करके पल्यापमके असंख्यातवं भागसे कम अपने उत्कृष्ट स्थिति-प्रमाणवाला होता है। इसका कारण यह है कि एक आवाधा Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-सन्निकर्प-निरूपण असंखेजदिभागेणूणा त्ति । १६७. सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा, अणुकस्सा ? १६८. णियमा अणुकस्सा । १६९. उकस्सादो अणुकस्सा अंतोमुहुत्तृणमादि कादूण जाव एगा हिदि त्ति । १७०. णवरि चरिमुव्वेलणकंडयचरिमफालीए ऊणा त्ति । १७१. सोलसकसायाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा, अणुकस्सा ? १७२. णियमा अणुक्कस्सा । १७३. उकस्सादो अणुकस्सा समऊणमादि कादूण जाव आवलिऊणा त्ति । १७४. पुरिसवेदस्स हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा १ १७५. णियमा अणुक्कस्सा । १७६. उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुत्तूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि ति । १७७. हस्स-रदीणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? १७८. उकस्सा वा अणुकस्सा कांडकसे नीचे उक्त जीवके मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति संभव नहीं है ॥१६४-१६६॥ चूर्णिसू०-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व, इन दो प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ॥१६७-१६८।। विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि मिथ्याष्टि जीवमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका अभाव होता है और मिथ्यादृष्टि जीवको छोड़कर सम्यग्दृष्टि जीवमे स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती नहीं है, क्योकि, वहांपर उसके बंधका अभाव है। चूर्णिसू०-वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक अन्तर्मुहूर्त कमसे लगाकर एक स्थिति तकके प्रसाणवाली होती है। वह केवल चरम उद्वेलनाकांडककी चरम फालीसे कम होती है, ऐसा विशेष जानना चाहिए । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके अनन्तानुवन्धी आदि सोलह कपायोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। क्योकि, कपायोके उत्कृष्ट स्थितिवन्धकालमे स्त्रीवेदके बन्धका अभाव है । वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय कमसे लगाकर एक आवली कम तकके प्रमाणवाली होती है । क्योकि, इसके ऊपर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका होना असम्भव है ॥१६९-१७३॥ चूर्णिसू०-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । इसका कारण यह है कि स्त्रीवेदके वन्धकालमे शेप वेदोके बन्धका अभाव है। वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक अन्तर्मुहूर्त कमसे लगाकर अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम तकके प्रमाणवाली होती है ॥१७४-१७६॥ चूर्णिसू०-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके हास्य और रति. इन दो प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अभवा अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृप्ट भी होती है ॥१७७-१७८।। विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि यदि बीवेदके बन्धकालमे हान्य और रति Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति वा । १७९. उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव अंतोकोडा कोडि त्ति । १८०. अरदि-सोगाणं द्विदिविहत्ती किमुकस्सा, अणुक्कस्सा १ १८१. उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा । १८२. उकस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणाओ ति । १८३. एवं पुंसयवेदस्स । १८४. णवरि णियमा अणुक्कस्सा । १८५. भय-दुर्गुछाणं द्विदिविहत्ती किमुकस्सा, अणुक्कस्सा १ १८६. णियमा उक्कस्सा । १८७, जहा इत्थवेदेण, तहा सेसेहि कम्मे हि । १८८. णवर विसेसो जाणिदव्वो । प्रकृतिका वन्ध होता है, तो इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है और यदि बन्ध नहीं होता है, तो अनुकृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । चूर्णिसू (० - अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमे से एक समय कमसे लगाकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम तकके प्रमाणवाली होती है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके अरति और शोक, इन दो प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है, और अनुत्कृष्ट भी होती है ।। १७९-१८१ ।। विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि यदि स्त्रीवेदके बन्धकालमे अरति और शोक प्रकृतिका बन्ध हो, तो उनकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होगी, अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होगी । चूर्णिसू० - अरति और शोक, इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय कमसे लगाकर पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम वीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम aaa प्रमाणवाली होती है ।। १८२ ॥ चूर्णिसू० - जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे निरुद्ध अरति और शोक, इन दो प्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार नपुंसकवेदकी भी प्ररूपणा जानना चाहिए | केवल विशेषता यह है कि नपुंसकवेदकी स्थितिविभक्ति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । इसका कारण यह है कि स्त्रीवेद के साथ नपुंसकवेदका बन्ध नहीं होता है ॥१८३-१८४॥ चूर्णिम् ० - स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके भय और जुगुप्सा, इन दो प्रकृतिथोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे उत्कृष्ट होती है । इसका कारण यह है कि जिस कालमे स्त्रीवेदका बन्ध होता है, उस कालमे भय और जुगुप्सा प्रकृतिका बन्ध नियमसे होता है ।। १८५-१८६ ॥ चूर्णि० - जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिको निरुद्ध करके उसके साथ प कर्मों की स्थितिविभक्तिसम्बन्धी सन्निकर्ष की प्ररूपणा की है, उसी प्रकार हास्य, रति और पुरुपवेद, इन तीनकी शेप कर्मप्रकृतियोंके साथ भी सन्निकर्षकी प्ररूपणा जानना चाहिए । किन्तु तत विशेष ज्ञातव्य है ॥ १८७ - १८८ ॥ विशेपार्थ- उक्त समर्पणसूत्र से जिस अर्थ और तहत विशेषताकी सूचना की गई है, } 1 7 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-सन्निकर्ष-निरूपण ११७ १८९. सदस्स उक्कस्सट्ठिदिवित्तियस्स मिच्छत्तस्स द्विदिविहत्ती किनकस्सा अणुक्कस्सा ? १९०. उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । १९१. उक्कस्सादो अणुक्कस्सा वह इस प्रकार है - पुरुषवेदको निरुद्ध करके शेप कर्मप्रकृतियोके साथ सन्निकर्ष प्ररूपणामे कोई विशेषता नहीं है, क्योकि, वह समस्त प्ररूपणा स्त्रीवेदकी सन्निकर्ष प्ररूपणाके समान है । हास्य और रति, इन दो प्रकृतियोको निरुद्ध करके सन्निकर्ष - प्ररूपणा करनेपर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय और जुगुप्सा, इन प्रकृतियोके सन्निकर्ष प्ररूपणाओमे भी स्त्रीवेदी सन्निकर्प - प्ररूपणासे कोई विशेषता नहीं है । किन्तु स्त्रीवेद और पुरुपवेदके सन्निकर्ष मे कुछ विशेषता है, जो कि इस प्रकार है- हास्य और रति, इन दो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिके होनेपर स्त्री और पुरुपद्येदकी स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । उत्कृष्ट स्थिति होनेका कारण तो यह है कि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमित होनेपर हास्य, रति, स्त्रीवेद और पुरुपवेद, इन चारो ही कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । अनुत्कृष्ट स्थ होनेका कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थिति वन्धकर प्रतिनिवृत्त होनेके समयमे हास्य और रति, इन दोनोके बँधते हुए भी स्त्रीवेद और पुरुपवेद, इन दोनो के वन्धका अभाव हो जानेसे उनकी उत्कृष्ट स्थिति नही पाई जाती है । उक्त प्रकृतियोकी यदि अनुत्कृष्ट स्थिति होती है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक अन्तर्मुहूर्त कमसे लगाकर अन्तः फोड़ाकोड़ी सागरोपम तकके प्रमाणवाली होती है । स्त्रीवेदके निरुद्ध करनेपर नपुंसकवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योकि, स्त्रीवेदके बन्धकालमे नपुंसकवेदके वन्धका अभाव है । किन्तु हास्य और रति प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके निरुद्ध करनेपर नपुंसक वेदकी स्थिति कदाचित् उत्कृष्ट होती है, क्योकि, हास्य और रतिके बन्धकालमे भी नपुंसकवेदका बन्ध पाया जाता है । कदाचित् अनुत्कृष्ट होती है, क्योकि, कभी बन्धका अभाव होनेसे उसके एक समय कम आदिके रूपसे अनुत्कृष्ट स्थिति - सम्बन्धी विकल्प पाये जाते है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के साथ अरति और शोक, इन दोनो प्रकृतियोकी कदाचित् उत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योकि स्त्रीवेदके साथ इन दोनो प्रकृतियोके बँधने के प्रति कोई विरोध नही है । कदाचित् अनुत्कृष्ट होती है, क्योकि उत्कृष्ट बन्धके अनन्तर प्रतिनिवृत्त होने के समयमे जब हास्य और रति, इन दोनोका बन्ध होने लगता है, तब अरति और शोक प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध न होनेसे अनुत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी विकल्प पाये जाते हैं । किन्तु हास्य और रतिप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके निरुद्ध करनेपर अरति और शोक प्रकृति की स्थिति नियम से अनुत्कृष्ट होती है, क्योकि प्रतिनिवृत्त होने के समय मे हास्य और रतिबन्ध होने पर उनकी प्रतिपक्षी अरति और शोक प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है । इस प्रकारकी यह विशेषता जानना चाहिए । चूर्णिसू० - नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति-विभक्ति करनेवाले जीवके मिध्यात्वकी स्थिति - विभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । इसका कारण यह है कि नपुंसकवेद की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके होनेपर यदि Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कसाय पाहुउ सुस [३ स्थितिविभक्ति समऊणमादि कादण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण ऊणा त्ति । १९२. सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं च हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? १९३. णियमा अणुक्कस्सा । १९४. उक्कस्सादो अणुकस्सा अंतोमुहत्तणमादि कादूण जार एगा हिदि त्ति । १९५. णवरि चरिमुव्वेलणकंडयचरिमफालीए ऊणा । १९६. सोलसकसायाणं द्विदि विहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? १९७. उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । १९८. उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणयादि कादूण जाव आवलिऊणा त्ति । १९९. इत्थि-पुरिसवेदाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा, अणुक्कस्सा ? २००. णियमा अणुक्कस्सा । २०१. उक्करसादो अणुक्कस्सा अंतोमुहूत्तणमादि कादण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । २०२. हस्स-रदीणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा, अणुक्कस्सा ? २०३. उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध हो तो उत्कृष्ट होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट होती है। वह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम तकके प्रमाणवाली होती है ॥ १८९-१९१ ॥ चूर्णिसू०-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । इसका कारण यह है कि नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति मिथ्यादृष्टि जीवमे होती है और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति प्रथमसमयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके होती है। वह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक अन्तुर्मुहूर्त कमसे लगाकर एक स्थिति तकके प्रमाणवाली होती है । किन्तु वह चरम उद्वेलनाकांडककी चरम फालीसे हीन होती है ॥ १९२-१९५ ॥ ___ चूर्णिसू-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके अनन्तानुवन्धी आदि सोलह कपायोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । इसका कारण यह है कि यदि नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समय विवक्षित कपायोंका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध हो तो उत्कृष्ट होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट होती है । वह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय कमसे लगाकर एक आवली कम तकके प्रमाणवाली होती है । एक आवलीसे अधिक कम न होनेका कारण यह है कि इससे ऊपर नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका होना असम्भव है ॥ १९६-१९८॥ चूर्णिसू०-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके स्त्रीवेद और पुरुपवेद, इन दोनोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । क्योकि, नपुंसकवेदके बन्धकालमे नियमसे स्त्रीवेद और पुरुपवेदका वन्ध नहीं होता है । वह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक अन्तर्मुहर्त कमसे लगाकर अन्नाकोडाकोडी सागरोपम तकक प्रमाणवाली होती है ॥१९९-२०१॥ चूर्णिमू०-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके हास्य और रति, इन Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ गा० २२] स्थितिविभक्ति-सन्निकर्ष-निरूपण वा । २०४. उक्कल्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । २०५. अरदि-सोगाणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा, अणुक्कस्सा ? २०६. उक्करसा वा अणुक्कस्सा वा । २०७. उकस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणाओ । २०८ भय-दुगुंछाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? २०९. णियमा उक्कस्सा । २१०. एवमरदि-सोगभय दुगुंछाणं पि । २११. प्रवरि विसेसो जाणियव्यो दो प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है। इसका कारण यह है कि नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके होनेपर यदि हास्य और रतिप्रकृतिका बन्ध हो, तो उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, और यदि उनका बन्ध नहीं हो, तो अनुत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । क्योंकि बन्धके नहीं होने पर हास्य और रतिप्रकृतिमे कपायस्थितिका संक्रमण नही होता है । वह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय कमसे लगाकर अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम तक होती है।।२०२-२०४॥ चूर्णिसू-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके अरति और शोक, इन दा प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । इसका कारण यह है कि नपुंसकवेदके वन्धकालमे अरति और शोक प्रकृति बन्धका बन्ध हो, तो उत्कृष्ट होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय कमसे लगाकर पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक होती है ॥२०५-२०७॥ चूर्णिसू०-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवके भय और जुगुप्सा, इन दो प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा अनुत्कृष्ट होती है ? नियमसे उत्कृष्ट होती है, क्योकि, ये प्रकृतियां ध्रुववन्धी है ॥२०८-२०९॥ चूर्णिसू०-जिस प्रकार नपुंसकवेदकी स्थितिविभक्तिका शेप सर्व मोह-प्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिके साथ सन्निकर्प किया गया है, उसी प्रकार अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, इन चार प्रकृतियोका भी स्थितिविभक्ति-सम्बन्धी सन्निकर्प करना चाहिए । किन्तु उनमे जो थोड़ी सी विशेषता है, वह जानना चाहिए ॥२१०-२११॥ विशेषार्थ-इस समर्पणसूत्रसे जिस विशेपताकी सूचना की गई है, वह इस प्रकार है-अरति और शोकप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिको निरुद्ध करके सन्निकर्पके कहनेपर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और सोलह कपायांकी सन्निकर्पप्ररूपणा नपुंसकवेदके समान है, कोई विशेषता नहीं है। किन्तु स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति भी होती है और अनुत्कृष्ट स्थिति भी होती है । वह अनुत्कृष्ट अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय कमसे लगाकर और कुछ आचार्योके मतसे अन्तर्मुहूर्त कमसे लगाकर अन्तःकोड़ाकोड़ी मागरोपम तकके प्रमाणवाली होती है । इसी प्रकार पुम्पवेदकी स्थितिविभक्तिका सन्निकर्प जानना चाहिए । नपुंमकवटकी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० कलाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति २१२. जहण्णहिदिसपिणयासो | २१३. मिच्छत्तजहण्णट्ठिदिसंतकम्मियस्स अणंताणुवंधीणं णत्थि । २१४. सेसाणं कम्पाणं विहत्ती किंजहण्णा अजहष्णा ? २१५, णियमा अजहण्णा २१६. जहण्णादो अजहण्णा [अ] संखेजगुणब्भहिया । २१७. मिच्छत्तेण णीदो सेसेहि वि अणुमग्गियव्यो । स्थितिविभक्तिका सन्निकर्ष भी इसी प्रकार है, केवल उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कमसे लगाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम वीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तकके प्रमाणवाली होती है । हास्य और रति, इन दो प्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। वह अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे एक समय कमसे लगाकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम तक होती है। भय और जुगुप्सा प्रकृतिकी स्थितिविभक्ति ध्रुवबन्धी होनेके कारण नियमसे उत्कृष्ट होती है । भय और जुगुप्सा प्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिको निरुद्धकर सन्निकर्प कहनेपर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सोलह कषाय और तीनो वेदोकी सन्निकर्ष-प्ररूपणा अरतिशोकके समान है । हास्य, रति, अरति और शोक इन चार प्रकृतियोकी स्थितिविभक्तिसम्बन्धी सन्निकर्ष प्ररूपणा नपुंसकवेदकी सन्निकर्पप्ररूपणाके समान है। इनकी मात्र ही विशेषता जानना चाहिए। चूर्णिसू० -अव जघन्य स्थितिविभक्ति-सम्बन्धी सन्निकर्प कहते है-मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके अनन्तानुवन्धी चारो कपायोका सन्निकर्ष नहीं है, क्योकि, मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्व करनेके पूर्व ही अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना कर दी जानेसे उनके स्थितिसत्त्व पाये जानेका अभाव है ।।२१२-२१३।। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके अप्रत्याख्यानावरण आदि शेष समस्त मोहकर्मप्रकृतियोकी स्थितिविभक्ति क्या जघन्य होती है, अथवा अजघन्य होती है ? नियमसे अजघन्य होती है । क्योकि, ऊपर जाकर जघन्यस्थितिको प्राप्त होनेवाले जीवोके यहॉपर जघन्य स्थितिके पाये जानेका विरोध है। वह अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी अधिक प्रमाणवाली होती है ।।२१४-२१६।। विशेषार्थ-इसका कारण यह है मिथ्यात्वकी दो समय-कालप्रमाण जघन्य स्थितिके अवशेप रह जानेपर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण, तथा वारह कपाय और नव नोकपायोकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण अवशिष्ट स्थिति पाई जाती है । चूर्णिसू०-जिस प्रकार मिथ्यात्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिके साथ शंप प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिका सन्निकर्ष निरूपण किया है, उसी प्रकार शेप कर्मप्रकृतियोंके साथ भी जघन्यसन्निकर्ष अन्वेपण करना चाहिये, क्योकि, उसमे कोई विशेपता नहीं है ॥२१७|| .. अब चूर्णिकार इससे आगे स्थितिविभक्ति-सम्बन्धी अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार कहनेक लिए प्रतिज्ञासूत्र कहते हैं in and Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १२१ [२१८. अप्पाचहुअं] २१९ सव्वत्थोवा णवणोकसायाणमुक्कस्सट्टिदिविहत्ती । २२०. सोलसकसायाण मुक्कस्सट्ठिदिविहत्ती विसेसाहिया । २२१ सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिविहत्ती विसेसाहिया । २२२. सम्मत्तस्स उक्कस्सडिदिविहत्ती विसेसाहिया । २२३ मिच्छत्तस्स उस्सट्टिदिविहत्ती विसेसाहिया । २२४. निरयगदी सव्वत्थोवा इत्थिवेद - पुरिसवेदाणमुकस्सट्ठिदिविहत्ती । २२५. सेसाणं णोकसायाणमुकस्सट्ठिदिविहत्ती विसेसाहिया । २२६. सोलसह कसायाणमुक्कस्सट्ठिदिविहत्ती विसेसाहिया । २२७. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्स डिदि - चूर्णिसू० - अब स्थितिविभक्ति - सम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैं ॥२१८॥ विशेषार्थ - अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - स्थिति - अल्पबहुत्व और जीव- अल्पबहुत्व । जिसमे विवक्षित प्रकृतियो की स्थितिकाल सम्बन्धी अल्प और बहुत्व का निरूपण किया जाता है, उसे स्थिति - अल्पबहुत्वानुगम कहते है और जिसमे विवक्षित प्रकृतियो के सत्त्व आदिके धारक जीवोकी संख्या -सम्बन्धी हीनाधिकताका निरूपण किया जाता है, उसे जीव- अल्पबहुत्वानुगम कहते है । इन दोनोमेसे यहॉपर यतिवृषभाचार्यं स्थिति - अल्पबहुत्व कहते है । चूर्णिसू० - हास्यादि नव नोकपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम होती है । क्योकि, उसका प्रमाण बन्धावलीसे कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । बन्धावलीसे कम कहनेका यह कारण है कि बन्धकालमे कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिका नोकपायोमे संक्रमण नही होता है । अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपायो की उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नव नोकपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे विशेष अधिक है। विशेष अधिकताका प्रमाण बन्धावलीकाल मात्र है । सम्यग्मिथ्यात्यकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे विशेष अधिक है । यहाँ विशेष अधिकताका प्रमाण अन्तमुहूर्त कम तीस कोडाकोड़ी सागरोपम है । सम्यक्त्व प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सम्यमिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे विशेष अधिक है। विशेष अधिकताका प्रमाण एक उदयनिपेक स्थितिमात्र है । मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सम्यक्त्वप्रकतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति से विशेष अधिक है । विशेप अधिकताका प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्त है ।। २१९-२२३ ।। चूर्णिसू० - नरकगतिमे स्त्रीवेद और पुरुपवेदकी, उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति आगे कह जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम है । इसका कारण यह है कि नरकगतिमे इन दोनो वेदोके उदयका अभाव है, अतएव इनके उदद्यनिपेकोका स्तिबुकसंक्रमणद्वारा नपुंसकवेदस्वरूपसे परिणमन हो जाता है। शेप सात नोकपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति स्त्री और पुरुपवेद की उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । विशेप अधिकताका प्रमाण एक उदयनिपेकमात्र है | सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सात नोकपायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे विशेष अधिक है। विशेष अधिकताका प्रमाण बन्धावलीमात्र है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे विशेष अधिक है । विशेप अधिकता १६ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्त विहत्ती विसेसाहिया | २२८. सम्मत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिविहत्ती विसेसाहिया । २२९. मिच्छत्तस्स उक्कस्सद्विदिविहत्ती विसेसाहिया । २३० सेसासु गदीसु णेदव्यो । 1 का प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्त से कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । सम्यक्त्व प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे विशेष अधिक है । विशेष अधिकता का प्रमाण एक उदयनिषेकमात्र है । मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे विशेष अधिक है । विशेप अधिकताका प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्त है । जिस प्रकार नरकगतिमे मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका अल्पवहुत्वानुगम किया गया है, उसी प्रकार आपके अविरोधसे शेप गतियो मे भी अल्पबहुत्वानुगम करना चाहिए ॥ २१९-२३०॥ विशेषार्थ - चूर्णिसूत्रोमे केवल उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति-सम्बन्धी अल्पवहुत्वका निरूपण किया गया है । जघन्य स्थितिविभक्ति-सम्वन्धी अल्पबहुत्वका नहीं । वह उच्चारणावृत्तिके अनुसार इस प्रकार है-सम्यक्त्वप्रकृति, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, और लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे कम होती है । इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणित है । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी आदि बारह कषायोकी जघन्यस्थितिविभक्ति उपर्युक्तपद से संख्यातगुणित है । इससे मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणित है । इससे मानसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणित है । इससे क्रोधसंज्वलन की जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणित है । इससे हास्य आदि छह नोकपायोकी जघन्य स्थिति - विभक्ति संख्यातगुणित होती है । किन्तु चिरन्तन व्याख्यानाचायोके मत से इसमे कुछ भेद है । जो कि इस प्रकार है- सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे कम है । इससे सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणित है । इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणित है। इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदक जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कपायोकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक हैं । इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति अधिक है । इसी प्रकार चूर्णिसूत्रोमे जीव अल्पबहुत्वानुगमका भी निरूपण नहीं किया गया है । जो कि जयधवला टीकाके अनुसार इस प्रकार है । उनमें पहले उत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्वको कहते हैं—सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर शेष छब्बीस मोहप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव सबसे कम होते है | इनसे इन्हीं प्रकृतियां की अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव अनन्तगुणित होते हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन टोनीकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव सबसे कम है | इनसे इन्ही अनुत्कृष्टस्थितिविभि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १२३ २३१. जे भुजगार-अप्पदर-अवहिद-अवत्तव्वया तेसिमट्ठपदं । २३२. जत्तियाओ अस्सि समए हिदिविहत्तीओ उस्साकस्साविदे अणंतरविदिक्कतेसमए अप्पदराओ बहुदरविहत्तिओ, एसो भुजगारविहत्तिओ । २३३. ओसक्काविदे बहुदराओ विहत्तीओ, एसो अप्पदरविहत्तिओ । २३४. ओसक्काविदे तत्तियाओ चेव विहत्तीओ, एसो अवट्टिदविहत्तिओ। २३५ अविहत्तियादो विहत्तियाओ एसो अवत्तव्यविहत्तिओ। २३६. एदेण अट्ठपदेण । २३७. सामित्तं । २३८. मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदविहत्तिओ को करनेवाले जीव असंख्यातगुणित है । जघन्य जीव-अल्पबहुत्व की अपेक्षा सर्व मोहप्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे कम है। इनमेसे छब्बीसप्रकृतियोकी अजघन्य स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव जघन्यविभक्तिवालोसे अनन्तगुणित है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति करनेवाले असंख्यातगुणित है। यह ओघकी अपेक्षा वर्णन किया गया है । आदेशकी अपेक्षा अल्पबहुत्वके लिए विशेप जिज्ञासुओको जयधवला टीका देखना चाहिये। चूर्णिसू०-जो जीव भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्ति करनेवाले हैं, उनका यह अर्थपद है । अर्थात् अब इन चारो प्रकारकी विभक्तियोका स्वरूप कहते हैं । इस वर्तमान समयमे जितनी स्थितिविभक्तियाँ अर्थात् स्थितिसम्बन्धी विकल्प है, उनके उत्कर्पण करनेपर अनन्तर-त्यतिक्रान्त अर्थात् तदनन्तरवर्ती द्वितीय समयमे यदि वे अल्पतर स्थितिविकल्प बहुतरविभक्तिवाले हो जाते है,तो यह भुजाकारविभक्ति करनेवाला जीव है । अर्थात् , जो जीव वर्तमान समयमे जितने स्थिति-भेदोका वन्ध कर रहा है, वही जीव यदि आगामी द्वितीय समयमे उन्हें बढ़ाकर बहुतसे स्थिति-भेदोका वन्ध करने लगता है, तो वह जीव भुजाकारविभक्ति करनेवाला कहलाता है। बहुत स्थितिविकल्पोके अपकर्पण करनेपर जो अल्पतर स्थितियाँ वॉधने लगता है वह अल्पतरस्थितिविभक्तिक जीव है। अर्थात् , जो जीव अतीत समयमे जितनी स्थितियोका बन्ध कर रहा था, वही जीव यदि उनका स्थितिकांडकघात अथवा अधःस्थितिगलनके द्वारा अपकर्पणकर वर्तमान समयमे कम स्थितियोको बाँधने लगता है, तो वह अल्पतरविभक्ति करनेवाला कहलाता है। अपकर्पण अथवा उत्कर्पण करनेपर भी यदि उतनी अर्थात् पूर्व समयके जितनी ही स्थितियोको बांधता है, तो यह अवस्थित विभक्तिवाला कहलाता है । अविभक्तिकसे यदि विभक्तिक होता है तो यह अवक्तव्यविभक्तिक है । अर्थात जो जीव पूर्वसमयमे विवक्षित प्रकृतिके वन्ध और सत्त्वसे रहित था, वह यदि वर्तमान समयमे उसका बन्धकर उसके सत्त्ववाला हो जाता है, तो वह जीव अवक्तव्यविभक्ति करनेवाला कहलाता है । इस अर्थपदक द्वारा अब स्वामित्व अनुयोगद्वारको कहते हैं-मिथ्यात्वकी भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिको करनेवाला कौन जीव होता है । कोई एक नारकी तियंच, मनुप्य अथवा देव होता है । यहाँ इतना विशेप जानना चाहिए कि भुजाकार और अवस्थितविभक्ति मिथ्यादृष्टि जीवके ही होती है। किन्तु अल्पतर विभक्ति मिथ्याष्टिके Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति होदि १ २३९. अण्णदरो रइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा । २४०. अवत्तन्वो णत्थि । २४१. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अप्पदरविहत्तिओ को होदि १ २४२. अण्णदरो रहओ तिरिक्खो मणुस्सो देवो । २४३. अवट्टिदविहत्तिओ को होदि १ २४४. पुष्पणादो सम्मत्तादो समयुत्तरमिच्छत्तेण से काले सम्मत्तं पडिवण्णो सो अवट्टिदविहत्तिओ । २४५. अवत्तव्यविहत्तिओ अण्णदरो । २४६. एवं सेसाणं कम्माणं णेदव्वं । भी होती है और सम्यग्दृष्टि के भी । मिध्यात्वकी अवक्तव्यविभक्ति नही होती है । इसका कारण यह है कि मिथ्यात्वकर्मके निःसत्त्व हो जानेपर पुनः उसके सत्त्व होने का अभाव है ॥२३१-२४०॥ चूर्णिसू०० - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोंकी भुजाकार और अल्पतर विभक्तिको करनेवाला कौन जीव होता है ? कोई एक नारकी, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव होता है | यहाँ इतना विशेष है कि इन प्रकृतियोकी भुजाकारविभक्ति सम्यग्दृष्टि जीवोके ही होती है । किन्तु अल्पतरविभक्ति सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवके होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोकी अवस्थितविभक्ति करनेवाला कौन जीव होता है ? पूर्व में उत्पन्न सम्यक्त्वप्रकृति से एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थिति के साथ जो जीव अनन्तर समयम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, वह अवस्थित विभक्तिवाला होता है ॥२४१ - २४४ ॥ विशेषार्थ - जिस जीवने पहले कभी सम्यक्त्वको उत्पन्न किया है और परिणामोके निमित्तसे गिरकर मिध्यात्वमे आ गया है उसके विवक्षित समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिका जितना स्थितिसत्त्व है, उससे उसीकी मिथ्यात्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व यदि एक समय अधिक हो और वह जीव पुनः तदनन्तरवर्ती द्वितीय समयमे ही सम्यक्त्वको प्राप्त हो, तो उसके सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समय मे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोकी अवस्थितविभक्ति होती है, क्योकि, चरम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके स्थितिसत्त्वसे प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व समान पाया जाता है । चूर्णिसू० (० - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियो की अवक्तव्यविभक्तिकरनेवाला कोई एक जीव होता है ।। २४५ ॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि किसी भी गतिवाले, किसी भी कपायके उदयवाले, किसी भी अवगाहनाको धारण करनेवाले, किसी एक लेग्यासे संयुक्त तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियो की सत्ता से रहित ऐसे मिध्यादृष्टि जीवके प्रथमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर अवक्तव्यभाव पाया जाता है । चूर्णि ० - इसी प्रकार शेप सोलह कपाय और नव नोकपाय, इन पीस कर्मोंकी '' ताम्रपत्रबाली मुद्रित प्रतिमें इसे चूर्णिसूत्र न मानकर जयधवला टीकाका अग बना दिया है । ( देखो पृष्ठ ३०६ पक्ति १७ ) १ भुजगार अवद्विदविहत्ती मिच्छाइट्टिस्सेव । अप्पदरविहत्ती सम्मादिट्टिस्स मिच्छा दिट्टित्य वा । जवघ २ भुजगार सम्मादिट्टीण चेत्र । अप्पटरं पुण सम्मादिट्टिस्त मिच्छादिहिस्स वा । जयध Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-काल ल-निरूपण २४७, एत्तो एगजीवेण कालो । २४८. मिच्छत्तस्स भुजगारकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ९ २४९. जहणेण एगसमओ । २५०. उक्कस्सेण चत्तारि समया ( ४ ) । २५१. अप्पदरकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ९ २५२. भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोके स्वामित्वको जानना चाहिए ॥ २४६ ॥ १२५ चूर्णिसू० ० - अब इससे आगे एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य, इन चारो विभक्तियोके, कालका वर्णन किया जाता है। मिथ्यात्व कर्मकी सुजाकार विभक्तिवाले जीवका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार (४) समय है ।। २४७-२५० ।। विशेषार्थ - मिथ्यात्वकी भुजाकारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है, क्योकि, मिथ्यात्वकी विवक्षित स्थितिको एक समय आगे बढ़ाकर बॉधनेपर मिथ्यात्वकर्म की भुजाकारस्थितिविभक्तिका एक समयप्रमाण जघन्य काल पाया जाता है । मिथ्यात्वकर्म की भुजाकारविभक्तिका उत्कृष्टकाल चार समय है । वे चार समय इस प्रकार सम्भव है - अद्धाक्षसे अर्थात् स्थितिबन्धके कालका क्षय हो जानेसे स्थितिबन्धके बढ़नेपर भुजाकारविभक्तिका प्रथम समय प्राप्त होता है । पुनः चरम समयमे संक्ल ेश-क्षयसे अर्थात् स्थितिबन्धके योग्य विवक्षित अध्यवसायस्थानके अवस्थानका काल समाप्त हो जानेसे उस समय एक समय अधिक, दो समय अधिक आदिके क्रमसे लगाकर बढ़ते हुए संख्यात सागरोपम तक की स्थिति बाँधने योग्य परिणाम उत्पन्न होते है, उनसे यथायोग्य स्थितिको बॉधनेपर भुजाकारविभक्तिका द्वितीय समय उपलब्ध होता है । तृतीय समयमे मरण करके विग्रहगतिके द्वारा पंचेन्द्रियोमे उत्पन्न होने के प्रथम समयमे असंज्ञी जीवोकी सहस्र सागरोपम स्थितिको बॉधनेपर उसी जीवके भुजाकारविभक्तिका तृतीय समय होता है । पुनः चतुर्थ समयमे शरीरग्रहण करके अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण संज्ञी जीवोकी स्थितिको वॉधनेपर उसी जीवके भुजाकारविभक्तिका चतुर्थ समय होता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि जब कोई एक एकेन्द्रिय जीव पहले समय में अद्धा क्षयसे स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है, दूसरे समय मे संकृशक्षयसे स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है, तीसरे समय में मरणकर और एक विग्रहसे संज्ञी जीवोमे उत्पन्न होकर असंज्ञी जीवोके योग्य स्थितिको बढाकर बाँधता है और चौथे समयमे शरीरको ग्रहण करके संज्ञी जीवोके योग्य स्थिति बढ़ाकर बाँधता है, तब उस जीवके भुजाकारविभक्तिका उत्कृष्टकाल चार समयप्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार मिध्यात्वकर्म की भुजाकारविभक्तिका उत्कृष्टकाल चार समय ही है । आगे जहाँ भी भुजाकारवन्ध कहा जावे, वहाँ सर्वत्र यही अर्थ जानना चाहिए । चूर्णिसू० - मिध्यात्वकर्मकी अल्पतरविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति जहण्णेण एगसमओ । २५३. उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । २५४. अवविदकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? २५५. जहण्णेण एगसमओ । २५६. उकस्सेण अंतोयुहुत्तं । २५७. एवं सोलसकसायाणं णवणोकसायाणं। २५८. समय है और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ तिरेसठ सागरोपम है ॥२५२-२५३॥ विशेपार्थ-भुजाकार अथवा अवस्थितविभक्तिको करनेवाले जीवके विद्यमान सत्त्वसे एक समय नीचे उतरकर स्थितिवन्ध करके पुनः द्वितीय समयमे भुजाकार या अवस्थित विभक्तिको करनेपर अल्पतरविभक्तिका एक समयप्रमाण जघन्यकाल पाया जाता है । मिथ्यात्वकर्मकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्टकाल कुछ अधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपमप्रमाण है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-कोई एक तिर्यच अथवा मनुष्य मिथ्यावृष्टि जीव एक स्थितिको वांधता हुआ विद्यमान था। उस स्थितिके नीचे अल्प स्थितिको वांधते हुए उसने अल्पतरविभक्तिका तत्प्रायोग्य सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत किया । पुनः तदनन्तरवर्ती समयमे उस स्थितिसत्त्वका उल्लंघन करके स्थितिवन्ध करनेवाला था कि आयुके क्षय हो जानेसे मरण करके तीन पल्योपमकी स्थितिवाले उत्तम भोगभूमियॉ जीवोसे उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँ जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहण किया और उसके साथ ही यथायोग्य प्रथम या द्वितीय स्वर्गमे उत्पन्न हुआ। वहाँसे च्युत हो मनुष्य हुआ, फिर मरकर यथायोग्य आनत-प्राणत आदि कल्पामे उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उसने सम्यक्त्वके साथ पूरे च्यासठ सागरोपम व्यतीत किये और अन्तमे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । पुनः अन्तमुहूर्तके पश्चात् ही सम्यक्त्वको ग्रहण किया और उसके साथ फिर पूरे छयासठ सागरोपमकाल तक भ्रमण कर अन्तमें तत्प्रायोग्य परिणामोके द्वारा मिथ्यात्वको जाकर इकतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले ग्रैवेयकदेवोंमें उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँसे च्युत हो मनुष्योमें उत्पन्न हुआ । वहाँ जहॉतक सम्भव है, वहॉतक अन्तर्मुहूर्तकाल स्थितिसत्त्वसे नीचे स्थितिवन्ध कर पुनः संक्लेशको पूरित कर भुजाकारविभक्ति करनेवाला हो गया। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्योंसे अधिक एक सौ तिरेसठ सागर अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है। क्योकि, भुजाकार अथवा अल्पतरविभक्तिको क्रनेवाले जीवके एक समय स्थितिसत्त्वके समान स्थितिके बाँधनेपर अवस्थितविभक्तिका एक समय पाया जाता है । मिथ्यात्वकर्मकी अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। क्योकि, भुजाकार अथवा अल्पतर विभक्तिको करके सत्त्वके समान स्थितिबन्ध करनेका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहुर्तप्रमाण पाया जाता है ॥२५४-२५६॥ __चूर्णिमू०-जिग्न प्रकार मिथ्यात्वकर्मकी भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तियोके कालकी प्ररूपणकी है, उसी प्रकार सोलह कपायों और नव नोकपायोकी भुजाकार अन्पतर और अवस्थितविभक्तिसम्बन्धी प्रमपणा करना चाहिए । विशेपता केवल यह है कि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-काल-निरूपण raft भुजगारकम्मंसिओ उक्कस्सेण एगूणवीससमया । सोलह कपाय और नवनोकपायोकी भुजाकार विभक्तिका उत्कृष्टकाल उन्नीस समय-प्रमाण है ।। २५७-२५८ ॥ विशेषार्थ - उक्त उन्नीस समयोका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- किसी एक ऐसे एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीवने जिसकी आयु सत्तरह समय से अधिक एक आवली - प्रमाण शेप रही है, अनन्तानुवन्धी क्रोधको छोडकर शेप अनन्तानुबन्धी मान, मायादि पन्द्रह प्रकृतियोका क्रमशः अद्धाक्षय हो जानेसे पन्द्रह समयोके द्वारा उनकी स्थितिको उत्तरोत्तर बढ़ाकर बन्ध करते हुए संक्रमणके योग्य किया । पुनः बन्धावलीकालके व्यतीत होनेपर और सत्तरह समयप्रमाण आयुके शेष रहनेपर पूर्वोक्त आवलीकालमे प्रथम समय से लेकर पन्द्रह समयोमे वृद्धि करके बांधी हुई उक्त पन्द्रह कपायों की स्थितिको वन्ध-परिपाटी के अनुसार अनन्तानुवन्धी क्रोधमे संक्रमण करनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोध - सम्बन्धी भुजाकारविभक्ति के पन्द्रह समय प्राप्त होते है । पुनः सोलहवे समयमे अद्धाक्षयसे अनन्तानुबन्धी क्रोध के साथ स्थिति को बढ़ाकर वॉधनेपर भुजाकारविभक्तिका सोलहवाँ समय प्राप्त होता है । पुन: सत्तरहवे समयमै संक्लेशक्षय होनेसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके साथ सर्व कपायोकी स्थितिको बढ़ाकर बॉधनेपर भुजाकारविभक्तिका सत्तरहवाँ समय प्राप्त होता है । पुनः उसके एक विग्रह करके संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोम उत्पन्न होनेके प्रथम समयमे असंज्ञी जीवोके योग्य सहस्र सागरोपमके सात भागोमे से यथायोग्य चार भागप्रमाण वॉधनेपर भुजाकारविभक्तिका अट्ठारहवाँ समय प्राप्त हुआ । पुनः शरीरको ग्रहण करके संज्ञी पंचेन्द्रियोके योग्य अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिका बन्ध करनेपर भुजाकार - विभक्तिका उन्नीसवॉ समय प्राप्त होता है । इस प्रकार भुजाकारस्थितिविभक्तिके सूत्रोक्त उन्नीस समय सिद्ध हो जाते है । ऊपर जिस प्रकार से अनन्तानुवन्धी क्रोधकी भुजाकारविभक्तिके उन्नीस समयोकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार मान, मायादि शेप पन्द्रह प्रकृतियोमे से हर एक की इसी परिपाटी से भुजाकारस्थितिविभक्तिके उन्नीस समयोकी प्ररूपणा जानना चाहिए। इसी प्रकार नवो नोकपायोकी भी भुजाकारविभक्ति - सम्बन्धी उन्नीस समयोकी प्ररूपणा जानना चाहिए | केवल इतनी विशेषता है कि उक्त सत्तरह समय से अधिक आवली कालप्रमित आयुके शेप रह जानेपर उस एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीवके आवलीके प्रथम समयसे लेकर क्रोधादि कपायोकी परिपाटी से अद्धाक्षय होनेके साथ सोलह समयमात्र कालको बढ़ाकर उनका बन्ध कराके, पुन: सत्तरह वे समयमे संक्लेश-क्षय होने से सभी - सोलहो प्रकृतियोका भुजाकारस्थितिबन्ध कराके पुनः एक आवलीकाल विताकर कपायोकी स्थितिको नव नोकपायोकी स्थितिमे परिपाटी संक्रमण करानेपर नव- नोकपायसम्बन्धी भुजाकारविभक्तियोका सत्तरवाँ समय प्राप्त होता है । पुनः मरणकर एक विग्रहके साथ संज्ञी पंचेद्रियोके उत्पन्न होनेके प्रथम समय मे असंज्ञी पंचेन्द्रियोके योग्य स्थितिको बढ़ाकर बन्ध करनेपर अट्ठारहवाँ समय और शरीर-पर्याप्टिको प्रारग्भ कर संज्ञी पंचेन्द्रियोके योग्य स्थितिको बढ़ाकर बन्ध करनेपर उसके भुजाकारविभक्तिका Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति २५९. अणंताणुबंधिचउकस्स अवत्तव्यं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । २६०. सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवदि - अवत्तव्वकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? २६१. जहण्णुकस्सेण एगसमओ । १२८ उन्नीसवॉ समय प्राप्त होता है । इस प्रकार सोलह कषाय और नव नोकपाय- सम्बन्धी भुजाकारस्थितिविभक्तिके उन्नीस समयोकी प्ररूपणा जानना चाहिए। ऊपर जो अद्धाक्षय' पद प्रत्युक्त हुआ है उसका अर्थ है - अद्धा अर्थात् स्थितिबन्धके कालका क्षय । स्थिति बन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । विवक्षित स्थितिबन्धके कालका क्षय हो जानेपर तदनन्तर जीव उससे हीन या अधिक स्थितिका बन्ध करता है । क्रोधादि कषायरूप परिणामो के होनेको संक्लेश कहते है ।' जबतक एक - जातीय संक्लेश परिणाम रहेंगे, तबतक एकसा स्थितिबन्ध होगा, और एकजातीय संक्लेशक्षय होनेपर स्थितिबन्ध भी हीनाधिक होने लगेगा । यहाॅ यह बात ध्यानमे रखनेकी है कि अद्धक्षय के होनेपर संक्लेशक्षय होनेका नियम नहीं है । किसी जीवके अद्धाक्षयके साथ संक्लेशक्षय हो जाता है और किसी जीवके अद्धाक्षयके पश्चात् भी संक्लेशक्षय होता है । चूर्णिसू० - अनन्तानुबन्धी कपायचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ॥ २५९ ॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि अनन्तानुबन्धी कषायकी सत्ता से रहित सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्व अथवा सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेपर उसके प्रथम समय मे ही अनन्तानुबन्धी कपायके स्थितिसत्त्वकी उत्पत्ति हो जाती है । चूर्णिसू० - सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ।। २६०-२६१।। विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वप्रकृतिकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वप्रकृति के सत्त्वके ऊपर दो समय अधिक आदिके रूपसे मिथ्यात्वकी स्थितिको बॉधकर पुनः सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर प्रथम समयमे उक्त प्रकृतियोकी भुजाकारविभक्ति होती है । इसी प्रकार एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिको वॉधकर सम्यक्त्व ग्रहणके प्रथम समयमे अवस्थितविभक्तिका एक समयमात्र काल पाया जाता है, क्योकि, दूसरे समयमे अल्पतरविभक्तिकी उत्पत्ति हो जाती है । तथा सम्यक्त्वप्रकृतिकी सत्ता से रहित मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर एक समयमात्र अवक्तव्यविभक्ति होती है, अधिक समय नही, क्योकि दूसरे समयमे तो अल्पतरविभक्ति आ जाती है । इसी प्रकार सम्यमिथ्यात्वकी भुजाकारादि विभक्तियोके कालको जानना चाहिए । १ का अद्धा णाम १ ट्ठिदिवधकालो । कि तस्स प्रमाण १ जहणेण एगसमओ । उपमेण अतोमुहुत्त । एदिस्से अद्धाए खओ विणासो अद्धाक्खओ णाम । जयध० २ को मकिलेसो नाम ? कोहमाणमायालोहपरिणामविशेषो । जयध० Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ ___ गा० २२] स्थितिविभक्ति-अन्तर-निरूपण २६२. अप्पदरकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? २६३. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । २६४. उकस्सेण वे छावहि-सागरोचमाणि सादिरेयाणि । २६५. अंतरं । २६६. मिच्छत्तस्स भुजगार अवविदकम्मंसियस्स अंतरं जहण्णेण एगसमओ। २६७. उकस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । २६८. अप्पदरकम्मंसियस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २६९. जहण्णेण एगसमओ । २७०. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । २७१. सेसाणं पि णेदव्वं । चूर्णिसू०-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोकी अल्पतरविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल सातिरेक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ।।२६२-२६४॥ विशेपार्थ-उक्त दोनो प्रकृतियोके सत्त्वसे रहित मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेपर प्रथम समयमे अवक्तव्यविभक्ति होती है और दूसरे समयसे लगाकर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल-द्वारा दर्शनमोहनीयका क्षय करने तक अल्पतरविभक्तिका जघन्यकाल पाया जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ अधिक एक सौ वत्तीस सागरोपमकी प्ररूपणा पूर्वके समान जानना चाहिए । चूर्णिसू ०-अब भुजाकारविभक्ति आदिके अन्तरको कहते है-मिथ्यात्वकी भुजाकार और अवस्थित विभक्तिवाले जीवका जघन्य अन्तरकाल एक समय है ॥२६५-२६६॥ विशेपार्थ-भुजाकार और अवस्थितविभक्तिको एक समय करके द्वितीय समयमे अल्पतरविभक्ति कर तृतीय समय मे भुजाकार और अवस्थित विभक्तिके करनेपर एक समयप्रमाण अन्तर पाया जाता है । चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी भुजाकार और अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है ॥ २६७ ॥ विशेपार्थ-तिर्यंचोमे अथवा मनुष्योमे कोई जीव मिथ्यात्वकी भुजाकार और अवस्थितविभक्तिको आदि करके पुनः वहीपर अन्तर्मुहूर्तकालसे अल्पतरविभक्तिके द्वारा अन्तरको प्राप्त हो तीन पल्योपमवाले देवकुरु या उत्तरकुरुके जीवोमे उत्पन्न हो वहाँसे मरकर देवादिकोमें एक सौ तिरेसठ सागरोपमकाल तक परिभ्रमण करके अन्तम मनुष्योमे उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होनेपर संलशको पूरित करके भुजाकार और अवस्थित विभक्तिको किया। इस प्रकार सूत्रोक्त अन्तर उपलब्ध हो जाता है। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी अल्पतरविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार शेप कर्मोका भी अन्तर जानना चाहिए ॥२६८-२७१॥ विशेपार्थ-यतः मिथ्यात्वकर्मकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवके भुजाकार अथवा अवस्थित विभक्तिको एक समय करके पुनः तृतीय समयमे अल्पतरविभक्ति संभव है, अतः Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति २७२. णाणाजीचेहि भंगविचओ । २७३. संतकम्मिएस पयदं । २७४. सव्ये जीवा मिच्छत्त - सोलसकसाय-णवणोकसायाणं भुजगारट्ठिदिविहत्तिया च अप्पदरट्ठि दि विहत्तिया च अवट्टि दिडिदिविहत्तिया च । २७५. अनंताणुबंधीणमवत्तव्यं भजिदव्वं । २७६. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवदिअवत्तव्यविदिविहत्तिया भजिदव्या । २७७ अप्परविहत्तिया णियमा अत्थि । १३० २७८. णाणाजीवेहि कालो । २७९. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवट्ठिदअवत्तच्चडिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? २८०. जहण्णेण एगसमओ । २८१. एक समयमात्र जघन्य अन्तर काल कहा है । मिथ्यात्व की अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । क्योकि, अल्पतरविभक्तिको करनेवाले जीवके द्वारा भुजाकार अथवा अवस्थितविभक्तिके अन्तर्मुहूर्त तक करके पुनः अल्पतरविभक्तिके करनेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है । जिस प्रकार मिथ्यात्वकर्मकी भुजाकार, अवस्थित और अल्पतर विभक्तियोका अन्तर कहा है, उसी प्रकार मोहकर्मकी शेप प्रकृतियोका भी अन्तर जानना चाहिए । क्योकि उससे शेप प्रकृतियांकी अन्तर- प्ररूपणामें कोई विशेष अन्तर नहीं है । चूर्णिसू० [० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकार आदि विभक्तियोके भंगोका निर्णय किया जाता है । जिन जीवांके विवक्षित मोह - प्रकृतियोकी सत्ता पाई जाती हैं, ऐसे सत्कर्मिक जीवोमे यह अधिकार प्रकृत है । क्योंकि असत्कर्मिक जीवोमे भुजाकार आदि विभक्तियाँ का पाया जाना असम्भव है । मोहकर्मकी सत्तावाले सर्व जीव नियमसे मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नव नोकपाय, इन प्रकृतियोंकी भुजाकार स्थितिविभक्ति करनेवाले होते हैं, अल्पतर स्थितिविभक्ति करनेवाले होते हैं और अवस्थित स्थितिविभक्ति करनेवाले होते हैं । किन्तु अनन्तानुबन्धी चारो कपायोकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव भवितव्य है । अर्थात् कुछ जीव विभक्ति करनेवाले होते है और कुछ नहीं भी होते है । क्योंकि, किसी कालसे अनन्तानुबन्धी कपाय- -चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवोका निरन्तर मिथ्यात्वरूपसे परिणमन नही होता । इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियांकी भुजाकार, निरन्तर अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव भजितव्य है । क्योंकि, सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोका अभाव है । किन्तु इन दोनो प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव नियमसे होते हैं। क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिक सत्तावाले जीवांका त्रिकालमे भी कभी विरह नहीं होता है ।। २७२-२७७ ॥ चूर्णि १० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकार आदि विभक्तियोंके कालका निरूकरते हैं—सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियां के भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवांका कितना काल है ? जयन्य काल एक समय है । क्योकि, इन दोनों प्रकृतियोकी भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिको एक समय करके द्वितीय समयमै सभी जीवोकं अल्पतरविभक्तिरूपसे परिणमन देखा जाता है । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-अन्तर- निरूपण १३१ उकस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । २८२. अप्पदरडिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? २८३. सव्वद्धा । २८४. सेसाणं कम्माणं विहत्तिया सच्चे सव्वद्धा । २८५. वर अणताणुबंधीणमवत्तव्य द्विदिविहत्तियाणं जहणेण एगसमओ । २८६. उकस्से आलिया असंखेज्जदिभागो । २८७, अंतरं । २८८. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार - अवत्त व्यट्ठिदिविहत्तिअंतरं केवचिरं कालादो होदि १ २८९ जहणेण एगसमओ । २९० उकस्सेण चवीस अहोरते सादिरेगे । २६१. अवट्टिदडिदिविहत्ति अंतरं केवचिरं होदि १२९२. जहण्णेण एगसमओ । २९३. उकस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । २९४. अप्पदरद्विदिविहत्तिमंतरं केव चिरं । २९५ णत्थि अंतरं । २९६. सेसाणं कम्माणं सव्वेसिं 1 उक्त दोनो प्रकृतियोकी भुजाकार आदि तीनो विभक्तियोका उत्कृष्ट काल आवली के असंख्यातवें भाग के जितने समय होते है, तत्प्रमाण है । क्योकि अपने-अपने अन्तरकालके व्यतीत होने पर भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियोको करनेवाले जीव निरन्तर आवलीके असंख्यातवे भाग-प्रमाण काल तक पाये जाते हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोका कितना काल है ? सर्वकाल है । क्योकि, नाना जीवोकी अपेक्षा इन दोनो प्रकृतियोकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोका त्रिकालमे कभी भी वह नही होता है । उक्त दोनो प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष कमोंकी विभक्ति करनेवाले सर्व जीव सर्वकाल होते है, क्योकि अनन्त जीवराशिके भीतर भुजाकार, अवस्थित और अल्पतर विभक्तिवालोके विरहका अभाव है । किन्तु अनन्तानुबन्धी चारो कपायोकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोका जघन्यकाल एक समय है । क्योकि अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्त नही होते है । अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोका उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवे भाग प्रमाण है ।। २७८-२८६॥ चूर्णिस् ० ( ० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकार आदि विभक्तियोके अन्तरका निरूपण करते है - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियो की भुजाकार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है । क्योंकि, इन दोनो प्रकृतियोकी भुजाकार और अवक्तव्य विभक्तिको करके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोका जघन्य अन्तर एक समयमात्र पाया जाता है । तथा उन्हीका उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौवीस अहोरात्र है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोकी अवस्थितविभक्तिका कितना अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवे भाग- प्रमाण है । इन्हीं दोनो प्रकृतियोकी अल्पतरविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? इनका अन्तर नही है, क्योकि, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतरविभक्ति करनेवाले जीवोका कभी विरह नही होता है । मिथ्यात्व आदि छब्बीस कर्मोकी भुजाकार विभक्ति आदि सभी पदोका अन्तर नहीं है । क्योंकि, अनन्त एकेन्द्रियों में भुजा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति पदाणं णत्थि अंतरं । २९७. णवरि अणंताणुवंधीणं अवत्तव्यढिदिविहत्तियंतरं जहण्णेण एगसमओ। २९८. उकस्सेण चउचीसमहोरत्ते सादिरेगे। २९९. सण्णियासो । ३००. मिच्छत्तस्स जो भुजगारकम्मंसिओ सो सम्मत्तस्स सिया अप्पदरकम्मंसिओ सिया अकम्मंसिओ। ३०१. एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि । ३०२. सेसाणं णेदव्यो*। कार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोका सर्वकाल अस्तित्व सम्भव है। केवल अनन्तानुवन्धी चारो कपायोकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौवीस अहोरात्र है। क्योकि, सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोके अन्तर-कालके साथ मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोके अन्तर-कालकी समानता है ॥२८७-२९८॥ चूर्णिसू०-अव भुजाकार आदि विभक्तियोंके सन्निकर्षका निरूपण करते हैं जो जीव मिथ्यात्वकर्मकी भुजाकार विभक्तिवाला होता है, वह सम्यक्त्वप्रकृतिकी कदाचित् अल्पतरविभक्तिवाला होता है और कदाचित् अकर्माशिक अर्थात् सत्ता-रहित होता है। इसका कारण यह है कि यदि सम्यक्त्वप्रकृतिकी सत्ता हो, तो मिथ्यात्वकी भुजाकारविभक्तिवाले जीवमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्ति होती है; अन्यथा नहीं होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका भी सन्निकर्प जानना चाहिए । अर्थात् मिथ्यात्वकी भुजाकारविभक्तिवाले जीवके यदि सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता है तो नियमसे अल्पतरावेभक्ति होगी, अन्यथा नहीं । इसी प्रकार शेप कर्मोंका भी सन्निकर्प जान लेना चाहिए ॥२९९-३०२॥ विशेपार्थ-चूर्णिसूत्रमे शेप कर्मोंके जिस सन्निकर्षको जान लेनेकी सूचना की गई है, वह इस प्रकार है-जो जीव मिथ्यात्वकी भुजाकारविभक्तिवाला है, वह सोलहो कपायों और नवो नोकपायोकी कदाचित् भुजाकारविभक्तिवाला है, कदाचित् अल्पतरविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थितविभक्तिवाला है। इसी प्रकार मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका भी सन्निकर्प जानना चाहिए। जो मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिवाला है, उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता है । यदि होता है तो कदाचित् अल्पतरविभक्तिवाला, कदाचित् भुजाकारविभक्तिवाला, कदाचित अवस्थितविभक्तिवाला और कदाचित् अवक्तव्यविभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। वह अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कपाय और नव नोकपायोकी कदाचित भुजाकारविभक्तिवाला होता है, कदाचित् अल्पतरविभक्तिवाला होता है और कदाचित अवस्थित विभक्तिवाला होता है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीकयाय-चतुष्कका भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । केवल विशेषता यह है कि वह कदाचिन अवक्तव्यविभक्तिवाला होता है ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह चूर्णिसूत्र मुद्रित नहीं है, किन्तु इसकी टीकाको सूत्र बना दिया गा ६। जो कि इस प्रकार है-'सेसाणं कम्माणं राणिमा जाणिदण णेदवो'। (देखो पृष्ठ १२३ पति ६) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-सन्निकर्ष-निरूपण और कदाचित् अविभक्तिवाला भी होता है। जो जीव सम्यक्त्वप्रकृतिकी भुजाकारविभक्ति करनेवाला है, वह मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नव नोकपायोकी नियमसे अल्पतरविभक्ति करनेवाला है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे भुजाकारविभक्ति करनेवाला है । इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका भी सन्निकर्प करना चाहिए। किन्तु जो जीव सम्यक्त्वप्रकृतिकी अवस्थितविभक्ति करनेवाला होता है, वह सम्यग्मिथ्यात्वकी भी नियमसे अवस्थितविभक्ति करनेवाला होता है । जो जीव सम्यक्त्वप्रकृतिकी अवक्तव्यविभक्ति करनेवाला होता है, वह सम्यग्मिथ्यात्वकी कदाचित् भुजाकारविभक्ति करनेवाला होता है, कदाचित् अवक्तव्यविभक्ति करनेवाला होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी जो अल्पतरविभक्ति करनेवाला होता है, वह मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नव नोकषायोकी कदाचित् भुजाकार विभक्ति, कदाचित् अल्पतरविभक्ति और कदाचित् अवस्थितविभक्ति करनेवाला होता है । अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी कदाचित् अवक्तव्यविभक्तिवाला भी होता है। पर सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिवाला नियमसे होता है। किन्तु मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी कदाचित् अविभक्तिवाला भी होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी विभक्तियोका सन्निकर्प जानना चाहिए । किन्तु केवल विशेषता यह है कि जो सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिवाला है, वह सम्यक्त्वप्रकृतिका स्यात् सत्कर्मिक है, अतः अविभक्तिवाला भी होता है। परन्तु जो सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिवाला है वह नियमसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी अवक्तव्यविभक्तिवाला होता है। अनन्तानुवन्धी क्रोधकी जो भुजाकारविभक्ति करनेवाला जीव है, वह मिथ्यात्व, अवशिष्ट पन्द्रह कपाय और नव नोकषायोकी कदाचित् भुजाकारविभक्ति करनेवाला, कदाचित् अल्पतरविभक्ति करनेवाला और कदाचित् अवस्थितविभक्ति करनेवाला होता है। उस जीवके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो कर्म कदाचित् होते है और कदाचित् नहीं होते हैं । यदि होते हैं, तो नियमसे उनकी अल्पतरविभक्ति करनेवाला होता है। इसी प्रकारसे अवस्थितविभक्तिके विषयमे भी कहना चाहिए । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जो अवक्तव्यविभक्ति करनेवाला है, वह मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण आदि वारह कपाय और नव नोकपायोकी नियमसे अल्पतरविभक्ति करनेवाला होता है। अनन्तानुवन्धी मान आदि तीन कपायोकी नियमसे अवक्तव्यविभक्ति करनेवाला होता है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अल्पतर विभक्तिकरनेवाला होता है। अनन्तानुवन्धी क्रोधकी जो अल्पतरविभक्ति करनेवाला होता है, वह मिथ्यात्व, शेप पन्द्रह कपाय और नव नोकपायोकी कदाचिन भुजाकारविभक्ति, अल्पतरविभक्ति और अवस्थितविभक्ति करनेवाला होता है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी कदाचित विभक्ति करनेवाला और कदाचिन विभक्ति नहीं करनेवाला होता है । यदि विभक्ति करनेवाला होता है, तो कदाचित् भुजाकार, कदाचित अल्पतर, कदाचिन अवस्थित और कदाचिन् अवक्तव्यविभक्ति करनेवाला होता है। इसी प्रकारने अनन्तानुबन्धी Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति ३०३. अप्पाबहुअं । मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा भुजगारद्विदिविहत्तिया । ३०४. अवद्विदहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ३०५. अप्पदरहिदिविहत्तिया संखेजगुणा । ३०६. एवं वारसकसाय-णवणोकसायाणं । ३०७. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवद्विदहिदिविहत्तिया । ३०८. भुजगारहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ३०९. अवत्तव्यद्विदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ३१०. अप्पदरहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ३११. अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वहिदि विहत्तिया । ३१२. भुजगारद्विदिविहत्तिया अणंतगुणा । ३१३. अवडिदहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ३१४. अप्पदरहिदिविहत्तिया संखेजगुणा । मान, माया और लोभ कषायोका भी विभक्तिसम्बन्धी सन्निकर्प जानना चाहिए । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण आदि वारह कपाय और नव नोकपायोकी विभक्तिसम्बन्धी सन्निकर्प जानना चाहिए । किन्तु इन काँकी अल्पतरविभक्तिवाला जीव मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी अविभक्तिवाला भी होता है । इनके अर्थात् बारह कपाय और नव नोकपायोकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवके अनन्तानुवन्धी-चतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका सन्निकर्प मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए । यह उपयुक्त सन्निकर्प उपशम और क्षपकश्रेणीकी विवक्षा नहीं करके कहा गया है, क्योकि उनकी विवक्षा करनेपर कुछ और भी विशेषता है, सो उसे आगमके अनुसार जानना चाहिए। चूर्णिसू०-अव उक्त भुजाकार आदि विभक्तिवाले जीवोंकी संख्या-निर्णयके लिए अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार कहते है। मिथ्यात्वप्रकृतिकी भुजाकारस्थितिविभक्तिवाले जीव आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम है। मिथ्यात्वकी भुजाकार स्थितिविभक्तिवालोसे मिथ्यात्वकी अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। मिथ्यात्वकी अवस्थितस्थितिविभक्तिवालोंसे मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणित है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कपाय और नव नोकपायोके भुजाकार आदि विभक्तिवाले जीवोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए ॥३०३-३०६॥ ___ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोकी अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीव आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम है। इनसे इन्ही दोनो प्रकृतियोके भुजाकारस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित है। इनसे इन्हीं दोनो प्रकृतियोकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। इनसे इन्हीं दोनो प्रकृतियोकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीव असंरयातगुणित हैं ॥३०७-३१०॥ अनन्तानुवन्धी चारों कपायोकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम है। अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवालांसे भुजाकारस्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणित हैं। अनन्तानुवन्धीकी भुजाकार स्थितिविभक्तिवालासे अवस्थितस्थिनिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। अनन्तानुवन्धीकी अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोने अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणित है ॥३११-३१४।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-पदनिक्षेप-निरूपण १३५ ३१५. एत्तो पदणिक्खेवो । ३१६. पदणिक्खेवे परूवणा सामित्तमप्पाबहुअं च । ३१७. अप्पावहुए पयदं। ३१८. मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । ३१९. उक्कस्सिया वड्डी अवट्ठाणं च सरिसा विसेसाहिया । ३२०. एवं सबकम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं । ३२१. णवरि णqसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणमुक्क. स्सिया वड्डी अवठ्ठाण थोवा । ३२२. उक्कस्सिया हाणी विसेसाहिया । ३२३. सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवमुक्कस्समवहाणं । ३२४. उक्कस्सिया हाणी असंखेज्जगुणा । ३२५. उक्कस्सिया बड्डी विसेसाहिया । ३२६. जहणिया वड्डी जहणिया हाणी जहण्णमवठ्ठाणं च सरिसाणि । चूर्णिसू०-अव इससे आगे पदनिक्षेप कहते है ॥३१५॥ विशेषार्थ-भुजाकारके विशेष निरूपण करनेको पदनिक्षेप कहते है, क्योकि, यहॉपर भुजाकार आदि पदोकी वृद्धि, हानि और अवस्थानसंज्ञा करके जघन्य और उत्कृष्ट विशेषणो द्वारा उनका विशेष निर्णय किया गया है । चूर्णिसू०-पदनिक्षेप अधिकारमे प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार है ।।३१६॥ विशेपार्थ-किन-किन प्रकृतियोमे वृद्धि हानि, और अवस्थान होते है और किनकिनमे नहीं, इस बातका निरूपण प्ररूपणा-अनुयोगद्वारमे किया गया है। मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोकी वृद्धि, हानि आदि किस जीवके होते है, इस प्रकारसे उनके स्वामियोका वर्णन स्वामित्व अनुयोगद्वारमें किया गया है । इन दोनो अनुयोगद्वारोके सुगम होनेसे यतिवृपभाचार्यने उनका व्याख्यान नहीं किया है। चूर्णिसू०-अल्पवहुत्व अनुयोगद्वार प्रकृत है । अर्थात् अब पदनिक्षेपसम्बन्धी अल्पवहुत्वको कहते हैं । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि आगे कहे जानेवाले पदोंकी अपेक्षा सबसे कम होती है । इससे मिथ्यात्वकी वृद्धि और अवस्थान ये दोनो परम्पर सदृश हो करके भी विशेष अधिक होते है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोको छोड़ करके शेप सर्वकर्मोकी वृद्धि हानि और अवस्थान जानना चाहिए । किन्तु नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, इन प्रकृतियोकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे कम होते हैं । इससे इन्ही प्रकृतियोकी उत्कृष्ट हानि विशेप अधिक होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे कम है। इससे इन्हीं दोनो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणित होती है । इससे इन्ही दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेप अधिक होती है ॥३१७.३२५॥ चूर्णिसू०-मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जयन्य अवस्थान सहश होते हैं, क्योकि, इन सबके कालका प्रमाण एक समय है। इसलिए उनमे अल्पबहुत्व नहीं है ॥३२६॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति ____३२७. एत्तो वड्डी' । ३२८. मिच्छत्तस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्डी हाणी, संखेजभागवड्डी हाणी, संखेज्जगुणवड्डी हाणी, असंखेज्जगुणहाणी अवठ्ठाणं । ३२९. एवं सव्वकम्माणं । ३३०. णवरि अणंताणुवंधीणमवत्तव्यं सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमसंखेजगुणवड्ढी अवत्तव्यं च अस्थि । चूर्णिसू०-अब इससे आगे वृद्धि नामक अनुयोगद्वारको कहते हैं ॥३२७|| विशेपार्थ-पहले पदनिक्षेप नामक जो अनुयोगद्वार कह आये है, उसीके वृद्धि, हानि और अवस्थानके द्वारा विशेष वर्णन करनेको वृद्धि कहते है। इसके समुत्कीर्तना, स्वामित्व आदि तेरह अनुयोगद्वार है। उनमेसे चूर्णिकारने यहॉपर समुत्कीर्तना, काल, अन्तर और अल्पवहुत्वका ही आगे प्रतिपादन किया है और शेष अनुयोगद्वारोको सुगम समझकर उनका वर्णन नहीं किया है। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी असंख्यातभागवृद्धि होती है, असंख्यातभागहानि होती है, संख्यातभागवृद्धि होती है, संख्यातभागहानि होती है; संख्यातगुणवृद्धि होती है, संख्यातगुणहानि होती है, असंख्यातगुणहानि होती है और अवस्थान भी होता है। जिस प्रकार मिथ्यात्वकर्मकी तीन प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है, उसी प्रकार शेप सर्व कर्मोकी वृद्धि हानि और अवस्थान होते है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थिति, तथा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यस्थिति होती है ॥३२८-३३०॥ विशेषार्थ-अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थिति कहनेका कारण यह है कि अनन्तानुवन्धी कपायचतुष्ककी विसंयोजना किए हुए सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्व ग्रहण करनेपर जो अनन्तानुबन्धीका नवीन बन्ध एवं सत्त्व होता है, उसका यहॉ सद्भाव पाया जाता है । इस प्रकारके स्थितिसत्त्वको अवक्तव्य कहनेका कारण यह है कि इसकी गणना भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित भंगामे नहीं की जा सकती है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियाकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्य स्थिति भी होती है । क्योकि, सबजघन्यस्थितिके चरमउद्वेलनाकांडकप्रमाण स्थितिसत्त्ववाले मिथ्यादृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्व ग्रहण करनेपर असंख्यातगुणवृद्धि, तथा दोनो प्रकृतियोंकी सत्तासे रहित सादिमिथ्यादृष्टि अथवा अनादिमिथ्याष्टि जीवके प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर उनकी अवक्तव्यस्थिति पाई जाती है। १ का वड्डी णाम ? पदणिक्खेवविसेसो वढी । त जहा-पदणिक्खेवे उक्कस्सिया वढी उपसिया हाणा उकत्समवाण च परुविद, ताणि वडि-हाणि-अवटाणाणि एगल्वाणि ण होति, अणेगरुवाणि क्ति जाणावेदि तेण पदणिक्खेववितेसो वद्वि त्ति घेत्तव्वं । २ किमवाण ? पुबिल्लट्टिदिसतसमाढिदाण बवणमवाण णाम | ३ अण ताणुव धिचउक विसजोइटसम्मादिट्टिणा मिच्छत्ते गहिदे अवतन हाद पुरगबिजमाणटिदिसतसमुप्पत्तीदो।xxxवदि-हाणि अवठ्ठाणाणमभावेण भुजगार अप्यदर-अबाद सद्देहि ण बुञ्चदि नि अवत्तव्यम्भुवगमादो । जयघ० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिविभक्ति-काल-निरूपण ૨૭ ३३१. एगजीवेण कालो । ३३२. मिच्छत्तस्स तिविहाए वड्डीए जहण्णेण एगसमओ । ३३३. उक्कस्सेण वे समया । ३३४. असंखेज्जभागहाणीए जहणेण एगसमओ । ३३५ उक्कस्सेण तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । चूर्णसू ० - अब एक जीव- सम्बन्धी उक्त वृद्धि, हानि आदिके कालको कहते हैंभिध्यात्वकर्मकी असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि, इन तीनो प्रकार - की वृद्धिका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है ॥ ३३१-३३३॥ विशेषार्थ - अद्धाक्षय से अथवा संकुशक्षयसे किसी भी जीवके अपने विद्यमान स्थितिसत्त्व के ऊपर एक समय बढ़ाकर स्थितिवन्ध करके द्वितीय समय मे अल्पतर अथवा अवस्थितविभक्तिके करनेपर उक्त तीनो वृद्धियो के होनेका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है । मिथ्यात्वकर्मकी उक्त तीनो प्रकारकी वृद्धिका उत्कृष्टकाल दो समय कहा है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - कोई एक एकेन्द्रिय जीव एक स्थितिको वांधता हुआ विद्यमान था । उस स्थिति के कालक्षयसे एक समय असंख्यात भागवृद्धिप्रमाण स्थितिको बांधकर फिर भी उसके द्वितीय समयमे संक्लेशक्षय से असंख्यात भागवृद्धिप्रमाण स्थितिबन्धकर तृतीय समय मे अल्पतर अथवा अवस्थित स्थितिबन्धके करनेपर असंख्यात भागवृद्धिका ढ़ो समय-प्रमाण उत्कृष्टकाल लब्ध हो जाता है । इसी प्रकार द्वीन्द्रियादि जीवोके भी दो समयोकी प्ररूपणा जानना चाहिए । चूर्णिसू० - मिथ्यात्वकर्मकी असंख्यात भागहानिकां जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है ।। ३३४-३३५॥ विशेषार्थ-सम-स्थितिको वांधनेवाले किसी जीवके पुनः विद्यमान स्थितिसत्त्वसे नीचे एक समय उत्तर करके स्थितिबन्ध कर तदनन्तर उपरिम समयमे विद्यमान स्थितिसत्त्वके समान स्थितिबन्धके करनेपर असंख्यात भागहानिका जघन्यकाल एक समयमात्र पाया जाता है । मिध्यात्वकर्मकी असंख्यात भागहानिका उत्कृष्टकाल सातिरेक एकसौ तिरेसठ सागरोपम है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- वृद्धि अथवा अवस्थित स्थितिविभक्तिमे विद्यमान कोई एक जीव सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल तक अल्पतरस्थितिविभक्तिको करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः पूर्वमे बतलाये गये क्रमसे दो बार छयासठ सागरोपमकाल तक परिभ्रमण कर तत्पश्चात इकतीस सागरोपमकी स्थितिवाले ग्रैवेयक देवोमे उत्पन्न हो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहाँ अपनी आयुको पूरी करके मरकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । वहाँ अन्तमुहूर्त के पश्चात् ही संक्लेगसे पूरित हो भुजाकारस्थितिबन्धको प्राप्त हुआ । इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक एकसौ तिरेसठ सागरोपमप्रमाण उत्कृष्टकाल होता है । उपर्युक्त प्रकार से मिथ्यात्व की असंख्यात भागहानिका उत्कृष्टकाल बतलानेके पश्चात् जयधवलाकार कहते हैं कि एक सौ तिरेसठ सागरोपमकालको जो अन्तर्मुहूर्तसे अधिक कहा गया है, वह कम है, अतः उसे न ग्रहणकर पल्योपमके असंख्यातवे भागसे अधिक कालको ग्रहण करना चाहिए । उसके लाने के लिए वे कहते है कि दो वार छयासठ सागरोपम परिभ्रमण करने के पूर्व विवक्षित १८ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाथ पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति ३३६. संखेज्जभागहाणीए जहणेण 'एगसमओ । ३३७. उकस्सेण जहण्णमसंखेज्जयं तिरूवूणयमेतिए समए । ३३८. संखेज्जगुणहाणि असंखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुकस्सेण एगसमओ । ३३९. अवदिट्ठिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? ३४०. जहणेण एगसमओ । ३४१. उक्कस्सेण अंतो मुहुत्तं । १३८ जीव भोगभूमिमे उत्पन्न हुआ और वहॉपर वेदक-प्रायोग्य दीर्घ- उद्वेलनकालप्रमित आयुष रहनेपर प्रथमसम्यक्त्वको ग्रहणकर और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर हॉपर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालको विताकर अपनी आयुके अन्तमे वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके देवोमे उत्पन्न हुआ और फिर पूर्वके समान एक सौ तिरेसठ सागरकाल तक देव और मनुष्योमे परिभ्रमण करके अन्त मे मनुष्योंमे उत्पन्न हुआ और वहॉपर भुजाकारबन्ध किया । इस प्रकार से पल्योपमके असंख्यातवे भागसे अधि तिरेसठ सागरोपम मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका उत्कृष्टकाल सिद्ध हो जाता 1 चूर्णिसू० - मिथ्यात्वकर्मकी संख्यात भागहानिका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन रूपसे कम जघन्यपरीता संख्यात के समयप्रमाण है ॥ ३३६-३३७॥ विशेषार्थ - दर्शनमोहके क्षपणकालमे अथवा अन्य समय पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिखंडोके घात करनेपर संख्यात भागहानिका एक समयमात्र जघन्यकाल पाया जाता है । संख्यात भागहानिका उत्कृष्टकाल तीनरूपसे कम जघन्य परीतासंख्यात के जितने समय होते है, तत्प्रमाण है । इसका कारण यह है कि दर्शनमोहके क्षपणकालमे मिध्यात्वकर्मके चरम स्थितिखंडके घात कर दिये जानेपर तथा उद्यावलीने उत्कृष्ट संख्यातमात्र निषेकस्थितियोके अवशिष्ट रह जानेपर संख्यात भागहानिका प्रारम्भ होता है । वहाँ से लगाकर तबतक संख्यातभागहानि होती हुई चली जाती है, जबतक कि उदयावलीमे तीन समयकालवाली दो निषेकस्थितियाँ अवस्थित रहती है । इस प्रकार सूत्रोक्त उत्कृष्टकाल सिद्ध होता है । चूर्णिसू० - मिथ्यात्वकर्मकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि, इन दोनोका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है ॥ ३३८ ॥ विशेषार्थ-३ - इसका कारण यह है कि दर्शनमोहके क्षपणकालमे पल्योपमप्रमित स्थिति - सत्त्वसे लगाकर दूरापकृष्टिप्रमित स्थितिसत्त्वके अवशिष्ट रहने तक मध्यवर्त्ती अन्तरकालमे पतमान स्थितिखंडोके पतित होनेपर संख्यातगुणहानि होती है और उसका काल एक समय ही होता है, क्योकि चरमफालीको छोड़कर अन्यत्र मिध्यात्वकी संख्यातगुणहानि नहीं होती है । तथा दूरापकृष्टसे लेकर चरम स्थितिखंडकी चरमफाली तक मध्यवर्ती अन्तरालमे स्थितिखंडो के पतित होनेपर मिथ्यात्वकर्मकी असंख्यातगुणहानि होती है । इसका भी काल एक समय ही है, क्योकि, स्थितिखंडोकी चरमफालीने ही मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि पाई जाती है । चूर्णि सू० - मिथ्यात्व कर्मकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥३३९-३४१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-अन्तर-निरूपण ३४२. सेसाणं पि कम्माणमेदेण वीजपदेण णेदव्वं । ३४३. एगजीवेण अंतरं। ३४४. मिच्छत्तस्स असंखेज्जभागवड्डि-अवट्ठाणद्विदिविहत्तियंतरं केवचिरं । ३४५. जहण्णेण एगसमयं । ३४६. उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । ३४७. संखेन्जभागवड्डि-हाणि-संखेज्जगुणवड्डि-हाणिहिदिविहत्तियंतरं जहष्णेण एगसमओ। हाणी अंतोमुहत्तं । ३४८, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ३४९. असंखेज्जगुणहाणिहिदिविहत्ति-अंतरं जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३५०. असंखेज्जभागहाणिद्विदिविहत्तियंतरं जहण्णेण एगसमओ । ३५१. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३५२. सेसाणं कम्पाणमेदेण बीजपदेण अणुमग्गिदव्यं । विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि भुजाकार अथवा अल्पतर स्थितिविभक्तिको करके जघन्यसे एक समय और उत्कर्पसे अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थितविभक्ति करनेपर सूत्रोक्त जघन्य और उत्कृष्टकाल पाया जाता है । चूर्णिसू०-जिस प्रकारसे मिथ्यात्वकर्मकी असंख्यातभागहानि-वृद्धि आदिके जघन्य और उत्कृष्टकालोकी प्ररूपणा की है उसी प्रकारसे शेप कर्मोंकी भी हानि और वृद्धियोके जघन्य तथा उत्कृष्ट कालोंको इसी उपयुक्त वीजपदके द्वारा जान लेना चाहिए ॥३४२॥ ___ चूर्णिसू०-अव उक्त वृद्धि, हानि आदि-सम्बन्धी अन्तरका एक जीवकी अपेक्षा निरूपण किया जाता है-मिथ्यात्वकर्मकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थानस्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है ॥३४३-३४५॥ विशेषार्थ-क्योकि, असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थानको पृथक्-पृथक् करनेवाले दो जीवोके द्वितीय समयमें विवक्षित पदके विरुद्ध पदमे जाकर अन्तरको प्राप्त हो तृतीय समयमें पुनः विवक्षित पदसे परिणत होनेपर एक समयप्रमाण अन्तर पाया जाता है । ___चूर्णिसू०-उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्यसे अधिक एकसौ तिरेसठ सागर है ॥३४६॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि उक्त पद-परिणत जीवोके असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानियोके उत्कृष्टकालके साथ अन्तरको प्राप्त होकर पुनः विवक्षित पदसे परिणत होनेपर सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है। चूर्णिसू० -मिथ्यात्वकर्मकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि, इन स्थितिविभक्तियोका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि, इन स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इन सब स्थितिविभक्तियोका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुगलपरिवर्तनप्रमाण है ।।३४७-३४८॥ चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी असंख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार शेप काँकी वृद्धि और हानि-सम्बन्धी अन्तरकालका भी इसी उपयुक्त बीजपदसे अनुमार्गण करना चाहिए १३४९-३५२।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति ३५३. अप्पाबहुअं । ३५४. मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिकम्संसिया । ३५५. संखेज्जगुणहाणिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३५६. संखेज्जभागहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३५७. संखेज्जगुणवडिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३५८. संखेज्जभागवह्निकम्मंसिया संखेजगुणा । ३५९. असंखेज्जभागवह्निकम्मंसिया अनंतगुणा । ३६०. अवद्विदकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३६१. असंखेज्जभागहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३६२. एवं बारसकसाय- णवणोकसायाणं । ३६३. सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिकम्मंसिया । ३६४. अवट्टिदकम्मंचूर्णिसू० [0- अव मोहप्रकृतियोकी वृद्धि-हानिरूप स्थितिविभक्तिका अल्पबहुत्व कहते है-मिथ्यात्वकर्मकी स्थितिविभक्तिके असंख्यातगुणहानि करनेवाले जीव आगे कहे जानेवाले पदोकी अपेक्षा सवसे कम है । क्योकि, दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीव संख्यात ही होते है | असंख्यातगुणहानि करनेवाले जीवोसे संख्यातगुणहानि करनेवाले जीव असंख्यात - गुणित हैं । क्योकि, मिथ्यात्व की संख्यातगुणहानि करनेवाले जीव जगत्प्रतर के असंख्यातवे भागप्रति संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोके असंख्यातवे भागप्रमाण हैं । संख्यातगुणहानि करनेवाले जीवोसे संख्यात भागहानि करनेवाले जीव संख्यातगुणित हैं ।। ३५३-३५६ ॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि तीव्र विशुद्धिसे परिणत जीवोकी अपेक्षा मध्यम विशुद्धिसे परिणत जीव संख्यातगुणित होते हैं । दूसरी बात यह है कि मिथ्यात्कर्मकी स्थितिविभक्ति-सम्बन्धी संख्यातगुणहानिको संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही करते है, किन्तु संख्यातभागहानिको तो संज्ञी पंचेद्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय जीव भी करते है, इसलिए संख्यातगुणहानिविभक्ति करनेवाले जीवोसे संख्यात भागहानिविभक्ति करनेवाले जीव संख्यातगुणित सिद्ध होते है । 0 चूर्णिसू० - मिध्यात्वकर्मकी संख्या भागहानि करनेवाले जीवोंसे संख्यातगुणवृद्धि करनेवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। मिध्यात्वकी संख्यातगुणवृद्धि करनेवाले जीवोसे संख्यातभागवृद्धि करनेवाले जीव संख्यातगुणित हैं । मिध्यात्वकी संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोसे असंख्यातभागवृद्धि करनेवाले जीव अनन्तगुणित है । मिध्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धिवाले जीवोसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं । मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवांसे मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि करनेवाले जीव संख्यात्तगुणित हैं । जिस प्रकार से मिध्यात्वकर्मकी वृद्धि, हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिका अल्पबहुत्व कहा गया है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण आदि वारह कषाय और नव नोकपायोका वृद्धि, हानि और अवस्थानसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए || ३५७-३६२॥ अब सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिकी वृद्धि - हानिका अल्पबहुत्व कहते हैंचूर्णिसू० ० - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियो की असंख्यातगुणहानिहैं वाले जीव आगे कहे जानेवाले सर्व पदांकी अपेक्षा सबसे कम 1 असंख्यातगुणहानिवाले Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-अल्पवहुत्व-निरूपण १४१ सिया असंखेज्जगुणा । ३६५. असंखेज्जभागवड्डिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३६६. असंखेज्जगुणवड्डिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३६७. संखेजगुणवड्डिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३६८. संखेज्जभागवडिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३६९. संखेज्जगुणहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३७०. संखेज्जभागहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३७१. अवत्तव्बकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३७२. असंखेज्जभागहाणिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३७३. अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यकम्मंसिया । ३७४. असंखेज्जगुणहाणिकस्मंसिया संखेज्जगुणा । ३७५. सेसाणि पदाणि मिच्छत्तभंगो। ३७६. हिदिसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणा अप्पार हुग्रं च । ३७७. परूवणा । ३७८. मिच्छत्तस्स द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि उक्कस्सियं हिदिमादि कादूण जाव एइंदियपाओग्गकम्म जहष्णयं ताव णिरंतराणि अस्थि । जीवोसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित है। अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणित है। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीवोसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीवोसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणित है । संख्यातगुणवृद्धिवाले जीवोसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणित है। संख्यात भागवृद्धिवालोसे संख्यातगुणहानिवाले जीव संख्यातगुणित है। संख्यातगुणहानिवालोसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणित हैं। संख्यातभागहानिवालोसे अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं । अवक्तव्यस्थितिविभक्ति वालोसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणित है ।।३६३-३७२॥ अब अनन्तानुवन्धी कपायचतुष्कका वृद्धि-हानि-सम्बन्धी अल्पवहुत्व कहते है चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धी चारो कपायोकी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति करनेवाले जीव आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम है । अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोसे असंख्यातगुणहानि करनेवाले जीव संख्यातगुणित है । शेप पदोका अल्पबहुत्व मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए ॥३७३-३७५॥ विशेपार्थ-इस सूत्रसे सूचित पदोका अल्पबहुत्व इस प्रकार है-अनन्तानुवन्धीकी असंख्यातगुणहानि करनेवालोसे संख्यातगुणहानि करनेवाले असंख्यातगुणित है। इनसे संख्यातभागहानि करनेवाले सख्यातगुणित है । इनसे संख्यात गुणवृद्धि करनेवाले असंख्यातगुणित है । इससे संख्यातभागवृद्धि करनेवाले संख्यातगुणित है। इनसे असंख्यातभानवृद्धि करनेवाले अनंतगुणित है। इनसे अवस्थितविभक्ति करनेवाले असंख्यातगुणित है । इनसे असंख्यातभागहानि करनेवाले जीव संख्यातगुणित है। चर्णिसू० -अव मोहकर्मके स्थितिसत्कर्मस्थानोकी प्रत्पणा और अल्पबहत्य कहते है । प्ररूपणा इस प्रकार है-मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको आदि करके एकेन्द्रिय-प्रायोग्य जघन्य कर्मका स्थितिसत्त्व प्राप्त होने तक निरन्तर मिथ्यात्वके स्थिनिसत्कर्मस्थान होते है ॥३७६-३७८॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ कसाय पाहुड सुत्त [ ३ स्थितिविभक्ति ३७९. अण्णाणि पुण दंसणमोहक्खवयस्स अणियट्टिपविट्ठस्स जम्हि द्विदिसंतकम्ममेह दियकम्मस्स हेह्रदो जादं तत्तो पाए अंतोमुहुत्तमेत्ताणि हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि लभंति । ३८०. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि सत्तरिसागरोपमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तूणाओ । ३८१. अपच्छिमेण उव्वेलणकंडएण च ऊणाओ एत्तियाणि हाणाणि । विशेषार्थ-मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमाण होती है और इसका सत्त्व तीव्र संक्लेश-परिणामोंसे मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट बन्ध करनेवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यावष्टि जीवके प्रथम समयमे पाया जाता है। यह मिथ्यात्वका सर्वोत्कृष्ट प्रथम स्थितिसत्कर्मस्थान है। एक समय कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमाण बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टिके दूसग स्थितिसत्कर्मस्थान होता है । दो समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण वन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टिके तीसरा स्थितिसत्कर्मस्थान होता है । इस प्रकार एक-एक समय कम करनेपर चौथा, पॉचवॉ आदि स्थान होते जाते है । यह क्रम तब तक निरन्तर जारी रखना चाहिए जबतक कि मिथ्यात्वका सर्वजघन्य स्थितिवन्ध प्राप्त न हो जाय । मिथ्यात्वकर्मके सर्वजघन्य स्थितिवन्धका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम एक सागरोपम है और वह अतिहीन संक्लेश-परिणामवाले एकेन्द्रिय जीवके पाया जाता है। कहनेका अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लगाकर सर्वजघन्य स्थितिवन्ध तक एक-एक समय कम करनेपर जितने स्थितिके भेद होते है, उतने ही मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान होते है । इनका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम एक सागरोपमसे हीन सत्तर सागरोपमके जितने समय होते है, उतना है। ये उपर्युक्त स्थितिसत्कर्मस्थान मिथ्यात्वकर्मका बन्ध करनेवाले जीवोके पाये जाते हैं । इनके अतिरिक्त ऐसे और भी मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान है, जो कि मिथ्यात्वकर्मके वन्धसे रहित, किन्तु मिथ्यात्वकी सत्ता रखनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके पाये जाते है । उनका निरूपण करनेके लिए यतिवृपभाचार्य उत्तरसूत्र कहते हैं - चूर्णिम् ०-इनके अतिरिक्त मिथ्यात्वकर्मके अन्य भी स्थितिसत्कर्मस्थान होते है, जो कि अनिवृत्तिकरणमे प्रविष्ट हुए दर्शनमोह-क्षपकके जिस समयमे मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म एकेन्द्रिय जीवके वन्ध-प्रायोग्य स्थितिसत्कर्मके नीचे हो जाता है, उस समय पाये जाते है । वे अन्तर्मुहूर्तके जितने समय है, उतने प्रमाण होते हैं ॥३७९॥ _____ अव सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वप्रकृति के स्थितिसत्कर्म स्थान कहते है चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों कर्मोंके स्थितिसत्कर्मस्थान अन्तर्मुहूर्तसे कम सत्तरकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण होते है । तथा अन्तिम उद्वेलनाकांडकसे भी न्यून होते हैं ॥३८०-३८१।। विशेपार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके स्थितिसत्त्वस्थान केवल अन्तर्मुहर्त Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिविभक्ति - अल्पबहुत्व-निरूपण ३८२. जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसाणं कम्माणं । ३८३. अभवसिद्धियपाओग्गे जेसिं कम्मंसाणमग्गट्टिदिसंतकम्मं तुल्लं जहणगं *दिसंतकम्मं थोवं तेसिं कम्मंसाणं ठाणाणि बहुआणि । १४३ गा० २२ ] से ही कम नहीं होते है — किन्तु चरम उद्वेलनाकांडकसे भी कम होते है । क्योकि, चरम उद्वेलनाकांडककी चरम फालीप्रमित स्थितियोका युगपत् पतन होनेसे उनके स्थान - सम्बन्धी विकल्प नही पाये जाते है । अतएव एक अन्तर्मुहूर्त और चरम उद्वेलनाकांडक का जितना प्रमाण है उससे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम कालके जितने समय होते है, उतने सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान होते है, ऐसा जानना चाहिए । चूर्णिसू० - जिस प्रकार से मिथ्यात्वकर्मके स्थितिसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा की है उसी प्रकारसे शेप कर्मों के अर्थात् सोलह कपाय और नव नोकपायोके स्थितिसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा करना चाहिए || ३८२ ॥ अब उपर्युक्त विधानसे उत्पन्न हुए स्थितिसत्कर्मस्थानोके अल्पबहुत्व साधन करने के लिए उत्तरसूत्र कहते है - चूर्णिसू० - अभव्यसिद्धिक जीवके प्रायोग्य कर्मोंके उत्कृष्ट स्थिति और अनुभागको वॉधनेवाले जिस मिथ्यादृष्टि जीवसे जिन कर्माशो ( कर्म- प्रकृतियो ) का अग्र ( उत्कृष्ट ) स्थिति - सत्कर्म समान है और जघन्य स्थितिसत्कर्म समान नहीं है, किन्तु अल्प है, उन कर्माशोके स्थान बहुत होते है ॥ ३८३॥ विशेषार्थ - अभव्योके धने योग्य कर्मोकी स्थितिसत्त्ववाले जिस मिध्यादृष्टि जीवमें उत्कृष्टस्थिति सत्कर्मके समान होते हुए भी जघन्य स्थितिसत्कर्म समान नहीं होते है, उन कर्मोंके सत्कर्मस्थान बहुत होनेका कारण यह है कि ऊपरकी अपेक्षा नीचे सत्कर्मस्थान अधिक पाये जाते हैं । इसका उदाहरण इस प्रकार है— कोई एक एकेन्द्रिय जीव पल्योपमके असंख्यातवे भागसे हीन चार बटे सात ( 3 ) सागर - प्रमाण कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिको बोधता हुआ विद्यमान था, उसने बन्धावलीकालको बिताकर कषायोकी उक्त उत्कृष्ट स्थितिको नवो नोकषायोके ऊपर संक्रमित कर दिया, तब उसके कपाय और नोकपाय दोनोके ही उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मस्थान सदृश ही पाये जाते हैं। अब जघन्य स्थितिसत्कर्मस्थानोकी विसाताका स्पष्टीकरण करते है — किसी एकेन्द्रिय जीवमे कपायोके जघन्य स्थितिसत्कर्म के होनेपर उसने पुरुषवेद, हास्य और रति इन तीन नोकपायोका एक साथ बन्ध प्रारम्भ किया । बन्ध प्रारम्भ करने के प्रथम समयसे लेकर हास्य और रतिके बन्ध-कालका संख्यातवां भाग व्यतीत होनेपर पुरुपवेदका बन्ध-काल समाप्त हो गया और तदनन्तर समयमे ही उसने हास्य और रतिके साथ स्त्रीवेदका बन्ध प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार बन्ध प्रारम्भ कर पुरुपवेदके बन्धकाल ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'जणेगटिट दिसतकम्म' ऐसा पाठ मुद्रित है। पर जयधवला टीकाने उसकी पुष्टि नहीं होती । अतः 'जहण्णग' ऐसा ही पाठ होना चाहिए । ( देसो पृ० ५११५० १९ ) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति ३८४. इमाणि अण्णाणि अप्पाबहुअस्स साहणाणि कायव्वाणि । ३८५. तं जहा । सव्वत्थोवा चरित्तमोहणीयक्खवयस्स अणियट्टिअद्धा । ३८६. अपुचकरणद्धा संखेज्जगुणा । ३८७. चारित्तमोहणीयउवसामयस्स अणियट्टिअद्धा संखेज्जगुणा ३८८. अपुवकरणद्धा संखेज्जगुणा । ३८९. दंसणमोहणीयक्खवयस्स अणियट्टिअद्धा संखेज्जगुणा । ३९०. अपुव्यकरणद्धा संखेज्जगुणा । ३९१. अणंताणुवंधीणं विसंजोएतस्स अणियट्टिअद्धा संखेज्जगुणा । ३९२. अपुवकरणद्धा संखेज्जगुणा । ३९३. दसणमोहसे संख्यातगुणित काल तक उनका वध करते हुए स्त्रीवेदका बन्धकाल समाप्त हो गया और तव उसने अनन्तर समयमे नपुंसकवेदका बन्ध प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार उसके नपुंसकवेदके साथ हास्य और रतिको बाँधते हुए पूर्व बन्धकालसे संख्यातगुणित काल तक बन्ध करनेके अनन्तर हास्य-रतिका वन्धकाल समाप्त हो गया । तब उसने नपुंसकवेदके साथ अरति और शोकका बन्ध प्रारम्भ किया। इस प्रकार नपुंसकवेदके साथ अरति-शोकका बन्ध करते हुए उसके पूर्व बन्धकालसे संख्यातगुणित काल व्यतीत होनेपर नपुंसकवेदका वन्धकाल और अरति-शोकका बन्धकाल, ये दोनो ही एक साथ समाप्त हो गये । उक्त जीवके नोकषायोके बन्धकालका अल्प-बहुत्व अंकोकी अपेक्षा इस प्रकार होगा-पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे कम २, स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणित ८, हास्य-रतिका बन्धकाल संख्यातगुणित ३२, अरति-शोकका बन्धकाल संख्यातगुणित १२८, और नपुंसकवेदका बन्धकाल विशेष अधिक १५० होगा। चूँ कि, सातो नोकपायोके स्थितिबन्धकाल विसदृश है, इसलिए उनके स्थितिसत्त्वस्थान भी सदृश नही होते है । अतएव यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीवमे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मस्थान समान होते हुए भी जघन्य स्थितिवन्धस्थानोके विसदृश होनेसे जघन्य स्थितिसत्कर्मस्थान भी विसदृश और अधिक होते है। उपयुक्त एक प्रकारसे मोहनीयकर्मके स्थितिसत्कर्मस्थानोका अल्पवहुत्व साधन करके अब अन्य प्रकारसे अल्पवहुत्व साधन करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते है __ चूर्णिसू०-मोहनीयकर्मके स्थिनिसत्कर्मस्थानसम्बन्धी अल्पवहुत्वके ये अन्य भी साधन निरूपण करना चाहिए । वे साधन इस प्रकार है-चारित्रमोहनीयकर्मके क्षपण करनेवाले जीवके अनिवृत्ति करणका काल आगे कहे जानेवाले सभी पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । चारित्रमोहनीय-क्षपकके अनिवृत्तिकरण-कालसे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणित है। चारित्रमोहनीय-क्षपकके अपूर्वकरणकालसे चारित्रमोहनीयकर्मके उपशमन करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणित है । चारित्रमोहनीयउपशामकके अनिवृत्तिकरण-कालसे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणित हैं। चारित्रमोहनीय-उपशामकके अपूर्वकरणकालसे दर्शनमोहनीयकर्मके क्षपण करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणित है । दर्शनमोहनीय-क्षपकके अनिवृत्तिकरण-कालसे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणित है । दर्शनमोह-क्षपकके अपूर्वकरण-कालसे अनन्तानुवन्धी चारो कपायोकी विसंयोजना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] स्थितिसत्कर्मस्थान-अल्पवहुत्व-निरूपण १४५ णीयउवसामयस्स अणियट्टिअद्धा संखेज्जगुणा । ३९४. अपुब्धकरणद्धा संखेज्जगुणा । ३९५. एत्तो द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणमप्पाबहुअं । ३९६. सव्वत्थोवा अट्ठण्हं कसायाणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि । ३९७. इत्थि-णसयवेदाणं द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । ३९८. छण्णोकसायाणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ३९९. पुरिसवेदस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियणि । ४००. कोधसंजलणस्स द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४०१. माणसंजलणस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४०२. मायासंजलणस्स हिदिसंतकस्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४०३. लोभसंजलणस्स हिदिसंतकम्माणाणि विसेसाहियाणि । ४०४. अणंताणुवंधीणं चदुण्हं द्विदिसंतकस्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४०५. मिच्छत्तस्स द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४०६. सम्मत्तस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४०७. सम्मामिच्छत्तस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । काल संख्यातगुणित है । अनन्तानुवन्धी-विसंयोजकके अनिवृत्तिकरणकालसे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणित है। अनन्तानुबन्धी-विसंयोजकके अपूर्वकरणकालसे दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमन करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल सग्यातगुणित है। दर्शनमोहनीयउपशमनके अनिवृत्तिकरण-कालसे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणित है॥३८४-३९४।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे मोहनीयकर्मसम्बन्धी स्थितिसत्कर्मस्थानाके अल्पबहुत्वको कहते है-अप्रत्याख्यानावरण आदि आठ मध्यम कपायोके स्थितिसत्कर्मस्थान आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम है। आठो मध्यम कपायोके स्थितिसत्कर्मस्थानासे स्त्री और नपुंसक, इन दोनो वेदोके स्थितिसत्कर्मस्थान परस्पर तुल्य होते हुए भी विशेष अधिक है । स्त्री और नपुंसकवेदके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे हास्यादि छह नोकपायोकं स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है। छह नोकपायोके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे पुरुपवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । पुरुपवेदके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे क्रोधसंज्वलनकपायके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेप अधिक है । क्रोधसंचलनके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे मानसंचलनके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेप अधिक है । मानसंज्वलनके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे क्रोधसंचलनके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेप अधिक है। लोभसंज्वलनके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे अनन्तानुवन्धी चारो कपायोके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी चारो कपायोके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे मिथ्यात्वकर्मके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेप अधिक है। मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थानांसे सम्यक्त्वप्रकृतिके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेप अधिक हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिक स्थितिसत्कर्मस्थानोसे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं ॥३९५-४८७।। विशेपार्थ-यहाँ प्रकरणमे उपयोगी समझकर जयधवला टीकाक अनुगर प्रतिपक्षवन्धककालको आश्रय करके अभव्यसिद्धिकोके प्रायोग्य स्थितिसत्कर्मन्थानाका अल्पवात्व Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त एवं 'तह ट्ठिदीए' त्ति जं पदं तस्स अत्थपरूवणा कदा | ठिदिविहत्ती समत्ता | कहते है' । वह इस प्रकार है- अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपाय, भय और जुगुप्सा, इन प्रकृतियो के स्थितिसत्कर्मस्थान आगे कहे जानेवाले सर्वस्थानोकी अपेक्षा सवसे कम है । सोलह कषाय और भय - जुगुप्सा के स्थितिसत्कर्मस्थानोसे नपुंसकवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । नपुंसक वेद के स्थितिसत्कर्मस्थानोसे अरति और शोक प्रकृतिके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेप अधिक है । अरति शोकके स्थितिसत्कर्मस्थानो से हास्य और रति प्रकृतिके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । हास्य- रतिके स्थितिसत्कर्मस्थानो से स्त्रीवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है | स्त्रीवेदके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे पुरुषवेद के स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । इसी प्रकार सर्व मार्गणाओमे आगमके अनुसार अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए | इस प्रकार चौथी मूलगाथा के 'तह हिदीए' इस पद के अर्थ की प्ररूपणा की गई । इस प्रकार स्थितिविभक्ति समाप्त हुई । १४६ [ ३ स्थितिविभक्ति १ सपद्दि पडिवक्खवधगढाओ अस्सिदूण अभव्वसिद्धियपाओगट्ठाणाणमप्पाचहुअ वत्तइस्लामो । त जहा — सव्वत्थोवाणि सोल्सक साय-भय-दुगुछाण ट्रिट्ठदिसतकम्मट्ठाणाणि । णवुसयवेद ट्रिट्ठदिसतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । अरदि-सोगट्रिटदिसंतकम्मट टाणाणि विसेसाहियाणि । इस्स रदीण ट्रिटदिसतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । इत्थिवेटस्तकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पुरिसवेदसतकम्मरठाणाणि विसेसाहियाणि । एदमप्पाचहुअ सव्वमग्गणासु जाणिदूण जोजेयत्वं । जयध० Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभागविहची १. एत्तो अणुभागविहत्ती' दुविहा-मूलपयडिअणुभागविहत्ती चेव उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती चेव । २ एत्तो मूलपयडिअणुभागविहत्ती भाणिदव्वा । अनुभागविभक्ति अब स्थितिविभक्तिकी प्ररूपणाके पश्चात् अनुभागविभक्ति कही जाती है । आत्माके साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए कर्मोंके स्वकार्य करनेकी अर्थात् फल देनेकी शक्तिको अनुभाग कहते है । इस प्रकारके अनुभागका भेद या विस्तार जिस अधिकारमे प्ररूपण किया गया है, उसे अनुभागविभक्ति कहते है। उसके भेद बतलाते हुए चूर्णिकार अनुभागविभक्तिका अवतार करते है चूर्णिसू ०-वह अनुभागविभक्ति वह दो प्रकारकी है-मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति ॥१॥ विशेपार्थ-मूल कर्मोंका अनुभाग जिस अधिकारमें कहा जाय, उसे मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति कहते है और जिसमे कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोके अनुभागका निरूपण किया जाय, उसे उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति कहते है । ___ मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिकी प्ररूपणा सुगम है, इसलिए उसका वर्णन न कर केवल सूचना करते हुए यतिवृपभाचार्य उत्तरसूत्र कहते है चूर्णिसू०-इन दोनोमेसे पहले मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति कहलाना चाहिए ।।२।। विशेपार्थ-जिन अनुयोगद्वारोसे महावन्धमे अनुभागवन्धका विस्तृत विवेचन किया गया है, तथा प्रस्तुत ग्रन्थमे आगे उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्तिका विशद वर्णन किया जायगा, उनके द्वारा मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका वर्णन करना चाहिए, ऐसी जो सूचना चूर्णिकारने की है, उसका कुछ स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता है । अनुभाग क्या वस्तु है, इस वातके जाननेके लिए सबसे पहले निपेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणाका जानना आवश्यक है। कॉम फल १ को अणुभागो कम्माण सगकजकरणसत्ती अणुभागो णाम । तस्स विहत्ती भेदे पवचो जम्हि अहियारे परूविजदि, सा अणुभागविहत्ती णाम । जयध० २ एत्तो अगुभागबधो दुविधो-मुलपगदिअणुभागवधो चैव उत्तरपगदिअणुभागवधो चेव । एत्तो मूलपगदिअणुभागवधो पुव्ध गमणिज । तत्थ इमाणि दुवे अणियोगहाराणि णादवाणि भवति । त जहा-णिसेगपलवणा फहयपवणा य । णिसेणपावणदाए अहह कम्माण देसघाटिफयाण आदिवग्गणाए आदि कादूण णिसेगो । उवरि अप्पडिसिद्धं ।xxx फदयपल्वणदाए अणताणताण अविभागपइिच्छेदाण समुदयसमागमेण एगो वग्गो भवदि । अण ताणताण वनगाण समुदयसमागमेण एगा वगणा भवदि । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ४ अनुभागविभक्ति देनेकी मुख्यता या हीनाधिक तारतम्यता से निषेक दो प्रकार के होते है - सर्वघाती और देशघाती । यद्यपि सर्वघाती और देशघातीका भेद घातिया कर्मोंमे ही संभव है, तथापि अघातिया कर्मोंके अनुभागको घातिया कर्मोंसे प्रतिवद्ध मानकर उक्त दो भेद किये गये है, क्योकि अघातिया कर्म भी जीवके ऊर्ध्वगमनत्व आदि प्रतिजीवी गुणोके घातक होनेसे घातिकर्म - प्रतिवद्ध ही हैं । अघातिया कर्मोंको 'अघाती' संज्ञा देनेका कारण केवल इतना ही है कि वे जीवके अनुजीवी गुणोका अंशमात्र भी घात करनेमे असमर्थ है । निपेकप्ररूपणाने इस प्रकार से कर्मोके देशघाती और सर्वघाती निपेकोका विचार किया गया है । स्पर्धकप्ररूपणा मे अनुभागकी मुख्यता से कर्मों के स्पर्धकोका विचार किया गया है । कर्मोंके अनुभागसम्बन्धी सर्व- जघन्य शक्त्यंगको अविभागप्रतिच्छेद कहते है । अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेदो के समुदायको वर्ग कहते हैं । अनन्तानन्त वर्गाके समुदायको वर्गणा कहते हैं और अनन्तानन्त वर्गणाओ - के समुदायको स्पर्धक कहते है | अनुभागविभक्तिके जानने के लिए निपेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणाको अर्थपद माना गया है । इस अर्थपदके द्वारा महावन्धके रचयिता भगवन्त भूतवलिने जिन चौवीस अनुयोगद्वारोसे कर्मोंके अनुभागबन्धका विस्तृत विवेचन किया है, उन्ही अनुयोगद्वारोमे बन्धके स्थानपर 'विभक्ति' पद जोड़कर उच्चारणाचार्यने अनुभागविभक्तिका व्याख्यान किया है । प्रस्तुत ग्रन्थमे केवल एक मोहकर्म ही विवक्षित है, अत: एकमे सन्निकर्षं संभव न होनेसे उन्होने उसे छोड़कर शेप तेईस अनुयोगद्वारोसे अनुभागविभक्तिका निरूपण किया है । यतः महावन्धमे अनुभागका विचार बहुत विस्तारसे किया गया है, अतः पिष्ट-पेपण न हो, इस विचार से चूर्णिकार ने उन्हें न लिखकर व्याख्यानाचार्य या उच्चारणाचार्योंको इस सूत्र के द्वारा केवल सूचना मात्र कर दी है कि वे तदनुसार उच्चारण कराकर जिज्ञासु शिष्योको उनका वोध करावें । १४८ 'मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिके विषय में जो तेईस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं- -१ संज्ञा, २ सर्वानुभागविभक्ति ३ नोसर्वानुभागविभक्ति, ४ उत्कृष्ट- अनुभागविभक्ति, ५ अनुत्कृष्ट- अनुभागविभक्ति, ६ जघन्य - अनुभागविभक्ति, ७ अजधन्य- अनुभागविभक्ति, ८ सादि - अनुभागविभक्ति, ९ अनादि - अनुभागविभक्ति, १० ध्रुव-अनुभागविभक्ति, ११ अध्रुव- अनुभागविभक्ति, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ काल, अणताणताण वग्गणाण समुद्रयसमागमेण एगो फहयो भवदि । x x x एद्देण अनुपदेण तत्थ इमाणि चदुवोस अणियोगद्वाराणि णादव्वाणि भवति । त जहा सण्णा सच्वबधो गोसव्वधो उत्सवधो अणुवस्सवघो जहण्णवधो अनण्णवधो सादिवधी अणादिवधो वववधो अद्भुववधा एव याव अप्पाहुति । भुजगारवधो पदणिक्खेवो वह्निबधो अज्झवसाणसमुदाहारो जीवसमुदाहारो त्ति | ( महाव० ) तत्थ इमाणि तेवीम १ सपरि एटस्स सुत्तस्म उच्चारणाइरियकयवक्खाण वत्तस्यामो | अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति । न जहा - सण्णा सव्वाणुभागविहत्ती गोसव्वाणुभागविहत्ती उकत्साभागवित्ती अणुत्साणुभागविहत्ती जहणाणुभागविद्दत्ती अजहष्णाणुभागविती सादियअणुभागवित्ती अणादिअणुभागविद्दत्ती धुवाणुभागविहत्ती अधुवाणुभागविहत्ती एगजीवेण सामित्तं कालले अतरं गाणाजीवेहि Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति-अनुयोगद्वार-निरूपण १४९ १४ अन्तर, १५ नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, १६ भागाभाग, १७ परिमाण, १८ क्षेत्र, १९ स्पर्शन, २० काल, २१, अन्तर, २२ भाव और २३ अल्पबहुत्व । इनके अतिरिक्त भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये चार अर्थाधिकार भी अनुभागविभक्तिमे जानने योग्य बतलाये गये है। उक्त अनुयोगद्वारोसे यहॉपर मोहकर्मकी अनुभागविभक्तिका संक्षेपसे कुछ विचार किया जाता है (१) संज्ञानरूपणा-इस अनुयोगद्वारमे कर्मोके स्वभाव, शक्ति या गुणके अनुसार विशिष्ट नाम रखकर उनके अनुभागका विचार किया गया है। संज्ञाके दो भेद है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । घातिसंज्ञामे कर्मोंके अनुभागका सर्वघाती और देशघातीके रूपसे विचार किया गया है । जैसे-मोहकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती होता है। अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती होता है और देशघाती भी होता है । जघन्य अनुभाग देशघाती होता है । अजघन्य अनुभाग देशघाती भी होता है और सर्वघाती भी होता है । स्थानसंज्ञामे कर्मों के अनुभागका लता, दारु, अस्थि और शैल, इन चार प्रकारके स्थानोसे विचार किया गया है । जैसे-मोहकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग चतुःस्थानीय होता है । अनुत्कृष्ट अनुभाग चतुःस्थानीय होता है, त्रिस्थानीय होता है, द्विस्थानीय होता है और एकस्थानीय होता है । जघन्य अनुभाग एकस्थानीय होता है । अजघन्य अनुभाग एकस्थानीय भी होता है, द्विस्थानीय भी होता है, त्रिस्थानीय भी होता है और चतुःस्थानीय भी होता है। __(२-३) सर्वानुभागविभक्ति-नोसर्वानुभागविभक्ति-इन अनुयोगद्वारोमे कर्मोके भगविचओ भागाभागो परिमाण खेत्तं पोसण कालो अतर भावो अप्पाबहुअ चेदि । सणियामो णत्थि, एकिस्से पयडीए तदसभवादो। भुजगार पदणिक्खेव वहिविहत्तिठाणाणि चेदि अणे चत्तारि अस्थायिारा होति । जयध० १(१) सण्णापरूवणा-सप्णापरूवणदाए तत्थ सण्णा दुविहा-घादिसण्णा ठाणसण्णाय | घादिसण्या चदुण्ह घादीण उकस्सअणुभागबधो सवघादी । अणुक्कस्सअणुभागवधो सम्वघादी वा देसघादी वा। जहण्णअणुभागबधो देसघादी | अजहण्णओ अणुभागवधो देसघादी वा सव्व पादी वा Ixxx ठाणसणा य चदुण्ह घादीण उकस्सअणुभागबधो चदु ढाणियो । अणुकस्सअणुभागबधो चदुट्टाणियो वा तिटटाणियो वा विठ्ठाणियो वा एयट्टाणियो वा । जहष्णअणुभागवधो एयटाणिओ । अजहष्णअणुभागयधो एयटठाणियो वा विठ्ठाणियो वा तिट्ठाणियो वा चदुट्टाणियो वा ( महाव॰) । सण्णा दुविहा घादिगण्णा ठाणसण्णा चेदि । घादिसण्णा दुविहा-जहष्णा उकस्सा चेदि । उकस्से पयद । दुविहो णिमो-ओवेण आदेसेण य । तत्य ओघेण मोहणी यस्स उकस्सअणुभागवित्ती सवधादी। xxx अणुस्सअणुभागविहत्ती सत्यवादी देसघादी वाxxx जहणाणुभागविहत्ती देसघादी। अजहाणाणुभागविहत्ती देसघादी सव्वघादी वा Ixxx ठाणसप्णा दुविहा-जहणिया उकत्सिया चेदि | उत्सियाए पयद । दुविहो णि गोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओवण मोहणीयस्स उकस्सागुभागलाण चदुठागिर | अगुफरसाणुभागठाण चट्ठाणिय तिटाणिय विटाणिय एगट्टाणिय वा ।XXX जहणियाए पयद । दुविहो णिहमो-ओरण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स जहण्णाणुभागविहत्ती एगट्टाणिग। अजहणाणुभागन्हित्ती गटवाणिया विठ्ठाणिया तिहाणिया चउठ्ठाणिया वा । जयध० २ (२.३) सब-णोसम्वबंधपरूवणा-यो सुचव धो गोमव्यय वो जाग, तन्न हगो णिदेमी-- Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ अनुभागविभक्ति सर्व अनुभाग और नोसर्व अर्थात् सर्वसे कम अनुभागका विचार किया गया है । जिस कर्ममे अनुभाग-सम्बन्धी सर्व स्पर्धक पाये जाते है, वह सर्वानुभाग विभक्ति है और जिसमे उससे कम स्पर्धक पाये जायें, उसे नोसर्वांनुभागविभक्ति कहते हैं। मोहनीयकर्ममे सर्वानुभाग और नोसर्वानुभाग दोनो प्रकारका अनुभाग पाया जाता है । 9 १ (४-५ ) उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति-अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति- इन अनुयोगद्वारोमे कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका विचार किया गया है । जिस कर्ममे सर्वोत्कृष्ट अनुभाग पाया जावे, उसे उत्कृष्टअनुभागविभक्ति कहते है और जिसमे उससे कम अनुभाग पाया जावे, उसे अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति कहते हैं । मोहनीय कर्ममे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनो प्रकारका अनुभाग पाया जाता है । १५० कसाय पाहुड सुत्त * ( ६-७ ) जघन्यानुभागविभक्ति - अजघन्यानुभागविभक्ति - इन अनुयोगद्वारोंमे कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागका विचार किया गया है । जिस कर्ममे सबसे जघन्य अनुभाग पाया जावे, वह जन्घयानुभागविभक्ति है और जिसमें जघन्यसे उपरिवर्ती अनुभाग पाया जावे, उसे अजघन्यानुभागविभक्ति कहते हैं । मोहनीयकर्ममे जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारका अनुभाग पाया जाता है । * ( ७ - १९) सादि - अनादि-व-अभ्रव अनुभागविभक्ति- इन अनुयोगद्वारोमे कर्मोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागोका सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव रूपसे ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावरणीयरस अणुभागवधो किं सव्वबधो णोसव्ववधो १ सव्ववधो वा गोसव्ववधो वा । सव्वे अणुभागे बधदि त्ति सव्ववधो । तदो ऊणिय अणुभाग वधदित्ति गोसव्वधो । एव सत्तहं कम्माण ( महाब ० ) । सव्वविहत्ति - गोसव्वविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स सव्त्रफद्दयाणि सव्वविहत्ती । तदूण णोसव्वविहत्ती । जयध० १ ( ४-५ ) उक्कस्स - अणुक्कस्सबंधपरूवणा-यो सो उकस्सबधो णाम, तस्स इमो णिद्देसोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावरणीयस्स अणुभागयधो किं उक्कस्सबधो अणुक्कस्सबधो १ उकस्सबधो वा अणुक्कसवो वा । सव्युक्वस्सिय अणुभाग बधदित्ति उक्कस्सबधो । तदो ऊणियं वधदि त्ति अणुक्कस्तवधो । एव सन्तण्ह कम्माण ( महाव० ) । उकस्साकस्साणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स सयुक्कस्सओ अणुभागो उक्कस्सविहत्ती । तदूणमणुक्कस्स विद्दत्ती । जयध० २ ( ६-७ ) जहण्ण- अजहण्णवंधपरूवणा-यो सो जहण्णबंधो अजहण्णवधो णाम, तस्स इमो णिद्देसो- ओघेण आढेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावरणीयरस अणुभागवधो किं जहण्णबधो अजहण्णवधो १ जहण्णवधो वा अजहण्णवधो वा । सव्वजहण्णय अणुभाग वधमाणस्स जहणव धो। तदो उवरि बंधमाणस्स अजष्णवधो । एव सत्तरह कम्माणं ( महाव० ) । जहण्णाजहण्णविहत्तियाणुगमेण दुविहो गिद्देसोओघेण आदेसेण य | ओघेण मोहणीयस्स सव्वजहणओ अणुभागो जहणविहत्ती । तदुवरिमा अजहणविद्दत्ती | ( जयध० ) ३ ( ८-११ ) सादि-अणाटि धुव अद्भुवबंध परूवणा-यो सो सादिवधो अणादिवधो धुववध अद्ध्रुवत्र धो णाम, तस्स इमो निद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ भोवेण चदुण्ह घादीण उकस्सव घो अणुकस्सबधो जहण्णव'धो किं सादिवधो अणादिवधो धुवबधो अवबधो वा ! सादिय-अद्भुववधो । अजहण्णवधो किं सादि० ४ १ सादियवधो वा अणादियवधो वा धुववधो वा अद्भुववधो वा ( महाव० ) । सादि-अनादि 1 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति-अनुयोगद्वार-निरूपण विचार किया गया है । प्रकृतमे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभागविभक्ति सादि और अध्रुव है । अजघन्यअनुभागविभक्ति सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारो प्रकारकी है । ' (१२) एकजीवापेक्षया स्वामित्व - इस अनुयोगद्वारमे कर्मोंके उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग के स्वामियोका एकजीवकी अपेक्षासे विचार किया गया है । जैसे - मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी कौन है ? संत्री, पंचेन्द्रिय, सर्व पर्याप्तियो से पर्याप्त, साकार और जागृत उपयोगी, उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामवाला ऐसा किसी भी गतिका मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभागका बन्धकर जबतक उसका घात नही करता है, तब तक वह उसका स्वामी है । फिर चाहे वह एकेन्द्रिय हो, या द्वीन्द्रिय हो, या त्रीन्द्रिय हो, या चतुरिन्द्रिय हो, या असंज्ञिपंचेन्द्रिय हो, या संनिपंचेन्द्रिय देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच, हो । हॉ, असंख्यातवर्षायुष्क भोगभूमियाँ मनुष्य-तिर्यच, और मरकर मनुष्योमे ही उत्पन्न होनेवाला आनतादि उपरिम-कल्पवासी देव नही होना चाहिए । मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागका स्वामी कौन है ? चरमसमयवर्ती सकपायी क्षपक मनुष्य है । (१३) काल - इस अनुयोगद्वारमे सर्व कर्मोंकी उत्कृष्ट और जयन्य अनुभागध्रुव-अद्भुवाणुगमेण दुविहो गिद्देसो- ओवेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स उक्कस्स-अणुक्कस्स जहण्णअणुभागवत्ती किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमद्भुवा ? सादि-अद्भुवा । अजद्दण्णअणुभागविहत्ती किं सादिया का दिया कि धुवा किमद्भुवा ? ( सादिया ) अणादिया धुवा अदुवा वा । १ ( १२ ) सामित्तपरूवणा - एत्तो सामित्तस्स कदे तत्थ इमाणि तिष्णि अणुयोगद्दाराणि पञ्च्चयागमो विवागदेसो पसत्थापसत्थपरूवणा चेदि । पच्चयाणुगमेण छण्ट कम्माण मिच्छत्तपच्चय असजमपच्चय कसायपच्चय ×××। वेदणीयस्स मिच्छत्तपच्चय असंजमपच्चय कसायपञ्च्चय जोगपञ्चयं । विवागदेसेण छह कम्माण जीवविवागपच्चय । आयुग० भवविवाग० । णामस्स जीवविवाग० पोग्गलविवाग० खेत्तविवाग० । पसत्थापसत्थपरूवणदाए चत्तारि घादीओ अप्पसत्याओ । वेदणीय आयुग णाम- गोदपयडीओ पसत्थाओ अप्पसत्थाओ य । XX X एदेण अनुपदेण सामित्त दुविध-जहणय उक्कस्य च । उक्कस्सए पगद | दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण णाणावरण-दसणावरण - मोहणीय - अतराइगाण उकस्सअणुभागवधी कस्स ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पचिदियस्स्स सष्णिमिच्छादिट्टिस्स सव्वाहि पजतीहि पजत्तगदस्त सागार - जागा रुवजो गजुत्तस्स णियमा उक्कस्सस किलिहस्स उकस्सगे अणुभागवधे वट्टमाणस्स । × × × जहण्णए पगद | दुविहो निद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओवेण x x x मोहणीयस्स उकस्साणुभागवधो कस्स ! अण्णदरस्स खवगस्स अणियहिंबादरसापरायस्य चरिमे जहण्णअणुभागबधे व माणस ( महाब ० ) । सामित्त दुवि - जहणमुकस्स च । उक्कस्सए पयद । दुविहो णिद्द सो-ओवेग आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स उकस्साणुभागो कल्स ? अष्णदरस्स उस्मानुभाग वविदूण जाव ण हर्णादि, ताव सो एइदियो वा वेइदियो वा तेइदियो वा चउरिदियो वा असणिपचिदियो वा ( सणिपचिदियो वा ) अण्णदरस्स जीवस्स अण्णदरगदीए वमाणस्स । अस खेजवत्सार अतिरिक्ख - मणुत्सेतु मणुसोववादियदेवेसु च णत्थि । अणुकस्साणुभागो क्रस १ अण्णदरस्स | xxx जहणए पयद । दुविदो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओषेण मोहणीयस्स जहणाणुभागो कत्म ? अण्णदरस्य सवगस्य चरिमसमयसक् सायरस | जयध • २ (१३) कालपरूवणा-वाल दुविध-जष्णय उपरस्य च । उक्रस पगढ़ | दुविदो १५१ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कसाय पाहुड सुत्त [४ अनुभागविभक्ति विभक्ति कितने समय तक होती है, इस वातका एक जीवकी अपेक्षासे विचार किया गया है । प्रकृतमे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमित अनन्तकाल है। मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त है। (१४ ) अन्तर-इस अनुयोगद्वारमे एक जीवकी अपेक्षासे कर्मोंके उत्कृष्ट और जघन्य अनुभागविभक्तिके अन्तरकालका विचार किया गया है। प्रकृतमें मोहनीयकर्म विवक्षित है, उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमित अनन्तकाल है। जघन्यानुभागविभक्तिवालोका अन्तर नहीं होता है। (१५) नानाजीवापेक्षया भंग-विचय-इस अनुयोगद्वारमें नाना जीवोकी अपेक्षा कर्मोके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट और जघन्य-अजघन्य अनुभागकी विभक्ति-अविभक्ति करनेवाले जीवोका णिद्देसो-ओवेण आदेसेण य | ओघेण घादिचउक्काण उक्कस्साणुभागबधो केवचिर कालादो होदि ? जहvणेण एगसमय । उक्कस्सेण बेसमय | अणुक्कस्साणुभागव धो जहण्णेण एगसमय । उकस्सेण अणतकालमसखेन्जा पोग्गलपरियट्टा | xxx जहण्णए पगद | दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण च । ओघेण धादिच उकाण गोदस्स च जहण्णाणुभागबधो जहण्णुकस्सेण एगसमय । अजण्णाणुभागबधो तिभगो (महाव०) कालो दुविहो-जहण्णओ उकस्सओ चेदि । उकस्से पथद | दुविहो णिहो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स उक्करमाणुभागविहत्ती केवचिर कालादो होदि १ जहण्णुदस्सेण अतोमुहुत्त । अणुक्कस्साणुभागविहत्ती जहण्णेण अनोमुहुत्त । उक्कस्सेण अणतकालमसखेजा पोग्गलपरियट्टा | XXX जहण्णए पयद । दुविहो णि सो-ओघेण आटेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहण्णाणुभागविहित्तिया केवचिर कालादो होति ? जहण्णु कस्सेण एगसमओ । अजहण्णाणुभागविहत्ती अणादि-अपनवसिदो अणादि-सपज्जवसिदो सादि सपजवसिदो वा । जयध १ (१४) अंतरपरूवणा-अतर दुविध-जहणणय उकस्सय च । उकस्सए पगद । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य | ओघेण धादिचउक्काण उक्कस्साणुभागमतर वचिर कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमय । उक्कस्सेण अणतकालमसखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणुकस्समणुभागमतर जहण्णेण एगसमग्र । उकस्सेण अतोमुहुत्त ।xxx जहण्णए पगद । दुविधो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण घादिचदुकाण जहण्णाणुभागवधस्स णस्थि अतर । अजहण्णाणुभागबधो जहणणेण एगसमय । उकस्सेण अतोमुहुत्त (महाब०) । अतराणुगमेण दुविहमतर-जहण्णमुक्कस्स च । उकस्से पयद । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स उकस्साणुभागमतर केवचिर कालादो होदि १ जहण्णेण अतोमुहुत्त । उकस्सेण अणतकालमसरोजा पोग्गलपरियट्टा। अणुकरसाणुभागविहत्ती जहण्णुकस्सेण अतोमुहुत्त । जण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स जहण्णाणुभागवित्तियाण णथि अतर | जयध० २ (१५) णाणाजीवेहि भंगविचयपरूवणा-णाणाजीवेहि भगविचय दुविध-जहण्णय उकत्सय च । उकस्मए पगद तत्य इम अपद-जे उकस्साणुभागव धगा ते अणुकस्सअणुभागस्स अवधगा। ने अणुकस्माणुभागवधगा ते उकस्साणुभागस्स अवधगा। एव पगदी बधदि, तेसु पगद, अवधगेमु थव्यवहारो। एदेण अठ्ठपटेण अण्डं कम्माण उक्कस्सअणुभागस्स सिया मध्ये अवधगा, सिया अवधगा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति-अनुयोगहार-निरूपण १५३ विचार किया गया है। जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके कदाचित् सर्व जीव अविभक्तिक है १ । कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिक होते है और कोई एक जीव विभक्तिक होता है २ । कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिक और अनेक जीव विभक्तिक होते है ३ । इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति-सम्वन्धी तीन भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके भी तीन भंग होते है। केवल इतना भेद है कि उनके भंग कहते समय विभक्ति पद पहले कहना चाहिए। इसी प्रकारसे मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्ति-सम्बन्धी भी तीन-तीन भंग होते है । '(१६) भागाभागानुगम-इस अनुयोगद्वारमे कर्मोंकी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट और जघन्यअजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोके भाग और अभागका विचार किया गया है । जैसेमोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सर्व जीवोके कितनेवे भाग है ? अनन्तवे भाग है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सर्व जीवोके कितनेवे भाग है ? अनन्त वहुभाग है । जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सर्व जीवोके अनन्तवे भाग हैं और अजधन्यानुभागविभक्तिवाले सर्व जीवोके अनन्त बहुभाग है । (१७) परिमाणानुगम-इस अनुयोगद्वारमे विवक्षित कर्मके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव एक साथ कितने पाये जाते है, अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले कितने पाये जाते हैं, इस प्रकारसे उनके परिमाणका विचार किया गया है। जैसे-मोहकर्मके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने है १ असंख्यात है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले य अबधगो य, सिया अवधगा य अबंधगा य । अणुकस्सअणुभागस्स सिया सवे वधगा य, सिया बधगा य अवधगो य, सिया बधगा य अवधगा यI XXX जहण्णए पगद । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण तत्थ इम अठ्ठपद उक्कस्सभगो । घादिचउकाण गोदस्स च जण्ण-अजहष्णाणुभागस्स भगविचयो उकस्सभगो (महाब०) । णाणाजीवेहि भगविचओ दुविहो-जहण्णओ उकस्सओ चेदि । उक्कस्से पयद । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तस्थ ओघेण मोहणी यस्स उकस्साणुभागविहत्तीए सिया सब्वे जीवा अविहत्तिया १, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च २, सिया अवित्तिया च विहत्तिया च | एवमणुकस्स पि, णवरि विहत्ती पुव्व भाणिदव्वा | xxx जहण्णए पयद । दुविहो णि सो-ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओवेण मोरणीयस्स जहणाणुभागस्स सिया सवे जीवा अविहत्तिया १, सिया अवित्तिया च वित्तिओ च २, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया ३ । अजहण्णस्स सिया सत्र जीवा वित्तिया १, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च २, सिया वित्तिया च अविहत्तिया च ३। जयध १ (१६ ) भागाभागपरूवणा-भागाभागाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उकस्सओ चेदि । तत्थ उद्यास्सए पयद । दुविहो णिद्देसो-ओषेण आदेमेण य । ओषेण मोहणीयस्स उकत्साणुभागवित्तिया सव्वजीवाण केवडिओ भागो ? अणतिमभागो । अणुकत्साणुभागविहत्तिया सव्वजीवाण क्वडिओ भागो ? अणता भागा | XXX जहणए पयद । दुविहो णिद्देसो-ओघण आदेसेण च । ओषेण जहणाणुभागवित्तिया सव्वजीवाण केवडिओ भागो ? अण तिमभागो। अजहणाणुभागवित्तिया सन्यजीवाण केवडिओ भागो ? अणता भागा । जयध २ (१७) परिमाणपरूवणा-परिमाणाणुगमो दुविहो-जहणयो उपरसओ चदि । उपन्स, पयदं । दुविहो णिहे सो गोषण आदेमेण य । ओघेण उपरमाणुभागवित्तिया देवटिया' अनन्येना। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कसाय पाहुड सुत्त [४ अनुभागविभक्ति कितने है ? अनन्त हैं। अधन्य अनुभागविभक्तिवाले कितने है ? संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले कितने है ? अनन्त हैं । '(१८) क्षेत्रानुगम-इस अनुयोगद्वारमे अनुभागविभक्तिवाले जीवोके वर्तमानकालिक क्षेत्रका विचार किया गया है । जैसे-मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? लोकके असंख्यातवे भागमे रहते है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? सर्वलोकमे रहते है । इसी प्रकार जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवे भागमें और अजघन्यानुभागविभक्तिवाले जीव सर्वलोकमे रहते हैं। (१९) स्पर्शनानुगम-इस अनुयोगद्वारमे अनुभागविभक्तिवाले जीवोके त्रैकालिक क्षेत्रका विचार किया गया है। जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोने कितना क्षेत्र स्पृष्ट किया है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग, देशोन आठ बटे चौदह (४) भाग, अथवा सर्वलोक स्पृष्ट किया है । जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोने लोकका असंख्यातवॉ भाग स्पृष्ट किया है और अजघन्यानुभागविभक्तिवालोने सर्वलोक स्पृष्ट किया है। (२०) कालानुगम-इस अनुयोगद्वारमे नाना जीवाकी अपेक्षा कर्मों के उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट और जघन्य-अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोके कालका अनुगम किया गया है। जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पल्योपसके असंख्यातमे भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट-अनुभागविभक्तिवाले जीव सर्व अणुक्कस्साणुभागविहत्तिया केवडिया ? अणता | xxx जहष्णए पवट । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेखेंण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहष्णाणुभागविहत्तिया वेत्तिया १ सखेना । अजहष्णाणुभागविहत्तिया दवपमाणाणुगमेण केवडिया ? अणता । जयध० १ (१८ ) खेत्तपरूवणा-खेत्ताणुगमो दुविहो-जहणओ उक्करसओ चेदि । उक्कस्सए पयद । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स उक्करसाणुभागविहत्तिया केवहि खेत्ते १ लोगस्स असखेजदिभागे | अणुक्कस्साणुभागविहत्तिया केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे | xxx जहण्णए पयद । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य | ओघेण मोहणीयस्स जहष्णाणुभागविहत्तिया केवडि खेत्ते । लोगस्स असखेजदिभागे । अजहण्णाणुभागविहत्तिया केवडि खेत्ते १ सव्वलोगे । जयध० २ (१९) पोसणपरूवणा-पोसणाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्स्स ओ चेटि । उक्कस्से पयद । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीवस्स उक्कस्साणुभागवित्तिएहि केवडियं खेत्त पोसिट ? लोगस्स असखेजदिभागो, अचोदसभागा वा देसूणा, सबलोगो वा । अणुक्करसाणुभागविहत्तिएहि कैवडिय खेत्त पोसिदं ? सवलोगो |xxx जहष्णए पयट । दुविहो णि सो-ओषेण आदेशेण य । ओयेण मोहणीस्स जहण्णाणुभागविहत्तिए हि केवडिय खेत्त पोसिद १ लोगस्स असखेज दिभागो। अजहष्णाणुभागविहत्तिएहिं केवडिय खेत्तं पोसिट ? सवलोगो | जयव० ३ (२०) कालपरूवणा-कालाणुगमो दुविहो-जहष्णयो उक्क्स्स ओ चेदि | उक्कस्सए पयद । दुविहो णिसो-ओघेण आटेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उक्कस्साणुभागवित्तिया केवचिर कालादो होति ? जहण्णेण अतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असखेजदिभागो। अणुक्कस्सागुभागवित्तिया वचिर कालादो होति ? सव्वद्धा Ixxx जहष्णए पयद | दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण च । ओवेण मोहणीयम्स जहण्णाणुभागविहत्तिया केवचिरं कालादो होति ? जहणेण एगममओ। उक्कस्सेण सखेजा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति-अनुयोगद्वार निरूपण १५५ काल पाये जाते है । जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सर्व काल पाये जाते है । ' ( २१ ) अन्तरानुगम- इस अनुयोगद्वार में नाना जीवोकी अपेक्षा कर्मोंके उत्कृष्टअनुत्कृष्ट और जघन्य- अजवन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोके अन्तरकालका अनुमार्गण किया गया है । जैसे -मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकके जितने प्रदेश है, उसने समयप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोका कभी अन्तर नहीं होता । जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है । अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोका कभी अन्तर नहीं होता । (२२) भावानुगम - इस अनुयोगद्वार मे अनुभागविभक्तिवाले जीवोके भावोका विचार किया है | मोहनीयकर्म के सभी अनुभागविभक्तिवाले जीवोके औदयिकभाव होता है । *( २३ ) अल्पबहुत्वानुगम- इस अनुयोगद्वारमे कर्मोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि अनुभागविभक्तिवाले जीवोकी अल्पता और अधिकताका विचार किया गया है । जैसे - मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे कम है और इनसे अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणित है । मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे कम है और उनसे अजघन्यअनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणित है 1 इनके अतिरिक्त निम्नलिखित चार अनुयोगद्वारोसे भी अनुभागविभक्तिका विचार किया गया है ( १ ) भुजाकारविभक्ति - इस अनुयोगद्वार से भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित अनुभागविभक्तिवाले जीवोका समुत्कीर्तना, स्वामित्व आदि स्थितिविभक्तिम बतलाये गये तेरह अनुयोगद्वारोसे विचार किया गया है । ( २ ) पदनिक्षेप - इस अनुयोगद्वारमे समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्त्रके द्वारा भुजाकार अनुभागविभक्तिवाले जीवोका जघन्य उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके द्वारा विशेष विचार किया गया है । समया । अजणाणुभागविहत्तिया केवचिर कालादो होति १ सन्यद्धा । जयध० १ ( २१ ) अंतर परूवणा-अतराणुगमो दुविहो-जहणओ उक्कत्सओ चेदि । उक्कस्सए पयद । दुविहो गिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स उक्क्स्साणुभागतर केवचिर कालादो होदि १ जहणणेण एगसमओ | उक्करसेण असखेजा लोगा । अणुक्ा स्याणुभागतर णत्थि । XXX जहाए पयद । दुविद्दि सो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स जहणाणुभागस्स अंतर क्वचिर कालो होदि ' जहणेण एगसमओ । उक्क्स्सेण छम्मासा | अजहष्णाणुभागतर णत्थि । जयध २ (२२) भावपरूवणा - भावानुगमेण सव्वत्थ ओइयो भावो । ३ ( २३ ) अप्पाचहुअप रुवणा- अप्पाचहुअ दुविर - जहष्णमुफरस च । उत्कन्मए पवद । दुविहो जिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओवेण सव्वत्थोवा मोहणीयस्स उत्राणुभागवित्तिया । अणुरसाणुभागविहत्तिया अणतगुणा । XXX जहणए पयः । दुविहो हि सो-सोवेण आदेने व । थोत्रेण सन्वत्थोवा गोहणीयस्स जहणाणुभागविहनिया जीवा । अजहरणाणुभागविरत्तिया अवगुणा । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ४ अनुभागविभक्ति ३. उत्तरपयडिअणुभाग चिहत्ति वत्तस्सामो । ४. पुव्वं गमणिज्जा इमा परूवणा । (३) वृद्धि - इस अनुयोगद्वार मे समुत्कीर्तनादि तेरह अनुयोगद्वारोसे कर्मोंके अनुभागकी पड़गुणी वृद्धि, हानि और अवस्थानका विचार किया गया है । ( ४ ) स्थानप्ररूपणा - इस अनुयोगद्वार मे अनुभागविभक्ति के वन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहत समुत्पत्तिक अनुभागस्थानोका प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व के द्वारा विचार किया गया है । १५६ उपर्युक्त सर्व अनुयोगद्वारोका आदेशकी अपेक्षा विशेष विवेचन जिज्ञासुजनो को जयधवला टीकासे जानना चाहिए । चूर्णिसू० ० - अव उत्तरप्रकृति - अनुभागविभक्तिको कहेगे | उसमे यह आगे कही जाने - वाली स्पर्धकप्ररूपणा प्रथम ही जानने योग्य है । क्योकि उसके विना सर्वघाती और देशघाती - का भेद तथा अनुभागके स्थानोका परिज्ञान नही हो सकता है ॥ ३-४ ॥ विशेषार्थ - जीवके सम्यक्त्व आदि गुणोंके एक भाग घात करनेवाले कर्मको देशघाती कहते है | उन्हीं सम्यक्त्व आदि गुणोके सम्पूर्ण रूपसे बात करनेवाले कर्मको सर्वघाती कहते है । इन दोनोका नाम घातिसंज्ञा है । लता, दारु, अस्थि और शैलसमान अनुभागकी शक्तिको अनुभागस्थान कहते है । इन चारो दृष्टान्तोमे जैसे लता (वेल) सबसे कोमल होती है, उसी प्रकार जिस कर्मस्कन्धके अनुभागमे फल देनेकी शक्ति सबसे कोमल, कम या मन्द होती है उसे लतासमान एकस्थानीय अनुभाग कहते है । दारु काठ या लकड़ीको कहते हैं । जैसे लतासे दारू कठोर होता है, उसी प्रकार जिस कर्मस्कन्धमे फल देनेकी शक्ति लतास्थानीय अनुभाग से तीव्र या अधिक कठिन होती है, उसे दारुसमान द्विस्थानीय अनुभाग कहते है । अस्थि नाम हड्डीका है । जैसे दारुसे अस्थि अधिक कठिन होती है, उसी प्रकार जिस कर्मस्कन्धमे अनुभागशक्ति दारुस्थानीय अनुभागसे भी अधिक तीव्र होती है उसे अस्थिसमान त्रिस्थानीय अनुभाग कहते हैं । शैल नाम शिलासमूह या पापाणका है । जैसे अस्थिसे शैल अत्यन्त कठोर होता है, उसी प्रकार जिस कर्म पिडमे फल देनेकी शक्ति अस्थिस्थानीय अनुभागसे भी अत्यधिक तीव्र होती है, उसे शैलसमना चतु: स्थानीय अनुभाग कहते हैं । इन चारों अनुभागस्थानोका नाम स्थानसंज्ञा है । मोहकर्मके अट्ठाईस भेदोमे से किसी कर्मकी अनुभागशक्ति एकस्थानीय होती है, किसीकी द्विस्थानीय, किसीकी एकस्थानीय और द्विस्थानीय, किसी कर्मी त्रिस्थानीय, किसीकी एकस्थानीय द्विस्थानीय और त्रिस्थानीय होती है। किसी कर्मकी चतुः स्थानीय और किसीकी एकस्थानीय द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होती है | इसका विशद विवेचन आगे सूत्रकार स्वयं करेंगे । इन चारों अनुभागस्थानामसे लतास्थानीय अनुभागकी सम्पूर्ण और दाम्स्थानीय अनुभाग की अनन्त बहुभाग शक्ति देशघाती कहलाती है । उससे ऊपर अर्थात् दारुस्थानीय अनुभागका अनन्तवा भाग और अस्थिम्थानीय तथा शैलम्थानीय अनुभागशक्ति सर्वघाती कहलाती है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति स्पर्धक-निरूपण १५७ ५. सम्मत्तस्स पहमं देसघादिफयमादि कादूण जाव चरिमदेसघादिफद्दगं ति एदाणि फद्दयाणि । ६. सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वधादि आदिफदयमादि कादूण दारुअसमाणस्स अणंतभागे णिहिदं । ७. मिच्छत्तअणुभागसंतकम्म जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिद्विदं तदो अणंतरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्ध। ८. वारसकसायाणमणुभागसंतकम्मं सव्यधादीणं दुट्ठाणियमादिफद्दयमादि कादूण उवरिमप्पडिसिद्ध। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रथम लतास्थानीय सर्व जघन्य देशघाती स्पर्धकको आदि लेकर दारुके अनन्त बहुभागस्थानीय अन्तिम देशघाती सर्वोत्कृष्ट स्पर्धक तक इतने स्पर्धक होते है ॥५॥ विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृति देशघाती है, अतएव उसकी अनुभागशक्तिके स्पर्धक लतास्थानीय सर्व मन्दशक्तिवाले प्रथम स्पर्धकसे लगाकर दारुस्थानीय अनुभागशक्तिके अनन्त बहुभाग तक स्पर्धकोका जितना प्रमाण है, वे सब सम्यक्त्वप्रकृतिक स्पर्धक कहलाते है। " चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है और वह अपने आदि स्पर्धकको आदि करके दारुसमान अनुभागके अनन्तवे भाग जाकर उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त होता है ॥६॥ विशेपार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति द्विस्थानीय सर्वघाती है, अतएव जहॉपर देशघाती सम्यक्त्वप्रकृतिका सर्वोत्कृष्ट अन्तिम स्पर्धक समाप्त होता है, उसके एक स्पर्धक ऊपरसे अनुभागकी सर्वघाती शक्ति प्रारम्भ होती है और यही सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सर्व जघन्य सर्वघाती स्पर्धक कहलाता है। इसे आदि लेकर ऊपर जो दारुस्थनीय अनुभागशक्तिका अनन्तवाँ भाग बचा था, उसके उपरितन एक भागको छोडकर अधरतन बहुभागके अन्तिम स्पर्धक तक सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभागशक्तिका सर्वोत्कृष्ट स्थान है। उसके एक स्पर्धक ऊपर जानेपर मिथ्यात्व प्रकृतिका सर्वजघन्य सर्वघाती अनुभाग प्रारम्भ होता है और वहॉसे एक एक म्पर्धक ऊपर बढ़ता हुआ दारुके अवशिष्ट अनन्तवे भागको, तथा अस्थिसमान और शैलसमान स्थानोके समस्त स्पर्धकोको उल्लंघनकर अपने उत्कृष्ट स्थानको प्राप्त होता है। इसी उपयुक्त कथनको स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार उत्तर सूत्र कहते है चर्णिमू०-जिस स्थानपर सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मस्थान निष्पन्न हुआ है, उसके अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे आरंभकर उपर शैलस्थानीय अनुभागशक्तिके अन्तिम स्पर्धक प्राप्त होने तक मिथ्यात्वप्रकृतिके अनुभागसत्कर्म अप्रतिपिद्ध अवस्थित हैं, अर्थात वरावर चले जाते हैं । अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायर्याका अनुभागसत्कर्म सर्वधातियोके द्विस्थानीय आदि स्पर्धकको आदि करके ऊपर अप्रतिषिद्ध है ।।७-८॥ विशेषार्थ-नेशघाती अनुभागके ऊपर जहाँसे सर्वघाती अनुभाग प्रारभ होता है, वह अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायोके अनुभागका सर्वजघन्य स्थान है । उससे एक एकम्पक Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [४ अनुभागविभक्ति ९. चदुसंजलण-णवणोकसायाणमणुभागसंतकम्मं देसवादीणमादिफद्दयमादि कादूण उवरि सव्वघादि त्ति अप्पडिसिद्ध । १०. तत्थ दुविधा सण्णा-घादिसण्णा हाणसण्णा' च । ११. ताओ दो वि एकदो णिज्जति । १२.मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं सव्वघादी दुढाणियं । १३. उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चदुहाणियं । १४. एवं वारस कसाय-छण्णोकसायाणं । १५. सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादी एगट्ठाणियं वा दुहाणियं वा । ऊपर बढ़ते हुए शैल-समान चतुःस्थानीय स्पर्धक तक उनके अनुभाग-सम्बन्धी स्पर्धक वरावर चले जाते है। सूत्रमे 'मिथ्यात्वके द्विस्थानीय आदि स्पर्धकको' न कहकर 'सर्वघातियोके द्विस्थानीय आदि स्पर्धकको' ऐसा कहनेका कारण यह है कि मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसे नीचे भी उक्त बारह कपायोके अनुभागस्थान पाये जाते है। इस प्रकार यह फलितार्थ निकलता है कि जहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागस्थान है, तत्सदृश स्थानसे ही अनन्तानुवन्धी आदि वारह कपायोके जघन्य अनुभागस्थानका प्रारंभ होता है । ___चूर्णिसू०-चारो संज्वलन और नवो नोकपायोका अनुभागसत्कर्म देशघातियोके आदि स्पर्धक सहश स्पर्धकको आदि करके ऊपर सर्वघाती स्पर्धक तक अप्रतिषिद्ध है। अर्थात् लतासमान जघन्य स्पर्धकसे लगाकर ऊपर शैलसमान सर्वघाती स्पर्धक तक इन तेरह प्रकृतियोके अनुभागसत्कर्मसम्बन्धी स्पर्धक होते है ।।९।। इस प्रकार अनुभागविभक्तिके अर्थपदरूप स्पर्धक-प्ररूपणा करके अव उक्त तेईस ' अनुयोगद्वारोमेसे प्रथम संज्ञानामक अनुयोगद्वारका अवतार करते है चूर्णिसू०-उन उपयुक्त अनुभागसम्बन्धी स्पर्धकोमे दो प्रकारकी संज्ञाका व्यवहार है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । अव इन दोनोको एक साथ कहते हैं ॥१०-११॥ - विशेपार्थ-संज्ञा, नाम और अभिधान, ये एकार्थक हैं। संज्ञाके दो भेद है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । जीवके सम्यक्त्व आदि गुणोंको घातनेके कारण घातिसंज्ञा सार्थक है। सर्वघाती और देशघातीके भेदसे इसके दो भेद है । अनुभागशक्तिके लता आदिके सम-स्थानीय स्थानोकी स्थानसंज्ञा है । लता, दारु, अस्थि और शैलके भेदसे स्थानसंज्ञाके चार भेद है । इन उपर्युक्त दोनो ही संज्ञाओको चूर्णिकार आगे एक साथ वर्णन कर रहे है। __ चूर्णिसू०-मिथ्यात्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानीयदारुस्थानीय है, तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानीय शैलस्थानीय है । इसी प्रकार मिथ्यात्वके समान अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायो और हास्यादि छह नोककपायोकी घातिसंज्ञा तथा जघन्य और उत्कृष्ट स्थानसंज्ञा जानना चाहिए । सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभागसत्कर्म देशघाती तथा एकस्थानीय (लतास्थानीय) और द्विस्थानीय (दारुस्थानीय) है। १ एदेसि मोहाणुभागफयाण धादि त्ति सण्णा, जीवगुणघायणसीलत्तादो। एदेमि चेव फहयाणं हाणमिदि सण्णा, लदा-दारु अछि सैलाण सहावम्मि अवठ्ठाणाटो | जयघ० www Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ गा० २२] उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति-संज्ञा-निरूपण १६. सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादी दुहाणियं । १७. एकं चेव हाणं । १८.चदुसंजलणाणमणुभागसंतकम्मं सव्यघादी वा देसघादीवा, एगहाणियं वा दुहाणियं वा तिहाणियं वा चउट्टाणियं वा। १९. इत्थिवेदस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वधादी दुट्ठाणियं वा तिहाणियं वा चउट्ठाणियं वा । २०. मोत्तूण खवगचरिमसमयइत्थिवेदयं । २१. तस्स देसघादी एगट्ठाणियं । २२. पुरिसवेदस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं देसघादी एगट्ठाणियं । २३. उक्कस्साणुभागसंतकम्मं सव्यघादी चदुढाणियं । २४. णवंसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्मं जहाणयं सयघादी दुट्ठाणियं । २५. उकस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी च उट्ठाणियं । २६. णवरि खवगस्स चरिमसमयणसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्म देसघादी एगट्ठाणियं। सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म सर्वधाती और द्विस्थानीय है। सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागका एक ही दारुस्थानीय स्थान है। चारो संज्वलन कपायोका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती भी है और देशघाती भी है। तथा एकस्थानीय भी है, द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है । अर्थात् संज्वलनकपायका अनुभाग लता, दारु, अस्थि और शैल, इन चारो स्थानोके समान होता है, क्योकि, संज्वलनकपाय देशघाती और सर्वघाती दोनो रूप है । स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। तथा वह द्विस्थानीय भी है, निस्थानीय भी है और चतु:स्थानीय भी है । अर्थात् स्त्रीवेदके फल देनेकी शक्ति दारुके अनन्तवे भागसे लेकर शैलसमान तक होती है । केवल चरमसमयवर्ती स्त्रीवेदक क्षपकको छोड़ करके । क्योकि उसके स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानीय होता है ॥१२-२१॥ विशेपार्थ-उदयमे आए हुए निपेकको छोड़कर शेप समस्त वीवेद-सम्बन्धी प्रदेशसत्कर्मको पर-प्रकृतिरूपसे संक्रमणकर अवस्थित क्षपकको चरमसमयवर्ती स्त्रीवेदक क्षपक कहते है। उसे छोडकर नीचे सर्व गुणस्थानोमें स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती तथा द्विस्थानीय या त्रिस्थानीय या चतुःस्थानीय ही होता है। किन्तु चरमसमयवर्ती स्त्रीवेदक क्ष्पकके वह देशघाती और एकस्थानीय होता है और यही स्त्रीवदके अनुभागसकत्कर्मका सर्व-जधन्य स्थान है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। चूर्णिसू०-पुरुपवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानीय है । क्योकि पुरुपवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए और चरमसमयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा वाँधे हुए अनुभागसत्कर्मको पुरुपवेदका जघन्य अनुभाग माना गया है, अतएव वह देशघाती और एकस्थानीय ही होता है । पुरुपवेदका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानीय है । नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानीय है । उसीका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतु:स्थानीय है। केवल इतनी विशेपता है कि नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणीपर चढे हुए चरमसमयवर्ती नपुंसकवेदी क्षपकके नपुंसकवंदका अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकम्थानीय होता है ॥२२-२६॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कसाय पाहुड सुत्त [४ अनुभागविभक्ति २७. एगजीवेण सामित्तं । २८. मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्म कस्स ? २९. उकस्साणुभागं वंधिदूण जाव ण हणदि ३०. ताव सो होज्ज एइंदिओ वा वेई. दिओ वा तेइंदिओ वा चउरिदिओ वा असणी वा सण्णी वा । ३१. असंखेज्जवस्साउएसु मणुस्सोववादियदेवेसु च णत्थि । ३२. एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । ३३. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्म कस्स ? ३४. दसणमोहक्खवगं मोत्तूण सव्वस्स उक्कस्सयं । ३५. मिच्छत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? ३६. सुहुमस्स । ३७. हदसमुप्पत्तियकम्मेण अण्णदरो एइंदिओ वा वेइ दिओ वा तेइ दिओ चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा अनुभागविभक्ति के स्वामित्वका निरूपण करते है-मिथ्यात्वप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागबंध करनेवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवके होता है । इस प्रकारका जीव मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर जव तक कांडकघातके द्वारा उसका घात नहीं करता है, तब तक वह जीव उस उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ मरण करके चाहे एकेन्द्रिय हो जाय, या द्वीन्द्रिय, या त्रीन्द्रिय, या चतुरिन्द्रिय, या असंज्ञी पंचेन्द्रिय अथवा संजी पंचेन्द्रिय हो जाय, अर्थात् इनमेसे किसी में भी उत्पन्न हो जाय, तो भी वह मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामी रहेगा । किन्तु असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियाँ तिर्यच और मनुष्य जीवोमे, तथा मनुष्योमे ही उत्पन्न होनेवाले आनत-प्राणत आदि कल्पवासी देवोमे उसकी उत्पत्ति नहीं होती है । क्योकि, इनमे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार सोलह कषायो और नव नोकपायोका स्वामित्व जानना चाहिए, क्योकि, मिथ्यात्वके स्वामित्वसे इनके स्वामित्वमे कोई विशेपता नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? दर्शनमोहकर्मके क्षपण करनेवाले जीवको छोड़कर सबके इन दोनो प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है । इसका कारण यह है कि दर्शनमोहनीय-आपकके सिवाय अन्य जीवोमे इन दोनो प्रकृतियोका अनुभागकांडकघात नहीं होता है ।।२७-३४॥ अब जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वको कहते है चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है १ सूक्ष्म निगोदिया एकेन्द्रिय जीवके होता है ॥३५-३६॥ ___ इस जघन्य अनुभागसत्कर्मके साथ वह सूक्ष्मनिगोदिया एकेन्द्रिय जीव मरणकर किस-किस जातिके जीवोमे उत्पन्न हो सकता है, इस वातके वतलानेके लिए चूर्णिकार उत्तरसूत्र कहते है चूर्णिसू ०-हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ वह सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव मरणकर कोई एक १-हते धातिते समुत्पत्तिर्यस्य तद्वतसमुत्पत्तिक कर्म | अणुभागसतकम्मघादिदे जमुवरिद जद्दण्णाणुभागसतकम्म तत्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि सण्णा त्ति मणिद होदि । जयध० Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण वा चउरिदिओ वा असण्णी वा सण्णी वा सुहुमो वा बादरो वा पज्जत्तो वा अपज्जत्तो वा जहण्णाणुभागसंतकम्मिओ होदि । ३८. एवमट्टकसायाणं। ३९. सम्मत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्यं कस्स ? ४०. चरिमसमय अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । ४१. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्म कस्म ? ४२. अवणिज्जमाणए अपच्छिमे अणुभागकंडए वट्टमाणस्स । ४३. अणंताणुबंधीणं जहणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? ४४. पढमसमयसंजुत्तस्स । ४५. कोधसंजलणम्स एकेन्द्रिय, अथवा द्वीन्द्रिय, अथवा त्रीन्द्रिय, अथवा चतुरिन्द्रिय, अथवा असंनी पंचेन्द्रिय, अथवा संज्ञी पंचेन्द्रिय, अथवा सूक्ष्मकायिक, अथवा बादरकायिक, अथवा पर्याप्तक, अथवा अपर्याप्तक जीवोमे उत्पन्न होकर मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी रहता है।॥३७॥ विशेषार्थ-विवक्षित जघन्य अनुभागसत्कर्मके घात करनेपर जो अनुभाग अवशिष्ट रहता है उसे हतसमुत्पत्तिककर्म कहते है। इस प्रकारके अनुभागसत्कर्मके साथ वह सूक्ष्म जीव मरणकर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रियोमे सम्भव बादर-सूक्ष्म, पर्याप्तकअपर्याप्तक और संजी-असंजी आदि किसी भी जातिके जीवोमे उत्पन्न हो सकता है। और वहॉपर भी वह मिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी रहता है। यहॉपर इतना विशेप जानना चाहिए कि देव, नारकी और असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियाँ मनुष्य तिर्यंच जीवीके मिथ्यात्वप्रकृतिका जघन्य अनुभाग नहीं पाया जाता, क्योकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव मरण करके उनमे उत्पन्न नहीं होते, ऐसा नियम है। चूर्णिसू०-जिस प्रकार मिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य अनुभागसत्कर्मकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण आदि आठ कयायोके जघन्य अनुभागसत्कर्मकी भी प्ररूपणा करना चाहिए । सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती अक्षीणदर्शनमोहनीय कर्मवाले जीवके होता है ॥३८-४०॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयका क्षपण करते समय अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको करके अनिवृत्तिकरणके कालमे संख्यात भागोके व्यतीत हो जानेपर मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमे संक्रमण कर पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको भी अन्तर्मुहूर्तके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिमें सक्रमण कर आठ वर्पप्रमाण स्थितिसत्त्वको करके प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागसत्त्वको तबतक वरावर घातता जाता है, जबतक कि वह दर्शनमोह-क्षपण करनेके अन्तिम समयको प्राप्त नहीं हो जाता है । क्योकि, दर्शनमोह-क्षपण करनेके अन्तिम समयमं ही उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका सर्वजघन्य अनुभाग पाया जाता है ।। चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है । सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमण कर उसे अपनीत करनेवाले तथा अन्तिम अनुभागकांडकमे वर्तमान ऐसे जीवके सम्बग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग पाया जाता है। अनन्तानुवन्धी चारी कपायाका जघन्य अनुभागमत्कर्म किसके होता है ?-प्रथम ममयमे संयोजन करने २२ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ४ अनुभागविभक्ति जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स १ ४६. खवगस्स चरिमसमयअसं कामयस्स । ४७. एवं माण- मायासंजलणाणं । ४८. लोभसंजलणस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स १ ४९. खवगस्स चरिमसमयसकसायस्स । ५० इथिवेदस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्पं कस्स १ ५१. खवयस्स चरिमसमयइत्थि वेदयस्स । ५२. पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभाग संतकम्पं कस्स १ ५३. पुरिसवेण उचट्टिदस्स चरिमसमयअसं कामयस्स । ५४. बुंसयवेदस्स जहष्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ? ५५. खवगस्स चरिमसपयणकुंसयवेदयस्स । ५६. छण्णोकसायाणं जहष्णाणुभागसंतकम्मं कस्स १५७. खवगस्स चरिमे अणुभागखंडर वट्टमाणस्स । वाले जीवके होता है ॥ ४१-४४॥ विशेषार्थ - जो जीव अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुनः नीचे गिरकर उसका संयोजन करता है, उस जीवके संयोजन करने के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी कपाका सर्व जघन्य अनुभाग पाया जाता है । १६२ चूर्णिसू० - क्रोधसंज्वलन कषायका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरम - समयवर्ती असंक्रामक क्षपकके होता है ।। ४५-४६॥ विशेषार्थ - क्रोधकर्षायके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले और क्रोधके चरम समयप्रबद्धकी अन्तिम अनुभागफालीको धारण करके स्थित क्षपकको चरमसमयवर्ती असंक्रामक क्षपक कहते है । ऐसे जीवके क्रोधसंज्वलनका जघन्य अनुभागसत्त्व पाया जाता है । चूर्णि० - इसी प्रकार मानसंज्वलन और मायासंज्वलन, इन दोनो कपायों के जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वको जानना चाहिए ||४७॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार चरम समयवर्ती असंक्रामक क्षपके क्रोधसंज्वलन के जधन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व वतलाया गया है, उसी प्रकारसे संज्वलन मान और माया के जघन्य स्वामित्वको कहना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि स्वोदयसे अथवा अपने अधस्तनवर्ती कपायके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके उस कषायके अनुभागसत्कर्मका जघन्य स्वामित्व होता है । चूर्णिसू० - लोभसंज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती सकषायी सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके होता है । स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती लीवेदक क्षपकके होता है । पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग सत्क किसके होता है ? पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले चरमसमयवर्ती असंक्रामक क्षपकके होता है । नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती नपुंसकवेदी क्षपकके होता है । हास्यादि छह नोकषायोका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरम अनुभागकांडकमै वर्तमान क्षपकके होता है ||४८-५७॥ विशेषार्थ-उपर्युक्त प्रकृतियोका जघन्य अनुभागसत्कर्म क्षपकश्रेणीमे अपनी उदयव्युच्छित्ति कालमे अर्थात् अन्तिम समय मे जनन्य अनुभाग होता है, ऐसा जानना चाहिए । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति काल-निरूपण ५८. णिरयगदीए मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं करत १ ५९. असण्णिस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण आगदस्स जाव हेहा सतसम्मस्स बंधदि ताय । ६०, एवं यासकसाय-णवणोकसायाणं । ६१. सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंतसम्म कस्स ? ६२. चरिमसमयअक्खीणदंमणमोहणीयस्स । ६३. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं णस्थि । ६४. अणंताणुवंधीणमोघं । ६५. एवं सव्वत्थ णेदव्यं । ६६. कालाणुगमेण । ६७. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागमंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि १ ६८. जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ६९ अणुक्कस्सअणुभागसंतकम्म चूर्णिमू-नरकगतिमे मिथ्यात्वकर्मका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? हतसमुत्पत्तिककर्मके साथ आया हुआ असंज्ञी जीव जब तक विद्यमान स्थितिसत्त्वके नीचे नवीन वन्ध करता है, तबतक उसके मिथ्यात्वकर्मका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है ।।५८-५९॥ विशेषार्थ-जो असंज्ञी जीव मिथ्यात्वकर्मके घात करनेसे अवशिष्ट बचे अनुभागसत्कर्मके साथ नरकमे उत्पन्न होता है, उसके एक अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म पाया जाता है, क्योकि, तभीतक उसके विद्यमान स्थितिसत्त्वसे नीचे वन्ध होता है । चूर्णिसू०-इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण आदि वारह कपाय और हास्यादि नव नोकषायोके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व जानना चाहिए । अर्थात् हतसमुत्पत्तिककर्मके साथ नरकमे उत्पन्न होनेवाले असंज्ञी जीवके उक्त प्रकृतियोका जघन्य अनुभागसत्कर्म पाया जाता है। सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती अक्षीणदर्शनमोहनीयकर्मवाले जीवके होता है ॥६०-६२॥ विशेषार्थ-यद्यपि नरकगतिमे दर्शनमोहका क्षपण नहीं होता है, तथापि मनुष्यगतिमे दर्शनमोहके क्षपणके पूर्व जिसने नरकायुका वन्ध कर लिया, वह जीव मनुष्यभवमे दर्शनमोहका भपण कर कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वी होकर जव नरकगतिमे उत्पन्न होता है, तब उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म पाया जाता है । चूर्णिसू०-नरकगतिमे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता है । क्योकि, दर्शनमोहकी क्षपणाको छोड़कर अन्यत्र सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागकांडकोका घात नहीं पाया जाता । नरकगतिमे अनन्तानुवन्धी चारो कपायोका जघन्य अनुभागसत्कर्म ओघके समान जानना चाहिए । इसी प्रकार सर्वत्र अर्थात् शेप गतियोमे और इन्द्रियादि शेप मार्गणाओमें मिथ्यात्व आदि मोहप्रकृतियोका जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म आगमके अविरोधसे जान लेना चाहिए ॥६३-६५।। चूर्णिसू०-अब कालानुगमकी अपेक्षा एक जीव-सम्बन्धी अनुभागविभक्तिका काल कहते है -- मिथ्यात्वप्रकृति के उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवका किनना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६६-६८ ॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागसन्यका जघन्य और उत्कृष्टफाल अन्तर्मुह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___... कसाय प्राहुड़ सुत्त .....: [४ अनुभागविभक्ति केवचिरं कालादो होदि ? ७०. जहण्णेण - अंतोमुहुत्तं । ७१. उकस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ७२. एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । ७३. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकभिमओ केवचिरं कालादो होदि ? ७४. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ७५. उक्कस्सेण वे छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ७६. अणुक्कस्सअणुभागसंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि ? ७७. जहष्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । ७८. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि ? ७९. जहण्णुक्कस्सेण अंतोयुहुत्तं । है । क्योकि, उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त के द्वारा घात करनेवाले जीवके जघन्य काल जाता है और सर्व-दीर्घ अन्तर्मुहूर्त के द्वारा घात करनेवाले जीवके उत्कृष्ट काल पाया जाता है। इस प्रकार जघन्यतः और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्तकाल तक ही मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म रहता है । चूर्णि सू०-मिथ्यात्वप्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥६९-७०॥ विशेपार्थ-उत्कृष्ट अनुभागको घात करके सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल तक अनुत्कृष्ट अनुभाग-दशामें रहकर पुनः उत्कृष्ट अनुभागके बॉधनेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्यकाल प्राप्त होता है। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वप्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ।। ७१ ॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि मिथ्यात्वप्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको घात करके अनुत्कृष्ट अनुभागको प्राप्त होकर उसके साथ पंचेन्द्रियोमें यथासम्भव काल तक रहकर पुनः एकेन्द्रियोमे जाकर असख्यात पुद्गलपरिवर्तन विताकर पीछे पंचेन्द्रियोमे आकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाले जीवके सूत्रोक्त उत्कृष्ट काल पाया जाता है। चूर्णिसू०-इसी प्रकार सोलह कपाय और नव नोकपायोके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग-सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ अधिक दो छयासठ सागरोपम है। इन्हीं दोनो प्रकृतियोके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त चूर्णिसू०-मिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।। ७८-७९ ॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि सूक्ष्म निगोदिया जीवका हतसमुत्पत्तिककर्मके साथ रहनेका काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही है।' Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा०.२२-].:. . उत्तरप्रकृतिअनुभाग-अन्तर-निरूपण १६५ . .८०. एवं सम्मामिच्छत्त-अट्ठकसाय-छपणोकसायाणं । ८१. सम्मत्त-अणंताणुचंधि-चदुसंजलण-तिण्णिवेदाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि ? ८२. जहण्णुकस्सेण एगसमओ । ८३. अंतरं । ८४. यिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ८५. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ८६. उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ८७. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहा पयडिअंतरं तहा । ८८. जहण्णाणुभागसंतकम्पियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ८९. मिच्छत्तअट्ठकसाय-अणंताणुवंधीणं च मोत्तण सेसाणं णत्थि अंतरं । ९०. मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ९१. जहण्णेण अंतोमुहत्तं । ९२. उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । ९३.अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंतकस्मियंतरं केवचिर कालादो होदि १ ९४. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ९५. उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । चूर्णिसू०-इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण आदि मध्यम आठ कपाय और हास्य आदि छह नोकपायोका जघन्य अनुभागसत्कर्म-सम्बन्धी काल जानना चाहिए । सम्यक्त्वप्रकृति, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, संज्वलनचतुष्क और तीनो वेदोके जघन्य अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ।।८०-८२॥ चूर्णिस ०-अब अनुभागविभक्तिके अन्तरको कहते है-मिथ्यात्व, सोलह कपाय, और नव नोकषाय, इन छब्बीस मोहप्रकृतियोके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है १ जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोका जैसा प्रकृतिविभक्तिमे अन्तर बतलाया है, उसी प्रकार यहॉपर जानना चाहिए ।।८३-८७॥ विशेषार्थ-इन दोनो प्रकृतियोका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपापुद्गलपरिवर्तन है। चूर्णिसू०-मोहनीयकर्मकी सर्वप्रकृतियोके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ? मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण आदि आठ मध्यम कपाय और अनन्तानुबन्धीचतुष्क, इन तेरह प्रकृतियोको छोड करके शेप पन्द्रह प्रकृतियोके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं होता है ॥८८-८९॥ विशेपार्थ-शेप पन्द्रह प्रकृतियोके जघन्य अनुभागसत्कर्मके अन्तर न होनेका कारण यह है कि उन सम्यक्त्व आदि शेप पन्द्रह प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका आपकप्रेणीम निर्मूल विनाश हो जानेपर पुनः उत्पत्ति नहीं होती है, अतएव उनका अन्तर सम्भव नहीं है। चूर्णिम् ०-मिथ्यात्वप्रकृति और आठ मध्यम कपायोके जघन्य अनुभागमर्मका कितना अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अमंच्यात लोक है। अनन्तानुबन्धी चारो कपायोके जघन्य अनुभागसत्कर्म करनेवाले जीवांका किनना Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कसाथ पाहुड सुस [४ अनुभागविभक्ति ९६. णाणाजीवेहि भंगविचओ। ९७. तत्थ अट्ठपदं। ९८. जे उक्कस्साणुभागविहत्तिया ते अणुक्कस्सअणुभागस्स अविहत्तिया। ९९. जे अणुक्कस्सअणुमागस्स विहत्तिया ते उकस्सअणुभागस्स अविहत्तिया । १००. जेसि पयडी अत्थि तेसु पयदं, अकस्मे अव्यवहारो । १०१. एदेण अट्ठपदेण । १०२ सव्वे जीवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे अविहत्तिया । १०३. सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च। १०४. सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च। १०५. अणुक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । १०६. सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च । १०७. सिया अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥९०-९५॥ चूर्णिसू०-अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभाग-विभक्तिके भंगोका निर्णय किया जाता है-उसके विपयमें यह अर्थपद है । जिसके जान लेनेसे प्रकृत अर्थका भलीभॉति ज्ञान हो, अर्थपद उसे कहने हैं । जो जीव उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले है, वे अनुत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले नहीं है । क्योकि, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग एक साथ नहीं रह सकते । जो जीव अनुत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले होते है, वे उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले नहीं होते हैं। क्योकि, दोनोका परस्पर विरोध है। जिन जीवोके मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ सत्तामे होती है, उन जीवोमे यह प्रकृत अधिकार है । क्योकि मोहकर्मसे रहित जीवोमे भंगोका व्यवहार सम्भव नहीं है। इस उपयुक्त अर्थपढके द्वारा नानाजीवोकी अपेक्षा भंगोका निर्णय किया जाता है ।। ९६-१०१ ॥ चूर्णिसू ०-कदाचित् किसी कालमे सर्व जीव मिथ्यात्वकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागके सभी विभक्तिवाले नहीं होते है । क्योकि, मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ अवस्थान-कालसे उसके विना अवस्थानको काल वहुत पाया जाता है। कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकर्म-सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले नहीं होते है और कोई एक जीव उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाला होता है । क्योकि, किसी कालमे मिथ्यात्वकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले जीवोके साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले एक जीवका पाया जाना सम्भव है । कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले नहीं होते है और अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते है । क्योंकि, किसी समय उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति नहीं करनेवाले जीवोके साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले अनेक जीवोका पाया जाना सम्भव है। इस प्रकार मिथ्यात्वकर्म-सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके ये तीन भंग होते है । ॥ १०२-१०४ ॥ चूर्णिम् ०-मिथ्यात्वकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सर्व जीव विभक्तिवाले होते हैं । क्योंकि, किसी कालमे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोकी सान्तरभावके २ जेण अवगएण भंगा अवगम्मति तमद्रपट । जयधक Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ गा० २२ ] उक्करप्रकृतिअनुभाग विभक्तिभंगविचय-निरूपण विहत्तिया च अविहत्तिया च । १०८. एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । १०९. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुकस्स अणुभागस्स सिया सच्चे जीवा विहत्तिया । ११०. एवं तिष्णि भंगा । १११. अणुक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे अविहत्तिया । ११२. एवं तिष्णि भंगा । • साथ प्रवृत्ति देखी जाती है । कदाचित अनेक जीव मिथ्यात्वकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति - वाले होते है और कोई एक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला नही होता है । क्योंकि, कभी किसी कालमे मिध्यात्वकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले बहुत से जीवो के साथ कोई एक उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाला भी जीव पाया जाता है । कदाचित अनेक जीव मिथ्यात्व की अनुत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले होते है और अनेक अनुत्कृष्टविभक्तिवाले नही होते है । क्योकि, मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले भी जीवोका पाया जाना संभव है । इस प्रकार मिध्यात्वकर्मसम्बन्धी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके ये तीन भंग होते है ॥१०५-१०७॥ चूर्णिमू० - इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोको छोड़कर शेष चारित्रमोहसम्बन्धी पच्चीस कर्म - प्रकृतियोके अनुभागविभक्तिसम्बन्धी भंग जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोके उत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सर्व जीव विभक्तिवाले होते हैं, इस प्रकार तीन भंग जानना चाहिए । अनुत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सर्व जीव अविभक्तिवाले होते है, इस प्रकार तीन भंग जानना चाहिए ॥। १०८-११२॥ विशेषार्थ- - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके तीन-तीन भंगोका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- इन दोनो प्रकृतियो के कदाचित् सर्वजीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते है । कदाचित् अनेक विभक्ति करनेवाले होते है और एक जीव विभक्ति करनेवाला नही होता है। कदाचित् अनेक विभक्ति करनेवाले और अनेक जीव विभक्ति नही करनेवाले होते है । इस प्रकार तीन भंग होते है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियो के अनुत्कृष्ट अनुभाग के कदाचित् सर्वजीव विभक्ति करनेवाले नही होते है, क्योकि, दर्शनमोहकी क्षपणाको छोड़कर अन्यत्र उक्त दोनो प्रकृतियोका अनुत्कृष्ट अनुभाग पाया नहीं जाता, तथा दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीव भी सर्व काल नही पाये जाते हैं, क्योकि, उनका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास बतलाया गया है । इन्हीं दोनो प्रकृतियोकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले कदाचित् अनेक जीव नहीं होते है और कोई एक जीव होता है । कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले पाये जाते हैं और अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले नही पाये जाते है । इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोके नानाजीवो की अपेक्षा उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके तीन तीन भंग होते हैं 1 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कसाय पाहुड सुत्त --- [४ अनुभागविभक्ति - ११३. णाणाजीवेहि कालो ११४. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागकम्मंसिया केवचिरं कालादो होति ? ११५. जहपणेण अंतोमुहुत्तं । ११६. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ११७. एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं । ११८. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मिया केवचिरं कालादो होति ? ११९. सव्बद्धा । १२०. मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मिया केवचिरं कालादो होंति ? १२१. सम्बद्धा । १२२. सम्मत्त-अणंताणुबंधिचत्तारि-चदुसंजलणतिवेदाणं जहण्णाणुभागकम्मंसिया केवचिरं कालादो होति ११२३. जहण्णेण एगसमओ। १२४. उक्कस्सेण संखेज्जा समया । १२५. णवरि अणंताणुबंधीणमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। १२६. सम्मामिच्छत्त-छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागकम्मंसिया चूर्णिसू०-अव नानाजीवोकी अपेक्षा अनुभागविभक्तिसम्बन्धी काल कहते हैमिथ्यात्वकर्मके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ॥११३-११६॥ विशेषार्थ-इन दोनो कालोका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागवंध करनेवाले सात आठ जीवोके अन्तर्मुहूर्तकाल तक उस अवस्थामे रहकर तत्पश्चात् उत्कृष्ट अनुभागका घात करनेपर जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाया जाता है । मिथ्यात्वकर्मके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवा भाग है । इसका कारण यह है कि एक जीवसम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल अन्तर्मुहूर्त होता है और मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले जीव एक साथ अधिकले अधिक पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र होते हैं, अतएव उतनी शलाकाओसे उक्त अन्तर्मुहूर्तको गुणा कर देनेपर पल्योपमका असंख्यातवें भागमात्र उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है। चूर्णिम०-इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियाको छोड़कर शेप कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिसम्बन्धी काल जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोका कितना काल है ? सर्व काल है ॥११७-११९॥ . विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि एक जीवके उत्कृष्ट अनुभागमे अवस्थानकालकी अपेक्षा उसे प्राप्त होनेवाले जीवोका अन्तरकाल असंख्यातगुणित हीन होता है।। . चूर्णिसू०-मिथ्यात्व और आठ मध्यम कपायोके जघन्य अनुभाग सत्कर्मवाले जीवोका कितना काल है ? सर्वकाल है । क्योकि, इन सूत्रोक्त सभी कर्मोंके जघन्य अनुभागवाले जीवोका किसी भी काल मे विरह नही होता है। सम्यक्त्व, अनन्तानुवन्धी-चतुष्क, संज्वलन-चतुष्क और तीनो वेद, इन प्रकृतियोके जघन्य अनुभाग सत्कर्मवाले जीवोका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। केवल अनन्तानुवन्धी चागे कपायोका जघन्य अनुभाग-सम्बन्धी उत्कृष्ट काल आवलीका असंख्यातवॉ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति-अन्तर-निरूपण १६९ केवचिरं कालादो होंति ? १२७. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । १२८. णाणाजीवेहि अंतरं । १२९. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंतकम्मंसियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १३०. जहण्णेण एगसमओ। १३१. उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। १३२. एवं सेसकम्माणं । १३३. णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णथि अंतरं। १३४. जहण्णाणुभागकम्मंसियंतरं जाणाजीवेहि । १३५. मिच्छत्त-अर्द्धभाग है। इसका कारण यह है कि अनन्तानुवन्धी-चतुप्ककी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवोकी अपेक्षा क्रमसे संयोजना करनेवाले जीवोका उत्कृष्ट उपक्रमणकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। सम्यग्मिथ्यात्व और हास्यादि छह नोकपायोके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसका कारण यह है कि अपनी-अपनी क्षपणाके अन्तिम अनुभागखंडमे होनेवाले जघन्य अनुभागका अन्तर्मुहूर्तको छोड़कर अधिक काल नहीं पाया जाता है ॥१२०-१२७॥ चूर्णिसू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा अनुभागविभक्ति-सम्बन्धी अन्तर कहते हैं-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है ॥१२८-१३१॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्वकर्मके उत्कृष्ट अनुभागके विना त्रिभुवनवर्ती समस्त जीव कमसे कम एक समय रहते है । तत्पश्चात् द्वितीय समयमें कितने ही जीव उत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करने लगते है, इसलिए जघन्य अन्तर एक समय ही पाया जाता है। मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है, अर्थात् असंख्यात लोकके जितने प्रदेश है, तत्प्रमाण काल है। इसका कारण यह है कि तीनो लोकमे अधिकसे अधिक असंख्यात लोकमात्र कालतक मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसे रहित जीव पाये जाते है, इससे अधिक नहीं, क्योकि, उत्कृष्ट अनुभागवन्धके अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकमात्र ही होते है। चूर्णिसू०--इसी प्रकार शंप कर्मोंक उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका अन्तर जानना चाहिए । केवल सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियांकी अनुभागविभक्तिसम्बन्धी अन्तर नहीं होता है ।। १३२-१३३॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टियोसे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोके अन्तरकालकी अपेक्षा सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागसत्कर्म के साथ रहनेवाले मिथ्यावृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवोका काल असंख्यातगुणा होता है। चूर्णिसू० - अव नाना जीवोकी अपेक्षा जघन्य अनुभागसत्कर्मचाले जीवोका अन्तर कहते है-मिथ्यात्व और आठ मध्यम कपायोका जघन्य अनुभागसम्बन्धी अन्तर नहीं होता है। क्योंकि, इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीव अनन्त पाये जाते है । सम्यक्त्व, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० कपाय पाहुड सुत्त . . . [४ अनुभागविभक्ति कसायाणं णस्थि अंतरं । १३६. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-लोभसंजलण-पणोकसायाणं जहणाणुभागकम्मंसियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १३७ जहण्णेण एगसमओ । १३८. उक्करसण छम्मा मा। १३९. अणंताणुबंधीणं जा पणाणुभागसंतकम्मियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १४०. जहणेण एगसमओ। १४१. उक्कम्सेण असंखेज्जा लोगा। १४२. इत्थि-णqसयवेदजहण्णाणुभागसंतकस्मियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १४३. जहष्णेण एगसमओ। १४४. उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्साणि । १४५. तिसंजलण पुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंतरिमयाणमंतरं देवचिर कालादो होदि ? १४६. जहण्णेण एगसमओ । १४७ उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं । सम्यग्मिथ्यात्व, लोभसंचलन और हास्यादि छह नोकपायोके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंका कितना अन्तरकाल है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल छह मास है । क्योकि, दर्शनमोहकी क्षपणा व क्षपकोणीम ही इन प्रकृतियोका जघन्य अनुभाग उत्पन्न होता है और इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास ही माना गया है। अनन्तानुवन्धी चारो कषायोके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकके जितने प्रदेश है, उतने समयप्रमाण है । क्योकि अनन्तानुबन्धी कपायके संयोजना करनेवाले परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण पाये जाते है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोका अन्तरकाल कितना होता है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्ष है ।।१३४-१४४॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण पाया जाता है। तीनसे लेकर नौ तककी पृथक्त्वसंज्ञा है और दो तथा दोसे ऊपरकी संख्याकी संख्यातसंज्ञा है, इसलिए उक्त दोनों वेदोका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्पप्रमाण सिद्ध हो जाता है। ___चूर्णिम०-क्रोध, मान और माया, ये तीन संचलन कपाय और पुरुपवंद, इन कर्मोके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक वर्पप्रमाण है ।।१४५-१४७|| विशेपार्थ-उक्त साधिक वर्पप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर इस प्रकार संभव है, जैसे-कोई जीव पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा, और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मको करके ऊपर चला गया । पुनः छह मासके पश्चात् अन्य कोई जीव नपुंसकवंदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़ा । इस प्रकार संख्यात वार व्यतीत होनेके पश्चात् फिर कोई जीव पुरुपबंदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा और पुरुपवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किया। इस प्रकार पुरुपवेदका उत्कृष्ट अन्तर लब्ध हो गया। तीनो संज्वलनोका उत्कृष्ट अन्तर भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] - एसरप्रकृतिअनुभागधिभक्ति अल्पयाहुत्व-निरूपण १७१ १४८. अप्पाबहुअमुक्कस्सयं जहा उक्कस्सबंधे तहा । १४९. णवरि सव्वपच्छा सम्मामिच्छत्तमणताणहीणं । १५०. सम्मत्तमणंतगुणहीणं । अब अनुभागसत्कर्मविभक्तिका अल्पबहुत्व कहा जाता है। वह जघन्य और उत्कृष्ट के भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका अल्पवहुत्व कहने के लिए चूर्णिकार उत्तरसूत्र कहते है चूर्णिसू०-अनुभागसत्कर्मसम्बन्धी उत्कृष्ट अल्पबहुत्व जिस प्रकार पहले उत्कृष्ट अनुभागबन्धमे कह आए है, उसी प्रकार यहॉपर भी जानना चाहिए । केवल उससे विशेषता यह है कि यहॉपर सबसे पीछे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन है और उससे सम्यस्त्वकृतिका उत्कृट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन है, ऐसा कहना चाहिए ।।१४८-१५०॥ विशेपार्थ-पहले उत्कृष्ट अनुभागवन्धके प्ररूपण करते समय जो अल्पबहुत्व कहा है, वही यहाँ अनुभागसत्कर्मके प्ररूपणावसर पर भी कहना चाहिए । केवल सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, इन दोनोका अनुभागसत्कर्मसम्बन्धी अल्पबहुत्व सबसे पीछे कहना चाहिए । इसका कारण यह है कि इन दोनो प्रकृतियोकी गणना बन्ध प्रकृतियोमे नहीं है, इसलिए वहॉपर इनका अल्पबहुत्व नही बतलाया गया। किन्तु मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यग्दृष्टि होनेपर मिथ्यात्वके अनुभागका इन दोनों प्रकृतियोंमे संक्रमण हो जाता है, इसलिए उनके अनुभागका सत्त्व पाया जाता है और इसी कारण यहॉपर उनके अनुभागसत्कर्मसम्बन्धी अल्पबहुत्वका कहना आवश्यक हो जानेसे चूर्णिकारने 'णवरि " इत्यादि दो सूत्र निर्माण कर उसकी प्ररूपणा की है । इस प्रकारले सूचित किया गया वह अलमबहुत्व इस प्रकार जानना चाहिए मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे तीव्र होता है। उससे अनन्तानुबन्धी लोभकपायका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । इससे अनन्तानुबन्धी माया, क्रोध और मानकपायके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म उत्तरोत्तर विशेप विशेष हीन होते हैं । अनन्तानुबन्धी मानके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मसे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है, इससे संचलन माया, क्रोध और मानकपायके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म उत्तरोत्तर विशेप-विशेप हीन होते हैं। संज्वलन मानके उत्कृष्ट अनु. भागसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण लोभका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । इससे प्रत्याख्यानावरण माया, क्रोध और मानकपायके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म उत्तरोत्तर विशेष विशेष हीन होते हैं। प्रत्याख्यानावरण मानके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरण लोभका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । इससे अप्रत्याख्यानावरण माया, प्रोध और मानकपायके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म उत्तरोत्तर विशेप हीन होते हैं । अप्रत्याख्यानावरणमानके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मसे नपुंसकोदका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । उससे अरतिप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है। इसने शोक. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त . . [४ अनुभागविभक्ति १५१. जहष्णाणुभागसंतकम्मंसियदंडओ । १५२. सव्वमंदाणुभागं लोभसंजलणस्स अणुभागसंतकम्मं । १५३. मायासंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । १५४. माणसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । कोधसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । १५५. पुरिसवेदस्स जहष्णाणुभागो अणंतगुणो । १५६. इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। १५७. णqसयवेदस्स जहणाणुभागो अणंतगुणो । १५८. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। १५९. अणंताणुप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । इससे भयप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है। इससे जुगुप्साप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है। इससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है। इससे रतिप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । इससे हास्यप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । इससे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । इससे सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है । हास्यप्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मसे भी सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको अनन्तगुणा हीन बतलानेका कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानीय अर्थात् दारुसमान स्पर्धकोके अनन्तवे भागमे अवस्थित है, किन्तु हास्यप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानीय अर्थात् शैलसमान स्पर्धकोमे अवस्थित है, इसलिए हास्यके अनुभागसे सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागका अनन्तगुणा हीन होना स्वाभाविक है । सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके अनन्तगुणा हीन होनेका कारण यह है कि वह देशवाती है, अतएव उसका उत्कृष्ट अनुभाग भी दारुस्थानीय अनुभागके अनन्त बहुभाग तक ही सीमित रहता है। . चूर्णिसू०-अव जघन्य अनुभागसत्कर्मसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहने के लिए अल्पवहुत्वदंडक कहते है-लोभसंज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म आगे कहे जानेवाले सर्व अनुभागोसे अति मन्दशक्ति होता है । लोभसंज्वलनके सर्व-मन्द जघन्य अनुभागसे मायासंज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। मायासंज्वलनके जघन्य अनुभागसे मानसंज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागसे क्रोधसंचलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागसे सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिके जघन्य अनुभागसे पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है । पुरुपवेदके जघन्य अनुभागसे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। स्त्रीवेदकं जघन्य अनुभागसे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागमे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ) उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्तिअल्पवस्व निरूपण २७३ बंधिमाणजहणणाणुभागो अणंतगुणो। १६०. कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १६१. मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। १६२. लोभस्स जहण्णओ अणुभागो विसेसाहिओ। १६३. हस्सस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । १६४. रदीए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। १६५. दुगुंछाए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। १६६. भयस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। १६७. सोगस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। १६८. अरदीए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । १६९ अपच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । १७०. कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। १७१. मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १७२. लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १७३ पचवखाणमाणस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। १७४. कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १७५. मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १७६. लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। १७७.मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । अनुभागसे अनन्तानुवन्धीमानका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। अनन्तानुवन्धी मानके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुवन्धी मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेप अधिक होता है । अनन्तानुबन्धी मायाके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेप अधिक होता है । अनन्तानुबन्धी लोभके जघन्य अनुभागमे हास्यप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । हास्यप्रकृतिके जघन्य अनुभागमे रतिप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। रतिप्रकृति के जघन्य अनुभागमे जुगुप्सा प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। जुगुप्साप्रकृतिके जघन्य अनुभागसे भयप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । भयप्रकृतिके जघन्य अनुभागसे शोकप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। शोकप्रकृतिके जघन्य अनुभागने अरतिप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । अरतिप्रकृतिके जघन्य अनुभागसे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण मानके जघन्य अनुभागमे अप्रत्याख्यावरण क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेप अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागसे अप्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मायाके जघन्य अनुभागसे अप्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेप अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणलोभके जघन्य अनुभागसे प्रत्याख्यानावरण मानफा जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। प्रत्याख्यानावरण मानके जघन्य अनुभागमे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक है। प्रत्यारयानावरणमोधक जघन्य अनुभागसे प्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेप अधिक है । प्रत्यारख्यानावरण मायाके जघन्य अनुभागमे प्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभागमकर्म विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभके जघन्य अनुभागमे मिथ्यात्वप्रकृतिका जघन्य अनुभाग Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसा पाहुड सुन्त [ ४ अनुभागविभक्ति १७८. निरयगईए जहण्णयमणुभारासंतकम्पं । १७९. सच्चमंदाणुभागं सम्मत्तं । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागो अनंतगुणो । १८०. अनंताणुरंधिमाणस्स जहण्णाणुभागो अर्णतगुणो । १८१. कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १८२. मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १८३. लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । १८४. सेसाणि जधा सम्मादिट्ठीए बंधे तथा दव्वाणि । १७४ सत्कर्म अनन्तगुणा है । इस प्रकार ओघकी अपेक्षा जवन्य अनुभागसम्बन्धी अल्पबहुत्वदंडक समाप्त हुआ ।। १५१-१७७॥ अब आदेशकी अपेक्षा जघन्य अनुभागसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहनेके लिए उत्तर सूत्र- प्रबन्ध कहते है चूर्णिसू० - नरकगतिमें जघन्य अनुभागसत्कर्म इस प्रकार है - सम्यक्त्वप्रकृति सर्व - मन्द अनुभागवाली होती है । सम्यक्त्वप्रकृति के सर्व- मन्द अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है । सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है । अनन्तानुबन्धी मानके जघन्य अनुभाग से अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुवन्धी मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक होता है | अनन्तानुबन्धी मायाके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक होता है । शेप प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वपद जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि के अनुभागबन्धमें कहे हैं, उस प्रकार जानना चाहिए ।। १७८-१८४॥ विशेषार्थ - इस समर्पण - सूत्रसे नरकगति में जिस शेष अल्पबहुत्वके जान लेने की सूचना की गई है, वह इस प्रकार है - अनन्तानुबन्धी लोभके जघन्य अनुभागसे हास्यप्रवृतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे रतिप्रकृतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है | इससे जुगुप्साप्रकृतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे भयप्रकृतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे शोकप्रकृतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे अरतिप्रकृतिका जघन्य अनुभाग असंख्यातगुणा है । इससे नपुंसक वेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका जवन्य अनुभाग विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुerrera faशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है | इससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण कोभका जघन्य अनुभाग Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२२ ] उत्तरप्रकृतिअनुभाग सत्कर्मस्थान-निरूपण १७५ १८५. जहा बंधे भुजगार - पदणिक्खेव वड्डीओ तहा संतकम्मे विकायन्याओ । १८६. संतकम्माणाणि तिविहाणि--बंधसमुप्पत्तियाणि हदसमुप्पत्तियाणि हृदहदसमुपत्तियाणि । १८७ सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियाणि । १८० हदसमुपपत्तियाणि असंखेज्जगुणाणि । १८९. हृदहदसमुप्पत्तियाणि असंखेज्जगुणाणि | विशेष अधिक है । इससे मानसंज्वलनका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। इससे मायासंज्वलनका जघन्य अनुभाग विशेप अधिक है। इससे लोभसंज्वलनका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्व प्रकृतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । • इस उपर्युक्त अल्पबहुत्व-दंडकमे शोकप्रकृति के जघन्य अनुभाग से अरतिप्रकृतिका जघन्य अनुभाग असंख्यगुणा वतलाया गया है, यह नरकगतिकी विशेषता है, ऐसी सूचना जयधवला टीकाकारने उक्त दंडक के प्रारम्भमे की है । चूर्णिसू० - जिस प्रकार अनुभागबन्ध मे भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि, इन तीन अनुयोगद्वारोकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार यहां अनुभाग सत्कर्ममे भी करना चाहिए || १८५ ॥ चूर्णिसू ०–अनुभागसत्कर्मस्थान तीन प्रकारके होते है - चन्धसमुत्पत्तिकस्थान, हतसमुत्पत्तिकस्थान और हतहतसमुत्पत्तिकस्थान | इनमे से बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे कम है । वन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंसे हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणित हैं । हतसमुत्पत्तिकस्थानो से हतहतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणित है ।। १८६ - १८९॥ विशेपार्थ - जिन अनुभागस्थानोकी बन्धसे उत्पत्ति होती है, वे बन्धसमुत्पत्तिकस्थान कहलाते है । बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोका प्रमाण यद्यपि शेप दोनो भेदोकी अपेक्षा सवसे कम है, तथापि असंख्यात लोकाकाशके जितने प्रदेश होते है, तत्प्रमाण है । इसका कारण यह है कि १ बधात्समुत्पत्तिर्येपा तानि वधसमुत्यत्तिकानि । हते समुत्पत्तियेपा तानि हतसमुत्पत्तिकानि । हतस्य हतिः हतहतिः । ततः समुत्पत्तिर्येषा तानि हतहतिसमुत्पत्तिकानि । जयध० याणि अणुभागसतट्ठाणाणि परूवणत्थ भण्णतिबंध-हय-हयहउत्पत्तिगाणि फमसो असंखगुणियाणि । उदयोदोरणवत्राणि होति अणुभागठाणाणि ॥ २४ ॥ (चू० ) जे बधातो उप्पजति अनुभागट्टाणा ते बंधुप्पत्तिमा घुञ्चति, ते अससेजलो गागासपदेसमेत्ता । कह ? भण्णइ - अणुभागव धज्यवसाणट्टाणा असखेजलो गागासपदेसमेत्ता ति काउ । 'हुतुप्पत्तिग' त्ति कि भणिय होति ? उट्टणातोव्यष्टणाउ बुद्धिहाणीतो जे उप्पजति ते ह उप्पत्तिना वच्यति । बधुष्पत्तीतो हतुप्पत्तिगा असंसेजागुणा, एक्ोक्कमि यथुत्पत्तिम्मि असखेजगुणा तव्भति त्ति । हततुप्पत्तिगाणि ति ठितिघाय-रसपायातो जे उप्पजति ते हयहतुपपत्तिगा, हतुप्पत्ती हयहतुत्पत्तिगा असंसेजगुणा । वह ? भणति - सकिस विसोहा जीवस्स समए समए अरुना भवति, असखजगुणा। XXX कम्म० सत्ताधि० पृ० ५२. तमेव अणुभागवावारण ति तम्हा अणुभागट्टाणाणि बघसमुप्पत्तिय हदसमुप्पत्तिय-हद हदसमुप्पत्तियअगुभाग द्वाणनेत्रेण तिविशति ति 1 XXX तस्थ हदसम्पत्तियं पादूच्छतु हुमा निगोदणाणुभाग सतराणस माणव घटटाणमादि Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कसाय पाहुड सुन्त एवं अणुभागे त्ति जं पदं तस्स अत्थपरूपणां समत्ता । अणुभागविहत्ती समत्ता । [ ४ अनुभाग विभक्ति • अनुभागबन्धके अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकाकाशके प्रदेशप्रमित है । उद्वर्तना और अपवर्तना करणीके द्वारा होनेवाली वृद्धि और हानिसे जो अनुभागस्थान उत्पन्न होते है, वे हत - समुत्पत्तिकस्थान कहलाते हैं, क्योकि, हत नाम घातका है और उद्वर्तना अपवर्तना करणीके द्वारा पूर्व अवस्थाका घात होता है, इसलिए उनसे उत्पन्न होनेवाले परिणाम स्थान हत्तसमुत्पत्तिक कहलाते है । इनका प्रमाण बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोसे असंख्यातगुणा है । इसका कारण यह है कि एक एक बन्धसमुत्पत्तिक स्थानपर नानाजीवोकी अपेक्षा उद्वर्तना और अपवर्तना करणोके द्वारा असंख्यात भेद कर दिये जाते है । उद्वर्तना और अपवर्तना करणीके द्वारा वृद्धिहानि किये जानेके पश्चात् स्थितिघात और रसघात से जो अनुभागस्थान उत्पन्न होते हैं, वे हतहतसमुत्पत्तिकस्थान कहलाते है, क्योकि, हत अर्थात् उद्वर्तना और अपवर्तन के द्वारा घात किये जानेपर, फिर भी हत अर्थात् स्थितिघात और रसघात के द्वारा किये जानेवाले घातसे इनकी उत्पत्ति होती है । इनका प्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थानोसे असंख्यातगुणा है, क्योकि, जीवो के संक्लेश और विशुद्धि प्रतिसमय अन्य अन्य होती है, और ये दोनो ही अनुभागघातके कारण है | इस प्रकार चौथी मूल गाथाके 'अणुभागे' इस पद के अर्थ की प्ररूपणा की गई । इस प्रकार अनुभागविभक्ति समाप्त हुई । काढूण जाव सणिपचिदियपजत्तसव्वुक्कराणुभागव घटाणेत्ति ताव एदाणि असखेज लोग मेत्तछट्टणाणि वधसमुप्पत्तियट्ठाणाणि त्ति भणति, वण समुप्पण्णत्तादो | अनुभागसतठाणवादेण नमुष्पष्णमणुभागसतट्ठाण त पि ववधट्ठाणाणि त्ति वेत्तव्य, बधट्ठाणसमाणत्तादो । पुणो एदेसिमस खेज लोगमेत्तछट्ठाणाण मज्ये अणत गुणवड्ढि अणतगुणहाणि अट्ठ कुव्वकाण विद्यालेमु असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणाणि हदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणाणि भण्णति, वधट्टाणघादेण वधट्ठाणाण विद्याल्मु नचतरभावेण उप्पण्णत्ताटो । पुणो एदेसिमसंखेन लोगमेत्ताण हसमुत्पत्तियसतकम्मट्टाणाणमणं तगुणवड्ढि हाणि अट्ट कुव्यकाणं विद्याल्सु असखेज लोगमेत्तछट्ठाणाणि हृदहदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणाणि वुञ्चति, घादेणुप्पण्ण-अणुभागट्टाणाणि वाणुभागट्ठाहितो विसरिसाण घाटिय बधसमुप्पत्तिय हदसमुत्पत्तिय-अणुभागट्टाणेहिंतो विसरिसभावेण उप्पाविदत्तादो | कथमेकादो जीवदव्वादो अणेयाणमणुभागट्टाणकजाण समुग्भवो ? ण, अणुभागवधघादबादहेदुपरिणामसजोएण गाणाव जाणनुपत्तीए विरोहाभावाटो । एदेसि तिविहाणमवि अणुभागट्टाणाण नही वेयणभावविहाणे पण कदा, तहा एत्थ विकावा | जय० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदेसविहत्ती १. पदेसविहत्ती दुविहा-मूलपयडिपदेसविहत्ती उत्तरपयडिपदेसविहत्ती च । २. तत्थ मूलपयडिपदेसवित्तीए गदाए । प्रदेशविभक्ति अब अनुभागविभक्तिकी प्ररूपणाके पश्चात् प्रदेशविभक्ति कही जाती है । कर्म-पिडके भीतर जितने परमाणु होते हैं, वे प्रदेश कहलाते है। उन प्रदेशीका भेद या विस्तारसे जिस अधिकारमे वर्णन किया जाय, उसे प्रदेशविभक्ति कहते है। __ चूर्णिसू०-वह प्रदेशविभक्ति दो प्रकार की है-मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति । उनमेसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका विवक्षित अनुयोगद्वारोसे वर्णन करना चाहिए ॥१२॥ विशेषार्थ-चूर्णिकारने मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका कुछ भी वर्णन न करके केवल उसके जाननेकी या उच्चारणाचार्योको प्ररूपण करनेकी सूचनामात्र करदी है । इसका कारण यह ज्ञात होता है कि यतः महावन्धमे चौबीस अनुयोगद्वारोसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका विस्तारसे विवेचन किया गया है, अतः उसका यहाँ वर्णन पिष्ट-पेपण या पुनरुक्ति-दृपण होगा। ऐसा समझकर उन्होने उसके जाननेकी केवल सूचना-भर कर दी है। महावन्धर्म इसका वर्णन चौवीस अनुयोगद्वारोसे किया है। किन्तु उच्चारणाचार्यने वाईस अनुयोगद्वारोसे ही इसका वर्णन किया है । इसका कारण यह है कि महावन्धमे आठो कर्मोके प्रदेशबन्धका वर्णन है, अतः उनमे स्थानसंज्ञा और सन्निकर्पका होना संभव है। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थमे कंवल मोहकर्म ही विवक्षित है, अतः उसमे उक्त दोनो अनुयोगद्वार संभव नहीं है। उचारणाचार्यक द्वारा कहे गये वे बाईस अनुयोगद्वार इस प्रकार है- १ भागाभागानुगम, २ सर्वप्रदेशविभक्ति, ३ नोसर्वप्रदेशविभक्ति, ४ उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति, ५ अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्ति. ६ जघन्यप्रदेशविभक्ति, ७ अजवन्यप्रदेशविभक्ति, ८ सादिप्रदेशविभक्ति, ९ अनादिप्रदेशविभक्तिः, १० ध्रुवप्रदेशविभक्ति, ११ अध्रुवप्रदेशविभक्ति, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ काल, १४ १ मूलपयडिपदेसविहत्तीए परूविदाए पच्छा उत्तरपयटिपदेसविहत्ती परूविव्या त्ति एदेण वयणेण जाणाविद । तेणेद देसामासियसुत्त । एदस्म विवरणह परूविदउच्चारणमेव भाणलामो पदेनविहत्ती दविहामलपयडिपदेसविहत्ती उत्तरपयडिपदेसविहत्ती चेव । मृलपपडिविहत्तीए तत्थ माणि वावीन अनुयोगदाराणि गाव्याणि भवति । त जटा-भागाभाग १, मध्यपदेसविहत्ती २, गोराब्वपदेसविहती '५, जनरदेविदत्ती ६. अजहणपदेमविहत्ती ७, सादियपदेसविहत्ती ८, अणादियपदेसबिहनी ९, युवपदे-विरती १०. अन्य देम विरत्ती ११, एगजीवेण मागित्त १२, कालो , अतर । ४. गाणाजीवेहि नगरियो । परि १०. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति और अन्तर, १५ नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, १६ परिमाणानुगम, १७ क्षेत्रानुगम, १८ स्पर्शनानुगम, १९ कालानुगम, २० अन्तरानुगम, २१ भावानुगम, और २२ अल्पवहुत्वानुगम । इन वाईस अनुयोगद्वारोके अतिरिक्त भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इन चार अर्थाधिकारोके द्वारा भी मूलप्रदेशविभक्तिका वर्णन किया है। किन्तु न आज उचारणाचार्य है और न सर्वसाधारणकी महावन्ध तक पहुंच ही है । अतएव यहॉपर उन अनुयोगद्वारोसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका संक्षेपसे कुछ वर्णन किया जाता है (१) भागाभागानुगम-एक समयमे बँधनेवाले कर्म-प्रदेशोका किस क्रमसे सर्व कर्मोमें विभाग होता है, इस वातका वर्णन इस अनुयोगद्वारमे किया गया है। जैसेकोई जीव यदि किसी विवक्षित समयमे शेप सात कर्मोंके वन्धके साथ आयुकर्मका भी वन्धकर रहा है, तो उसके उस समय वंधनेवाले कर्म-पिंडके प्रदेशोका विभाग इस प्रकार होगाआयुकर्मको सबसे कम प्रदेशोका भाग मिलेगा । नाम और गोत्रकर्मको उससे विशेष अधिक, पर परस्परमे सदृश भाग मिलेगा। नाम-गोत्रसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनो कर्मोंको विशेष अधिक, किन्तु परस्परमे समान भाग मिलेगा। इनसे मोहनीयकर्मको विशेष अधिक भाग मिलेगा और मोहनीयकर्मके भागसे भी विशेप अधिक भाग वेदनीयकर्मको मिलेगा। खेत १७, पोसण १८, कालो १९, अतर २०, भावो २१, अप्पाबहुअ चेदि २२ । पुणो मुजगार-पदणिक्नेव-वडि-हाणाणि त्ति (जयध०)। जो सो पटेसब वो सो दुविहो-मूलपगदिपदेसबधो चेव, उत्तरपगदिपटेसवधो चेव । एत्तो मूलपगदिपदेसबधो पुव्व गमणीयो । भागाभागसमुदाहारोxxx एदेण अट्ठपदेण तत्य इमाणि चदुवीसं अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति । तं जहा-ठाणपरूवणा सव्वब धो णोसव्वबधो उक्कस्सबधो अणुकस्सबंधो जहण्णवंधो अजहण्णवघो एव याव अप्पाबहुगेत्ति । भुजगारबधो पदणिक्खेवो वडिवधो अज्झवसाणसमुदाहारो जीवसमुदाहारो त्ति | महाब ० १ (१) भागासोनपरूवणा-मूलपगदिपदेसबधे पुव्व गमणीयो भागाभागसमुदाहारो-अविधबधगस्स आउगभागो थोवो । णामा-गोटेसु भागो विसेसाधियो । मोहणीयभागो विसेसाधियो । वेदणीयभागो विसेसाधियो । एव सत्तविधवधगस्स वि । (णवरि तत्थ आउगभागो णत्थि )| एव छविधवधगत्स वि । (णवरि तत्थ मोहणीयभागो णत्थि) महावं० । भागाभाग दुविह-जीवभागाभाग पदेसभागाभाग चेदि । तत्थ जीवभागाभाग दुविह-जहण्णमुक्कस चउक्कस्से पयट । दुविहो णिद्देसो-ओषण आदेसण य। ओवेण मोहणीयस्स उकस्सपदेसविहत्तिया जीवा सव्वजीवाण केवडिओ भागो ? अण तिमभागो । अणुक्कस्सपदेसविहत्तिया जीवा सध्यजीवाण केवडिया भागा? अणता भागा Ixxx जहण्णए पयद । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओवेण मोहणीयस्स जहण्णाजण्ण° उकत्साणुकस्सभगो । पदेसभागाभागाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य | ओघेण मोहणीयत्स भागाभागो णस्थि, मूलपयडीए अप्यणाए पदेसभेदाभावादो। अधवा मोहणीयसव्यपदेसा सेससतकम्मपदेतेहितो किं सरिसा विसरिसा त्ति सदेहेण विनडिवसिस्सस्स बुद्धिवाउलविणासणमिमा परूवणा एत्य अमबहा वि कीरदे । xxx सव्वत्थोवो आउगभावो। णामा-गोदभागा टो वि सरिसा विसेसाहिया । णाण दसणावरणअंतराइयाणं भागा तिष्णि वि सरिसा विसेसाहिया । मोहणीवभागो विसेसाहिओ । वेदणीयभागो विसेमाहियो । जहा वधमनिसदूण अट्टण्ट कम्माणं पदेसभागाभागपरूवणा कदा, तहा मतमस्मिदृण वि कायवा, विमेसाभावाटो।xxx जहण्णनतमन्सिदृण उपस्समतकम्मपदेमनट्टणमगो । जव० Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अनुयोगद्वार-निरूपण अनुयोगद्वारोमे ' ( २-३ ) सर्वप्रदेशविभक्ति-नो सर्वप्रदेशविभक्ति- इन दोनों क्रमशः कर्मोंके सर्वप्रदेश और नोसर्वप्रदेशोका विचार किया गया है । विवक्षित कर्ममे उसके सर्व प्रदेशोके पाये जानेको सर्वप्रदेशविभक्ति कहते है और उससे कम प्रदेशो के पाये जानेको नोसर्वप्रदेशविभक्ति कहते है । मोहनीयकर्मम ये दोनो प्रकारकी विभक्ति पाई जाती है । (४-५) उत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति - अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्ति- इन दोनों अनुयोगद्वारोमे क्रमशः कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशका और अनुत्कृष्ट प्रदेशोका विचार किया गया है । जिसमे सर्वोत्कृष्ट प्रदेशाय पाये जाये जाते है, उसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति कहते है और जिसमें उत्कृष्ट प्रदेशासे न्यून प्रदेशाय पाये जाते है, उसे अनुत्कृष्ट प्रदेशाप्रविभक्ति कहते है | मोहनीय कर्ममे उत्कृष्ट प्रदेशाय भी पाये जाते है और अनुत्कृष्ट प्रदेशाम भी पाये जाते हैं । १७९ 3 * ( ६-७ ) जघन्य प्रदेशविभक्ति - अजघन्य प्रदेशविभक्ति- इन दोनो अनुयोगद्वारोमे क्रमशः कर्मोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोका विचार किया गया है। जिसमे सर्वजघन्य प्रदेशाग्र पाये जाते हैं, उसे जघन्य प्रदेशविभक्ति कहते है और जिसमे सर्वजघन्य प्रदेशा उपरितन प्रदेशाय पाये जाते है, उसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति कहते है । मोहनीयकर्म में जघन्य प्रदेश भी पाये जाते हैं और अजघन्य प्रदेशाय भी पाये जाते है । * ( ८-११) सादि - अनादि- ध्रुव - अध्रुवप्रदेश विभक्ति- इन उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशाग्रोका क्रमशः सादि, अध्रुव रूपसे विचार किया गया है । प्रकृतमे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट, I अनुयोगद्वारोमे कर्मो के अनादि, ध्रुव और अनुत्कृष्ट और जघन्य १ ( २ - ३) सव्व- गोसवपदेसविहत्तिपरूवणा-यो सो सव्ववधो णोसव्ववधो नाम, तस्स इमो दुध सो- ओघेण आदेसेण य । ओवेण णाणावरणीयस्स पदेसवधो किं सव्ववधो, णोसव्ववधो १ सव्ववधो वा, णोसव्ववधो वा । सव्वाणि पदेसवधताणि वधमाणस्स सव्वब वो । तदूण बधमाणस्स गोसव्वबधो । एव सत्तण्ह कम्माण ( महावं ० ) । सव्वविहत्ति-गोसव्व विहत्तीण दुविहो गिद्देसो-ओत्रेण आदेसेण य | ओघेण मोहणीयस्स सव्यपदेसा सव्वविहत्ती । तदूणो णोसव्वविहत्ती । जयध० २ (४-५) उक्कस्स - अणुक्कस्लपदेस विहत्तिपरूवणा - यो सो उकत्सवधो अणुक्कस्सबधो णाम, तरस इमो दुविहो णिसो-ओत्रेण आदेसेण य । ओवेण णाणावरणीयत्स किं उक्कस्मवधो अणुवस्सबधो १ उपस्सबधो वा, अणुक्कत्सवधो वा । सव्वुफस्स पदेसं बंधमाणस्स उक्तस्सवधो, तदूण वधमाणस्स अणुकस्सबधो । एवं सत्तण्ह कम्माण ( महाब ० ) । उक्करस- अणु कस्सविहत्तियाणुगमेण दुविहो गिद्देसो-ओवेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयत्स सन्युकस्सदन्य उकत्सविहत्ती । तदूणमणुकस्सविहत्ती । जयध ३ (६-७) जण अजहण्णपदेसविहत्तिपरुवणा-यो सो जहष्णवधो अजष्णवधो णाम, तन्म इमो दुविहो गिद्देसो-ओत्रेण आदेमेण य । ओवेण णाणावरणीयस्स कि जहण्णव धो, अजष्णवधो १ जहावधवा, अजष्णवो वा । सव्वजण पदेसग्ग वधमाणत्म जहष्णवधो । तदुवरि वधमाणस्स अजाबचो | एव सत्तरह कम्माण ( महाब ० ) । जहणाजहणविद्दत्तियानुगमेण दुविहो गिद्देसो- ओषेण आदेसेण य | ओण मोहणीयम्स सव्वजण पदेसग्ग जहणविहत्ती । तदुवरि अजष्णविह्नी । जयव० ४ (८-९) सादि-अनादि-धुव-अधुवपदे सवित्तिपरूवणा-यो मो सादिय्वघोसणादिव धुवत्रघो अद्ध्रुवबधो णाम, तत्म इमो दुविहो हि सो-ओपेण आदेसण य । ओण x x x मोहाङगाप उपस्स- अणुक्रम-जण अणपदेवभो कि मादि ४ | सादि अद्भुववधो ( महाव ९) । मादादि Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति प्रदेशविभक्ति सादि और अध्रुव है । अजघन्य प्रदेशविभक्ति सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारो प्रकारकी है। (१२) एकजीवापेक्षया स्वामित्व-इस अनुयोगद्वारमे कर्मोके उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशाग्रोके स्वामियोका एकजीवकी अपेक्षा विचार किया गया है। जैसे-मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी कौन है ? जो जीव वादर-पृथिवीकायिकोमे साधिक दो हजार सागरोपमसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण काल तक अवस्थित रहा है, वहॉपर उसके पर्याप्तक भव अधिक और अपर्याप्तक भव अल्प हुए। पर्याप्तकाल दीर्घ रहा और अपर्याप्तकाल अल्प रहा । वार-बार उत्कृष्ट योगस्थानोको प्राप्त हुआ और वार-वार अतिसंक्लेश परिणामोको प्राप्त हुआ । इस प्रकार परिभ्रमण करता हुआ वह बादर सकायिक जीवोमे उत्पन्न हुआ । उनमे परिभ्रमण करते हुए उसके पर्याप्तक भव अधिक और अपर्याप्तक भव अल्प हुए। पर्याप्तककाल दीर्घ और अपर्याप्तक-काल ह्रस्व रहा । वहॉपर भी वार-बार उत्कृष्ट योगस्थानोको और अतिसंक्लेशको प्राप्त हुआ । इस प्रकारले संसारमे परिभ्रमण करके वह सातवी पृथिवीके नारकियोंमे तेतीस सागरोपमकी स्थितिका धारक नारकी हुआ । वहाँसे निकलकर वह पंचेन्द्रियोमे उत्पन्न हुआ और वहाँ अन्तर्मुहूर्तमात्र ही रह मरण करके पुनः तेतीस सागरोपम आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उस जीवके तेतीस सागरोपम व्यतीत होनेपर अन्तिम अन्तर्मुहूर्त के चरम समयमें वर्तमान होनेपर मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति होती है। मोहनीयकर्मकी जघन्य प्रदेशविभक्ति उक्त विधानसे निकलकर अपकश्रेणीपर चढ़े हुए चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायसंयतके होती है । धुव-अधुवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओवण आदेरेण य । ओघेण मोहणीयस्स उक० अणुक्क० जण० किं सादिया, किमणादिया, किं धुवा, किम वा १ सादि-अधुवा | अज० किं सादिया ४ १ (सादिया) अणादिया धुवा अधुवा वा । जयध० १(१२) एगजीवेण सामित्तचिहत्तिपरूवणा-सामित्त दुविध-जण्णय उकस्सय च । उकस्सए पगदं । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेणxxx मोहणीयस्स उकस्सप देसबधो कस्स ? अण्णदरस्स चद्गदिवस पचिंदियत्स सण्णिमिच्छादिहित्स वा सम्मादिहिस्स वा, सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयदत्स सत्तविधव धयरस उकस्सजोगिस्स उकस्सए पदेसबधे वट्टमाणगस्स Ixxx जहण्णए पगढ | दुविहो णिद्देसो-ओपेण आदेसेण य । ओषेण सत्तण कम्माण जहण्णओ पदेसवधो कस्स १ अण्णदररस सुहमणिगोटजीवअपनत्तयस्स पढमसमयतब्भवस्थजहणजोगिरस जण्णए पदेसबधे वट्टमाणयत्स (महाव०)। सामित्त दुविह-जहष्णमुकत्स च । उकस्से पयद । दुविहो णिद्द सो-ओषण आदेसेण य | ओघेण मोहणीयस्म उकस्सिया पदेसविहत्ती कस्स ? जो जीवो बाटर पुढविकाइएसु वेहि सागरोवमसहस्सेहि मादिरेएहि अणिय कम्मट्टिदिमच्छिदाउओ० | एव 'वेयणाए' वुत्तविहाणेण ससरिदूण अधो सत्तमाए पुटवीए णेरटएमु तेत्तीस सागरोवमाउछिदिएतु उववण्णो । तदो उवट्टिदसमाणो पचिदिएमु अतोमुहुत्तमच्छिय पुणो तेत्तीसमागरोवमाउटिदिएमु णेरइएतु उववण्णो । पुणो तत्य अपच्छिमतेत्तीससागरोवमाउणिरयभवग्गणअतोमुत्तचरिमममए वट्टमाणस्स मोहणीवस्त उकस्सपदेसविहत्ती Ixxx जहष्णए पयद । दुविदो णिह सो-ओषेण आटेग्ण य | भोवेण मोहणीयत्स जहष्णपदेसविहत्ती कम्स ? जो जीवो मुहमणिगोटजीवेसु पल्दिोवमस्स अमनदिभागेणू णयं फम्मट्टिदिमच्छिदो। एवं 'वेयणाए' वुत्तविणेण चरिमममयकमाई जादो, तन्म मोहणीयन्स जापदेमविहत्ती। जयघ० Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अनुयोगद्वार-निरूपण १८१ '(१३ ) प्रदेशविभक्ति-कालप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमे एक जीवकी अपेक्षा कर्मोंकी उत्कृष्ट और जवन्य प्रदेशविभक्ति कितने समय तक होती है, इस प्रकारसे कालका निर्णय किया गया है। जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्यकाल वर्पपृथक्त्व और उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्तकाल है। जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अजघन्यप्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त है । (१४ ) प्रदेश विभक्ति-अन्तरप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमे एक जीवकी अपेक्षा कर्मोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य, अजघन्य प्रदेशोकी विभक्ति करनेवालोके अन्तरकालका विचार किया गया है। जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर चूर्णिकारके मतसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमित अनन्त काल है । किन्तु किसी-किसी आचार्यके मतसे जघन्य अन्तर असंख्यात लोक-प्रदेशप्रमित काल है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्ति करनेवाले जीवोंका कभी अन्तर नहीं होता है, वे सर्वकाल पाये जाते है। *(१५) नानाजीवापेक्षया भंगविचयनरूपणा-इस अनुयोगद्वारमे नाना जीवोकी १ (१३ ) पदेसविहत्तिकालपरूवणा-काल दुविध-जहाणय उकस्सय च । उकस्सए पगद । दुविहो णिद्देसो-ओषण आटेसैण य । ओघेण xxx मोहणीयस्स उकस्सपटेसबधो केवचिर कालादो होदि १ जहाणेण एगसम्ओ। उक्कस्सेण वे समया। अणुकस्मपदेसवधो जहणेण एगसमओ । उकस्मेण अणतकालमसखेजा पोग्गल्परियहा।xxx जहाणए पगद । दुविदो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सत्तण्ह कम्माण जहण्णपदेसवधो केवचिर कालादो होदि ? जहणुकस्तेण एगसमओ। अजहणपदेसवधो केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण मुद्दाभवग्गहण | उकस्सेण असखेजा लोगा। अधवा सेढीए असखेजदिभागो ( महाव०)। कालाणुगमो दुविहो-जहष्णओ उकरसओ चेदि । उकस्से पयद । दुव्हो णिसो ओघेण आदेरण य । ओघेण मोहणीयस्स उकस्सपदेसबधो केवचिर कालादो होटि ? जपणुकस्सेण एगसमओ | अणुकस्सपदे सबधो जहणेण वासपुधत्त । उकस्सेण अणतकालमसखेजा पोग्गलपरियट्टा Ixxx जहण्णए पयद । दुविहो गिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयस्स जहण्णपदेसबधो केवचिर कालादो होदि ? जहणुवस्सेण एगसमओ। अजहणपटेसबधो वेवचिर कालादो होटि १ अणादिओ अपजवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो । जयध० २ (१४) पदेसविहत्ति-अंतरपस्वणा-अतर दुविध-जहण्णय उकसय च । उपत्सए पगद द विहो णिसो-ओवण आदेशेण य । ओषेण अट्ठह कम्माण उकन्सपदेसयधतर केवचिर कालादो होदि १ जहणेण एगसमओ । उकस्सेण अतोमुहुत्त | XXX जहण्णए पगद । दुग्हिो णिद्द सो-ओपेण आदेशेण य । ओघेण अटण्ह कम्माण जहष्ण-अजहष्णपदेसबधतर पत्थि (महाब०)। अतर दुविदजहणमुधम्म चेदि । उपरसे पयद । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणोयत्न उयन्मपदेगविरत्तीए अतर केवचिर कालादो होदि ? जहण्णुकत्सेण अणतकालमसरोजा पोन्गल्परिवहा । अधवा जण असखेवा लोगा, गुणिदपरिणामेहितो पुधभूदपरिणामेसु अमखेजलोगमत्तेसु जहण गचरणकाल्न अमखेजोगपगाणत्तादो। अणुफ जहष्णुक एगस मओ।xxx जहाणए पयद । तुविदो गिगोओघेण आदेशेण य । ओघेण मोरणीयस्त जहष्णाजहण्णपदेसविरत्तीण णस्यि अतर । जय ३(१५) णाणजीवेहि भंगविचयपरूवणा-णाणाजीवेहि गगविचओ दुविहो-जोडगो Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट और जघन्य-अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोके भंगोका अन्वेषण किया गया है। भंगोके जानने के लिए यह अर्थपद है-जो जीव उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले होते हैं, वे जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं होते, तथा जो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते है, वे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं होते हैं । इस अर्थपदके अनुसार कदाचित् सर्व जीव मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले नहीं है १ । कदाचिन् अनेक जीव अविभक्तिवाले है और कोई एक जीव विभक्तिवाला है २ । कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और अनेक जीव विभक्तिवाले होते है ३ । इस प्रकार उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति-सम्बन्धी तीन भंग होते है। इसी प्रकार अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिके भी तीन भंग होते है। भेद केवल इतना है कि उसके भंग कहते समय विभक्ति पद पहले कहना चाहिए । इसी प्रकारसे मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्ति-सम्बन्धी तीन-तीन भंग जानना चाहिए । (१६) प्रदेशविभक्ति-परिमाणप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमे विवक्षित कर्मके उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीव एक साथ कितने पाये जाते है और अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले कितने पाये जाते है, इस प्रकारसे उनके परिमाणका विचार किया गया है । जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने है ? असंख्यात है। अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने है ? अनन्त हैं । जघन्यप्रदेशविभक्तिवाले कितने है ? संख्यात हैं। अजघन्यप्रदेशविभक्तवाले कितने है ? अनन्त है। (१७) प्रदेशविभक्ति-क्षेत्रप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमे प्रदेशविभक्तिवाले जीवोके वर्तमानकालिक क्षेत्रका विचार किया गया है। जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? लोकके असंख्यातवें भागमे रहते है। अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? सर्वलोकम रहते है। इसी प्रकार जघन्य और अजघन्यप्रदेशविभक्तिवाले जीवोका क्षेत्र जानना चाहिए । चेदि । उकस्से पयद । तत्थ अठ्ठपदं-जे उक्कसपटेसावत्तिया, ते अणुक्कसपदेसस्स अविहत्तिया । जे अणुकस्सपटेसविहत्तिया ते उक्कसपटेसस्स अवित्तिया । एदेण अठ्ठपटेण दुविहो णिद्देसो-ओयेण आटेसेण य । ओषेण मोहणीयस्स उक्कस्सियाए पदेसविहत्तीए सिया सव्ये नीवा अवित्तिया १, मिया अवित्तिया च वित्तियो च २, सिया अवित्तिया च विहत्तिया च । अणुकस्सस्स विहत्तिपुव्वा तिष्णि भगा वत्तन्वा Ixxx जहष्णए पयदं । त चेव अठ्ठपद कादूण पुणो एटेण अठ्ठपदेण उकसभगो । जयध० १ (१६) पदेसविहत्तिपरिमाणपसवणा-परिमाणं दुविह-जण्णमुक्कत्स च । उकत्सए पबद दुविहो णिद्देसो-ओषेण आदेसेण य । ओण मोहणीवस्म उवक्स्सपदेसवित्तिया केत्तिया ! अगखेज्जा, आवलियाए असखेनभागमेत्ता । अणुक्कसपटेसवित्तिया केत्तिया ? अणंता Ixxx जहण्णए पयद । दुविहो शिसो-ओषेण आदेण य । ओघेण मोहणीयत्स जहण्ण पदेसविहत्तिया केत्तिया ? सखेना । अजहण्णपदेसविहत्तिया अणता । जयध० २(१७) पदेसवित्तिखेत्तपस्वणा-खेत्त दुविह-जहण्ण मुक्कस्स च । उक्कत्से पयद । दुविहो णिहेसोओवेण आदेमेण य । ओघेण मोहणीवत्स उक्कत्सपदेसविहनिया केवडि खेत ? लोगन्स असखेनदिमागे । अणुक्कत्तपटेमवित्तिया नब्बलोगे । जपणानह्मणपटेमवित्तियाणं रखेन उक्करमाणुक्रम्मवेत्तभगो । जयध० Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० २२ ] मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अनुयोगद्वार निरूपण १८३ (१८) प्रदेशविभक्ति - स्पर्शन प्ररूपणा - इस अनुयोगद्वार में प्रवेशविभक्तिवाले जीवांके त्रिकाल - गोचर स्पृष्ट क्षेत्रका विचार किया गया है । जैसे - मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीवोने कितना क्षेत्र स्पृष्ट किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट किया है । अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीवोने कितना क्षेत्र स्पष्ट किया है ? सर्वलोक स्पष्ट किया है । इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोका स्पर्शन-क्षेत्र जानना चाहिए | ( १९ ) नानाजीवापेक्षया प्रदेशविभक्ति कालप्ररूपणा - इस अनुयोगद्वार मे नाना जीवोकी अपेक्षा कर्मोंके उत्कृष्ट - अनुत्कृष्ट और जघन्य - अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवीके कालका विचार किया गया है । जैसे - मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीवोका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका सर्वकाल है । जघन्यप्रदेशविभक्तिवाले जीवोका जघन्यकाल एक समय है, और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । अजघन्यप्रदेश विभक्तिवाले जीव सर्वकाल पाये जाते है । ( २० ) नानाजीवापेक्षया प्रदेशविभक्ति-अन्तरप्ररूपणा - इन अनुयोगद्वारमे नानाजीवोकी अपेक्षा कर्मोंके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट और जघन्य - अजवन्यप्रदेशविभक्तिवाले जीवोके अन्तरकालका निरूपण किया गया है । जैसे - मोहनीय कर्म की उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमित अनन्तकाल है । अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिवाले जीवोका कभी अन्तर नही होता, अर्थात् वे सर्वकाल पाये जाते है । इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवो - का अन्तरकाल जानना चाहिए । १ (१८) पदेस विहत्ति पोसणपिरूवणा- पोसण दुविह जहण्णमुकस्स च । उक्कस्से पयद | दुविहो णिद्द े सो- ओघेण आदेसेण य ओघेण मोहणीयस्स उक्कस्सअणुक्कस्स वित्तियाण पोसण खेत्तभगो । × × × जहणए पयद । दुविहो गिद्द सो-ओदेण आदेसेण य । ओवेण मोहणीयस्स जहण्णाजहणपदेस विहत्तियाण पोसण उकस्साकस्सभगो । जयध० २ (१९) नानाजीवापेक्षया पदेसविहत्तिकालपरूवणा - कालो दुविहो- जहणओ उकस्सओ चंदि । उक्कस्सए पयद | दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओवेण मोहणीयस्स उक्कस्पटेसविहत्तिया केवचिर कालादो होति १ जण एगसमओ । उकस्सेण आवलियाए असखेजदिभागो । अणुक० सव्वद्धा | XX जण पद | दुवि गिद्द सो- ओवेण आदेसेण य । ओघेण मोहणीयत्स जद्दण्णपदेस वित्तया केवचिर कालादो होंति ' जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण सखेना समया । अजहण्णपटेस विहत्तिया सव्वदा । जयध ३ (२०) नानाजीवापेक्षया पसविहत्तिअंतरपरूवणा-अतर दुविध जणय उत्स्सयं च । उस्सए पगद | दुविधो गिद्द सो-ओवेण आदेसेण य । ओघेण अट्ठण्ह कम्माण उक्स्सपदेसवधतर कैवचिर कालादो होदि ? जोण एगसमभो । उक्करसेण सेटीए असलेजदिभागो । अणुक्त्सपर्ट सविहत्तियाणं णत्थि अतर IXXXजहणए पयट । दुविधो गिद्द सो-ओवेण अदेसेण य । ओवेण अट्टण्ह कम्माण जहणअजष्णप देसविहत्तियाण गत्थि अतर महाव० ) । अतर दुविह-जणमुक्कद चेटि । उपन्ते पदं । दुविहो णिद्द सो- ओवेण आदेमेण व । ओवेण भोहणीयस्स उत्तरपदे वित्तिअतर केवचिर कालादो होदि ' जोण एणसमओ । उक्कम्मेण अण तकालमससेना पोग्गलपरियहा । अणुक्कत्सपदेस वित्तिवाण माथि अतर 1 XXX जहगए पयन | दुविदो णिसो ओरेण आदेमेण । ओण मोहणीपल जद्दष्णाजद दित्तियाणमतर उक्तस्यागुक्तत्सभगो । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति ३. उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए एगजीवेण सामित्तं । ४. मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसविहत्ती कस्स । ५. बादरपुडविजीवेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदाउओ, तदो उवट्टिदो तसकाए वे सागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि अच्छिदाउओ, अपच्छिमाणि तेत्तीसं '(२१) प्रदेशविभक्ति-भावप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमे प्रदेशविभक्तिवाले जीवोके भावोका विचार किया गया है । मोहनीयकर्मकी प्रदेशविभक्तिवाले सभी जीवोके औदयिकभाव होता है। (२२) प्रदेश विभक्ति-अल्पबहुत्वनरूपणा-इस अनुयोगद्दारमे कौके उत्कृष्टअनुत्कृष्ट और जघन्य-अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवाकी अल्पता और अधिकताका अनुगम किया गया है। जैसे-मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे कम है और इनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणित हैं । इसी प्रकार मोहनीय कर्मकी जघन्य प्रदेश विभक्तिवाले जीव सबसे कम है और उनसे अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणित है। इन बाईस अनुयोगद्वारोके अतिरिक्त भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान अधिकारोके द्वारा भी प्रदेशावभक्तिका विस्तृत विवेचन उच्चारणावृत्तिमे किया गया है, सो विशेष जिज्ञासुजनोको जयधवला टीकासे जानना चाहिए । चूर्णिसू०-अब उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका वर्णन करते हैं । उसमे पहले एक जीवकी अपेक्षा प्रदेशविभक्तिका स्वामित्व कहते है-मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किस जीवके होती है ? जो नीव वादरपृथिवीकायिक जीवोमे बस-स्थितिकालसे कम सत्तरकोडाकोडी सागरोपम कर्म-स्थितिप्रमाण काल तक रहा हुआ है, तत्पश्चात् वहाँसे निकलकर ब्रसकायमे कुछ अधिक दो हजार सागरोपम काल तक रहा, सबसे अन्तमे तेतीस सागरोपमकी आयुवाले १ (२१) पदेसविहत्तिभावपरूवणा-भाव दुविध-जण्णय उक्कस्सय च । उक्कस्से पयद । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आटेसेण य | ओघण अट्टाह कम्माण उक्स्स अणुक्कस्सपदेसबधगा त्ति को भावो? ओदइगो भावो ।XXXजहण्णए पयद । xxxअट्टाह कम्माण जण अजहण्यपदेसबधगा त्ति को भावो? ओदइगो भावो (महाव०)। भाव सम्वत्थ ओदइओ भावो । जयध २ (२२) पदेसविहत्ति-थप्पावहुअपरूवणा-अप्पाबहुअ दुविध जहण्णय उक्करसय चदि । उक्क. स्सए पयद । दुविहो णिसो-ओवेण आदेसेण य । ओषेण सव्वत्थोवो आउग उक्कसपटेसबधी । मोहणीयस्स उक्कस्सपदेसबधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाण उक्करसपदेसबंधो दो वि तुल्लो विसेसाहिओ। णाणावरणदसणावरण-अतराइयाण उक्कस्सपटेसबधो तिष्णिवि तुल्लो विसेसाहिओ | वेदाणीयउक्कसपटेसबधो विसेसाहियो । जहण्णए पगद | ओघेण आदेसेण य । ओषेण सव्वत्योवो णामा-गोटाण जहणपदेसबधो । णाणावरण-दसणावरण-अतराइगाणं जहण्णपटेमबधो तिणि वि तुल्ला विसेसाहित्या । मोहणीयत्स जहणपदेसबधो विसेसाहिो । वेदणीयस जहण्णपटेसबधो विसेसाहिओ । आउगजहणपदेसबधो असखेजगुणो (महाब) अपाबहुग दुविह-जहण्णमुक्करम चेदि । उक्स्से पवद | दुविहो णि सो-ओषेण आदेशेण य | ओघेण मोहणीयस्स सव्यत्योवा उक्ऋत्सपढेमवित्तिया जीवा | अणुक्कत्मपदेसविहत्तिया जीवा अ,त गुणा IXxx एव जपणअप्पावहु पि वत्तव । वारे जहण्णाजहणणिमो काययो । जयध० Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १८५ सागरोवमाणि दोभवग्गहणाणि, तत्थ अपच्छिमे तेत्तीसं सागरोवमिए णेरइयभवग्गहणे चरिमसमयणेरड्यस्स तस्स पिच्छत्तस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्म । ६. एवं वारसकसाय-छण्णोकसायाणं । ७. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसविहत्तिओ को होदि ? ८.गुणिदकम्मंसिओ दंसणमोहणीयक्खवओ जम्मि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तस्मि सम्मामिच्छत्तस्स उक्करसपदेसविहत्तिओ। ९. सम्मत्तरस सातवी पृथिवीके नारकियोमे उसने दो भवोको ग्रहण किया। उनमेसे सबसे अन्तिम अर्थात् दूसरे तेतीस सागरोपमवाले नारकीके भव-ग्रहण करनेपर चरमसमयवर्ती उस नारकीके मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है ॥३-५॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपाय और हास्य आदि छह नोकपाय, इन अठारह प्रकृतियोका प्रदेशसत्कर्मसम्बन्धी उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि यहॉपर सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण कर्मस्थिति न कहकर चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण कर्मस्थिति कहना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करनेवाला कौन जीव है ? गुणितकर्माशिक दर्शनमोहनीय-क्ष्पक जीव जिस समय मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमे प्रक्षिप्त करता है, उस समय वह सम्यग्मिथ्यात्वाकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है ।।६-८॥ विशेपार्थ-जिस जीवके मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व विद्यमान होता है, उसे गुणितकर्माशिक कहते है। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व बतलाते हुए अपर जिस जीवके उसका उत्कृष्ट स्वामित्व वतलाया है वही साती पृथिवीका चरमसमयवर्ती नारकी यहॉपर गुणितकर्माशिक शब्दसे अभीष्ट है । वह जीव वहॉसे निकलकर तिर्यचोमे दो तीन भव धारण करके पुनः मनुष्योमे उत्पन्न हुआ। आठ वर्पका होकर उपशमसम्यक्त्वको धारणकर और उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुवन्धी-चतुप्कका विसंयोजन करके उपशमसम्यक्त्वके कालको पूराकर, वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर, और उसमे अन्तर्मुहूर्त रहकर दर्शनमोहनीयका क्षपण प्रारम्भकर अधःकरण और अपूर्वकरणके कालको पूराकर अनिवृत्तिकरणके संख्यात भाग व्यतीत हो जानेपर जिस समय मिथ्यात्वकर्मके अन्तिम खंडकी अन्तिम फालीका सर्वसंक्रमणके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वमे संक्रमण करता है, उस समय सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व पाया जाता है। चूर्णिस०-इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिका भी उसी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्ववाले जीवके द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल तक संख्यात हजार स्थिति-खंड करने के पश्चान् १संपुग्नगुणियकम्मो पण्सउबरससंतसामी उ ॥ २७ ॥ (चू०) 'सपुरगुणियरम्मो' त्ति-सपुनगुणिकग्मसिगत्तण जन्म अत्यि सो सपुग्नगुणियरम्मो 'पराउप.त्ससवरगमी 'त्ति-उदोउपदेससागी भवति । तत्व वत्ति गैरइयचरमसगये माणता सामप्रोण' बन्याम्माण उदोन पदेनसतसम्म भवति । इम्म सना गा . चुणि० पृ० ५७. २५ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति वि तेणेव जम्मि सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते पक्खित्तं तस्स सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्म । १०. णव॒सयवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ११. गुणिदकम्मंसिओ ईसाणं गदो तस्स चरिमसमयदेवस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । १२, इत्थिवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म कस्स ? १३. गुणिदकम्मंसिओ असंखेज्जवस्साउए गदो तम्मि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण जम्हि पूरिदो तस्स इत्थिवेदस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । १४. पुरिसवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म कस्स ? १५. गुणिदकम्मंसिओ ईसाणेसु णसयवेदं पूरेदूण तदो कमेण असंखेज्जवस्साउएसु उववण्णो । तत्थ पलिदो जिस समय सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य सर्वसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिमे प्रक्षिप्त किया जाता है, उस समय उस जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किस जीवके होता है ? वही पूर्वोक्त गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवीका नारकी जीव वहाँसे निकलकर तिर्यंच होता हुआ ईशानवर्गमे गया। वहॉपर अतिसंक्लेशसे वह पुनः पुनः नपुंसकवेदको वॉधता है और बहुत कर्मप्रदेशोका संचय करता है । ऐसे उस चरमसमयवर्ती देवके नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है । स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किस जीवके होता है ? वही पूर्वोक्त गुणितकौशिक जीव ईशानस्वर्गमे नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसंचयको करके वहाँसे च्युत हो संख्यात वर्षवाले मनुष्य या तिथंचोमे उत्पन्न होकर तत्पश्चात् असंख्यात वर्पकी आयुवाले भोगभूमियाँ मनुष्य अथवा तिर्यचोमे गया। वहॉपर संक्लेशसे पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण कालके द्वारा जिस समय स्त्रीवेद पूरित करता है, उस समय उस जीवके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है ॥९-१३॥ चूर्णिसू०-पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किस जीवके होता है ? वही पूर्वोक्त गुणितकांशिक जीव ईशान स्वर्गके देवोमे नपुंसकवेदको पूरित करके तत्पश्चात् संख्यात वर्प १ मिच्छत्ते मीसम्मि य संपक्खित्तम्मि मीससुद्धाणं। (चु.) ततो उव्वहित्तु तिरिएसु उववण्णो । ततो अतोमुहुत्तेण मणुएसु उप्पन्नो । तत्थ सम्मत्त उप्पाएति । ततो लहुमेव खवणाए अन्भुडिओ जम्मि समये मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ते सबसकमेण सकत भवति, तम्मि समये सम्मामिच्छत्तस्स उक्कोसपदेससत भवति । जम्मि समये सम्मामिच्छत्त सम्मत्त सव्वसकमेण संकेत भवइ, तम्मि समये सम्मत्तस्स उकोसपदेससंत भवति ।। २ वरिसवरस्स उ ईसाणगस्स चरमम्मि समयम्मि ॥ २८॥ (चू०) सो चेव गुणियकम्मसिगो सव्वावासगाणि काउ ईसाणे उप्पण्णो, तत्य संकिलेसेणं भूयो भूयो नपुंसगवेयमेव बंधति, तत्थ बहुगो पदेसणिचयो भवति, तस्स चरिमसमये वट्टमाणत्स (वरिसवरस्स वर्षवरत्य, नपु सकवेटस्स) उकोसपदेससत । ३ ईसाणे पूरित्ता णqसगं तो असंखवासीसु । पल्लासंखियभागेण पूरिए इस्थिवेयस्स ॥२९॥ (चू०) ईसाणे नपुंसगवेयपुवपउगेण पूरित्ता ततो उयट्टित्तु लहुमेव 'असलवामीसु' ति-भोगभूमिगेसु उप्पण्णो Ixxx तत्य सकिलेसेण परिओयमस्म असखेजेण कालेण इस्थियेउ परितो भवति, तम्मि समये इत्यिवेयस्स उफोसरदेससत । कहं ? भण्णा-पदमसमये वढं, पलिओवमरस अससेजतिमागेण अहापवत्तसंकमेण णिहाति । कम्म० सत्ता० पृ० ५८. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १८७ वमस्स असंखेज्जदिभागेण इथिवेदो पूरिदो । तदो सम्मत्तं लम्भिदूण पदो पलिदोवमद्विदिओ देवो जादो । तत्थ तेणेव पुरिसवेदो पूरिदो। तदो चुदो मणुसो जादो सव्वलहूं कसाए खवेदि । तदो णव॒सयवेदं पक्खिविण जम्हि इत्थिवेदो पक्खित्तो तस्समए पुरिसवेदस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्म' । १६. तेणेव जाधे पुरिसवेद-छण्णोकसायाणं पदेसग्गं कोधसंजलणे पक्खित्तं ताधे कोधसंजलणस्स उकस्सयं पदेमसंतकम्मं । १७. एसेव कोधो जाधे माणे पक्खित्तो ताधे माणस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । १८. एसेव माणो जाधे मायाए पक्खित्तो ताधे मायासंजलणस्स उक्स्सयं पदेससंतकम्मं । १९. एसेव माया जाधे लोभसंजलणे की आयुवाले तिर्यंच-मनुष्योमे उत्पन्न होकर पुनः क्रमसे असंख्यात वर्पकी आयुवाले भोगभूमियां तिर्यंच-मनुष्योमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे उसने स्त्रीवेदको पूरित किया । तत्पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त कर मरा और पल्योपमकी स्थितिवाला सौधर्म-ईशानकल्पवासी देव हुआ। वहॉपर उस जीवने पुरुषवेदको पूरित किया। वहाँसे च्युत होकर मनुष्य हुआ और सर्व लघुकालसे कपायोका क्षपण प्रारम्भ किया । तत्पश्चात् सर्वसंक्रमणके द्वारा नपुंसकवेदको स्त्रीवेदमे प्रक्षिप्तकर जिस समय सर्वसंक्रमणके द्वारा स्त्रीवेदको पुरुषवेदमे प्रक्षिप्त करता है, उस समय उस जीवके पुरुपवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है ।।१४-१५॥ चूर्णिसू ०-पुरुषवेदके उत्कृष्टप्रदेशसत्त्ववाले उसी उपर्युक्त जीवके द्वारा जिस समय पुरुपवेद और हास्य आदि छह नोकपायोके प्रदेशाग्र (कर्मदलिक) सर्वसंक्रमणके द्वारा क्रोधसंज्वलनमे प्रक्षिप्त किये जाते हैं, उस समय उस जीवके क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। यही जीव जिस समय क्रोधसंज्वलनको सर्वसंक्रमणके द्वारा मानसंज्वलनमे प्रक्षिप्त करता है, उस समय उस जीवके मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। यही जीव जिस समय मानसंज्वलनको सर्वसंक्रमणके द्वारा मायासंज्वलनमें प्रक्षिप्त करता है, उस समयमे उस जीवके मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। यही जीव जिस समय मायासंज्वलनको सर्वसंक्रमणके द्वारा लोभसंज्वलनमे प्रक्षिप्त करता है उस समय उस जीवके १ पुरिसस्स पुरिससंकमपएसउक्कस्ससामिगम्सेव। इत्थी जं पुण समयं संपक्खित्ता हवह ताहे ॥ ३० ॥ (चू०) जो पुरिसवेयस्स उक्कोसपदेससतसामी भणितो तत्स चेव इत्यिवेदो जम्मि समये पुरिसवेयम्मि सव्वस कमेण सकतो भवति, तम्मि समये पुरिसवेयस्स उक्कोस पदेसमतं । कम्म सत्ता० पृ०५७-५८ २ तस्सेव उ संजलणा पुरिसाइकमेण सम्वच्छोभे। (चू०)xxx जो पुरिसरेयस्स उयोमपदेसमतमामी सो नेव च उपहं सजलणाणं उक्कोसपदेमसत. सामी Ixxxजम्मि समये पुरिसवेतो सच्चसकमेण कोइस जलणाए सकतो भवति तम्मि ममये कोहसजलगाए उक्कोसपरेससत भवति | ३ तस्सेव जम्मि समये कोहसजल्या माणसजलणःए मव्वसंक मेण सकता तम्मि सगये माणसजरणाए उक्दोस पटेससत भवति । ४ तल्लेव जम्मि समए माणसजल्णा मायासजल्याए सव्वसकमेण सकता भवति तम्मि समये मायासजलणाए उक्कोसं पदेससंतं । कम्म० स० पृ० ५९. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मभिवण बंधदि हेठिल्लीला जदा आउ धामिक्वं गदो। त १८८ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति पक्खित्ता ताधे लोभसंजलणस्स उक्कस्सयं पदेससंतकस्म । २०. मिच्छत्तस्स जहण्णपदेससंतकस्मिओ को होदि ? २१. सुहमणिगोदेसु कम्पढिदिमच्छिदाउओ। तत्थ सव्वबहुआणि अपज्जत्तभवग्गहणाणि दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ तप्पाओग्गजहण्णयाणि जोगहाणाणि अभिवस्वं गदो। तदो तप्पाओग्गजहण्णियाए वड्डीए वलिदो जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गउक्कस्सएसु जोगट्ठाणेसु बंधदि हेठिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उकस्सपदेसं तप्पाओग्गं उकस्सविसोहिमभिक्खं गदो, जाधे अभवसिद्धियपाओग्गं जहण्णगं कम्मं कदं तदो तसेसु आगदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्धो । चत्तारि वारे कसाए उत्सामित्ता तदो वे छावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदूण तदो दसणमोहणीयं खवेदि । अपच्छिमहिदिखंडयमवणिज्जमाणयमवणिदभुदयावलियाए जंतं गलमाणं तं गलिदं, जाधे एकिस्से द्विदीए दुसमयकालट्ठिदिगं सेसं ताधे मिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म । लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है ॥ १६-१९ ॥ चूर्णिसू० -मिथ्यात्वकर्मका जघन्य प्रदेशसत्कर्म करनेवाला कौन जीव होता है ? जो सूक्ष्म निगोदिया जीवोमें कर्मस्थिति-कालप्रमाण तक रहा हुआ है और वहॉपर अपर्याप्तके सव सबसे अधिक ग्रहण किये, अपर्याप्तका काल दीर्घ रहा और उनके योग्य जघन्य योगस्थानोको निरन्तर प्राप्त हुआ है । तदनन्तर तत्प्रायोग्य जघन्य वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ जव-जब आयुको बॉधता है, तब तव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानोंमें आयुको बॉधता है और अधस्तन स्थितियोमे निपेकको उत्कृष्ट प्रदेशवाला किया और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिफो निरन्तर प्राप्त हुआ है, ऐसे इस जीवने जिस समय अभव्यसिद्धिकोके योग्य जघन्य कर्मफो उपार्जन किया तब उस जीवोमे आया । वहॉपर संयमासंयम, संयम और सम्यग्दर्शनको बहुत वार प्राप्त हुआ। चार वार कपायोको उपशमा कर तदनन्तर असंयमको प्राप्त हो दो वार छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वको परिपालन कर तत्पश्चात् दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण करता है । उस समय जब अपनीत होने योग्य मिथ्यात्वकर्मका अन्तिम स्थितिखंड corrrrrrrrrrrrrm १ तस्सेव जम्मि समये मायासंजलणा लोभसंजलणाए सवसकमेण सकता भवति तम्मि समये लोभसजलणाए से उक्कोस पदेससत | कम्म० सत्ता गा० ३१, चू० पृ० ५९. २ वेयणाए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणियं कम्मििद सुहुमेइदिएनु हिंडाविय तसका. इएसु उप्पाइदो । एत्थ पुण कम्मछिदि सपुण्णं भमाडिय तसत्त णीदो । तदो दोण्ह सुत्ताण जहा-विरोहो तहा वत्तव्यमिदि । जइवसहाइरिओवएसेण खविदकम्मसियकालो कम्महिदिमेत्तो। 'सुहुमणिगोदेसु कम्मट्टिदिमच्छिदाउओ' त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुववत्तीटो । भूदवलिभादरियोवएसेण पुण खविदकम्मसियकालो कम्महिदिमेत्तो पलिदोवमत्स असंखेजदिभागेशृण | एटेसिं दोण्हमुवदेसाण माझे सच्चेणेकणेव होदव्यं । तत्य सञ्चत्तणेगदरणिण्णओ त्यि त्ति दोण्ह पि सगहो काययो । जयध० ३खवियंसयम्मि पगयं जहन्नगे नियगसंतकम्मं ॥३९॥ (चू०)xx जहन्नगं मंतकम्मं XX अप्पप्यणो संतकम्मन्म अते भवति । यम्म० मना० ० ६२. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] उत्तरप्रकृति प्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १८९ २२. तदो पदेसुत्तरं दुपदेसुत्तरमेवमणताणि द्वाणाणि तम्मि ट्ठिदिविसेसे | २३. केण कारणेण १ २४. जं तं जहाक्खयागदं तदो उक्कस्सयं पि समयपवद्धमेत्तं । २५. जो पुण तहि एक्कन्हि ठिदिविसेसे उकस्सगस्स विसेसो असंखेज्जा समयपवद्धा । २६. तस्स पुण जहण्णयस्स संतकम्मस्स असंखेज्जदिभागो । २७. एदेण कारणेण एवं फद्दयं । २८. दो द्विदिविसेसेसु विदियं फद्दयं । २९ एवमाचलिय समयृणमेत्ताणि फदयाणि । ३०. अपच्छिमस्स डिदिखंडयस्स चरिमसमयजहण्णफदयमादि काढूण जाव मिच्छत्तस्स उक्कस्सगं ति एदमेगं फद्दयं । ३१. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेस संतकम्मं कस्स १३२. तधा चैव सुहुमगल जाता है और उदद्यावली में जो गलने योग्य द्रव्य था, वह भी जब गल जाता है, तब जिस समय एक निपेककी दो समय प्रमाण स्थिति अवशिष्ट रहती है, उस समय उस जीवके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है ।। २०-२१॥ चूर्णिस ० - उस जघन्य प्रदेशस्थानसे एक प्रदेश अर्थात् एक परमाणुसे अधिक दूसरा प्रदेशस्थान होता है, दो प्रदेशसे अधिक तीसरा प्रदेशस्थान होता है, इस प्रकार उस स्थिति - विशेषमें उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेशसे अधिक द्रव्यरूप अनन्त स्थान होते है ॥२२॥ शंक्राचू०-किस कारणसे अनन्त स्थान होते है १ ॥ २३॥ समाधानचू०-क्योंकि, कर्म-क्षपण- लक्षण - क्रियाकी परिपाटी से जो जो द्रव्य क्षपणको प्राप्त हुआ है, उससे भी उत्कृष्ट द्रव्य समयप्रवद्धमात्र (अधिक) होता है, अतएव अनन्त स्थान बन जाते है ॥२४॥ चूर्णिसू० - किन्तु उस एक स्थितिविशेषमे जो उत्कृष्ट गत विशेष है, वह असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण है । अर्थात् गुणितकर्माशिक जीवके उत्कृष्ट द्रव्यमेने उसीके जघन्य द्रव्यके निकाल देने पर जो शेप द्रव्य रहता है, वह असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि इस एक निपेक स्थिति मे असंख्यात समयप्रवद्धमात्र प्रदेशस्थान निरन्तर उत्पन्न होते हुए पाये जाते है । किन्तु यह उत्कृष्टगत विशेष उस जघन्य सत्कर्मरूप प्रदेशस्थानके असंख्यातवे भागप्रमाण ही होता है, अर्थात् जघन्यप्रदेश सत्कर्मस्थानके असंख्यातवे भागमात्र यहॉपर निरन्तर वृद्धिको प्राप्त हुए प्रदेश - सत्कर्मस्थान पाये जाते है, इस कारण इस स्थितिविशेषमे एक ही स्पर्धक होता है । दो स्थितिविशेषो प्रदेशाम दो स्पर्धकप्रमाण होते है । इस प्रकार एक समय कम आवलीमात्र स्पर्धक पाये जाते है । अन्तिम स्थिति-संडके चरम समयमे जघन्य स्पर्धकको आदि करके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होने तक एक स्पर्धक पाया जाता है ।। २५-३० ॥ चूर्णिसू० - सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो उसी प्रकार से अर्थात् मिथ्यात्वके जघन्य द्रव्यके समान ही सूक्ष्मनिगोदिया जीवामं कर्मस्थितिप्रमाण रहकर पुन: वहाँसे निकलकर और सजीवांमे उत्पन्न होकर संयमासंयम, संयम और Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० कसाय पाहुड सुत्त [५प्रदेशविभक्ति णिगोदेसु कम्मद्विदिमच्छिद्ण तदो तसेसु संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लघृण चत्तारि वारे कसाए उवसामेदूण वे छावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदूण मिच्छत्तं गढो दीहाए उव्वेलणद्धाए उव्वेलिदं तस्स जाधे सव्वं उव्वेलिदं उदयावलिया गलिदा, जाधे दुसमयकालट्ठिदियं एकम्मि हिदिविसेसे सेसं, ताधे सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णं पदेससंतकम्म । ३३. तदो पदेसुत्तरं । ३४. दुपदेसुत्तरं ३५. णिरंतराणि हाणाणि उक्कस्सपदेससंतकम्मं ति । ३६. एवं चेव सम्मत्तस्स वि । ३७. दोण्हं पि एदेसि संतकम्माणमेगं फयं । ३८. अहण्हं कसायाणं जहण्णयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ३९. अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं काऊण तसेसु आगदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लघृण चत्तारि वारे कसाए उवसामिण एइदियं गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागसम्यक्त्वको अनेक वार प्राप्त कर, तथा चार वार कपायोका उपशमन करके दो वार छयासठ सागरोपम कालतक सम्यक्त्वको परिपालन कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहॉपर दीर्घ उद्वेलनकालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलन किया, उसका जब सर्वद्रव्य उद्वेलन कर दिया गया और उदयावली भी गल गई, तथा जब एक स्थितिविशेषमे दो समयप्रमाण कालकी स्थितिवाला द्रव्य शेष रहा, तब उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेश सत्कर्म पाया जाता है । तदनन्तर प्रदेशोत्तरके क्रमसे अर्थात् जघन्य स्थानके ऊपर उत्कर्पण-अपकर्पणके द्वारा एक प्रदेशके बढ़नेपर सम्यग्मिथ्यात्वके प्रदेशसत्कर्मका द्वितीय स्थान होता है । पुनः द्विप्रदेशोत्तरके क्रमसे अर्थात् जघन्य द्रव्यके ऊपर उत्कर्षण-अपकर्पणके वशसे दो कर्मपरमाणुओके बढ़नेपर प्रदेशसत्कर्मका तीसरा स्थान होता है। इस प्रकार एक एक प्रदेश अधिकके क्रमसे निरन्तर बढ़ते हुए स्थान उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मरूप स्थान तक पाये जाते है । जिस प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्यस्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तक स्वामित्वका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे सम्यक्त्वप्रकृतिके स्वामित्वका निरूपण करना चाहिए । इन दोनो ही प्रकृतियोके सत्कर्मोंका एक स्पर्धक होता है, क्योकि जघन्य सत्कर्मसे लेकर प्रदेशोत्तर, द्विप्रदेशोत्तरके क्रमसे निरन्तर वृद्धिंगत स्थान उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान तक पाये जाते है ।। ३१-३७॥ ___ चूर्णिसू०-आठ मध्यम कषायोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो एकेन्द्रिय जीवोमें अभव्यसिद्धिकोंके योग्य जघन्य द्रव्यको करके त्रसजीवोमे आया और संयमासंयम, संयम तथा सम्यक्त्वको अनेक वार प्राप्तकर और चार वार कपायोका उपगमन कर एकेन्द्रियोमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण काल तक रह करके १ उन्चलमाणीण उचलणा एगट्टिई दुसामइगा। दिट्टिदुगे वत्तीसे उदहिसए पालिए पच्छा॥४०॥ (चू०)xxx सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण वे छावटीओ सागरोवमाण सम्मत्त अणुपालेत्तु पच्छा मिच्छत्त गतो चिरउव्वलणाए अप्पप्पणो उबल्लणाए आवलिगाए उवरिम छितिखडग सकममाणं सकतं उदयावलिया खिजति जाव एगठितिसेसे दुसमयकालछितिगे जहन्न पदेससतं । कम्म० सत्ता० पृ० ६४. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १९१ मच्छिद्रण कम्मं हदसमुप्पत्तियं काढूण कालं गदो तसेसु आगदो कसाए खवेदि अपच्छिमे ट्ठिदिखंडए अवगदे अधडिदिगलणाए उदयावलियाए गलतीए एकिस्से हिदीए सेसाए तम्म जहण्यं पदं । ४० तदो पदेसुत्तरं । ४१. निरंतराणि द्वाणाणि जाव एडिदिविसेसस्स उकस्सपदं । ४२. एदमेगं फद्दयं । ४३. एदेण कमेण अट्टहं पि कसायाणं समयूणावलियमेत्ताणि फद्दयाणि उद्यावलियादो । ४४. अपच्छिमडिदिखंडयस्स चरिमसमयजहण्णपदमादि काढूण जावुक्कस्तपदेस संतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं । ४५. अताणुबंधी मिच्छत्तभंगो' । ४६. णवंसयवेदस्त जहण्णयं पदेससंतकम्मं कस्स १४७. तधा चेव अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णेण संतकम्मेण तसेसु आगदो संजमा संजमं संजम सम्मत्तं च बहुसो लद्वण चत्तारि वारे कसाए उवसामिदूण तदो तिपलिदोवमिसु उववण्णो । तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए त्ति सम्मत्तं और कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके मरणको प्राप्त हो, सोमें आकर मनुष्य होकर कपायोका क्षय करता है, उसके अन्तिम स्थिति-खंडके अधः स्थितिगलनाके द्वारा गल जानेपर तथा गलती हुई उदयावलीमे एक स्थितिके शेष रहनेपर आठों कपायोका जघन्य प्रदेश सत्कर्म होता है । उसके आगे प्रदेशोत्तरके क्रमसे तब तक निरन्तर स्थान पाये जाते है, जब तक कि एक स्थितिविशेषका उत्कृष्ट पद प्राप्त होता है । ये स्थान एक स्पर्धकप्रमाण है । क्योंकि यहाॅ अन्तर नहीं पाया जाता । इस ही क्रमसे आठो ही कपायोके उदद्यावली से लेकर एक समय कम आवलीमात्र स्पर्धक जानना चाहिए | अन्तिम स्थितिकांडकके चरमसमयके जघन्य पदको आदि लेकरके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त होने तक निरन्तर स्थानोका प्रमाण एक स्पर्धक है ॥ ३८-४४ ॥ चूर्णिसू० - अनन्तानुचन्धी कपायोके जघन्य स्वामित्व की प्ररूपणा मिथ्यात्वके जघन्य स्वामित्वके समान जानना चाहिए । नपुंसकवेदका नघन्यप्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो जीव उसी प्रकार से एकेन्द्रियोमे अभव्यसिद्धिकोके योग्य जघन्य सत्कर्मको करके उसके साथ नसोंमें आया और संयमासंयम, संयम तथा सम्यक्त्वको अनेक वार प्राप्तकर, और चार वार कपायोका उपशम कर तत्पश्चात् तीन पल्यकी आयुवाले जीवोमे उत्पन्न हुआ। वहाँ पर जीवनके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अवशेष रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहणकर दो वार छयासठ सागरोपमप्रमाण ताम्र-पत्रवाली प्रतिमे यह सूत्र नहीं हैं, पर होना चाहिए, क्योंकि इसकी 'टीका एदमेग पडुयमेत्थ अतराभावादी' इस रूपसे पाई जाती है। आगे भी नपु सकवेदके जघन्य प्रदेश सत्कर्म बतलाते हुए यही सूत्र दिया गया है | ( देखो सूत्र न० ५० ) १ खणसंजोइय संजोयणाण चिरसम्मकालंते ॥ ३९ ॥ ( ० ) xx सवियकम्मसिगो सम्मद्दिट्ठी अणताणुबंधिणो विसजोजेत्तु पुणो मिच्छत्त गनू अतो मुहुत्त अणताणुवधी वधित्त पुणो सम्मत्त पडिवो 'चिरसम्मकारते' ति-वे छावटठीतो सम्मत्त अणुपालेत्तु, खवणाए अन्भुट्टियस्स एट्टितिसेसे वट्टमाणस्स समालट्ठतीय पहन अपनावी पदेस संत भवति । कम्म० सत्ता० ० ३९, चू० पृ० ६२. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ कसाय पाहुड सुत्त [५प्रदेशविभक्ति घेत्तूण वे छावहिसागरोक्माणि सम्मत्तद्धमणुपालिऊण मिच्छत्तं गंतूण णqसयवेदमगुस्सेसु उववण्णो सबचिरं संजममणुपालिण खवेदुमाहत्तो। तदो तेण अपच्छिमड्डिदिखंडयं संछुहमाणं संछुद्धं उदओ णवरिविसेसो तरस चरिमसमयणकुंसयवेदस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म । ४८. तदो पदेसुत्तरं। ४९. णिरंतराणि हाणाणि जाव तप्पाओग्गो उकस्सओ उदओ ति । ५०. एदमेगं फदयं । ५१. अपच्छिमस्स द्विदिखंडयस्स चरिमसमयजहष्णपदमादि कादूण जाव उकस्सपदेससंतकम्मं णिरंतराणि हाणाणि । ५२. एवं णबुंसयवेदस्स दो फद्दयाणि । ५३. एवमित्थिवेदस्स, णवरि तिपलिदोवमिएसु णो उववष्णो । ५४. पुरिसवेदस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ५५. चरिमसमयपुरिसवेदोदयक्खवगेण घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणे वट्टमाणेण जं कम्मं बद्ध तं कम्ममावलियसमयअवेदो संकायेदि । जत्तो पाए संकामेदि तत्तो पाए सो समयपबद्धो आवलियाए अकम्म होदि । तदो एगसमयमोसकिदूण जहण्णयं पदेससंतकम्मट्ठाणं । ५६. तस्स कारणमिमा परूवणा कायव्या । सम्यक्त्वके कालको अनुपालकर और पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर नपुंसकवेदी मनुष्योमे उत्पन्न हुआ । वहाँ सर्वाधिक चिरकालतक संयमका परिपालनकर कर्मोंका आपण आरम्भ किया । तब उसने संक्रम्यमाण अन्तिम स्थिति-खंडको संक्रान्त किया, अर्थात् नपुंसकवेदकी चरमफालिको सर्वसंक्रमणके द्वारा पुरुपवेदमे संक्रमित किया। उस समय उदयमे इतनी विशेषता है कि एक समयकी कालस्थितिवाले एक निपेकके अवशिष्ट रहनेपर उस चरमसमयवर्ती नपुंसकवेदी जीवके नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। तदनन्तर प्रदेशोत्तरके क्रमसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट उदय प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान पाये जाते है, ये स्थान एक स्पर्धक-प्रमाण है । अन्तिम स्थितिखंडके चरमसमयवर्ती जघन्य पदको आदि करके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तक निरन्तर स्थान पाये जाते है । इस प्रकार नपुंसकवेदके दो स्पर्धक जानना चाहिए । इसी प्रकारसे स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व भी प्ररूपण करना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि उसे तीन पल्योपमकी आयुवाले जीवोमे उत्पन्न नहीं कराना चाहिए ॥४५-५३॥ चूर्णिसू०-पुरुपवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? घोटमान अर्थात परिवर्तमान जघन्य योगस्थानमे वर्तमान, चरम समयवर्ती पुरुपवेदोदयी क्षपकने जो कर्म वॉधा है, उस कर्मको वह अपगतवेदी होकर समयाधिक आवलीकालसे संक्रमण प्रारम्भ करता है । जिस स्थलसे वह संक्रमण प्रारम्भ करता है, उस स्थलसे वह समयमबद्ध एक आवलीकालके द्वारा अकर्मस्प होता है । उसमे एक समय नीचे जाकर पुरुपवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है ॥ ५४-५५ ॥ चूर्णिम०-इमका कारण जानने के लिए यह वन्यमाण सम्पणा करना चाहिए।॥५६॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १९३ ५७. पढमसमयअवेदगस्स केत्तिया समयपबद्धा ? ५८. दो आवलियाओ दुसमऊणाओ। ५९. केण कारणेण । ६०. जं चरिमसमयसवेदेण बद्धतमवेदस्स विदियाए आवलियाए तिचरिमसमयादो त्ति दिस्सदि, दुचरिमसमए अकम्मं होदि । ६१. जं दुचरिमसमयसवेदेण बद्ध तमवेदस्स विदियाए आवलियाए चदुचरिमसमयादो त्ति दिस्सदि । ६२. ऋतिचरिमसमए अकम्मं होदि । ६३ एदेण कमेण चरिमावलियाए परमसमयसवेदेण जं बद्ध तमवेदस्स पढमावलियाए चरिमसमए अकम्मं होदि । ६४. जं सवेदस्स दुचरिमाए आवलियाए पहमसमए पबद्ध तं चरिमसमयसवेदस्स अकम्म होदि । ६५. जं तिस्से चेव दुचरिमसवेदावलियाए विदियसमए वद्ध तं पढमसमयअवेदस्स अकम्मं होदि । ६६. एदेण कारणेण वे समयपबद्ध ण लहदि । ६७. सवेदस्स दुचरिमावलियाए दुसमयूणाए चरिमावलियाए सव्वे च एदे समयपबद्ध अवेदो लहदि । ६८. एसा ताव एका परूवणा । शंकाचू०-प्रथमसमयवर्ती अवेदकके कितने समयप्रवद्ध होते है ? ॥ ५७ ॥ समाधानचू०-दो समय कम दो आवलियोके जितने समय होते है, उतने समयप्रवद्ध होते है ॥ ५८ ॥ शंकाचू०-किस कारणसे दो समय कम किये गये है ? ॥ ५९ ॥ समाधानचू०-चरमसमयवर्ती सवेदी क्षपकने जो कर्म बाँधा है, वह अवेदी आपककी दूसरी आवलीके त्रिचरमसमय-पर्यन्त दिखाई देता है और द्विचरम समयमे अकर्मरूप हो जाता है । द्विचरमसमयवर्ती सवेदी क्षपकने जो कर्म बाँधा है, वह अवेदी क्षपककी दूसरी आवलीके चतुःचरमसमय-पर्यन्त दिखाई देता है और त्रिचरमसमयमे अकर्मरूप हो जाता है। इस क्रमसे चरम-आवलीके प्रथमसमयवर्ती क्षपकने जो कर्म बॉधा है, वह अवेदी क्षपककी प्रथमावलीके अन्तिम समयमे अकर्मरूप हो जाता है। जो कर्म सवेदी क्षपकने द्विचरमावलीके प्रथम समयमे बाँधा है, वह चरमसमयवर्ती सर्वदी आपकके अकर्मरूप हो जाता है । जो कर्म उस ही द्विचरम-सवेदावलीके द्वितीय समयमे बाँधा है, वह प्रथमसमयवर्ती अवेदीके अकर्मरूप हो जाता है । इस कारणसे द्विचरम-सर्वदावलीके प्रथम और द्वितीय समयमे बँधे हुए दो समयप्रवद्ध प्रथमसमयवर्ती अवेदी क्षपकके नहीं पाये जाते है । अतः दो समय कम दो आवलीप्रमाण समयप्रवद्ध ही प्रथमसमयवर्ती अवेदकके पाये जाते है ॥ ६०-६७ ।। चूर्णिम् ०-इस प्रकार यह एक प्ररूपणा जघन्य द्रव्यका प्रमाण जाननेके लिए तथा अपगतवेदी क्षपकके पाये जानेवाले सत्कर्मस्थानोका कारण बतलाने के लिए की गई है।।६८॥ ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इसे ६१वे सूत्र के अन्तमे कोटक्के अन्तर्गत करके दिया है। पर इसका स्थान टीकाके 'सकमपारभादो के अनन्तर है, जिसे कि टीका नमझ लिया गया है। बद्धममनादो से आगे. वा अगदमी सूत्रको टीका है, अतएव इने पृथक सत्र ही होना चाहिए । (देखो पृ० ७४७) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति ६९. इमा अण्णा परूवणा । ७०. दोहि चरिमसमयसवेदेहि तुल्लजोगीहि बद्ध कम्मं तेसिं तं संतकम्म चरिमसमयअणिल्लेविदं पि तुल्लं । ७१. दुचरिमसमयअणिल्लेविदं पितुल्लं । ७२. एवं सव्वत्थ । ७३. एदाहि दोहि परूवणाहि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि परूवेदव्याणि । ७४. जहा-जो चरिमसमयसवेदेण बद्धो समयपबद्धो तम्हि चरिमसमयअणिल्लेविदे घोलमाणजहणजोगट्ठाणमादि कादूण जत्तियाणि जोगट्ठाणाणि तत्तियसत्ताणि संतकम्मट्ठाणाणि । ७५. चरिमसमयसवेदेण उक्कस्सजोगेणेत्ति दुचरमसमयसवेदेण जहणजोगट्ठाणेणेत्ति एत्थ जोगट्ठाणमेत्ताणि [संतकम्मट्ठाणाणि] लभंति । ७६. चरिमसमयसवेदो उकस्सजोगो दुचरिमसमयसवेदो उकस्सजोगो तिचरिमसमयसवेदो अण्णदरजोगट्ठाणे त्ति । एत्थ पुण जोगट्ठाणमेत्ताणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि। ७७. एवं जोगट्ठाणाणि दोहि आवलियाहि दुसमयूणाहि पदुप्पण्णाणि *एत्तियाणि अवेदस्स संतकम्मट्ठाणाणि सांतराणि सव्याणि । चूर्णिसू०-अब उपर्युक्त प्ररूपणासे भिन्न दूसरी प्ररूपणा की जाती है-तुल्य योगवाले और चरमसमयवर्ती दो सवेदी क्षपकोके द्वारा वॉधा हुआ कर्म समान होता है, शथा चरम-समयमे अनिर्लेपित सत्कर्म भी उनका समान होता है। द्विचरम-समयमे अनिर्लेपित सत्कर्म भी समान होता है। त्रिचरम-समयमे अनिर्लेपित सत्कर्म भी समान होता है इस प्रकार बंधनेके प्रथम समय तक सर्वत्र अनिर्लेपित सत्कर्म समान जानना चाहिए । इस प्रकार इन दोनो प्ररूपणाओके द्वारा पुरुपवेदके प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा करना चाहिए । वह इस प्रकार है-चरमसमयवर्ती सवेदी क्षपकने जो समयप्रबद्ध बॉधा है, उसे चरम समयमे अनिलेपित करनेपर अर्थात् चरमफालिमात्रके शेप रहने पर योदमानजघन्ययोगस्थानको आदि करके जितने योगस्थान होते है, उतने ही पुरुपवेदके सत्कर्मस्थान होते है ॥ ६९-७४ ॥ चूर्णिसू ०-जो जीव उत्कृष्ट योगी चरमसमयसवेदी है और जो जघन्य योगी द्विचरमसमयसवेदी है, उसके योगस्थान-प्रमाण पुरुपवेदके प्रदेशसत्कर्मस्थान होते है । जो जीव चरमसमयसवेदी उत्कृष्ट योगवाला है, जो द्विचरमसमयसवेदी उत्कृष्ट योगवाला है, त्रिचरमसमयसवेदी अन्यतर योगमे विद्यमान है, उनके योगस्थान-प्रमाण प्रदेशसत्कर्मस्थान होते है । इस प्रकार दो समय कम दो आवली-प्रमाण जो योगस्थान उत्पन्न किये गये हैं, उतने अवेदीके पुरुपवेदके सर्व सान्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान होते है ।। ७५-७७ ।। विशेपार्थ-यहॉपर पुरुपवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानोको वतलानकं लिए चूर्णिकारने 'एदाहि दोहि परूवणाहि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि परूवेदव्याणि' इस सूत्रके द्वारा दो प्रकारकी प्ररूपणाके वीजपदोका संकेत किया है। उनमेसे 'एक समयप्रबहमे लेकर दो समय कम दो आवलीप्रमाण समयप्रवद्वोकी प्ररूपणा' यह प्रथम बीजपद है, क्योकि यह जघन्य ताम्रपत्रवाली प्रतिम इससे आगेके सूत्रागको टीकामें सम्मिलित कर दिया गया है। पर प्रकरण को देखते हुए यह सूत्राश ही होना चाहिए । ( देखो पृ० ८५६) । ० ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १९५ ७८. चरिमसमय सवेदस्स एगं दयं । ७९. दुचरिमसमय सवेदस्स चरिमडिदिखंडगं चरिमसमयविणङ्कं । ८० तस्स दुचरिमसमयसवेदस्त जहणणगं संतकम्ममादि काढूण जाव पुरिसवेदस्स ओघुकस्सपदेस संतकम्मं त्ति एदमेगं फद्दयं । योगस्थान से लेकर सव योगस्थानोकी अपेक्षा सान्तर प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी उत्पत्तिका निमित्त है । इस सूत्र के पञ्चात् 'जहा - जो चरमसमयसवेदेण ' इत्यादि सूत्रको आदि लेकर चार सूत्रो के द्वारा प्रथम बीजपदके निमित्तसे उत्पन्न हुए दो समय कम दो आवलीप्रमाण समय - aath प्ररूपणा की है । उन चार सूत्रोमेसे प्रथम सूत्रके द्वारा चरम समय के प्रदेशसत्कर्म - स्थानोका, दूसरे सूत्रसे द्विचरम समय के प्रदेशसत्कर्मस्थानोका और तीसरे सूत्र से त्रिचरम समयके प्रदेशसत्कर्मस्थानोका कथन करके चौथे सूत्रमे यह कहा कि 'इसी प्रकार शेप दो समय कम दो आवलीप्रमाण योगस्थानो के अनुसार प्रदेशसत्कर्मस्थानोको जानना चाहिए ।' सवेदी क्षपकके अन्तिम समयमे जघन्य योगस्थान से लेकर जितने योगस्थान संभव है, उतने ही अवेदीके चरम समयमे प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि पृथक्-पृथक् योगस्थानोके द्वारा भिन्न-भिन्न समयप्रवद्धोका बन्ध होता है, और इसलिए उन समयप्रवद्धोका सत्त्व भी नाना प्रकारका होगा, जिसके कि कारण प्रदेश सत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार सवेदीके उपान्त्य समयमे तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक जितने योगस्थान संभव है, उन योगस्थानो के द्वारा बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोका सत्त्व अवेदी क्षपकके द्विचरम समय मे रहता है, और इन भिन्न-भिन्न समयप्रवद्धो के सत्त्वसे नानाप्रकारके प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न होते है । इसी प्रकार सवेद के त्रिचरम समय मे योगस्थान के द्वारा बाँधे गये समयप्रबद्धोका सत्त्व अवेदी क्षपकके त्रिचरम समय मे प्राप्त होगा, जिनके निमितसे त्रिचरम समयमे प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति होगी । इसी प्रकार दो समय कम दो आवलियोके समयोमे प्रदेश सत्कर्मस्थानोका कथन कर लेना चाहिए | ‘बन्धावली-प्रमाण अतीत समयप्रबद्धोका अन्य प्रकृतिमे संक्रमण होना', यह सान्तर प्रदेश सत्कर्मस्थानोका दूसरा वीजपद है । आगेके तीन सूत्रो के द्वारा इस दूसरे बीजपदके निमित्तसे प्रदेशसत्कर्मस्थानोका कथन करते है । चूर्णि स ० - चरमसमयवर्ती सवेदी क्षपकके एक सचेदीके चरमस्थितिकांडक चरमसमयमे विनष्ट होता है पुरुपवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से लेकर ओघ - उत्कृष्ट वह एक स्पर्धक है ॥ ७८-८० ॥ स्पर्धक है । द्विचरमममयवर्ती उस द्विचरमसमयवर्ती सवेदीके प्रदेशसत्कर्मस्थान तक जो द्रव्य है। विशेषार्थ-द्विचरमसमयवर्ती सवेदी क्षपकके जघन्य सत्कर्मस्थान से लेकर ओघ उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान तक एक स्पर्धक कहनेका कारण यह है कि यहॉपर जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान तक निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान पाये जाते हैं । कोई एक विवक्षित जीव जघन्य योगस्थान और जघन्य प्रकृत- गोपुच्छावाला है, उसकी प्रकृन-गोपुच्छाके Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति ८१. कोधसंजलणस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म कस्स ? ८२. चरिमसमयकोधवेदगेण खवगेण जहण्णजोगट्टाणे जं बद्ध तं जं वेलं चरिमसमयअणिल्लेविदं तस्स जहण्णयं संतकम्मं । ८३. जहा पुरिसवेदस्स दोआवलियाहि दुसमऊणाहि जोगट्ठाणाणि पदुप्पण्णाणि एवदियाणि संतकम्महाणाणि सांतराणि । एवं आवलियाए समऊणाए जोगट्ठाणाणि पदुप्पण्णाणि एत्तियाणि कोधसंजलणस्स सांतराणि संतकम्मट्ठाणाणि । ८४. कोधसंजलणस्स उदए वोच्छिण्णे जा पढमावलिया तत्थ गुणसेही पविल्लिया । ८५. तिस्से आवलियाए चरिमसमए एगं फयं । ८६. दुचरिमसमए अण्णं फद्दयं । ८७. एवमावलियसमयूणमेत्ताणि फयाणि । ८८. चरिमसमयकोधवेदयस्स खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदं खंडयं होदि । ८९. तस्स जहण्णसंतकम्ममादि कादण जाव ओघुकस्सं कोधसंजलणस्स संतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं । द्रव्यको एक एक प्रदेश अधिकके क्रमसे तब तक बढ़ाते जाना चाहिए जब तक कि वह जीव उस दूसरे जीवके समान न हो जावे जो द्वितीय योगस्थान और जघन्य प्रकृत-गोपुच्छाके साथ स्थित है। इसी प्रकार इस दूसरे जीवकी प्रकृत-गोपुच्छाके द्रव्यको एक एक प्रदेश अधिकके क्रमसे तव तक बढ़ाना चाहिए, जब तक कि वह दूसरा जीव उस तीसरे जीवके समान न हो जावे, जो तृतीय योगस्थान और जघन्य प्रकृत-गोपुच्छाके साथ अवस्थित है। इस प्रकार नाना जीवोंके आश्रयसे जघन्य योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न कराना चाहिए । इस ही प्रकार द्विचरम, त्रिचरम आदि सवेदी जीवोके पृथक्-पृथक् एक एक स्पर्धकका कयन करना चाहिए। यहॉपर संक्रमणकालीके अन्तर्गत प्रकृत-गोपुच्छाके आश्रयसे एक एक समयमे निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति कही गई है, अतः ये प्रदेशसत्कर्मस्थान दूसरे वीजपदके निमित्तसे उत्पन्न हुए है। चूर्णि सू०-संज्वलनक्रोधका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती क्रोध-वेदक क्षपकने जघन्य योगस्थानमे स्थित होकर जो कर्म वॉधा और जिस समय वह चरम समयमें अनिलेपित है, उस समय उस जीवके संज्वलनक्रोधका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । जिस प्रकार पुरुपवेदके दो समय कम दो आवलियोसे योगस्थान उत्पन्न किये गये है, उतने ही पुरुपवेदके सान्तर सत्कर्मस्थान होते है । इसी प्रकार एक समय कम आवलीके द्वारा जितने योगस्थान उत्पन्न होते है, उतने ही संज्वलनक्रोधके सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं । संज्वलनक्रोधके उदयके व्युच्छिन्न होनेपर जो प्रथमावली है उसमे गुणश्रेणी प्रविष्ट होती है । उस आवलीके चरम समयमे एक स्पर्धक होता है, द्विचरमसमयमे अन्य स्पर्धक होता है । इस प्रकार एक समय कम आवली-प्रमाण स्पर्धक होते हैं। चरमसमयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके चरम समयमै अनिर्लेपित चरमस्थितिकांडक होता है । उस चरमसमयवर्ती क्रोधवेदक क्ष्पकके जघन्य सत्कर्मसे लेकर संज्वलनक्रोधके ओध-उत्कृष्ट सत्कर्म तक एक म्पर्धक होता है। ॥ ८१-८९ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण १९७ ९०. जहा कोधसंजलणस्स, तहा माण-मायासंजलणाणं । ९१. लोभसंजलणस्स जहण्णगं पदेससंतकम्मं कस्स ? ९२. अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णगेण कम्मेण तसकायं गदो तम्मि संजमासंजमं संजमं च बहुवारं लद्धाउओ कसाए ण उवसामिदाउओ । तदो कमेण मणुस्सेसुववण्णो । दीहं संजयद्धमणुपालेदूण कसायक्खवणाए अब्भुद्विदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे जहण्णगं लोभसंजलणस्स पदेससंतकस्म । ९३. एदमादि कादूण जावुक्कस्सयं संतकम्मं णिरंतराणि हाणाणि । ९४. छण्णोकसायाणं जहण्णयं पदेससंत कम्मं कस्स ? ९५. अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तसेसु आगदो । तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धो । चत्तारि वारं कसाए उवसामेदृण तदो कमेण मणुसो जादो। तत्थ दीहं संजमद्धं कादूण खवणाए अव्भुट्टिदो। तस्स चरिमसमयडिदिखंडए चरियसमयअणिल्लेविदे छण्हं कम्मंसाणं जहण्णयं पदेससंतकम्मं । ९६. तदादियं जाव उक्कस्सियादो एगमेव फद्दयं । चूर्णिसू०-जिस प्रकारसे संज्वलनक्रोधके प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकारसे संज्वलनमान और संज्वलनमायाके प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा करना चाहिए। संज्वलनलोभका जघन्यप्रदेश सत्कर्म किसके होता है ? जो जीव अभव्यसिद्धोके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ उसकायको प्राप्त हुआ। वहॉपर उसने बहुत वार संयमासंयम और संयमको धारण किया किन्तु कपायोको उपगमित नहीं किया । पुनः एकेन्द्रियादिकोमे परिभ्रमण कर क्रमसे मनुष्योमे उत्पन्न हुआ। वहाँ दीर्घकाल तक संयमका परिपालन कर कपायोकी आपणाके लिए उद्यत हुआ । उसके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे संज्वलन लोभका जघन्यप्रदेश सत्कर्म होता है । इस जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानको आदि लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होने तक निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान पाये जाने है ॥ ९०-९३ ॥ चूर्णिसू०-हास्यादि छह कपायोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो जीव अभव्यसिद्धोके योग्य जघन्यसत्कर्मके साथ सोमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त किया और चार वार कपायोका उपशमन कर एकेन्द्रियोम उत्पन्न हुआ । पुनः क्रमसे मनुष्य हुआ और वहॉपर दीर्घकाल तक संयमका परिपालन कर क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । तव चरम स्थितिकांडकके चरम समयमे अनिर्लेपित रहनेपर हाम्यादि छह नोकपायोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । उस जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्थानको आदि लेकर उत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मस्थान तक एक ही स्पर्धक होता है ।। ५४-९६ ॥ १ अंतिमलोभ-जसाणं मोहं अणुवसमइत्त खीणाणं । नेयं अहापवत्तकरणस्स चरमम्मि समयम्मि ॥ ४१ ॥ (चू०)xx लोभसजलण-जसकित्तीण xx चरित्तमोहणिज्ज अणुवसमित्त सेरिगाहि खविपरम्मसिगकिरियाहि 'खीणाण' त्ति-योगीकवाण दलियाण चरित्तमोर उवमागितत्स बहुगा पोग्गला गुणसकमेण लभति तम्हा सेढिवज्जण इच्छिज्जति । ४४ अहापवत्तकरणत्स चरिमसमये च वट्टमाणन्स लोममंजलजसाण जहण्णग पदेससत भवति, परओ दलिय तु गुणमकमेण वासि नि काउ। कम्म सत्ता पृ०६५. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ प्रदेशविभक्ति ९७. कालो । ९८. मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि १ ९९. जहण्णुकस्सेण एगसमओ । १००. अणुक्कस्सपदेसविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? १०१. जहण्णुक्कस्सेण अनंतकालमसंखेजा पोग्गल परियट्टा । १०२. अण्णो स्वदेसो जहष्णेण असंखेज्जा लोगा त्ति । १०३. अधवा खवगं पडुच वासपुथत्तं । १०४. एवं सेसाणं कम्माणं णादूण णेदव्वं । १०५ णवरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्तामणुक सदव्वकालो जहणेण अंतोमुहुत्तं । १०६. उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । १०७. जहण्णकालो जाणिदूण णेदव्वो । १९८ चूर्णि सू० (० - अव प्रदेशविभक्तिके कालको कहते हैं - मिध्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवांका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनो ही अपेक्षा से एक समयमात्र काल है | मिध्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । अन्य आचार्योंका उपदेश है कि मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल असंख्यात लोकके जितने समय होते है, तत्प्रमाण है । अथवा क्षपककी अपेक्षा मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । इसी प्रकार से शेष कर्मोंकी प्रदेशविभक्तिका काल जान करके कहना चाहिए । विशेपता केवल यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट द्रव्यका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त्त है और उत्कृष्टकाल साधिक दो वार छयासठ सागरोपम है ।।९७ - १०६ ॥ विशेषार्थ - इस सूत्र से सूचित शेप कर्मोंकी प्रदेशविभक्तिका काल इस प्रकार जानना चाहिए- अप्रत्याख्यानावरणादि आठ मध्यमकपाय और हास्यादि सात नोकपायोकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल असंख्यात पुगल परिवर्तनप्रमाण अनन्तकाल है । अथवा क्षपककी अपेक्षा वर्पपृथक्त्व है । अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी प्रदेशविभक्तिका काल मिथ्यात्वके समान ही है । केवल इतना भेद है कि अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है । इसका कारण यह है कि कोई जीव अनन्तानुवन्धचतुष्कका विसंयोजन करके पुनः उसका संयोजन करके फिर भी अन्तर्मुहूर्त से उसका विसंयोजन कर सकता है । चारो संज्वलनकपाय और पुरुपवेदकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । इन्ही पाँचों कर्मोंकी अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादिसान्त है | इनमेसे सादि-सान्त जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । स्त्रीवेदी अनुत्कृटप्रदेशविभक्तिका जघन्यकाल वर्षपृथक्त्व से अधिक दश हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय हैं । इन्हीं दोनो कर्मोकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल चूर्णिकारने स्वयं कहा ही है । ० - जयन्य प्रदेशविभक्तिका काल जान करके कहना चाहिए ॥ २०७ ॥ चूर्णिसू० Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] उत्तर प्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अन्तर-निरूपण १०८. अंतरं । १०९. मिच्छत्तस्स उक्कस्तपदेस संतकम्पियंतरं जहण्णुक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ११०. एवं सेसाणं कम्माणं णेदच्वं । १११. वरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं पुरिसवेद-चदुसंजलणाणं च उक्कस्सपदेसविहत्तिअंतरं णत्थि । ११२. अंतरं जहण्णयं जाणिदूण दव्वं । ११३. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो जहष्णुक्करसभेदेहि । अट्ठपद काढूण सव्वकम्माणं दव्वो । १९९ " विशेषार्थ - इस सूत्र से सूचित सर्व कर्मोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका काल उच्चारणावृत्ति के अनुसार इस प्रकार है - मिध्यात्व अप्रत्याख्यानाचरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क और लोभको छोड़कर शेष संज्वलनत्रिक, तथा नव नोकपायोकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । इन्हीं उक्त कर्मोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल अनादिअनन्त और अनादि- सान्त है । सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । इन्हीं दोनो कर्माकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्यप्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल तीन प्रकार का है - अनादि - अनन्त, अनादि- सान्त और सादि-सान्त । इनमे से सादि - सान्तकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । संज्वलन लोभकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । संज्वलन लोभकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल तीन प्रकार का है - अनादिअनन्त, अनादि-सान्त और सादि - सान्त । इनमे से सादि-सान्त जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण है । चूर्णिसू ० - अव प्रदेशविभक्तिका अन्तर कहते है - मिध्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुढलपरिवर्तनप्रमाण अनन्तकाल है । इसी प्रकार शेप कर्मोंका भी जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पुरुपवेद और चारो संज्वलनकपायोकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिका अन्तर नहीं होता है । मोहनीयकर्मकी सभी प्रकृतियोकी प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर जान करके कहना चाहिए अर्थात् किसी भी कर्मकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तर नही होता है ॥१०८ - ११२ ॥ चूर्णिसू०० - नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है- जवन्य ओर उत्कृष्ट | उनका अर्थपद करके सर्व कर्मोंका भंगविचय जानना चाहिए ॥ ११३ ॥ विशेषार्थ - इस सूत्र से सूचित सर्व कर्मोंका नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय करनेके लिए यह अर्थपद है - जो जीव उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मकी विभक्तिवाले होते है, वे जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मकी विभक्तिवाले नहीं होते । तथा जो अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मकी विभक्तिवाले होते हैं, वे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मकी विभक्तिवाले नहीं होते है I इस अर्थ अनुसार मोहकी Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति ११४. सबकम्माणं णाणाजीवेहि कालो कायव्यो । ११५. अंतरं । णाणाजीवेहि सव्वकम्माणं जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सभी प्रकृतियोके कदाचित् सर्व जीव उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले होते है १, कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और कोई एक जीव अविभक्तिवाला होता है २, कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले होते है ३ । इस प्रकार तीन भंग होते है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके भी इसी प्रकार तीन भंग जानना चाहिए । इसी प्रकार सर्व कर्माके जघन्य अजघन्यप्रदेशविभक्तिवाले जीवोके भी तीन-तीन भंग होते हैं। आदेशकी अपेक्षा कितने ही जीवोके आठ भंग तक होते हैं, सो जयधवला टीकासे जानना चाहिए । चूर्णिसू०-नाना जीवोकी अपेक्षा प्रदेशविभक्तिके कालकी प्ररूपणा करना चाहिए।।११४॥ विशेषार्थ-चूर्णिकारके द्वारा सूचित और उच्चारणाचार्यके द्वारा प्ररूपित नानाजीवोकी अपेक्षा सर्व कोंकी प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका काल इस प्रकार है-मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी आदि वारह कपाय और पुरुषवेदको छोड़कर शेष आठ नोकपायोकी उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है। इन्ही काँकी अनुत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मविभक्तिका सर्वकाल है । सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, चारो संज्वलन और पुरुपवेदके उत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । इन्ही कर्मोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका सर्वकाल है । नानाजीवोकी अपेक्षा मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है। सर्व कर्मोंकी अजघन्य प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका सर्वकाल है । आदेशकी अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट और जघन्य-अजघन्य प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका काल जयधवला टीकासे जानना चाहिए। चूर्णिसू०-अव नाना जीवोकी अपेक्षा प्रदेशविभक्तिका अन्तर कहते है-नाना जीवोकी अपेक्षा सर्व कर्मोंकी प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमित अनन्तकाल है ।। ११५॥ विशेपार्थ-मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका जिन वाईस अनुयोगद्वारोंसे इस अधिकारके प्रारंभमे वर्णन किया गया है, उनमे सन्निकर्पको मिलाकर तेईस अनुयोगद्वारोसे उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका वर्णन करना क्रम-प्राप्त था । किन्तु ग्रन्थ-विस्तारके भयसे चूर्णिकारने उनसे केवल स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर कहकर नानाजीवाकी अपेक्षा भंगविचय, और कालके जाननेकी सूचना करते हुए नानाजीवोकी अपेक्षा प्रदेशविभक्तिका अन्तर कहा है, तथा आगे अल्पबहुत्व कहेगे। मध्यवर्ती शेय सोलह अनुयोगद्वारोका दशामर्शकरूपमे कथन किया गया है, अतएव विशेष जिज्ञासुजनोको शेष अनुयोगद्वारोसे प्रदेशविभक्तिकं विशंपपरिज्ञानार्थ जयधवला टीका देखना चाहिए । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अल्पबहुत्व-निरूपण २०१ ११६. अप्पाचहुअं । ११७. सव्वत्थोवम पञ्चकखाणमाणे उकस्सपदेससंतकम्पं । ११८. को उकस्सपदेससंत्तक्रम्मं विसेसाहियं । ११९. मायाए उक्कस्सपदेस संत कम्म विसेसाहियं । १२०. लोभे उक्कस्तपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १२१. पचकखाणमाणे उकस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १२२. कोधे उकस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १२३. मायाए उकस्तपदेस संतकरमं विसेसाहियं । १२४, लोभस्स उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १२५. अनंताणुवंधिमाणे उक्कस्तपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १२६. कोथे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १२७ मायाए उक्कस्तपदेस संतकम्पं विसेसाहियं । १२८, लोभे उक्कस्तपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १२९. सम्माच्छित्ते उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १३०. सम्मत्ते उक्करसपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १३१. मिच्छत्ते उक्कस्तपदेस संतकम्मं विसे साहियं । १३२. इस्से उक्कस्तपदेस संतकम्ममणंतगुणं । -अप्रत्याख्यानावरण चूर्णि सू० - अब प्रदेशसत्कर्मसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैं। मानकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सबसे कम है । इससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण मायाकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।।११६-१२०॥ चूर्णि सू० - अप्रत्याख्यानावरण लोभकपायके उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म से प्रत्याख्यानावरण मानकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण मायाकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म विशेष अधिक है ।। १२१ - १२४॥ चूर्णिसू०[० - प्रत्याख्यानावरण लोभकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुबन्धी माकपा उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इससे अनन्तानुवन्धी कोवकपाय उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इसमे अनन्तानुबन्धी मायाकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इससे अनन्तानुबन्धी लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म विशेष अधिक है ।। १२५-१२८ ।। चूर्णिसू० - अनन्तानुवन्धी लोभके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस सम्यग्मिथ्यात्वमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सम्यक्त्वकृतिम उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । सम्यक्त्वप्रकृति के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे मिळवावप्रकृतिभे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । मिध्यात्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशने हाम्यप्रकृति उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है । ।। १२९-१३२॥ २६ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ५ प्रदेशविभक्ति १३३. रदीए उकस्तपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १३४. इत्थवेदे उकस्सपदेससंतकम्मं संखेजगुणं । १३५. सोगे उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १३६. अरदीए उक्कस्तपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १३७. गवं सयवेदे उकस्सपदेस संत कम्मं विसेसाहियं । १३८. दुर्गुछाए उकस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १३९. भए उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १४० पुरिसवेदे उक्कस्तपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १४१. को संजलणे उक्कस्तपदेस संत कम्मं संखेज्जगुणं । १४२. माणसंजलणे उकरसपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १४३. मायासंजलणे उकस्सपदेस संत कम्मं विसेसाहियं । १४४. लोभसंजलणे उकस्सपदेस संतकम्मं बिसेसाहियं । १४५. णिरयगदीए सव्वत्थोवं सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेस संतकम्मं । १४६. अपच्चक्खाणमाणे उकस्तपदेस संतकम्ममसंखेजगुणं । १४७. कोधे उक्कस्सपदेस संत कम्म विसेसाहियं । १४८. मायाए उक्कस्तपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । १४९. लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २०२ 0 चूर्णिसू० - हास्यप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे रतिप्रकृतिसे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । रतिप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे स्त्रीवेदम उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है | स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे शोकप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । शोकप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से अरतिप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अरतिप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से नपुंसकवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक हैं । नपुंसक - वेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे जुगुप्साप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । जुगुप्साप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे भयप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक हैं । भयप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे पुरुषवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । पुरुपवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनक्रोधकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । संज्वलनक्रोधकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से संज्वलनमानकपाय उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक हैं । संज्वलनमानकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से संज्वलनमायाकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । संञ्चलनमायाकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलन लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥१३३ -१४४॥ चूर्णिम् ० - नरकगतिमै सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म वक्ष्यमाण पढोकी अपेक्षा सबसे कम है । सम्यग्मिथ्यात्वसे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से अप्रत्याख्यानावरण मानकपायम उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरणमानक पायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरणकोधकपायमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरण मायापायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायाकपावकं उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अप्रत्याख्यानावरण लोभकपाय उत्कृष्ट प्रदेश विशेष अधिक है ।। ११५-१४९॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अल्पबहुत्व-निरूपण १५०. पच्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । १५१. कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १५२. मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १५३. लोभे उकस्तपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १५४. अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १५५. कोधे उक्कस्सपदेससंतकस्मं विसेसाहियं । १५६. मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १५७. लोभे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १५८. सम्मत्ते उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । १५९. मिच्छत्ते उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १६०. हस्से उकस्सपदेससंतकम्ममणंतगुणं। १६१. रदीए उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १६२. इत्थिवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्मं संखेजगुणं । १६३. सोगे उक्कस्सपदेससंतकस्मं विसेसाहियं । १६४. अरदीए उकस्सपदेससंतकम्म विसे साहियं । १६५, णवंसयवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १६६. दुगुंछाए चूर्णिसू०-अप्रत्याख्यानावरण-लोभकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरणमानकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण-मानकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण-मायाकपायमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण-मायाकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अविक है ॥१५०-१५३॥ चूर्णिसू०-प्रत्याख्यानावरण-लोभकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धीमानकपायमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । अनन्तानुबन्धी-मानकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धी-क्रोधकपायमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धीक्रोधकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुबन्धी-मायाकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी-मायाकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुबन्धी-लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ॥१५४-१५७॥ _ चूर्णिसू०-अनन्तानुबन्धी-लोभकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे सम्यक्त्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे मिथ्यात्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। मिथ्यात्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे हास्यप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणित है । हास्यप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे रतिप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । रतिप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे स्त्रीवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे शोकप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। शोकप्रकृति के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अरतिप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशमत्कर्म विशेष अधिक है । अरतिप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्ममे नपुंसकवेदमै उत्कृष्ट प्रदेशमत्कर्म विशेष अधिक है । नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे जुगुप्साप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १६७. भए उकस्सपदेसमंतकम्मं विसेसाहियं । १६८. पुरिसवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्यं विसे साहियं । १६९. माणसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १७०. कोधसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १७१. मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंतसम्म विसेसाहियं । १७२. लोभसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १७३. एवं सेसाणं गदीणं णादूण णेदव्यं । १७४. एई दिएसु सव्यत्थोवं सम्मत्ते उकस्सपदेससंतकम्मं । १७५. सम्मामिच्छत्ते उकस्सपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । १७६. अपञ्चक्खाणमाणे उक्कस्तपदेससंतकम्मपसंखेजगुणं । १७७. कोहे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १७८. मायाए उकस्सपदेससंतसम्मं विसेसाहियं । १७९. लोभे उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । १८०. पच्चस्खाणमाणे उस्कस्सपदेससंतकस्मं विसेसाहियं । १८१. कोहे उक्कस्सपदेससंतकम्यं विसेसाहियं । १८२. मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । अधिक है । जुगुप्साप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे भयप्रकृतिम उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । भयप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे पुरुषवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे विशेष अधिक है ।।१५८-१६८॥ चूर्णिमू०-पुरुपवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनमानमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ।- संज्वलनमानके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । संज्वलनक्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे संचलनमायाम उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। संज्वलनमायाके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्ममे संज्वलनलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । इसी प्रकारसे शेषगतियों का अल्पबहुत्व जान करके लगाना चाहिए ।। १६९-१७३।। चूर्णिम् ०-एकेन्द्रियोमे सम्यक्त्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदशसत्कर्म वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसन्कर्म असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म मे अप्रत्याख्यानावरणमानकपायमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । अप्रन्याख्यानावरण-मानकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरण-क्रोधकपायमै उत्कृष्टप्रदंशयकर्म विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण-क्रोधकपायके उत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरण-मायाकपायमै उत्कृष्टप्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण-मायाकपायके उत्कृष्टप्रदेशमकर्ममे अप्रत्याख्यावरण लोभकयायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥१७४-१७९॥ चूर्णिसू ०-अप्रत्याख्यानावरण-लोभकपायक उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण मानकयायमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण-मानकमायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण-क्रोचकपायमै उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण काधकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण-मायाकपायमै उत्कृष्ट प्रदेशमन्कर्ग विशेष Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति अल्पवहुत्व-निरूपण १८३. लोभे उस्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १८४. अणंताणुवंधिमाणे उक्कस्तपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १८९. कोहे उक्कस्सपदेससंतकरमं विसेसाहियं । १८६. मायाए उक्झस्सपदेससंतकस्मं बिसेसाहियं । १८७. लोभे उक्कस्तपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १८८. मिच्छत्ते उक्कल्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १८९. हस्से उक्सस्स. पदेससंतकम्ममणंतगुणं। १९०. रदीए उक्करसपदेमसंतकम्मं विसेसाहियं । १९१. इत्थिवेदे उक्कस्सपदेससंतकस्मं संखेज्जगुणं । १९२. सोगे उक्कस्सपदेससंतसम्म विसेसाहियं । १९३. अरदीए उकस्सपदेससंतकस्मं विसेसाहियं १९४. णयुसयवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १९५. दुगुंछाए उकस्तपदेससंतकम विसेसाहियं । १९६. भए उक्झस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १९७. पुरिसवेदे उक्करमपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १९८. माणसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १९९. कोहे उवकरसअधिक है । प्रत्याख्यानावरण-मायाकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण-लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ॥१८०-१८३॥ चूर्णिमू०-प्रत्याख्यानावरण-लोभकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धीमानकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मानकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धी क्रोधकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। अनन्तातुवन्धी क्रोधकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धी मायाकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायाकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मल अनन्तानुवन्धी लोभकपायमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥ १८४ १८७॥ चूर्णिसू ०-अनन्तानुवन्धी-लोभकपायके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्ममे मिथ्यात्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । मिथ्यात्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म ने हास्यप्रकृतिले उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है। हास्यप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे रतिप्रकृतिसे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विरोप अधिक है । रतिप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे स्त्रीवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे शोकप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । शोकप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे अरतिप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। अरतिप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे नपुंसकवेदमे उत्कृष्ट प्रशसत्कर्म विशेष अधिक है। नपुंसकवेदक उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मने जुगुप्साप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । जुगुप्साप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे भयप्रकृतिम उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विनय अधिक है । भयप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे पुरुषवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशामत्कर्म विशेष अधिक है ॥१८८-१९७॥ चूर्णिम०-पुरुपवेटके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मग मम्वलनमानमे उन्ष्ट प्रदंगमर्म Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ प्रदेशविभक्ति पदेस संत कम्मं विससाहियं । २०० मायाए उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २०१. लोहे उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसे साहियं । २०२. जहण्णदंडओ ओघेण सकारणों भणिहिदि । २०३. सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहणपदेससंतकम्मं । २०४. सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेस संत कम्ममसंखेज्जगुणं । २०५. केण कारणेण १२०६. सम्पत्ते उच्चेलिलदे सम्मामिच्छत्त' जेण कालेण उन्बेल्लेदि एदम्मि काले एक्कं पि पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं णत्थि एदेण कारणेण । २०७. अनंताणुवंधिमाणे जहण्णपदेस संतकम्ममसंखेज्जगुणं । २०८. कोहे जहण्णपदेस संत कम्मं विसेसाहियं । २०९. मायाए जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २१०. लोभे जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २११. मिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २१२. अपचक्खाणमाणे जहण्णपदेस संतकम्ममसंखेज्जगुणं । २१३. कोहे विशेष अधिक है । संज्वलनमानके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से संज्वलनक्रोध से उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । संज्वलनक्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से संज्वलनमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । संज्वलनमाया के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म से संज्वलनलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है | १९८-२०१॥ - सम्यक्त्व चूर्णिसू० (० - अब ओधकी अपेक्षा जधन्य अल्पबहुत्वदंंडकको सकारण कहेगेप्रकृतिमे जघन्य प्रदेश सत्कर्म वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । सम्यक्त्व प्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे सम्यग्मिथ्यात्वमे जघन्य प्रदेश सत्कर्म असंख्यातगुणा है । २०२-२०४ ॥ शंकाचू ० - इसका क्या कारण है ? || २०५ || समाधानचू ० - इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति के उद्वेलना कर देने पर तदनन्तर जिस कालसे सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करेगा, उस कालमे एक भी प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर नही पाया जाता ॥ २०६॥ चूर्णि सू० - सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य प्रदेशसत्कर्म से अनन्तानुवन्धी-मानकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी- मानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्म से अनन्तानुबन्धीक्रोधकषायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी- क्रोधकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुबन्धी- मायाकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । अनन्तानुबन्धीमायाकपायसे अनन्तानुबन्धी-लोभकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अनन्तानुवन्धी-लोभकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे मिध्यात्वप्रकृतिमं जघन्य प्रदेशसत्कर्म अमंख्यातगुणा है || २०७-२११॥ चूर्णिसू ० - मिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरण- मानकपायमै जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । अमलाख्यानावरण- मानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मने अप्रत्याख्यानावरण- क्रोधकपायमे जयन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अल्पवहुत्व-निरूपण २०७ जहण्णपदससंतकम्मं विसेसाहियं । २१४. मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २१५. लोभे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २१६. पञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २१७. कोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २१८. मायाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । २१९. लोभे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २२०, कोहसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्ममणंतगुणं । २२१. माणसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २२२. पुरिसवेदे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २२३. मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २२४. णबुंसयवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं। २२५. इत्थिवेदस्स जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २२६. हस्से जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २२७. रदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २२८. सोगेजहण्णपदेससंतकम्म संखेज्जगुणं । २२९. अरदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । क्रोधकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरण-मायाकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण-मायाकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरणलोभकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ॥२१२-२१५॥ चूर्णिसू०-अप्रत्याख्यानावरणलोभके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरणमानकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानावरण-मानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कमसे प्रत्याख्यानावरण-क्रोधकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानावरणक्रोधकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण-मायाकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणमायाकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरणलोभकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥२१६-२१९॥ चूर्णिसू०-प्रत्याख्यानावरण-लोभकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनक्रोधमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है। संज्वलनक्रोधके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनमानमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। संज्वलनमानके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे पुरुपवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। पुरुपवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनमायाम जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। संज्वलनमायाके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे नपुंसकवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ॥२२०-२२४॥ चूर्णिसू०-नपुंसकवेदक जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे स्त्रीवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे हास्यप्रकृतिम जघन्य प्रगसत्कर्म असण्यातगुणा है । हास्यप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे रतिप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विरोप अधिक है। रतिप्रकृतिके जघन्यप्रदेशसत्कर्मसे शोकप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म नंग्यातगुणा है। शोकप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अरतिप्रकृतिग जघन्य प्रामवर्ग विशेष अधिक। अरनि Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कसाय पाहुड सुन्त [ ५ प्रदेशविभक्ति २३०. दुर्गुछाए जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २३१. भए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २३२. लोभसंजलणे जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २३३. रिगईए सव्वत्थोवं सम्पत्ते जहण्णपदेसतकम्मं । २३४ सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेस संत कम्ममसंखेज्जगुणं । २३५. अनंताणुर्वधिमाणे जहण्णपदेस संतकम्ममसंखेज्जगुणं । २३६. कोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २३७. मायाए जहण्णपदेस संतक विसेसाहियं । २३८, लोभे जहण्णपदे ससंतकम्मं विसेसाहियं । २३९. मिच्छते जहण्ण पदे ससंत कम्पमसंखेज्जगुणं । २४०. अपच्चक्खाणमाणे जण दे ससंतकम्पमसंखेज्जगुणं । २४१. कोहे जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २४२. मायाए जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २४३. लोभे जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २४४. पच्चक्खाणमाणे जहण्णवदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २४५. कोहे जहण्णप्रकृतिके जघन्य प्रदेश सत्कर्म से जुगुप्साप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । जुगुप्साप्रकृति के जघन्य प्रदेशसत्कर्म से भयप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । भयप्रकृति के जघन्य प्रदेशसत्कर्म से संज्वलनलोभमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।। २२५-२३२।। चूर्णिम् ० - नरकगतिमे सम्यक्त्वप्रकृतिमे जघन्य प्रदेश सत्कर्म वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । सम्यक्त्वप्रकृति के जघन्य प्रदेशसत्कर्म से सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमे जघन्य प्रदेश - सत्कर्म असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुबन्धी मानकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धी क्रोधकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक हैं । अनन्तानुबन्ध क्रोधकपाय के जघन्य प्रदेशसत्कर्म से अनन्तानुवन्धी मायाकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । अनन्तानुवन्धी मायाकपायके जवन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धी लोभकपायमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है || २३३-२३८।। चूर्णिमू० - अनन्तानुवन्धी लोभकपायके जघन्य प्रदेश सत्कर्म से मिध्यात्वन कृतिमं जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । मिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्म से अप्रत्याख्यानावरणमानकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण- मानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरण- क्रोधकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण को वकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरणमायाकपायसे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण मायाकपायके जघन्य प्रदेश अप्रत्या स्यानावरण लोभकपाय जवन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥२३९-२४३।। [० - अप्रत्याख्यानावरण लोभकपायके जघन्य प्रदेशसामने प्रत्याख्यानावरणमाकपाय जघन्य प्रदेशमत्कर्म विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणमानकपायके जघन्य चूर्णिस् Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-अल्पवहुत्व-निरूपण २०९ पदेससंतकम्म विसेसाहियं । २४६. मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २४७. लोभे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २४८. इत्थिवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममणंतगुणं । २४९. णबुसयवेदे जहण्णपदेससंतकमां संखेज्जगुणं । २५०. पुरिसवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २५१. हस्से जहण्णपदेससंतकम्मं संखेज्जगुणं । २५२. रदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २५३. सोगे जहण्णपदेससंतकम्मं संखेज्जगुणं । २५४. अरदीए जहण्णपदेससंतकमां विसे साहियं । २५५. दुगुंछाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २५६. भए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।। २५७. माणसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २५८. कोहसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २५९. मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं। २६०. लोहसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २६१.जहा णिरयगईए तहा सव्वासु गईसु ।२६२.णवरि मणुसगदीए ओघं। प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणक्रोधकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण मायाकपायम जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायाकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरण लोभकषायमे जधन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥२४४-२४७॥ चूर्णिम् ०-प्रत्याख्यानावरण लोभकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे स्त्रीवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है । स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे नपुंसकवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे पुरुषवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। पुरुपवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे हास्यप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है। हास्यप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे रतिप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। रतिप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे शोकप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । शोकप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्ममे अरतिप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । अरतिप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे जुगुप्साप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। जुगुप्साप्रकृतिके जवन्य प्रदेशसत्कर्मसे भयप्रकृतिमे जवन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥२४८-२५६॥ चूर्णिसू०-भयप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संचलनमानमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। संज्वलनमानके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संचलनक्रोधमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । संज्वलनकोधके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संचलनमायाम जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । संज्वलनमायाके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनलोभम जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। ॥२५७-२६०॥ चूर्णिम०-जिस प्रकारने नरकगतिमे जघन्य प्रदेशसकर्मसम्बन्धी अल्पबाब का २७ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० कसाय पाहुड लुत्त [५ प्रदेशविभक्ति २६३. एइंदिएसु सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहण्णपदेससंतकम्मं । २६४. सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २६५. अणंताणुवंधिमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २६६. कोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २६७. मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २६८. लोभे जहण्णपदेससंतकस्मं विसेसाहियं । २६९. मिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २७०. अपच्चरखाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २७१. कोधे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २७२. मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २७३. लोभे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । २७४. पञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २७५. कोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २७६. मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २७७, लोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । है, उसी प्रकारसे सर्व गतियोमे जानना चाहिए । केवल मनुष्यगतिमे ओघके समान अल्पवहुत्व है ॥२६१-२६२।। चूर्णिसू०-एकेन्द्रियोमे सम्यक्त्वप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म वक्ष्यमाण सर्व पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । सम्यक्त्वप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धीमानकषायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धीमानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुबन्धीक्रोधकषायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धीक्रोधकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुबन्धीमायाकषायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। अनन्तानुबन्धीमायाकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तानुवन्धीलोभकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ॥२६३-२६८॥ चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धीलोभकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे मिथ्यात्वप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरणमानकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरणमानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकपायम जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्भसे अप्रत्याख्यानावरणमायाकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणमायाकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे अप्रत्याख्यानावरणलोभकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ॥२६९-२७३।।। चूर्णिसू०-अप्रत्याख्यानावरणलोभकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरणमानकपायमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानावरणमानकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरणक्रोधकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशंप अधिक है । प्रत्याख्यानावरणक्रोधकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे प्रत्याख्यानावरणमायाकपायम जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणमायाकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्ममे प्रत्याख्याना Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति अल्पवहुत्व-निरूपण २७८. पुरिसवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममणंतगुणं । २७९. इत्थिवेद जहण्णपदससंतकम्मं संखेज्जगुणं । २८०. हस्से जहण्णपदेससंतकम्मं संखेज्जगुणं। २८१. रदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २८२. सोगे जहण्णपदेससंतकम्मं संखेज्जगुणं । २८३. अरदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २८४. णवंसयवेदे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । २८५. दुगुंछाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । २८६. भए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २८७. माणसंजलणे जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २८८. कोहसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । २८९. मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्पं विसेसाहियं । २९०. लोभसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २९१. एत्तो भुजगारं पदणिक्खेव-बड्डीओ च कायबाओ। वरणलोभकपायमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥२७४-२७७॥ चूर्णिसू०-प्रत्याख्यानावरणलोभकपायके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे पुरुपवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है । पुरुपवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे स्त्रीवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे हास्यप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । हास्यप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे रतिप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । रतिप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे शोकप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । शोकप्रकृतिके जवन्यप्रदेशसत्कर्मसे अरतिप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। अरतिप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे नपुंसकवेदमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे जुगुप्साप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है। जुगुप्साप्रकृतिके जघन्यप्रदेशसत्कर्मसे भयप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ॥२७८-२८६॥ चूर्णिसू०-भयप्रकृतिके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनमानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । संज्वलनमानके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनक्रोधमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । संज्वलनक्रोधके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनमायामे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है । संज्वलनमायाके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे संज्वलनलोभमे जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेप अधिक है ॥२८७-२९०॥ चूर्णिसू०-अब इसमे आगे मुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा करना चाहिए ॥ २९१ ॥ विशेपार्थ-भुजाकार-अनुयोगद्वारमे भुजाकार, अल्पतर और अवस्थितस्प प्रदेश. सत्कर्मका विचार किया गया है। जो जीव विवक्षित कर्मके अन्य प्रदेशसत्कर्ममे अधिक प्रदेशसत्कर्मको प्राप्त हो, वह भुजाकार-प्रदेशविभक्तिवाला है । जो जीव अधिक प्रदेगनकर्मसे अल्प-प्रदेशसत्कर्मको प्राप्त हो, वह अल्पतर-प्रदेशविभक्तिवाला है। जिम जीवके विवक्षिन ho the Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कसाय पाहुड सुत्त [५ प्रदेशविभक्ति २९२. जहा उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं तहा संतकम्मट्ठाणाणि । __एवं पदेसविहत्ती समत्ता कर्मका प्रदेशसत्कर्म प्रथम समयके समान द्वितीय समयमें भी वना रहे, वह अवस्थित-प्रदेशविभक्तिवाला है । जिस जीवके विवक्षितकर्मका पहले प्रदेशसत्कर्म न होकर वर्तमान समयमे नवीन प्रदेशसत्कर्म हो, वह अवक्तव्य-प्रदेशविभक्तिवाला है। भुजाकार-प्रदेशविभक्तिमें इन सबका विस्तृत विवेचन समुत्कीर्तना, स्वामित्व आदि तेरह अनुयोगद्वारोसे किया गया है। पदनिक्षेप-अधिकारमे भुजाकार-प्रदेशसत्कर्मोंका ही उत्कृष्ट और जघन्य पदोके द्वारा वृद्धि-हानि और अवस्थानका विशेप वर्णन किया गया है । इस अधिकारमे यह बतलाया गया है कि कोई जीव यदि विवक्षित कर्मका प्रथम समयमे अमुक प्रदेशसत्कर्मवाला हो, तो अधिकसे अधिक उसके प्रदेशसत्कर्ममे कितनी वृद्धि हो सकती है और कमसे कम कितनी वृद्धि हो सकती है । इसी प्रकार यदि कोई जीव वर्तमान समयके प्रदेशसत्कर्मसे अनन्तरवर्ती द्वितीय समयमें अल्पप्रदेश सत्कर्मवाला हो, तो उसके सत्कर्ममे अधिकसे अधिक कितनी हानि हो सकती है और कमसे कम कितनी हानि हो सकती है । यदि समान प्रदेशसत्कर्म वना रहे, तो कितने समय तक बना रहेगा, इस सबका विचार इस अधिकारमे समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पवहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारोसे किया गया है । वृद्धि अधिकारमे पदनिक्षेपका ही पड्गुणी वृद्धि और हानिके द्वारा प्रदेशसत्कर्म-सम्बन्धी विशेष विचार समुत्कीर्तनादि तेरह अनुयोगद्वारोसे किया गया है, सो विशेष जिज्ञासु जनोको जयधवला टीकाके अन्तर्गत उच्चारणावृत्तिसे जानना चाहिए । चूर्णिसू०-जिस प्रकार स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोसे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका निरूपण किया गया है, उसी प्रकारसे प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी भी प्ररूपणा करना चाहिए ॥२९२।। विशेपार्थ-चूर्णिकारने प्रदेशसत्कर्मके स्वामित्वका वर्णन करते हुए प्रदेशसत्कर्मस्थानोका भी निरूपण किया है, अतएव वे प्रदेशविभक्ति-अधिकारकी समाप्ति करते हुए उसके अन्तमे प्रदेशसत्कर्मस्थानोके वर्णन करनेकी भी सूचना उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्योंको कर रहे है । प्रदेशसत्कर्मस्थानोका वर्णन प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्वसे किया गया है । कर्मोंके जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान तकके सर्व शानोका निरूपण प्ररूपणा-अनुयोगद्वारमे किया गया है। प्रमाण-अनुयोगद्वारमै वतलाया गया है कि प्रत्येक फर्मके प्रदेशसत्कर्मस्थान अनन्त होते हैं। प्रदेशसत्कर्मस्थानोका अल्पवहुत्व पूर्व प्ररूपित उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके अल्पबहुत्वके समान ही जानना चाहिए । अर्थात् जिस कर्मके प्रदेशाय विशेष अधिक होते हैं, उस कर्मके सत्कर्मस्थान भी विशेप अधिक होते हैं। संख्यातगुणित प्रदेशाग्रवाले कर्मके सत्कर्मस्थान संख्यातगुणित, असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रवाले कर्मके सत्कर्मस्थान असंख्यातगुणित और अनन्तगुणित प्रदेशाग्रवाले कर्मके सत्कर्मस्थान अनन्तगुणित हात है। इस प्रकार प्रदेशविभक्ति समाप्त हुई । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झीणाझीणाहियारो १. एतो झीणमझीणं ति पदस्स विहासा कायव्वा । २. तं जहा ३. अस्थि ओकणादो झीणट्ठिदियं, उकडणादो झीणट्ठिदियं, संकमणादो झीणडिदियं, उदयादो झट्ठिदि । क्षीणाक्षीणाधिकार चूर्णिसू० - अब इससे आगे चौथी मूलगाथा के 'झीणमझीणं' इस पकी विभापा करना चाहिए | वह इस प्रकार है: - कर्मप्रदेश अपकर्षणसे क्षीणस्थितिक है, उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक है, संक्रमणसे क्षीणस्थितिक हैं और उदयसे क्षीणस्थितिक है ॥१-३॥ विशेषार्थ- परिणामविशेषसे कर्म - प्रदेश की अधिक स्थितिके हस्व या कम करनेको अपकर्पण कहते है । कर्मप्रदेशो की लघु स्थिति के परिणामविशेपसे बढ़ानेको उत्कर्पण कहते है । एक प्रकृति के प्रदेशको अन्य प्रकृतिरूप परिणमानेको संक्रमण कहते हैं । कर्मों के यथासमय फल- प्रदान करनेको उदय कहते है । जिस स्थितिमे स्थित कर्म-प्रदेशाम अपकर्षणके अयोग्य होते है, उन्हे अपकर्पणसे क्षीणस्थितिक कहते है और जिस स्थितिमे स्थित कर्म-प्रदेशा अपकर्षण के योग्य होते हैं, उन्हे अपकर्पणसे अक्षीणस्थितिक कहते है । इसी प्रकार जिस स्थितिके कर्म-परमाणु उत्कर्पणके अयोग्य होते है, उन्हें उत्कर्षणसे क्षीणस्थितिक और उत्कर्पण के योग्य कर्म - परमाणुओको उत्कर्पणसे अक्षीणस्थितिक कहते है । संक्रमणके अयोग्य कर्मपरमाणुओको संक्रमणसे क्षीणस्थितिक और संक्रमणके योग्य कर्म - परमाणुओको संक्रमणसे अक्षीणस्थितिक कहते है । जिस स्थितिमे स्थित कर्म - परमाणु उदयसे निर्जीर्ण हो रहे है, उन्हे उदयसे क्षीणस्थितिक कहते है और जो उदयके योग्य है, अर्थात् आगे निर्जीर्ण होगे, ॐ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्र के अनन्तर 'समुक्कित्तणा परूवणा समित्तमप्पाचहुअं चेदि' यह एक और सूत्र मुद्रित है (देखो पृ० ८७६) । पर प्रकृत स्थलको देखते हुए यह सूत्र नहीं, अपितु जयधवला टीकाका ही अश है यह स्पष्ट ज्ञात होता है । ताडपत्रीय प्रतिमे भी इसके सूत्रत्वकी पुष्टि नहीं हुई है। १ ओक्ड्डणा णाम परिणामविसेसेण कम्मपदेसाण ट्ठिदीए दहरीकरण । तदो झीणा अप्पा ओग्गभावेण वहिदा हिंदी जस्स पदेसग्गस्स त ओक्डुगादो झीगहिदिय सव्वकम्माणमत्थि । अवा ओक्टुणादो सोणा परिहीणा जाहिदी त गच्छदित्ति ओकट्टणादो झणहिदिगमिदि समामो वायव्वो । एवमुवर सव्वत्थ । दद्दरर्राट्ठदिट्ठिदपदेसग्गाण ट्रिटदीए परिणामविसेसेण वद्रावण उपट्टणा णाम । तत्तो झीणा दिदी जस्सत पदेसग्गं सव्यपयडीणमत्थि । सकमादो समयाविरोहेण एयपर्यटपिटेसाण अष्णदयटि परिणमणक्पणादो क्षीणा ट्ठिदी जस्स त पि पदेसग्गमत्थि सन्धेमि कम्माण | उदयादो कम्मा प दाणपणादो शीणा टिठदी जस्स पढेसग्गम्म त च सव्वकम्माणमत्थि नि । जयध ין Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ कसाय पाहुड सुत्त [६ क्षीणाक्षीणाधिकार ४. ओकड्ड णादो झीणद्विदियं णाम किं ? ५. जं कम्ममुदयावलियम्भंतर द्वियं तमोकड्डणादो झीणहिदियं । जमुदयावलियबाहिरे द्विदं तमोकड्डणादो अज्झीणद्विदियं । ६. उक्कड्डणादो झीणहिदियं णाम किं ? ७. जं ताव उदयावलियपविटुं तं ताव उक्कड्डणादो झीणद्विदियं । ८. उदयावलियवाहिरे वि अत्थि पदेसग्गमुक्कड्डणादो झीणद्विदियं । तस्स णिदरिसणं। तं जहा । ९. जा समयाहियाए उदयावलियाए द्विदी, एदिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तमादिटुं' । १०. तस्स पदेसग्गस्स जइ समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी बिदिकता बद्धस्स तं कम्मं ण सक्का उक्कड्डिदु । ११. तस्सेव पदेसग्गस्स जइ वि दुसमयाहियाए आवलियाए अणियाए कम्महिदी विदिकंता तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदियं । १२. एवं गंतूण जदि वि जहणियाए आवाहाए अणिया कम्मद्विदी विदिकंता तं पि उक्कड्डणादो झीणद्विदियं । उन्हें उदयसे अक्षीणस्थितिक कहते है। मोहनीयकर्मकी किस प्रकृतिके कर्मप्रदेश उत्कर्पण आदिके योग्य हैं, अथवा योग्य नहीं है, इसका निर्णय इस क्षीणाक्षीणाधिकारमे किया जायगा। शंकाचू०---कौनसे कर्म-प्रदेश अपकर्षणसे क्षीणस्थितिक हैं ? ॥४॥ समाधानचू०-जो कर्म-प्रदेश उदयावलीके भीतर स्थित हैं, वे अपकर्पणसे क्षीणस्थितिक हैं । जो कर्म-प्रदेश उदयावलीके वाहिर स्थित हैं, वे अपकर्पणसे अक्षीणस्थितिक विशेषार्थ-उदयावलीके भीतर जो कर्म-प्रदेश स्थित है, उनकी स्थिति का अपकर्पण नहीं हो सकता है, किन्तु जो कर्म-प्रदेश उदयावलीके वाहिर अवस्थित है, वे अपकर्पणके प्रायोग्य हैं, अर्थात् उनकी स्थितिको घटाया जा सकता है । शंकाचू०-कौनसे कर्म-प्रदेश उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक हैं ? समाधानचू०-जो कर्म-प्रदेश उदयावलीमे प्रविष्ट हैं, वे उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक है। किन्तु जो कर्म-प्रदेशाग्र उदयावलीसे वाहिर भी अवस्थित है, वे भी उत्कर्पणसे क्षीणास्थितिक होते है । इसका निदर्शन ( उदादरण ) इस प्रकार है ॥७-८॥ चूर्णिमू०-एक समय-अधिक उदयावलीके अन्तिम समयमे जो स्थिति अवस्थित है, उस स्थितिके जो प्रदेशाग्र हैं, वे यहॉपर आदिष्ट अर्थात् विवक्षित हैं। उस कर्म-प्रदेशाग्रकी यदि बंधनेके समयमे लेकर एक समयाधिक आवलीसे कम कर्मस्थिति व्यतीत हुई है, तो उस कर्म-प्रदेशाग्रका उत्कर्पण नहीं किया जा सकता है। उस ही कर्म-प्रदेशाग्रकी यदि दो समयसे अधिक आवलीसे कम कर्मस्थिति व्यतीत हुई है तो वह भी उत्कर्षणसे क्षीणस्थितिक है, अर्थात् उस कर्मप्रदेशाप्रका भी उत्कर्पण नहीं किया जा सकता । इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते हुए यदि जघन्य आवाधासे कम कर्मस्थिति व्यतीत हुई है, तो वह कर्म-प्रदेशाग्र भी उत्कर्पणमे क्षीणस्थितिक है, अर्थात उसका भी उत्कर्पण नहीं किया जा सकता ॥९-१२॥ आदिट विवक्खियमिदि| जयघ० Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ गा० २२] क्षीण-अक्षीणस्थितिक-अर्थपद-निरूपण १३. समयुत्तराए उदयावलियाए तिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तस्स पदेसग्गरस जइ जहणियाए आवाहाए समयुत्तराए अणिया कम्महिदी विदिकंता तं पदेसग्गं सक्का आगाधामेत्तमुक्कड्डिदुमेकिस्से द्विदीए णिसिंचिदु। १४. जइ दुसमयाहियाए आवाहाए ऊणिया कम्महिदी विदिकंता, तिसमयाहियाए वा आवाहाए ऊणिया कम्महिदी विदिकंता, एवं गंतूण वासेण वा वासपुधत्तेण वा सागरोवमेण वा सागरोवमपुधत्तेण वा ऊणिया कम्मट्टिदी विदिक्कता तं सव्वं पदेसग्गं उक्कड्डणादो अज्झीणहिदियं । चूर्णिसू०-समयोत्तर उदयावलीमे, अर्थात् एक समय-अधिक उदयावलीके अन्तिम समयमे जो स्थिति अवस्थित है, उस स्थितिके जो प्रदेशाग्र है, उस प्रदेशाग्रकी यदि समयाधिक जघन्य आवाधासे कम कर्मस्थिति बीत चुकी है, तो जघन्य आवाधाप्रमाण प्रदेशाप्रका उत्कर्पण किया जा सकता है और उसे उपरिम-अनन्तर एक स्थितिमे निपिक्त किया जा सकता है । यदि उस कर्म-प्रदेशाग्रकी दो समय-अधिक आवाधासे कम कर्मस्थिति वीत चुकी है, अथवा तीन समय-अधिक आवाधासे कम कर्मस्थिति वीत चुकी है, इस प्रकार समयोत्तर वृद्धिक क्रमसे आगे जाकर वर्पसे, या वर्पपृथक्त्वसे, या सागरोपमसे, या सागरोपमपृथक्त्वसे, कम कर्मस्थिति व्यतिक्रान्त हो चुकी है, सो वह सर्व कर्म-प्रदेशाग्र उत्कर्पणसे अक्षीण-स्थितिक है, अर्थात् उनका उत्कर्पण किया जा सकता है और अनन्तर-उपरिम स्थितिमे उसे निपिक्त भी किया जा सकता है ॥१३-१४॥ विशेषार्थ-किसी भी विवक्षित कर्मके बंधनेके पश्चात् जब तक उसका कमसे कम जघन्य आवाधाकाल व्यतीत न हो जाय, तबतक उसका उत्कर्पण नही किया जा सकता है। एक समय अधिक जघन्य आवाधाकालके व्यतीत होनेपर उसका उत्कर्पण किया जा सकता है और उसे अनन्तर स्थितिमे निषिक्त भी किया जा सकता है। इसी बातको स्पष्ट करते हुए चूर्णिकारने बतलाया कि इस प्रकार एक-एक समय अधिक करते हुए जिस कर्मप्रदेशाप्रकी स्थिति वर्ष-प्रमाण बीत चुकी हो, वर्ष-पृथक्त्वप्रमाण बीत चुकी हो, अथवा शतवर्ष, सहस्र वर्प, लक्ष वर्ष, सागरोपम, सागरोपम-पृथक्त्व, गत सागरोपम, या सहस्र सागरोपम, या लक्ष सागरोपम, या कोटिसागरोपम, या कोटिपृथक्त्व सागरोपम, या अन्तः कोडाकोड़ी-पृथक्त्व सागरोपम भी व्यतीत हो चुकी हो, फिर भी उस कर्मकी जो स्थिति अवशिष्ट रही है, वह उत्कर्पणके योग्य है, क्योकि उसकी आवाधाप्रमाण अतिस्थापना भी संभव है और एक समय अधिकसे लेकर बढ़ते हुए समयाधिक आवली और उत्कृष्ट आवाधासे कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमित निक्षेप भी संभव है। इस प्रकार उदय-स्थितिसे पूर्व कालमे ये हुए कर्म-प्रदेशांका उत्कर्पणके योग्यअयोग्य भाव बतलाकर अब उदयस्थितिमे उत्तर कालमे बँधनेवाले नयकबद्ध समयप्रबद्धोके प्रदेशाग्रोके उत्कर्पणके योग्य-अयोग्यभावका निम्पण करते - Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [६ क्षीणाक्षीणाधिकार १५. समयाहियाए उदयावलियाए तिस्से चेव द्विदीए पदेसग्गस्स एगी समओ पवद्धस्स अइच्छिदो त्ति अवत्थु, दो समया पबद्धस्स अइच्छिदा त्ति अवत्थु, तिण्णि समया पद्धस्स अइच्छिदा त्ति अवत्थु, एवं णिरंतरं गंतूण आवलिया पबद्धस्स अइच्छिदा त्ति अवत्थु । १६. तिस्से चेव हिदीए पदेसग्गस्स समयुत्तरावलिया बद्धस्म अइच्छिदा त्ति एसो आदेसो' होज । १७. तं पुण पदेसग्गं कम्महिदि णो सक्का उक्कड्डिदु, समयाहियाए आवलियाए ऊणियं कम्महिदि सक्का उक्कड्डिदु। १८. एदे वियप्पा जा समयाहिय-उदयावलिया, तिस्से द्विदीए पदेसग्गस्स । १९. एदे चेय वियप्पा अपरिसेसा जा दुसमयाहिया उदयावलिया, तिस्से द्विदीए पदेसग्गस्स । २०. एवं तिसमयाहियाए चदुसमयाहियाए जाच आवाधाए आवलियूणाए एवदिमादो त्ति । २१. आवलियाए समयूणाए ऊणियाए आवाहाए एवदिमाए द्विदीए जं पदेसग्गं तस्स के वियप्पा ? २२. जस्त पदेसग्गस्स* समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता तं पि पदेसग्गमेदिस्से द्विदीए णत्थि । २३. जस्स चूर्णिसू०-जो पूर्वमे आदिष्ट अर्थात् विवक्षित समयाधिक उदयावलीकी अन्तिम स्थिति है, उस ही स्थितिके प्रदेशाग्रका बंधने के समयसे यदि एक समय अतिक्रान्त हुआ है, तो वह अवस्तु है, अर्थात् उसके प्रदेशाग्र इस विवक्षित स्थितिमे नहीं है। यदि दो समय वन्धकालसे व्यतीत हुए है, तो वह भी अवस्तु है । इस प्रकार निरन्तर आगे जाकर यदि वन्धकालसे एक आवली व्यतीत हुई है, तो वह भी अवस्तु है, अर्थात् तत्प्रमाण कर्मप्रदेशाग्रोका उत्कर्पण नहीं किया जा सकता है । यदि उस ही विवक्षित स्थितिके प्रदेशाग्रकी वन्धकालसे आगे समयाधिक आवली व्यतीत हुई है, तो वह आदेश होगी, अर्थात् उसके कर्म-प्रदेशाग्रोका विवक्षित स्थितिमे वस्तुरूपसे अवस्थित होना सम्भव है। यदि वह प्रदेशाग्र कर्मस्थिति प्रमाण हैं, तो उनका उत्कर्पण नही किया सकता है । और यदि समयाधिक आवलीसे कम कर्मस्थितिप्रमाण है, तो उनका उत्कर्पण किया जा सकता है । जो समयाधिक उदयावली है, उसकी स्थितिके कर्मप्रदेशाग्रके ये सव विकल्प है । जो द्विसमयाधिक उदयावली है, उसकी स्थितिके कर्मप्रदेशाग्रके भी ये सब सम्पूर्ण विकल्प जानना चाहिए । इस प्रकार त्रिसमयाधिक, चतुःसमयाधिकसे लगाकर एक आवलीसे कम आवाधाकाल तक ये सर्व विकल्प जानना चाहिए ॥ १५-२० ।। शंकाचू०-एक समय-कम आवलीसे हीन आवाधाकी इस मध्यवर्ती स्थितिम जो कर्म-प्रदेशाग्र है, उसके कितने विकल्प हैं ॥२१॥ समाधानचू०-जिस प्रदेशाग्रकी समयाधिक आवलीसे कम कर्मस्थिति बीत चुकी १ आदिश्यत इत्यादेशो विवक्षितस्थिती वस्तुरूपेणावस्थितः प्रदेश आदेश इति यावत् । जयध० ६ ताम्रपत्रवालो प्रतिमें 'पदेसग्गस्स' पद नहीं है, पर पूर्वापर सन्दर्भको देखते हुए यह पद होना चाहिए । ( देखो पृ० ८८४) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] क्षीण अक्षीणस्थितिक अर्थपद-निरूपण ૨૭ पदेसग्गस्स दुसमयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्मट्ठिदी विदिक्कता तं पित्थ । २४. एवं गंतूण जदेही एसा ट्ठिदी एत्तिएण ऊणा कम्मट्ठिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तमेदिस्से द्विदीए पढ़ेसग्गं होज, तं पुण उकडणादो झीणडिदियं । २५. एवं ट्टिदिमादि काढूण जाव जहण्णियाए आवाहाए एत्तिएण ऊणिया कम्मडिदी विदिकता जस्स पदेसग्गस्स तं पि पदेसग्गमेदिस्से द्विदीए होज । तं पुण सव्यमुक्कड्डणादो झीणडिदियं । २६. आवाधार समयुत्तराए ऊणिया कम्पट्ठिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तं पि एदिस्से द्विदीए पदेसग्गं होअ । तं पुण उकडणादो झीणडिदियं । २७. तेण परमज्झीणट्ठिदियं । २८. समघृणाए आवलियाए ऊणिया आवाहा, एदिस्से द्विदीए विप्पा समत्ता । २९. दादो द्विदीदो समयुत्तराए हिदीए वियप्पे मणिस्सायो । ३०. सा पुण का ट्टिदी | ३१. दुसमणाए आवलियाए ऊणिया जा आवाहा एसा साट्ठिदी । ३२. दादिस्से दिए अवत्थवियप्पा केत्तिया १ ३३. जावदिया हेडिल्लियाए द्विदीए है, वह प्रदेशा भी इस स्थितिमे नही है । जिस प्रदेश की दो समय अधिक आवलीसे हीन कर्मस्थिति बीत चुकी है, वह प्रदेशाय भी नहीं है । इस प्रकार एक एक समय अधिकके क्रमसे आगे जाकर जितनी यह स्थिति है, उससे हीन कर्मस्थिति जिस प्रदेशाग्रकी वीत चुकी है, उसका प्रदेशा इस स्थितिमे होना सम्भव है, किन्तु वह उत्कर्षणसे क्षीणस्थितिक है । इस स्थितिको आदि करके जघन्य आवाधा तक इस मध्यवर्ती स्थितिसे हीन कर्मस्थिति जिस प्रदेश की बीत चुकी है, उस प्रदेशायका भी इस स्थितिम होना सम्भव है । यह सर्व फर्म- प्रदेश उत्कर्पण से क्षीणस्थितिक है । एक समय अधिक आवाधासे हीन कर्मस्थिति जिस प्रदेशाग्रकी बीत चुकी है, उस प्रदेशायका भी इस स्थितिमे होना सम्भव है । वह प्रदेशा भी उत्कर्पण से क्षीणस्थितिक है । उससे परवर्ती प्रदेशाय अक्षीणस्थितिक जानना चाहिए । इस प्रकार एक समय कम आवलीसे हीन जो आबाधा है, उसकी स्थिति के विकल्प समाप्त हुए ।। २२-२८ ।। चूर्णिसू०- - अब इस पूर्व-निरुद्ध स्थितिसे एक समय अधिक जो स्थिति है, उसके अवस्तु - विकल्प कहेंगे ॥ २९ ॥ शंका- वह स्थिति कौन-सी है ? ॥ ३० ॥ समाधान- दो समय कम आवलीसे हीन जो आवाधा है, यही वह स्थिति है । अर्थात् उदयस्थिति से दो समय कम आवली से हीन आवाधामात्र ऊपर चलकर और आवाधा अन्तिम समयसे दो समय कम आवलीमात्र नीचे उतर कर पूर्व निरुद्ध स्थितिके ऊपर यह स्थिति अवस्थित है ॥ ३१ ॥ शंका - अब इस विवक्षित स्थितिके अवस्तु-विकल्प कितने है ? ||३२|| समाधान - जितने अनन्तर - प्ररूपित अधस्तन-स्थितिके अवस्तु-विकल्प है, उससे सत्कर्मफी अपेक्षा एक रूप अधिक विकल्प हैं ||३३|| २८ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ - कसाय पाहुड सुत्त . [ ६ क्षीणाक्षीणाधिकार अवत्थुरियप्पा तदो रूवुत्तरा संतकम्ममस्सियूण* । ३४. जद्देही एसा द्विदी तत्तियं हिदिसंतकम्मं कस्मद्विदीए सेसयं जस्स पदेसग्गस्स तं पदेसग्गदिस्से द्विदीए होज्ज । तं पुण उक्कड्ड णादो झीणहिदियं । ३५. एदादो द्विदीदो समयुत्तरहिदिसंतकम्मं कम्मद्विदीए सेसयं जस्स पदेसग्गस्स तमुक्कड्डणादो झीणहिदियं । ३६. एवं गंतूण आवाहामेत्तहिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्त एदीए द्विदीए दीसइ तं पि उक्कड्डणादो झीणहि दियं । ३७. आवाहासमयुत्तरमेत्तं हिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्स तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदियं । ३८. आपाधा दुसमयुत्तरमेत्तद्विदिसंतकम्मं कम्मद्विदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्स एदिस्से द्विदीए दिस्सइ तं पि पदेसग्गमुक्कड्डणादो झीणहिदियं । ३९. तेण परमुक्कड्डणादो अज्झीणहिदियं । ४०. दुसमयूणाए आवलियाए अणिया आवाहा एवदियाए द्विदीए वियप्पा समत्ता । ४१. एत्तो समयुत्तराए हिदीए वियप्पे भणिस्सायो । ४२. एत्तो पुण द्विदीदो विशेषार्थ-अनन्तर-प्ररूपित अधस्तनस्थितिके अवस्तु-विकल्पोसे इस विवक्षित स्थितिके विकल्पोको एक रूप अधिक कहनेका कारण यह है कि उससे एक समय आगे चलकर ही इस स्थितिका अवस्थान है। यह 'रूपोत्तर' पद अन्तदीपक है, इसलिए अधस्तनवर्ती समस्त स्थितियोके अवस्तु-विकल्प अनन्तर-अनन्तरवर्ती स्थितिसे एक एक रूप अधिक ग्रहण करना चाहिए । विकल्पोका यह कथन सत्कर्मकी अपेक्षा किया गया है, क्योकि, नवकवद्धकी अपेक्षा तो वहाँ पर आवली-प्रमाण अवन्तु-विकल्प अवस्थितस्वरूपसे पाये जाते है। चूर्णिसू०-जितनी यह स्थिति है, उतना स्थितिसत्कर्म जिस प्रदेशायका कर्मस्थितिमे शेष रहेगा, वह प्रदेशाग्र इस स्थितिमे पाया जा सकता है और वह उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक है । इस स्थितिसे एक समय-अधिक स्थितिसत्कर्म जिस प्रदेशाग्रका कर्मस्थितिमे शेप होगा, वह भी प्रदेशाग्र उत्कर्षणसे क्षीणस्थितिक है । इस प्रकार एक एक समय-वृद्धिके क्रमसे आगे जाकर इस स्थितिमे आवाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म जिस प्रदेशायका कर्मस्थितिमे शेष दिखाई देगा, वह भी उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक समझना चाहिए । एक समय अविक आवाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म जिस प्रदेशाग्रका कर्मस्थितिमे गेप होगा, वह भी उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक है। दो समय-अधिक आवाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म जिस प्रदेशाग्रका कर्मस्थितिमे शेपरूपसे इस स्थितिमे दिखाई देगा, वह प्रदेशाग्र भी उत्कर्षणसे क्षीणस्थितिक है। उससे परवर्ती कर्मप्रदेशाग्र उत्कर्पणसे अक्षीणस्थितिक है। इस प्रकार दो समय कम आवलीसे हीन आवाधावाली जो स्थिति है, उस स्थितिके विकल्प समाप्त हुए ॥३४-४०॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे अनन्तर-व्यतिक्रान्त स्थितिसे एक समय अधिक ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'संतकम्ममल्सियूण' इस सूत्राशको टीकाका अग बना दिया गया है. जय कि इसकी व्यारख्या टीका में स्पष्टलपमे की गई है। अतएव उसे सूत्राग ही गानना चाहिए। (देखो १० ८८६) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] क्षीण-अक्षीणस्थितिक-अर्थपद-निरूपण २१९ समयुत्तरा द्विदी कदमा ? ४३. जहणिया आवाहा तिसमयूणाए आवलियाए ऊणिया, एवदिमा द्विदी । ४४. एदिस्से हिदीए एत्तिया चेव वियप्पा । णवरि अवत्थुवियप्पा रूवुत्तरा। ४५ एस कमो जाव जहणिया आवाहा समयुत्तरा त्ति । ४६. जहणियाए आवाहाए दुसमयुत्तराए पहुडि णत्थि उक्कड्डणादो झीणहिदियं । ४७. एवमुक्कडणादो झीणहिदियस्स अट्ठपदं समत्तं । ४८. एत्तो संकमणादो झीणट्ठिदियं । ४९. जं उदयावलियपविट्ठ तं, णत्थि अण्णो वियप्पो । ५०. उदयादो झीणहिदियं ५१. जमुद्दिण्णं तं, णत्थि अण्णं । ५२. एत्तो एगेगझीणहिदियमुक्कस्सयमणुक्कस्सयं जहण्णयमजहणयं च । स्थितिके विकल्प कहेगे ॥४१॥ शंका-इस अनन्तर-व्यतिक्रान्त स्थितिसे एक समय-अधिक स्थिति कोनसी है ॥ ४२ ॥ समाधान-तीन समय-कम आवलीसे हीन जो जघन्य आवाधा है, वही यह स्थिति है । अर्थात् उदयस्थितिसे लेकर तीन समय-कम आवलीसे हीन जघन्य आवाधाप्रमाण ऊपर चलकर आवाधाके अन्तिम समयसे तीन समय कम आवलीप्रमाण नीचे उतर कर यह विवक्षित स्थिति अवस्थित है ॥४३॥ __ चूर्णिसू०-इस स्थितिके वस्तु-विकल्प इतने ही होते है । किन्तु अवस्तु-विकल्प एक रूपसे अधिक होते है । यह क्रम समयोत्तर जघन्य आवाधा तक जानना चाहिए। दो समय-अधिक जघन्य आवाधासे लेकर ऊपर उत्कर्षणसे प्रदेशाग्र क्षीणस्थितिक नहीं है । इस प्रकार उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रका अर्थपद समाप्त हुआ ॥४४-४७॥ चूर्णिसू ०-अब इससे आगे संक्रमणसे क्षीणस्थितिकको कहेंगे । जो कर्मप्रदेशाग्र उदयावलीमे प्रविष्ट है, वह संक्रमणसे क्षीणस्थितिक हैं, अर्थात् संक्रमणके अप्रायोग्य हैं । किन्तु जो प्रदेशाग्र उदयावलीके वाहिर स्थित है और जिनकी वन्धावली बीत चुकी है, वे संक्रमणसे अक्षीणस्थितिक हैं, अर्थात संक्रमण होनेके योग्य है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प यहाँ संभव नहीं है ॥४८-४९॥ चूर्णिसू ०-अब उदयसे क्षीणस्थितिकको कहेंगे । जो कर्मप्रदेशाग्र उदीर्ण है, अर्थात् उदयमे आकर और फलको देकर तत्काल गल रहा है, वह उदयसे क्षीणम्थितिक है । इसके अतिरिक्त अन्य समस्त स्थितियोंके प्रदेशाग्र उदयसे अक्षीणस्थितिक हैं, अर्थात् उन्हे उद्यके योग्य जानना चाहिए । यहॉपर और अन्य कोई विकल्प सभव नहीं है ॥५०-५१।। चूर्णिसू०-अब इसमे आगे एक-एक क्षीणस्थितिकके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट. जघन्य और अजघन्य पदोकी प्ररपणा करना चाहिए ॥५२॥ विशेपार्थ-अभी ऊपर जो अपकर्पण, उत्कर्पण, संक्रमण और उदयकी अपेक्षा श्रीण स्थितिक-अक्षीणस्थितिकी प्ररूपणा की है, उसके विशेष निर्णयके लिए उत्कृष्ट , अनुष्ट. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ क्षीणाक्षीणाधिकार ५३. सामित्तं । ५४. मिच्छत्तस्स उकस्सयमोकडणादो झीणट्ठिदियं कस्स १ ५५. गुणिदकम्पसियस्स सव्वलहुं दंसणमोहणीयं खर्वेतस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयं संकुग्भमाणयं संछुद्धमावलिया समयूणा सेसा तस्स उकस्सयमोकडणादो झीणडिदियं । ५६. तस्सेव उक्कस्यमुक्कडणादो संकमणादो च झीणट्ठिदियं । २२० ५७. उक्कस्सयमुदयादो झीणट्ठिदियं कस्स १ ५८ गुणियकम्मंसिओ संजमासंजमगुणसेढी संजमगुणसेढी च एदाओ गुणसेढीओ काऊण मिच्छत्तं गदो, जाधे गुणसेसिीसयाणि पदमसमयमिच्छादिट्टिस्स उदयमागयाणि तावे तस्स उस्सयमुदयादो झीणडिदियं । ५९. सम्मत्तस्स उस्सय मोकडणादो उक्कणादो संकमणादो उदयादो च जघन्य और अजघन्य पदोका आश्रय करके विशेप निरूपणकी सूचना चूर्णिकारने की है । जहॉपर बहुत से कर्मप्रदेशाम अपकर्षणादिसे क्षीणस्थितिक हो, उसे उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक कहते हैं और जहॉपर सबसे कम कर्म - प्रदेशाय अपकर्पणादिके द्वारा क्षीणस्थितिक हो, उसे जघन्य क्षीणस्थितिक कहते है । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट और अजघन्यकी अपेक्षा से भी जानना चाहिए । इस प्ररूपणाके सुगम होनेसे चूर्णिकारने उसे नही कहा है । चूर्णिस, ० - अव इससे आगे क्षीणस्थितिक- अक्षीणस्थितिक प्रदेश के स्वामित्वको कहेंगे ॥५३॥ शंका- अपकर्षणकी अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाय किसके होता है ? ॥ ५४ ॥ समाधान-गुणित कर्माशिक और सर्वलघु कालसे दर्शनमोहनीयके क्षपण करनेवाले जीवके होता है, जिसने कि संक्रमण किये जाने योग्य मिथ्यात्व के अन्तिम स्थितिकांड का सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमे संक्रमण कर दिया है और जिसके एक समय कम आवली शेप रही है, उसके मिथ्यात्वका अपकर्षणसे उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशा होता है । उसी ही जीवके उत्कर्पण और संक्रमणसे भी मिथ्यात्वका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाय होता है ।। ५५-५६ ॥ शंका-उदयकी अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेश किसके होता है ? ||५७|| समाधान - जो गुणितकर्माशिक जीव संयमासंयम-गुणश्रेणी और संयमगुणश्रेणी इन दोनों ही गुणश्रेणियोंको करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, उस प्रथमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिके जिस समय वे दोनो ही गुणश्रेणीशीर्षक एकीभूत होकर उदयको प्राप्त होते है, समय मिथ्यात्वका उदयसे उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशा होता है ॥ ५८॥ उस शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका अपकर्पण, उत्कर्पण, संक्रमण और उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाय किसके होता है ? ॥ ५९ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] श्रीण-अक्षीणस्थितिक स्वामित्य निरूपण २२१ झीणद्विदियं कस्स ? ६०. गुणिदकम्मंसिओ सव्वलहुं दंसणमोहणीयं कम्मं खवेदुमाढत्तो अघहिदियं गलतं जाधे उदयावलियं पविस्समाणं पविट्ठ ताधे उक्कम्सयमोकट्ठणादो वि उक्कड्डणादो वि संकमणादो वि झीणद्विदियं । ६१. तस्सेव चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स सचमुदयंत मुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं । ६२. सम्मामिच्छत्तस्स उस्कस्सयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स १ ६३. गुणिदकम्मंसियस्स सबलहुं दसणमोहणीयं खवेमाणस्स सम्मामिच्छत्तरस अपच्छिमद्विदिखंडयं संन्भमाणयं संछुद्ध, उदयावलिया उदयवज्जा भरिदल्लिया, तस्स उकस्सयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संक्रमणादो च झीणहिदियं । ६४. उक्कस्सयमुदयादो झीणट्टि दियं कस्स ? .... समाधान-जिस गुणितकमांशिक जीवने सर्वलघु कालके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण करना प्रारम्भ किया, ( और अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण परिणामोके द्वारा अनेक स्थितिकांडक और अनुभागकांडकोका घातकर मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमे संक्रान्त किया । पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र अन्तिम स्थितिकांडकको चरमफालिस्वरूपसे सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रान्त किया और सम्यक्त्वप्रकृतिके भी पल्योपमासंख्येयभागी तात्कालिक स्थितिकांडकसे अष्टवर्पप्रमाण स्थितिसत्कर्मको करके और उसमे संक्रान्त करके फिर भी संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थितिको अत्यल्प करके जो कृतकृत्यवेदक होकर अवस्थित है, ) उसके अधःस्थितिसे गलता हुआ सम्यक्त्वप्रकृतिका प्रदेशाग्र जिस समय क्रमसे उदयावलीमे प्रवेश करता हुआ निरवशेपरूपये प्रविष्ट हो जाता है, उस समय उक्त जीवके अपकर्पणसे, उत्कर्पणसे और संक्रमणसे सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट श्रीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है । उस ही चरमसमयवर्ती अक्षीणदर्शनमोही जीवके जो दर्शनमोहनीयकर्मका सर्वोदयान्त्य प्रदेशाग्र है, वह सम्यक्त्वप्रकृतिका उदयमे उन्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र है ॥ ६०-६१ ॥ विशेपार्थ-सर्व उदयोके अन्तमे उदय होनेवाले कर्म-प्रदेशाग्रको सर्वोदयान्त्य प्रदेशाग्र कहते है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका अपकर्पणसे, उत्कर्पणसे और संक्रमणने उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ६२ ॥ समाधान-जिस गुणितकांशिक जीवने सर्वलत्रु कालसे दर्शनमोहनीयको क्षपण करते हुए सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके संक्रम्यमाण अन्तिम स्थितिकांडकको संक्रान्न कर दिया और उदय-समयको छोडकर उदयावलीको परिपूर्ण कर दिया, उसके सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका अपकर्षणसे, उत्कर्षणसे और संक्रमणसे उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है।॥६॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका उदयमे उत्कृष्ट श्रीणन्थितिक प्रदेशाग्र जिसके होता है ॥ ६४ ॥ १ एत्य सम्बमुढयतमिदि ने सर्वेषामदयानाम निपश्चिममुदयप्रदेाग गदि मान्यमिति Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ६ क्षीणाक्षीणाधिकार ६५. गुणिदकम्मंसिओ संजमा संजम संजमगुणसेढीओ काऊण ताधे गदो सम्मामिच्छत्तं जाधे गुण से डिसीसयाणि परमसमयसम्मामिच्छाट्ठिस्स उदयमागदाणि ताथे तस्स पढमसमयसम्मामिच्छाट्ठिस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणडिदियं । २२२ ६६. अनंताणुबंधीणमुक्कस्सयमोकड्डणादितिन्हं पि झीणडिदियं कस्स १ ६७. गुणिदकम्मंसिओ संजमा संजम -संजमगुणसेढीहि अविणट्ठाहि अनंताणुबंधी विसंजोए दुमाढतो, तेसिमपच्छिमट्ठि दिखंडयं संछुब्भमाणयं संक्रुद्ध तस्स उक्कस्सयमोकडणादितियहं पिझीणडिदियं । ६८. उक्कस्सयमुदयादो झीणडिदियं कस्स १६९. संजमासं जम-संजमगुणसेढीओ काऊण तत्थ मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढिसीसयाणि परमसमयमिच्छाट्ठिस्स उदयमागयाणि, ताधे तस्स पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स उक्कस्यमुदयादो झीणडिदियं । ७०. अहं कसायाण मुक्कस्सयमोकडणादितिगृहं पि झीणडिदियं कस्स १ ७१. गुणिदकम्मंसिओ कसायक्खवणाए अन्भुट्टिदो जाधे अट्टहं कसायाणम पच्छिमसमाधान- जो गुणितकर्माशिक जीव संयमासंयम और संयमगुणश्रेणीको करके उस समय सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, जब कि प्रथमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके गुणश्रेणीशीर्पक उदयको प्राप्त हुए, उस समय उस प्रथमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उदयसे उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥ ६५ ॥ शंका- अनन्तानुवन्धी चारो कषायोका अपकर्पण आदि तीनोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशा किसके होता है ? ॥६६॥ समाधान- जिस गुणितकर्माशिक जीवने अविनष्ट संयमासंयम और संयमगुणश्रेणीके द्वारा अनन्तानुवन्धीकषायका विसंयोजन आरम्भ किया और उनके संक्रम्यमाण अन्तिम स्थितिकांडकको अप्रत्याख्यानादिकपायोंमे संप्रान्त किया, उस समय उस जीवके अनन्तानुवन्धीकपायका अपकर्पण आदि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥ ६७॥ शंका-उदयकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीकपायका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशा किसके होता है || ६८॥ समाधान - जो संयमासंयम और संयमगुणश्रेणीको करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । उस प्रथमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि के जिस समय दोनो गुणश्रेणीशीर्षक उदयको प्राप्त हुए, उस समय उस प्रथमसमयवर्ती मिध्यादृष्टि के उदयकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीकपाका उत्कृष्ट क्षीणस्थिति प्रदेशा होता है ||६९ ॥ शंका- आठो कपायोका अपकर्षणादि तीनों की अपेक्षा उत्कृष्ट श्रीणस्थिनिक प्रदेश किसके होता है ॥७०॥ समाधान- जो गुणितकर्माशिक जीव कपायोकी क्षपणाके लिए उयन हुआ, Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] क्षीण अक्षीणस्थितिक-स्वामित्व-निरूपण २२३ ट्ठिदिखंडयं संकुम्भमाणं संछुद्ध ताधे उकस्सयं तिण्हं पि झीणडिदियं । ७२. उक्कस्सयमुदयादो झीणडिदियं कस्स १७३. गुणिदकम्मंसियरस संजमा संजम संजम-दसणमोहtaraaणगुणढीओ एदाओ तिष्णि गुणसेढीओ काऊण असंजमं गदो, तस्स पढमसमयअसंजदस्स गुणसेडिसीसयाणि उदयमागदाणि तस्स अडकसायाणमुकस्सयमुदयादो भी ट्ठिदियं । ७४. कोहसंजणस्स उकस्सयमोकडणादितिन्हं पि शीणडिदियं कस्स १ ७५ गुणिदकम्मं सियरस कोधं खवेंतस्स चरिमट्ठि दिखंडय - चरिमसमय- असंगृहमाणयस्स उकस्यं तिन्हं पि झीणडिदियं । ७६. उकस्सयमुदयादो झीणडिदियं पि तस्सेव । ७७ एवं चेव माणसंजलणस्स | गवरि माणट्ठिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्स तस्स चत्तारि वि उक्कस्याणि झीणट्ठिदियाणि । ७८. एवं चेत्र मायासंजलणस्स । वह जिस समय आठो ही कपायोके संक्रम्यमाण अन्तिम स्थितिकांडकको संक्रान्त कर देता है, उस समय आठो कपायोका अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ।। ७१ ।। शंका- उदयकी अपेक्षा आठो कपायोका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाम किसके होता है || ७२ || समाधान - जो गुणितकर्माशिक जीव संयमासंयमगुणश्रेणी, सयंमगुणश्रेणी और दर्शनमोहनीयक्षपणा-सम्बन्धी गुणश्रेणी इन तीनो ही गुणश्रेणियोको करके असंयमको प्राप्त हुआ । उस प्रथमसमयवर्ती असंयतके जिस समय वे गुणश्रेणीशीर्षक उदयको प्राप्त हुए, उस समय उस असंयत के उदयकी अपेक्षा आठी कपायोका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाय होता है ॥ ७३ ॥ शंका-संज्वलनक्रोधका अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशा किसके होता है ॥ ७४॥ समाधान - जो गुणितकर्माशिक जीव संञ्चलनक्रोधको क्षपण करते हुए क्रोधके अन्तिम स्थितिकish अन्तिम समयमे असंक्षोभकभावसे अवस्थित है, अर्थात् किसीका भी संक्रमण नहीं कर रहा है, उस समय उसके संज्वलनक्रोधका अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशा होता है || ७५ ॥ चूर्णिस० - संज्वलनक्रोधका उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक भी उस ही जीव के होता है । इसी प्रकारसे संज्चलनमानके उत्कृष्ट क्षीण स्थितिकको जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि वह जिस समय मानको क्षपण करते हुए मानके अन्तिम स्थितिका क अन्तिम समयमे असंक्षोभकभावसे अवस्थित है, उस समय उसके अपकर्षणादि चारोकी ही अपेक्षासे उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेश होता है । इसी प्रकार संज्वलनमाचा उत्कुष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशको जानना चाहिए । विशेषता केवल यह कि वह जिस समय मानाको अपण करते हुए मायाके अन्तिम स्थितिकांडको अन्तिम सग अभाव जनयित Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ क्षीणाक्षीणाधिकार णवरि मायाडिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्स तस्स चत्तारि वि उक्कस्सयाणि झीणद्विदियाणि । ७९. लोहसंजलणस्स उकस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणद्विदियं कस्स ? ८०. गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंतकम्ममावलियं पविस्समाणयं पविलु ताधे उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणद्विदियं । ८१. उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? ८२. चरिमसमयसकसायखवगस्स। ८३. इस्थिवेदस्स उकस्सयमोकड्डणादिचउण्हं पि झीणट्ठिदियं कस्स ? ८४. इस्थिवेदपूरिदकम्मंसियस्स आवलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तिणि वि झीणद्विदियाणि उक्कस्सयाणि । ८५. उकस्सयमुदयादो झीणद्विदियं चरिमसमयइत्थिवेदक्खवयस्स । ८६. पुरिसवेदस्स उक्कस्सयमोकड्डणादिचदुण्हं पि झीणहिदियं कस्स ? ८७. है, उस समय उसके अपकर्षणादि चारोकी ही अपेक्षा संज्वलनमायाका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ।।७६-७८॥ शंका-संज्वलनलोभका अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशान किसके होता है ? ॥७९॥ समाधान-जिस गुणितकर्माशिक जीवने संज्वलनलोभके प्रविश्यमान सर्व सत्कमको जिस समय उदयावलीमें प्रविष्ट कर दिया, उस समय उसके अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा संज्वलनलोभका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ।। ८०॥ शंका-उदयकी अपेक्षा संज्वलनलोभका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥८१॥ समाधान-चरमसमयवर्ती सकपाय आपकके होता है ।। ८२।। शंका-स्त्रीवेदका अपकर्पणादि चारोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥८३॥ समाधान-गुणितकर्माशिकरूपसे आकर जो जीव स्त्रीवेदको पूरण कर रहा है, और एक समय कम आवलीके अन्तिम समयमे असंक्षोभकभावसे अवस्थित है, उसके अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा स्त्रीवेदका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है। किन्तु उदयकी अपेक्षा स्त्रीवेदका उत्कृष्ट क्षीणस्थितक प्रदेशाग्र उस चरमसमयवर्ती त्रीवेदी क्ष्पकके होता है, जो कि एक समय कम आवलीमात्र स्थितियोको गला करके अवस्थित है और उसके जिस समय प्रथमस्थितिका चरम निपेक उदयको प्राप्त हुआ है, उस समय उसके खीवेदका उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्न होता है ।।८४-८५। शंका-पुरुपवेदका अपकर्पणादि चारोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होना है १ ॥८६॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] क्षीण-अक्षीणस्थितिक-स्वामित्व-निरूपण गुणिदकम्मंसियस्स पुरिसवेदं खवेमाणयस्स आवलियचरिमसमय-असंछोहयरस तस्स उक्करसयं तिण्हं पि झीणहिदियं । ८८. उकस्सयमुदयादो झीणहिदियं चरिमसमयपुरिसवेदयस्स । ८९. णबुसयवेदयस्स उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियं कस्स ? ९०. गुणिदकम्मंसियस्स णवंसयवेदेण उपट्टिदस्स खवयस्स णबुसयवेद-आवलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तिणि वि झीणहिदियाणि उकस्सयाणि । ९१. उक्करसयमुदयादो झीणहिदियं तस्सेव। ९२. छण्णोकसायाणमुकस्सयाणि तिणि वि झीणहिदियाणि करस ? ९३. गुणिदकम्मंसिएण खवएण जाधे अंतरं कीरमाणं कदं, तेसिं चेव कम्मंसाणमुदयावलियाओ उदयवज्जाओ पुण्णाओ ताधे उक्कस्सयाणि तिणि वि झीणहिदियाणि ९४. तेसिं चेव उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? ९५. गुणिदकम्मसियस्स खवयस्त चरिम समाधान-जो गुणितकर्माशिक जीव पुरुपवेदका क्ष्य करता हुआ आपलीके चरम समयमे असंक्षोभकमावसे अवस्थित है, उसके अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा पुरुपवेदका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है। किन्तु उदयकी अपेक्षा चरमसमयवर्ती पुरुपवेदी क्षपकके पुरुपवेदका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ।।८७-८८॥ शंका-नपुंसकवेदका अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ॥८९।। समाधान-जो गुणितकर्माशिक जीव नपुंसकवेदके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़ा है और नपुंसकवेदको क्षय करते हुए आवलीके चरमसमयमे असंक्षोभकभावसे अवस्थित है, ऐसे क्षपकके अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा नपुंसकवेदका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है । उसी ही चरमसमयवर्ती नपुंसकवेदी क्षपकके उदयकी अपेक्षा नपुंसकवेदका उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥९०-९१।। शंका-हास्यादि छह नोकपायोका अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ।।९२।।। समाधान-गुणितकर्माशिकरूपसे आये हुए आपकने जिस समय छहा नोकपायोंके क्रियमाण अन्तरको कर दिया और उन्हीं कांशोकी उदय-समयको छोड़कर उदयावलियोको पूर्ण किया, उस समय हास्यादि छह नोकपायांका अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥९३॥ शंका-उन्ही हास्यादि छह नोकपायोका उदयकी अपेक्षा उन्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशान किसके होता है ? ॥९४॥ समाधान-गुणितकामिक और अपूर्वकरणो चरम समयमे बर्तमान अपकरें उदयकी अपेक्षा हाम्यादि छह नोकपायोंका उत्कृष्ट श्रीणन्धितिक प्रदेशगान होता है। संचा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कसाय पाहुड सुत्त [६ क्षीणाक्षीणाधिकार समय अपुचकरणे वट्टमाणयस्स । ६६. णवरि हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं जइ कीरइ, भयदुगुंछाणमवेदगो कायव्यो। जइ भयस्स, तदो दुगुंछाए अवेदगो कायव्यो । अह दुगुछाए, तदो भयस्त अवेदगो कायव्यो । ९७. उक्कस्सयं सामित्तं समत्तमोघेण । ९८. एत्तो जहण्णयं सामित्तं वत्तइस्सामो । ९९. मिच्छत्तस्स जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स ? १००. उवसामओ छसु आचलियासु सेसासु आसाणं गओ तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं । १०१. उदयादो जहण्णयं झीणहिदियं तस्सेव आवलियमिच्छादिहिस्स? १०२. सम्मत्तस्स जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं कस्स ? १०३. उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयसम्माइद्विस्स ओकड्डणादो उक्कड्डणादो संकइतना भेद है कि यदि वह हास्य-रति और अरति-शोकका आपण कर रहा है, तो उस समय वह भय और जुगुप्साका अवेदक है। यदि भयका क्षपण कर रहा है, तो उस समय वह जुगुप्साका अवेदक है और यदि वह जुगुप्साका क्षपण कर रहा है, तो भयका अवेदक होता है । इस प्रकारसे उनके उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रकी प्ररूपणा करना चाहिए ।।९५-९६।। चूर्णिसू०-इस प्रकार ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रके स्वामित्वका निरूपण समाप्त हुआ ॥९७॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे अपकर्पणादि चारोकी अपेक्षा क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रके जघन्य स्वामित्वको कहेगे ॥९८॥ शंका-मिथ्यात्वका अपकर्पण, उत्कर्पण और संक्रमणकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ॥९९॥ समाधान-जो दर्शनमोहनीयकर्मका उपशमन करनेवाला उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमे छह आवलियोके शेप रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ, ( और वहॉपर अनन्तानुबन्धीकपायके तीन उदयसे प्रतिसमय अनन्तगुणित संक्लेशकी वृद्धिके साथ सासादनगुणस्थानका काल समाप्त करके मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त हुआ, ) उस प्रथमसमयवर्ती मिथ्याष्टिके अपकर्पण, उत्कर्पण और संक्रमणकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है। इसी उपयुक्त जीवके जव मिथ्यात्वगुणस्थानमें प्रवंश करनेके पश्चात् एक आवलीकाल बीत जाता है, तब उस आवलिक-मिथ्याष्टिके उदयकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥१००-१०१॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥१०२।। समाधान-उपशमसम्यक्त्वको पीछे किया है जिसने पंस, अर्थात्, उपशमसभ्यऋत्वके पश्चात बेटकसम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले में प्रश्रमसमयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिकं अप Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] क्षीण-अक्षीणस्थितिक-स्वामित्व-निरूपण २२७ मणादो च झीणहिदियं । १०४, तस्सेव आवलियवेदयसम्माइटिस्स जहण्णयमुदयादो झीणद्विदियं । १०५. एवं सम्मामिच्छत्तस्स । १०६. णवरि पढमसमयसम्मामिच्छाइद्विस्स आवलियसम्मामिच्छाइद्विरस चेदि । १०७. अट्टकसाय-चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्सरदि-भय-दुगुंछाणं जहण्णययोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणढिदियं कस्स ? १०८. उवसंतकसाओ मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स जहण्णयमोकड्डणादो संकमणादो च झीणद्विदियं । १०९, तस्सेव आवलियउववण्णस्त जहण्णयमुदयादो झीणद्विदियं । ११०. अणंताणुवंधीणं जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स १ १११. सुहमणिओएसु कन्महिदिमणुपालियूण संजमासंजमं संजमंच कर्षणसे, उत्कर्पणसे और संक्रमणसे सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है । जिसे एक आवलीकाल वेदकसम्यक्त्वको धारण किये हुए हो गया है, ऐसे उसी वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके उदयकी अपेक्षा सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥१०३-१०४॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके अपकर्पणादि चारोकी अपेक्षासे क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए। केवल इतनी विशेपता है कि प्रथमसमयवर्ती सम्यग्मिध्यादृष्टिके अपकर्पणादि तीनकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व होता है, और एक आवली विता देनेवाले सम्यन्मिथ्याष्टिके उदयकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व होता है ॥१०५-१०६॥ शंका-आठ मध्यमकपाय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका अपकर्षण, उत्कर्पण और संक्रमणकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ॥१०॥ समाधान-जो उपशान्तकपाय-वीतरागछद्मस्थ संयत मरकर देव हुआ, उस प्रथमसमयवर्ती देवके अपकर्पण, उत्कर्पण और संक्रमणकी अपेक्षा उपर्युक्त प्रकृतियोका जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है। उसी देवके जब उत्पन्न होनेके अनन्तर एक आवलीकाल बीत जाता है, तब उसके उदयकी अपेक्षा उन्ही प्रकृतियोके भीणस्थितिक प्रदेशाप्रका जघन्य स्वामित्व होता है ।। १०८-१०९।। शंका-अनन्तानुबन्धीकपायोंका अपकर्पण, उत्कर्पण और संक्रमणकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥११०॥ समाधान-जिसने सूक्ष्मनिगादिया जीवामे कर्मस्थितिकाल-प्रमाण रहकर और ताम्नपनवाली प्रतिमें एम सूत्रको टोकामें सम्मिलित कर दिया है। पर इसके सनलको पुष्टि सादपनीय प्रतिसे हुई है । (देखो पृ० ९०५ पंन्नि ७) Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ कसाय पाहुड लुत्त [ ६ क्षीणाक्षीणाधिकार बहुसो लभिदाउओ चत्तारि वारे कसाए उवसामेण तदो अगंताणुबंधी विसंजोएऊण संजोइदो | तदो वे छावट्टिसागरोवमाणि सम्यत्तमणुपालेपूण तदो मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छाइडिस्स जहण्णयं तिण्हं पि झीणडिदियं । ११२ तस्सेच आवलियसमयमिच्छास्सि जहण्णयमुदयादो झीणडिदियं । ११३. वुंसयवेदस्स जहण्णयमोकडणादितिण्हं पिझीणट्ठिदियं कस्स १११४. अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कस्मेण तिपलिदोवमिएस उववण्णो । तदो अंतोहुत्त सेसे सम्मत्तं लद्ध, वे छावट्टिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिद, संजमा संजमं संजमं च बहुसो | गदो । चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता अपच्छिमे भवे पुव्वको डिआउओ मस्सो जादो । तदो देणपुव्वको डिसंजम मणुपा लियूण अंतोमुहुत्त से से परिणामपच्चएण असंजयं गदो । ताव असंजदो जाब गुणसेढी णिग्गलिदा ति । तदो संजमं पडिवजियूण अंतोमुहुत्ते कम्मक्खयं काहिदि ति तत्स पडमसमय संजयं पडिवण्णस्स जहयं तिहं पिझीणडिदियं । ११५. इत्थवेदस्स वि जहण्णयाणि तिष्णिवि झीपट्टि - वहाँसे निकल करके संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त किया, तथा चार वार कषायोका उपासनकर तदनन्तर अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनकर और पुनः अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही उसका संयोजन किया । तदनन्तर दो वार छयासठ सागरोपमकाल तक सम्यक्त्वको परिपालन कर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, उस प्रथमसमयवर्ती मिध्यादृष्टि के अनन्तानुवन्धी कपायोका अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है । उस ही जीवके मिध्यादृष्टि होने के एक आवलीकालके अन्तिम समयमे अनन्तानुबन्धीकपायोका उदयकी अपेक्षा जवन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥ १११-११२॥ शंका- नपुंसकवेदका अपकर्षणादि तीनोकी अपेक्षा जवन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाम किसके होता है ? ॥ ११३॥ समाधान - जो अभव्यसिद्धिको के योग्य जघन्य सत्कर्मके द्वारा तीन पल्योपमवाले भोगभूमियाँ जीवोमे उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् जीवन के अन्तर्मुहूर्त शेप रह जानेपर सम्यक्त्वको प्राप्त किया और दो वार छयासठ सागरोपमकाल तक सम्यक्त्वका अनुपालन किया, तथा संयमासंयम और संयमको बहुत वार धारण किया। चार वार कपायोका उपशमनकर अन्तिम भव पूर्वकोटी वर्षकी आयुका धारक मनुष्य हुआ । तदनन्तर देशोन पूर्वकोटीकालप्रमाण संयमका परिपालनकर आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रह जानेपर परिणामो के निमित्तसे असंयमको प्राप्त हुआ और गुणश्रेणी के पूर्णरूपसे गलित होने तक असंयत रहा । तत्पश्चात् संयमको जीवके प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्तसे जो कर्मोंका क्षय करेगा, उस प्रथम समयमे संयमको प्राप्त हुए ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'विसजोएलण' के खानपर 'विसेजोएड' ऐसा पाठ मुद्रित है, जो कि टीका और अर्थ के अनुसार अशुद्ध है । ( देखो पृ० १०७ ) * ताम्रपत्रवाली प्रतिगें 'बहुमो' पद नहीं है । ( टेली पृ० १०९ ) । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] मीण-अक्षीणस्थितिक-स्वामित्व-निरूपण दियाणि एदस्स चेव, तिपलिदोवमिए सु णो उववण्णयम्स कायव्याणि । ११६. णqसयवेदस्स जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं कस्म ? ११७. सुहुमणिगोदेसु कम्पट्टिदिमणुपालिघूण तसेसु आगदो, संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो गओ, चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइदिए गदो। पलिदोवमस्सासंखेजदिभागमच्छिदो ताब, जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलिदा त्ति । तदो पुणो मणुस्सेसु आगदो पुनकोडी देसूणं संजममणुपालियूण अंतोमुहत्तसेसे मिच्छत्तं गदो दसवरससहस्सिएसु देवेसु उववण्णो । अंतोमुहुत्तमुववण्णेण सम्मत्तं लद्ध, अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्यए त्ति मिच्छत्तं गदो। तदो* वि ओकड्डिदाओ [ विकड्डिदाओ ] द्विदीओ तप्पाओग्गसव्वरहस्साए मिच्छत्तद्धाए एइदिएसुववणो । तत्थ वि तप्पाओग्गउ कस्सयं संकिलेसं गदो। तस्स पढगसमयएइ दियस्स जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं ।। र ११८. इत्थिवेदस्त जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? ११९. एसो चेव नपुंसकवेदका अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है । म्रीवेटका अपकर्पणादि तीनोकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र भी इसी उपयुक्त जीवके होता है। भेद केवल यह है कि इसे तीन पल्योपमकी आयुवाले जीवोमे नहीं उत्पन्न कराना चाहिए ॥ ११४-११५॥ शंका-नपुंसकवेदका उदयकी अपेक्षा श्रीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥११६॥ समाधान-जो जीव सूक्ष्म निगोदिया जीवामे कर्मस्थितिकाल तक रह करके सोमे आया और संयमासंयम, संयम तथा सम्यक्त्वको बहुत वार प्राप्त किया। चार वार कपायोका उपशमनकर तदनन्तर एकेन्द्रियोमे उत्पन्न हुआ। पल्योपमके असंख्यातवे भाग काल तक वहाँ रहा, जब तक कि उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्ध पूर्णरूपसे गलित हो गये । तदनन्तर वह मनुष्योगे आया और देगोन पूर्वकोटीकाल तक संयमको परिपालनकर आयुके अन्तर्मुहूर्त शेप रह जानेपर गिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और मरकर दश हजार वर्षकी आयुवाले देवोमे उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त किया और जीवितव्यके अन्तर्मुहर्त शेप रह जानेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वहॉपर पूर्वबद्ध और सत्तामे स्थिन सर्व कर्मोकी स्थितियोका उत्कर्पण कर और उन्हें अतिदूर निक्षिप्त करके तत्प्रायोग्य अर्थात् एकेन्द्रियोमे उत्पत्तिके योग्य सर्वहत्व मिथ्यात्वकालके रह जानेपर एकेन्द्रियोंमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर भी तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ । उस प्रथमग्नमयवर्ती एकेन्द्रिय जीवक नपुंसकनेटका उदयकी अपेक्षा जघन्य श्रीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ॥ ११७ ।। शंका-स्त्रीवेदमा उदयकी अपेक्षा जघन्य श्रीणस्थितिक प्रदेगान किसके होता है ? ॥११८॥ र तामपाताली प्रतिगे 'तदो' पद माँ है । ( देतो ० ९२१)। AAP Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० कसाय पाहुड सुत्त [ ६ क्षीणाक्षीणाधिकार सय वेदस्स पुञ्चपरुविदो जाधे अपच्छिममणुस्सभवरगहणं पुञ्चकोडी देखणं संजयमणुपालिदूण अंतो मुहुत्त सेसे मिच्छत्तं गओ । तदो वेमाणियदेवीसु उववण्णो, अंतोमुहुत्तद्धमुववण्णो उकस्ससंकिलेसं गदो । तदो विकडिदाओ द्विदीओ उकडिदा कम्मंसा जाधे तदो अंतमुत्तमुक्कसइत्थिवेदस्स डिदि बंधियूण पडिभग्गो जादो, आवलियपडिभगाए तिस्से देवीए इत्थिवेदस्स उदयादो जहण्णयं झीणडिदियं । १२०. अरदि - सोगाण मोकडणादितिगझीणडिदियं जहण्णयं कस्स १ १२१. एइ दियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो, संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्घृण तिष्णि वारे कसा उवसामेयूण एवं दिए गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमच्छियूण जाव उवसामयसमयपवद्धा गलंति तदो मणुस्सेसु आगदो । तत्थ पुव्यकोडी देणं संजम पालियूण कसा उवसामेण उवसंतकसाओ कालगदो देवो तेत्तीससागरोचमिओ जादो | ताधे चेय हस -रईओ ओकडिदाओ उदद्यादिणिक्खित्ताओ अरदि-सोगा ओकड्डित्ता उदयावलियवाहिरे णिक्खित्ता, से काले दुसमयदेवस्स एया ट्ठिदी अरह - सोगाण समाधान- इसी नपुंसक वेद की प्ररूपणामे पूर्व प्ररूपित जीवने जिस समय अपश्चिम मनुष्य भवको ग्रहण किया और देशोन पूर्वकोटीकाल तक संयमका परिपालनकर जीवन के अन्तर्मुहूर्तं शेप रह जानेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और मरणकर विमानवासी देवियो में उत्पन्न हुआ | उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ही, अर्थात् पर्याप्त होकर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ । उस संक्लेश से जब सर्व कर्मों के अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिबन्धसे भी दूर तककी स्थितियोंको बढ़ाया और उनके कर्मप्रदेशोका भी उत्कर्पण किया, तब उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक स्त्रीवेदी पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको वध करके . संक्लेशसे प्रतिभग्न अर्थात् प्रतिनिवृत्त हुआ । संक्लेशसे प्रतिनिवृत्त होने के एक आवलीकाल बीतने पर उस देवी स्त्रीवेदका उदयकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ।। ११९ ॥ शंका- अरति और शोकप्रकृतिका अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा जघन्य क्षीण - स्थितिक प्रदेश किसके होता है ? ॥ १२०॥ समाधान - जो जीव जघन्य एकेन्द्रियकर्मसे अर्थात् अभव्यसिद्धोके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ एकेन्द्रियोसे आकर त्रस जीवोमे उत्पन्न हुआ । वहॉपर संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्तकर तथा तीन वार कपायोका उपशमनकर पुनः एकेन्द्रियो में उत्पन्न हुआ । वहाँपर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाणकाल तक रहा, जबतक कि उपशामक समयप्रबद्ध गलते हैं । उसके पश्चात् मनुष्यो मे आया । वहॉपर देशोन पूर्वकोटीकाल तक संयमका परिपालनकर और कपायोका उपशमन करके उपशान्तकपायवीतरागच्छद्मस्थ होकर और मरणको करके तेतीस सागरोपमकी स्थितिका धारक अहमिन्द्रदेव हुआ । उस ही समय हास्य और रति प्रकृतियोका अपकर्षणकर उदद्यावलीमे निक्षिप्त किया और अरति शोकका ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'तत्य' पद नहीं है । ( देखो पृ० ९१५ ) । 1 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ गा० २२] क्षीण-अक्षीणस्थितिक-अल्पबहुत्व-निरूपण मुदयावलियं पविटा, ताधे अरदि-सोगाणं जहण्णयं तिण्हं पि झीणहिदियं । १२२. अरइ-सोगाणं जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? १२३. एई दियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो । तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो । चत्तारि वारे कसायमुवसामिदा । तदो एइदिए गदो । तत्थ पलिदोयमस्स असंखेजदिभागमच्छिदो जाव उवसामयसमयपवद्धा णिग्गलिदा त्ति । तदो मणुस्सेसु आगदो। तत्थ पुचकोडी देसूणं संजममणुपालियूण अपडिवदिदेण सम्मत्तेण वेमाणिएसु देवेसु उपवण्णो । अंतोमु हुत्त मुववण्णो उकस्ससंकिलेसं गदो, अंतोमु हुत्तमुक्कस्सद्विदि बंधियूण पडिभग्गो जादो । तस्स आवलियपडिभग्गस्स भय-दुगुंछाणं वेदयमाणस्स अरदि-सोगाणं जहण्णयमुदयादो झीणट्ठिदियं । _ १२४. एवमोघेण सव्वमोहणीयपयडीणं जहण्णमोकडणादिझीणहिदियसामित्तं परूविदं। १२५. अप्पाबहुअं । १२६. सव्वत्थोवं मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणद्विदियं । १२७. उक्कस्सयाणि ओकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणद्विदिअपकर्षणकर उदयावलीके वाहिर निक्षेपण किया। तदनन्तर समयमे उस हिसमयवर्ती देवके अरत्ति-शोककी एक स्थिति उदयावलीमे प्रविष्ट हुई। उस समय उस देवके अरति-शोकका अपकर्पणादि तीनकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ।। १२१।।। शंका-अरति-शोकका उदयकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ।।१२२॥ समाधान-जो जीव जघन्य एकेन्द्रियसत्कर्मके साथ सोमे आया और वहॉपर संयमासंयम तथा संयमको बहुत वार प्राप्त हुआ। चार वार कपायोका उपशमन किया । तदनन्तर एकेन्द्रियोमे चला गया। वहॉपर पल्योपमके असंख्यातवे भागकाल तक रहा, जबतक कि उपशामक समयप्रबद्ध पूर्णरूपसे गल जाते हैं। तदनन्तर वह मनुष्योमे आया । वहॉपर देशोन पूर्वकोटी तक संयमका परिपालनकर अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ ही वैमानिक देवोमे उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त पश्चात्, अर्थात् पर्याप्तक होनेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ और अन्तर्मुहूर्त तक अरति-शोककी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर संक्लेशसे प्रतिनिवृत्त हुआ । उस आवलिक-प्रतिभन्नके अर्थात् जिसे संक्लेगसे प्रतिनिवृत्त हुए एक आवलीकाल व्यतीत हो गया है और जो भय तथा जुगुप्साका वंदन कर रहा है, ऐसे उस जीवके अरति और शोकका उदयकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र होता है ।।१२३।। चूर्णिसू०-इस प्रकार मोहनीयकर्मी सर्व प्रकृतियोंके अपकर्पणादि-सम्बन्धी जघन्य श्रीणस्थितिक प्रदेशामके स्वामित्वका निरूपण किया गया ।।१२४॥ अब क्षीण-अक्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रोका अल्पवहत्व कहते है-मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशात सबसे कम है। अपकर्षण, उत्कर्षण और संतामणी अपेक्षा मिगायकं उत्कष्ट क्षीणन्धितिक प्रदेशाग्र नीनो परम्पर तुन्य होते हुए भी उपयुत्त पदम Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ कसाय पाहुड सुत्त [६ क्षीणाक्षीणाधिकार याणि तिण्णि वितुल्लाणि असंखेजगुणाणि । १२८. एवं सम्मामिच्छत्त-पण्णारसकसायछण्णोकसायाणं । १२९. सम्मत्तस्स सव्यत्थोवमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं । १३०. सेसाणि तिणि विहीणहिदियाणि उकस्सयाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । २३१. एवं लोभसंजलण-तिणि वेदाणं। १३२, एत्तो जहणणयं झीणढिदियं । १३३ मिच्छत्तस्स सन्चथोवं जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं । १३४. सेसाणि तिणि वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि । १३५. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णयमप्पाबहुअंतहा जेसिं कम्मंसाणमुदीरणोदओ अत्थि तेसि पि जहण्णयमप्पाबहुअं। अणंताणुवंधि इत्थि-णसयवेद-अरइ-सोगा त्ति एदे अट्ठकमसे मोत्तूण सेसाणमुदीरणोदयो । १३६. जेसि ण उदीरणोदयो तेसिं पि सो चेव आलायो अप्पाबहुअस्स जहण्णयस्स । १३७, णवरि अरइ-सोगाणं जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं थोवं । १३८. सेसाणि तिणि वि झीणद्विदियाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । असंख्यातगुणित है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व, संज्वलनलोभको छोड़कर पन्द्रह कषाय और हास्यादि छह नोकपायोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए ।। १२५-१२८॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिका उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र सबसे कम है । शेप तीनो ही उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र परस्पर तुल्य और उपर्युक्त पदसे विशेष अधिक है। इसी प्रकार संज्वलनलोस और तीनो वदोके अपकर्पणादि चारो पदोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए ॥१२९-१३ १॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र-सम्बन्धी अल्पवहुत्वको कहेगे :-मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाम सबसे कम है। शेष तीनो ही क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र परस्पर तुल्य और उदयकी अपेक्षा असंख्यातगुणित है। जिस प्रकार मिथ्यात्वका जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकारसे जिन कर्माशोका उदीरणोदय है, उनका भी जघन्य क्षीणस्थितिक-प्रदेशाग्र-सम्बन्धी अल्पवहुत्व जानना चाहिए । अनन्तानुवन्धीकपायचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवंद, अरति और शोक इन आठ कर्मप्रकृतियोको छोड़कर शेष मोह-प्रकृतियोंका उदीरणोदय होता है। जिन प्रकृतियोका उदीरणादय नहीं होता है, उनके जघन्य अल्पवहुत्वका मी वही उपयुक्त आलाप ( कथन ) करना चाहिए । केवल इतनी विशेपता है कि अरति और शोकका उदयकी अपेक्षा जयन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र परस्पर तुल्य ओर उद्य-सम्बन्धी क्षीणस्थितिकप्रदेशाप्रसे विशेष अधिक है। ॥१३२-१३८॥ विशेपार्थ-जिन कर्म-परमाणुओका उदयावलीके भीतर अन्तरकरणके निमित्तमे १ उदीरणाए चेव उदयो उदीरणोदओ त्ति, जेसि कम्मसाणमुदयावलियम्भतरे अंतरकरणेण अञ्चतमसंताणं कम्मपरमाणं परिणामविसेसेणागखेजलोगपटिभागेणोदीरिदाणमणुएवो तेगिमुटीरणोदओ नि एसो एत्य गावत्यो अवध Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરરૂ गा० २२ ] क्षीण-अक्षीणस्थितिक-अल्पवहुत्व-निरूपण १३९. अहवा इत्थि-णवूसयवेदाणं जहण्णयाणि ओकड्डणादीणि तिणि वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि । १४०. उदयादो जहण्णयं झीणहिदियमसंखेजगुणं । १४१. अरइ-सोगाणं जहण्णयाणि तिणि वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि । १४२. जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं विसेसाहियं । अत्यन्त अभाव है, उन कर्म-परमाणुओकी परिणामविशेपके द्वारा उदीरणा करके जो उनका वेदन होता है, उसे उदीरणोदय कहते है। चूर्णिसू०-अथवा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अपकर्पणादि तीनो ही जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र परस्पर तुल्य और अल्प है। उन्हीका उदयकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित है। अरति और शोकके तीनो ही जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र परस्पर तुल्य और अल्प है। उन्हीके उदयकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्र विशेप अधिक हैं ॥१३९-१४२॥ विशेपार्थ-इस क्षीणाक्षीण-प्रदेशसम्बन्धी अल्पबहुत्लके अन्तमें जयधवलाकारने सर्व अधिकारोमे साधारणरूपसे उपयुक्त एक अल्पबहुत्वदंडक भी मध्यदीपकरूपसे लिखा है, जो इस प्रकार हैं:-सर्वसंक्रसभागहार सबसे कम है। इससे गुणसंक्रमणभागहार असंख्यातगुणा है । गुणसंक्रमणभागहारसे उत्कर्षणापकर्पणभागहार असंख्यातगुणा है । उत्कर्पणापकर्पणभागहारसे अधःप्रवृत्तभागहार असंख्यातगुणा है । अधःप्रवृत्तभागहारसे योगगुणाकार असंख्यातगुणा है। योगगुणाकारसे कर्मस्थिति-सम्बन्धी नानागुणहानिशलाकाएँ असंख्यातगुणी है। कर्मस्थिति-सम्बन्धी नानागुणहानिशलाकाओसे पल्योपमके अर्धच्छेद विशेप अधिक है । पल्योपमके अर्धच्छेदोसे पल्योपमका प्रथम वर्गमूल असंख्यातगुणा है । पल्योपमके प्रथम वर्गमूलसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरसे द्वयर्धगुणहानिस्थानान्तर विशेप अधिक है। द्वयर्धगुणहानिस्थानान्तरसे निपेकभागहार विशेप अधिक है। निपेकभागहारसे अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है। अन्योन्याभ्यस्तराशिसे पल्योपम असंख्यातगुणा है। पल्यापमस विव्यातसंक्रमणभागहार असंख्यातगुणा है । विध्यातसंक्रमणभागहारसे उद्वेलनभागहार असंख्यातगुणा १ सपहि एत्युद्देसे सव्वेसि अत्याहियाराण साहारणभूदमप्पाबहुगादडय मध्झटीवयभावेण पाचइस्सामो । स जहा-सव्वत्थोवो सबसमभागहारो । गुणसमभागदारो असोजगुणो । ओक्ट म्हणभागहारो असपेजगुणो । अधापवत्तभागहारो असखेनगुणो । जोगगुणगारो असम्वगुणो । याटिविणाणागुणहाणिसलागाओ असखेजगुणाओ। पलिदोवमरस छेदणया विरोसारिया । पल्दिोवमपटमवगमूल अराखेजगुण । एगपदेसगुणहाणिट्टाणंतरमसरोडगुण | दिवगुणहाणिहाणंतर विनेसादिक । लिमयभागदारो विसेसोहिओ । अण्णोणभत्थरासी यसरजगुणो । पल्दिोवममनसेनगुण । विजादनगमागदारी अससेजगुणो । उव्योष्णभागहारो अल्सेन्गुणो । अणुभागवन्मणाणं गाणापटेमगुपाणिग्लागायो अपत. गुणाओ। एगपटेसगुणहाणिटाणंतरमणतगुणं । दिवटगुणहामिाणतर विरेसाहि । गिसेपमागदागे निमेसाहिओ। अप्णोष्णन्मस्थरासो गणतगुणोति । जयध० ३० Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ कसाय पाहुड सुत्त एवमप्पाचहुए समत्ते झीणमझीणं ति पदं समत्तं होदि । झणझणाहियारो समत्तो । [ ६ क्षीणाक्षीणाधिकार है । उद्वेलनभागहारसे अनुभागवर्गणाओकी नानाप्रदेशगुणहानिशलाकाऍ अनन्तगुणी है । इनसे इन्हींका एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है। उससे अनुभागवर्गणाओं का यर्धगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक है । उससे अनुभागवर्गणाओका निपेकभागहार विशेष अधिक है | अनुभागवर्गणाओके निपेकभागहारसे उनकी अन्योन्याभ्यस्तराशि अनन्तगुणी है । इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर चौथी मूलगाथाके 'झीणमझीर्ण' इस पदकी विभापा समाप्त हुई । इस प्रकार क्षणाक्षणाधिकार समाप्त हुआ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठिदियं ति अहियारो १. ठिदियं ति जं पदं तस्स विहासा । २. तत्थ तिण्णि अणियोगद्दाराणि । तं जहा - समुक्कित्तणा सामित्तमप्पाबहुअं च । ३. समुक्कित्तणाए अस्थि उकस्तयडिदिपत्तयं णिसेयद्विदिपत्तयं अधाणिसेयट्ठिदिपत्तयं उदयट्ठिदिपत्तयं च । ४. उक्कस्सयडिदिपत्तयं णाम किं ? ५. जं कम्मं बंधसमयादो कम्पट्ठिदीए उदए दीसह तमुकस्सय डिदि - स्थितिक अधिकार चूर्णिसू० (० - अब चौथी मूलगाथाके 'द्विदियं वा' इस अन्तिम पदकी विभापा की जाती है । इस स्थितिक-अधिकारमे तीन अनुयोगद्वार हैं । वे इस प्रकार है - समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा चार प्रकारका प्रदेशाग्र होता है -- उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक, निपेकस्थितिप्राप्तक, यथानिपेकस्थितिप्राप्तक और उदयस्थितिप्राप्तक ।। १-३॥ विशेषार्थ - अनेक प्रकारकी स्थितियोको प्राप्त होनेवाले प्रदेशाग्रो अर्थात् कर्म - परमाणुओको स्थितिक या स्थिति प्राप्तक कहते हैं । ये स्थिति प्राप्त प्रदेशाग्र उत्कृष्टस्थिति, निपेकस्थिति, यथानिपेकस्थिति और उदयस्थितिभेदसे चार प्रकार के होते है । जिस विवक्षित कर्मकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है, उतनी स्थिति -प्रमाण वॅधनेवाला जो कर्म-प्रदेशाय बँधने के समय से लेकर अपनी उत्कृष्ट कर्मस्थितिमात्र काल तक आत्मा के साथ रहकर अपनी कर्म-स्थितिके अन्तिम समय उदयको प्राप्त हो, उसे उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्र कहते हैं, क्योकि वह अपनी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होकर उदय में वर्तमान है । जो कर्म - प्रदेशाय बंधकालमे जिस स्थिति मे निपिक्त किया गया, वह अपकर्षण या उत्कर्षणको प्राप्त होकर भी उस ही स्थितिमे होकर उदयकाल मे दृष्टिगोचर हो, उसे निपेकस्थितिप्राप्त प्रदेशाय कहते है । जो कर्म - प्रदेशाय वन्धकाल में जिस स्थिति मे निपिक्त किया गया, वह अपकर्षण या उत्कर्षणको नहीं प्राप्त होकर ज्यो-का-त्यो अवस्थित रहते हुए उस ही स्थितिके द्वारा उदयको प्राप्त हो, उसे यथानिपेकस्थितिप्राप्त प्रदेशा कहते है । जो कर्म- प्रदेशाय बन्धकालके पश्चात् जब कभी भी जिस किसी भी स्थिति होकर उदयको प्राप्त हो, उन्हें उदयस्थितिप्राप्त प्रदेशाय कहते है । अब चूर्णिकार शंका-समाधानपूर्वक इन चारों भेदोका क्रमशः स्वम्प कहते हैंशंका- उत्कृष्टस्थितिप्राप्तक नाम किसका है ? ॥ ४ ॥ समाधान- जो कर्म- प्रदेशाय बन्ध-समयसे लेकर कर्मस्थितिप्रमाणकाल तक सत्ताने रहकर अपनी कर्म-स्थितिके अन्तिम समयमे उदयमे दिखाई देता है अर्थात उदयसे प्राप्त होता है, उसे उत्कृष्टस्थितिप्राप्तक कहते हैं || ५ ॥ १. तत्थ किं हिद्रियं णाम हिदीओ गच्छत्ति विदियं पदेसभा हिदिपत्तयमिति उन क्षेत्र Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ फसाय पाहुड सुत्त [७ स्थितिक-अधिकार पत्तयं । ६. णिसेयहिदिपत्तयं णाम किं ? ७. जंकम्म जिस्से द्विदीए णिसित्तं ओकड्डिदं वा उक्कड्डिदं वा तिस्से चेव द्विदीए उदए दिस्सइ, तं णिसेयद्विदिपत्तयं । ८. अधाणिसेयहिदिपत्तयं णाम किं १ ९. जं कम्मं जिस्से द्विदीए णिसित्तं अणोकड्डिदं अणुक्कड्डिदं तिस्से चेव हिदीए उदए दिस्सइ तमधाणिसेयढिदिपत्तयं । १०. उदयट्ठिदिपत्तयं णाम किं ? ११. जं कम्मं उदए जत्थ वा तत्थ वा दिस्सइ तमुदयट्टिदिपत्तयं । १२. एदयपदं* । १३. एत्तो एकेकढिदिपत्तयं चउचिहमुक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णं च । १४. सामित्तं । १५. मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तयं कस्स ? १६. अग्गद्विदिपत्तयमेको वा दो वा पदेसा एवमेगादि-एगुत्तरियाए बड्डीए जाव ताव उक्क शंका-निपेकस्थितिप्राप्तक नाम किसका है १ ॥ ६ ॥ समाधान-जो कर्म-प्रदेशाग्र बँधनेके समयमे ही जिस स्थितिमें निपिक्त कर दिये गये, अथवा अपवर्तित कर दिये गये, वे उस ही स्थितिमे होकर यदि उदयमे दिखाई देते हैं, तो उन्हे निषेकस्थितिप्राप्तक कहते है ।। ७ ।। शंका-यथानिषेकस्थितिप्राप्तक किसे कहते हैं ? ॥ ८ ॥ समाधान-जो कर्म-प्रदेशाग्र वन्धके समय जिस स्थितिमे निपिक्त कर दिये गये, वे अपवर्तना या उद्वर्तनाको प्राप्त न होकर सत्ताले तदवस्थ रहते हुए ही यथाक्रमसे उस ही स्थितिमें होकर उदयमे दिखाई दे, उसे यथानिपेकस्थितिप्राप्तक कहते है ।। ९ ।। शंका-उदयस्थितिप्राप्तक किसे कहते है ? ॥१०॥ समाधान-जो कर्म-प्रदेशाग्र बंधनेके अनन्तर जहाँ कहीं भी जिस किसी स्थितिमे होकर उदयको प्राप्त होता है, उसे उदयस्थितिप्राप्तक कहते हैं ।।११।। चूर्णिसू०-उत्कृष्टस्थितिप्राप्तक आदि चारो ही भेदोके अर्थका निर्णय करानेवाला यह उपयुक्त अर्थपद है । मोहप्रकृतियोके ये एक-एक अर्थात् चारो ही प्रकारके स्थितिप्राप्तक, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे चार-चार प्रकारके होते हैं ।।१२-१३।। चूर्णिसू०-अब उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक आदिके स्वामित्वको कहते है ।।१४।। शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्तक किसके होता है ? ॥१५॥ समाधान-अग्रस्थितिको प्राप्त एक प्रदेश भी पाया जाता है, दो प्रदेश भी पाये जाते है, तीन प्रदेश भी पाये जाते हैं, इस प्रकार एक-एक प्रदेशको उत्तर वृद्धिसे तबतक १. कधं जहाणिसेयस अघाणिसेयववएसो त्ति ण पञ्चवठ्य, 'वच्चति क ग त द य वा, अत्य वहंति सरा' इदि यकारत्स लोव काऊण णिद्देसादो । जयध० । ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह सूत्र इस प्रकार मुद्रित है-'एदमपदं उक्स्सटिदिपत्तयादीण चउण्ह पि अत्यविसयणिण्णयणियधं'। पर 'अछपद' से आगेका अश तो उसके ही अर्थकी व्याल्यात्मक टीफाका अंग है, उसे सूत्रका अंग बनाना ठीक नहीं । (देखो पृ० ९२३) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭ गा० २२] स्थितिक-स्वामित्व-निरूपण स्सयं समयपबद्धस्स अग्गद्विदीए जत्तियं णिसित्तं तत्तियमुक्कस्सेण अग्गद्विदिपत्तयं । १७. तं पुण अण्णदरस्स होज्ज । १८. अधाणिसेयडिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? १९. तस्स ताव संदरिसणा । २०. उदयादो जहण्णयमाबाहामेत्तमोसक्कियूण जो समयपबद्धो तस्स णत्थि अधाणिसेयहिदिपत्तयं । २१. समयुत्तराए आवाहाए एवदिमचरिमसमयपबद्धस्स अधाणिसेओ अत्थि । २२. तत्तो पाए जाव असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि तावदिमवढ़ाते जाना चाहिए, जबतक कि उत्कृष्ट समयप्रबद्धकी अग्रस्थितिमे जितने प्रदेशाग्र निपित किये है, वे सब प्राप्त न हो जावे । 'इस प्रकारसे चरमनिपेक-सम्बन्धी एक समयप्रवद्धगत जितने प्रदेश प्राप्त होते है, उतने सबके सब उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्तक कहलाते है । वह उत्कृष्ट अग्रस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र किसी भी जीवके हो सकता है ।।१६-१७॥ विशेपार्थ-इस सूत्रका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जो मिथ्यात्वकर्मका प्रदेशाग्र कर्मस्थितिके प्रथम समयमे बन्धको प्राप्त होकर और सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमित कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागकाल तक अवस्थित रहकर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण उत्कृष्ट निर्लेपनकालके अवशिष्ट रह जानेपर प्रथम समयमे शुद्ध होकर अर्थात् कर्मरूप पर्यायको छोड़कर आत्मासे निर्जीर्ण होता है, पुनः उसके उपरिम अनन्तर समयमै शुद्ध होकर निर्जीर्ण होता है, इस प्रकार उत्तर-उत्तरवर्ती समयोमे कर्मपर्यायको छोडकर उसके निर्लेप होते हुए कर्मस्थितिके पूर्ण होनेपर एक परमाणुका भी अवस्थान सम्भव है, दो परमाणुओका अवस्थान भी सम्भव है, तीन परमाणुओका भी अवस्थान सम्भव है, इस प्रकार एक एक परमाणुकी वृद्धि करते हुए अधिकसे अधिक उतने कर्म-परमाणुओका पाया जाना सम्भव है, जितने कि — समयप्रबद्धकी अग्रस्थितिमे उत्कृष्ट प्रदेशाग्र निपिक्त किये थे। यहॉपर समयप्रवद्धसे अभिप्राय उत्कृष्ट योगी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके द्वारा बाँधे हुए समयप्रबद्धसे है, अन्यथा अग्रस्थितिमे उत्कृष्ट निपेकका पाया जाना सम्भव नहीं है। मिथ्यात्वके इस उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त प्रदेशात्रका स्वामी कोई भी जीव हो सकता है, ऐसा सामान्यसे कहा गया है, तो भी क्षपितकांशिकको छोड़ करके ही अन्य किसी भी जीवके उसका स्वामित्व जानना चाहिए, क्योकि क्षपितकाशिक जीवके उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रका पाया जाना सम्भव नहीं है। __ शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिप्राप्तक किसके होता है ? ॥१८॥ समाधान-इसका संदर्शन (स्पष्टीकरण) इस प्रकार है-उदयने, अर्थात मिथ्यात्वके यथानिपेकस्थितिको प्राप्त स्वामित्वके समयसे जघन्य आवाधाके कालप्रमाण नीचे आकरके जो बद्ध समयबद्ध है, उसका प्रदेशाग्र विविक्षित स्थिति में यथानिपेकस्थितिको प्राम नहीं होता है। एक समय अधिक आवाधाके व्यतीत होनेपर इम अन्तिम नमयप्रबद्धका यथानिपेक होता है । इस एक समय अधिक जघन्य आवाधाकालसे आगे चलकर बँधे हुए समय प्रबद्वने लेकर नीचे जितने असंरयात पल्योपमके प्रथमवर्गमूलीका प्रमाण है, उतने ममयोंने बँधे हुए समयप्रबद्धोका यथानिक विवक्षित स्थितिम नियमसे होता है ।।१९-२०।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ कसाय पाहुड सुत्त [७ स्थितिक-अधिकार समयपबद्धस्स अधाणिसेओ णियमा अस्थि । २३. एक्कस्स समयपबद्धस्स एक्किस्से द्विदीए जो उक्कस्सओ अधाणिसेओ तत्तो केवडिगुणं उकस्सयमधाणिसेयट्ठिदिपत्तयं ? २४. तस्स णिदरिसणं । २५. जहा । २६. ओकड्डक्कडणाए कम्मरस अवहारकालो थोवो | २७. अधापवत्तसंक्रमेण कम्मस्स अवहारकालो असंखेज्जगुणो । २८. ओकड्डुक्कड्डणाए कम्मस्स जो अवहारकालो सो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। २९. एवदिगुणमेकस्स समयपवद्धस्स एकिस्से द्विदीए उक्कस्सयादो जहाणिसेयादो उक्कस्सयमधाणि सेयहिदिपत्तयं । ३०. इदाणिमुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं कस्स ? ३१. सत्तमाए पुडवीए णेरड्यस्स जत्तियमधाणिसेयट्ठिदिपत्तयमुक्कस्सयं तत्तो विसेसुत्तरकालमुववण्णो जो रहओ तस्स जहण्णेण उक्कस्सयमधाणिसेयढिदिपत्तयं ३२. एदम्हि पुण काले सो रइओ तप्पाओग्गुकस्सयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो । ३३. तप्पाओग्गउक्कस्सियाहि वड्डीहि शंका-विवक्षित स्थितिसे एक समय अधिक जघन्य आवाधाकालप्रमाण नीचे आकर उत्कृष्ट योगसे बँधा हुआ जो एक समयप्रबद्ध है, उसकी एक स्थितिमे अर्थात् जघन्य आवाधाके वाहिर स्थित स्थितिमे जो उत्कृष्ट यथानिपेक प्रदेशाग्र है, उससे पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण अपने उत्कृष्ट संचयकालके भीतर गलनेसे अवशिष्ट रहे हुए नानासमयप्रबद्धोका जो यथानियेकस्थितिको प्राप्त हुआ उत्कृष्ट प्रदेशाग्र है, वह कितना गुणा अधिक है ? ।।२३।। समाधान-इस गुणाकारको एक निदर्शन ( उदाहरण ) के द्वारा स्पष्ट करते है। वह इस प्रकार है-एक समयमे जो कर्मप्रदेशाग्र उद्वर्तना-अपवर्तनाकरणके द्वारा उद्वर्तित या अपवर्तित होता है. उसके प्रमाण निकालनेका जो अवहारकाल है, वह वक्ष्यमाण अवहारकालसे थोड़ा है। उद्वर्तनापवर्तनाकरणके अवहारकालसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणकी अपेक्षा कर्मका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। उद्वर्तनापवर्तनाकरणकी अपेक्षा कर्मका जो अवहारकाल है, वह पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है। इतना गुणा है, अर्थात् एक समयप्रबद्धकी एक स्थितिके उत्कृष्ट यथानिकसे उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशात्र जितना यह उद्वर्तनापवर्तनाकरणकी अपेक्षा कर्मका अवहारकाल है, इतना गुणा अधिक है ॥२४-२९॥ शंका-उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ३० ॥ समाधान-वह उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र सातवी पृथिवीके नारकीके होता है। किस प्रकारके नारकीके होता है, इसका स्पष्टीकरण यह है कि जितना काल उत्कृष्ट यथानिपकस्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रका है, उससे उत्तरकालमै उत्पन्न हुआ जो नारकी है, उसके उत्पत्तिके समयसे जघन्य अन्तर्मुहर्तसे अधिक होनेपर, अर्थान सर्वलघुकालसे पर्याप होनेपर, उत्कृष्ट यथानिक स्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है। पुनः वह नारकी दम यथानिपेकमंचयकालके भीतर तत्प्राचान्य उत्कृष्ट योगम्थान को बार-बार प्राप्त हुआ, नथा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्वियोले वृद्धिको प्राप्त होता हुआ उस स्थितिके निपेकके उत्कृष्ट पदको प्राप्त हुआ। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिक- स्वामित्व निरूपण २३९ दो | ३४. तिस्से दीए णिसेयस्स उक्कस्सपदं । ३५. जा जहणिया आवाहा अंतोमुहुत्तुत्तरा एवदिसमय-अणुदिष्णा साट्ठिदी । तदो जोगट्टाणाणमुवरिल्लमद्ध गदो ३६. दुसमयाहिय - आवाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए एयसमयाहिय - आवाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्तस्तयं जोगमुवबण्णो । ३७ तस्स उकस्सयमधाणिसेय डिदिपत्तयं । ३८. णिसेय दिपत्तयं पि उक्कस्यं तरसेव । ३९ उदयट्ठिदिपत्तयमुकस्सयं कस्स १४० गुणिदकम्मं सिओ संजमा संजमगुणसे संजमगुणसेटिं च काऊण मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढीसीसयाणि उदिष्णाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्कस्तयमुदय द्विदिपत्यं । ४१. एवं सम्मत्त सम्मामिच्छताणं पि । ४२. वरि उस्समुदयट्ठिदिपत्तयमुकस्सयमुदयादो झीणडिदियभंगो । ४३. अणंजो अन्तर्मुहूर्त-अधिक जघन्य आवाधा है, इतने समय तक वह स्थिति अनुदीर्ण थी, अर्थात् उदयको प्राप्त नही हुई थी । तदनन्तर वह नारकी योगस्थानोंके ऊपरी अर्धभागको प्राप्त हुआ, अर्थात् यवमध्यके ऊपर जाकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहा । पुनः उस स्थिति के दो समय अधिक आवाधाके अन्तिम समयमे अनुदीर्ण होनेपर और एक समय अधिक आवाधाके अन्तिम समयमे अनुदीर्ण होनेपर वह उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ । ऐसे उस नारकी के मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाय होता है । तथा उसीके ही निपेकस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ।। ३१-३८ ॥ भावार्थ- जो जीव सातवे नरकमे उत्पन्न हुआ, लघु अन्तर्मुहूर्त से पर्याप्त हुआ, स्व-योग्य योगस्थानोसे निरन्तर परिणत हुआ, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात भागवृद्धि इन दो वृद्धियोसे बढ़ा, योगवृद्धिसे योगस्थानोके यवमध्यभागको प्राप्त होकर वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा । जब दो समय और एक समय अधिक आवाधाका चरम समय आया, तब उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ, ऐसे जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिक प्रदेशाग्र होता है और इसी नारकी के ही उत्कृष्ट निपेकस्थितिक प्रदेशाय पाया जाता है । शंका-मिथ्यात्वफा उदयस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाय किसके होना है ? ॥३९॥ समाधान - जो गुणितकर्माशिक जीव संयमासंयमगुणश्रेणीको और संयमगुणश्रेणीको करके मिथ्यात्वको ग्राप्त हुआ । उसके जिस समय गुणश्रेणीशीर्षक उदयको प्राप्त हुए उस समय उसके मिथ्यात्वका उदयस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाम्र होता है ॥ ४० ॥ 0 चूर्णिम् ० - इसी प्रकार से अर्थान मिध्यात्वके समान ही सम्यक्त्वप्रकृति और समयमिथ्यात्वके उत्कृष्ट अग्रस्थिति प्राप्त, यथानिपेकस्थिति प्राप्त आदिके स्वामित्वको जानना चाहिए | विशेषता केवल यह है कि इन दोनों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट उदयस्थिति प्राप्त प्रदेशायका स्वामित्व की अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणम्थितिक प्रदेश के स्वामित्वके नमान । अनन्तानुबन्धी चतुष्क, आठ मध्यम कपाय और हाम्यादि छह नोकपायोके उत्कृष्ट अग्रन्थिति आदियो प्राप्त प्रदेशका स्वामित्व मिध्यात्व के स्वामित्व के समान जानना चाहिए ।। ११-१३ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ कसाय पाहुड सुत्त [७ स्थितिक-अधिकार समयपबद्धस्स अधाणिसेओ णियमा अस्थि । २३. एक्कस्स समयपनद्धस्स एक्किस्से हिदीए जो उक्कस्सओ अधाणिसेओ तत्तो केवडिगुणं उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं १ २४. तस्स णिदरिसणं । २५. जहा । २६. ओकड्डक्कड्डणाए कम्मरस अवहारकालो थोवो । २७. अधापवत्तसंक्रमेण कम्मस्स अवहारकालो असंखेज्जगुणो । २८. ओकड्डुक्कड्डणाए कम्मस्स जो अवहारकालो सो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । २९. एवदिगुणमेकस्स समयपवद्धस्स एकिस्से द्विदीए उक्कस्सयादो जहाणिसेयादो उक्कल्सयमधाणि सेयडिदिपत्तयं । ३०. इदाणिमुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं कस्स १ ३१. सत्तमाए पुढवीए णेरइयस्स जत्तियमधाणिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्सयं तत्तो विसेसुत्तरकालमुववण्णो जोणेरइओ तस्स जहण्णेण उक्कस्सययधाणिसेयद्विदिपत्तयं ३२. एदम्हि पुण काले सो रहओ तप्पाओग्गुकिस्सयाणि जोगट्ठाणाणि अभिक्खं गदो । ३३. तप्पाओग्गउक्कस्सियाहि वड्डीहि शंका-विवक्षित स्थितिसे एक समय अधिक जघन्य आवाधाकालप्रमाण नीचे आकर उत्कृष्ट योगसे बँधा हुआ जो एक समयप्रवद्ध है, उसकी एक स्थितिमे अर्थात् जघन्य आवाधाके वाहिर स्थित स्थितिमे जो उत्कृष्ट यथानिपेक प्रदेशाग्र है, उससे पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण अपने उत्कृष्ट संचयकालके भीतर गलनेसे अवशिष्ट रहे हुए नानासमयप्रवद्धोका जो यथानिपेकस्थितिको प्राप्त हुआ उत्कृष्ट प्रदेशाग्र है, वह कितना गुणा अधिक है ? ॥२३॥ समाधान-इस गुणाकारको एक निदर्शन ( उदाहरण ) के द्वारा स्पष्ट करते है। वह इस प्रकार है-एक समयमे जो कर्मप्रदेशाग्र उद्वर्तना-अपवर्तनाकरणके द्वारा उद्वर्तित या अपवर्तित होता है, उसके प्रमाण निकालनेका जो अवहारकाल है, वह वक्ष्यमाण अवहारकालसे थोड़ा है। उद्वर्तनापवर्तनाकरणके अवहारकालसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणकी अपेक्षा कर्मका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। उद्वर्तनापवर्तनाकरणकी अपेक्षा कर्मका जो अवहारकाल है, वह पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है। इतना गुणा है, अर्थात् एक समयप्रबद्ध की एक स्थितिके उत्कृष्ट यथानिषेकसे उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र जितना यह उद्वर्तनापवर्तनाकरणकी अपेक्षा कर्मका अवहारकाल है, इतना गुणा अधिक है ।।२४-२९॥ शंका-उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ३० ॥ समाधान-वह उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र सातवी पृथिवीके नारकीके होता है। किस प्रकारके नारकीके होता है, इसका स्पष्टीकरण यह है कि जितना काल उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रका है, उससे उत्तरकालमे उत्पन्न हुआ जो नारकी है, उसके उत्पत्तिके समयसे जघन्य अन्तर्मुहूर्तसे अधिक होनेपर, अर्थात् सर्वलघुकालसे पर्याप्त होनेपर उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है। पुनः वह नारकी इस यथानिपेकसंचयकालके भीतर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थान को वार-वार प्राप्त हुआ, तथा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्धियोसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ उस स्थितिके निपेकके उत्कृष्ट पदको प्राप्त हुआ। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिक-खामित्व-निरूपण २३९ वड्डिदो । ३४. तिस्से हिदीए णिसेयस्स उक्कस्सपदं । ३५. जा जहणिया आवाहा अंतोमुहुत्तुत्तरा एवदिसमय-अणुदिण्णा सा द्विदी। तदो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्धंगदो ३६. दुसमयाहिय-आवाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए एयसमयाहिय-आवाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्कस्सयं जोगमुववण्णो । ३७. तस्स उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । ३८. णिसेयद्विदिपत्तयं पि उकस्सयं तरसेव । ३९. उदयट्ठिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? ४०. गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजमगुणसेढिं संजमगुणसेटिं च काऊण मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढीसीसयाणि उदिण्णाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्स्सयमुदयविदिपत्तयं । ४१. एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं पि । ४२. णवरि उक्कस्सयमुदयविदिपत्तयमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियभंगो । ४३. अणंजो अन्तर्मुहूर्त-अधिक जघन्य आवाधा है, इतने समय तक वह स्थिति अनुदीर्ण थी, अर्थात् उदयको प्राप्त नहीं हुई थी। तदनन्तर वह नारकी योगस्थानोके ऊपरी अर्धभागको प्राप्त हुआ, अर्थात् यवमध्यके ऊपर जाकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहा । पुनः उस स्थितिके दो समय अधिक आबाधाके अन्तिम समयमे अनुदीर्ण होनेपर और एक समय अधिक आवाधाके अन्तिम समयमे अनुदीर्ण होनेपर वह उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ। ऐसे उस नारकीके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है। तथा उसीके ही निषेकस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ३१-३८ ॥ भावार्थ-जो जीव सातवे नरकमें उत्पन्न हुआ, लघु अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्त हुआ, स्व-योग्य योगस्थानोसे निरन्तर परिणत हुआ, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि इन दो वृद्धियोसे बढ़ा, योगवृद्धिसे योगस्थानोके यवमध्यभागको प्राप्त होकर वहाँ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहा । जब दो समय और एक समय अधिक आवाधाका चरम समय आया, तव उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ, ऐसे जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिक प्रदेशाग्र होता है और इसी नारकीके ही उत्कृष्ट निपेकस्थितिक प्रदेशाग्र पाया जाता है। शंका-मिथ्यात्वका उदयस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥३९॥ समाधान-जो गुणितकर्माशिक जीव संयमासंयमगुणश्रेणीको और संयमगुणश्रेणीको करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। उसके जिस समय गुणश्रेणीशीर्पक उदयको प्राप्त हुए उस समय उसके मिथ्यात्वका उदयस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४० ॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे अर्थात् मिथ्यात्वके समान ही सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अग्रस्थिति-प्राप्त, यथानिपेकस्थिति-प्राप्त आदिके स्वामित्वको जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि इन दोनो प्रकृतियोके उत्कृष्ट उदयस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रका स्वामित्व उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रके स्वामित्वके समान है। अनन्तानुवन्धी चतुष्क, आठ मध्यम कपाय और हास्यादि छह नोकपायोके उत्कृष्ट अग्रस्थिति आदिको प्राप्त प्रदेशाग्रका स्वामित्व मिथ्यात्वके स्वामित्वके समान जानना चाहिए ॥ ४१-४३ ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० कसाय पाहुड सुत्त [७ स्थितिक अधिकार ताणुबंधिचउक्क-अट्ठकसाय-छण्णोकसायाणं मिच्छत्तभंगो । ४४. णवरि अढकसायाणमुक्कस्सयमुदयविदिपत्तयं कस्स ? ४५. संजमासंजम-संजम-दसणमोहणीयक्खवयगुणसेढीओ त्ति एदाओ तिणि वि गुणसेढीओ गुणिदकम्मंसिएण कदाओ । एदाओ काऊण अविणद्वेसु असंजमं गओ । पत्तेसु उदयगुणसेडिसीसएसु उक्कस्सयमुदयट्ठिदिपत्तयं ।। ४६. छण्णोकसायाणमुक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं कस्स ? ४७. चरिमसमयअपुव्वकरणे वट्टमाणयस्स । ४८. हस्स-रह-अरइ-सोगाणं जइ कीरइ भय-दुगुंछाणमवेदओ कायव्यो । ४९ जइ भयस्स, तदो दुगुंछाए अवेदओ काययो । अध दुगुंछाए, तदो भयस्स अवेदओ कायनो । ५०. कोहसंजलणस्स उकस्सयमग्गद्विदिपत्तयं कस्स १ ५१. उक्कस्सयमग्गद्विदिपत्तयं जहा पुरिमाणं कायव्यं । ५२. उक्स्सयमधाणिसेयढिदिपत्तयं कस्स १५३. कसाए उवसामित्ता पडिवदिदूण पुणो अंतोमुहुत्तेण कसाया उवसामिदा, विदियाए शंका-आठ मध्यम कपायोका उत्कृष्ट उदयस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता समाधान-जिस गुणितकर्माशिक जीवने संयमासंयमगुणश्रेणी, संयमगुणश्रेणी और दर्शनमोहनीय-क्षपकगुणश्रेणी इन तीनो ही गुणश्रेणियोको किया । पुनः इनको करके उनके नष्ट नहीं होनेके पूर्व ही वह असंयमको प्राप्त हुआ। वहाँ उन गुणश्रेणियोके शीर्षकोके उद्यको प्राप्त होनेपर आठो मध्यम कपायोका उत्कृष्ट उदयस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥ ४५ ॥ शंका-छह नोकषायोका उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥४६॥ समाधान-अपूर्वकरण गुणस्थानके अन्तिम समयमे वर्तमान क्षपकके छह नोकपायोका उत्कृष्ट उद्यस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है । यहाँ इतना विशेप ज्ञातव्य है कि जब हास्य-रति और अरति-शोककी प्ररूपणा की जाय, तब उसे भय और जुगुप्साका अवेदक निरूपण करना चाहिए । यदि भयकी प्ररूपणा की जाय, तो जुगुप्साका अवेदक कहना चाहिए और यदि जुगुप्साकी प्ररूपणा की जाय, तो उसे भयका अवेदक निरूपण करना चाहिए ॥४७-४९ ॥ शंका-संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट अग्रस्थितिक कर्मप्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥५०॥ समाधान-जिस प्रकारसे पूर्ववर्ती मिथ्यात्वादि कर्मोके उत्कृष्ट अग्रस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रके स्वामित्वको कहा है, उसी प्रकारसे संज्वलनक्रोधके उत्कृष्ट अग्रस्थिति-प्राप्त करेंप्रदेशाग्रके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिए ॥ ५१ ॥ शंका-संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट यथानिपेकको प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥५२॥ समाधान-जो कषायोंका उपशमन करके गिरा और उसने पुनः अन्तमुहूतसे कपायोका उपशमन किया। (तदनन्तर वही जीव नरक-तिर्यंच गतिमें दो-तीन भवोको ग्रहण करके पुनः मनुष्य हुआ और कषायोके उपशमनके लिए उद्यत हुआ।) इस दूसरे भवमै Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ३२] . " स्थितिक-स्वामित्व-निरूपण २४१ उवसामणाए आवाहा जम्हि पुण्णा सा हिदी आदिट्ठा, तम्हि उक्स्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । ५४. णिसेयहिदिपत्तयं च तम्हि चेव । ५५. उक्कस्सयमुदयट्ठिदिपत्तयं कस्स ? ५६. चरिमसमयकोहवेदयस्स । ५७. एवं माण-माया-लोहाणं । ५८. पुरिसवेदस्स चत्तारि वि द्विदिपत्तयाणि कोहसंजलणभंगो। ५९. णवरि उदयहिदिपत्तयं चरिमसमयपुरिसवेदखवयस्स गुणिदकम्मंसियस्स । ६०. इस्थिवेदस्स उक्कस्सयमग्गद्विदिपत्तयं मिच्छत्तभंगो । ६१. उक्कस्सय-अधाणिसेयहिदिपत्तयं णिसेयट्ठिदिपत्तयं च कस्स ? ६२. इस्थिवेदसंजदेण इत्थिवेद-पुरिसवेदपूरिदकम्मंसिएण अंतोमुहुत्तस्संतो दो वारे कसाए उवसामिदा । जाधे विदियाए उचसामणाए जहण्णयस्स हिदिबंधस्स पढमणिसेयद्विदी उदयं पत्ता ताधे अधाणिसेयादो णिसेयादो च उक्कस्सयं हिदिपत्तयं । ६३. उदयहिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? ६४. गुणिदकम्मंसियस्स खवयस्स चरिमसमय-इत्थिवेदयस्स दूसरी वारकी उपशामनामे जिस समय आवाधा पूर्ण हो, वह स्थिति प्रकृतमे विवक्षित है । उस समयमे संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है। इस ही जीवके उस ही समयमें संज्वलनक्रोधके निषेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाप्रका स्वामित्व जानना चाहिए ॥ ५३-५४ ॥ शंका-संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट उदयस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥५५॥ समाधान-चरम-समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट उदयस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥५६॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार संज्वलन मान, माया और लोभकपायके उत्कृष्ट अग्रस्थितिक आदि चारो प्रकारके प्रदेशाग्रोका स्वामित्व जानना चाहिए । पुरुपवेदके चारो ही स्थितिप्राप्तक प्रदेशाग्रोका स्वामित्व संज्वलनक्रोधके स्वामित्वके समान जानना चाहिए। केवल इतनी विशेपता है कि उदयस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्र गुणितकर्माशिक और चरमसमयवर्ती पुरुषवेदी क्षपकके होता है । स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्तक प्रदेशाप्रका स्वामित्व मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए ॥५७-६०॥ शंका-स्त्रीवेदका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थिति-प्राप्त और निषेकस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥६१॥ समाधान-जिसने स्त्रीवेद और पुरुषवेदके कर्मप्रदेशाग्रको पूरित किया है, ऐसे स्त्रीवेदी संयतने अन्तर्मुहूर्त के भीतर दो वार कषायोका उपशमन किया । जब दूसरी उपशामनामें जघन्य स्थितिबन्धके प्रथम निषेककी स्थिति उदयको प्राप्त हुई, तब स्त्रीवेदका यथानिषेकसे और निषेकसे उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥६२॥ शंका-स्त्रीवेदका उत्कृष्ट उदयस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥६३॥ समाधान-गुणितकर्माशिक और चरमसमयवर्ती स्त्रीवेदक क्षपकके स्त्रीवेदका उद्यस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ६४ ॥ ३१ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રકર कसाय पाहुड सुत्त [७ स्थितिक-भधिकार तस्स उकस्सयमुदयट्टिदिपत्तयं । ६५. एवं णवंसयवेदस्स । ६६. णवरि णवंसयवेदोदयस्सेत्ति माणिदव्याणि । ६७. जहण्णयाणि द्विदिपत्तयाणि कायवाणि । ६८. सन्चकम्माणं पि अग्गद्विदिपत्तयं जहण्णयमेओ पदेसो, तं पुण अण्णदरस्स होज्ज । ६९. मिच्छत्तस्स णिसेयद्विदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च जहण्णयं कस्त। ७०. उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पडमसमयमिच्छाइटिस्स तप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलिङ्कस्स तस्स जहण्णयं णिसेयद्विदिपत्तयखुदयहिदिपत्तयं च । ७१. मिच्छत्तस्स जहण्णयमधाणिसेयढिदिपत्तयं कस्स ? ७२. जो एई दियट्ठिदिसंतकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो, वे छावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालियूण मिच्छत्तं गदो । तप्पाओग्ग-उक्कस्सिया मिच्छत्तस्स जावदिया आचाहा तावदिमसमयमिच्छाइडिस्स तस्स जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । चूर्णिसू०-इसी प्रकार नपुंसकवेदके उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रीका स्वामित्व जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि नपुंसकवेदके उदयवाले जीवके ही उनका स्वामित्व कहना चाहिए ॥६५-६६॥ चूर्णिसू०- अव इससे आगे जघन्य स्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रोकी प्ररूपणा करना चाहिए। मिथ्यात्व आदि सभी कर्मोंका जघन्य अग्रस्थितिको प्राप्त एक कर्म-प्रदेश होता है । और वह किसी भी एक जीवके हो सकता है ॥६७-६८॥ शंका-मिथ्यात्वका जघन्य निपेकस्थिति-प्राप्त और जघन्य उदयस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥६९॥ समाधान-उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आये हुये और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त ऐसे प्रथम-समयवर्ती मिथ्याष्टिके मिथ्यात्वका जघन्य निपेकस्थितिप्राप्त और जघन्य उदयस्थितिप्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥७॥ शंका-मिथ्यात्वका जघन्य यथानिपेकस्थितिक प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥७१॥ समाधान-जो जीव जघन्य एकेन्द्रियस्थितिसत्कर्मके साथ सोमे उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्तसे सम्यक्त्वको प्राप्त किया। पुनः दो वार छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका परिपालनकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। उसके योग्य मिथ्यात्वकी जितनी उत्कृष्ट आवाधा है, उतने समय तक मिथ्याष्टि रहनेवाले उस जीवके मिथ्यात्वका जघन्य यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥७२॥ विशेपार्थ-यहॉपर जो 'सोमे उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्तसे सम्यक्त्वको प्राप्त किया' ऐसा कहा है, उसका अभिप्राय यह है कि वह एकेन्द्रियोसे आकर जघन्य आयुवाले असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोमे उत्पन्न होकर अतिलघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा पर्याप्तियोको पूर्णकर पर्याप्तक हुआ और तत्काल ही देवायुका बन्ध करके मरणको प्राप्त हो देनीमे स्त्पन्न हुआ। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] स्थितिक स्वामित्व निरूपण २४३ ७३. जेण मिच्छत्तस्स रचिदो अधाणिसेओ तस्स चैव जीवस्स सम्मत्तस्स अधाणिसेओ कायaat | णवरि तिस्से उक्कस्सियाए सम्मत्तवाए चरिमसमए तस्स चरिमसमयसम्माइट्ठिस्स जहण्णयमधाणिसेयट्ठि दिपत्तयं । ७४. णिसेयादो च उदयादो च जहण्णयं द्विदिपत्तयं कस्स १७५. उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयमम्माइट्ठि - स्त तप्पा ओग्गउकस्ससंकि लिटुस्स तस्स जहण्णयं । ७६. सम्मत्तस्स जहण्णओ अहाणिसेओ जहा परूविओ तीए चेव परूवणाए सम्मामिच्छत्तं गओ, तदो उक्कस्सियाए सम्मामिच्छत्तद्धाए चरिमसमए जहण्णयं सम्मामिच्छत्तस्स अधाणिसेय ट्ठिदिपत्तयं । ७७, सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं णिसेयादो उदयादो च द्विदिपत्तयं कस्स १७८ सम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स तप्पा ओरगुक्कस्स संकिलिट्ठस्स । उवसम सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तक होकर, विश्राम कर और विशुद्धिको प्राप्त होकर सम्यक्त्वको प्राप्त किया । इस प्रकारके जीवके एकेन्द्रियो से निकलकर सम्यक्त्वको प्राप्त करने तक यद्यपि अनेक अन्तर्मुहूर्त हो जाते है, तथापि उन सब अतिलघु अन्तर्मुहूतों का योग एक अन्तर्मुहूर्त के ही भीतर आ जाता है, इसलिए उपयुक्त कथनमें कोई विरोध या बाधा नहीं समझना चाहिए । चूर्णिसू०-जिस जीवने मिथ्यात्वका यथानिषेक रचा है, उस ही जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिका भी यथानिषेक कहना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि उस सम्यक्त्व प्रकृति के उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमे वर्तमान उस चरमसमयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥ ७३ ॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका निषेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिप्राप्त प्रदेशाय किसके होता है ? ||७४ || समाधान-उपशमसम्यक्त्वको पीछे करके आये हुए, तथा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश से युक्त ऐसे प्रथमसमयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वप्रकृतिका निषेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिको प्राप्त प्रदेशाय होता है ।। ७५ ॥ चूर्णिलू० - जिस प्रकारसे सम्यक्त्वप्रकृति के जघन्य यथानिषेककी प्ररूपणा की, उसी ही प्ररूपणा से सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा भी की हुई समझना चाहिए । उससे यहॉपर केवल इतना भेद है कि उत्कृष्ट सम्यग्मिथ्यात्व कालके चरम समयमे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य यथानिषेक स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥७६॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वका निषेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिप्राप्त प्रदेशाय किसके होता है ? ॥७७॥ समाधान- उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आये हुए, तथा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त, ऐसे प्रथमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका निपेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥ ७८ ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ७ स्थितिक अधिकार ७९. अताणुबंधीणं णिसेयादो अधाणिसेयादोच जहण्णयं द्विदिपत्तयं कस्स १ ८०. जो एइ दियट्टि दिसंतकम्मेण जहण्णएण पंचिदिए गओ, अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडि - वण्णो, अनंताणुबंधी विसंजोइता पुणो पडिवदिदो, रहस्सकालेण संजोएऊण सम्मत्तं पडिवण्णो, वे छावट्टिसागरोवमाणि अणुपालियूण मिच्छत्तं गओ । तस्स आवलियमच्छाइट्टिस्स जहण्णयं णिसेयादो अधाणिसेयादो चट्ठिदिपत्तयं । ८१. उदयट्ठिदिपत्तयं जहण्णयं कस्स १८२. एह दियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो, तम्हि संजमा संजमं संजमं च बहुसो लट्टू चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता एड दिए गओ, असंखेजाणि चस्साणि अच्छियूण उवसामय समयपवद्ध सु गलिदेसु पंचिदिएस गदो । अंतोमुहुत्तेण अनंताणुबंधी विसंजोइता तदो संजोएऊण जहण्णएण तो मुहुत्तेण पुणो सम्मत्तं लद्घृण वे छावसिागरोमाणि अनंताणुवंधिणो गालिदा । तदो मिच्छत्तं गदो । तस्स आवलियमिच्छा डिस्स जहण्णयमुदयडिदिपत्तयं । २४४ ८३. वारसकसायाणं णिसेयडि दिपत्तयमुदयट्ठिदिपत्तयं च जहणणयं कस्स १ शंका- अनन्तानुबन्धी चारो कपायोका निषेकसे और यथानिषेकसे जघन्य स्थिति-प्राप्त प्रदेश किसके होता है १ ।। ७९ ।। समाधान - जो जीव जघन्य एकेन्द्रियस्थितिसत्कर्म के साथ पंचेन्द्रियोमे उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्तके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः अनन्तानुबन्धी कषायोका विसंयोजन करके गिरा और ह्रस्व ( सर्वं लघु ) कालसे अनन्तानुबन्धी कपायोका पुन: संयोजन किया । पुनः अति लघु अन्तर्मुहूर्त से सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । मिथ्यात्वको प्राप्त होने के एक आवली - कालके पश्चात् उस मिध्यादृष्टि जीवके अनन्तानुवन्धी कषायोका निपेकसे और यथानिपेकसे जघन्य स्थितिको प्राप्त प्रदेशाय होता है ॥ ८०॥ शंका- अनन्तानुबन्धी कषायोका जघन्य उदयस्थितिको प्राप्त प्रदेशाय किसके होता है ? ।। ८१ ।। समाधान - जो जीव जघन्य एकेन्द्रिय सत्कर्मके साथ सोमे उत्पन्न हुआ । वहाँ पर संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त करके, तथा चार वार कषायोको भी उपशमा करके एकेन्द्रियोमें चला गया । वहॉपर असंख्यात वर्ष तक रहकर उपशामक - समयप्रबद्धो के गल जानेपर पंचेन्द्रियोमे आया । अन्तर्मुहूर्त से अनन्तानुवन्धी कपायका विसंयोजन करके पुनः लघुकाल से संयोजन कर, पुनः जघन्य अन्तर्मुहूर्तसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर दो वार छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका परिपालन किया और अनन्तानुबन्धीके समयप्रबद्धोको गला दिया । तदनन्तर वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । तब उस आवली - प्रविष्ट मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबन्धी कषायोका जघन्य उदयस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥ ८२ ॥ शंका- अप्रत्याख्यानावरणादि वारहं कषायोका निषेकस्थिति प्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त जघन्य प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ८३ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२.] - स्थितिक अल्पबहुत्व निरूपण २४५ ८४. जो उवसंतकसाओ सो मदो देवो जादो, तस्स पढमसमयदेवस्त जणयं णिसेय - द्विपित्तयमुदयादिपत्तयं च । ८५. अधाणिसेयट्ठिदिपत्तयं जहण्णयं कस्स १८६. अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्पेण तसेसु उववण्णो, तप्पा ओग्गुकस्सट्टिदि बंधमाणस्स जदेही आवाहा, तावदिमसमए तस्स जणयमधाणि सेट्ठिदिपत्तयं । said काले कम्मट्ठदिअंतो स पि तसो ण आसी । ८७. एवं पुरिसवेद - हस्म -रह-भय- दुगु छाणं । ८८. इत्थि - णवुंसयवेद - अरदिसोगाणमधाणिसेयादो जहण्णयं द्विदिवत्तयं जहा संजलणाणं तहा कायव्वं । ८९. जम्हि अघाणिसेयादो जहणयं द्विदिपत्तयं तहि चैत्र णिसेयादो जहण्णयं द्विदिपत्यं । ९०. उदयडिदिपत्तयं जहां उदयादों झीणडिदियं जहण्णयं तहा णिरवयवं कायव्वं । ९१. अप्पाबहुअं । ९२. सव्वपयडीणं सव्वत्थोवमुक्कस्सयमग्गडिदिपत्तयं । समाधान- जो उपशान्तकषाय- वीतरागछद्मस्थ संयत मरकर देव हुआ, उस प्रथम - समयवर्ती देवके उक्त बारह कषायोका निषेकस्थिति प्राप्त और उदयस्थिति प्राप्त जघन्य प्रदेशाय होता है ॥ ८४ ॥ शंका- अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कपायोका यथानिपेकस्थितिप्राप्त जघन्य प्रदेशाय किसके होता है ? ॥ ८५ ॥ समाधान - जो जीव अभव्यसिद्धिकोके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ सो उत्पन्न हुआ । वहॉपर उत्पन्न होनेके प्रथम समयमे ही तत्प्रायोग्य संक्कु शके द्वारा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिको बांधा । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिको वॉधनेवाले उसके जितनी तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट आबाधा है, उतने समय तक उसके बारह कषायांका जघन्य यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है । यह जीव अतीतकाल मे कर्मस्थिति के भीतर एक वार भी सपर्यायमे उत्पन्न नही हुआ है ॥ ८६ ॥ विशेषार्थ - यहॉपर कर्मस्थिति से अभिप्राय पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक एकेन्द्रिय जीवोकी कर्मस्थिति से है, क्योकि उससे अधिक कर्मस्थिति के माननेपर प्रकृतमे उसका कोई लाभ नहीं दिखाई देता, ऐसा जयधवलाकारने स्पष्टीकरण किया है । चूर्णिसू० - इसी प्रकार पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका तीनो ही प्रकार - के स्थितिप्राप्त प्रदेशाोके स्वामित्वको जानना चाहिए । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोक इन प्रकृतियोके यथानिषेकसे जघन्य स्थितिको प्राप्त प्रदेशाके स्वामित्वकी प्ररूपणा संज्वलन - कषायोके समान करना चाहिए । जिस समयमे यथानिपेककी अपेक्षा जघन्य स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रका स्वामित्व होता है, उसी ही समय में निषेककी अपेक्षासे भी जघन्य स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रका स्वामित्व होता है । उपर्युक्त प्रकृतियो के जघन्य उदयस्थितिप्राप्तककी प्ररूपणा उदयकी अपेक्षा जघन्य क्षीणस्थितिक प्रदेशाय के समान अविकल रूपसे करना चाहिए ।। ८७-९० ।। चूर्णिसु०-अब उपर्युक्त अग्रस्थितिप्राप्त आदि चारो प्रकार के प्रदेशाप्रोका अल्पबहुत्व Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुन सुरु [७ स्थिनिक अधिकार ९३. उक्स्सयमधाणिसेयविदिपत्तयमसंखेज्जगुणं । ९४. णिसेयविदिपत्तयमुक्कस्सयं विसेसाहियं । ९५. उदयहिदिपत्तयमुक्कस्सयमसंखेजगुणं * | ९६. जहण्णयाणि कायवाणि । ९७. सव्वत्थोवं मिच्छत्तस्स जहण्णयमग्गद्विदिपत्तयं । ९८. जहण्णयं णिसेयट्ठिदिपत्तयं अणंतगुणं । ९९. जहण्णय मुदयट्ठिदिपत्तयं असंखेजगुणं । १००. जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयमसंखेज्जगुणं । १०१. एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-धारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रह-भय-दुगुंछाणं । १०२. अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवं जहण्णयमग्गहिदिपत्तयं । १०३. जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयमणंतगुणं । १०४. [ जहण्णयं ] णिसेयहिदिपत्तयं विसेसाहियं । १०५ जहण्णय मुदयविदिपत्तयमसंखेज्जगुणं । १०६. एवमित्थिवेद-ण_सयवेद-अरदि-सोगाणं । कहते हैं-मिथ्यात्व आदि सर्व प्रकृतियोके उत्कृष्ट अग्रस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र सबसे कम है । उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रोसे उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र असंख्यातगुणित है । उत्कृष्ट यथानिपेकस्थिति-प्राप्त प्रदेशाप्रोसे उत्कृष्ट निपेकस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उत्कृष्ट निपेकस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रोसे उत्कृष्ट उदयस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशान असंख्यातगुणित है ॥९१-९५॥ चूर्णिसू०-अव जघन्य स्थितिको प्राप्त अग्रस्थितिक आदिके प्रदेशाग्रोंका अल्पवहुत्व कहना चाहिए । मिथ्यात्वका जघन्य अपस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। क्योकि, वह एक परमाणुप्रमाण है। मिथ्यात्वके जघन्य अग्रस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रसे उसीका जघन्य निषेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाय अनन्तगुणित है । क्योकि, वह अनन्त परमाणु-प्रमाण है। मिथ्यात्वके जघन्य निषेकस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रसे उसीफा जघन्य उदयस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित है। मिथ्यात्वके जघन्य उदयस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रसे उसीका जवन्य यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित है । इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कपाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साके अग्रस्थितिक आदि चारोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए ॥९६-५०१।। चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धीकषायोका जघन्य अग्रस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। इन्हीं कपायोके जघन्य अग्रस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्रसे इनके ही जघन्य यथानिपेकस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र अनन्तगुणित हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य यथानिषेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्रसे इन्हीके (जघन्य) निषेकस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र विशेष अधिक है। अनन्तानुवन्धीचतुष्कके (जघन्य) निषेकस्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशाप्रोसे इन्हींके जघन्य उदयस्थितिको प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र असंख्यातगुणित हैं । इसी प्रकारसे स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'असखेजगुण' के स्थान पर 'विसेसाहिय' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ° ९५२ ) । पर इस सूत्रकी ही टीकाको देखते हुए वह स्पष्टरूपसे अशुद्ध है, क्योंकि टोकामे 'असख्यात. गुणित' गुणाकारका स्पष्ट उल्लेख है । ( देखो पृ० ९५३) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिक अल्पबहुत्व-निरूपण तदों 'डिदियं' ति पदस्स विहासा समत्ता । एत्थेव 'पयडीय मोहणिज्जा' एदिस्से मूलगाहाए अत्थो समत्तो । ठिदियं ति अहियारो समत्तो तदो पदेसविहत्ती सचूलिया समत्ता अति और शोकप्रकृतियोके अग्रस्थितिक आदि चारो प्रकार के प्रदेशाग्रोका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।। १०२-१०६॥ इस प्रकार चौथी मूलगाथा के 'ठिदियं वा' इस पदी विभाप समाप्त हुई । इसके साथ ही यहीं पर 'पयडीय मोहणिज्जा' इस मूलगाथाका अर्थ समाप्त हुआ । स्थितिक अधिकार समाप्त हुआ । इस प्रकार चूलिका सहित प्रदेशविभक्ति समाप्त हुई । गा० २२ ] २४७ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ बंधग-अत्थाहियारो १. बंधगेत्ति एदस्स वे अणियोगद्दाराणि । तं जहा-बंधो च संक्रमो च । २. एत्थ सुत्तगाहा । (५) कदि पयडीयो बंधदि हिदि-अणुभागे जहण्णमुक्कस्सं । संकामेइ कदि वा गुणहीणं वा गुणविसिढें ॥२३॥ ४ बंधक अर्थाधिकार कर प्रणाम जिन देवको सविनय वारस्वार । बंध और संक्रम कहूं, चूणि-सूत्र अनुसार ॥ अव ग्रन्थकार क्रम-प्राप्त चौथे वन्धक अर्थाधिकारको कहते हैं चूर्णिम् ०-इस बन्धक नामक अर्थाधिकारमे दो अनुयोगद्वार हैं । वे इस प्रकार हैं-बन्ध और संक्रम ।।१।। विशेषार्थ-कर्मरूप परिणमनके योग्य पौगलिक स्कन्धोका मिथ्यात्व आदि परिणामोके वशसे कर्मरूप परिणत होकर जीवके प्रदेशोके साथ एक क्षेत्रावगाहरूपसे संबद्ध होनेको वन्ध कहते हैं। वन्ध होनेके अनन्तर उन कर्म-प्रदेशोका परिणामोके वशसे परप्रकृतिरूपसे परिणत होनेको संक्रम या संक्रमण कहते है। ये दोनो ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार-चार प्रकारके होते हैं। यहाँ स्वभावतः यह शंका उठती है कि बंधक-अधिकारके भीतर ही संक्रमण-अधिकारको क्यो कहा ? उसे स्वतंत्र ही कहना चाहिए था ? इसका उत्तर यह है कि बन्धकी ही विशिष्ट अवस्थाको संक्रम कहते हैं । वस्तुतः वन्ध दो प्रकारका है-अकर्मवन्ध और कर्मवन्ध । अकर्मरूपसे अवस्थित कार्मण-वर्गणाओका आत्माके साथ संबद्ध होना अकर्मवन्ध है और विवक्षित कर्मरूपसे बंधे हुए पुद्गल-स्कन्धोका अन्य कर्मप्रकृतिरूपसे परिणमन होना कर्मवन्ध है । जैसे-असातावेदनीयरूपसे बंधे हुए कर्मका सातावेदनीयरूपसे परिणत होना । इस प्रकारसे संक्रम भी वन्धके ही अन्तर्गत आ जाता है। चूर्णिसू०-वन्ध और संक्रम इन दोनो अनुयोगद्वारोके विपयमे यह सूत्र-गाथा है ॥ २ ॥ (५) कितनी प्रकृतियोंको वॉधता है, कितनी स्थिति और अनुभागको वॉधता है, तथा कितने जघन्य और उत्कृष्ट परिमाणयुक्त प्रदेशोंको बाँधता है ? कितनी प्रकृतियोंका संक्रमण करता है, कितनी स्थिति और अनुभागका संक्रमण करता है, तथा कितने गुण-हीन या गुण-विशिष्ट जघन्य-उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रमण करता है ? ॥२३॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २३ ) चतुर्विध-बन्ध-संसूचन २४९ ३. एदीए गाहाए वंधो च संकमो च सूचिदो होइ । ४. पदच्छेदो । ५ तं जहा । ६. 'कदि पयडीओ बंधइ' त्ति पयडिबंधो । ७. 'द्विदि-अणुभागे' त्ति द्विदिबंधो अणुभागबंधो च । ८. 'जहण्णमुक्कस्सं त्ति पदेसबंधो । ९. 'संकामेदि कदि वा' त्ति पयडिसंकमो च द्विदिसंकमो च अणुभागसंकमो च गहेयव्यो। १०. 'गुणहीणं वा गुणविसिटुं' ति पदेससंकमो सूचिदो। ११. सो पुण पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधो बहुसो परूविदो। बंधग-अत्याहियारो समत्तो । विशेषार्थ-यह सूत्र-गाथा प्रश्नात्मक है और किस प्रश्नसे क्या सूचित किया गया है, इसका स्पष्टीकरण आगे चूर्णिकार स्वयं ही कर रहे है। चूर्णिसू०-इस गाथाके द्वारा बन्ध और संक्रम ये दोनो सूचित किये गये है । गाथाका पदच्छेद अर्थात् पदोका पृथक् पृथक् अर्थ इस प्रकार है-'कितनी प्रकृतियोको बॉधता है', इस पदसे प्रकृतिबन्ध सूचित किया गया है । 'स्थिति और अनुभाग' इस पदसे स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध सूचित किये गये है । 'जघन्य और उत्कृष्ट' इस पदसे प्रदेशबन्ध सूचित किया गया है । 'कितनी प्रकृतियोका संक्रमण करता है' इस पदके द्वारा प्रकृतिसंक्रम, ' स्थितिसंक्रम और अनुभागसक्रमको ग्रहण करना चाहिए । गाथाके 'गुणहीन और गुणविशिष्ट' इस अन्तिम अवयवसे प्रदेशसंक्रम सूचित किया गया है । इनमेसे वह प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध बहुत वार प्ररूपण किया गया है । ॥३-११॥ विशेषार्थ-कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकारोमेसे बन्धनामक चतुर्थ और संक्रमणनामक पंचम अर्थाधिकारका निरूपण 'कदि'पयडीओ बंधदि' इस पांचवी मूलगाथाके द्वारा किया गया है । वन्धके चार भेद है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशवन्ध । इसी प्रकार संक्रमणके भी चार भेद है-प्रकृतिसंक्रमण, स्थितिसंक्रमण, अनुभागसंक्रमण और प्रदेशसंक्रमण । गाथाके किस पदसे बन्ध और संक्रमणके किस भेदकी सूचना की गई है, यह चूर्णिकारने स्पष्ट कर दिया है । पुनः बन्धके चारो भेदोका वर्णन करना क्रम-प्राप्त था, किन्तु चूर्णिकारने उनका कुछ भी वर्णन न करके एकमात्र ग्यारहवे सूत्र-द्वारा इतना ही निर्देश किया है कि वह चारो प्रकारका बन्ध 'बहुशः प्ररूपित है'। जिसका अभिप्राय यह है कि ग्रन्थान्तरोमे इन चारो प्रकारके वन्धोका बहुत विस्तारसे वर्णन किया गया है, इस कारण मैं उनका यहॉपर कुछ भी वर्णन नही करूँगा । इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए जयधवलाकार लिखते है कि इसलिए 'महावन्ध' के अनुसार यहॉपर चारो प्रकारके वन्धोकी प्ररूपणा करनेपर वन्ध-नामक चौथा अर्थाधिकार समाप्त होता है। इस प्रकार वन्ध-नामक चौथा अर्थाधिकार समाप्त हुआ। ३२ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ संकम-अत्थाहियारो १. संकमे पयदं । २. संकमस्स पंचविहो उवकमा-आणुपुची णामं पमाणं वत्तव्वदा अत्थाहियारो चेदि । ३. एत्थ णिक्खेवो कायव्यो । ४. णामसंकमो ठवणसंकमो दव्यसंकमो खेत्तसंक्रमो कालसंकमो भावसंकमो चेदि । ५. णेगमो सब्वे ५ संक्रमण-अर्थाधिकार अब ग्रन्थकारके द्वारा पॉचवीं मूलगाथासे सूचित संक्रमण-नामक पाँचवें अर्थाधिकारका अवतार करते हुए यतिवृपभाचार्य उत्तर सूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-अव संक्रम प्रकृत है, अर्थात् संक्रमणका वर्णन किया जायगा ॥१॥ विशेषार्थ-इस संक्रमका अवतार उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम इन चार • प्रकारोसे होता है; क्योकि, इनके विना संक्रम-विपयक यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता है । ____ अब चूर्णिकार सर्वप्रथम उपक्रमके द्वारा संक्रमका अवतार करते है चूर्णिसू०-संक्रमका उपक्रम पांच प्रकारका है- आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार ॥२॥ विशेषार्थ-आनुपूर्वी-उपक्रम के तीन भेद हैं, उनमेसे पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा यह संक्रमअधिकार कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकारोमेसे पांचवां है । नाम-उपक्रमकी अपेक्षा 'संक्रम' यह गौण्यनामपद हैं, क्योकि, इसमे कर्मोंके संक्रमणका विस्तारसे वर्णन किया गया है । प्रमाणउपक्रमकी दृष्टि से इसका प्रमाण अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोकी अपेक्षा संख्यात है और अर्थकी अपेक्षा अनन्त है। वक्तव्यता-उपक्रमकी अपेक्षा संक्रमकी स्वसमयवक्तव्यता है । संक्रमका अर्थाधिकार चार प्रकारका है-प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम । इस पांचवे अर्थाधिकारमे इन्ही चारो प्रकारके संक्रमोका विवेचन किया जायगा। अब निक्षेप-उपक्रमका अवतार करते है चूर्णिसू०-यहॉपर संक्रमका निक्षेप करना चाहिए। वह छह प्रकार का है-नामसंक्रम स्थापनासंक्रम, द्रव्यसंक्रम, क्षेत्रसंक्रम, कालसंक्रम और भावसंक्रम ॥३-४॥ अब नयोका अवतार करते हैं चूर्णिसू०-नैगमनय उपयुक्त सर्व संक्रमणोको स्वीकार करता है। क्योकि, वह द्रव्य और पर्याय दोनोको ही विषय करता है। संग्रहनय और व्यवहारनय कालसंक्रमको छोड़ देते Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ गा०२३] संक्रमण-उपक्रम-निरूपण संकमे इच्छइ । ६. संगह-ववहारा कालसंकममवणेति । ७. उजुसुदो एदं च ठवणं च अवणेइ । ८. सदस्स णामं भावो य ।। ९. णोआगमदो दबसंकमो ठवणिज्जो। १०. खेत्तसंकमो जहा-उड्डलोगो संकतो । ११. कालसंकमो जहा-संकतो हेमंतो । १२. भावसंकमो जहा- संकंतं पेम्मं । १३. जो सो णोआगमदो दव्वसंकमो सो दुविहो-कम्मसंकमो च णोकम्मसंकमो च । १४. णोकम्मसंकमो जहा- कट्ठसंकमो *| १५. कम्मसंकमो चउविहो । तं जहा-पयडिसंकमो डिदिसंकमो अणुभागसंकमो पदेससंकमो चेदि । १६. पयडिसंक्रमो दुविहो । तं जहा-एगेगपयडिसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो च ।। है। क्योकि, संग्रहनयकी दृष्टिमे कालके भूत, भविष्यत् आदि भेद नहीं है और न व्यवहारनयकी अपेक्षा उनमे व्यवहार ही हो सकता है । ऋजुसूत्रनय कालसंक्रम और स्थापनासंक्रम- . को छोड़ देता है। क्योकि वह तद्भवसामान्य और सादृश्यसामान्यको विपय नहीं करता। शब्दनय नामसंक्रम और भावसंक्रमको ही विषय करते है। क्योकि शुद्ध पर्यायार्थिक रूपसे शब्दनयोमे शेष निक्षेपोको विषय करना संभव नहीं है । ॥ ५-८ ॥ अब निक्षेपकी अपेक्षा संक्रमकी प्ररूपणा की जाती है। ऊपर बतलाये गये छह प्रकारके निक्षेपोमे नामसंक्रम, स्थापनासंक्रम और आगमकी अपेक्षा द्रव्य-संक्रम ये तीनो सुगम हैं, अतएव उन्हे न कहकर चूर्णिकार शेष निक्षेपोका वर्णन करते है चूर्णिसू०-नोआगम-द्रव्यसंक्रम वहुवर्णनीय है, अतः उसे अभी स्थगित रखना चाहिए । क्षेत्रसंक्रम इस प्रकार है-ऊर्ध्वलोक संक्रान्त हुआ । अर्थात् ऊर्ध्वलोकवासी देवोके मध्यलोकमें आनेपर ऐसा व्यवहार होता है, यह क्षेत्रसंक्रम है। हेमन्त संक्रान्त हुआ, अर्थात् वर्षाऋतुके चले जानेपर अव हेमन्त ऋतुका आगमन हुआ है, यह कालसंक्रम है। प्रेम संक्रान्त हुआ, अर्थात् अन्य व्यक्तिपर जो स्नेह था, वह उससे हटकर किसी अन्य व्यक्तिपर चला गया, यह भावसंक्रम है ॥ ९-१२ ॥ चूर्णिसू०-जो पूर्वमे स्थगित नोआगमद्रव्यसंक्रम है, वह दो प्रकारका है-कर्मसंक्रम और नोकर्मसंक्रम । नोकर्मसंक्रम इस प्रकार है, जैसे-काष्ठसंक्रम ॥ १३-१४ ॥ विशेषार्थ-काष्ठकी बनी हुई नौका आदिके द्वारा एक स्थानसे अन्य स्थानपर जानेको काष्ठसंक्रम कहते है । यह उदाहरण उपलक्षणरूप है, अतः प्रस्तरसंक्रम, मृत्तिकासंक्रम, लोहसंक्रम आदि अनेक प्रकारके सव द्रव्याश्रित संक्रम इस नोकर्मसंक्रमके अन्तर्गत आ जाते है। चूर्णिसू०-कर्मसंक्रम चार प्रकारका है :-प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम । इनमेसे प्रकृतिसंक्रमके दो भेद हैं। वे इस प्रकार है-एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम ॥ १५-१६ ॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्रके आगे वह एक सूत्र और मुद्रित है-"णईतोये अण्णत्थ वा कत्थ चि कट्टाणि हविय जेणिच्छिदपदेस गच्छंति सो कट्ठमओ संकमो'। (देखो पृ० ९६०) पर वस्तुतः यह सूत्र नहीं, किन्तु टीकाका अश है, जिसमें कि 'काष्ठसंक्रमकी व्याख्या की गई है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रमण-अर्थाधिकार १७. पयडिसंकमे पयदं । १८. तत्थ तिणि सुत्तगाहाओ हवंति । १९ तं जहा । संकम-उवकमविही पंचविहो चउव्विहो य णिवेवो। णयविहि पयदं पयदे च णिगमो होइ अट्ठविहो ॥२४॥ एक्काए संकयो दुविहो संकमविही य पयडीए । संकमपडिरमहविही पडिरगहो उत्तम-जहण्णो ॥२५॥ पयडि-पयडिट्ठाणेसु संकमो अॅकमो तहा दुविहो । द्वाविहो पडिस्गहविही दविहो अपडिग्गहविही य ॥२६॥ चूर्णिसू०-यहाँ एकैकप्रकृतिसंक्रम प्रकृत है। उसमे तीन सूत्रगाथाएँ निबद्ध हैं । वे इस प्रकार है ।। १७-१९ ।। विशेषार्थ-मूलप्रकृतियोका संक्रमण नहीं होता है, अतः यहॉपर उत्तरप्रकृतियोके संक्रमणके ही दो भेद किये गये है-एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थान्संक्रम। मिथ्यात्व आदि पृथक्-पृथक् प्रकृतियोंका आलम्बन करके जो संक्रमणकी गवेषणा की जाती है, उसे एकैकप्रकृतिसंक्रम कहते है। तथा एक समयमे जितनी प्रकृत्तियोका संक्रमण सम्भव हो, उनको एक साथ लेकर जो संक्रमणकी मार्गणा की जाती है, उसे प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते है । यहॉपर 'स्थान' शब्दको समुदायका वाचक जानना चाहिए । संक्रमकी उपक्रम विधि पाँच प्रकार की है, निक्षेप चार प्रकारका है, नयविधि भी प्रकृतमें विवक्षित है और प्रकृतमें निर्गम भी आठ प्रकार का है। प्रकृतिसंक्रम दो प्रकार का है-एक एक प्रकृतिमें संक्रम अर्थात् एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिमें संक्रमविधि अर्थात् प्रकृतिस्थानसंक्रम | संक्रममें प्रतिग्रह विधि होती है और वह उत्तम अर्थात् उत्कृष्ट और जघन्य होती है ।।२४-२५॥ विशेषार्थ-प्रथम गाथाके द्वारा प्रकृतिसंक्रमके उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम रूप चार प्रकारके अवतारकी प्ररूपणा की गई है। दूसरी गाथाके पूर्वार्धके द्वारा आठ निर्गमोमेसे प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम इन दोका और उत्तरार्धके द्वारा प्रकृतिप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह इन दोका, इस प्रकार चार निर्गमोका निर्देश किया गया है । प्रकृतिमें संक्रम और प्रकृतिस्थानमें संक्रम, इस प्रकार संक्रमके दो भेद हैं । इसी प्रकार से असंक्रम भी दो प्रकारका होता है-प्रकृति-असंक्रम और प्रकृतिस्थानअसंक्रम । प्रतिग्रहविधि दो प्रकारकी होती है-प्रकृति-प्रतिग्रह और प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह । इसी प्रकार अप्रतिग्रहविधि भी दो प्रकारकी होती है-प्रकृति-अप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थान-अप्रतिग्रह । इस प्रकार निर्गम के आठ भेद होते हैं ॥२६॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २६] प्रकृतिसंक्रमण-उपक्रम-निरूपण २५३ २०. एदाओ तिषिण गाहाओ पयडिसंकमे । २१. एदासिं गाहाणं पदच्छेदो। २२. तं जहा । २३. 'संकम उवकमविही पंचविहो' त्ति* एदस्स पदस्स अत्थो-पंचविहो उवकमो, आणुपुव्वी णामं पमाणं वत्तव्यदा अत्थाहियारो चेदि । २४. 'चउत्रिहो य णिक्खेवो' त्ति णाम-हवणं वज्ज, दव्वं खेत्तं कालो भावो च । २५. 'णयविधि पयद' ति एत्थ णओ वत्तव्यो । २६. 'पयदे च णिग्गमो होइ अट्टविहो' त्ति-पयडिसंकमो पयडि-असंक्रमो पयडिट्ठाणसंकमो पयडिट्ठाण-असंकयो पयडिपडिग्गहो पयडि-अपडिग्गहो विशेषार्थ-निकलनेको निर्गम कहते है । प्रकृतमे संक्रम विवक्षित है, अतः उसकी अपेक्षा निर्गमके तीसरी सूत्रगाथामे आठ भेद बतलाये गये हैं। उनका संक्षेपमे अर्थ इस प्रकार है-मिथ्यात्वप्रकृतिका सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे परिवर्तित होनेको प्रकृतिसंक्रम कहते है ( १ )। मिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टिमे रहना, सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें रहना, यह प्रकृति-असंक्रम कहलाता है (२) । मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिमे सत्ताईस प्रकृतिरूप स्थानके परिवर्तनको प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते हैं (३) । अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्याष्टिका अट्ठाईस प्रकृतियोके सत्त्वरूप स्थानमे ही रहना प्रकृतिस्थान-असंक्रम कहलाता है (४)। मिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टिमे पाया जाना यह प्रकृति-प्रतिग्रह कहलाता है (५)। मिथ्यात्वमे सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रमित नहीं होनेको, अथवा दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमे और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमे संक्रमण नही होनेको प्रकृति-अप्रतिग्रह कहते है (६) । मिथ्यादृष्टिमे बाईस प्रकृतियोके समुदायरूप स्थानके पाये जानेको प्रकृतिस्थान-प्रतिग्रह कहते है (७) । मिथ्यादृष्टिमें सोलह प्रकृतिरूप स्थानके नहीं पाये जानेको प्रकृतिस्थान-अप्रतिग्रह कहते हैं (८) । इस प्रकार निर्गमके आठ भेद है। चूर्णिसू०-प्रकृति-संक्रममे ये उपयुक्त तीन गाथाएँ निबद्ध है। अब इन गाथाओका पदच्छेद किया जाता है। वह इस प्रकार है-'संक्रम-उपक्रमविधि पाँच प्रकारकी है', प्रथम गाथाके इस प्रथम पदका यह अर्थ है-संक्रमसम्बन्धी उपक्रमके पॉच भेद है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । 'निक्षेप चार प्रकारका होता है' इस द्वितीय पदका यह अर्थ है-पहले जो निक्षेपके छह भेद बतलाये गये है, उनमेसे नाम और स्थापनाको छोड़कर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, ये चार निक्षेप प्रकृतमे ग्रहण करना चाहिए। 'नयविधि प्रकृत है' गाथाके इस तीसरे पदका यह अर्थ है कि यहॉपर नय कहना चाहिए। 'प्रकृतमे निर्गम आठ प्रकारका है' गाथाके इस अन्तिम पदका यह अर्थ है कि निर्गमके आठ भेद है-( १ ) प्रकृतिसंक्रम, (२) प्रकृति-असंक्रम, (३) प्रकृतिस्थानसंक्रम, ( ४ ) प्रकृति ___® ताम्रपत्रवाली प्रतिमें आगेके सूत्रागको टीकाका अग बना दिया है, जब कि इस सूत्रकी टीका 'सकमउवकमविही पचविहो त्ति एदस्स पढमगाहापुव्वद्धावयवपयदस्स' यहाँ से प्रारभ होती है। (देखो पृ० ९६२ ) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रमण अर्थाधिकार पयडिट्ठाणपडिग्गहो पयडिट्ठाण-अपडिग्गहो त्ति एसो णिग्गमो अट्ठविहो । २७. 'एकेकाए संकमो दुविहो संकमविही य पयडीए' त्ति पदस्स अत्थो कायव्यो । २८. 'एकेकाए' त्ति एगेगपयडि संकमो, दुविहो त्ति 'संकमो दुविहो' त्ति भणियं होइ । 'संकमविही य' त्ति पयडिट्ठाणसंकमो । 'पयडीए' त्ति पयडिसंकमो त्ति भणियं होइ । २९. 'संकमपडिग्गहविहि' त्ति संकमे पयडिपडिग्गहो । ३०. 'पडिग्गहो उत्तम-जहणणो' त्ति पयडिहाणपडिग्गहो। ३१. 'पयडि-पयडिहाणेसु संकमो' त्ति पयडिसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो च । ३२. 'असंकमो तहा दुविहो' त्ति पयडि-असंकमो पयडिहाण-असंकमो च । ३३. 'दुविहो पडिग्गहविहि' त्ति पयडिपडिग्गहो पयडिट्ठाणपडिग्गहो च । ३४. 'दुविहो स्थान-असंक्रम, (५) प्रकृति-प्रतिग्रह, (६) प्रकृति-अप्रतिग्रह, (७) प्रकृतिस्थान-प्रतिग्रह और ( ८ ) प्रकृतिस्थान-अप्रतिग्रह, इस प्रकार निर्गमके आठ भेद होते हैं । यह प्रथम सूत्रगाथाकी विभाषा है ।।२०-२६॥ चूर्णिसू०-अव दूसरी गाथाके 'एकेकाए संकमो दुविहो संकमविही व पयडीए' इस पूर्वार्धका अर्थ करना चाहिए । वह इस प्रकार है :- 'एक्काए' इस पदका अर्थ 'एकैकप्रकृतिसंक्रम' है। 'दुविहो त्ति' इस पद का अर्थ है कि 'संक्रम दो प्रकारका होता है। 'संकमविही य' इस पदका अर्थ 'प्रकृतिस्थानसंक्रम हैं' और 'पयडीए' इस पदका अर्थ 'प्रकृतिसंक्रम' है । इस प्रकार पूर्वार्धका सीधा अर्थ यह हुआ कि 'प्रकृतिका संक्रम दो प्रकारका होता है-एक-एक प्रकृतिका संक्रम अर्थात् एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिमे संक्रमविधि अर्थात् प्रकृतिस्थानसंक्रम । 'संक्रमपडिग्गहविहीं' गाथाके इस तृतीय चरणका अर्थ 'संक्रममे प्रकृति-प्रविग्रह' है। 'पडिग्गहो उत्तम-जहण्णो' गाथाके इस चतुर्थ चरणका अर्थ प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह है । इस प्रकार समुच्चयरूपसे इस गाथाके द्वारा चार निर्गम सूचित किये गये हैंप्रकृति-संक्रम, प्रकृतिस्थान-संक्रम, प्रकृति-प्रतिग्रह और प्रकृतिस्थान-प्रतिग्रह । यह दूसरी सूत्रगाथाकी विभापा है ॥२७-३०॥ चूर्णिसू०-अव तीसरी गाथाका अर्थ करते हैं-'पयडि-पयडिट्ठाणेसु संकमो' गाथाके इस प्रथम अवयवका अर्थ-प्रकृति-संक्रम और प्रकृतिस्थान-संक्रम है। 'असंकमो तहा दुविहो' गाथाके इस दूसरे पदका अर्थ-असंक्रम दो प्रकारका होता है-प्रकृति-असंक्रम और प्रकृतिस्थान-असंक्रम । 'दुविहो पडिग्गहविही' गाथाके इस तीसरे पदका अर्थ है कि प्रतिग्रहविधि दो प्रकारकी है-प्रकृति-प्रतिग्रह और प्रकृतिस्थान-प्रतिग्रह । 'दुविहो अपडिग्गहविही य' गाथाके इस अन्तिम चरणका अर्थ है कि अप्रतिग्रहविधि भी दो प्रकारकी होती १ परिणमयह जीसे त पगईइ पडिग्गहो एसो'। यत्या प्रकृती आधारभूतायां तत्प्रकृत्यन्तरस्थ दलिक परिणमयति आधारभूतप्रकृतिरूपतामापादयति' एषा प्रकृतिराधारभूता पतद्ग्रह इव पतद्ग्रहः संक्रम्यमाणप्रकृत्याधार इत्यर्थः । कम्मप ० संक्र० ११२ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ गा० २२] एकैकप्रकृतिसंक्रमण-स्वामित्व-निरूपण अपडिग्गहविही य' त्ति पयडि-अपडिग्गहो पयडिट्ठाण-अपडिग्गहो च । ३५. एस सुत्तफासो। ३६. एगेगपयडिसंकमे पयदं * ३७. एत्थ सामित्तं । ३८. मिच्छत्तस्स संकामओ को होइ ? ३९. णियमा सम्माइट्ठी । ४०. वेदगसम्माइट्ठी सव्यो । ४१. उवसामगो च णिरासाणो । ४२. सम्मत्तस्स संकामओ को होइ ? ४३. णियमा मिच्छाइट्ठी सम्मत्तसंतकम्मिओ। ४४. णवरि आवलियपविट्ठसम्मत्त संतकम्मियं वज्ज । है-प्रकृति-अप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थान-अप्रतिग्रह । इस प्रकार प्रथम गाथाके द्वारा सूचित आठ निर्गमोका इस तीसरी गाथाके द्वारा गाथासूत्रकारने स्वयं नामोल्लेख कर दिया है। यह सूत्रस्पर्श है, अर्थात् गाथासूत्रोका पदच्छेदपूर्वक संक्षेपसे अर्थ किया गया है ॥३१-३५॥ ___चूर्णिसू०-एकैकप्रकृतिसंक्रम प्रकृत है, अर्थात् प्रतिग्रह आदि अवान्तर भेदोके साथ एकैकप्रकृतिसंक्रमका निरूपण किया जायगा ॥३६॥ विशेषार्थ-इस एकैकप्रकृतिसंक्रमके चौबीस अनुयोगद्वार है-१ समुत्कीर्तना, २ सर्वसंक्रम, ३ नोसर्वसंक्रम, ४ उत्कृष्टसंक्रम, ५ अनुत्कृष्टसंक्रम, ६ जघन्यसंक्रम ७ अजघन्यसंक्रम, ८ सादिसंक्रम, ९ अनादिसंक्रम, १० ध्रुवसंक्रम, ११ अध्रु वसंक्रम, १२ एकजीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ काल, १४ अन्तर, १५ नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, १६ भागाभाग १७ परिमाण, १८ क्षेत्र, १९ स्पर्श, २० काल, २१ अन्तर, २२ सन्निकर्ष, २३ भाव और २४ अल्पवहुत्व । इनमेसे समुत्कीर्तनाको आदि लेकर अ६ वसंक्रम तकके ग्यारह अनुयोगद्वारोका प्ररूपण सुगम एवं अल्प वर्णनीय होनेसे चूर्णिकारने नहीं किया है। विशेष जिज्ञासुओको जयधवला टीकासे जानना चाहिए । चूर्णिसू०-यहॉपर उक्त चौबीस अनुयोगद्वारोमेसे एक जीवकी अपेक्षा संक्रमणके स्वामित्वका निरूपण किया जाता है ॥३७॥ शंका-मिथ्यात्वका संक्रमण करनेवाला कौन जीव है १ ॥३८॥ समाधान-नियमसे सम्यग्दृष्टि है। संक्रमणके योग्य मिथ्यात्वकी सत्तावाले सर्व वेदकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वका संक्रमण करते है। तथा निरासान अर्थात् आसादना या विराधनासे रहित सभी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी मिथ्यात्वका संक्रमण करते है ॥३९-४१॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रामक कौन जीव है ? ॥४२॥ समाधान-सम्यक्त्वप्रकृतिकी सत्ता रखनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रामक होता है। केवल आवली-प्रविष्ट सम्यक्त्वसत्कर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवको छोड़ देना चाहिए, अर्थात् जिसके एक आवलीकालप्रमाण ही सम्यक्त्वप्रकृतिकी सत्ता शेष रह ___ * तत्थ चउवीसमणियोगद्दाराणि होति । त जहा-समुक्त्तिणा सव्वसकमो पोसव्वसकमो उक्कस्ससकमो अणुकस्ससकमो जहण्णसकमो अजहण्णसकमो सादियसकमो अणादियसंकमो धुवसकमो अद्भुवसंकमो एकजीवेण सामित्त कालो अतर णाणाजीवेहि भगविचओ भागाभागो परिमाण खेत्त पोसण कालो अतर सण्णियासो भावो अप्पाबहुअ चेदि । जयध Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार ४५. सम्मामिच्छत्तस्स संकामओ को होइ ? ४६. मिच्छाइट्ठी उच्चेल्लमाणओ । ४७. सम्माट्ठी वा णिरासाणो । ४८. मोत्तूण पढमसमयसम्मामिच्छत्तसंतकम्मियं । ४९. दंसणमोहणीयं चरितमोहणीए ण संकमइ । ५०. चरितमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमह । ५१. अणंताणुबंधी जत्तियाओ चज्झति चरित्तमोहणीयपडीओ तासु सव्वासु संकमइ । ५२. एवं सव्वाओ चरितमोहणीयपयडीओ । ५३. ताओ पणुवीसं पि चरित्त मोहणीयपपडीओ अण्णदरस्त संकर्मति । ५४. एयजीवेण कालो । ५५. मिच्छत्तस्स संकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ५६. जहणेण अंतोमुहुत्तं । ५७. उकस्सेण छाबडिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ५८. सम्मत्तस्स संकामओ केवचिरं कालादो होदि १५९. जहणेण अंतोमुहुत्तं । ६०. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ६१. सम्मामिच्छत्तस्स संकामओ केवचिरं कालादो होदि १६२. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ६३. उकस्सेण वे छावट्टिसागरोचमाणि गई हो, वह मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रमण नहीं करता है ॥४३-४४॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक कौन जीव है ? ॥ ४५ ॥ समाधान - सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला मिध्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व - का संक्रामक होता है । आसादनासे रहित उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक होता है । तथा प्रथम समय मे सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीवको छोड़कर सर्व वेदकसम्यग्दृष्टि भी सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक होते है ||४६-४८।। चूर्णि सू० - दर्शनमोहनीय कर्म चारित्रमोहनीयकर्मसे संक्रमण नहीं करता है । चारित्रमोहनीयकर्म भी दर्शनमोहनीय कर्ममे संक्रमण नहीं करता है । चारित्रमोहनीय कर्म की जितनी प्रकृतियाँ बँधती हैं, उन सबमे अनन्तानुवन्धीका संक्रमण होता है । इसी प्रकार सर्व चारित्र - मोहनीय - प्रकृतियाँ भी अनन्तानुवन्धीमे संक्रमण करती है | चारित्रमोहनीयकी ये पच्चीसो ही प्रकृतियाँ किसी भी एक प्रकृतिमे संक्रमण करती है ।।४६-५३ ।। चूर्णिसू० ० - अब एक जीवकी अपेक्षा संक्रमणका काल कहते है ||५४ || शंका- मिथ्यात्व के संक्रमणका कितना काल है ? ॥ ५५ ॥ · . समाधान - मिथ्यात्व के संक्रमणका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छयासठ सागरोपम है ||५६-५७॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति के संक्रमणका कितना काल है ? || ५८|| समाधान-सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रमणका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।।५९-६०॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रमणका कितना काल है ? ॥ ६१ ॥ समाधान- सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रमणका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक दो वार छयासठ सागरोत्रम है ॥ ६२-६३॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति-संक्रामक अन्तर - निरूपण २५७ गा० २६ ] सादिरेयाणि । ६४. सेसाणं पि पणुवीसं पयढीणं संकामयस्स तिणि भंगा । ६५. तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो, जहण्णेण अंतोमुद्दत्तं । उक्कस्सेण उबडूपोग्गल - परिय ं । ६६. एयजीवेण अंतरं । ६७. मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं संकामयं तरं केवचिरं कालादो होदि १ ६८. जहणेण अंतोमुहुत्तं । ६९ उकस्सेण उवडूपोग्गलपरियङ्कं । ७०. णवरि सम्मामिच्छत्तस्त संकामयंतरं जणेण एयसमओ | ७१. अनंताणुबंधी संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ९ ७२. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ७३. उकस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ७४. सेसाणमेकवीसा पडणं कामयंतरं केवचिरं कालादो होड़ १ ७५. जहण्णेण एयसमओ । ७६. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ७७. णाणाजीवेहि भंगविचओ ७८. जेसिं पयडीणं संतकम्ममत्थि तेसु पयदं । ७९. मिच्छत्त - सम्मत्ताणं सव्वजीवा णियमा संकामया च असंकामया च । चूर्णिसू० - चारित्रमोहनीयकी शेष पच्चीस प्रकृतियो के संक्रमणकालके तीन भंग हैअनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि- सान्त । इनमें जो सादि - सान्तकाल है, उसकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियो के संक्रमणका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाधपुद्गल - परिवर्तन है ।। ६४-६५॥ चूर्णिसू०. ० - अब एक जीवकी अपेक्षा प्रकृति-संक्रमणका अन्तर कहते हैं ॥ ६६ ॥ शंका- मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥६७॥ समाधान- इन तीनो प्रकृतियोके संक्रमणका जधन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गल परिवर्तन है । केवल सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमणका जघन्य अन्तरकाल एक समय होता है ।। ६८-७० ॥ शंका- अनन्तानुबन्धी कपायोके संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥७१॥ समाधान - अनन्तानुवन्धी कपायोके संक्रमणका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो वार छ्यासठ सागरोपम है ।।७२-७३ ॥ शंका- चारित्रमोहनीयकी शेष इक्कीस प्रकृतियो के संक्रमणका अन्तरकाल कितना ? ॥ ७४ ॥ समाधान - चारित्रमोहनीयकी शेष इक्कीस प्रकृतियोके संक्रमणका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७५-७६ ॥ चूर्णि सू (० - अब नानाजीवोकी अपेक्षा प्रकृति-संक्रामकका भंग-विचय कहते है - जिन प्रकृतियोंका सत्कर्म अर्थात् सत्त्व है, उनमे ही भंग-विचय प्रकृत है । मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके सर्व जीव नियमसे संक्रामक भी होते हैं, और असंक्रामक भी होते हैं । सम्य ३३ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ कसाय- पाहुड सुन्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार ८०. सम्मामिच्छत्त- सोलसकसाय - णवणोकसायाणं च तिणि भंगा कायव्वा । ८१. णाणाजीवेहि कालो । ८२. सव्वकम्माणं संकामया केवचिरं कालादो होंति ? ८३. सव्वदा । ८४. णाणाजीवेहि अंतरं । ८५. सव्त्रकम्मसंकामयाणं णत्थि अंतरं । ८६. सणियासी । ८७ मिच्छत्तस्स संक्रामओ सम्मामिच्छत्तस्स सिया संकामओ, सिया असंकामओ । ८८. सम्मत्तस्स असंकामओ । ८९. अनंताणुवंधीणं सिया कम्मंसिओ, सिया अकम्मंसिओ । जदि कम्मंसिओ, सिया संकामओ, सिया असंकामओ । ९०. सेसाणमेकवीसाए कम्माणं सिया संकामओ सिया असं कामओ । ९१. एवं सण्णियासो कायव्वो । मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नव नोकपायोके तीन भंग करना चाहिए । अर्थात् कदाचित् सर्व जीव संक्रामक होते है ( १ ) । कदाचित् अनेक जीव असंक्रामक होते है, और कोई एक जी संक्रामक होता है ( २ ) । कदाचित् अनेक जीव संक्रामक और अनेक जीव असंक्रामक होते है ( ३ ) ||७७-८०॥ चूर्णिसू० 10- अब नाना जीवोकी अपेक्षा प्रकृतिसंक्रमणका काल कहते है ॥ ८१ ॥ शंका- मोहनीयकी सर्व कर्मप्रकृतियो के संक्रमणका कितना गल है ? ॥८२॥ समाधान - सर्वकाल है, अर्थात् मोहनीयकर्मकी सभी प्रकृतियो के संक्रमण करनेवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं ॥ ८३ ॥ चूर्णिसू ० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा प्रकृतिसंक्रमणका अन्तर कहते है - मोहनीयकर्मकी सर्व प्रकृतियो से किसी भी प्रकृतिका नाना जीवोकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, अर्थात् मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोके संक्रामक जीव सर्वं काल पाये जाते है ।।८४-८५ ।। चूर्णिसू० ० - अब प्रकृति - संक्रामकका सन्निकर्म कहते है - मिथ्यात्वका संक्रमण करने - वाला जीव सम्यग्ध्यिात्वका कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित असंक्रामक होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिका असंक्रामक होता है । अनन्तानुवन्धी कपायोका कदाचित् कर्माशिक (सत्ता युक्त) होता है और कदाचित् अकर्माशिक ( सत्ता-रहित ) होता है । यदि कर्माशिक है, तो कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित् असंक्रामक होता है। शेप इक्कीस कर्मप्रकृतियों - का कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित् असंक्रामक होता है । जिस प्रकार मिथ्यात्वको निरुद्ध करके शेप प्रकृतियोका सन्निकर्ष किया, इसी प्रकारसे शेप कर्मप्रकृतियोका भी सन्नि - कर्प करना चाहिए ||८६-९१।। ताम्रपत्रवाली प्रतिमं इस सूत्र की टीका के पञ्चात् 'भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो' यह सूत्र भी मुद्रित है (देखो पृष्ठ ९८० ) । पर यह वस्तुतः सूत्र नहीं, किन्तु उच्चारणावृत्तिका ही अग है, क्योंकि, उसपर जयधवलाकारने टीका रूपसे 'सुगम' आदि कुछ भी नहीं लिखा है । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६] प्रकृतिसंकामक-अल्पबहुत्व-निरूपण २५९ ___९२. अप्पाबहुअं । ९३. सव्वत्थोवा सम्मत्तस्स संकामया । ९४. मिच्छत्तस्स संकामया असंखेजगुणा । ९५. सम्मामिच्छत्तस्स संकायया विसेसाहिया । ९६. अणंताणुबंधीणं संकामया अणंतगुणा । ९७. अट्ठकसायाणं संकायया विसेसाहिया,। ९८ लोभसंजलणस्स संकामया विसेसाहिया । ९९. णवूसयवेदस्स संकामया विसेसाहिया। १००. इत्थिवेदस्स संकामया विसेसाहिया । १०१. छण्णोकसायाणं संकामया विसेसाहिया । १०२ पुरिसवेदस्स संकामया विसेसाहिया । १०३. कोहसंजलणस्स संकामया विसेसाहिया । १०४. माणसंजलणस्स संकामया विसेसाहिया । १०५. मायासंजलणस्स संकामया विसेसाहिया । १०६. णिरयगदीए सव्वत्थोवा सम्मत्तसंकामया । १०७. मिच्छत्तस्स संकामया असंखेजगुणा । १०८. सम्मामिच्छत्तस्स संकामया विसेसाहिया । १०९. अणंताणुबंधीणं संकामया असंखेज्जगुणा। ११०. सेसाणं कम्माणं संकामया तुल्ला विसेसाहिया । १११. एवं देवगदीए । ११२. तिरिक्खगईए सव्वत्थोवा सम्मत्तस्स संकामया । ११३. मिच्छत्तस्स चर्णिमु०-अव प्रकृति-संक्रामकोका अल्पबहुत्व कहते है-सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामक जीव वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामकोसे मिथ्यात्वके संक्रामक असंख्यातगुणित हैं। मिथ्यात्वके संक्रामकोसे सम्यग्मिथ्यात्वसे संक्रामक विशेष अधिक हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकोसे अनन्तानुवन्धी कपायोके संक्रामक अनन्तगुणित हैं । अनन्तानुबन्धी कपायोके संक्रामकोसे आठ मध्यम कपायोके संक्रामक विशेष अधिक है। आठ मध्यम कपायोके संक्रामकोसे संज्वलनलोभके संक्रामक विशेप अधिक है। संज्वलनलोभके संक्रामकोसे नपुंसकवेदके संक्रामक विशेष अधिक है। नपुंसकवेदके संक्रामकोंसे स्त्रीवेदके संक्रामक विशेप अधिक है। स्त्रीवेदके संक्रामकोसे हास्यादि छह नोकपायोंके संकामक विशेष अधिक है। हास्यादि छह नोकपायोके संक्रामकोसे पुरुषवेदके संक्रामक विशेप अधिक है। पुरुपवेदके संक्रामकोसे संज्वलनक्रोधके संक्रामक विशेष अधिक है। संज्वलनक्रोधके संक्रामकोसे संज्वलनमानके संक्रामक विशेष अधिक है। संज्वलनमानके संक्रामकोसे संज्वलनमायाके संक्रामक विशेप अधिक है ॥९२-१०५।। चूर्णिसू०-नरकगतिमे सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामक जीव सबके कम हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामकोसे मिथ्यात्वके संक्रामक असंख्यातगुणित है। मिथ्यात्वके संक्रामकोसे सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकोसे अनन्तानुवन्धीकपायोके संक्रामक असंख्यातगुणित है। अनन्तानुबन्धीकषायोके संक्रामकोसे शेप मोहनीयप्रकृतियोके संक्रामक परस्पर तुल्य और विशेप अधिक है। देवगतिमे संक्रामक-सम्बन्धी अल्पबहुत्व नरकगतिके समान जानना चाहिए ॥१०६-१११॥ चूर्णिसू०-तिर्यंचगतिमे सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामक सबसे कम है । सम्यक्त्वप्रकृतिके Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार संकामया असंखेज्जगुणा । ११४. सम्मामिच्छत्तस्स संकामया विसेसाहिया । ११५. अणंताणुबंधीणं संकामया अणंतगुणा । ११६. सेसाणं कम्माणं संकामया तुल्ला विसेसाहिया । ११७. मणुसगईए सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स संकामया । ११८. सम्मत्तस्स संकामया असंखेज्जगुणा । ११९. सम्मामिच्छत्तस्स संकामया विसेसाहिया। १२०. अणंताणुबंधीणं संकामया असंखेजगुणा। १२१. सेसाणं कम्माणं संकामया ओघो। १२२. एइंदिएसु सव्वत्थोवा सम्मत्तस्स संकामया । १२३. सम्मामिच्छत्तस्स संकामया विसेसाहिया । १२४. सेसाणं कम्माणं संकामया तुल्ला अणंतगुणा । १२५. एत्तो पयडिट्ठाणसंकमो। १२६. तत्थ पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्कित्तणा । १२७. तं जहा । अट्ठावीस वउवीस सत्तरस सोलसेव पण्णरसा । एदे खलु मोत्तणं सेसाणं संकमो होई ॥२७॥ संक्रामकोसे मिथ्यात्वके संक्रामक असंख्यातगुणित हैं । मिथ्यात्वके संक्रामकोसे सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेष अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकोसे अनन्तानुबन्धीकपायोके संक्रामक अनन्तगुणित है। अनन्तानुवन्धीकषायोके संक्रामकोसे शेप मोहकर्मकी प्रकृतियोके संक्रामक परस्पर तुल्य और विशेष अधिक हैं ॥११२-११६।। चूर्णिसू०-मनुष्यगतिमे मिथ्यात्वके संक्रामक्र सबसे कम है। मिथ्यात्वके संक्रामकोंसे सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामक असंख्यातगुणित है। सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामकोसे सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेप अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकोसे अनन्तानुवन्धीकपायोके संक्रामक असंख्यातगुणित हैं । शेप कर्मोंके संक्रामकोका अल्पबहुत्व ओघके समान है ।।११७-१२१॥ चूर्णिसू०-एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामक सबसे कम हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रामकोसे सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेप अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकोसे शेप कर्मों के संक्रामक परस्पर तुल्य और अनन्तगुणित है ।।१२२-१२४।। इस प्रकार एकैकप्रकृतिसंक्रम समाप्त हुआ । चूर्णिसू०-अव इससे आगे प्रकृतिस्थानसंक्रमको कहेगे । उसमे सबसे पहले गाथासूत्रोकी समुत्कीर्तना करना चाहिए । वह इस प्रकार है ॥१२५-१२७॥ अट्ठाईस, चौवीस, सत्तरह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतिक स्थान नियमसे संक्रमके अयोग्य हैं, अतएव इन पॉचों असंक्रम-स्थानोंको छोड़कर शेष तेईस स्थानोंका संक्रम होता है ॥२७॥ १ अह-चउरहियवीस सत्तरस सोलस च पन्नरस | वज्जिय संकमठाणाइ होति तेवीसइ मोहे ॥ १० ॥ कम्मप० स० Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २८] प्रकृति-प्रतिग्रहस्थान-निरूपण २६१ सोलसग बारसट्टग वीसं वीसं तिगादिगधिगा य । एदे खलु मोत्तूणं सेसाणि पडिग्गहा होति ॥२८॥ विशेषार्थ-मोहनीयकर्मके सर्व प्रकृतिस्थान अट्ठाईस होते हैं । उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२८, २७, २६, २५, २४, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १७, १६, १५, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २ और १ । इनमेसे संक्रमणके अयोग्य ये पॉच स्थान है-२८, २४, १७, १६, और १५ । शेष तेईस स्थान संक्रमणके योग्य माने गये हैं। उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २ और १ । किस प्रकृतिके घटाने या बढ़ानेसे कौनसा स्थान बनता है, इसका स्पष्टीकरण आगे चूर्णिकारने स्वयं किया है। सोलह, बारह, आठ, बीस, और तीनको आदि लेकर एक-एक अधिक बीस अर्थात् तेईस, चौवीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान प्रतिग्रहके अयोग्य हैं, अतएव इन दशों अप्रतिग्रहस्थानोंको छोड़कर शेष अट्ठारह प्रतिग्रह-स्थान होते हैं ॥२८॥ विशेषार्थ-जिस आधारभूत प्रकृतिमें अन्य प्रकृतिके परमाणुओका संक्रमण होता है, उसे प्रतिग्रहप्रकृति कहते हैं। इसी प्रकार मोहनीयकर्मके जिन प्रकृतिस्थानीका जिन प्रकृतिस्थानोमे संक्रमण होता है, वे प्रतिग्रहस्थान कहलाते है और जिन प्रकृतिस्थानोमे संक्रमण नहीं होता है, वे अप्रतिग्रहस्थान कहलाते है । प्रकृत गाथामे इन्ही प्रतिग्रह और अप्रतिग्रहस्थानोका निरूपण किया गया है । प्रतिग्रहस्थान अट्ठारह है । वे इस प्रकार है-२२, २१, १९, १८, १७, १५, १४, १३, ११, १०, ९, ७, ६, ५, ४, ३, २, १। अप्रतिग्रहस्थान दश है। वे इस प्रकार है-२८, २७, २६, २५, २४, २३, २०, १६, १२, ८ । मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोमेसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका वन्ध नही होता, इसलिए छब्बीस प्रकृतियाँ शेप रहती हैं। उनमे भी एक समयमे तीन वेदोमेंसे किसी एक, तथा हास्य-रति और अरति-शोक युगलोमेंसे किसी एकका बन्ध संभव है, इसलिए मिथ्याष्टिके एक समयमे शेष बाईस प्रकृतियोका बन्ध होता है । यह वाईस-प्रकृतिक पहला प्रतिग्रहस्थान है, क्योकि, इन बँधनेवाली सर्व प्रकृतियोमें सत्तामें स्थित सर्व प्रकृतियोका संक्रमण होता है । यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि एक समयमें तेईस आदि प्रकृतियोका वन्ध नही होता, अतः तेईस, चौबीस पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान नहीं होते हैं। इसलिए गाथामे इनका निषेध किया गया है। वाईस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमेसे मिथ्यात्वकी बन्ध-व्युच्छित्ति हो जानेपर या मिथ्यात्वके प्रतिग्रह-प्रकृति न रहनेपर इक्कीस प्रकृ १ सोलह बारसट्ठग वीसग तेवीसगाइगे छच्च । वजिय मोहस्स पडिग्गहा उ अद्वारस हवति ॥ ११ ॥ कम्मप० स० Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुडे सुप्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार तिक प्रतिग्रहस्थान होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि के सत्तरह प्रकृतियों का बन्ध होता है । उनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के मिला देनेपर उन्नीस - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । वन्धपरिपाटीको देखते हुए एक साथ बीस प्रकृतियाँ प्रतिग्रहरूप नहीं हो सकती, इसलिए वीसप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानका निषेध किया गया है । क्षायिकसम्यक्त्व के प्रस्थापक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वका क्षय हो जानेपर सम्यग्मिथ्यात्व प्रतिग्रह - प्रकृति नही रहती, इसलिए पूर्वोक्त उन्नीस- प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे से सम्यग्मिथ्यात्वके कम कर देनेपर अट्ठारह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । पुनः उक्त जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय हो जानेपर सम्यक्त्व प्रकृति के प्रति - ग्रहरूप न रहने के कारण सत्तरह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयकी किसी भी प्रकृतिका संक्रमण नहीं होता, अतः उसके दर्शनमोहनीयकी तीनो प्रकृतियोकी सत्ता रहनेपर भी यह सत्तरह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । संयतासंयतके एक साथ तेरह प्रकृतियोंका वन्ध होता है, उनमे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिके मिला देनेपर पन्द्रह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । बन्ध-परिपाटीको देखते हुए सोलह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव नहीं, यह स्पष्ट ही है । इसी प्रकार वारह और आठ - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव नहीं है । जब कोई संयतासंयत जीव मिथ्यात्वका क्षय करता है, तब उसके सम्यमिथ्यात्व के विना चौदह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है और इसी जीवके द्वारा सम्यग्मिध्यात्वका क्षय कर देनेपर तेरह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । प्रमत्त और अप्रमत्त संयत के नौ प्रकृतिका वन्ध होता है, अतएव इनमे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति के मिला देनेपर ग्यारह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । पुनः इस जीवके मिथ्यात्वके क्षय कर देनेपर दश प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है और इसीके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय हो जानेपर नौ- प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । अपूर्वकरणमे भी नौ प्रकृतियोका बन्ध होता है, इसलिए उपशमसम्यग्दृष्टि के इन नौ प्रकृतियो मे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके मिलानेपर ग्यारह - प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थान होता है, और क्षायिकसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्व के विना नौ- प्रकृतिक भी प्रतिग्रहस्थान होता है । चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण उपशामक के पाँच प्रकृतियोका बन्ध होता है, अतएव इनमे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति के मिला देनेपर सात - प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थान होता है । पुनः नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके उपशम हो जानेपर पुरुपवेद प्रतिग्रह - प्रकृति नहीं रहती, इसलिए इसीके छह - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । अनन्तर दोनो प्रकारके मध्यम क्रोधोंका उपशम हो जानेपर संज्वलनक्रोध • प्रतिग्रह - प्रकृति नही रहती, इसलिए पॉच - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । अनन्तर दोनो मानकपायोका उपशम हो जानेपर मानसंज्वलन प्रतिग्रह - प्रकृति नहीं रहती, इसलिए चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । अनन्तर दोनो मायाकषायोके उपशम हो जानेपर मायासंज्वलन प्रतिग्रह - प्रकृति नही रहती, इसलिए तीनप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । पुनः इसके दोनो लोभकपायोका उपशम हो जानेपर संज्व २६२ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ३० ] प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रमस्थान-निरूपण २६३ छव्वीस सत्तवीसा य संकमो णियम चदुसु हाणेसु । वावीस पण्णरसगे एकारस ऊणवीसाए ॥२९॥ सत्तारसेगवीसासु संकमो णियम पंचवीसाए । णियमा चदुसु गदीसु य णियमा दिट्ठीगए तिविहे ॥३०॥ लन लोभ प्रतिग्रह-प्रकृति नहीं रहती इसलिए दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है। जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ता है, उसकी अपेक्षा विचार करनेपर अनिवृत्तिकरण. उपशामकके पॉच प्रकृतियोका बन्ध होता है, इसलिए पॉच-प्रकृतिक पहला प्रतिहप्रस्थान होता है। पुनः नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम हो जानेपर पुरुपवेदके प्रतिग्रह-प्रकृति न रहनेसे चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । पुनः सात नोकषाय और दो क्रोधकपायोके उपशम होनेपर क्रोधसंज्वलनके प्रतिग्रह-प्रकृति न रहनेसे तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । पुनः क्रोधसंज्वलन प्रतिग्रह-प्रकृति नही रहती, इसलिए दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है। पुनः मानसंज्वलनके साथ दोनो मायाकपायोके उपशम हो जानेपर एक लोभप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा भी अनिवृत्तिकरणमे ये ही अन्तिम पाँच प्रतिग्रहस्थान होते हैं। बाईस, पन्द्रह, ग्यारह और उन्नीस-प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थानों में ही छब्बीस और सत्ताईस-प्रकृतिक स्थानोंका नियमसे संक्रम होता है ॥२९॥ विशेषार्थ-इस गाथामे छब्बीस और सत्ताईस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थानोके वाईस, उन्नीस, पन्द्रह और ग्यारह-प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थान वताये है-जो सम्यक्त्वप्रकृति के विना सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव है, उसके छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान और बाईस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । तथा जो छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको, उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको और उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होता है उसके इनको प्राप्त करनेके प्रथम समयमे क्रमसे उन्नीस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान, पन्द्रह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान, ग्यारह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान और छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । तथा अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके सत्ताईस-प्रकतिक संक्रमस्थान और बाईस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । और इस जीवके पूर्ववत् उपशमसम्यक्त्व, उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयम, तथा उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमके ग्रहण करनेपर दूसरे समयसे लेकर अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना न होने तक क्रमसे उन्नीस, पन्द्रह, और ग्यारह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान, तथा सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । सत्तरह और इक्कीस-प्रकृतिक दो प्रतिग्रहस्थानोंमें पच्चीस-प्रकृतिक स्थानका नियमसे संक्रमण होता है । यह पच्चीस-प्रकृतिक संकमस्थान नियमसे चारों ही गतियों१ छब्बीस-सत्तवीसाण सकमो होइ चउसु ठाणेसु । बावीस पन्नरसगे इक्कारस इगुणवीसाए ॥१२॥ २ सत्तरस इकवीसासु सकमो होइ पन्नवीसाए । णियमा चउसु गईसु णियमा दिट्ठीक ए तिविहे ॥१३॥कम्मप० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार वावीस पण्णरसगे सत्तग एकारसूणवीसाए । तेवीस संकमो पुण पंचसु पंचिंदिएसु हवे ॥३१॥ में होता है । तथा दृष्टिगत अर्थात् 'दृष्टि' यह पद जिनके अन्तमें हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, इन तीनों ही गुणस्थानोंमें वह पच्चीसप्रकृतिक संक्रमस्थान नियमसे पाया जाता है ॥३०॥ विशेषार्थ-इस गाथामें पच्चीस-प्रकृतिक एक संक्रमस्थानके इक्कीस और सत्तरहप्रकृतिक दो प्रतिग्रहस्थान वताये गये है। इनमेसे इक्कीस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्वके विना पञ्चीस प्रकृतियोका संक्रमण होता है । तथा अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके इक्कीस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे पञ्चीस प्रकृतियोंको संक्रमण होता है। यहाँ दर्शनमोहनीयकी तीनो प्रकृतियोमे प्रतिग्रह और संक्रमण शक्ति नहीं है, इतना विशेप जानना चाहिए । तथा अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला जो मिथ्याष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीच सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके चारित्रमोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियोका सत्तरह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । ये संक्रमस्थान और प्रतिग्रहस्थान चारो गतियोमें संभव हैं । तेईस-प्रकृतिक स्थानका संक्रम वाईस, पन्द्रह, सत्तरह, ग्यारह और उन्नीसप्रकृतिक इन पॉच प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है। यह तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान संज्ञी पंचेन्द्रियों में ही होता है ॥३१॥ विशेपार्थ-इस गाथामे एक तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका पाँच प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रमण-विधान किया गया है। अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक जो जीव मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके प्रथम समयमे बाईस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें अनन्तानुवन्धीचतुष्क और मिथ्यात्वके विना तेईस प्रकृतियोका संक्रमण होता है। मिथ्यात्वगुणस्थानमे मिथ्यात्वका संक्रमण न होनेसे उसका निषेध किया है और ऐसे जीवके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका एक आवलीकाल तक संक्रमण नही हो सकता, इसलिए उसका निषेध किया है। शेप तेईस प्रकृतियोका संक्रमण होता है। तथा चौबीस प्रकृतियाकी सत्तावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके उन्नीस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे, चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले संयतासंयत जीवके पन्द्रह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे, चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत जीवके ग्यारह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे और चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अन्तरकरणसे पूर्ववर्ती अनिवृत्तिकरण जीवके सात-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे तेईस प्रकृतियोका संक्रमण होता है; क्योकि, इन सब जीवोके चौवीस प्रकृतियोकी सत्ता पाई जाती है, इसलिए यहाँ एक सम्यक्त्वप्रकृतिको छोड़कर शेप तेईस प्रकृतियोका उक्त सभी प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रमण संभव है । ऐसा जीव जिसने अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना की है, वह नियमसे संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होता है । १ बावीस पन्नरसगे सत्तगएक्कारसिगुणवीसासु । तेवीसाए णियमा पच वि पचिदिएसु भवे ॥१४॥ कम्मप०सं० Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ३३] प्रतिग्रहस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण २६५ चोदसग दसग सत्तग अट्ठारसगे च णियम वाचीसा । णियमा मणुसगईए विरदे मिस्से अविरदे यं ॥३२॥ तेरसय णक्य सत्तय सत्तारस पणय एकवीसाए । एगाधिगाए वीसाए संकमो छप्पि सम्मते ॥३३॥ वाईस-प्रकृतिक स्थानका संक्रम नियमसे चौदह, दश, सात और अट्ठारह प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है। यह बाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान नियमसे मनुष्यगतिमें ही होता है । तथा वह संयत, संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि गुण. स्थानमें होता है ॥३२॥ विशेषार्थ-इस गाथामे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क, इन छह प्रकृतियोके विना शेप वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका अट्ठारह, चौदह, दश और सातप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रम होता है, यह बतलाया गया है। अट्ठारह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान अविरतसम्यग्दृष्टिके, चौदह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान देशसंयतके, दश-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतके और सात-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान जिस अनिवृत्तकरण संयतके आनुपूर्वी संक्रम प्रारम्भ हो गया है, उसके होता है। यहाँ दो वाते ध्यान देनेके योग्य हैं-प्रथम यह कि प्रारम्भके तीन स्थानोमें जिसने दर्शनमोहकी क्षपणा करते समय मिथ्यात्वका अभाव कर दिया है, उसके उक्त प्रतिग्रहस्थानोमे वाईस प्रकृतियोका संक्रम होता है । दूसरी यह कि अनिवृत्तिकरणमे आनुपूर्वीसंक्रमके प्रारम्भ हो जानेपर लोभसंज्वलनका संक्रम नहीं होता है, अतएव यह जीव चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला होगा, इसलिए इसके लोभसंज्वलन और सम्यक्त्वप्रकृतिको छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियोका सात-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रम होता है। इक्कीस-प्रकृतिक स्थानका संक्रम तेरह, नौ, सात, पाँच, सत्तरह और इक्कीसप्रकृतिक छह प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है । ये छहों ही प्रतिग्रहस्थान सम्यक्त्वसे युक्त गुणस्थानों में होते हैं ॥३३॥' विशेषार्थ-इस गाथामे यह बतलाया गया है कि इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका तेरह आदि छह प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रम होता है, क्योकि क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतके प्रकृत संक्रमस्थानका तेरह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण संयतके नौ-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपकके पॉच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है । सत्ताकी अपेक्षा अनिवृत्तिकरणगुण १ चोद्दसग दसग सत्तग अट्ठारसगे य होइ बावीसा । णियमा मणुयगईए णियमा दिट्ठीकए दुविहे ॥ १५ ॥ २ तेरसग णवग सत्तग सत्तरसग पणग एकवीसासु । एक्कावीसा सकमा सुद्धसासाणमीसेसु ।। १६ ॥ कम्मप० स० ३४ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार एत्तो अवसेसा संजमम्हि उवसामगे च खवगे च । वीसा य संकम दुगे छक्के पणगे च बोद्धव्वा ॥३४॥ स्थानमे सात-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है, क्योकि, आनुपूर्वीसंक्रमको करके नपुंसकवेदके उपशम कर देनेपर इकीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका सात-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रम पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवमें इक्कीस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है, क्योंकि अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजनावाले उपशमसम्यग्दृष्टिके सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेपर उसकी प्रथम आवलीमे इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका संक्रम पाया जाता है। इसी गाथामे यह भी बतलाया गया है कि ये छहो ही प्रतिग्रहस्थान सम्यक्त्वपदसे संयुक्त गुणस्थानोमे पाये जाते है, अन्यत्र नहीं । यहॉपर दर्शनमोहनीयत्रिकके उदयाभावकी अपेक्षा सासादनगुणरथानको भी सम्यक्त्वी गुणस्थानमे उपचारसे परिगणित कर लिया गया है। इन ऊपर कहे गये स्थानोंसे अवशिष्ट रहे हुए संक्रय और प्रतिग्रहस्थान उपशमक और क्षपक संयतके ही होते हैं । बीस-प्रकृतिक स्थानका संक्रय छह और पांच-प्रकृतिक दो प्रतिग्रहस्थानोंमें जानना चाहिए ॥३४॥ _ विशेषार्थ-उपर्युक्त गाथाओके द्वारा सत्ताईस, छब्बीस, पञ्चीस, तेईस, वाईस और इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थानोका निरूपण किग जा चुका है। अब उनके अतिरिक्त जो सत्तरह संक्रमस्थान अवशिष्ट रहे है, उनके प्रतिग्रहस्थानाकी सूचना इस गाथाके द्वारा की गई है। इसमे सर्वप्रथम बतलाया गया है कि वीस आदिक अवशिष्ट संक्रमस्थान और उनके छह, पाँच आदि प्रतिग्रहस्थान संयमसे युक्त गुणस्थानोमे ही होते है, अन्यत्र नहीं। संयम-युक्त गुणस्थानोमें भी वे उपशामक और क्षपकके ही सम्भव है, सबके नहीं, इस वातके वतलानेके लिए गाथामे 'उपशामक' और 'क्ष्पक' ये दो पद दिये है। उनमे भी वीसप्रकृतिक संक्रमस्थानका संक्रमण छह और पॉच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे ही होता है, सबमे नहीं, यह वात गाथाके उत्तरार्ध द्वारा सूचित की गई है। इसका कारण यह है कि चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके उपशमश्रेणीपर चढ़ करके नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उपशमन करके पुरुषवेदको प्रतिग्रह-प्रकृतिरूपसे व्युच्छिन्न कर देनेपर सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और संज्वलनचतुष्क, इन छह प्रकृतिरूप प्रतिग्रहस्थानमे वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका संक्रम होता है। और इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके उपशमश्रेणीपर चढ़ करके आनुपूर्वीसक्रमके करनेपर वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका संज्वलनचतुष्क और पुरुपवेदरूप पॉच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। १ एत्तो अविसेसा सकमति उवसामगे व खबगे वा। उवसामगेमु वीसा य सत्तगे छक्क पणगे वा ॥ १७ ।। कम्मप० स० Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ३६] प्रतिग्रहस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण २६७ पंचसु च ऊणवीसा अट्ठारस चदुसु होति बोद्धव्वा । चोहस छसु पयडीसु य तेरसयं छह-पणगम्हि ॥३५॥ पंच चउक्के बारस एकारस पंचगे तिग चउक्के । दसगं चउक-पणगे गवगं च तिगम्मि बोद्धव्वा ॥३६॥ उन्नीस-प्रकृतिक स्थानका संक्रम पांच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें होता है। अट्ठारह-प्रकृतिक स्थानका संक्रम चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें होता है । चौदहप्रकृतिक स्थानका संक्रम छह-प्रकृतियोंवाले प्रतिग्रहस्थानमें होता है। तेरह-प्रकृतिक स्थानका संक्रम छह और पांच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोमें जानना चाहिए ॥३५॥ विशेषार्थ-इस गाथामे उन्नीस, अट्ठारह, चौदह और तेरह-प्रकृतिक चार संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थान बतलाये गये है। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण-उपशामकके आनुपूर्वी-संक्रमणका प्रारम्भ हो जानेके कारण लोभसंज्वलनके संक्रमणकी योग्यता न रहनेसे और नपुंसकवेदके उपशम हो जानेसे उन्नीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका संज्वलन-चतुष्क और पुरुपवेदरूप पाँच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। इसी उपयुक्त जीवके स्त्रीवेदका उपशम कर देनेपर और पुरुपवेदके प्रतिग्रहरूपसे व्युच्छेद कर देनेपर अट्ठारह-प्रकृतिक संक्रमस्थानका संज्वलनचतुष्करूप चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण-उपशामकके पुरुषवेदके नवकवन्धकी उपशमन-अवस्थामे पुरुपवेद, संज्वलनलोभको छोड़कर शेष ग्यारह कपाय और दर्शनमोहनीयकी दो, इन चौदह प्रकृतिरूप संक्रमस्थानका संज्वलन-चतुष्क, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप छह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। उपर्युक्त जीवके द्वारा पुरुषवेदका उपशम कर देनेपर शेष तेरह प्रकृतिरूप संक्रमस्थानका उक्त छह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें संक्रम होता है। इसी ही जीवके संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमे एक समय कम तीन मावलीकालके शेप रहनेपर तेरह प्रकृतिरूप संक्रमस्थानका संज्वलनमान, माया, लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप पाँच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। अथवा अनिवृत्तिक्षपकके द्वारा आठ मध्यस कपायोके क्षय कर देनेपर शेप तेरह प्रकृतियोका संज्वलनचतुष्क और पुरुषवेद, इन पॉच प्रकृतिरूप प्रतिग्रहस्थानसे संक्रमण होता है। किन्तु यह संक्रमण आनुपूर्वीसंक्रमके प्रारम्भ होनेके पूर्व तक ही होता है । वारह-प्रकृतिक स्थानका संक्रय पॉच और चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है। ग्यारह-प्रकृतिक स्थानका संक्रम पॉच, चार और तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानों में होता है। दश-प्रकृतिक स्थानका संक्रम पॉच और चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है। नौ-प्रकृतिक स्थान का संक्रम तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें जानना चाहिए॥३६॥ १ पचहु एगुणवीसा अद्यारस पचगे चउक्के य । चोदस छसु पगडीसु तेरसग छक्क पणगम्मि ॥ १८॥ २ पच चउक्के वारस एक्कारस पचगे तिग चउक । दसगं चउक्क-पणगे णवग च तिगम्मि बोद्ध व्वं ॥१९॥ कम्म१० स० Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार अट्ठ दुग तिग चदुक्के सत्त चउक्के तिगे च बोद्धव्वा। छक्कं दुगम्हि णियमा पंच तिगे एकग दुगे वा ॥३७॥ विशेषार्थ-इस गाथामें वारह, ग्यारह, दश और नौ-प्रकृतिक संक्रमस्थानोका संक्रमण किन-किन प्रतिग्रहस्थानोंमे होता है, यह बतलाया गया है। यथा-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला क्षपक आनुपूर्वी-संक्रमणका प्रारम्भ करके आठ मध्यम कपाय और संज्वलन-लोभको छोड़कर शेप वारह प्रकृतियोंका पुरुपवेद और चार संज्वलनरूप पाँच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण करता है । तथा उसी इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके उपशमश्रेणीमे पुरुपवेदके उपशम-कालमे संज्वलनलोभके विना ग्यारह कपाय और पुरुषवेदका चार संज्वलनरूप चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें संक्रमण होता है । क्षपकके नपुंसकवेदका क्षय हो जानेपर ग्यारह प्रकृतियोका पाँच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दोनो क्रोधोके उपशम कर देनेपर और संज्वलनक्रोधके प्रतिग्रहप्रकृति न रहनेपर संज्वलनक्रोध, तीन मान, तीन माया, दो लोस, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूप ग्यारह प्रकृतियोका संज्वलनमान, माया, लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप पॉच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके आनुपूर्वी-संक्रमपूर्वक नव-नोकपायोका उपशम हो जानेपर तीन क्रोध, तीन मान, तीन माया और दो लोभरूप ग्यारह प्रकृतियोका चार संज्व. लनरूप चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। तथा इसी जीवके क्रोध संज्वलनकी एक समय कम तीन आवलीप्रमाण प्रथमस्थितिके शेप रहनेपर उक्त ग्यारह प्रकृतियोका संज्वलन क्रोधके विना शेप तीन प्रकृतिल्प प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीन प्रकारके क्रोधके उपशम हो जानेपर तीन मान, तीन माया, दो लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दश प्रकृतियोका क्रोधके विना तीन संज्वलन, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप पाँच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें संक्रमण होता है । तथा इसी जीवके मानसंज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समय कम तीन आवली शेप रहनेपर उक्त दश प्रकृतियोका संज्वलन माया, लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें संक्रम होता है। अथवा क्षपकके स्त्रीवेदका क्षय हो जानेपर पुरुपवेद, छह नोकपाय और लोभके विना तीन संचलन, इन दश प्रकृतियोका चार संज्वलनरूप चारप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दो प्रकारके क्रोधका उपशम हो जानेपर क्रोधसंज्वलन, तीन मान, तीन माया और दो लोभल्प नो प्रकृतियोका तीन प्रकारके संज्वलनरूप तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । आठ-प्रकृतिक स्थानका संक्रम दो, तीन और चार-प्रकृतिक प्रतिग्रह१ अट्ठ दुग तिग चउके सत्त चउक्के तिगे य बोद्धव्वा ।। छकं दुगम्मिणियमा पच तिगे एकग दुगे य ॥ २०॥ कम्मप० स० Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ३८] प्रतिग्रहस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण चत्तारि तिग चदुक्के तिणि तिगे एकगे च बोद्धव्वा । दो दुसु एगाए वा एगा एगाए बोद्धव्वा ॥३८॥ स्थानोंमें होता है। सात-प्रकृतिक स्थानका संक्रम चार और तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानों में जानना चाहिए । छह-प्रकृतिक स्थानका संक्रम नियमसे दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान में होता है । पाँच-प्रकृतिक स्थानका संक्रम तीन, दो और एक-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें होता है ॥३७॥ विशेषाथ-इस गाथामे आठ, सात, छह और पांच-प्रकृतिक संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थानोका निर्देश किया गया है । उनका विवरण इस प्रकार है-चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दो प्रकारके मानका उपशम हो जानेपर एक मान, तीन माया, दो लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन आठ प्रकृतियोका संज्वलनमाया, लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें संक्रमण होता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीन प्रकारके क्रोधका उपशम हो जानेपर तीन मान, तीन माया, और दो लोभरूप आठ प्रकृतियोका तीन संज्वलनरूप तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके मानसंज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समय कम तीन आवली शेष रहनेपर तीन मान, तीन माया और दो लोभरूप आठ प्रकृतियोका माया और लोभरूप दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीन प्रकारके मानका उपशम हो जानेपर तीन माया, दो लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियोका संज्वलन माया, लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । तथा इसी जीवके मायासंज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समय कम तीन आवली शेष रहनेपर उक्त सात प्रकृतियोका संज्वलन लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दो प्रकारके मानका उपशम हो जानेपर एक मान, तीन माया और दो लोसरूप छह प्रकृतियोका संज्वलनमाया और लोभरूप दो प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दो मायाकषायोका उपशम हो जानेपर एक माया, दो लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन पॉच प्रकृतियोका संज्वलनलोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीनो मानकपायोके उपशम हो जानेपर तीन माया और दो लोभरूप पॉच प्रकृतियोका माया और लोभसंज्वलनरूप दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । तथा इसी जीवके मायासंज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समय क्म तीन आवलीकाल शेप रहनेपर तीन माया और दो लोभरूप पॉच प्रकृतियोका एक लोभप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। चार-प्रकृतिक स्थानका संक्रम तीन और चार-प्रकृतिक दो प्रतिग्रहस्थानों१ चत्तारि तिग चउक्के तिन्नि तिगे एक्कगे य बोद्धव्वा । दो दुसु एकाए वि य एका एकाइ बोद्धव्वा ॥२१॥ कम्मप० स० Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार में होता है। तीन प्रकृतिक स्थानका संक्रम तीन और एक प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान में जानना चाहिए । दो- प्रकृतिक स्थानका संक्रम दो और एक प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान में होता है । एक प्रकृतिक स्थानका संक्रम एक प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान में जानना चाहिए ||३८|| २७० विशेषार्थ - इस गाथामे चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप संक्रमस्थानां के प्रतिग्रहस्थानोका निर्देश किया गया है । उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - क्षपकके छह नोकपायोका क्षय हो जानेपर पुरुपवेद और तीन संज्वलनोका चार संज्वलनरूप प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीन मायाकपायोका उपगम हो जानेपर दो लोभ, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । क्षपकके पुरुषवेदका क्षय हो जानेपर संज्वलनक्रोध, मान और मायाका संज्वलन मान, माया और लोभरूप तीन - प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । इक्कीस प्रकृतियो की सत्तावाले उपशामक के दो मायाकषायोका उपशम हो जानेपर एक माया और दो लोभ, इन तीन प्रकृतियोका एक संज्वलनलोभरूप प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । क्षपकके क्रोधका क्षय हो जानेपर संज्वलनमान और माया, इन दो प्रकृतियोका संज्वलन माया और लोभरूप दोप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक के दो लोभकषायोका उपशम हो जानेपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोका सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। इक्कीस प्रकृतियो की सत्तावाले उपशासकके तीनो मायाकपायोका उपशम हो जानेपर दो लोभकपायोका एक संज्वलन लोभरूप प्रतिग्रहस्थान मे संक्रमण होता है । क्षपकके संज्चलनमानका क्षय हो जानेपर एक मायासंज्वलनका एक लोभसंज्वलनप्रकृतिरूप प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है । संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थानोंका चित्र सक्रमस्थान २७ २६ २५ २३ २२ २१ २० १९ १८ १४ १३ १२ प्रतिग्रहस्थान २२, १९, १५, ११ २२, १९, १५, ११ २१, १७ २२, १९, १७, १५, ११ १८, १४, १०, ७ २१, १७, १३, ९, ७, ५ ६, ५ ५ ४ ६ ६१ ७) कसाय पाहुड सुत्त ܝ ४ सक्रमस्थान ११ १० ७ 202. ४ ३ २ ܕܝ ७.१ ३ ४, ४, ४, motte प्रतिग्रहस्थान ३ ३.२ १ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ३९ ) सत्वस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण २७१ अणुधुव्वमणणुपुव्वं झीणमझीणं च दंसणे मोहे । उवसामगे च खवगे च संकमे मरगणोवाया ॥३९॥ इस प्रकार मोहकर्मके संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थान बतलाकर अब श्रीगुणधराचार्य उनके अनुमार्गणके उपायभूत अर्थपदको कहते है प्रकृतिस्थानसंक्रममें आनुपूर्वी-संक्रम, अनानुपूर्वी-संक्रम, दर्शनमोहके क्षयनिमित्तक-संक्रम, दर्शनमोहके अक्षय-निमित्तक संक्रम, चारित्रमोहके उपशामनानिमित्तक-संक्रय और चारित्रमोहनीयके क्षपणा-निमित्तक संक्रम ये छह संक्रमस्थानोंके अनुमार्गणके उपाय जानना चाहिए ॥३९॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा पूर्वोक्त संक्रमस्थानो और प्रतिग्रहस्थानोकी उत्पत्ति सिद्ध करनेके लिए अन्वेषणके छह उपाय बतलाए गये है । उनमेसे आनुपूर्वीसंक्रम-विषयक संक्रमस्थानोकी गवेपणा करनेपर चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके २२, २१, २०, १४, १३, ११, १०, ८, ७, ५, ४ और २ प्रकृतिक बारह संक्रमस्थान पाये जाते है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके २०, १९, १८, १२, ११, ९, ८, ६, ५, ३, २ और १ प्रकृतिक बारह संक्रमस्थान पाये जाते है । क्षपकके १२, ११, १०, ४, ३, २ और १ प्रकृतिक सात संक्रमस्थान पाये जाते है । अनानुपूर्वी-विषयक संक्रमस्थानोकी गवेषणा करनेपर उनके २७, २६, २५, २३, २२ और २१ प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते है । दर्शनमोहके क्षय-निमित्तक संक्रमकी अपेक्षा २१, २०, १९, १८, १२, ११, ९, ८, ६, ५, ३,२ और १ प्रकृतिक तेरह संक्रमस्थान पाये जाते हैं । तथा इसी इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके क्षपकश्रेणीमे संभव संक्रमस्थान भी पाये जाते है । दर्शनमोहके अक्षय-निमित्तक संक्रमकी अपेक्षा २७,२६,२५,२३,२२ और २१ प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते हैं। तथा चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वीसंक्रमकी अपेक्षा संभव संक्रमस्थानोका भी यहॉपर कथन करना चाहिए । चारित्रमोहकी उपशामना और क्षपणा-निमित्तक संक्रमकी अपेक्षा चौबीस और इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक और क्षपकके क्रमशः तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानको आदि लेकर यथासंभव शेप संक्रमस्थान पाये जाते है । उपशमश्रेणीसे उतरनेकी अपेक्षा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके ४, ८, ११, १४, २१, २२ और २३ प्रकृतिक सात संक्रमस्थान पाये जाते है । तथा इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके उपशमश्रेणीसे उतरनेकी अपेक्षा ३, ६, ९, १२, १९, २० और २१ प्रकृतिक सात संक्रमस्थान पाये जाते है। इन उपर्युक्त संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थानोका निरूपण पहले कहे गये प्रकारसे कर लेना चाहिए । १ अणुपुब्बि अणाणुपुत्वी झीणमझीणे य दिट्ठिमोहम्मि । उवसामगे य खवगे य सकमे मग्गणोवाया ॥ २२ ॥ कम्मप० सं० Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार एक्के कम्हि य हाणे पडिग्गहे संकमे तदुभए च । भविया वाऽभविया वा जीवा वा केसु ठाणेसु ॥४०॥ कदि कम्हि होति ठाणा पंचविहे भावविधिविसेसम्हि । संकमपडिरगहो वा समाणणा वाऽध केवचिरं ॥४१॥ ~~~~ इस प्रकार उक्त गाथासे संक्रमस्थानोके अनुमार्गणके उपायभूत अर्थपदका ओघकी अपेक्षा निरूपण करके अब गाथासूत्रकार संक्रमस्थान, प्रतिग्रहस्थान और तदुभयस्थानोका आदेशकी अपेक्षा प्ररूपण करनेके लिए प्रश्नात्मक दो गाथा-सूत्र कहते है- एक-एक प्रतिग्रहस्थान, संक्रमस्थान और तदुभयस्थानमें गति आदि चौदह मार्गणास्थान-विशिष्ट जीवोंकी मार्गणा करनेपर भव्य और अभव्य जीव किस-किस स्थानपर होते हैं, तथा गति आदि शेष मार्गणास्थान-विशिष्ट जीव किन-किन स्थानोंपर होते हैं, औदयिक आदि पाँच प्रकारके भावोंसे विशिष्ट गुणस्थानों से किस गुणस्थानमें कितने संक्रमस्थान होते हैं और कितने प्रतिग्रहस्थान होते हैं, तथा किस संक्रमस्थान या प्रतिग्रहस्थानकी समाप्ति कितने कालसे होती है ? ॥४०-४१॥ विशेषार्थ-इन दो सूत्रगाथाओके द्वारा जिन प्रश्नोको उठाया गया है, या देशामर्शकरूपसे जिनकी सूचना की गई है, उनका समाधान आगे कही जानेवाली गाथाओमे यथातथानुपूर्वीसे किया गया है। किस गुणस्थानमे कितने संक्रमस्थान और प्रतिग्रहस्थान होते हैं, यह नीचे दिये गये चित्रमे बतलाया गया है । गुणस्थानोमे संक्रमस्थान और प्रतिग्रहस्थानोका चित्र सक्रमस्थान गुणस्थान संक्रमस्थान विवरण २७, २६, २५, २३ । २२, २१ २५, २१ ३ मिथ १७ २७, २६, २३, २२, २१ १९, १८, १७ १५, १४, १३ ६ प्रमत्तसयत , । ११, १०,९ ७ अप्रमत्तसंयत, " " " " " ८ अपूर्वकरण, २३, २१ अनिवृत्तिकरण २३, २२, २१, २०, १४, १३, ११ ५, ४, ३, २,१ १०,८,७,५,४ , क्षायिकोपगमक १२ २१, २०, १९, १८, १२, ११, ९, ८, ६, ५, ३,२ "आपक २१, १३, १२, ११, १०,४,३,२,१ प्रतिग्रह सख्या तिग्रहस्थान-विवरण सख्या २१ १ मिथ्यात्वगुणस्थान २ सासादन " मिथ " ४ अविरत " ५देशविरत है له له २५, २१ م :: د " " " ن उपशमोपशमक " " " " " " १० सूक्ष्मसाम्पराय ११ उपशान्तकपाय १ २ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ४३] मार्गणाओंमें संक्रमस्थान-निरूपण २७३ णिरयगइ-अमर-पंचिंदिएमु पंचव संकमट्ठाणा। सब्वे मणुसगईए सेसेसु तिगं असण्णीसु ॥४२॥ चदुर दुगं तेवीसा मिच्छत्त मिस्सगे य सम्मत्ते। बावीस पणय छक्कं विरदे मिस्से अविरदे य ॥४३॥ अब ग्रन्थकार उक्त दो गाथाओके द्वारा उठाये गये प्रश्नोका समाधान करते हुए सबसे पहले गतिमार्गणामे संक्रमस्थानोका निरूपण करते है नरकगति, देवगति और संज्ञिपंचेन्द्रियतिर्यंचोंमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक पाँच ही संक्रमस्थान होते हैं। मनुष्यगतिमें सर्व ही संक्रमस्थान होते हैं। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियों में सत्ताईस, छब्बीस और पच्चीस-प्रकृतिक तीन ही संक्रमस्थान होते हैं ॥४२॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा चारो गतियोमे संक्रमस्थानोका वर्णन तो स्पष्टरूपसे किया गया है, साथ ही 'असंज्ञी' पदके द्वारा इन्द्रियमार्गणा, कायमार्गणा, योगमार्गणा और संज्ञिमार्गणामें भी देशामर्शकरूपसे संक्रमस्थानोकी भी सूचना की गई है। उनकी प्ररूपणा सुगम होनेसे ग्रन्थकारने नही की है। अब ग्रन्थकार सम्यक्त्वमार्गणा और संयममार्गणामे संक्रमस्थानोका निरूपण करते है मिथ्यात्व गुणस्थानमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस और तेईस-प्रकृतिक चार संक्रमस्थान होते हैं । मिश्रगुणस्थानमें पच्चीस और इक्कीस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते हैं । सम्यक्त्व-युक्त गुणस्थानोंमें तेईस संक्रमस्थान होते हैं। संयम-युक्त प्रमत्तसंयतादिगुणस्थानोंमें बाईस संक्रमस्थान होते हैं । मिश्र अर्थात् संयतासंयतगुणस्थानमें सत्ताईस, छब्बीस, तेईस, बाईस और इक्कीस-प्रकृतिक पॉच संक्रमस्थान होते हैं। अविरतगुणस्थानमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस, बाईस और इक्कीस-प्रकृतिक छह संक्रमस्थान होते हैं ॥४३॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा बतलाये गये संक्रमस्थानोका विवरण इस प्रकार हैसम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा मिथ्याष्टिके २७, २६, २५ और २३ प्रकृतिक चार संक्रमस्थान होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिके २५ और २१ प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते है । सम्यग्मिथ्याष्टिक २५ और २१ प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते हैं। सम्यग्दृष्टिके सर्वसंक्रमस्थान पाये जाते हैं । पच्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका निरूपण अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले और उपशमसम्यक्त्वसे गिरे हुए सासादन-सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा किया गया है । संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक-छेदोपस्थापनासंयतके पच्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानको छोड़कर शेष बाईस संक्रमस्थान पाये जाते है। परिहारविशुद्धिसंयतके २७, २३, २२ और २१ प्रकृतिक चार संक्रमस्थान होते हैं। समसाम्पराय और यथाख्यातसंयतके चौबीस प्रकृतियोकी ३५ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार तेवीस सुक्कलेस्से छक्कं पुण तेउ-पम्मलेस्सासु । पणयं पुण काऊए णीलाए किण्हलेस्साए ॥४४॥ अवगयवेद णqसय-इत्थी-पुरिसेसु चाणुषुवीए। अटारसयं णवयं एकारसयं च तेरसया ॥४५॥ सत्तावाले जीवकी अपेक्षा एकमात्र दो-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है। गाथा-पठित 'मिश्र' पदसे संयतासंयतका ग्रहण किया गया है । उसके २७, २६, २३, २२ और २१ प्रकृतिक पांच संक्रमस्थान होते है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। अब लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा संक्रमस्थानोंका निरूपण करते हैं शुक्ललेश्यामें तेईस संक्रमस्थान होते हैं । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यामें सत्ताईससे लेकर इक्कीस तकके छह संक्रमस्थान होते हैं। कापोतलेश्यामें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक पॉच संक्रमस्थान होते हैं । ये ही पाँच संक्रमस्थान नील और कृष्णलेश्यामें भी जानना चाहिए ॥४४॥ विशेषार्थ-शुक्ललेश्यावाले जीवोके सभी संक्रमस्थान पाये जाते है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवोके २७, २६, २५, २३, २२ और २१ प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते है। कापोत, नील और कृष्णलेश्यावाले जीवोके २७, २६, २५, २३ और २१ प्रकृतिक पॉच संक्रमस्थान पाये जाते है। यतः इक्कीससे नीचेके संक्रमस्थान उपशम या क्षपकश्रेणीमे ही संभव है और वहॉपर एकमात्र शुक्ललेश्या होती है, अतः शेष पांचो लेश्याओंमे बीस आदि संक्रमस्थानोका अभाव बतलाया गया है। अव वेदमार्गणाकी अपेक्षा संक्रमस्थानोका निरूपण करते है अपगतवेदी, नपुंसकवेदी, स्त्रीवेदी और पुरुपवेदी जीवोंमे आनुपूर्वीसे अर्थात् यथाक्रमसे अट्ठारह, नौ, ग्यारह और तेरह संक्रमस्थान होते हैं ॥४५॥ विशेषार्थ-नौवे गुणस्थानके अवेदभागसे ऊपरके जीवोको अपगतवेदी कहते हैं । उनके २७, २६, २५, २३ और २२ इन पाँच स्थानोको छोड़कर शेप अट्ठारह स्थान पाये जाते है । इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला उपशामक जीव पुरुपवेदके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़ा और अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमे लोभका असंक्रामक होकर क्रमसे स्त्रीवेद नपुंसकवेद, और छह नोकषायोका उपशमन करता हुआ अपगतवेदी होकर चौदह-प्रकृतिकस्थानका संक्रमण करता है १ । पुनः पुरुषवेदके नवकवन्धका उपशमन करके तेरह-प्रकृतिक स्थानका संक्रमण करता है २। पुनः दो प्रकारके क्रोधका उपशम करनेपर ग्यारह-प्रकृतिक स्थानका संक्रमण किया ३ । पुनः संचलन क्रोधका उपाम करनेपर दशप्रकृतिक स्थानका संक्रमण किया ४ । पुनः दो प्रकारके मानका उपशम करनेपर आठ-प्रकृतिक स्थानके संक्रमभावको प्राप्त हुआ ५ । पुनः संज्वलनमानके उपशम करनेपर सात-प्रकृतिक Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ४५] मार्गणाओंमें संक्रमस्थान-निरूपण २७५ स्थानका संक्रामक हुआ ६ । पुनः दोनो मायाकषायोका उपशम करनेपर पॉच-प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हुआ ७ । पुनः संज्वलनमायाका उपशम करनेपर चार-प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हुआ ८ । तदनन्तर दो प्रकारके लोभका उपशम करता हुआ दो-प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हुआ ९ । इस प्रकार ये नौ संक्रमस्थान पुरुपवेदके साथ श्रेणीपर चढ़े हुए चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अपगतवेदी जीवके पाये जाते हैं। जो इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव पुरुषवेदके साथ उपशमश्रेणीपर चढ़ता है उसके आनुपूर्वी-संक्रमणके अनन्तर नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यादि छह नोकषायोके उपशम करनेपर अपगतवेदीके वारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । पुनः दो प्रकारके क्रोध, दो प्रकारके मान और दो प्रकारके माया कषायोंके उपशमानेपर यथाक्रमसे नौ, छह और तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं । इन चार संक्रमस्थानोको पूर्वोक्त नौ संक्रमस्थानोमे मिला देनेपर अपगतवेदीके तेरह संक्रमस्थान हो जाते है । पुनः उसी जीवके नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणी चढ़नेपर आनुपूर्वीसंक्रमके अनन्तर नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उपशमन करके अपगतवेदी होनेपर अट्ठारह-प्रकृतिक एक अपुनरुक्त संक्रमस्थान पाया जाता है। इसी जीवके श्रेणीसे उतरते समय बारह कपाय और सात नोकपाय इन उन्नीस प्रकृतियोका अपकर्षण करते हुए उन्नीस-प्रकृतिक अपुनरुक्त संक्रमस्थान पाया जाता है। इन दोनो संक्रमस्थानोको पूर्वोक्त तेरहमे मिलानेपर अपगतवेदीके पन्द्रह संक्रमस्थान हो जाते है। इसी प्रकार जो चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव नपुंसकवेदके साथ श्रेणीपर चढ़ता है, उसके चढ़ते और उतरते हुए क्रमशः बीस और उन्नीस-प्रकृतिक दो अपुनरुक्त संक्रमस्थान पाये जाते हैं। इन्हे पूर्वोक्त पन्द्रहमे मिलानेपर अपगतवेदी जीवके सत्तरह संक्रमस्थान हो जाते है। जो क्षपक जीव पुरुपवेद या नपुंसकवेदके साथ श्रेणीपर चढ़ता है, उसके अन्तिम एक-प्रकृतिक अपुनरुक्त संक्रमस्थान होता है। उसे पूर्वोक्त सत्तरहमें मिला देनेपर अपगतवेदी जीवके अट्ठारह संक्रमस्थान हो जाते है । नपुंसकवेदके नौ संक्रमस्थान होते हैं। उनमेसे सत्ताईससे लेकर इक्कीस तकके छह संक्रमस्थान तो नपुंसकवेदीके श्रेणीसे नीचे ही पाये जाते है । तथा इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके आनुपूर्वी-संक्रमणकी अपेक्षा वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान भी श्रेणीके पूर्व ही पाया जाता है । पुनः नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणीपर चढ़नेवाले क्षपकके आठ मध्यम कपायोके क्षपण करनेपर तेरह-प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है । आनुपूर्वीसंक्रमसे परिणत इसी जीवके वारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान भी पाया जाता है। इस प्रकार नपुंसकवेदीके २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १३ और १२ ये नौ संक्रमस्थान पाये जाते है। शेप संक्रमस्थानोका पाया जाना इसके सम्भव नहीं है। स्त्रीवेदी जीवके ग्यारह संक्रमस्थान होते है। उसके नौ संक्रमस्थानोकी प्ररूपणा तो नपुंसकवेदीके ही समान है। विशेप इसके उन्नीस और ग्यारह-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान और अधिक है, क्योकि, इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक और क्षपकके स्त्रीवेदके उदयके साथ श्रेणी पर चढ़कर नपुंसकवेदके उपशम और क्षपण करनेपर यथाक्रमसे उनके उन्नीस Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार कोहादी उवजोगे चदुसु कसाएसु चाणुपुब्बीए । सोलस य ऊणवीसा तेवीसा चेव तेवीसा ॥४६॥ और ग्यारह-प्रकृतिक दोनो संक्रमस्थान पाये जाते हैं। पुरुपवेदी जीवके तेरह संक्रमस्थान होते हैं। उनमे ग्यारहकी प्ररूपणा तो स्त्रीवेदीके ही समान है। विशेप इसके अट्ठारह और दश-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान और अधिक होते हैं, क्योकि इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक और क्षपकके पुरुषवेदके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़कर स्त्रीवेदके उपशमन और क्षपण करनेपर यथाक्रमसे उक्त दोनो संक्रमस्थान पाये जाते है । ___ अव कपायमार्गणामे संक्रमस्थानोका निरूपण करते है क्रोधादि चारों कपायोंसे उपयुक्त जीवोंमें आनुपूर्वीसे सोलह, उन्नीस, तेईस और तेईस संक्रमस्थान होते हैं ॥४६॥ विशेषार्थ-क्रोधकपायके उदयसे युक्त जीवके सोलह संक्रमस्थान होते है। उनका विवरण इस प्रकार है-कोधकपायी जीवके सत्ताईससे लेकर इक्कीस तकके छह संक्रमस्थान तो मिथ्याष्टि आदि श्रेणीके पूर्ववर्ती गुणस्थानोमे यथासम्भव रीतिसे पाये ही जाते है । चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला जो जीव क्रोधकपायके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़ता है, उसके तेईस, बाईस और इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान तो पुनरुक्त ही पाये जाते है। पुनः उसके बीस, चौदह और तेरह ये तीन स्थान अपुनरुक्त पाये जाते है । तथा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामझकी अपेक्षा उन्नीस, अट्ठारह, वारह और ग्यारह-प्रकृतिक चार संक्रमस्थान पाये जाते है। क्रोधकषायके साथ श्रेणीपर चढ़े हुए आपककी अपेक्षा दश, चार और तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थान और पाये जाते है । इस प्रकार सव मिलाकर क्रोधकपायी जीवके २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ४ और ३ ये सोलह संक्रमस्थान पाये जाते है । मानकषायी जीवके इन सोलह संक्रमस्थानोके अतिरिक्त इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामककी अपेक्षा दोनों प्रकारके क्रोधोके उपगम होनेपर नौ-प्रकृतिक संक्रमस्थान और संज्वलनक्रोधके उपगम होनेपर आठ-प्रकृतिक संकमस्थान, तथा आपकके संज्वलनक्रोधका क्षय होनेपर दो-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । इस प्रकार सब मिलाकर मानकपायी जीवके २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ४ और २ प्रकृतिक उन्नीस संक्रमस्थान पाये जाते है । माया और लोभकषायवाले जीवोके सभी अर्थात् तेईस तेईस ही संक्रमस्थान पाये जाते है। अकषायी जीवके एकमात्र दो-प्रकृतिक संक्रमस्थान है, क्योकि चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपनामक जीवके ग्यारहवें गुणस्थानमे दो प्रकृतियोका संक्रमण पाया जाता है। अब ज्ञानमार्गणामें संक्रमस्थानोका निरूपण करते हैं Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ ~~~ गा०४९] मार्गणाओमे संक्रमस्थान-निरूपण णाणाम्हि य तेवीसा तिविहे एकम्हि एक्कवीसा य । अण्णाणम्हि य तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा ॥४७॥ आहारय भविएसु य तेवीसं होति संकमट्ठाणा । अणाहारएसु पंच य एक्कं ठाणं अभविएसु ॥४८॥ छव्वीस सत्तावीसा तेवीसा पंचवीस वावीसा । एदे सुष्णटाणा अवगदवेदस्स जीवस्स ॥४९॥ ___ मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञानोंये तेईस संक्रमस्थान होते हैं। एकमें अर्थात् मनःपर्ययज्ञानमें पच्चीस और छब्बीस-प्रकृतिक दो स्थान छोड़कर शेष इक्कीस संक्रमस्थान होते हैं । कुमति, कुश्रुत और विभंग, इन तीनों ही अज्ञानोंमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक पाँच संक्रमस्थान होते हैं ॥४७॥ विशेषार्थ-यद्यपि पञ्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान सम्यग्सिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है, तथापि यहॉपर मतिज्ञानादि तीनो सद्-ज्ञानोमे अशुद्ध-नयके अभिप्रायसे उसका निरूपण किया गया है, ऐसा समझना चाहिए। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमे पाये जानेवाले छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका अवधिज्ञानमे जो प्रतिपादन किया गया है वह देव और नारकियोकी अपेक्षासे जानना चाहिए , क्योकि उनके प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमे ही अवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है। शेप गाथार्थ स्पष्ट ही है । इसी गाथाके द्वारा देशामर्शकरूपसे दर्शनमार्गणाके संक्रमस्थानोका भी निरूपण किया गया है, क्योकि मति, श्रुत और अवधिज्ञानके संक्रमस्थानोसे चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शनके संक्रमस्यानोका निरूपण हो जाता है । अर्थात् इन तीनो प्रकारके दर्शनोमे तेईस-तेईस संक्रमस्थान पाये जाते है। अब भव्यमार्गणा और आहारमार्गणामे संक्रमस्थानोका निरूपण करते है आहारक और भव्य जीवोमें तेईस ही संक्रमस्थान होते हैं। अनाहारकोंमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक पाँच संक्रमस्थान होते हैं । अभव्योंमें पच्चीस-प्रकृतिक एक ही संक्रमस्थान होता है ॥४८॥ अब अपगतवेदी जीवोमे नही पाये जानेवाले संक्रमस्थानोका निरूपण करते हैं अपगतवेदी जीवके छब्बीस, सत्ताईस, तेईस, पच्चीस और वाईस-प्रकृतिक पंच शून्यस्थान होते हैं, अर्थात् ये पाँच संक्रमस्थान नहीं पाये जाते हैं ॥४९॥ अव नपुंसकवेदी जीवोमे नही पाये जानेवाले संक्रमस्थानो प्रतिपादन करते है१ जत्थ ज सकमट्ठाण ण सभवइ, तत्थ तस्स सुण्गट्टाणववएसो । जयध० Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार उगुवीसहारसयं चोइस एक्कारसादिया सेसा । एदे मुण्णदाणा णसए चोदसा होति ॥५०॥ अवारस चोहसयं ट्राणा सेसा य दसगमादीया। एदे सुण्णटाणा बारस इत्थीसु बोद्धव्वा ॥५१॥ चोदसग णवगमादी हवंति उवसामगे च खवगे च । एदे सुण्णद्वाणा दस वि य पुरिसेसु बोद्धव्या ॥५२॥ णव अट्ट सत्त छकं पणग दुगं एक्कयं च बोद्धव्वा । एदे सुण्णटाणा पढमकसायोवजुत्तेसु ॥५३॥ सत्त य छकं पणगं च एक्कयं चेव आणुपुबीए । एदे सुण्णटाणा विदियकसाओवजुत्तेसु ॥ ५४॥ नपुंसकवेदी जीवों में उन्नीस, अट्ठारह, चौदह और ग्यारहको आदि लेकर शेप स्थान, अर्थात् ग्यारह, दश, नौ, आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक चौदह स्थान शून्य हैं ॥५०॥ अव स्त्रीवेदी जीवोमे नही पाये जानेवाले संक्रमस्थानोका प्ररूपण करते है स्त्रीवेदी जीवोंमें अट्ठारह और चौदह-प्रकृतिक ये दो स्थान, तथा दशको आदि लेकर एक तकके दश स्थान, इस प्रकार ये बारह स्थान शून्य जानना चाहिए ॥५१॥ अब पुरुपवेदी जीवोमे नहीं पाये जानेवाले संक्रमस्थानोको वतलाते हैं पुरुपवेदी जीवोंमें, उपशामकमें और क्षपकमें चौदह-प्रकृतिक संक्रमस्थान तथा नौको आदि लेकर एक तकके नौ स्थान इस प्रकार दश स्थान शून्य हैं ॥५२॥ अब क्रोधकपायी जीवोमे नहीं पाये जानेवाले संक्रमस्यानोको कहते हैं प्रथम-क्रोधकपायसे उपयुक्त जीवोंमें नौ, आठ, सात, छह, पाँच, दो और एक-प्रकृतिक सात स्थान शून्य हैं ॥५३॥ अव मानकपायी जीवोमे नही पाये जानेवाले संक्रमस्थानोको कहते हैं द्वितीय मानकपायसे उपयुक्त जीवोंमें सात, छह, पाँच और एक प्रकृतिक चार स्थान शून्य हैं । इस प्रकार आनुपूर्वीसे शून्यस्थानोंका कथन किया ॥५४॥ विशेपार्थ-शेप दो माया और लोभकपायमे शून्यस्थानका विचार नहीं है, क्योंकि उनमे सभी संक्रमस्थान पाये जाते हैं। अब ग्रन्थकार इसी उपर्युक्त दिशासे शेप मार्गणास्थानोमें सम्भव और असम्भव संक्रमस्थानोके भी जान लेनेकी सूचना करते हैं Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ गा० ५५] मार्गणाओंमें संक्रम और प्रतिग्रहस्थान-निरूपण दिट्ठ सुण्णासुण्णे वेद-कसाएसु चेव ठाणेसु । मग्गणगवसणाए दु संकमो आणुपुव्वीए ॥ ५५ ॥ इस प्रकार वेदमार्गणामें और कषायमार्गणामें संक्रमस्थानोंके शून्य और अशून्य स्थानोंके दृष्टिगोचर हो जानेपर, अर्थात् जान लेनेपर शेष मार्गणाओंमें भी आनुपूर्वी से संक्रमस्थानोंकी गवेषणा करना चाहिए ॥५५॥ विशेषार्थ-मार्गणास्थानोमे संक्रमस्थानो और प्रतिग्रहस्थानोका विवरण इस प्रकार है १ गतिमार्गणा र देवगति १ गतिमार्गणा तिर्यग्गति २७, २६, २५ २३, २१ " ५ वेद , मार्गणास्थान सक्रमस्थान प्रतिग्रहस्थान (नरकगति । २७, २६, २५, २३, २१ | २२, २१, १९, १७ " " " " .. २२, २१, १९, १७, १५ (मनुष्यगति सर्व सक्रमस्थान सर्व प्रतिग्रहस्थान (पचेन्द्रिय २ इन्द्रिय , विकलेन्द्रिय । (एकेन्द्रिय १ त्रसकाय सर्व सक्रमस्थान सर्व प्रतिग्रहस्थान ३ काय " ५ स्थावरकाय २७, २६, २५ २२, २१ (मनोयोगी | सर्व सक्रमस्थान सर्व प्रतिग्रहस्थान ४ योग , २ वचनयोगी काययोगी [पुरुपवेदी २७,२६,२५,२३, २२, २१, २०, | २२, २१, १९, १८, १७, १५,१४, १९, १८, १३, १२, ११, १० । १३, ११, १०, ९, ७, ६, ५, ४ स्त्रीवेदी २७, २६, २५, २३, २२, २१, २२, २१, १९,१८,१७, १५,१४, २०, १९, १३, १२, ११ । १३, ११, १०, ९, ७, ५ नपु सकवेदी २७, २६, २५, २३, २२, २१, २२, २१, १९, १८, १७, १५,१४, २०, १३, १२ १३, ११, १०, ९, ७, ५ (अपगतवेदी २७,२६,२५,२३,२२के विना शेष १८ ७,६,५,४,३,२,१ २७,२६,२५,२३,२२,२१,२०,१९, २२, २१,१९, १८, १७, १५,१४, क्रोधकषायी १८,१४,१३,१२,११,१०,४,३ | १३, ११, १०, ९,७,६,५, ४,३ २७, २६, २५, २३, २२, २१, २२, २१, १९, १८, १७, १५, १४, २०, १९, १८, १४, १३, १२, | १३, ११, १०, ९,७,६,५,४,३,२ ११, १०, ९, ८, ४, ३, २ | माया " सर्व सक्रमस्थान मानवत् , विशेप १ मायावत् अकषायी अज्ञानत्रय २७, २६, २५, २३, २१ २२, २१, १७ ७ शान "२सदज्ञानत्रय | २५ को छोडकर शेष २२ २२, २१ को छोडकर शेष १६ (मनःपर्ययज्ञान २६, २५ को छोड शेष २१ ११, १०, ९, ७, ६, ५,४,३,२,१ [सामायिक | २५ को छोडकर शेष २२ " " " " " " " छेदोपस्थापना " " " " " " " परिहारविशु० २७, २३, २२, २१ । ११, १०, ९ सूक्ष्मसाम्पराय २ यथाख्यात सयमासयम | २७, २६, २३, २२, २१ १५, १४, १३ (असयम । २७, २६, २५, २३, २२, २१ । २२, २१, १९, १८, १७ मान " ६ कषाय , | लोभ " सामना " " " ८ संयम ,२ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " " " " ور رو در رو و .. " " वेदक० २८० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार कम्मंसियट्ठाणेलु य बंधहाणेसु संकमट्ठाणे । एक्कक्केण समाणय बंधेण य संकमाणे ॥ ५६ ॥ (चक्षुदर्शिनी । सर्व संक्रमस्थान सर्व प्रतिग्रहस्थान ९ दर्शन , अचक्षुदर्शिनी , (अवधिदनिनी २५ को छोड़कर शेष २२ । २२ और २१ को छोड़कर शेष १६ (कृष्ण २७, २६, २५, २३, २१ | २२, २१, १९, १८, १७ । नील० | कापोत० १० लेश्या , र तेज २७, २६, २५, २३, २२, २१ २२, २१, १९, १८, १७, १५, १४, १३, ११, १०, ९ पद्म (शुक्ल सक्रमस्थान सर्व प्रतिग्रस्थान भव्य ११ भव्य अभव्य (ोपामिक २७, २६, २३, २२, २१, २०,१४, १९, १५, ११, ७, ६, ५, ४, ३, २ । १३, ११, १०,८,७,५, ४, २ शायिक० २१, २०, १९,१८,१३,१२,११, १७,१३,९,५,४,३,२,१ १०, ९, ८, ६, ५, ४, ३, २,१ १२ सम्यक्त्व २७, २३, २२, २१ | १९,१८,१७,१५,१४,१३,११,१०,९ सम्यग्मि० ६५, २१ १७ सासादन० मिथ्या० | २७, २६, २५, २३ २२, २१ संजी १३ सनि सर्व सक्रमस्थान सर्व प्रतिग्रहस्थान । " असजी २ ७, २६, २५ २२, २१ आहारक सर्व सक्रमस्थान सर्व प्रतिग्रहस्थान १४ आहार , अनाहारक । २७, २६, २५, २३, २१ । २२, २१, १९, १७ अब ग्रन्थकार मोहनीयकर्मके वन्धस्थान और सत्त्वस्थानके साथ संक्रमस्थानोके एक-संयोगी, द्वि-संयोगी भंगोको निकालने के लिए सन्निकर्षकी सूचना करते है कर्माशिक स्थानमें अर्थात् मोहनीयके सत्त्वस्थानोंमें और बन्धस्थानोंमें संक्रमस्थानोंकी गवेषणा करना चाहिए। तथा एक-एक बन्धस्थान और सत्त्वस्थानके साथ संयुक्त संक्रमस्थानोंके एक-संयोगी, द्वि-संयोगी भंगोको निकालना चाहिए ॥५६॥ विशेपार्थ-इस गाथाके द्वारा ओघ और आदेशकी अपेक्षासे निरूपण किये संक्रमस्थानो और उनके प्रतिनियत प्रतिग्रहस्थानोका बन्धस्थानों और सत्त्वस्थानोमें अनुमागण करनेका संकेत किया गया है । यहॉपर उनका कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है-काशिकस्थान सत्कर्मस्थान और सत्त्वस्थान, ये तीनो पर्यायवाची नाम है। मोहकर्मके सत्त्वस्थान पन्द्रह होते हैं-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और । मोहकर्मके बन्धस्थान दश होते हैं-२२, २१, १७, १३, ९, ५, ४, ३, २ और १ । मोहकर्मके तेईस संक्रमस्थान पहले बतलाये जा चुके है। अब सत्त्वस्थानोमे उन संक्रमस्थानोका अनुमार्गण करते है-जिस मिथ्यादृष्टि जीवके अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व है Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५६] सत्त्वस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण २८१ उसके सत्ताईस प्रकृतियोका संक्रम होता है १ । सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वप्रकृतिकी एक समय कम आवलीप्रमाण गोपुच्छा शेष रह जानेपर अट्ठाईसके सत्त्वके साथ छब्बीस प्रकृतियोका संक्रम होता है । अथवा छब्बीस-प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके प्रथमसम्यक्त्वके उत्पन्न करनेपर अट्ठाईस प्रकृतियोके सत्त्वके साथ छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं की है ऐसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेपर अथवा अट्ठाईसकी सत्तावाले किसी दूसरे जीवके मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होनेपर अट्ठाईस प्रकृतियोके सत्त्वके साथ पच्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ३ । अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके उसके संयोजन करनेवाले मिथ्यादृष्टिके प्रथमावलीमे अट्ठाईसके सत्त्वस्थानके साथ तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । अथवा अमन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हुए चरमफालीका संक्रमण कर एक समय कम आवलीमात्र गोपुच्छाके शेष रहनेपर उसी सत्त्वस्थानके साथ वही संक्रमस्थान पाया जाता है ४ । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके एक आवलीकाल तक अट्ठाईसके सत्त्वके साथ इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ५ । इस प्रकार ये पॉच संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके पाये जाते है। अब सत्ताईस प्रकृतियोके सत्त्वस्थानके साथ संभव संक्रमस्थानोका अन्वेषण करते हैं-अट्ठाईसकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर सत्ताईसका सत्त्व होकर छब्बीसका संक्रम होता है १ । पुनः उसीके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए समयोन आवलीमात्र गोपुच्छाके अवशेप रहनेपर सत्ताईसके सत्त्वके साथ पच्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । इस प्रकार सत्ताईसके सत्त्वस्थानके साथ छब्बीस और पच्चीस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान पाये जाते है। अब छब्बीसप्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ संभव संक्रमस्थानकी गवेपणा करते है- अनादिमिथ्यादृष्टि या छब्बीसकी सत्तावाले सादिमिथ्यादृष्टिके छब्बीस-प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ पच्चीस-प्रकृतिक एक संक्रमस्थान पाया जाता है । इसके अन्य संक्रमस्थानोका पाया जाना संभव नहीं है। अब चौवीसके सत्त्वस्थानके साथ संभव संक्रमस्थानोका अनुमार्गण करते है-अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजनासे परिणत सम्यग्दृष्टि के चौबीसके सत्त्वस्थानके साथ तेईसका संक्रमस्थान पाया जाता है १ । पुनः उसी जीवके उपशमश्रेणीपर चढ़कर अन्तरकरण करनेके अनन्तर आनुपूर्वीसंक्रमण करनेपर बाईसका संक्रमस्थान पाया जाता है २ । पुनः उसी जीवके द्वारा नपुंसकवेदका उपशम कर देनेपर इक्कीसका संक्रमस्थान होता है ३ । पुनः स्त्रीवेदका उपशम कर देनेपर बीसका संक्रमस्थान होता है । उसी जीवके छह नोकषायोका उपशम करनेपर चौदहका संक्रमस्थान पाया जाता है ५ । पुनः पुरुपवेदका उपशम करनेपर तेरहका संक्रमस्थान पाया जाता है ६ । अनन्तर दोनो मध्यम क्रोधोके उपशम होनेपर ग्यारहका संक्रमस्थान होता है ७ । संज्वलनक्रोधके उपशम होनेपर दशका संक्रमस्थान होता है ८ । दोनो मध्यम मानोंके उपशम ३६ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार होनेपर आठका संक्रमस्थान होता है ९ । संज्वलनमानके उपशम होनेपर सातका संक्रमस्थान पाया जाता है १० । दोनो मध्यम मायाकषायोके उपशम होने पर पॉचका संक्रमस्थान पाया जाता है ११ । संज्वलनमायाके उपशम होनेपर चारका संक्रमस्थान होता है १२ । दोनो मध्यम लोभोके उपशम होनेपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो ही प्रकृतियोका संक्रमण होता है १३ । इस प्रकार चौवीस-प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ ऊपर वतलाये गये तेरह संकमस्थान पाये जाते है। इसी जीवके श्रेणीसे उतरते हुए जो संक्रमस्थान पाये जाते है, वे पुनरुक्त होनेसे उपर्युक्त संक्रमस्थानीके ही अन्तर्गत हो जाते है। तथा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले सम्यग्मिथ्याष्टिके इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान और दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाले जीवके मिथ्यात्वकी चरम फालीके पतनके अनन्तर पाया जानेवाला बाईसप्रकृतिक संक्रमस्थान भी पुनरुक्त होनेसे पृथक् नहीं कहा गया है। अब तेईसके सत्त्वस्थानके साथ संभव संक्रमस्थानोकी गवेषणा करते है-चौवीसकी सत्तावाले जीवके दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत होकर मिथ्यात्वका क्षपण कर देनेपर तेईसके सत्त्वस्थानके साथ वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । पुनः उसीके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको क्षपण करते हुए समयोन आवलीमात्र गोपुच्छाओके अवशिष्ट रहनेपर उसी तेईसके सत्त्वस्थानके साथ इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । इस प्रकार तेईस-प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ वाईस और इक्कीस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान पाये जाते हैं । इसी उपयुक्त जीवके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके निःशेपरूपसे क्षय कर देनेपर वाईसके सत्त्वस्थान के साथ इक्कीस-प्रकृतिक एक ही संक्रमस्थान पाया जाता है। अब इक्कीसके सत्त्वस्थानके साथ संभव संक्रमस्थानोकी गवेपणा करते है-क्षायिकसम्यग्दृष्टिके इक्कीसके सत्त्वस्थानके साथ इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १ । पुनः उसके उपशमश्रेणीपर चढ़कर आनुपूर्वी-संक्रमणके करनेपर इक्कीसके सत्त्वके साथ वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । इसी प्रकारसे इसके अनन्तर संभव दश संक्रमस्थानोका अनुमार्गण कर लेना चाहिए। इस प्रकार इक्कीसके सत्त्वके साथ उपशमश्रेणीकी अपेक्षा २१,२०,१९,१८,१२,११,९,८,६,५,३ और २ प्रकृतिक वारह संक्रमस्थान पाये जाते है। तथा क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा आठ मध्यम कपायोका क्षपण करते हुए समयोन आवलीमात्र गोपुच्छाओके अवशिष्ट रहनेपर इक्कीसके सत्त्वके साथ तेरह-प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी पाया जाता है। इसे पूर्वोक्त वारहमे मिला देनेपर कुल १३ संक्रमस्थान इक्कीसके सत्त्वस्थानके साथ पाये जाते हैं । पुनः उसी क्षपकके द्वारा आठो मध्यम कपायोके क्षपण कर देनेपर तेरह प्रकृठियोके सत्त्वस्थानके साथ तेरह-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है १ । पुनः उसी जीवके द्वारा अन्तकरण करनेके पश्चात् आनुपूर्वी-संक्रमण करनेपर तेरहप्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ वारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान भी पाया जाता है २ । इस प्रकार तेरहके सत्त्वस्थानके साथ तेरह और वारह-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान पाये जाते हैं । इसी जीवके द्वारा नपुंसकवेदका क्षयकर देनेपर वारहके सत्त्वस्थानके साथ ग्यारह-प्रकृतिक Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५६ ] सत्त्वस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण संक्रमस्थान पाया जाता है । पुनः स्त्रीवेदके क्षयकर देनेपर ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ दश प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । पुनः हास्यादि छह नो-कषायोके क्षपणके अनन्तर पंच-प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ चार प्रकृतिक संक्रमणस्थान पाया जाता है । पुनः नवकवद्ध पुरुषवेदके क्षय हो जानेपर चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । पुनः संज्वलनक्रोधके क्षय कर देनेपर तीन- प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ दोका संक्रम होता है । पुनः संज्वलनमानके क्षय कर देनेपर दो प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ एक प्रकृतिका संक्रम होता है । इस प्रकार मोहनीयकर्मके सत्त्वस्थानोंके साथ संक्रमस्थानोकी मार्गणा की गई । मोहनीय कर्मके सत्त्वस्थानोमें संक्रमस्थानोंका चित्र सवस्थान सक्र्मस्थान सत्त्वस्थान सक्रमस्थान सत्त्वस्थान सक्रमस्थान २८ २७ २४ २३ २३ २२ २२ २१ २६ २१ २५ २१ २३ २० १९ २१ १८ १३ १२ ११ ९ "" " 33 99 २७ 35 " २६ "" 33 "" "" 33 "" " 33 " २१ २० १४ १३ ११ १० "" 33 ८ ७ 35 २२ २१ ४ २ 55 33 " "" २६ २५ २५ अब मोहनीय कर्म के बन्धस्थानो में संक्रमस्थानोका अनुगम करते है - अट्ठाईस प्रकृति - योंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके बाईस - प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ सत्ताईस - प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १ । उसी जीवके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर बाईसके बन्धस्थानके साथ छब्बीस - प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । उसी जीवके द्वारा सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना कर देनेपर बाईसके ही बन्धस्थानके साथ पच्चीस - प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ३ । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके मिध्यात्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम आवलीमे बाईस-प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ तेईस - प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ४ । इस प्रकार बाईस प्रकृतिक वन्धस्थानमे सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस और तेईस प्रकृतिक चार संक्रमस्थान पाये जाते हैं। अब इक्कीस - प्रकृतिक वन्धस्थानमे संक्रमस्थानोकी मार्गणा करते हैं - सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके इक्कीस - प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ पच्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है १ । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना- पूर्वक सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रथम आवलीमें इक्कीस - प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया " "" सत्त्वस्थान २१ "" 33 "" 33 33 १३ १२ ११ २८३ ४ ३ सक्रमस्थान ८ ६ 1 ३ २ १३ १२ ११ १० ४ ३ २ १ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार जाता है २ । इस प्रकार इक्कीसके वन्धस्थानमे पञ्चीस और इक्कीस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान पाये जाते हैं । अब सत्तरह-प्रकृतिक वन्धस्थानमें संक्रमस्थानोकी मार्गणा करते है-सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके सत्तरह-प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और अविसंयोजनाकी अपेक्षा इक्कीस और पञ्चीस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान पाये जाते है २ । अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके सत्तरह-प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ सत्ताईसप्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ३ । उपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें वर्तमान असंयतसम्यग्दृष्टिके सत्तरह-प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ४ । उसीके अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करने पर तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ५ । स्त्रीवेदका उपशमन कर देनेके अनन्तर मिथ्यात्वका क्षय करनेपर उसीके वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ६ । और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर उसीके इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। इस प्रकार सर्व मिलाकर सत्तरह-प्रकृतिक वन्धस्थानमे उपर्युक्त छह संक्रमस्थान होते हैं । अव तेरह-प्रकृतिक वन्धस्थानमे संक्रमस्थानोकी गवेपणा करते हैं-संयतासंयतके तेरह-प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १ । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमके ग्रहण करनेके प्रथम समयमे वर्तमान उसी संयतासंयतके तेरहके वन्धके साथ छब्बीसका संक्रमस्थान पाया आता है २ । अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करनेवाले संयतासंयतके तेईसका संक्रमस्थान पाया जाता है ३ । उसीके द्वारा मिथ्यात्वका क्षय किये जानेपर वाईसका संक्रमस्थान पाया जाता है ४ । सम्यग्मिथ्यात्वके क्षय करने पर उसीके इक्कीसका संक्रमस्थान होता है ५ । इस प्रकार तेरह-प्रकृतिक वन्धस्थानमे सत्ताईस, छब्बीस, तेईस, वाईस और इक्कीस-प्रकृतिक पांच संक्रमस्थान होते हैं। अव नौ-प्रकृतिक वन्धस्थानमे संक्रमस्थानोकी अनुमार्गणा करते है-प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतके नौप्रकृतिक वन्धस्थानके साथ सत्ताईसका संक्रमस्थान होता है १ । उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमको एक साथ प्राप्त होनेवाले अप्रमत्तसंयतके प्रथम समयमे नौ-प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना-परिणत प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतके नौ-प्रकृतिक वन्धस्थानके साथ तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ३ । उसी बन्धस्थानके साथ मिथ्यात्वके क्षयकी अपेक्षा वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ४ । तथा सम्यग्मिथ्यात्वके क्षयकी अपेक्षा इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ५ । इस प्रकार नौ-प्रकृतिक बन्धस्थानोमे सत्ताईस, छब्बीस, तेईस, वाईस और इक्कीसप्रकृतिक पांच संक्रमस्थान होते हैं। अब पांच-प्रकृतिक वन्धस्थानमे संक्रमस्थानोका अन्वेपण करते हैं-चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण-गुणस्थानवर्ती उपशामकके पांचप्रकृतिक वन्धस्थानके साथ तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । वहीपर आनुपूर्वीसंक्रमके वासे वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । नपुंसकवेदके उपशमन करनेपर इक्कीसपकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । स्त्रीवेदका उपशमन करनेपर वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५६] वन्धस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण २८५ होता है ४ । पुनः इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके आनुपूर्वीसंक्रमण करके नपुंसकवेदके उपशम करनेपर उन्नीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ५ । उसीके द्वारा स्त्रीवेदका उपशमन कर देनेपर अट्ठारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ६ । क्षपकके द्वारा आठ मध्यम कषायोके क्षयकर देनेपर तेरह-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ७ । अन्तरकरण करके आनुपूर्वीसंक्रमणके करनेपर बारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ८ । नपुंसकवेदके क्षय कर देनेपर ग्यारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ९ । स्त्रीवेदके क्षय कर देनेपर दश-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १० । इस प्रकार पाँच-प्रकृतिक वन्धस्थानमे तेईस, बाईस, इक्कीस, बीस, उन्नीस, अट्ठारह, तेरह, बारह, ग्यारह और दश-प्रकृतिक दश संक्रमस्थान पाये जाते हैं। अव चार-प्रकृतिक बन्धस्थानमे संक्रमस्थानोकी गवेपणा करते है-चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके द्वारा छह नोकषायोका उपशम कर दिये जानेपर चार-प्रकृतिक वन्धस्थानके साथ चौदह-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है १ । पुनः उसीके पुरुपवेदका उपशम हो जानेपर तेरह-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके द्वारा छह नोकपायोका उपशम कर दिये जानेपर वारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । उसीके द्वारा पुरुषवेदका उपशम कर दिये जानेपर ग्यारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४ । क्षपक संयतके द्वारा छह नोकषायोका क्षय कर देनेपर चार-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ५ । उसीके द्वारा पुरुपवेदका क्षय कर देनेपर तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ६ । इस प्रकार चार-प्रकृतिक बन्धस्थानमे चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, चार और तीन-प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते है। अव तीन-प्रकृतिक वन्धस्थानमे संक्रमस्थानोकी प्ररूपणा करते हैचौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके द्वारा संज्वलनक्रोधके वन्ध-व्युच्छेद कर देनेपर शेष संज्वलन-त्रिकके बन्धस्थानके साथ ग्यारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है १ । पुनः संज्वलनक्रोधके उपशम कर देनेपर दश-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके द्वारा दोनो मध्यम क्रोधकपायोके उपशम करनेपर नौ-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ३ । उसीके द्वारा संज्वलनक्रोधका उपशमकर देनेपर आठ-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ४ । क्षपकके द्वारा संज्वलनक्रोधके वन्ध-व्युच्छेद कर दिये जानेपर तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ५ । पुनः उसी क्षपकके द्वारा संज्वलनक्रोधके क्षय कर दिये जानेपर दो-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ६ । इस प्रकार तीन-प्रकृतिक बन्धस्थानमे ग्यारह, दश, नौ, आठ, तीन और दो-प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते हैं। अव दोप्रकृतिक बन्धस्थानमे संक्रमस्थानोका अन्वेपण करते है-चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके द्वारा दोनो मध्यम मानकपायोके उपशम कर देनेपर आठ-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १ । उसीके द्वारा संज्वलनमानके उपशम कर देनेपर सात-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके द्वारा दोनो मध्यम मानकपायोके उपशम कर देनेपर छह-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । पुनः संज्वलनमानके उपशम कर देनेपर पॉच. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ . कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४ । क्षपकके द्वारा संज्वलनमानके वन्ध-विच्छेद कर देनेपर उसके नवकबन्ध-संक्रमणकी अपेक्षा दो-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। और उसके निःशेष क्षय कर देनेपर एक-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । इस प्रकार दो-प्रकृतिक वन्धस्थानमे आठ, सात, छह, पाँच, दो और एक-प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते है। अब एक-प्रकृतिक बन्धस्थानमें पाये जानेवाले संक्रमस्थानोंका -निरूपण करते है-चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके द्वारा दोनो मध्यम मानकपायोके उपशम करनेपर संज्वलनमायाके नवकबन्धके साथ पॉच-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है १ । पुनः संज्वलनमायाके उपशम कर देनेपर चार-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है २ । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके द्वारा दोनों मध्यम मायाकषायोके उपशम करनेपर संज्वलनमायाके नवकवन्धके साथ तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । संज्वलनमायाके उपशम कर देनेपर दो प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४ । और एक संज्वलनलोभका वन्ध करनेवाले क्षपकके संज्वलनमायाके संक्रमणरूप एकप्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । इस प्रकार एक-प्रकृतिक बन्धस्थानमे पाँच, चार, तीन, दो और एक-प्रकृतिक पॉच संक्रमस्थान पाये जाते है। इस प्रकार बन्वस्थानोमें संक्रमस्थानोकी प्ररूपणा समाप्त हुई। मोहनीयकर्मके बन्धस्थानीमें संक्रमस्थानोका चित्र सक्रमस्थान ૨૨ 13 १७ mrro बन्धस्थान सक्रमस्थान बन्धस्थान २७, २६, २५, २३ | २३,२२,२१,२०,१९,१८,१३,१२,११,१० २५, २१ | १४, १३, १२, ११, ४, ३ २७, २६, २५, २३, २२, २१ । ३ । ११, १०, ९, ८,३,२ | २७, २६, २३, २२, २१ । ८,७, ६, ५, २,१ ९ २७, २६, २३, २२, २१ । ___ उपर्युक्त प्रकारसे एक-संयोगी भंगोकी प्ररूपणा करके अब बन्ध और सत्त्व इन दोनोको आधार बनाकर संक्रमस्थानोके द्विसंयोगी भंगोकी प्ररूपणा करते हैं-अट्ठाईस-प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ वाईस-प्रकृतिक वन्धस्थानमे सत्ताईस, छब्बीस और तेईस-प्रकृतिक तीन संक्रमस्थान पाये जाते है । अट्ठाईस-प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ इक्कीस-प्रकृतिक बन्धस्थानमै पच्चीस और इक्कीस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते है। इसी सत्त्वस्थानके साथ सत्तरहप्रकृतिक बन्धस्थानमे सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस और तेईस-प्रकृतिक चार संक्रमस्थान पाये जाते है । अट्ठाईसके सत्त्वस्थानके साथ तेरह और नौ-प्रकृतिक वन्धस्थानोमे सत्ताईस, छब्बीस और तेईस-प्रकृतिक तीन तीन संक्रमस्थान पाये जाते हैं। ऊपरके वन्धस्थानोमे अट्ठाईस-प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ द्विसंयोगी भंग सम्भव नहीं है । इस प्रकारसे एक एक सत्त्वस्थानके साथ यथासम्भव वन्धस्थानोको संयुक्त करके संक्रमस्थानोका अनुमार्गण करना चाहिए । अथवा एक एक बन्धस्थानके साथ यथासम्भव सत्त्वस्थानोको संयुक्त करके भी संक्रमस्थानोकी मार्गणा की जा सकती है । इसी प्रकार एक एक सत्त्वस्थानको आधार बनाकर Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रम अनुयोगद्वार संसूचन सादि य जहण्णसंकम कदिखुत्तो होइ ताव एक्केक्के । अविरहिद सांतरं केवचिरं कदिभाग परिमाणं ॥ ५७ ॥ एवं दव्वे खेत्ते काले भावे य सणिवादे य । संकमणयं विदू या सुददे सिदमुदारं ॥ ५८ ॥ १२८. सुत्तसमुक्कित्तणाए समत्ताए इमे अणियोगद्दारा । १२९. तं जहा । १३०. ठाणसमुक्कित्तणा सव्वसंकमो णोसव्वसंकमो उक्कस्तसंकमो अणुक्कस्तसंकमो बन्ध और संक्रमस्थानोकी, तथा एक एक संक्रमस्थानको आधार बनाकर वन्ध और सत्वस्थानोके परिवर्तन के द्वारा द्विसंयोगी भंगोको निकालनेकी भी सूचना ग्रन्थकारने 'एक्केण समाणय' पदके द्वारा की है, सो विशेष जिज्ञासु जनोको जयधवला टीकासे जानना चाहिए । प्रकृतिस्थानसंक्रम अधिकार में सादिसंक्रम जघन्यसंक्रम, अल्पबहुत्व, काल, अन्तर, भागाभाग और परिमाण अनुयोगद्वार होते हैं । इस प्रकार नय- विज्ञ जनों को तोपदिष्ट, उदार अर्थात् विशाल और गम्भीर संक्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और सन्निपात अर्थात् सन्निकर्षकी अपेक्षा जानना चाहिए ॥ ५७-५८ ॥ विशेषार्थ-प्रकृतिस्थानसंक्रमनामक अधिकारसे कितने अनुयोगद्वार होते है, इस बातका वर्णन इन दोनो गाथाओके द्वारा किया गया है । जिसमेंसे कुछ अनुयोगद्वारोंके नाम तो गाथामें निर्दिष्ट हैं और कुछकी 'च' पदके द्वारा, नामैकदेशसे या प्रकारान्तरसे सूचना की गई है । जैसे - एक - एक संक्रमस्थान मे कितने जीव होते है, इस पद से अल्पबहुत्व - की सूचना की गई है । 'अविरहित' पदसे एक जीवकी अपेक्षा काल, 'सान्तर' पदसे एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, 'कति भाग' पदसे भागाभाग, ' एवं ' पदसे भंगविचय, 'द्रव्य' पदसे द्रव्यानुगम, 'क्षेत्र' पदसे क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगम, 'काल' पदसे नानाजीवोकी अपेक्षा कालानुगम और अन्तरानुगम तथा 'भाव' पदसे भावानुगम कहे गये है । इनके अतिरिक्त ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम और अजघन्य संक्रम, इन सात अनुयोगद्वारोकी सूचना प्रथम गाथा - पठित 'च' पदसे की गई है। द्वितीय गाथा-पठित 'च' पदसे भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि आदिक अनुयोगद्वारोका ग्रहण किया गया है । इस प्रकार गाथा - पठित या गाथा सूचित इन उपर्युक्त सर्व अनुयोगद्वारोमे संक्रम अधिकारको भले प्रकार जानना चाहिए, ऐसी सूचना गाथासूत्र - कारने की है । इन्ही आधार पर चूर्णिकारने आगे यथासंभव कुछ अनुयोगद्वारोसे संक्रमकी प्ररूपणा की है । चूर्णिसू०० - इस प्रकार संक्रमण सम्वन्धी गाथा- सूत्रोकी समुत्कीर्तनाके समाप्त होनेपर ये वक्ष्यमाण अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है । वे इस प्रकार है - स्थानसमुत्कीर्तना, सर्वसंक्रम, गा० ५८ ] २८७ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'अणियोगद्दारगाहा' ऐसा पाठ मुद्रित है । पर 'गाहा' यह पद टीकाका अश है जो कि 'गाहा' पदको जोडनेपर 'गाहासुत्तसमुक्कित्तणा- ऐसा सुन्दर और प्रकरण-सगत पाठ बन जाता है । (देखो पृ० ९८७ ) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार जहण्णसंकमो अजहण्णसंकमो सादियसंकमो अणादियसंकमो धुवसंकमो अद्भुवसंकमो एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो अप्पात्रहुगं भुजगारो* पदणिक्खेव वड्ढि त्ति । २८८ १३१. ठाणसमुक्कित्तणा त्ति जं पदं तस्स विहासा जत्थ एगा गाहा । अट्ठावीस चउवीस सत्तरस सोलसेव पण्णरसा | एदे खलु मोत्तूर्ण सेसाणं संकमो होइ ॥ १ ॥ १३२. एवमेदाणि पंचाणाणि मोत्तृण सेसाणि तेवीस संकमण्णणि १३३. एत्थ पडिणिसो कायव्वो । नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम, अजघन्य संक्रम, सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुषसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि | इनके द्वारा संक्रमणका अनुमार्गण करना चाहिए । १२८ - १३० ॥ चूर्णिसू० - इन उपर्युक्त अनुयोगद्वारोमे जो 'स्थानसमुत्कर्त्तना' यह पद है, उसकी विभाषा की जाती है । इस स्थानसमुत्कीर्तना नामक अनुयोगद्वार मे "अट्ठावीस चडवीस ० " इत्यादि एक सूत्रगाथा निवद्ध हैं । जिसका अर्थ इस प्रकार है - " अट्ठाईस, चौवीस, सत्तरह, सोलह और पन्द्रह-प्रकृतिक जो ये पाँच स्थान है, उन्हें छोड़कर शेप प्रकृतिक स्थानोंका संक्रम होता है ।" इस प्रकार इन पॉच स्थानोको छोड़कर शेप तेईस संक्रमस्थान होते है । यहॉपर प्रकृतियोका निर्देश करना चाहिए || १३१-१३३॥ विशेपार्थ - यहॉपर चूर्णिकारने प्रकृतियो के निर्देशकी जो सूचना की है, उसे संक्षेपमे इस प्रकार जानना चाहिए - मोहनीयकर्मके दो भेद है - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय | दर्शनमोहनीयके तीन भेद होते है - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति | चारित्रमोहनीयके दो भेद है - कपाय और नोकपाय । कपायके सोलह और नोकपायके नौ भेद होते है । ये सब मिलाकर मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ हो जाती हैं । जहॉपर ये सब प्रकृतियाँ पाई जायें, वह अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान है । जहॉपर उनमे से एक कम पाई जावे, वह सत्ताईस - प्रकृतिक स्थान है, जहॉपर दो कम पाई जावे, वह छत्र्वीस - प्रकृतिक स्थान है । इस प्रकार सर्व स्थानोको जानना चाहिए। किस स्थानमे किस किस प्रकृतिको कम करना चाहिए, इसका निर्णय आगे चूर्णिकार स्वयं करेगे । *जयधवलाकी ताम्रपत्रीय मुद्रित तथा हस्तलिखित प्रतियोमे 'भुजगारों' के पश्चात् 'अप्पदरो अवद्विदो अवत्तव्वगो' इतना पाठ और भी उपलब्ध होता है । पर ये तीनों तो भुजाकार अनुयोगद्वारके ही भीतर आ जाते है । क्योकि, उच्चारणावृत्ति और महावन्ध आदि में सर्वत्र अल्पतर, अवस्थित और अव क्तव्यका वर्णन भुजाकार अनुयोगद्वारमे ही किया गया है। तथा आगे या पीछे सर्वत्र भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि, इन तीनका ही निर्देश चूर्णिकारने किया है । प्रकृत प्रकृतिसक्रमण अधिकार के अन्तमं दी गई उच्चारणा वृत्तिमें भी इसी प्रकारमे वर्णन किया गया है, अतः हमने उक्त पाठको मूल में नहीं दिया है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ गो० ५८] संक्रमस्थान-प्रकृति-निरूपण १३४. अट्ठावीसं केण कारणेण ण संकमइ ? १३५ दंसणमोहणीय-चरित्तमोहणीयाणि एक्के कम्मि ण संकमंति । १३६. तदो चरित्तमोहणीयस्स जाओ पयडीओ बझंति, तत्थ पणुवीसं पि संकमंति । १३७, दंसणयोहणीयस्स उक्कस्सेण दो पयडीओ संकमंति । १३८. एदेण कारणेण अट्ठावीसाए णत्थि संकमो। १३९. सत्तावीसाए काओ पबडीओ ? १४०. पणुवीसं चरित्तमोहणीयाओ, दोणि दंसणमोहणीयाओ। १४१. छब्धीसाए सम्पत्ते उव्वेल्लिदे । १४२. अहवा पढमसमयसम्मत्ते उप्पाइदे । १४३. पणुवीसाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेहि विणा सेसाओ । १४४, चउवीसाए किं कारणं णत्थि ? १४५, अणंताणुवंधिणो सब्वे अवणिज्जंति । १४६. एदेण कारणेण चउवीसाए णत्थि । १४७. तेवीसाए अणंताणुबंधीसु अब संक्रमके योग्य-अयोग्य स्थानोका स्पष्टीकरण करते हैशंका-अट्ठाईस-प्रकृतिक स्थानका संक्रमण किस कारणसे नहीं होता ? ॥१३४॥ समाधान-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी प्रकृतियाँ परस्पर एक-दूसरेमे नही संक्रमण करती है, इसलिए चारित्रमोहनीयकी जो प्रकृतियाँ बंधती है, उनमे पच्चीसो ही प्रकृतियाँ संक्रमित हो जाती है। दर्शनमोहनीयकी अधिक-से-अधिक दो प्रकृतियाँ संक्रमण करती है। इसका कारण यह है कि अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवमे मिथ्यात्वके प्रतिग्रह-प्रकृतिक होनेसे उसमे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन दोनोंका संक्रम पाया जाता है। तथा सम्यग्दृष्टि जीवमे सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रतिग्रहरूप होनेसे उसमे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम देखा जाता है, इस कारणसे अट्ठाईस-प्रकृतिक स्थानका संक्रमण नही होता है ॥ १३५-१३८॥ शंका-सत्ताईस-प्रकृतिक स्थानमे कौनसी प्रकृतियाँ होती है ? ।।१३९।। समाधान-चारित्रमोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियाँ, तथा दर्शनमोहनीयकी मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, अथवा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये दो प्रकृतियाँ होती है ॥१४०॥ चूर्णिसू०-सत्ताईस प्रकृतियोके संक्रामक मिथ्याष्टिके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलनाकर देनेपर शेप प्रकृतियोके समुदायात्मक छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। अथवा प्रथमोपशमसम्यक्त्वके उत्पन्न करनेपर प्रथमसमयवर्ती उपशमसम्यक्त्वीके भी छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। क्योकि, उस समय मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिमें संक्रमण पाया जाता है। किन्तु उस समय सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण नही पाया जाता । पञ्चीस-प्रकृतिक स्थानमे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेप प्रकृतियाँ होती है ॥१४१-१४३॥ शंका-चौबीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होनेका क्या कारण है ? ॥ १४४॥ समाधान-अनन्तानुवन्धीकी सभी प्रकृतियाँ एक साथ ही विसंयोजित की जाती है, Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार अवगदेसु । १४८. वावीसाए मिच्छत्ते खविदे सम्मामिच्छत्ते सेसे । १४९. अहवा चउवीसदिसंतकम्मियस्स आणुपुब्बीसंकमे कदे जाव णqसयवेदो अणुवसंतो । १५०. एकवीसाए खीणदंसणमोहणीयस्स अक्खवग-अणुवसामगस्स । १५१. चउवीसदिसंतकम्मियस्स वा णउंसयवेदे उवसंते इत्थिवेदे अणुवसंते'। १५२. चीसाए एकवीसदिसंतकम्मियस्स आणुपुयीसंकमे कदे जाव णqसयवेदो अणुवसंतो। १५३. चउवीसदिसंतकम्मियस्स वा आणुपुब्बीसंकमे कदे इत्थिवेदे उवसंते छसु कम्मेसु अणुवसंतेसु । १५४. एगूणवीसाए एकवीसदिसंतकम्मंसियस्स णqसयवेदे उनके विसंयोजन होनेपर चौवीसका सत्त्व होकर तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इस कारणसे चौबीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता है ॥१४५-१४६॥ चूर्णिसू०--अनन्तानुबन्धी चारो कषायोके अपगत (विसंयोजित ) होनेपर चारित्रमोहनीयकी शेष इक्कीस तथा दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियोके मिलानेपर तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके मिथ्यात्वके क्षय होनेपर तथा सम्यग्मिथ्यात्वके शेप रहनेपर वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। अथवा चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक जीवके आनुपूर्वी संक्रमण करनेपर जबतक उसके नपुंसकवेद अनुपशान्त है, अर्थात् नपुंसकवेदका उपशम नही हो जाता, तबतक उसके वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है, ऐसे अक्षपक और अनुपशामक जीवके इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ॥१४७-१५०॥ विशेषार्थ-उपशम या क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके नवे गुणस्थानके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जानेपर ही उपशामक या क्षपक संज्ञा प्राप्त होती है । अतः उससे पूर्ववर्ती सभी क्षायिकसम्यग्दृष्टियोका यहाँ अक्षपक और अनुपशामक पदसे ग्रहण किया गया है । चूर्णिसू०-अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके नपुंसकवेदके उपशान्त हो जानेपर तथा स्त्रीवेदके अनुपशान्त रहने तक इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वी-संक्रमण करनेपर जबतक नपुंसकवेद अनुपशान्त रहता है, तबतक वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वी-संक्रमण करनेपर नपुंसकवेदकी उपशामनाके पश्चात् स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर तथा हास्यादि छह नोकपायोके अनुपशान्त रहनेपर भी वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । १. जेणेद सुत्त देसामासियं, तेण चउवीससतकम्मिय-उवसमसम्माइहिस्स सासणभाव पडिवण्णस्स पढमावलिमाए चउवीससतकम्मियसम्मामिच्छाइहिस्स वा इगिवीससंकमट्ठाणं पयारतरपडिग्गहिय होह त्ति वत्तव्व, तत्थ पयारतरपरिहारेण पयदसकमट्ठाणसिद्धीए णिव्वाहमुवल भादो । अदो चेव ओदरमाणगस्स वि चउबीससतकम्मियत्स सत्तसु कम्मेसु ओकड्डिदेसु जाव इस्थि-णवु सयवेदा उवसता ताव इगिवीससंतकम्मट्टाणसभवो सुत्त तन्भूदो वक्खाणेयव्यो । जयध० २. ओदरमाणगस्स पुण णवु सयवेदे उवसते चेय पयदसकमठाणसंभवो त्ति एसो वि अत्थो एत्येव सुत्त णिलीणो त्ति वक्खाणेवव्वो । जयध० Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] संक्रमस्थान - प्रकृति-निरूपण २९१ वसंते इत्थवेदे अणुवसंते । १५५. अट्ठारसण्हमेकावीसदिकम्मं सियस्स इत्थिवेदे उचसंते जाव छण्णोकसाया अणुवसंता । १५६. सत्तारसह केण कारणेण णत्थि संकमो १ १५७. खवगो एक्कावी सादो एक्कपहारेण अट्ठकसाए अवणेदि । १५८. तदो अट्टकसारसु अवणिदेसु तेरसहं संकमो होइ । १५९. उबसामगस्स वि एक्कावीसदिकम्मंसियस्स छतु कम्मेसु उबसंतेसु बारसहं संकमो भवदि । १६०. चउवीसदिकम्मंसियस्स छसु कम्मेसु उवसंतेसु चोद्दसहं संकमो भवदि । १६१. एदेण कारणेण सत्तारसहं वा सोलसण्हं वा पण्हारसहं वा संकमो णत्थि । १६२. चोहसण्हं चउवीसदिकम्मैसियस्स छसु कम्मेसु उवसामिदेसु पुरिसवेदे अणुवसंते । १६३. तेरसहं चउवी सदिकम्मंसियस्स पुरिसवेदे उवसंते कसाएसु अणुवसंतेसु । १६४. खवगस्स वा अट्टकसारसु खविदेसु जाव अणाणुपुव्वीसंकमो । १६५. इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक के नपुंसकवेदके उपशान्त होनेपर तथा स्त्रीवेदके अनुप - शान्त रहनेपर उन्नीस - प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । उसी इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर जबतक हास्यादि छह नोकषाय अनुपशान्त रहती हैं, तबतक अट्ठारह-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ॥ १५१-१५५॥ शंका-सत्तरह प्रकृतियोका संक्रमण किस कारण से नहीं होता है, अर्थात् सत्तरहप्रकृतिक संक्रमस्थान क्यों नहीं होता ? ॥ १५६॥ समाधान- क्योकि, इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला क्षपक एक ही प्रहारसे एक साथ आठ मध्यम कपायोका क्षय करता है, इसलिए इक्कीस - प्रकृतिक संक्रमस्थानमे से आठ कपायोके अपनीत करनेपर तेरह प्रकृतियोका संक्रमण होता है । इस कारण सत्तरह - प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता ।। १५७ - १५८ ॥ चूर्णिसू० - इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक के भी हास्यादि छह कर्मोंके उपशान्त होनेपर बारह प्रकृतियोका संक्रमण होता है । चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके हास्यादि छह कर्मोंके उपशान्त होनेपर चौदह प्रकृतियोका संक्रम होता है । इस कारणसे सत्तरह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतियोका संक्रमण नहीं होता है । अतएव सत्तरह, सोलह और पन्द्रह-प्रकृतिक संक्रमस्थान नही कहे गये है ॥१५९-१६१॥ चूर्णिसू० - चौवीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक के हास्यादि छह कर्मोंके उपशभित होनेपर और पुरुपवेदके अनुपशान्त रहनेपर चौदह प्रकृतियोका संक्रम होता है । चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक के पुरुषवेदके उपशान्त होनेपर और आठ कपायोके अनुपशान्त रहनेपर तेरह प्रकृतियोंका संक्रम होता है । अथवा क्षपकके आठ मध्यम कपायोके क्षपित होनेपर जबतक अनानुपूर्वी - संक्रम रहता है, तत्रतक तेरह प्रकृतियोका संक्रम होता है । १ ओदरमाणग पि समस्सियूगेदस्स टूट्ठाणस्स सभवो समयाविरोहेणाणुगतव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामा सयत्तादो | जयध० Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार वारसण्हं खवगस्स आणुपुचीसंकमो आढत्तो जाव णबुसयवेदो अक्खीणो । १६६. एकावीसदिकस्मंसियस्स वा छसु कम्मेसु उवसंतेसु पुरिसवेदे अणुवसंते । १६७. एक्कारसण्हं खवगस्स णउंसयवेदे अक्खीणे । १६८. अधवा एकाचीसदिकम्मंसियस पुरिसवेदे उवसंते अणुवसंतेसु कसाए सु । १६९. चउवीसदिकम्मंसियस्स या दुविहे कोहे उवसंते कोहसंजलणे अणुवसंते । १७०. दसण्हं खबगस्स इस्थिवेदे खीणे छसु कम्मसेसु अक्खीणेसु । १७१. अधवा चउवीसदिकम्पसियस्स कोधसंजलणे उवसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु । १७२. णवण्हं एकावीसदिसम्मंसियस्स दुविहे कोहे उवसंते कोहसंजलणे अणुवसंते । १७३. चवीसदिकम्मंसियस्स खवगस्स च णत्थि । तेरह प्रकृतियोके संक्रमण करनेवाले क्षपकके आनुपूर्वी-संक्रम आरम्भ कर जबतक नपुंसकवेद क्षीण नहीं होता, तवतक बारह प्रकृतियोका संक्रमण होता है । अथवा इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके हास्यादि छह कर्मोके उपशान्त होनेपर और पुरुषवेदके अनुपशान्त रहने तक वारह प्रकृतियोका संक्रमण होता है। बारह प्रकृतियोके संक्रमण करनेवाले उसी क्षपकके नपुंसकवेदके क्षय कर देनेपर और स्त्रीवेदके क्षीण नहीं होने तक तीन संज्वलन और आठ नोकपाय इन ग्यारह प्रकृतियोका संक्रमण होता है । अथवा इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले क्षायिकसम्यक्त्वी उपशासकके पुरुपवेदके उपशान्त होनेपर और अवशिष्ट कयायोके अनुशान्त रहनेपर भी ग्यारह प्रकृतियोका संक्रमण होता है। अथवा चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दोनो मध्यम क्रोधोके उपशान्त होनेपर और संज्वलनक्रोधके अनुपशान्त रहनेपर भी ग्यारह प्रकृतियोका संक्रमण होता है। ग्यारह प्रकृतियोका संक्रमण करनेवाले क्षपकके स्त्रीवेदके क्षीण हो जानेपर और छह नोकपायोके अक्षीण रहने तक तीन संज्वलन और सात नोकपाय, इन दश प्रकृतियोका संक्रमण होता है। अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके संज्वलनक्रोधके उपशान्त होनेपर और शेप कपायोके अनुपशान्त रहनेपर भी दश प्रकृतियोका संक्रमण होता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले क्षायिकसम्यक्त्वी उपशामकके दोनो क्रोधोके उपशान्त होनेपर और संज्वलनक्रोधके अनुपशान्त रहने तक शेप नौ प्रकृतियोका संक्रमण होता है। यह नौ-प्रकृतिक संक्रमस्थान चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपनामकके और पकके नहीं होता है ॥१६२-१७३।। विशेपार्थ-चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके नौ-प्रकृतियोका संक्रमण क्या नहीं होता, इस प्रश्नका उत्तर यह है कि चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके संज्वलनक्रोधका उपशमन करने के उपरान्त जब दोनो मध्यम मानकपाय उपशान्त हो जाते है, तव उसके उससे अधस्तन संक्रमस्थानकी उत्पत्ति होती है। तथा स्त्रीवेदके क्षयके साथ दश प्रकृतियाँके १. ओदरमाणसंबधेण कि पयदसकमाणसभवो वत्तव्यो, सुत्तत्सेदस्म देसामासवभावेणाबछाणादो। जयध० २. ओदरमाणसंबंधेण वि एत्थ पयदसकमठाणसभवो वत्तव्यो, विरोहाभावादो । जयध° connnnnnnnnnnnnnnnn Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] संक्रमस्थान-प्रकृति-निरूपण २९३ १७४. अट्ठण्हं एक्कावीसदिकम्मंसियस्स तिविहे कोहे उवसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु । १७५. अहवा चउवीसदिकस्मंसियस्स दुविहे माणे उपसंते, माणसंजलणे अणुवसंते । १७६. सत्तण्हं चउवीसदिकम्मंसियस्स तिविहे माणे उवसंते सेससु कसाएसु अणुवसंतेसु । १७७. छण्हमेकावीसदिकम्मंसियस्स दुविहे माणे उवसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु । १७८. पंचण्हमेकावीसदिकम्मंसियस्स तिविहे माणे उवसंते सेसकसाएसु अणुवसंतेसु । १७९. अधवा चउवीसदिक-मंसियस्स दुविहाए मायाए उवसंताए सेसेसु अणुवसंतेसु ।१८०. चउण्हं खवगस्स छसु कम्मेसु खीणेसु पुरिसवेदे अक्खीणे । १८१. अहवा चउवीसदिकम्मंसियस्स तिविहाए मायाए उवसंताए सेसेसु अणुवसंतेसु । १८२ संक्रमण करनेवाले क्षपकके भी हास्यादि छह प्रकृतियोके एक साथ क्षीण होनेपर चार-प्रकृतिक संक्रमस्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए क्षपकके नौ प्रकृतियोका संक्रमण नहीं होता है। - चूर्णि सू०-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले क्षायिकसम्यक्त्वी उपशामकके तीन प्रकारके क्रोधके उपशान्त होनेपर और शेष कषायोके अनुपशान्त रहने तक आठ प्रकृतियोका संक्रमण होता है । अथवा चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दोनो मध्यम मानकषायोके उपशान्त होनेपर और संज्वलनमानके अनुपशान्त रहनेपर आठ प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है। चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीनो प्रकारके मानकषायके उपशान्त होनेपर और शेप कपायोके अनुपशान्त रहनेपर सात प्रकृतियोका संक्रमण होता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दोनो प्रकारके मानकपायके उपशान्त होनेपर और शेष कपायोके अनुपशान्त रहनेपर छह प्रकृतियोका संक्रमण होता । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीनो प्रकारके मानके उपशान्त होनेपर और शेप कपायोके अनुपशान्त रहनेपर पॉच प्रकृतियोका संक्रमण होता है। अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दोनो प्रकारकी मायाकषायके उपशान्त होनेपर और शेष कर्मों के अनुपशान्त होनेपर पाँचप्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है ॥१७४-१७९॥ विशेषार्थ-पाँच-प्रकृतिक संक्रमस्थानकी प्ररूपणा दो प्रकारसे की गई है। उसमेसे प्रथम प्रकारमे तो 'शेष कषायोके अनुपशान्त रहनेपर' ऐसा कहा है और द्वितीय प्रकारमें 'शेप कर्मोंके अनुपशान्त रहनेपर' ऐसा कहा है, इसका कारण यह है कि प्रथम प्रकारवाले जीवके तो तीन माया और दो लोभ इन पॉच कषायोका संक्रमण पाया जाता है। किन्तु दूसरे प्रकारवालेके मायासंज्वलन दो लोस और दर्शनमोहनीयकी मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो, इस प्रकार पाँच प्रकृतियोका संक्रम पाया जाता है। इस विभिन्नताको सूचित करनेके लिए चूर्णिकारने उक्त दो विभिन्न पदोका प्रयोग किया है । __चूर्णिसू०-क्षपकके स्त्रीवेदकी क्षपणाके अनन्तर छह नोकषायोके क्षीण होनेपर और पुरुषवेदके अक्षीण रहनेपर पुरुपवेद, संज्वलनक्रोध, मान और माया, इन चार प्रकृतियोका संक्रमण होता है। अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके तीन प्रकारकी माया Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ कसाय पाहुड सुन्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार { तिन्हं खवगस्स पुरिसवेदे खीणे सेसेसु अक्खीणेसु । १८३. अधवा एकावीसदिकम्पसियस्स दुविहाए मायाए उवसंताप सेसेसु अणुवसंतेसु । १८४. दोन्हं खवगस्स को हे खविदे सेसेसु अक्खीणेसु । १८५ अहवा एकावीसदिकम्मंसियस्स निविहाए मायाए उवसंताप सेसेसु अणुवसंतेसु । १८६ अहवा चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहे लोहे उवसंते । १८७ सुहुमसां पराइय उवसामयस्स वा उवसंतकसायरस वा । १८८. एकिस्से संकमो खवगस्स माणे खविदे मायाए अक्खीणाए । १८९. एतो पदाणुमाणियं सामित्तं यव्वं । कपायके उपशान्त होनेपर और शेप कर्मोंके अनुपशान्त रहनेपर दो मध्यम लोभ और दो दर्शनमोहनीय, इन चारका संक्रमण होता है । क्षपकके पुरुपवेदके क्षय होनेपर और कपायोके अक्षीण रहनेपर क्रोध, मान और माया इन तीन संज्वलनोका संक्रमण होता है । अथवा इक्कीस प्रकृतियो के सत्तावाले क्षायिकसम्यक्त्वी उपशामक के दोनो मायाकषायोके उपशान्त होनेपर और शेप कपायोके अनुपशान्त रहनेपर मायासंज्वलन और दोनो मध्यम लोभ, इन तीन प्रकृतियोका संक्रमण होता है । क्षपकके संज्वलनक्रोधका क्षय करनेपर और शेप कपायोके अनुपशान्त रहनेपर संज्वलन मान और माया इन दो प्रकृतियोका संक्रमण पाया जाता है । अथवा इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक के तीनो मायाकपायोके उपशान्त हो जानेपर और शेषके अनुपशान्त रहनेपर अप्रत्याख्यानावरणलोभ और प्रत्याख्यानावरणलोभ, इन दो प्रकृतियोका संक्रमण पाया जाया है । अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दो प्रकारके लोभ के उपशान्त हो जानेपर दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियोका संक्रमण पाया जाता है | दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियोका उपशमन करनेवाला यह दो - प्रकृतिक संक्रमस्थान सूक्ष्मसाम्पराय - उपशामकके अथवा उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ के होता है । क्षपकके संज्वलनमानकषायके क्षय हो जानेपर और संज्वलनमायाके अक्षीण रहनेपर एक प्रकृतिका संक्रमण होता है ।। १८०-१८८॥ ८ चूर्णिसू० - अव, इस स्थान - समुत्कीर्तनाके पश्चात् पूर्वोक्त अर्थपदोके द्वारा आनुपूर्वी संक्रम आदिके साथ अनुमान करके संक्रमस्थानो के स्वामित्वको जानना चाहिए || १८९ ॥ विशेषार्थ-संक्रमस्थानोकी स्थानसमुत्कीर्तनाके अनन्तर और स्वामित्व - अनुयोगद्वारके पूर्वतक मध्यवर्ती जो सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम आदि दश अनुयोगद्वार है, उनमे से सर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम और अजवन्यसंक्रम ये छह अनुयोगद्वार प्रकृत संक्रमस्थान-प्ररूपणामे संभव ही नही है, इसलिए, तथा सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुवसंक्रम और अध्रुवसंक्रम, इन चार अनुयोगद्वारोकी प्ररूपणा सुगम है, इसलिए चूर्णिकारने उनका कोई उल्लेख नहीं किया है । संक्रमस्थानोंके स्वामित्वका वर्णन अवश्य करना चाहिए, पर ऊपरके चूर्णि सूत्रो से बहुत अंगो में उसका भी प्ररूपण हो ही जाता है, अतः उसे न कहकर इस चूर्णिसूत्र के द्वारा उसे जान लेनेका निर्देश किया गया है । अतएव यहाँ पहले सादिसंक्रम Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] संक्रमस्थान-काल-निरूपण २९५ १९०. एयजीवेण कालो । १९१. सत्तवीसाए संकामओ केवचिरं कालादो होइ ? १९२. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १९३ उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवपाणि सादिरे - याणि पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागेण । आदि पर कुछ प्रकाश डाला जाता है- पच्चीस - प्रकृतिक स्थानका सादिसंक्रम भी होता है, अनादिसंक्रम भी होता है, ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम भी होता है । किन्तु शेष स्थानोका केवल सादिसंक्रम और अध्रुवसंक्रम ही होता है, अन्य नहीं । संक्रमस्थानो के स्वामित्वकी संक्षेपसे प्ररूपणा इस प्रकार जानना चाहिए - सत्ताईस, छब्बीस और तेईस - प्रकृतिक संक्रमस्थान सम्यग्दृष्टिके भी होते है और मिथ्यादृष्टि के भी होते है । पच्चीस - प्रकृतिक संक्रमस्थान मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होता है । इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि के होता है । वाईस - प्रकृतिक संक्रमस्थान से लेकर एक प्रकृतिक संक्रमस्थान तकके सर्व संक्रमस्थान सम्यग्दृष्टिके चौथे गुणस्थानसे लगाकर ग्यारहवें गुणस्थान तक यथासंभव पाये जाते है । चूर्णिसू० ० - अब एक जीवकी अपेक्षा संक्रमस्थानोका काल कहते हैं ॥ १९०॥ शंका-सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका कितना काल है ? ॥१९१॥ समाधान-सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो वार छयासठ सागरोपमकाल है ।।१९२-१९३॥ विशेषार्थ- सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्यकालका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैपच्चीस प्रकृतियो के संक्रामक किसी मिध्यादृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर और दूसरे समयसे सत्ताईस प्रकृतियोका संक्रामक होकरके जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन कर तेईस प्रकृतियोका संक्रामक हो जानेपर सत्ताईस - प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्यकाल सिद्ध हो जाता है । अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व या मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और सर्व - जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक उसके साथ रहकर पुनः परिणामो के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करनेपर भी सत्ता - ईस - प्रकृतियो के संक्रमणका अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्यकाल प्राप्त हो जाता है । उत्कृष्टकालका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - कोई एक अनादिमिध्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके सत्ताईस प्रकृतियोका संक्रामक होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और पल्योपमके असंख्यातवें भागतक उद्वेलना करता हुआ रहा तथा संक्रमणके योग्य सम्यक्त्वप्रकृति के सत्त्वके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और उसके साथ प्रथम वार छयासठ सागरोपमकाल तक परिभ्रमण - कर उसके अन्तमे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पहले के समान ही पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालतक सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलना करता रहा । अन्त में उसकी उद्वेलना - घरमफालीके - साथ सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और दूसरी वार भी उसके साथ छयासठ सागरोपमकाल तक परिभ्रमण करके अन्तमे मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । फिर भी दीर्घ उद्वेलनाकालसे सम्यक्त्व Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार १९४. छब्बीससंकामओ केवचिरं कालादो होड़ १ १९५. जहणेण एगसमओ । १९६ उकस्सेण पलिदोत्रमस्त असंखेज्जदिभागो । १९७. पणुवीसाए संकामए तिष्णि भंगा । १९८. तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण उवडोग्गल परियÎ | २९६ प्रकृतिकी उद्वेलना करके छब्बीस प्रकृतियोका संक्रामक हो गया । इस प्रकार तीन पल्योपमके असंख्यात भागोसे अधिक एकसौ बत्तीस सागरोपम - प्रमाण सत्ताईस प्रकृतियो के संक्रमणका उत्कृष्ट काल सिद्ध हो जाता है । शंका छव्वीस - प्रकृतिक संक्रमस्थानका कितना काल है ? ॥ १९४ ॥ समाधान - छवीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है ।। १९५-१९६॥ चूर्णिसू० – पच्चीस-प्रकृतिक सक्रमस्थान के कालके तीन भंग हैं । वे इस प्रकार हैंअनादि-अनन्त, अनादि - सान्त और सादि सान्त । इनमें जो सादि सान्त भंग है, उसकी अपेक्षा पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल उपार्थ - पुद्गलपरिवर्तन है ॥ १९७-१९८॥ विशेषार्थ - पच्चीस के संक्रामकके जघन्य कालका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैछब्बीस प्रकृतियोका संक्रामक जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना करता हुआ उपशमसम्यक्त्व के अभिमुख हो मिध्यात्वकी प्रथमस्थितिके द्विचरम समय मे सम्यग्मिथ्यात्व की चरम फालीको मिथ्यात्वरूपसे परिणमा कर पुन: चरम समयमे पच्चीस प्रकृतियोका संक्रामक होकर तदनन्तर समयमै फिर भी छव्वीस प्रकृतियोका संक्रामक हो गया। इस प्रकार एक समय मात्र जघन्यकाल प्राप्त होता है । अथवा अट्ठाईसकी सत्तावाला और सत्ताईसका संक्रामक जो उपशमसम्यग्दृष्टि उपायसम्यक्त्वके कालमे एक समय रहनेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ । वहॉपर एक समय पच्चीसके संक्रामक रूप से रहकर दूसरे समय में मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सत्ताईसका संक्रामक हो गया । इस प्रकार भी पच्चीसके संक्रमणका जघन्य काल एक समय सिद्ध होता है । अथवा चौबीसकी सत्तावाला कोई उपशमसम्यग्दृष्टि अपने कालमें एक समय अधिक आवली -प्रमाण शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ । वहॉपर अनन्तानुचन्वीका बन्ध करके और एक आवली काल बिताकर अन्तिम समयमे पच्चीसका संक्रामक हुआ और तदनन्तर समय मे मिध्यात्वको प्राप्त होकर सत्ताईसका संक्रामक हो गया । इस प्रकार से भी एक समयमात्र जघन्यकाल प्राप्त होता है । पच्चीसके संक्रामकके उत्कृष्टकालकी प्ररूपणा इस प्रकार है - कोई अनादिमिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुलपरिवर्तनके आदि समय सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और उसके साथ जघन्य अन्तर्मुहूर्तमात्र रह करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्व लघुकालसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलना प्रारंभ करके पच्चीसका संक्रामक हो गया । पुनः देशोन अर्थपुग परिवर्तनकाल तक संसार परिभ्रमण करके अन्तर्मुहूर्तमात्र संसार के Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] संक्रमस्थान-काल-निरूपण २९७ १९९. तेवीसाए संकामओ केवचिरं कालादो होइ ? २०० जहणेण अंतमुत्तं, एगसमओ वा । २०१. उकस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । २०२. बावीसाए बीसाए एगूणवीसाए अड्डारसहं तेरसहं बारसहं एक्कारसहं दसहं अट्टहं सत्तण्हं पंचण्हं चउन्हं तिन्हं दोन्हं पि कालो जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । शेष रह जानेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । तब उसके पच्चीस प्रकृतियो के संक्रमणका अभाव हो गया । इस प्रकार पच्चीस - प्रकृतिक संक्रामकका उत्कृष्टकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन-प्रमाण सिद्ध हो जाता है । र्शका - तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका कितना काल है ? ॥ १९९ ॥ समाधान - तेईस -प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त, अथवा एक समय और उत्कृष्ट साधिक छयासठ सागरोपमकाल है ॥२००-२०१॥ - विशेषार्थ — तेईस - प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त भी वतलाया गया है और एक समय भी । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - कोई उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके तेईस प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हुआ । पश्चात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक तेईसका संक्रामक रहकर उपशमसम्यक्त्वके कालमे छह आवली शेप रह जानेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर इक्कीस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया । यह अन्तर्मुहूर्तं जघन्य कालकी प्ररूपणा हुई । अब एक समयकी प्ररूपणा करते है - चौवीस प्रकृतियो की सत्तावाला कोई उपशमसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यक्त्वके कालमे एक समय कम आवली. मात्र शेप रह जानेपर सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त होकर इक्कीस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया । पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर एक समय तेईसका संक्रामक होकर तदनन्तर समय में अनन्तानुबन्धीके संक्रमणके निमित्तसे सत्ताईस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया । इस प्रकार तेईस - प्रकृतिक संक्रमस्थानका एक समयमात्र भी जघन्य काल सिद्ध हो जाता है । तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है - कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर और उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्त तक तेईसका संक्रामक रहकर पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो करके छयासठ सागर तक परिभ्रमण कर अन्तमे दर्शन मोहकी क्षपणासे परिणत होकर मिध्यात्वका क्षय करके बाईस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया । इस प्रकार तेईस संक्रामकका आदिके अन्तर्मुहूर्तसे तथा मिध्यात्वकी चरमफालीके पतनसे लगाकर कृतकृत्यवेदकके चरम समय तक के अन्तर्मुहूर्त से अधिक छ्यासठ सागरोपम - प्रमाण उत्कृष्ट काल सिद्ध हो जाता है । चूर्णिसू० – बाईस, वीस, उन्नीस, अट्ठारह, तेरह, वारह, ग्यारह, दश, आठ, सात, पॉच, चार, तीन और दो - प्रकृतिक संक्रमस्थानोके संक्रमणका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २०२॥ ३८ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार विशेषार्थ - प्रकृत सूत्रमे बतलाये गये संक्रमस्थानोके जघन्य और उत्कृष्ट कालोका स्पष्टीकरण करते है । उनमे से वाईसके संक्रमस्थानके कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है - चौवीस प्रकृतियो की सत्तावाला कोई एक जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ करके अन्तरकरणके अनन्तर आनुपूर्वी - संक्रमणसे परिणत हो एक समयमात्र वाईस प्रकृतिक स्थानका संक्रामक होकर और दूसरे समयमे मरण करके देवोमें उत्पन्न होकर तेईस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया । इस प्रकार बाईसके संक्रमस्थानका एक समयमात्र जघन्य काल उपलब्ध हो गया । इसीके उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है - कोई एक दर्शनमोहका क्षपक जीव मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्वके क्षपण-कालमे वाईस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हुआ और उसकी अन्तिम फालीके पतन होने तक उसका संक्रामक रहा । इस प्रकार वाईस प्रकृतिक स्थानका अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है। बीस - प्रकृतिक स्थानके संक्रम- कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है - इक्कीस प्रकृतियोका संक्रामक कोई एक जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ करके लोभका असंक्रामक होकर और एक समयमात्र बीसका संक्रामक वनकर तदनन्तर समयमे मरण करके देवोमें उत्पन्न होकर इक्कीसका संक्रामक हो गया । इस प्रकार एक समयमात्र जघन्य काल उपलब्ध हो जाता है । इसीके अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक जीव नपुंसकवेदके उदय के साथ श्रेणीपर चढ़ा और अन्तरकरण करके आनुपूर्वी संक्रमणके वशसे वीस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया । इस प्रकार इस जीवके नपुंसकवेदके उपशमनका जितना काल है, वह सर्व 'प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । उन्नीस - प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विवरण इस प्रकार है - इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ा और अन्तरकरणको करके नपुंसकवेदका उपशमनकर उन्नीस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हुआ । पुनः दूसरे ही समयमे मरणकर देवोमे उत्पन्न होकर इक्कीस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र जघन्य काल उपलब्ध हो जाता है । इसी जीवके नपुंसकवेदका उपशमन करके स्त्रीवेदके उपशमन करनेका अन्तर्मुहूर्तमान सर्वकाल प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । अट्ठारह प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विवरण इस प्रकार है- इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई उपशामक नपुंसक वेद और खीवेदका उपशमकर एक समय अट्ठारह - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक होकर और तदनन्तर समयमे मरण करके देवोमे उत्पन्न होकर इक्कीस - प्रकृतिक स्थानका संक्रामक संक्रमस्थानका जघन्यकाल प्राप्त हो गया । अनुपशान्त हैं, तब तक उनके उपाभनका उत्कृष्टकाल जानना चाहिए | तेरह-प्रकृतिक प्ररूपणा इस प्रकार है - चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई उपशामक यथाक्रमसे नव नोकपायोको उपशमा कर एक समय तेरह हो गया । इस प्रकार एक समय-प्रमाण प्रकृत उसी ही उपशामकके जब तक छह नोकपाय सर्व काल ही अट्ठारह - प्रकृतिक संक्रमस्थानका संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] संक्रमस्थान-काल-निरूपण २९९ प्रकृतियोका संक्रामक रहा और तदनन्तर समयमे मरकर तेईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र जघन्य काल प्राप्त हो जाता है। क्षपक आठ मध्यम कषायोंका क्षय करके जबतक आनुपूर्वी-संक्रमणका प्रारम्भ नहीं करता है, तबतक तेरहप्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। बारह-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य कालका विवरण इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई उपशामक यथाक्रमसे आठ नोकपायोंका उपशम करके एक समयके लिए बारह प्रकृतियोंका संक्रामक हुआ और दूसरे समयमें मरणको प्राप्त हुआ और देवोमें उत्पन्न होकर इक्कीस-प्रकृतिक स्थानका संक्रामक हो गया । इस प्रकार एक समयमात्र जघन्य काल प्राप्त हो गया। इसी संक्रमस्थानके अन्तर्मुहूर्त प्रमित उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-कोई एक संयत चारित्रमोहकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ और आनुपूर्वी-संक्रमण करके वह जबतक नपुंसकवेदका क्षय नहीं करता है तबतक उसके प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल पाया जाता है । ग्यारह-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य कालका विवरण इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई उपशामक यथाक्रमसे नव नोकपायोका उपशमन करके एक समय ग्यारहका संक्रामक रहकर और तदनन्तर समयमे मरणको प्राप्त होकर देव हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र प्रकृत संक्रमस्थानका जघन्य काल प्राप्त हो जाता है। इसी संक्रमस्थानके अन्तर्मुहूर्त-प्रमित उत्कृष्ट कालका विवरण इस प्रकार है-कोई एक क्षपक नपुंसकवेदका क्षय करके जवतक स्त्रीवेदका क्षय नहीं करता है तबतक वह प्रकृत स्थानका संक्रामक रहता है। दशप्रकृतिक संक्रमस्थानके एक समय-प्रमित जघन्य कालका विवरण इस प्रकार है-चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक उपशामक तीन प्रकारके क्रोधकी उपशामनासे परिणत होकर एक समय दश प्रकृतियोका संक्रामक रहा और दूसरे समयमें मरकर और देवोमे उत्पन्न होकर तेईस प्रकृतियोका संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत स्थानका जघन्य काल सिद्ध हो जाता है । क्षपकके छह नोकपायोके क्षपणका सर्व काल ही दश-प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। आठ-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विवरण इस प्रकार है-चौवीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई उपशामक दोनो मध्यम मान कषायोका उपशमन करके एक समय आठका संक्रामक होकर और दूसरे समयमे मर कर देवोंमे उत्पन्न हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र जघन्यकाल प्राप्त हो जाता है । इसी स्थानके उत्कृष्ट संक्रम-कालका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक उपशामक क्रमसे नव नोकपाय और तीन प्रकारके क्रोधका उपशमन करके आठ-प्रकृतिक स्थानका संक्रासक हुआ और अन्तर्मुहूर्त तक उस अवस्थामे रह कर दोनो मध्यम मानकषायोका उपशमन करके छह प्रकृतियोका संक्रामक हो गया इस प्रकार आठ-प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल दोनो मध्यम मान-कपायोके उपशमनकाल-प्रमित अन्तर्मुहूर्तमात्र जानना चाहिए । सात-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विवरण Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार २०३. एक्कवीसाए संकामओ केवचिरं कालादो होइ १ २०४, जहणेणेय - इस प्रकार है - चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई उपशामक प्रथम समयमें तीन प्रकारके मान कषायके उपशमसे परिणत हुआ और दूसरे ही समय में मरण करके देवोमें उत्पन्न हो गया । इस प्रकार प्रकृत संक्रमस्थानका एक समयमात्र जघन्यकाल सिद्ध हो जाता है । इसी जीवके दोनो मध्यम मायाकपायोका उपशमन करते हुए जब तक उनका अनुपशम रहता है तब तकका अन्तर्मुहूर्तमान काल प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । पांच- प्रकृतिक संक्रमस्थानके कालका विवरण इस प्रकार है - इसी उपयुक्त सात प्रकृतियो के उपशामक के द्वारा दोनो मध्यम मायाकपायोका उपशमन करके एक समय पांच प्रकृतियोका संक्रामक वनकर और दूसरे समयमे मर करके देव हो जाने पर एक समयमात्र प्रकृत संक्रमस्थानका जघन्य काल प्राप्त हो जाता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक के द्वारा तीन प्रकारके मानकी उपशामनासे परिणत होकर जब तक दोनो मध्यम माया कपायोका अनुपशम रहता है, तब तकका अन्तर्मुहूर्तमात्र काल प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । चार प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विवरण इस प्रकार है- चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक उपशामक संज्वलन - मायाका उपशमन करके चार प्रकृतियोका संक्रामक हुआ और दूसरे ही समय मे मरकर देव हो गया, इस प्रकार प्रकृत संक्रमस्थानका एक समयमात्र जघन्य काल प्राप्त हो जाता है । इसी उपशामकके संज्वलनमायाके उपशमकालसे लेकर जबतक दोनों मध्यम लोभोका अनुपाम रहता है, तबतकका अन्तर्मुहूर्तमात्र काल प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विवरण इस प्रकार है - इक्कीस प्रकृतियो की सत्तावाला कोई एक उपशामक दोनो मध्यम मायाकपायोकी उपशामनासे परिणत होकर तीन प्रकृतियोका संक्रामक हुआ और दूसरे समयमे मरकर देव हो गया । इस प्रकार एक समयमात्र प्रकृत संक्रमस्थानका जघन्य काल सिद्ध हो जाता है | चारित्रमोहका क्षपण करनेवाले जीवके संज्चलनक्रोधके क्षपणका जितना काल है, वह सब प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । दो- प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विवरण इस प्रकार है - चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक उपशामक आनुपूर्वी संक्रमण आदिकी परिपाटीसे दोनो प्रकारके मध्यम लोभका उपशमन करके मिध्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक समय संक्रामक होकर दूसरे समयमे मरकर देव हो गया । इस प्रकार प्रकृत संक्रमस्थानका जघन्य काल प्राप्त हो जाता है । इसी जीवके दोनों मध्यम क्रोधोके उपशमन - कालसे लगा करके उपशान्तकपायगुणस्थानसे उतरते हुए सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तिम समय तकका जितना काल है, वह सब प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । शंका- इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका कितना काल है ? || २०३ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] संक्रमस्थान अन्तर-निरूपण ३०१ समओ। २०५. उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । २०६. चोदसण्हं णवण्हं छण्हं पि कालो जहण्णणेयसमओ। २०७. उक्कस्सेण दो आवलियाओ समयूणाओ । २०८. अधवा उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ओयरमाणस्स लभइ । २०९. एकिस्से संकामओ केवचिरं कालादो होइ ? २१०.जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । २११. एत्तो एयजीवेण अंतरं । २१२. सत्तावीस-छब्बीस-तेवीस-इगिवीससंकामगंतरं केवचिरं कालादो होइ ? समाधान-इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरोपम है ॥२०४-२०५॥ विशेषार्थ-इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य कालका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैचौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक जीव नपुंसकवेदका उपशमन करके इक्कीस प्रकृतियोका संक्रामक हुआ और दूसरे ही समयमे मरकर देव हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र जघन्य काल सिद्ध हो जाता है। अथवा चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके कालमे एक समय शेष रहनेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेपर भी प्रकृत संक्रमस्थानका एक समयमात्र जघन्य काल पाया जाता है। उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-देव या नरकगतिसे मनुष्यगतिमे आया हुआ चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई जीव गर्भसे लेकर अन्तर्मुहर्त से अधिक आठ वर्षका हो जानेपर सर्वलघुकालसे दर्शनमोहकी क्षपणासे परिणत होकर और इक्कीस प्रकृतियोका संक्रमण प्रारम्भ करके देशोन पूर्वकोटी तक संयमभावके साथ विहार करके जीवनके अन्तमे मरा और विजयादिक अनुत्तर विमानोमें एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुका धारक देव हो गया । वह वहॉपर अपनी आयुको पूरा करके च्युत हुआ और पूर्वकोटी आयुका धारक मनुष्य हुआ । जव उसके सिद्ध होनेमे अन्तर्मुहूर्तमात्र काल शेष रह गया, तब क्षपकश्रेणीपर चढ़कर और आठ मध्यम कषायोका क्षय करके तेरह प्रकृतियोका संक्रामक हुआ । इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षसे कम दो पूर्वकोटीसे अधिक तेतीस सागरोपम-प्रमाण इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। चूर्णिसू०-चौदह, नौ और छह-प्रकृतिक संक्रमस्थानोका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक समय-कम दो आवली है। अथवा उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त भी पाया जाता है ॥२०६-२०८॥ शंका-एक-प्रकृतिक संक्रमस्थानका कितना काल है ? ॥२०९॥ ___ समाधान-एक-प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२१०॥ चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा संक्रमस्थानोका अन्तर कहते है ॥२११॥ शंका-सत्ताईस, छब्बीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानोका अन्तर-काल कितना है ? ॥२१२॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २१३. जहण्णेण एयसमओ । २१४. उकस्सेण उवड्दपोग्गलपरिय{ । समाधान-उक्त संक्रमस्थानोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ।।२१३-२१४॥ विशेपार्थ-सूत्रोक्त संक्रमस्थानोके अन्तरकालोंमेंसे यथाक्रससे पहले सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य अन्तरका स्पष्टीकरण करते हैं-सत्ताईसका संक्रामक कोई उपशमसम्यदृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय रहनेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ और एक समय पच्चीसका संक्रामक रहकर अन्तरको प्राप्त हो दूसरे ही समयमें मिथ्यादृष्टि बनकर सत्ताईसका संक्रामक हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र प्रकृत संक्रमस्थानका जघन्य अन्तरकाल सिद्ध हो जाता है । अथवा सत्ताईसका संक्रामक कोई मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता हुआ सम्यक्त्वके अभिमुख होकर अन्तर करके और मिथ्यात्वकी प्रथमस्थितिके द्विचरम समयमे सत्ताईसके संक्रामकरूपसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी चरमफालीको मिथ्यात्वके ऊपर संक्रमित करके उसके अनन्तर चरम समयमें छब्बीसका संक्रमण करके अन्तरको प्राप्त हुआ और सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें पुनः सत्ताईसका संक्रामक हो गया। इस प्रकारसे भी सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका एक समयप्रमाण जघन्य अन्तर सिद्ध हो जाता है । इसीके उत्कृष्ट अन्तर कालका विवरण इस प्रकार है-कोई एक अनादिमिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनके आदि समयमे उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और सर्व लघुकालसे मिथ्यात्वमे जाकर सर्व जघन्य उद्वेलना-कालसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके और सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानके अन्तरको प्राप्त हुआ। पुनः देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक संसारमे परिभ्रमण करके सिद्ध होनेमे जब अन्तर्मुहूर्त काल शेप रहा, तब उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । उसके दूसरे समयमे सत्ताईसका संक्रमण करनेपर सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका उपार्धपुगल-परिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है। छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानके एक समयमात्र जघन्य अन्तरकालका विवरण इस प्रकार है-जिसने सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना कर दी है ऐसा कोई छब्बीसका संक्रामक जीव उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होकर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्विचरम समयमे सम्यग्मिथ्यात्वकी चरम फालीको मिथ्यात्वरूपसे संक्रमित करके तदनन्तर समयमै ही पच्चीसके संक्रमण-द्वारा अन्तरको प्राप्त होकर उपशमसम्यक्त्वके प्रथम समयमे पुनः छब्बीसका संक्रामक हो गया । इस प्रकार जघन्य काल सिद्ध हो गया । इसीके उत्कृष्ट अन्तरकालका विवरण इस प्रकार है-कोई अनादिमिश्यावृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनके आदि समयमे उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर और सर्व लघुकालसे मिथ्यात्वमे जाकर सर्व जघन्य उद्वेलनाकालसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके छब्बीसका संक्रामक हो गया । पुनः सर्व लघुकालसे सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके पञ्चीसके संक्रामक रूपसे अन्तरको प्राप्त हुआ और देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक परिभ्रमण करके संसारके अन्तर्मुहूर्तमात्र शेप रह जानेपर उपशमसम्यक्त्वको Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] - संक्रमस्थान-अन्तर-निरूपण ३०३ प्राप्त कर छब्बीसका संक्रामक हुआ । इस प्रकार छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल सिद्ध हो जाता है । तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका विवरण इस प्रकार है-चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई उपशमसम्यग्दृष्टि तेईस प्रकृतियोके संक्रमणकालमें एक समय रह जाने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ और एक समयमात्र इक्कीसका संक्रामक बन अन्तरको प्राप्त होकर दूसरे ही समयमे मिथ्यात्वमे जाकर तेईसका संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत संक्रमस्थानका एक समयमात्र जघन्य अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। अथवा तेईसका संक्रामक कोई जीव उपशमश्रेणी पर चढ़ करके अन्तरकरणकी समाप्ति के अनन्तर ही आनुपूर्वी-संक्रमणका प्रारम्भ करके एक समय बाईसके संक्रामक रूपसे अन्तरको प्राप्त होकर और दूसरे समयमे देवोमै उत्पन्न होकर तेईसका संक्रामक हो गया । इस प्रकारसे भी एक समयमात्र जघन्य अन्तरकाल सिद्ध हो जाता है। इसी संक्रमस्थानके उत्कृष्ट अन्तरकालका विवरण इस प्रकार हैकोई अनादिमिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनके आदि समयमे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका प्रारम्भ कर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली काल शेप रह जानेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ और इक्कीसका संक्रमणकर अन्तरको प्राप्त हो पुनः मिथ्यात्वमे जाकर देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक संसारमे परिभ्रमण कर संसारके सर्व जघन्य अन्तमुहूर्तमात्र शेष रह जानेपर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर क्षपकश्रेणीपर चढ़नेके लिए अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन 'करके तेईसका संक्रामक हुआ। इस प्रकार प्रकृत संक्रमस्थानका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है। इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य अन्तर कालका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ करके अन्तरकरणकी समाप्ति होनेपर लोभसंज्वलनके असंक्रमके वशसे एक समय वीसका संक्रामक बनकर अन्तरको प्राप्त होकर मरा और देव होकर पुनः इक्कीसका संक्रामक हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र जघन्य अन्तरकाल सिद्ध हो गया। इसी संक्रमस्थानके उत्कृष्ट अन्तर कालका विवरण इस प्रकार है-कोई एक अनादिमिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनके आदि समयमे प्रथमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर और उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके उपशमसम्यक्त्वके कालमे छह आवली काल शेष रह जानेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर इक्कीस प्रकृतियोका एक आवली तक संक्रमण करके तदनन्तर समयमे पञ्चीसका संक्रामक बनकर और अन्तरको प्राप्त होकर तदनन्तर मिथ्यात्वमे जाकर और अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक परिभ्रमण करके संसारके सर्व-जघन्य अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रह जानेपर दर्शनमोहका क्षय करके इक्कीस प्रकृतियोका संक्रामक हुआ। इस प्रकार देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण इक्कीसप्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार २१५. पणुवीस कामयंतरं केवचिरं कालादो होइ १ २१६. जहणेण अंतोमुहुत्तं । २१७. उक्कस्सेण वे छावट्ठि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । २१८. वावीस-वीसचोदस-तेरस एकारस-दस अट्ठ-सत्त- पंच-च- दोणिसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? २१९. जहणेण अंतोमुहुत्तं । २२०. उकस्सेण उवडपोग्गल परियङ्कं । २२१. एकिस्से संकायस्स णत्थि अंतरं । ३०४ शंका - पच्चीस - प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तरकाल कितना है ? || २१५ ॥ समाधान- पच्चीस - प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक दो वार छयासठ सागरोपम है ।।२१६-२१७॥ विशेपार्थ- पच्चीस - प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका स्पष्टी - करण इस प्रकार है- कोई एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव पच्चीस प्रकृतियों का संक्रमण करता हुआ अवस्थित था । वह परिणामो के वशसे सम्यक्त्व या मिध्यात्वको प्राप्त हुआ । वहॉपर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक रहकर और सत्ताईसका संक्रमण कर अन्तरको प्राप्त होकर पुन: सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पच्चीसका संक्रामक हो गया । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पच्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर सिद्ध हो जाता है । इसीके उत्कृष्ट अन्तर कालका विवरण इस प्रकार है - पच्चीसका संक्रामक कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और किसी भी अविवक्षित संक्रमस्थानके साथ अन्तरको प्राप्त होकर पुनः मिथ्यात्व में जाकर सर्वोत्कृष्ट उद्वेलनकालसे सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता हुआ उपशमसम्यक्त्व के अभिमुख होकर अन्तरकरणको करके मिथ्यात्वकी प्रथमस्थितिके चरम समयमे सम्यग्मिथ्यात्वकी चरम फालीका संक्रमण करके तदनन्तर समय मे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर छयासठ सागर तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमे मिध्यात्वको प्राप्त होकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र काल तक सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके यथासम्भव प्रकार से सम्यक्त्वको ग्रहण करके दूसरी वार छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें फिर भी मिध्यात्वमें जाकर दीर्घ उद्वेलनकालसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके पच्चीसका संक्रामक हुआ । इस प्रकार तीन पल्योपमके असंख्यात भागोसे अधिक एक सौ वत्तीस सागरोपमप्रमाण पच्चीस - प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए । शंका-बाईस, वीस, चौदह, तेरह, ग्यारह, दश, आठ, सात, पाँच, चार और दो प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तरकाल कितना है ? ॥२१८॥ समाधान - उक्त संक्रमस्थानोका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुगलपरिवर्तन है ॥२१९-२२० ॥ चूर्णि सू० (० - एक प्रकृतिके संक्रामकका अन्तर नहीं होता है || २२१ ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] संक्रमस्थान-अन्तर-निरूपण ३०५ २२२. सेसाणं संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होइ ? २२३. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । २२४. उकस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । शंका-शेष अर्थात् उन्नीस, अट्ठारह, वारह, नौ, छह और तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थानोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२२२।। समाधान-उक्त संक्रमस्थानोका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक तेतीस सागरोपम है ॥२२३-२२४॥ विशेषार्थ-सूत्रमे शेष पदके द्वारा सूचित संक्रमस्थानोके जवन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई उपशामक उपशमश्रेणीमे अन्तरकरणकी समाप्ति के अनन्तर ही आनुपूर्वीसंक्रमणको आरम्भ करके नपुंसकवेदका उपशम कर इक्कीसका संक्रामक हुआ। पुनः स्त्रीवेदका उपशमन करके अन्तरका प्रारम्भ कर अट्ठारहका संक्रामक हुआ और छह नोकपायोका उपशमन करके अन्तर उत्पन्न कर उसी समय बारहका संक्रमण आरम्भ किया, पुनः पुरुपवेदका उपशम कर और अन्तरको प्राप्त होकर तत्पश्चात् दोनो प्रकारके क्रोधका उपशम किया और नौके संक्रमस्थानको प्राप्त होकर संज्वलनक्रोधका उपशम करके नौके अन्तरका आरम्भ किया । पुनः दोनो प्रकारके मानका उपशम करके छहका संक्रामक हुआ और संज्वलनमानका उपशम करके छहके अन्तरका आरम्भ किया । तदनन्तर दोनों मायाका उपशम करके तीनका संक्रामक हुआ और संज्वलन मायाका उपशम करके तीनके अन्तरका आरम्भ कर ऊपर चढ़ा और वापिस उतरते हुए तीनो मायाकपायोकी उद्वर्तना करके छहका संक्रामक बनकर, तीनो मानकषायोकी उद्वर्तना करके नौका संक्रामक वनकर, तीनो क्रोधोकी उद्वर्तना करके बारहका संक्रामक बनकर और सात नोकपायोकी उदतना करके उन्नीसका संक्रामक बनकर यथाक्रमसे उन उन संक्रमस्थानोके अन्तरको पूरा किया । इस प्रकार उन्नीस, अट्ठारह, वारह, छह और तीन प्रकृतिक संक्रमस्थानोमेसे प्रत्येकका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर सिद्व हो जाता है । इन्ही स्थानोके उत्कृष्ट अन्तरका विवरण इस प्रकार है-चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक वेदकसम्यग्दृष्टि देव या नारकी पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योमे उत्पन्न हुआ और गर्भसे लगाकर आठ वर्षके पश्चात् सर्वलघुकालसे विशुद्ध होकर संयमको प्राप्त होकर और दर्शनमोहनीयका क्षय करके उपशमश्रेणीपर चढ़ा । चढ़ते समय तीन और अट्ठारहके अन्तरको उत्पन्न करके तथा उतरते हुए छह, नौ, वारह और उन्नीसके अन्तरको उत्पन्न करके देशोन पूर्वकोटी तक संयमका परिपालन कर जीवनके अन्तमे मरा और तेतीस सागरोपमकी आयुवाले देवोमें उत्पन्न हो गया । पुनः आयुके अन्तमें वहाँसे च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योमे उत्पन्न हुआ और जीवन के अन्तमुहूर्त शेप रह जानेपर उपशमश्रेणीपर चढ़ करके यथाक्रमसे पूर्वोक्त सर्व संक्रमस्थानोके अन्तर ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'सादिरेयाणि' के स्थानपर 'देसूणाणि' पाठ मुद्रित है, ( देखो पृ० १०२६) जो कि टीकामें किये गये व्याख्यानके अनुसार नहीं होना चाहिए । ३९ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २२५. णाणाजीवेहि भंगविचओ । २२६. जेसि पयडीओ अत्थि तेसु पयदं । २२७. सव्यजीवा सत्तावीसाए छब्बीसाए पणुवीसाए तेवीसाए एकवीसाए एदेसु पंचसु संकमट्ठाणेसु णियमा संकामगा । २२८. सेसेसु अट्ठारससु संकमट्ठाणेसु भजियव्या। २२९. णाणाजीवेहि कालो । २३०. पंचण्हं हाणाणं संकामया सव्वद्धा । २३१. सेसाणं हाणाणं संकामया जहणणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । २३२. णवरि एकिस्से संकामया जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तं । २३३. णाणाजीवेहि अंतरं । २३४. वावीसाए तेरसण्हं वारसह एकारसण्हं दसण्हं चदुण्हं तिण्हं दोण्हमेकिस्से एदेसि णवण्हं ठाणाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? को पूरा किया। इस प्रकार उन संक्रमस्थानोका दो अन्तमुहूर्त और आठ वर्षसे कम दो पूर्वकोटीसे अधिक तेतीस सागरोपम-प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल सिद्ध हो जाता है। यहाँ इतनी बात ध्यानमे रखना आवश्यक है कि बारह और तीन-प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा निरूपण करना चाहिए । चूर्णिसू ०-अब नानाजीवोकी अपेक्षा संक्रमस्थानोका भंगविचय कहते है। जिन जीवोके विवक्षित प्रकृतियोकी सत्ता पाई जाती है, उनमे ही यह भंगविचय प्रकृत है। सर्व जीव सत्ताईस, छब्बीस, पचीस, तेईस और इक्कीस, इन पॉच संक्रमस्थानोपर नियमसे संक्रामक होते है। शेप अट्ठारह संक्रमस्थानोपर वे भजितव्य है, अर्थात् संक्रामक होते भी है, और नहीं भी होते है ॥२२५-२२८।। ___ चूर्णिसू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा संक्रमस्थानोका काल कहते है-सत्ताईस, छब्वीस, पञ्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक पांच संक्रमस्थानोके संक्रामक जीव सर्व काल होते है। शेप अट्ठारह स्थानोके संक्रामकोका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषता केवल यह है कि एक प्रकृतिके संक्रामकोका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२२९-२३२।। चूर्णिमू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा संक्रमस्थानोका अन्तर कहते हैं ॥२३३॥ शंका-वाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, दश, चार, तीन, दो और एक-प्रकृतिक १. एदेसि पचण्ह संकमट ठाणाणं सकामया जीवा सव्वकालमस्थि त्ति भणिद होइ । जयध० २. एत्थ सेसग्गहणेण वावीसादीण सकमठाणाण गहण कायव । तेसिं च जहण्णकालो एयसमयमेत्तो; उवसमसेढिम्मि विवक्खियसकमाणसंकामयत्तेणेयसमय परिणदाण केत्तियाण पि जीवाण विदियसमए मरणपरिणामेण तदुवलंभादो । उक्करसकालो अतोमुहुत्त; तेसि चेव विवक्खियसकमट्ठाणसकामयोवः सामयाणमुवरि चढताणमण्णेहि चढणोवयरणवावदेहिं अणुसधिटसंताणाणमविच्छेदकालस्स समालवणादा। णवरि तेरस-बारस-एकारस-चदु-तिण्णि-दोणिस कामगाण खवगोवसामगे अस्सिऊण उक्कस्सकालपरूवणा कायबा1 जयध० ३. एत्थ एकिस्से सकामयाणं जह्मणकालो कोहमाणाणमण्गदरोदएण चढिदाण मायासंकामयाणमणणुसंधिदसताणाणमतोमुहुत्तमेत्तो होइ । उक्करसकालो पुण मायासंकामयाणमणुसधिदपवाहाण होइ त्ति वत्तव्य। जयघ० Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ संक्रमस्थान-अल्पबहुत्व-निरूपण गा०५८] २३५. जहण्णेण एयसमओ । २३६. उकस्सेण छम्मासा' । २३७. सेसाणं णवण्हं संकमट्ठाणाणमंतरं केवचिरं कालादो होइ ? २३८. जहण्णेण एयसमओ। २३९. उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्साणि । २४०. जेसिमविरहिदकालो तेसिं णत्थि अंतरं । २४१. सण्णियासो णस्थि । २४२. अप्पाबहुअं । २४३. सव्वत्थोवा णवण्हं संकामया । २४४. छण्हं संकामया तेत्तिया चे । २४५. चोदसण्हं संकामया संखेज्जगुणा । २४६. पंचण्हं नौ संक्रमस्थानोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२३४॥ समाधान-उक्त नवों स्थानोके संक्रामकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है ॥२३५-२३६॥ शंका-शेप नौ संक्रमस्थानोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२३७॥ समाधान-शेष बीस, उन्नीस, अट्ठारह, सत्तरह, नौ, आठ, सात, छह और पांचप्रकृतिक नौ संक्रमस्थानोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्ष है ॥२३८-२३९॥ ___ चूर्णिसू०-जिन सत्ताईस, छब्बीस, पञ्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानोके कालका कभी विरह नहीं होता, उनका अन्तर नहीं है ।।२४०॥ चूर्णिमू०-संक्रमस्थानोका सन्निकर्प नहीं होता । क्योकि, एक संक्रमस्थानके निरुद्ध करनेपर उसमे शेप संक्रमस्थान संभव नहीं है ॥२४१॥ चूर्णिसू ०-अब संक्रमस्थानोका अल्पबहुत्व कहते है । नौ प्रकृतियोके संक्रामक वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । छह प्रकृतियोके संक्रामक भी उतने ही है, अर्थात् नौ १. वावीसाए ताव जहण्णेणेयसमओ, उक्कस्सेण छम्मासमेत्तमतर होइ, दसणमोह-क्खवणपट्ठवणाए णाणाजीवावेक्खजहण्णुकस्सतराण तेत्तियमेत्तपरिणामाणमुवलभादो | एव तेरसादीण पि वत्तव्व, खवयसेढीलद्धसरूवाणमेदेसि णाणाजीवावेक्खाए जहण्णुक्कसतराण तप्पमाणाणमुवलद्धीदो । जयध० २. एत्थ सेसग्गहणेण २०, १९, १८, १४, ९, ८,७, ६, ५ एदेसि सकमट्ठाणाण सगहो कायवो । ३. एदेसि च उवसमसेढिसबधीण जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेण वासपुधत्तमेत्तमतर होइ, तदारोहणविरहकालस्स तेत्तियमेत्तस्स णिवाहमुवलद्धीदो। सुत्ते सखेजवस्सग्गहणेण वासपुधत्तमेत्तकालविसेसपडिवत्ती । कुदो ? अविरुद्धाइरियवक्खाणादो । जयध० ४ त कथ ! इगिवीससतकम्मिओ उवसमसेढिं चढिय दुविह कोह कोहसजलणचिराणसतेण सह उवसामयतण्णवकबधमुवसामेतो समऊणदोआवलियमेत्तकाल णवण्ह सकामओ होइ, तदो थोवयरकालसचिदत्तादो थोवयरत्तमेदेसिं सिद्ध । जयध० ५. कुदो, माणसजलणणवकवधोवसामणापरिणदाणमिगिवीससतकम्मिओवसामयाण समऊण-दोआवलियमेत्तकालसचिदाणमिहावलबणादो। एदेसि च दोण्ह रासीण सरिसत्तं चढमाणरासिं पहाण कादूण भणिद, ओयरमाणरासिस्स विवस्खाभावादो। तम्हि विवक्खिये छसकामएहितो णवसकामयाणमद्धाविसेसेण विसेसाहियत्तदसणादो । जयध० ६. जइ वि एदे वि समऊणढोआवलियमेत्तकालसचिदा, तो वि सखेजगुणत्तमेदेसि ण विरुज्झदे; इगिवीससतकम्मिओवसामएहिंतो चउबीससतकम्मिओवसामयाण सखेजगुणत्तदसणादो । जयध० Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार संकामया संखेज्जगुणा' । २४७. अट्ठण्हं संकामया विसेसाहिया । २४८. अट्ठारसण्हं संकायया विसेसाहियाँ । २४९. एगूणवीसाए संकामया विसेसाहियाँ । २५०. चउण्हं संकामया संखेज्जगुणा । २५१. सत्तण्हं संकामया विसेसाहियाँ । २५२. वीसाए संकामया विसेसाहियाँ । २५३. एकिस्से संकामया संखेज्जगुणा । २५४. दोहं संकामया विसेसा. हिया । २५५. दसण्हं संकायया विसेसाहिया । २५६. एकारसण्हं संकामया विसेप्रकृतियोंके संक्रामकोके वरावर हैं । छह प्रकृतियोके संक्रामकोसे चौदह प्रकृतियोके संक्रामक संख्यातगुणित हैं । चौदह प्रकृतियोके संक्रामकोसे पाँच प्रकृतियोके संक्रामक संख्यातगुणित हैं । पॉच प्रकृतियोके संक्रामकोसे आठ प्रकृतियोके संक्रामक विशेप अधिक है। आठ प्रकृतियांके संक्रामकोसे अट्ठारह प्रकृतियोके संक्रामक विशेप अधिक है। अट्ठारह प्रकृतियोके संक्रामकोसे उन्नीस प्रकृतियोके संक्रामक विशेष अधिक है। उन्नीस प्रकृतियोके संक्रामकोसे चार प्रकृतियोंके संक्रामक संख्यातगुणित है। चार प्रकृतियोके संक्रामकोसे सात प्रकृतियोके संक्रामक विशेष अधिक है। सात प्रकृतियोके संक्रामकोसे वीस प्रकृतियोके संक्रामक विशेष अधिक है ॥२४२-२५२॥ चूर्णिसू०-वीस प्रकृतियोंके संक्रामकोसे एक प्रकृतिके संक्रामक संख्यातगुणित हैं। एक प्रकृतिके संक्रामकोंसे दो प्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। दो प्रकृतियोके संक्रा १, कुदो; इगिवीस-चउवीससतकम्मिओवसामयाणमतोमुहुत्तसमऊणदोआबलियसचिदाणमिहोवलभादो । जयध २. किं कारण ? इगिवीसस तकश्मियोवतामयस्स दुविहमायोवसामणकालादो दुविहमाणोवसामणडाए विसेसाहियत्तदसणादो, चउवीससतकम्मिभोवसामगसमऊणदोआवलियसचयस्स उयत्य समाणत्तदसणादो च । जयध० ३, एत्थ वि कारण माणोक्सामणद्धादो विसेसाहियकोहोवसामणद्धादो वि छण्णोकसाओवसामणकालत्स विसेसाहियत्तं दद्र्व्व | जयध० ४. एत्थ वि कारणमिस्थिवेदोवसामणाकालस्स छण्णोकसायोवसामणद्धादो विसेसाहियत्तमणुगतव्य | जयध० ५. कुदो, सगतोभाविदचदुसंकामयखवयदुविहलोहसकामयच उवाससतकम्मिओवसामयरासिस्स पहाणत्तावलंबणादो। तदो जइ वि पुबिल्लसचयकालाटो एस्थतणसचयकालो विसेसहीणो, तो वि चउवीस. संतकम्मियरासिमाहप्पाटो सखेजगुणो त्ति सिद्ध । जयध० .. ६. चउवीससंतकम्मिओवसामयदुविहलोहोवसामणकालादो विसेसाहियदुविहमायोवसामणकाल. सचिदत्ताटो| जयघ० ७ जइ वि ढोण्हमेदेसि चउवीससतकम्मिया सकामया, तो वि सत्तसकामयकालाटो वि वीससका मयकालरस छण्णोकसायोवसामणद्वापहिबद्धस्सविसाहियत्तमनिसऊण तत्तो एदेसि विसेसाहियत्त मविरुद्धं | जयघ० ८. कुदो; मायासंकामयखवयरासिस्स अतोमुहुत्त कालसचिदत्स विवक्खियत्तादो। जयध ९. एकित्से सकमणकालादो दोण्ह सकमकालत्स विसेमाहियत्तोवलद्धीदो । जयध० १०. माणसंजलणखवणद्वादो विसेसाहियछण्णोक्सायखवणदाए लद्धसचयत्तादो । जनध Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ गा० ५८] संक्रमस्थान-अल्पवहुत्व-निरूपण साहिया' । २५७. वारसहं संकामया विसेसाहिया । २५८. तिण्हं संकामया संखेज्जगुणा । २५९. तेरसण्हं संकामया संखेज्जगुणा । २६०. वावीससंकामया संखेज्जगुणा । २६१. छब्बीसाए संकामया असंखेज्जगुणां । २६२. एकवीसाए संकामया असंखेज्जगुणा । २६३. तेवीसाए संकामया असंखेज्जगुणां । २६४. सत्तावीसाए संकामया असंखेज्जगुणा' । २६५. पणुवीससंकामया अणंतगुणा । तदो पयडिट्ठाणसंकमो समत्तो । एवं पयडिसंकमो समत्तो ॥ मकोसे दश प्रकृतियोके संक्रामक विशेप अधिक है । दश प्रकृतियोके संक्रामकोसे ग्यारह प्रकृतियोके संक्रामक विशेष अधिक है। ग्यारह प्रकृतियोके संक्रामकोसे वारह प्रकृतियोके संक्रामक विशेष अधिक हैं। वारह प्रकृतियोके संक्रामकोसे तीन प्रकृतियोके संक्रामक संख्यातगुणित हैं। तीन प्रकृतियोके संक्रामकोसे तेरह प्रकृतियोके संक्रामक संख्यातगुणित हैं। तेरह प्रकृतियोके संक्रामकोसे बाईस प्रकृतिथोके संक्रामक संख्यातगुणित हैं। वाईस प्रकृतियोके संक्रामकोसे छब्बीस प्रकृतियोके संकामक असंख्यातगुणित है । छब्बीस प्रकृतियोके संक्रामकोसे इक्कीस प्रकृतियोके संक्रामक असंख्यातगुणित है । इक्कीस प्रकृतियोके संक्रामकोसे तेईस प्रकृतियोके संक्रामक असंख्यातगुणित है । तेईस प्रकृतियोके संक्रामकोसे सत्ताईस प्रकृतियोके संक्रामक असंख्यातगुणित है । सत्ताईस प्रकृतियोके संक्रामकोसे पच्चीस प्रकृतियोके संक्रामक अनन्तगुणित है ॥२५३-२६५॥ भुजाकार आदि शेष अनुयोगद्वारोका वर्णन सुगम होनेसे चूर्णिकारने नहीं किया है। इस प्रकार प्रकृतिस्थानसंक्रमकी समाप्तिके साथ प्रकृतिसंक्रम समाप्त हुआ। १. छण्णोकसायक्खवणद्धासादिरेयइस्थिवेदक्खवणद्धासचयस्स सगहादो । जयध० २. तत्तो विसेसाहियणवुसयवेदक्खवणद्धाए सकलिदसरूवत्तादो । जयध० ३. अस्सकण्ण करण-किटीकरण-कोहकिट्टीवेदगकालपडिबद्धाए तिण्ह सकामणद्धाए णवुसयवेदक्खवणकालादो किंचूणतिगुणमेत्ताए सकलिदसरूवत्तादो । जयध ४. अट्ठकसाएसु खविदेसु जावाणुपुब्बीसंकमो णाढविनइ, ताव पुल्लिकालादो सखेजगुणकालम्मि सचिदत्तादो । जयध० ५. दसणमोहक्खवगो मिच्छत्त खविय जाव सम्मामिच्छत्त ण खवेइ, ताव पुविल्लद्धादो सखेजगुणभूदम्मि कालेण एदेसिं, सचिदसरूवाणमुवलभादो । जयध ६. कुदो, सम्मत्तमुव्वेल्लिय सम्मामिच्छत्तमुवेल्लमाणस्स कालो पलिदोवमासखेजभागमेतो, तत्थ सचिदजीवरासिस्स पलिदोवमस्स असखेजदिभागमेत्तस्स पढमसम्मत्तग्गहणपढमसमयवद्रमाणजीवेहि सह गहणादो । जयघ० ७. कुदो, वेसागरोवमकालसचिदखइयसम्माइट्ठिरासिस्स पहाणभावेण इहम्गहणादो। जयध० ८. छावसिागरोवमकालव्भतरसचिदत्तादो । जइ एव, सखेजगुणत्त पसजदे, कालगुणयारस्स तहाभावोवलभादो त्ति ? ण एस दोसो, उवकमाणजीवपाहम्मेण असखेजगुणत्तसिद्धीदो। त जहा-खइयसम्माइट्टीणमयसमयसचओ सखेजजीवमेत्तो । चउवीससतकम्मियाण पुण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असखेजदिभागमेत्ता एयसमए उवक्कमता ल्भति, तम्हा एहिंतो एदेसिमसखेजगुणत्तमविरुद्धमिदि । जयध० ९. कुदो, अठ्ठावीससतकम्मियसम्माइट्ठिम्मि मिच्छाइट्ठीणमिहरगहणादो । जयध० १०. किंचूगसधजीवरासिस्स पणुवीससकामयत्तेण विवक्खियत्तादो । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठिदि-संकमाहियारो १. ठिदिसंकमो दुविहो- मूलपयडिट्ठिदिसंकमो च, उत्तरपयडिडिदिसंकमो च । २. तत्थ अट्ठपदं - जा ट्ठिदी ओकड्डिज्जदि वा उक्कड्डिज्जदि वा अण्णपयडिं संकामिज्जहवा, सो द्विदि-संकमो । सेसो द्विदि-असंकमो । स्थिति-संक्रमाधिकार अब यतिवृषभाचार्य क्रम प्राप्त स्थितिसंक्रमणका वर्णन करनेके लिए सूत्र कहते हैंचूर्णिसु० - स्थितिसंक्रम दो प्रकारका है - मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम | इन दोनो स्थितिसंक्रमो के स्पष्टीकरण के लिए यह अर्थपद है - जो स्थिति अपवर्तित की जाती है, या उद्वर्तित की जाती है, या अन्य प्रकृति में संक्रान्त की जाती है, उस स्थिति - को स्थितिसंक्रम कहते है । शेप स्थितिको स्थिति - असंक्रम कहते हैं ॥१-२॥ विशेषार्थ - किसी प्रकार के विशेष परिवर्तन या संक्रान्तिको संक्रम या संक्रमण कहते है । यह संक्रमण या परिवर्तन यदि कर्मों की प्रकृतियो में हो, तो उसे प्रकृतिसंक्रम कहते है । यदि कर्मोकी स्थितिमे परिवर्तन हो, तो उसे स्थितिसंक्रम कहते हैं । इसी प्रकार अनुभागके परिवर्तनको अनुभागसंक्रम और कर्म- प्रदेशो के परिवर्तनको प्रदेशसंक्रम जानना चाहिए । प्रकृतमे स्थितिसंक्रम विवक्षित है । कर्मों की स्थितिका संक्रमण अपवर्तनासे होता है, उद्वर्तनासे होता है और पर - प्रकृतिरूप परिणमनसे भी होता है । कर्म - परमाणुओकी दीर्घकालिक स्थिति - को घटाकर अल्पकालिकरूपसे परिणत करनेको अपवर्तना कहते हैं । कर्मों की अल्पकालिक स्थिति बढ़ानेको उद्वर्तना कहते है । संक्रमके योग्य किसी विवक्षित प्रकृतिक स्थितिको समान १ ठिइसकमो ति बुच्च मूलुत्तरपगइतो उ जा हि टिई | उचट्टिया व ओट्टिया व पगई णिया वऽण्णं ॥ २८ ॥ चूर्णि :- जा ट्ठिती उब्वट्टण ओवट्टण- अण्णपगतिस कमणपाओग्गा सा उव्वहिता ठिति कमो वुञ्चति, ओवट्टता विठितिसंकमो वुञ्चद्द, अण्णपगतिं सकमिया वि ठितिसकमो युच्चति । ( कम्मप० सक्र० ) तस्थ मूलपयडीए मोहणीयसष्णिदाए जा ट्रिट्ठदी, तिस्से सकमो मूलपयडिट्ठिदिसंकमो उच्चइ । एवमुत्तरपयडिट्ठिदिसकमो च वत्तत्वो । जयध० 1 २ एत्थ मूलपयडिट्ठिदीए ओकड्डुकडणवसेण संकमो । उत्तरपयडिट्रिटदीए पुण ओकड्डुकड्डुणपरपयडिसंकतीहि संकमो दटुव्वो । एदेणोकड्डुणादओ जिससे हिंदीए णत्थि सा हिंदी हिदिअसकमो ति भण्णदे | जयघ ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'तत्थ अट्पद' इतना अगको टीकामें सम्मिलित कर दिया है, जब कि 'सेसो तक ही अर्थपद बतलाया गया है । ( देखो पृ० १०४१ ) 'सूत्र मुद्रित है, ट्ठदि असकमो', आगे के 'जा दिदी' आदि क्योंकि वहाँ तक वह सूत्र Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ४५ ] स्थितिसंक्रम-अर्थपद-निरूपण ३. ओडित्ता कथं णिक्खिवदि ठिदिं १ ४ उदयावलिय - चरिमसमय-अपविट्ठा जा हिदी सा कधमोकड्डिज्जह १५. तिस्से उदयादि जाव आवलियतिभागो ara णिक्खेवो, आवलियाए वे विभागा अइच्छायणा । ६. उदर बहुअ पदेसग्गं दिज्जर, तेण परं विसेसहीणं जाव आवलियतिभागोति । ७. तदो जा विदिया जातीय अन्य प्रकृति की स्थिति मे परिवर्तित करनेको प्रकृत्यन्तर- परिणमन कहते है । ज्ञानावरणादि मूलकर्मोंके स्थिति-संक्रमणको मूलप्रकृति- स्थितिसंक्रम कहते है और उत्तरप्रकृतियो के स्थिति - संक्रमणको उत्तरप्रकृति-स्थितिसंक्रम कहते है । इन दोनो प्रकारके स्थितिसंक्रमो मे यह भेद है कि उत्तरप्रकृतियोकी स्थितिका संक्रमण तो अपवर्तनादि तीनो प्रकारसे होता है । किन्तु मूल प्रकृतियोकी स्थितिका संक्रमण केवल अपवर्तना और उद्वर्तनासे ही होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञानावरणकर्मकी स्थिति दर्शनावरणकर्मरूपसे परिणत नही हो सकती है । केवल उनकी स्थिति घट और बढ़ सकती है । मूल कर्मों के समान मोहनीयके दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनो भेदोकी स्थितिका भी परस्परमे आयुकर्मकी चारो उत्तरप्रकृतियो की भी स्थितियो का परस्परमे संक्रमण नही होता है । जिस स्थितिमे अपवर्तनादि तीनो ही न हो, उसे स्थिति - असंक्रम कहते है । उद्वर्तनाको उत्कर्षण और अपवर्तनाको अपकर्पण भी कहते है । संक्रमण नहीं होता, तथा ३११ शंका-विवक्षित स्थितियोका अपकर्षण करके अधस्तन स्थितियोमे उसे कैसे निक्षिप्त किया जाता है ? तथा उदयावलीके चरमसमय - अप्रविष्ट जो स्थिति है, अर्थात् वह स्थिति जो उदयावलीमे प्रविष्ट नही है और उदद्यावलीके बाहिर उपरितन प्रथम समय मे स्थित है, कैसे अपकर्षित की जाती है ? अर्थात् उस स्थितिका अपवर्तनारूप संक्रमण किस प्रकार से होता है ? ॥ ३-४ ॥ समाधान- उदयावली के बाहिर स्थित प्रथमस्थितिको अपकर्षित करके उदयावली के प्रथम समयवर्ती उदयसे लेकर आवलीके त्रिभाग तक निक्षिप्त करता है, आवलीके उपरिम दो त्रिभागो मे निक्षिप्त नही करता । अतएव उद्यावलीका प्रथम त्रिभाग उस उदद्यावलीबाह्य स्थित प्रथम स्थितिके निक्षेपका विषय है और आवलीके शेष दो त्रिभाग अतिस्थापनारूप है । अर्थात् उदयावली के उपरितन प्रथम समयवाली स्थिति के प्रदेशो का अपकर्पण कर उन्हे उदयावलीके अन्तिम दो त्रिभागोको छोड़कर प्रथम त्रिभागमे स्थापित किया जाता है । प्रथम त्रिभागमे भी उदयरूप प्रथम समयमे बहुत प्रदेशाय दिया जाता है, उससे परवर्ती द्वितीय समयमै विशेष हीन प्रदेशाय दिया जाता है, उससे परवर्ती तृतीय समय में और भी विशेष ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'ठिदि' पदको टीकामे सम्मिलित कर दिया है, जब कि टीकाके प्रारम्भमे 'टिट्ठदिं' पद दिया हुआ है । ( देखो पृ० १०४१ ) १ त जहा - तमोकड्डिय उदयादि जाव आवलियतिभागो ताव णिक्खिवदि, आवलिय-वे-तिभागमत्तमुवरिमभागे अइच्छावे । तदो आवलियतिभागो तिस्से णिक्खेवविसओ, आवलिय-वे-तिभागा च अइच्छावणा त्ति भण्णइ । जयध० Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुउँ सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार द्विदी तिस्से वि तत्तिगो चेव णिक्खेवो । अइच्छावणा समयुत्तरा'। ८. एवमइच्छावणा समयुत्तरा, णिक्खेवो तत्तिगो चेव उदयावलियवाहिरादो आवलियतिभागंतिमद्विदित्ति । ९. तेण परं* णिक्खेवो वड्डइ, अइच्छावणा आवलिया चेव । हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इस प्रकार आवलीका त्रिभाग पूर्ण होने तक उत्तरोत्तर समयोमे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इससे उत्तर-समयवर्ती जो द्वितीय स्थिति है, उसका भी निक्षेप उतना ही है, अर्थात् उसके भी प्रदेशाग्र अपकर्पित होकर आवलीके त्रिभागवर्ती समयोमे उपर्युक्त क्रमसे दिये जाते हैं, अतः उसके निक्षेपका प्रमाण आवलीका त्रिभाग है । किन्तु अतिस्थापना एक समयसे अधिक आवलीके दो त्रिभाग-प्रमाण हो जाती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर समयवाली स्थितियोकी अतिस्थापना एक-एक समय अधिक होती जाती है और निक्षेप उतना ही रहता है । यह क्रम उदयावलीके वाहिरसे लेकर आवलीके त्रिभागके अन्तिम समयवाली स्थितिके अपकर्षण होनेके क्षण तक प्रारम्भ रहता है । इस प्रकार आवलीके त्रिभागके जितने समय होते है, तत्प्रमाण समयवाली स्थितियोके प्रदेशाग्रोका अपकर्षण हो जानेपर उस अन्तिम स्थितिकी अतिस्थापनाका प्रमाण सम्पूर्ण आवली है । किन्तु निक्षेप जघन्य ही रहता है, अर्थात् उसका प्रमाण आवलीका त्रिभाग ही है । उस जघन्य निक्षेपसे परे समयोत्तर वृद्धिके क्रमसे उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होने तक निक्षेपका प्रमाण बढ़ता जाता है किन्तु अतिस्थापना आवली-प्रमाण ही रहती है ॥५-९॥ विशेषार्थ-कर्मोंकी स्थितिके घटानेको स्थिति-अपवर्तना कहते है। यह कर्मोंकी स्थिति कैसे घटाई जाती है, ऊपरसे अपकर्षित कर कहाँ निक्षिप्त की जाती है, कहाँ नहीं, और किस क्रमसे निक्षिप्त की जाती है, इत्यादि प्रश्नोका उत्तर ऊपरकी शंकाका समाधान करते हुए चूर्णिकारने दिया है। ऊपरकी स्थितिके कर्म-प्रदेशोका अपकर्पण कर नीचे जिस स्थलपर उन्हे निक्षिप्त किया जाता है, उसे निक्षेप कहते हैं और जिस स्थल को छोड़ दिया जाता है अर्थात् जहॉपर ऊपरकी स्थितिके प्रदेशोको निक्षिप्त नहीं किया जाता, उसे अतिस्थापना कहते हैं । निक्षेप और अतिस्थापना ये दोनो जवन्य भी होते है और उत्कृष्ट भी होते है । दोनोके मध्यवर्ती भेद असंख्यात होते है। प्रकृतमे दोनोका स्पष्टीकरण जघन्य निक्षेप और जघन्य १ तदो पुवणिरुद्धळिदीदो अणंतरा जा ट्ठिदी उदयावलियबाहिरविदियट्टिदि त्ति उत्त होइ, तिस्से वि तत्तिओ चेव णिक्खेवो होइ, तत्य णाणत्ताभावादो। अइच्छावणा पुण समयुत्तरा होइ, उदयावलिय. वाहिरट्ठिदीए वि एदिस्से अइच्छावणाभावेण पदेसदसणादो । जयध० २ एत्थावलियतिभागग्गहणेण समयूणावलियतिभागो समयुत्तरो घेत्तव्यो। तदतिमग्गहणेण च तदणतरुवरिमछिदिविसेसो गहेयन्वो। तम्हा उदयावलियबाहिरादो जहणणिक्खेवमेत्तीओ द्विदीओ उल्ल. घिय ट्टिदाए टिठदीए संपुण्णावलियमेत्ती अइच्छावणा होइ त्ति सुत्तत्स भावत्यो । जयध० ६ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पदणिक्खेवो' पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १०४२) पर प्रकरणके अनुसार वह अशुद्ध है। आगे भी इस प्रकारका प्रयोग (सूत्र न० ३७ में) आया है, वहाँ यह 'तेण पर' पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १०४८) Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ गा० ५८ उत्कर्षणापकर्षण-अर्थपद-निरूपण अतिस्थापनासे किया गया है। आवाधाकाल व्यतीत होनेके पश्चात् जिस क्षणमे विवक्षित कर्मके प्रदेश उदयमे आते हैं, उस समयसे लगाकर एक आवली तकके कालको उदयावली कहते हैं । इस उदयावलीके अन्तर्गत जितनी भी स्थितियाँ है, वे न घटाई जा सकती है, न बढ़ाई जा सकती हैं और न अन्य प्रकृतिरूपसे परिवर्तित ही की जा सकती है, इसीलिए उदयावली. को 'अपवर्तना, उद्वर्तना आदि सभी करणोके अयोग्य' कहा जाता है । उदयावलीके बाहिर अनन्तर समयवर्ती जो एक समयमात्र प्रथमस्थिति है उसके प्रदेश उदयावलीमे निक्षिप्त होते हैं । उदयावलीके असंख्यात समय होते है, उनको कहाँ निक्षिप्त करे, इसके लिए उदयावलीके समयोमेसे एक कम करके उसे तीनसे भाजित करना चाहिए । इन तीन भागोमेंसे एक समय अधिक प्रथम विभागमे उस विवक्षित स्थितिके प्रदेशोको निक्षिप्त किया जाता है, अतएव इस विभागको निक्षेप कहा जाता है । अन्तिम दोनो विभागोमे वे प्रदेश निक्षिप्त नहीं किये जाते, किन्तु उन्हे अतिक्रमण करके प्रथम विभागमे स्थापित किया जाता है, इसलिए उन दोनो त्रिभागोको अतिस्थापना कहते है । इस प्रकार जघन्य निक्षेपका प्रमाण आवलीका एक समयसे अधिक एक त्रिभाग है और जघन्य अतिस्थापनाका प्रमाण आवलीके शेष दो त्रिभाग है। जब उदयावलीसे उपरितन द्वितीय समयवर्ती स्थिति अपवर्तित की जाती है, तब निक्षेपका प्रमाण एक समय अधिक हो जाता है । जव उदयावलीसे उपरितन तृतीय स्थितिका अपकर्षण किया जाता है, तब निक्षेपका प्रमाण तो वही रहता है, किन्तु अतिस्थापनाके प्रमाणमे एक समय और अधिक हो जाता है । इस प्रकार क्रमशः एक-एक समयवाली उत्तरोत्तर स्थितियोको तबतक अपवर्तित करते जाना चाहिए, जब तक कि एक-एक समय बढ़ते हुए अतिस्थापनाका प्रमाण पूरा एक आवलीप्रमाण न हो जाय । दूसरे शब्दोमे इसे इस प्रकारसे भी कह सकते है कि उदयावलीसे उपरितन-स्थित एक आवलीके त्रिभागप्रमाण स्थितियोके अपवर्तन करनेपर अतिस्थापनाका प्रमाण पूर्ण एक आवली हो जाता है। अतिस्थापनाके एक आवलीप्रमाण होने तक निक्षेपका वही पूर्वोक्त प्रमाण रहता है । इसके पश्चात् उपरितन स्थितियोके अपवर्तित करनेपर अतिस्थापनाका प्रमाण तो सर्वत्र एक आवली ही रहता है, किन्तु निक्षेपका प्रमाण प्रतिसमय बढ़ता जाता है । इस प्रकार एक-एक समयरूपसे बढ़ते हुए निक्षेपका प्रमाण कहाँ तक बढ़ता जाता है, इस प्रश्नका उत्तर यह है कि दो आवली और एक समयसे कम कर्मस्थितिके काल तक बढ़ता जाता है । कर्मस्थितिका काल सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । उसमें दो आवली और एक समय कम करनेका कारण यह है कि बन्धावली जबतक न बीत जाय, तवतक तो कर्मस्थितिका अपवर्तन किया नही जा सकता । और जब सबसे ऊपरी अन्तिम स्थितिका अपवर्तन किया जाता है, तब आवली-प्रमाण जो अतिस्थापना है उसे छोड़कर उससे नीचेकी स्थितियोमे उसके द्रव्यको निक्षिप्त किया जायगा। अतः अतिस्थापनान्तर्गत स्थितियोका भी अपवर्तन नहीं होता है । तथा जिस सर्वोपरितन स्थितिका अपवर्तन किया जा रहा है, उसे भी छोड़ना पड़ता है । इस प्रकार वन्धावली, अतिस्थापनावली और सर्वोपरितनस्थितिका Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार १०. वाघादेण अइच्छावणा एका जेणावलिया अदिरित्ता होइ। ११. तं जहा । १२. हिदिघादं करेंतेण खंडयमागाइदं । १३. तत्थ जं पहमसमए उकीरदि पदेसग्गं तस्स पदेसग्गस्स आवलियाए अइच्छावणा । १४. एवं जाव दुचरिमसमयअणुकिण्णखंडयं ति । १५. चरिमसमए जा खंडयल्स अग्गहिदी तिस्से अइच्छावणा खंडयं समयूणं । १६. एसा उक्कस्सिया अइच्छावणा वाघादे । समय इन सबको मिलानेपर उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण दो आवली और एक समयसे कम सत्तरकोड़ाकोड़ी सागरोपम सिद्ध होता है । जघन्य निक्षेपका प्रमाण एक समय अधिक आवलीका त्रिभाग है । उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण एक आवली और जघन्य अतिस्थापनाका प्रमाण एक समय कम आवलीके दो त्रिभागमात्र जानना चाहिए । अपवर्त्यमान स्थितिके फर्म-प्रदेश निक्षेप-कालान्तर्गत स्थितियोमे किस क्रमसे निक्षिप्त किये जाते है, इसके लिए बताया गया है कि उदयवाले समयमे सबसे अधिक कर्मप्रदेश दिये जाते है और उससे परवर्ती समयोमे उत्तरोत्तर विशेप हीनके क्रमसे अतिस्थापनावली प्राप्त होने तक दिये जाते है । निर्व्याघातकी अपेक्षा अपवर्तनाद्वारा स्थितिसंक्रम किस प्रकारसे होता है, इस वातको वताकर अब चूर्णिकार व्याघातकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमकी प्ररूपणा करते हैं चूर्णिसू०-व्याघातकी अपेक्षा एक प्रमाणवाली अतिस्थापना होती है, जिससे कि आवली अतिरिक्त है । वह इस प्रकारसे जानना चाहिए-स्थितिघातको करनेवाले के द्वारा जो स्थितिकांडक ग्रहण किया गया है, उसमे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमे उत्कीर्ण ( अपवर्तित ) किया जाता है, उस प्रदेशाग्रकी एक आवलीके प्रमाण अतिस्थापना होती है। जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमे उत्कीर्ण किया जाता है, उसकी अतिस्थापना भी एक आवली-प्रमाण होती है । इस प्रकार द्विचरम-समयवर्ती अनुत्कीर्ण स्थितिकांडक तक ले जाना चाहिए । चरम समयमे कांडककी जो अनस्थिति है, उसकी अतिस्थापना एक समय कम कांडक-प्रमाण होती है। यह उत्कृष्ट अतिस्थापना व्याघातके विषयमे जानना चाहिए ।। १०-१६॥ विशेषार्थ-व्याघात नाम स्थितिघातका है। जब स्थितियोका अपवर्तन स्थितिकांडकघातके रूपसे होता है, तव उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण सर्वोपरिम समयवर्ती स्थितिकी अपेक्षा एक समय कम स्थितिकांडकके प्रमाण होता है । इस स्थितिकांडकका भी प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमसे हीन सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम है । सर्वोपरिम समयके अतिरिक्त अन्य सव उत्कीर्ण ( अपवर्तित ) होनेवाली स्थितियोकी अतिस्थापनाका प्रमाण एक आवली ही है। १ जेण छिदिघाद करतेण ट्ठिदिकडयमागाइद, तस्स वाघादेणुक्कस्सिया अइच्छावणा आवलियादिरित्ता होइ त्ति सुत्तत्यसंबंधो। जयध० २ कुदो, तम्मि समए टिछदिखडयं तब्भाविणोण सव्वासिमेव ठिदीणं वाघादेण हेट्ठा घाददंसणादो। Xxxकुदो समयूणत्त ? अग्गठ्दिीए ओकड्डिनमाणीए अच्छावणावहिन्भावदसणाटो । जयघ० Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्कर्षणापकर्षण-अर्थपद-निरूपण गा० ५८] ३१५ १७. तदो सव्वत्थोवो जहण्णओ णिक्खेवो' । १८. जहणिया अइच्छावणा दुसमयूणा दुगुणा १९. णिव्याघादेण उक्कस्सिया अइच्छावणा विसेसाहिया । २०. वाघादेण उक्कस्सिया अइच्छावणा असंखेज्जगुणा । २१. उक्कस्सियं द्विदिखंडयं विसेसाहियं । २२. उक्कस्सओ णिक्खेवो विसेसाहिओं । २३. उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ। २४. जाओ वझंति द्विदीओ तासिं द्विदीणं पुव्वणिबद्धहिदिमहिकिच्च णिव्याघादेण उक्कड्डणाए अइच्छावणा आवलिया । २५. एदिस्से अइच्छावणाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमादि कादण जाव उकस्सओ णिक्खेवो त्ति णिरंतरं अब चूर्णिकार जघन्य-उत्कृष्ट अतिस्थापना और निक्षेप आदिका प्रमाण अल्पबहुत्वद्वारा बतलाते है चूर्णिसू ०-वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप सबसे कम है । जघन्य निक्षेपसे जघन्य अतिस्थापना दो समय कम दुगुणी है। जघन्य अतिस्थापनासे निर्व्याघातकी अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापना विशेप अधिक है । निर्व्याघातकी अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापनासे व्याघातकी अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापना असंख्यातगुणी है। व्याघातकी अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापनासे उत्कृष्ट स्थितिकांडक विशेष अधिक है । उत्कृष्ट स्थितिकांडकसे उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है। उत्कृष्ट निक्षेपसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।।१७-२३॥ इस प्रकार अपवर्तनाकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमकी प्ररूपणा करके अब उद्वर्तनाकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमकी प्ररूपणा करते है चूर्णिसू०-जो स्थितियाँ बंधती है, उन स्थितियोकी पूर्व निवद्ध स्थितिको लेकर निर्व्याघातकी अपेक्षा उद्वर्तना करनेपर अतिस्थापना आवलीप्रमाण होती है। इस अतिस्थापनाका जघन्य निक्षेप आवलीके असंख्यातवें भाग है। इस जघन्य निक्षेपस्थानको आदि करके एक-एक समयकी वृद्धि करते हुए उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होने तक निरन्तर निक्षेपस्थान पाये जाते है ॥२४-२५॥ १ कुदो, आवलियतिभागपमाणत्तादो । जयध० २ जण्णाइच्छावणा णाम आवलिय वे-तिभागा | तदो तत्तिभागादो वे-तिभागाण दुगुणत्त होउ णाम, विरोहाभावादो । कथ पुण दुसमयूणत्त ? उच्चदे ? आवलिया णाम कदजुम्मसखा । तदो तिभाग सुद्ध ण हवेदि त्ति रूवमवणिय तिभागो घेत्तव्यो, तत्थावणिदरूवेण सह तिभागो जहण्णणिक्खेवो, वे-तिभागा अइच्छावणा । एदेण कारणेण समयाहियतिभागे दुगुणिदे जहण्णाइच्छावणादो दुरूवाहियमुप्पजइ, तम्हा दुसमयूणा त्ति सुत्ते वृत्त । जयध० ३ को णिव्याघादो णाम ? ठिदिखंडयघादस्साभावो । जयध० ४ केत्तियमेत्तेण ? समयाहियदुभागमेत्तेण । जयेध ५ कुदो, अतोकोडाकोडीपरिहीणकम्मठिदिपमाणत्तादो । जयध० ६ अग्गठ्ठिदीए वि एत्थ पवेसदसणादो। ७ कुदो उक्करसठिदि बधिय वधावलिय वोलाविय अग्गछिदिमोकड्डिऊणावलियमेत्तमहच्छाविय उदयपज्जत णिक्खिवमाणस्त समयाहियदोआवलियूणकम्मठिदिमेत्तुक्कस्सणिक्खेवसभवोवलभादो । जयध० Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार णिक्खेवट्ठाणाणि । २६. उक्कस्सओ पुण णिक्खेवो केत्तिओ ? २७ जत्तिया उक्कस्सिया कम्मद्विदी उक्कस्सियाए आवाहाए समयुत्तरावलियाए च ऊणा तत्तिओ उक्कस्सओ णिक्खेवो। २८. वाघादेण कधं ? २९. जइ संतकम्मादो बंधो समयुत्तरो तिस्से हिदीए णत्थि उक्कड्डणा' । ३०. जइ संतकम्मादो बंधो दुसमयुत्तरो तिस्से वि संतकम्मअग्गद्विदीए णत्थि उक्कड्डणा । ३१. एत्थ आवलियाए असंखेजदिभागो जहणिया अइच्छावणा । शंका-उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण कितना है ? ॥२६॥ समाधान-उत्कृष्ट आवाधा और एक समय अधिक आवलीसे हीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिका जितना प्रमाण होता है, उतना उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण है ॥२७॥ विशेषार्थ-पूर्वमे बंधे हुए कर्मप्रदेशोकी नवीन बन्धके सम्बन्धसे स्थितिके बढ़ानेको उद्वर्तना या उत्कर्पणा कहते है। यह उद्वर्तना भी निर्व्याघात और व्याघातकी अपेक्षा दो प्रकारकी होती है । व्याघातसे होनेवाली उद्वर्तना आगे कही जायगी । यहॉपर निर्व्याघातकी अपेक्षा उद्वर्तनाका वर्णन किया जा रहा है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि विवक्षित जिस किसी जीवके जिस समय जो स्थितियाँ बंध रही हैं, उनके ऊपर पूर्वमे बंधी हुई स्थितियोकी उद्वर्तना होती है । उस उद्वर्त्यमान स्थितिकी आवली-प्रमाण जघन्य अतिस्थापना होती है और आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण जघन्य निक्षेप होता है । उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण उत्कृष्ट आवाधाकाल है। उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण उत्कृष्ट आवाधा और एक समय अधिक आवलीसे कम उत्कृष्ट कर्मस्थिति है, उस आवाधाकालके अन्तर्गत जितनी स्थितियाँ हैं, उनके कर्मप्रदेशोकी उद्वर्तना नहीं की जा सकती, अतएव वे उद्वर्तनाके अयोग्य है । आवाधाकालसे परे जो स्थितियाँ है, वे उद्वर्तनाके योग्य होती है । आबाधाकालके वीतनेपर जब घे स्थितियां उदयको प्राप्त होती हैं, तो एक आवली तककी स्थितियोकी जिसे कि उदयावली कहते हैं, उद्वर्तना नही की जा सकती। जघन्य निक्षेपसे लेकर उत्कृष्ट निक्षेप तकके जितने मध्यवर्ती भेद होते है, तत्प्रमाण ही निक्षेपस्थान होते हैं । शंका-व्याघातकी अपेक्षा उद्वर्तना कैसे होती है ? ॥२८॥ समाधान-यदि पूर्व-बद्ध सत्कर्मसे नवीन वन्ध एक समय अधिक है, तो उस स्थितिके ऊपर सत्कर्मकी अग्रस्थितिकी उद्वर्तना नहीं होगी। यदि पूर्वबद्ध सत्कर्मसे नवीन वन्ध दो समय अधिक है, तो उसके ऊपर भी सत्कर्मकी अग्रस्थितिकी उद्वर्तना नहीं होगी । जितनी १ समयाहियवधावलिय गालिय उदयावलियबाहिरदिठ्दिीए उक्कड्डिज्जमाणाए एसो उक्कस्सणिक्खेयो परूविदो, परिघडमेव तिस्से समयाहियावलियाए उक्करसाबाहाए च परिहीणुकस्सकम्मट्ठिदिमेत्तुकस्सणिक्खेवदसणादो | जयध० २ कुदो, जपणाहच्छावणाणिक्खेवाण तत्थासभवादो । जयव० ३ कुदो एव, एत्थ जहण्णा इच्छावणाए आवलियाए असखेज्जदिभागमेत्तीए तासिं ट्ठिीणमंतभा. वदंसणादो | जयध Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] उत्कर्षणापकर्षण अर्थपद-निरूपण ३१७ ३२. जदि जत्तिया जहणिया अइच्छावणा तत्तिएण अब्भहिओ संतकम्मादो बंधो तिस्से वि संतकम्म अग्गद्विदीए णत्थि उक्कड्डणा' । ३३. अण्णो आवलियाए असंखेज्जदिभागो जहण्णओ णिक्खेवो । ३४. जइ जहणियाए अइच्छावणाए जहण्णएण च णिक्खेवेण एत्तियमेत्तेण संतकम्मादो अदिरत्तो बंधो सा संतकम्मअग्गहिदी उक्कड्डिज्जदि । ३५. तदो समयुत्तरे बंधे णिक्खेवो तत्तिओ चेव, अइच्छावणा वड्ढदि । ३६. एवं ताव अइच्छावणा वड्डइ जाव अइच्छावणा आवलिया जादा ति । ३७. तेण परं णिक्खेवो वड्डइ जाव उक्कस्सओ णिक्खेवो त्ति । ३८. उक्कस्सओ णिक्खेवो को होइ ? ३९. जो उक्कस्सियं ठिदि वंधियूणाजघन्य अतिस्थापना है, उससे भी अधिक यदि सत्कर्मसे वन्ध हो, तो उसके ऊपर भी सत्कर्मकी अग्रस्थितिकी उद्वर्तना नही होगी । जघन्य अतिस्थापनाके ऊपर आवलीके असंख्यातवे भागसे अधिक और भी बन्ध होनेपर जघन्य निक्षेप होता है। यदि जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप, इन दोनोके प्रमाणसे अधिक सत्कर्मकी अपेक्षा नवीन वन्ध हो, तो वह सत्कर्मस्थिति उद्वर्तित की जाती है, अर्थात् सत्कर्मसे नवीन वन्धके उक्त प्रमाणसे अधिक होनेपर उद्वर्तना होगी । जघन्य स्थापना और जघन्य निक्षेपसे एक समय अधिक बन्ध होनेपर निक्षेपका प्रमाण तो उतना ही रहेगा। किन्तु अतिस्थापनाका प्रमाण बढ़ता है। इस प्रकार एक-एक समयकी वृद्धिसे अतिस्थापन तब तक बढ़ती है, जब तक कि अतिस्थापना पूरी एक आवली प्रमाण न हो जाय । अतिस्थापनाके एक आवली प्रमाण हो जाने पर उससे आगे निक्षेप ही बढ़ता है । यह समयोत्तर-वृद्धि उत्कृष्ट निक्षेप तक बरावर चालू रहती है ॥२९-३७॥ शंका-उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण कितना है ? ॥३८॥ समाधान-जो संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक जीव सर्वोत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर-प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको वॉधकर और बन्धावलीको अतिक्रान्त कर उस १ कुदो, एत्थ जहण्णाइच्छावणाए सतीए वितप्पडिबद्धजहण्णणिक्खेवस्स अज्जवि सभवाणुवलभादो। ण च णिक्खेवविसएण विणा उक्कड्डणासभवो अस्थि, विप्पडिसेहादो । जयध० । २ जहष्णाइच्छावणाए उवरि पुणो वि आवलियाए असखेज्जदिभागमेत्तवधवुड्ढीए जहण्णणिक्खेवसभवो होइ त्ति भणिद होइ । जयध० ३ कुदो, एत्थ जहण्णाइच्छावणाणिक्खेवाणमविकलसरूवेणोवलभादो । जयध० ४ कुदो एव, सव्वत्थ णिक्खेववुड्ढोए अइच्छावणावड्ढीपुरस्सरत्तदसणादो | जयध० ५ सा जहण्णाइच्छावणा समयुत्तरकमेण बधवुड्ढीए वड्ढमाणिया ताव वड्ढइ जाव उक्कस्सियाइच्छावणा आवलिया सपुण्णा जादा त्ति सुत्तत्थसबधो । एत्तो उवरि वि अइच्छावणा किण्ण वड्हाविज्जदे ? ण, पत्तपयरिसपज्जताए पुण वड्डिविरोहादो । जयध० ६ एत्थ ताव पुवणिरुद्धसतकम्मअग्गठ्ठिदीए उक्कस्सणिखेवबुड्ढी समयुत्तरकमेण अइच्छा वणावलियासियहेट्टिमअतोकोडाकोडीपरिहीणकग्मठिदिमेत्ता होइ । णवरि बधावलियाए सह अतोकोडाकोडी ऊणिया । एसाच आदेसुक्कस्सिया । एत्तो हेट्ठिमाण सतकम्मदुचरिमादिट्ठिदीण समयाहियकमेण पच्छाणुपुवीए णिक्खेववुड्ढी वत्तव्या जाव ओघुक्कस्सणिक्खेव पत्ता त्ति । जयध० Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार वलियमदिकंतो तमुकस्सियट्ठिदिमोक ड्डियूण उद्यावलियबाहिराए विदियाए ठिदीए णिक्खिवदि । वुण से काले उदयावलियबाहिरे अनंतर डिदि पावेहिदि ति तं पदेसग्गमुकड्डियूण समयाहियाए आवलियाए ऊणियाए अग्गट्टिदीए णिक्खिवदि । एस उक्कस्सओ णिक्खेवो' । ४० एवमोकड्डुकडणाणमट्ठपदं समत्तं । ३१८ ४१. एत्तो अढाछेदो । जहा उकस्सियाए द्विदीए उदीरणा तहा उक्कस्स ओ द्विदिकमो' | उत्कृष्ट स्थितिको अपवर्तित कर उदयावलीके वाहिर स्थित द्वितीय स्थितिमे निक्षिप्त करता है । पुनः वह तदनन्तर कालमे ( प्रथम स्थितिको उदयावलीके भीतर प्रविष्ट करके उस द्वितीय स्थितिको ) उदद्यावली के बाहिर अनन्तरस्थिति अर्थात् प्रथम स्थितिके रूपसे प्राप्त करनेवाला था कि परिणामो के वशसे उद्वर्तनाको प्राप्त होकर उस पूर्व अवर्तित प्रदेशाको उद्वर्तित करके एक समय अधिक आवलीसे हीन अग्र स्थिति मे निक्षिप्त करता है । यह उत्कृष्ट निक्षेप है । इस प्रकार समयाधिक आवलीसे अधिक आवाधाकालसे परिहीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिका जितना प्रमाण है उतना उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण जानना चाहिए ॥ ३९ ॥ चूर्णिसू० [० - इस प्रकार अपवर्तना और उद्वर्तनाका अर्थपद समाप्त हुआ ||४०|| चूर्णिसू ० ० - अब इससे आगे स्थितिसंक्रम-सम्वन्धी अद्धाच्छेद कहना चाहिए । वह जिस प्रकारसे उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणामे कहा गया है, उसी प्रकार निरवशेष रूप से यहाॅ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणमे भी जानना चाहिए । अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणकी अद्धाच्छेदप्ररूपणा उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाके अद्धाच्छेदके समान है ॥ ४१ ॥ १ जो सणिपचिदियपज्जत्तो सागार-जागार सम्वस किलेसेहि उक्करसदाह गदो उक्कस्सट्रिट्ठदि सत्तरिसागरोवमकोडा कोडिपमाणावच्छिण बंधियूण वधावलियम दिक्कतो तमुक्कस्सिय ट्ठिदिमोकड्डियूणुदयावलियवाहिरपढमठिदिणिसेयादो विसेसहीण विदियठदीए णिसिंचिय तदणतरसमए अनतरवदिक्तसमयपढमट्ठिदिमुदयावलियव्भतर पवेसिय विदियट्ठिदि च पढमट्ठिदित्तेण परिट्ठविय से काले त च णिरुद्धट्ठदिउदयावलियगव्भ पावेहिदि त्ति ठ्ठिदो । तम्मि चेव समए तदणंतरसमयोकड्डिदपटेसग्गमुक्कड्डणावसेण तक्कालियणवकवघपडिवधुक्कस्सट्टिटीए णिक्खिवमाणो पञ्चग्गव धपरमाणूणमभावेणुक्कस्सावाहमेत्तमइच्छाविय तमात्राहावाहिरपढमणिसेयट्ठिदिमादि काढूण ताव णिक्खिवदि जाव समया हियावलिया परिहीणा उक्कत्सकम्मट्ठिदिमेत्त जायदित्ति सुत्तत्थसमासो । जयध० २ अप्पणासुत्तमेदमुकस्सट्ठिदिउदीरणापसिद्धस्स धम्मस्स मूलत्तरपयडिभेय भिष्ण ठिदिसक मुक्कस्तद्वाच्छेदे समप्पणादो | जयघ० वंधाओ उक्कस्सो जालिं गंतूण आलिंगं परओ । उक्कस्स सामिओ संकमेण जासिं दुगं तासि ॥ ३८ ॥ चूर्णि :- जासिं पगडीण वधुकस्सो ठितिसकमो तासिं उकस्सट्रिट्ठदिवधगा एव णेरइय- तिरियमणुच देवा वधावलियाए परतो उक्कोस सकामति । 'सकमेण जासिं दुग तासिं' ति, सकमेण उक्कोसट्ठितिसंकमो जासिं पगतीण तासिं दुआवलियं गंतूण ते चेव णारगादी सामिओ । जहासभव 'दुग' ति. वधावलिय-सकमावलियविहूणो ठितिसंक्रमो । सभ्मत्त सम्मा मिच्छत्ताण उक्कस्तसामी भगति Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] स्थितिसंक्रम-अद्धाद्धद-निरूपण ३१९ ४२. एत्तो जहण्णयं वत्तइस्सामो । ४३. मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-इत्थि-णqसयवेदाणं जहण्णद्विदिसंकमो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ४४. सम्मत्त-लोहसंजलणाणं जहण्णहिदिसंकमो एया द्विदी। ४५. कोहसंजलणस्स जहण्णहिदिसंकमो वे मासा अंतोमुहुत्तूणा । ४६. माणसंजलणस्स जहण्णहिदिसंकमो मासो अंतोमुहुत्तणो । ४७. मायासंजलणस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो अद्धमासो अंतोमुहुत्तणों । ४८. पुरिसवेदस्स जहण्णट्ठिदिसंकयो अह वस्साणि अंतोप्नुहुत्तूणाणि । ४९. छण्णोकसायाणं जहण्णढिदिसंकमो संखेज्जाणि वस्साणि । ५०. गदीसु अणुमग्गियव्यो । ५१. सामित्तं । ५२. उक्कस्सडिदिसंकामयस्स सामित्तं जहा उक्कस्सियाए हिदीए उदीरणा तहा णेदव्वं । चूर्णिसू०-अव इससे आगे जघन्य अद्धाच्छेदको कहेगे । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कपाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, इन कर्मोंके जघन्य स्थितिके संक्रमणका काल पल्योपमका असंख्यातवॉ भाग है। सम्यक्त्वप्रकृति और संज्वलनलोभकी जघन्य स्थितिके संक्रमणका काल एक स्थिति है । संज्वलनक्रोधके जघन्य-स्थिति-संक्रमणका काल अन्तर्मुहूर्त कम दो मास है । संज्वलनमानके जघन्य-स्थिति-संक्रमणका काल अन्तर्मुहूर्त कम एक मास है। संज्वलनमायाके जघन्य-स्थिति-संक्रमणका काल अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध मास है । पुरुपवेदके जघन्य स्थिति-संक्रमणका काल अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष है । हास्यादि छह नोकपायोके जघन्यस्थितिसंक्रमणका काल संख्यात वर्ष है । इसी प्रकारसे गतियोसे भी जघन्य संक्रमणके कालका अन्वेषण करना चाहिए ॥४२-५०॥ चूर्णिसू०-अब स्थितिसंक्रमके स्वामित्वको कहते है-उत्कृष्ट स्थिति-संक्रामकका स्वामित्व जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणामे कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए ॥५१-५२॥ तस्संतकम्मिगो वंधिऊण उक्कस्सियं मुहुत्ता। सम्मत्त-सीसगाणं आवलिगा सुद्धदिट्ठीओ ॥३९॥ चूर्णि:-'तस्सकम्मिगो' इति, सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसतकम्मिगो मिच्छादिली 'वधिऊण उक्त स्सिग' ति मिच्छत्तस्स उक्कस्स टिठति बधिऊण 'मुहुत्तता' इति, अतोमुहुत्ता परिवडिदूण सम्मत्त पडिवण्णस्स अतोमुहुत्तूणा मिच्छत्तद्रुिती सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त'सु सकमते । ततो आवलिय गतूण सम्मादिट्ठी ओवट्टणाए सम्मत्त सकामेति, सम्मामिच्छत्त सम्मत्त सकामेति ओवति वि । 'सुद्धदिठ्ठि' त्ति सम्मादिट्ठी । कम्मप० सक० १ कुदो, मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताण दसणमोहक्खवणाचरिमफालीए अणताणुवधीण विसजोयणाचरिमफालिसकमे अट्ठकसायाण च खवयस्स तेसिं चेव पच्छिमछिदिखायचरिमफालीसकमकाले इस्थिणवुसयवेदाण पि चरिमट्ठिदिखडयम्मि सुत्तुत्तपमाणजहण्णट्ठिदिसकमसभवोवलद्धीदो । जयध० २ सम्मत्तस्स दसणमोहक्खवणाए समयाहियावलियमेत्तसेसे लोहसजलणस्स वि सुहुमसापराइयक्खवणद्धाए समयाहियावलियाए सेसाए ओकडुणासकमवसेण पयदाछेदसभवो वत्तव्वो । जयध० ३ खवयस्स चरिमठिदिबधचरिमफालिसकमणावस्थाए तदुवलभादो। कुदो अतोमुहूत्त णत्त ? ण, आवाहाबाहिरस्सेव णवकवधस्स तत्थ सकतीए तणत्ताविरोहादो । जयध० ४ कुदो, तेसि चरिमट्ठिदिखडयायामस्स तप्पमाणत्तादो । जयव० Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार ५३. जहण्णयमेयजीवेण सामित्तं कायव्वं । ५४. मिच्छत्तस्स जहण्णओ डिदिसंकमो कस्स १५५. मिच्छत्तं खवेमाणयस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयचरिमसमय संकामय स्स तस्स जहण्णयं । ५६. सम्मत्तस्स जहण्णविदि संकमो कस्स १५७ समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । ५८. सम्मामिच्छत्तस्स जहणडिदिसंकमो कस्स १५९. अपच्छिमडिदिखंडय चरिमसमय संछुहमाणयस्स तस्स जणयं । ६० अणंताणुबंधीणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? ६१. विसंजोएंतस्स तेसिं चेव अपच्छिमडिदिखंडय - चरिमसमयसंकाय' । ६२. अडण्हं कसायाणं जहण्णट्ठि दिसंकयो कस्स १६३. खवयस्स तेसिं ३२० अव एक जीवकी अपेक्षा जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामित्व वर्णन करना चाहिए ॥ ५३ ॥ शंका- मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? ॥ ५४ ॥ समाधान - मिथ्यात्वको क्षपण करनेवाले जीवके अन्तिम स्थितिको कके अन्तिम समयवर्ती द्रव्यके संक्रमण करनेपर उसके मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है ॥ ५५ ॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? ॥ ५६ ॥ समाधान-एक समय अधिक आवलीकाल जिसके दर्शनमोहनीयकर्मके क्षय होनेमे अवशिष्ट रहा है, ऐसे जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है || ५७ || शंका-सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? ॥ ५८ ॥ समाधान- सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकांडकको चरम समय में संक्रमण करनेवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका जवन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥५९॥ शंका- अनन्तानुवन्धी कपायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ६० ॥ समाधान- अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जीवके उन्ही कपायोके अन्तिम स्थितिकांडक के चरम समयमे संक्रमण करनेपर अनन्तानुवन्धी कपायोका जवन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥ ६१॥ शंका- अप्रत्याख्यानावरणादि आठ मध्यम कपायोंका जघन्य स्थितिसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ६२ ॥ १ समयाहिगालिगाए सेसाए वेयगस्स कयकरणो । सक्खवग-चरमखंडगसंघुमणे टिडिमोहाणं ॥ ४१ ॥ चूर्णिः -- दसणमोहखवगस्स मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ते खवेत्तु सम्मत्तं सव्वोवट्टणार ओवट्टेत्तण वंदेमाणस्स चतुगतिगस्स अष्णयरस्स समयाहियावलियाए सेसाए पवट्टमाणस्स जहण्णगो टितिसकमो । तत्तो पर खाइयसम्म दिट्टी होस्सति । 'कयकरणो 'त्ति खवणकरणे वट्टमाणो चेव । वैदगसम्मत्तस्स उत्त | मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताण भण्णइ - 'सखवगच रिसखडगसछु भणा दिट्टिमोहाणति, मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताण अप्पप्पणी खवणचरिमखडगे वट्टमाणो मणुओ अविरतसम्मादिट्ठी देसविरतो वा विरतो वा जहण ठितिसकामगो लव्मति | कम्मप० स० २ पढमकसायाण विसंजोयणसंछोभणाए उ ॥ ४२ ॥ चूर्णिः - 'पढमकसाया' इति अनंताणुबंधी, विसजोयण विणासण । अनंताणुबंधीण अप्पणी खवणयाले चरिमसकामणे वमाणो अण्णदरो चतुगतिगो सम्मदिट्टी सामी । कम्मर० स० Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] स्थितिसंक्रम-स्वामित्व-निरूपण ३२१ चेव अपच्छिमहिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स जहण्णयं । ६४. कोहसंजलणस्स जहण्णढिदिसंकमो कस्स ? ६५. खवयस्स कोहसंजलणस्स अपच्छिमहिदिबंधचरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स जहण्णयं । ६६. एवं माणमायासंजलण-पुरिसवेदाणं। ६७. *लोभसंजलणस्स जहण्णहिदिसंकमो कस्स ? ६८. आवलियसमयाहियसकसायस्स खवयस्स । ६९. इत्थिवेदस्स जहण्णहिदिसंकमो कस्स ? ७०. इत्थिवेदोदयक्खवयस्स तस्स अपच्छिमट्टिदिखंडयं संछुहमाणयस्स तस्स जहणणयं । ७१. णवंसयवेदस्स जहण्णद्विदिसंकमो कस्स ? ७२. णqसयवेदोदयक्खवयस्स तस्स समाधान-इन्ही आठ मध्यम कपायोके अन्तिम स्थितिकांडकको चरम समयमे संक्रमण करनेवाले क्षपकके उक्त आठों कषायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥६३॥ शंका-संज्वलनक्रोधका जघन्य स्थितिसंक्रमण किसके होता है ? ॥६४॥ समाधान-संज्वलनक्रोधके उद्यके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके संज्वलनक्रोधके अन्तिम स्थितिबद्ध द्रव्यको चरम समयमे संक्रमण करनेवाले क्षपकके संज्वलनक्रोधका जघन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥६५॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार संज्वलनमान, माया और पुरुषवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमणका स्वामित्व जानना चाहिए ॥६६॥ शंका-संज्वलनलोभका स्थितिसंक्रमण किसके होता है १ ॥६७॥ समाधान-एक समय अधिक आवलीकालवाले सकपाय अर्थात् दशम गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवके संज्वलनलोभका जघन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥६८॥ शंका-स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण किसके होता है ? ॥६९॥ समाधान-स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणी चढ़नेवाले क्षपकके जब स्त्रीवेदके अन्तिम स्थितिकांडकका संक्रमण होता है, तब उसके स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥७॥ शंका-नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण किसके होता है ? ॥७१॥ समाधान-नपुंसकवेदके उदयके साथ श्रेणी चढ़नेवाले क्षपकके जव नपुंसकवेदके अन्तिम स्थितिकांडकका संक्रमण होता है, तब उस जीवके नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥७२॥ १ सोदएणेव चढिदस्स खवयस्स कोधवेदगद्धाचरिमसमयणवकवधमावलियादीद सकामेमाणयस्स समयूणावलियमेत्तफालीओ गालिय चरिमफालि सकामणे वावदस्स कोहसंजलणस्स जहण्णओ ठिदिसकमो होइ त्ति । जयध० २ समउत्तरालियाए लोभे सेसाइ सुहमरागरस । चूणिः-सुहुमए रागे समयाधियावलियसेसे वट्टमाणो लोभस्स जण्णिय ट्ठिति सकामेति । __ कम्मप० सक० गा० ४२ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'लोम' पदके स्थानपर 'तेणेह' पाठ मुद्रित है, (देखो पृ० १०६३) । पता नहीं, इस पदको किस आधारपर दिया गया है ? प्रकरणके अनुसार 'लोभ' पद होना आवश्यक है। ४१ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार अपच्छिमडिदिखंडयं संछुहमाणयस्स तस्स जहण्णयं । ७३. छष्णोकसायाणं जहणहिदिसंकमो कस्स १ ७४. खवयस्स तेसिमपच्छिमडिदिखंडयं संछुहमाणयस्स तस्स जहण्णयं । ७५. एयजीवेण कालो । ७६. जहा उकस्सिया हिदि-उदीरणा, तहा उक्कस्सओ द्विदिकमो । ७७ एतो जहण्णडिदिसंकमकालो । ७८ अट्ठावीसाए पयडीणं जहण्णडिदिसंकमकालो केवचिरं कालादो होदि १ ७९ जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ८०. वरि इत्थवंसयवेद छण्णोकसायाणं जहण्णडिदिसंकमकालो केवचिरं कालादो होदि ? ८१. जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ८२. एत्तो अंतरं । ८३. उक्कस्यट्ठि दिसंकामयंतरं जहा उकस्सट्ठिदिउदीरणाए अंतरं तहा कायव्वं । ८४. एत्तो जहण्णयमंतरं । ८५. सव्वासि पयडीणं णत्थि अंतरं । ८६. णवर अणताणुबंधीणं जहण्णट्ठिदिसं कामयंतरं जहणेण अंतोमुहुतं । ८७. उक्कस्सेण उबड्डूपोग्गल परियङ्कं । ३२२ शंका- हास्यादि छह नोकपायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ७३ ॥ समाधान - हास्यादि छह नोकपायोके अन्तिम स्थितिकांडकको संक्रमण करनेवाले क्षपकके छह नोकपायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण होता है ॥ ७४ ॥ चूर्णिसू ० - अव एक जीवकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमणकालका निरूपण किया जाता है । ( स्थितिसंक्रमणकाल जघन्य और उत्कृष्ट के भेदसे दो प्रकारका है । ) उनमे से जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति- उदीरणाके कालका निरूपण किया गया है, उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमण के कालकी प्ररूपणा जानना चाहिए । अव इससे आगे जघन्य स्थितिसंक्रमणकालका निरूपण करते हैं ।।७५-७७॥ शंका- अट्ठाईस प्रकृतियो के जघन्य स्थितिसंक्रमणका कितना काल है ? ॥ ७८ ॥ समाधान-सभी प्रकृतियोके संक्रमणका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । विशेपता केवल यह है कि स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और हास्यादि छह तियोके जघन्य स्थितिसंक्रमणका कितना काल है ? जघन्य और है ।।७९-८१ ।। चूर्णिसू० [० - अब इससे आगे एक जीवकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमणका अन्तर कहते है । ( वह स्थितिसंक्रमण - अन्तर जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारका है ।) उनमे से जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति - उदीरणाके अन्तरका निरूपण किया गया है, उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति - संक्रमणके अन्तरका निरूपण करना चाहिए। अब इससे आगे जघन्य स्थितिसंक्रमणका अन्तर कहते हैं । मोहनीय कर्मकी सर्व प्रकृतियोके जघन्य स्थितिसंक्रमणका अन्तर नही होता है । केवल अनन्तातुवन्धी चारों कषायोंकी जघन्य स्थिति के संक्रमणका जघन्य अन्तरकाल अन्त } नोकपाय इन आठ प्रकृउत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त १ कुदो १ खचयचरिमफालीए चरिमट्ठिदिखडए समयाहियावलियाए च लद्वजहण्णता मित्ताणम तरसबंधस्स अच्चताभावेण णिसिद्धत्तादो | जयध० २ विसंजोयणाचरिमफालीए लढजहणभावस्साणताणुत्र धिचउकस्स ट्रिट्ठदिसंकमस्य सव्वजण Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] स्थितिसंक्रम-काल-निरूपण ३२३ ८८. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो उक्कस्सपदभंगविचओ च जहण्णपदभंगविचओ च । ८९. तेसिमट्ठपदं काऊण उक्कस्सओ जहा उकस्सद्विदिउणीरणा तहा कायव्वा । ९०. एत्तो जहण्णपदभंगविचओ। ९१. सव्वासि पयडीणं जहण्णहिदिसंकामयस्स सिया सव्चे जीवा असंकामया, सिया असंकामया च संकामओ च, सिया असंकामया च संकामया च । ९२. सेसं विहत्ति-भंगो। ९३. णाणाजीवेहि कालो । ९४. सव्वासि पयडीणमुक्कस्सहिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ९५.जहण्णेण एयसमओ । ९६.उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ।।८२-८७॥ चूर्णिसू०-नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकार है-उत्कृष्टपद-भंगविचय और जघन्यपद-भंगविचय । उनका अर्थपद करके जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे उत्कृष्टपद-भंगविचयकी प्ररूपणा करना चाहिए ।।८८-८९॥ विशेषार्थ-वह अर्थपद इस प्रकार है-जो जीव उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक होते हैं, वे जीव अनुत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक होते हैं। और जो जीव अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक होते है, वे उत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक होते है। चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्यपद-भंगविचयकी प्ररूपणा की जाती है-मोहनीय कर्मकी सभी प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति-संक्रमणके कदाचित् सर्व जीव असंक्रामक होते है, कदाचित् अनेक असंक्रामक और कोई एक संक्रामक होता है, कदाचित् अनेक जीव असंक्रामक और अनेक जीव संक्रामक होते है ॥९०-९१॥ चूर्णिसू०-स्थिति-संक्रमणके शेष भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा स्थितिविभक्तिके समान जानना चाहिए ॥९२॥ चूर्णिसू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा स्थितिसंक्रमणके कालका निरूपण करते हैं ॥९३॥ शंका-सर्व प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणका कितना काल है ? ॥९४॥ समाधान-सर्व प्रकृतियोके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग-प्रमाण है। विशेषता केवल यह है कि सम्यक्त्वविसजुत्त सजुत्तकालेहि अतरिय पुणो वि विसजोयणाए कादुमाढत्ताए चरिमफालिविसए लद्धमतोमुहुत्त १ तत्थुक्कस्सपदभगविचओ णाम उक्स्सद्विदि-सकामयाण पवाहवोच्छेदसभवासभवपरिक्खा । तहा जहण्णो वि वत्तव्यो । जयध० २ एगसमयमुक्कस्सििदं सकामेदूण विदियसमए अणुक्कस्सछिदि सकामेमाणएसु णाणाजीवेसु तदुवलभादो। जयध० ___ ३ एत्थ मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुछ-णउसयवेद-अरइ-सोगाणमुक्कस्सटिठदिवधगद्ध ठविय आवलियाए असखेजभागमेत्ततदुवक्कमणवारसलागाहि गुणिदे उक्कस्सकालो होइ। हस्स-रइ-इत्थि-पुरिसवेदाणमावलियं ठविय तदसखेज्जमागेण गुणिदे पयदुक्कस्सकालसमुप्पत्ती वत्तव्वा । जयध० होइ | जयध० Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार भागो । ९७ णवरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सडिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि १९८. जहणेण एयसमओ । ९९. उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो' । १००. तो जहण्णयं । १०१. सव्वासि पयडीणं जहण्णट्ठिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि ११०२. जहण्णेणेयसमओ । १०३. उक्कस्सेण संखेज्जा समया । १०४. वरि अणंताणुबंधीणं जहण्णट्ठिदिसंकमो के चिरं कालादो होदि १ १०५. जहणेण एयसमओ । १०६. उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । १०७ इत्थि - णकुंसयवेदछण्णोकसायाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो केव चिरं कालादो होदि ११०८. जहष्णुकस्सेणंतो मुहुत्तं । १०९. एत्थ सण्णियासो कायव्वो । ११०. अप्पा बहुअं । १११. सच्चत्थोवो णवणोकसायाणमुकस्सडिदिसंकमों । प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।। ९५-९९॥ चूर्णिसू (० - अब इससे आगे नाना जीवोकी अपेक्षा जघन्य स्थितिसंक्रमणकालको कहते हैं ॥ १०० ॥ शंका - सर्व प्रकृतियो के जघन्य स्थितिसंक्रमणका कितना काल है ? ॥१०१॥ समाधान - सर्व प्रकृतियोके जघन्य स्थितिसंक्रमणका जधन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । विशेषता केवल यह है कि अनन्तानुवन्धी चारो कषायोके जघन्य स्थितिसंक्रमणका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण है ।।१०२-१०६॥ शंका- स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और हास्यादि छह नोकपायोके जघन्य स्थितिसंक्रमणका कितना काल है ? ॥ १०७ ॥ समाधान- इन सूत्रोक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१०८॥ चूर्णिसू० - यहॉपर स्थितिसंक्रमणका सन्निकर्ष करना चाहिए || १०९ || विशेषार्थ-स्थितिसंक्रमण सम्बन्धी सन्निकर्पकी प्ररूपणा स्थितिविभक्तिके सन्निकर्पके समान है । जहाँ कही कुछ विशेषता है, वह जयधवला टीकासे जानना चाहिए । चूर्णिसू० (० - अब स्थितिसंक्रमणका अल्पबहुत्व कहते हैं- नव नोकपायोका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमण सबसे कम है । नोकपायोके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणसे सोलह कपायोका उत्कृष्ट १ एयवारमुवक्कताणमेयसमओ चेव लब्भइ ति तमेयसमय ठविय आवलियाए असखेज्जदिभागमेत चकमणवारेहि णिरतर मुवलग्भमाणसरूवेहि गुणिदे तदुवलभो होड़ | जयध० २ खवणाए लद्वजहण्णभावाण तदुवलभादो | जयध० ३ चरिमट्ठिदिखडयम्मि लद्वजहण्णभावाण तदुवलंभादो | णवरि जहण्णकालदो उकस्सकालस्स संखेज्जगुणत्तमेत्थ दट्ठव्व, संखेज्जवार तदणुसधाणावलवणे तदविरोहादो । जयध‍ ४ एदस्स पमाणं वधसंकमणोदयावलियाहि परिहीणचालीससागरोवमकोडाकोडीमेत्त । जयघ० Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] स्थितिसंक्रम-अल्पबहुत्व-निरूपण ३२५ ११२. सोलसकसायाणमुक्कस्सडिदिसंकमो विसेसाहिओ । ११३. सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमुक्कस्सद्विदिसंकमो तुल्लो विसेसाहिओ। ११४. मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदिसंकमो विसेसाहिओ। ११५. एवं सव्वासु गईसु।। ११६. एत्तो जहण्णयं । ११७. सव्वत्थोवो सम्मत्त-लोहसंजलणाणं जहण्णद्विदिसंकमों । ११८. जढिदिसंकमो असंखेज्जगुणों । ११९. मायाए जहण्णहिदिसंकमो संखेज्जगुणों । १२०.जहिदिसंकमो विसेसाहिओं । १२१.माणसंजलणस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओं। १२२. जहिदिसंकमो विसेसाहिओ । १२३. कोहसंजलणस्स जहण्णहिदिसंकमो विसेसाहिओ" । १२४.जट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ" । १२५.पुरिसस्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है । सोलह कषायोके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमण परस्पर तुल्य हो करके भी विशेष अधिक है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणसे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है। इसी प्रकारसे सभी गतियोमे उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमण-सम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।।११०-११५।। चूर्णिसू०-अव इससे आगे जघन्य स्थितिसंक्रमण-सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं । सम्यक्त्वप्रकृति और संज्वलनलोभका जघन्य स्थितिसंक्रमण सबसे कम है। इससे इन्ही प्रकृतियोका यस्थितिकसंक्रमण असंख्यातगुणित है। इससे संज्वलनमायाका जघन्य स्थितिसंक्रमण संख्यातगुणित है। इससे संज्वलनमानका जघन्य यत्स्थितिकसंक्रमण संख्यातगुणित है। इससे इसीका यत्स्थितिकसंक्रमण विशेप अधिक है। इससे संज्वलनमानका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेप अधिक है। इससे इसीका यस्थितिकसंक्रमण विशेष अधिक है। संज्वलनमानके यस्थितिकसंक्रमणसे संज्वलनक्रोधका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है। इससे इसीका यस्थितिकसंक्रमण विशेष अधिक है। संज्वलनक्रोधके यत्स्थितिकसंक्रमणसे पुरुपवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण संख्यातगुणित है । इससे इसीका यत्स्थितिकसंक्रमण विशेप अधिक है । पुरुपवेदके ६ दोआवलिऊणचालीससागरोवमकोडाकोडीपमाणत्तादो | जयध० २ एदेसिमुक्कसठिदिसकमो अतोमुहुत्त णसत्तरिसागरोपमकोडाकोडिमेत्तो। एसो वुण कसायाणमुक्कस्सट्ठिदिसकमादो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ? अतोमुहुत्तूणतीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तेण । जयध० ३ बधोदयावलिऊणसत्तरिकोडाकोडिसागरोवमपमाणत्तादो। एत्थ विसेसपमाणमतोमुहुत्त । जयध ४ एयठिदिपमाणत्तादो। ५ जा जम्मि सकमणकाले ट्ठिदी सा जट्टिती, जा जस्स अस्थि सो सकमो जट्ठितिसंकमो । कम्मप० ६ समयाहियावलियपमाणत्तादो । जयध० ७ आबाहापरिहीणद्धमासपमाणत्तादो । जयध० ८ समयूणदोआवलियपरिहीणाबाहामेत्तेण । जयध० ९ समयूणदोआवलियूणद्धमासादो अतोमुहुत्तूणमासस्सेदस्स तदविरोहादो । जयध० १० समयूणदोआवलियपरिहीणाबाहापवेसादो । जयध० ११ आबाहूणवेमासपमाणत्तादो । जयध० १२ एत्थ विसेसपमाण समयूणदोआवलियपरिहीणाबाहामेत्त । जयध० Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार वेदस्स जहण्णहिदिसंकमो संखेज्जगुणो' । १२६. जढिदिसंकमो विसेसाहिओ । १२७. छण्णोकसायाणं जहण्णढिदिसंकमो संखेज्जगुणो । १२८. इत्थि-णqसयवेदाणं जहण्णहिदिसंकमो तुलो असंखेज्जगुणों । १२९. अट्टहं कसायाणं जहण्णहिदिसंकमो असंखेज्जगुणों । १३०. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णहिदिसंकमो असंखेज्जगुणों । १३१.मिच्छत्तस्स जहण्णाडिदिसंकमो असंखेज्जगुणों । १३२. अणंताणुवंधीणं जहण्णहिदिसंकमो असंखेज्जगुणों। १३३.णिरयगईए सव्वत्थोवो सम्पत्तस्स जहण्णढिदिसंकमो । १३४ जद्विदिसंकमो असंखेज्जगुणो। १३५. अणंताणुवंधीणं जहण्णढिदिसंकमो असंखेज्जगुणों । यस्थितिक संक्रमणसे हास्यादि छह नोकपायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण संख्यातगुणित है । छह नोकपायोके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण परस्पर तुल्य हो करके भी असंख्यातगुणित है। इससे आठ मध्यम कषायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है। आठो कषायोके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे मिथ्यात्वकाजघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है । मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे अनन्तानुवन्धी कपायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है । ।।११६-१३२।। विशेषार्थ-जिस किसी विवक्षित कर्मकी संक्रमणकालमे जो स्थिति होती है, यह यत्स्थिति कहलाती है और उसके संक्रमणको यत्स्थितिकसंक्रमण कहते हैं। ___ चूर्णिसू०-नरकगतिमे सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य स्थितिसंक्रमण सबसे कम है। इससे इसीका यस्थितिकसंक्रमण असंख्यातगुणित है। सम्यक्त्वप्रकृतिके यत्स्थितिकसंक्रमण १ किंचूणवेमासेहिंतो अंतोमुहुत्तूणट्ठवरसाण तहाभावस्स णायोववण्णत्तादो | जयध० २ समयूणदोआवलियपरिहीणट्ठवस्सेहिंतो छण्णोकसायचरिमछिदिखडयस्स सखेज्जवस्ससहस्सपमाणस्स सखेज्जगुणत्ताविरोहादो। जयध० ३ पलिदोवमासखेजदिभागपमाणत्ता दो । जयध० ४ इत्थि-गवुसयवेदाणं चरिमट्ठिदिखडयायामादो दुचरिमद्विदिखडयायामो असखेजगुणो । एव दुचरिमादो तिचरिमठिदिखडयमसखेज्जगुण । तिचरिमादो चदुचरिममिदि एदेण कमेण सखेजट्ठिदिखडयसहस्साणि हेटछा ओसरिय अतरकरणप्पारभादो पुत्वमेव अट्ठकसाया खविदा । तेण कोरणेणेदेसि चरिमठ्ठिदिखडयचरिमफाली तत्तो असखेनगुणा जादा । जयध० ५ चरित्तमोहखवयपरिणामेहि घादिदावसेसो अट्ठकसायाण जहण्णछिदिसकमो। एसो वुण तत्तो अणतगुणहीणविसोहिदसणमोहक्खवणपरिणामेहि घादिदावसेसो त्ति । तत्तो एदस्सासखेबगुणत्तमव्वामोहेण पडिवजेदव्यं । जयध० ६ मिच्छत्तक्खवणादो अतोमुहुत्तमुवरि गंतूण सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णछिदिसकमुप्पत्तिदसणादो। ७ विसजोयणापरिणामेहिंतो दसणमोहक्खव यपरिणामाणमण तगुणत्तेण मिच्छत्तचरिमफालीटी अणताणुवधिचरिमफालीए असखेजगुणत्तविरोहाभावादो । जयघ० ८ कदकरणिनोववाद पडुच्च एयहिदिमेत्तो लभइ ति सव्वत्थोवत्तमेदस्स भणिद । जयध० ९ कुदो ! पल्दिोवमासंखेज्जदिभागपमाणत्तादो | जयध० Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ गा० ५८] स्थितिसंक्रम-अल्पवहुत्व-निरूपण १३६. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णहिदिसंकमो असंखेज्जगुणो'। १३७. पुरिसवेदस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो असंखेज्जगुणो । १३८.इत्थिवेदस्स जहण्णढिदिसंकयो विसेसाहिओ। १३९. हस्स-रईणं जहण्णढिदिसंकमो विसेसाहिओ । १४०. णqसयवेदस्स जहण्णहिदिसंकमो विसेसाहिओ। १४१. अरइ-सोगाणं जहण्णहिदिसंकमो विसेसाहिओ । १४२. भय-दुगुंछाणं जहण्णहिदिसंक्रमो विसेसाहिओ। १४३. बारसकसायाणं जहणहिदिसंकमो विसेसाहिओ । १४४. मिच्छत्तस्स जहण्णढिदिसंकमो विसेसाहिओ। ___१४५. विदियाए सव्वत्थोवो अणंताणुबंधीणं जहण्णहि दिसंको । १४६. सम्मत्तस्स जहण्णहिदिसंकमो असंखेजगुणों । १४७.सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णढिदिसंकमो विसेसाहिओं । १४८.वारसकसाय-णवणोकसायाणं जहण्णडिदिसंकमो तुल्लो असंखेज्जसे अनन्तानुवन्धीकषायका जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है । अनन्तानुवन्धी कपायके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है । सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है। पुरुपवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है। स्त्रीवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे हास्य और रतिका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेप अधिक है। हास्य-रतिके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है। नपुंसकवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे अरति और शोकका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है। अरति-शोकके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे भय-जुगुप्साका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है। भय-जुगुप्साके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे बारह कषायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है । वारह कपायोके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है ॥१३३-१४४॥ चूर्णिसू०-दूसरी पृथिवीमें अनन्तानुबन्धीका जघन्य स्थितिसंक्रमण सबसे कम है। अनन्तानुबन्धीके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणित है । सम्यक्त्वप्रकृतिके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे वारह कपाय और नव नोक १ उव्वेल्लणाचरिमफालीए जहण्णभावोवलद्धीदो एत्यतणी पलिदोवमासखभागायामा चरिमफाली अणताणुबधीविसजोयणाचरिमफालीआयामादो असखेजगुणा, तत्थ करणपरिणामेहि घादिदावसेस्स एत्तो थोवत्तसिद्धीए गाइयत्तादो | जयध० २ हदसमुप्पत्तिकम्मियासणिपच्छायदणेरइयम्मि अतोमुहुत्ततम्भवत्यम्मि पलिदोवमासखेज्जभागेणूणसागरोवमसहस्सचदुसत्तभागमेत्तपुरिसवेदजहण्णछिदिसकमावलबणादो । जयध० ३ तत्य विसजोयणाचरिमफालीए करणपरिणामेहि लद्ध घादावसेसिदाए सम्वत्थोवत्ताविरोहादो। जयघ० ४ उज्वेल्लणचरिमफालीए लद्धजहण्णभावत्तादो। जयध० ५ कारण-पढमदाए उव्वेल्ल्माणो मिच्छाइट्ठी सम्वत्य सम्मामिच्छत्तुवेल्लणकडयादो सम्मत्तस्स विसेसाहियमेव ठिदिखंडयघाद करेइ जाव सम्मत्तमुवेल्लिद ति | पुणो सम्मामिच्छत्तमुवेल्लेमाणो सम्मत्त Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३२८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार गुणों । १४९. मिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिसंकमो विसेसाहिओ। १५०. भुजगारसंकमस्स अट्ठपदं काऊण सामित्तं काययं । १५१.मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवढिद-संकामओ को होदि ? १५२. अण्णदरो। १५३. अवत्तव्यपायोका जघन्य स्थितिसंक्रमण परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणित है। चारह कपाय और नव नोकषायोके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रमण विशेप अधिक है ॥१४५-१४९॥ विशेपार्थ-इसी प्रकार शेष पृथिवियोमें भी जघन्य स्थितिसंक्रमण जानना चाहिए । शेष गतियोमें और शेप मार्गणाओमें भी ओधके अल्पवहुत्वके अनुसार यथासंभव अल्पवहुत्व लगा लेना चाहिए । विस्तारके भयसे चूर्णिकारने नहीं लिखा है, सो विशेष जिज्ञासुओको जयधबला टीका देखना चाहिए । ___ चूर्णिमू०-अब इससे आगे भुजाकार-संक्रमणका अर्थपद करके उसके स्वामित्वका निरूपण करना चाहिए ||१५०॥ विशेषार्थ-अतीत समयमे जितनी स्थितियोका संक्रमण करता था, उससे इस वर्तमान समयमे अधिक स्थितियांका संक्रमण करना भुजाकार-संक्रम है। अतीत समयमे जितनी स्थितियोका संक्रमण करता था, उससे इस वर्तमान समयमे कम स्थितियोका संक्रमण करना, यह अल्पतर-संक्रम कहलाता है । जितनी स्थितियोंका अतीत समयमे संक्रमण करता था, उतनीका ही वर्तमान समयमें संक्रमण करना, यह अवस्थित-संक्रम है । अतीत समयमे किसी भी स्थितिका संक्रमण न करके वर्तमान समयमे संक्रमण करना अवक्तव्यसंक्रम है। यह भुजाकार-संक्रमका अर्थपद है। शंका-मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रम, अल्पतरसंक्रम और अवस्थितसंक्रमका करनेवाला कौन जीव है ? ॥१५१॥ समाधान-चारो गतियोमेसे किसी भी एक गतिका जीव उक्त संक्रमणोका करनेवाला होता है ॥१५२॥ चूर्णिसू०-मिथ्यात्वका अवक्तव्य संक्रमण संभव नही, इसलिए उसका संक्रामक चरिमफालीदो विसेसाहियकमेण छिदिखडयमागाएदि जाव सगचरिमठिदिखडयादो त्ति । तदो एदमेत्य विसेसाहियत्ते कारणं | जयध १ अंतोकोडाकोडिपमाणत्तादो | जयध० २ चालीसपडिभागियतोकोडाकोडीदो सत्तरि पडिभागियंतोकोडाकोडीए तीहि-सत्तभागेहि अहियत्तदंसणादो। जयध० ३ किं तमठ्ठपद ? बुच्चदे-अणतरोसक्काविद-विदिक्कतसमए अप्पदरसंकमादो एण्हि बहुवयर संकामेइ त्ति एसो भुजगारसंकमो। अणंतरस्सकाविदविदिक्कतसमए वहुवयरसकमादो एण्डिं थोवयराओ सकामेइ त्ति एस अप्पयरसकमो। तत्तिय तत्तिय चेव सकामेइ त्ति एसो अवठ्ठिदसक्रमो । अणतर वदि कंतसमए असकमादो सकामेदि त्ति एसो अवत्तवसकमो। एदेणठ्ठपदेण भुजगार-अप्पदर अवछिदा वत्तन्वसंकामयाणं परूवणा भुजगारसकमो त्ति वुचइ | जयध० Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ गा० ५८] भुजाकारस्थितिसंक्रम-काल-निरूपण संकामओ णत्थि' । १५४. एवं सेसाणं पयडीणं । णवरि अवत्तव्यया अस्थि । १५५. कालो । १५६. मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? १५७. जहण्णेण एयसमओ। १५८. उक्स्से ण चत्तारि समया । १५९. अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि १ १६०. जहण्णेणेयसमओ। १६१. उकस्सेण भी कोई नहीं है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोके भुजाकारादि संक्रमणोंका स्वामित्व जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि उन प्रकृतियोका अवक्तव्यसंक्रम होता है ॥१५३-१५४॥ चूर्णिसू०-अब भुजाकारादि संक्रमणोंके कालका वर्णन किया जाता है ॥१५५॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है ? ॥१५६॥ समाधान-मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल चार समय है ॥१५७-१५८॥ शंका-मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है ? ॥१५९॥ समाधान-मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ तिरसठ सागरोपम है ॥१६०-१६१॥ विशेपार्थ-मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणके उत्कृष्टकालका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैकोई एक तिर्यच या मनुष्य मिथ्यादृष्टिके सत्कर्मसे नीचे स्थितिबन्ध करता हुआ सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणको करके तीन पल्यकी आयुवाले जीवोमें उत्पन्न हुआ । वहाँ पर भी मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणको करके अपनी आयुके अन्तर्मुहूर्तमात्र १ असकमादो स कमो अवत्तव्वसकमो णाम | ण च मिच्छत्तस्स तारिससकमसभवो; उवसतकसायस्स वि तस्सोकडणापरपयडिसकमाणमस्थित्तदसणादो। जयध० २ णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण भुजगारस्त अण्णदरो सम्माइट्ठी, अप्पदरस्स मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी चा, अवदिस्स पुन्बुप्पण्णादो सम्मत्तादो समयुत्तरमिच्छत्तसतकम्मियविदियसमयसम्माइट्ठी सामी होइ त्ति विसेसो जाणियन्वो । अण्ण च अवत्तव्यया अस्थि; सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताण मणादियमिच्छाइट्ठिणा उज्बेल्लिदतदुभयसतकम्मिएण वा सम्मत्ते पडिवण्णे विदियसमयम्मि तदुवलभादो। अणतागुवधीण पि विसजोयणापुव्वसजोगे अवसेसाण च सम्बोवसामणादो परिणममाणगस्म देवस्स वा पढमसमयसकामगस्स अवत्तव्यसकमसभवादो। जयध० ___३ एत्थ ताव जहण्णकालपरूवणा कीरदे-एगो छिदिसतकम्मस्सुवरि एयसमय बधवुड्ढोए परिणदो विदियादिसमएसु अवठ्ठिदमप्पयर वा बधिय बधावलियादीद सकामिय तदणतरसमए अवठ्ठिदमप्पदर वा पडिवण्णो । लदो मिच्छत्तद्विदीए भुजगारसकामयस्स जहण्णेणेयसमओ। जयध० । ४ त जहा, एइदिओ अद्धाक्खय-स किलेसक्खएहि दोसु समएसु भुजगारबध कादूण तदो से काले सणिपचिदिएसुप्पजमाणो विग्गहगदीए एगसमयमसण्णिादिं वधिऊण तदणतरसमए सरीर घेत्तूण सण्णिछिदि पबद्धो | एव चदुसु समएसु णिरतर भुजगारवध कादूण पुणो तेणेव कमेण बधावलियादिक्कतं सकामेमाणस्स लद्धा मिच्छत्तभुजगारसकमस्स उक्कस्सेण चत्तारि समया । जयध० ५ त कथ ? भुजगारमवळुिद वा बधमाणस्स एयसमयमप्पदर बधिय विदियसमए भुजगारावठ्ठि दाणमण्णदरबधेण परिणमिय वधावलियवदिक्कमे बधाणुसारेणेव सकमेमाणयस्स अप्पदरकालो जहणणेयसमयमेत्तो होइ । जयध० Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार तेवद्विसागरोवससदं सादिरेयं । १६२. अवडिदसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? १६३. जहण्णेणेयसमओ । १६४. उक्कस्सेणंतोसु हुत्त । १६५. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवढि द-अवत्तव्य-संकामया केवचिरं कालादो होंति ? १६६. जहण्णुकस्सेणेयसमओ। १६७. अप्पदरसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? १६८. जहण्णेण अंतोशेष रह जाने पर प्रथमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और अन्तर्मुहूर्त तक अल्पतरसंक्रमण करता रहा । पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और प्रथम वार छयासठ सागरोपमकाल तक अल्पतरसंक्रमण करके और छयासठ सागरोपमकालमें अन्तर्मुहूर्त शेप रह जाने पर अल्पतरकालके अविरोधसे अन्तर्मुहूर्त के लिए मिथ्यात्वमें जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और दूसरी वार छयासठ सागरोपमकाल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करके अन्तमे परिणामोके निमित्तसे फिर भी मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और द्रव्यलिगके माहात्म्यसे इकतीस सागरोपमवाले देवोमे उत्पन्न हुआ। वहाँ पर भी शुक्ललेश्याके माहात्म्यसे सत्कर्मसे नीचे ही स्थितिबन्ध करता हुआ मिथ्यात्वका अल्पतर-संक्रामक ही रहा । वहाँसे च्युत होकर मनुष्योमे उत्पन्न हो करके अन्तर्मुहूर्त तक अल्पतरसंक्रमण कर पुनः भुजाकार या अवस्थित संक्रमणको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्योपमसे अधिक एकसौ तिरेसठ सागरोपम-प्रमाण मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका उत्कृष्टकाल सिद्ध हो जाता है । शंका-मिथ्यात्वके अवस्थितसंक्रमण कितना काल है १ ॥१६२।। समाधान-मिथ्यात्वके अवस्थितसंक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥१६३-१६४॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है ' ।।१६५।। समाधान-इनके संक्रमणका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ॥१६॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है ? ॥१६॥ समाधान-इन दोनो प्रकृतियोके अल्पतरसंक्रमणका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और १ कुदो, एयढिदिवधावट्ठाणकालस्स जपणुक्कस्सेणेयसमयमतोमुहुत्तमेत्तपमाणोवलभादो । जयध० २ भुजगारसकमस्स ताव उच्चदे-तप्पाओग्गसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा तत्तो दुसमउत्तरादिमिच्छत्तलिदिसतकम्मिएण सम्मत्ते पडिवण्णे विदियसमयम्मि मुजगारसकमो होदूण तदणतरसमए अप्पदरसकमो जादो । लद्धो जहण्णुक्कस्सेणेगसमयमेत्तो भुजगारसकामयकालो। एवमवदिसंकमस्स वि, णवरि समयुत्तरमिच्छत्तटिठदिसतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे विदियसमयम्मि तदुवलभी वत्तव्यो । एवमवत्त व्वसंकमस्स वि वत्तव्यं, णवरि णिस्सतकम्मियमिच्छाइटिठणा उवसमसम्मत्ते गहिदे विदियसमयम्मि तदुवलद्धी होदि । जयध० ३ त जहा-एगो मिच्छादिट्ठी पुव्युत्तेहि तीहिं पयारेहिं सम्मत्त वेत्तण विटियसमए मुजगारावठ्ठिदावत्तवाणमण्णदरसकमपजाएण परिणमिय तदियसमए अप्पयरसकामयत्तमुवगओ । जहण्णकाला Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] भुजाकारस्थितिसंझम-अन्तर-निरूपण ३३१ मुहत्तं । १६९. उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । १७०. सेसाणं कम्माणं भुजगारसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? १७१. जहण्णेणेयसमओ । १७२. उक्कस्सेण एगूणवीससमया । १७३. सेसपदाणि मिच्छत्तभंगो। १७४, णवरि अवत्तव्यसंकामया जहण्णुकस्सेण एगसमओ।। १७५. एत्तो अंतरं । १७६. मिच्छत्तस्स भुजगार-अवढिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ १७७. जहपणेण एयसमओ । १७८. उकस्सेण तेवढिसागरोवमसद उत्कृष्टकाल कुछ अधिक एकसौ बत्तीस सागरोपम है ।।१६८-१६९।। _शंका-शेष कर्मोंके भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है ? ॥१७॥ समाधान-शेप कर्मों के भुजाकारसंक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल उन्नीस समय है ।।१७१-१७२।। विशेपार्थ-उन्नीस समयकी प्ररूपणा स्थितिविभक्तिमे बतलाये गये प्रकारसे जानना चाहिए। चर्णिस०-शेप पदोके संक्रमणका काल मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि शेप पदोंके अवक्तव्यसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ॥१७३-१७४॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे भुजाकारादि संक्रमणोका अन्तर कहते हैं ।।१७५।। शंका-मिथ्यात्वके भुजाकार और अवस्थित संक्रमणका अन्तर काल कितना है ? ॥१७६।। समाधान-मिथ्यात्वके भुजाकार और अवस्थित संक्रमणका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक एक सौ तिरसठ सागरोपम है ॥१७७-१७८॥ विरोहेण सकिलिट्ठो सम्मत्तट्ठिदीए उवरि मिच्छत्तछिदि तप्पाओग्गवड्ढीए वड्ढाविय सव्वलहु सम्मत्त पडिवण्णो भुजगारसकमेण अवट्ठिदसकमेण वा परिणदो त्ति तस्स अतोमुहुत्तमेत्तो सम्मत्त सम्माच्छित्ताणमप्पदरसकमणजहण्णकालो होइ । अहवा सम्मत्त पडिवजिय अतोमुहुत्तमप्पदरसरूवेण सम्मत्त सम्मामिच्छताण ट्ठिदिसकममणुपालिय सम्वलहु दसणमोहक्खवणाए वावदस्स पयदजहण्णकालो परूवेयव्यो । १ त जहा-एक्को मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्त घेत्त ण सव्वमहतमुवसमसम्मत्तद्धमप्पदरसकममणुपालिय वेदयसम्मत्तण पढमछावट्ठिमणुपा लिय अतोमुहुत्तावसेसे तम्मि अप्पयरसकमाविरोहेण मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त वा पडिवण्यो। तदो अतोमुहुत्तण वेदयसम्मत्त पडिवजिय विदियछावठिमप्पयरसकमेणाणुपालिय तदवसाणे अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्त गदो । पलिदोवमासखेनभागमेत्तकालमुवेल्लणावावारेणच्छिय सम्मत्तचरिमुवेल्लणफालीए तदप्पयरसकम समाणिय पुणो वि तप्पाओग्गेण कालेण सम्मामिच्छत्तचरिमफालिमुव्वेलिलय तदप्पयरकाल समाणेदि । एवं. पलिदोवमासखेजभागन्भहियवेछावसिागरोवमाणि दोण्हमेदेसिं कम्माणमुक्कस्सपयदहिदिसकमकालो होइ । जयध० २ एत्थ जहणतर भुजगारावठ्ठिदसकमेहिंतो एयसमयमप्पयरे पडिय विदियसमए पुणो वि अप्पिदपद गयरस वत्तव्यं । उकस्सतर पि अप्पयरकस्सकालो वत्तत्वो। णवरि भुजगारंतरे विवक्खिए अवटिठदकालेण सह वत्तव | अवदितर च भुजगारकालेण सह वत्तव्व । जयध० Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार सादिरेयं । १७९. अप्पयर संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ १८०. जहण्णेणेय - समओ । १८१. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १८२. एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । १८३. णवरि अणंताणुबंधीणमप्पयरसंकामयं तरं जहण्णेणेयसमओ । १८४. उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । १८५ सव्वेसिमवत्तव्य संकामयं तरं केवचिरं कालादो होदि १ १८६. जहणेणंतोमुहुत्तं । १८७. उक्कस्सेण अद्धपोग्गल परिय देणं' । १८८. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवद्विदसं कामयं तरं केवचिरं कालादो होदि १ १८९. जहणेणंतो मुहुतं । १९०. अप्पयरसंकामयंतरं जहणेणेयसमयो । १९१. अवत्तव्वसंकामयं तरं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । १६२. उक्कस्सेण सव्वेसिमद्धपोग्गलपरिय देसूणं । शंका- मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? || १७९।। समाधान - मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।।१८० - १८१ ॥ चूर्णिसू० - इसी प्रकार मिथ्यात्वके समान सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो को छोड़ कर शेष कर्मोंके संक्रमणका अन्तर जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि अनन्तानुवन्धी कषायोके अल्पतरसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक एक सौ वत्तीस सागरोपम है ।। १८२-२८४।। शंका- मिध्यात्वादि तीन कर्मोंको छोड़कर शेष सव कर्मों के अवक्तव्य संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ।। १८५ ।। समाधान- जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है ।। १८६-१८७।। शंका- सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार और अवस्थितसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है १ ।। १८८ ॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मि - ध्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । अवक्तव्य संक्रमणका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । सबका अर्थात् सम्यक्त्वप्रकृति और १ अणताणुत्रघीण विसजोयणापुव्वसंजोगे सेसक साय- णोकसायाणं च सव्वोवसामणापडिवादे अवत्तव्वसंकमादिं करिय अतरिदस्त पुणो जहष्णुक्कस्सेणतोमुहुत्तद्वयोग्गलपरियमेत्तमतरिय पडिवण्णतभावम्मि तदुभयसभवदसणादो | जयध० २ पुव्युपणसम्मत्तादो परिवडिय मिच्छत्तििदसंतबुड्ढीए सह पुणो वि सम्मत्त पडिवजिय समयाविरोहेण भुजगारमवटि च एगसमय कादूणपदरेणतरिय सव्वलहु मिच्छत्त गतूण तेणेव कमेण पडिणियत्तिय भुजगारावट्ठिदसकामयपजाएण परिणदम्मि तदुबलभादो | जयध० 3 पढमसम्मत्त 'पत्तिविदियसमए अवत्तध्वसंकमत्यादि काढूणतरिदस्स सव्वलहु मिच्छत्त गतूण जहण्णुव्वेल्लणकालम्भतरे तदुभयमुव्वेल्लिय चरिमफालिपदणाणतरसमए सम्मत्त पडिवण्णस्स विदियसमयम्मि तदतर परिसमत्तिदसणादो । जयध० Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] भुजाकारस्थितिसंक्रम-नानाजीवापेक्षयाकाल-निरूपण ३३३ १९३. णाणाजीवेहि भंगविचओ। १९४. मिच्छत्तस्स सव्वजीवा भुजगारसंकामगा च अप्पयरसंकामया च अवट्ठिदसंकामया च । १९५. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सत्तावीस भंगा । १९६. सेसाणं मिच्छत्तभंगो। १९७. णवरि अवत्तव्यसंकामया भजियव्वा । १९८. णाणाजीवेहि कालो । १९९. मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवहिदसंकामया केवचिरं कालादो होति ? २००. सव्वद्धा । २०१. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवहिदअवत्तव्यसंकामया केवचिरं कालादो होति ? २०२. जहण्णेणेयसम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार, अवस्थित, अल्पतर और अवक्तव्य संक्रमणका उत्कृष्ट अन्तरकाल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥१८९-१९२॥ . चूर्णिसू०-अब भुजाकारादि संक्रमणोका नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय कहते हैं। सर्व जीव मिथ्यात्वके भुजाकार-संक्रामक है, अल्पतर-संक्रामक है, और अवस्थित संक्रामक है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकारादि संक्रमण-सम्बन्धी सत्ताईस भंग होते है । शेष पञ्चीस कषायोके भुजाकारादि संक्रमण-सम्बन्धी भंग मिथ्यात्वके समान होते हैं । केवल अवक्तव्य-संक्रामक भजितव्य हैं ॥१९३-१८७।। विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके सत्ताईस भंगोका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इन दोनो कर्मोंके भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामक जीव भजितव्य हैं, अर्थात् कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं । किन्तु अल्पतर-संक्रामक जीव नियमसे होते हैं। इसलिए भजितव्य पदोको विरलन कर, उन्हे तिगुणा करने पर अल्पतर-संक्रामक रूप ध्रुवपदके साथ सत्ताईस भंग हो जाते है। चूर्णिसू०-अब भुजाकारादिसंकमोका नानाजीवोंकी अपेक्षा कालका वर्णन करते हैं ॥१९८॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित संक्रमण करनेवाले जीवोका कितना काल है ? समाधान-सर्व काल है ॥२००। शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रमण करनेवाले जीवोका कितना काल है १ ॥२०१।। १ कुदो, मिच्छत्तभुजगारादिसकामयागामणतजीवाण सध्वद्धमविच्छिण्णपवाहसरूवेणावठाणदसणादो। जयध० २ कुदो, भुजगारावट्ठिदावत्तव्वस कामयाण भयणिजत्तणाप्पयरसकामयाण धुवत्तदसणादो। तदो भयणिजपदाणि विरल्यि तिगुणिय अण्णोण्णभासे कए धुवसहिया सत्तावीस भगा उप्पजति । जयध° ३ मिच्छत्तस्सावत्तव्वसकामया णस्थि । एदेसिं पुण अवत्तव्यसकामया अत्थि, ते च भजियव्वा त्ति उत्त होइ । जयध० ४ कुदो; तिसु वि कालेसु एदेसिं विरहाणुवलभादो । जयध० Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार समओ । २०३. उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। २०४. अप्पयरसंकामया सव्वद्धा । २०५. सेसाणं कम्माणं भुजगार-अप्पयर-अवट्टिदसंकामया केवचिरं कलादो होंति ? २०६. सव्वद्धा । २०७. अवत्तव्यसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? २०८. जहण्णणेयसमओं । २०९. उक्कस्सेण संखेज्जा समया । २१०. णवरि अणंताणुवंधीणमवत्तव्यसंकामया सम्मत्तभंगो । २११. णाणाजीवेहि अंतर । २१२. मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवद्विदसंकामययंतर केवचिर कालादो होदि ? २१३. णत्थि अंतरं । २१४. सम्मत्त-सम्मा समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीका असंख्यातवां भाग है ॥२०२-२०३।। चूर्णिम् ०-इन्हीं दोनो कर्मों के अल्पतरसंक्रामक जीव सर्व काल होते हैं ।।२०४।। शंका-शेष काँके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकोंका कितना काल है ? ॥२०५।। समाधान-सर्व काल है ।।२०६।। शंका-मोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियोके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है ?॥२०७।। समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । केवल अनन्तानुबन्धी कषायोके अवक्तव्य-संक्रमणका काल सम्यक्त्वप्रकृतिके समय जानना चाहिए । अर्थात् चारित्रमोहनीयकी सभी प्रकृतियोके अवक्तव्य संक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीका असंख्यातवॉ भाग है । ।।२०८-२१०॥ चूर्णिसू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकारादि संक्रमणोका अन्तर कहते हैं ॥२११॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकार अल्पतर और अवस्थित संक्रमण करने वालोका कितना अन्तरकाल है १ ॥२१२॥ समाधान-मिथ्यात्वके भुजाकार,अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकोका कभी अन्तर नहीं होता है ॥२१३॥ १ दोण्हमेदेसि कम्माणमेयसमय भुजगारादिसकामयत्तेण परिणदणाणाजीवाण विदियसमए सव्वेसिमेव सकामयपनायपरिणामे तदुवलद्धीदो । जयध० २ कुदो; णाणाजीवाणुसंधाणेण तेसिमेत्तियमेत्तकालावठाणोवलमाटो | जयध० ३ कुदो; मिच्छाइट्ठि-सम्माइट्ठीणं पवाहस्स तदप्पवरसकामयस्स तिसु विकालेसु णिरतरमवट्ठाणोवलभादो। जयध० ४ सव्व कालमविच्छिण्णसरूवेणेटेसिं सताणस समवट्ठाणादो । जयव० ५ उवसामणादो परिवडिदाणमणणुसविदसताणाणमेत्य जहण्णकालसभयो । तेसि चेव सखेजवारमणुसधिदसताणाणमवट्ठाणकालो । जयध ६ जद्दण्णेणेयसमओ, उकस्सेणावलियाए असखेजदिभागो इच्चेदेण भेदाभावादो । जयध० Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] भुजाकारस्थितिसंक्रम-अल्पवहुत्व-निरूपण ३३५ मिच्छत्ताणं भुजगार-अवत्तव्यसंकाययंतरं केवंचिरं कालादो होदि ? २१५. जहण्णेणेयसमओ । २१६.उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये' । २१७ अप्पयरसंकामयंतरं णत्थि अंतरं । २१८.अवद्विदसंकामयंतरं जहण्णेणेयसमयो । २१९. उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । २२०. अणंताणुबंधीणं अवत्तव्यसंकामयंतरं जहण्णेणेयसमओ । २२१. उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये । २२२. सेसाणं कम्माणमवत्तव्यसंकामयंतरं जहण्णेणेयसमओ । २२३. उकस्सेण संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २२४. सोलसकसायणवणोकसायाणं भुजगार-अप्पदर-अवढिदसकामयाणं णस्थि अंतरं । २२५. अप्पाबहुअं । २२६. सव्वत्थोवा पिच्छत्तभुजगारसंकामयाँ । २२७. शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार और अबक्तव्य-संक्रमण करनेवाले जीवोका अन्तरकाल कितना है ? ।।२१४।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक चौवीस अहोरात्र ( दिन-रात ) है ॥२१५-२१६॥ चूर्णिसू०-उक्त दोनों प्रकृतियोके अल्पतर-संक्रमण करनेवालोका कभी अन्तर नहीं होता । इन्हीं दोनो प्रकृतियोके अवस्थित संक्रमण करनेवालोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी कषायोके अवक्तव्यसंक्रामकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक चौबीस अहोरात्र है। शेप कर्मोंके अवक्तव्यसंक्रामकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात सहस्र वर्ष है। सोलह कषाय, और नव नोकपायोके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकोका अन्तर नही होता है ॥२१७-२२४॥ चूर्णिसू०-अब भुजाकारादि संक्रमण करनेवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहते हैमिथ्यात्वके भुजाकार-संक्रामक सबसे कम है। इससे अवस्थित-संक्रामक असंख्यातगुणित १ कुदो, एत्तिएणुक्कस्सतरेण विणा पयदभुजगारावत्तव्वस कामयाण पुणरुभवाभावादो । जयघ० २ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तटिदिसतकम्मादो समयुत्तरमिच्छत्तछिदिसतकम्मियाण केत्तियाण पि जीवाण वेदयसम्मत्त प्पत्तिविदियसमए विवक्खियसक्रमपजाएण परिणमिय तदणतरसमए अतरिदाण पुणो अण्णजीवेहि तदणंतरोवरिमसमए अवदिपजायपरिणदेहि अंतरवोच्छेदे कदे तदुवलभादो । जयघ० ३ एत्तिएणुक्कस्सतरेण विणा समयुत्तरमिच्छत्तट्ठिदिसतकम्मेण सम्मत्तपडिलभस्स दुल्लहत्तादो । कुदो एव ? दुसमयुत्तरादिमिच्छत्तछिदिवियप्पाण सखेजसागरोवमकोडाकोडिपमाणाण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तभुजगारसकमहेऊण बहुलसभेवेण तत्थेव णाणाजीवाण पाएण सचरणोवलभादो। तदो तेहिं छिदिवियप्पेहि भूयो भूयो सम्मत्त पडिवजमाणणाणाजीवाणमेसो उक्कस्सतरसभवो दट्ठयो । जयध० ४ कुदो, सव्वद्धमेदेसु अणतस्स जीवरासिस्स जहापविभागमवाणदसणादो । जयध० ५ कुदो; दुसमयसचिदत्तादो । जयध० * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'केवचिर कालादो होदि' इतना पाठ और अधिक मुद्रित है । (देखो पृ० १०९२ ) पर टोकाको देखते हुए वह नहीं होना चाहिए । ताडपत्रीय प्रतिसे भी उसकी पुष्टि नहीं हुई है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार अवट्ठिदसंकामया असंखेज्जगुणा । २२८. अप्पयरसंकामया संखेजगुणा । २२९. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवहिद संकामयाँ । २३०. भुजगारसंकामया असंखेज्जगुणा । २३१. अवत्तव्यसंकामया असंखेज्जगुणा । २३२. अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा । २३३. अणंताणुवंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामयाँ । २३४. भुजगारसंकामया अणंतगुणा । २३५. अवडिदसंकामया असंखेज्जगुणा । २३६. अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा । २३७, एवं सेसाणं कम्माणं । है । इनसे अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणित हैं ॥२२५-२२८॥ चूर्णिसू-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित-संक्रामक सबसे कम है । इनसे भुजाकार-संक्रामक असंख्यातगुणित है । इनसे अवक्तव्य-संक्रामक असंख्यातगुणित है । इनसे अल्पतर-संक्रामक असंख्यातगुणित हैं ॥२२९-२३२॥ चूर्णिम् ०-अनन्तानुवन्धी कपायोके अवक्तव्य-संक्रामक सबसे कम है। इनसे भुजाकार-संक्रामक अनन्तगुणित है । इनसे अवस्थित-संक्रामक असंख्यातगुणित है । इनसे अल्पतर-संक्रामक संख्यातगुणित है ॥२३२-२३६॥ __चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे शेप कर्मोंके भुजाकारादि-संक्रामकोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए ॥२३७॥ १ कुदो; अतोमुहुत्तसचियत्तादो । जयध० २ जइवि अप्पयरसकमकालो वि अतोमुहुत्तमेत्तो चेव, तो वि तत्कालसंचिदजीवरासिस्स पुबिल्लसचयादो सखे जगुणत्त ण विरुज्झदे, सतस्स हेट्टा सखेड्जवारमवहिदहिदिवधेसु पादेकमतोमुहुत्तकालपडिबद्धेसु परिणमिय सइ सतसमागवण सन्वेसिं जीवाण परिणमणदसणादो | जयध० ३ कुदो; समयुत्तरमिच्छत्तढिदिसतकम्मेण वेदयपुम्मत्त पडिवज्जमाणजीवाणमइदुल्लहत्तादो । जयध० ____ ४ दोण्हमेदेसिमेयसमयसचिदत्त सते कुदो एस विसरिसभावो त्ति णासकणिज, तत्तो एदस्स विसयबहुत्तोवलभादो । त कथ ? अवढिदसकमविसओ णिरुद्ध यहिदिमेतो; समयुत्तरमिच्छत्तछिदिसतकम्मादो अण्णस्य तदभावणिण्णयादो । भुजगारसकमो पुण दुसमयुत्तरादिछिदिवियप्पेसु सखेजसागरोवमपमाणावच्छिण्णेसु अप्पडियपसरो । तदो तेसु ठाइदूण वेदयसम्मत्तमुवसमसम्मत्त च पडिवजमाणो जीवरासी असखेनगुणो त्ति णिप्पडिबधमेद । जयध० ५ मुजगारसकामयरासीदो अद्धपोगलपरियकालभतरसचिदणिस्सतकम्मियरासिणिस्सदस्सावत्तव्य संकामयरासिस्स असखेजगुणत्त विसंवादाभावादो । जयव० ६ अवत्तब्यसकामयरासी उवसमसम्माइट्ठिीणमसखेनदिभागो । एसो वुण उवसमवेदगसम्माइििठरासी सबो उब्वेल्लमाणमिच्छाइटिठरासी च, तदो असखेजगुणो जादो । जयध० ७ कुदो पलिदोवमासंखेजभागपमाणत्तादो । जयध० ८ कुटो; सव्वजीवरासिस्स असखेज भागपमाणत्तादो । जयध० ९ कुदो; सधजीवरासित्स सखेनभागपमाणत्ताटो । जयध० १० अवट्ठिदसंकमवट्ठाणकालादो अप्पयरसंकमपरिणामकालस्स सखेजगुणत्तादो । जयध० Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ गा०५८] स्थितिसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण __२३८. पदणिक्खेवे तत्थ इमाणि तिणि अणियोगद्दाराणि समुक्तित्तणा सामित्तमप्पाबहुरं च । २३९. तत्थ समुक्कित्तणा-सव्वासि पयडीणमुक्कस्सिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च अस्थि । २४०. एवं जहण्णयस्स वि णेदव्यं । २४१. सामित्तं । २४२. मिच्छत्त सोलसकसायाणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? २४३. जो चउहाणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिट्ठिदि अंतोमुहुत्तं संकामेमाणो सो सव्वमहतं दाहं गदो उकस्सहिदि पबद्धो तस्सावलियादीदस्स तस्स उक्कस्सिया वड्डी । २४४. तस्सेव से काले उकस्सयमवट्ठाणं'। २४५. उक्कस्सिया हाणी कस्स ? २४६.जेण उक्कस्सटिदिखंडयं धादिदं तस्स उक्कस्सिया हाणी । २४७. जमुक्कस्पद्विदिखंडयं तं थोवं । जं सव्वमहंत दाहं गदो ति भणिदं, तं विसेसाहियं । २४८. चूर्णिसू०-पदनिक्षेपमे ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उनमें समुत्कीर्तना इस प्रकार है-सभी प्रकृतियोकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान होते है। इसी प्रकार जघन्यका भी वर्णन करना चाहिए । अर्थात् सभी प्रकृतियोके जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते है ।।२३८-२४०॥ चूर्णिसू०-अब स्वामित्वको कहते है ॥२४१॥ शंका-मिथ्यात्व और सोलह कपायोकी स्थितिसंक्रमण-विषयक उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥२४२॥ समाधान-जो जीव चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिको संक्रमण करता हुआ अन्तर्मुहुर्त तक स्थित था, वह उत्कृष्ट संक्लेशके वशसे सर्व महान् दाहको प्राप्त हुआ और उसने उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया, उसके एक आवलीकाल व्यतीत होनेपर प्रकृत कर्मोंकी स्थितिसंक्रमण-विषयक उत्कृष्ट वृद्धि होती है ।।२४३॥ ___ चूर्णिसू०-उस ही जीवके अनन्तरकालमें अर्थात् उत्कृष्ट वृद्धि होनेके दूसरे समयमें उक्त कर्मोंका स्थितिसंक्रमण-सम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान होता हैं ॥२४४॥ शंका-मिथ्यात्व और सोलह कषायोकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥२४५।। समाधान-जिसने उत्कृष्ट स्थितिकांडकका घात किया है, उसके प्रकृत कर्मोंकी स्थितिसंक्रमण-विषयक उत्कृष्ट हानि होती है ॥२४६॥ चूर्णिसू०-जो उत्कृष्ट स्थितिकांडक है, वह अल्प है और जो सर्व महान दाह-गत * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'अतोमुहुत्तं पाठ नहीं है । (देखो पृ० १०९५ ) पर टीकाके अनुसार सूत्र में यह पाठ होना चाहिए । १ कुदो उक्कस्सवुडीए अविणट्टसरूवेण तत्थावट्ठाणदसणादो । जयध° २ तत्थुक्कस्सद्विदिखडयमेत्तस्स ट्ठिदिसकमस्स एक्सराहेण परिहाणिदसणादो। केत्तियमेत्ते च तमुक्कस्सछिदिखडय ? अतोकोडाकोडिपरिहीणकम्मठिदिमेत्तक्कस्सवुड्ढीदो किंचूणपमाणत्तादो । जयध० ३ जमुक्कस्सछिदिकंडयमुक्कस्सहाणीए विसईकयं तं थोवं। जं पुण उकस्सवदिपरूवणाए सव्वमहंत दाहं गदो त्ति भणिद त विसेसाहियं ति वुत्त होइ । केत्तियमेत्तो विसेसो १ अतोकोडाकोडिमेत्तो । जयध० Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार एदमप्पायहुअस्स साहणं । २४९. एवं णवणोकसायाणं । २५०. णवरि कसायाणपाबलियूणमुक्कस्सद्विदि पडिच्छिदूणावलियादीदस्स तस्स उक्कस्सिया बड्डी । २५१. से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । २५२. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स १ २५३. वेदगसम्मत्तपाओग्गजहण्णहिदिसंतकम्मिओ मिच्छत्तस्स उक्स्सद्विदि बंधियण द्विदिधादमकाऊण अंतोसुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइद्विस्स उक्कस्मिया वड्डी । वृद्धि कही है, वह विशेष अधिक है। यह कथन वक्ष्यमाण अल्पवहुत्वका साधन है ॥२४७-२४८॥ विशेपार्थ-ऊपर जो मिथ्यात्व और सोलह कपागोकी स्थितिसंक्रमण-विषयक वृद्धि - हानिका निरूपण किया गया है और अन्तमे जो उसका अल्पवहुत्व बताया गया है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रकृत कर्मोंकी स्थितिसंक्रमण-गत उत्कृष्ट वृद्धिका प्रमाण अन्तःकोडाकोडीपरिहीन कर्मस्थितिमात्र है । तथा उत्कृष्ट हानिका प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिकांडक-प्रमाण है। उत्कृष्ट हानिसे उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है, यहाँ विशेष अधिकका प्रमाण अन्तःकोडाकोडीमात्र जानना चाहिए। चूर्णिम् ०-इसी प्रकार नव नोकषायोके स्थितिसंक्रमण-विषयक वृद्धि, हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा करना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि कषायोकी एक आवली कम उत्कृष्ट स्थितिको ग्रहण करके आवलीकाल व्यतीत करनेवाले जीवके नव नोकपायोकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । ( क्योकि नोकषायोका स्वमुखसे स्थितिबंध नहीं होता है ।) और उसके द्वितीय समयमे उत्कृष्ट अवस्थान होता है ॥२४९-२५१॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ?।।२५२।। समाधान-वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके योग्य जघन्य स्थितिकी सत्तावाला (एकेन्द्रियोसे आया हुआ ) जो जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँध करके और स्थितिघातको नहीं करके अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, उस द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवके उक्त दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥२५३॥ १ कुदो एवं कीरदे चेण, समुहेणेदेसिं चालीससागरोवमकोडाकोडीण बंधाभावेण कसायुक्कस्सठिदि. पडिग्गहमुहेण तहा सामित्तविहाणादो । तदो बधावलियूणं कसायटिदिमुक्कस्सियं सगपाओग्गतोकोडाकोडिट्ठिदिसंकमे पडिच्छियूण संकमणावलियादिकंतस्स पयदसामित्तमिदि वुत्त | xxx णवुसयवेदारइसोगभयदुगुंछाणमुक्कसछिदिवुड्ढी अवठ्ठाणं च वीससागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमासखेजभागभहियाओ। कुदोः कसायाणमुक्कस्सठिदिवघकाले तेसि पि रूवूणाबाहाकंडएणूणवीससागरोवमकोडाकोडिमेत्त-ठिदिवंधस्स दुप्पडिसेहत्तादो | जयध० २ एत्थ वेदयपाओग्गजहण्णछिदिसतकम्मिओ णाम दुविहो-किंचूणसागरोवमछिदिसतकम्मिओ तप्पुधत्तमेत्तछिदिसतकम्मिओ च । एत्थ पुण सागरोवममेत्तहिदिएइंदियपच्छायदो घेत्तव्योः उक्स्सवड्ढीए पवदत्तादो।x x x तत्थ योवूणसागरोवमसकमादो हेटिठमसमयपडिबद्धत्तादो तदूणसत्तरिसागरोवममेत्तटिदिसकमन्स बुढिदसणादो । जवध' Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ गा० ५८ ] स्थितिसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण २५४. हाणी मिच्छत्तभंगो। २५५. उकस्सयमवट्ठाणं कस्स ? २५६. पुव्वुप्पण्णादो सम्मत्तादो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिओ सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइडिस्स उक्कस्सयमवट्ठाणं । २५७ एत्तो जहण्णियाए* । २५८. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं जहणिया वड्डी कस्स १ २५९. अप्पप्पणो समयूणादो उक्कस्स हिदिसंकमादो उकस्सहिदि संकमेमाणयस्स तस्स जहणिया वड्डी'। २६०. जहणिया हाणी कस्स ? २६१ तप्पाओग्गसमयुत्तरजहण्णहि दिसंकमादो तप्पाओग्गजहण्णहिदि संकममाणयस्स तस्स जहणिया हाणी । चूर्णिसू०-उक्त दोनो प्रकृतियोके स्थितिसंक्रमण-विपयक हानिकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए ॥२५४॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसंक्रमण-विषयक उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? ॥२५५॥ समाधान-जो जीव पूर्वोक्त प्रकारसे सम्यक्त्वको उत्पन्न कर ( और मिथ्यात्वमे जाकर ) सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वसे (एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर ) समयोत्तर मिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मिक होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, उस द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके उक्त दोनों कर्मोंका उत्कृष्ट अवस्थान होता है ॥२५६॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे सर्व कर्मोंके जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है ॥२५७।। शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेप सब कर्मोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? ॥२५८॥ समाधान-अपने अपने एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमणसे उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण करनेवाले जीवके उस उस कर्मकी जघन्य वृद्धि होती है ।।२५९।। शंका-पूर्वोक्त कर्मोकी जघन्य हानि किसके होती है ? ॥२६॥ समाधान-तत्तत्प्रायोग्य एक समय अधिक जघन्यस्थितिसंक्रमणसे तत्तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिको संक्रमण करनेवाले जीवके उस-उस कर्मकी जघन्य हानि होती है ।।२६१॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'जहणिया' इतना ही पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १०९७) १ तत्थ पढमसमयसकतमिच्छत्तटिठदिसतकम्मस्स विदियसमए गलिदावसिठस्स पढमसमयसम्मत्तसम्मामिच्छत्तठिदिसकमपमाणेणावठाणदसणादो । जयध० । २ त कथ १ समयूणुक्कसहिदि बधियूण तदणतरसमए उकस्सछिदि बधिय बंधावलियवदिक्कत सकामेतो हेट्ठिमसमयूणछिदिसकमादो समयुत्तरं सकामेदि । तदो तस्स जहणिया वड्ढी होदि; एयट्ठिादमत्तस्सव तत्थ वुड्ढिदसणादो । उदाहरणपदसणट्ठमेदं परूविद, तदो सव्वासु चेव ट्ठिदीसु समयुत्तरवधवसेण जहणिया वड्ढी अविरुद्धा परूवेयव्वा । जयधः । ..३ समयुत्तरधुवट्ठिदि संकामेदुमाढतो, तस्स जहणिया हाणी, एयठिदिमेत्तस्सेव तत्थ हाणिदसणादो । जयध० Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २६२. एयदरत्थमवट्ठाण । २६३. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहणिया वड्डी कस्स १ २६४. पुव्वुप्पण्णसम्मत्तादो दुसमयुत्तरमिच्छत्तसंतकस्मिओ सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइद्विस्स जहणिया वड्डी' । २६५, हाणी सेसकस्मभंगो । २६६. अवठ्ठाणमुक्कस्सअंगो। २६७. अप्पाबहुअं । २६८. मिच्छत्त-सोलसकसाय-इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदीणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । २६९.वड्डी अवठ्ठाणं च दोवि तुल्हाणि विसेसाहियाणि । २७०. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोपो अवट्ठाणसंकों। २७१. हाणिसंकमो असंखेज्जगुणों । २७२. वड्विसंकमो विसेसाहिओं । २७३. णव॒सयवेद-अरइ-सोग-भय चूर्णिसू०-उन ही पूर्वोक्त कर्मोंकी अन्तमुहूर्तकाल तक अवस्थित उत्कृष्ट वृद्धि या हानिमेंसे किसी एक स्थितिमे जघन्य अवस्थान पाया जाता है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि ये जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान एक स्थितिमात्र ही होते है ।।२६२।। शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ?।।२६३॥ समाधान-पूर्वोत्पन्न सम्यक्त्वसे ( गिरकर और दो समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिको वाँध कर ) द्विसमयोत्तर मिथ्यात्वसत्कर्मिक होकर जो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस द्विसमयवर्ती सम्यग्दृष्टिके उक्त दोनों कर्मोंकी जघन्य वृद्धि होती है ॥२६४॥ चूर्णिसू०-उक्त दोनो कर्मोंकी हानि शेप कर्मोंकी हानिके समान जानना चाहिए दोनो कर्मोंका अवस्थान अपने-अपने उत्कृष्ट अवस्थानके सदृश होता है ॥२६५-२६६।। चूर्णिसू०-अव उपयुक्त उत्कृष्ट जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान संक्रमणोके प्रमाणका निर्णय करनेके लिए अल्पबहुत्व कहते है-मिथ्यात्व, सोलह कपाय, स्त्रीवेद, पुरुपवेद, हास्य और रति, इन कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे कम होती है। इन कर्मोंकी उत्कृष्ट हानिसे इन्ही कर्मों की वृद्धि और अवस्थान ये दोनों परस्पर तुल्य और विशेप अधिक हैं ॥२६७-२६९।। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों कर्मों का अवस्थान-संक्रमण सबसे कम है। इससे इन्ही कर्मोंका हानि-संक्रमण असंख्यातगुणा है और इससे वृद्धिसंक्रमण विशेष अधिक है ।।२७०-२७२।। १ कथ ताव वड्डीए अवठाणसभवो ? वुच्चदे-समयूणुक्कस्सटिदिसंकमादो उक्कस्सछिदिस कमेण वड्ढिदस्स अतोमुहुत्तमवदिवधवसेण तत्थेवावट्ठाणे णत्थि विरोहो । जयध० २ कुदो; वेदगसम्मत्तग्गहणपढमसमए दुसमयुत्तरमिच्छत्तछिदि पडिच्छिय तत्थेवाधट्ठिदीए णिसे. यमेत गालिय विदियसमए पढमसमयसकमादो समयुत्तर सकामेमाणयम्मि जहण्णवुड्ढीए एयसमयमेत्तो मुव. लंभादो । जयध० ३ कुदो; अतोकोडाकोडिपरिहीणसत्तरि-चालीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो । जयध० ४ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंतोकोडाकोडिमेत्तो। ५ एयणिसेयपमाणत्तादो । जयव० ६ उक्कस्सद्विदिखडयपमाणत्तादो। ७ केत्तियमेत्तेण ? अतोकोडाकोडिमेत्तेण | जयध० Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] स्थितिसंक्रम-बुद्धि-निरूपण ३४१ दुगुंछाणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी अवट्ठाणं च २७४. हाणिसंकमो विसेसाहिओ। २७५. एत्तो जहण्णयं । २७६. सव्वासि पयडीणं जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाण-ट्ठिदिसंकमो तुल्लो। एवं पदणिक्खेवो समत्तो। २७७. वड्डीए तिणि अणिओगद्दाराणि । २७८. समुकित्तणा परूवणा अप्पाबहुए त्ति । २७९. तत्थ समुकित्तणा । २८०, तं जहा । २८१. मिच्छत्तस्स असंखेज्जभागवड्डि-हाणी संखेज्जभागवडि-हाणी संखेज्जगुणवड्डि-हाणी असंखेज्जगुणहाणी अवट्ठाणं च । २८२. अवत्तव्यं णत्थि। २८३. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चउन्त्रिहा वड्डी चउव्विहा हाणी अवठ्ठाणमवत्तव्ययं च । २८४. सेसकम्माणं मिच्छत्तभंगो । २८५. णवरि अवत्तव्ययमत्थिं । चूर्णिसू०-नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, इन कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान संक्रमण सबसे कम है और हानिसंक्रमण विशेष अधिक है ।।२७३-२७४॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्य अल्पवहुत्व कहते है-सभी प्रकृतियोकी जघन्य स्थितिका वृद्धिसंक्रमण, हानिसंक्रमण और अवस्थानसंक्रमण परस्पर तुल्य है ।।२७५-२७६।। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। चूर्णिसू-पदनिक्षेपके विशेष कथन करनेरूप वृद्धिमें तीन अनुयोगद्वार है-समुत्कीर्तना, प्ररूपणा और अल्पवहुत्व । उनमेसे पहले समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार हैमिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि होती है, असंख्यातभागहानि होती है, संख्यातभागवृद्धि होती है, संख्यातभागहानि होती है, संख्यातगुणवृद्धि होती है, संख्यातगुणहानि होती है, असंख्यातगुणहानि होती है और अवस्थान भी होता है। किन्तु मिथ्यात्वका अवक्तव्यसंक्रमण नहीं होता है ॥२७७-२८२।। __ चूर्णिस०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका चार प्रकारकी वृद्धिरूप, चार प्रकारकी हानिरूप संक्रमण तथा अवस्थानसंक्रमण और अवक्तव्यसंक्रमण होता है । शेष कर्मोंका संक्रमण मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए । अर्थात् सोलह कपाय और नव नोकपार्योंका तीन वृद्धिरूप और चार हानिरूप संक्रमण और अवस्थान संक्रमण होता है। केवल इतना विशेप है कि इन कर्मोंका अवक्तव्यसंक्रमण होता है ।।२८३-२८५॥ १ कुदो, एदेसिमुक्कस्सवड्ढीए अवठ्ठाणस्स च पलिदोवमासखेजभागन्भहियवीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तदसणादो । जयध २ केत्तियमेत्तेण ? अतोकोडाकोडिपरिहीणवीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तण | जयघ० ३ कुदो, सव्वपयहीण जहण्णवडि-हाणि-अवहाणाणमेयटिदिपमाणत्तादो । जयध० ४ कुदो, असकमादो तस्स सकमपवुत्तीए सम्बद्धमणुवलंभादो । जयध० ५ विसजोयणापुव्वसजोगे सव्वोवसामणापडिवादे च तस्सभवो अत्थि त्ति एसो विसेसो। अण्ण च पुरिसवेद-तिण्ह सजलणाणमसखेज्ज गुणवढिसभवो वि अस्थि, उवसमसेढीए अप्पापणो णवकबधसंकमणावत्थाए काल काऊण देवेसुववण्णयस्मि तदुवलद्धीदो । जयध Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २८६. परूवणा एदासि विधिं पुध पुध उवसंदरिसणा परूवणा णाम । २८७. अप्पाबहुअं। २८८.सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स असंखेज्जगुणहाणिसंकामया। २८९. संखेज्जगुणहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा' । २९०. संखेज्जभागहाणिसंकामया संखेज्जगुणा । २९१. संखेज्जगुणवड्डिसंकामया असंखेजगुणा। २९२ संखेज्जभागवड्डिसंकामया संखेज्जगुणा । २९३. असंखेज्जभागवड्डिसंकासया अणंतगुणां । २९४. अवट्ठिदसंकामया असंखेज्जगुणा । २९५. असंखेज्जमागहाणिसंकामया संखेज्जगुणां । चूर्णि सू०-अब प्ररूपणा अनुयोगद्वार कहते हैं । इन उपर्युक्त वृद्धि, हानि आदिकी विधिके पृथक्-पृथक् विपय-विभागपूर्वक दिखलानेको प्ररूपणा कहते है ॥२८६॥ चूर्णिसू०-अव वृद्धि-हानि आदिके संक्रमणसम्बन्धी अल्पवहुत्वको कहते है । मिथ्यात्वके असंख्यातगुणहानि-संक्रामक सबसे कम है। इनसे संख्यातगुणहानि-संक्रामक असंख्यातगुणित है । इनसे संख्यातभागहानि-संक्रामक संख्यातगुणित हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि-संक्रामक असंख्यातगुणित है। इनसे संख्यातभागवृद्धि-संक्रामक संख्यातगुणित है । इनसे असंख्यातमागवृद्धि-संक्रामक अनन्तगुणित हैं । इनसे अवस्थित-संक्रामक असंख्यातगुणित हैं । इनसे असंख्यातभागहानि-संक्रामक संख्यातगुणित है ॥२८७-२९५॥ १ कुदो; दसणमोहक्खवयजीवे मोत्त ण एस्थ तदसभवादो । जयध २ कुदो, सण्णिपंचिंदियरासिस्स असंखेजभागपमाणत्तादो । जयध० ३ कुदो; संखेजगुणहाणिपरिणमणवारेहितो सखेजभागहाणि परिणमगवाराण सखेजगुणत्तु वलंभादो । ण चेदमसिद्ध तिव्वविसोहीहिंतो मदविसोहीण पाएण सभवदसणादो । नयध० ४ एत्थ कारण-सखेजमागहाणीए सण्णिपचिंदियरासी पहाणो, सेसजीवसमासेसु सखेजभागहाणी कुणंताणं बहुवाणमसभवादो | सखेज्जगुणवड्ढी पुण परत्थाणादो आगतूण सण्णिपचिंदिएसुप्पज्जमाणाण सव्वेसिमेव लव्भदे । तहा एइदिय-वियलिंदियाणमसणिपचिदिएसुववज्जमाणाण सखेज्जगुणवड्ढी चेव होह । एवमेइदिय-बीइ दियाणं चउरिदिएसु बेइदिय-तेइ दिएसु च समुप्पजमाणाणमेइ दियाण सखेजगुणवड्ढिणियमो वत्तबो । एवमुप्पजमाणासेसजीवरासिपमाण तसरासिस्स असखेज्जदिभागो, तसरासिं उवक्कमणकालेण खंडिदेयखडमेत्ताण चेव परत्थाणादो आगतूण तत्थुप्पज्जमाणाणमुवलमादो । तदो परत्याणरासिपाहम्मेण सिद्धमेदेसि असखेज्जगुणत्त । जयध० ५ एत्थ वि तसरासी चेव परत्थाणादो पविसतओ पहाण, सत्थाणे सखेज्जभागवडिढसकामयाण संखेज्जभागहाणिसंकामएहि सरिसाणमप्पहाणत्तादो । किंतु परत्थाणादो संखेज्जगुणवड्ढिपवेसएहितो सखे. ज्जभागवढिपवेसया बहुआ सखेज्जगुणहीणठिदिसतकम्मेण सह एइदिएहितो णिप्पिदमाणाण सखेज्जभागहाणिटिदिसतकम्मेण सह तत्तो णिप्पिदमाणे पेक्खिऊण सखेज्जगुणहीणत्तादो । ४४ तदो सखेज्जगुणत्तमेदेसिं ण विरुज्झदे । जयध० ६ कुदो; एइदियरासिस्सासखेजभागपमाणत्तादो । दुसमयाहियावठ्ठिदासंखेज्जमागहाणिकाल. समासेणतोमुहुत्तपमाणेणे हदियरासिमोवट्टिय दुगुणिदे पयदवढिसकामया होति ति सिद्धमेदेसिमणतगुणत्त । जयध० ७ कुदो एइंदियरासिस्स संखेजभागपमाणत्तादो । जयघ० ८ कुदो; अवठ्ठाणकालादो अप्पयरकालस्स संखेज्जगुणत्तादो । जयघ० Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] स्थितिसंक्रम-वृद्धि-अल्पबहुत्व-निरूपण ३४३ • २९६. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिसंकामया' । २९७. अवट्ठिदसंकामया असंखेज्जगुणा । २९८. असं खेज्जभागवड्डिसं कामया असंखेज्जगुण । २९९. असंखेज्जगुणवसिंकामया असंखेज्जगुणों । ३०० संखेज्जभागवड्डिसं कामया असंखेज्जगुणा' । ३०१. संखेज्जगुणवद्धिसंकामया संखेज्जगुण । ३०२ संखेज्जगुणहाणिसं कामया संखेज्जगुणा । ३०३ . संखेज्जभागहाणिसंकामया संखेज्जगुण । ३०४. अवत्तव्वसंकामया असंखेज्जगुणा' । ३०५. असंखेज्जभागहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा " । चूर्णिसू० - सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के असंख्यातगुणहानिसंक्रामक सबसे कम है । इनसे अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणित है । इनसे असंख्यात भागवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणित है । इनसे असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणित है । इनसे संख्यातभागवृद्धि-संक्रामक असंख्यातगुणित हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि संक्रामक संख्यातगुणित हैं । इनसे संख्यातगुणहानि - संक्रामक संख्यातगुणित हैं । इनसे संख्यातभागहानि-संक्रामक संख्यातगुणित हैं । इनसे अवक्तव्य-संक्रामक असंख्यातगुणित हैं । इनसे असंख्यात भागहानि-संक्रामक असंख्यातगुणित है ॥२९६- ३०५ ॥ विशेषार्थ - सूत्र नं० ३०३ की टीका करते हुए आ० वीरसेनने 'असंखेज्जगुणा' कहकर एक पाठान्तरका उल्लेख किया है, और उसका समाधान इस प्रकार किया है कि स्वस्थानकी अपेक्षा तो संख्यातगुणहानि - संक्रामको से संख्यात भागहानि - संक्रामक संख्यातगुणित ही हैं, किन्तु अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टियोकी अपेक्षा वे असंख्यातगुणित भी है । ऐसा कहकर उन्होने अपना यह अभिप्राय प्रगट किया है कि यह पाठान्तर ही यहाॅ प्रधानरूपसे स्वीकार करना चाहिए । १ कुदो; दसणमोहक्खवयस खेजजीवे मोत्तणण्णत्थ तदसभवादो । जयध० २ कुदो, पलिदोवमासंखेज्जभागपमाणत्तादो । ण चेदमसिद्ध; अवदिपाओग्गसमयुत्तरमिच्छत्तदिट्ठदिवियपेसु तेत्तियमेत्तजीवाण सभवदसणादो | जयघ० ३ त जहा - अवदसकमपाओग्गविसयादो असखेज्जभागवड्ढिपाओग्गविसओ असखेज्जगुणो; अवट्ठिदपाओग्गटिट्ठदिविसेसेसु पादेक्क पलिदोवमस्स सखेज्जदिभागमेत्ताण मस खेज्जभागवड्ढि वियप्पाणमुप्पत्तिदसणादो । तदो विसयबहुत्तादो सिद्धमेदेसिमस खेज्जगुणत्त । जयध० ४ सचयकालमाहप्पेणेदेसिमसखेज्जगुणत्त । जयघ० ५ किं कारण, पुव्विल्लविसयादो एदेसिं विसयस्स असखेज्जगुणत्तोवलभादो । जयध० ६ कारण - दोहमेदेसिं वेदगसम्मत्त पडिवज्जमाणरासीपहाणो । किंतु सखेज्जभागवड्ढिविसयादो वेदगसम्मत्त पडिवज्जमाणजीवेहिंतो सखेज्जगुणवड्ढि विसयादो वेदगसम्मत्त पडिवज्ज माणजीवा सचयकालमाहप्पेण सखेज्जगुणा जादा | जयघ ७ कुदो; तिष्णिवड्ढि अवट्ठाणेहिं गहियसम्मत्ताणमतोमुहुत्तसचिदाणं संखेज्जगुणहाणीए पाओग्गत्तदसणादो | जयघ ८ कारणमेत्थ सुगमं, मिच्छत्तप्पात्रहुअसुत्ते परुविदत्तादो | जयध० ९ कुदो; अद्धपोग्गलपरियडसचयादो पडिणियत्तिय णिस्संतकम्मियभावेण सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणमिहग्गहणादो । जयघ० १० पुविल्लासेससं कामया सम्मत्त सम्माच्छित्त- सतक म्मियाणमसंखेज्जदिभागो चेवः सव्वेसिमेय Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुडे सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार ३०६. सेसाणं कम्माणं सव्वत्थोवा अवतव्यसं कामया' । ३०७. असंखेज्जगुणहाणिसंकामया संखेज्जगुणा । ३०८. सेससंकामया मिच्छत्तभंगो । एवं ठिदिसंकमो समत्तो ३४४ 1 चूर्णिसू० - शेप पच्चीस कर्मोंके अवक्तव्य संक्रामक सबसे कम हैं । इनसे असंख्यात - गुणहानिसंक्रामक संख्यातगुणित है । इनसे शेव संक्रामकोका अल्पबहुत्व मिथ्यात्व - संक्रामक अल्पत्वके समान है ।। ३०६-३०८।। इस प्रकार स्थितिसंक्रमण अधिकार समाप्त हुआ । समयस चित्तन्भुवगमादो । एदे वुण तेसिमसखे अभागा, वेसागरोवमकालभतरे वेदयसम्माइट्रिट्ठरा सिसचयसदीहुकाल भंतर मिच्छाइटिसचयसहिदस्त पहाणत्तावलवणादो । तदो असखेज्जगुणा जादा | जयध० १ अनंताशुत्रीणं ताव पलिदोवमस्त संखेज्जभागमेत्ता उकस्सेणेयसमयम्मि अवत्तव्वसकमं कुणति । वारसकसाय - णवणोकसायाणं पुण सखेज्जा चेव उवसामया सव्वोवसामणादो परिवडिय अवत्तव्वसंकम कुणमाणा लम्मति त्ति सव्वत्थोत्तमेदेसिं जाद | जयध० २ अणताणुत्रधिविसंजोयणाए चरित्तमोहक्खवणाए च दूराव किट्टिप्पहुडि सखेज्जसहस्स ट्रिदिखदयचरमफाली व माणजीवाण मेयवि यप्प पडिवद्धावत्तव्त्रसंकामरहितो तहाभावसिद्धीए पाइयत्तादो । जयघ० Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभाग-संकमाहियारो १. अणुभागसंकमो दुविहो मूलपयडि-अणुभागसंकमो च उत्तरपयडि-अणुभागसंकमो च' । २. तत्थ अट्ठपदं । ३. अणुभागो ओकड्डिदो वि संकमो, उक्कडिदो वि संकमो, अण्णपयडिं णीदो वि संकमो । अनुभाग-संक्रमाधिकार अब गुणधराचार्यके मुख-कमलसे विनिर्गत 'संकामेदि कदि वा' गाथासूत्रके इस तृतीय चरणमें निबद्ध अनुभागसंक्रमणका विवरण किया जाता है। चूर्णिसू०-अनुभागसंक्रमण दो प्रकारका है-मूलप्रकृति-अनुभागसंक्रमण और उत्तरप्रकृति-अनुभागसंक्रमण । उनके विषयमे यह अर्थपद हैं-अपकर्षित भी अनुभागसंक्रमण होता है, उत्कर्षित भी अनुभागसंक्रमण होता है और अन्य प्रकृतिरूपसे परिणत भी अनुभागसंक्रमण होता है ॥१-३॥ विशेषार्थ-अनुभाग नाम कर्मों के स्वकार्योत्पादन या फल-प्रदान करनेकी शक्तिका है । उसके संक्रमण अर्थात् स्वभावान्तर करनेको अनुभागसंक्रमण कहते है। यह स्वभावान्तरावाप्ति तीन प्रकारसे की जा सकती है-फल देनेकी शक्तिको घटाकर, बढ़ाकर या पर प्रकृतिरूपसे परिवर्तित कर । इनमेंसे कर्मोकी आठो मूलप्रकृतियोके अनुभागमे पर प्रकृतिरूपसंक्रमण नहीं होता, केवल अनुभागशक्तिके घटानेरूप अपकर्षणसंक्रमण और बढ़ानेरूप उत्कपणसंक्रमण होता है। परन्तु उत्तरप्रकृतियोमे अपकर्षणसंक्रमण, उत्कर्पणसंक्रमण और परप्रकृतिसंक्रमण ये तीनो ही होते है । १ अणुभागो णाम कम्माण सगकज्जुप्पायणसत्ती। तस्स सकमो सहावतरसकती । सो अणुभागसकमा त्ति वुच्चइ Ixxx तत्थ मूलपयडिमोहणीयसणिदाए जो अणुभागो जीवम्मि मोहुप्पायणसत्तिलक्षणो तस्स ओकडडुक्कड्डणावसेण भावतरावत्ती मूलपयडिअणुभागसकमो णाम । उत्तरपयडीण च मिच्छत्तादीणमणुभागस्स ओकड्डुक्कड्डणपरपयडिसकमेहि जो सत्तिविपरिणामो सो उत्तरपयडिअणुभागसकमो त्ति भण्णदे । जयध० २ तत्थट्ठपयं उम्वट्टिया व ओवट्टिया व अविभागा। __ अणुभागसंकमो एस अन्नपगई णिया वावि ॥४६॥ कम्मप० अनु० सकम० ३ ओकडिदो ताव अणुभागो सकमववएस लहदे, अहियरसस्स कम्मक्खधस्स तस्स हीणरसत्तेण विपरिणामदसणादो; अवस्थादो अवस्थतरसकती सकमो त्ति । एवमुक्कडिदो अण्णपयडि णीदो वि सकमो, तत्थ वि पुत्वावत्यापरिच्चाएणुत्तरावत्थावत्तिदसणादो। xxx अण्णपयडिं णीदो वि अणुभागो सकमो त्ति एद तइज्जमठपदमुत्तरपयडिविसय चेव, मूलपयडीए तदसभवादो। जयध० Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ४. ओकड्डणाए परूवणा । ५. पडमफद्दयं ण ओकड्डिजदि । ६. विदियफद्दयं ण ओकड्डिज्जदि। ७ एवमणंताणि फद्दयाणि जहणिया अइच्छावणा, तत्तियाणि फद्दयाणि ण ओकड्डिज्जंति । ८. अण्णाणि अणंताणि फद्दयाणि जहण्णणिक्खेवमेत्ताणि च ण ओकड्डिज्जंति । ९. जहण्णओ णिक्खेवो जहणिया अइच्छावणा च तत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि आदीदो अधिच्छिदण तदित्थफद्दयमोकड्डिज्जई । १०. तेण परं सव्वाणि फद्दयाणि ओकड्डिजति । ११. एत्थ अप्पाबहुअं । १२. सव्वत्थोवाणि पदेसगुणहाणिहाणंतरफद्दयाणि । चूर्णिसू०-इनमेंसे पहले अपकर्पणा या अपवर्तनारूप संक्रमणकी प्ररूपणा की जाती है-प्रथम स्पर्धक अपकर्पित नहीं किया जा सकता । द्वितीय स्पर्धक अपकर्पित नहीं किया जा सकता । इस प्रकार अनन्त स्पर्धक अपकर्षित नहीं किये जा सकते, जिनका कि प्रमाण जघन्य अतिस्थापना जितना है। इसी प्रकार इनसे आगेके जघन्य निक्षेपमात्र अन्य अनन्त स्पर्धक भी अपकर्पित नहीं किये जा सकते । आदि स्पर्धकसे लेकर जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाका जितना प्रमाण है, उतने स्पर्धक अतिक्रान्त करके जो इष्ट स्पर्धक प्राप्त होता है, वह अपकर्पित किया जा सकता है और उससे परवर्ती सर्व स्पर्धक अपकर्पित किये जा सकते हैं ॥४-१०॥ विशेषार्थ-ऊपरके स्पर्धकोके अनुभागका अपकर्षण करके नीचे जिन स्पर्धकोमे उसे निक्षिप्त किया जाता है, उन्हे निक्षेप कहते हैं, और आदि स्पर्धकसे लेकर निक्षेपके प्रथम स्पर्धकके पूर्वतकके जिन स्पर्धकोके वह अपकर्पित अनुभागशक्ति निक्षिप्त नहीं की जाती और न जिनका अपकर्पण ही किया जा सकता है, उन्हे अतिस्थापना कहते हैं । चूर्णिसू०-यहॉपर जघन्यनिक्षेपादिविपयक अल्पवहुत्व इस प्रकार है-प्रदेशगुण१ कुदो; तत्थाइच्छावणाणिक्खेवाणमदसणादो । जयध० २ तत्थ वि अइच्छावणाणिक्खेवाभावस्स समाणत्तादो । जयध० ३ तस्साइच्छावणासभवे वि णिस्खेवविसयादसणादो। जयध० ४ अइच्छावणाणिक्खेवाणमेत्य सपुण्णत्तदसणादो। विवक्खियफद्दयादो हेट्ठा जहण्णा इच्छावणामेत्तमुल्लघिय हेलिमेसु फद्दएसु जहण्णणिक्खेवमेत्तेसु जहण्णफद्दय रज्जवसाणेसु तदित्थफद्दयोकड्डणासभवो त्ति भणिद होइ । जयध० ५ पदेसगुणहाणिठाणतर णाम किं ? जम्मि उद्देसे पहमफद्दयादिवग्गणा अवदिविसेसहाणीए गच्छमाणाए दुगुणहीणा जायदे, तदवहिपरिच्छिण्णमद्धाण गुणहाणिठाणतरमिदि भण्णदे । एदम्मि पदेसगुणहाणिठाणंतरे अणंताणि फद्दयाणि अभवसिद्धिएहितो अण तगुणमेत्ताणि अस्थि, ताणि सव्वत्थोवाणि त्ति भणिद होइ । जयध० ६ थोवं पएसगुणहाणिअंतरं दुसु जहन्ननिक्खेवो । कमसो अणतगुणिओ दुसु वि अइत्थावणा तुल्ला ॥८॥ वाघाएणणुभागकंडगमेकाइ वग्गणाऊणं । उकस्सो णिक्खेवो ससंतबंधो य सविसेसो ॥९॥ कम्मप० उद्वर्तनापवर्त० Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ गा० ५८ ] अनुभागसंक्रम-अर्थपद-निरूपण १३. जहण्णओ णिक्खेयो अणंतगुणो'। १४. जहणिया अइच्छावणा अणंतगुणा । १५. उक्कस्सयमणुभागकंडयमणंतगुणं । १६. उक्कस्सिया अइच्छावणा एगाए वग्गणाए ऊणिया । १७. उक्कस्सओ णिक्खेवो विसेसाहियो । १८. उकस्सओ वंधो विसेसाहिओं। १९. उक्कड्डणाए परूवणा। २०. चरिमफद्दयं ण उक्कड्डिजदि । २१. दुचहानिस्थानान्तर-सम्बन्धी स्पर्द्धक सबसे कम है। इनसे जघन्य निक्षेप अनन्तगुणित है । जघन्य निक्षेपसे जघन्य अतिस्थापना अनन्तगुणी है । जघन्य अतिस्थापनासे उत्कृष्ट अनुभागकांडक अनन्तगुणा है । उत्कृष्ट अनुभागकांडकसे उत्कृष्ट अतिस्थापना एक वर्गणासे कम है। अर्थात् उत्कृष्ट अतिस्थापनासे उत्कृष्ट अनुभागकांडक एक वर्गणामात्रसे अधिक है। उत्कृष्ट अनुभागकांडकसे उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है। उत्कृष्ट निक्षेपसे उत्कृष्ट बन्ध विशेष अधिक है ॥११-१८॥ विशेषार्थ-जिस स्थलपर प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणा अवस्थित विशेष हानिसे जाती हुई दुगुण-हीन हो जाती है, उस अवधि-परिच्छिन्न अध्वानको प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर कहते हैं । इस प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरमे अनन्त स्पर्धक होते है, जिनका कि प्रमाण अभव्योके प्रमाणसे भी अनन्तगुणा है। फिर भी वह आगे कहे गये जघन्य निक्षेपादिके प्रमाणकी अपेक्षा सबसे कम है। चूर्णिसू०-अब उत्कर्षणा या उद्वर्तनारूप संक्रमणकी प्ररूपणा की जाती हैअन्तिम स्पर्धक उत्कर्षित नहीं किया जा सकता। द्विचरमस्पर्धक भी उत्कर्षित नहीं किया १ कुदो ! तत्थाणताणमणुभागपदेसगुणहाणीण सभवादो । जयध० २ कुदो ? तत्तो वि अगतगुणाणि गुणहाणिठाणतराणि विसईकरिय पयत्तादो । जयध० ३ कुदो ? उक्कस्साणुभागसतकम्मरस अणताण भागाण उकस्साणुमागखडयसरूवेण गहणोवलं. भादो । जयध० ४ चरिमवग्गणपरिहोणुक्कस्साणुभागकडयपमाणत्तादो। त कध? उक्कस्साणुभागखडए आगाइदे दुचरिमादिहेमिफालोसु अतोमुहुत्तमेत्तीसु सव्वत्थ जण्णाइच्छावणा चेव पुवुत्तपरिमाणा होइ, तक्काले वाघादाभावादो। पुणो चरिमफालिपदणसमकाल चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए उकस्साइच्छावणा होइ, णिरुद्धचरिमवग्गण मोत्तूणाणुभागकडयस्सेव सव्वस्स तत्थाइच्छावणासरूवेण परिणमणदसणादो। एदेण कारणेण उक्कस्साइच्छावणा उकसाणुभागखडयादो एगवग्गणामेत्तेण ऊणि या होइ । त पि तत्तो एयवग्गणामेत्तेणभहियमिदि सिद्ध । जयघ० ५ उकस्साणुभाग बधियूणावलियादीदस्स चरिम कद्दयचरिमवग्गणाए ओकड्डिज्जमाणाए रूवाहियजहण्णाहच्छावणापरिहीणो सव्वो चेवाणुभागपत्थारो उक्कस्सणिक्खेवसरूवेण लभइ । तदो घादिदावसेसम्मि रूवाहियजहण्णाइच्छावणामेत्त सोहिय सुद्धसेसमेत्तण उक्तस्त्राणुमागकडयादो उक्कत्सणिक्खेवो विसेसाहियो त्ति घेत्तव्यो । जयध० ६ केत्तियमेत्तण १ रूवाहियजहण्णाइच्छावणामेत्तेण । जयध० ७ चरमं णोव्वट्टिजड जावाणंताणि फड्डगाणि तओ। ___ उस्मक्किय उक्कड्ढइ एवं ओवट्टणाईओ ॥७॥ कम्मप० उद्वर्तनापवर्त० ८ कुदो; उवरि अइच्छावणाणिखेवाणमसभवादो | जयध० Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार रिमफद्दयं पि ण उक्कड्डिजदि' । २२. एवमणंताणि फद्दयाणि ओसक्किऊण तं फद्दयमुक्कड्डिज्जदि । २३. सव्वत्थोवो जहण्णओ णिक्खेओं। २४. जहणिया अइच्छावणा अणंतगुणा । २५. उक्कस्सओ णिक्खेवो अणंतगुणो । २६. उक्कस्सओ बंधो विसेसाहिओ । २७. ओकड्डणादो उक्कड्डणादो च जहणिया अइच्छावणा तुल्ला । २८. जहण्णओ णिक्खेवो तुल्लो । २९. एदेण अट्ठपदेण मूलपयडिअणुभागसंकमो । ३०. तत्थ च तेवीसमणिओगदाराणि सण्णा जाव अप्पावहुए ति ( २३)। ३१. भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डि त्ति भाणिदव्यो । ३२. तदो उत्तरपयडिअणुभागसंकमं चउवीस-अणियोगद्दारेहि वत्तइस्सामों । जा सकता । इस प्रकार अनन्त स्पर्धक अपसरण करके अर्थात् जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण स्पर्धकोंको छोड़कर नीचे जो इष्ट स्पर्धक प्राप्त होता है, वह उत्कर्पित किया जाता है और इसके नीचेसे लगाकर जघन्य स्पर्धक-पर्यन्त जितने स्पर्धक हैं, उन सबकी उत्कर्षणा की जा सकती है ॥१९-२२॥ अब उत्कर्पणसंक्रमण-सम्बन्धी जघन्य निक्षेपादि पदोका अल्पबहुत्व कहते हैं चूर्णिसू०-उत्कर्षणसंक्रमण-विषयक जघन्य निक्षेप सबसे कम है । इससे जघन्य अतिस्थापना अनन्तगुणित है। इससे उत्कृष्ट निक्षेप अनन्तगुणित है। उत्कृष्ट निक्षेपसे उत्कृष्ट बन्ध विशेष अधिक है । अपकर्पण और उत्कर्पणकी अपेक्षा जघन्य अतिस्थापना तुल्य है । तथा जघन्य निक्षेप भी तुल्य है.॥२३-२८॥ चूर्णिसू०-इस उपरि-वर्णित अर्थपदके द्वारा मूलप्रकृति-अनुभागसंक्रमणका वर्णन करना चाहिए । उसके विषयमे संज्ञासे लेकर अल्पवहुत्व तक तेईस अनुयोगद्वार होते हैं । केवल एक सन्निकर्प संभव नहीं है। तथा चूलिकारूप भुजाकार पदनिक्षेप और वृद्धि इन तीन अनुयोगद्वारोको भी कहना चाहिए ॥२९-३१॥ चूर्णिव ०-अब उत्तरप्रकृति-अनुभागसंक्रमणको चौवीस अनुयोगद्वारोसे कहेगे ॥३२॥ १ एत्थ कारणमहच्छावणाणिक्खेवाणमसंभवो चेव वत्तव्यो । जयध० २ तत्थाइच्छावणाणिक्खेवाण पडिवुण्णत्तदंसणादो । जयध० ३ किंपमाणो एस जहण्णणिक्खेवो ? एयपदेसगुणहाणिठाणतरफहएहितो अणतगुणमेत्तो। जयध ४ ओकड्डणा जहण्याइच्छावणए समाणपरिमाणत्तादो । जयध० ५ मिच्छाइट्ठिणा उक्कस्साणुमागे वज्झमाणे जपणफदयादिवग्गणुक्कड्डणाए रूवाहियजहण्णा इच्छा वणापरिहीणुक्कस्साणुभागवधमेत्तु ककस्सणिक्खेबुर्टसणादो | जयध० ६ केत्तियमेत्तण ? रूवाहियजहण्णाइच्छावणामेत्तण । जयध० ७ एत्थ मूलपयडिविवक्खाए सणियाससभवाभावादो । जयघ० ८ काणि ताणि चउवीस अणिओगद्दाराणि ? सण्णा सव्वस कमो णोसव्वस कमो उक्कस्ससकमो अणुकस्ससकमो जहण्णसकमो अजहण्णसकमो सादियसंक्रमो अगादियसक्रमो धुवसकमो अदुवसंकमो एगजीवेण सामित्त कालो अंतर सगियासो णाणाजीवेहि भगविचओ भागाभागो परिमाणं खेत्त पोसणं कालो अतर भावो अप्याबहुअं चेदि | जयध० Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-घातिसंज्ञा-स्थानसंज्ञा-निरूपण ३४९ ३३. तत्थ पुव्वं गमणिज्जा धादिसण्णा च हाणसण्णा च । ३४. सम्मत्त-चदुसंजलणपुरिसवेदाणं मोत्तूण सेसाणं कम्माणमणुभागसंकमो णियमा सव्वघादी', वेट्टाणिओ वा तिहाणिओ वा चउहाणिओ वा । ३५. णवरि सम्मामिच्छत्तस्स वेढाणिओ चेव । ३६. विशेषार्थ-वे चौबीस अनुयोगद्वार इस प्रकार है-१ संज्ञा, २ सर्वसंक्रम, ३ नोसर्वसंक्रम, ४ उत्कृष्टसंक्रम, ५ अनुत्कृष्टसंक्रम, ६ जघन्यसंक्रम, ७ अजघन्यसंक्रम, ८ सादिसंक्रम, ९ अनादिसंक्रम, १० ध्रुवसंक्रम, ११ अध्रु वसंक्रम, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ काल, १४ अन्तर, १५ सन्निकर्ष, १६ नाना जीवोको अपेक्षा भंगविचय, १७ भागाभाग, १८, परिमाण, १९ क्षेत्र, २० स्पर्शन, २१ काल, २२ अन्तर, २३ भाव और २४ अल्पबहुत्व । इनका अर्थ अनुभागविभक्तिके अनुसार जानना चाहिए । चूर्णिसू०-इनमेसे पहले संज्ञा गवेषणीय है। संज्ञा दो प्रकारकी है घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा ॥३३॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्वादि कर्मोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि अनुभागसंक्रमण-सम्बन्धी स्पर्धकोमे देशघाती और सर्वघातीकी परीक्षा करनेको धातिसंज्ञा कहते है। तथा उन्हीं स्पर्धकोमे यथासंभव एकस्थानीय, द्विस्थानीय आदि भावोकी गवेषणा करनेको स्थानसंज्ञा कहते है। अब चूर्णिकार इन दोनों संज्ञाओका एक साथ निर्देश करते है चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति, चारो संज्वलनकषाय और पुरुषवेद, इन छह कर्मोंको छोड़कर शेष बाईस कर्मोंका अनुभागसंक्रमण नियमसे सर्वघाती, तथा द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होता है । केवल सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसंक्रमण द्विस्थानीय ही होता है ॥३४-३५॥ विशेपार्थ-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषाय और पुरुषवेदको छोड़कर शेष आठ नोकषायोका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रमण नियमसे सर्वघाती ही होता है। इनमे उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण चतुःस्थानीय ही होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण चतुःस्थानीय भी होता है, त्रिस्थानीय भी होता है और द्विस्थानीय भी होता १ सेसकम्माण मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-वारसकसाय अठ्ठणोकसायाणमणुभागसकमो उक्स्सो अणु किस्सो जहण्णो अजहण्णो च सम्बघादी चेव, देसघादिसरूवेण सव्वकालमेदेसिमणुभागसकमपवुत्तीए असभवादो। जयध० २ एयट्ठाणिओणस्थि, सव्वधादित्तणेण तस्स पडिसिद्धत्तादो। तत्थुक्कस्साणुभागसकमो चउठाणिओ चेव, तत्थ पयारतराणुवलभादो । अणुक्कस्साणुभागसकमो पुण च उट्ठाणिओ तिहाणिओ विठ्ठाणिओ वा, तिण्मेदेसिं भावाण तत्थ सभवादो। जहष्णाणुभागसकमो विट्ठाणिओ चेव, तत्थ पयार तरासंभवादो। अजहण्णाणुभागस कमो विट्ठाणिओ, तिट्ठाणिओ चउट्ठाणिओ वा, तिविहस्स वि मावस्स तत्थ सभवादो। जयध० ३ कुदो १ दारुअसमाणाण तिमभागे चेव सव्वघादित्तणेण तदणुभागस्स पजवसिदत्तादो। जयध० Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० कसाय पाटुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार अक्खवग-अणुवसामगस्स चदुसंजलण-पुरिसवेदाणमणुभागसंकमो मिच्छत्तभंगो'। ३७. खवगुवसामगाणमणुभागसंकमो सव्वघादी वा देसघादी वा, वेट्टाणिओ वा एयट्ठाणिओ वा' । ३८. सम्मत्तस्स अणुभागसंक्मो णियमा देसघादी । ३९. एयट्ठाणिओ वेढाणिओ वा। है । जघन्य अनुभागसंक्रमण द्विस्थानीय ही होता है। अजघन्य अनुभागसंक्रमण द्विस्थानीय भी होता है, त्रिस्थानीय भी होता हैं और चतुःस्थानीय भी होता है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य चारो ही प्रकारका अनुभागसंक्रमण द्विस्थानीय ही होता है। चूर्णिसू०-अक्षपक और अनुपशामक जीवके चारों संज्वलन और पुरुपवेदका अनुभागसंक्रमण मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए। क्षपक और उपशामक जीवोके कर्मोंका अनुभागसंक्रमण सर्वघाती भी होता है और देशघाती भी होता है । तथा वह द्विस्थानीय भी होता है और एकस्थानीय भी होता है ॥३६-३७॥ विशेषार्थ-उपशम या क्षपक श्रेणी चढ़नेके पूर्ववर्ती सातवें गुणस्थान तकके जीवोके चारो संज्वलन और पुरुपवेदका अनुभागसंक्रमण सर्वघाती तथा द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होता है। क्षपक और उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोके उक्त पाँची कोंका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण द्विस्थानीय और सर्वघाती ही होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण द्विस्थानीय भी होता है और एकस्थानीय भी होता है, तथा सर्वघाती भी होता है और देशघाती भी होता है। इनका जघन्यानुभागसंक्रमण देशघाती और एकस्थानीय होता है। अजधन्यानुभागसंक्रमण एकस्थानीय भी होता है और द्विस्थानीय भी होता है। तथा देशघाती भी होता है और सर्वघाती भी होता है। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभागसंक्रमण नियमसे देशघाती होता है। तथा वह एकस्थानीय भी होता है और द्विस्थानीय भी होता है ॥३८-३९॥ १ कुदो ? सव्वघादित्तणेण वि-ति चदुहाणियत्तणेण च भेदाभावादो | जयघ० २ त जहा-खवगोवसामगेसु एदेसिमुक्कस्साणुभागस कमो वेछाणिओ सव्वधादी चेय; अपुवकरणपवेसपढमसमए तदुवलभादो । अणुक्कस्साणुभागसंकमो वेवाणिओ एगट्ठाणिओ वा, सव्वघादी वा देसघादी वा । एगट्ठाणिओ कत्थोवलन्भदे ? खवगोवसमसेढीसु अतरकरण कादणेगाणियमणुभाग बंधमाणस्स सुद्धणवकबधसकमणावत्थाए किट्टीवेदगकालव्भतरे च । देसघादित्त च तत्थेव लव्भदे । जहण्णाणुभागस कमो एदेसिं देसघादी एयट्ठाणिओ च, जहासभवणवकबंधस्स किट्टीण चरिमसमयसकामणाए तदुवलभादो) अजहण्णाणुभागसकमो एयट्ठाणिओ वेठाणिओ वा देसघादी वा सव्वधादी वा, अणुकस्सस्सेव तदुवलभादो । जयध० ३ कुदो ? उक्कस्साणुकस्स जहण्णाजहण्णभेदाण सम्वेसिमेव देसघादित्तदसणादो | जयध० ४ तदुक्कस्साणुभागसंकम वेवाणिओ चेव तत्थ लदा-दारुअसमाणाणुभागाणं दोण्ह पिणियमेणीवलभादो । अणुक्कसो वेठ्ठाणिओ एयछाणिओ वा; दंसणमोहक्खवणाए अवस्सट्ठिदिसतकम्मप्पहुडि एयट्ठाणाणुभागदसणादो । हेटछा विठ्ठाणियणियमादो जहण्णाणुभागसंकमो णियमेणेयट्टाणिओ, समया त Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] अनुभाग संक्रम- स्वामित्व-निरूपण ३५१ ४०. सामित्तं । ४१. मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंकमो कस्स १ ४२. 'उकस्साणुभागं वंधिदूणावलियपडिभग्गस्स अण्णदरस्स । ४३. एवं सव्वकम्माणं । ४४. णवरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुकस्साणुभागसंकमो कस्स १४५. दंसणमोहणीयक्खवयं मोत्तृण जस्त संतकम्ममत्थि ति तस्स उकस्साणुभागसं कमी | ४६. तो जहण्णयं । ४७. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? चूर्णि सू ० - अब उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण के स्वामित्वको कहते है ॥ ४० ॥ शंका- मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ४१ ॥ समाधान - उत्कृष्ट अनुभागको बॉध करके आवलिप्रतिभग्न अर्थात् वन्धावली के परे अवस्थित किसी भी एक जीवके मिध्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण होता है ॥ ४२ ॥ विशेषार्थ - जिस जीवने तीव्र संक्लेश से मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागको बॉधा, बन्धावीके पश्चात् उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण पाया जाता है। ऐसा जीव कोई भी संज्ञी पंचेन्द्रिय उत्कृष्ट संक्लेश-युक्त मिथ्यादृष्टि होता है । यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंच और मनुष्यो में तथा देवोमे यह उत्कृष्ट अनुभाग संक्रमण नहीं पाया जाता । चूर्णिसू० - इसी प्रकार मिध्यात्वकर्म के समान सर्वक्रमका स्वामित्व जानना चाहिए | विशेषता केवल यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण किसके होता है ? दर्शनमोहनीयके क्षपण करनेवाले जीवको छोड़कर जिसके संक्रमण के योग्य सत्कर्म पाया जाता है, उसके उक्त दोनों कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमण होता है ॥४३-४५॥ चूर्णिसू० 10- अब इससे आगे जघन्य अनुभागसंक्रमणके स्वामित्वको कहते हैं ॥ ४६ ॥ हियावलियदंसणमोहक्खवयम्मि तदुवलभादो | अजहण्णाणुभागस्कमो एयट्ठाणिओ वेट्ठाणिओ वा; दुसमयाहियाव लियद सणमोहक्खवयप्प हुडि जावुक्कस्साणुभागोत्ति ताव अजहण्गवियप्पावठाणादो । जयध० १ उक्कोसगं पबंधिय आवलियमइच्छिऊण उक्कस्सं । जाव ण घारइ तयं संकमइ आमुहुत्तंता ॥५२॥ कम्म० अनु० स० २ आवलियपडिभग्ग मोत्तूण बघपढमसमए चेव सामित्त किण्ण दिज्जदे ? ण, अणइच्छाविय बधावलियम्स कम्मस्स ओकड्डुणादिसकमणाण पाओग्गत्ताभावादो । सो बुण मिच्छत्तुकस्साणुभागवधगो सण्णिप चिंदियपज्जत्तमिच्छाइट्ठि सव्वस किलिट्ठो । जइ एव; अण्णत्थुकस्साणुभागसकमो ण कयाइ लम्भदि त्ति आसकाए णिरायरणट्ठमण्णदर विसेसण कद, तदुक्कस्सब घेणाघादिदेण सह एइ दियादिसुप्पण्णस्स तदुवलभे विरोहाभावादो । णवरि असखेज्जवस्ताउअतिरिक्ख माणुसोववादियदेवेषु च ओधुक्कस्साणुभागस कमो ण भदे, तमघादेदूण तत्थुप्पत्तीए असभवादो । एदेण सम्माइट्ठीसु वि मिच्छत्तु कस्साणुभागसकमो पडिसिद्धो दव्वो । उकसाणुभाग बधिय आवलियपडिभग्गस्स कडयघादेण विणा सम्मत्त गुणग्गहणाणुववतदो । कथमेसो विसेसो सुत्तेणानुवइट्ठो णज्जदे १ ण, वक्खाणादो सुत्ततरादो ततजुत्तीए च तदुवलद्धीदो । जयध० ३ कुदो दसणमोहक्खवयादो अण्णत्थ तेसिमणुभागख इयघादाभावादो । जइ वि एत्थ सामण्णेण जस्स सतकम्ममत्थि त्ति वृत्त, तो वि पयरणवसेण सकमपाओग्गं जस्स संतकम्ममत्थि त्ति घेत्तव्व, अण्णहा उव्वेल्लणाए आवलियपविट्ठसतकम्मियस्स वि गइणप्पसगादो । जयध Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार २ ४८. सुहुमस' हदसमुप्पत्तिकम्मेण अण्णदरो। ४९. एइ दिओ वा वेई दिओ वा ते दिओ वा चउरिंदिओ वा पंचिदिओ वा । ५० एवमट्टणं कसायाणं । ५१. सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसं कामओ को होइ ? ५२. समयाहियावलिय- अक्खीणदंसणमोहणीओ । ५३. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होड़ १ ५४. चरिमाणुभागखंडय शंका- मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ४७ ॥ समाधान- सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके होता है । अथवा हतसमुत्पत्तिक कर्मसे उपलक्षित जो कोई एक एकेन्द्रिय, अथवा द्वीन्द्रिय अथवा त्रीन्द्रिय अथवा चतुरिन्द्रिय, अथवा पंचेन्द्रिय जीव है, वह मिध्यात्व के जघन्य अनुभागसंक्रमणका स्वामी है ॥४८-४९॥ विशेषार्थ - सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके मिथ्यात्व के अनुभागसत्त्वका जितना घात शक्य है, उतना घात करके अवस्थित जीवको हतसमुत्पत्तिक कर्मसे उपलक्षित ह है । मिथ्यात्वके इस प्रकार जघन्य अनुभागसत्त्वसे युक्त उक्त प्रकारका एकेन्द्रिय जीव भी जघन्य अनुभागसंक्रमण करता है, अथवा उतने ही अनुभागसत्त्ववाला द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तकका कोई भी जीव मिथ्यात्वका जवन्य अनुभागसंक्रमण कर सकता है । चूर्णिसू० - इसी प्रकार आठो मध्यम कपायोके जघन्य अनुभागसंक्रमणके स्वामित्वको जानना चाहिए ॥ ५० ॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसंक्रमण कौन करता है ? ॥ ५१ ॥ समाधान - जिसके दर्शनमोहनीयकर्मके क्षय करनेमे एक समय अधिक आवलीकाल अवशिष्ट है, ऐसा जीव सम्यक्त्वप्रकृतिके जघन्य अनुभागका संक्रमण करता है ॥५२॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन है ? ॥ ५३ ॥ समाधान - सम्यग्मिथ्यात्व के अन्तिम अनुभाग कांडकका संक्रमण करनेवाला जीव सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ॥ ५४ ॥ १ एत्थ सुमग्गहणेण सुहुमणिगोद - अपज्जत्तयस्स गहणं कायव्य, अण्णत्थ जहण्णाणुभागसकमुप्पत्तीए अदसणादो | XXX किं हदसमुप्पत्तिय णाम ? हते समुत्पत्तिर्यस्य तद्वतसमुत्पत्तिक कर्म, यावच्छक्य तावत्प्राप्तघातमित्यर्थः । त पुण सुहुमणिगोदापजत्तयस्स सव्युकस्स विसोहीए पत्तवाद जहण्णाणुभागसतक्म्म तदुकाणुभागवधादो अणतगुणहीण, तस्सेव जहण्णाणु भागवधादो अणतगुणभहिय तप्पा ओग्गजहण्णाणुक्कस्तवधट्ठाणेण समाणमिदि घेत्तव्त्र । जयध० २ सेसाण सुमहयसंतकम्मिगो तस्स हेटुओ जाब | वंधइ तावं एर्गिदिओ व गिंदिओ वा चि ॥५९॥ कम्म० अनुभागस० | ३ कुदो एस्स जहण्णभावो ! पत्तसव्युकस्सघादत्तादो अणुसमयोवट्टमाणाए अइजहण्णीकयत्तादो च । जयध० ४ दसणमोहक्खवणाए दुरिमा दिहे माणुमा गखडयाणि संकामिय पुणो सम्मामिच्छत्तचरिमाणुभागखइए वायदो जो सो पयद नहण्णसामिओ होइ; तत्तो हेट्ठा सम्मामिच्छत्तसब विनण्णाणुभाग संकमा वलभादो | जयध० * Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-स्वामित्व-निरूपण ३५३ संछुहमाणओ । ५५. अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ १ ५६. विसंजोएदूण पुणो तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेण संजोएदणावलियादीदो' । ५७. कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? ५८. चरिमाणुभागबंधस्स चरिमसमयअणिल्लेवणो। ५९. एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं। ६०. लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? ६१. समयाहियावलियचरिमसमयसकसाओ खवगो । ६२. इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? ६३. इत्थिवेदक्खवगो तस्सेव चरिमाणुभागखंडए वट्टमाणओ । ६४. ण,सयवेदस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? ६५. णवंसय शंका-अनन्तानुवन्धी चारो कषायोके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन है ? ॥५५॥ समाधान अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके पुनः तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामके द्वारा उसे संयोजित करके अर्थात् पुनः नवीन बंध करके एक आवलीकाल व्यतीत करनेवाला जीव अनन्तानुवन्धी कषायोके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ॥५६॥ शंका-संज्वलनक्रोधके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन है ? ॥५७॥ समाधान-क्रोधवेदक क्षपकका जो अन्तिम अनुभागवन्ध है, उसके अन्तिम समयका अनिर्लेपक जो जीव है, अर्थात् मानवेदककालके दो समय कम दो आवलियोके अन्तिम समयमें वर्तमान जो जीव है, वह संज्वलनक्रोधके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ॥५८॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार संज्वलनमान, संज्वलनमाया और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमणका स्वामित्व जानना चाहिए ।।५९।। शंका-संज्वलनलोभका जघन्य अनुभागसंक्रामक कौन है ? ॥६०॥ समाधान-एक समय अधिक आवलीके अन्तिम समयमे वर्तमान सकषाय क्षपक अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायसंयत संज्वलनलोभके जघन्य अनुभागका संक्रामक है ।।६१॥ शंका-स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन है ? ॥६२॥ समाधान-स्त्रीवेदका क्षपण करनेवाला स्त्रीवेदके ही अन्तिम अनुभागखंडमे वर्तमान जीव स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक है ।।६३॥ शंका-नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन है ? ॥६४॥ १ किमट्ठमेसो विसजोयणाए पुणो जोयणाए पयहाविदो ? विट्ठाणाणुभागसंतकम्म सव्व गालिय णवकबधाणुभागे जहण्णसामित्तविहाणछ । तत्थ वि असखेबलोगमेत्तपडिवादहाणेसु तप्पाओग्गजहष्णसकिलेसाणुविद्धपरिणामेण सजुत्तो त्ति जाणावण? तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेणेत्ति भणिद, मदसकिलेसिदाए चेव विसोहितेण विवक्खियत्तादो। २ कोहवेदयस्स खवयस्स जो अपच्छिमो अणुभागवधो सो चरिमाणुभागबधो णाम | सो वुण किट्टिसरूवो; कोहतदियकिट्टीवेदएण णिव्वत्तिदत्तादो । तस्स चरिमाणुभागवधस्स चरिमसमयअणिल्लेवगो त्ति भणिदे माणवेदगडाए दुसमयूणदोआवलियाण चरिमसमए वमाणओ घेत्तव्यो । जयध ३ कुदो एत्थ जण्णभावो ? ण, सुहुमकिट्टीए अणुसमयमणतगुणहाणिसरूवेण अतोमुहुत्तमेत्तकालमोवहिदाए तत्थ सुठ्ठ जण्णभावेण सकमुवलभादो । जयध० Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ कसाय. पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार वेदक्खवओ तरसेव चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणओ। ६६. छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? ६७. खवगो तेसिं चेव छण्णोकसायवेदणीयाणं चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणओ। ६८. एयजीवेण कालो । ६९. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? ७०. जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । ७१. अणुक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? ७२. जहण्णेण अंतोमुहुत्त । ७३. उक्कस्सेण अणंतकाल. मसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । ७४. एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । ७५. सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? ७६. जहण्णेण समाधान-नपुंसकवेदका क्षपण करनेवाला नपुंसक्वेदके ही अन्तिम अनुभागखंडमें वर्तमान जीव नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक है ।।६५॥ शंका-हास्यादि छह नोकषायोके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन है ? ॥६६॥ समाधान-उन्हीं हास्यादि छह नोकषायवेदनीयोंके अन्तिम अनुभागखंडमे वर्तमान क्षपक जीव छह नोकपायोंके जघन्य अनुभागका संक्रामक है ॥६७॥ चूर्णिसू०-अव एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग संक्रमणका काल कहते है ॥६८॥ शंका-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रमणका कितना काल है १ ॥६९।। समाधान-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥७॥ शंका-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥७१॥ समाधान-मिथ्यात्वके अनुकृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ।।७२-७३।। चूर्णिसू०-इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकपायोके अनुभागसंक्रमणका काल जानना चाहिए ॥७४॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥७५॥ १ जहण्णेण ताव उक्कस्साणुभाग बधिदूणावलियादीद सकामेमाणएण सव्वलहुमणुभागखडए धादिदे अतोमुहुत्तमेत्तो उक्करसाणुभागसकामयजहण्णकालो लदो होइ ! एत्तो सखेजगुणो उकस्सकालो होइ; उकस्साणुभाग बधिऊण खडयघादेण विणा सुछ बहुअ कालमच्छ तस्स वि अतोमुहुत्तादो उवरिमवठाणासभवादो। जयध० २ उक्कस्सागुभागसकमादो खडयघादवलेणाणुकत्समकामयत्तमुवण मय पुणो वि सव्वरहस्सेण कालेण उफरसाणुभागसकामयत्तमुवगयम्मि तदुवलभादो । जयध० ३ उक्कत्साणुभागसंकमादो खडयघादवसेणाणुकस्सभावमुवगयस्स एइदिय-वियलि दिएसु उकत्साणुभागबंधविरहिएसु असंखेजपोग्गलपरियट्टमेत्तकालमणुकसभावावहाणदसणादो । जयध० Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] अनुभाग संक्रम-काल-निरूपण अंतोमुहुत्तं । ७७. उकस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ७८. अणुक्कस्साभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ७९. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३५५ ८०. तो जीवेण कालो जहण्णओ ८१. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभाग संकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ८२. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ८३. अजहण्णाणुभागसं कामओ केवचिरं कालादो होदि ९ ८४. जहणेण अंतोमुहुत्तं । ८५ उक्कस्सेण असंखेजा लोगा । ८६. एवमडकसायाणं । ८७. सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ समाधान- इन दोनो कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ॥७६-७७॥ शंका- इन्ही दोनो कर्मोंके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥ ७८ ॥ समाधान - उक्त दोनो कर्मोंके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥७९॥ चूर्णिसू० - अब इससे आगे मिथ्यात्व आदि कर्मोंके अनुभागसंक्रमणका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल कहते है ॥ ८० ॥ शंका- मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥ ८१ ॥ समाधान-मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्तप्रमाण है ॥ ८२ ॥ शंका- मिथ्यात्व के अजघन्य अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥ ८३॥ समाधान-मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकके जितने प्रदेश हैं, उतने समय-प्रमाण है ॥ ८४-८५ ॥ चूर्णिसू० - इसी प्रकार आठ मध्यमकषायोके जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रमणका काल जानना चाहिए ॥ ८६ ॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके जघन्य अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥८७॥ १ तं जहा - एकोणिस्सत कम्मियमिच्छा इट्ठी पढमसम्मत्तं पडिवनिय सम्माइद्विपदमसमए मिच्छत्ताणुभाग सम्मत्तसम्मा मिच्छत्तसरूवेण परिणमाविय विदियसमयप्पहुडि तदुक्कस्साणुभाग सकामओ होदूण सव्व लहु दंसणमोहक्खवण पद्मविय पढमाणुभागखडयं घादिय अणुक्कस्साणुभागसकामओ जादो । लद्धो सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागस कामय जहण्ण कालो अतोमुहुत्तमेत्तो । जयध० २ त कथ १ एक्को णिस्सतकम्मियमिच्छा ही सम्मत्त घेत्तणुक्कस्साणुभागसकामओ जादो । तदो कमेण मिच्छत्त गतूण पलिदोवमस्स असखैजदिभागमेत्तमुनवेल्लणाएं परिणमिय पुन्य व सम्मत्त घेत्तूण विदियछावट्ठि परिभमिय तदवसाणे मिच्छत्त पडिवष्णो । सव्वुक्कस्सेणुव्वेल्लण कालेन सम्मत सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिदूण असकामगो जादो । लद्धो तीहि पलिदोवमस्स असखेज दिभागेहि अव्भहियवेछावद्रिसागरोवममेत्तोपयदुक्कस्सकालो | जयध० ३ एयवार हदसमुप्पत्तियपाओग्गपरिणामेण परिणदस्स पुणो सपरिणामेसु उकसावट्ठाण का असखेजलोगमेत्तो होइ । जयध० Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार केवचिरं कालादो होदि ? ८८, जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। ८९. अजहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ९०. जहणणेण अंतोमुहुत्त । ९१. उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ९२. एवं सम्मामिच्छत्तस्स । ९३. णवरि जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ९४. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहत्तं । ९५. अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ९६. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओं। ९७. अजहण्णाणुभागसंकामयस्स तिणि भंगा। ९८. तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो सो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ९९. उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियट्ट । १००. चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं समाधान-सम्यक्त्वप्रकृतिके जघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र है ।।८८॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥८९।। समाधान-सम्यक्त्वप्रकृतिके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ अविक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ॥९०-९१॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिके समान ही सम्यग्मिध्यात्वके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका काल जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है ॥९२-९४॥ शंका-अनन्तानुवन्धी कषायोके जघन्य अनुभागसंक्रमणका कितना काल है?॥९५॥ समाधान-अनन्तानुबन्धी कपायोके जघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र है ॥९६॥ चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धी कषायोके जघन्य अनुभागसंक्रमण-कालके तीन भंग है-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमे जो सादि-सान्त काल है, वह जघन्यकी अपेक्षा अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्टकी अपेक्षा उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥९७-९९॥ शंका-चारों संज्वलन और पुरुपवेदके जघन्य अनुभाग संक्रमणका कितना काल है ? ॥१०॥ १ कुदो, समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीय मोत्तूण पुव्वावरकोडीसु तदसभवणियमादो। जयध० २ णिस्सतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा सम्मत्त समुप्याइदे लद्धप्प महावस्स सम्मत्तजण्णाणुभागसमस्स सव्वलहु खवणाए जहण्णाणुभागस कमेण विणासिदतभावस्स तेत्तियमेत्तकालावट्टाणदसणादो । जयध° ३ दसणमोहक्खवयचरिमाणुभागखडए तदुवलभादो । जयध० ४ विसजोयणापुरस्सर जपणभावेण सजुत्तपढमसमयाणुभागवधसकमे लद्धजहण्णभावत्तादो । जयध° ५ कुदो; अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्त घेत्तणुवसमसम्मत्तकालभतरे चेय विसजोइय पुणो वि सव्वलहु सजुत्तो होदूण आदि करिय अद्धपोग्गलपरियट्ट परिभमिय तदवसाणे अतोमुहुत्तसेसे समार विसजोयणापरिणदम्मि तदुवलभादो । जयध० Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-अन्तर-निरूपण ३५७ कालादो होदि ? १०१. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । १०२. अजहण्णाणुभागसंकामओ अणंताणुबंधीणं भंगो । १०३. इत्थि-णqसयवेद-छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? १०४. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । १०५. अजहण्णाणुभागसंकामयस्स तिण्णि भंगा। १०६. तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो सो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १०७. उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । १०८. एत्तो एयजीवेण अंतरं । १०९. मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ११० जहणणेण अंतोमुहुत्तं । १११. उकस्सेण असंखेज्जा समाधान-उक्त पाँचो कर्मोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है ॥१०१॥ चूर्णिसू०-चारो संज्वलन और पुरुषवेदके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका काल अनन्तानुबन्धीकपायके समान जानना चाहिए ॥१०२॥ शंका-स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और हास्यादि छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमणका कितना काल है ? ॥१०३॥ समाधान-उक्त आठो नोकषायोके जघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥१०४॥ चूर्णिसू०-इन्हीं उक्त आठो नोकषायोके अजघन्य अनुभागसंक्रमणकालके तीन भंग हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमे जो सादि-सान्त काल है, वह जघन्यकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कृष्टकी अपेक्षा उपार्धपुद्गल-परिवर्तनप्रमाण है ॥१०५-१०७॥ चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामकोका अन्तरकाल कहते हैं ।।१०८॥ शंका-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥१०९॥ समाधान-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥११०-१११॥ १ कुदो, तिण्ह सजलणाण पुरिसवेदस्स च चरिमाणुभागबंधचरिमफालीए लोहसजलणस्स वि समयाहियावलियसकसायम्मि तदुवलद्धीदो । जयध० २ कुदो खवगचरिमाणुभागखडयम्मि अतोमुहुत्तुक्कीरणद्धापडिबद्धम्मि लद्धजहण्णभावत्तादो । जयध० ३ सम्वोवसामणादो परिवदिय सव्वजहण्णंतोमुहुत्तकालमजहण्ण सकामिय पुणो खवगसेढिं चढिय जहण्णभावेण परिणदम्मि तदुवलद्धीदो। जयध० ४ सव्वोवसामणादो परिवदिय अद्ध पोग्गलपरियट्ट परिभमिय तदवसाणे असकामयत्तमुवगयम्मि तदुवलभादो । जयध ५ तं जहा-उक्कस्सागुभागसकामओ अणुक्कस्सभाव गतूण जहण्णमतोमुहुत्तमतरिय पुणो वि उक्कस्साणुभागस्स पुव्व सकामओ जादो । लद्धमुक्करसाणुभागसकामयजहण्णतरमतोमुहुत्तमेत्त । जयध० ६ त कथ ? सण्णी पंचिदिओ उक्कस्साणुभाग बधिय सकामेमाणो कडयघादेण अणुकस्से णिवदिय एइदिएसु अणतकालमच्छिदूण पुणो सण्णिपचिंदियपजत्तएसुप्यजिय उक्कस्साणुभाग बधिदूण सकामओ जादो। तस्स लद्धमतर होइ । जयध० Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ कसाय पाहुडे सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार पोग्गल परियट्टा । ११२. अणुक्कस्साणुभाग संकामयंतरं केव चिरं कालादो होदि १११३. जहण्णुकरण अंतमुत्तं । ११४. एवं सोलसकसाय - णवणोकसायाणं । ११५. णवरि वारसकसाय - णवणोकसायाणमणुक्कस्साणुभागसं कामयं तरं जहण्णेण एयसमओ' । ११६. अणताणुबंधीणमणुक्कस्साणुभागसंकामयंतरं जहणणेण अंतोमुहुत्तं । ११७. उकस्सेण वे छावट्ठि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ११८. समत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक स्साणुभागसंकामयं तरं केवचिरं कालादो होदि १ ११९. जहण्णेणेयसमओ" । १२०. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गल परियॣ । E शंका- मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥ ११२ ॥ समाधान - मिध्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥११३॥ चूर्णिसू० - इसी प्रकार मिथ्यात्व के समान सोलह कषायो और नव नोकषायोंके अनुभाग संक्रमणका अन्तरकाल जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि बारह कपाय और नव नोकपायोके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। तथा अनन्तानुबन्धी कषायोके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ।। ११४- ११७ ॥ शंका- सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥११८॥ समाधान- उक्त दोनों प्रकृतियो के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल उपार्थ पुद्गलपरिवर्तन है ॥ ११९-१२०॥ १ त जहा - अणुकरससं कामओ उक्कत्स काऊणतोमुहुत्तकालं उक्कस्तमेव संकामिय पुणो खंडयघादेणाकस्ससंकामओ जादो । लद्धमतरं होई । णवरि जहण्णतरे इच्छिजमाणे सव्वल हुमेव कडयधादो करावेयव्वो । उक्कस्सतरे विवक्विए सव्वचिरेणतोमुहुत्तेण कडयघादो करावेयव्वो । जयघ० २ अप्पप्पणो सव्त्रोवसामणाए एयसमयमतरिय विदियसयए काल काऊण देवेसुरपण्णपढमसमए पुण वि सं कामयत्तमुवगयम्मि तदुवलभादो । जयध० ३ त कथं ? अणुक्कत्साणुभागं संकामेतो विसजोइय पुणो अतोमुहुत्तरेण सजुत्तो होदूण सकामगो जादो | लक्ष्मतर । जयध० ४ त कथ ? उवसमसम्मत्तकालम्भतरे अणताणुवधी विसजोएदूण वे छावडीओ भमिय मिच्छत्त तृणावलियादीदं सकामेमाणस्स लक्ष्मतरं । एत्थ सादिरेयपमाणमतोमुहुत्त । जयध० ५ त जहा सम्मत्तमुव्वेल्लमाणो उवसमसम्मत्ताहिमुह होऊणतरकरण परिसमानिय मिच्छत्तपढमटिचिरिममम्मि सम्मत्तवरिंमफालि संकामिय उवस मसम्मत्तग्गहणपढमसमए असकामओ होऊणतरिय पुणो विदियसमए उकस्साणुभागसकामओ जादो । लढमतरं । एव सम्मामिच्छत्तस्स वि जद्दण्णमतर परूवणा कार्यव्वा । जयघ० ६ त कथ ? अद्धपोग्गलपरियहादिसमए पढमसम्मत्त पडिवजिय सव्वलहु मिच्छत्त गतॄण सम्मतसम्मामिच्छत्ताणि उन्वेल्लिय अतरत्वादि काढूण उबड्डूपोग्गपरियह परिभमिय पुणो थोवावसेसे ससारे उच समसम्मत्त पडिवण्णो । विदियसमयम्मि संकामओ जादो । लद्धमुकस्सतरमुबड्ढयोग्गलपरियमेत्तं । जयघ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ गा०५८] अनुभागसंक्रम-अन्तर-निरूपण १२१. अणुकस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १२२. णत्थि अंतरं । १२३. एत्तो जहणणयंतरं । १२४. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ १२५. जहण्णेण अंतोनुहुत्त । १२६. उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। १२७, अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १२८. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । १२९. एवमट्टकसायाणं । १३०. णवरि अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १३१. जहण्णेण एयसमओं । १३२. सम्पत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १३३. पत्थि अंतरं । १३४. अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १३५. जहण्णेण एयसमओ। शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥१२१॥ समाधान-इन दोनो प्रकृतियोके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमणका अन्तर नहीं होता है ॥१२२॥ चूर्णिस०-अब इससे आगे अनुभागसंक्रमणका जघन्य अन्तर कहते है ॥२२३॥ शंका-मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥१२४॥ समाधान-मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है ॥१२५-१२६॥ शंका-मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ॥१२७॥ समाधान-मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है ॥१२८॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार मिथ्यात्वके समान आठों मध्यम कषायोके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि आठो मध्यम कषायोंके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है ॥१२९-१३१॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥१३२॥ समाधान-इन दोनो प्रकृतियोके जघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तर नहीं होता॥१३३॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तर १ त कथ १ जहा-सुहुमेइदियहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागसकमादो अजहण्णभाव गतूण पुणो वि अंतोमूहुत्तेण धादिय सव्वजण्णाणुभागसंकामओ जादो । लद्धमतर होइ । जयध० २ त कथं ? जहण्णाणुभागसकामओ अजहण्णभाव गतूण तप्पाओग्गपरिणामछाणेसु असखेजलोगमेत्त काल गमिय पुणो हदसमुप्पत्तियपाओग्गपरिणामेण जहण्णभावमुवगओ। तस्स लद्धमतर होइ । जयध० ३ सम्वोवसामणाए अतरिदस्स तदुवलभादो । जयध० । ४ कुदो, खवणाए जादजहण्णाणुभागसकामयस्स पुणरुभवाभावादो। जयध० maran Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ___ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार १३६. उकस्सेण उवड्पोग्गलपरियट्ट । १३७,अणंताणुवंधीणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १३८. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १३९. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । १४०. अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ १४१. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १४२. उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । १४३. सेसाणं कम्माणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? । १४४. पत्थि अंतरं । १४५. अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? काल कितना है ? ॥१३४॥ समाधान-उक्त दोनो प्रकृतियोके अजघन्य अनुभागसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन है ।।१३५-१३६।। शंका-अनन्तानुवन्धी कषायोके जघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥१३७।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन है ॥१३८-१३९।। शंका-अनन्तानुबन्धी कपायोके अजघन्य अनुभागके संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ।।१४०॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ।।१४१-१४२॥ शंका-शेष चार संज्वलन और नव नोकपाय, इन तेरह कर्मोंके जघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ।।१४३।। समाधान-उक्त तेरह कर्मोंके जघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तर नहीं होता है ।।१४४॥ शंका-उन्ही तेरह कर्मों के अजघन्य अनुभागसंक्रमणका अन्तर काल कितना है ? ॥१४५।। १ तं जहा-अणताणुवधीण सजुत्तपढमसमयणवकवधमावलियादीद जहण्णभावेण सकामिय तत्तो विदिया दिसमएसु अजहण्णभावेण तरिय पुणो वि सवलहुएण कालेण विसजोयणापुन तप्पाओग्गजहणपरिणामेण सजुत्तो होऊणावलियादिक्कतो जहण्णाणुभागसंकामओ जादो । लद्धमतर होइ । जयध २ तं जहा-पुन्बुत्तेणेव विहिणा आदि कादूणतरिय उवढपोग्गलपरियह परिभमिय थोवावसेसे सिल्झिदव्बए त्ति सम्मत्त पडिवजिय अणंताणुव धिविसजोयणा पुरस्सरं परिणामपचएण सजुत्तो होऊण आवलियादिक्कतो जहण्णाणुभागसकामओ जादो । लद्धमुक्कस्सतर होइ । जयध० ३ उवसमसम्मत्तकालभतरे चेय अणंताणुव धिचउक्कं विसजोइय वेदयसम्मत्त घेत्तूण वे छावट्टि सागरोवमाणि परिभमिय तदवसाणे मिच्छत्त गतूणावलियादीदं सकामेमाणस लद्ध मुक्कत्समंतर होइ । एत्य सादिरेयपमाणमतोमुहुत्त । जयघ ४ कुदो खवणाए जादजहण्णाणुभागत्तादो । जयध० Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] अनुभाग संक्रम- सन्निकर्ष-निरूपण १४६. जहणेण एयसमओ । १४७. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १४८. सणियासो । १४९. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागं संकायेंतो सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं जड़ संकामओ णियमा उक्कस्तयं संकामेदि । १५०. सेसाणं कम्माणं उक्कसं वा अणुक्कसं वा संकामेदि । १५१. उक्कस्सादो अणुक्कस्सं छड्डाणपदिदं । १५२. एवं सेसाणं कम्माणं णादूण दव्वं । ३६१ १५३. [जहण्णओ] सष्णियासो । १५४. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागं संकामें तो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जइ संकामओ णियमा अजहण्णाणुभागं संकामेदि । १५५. समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।।१४६-१४७॥ चूर्णिसू० ०-अब उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रमण करनेवाले जीवोका सन्निकर्ष कहते हैमिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रमण करनेवाला जीव यदि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण करता है, तो नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रमण करता है और शेष कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रमण करता है, अथवा अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रमण करता है । शेष कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रमणसे अनुत्कृष्ट अनुभाग-संक्रमण षट्स्थानपतित हानिरूप होता है । जिस प्रकार मिथ्यात्व के साथ शेष कर्मोंके सन्निकर्ष का विधान किया गया है, उसी प्रकार शेष कर्मोंको भी पृथक् पृथक् निरूपण करके उत्कृष्ट अनुभागका सन्निकर्प लगा लेना चाहिए ।। १४८-१५२॥ चूर्णिस् ० - जव जघन्य अनुभाग-संक्रमण करनेवाले जीवोंका सन्निकर्ष कहते है - मिध्यात्वके जधन्य अनुभागका संक्रमण करनेवाला जीव यदि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण करता है, तो नियमसे अजघन्य अनुभागका संक्रमण करता है । १ सव्वोवसामणाए एयसमयमतरिय विदियसमए काल काढूण देवेसुप्पण्णपढमसमए सकामयत्तमुवगयम्मि तदुवलभादो | जयध० २ सव्वोवसामणा सव्वचिरकाल्मतरिय पडिवादवसेण पुणो सकामयत्तमुवगयस्स पयदतर समागोवलभादो । जयध० १३ मिच्छत्तुकस्साणुभाग सकामओ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सिया सतकम्मिओ, सिया असतकम्मिओ । सतकम्मिओ वि सिया सकामओ, आवलियपविट्ठसत कम्मियस्स वि सभवोवलभादो । जब सकामओ, णियमा सो उक्कस्सं सकामेह, दसणमोहक्खत्रणादो अण्णत्थ तदणुक्कस्तभावाणुप्पत्तीदो । जयध ४ कुदो, मिच्छन्तु कस्सा णुभागस कामयम्मि सोलसक साय णत्रणोकसायाणमुक्कस्साणुभागस्स तत्तो छट्ठाणहीणाणुभागस्स वि विसेसपच्चयवसेण समव पडि विरोहाभावादो । जयध ० ५ किं कारणं ? णिरुद्धमिच्छत्तुकस्साणुभाग सकामयम्मि विवक्खियपयडीणमणुभागस्स छट्ठाण - हासिभव पsि विप्पडिसेहाभावादो । जयध० ६ कुदो, मिच्छत्तज इण्णाणुभागस कामय सुहुमेह दियहदसमुप्पत्तियसं तकम्मियम्मि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागस कमस्सेव सभवदसणादो | जयध० ४६ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ कसाय पाहुड सुत्त ३ [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार जहण्णादो अजहण्णमणंत गुणव्भहिये । १५६. अट्टहं कम्माणं जहणं वा अजहणं चा संकामेदि । १५७, जहण्णादो अजहण्णं छट्टाणपदिदं । १५८. सेसाणं कम्माणं णियमा अजहणं । १५९. जहण्णादो अजहष्णमणंतगुणन्महियं । १६० एवमदुकसायाणं । १६१. सम्मत्तस्स जहणाणुभागं संकार्मेतो मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त-अनंताणुबंधी मकम्मसि । १६२. सेसाणं कम्माणं णियमा अजहणणं संकामेदि । १६३. जहण्णादो अजहण्णमणंतगुणन्भहियं । १६४. एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि । णवरि सम्मत्तं मिध्यात्वके जघन्य अनुभाग-संक्रमणसे अजघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणा अधिक होता है । मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागका संक्रमण करनेवाला जीव आठ मध्यम कपायरूप कर्मों के जघन्य अनुभागका भी संक्रमण करता है और अजघन्य अनुभागका भी संक्रमण करता । यह जघन्य अनुभागसे अजघन्य अनुभाग-संक्रमण पट-स्थान - पतित वृद्धिरूप होता है । अर्थात् कहीपर जघन्य अनुभागसे अनन्तभाग अधिक, कहींपर असंख्यातभाग अधिक, कहीं पर संख्यात्तभाग अधिक, कहींपर संख्यातगुण अधिक, कहीं पर असंख्यातगुण अधिक और कहीपर अनन्तगुण अधिक जघन्य अनुभागका संक्रमण करता है । मिध्यात्वके जघन्य अनुभागका संक्रमण करनेवाला शेप कर्मों के अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रमण करता है । यह जघन्य अनुभागसंक्रमणसे अजघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार मिध्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणके समान आठ मध्यम कपायोके जघन्य अनुभागसंक्रमणका सन्निकर्ष जानना चाहिए ।। १५३-१६०।। W चूर्णिसू० - सम्यक्त्वप्रकृति के जघन्य अनुभागका संक्रमण करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी कपायोकी सत्ता से रहित होता है । सम्यक्त्वप्रकृति के जघन्य अनुभागका संक्रमण करनेवाला जीव शेष वारह कपाय और नव नोकपाय, इन उन्नीस कर्मों के अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रमण करता है । यह जघन्य अनुभागसंक्रमणसे अजघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके जवन्यानुभागसंक्रमणका भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि १ कुदो, मिच्छत्तेण समाणसामियत्ते वि विसेसपच्चय वसे णेदे सिमणुभागस्स तत्थ जद्दण्णाजण्णभावसिद्धीए विरोहाभावादो । जयध० २ एत्थ छाणपदिदमिदि वुत्त े कत्थ वि जहण्णादो अणतभागन्महिय, कत्थवि असखेजभागमहिय, कत्थवि सखेजभागव्भद्दियं, कत्थ वि सखेजगुणव्भहिय, कत्थ वि असखेजगुणभहिय अणतगुणमहियं च जहणाणुभाग सकामेदित्ति घेत्तव्व; अतरगपञ्चयवसेण जहणभावपाओग्गविसए विपयदवियप्पाणमुप्पत्तीए पडिवधाभावादो । जयघ० ३ कुदो; एदेसिमविणा से सम्मत्तजहण्णागुभागसकमुप्पत्तीए विपडिसिद्धत्तादो | जयध० ४ कुदो, सुमहदसमुप्पत्तियकम्मेण चरित्तमोहक्खवणाए च लढजण्णभावार्ण तेसिमेत्थ जहणभावाभादो | जयध० ५ कुदो; अठकसायागं हदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागादो सेसक साय णोकसायाण पिसत्रणाए जणिदजहष्णागुभागसक्रमादो एत्थतगतदणुभागसमस्त तहाभावसिद्धीए विप्पडिसेद्दाभावादो | जयध० Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-भंगविचय-निरूपण ३६३ विज्जमाणेहि भणियव्वं । १६५. पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागं संकामेंतो चदुण्हं कसायाणं णियमा अजहण्णमणंतगुणब्भहियं । १६६. कोधादितिए उवरिल्लाणं संकामओ णियमा अजहण्णमणंतगुणब्भहियं । १६७. लोहसंजलणे णिरुद्धे णस्थि सण्णियासो। . १६८. गाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-उक्कस्सपदभंगविचओ जहण्णपदभंगविचओ च । १६९ तेसिमट्ठपदं काऊण । १७०. मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा उक्कस्साणुभागस्स असंकामयाँ। १७१. सिया असंकामया च संकामओ च । १७२. सिया यहॉपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी विद्यमानताके साथ सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमणका सन्निकर्ष कहना चाहिए । पुरुषवेदके जघन्य अनुभागका संक्रमण करनेवाला जीव चारो संज्वलन कषायोके अनन्तगुण अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रमण करता है। संज्वलन क्रोधादित्रिकके जघन्य अनुभागका संक्रमण करनेवाला जीव उपरितन कपायोके अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है। संज्वलन लोभके निरुद्ध करनेपर सन्निकर्ष नहीं है ।।१६१-१६७।। चूर्णिसू०-नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है-उत्कृष्टपदभंगविचय और जघन्यपदभंगविचय । इन दोनोके अर्थपदको कहकर उन दोनोकी प्ररूपणा करना चाहिए ।।१६८-१६९॥ विशेषार्थ-वह अर्थपद इस प्रकार है-जो जीव उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक होते हैं, वे अनुत्कृष्ट अनुभागके असंक्रामक होते है और जो अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक होते है, वे उत्कृष्ट अनुभागके असंक्रामक होते है। इसी प्रकार जघन्य-अजघन्य अनुभागसंक्रामकोका भंगविचय-सम्बन्धी अर्थपद जानना चाहिए। चूर्णिसू०-सभी जीव मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके असंक्रामक होते हैं। कदाचित् अनेक जीव असंक्रामक होते हैं और कोई एक जीव संक्रामक होता है। कदाचित् अनेक १ तेसिं पुण अजहण्णाणुभागमणतगुणब्भहिय चेव सकामेदि, उवरि किट्टीपनाएण लद्धजहष्णभावाणमेत्थ तदविरोहादो । जयध० २ कोधादितिगे सजलणसण्णिदे णिरुद्धे हेछिल्लाण णत्थि सणियासो, असतकम्मिए तविरोहादो। उवरिल्लाणमत्थि, कोहसजलणे णिरुद्धे माण-माया लोहसजलणाण, माणसजलणे णिरुद्ध माया-लोहसजलणाण, मायासजलणे णिरुद्धे लोहसजलणस्त सकमस भवोवलभादो । जयध० ____३ किं तमट्ठपद ? वुच्चदे-जे उक्कस्साणुभागसकामया ते अणुक्कस्साणुभागस्स अस कामया, जे अणुक्कस्साणुभागसकामया ते उक्कस्साणुभागस्स असकामया। कुदो ? जेसिं सतकम्ममस्थि तेसु पयद; अकम्मेहि अव्यवहारो । जयध० ४ कुदो; मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसकामयाणमधुवभावित्तादो । जयध ५ कुदो, सव्वजीवाणमुक्कस्साणुभागस्स असकामयाण मज्झे कदाइमेयजीवस्स तदुक्कस्साणुभागसकामयत्तण परिणदस्सुवलभादो । जयध० * ताम्रपत्रबाली प्रतिमें इस सूत्रको ऊपरके सूत्रकी टीकामें सम्मिलित कर दिया है । ( देखो पृ० ११४२ पंक्ति ४) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ __ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार असंकामया च संकामया च 1 १७३. एवं सेसाणं कम्माणं। १७४. णवरि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं संकामगा-पुत्वं ति भाणिदव्वं । १७५. जहण्णाणुभागसंकमभंगविचओ। १७६. मिच्छत्त-अहकसायाणं जहण्णाणुभागस्स संकामया च असंकामया च । १७७. सेसाणं कम्माणं जहण्णाणुभागस्स सव्वे जीवा सिया असंकामयाँ। १७८. सिया असंकामया च संकामओ च । १७९. सिया असंकामया च संकामया च । १८०. णाणाजीवेहि कालो । १८१. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? १८२. जहणणेण अंतोमुहुत्तं । १८३. उक्क स्सेण पलिदोवमस्स जीव असंक्रामक और अनेक संक्रामक होते है। जिस प्रकार यह मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकोका भंगविचय किया है, उसी प्रकारसे शेप कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकोका भंगविचय जानना चाहिए। विशेपता केवल यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामकोके भंग संक्रामक-पदपूर्वक कहना चाहिए ।।१७०-१७४।। चूर्णिमू०-अव जघन्य अनुभागसंक्रामकोका भंगविचय कहते है । मिथ्यात्व और आठ मध्यम कपायोंके जघन्य अनुभागके अनेक जीव संक्रामक भी होते हैं और अनेक जीव असंक्रामक भी होते हैं शेष कोंके जघन्य अनुभागके सर्व जीव कदाचित् असंक्रामक होते है । कदाचित् अनेक असंक्रामक और कोई एक जीव संक्रामक भी होता है । कदाचित् अनेक असंक्रामक और अनेक संक्रामक भी होते है ।।१७५-१७९।। चूर्णिसू ० --अब नाना जीवोकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकोका काल कहते हैं ॥१८०॥ शंका-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीवाका कितना काल है? ॥१८१।। समाधान-जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवॉ भाग है ।।१८२-१८३।। १ कदाइमुक्कस्साणुभागस्सासकामयसव्वजीवाण मज्झे केत्तियाण पि जीवाणमुक्कस्साणुभागसंका मयभावेण परिणदाणमुवलभादो | जयध० २ त जहा-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागस्त सिया सव्वे जीवा सकामया १, सिया एदे च असंकामओ च २, सिया एटे च असंकामया च ३। एवमणुककस्सागुभागसंकामयाण पि विवजासेण तिण्ह भगाणमालावो कायन्बो त्ति एस विसेसो सुत्तेणेदेण जाणाविदो । जयध० ३ कुदो एवं; सुहुमेइदियहदसमुप्पत्तियकम्मेण लद्धजहण्णभावाणमेदेसि तदविरोहादो | जयध ० ४ कुदो; दसण-चरित्तमोहक्खवयाणमणताणुवाधिसजोइयाण च सम्बद्धमणुवलभादो । जयध० ५ कुदो असंकामयाण धुवभावेण कदाइमेयजीवत्स जहण्णभावपरिणदत्स परिप्फुडमुवलभादो । जयध० ६ कुदो; असकामयाणं धुवमावेण केत्तियाणं पि जीवाण जहण्णाणुभागमकामयभावपरिणदाणमुवलभादो । जथध० ७ तं कथ १ सत्तट्ठ जणा बहुगा वा वधुकरसाणुभागा सयजहणमतोमुत्तमेन कालं संकामया होदूण पुणो कंडयघादवसेणाणुकसभावमुरगया । लद्धो सुत्तुठ्जिदण्णकालो । जपध Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-काल-निरूपण असंखेज्जदिभागो' । १८४. अणुक्कस्साणुभागसंकामया सव्वद्धा । १८५. एवं सेसाणं कम्माणं । १८६. गवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकामया सव्वद्धा । १८७. अणुक्कस्साणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ? १८८. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । १८९. एत्तो जहण्णकालो।१९० मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? १९१. सव्वद्धा। १९२. सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? १९३. जहण्णेणेयसमा । १९४. उक्कस्सेण संखेज्जा समयाँ । १९५.सम्मामिच्छत्त-अट्ठणोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामया चूर्णिम् ०-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामक सर्वकाल पाये जाते है। इसी प्रकार शेष कर्मों के अनुभागसंक्रामकोका काल जानना चाहिए। विशेपता केवल यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक सर्वकाल होते है ॥१८४-१८६॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामक जीवोका कितना काल है ? ॥१८७।। समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।। १८८।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्य अनुभागसंक्रमण करनेवालोंका काल कहते हैं ॥१८९॥ शंका-मिथ्यात्व और आठ मध्यम कपायोके जघन्य अनुभागसंक्रामकोका कितना काल है १ ।।१९०॥ समाधान-सर्व काल है ॥१९१॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति, चारो संज्वलन और पुरुपवेदके जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका कितना काल है १ ॥१९२।। समाधान-जघन्यकाल एक समय , और . उत्कृष्टकाल संख्यात समय है ॥१९३-१९४॥ १ त जहा-एयजीवस्सुक्कस्साणुभागसकमकालमतोमुहुत्तपमाण ठविय तप्पाओग्गपलिदोवमासखेजभागमेत्ततदणुसधाणवारसलागाहि गुणेयव्व । तदो पयदुक्कस्सकालपमाणमुप्पजदि । जयध० २ कुदो; सव्वकालमविच्छिण्णपवाहसरूवेणेदेसिमबाणदसणादो । जयध० ३ कुदो; सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसकामयवेदगसम्माइट्ठीणमुब्वेल्लमाणमिच्छाइट्ठीण च पवाहवोच्छेदाणुवलभादो | जयध० ४ दसणमोहक्खवणादो अण्णत्थ तदणुवलभादो | जयध० ५ कुदो; सुहुमेइ दियजीवाण हदसमुप्पत्तियजहण्णसतकम्मपरिणदाण तिसु वि कालेसु वोच्छेदाणुवलभादो । जयध० ६ कुदो, सम्मत्तस्स समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीयम्मि लोभसजलणस्स समयाहियावलियसकसायम्मि सेसाण अप्पप्पणो णवकबधचरिमफालिसंकमणावत्याए जहण्णभावाणमेयममयोवलद्धीए बाहाणुवलभादो। जयध० ७ कुदो, संखेजवारमणुसंधाणवसेण तदुवलभादो । जयध० Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ कलाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार केवचिरं कालादो होंति ? १९६. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्त' । १९७. अणंताणुवंधीणं जहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ? १९८. जहण्णेण एयसमओ। १९९. उकस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागों । २००. एदेसि कम्माणमजहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ? २०१. सव्वद्धा। २०२. णाणाजीवेहि अंतरं । २०३. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २०४. जहण्णेणेयसमओ । २०५. उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। २०६. अणुकस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २०७. शंका-सम्यग्मिथ्यात्व और आठ नोकपायोके जघन्य अनुभागसंक्रामकोका कितना काल ? ॥१९५॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥१९६।। शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोके जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका कितना काल है ? ।।१९७।। समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ॥१९८-१९९।। शंका-इन उपयुक्त सर्व कर्मोंके अजघन्य अनुभाग-संक्रामक जीवोका कितना काल है ? ॥२०॥ समाधान-उक्त सर्व कर्मोंके अजघन्य अनुभागके संक्रामक जीव सर्वकाल पाये जाते हैं ॥२०१।। चूर्णिसू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोका अन्तर कहते है ।।२०२॥ शंका-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२०३॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल असंख्यात लोकके समयप्रमाण है ॥२०४-२०५॥ शंका-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२०६॥ १ जपणेण ताव तेसिमप्पप्पणो चरिमाणुभागखंडयकालो घेत्तव्यो । उकस्सेण सो चेव छायादिट्टतेण लद्धाणुसधाणो घेत्तन्बो | जयध० २ कुदो, विसजोयणापुबसंजोगपढमसमए जहण्णपरिणामेण बद्धजपणाणुभागमावलियादीदमेयसमय सकामिय विदियसमए अजहण्णभावपरिणदणाणाजीवेसु तदुवलमादो । जयध० ३ कुदो; आवलियाए असखेत्रदिभागमेत्ताणचेव गिरतरोवक्कमणवाराणमेत्थ सभवदसणादो । जयघ० ४ तं जहा-मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसंकामयणाणाजीवाण पवाहविच्छेदवसेणेयसमयमतरिदाण विदियसमए पुणरुमवो दिलो । लद्धमतर जहण्णेणेयसमयमेत्त । जयध ५ कुदो; उकस्साशुभागवधेण विणा सयजीवाणमेत्तियमेत्तकालमवठ्ठाणसमपादो। जयध० Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] अनुभाग संक्रम अन्तर - निरूपण णत्थि अंतरं । २०८. एवं सेसाणं कम्माणं । २०९. णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसं कामयं तरं केवचिरं कालादो होदि ? २१०. णत्थि अंतरं । २११. अणुक्कस्साणुभागसं कामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १ २१२. जण्णेण एयसमओ' । २१३. उकस्सेण छम्मासा । २१४ एतो जहण्णयंतरं । २१५ मिच्छत्तस्स अट्ठकसायस्स जहण्णाणुभागसंकामयाणं केवचिरं अंतरं ? २१६. णत्थि अंतरं । २१७. सम्मत्त सम्मामिच्छत्तचदुसंजल-गवणोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १२१८. जहणेण एयसमओ । २१९. उक्कस्सेण छम्मासा । २२०. णवरि तिष्णिसंजलणपुरिसवेदाणमुकस्से वासं सादिरेयं । २२१. बुंसयवेदस्त जहष्णाणुभागसंकामयंतरशंका- मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामकोका कभी अन्तर नहीं होता है ॥२०७॥ चूर्णिसू० - इसी प्रकार मिध्यात्वके समान शेप कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामको का अन्तर जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रमकोका अन्तरकाल कितना है ? इन दोनो कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामकोका कभी अन्तर नही होता ।। २०८-२१० ।। शंका- इन्ही दोनो कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ॥ २११ समाधान - जघन्य अन्तरकाल एकसमय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है ॥२१२-२१३॥ ३६७ ० चूर्णिसू ● - अब इससे आगे जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका अन्तर कहते है || २१४ ॥ शंका- मिथ्यात्व और आठ मध्यम कपायोके जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका अन्तर काल कितना है ? ।।२१५॥ समाधान-इन कर्मोंके जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका कभी अन्तर नही होता ।। २१६ ॥ शंका- सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिध्यात्व, चारो संज्वलन और नव नोकपायोके जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२१७॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है । विशेषता केवल यह है कि अन्तिम तीन संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य अनुभाग-संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक एक वर्ष है । नपुंसक वेदके जघन्य अनुभाग संक्रामकोका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्ष है ॥ २१८-२२१॥ १ कुदो; णाणा जीवविवक्खाए अणुक्कस्थाणुभागसकमस्स विच्छेदाणुवलद्वीदो | जयध० २ दसणमोहक्खवयाण जहण्णतरस्त तप्पमाणत्तोवलभादो । जयघ० ३ तदुकस विरहकालस्स णाणाजीव विसयस्स तप्यमाणत्तादो । जयध० ४ कुदो, पयदजहण्णाणुभागस कामयाण सुहुमाणं णिरतरसरूवेण सव्वकालमवदित्तादो | जयध० ५ तं जहा-कोहसजलणस्स उक्कस्सतरे विवक्खिए सोदएणादिं काढूण छम्मासमतराविय पुणो मागमाया लोभोद एहिं चढाविय पच्छा सोदयपडिलभेण सादिरेयवासमेत्तमतरमुप्पाएयव्वं । एव माण माया " Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार मुक्कस्सेण संखेज्जाणि वासाणि । २२२. अणंताणुवंधीणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २२३. जहण्णेण एयसमओ। २२४ उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । २२५. एदेसि सव्वेसिमजहण्णाणुभागस्स केवचिरमंतरं ? २२६. णस्थि अंतरं । २२७. अप्पाबहुअं । २२८. जहा उक्कस्साणुभागविहत्ती तहा उक्कस्ताणुभागसंकयो । २२९. एत्तो जहण्णयं । २३०. सव्वत्थोवो लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंको। २३१. मायासंजलणस्त जहणाणुभागसंकयो अणंतगुणों । २३२. माणसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २३३, कोहसंजलणस्स जहण्णाणु शंका-अनन्तानुवन्धी कपायोके जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२२४॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है ।।२२३-२२४॥ शंका-इन सभी कर्मों के अजघन्यानुभाग-संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥२२५।। समाधान-उक्त सभी कर्मो के अजघन्यानुभाग-संक्रामकोका कभी अन्तर नहीं होता है ॥२२६॥ चूर्णिसू०-अव अनुभाग-संक्रामकोके अल्पवहुत्वको कहते है। (वह अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रामक-विषयक और जघन्य अनुभाग-संक्रामक-विषयक । ) जिस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका अल्पवहुत्व कहा है, उसी प्रकार उत्कृष्ट अनुभागसंक्रामक-विपयक अल्पबहुत्व जानना चाहिए ॥२२७-२२८॥ चूर्णिसू-अव इसके आगे जघन्य अनुभाग-संक्रामकोका अल्पवहुत्व कहते हैंसंज्वलन लोभका जघन्य अनुभाग-संक्रमण सबसे कम है। इससे संज्वलन मायाका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है। संज्वलन मायासे संज्वलन मानका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । संज्वलनमानसे संचलन क्रोधका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्त सजलणाण पि पयदुक्कस्सनर वत्तव । णवरि माणसजलणस्स माया-लोभोदएहि, माया-सजलणस्स च लोभोदएण चढाविय अतरावेयव्य Ixxx एवं चेव पुरिसवेदस्स वि सोदएणादि कादूण परोदएणतरिदत्स सादिरेयवासमेत्तुक्कस्सतरसभवो दट्ठव्वो । जयध० १ णqसयवेदोदएणादि कादूण अणप्पिदवेदोदएण वासपुधत्तमेत्तमतरिदस्स तदुवलभादो । जयध० २ जहण्णपरिणामेणादिं कादूणासखेजलोगमेत्तेहिं अजहण्णपाओग्गपरिणामेहिं चेव सजोजयताण णाणाजीवाणमेटमुक्कत्सतरं लव्मदि । जयध० ३ कुदो; सुहुमकिट्टिसरूवत्तादो । जयघ० ४ कुदो; बादरकिट्टीसलवेण पुवमेवाणियट्टिपरिणामेहि लद्धजहण्णभावत्ताटो । जयव० ५ कुदो; जहण्णसामित्तविसवीकयमायासजलणचरिमणवक्रबंधादो जहाफममणतगुणसलवणावछिद मायातदिय-विदियपढमसगहकिट्टीहितो वि माणसजलणणवकवसरूवल्सेदस्साणतगुणत्तदसणादो | जयध Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-अल्पबहुत्व-निरूपण मागसंकमो अणंतगुणो । २३४. सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो । २३५. पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २३६. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २३७. अणंताणुवंधिमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २३८.कोधस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २३९. मायाए जहण्णाणुभागसंक्रमो विसेसाहिओ। २४०. लोभस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। २४१. हस्सस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २४२. रदीए जाणाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २४३. दुगुंछाए जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो । २४४. गुणित है । संज्वलन क्रोधसे सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । सम्यक्त्वप्रकृतिसे पुरुपवेदका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । पुरुपवेदसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है ॥२२९-२३६॥ चूर्णिस०-सम्यग्मिथ्यात्वसे अनन्तानुवन्धी मानका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है। अनन्तानुवन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है । अनन्तानुवन्धी क्रोधसे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायासे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है ॥२३७-२४०॥ चूर्णिस०-अनन्तानुबन्धी लोभसे हास्यका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है। हास्यसे रतिका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । रतिसे जुगुप्साका जघन्य १ कुदो पुविल्लसामित्तविसयादो हेठा अतोमुहुत्तमोयरिय कोहवेदयचरिमसमयणवकबंधचरिमसमयसकामयम्मि जहण्णभावमुवगयत्तादो । जयध० २ कुदो, किटीसरूवकोहसजलणजहण्णाणुभागसकमादो फद्दयगयसम्मत्तजहण्णाणुभागसकमस्साणतगुणब्भहियत्ते विसवादाणुवलभादो । जयध० ३ किं कारण ? सम्मत्तस्स अणुसमयोवणकालादो पुरिसवेदणवकबधाणुसमयोववृणाकालस्स थोवत्तदसणादो । जयध० ४ कुदो; देसघादिएयवाणियसरूवादो पुविल्लादो सव्वघादिविट्ठाणियसरूवस्सेदस्स तहाभावसिद्धीए णाइयत्तादो । जयध० ५ किं कारण १ सम्मामिच्छत्ताणुभागविण्णासो मिच्छत्तजहण्णफद्दयादो अणतगुणहीगो होऊण लद्धावट्ठाणो पुणो दसणमोहक्खवणाए सखेजसहस्समेत्ताणुभागखडयघादसमुवलद्धजहण्णभावो । एसो वुण णवकबंघसरूवो वि सम्मामिच्छत्तण समाणपारभो होदूण पुणो मिच्छत्तजहण्णफद्दयप्पहुडि उवरि वि अणतफद्दएसु लद्धविण्णासो अपत्तघादो च । तदो अणतगुणत्तमेदस्स सिद्ध । जयध० ६ कुदो, णवकबंधसरूवादो पुविल्लादो चिराणसतसरूवस्सेदस्स तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो । जयध० ७ कुदोः सव्वस्थ रदिपुरस्सरत्तणेव हस्सपवुत्तीए दंसणादो । जयध० ८ कुदो अप्पसत्थयरत्तादो | जयध० Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार भयस्त जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो । २४५. सोगस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो'। २४६. अरदीए जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो। २४७. इथिवेदस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २४८. णबुंसयवेदस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों। २४९. अपञ्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २५०. कोहस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २५१. मायाए जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २५२. लोभस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ २५३. पञ्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २५४. कोहस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २५५. मायाए जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २५६. लोभस्स जहण्णाणुभागसंक्रमो विसेसाहिओ । २५७. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है। जुगुप्सासे भयका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । भयसे शोकका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । शोकसे अरतिका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है। अरतिसे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । स्त्रीवेदसे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है ॥२४१-२४८|| चूर्णिसू०-नपुंसकवेदसे अप्रत्याख्यानमानका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । अप्रत्याख्यान मानसे अप्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यान क्रोधसे अप्रत्याख्यान मायाका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यान मायासे अप्रत्याख्यान लोभका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेप अधिक है । अप्रत्याख्यान लोभसे प्रत्याख्यान मानका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है । प्रत्याख्यान क्रोधसे प्रत्याख्यानमायाका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है । प्रत्याख्यान लोभसे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है ॥२४९-२५७॥ १ दुगुंछिदो देसच्चागमेत कुणटि । भयोदएण पुण पाणच्चागमवि कुणदि त्ति तिव्वाणुभागत्त मेदस्स दट्ठव्व । जयध० २ कुदो, छम्मासपजत्ततिव्वदुक्खकारणत्तादो । जयध० ३ कुदो; अंतोमुहुत्त हेट्ठा ओयरिदूण पुत्वमेव खविदत्तादो | जयध० ४ किं कारण ? कारिसग्गिसमाणो इस्थिवेदाणुभागो। णवुसयवेदाणुमागो पुण इछावागग्गिसमाणो, तेणाणतगुणो जादो | जयध० ५ कुदो, सुहुमेइदियहदसमुप्पत्तियकम्मेण लद्धजहण्णाणुभागस्सेदस्स अतरकरणे कदे खवगपरिणामेहि धादिदावसेसणवुसयवेदजहण्णाणुभागसकमादो अणतगुणत्तसिद्धीए णाइयत्तादो । जयध ६ कुदो, सयलसजमघादित्तष्णहाणुववत्तीदो । ण च देससंजमघादि अपञ्चक्खाणलोभजहण्णाणु भागादो अणतगुणत्ताभावे तत्तो अणतगुणसयलसनमधादित्तमेदत्स जुज्जदे, विप्पडिसेहादो । जयध ७ सबल पदत्यविसयसद्दहणपरिणामपडिबघत्तण लद्धमाहप्पत्सेदत्स तहाभावविरोहाभावादो । जयध° Tha Tho Tho ho Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] अनुभाग संक्रम- अल्पबहुत्व-निरूपण ३७१ २५८. रियईए सव्वत्थोवो सम्मत्तस्स जहण्णाणु भागसंकमो' २५९. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणो' । २६०. अनंताणुवंधिमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अंतगुणो | २६१. कोहस्स जहण्णाणुमागसंकमो विसेसाहिओ । २६२. पायाए जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २६३ लोभस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २६४. इस्सस्स जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणों । २६५. रदीए जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणो । २६६. पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणा' । २६७ इत्थवेदस्स जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुण । २६८. दुर्गुछाए जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो । २६९. भयस्त जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणो । २७०, सोगस्स जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणो । २७१. अरदीए जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणो । २७२. सयवेदस्स जहण्णाणुभागसंकमो अनंतगुणों । चूर्णिसू०-नरकगतिमें सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभाग-संक्रमण सबसे कम है । सम्यक्त्वप्रकृतिसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । सम्यग्मिथ्यात्व - से अनन्तानुवन्धी मानका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । अनन्तानुबन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभाग - संक्रमण विशेष अधिक है । अनन्तानुवन्धी क्रोधसे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायासे अनन्तानुवन्धी लोभका जघन्य अनुभाग-संक्रमण विशेष अधिक है ।। २५८-२६३॥ चूर्णिसू० - अनन्तानुबन्धी लोभसे हास्यका जघन्य अनुभाग-संक्रमण अनन्तगुणित है । हास्यसे रतिका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । रतिसे पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । पुरुषवेदसे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है | स्त्रीवेदसे जुगुप्साका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । जुगुसासे भयका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । भयसे शोकका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । शोकसे अरतिका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । अरतिसे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है ॥२६४-२७२।। १ कुदो देसघादिएयट्ठाणियसरूवत्तादो | जयध० २ कुदो; सव्वघादिविट्ठाणियसरूवत्तादो । जयध० ३ कुदो, सम्मामिच्छत्तुक्कस्साणुभागादो अणतगुणभावेणावट्ठिदमिच्छत्त जहण्णफद्दय पहुडि उवरि विद्वाणुभागविण्णासस्सेदस्स तत्तो अणतगुणत्तसिद्धीए पडिवधाभावादो । जयध० ४ सुहुमेइ दियहदसमुप्पत्तियकम्मादो अणतगुणहीणो पुविल्लो णवकबधाणुभागस कमो । एसो युग सुहुमाणुभागादो अणतगुणो; असण्णिपचिदियहदसमुप्पत्तियकम्मेण णेरइएस लडजहण्णभावत्तादो । तदो सिद्धमेदस्स तत्तो अणतगुणत्त । जयघ० ५ एत्थ कारण रदी रमणमेत्तुप्पाइया, पलालग्गिसणिहसत्तिविसेसो पुण पुवेदो । तदो सामित्तविसयभेदाभावे विसिद्ध मेदस्साणतगुणग्भहियत्त । जयध० ६ किं कारण ? कारिसग्गिसरिस तिव्वपरिणामणिव धणत्तादो । जयध० ७ किं कारण ? इट्ठावागग्गिस रिसपरिणामकारणत्तादो | जयध० Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २७३. अपच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागसंक्रमो अणंतगुणो। २७४. कोधस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। २७५. मायाए जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २७६. लोभस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २७७, पञ्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २७८. कोहस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २७९. मायाए जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २८०. लोभस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। २८१. माणसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २८२. कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २८३. मायासंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २८४. लोभसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । २८५. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणों । २८६. जहा णिरयगईए तहा सेसासु गदीसु ।। चूर्णिसू०-नपुंसकवेदसे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । अप्रत्याख्यानावरण मानसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधसे अप्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेप अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायासे अप्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण लोभसे प्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । प्रत्याख्यानावरण मानसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्यअनुभागसंक्रमण विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधसे प्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायाके जघन्य अनुभाग-संक्रमणसे प्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेप अधिक है ॥२७३-२८०॥ चूर्णिसू०-प्रत्याख्यानावरण लोभसे संज्वलन मानका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है। संज्वलनमानसे संज्वलनक्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधसे संज्वलन मायाका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेष अधिक है। संज्वलन मायासे संचलन लोभका जघन्य अनुभागसंक्रमण विशेष अधिक है। संज्वलनलोभसे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है ॥२८१-२८५।। चूर्णिस०-जिस प्रकारसे नरकगतिमे यह जघन्य अनुभागसंक्रमणका अल्पवहुत्व कहा है, उसी प्रकारसे शेप गतियोमे भी जघन्य अनुभागसंक्रमणका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ॥२८६।। १ कुदो, णोकसायाणुभागादो कसायाणुभागस महल्लत्तसिद्धीए णाइयत्तादो । जयध० २ कुदो; सयलसजमवादित्तण्णहागुववत्तीए तस्स सम्भावसिद्धीदो। जयघ० ३ कुदोजहास्वादसजमवादणसत्तिसमष्णिदत्तादो । जयध० ४ कुदो; सयलपदत्यविसवसद्दहणलक्खणसम्मत्तण्णिदजीवगुणपादणप्णहाणुववतीदो । जयव० Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ गा० ५८ ) अनुभागसंक्रम-भुजाकार-अर्थपद-निरूपण २८७. एइदिएसु सव्वत्थोवो सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो । २८८. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो । २८९. हस्सस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो' । २९०. सेसाणं जहा सम्माइटिबंधे तहा काययो । २९१. भुजगारे त्ति तेरस अणिओगद्दाराणि । २९२ तत्थ अट्ठपदं । २९३. तं जहा । २९४. जाणि एण्हि फद्दयाणि संकामेदि अणंतरोसक्काविदे अप्पदरसंकमादो बहुगाणि त्ति एस भुजगारों । २९५. ओसक्काविदे बहुदरादो एण्हिमप्पदराणि संकामेदि त्ति एस अप्पदरो । २९६. ओसक्काविद एण्हि च तत्तियाणि संका चूर्णिम् ०-एकेन्द्रियोमे सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसंक्रमण सबसे कम है। सम्यक्त्वप्रकृतिसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है। सम्यग्मिथ्यात्वसे हास्यका जघन्य अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणित है । शेष कर्मोंके जघन्य अनुभागसंक्रमणका अल्पबहुत्व जैसा सम्यग्दृष्टि-बन्धमे अर्थात् सम्यक्त्वके अभिमुख सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके जघन्यबन्धका कहा गया है, उस प्रकारसे निरूपण करना चाहिए ॥२८७-२९०॥ , चूर्णिसू०-भुजाकार संक्रममे तेरह अनुयोगद्वार होते है । उसमे पहले अर्थपद ज्ञातव्य है । वह इस प्रकार है-जिन अनुभागस्पर्धकोको इस समय संक्रमित करता है, वे अनन्तर-व्यतिक्रान्त अल्पतर संक्रमणसे बहुत है। यह भुजाकारसंक्रमण है। अर्थात् पहले समयमे अल्प स्पर्धकोका संक्रमण करके जब दूसरे समयमे बहुत स्पर्व कोका संक्रमण करता है, तब उसे भुजाकारसंक्रमण कहते है। अनन्तर-व्यतिक्रान्त समयमे बहुत अनुभागस्पर्धकोका संक्रमण करके इस समय अल्प स्पर्धकोका संक्रमण करता है। यह अल्पतरसंकमण १ कुदो; सव्वघादिविट्ठाणियत्त समाणे वि सते सम्मामिच्छत्तस्स विसयीकयदारुअसमाणाण तिमभागमुल्लघिय परदो एदस्सावट्ठाणदसणादो । जयध० २ एत्थ सम्माइबिधे त्ति णिद्देसैण सम्मत्ताहिमुहसव्वविसुद्धमिच्छाइट्ठिजहण्णवधस्स गहण कायव्व; अण्णहा अणताणुवधियादीण सम्माइट्ठिवधवहिन्भूदाणमप्पाबहुअविहाणाणुववत्तीदो। विसोहिपरिणामोवलक्षणमेत्त चेद, तेण विसुद्ध मिच्छाइट्ठिबधे जारिसमप्पाबहुअ परूविद तारिसमेवेत्थ सेसपयडीण कायच्वं, विसोहिणिबधणसुहुमेइ दियहदसमुप्पत्तियकम्मेण लद्धजहण्णभावाण तव्भावविरोहाभावादो त्ति एसो सुत्तत्थसम्भावो । जयध० ३ चउवीसमणियोगद्दारेसु परूविय समत्तेसु किमट्ठमेसो भुजगारसण्णिदो अहियारो समागदो ? वुच्चदे-जहण्णुक्कस्सभेयभिण्णाणुभागसकमस्स सगतोभाविदाजहण्णाणुक्कस्सवियप्पस्स अवत्थाभेयपदुप्पायणट्ठमागओ । तदवत्थाभूदभुजगारादिपदाणमेत्थ समुक्कित्तणादितेरसाणियोगद्दारेहि विसेसिऊण परूवणोवलभादो। जयध० ४ थोवयरफद्दयोणि सकामेमाणो जाधे तत्तो बहुवयराणि फद्दयाणि संकामेदि सो तत्स ताधे भुजगारसकमो त्ति भावत्थो । जयध० ५ एस्थ ओसक्काविदसद्दो अणतरवदिक्कतसमयवाचओ त्ति घेत्तव्यो । अथवा बहुदरादो पुविल्लसमयसकमादो एण्हिमोसक्काविदे इदानीमपकर्षिते न्यूनीकृतेऽल्पतराणि स्पर्धकानि सक्रमयतीत्यल्पतरसक्रम इति सूत्रार्थसम्बन्धः । जयध० ___ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'भुजगारे त्ति' इतना ही सूत्र मुद्रित है। 'तेरस अणियोगारदाणि' इतने अशको टीका में सम्मिलित कर दिया है । (देखो पृ० ११५७ पक्ति ५) Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अधिकार मेदि त्ति एस अबट्ठिदसंकमो । २९७. ओसका विदे असंकमादो एण्हि संकामेदि त्ति एस अवत्तव्यसंकमो। २९८ एदेण अट्ठपदेण सामित्तं । २९९. मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो को होइ ? ३००. मिच्छाइट्ठी अण्णदरो । ३०१. अप्पदर-अवद्विदसंकामओ होइ ? ३०२. अण्णदरो । ३०३. अवत्तव्यसंकामओ णत्थेि । ३०४. एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्तसम्मामिच्छत्त वजाणं। ३०५. णवरि अवत्तव्यगो च अस्थि । ३०६. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगारसंकामओ णत्थि । ३०७. अप्पदर-अवत्तव्यसंकामगो को होइ ? है। अनन्तर-व्यतिक्रान्त समयमे जितने अनुभागस्पर्धकोका संक्रमण किया है, उतने ही स्पर्धः कोंका वर्तमान समयमे संक्रमण करता है, यह अवस्थितसंक्रमण है । अनन्तर-व्यतीत समयमें असंक्रमणसे अर्थात् कुछ भी अनुभागस्पर्ध कोंका संक्रमण न करके इस वर्तमान समयमें स्पर्धकोका संक्रमण करता है, यह अवक्तव्यसंक्रमण है ॥२९१-२९७।। चूर्णिमू०-इस अर्थपदके द्वारा भुजाकार आदि संक्रमणोका स्वामित्व कहते है ॥ २९८ ॥ • शंका-कौन जीव मिथ्यात्वके अनुभागका भुजाकारसंक्रमण करता है ? ॥२९९।। समाधान-चारो गतियोमेसे कोई भी एक मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वके अनुभागका भुजाकारसंक्रमण करता है ।।३००। शंका-मिथ्यात्वके अनुभागका अल्पतर और अवस्थित संक्रमण कौन जीव करता है ? ।।३०१।। समाधान-अन्यतर अर्थात् सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव मिथ्यात्वके अनुभागका अल्पतर और अवस्थितसंक्रमण करता है ॥३०२।। - चूर्णिसू०-मिथ्यात्वके अनुभागका अवक्तव्य-संक्रमण नहीं होता है। इसी प्रकार मिथ्यात्वके समान ही सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मोंके भुजाकारादि संक्रमणाके स्वामित्वको जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि शेप कर्मोंका अवक्तव्यसंक्रमण होता है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रमण नहीं होता है ॥३०३-३०६॥ १ अनन्तरव्यतिक्रान्तसमये वर्तमानसमये च तावतामेव स्पर्धकानां सक्रमोऽवस्थितसक्रम इति यावत् । जयध २ ओसक्काविटे अणतरहेट्ठिमसमए अतंकमादो संकमविरहलक्खणादो अवस्थाविसेसादो एण्हिमिदाणि वट्टमाणसमए सकामेदि त्ति सकमपजाएण परिणामेदि त्ति एस एवंलक्खणो अवत्तवसम्मो । असकमादो जो सकमो सो अवत्तवसंकमो त्ति भावत्यो । जयध० ३ कुदो मिच्छत्तस्स सव्वकालमसंकमादो सकमसमुप्पत्तीए अणुवलभादो । जयध० ४ बारसमसायाणवणोकसायाणमुवसमसेढीए अणताणुवधीण च विसजोषणापुव्वसजोगे अवत्तव्वसकमदसणाटो । तटो बारसकसाय-णवणोकसायाण अवत्तव्यसंकामओ को हो ? विसजोयणादो संजुत्तो होदूणावलियादिक्कतो त्ति सामित्त कायव्यमिदि । जयध० ५ कुदो; तदणुमागत्स वद्विविरहेणावट्टिदत्ताटो । जयध Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-भुजाकार-काल-निरूपण ३७५ ३०८. सम्माइट्ठी अण्णदरों' । ३०९. अवट्ठिदसंकामओ को होइ १ ३१०. अण्णदरो। ३११. एत्तो एयजीवेण कालो । ३१२. मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? ३१३. जहण्णेण एयसमओ । ३१४ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३१५. अप्पयरसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? ३१६. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओं । ३१७. अवट्ठिदसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? ३१८. जहण्णेण एयसमओ । ३१९. उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसदं सादिरेयं । शंका-इन्हीं दोनो कर्मों के अनुभागका अल्पतर और अवक्तव्य-संक्रामक कौन जीव है ? ॥३०७॥ समाधान-कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर और अवक्तव्य अनुभागसंक्रमणको करता है ॥३०८॥ शंका-उक्त दोनो कर्मोंका अवस्थित अनुभाग-संक्रामक कौन जीव है ? ॥३०९॥ समाधान-कोई भी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव उक्त दोनो कर्मोंका अवस्थित अनुभागसंक्रामक है ।।३१०।। चूर्णिमू०-अब इससे आगे एक जीवकी अपेक्षा भुजाकारादि संक्रमणोंका काल कहते है ॥३११॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकार-संक्रमणका कितना काल है ? ॥३१२॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है ।।३१३-३१४॥ शंका-मिथ्यात्वके अल्पतर-संक्रमणका कितना काल है ? ।।३१५।। समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है ।।३१६॥ शंका-मिथ्यात्वके अवस्थित-संक्रमणका कितना काल है ? ॥३१७।। समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है ॥३१८-३१९॥ १ अणादियमिच्छाइट्ठी सादिछन्वीससतकम्मिओ वा सम्मत्तमुप्पाइय विदियसमए अवत्तव्वसकमसामिओ होइ । अप्पदरसकामओ दसणमोहक्खवओ, अण्णत्थ तदणुवलभादो । जयध० २ कुदो, हेट्ठिमाणुभागसकमादो बधबुढिवसेणेयसमय भुजगारसकामओ होदूण विदियसमए अवद्विदसकमेण परिणदम्मि तदुवलभादो । जयध० ३ एदमणुभागहाण बधमाणो तत्तो अणतगुणवड्डीए वढिदो पुणो विदियसमये वि तत्तो अणतगुणवढीए परिणदो । एवमणतगुणवडीए ताव बधपरिणाम गदो जाव अतोमुहुत्तचरिमसमयो त्ति । एवमतोमुहुत्तभुजगारबधसभवादो भुजगारसकमुक्करसकालो वि अतोमुहुत्तपमाणो त्ति णत्थि सदेहो, बधावलियादीदकमेणेव सकमपजायपरिणामदसणादो । जयध० ___४ तं जहा-अणुभागखडयघादवसेणेयसमयमप्पयरसकामओ जादो । विदियसमये अवट्टिदपरिणाममुवगओ । लद्धो जहण्णुक्कस्सेणेयसमयमेची अप्पयरकालो । जयध० ५ त जहा-एगो मिच्छाइट्ठी उवसमसम्मत्त घेत्तूण परिणामपञ्चएण मिच्छत्त गटो । तत्थ मिच्छत्तत्स तप्पाओग्गमणुकस्साणुभाग बधिय अतोमुहुत्तमेत्तकाल तिरिक्ख-मणुसेसु अवट्ठिदसकामओ होदूण पुणो Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ३२०. सम्मत्तस्स अप्पयरसंकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ३२१. जहणेण एयसमओ' । ३२२. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३२३. अवट्ठिदसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? ३२४. जहपणेण अंतोमुहुत्तं । ३२५. उकस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३२६. अवत्तव्यसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? ३२७. जहण्णक्कस्सेण एयसमओ । ३२८. सम्मामिच्छत्तस्स अप्पयर-अवत्तव्यसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अल्पतर-संक्रमणका कितना काल है ? ॥३२०॥ समाधान-जवन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है ।।३२१-३२२॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अवस्थित-संक्रमणका कितना काल है ? ॥३२३॥ समाधान--जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ अधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ।।३२४-३२५॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है १ ॥३२६।। समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है ।।३२७॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर और अवक्तव्य संक्रमणका कितना काल है ?॥३२८॥ पलिदोवमासखेजभागाउएसु भोगभूमिएसु उववण्णो । तत्थावठ्ठिदसकम कुणमाणो अतोमुहुत्तावसेसे सगा. उए वेदगसम्मत्त पडिवनिय देवेसुववण्णो । तदो पढमछावट्ठिमणुपालिय अतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तमवदिसकमाविरोहेण मिच्छत्त वा पडिवण्णो । पुणो वि अतोमुहुत्तेण वेदगसम्मत्त पडिवजिय विदियछावट्टिमवटिठदसकममणुपालेदूण तदवसाणे पयदाविरोरोण मिच्छत्त गणेक्कत्तीससागरोवमिएसु उववण्णो । तदो णिप्पिडिदो सतो मणुसेसुववण्णो जाव सकिलेस ण पूरेदि ताव अवठ्ठिदसकमेणेवावट्ठिदो । तदो सकिलेसवसेण भुजगारवध काऊण बधावलियवदिक्कमे तस्स सकामओ जादो । लद्धो पयदुक्कस्सकालो दो-अतोमुहुत्त हि पलिदोवमासखेजभागेण च अमहियतेवढ़िसागरोवमसदमेत्तो । जयघ० । १ दसणमोहक्खवणाए एयमणुभागखडय पादिय सेसाणुभागं संकामेमाणस्स पढमसमयम्मि तदुवलंभादो ! जयध २ कुदो; सम्मत्तस्स अट्ठवस्सटिदिसतप्यहुडि जाव समयादिह्यावलियअक्खीणदसणमोहणीयो त्ति ताव अणुसमयोवट्टण कुणमाणो अतोमुहुत्तमेत्तकालमप्पयरसकामओ होइ; तत्थ पडिसमयमणतगुणहाणीए तदणुभागस्स हीयमाणक्कमेण सक तिदसणादो। जयध० । ३ दुचरिमाणुभागखडय घादिय तदणतरसमए अप्पयरभावेण परिणदस्स पुणो चरिमाणुभागखंडयुक्कीरणकालो सवो चेवावठ्दिसकामयस्स जहण्णकालत्तण गहियव्यो । जयध० ४ त जहा-एक्को अणादियमिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पाइय विदियसमये अवत्तव्यसंकामओ होदूण तदियादिसमएसु अवट्ठिदसकम कुणमाणो उवसमसम्मत्तद्धाक्खएण मिच्छत्त गदो । पलिदोवमासखेजभागमेत्तकालमुवेलणापरिणामणच्छिदो चरिमुवेलणफालीए सह उवसमसम्मत्त पडिवण्णो । पुणो वेदयमावण पढमछावट्ठिमणुपालिय तदवसाणे मिच्छत्तण पलिदोवमासखेजमागमेत्तकालमवटिदसकमेणच्छिदो पुत्र व सम्मत्तप्पडिलभेण विदियछावट्टिमणुपालेयूण तदवसाणे पुणो वि मिच्छन गतू णुव्वेल्लणाचरिमफालीए अवठ्ठिदसकमत्स पनवसाण करेदि, तेण लदो पयदुक्करसकालो तीहि पलिदोवमासंखेनभागेहि सादिरेयवे. छावसिागरोवममेत्तो । जयध० Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] अनुभागसंक्रम-भुजाकार - अन्तर-निरूपण ३७७ ३२९. जहण्णुकस्सेण एयसमयं । ३३०. अवट्टिदसंकामओ केवचिर कालादो होह ? ३३१. जहणेण अंतोमुत्तं । ३३२. उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि' | ३३३ . सेसाणं कम्माणं भुजगारं जहणेण एयसमओ । ३३४. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३३५. अप्पयरसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? ३३६. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ३३७, णवरि पुरिसवेदस्स उक्कस्सेण दो आवलियाओ समऊणाओ । ३३८. चदुहं संजणाणमुकस्सेण अंतोमुहत्तं । ३३९. अवट्टिदं जहण्णेण एयसमओ । ३४०. उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसदं सादिरेयं । ३४१. अवत्तव्यं जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ३४२. एत्तो एयजीवेण अंतरं । ३४३ मिच्छत्तस्स भुजगार संकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३४४. जहणणेण एयसमओ । ३४५. उक्कस्सेण तेवट्टिसागरोवमसद समाधान - जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है || ३२९ ॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित संक्रमणका कितना काल है ? ॥ ३३० ॥ समाधान- जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ अधिक एकसौ बत्तीस सागरोपम है ।।३३१-३३२॥ 0 चूर्णिसू० - शेष सोलह कषाय और नव नोकषाय इन पच्चीस कर्मोंके भुजाकार संक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।।३३३-३३४॥ शंका - उक्त पच्चीस कर्मों के अल्पतर-संक्रमणका कितना काल है ? || ३३५ ॥ समाधान - जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है । विशेषता केवल यह है कि पुरुषवेदके अल्पतर-संक्रमणका उत्कृष्टकाल एक समय कम दो आवली है । चारो संज्वलनोके अल्पतर-संक्रमणका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । पच्चीस कपायोके अवस्थित-संक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है । पच्चीस कपायोके अवक्तव्यसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ॥ ३३६-३४१॥ चूर्णि सू० [0- अब इससे आगे एक जीवकी अपेक्षा भुजाकारादि संक्रामकोका अन्तर कहते हैं ॥३४२॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकार - संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥३४३॥ समाधान - जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है ।। ३४४ ३४५॥ १ सम्मत्तस्सेव सादिरेयवेछावट्टिसागरोवममेत्तावट्ठिदुक्कस्सकालसिद्धीए पडिबधाभावादो | जयध० २ अनंतगुणवदिकालस्स तप्यमाणत्तोवएसादो । जयध० ३ कुदो, पुरिसवेदोदयखवयस्स चरिमसम यसवेदप्प हुडि सययूणदोआवलियमेत्तकाल पुरिसवेदाणुभाग पडसमयमणतगुणहीणकमेण सकमदसणादो । जयध० ४ कुदो; खवयसेढीए किट्टीए वेदयपढमसमयप्पहुडि चदुसजलणाणुभागस्स अणुसमयो वट्टणाघाददसणादो । जयध ५ त जहा - भुजगारसकामओ एयसमयमवट्ठिदसंकमेणतरिय पुणो वि विदियसमए भुजगारसंकामओ जादो । जयध० ४८ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૮ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार सादिरेयं । ३४६. अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ १ ३४७. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३४८. उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसदं सादिरेयं । ३४९. अवद्विदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३५०, जहणणेण एयसमओ । ३५१. उकस्सेण अंतोमुहुत्त । ३५२. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३५३. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३५४. अवद्विदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३५५. जहण्णेण एयसमओ । ३५६. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । शंका-मिथ्यात्वके अल्पतर-संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ।। ३४६।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है ॥३४७-३४८॥ शंका-मिथ्यात्वके अवस्थित-संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥३४९॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥३५०-३५१॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर-संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥३५२॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।।३५३।। शंका-उक्त दोनों कर्मोंके अवस्थित-संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥३५४॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन है ।।३५५-३५६॥ १ तं जहा-भुजगारसकामओ अवट्टिदभावमुवणमिय तिरिक्ख-मणुसेसु अंतीमुहुत्तमेत्तकाल गमिऊण तिपलिदोवमिएसुववण्णो। सगढिदिमणुपालिय थोवावसेसे जीविदवए त्ति उसमसम्मत्त घेत्तूण तदा वेदगसम्मत्त पडिवजिय पढम-विदियछावट्ठीओ परिभमिय तदवसाणे समयाविरोहेण मिच्छत्तमुवणमिय एकत्तीससागरोवमिएसु देवेसुववण्णो। तत्तो चुदो मणुसेसुप्पनिय अतोमुहुत्तेण सकिलेस पूरिय भुजगारः संकामओ जादो। तत्थ लद्ध मेदमुक्कस्सतर वे अतोमुहुत्ताहिय-तिपलिदोवमेहि सादिरेयतेवठिसागरोवमसदमेत्त | जयध० २ तं कथ ? गसणमोहक्खवणाए मिच्छत्तस्स तिचरिमाणुभागखडयचरिमफालिं पादिय तदणतर मप्पयरसकर्म कादूर्णतरिय पुणो दुचरिमाणुभागखडय घादिय अप्पयरभावमुवगयम्मि लद्धमतर होइ । जयघ° ३ कुदो; अवठ्ठिदसकमकालस्स पहाणभावेणेत्थ वित्रक्खियत्तादो । जयध० ४ भुजगारेणप्पयरेण वा एयसमयमतरिदस्स तदुवलभादो | जयध० ५ कुदो भुजगारुक्कस्सकालेणतरिदस्स तदुवलद्धीदो । जयध० ६ तत्थ जहण्णतरे विवक्खिए सम्मत्तस्स चरिमाणुमागखडयकालो घेत्तव्यो। सम्मामिच्छत्तस्स तिचरिमाणुमागखडयपदणाणतरमप्पदरं कादूर्णतरिय दुचरिमाणुभागखडए पादिटे लममतर कायव । दोण्हमुक्कस्सतरे इच्छिजमाणे पढमाणुभागखंडयदाघाण तरमप्पयर कादूणतरिय विदियाणुभागखडए णिट्ठिद लद्धमंतरं कायव । जयध ७ अप्पयरसकमेणेयसमयम तरिदस्स तदुवलद्धीदो | जयध० ८ पढमसम्मत्तमुप्पाइय मिच्छत्त गण सबलहु उच्वेलणचरिमफालिं पादिय अतरिदस्त पुणो उवढपोग्गलपरियडावसाणे सम्मत्त प्पारणतदियसमयम्मि पयदंतरसमाणणोवलद्धीदो । जयध० Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-भुजाकार-भंगविचय-निरूपण ३५७. अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३५८. जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ३५९. उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । ३६०. सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो। ३६१. णवरि अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३६२. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३६३. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । ३६४. अणंताणुबंधीणमवद्विदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३६५. जहण्णेण एयसमओ । ३६६. उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३६७. णाणाजीवेहि भंगविचओ। ३६८. मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा भुजगारसंकामया च अप्पयरसंकामया च अवट्ठिदसंकामया च । ३६९. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णव भंगा। ३७०. सेसाणं कम्माणं सव्वजीवा भुजगार-अप्पयर-अवविदसंका शंका-इन्ही दोनो कर्मोंके अवक्तव्यसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥३५७॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥३५८-३५९।। चूर्णिसू०-शेप सोलह कषाय और नव नोकपाय इन पच्चीस कर्मोंके भुजाकारादि संक्रामकोका अन्तरकाल मिथ्यात्वके भुजाकारादि संक्रामकोके अन्तरकालके समान जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि उक्त कर्मोंके अवक्तव्यसंक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ।।३६०-३६३॥ शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोके अवस्थितसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥३६४॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ॥३६५-३६६।। चूर्णिसू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा मिथ्यात्वादि कर्मोंके भुजाकारादि-संक्रामकोका भंगविचय कहते हैं-मिथ्यात्वके भुजाकार-संक्रामक, अल्पतर-संक्रामक और अवस्थितसंक्रामक सर्व जीव होते है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके मुजाकारादि संक्रामकोके नौ भंग होते है । शेष पच्चीस कर्मोंके सर्व जीव भुजाकार-संक्रामक, अल्पतर-संक्रामक और अवस्थित-संक्रामक होते हैं । इस ध्रुवपदके साथ कदाचित् अनेक जीव भुजाकारादि-संक्रामक १ त कथ ? पढमसम्मत्तुप्पत्तिविदियसमए अवत्तव्वसकम कादूणावट्ठिदसकमेणतरिदत्स सव्वलहुमुवेल्लणाए णिस्सतीकरणाण तर पडिवण्णसम्मत्तस्स विदियसमए लद्धमतर होइ । जयध० २ त जहा-पढमसम्मत्तुप्पायणविदियसमए अवत्तव्य कादूणतरिय उवढ्ढपोग्गलपरियट्टावसाणे गहिदसम्मत्तस्स विदियसमए लद्धमतर होइ । जयध० ३ बारसकसाय णवणोकसायाण सम्वोवसामणादो परिवदिय अवत्तव्वसकम कादूणतरिय पुणोवि सव्वलहुमुवसमसेढिमारुयि सव्वोवसामण काऊण परिवदमाणयस्स पढमसमयम्मि लद्धमतर होइ । अणताणुबधीण विसजोयणापुव्वसजोगेणादि कादूण पुणो वि अतोमुहुत्तेण विसजोजिय सजुत्तरस लद्धमतर वत्तव्य । जयध० ४ कुदो, तदवट्टिदस कामयाणं धुवत्तेण अप्पयरावत्तव्बयाण भयणिजत्तदसणादो । जयध० Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार मया । ३७१. सिया एदे च अवत्तव्य संकामओ च, सिया एदे च अवत्तव्यसंकामया च । ३७२. णाणाजीवेहि कालो । ३७३. मिच्छत्तस्स सव्वे संकामया सव्वद्धा । ३७४, सम्मत्त- सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामया केवचिरं कालादो होति ? ३७५. नहणेण एयसमओं । ३७६. उकस्सेण संखेज्जा समया । ३७७ णवरि सम्मत्तस्स उकस्सेण अंतोमुत्तं । ३७८. अवद्विदसंकामया सव्वद्धा । ३७९ अवत्तव्य कामया केवचिरं कालादो होंति ? ३८०. जहण्णेण एयसमओ । ३८१. उकस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । ३८२. अनंताणुबंधीणं भुजगार अप्पयर अवट्ठिदसं कामया सव्वद्धा । ३८३. अवत्तन्यसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? ३८४. जहण्णेण एयसमओ' । और कोई एक जीव अवक्तव्य संक्रामक भी होता है । कदाचित् अनेक जीव भुजाकारादिसंक्रामक भी होते हैं और अनेक जीव अवक्तव्य- संक्रामक भी होते हैं || ३६७-३७१।। चूर्णि सू० ० अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजाकारादि - संक्रामकोका काल कहते हैं— मिथ्यात्वके भुजाकारादि सर्वपदों के संक्रामक जीव सर्वकाल होते हैं ॥ ३७२-३७३॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतर-संक्रामकोका कितना काल है ? ||३७४॥ समाधान-जयन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । केवल सम्यक्त्यप्रकृतिके अल्पतर-संक्रामकोका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । उक्त दोनो कर्मोंके अवस्थित संक्रामक सर्वकाल होते है || ३७५-३७८॥ शंका- इन्ही दोनो कर्मोंके अवक्तव्य-संक्रामकोका कितना काल है ? || ३७९॥ समाधान-जयन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातत्रे भाग है ॥३८०-३८१॥ चूर्णिसू० - अनन्तानुवन्धी कपायोंके भुजाकार- संक्रामक, अल्पतर- संक्रामक और अवस्थित-संक्रामक जीव सर्वकाल होते हैं || ३८२॥ शंका- अनन्तानुबन्धी कपायोके अवक्तव्य-संक्रामकोका कितना काल है ? || ३८३ || १ कुदो, तिहमेदेसिं पदाण धुवभावित्त सणादो | जयव० २ कुदो; दंसणमोहक्खवयणाणा जीवाणमेय समयमणुभागलं डयघादणवणप्यवरभावेण परिणदाण पवदजहण्णकालोवलभादो । जयध० ३ तॆसिं चेत्र सखेजवार मणुसंधिदपवाहाणमप्पयरकालस्स तप्यमाणत्तोवलभादो । जयव० ४ कुदो, अणुसमयोवणाकाल्त्स संखेनवारमणुसधिदस्त गहणादो | जयध० ५ संखेनागमसखेनागं वा णिस्संतकम्मियजीवाण सम्मत्तप्पायणाएं परिणदाणं विदियसमयस्मि पुण्यावरको डिवच्छेण तदुवलंभादो | जयघ० ६ तदुवक्रमणवारागमेत्तियमेत्ताणं णिरंतरसरूवेणोवलंमादो | जयघ० ७ विसजोयणा पुव्त्रतं जोजयाण कैन्तियाण पि जीवाणमेयसमयमवत्तन्यकम काढूण विदियसमए अवत्थंतरं गयाणमेयसमयमेत्तकालोवलमादो | जयव० Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-भुजाकार-अन्तर-निरूपण ३८१ ३८५. उक्कस्सेण आवलियाए असंखेन्जदिभागो' । ३८६. एवं सेसाणं कम्माणं । णवरि अवत्तव्यसंकामयाणमु कस्सेण संखेज्जा समया । ३८७. एत्तो अंतरं । ३८८. मिच्छत्तस्स णाणाजीवेहि भुजगार-अप्पयरअवद्विदसंकामयाणं णत्थि अंतरं । ३८९. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३९०. जहण्णेण एयसमओ। ३९१ उक्कस्सेण छम्मासा। ३९२. अवट्ठिदसंकामयाणं णत्थि अंतरं। ३९३. अवत्तव्यसंकामयंतरंजहण्णेण एयसमओ । ३९४. उकस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । ३९५. अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयरअवडिदसंकामयाणं णत्थि अंतरं । ३९६. अवत्तव्यसंकामयंतरं जहण्णेण एयसमओ । ३९७. उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये । ३९८. एवं सेसाणं कम्माणं। ३९९. __समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ॥३८४-३८५।। चूर्णिसू०-इसी प्रकार शेप कर्मों के भुजाकारादि-संक्रामकोका काल जानना चाहिए । विशेपता केवल यह है कि उनके अवक्तव्य-संक्रामकोका उत्कृष्टकाल संख्यात समय है ।।३८६॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकारादि-संक्रामकोका अन्तर कहते है-नाना जीवोकी अपेक्षा मिथ्यात्वके भुजाकार-संक्रामक, अल्पतर-संक्रामक और अवस्थित-संक्रामकोका अन्तर नहीं है ॥३८७ ३८८।। __ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर-संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥३८९।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है ॥३९०-३९१॥ चूर्णिसू०-उक्त दोनो कर्मोंके अवस्थित-संक्रामकोका अन्तर नहीं होता है। इन्हीं दोनो कर्मोंके अवक्तव्य-संक्रामकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक चौबीस अहोरात्र (दिन-रात) है । अनन्तानुबन्धी कषायोके भुजाकार-संक्रामक, अल्पतरसंक्रामक और अवस्थित-संक्रामकोका अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धी कपायोके अवक्तव्य-संक्रामकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक चौबीस अहोरात्र है। इसी प्रकारसे शेष कर्मोंके भुजाकारादिसंक्रामकोके अन्तरको जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि शेष कर्मोंके अवक्तव्य १ तदुवक्कमणवाराणमुक्कस्सेणेत्तियमेत्ताणमुवलमादो । जयध० २ कुदो, दसणमोहक्खवयाण जहणुक्कस्सविरहकालस्स तप्पमाणत्तोवएसादो ! जयध० ३ कुदो णिस्सतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुवसमसम्मत्तग्गहणविरहकालस्स जहण्णुक्कस्सेण तप्पमाणत्तोवएसादो | जयध० ४ कुदो, तव्विसेसियजीवाणमाण तियदसणादो । जयध० ५ अणताणुबधिविसजोयणाण च सजुत्ताण पि पयदंतरसिद्धीए वाहाणुवलभादो । जयध० Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ कसाय पाहुड सुन्त वरि अवत्तव्वसंकामयाणमंतरमुकस्सेण संखेजाणि वस्त्राणि । ४००. अप्पा बहुअं । ४०१ सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स अप्पयरसंकामया । ४०२, भुजगारसंकामया असंखेजगुणा । ४०३. अवद्विदसंकामया संखेज्जगुणा । ४०४. सम्मत्त- सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अप्पयरसंकामया । ४०५. अवत्तव्वसंकामया असंखेज्जगुण । ४०६. अवट्ठिद संकामया असंखेज्जगुणा । ४०७, सेसाणं कम्माणं सव्वत्थोवा अवतव्यसंकामय । ४०८ अप्पयरसंकामया अनंतगुणा । ४०९. भुजगार संकामया असंखेज्जगुणा । ४१०. अवद्विदसं कामया संखेज्जगुणा " । भुजगार संकमो ति समत्तमणिओगद्दारं । [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार ४११. पदणिक्खेवेत्ति तिण्णि अणिओगद्दाराणि । ४१२. तं जहा । ४१३. परूवणा सामित्तमप्पाचहुअं च । ४१४. परूवणाए सव्वेसिकम्माणमत्थि उक्तस्तिया संक्रामकोका उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्ष है ।। ३९२-३९९ ।। चूर्णिस.. ० - अब भुजाकारादि- संक्रामक के अल्पबहुत्वको कहते है - मिथ्यात्वके अल्पतर-संक्रामक सबसे कम होते हैं । भुजाकार - संक्रामक असंख्यातगुणित होते है । अवस्थित संक्रामक संख्यातगुणित होते है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्व के अल्पतर-संक्रामक सबसे कम हैं । अवक्तव्यसंक्रामक असंख्यातगुणित हैं । अवस्थित - संक्रामक असंख्यात - गुणित हैं । शेप कर्मों के अवक्तव्यसंक्रामक सबसे कम हैं । अल्पतर - संक्रामक अनन्तगुणित हैं | भुजाकार-संकामक असंख्यातगुणित हैं और उनसे अवस्थित संक्रामक संख्यातगुणित है । ।४००-४१०॥ इस प्रकार भुजाकार - संक्रमण नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । चूर्णिसू० - पदनिक्षेप नामक जो अधिकार है, उसमे तीन अनुयोगद्वार हैं । वे इस प्रकार हैं- प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व | प्ररूपणाकी अपेक्षा सर्व कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है, उत्कृष्ट हानि होती है और उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसी प्रकार सर्व १ कुदो, वासपुधत्तमेत्तु कस्सतरेण विणा उवसमसे दिविसयाणमवत्तव्वस कामयाणमेदेसि सभवाणुत्रलभादो । जयध २ कुदो, एयसमयसचिदत्तादो | जयध० २ कुदो; अतोमुहुत्तमेत्तभुजगार कालव्भतरसंभवग्गहणादो | जयध ० ४ कुदो, भुजगारकालादो अवदिकालस्य सखेजगुणत्तादो | जयघ ५ कुदो, दसणमोहक्खवणजीवाणमेव तदप्पयरभावेण परिणदाणमुवल भादो । जयध० ६ कुदो, पलिदोवमा सखे जभाग मेत्तणिस्सतकम्मियजीवाणमेयसमयम्मि सम्मत्तग्गहणसभवाटो । जयध० ७ कुदो; सक्रमपाओग्गतदुभयसतकम्मियमिच्छा इट्ठि सम्माइीण सव्वे सिमेवग्गहणादो | जयध ८ कुदो; वारसकसाय णवणोकसायागमवत्तव्वसकामयभावेण संखेनाणमुवसामयजीवाण परिणमणदादो | अतावधीण पि पलिदोवमासखेजभागमेत्तजीवाण तव्भावेण परिणदाणमुवलभादो | जयध० ९ कुदो; सव्व जीवाणमसखेज भागपमाणत्तादो | जयघ० १० कुदो; भुजगारकालादो अवट्ठिदकालस्स तावदिगुणत्तोवलभा दो । जयघ० Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण ३८३ वड्डी हाणी अवट्ठाणं । जहणिया वड्डी हाणी अवठ्ठाणं । ४१५. णवरि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं वड्डी णत्थि'। , ४१६. सामित्तं । ४१७. मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स १ ४१८, सण्णिपाओग्गजहण्णएण अणुभागसंकमेण अच्छिदो उक्कस्ससंकिलेसं गदो, तदो उक्कस्सयमणुभागं पबद्धो, तस्स आवलियादीदस्स उक्कस्सिया वड्डी । ४१९. तस्स चेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । ४२०. उक्कस्सिया हाणी कस्स १ ४२१. जस्स उकस्सयमणुभागसंतकम्मं तेण उक्स्सयमणुभागखंडयमागाइदं, तम्मि खंडये घादिदे तस्स उक्कस्सिया हाणी'। ४२२ तप्पाओग्गजहण्णाणुभागसंकमादो उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण जं बंधदि सो बंधो बहुगो । ४२३. जमणुभागखंडयं गेण्हइ तं विसेसहीणं । ४२४. कर्मोंकी जघन्य वृद्धि होती है, जघन्य हानि होती है और जघन्य अवस्थान होता है। केवल सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि नहीं होती है, हानि और अवस्थान होते है ॥४११-४१५॥ चूर्णिसू०-अब स्वामित्वको कहते हैं ॥४१६॥ शंका-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग वृद्धि किसके होती है ? ॥४१७॥ समाधान-जो जीव संज्ञियोके योग्य जघन्य अनुभागसंक्रमणसे अवस्थित था, वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ और उसने उस संक्लेश-परिणामसे उत्कृष्ट अनुभागवन्धस्थानको बॉधना प्रारम्भ किया। आवलीकालके व्यतीत होनेपर उसके मिथ्यात्वके अनुभागकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उस ही जीवके अनन्तर समयमे मिथ्यात्वके अनुभागका उत्कृष्ट अवस्थान होता है ॥४१८-४ १९॥ शंका-मिथ्यात्वके अनुभागकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥४२०॥ समाधान-जिस जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व था, उसने उत्कृष्ट अनुभागकांडकको घात करनेके लिए ग्रहण किया। उस अनुभागकांडके घात कर दिये जाने पर उस जीवके मिथ्यात्वके अनुभागकी उत्कृष्ट हानि होती है ॥४२१॥ मिथ्यात्वके अनुभागकी यह उत्कृष्ट हानि क्या उत्कृष्ट वृद्धिप्रमाण होती है, अथवा हीनाधिक होती है, इसके निर्णय करनेके लिए आचार्य अल्पबहुत्व कहते है चूर्णिसू०-मिथ्यात्वके योग्य जघन्य अनुभागसंक्रमणसे उत्कृष्ट संक्शको प्राप्त होकर जिस अनुभागको बाँधता है, वह अनुभागबन्ध बहुत है। तथा जिस अनुभाग १ कुदो, तदुभयाणुभागस्स वढिविरुद्धसहावत्तादो । तम्हा जहण्णुक्कस्सहाणि-अवठाणाणि चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमस्थि त्ति सिद्ध । जयध० २ कुदो, तत्थुक्कस्सवड्ढिपमाणेण सकमाणदंसणादो । जयध० ३ कुदो, तत्याणुभागसतकम्मस्साणताण भागाणमसखेजलोगमेत्तछट्ठाणावच्छिण्णाणमेक्वारेण . ४ केत्तियमेत्तेण ? तदणतिमभागमेत्तेण । कुदो, वड्ढिदाणुभागस्स णिरवसेसघादणसत्तीए असभ हाणिदसणादो| जयध० वादो। जयध० Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार एदमप्पा बहुअस्स साहणं । ४२५. एवं सोलसकसाय णवणोकसायाणं । ४२६. सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुकस्सिया हाणी कस्स १ ४२७. दंसणमोहणीयक्खवयस्स विदियअणुभागखंडयपढमसमयसंकामयस्त तस्स उक्कस्सिया हाणी' । ४२८. तस्स चेव से काले उक्कस्यमाणं । ४२९. मिच्छत्तस्स जहणिया बड्डी कस्स १ ४३०. सुहुमेइ दियकम्मेण जहण्णएण जो अनंतभागेण वडिदो तस्स जहणिया बड्डी । ४३१. जहणिया हाणी कस्स १ ४३२. जो बड्ढाविदो तम्मि घादिदे तस्स जहणिया हाणी । ४३३. एगदरत्थमवद्वाणं । ४३४. एवम कसायाणं । ४३५. सम्मत्तस्स जहणिया हाणी कस्स १ कांडकको घात करने के लिए ग्रहण करता है, वह विशेप हीन है । यह कथन वक्ष्यमाण अल्पबहुत्वका साधक है ।।४२२-४२४॥ 0 चूर्णिस० - इसी प्रकार मिध्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागवृद्धि, हानि और अवस्थानके समान सोलह कषाय और नव नोकपायोकी अनुभागवृद्धि, हानि और अवस्थानोका स्वामित्व जानना चाहिए || ४२५॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभागकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ||४२६ ॥ समाधान-दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय द्वितीय अनुभागकांडकको प्रथम समयमे संक्रमण करनेवाले दर्शनमोहनीय क्षपकके उक्त दोनो कर्मोंके अनुभागकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसी जीवके तद्नंतर समयमे कर्मोंके अनुभागका उत्कृष्ट अवस्थान होता है ||४२७-४२८॥ शंका- मिध्यात्वके अनुभागकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? ॥४२९॥ समाधान - जो जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियके योग्य जघन्य अनुभागसत्कर्म से विद्यमान था, वह जब परिणामोके निमित्तसे अनन्तभागरूप वृद्धिसे बढ़ा, तव उसके मिथ्यात्वके अनुभागकी जघन्य वृद्धि होती है ॥४३० ॥ शंका-मिध्यात्वके अनुभागकी जघन्य हानि किसके होती है ? ॥४३१॥ समाधान - जो सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य अनुभाग संक्रमण अनन्तभाग वृद्धिरूप से बढ़ाया गया, उसके घात करनेपर उस जीवके मिध्यात्वकी जघन्य हानि होती है ॥ ४३२ ॥ चूर्णिसू० - मिथ्यात्व के अनुभागकी जघन्य वृद्धि या हानि करनेवाले किसी एक जीवके तदनन्तर समयमे मिध्यात्वके अनुभागका अवस्थान होता । इसी प्रकार आठों पायो जघन्य वृद्धि हानि और अवस्थानको जानना चाहिए ॥ ४३३-४३४ ॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति के अनुभागकी जघन्य हानि किसके होती है ? ॥ ४३५॥ १ दसणमोहक्त्रवणाए अपुष्वकरणपढमाणुभागखडयं घादिय विदियाणुभागखंडए वट्टमाणस्स पढमसमए पयदकम्माणमुक्कस्सहाणी होइ, तत्थ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमणुभागसंतकम्मस्साणताणं भागाणमेकवारेण हाइदूणागतिमभागे समवट्ठाणदंसणादो । जयध० २ लहणवड्ढि वसईकयाणुभागस्येव तत्थ हाणिसरूवेण परिणामदसणादो | ण चाण तिमभागस्स खडवधादो णत्थित्ति पच्चवट्ठेयं, ससारावत्याए छव्विहाए हाणीए घादस्स पवृत्तिअ०भुवगमादो । जयघ० ३ कुदो; जद्दण्णवड्ढिहाणीणमण्णदरस्स से काले अवट्ठाणसिद्धिपवाहाणुवलंभादो । जयध० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण ३८५ ४३६. दसणमोहणीयक्खवयस्स समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स तस्स जहणिया हाणी । ४३७. जहण्णयमवट्ठाणं कस्स ? ४३८. तस्स चेव दुचरिमे अणुभागखंडए हदे चरिमअणुभागखंडए वट्टमाणखवयस्स। ४३९. सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया हाणी कस्स ? ४४०. दंसणमोहणीयक्खवयस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहणिया हाणी । ४४१. तस्स चेव से काले जहण्णयमवहाणं । ४४२. अणंताणुबंधीणं जहणिया वड्डी कस्स ? ४४३. विसंजोएदूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेण विदियसमए तप्पाओग्गजहण्णाणुभागंबंधिऊण आवलियादीदस्स तस्स जहणिया वड्नी । ४४४. जहणिया हाणी कस्स ? ४४५. समाधान-दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाले जीवके एक समय अधिक आवलीकाल जब दर्शनमोहनीयके क्षपण करनेमे शेष रहे, तब उसके सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागकी जघन्य हानि होती है ॥४३६॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? ॥४३७॥ समाधान-द्विचरम अनुभाग-कांडकका घात करके चरम अनुभाग-कांडकके घात करनेमे वर्तमान उस ही दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाले जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागका जघन्य अवस्थान होता है ॥४३८॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागकी जघन्य हानि किसके होती है ? ४ ३९॥ समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वके द्विचरम अनुभागकांडकके घात कर देनेपर उसी दर्शनमोहनीय-क्षपकके सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागकी जघन्य हानि होती है । उस ही जीवके तदनन्तर समयमें सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागका जघन्य अवस्थान होता है ॥४४०-४४१॥ को शंका-अनन्तानुबन्धी कपायोके अनुभागकी जघन्य वृद्धि किसके होती है? ॥४४२॥ समाधान-जो जीव अनन्तानुबन्धी कषायोका विसंयोजन करके पुनः मिथ्यात्वको जाकर और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामसे द्वितीय समयमे तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागको बाँधकर आवलीकाल व्यतीत करता है, उसके अनन्तानुवन्धी कषायांके अनुभागकी जघन्य वृद्धि होती है ॥४४३॥ शंका-अनन्तानुबन्धी कपायोके अनुभागकी जघन्य हानि किसके होती है ? ॥४४४॥ १ कुदो, तत्थाणुसमयोववृणावसेण सुह, थोवीभूदाणुभागसतकम्मादो तक्काले थोवयराणुभागसकमहाणिदसणादो । जयध० २ तस्स चेव दसणमोहक्खवयस्स दुचरिमाणुभागखडय घादिय तदणतरसमये तप्पाओग्गजहण्णहाणीए परिणदस्स चरिमाणुभागखडयविदियसमयप्पहुडि जावतोमुहुत्त जहण्णावठाणसकमो होइ, तत्थ पयारतरा ३ कुदो, दुचरिमाणुभागखडयसकमादो अणतगुणहाणीए हाइदूण चरिमाणुभागखडयसरूवेण परिणदस्स पढमसमए जहण्णभावसिद्धिपवाहाणुवलभादो । जयव० ४ एत्थ तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेणेत्ति णिद्दे सो पढमसमयजहण्णाणुभागवधादो विदियसमए जहण्ण सभवादो। जयध० ४२ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार विसंजोए दूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतो मुहुत्त संजुत्ते वि तस्स सुहुमस्स हेट्ठदो संतकम्पं । ४४६. तदो जो अंतोमुहुत्तसंजुत्तो जाव सुहुमकम्मं जहण्णयं ण पावदि ताव घादं करेज्ज । ४४७ तदो सव्वत्थोवाणुभागे वादिज्जमाणे घादिदे तस्स जहणिया हाणी । ४४८. तस्सेव से काले जहण्णयमवड्डाणं । ४४९. कोहसंजलणस्स जहणिया बडी मिच्छत्तभंगो । ४५०. जहणिया हाणी कस्स १ ४५१. खवयस्स चरिमसमयबंध चरिमसमय संकामयत । ४५२. जहण्णयमवाणं कस्स १ ४५३. तस्सेव चरिमे अणुभागखंडए वमाणयस्स । ४५४. समाधान - अनन्तानुवन्धी कपायोका विसंयोजन करके पुनः मिथ्यात्वको जाकर और अन्तर्मुहूर्त तक अनन्तानुवन्धी कपायोका संयोजन करके भी जिसके सूक्ष्म निगोदियाके अनुभागसे नीचे अनुभागसत्त्व रहता है, तदनन्तर वह अन्तर्मुहूर्त तक कपायोंसे संयुक्त हो करके भी जब तक सूक्ष्मनिगोदिया के योग्य जघन्य कर्मको नहीं प्राप्त कर लेता है, तव तक घात करता जाता है । इस क्रमसे घात करते हुए घातने योग्य सर्व स्तोक अनुभागके घात करनेपर उस जीवके अनन्तानुबन्धी कपायोके अनुभागकी जघन्य हानि होती है । उस ही जीवके तदनन्तरकालमे उक्त कषायोके अनुभागका जघन्य अवस्थान होता है ॥४४५-४४८॥ चूर्णिसू० – संज्वलनक्रोध की जघन्य वृद्धिका स्वामित्व मिथ्यात्व के समान जानना चाहिए ॥ ४४९ ॥ शंका- संन्वलनक्रोधकी जघन्य हानि किसके होती है ? ॥ ४५० ॥ समाधान- चरमसमयमे अर्थात् क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टि के अन्तिम समय में वॅधे हुए नवकवद्ध अनुभागको चरम समयमे संक्रमण करनेवाले अर्थात् मानवेदककालके दो समय कम दो आवलियोके अन्तिम समय में वर्तमान क्षपकके संज्वलनक्रोध के अनुभागकी जघन्य हानि होती है ॥ ४५१ ॥ शंका-संज्वलनक्रोध के अनुभागका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? ॥ ४५२ ॥ समाधान- अन्तिम अनुभाग कांडकमे वर्तमान उस ही क्षपकके संज्वलन क्रोधके वुड्ढसगहणठो । XXX एव वृत्तविहाणेण विदियसमए वड्ढिदूण तत्तो आवलियादीदस्स तस्स जहणिया वड्ढी; अणइच्छाविदवं धावलियस्स णवकबंधस्स सकमपाओग्गभावाणुववत्तीदो | जयध० १ एत्थ चरिमसमयवधो त्ति वुत्ते कोहतदियसगह किट्टी वेदयचरिमसमयबद्धणवकबधाणुभाग घेत्त । तस्स चरिमसमयसकामओ णाम माणवेदगद्धाए दुसमऊणदोआवलियचरिमसमए वट्टमाणो ति गहेयव्व । तस्स को धस जलणाणुभाग सकमणिव घणा जहणिया हाणी होइ । जयध० २ चरिमाणुभागखंडय णाम किट्टीकारयचरिमावस्थाए घेत्तव्य, उवरिमणुसमयोवट्टणाविसए खडय घादासंभवादो । जयध० * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'संतकम्म' पदसे आगे 'पयदजहण्णसामित्तसाहणट्टमिदं ताव पुव्वमेव णिमिदं' इतना अंग और भी सूत्ररूपसे मुद्रित है (देखो पृ० ११७६ ) । पर यह सूत्रका अग नहीं, अपि तु स्पष्ट रूपसे टीकाका अश है । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०५८ ] अनुभाग संक्रम-पदनिक्षेप स्वामित्व-निरूपण ३८७ एवं माण- मायासंजल - पुरिसवेदाणं । ४५५. लोहसंजलणस्स जहणिया बड़ी मिच्छत्तभंगो । ४५६. जहणिया हाणी कस्स ? ४५७. खवयस्स समयाहिपावलियस कसायस्स । ४५८. जहण्णयमवट्ठाणं कस्स १४५९. दुचरिमे अणुभागखंडए हदे चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणस्स । ४६०, इस्थिवेदस्स जहण्णिया चड्डी मिच्छत्तभंगो । ४६१. जहणिया हाणी कस्स १४६२. चरिमे अणुभागखंडए पढमसमयसंकामिदे तस्स जहण्णिया हाणी | ४६३. तस्सेव विदियसमये जहण्णयमवद्वाणं" । ४६४. एवं णस्यवेद छष्णोकसायाणं । अनुभागका जघन्य अवस्थान होता है ||४५३॥ 0 चूर्णिसू० - इसी प्रकार संज्वलन मान, मायाकपाय और पुरुषवेदके अनुभागकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान जानना चाहिए । संज्वलन लोभकी जघन्य वृद्धिका स्वामित्व मिथ्यात्व के समान है ||४५४-४५५॥ शंका-संज्वलनलोभकी जघन्य हानि किससे होती है ? ॥ ४५६ ॥ समाधान - एक समय अधिक आवलीकालवाले सकपाय सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकके होती है ॥४५७॥ शंका-संज्वलनलोभका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? ॥ ४५८ ॥ समाधान - द्विचरम अनुभागकांडकको घात कर चरम अनुभागकांडकमे वर्तमान क्षपक होता है || ४५९॥ चूर्णिसू० - स्त्रीवेदकी जघन्य वृद्धि मिध्यात्वके समान जानना चाहिए || ४६०॥ शंका- स्त्रीवेदकी जघन्य हानि किसके होती है ? ॥ ४६१ ॥ समाधान - स्त्रीवेदके अन्तिम अनुभागकांडकको प्रथम समयमे संक्रान्त करनेपर, अर्थात् अन्तिम अनुभागकांडकके प्रथम समयमे वर्तमान क्षपकके स्त्रीवेदकी जघन्य हानि होती है ॥४६२॥ चूर्णि सू०. ० - उस ही जीवके द्वितीय समयमे खीवेदका जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेद और हास्यादि छह नोकषायोकी वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वको जानना चाहिए ॥४६३-४६४॥ १ कुदो, वड्ढी मिच्छत्तभगेण, हाणि अवट्ठाणाण पि खत्रयस्स चरिमसमयणवकच धचरिमफालि विसयत्तेण चरिमाणुभागखडयविसयत्तेण च सामित्तपरूवण पडिविसेसाभावादो । जयध० २ समयाहियावलियस कसायो नाम सुहुमसपराइयो सगद्धाए समयाहियावलियसेसाए वट्टमाणो घेत्तव्यो । तस्स पयदजइण्णसामित्त दट्ठव्व; एत्तो मुहुमदरहाणीए लोहस जल्णाणुभागस कम णित्रघणाए अन्नस्थाणुवलद्धीदो | जयध० ३ कुदो; सुहुमहदसमुप्पत्तियकम्मेण जहण्णएणाणत मागवड्ढीए वड्ढिदम्मि सम्मत्तपडिलभ पडि ततो दस्स भेदाभावादो । जयध० ४ इत्थवेदस्स दुरिमाणुभागखडयचरिमफालिं सकामिय चरिमाणुभागलडय ढमसमए वट्टमाणस्स जहणिया हाणी होइ, तत्थ खवगपरिणामेहि घादिदावसेसस्स तदणुभागस्स सुट्ट्टु जहण्णहाणीए हाइदूण सकतिदसणादो | जयध० ५ कुदो; पढमसमए जद्दष्णहाणिविसयीकयाणुभागस्स विदियसमए तत्तियमेत्तपमाणेणावादमणादो । जयध० Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ४६५. अप्पाबहुअं । ४६६. सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया हाणी । ४६७. वड्डी अवट्ठाणं च विसेसाहियं । ४६८. एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । ४६९. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी अवठ्ठाणं च सरिस । ४७०. जहण्णयं । ४७१. मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणसंकमो चतुल्लो । ४७२. एवमट्ठकसायाणं । ४७३. सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा जहणिया हाणी । ४७४. जहण्णयमवट्ठाणमणंतगुणं । ४७५. सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया हाणी अवट्ठाणसंकमो च तुल्लों । ४७६. अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा जहणिया वड्डी । ४७७. जहणिया हाणी अवठ्ठाणसंकमो च अणंतगुणो । ४७८. चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणी । ४७९. जहण्णयमबहाणं अणंतगुणं । ४८०. जहणिया चूर्णिसू०-अव उत्कृष्ट वृद्धि आदिके अल्पबहुत्वको कहते है-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे कम होती है। वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक होते है। इसी प्रकार सोलह कपाय और नव नोकपायोका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान सदृश होते है ॥४६५-४६९॥ चूर्णि सू०-अब जघन्य अल्पबहुत्वको कहते है-मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानसंक्रमण तुल्य है। इसी प्रकार आठ मध्यम कपायोकी वृद्धि आदिका अल्पबहुत्व है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य हानि सबसे कम है। जघन्य अवस्थान अनन्तगुणित है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि और अवस्थानसंक्रमण तुल्य है। अनन्तानुबन्धी कपायोकी जघन्य वृद्धि सबसे कम है। जघन्य हानि और अवस्थानसंक्रमण अनन्तगुणित है। चारों संज्वलन और पुरुपवेदकी जघन्य हानि सबसे कम है। इससे इन्ही १ कुदो वुण एदेसि विसेसाहियणिच्छयो ? ण, वढिदाणुभागस्स णिरवसेसघादणसत्तीए असंभवेण तविणिच्छयादो । जयध० २ कुदो, उक्कस्सहाणीए चेव उकसावट्ठाणसामित्तदसणादो । जयध० । ३ कुदो; तिण्हमेदेसिं सुहुमहदसमुप्पत्तिजण्णाणुभागअणतिमभागे पडिबद्धत्तादो । जयध ४ कुदो, अणुसमयोवणाए पत्तघादसम्मत्ताणुभागस्स समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीयम्मि जहण्णहाणिभावमुवगयस्स सव्वत्थोवत्ते विरोहाणुवलभादो | जयघ० ५ कुदो; अणुसमयोवणापारभादो पुब्वमेव चरिमाणुभागखडयविसए जहण्णभावमुवगयत्तादो। ६ कुदो, दोण्हमेदेसि दसणमोहक्खवयदुचरिमाणुभागखडयपमाणेण हाइदूण लद्धजहण्णभावाणमण्णीण्णेण समाणत्तसिद्धीए, विप्पडिसेहाभावादो । जयध° ७ कुदो, तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेण सजुत्तविदियसमयणवकब धस्स जहण्णवड्ढिभावेणेह विवक्खियत्तादो | जयध० ८ कुदो, अतोमुहुत्तसजुत्तस्स एथतागुवड्ढोए वढिदाणुभागविसयसव्वत्थोवाणुभागखडयघादे कटे जपणहाणि-अवट्ठाणाण सामित्तदंसणादो । जयध° ९ कुदो, तिण्णिसजलण-पुरिसवेदाण सगसगचरिमसमयणवकवधचरिमसमयसकामयखवयम्मि लोभसजलणस्स ससयाहियावलियसकसायम्मि पयदजहण्णसामित्तावलवणादो। जयध० १० केण कारणेण ? चिराणसतकम्मचरिमाणुभागखडयम्मि पयदजहण्णावठाणसामित्तावलंबणादो । wwwwwwwwwwwww जयघ० जयध० Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३८९ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-वृद्धि-स्वामित्व-निरूपण बड्डी अणंतगुणा' । ४८१. अट्ठणोकसायाणं जहणिया हाणी अवठ्ठाणसंकमो च तुल्लो थोवो ४८२. जहणिया वड्डी अणंतगुणा । पदणिक्खेवो समत्तो ४८३. वड्डीए तिण्णि अणिओगद्दाराणि समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं च । ४८४. समुकित्तणा । ४८५. मिच्छत्तस्स अस्थि छबिहा वड्डी, छबिहा हाणी अवट्ठाणं च । ४८६. सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमस्थि अणंतगुणहाणी अवठ्ठाणमवत्तव्ययं च । ४८७. अणंताणुबंधीणमत्थि छव्हिा वड्डी हाणी अवट्ठाणमवत्तव्वयं च । ४८८. एवं सेसाणं कम्माणं । ४८९. सामित्तं । ४९०. मिच्छत्तस्स छव्हिा वड्डी पंचविहा हाणी कस्स ? ४९१. मिच्छाइडिस्स अण्णयरस्स। ४९२. अणंतगुणहाणी अवट्ठिदसंकमो च कस्स ? कर्मोंका जघन्य अवस्थान अनन्तगुणित है। इससे उन्हीकी जघन्य वृद्धि अनन्तगुणित होती है। आठो मध्यम कपायोकी जघन्य हानि और अवस्थानसंक्रमण परस्पर तुल्य और अल्प है । जघन्य वृद्धि अनन्तगुणित है ॥४७०-४८२॥ इस प्रकार पक्षनिक्षेप अधिकार समाप्त हुआ । चूर्णिसू०-वृद्धि अधिकारमे तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । पहले समुत्कीर्तना कहते है-मिथ्यात्वकी छह प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि होती है, अवस्थान और अवक्तव्यसंक्रमण होता है । अनन्तानुवन्धी कषायोकी छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानि होती है, तथा अवस्थान और अवक्तव्यसंक्रमण भी होता है। इसी प्रकार शेप बारह कपाय और नव नोकपायोकी वृद्धि, हानि, अवस्थान और अवक्तव्यसंक्रमण होते हैं ॥४८३-४८८॥ . चूर्णिसू०-अब वृद्धि आदिके स्वामित्वको कहते हैं ॥४८९॥ . शंका-मिथ्यात्वकी छह प्रकारकी वृद्धि और अनन्तगुणहानिको छोड़कर पॉच प्रकारकी हानि किसके होती है ? ॥४९०॥ समाधान-किसी एक मिथ्यादृष्टिके होती है ॥४९१॥ शंका-मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि और अवस्थितसंक्रमण किसके होता है ? ॥४९२।। १ कुदो, एत्तो अणतगुणसुहुमाणुभागविसए लद्धजण्णभावत्तादो । जयध० २ कुदो, दोण्हमेदेसिं पदाणमप्पप्पणो चरिमाणुभागखडयविसए पयदजहण्णसामित्तसमुवलद्धीदो। जयध० ३ दसणमोहक्खवणाए अणतगुणहाणिसभवो, हाणीदो अण्णस्थ सव्वत्थेवाठाणसकमसभवो, असकमादो सकामयत्तमुवगयम्मि अवत्तव्वस कमो, तिण्हमेदेसिमेत्य सभवो ण विरुज्झदे । सेसपदाणमेत्थ णस्थि सभवो । जयध० ४ णवरि सवोवसामणापडिवादे अवत्तव्वसभवो वत्तव्यो । जयध० ५ (कुदो;) ण ताव सम्माइट्ठिम्मि मिच्छत्ताणुभागविसयछवढीणमत्यि सभवो, तत्थ तबधा Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार ४९३. अण्णयरस्स । ४९४ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमणंतगुणहाणिसंकमो कस्स ? ४९५. दंसणमोहणीयं खवेंतस्सं । ४९६. अवद्वाणसंकमो कस्स १४९७. अण्णदरस्तं । ४९८. अवत्तव्वसंकमो कस्स १ ४९९ विदियसमय उवसमसम्माइट्ठिस्स । ५००. सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो । ५०१ णवरि अनंताणुबंधीणमवत्तव्यं विसंजोएदूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण आचलियादीदस्स । ५०२. सेसाणं कम्माणमवत्तव्यमुवसामेदूण परिवमाणयस्स | ५०३. अप्पा बहुअं । ५०४ सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स अनंतभागहाणिसंकामया " । ५०५. असंखेज्जभागहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा । ५०६. संखेज्जभागहाणि संकामया समाधान- किसी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होता है ||४९३ ॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका अनन्तगुणहानिसंक्रमण किसके होता है ? ||४९४ ॥ समाधान- दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण करनेवाले जीवके होता है ||४९५|| शंका-उक्त दोनो कर्मोंका अवस्थानसंक्रमण किसके होता है ? ॥४९६॥ समाधान - किसी एक सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होता है || ४९७ ॥ शंका- उक्त दोनो कर्मोंका अवक्तव्यसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ४९८ ॥ समाधान- द्वितीयसमयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टिके होता है ॥ ४९९ ॥ चूर्णिसू० - शेप कर्मोंका स्वामित्व मिथ्यात्व के समान जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि अनन्तानुबन्धी कपायोका अवक्तव्य संक्रमण अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर एक आवलीकाल व्यतीत करनेवाले मिध्यादृष्टि जीवके होता है । शेष कर्मोंका अवक्तव्य संक्रमण कपायोका उपामन करके नीचे गिरनेवाले जीवके होता है ॥५००-५०२॥ चूर्णिम् ० (० - अव वृद्धि आदि पदोका अल्पबहुत्व कहते है - मिध्यात्वकी अनन्तभागहानिके संक्रामक वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । अनन्तभागवृद्धि-संक्रामको से असंख्यात भागहानिके संक्रामक असंख्यातगुणित हैं। असंख्यात भागहानि - संक्रामको से संख्यातभागहानिके संक्रामक संख्यातगुणित हैं । संख्यात भागहानि - संक्रामकोसे संख्यातगुणहानिके भावादो | ण च बधेण विणा अणुभागसंकमस्स वड्ढी लम्भदे, तहाणुवलद्धीदो । तहा पचविद्दा हाणी वि तत्थ त्थि, सुविमदविसोहीए कडयघाद करेमाणसम्माइट्ठिम्मि अणतगुणहाणि मोत्तूण सेसपचहाणीणमसंभवादो । तदो मिच्छाइट्रिट्ठस्सेव णिरुद्धछवड्ढि - पचहाणीण सामित्तमिदि । जयध० १ कुदो; दसणमोहक्खवणादो अण्णत्ये देसिमनुभागघादासभवादो । जयध० २ कुदो, मिच्छाइट्ठि सम्माइट्ठीर्ण तदुवलद्वीए विरोहाभावादो । जयध० ३ कुदो, तत्थासक्रमादो सकमपवृत्तीए परिप्फुडमुवलभादो | जयध० ४ कुदो, एगकडयविसयत्तादो | जयध० ५ चरिमुव्वकट ठाणा दोपहुढि अणतभागहाणि अद्वाणमेगकडयमेत्त चेव होदि । एदेसि पुण तारसाणि अद्वाणाणि ख्वाहियक डयमेत्ताणि हवति । तदो तव्विसयादो पयदविसयो असखेजगुणो त्ति सिद्धमेदेसिं तत्तो असखेजगुणत्त । जयघ० Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रम-वृद्धि-अल्पवहुत्व-निरूपण ३९१ संखेज्जगुणा । ५०७. संखेज्जगुणहाणिसंकामया संखेज्जगुणा'। ५०८. असंखेजगुणहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा । ५०९. अणंतभागवडिसंकामया असंखेज्जगुणा । ५१०. असंखेज्जभागवड्डिसंकामया असंखेज्जगुणा । ५११. संखेज्जभागवड्डिसंकामया संखेज्जगुणा । ५१२. संखेज्जगुणवड्डिसंकामया संखेज्जगुणा । ५१३. असंखेज्जगुणवड्डिसंकामया असंखेज्जगुणा । ५१४. अणंतगुणहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा । ५१५. संक्रामक संख्यातगुणित हैं। संख्यातगुणहानि-संक्रामकोसे असंख्यातगुणहानिके संक्रामक असंख्यातगुणित है । असंख्यातगुणहानि-संक्रामकोसे अनन्तभागवृद्धिके संक्रामक असंख्यातगुणित है । अनन्तभागवृद्धि-संक्रामकोसे असंख्यातभागवृद्धिके संक्रामक असंख्यातगुणित है । असंख्यातभागवृद्धि-संक्रामकोसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक संख्यातगुणित हैं । संख्यातभागवृद्धि-संक्रामकोसे संख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक संख्यातगुणित है । संख्यातगुणवृद्धि-संक्रामकोसे असंख्यातगुणवृद्धि के संक्रामक असंख्यातगुणित हैं। असंख्यातगुणवृद्धि-संक्रामकोसे अनन्तगुणहानिके संक्रामक असंख्यातगुणित है । अनन्तगुणहानिके संक्रामकोसे अनन्तगुण १ त जहा-रूवाहियअणतभागहाणि असखेजभागहाणि-अद्धाणपमाणेण एग सखेजभागहाणिअद्धाण कादूणेवविहाणि दोण्णि तिणि चत्तारि त्ति गणिजमाणे उक्कस्ससखेजयस्स सादिरेयद्धमेत्ताणि अद्धाणाणि सखेजभागहाणीए विसओ होइ, तेत्तियमेत्तमद्धाण गण तत्थ दुगुणहाणीए समुप्पत्तिदसणादो । तदो विसयाणुसारेणुक्कस्ससखेज यस्स सादिरेयद्धमेत्तो गुणगारो तप्पाओग्ग सखेजरूवमेत्तो वा | जयध० ___ २ त कध १ सखेजभागहाणिसकामएहिं लद्धट्ठाणपमाणेणेयमद्धाण कादूण तारिसाणि जहण्णपरित्तासखेजयस्स रूवूणद्धच्छेदणयमेत्ताणि जाव गच्छति ताव संखेजगुणहाणिविसओ चेव, तत्तोप्पहुडि असखेजगुणहाणिसमुप्पत्तीदो । तदो एत्थ वि विसयाणुसारेण रूवूणजहण्णपरित्तासखेजछेदणयमेत्तो तप्पाओग्गसखेजरूवमेत्तो वा गुणगारो । जयध० ३ पुव्वाणुपुवीए चरिमसखेजभागवढिकडयस्सासखेनदिभागे चेव सखेजभागहाणि-सखेजगुणहाणीओ समप्पति । तेण कारणेण चरिमसखेजभागवड्ढिकडयस्स सेसा असखेजा भागा सखेजासखेजगुणवड्ढिसयलद्धाण च असखेजगुणहाणिसकमाण विसयो होइ । तदो एत्थ विसयाणुसारेण अगुलस्सासखेजभागमेत्तो गुणगारो, तप्पाओग्गासखेजरूवमेत्तो वा । जयध० ४-त कथ ? पुबुत्तासेसहाणिसकामयगमी एयसमयसचिदो, खहयवादाण तत्समयमोत्तूणण्णत्य हाणिसंकमसभवादो । एसो वुण रासी आवलियाए असखेजभागमेत्तकालसचिदो; पचण्ड वड्ढीणमावलियाए असखेजदिशगमेत्तकालोवएसादो। तदो कडयमेत्तविसयत्ते वि सचयकालपाहम्मेणासखेजभागमेत्तमेदेसि सिद्धं । गुणगारपमाणमेत्थासखेजा लोगा त्ति वत्तव्च । कुदो एव चे, हाणिपरिणामाण सुठ्ठ दुल्लहत्तादो । वढिपरिणामाणमेव पाएण सभवादो । जयध० - ५ दोण्हमावलियासखेजभागमेत्तकालपडिबद्धत्ते समाणे सते वि पुबिल्लकालादो एदस्स कालो असखेजगुणो पुविल्लकालस्स चेव असखेजगुणत्त । कथमेसो कालगओ विसेसो परिच्छिण्णो ? महाबधपरूविदकालप्पाबहुआदो । जयध० ६ किं कारण १ असखेजगुणवढिसकामयरासी आवलियाए असखेज दिभागमेत्तकालसचिदो होइ, किंतु थोवविसयो, एयछट्ठाणभतरे चेय तव्विसयणिबधदसणादो। अणतगुणहाणिसंकामयरासी पुण जइ वि एयसमयसचिदो, तो वि असखेजलोगमेत्तछट्ठाणपडिबद्धो । तदो सिद्ध मेदेसि तत्तो असखेजगुणत्त । जयघ० Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार अनंत गुणवसिंकामया असंखेज्जगुणा' । ५१६. अवद्विदसं कामया संखेज्जगुणा' । ५१७. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अनंतगुणहाणिसंकामया । ५१८. अवत्तव्वसंकामया असंखेज्जगुणा । ५१९. अवट्ठिदसंकामया असंखेज्जगुणा । ५२०. सेसाणं कम्माणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामय । ५२१. अनंतभागहाणिसं कामया अनंतगुणा । ५२२. सेसाणं संकामया मिच्छत्तभंगो । एवं वड्डिको समत्तो . ५२३. एत्तो द्वाणाणि कायव्वाणि । ५२४. जहा संतकम्मट्ठाणाणि तहा संकमणाणि । ५२५. तहावि परूवणा कायव्वा । ५२६. उक्कस्सए अणुभागबंधट्ठाणे वृद्धिके संक्रामक असंख्यातगुणित है । अनन्तगुणवृद्धि • संक्रामकों से अवस्थित संक्रामक संख्यातगुणित है ।।५०३-५१६॥ चूर्णिम् ०– सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिके संक्रामक सबसे कम हैं । अवक्तव्य संक्रामक असंख्यातगुणित है । अवस्थित संक्रामक असंख्यात - गुणित है । शेष कर्मों के अवक्तव्यसंक्रामक सबसे कम हैं । अवक्तव्य संक्रामको से अनन्तभागहानि संक्रामक अनन्तगुणित हैं । शेष संक्रामकोका अल्पवहुत्व मिथ्यात्वके समान जानना चाहिये ।।५१७ - ५२२।। इस प्रकार वृद्धिसंक्रमण समाप्त हुआ । चूर्णिसू० [0- अब इससे आगे अनुभाग के संक्रमस्थानो की प्ररूपणा करना चाहिए । जिस प्रकार अनुभागविभक्तिमे अनुभाग के सत्कर्मस्थान कहे गये हैं, उसी प्रकार अनुभागसंक्रमस्थानोको जानना चाहिए । तथापि उनकी प्ररूपणा यहाँ करने योग्य है ।। ५२३-५२५ ।। विशेपार्थ-संक्रमस्थानोका प्ररूपण चार अनुयोगद्वारोसे किया गया है- समुत्कीर्तना, प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व | समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा मोहनीयकी सभी प्रकृतियोके १ को गुणगारो ? अतोमुहुत्त | जयध २ कुदो; अणत गुणवढि कालादो अवट्ठिदसकमकालस्स असखेज गुणत्तावलवणादो | जयध० ३ कुदो; दंसणमोहक्खवयजीवाण चैव तव्भावेण परिणामोवलभादो । जयध० ४ कुदोः पलिदोवमासखेजभागमेत्तजीवाण तव्भावेण परिणदाणमुवल भादो । जयध० ५ कुदो; तब्बदिरित्तासेससम्मत्त सम्मामिच्छत्तस तकम्मिय जीवाणमवट्ठिदसकामयभावेणावठाणदसणादो | एत्थ गुणगारपमाण आवलियाए असंखेज दिभागमेत्तो घेत्तव्वो । जयध० ६ कुदो; अणताणुत्रधीण विसंयोजणापुव्वसजोगे वट्टमाणपलिदोवमासखेजभागमेत्तजीवाण सेसक सायणोकसायाण पिसव्योव सामणापडिवादपदम समय महिटि ठदस खेजो वसामय जीवाणमवत्तव्वभावेण परिणदाणमुवलद्धीदो | जयध० ७ कुदो; सव्वजीवाणमसखेजभागपमाणत्तादो । जयध० ८ किमउमेसा ठाणपरूवणा आगया ? वड्ढीए पलविदछवड्ढिहाणीणमवतरवियप्पपदुप्पायणट्ठमागया ।×× तत्थापरूविदवधसमुप्पत्तिय- हदसमुप्पत्तिय-हदहदसमुप्पत्तियभेदाण पादेक्कमसखेजलोगमेत्तछट्ठासरुवाणमिह परूवणोवलभादो | जयघ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण ३९३ गा० ५८ ] अनुभागसंक्रम-स्थान-प्रमाण-निरूपण एगं संतकम्मं तमेगं संकमट्ठाणं । ५२७. दुचरिमे अणुभागबंधट्ठाणे एवमेव । ५२८. एवं ताव जाव पच्छाणुपुवीए पडममणंतगुणहीणबंधट्ठाणमपत्तो तिं । ५२९. पुव्वाणुपुवीए गणिज्जमाणे जं चरिममणंतगुणं बंधट्ठाणं तस्स हेट्ठा अणंतरमणंतगुणहीणमेदम्मि अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । ५३०. ताणि संतकम्मट्ठाणाणि ताणि चेव संकमट्ठाणाणि । ५३१. तदो पुणो बंधट्टाणाणि संकमट्ठाणाणि च ताव तुल्लाणि जाव पच्छाणुपुवीए विदियमणंतगुणहीणवंधट्ठाणं । ५३२. विदियअणंतगुणसंक्रमस्थान तीन प्रकारके होते है:-वन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान, हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान, और हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान नहीं होते है, शेप दो संक्रमस्थान होते है । सुगम होनेसे चूर्णिकारने समुत्कीतना नही कही है। आगे शेप तीन अनुयोगद्वारोको कहा है। अब चूर्णिकार प्ररूपणा और प्रमाण इन दोनोको एक साथ कहते है चूर्णिसू०-उत्कृष्ट अनुभागवन्धस्थान पर जो एक अनुभागसत्कर्म है, वह एक अनुभागसंक्रमस्थान है। द्विचरम अनुभागवन्धस्थानपर इसी प्रकार एक अनुभागसत्कर्मस्थान और एक अनुभागसंक्रमस्थान होता है। इस प्रकार त्रिचरम, चतुश्चरम आदिके क्रमसे पश्चादानुपूर्वीके द्वारा अनन्तगुणहीन प्रथम बन्धस्थान प्राप्त होने तक अनुभागसत्कर्मस्थान और अनुभागसंक्रमस्थान उत्पन्न होते हुए चले जाते है, ।१५२६-५२८।। चूर्णिसू०-पूर्वानुपूर्वीसे गिननेपर जो अन्तिम अनन्तगुणित अनुभागवन्धस्थान है, उसके नीचे अनन्तगुणितहीन बन्धस्थानके नही प्राप्त होने तक इस मध्यवर्ती अन्तरालमे असंख्यातलोकप्रमाण घातस्थान होते है। ये घातस्थान ही अनुभागसत्कर्मस्थान कहलाते हैं और वे ही अनुभागसंक्रमस्थानरूपसे परिणत होनेके कारण अनुभागसंक्रमस्थान कहलाते है। उस पूर्वोक्त अनन्तगुणहीन बन्धस्थानसे लेकर पुनः बन्धस्थान और संक्रमस्थान ये दोनो तब तक तुल्य चले जाते हैं, जब तक कि पश्चादानुपूर्वीसे द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थान १ वधाणतरसमए बचट्ठाणस्सेव सतकम्मववएससिद्धीदो । तमेव संकमठाण पि, बधावलियवदिक्कमाणतर तस्सेव सकमठाणभावेण परिणयत्तादो । तदो पजवसाणव धट्ठाणस्स सतकम्मछाणत्ताणुवादमुहेण सकमठाणभावविहाणमेदेण सुत्तेण कय ति दट्ठन्य । जयध० २ कुदो, तेसिं सव्वेसि वधसमुप्पत्तियसतकम्मट्ठाणत्तसिद्धीए पडिसेहाभावादो । ३ त जहा-पुव्वाणुपुवी णाम सुहुमहदसमुप्पत्तियसवजहण्णसतकम्मलाणप्पहुडि छवड्ढीए अवट्ठिदाणमणुभागबधट्ठाणाणमादीदो परिवाडीए गणणा । ताए गणिजमाणे ज चरिममणतगुणवधट्ठाण पज्जवसाणट्ठाणादो हेट्ठा रूवूणछट्ठाणमेत्तमोसरिदूणावठ्ठिद, तस्स हेटछा अणंतरमणतगुणहीणवधट्ठाणमपावेदूण एदम्मि अतरे घादठाणाणि समुप्पज्जति | केत्तियमेत्ताणि ताणि त्ति वुत्ते असखेज्जलोगमेत्ताणि त्ति तेसिं पमाणणिद्देसो कदो । जयध० ४ ताणि समणतरणिद्दिठ्यादाणाणि सतकम्मट्ठाणाणि, हदसमुप्पत्तियसतकम्मभावेणावट्ठिदाण तभावाविरोहादो । ताणि चेव सकमठाणाणि, कुदो, तेसिमुप्पत्तिसमणतरसमयप्पहुडि ओकड्डुणादिवसेण सकमपञ्जायपरिणाम पडिसेहाभावादो । जयध० ५० Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ कलाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार हीणबंधट्ठाणस्सुवरिल्ले अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । ५३३. एवमणंतगुणहीणबंधट्ठाणस्सुवरिल्ले अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । ५३४. एवमणंतगुणहीणवंधट्ठाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि धादट्ठाणाणि भवंति, णत्थि अण्णमि । ५३५. एवं जाणि बंधट्ठाणाणि ताणि णियमा संकमट्ठाणाणि । ५३६. जाणि संकमट्ठाणाणि ताणि बंधट्टाणाणि वा ण वा । ५३७. तदो बंधट्ठाणाणि थोवाणि । ५३८. संतकम्मट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ५३९. जाणि च संतकम्मढाणाणि तणि संकमट्ठाणाणि । ५४०. अप्पाबहुअं जहा सम्माइडिगे बंधे तहा।। प्राप्त होता है। इस द्वितीय अनन्तगुणहीन वन्धस्थानके उपरिम अन्तरालमे फिर भी असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते है ।।५२९-५३२॥ चूर्णिसू०-इस प्रकार ( तृतीय, चतुर्थादि ) अनन्तगुणहीन वन्धस्थानोके उपरिम अन्तरालोमे सर्वत्र असंख्यातलोकप्रमाण घातस्थान होते है, अन्यमे नही । अर्थात् असंख्यातगुणहीनादि अन्य वन्धस्थानोके उपरिम अन्तरालमे घातस्थान नहीं होते हैं। इस प्रकार जितने बन्धस्थान है, वे नियमसे संक्रमस्थान है। किन्तु जो संक्रमस्थान हैं, वे बन्धस्थान हैं भी, और नहीं भी है। इसलिए वन्धस्थान थोड़े हैं और सत्कर्मस्थान असंख्यातगुणित है । अनुभागके जितने सत्कर्मस्थान होते है, उतने ही संक्रमस्थान होते है ॥५३३-५३९।। अब चूर्णिकार संक्रमस्थानोका अल्पवहुत्व कहने के लिए समर्पणसूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-जिस प्रकारसे सम्यग्दृष्टिक वन्धस्थानोका अल्पवहुत्व कहा है, उसी प्रकारसे यहॉपर संक्रमस्थानोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए ॥५४०॥ विशेपार्थ-चूर्णिकारने संक्रमस्थानोके जिस अल्पबहुत्वका यहाँ पर संकेत किया है, वह स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है। उसमे स्वस्थान-अल्पवहुत्व इस प्रकार है-मिथ्यात्वके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान सबसे कम है। हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है । इसी प्रकार सर्व कर्माके संक्रमस्थानोका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। केवल सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके १ कुदो; एगछठाणेणूणाणुभागसतकम्मियमादि कादूण जाव पच्छाणुपुटवीए विदियअट्ठकाणे त्ति ताव एदेसु ठाणेसु घादिजमाणेसु पयदतरे असखेड्जलोगमेत्तघादट्ठाणाणमुप्पत्तीए परिप्फुडमुवलंभादो । जयघ २ णवरि सुहुमहदसमुप्पत्तियजहण्णाणादो उवरिमाणं सखेजाणमट्ठकुव्वकाणमतरेसु हदसमुप्पत्तियसकमट्ठाणाणमुप्पत्ती णस्थि त्ति वत्तव्यं । जयध० ३ किं कारण ? पुव्वुत्तणाएण सव्वेसिं बधट्ठाणाणं सकमठाणत्तसिद्धीए विरोहाभावादो । जयध° ४ कुदो, बंधाणेहिंतो पुधभूदघाट्ठाणेसु वि सकमठाणाणमणुवत्तिदसणादो । जयध° ५ जदो एव घादट्ठाणेसु बंधाणाण सभवो णस्थि, तदो ताणि थोवाणि त्ति भणिद होइ । जयध° ६ कुदो, बधठाणेहिंतो असंखेज्जगुणघादट्ठाणेसु वि संतकम्मट्ठाणाणं सभवदसणादो । जयघ° Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] अनुभागसंक्रमस्थान-अल्पवहुत्व-निरूपण ३९५ घातस्थान सवसे कम होते है और संक्रमस्थान विशेप अधिक होते है। अब परस्थानअल्पबहुत्व कहते हैं-सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागसंक्रमस्थान सवसे कम हैं। सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वप्रकृति के अनुभागसत्कर्मस्थान असंख्यातगुणित हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिसे हास्यके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हास्यके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे रतिके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है । हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। रतिके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे स्त्रीवेदके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं । स्त्रीवेदके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे जुगुप्साके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है । हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। जुगुप्साके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे भयके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। भयके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे शोकप्रकृतिके तीनो प्रकारके संक्रमस्थान उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित है। शोकप्रकृतिसे अरतिके तीनों संक्रमस्थान उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित है। अरतिसे नपुंसकवेदके तीनो संक्रमस्थान उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित हैं। नपुंसकवेदसे अप्रत्याख्यानमानके वन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं । क्रोधके विशेष अधिक है । मायाके विशेष अधिक है । लोभके विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानलोभके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे अप्रत्याख्यान मानके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। इससे क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित है। अप्रत्याख्यानलोभके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे अप्रत्याख्यानमानके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। इनसे क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित है। अप्रत्याख्यानलोभके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे प्रत्याख्यानमानके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं । क्रोधके विशेष अधिक हैं । मायाके विशेष अधिक है। लोभके विशेष अधिक हैं। प्रत्याख्यानलोभके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे प्रत्याख्यानमानके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। इनसे प्रत्याख्यान क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर विशेष-विशेष अधिक हैं। प्रत्याख्यानलोभके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे प्रत्याख्यानमानके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। इनसे क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर विशेप-विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानलोभके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे संज्वलनमानके वन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। इनसे क्रोध, माया और लोभके विशेष-विशेप अधिक है। संज्वलनलोभके वन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे संज्वलनमानके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार एवं 'संकामेदि कदि वा' त्ति एदस्स पदस्स अत्थं समाणिय अणुभागसंकमो समत्तो। इनसे क्रोध, माया और लोभके विशेष-विशेष अधिक हैं। संज्वलनलोभके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोंसे संज्वलनमानके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। इनसे क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर विशेष अधिक हैं। संज्वलनलोभके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे अनन्तानुवन्धीमानके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। इनसे क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर विशेष-विशेष अधिक हैं। अनन्तानुवन्धी लोभके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे अनन्तानुवन्धीमानके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। इनसे क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर विशेष अधिक है । अनन्तानुवन्धी लोभके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोसे अनन्तानुबन्धीमानके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। इनसे क्रोध, माया और लोभके उत्तरोत्तर विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धी लोभके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थानोंसे मिथ्यात्वके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है । इनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं और इनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं । यहाँ सर्वत्र गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है और विशेषका प्रमाण असंख्यातलोभका प्रतिभाग है। जिन कर्मोंके अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणित हैं, उनके अनुभागसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। किन्तु जिन कर्मों के अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक हैं, उनके संक्रमस्थान भी विशेष अधिक ही हैं । इस प्रकार पाँचवीं मूलगाथाके 'संकामेदि कदि वा' इस पदका अर्थ समाप्त होने के साथ अनुभागसंक्रमण अधिकार समाप्त हुआ । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदेससंकमाहियारो १. पदेससंकमो । २. तं जहा । ३. मूलपयडिपदेससंकमो णत्थि' । ४. उत्तरपयडिपदेससंकमो' । ५. अट्ठपदं । ६. जं पदेसग्गमण्णपयडिं णिजदे जत्तो पयडीदो तं पदेसग्गं णिज्जदि तिस्से पयडीए सो पदेससंकमो । ७. जहा मिच्छत्तस्स पदेसग्गं सम्मत्ते संछुहदि तं पदेसग्गं मिच्छत्तस्त पदेससंकमो । ८. एवं सव्वत्थ । ९. एदेण अट्ठपदेण तत्थ पंचविहो संकमो। १०. तं जहा । ११. उबेल्लणसंकमो विज्झादसंकमो अधापवत्तसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो च । प्रदेश-संक्रमाधिकार चर्णिम् ०-अब प्रदेशसंक्रमण कहते हैं। वह इस प्रकार है-मूलप्रकृतियोके प्रदेशोका संक्रमण नही होता है। उत्तरप्रकृतियोके प्रदेशोका संक्रमण होता है। उत्तरप्रकृतियोंके प्रदेशसंक्रमणके विषयमे यह अर्थपद है-जो प्रदेशाग्र जिस प्रकृतिसे अन्य प्रकृतिको ले जाया जाता है, वह उस प्रकृतिका प्रदेश-संक्रमण कहलाता है। जैसे-मिथ्यात्वका प्रदेशाग्र सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रान्त किया जाता है, वह सम्यक्त्वप्रकृतिके रूपसे परिणत प्रदेशाग्र मिथ्यात्वका प्रदेश-संक्रमण है। इसी प्रकार सर्व प्रकृतियोका प्रदेश-संक्रमण जानना चाहिए । इस अर्थपदकी अपेक्षा वह प्रदेश-संक्रमण पॉच प्रकारका है। वे पॉच भेद ये है-उद्वेलनसंक्रमण, विध्यातसंक्रमण, अधःप्रवृत्तसंक्रमण, गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण ॥१-११॥ १ कुदो, सहावदो चेव मूलपयडीणमण्णोण्णविसयसकतीए असभवादो । जयध० २ कुदो, तासि समयाविरोहेण परोप्परविसयसकमस्स पडिसेहाभावादो । जयध० ३ किमट्ठपद णाम ? जत्तो विवक्खियस्स पयत्थस्स परिच्छित्ती तमट्ठपदमिदि भण्णदे । जयध० ४ जं दलियमनपगई णिजइ सो संकमो पएसस्स । उचलणो विज्झाओ अहापवत्तो गुणो सव्वो ॥ ६० ॥ कम्मप० पदेसस० ५ एदेण परपयडिसक तिल्क्खणो चेव पदेससकमो, ओकड्डुक्कड्डणालक्खणो त्ति जाणाविद, टिठदिअणुभागाण च ओकडडुक्कड्डणाहि पदेसग्गस्स अण्णभावावत्तीए अणुवलभादो । जयध० ६ तत्थुव्वेल्लणसकमो णाम करणपरिणामेहि विणा रज्जुवेल्लणकमेण कम्मपदेसाण परपयडिसरूवेण सछोहणा ।xxx सपहि विज्झादसकमस्स परूवणा कीरदे । त जहा-वेदगसम्मत्तकालभतरे सव्वत्थेव मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताण विज्झादसकमो होइ जाव दसणमोहक्खवयअधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति । उवसमसम्माइटिठम्मि गुणसंकमकालादो उवरि सव्वत्थ विज्झादसकमो होइ ।x x x बधपयडीण सगवधसभवविसए जो पदेससकमो सो अधापबत्तसकमो त्ति भण्णदे ।xxx समय पडि असखेजगुणाए सेढीए जो पदेससंकमो सो गुणसकमो त्ति भण्णदे Ixxx सव्वस्सेव पदेसग्गस्स जो सक्मो सो सव्वसकमो त्ति भण्णदे । सो कत्थ होइ ? उज्वेल्लणाए विसजोयणाए खवणाए च चरिमटिठदिखायचरिमफालिसंकमी होइ । जयध० Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार विशेषार्थ-संक्रमणके योग्य जो कर्मप्रदेश जिस-किसी विवक्षित प्रकृतिसे ले जाकर अन्य प्रकृतिके स्वभावसे परिणमित किये जाते है, उसे प्रदेशसंक्रमण कहते है । मूल प्रकृतियोका प्रदेश-संक्रमण नहीं होता, अर्थात् ज्ञानावरणकर्मके प्रदेश कभी भी दर्शनावरणकर्मरूपसे परिणत नहीं होगे। इससे यह स्वयंसिद्ध है कि उत्तरप्रकृतियोमें ही प्रदेशसंक्रमण होता है । तथापि उनमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका, तथा चारों आयुकर्मोंका परस्परमे प्रदेशसंक्रमण नहीं होता। प्रदेशसंक्रमणके पाँच भेद है-उद्वेलनसंक्रमण, विध्यातसंक्रमण, अधःप्रवृत्तसंक्रमण, गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण। अधःप्रवृत्त आदि तीन करण-परिणामोके विना ही कर्मप्रकृतियोके परमाणुओका अन्य प्रकृतिरूप परिणमित होना उद्वेलनसंक्रमण कहलाता है। उद्वेलन नाम उकेलनेका है। जैसे अच्छी तरहसे भेजी हुई रस्सी किसी निमित्तको पाकर उकलने लगती है और धीरे-धीरे बिलकुल उकल जाती है, उसी प्रकार कुछ कर्म-प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जो कि बँधनेके बाद किसी निमित्तविशेपसे स्वयं ही उकलने लगती हैं और धीरे-धीरे वे एकदम उकल जाती है, अर्थात् उनके प्रदेश अन्य प्रकृतिरूपसे परिणत हो जाते हैं। उद्वेलन-प्रकृतियाँ १३ हैं, उनमेसे मोहकर्मकी केवल दो ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं जिनकी उद्वेलना होती है, अन्यकी नहीं होती। वे दो प्रकृतियाँ हैं-सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति । अनादिकालीन मिथ्यादृष्टिके इनकी सत्ता नही होती, किन्तु जब प्रथम वार जीव औपशमिकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है, तभी एक मिथ्यात्वके तीन टुकड़े हो जाते है और उस एक मिथ्यात्वके स्थान पर तीन प्रकृतियोंकी सत्ता हो जाती है। वह औपशमिकसम्यग्दृष्टि औपशमिकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नियमसे गिरता है और मिथ्यात्वी हो जाता है। उसके मिथ्यात्वगुणस्थानमे पहुँचनेपर अन्तर्मुहर्त तक तो अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है और उसके पश्चात् उद्वेलनासंक्रमण प्रारंभ हो जाता है । उद्वेलनासंक्रमणका उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवा भाग है । इतने काल तक वह बराबर इन दो प्रकृतियोकी उद्वेलना करता रहता है। उसका क्रम यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वीके मिथ्यात्वमे पहुँचनेके एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिकी १ अंतोमुहत्तमद्धं पल्लासंखिजमेत्तठिइखंडं। उकिरइ पुणोवि तहा ऊणूणमसंखगुणहं जा ॥ ६२ ॥ तं दलियं सहाणे समए समए असंखगुणियाए । सेढीए परठाणे विसेसहाणीए संछुभइ ॥ ६३ ॥ जं दुचरिमस्स चरिमे अन्नं संकमइ तेण सव्वं पि। अंगुलअसंखभागेण हीरए एस उव्वलणा ॥ ६४ ॥ जासि ण वंधो गुण-भवपच्चयो तासि होइ विज्झाओ । अंगुलअसंखभागेणवहारो तेण सेसस्स ॥ ६८ ॥ गुणसंकमो अवज्झतिगाण असुभाणऽपुवकरणाई । वंधे अहापवत्तो परित्तिओ वा अबंधे वि ॥ ६९ ॥ कम्म३० पदेससक० Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-अर्थपद-निरूपण नरूपण ३९९ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिखंडको एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा उत्कीर्ण करता है । अर्थात् उद्वेलन करता है । उकेरने या उकेलनेका नाम उत्कीर्ण या उद्वेलन है । पुनः द्वितीय अन्तर्मुहूर्तके द्वारा पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण स्थितिखंडको उत्कीर्ण करता है । इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थादि अन्तर्मुहूर्तोंके द्वारा तावत्प्रमाण स्थितिखंडोको उत्कीर्ण करता जाता है। यह क्रम पल्योपमके असंख्यातवे भागकाल तक जारी रहता है। इतने कालमे वह उक्त दोनो प्रकृतियोकी उद्वेलना कर डालता है, अर्थात् उन्हे निःशेष कर देता है। ये एक-एक अन्तर्मुहूर्तमे होनेवाले उत्तरोत्तर स्थितिखंड यद्यपि सभी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, तथापि उत्तरोत्तर विशेष हीन है। यह स्थितिसंक्रमणकी अपेक्षा वर्णन है। प्रदेशसंक्रमणकी अपेक्षा तो पूर्व-पूर्व स्थितिखंडसे उत्तरोत्तर स्थितिखंडोके कर्मप्रदेश विशेष-विशेप अधिक हैं। प्रदेशोके उत्कीरणकी विधि यह है कि प्रथम समयमें अल्पप्रदेशोका उत्कीरण करता है। द्वितीय समयमें उससे असंख्यातगुणित प्रदेशोका, तृतीय समयमे उससे भी असंख्यातगुणित प्रदेशोका उत्कीरण करता है। इस प्रकार यह क्रम प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समय तक रहता है। प्रदेशोको उत्कीर्ण ( उकेर ) कर जहाँ निक्षेप करता है, उसका भी एक विशिष्ट क्रम है और वह यह कि कुछको तो स्वस्थानमे ही नीचे निक्षिप्त करता है और कुछको परस्थानमें निक्षिप्त करता है । इसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रथम स्थितिखंडमेसे प्रथम समयमे जितने प्रदेश उकेरता है, उनमेसे परस्थानमे अर्थात् परप्रकृतिमें तो अल्प प्रदेश निक्षेपण करता है । किन्तु स्वस्थानमे उनसे असंख्यातगुणित प्रदेशोका अधःनिक्षेपण करता है। इससे द्वितीय समयमें स्वस्थानमे तो असंख्यातगुणित प्रदेशोंका निक्षेपण करता है, किन्तु परस्थानमे प्रथम समयके परस्थान-प्रक्षेपसे विशेष हीन प्रदेशोका प्रक्षेपण करता है। यह क्रम प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समय तक जारी रहता है। यह उद्वेलनसंक्रमणका क्रम उक्त दोनो प्रकृतियोके उपान्त्य स्थितिखंड तक चलता है। अन्तिम स्थितिखंडमें गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण दोनो होते हैं। इस प्रकार यह उद्वेलनासंक्रमणका स्वरूप कहा। अब विध्यातसंक्रमणका स्वरूप कहते हैं-जिन कर्मोंका गुणप्रत्यय या भवप्रत्ययसे जहाँ पर बन्ध नहीं होता, वहाँ पर उन कर्मोंका जो प्रदेशसंक्रमण होता है, उसे विध्यातसंक्रमण कहते हैं। गुणस्थानोके निमित्तसे होनेवाले बन्धको गुणप्रत्यय बन्ध कहते है। जैसे मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियोका मिथ्यात्वके निमित्तसे वन्ध होता है, आगे नहीं होता। अनन्तानुबन्धी आदि पञ्चीस प्रकृतियोका दूसरे गुणस्थान तक वन्ध होता है, आगे नहीं होता। इस प्रकार आगेके गुणस्थानोमें भी जानना। इन बन्ध-व्युच्छिन्न प्रकृतियोका उपरितन गुणस्थानोमे बन्ध नहीं होता है, अतएव वहाँ पर उक्त प्रकृतियोका जो प्रदेशसत्त्व है, उसका जो पर-प्रकृतियोमे संक्रमण होता है, उसे आगममें विध्यातसंक्रमण कहा है। जिन प्रकृतियोका मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोमे वन्ध संभव है, फिर भी जो भवप्रत्ययसे अर्थात् नारक, देवादि पर्यायविशेपके निमित्तसे वहॉपर नहीं बंधती हैं, Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार १२. उव्वेलणसंकमे पदेसग्गं थोवं' । १३. विज्झादसंकमे पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । १४. अधापवत्तसंकये पदेसग्गमसंखेज्जगुण । १५. गुणसंकमे पदेसग्गमसंखेज्जगुण । १६. सव्वसंकमे पदेसग्गमसंखेज्जगुण । उनका उन गुणस्थानोमे भवप्रत्ययसे अबन्ध कहलाता है। जैसे मिथ्यात्वगुणस्थानमे एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण आदि प्रकृतियोंका वन्ध सामान्यतः होता है, परन्तु नारकियोके नारकभवके कारण उनका बन्ध नहीं होता है, क्योकि वे मरकर एकेन्द्रियादिमे उत्पन्न ही नहीं होते । यतः नारक-भवमे एकेन्द्रियादि प्रकृतियोका वन्ध नहीं है, अतः वहाँ पर जो उनके प्रदेशोका संक्रमण पर-प्रकृतिमे होता रहता है, उसे भी विध्यातसंक्रमण कहते है। यह संक्रमण अधःप्रवृत्तसंक्रमणके निरुद्ध हो जाने पर ही होता है । सभी संसारी जीवोके ध्रुवबंधिनी प्रकृतियोके बन्ध होनेपर, तथा स्व-स्वभव-वन्धयोग्य परावर्तमान प्रकृतियोके बन्ध या अवन्धकी दशामे जो स्वभावतः प्रकृतियोके प्रदेशोका पर-प्रकृतिरूप संक्रमण होता रहता है, उसे अधःप्रवृत्तसंक्रमण कहते है। जैसे जिस गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयकी जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उन वध्यमान प्रकृतियोमे चारित्रमोहनीयकी जितनी सत्त्व प्रकृतियाँ हैं, उनके प्रदेशोंका जो प्रदेशसंक्रमण होता है, वह अधःप्रवृत्तसंक्रमण है। अपूर्वकरणादि परिणामविशेपोका निमित्त पाकर प्रतिसमय जो असं. ख्यातगुणश्रेणीरूपसे प्रदेशोका संक्रमण होता है, उसे गुणसंक्रमण कहते है । यह गुणसंक्रमण अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर दर्शनमोहनीयके क्षपणकालमें, चारित्रमोहनीयके क्षपणकालमे, उपशमश्रेणीमे, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामे, सम्यक्त्वकी उत्पत्ति-कालमे, तथा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके चरमस्थितिखंडके प्रदेशसंक्रमणके समय होता है । विवक्षित प्रकृतिके सभी कर्मप्रदेशोका जो एक साथ पर-प्रकृतिमे संक्रमण होता है, उसे सर्वसंक्रमण कहते है। यह सर्वसंक्रमण उद्वेलन, विसंयोजन और क्षपणकालमे चरमस्थितिखंडके चरमसमयवर्ती प्रदेशोका ही होता है, अन्यका नहीं, ऐसा जानना चाहिए । अव उपर्युक्त संक्रमणोके प्रदेशगत अल्पबहुत्वको कहते हैं चूर्णिसू०-उद्वेलनसंक्रमणमे प्रदेशाग्र सबसे कम होते है। उद्वेलनसंक्रमणसे विध्यातसंक्रमणमे प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित होते हैं। विध्यातसंक्रमणसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणमे प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित होते है। अधःप्रवृत्तसंक्रमणसे गुणसंक्रमणमे प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित होते है । गुणसंक्रमणसे सर्वसंक्रमणमे प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित होते है ॥१२-१६॥ १ कुदो अगुलासखेजभागपडिभागियत्तादो । जयध २ कुदो, दोण्हमेदेसिमगुलासखेजभागपडिभागियत्ते समाणे वि पुन्विल्लभागहारादो विज्झादभागहारस्सासखेजगुणहीणत्तभुवगमादो । जयध० ३ किं कारण १ पलिदोवमासखेजभागपडिभागियत्तादो । जयध० ४ किं कारण ! पुचिल्लभागहारादो एदत्स असोजगुणहीणभागहारपडिबद्धत्तादो । जयध० ५ किं कारण ? एगरूवभागहारपडिबद्धत्तादो । जयध० Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-स्वामित्व-निरूपण ४०१ १७. एत्तो सामित्तं । १८. मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो कस्स १ १९. गुणिदकम्मंसिओ' सत्तमादो पुडवीदो उव्वट्टिदो' । २०. दो तिणि भवग्गहणाणि पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु उवषण्णो । २१. अंतोमुहुत्तेण मणुसेसु आगदों । २२. सव्वलहुँ दसणमोहणीयं खवेदुमाढत्तो । २३. जाधे मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते सव्वं संछुभमाणं संछुद्धं ताधे तस्स मिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो। चूर्णिसू०-अब इससे आगे प्रदेशसंक्रमणके स्वामित्वको कहते है ॥१७॥ शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥१८॥ समाधान-जो गुणितकर्माशिक जीव सातवी पृथ्वीसे निकला । पुनः पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्तकोंमें दो-तीन भवग्रहण करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्तसे ही मनुष्योंमें आगया । मनुष्योंमें उत्पन्न होकर सर्वलघुकालसे दर्शनमोहनीयका क्षपण प्रारम्भ किया। जिस समय सर्वसंक्रम्यमाण मिथ्यात्वद्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमे संक्रान्त करता है, उस समय उस जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥१९-२३॥ विशेषार्थ-गुणितकर्माशिक जीव किसे कहते है, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जो जीव पूर्वकोटी-पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम बादर-त्रसकालसे हीन सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण कर्मस्थिति तक बादर पृथ्वीकायिकजीवोमे परिभ्रमण करता रहा । १ जो वायरतसकालेणूणं कम्मट्टिइं तु पुढवीए । वायरे पज्जत्तापजत्तगदीहेयरद्धासु ॥४॥ जोगकसाउक्कोसो वहुसो निच्चमवि आउधं च । जोगजहण्णेणुवरिल्लठिइ णिसेगं वहुं किच्चा ॥५॥ वायरतसेसु तकाल मेवमंते य सत्तमखिईए । सव्वलहुं पजत्तो जोगकसायाहिओ वहुसो ॥७६॥ जोगजवमज्झउरि मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिम-दुचरिमसमए पूरित्तु कसायउक्कस्सं ॥७७॥ जोगुकस्सं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि । संपुन्नगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्ते ॥७८॥ कम्मप० प्रदेशसक० २ किमठ्ठमेसो तत्तो उव्वटाविदो ? ण, णेरइयचरिमसमए चेव पयदुक्कत्ससामित्तविहाणोवायाभावेण तहाकरणादो। कुदो तत्थ तदसभवो चे मणुसगदीदो अण्णत्थ दसणमोहक्खवणाए असभवादो। ण च दसणमोहक्खवणादो अण्णत्थ सव्वसकमसरूवो मिच्छत्तुक्कस्सपदेससकमो अस्थि, तम्हा गुणिदकम्मसिओ सत्तमपुढषीदो उव्वट्टिदो त्ति सुसबद्धमेद । जयध० ___३ कुदो; सत्तमपुढवीदो उवट्टिदस्स दो-तिण्णिपचिंदिय तिरिक्खभवग्गहणेहि विणा तदणतरमेव मणुसगदीए उप्पनणासभवादो । जयध० ४ पचिंदियतिरिक्खेसु तसठिदि समाणिय पुणो एइदिएसुप्पजिय अतोमुहुत्तकालेणेव मणुसगइमागदो त्ति भणिद होइ । जयध० ५ (कुदो,) तत्थ गुणसेढिणिजरासहिदगुणसकमदव्वेणूणदिवडगुणहाणिमेत्तुक्कस्ससमयपबद्धाणमेक्कवारेणेव सम्मामिच्छत्तसरूवेण सक तिदसणादो । जयध० Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २४. सम्मत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? २५. गुणिदकम्मसिएण सत्तमाए पुढवीए णेरइएण मिच्छत्तस्स उकस्सपदेससंतकम्ममंतोमुहुत्तेण होहिदि त्ति सम्मत्तमुप्पाइदं, सव्वुकस्सियाए पूरणाए सम्मत्तं पूरिदं । तदो उवसंतद्धाए पुण्णाए मिच्छत्तमुदीरयमाणस्स पढमसमयमिच्छाइद्विस्स तस्स उकस्सओ पदेससंकमो। २६. सो वुण अधापवत्तसंक्रमो। ___ २७. सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सओ पदेससंकमो कस्स ? २८. जेण मिच्छत्तस्स वहॉपर उसने बहुतसे पर्याप्तक भव और थोड़े अपर्याप्तक भव धारण किये। उनमे पर्याप्तकाल दीर्घ और अपर्याप्त काल ह्रस्व ग्रहण किया । उस पृथ्वीकायिकमे रहते हुए वह वार-बार बहुतसे उत्कृष्ट योगस्थानोको और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ। वहॉपर जब भी नवीन आयुका वन्ध किया, तब जघन्य योगस्थानमे वर्तमान होकर किया। वहॉपर उसने उपरितन स्थितियोमे कर्म-प्रदेशोका बहुत निक्षेपण किया। इस प्रकार वादर पृथ्वीकायिकोमे परिभ्रमण करके निकला और वादर-त्रसकायिकोमें उत्पन्न हुआ। वहॉपर भी साधिक दो हजार सागर तक उपर्युक्त विधिसे परिभ्रमण करके अन्तमे सातवीं पृथ्वीमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर वार-बार उत्कृष्ट योगस्थान और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ । इस प्रकार उत्तरोत्तर गुणितक्रमसे कर्मप्रदेशोका संचय करनेवाले जीवको गुणितकर्माशिक कहते हैं। शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥२४॥ समाधान--सातवी पृथिवीमे जो गुणितकांशिक नारकी है और जिसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अन्तर्मुहूर्तसे होगा, उसने सम्यक्त्व उत्पन्न किया और सर्वोत्कृष्ट पूरणासे अर्थात् सर्वजघन्य गुणसंक्रमणभागहारसे और सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रमणपूरणकालसे सम्यक्त्वप्रकृतिको पूरित किया। तदनन्तर उपशमकालके पूर्ण होनेपर मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेवाले उस प्रथमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है । और यह अधःप्रवृत्तसंक्रमण है ॥२५-२६॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥२७॥ समाधान-जिसने मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रको सम्यग्मिथ्यात्वमे प्रक्षिप्त किया, १ संछोभणाए दोण्हं मोहाणं वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छत्तगए तमतमाए ॥८२॥ भिन्नमुहुत्ते लेसे तञ्चरमावस्लगाणि किच्चेत्थ । संजोयणाविसंजोयगस्स संछोमणे एसि ॥८३॥ कम्मप०, प्रदेशसंझ०, एतदुक्तं भवति-तहा वूरिदसम्मत्तो तेण दयेणाविणट्टेणुवसमसम्मत्तकालमतोमुहुत्तमणुपालेऊण तदवसाणे मिच्छत्तमुदीरयमाणो पढमसमयमिच्छाइट्ठी जादो। तत्स पढमसमयमिच्छाइद्वित्स पयदुक्कस्ससामित्ताहिसबंधो त्ति । किं कारणमेत्येवुक्कस्ससामित्त जादमिदि चे सम्मत्तस्स तदवत्थाए मिच्छत्तगुणणिवधणमधापवत्तसकमपजाएण सबुक्कस्सएण परिणमणदसणादो । जयध० २ कुदो एवं चे वधसबधाभावे वि सहावटो चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण मिच्छाइटिठम्मि अतो. मुद्दत्तमेत्तकालमधापवत्तसकमपयुत्तीए संभवम्भुवगमादो । जयध० Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] . प्रदेशसंक्रम-स्वामित्व-निरूपण ४०३ उक्कस्सपदेसग्गं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं, तेणेव जाधे सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते संपक्खित्तं ताधे तस्स सम्मामिच्छत्तस्स उक्स्सओ पदेससंकमो। २९. अणंताणुबंधीणमुक्कस्सओ पदेससंक्रमो कस्स १ ३०. सो चेव सत्तमाए पुडवीए णेरइओ गुणिदकम्मं सिओ अंतोमुहुत्तेणेव तेसिं चेव उक्कस्सपदेससंतकम्मं होहिदि त्ति उक्कस्सजोगेण उकस्ससंकिलेसेण च णीदो । तदो तेण रहस्सकाले सेसे सम्मत्तमुप्पाइयं । पुणो सो चेव सव्वलहुमणंताणुबंधीणं विसंजोएदुमाढत्तो । तस्स चरिमडिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तेसिमुक्कस्सओ पदेससंकमो । ३१. अट्टण्हं कसायाणमुक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? ३२. गुणिदकम्मंसिओ सबलहुमणुसगइमागदो अवस्सिओ खवणाए अब्भुद्विदो। तदो अट्ठण्हं कसायाणमपच्छिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स अट्ठण्हं कसायाणमुक्कस्सओ पदेससंकमो । उसने ही जिस समय सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वप्रकृतिमे प्रक्षिप्त किया, उस समय उसके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥२८॥ शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥२९॥ समाधान-वही सातवी पृथिवीका गुणितकांशिक नारकी-जब कि अन्तर्मुहूर्तसे ही उसके उन ही अनन्तानुबन्धी कषायांका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होगा-उस समय उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशसे परिणत हुआ। तदनन्तर उसने लघुकाल शेष रहनेपर विशुद्धिको पूरित करके सम्यक्त्वको उत्पन्न किया । पुनः वही सर्वलघुकालसे अनन्तानुबन्धी कपायोके विसंयोजनके लिए प्रवृत्त हुआ। उसके चरम स्थितिखंडके चरम समयमे संक्रमण करनेपर पर अनन्तानुबन्धी कषायोका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥३०॥ शंका-आठो मध्यम कषायोका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥३१॥ समाधान-वही पूर्वोक्त गुणितकर्माशिक नारकी सर्वलघुकालसे मनुष्यगतिमे आया और आठ वर्षका होकर चारित्रमोहकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ। तदनन्तर आठो कषायोके अन्तिम स्थितिखंडको चरम समयमे संक्रमण करनेवाले उसके आठो मध्यम कषायोका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥३२॥ १ त जहा-जेण गुणिदकम्मसिएग मणुसगइमागतूण सबलहु दसणमोहवखवणाए अन्मुट्ठिदेण जहाकममधापवत्तापुवकरणाणि वोलिय अणियट्टीकरणद्धाए सखेजदिभागसेसे मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसग्ग सगासखेजधागभूदगुणसेदिणिजरासहिदगुणसकमदव्वपरिहीण सव्वसकमेण सम्मामिच्छत्ते सपक्खित्त तेणेव मिच्छत्तक्कस्सपदेससकमसामिएण जाधे सम्मामिच्छत्त सम्मत्त पविखत्त, ताधे तस्स सम्मामिच्छत्तविसयो उक्कस्सओ पदेससकमो होइ त्ति एसो सुत्तत्यसंगहो । जनध० २ एवं विसजोएमाणस तस्स णेरइयस्त चरिमठिदिखंडय चरिमसमयसछुहमाणयस्स तेसिमणताणुबधीणमुक्कस्सओ पदेससकमो होदि; तत्थ सम्बसकमेणाणताणुबधिदव्वस्स कम्मछिदिअभंतरसंगलिदस्स थोवूणस्स सेसफसायाणमुवरि सकमतस्सुक्करसभावसिद्धीए विरोहाभावादो । जयध० Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ . कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ३३. एवं छण्णोकसायाणं । ३४. इथिवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? ३५. गुणिदकम्मंसिओ असंखेजवस्साउएसु इत्थिवेदं पूरेदूण तदो कमेण पूरिदकम्मसिओ खवणाए अन्भुट्टिदो तदो चरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स इस्थिवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो'। ३६. पुरिसवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? ३७. गुणिदकम्मंसिओ इत्थि-पुरिस-णबुंसयवेदे पूरेदूण तदो सबल खवणाए अन्भुट्टिदो, पुरिसवेदस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स पुरिसवेदस्स उकस्सओ पदेससंकमो । ३८. णबुंसयवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? ३९. गुणिदकम्मंसिओ ईसाणादो आगदो सव्वलखवेदुमाहत्तो। तदो गर्बुसयवेदस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुभमाणयस्स तस्स णqसयवेदस्स उकस्सओ पदेससंकमो। ४०. कोहसंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स १ ४१. जेण पुरिसवेदो चूर्णिसू०-इसी प्रकार हास्यादि छह नोकपायोके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणके स्वामित्वको जानना चाहिए ॥३३॥ शंका-स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥३४॥ समाधान-कोई गुणितकौशिक जीव असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियोमे उत्पन्न होकर और वहाँ पर स्त्रीवेदको पूरित करके पुनः क्रमसे पूरित-कर्माशिक होकर क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ । तदतन्तर स्त्रीवेदके चरम स्थितिखंडको चरम समयमे संक्रमण करनेवाले उस जीवके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥३५॥ शंका-पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥३६॥ समाधान-गुणितकर्माशिक जीव स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदको पूरित करके तदनन्तर सर्वलघुकालसे क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ । वह जिस समय पुरुपवेदके अन्तिम स्थितिखंडको चरम समयमें संक्रमण करता है, उस समय उस जीवके पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥३७॥ शंका-नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥३८॥ समाधान-कोई गुणितकर्माशिक जीव ईशानस्वर्गसे आया और सर्वलघुकालसे क्षपणाके लिए प्रवृत्त हुआ। तदनन्तर नपुंसकवेदके अन्तिम स्थितिखंडको चरम समयमें संक्रमण करनेवाले उसके नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥३९॥ शंका-संज्वलन क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥४०॥ समाधान-जिसने पुरुपवेदके उत्कृष्ट द्रव्यको संज्वलन क्रोधमे संक्रान्त किया, १ इत्थीए भोगभूमिसु जीविय वासाणसंखियाणि तओ। हस्सठिइं देवत्ता सव्वलहुं सब्यसंछोमे ॥८५॥ , २ ईसाणागयपुरिसस्स इत्थियाए व अट्ठवासाए । मासपुहुत्तम्भहिए नपुसगे सबसंकमणे ॥८॥ कम्मप०, प्रदेशासक, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेश संक्रम-र -स्वामित्व-निरूपण ४०५ उकस्सओ संक्रुद्धो कोधे तेणेव जाधे माणे कोधो सव्वसंकमेण संछुहदि ताधे तस्स कोधस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो' । ४२. एदस्स चेव माणसंजलणस्स उकस्सओ पदेस संकमो कायन्वो णवरि जाधे माणसंजलणो मायासंजलणे संछुभइ ताघे । ४३. एदस्स चेव मायासं जलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कायव्वो, णवरि जाधे मायासंजलणो लोभसंजलणे संछु भइ ताधे । ↑ ४४. लोभसं जलणस्स उकस्सओ पदेससंकमो कस्स १४५ गुणिदकम्मंसिओ सव्वलहु खवणाए अन्भुट्टिदो अंतरं से काले काढूण लोहस्स असंकामगो होहिदि ति तस्स लोहस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । ४६. एत्तो जहण्णयं । ४७. पिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स १४८. खविदकम्मं सिओ' एह दियकम्मेण जहण्णएण मणुसेसु आगदो सव्बलहु चैव सम्मत्तं उसने ही जिस समय संज्वलनमानमे संज्वलनक्रोधको सर्वसंक्रमण से संक्रमित किया, उस समय उसके संव्वलनक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥ ४१ ॥ चूर्णिसू० - इस ही जीवके संज्वलनमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण कहना चाहिए | विशेषता केवल यह है कि जिस समय यह संज्वलनमानको संज्वलनमायामे संक्रान्त करता है, उस समय संज्वलनमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है । इस ही जीवके संज्वलनमायाके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणकी प्ररूपणा करना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि वह जिस समय संज्वलनमायाको संज्वलनलोभमे संक्रमित करता है, उस समय उसके संज्वलनमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥४२-४३ ॥ शंका-संज्वलनलोभका उत्कृष्टप्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ४४ ॥ समाधान-गुणितकर्मांशिक जीव सर्वलघुकालसे क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ । अन्तरकरण करके तदनन्तर समयमे जब लोभका असंक्रामक होगा, उस समय उसके संज्वलनलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है ॥ ४५॥ चूर्णिम् ० - अब इससे आगे जघन्य प्रदेशसंक्रमणके स्वामित्वको कहते हैं ॥४६॥ शंका- मिध्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ४७ ॥ समाधान - जो क्षपितकर्माशिक जीव एकेन्द्रिय प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मके साथ मनुष्यो में आया और सर्वलघुकालसे ही सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । ( पुनः उसी और विभिन्न १ वरिसवरित्थि पूरिय सम्मत्तमसंखवासियं लहियं । गंता मिच्छत्तमओ जहण्णदेवट्टिई भोच्चा ॥ ८६॥ आगंतु लहु पुरिसं संछुभमाणस्स पुरिसवेयस्स | तस्सेव सगे कोहस्स माणमायाणमवि कसिणो ॥ ८७॥ कम्मप० प्रदेशसक्र० २ पल्ला संखियभागोणकम्मठिइमच्छिओ निगोएसु । सुहुमेसुऽभवियजोग्गं जहण्णयं कट्टु निग्गम्म ॥९४॥ जोगेऽसंखवारे सम्मत्तं लभिय देसविरहं च । अक्खुत्तो विरइं संजोयणहा तइयवारे ॥९५॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ कसाथ पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार पडिवण्णो संजमं संजमा संजमं च बहुसो लभिदाउगो चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता वे छाबडि सागरोवमाणि सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालिदं । तदो मिच्छत्तं गदो अंतोमुहतेण पुणो तेण सम्मत्तं लद्धं । पुणो सागरोवमपुधत्तं सम्मत्तमणुपालिदं । तदो दंसणमोहणीयक्खवणाए अन्सुट्ठिदो । तस्स चरिमसमय अधापवत्तकरणस्स मिच्छत्तस्स जहओ पदेससंकमो | भवोमे) संयम और संयमासंयमको बहुत बार प्राप्त किया, चार बार कषायोका उपशमन करके दो वार सातिरेक छयासठ सागरोपमकाल तक सम्यक्त्वका परिपालन किया । तदनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और अन्तर्मुहूर्त से ही पुनः उसने सम्यक्त्वको प्राप्त किया । पुनः सागरोपमपृथक्त्व तक सम्यक्त्वका परिपालन किया । तदनन्तर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ। वह जीव जव अधःप्रवृत्तकरण के चरम समयमे वर्तमान हो, तब उसके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है ॥ ४८ ॥ विशेषार्थ - यहाँ ऊपर जो क्षपितकर्माशिक कहा है, उसका अभिप्राय यह है कि जो जीव पल्यके असंख्यातवे भागसे कम कर्मस्थितिकाल तक सूक्ष्मनिगोदियो में रहकर और अभव्योंके योग्य जघन्य कर्मस्थितिको करके बादर पृथिवीकायिकोंमे उत्पन्न हुआ और अन्त - मुहूर्तमे ही मरण कर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यो में उत्पन्न हुआ । वहाँ आठ वर्षकी अवस्थामे ही संयमको धारण कर और देशोन पूर्वकोटी वर्ष तक संयमको पालन कर, जीवनके अल्प अवशिष्ट रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । मिथ्यात्व और असंयममे सर्वलघु काल रहकर मरा और दश हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमे उत्पन्न हुआ । वहॉ पर्याप्त हो चउरुवसमित्तु मोहं लहुं खवंतो भवे खवियकम्मो । पाएण तर्हि पायं पहुच काओ वि सविसेसं ॥९६॥ कम्मप० प्रदेशसक्र० १ ततो मणिगोदेहिंतो उव्वट्टित्तु बादरपुढविकाइएसु उप्पण्णो अतोमुहुत्तेण काल गतो पुन्यकोडाउगे मणुस्सेसु उववण्णो सव्वलक्खणेहि जोणिजम्मण-णिक्खमणेण अट्ठवासिगो सजम पडिवष्णो । तत्थ देसूण पुव्वकोडी सजम अणुपालित्ता थोवावसेसे जीविये मिच्छत्त गतो सव्वत्थोवाए मिच्छत्तअसजमद्धा मिच्छत्तरेण कालगतो समाणो दसवास सहस्सट्ठिदिएसु देवेसु उववण्णो । तदो अतोमुहुत्तरेण सम्मत्त पडवण्णो दसवास सहस्सा णि जीवित्त, ततो अते मिच्छत्तरेण कालगतो बादरपुढविका इएसु उववण्णो । ततो अतोमुहुत्तरेण उचट्टित्ता मणुस्सेसु उववण्णो । पुणो सम्मत्त वा देसविरतिं वा पडिवजति । एव जत्थ जत्थ सम्मत्त पडिवज्जति तत्थ तत्थ बहुप्पदेसाओ पगडीओ अप्पप्पदेसाओ पगरेति । एयाणिभित्त सम्मत्तादिपडिवज्जाविज्जइ | देव मणुएसु सम्मत्तादि गण्हंतो मुच्चतो य जत्थ तसेसु उववज्जति तत्थ सम्मत्तादी णियमा पडिवज्जति । कयाइ देसविरतिं पडिवज्जति, कयाई सनम पि । कयाइ अणताशुवधी विसजोएति त्ति, कयाइ उवसामगसेटिं पडिवज्जति । 'अट्ठक्खुतो विरतिं सजोयणहा तइयवारे' - एएसु असखेज्जेसु भवग्गहणेसु अठ्ठ्वारे सजम लव्भदि, अट्ठवारे अणताणुवधिणो विसजोएत्ति | 'च उरुवसमित्त मोह' ति एदेसु भवग्गहणेसु चत्तारि वारा चरित्तमोह उवसामेउ 'लहु खवंतो भवे खवियकम्मो' त्ति 'लहु खवतो' - लहुखवगसेटिं पडिवज्जमाणो 'भवे खवियकम्मो' त्ति-एरिसेण विहिणा आगतो खवियकम्मो वुञ्चति । कम्मपयडीचूर्णि, प्रदेशसं० Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेश संक्रम- स्वामित्व-निरूपण ४०७ ४९. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स १५०. एसो चेव जीवो मिच्छतं गदो । तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण अप्पप्पणो दुरिमडिदिखंडयं चरिमसमय- उच्बेल्लमाणयस्स तस्स जहण्णओ पदेस संकमो' । ५१. अणंताणुबंधीणं' जहण्णओ पदेस संकमो कस्स १५२. एइ दियकम्मेण जहण्णण तसेसु आगदो । संजमं संजमा संजमं च बहुसो लद्धा चत्तारि वारे कसाए उवसामत्ता तदो एइ दिए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमच्छिदो जाव उवसामयसमयपत्रद्धा णिग्गलिदा ति । तदो पुणो तसेसु आगदो सन्चलहु सम्मत्तं लद्ध' अन्तर्मुहूर्त से सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । दश हजार वर्ष तक सम्यक्त्वके साथ जीवित रहकर अन्तमे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मरा और बादर पृथिवीकायिकोमे उत्पन्न हुआ । वहाँसे अन्तर्मुहूर्तमे ही निकलकर मनुष्योमे उत्पन्न हुआ औप उनमे सम्यक्त्व और संयमासंयमको धारण किया । इस प्रकार वह असंख्य वार देव और मनुष्योमे उत्पन्न होकर पल्योपमके असंख्यातवे भाग वार सम्यक्त्व और संयमासंयमको, आठ वार संयम और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाको, तथा चार वार उपशमश्रेणीको प्राप्त हुआ । अन्तिम मनुष्य भव उत्पन्न होकर जो लघुकालसे ही मोह-क्षपणा के लिए उद्यत होता है, वह जीव क्षपितकर्माशिक कहलाता है । शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥४९॥ · समाधान- यही उपयुक्त क्षपितकर्माशिक जीव ( दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए उद्यत होनेके पूर्व ही ) मिध्यात्वको प्राप्त हुआ । ( वहॉपर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना प्रारम्भ कर और ) पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाणकाल तक उद्वेलना करके उक्त दोनो कर्मोंके अपने-अपने द्विचरम स्थितिखंड के चरम समयवर्ती द्रव्यकी जब वह उद्वेलना करता है, तब उसके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है ॥५०॥ शंका - अनन्तानुबन्धी कषायोका जघन्य प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥ ५१ ॥ समाधान- जो जीव एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ सोमे आया । वहॉपर संयम और संयमासंयमको बहुत बार प्राप्त कर और चार वार कषायोका उपशमन करके तदनन्तर एकेन्द्रियोमे पल्योपमके असंख्यातवे भागकाल तक रहा- जबतक कि उपशामक - कालमे बँधे हुए समयप्रबद्ध निर्गलित हुए । तदनन्तर वह पुनः त्रसोमे आया, और सर्वलघु कालसे सम्यक्त्वको प्राप्त किया और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की । पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और अन्तर्मुहूर्त तक अनन्तानुबन्धीकी संयोजना करके पुनः उसने सम्यक्त्वको १ हस्स गुणसंकमद्धाइ पूरियित्ता समीस-सम्मत्तं । चिरसंमत्ता मिच्छत्तगयस्सुव्वलणयोगे सिं ॥ १०० ॥ कम्मप० प्रदेशस Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार अणंताणुवंधिणो च विसंजोइदा। पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्तं संजोएदूण पुणो तेण सम्मत्तं लद्ध। तदो सागरोवमवेछावट्ठीओ अणुपालिदं । तदो विसंजोएदुमाडत्तो । तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए अणंताणुवंधीणं जहण्णओ पदेससंकमो। ५३. अट्ठण्हं कसायाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? ५४. एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो। चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइदिएसु गदो। असंखेजाणि वस्साणि अच्छिदो जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलंति । तदो तसेसु आगदो संजमं सबलहुलद्धो । पुणो कसायक्खवणाए उवद्विदो । तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए अट्ठण्हं कसायाणं जहण्णओ पदेससंकमो' । ५५. एवमरइ-सोगाणं । ५६. हस्स-रइ-भय-दुगुंछाणं पि एवं चेव, णवरि अपुवकरणस्सावलियपविट्ठस्स । ५७. कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? ५८. उवसामयस्स चरिमसमयपवद्धो जाधे उवसामिजमाणो उवसंतो ताधे तस्स कोहसंजलणस्स जहण्णओ प्राप्त किया । तब उसने दो वार छयासठ सागरोपम कालतक सम्यक्त्वका परिपालन किया । तदनन्तर अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना आरम्भ की। ऐसे जीवके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें अनन्तानुवन्धी कषायोका जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है ॥५२॥ शंका-आठो मध्यम कपायोका जघन्य प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥५३॥ समाधान-जो जीव एकेन्द्रियोके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ बसोमे आया । वहॉपर संयमासंयम और संयमको वहुत वार प्राप्त हुआ। चार वार कपायोका उपशमन करके तदनन्तर एकेन्द्रियोमे गया । पहॉपर जितने समयमे उपशामककालमे बँधेहुए समयप्रवद्ध गलते है, उतनी असंख्यात वर्षों तक रहा। तदनन्तर सोमे आया और सर्वलघुकालसे संयमको प्राप्त हुआ । पुनः कपायोकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ। ऐसे जीवके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे आठो मध्यम कपायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है ॥५४॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे अरति और शोकके जघन्य प्रदेशसंक्रमणका स्वामित्व जानना चाहिए। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रमण-स्वामित्व भी इसी प्रकारसे जानना चाहिए। विशेपता केवल यह है कि इन कर्मोंका जघन्य प्रदेशसंक्रमण ( अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे न होकर ) अपूर्वकरणमे प्रवेश करनेवाले जीवके प्रथम आवलीके चरम समयमे होता है ।।५५-५६।। शंका-संज्वलन क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥५७॥ समाधान-उपशामकके संचलनक्रोधके चरम समयमे बँधा हुआ समयप्रबद्ध जव उपशमन किया जाता हुआ उपशान्त होता है, उस समय उसके संज्वलन क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है ।।५८॥ १ अट्ठकसायासाए असुमधुववंधि अस्थिरतिगे य । सब्बलहुँ खवणाए अहापवत्तस्स चरिमम्मि ॥१०२॥ कम्मप० प्रदेशमं० Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-स्वामित्व-निरूपण ४०९ पदेससंकमो । ५९. एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाण' । ६०. लोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? ६१. एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धण कसाएसु किं पि णो उवसामेदि । दीहं संजमद्धमणुपालिदूण खवणाए अन्भुट्टिदो तस्स अपुवकरणस्स आवलियपविट्ठस्स लोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो । ६२. णबुंसयवेदस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? ६३. एई दियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो तिपलिदोवमिएसु उववण्णो । तिपलिदोवमे अंतोमुहुत्ते सेसे सम्मत्तमुप्पाइदं । तदो पाए सम्मत्तेण अपडिवदिदेण सागरोवमछावट्ठिमणुपालिदेण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धो, चत्तारि वारे कसाया उवसामिदा। तदो सम्मामिच्छत्तं गंतूण पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं घेत्तुण सागरोवमछावट्ठिमणुपालिदूण मणुसभवग्गहणे सव्वचिरं संजममणुपालिदूण खवणाए उवहिदो। तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे संज्वलनमान, संज्वलनमाया और पुरुपवेदके जघन्यप्रदेशसंक्रमणका स्वामित्व जानना चाहिए ॥५९।।। शंका-संज्वलनलोभका जघन्य प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥६०॥ समाधान-जो जीव एकेन्द्रियोके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ सोमे आया । वहॉपर संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त करके कपायोमे कुछ भी उपशमन नहीं करता है, तथा वह दीर्घ काल तक संयमका परिपालन करके चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ । ऐसे आवली-प्रविष्ट अपूर्वकरण-संयतके संज्वलनलोभका जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है ॥६१॥ शंका-नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रमण किसके होता है ? ॥६२॥ समाधान-जो जीव एकेन्द्रियोके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोमें आया और क्रमसे तीन पल्योपमवाले भोगभूमियोमे उत्पन्न हुआ । तीन पल्योपममे अन्तर्मुहूर्त शेप रहनेपर उसने सम्यक्त्वको उत्पन्न किया । तदनन्तर अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ छयासठ सागरोपम कालतक सम्यक्त्वका परिपालन करते हुए संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त हुआ। चार वार कषायोका उपशमन किया । तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और पुनः अन्तर्मुहूर्तसे ही सम्यक्त्वको ग्रहण कर दूसरी वार छयासठ सागरोपम कालतक सम्यक्त्वका परिपालन कर अन्तिम मनुष्य भवके ग्रहण करनेपर सर्व-चिरकाल तक संयमका परिपालन करके जीवनके अल्प अवशेष रहनेपर क्षपणाके लिए उपस्थित हुआ। ऐसे जीवके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है ॥६३॥ १ पुरिसे संजलणतिगे य घोलमाणेण चरमवद्धस्स । सग-अंतिमे असाएण समा अरई य सोगो य ॥१०३॥ कम्मप० प्रदेशसक्र० ५२ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय - पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार सय वेदस्स जहण्णओ पदेससंकमो । ६४. एवं चेव इत्थिवेदस्स वि, णवरि तिपलि - दोवमिसु ण अच्छिदाउगो । ६५. एयजीवेण कालो । ६६, सव्वेसिं कम्माणं जहण्णुकस्सपदेससंकमो केवचिरं कालादो होदि १६७ जहण्णुकस्सेण एयसमओ' । ४१० ६८. अंतरं । ६९. सव्वेसि कम्माणमुक्कस्तपदेस संकायस्स गत्थि अंतरं । ७०. अधवा सम्मत्ताणताणुबंधीण मुक्कस्सपदेससंकामयस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ७१. जहणेण असंखेज्जा लोगा । ७२. उक्कस्सेण उबडूपोग्गलपरियहं । ४ चूर्णिसू० - इसी प्रकार ही स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रमण के स्वामित्वको जानना चाहिए | विशेषता केवल इतनी ही है कि तीन पल्योपमकी आयुवाले जीवोमे वह नही उत्पन्न होता है ॥ ६४॥ चूर्णिसू० [0-अव एक जीवकी अपेक्षा प्रदेशसंक्रमणके कालको कहते हैं || ६५॥ शंका - सर्व कर्मों के जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणका कितना काल है ? ॥६६॥ समाधान - सर्व कर्मोंके जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेश संक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ॥ ६७॥ चूर्णि सू० ० - अव प्रदेशसंक्रमणके अन्तर को कहते है - सर्व कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणका अन्तर नहीं है । यह एक उपदेशकी अपेक्षा कथन है ।। ६८-६९ ॥ शंका- अथवा अन्य उपदेशकी अपेक्षा सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी कपायोके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥ ७० ॥ समाधान- सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुवन्धी कपायोके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणका जघन्यकाल असंख्यात लोक-प्रमित और उत्कृष्टकाल उपार्थपुद्गलपरिवर्तन- प्रमाण है ।।७१-७२ ।। www १ कुदो; सव्वेसि कम्माण जहष्णुक्कस्सपदेससकमाणमेयसमयादो उवरिमवठाणासभवादो । जयध० २ होउ णाम खवगसव घेण लक्कस्वभावाण मिच्छत्तादिकम्माणमतराभावो, ण वुण सम्मत्ताणता वधीणमतराभावो जुत्तो, तेसिमखवयविसयत्तेण लबुक्कस्तभावाणमतरसभवे विप्पडिसेहाभावादो १ एस दोसो, गुणिदकम्मसियलक्खणेणेयवार परिणदस्स पुणो जहण्णदो वि अढपोग्गलपरियमेत्तकालव्भतरे तव्भावपरिणामो णत्थि त्ति एवविहाहिप्पाएणेदस्स सुत्तस्स पयट्टत्तादो । एसो ताव एक्को उवएसो चुण्णिसुत्तयारेण सिस्साण परुविदो । अण्णेणोवरसेण पुण सम्मत्ताणताणुवधीणमुक्कस्स पढेसस कामयतरसभवो अस्थि त्ति तप्पमाणावहारणड उत्तरमुत्त भणइ । जयध० ३ गुणिदकम्म सियलक्खणेणागतूण णेरइयचरिमसमयादो हेट्ठा अतोमुहृत्तमोसरिय पढमसम्मत्तमुप्पाइय जहावुत्तपदेसे सम्मत्ताणताणुवघीण मुक्कस्सप देससक मस्सादि काढूण अतरिय अणुक्कस्सपरिणामेसु तेत्तियमेत्तकालमच्छिऊण पुणो सव्बलहु गुणिदकिरियासव घमुवसामिय पुव्युत्तेणेव कमेण पडिवण्णतत्र्भावम्मि तदुवलभादो | जयघ० ४ पुव्युत्तविहाणेणेवादि करिय अतरिदस्स देसूदपोग्गल परियमेत्तकाल परिभमिश्र तदवमाणे गुणिदकम्म सिओ होण सम्मत्तमुप्पाइय पुव्व व पडिवगतभावम्मि तदुवलद्वीदो । जयध० Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-सन्निकर्ष-निरूपण ४११ ७३. एत्तो जहण्णयं । ७४. कोहसंजलण-माणसंजलण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णपदेससंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ७५. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ७६. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियÉ । ७७. सेसाणं कम्माणं जाणिऊण णेदव्यं । ७८. सण्णियासो। ७९. मिच्छत्तस्स उकस्सपदेससंकायओ सम्मत्ताणताणुबंधीणमसंकामश्रो । ८०. सम्मामिच्छत्तस्स णियमा अणुक्कस्सं पदेसं संकायेदि । ८१. उक्कस्सादो अणुकस्समसंखेज्जगुणहीणं । ८२. सेसाणं कम्माणं संकामओ णियमा अणुकस्सं संकामेदि । ८३. उक्कस्सादो अणुक्कस्सं णियमा असंखेज्जगुणहीणं । ८४. चूर्णिसू०-अव इससे आगे जघन्य प्रदेशसंक्रमणके अन्तरको कहते है ॥७३॥ शंका-संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमाया और पुरुपवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥७४॥ समाधान-उक्त कर्मोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमणका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥७५-७६॥ चूर्णिसू०-शेष कर्मोंका जघन्य अन्तर जानकर प्ररूपण करना चाहिए ॥७७॥ चूर्णिसू०-अव प्रदेशसंक्रमणके सन्निकर्षको कहते हैं-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणका करनेवाला जीव सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी कषायोके प्रदेशसंक्रमणको नहीं करता है। सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशोका नियमसे संक्रमण करता है। उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणसे अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित हीन होता है । मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोका संक्रामक शेष कर्मोंके प्रदेशोका संक्रामक होता है, किन्तु नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोका ही संक्रमण करता है। उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणसे अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण नियमसे असं १ त जहा-चिराणसतकम्ममेदेसिमुवसामिय घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धचरिमसमयणवकबधसकामयचरिमसमयम्मि जहण्णसकमस्सादि कादूण विदियादिसमएसु अतरिय उवरिं चढिय ओइण्णो सतो पुणो वि सव्वलहुमतोमुहुत्तेण विसुज्झिदूण सेढिसमारोहण करिय पुवुत्तपदेसे तेणेव विहिणा जहाणपदेससकामओ जादो । लद्धमतर । जयध० २ पुन्बुत्तकमेणेवादिं करिय अतरिदो सतो देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकाल परियट्टिदूण पुणो अतोमुहुत्तसेसे ससारे उवसमसेढिमारुहिय जहण्णपदेससकामओ जादो । लद्धमुक्कस्सतर । जयध० ३ कुदो, सम्माइट्ठिम्मि सम्मत्तस्स सकामाभावादो, अणताणुबधीण च पुत्वमेव विसजोइयत्तादो । ४ कुदो, मिच्छत्तुक्कस्सपदेससकम पडिच्छिऊण अतोमुहुत्तेण सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेससकमुप्पत्तिदसणादो। जयध० ५ कुदो, सम्मामिच्छत्तुक्कस्सपदेससकमादो सव्वसकमसरूवादो एत्थतणसकमस्स गुणसकमसरूवस्स असखेजगुणहीणत्ते सदेहाभावादो । जयध० ६ कुदो, सव्वेसिमप्पप्पणो गुणिदकम्मसियक्खवयचरिमफालिसकमादो लडुक्कस्सभावाणमेत्थाणुक्कम्सभावसिद्धीए विसवादाभावादो । जयध० ७ किं कारणं ? अप्पप्पणो खवयचरिमफालिसक्रमादो एत्थतणसकमस्स अमखेजगुणहीणत्त मोत्तूण पयारतरासभवादो। जयध० Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार णवरि लोभसंजलणं विसेसहीणं संकामेदि । ८५. सेसाणं कम्माणं साहेयव्वं । ८६. सब्वेसिं कम्माणं जहण्णसण्णियासो विहासेयव्यो । ८७. अप्पाबहुअं । ८८. सव्वत्थोवो सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंकमो। ८९. अपञ्चक्खाणमाणे उक्कस्सओ पदेससंकमो असंखेज्जगुणो । ९०. कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । ९१. मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९२. लोभे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९३. पच्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९४.कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९५.मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९६. लोमे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९७. अणंताणुवंधिमाणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९८, कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ९९. मायाए उक्कस्सख्यातगुणित हीन होता है । विशेपता केवल यह है कि संज्वलनलोभका विशेष हीन संक्रमण करता है। शेप कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमणसम्बन्धी सन्निकर्पको इसी प्रकारसे सिद्ध करना चाहिए ॥७८-८५॥ चूर्णिसू०-सर्व कर्मोके जघन्य प्रदेशसंक्रमण-सम्बन्धी सन्निकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिए ।।८६॥ चूर्णिसू०-अव प्रदेशसंक्रमणके अल्पवहुत्वको कहते है-सम्यक्त्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिसे अप्रत्याख्यानमानमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। अप्रत्याख्यान क्रोधसे अप्रत्याख्यानमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमानमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानलोभसे अनन्तानुवन्धीमानमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। अनन्तानुवन्धीमानसे अनन्तानुवन्धीक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। अनन्तानुवन्धीक्रोधसे अनन्तानुवन्धीमायामे उत्कृष्ट १ कुदो, दसणमोहक्खवणाविसए लोहसजलणस्स अधापवत्तसकमादो चरित्तमोहक्खवयसामित्तविसईकयअघापवत्तसक्रमस्स गुणसेढिणिजरापरिहीणगुणसकमदवसासखेजदिभागमेत्तेण विसेसाहियत्तदसणादो । जयघ २ कुदो; सम्मत्तदव्वे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थेयखडपमाणत्तादो । जयध ३ कुदो, मिच्छत्तसयलदव्वादो आवलियाए असखेजभागपडिमागेण परिहीणदव्वं घेत्तूण सव्यसकमेणेदस्सुक्कस्ससामित्तविहाणादो । एत्य गुणगारो गुणसकमभागहारपदुप्पण्णअधापवत्तभागहारमेत्तो । जयध° ४ कुदो, दोण्हमेदेसिं सामित्तभेदाभावे वि पयडिविसेसमेत्तेण तत्तो एदस्साहियमावोवलद्धीदो । नयध° Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ गा० ५८ प्रदेशसंक्रम-अल्पबहुत्व-निरूपण पदेससंकमो विसेसाहिओ । १००. लोभे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १०१. मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १०२. सम्मामिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १०३. लोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो अणंतगुणो । १०४. हस्से उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । १०५. रदीए उकस्स पदेससंकमो विसेसाहिओ । १०६. इत्थिवेदे उक्कस्सपदेससंकमो संखेन्जगुणो । १०७. सोगे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओं । १०८. अरदीए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १०९. णबुंसयवेदे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ११०.दुगुंछाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १११. भए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ११२. पुरिसवेदे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ११३. कोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो संखेज्जगुणो"। प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। अनन्तानुवन्धीमायासे अनन्तानुबन्धीलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ॥८७-१००॥ - चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धीलोभसे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्वमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । सम्यग्मिथ्यात्वसे संज्वलनलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण अनन्तगुणित होता है। संज्वलनलोभसे हास्यमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । हास्यसे रतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। रतिसे स्त्रीवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है। स्त्रीवेदसे शोकमे उत्कृष्टप्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । शोकसे अरतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। अरतिसे नपुंसकवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । नपुंसकवेदसे जुगुप्सामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । जुगुप्सासे भयमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। भयसे पुरुषवेदमै उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । पुरुषवेदसे संज्वलनक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता १ केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असखेजदिमागेण खडिदेवखडमेत्तेण । जयध० २ मिच्छत्त सकामिय पुणो जेण कालेण सम्मामिच्छत्तसव्वसकमेण सकामेदि तक्कालभतरे णहासेसदव्व सम्मामिच्छत्तमूलदव्वादो असखेजगुणहीण ति कट्ट, तत्थ तम्मि सोहिदे सुद्धसेसमेत्तण विसेसाहियत्तमिदि वुत्त होइ । जयध० ३ कुदो, देसघादित्तादो । जयध० ४ कुदो, दोण्ह देसघादित्ताविसेसे वि अधापवत्तसन्यसकमविसयसामित्तभेदावलबणादो तहाभाव सिद्धीए विरोहाभावादो । जयध० ५ कुदो, हस्स-रइबधगद्धादो सखेजगुणकुरवित्थिवेदवधगद्वाए सचिदत्तादो । जयध० ६ एत्थ वि अद्धाविसेसमस्सिऊण सखेजभागाहियत्त दट्ठव्व, कुरविस्थिवेदबधगद्धादो णेरड्याणमरदिसोगबधगद्धाए सखेजभागभहियत्तदसणादो। जयध० ७ कुदो, भद्धाविसेसमस्सिऊण हस्स-रइबधगद्धाए सखेजभागसचयस्स अहियत्तुवलंभादो । जय० ८ कुदो; धुक्वधित्तादो | जयध ९ कुदो दोपह धुवबधित्तण समाणविसयसामित्तपडिलभे वि पयडिविसेसमस्सिऊण पुचिल्लादो एदस्स विसेसाहियत्तसिद्धीए विरोहाभावादो । जयध० १० को गुणगारो १ एगरूवचउभागाहियाणि छरूवाणि । कुदो, कसायचउभागेण सह सयलणोकसायभागस्स कोहसजलणायारेण परिणदस्सुवलभादो | जयध० Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ११४. माणसंजलणे उक्कस्सपदेससंकयो विसेसाहिओ'। ११५. मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ११६. णिरयगईए सव्वत्थोवो सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंकयो। ११७. सम्मामिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । ११८. अपचक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । ११९. को उकस्सपदेससंकयो विसेसाहिओ। १२०. मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १२१. लोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १२२. पच्चरखाणमाणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १२३. कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १२४. मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १२५. लोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १२६. मिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंकमो असंखेन्जगुणो । १२७. अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । १२८. कोधे उक्कस्सपदेससंकमो है। संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमानमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। संज्वलन सानसे संज्वलनमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है ॥१०१-११५॥ चूर्णिसू०-गतिमार्गणाकी अपेक्षा नरकगतिमे सम्यक्त्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण वक्ष्यमाण पदोंकी अपेक्षा सवसे कम होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिसे सम्यग्मिथ्यात्वमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। सम्यग्मिथ्यात्वसे अप्रत्याख्यानमानमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यान क्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। अप्रत्याख्यानक्रोधसे अप्रत्याख्यानमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमानमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ॥११६-१२५॥ चूर्णिसू०-प्रत्याख्यानलोभसे मिथ्यात्वमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । मिथ्यात्वसे अनन्तानुवन्धी मानमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । अनन्तानुवन्धी मानसे अनन्तानुवन्धी क्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । १ केत्तियमेत्तण १ पंचमभागमेत्तण | जयध० २ कुदो, मिच्छत्तादो गुणसंक्रमेण पडिच्छिददव्यमधापवत्तभागहारेण खंडिदेयखहपमाणत्तादो। जयध० ३ कुदो; दोण्हमेयविसयसामित्तपडिलभे वि सामित्तमूलव्वादो सम्मामिच्छत्तमूलदव्वस्सासखेनगुणत्तमरिसऊण तहाभावसिद्धोदो। जयध० ४ दोण्हमधापवत्तसकमविसयत्त वि दव्वगयविसेसोवलभादो | जयध० ५ किं कारण ? अधापवत्तसक्रमादो पुबिल्लादो गुणसंकमदव्वस्सेटस्सासखेजगुणत्त विसवादाणुवलभादो। जयध ६ केण कारणेण ? सव्वसक्रमेण पडिलधुक्कस्सभावत्तादो | जयध० Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-अल्पवहुत्व-निरूपण विसेसाहिओ । १२९. मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १३०. लोभे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १३१. हस्से उक्कस्सपदेससंकयो अणंतगुणो'। १३२. रदीए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १३३. इत्थिवेदे उ कस्सपदेससंकमो संखेज्जगुणो । १३४ सोगे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १३५. अरदीए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १३६. णqसयवेदे उक्कस्सपदे ससंकमो विसेसाहिओ। १३७. दुगुंछाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १३८. भए उकस्सपदेससंक्रमो विसेसाहिओ । १३९. पुरिसवेदे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १४०. माणसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १४१. कोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १४२. मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १४३. लोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। १४४. एवं सेसासु गदीसु णेदव्वं । १४५. तदो एईदिएसु सव्वत्थोवो सम्मत्त उक्कस्सपदेससंकमो। १४६. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो' । १४७. अपञ्चखाणमाणे अनन्तानुबन्धी क्रोधसे अनन्तानुबन्धी मायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुवन्धी मायासे अनन्तानुबन्धी लोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । ॥१२६-१३०॥ चर्णिम ०-अनन्तानुवन्धी लोभसे हास्यमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण अनन्तगुणित होता है। हास्यसे रतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। रतिसे स्त्रीवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है। स्त्रीवेदसे शोकमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। शोकसे अरतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अरतिसे नपुंसकवेदमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। नपुंसकवेदसे जुगुप्सामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । जुगुप्सासे भयमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। भयसे पुरुपवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। पुरुपवेदसे संज्वलनमानमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। संज्वलनमानसे संज्वलनक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। संज्वलनमायासे संज्वलनलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंकमण विशेप अधिक होता है। इसी प्रकार शेष गतियोमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण-सम्वन्धी अल्पबहुतत्व जानना चाहिए ॥१३१-१४४॥ __ चूर्णिसू०-इद्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रियोमे सम्यक्त्वप्रकृतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण सबसे कम होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिसे सम्यग्मिथ्यात्वमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण १ कुदो, सबघादिपदेसग्ग पेक्खिऊण देसघादिपदेसग्गस्साणतगुणत्त सदेहाभावादो । जयध० २ कुदो, ढोण्हमेदेसिं अधापवत्तण सामित्तपडिलभाविसेसेवि दवविसेसमस्सिऊण तत्तो एदस्सासखेजगुण भहियकमेणावठाणदसणादो । जयध० Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । १४८. कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १४९. मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १५०. लोहे उक्कस्स पदेससंकमो विसेसाहिओ । १५१. पच्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १५२. कोहे उक्कस्तपदेस संकमो विसेसाहिओ । १५३. मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १५४. लोभे उक्कस्तपदेस संकमो विसेसाहिओ । १५५. अणताणुबंधिमाणे उक्कस्तपदेस संकमो विसेसाहिओ । १५६. कोहे उक्कस्सपदेस संकमो विसेसाहिओ । १५७. मायाए उक्कस्तपदेस संकमो विसे साहिओ । १५८. लोहे उक्कस्तपदेस संकमो विसेसाहिओ । १५९. हस्से उक्कस्सपदेससंकमो अनंतगुणो । १६०. रदीए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ | १६१. इस्थिवेदे उक्कस्सपदे ससंकमो संखेज्जगुणो । १६२. सोगे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १६३. अरदीए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसा हिओ । १६४. सवेदे उक्कस्सपदेस संकमो विसेसाहिओ । १६५. दुर्गुछाए उक्कस्तपदेस - संकमो विसेसाहिओ | १६६. भए उक्कस्तपदेस संकमो विसेसाहिओ । १६७. पुरिसवेदे उक्कस्तपदेस संकमो विसेसाहिओ । १६८. माणसं जलणे उक्कस्स पदे ससंकमो विसेसाहिओ । असंख्यातगुणित होता है । सम्यग्मिथ्यात्व से अप्रत्याख्यानमानमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानक्रोध से अप्रत्याख्यानमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमानमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यान - मायासे प्रत्याख्यान लोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यानलोभसे अनन्तानुबन्धी मानमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुवन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुबन्धीको से अनन्तानुत्रन्धी मायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुबन्धीमा अनन्तानुबन्धी लोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है || १४५-१५८ ।। चूर्णिसू० - अनन्तानुवन्धी लोभसे हास्यमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण अनन्तगुणित होता है । हास्यसे रतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । रतिसे स्त्रीवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । स्त्रीवेदसे शोकमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । शोकसे अरतिमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अरतिसे नपुंसकवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । नपुंसकवेदसे जुगुप्सामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । जुगुप्सासे भयमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । भयसे पुरुषवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । पुरुपवेदसे संज्वलन ४१६ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-अल्पवहुत्व-निरूपण ४१७ १६९. कोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १७०. मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । १७१. लोभसंजलणे उक्कस्सपदेससंक्रमो विसेसाहिओ। १७२. एत्तो जहण्णपदेससंकमदंडओ। १७३ सव्वत्थोवो सम्पत्ते जहण्णपदेससंकमो । १७४. सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंकयो असंखेज्जगुणो । १७५. अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । १७६. कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १७७. मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। १७८. लोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १७९. मिच्छत्ते जहण्णपदेससंकयो असंखेज्जगुणो । १८०. अपञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । १८१. कोहे जहण्णपदेससंकमो मानमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। संज्वलनमानसे संज्वलनक्रोधमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमायामे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । संज्वलनमायासे संज्वलनलोभमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ॥१५९-१७१॥ . चूर्णिम् ०-अब इससे आगे जघन्य प्रदेशसंक्रम-सम्बन्धी अल्पबहुत्व-दण्डक कहते हैंसम्यक्त्वप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण सबसे कम होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिसे सम्यग्मिथ्यात्वमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। सम्यग्मिथ्यात्वसे अनन्तानुवन्धी मानमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। अनन्तानुबन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोधसे अनन्तानुबन्धी मायामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। अनन्तानुबन्धी मायासे अनन्तानुवन्धी लोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुवन्धी लोभसे मिथ्यात्वमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। मिथ्यात्वसे अप्रत्याख्यानमानमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोधमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण १ कुदो, दोण्हमेदेसि सामित्तभेदाभावे पि सम्मत्तमूलदव्वादो सम्मामिच्छत्तमूल्दव्वस्सासखेजगुणकमेणावट्ठाणदसणादो । सम्मत्त उद्वेल्लिदे जो सम्मामिच्छत्तु व्वेल्लणकालो तस्स एयगुणहाणीए असखेजविभागपमाणत्तभुवगमादो च । जयध० -२ किं कारण, विसजोयणापुच्वसजोगणवकबधसमयपबद्धाणमतोमुहुत्तमेत्ताणमुवरि सेसकसायाणमधापवत्तसकममुक्कड्डणा पडिभागेणपडिच्छिय सम्मत्तपडिलभेण, वेछावट्ठिसागरोवमाणि परिहिंडिय तप्पनवसाणे विसजोयणाए उवटिठदस्त अधापवत्तकरणचरिमसमए विज्झादसकमेणेदस्स जहण्णसामित्त जाद । सम्मामिच्छत्तस्स पुण वेछावठिसागरोवमाणि सागरोवमपुधत्त च परिभमिय दीहुव्वेलणकालेण उन्वेल्लेमाणस्स दुचरिमठ्ठिदिखडयचरिमफालीए उन्वेल्लणभागहारेण जहण्ण जादं । तदो उव्वेल्लणभागहारमाहप्पेणण्णोण्णन्मत्यरासिमाहप्पेण च सम्मामिच्छत्तदव्वादो एदमसखेजगुण जाद । जयध० । ३ किं कारण, अणताणुबधीण विसजोयणापुन्वसजोगे णवकव धस्सुवरि अधापवत्तभागहारेण पडिच्छिदसेसकसायदव्वस्सुक्कड्डणापडिभागेण वेछावठिसागरोवमगालणाए जहण्णभावो सजादो । तेण कारणेणाणताणुबधिलोभजहण्णपदेससकमादो मिच्छत्तजहण्णपदेससकमो असखेज्जगुणो । जयध० ४ कुदो वेछावटिसागरोवमपरिन्भमणेण विणा लद्धजहण्णभावत्तादो । जयध० Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ कसाथ पाहुड सुप्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार विसेसाहिओ । १८२. मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १८३. लोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १८४. पचकखाणमाणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १८५. कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १८६. मायाए जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । १८७. लोभे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । 3 १८८. वेदे जहणपदेससंकमो अनंतगुणो । १८९. इत्थवेदे जहणपदेसको असंखेज्जगुणो । १९०. सोगे जहण्णपदेस संकमो असंखेज्जगुणो । १९१. अरदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १९२. कोहसंजलणे जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो ' । १९३. माणसंजलणे जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ " । १९४ पुरिसवेदे जहण्णपदेससंकमो घिसे साहिओ । १९५. मायासंजलणे जहण्णपदेस संक्रमो विसं साहिओ । ४ विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानक्रोध से अप्रत्याख्यानमाया में जघन्य प्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभ में जघन्य प्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमान में जघन्य प्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमे जवन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यानक्रोध से प्रत्याख्यानमायामे जघन्य प्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यान मायासे प्रत्याख्यानलोभ में जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ॥ १७२-१८७॥ I चूर्णिसू० - प्रत्याख्यानलोभसे नपुंसक वेदसे जघन्य प्रदेशसंक्रमण अनन्तगुणित होता है । नपुंसक वेदसे खीवेद में जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । खीवेदसे शोक मे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । शोकसे अरतिमे जघन्य प्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । अरतिसे संज्वलनक्रोधमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । संज्वलनक्रोध से संज्वलनमानमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । संज्वलनमान से पुरुपवेदमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । पुरुषवेदसे संज्वलनमायामे जघन्य १ जइ वि तिपलिदोवमाहियवेच्छावटि सागरोवमाणि परिगालिय णघुसवेदस्स जहण्णसामित्त जाद, तो वि पुल्लिदव्वादो अणतगुणमेव णवसयवेददव्व होर, देसघाइपडिभागियत्तादो | जयघ० २ कुदो णत्रुसयवेद जहण्णसामियस्से विस्थिवेदजहण्णसाभियस्स तिसु पलिदोवमेसु परिभमणाभा वादो | जयध० ३ कुदो; इत्थवेदजहण्णसामियत्सेव पयदजहण्णसामियस्त वेछावसिागरोवमाण परिभ्रमणादो । ४ कुदो, विज्झादभागहारोवट्टिददिवड्ठगुणहाणिमेत्त इदियसमयपत्रद्धेहिंतो अधापवत्तभागद्दारोवट्टिदपचिदियसमयपत्रद्धस्सासखेज्जगुणत्त वलभादो | जयध० ५ किं कारण ? कोहसजलणदव्वमेव समयपवद्धस्स चउवभागमेत्त, माणसजलणदव्व पुण तत्तियभागमेन्त, तेण विसेसाहिय जाद | जयघ० ६ कुदो; समयपत्रद्धदुभागप्रमाणत्तादो । जयध० ७ कुदो; दोण्ह पि समयपवद्धपमाणत्ताविसेसे बि गोकसायभागादो कसायभागस्स पर्याडिविसेस - मेत गाहियत्तदसणादो | अवध Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ) प्रदेशसंक्रम-अल्पबहुत्व-निरूपण ४१९ १९६. हस्से जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो'। १९७. रदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । १९८. दुगंछाए जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । १९९. भए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २००. लोभसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २०१. णिरयगईए सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णपदेससंकयो । २०२. सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो। २०३. अणंताणुवंधियाणे जहण्णपदेससंकयो असंखेज्जगुणो । २०४. कोहे जहण्णपदेससंकपो विसेसाहिओ । २०५. मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। २०६. लाभे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। २०७. मिच्छत्ते जहण्णपदेमसंक्रमो असंखेज्जगुणों । २०८. अपञ्चक्खाणमाणे जहष्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो। २०९. कोहे जहण्णपदेससंकमो विसे साहिओ। २१०. मायाए प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। संज्वलनमायासे हास्यमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। हारयसे रतिमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। रतिसे जुगुप्सामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । जुगुप्सासे भयमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। भयसे संज्वलनलोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ।।१८८-२००॥ चूर्णिसू०-गतिमार्गणाकी अपेक्षा नरकगतिमे सम्यक्त्वप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण सबसे कम होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिसे सम्यग्मिथ्यात्वमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । सम्यग्मिथ्यात्वसे अनन्तानुबन्धी मानमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। अनन्तानुबन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। अनन्तानुवन्धी क्रोधसे अनन्तानुबन्धी मायासे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । अनन्तानुवन्धी मायासे अनन्तानुबन्धी लोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुवन्धी लोभसे मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । मिथ्यात्वसे अप्रत्याख्यानमानमे जघन्यप्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोधमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । अप्रत्याख्यानक्रोधसे अप्रत्याख्यानमायामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। अप्रत्याख्यानमायासे १ कुदो, अधापवत्तभागहारोवट्टिददिवड्ढगुणहाणिमेत्तइदियसमयपबधेसु असखेज्जाण पचिंदियसमयपबद्धाणमुवलभादो। जयध० २ कुदो, हस्स-रदिपडिवक्खबधकाले वि दुगुछाए वधमभवादो । जयध० ३ केत्तियमेत्तण १ च उभागमेत्तण ? कुदो; णोकसायपंचभागमेत्तण भयदव्येण कसायच उभागमेत्तलोहसजलणजहण्णसकमदव्वे ओवट्टिदे सचउभागेगरूवागमदसणादो । जयध० ४ दोण्हमेदेसि जइ विथोवूण तेत्तीससागरोत्रममेत्तगोवुच्छगालणेण सम्माइट्ठिचरिमसमयम्मि विज्झादसकमेण जहण्यसामित्तपविसि तो वि पुग्विल्लादो एदस्सासखेज्जगुणत्तमविरुद्ध, अधापवत्तभागहारसभवासभवकयविसेसोववत्तीदो| जयघ० ५कि कारणं १ खविदकम्मसियलसणागतूण णेरइएसुप्पण्णपदमसमए अधापवत्तसक मेणेदस्स सामित्तावलवणादो । जयप. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार जहण्णपदेससंकयो विसेसाहिओ । २११. लोभे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २१२. पच्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २१३. कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २१४. मायाए जहण्णपदेससंकयो विसेसाहिओ । २१५. लोभे जहण्णपदेससंक्रमो विसेसाहिओ। २१६. इत्थिवेदे जहण्णपदेससंक्रमो अणंतगुणो'। २१७. ण,सयवेदे जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । २१८. पुरिसवेदे जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । २१९. हस्से जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । २२०. रदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २२१. सोगे जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । २२२. अरदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २२३. दुगुंछाए जहण्णपदेससंक्रमो विसे साहिओ । २२४. भये जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। २२५. माणसंजलणे जहण्णपदेससंकयो विसेसाहिओ। २२६. कोहसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। २२७. मायासंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २२८. लोहसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । अप्रत्याख्यान लोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमानमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमायामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ॥२०१-२१५।। चूर्णिसू०-प्रत्याख्यानलोभसे स्त्रीवेदमे जघन्यप्रदेशसंक्रमण अनन्तगुणित होता है । स्त्रीवेदसे नपुंसकवेदमै जघन्य प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । नपुंसकवेदसे पुरुपवेदमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है। पुरुपवेदसे हास्यमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । हास्यसे रतिमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । रतिसे शोकमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । शोकसे अरतिमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। अरतिसे जुगुप्सामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । जुगुप्सासे भयमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है । भयसे संज्वलनमानमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। संज्वलनमानसे संज्वलनक्रोधमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है। संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमायामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है। संज्वलनमायासे संज्वलनलोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेप अधिक होता है ।।२१६-२२८॥ १ जइ वि सम्मत्तगुणपाहम्मेणित्थीवेदस्स बधवोच्छेट कादूण तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि गालिय विज्ञादसंकमेण जहण्णसा मित्त जाद, तो वि देसघादिमाहयेणाणतगुणत्तमेदस्स पुबिल्लादो ण विरुज्झदे । २ कुदो, बंधगद्धावसेणेदस्स तत्तो सखेज्जगुणन पडि विरोहाभावादो । जयध० ३ कुदो खविदकम्म सियलक्खणेणागतूण जेरइएसुप्पण्णस्स पडिवखवधगधामेत्तगलणेण पुरिस वेदस्स अधापवत्तसकमणिबधणजहण्णसामित्तावलंबणादो । जयध० __ ४ कुदो, बंधगद्धापडिबद्धगुणगारस तहाभावोवलभादो । जयध० Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेश संक्रम- अल्पबहुत्व-निरूपण ४२१ २२९. जहा णिरयगईए, तहा तिरिक्खगईए । २३०. देवगईए णाणत्तं; सवेदादो इत्थवेदो असंखेज्जगुणो' । २३१. एइ दिए सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णपदेससंकमो । २३२. सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । २३३. अनंताणुवंधिमाणे जहण्णपदेस संकमो असंखेज्जगुणो' । २३४. कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २३५. मायाए जहणपदेस संकमो विसेसाहिओ । २३६. लोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २३७. अपञ्चकखाणमाणे जद्दण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । २३८. कोहे जहणपदेस संकमो विसेसाहिओ । २३९. मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २४०. लोभे जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । २४१. पञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । २४२. कोहे जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । २४३. मायाए जहण्णपदेस संकमो 3 चूर्णिसू० - जिस प्रकार नरकगतिमे यह जघन्य प्रदेश संक्रमणका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार से तिर्यचगतिमे भी जानना चाहिए । ( मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेश संक्रमण - सम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है । ) देवगतिमे कुछ विभिन्नता है, वहॉपर नपुंसकवेदसे स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है ।। २२९-२३०॥ " चूर्णिसू० - इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रियो में सम्यक्त्वप्रकृतिमे जघन्य प्रदेशसंक्रसबसे कम होता है । सम्यक्त्व प्रकृति से सम्यग्मिथ्यात्व में जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । सम्यग्मिथ्यात्व से अनन्तानुबन्धी मानमे जन्नन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । अनन्तानुबन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमे जघन्य प्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुवन्धी क्रोध से अनन्तानुवन्धी मायामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुबन्धी मायासे अनन्तानुबन्धी लोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अनन्तानुबन्धी लोभसे अप्रत्याख्यान मानमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण असंख्यातगुणित होता है । अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोधमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानक्रोधसे अप्रत्याख्यानमायामें जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमान में जघन्यप्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यान १ (कुदो, ) रियाईए तिरिक्खगईए च इत्थवेदादो णवसयवेदस्स असखेज्जगुणत्तोवलभादो । २ कुदो; अधापवत्तभागहारवग्गेण खडिददिवड्ढ गुणहाणिमेत्तजहणसमयपत्रद्धपमाणत्तादो । तपि कुदो ! विसजोयणापुव्त्रसजोगेण सेसकसाएहिंतो अधापवत्तसकमणेण पडिच्छिदखविदकम्मसियदव्वेण सह समयाविरोहेण सव्वल हुमेइ दिएसुप्पण्णस्स पढमसमए अधापवत्तसकमेण पयटजणसामित्तावलवणादो । ३ कुदो, खविदकम्मसियलक्खणेणागतूण दिवड् ढगुणहाणिमेत्तजद्दण्णसमयपत्रद्धेहिं सह एइदिएसुप्पण्णपढमसमए अधापवत्तसकमेण पडिलद्वजहण्णभावत्तादो । जयध० Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त विसेसाहिओ । २४४. लोभे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । 3 २४५. पुरिसवेदे जहण्णपदेससंकमो अनंतगुणों । २४६. इत्थवेदे जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । २४७. हस्से जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । २४८. रदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २४९. सोगे जहण्णपदेस संकमो संखेज्जगुणो । २५०. अरदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २५१. वुंसयवेदे जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । २५२. दुर्गुछाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । २५३. भए जहणपदेससंकमो विसेसाहिओ । २५४. माणसजलणे जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । २५५. कोहे जहणपदेस संकमो विसेसाहिओ । २५६. मायाए जहणपदेससंकमो विसेसाहिओ । २५७ लोहे जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । २५८. भुजगारस्स अट्ठपदं । २५९. एहि पदेसे बहुदरगे संक्रामेदित्ति उसकाविदे अप्पदरसंकामदो एसो भुजगारसंकमो | २६०. एहि पदेसे अप्परगे क्रोध से प्रत्याख्यानमायामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ।। २३१-२४४॥ I चूर्णिसू० - प्रत्याख्यानलोभसे पुरुपवेद मे जघन्य प्रदेशसंक्रमण अनन्तगुणित होता है । पुरुषवेदसे स्त्रीवेद मे जघन्य प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । स्त्रीवेद से हास्यमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । हास्यसे रतिमे जघन्य प्रदेश संक्रमण विशेष अधिक होता है । रतिसे शोकमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणित होता है । शोकसे अरतिमे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । अरतिसे नपुंसक वेद में जवन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । नपुंसकवेदसे जुगुप्सामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । जुगुप्सा से भयमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । भय से संज्वलनमान में ' जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । संज्वलनमानसे संज्वलनक्रोधमें जघन्य प्रदेश - संक्रमण विशेष अधिक होता है । संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमायामे जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है । संज्वलनमायासे संज्वलनलोभमें जघन्य प्रदेशसंक्रमण विशेष अधिक होता है ॥२४५-२५७॥ ४२२ [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार चूर्णि सू० [० - अव प्रदेशसंक्रमण सम्बन्धी भुजाकार कहते है । है । अनन्तर-व्यतिक्रान्त समयमें अल्पतरसंक्रमण करके इस समय बहुतर कर्मप्रदेशका संक्रमण करता है, यह भुजाकार संक्रमण है । ( उसका यह अर्थपद वर्तमान समय ) में अनन्तर - व्यतिक्रान्त १ कुदो, देसघादिकारणावेक्खित्तादो । जयध० २ कुदो, बधगद्वावसेण तावदिगुणत्तोवलभादो | जयध० ३ कुदो; पुव्विल्लव धगद्धादो सखेजगुणवधगद्वार सचिददव्वाणुसारेण सकमपवृत्तिअभुवगमाटो | ४ कुदो उण तारिसस्स संकमभेदस्स भुजगारववएसो ? ण, बहुदरीकरण च भुजगारो त्ति तस्स तथ्यवसोववत्तदो । जयध० * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'संखेज्जगुणो' के स्थानपर 'विसेसाहिओ' पाठ मुद्रित है । पर टीकाकै अनुसार वह अशुद्ध है । ( देखो पृ० १२४० ) 1 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-अर्थपद-निरूपण ४२३ संक्रामेदित्ति ओक्काविदे बहुदरपदेससंकमादो एस अप्पयरसंकमो' । २६१. ओसक्का विदेह च तत्तिगे चेव पदेसे संकामेदित्ति एस अवदिसंकमो' । २६२. असंकमादो संकामेदि ति अवतव्यकमो । २६३. देण अट्ठपदेण तत्थ समुक्कित्तणा । २६४. मिच्छत्तस्स भुजगारअप्पर अवदि-अवतव्व-संकामया अस्थि । २६५. एवं सोलसकसाय- पुरिसवेद-भयदुर्गुणं । २६६. एवं चेव सम्मत्त सम्मामिच्छत्त इत्थि- बुंसय वेद-हस्स-रह- अरइसोगाणं । २६७. णवरि अवद्विदसं कामगा णत्थि । समय में बहुतर प्रदेशका संक्रमण करके वर्तमान समय में अल्पतर प्रदेशोका संक्रमण करता है, यह अल्पतरसंक्रमण है । अनन्तर - व्यतिक्रान्त समयमे जितने प्रदेशका संक्रमण किया है, वर्तमान समयमे' भी उतने ही प्रदेशोका संक्रमण करता है, यह अवस्थितसंक्रमण है । अनन्तर-व्यतिक्रान्त समयमें कुछ भी संक्रमण न करके वर्तमान समय में संक्रमण करता है, यह अवक्तव्यसंक्रमण है । इस अर्थपदके द्वारा भुजाकारसंक्रमणकी पहले समुत्कीर्तना की जाती है - मिथ्यात्व के भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अव्यक्तव्य संक्रामक होते है 1 इसी प्रकार सोलह कपाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके चारो प्रकारके संक्रामक होते है । इस ही प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अर और शोकप्रकृतियों के संक्रामक जानना चाहिए । विशेषतया केवल यह है कि इनके अवस्थितसंक्रामक नहीं होते है ।। २५८-२६७ ।। १ अय सूत्रार्थः - इदानोमल्पतरकान् प्रदेशान् सक्रमयतीत्ययमल्पतरसक्रमः । कुतोऽल्पतरत्वमिदानीतनस्य प्रदेशसक्रमस्य विवक्षितमिति चेदनन्तरातिक्रान्तसमय सम्बन्धि बहुतर प्रदेशसक्रम विशेपादिति । जयध० २ अनन्तरव्यतिक्रान्तसमये साम्प्रतिके च समये तावन्त एव प्रदेशानन्यूनाधिकान् सकामयतीत्यतोऽ वस्थितसक्रम इत्युक्तं भवति । जयध० ३ पूर्वमस क्रमादिदानीमेव सक्रमपर्यायमभूतपूर्वमा स्कन्दतीत्यस्या विवक्षायामवत्त व्यसक्रमस्यात्मलाभ इत्युक्त मवति । अस्य चावक्तव्यव्यपदेशोऽवस्थात्रयप्रतिपादकैरभिलापैरनभिलाप्यत्वादिति । जयध० ४ त जहा - अट्ठावीससतक म्मियमिच्छाइट्टिणा वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे पढमसमये मिच्छत्तस्स विज्झादेणावत्तन्वसकमो होइ । पुणो विदियादिसमएस मुजगारसकमो अवट्ठिदसकमो अप्पयरसकमो होइ जाव आवलियसम्माइदिउत्ति । तत्तो उवरि सव्वत्थ वेदयसम्माइट्रिट्ठम्मि अप्पयरसकमो जाव दसणमोहक्खवणाए अपुव्वकरण पविट्ठस्स गुणसकमपारभो त्ति । गुणसकमविसए सव्वत्थेव मुजगारसकमो दट्ठव्वो । उवसमसम्मत पडिवण्णस्स वि पढमसमए अवत्तव्वसकमो, विदियादिसमएस भुजगारसकमो जाव गुणसकमचरिमसमयति । तदो विज्झादस कमविषए सव्वत्थ अप्पयरसकमो त्ति घेत्तन्व | जयध० ५ जत्थागमादो णिजरा थोवा, तत्थ भुजगारसकमो, जत्थागमादो णिजरा बहुगी, एयतणिजरा चैव वा, तत्थ अप्पयरसको । जम्हि विसए दोन्हें पि सरिसभावो, तहि अवदितकमो । असकमादो सकमो जत्थ, तत्थावत्तव्वसकमो त्ति पुव्व व सव्वमेत्थाणुगतव्व । णवरि अवत्तव्वसकमो वारसकसाय पुरिसवेद भयदुगु छाण सव्वोवसामणापडिवादे, अणताणुवधीण च विसजोयणा अपुव्वस जोगे दट्ठव्वो । जयघ० Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २६८. सामित्तं । २६९. मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामओ को होइ ? २७०. पडमसम्मत्तमुप्पादयमाणगो पडमसमए अवत्तव्यसंकामगो । सेसेसु समएसु जाव गुणसंकमो ताव भुजगारसंकामगो' । २७१. जो वि दंसणमोहणीयक्खवगो अपुव्यकरणस्स पढमसमयमादि कादूण जाव मिच्छत्तं सबसंकमेण संछुहदि ति ताव मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो । २७२. जो वि पुषुप्पणेण सम्मत्त ण मिच्छत्तादो सम्मत्तमागदो तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स जं बंधादो आवलियादीदं मिच्छत्तस्स पदेसग्गं तं विज्झादसंकमेण संकामेदि आवलियचरिमसमयमिच्छाइद्विमादि कादूण जाव चरिमसमयमिच्छाइट्टि त्ति एत्थ जे समयपबद्धा ते समयपबद्ध पहमसमय सम्माइट्टि त्ति ण संकामेह | से कालप्पहुडि जस्स जस्स बंधावलिया पुण्णा तदो तदो सो संकामिजदि । एवं पुयुप्पाइदेण सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवज्जइ तं दुसमयसम्माइडिमादि कादूण जाव आवलि चूर्णिसू०-अब भुजाकार प्रदेशसंक्रमणके स्वामित्वको कहते है ॥२६८॥ शंका-मिथ्यात्वका भुजाकार-संक्रामक कौन है ? ॥२६९॥ समाधान-प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला जीव प्रथम समयमे मिथ्यात्वका अवक्तव्यसंक्रामक है। शेष समयोमें जब तक गुणसंक्रमण रहता है, तब तक वह मिथ्यात्व का भुजाकार-संक्रामक है ॥२७०॥ अब प्रकारान्तरसे भुजाकारसंक्रमके स्वामित्वको कहते हैं चूर्णिसू ०-और जो दर्शनमोहनीयका क्षपण कर रहा है, वह अपूर्वकरणके प्रथम समयको आदि लेकर जब तक सर्वसंक्रमणसे मिथ्यात्वका संक्रमण करता है, तब तक मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रामक रहता है। तथा जिसने पूर्वमै सम्यक्त्व उत्पन्न किया है, वह जीव मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वमे आया, उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके जो बन्ध-समयके पश्चात् एक आवली अतीत काल तकके मिथ्यात्वके प्रदेशाग्र है, उन्हे विध्यातसंक्रमणसे संक्रमित करता है । चरम आवलीकालवाले चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिको आदि करके जव तक वह चरमसमयवर्ती मिथ्याष्टि है, तब तक इस अन्तरालमे जो समयप्रवद्ध वॉधे हैं, उन समयप्रवद्धोको प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि होने तक संक्रमण नहीं करता है । तदनन्तरकालसे लेकर जिन जिनकी बंधावली पूर्ण हो जाती है, उन उन कर्मप्रदेशोको वह संक्रमण करता है। इस प्रकार पूर्वोत्पादित सम्यक्त्वके साथ जो सम्यक्त्वको प्राप्त होता है, उस द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टिको आदि करके जब तक आवलीकालवर्ती सम्यग्दृष्टि रहता है, तब तक १ (कुदो,) पुयमसकतस्स तस्स ताधे चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण सकतिदसणादो। जयध° २ कुदो; पडिसमयमसखेजगुणाए सेढीए गुणसंकमेण मिच्छत्तपदेसग्गत्स तत्थ सकतिदसणादो। जयध° ३ अपुव्यकरणद्धाए सन्यत्थ अणियट्टिकरणद्धाए च जाव मिच्छत्तस्स सव्वसंकमसमयो ताव अतो. मुहुत्तमेत्तकालं गुणसकमेण भुजगारसंकामगो होइ त्ति भणिद होइ । जयध० Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-भुजाकार- स्वामित्व-निरूपण ४२५ यसम्माइट्टि त्ति ताव मिच्छत्तस्स भुजगार संकमो होज्ज । २७३. ण हु सव्वत्थ आवलियाए भुजगार संकमो जहणेण एयसमओ । २७४. उक्कस्सेणावलिया समयूणा । २७५. एवं ति कासु मिच्छत्तस्स भुजगार संकामगो । २७६. तं जहा । २७७. उवसामग-दुसमयसम्माइट्टिमादि काढूण जाव गुणसंकमो चिताव णिरंतरं भुजगार संकमो । २७८. खवगस्स वा जाव गुणसंकमेण खचिज्जदि मिच्छत्तं ताव निरंतरं भुजगार संकमो । २७९ पुच्प्पादिदेण वा सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवज्जदि तं दुसमयसम्म ट्टिमादि काढूण जाव आवलियसम्माट्ठि त्ति एत्थ जत्थ वा तत्थ वा जहण्णेण एयसमयं उक्कस्सेण आवलिया समयूणा भुजगारसंकमो होज्ज । २८०. एवमेदेति काले मिच्छत्तस्स भुजगार संकमो । २८१. सेसेसु समएस जइ संकामगो अप्पयरसंकामगो वा अवत्तव्वसंकामगो वा । २८२. अवट्ठिदसंकामगो मिच्छत्तस्स को होइ ? २८३. पुष्पादिदेण सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवज्जदि जाव आवलियसम्माइडि ति एत्थ होज अवद्विदसं कामगो । अण्णम्मि णत्थि । उसके मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रमण होता रहता है । आवलीके भीतर सर्वत्र भुजाकार - संक्रमण नही होता, किन्तु जवन्यसे एक समय और उत्कर्ष से एक समय कम आवली तक होता है ॥२७१-२७४॥ अब चूर्णिकार उपर्युक्त अर्थका उपसंहार करते है - चूर्णिसू० [० - इस प्रकार तीन अवसरोमें जीव मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रमण करता है । वे तीन अवसर इस प्रकार है- उपशामक द्वितीय - समयवर्ती सम्यग्दृष्टिको आदि लेकर जब तक गुणसंक्रमण रहता है, तब तक निरन्तर भुजाकारसंक्रमण होता है । अथवा क्षपकके जब तक गुणसंक्रमणसे मिध्यात्व क्षपित किया जाता है, तब तक निरन्तर भुजाकारसंक्रमण होता है । अथवा जिसने पूर्वमे सम्यक्त्व उत्पन्न किया है, ऐसा जो जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है, उस द्वितीय - समयवर्ती सम्यग्दृष्टिको आदि करके आवलीके पूर्ण होने तक उस सम्यग्दृष्टि के इस अवसर में जहां कहीं जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से एक समय कम आवली तक भुजाकारसंक्रमण हो सकता है । इस प्रकार इन तीन कालोमे मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रमण होता है ।। २७५-२८० ॥ चूर्णि सू० - - उक्त तीनो अवसरोके शेष समयोमे यदि संक्रमण करता है, तो या तो अल्पतरसंक्रमण करता है, अथवा अवक्तव्यसंक्रमण करता है ॥२८१ ॥ शंका- मिथ्यात्वका अवस्थित संक्रामक कौन जीव है ? ॥ २८२ ॥ समाधान - जिसने पूर्वमे सम्यक्त्व उत्पन्न किया है, ऐसा जो जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, वह जब तक आवली - प्रविष्ट सम्यग्दृष्टि है, तब तक इस अन्तरालमे वह अवस्थित संक्रामक हो सकता है । अन्य अवसरमे अवस्थित संक्रामक नहीं होता || २८३ || ५४ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार २८४. सम्मत्तस्स भुजगारसंकामगो को होदि ? २८५. सम्मत्तमुवेल्लमाणयस्स अपच्छिमे द्विदिखंडए सबम्हि चेव भुजगारसंकामगो'। २८६. तव्यदिरित्तो जो संकामगो सो अप्पयरसंकामगो वा अवत्तव्यसंकामगो वा । २८७. सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो को होइ ? २८८. उज्वेल्लमाणयस्स अपच्छिमे द्विदिखंडए सबम्हि चे । २८९. खवगस्स वा जाय गुणसंकमेण संछुहदि सम्मामिच्छत्तं ताव भुजगारसंकामगो । २९०. पहमसम्मत्तमुप्पादयमाणयस्स वा तदियसमयप्पहुडि जाब विज्झादसंकमपहमसमयादो त्ति । २९१. तव्वदिरित्तो जो संकामगो सो अप्पदरसंकायगो वा अवत्तव्यसंकामगो वा। शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका भुजाकार-संक्रमण कौन करता है ? ॥२८४॥ समाधान-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाले जीवके अन्तिम स्थितिखंडके सर्व ही कालमे भुजाकारसंक्रमण होता है । भुजाकार-संक्रमणके अतिरिक्त यदि वह संक्रामक है, तो या तो अल्पतरसंक्रमण करता है, अथवा अवक्तव्यसंक्रमण करता है ।।२८५-२८६।। शंका-सम्यग्थ्यिात्वका भुजाकारसंक्रमण कौन करता है ? ॥२८७।। समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले जीवके अन्तिम स्थितिखंडके सर्व ही कालमे सम्यग्मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रमण होता है । अथवा क्षपकके जब तक वह गुणसंक्रमणसे सम्यग्मिथ्यात्वको संक्रमित करता है, तब तक वह भुजाकार-संक्रामक है । अथवा प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवके तृतीय समयसे लेकर विध्यातसंक्रमणके प्रथम समय तक सम्यग्मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रमण होता है। सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रमणके अतिरिक्त यदि वह संक्रामक है, तो या तो अल्पतरसंक्रामक है, अथवा अवक्तव्यसंक्रामक है ॥२८८-२९१॥ विशेपार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वका भुजाकारसंक्रमण तीन प्रकारसे बतलाया गया है । इनमे प्रथम और द्वितीय प्रकार तो स्पष्ट है। तीसरे प्रकारका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैसम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव जब प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, तब उसके प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता होती है और द्वितीय समयमे अवक्तव्यसंक्रमण होता है। पुनः उसके तृतीयादि समयोमे गुणसंक्रमणके वशसे भुजाकारसंक्रमण १ कुदो, तत्य गुणसकमणियमट सणादो । जयध ० २ किं कारण ? उबेल्लणचरिमझिदिखंडयादो अण्णत्थ जहासभवमप्पदरावत्तव्वस कमाण चेव सभव: दसणाटो। जयध० ३ कुदो, तत्थ गुणसकमणियमदसणादो। जयध. ४ कुदो; दसणमोहक्खवया पुवकरणपढमसमयप्पहडि जाव सबसकमो त्ति ताव सम्मामिछत्तत्त गुणसकमसभवत्रमेण तत्य भुजगारसिद्धीए विसवादाभावादो । जयध ५ जदो एट देसामासिय, तदो सम्माइटिठणा मिच्छत्ते पडिवणे तप्पढमसमयम्मि अधापयत्तसक्मण भुजगारमकमो होइ, तहा उवेल्लमाणमिच्छाइट्ठिणा वेदयमम्मत्ते गहिदे तस्स पढमममए वि विज्यादनक मेण भुजगारसकमसभवो वत्तव्यो । जयध० Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ गा० ५८] - प्रदेशसंक्रम-भुजाकार-स्वामित्व-निरूपण २९२. सोलसकसायाणं भुजगारसंकामगो अप्पदरसंकामगो अवढिदसंकामगो अवत्तव्यसंकामगो को होदि ? २९३. अण्णदरो' । २९४. एवं पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं । २९५. णवरि पुरिसवेद-अवडिदसंकामगो णियमा सम्पाइट्ठी' । २९६. इत्थि-णqसयवेदहस्स-रइ-अग्इ-सोगाणं भुजगार-अप्पदर अवत्तव्यसंकमो कस्स ? २९७. अण्णदरस्स । ___ २९८. कालो एयजीवस्स । २९९. मिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होता है । यह क्रम विध्यातसंक्रमणको प्रारम्भ करनेके प्रथम समय तक जारी रहता है । यह कथन सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं रखनेवाले मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा किया गया है । किन्तु जिस मिथ्याष्टिक उसकी सत्ता है, वह जब उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करता है, तब उसके प्रथम समयसे लेकर गुणसंक्रमणके अन्तिम समय तक भुजाकारसंक्रमण होता रहता है। यतः यह सूत्र देशामर्शक है, अतः यह भी सूचित करता है कि सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर उसके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमण होनेसे भुजाकारसंक्रमण होता है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जव वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करता है, तव उसके प्रथम समयमे भी विध्यातसंक्रमणके होनेसे भुजाकारसंक्रमणका होना संभव है। ___ शंका-अनन्तानुवन्धी आदि सोलह कषायोका भुजाकारसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक, अवस्थितसंक्रामक और अवक्तव्यसंक्रामक कौन है ? ॥२९२॥ समाधान-यथासंभव कोई एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव चारो प्रकारके संक्रमणोका संक्रामक होता है ॥२९३॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार पुरुषवेद भय और जुगुप्साके भुजकारादि संक्रामक जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि पुरुषवेदका अवस्थितसंक्रामक नियमसे सम्यग्दृष्टि जीव ही होता है ॥२९४-२९५॥ शंका-स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकप्रकृतियोका भुजाकार, अल्पतर और अवक्तव्य संक्रमण किसके होता है ? ॥२९६॥ समाधान-किसी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होता है ॥२९७॥ चूर्णिसू०-अब भुजाकारादि संक्रमणोका एक जीवकी अपेक्षा काल कहते हैं ।।२९८॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है ? ॥२९९॥ १ अणनाणुवधीण ताव भुजगारसकामगो अण्णदरो मिच्छाइट्ठी सम्माइटठी वा होइ, मिच्छाइट्टिम्मिणिरतरवधीण तेसिं तदविरोहादो । सम्माइछिम्मि वि गुणसकमपरिणदम्मि सम्मत्तग्गहणपढमावल्यिाए वा विदियादिसमएसु तदुवलद्धीदो। अणताणुबधीणमवत्तव्वसकामगो अण्णदरो त्ति वुत्ते विमजोयणापुव्वसजोगपढमसमयणवकवधमावलियादिक्कत सकामेमाणयस्स मिच्छाइटिस्स सासणसम्माइटिटम्स वा गहण कायव्व । एव चेव सेसकसायाण पि भुजगारादिपदाणमण्णदरसामित्ताहिम्बधो अणुगतब्बो । णवरि तेसिमवत्तव्यसकामगो अण्णदरो सम्बोवसामणापडिवादसमए वट्टमाणगो सम्माइट्ठी चेव होइ, णाणो त्ति वत्तव्य । २ कुदो, सम्माइट्ठीदो अण्णत्थ पुरिमवेदस्स णिरतरबधित्ताभावादो । ण च णिरतरवधेण विणा अवठ्दिसकमसा मित्तविहाणसभवो; विरोहादो । जयध० जयध० Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार होदि १ ३००. जहण्णेण एयसमओ' । ३०१. उक्कस्सेण आवलिया समयूणां । ३०२. अधवा अंतोमुहुत्तं । ३०३. अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३०४. एको वा समयो जाव आवलिया दुसमयूणा । ३०५. अधवा अंतोमुहुत्तं । ३०६. तदो समयुत्तरो जाव छावट्टि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३०७. अवविदसंकमो केवचिरं कालादो समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक समय कम आवलीप्रमाण है । अथवा गुणसंक्रमण कालकी अपेक्षा मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रमणका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३००-३०२॥ शंका-मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है १ ॥३०३।। समाधान-एक समय भी है, दो समय भी है, इस प्रकार समयोत्तर वृद्धिसे बढ़ते हुए दो समय कम आवली काल तक मिथ्यात्वका अल्पतरसंक्रमण होता है। अथवा वेदकसम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। उससे लगाकर एक समय, दो समय आदिके क्रमसे उत्तरोत्तर वढ़ता हुआ सातिरेक छयासठ सागरोपम तक मिथ्यात्वके अल्पतर संक्रमणका उत्कृष्ट काल है ॥३०४-३०६।। शंका-मिथ्यात्वके अवस्थितसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३०७।। १ त जहा-पुव्वुप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो वेदगसम्मत्तमागयस्स पढमसमए विज्झादसकमेणावत्तव्वसकमो होइ । विदियादीणमण्णदरसमए जत्थ वा तत्थ वा चरिमावलियमिच्छाइठिणा वढिदूण बद्धणवकवधसमयपबद्ध बधावलियादिक्कत भुजगारसरूवेण सकामिय तदणतरसमए अप्पदरमवठ्ठिद वा गयन्स लडो मिच्छत्तभुजगारसकामयस्स जहण्णकालो एयसमयमेत्तो | जयध० २ त कथ ? पुवुप्पण्णसम्मत्तपच्छायद मिच्छाइट्ठिणा चरिमावलियाए णिरतरमुदयावलिय पविस माणगोवुच्छाहिंतो अन्भहियकमेण वविदूण वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमसमए अवत्तव्वसंकमो होदूण पुणो विदियादिसमएसु पुवुत्तणवकवधवसेण णिरतर भुजगारसकमे सजावे लद्धो मिच्छत्तभुजगारसकमत्स समयूणावलियमेत्तो उक्कस्सकालो । जयध० ३ त जहा-दसणमोहमुवसामेतयस्स वा जाव गुणसंक्रमो ताव णिरतर भुजगारसकमो चेव, तत्थ पया रतरासभवाटो । सो च गुणसकमकालो अतोमुहुत्तमेत्तो । तदो पयदुक्कस्सकालोवलभो ण विरुद्धो । जयध° ४ त जहा-तहाविहसम्माइट्टिणो पढमसमए अवत्तव्वस कामगो होदूण विदियसमयम्मि अप्पयर सकमेण परिणमिय तदणतरसमए चरिमावलियमिच्छाइट्टिबधवसेण भुजगारमवट्टिदभाव वा गयस्स लद्धा एयसमयमेत्तो अप्पयरकालजहणवियप्पो । एव दुसमयतिसमयाटिकमेण णेदव्वं जाव आवलिया दुसमयूणा त्ति । तत्थ चरिमवियप्पो वुच्चदे-पढमसमए अवत्तव्वसकामगो होदूण विदियादिसमएसु सन्वेसु चेव अप्पयरसंकम कादूण पुणो पढमावलियचरिमसमए भुजगारावट्टिदाणमण्णयरसकमपजाय गदो लदो दुसमयूणा वलियमेत्तो मिच्छत्तप्पयरसकमकालो । जयध० । ५ त जहा-बहुसो दिमग्गेण मिच्छाइट्ठिणा वेदगसम्मत्तमुप्पाइद | तस्स पढमावलियचरिमसमए पुबुत्तेण णाएण भुजगारसकर्म कादण तटो अप्पयरसकम पारभिय सव्वजहष्णेण कालेण मिच्छत्त-सम्मामि च्छत्ताणमण्णटरगुण गयस्स जहण्णतोमुहुत्तपमाणे अप्पयरकालवियप्पो लभदे । ६ त जहा-अणादियमिच्छाइwिणा सम्मत्ते समुप्पाइदे अंतोमुहत्तकाल गुणसकमो होदि । तदा विज्झादे पदिदस्स णिरतरमप्ययरसंकमो होदूण गच्छदि जावतोमुहुत्तमेत्तुवसमसम्मत्तकालसेसो वेदगसम्मत्त' कालो च देसणछावठिसागरोवममेत्तो त्ति । तत्थतोमुहुत्तसेने वेदगसम्मत्तकाले खवणाए अन्मुट्ठिदत्सा Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] - प्रदेशसंक्रम-भुजाकार-काल-निरूपण ४२९ होदि ? ३०८. जहणणेण एयसमओ। ३०९. उक्कस्सेण संखेजा समया । ३१०. अवत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३११. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ३१२. सम्मत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३१३. जहण्णेण एयसमओ । ३१४. उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । ३१५. अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ३१६. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३१७. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ३१८. अवत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३१९, जहण्णुक्कस्सेण एयसमयो । ३२०. सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ३२१. एको वा दो वा समया । एवं समयुत्तरो उकस्सेण जाव चरिमुवेल्लणकंडयुक्कीरणा त्ति । समाधान-मिथ्यात्वके अवस्थितसंक्रमणका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ॥३०८-३०९।। शंका--मिथ्यात्वके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३१०॥ समाधान-मिथ्यात्वके अवक्तव्यसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।।३११॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है १ ।।२१२।। समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।।३१३-३१४॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है ? ।।३१५।। समाधान-जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है ॥३१६-३१७॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३१८।। समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र है ।।३१९।। शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३२०॥ समाधान-एक समय भी होता है, दो समय भी होता है, इस प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे बढ़ते हुए उत्कर्षसे चरम उद्वेलनाकांडकके उत्कीर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण भी सम्यग्मिथ्यात्वक भुजाकारसंक्रमणका उत्कृष्ट काल है। अथवा सम्यक्त्वको उत्पन्न पुवकरणपढमसमए गुणसकमपारभेणाप्पयरसकमस्स पजवसाण होइ । तदो सपुण्णछावठिसागरोवममेत्त वेदगसम्मत्तुक्कस्सकालम्मि अपुव्वाणियट्टिकरणद्धामेत्तमप्पयरसकमस्स ण लव्भइ त्ति । तम्मि पुधिल्लोवसमसम्मत्तकालभतरअप्पयरकालादो सोहिदे सुद्धसेसमेत्तेयसादिरेयछावसिागरोवमपमाणो पयदुक्कस्मकालवियप्पो समुवलद्धो होइ । जयध० १ सम्माइट्ठिपढमसमय मोत्तूणण्णत्थ तदभावविणिण्णयादो । जयध० २ कुदो, चरिमुवेल्लणकडए सव्वत्थेव गुणसकमेण परिणदम्मि पयदभुजगारसमुक्कत्सकालस्स तप्पमाणत्तोवलभादो । जयध० ३ कुदो; सम्मत्तादो मिच्छत्त गतूण सवुक्कस्सेणुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लमाणयस्स तदुवल भादो । जयध० ४ सम्मत्तादो मिच्छत्तमुवगयस्स पढमसमयादो अण्णत्थ तदभावविणिण्णयादो । जयध० Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० कसाय पाहुड सुत्त . [५ संक्रम-अर्थाधिकार ३२२. अधवा सम्मत्तमुप्पादेमाणयस्स वा तदो खवेमाणयस्स वा जो गुणसंकमकालो सो वि भुजगारसंकामयस्स कायव्यो । ३२३. अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादोहोदि ? ३२४. जहण्णेण अंतोमुहत्तं । ३२५. एयसमओ वा । ३२६. उक्कस्सेण छावटिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३२७. अवत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ३२८. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। , ३२९. अणंताणुबंधीणं' भुजगारसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? ३३०. जहण्णेण एयसमयो। ३३१. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागो । ३३२. अप्पदरसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३३३. जहण्णेण एयसमओ । ३३४. उक्कस्सेण वे छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३३५. अवट्ठिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ३३६. जहण्णेण एयसमओ । ३३७. उक्स्से ण संखेज्जा समया । ३३८. अवत्तव्यसंकामगो करनेवालेका, अथवा मिथ्यात्वको क्षपण करनेवालेका जो गुणसंक्रमणकाल है, वह भी सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकारसंक्रामकका काल प्ररूपण करना चाहिए ।।३२१-३२२॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३२३॥ समाधान-जघन्य अन्तर्मुहूर्त, अथवा एक समय है और उत्कृष्ट काल सातिरेक च्यासठ सागरोपम है ॥३२४-३२६॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३२७॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ॥३२८॥ शंका-अतन्तानुबन्धी कपायोके भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३२९॥ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है ॥३३०-३३१॥ शंका-अनन्तानुवन्धी कषायोके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३३२॥ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सातिरेक दो वार छयासठ सागरोपम है ॥३३३-३३४॥ शंका-अनन्तानुवन्धी कपायोके अवस्थितसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३३५॥ समाधान-उक्त कपायोके जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ।।३३६-३३७॥ १ कुदो, गुणस कमविसए मुजगारसकम मोत्तण पयारतरासभवादो | जयध० २ तं जहा-चरिमुव्वेलणकडय गुणसकमेण सकामेंतरण सम्मत्तमुप्पाइद । तस्स पढमसमए विज्झा. देणप्पयरसकमो जादो । पुणो विदियसमए गुणसकमपारभेण भुजगारसकमो जादो। लद्धो एयसमयमत्ता सम्मामिच्छत्तप्पयरसकमवालो | जयध० ३ त जहा-थावरकायादो आगतूण तसकाइएसुप्पण्णस्स जाव पलिदोवमासखेजभागमेत्तकालो गच्छदि ताव आगमो बहुगो, णिजरा थोवयरा होइ; तम्हा पलिटोबमासखेचभागमेत्तो पयदभुजगारसकमुक्कस्सकालो ण विरुज्झदे । जयध० ४ आगमणिजराणं सरिसत्तवसेण सत्तट्ठसमएसु अवटिटदसकमसभवे विरोहाभावादो | जयध Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-भुजाकार-काल-निरूपण केवचिरं कालादो होदि १ ३३९. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ' । ३४०. वारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं भुजगार-अप्पदर-संकमो केवचिरं कालादो होदि ? ३४१. जहण्णेणेयसमओ । ३४२. उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। ३४३. अवढिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३४४.जहण्णेण एयसमओ। ३४५. उकस्सेण संखेज्जा समया । ३४६ अवत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ३४७. जहण्णुकस्सेण एयसमओ। ३४८. इत्थिवेदस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३४९. जहण्णेण एयसमओ । ३५०. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३५१. अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ३५२. जहण्णेण एगसमओ । ३५३. उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि शंका-अनन्तानुबन्धी कपायोके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३३८॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र है ॥३३९॥ शंका-अप्रत्याख्यानावरणादि वारह कषाय, पुरुपवेद, भय और जुगुप्सा, इतनी प्रकृतियोंके भुजाकार और अल्पतर संक्रमणका कितना काल है १ ॥३४०॥ समाधान-उक्त प्रकृतियोका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है ॥३४१-३४२॥ शंका-उक्त प्रकृतियोके अवस्थितसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३४३॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है ॥३४४-३४५॥ शंका-उन्ही प्रकृतियोके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है १ ॥३४६॥ समाधान-उक्त प्रकृतियोके अवक्तव्यसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र है ॥३४७॥ शंका-स्त्रीवेदके भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है ? ॥३४८।। समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥३४९-३५०॥ शंका-स्त्रीवेदके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है १ ॥३५१॥ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात वर्ष अधिक दो वार छयासठ सागरोपम है ॥३५२-३५३।। १ विसजोयणापुव्वसजोगणवकबधावलिवदिक्कतपढमसमए तदुवलभादो । जयध० २ एइदिएहिंतो पचिदिएसु पचिदिएहिंतो वा एइदिएसुप्पण्णस्स जहाकम तदुभयकाल्स्स तप्पमाणत्तसिद्धीए विरोहाभावादो । जयध० ३ सव्वोवसामणापडिवादपढमसमयादो | जयध० ४ त कथ ? अण्णवेदबधादो एयसमयमिस्थिवेदबध कादूण तदण तरसमए पुण्णो वि पडिवक्खवेदबधमाढविय वधावलियवदिफतसमए कमेण सकामेमाणयस्स एयसमयमेत्तो इथिवेदत्स भुजगारसकमकालो जहण्णकालो होइ । जयध० Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार संखेज्जवस्तम्भहियाणि । ३५४. अवत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३५५. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ३५६. सयवेदस्स अप्पय (संकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३५७. जहण्णेण एयसमओ । ३५८. उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । ३५९. सेसाणि इत्थवेदभंगो । ४३२ ३६०. हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं भुजगार - अप्पयर संकपो केवचिरं कालादो होदि ९ ३६१. जहण्णेण एयसमओ । ३६२. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ' । ३६३. अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ ३६४. जहण्णुकस्से एयसमओ । ३६५. एवं चतुसु गदी ओघेण साधेदूण दव्वो । ३६६. एइंदिए सव्वेसिं कम्माणमवत्तव्वसंकमो णत्थि । ३६७. सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं भुजगार संकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ३६८. जहणेण एयसमओ । शंका- स्त्रीवेदके अवक्तव्य संक्रमणका कितना काल है ? || ३५४ || समाधान - जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है || ३५५ || शंका- नपुंसक वेद के अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है ? || ३५६ || समाधान - जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन वार छयासठ सागरोपम है ।। ३५७-३५८। पल्योपमसे अधिक दो 0 चूर्णिसू० - नपुंसकवेदके शेप संक्रमणोका काल स्त्रीवेदके संक्रमणकाल के समान जानना चाहिए || ३५९ ॥ शंका- हास्य, रति, अरति और शोकके भुजाकारसंक्रमण और अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है ? || ३६०|| समाधान- जघन्यकाल एक समय और उत्कृटकाल अन्तर्मुहूर्त है ।। ३६१-३६२।। शंका-उक्त प्रकृतियोके अवक्तव्यसंक्रमणका कितना काल है ? || ३६३॥ समाधान - जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र है || ३६४ || 0 चूर्णिम् ० - इसी प्रकार चारो गतियोमे ओघके समान साध करके कालकी प्ररूपणा करना चाहिए ॥ ३६५॥ चूर्णिसू०- ( इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा ) एकेन्द्रियोमे सभी कर्मोंका अवक्तव्य संक्रमण नहीं होता है ॥ ३६६॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के भुजाकारसंक्रमणका कितना काल है ? ।। ३६७॥ १ अप्पप्पणो बधकाले मुजगारसकमो होइ, पडित्रक्खपयडिबंधकाले एढेसिमप्यरसकमो होदित्ति पयदुक्कस्सकालसिद्धी वत्तव्वा । जयध० २ कुदो; गुणतर पडिवत्तिपडिवाद णित्र घणस्स सव्वे सिमवत्तव्वस कमस्सेइ दिएसु असभवादो | जय ० ३ कुदो; चरिमुव्वेल्लणखडयदुचरिमफालीए सह तत्युप्पण्णत्स विदियसमयम्मि तडवलभादो | दुचरिमुव्वेल्लणकंडयचरिफालिसंकमादो चरिमुव्वेल्लणखड्यपटमफालि संकामिय तदणंतरसमए तत्तो णिस्सरिदस्स वा तदुवलंभसंभवादो । जयध० Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-भुजाकार-अन्तर-निरूपण ३६९. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं'। ३७०. अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? ३७१. जहण्णेण एयसमओ। ३७२. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो। ३७३. सोलसकसाय-भयदुगुंछाणमोघ-अपञ्चक्खाणावरणभंगो। ३७४. सत्तणोकसायाणं ओघहस्स-रदीणं भंगो। ३७५. एयजीवेण अंतरं । ३७६. मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ३७७. जहण्णेण एयसमओ वा दुसमओ वा, एवं णिरंतरं जाव तिसमऊणावलिया। ३७८. अधवा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३७९. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियÉ । २८०. एवमप्पदरावट्टि दसंकामयंतरं । ३८१. अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ३८२. जहण्णेणंतोमुहुत्तं । ३८३. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ? ॥३६८-३६९॥ शंका-उक्त दोनो प्रकृतियोके अल्पतरसंक्रमणका कितना काल है १ ||३७०॥ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है ॥३७१-३७२॥ चूर्णिस०-सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा-सम्बन्धी संक्रमणोका काल ओघअप्रत्याख्यानावरणके संक्रमण-कालके समान है । शेप सात नोकपायोके संक्रमणोका काल ओघके हास्य-रतिके संक्रमण-कालके समान जानना चाहिए ॥३७३-३७४॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भुजाकारादि संक्रामकोका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर कहते हैं ॥३७५॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकार-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥३७६।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय, अथवा दो समय, अथवा तीन समय, इस प्रकार समयोत्तर क्रमसे निरन्तर बढ़ते हुए तीन समय कम आवली है। अथवा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥३७७-३७९॥ चूर्णिसू०-इसीप्रकार मिथ्यात्वके अल्पतर और अवस्थित संक्रामकोका अन्तर जानना चाहिए ॥३८०॥ शंका-मिथ्यात्वके अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥३८१।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन है ॥३८२-४८३॥ १ कुदो, चरिमछिदिखडयउक्कीरणकालस्साणूणाहियस्स भुजगारसकमविसईकयत्स तदुवलभादो । जयघ० २ कुदो, दुचरिमुव्वेल्लणखडयदुचरिमफालीए सह तत्थुववण्णयम्मि तदुवल्धीदो | जयध० ३ कुदो, अप्पदरसकमाविणाभाविदीहुव्वेल्लणकालावलबणादो । जयध० ४ त कथ ? उवसमसम्माइट्ठी गुणसकमेण भुजगार सकममादि कादूण विज्झादेण तरिय पुणो सव्यलहु द सणमोहक्खवणाए अभुट्टिदो, तस्सापुवकरणपढमसमए गुणसकमपारभेण पयदतरपरिममत्ती जादा । ल्धो जहण्णेणतोमुहुत्तमेत्तो पयदभुजगारतरकालो | जयध० ५५ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ___ ३८४. सम्मत्तस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ३८५. जहण्णेण पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागो। ३८६. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियहूं। ३८७. अप्पदरावत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ३८८. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३८९. उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । ३९०. सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ३९१. जहण्णेण एयसमओ । ३९२. उक्स्से ण उघडपोग्गलपरियट्ट । ३९३. अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ३९४. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३९५. उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट। ३९६. अणंताणुवंधीणं भुजगार-अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके भुजाकार-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥३८४॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥३८५-३८६॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अल्पतर और अवक्तव्यसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥३८७॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन है ॥३८८-३८९॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार और अल्पतरसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥३९०॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन है ॥३९१-३९२।। शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥३९३।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुगलपरिवर्तन है ।।३९४-३९५।। शंका-अनन्तानुबन्धी कपायोके भुजाकार और अल्पतर संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥३९६॥ १ त जहा चरिमुवेल्लणकडयम्मि गुणसकमेण पयदसकमस्सादि करिय तदणतरसमए सम्मत्तमुप्पाइय असकामगो होदृणतरिय सबलहु मिच्छत्तं गंतॄण सम्बजहण्णुव्वेलणकालेणुव्वेल्लमाणयत्स चरिमट्ठिदि खडए पटमसमए लद्धमंतरं होइ । जयध० २ कथं ? अणादियमिच्छाइट्ठी सम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहं मिच्छत गतृण जहण्णुब्बेल्लणकालणुप्प हलमाणो चरिमछिदिखंडम्मि भुजगारसंकमत्सादि कादूणतरिय देसूणद्धपोग्गलपरियट्ट परिभामय पुणा पलिदोवमासंखेजभागमेत्ततेसे सिल्झणकाले सम्मत्तं घेत्तण मिच्छत्तपडिवादेणुव्वेल्लेमाणयस चरिमे दिदि ग्वंडए लद्धमतर कायव्व । एवमादिल्लंतिल्लेहि पलिटोवमत्स असखेनदिमागतोमुहुत्तेहि परिहीणद्धपोग्गल. परियट्टमेत पयदुकत्संतरपमाण होदि । जयध० Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेश संक्रम-भुजाकार - अन्तर-निरूपण ४३५ ३९७. जहण्णेण एयसमओ । ३९८. उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवपाणि सादिरेयाणि । ३९९. अवद्विदसं कामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १४०० जहणेणेयसमओ । ४०१. उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ४०२ अवत्तव्वसंकामयंतरं केव चिरं कालादो होदि १४०३. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ४०४. उक्कस्सेण उबड्डूपोग्गलपरियड' | ४०५. वारसकसाय- पुरिसवेद-भय-दुर्गंछाणं भुजगारप्पयरसं कामयं तरं केवचिरं कालादो होदि ? ४०६. जहणेण एयसमओ । ४०७, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो' । 3 ४०८. अवद्विदसं कामयं तरं केवचिरं कालादो होदि : ४०९. जहणेण एयसमओ । ४१०. उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ४११. णवरि पुरिस - वेदस्स उवडपोग्गलपरियङ्कं । ४१२. सम्बेसिमवत्तव्य कामयं तरं केवचिरं कालादो समाधान - जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक दो वार छयासठ सागरोपम है ।। ३९७ - ३९८॥ शंका-उक्तकपायो के अवस्थित - संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? || ३९९॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अन्तरकाल है ।।४००-४०१ ।। शंका-उक्त कषायोके अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ||४०२।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ।।४०३- ४०४॥ शंका- अप्रत्याख्यानावरणादि वारह कषाय, पुरुषवेद भय और जुगुप्साके भुजाकार और अल्पतर संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? || ४०५ || समाधान - जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण है ।।४०६-४०७।। शंका-उक्त कर्मोंके अवस्थित संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ||४०८॥ समाधान- जधन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गल - परिवर्तन- प्रमित अनन्तकाल | केवल पुरुषवेदका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन है ।।४०९-४११।। शंका-उपयुक्त सर्व कर्मोंके अवक्तव्यसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥ ४१२ ॥ १ कुदो; एयवारमवट्ठदसकमेण परिणदस्त पुणो तदसंभवेणासखेज योग्गल परियमेत्तकालमुक्कस्पेणावठाणभुवगमादो | असखेजलोग मेत्तमुक्कस्सतरभवट्ठिदपदस्स परुविद मुच्चारणाकारेण । कथमेदेण सुत्तरेण तस्साविरोहोत्ति ? ण, उवएसतरावलवणेणाविरोहसमत्यणादो | जयघ० २ भुजगारप्पयराणमण्णोष्णु कस्स का लेणावट्रिट्ठदकालसहिदेणतरिदाणमुकत्सतरस्य तप्यमाणत्तोवलभादो । जयध ३ कुदो, सम्माइट्रिट्ठम्मि चेव तदवट्ठिदसकमत्स सभवणियमादो | जयध० Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार होदि ? ४१३. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ४१४. उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । ४१५. इस्थिवेदस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ४१६. जहण्णेण एयसमओ । ४१७. उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि संखेज्जवस्सब्भहियाणि । ४१८. अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ४१९. जहण्णेणेयसमओ । ४२०. उक्कस्सेण अंतोमु हुत्तं । ४२१. अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ४२२. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ४२३. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट।। ४२४. णव॒सयवेदभुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ४२५. जहण्णेण एयसमओ । ४२६. उकस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । ४२७. अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ४२८. जहण्णेण एयसमओ । ४२९. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४३०. अवत्तव्यसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ? ४३१. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ४३२. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरिय। समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥४१३-४१४।। शंका-स्त्रीवेदके भुजाकार-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥४१५॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्षसे अधिक दो वार छयासठ सागरोपम है ।।४१६-४१७।। शंका-स्त्रीवेदके अल्पतर-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥४१८॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥४१९-४२०॥ शंका-स्त्रीवेदके अवक्तव्य-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥४२१॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ।।४२२-४२३।। का-नपुंसकवेदके भुजाकार-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ।।४२४।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पल्योपम से अधिक दो वार छयासठ सागरोपम है ।।४२५.४२६।। शंका-नपुंसकवेदके अल्पतर-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥४२७॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥४२८-४२९॥ शंका-नपुंसकवेदके अवक्तव्य-संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥४३०॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ? ॥४३१-४३२॥ १ सयोवसामणापडिवाढजपणनरत्स तप्पयत्तोवलभादो । जयध० २ कुदो; तदप्पयरसकमुकत्सकालस्स पयदतरत्तण विवक्खियत्तादो । जयध० ३ कुदो सगव धगद्घामेत्तभुजगारकालावलवणेण पयदतरसमत्थणादो । जयध० Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-भुजाकार - अन्तर- निरूपण ४३७ ४३३. हस्स-रइ- अरइ- सोगाणं भुजगार- अप्पयर संकामयं तरं केवचिर कालादो होदि १ ४३४. जहणेण एयसमओ । ४३५. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४३६. कथं ताव हस्स - रदि- अरदि- सोगाणमेय समयमंतर १४३७. हस्त-रदिभुजगार संकामयंतर जह इच्छसि, अरदि-सोगाणमेवसमयं बंधावेदव्वो । ४३८. जड़ अप्पयरसं कामयं तरमिच्छसि, हस्स-रदीओ एयसमयं बंधावेयन्वाओ । ४३९ अवत्तव्वसंकामयंतरं केवत्तिर कालादो शंका-हास्य, रति, अरति और शोकके भुजाकार और अल्पतर संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ||४३३॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । ।।४३४-४३५।। शंका- हास्य- रति और अरति शोकके भुजाकार और अल्पतरसंक्रामकोका जघन्य अन्तर एक समय कैसे संभव है ? ||४३६ ॥ समाधान- यदि हास्य और रतिके भुजाकारसंक्रामकका जघन्य अन्तर जानना चाहते हो, तो अरति और शोकका एक समय प्रमित बन्ध कराना चाहिए | और यदि अल्पतरसंक्रामकका अन्तर जानना चाहते हो, तो हास्य और रतिका एक समय-प्रमित बन्ध कराना चाहिए ||४३७-४३८॥ 1 विशेषार्थ- कोई जीव हास्य रतिका बन्ध कर रहा था, उसने एक समय के लिए अरति शोकका बन्ध किया और तदनन्तर समयमें ही हास्य रतिका वन्ध करने लगा । इस प्रकार हास्य रतिका बंध कर और बन्धावली के व्यतीत होनेपर बन्धके अनुसार संक्रमण करनेवाले जीवके एक समय प्रमित भुजाकारसंक्रमणका अन्तर सिद्ध हो जाता है । अल्पतरसंक्रमणका अन्तर इस प्रकार निकलता है कि कोई जीव अरति शोकका बन्ध कर रहा था, उसने एक समय के लिए हास्य रतिका बन्ध किया और तदनन्तर समयमे ही पुनः अरतिशोकका बन्ध करने लगा । इस प्रकार उक्त प्रकृतियोको बाँधकर और बन्धावलीके व्यतीत होनेपर उसका संक्रमण किया, तब एक समयप्रमित जघन्य अन्तर सिद्ध हो जाता है । इसी प्रकार अरति और शोकके भुजाकार और अल्पतरसंक्रामकका जघन्य अन्तर निकालना चहिए | शंका- हास्य, रति, अरति और शोकके अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ॥४३९॥ १ त जहा - हस्स-रदीओ बधमाणो एयसमयमर इ-सोगबधगो जादो । तदो पुणो वि तदणंतरसमए इस्स रदीण बधगो जादो | एव वधिदूण बधावलियवदिकमे बधाणुसारेण सकामेमाणयस्त लदूधमेयसमयमेत्तभुजगारसकामयतर । जयध० २ एदस्स दिरिसण - एयो अरदिसोगबधगो एयसमय हस्स-रदिवधगो जादो । तदणतरसमए पुणो वि परिणामपच्चएणारदिसोगाण बधो पारद्घो । एव बधिऊण बघावलियादिकमेदेणेव कमेण सकामेमाणयत्स लद्घमेयसमयमेत्त पयदजहण्ण तर । एदेणेव निदरिसणेणारदि-सोगाण पि भुजगारप्पयरसकामतर मेयसमयमत्त इस्सरइविवनासेण जोजेयव्वं । जयघ० Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार ४३८ कसाय पाहुड सुन्त होदि ? ४४०. जहणेण अंतोमुहुतं' । ४४१. उकस्सेण उवडपोग्गल परियङ्कं । ४४२. गदीसु च साहेयव्वं । 3 ४४३ ए दिए सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि किंचि विअंतर । ४४४. सोलसकसाय- भय दुर्गुछाणं भुजगार - अप्पयरसं कामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ४४५. जहणेण एयसमओ ४४६. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ४४७. अवद्विदसं कामयं तर केवचिर कालादो होदि ९ ४४८. जहणेण एयसमओ । ४४९. उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ४५० सेसाणं सत्तणोकसायाणं भुजगारअप्पयरसं कामयं तर केवचिर कालादो होदि ९ ४५१. जहणेण एयसमओ । ४५२. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन है ॥ ४४०-४४१॥ चूर्णिसू० - इसीप्रकार ओके अनुसार चारो गतियो मे भुजाकारादि संक्रामको का अन्तर सिद्ध करना चाहिए ||४४२ ॥ चूर्णिसू०- ( इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा ) एकेन्द्रियोमे सम्यक्त्वप्रकृति और सभ्य - ग्मिथ्यात्व के भुजाकारादि संक्रामकोका कुछ भी अन्तर नही है ||४४३ || शंका - सोलह कपाय, भय और जुगुप्सा के भुजाकार और अल्पतर संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥ ४४४ ॥ समाधान - जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ||४४५-४४६ ॥ शंका-उक्त कर्मोंके अवस्थितसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ||४४७॥ समाधान - जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमित अनन्तकाल है ॥४४८- ४४९॥ शंका- शेप सात नोकषायोके भुजाकार और अल्पतर संक्रामकोका अन्तर कितना है ? ॥ ४५० ॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण है ।।४५१-४५२॥ १ कुदो; सव्वोवसामणापडिवाद जहण्ण तरस्स तप्पमाणोवलभादो । जयध० २ कुदो; तत्थ सभवताण पि भुजगारप्पदरपदाणं लद्धतरकरणोवायाभावादो | जयघ ३ कुदो; भुजगारप्पयरका लाणमुक्कस्त्रेण पलिदोवमासखेजभागपमाणाण जोन्हुदरपक्खाण व परिवत्तमणामण्णोष्णेतरदाणमेइ दिएसु सभवे विशेहाभावादो । जयध० ४ परियतमाणबंधपयडीसु भुजगारप्पयरकालस्स अतोमुहुत्तपमाणस्स अष्णोष्णतरभावेण समुवलate विसवादाणुवलभादो । जयघ० Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-भुजाकार-भंग विनय-निरूपण ४३९ ४५३ . णाणाजीवेहि भंगविचयो । ४५४. अट्ठपदं काव्यं । ४५५. जा जेसु पडी अत्थि तेसु पदं । ४५६ सव्वजीवा मिच्छत्तस्स सिया अप्पयर संकामया च कामया च । ४५७. सिया एदे च, भजगार संकामओ च, अवद्विदसंकामओ च, अत्तव्वसंकामओ च । ४५८ एवं सत्तावीस भंगा । ४५९. सम्मत्तस्स सिया अप्प - यरसंकामया च असंकामया च णियमा । ४६० सेससंकामया भजियव्वा । ४६१. सम्मामिच्छत्तस्स अप्पयरसंकामया नियमों । ४६२. सेससंकामया भजिया । ४६३. साणं कम्माणं अवत्तव्वसंकामगा च असंकामगा च भजिव्वाँ । ४६४. सेसा नियम । चूर्णिसू० ० - अब नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय कहते है । उसके अर्थपदका निरूपण करना चाहिए । जिन जीवोमे जो कर्म - प्रकृति विद्यमान है, उनमे ही प्रकृत अर्थात् प्रयोजन है । मिथ्यात्वकी सत्तावाले सर्व जीव कदाचित् मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रामक है, और कदाचित् असंकामक है । कदाचित् मिथ्यात्व के अनेक अल्पतरसंक्रामक और एक भुजाकारसंक्रामक पाया जाता है । (१) कदाचित् मिथ्यात्व के अनेक अल्पतरसंक्रामक और एक अवस्थितसंक्रामक पाया जाता है । (२) कदाचित् मिथ्यात्व के अनेक अल्पतरसंक्रामक और एक अवक्तव्यसंक्रामक पाया जाता है । ( ३ ) इस प्रकार अनेक अल्पतरसंक्रामको के साथ भुजाकारादि अनेक संक्रामक भी पाये जाते है । इसी प्रकार द्विसंयोगादिकी अपेक्षा सत्ताईस भंग होते हैं ॥। ४५३ - ४५८॥ चूर्णिसू० - सम्यक्त्वप्रकृति के कदाचित् अनेक जीव अल्पतरसंक्रामक है और कदाचित् नियमसे असंक्रामक भी हैं । शेष संक्रामक भजितव्य है । सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रामक नियमसे पाये जाते हैं। शेष संक्रामक भजितव्य हैं । शेप कर्मोंके अवक्तव्य संक्रामक और असंक्रामक भजितव्य हैं । शेष अर्थात् भुजाकारसंक्रामक, अल्पतर१ कुदो, अम्मेहि अव्ववहारादो । जयध० २ कुदो, मिच्छत्तप्पयरस कामयवेदयसम्माइट्ठीण तदसकामयमिच्छाइट्ठीण च सव्वकालमवट्ठाण - नियमदसणादो | जयध ० ३ त जहा - सिया एदे च भुजगारसकामगो च १; कदाइमप्पयरसका मएहि सह मुजगारपजायपरिणदेयजीवसभवोवलभादो । सिया एदे च अवदिट्ठदसकामगो च; पुव्विल्लेहि सह कम्हि वि अवट्ठदपरिणामपरिणदेयजीवसभवाविरोहादो २ । सिया एदे च अवत्तव्वसकामगो च; कयाइ धुवपदेण सह अवन्त्तव्वसंकमपनाएण परिणदेयजीवसभवे विप्पढिसेहाभावादो ३ । एवमेयवयणेण तिष्णि भगा णिद्दिट्ठा | एदे चेव बहुवयणस बधेण वि जोजेयव्वा । एवमेदे एगसजोगभगा परूविदा | जयध० ४ सम्मत्तस्स अप्पयरसँकामया णाम उव्वेल्लमाणमिच्छादिट्टिणो, असकामया च वेदगसम्माइट्ठिणो सव्वे चेव; तेसिमेव पाहण्णियादो । तेसिनुभए सिं णियमा अस्थित्तमेदेण सुत्तेण जाणाविद । जइ एव, एत्थ 'सिया' - सद्दो ण पयोत्तन्वो त्ति णासकणिज, उवरिमभयणिजभगसजोगासजोगविवक्खाए धुवपदस्स विकदाचिक्कभावसिद्धीदो | जयध० ५ कुदो, उच्वेल्ल माणमिच्छाइदठीण वेदयसम्माइठीण च तदप्पयरसकामयाण सव्वकामुवलभादो | जयध० ६ कुढो, तेसिं धुवभावित्तादो । तदो सत्तावीसभगाणमेत्युपपत्ती वक्तव्वा । जयध० ७ कुदो; तेसिं सव्वकालमत्थित्तणियमाणुवलभादो | जयध० ८ एत्थ सेसग्गहणेण भुजगारप्पयराव ट्रिट्ठदसकामयाण जहास भव- गहण कायव्य | जयघ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪૦ कसाय पाहुड सुत्त ४६५. वरि पुरिसवेदस्सावट्ठिदसंकामया भजियव्वा' | ४६६. णाणाजीचेहि कालो दाणुमाणिय दव्वो । ४६७ णाणाजीवेहि अंतरं । ४६८. मिच्छत्तस्स भुजगार अ -अवत्तव्वसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १४६९. जहण्णेण एयसमओ । ४७०. उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । ४७१. अप्पयर संकामयाणमंतर केवचिर' कालादो होदि १४७२. णत्थि अंतरं । ४७३. अवद्विद संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १४७४. जह णेण एयसमओ । ४७५. उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार संक्रामक और अवस्थित संक्रामक नियमसे पाये जाते है । केवल पुरुषवेदके अवस्थित - संक्रामक भजितव्य है ॥४५९-४६५॥ चूर्णिसू० - इस भंगविचयकी अपेक्षा अनुमान करके नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजाफारादि-संक्रामकोके कालको जानना चाहिए || ४६६॥ चूर्णिसु० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकारादिसंक्रामको के अन्तरकालको कहते हैं ॥४६७॥ शंका- मिथ्यात्व के भुजाकार और अवक्तव्यसंक्रामक जीवोका अन्तरकाल कितना है ? ॥ ४६८ ॥ समाधान - जवन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रिदिवस है ? ४६९ - ४७० ॥ शंका- मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? || ४७१॥ समाधान - मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रामकोका अन्तर कभी नही होता ||४७२ || शंका- मिध्यात्वके अवस्थितसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? || ४७३॥ समाधान - जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल असंख्यात लोकप्रमाण है ॥४७४-४७५॥ १ कुदो, सिमधुवभा वित्तेण सम्माइट्ठीसु कत्थ वि कदाइमाविन्भावदसणादो | जयध० २ भुजगारसकामयाण ताव उच्चढे-एको वा दो वा तिण्णि वा एवमुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असखेजदिभागमेत्ता वा मिच्छाइट्ठी उवसमसम्मत पडिवनिय गुणसकमचरिमसभए वट्टमाणा भुजगारकामया दिट्ठा, णट्ठो च तदणतरसमए तेसि पवाहो । एवमेयसमयमतरिदपवाहाणं पुणो वि णाणाजीवाणुसधाणेणाणंतरसमए समुब्भवो दिट्ठी । विणट्ठतरं होइ । एवमवत्तव्वसकामयाण पि वत्तव्व । णवरि सम्मत परिवण्णपदमसमए आदी कायव्वा । जयध० ३ कुदो; सम्मत्तग्गाहयाणमुक्कस्तरस्त तप्पमाणत्तोवएसादो | जयध० ४ कुदो; एयवारमवट्ठिदपरिणामेण परिणटणाणाजीवाणमेत्तियमेत्त कस्सतरेण पुणो अवट्ठिदसकमहेदु परिणाम विसेसप डिलंभादो | जयध० छताम्रपत्रवाली प्रतिमें ‘अवत्तव' के स्थानपर 'अप्पयर' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १२७७ ) पर वह अशुद्ध है, क्योंकि ‘अल्पतर सक्रामकके' कालका निरूपण आगे के सूत्र नं० ४७१ में किया गया है । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-भुजाकार-अन्तर-निरूपण ४४१ ४७६. सम्मत्तस्स भुजगारसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ४७७. जहण्णेण एयसमओ । ४७८. उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये । ४७९. अप्पयरसंकामयाणं णत्थि अंतरं । ४८०. अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १४८१. जहण्णेण एयसमओ । ४८२. उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि । ४८३. सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि । ४८४. जहण्णेण एयसमओ" । ४८५. उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि । ४८६. णवरि अवत्तव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये । ४८७. अप्पयरसंकामयाणं णत्थि अंतर । शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके भुजाकारसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥४७६॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक चौबीस अहोरात्र है ॥४७७-४७८॥ चूर्णिसू-सम्यक्त्वप्रकृतिके अल्पतरसंक्रामकोका अन्तर नही होता है ॥४७९॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिके अवक्तव्यसंक्रामकोंका अन्तरकाल कितना हैं ? ॥४८०॥ समाधान-सम्यक्त्वप्रकृतिके अवक्तव्यसंक्रामकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिवस है ॥४८१-४८२॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार और अवक्तव्य संक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥४८३॥ ___ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रिदिवस है। केवल अवक्तव्यसंक्रामकोका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक चौबीस अहोरात्र है ॥४८४-४८६॥ चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर-संक्रामकोका अन्तर नही होता है। नाना १ कुदो; उव्वेल्लणापवेसयाणमुक्कस्सतरत्स तप्पमाणत्तोवएसादो । जयध० २'कुदो, सम्मत्तप्पयरसकामयाणमुब्वेल्लणापरिणदमिच्छाइट्ठीणमवोच्छिण्णकमेण सव्वद्धमवठ्ठाणणियमादो । जयध० ३ सम्मत्तादो मिच्छत्त पडिवजमाणणाणाजीवाणमेयसमयमेत्तजहण्ण सिद्धीए विसवादाभावादो। ४ कुदो; सम्मत्तुप्पत्तिपडिभागेणेव तत्तो मिच्छत्तं गच्छमाणजीवाणमुक्कस्सतरसभव पडि विरोहामावादो। जयध० "५ कुदो; पयदभुजगारावत्तव्वसकामयणाणाजीवाणमेयसमयमतरिदाण पुणो णाणाजीवाणुसंधाणेण तदण तरसमए तहाभावपरिणामाविरोहादो । जयध० ६ कुदो; सम्मत्तुप्पादयाणमुक्कस्सतरस्स वि तव्भावसिद्धीए पडियधाभावादो । जयध० ७ णेदमुक्कस्संतरविहाण घडतयमुवसमसम्मत्तग्गाहीण सत्तरादिदियमेत्तुकत्सतरणियमो; तत्थ विसंवादाणुवलभादो । किंतु णीसतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुवसमसम्मत्त गेण्हमाणाणमेदमुक्कस्सतरमिह सुत्त विवक्खियं ससतकम्मियाणमुवसमसम्मत्तग्गहणे अवत्तव्वसकमसभवाणुवलभादो । जयध० ८ कुदोः सम्मामिच्छत्तप्पयरसकामयवेदयसम्माइट्ठीणमुन्बेल्लमाणमिच्छाइट्ठीण च पवाहवोच्छेदेण विणा सव्वद्धमवठाणणियमादो | जयध० ५६ जयध० Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ४८८. अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पदर-अवविदसंकामयंतरं णत्थि । ४८९. अवत्तव्यसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १४९०. जहणणेण एयसमओ। ४९१. उकस्सेण चउदीसमहोरत्ते सादिरेगे । ४९२. एवं सेसाणं कम्माणं । ४९३. णवरि अवत्तव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण वासपुधत्तं । ४९४. पुरिसवेदस्स अवहिदसंकामयंतरं जहण्णेण एयसयओ । ४९५. उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। ४९६. अप्पाबहुअं । ४९७. सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स अवट्टिदसंझामयाँ । ४९८ अवत्तव्यसंकामया असंखेज्जगुणा । ४९९. भुजगारसंकामया असंखेज्जगुणा । ५००. अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा । जीवोकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायोंके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थितसंक्रामकोका कभी अन्तर नही होता है ॥४८७-४८८॥ शंका-नाना जीवोंकी अपेक्षा अनन्तानुवन्धी कपायोके अवक्तव्यसंक्रामकोका अन्तरकाल कितना है ? ॥४८९॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक चौबीस अहोरात्र है ॥४९०-४९१।। चूर्णिस०--इसीप्रकार शेष कर्मों के भुजाकारादि संक्रामकोका अन्तर जानना चाहिए । केवल शेष कर्मोंके अवक्तव्यसंक्रामकोका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । पुरुपवेदके अवस्थितसंक्रामकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है ।।४९२-४९५॥ चूर्णिस०-अब भुजाकारादि संक्रामकोका अल्पबहुत्व कहर है--मिथ्यात्वके अवस्थितसंक्रामक सबसे कम होते है । अवस्थितसंक्रामकोसे अवक्तव्यसंक्रामक असंख्यातगुणित होते हैं। अवक्तव्यसंक्रामकोसे भुजाकारसंक्रामक असंख्यातगुणित होते है। भुजाकारसंक्रामकोसे अल्पतरसंक्रामक असंख्यातगुणित होते हैं ॥४९६-५००॥ १ विसंजोयणादो सजुजतमिच्छाइट्ठीण जहण्णतरत्स तप्पमाणत्तादो । जयध० २ अणताणुबंधिविसजोजयाण व तस्सनोजयाण पि उक्कस्सतरस्स तप्पमाणत्तसिद्धीए विरोहाभावादो। ३ किं कारण; सव्वोवसामणपडिवादुक्कस्सतरस्स तप्पमाणत्तोवलभणादो । जयध ४ कुदो, एगवार पुरिसवेदावट्टिदसकमेण परिणदणाणाजीणाण सुठु बहुअ कालमतरिदाणमसखेजलोगमेत्तकाले वोलीणे णियमा तव्भावसभवोवएसादो । जयध० ५ मिच्छत्तस्सावट्ठिदसकामया णाम पुव्वप्पण्णेण सम्मत्तण मिच्छत्तादो सम्मत्तविपडिवण्णपढमा वलियमिच्छत्तवट्टमाणा उक्कस्सेण सखेजसमयसचिदा ते सव्वत्थोवा, उवरि भणिस्समाणासेसपदेहितो थोव यरा त्ति वुत्त होइ । जयध० । ६ कथ सखेजसमयस चयादो पुबिल्लादो एयसमयसचिदो अवत्तवसकामयरासी असखेजगुणो हाई त्ति णेहासणिज, कुदो, सम्मत्त पडिवजमाणजीवागमसखेजदिभागत्सेवावट्टिदभावेण परिणामन्भुवगमाटो । कुदो एवमवदिपरिणामस्त सुछ दुल्लहत्ताटो । जयध० ७ किं कारण; अंतोमुहुत्तमेत्तकालसचिदत्तादो । जयध० ८ कुदो छावठिसागरोवममेत्तवेदयसम्मत्तकालभतरसचयावलवणाटो । जयध जयध Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-भुजाकार-अल्पवहुत्व-निरूपण ४४३ ५०१. सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं सव्वत्थोवा अवतन्त्रसंकामया' । ५०२. भुजगारसंकामया असंखेज्जगुणा । ५०३. अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा। ५०४. सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामयाँ । ५०५. अवट्टिदसंकामया अणंतगुणा । ५०६. अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा ।५०७. भुजगारसंकामया संखेज्जगुणा । ५०८. इत्थिवेद-हस्स-रदीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामया । ५०९, भुजगारसंकायया अणंतगुणा' । ५१०. अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा। ___५११. पुरिसवेदस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंझामया । ५१२. अवहिदसंकामया - चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्यसंक्रामक सवसे कम होते हैं। अवक्तव्यसंक्रामकोसे भुजाकारसंक्रामक असंख्यातगुणित होते है । भुजाकारसंक्रामकोसे अल्पतरसंक्रामक असंख्यातगुणित होते है ॥५०१-५०३॥ चूर्णिसू०-सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके अवक्तव्यसंक्रामक सबसे कम होते हैं। अवक्तव्यसंक्रामकोसे अवस्थितसंक्रामक अनन्तगुणित होते हैं। अवस्थितसंक्रामकोसे अल्पतरसंक्रामक असंख्यातगुणित होते हैं। अल्पतरसंक्रामकोसे भुजाकारसंक्रामक संख्यातगुणित होते है ॥५०४-५०७॥ चूर्णिसू०-स्त्रीवेद, हास्य और रतिके अवक्तव्यसंक्रामक सबसे कम हैं । अवक्तव्यसंक्रामकोसे भुजाकारसंक्रामक अनन्तगुणित हैं। भुजाकारसंक्रामकोसे अल्पतरसंक्रामक संख्यातगुणित होते है ।।५०८-५१०॥ चूर्णिस०-पुरुषवेदके अवक्तव्यसंक्रामक सबसे कम है। अवक्तव्यसंक्रामकोसे १ कुदो, एयसमयसचयावलबणादो । जयध० २ कुदो, अतोमुहुत्तसचिदत्तादो । जयध० ३ कुदो; सम्मामिच्छत्तस्स उन्बेल्लमाणमिच्छाइट्ठीहि सह छावट्ठिसागरोवमकालभतरसचिदवेदयसम्माइट्ठिरासिस्स सम्मत्तस्स वि पलिदोवमासखेजभागमेत्तुबेल्लणकालभतरसकलिदरासिस्स गणहादो । जयध० ४ कुदो; अणताणुबधीणं विसजोयणापुव्वसजोगे वट्टमाणाणमेयसमयसचिद पलिदोवमस्स असखेनदिभागमेत्तजीवाण सेमाण च सव्वोवसामणापडिवादपढमसमए पयमाणसखेजोवसामयजीवाण गहणादो। जयध ५ कुदो, सखेजसमयसचिदेइ दियरासिस्स पहाणीभावेणेत्य विवक्खियत्तादो । जयध० ६ कि कारण, पलिदोवमासखेजभागमेत्तप्पयरकालसचयावल बणादो । जयध० ७ कुदो, धुवब वीणमप्पयरकालादो भुजगारकालत्स सखेजगुणत्तोवएसादो । जयव० ८ सखेजोषसामयजीवविसयत्तण पयदावत्तवसकामयाण थोवभावसिद्धीए अविरोहादो। जयध० ९ कुदो, अतोमुहुत्तमेत्तसगकालसचिदेइदियरासिस्स गहणादो । जयध० १० कुदो, सगवधकालादो सखेजगुणपडिवक्खवधगद्धाए सचिदरासिस्स गहणादो। जयध० Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार असंखेज्जगुणा' । ५१३. भुजगार संकामया अनंतगुणा । ५१४. अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा । ५१५. बुंसयवेद - अरह-सोगाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामया । ५१६. अप्पयरसंकामया अनंतगुणा । ५१७. भुजगारसंकामया संखेज्जगुण । ४४४ भुजगारो समत्तो । ५१८. तो पदणिक्खेवो । ५१९ तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि । ५२०. तं जहा - परूवणा सामित्तमप्पा बहुगं च । ५२१. परूवणा । ५२२. सव्वासि पडी मुकस्सिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च अस्थि । ५२३. एवं जहण्णयस्स वि णेदव्वं । ५२४. णवरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्त इत्थि - णवुंसयवेद-हस्स - रइ- अरह - सोगाणमवद्वाणं णत्थि । अवस्थितसंक्रामक असंख्यातगुणित हैं । अवस्थित संक्रामको से भुजाकारसंक्रामक अनन्तगुणित है । भुजाकारसंक्रामको से अल्पतरसंक्रामक संख्यातगुणित हैं ॥ ५११-५१४॥ चूर्णि सू० - नपुंसकवेद, अरति और शोकके अवक्तव्य संक्रामक सबसे कम है । अवक्तव्यसंक्रामकोंसे अल्पतरसंक्रामक अनन्तगुणित है । अल्पतरसंक्रामको से भुजाकार - संक्रामक संख्यातगुणित होते है ॥ ५१५-५१७॥ इस प्रकार भुजाकार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । चूर्णि सू ( ० - अब इससे आगे पदनिक्षेप कहते है । उसमे ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। वे इस प्रकार हैं- प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । इनमें से पहले प्ररूपणा कहते है- सर्वप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान होते है । इसीप्रकार जघन्य के भी जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका अवस्थान नहीं होता है ॥ ५१८-५२४॥ १ कुदो; पलिदोवमासखेजभागमेत्तसम्माइट्ठिजीवाणं पुरिसवेदावट्ठिदसकमपजाएण परिणदाणमुवलभादो | जयध० २ सगबधकालब्भतरसचिदेह दियरा सिस्स गहणादो । जयध० ३ पडिवक्खव धगद्धा गुणगारस्स तप्यमाणत्तोवलभादो | जयध० ४ सखेजोवसामयजीवविसयत्तादो । जयध० ५ किं कारण; अंतोमुहुत्तमेत्तपडिवक्खव धगद्धासचिदेइ दियरा सिस्स समवलंबणादो | जयध • ६ कुदो; एदेखि कम्माण पडिवक्खवधगद्धादो सगवधकालस्स सखेजगुणत्तोवलभादो | जयध० ७ को पदणिक्खेवो णाम ? पदाणं णिक्खेवो पदणिक्खेवो, जहष्णुक सवड्ढि हाणि अवट्टाणपदार्ण सामित्तादिणिसमुहेण णिच्छयकरण पदणिक्खेवोत्ति भण्णदे | जयध० ८ कुदो; सव्र्व्वेसिमेव कम्माण जहाणिद्दिट्ठविसए सभ्यु कस्स वड्ढि हाणि अवट्ठाण सरुवेण पदेससंकमपवृत्तीए बाहाणुवलभादो | जयध० ९ कुदो, सन्त्रकालमेदेसिं कम्माणमागमणिजराणं सरिसत्ताभावादो । जयध० Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-पदनिक्षेप स्वामित्व-निरूपण ४४५ ५२५. सामित्तं । ५२६. मिच्छत्तस्स उकस्सिया वड्डी कस्स १५२७. गुणिदकम्मं सिस्स मिच्छत्तक्ववयस्स सव्वसंकामयस्स' । ५२८. उक्कस्सिया हाणी कस्स ! ५२९. गुणिदकम्मंसियस्स सम्मत्तमुप्पादूण गुणसंकमेण संकामिदूण पढमसमयचिज्ज्ञादसंकामयस्सर । ५३०. उकस्सयमवद्वाणं कस्स १५३१. गुणिदकम्मंसिओ पुव्युप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्तं गदो तं दुसमयसम्माइट्टिमादि काढूण जाव आवलियसम्माट्ठिति एत्थ अण्णदरम्हि समये तप्पा ओग्ग-उकस्सेण वड्डि काढूण से काले तत्तियं संकामयमाणस्स तस्स उस्सयमवद्वाणं । ० - अब स्वामित्व कहते हैं ॥ ५२५ ॥ चूर्णिसू० शंका- मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥५२६ ॥ समाधान - जो गुणितकर्माशिक है, मिथ्यात्वका क्षपण कर रहा है, वह जब मिथ्यात्व की चरम फालिको सर्वसंक्रमणसे संक्रान्त करता है, तब उसके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥ ५२७ ॥ शंका- मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥ ५२८ ॥ समाधान - जो गुणितकर्माशिक ( सातवीं पृथ्वीका नारकी ) सम्यक्त्वको उत्पन्न करके गुणसंक्रमण से मिथ्यात्वका संक्रमण करके विध्यात संक्रमण प्रारंभ करता है, उसके प्रथम समयमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है ॥५२९ ॥ शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? ॥ ५३० ॥ समाधान - जो गुणित कर्मांशिक है और पूर्वमे जिसने सम्यक्त्व उत्पन्न किया है, वह मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, उस सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व उत्पन्न करनेके द्वितीय समयसे लेकर जब तक वह आवली - प्रविष्ट सम्यग्दृष्टि है, तब तक इस अन्तराल के किसी एक समयमै तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्धि करके तदनन्तर कालमे उतने ही द्रव्यका संक्रमण करता है, TE के मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान होता है ॥ ५३१ ॥ १ जो गुणिदकम्मसियो सत्तमा पुढवीए णेरइयो तत्तो उव्वणि सन्धलहु समयाविरोहेण मणुसे सुप्पजिय गव्भादि-अठवस्ताणि गमिय तदो दसणमोहक्खवणाए अन्भुठिदो, तस्स अणियट्टिअद्धाए सखेजेसु भागेषु गदेसु मिच्छत्तचरिमफालिं सव्वस कमेण सछुहमाणयस्स पयदुक्कस्तसामित्त होइ, तत्थ किंचूणदिवड्ढगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सव ढिसरूवेण सकमदसणादो । जयध० २ जो गुणिदकम्मसिओ सत्तमा पुढवीए णेरइयो अतोमुहुत्तेण कम्ममुक्कस्स काहिदि त्ति विवरीयभावमुवगतूण सम्मत्तप्पा यणाए वावदो, तस्स सव्वुक्कस्सेण गुणसकमेण मिच्छत्त संकामेमाणयस्स चरिमसमयगुणसमादो पढमसमयविज्झादसकमे पदिदस्स पयदुक्कस्ससामित्त होइ । तत्थ किंचूणच रिमगुणसकमदव्वस्स हाणिसरुवेण सभवदसणादो । जयध० ३ त जहा - तहा सम्मत्त पडिवण्णस्स पढमसभए अवत्तव्वसकमो होइ । पुणो विदियसमए तप्पाओग्गुक्कस्सएण सकमपज्जाएण वडिदस्त वढिसकमो जायदे । एसो च वढिसकमो समयपत्रद्धस्सा सखेज दिभागमेत्तो। एवमेदेण तप्पा ओग्गुक्कस्येणासखेन दिभागेण वडिदूण से काले आगमणिनराण सरिसत्तवसेण तत्तिय चेव सकामेमाणयस्स तस्स उकस्मयमवट्ठाण होदि । एव तदियादिसमासु वि तप्पा ओग्गुकस्सेण Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ___ कसाय पाहुड सुत्त . [५ संक्रम-अर्थाधिकार ५३२. सस्मत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स १ ५३३. उबेल्लमाणयस्स चरिमसमए । ५३४. उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ५३५. गुणिदकम्प्रंसियो सम्मत्तमुप्पाएदण लहुमिच्छत्तं गओ । तस्स पिच्छाइडिस्स परमसमए अवत्तव्यसंकमो, विदियसमए उक्कस्सिया हाणी । ५३६. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स १ ५३७. गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स । ५३८. उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ५३९. उप्पादिदे सम्मत्ते सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्ते जं संकामेदि तं पदेसग्गमंगुलस्सासंखेज्जभागपडिभागं । ५४०. शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥५३२॥ समाधान-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाले जीवके चरम स्थितिखंडके चरम समयमें सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥५३३॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥५३४॥ समाधान-जो गुणितकर्माशिक जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करके लघुकालसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। उस मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयमे अवक्तव्यसंक्रमण होता है और द्वितीय समयमे उसके सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि होती है ॥५३५॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥५३६॥ समाधान-गुणितकांशिक जीव जव सर्वसंक्रमणसे सम्यग्मिथ्यात्वको संक्रान्त करता है, तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥५३७॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥५३८॥ समाधान-उपशमसम्यक्त्वके उत्पन्न करनेपर सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वप्रकृतिमे जो द्रव्य संक्रमित करता है, वह प्रदेशाग्र अंगुलके असंख्यातवे भागका प्रतिभागी है। सकमपजाएण वड्ढ्दूिण तदणतरसमए तत्तिय चेव सकामेमाणयस्स पयदसामित्तमविरुद्ध णेदव्व जाव दुचरिमसमए तप्पाओग्गुकस्सस कमवुड्ढीए वढि कादूण चरिमसमए उक्कस्सावट्ठाणपजाएण परिणदावलियसम्माइट्ठि त्ति । एत्तियो चेवुकस्सावट्ठाणसामित्तविसयो । जयध १ गुणिदकम्मसियलक्खणेणागतूण सम्मत्तमुप्पाइय सव्वुक्कस्सियाए पूरणाए सम्मत्तमावूरिय तटो मिच्छत्तं पडिवजिय सम्बरहस्सेणुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लमाणयस्स चरिमट्ठिदिखायचरिमसमए पयदुक्कस्ससामित्त होइ । तत्थ किंचूणसव्वसकमढव्वमेत्तस्स उक्कस्सवढिसरूवेणुवलद्धीदो। जयध० २ जो गुणिदकम्मसियोअतोमुहुत्तेण कम्म गुणेहिदि त्ति विवरीय गतूण सम्मत्तमुप्पाइय सव्वुक्कस्सियाए पूरणाए सम्मत्तमाऊरिय तदो सव्वलहु मिच्छत्त गदो, तस्स विदियसमयमिच्छाइट्ठिस्स उक्कस्सिया सम्मत्त पदेससकमहाणी होइ । कुदो; तत्थ पढमसमयअधापवत्तसंक्रमादो अवत्तव्यसलवादो विदियसमए हीयमाणसंकमदव्वस्स उवरिमासेसहाणिदव्य पेक्खिऊण बहुत्तोवलभादो । जयध० ३ उवसमसम्मत्ते समुप्पादिदे मिच्छत्तस्मेव सम्मामिच्छत्तस्स वि गुणसंकमो अस्थिचेव, उवसमसम्मत्तविदियसमयप्प हडि पडिसमयमसखेजगुणाए सेढीए सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तसरूवेण सकमपवुत्तीए बाहाणुवर लभादो। किंतु तहा संक्रममाणसम्मामिच्छत्तदव्वस्स पडिभागो अगुलस्सासखेजदिभागो । जयध० * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'चरिमसमए' इस पदको टीकाका अग बना दिया है, जब कि इस पदका टोकाकारने स्वतत्र व्याख्या की है। (देखो पृ० १२८७ ) Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण ४४७ गुणिदकम्मंसिओ सम्मत्तमुप्पाएदूण लहुचेव पिच्छत्तं गदो जहणियाए मिच्छत्तद्धाए पुण्णाए सम्मत्तं पडिवण्णो । तस्स पढमसमयसम्माइद्विस्स उक्कस्सिया हाणी । ५४१. अणंताणुबंधीणमुक्कस्सिया बड्डी कस्स ? ५४२. गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स' । ५४३ उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ५४४. गुणिदकम्मंसिओ तप्याओग्ग-उकस्सयादो अधापयत्तसंकमादो सम्मत्तं पडिवज्जिऊण विज्झादसंकामगो जादो । तस्स पहमसमयसम्माइद्विस्त उक्कस्सिया हाणी । ५४५. उकस्सयमवहाणं कस्स ? ५४६. जो अधापवत्तसंकमेण तप्पाओग्गुक्कस्सरण वड्डिदण अबढिदो, तस्स उकस्सयमवट्ठाणं । ५४७ अडकसायाण मुक्कस्सिया वड्डी कस्प्त ? ५४८, गुणिद कम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स । ५४९. उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ५५०. गुणिदकम्मंसियो पढम( इसलिए उसकी उत्कृष्ट हानि नही होती है । ) अतएव जो गुणितकर्माशिक जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करके लघुकालसे ही मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और जघन्य मिथ्यात्वकालके पूर्ण होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, उस प्रथमसमयवर्ती सम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है ॥५३९-५४०॥ शंका-अनन्तानुवन्धी कषायोकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥५४ १॥ समाधान-गुणितकर्माशिक जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हुए जब सर्वसंक्रमणके द्वारा चरम फालिको संक्रान्त करता है, तब उसके अनन्तानुवन्धी कपायोकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥५४२॥ शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥५४३॥ समाधान-गुणितकर्माशिक जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमणसे सम्यक्त्वको प्राप्त करके विध्यातसंक्रमणको प्राप्त हुआ। उस प्रथमसमयवर्ती सम्यग्दृष्टिक अनन्तानुबन्धी कषायोकी उत्कृष्ट हानि होती है ॥५४४॥ शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? ॥५४५।। समाधान-जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमणसे वृद्धिको प्राप्त होकर अवस्थित है, उसके अनन्तानुबन्धी कषायोका उत्कृष्ट अवस्थान होता है ॥५४६।। शंका-आठ मध्यम कषायोकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ।।५४७।। समाधान-गुणितकर्माशिक जीव जब चारित्रमोहकी क्षपणाके समय सर्वसंक्रमणके द्वारा उक्त कपायोके सर्वद्रव्यका संक्रमण करता है, तब उसके आठो मध्यम कपायोकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥५४८॥ शंका-आठो कषायोकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥५४९।। १ गुणिदकम्मसियलक्खणेणागतूण सव्वलहु विसजोयणाए अन्मुट्ठिदस्स चरिमफालीए सव्वस कमेण पयदुक्कस्ससामित्त होइ, तत्थ किंचूणकम्मट्टिदिसंचयस्स वढिसरूवेण संकतिदसणादो । जयध० २ गुणिदकम्मसियलक्खणेणागतूण सव्वलहु खवणाए अन्मुट्ठिय सव्वसकमेण परिणदम्मि पयदकम्माणमुक्कस्सिया वड्ढी होइ, तत्थ सवसकमेण किंचूणदिवड्ढगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाण पयदवढिसरूवेण सकतिदसणादो। जयध० Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ कसाय पाहुड जुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार दाए कसायउवसामणद्धाए जाधे दुविहस्स कोहस्स चरिमसमयसंकामगो जादो। तदो से काले मदो देवो जादो। तस्स पडम समयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी । ५५१. एवं दुविहमाण-दुविहमाया दुविहलोहाणं । ५५२. णवरि अप्पप्पणो चरिमसमयसंकामगो होदूण से काले मदो देवो जादो । तस्स पडमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी । ५५३. अट्टण्हं कसायाणमुक्कस्सयमवट्ठाणं कस्स ? ५५४. अधापवत्तसंकमेण तप्पाओग्गउक्कस्सएण वड्डिपूण से काले अवहिदसंकामगो जादो । तस्स उकस्सयमवट्ठाणं । ५५५. कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स १५५६. जस्स उक्कस्सओ सबसंकमो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । ५५७. तस्सेव से काले उक्कस्सिया हाणी । ५५८. णवरि से काले संकमपाओग्गा समयपबद्धा जहण्णा कायया । ५५९. तं जहा । जेसि से काले आवलियमेत्ताणं समयपबद्धाणं पदेसग्गं संकामिज्जहिदि ते समयपबद्धा तप्पाओग्गजहण्णा । ५६०. एदीए परूवणाए सव्यसंकम संकुहिदूण जस्स से काले पुव्यपरूविदो समाधान-गुणितकर्माशिक जीव प्रथम वार कपाय-उपशमनकालमे जिस समय दोनो मध्यम क्रोधोके द्रव्यका चरमसमयवर्ती संक्रामक हुआ और तदनन्तर समयमे मर करके देव हुआ । उस प्रथमसमयवर्ती देवके दोनों क्रोधकषायोंकी उत्कृष्ट हानि होती है ।।५५०॥ चूर्णिसू०-इसीप्रकार दोनो मध्यम मान, दोनो माया और दोनों लोभकषायोकी उत्कृष्ट हानि जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि मान, माया और लोभमेंसे अपनेअपने द्रव्यका चरमसमयवर्ती संक्रामक होकर तदनन्तर समयमे मरा और देव हुआ। उस प्रथमसमयवर्ती देवके विवक्षित द्विविध मध्यम मान, माया और लोभकषायकी उत्कृष्ट हानि होती है ॥५५१-५५२॥ शंका-आठो मध्यम कषायोका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? ॥५५३॥ समाधान-जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होकर तदनन्तरकालमे अवस्थित संक्रामक हुआ। उसके आठो मध्यम कषायोका उत्कृष्ट अवस्थान होता है ॥५५४॥ शंका-संज्वलनक्रोधकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥५५५।। समाधान-जिस क्षपकके संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट सर्वसंक्रमण होता है, उसके ही संज्वलनक्रोधकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥५५६॥ __चूर्णिसू०-उस ही जीवके तदनन्तरकालमे संज्वलनक्रोधकी उत्कृष्ट हानि होती है । विशेषता केवल यह है कि तदनन्तर समयमें उसके संक्रमणके योग्य जघन्य समयप्रबद्ध होना चाहिए। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-उत्कृष्ट वृद्धिके अनन्तर समयमें जिन आवलीमात्र नवकबद्ध समयप्रबद्धोके प्रदेशाग्र संक्रमित होगे, वे समयप्रवद्ध अपने बंधकालमें तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे बंधे हुए होना चाहिए। इस प्ररूपणाके द्वारा उत्कृष्ट वृद्धिरूप प्रदेशाग्र सर्वसंक्रमणसे संक्रान्त होकर जिसके तदनन्तरकालमे पूर्वप्ररूपित ( आवलीमात्र नवकवद्ध Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण ४४९ संकमो तस्स उक्कस्सिया हाणी कोहसंजलणस्स । ५६१. तस्सेव से काले उक्कस्सयमवहाणं । ५६२. जहा कोहसंजलणस्स तहा माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । ५६३. लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ५६४. गुणिदकम्मसिएण लहुचत्तारि वारे कसाया उवसामिदा । अपच्छिमे भवे दो वारे कसायोवसामेऊण खवणाए अब्भुट्टिदो जाधे चरिमसमए अंतरमकदं ताधे उक्कस्सिया वड्डी'। ५६५. उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ५६६. गुणिदकम्मंसियो तिण्णि वारे कसाए उवसामेऊण चउत्थीए उवसामणाए उवसामेमाणो अंतरे चरिमसमय-अकदे से काले मदो देवो जादो । तस्स समयाहियावलिय-उववण्णस्स-उक्कस्सिया हाणी। ५६७. उक्कस्सयमवट्ठाणमपच्चक्खाणावरणभंगो। ५६८. भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स १५६९. गुणिदकम्मंसियस्स सब्यजघन्य समयप्रबद्धोंका) संक्रमण होगा, उसके संज्वलनक्रोधकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसही जीवके तदनन्तरकालमे उत्कृष्ट अवस्थान होता है । जिस प्रकारसे संज्वलनक्रोधके उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे संज्वलनमान, संज्वलनमाया और पुरुषवेदके उत्कृष्ट वृद्धि , हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा जानना चाहिए ॥५५७-५६२॥ शंका-संज्वलनलोभकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥५६३॥ समाधान-जिस गुणितकर्माशिक जीवने अल्पकालमे ही चार वार कषायोका उपशमन किया है, वह अन्तिम भवमे दो वार कषायोका उपशमन करके क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ। उसने जिस समय चरम समयमे अन्तरको नहीं किया है, उस समय उसके संज्वलनलोभकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥५६४॥ शंका-संज्वलनलोभकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥५६५॥ समाधान-जो गुणितकांशिक जीव तीन चार कपायोका उपशमन करके चौथी वार उपशामनामे कपायोका उपशमन करता हुआ चरम समयमे अन्तरको न करके तदनन्तरकालमे मरा और देव हुआ। उस उत्पन्न हुए देवके एक समय अधिक आवलीके होनेपर संज्वलनलोभकी उत्कृष्ट हानि होती है ॥५६६॥ चूर्णिसू०-संज्वलनलोभके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामित्व अप्रत्याख्यानावरणकषायके अवस्थानस्वामित्वके समान जानना चाहिए ॥५६७॥ शंका-भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥५६८॥ समाधान-गुणितकांशिक क्षपक जिस समय इन दोनो प्रकृतियोके द्रव्यका सर्वसंक्रमण करता है उस समय उसके भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ॥५६९।। १ किमट्ठमेसो गुणिदकम्मंसिओ चदुक्खुत्तो कसायोवसामणाए पयट्टा विदो ? अवज्झमाणपयडीहितो गुणस कमेण बहुदव्वसगहणठ्ठ । जयध० Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार संकामयस्स । ५७०. उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ५७१. गुणिदकम्मंसिओ पडमदाए कसाए उवसामेमाणो भय-दुगुंछासु चरिमसमयअणुवसंतासु से काले मदो देवो जादो । तस्स पडमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी । ५७२.उकस्सयमवट्ठाणमपञ्चक्खाणावरणभंगो। ५७३. एवमित्थि-णबुंसयवेद-हस्स-रह-अरइ-सोगाणं । ५७४. णवरि अवट्ठाणं णत्थि । ५७५. मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी कस्स १ ५७६. जस्स कम्मस्स अवद्विदसंकमो अत्थि, तस्स असंखेजलोगपडिभागो वड्डी वा हाणी वा अवट्ठाणं वा होई। ५७७. जस्स कम्मरस अवहिदसंकमो णत्थि तस्स वड्डी वा हाणी वा असंखेजा लोग भागो ण लभई । ५७८. एसा परूवणा अट्ठपदभूदा जहणियाए वड्डीए वा हाणीए वा अवट्ठाणस्स वा । ५७९. एदाए परूवणाए मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी हाणी अवहाणं वा कस्स ? ५८०. जम्हि तप्पाओग्गजहण्णगेण संकमेण से काले अवट्ठिदसंकमो संभवदि तम्हि जहणिया बड्डी वा हाणी वा । से काले जहण्णयमवट्ठाणं । शंका-भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥५७०॥ समाधान-जो गुणितकांशिक जीव प्रथम वार कषायोका उपशमन करता हुआ भय और जुगुप्साको चरम समयमे उपशान्त न करके तदनन्तर कालमें मरा और देव हुआ । उस प्रथमसमयवर्ती देवके भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट हानि होती है ।।५७१॥ चूर्णिसू०-भय और जुगुप्साके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामित्व अप्रत्याख्यानावरणके उत्कृष्ट अवस्थान-स्वामित्वके समान जानना चाहिए । इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि और हानिका स्वामित्व जानना चाहिए । केवल इन कर्मोंका अवस्थान नहीं होता है ।।५७२-५७४॥ शंका-मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जिस कर्मका अवस्थित संक्रमण होता है, उस कर्मकी असंख्यात लोककी प्रतिभागी वृद्धि, अथवा हानि, अथवा अवस्थान होता है । जिस कर्मका अवस्थित संक्रमण नहीं होता है, उस कर्मकी वृद्धि अथवा हानि असंख्यात लोककी प्रतिभागी नहीं प्राप्त होती है । यह प्ररूपणा.जघन्य वृद्धि, हानि अथवा अवस्थानकी अर्थपदभूत है। इस प्ररूपणासे मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि, हानि अथवा अवस्थान किसके होता है ? ॥५७५-५७९॥ समाधान-जहॉपर तत्प्रायोग्य जघन्य संक्रमणसे तदनन्तर समयमे अवस्थित संक्रमण संभव है, वहॉपर जघन्य वृद्धि, अथवा हानि होती है और तदनन्तर कालमे जघन्य अवस्थान होता है ।।५८०॥ १ गुणिदकम्मसियलक्खणेणागतूण खवगसेढिमारुहिय सम्बसकमेण परिणदम्मि सव्वुक्कस्सवढिसभव पडि विरोहाभावादो। जयघ० २ किं कारणं; अवट्ठाणसकमपाओग्गपयडीसु एगेगसतकम्मपक्खेवुत्तरकमेण संतकम्मवियप्पाण पयदजहण्णवढि हाणि अवठ्ठाणणिबंधणाणमुप्यत्तीए विरोहाभावादो । जयघ० ३ कि कारण; तत्थ तदुवलभकारणसतकम्मवियप्पाणमणुप्पत्तीदो । तदो तत्थागमणिज्जरावत, पलिदोवमस्स असखेजदिभाग-पडिभागेण सतकम्मत्स वड्ढी वा हाणी वा होइ त्ति तदणुसारेणेव सकपड" ब्बा । जयघ० Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण ४५१ ५८१. सम्मत्तस्स जहणिया हाणी कस्स ? ५८२. जो सम्माइट्ठी* तप्पाओग्गजहण्णएण कम्मेण सागरोवमवेछावट्ठी ओगालिदूण मिच्छत्तं गदो। सव्य-महंतउव्वेल्लणकालेण उबेल्लेमाणगस्स तस्स दुचरिमद्विदिखंडयस्स चरिमसमए जहणिया हाणी। ५८३. तस्सेव से काले जहणिया वड्डी । ५८४. एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि | ५८५. अणंताणुबंधीणं जहणिया वड्डी [ हाणी अवठ्ठाणं च ] कस्स ? ५८६. जहण्णगेण एई दियकम्मेण विसंजोएदूण संजोइदो । तदो ताव गालिदा जाव तेसिं गलिदसेसाणमधापवत्तणिज्जरा जहण्णेण एइंदियसमयपबद्धेण सरिसी जादा त्ति । केवचिरं पुण कालं गालिदस्स अणंताणुबंधीणमधापवत्तणिज्जरा जहण्णएण एइंदियसमयपबद्धेण सरिसी भवदि ? तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागकालं गालिदस्स जहण्णेण एइंदियसमयपवद्धेण सरिसी णिज्जरा भवदि । जहणेण एइदियसमयवद्धेण सरिसी णिज्जरा आवलियाए समयुत्तराए एत्तिएण कालेण होहिदि ति तदो मदो एइंदिओ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य हानि किसके होती है ? ॥५८१।। समाधान-जो सम्यग्दृष्टि जीव तत्प्रायोग्य जघन्य कर्मके साथ दो वार छयासठ सागरोपमकाल बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वह जब सर्व दीर्घ उद्वेलनकालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता हुआ द्विचरम स्थितिखंडके चरम समयमे वर्तमान होता है, तव उसके सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य हानि होती है ॥५८२॥ चूर्णिसू०-उसी जीवके तदनन्तर समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य वृद्धि होती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि हानिका स्वामित्व जानना चाहिए ॥५८३-५८४॥ न शंकाअनन्तानुबन्धी कपायोकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ॥५८५॥ समाधान-जो जघन्य एकेन्द्रिय-सत्कर्मके साथ पंचेन्द्रियोमे आकर और वहाँ अनन्तानुबन्धी कषायोका विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही अनन्तानुवन्धी कषायसे संयुक्त हुआ । तदनन्तर एकेन्द्रियोमे उत्पन्न होकर उसने अनन्तानुवन्धीको तब तक गलाया, जव तक कि अनन्तानुवन्धीके गलित-शेष समयप्रवद्धोकी अधःप्रवृत्तनिर्जरा जघन्य एफेन्द्रिय-समयप्रवद्धके सदृश नहीं हो जाती है। शंका-कितने कालतक गलानेपर अनन्तानुवन्धी कषायोकी अधःप्रवृत्तनिर्जरा जघन्य एकेन्द्रिय-समयप्रबद्धके सदृश होती है । समाधान-एकेन्द्रियोमे तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग-प्रमित काल तक गलानेवाले जीवके जघन्य एकेन्द्रिय-समयप्रबद्धके सदृश निर्जरा होती है । चूर्णिसू०-जब जघन्य एकेन्द्रिय-समयप्रवद्धके सदृश निर्जरा एक समय-अधिक आवली-प्रमित कालसे होगी अर्थात् होनेवाली थी कि तब वह मरा और जघन्ययोगी एके ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'सम्माइट्ठी के स्थानपर 'सम्मा [ मिच्छा ] हट्ठी' ऐसा पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १२९७ ) पता नहीं कोष्ठकके भीतर 'मिच्छा' पदके देनेसे सम्पादकका क्या अभिप्राय है ? Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार जहण्णजोगी जादो। तस्स समयाहियावलियउपवण्णस्स अणंताणुबंधीणं जहणिया वड्डी वा हाणी चा अवट्ठाणं वा । ५८७. अट्टण्हं कसायाणं भय-दुगुंछाणं च जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च कस्स ? ५८८. एई दियकम्मेण जहण्णेण संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो। तेणेव चत्तारि वारे कसायमुवसामिदा । तदो एइदिए गदो पलिदोवमस्स असंखेजदिभार्ग कालमच्छिऊण उवसामयसमयपबद्धे सु गलिदेसु जाधे बंधेण णिज्जरा सरिसी भवदि ताधे एदेसि कम्माणं जहणिया बड्डी च हाणी च अवठ्ठाणं च ।। ५८९. चदुसंजलणाणं जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च कस्स ? ५९०. कसाए अणुवसामेऊण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धण एइंदिए गदो । जाधे बंधेण णिज्जरा तुल्ला ताधे चदुसंजलणस्स जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च । ५९१. पुरिसवेदस्स जहणिया चड्डी हाणी अवठ्ठाणं च कस्स ? ५९२. जम्हि अवट्ठाणं तम्हि तप्पाओग्गजहण्णएण कम्मेण जहणिया वड्डी वा हाणी वा अवट्ठाणं वा । न्द्रिय हुआ । उस एक समय-अधिक आवली कालसे उत्पन्न होनेवाले जघन्ययोगी एकेन्द्रिय जीवके अनन्तानुवन्धी कपायोकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि, अथवा जघन्य अवस्थान होता है ।।५८६॥ शंका-आठो मध्यम कपायोकी और भय-जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ॥५८७।। समाधान-जो जघन्य एकेन्द्रियसत्कर्मके साथ संयमासंयम और संयमको बहुत चार प्राप्त हुआ और उसने चार वार कपायोका उपशमन किया । पुनः वह एकेन्द्रियोमे चला गया। वहाँ पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित कालतक रहकर उपशामककालमे बाँधेहुए समयप्रबद्धोके गल जानेपर जिस समय उसके वन्धके सदृश निर्जरा होती है, उस समय उसके इन उपर्युक्त कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है ।।५८८॥ शंका-चारो संज्वलनकपायोकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ॥५८९॥ समाधान-जो जीव कपायोंका उपशमन करके और संयमासंयम तथा संयमको वहुत वार प्राप्त करके एकेन्द्रियोमे उत्पन्न हुआ। उसके जिस समय वन्धके तुल्य निर्जरा होती है, उस समय उसके चारो संज्वलनकपायोकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है ।।५९०॥ शंका-पुरुपवेदकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ॥५९१॥ समाधान-जहॉपर पुरुषवेदके प्रदेशसंक्रमणका अवस्थान संभव है, वहॉपर तत्प्रायोग्य जघन्य कर्मके साथ वर्तमान जीवके पुरुपवेदकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है ॥५९२॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण ४५३ ५९३. हस्स-रदीणं जहणिया वड्डी कस्स १ ५९४. एइदियकम्मेण जहण्णएण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धण चत्तारि वारे कसाए उवसामेऊण एइदिए गदो । तदो पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागं कालमच्छिऊण सण्णी जादो। सव्यमहतिमरदि-सोगबंधगद्ध कादूण हस्स-रदीओ पबद्धाओ । पहमसमयहस्स-रइबंधगस्स तप्पाओग्गजहण्णओ बंधो च आगमो च तस्स आवलिय-हस्स-रदिवंधमाणस्स जहणिया हाणी । ५९५. तस्सेव से काले जहणिया वड्डी । ५९६. अरदिसोगाणमेवं चेव । णवरि पुच्वं हस्स-रदीओबंधावेयव्याओ । तदो आवलिय-अरदि-सोगवंधगस्स जहणिया हाणी। से काले जहणिया वड्डी । ५९७. एवमित्थिवेद-णबुंसयवेदाणं । ५९८. णवरि जइ इथिवेदस्स इच्छसि, पुवं णqसयवेद-पुरिसवेदे बंधावेदूण पच्छा इत्थिवेदो बंधावेयव्यो । तदो आवलियइत्थिवेदबंधमाणयस्स इत्थिवेदस्स जहणिया हाणी । से काले जहणिया वड्डी । ५९९. जदि णबुंसयवेदस्स इच्छसि, पुव्वमित्थि-पुरिसवेदे बंधावेदूण पच्छा णबुंसयवेदो शंका-हास्य और रतिकी जघन्य वृद्धि और हानि किसके होती है ? ॥५९३।। ___ समाधान-जो जीव जघन्य एकेन्द्रिय-सत्कर्मके साथ संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त करके और चार वार कषायोका उपशमन करके एकेन्द्रियोमे गया। वहॉ पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित कालतक रहकर संज्ञी जीवोमें उत्पन्न हुआ। वहॉपर सर्वमहान् अरति-शोकके बंध-कालको करके हास्य और रतिको बाँधा । प्रथमसमयवर्ती हास्यरतिके बन्धकके तत्प्रायोग्य जघन्य बन्ध है और जघन्य निर्जरा है। इसप्रकार एक आवली तक हास्य और रतिके बन्ध करनेवाले जीवके हास्य और रतिकी जघन्य हानि होती है। उसके ही तदनन्तर समयमे हास्य और रतिकी जघन्य वृद्धि होती है ॥५९४-५९५॥ चूर्णिसू०-अरति और शोककी जघन्य वृद्धि और हानि भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि उसके पहले हास्य और रतिका वन्ध कराना चाहिए । तदनन्तर एक आवलीतक अरति-शोकके बन्ध करनेवाले जीवके अरति-शोककी जघन्य हानि होती है और तदनन्तर कालमें उसके अरति-शोककी जघन्य वृद्धि होती है ॥५९६॥ चूर्णिसू-इसीप्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य वृद्धि और हानिका स्वामित्व जानना चाहिए। विशेपता केवल यह है कि यदि स्त्रीवेदकी जघन्य वृद्धि और हानि जानना चाहते हो, तो पहले नपुंसकवेद और पुरुषवेदका बंध कराके पीछे स्त्रीवेदका बन्ध कराना चाहिए । तदनन्तर एक आवलीतक स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाले जीवके स्त्रीवेदकी जघन्य हानि होती है और तदनन्तरकालमे उसके स्त्रीवेदकी जघन्य वृद्धि होती है । यदि नपुंसकवेदकी जघन्य वृद्धि और हानि जानना चाहते हो तो पहले स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध कराके पीछे नपुंसकवेदका बन्ध कराना चाहिए। तदनन्तर एक आवली तक Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार वंधाdroit | तदो आवलियणवुंसयवेदं बंधमाणयस्स जहणिया हाणी । से काले जहणिया बड्डी | ६००, अप्पाबहुअं । ६०९. उक्कस्सयं ताव । ६०२. मिच्छत्तस्स सन्वत्थोवमुक्कस्यमाणं । ६०३. हाणी असंखेज्जगुणा' । ६०४. बड्डी असंखेज्जगुणा' । ६०५. एवं वारस कसाय-भय- दुगुंछाणं । + ६०६. सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा उकस्सिया वड्डी । ६०७ हाणी असंखेज्ज - गुणा । ६०८. सम्मामिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणीं । ६०९. उकस्सिया बड्डी असंखेज्जगुण । ६१० एवमित्थिवेद - णवुंसयवेदस्स, हस्स-रह- अरइ- सोगाणं । ६११. कोहसंजलणस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया बड्डी । ६१२. हाणी अवाणं च विसेसाहियं । ६१३. एवं माण-माया संजलण- पुरिसवेदाणं । ६१४. लोहसंजनपुंसकवेदका वध करनेवाले जीवके नपुंसकवेदकी जघन्य हानि होती है और तदनन्तर कालमे उसके नपुंसकवेदकी जघन्य वृद्धि होती है ॥५९७-५९९॥ चूर्णि सू० [0 - अव पदनिक्षेपसम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं । उसमें पहले उत्कृष्ट अल्पबहुत्व कहते है । मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे कम होता है । मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अवस्थानसे उसकी उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणित होती है । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानिसे उसकी उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणित होती है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी आदि वाह कषाय, भय और जुगुप्साका अल्पवहुत्व जानना चाहिए || ६०० ६०५॥ चूर्णिसू० – सम्यक्त्वप्रकृतिको उत्कृष्ट वृद्धि सबसे कम होती है । इसकी उत्कृष्ट वृद्धिसे इसीकी उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणित होती है । सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट हानि सबसे कम होती है । इससे इसकी उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणित होती है । इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकघेद, हास्य, रति, अरति और शोकके अल्पबहुत्वको जानना चाहिए ॥ ६०६-६१०॥ चूर्णिसू० – संज्वलनक्रोधकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे कम होती है । इससे संज्वलन - क्रोधकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान विशेष अधिक होते हैं । इसीप्रकार संज्वलनमान, संज्वलनमाया और पुरुषवेदका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । संज्वलन लोभका उत्कृष्ट अब १ कुदो; एयसमयपबद्धा संखेज दिभागपमाणत्तादो । जयध० २ कि कारण, चरिमगुणसकमादो विज्झादसकमम्मि पदिदस्स पढमसमयअसखेज समयपवद्धे हाइदूण हाणी जादा, तेणेद पदेसग्गमसखेजगुण भणिद । जयध० ३ कुदो, सव्वकमम्मि उक्करसवड्ढिसामित्तावलवणादो | जयघ० ४ किं कारणं; उव्वेल्लणकालभतरे गलिद से सदव्वस्स चरिमुव्वेल्लणक डयचरिमफालीए लदुक्कस्सभावन्तादो | जयघ ५ कुदो; मिच्छत्त गयस्स विदियसमयम्मि अधापवत्तसकमेण पडिल दुक्कस्वभावत्तादो | जयध० ६ कुदो; अथापवत्तसकमादो विज्झादसकमे पदिदपदमसमयसम्माट्ठिम्मि किंचूण अधापवत्तसकमदव्वमेत्तुक्क स्सहाणिभावेण परिग्गहादो | जयध० ७ कुदो दंसणमोहक्खवणाए सव्वसंकमेण तदुक्कस्ससा मित्तपडिलभादो । जयध Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-पदणिक्खेव अल्पबहुत्व-निरूपण ४५५ लणस्स सव्वत्थोवमुकस्समवट्ठाणं । ६१५. हाणी विसेसाहिया' । ६१६, बड्डी विसेसाहिया | ६१७. एत्तो जहण्णयं । ६१८. मिच्छत्तस्स सोलसकसाय- पुरिसवेद-भय-दुगुंछ जहणिया बड्डी हाणी अवट्ठाणं च तुल्लाणि । ६१९ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणी । ६२०. वड्डी असंखेज्जगुणा । ६५१. इत्थि णत्रु सयवेद-हस्स-रइ- अरइ-सोगाणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणी । ६२२. वड्डी विसेसाहियाँ । पदणिक्खेव समत्तो । ε स्थान सबसे कम होता है । इससे इसकी उत्कृष्ट हानि विशेप अधिक होती है । इससे इसीकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक होती है ॥ ६११-६१६॥ चूर्णिसू० [0- अब इससे आगे जघन्य अल्पवहुत्व कहते हैं - मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान परस्पर तुल्य होते हैं । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि सबसे कम होती है । इससे इन दोनोंकी जघन्य वृद्धि असंख्यातगुणित होती है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य हानि सबसे कम होती है । जघन्य हानिसे इनकी जघन्य वृद्धि विशेष अधिक होती है ॥ ६१७-६२२॥ इस प्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । १ कि पमाणमेव ददव्वं ? असखेज्जसमयपत्रद्धपमाणमेद । किं कारण, तप्पा ओग्गुक्कस्सअधापवत्तसकमेण वड्ढिदूणावट्ठिदम्मि वढिणि मित्तमूलदव्वेण सहावठाणन्भुवगमादो । तदो दिवडूढ - गुणहाणिमेत्तसमयपत्रद्धाणमधापवत्तभाग हारपडिभागेणासंखेज्जदिभागमेत्त हो सन्वत्थवमेद ति तव्व । जयध २ किं कारण; उनतभवेढी सप्नुफ्फरसगुणसकमदव्य पडिच्छिय काल कादूण देवेसुववण्णस्स समयाहियावलियाए अणूणा हियतक्कालभावे अधापवत्तसकमेण राणिववहारख्भुवगमादो । जयध० ३ कुदो, एदेसिं कम्माणमेगसतकम्मपक्खेवावलवणेण जहण्णवड्ढि हा विठाणाण सामित्त - पडिलभादो । जयध० ४ कि कारण, खविदकर्मसियदुवरिमुव्वेल्लणखडय चरिमफालीए पडिलद्वजहणभावत्तादो | जय ५ कुदो, सम्मत्तस्स चरिमुव्वेल्लणखडयपढमफालीए गुणसकमेण जहण्णभावपडिलंभादो । सम्मामिच्छत्तस्स वि दुचरिमुव्वेल्लणखडयचरिमफालिं सकामिय सम्मत्त पडिवण्णस्स पढमसमये विज्झादसकमेण जहणसामित्तदसणादो | जयध० ६ किं कारणः खविदकम्मसियल्क्खणेणागतूण एइंदिएसु पल्दिोवमस्स असखेज्जदिभागमेत्तकालं गालिय पुणो सष्णिपचिदिएसुप्पनिय पडिवक्खव धगद्ध वोलाविय सगवधपार भादो आवलियचरिमन्मए वट्टमाणस्स गलिदस्रेसजहण्णसतकम्मविसय अधा पवत्तसकमेण पडिलद्व जहण्णभावत्तादो । जय० ७ किं कारणं, पुव्वत्तेणेव कमेणागतूण सण्णिप चिदिएसु अप्पप्पणो पडिवक्खधगद्ध गालिय सगधपार भादो समयाहियावलियाए वट्टमाणस्स पुव्विल्लसतादो विमेसा हियसतकम्मविसयत्तेग पडिवण्णजणभावत्तादो | जयध० Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ . कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ६२३. वड्डीए तिणि अणियोगद्दाराणि समुक्त्तिणा सामित्तमप्पावहुअं च । ६२४. समुक्त्तिणा । ६२५. मिच्छत्तस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्डि-हाणी असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी, अवठ्ठाणमवत्तव्ययं च । ६२६. एवं बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं । ६२७. एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि, णवरि अवहाणं णत्थि । ६२८. सम्मत्तस्स असंखेज्जभागहाणी असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी अवत्तव्ययं च अस्थि । ६२९. तिसंजलण-पुरिसवेदाणमत्थि चत्तारि वढी चत्तारि हाणीओ अवट्ठाणमवत्तव्वयं च । ६३०. लोहसंजलणस्स अत्थि असंखेज्जभागवड्डी हाणी अवठ्ठाणमवत्तत्रयं च । ६३१. इत्थि-णवुसयवेद-हस्सरइ-अरइ-सोगाणमस्थि दो वड्डी हाणीओ अवत्तव्वयं च । ६३२. सामित्ते अप्पाबहुए च विहासिदे वड्डी समत्ता भवदि । ६३३. एत्तो हाणाणि । ६३४. पदेससंकमट्ठाणाणं परूवणा अप्पाबहुअं च । ६३५. परूवणा जहा । ६३६. मिच्छत्तस्स अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण जहण्णयं संकयहाणं । चूर्णिसू०-प्रदेशसंक्रमणसम्बन्धी वृद्धिके तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उनमेसे पहले समुत्कीर्तना कहते हैं-मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि होती है, असंख्यातभागहानि होती है, असंख्यातगुणवृद्धि होती है, असंख्यातगुणहानि होती है, अवस्थान होता है और अवक्तव्य होता है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपायोकी तथा भय और जुगुप्साकी जानना चाहिए । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी भी वृद्धि-हानि जानना चाहिए। केवल उसका अवस्थान नही होता है ॥६२३-६२७।। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि , असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य होते हैं। संज्वलनक्रोध, मान, माया और पुरुषवेदकी चारों प्रकारकी वृद्धि, चारों प्रकारकी हानि, अवस्थान और अवक्तव्य होता है। संज्वलनलोभकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, अवस्थान और अवक्तव्यसंक्रमण होता है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि ये दो वृद्धियॉ, असंख्यारामागहानि, असंख्यातगुणहानि ये दो हानियाँ और अवक्तव्यसंक्रमण होता है ॥६२८-६३१॥ चूर्णिसू०-समुत्कीर्तनाके अनुसार स्वामित्व और अल्पवहुत्वकी विभाषा करनेपर वृद्धिसम्बन्धी प्ररूपणा समाप्त हो जाती है ॥६३२॥ इस प्रकार वृद्धि अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । चूर्णिसू०-अब इससे आगे प्रदेशसंक्रमणसम्बन्धी स्थानोको कहते हैं । प्रदेशसंक्रमणस्थानोके विषयमे प्ररूपणा और अल्पवहुत्व ये दो अनुयोगद्वार होते हैं। उनमे प्ररूपणा इस प्रकार है-अभव्यसिद्धि कोके योग्य जघन्य कर्मके द्वारा मिथ्यात्वका जघन्य संक्रमस्थान होता है ॥६३३-६३६॥ १त कथ; एदेण (अभवसिद्धियपाओग्गेण) जहष्णकम्मेणागतूण असणिपचिदिएसुववजिय पनत्तयदा होदूण तस्य देवा उअ वधिय सव्वलहुं काल कादूण देवेसुवजिय छहिं पजत्तीहि पजत्तयदो हादृण पढा Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-स्थान-निरूपण ४५७ ६३७. अनंतहि (अण्णं तम्हि ) चैव कम्मे असंखेज्जलोग भागुत्तरं संकमट्ठा हो । ६३८. एवं जहण्णए कम्मे असंखेज्जा लोगा संकमद्वाणाणि' । ६३९. तदो पदेसुत्तरे दुपदेसुत्तरे वा, एवमणंतभागुत्तरे वा जहण्णए संतकम्मे ताणि चैव संकमट्ठाणाणि । ६४०. असंखेज्जलोगे भागे पक्खित्ते विदियसंकमट्ठाण परिवाडी होइ । ६४१. जो जहण्णगो पक्खेवो जहण्णए कम्मसरीरे तदो जो च जहण्णगे कम्मे विदिय संक मट्ठाणविसेस असंखेज्जगुणो | ६४२ एत्थ वि असंखेज्जा लोगा संकमट्टाणाणि । विशेषार्थ - अभव्यसिद्धोके योग्य जघन्य कर्मसे अभिप्राय यह है कि जो क्षपितकर्माशिक जीव एकेन्द्रियोमे कर्मस्थितिपर्यन्त रहा और वहॉपर उसने जो जघन्य कर्म संचित किया, वह अभव्यसिद्धोके योग्य जघन्य कर्म यहाॅ विवक्षित है । इस जघन्य कर्म से सबसे छोटा संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । इसके अतिरिक्त जयधवलाकारने दूसरे प्रकारसे भी जघन्य संक्रमस्थानकी उत्पत्ति बतलाई है । वे कहते है कि जो जीव जघन्य कर्मके साथ एकेन्द्रियो से आकर असंज्ञिपंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पर्याप्त हुआ और अति शीघ्र देवायुका बंध कर मरा और देवोमें उत्पन्न हुआ । वहॉ पर्याप्त होकर उसने पहले उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त किया । तदनन्तर वेदकसम्यक्त्वको धारण किया और दो वार छ्यासठ सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्वका परिपालनकर उसके अन्त मे अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । उस जीवके अधः प्रवृत्तकरण के चरम समय मे जघन्य परिणामके कारण - भूत विध्यातसंक्रमण के द्वारा मिथ्यात्वका सर्वजघन्य प्रदेशसंक्रमणस्थान उत्पन्न होता है । अब मिथ्यात्व के अजघन्य प्रदेशसंक्रमस्थानका निरूपण करते है चूर्णि सू ० - उस ही सत्कर्म में असंख्यात लोकप्रमितभागसे अधिक अन्य अर्थात् दूसरा संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । पुनः उसी जघन्य सत्कर्म में असंख्यात लोकभाग से अधिक तीसरा संक्रमस्थान होता है । इसप्रकार उसी जघन्य सत्कर्ममे असंख्यात लोकप्रमित संक्रमस्थान होते है । उससे एक प्रदेश आधक, दो प्रदेश अधिक, तीन प्रदेश अधिक, चार प्रदेश अधिक, इत्यादि क्रमसे संख्यात प्रदेश अधिक, असंख्यात अधिक और अनन्त भाग अधिक जधन्य सत्कर्ममे वे ही संक्रमस्थान उत्पन्न होते है । ( यह संक्रमस्थान---प्रथम परिपाटी या परम्परा है । ) जघन्य सत्कर्ममे असंख्यात लोकके प्रक्षिप्त करनेपर संक्रमस्थान - की दूसरी परिपाटी उत्पन्न होती है । जवन्य कर्मशरीर अर्थात् पत्कर्ममे जो जघन्य प्रक्षेप है, उससे जघन्य सत्कर्मपर जो द्वितीय संक्रमस्थानविशेष है, वह असेल्यातगुणित है । इस द्वितीय संक्रमस्थानपरिपाटीमे भी असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान होते है ।। ६३७-६४२।। सम्मत्तमुपाइय तदो वेदयसम्मत्त पडिवज्जिय वेछावसिागरोवमाणि सम्मत्तमणुपात तदवसाणे अतो मुहुत्त से दस मोहक्खवणाए अव्भुटिट्ठदो जो जीवो, तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमये वैमाणस्स जण परिणामणि घण विज्झादसकमेण सव्वजहण्णपदेससकमट्ठाण होइ । जयध० १ कुदो; णाणाकालसबधिणाणाजीवेहि तदियादिपरिणामहाणेहिं परिवाडीए परिणऽविय तम्सि जद्दण्णसतकम्मे सकामिज्जमाणे अवदिपक्खेवुत्तरकमेण पुन्यविरचिदपरिणामट्ठाणमेत्ता चेकमठाणाणमुप्पत्तीए परिष्फुडसुवलभादो । जयध० ५८ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ६४३. एवं सव्यासु परिवाडीसु । ६४४.णवरि सव्यसंकमे अणंताणि संकमट्ठाणाणि । ६४५. एवं सबकम्माणं । ६४६ णवरि लोहसंजलणस्स सव्यसंकमो णत्यि । ६४७. अप्पाबहुअं । ६४८. सव्वत्थोवाणि लोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि। ६४९. सम्मत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । ६५०. अपचक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि असखेज्जगुणाणि । ६५१. कोहे पदेससंकमठाणाणि विससाहियाणि। ६५२. मायाए पदेससंक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६५३. लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६५४. पञ्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसे साहियाणि । ६५५. कोहे पदेससंक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६५६ मायाए पदेससंकमाणाणि विसेसाहियाणि । ६५७. लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६५८. अणंताणुवंधिमाणस्स पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६५९. कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६०. मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६१. लोभे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । चूर्णिसू०-इसीप्रकार सर्वसंक्रमस्थानपरिपाटियोमें असंख्यात लोकप्रमित संक्रमस्थान होते हैं। केवल सर्वसंक्रमणमें अनन्त संक्रमस्थान होते हैं। जिस प्रकार मिथ्यात्वके संक्रमस्यान होते हैं उसी प्रकार सर्व कर्मोंके संक्रमस्थान जानना चाहिए। केवल संज्वलनलोभका सर्वसंक्रमण नहीं होता है ॥६४३-६४६॥ चूर्णिसू०-अब प्रदेशसंक्रमस्थानोका अल्पबहुत्व कहते है। संज्वलनलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान सबसे कम हैं। संज्वलनलोभसे सम्यक्त्वप्रकृतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणित है। सम्यक्त्वप्रकृतिसे अप्रत्याख्यानमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं । अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । अप्रत्याख्यानक्रोधसे अप्रत्याख्यानमायामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं। अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। अप्रत्याख्यानलोमसे प्रत्याख्याननानमें प्रदेशलंक्रमस्थान विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमें प्रदेशसंक्रसस्थान विशेष अधिक हैं । प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमायामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक है। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानलोभसे अनन्तानुवन्धीमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। अनन्तानुवन्धीमानसे अनन्तानुबन्धीक्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। अनन्तानुवन्धीक्रोधसे अनन्तानुवन्धीमायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं। अनन्तानुबन्धीमायासे अनन्तानुवन्धीलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ॥६४७-६६१॥ १ कि वारणं; परपयडिसछोहणेण विणा खविदत्तादो। तम्हा लोहसजलणस्सासखेज्जलोगमेत्ताणि चेव संकमट वागाणि अघापवत्तसकममस्सिऊण पल्वेयवाणि त्ति भावत्यो । जयध० २ दो लोहसंजलणत्स सब्यसंकमाभावेणासखेजलोगमेत्ताण चेव सकमट्ठाणाणमुवलमादो । जयध० ३ किं कारणं; अभवसिद्धिएहितो अणतगुणसिटाणमणतमागपमाणत्ताटो । जयध० Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रमस्थान-अल्पबहुत्व-निरूपण ४५९ ६६२. मिच्छत्तस्स पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।'६६३. सम्मामिच्छत्ते पदेससंकपट्टाणाणि विसेसाहियाणि । ६६४. हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि अणंतगुणाणि। ६६५ रदीए पदेमसंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६६. इत्थिवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । ६६७ सोगे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६८. अरदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६९. णकुंसयवेदे पदेससंकयट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६७०. दुगुंछाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेमाहियाणि । ६७१. भये पदेससंकपट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६७२. पुरिसवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६७३. कोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि सखेज्जगुणाणि । ६७४. माणसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६७५. मायासंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६७६. णिरयगईए सव्वत्थोवाणि अपञ्चक्खाणमाणे पदेससंकमाणाणि । ६७७, कोहे पदेससंकपट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६७८. मायाए पदेससंकपट्टाणाणि विसेसा चूर्णिसू०-अनन्तानुबन्धीलोभसे मिथ्यात्वके प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्वमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। सभ्यग्मिथ्यात्वसे हास्यमे प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणित हैं। हास्यसे रतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। रतिसे स्त्रीवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणित है । स्त्रीवेदसे शोकमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । शोकसे अरतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। अरतिसे नपुंसकवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। नपुंसकवेदसे जुगुप्सामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। जुगुप्सासे भयमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। भयसे पुरुषवेदमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। पुरुषवेदसे संज्वलनक्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणित हैं। संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। संज्वलनमानसे संज्वलनमायामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ॥६६२२६.५५॥ चर्णिम०-( गतिमार्गणाकी अपेक्षा ) नरकगीतमायानमान परेशान स्थान सबसे कम है । अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोध, प्रदेशसंक्रमस्थानाप है। अप्रत्याख्यानक्रोधसे अप्रत्याख्यानमायामें प्रदेशसंक्रमस्थाने विशेष अधिक है। १ किं कारण, मिच्छत्तजहण्णचरिमफालिमुक्कस्सचरिमफालीदो सोहिय पद्धसेसदवादो सम्मानित तसुद्धसेसचरिमफाल्दिव्वस्स गुणसंकमभागहारेण खडिदेयखडमेत्त'ण अहियत्तदसणीदो, मिच्छाइटिठम्मि वि सम्मामिच्छत्तस्स अणताणं सकमठाणाणमहियाणमुवलभादो च । जयध० २ कुदो, देसघाइत्तादो । जयध० ३ कुदो बधगडापाहम्मादो | जयध० ४ कुदो, धुवबधित्तोणित्थि पुरिसवेदबधगद्धासु वि संचयोवलंभादो । जयघ० ५ कुदो; कसायचउभागेण सह णोकसायभागस्स सव्वरसेव कोहसजलणचरिमफाली सव्वसकम. सरूवेण परिणदस्सुवलभादो | जयध० Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार हियाणि । ६७९. लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८०. पञ्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८१. कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८२. मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८३. लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८४. मिच्छत्ते पदेससंकमहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ६८५. हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ६८६. रदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८७. इत्थिवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । ६८८. सोगे पदेससंकमाणाणि विसेसाहियाणि । ६८९. अरदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६९०. णसयवेदे पदेससंकमठाणाणि विसेसाहियाणि । ६९१. दुगुंछाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६९२. भए पदेससंकमाणाणि विसेसाहियाणि । ६९३. पुरिसवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । - ६९४. माणसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६९५. कोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६९६. मायासंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६९७. लोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६९८. सम्मत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । ६९९. सम्मामिच्छत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि ख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमानमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधर्म प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमायामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ॥६७६-६८३॥ चूर्णिसू०--प्रत्याख्यानलोभसे मिथ्यात्वमे प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं । मिथ्यात्वसे हास्यमे प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं। हास्यसे रतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं। रतिसे स्त्रीवेदमे प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणित है। स्त्रीवेदसे शोकमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिफ हैं। शोकसे अरतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । ... अरतिसे नपुंसकवेदमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। नपुंसकवेदसे जुगुप्सामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। जुगुप्सासे भयमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । भयसे पुरुपयेदमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ॥६८४-६९३॥ चूर्णिसू०-पुरुपवेदसे संज्वलनमानमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । संज्वलनमानसे संज्वलनक्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं। संज्वलनमायासे संज्वलनलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । संज्वलनलोभसे सम्यक्त्वप्रकृतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणित हैं । सम्यक्त्व १ कुदो, उबेल्लणचरिमफालीए सत्वसकमेणाणंतसकमाणसभवाविससे वि दवबिसेसमरिसऊण तहाभावोववत्तीदो। जयघ० Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ गा० ५८] प्रदेशसंक्रम-स्थान-अल्पबहुत्व-निरूपण असंखेज्जगुणाणि । ७००. अणंताणुवंधिमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेन्जगुणाणि । ७०१. कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७०२. मायाए पदेस संकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७०३. लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७०४. एवं तिरिक्खगइ-देवगईसु वि । ७०५. मणुसगई ओघभंगो।। प्रकृतिसे सन्यग्मिथ्यात्वमे प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। सम्यग्मिथ्यात्वसे अनन्तानुबन्धीमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है । अनन्तानुबन्धीमानसे अनन्तानुबन्धीक्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धीक्रोधसे अनन्तानुबन्धीमायामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक है। अनन्तानुबन्धीमायासे अनन्तानुबन्धीलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ॥६९४-७०३॥ चूर्णिम् ०-इसीप्रकार तिर्यग्गति और देवगतिमे भी प्रदेशसंक्रमस्थानोका अल्पवहुत्व जानना चाहिए । मनुष्यगतिसम्बन्धी प्रदेशसंक्रमस्थानोका अल्पबहुत्व ओषके समान होता है ॥७०४-७०५॥ विशेषार्थ-यद्यपि चूर्णिकारने देवगतिमे भी प्रदेशसंक्रमस्थानोका अल्पबहुत्व नरकगतिके अल्पबहुत्वके समान सामान्यसे कह दिया है तथापि देवोके अल्पबहुत्वमे थोड़ीसी विशेषता है । वह यह कि अनुदिशसे आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोके सम्यक्त्वप्रकृतिसम्बन्धी प्रदेशसंक्रमस्थान नहीं होते है । तथा उनमें सम्यग्मिथ्यात्वके प्रदेशसंक्रमस्थान सबसे कम होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वसे मिथ्यात्वमे प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित होते है । मिथ्यात्वसे अप्रत्याख्यानमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित होते है। अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यानक्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते है। अप्रत्याख्यानक्रोधसे अप्रत्याख्यानमायामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते है। अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते है। अप्रत्याख्यानलोमसे प्रत्याख्यानमानमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं । प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते है । प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमापानें--पदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यानलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप आधार प्रत्याख्यानलोभसे स्त्रीवेदमे प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित् होते है। स्त्रीवेदसे नपंसकवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणित होते है। नपुंसकवेदसे हास्यमे प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित होते है । हास्यसे रतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिके होते है। रतिसे शोको प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक होते है । शोकसे अरतिमे प्रदेशसंसस्थान विशेष अधिक होते हैं । अरतिसे जुगुप्सामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक होते है। जुगुप्सासे भयमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक होते हैं । भयसे पुरुषवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक १ कुदो, विसजोयणाचरिमफालीए सव्वसकमेण समुप्पण्णाणतसकमट्ठाणाण दवमाहप्पेण पुबिल्लसकमट्ठाणेहितो असखेज्जगुणत्तदसणादो । जयध० । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ फसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार ___७०६.एईदिएसु मव्वत्थोवाणि अपश्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि । ७०७. कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७०८. मायाए पदेससंक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७०९. लोहे पदेससं कमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७१०. पञ्चक्खाणमाणे पदेससंकयवाणाणि विसेसाहियाणि । ७११. कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७१२. मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७१३. लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि । विसेसाहियाणि । ७१४. अणंताणुवंधिमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७१५. कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७१६. मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि | ७१७. लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७१८. हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । ७१९. रदोए पदेससंकमहोते हैं । पुरुषवेदसे संज्वलनमानमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते है। संज्वलनमानसे संज्वलनक्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं। संज्वलनक्रोधसे संज्वलनमायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं। संज्वलनमायासे संज्वलनलोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं । संज्वलनलोभसे अनन्तानुबन्धी मानमें प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणित होते हैं। अनन्तानुबन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमे प्रदेश संक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं अनन्तानुबन्धी क्रोधसे अनन्तानुबन्धी मायामें संक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं । अनन्तानुबन्धी मायासे अनन्तानुबन्धी लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं । तिर्यंचगतिमे भी पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोके प्रदेशसंक्रमस्थानोका अल्पवहुत्व आगे कहे जानेवाले एकेन्द्रिय जीवोके अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिए । मनुष्य-अपर्याप्तक जीवोके प्रदेशसंक्रमस्थानोंका अल्पवहुत्व पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तकोके समान जानना चाहिए। चूर्णिसू०-(इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा) एकेन्द्रियोमे अप्रत्याख्यानमानके प्रदेशसंक्रमस्थान सबसे कम हैं। अप्रत्याख्यानमानसे अप्रत्याख्यान धिमे प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यान क्रोधसे.. अप्रत्याख्यानमायामे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानमायासे अप्रत्याख्यानलोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं। अप्रत्याख्यानलोभसे प्रत्याख्यानमानमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। प्रत्याख्यानमानसे प्रत्याख्यानक्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। प्रत्याख्यानक्रोधसे प्रत्याख्यानमायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। प्रत्याख्यानमायासे प्रत्याख्यान लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । प्रत्याख्यानलोभसे अनन्तानुवन्धी मानमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं । अनन्तानुबन्धी मानसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेप अधिक हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोधसे अनन्तानुवन्धी मायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। अनन्तानुवन्धी मायासे अनन्तानुबन्धी लोभमे प्रदेशसंक्रमस्थान अधिक है ।।७०६-७१७।। चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धी लोभसे हास्यमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५८] प्रदेशसंक्रमस्थान-अल्पबहुत्व-निरूपण ४६३ हाणाणि विसेसाहियाणि । ७२०. इथिवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । ७२१. सोगे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७२२. अरदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७२३. णवुसयवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७२४. दुगुंछाए पदेससंकमट्टाणाणि विसेसाहियाणि । ७२५. भए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७२६. पुरिसवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७२७. माणसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि | ७२८ कोहसंजलणे पदेससंकमहाणाणि विसेसाहियाणि । ७२९. मायासंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७३०. लोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७३१. सम्मत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । ७३२. सम्मामिच्छत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ७३३. केण कारणेण णिस्यगईए पञ्चक्खाणकसायलोभपदेससंकमट्ठाणेहितो मिच्छत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि १ ७३४. मिच्छत्तस्स गुणसंकमो अत्थि, पञ्चक्खाणकसायलोहस्स गुणसंकमो णत्थि; एदेण कारणेण णिरयगईए पचक्खाणकसायलोहपदेससंकमट्ठाणेहितो मिच्छत्तस्स पदेससंकमाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ___ ७३५. जस्स कम्मस्स सव्वसंकमो णस्थि तस्स कम्मस्स असंखेज्जाणि हास्यसे रतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। रतिसे स्त्रीवेदमे प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणित हैं। स्त्रीवेदसे शोकमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। शोकसे अरतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। अरतिसे नपुंसकवेदमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। नपुंसकवेदसे जुगुप्सामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। जुगुप्सासे भयमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। भयसे पुरुषवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। पुरुषपेपत्ते संज्वलनानमा प्रदेशसभामस्थान विशेप अधिक हैं। संज्वलनमानसे संज्वलनकोधमे प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । संज्वलनकोनऐ ज्वलनमायाम प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है। संज्वलनमायासे संज्वलनलोभम प्रदेशसंक्रमस्थान विशप पिक है। संज्वलन लोभसे सम्यक्त्वप्रकृतिमे प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणित है। सम्यक्त्वप्रकृतिसे सम्यग्मिथ्यात्वमे प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित हैं ॥७१८-७३२॥ का-नरकगतिमें प्रत्याख्यानलोभकपायके प्रदेशसंक्रमस्थानोंसे मिथ्यात्वमे प्रदेशसंक्रमस्थान किस कारणसे असंख्यातगुणित होते हैं ? ॥७३३॥ समाधान-मिथ्यात्वका गुणसंक्रमण होता है, किन्तु प्रत्यारानलोभकषायका गुणसंक्रमण नही होता , इस कारणसे नरकगतिमें प्रत्याख्यानलोभकपायके प्रदेसंक्रमस्थानोसे मिथ्यात्वके प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणित होते हैं ॥७३४॥ । चूर्णिसू०-जिस कर्मका सर्वसंक्रमण नहीं होता है, उस कर्मके प्रदेशसंक्रमस्थान Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार पदेससंकमट्ठाणाणि । जस्स कम्मस्स सव्वसंकमो अस्थि, तस्स कम्मस्स अणंताणि पदेससंकमट्ठाणाणि। ७३६. माणस्स जहष्णए संतकम्मट्ठाणे असंखेज्जा लोगा पदेससंकमट्ठाणाणि | ७३७. तम्मि चेव जहण्णए माणसंतकम्मे विदियसंकमट्ठाणविसेसस्स असंखेज्जलोगभागमेत्ते पक्खित्ते माणस्स विदियसंकमाणपरिवाडी । ७३८. तत्तियमेत्ते चेव पदेसग्गे कोहस्स जहण्णसंतकम्मट्ठाणे पक्खित्ते कोहस्स विदियसंकमट्ठाणपरिवाडी । ७३९. एदेण कारणेण माणपदेससंकमट्ठाणाणि थोवाणि, कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ७४०. एवं सेसेसु वि कम्मेसु वि णेदव्याणि । एवं गुणहीणं वा गुणविसिहमिदि अत्थ-विहासाए समत्ताए पंचमीए मुलगाहाए अत्थपरूवणा समत्ता। तदो पदेससंकमो समत्तो । असंख्यात होते है। जिस कर्मका सर्वसंक्रमण होता है, उस कर्मके प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणित होते हैं ॥७३५॥ चूर्णिसू०-मानके जघन्य सत्कर्मस्थानमे असंख्यातलोकप्रमाण प्रदेशसंक्रमस्थान होते है। उस ही मानके जघन्य सत्कर्मम द्वितीय संक्रमस्थानविशेषके असंख्यातलोकभागमात्र प्रक्षिप्त करनेपर मानकी द्वितीय संक्रमस्थानपरिपाटी उत्पन्न होती है। तावन्मात्र ही प्रदेशाग्रके क्रोधके जघन्य सत्कर्मस्थानमें प्रक्षिप्त करनेपर क्रोधकी द्वितीय संक्रमस्थानपरिपाटी उत्पन्न होती है-1- इस कारणसे मानके प्रदेशसंक्रमस्थान थोड़े होते हैं और क्रोधके प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक होते है । इसी प्रकार शेष कर्मों में भी संक्रमस्थानोकी हीनाधिकताके कारणकी प्ररूपणा करना चाहिए ॥७३६-७४०॥ इस प्रकार 'गुणहीणं वा गुणविसिटू' इस पद्रकी विभापाके.समाप्त होनेके साथ . पाँचवीं मूलगाथाकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई । इस प्रकार प्रदेशसंक्रमण-अधिकार समाप्त हुआ। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदग-अस्थाहियारो १. वेदगे त्ति अणियोगद्दारे दोण्णि अणियोगद्दाराणि । तं जहा-उदयो च उदीरणा च । २. तत्थ चत्तारि सुत्तगाहाओ । ३. तं जहा । कदि आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्संति कस्स आवलियं । खेत्त-भव-काल-पोग्गल-ट्ठिदिविवागोदयखयो दु ॥५९॥ वेदक अर्थाधिकार कर्मनिके वेदन-रहित सिद्धनिका जयकार । करिके भाषू अति गहन यह वेदक अधिकार ॥ अब कषायप्राभृतके पन्द्रह अधिकारोमेंसे छठे वेदक नामके अनुयोगद्वारको कहनेके लिए यतिवृषभाचार्य चूर्णिसूत्र कहते है चूर्णिसू०-वेदक नामके अनुयोगद्वारमें उदय और उदीरणा नामक दो अनुयोगद्वार है ॥१॥ विशेषार्थ-कर्मोंके यथाकाल-जनित फल या विपाकको उदय कहते है और उदयकाल आनेके पूर्व ही तपश्चरणादि उपाय-विशेषसे कर्मों के परिपाचनको उदीरणा कहते हैं । उदय और उदीरणाको कर्म-फलानुभवरूप वेदनकी अपेक्षा 'वेदक' यह संज्ञा दी गई है । चूर्णिसू०-इस वेदक नामके अनुयोगद्वारमे चार सूत्र-गाथाए हैं। वे इस प्रकार है ॥२-३॥ __प्रयोग-विशेषके द्वारा कितनी कर्म-प्रकृतियोंको उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है ? तथा किस जीवके कितनी कर्म-प्रकृतियोंको उदीरणाके बिना ही स्थितिक्षयसे उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है ? क्षेत्र, भव, काल और पुगलद्रव्यका आश्रय लेकर जो स्थिति-विपाक होता है, उसे उदीरणा कहते हैं और उदय-क्षयको उदय कहते हैं ॥५९॥ विशेषार्थ-यहाँ 'क्षेत्र' पदसे नरकादि क्षेत्रका, 'भव' पदसे जीवोके एकेन्द्रियादि भवोका, 'काल' पदसे शिशिर, वसन्त आदि कालका, अथवा वाल, यौवन, वार्धक्य आदि काल-जनित पर्यायोका और 'पुद्गल' पदसे गंध, ताम्बूल वस्त्र-आभरण आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंका ग्रहण करना चाहिए। कहनेका सारांश यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव आदिका आश्रय लेकर कर्मोंका उदय और उदीरणारूप फल-विपाक होता है। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार को कदमाए द्विदीए पवेसगो को व के य अणुभागे । सांतर णिरंतरं वा कदि वा समया दु बोद्धव्वा ॥६०॥ बहुगदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदग्गं वा । अणुसमयमुदीरेंतो कदि वा समयं (ये) उदीरेदि ॥६१॥ जो जं संकामेदि य जंबंधदि जंच जो उदीरेदि । तं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदेसग्गे ॥६२॥ कौन जीव किस स्थितिमें प्रवेश करानेवाला है और कौन जीव किस अनुभाग में प्रवेश कराता है। तथा इनका सान्तर और निरन्तर काल कितने समयप्रमाण जानना चाहिए ॥६॥ विशेषार्थ-यद्यपि गाथाके प्रथम चरणसे स्थिति-उदीरणाका और द्वितीय चरणसे अनुभाग-उदीरणाका उल्लेख किया गया है, तथापि स्थिति-उदीरणा प्रकृति-उदीरणाकी और अनुभाग-उदीरणा प्रदेश-उदीरणाकी अविनाभाविनी है, अतः गाथाके पूर्वार्धसे चारो उदीरणाओका कथन किया गया समझना चाहिए । गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा उक्त चारो उदीरणाओकी कालप्ररूपणा और अन्तरप्ररूपणा सूचित की गई है। तथा गाथाके उत्तरार्धमे पठित द्वितीय 'वा' शब्द अनुक्तका समुच्चय करनेवाला है अतः उससे गाथासूत्रकारके द्वारा नहीं कहे गये समुत्कीर्तना आदि शेष अनुयोगद्वारोका ग्रहण करना चाहिए । विवक्षित समयसे तदनन्तरवर्ती समयमें कौन जीव बहुतकी अर्थात् अधिकसे अधिकतर कर्माकी उदीरणा करता है और कौन जीव स्तोकसे स्तोकतर अथोत् अल्प कर्मोंकी उदीरणा करता है ? तथा प्रतिसमय उदीरणा करता हुआ यह जीव कितने समय तक निरन्तर उदीरणा करता रहता है ॥६१॥ विशेपार्थ-गाथाके प्रथम चरणसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश उदीरणासम्बन्धी भुजाकार पदका निर्देश किया गया है और द्वितीय चरणसे उन्हीके अल्पतर पदकी सूचना की गई है । गाथाके पूर्वार्धमे पठित 'वा' शब्दले अवस्थित और अवक्तव्य पदोका ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार गाथाके पूर्वार्ध-द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-उदीरणा-विषयक भुजाकार अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा की गई है । गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा भुजाकार-विपयक कालानुयोगद्वारकी सूचना की गई है। और इसी देशामर्शक वचनसे शेप समस्त अनुयोगद्वारोका भी संग्रह करना चाहिए। तथा इसीके द्वारा ही पदनिक्षेप और वृद्धि भी कही गई समझना चाहिए , क्योकि भुजाकारके विशेपको पदनिक्षेप और पदनिक्षेपके विशेपको वृद्धि कहते है। जो जीव स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्र में जिसे संक्रमण करता है, जिसे चाँधता है और जिसकी उदीरणा करता है, वह द्रव्य किससे अधिक होता है (ओर किससे कम होता है )? ॥६२॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] प्रकृतिस्थान- उदीरणा - निरूपण ४६७ ४. तत्थ पढमिल्लगाहा पयडि- उदीरणाए पयडि - उदय च वद्धा । ५. कदि आवलियं पवेसेदित्ति एस गाहाए पढमपादो पयडिउदीरणाए । ६. एदं पुण सुतं पयडिट्ठाण - उदीरणाए बद्ध । ७ एदं ताव ठवणीयं । ८. एगेगपयडिउदीरणा दुविहा- एगे मूलपडिउदीरणा च एगेगुत्तरपयडिउदीरणा च । ९. एदाणि वेवि पत्तेगं चउवीस मणियोगद्दारेहिं मग्गिऊण । १०. तदो पयडिडाणउदीरणा कायव्वा । विशेषार्थ - यह गाथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश -विषयक बंध, संक्रमण, उदय, उदीरणा तथा सत्तासम्बन्धी जघन्य उत्कृष्ट पदविशिष्ट अल्पबहुत्वका निरूपण करती है । प्रकृति के विना स्थिति, अनुभाग और प्रदेशवंधादिका होना असंभव है, अतः यहॉपर 'प्रकृति' पद अनुक्त सिद्ध है | गाथा - पठित 'जो जं संकामेदि' पदसे 'संक्रमण', 'जं बंधदि' पदसे बंध और सत्त्व तथा 'जं च जो उदीरेदि' पदसे उदय और उदीरणाकी सूचना की गई है। अब यतिवृषभाचार्य उक्त चारो सूत्र - गाथाओका क्रमशः व्याख्यान करते हुए पहले प्रथम गाथाका व्याख्यान करते है चूर्णि सू० ० - उक्त चारो सूत्र - गाथाओमे से पहली गाथा प्रकृति- उदीरणा और प्रकृतिउदयमे निबद्ध है, अर्थात् इन दोनोका निरूपण करती है । 'कदि आवलियं पवेसेदि' गाथा - का यह प्रथम पाद प्रकृति - उदीरणासे प्रतिबद्ध है । किन्तु यह सूत्र प्रकृतिस्थान - उदीरणासे सम्बद्ध है और इसे स्थगित करना चाहिए ॥४-७॥ विशेषार्थ - प्रकृति- उदीरणा दो प्रकारकी है - मूलप्रकृति - उदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदीरणा । इनमे उत्तरप्रकृति - उदीरणा भी दो प्रकार की है- एकैकोत्तर प्रकृति - उदीरणा और प्रकृतिस्थान-उदीरणा । उक्त सूत्र इसी प्रकृतिस्थान - उदीरणासे सम्बद्ध है, अन्यसे नही, यह अभिप्राय जानना चाहिए । यहॉ चूर्णिकार इस प्रकृतिस्थान - उदीरणाका वर्णन स्थगित करते हैं, क्योंकि एकैकप्रकृति-उदीरणाकी प्ररूपणा के विना उसका निरूपण करना असम्भव है । चूर्णिसू० - एकैकप्रकृति- उदीरणा दो प्रकारकी है - एकैकमूलप्रकृति- उदीरणा और एकैकोत्तरप्रकृति- उदीरणा । इन दोनो ही प्रकारकी उदीरणाओको पृथक्-पृथक् चौवीस अनुयोगद्वारोसे अनुमार्गण करके तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान- उदीरणाका वर्णन करना चाहिए ॥ ८-१० ॥ विशेषार्थ - गणधर प्रथित पेज्जदोसपाहुडमे एकैकप्रकृति - उदीरणा के दोनो भेदोका समुत्कीर्तनासे आदि लेकर अल्पबहुत्व - पर्यन्त चौबीस अनुयोगद्वारोसे विस्तृत वर्णन किया गया है । चूर्णिकार कसायपाहुडकी रचना संक्षिप्त होने के कारण अपनी चूर्णिने भी वैसा विस्तृत वर्णन न करके व्याख्यानाचार्योंके लिए उसे वर्णन करनेका संकेत करके तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान - उदीरणाके व्याख्यान करनेके लिए कह रहे हैं । एक समयमे जितनी प्रकृतियोकी उदीरणा करना सम्भव है, उतनी प्रकृतियोंके समुदायको प्रकृतिस्थान- उदीरणा कहते है I Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक- अर्थाधिकार ११. तत्थ द्वाणसमुक्कित्तणा । १२. अस्थि एकिस्से पयडीए पवेसगो । १३. दोन्हं पयडीणं पवेसगो । १४. तिन्हं पयडीणं पवेसगो णत्थि । १५. चउण्हं पडीणं पवेसगो । १६. एत्तो पाए निरंतरमत्थि जाव दसहं पयडीणं पवेसगो । चूर्णिसू० - उसमे यह स्थानसमुत्कीर्तना है ॥ ११ ॥ विशेषार्थ - प्रकृतिस्थान - उदीरणाका वर्णन चूर्णिसूत्रकार समुत्कीर्तना आदि सत्तरह अनुयोगद्वारोसे करते हुए पहले समुत्कीर्तनासे वर्णन करते है । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है - स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिसमुत्कीर्तना । इन दोनोंमेंसे पहले स्थानसमुत्कीर्तनाके द्वारा प्रकृति - उदीरणा कही जाती है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए । ૪૬૮ ० - एक प्रकृतिका प्रवेश करनेवाला होता है ॥१२॥ चूर्णिस् विशेपार्थ - तीनो वेदो में से किसी एक वेद और चारो संज्वलन कपायोमे से किसी एक कपायके उदयसे क्षपकश्रेणी या उपशमश्रेणीपर आरूढ़ हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थिति के आवलिमात्र शेप रह जानेपर वेदकी उदीरणा होना वन्द हो जाती है, तब वह उपशामक या क्षपक जीव एक संव्वलनप्रकृति की उदीरणा करनेवाला होता है । चूर्णिसू० - दो प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला होता है ॥ १३॥ 0 विशेषार्थ - 3 - उपशम और क्षपकश्रेणीमे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम समयसे लगाकर समयाधिक आवलीमात्र वेदकी प्रथमस्थिति रहनेतक तीनों वेदोमे किसी एक वेद और चारों संज्वलनकषायोमेंसे किसी एक कपायकी उदीरणा करनेवाला होता है । चूर्णिसू० - तीन प्रकृतियो का प्रवेश करनेवाला नहीं होता || १४ || विशेषार्थं - क्योंकि, पूर्वोक्त दो प्रकृतियोकी उदीरणा होनेके पूर्व अपूर्वकरणगुणस्थानमें हास्य-रति और अरति शोक इन दो युगलो में से किसी एक युगल के युगपत प्रवेश होनेसे तीन प्रकृतियो की उदीरणारूप स्थान नही पाया जाता । [० - चार प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला होता है ॥ १५॥ चूर्णिसू० विशेषार्थ - औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानमे हास्य - रति और अरति-शोक युगलमेसे किसी एक युगलके साथ किसी एक वेद और किसी एक संज्वलनकपाय इन चार प्रकृतियोकी एक साथ उदीरणा करता है । चूर्णि सू० - यहाँसे लेकर निरन्तर दश प्रकृतियोंतकका प्रवेश करनेवाला होता है ॥ १६॥ विशेषार्थ - उपर्युक्त चार प्रकृतियोकी उदीरणाके स्थानसे लगाकर निरन्तर अर्थात लगातार दश प्रकृतिरूप स्थान तक मोहप्रकृतियोंकी उदीरणा करता है । अर्थात् उक्त चार प्रकृतिरूप उदीरणास्थानमे भय, जुगुप्सा, किसी एक प्रत्याख्यानावरण कपाय अथवा सम्यक्त्वप्रकृति, इन चारोमें से किसी एकके प्रवेश करनेपर पॉच प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है । उक्त स्थान में किसी एक अप्रत्याख्यानावरण कपायके प्रवेश करनेपर छह प्रकृतिरूप Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] प्रकृतिस्थान-उदीरणा-भंग-निरूपण १७. एदेसु हाणेसु पयडिणिद्देसो काययो भवदि । १०.एयपयडिं पवेसेदि सिया कोहसंजलणं वा, सिया माणसंजलणं वा, सिया मायासंजलणं, सिया लोभसंजलणं वा । १९. एवं चत्तारि भंगा । २०. दोण्हं पयडीणं पवेसगस्स वारस भंगा। उदीरणास्थान होता है । उक्त छह प्रकृतिरूप स्थानमे सम्यग्मिथ्यात्व या किसी एक अनन्तानुबन्धीकषायके प्रवेश करनेपर सात प्रकृतिरूप उदीरणास्थान हो जाता है। इसीमे सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धीकषाय इन दोनोके साथ मिथ्यात्वके और मिलानेपर आठ प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृति, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलनसम्बन्धी क्रोधादिचतुष्कमें से कोई एक त्रिक, कोई एक वेद, हास्यादि युगलद्वयमेंसे कोई एक युगल और भय और जुगुप्साकी उदीरणा करनेवालेके नौ प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिके स्थानपर मिथ्यात्वको लेकर तथा अनन्तानुबन्धी किसी एक कषायके और मिला देनेपर दश प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है । चूर्णिसू०-इन उपर्युक्त उदीरणास्थान में प्रकृतियोका निर्देश करना चाहिए ॥१७॥ विशेषार्थ-किन-किन प्रकृतियोको लेकर कौन-सा स्थान उत्पन्न होता है, इस बातका निर्देश करना आवश्यक है, अन्यथा उदीरणास्थान-विषयक ठीक ज्ञान नहीं हो सकेगा । प्रकृतियोका निर्देश ऊपरके विशेषार्थमे किया जा चुका है। चूर्णिसू०-एक प्रकृतिका प्रवेश करता है-कदाचित् क्रोध संज्वलनका, कदाचित् मानसंज्वलनका, कदाचित् मायासंज्वलनका और कदाचित् लोभसंज्वलन का। इस प्रकार चार भंग होते है ॥१८-१९॥ विशेषार्थ-जो जीव एक प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करते हैं, उनके चार विकल्प होते हैं। जो जीव संज्वलन क्रोधकषायके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़ा है, वह वेदकी प्रथम स्थितिके आवलिमात्र अवशिष्ट रह जानेपर एक संज्वलनक्रोधकी ही उदीरणा करेगा। इसी प्रकार मान, माया और लोभकपायके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उक्त समयपर एक मान, माया अथवा लोभकपायकी ही उदीरणा करेगा । इस प्रकार एक प्रकृतिरूप उदीरणास्थानके चार भंग हो जाते है । चूर्णिसू०-दो प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालेके वारह भंग होते है ॥२०॥ विशेषार्थ-तीनो वेदोके साथ चारो संज्वलनकपायोके अक्ष-परिवर्तनसे बारह भंग होते हैं । अर्थात् पुरुषवेदके साथ क्रमशः संज्वलन क्रोध, मान, माया अथवा लोभकी उदीरणा करनेपर चार भंग, स्त्रीवेदके साथ संज्वलन क्रोध, मान, माया अथवा लोभकी उदीरणा करनेपर चार और नपुंसकवेदके साथ संज्वलन क्रोध, मान, माया अथवा लोभकी उदीरणा करनेपर चार भंग होते है । इस प्रकार दो प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालोके सव मिलानेपर (४+४+४=१२) वारह भंग होते है। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार २.१. चउण्हं पयडीणं पवेसगस्स चवीस भंगा । २२. पंचण्हं पयडीणं पचेसगस्स चत्तारि चउवीस भंगा । २३. छण्हं पयडीणं पसगस्स सत्त-चउवीस भंगा। चूर्णिसू०-चार प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालेके चौवीस भंग होते है ॥२१॥ विशेपार्थ-हास्य-रति और अरति शोक युगलमेंसे किसी एक युगलके साथ किसी एक वेद और किसी एक संज्वलनकपायकी उदीरणा करनेपर चार प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है। अतएव उपर्युक्त बारह भंगोकी उत्पत्ति हास्य-रति युगलके साथ भी संभव है और अरति-शोक युगलके साथ भी । इस प्रकार चार प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले जीवके (१२४ २-२४ ) चौबीस भंग होते है । चूर्णि सू०-पॉच प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालेके चार-गुणित चौवीस भंग होते है ॥२२॥ विशेपार्थ-उक्त चार प्रकृतिरूप उदीरणास्थानमे भय, जुगुप्सा, सम्यक्त्वप्रकृति, अथवा किसी एक प्रत्याख्यानकपायके प्रवेश करनेपर पॉच प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है । अतः उपर्युक्त चौवीस भंगोको क्रमशः इन चारो प्रकृतियोकी उदीरणाके साथ मिलानेपर चार-गुणित चौवीस अर्थात् ( २४४४९६) च्यानवे भंग होते है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-भयप्रकृतिकी उदीरणाके साथ उपयुक्त २४ भंग, जुगुप्साप्रकृतिकी उदीरणा के साथ २४ भंग, भय और जुगुप्साको छोड़कर सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदीरणाके साथ २४ भंग, इस प्रकार ७२ भंग तो प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतोके होते है । तथा क्षायिकसम्यग्दृष्टि, अथवा औपशमिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतके भय-जुगुप्साके विना प्रत्याख्यानकपायके प्रवेशसे २४ भंग और होते है। इसप्रकार सव मिलाकर पॉच प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले जीवके ( ७२+२४=९६ ) छ्यानवे भंग होते हैं । - चूर्णिसू०-छह प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालेके सात गुणित चौवीस भंग होते है ॥२३॥ विशेषार्थ-उपर्युक्त पॉच प्रकृतिरूप उदीरणास्थानमें भय, जुगुप्सा या अप्रत्याख्यानावरण कपायके मिलानेपर छह प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है। इस स्थानके सातगुणित चौवीस अर्थात् (२४ x ७=१६८) एकसौ अड़सठ भंग होते हैं। वे इस प्रकार हैं-औपशमिकसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतके भय और जुगुप्साप्रकृतिकी उदीरणाके साथ उपयुक्त प्रथम २४ भंग, वेदकसम्यग्दृष्टि संयतके भयके विना केवल जुगुप्साप्रकृतिके साथ द्वितीय २४ भंग, उसीके जुगुप्साके विना केवल भयप्रकृतिके साथ तृतीय २४ भंग, इस प्रकार संयतके आश्रयसे तीन चौबीस (२४+२४+२४-७२) भंग होते हैं । पुनः औपशमिक या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतके जुगुप्साके विना प्रत्याख्यानावरण कपायके किसी एक भेदके साथ भयप्रकृतिका वेदन करनेपर चतुर्थ २४ भंग होते हैं। इसी जीवके भयके विना किसी एक प्रत्याख्यानावरण कपाय और जुगुप्साके साथ पंचम Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] प्रकृतिस्थान-उदीरणा-भंग-निरूपण ४७१ . २४. सत्तण्हं पयडीणं पवेसगस्स दस-चउवीस भंगा। २५. अट्टण्हं पयडीणं पवेसगस्स एकारस-चउवीस भंगा। २४ भंग, भय-जुगुप्साके उदयसे रहित वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतके किसी एक अप्रत्याख्यानावरणकषायकी उदीरणा करनेपर पष्ठ २४ भंग तथा औपशमिक या क्षायिकसम्यक्त्वी असंयतसम्यग्दृष्टिके भय-जुगुप्साके विना किसी एक अप्रत्याख्यानावरण कपायकी उदीरणा करनेपर सप्तम २४ भंग होते है । इस प्रकार सब मिलकर छह प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालोके एकसौ अड़सठ (१६८) भंग होते हैं । चूर्णिसू०-सात प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवालेके दस-गुणित चौबीस भंग होते है ॥२४॥ विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वी प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतके सम्यक्त्वप्रकृति, किसी एक संज्वलनकषाय, किसी एक वेद, हास्य, अरति युगलमेसे किसी एक युगल, भय और जुगुप्साके आश्रयसे प्रथम २४ भंग उत्पन्न होते है। औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतके किसी एक प्रत्याख्यानावरणकषाय, भय और जुगुप्साके साथ द्वितीय २४ भंग, वेदकसम्यक्त्वी संयतासंयतके सम्यक्त्वप्रकृति और भयप्रकृतिके साथ तृतीय २४ भंग, उसीके भयक विना और जुगुप्साके साथ चतुर्थ २४ भंग होते हैं। औपशमिक या क्षायिकसम्यक्त्वी असंयतसम्यग्दृष्टिके भय और किसी एक अप्रत्याख्यानावरणकषायके साथ पंचम २४ भंग उसीके भयके विना और जुगुप्साके साथ पष्ठ २४ भंग तथा वेदकसम्यक्त्वी असंयतसम्यग्दृष्टिके भय-जुगुप्साके विना और सम्यक्त्वप्रकृतिके साथ सप्तम २४ भंग होते हैं। सम्यग्मिथ्याष्टिके भय-जुगुप्साके विना सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके साथ अष्टम २४ अंग, सासादनसम्यग्दृष्टिके भय-जुगुप्साके विना किसी एक अनन्तानुबन्धी कषायके प्रवेशसे नवम २४ भंग और संयुक्त प्रथमावलीमें वर्तमान मिथ्यादृष्टिके अनन्तानुबन्धी, भय, जुगुप्साके विना दशम २४ भंग होते है। इसप्रकार सव मिलाकर (२४४ १०२४०) दो सौ चालीस भंग सात प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालेके होते है। चूर्णिसू०-आठ प्रकृतियोकी उदारणा करनेवालेके ग्यारह गुणित चौवीस भंग होते है ॥२५॥ विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वी संयतासंयतके सम्यक्त्वप्रकृति, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनसंबंधी एक-एक कषाय, कोई एक वेद, हास्यादि दो युगलमें से एक भय और जुगुप्सा इन आठ प्रकृतियोकी उदीरणा होती है, अतः इनकी अपेक्षा प्रथम २४ भंग, औपशमिक या क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयतके सम्यक्त्वप्रकृतिके विना और अप्रत्याख्यानावरणके साथ उन्ही प्रकृतियोके ग्रहण करनेपर द्वितीय २४ भंग, वेदकसम्यक्त्वी असंयतके जुगुप्साके विना और भयके साथ तृतीय २४ भंग, भयके विना और जुगुप्साके साथ चतुर्थ २४ भंग, सम्यग्मिथ्याष्टिके जुगुप्साके विना और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके साथ पंचम २४ भंग, Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुच [ ६ वेदक अर्थाधिकार १२ २६. णवण्हं पयडीणं पवेसगस्स छ - चदुवीस भंगा" । २७. दसहं पयडीणं पवेसगस्स एक्क-चदुवीस भंगा " । २८. एदेसि भंगाणं गाहा दसण्हमुदीरणङ्काणमादिं कादू । २९. जहा ४७२ उसीके भयके विना और जुगुप्साके साथ षष्ठ २४ भंग होते हैं । भयकी उदीरणा करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि के जुगुप्साके विना तथा अनन्तानुबन्धी किसी एक कपाय के प्रवेश से सप्तम २४ भंग, उसीके भयके विना जुगुप्साकी उदीरणा करनेपर अष्टम २४ भंग, संयुक्त प्रथमावलीमें वर्तमान मिथ्यादृष्टिके भय के साथ मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेपर नवम २४ भंग, भयके विना और जुगुप्सा के साथ मिध्यात्वकी उदीरणा करनेवाले उक्त मिथ्यादृष्टिके दशम २४ भंग, तथा भय और जुगुप्साके विना अनन्तानुबन्धी किसी एक कषायके साथ मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेवाले उक्त जीवके एकादशम २४ भंग होते है । इस प्रकार आठ प्रकृतियोकी उदीरणारूप स्थानके सब मिलाकर (२४ ११ = २६४) दो सौ छयासठ भंग होते हैं । चूर्णिसु० - नौ प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले के छह गुणित चौवीस भंग होते है ॥२६॥ विशेषार्थ - सम्यक्त्वप्रकृति, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण, संब्वलनसम्बन्धी क्रोधादि चतुष्टयमेसे कोई एक कषाय, तीनो वेदोमेसे कोई एक वेद, हास्य- रति और अरति शोक में से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा इन नौ प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले असंयत वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रथम २४ भंग होते है । उक्त प्रकृतियोमेंसे सम्यक्त्वप्रकृतिको निकालकर और सम्यग्मिथ्यात्वको मिलाकर उसकी उदीरणा करनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि के द्वितीय २४ भंग होते है | सम्यग्मिथ्यात्वके स्थानपर किसी एक अनन्तानुवन्धी के प्रवेश करनेपर उसकी उदीरणा करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि के तीसरे प्रकारसे २४ भंग होते हैं । अनन्तानुबन्धीके स्थान - पर मिथ्यात्वप्रकृति के प्रवेश करनेपर संयुक्त प्रथमावलीवाले मिथ्यात्व के साथ उपयुक्त आठ प्रकृतियो की उदीरणा करनेवाले मिध्यादृष्टिके चतुर्थ २४ भंग, उसीके अनन्तानुवन्धी किसी एककी भयके विना जुगुप्साके साथ उदीरणा करनेपर पंचम २४ भंग, उसीके जुगुप्सा के विना भयके साथ उक्त प्रकृतियो की उदीरणा करनेवालेके छठे प्रकारसे २४ भंग होते है । इस प्रकार सब भंगोका योग ( २४x६ = १४४ ) एकसौ चवालीस होता है । चूर्णिसू०–दश प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले के एक ही प्रकारसे चौवीस भंग होते हैं ॥२७॥ विशेषार्थ - मिध्यात्व, अनन्तानुबन्ध्यादिचतुष्टयमेंसे कोई एक कपायचतुष्क, तीन वेदोमे से कोई एक वेद, हास्यादि युगलद्वयमे से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, इन दश प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके २४ भंग होते हैं । यहाँ अन्य किसी विकल्प के संभव न होनेसे एक ही प्रकारसे चौवीस भंग कहे गये हैं । चूर्णिसू०- ० - दश प्रकृतियोके उदीरणास्थानको आदि लेकरके ऊपर बतलाये गये भंगाकी निरूपण करनेवाली गाथा इस प्रकार है ।। २८-२९ ॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ गा० ६२] वेदक-स्वामित्व-निरूपण "एक्कग छक्के कारस दस सत्त चउक्क एकगं चेव । दोसु च बारस भंगा एक्कम्हि य होति चत्तारि" ॥१॥ ३०. *सामित्तं । ३१. सामित्तस्स साहणट्ठमिमाओ दो सुत्तगाहाओ । ३२. तं जहा। "सत्तादि दसुक्कस्सा मिच्छत्ते मिस्सए णवुक्कस्सा । छादी णव उक्कस्सा अविरदसम्मे दु आदिस्से ॥२॥ पंचादि-अहणिहणा विरदाविरदे उदीरणहाणा । एगादी तिगरहिदा सत्तुक्कस्सा च विरदेसु" ॥३॥ ३३. एदासु दोसु गाहासु विहासिदासु सामित्तं समत्तं भवदि । "दशप्रकृतिरूप स्थानके भंग एक, नौप्रकृतिरूप स्थानके छह, आठप्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह, सातप्रकृतिरूप स्थानके दश, छहप्रकृतिरूप स्थानके सात, पॉचप्रकृतिरूप स्थानके चार, चारप्रकृतिरूप स्थानके एक, दोप्रकृतिरूप स्थानके बारह और एकप्रकृतिरूप स्थानके चार भंग होते है" ॥१॥ विशेषार्थ-उक्त स्थानोके भंगोकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है १ ६ ११ १० ७ ४ १ १२ ४ इन सब भंगोका योग (२४+१४४+२६४+२४०+१६८+९६+२४+१२+ ४=९७६) नौ सौ छिहत्तर होता है । चूर्णिसू०-अब उपयुक्त उदीरणास्थानोके स्वामित्वका वर्णन करते है। स्वामित्वके साधन करनेके लिए ये दो सूत्रगाथाएँ है । वे इस प्रकार है ॥३०-३२॥ “सातसे आदि लेकर दश तकके चार उदीरणास्थान मिथ्यादृष्टिके होते है । सातसे आदि लेकर नौ तकके तीन उदीरणास्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होते है। (ये ही तीन स्थान सासादनसम्यग्दृष्टिके भी होते हैं, किन्तु उसके सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके स्थानपर किसी एक अनन्तानुबन्धी कषायकी उदीरणा होती है।) छहसे आदि लेकर नौ तकके चार उदीरणास्थान अविरतसम्यग्दृष्टिके होते हैं। पॉचसे आदि लेकर आठ तकके चार उदीरणास्थान विरताविरत श्रावकके होते हैं। एकसे आदि लेकर मध्यमे तीन रहित सात तकके छह स्थान संयतोमें होते है" ॥२-३॥ चूर्णिसू०-इन दोनो गाथाओकी व्याख्या करनेपर स्वामित्व समाप्त होता है ॥३३॥ *ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्रके पूर्व पत्थ सादि-अणादि-धुव-अर्धवाणुगमो ताव कायव्यो' यह एक और सूत्र मुद्रित है ( देखो पृ० १३६३ )। पर प्रकरणको देखते हुए वह सूत्र नही, अपि तु टीकाका ही अंग प्रतीत होता है, क्योंकि चूर्णिकारने कहीं भी सादि आदि अनुयोगद्वारोंको नहीं कहा है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ फसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार ३४. एयजीवेण कालो । ३५. एक्किस्से दोण्हं चदुण्हं पंचण्हं छहं सत्तण्हं अट्ठण्हं णवण्हं दसण्हं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि १३६. जहण्णेण एयसमओ । ३७. उक्कस्सेणंतोमुहुत्तं । ३८. एगजीवेण अंतरं । ३९. एकिस्से दोहं चउण्हं पयडीणं पवेसर्गतरं केवचिरं कालादोहोदि ? ४०. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ४१. उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । ४२. पंचण्हं छण्हं सत्तण्हं पयडीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि १४३. जहण्णेण एयसमओ । ४४. उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । ४५. अट्टण्हं णवण्हं पयडीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ४६. जहण्णेण एयसमयो । ४७. उक्कस्सेण पुन्चकोडी देसूणा । ४८. दसण्हं पयडीणं पवेसगस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ४९. जहपणेण अंतोमुहत्तं । ५०. उक्कस्सेण वे छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ५१. णाणाजीवेहि भंगविचयो । ५२. सव्वजीवा दसहं णवण्हमढण्ठं सत्तण्हं चूर्णिसू०-अव एक जीवकी अपेक्षा उदीरणास्थानोके कालका वर्णन करते हैं ॥३४॥ शंका-एक, दो, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ और दश प्रकृतियोकी उदीरणाका कितना काल है ? ॥३५॥ समाधान-जघन्यकाल समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।।३६-३७॥ चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा उदीरणा-स्थानोके अन्तरका वर्णन करते हैं ॥३८॥ शंका-एक, दो और चार प्रकृतिरूप उदीरणा स्थानोका अन्तर काल कितना है ? ॥३९॥ . समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥४०-४१॥ शंका-पांच, छह और सात प्रकृतिरूप उदीरणा-स्थानोका अन्तरकाल कितना है ? ॥४२॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥४३-४४॥ शंका-आठ और नौ प्रकृतिरूप उदीरणा-स्थानोका अन्तरकाल कितना है ? ॥४५॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल देशोन पूर्वकोटी वर्ष है ॥४६-४७॥ शंका-दश प्रकृतिरूप उदीरणास्थानका अन्तरकाल कितना है ? ॥४८॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो वार छयासठ सागरोपम है।४९.५०॥ चूर्णिसू०-अव नाना जीवीकी अपेक्षा उदीरणास्थानोका भंगविचय कहते हैं-सर्व Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदक- सन्निकर्ष-निरूपण छह पंचहं चदुण्हं णियमा पवेसगा । ५३. दोन्हमेक्किस्से पवेसगा भजियव्वा । ५४. णाणाजीवेहि कालो । ५५. एक्किस्से दोहं पवेसगा केवचिरं कालादो होंति ९ ५६. जहणेण एयसमओ । ५७. उक्कस्सेण अंतोमुद्दत्तं । ५८, सेसाणं पयडीणं पवेसगा सव्वद्धा । मा० ६२ ] " ४७५ ५९. णाणाजीवेहि अंतरं । ६०, एकिस्से दोहं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि ९ ६१. जहणेण एयसमओ । ६२. उक्कस्सेण छम्मासा । ६३. सेसाणं पयडीणं पवेसगाणं णत्थि अंतरं । ६४. सण्णियासो | ६५. एकिस्से पवेसगो दोण्हमपवेसगो । ६६. एवं सेसाणं 1 जीव नियमसे दश, नौ, आठ, सात, छह, पॉच और चार प्रकृतिरूप स्थानोकी उदीरणा करनेवाले सर्व काल पाये जाते है । ( क्योकि, नाना जीवोकी अपेक्षा उक्त स्थानोकी उदीरणा करनेवाले जीवोंका कभी विच्छेद नही पाया जाता । ) किन्तु दो और एक प्रकृर्तिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले जीव भजितव्य हैं । ( क्योकि, उपशम और क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाले जीव सदा नहीं पाये जाते । ) ॥ ५१-५३॥ चूर्णि सू० - अबे नाना जीवोकी अपेक्षा उदीरणास्थानोंका काल कहते हैं ॥५४॥ शंका- एक और दो प्रकृतिरूप स्थानोंकी उदीरणा करनेवाले जीवोका कितना काल है ? ॥५५॥ समाधान - जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ( क्योंकि, उपशम या क्षपकश्रेणीका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है ) शेष प्रकृतिरूप स्थानोकी उदीरणा करनेवाले सर्व काल पाये जाते हैं ।। ५६-५८॥ चूर्णिसू०- ० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा उदीरणास्थानोका अन्तर कहते हैं ॥ ५९ ॥ शंका- एक और दो प्रकृतिरूप उदीरणास्थानोका अन्तरकाल कितना है ? ॥६०॥ समाधान- जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है । क्योंकि, क्षपकश्रेणीका उत्कृष्ट विरहकाल छह मास होता है | ) ॥ ६१-६२॥ चूर्णिसू० - शेष प्रकृतिरूप उदीरणास्थानोका अन्तर नही होता ( क्योकि, उनकी उदीरणा करनेवाले जीव सर्वकाल पाये जाते हैं । ) ॥ ६३ ॥ चूर्णिस् ० ( ० - अब उदीरणास्थानोके सन्निकर्षका वर्णन करते हैं - एक प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाला दो प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा नही करता है । ( क्योकि स्वामि-भेदकी अपेक्षा दोनों परस्पर विरोधी स्वभाववाले है । ) इसीप्रकार शेप उदीरणास्थानोका सन्निकर्ष जानना चाहिए || ६४-६६॥ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पवेसगा केवचिरं कालादो होदि' ऐसा पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १३७२ ) Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक अर्थाधिकार ६७. अप्पाबहुअं । ६८. सव्वत्थोवा एक्किस्से पवेसगा' । ६९. दोन्हं पवेसगा संखेज्जगुणा' । ७०. चउन्हं पयडीणं पवेसगा संखेज्जगुणा । ७१. पंचन्हं पयडीणं पवेसगा असंखेज्जगुणा । ७२. छहं पयडीणं पवेसगा असंखेज्जगुणा । ७३ सत्तण्हं पयडीणं पवेसगा असंखेज्जगुण । ७४. दसहं पयडीणं पवेसगा अनंतगुणाँ । ७५. णवण्हं पयडीणं पवेसगा संखेज्जगुण । ७६. अट्टहं पयडीणं पवेसगा संखेज्जगुणा' । ७७. णिरयगदीए सव्वत्थोवा छण्हं पयडीणं पवेसगा । ७८. सत्तण्हं पयडीणं चूर्णिसू० ( ७ - अब उदीरणास्थानोका अल्पबहुत्व कहते है - एक प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले सबसे कम है । एक प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे दो प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले संख्यातगुणित हैं । दो प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे चार प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले संख्यातगुणित है । चारप्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे पाँच प्रकृतिरूप स्थानकी उरण करनेवाले असंख्यातगुणित हैं | पाँचप्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे छह प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले असंख्यातगुणित है । छह प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे सात प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले असंख्यातगुणित है । सात प्रकृतिरूपस्थान के उदीरकोंसे दश प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले अनन्तगुणित है । दशप्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे नौ प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाले संख्यातगुणित हैं। नौ प्रकृतिरूपस्थानके उदीरको से आठ प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले संख्यातगुणित है ॥ ६७-७६॥ ४७६ चूर्णिसू० - नरकगतिमे छह प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले सबसे कम हैं । छह प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे सात प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले असंख्यातगुणित है | १ कुदो, सुहुमसा पराइयद्धाए अणियट्टियद्धासखेजदिभागे च सचिदखवगोवसामगजीवाणमिहग्गहणादो | जयध० २ कुदो; अणि पिढमसमयप्पहुडि तदद्वाए सस्तेजेसु भागेसु सचिदखवगोवसा मगजीवाणमिहावलवणादो | जयघ ३ किं कारण; उवसम खइय सम्माइट्टिस्स पमत्तापमत्तसजदाणमपुव्वकरणखवगोवसामगाण च भयदुगु छोदयविरहिदाणमेत्थ गहणादो | जयध० ४ कुदो, उवसम खइयसम्मा इट्रिग्सजदा सजदरा सिस्स मखेनाण भागाणमेत्थ पहाणभावेणावलचि यत्तादो | जयध० ५ कुदो; वेदगसम्माइदिनुसंजदासजदाणं संखेजेहि भागेहि सह उवसम खइयसम्माइदिट- असजद - रासस संखेजाण भागाणमिह पहाणभावदसणादो | जयध० ६ कुदो, खइयसम्माइट्ठीण सखेजदिभागेण सह वेदगसम्माटि अमजदरासिस्त सखेजाग भागाणमिह पहाणत्तदसणादो । जयध० ७ कुदो; मिच्छाइट्ठिरासिस्स सखेजदिभागपमाणत्तादो | जयध ० ८ कुदो; भय-दुगुछाण दोण्ट पि समुदिदाणमुदयकालादो अष्णदर विरहिदकालस्स ससेजगुणत्तोवसादो | जयघ ९ किं कारण, अण्णदरविरहकालादो टोव्ह हि विरहिदकालरस सखेजगुणत्तावलवणादो । जयध० १० किं कारण, उवसम खइयसम्माइट्रिटजीवाण पलिदोवमासखेज भागवमाणाणमिह गणादो । जयभ० Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] वेदक-भुजाकार-अर्थपद-निरूपण पवेसगा असंखेज्जगुणा' । ७९. दसण्हं पयडीणं पवेसगा असंखेज्जगुणा'। ८०. णवण्हं पयडीणं पसगा संखेज्जगुणा । ८१. अट्ठण्हं पयडीणं पवेसगा संखेज्जगुणा । प्रकृतिस्थान-उदीरणा समत्ता । ८२. एत्तो भुजगार-पवेसगो । ८३. तत्थ अट्ठपदं कायव्वं । ८४. तदो सात प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे दश प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले असंख्यातगुणित है। दश प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे नौ प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले संख्यातगुणित है । नौ प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकोसे आठ प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले संख्यातगुणित है । (इसी प्रकार शेप गतियोमें और अवशिष्ट मार्गणाओमे अल्पवहुत्व जानना चाहिए। )।।७७-८१।। इस प्रकार प्रकृतिस्थान-उदीरणाका वर्णन समाप्त हुआ। चूर्णिसू०- अब इससे आगे भुजाकार-उदीरणा कहते है। उसमें पहले अर्थपदकी प्ररूपणा करना चाहिए ॥८२-८३॥ विशेषार्थ-भुजाकार उदीरककी प्ररूपणा करनेके पूर्व अर्थपदकी प्ररूपणा करना आवश्यक है, अन्यथा भुजाकार आदि पद-विशेपोका निर्णय नहीं हो सकता है । चूर्णिकारने भुजाकार आदि पदोकी अर्थपद-प्ररूपणा स्वयं न करके व्याख्यानाचार्योंके लिए इस सूत्र द्वारा सूचनामात्र कर दी है। अतः जयधवला टीकाके आधारपर वह यहाँ की जाती हैअनन्तर-अतिक्रान्त समयमे स्तोकतर (थोड़ी-सी) प्रकृतियोकी उदीरणा करके वर्तमान समयमे उससे अधिक प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवालेको भुजाकार-उदीरक कहते है। अनन्तर-अतीत समयमे बहुतर (बहुत अधिक) प्रकृतियोंकी उदीरणा करके वर्तमान समयमे उससे अल्प प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले जीवको अल्पतर-उदीरक कहते हैं। अनन्तर-अतीत समयमे जितनी प्रकृतियोकी उदीरणा कर रहा था, उतनी ही प्रकृतियोकी वर्तमान समयमे भी उदीरणा करनेवालेको अवस्थित-उदीरक कहते है । अनन्तर-अतिक्रान्त समयमे एक भी प्रकृतिकी उदीरणा न करके जो इस वर्तमान समयमे उदीरणा करना प्रारम्भ करता है, उसे अवक्तव्यउदीरक कहते है। इस अर्थपदके द्वारा स्वामित्वका निर्णय करना चाहिए । १ कुदो; वेदयसम्माइट्ठिरासिस्स पहाणभावेणेत्थ विवक्खियत्तादो । जयध' २ किं कारण, भय-दुगुछोदयसहिदमिच्छाइट्ठिरासिस्स विवक्खियत्तादो । जयध० ३ कुदो, भय-दुगुछाणमण्णदरोदयविरहिदकालम्मि दोण्हमुदयकालाटो सखेजगुणम्मि सचिदत्तादो। जयध० ४ कुदो; अण्णदरविरहिदकालादो सखेजगुणम्मि दोण्ह विरहिदकालसचिदत्तादो । जयध० ५ त जहा-अण्तरादिक्कतसमए थोवयरपयडिपवेसादो एण्हि बहुदरियाओ पयडीओ पवेसेदि त्ति एसो भुजगारपवेसगो । अण तरवदिक्कतसमए बहुदरपयडिपवेसादो एम्हि थोवयरपयडीओ पवेसेदि त्ति एसो अप्पदरपवेसगो। अणतरविदिक्कतसमए एहि च तत्तियाओ चेव पयडीओ पवेसेदि त्ति एसो अवटिपवे. सगो। अणतरविदिक्कतसमए अपवेसगो होदूण एण्हि पवेसेदि त्ति एस अवत्तव्यपवेसगो । जयध Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ कसाय पाहुड सुन्त [ ६ वेदक अर्थाधिकार सामित्तं । ८५. भुजगार - अप्पदर - अवद्विदपवेसगो को होड़ १८६ अण्णदरो । ८७. अवत्तव्यवेगो को होइ १ ८८. अण्णदरो उवसामणादो परिवदमाणगो' । ८९. एगजीवेण कालो । ९० भुजगारपवेसगो केवचिरं कालादो होदि १९१. जहणेण एयसमओ । ९२. उक्कस्सेण चत्तारि समया । चूर्णिसू०. (० - अव सुजाकार - उदीरणाके स्वामित्वका वर्णन करते है ॥ ८४ ॥ शंका- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणा करनेवाला कौन है ? || ८५ ॥ समाधान - कोई एक मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव है ॥ ८६ ॥ शंका- अवक्तव्य - उदीरणा करनेवाला कौन जीव है ? ॥ ८७ ॥ समाधान- उपशामनासे गिरनेवाला कोई एक जीव है ॥ ८८ ॥ विशेषार्थ -: - भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणा करनेवाले जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिध्यादृष्टि भी होते है । किन्तु अवक्तव्य - उदीरणा करनेवाला मोहके सर्वोपशमसे ग्यारहवे गुणस्थानसे गिरकर एक प्रकृति की उदीरणा प्रारंभ करनेवाला प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायसंयत या मरकर देवगतिमे उत्पन्न हुआ प्रथम समयवर्ती देव होता है । इन दोनो बातोंके बतलानेके लिए सूत्रमें 'अन्यतर' पद दिया है । चूर्णिसू० - अब एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार उदीरकका कालका कहते हैं ॥ ८९ ॥ शंका-भुजाकार उदीरकका कितना काल है ? ॥ ९०॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल चार समय है ॥ ९१-९२।। विशेषार्थ - सात प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाला सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव भय-जुगुप्सामेंसे किसी एकका प्रवेश करके भुजाकार - उदीरक हुआ । पुनः द्वितीय समयमे इन्ही आठो प्रकृतियोकी उदीरणा करनेपर भुजाकार- उदीरकका एक समयप्रमाण जघन्य काल सिद्ध होता है । उत्कृष्टकाल के चार समय इस प्रकार सिद्ध होते हैं- औपशमिकसम्यक्त्वी प्रमत्तसंयत, संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि ये तीनो ही यथाक्रमसे चार, पाँच और छह प्रकृतियोकी उदीरणा करते हुए अवस्थित थे । जब औपशमिकसम्यक्त्वका का एक समयमात्र शेप रहा, तब वे सभी ससादनगुणस्थानको प्राप्त हुए । इसप्रकार एक समय प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् ही दूसरे समय मे मिथ्यात्वगुणस्थान मे पहुँचनेपर द्वितीय समय, तत्पचात् ही भयकी उदीरणा करनेपर तृतीय समय और तदनन्तर ही जुगुप्साकी उदीरणा करनेपर चतुर्थ समय उपलब्ध हुआ । इसप्रकार भुजाकार- उदीरकका उत्कृष्ट काल चार समय प्राप्त होता है । अथवा ग्यारहवें गुणस्थानसे उतरनेवाला और किसी एक संज्वलन कपायकी उदीरणा करनेवाला अनिवृत्तिकरण संयत पुरुषवेदकी उदीरणा कर प्रथम वार भुजाकार उदीरक हुआ । तदनन्तर समयमें भरण कर देवोमे उत्पन्न होने के प्रथम समयमे प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान कपायोंकी उदीरणा करनेपर द्वितीय वार, तत्पश्चात् भयकी उदीरणा करनेपर तृतीय वार और १ सोममं काढूण परिवदमानगो पढमसमयहुमतापराइयो पट्टमममय देवो वा अवत्तव्यपवेमगो होइ । जयध Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ गा० ६२] वेदक-भुजाकार-काल-निरूपण ९३. अप्पदरपवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? ९४. जहण्णेण एयसमओ'। ९५. उक्कस्सेण तिण्णि समया । ९६. अवहिदपवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? ९७. जहण्णेण एगसमओ । ९८. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ९९. अवत्तव्यपवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? १००. जहण्णुकस्सेण एयसमयो । तदनन्तर ही जुगुप्साकी उदीरणा करनेपर चतुर्थ वार भुजाकार उदीरक हुआ। इस प्रकार भी भुजाकार उदीरकका चार समयप्रमाण उत्कृष्ट काल सिद्ध हो जाता है । शंका-अल्पतर-उदीरकका कितना काल है ? ॥९३॥ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है ॥९४-९५॥ विशेषार्थ-किसी संयत या असंयतके विवक्षित अल्पतर प्रकृतिरूप उदीरणास्थानकी उदीरणा करनेके अनन्तर समयमे ही उससे अधिक या कम प्रकृतिरूप उदीरणास्थानकी उदीरणा करनेपर एक समय जघन्यकाल सिद्ध होता है । उत्कृष्टकालकी प्ररूपणा इस प्रकार है-दश प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाले मिथ्यादृष्टिके भयके विना नौ प्रकृतियोकी उदीरणा करनेपर एक समय, तदनन्तर समयमे जुगुप्साके विना आठ प्रकृतियोकी उदीरणा करनेपर द्वितीय समय, तत्पश्चात् ही सम्यक्त्वके प्राप्त होनेपर मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीके विना छह प्रकृतियोकी उदीरणा करनेपर तृतीय समय अल्पतर-उदीरकका प्राप्त होता है । इसी प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टिके संयमासंयमको प्राप्त होनेपर और संयतासंयतके संयमको प्राप्त होनेपर अल्पतर उदीरकके तीन समयप्रमाण उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करना चाहिए। चूर्णिसू०-अवस्थित-उदीरकका कितना काल है ? ॥९६॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥९७-९८॥ शंका-अवक्तव्य-उदीरकका कितना काल है ? ॥९९॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयप्रमाण है ।।१००॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि सर्वोपशमनासे गिरकर प्रथम समयमे उदीरणा प्रारंभ करनेवाले जीवके अतिरिक्त अन्यत्र अवक्तव्य-उदीरणाका होना असंभव है। १ कुदो, एयसमयमप्पथर कादूण तदणतरसमए मुजगारमवदि वा गदस्स तदुवलभादो । जयध २ त जहा-मिच्छा इट्ठी दस पयडीओ उदीरेमाणगो भयवोच्छेदेण णवण्हमुदीरगो होदूणेक्को अप्पदरसमयो, से काले दुगुछोदयवोच्छेदेणहमुदीरगो होदूण विदियो अप्पयरसमयो, तदण तरसमए सम्मत्त पडिवण्णस्स मिच्छत्ताणताणुबधिवोच्छेदेण तदियो अप्पदरसमयो त्ति । एव अप्पदरपवेगस्स उक्कस्सकालो तिसमयमेत्तो । एव चेवासजदसम्माइढुिस्स सजमासजम पडिवनमाणस्स, सजदासजदस्स वा सजम पडिवजमाणस्स तिसमयमेत्तप्पदरुवस्सकालपरूवणा कायव्वा । जयध० , ३ त कथ, णवपयडिपवेसमाणस्स दुगुछागमेणेयसमय भुजगारपजाएण परिणमिय से काले तत्तियमेतणावठ्ठिदस्स तदणतरसमए भयवोच्छेदेणप्पदरपजायमुवगयस्स लडो एयसमयमेत्तो अवठ्ठिदजहण्णकालो। एवमण्णत्थ वि दठव्वं । जयध० ४ त जहा-दसपयडीओदीरेमाणस्स भय दुगुंछाणमुदयवोच्छेदेणग्यदर कादूणावठ्ठिदस्स जाव पुणो भय दुगु छाणमणुदयो ताव अतोमुहुत्तमेत्तो अवठ्ठिदपवेसगस्स उक्कस्सकालो होइ । जयध० ५ कुदो, सम्वोवसामणादो परिवदिदपढमसमय मोत्तूणण्णत्थ तदसभवादो । जयध० Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार । १०१. एयजीवेण अंतरं । १०२. भुजगार-अप्पदर-अवद्विदपवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १०३. जहण्णेण एयसमओ । १०४. उक्स्से ण अंतोमुहुत्तं । , चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार-उदीरकका अन्तर कहते हैं ॥१०१॥ शंका-भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरकका अन्तरकाल कितना है? ॥१०२।। समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ।।१०३-१०४॥ विशेषार्थ-ग्यारहवें गुणस्थानसे उतरकर किसी एक संज्वलनकी उदीरणा करनेवाला उपशामक पुरुषवेदकी उदीरणा कर भुजाकार-उदीरक हुआ । तदनन्तर समयमें उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणा कर अवस्थित-उदीरक हो अन्तरको प्राप्त हुआ और तदनन्तर समयमे मरण कर देवोंमें उत्पन्न होकर अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेपर भुजाकार-उदीरक हुआ। इस प्रकार भुजाकार-उदीरकका एक समयप्रमाण अन्तरकाल सिद्ध हो जाता है। इसीप्रकार नीचेके गुणस्थानोंमें भी जानना चाहिए । अब अल्पतरका जघन्य अन्तर कहते हैं-भय और जुगुप्साके साथ विवक्षित उदीरणास्थानकी उदीरणा करनेवाला कोई एक गुणस्थानवर्ती जीव भयके विना शेष अल्पतर प्रकृतियोंकी उदीरणा कर तदनन्तर समयमें उतनी ही प्रकृतियोंकी अवस्थित उदीरणा कर अन्तरको प्राप्त हुआ । तदनन्तर समयमे ही जुगुप्साके विना और भी अल्पतर प्रकृतियोकी उदीरणा करनेवाला हुआ, इसप्रकार अल्पतर-उदीरकका एक समयप्रमाण जघन्य अन्तर सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार मिथ्याष्टिके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर और असंयतसम्यग्दृष्टिके संयमासंयम या संयमके ग्रहण करनेपर भी अल्पतरउदीरकका जघन्य अन्तरकाल सिद्ध होता है। अवस्थित-उदीरककी जघन्य-अन्तर-प्ररूपणा इस प्रकार है-सात या आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाला जीव भयकी उदीरणा करनेपर एक समय भुजाकार-उदीरकरूपसे रहकर अन्तरको प्राप्त हो तदुपरितन समयमे सात या आठ ही प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाला हो गया। इसी प्रकार अल्पतरउदीरकके साथ भी जघन्य अन्तर सिद्ध करना चाहिए । अब उक्त समस्त उदीरकोके उत्कृष्ट अन्तरका वर्णन करते है। उनमे पहले भुजाकार-उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर कहते है-पांच प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा करनेवाला एक संयतासंयत असंयमको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें भुजाकार-उदीरणाका प्रारम्भ कर अन्तरको प्राप्त हुआ और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक अन्तरित रहकर भय या जुगुप्साकी उदीरणाके वशसे फिर भी भुजाकार-उदीरक हुआ । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल-प्रमाण अन्तर प्राप्त हो गया। अथवा चार प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाला एक औपशमिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्त या अप्रमत्तसंयत भय या जुगुप्साके प्रवेशसे भुजाकार-उदीरणाको प्रारम्भ कर और स्वस्थानमे ही उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रह कर अन्तरको प्राप्त हो उपशमश्रेणीपर चढ़कर सर्वोपशम करके उतरता • हुआ संज्वलन लोभकी उदीरणाकर और नीचे गिरकर जिस समय स्त्रीवेदकी उदीरणा करता हुआ भुजाकार-उदीरक हुआ उस समय भुजाकार-उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध हो जाता Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] वेदक-भुजाकार-अन्तर-निरूपण ४८१ १०५, अवत्तव्यपवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि १ १०६. जहण्णेण" अंतोमुहुत्तं'। १०७. उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । है । अब अल्पतर-उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर कहते है-नौ या दश प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके भय-जुगुप्साकी उदीरणाके विना अल्पतर उदीरणारूप पर्यायसे परिणत होनेके अनन्तर समयमें अन्तरको प्राप्त होकर अन्तमुहूर्त के पश्चात् भय और जुगुप्साकी उदीरणा करने पर फिर भी अन्तमुहूर्त तक अन्तरित रहनेवाले जीवके अन्तमुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध होता हैं । अथवा उपशमश्रणीपर चढ़कर स्त्रीवेदकी उदीरणा-व्युच्छेद करके अल्पतर-उदीरक बनकर अन्तरको प्राप्त हो, ऊपर चढ़कर और नीचे गिरकर, भय-जुगुप्साकी उदीरणा प्रारंभ कर अन्तर्मुहूर्त तक उदीरणा करने पर उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध हो जाता है । अब अवस्थित-उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-संज्वलन लोभकी उदीरणा करनेवाला उपशामक अवस्थित उदीरणाका आदि करके अनुदीरक बन अन्तर्मुहूर्त तक अन्तरित रह कर पुनः उतरता हुआ सूक्ष्मसाम्परायसंयत होकर और दूसरे समयमे मरकर देवोमे उत्पन्न हो यथाक्रमसे दो समयोमें भय और जुगुप्साकी उदीरणा कर तत्पश्चात् अवस्थित-उदीरक हुआ । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध हो जाता है । शंका-अवक्तव्य-उदीरकका अन्तरकाल कितना है ? ॥१०५॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन है ॥१०६-१०७॥ विशेषार्थ-कोई संयत उपशमश्रेणीपर चढ़कर सर्वोपशमनासे गिरनेके प्रथम समयमे अवक्तव्य उदीरणाका प्रारम्भ कर और नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ। पुनः सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा उपशमश्रेणीपर चढ़कर और वहाँसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायकी चरमावलीके प्रथम समयमें एक प्रकृतिका उदीरक बनके और वहीं पर मरण करके उसके देवोमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर उपलब्ध हो जाता है। उत्कृष्ट अन्तरकी प्ररूपणा इस प्रकार है-कोई विवक्षित जीव संसारके अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अवशिष्ट रहनेके प्रथम समयमे सम्यक्त्वको उत्पन्नकर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा तत्काल उपशमश्रेणीपर चढ़कर गिरा और दशवे गुणस्थानमे अवक्तव्य उदीरक वनके अन्तरको प्राप्त हुआ । पश्चात् कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक संसार में परिभ्रमणकर संसारके अल्प शेष रह जानेपर पुनः सर्व विशुद्ध होकर उपशमश्रणीपर चढ़कर और वहाँसे गिरनेपर एक प्रकृतिकी उदीरणाके प्रथम समयमे उत्कृष्ट अन्तरको प्राप्त हुआ । इस प्रकार उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल सिद्ध हो जाता है । १ त जहा-उवसमसेढिमारुहिय सव्वोवसामणापडिवादपढमसमए अवत्तव्यस्सादि कादूण हेट्टा णिवदिय अतरिदो। पुणो वि सव्वलहुमतोमुहुत्तेण उवसमसेढिमारोहण कादूण सुहुमसापराइयचरिमावलियपढमसमए अपवेसगभावमुवणमिय तत्थेव काल कादूण देवेसुप्पण्णपढमसमए लद्धमतर करेदि; पयारतरेण जहण्णतराणुप्पत्तीदो। जयध० २ तं कथ, अद्धपोग्गलपरियपढमसमए सम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहुमुवसममेढिसमारोहणपुरस्सरपडिवा. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૨ कसाय पाहुड सुत [ ६ वेदक अर्थाधिकार १०८. णाणाजीवेहि भंगविचयादि-अणियोगद्दाराणि अप्पा बहुअवज्जाणि कायव्वाणि । + १०९. अप्पाचहुअं । ११० सव्वत्थोवा अवत्तच्चपवेसगा' । १११. भुजगारपवेसगा अनंतगुणा । ११२. अप्पदरपवेसगा बिसेसाहियाँ । ११३. अवट्टिद पवेसगा असंखेज्जगुण । ११४. पदणिक्खेव वड्डीओ कादव्वाओ । तदो 'कदि आवलियं पवेसेड' चि पदं समत्तं । एवं पयडि- उदीरणा समत्ता | चूर्णिसू०. ० - नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचयको आदि लेकर अल्पबहुत्वके पूर्ववर्ती अनुयोगद्वारोंकी श्ररूपणा करना चाहिए || १०८ ॥ चूर्णि सू० - अव भुजगार- उदीरको के अल्पबहुत्वको कहते है - अवक्तव्य - उदीरक सबसे कम है । (क्योकि सर्वोपशम करके गिरनेवाले जीव संख्यात ही पाये जाते है । ) अवक्तव्यउदीरकोसे भुजाकार - उदीरक अनन्तगुणित हैं । ( क्योकि, यहॉपर द्विसमय- संचित एकेन्द्रियजीवराशिका प्रधानता से ग्रहण किया गया है ।) भुजाकार - उदीरकोसे अल्पतर- उदीरक विशेष अधिक है । ( यद्यपि भुजाकार - उदीरक और अल्पतर- उदीरक सामान्यतः समान है, तथापि सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले अनादिमिध्यादृष्टियोके साथ दर्शनमोह और चारित्रमोहका क्ष्यकर अल्पतर-उदीरक जीवोकी संख्या के कुछ अधिक होनेसे यहाॅ अल्पतर- उदीरक भुजाकार- उदीरकोसे विशेप अधिक बताये गये है । ) अल्पतर- उदीरकोसे अवस्थित - उदीरक असंख्यातगुणित है । ( क्योकि अवस्थित - उदीरणाका काल अन्तर्मुहूर्त है, उसमें संचित होनेवाली एकेन्द्रिय जीवरागिकी यहाँ प्रधानता होनेसे अल्पतर- उदीरको से अवस्थित - उदीरकोको असंख्यातगुणित कहा गया है ।। १०९ - ११३॥ चूर्णिसू० - यहॉपर पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा करना चाहिए ॥११४॥ इस प्रकार 'कदि आवलियं पवेसेइ' पहली गाथाके इस प्रथम चरणकी व्याख्या समाप्त हुई और इस प्रकार प्रकृतिस्थान - उदीरणाकी प्ररूपणा समाप्त होती है । देणादि कादूणतरिदो किंचूणमद्धपोग्गलपरियहं परियट्टिदूण थोवावसेसे ससारे पुणो वि सव्वविसुद्धो होदूण उवसमसेटिमारुढो पडिवादपढमसमए लडमतर करेदि त्ति वत्तव्व । जयध० १ किं कारण, उवसमसेढीए सव्वोवसम काढूण परिवदमाणजीवेसु चेव तदुवलभादो । जयध० २ कि कारण; दुसमयस चिदेइ दियजीवाणमेत्थ पहाणभावेणावलवणादो | जयघ० ३ कि कारण; मिच्छत्त पडिवज्जमाणसम्माइट्ठीण सम्मत्त पडिवज्जमाणमिच्छा इट्ठीण च जहाकम भुजगारप्पदर परिणदाण सत्याणमिच्छाइट्ठीण च सव्वत्य भुजगारप्पदरपवेसगाण समाणत्ते सते विसम्मत्त - मुप्पाएमाणाणादियमिच्छाइट्ठीहि सह दसण चारित्तमो हक्खवयजीवाण भुजगारेण विणा अप्पदरमेव कुणमाणामेत्था हियत्तदसणादो | जयध० ४ किं कारण; अंतोमुहुत्तमं चिदेइंटियरासिम्स पहाणत्तादो । जयध Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उदीरणा-स्थान-निरूपण ११५. 'कदि च पविसंति कस्स आवलियं' ति ? ११६. एत्थ पुव्वं गमणिजा ठाणसमुक्तित्तणा पयडिणिदेसो च । ११७. ताणि एकदो भणिस्संति । ११८. अट्ठावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति । ११९. सत्तावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मत्ते उव्वेल्लिदे । १२०. छब्बीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु उव्वेल्लिदेसु। चूर्णिसू०-अब पहली गाथाके 'कदि च पविसंति कस्स आवलियं' इस द्वितीय चरणकी व्याख्या की जाती है। यहॉपर पहले स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिनिर्देश गमनीय अर्थात् ज्ञातव्य है, अतः ये दोनो एक साथ कहे जावेगे ॥११५-११७॥ विशेषार्थ-पहली गाथाके दूसरे चरणमे प्रकृतिप्रवेशका निर्देश किया गया है उदयावलीके भीतर प्रकृतियोके प्रवेश करनेको प्रकृतिप्रवेश कहते है। प्रकृतिप्रवेशके दो भेद हैं-मूलप्रकृतिप्रवेश और उत्तरप्रकृतिप्रवेश । उत्तरप्रकृतिप्रवेशके भी दो भेद हैं-एकैकोत्तरप्रकृतिप्रवेश और प्रकृतिस्थानप्रवेश । इसमे मूलप्रकृतिप्रवेश और एकैकोत्तरप्रकृतिप्रवेशके सुगम होनेसे चुर्णिकारने उनकी प्ररूपणा नहीं की है। यहाँ प्रकृतिस्थानप्रवेश विवक्षित है । उसका वर्णन आगे समुत्कीर्तना आदि सत्तरह अनुयोगद्वारोसे किया जायगा, ऐसा अभिप्राय मनमे रख कर चूर्णिकार पहले समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारका प्ररूपण कर रहे है । समुत्कीर्तना के दो भेद हैं-स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिसमुत् कीर्तना। अट्ठाईस प्रकृतिरूप स्थानको आदि लेकर गुणस्थान और मार्गणास्थानोंके द्वारा इतने प्रकृतिस्थान उदयावलीके भीतर प्रवेश करते हैं, इस प्रकारकी प्ररूपणा करनेको स्थानसमुत्कीर्तना कहते हैं । इतनी प्रकृतियोको ग्रहण करनेपर यह अमुक या विवक्षित प्रकृतिस्थान उत्पन्न होता है, इस प्रकारके वर्णन करनेको प्रकृतिसमुत्कीतना कहते है। इसीका दूसरा नाम प्रकृतिनिर्देश है। चूर्णिकार इन दोनोंका एक साथ वर्णन करेगे। चूर्णिसू०-मोहकर्मकी अट्ठाईस ( सभी ) प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रवेश करती है। इनमेसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करने पर मोहकर्मकी शेप सत्ताईस प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेपर शेप छब्बीस प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रवेश करती है ॥११८-१२०॥ १ तत्थ ठाणसमुक्तित्तणा णाम अट्ठवीसाए पयडिट्ठाणमादि कादूण ओघादेसेहि एत्तियाणि पयडिट्ठाणाणि उदयावलिय पविसमाणाणि अस्थि त्ति परूवणा । पयडिणिद्द सो णाम एदाओ पयडीओ घेत्तूणेद पवेसट्ठाणमुप्पज्जइ त्ति णिरूवणा । जयध० २ ण केवलमुव्वेलिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तस्सेव, किंतु अणादियमिच्छाइwिणो वि छब्बीसाए पवेसट्ठाणमस्थि त्ति घेत्तव्य । अठ्ठावीस-सत्तावीसाणमण्णदरसतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा वा उवसमसम्मत्ताहिमुद्देणतर कादूण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमावलियमेत्तपढमट्टिदीए गलिदाए छन्वीसपवेसठाणमुवलब्भइ । उवसमसम्माइwिणा पणुवीसपवेसगेण मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमण्णदरे ओकड्डिदे सासणसम्माइट्ठिणा वा मिच्छत्ते पडिवण्णे एयसमय छव्वीसाए पवेसट्ठाणमुवलन्भइ । णवरि सुत्ते सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसु उन्वेल्लिदेसु त्ति णिसो उदाहरणमेत्तो; तेणेदेसि पि पयाराण संगहो काययो । जयध० Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक अर्थाधिकार १२१. पणुवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति दसणतियं मोत्तृण' । १२२. अणंताणुबंधीणमविसंजुत्तस्स उवसंतदंसणमोहणीयस्स। १२३. णत्थि अण्णस्स कस्स वि। १२४. चउवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति अणंताणुवंधिणो वञ्ज । विशेषार्थ-यह छब्बीस प्रकृतिरूपस्थान सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले सादि मिथ्यादृष्टिके ही नहीं होता है, किन्तु अनादिमिथ्यादृष्टिके भी पाया जाता है, क्योकि उसके तो उक्त दोनों प्रकृतियोंका अस्तित्व ही नहीं पाया जाता है । तथा अट्ठाईस या सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिके उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होनेपर अन्तर करके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी आवलीमात्र प्रथम स्थितिके गला देने पर छब्बीस प्रकृतिरूप स्थान पाया जाता है। इसके अतिरिक्त पञ्चीस प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिके अपकर्षण करनेपर, अथवा सासादनसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर भी एक समय छब्बीस प्रकृतियोके प्रवेशरूप स्थान पाया जाता है। चूर्णिकारने उदाहरणकी दिशामात्र बतलाने के लिए सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाका निर्देश किया है, अतः उक्त अन्य प्रकारोका भी यहाँ संग्रह कर लेना चाहिए। चूर्णिसू०-दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियां छोड़कर चारित्रमोहकी पच्चीस प्रकृतियां उदयावलीमे प्रवेश करती हैं। यह प्रकृतिउदीरणास्थान अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना न करके दर्शनमोहनीयका उपशमन करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके ही होता है, अन्य किसीके भी नहीं होता ।। १२१-१२३॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोका उपशम करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके चारित्रमोहकी पच्चीस प्रकृतियोका प्रवेश उदयावलीके भीतर निरावाधरूपसे पाया जाता है । यहाँ पर 'अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना न करनेवाले' इस विशेपणके देनेका अभिप्राय यह है कि जो अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करके उपशमसम्यग्दृष्टि बनेगा, उसके तो इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान प्राप्त होगा, पच्चीस प्रकृतिवाला स्थान नहीं। इसी अर्थकी पुष्टि करनेके लिए कहा है कि यह स्थान अविसंयोजित उपशमसम्यग्दृष्टिके सिवाय और किसीके नहीं पाया जाता है। चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धी चतुष्कको छोड़कर शेप चौवीस मोहप्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रवेश करती हैं ॥१२४॥ १ कसाय-णोकसायपयडीण उदयावलियपवेसस्स कत्थ वि समुवलंभादो । जयध २ किं कारणं; उवसतदंसणमोहणीयम्मि दसणतिय मोत्तूण पणुवीसचरित्तमोहपयडीणमुदयावलियपवेसस्स णिप्पडिबधमुवलंमादो। एत्याणनाणुबंधीणमविसजुत्तस्सेत्ति विसेसण विसजोइदाणताणुवविचउक्कम्मि पणुवीसपवेसट्ठाणासंभवपदुप्पायणफल, उवसमसम्माइट्टिणा अणंताणुवंधीसु विसजोडटेसु इगिवीसपवेसट्ठाणुप्पत्तिदसणादो। जयघ० ३ कुदो;अविसजोइदाणताणुवधिचउक्कमुवसमसम्माइछि मोत्तूणण्णत्थपणुवीसपवेसट्ठाणासभवादो । ४ चउवीससतकम्मियवेदयसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीसु तदुवलभादो । विसजोयणायुवतजोगपढमसमए वट्टमाणमिच्छाइट्ठिम्मि वि एदत्स पवेसट्ठाणस्म सभवो दट्टयो । जयध० जयध० Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उदीरणा-स्थान-निरूपण ४८५ १२५. तेवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति मिच्छत्ते खविदे । १२६. वावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मामिच्छत्ते खविदे। १२७. एकवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति दसणमोहणीए खविदे । १२८. एदाणि हाणाणि असंजदपाओग्गाणि । १२९ एत्तो उवसामगपाओग्गाणि ताणि भणिस्सामो। १३०. उवसामणादो विशेषार्थ-चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले वेदकसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टिके चौबीस प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणा होती है। तथा विसंयोजनाके पश्चात् मिथ्यात्व गुणस्थानमे आनेवाले मिथ्यादृष्टि के भी प्रथम समयमे यह उदीरणास्थान पाया जाता है। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वके क्षय हो जाने पर तेईस प्रकृतियाँ उद्यावलीमें प्रवेश करती हैं। उनमेसे सम्यग्मिथ्यात्वके क्षय हो जानेपर वाईस प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती हैं। दर्शनमोहनीयके क्षय हो जानेपर इक्कीस प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती हैं ॥१२५-१२७॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत उक्त वेदकसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वके क्षयकर देनेपर तेईस प्रकृतियोका, अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वके क्षय कर देनेपर बाईस प्रकृतियोंका और अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षयकर देनेपर इक्कीस प्रकृतियोका उदीरणास्थान पाया जाता है । यहाँ इतना विशेष है कि अनन्तानुवन्धी कपाय-चतुष्टयकी विसंयोजना और दर्शनमोहनीय-त्रिककी उपशमनाकर उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करनेवाले औपशमिकसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी, सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिमेसे किसी एक प्रकृतिके उदय आनेपर विवक्षित गुणस्थानकी प्राप्तिके प्रथम समयमे भी वाईस प्रकृतियोका उदीरणास्थान पाया जाता है। इसी प्रकार अनन्तानुवन्धी-चतुष्ककी विसंयो. जना पूर्वक दर्शनमोह-त्रिकका उपशम करनेवाले औपशमिकसम्यग्दृष्टिके भी इक्कीस प्रकृतिरूप उदीरणास्थान पाया जाता है । चूर्णिकारने यहाँ इन दोनो प्रकारोकी विवक्षा नहीं की है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए । चूर्णिसू०-ये सब उपर्युक्त स्थान असंयतोके योग्य हैं ॥१२८।। विशेषार्थ-ऊपर कहे गये अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, चौवीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिरूप आठ उदीरणास्थान असंयत जीवोके होते हैं। चूर्णिकारका यह कथन असंयतोके योग्य उदीरणास्थानोके निर्देशके लिए है, अतः उक्त सभी स्थान असंयतोके ही होते है, ऐसा अवधारण नहीं करना चाहिए, क्योकि सत्ताईस प्रकृतिरूप उदीरणास्थानको छोड़कर शेप सात स्थान यथासंभव संयतोमे भी पाये जाते हैं। चूर्णिसू०-अब इससे आगे उपशामक-प्रायोग्य जो स्थान हैं, उन्हे कहेगे ॥१२९॥ १ एसो एक्को पयारो सुत्तयारेण णिहिट ठो त्ति पयारतरेण वि एदस्स सभवविसयो अणुमग्गियचो, अणताणुबधिणो विसजोइय इगिवीसपवेसयभावेणावठ्ठिदत्स उवसमसम्माइट्टिस्स मिच्छत्तवेदयसम्मत्तसम्मामिच्छत्त-सासणसम्मत्ताणमण्णदरगुणपडिवत्तिपढमसमए पयदट्ठाणसभवणियमदसणादो । जयध० Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार परिवदंतेण तिविहो लोहो ओकड्डिदो । तत्थ लोभसंजलणमुदए दिण्णं, दुविहो लोहो उदयावलियबाहिरे णिक्खित्तो । ताधे एका पयडी पविसदि । १३१. से काले तिण्णि पयडीओ पविसंति । १३२. तदो अंतोमुहुत्तेण तिविहा माया ओकड्डिदा । तत्थ मायासंजलणमुदए दिण्णं, दुविहमाया उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता । ताधे चत्तारि पयडीओ पविसंति ।। १३३. से काले छप्पयडीओ पविसंति । १३४. तदो अंतोमुहुत्तेण तिविहो माणो ओकड्डिदो, तत्थ माणसंजलणमुदये दिणं, दुविहो पाणो आवलिबाहिरे णिखित्तो। ताधे सत्त पयडीओ पविसंति । १३५. से काले णव पयडीओ पविसंति । १३६. तदो अंतोमुहुत्तेण तिविहो कोहो ओकड्डिदो । तत्थ कोहसंजलणमुदए दिण्णं, दुविहो कोहो उदयावलियबाहिरे णिक्खित्तो, ताधे दस पयडीओ पविसंति । से काले वारस पयडीओ पविसंति । १३७, तदो अंतोमुहुत्तेण पुरिसवेद-छण्णोकसायवेदणीयाणि ओकड्डिदाणि । तत्थ पुरिसवेदो उदए दिण्णो । छण्णोकसायवेद विशेषार्थ-उपर असंयतोके योग्य स्थान बतलाकर अव संयतोके योग्य उदीरणास्थानोंका वर्णन करनेकी चूर्णिकार प्रतिज्ञा कर रहे है। संयत दो प्रकारके होते हैं-उपशामक संयत और क्षपक संयत । इन दोनोके स्थानोका वर्णन करना एक साथ असंभव है, अतः पहले उपशामक-संयतोंके योग्य उदीरणास्थानोको कहते है । चूर्णिसू०-उपशामनासे अर्थात् मोहकर्मका सर्वोपशम करके ग्यारहवे गुणस्थानसे गिरता हुआ जीव दशवे गुणस्थानके प्रथम समयमें तीन प्रकारके लोभका अपकर्पण करता है । उसमेंसे संज्वलन लोभको उदयमें देता है, तथा अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान इन दोनो लोभोंको उदयावलीके बाहिर निक्षिप्त करता है, उस समय एक संज्वलनलोभ प्रकृति उदयावलीमें प्रवेश करती है। तदनन्तर समयमे पूर्वोक्त दोनो लोभोके मिल जानेसे तीनो लोभ प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती हैं । इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तीनो मायाकपायोका अपकर्पण करता है । उनमेंसे संज्वलन मायाको उदयमे देता है और शेप दोनो मायाकपायोको उदयावलीके बाहिर स्थापित करता है। उस समय चार प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती है । तदनन्तर समयमे तीनो लोभ व तीनो मायारूप छह प्रकृतियाँ प्रवेश करती है । इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तीनो प्रकारके मानका अपकर्पण करता है। उनमेसे संज्वलन मानको उदयमे देता है और शेष दोनो प्रकारके मानोको उदयावलीके वाहिर निक्षिप्त करता है । उस समय तीन लोभ, तीन माया और संज्वलनमान ये सात प्रकृतियाँ प्रवेश करती है । तदनन्तर कालमें शेप दोनो मानकपायोके मिलनेपर नौ प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। इसके अन्तर्मुहूर्त पञ्चात् तीनो प्रकारके क्रोधका अपकर्पण करता है। उनमेसे संज्वलन क्रोधको उदयमे देता है और शेष दोनो प्रकारके क्रोधोको उदयावलीके बाहिर निक्षिप्त करता है । उस समय दश प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। तदनन्तर समयमे दोनो क्रोध मिलनेपर बारह प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। इसके अन्तर्मुहुर्त पश्चात् पुरुपवेद, और हास्यादि छह नोकपाय Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ गा० ६२] उदीरणा-स्थान-निरूपण णीयाणि उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ताणि । ताधे तेरस पयडीओ पविसंति । १३८. से काले एगूणवीसं पयडीओ पविसंति । १३९. तदो अंतोमुहुत्तेण इत्थिवेदमोकड्डिऊण उदयावलियबाहिरे णिक्खिवदि । १४०. से काले चीसं पयडीओ पविसंति। १४१. ताव, जाव अंतरंण विणस्सदि त्ति । १४२. अंतरे विणासिज्जमाणे णqसयवेदमोकड्डिदूण उदयावलियबाहिरे णिक्खिवदि । १४३. से काले एकवीसं पयडीओ पविसंति । १४४. एत्तो पाए जइ खीणदंसणमोहणीयो, एदाओ एकवीसं पयडीओ पविसंति जाव अक्खवग-अणुवसामगो ताव । १४५. एदस्स चेव कसायोक्सामणादो परिवेदनीयका अपकर्षण करता है। इनमेसे पुरुषवेदको उदयमे देता है और छहो नोकपायवेदनीयप्रकृतियोको उदयावलीके बाहिर निक्षिप्त करता है । उस समय पूर्वोक्त दशमे शेष दोनो क्रोध, और पुरुषवेदके मिल जानेसे तेरह प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। तदनन्तर समयमे हास्यादिषट्कके भी उद्यावलीमे आजानेसे उन्नीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। इसके अन्तमुहूर्त पश्चात् स्त्रीवेदका अपकर्पण करके उदयावलीके वाहिर निक्षिप्त करता है। (क्योकि यह कथन पुरुषवेदके उदयके साथ उपशमश्रेणीपर चढ़े हुए जीवकी अपेक्षासे किया जा रहा है ।) तदनन्तर समयमे उक्त उन्नीस प्रकृतियोमे स्त्रीवेदके और मिल जानेसे वीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। इस स्थानपर जबतक अन्तरका विनाश नहीं हो जाता है, तब तक यही बीस प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान बराबर अवस्थित रहता है । अन्तरके विनाश हो जानेपर नपुंसकवेदका अपकर्पणकर उदयावलीके बाहिर उसे निक्षिप्त करता. है । तदनन्तर समयमे नपुंसकवेदके मिल जानेसे इक्कीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती है ॥१३०-१४३॥ चूर्णिसू०-इस स्थलपर यदि वह जीव क्षपित-दर्शनमोहनीय अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि है, तो ये इक्कीस प्रकृतियाँ तब तक उदयावलीमे प्रवेश करती है, जब तक कि वह अक्षपक या अनुपशमक रहता है ॥१४४॥ विशेपार्थ-उपशमश्रेणीसे गिरा हुआ क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव अप्रमत्तसंयत, प्रमत्तसंयत, संयतासंयत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे जितने कालतक रहता है, उतने कालतक इक्कीस प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान बराबर पाया जाता है । आगे उपशम या क्षपक श्रेणीपर चढ़नेपर ही उसका विनाश होता है, ऐसा जानना चाहिए । अब उपशमसम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा जो अन्य प्रवेशस्थान पाये जाते है, उन्हे वतलानेके लिए चूर्णिकार उत्तर सूत्र कहते है चूर्णिसू०-कपायोपशामनासे गिरनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके जो कुछ विभिनता है, उसे कहते है । जिस समय अन्तर विनष्ट हो जाता है, उस स्थानपर इक्कीस प्रकृ १ कुदो, पुरिसवेदोदएण चढिदत्तादो। ण च सोदएण विणा उदयादिणिक्खेवसभवो; विप्पडिसेहादो । जयध० २ कुदो, उदयावलियवाहिरे णिक्खित्तस्स इस्थिवेदस्स ताधे उदयावल्यिभतरपवेमदसणादो | जयध० Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ६ वेदक अर्थाधिकार वदमाणयस्स' । १४६. जाधे अंतरं विणङ्कं तत्तो पाए एकवीसं पयडीओ पविसंति जाय सम्मत्तमुदरंतो सम्मत्तमुदए देदि, सम्मामिच्छत्तं मिच्छतं च आवलियबाहिरे णिक्खिवदि, ताधे वावी पयडीओ पविसंति । १४७. से काले चडवीसं पयडीओ पविसंति । १४८. जइ सो कसायउवसामणादो परिवदिदो दंसणमोहणीय-उवसंतद्धाए अचरिमेसु समएस आसाणं गच्छइ, तदो आसाणगमणादो से काले पणुवीसं पयडीओ पविसंति । तियाँ उदद्यावली में प्रवेश करती हैं । जब उपशमसम्यक्त्वका काल समाप्त हो जाता है, तव सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदीरणा करके सम्यक्त्व प्रकृतिको उदयावलीमे देता है और सम्यग्मिथ्यात्व तथा मिथ्यात्व प्रकृतिको उदयावली के बाहिर निक्षिप्त करता है । उस समय बाईस प्रकृतियाँ उदद्यावलीमें प्रवेश करती है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जिस प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदीरणाकर उदयावलीमे देनेपर वाईस प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान बनता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेवाले जीवके भी बाईस प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान पाया जाता है । ) तदनन्तर समयमे चौवीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती है । अर्थात् जिन दो दर्शनमोहनीय प्रकृतियोको उदद्यावलीके वाहिर निक्षिप्त किया था, एक क्षण पश्चात् उनके उदद्यावलीमें आ जानेपर चौबीस प्रकृतिरूप स्थान पाया जाता है ।।१४५-१४७॥ ४८८ · चूर्णिसू० - यदि वह जीव कपायोपशमनासे गिरकर दर्शनमोहनीयके उपशमन-कालके अचरिम समयोमे सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है, तब सासादनगुणस्थान में पहुँचने के एक समय पश्चात् पच्चीस प्रकृतियाँ उदयावली मे प्रवेश करती है ॥ १४८॥ विशेषार्थ - कषायोके सर्वोपशम से गिरे हुए चतुर्थ गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्वके कालमे छह आवलीकालसे लेकर एक समय अवशिष्ट रहने तक सासादन गुणस्थान होना संभव है । यहाँ अन्तिम समय मे सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवकी विवक्षा नही की गई है, यह बात 'अचरिम समयोमे' इस पदसे प्रकट होती है, क्योकि उसकी प्ररूपणा में कुछ विभिन्नता है । जो जीव द्विचरम समय से लेकर छह आवली - कालके भीतर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके सासादनभावको प्राप्त होने के प्रथम समयमे ही अनन्तानुबन्धी किसी एक कपायके उदय आजानेसे बाईस प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान पाया जाता है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेसे किसी एक कपायके उदयमे आनेका तो वि परिसेसियण्णाएण तदुवलभो १ जइ वि एत्थ उवसंतदंसणमोहणीयस्सेत्ति सुत्ते ण वुत्त, दठव्वो । जयघ० २ एतदुक्त भवति - अतरविणासाण तरमेव समुवलद्ध सरुवस्स इगिवीसपवेसठाणस्स ताव अवटूट्ठाप होइ जाव उवसंतसम्मत्तकालच रिमसमयो त्ति । तत्तो पर मुवसमसम्मत्तद्वाक्खएण सम्मत्तमुदरेमाणेण सम्मत्त उदए दिण्णे मिच्छत्त सम्मामिच्छत्तसु च आवलियवाहिरे णिक्खित्तसु तक्काले वावीसपवेसट्ठाणमुप्पत्ती जायदिति । ण केवल सम्मत्तमुदीरेमाणस्स एस कमो, किंतु मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त वा उदीरेमाणस्स वि एदेणेव कमेण वावीसपवेसट्टाणुप्पत्ती वत्तव्याः सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्ताढो । जयध० Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उदीरणास्थान-निरूपण ૪૮૨ १४९. जाधे मिच्छत्तमुदीरेदि ताधे छब्बीसं पयडीओ पविसंति । १५०. तदो से काले अट्ठावीसं पयडीओ पविसंति । १५१. अह सो कसाय-उवसामणादो परिवदिदो दसणमोहणीयस्स उवसंतद्धाए चरिमसमए आसाणं गच्छइ से काले मिच्छत्तमोकड्डमाणयस्स छब्बीसं पयडीओ पविसंति । १५२. तदो से काले अट्ठावीसं पयडीओ पविसंति । कारण यह है कि सासादनगुणस्थानमे उसका उदय नियमसे पाया जाता है। यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि जब अनन्तानुबन्धी कपाय सत्ता मे थी ही नहीं, तब यहाँ उसका बन्ध हुए विना उदय सहसा कहाँसे आगया ? इसका समाधान यह है कि सम्यक्त्वरनरूप पर्वतसे गिरानेवाले परिणामोके कारण अप्रत्याख्यानादि शेष कषायरूप द्रव्य तत्काल ही अनन्तानुबन्धी कषायरूपसे परिणत होकर उदयमें आजाता है । इसके एक समय पश्चात् उदयावलीके वाहिर स्थित शेष तीन अनन्तानुबन्धी कपायोका उदय आजानेसे पच्चीस प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान पाया जाता है। चूर्णिसू०-जिस समय उक्त जीव मिथ्यात्वप्रकृतिकी उदीरणा करता है, उस समय छब्बीस प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती है। ( क्योकि सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिको उस जीवने उदयावलीके बाहिर निक्षिप्त किया है।) इसके एक समय पश्चात् ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयावलीमे आजानेसे मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं, अर्थात् सभी प्रकृतियोका उदय हो जाता है ॥ १४९-१५०॥ अब दर्शनमोहनीयके उपशमनकालके अन्तिम समयमे सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रवेशसम्बन्धी विशेषता बतलानेके लिए चूर्णिकार उत्तर सूत्र कहते है चूर्णिमू०-अथवा कषायोपशमनासे गिरा हुआ वह जीव यदि दर्शनमोहनीयके उपशमनकालके अन्तिम समयमे सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है, तो तदनन्तर समयमे मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेपर उसके छब्बीस प्रकृतियॉ उदयावलीमे प्रवेश करती है ॥१५१॥ विशेषार्थ-जो उपशमश्रेणीसे गिरा हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समयमात्र शेष रह जानेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है, वह किसी एक अनन्तानुबन्धीकषायके उदयसे बाईस प्रकृतियोका उदयावलीमे प्रवेश करेगा और शेप तीन अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंको उदयावलीके वाहिर ही निक्षिप्त करेगा। दूसरे ही समयमे वह गिरकर मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होगा, वहाँ एक साथ ही मिथ्यात्वप्रकृति और शेप तीन अनन्तानुबन्धी कषाय इन चार प्रकृतियोंका उदय आनेसे छब्बीस प्रकृतिरूप ही प्रवेशस्थान पाया जाता है । पूर्वोक्त जीवके समान उसके पच्चीस प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान नहीं पाया जाता है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। चूर्णिसू०-तदनन्तर कालमे अर्थात् मिथ्यात्वगुणस्थानमे पहुँचनेक द्वितीय समयमें ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिका उद्य आजानेसे अट्ठाईस प्रकृतियाँ उदयावलीमे ८२ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ वेदक अर्थाधिकार ४९० कसाय पाहुड सुत्त १५३. एदे वियप्पा कसाय-उवसामणादो परिवदमाणगादो । १५४. एत्तो खवगादो मग्गियव्वा कदि पवेसाणाणि ति । १५५. दंसणमोहणीए खविदे एक्कावीसं पयडीओ पविसंति । १५६. अट्ठकसाएस खविदेसु तेरस पयप्रवेश करती हैं । ये उपर्युक्त विकल्प कपायो के सर्वोपशमसे गिरे हुए जीवकी अपेक्षा से कहे, गये है ।। १५२ - १५३॥ विशेषार्थ - ऊपर जो मोहकर्म के प्रवेशस्थानोका वर्णन किया गया है, वह मोहके सर्वोपशम से गिरकर मिथ्यात्व गुणस्थान तक पहुॅचनेवाले जीवकी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु जो जीव सर्वोपशमसे गिरते ही मरणको प्राप्त होकर देवोमें उत्पन्न होते हैं, उनकी अपेक्षा कुछ अन्य भी विकल्प संभव है, जो इस प्रकार है- सर्वोपशमसे गिरकर तीन प्रकार के लोभका अपकर्षण करके तीन प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला होकर मरा और देवोमें उत्पन्न हुआ । वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन पाँच प्रकृतियांका एक साथ उदय आनेसे आठ प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती है । इसी प्रकार सर्वोपशम से गिरकर छह प्रकृतियोका उदयावली मे प्रवेश करके मरणकर देवोमे उत्पन्न होनेवाले जीवके प्रथम समयमें ही उक्त पाँच प्रकृतियो के एक साथ उदयमें आने से ग्यारह प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रवेश करती है । जो जीव सर्वोपशमनासे गिरकर नौ प्रकृतियोका उदयावलीमे प्रवेश कर मरण करता है, उसके देवोमे उत्पन्न होनेके प्रथम समय में चौदह प्रकृतियाँ उदद्यावलीमें प्रवेश करती है । इसी प्रकार जो तीनो क्रोधका भी अपकर्षण करके बारह प्रकृतियोका उद्यावलीमें प्रवेश करके मरण करता है, उसके देवोमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमे' भय और जुगुप्सा के विना शेष तीन प्रकृतियोके उदय आनेसे पन्द्रह प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती है । इसी या इसी प्रकारके जीवके भय और जुगुप्सामे से किसी एकके उदय आजानेसे सोलह और दोनो के उदय आजानेसे सत्तरह प्रकृतियाँ उदद्यावलीमें प्रवेश करती हैं । इस प्रकार आठ, ग्यारह, चौदह, पन्द्रह, सोलह और सत्तरह प्रकृतिरूप प्रवेशस्थान देवोमे उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही पाये जाते हैं । यहॉपर चूर्णिकारने स्वस्थान प्ररूपणा करनेकी अपेक्षा इन्हें नहीं कहा है, ऐसा जानना चाहिए । 1 चूर्णिसू०. ० - अव इससे आगे क्षपककी अपेक्षा कितने प्रवेशस्थान होते है, इस वातकी गवेषणा करना चाहिए | दर्शनमोहनीयकर्मके क्षय हो जानेपर इक्कीस प्रकृतियाँ उद्यावलीमें प्रवेश करती हैं । अप्रत्याख्यानचतुष्क और प्रत्याख्यानचतुष्क इन आठ कपायोके क्षय हो जानेपर अवशिष्ट तेरह प्रकृतियाँ उदद्यावलीमें प्रवेश करती हैं । अर्थात् पूर्वोक्त क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़कर नवें गुणस्थानमे प्रवेशकर उक्त आठ कपायोका क्षपण कर उससे आगे जब तक अन्तरकरणको समाप्त नही करता है, तब तक चार संज्वलन कपाय और नव नोकपाय ये तेरह प्रकृतियाँ उद्यावलीम प्रवेश करती है ।। १५४ - १५६॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'एत्तो सत्रणादो मग्गियव्या' इतना हो सूत्र मुद्रित है । आगे के अंगको टीकाका अग बना दिया है । ( देखा पृ० १३९४ ) Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९१ गा० ६२] उदीरणास्थान-निरूपण डीओ पविसंति' । १५७. अंतरे कदे दो पयडीओ पविसंति । १५८. पुरिसवेदे खविदे एका पयडी पविसदि । १५९. कोधे खविदे माणो पविसदि । १६०. माणे खविदे माया पविसदि । १६१. मायाए खविदाए लोभो पविसदि । १६२. लोभे खविदे अपवेसगो। १६३. एवमणुमाणिय सामित्तं णेदव्यं । चूर्णिसू०-अन्तरकरणके करनेपर पुरुषवेद और संज्वलनकोध ये दो प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती हैं ॥१५७॥ विशेषार्थ-अन्तरकरण करनेवाला जीव पुरुपवेद और संज्वलनक्रोध इन दो प्रकृतियोंकी अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण प्रथमस्थितिको स्थापित करता है और शेष तीन कषाय और नोकषायोके उदयावलीको छोड़कर अवशिष्ट सर्व द्रव्यको अन्तरके लिए ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार अन्तर करता हुआ जिस समय अन्तर समाप्त करता है, उस समय पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थिति बाकी रहती है। शेष ग्यारह प्रकृतियोकी उदयावलीके भीतर एक समय कम आवलीमात्र गोपुच्छा अवशिष्ट रहती है। पुनः उन प्रकृतियोकी अधःस्थितिके निरवशेष गा देनेपर दो ही प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती हैं, क्योकि, पुरुषवेद और संज्वलनक्रोध इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर अन्य प्रकृतियोकी प्रथम स्थिति असंभव है। चूर्णिसू०-पुरुषवेदके क्षय हो जानेपर एक संज्वलनक्रोध प्रकृति उदयावलीमे प्रवेश करती है। संज्वलनक्रोधके क्षय हो जानेपर संज्वलनमान उदयावलीमें प्रवेश करता है। संज्वलनमानके क्षय हो जानेपर संज्वलनमाया उदयावलीमे प्रवेश करती है । संज्वलनमायाके क्षय हो जानेपर संज्वलनलोभ उदयावलीमे प्रवेश करता है । संज्वलनलोभके क्षय हो जानेपर यह अप्रवेशक हो जाता है। अर्थात् फिर मोहनीयकर्मकी कोई भी प्रकृति उदयावलीमें प्रवेश नहीं करती है, क्योकि उसकी समस्त प्रकृतियोका क्षय हो जानेसे कोई भी प्रकृति अवशिष्ट नहीं रही है ॥१५८-१६२॥ इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तनाका वर्णन समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-इसी समुत्कीर्तनाका आश्रय लेकर स्वामित्वका वर्णन करना चाहिए॥१६३॥ विशेषार्थ-अमुक स्थान संयतोके योग्य हैं और अमुक स्थान असंयतोंके योग्य है। १ पुवुत्तइ गिवीसपवेसगेण खवगसेढिमारूढेण अणियट्टिगुणट्ठाण पविसिय अठ्ठक साएसु खविदेनु तत्तोप्पहुडि जाव अतरकरण ण समयइ ताव चदुस जलण णवणोकसायसण्णिदाओ तेरस पयडीओ तस्स खवगस्स उदयावलिप पविसति त्ति समुक्कित्तिद होइ । जयघ० २ (कुदो,) पुरिसवेद कोहसजलणे मोत्तूणण्णेसिं पढमट्ठिदीए असंभवादो | जयध० ३ णत्ररि कोहपढमट्ठिदीए आवलियमेत्तसेसाए माणसंजलणमोक ड्डिय पढमटिठदि कदि, तत्थु. च्छिछावलियमेत्तकाल दोण्ह पवेमगो होदूण तदो एकिस्से पवेसगो होदि त्ति घेत्तव्वं । लाभे खरिदे पुण ण किंचि कम्म पविसदि, विवक्खियमोहणीयकम्मरस तत्तो परमसभवादो । जयभः Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२, कसाय पाहुड सुत्त : [६ वेदक-अर्थाधिकार - १६४. एयजीवेण कालो । १६५. एकिस्से दोहं छण्हं णवण्हं बारसण्हं तेरसण्हं एगूणवीसण्हं वीसण्हं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होइ ? १६६. जहण्णेण एयसमओ । १६७. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १६८. चदुण्हं सत्तण्हं दसहं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होइ ? १६९. जहण्णुकस्सेण एयसमओ । १७०. पंच अट्ट एक्कारस चोदसादि जाव अट्ठारसा त्ति एदाणि सुण्णट्ठाणाणि । १७१. एकवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि १ १७२. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १७३. उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । संयतोमें भी अमुक स्थान उपशामक संयतोके योग्य हैं और अमुक स्थान क्षपक संयतोके योग्य हैं । असंयतोंमे अमुक स्थान सम्यग्दृष्टिके योग्य हैं और अमुक स्थान मिथ्यादृष्टि आदिके योग्य है, इत्यादिका निर्णय समुत्कीर्तनाके आधारपर सुगमतासे हो जाता है, अतः चूर्णिकारने स्वामित्वका वर्णन पृथक् नहीं किया है। चूर्णि सू०-अब एक जीवकी अपेक्षा उपर्युक्त प्रवेश-स्थानोके कालका वर्णन करते हैं ॥१६४॥ शंका-एक, दो, तीन, छह, नौ, बारह, तेरह, उन्नीस और बीस प्रकृतियोके उदीरकका कितना काल है ? ॥१६५॥ समाधान-उक्त स्थानो के उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।।१६६-१६७॥ _ विशेपार्थ-मरण आदिकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और स्वस्थानकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट काल आगमाविरोधसे जानना चाहिए। शंका-चार, सात और दश प्रकृतियोके उदीरकका कितना काल है ? ॥१६८॥ समाधान-उक्त प्रवेशस्थानोका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र है । क्योंकि उक्त प्रकृतियोके उदयावलीमें प्रवेश करनेके एक समय पश्चात् ही क्रमशः छह, नौ और बारह प्रकृतियाँ उद्यावलीमे प्रवेश कर जाती हैं ॥१६९॥ चूर्णिसू०-पॉच, आठ, ग्यारह, और चौदहसे लेकर अठारह तकके स्थान, ये सब शून्य स्थान हैं ॥१७॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि उक्त प्रवेशस्थान किसी भी कालमें किसी जीवके पाये नहीं जाते है, इसलिए इन्हे शून्य स्थान कहते हैं। और इसीलिए उनके जघन्य और उत्कृष्ट कालको नहीं बतलाया गया। शंका-इक्कीस प्रकृतियोके उदीरकका कितना काल है ? ॥१७१॥ समाधान-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल सातिरेक तेतीस सागरोपम है ॥१७२-१७३॥ - विशेपार्थ-इक्कीस प्रकृतियोके उदीरकका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य काल इस प्रकार संभव है-चौवीस प्रकृतियोंका उदीरक वेदकसम्यग्दृष्टि दर्शनमोहनीयका क्षय करके इफीस Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] : . . उदीरणास्थान-काल-निरूपण ४९३ . १७४. वावीसाएं पणुवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? १७५. जहण्णेण एयसमओ । १७६. उक्स्से ण अंतोमुहुत्तं । प्रकृतियोका प्रवेशक हुआ और अन्तर्मुहूर्तकालके भीतर ही क्षपकश्रेणीपर चढ़कर आठ कायोका क्षयकर तेरह प्रकृतियोका प्रवेशक बन गया । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य काल उपलब्ध हो गया। अथवा कोई उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टयकी विसंयोजना करके सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण इक्कीस प्रकृतियोका प्रवेशक रहकर छह आवली कालके • अवशेप रहनेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर बाईस प्रकृतियोका प्रवेशक बन गया । इस प्रकार भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य काल सिद्ध हो जाता है। अब इक्कीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवके उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करते है-मोहकर्मकी चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक देव या नारकी पूर्व कोटीकी आयुवाले कर्मभूमिज मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् दर्शनमोहनीयका क्षपणकर इक्कीस प्रकृतियोका प्रवेशक बना और अपनी शेष मनुष्यायुको पूरा करके मरकर तेतीस सागरोपमकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहॉकी आयु पूरी करके च्युत होकर पुनः पूर्वकोटीकी आयुके धारक कर्मभूमियॉ मनुष्योमें उत्पन्न हुआ । जब जीवनका अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रह गया, तब संयमको ग्रहणकर क्षपकश्रेणीपर चढ़कर और आठ कपायोका क्षयकर तेरह प्रकृतियोका प्रवेशक हुआ । इस प्रकार कुछ अन्तर्मुहूर्तोंसे अधिक आठ वर्षोंसे कम दो पूर्वकोटी सातिरेक तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट काल इक्कीस प्रकृतियोके प्रवेशकका सिद्ध होता है । चूर्णिसू०-बाईस प्रकृतियो और पच्चीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवका कितना काल है ? ॥१७४॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥१७५-१७६॥ 'विशेषार्थ-इनमेंसे पहले बाईस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवके एक समयप्रमाण जघन्य कालकी प्ररूपणा करते हैं-अनन्तानुबन्धी कपायकी विसंयोजना करके बना हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अपना काल पूरा करके सासादन, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिको प्राप्त होनेपर प्रथम समयमे वह वाईस प्रकृतियोंका प्रवेश करता है और तदनन्तर समयमें ही यथाक्रमसे पच्चीस, अट्ठाईस, या चौबीस प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला हो जाता है, इस प्रकार एक समयप्रमाण जघन्य काल सिद्ध हो जाता है । अब पच्चीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवके जघन्य कालकी प्ररूपणा करते हैं-अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके उपशम सम्यक्त्व-कालके द्विचरम समयमें सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेके प्रथम समयमे किसी एक अनन्तानुवन्धीके उदय आनेसे पाईस प्रकृतिरूप प्रवेश स्थान उपलब्ध हुआ और दूसरे समयमें ही उदयावलीके वाहिर अवस्थित शेष तीन अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोके उदयावलीमें प्रवेश करनेपर पच्चीस प्रकृतियोका प्रवेश उपलब्ध हुआ । इसके दूसरे समयमे ही मिथ्यात्वको प्राप्त हो जानेसे छब्बीस प्रकृतिरूप प्रवेश Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार १७७. तेवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि १ १७८. जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । १७९. चउवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? १८०. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १८१. उक्कस्सेण वे छावद्विसागरोवमाणि देसूणाणि । १८२. छब्बीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? १८३. तिण्णि भंगा । १८४. तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जहण्णेण एयसमओ । १८५. स्थान उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार पच्चीस प्रकृतियोके प्रवेशका जघन्य काल भी एक समयमात्र ही सिद्ध होता है। बाईस प्रकृतियोके उत्कृष्ट प्रवेश कालकी प्ररूपणा इस प्रकार' है-क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण करके जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षय करता है, तब तक वाईस प्रकृतियोका अन्तर्मुहूत -प्रमाण उत्कृष्ट प्रवेशकाल पाया जाता है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कपायका विसंयोजन नहीं करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टिका अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण सर्वकाल पच्चीस प्रकृतियोके प्रवेशका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। शंका-तेईस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवका कितना काल है ? ॥१७७॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । क्योकि, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिक क्षपण करनेका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सर्वकाल ही तेईस प्रकृतियोके प्रवेशका काल है ॥ १७८॥ शंका-चौबीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवका कितना काल है १ ।।१७९॥ समाधान-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोन दो वार छयासठ सागरोपम है ॥१८०-१८१॥ विशेषार्थ-चौवीस प्रकृतियोके जघन्य प्रवेश कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है-अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुवन्धी-चतुष्कका विसंयोजन करके चौवीस प्रकृतियोंका प्रवेश करनेवाला वना और सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अट्ठाईस प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला हो गया। इस प्रकार चौवीस प्रकृतियोका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य प्रवेश-काल सिद्ध हो जाता है । अब इसीके उत्कृष्ट प्रवेशकालकी प्ररूपणा करते हैं कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला हो गया और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके दूसरे समयसे लेकर चौबीस-प्रकृतियोका प्रवेशक बनकर दो वार छयासठ सागरोपम कालतक देव और मनुष्यगतिमें परिभ्रमण करके अन्तमें दर्शनमोहनीयके क्षपणके लिए अभ्युद्यत होनेपर मिथ्यात्वका क्षपण कर तेईस प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला हुआ । इस प्रकार एक समय अधिक सस्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षपण कालसे कम दो बार छयासठ सागरोपम चौवीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रवेशकाल जानना चाहिए। शंका-छन्वीस प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाले जीवका कितना काल है ? ॥१८२।। समाधान-इस विपयमे तीन भंग हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादिसान्त । इनमें जो तीसरा सादि-सान्त भंग है, उसकी अपेक्षा छच्चीस प्रकृतियोंके प्रवेशका Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उदीरणास्थान-भंगविचय-निरूपण ४९५ उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । १८६. सत्तवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? १८७. जहण्णेण एयसमओ । १८८. उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे। १८९. अट्ठावीसं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? १९०. जहण्णेण अंतोमुहुत्त । १९१. उक्कस्सेण वे छावद्विसागरोवमामि सादिरेयाणि । १९२. अंतरमणुचिंतिऊण णेदव्यं । १९३ णाणाजीवेहि भंगविचयो । १९४. अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चदुवीसजघन्य काल एक समय है, क्योकि अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व या वेदकसम्यक्त्व प्राप्त करनेपर, अथवा सासादनसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वमे जानेपर एक समयप्रमाण जघन्य प्रवेश-काल पाया जाता है। छब्बीस प्रकृतियोके प्रवेशका उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गल परिवर्तन है ॥१८३-१८५॥ विशेषार्थ-जिस जीवने अपने संसार-परिभ्रमणके अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल अवशिष्ट रहनेके प्रथम समयमें उपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न किया और सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो सर्वलघुकाल-द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंकी उद्वेलनाकर छब्बीस प्रकृतियोका प्रवेशक बनकर अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक संसारमे परिभ्रमणकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संसारके शेप रह जानेपर सम्यक्त्वको प्राप्त किया । ऐसे जीवके कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन-प्रमाण छब्बीस प्रकृतियोका उत्कृष्ट प्रवेश काल पाया जाता है । शंका-सत्ताईस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवका कितना काल है ? ॥१८६॥ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । क्योकि सम्यग्मिथ्यात्वके उद्वेलनका उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवॉ भाग बतलाया गया है ॥१८७-१८८॥ शंका-अट्ठाईस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीवका कितना काल है १ ॥१८९॥ समाधान-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल सातिरेक दो वार छयासठ सागरोपम है ॥१९०-१९१॥ विशेषार्थ-किसी मिथ्यादृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर तदनन्तर ही वेदकसम्यक्त्वी बनकर अट्ठाईस प्रकृतियोके प्रवेशको प्रारम्भकर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकालके पश्चात् ही अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजनकर चौबीस प्रकृतियोका प्रवेशक बननेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य काल सिद्ध हो जाता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ सातिरेकसे तीन वार पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक अर्थ अभीष्ट है। चूर्णिसू०-इसी प्रकार उक्त प्रवेश स्थानोका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर भी आगमके अनुसार चिन्तवन करके जानना चाहिए ॥१९२॥ चूर्णिसू०-अब नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय करते है-अट्ठाईस, सत्ताईस, चौवीस और इक्कीस प्रकृतियाँ नियमसे उदयावलीमे प्रवेश करती है। (क्योकि, नानाजीवोकी Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार एकवीसाए पयडीओ णियमा पविसंति । १९५. सेसाणि ठाणाणि भजियवाणि। १९६. णाणाजीवेहि कालो अंतरं च अणुचिंतिऊण णेदव्यं । १९७. अप्पाबहुअं। १९८. चउण्हं सत्तण्हं दसण्हं पयडीणं पसगा तुल्ला थोवा । १९९. तिण्हं पवेसगा संखेज्जगुणा । २००. छण्हं पवेसगा विसेसाहिया । २०१. णवण्हं पवेसगा विसेसाहियाँ । २०२. वारसण्हं पवेसगा विसेसाहियाँ । २०३. एगूणवीसाए पवेसगा विसेसाहियाँ । २०४. वीसाए पवेसगा विसेसाहिया। अपेक्षा ये प्रवेशस्थान सर्वकाल पाये जाते हैं। ) शेप प्रवेशस्थान भजनीय है । अर्थात् उनके प्रवेश करनेवाले जीव कभी पाये जाते है और कभी नहीं पाये जाते है ।।१९३-१९५॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार नाना जीवोकी अपेक्षा काल और अन्तरको आगमानुसार चिन्तवन करके जानना चाहिए ॥१९६।। चूर्णिसू०-अब उक्त प्रवेश-स्थानोका अल्पवहुत्व कहते है चार, सात, और दश प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव परस्परमे वरावर हैं, किन्तु वक्ष्यमाण स्थानोकी अपेक्षा सबसे कम है । तीन प्रकृतियोंके प्रवेश करनेवाले जीव उपर्युक्त प्रवेश-स्थानोसे संख्यातगुणित हैं । तीन प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवोसे छह प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव विशेप अधिक है । छह प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवोसे नी प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। नौ प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे बारह प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं । बारह प्रकृतियों के प्रवेशक जीवोसे उन्नीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव विशेष अधिक है। उन्नीस प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे बीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव विशेष अधिक है ॥१९७-२०४॥ १ कुदो; णाणाजीवावेक्खाए एदेसि पवेसट्टाणाण धुवभावेण सव्वकालमवट्ठाणदसणादो । जयध० २ कुदो; पणुवीसादिसेसपवेसट्ठाणाणम वभावदसणादो । जयध० । ३ कुदो एयसमयसचिदत्तादो । त जहा-तिण्ह लोभाणमुवरि मायासंजलणे पवेसिदे एयसमयं चदुण्ह पवेसगो होइ । तिण्ह मायाणमुवरि माणसजलण पवेसिय एगसमय सत्तण्ह पवेसगो होद । तिण्ह माणाणमुवरि कोहसजलण पवेसयमाणो एयसमयं चेव दसण्हं पवेसगोहोदि त्ति एदेण कारणेण एदेसिं तिण्ह पि पवेसट्टाणाण सामिणो जीवा अण्णोण्णेण सरिसा होदूण उवरि भणिस्समाणसेसपदेहितो थोवा जादा । जयध० ४ किं कारण; सव्यकालबहुत्तादो। त जहा-तिविह लोभमोकड्डिऊग ट्ठिदसुहुमसापराइयकाले पुणो अणियटिअद्धाए सखेज्जे भागे च सचिदो जीवरासी तिण्ह पवेसगो होइ । तेण पुविल्लादो एगसमयसचयादो एसो अतोमुहुत्तसचओ सखेज्जगुणो त्ति णस्थि सदेहो । जयध० ५ केण कारणेण, विसेसाहियकालभतरसचिदत्तादो । जयध० । ६ कुदो; मायावेदगकालादो विसेसाहियमाणवेदगकालम्मि सचिदजीवरासिस्स गहणादो । जयध० ७ किं कारण; पुबिल्लसचयकालादो विसेसाहियकोहवेढगकालम्मि अवगदवेटपडिबद्धम्मि सचिद. जीवरासिस्स गहणादो । जवध० ८ किं कारण; पुरिसवेद-छण्णोकसाए ओकड्डिय पुणो जाव इस्थिवेदं ण ओकड्ड दि, ताव एदम्मि काले पुविल्लसचयकालादो विसेसाहिवम्मि सचिदजीवरा सित्स विवक्खियत्तादो । जयध० ९ कुदो इत्थिवेदमोकड्डिय पुणो जाव णवुसयवेद ण ओक्दि ताव एदम्मि फाले पुबिल्लसचयकालादो विसेसाहियम्मि सचिदजीवाणमिहग्गहणादो ! जयध० Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ गा० ६२] उदीरणास्थान-अल्पबहुत्व-निरूपण २०५. दोण्हं पवेसगा संखेज्जगुणा' । २०६. एकिस्से पवेसगा संखेज्जगुणा । २०७. तेरसहं पवेसगा संखेज्जगुणा । २०८. तेवीसाए पवेसगा संखेज्जगुणा । २०९. वावीसाए पवेसगा असंखेज्जगुणा । २१०. पणुवीसाए पवेसगा असंखेज्जगुणा । २११. सत्तावीसाए पवेसगा असंखेज्जगुणा । २१२. एकवीसाए पसगा असंखेज्जगुणा । २१३. चउवीसाए पवेसगा असंखेज्जगुणा । २१४. अट्ठावीसाए विशेपार्थ-उक्त इन सभी प्रवेश-स्थानोंका संचय-काल उत्तरोत्तर विशेष अधिक होनेसे जीवोकी संख्या भी विशेष-विशेष अधिक बतलाई गई है। चूर्णिसू०-बीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवोसे दो प्रकृतियोंके प्रवेश करनेवाले जीव संख्यातगुणित है। दो प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे एक प्रकृतिके प्रवेश करनेवाले जीव संख्यातगुणित हैं । एक प्रकृतिके प्रवेशक जीवोसे तेरह प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव संख्यातगुणित हैं । तेरह प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे तेईस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव संख्यातगुणित हैं ॥२०५-२०८॥ विशेषार्थ-उक्त प्रवेशस्थानोंका संचय काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणित है, अतः उनमें प्रवेश करनेवाले जीवोंकी संख्या भी उत्तरोत्तर संख्यातगुणित बतलाई गई है। चूर्णिसू०-तेईस प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे बाईस प्रकृतियोंके प्रवेश करनेवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। वाईस प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे पच्चीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। पच्चीस प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे सत्ताईस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव असंख्यातगुणित हैं । सत्ताईस प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे इक्कीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव असंख्यातगुणित है। इक्कीस प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे चौवीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। चौवीस प्रकृतियोके प्रवेशक जीवोसे अट्ठाईस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव असंख्यातगुणित हैं ॥२०९-२१४॥ १ केण कारणेण ? पुरिसवेदोदएण खवगसेडिमारूढस अतरकरणादो समयूणावलियागदाए तदोप्पहुडि जाव पुरिसवेदपढमटिठदिचरिमसमयो त्ति ताव एदम्मि कालविसेसे पयदसचयावलबणादो। जइवि उवसमसेढीए चेव पयदसचयो अवलविजदे, तो वि पुटिवल्लदो एदस्स सचयकालमाहप्पेण सखेजगुणत्त २ कुदो, पुग्विल्लादो एदस्त संचयकालमाहप्पदसणादो । जयध० . . ३ किं कारण, अट्ठकसाएमु खविदेसु तत्तोप्पहुडि जाव अतरकरण समाणिय समयूणावलियमेत्तो कालो गच्छदि ताव एदम्मि काले पुव्विल्लकालादो सखेजगुणो तेरसपवेसगाण सचयावलबणादो। जयध० ४ कुदो; दसणमोहक्खवणाए अन्मुट्ठिदेण मिच्छत्ते खविदे तत्तोप्पहुडि जाव सम्मामिच्छत्तक्खवणचरिमसमयो त्ति ताव एदम्मि काले पुन्विल्लकालादो सखेजगुणे सचिदजीवाण गहणादो । जयध० ५ कुदो पलिदोवमस्सासखेजभागपमाणत्तादो । जयध० ६ कुदो; अणताणुब धिविसजोयणाविरहिदाणमुवसमसम्माइट्ठीण सासणसम्माइट्ठीण च अंतोमुहुत्त ७ कुदो; सम्मत्ते उद्वेल्लिदे पुणो पलिदोवमासखेज्जभागपमाणसम्मामिच्छत्तुव्वेल्लणाकालभतरे पयदसचयावलबणादो। जयध० ८ कुदो; चउवीससतकम्सियवेदयसम्माठिरासिस्स गहणादो । जयघ० ण विरुज्झदे । जयध० २ सचिदाणमिहग्गहणादो | जयध० Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार पवेसगा असंखेज्जगुणा' । २१५. छब्बीसाए पवेसगा अणंतगुणा । २१६. भुजगारो कायव्यो । २१७. पदणिक्खेवो काययो । २१८. वड्डी वि कायचा। २१९. 'खेत्त-भव-काल-पोग्गलट्ठिदि-विवागोदयखयो दु' त्ति एदस्स विहासा । २२०. कम्मोदयो खेत्त-भवकाल-पोग्गल-द्विदिविवागोदयक्खओ भवदि ।। विशेषार्थ-इन उक्त सर्व प्रवेशस्थानोंका संचय काल उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित होनेसे उनमें प्रवेश करनेवाले जीवोंकी संख्या भी असंख्यातगुणित बतलाई गई है। चूर्णिसू०-अट्ठाईस प्रकृतियों के प्रवेशक जीवोंसे छब्बीस प्रकृतियोके प्रवेश करनेवाले जीव अनन्तगुणित हैं ॥२१५॥ विशेषार्थ-क्योंकि छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवोकी संख्या कुछ कम सर्व जीवराशि-प्रमाण है, जो कि अनन्त है । अतएव छब्बीस प्रकृतियोंके प्रवेश करनेवाले जीव अनन्तगुणित बतलाये गये हैं। चूर्णिसू०-भुजाकार-प्ररूपणा करना चाहिए, पदनिक्षेपका वर्णन करना चाहिए और वृद्धिकी प्ररूपणा भी करना चाहिए ॥२१६-२१८॥ इस प्रकार इन भुजाकारादि अनुयोगद्वारोके निरूपण करनेपर 'कितनी प्रकृतियाँ किस जीवके उदयावलीमें प्रवेश करती हैं। प्रथम गाथाके इस द्वितीय पादका अर्थ समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-अब 'क्षेत्र, भव, काल और पुद्गल द्रव्यका आश्रय लेकर जो स्थितिविपाकरूप उदय होता है, उसे क्षय कहते हैं' गाथाके इस उत्तरार्धकी विभापा की जाती है अपक्कपाचनके विना यथाकाल-जनित कर्मोंके विपाकको कर्मोदय कहते हैं ? वह कर्मोदय क्षेत्र, भव, काल और पुद्गल द्रव्यके आश्रयसे स्थितिके विपाकरूप होता है । अर्थात् कर्म उदयमें आकर अपना फल देकर झड़ जाते है । इसीको उदय या क्षय कहते है ।।२१९-२२०॥ विशेषार्थ-यह कर्मोदय प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है । इनमेंसे यहॉपर प्रकृति-उदयसे प्रयोजन है, क्योकि प्रकृति-उदीरणाके वर्णनके पश्चात् प्रकृति-उदयका वर्णन ही न्याय-प्राप्त है । चूर्णिसूत्रकारने कर्मोदयकी अर्थ-विभापा इसलिए नहीं की है कि उदीरणाके वर्णनसे ही उदयका वर्णन भी हो ही जाता है। और फिर उदयसे उदीरणा सर्वथा भिन्न भी तो नहीं है, क्योंकि उदयके अवस्था-विशेषको ही उदीरणा कहते हैं । १ किं कारण अट्ठावीससतकम्मियवेदगसम्माइट्टिासिस्स पहाणभावेण विवक्खियत्तादो । जयध० २ कुदो; किंचूणसव्वजीवरासिपमाणत्तादो । जयध० ३ कम्मेण उदयो कम्मोदयो, अपक्कपाचणाए विणा जहाकालजणिदो कम्माण छिदिक्खएण जो विवागो सो कम्मोदयो त्ति भण्णदे । सो वुण खेत्त-भत्र काल-पोग्गादिविवागोदरख यो त्ति एदस्स गाहापच्छद्धस्स समुदायस्थो मवदि । कुदो, खेत-भव-काल-पोग्गले अस्सिऊण जो टिदिक्खयो उदिण्ण' फलखधपरिसडणलक्खणो सोदयो त्ति मुत्तत्यावलंगणादो। जयध Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] अनुभाग-उदारणा अर्थपद-निरूपण ४९९ २२१. 'को कदपाए द्विदीए पवेसगो' त्ति पदस्स द्विदि-उदीरणा कायया। २२२. एत्थ हिदिउदीरणा दुविहा-मूलपयडिडिदिउदीरणा उत्तरपयडिडिदिउदीरणा च । २२३. तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा- पमाणाणुगमो सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचयो कालो अंतरं सण्णियासो अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डी हाणाणि च । २२४. एदेसु अणियोगद्दारेसु विहासिदेसु 'को कदमाए हिदीए पवेसगी त्ति पदं समत्तं । २२५. 'को व के य अणुभागे त्ति अणुभागउदीरणा कायव्वा । २२६. तत्थ तत्थ अट्ठपदं । २२७. अणुभागा पयोगेण ओकड्डियूण उदये दिजति सा उदीरणा । २२८. तत्थ जं जिस्से आदिफद्दयं तं ण ओकड्डिज्जदि । २२९. उदय और उदीरणामे जो थोड़ी-सी विशेषता है, वह व्याख्यानाचार्यों के विशेष व्याख्यानसे ज्ञात ही हो जाती है। इस प्रकार कर्मोदयके व्याख्यान कर देनेपर वेदक अधिकारकी प्रथम गाथाका अर्थ समाप्त हो जाता है। चूर्णिसू०-'कौन जीव किस स्थितिमें प्रवेशक होता है' दूसरी गाथाके इस प्रथम पदकी स्थिति-उदीरणा (-रूप व्याख्या ) करना चाहिए। यह स्थिति-उदीरणा दो प्रकारकी है-मूलप्रकृतिस्थिति-उदीरणा और उत्तरप्रकृतिस्थिति-उदीरणा । इन दोनो प्रकारकी उदी. रणाओंके प्ररूपण करनेवाले अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं-प्रमाणानुगम, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर, सन्निकर्प, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप, स्थान और वृद्धि । इन अनुयोगद्वारोके व्याख्यान करनेपर 'को कदमाए हिदीए पवेसगो' इस पदका अर्थ समाप्त हो जाता है ॥२२२-२२४॥ विशेषार्थ-चूर्णिसूत्रकारने ग्रन्थ-विस्तारके भयसे उक्त अनुयोगद्वारोका वर्णन नहीं किया है । अतः विशेष जिज्ञासुओको जयधवला टीका देखना चाहिये । चूर्णिसू० - 'कौन जीव किस अनुभागमें प्रवेश करता है। दूसरी गाथाके. इस दूसरे पदमें अनुभाग-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिए। इस विषयमे यह अर्थपद है। वह इस प्रकार हैं -प्रयोग अर्थात् परिणाम-विशेषके द्वारा स्पर्धक, वर्ग, वर्गणा और अविभागप्रतिच्छेदस्वरूप अनन्तभेद-भिन्न अनुभागका अपकर्षण करके और अनन्तगुणहीन बनाकर जो स्पर्धक उदयमें दिये जाते हैं, उसे उदीरणा कहते हैं। उसमे जिस कर्म-प्रकृतिका जो आदि स्पर्धक हैं, वह उदीरणाके लिए अपकर्षित नही किया जा सकता है । इस प्रकार द्वितीय, तृतीय आदि १ पयडि उदीरणाणतरमेत्तो ट्ठिदिउदीरणा कायव्वा, पत्तावसरत्तादी । जयध० । २ किम टपद णाम १ जत्ता सादाराण पयदत्थविसए सम्ममवगमो समुप्पजइ, तमस्स वा वर्ष पदमठ्ठपदमिदि भण्णदे । जयध' ३ अणुभागा मूलुत्तरपयडीणमणतभेयभिषणफद्दयवग्गणाविभागपलिच्छेदसरूवा, पयोगेण परिणाम. विसेसेण ओकड्डियूण अणतगुणहीणसरूवेण जमुदए दिजति, सा उदीरणा णाम । जयध० ४ कुदो, तत्तो हेठा अणुभागफद्दयाणमसभवादो । जयध० Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० कसाय पाहुड सुत्स . [६ घेदक-अर्थाधिकार एवमणंताणि फद्दयाणि ण ओकड्डिजंति' । २३०. केत्तियाणि ? जत्तिगो जहण्णगो णिक्खेवो जहणिया च अइच्छावणा तत्तिगाणि । २३१. आदीदो पहुडि एत्तियमेत्ताणि फयाणि अइच्छिदूण तं फद्दयमोकड्डिजदि। २३२. तेण परमपडिसिद्धं । २३३: एदेण अट्ठपदेण अणुभागुदीरणा दुविहा-मूलपयडि-अणुभागउदीरणा च उत्तरपयडि-अणुभागउदीरणा च । २३४ एत्थ मूलपयडिअणुभाग उदीरणा भाणियव्वा । २३५. उत्तरपयडिअणुभागुदीरणं वत्तइस्सामो । २३६. तत्थेमाणि चउवीसमणियोगद्दाराणि सण्णा सव्वउदीरणा एवं जाव अप्पाबहुए ति । भुजगार-पदणिक्खेव-वड्डि-हाणाणि च । २३७. तत्थ पुव्वं गमणिज्जा दुविहा-सष्णा घाइसण्णा ठाणसण्णा च । २३८. ताओ अनन्त स्पर्धक उदीरणाके लिए अपकर्पित नहीं किये जा सकते है । उदीरणाके लिए अयोग्य स्पर्धक कितने हैं ? जितना जघन्य निक्षेप है और जितनी जघन्य अतिस्थापना है, तत्प्रमाण अर्थात् उतने उदीरणाके अयोग्य स्पर्धक होते हैं ॥२२५-२३०॥ चूर्णिसू-विवक्षित कर्म-प्रकृतिके आदि स्पर्धकसे लेकर इतने अर्थात् जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापना-प्रमाण स्पर्धकोको छोड़कर जो स्पर्धक प्राप्त होता है, वह स्पर्धक उदीरणाके लिए अपकर्पित किया जाता है। इससे परे कोई निषेध नहीं है, अर्थात् आगेके समस्त स्पर्धक उदीरणाके लिए अपकर्षित किये जा सकते हैं। इस अर्थपदके द्वारा वर्णनकी जानेवाली अनुभाग-उदीरणा दो प्रकारकी है-मूलप्रकृति-अनुभाग-उदीरणा और उत्तरप्रकृतिअनुभाग-उदीरणा । इनमेसे मूलप्रकृतिअनुभाग-उदीरणाका संज्ञा आदि तेईस अनुयोगद्वारोसे व्याख्यानाचार्योंको निरूपण करना चाहिए ॥२३१-२३४॥ चूर्णिसू०-अब उत्तरप्रकृति-अनुभाग-उदीरणाको कहेगे। उसके विपयमें ये चौवीस अनुयोगद्वार हैं-१ संज्ञा, २ सर्वउदारणा, ३ नोसर्वउदीरणा, ४ उत्कृष्टउदीरणा, ५ अनुत्कृष्टउदीरणा, ६ जघन्यउदीरणा, ७ अजधन्यउदीरणा, ८ सादिउदीरणा, ९ अनादिउदीरणा, १० ध्रुवउदीरणा, ११ अध्रुवउदीरणा, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ काल, १४ अन्तर, १५ नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, १६ भागाभाग, १७ परिमाण, १८ क्षेत्र, १९ स्पर्शन, २० काल, २१ अन्तर, २२ सन्निकर्ष, २३ भाव और २४ अल्पवहुत्व । तथा भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान, इन सर्व अनुयोगद्वारोसे अनुभाग-उदीरणाका वर्णन करना चाहिए ॥२३५-२३६॥ चूर्णिस०-उत्तरप्रकृति-उदीरणाके वर्णन करनेवाले अनुयागद्वारों में प्रथम संज्ञा नामक अनुयोगद्वार जाननेके योग्य है । वह इस प्रकार है-संज्ञाके दो भेद हैं घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । इन दोनो ही संज्ञाओको एक साथ कहेंगे ॥२३७-२३८॥ १ केत्तिवाणि ? अतिगो जहण्णगो णिक्खेवो, जहणिया च अइच्छावणा; तत्तिगाणि । अणंताणि ण ओकडिजति । जयध २ तत्थ जा सा घादिसण्णा, सा दुविहा, सव्वधादि-देसघादिभेदेण । ठाणसण्णा चउन्विहा, लदासमाणादिसहावभेदेण भिण्णचादो। नयध० Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] अनुभाग- उदीरणा -संज्ञा-निरूपण ५०१ दो वि एकदो वत्तस्समो । २३९. तं जहा - मिच्छत्त-वारसकसायाणमणुभाग- उदीरणा सन्घादी' । २४०. दुट्ठाणिया तिट्ठाणिया चउट्टाणिया वा । २४१. सम्मत्तस्स अणुभागुदीरणा देसवादी । २४२. एगट्ठाणिया वा दुट्ठर्णिया वा । २४३. सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागउदीरणा सव्ववादी विट्ठाणियाँ । २४४. चदुसंजलण-तिवेदाणभागुदीरणा देसवादी सव्ववादी वा । २४५. एगट्टाणिया वा दुट्ठाणिया तिढाणिया विशेषार्थ - वर्ण्यमान विषयके नामको संज्ञा कहते हैं । यहाँ अनुभागकी उदीरणाका वर्णन सर्वघाति और देशघातिरूप घातिसंज्ञाके द्वारा, तथा लता, दारु, अस्थि और शैलरूप चार प्रकारकी स्थानसंज्ञाके द्वारा किया जायगा । ० चूर्णिसू० - उन दोनोका एक साथ वर्णन इस प्रकार है - मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायोकी अनुभाग- उदीरणा सर्वघाती है, तथा वह द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी अनुभाग- उदीरणा देशघाती तथा एकस्थानीय और द्विस्थानीय है । सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभाग- उदीरणा सर्वघाती और द्विस्थानीय है चार संज्वलन और तीनों वेदोकी अनुभाग- उदीरणा देशघाती भी है और सर्वघाती भी है, तथ एक स्थानीय भी है, द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है ॥२३९-२४५॥ 1 विशेषार्थ - अनुभाग- उदीरणासम्बन्धी एकस्थानीय आदि चार भेद क्रमशः जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागशक्तिकी अपेक्षासे किये गये हैं । अतएव मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायोके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा द्विस्थानीय और त्रिस्थानीय भेद जानना चाहिए । सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्दर्शनका विनाश करनेमे असमर्थ १ कुदो, एसिमणुभागोदीरणाए सम्मत्तः सजमगुणाण णिरवसेस विणासदसणादो । पञ्चक्खाणकसायोदीरणा सतीए विदेससंजमो समुवलब्भदि, तदोण तेसिं सव्वधादित्तमिदि णासकणिज, सयलसजममस्सिऊण तेसिं सव्वघादित्तसमत्थणादो | जयध० २ कुदो, मिच्छत्त बारसकसायाण मुक्कस्साणुभागुदीरणाए चउट्टाणियत्तदसणादो, तेसिं चेवाणुक्कस्साणुभागुदीरणाए चउट्ठाण तिट्ठाण दुट्ठाणियत्तदसणादो । जयध० し ३ कुदो, मिच्छत्तदीरणाए इव सम्मत्तुदीरणाए सम्मत्तसण्णिदजीवपजायरस अच्चतुच्छेदाभावादो । जयध० ४ कुदो, सम्मत्तजहण्णाणुभागुदीरणाए एगट्ठाणियत्तदसणादो, तदुकस्साणुभागुदीरणाए दुट्ठाणियत्तदसणादो | जयध० ५ कुदो ताव सव्वघादित्त ! मिच्छत्तोदीरणाए इव सम्मामिच्छत्तोदीरणाए वि सम्मत्तसष्णिदजीवगुणस्स णिम्मूलविणासदसणादो । एसा पुण दुट्ठाणिया चेव । कुदो, सम्मामिच्छत्ताणुभागम्मि दुट्ठाणियत्त मोत्तूण पयारतरासभवादो | जयध० ६ कुदो, एदेसिं जहणाणुभागुदीरणाए देसघादित्तणियमदसणादो, उक्कस्साणुभागुदीरणाए च णियमदो सव्वघादित्तदसणादो, अजहष्णाणुकस्साणुभागोदीरणासु देस- सव्वघादिभावाणं दोन्ह पि समुवलभादो च । एतदुक्त भवति-मिच्छाइट्रिट्ठप्प हुडि जाव असजद सम्माइट्ठिति ताव एदेसिं कम्माणमणुभागुदीरणाए सव्वघादी देसधादी च होदि, सकिलेस विसोहिवसेण । सजदासजद पहुडि उवरि सव्वत्येव देसघादी होदि. तत्य सन्वघादिउदीरणाए तग्गुणपरिणामेण सह विरोहादो ति । जयध० Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसा पाहुडे सुरु [ ६ वेदक-अर्थाधिकार चउडाणिया वा' । २४६. छण्णोकसापाणमणुभाग- उदीरणा देसवादी वा सव्वधादी वा' । २४७. दुट्ठाणिया वा तिट्ठाणिया वा चउट्टाणिया वा । २४८. चदुसंजलणेणवणोकसायाणमणुभाग- उदीरणा एह दिए वि देसवादी होई । ५०२ होनेसे देशघाती कही गई है । उसे जघन्य अनुभागकी अपेक्षा एकस्थानीय और उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा स्थानीय कहा है । सम्यग्मिध्यात्वप्रकृति सम्यक्त्वकी विनाशक है, अतः सर्वधाती है और इसका अनुभाग द्विस्थानीय ही कहा है, क्योकि इसमें अन्य तीन विकल्प संभव नही हैं। चारो संज्वलन और तीनों वेद जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्वघाती हैं । तथा अजघन्य और उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा दोनो रूप भी हैं । इसका अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक संक्लेश और विशुद्धिके निमित्तसे उक्त कर्मप्रकृतियोकी अनुभाग- उदीरणा सर्वघाती भी होती है और देशघाती भी होती है । किन्तु संयतासंयत से लेकर ऊपर के गुणस्थानोमें अनुभाग- उदीरणा सर्वत्र देशघाती ही होती है, क्योकि, वहाँ सर्वघातीरूप उदीरणाका होना संभव नहीं है । उक्त प्रकृतियोकी चारो ही स्थानरूप उदीरणा कहनेका आशय यह है कि नर्वे गुणस्थानमें अन्तरकरण करनेपर उक्त प्रकृतियोकी अनुभाग- उदीरणा नियमसे लतारूप एकस्थानीय ही दिखाई देती है । इससे नीचे दूसरे गुणस्थानतक द्विस्थानीय ही अनुभागउदीरणा होती है । किन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में परिणामो के परिवर्तनके अनुसार द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय भी होती है । चूर्णिसू० - हास्यादि छह नोकपायोकी अनुभागउदीरणा देशघाती भी है और सर्वघाती भी है । तथा द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है ॥ २४६ ॥ विशेषार्थ - संयतासंयतादि उपरिम गुणस्थानों में हास्यादिषट्ककी अनुभाग- उदीरणा द्विस्थानीय होनेपर भी देशघाती ही होती है । किन्तु इससे नीचे सासादनगुणस्थान तक द्विस्थानीय होते हुए भी देशघाती और सर्वघाती इन दोनों ही रूपोमे अनुभाग- उदीरणा होती है । मिध्यादृष्टिकी अनुभाग- उदीरणा द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय तथा चतुःस्थानीय होती है । चूर्णिसु० - चारो संञ्चलन और नवों नोकपायोकी अनुभाग- उदीरणा एकेन्द्रिय जीवमे भी देशघाती होती होती है ॥ २४८ ॥ १ कुदो; अंतरकरणे कदे एदेसिमणुभागोदीरणाए पियमेणेगट्ठाणियत्तद सणादो । हेट्ठा सव्वत्येव गुणपडिवण्णेसु दुट्ठाणियत्तणियमदणादो । मिच्छाइट्ठिम्मि दुट्ठाण - तिट्ठाण चउट्ठाणभेदेण परियत्तमाणाणुभागोदीरणाए दसणादो | जयध० २ कुदो; असंजदसम्माइटिठप्पहुडि हेट्ठा सव्वत्थेव देस-सव्वधादिभावेणेदे सिमणुभा गोदीरणाए उत्ति सणादो; सजदासजदप्पहुडि जाव अपुव्वकरणो त्ति देसघादिभावेणुदीरणाए पउत्तिणियमट सणादो च । जयध० ३ कुढो, सजदास जढादिउवरिमगुणट्ट्ठाणेसु छष्णोकसायाणमणुभागोदीरणाए देमघादि दुट्टाणियत्तणियम सणादो | हेठिमेसु वि गुणपडिवणेसु विट्ठाणियाणुभागुदीरणाए देस सव्वधादिविसेसिदार संभवोचलभादो । मिच्छाइट्रिट्ठम्मि विद्याण-तिट्ठाण चउट्ठाणवियप्पाणं सव्वेसिमेव सभवादो | जयध० ४ एत्य देसधादो चेव उदीरणाए होइ ति णावहारेयव्वं, किंतु एदेसु जीवसमासेसु सव्वधादि Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] अनुभाग-उदीरणा-स्वामित्व-निरूपण २४९. एगजीवेण सामित्तं । २५०. तं जहा। २५१. मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स १ २५२. मिच्छाइट्ठिस्स सण्णिस्स सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तयदस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स' । २५३. एवं सोलसकसायाणं । २५४. सम्मत्तस्स उक्कस्साणुभागु विशेषार्थ-उक्त प्रकृतियोकी देशघाती अनुभाग-उदीरणा संयतासंयतादि उपरिम गुणस्थानोके समान असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियोमे भी परिणामोकी विशुद्धिके समय पाई जाती है। इतना ही नहीं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोमे भी यथायोग्य संभव विशुद्धिके कारण देशघाती अनुभाग-उदीरणाके पाये जानेका कही कोई निषेध नहीं है । और तो क्या, एकेन्द्रिय जीवो तकमे यथासम्भव विशुद्धिके कारण उक्त प्रकृतियोकी देशघाती अनुभागउदीरणा पाई जाती है । यहाँ प्रकृत सूत्रके द्वारा असंज्ञी पंचेन्द्रियादि एकेन्द्रिय जीवोमे सर्वघाती अनुभाग-उदीरणाका निषेध नहीं किया गया है किन्तु सर्वघातीके समान देशघातीके सद्भावका भी निरूपण किया गया है, ऐसा अभिप्राय लेना चाहिए । चूर्णिसू०-अव एक जीवकी अपेक्षा अनुभाग-उदीरणाका स्वामित्व कहते है। वह इस प्रकार है ॥२४९-२५०॥ शंका-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२५१।। समाधान-सर्व पर्याप्तियोसे पर्याप्त और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त, संजी पंचेन्द्रिय मिथ्याष्टिके होती है ॥२५२॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायोकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए । अर्थात् उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त, संजी, पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीव ही सोलह कषायोकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका स्वामी है ॥२५३॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२५४॥ उदीरणासम्भावमविप्पडिवत्तिसिद्ध कादूण देसघादि-उदीरणाए तत्थासभवणिरायरणमुहेण सभवविहाणमेदेण सुत्तेण कीरदे । तदो सणिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि एइ दियपजवसाणसव्वजीवसमासेसु एदेसि कम्माणमणुभागुदीरणा देसघादी वा सव्वघादी वा होदूण लभदि त्ति णिच्छयो कायव्यो । जयध० १ किमट्ठमण्णजोगववच्छेदेण सव्वस किलिटरसेव पयदसामित्तणियमो ? ण, म दसकिलेसेण विसोहीए वा परिणदस्स सव्वुक्कस्साणुभागुदीरणाणुववत्तीदो । तदो उक्करसाणुभागसतकम्मट्ठाणचरिमफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदे उक्कस्ससकिलेसवसेण थोवयरे चेव होदूण तप्पाओग्गहेट्ठिमाणतगुणहीणच उट्ठाणाणुभागसरूवेण उदीरेमाणस्स सण्णिपचिदियपजत्तमिच्छादिठिस्स उक्कस्सय मिच्छत्ताणुभागुदीरणासामित्त होदि त्ति एसो सुत्तस्थसमुच्चयो । एत्य उक्कस्साणुभागसतकम्मादो चेव उक्करसाणुभागुदीरणा होदि त्ति णत्थि णियमो, किंतु तप्पाओग्गाणुक्कस्साणुभागसतकम्मेण वि उकस्साणुभागुदीरणाए होदव्य, अण्णहा थावरकायादो आगतूण तसकाइएसुप्पण्णस्स सव्वकालमुक्कस्साणुभागसतकम्मुप्पत्तीए अभावप्पसगादो । जयध० २ एत्थ सव्वुक्कस्ससकिलिमिच्छाइट्ठि-अणुभागुदीरणाए सामित्तविसईकयाए माहप्पजाणावण?मेदमप्पाबहुअमणुगतव्व । त जहा-सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयमिच्छाइठिस्स अणुभागुदीरणा थोवा, दुचरिमसमए अणतगुणभहिया, तिचरिमसमए अणतगुणन्महिया । एव चउत्थसमयादी णेदव्य जाव सव्वुक्कस्ससकिलिट्ठमिच्छाइट्ठिस्स अणुभागुदीरणा अणतगुणा त्ति । तदो अण्णजागववच्छेदेणेस्थेव मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुकास्ससामित्तमवहारयन्नमिदि । जयघ० Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - काय पाहुड सुत्त [६ घेदफ-अर्थाधिकार दीरणा कस्स ? २५५. मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्मादिहिस्स सव्वसंकिलिदुस्स' । २५६. सम्मामिच्छत्तस्स उकस्साणुभागुदीरणा करत ? २५७. मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमय-सम्मामिच्छाइद्विस्स सव्वसंकिलिहस्स । २५८.इत्थिवेद-पुरिसवेदाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? २५९.पंचिंदियतिरिक्खस्स अट्ठवासजादस्स करहस्स' सव्वसंकिलिट्ठस्स । २६०. णवूसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? समाधान-सर्वोत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त और मिथ्यात्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है ॥२५५॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२५६॥ समाधान-सर्वाधिक संक्लेश-युक्त एवं मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके सम्मुख चरमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है ॥२५७॥ शंका-स्त्रीवेद और पुरुपवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२५८॥ समाधान-अष्टवर्षायुष्क, सर्वाधिक संक्लिष्ट, पंचेन्द्रिय तिर्यच करभ अर्थात् ऊँट और ऊँटनीके होती है ॥२५९॥ विशेपार्थ-कर्मोदयकी विचित्रतापर आश्चर्य है कि हजारो शरीर बनाकर एक साथ स्त्रीसेवन करनेवाले चक्रवर्ती या इन्द्रके पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा नहीं होती। और इसी प्रकार हजारो रूप बनाकर एक साथ इन्द्रके साथ वैषयिक सुख भोगनेवाली इन्द्राणीके भी स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा नहीं होती, जव कि आठ वर्ष या इससे अधिक आयुके धारक और वेदोदयसे उत्कृष्ट वैकल्य या संक्लेशको प्राप्त ऊँटके पुरुपवेदकी और ऊँटनीके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा होती है। इसका एकमात्र कारण जातिगत स्वभाव ही है। ऊँटऊँटनीके कामकी वेदना देव, मनुष्य और तिर्यच इन तीनोमे सबसे अधिक होती है, वह स्त्री या पुरुषवेदके तीव्र उदय होनेपर कामान्ध या उन्मत्त हो जाता है, जब तक उसके प्रकृतवेदकी उदीरणा नहीं हो जाती है, तब तक उसे और कुछ नही सूझता है । शंका-नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२६०॥ १ कुदो, जीवादिपयत्थे दूसिय मिच्छत्त गच्छमाणस्स तस्स उक्कस्ससकिलेसेण बहुआणुभागहाणीए अभावेण सम्मत्तुक्कस्सागुभागुदीरणाए तत्थ सम्वद्धमुवलभादो । जयध २ उष्ट्रो मयः शृङ्खलिकः करमः शीघ्रगामुकः ॥९१॥ धनजयः ३ एत्थ पंचिंदियतिरिक्खणिद्दे सो मणुस-देवगदिवुदासट्ठो; तत्थुक्कसवेदस किलेसाभावादो। कुदो एद णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । अठ्वासजादस्सेत्ति तत्स विसेसणमछ्वस्सेहितो हेट्टा सबुक्कस्तो वेदसकिलेसो ण होदि त्ति जाणावणटुं | करभस्सेत्ति वयणं नादिविसेसेण तत्थेवित्थि पुरिसदाणमुय स्साणु. मागुदीरणा होदि त्ति पदुप्पायणछ । तत्स वि उकत्ससकिलेसेण परिणदावत्थाए चेव उमस्साणुभागउदीरणा होदि त्ति जाणावणट्ठ सव्वसंकिलिट्ठस्सेत्ति भणिद । तदो एवं विहस्स जीवत्स पयदुक्करससामित्तमिदि सिद्ध। जयघ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] अनुभाग-उदीरणा-स्वामित्व-निरूपण ५०५ २६१. सत्तमाए पुडवीए णेरइयस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । २६२. हस्स-रदीणमुक्कस्साणुभागउदीरणा कस्स ? २६३. सदार-सहस्सारदेवस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स। २६४. एत्तो जहणिया उदीरणा । २६५. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? २६६ संजयाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । २६७. सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? २६८. समयाहियावलिय-अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । समाधान-सातवी पृथिवीके सर्वोत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त नारकीके होती है ॥२६१॥ विशेषार्थ-ये नपुंसकवेदादि सूत्रोक्त प्रकृतियाँ अत्यन्त अप्रशस्त-स्वरूप होनेसे नितरां महादुःखोत्पादन-स्वभाववाली है। फिर त्रिभुवनमे सातवे नरकसे अधिक दुःख भी और कहीं नहीं । और नपुंसकवेद, अरति, शोकादिकी उदीरणाके निमित्तकारणरूप अशुभतम बाह्य द्रव्य सप्तम नरकसे बढ़कर अन्यत्र सम्भव नहीं हैं, इन्ही सब कारणोसे उक्त प्रकृतियोकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा सप्तम नरकके सर्वसंक्लिष्ट नारकीके बतलाई गई है। शंका-हास्य और रतिप्रकृतिकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ?॥१६२॥ समाधान-सर्वाधिक संक्लिष्ट, शतार-सहस्रार-कल्पवासी देवोके होती है ॥२६३॥ विशेषार्थ-क्योकि, उक्त राग बहुल देवोमे हास्य और रतिके कारण प्रचुरतासे पाये जाते है । उक्त देवोके हास्य-रतिका छह मास तक निरन्तर एक-सा उदय बना रहता है, अर्थात् वहॉके देव छह मास तक लगातार हँसते हुए रह सकते हैं । चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्य अनुभाग-उदीरणाके स्वामित्वका वर्णन करते हैं ॥२६४॥ शंका-मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२६५॥ समाधान-(सम्यक्त्व और ) संयमको ग्रहण करनेके अभिमुख, सर्वविशुद्ध चरमसमयवर्ती मिथ्याष्टिके होती है ॥२६६॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२६७॥ समाधान-एक समय अधिक आवलीकालवाले अक्षीणदर्शनमोह सम्यग्दृष्टिके होती है, अर्थात् जिसने दर्शनमोहका क्षपण प्रारम्भ कर दिया है, पर अभी जिसके क्षयमे एक समय-अधिक एक आवलीप्रमाण काल बाकी है, ऐसे वेदकसम्यक्त्वीक सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है ॥२६८॥ १ एदाओ पयडीओ अञ्चतअप्पसत्यसरूवाओ, एयतेण दुक्खुप्पायणसहावत्तादो। तदो एदासिमुदीरणाए सत्तमपुढवीए चेव उक्कस्ससामित्त होइः तत्तो अण्णदरस्स दुक्खणिहाणस तिहुवणभवणभतरे कहिं पि अणुवलभादो, तदुदीरणाकारणबज्झदव्वाण पि असुहयराण तत्थेव बहुलं सभवोवलभादो । जयध० २ कुदो, सदार-सहस्सारदेवेसु रागबहुलेसु हस्स-रदिकारणाण बहूणमुवलभादो । णेदमसिद्धः उक्कत्सेण छम्मासमेत्तकाल तत्थ हस्स-रदीणमुदयो होदि त्ति परमावगमोवएसवलेण सिद्धत्तादो । जयध० ३ किं कारण, विसोहिपयरिसेण अप्पसत्थाण कम्माणमणुभागो सुट्ठु ओहट्टिऊण हेठिमाण तिमभागसरूवेणुदीरिजदि त्ति । तदो सम्मत्त सजम च जुगव गेण्हमाणचरिमसमयमिच्छाइहिस्स जहण्णसामित्तमेद दट्ठव्व । जयध० ४ कुदो, दसणमोहक्खवयतिव्वपरिणामेहि बहुअ खडयघाद पाविदूण पुणो अतोमुहुत्तमेत्तकालमणु Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार २६९. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स १ २७०. सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइडिस्स सव्वविसुद्धस्स । २७१. अणंताणुवंधीणं जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स १२७२. संजमाहिमुह चरिमसमयमिच्छाइहिस्स सव्वविसुद्धस्स । २७३. अपचक्खाणकसायस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स १ २७४. संजमाहिमुहचरिमसमय-असंजदसम्माइहिस्स सव्वविसुद्धस्स । २७५. पञ्चक्खाणकसायस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? २७६. संजमाहिमुहचरिमसमय-संजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स । २७७. कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? २७८. खवगस्स चरिमसमयकोधवेदगस्स' । २७९. शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२६९॥ समाधान-सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख, सर्व-विशुद्ध चरम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है ।।२७०॥ विशेषार्थ-यहां 'संयमके अभिमुख' ऐसा न कहनेका कारण यह है कि कोई भी जीव तीसरे गुणस्थानसे सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण नहीं कर सकता है । शंका-अनन्तानुवन्धी कपायोकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२७॥ समाधान-संयमके अभिमुख, सर्व-विशुद्ध चरम समयवर्ती मिथ्याष्टिके होती है ॥२७२॥ शंका-अप्रत्याख्यानावरण कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२७३॥ समाधान-संयमके अभिमुख, सर्व-विशुद्ध चरमसमयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है ॥२७४॥ शंका-प्रत्याख्यानावरण कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२७५॥ समाधान-संयमके अभिमुख, सर्व-विशुद्ध, चरमसमयवर्ती संयतासंयत्तके होती है ॥२७६॥ शंका-संज्वलन क्रोधकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२७७॥ समाधान-चरमसमयवर्ती क्रोधका वेदन करनेवाले अनिवृत्तिसंयत क्षपकके होती है ? ||२७८॥ समओवट्टणाए सुठु ओहणि ट्ठिदसम्मत्ताणुभागविसयउदोरणाए तत्थ जहण्णभावसिद्धीए णिव्याहमुवलंभादो । एसा समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीयस्स जहण्णाणुभागुदीरणा एयट्ठाणिया । एत्तो पुचिल्लासेसअणुभागुदीरणाओ एयटटाणिय-विट्ठाणियसलवाओ जहाकममणंतगुणाओ । तदो तप्परिहारेणे. स्थेव जहण्णसामित्त गहिदं । जयध० १ जो खवगो कोधोदएण खवगढिमारुढो, अट्ठकसाए खविय पुणो जहाकममंतरकरणं समाणिय णवंसय-इत्यिवेद-छप्णोकसाए पुरिसवेदं च जहावुत्तण क्मेण णिण्णासिय तदो अस्सकष्णकरण-किट्टीकरणद्धाओ गमिय कोहतिण्णिसंगहकिटीओ वेदेमाणो तदियसगहकिट्टीवेदयपढमट्ठिटीए समयाहियावलियमेत्तसेसाए चरिमसमयकोहवेदगो जादो, तत्स कोहसनलणविसया जहण्णाणुभागुटीरणा होदि, हेछिमासेस उदीरणाहितो एदित्से उदीरणाए अणंतगुणहीणत्तदंसणादो । जयध० Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ गा० ६२] अनुभाग-उदीरणा-स्वामित्व-निरूपण माणसंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स १ २८०. खवगस्स चरिमसमयमाणवेदगस्स । २८१. मायासंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स २८२. खवगस्स चरिमसमयमायावेदगस्स । २८३. लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? २८४. खवयस्स समयाहियावलिय चरिमसमयसकसायस्स' । २८५, इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? २८६. इत्थिवेदखवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स । २८७. पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? २८८. पुरिसवेदखवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स । २८९. णqसयवेदस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? २९०. णवंसयवेदखवयस्स समयाहियावलिय-चरिमसमयसवेदस्स । २९१. छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? २९२. खवगस्स चरिमसमय-अपुचकरणे चट्टमाणस्स। शंका-संचलनमानकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२७९।। समाधान-चरमसमयवर्ती मानका वेदन करनेवाले अनिवृत्ति संयत क्षपकके होती है ॥२८०॥ शंका-संज्वलन मायाकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२८१॥ समाधान-चरमसमयवर्ती माया-वेदक अनिवृत्तिसंयत क्षपकके होती है ।।२८२।। शंका-संज्वलन लोभकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२८३।। समाधान-समयाधिक आवलीके चरम समयमे वर्तमान सकषाय (सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती) क्षपकके होती है ॥२८४॥ शंका-स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२८५॥ समाधान-समयाधिक आवलीके चरमसमयवर्ती सवेदी स्त्रीवेद-क्षपकके होती है ॥२८६॥ शंका-पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२८७॥ समाधान-समयाधिक आवलीके चरमसमयवर्ती सवेदी पुरुषवेद-क्षपकके होती है ॥२८८॥ शंका-नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ? ॥२८९॥ समाधान-समयाधिक आवलीके चरमसमयवर्ती सवेदी नपुंसकवेद-क्षपकके होती है ॥२९॥ शंका-हास्यादि छह नोकषायोकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा किसके होती है ॥२९१॥ समाधान-अपूर्वकरण गुणस्थानके अन्तिम समयमे वर्तमान क्षपकके होती है ॥२९२॥ १ कुदो, समयाहियावलियचरिमसमयवट्टमाण सुहुमसापराइयखवगस्स सुहुमकिट्टिसरूवाणुभागोदीरणाए सुठु जहण्णभावोववत्तीदो । जयध० २ कुदो, तत्थेदेसिमपुत्वकरणचरिमविसोहीए हेटिठमासेसविसोहीहितो अणतगुणाए उदीरिजमाणाणुभागस सुछ जहण्णाणुभावोववत्तीदो । जयध° Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार २९३. एगजीवेण कालो । २९४. मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होइ ? २९५. जहण्णेण एयसमओ। २९६. उक्कस्सेण वे समया' । २९७. अणुक्कस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? २९८. जहण्णेण एगसमओ। २९९. उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । विशेषार्थ-तीनो वेदोंमेंसे विवक्षित वेदके उदयसे आपकश्रेणी पर चढ़कर नवें गुणस्थानके सवेद भागके एक समय अधिक आवलीके अन्तिम समयमें वर्तमान जीवके उस उस विवक्षित वेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा अनुभाग-उदीरणाके कालका वर्णन करते हैं।।२९३॥ शंका-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाका कितना काल है ? ॥२९४॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है । (क्योकि, इससे अधिक उत्कृष्ट संक्लेश संभव नहीं।) ॥२९५-२९६॥ शंका-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाका कितना काल है ? ॥२९७।। समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥२९८-२९९॥ विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थितिवन्धके कारणभूत एक उत्कृष्ट कपायाध्यवसायस्थानके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धके योग्य अध्यवसायस्थान होते हैं। जो जीव उत्कृष्ट अनुभागवन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे परिणत होकर और उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करके परिणामोके वशसे तदनन्तर ही एक समय अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करके फिर भी तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला हुआ। इस प्रकार मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाका जघन्यकाल एक समयमात्र सिद्ध हो गया। यहाँ यह शंका नही करना चाहिए कि उत्कृष्ट संक्लेशसे गिरे हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तके विना केवल एक समयमें ही पुनः उत्कृष्ट संक्लेशका होना कैसे सम्भव है ? इसका कारण यह है कि अनुभागवन्धाध्यवसायस्थानोमे इस प्रकारका कोई नियम नहीं माना गया १ त जहा-अणुक्कस्साणुभागुदीरगो सण्णिमिच्छाइट्ठी एगसमय उक्कस्ससकिलेसेण परिणमिय उक्करमाणुभागउदीरगो जादो । विदियसमए उक्कस्सस किलेसक्खएणाणुक्कस्सभावमुवगओ। लदो तस्स मिच्छत्तुक्कस्साणुभागोदीरणकालो एगसमयमेत्तो । जयध० २ त कथ ? अणुक्कस्साणुमागुदीरगो उक्कस्ससतकम्मिओ उकस्ससकिलेसमावृरिय दोसु समएसु मिच्छत्तत्स उक्करमाणुभागुदीरगो जादो। तदो से काले सकिलेसपरिक्खएणाणुकसभावे णिवदिदो। लदो मिच्छत्तुक्कस्साणुभागुदीरगस्स उक्कस्सकालो विसमयमेत्तो, तत्तो परमुक्कस्ससकिलेसस्सावट्टाणाभावादो । जयध० ३ कथमुक्कस्ससकिलेसादो पडिमग्गस्स अंतोमुहुत्तेण विणा एगसमयेणेव पुणो उकससकिलेसावरणसभवो त्ति णेहासकणिज; अणुभागवधज्झवसाणट्ठाणेसु तहाविहणियमाणभुवगमादो । जयध० ४ कुदो; पचिंदिए हिंतो एइदिएसु पइट्ठस्स उकस्ससकिलेसपडिलभेण विणा आवलियाए असंखेन. दिभागमेत्तपोग्गलपरियहेतु परिभमणदसणादो । जयघ० Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ गा० ६२ ] अनुभाग-उदीरणा-काल-निरूपण ३००. सम्मत्तस्स उकस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि १ ३०१. जहण्णुक स्सेण एगसमओ। ३०२. अणुक्कस्साणुभाग-उदीरगो. केवचिरं कालादो होदि ? ३०३. जहण्णेण अंतोमुहुर्त । ३०४. उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि आवलियूणाणि । ३०५. सम्मामिच्छत्तस्स उकस्साणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ३०६. जहण्णुक्कस्सेण एयसमयों । है । मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण माना गया है । क्योकि, पंचेन्द्रियोसे आकर एकेन्द्रियोमे उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट संक्लेशके प्राप्त हुए विना असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनकाल तक परिभ्रमण देखा जाता है। शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका कितना काल है ? ॥३०॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है ॥३०१॥ विशेषार्थ-क्योकि, मिथ्यात्वके अभिमुख, सर्वाधिक संक्लिष्ट असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व-प्रकृतिकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका होना सम्भव नहीं है। शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका कितना काल है ॥३०२॥ समाधान-जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल आवली कम छयासठ सागरोपम है ॥३०३-३०४॥ विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण कर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् ही मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही पाया जाता है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका उत्कृष्टकाल एक आवली कम छयासठ सागरोपम है। इसका कारण यह है कि वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल ही इतना माना गया है । एक आवली कम कहनेका अभिप्राय यह है कि वेदकसम्यक्त्वके छयासठ सागरोपमकालके पूरा होनेमे अन्तमुहूर्त शेप रह जानेपर दर्शनमोहनीयको क्षपण करनेवाले जीवके सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिके समयाधिक आवलीप्रमाण शेष रह जानेपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदीरणाका अवसान होता है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका कितना काल है १ ॥३०५।। समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ।।३०६।। १ कुदो; मिच्छत्ताहिमुहसव्वसकिलिट्ठासजदसम्मादिठ्ठिचरिमसमय मोत्तूणण्णत्थ सम्मत्तुक्कस्साणुभागुदीरणाए सभवाणुवलभादो । जयध० २ कुदो, वेदगसम्मत्त घेत्तूण सव्वजहण्णतोमुत्तेण कालेण मिच्छत्त पडिवण्णम्मि अणुकस्सजहण्णकालस्स तप्पमाणत्तोवलभादो । जयध० ३ कुदो, वेदगसम्मत्तउक्कस्सकालस्सावलियूणस्स पयदुक्कस्सकालत्तणावलबियत्तादो। कुदो आवलि- - यूणत्तमिदि चे छावट्ठिसागरोवमाणमवसाणे अंतोमुहुत्तसेसे दसणमोहणीयं खर्वतस्स सम्मत्तपढमछिदीए समयाहियावलियमेत्तसेसाए सम्मत्तु दीरणाए पजवसाण होइ, तेणावलियूणत्तमेत्थ दट्ठव्वमिदि । जयध० ४ किं कारण, सव्वुक्कस्ससकिलेसेण मिच्छत्त पडिवजमाणसम्मामिच्छाइट्ठिचरिमसमए चेव सम्मामिच्छत्त कस्साणुभागुदीरणदसणादो । जयध० Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुस्त [६ वेदक अर्थाधिकार ३०७. अणुक्कस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि १३०८ जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । ३०९. सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो । ३१०. णवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरग-उक्कस्सकालो पयडिकालो कादव्यो । ३११. एत्तो जहण्णगो कालो । ३१२. सव्वासिं पयडीणं जहण्णाणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होदि १३१३. जहण्णुकस्सेण एगसमओ। ३१४. अजहण्णाणुभागुदीरणा पयडि-उदीरणाभंगो । ३१५. अंतरं । ३१६. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ३१७. जहण्णेण एगसमओ। ३१८. उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । विशेषार्थ-क्योकि, सर्वोत्कृष्ट संक्लेशसे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टिके चरम समयमे ही सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा होती है । शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाका कितना काल है ?॥३०७॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । (क्योंकि, तीसरे गुणस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही माना गया है ।) ॥३०८॥ __चूर्णिसू०-मोहकी शेप पच्चीस कर्मप्रकृतियोकी अनुभाग-उदीरणाका काल मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि उक्त पच्चीसो प्रकृतियोकी अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाके उत्कृष्टकालका निरूपण प्रकृति-उदीरणाके उत्कृष्ट कालके समान करना चाहिए ॥३०९-३१०॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्य अनुभाग-उदीरणाका काल कहते है ॥३११॥ शंका-मोहकर्मकी सर्वप्रकृतियोके जघन्य-अनुभागकी उदीरणाका कितना काल है ? ॥३१२॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ॥३१३॥ विशेषार्थ-क्योकि, सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण करके सम्मुख चरमसमयवर्ती मिथ्यावृष्टि ही जघन्य अनुभाग-उदीरणाका स्वामी वतलाया गया है। चूर्णिसू०-मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोके जघन्य अनुभाग-उदीरणाका काल प्रकृतिउदीरणाके कालके समान है ॥३१४॥ चूर्णिसू०-अव एक जीवकी अपेक्षा अनुभाग-उदीरणाके अन्तरको कहते हैं ।।३१५॥ शंका-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाका अन्तरकाल कितना है ?॥३१६॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥३१७-३१८॥ १ कुदो; जहण्णुकस्ससम्मामिच्छत्तगुणकालस तप्पमाणत्तादो । जयध० २ कुदो, उक्कस्सादो अणुकस्समाव गतूणेगसमयमतरिय पुणो वि विदियसमए उकसभावमुवग. चम्मि तदुवलंमादो । जयध० ३ कुदो, सण्णिपचिदिएसुक्कत्ससंकिलेसेणुक्कत्साणुमागुदीरणाए आदि कादूणतरिय एइदिएम Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] अनुभाग-उदीरणा-काल-निरूपण ३१९. अणुक्कस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ३२०जहण्णेण एगसमओ। ३२१. उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३२२. एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । ३२३. णवरि अणुकस्साणुभागुदीरगंतरं पयडिअंतरं कायव्वं । ३२४.सम्पत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुक्कस्साणुभागदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ३२५. जहण्णेण अंतोमुहुत्त । ३२६. उकस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । विशेषार्थ-उत्कृष्ट अन्तरका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-कोई एक जीव, संज्ञी पंचेन्द्रियोंमे उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा प्रारम्भ करके अन्तरको प्राप्त होकर एकेन्द्रियोमें उत्पन्न हो, उनकी असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको पालन करके पुनः वहाँसे लौटकर बसोमें उत्पन्न होकर उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका पुनः प्रारम्भ करनेवाले जीवमें असंख्यात पुदलपरिवर्तन प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है। शंका-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरकका अन्तरकाल कितना है ? ॥३१९॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक दो वार छ थासठ सागरोपम है ॥३२०-३२१॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाके उत्कृष्ट अन्तरकी प्ररूपणा इस प्रकार है--कोई जीव मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता हुआ प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होकर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके आवलीमात्र शेष रह जाने पर अनुदीरक बनके अन्तरको प्राप्त हुआ और सम्यक्त्वको उत्पन्न कर तथा सर्वोत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वका काल बिताकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। वहाँ अन्तर्मुहूर्त कम छ यासठ सागरोपम पूरा करके अन्तमे सम्यग्मिथ्यात्वके उदयसे गिरा और अन्तर्मुहूर्त अन्तरको प्राप्त होकर फिर भी वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर और दूसरी बार छयासठ सागरोपम परिभ्रमण करके अन्तर्मुहूर्तकालके शेप रह जानेपर मिथ्यात्वमे जाकर मिथ्याष्टि होनेके प्रथम समयमे मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला हुआ । इस प्रकार सूत्रोक्त अन्तरकाल सिद्ध हो जाता है । चूर्णिसू०-इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वको छोड़कर शेष कर्मोंकी अनुभाग-उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा करना चाहिए। केवल अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा प्रकृति-उदीरणाकी अन्तर-प्ररूपणाके समान जानना चाहिए ॥३२२-३२३॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरकका अन्तरकाल कितना है ? ॥३२४॥ समाधान-जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है ॥३२५-३२६॥ पविसिय तदुक्कस्सछिदिमेत्तमुक्कस्सतरमणुपालिय पुणो वि पडिणियत्तिय तसेसु आगतूण पडिवण्णतभा वम्मि तदुवलभादो । जयध० Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार ३२७. जहण्णाणुभागुदीरगंतरं केसिंचि अत्थि, केसिंचि णत्थि' । ३२८. णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं सण्णियासो च एदाणि कादव्याणि । ३२९. अप्पाबहुअं ३३०. सव्यतिव्याणुभागा मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा' । २३१. अणंताणुवंधीणमण्णदरा उक्कस्साणुभागुदीरणा तुल्ला अणंतगुणहीणां । विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होकर उसके छूट जानेके पश्चात् जीव अधिकसे अधिक उक्त प्रकृतियोके अनुभाग-उदीरणाके अन्तरभावको कुछ अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक धारण कर सकता है । चूर्णिस०-जघन्य अनुभागकी उदीरणाका अन्तर कितने ही जीवोके होता है और कितने ही जीवोके नहीं होता है ॥३२७॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि आपकश्रेणीमे और दर्शनमोहनीयकी क्षपणामे प्राप्त होनेवाले जघन्य अनुभाग-उदीरणाके स्वामियोके अन्तरके अभावका नियम देखा जाता है। किन्तु अनन्तानुबन्धी आदि कषायोके जघन्य अनुभाग-उदीरणाका अन्तर पाया जाता है, सो आगमानुसार जानना चाहिए । चूर्णिसू०-नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और सन्निकर्प इतने अनुयोगद्वारोसे अनुभाग-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिए ॥३२८॥ विशेष जिज्ञासुओंको उच्चारणाचार्यके उपदेशके वल पर लिखी गई जयधवला टीका देखना चाहिए। चूर्णिसू०-अव अनुभाग-उदीरणासम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते है-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा सबसे अधिक तीव्र अनुभागवाली होती है । ( क्योकि, वह सर्वद्रव्योके विपयभूत श्रद्धानकी प्रतिवन्धक है । ) अनन्तानुबन्धी कपायोमेसे किसी एक कषायकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा परस्परमे समान होते हुए भी मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागसे, अनन्तगुणी हीन है। ( क्योकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसे अनन्तानुवन्धी कपायोका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित हीनस्वरूपसे ही अवस्थित देखा जाता है।) संज्वलन कषायोमेंसे किसी एक कपायकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा परस्परमे १ कुदो; खवगसेढीए दसणमोहक्खवणाए च लद्धजहण्णसामित्ताणमतराभावणियमदसणादो | जयध० २ कुदो; सव्वदव्वविसयसद्दहणगुणपडिबधित्तादो । जयध० ३ कुदो मिच्छत्तुक्कत्साणुभागादो एदेसिमुक्कस्साणुभागस्स अणतगुणहीणसरूवेणावठाणदसणादो। एत्य अणतागुवधिमाणादीण मणुभागुदीरणा सत्थाणे समाणा तिज भणिद, तण्ण घडदे । किं कारण ? विसेसाहियसरूवेणेदेसिमणुभागसतकम्मत्सावट्ठाणदसणादो?ण एस दोसो; विसेसाहियसंतकम्मादो विसेसहीणसंतकम्मादो च समाणपरिणामणिबधणा उदीरणा सरिसी होदि त्ति अत्भुवगमाटो। एसो अत्यो उवरि सजलणादिकसाएनु वि जोजेयन्यो । जयघ० Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] अनुभाग- उदीरणा अल्पबहुत्व-निरूपण ३३२. संजलणाणमण्णदरा उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा' । ३३३. पचक्खाणावरणीयाणमुकस्साणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणहीणां । ३३४. अपचक्खाणावरणी याणमुकस्साणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणहीणा । ३३५. णवुंसयवेदस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । ३३६. अरदीए समान होते हुए भी अनन्तानुबन्धी किसी एक कषायकी उत्कृष्ट अनुभाग - उदीरणासे अनन्त - गुणी हीन है | ( क्योकि, सम्यक्त्व और चारित्रकी घातक अनन्तानुबन्धी कपायके उत्कृष्ट अनुभाग केवल चारित्रका ही घात करनेवाली संज्वलनकपायका उत्कृष्ट भी अनुभाग अनन्त - गुणित हीन ही पाया जाता है । ) प्रत्याख्यानावरणीय कषायोमे से किसी एक कषायकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा परस्परमे समान होते हुए भी किसी एक संज्वलन कषायकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योकि, यथाख्यातसंयमके विरोधी संज्वलन कषायों के अनुभागको देखते हुए क्षायोपशमिक संयम के प्रतिबन्धक प्रत्याख्यानावरणीय कषायके अनुभागका अनन्तगुणित हीन होना न्यायसंगत ही है ।) अप्रत्याख्यावरणीय कषायोमेसे किसी एक कषायकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा परस्परमे समान होते हुए भी किसी एक प्रत्याख्यानावरणीय कषायकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है ॥ ३२९-३३४॥ विशेषार्थ-सकल संयम के घातक प्रत्याख्यानावरणीय कषायके उत्कृष्ट अनुभाग देशसंयमके घातक अप्रत्याख्यानावरणीय कषायके उत्कृष्ट अनुभागका अनन्तगुणित होन होना स्वाभाविक ही है । यहाँ यह शंका की जा सकती है कि जब अनन्तानुबन्धी आदि कषायोका अनुभाग-सत्त्व स्वस्थानमे विशेषाधिक है, अर्थात् अनन्तानुबन्धी मानके अनुभागसत्त्वसे उसीके क्रोध का अनुभाग-सत्त्व विशेष अधिक होता है । इससे इसीकी मायाका अनुभाग-सत्त्व विशेष अधिक होता है और लोभका विशेष अधिक होता है । यही क्रम चारो जातिकी कषायोके लिए बतलाया गया है, तो फिर यहाॅ चूर्णिकारने उक्त कषायोकी अनुभागउदीरणा स्वस्थानमे परस्पर तुल्य कैसे कही ? इस शंकाका समाधान यह है कि अनुभागसत्त्वके उत्तरोत्तर विशेष अधिक होनेपर भी समान परिणामके निमित्तसे होनेवाली अनुभागउदीरणा समान ही होती है, ऐसा अर्थ आगममे स्वीकार किया गया है । अतएव उक्त कषायोकी अनुभाग- उदीरणा स्वस्थान में समान पाई जाती है । चूर्णिसू० - नपुंसक वेदकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा अप्रत्याख्यानावरणीय किसी ५१३ १ कुदो; दसण चरित्तपडिब धिअणताणुबधीणमुक्कस्साणुभागुदीरणादो चरित्तमेत्तपडिबंधीण सजल - मुक्काणुभागुदीरणाए अनंतगुणहीणत्त पडि विरोधाभावादो । जयध० २ कुदो, जहाक्खादसजम विरोहिसजलणाणुभाग पेक्खियूण वयोवसमियसजमप्पडिवधिपच्चक्खाणकसायस्साणुभागस्साणतगुणहीणत्तसिद्धीए णाइयत्तादो । जयध० ३ किं कारणं; सयलसजमघादिपञ्चक्खाणकसायाणुभागादो देससजम विरोहि अपञ्चक्खाणाणुभागस्वाणं तगुणहीण सरूवेणावठाणदसणादो । जयध ० ४ कुदो, कसायाणुभागादो णोकसायणुभागस्साणतगुणहीणत्तसिद्धीए णाइयत्ताढो । जयध० ६५ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ६ वेदक-अर्थाधिकार 9 उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । ३३७. सोगस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा' । ३३८. भये उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । ३३९. दुर्गुछाए उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । ३४०. इत्थिवेदस्स उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणां । ३४१. पुरिसवेदस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । ४४२. रदीए उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणां । ३४३. हस्से उकस्साणुभागुदीरणा ε ५१४ एक कपायकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योंकि, कषायोके अनुभागसे नोकषायोके अनुभागका अनन्तगुणित हीन होना न्याय प्राप्त है । ) अरतिकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योकि, अरति प्रकृतिकी अनुभाग- उदीरणा तो केवल अरतिभावको ही उत्पन्न करती है, किन्तु नपुंसकवेदकी अनुभाग- उदीरणा इष्टपाक-ईंटोके पंजाबा के समान निरन्तर प्रज्वलित परिणामोको उत्पन्न करती है, अतएव नपुंसकवेदसे अरतिकी अनुभाग- उदीरणाका अनन्तगुणित हीन होना उचित ही है ।) शोककी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा अरतिकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योकि अरतिपूर्वक ही शोक होता है । ) भयकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा शोककी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योकि, शोकके उदयके समान भयका उदय बहुत काल तक दुःख उत्पादन करनेमें असमर्थ है । ) जुगुप्साकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा भयकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योंकि, भयके उदय के समान जुगुप्सा के उदयसे किसीका मरण नही देखा जाता है । ) स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा जुगुप्साकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योकि, जुगुप्साके उदयकी अपेक्षा स्त्रीवेद के उदय के प्रशस्तपना देखा जाता है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग - उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योकि, कारीप (गोवर के कण्डा) की अमिसे पलाल (धान्यके वास) की अग्नि हीन दहन - शक्तिवाली होती है ।) रतिकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी हीन होती है । ( क्योकि, पुरुपवेदके उदयके समान रतिकर्मके उदद्यमे सन्ताप उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव है ।) हास्यकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा रतिकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । ( क्योकि यह रतिपूर्वक होती है । ) सम्यग्मिथ्यात्वकी १ कुदो; अरदिमेत्तकारणत्तादो । णवुंसयवेदाणुभागो पुण इट्ठवागग्गिसमाणो त्ति । जयध० २ कुदो; अरदिपुरगमत्तादो । जयध० ३ कुदो; सोगोदयस्सेव भयोदयत्स बहुकाल पडिवढदुक्खुप्पायणसत्तीए अभावादो | जयध० ४ कुदो; भयोदएव दुगुंछोदएण मरणानुवलभादो | जयध० ५. कुदो; पुब्विल्लं पेक्खिऊणेदस्स पसत्थभावोवलभादो । जयध० ६ कुदो; इत्यिवेदो कारिसग्गिमाणो । पुरिसवेदो पुण पलालग्गिसमाणो, तेणाणतगुणहीणो जादो | जयध० ७ कुदो; पुंवेदोदयस्येव रदिकम्मोदयस्य तंतापजणणसत्तीए अभावाटो । जयघ० Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] . . . अनुभाग-उदीरणा-अल्पवहुत्व-निरूपण अणंतगुणहीणा' । ३४४. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अणंतगुणहीणा'। ३४५. समाते उक्करसाणुभागुदीरणा अणंतगुणहीणा। . - ३४६. जहण्णाणुभागुदीरणा। ३४७. सव्वमंदाणुभागा लोभसंजलणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा । ३४८. मायासंजलणस जहण्णाणुभागउदीरणा अणंतगुणा । ३४९. माणसंजलणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५०. कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५१. सम्मत्ते जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५२. पुरिसवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५३. इत्थिवेदे जहण्णाणुभागुउत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा हास्यकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । (क्योकि, सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभाग सर्वघाती होनेपर भी द्विस्थानीय ही है । ) सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है। क्योकि, इस सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग द्विस्थानीय होनेपर भी देशघाती ही है।३३५-३४५॥ चूर्णिसू० --अब इससे आगे जघन्य अनुभाग-उदीरणाका अल्पवहुत्व कहा जाता है-संज्वलन लोभकषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा सबसे मन्द अनुभागवाली होती है । मायासंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा लोभसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणासे अनन्तगुणी है । मानसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा माया संज्वलनकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । क्रोधसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा मायासंज्वलनकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा क्रोधसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है । पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभागउदीरणा पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। हास्यकी जघन्य १ कुदो, रदिपुरंगमत्तादो । जयध० २ कुदो, विठ्ठाणियत्तादो | जयध ३ कुदो देसघादिविट्ठाणियसरूवत्तादो । जयघ० ४ कुदो, सुहुमकिट्टीए अतोमुहुत्तमणुसमयोवणाए सुछ जहण्णभाव पत्ताए पडिलद्धजहण्णभावत्तादो । जयध० ५ कुदो, बादरकिट्टिसरूवेण चरिमसमयमायावेदगम्मि पडिलद्धजहण्णभावत्तादो । जयध० ६ कुदो पुन्विल्लसामित्तविसयादो अतोमुहुत्तमोसरिदूठ्ठिदचरिमसमयमाणवेदगम्मि पुविल्लकिटिअणुभागादो अणतगुणमाणतदियसगहकिट्टि-अणुभाग घेत्तूण जहण्णसामित्तविहाणादो । जयघ° ७ किं कारण; किट्टिअणुभागादो अणंतगुणफद्दयगदाणुभागमेगाणिय घेत्तूण समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयम्मि जहण्णसामित्तपडिलभादो । जयघ० ८त जहा-चरिमसमयसवेदएण बद्धपुरिसवेदणवकबधाणुभागो समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीयस्स सम्मत्तजहण्णाणुभागसकमादो अणतगुणो होदि त्ति सकमे भणिद । एदम्हादो पुण चरिमसमयणवकबधादो तत्थेव पुरिसवेदस्म जहण्णाणुभागोदयो अणतगुणो । पुणो एदम्हादो वि उदयादो समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स पुरिसवेदजद्दण्णाणुभागुदीरणा अणतगुणा । जयघ० Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [६वेदक अर्थाधिकार दीरणा अणंतगुणा' । ३५४. णqसयवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५५, हस्से जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५६. रदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५७, दुगुंछाए जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५८.भये जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३५९. सोगस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३६०, अरदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३६१. पञ्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । ३६२. अपचक्खाणावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । ३६३. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३६४. अणंताअनुभाग-उदीरणा नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। रतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा हास्यकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। जुगुप्साकी जघन्य अनुभाग उदीरणा रतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है । भयकी जघन्य अनुभागउदीरणा जुगुप्साकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। शोककी जघन्य अनुभागउदीरणा भयकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। अरतिकी जघन्य अनुभागउदीरणा शोककी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। प्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कपायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा अरतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। अप्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा प्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कपायकी जघन्य-अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा अप्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी हीन है । अनन्तानुवन्धी किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा सम्यमिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। मिथ्यात्वकी अनुभाग-उदीरणा १ किं कारण; पुरिसवेदजहण्णसामित्तविसयादो हेट्ठा अतोमुहुत्तमोदरियूण समयाहियावलियचरिम- . समयइत्थिवेदखवगम्मि जहण्णसमित्तपडिलभादो । जयध २ जइवि दोण्हमेदेसिं सामित्तविसयो समाणो, एगट्ठाणिया च दोण्हमणुभागुदीरणा पडिसमयमणतगुणहाणीए पडिलद्धजहण्णभावा, तो वि पुविल्लादो एटस्स पयडिमाहप्पेणाणतगुणत्तमविरुद्ध दट्ठव्व | जयध० ३ किं कारण; अणियट्टिपरिणामादो अणतगुणहीण चरिमसमयापुत्वकरणविसोहीए देसघादिविट्ठाणियसरूवेण हस्साणुभागुदीरणाए जहण्णभावोवलंभादो । जवध० ४ तं जहा-छण्णोकसायाणमणुभागुदीरणा अपुवकरणपरिणामेहिं बहुअ घादं पावेदूण चरिमसमयापुवकरणविसोहीए देसघादिसरुवेण जहण्णभावं पत्ता । पञ्चक्खाणावरणीयाणं पुण अपुव्वकरणविसोहीदो अणंतगुणहीणसजदासंजदचरिमविसोहीए जहष्णसामित्त जादं । सव्वघादिसरूवा च एदेसिं जद्दण्णाणुभागुदीरणा, तदो अणतगुणा जादा । जयध० ५ कुदो, सजमाहिमुहचरिमसमयअसजदसम्माइटिठविसोहीए पुविल्लविसोहीदो अणतगुणहीणसरूवाए पत्तजण्णभावत्तादो । जयध० ६ कुदो, सव्वघादिविटाणियत्ताविसेसेवि पुविल्लादो एदत्स विसोहिपाहम्मेणाणंतगुणत्तसिद्धीए णिन्वाहमुवलंमादो| जयघ० Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] अनुभाग- उदीरणा अल्पबहुत्व-निरूपण ५१७ बंधीणं जहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा' । ३६५. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । ३६६. एवमोघजहण्णओ समत्तो । ३६७. गिरयगदी सव्वमंदाणुभागा सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा । ३६८. हस्सस्स जहण्णाणुभागउदीरणा अनंत गुणा । ३६९. रदीए जहण्णाणुभागदीरणा अनंतदुगुणा । ३७०, दुर्गा छाए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । ३७१. भयस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । ३७२. सोगस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३७३, अरदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । ३७४ . ण सयवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । ३७५. संजलणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । ३७६. अपच्चक्खाणावरण-जहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । ३७७. पच्चक्खा - अनन्तानुबन्धी किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी है । इस प्रकार ओघकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग- उदीरणाका वर्णन समाप्त हुआ || ३४६-३६६॥ अब आदेशकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग- उदीरणाका वर्णन करते हैं चूर्णिसू० - नरकगतिमे सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य अनुभाग- उदीरणा सबसे कम भन्द अनुभागवाली होती है । हास्यकी जघन्य अनुभाग- उदीरणा सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । रतिकी जधन्य अनुभाग - उदीरणा हास्यकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । जुगुप्साकी जघन्य अनुभाग - उदीरणा रतिकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । भयकी जघन्य अनुभाग- उदीरणा जुगुप्साकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । शोककी जघन्य अनुभाग- उदीरणा भयकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । अरतिकी जघन्य अनुभाग- उदीरणा शोककी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग- उदीरणा अरतिकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । संज्वलनचतुष्कमेसे किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग- उदीरणा नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग- उदीरणासे अनन्तगुणी है । अप्रत्याख्यानावरणीयचतुष्कमेसे किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग- उदीरणा किसी एक संज्वलनकपायकी जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणी है । प्रत्याख्यानावरणीयचतुष्कमेसे किसी एक कपायकी जघन्य १ कुदो, सव्व विसुद्ध सजमा हि मुहचरिमसमयमिच्छा हट्ठिम्मि पत्तजहण्णभावत्तादो । जयध० २ किं कारण; उहयत्थ विसेसाभावे वि पवडिविसेसेणेवाणताणुवधीणमणुभागादो मिच्छत्ताणुभागस्स सव्वकालमणतगुणाहियसरूवेणावट्ठाणदसणादो । जयध० २ कुदो; एगट्ठाणियसरूवत्तादो । जयध० ४ कुदो, देसघादिविट्ठाणियसरूवत्तादो । जयध० ५ कुदो; देसघादि-विट्ठाणियत्ताविसेसे सामित्तविसयभेदाभावे च कसायाणुभागमाहप्पेण पुविल्लादो एदिस्से अनंतगुणत्तसिद्धीए णिव्वाहमुवलभादो | जयध० ६ किं कारण; सामित्तभेदाभावेवि सव्वधादिमाहप्पेण पुव्विल्लादो एदिस्से तहामावोवलद्वीदो | जयघ० Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार णावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा' । ३७८. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३७९. अणंताणुवंधीणं जहण्णाणुभागउदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । ३८०. मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३८१. एवं देवगदीए वि । ३८२. भुजगारउदीरणा उवरिमगाहाए परूविहिदि । पदणिक्खेवो वि तत्थे । वड्डी वि तत्थेव । तदो 'को व के य अणुभागे' त्ति पदस्स अत्थो समत्तो । ३८३. पदेसुदीरणा दुविहा-मूलपयडिपदेसुदीरणा उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च । अनुभाग-उदीरणा अप्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा प्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेसे किसी एक कपायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है। मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा अनन्तानुवन्धी किसी एक कषायकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे अनन्तगुणी है ॥३६७-३८०॥ इस प्रकार नरकगतिमे ओघकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग-उदीरणा कही। चूर्णिसू०-इसी प्रकार नारक-ओघालापके समान देवगतिमे भी जघन्य अनुभागउदीरणा-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका आलाप (कथन) है । जो थोड़ी बहुत विशेषता है, वह स्वयं आगमसे जानना चाहिए ॥३८१॥ इस प्रकार अल्पवहुत्वके समाप्त होनेपर उत्तरप्रकृतिअनुभाग-उदीरणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब भुजाकारादि उदीरणाका वर्णन क्रम-प्राप्त है, अतः उसका वर्णन करनेके लिए चूर्णिकार उत्तरसूत्र कहते है चूर्णिसू०-भुजाकार-उदीरणा उपरिम अर्थात् आगे कही जानेवाली 'बहुदरगं बहुदरगं से काले को णु थोवदरगं वा' इस गाथामे प्ररूपण की जायगी । पदनिक्षेप भी वहींपर कहा जायगा और वृद्धि भी उसी गाथामे कही जायगी ।।३८२॥ इस प्रकार 'को व के य अणुभागे' मूलगाथाके इस पदका अर्थ समाप्त हुआ। अव प्रदेश-उदीरणाका वर्णन किया जाता है चूर्णिसू०-प्रदेश-उदीरणा दो प्रकारकी है-मूलप्रकृतिप्रदेश-उदीरणा और उत्तरप्रकृति १ कुदो, दोण्हमेदेसि सामित्तभेदाभावे वि देस-सयलसंजमपडिबधित्तमस्सियूण तहाभावसिद्धीए णिप्पडिवंधमुवलभादो | जयध० २ कुदोः सव्वघादिविट्ठाणियत्ताविसेसे वि सम्माइट्ठिविसोहीदो सम्मामिच्छाइट्ठिविसोहीए अणंतगुणहीणत्तमस्सियूण तहाभावोवलभादो । जयध० विसोहीदो अर्णतगणहीणमिच्छाइटिटविसोहीए जहणसामित्तपडि लंभादो। जयघ० Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] पदेस - उदीरणा-स्वामित्व-निरूपण ५१९ ३८४. मूलपडिपदेसुदीरणं मग्गियूण । ३८५ तदो उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च समुकित्तणादि-अप्पा बहुअंतेहि अणि ओगद्दारेहि मग्गियन्वा । ३८६, तत्थ सामित्तं । ३८७. मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १३८८. संजमा हिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स । से काले सम्मत्तं संजमं च पडिवजमाणगस्स' । ३८९. सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदीरणा कस्स १३९०. समयाहियावलिय- अक्खीणदंसणमोहणीयस्स' । प्रदेश-उदीरणा । पहले मूलप्रकृति प्रदेश - उदीरणाका अनुमार्गण कर (व्याख्यानाचार्योंसे जानकर ) तदनन्तर उत्तरप्रकृतिप्रदेश- उदीरणा समुत्कीर्तनाको आदि लेकर अल्पबहुत्व- पर्यन्त चौबीस अनुयोगद्वारोसे जानना चाहिए ॥ ३८३-३८५ ॥ 0 चूर्णसू० - उनमे से समुत्कीर्तनादि अनुयोगद्वारोंके सुगम होनेसे उनका वर्णन न करके स्वामित्वनामक अनुयोगद्वारका वर्णन करते है ॥ ३८६ ॥ शंका- मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा किसके होती है ? ॥ ३८७ ॥ समाधान - संयम ग्रहण के अभिमुख चरमसमयवर्ती मिध्यादृष्टि जीवके होती है, जो कि तदनन्तर समय में सम्यक्त्व और संयमको एकसाथ ग्रहण करनेवाला है ॥ ३८८ ॥ विशेषार्थ - जो वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके योग्य मिध्यादृष्टि अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरणको करके संयम ग्रहण करनेके अभिमुख हुआ है, उसके अन्तर्मुहूर्त तक अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होकर चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिरूपसे अवस्थित होनेपर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा होती है, क्योकि उसके ही तदनन्तरकाल मे सम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होने के कारण सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि देखी जाती है । यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमको ग्रहण करनेवाले मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वकी प्रथमस्थितिके समयाधिक आवलीमात्र शेष रह जानेपर उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा क्यो नही बतलाई ? क्योकि, पूर्वोक्त संयमाभिमुख चरमसमयवर्ती मिध्यादृष्टिकी अपूर्वकरण - परिणाम-जनित विशुद्ध इसकी विशुद्धि अनिवृत्तिकरण - परिणामके माहात्म्यसे अनन्तगुणी देखी जाती है । इसका समाधान यह है कि उपशमसम्यक्त्व के साथ संयमको ग्रहण करनेवाले जीवकी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्वके साथ संयमको ग्रहण करनेवाले जीवके ही संयमकी प्रत्यासत्तिके बसे अपूर्वकरण-जनित भी परिणामविशुद्धि बहुत अधिक होती है । अतः सूत्रोक्त स्वामित्व ही युक्ति-संगत है । शंका-सम्यक्त्वप्रकृति की उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? || ३८९ ॥ आवलीकालसे युक्त अक्षीणदर्शनमोही कृतकृत्यवेदक समाधान - समयाधिक सम्यग्दृष्टिके होती है ॥ ३९०॥ १ जो मिच्छाइट्ठी अण्णदरकम्म सिओ वेदगसम्मत्तपाओग्गो अधापवत्तापुव्वकरणाणि काढूण सजमाद्दिमुहो जादो, तस्स अतोमुहुत्तमणतगुणाए विसोहीए विसुज्झिदूण चरिमसमयमिच्छाइट्टिभावॆणावठ्ठिदस्स पयदुक्कस्ससामित्त होइ । से काले सम्मत्तेण सह सजम पडिवजमाणस्स तस्स सव्वुक्कस्सविसोहिदादोत्ति एसो एदस्य सुत्तस्स समुदायत्यो । जयध २ जो दसणमोहणीयक्खवगो अण्णदरकम्मंसिओ अणियट्टिद्धाए सखेज्जेसु भागेषु गदेसु असखेजाण Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० फसाय पाहुड सुत्त [६वेदक अर्थाधिकार ३९१. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ३९२. सम्मत्ताहिमुह-चरिमसमयसम्मामिच्छाइडिस्स सव्वविसुद्धस्स' । ३९३. अणंताणुबंधीणं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ३९४, संजमाहिमुह-चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । ३९५. अपञ्चक्खाणकसायाणमुकस्सिया पदेस-उदीरणा कस्स १३९६. संजमा. विशेषार्थ-जो दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाला जीव अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात भागोके व्यतीत होनेपर असंख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा प्रारम्भ करके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यथाक्रमसे क्षयकर तदनन्तर सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षपण करता हुआ अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वप्रकृतिकी चरम फालिको दूरकर और कृतकृत्यवेदक होकर अन्तर्मुहूर्त तक समयाधिक आवलीसे युक्त अक्षीण-दर्शनमोहनीयरूपसे अवस्थित है, उसके ही सम्यक्त्वप्रकृतिकी सर्वोत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा होती है। क्योकि, इसके ही अधस्तनकालवर्ती समस्त प्रदेश-उदीरणाओसे असंख्यातगुणी प्रदेश-उदीरणा पाई जाती है। यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि यदि आगे जाकर कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि संक्लेशको प्राप्त हो गया, तो उसके उक्त समयपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी सर्वोत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा कैसे सम्भव है ? इसका समाधान यह है कि आगे जाकर भले ही कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि संक्लेशको प्राप्त हो जाय, परन्तु कृतकृत्यवेदक होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक तो अपने कालके भीतर प्रतिसमय असंख्यातगुणित द्रव्यकी उदीरणा करता ही है, इसलिए इसके अतिरिक्त अन्यत्र सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रदेश-उदीरणाका उत्कृष्ट स्वामित्व सम्भव नहीं है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥३९१॥ समाधान- सर्व-विशुद्ध और सम्यक्त्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके होती है ।। ३९२॥ शंका-अनन्तानुबन्धी चारो कषायोकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥३९३॥ समाधान-सर्व-विशुद्ध और संयमके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिक होती है॥३९४॥ शंका-अप्रत्याख्यानावरणकपायोकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ॥३९५॥ समयपबद्धाणमुदीरणमाढविय मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणि जहाकम खविय तदो सम्मत्त खवेमाणो अणियहिः करणचरिमसमए सम्मत्तचरिमफालिं णिवादिय कदकरणिजो होदणतोमुहत्तं समयावलियअक्खीणदसणमोहणीयभावेणावठ्ठिदो, तस्स पयदुक्कस्ससामित्त होइ । कुदो; तस्स समयाहियावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाण चरिमठ्ठिदीदो उदीरिजमाणमसखेवाणं समयपवद्धाण हेट्टिमासेसपदेसुदीरणाहिंतो असंखेनगुणत्तटमणादो । जयघ० - १ किं कारणं; उकस्सविसोहिपरिणामेण विणा पदेसुदीरणाए उक्फस्सभावाणुववत्तीदो । जयध० Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेश- उदीरणा - स्वामित्व-निरूपण ५२१ गा० ६२ ] - हिमुहचरिमसमय- असं जदसम्माइट्ठिस्स सम्बविसुद्धस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा' | ३९७. पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १३९८. संजमाहिमुहचरिमसमय संजदासंजदस्स सव्ववियुद्धस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । ३९९. कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १४०० खवगस्स चरिमसमयकोधवेदगस्स । ४०१. एवं माण-माया संजलणाणं । ४०२. लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १ ४०३. खवगस्स समया समाधान - सर्वविशुद्ध या ईषन्मध्यम परिणामवाले और संयम के अभिमुख चरम - समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है ।। ३९६ ॥ विशेषार्थ - ईषन्सध्यमपरिणाम किसका नाम है ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - संयम ग्रहण करनेके सम्मुख चरमसमयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके जघन्य स्थान से लेकर षड्वृद्धिरूपसे अवस्थित विशुद्ध परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण होते है । उनके इस आयामको आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारसे खंडित करनेपर उनमेका जो अन्तिम खंडरूप उत्कृष्ट परिणाम है, वह तो सर्वविशुद्ध परिणाम कहलाता है और उसी खंडका जो जघन्य परिणाम है, वह ईषन्मध्यम परिणाम कहलाता है । शेष समस्त परिणामोको मध्यम परिणाम कहते है | शंका-प्रत्याख्यानावरणकपायोकी उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणा किसके होती है ? ॥ ३९७ ॥ समाधान-सर्वविशुद्ध या ईषन्मध्यम परिणामवाले संयमाभिमुख चरमसमयवर्ती संयतासंयतके होती है ॥ ३९८ ॥ शंका-संज्वलनकोधकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥ ३९९॥ समाधान- चरमसमयवर्ती क्रोधका वेदन करनेवाले क्षपकके होती है ॥ ४००॥ चूर्णिसू० – इसीप्रकार संज्वलन मान और मायाकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए ||४०१ ॥ विशेषार्थ - यहाँ केवल इतना विशेप जानना चाहिए कि मानकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा मानका वेदन करनेवाले चरमसमयवर्ती क्षपकके और मायाकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा मायाका वेदन करनेवाले चरमसमयवर्ती क्षपकके होती है । शंका- संन्वलन लोभकी उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणा किसके होती है ? ॥ ४०२ ॥ १ एतदुक्त भवति - संजमा हिमुहचरिमसमयअसं जदसम्माइट्रिट्ठस्स असखेनलोगमेत्ताणि विसोहिट्टाणाणि जहण्णठाणप्पहुडि छवढिसरूवेणावट्ठिदाणि अत्थि, तेसिमायामे आवलियाए असखेजभागमेत्तभागहारेण खडिदे तत्थ चरिमखडयसन्वपरिणामेहि असंखेज लोग भेयभिण्णेहिं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा पण विरुज्झदि त्ति । तक्खडचरिमपरिणामो सव्वविसुद्ध परिणामो णाम । तत्थेव जहण्णपरिणामो ईसिपरिणामो णाम । सेस परिणामा मज्झिमपरिणामा त्ति भण्णते । जयध० ६६ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार हियावलियचरिमसमयसकसायस्स । ४०४. इत्थिवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ४०५ खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयइत्थिवेदगस्स । ४०६. पुरिसवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ४०७. खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयपुरिसवेदगस्स । ४०८ णवंसयवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ४०९. खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयणqसयवेदगस्स । ४१०. छण्णोकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १ ४११. खवगस्स चरिमसमयअपुबकरणे वट्टमाणगस्स । ४१२. जहण्णसामित्तं । ४१३. मिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा कस्स ? ४१४. सण्णिमिच्छाइद्विस्स उकस्ससंकिलिट्ठस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । ४१५. सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा कस्स ? ४१६ मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसम्माइद्विस्स समाधान-समयाधिक आवली कालवाले चरमसमयवर्ती सकपाय (दशमगुणस्थानी) क्षपकके होती है ॥४०३॥ शंका-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥४०४॥ समाधान-समयाधिक आवली कालवाले चरमसमयवर्ती स्त्रीवेदका वेदन करनेवाले क्षपकके होती है ॥४०५॥ • शंका-पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥४०६॥ समाधान-समयाधिक आवली कालवाले और चरमसमयमे पुरुषवेदका वेदन करनेवाले क्षपकके होती है ॥४०७॥ शंका-नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥४०८॥ समाधान-समयाधिक आवली कालवाले चरमसमयवर्ती नपुंसकवेदक क्षपकके होती है ॥४०९॥ विशेषार्थ-यहाँ सर्वत्र समयाधिक आवलीवाले चरमसमयसे, एक समय अधिक आवलीप्रमाण कालके पश्चात् विवक्षित वेदका अन्तिम समयमे वेदन करनेवाले जीवका अभिप्राय है। शंका-छह नोकषायोकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥४१०॥ समाधान-अपूर्वकरणगुणस्थानके अन्तिम समयमे वर्तमान क्षपकके होती है ।।४११।। चूर्णिसू०-अव जघन्य प्रदेश-उदीरणाके स्वामित्वको कहते हैं ॥४१२॥ शंका-मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥४१३॥ समाधान-उत्कृष्ट संक्लेशवाले या ईपन्मध्यमपरिणामवाले संजी मिथ्याष्टिके होती है ॥४१४॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥४१५॥ समाधान-(चतुर्थ गुणस्थानके योग्य ) सर्वोत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त या ईपन्मध्यम Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] प्रदेस-उदीरणा-काल-निरूपण ५२३ सव्वसंकिलिट्ठस्स ईसिमझिमपरिणामस्स वा । ४१७. सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा कस्म । ४१८. मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइद्विस्स सव्वसंकिलिहस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा। ४१९. सोलसकसाय-णवणोकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा मिच्छत्तभंगो । ४२०. एगजीवेण कालो । ४२१. मिच्छत्तस्स उकस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि १ ४२२. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ' । ४२३. अणुक्कस्सपदेसुदारगो केवचिरं कालादो होदि ? ४२४. एत्थ तिण्णि भंगा । ४२५. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ४२६. उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । ४२७. सेसाणं कम्माणमुक्कस्सपदेसुदीरगा केवचिरं कालादो होदि १ ४२८. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ४२९. अणुक्कस्सपदेसुदीरगो पयडि-उदीरणाभंगो। परिणामवाले मिथ्यात्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है ॥४१६॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥४१७॥ समाधान-तृतीय गुणस्थानके योग्य सर्वोत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त या ईषन्मध्यम परिणामवाले मिथ्यात्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है ॥४१८॥ चूर्णिसू०-सोलह कषाय और नव नोकषायोकी जघन्य प्रदेश-उदीरणाका स्वामित्व मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश-उदीरणाके स्वामित्वके समान जानना चाहिए ॥४१९।। चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा प्रदेश-उदीरणाका काल कहते हैं ॥४२०॥ शंका-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका कितना काल है ? ॥४२१॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है १ ॥४२२॥ विशेषार्थ-क्योंकि, संयमके अभिमुख मिथ्याष्टिके अन्तिम समयमें ही मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा होती है। शंका-मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका कितना काल है ? ॥४२३॥ समाधान-इस विषयमें तीन भंग हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त, और सादिसान्त । इनमेंसे मिथ्यात्वकी सादि-सान्त अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥४२४-४२६।। शंका-मिथ्यात्वके अतिरिक्त शेप कर्मोंकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा करनेवाले जीवोका कितना काल है ? ॥४२७।। समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ॥४२८॥ __ चूर्णिसू०-उक्त सर्व कर्मोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका काल प्रकृति-उदीरणाके कालके समान जानना चाहिए ।।४२९॥ १ कुदो, सजमाहिमुहमिच्छाइटिठ्ठचरिमसमए चेव तदुवलभादो । जयध० २ कुदो, सन्वेसिमप्पप्पणो सामित्तविसए चरिमविसोहीए समुवलद्धजण्णभावत्तादो । जयध० Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार ४३०. णिरयगदीए मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणताणुवंधीणमुक्कस्सपदेसुदोरगो केवचिरं कालादो होदि १ ४३१. जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ'। ४३२. अणुकस्सपदेसुदीरगो पयडि-उदीरणाभंगो । ४३३. सेसाणं कम्माणमित्थि-पुरिसवेदवजाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा केवचिरं कालादो होदि १४३४. जहण्णेण एगसमओ। ४३५. उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । ४३६.अणुक्कस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि १ ४३७. जहण्णेण एगसमओ । ४३८. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४३९. णवरि णqसयवेद-अरइ-सोगाणमुदीरगो उकस्सादो तेत्तीसं सागरोवमाणि । ४४०. एवं सेसासु गदीसु उदीरगो साहेयव्यो । अब आदेशकी अपेक्षा प्रदेश-उदीरणाका काल कहते है शंका-नरकगतिमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चारो कवायोकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका कितना काल है ? ।।४३०॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।।३३१।। चूर्णिसू०-इन्हीं कर्मोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका काल प्रकृति-उदीरणाके कालके समान जानना चाहिए ।।४३२।। शंका-पूर्व सूत्रोक्त कर्मोंके अतिरिक्त, तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदको छोड़कर ( क्योकि, नरकगतिमे इन दोनो वेदोका उदय ही नहीं होता, ) शेप कर्मोंकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका कितना काल है ? ।।४३३।। ___ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।।४३४-४३५॥ शंका-इन्हीं पूर्वोक्त कर्मोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका कितना काल है ? ।।४३६॥ समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेप वात यह है कि नपुंसकवेद, अरति और शोककी प्रदेश-उदीरणाका उत्कृष्टकाल तेतीस सागरोपम है ॥४३७-४३९॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकार शेप गतियोंमे प्रदेश-उदीरणा करनेवाले जीवोका काल सिद्ध १ कुदो; मिच्छत्ताणताणुवधीणमुवसमयसम्मत्ताहिमुहमिच्छाइट्ठिस्स समयाहियावलियचरिमसमए दुचरिमसमए च जहाकमेणुक्कस्ससामित्तपडिलंभादो । सम्मत्तस्स कदकरणिजसमयाहियावलियाए, सम्मामिच्छत्तस्स वि सम्मत्ताहिमुहसम्मामिच्छाइट्ठिचरिमविसोहीए विसयतरपरिहारेणुक्कस्ससामित्तदसणादो । २ कुदो; सत्थाणसम्माइट्ठिस्स सबुक्कस्सविसोहीए ईसिमज्झिमपरिणामेण वा एगसमय परिणमिय विदियसमए परिणामतर गदस्स तदुवलभादो । जयध० ३ कुदो; उकत्सपदेसुदीरणापाओग्गचरिमखडझवसाणहाणेसु असखेजलोगमेत्तेसु अवठ्ठाणकालरस उक्करसेण तप्पमाणत्तोवएसादो । जयध० ४ कुदो; उक्करसादो अणुकरसभाव गतूण एगसमएण पुणो वि परिणामवसेणुकस्सभावेण परिणदम्मि सव्वेसिमेगसमयमेत्ताणुकत्सजद्दण्णकालोवलभादो । जयध० ५ कुदो, कसायणोकसायाणं पयडि उदीरणाए उफल्मकालत्स तप्यमाणत्तोवलंभादो । जयध० ६ कुदो; एदेसि कम्माण पयडि-उदीरणुकत्सकालरस णिरयगईए तप्पमाणत्तोवलंमादो । जयध० जयध० Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] प्रदेस-उदीरणा-अन्तर-निरूपण ४४१. एत्तो जहण्णपदेसुदीरगाणं कालो । ४४२. सव्वकम्माणं जहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होइ ? ४४३. जहण्णेण एगसमओ । ४४४. उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । ४४५. अजहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ४४६. जहण्णेण एयसमओ । ४४७. उक्कस्सेण पयडि उदीरणाभंगो । ४४८. णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ४४९. जहण्णुकस्सेण एयसमओ । ४५०. अजहण्णपदेसुदीरगो जहा पयडि-उदीरणाभंगो। ४५१. एगजीवेण अंतरं । ४५२. मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरगंतरं केवचिरंकालादो होदि १ ४५३. जहण्णेण अंतोसुहुत्तं । ४५४. उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । करना चाहिए ।।४४०॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्य प्रदेश-उदीरणा करनेवाले जीवो का काल कहते है ॥४४१॥ शंका-सर्व कर्मोंकी जघन्य प्रदेश-उदीरणाका कितना काल है ? ॥४४२॥ समाधान-जघन्यकाल एक समय और और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण है ॥४४३-४४४॥ शंका-सर्व कर्मोंकी अजघन्य प्रदेश-उदीरणाका कितना काल है ? ॥४४५।। समाधान-जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल प्रकृति-उदीरणाके समान जानना चाहिए ॥४४६-४४७।। शंका-केवल सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो कर्मोंकी जघन्य प्रदेशउदीरणाका कितना काल है ? ॥४४८॥ समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।।४४९।। चूर्णिसू०-इन्हीं दोनो प्रकृतियोकी अजघन्य प्रदेश-उदीरणाका काल प्रकृतिउदीरणाके कालके समान जानना चाहिए ।।४५०॥ चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा प्रदेश-उदीरणाके अन्तरको कहते है ॥४५१।। शंका-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा करनेवाले जीवका अन्तरकाल कितना है ॥४५२॥ समाधान-जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥४५३-४५४॥ १ त कथ; सण्णिमिच्छाइट्ठी उक्कस्ससकिलेसेण परिणमिय एगसमय जहण्णपदेसुदीरगो जादो । पुणो विदियसमए जहण्णभावेण परिणदो । लद्धो सट्वेसि कम्माण जहण्णपदेसुदीरगकालो जहण्णेयसमयमेत्तो। जयध० . २ कुदो, जहण्णपदेसुदीरणकारणपरिणामेसु असखेजलोगमेत्तेसु उक्कस्सेणावठाणकाल्स्स एगजीवविसयस्स तप्पमाणत्तोवलभादो | जयध० ३ त कथ, अण्णदरकम्मसियलक्खणेणागदसंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइटिटणा उकस्सविसोहि Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ४५५. सेसेहिं कस्मेहिं अणुमग्गियूण दव्वं । ४५६. णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं च एदाणि भाणिदव्वाणि । कसाय पाहुड लुप्त [ ६ वेदक- अर्थाधिकार ४५७. तदो सण्णियासो । ४५८. मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदे सुदीरगो अनंताणुवंधीणमुक्कस्सं वा अणुक्कस्तं वा उदीरेदि । ४५९. उक्कस्सादो अणुक्कस्सा चउपदा' । ४६०. एवं दव्वं । चूर्णिसू० - इसी प्रकार शेप कर्मोंकी अपेक्षा अनुमार्गणकर अन्तरकाल जानना चाहिए ||४५५|| चूर्णिसू० ० - नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल और अन्तर, इन अनुयोगद्वारोका व्याख्यान करना चाहिए || ४५६॥ विशेषार्थ - चूर्णिकारने सुगम समझकर इन अनुयोगद्वारोका व्याख्यान नहीं किया है । अतः विशेष जिज्ञासु जनोको जयधवला टीकासे जानना चाहिए । चूर्णिसू० ० - उक्त अनुयोगद्वारोके पश्चात् अब सन्निकर्ष नामक अनुयोगद्वार कहते हैंमिध्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणाका करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धी कषायोकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा भी करता है और अनुत्कृट प्रदेश - उदीरणा भी करता है ||४५७-४५८।। अनन्तानुवन्धीकी अनुत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा कितने विकल्परूप करता है ? ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य उत्तर सूत्र कहते हैंचूर्णिसू० - उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा चतुःस्थान - पतित होती है । अर्थात् असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यातगुणहीन और असंख्यातगुणहीन प्रदेशोकी उदीरणा करता है ॥ ४५९॥ I इसी वीजपदके द्वारा शेष कर्मोंकी प्रदेश उदीरणाका सन्निकर्ष भी जान लेना चाहिए, ऐसा बतलाने के लिए आचार्य उत्तर सूत्र कहते हैं चूर्णिसू० - इसी प्रकार शेप कर्मों का भी सन्निकर्ष जानना चाहिए || ४६० ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार मिध्यात्वका अनन्तानुवन्धी के साथ सन्निकर्षका निरूपण किया परिणदेकस्सपदेसुद रणाए कदाए आदी दिट्ठा। तदो संजमं गतूणतरिय सव्वजहणतो मुहुत्ते पुणो मिच्छत्त पडिवजिय जहणंतराविरोहेण विसोहिमावृरिय संजमा हिमुहो होटूण मिच्छाइट्ठिचरिमसमए उकस्सपदेसुदीरगो जादो । लद्वमतर | जयव० १ मिच्छत्तस्म उक्कस्मपदेसुदीरगो णाम सजमा हिमुद्दचरिमसमयमिच्छाइटी सव्यविमुढो सो अताणुवंघीणमण्णदरस्म णियमा एवमुदीरेमाणो उक्त्स वा अणुक्कसं वा उदीरेदि; सामित्तभेदाभावे पि अप्पणी विसेसपच्चयमस्तियूण तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादी । जयध० २ कुदो; मिच्छत्तु कस्सपदेसुदीरगत्माणंताणुबंधीणं चउट्ठाणपदिपदेसुदीरणाकारणपरिणामाण पि संभवे विरोहाभावादो । तदो मिच्छत्तक्कस्सपदेनुदीरगो अणंताणुत्रंचीणमणुवत्समुदीरेमाणो असखेजभागहीणं संखेन भागणं सखेनगुणहीणं असखेजगुणहीणमुदोरेदित्ति सिद्ध । जयघ० Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] प्रदेस - उदीरणा - अल्पबहुत्व-निरूपण ५२७ ४६१. अप्पा बहुअं । ४६२ सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा' । ४६३. अनंताणुबंधीणमुक्कस्सिया पदे सुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेज्जगुणा' । ४६४. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४६५, अपच्चक्खाणच उक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला असंखेज्जगुणा । ४६६. पच्चक्खाणचउक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला असंखेज्जगुणा । ४६७. सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४६८. भय-दुर्गुछाणमुक्कस्सिया है, उसी प्रकार शेष कर्मों के साथ भी जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी प्रत्येक कषायको निरुद्ध करके भी शेप कर्मोंके साथ सन्निकर्पका निरूपण करना चाहिए | चूर्णिसू० - अब प्रदेश - उदीरणा-सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा सबसे थोड़ी होती है । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे अनन्तानुबन्धी प्रत्येक कषायकी प्रदेश-उदीरणा परस्परमें तुल्य हो करके भी संख्यातगुणी है ॥४६१-४६२॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि अनन्तानुबन्धी किसी एक कषायकी उदीरणा होनेपर शेष तीनों कषाय भी स्तिबुकसंक्रमणसे उदयमे प्रवेश कर जाती हैं, अतः मिथ्यात्वकी उदीरणासे अनन्तानुबन्धी कषायोंकी प्रदेश - उदीरणा कुछ कम चौगुनी हो जाती है । चूर्णिसू० - अनन्तानुबन्धीकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा असंख्यातगुणी होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणासे अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी प्रदेश-उदीरणा परस्परमें तुल्य होते हुए भी असंख्यातगुणी होती है । अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्ककी प्रदेश - उदीरणासे प्रत्याख्यानावरण - चतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा किसी एक कषायकी परस्परमे समान होकर भी असंख्यातगुणी होती है । प्रत्याख्यानावरण-चतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे सम्यक्त्व प्रकृति की उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रदेश- उदीरणासे भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा परस्परमे समान हो करके भी अनन्तगुणी होती है । भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे हास्य और १ कुदो, सजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिणा असखेजलोगपडिभागेण उदीरिददव्वग्गहणादो । जयघ० २ कुदो; मिच्छत्तुदीरणादो अणताणुवधीणमण्णदरोदीरणा उदयपडिभागेण थोवूणच उगुणत्तुवलभादो । त जहा - अणताणुबधिकोहादीणमण्णदरस्स उदए सते से कसाया तिष्णि वि त्थिउक्कस कमेणुदय पविमतित्ति मिच्छत्तुदयादो अर्णताणुवधि-उदयो योवूणच उग्गुणो होइ, पर्याडविसेसवसेण तत्थ थोवूणभावदंसणादो | जयध० ३ कुदो, परिणामपाहम्मादो त जहा - अनंताणुवधीण मिच्छाइट्रिट्ठविसोहीए उक्कस्सिया पदेसुदीरणा जादा । सम्मामिच्छत्तस्स पुण तव्विसोहीदो अणतगुणसम्मामिच्छाइट्ठिविसोहीए उक्कस्सिया पदेसुदीरणा गहिदा । देण कारणेण पुव्विल्लादो एदिस्से असखेनगुणत्त जाद | जयध० ४ किं कारण; असजद सम्माइट्ठविसोहीदो अणतगुणसजमा हिमुहचरिमसमयसजदासंजदुक्कस्सविसोहीए पच्चक्खाणकसायाण मुक्कस्स पदे सुदीरणसा मित्तप्पडिलभादो । जयध० ५ कुदो; असखेजसमयपबद्ध पमाणत्तादो । जयघ० Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ ६ वेदक अर्थाधिकार पदेसुदीरणातुल्ला अनंतगुणा' । ४६९. हस्स - सोगाण मुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । ४७०. रदि- अरदीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । ५२८ ४७१. इत्थि सवेदे उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४७२. पुरिसवेदे उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४७३. कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४७४ माणसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४७५. मायासं जलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४७६. लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४७७ णिरयगदीए सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरण । शोककी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा विशेष अधिक होती है । हास्य और शोककी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणासे रति और अरतिकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा विशेष अधिक होती है ॥४६३-४७०॥ विशेषार्थ - यहाँ ऐसा अर्थ जानना चाहिए कि हास्यसे रतिकी और अरतिसे शोककी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा विशेष अधिक होती है । चूर्णि सू० - रति- अरतिकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । स्त्रीवेद- नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । पुरुपवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे संज्वलनक्रोध की उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । संज्वलनक्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणासे संज्वलनमानकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । संज्वलनमानकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे संन्चालनमायाकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । संज्वलनमायाकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे संज्वलन लोभकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी होती है ॥ ४७१-४७६ ॥ इस प्रकार की अपेक्षा प्रदेश - उदीरणाका अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । अव आदेशकी अपेक्षा प्रदेश - उदीरणाका अल्पबहुत्व कहते हैं - चूर्णिसू० - नरकगतिमे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा सबसे कम होती है । १ कुदो देसघादिपडिभागत्तादो । जयव० २ कुदो; पर्याडविसेससमस्तिऊण विसेसाहियत्तदसणादो | जयध० ३ कुदो, असखेज समयपत्रद्ध पमाणत्तादो | जयघ० ४ किं कारणं; इत्थि वुंसयवेदाण मुक्कस्सपदेमुदीरणासामित्तविसयादो अतोमुहुत्तमुवरि गतूण समया हिपावलियमेत्तपुरिसवेदपढमट्ठिदीए सेसाए तत्थुदीरितमाणसखेज समयपवद्वाणमिद्दग्गहणादो | जयध० ५ किं कारण; पुरिसवेदसा मित्तद्दे सादो अतोमुहुत्तमुवरि गतॄण कोहसजलणपढमविदीए समयहियावलियमेत्तसेसाए पडिलदुक्कत्सभावत्तादो | जयघ० ६ कुदो; सम्मत्ताद्दिमुहमिच्छाइट्रिणा उदीरिन माणास जोगपविभागियटव्वत्स गहणादो । जयघ० Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] प्रदेश- उदीरणा - अल्पबहुत्व-निरूपण ५२९ ४७८. अनंताणुर्वधीण मुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा संखेज्जगुणा' । ४७९. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४८०. अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा असंखेज्जगुणा । ४८१. पच्चक्खाणकसायाण मुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा विसेसाहिया । ४८२. सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदी - रणा असंखेज्जगुणा । ४८३. णवुंसयवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अनंतगुणा । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे अनन्तानुबन्धीकपायोमे से किसी एक कषायकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा संख्यातगुणी होती है ।।४७७-४७८॥ विशेषार्थ - यह वेदकसम्यक्त्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा कथन है । किन्तु उपशमसम्यग्दर्शनके अभिमुख मिध्यादृष्टिकी अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा नियमसे असंख्यातगुणी होती है, ऐसा उच्चारणावृत्तिकारका मत है । चूर्णिसू० - अनन्तानुबन्धीकी उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणासे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे अप्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । अप्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा से प्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा विशेष अधिक होती है । प्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा से सम्यक्त्व प्रकृति की उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा अनन्तगुणी होती है । नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा १ कुदो, एगा सखेज लोग पडिभागियमिच्छत्तदव्वादो चदुण्हमस खेजलोगपडिभागियदव्वाणं थोवूणचउग्गुणत्तदसणादो। एत्थ चोदगो भणइ उवसमसम्मत्ता हिमुहसमयाहियावलियमिच्छाइट्रिट्ठम्मि मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा जादा । अणताणुवधीण पुण मिच्छत्तपढमदिदीए चरिमसमयम्मि उक्करससामित्त जाद | तहा च सते मिच्छत्तु कस्सपदेसुदीरणादो अणताणुबधीण मुक्कस्सपदेसुदीरणाए असखेजगुणाए होदव्यमिदि । एत्थ परिहारो बुच्चदे - सच्चमेद, तहाविहसामित्तावलबणे असखेजगुणत्तभुवगमादो । किंतु उवसमसम्मत्ताद्दिमुह मोत्तूण वेदयसम्मत्ता हिमुहमिच्छाइट्ठिचरिमसमए मिच्छत्ताणताणुवधीणमकमेण सामित्त होदित्ति एणाहिप्पारण सखेजगुणत्तमेद सुत्त यारेण पदुप्पायिय, तदो ण दोसो त्ति । उच्चारणाहिप्पापण पुणणियमा असखेजगुणेण होदव्व, तत्थ सामित्तभेददसणादो, तदनुसारेणेव तत्थ सण्णियासविहाणादो च । तदो उच्चारणासामित्त मोत्तूण सुत्तसात्तिममण्णा रिसं घेत्तूण पयदप्पा बहुअसमत्थणमेद कायन्वमिदि ण किं चि विरुद्ध | जयध० २ कुदो; सम्मत्ता हिमुहच रिमसमयमिच्छा इट्ठि सव्वक्सस्स विमोहीए अणतगुणसम्मत्ताहि मुहसम्मामिच्छा चिरिमविसोहीए पडिलद्ध क्करसभावत्तादो | जयध० ३ कुदो; सम्मामिच्छाइट्ठिविसोहीदो अणतगुणसत्याणसम्मा इसि व्युक् कस्तविसोहीए अपञ्चक्खाणकसायाणमुक्करससा भित्तावलवणादो । जयध ० ४ सामित्तभेदाभावे वि पय डिविसेसमस्तियूण विसेसाहियत्तसिद्धीए णिच्चाइमुवलभादो | जयध० ५ कुदो; देसघादिमा हप्पादो । जयध० ६७ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० कसाय पाहुड सुत्त ४८४. भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया' । ४८५.हस्स-सोगाणमुक्कस्तिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया। ४८६. रदि-अरदीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । ४८७. संजलणाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा संखेज्जगुणा । ४८८. एत्तो जहणिया । ४८९. सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा' । ४९०. अपञ्चक्खाणकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेज्जगुणा । ४९१. पच्चक्खाणकसायजहपिणया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला विसेसाहिया। ४९२. अणंताणुवंधीणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला विसेसाहिया। ४९३. सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४९४. सम्मत्तस्स जहणिया विशेष अधिक होती है। भय-जुगुप्साकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणासे हास्य और शोककी उत्कृष्टप्रदेश-उदीरणा विशेष अधिक होती है । हास्य और शोककी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणासे रति और अरतिकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा विशेष अधिक होती है । रति-अरतिकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणासे संज्वलनचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा संख्यातगुणी होती है ।।४७९-४८७।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे जघन्य प्रदेश-उदीरणासम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैमिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा आगे कहे जानेवाले पदोकी अपेक्षा सबसे कम होती है । मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश-उदीरणासे अप्रत्याख्यानावरणीय कषायोकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा परस्पर समान होकरके भी संख्यातगुणी होती है। अप्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी जघन्य प्रदेश-उदीरणासे प्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा परस्परमे समान होते हुए भी विशेष अधिक होती है। प्रत्याख्यानावरणीय किसी एक कषायकी जघन्य प्रदेश-उदीरणासे अनन्तानुबन्धी किसी एक कपायकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा परस्परमें समान होते हुए विशेष अधिक होती है। अनन्तानुवन्धी किसी एक कपायकी जघन्य प्रदेश उदीरणासे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा असंख्यातगुणी होती है। सम्य १ तं जहा-णिरयगदीए तिण्ह वेदाणमसखेबालोगपडिभागिय दव्व णवुसयवेदसरूवेणुदीरिजमाण घेत्तूण एगधुवपयडिपमाणमुदीरणादव होदि । भय दुगुछाण पुण पादेक्क धुवरयडिपमाणमुदीरणटव्यमुव लभइ, तेसि धुवव धित्तादो । किन्तु वेदभाग पेक्खियूण पयडिविसेसेण विसेसहीण होदि । होत पि भय-दुगुंछाण दोण्ह पि दन्व तदण्णदरसत्वेणुदीरिजमाणमुवलम्भदे, त्थिवुक्कसकमवसेण तेसिमणोष्णाणुप्पवेस कादृणुक्कस्ससामित्तावलबणादो । एव लम्भदि त्ति कादृण जो तिवेदभागो तत्थेगदव्य पेक्खियूण पयडिविरेसेण महिओ सो दोण्हमन्वोगाढदव्वसमुदायादो विसेसहीणो चेव होइ, किंचूणद्धमेत्तदव्येण परिहीणत्त दसणादो। तदो किंचूणदुगुणपमाणत्तादो विसेसाहियमेदं दव्वमिदि सिद्धं । जयध० . २ कुदो; सयुक्कस्ससकिलिट्ठमिच्छाइट्ठिणा उटीरिजमाणासखेजलोगरडिभागियदब्यस्स गणाटो। जयघ० ३ कुदोः सामित्तविमयभेदाभावे वि एगासखेजलोगपडिभागियदव्वादो चदुण्हमसखेबलोगपडिभा. गियदव्याण समुदायस्स योवृणच उग्गुणत्तवलभादो । जयध० ४ कुदो; मिच्छाइटिठसकिलेस पेक्खियूणाण तगुणहीणसम्मामिच्छाइट्टिनकिलेसपरिणामेणुदीरितमाणासखेजलोगपडिभागियदध्वस्स गहणाटो । जयघ० Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] प्रदेश उदीरणा- अल्पबहुत्व-निरूपण ५३१ 3 पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ४९५. दुर्गुछाए जहणिया पदेसुदीरणा अनंतगुणा । ४९६. भयस्स जहणिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । ४९७, हस्स - सोगाणं जहणिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । ४९८. रदि - अरदीणं जहणिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । ४९९. तिन्हं वेदाणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा विसेसाहिया । ५००. संजलणाणं जहणिया पदे सुदीरणा अण्णदरा संखेज्जगुणा । ५०१. भुजगार- उदीरणा उवरिमाए गाहाए परूविहिदि । पदणिक्खेवो वड्डी वि तत्थेव । तदो पदेसुदीरणा समत्ता । ग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश - उदीरणासे सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य प्रदेश - उदीरणा असंख्यात - गुणी होती है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य प्रदेश - उदीरणासे जुगुप्साकी जघन्य प्रदेश - उदीरणा अनन्तगुणी होती है । जगुप्साकी जघन्य प्रदेश - उदीरणासे भयकी जघन्य प्रदेश - उदीरणा विशेष अधिक होती है । भयकी जघन्य प्रदेश - उदीरणासे हास्य और शोककी जघन्य प्रदेश - उदीरणा विशेष अधिक होती है । हास्य- शोककी जघन्य प्रदेश - उदीरणासे रति और अरतिकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा विशेष अधिक होती है । रति अरतिकी जघन्य प्रदेश- उदीरणा से तीनो वेदोमेंसे किसी एक वेदकी जघन्य प्रदेश - उदीरणा विशेष अधिक होती है। तीनों वेदोमेंसे किसी एक वेदी जघन्य प्रदेश - उदीरणासे संज्वलन कषायोमेसे किसी एक कषायकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा संख्यातगुणी होती है ॥ ४८८-५००॥ चूर्णिसू०-उत्तरप्रकृतिप्रदेश-उदीरणा-सम्बन्धी भुजाकार-उदीरणा आगेकी गाथाके व्याख्यानावसरमें कही जावेगी । वहीं पर पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वारोका भी प्ररूपण किया जायगा ||५०१॥ इस प्रकार प्रदेश-उदीरणा समाप्त हुई और उसके साथ दूसरी गाथाके पूर्वार्धका व्याख्यान समाप्त हुआ । अब वेदक अधिकारकी दूसरी गाथाके उत्तरार्धकी व्याख्या करनेके लिए आचार्य उत्तर सूत्र कहते है १ कुदो; सम्मामिच्छाइट्ठिस किलेसादो अण तगुणहीणसम्माइटिस किलेस परिणामेणुदीरिज माणदव्वग्गहणादो | जयध० २ कुदो, देसघादिप डिभागियत्तादो । तदो जइ वि मिच्छाइट्रिउस किले सेण जहण्णा जादा, तो वि पुव्विल्लादो एसा अण तगुणा त्ति सिद्ध । जयध० ३ एत्थ भय-दुगु छाणमण्णदरस्स जहणभावे इच्छिजमाणे दोन्ह पि उदयं कादूण गेण्डियन्वं; अण्णा जहणभावाणुववत्तीदो । जयघ० ४ को गुणगारो १ सादिरेयपचरूवमेत्तो, णोकसायभागस्स पचमभागमेत्तवेदुदीरणादव्वादो सपुण्णकसायभागमेत्तसंजलणोदीरणढव्वस्स पयडिविसे सगव्भस्स तावदिगुणत्तसिद्धीए णिव्वाह मुवलभादो । जयध० Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक- अर्थाधिकार ५०२. 'सांतर णिरंतरं वा कदि वा समया दु बोद्धव्वा' त्ति एत्थ अंतरं च कालो च दो विहासिया' । ५३२ विदियगाहाए अत्थपरूवणा समत्ता । ५०३. 'बहुगदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदरगं वा' त्ति एत्तो भुजगारो कायव्वो । ५०४. पयडिभुजगारो ट्ठिदिभुजगारो अणुभागभुजगारो पदेस भुजगारो । ५०५. एवं मग्गणाए कदाए समत्ता गाहा । 'जो जं संकामेदि य जं बंधदि जं च जो उदीरेदि । तं होइ केण अहियं द्विदि- अणुभागे पदेसग्गे ॥" ५०६. एदिस्से गाहाए अत्थो - बंधो संतकम्मं उदयो उदीरणा संकमो एदेसिं चूर्णिसू० - 'सांतर णिरंतरं वा कदि वा समया दु बोधव्वा' दूसरी गाथाके इस उत्तरार्धमे आये अंतर और काल (तथा उनके अविनाभावी शेष अनुयोगद्वार ) अधस्तन अर्थात् पहले प्रकृति- उदीरणा आदिके व्याख्यानावसरमें ही यथास्थान कह दिये गये हैं ||५०२ ॥ इस प्रकार दूसरी गाथाकी अर्थ- प्ररूपणा समाप्त हो जाती है । अब वेदक अधिकारकी तीसरी गाथाके व्याख्यानके लिए चूर्णिकार उत्तर सूत्र कहते हैंचूर्णिसू० - 'बहुगदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदरगं वा' इस तीसरी गाथाके द्वारा भुजाकार - उदीरणाका व्याख्यान करना चाहिए । वह भुजाकार चार प्रकारका है - प्रकृति - भुजाकार, स्थिति-भुजाकार, अनुभाग-भुजाकार और प्रदेश - भुजाकार ||५०३-५०४॥ विशेषार्थ- इस गाथा द्वारा केवल भुजाकार - उदीरणाकी ही प्ररूपणा करनेकी सूचना नहीं की गई है । अपि तु पदनिक्षेप और वृद्धिकी भी प्ररूपणा करना चाहिए, यह भी सूचित किया गया है, क्योकि भुजाकार के विशेष वर्णनको पदनिक्षेप कहते है और पदनिक्षेपके विशेष वर्णनको वृद्धि कहते हैं । इसलिए इन दोनोका भुजाकार - उदीरणामे ही अन्तर्भाव हो जाता है। यह सब व्याख्यान यथावसर दूसरी गाथाकी व्याख्यामे कर ही आए हैं, अतः फिर उनका प्ररूपण नहीं करते हैं । चूर्णिस्०(० - इस प्रकार भुजाकारादि तीनो अनुयोगद्वारोके अनुमार्गण करनेपर तीसरी गाथाका अर्थ समाप्त हो जाता है ||५०५ ॥ चूर्णिसू० - 'जो जीव स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाप्रमे जिसे संक्रमण करता है जिसे बाँधता है और जिसकी उदीरणा करता है, वह द्रव्य किससे अधिक होता है और १ 'सांतर णिरतरो वा' त्ति एदेण गाहासुत्तावययेण सूचिदकालतराण हेट्टिमोवरिम से साणिओगद्दारावणाभाव पड-टिट्ठदि-अणुभाग-पदेसुदीरणासु सवित्थरमणुमग्गियत्तादो | जयघ २ 'बहुगदरं बहुगदरं' इच्चदेण सुत्तावयवेण भुजगारसष्णिदो अवस्थाविसेसो सूचिदो । से काले 'कोणु थोवदरगंवा' त्ति एदेण वि अप्पदरसण्णिदो अवस्थाविसेसो सूचिदो । दोण्हमेदेसिं देसामासयभावेणाचट्टिदावत्तत्वसष्णिदाणमवत्यंतराणमेत्येव सगहो । दट्ठव्वो । पुणो 'अणुसमयमुदीरंतो' इच्चेण गाहापच्छ देण भुजगारविसयाण समुक्कित्तणादिअणियोगद्दाराण देतामासयभावेण कालाणियोगो परुविदो | जयघ० Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ गा० ६२] प्रकृत्यपेक्षया बन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण पंचण्हं पदाणं उकस्समुक्कस्सेण जहणं जहण्णेण अप्पाबहुअं पयडीहिं हिदीहिं अणुभागेहिं पदेसेहिं। ५०७. पयडीहिं उक्कस्सेण जाओ पयडीओ उदीरिज्जंति, उदिण्णाओ च ताओ थोवाओ । ५०८. जाओ बझंति ताओ संखेज्जगुणाओ'। ५०९. जाओ संकामिज्जति किससे कम होता है ? वेदक अधिकारकी इस चौथी गाथाका अर्थ कहते हैं-बन्ध, सत्कर्म, उदय, उदीरणा और संक्रम, इन पॉचो पदोका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ और जघन्यका जघन्यके साथ अल्पवहुत्व कहना चाहिए ॥५०६॥ विशेषार्थ-गाथासे संक्रम आदि पॉचो पदोका उक्त अर्थ किस प्रकार निकलता है, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-'जो जं संकामेदि' गाथाके इस प्रथम पदसे 'संक्रम'का ग्रहण किया गया है। 'जं बंधदि' इस द्वितीय पदसे 'बन्ध'का तथा 'सत्कर्म या सत्ता'का अर्थ ग्रहण किया गया है, क्योंकि, बन्धकी ही द्वितीयादि समयोमें 'सत्ता' संज्ञा हो जाती है । 'जं च जो उदीरेदि' इस तृतीय पदसे उदय और उदीरणा'का ग्रहण किया गया है। 'तं केण होइ अहियं' अर्थात् ये संक्रम, बन्ध आदि किससे अधिक होते हैं और किससे कम होते है, इस चौथे पदसे अल्पबहुत्वका अर्थ-बोध होता है । 'विदि-अणुभागे पदेसग्गे' इस अन्तिम चरणसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका ग्रहण किया गया है। 'प्रकृति' पद यद्यपि गाथा-सूत्रमें नहीं कहा गया है, तथापि स्थिति, अनुभाग और प्रदेश प्रकृतिके अविनाभावी हैं, अतः प्रकृतिका ग्रहण अनुक्त-सिद्ध है। यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि वेदक अधिकारमे उदय-उदीरणाका वर्णन तो संगत है, पर बन्ध, संक्रम और सत्कर्मका वर्णन असंगत है ? इसका समाधान यह है कि उदय और उदीरणा-सम्बन्धी विशेप निर्णय करनेके लिए बन्ध, संक्रम और सत्कर्मके वर्णनकी भी आवश्यकता होती है और उनके साथ अल्पबहुत्व लगाये विना उदय-उदीरणासम्बन्धी अल्पबहुत्वका समीचीन बोध हो नहीं सकता है । अतः यहॉपर उनका वर्णन असंगत नहीं है। यह गाथा इस अधिकारकी चूलिकारूप जानना चाहिए। ____ अब चूर्णिकार इनका यथाक्रमसे वर्णन करते हुए पहले प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका वर्णन करते हैं चर्णिस०-प्रकृतियोकी अपेक्षा उत्कृष्टतः अर्थात् अधिक से अधिक जितनी प्रकृतियाँ उदयमें आती हैं और उदीरणा की जाती हैं, वे आगे कहे जानेवाले पदोकी अपेक्षा सबसे कम हैं। क्योंकि, मोहकी दश प्रकृतियोका ही एक साथ उदय या उदीरणा होती है। जितनी प्रकृतियाँ बंधती हैं, वे उदय और उदीरणाकी प्रकृतियोसे संख्यातगुणी हैं। क्योकि, मोहकी बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ छब्बीस बतलाई गई हैं, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिका वन्ध १ कुदो; एदासिं थोवभावणिष्णयो चे दससखावच्छिण्णपमाणत्तादो। जयध० २ कुदो, छन्वीससखावच्छिण्णपमाणत्तादो । जयध० Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ . कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार ताओ विसेसाहियाओ' | ५१०. संतकम्मं विसेसाहियं । ५११. जहण्णाओ । ५१२. जाओ पयडीओ बझंति संकामिज्जति उदीरिज्जति उदिण्णाओ संतकम्मं च एका पयडी । ५१३ द्विदीहिं उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ मिच्छत्तस्स बझंति ताओ थोवाओं। नहीं होता है । जितनी प्रकृतियाँ संक्रमणको प्राप्त होती है, वे बंध-योग्य प्रकृतियोसे विशेप अधिक हैं । क्योकि उनकी संख्या सत्ताईस वतलाई गई है । संक्रमण-योग्य प्रकृतियोसे सत्कर्म योग्य प्रकृतियाँ विशेष अधिक है, क्योकि मोहकी सत्ता-योग्य प्रकृतियाँ अट्ठाईस वतलाई गई हैं ॥५०७-५१०॥ अब प्रकृतियोकी अपेक्षा जघन्य अल्पवहुत्व कहते है चूर्णिसू०-जितनी प्रकृतियाँ बंधती है, संक्रमण करती हैं, उदय और उदीरणाको प्राप्त होती हैं, तथा सत्त्वमें रहती हैं, उन प्रकृतियोकी संख्या एक है ॥५११-५१२॥ विशेषार्थ-नवम गुणस्थानमे मोहकी एक संज्वलन लोभप्रकृति ही बंधती है । संक्रमण भी एक मायासंज्वलनका नवे गुणस्थानमे होता है। उदय, उदीरणा और सत्त्व भी दशमे गुणस्थानमें एक सूक्ष्म लोभसंज्वलनकपायका पाया जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि वन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रम और सत्कर्म जघन्यतः मोहकी एक प्रकृतिका ही होता है। इस प्रकार प्रकृति-विषयक अल्पवहुत्व समाप्त हुआ। अव स्थिति-विपयक-अल्पवहुत्व कहनेके लिए चूर्णिकार उत्तर सूत्र कहते हैं चूर्णिम् ०-स्थितिकी अपेक्षा उत्कर्षसे मिथ्यात्वकी जितनी स्थितियाँ वंधती हैं, वे सबसे कम हैं ।।५१३॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि यहॉपर आवाधाकालसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण निपेकस्थितिकी विवक्षा की गई है। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट आवाधाकाल सात हजार वर्ष है। १ कुदो; सत्तावीसपयडिपमाणत्तादो | जयध० २ कुदो; अट्ठावीसपयडीणमुक्कस्ससतकम्मभावेण समुवलभादो । ३ तं जहा-पंधेण ताव जहण्णेण लोहसंजलणसण्णिदा एक्का चेव पयडी होदि, अणियट्टिम्मि माया संजलणवधवोच्छेदे तदुवलभादो । सकमो वि मायासजलणसण्णिदाए एक्किस्से चेव पयटीए होइ; माणसज• लणसंकमवोच्छेदे तदुबलभादो । उदयोदीरणसतकम्माण पि जपणभावो अणियट्टि सुहुमसापराइएउ घेत्तव्यो । एवमेदासिं जहण्णवध-सकम मतकम्मोदयोदोरणाणमेयपगडिपमाणत्ताटो णत्थि अप्पाबहुअमिदि जाणाविदमैदेण सुत्तण | जयध ४ किंपमाणाओ मिच्छत्तत्स उक्कत्सेण वज्झमाणद्विदीओ ! आवाहणसत्तरिसागरोवरकोडाकोटिमेत्ताओ । कुदो, णिसेवटिटदीणं चेव विवक्खियत्ताटो। जयध० Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] स्थित्यपेक्षया वन्धादि-पंचपद-अल्पवहुत्व-निरूपण ५३५ ५१४. उदीरिजंति संकामिजंति च विसेसाहियाओ । ५१५. उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। ५१६. संतकम्मं विसेसाहियं । ५१७ एवं सोलसकसायाणं । ५१८. सम्मत्तस्स उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ संकामिज्जति उदीरिज्जति च चूर्णिस०-जो स्थितियाँ मिथ्यात्वकी उत्कर्पसे उदीरणाको प्राप्त होती हैं और संक्रमणको प्राप्त होती है, वे परस्परमें समान होकर भी मिथ्यात्वकी बंधनेवाली स्थितियोसे विशेप अधिक है ।।५१४॥ विशेषार्थ-इनका प्रमाण बंधावलीसे कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम है । चूर्णिमू०-मिथ्यात्वकी उदीरणा और संक्रमणको प्राप्त होनेवाली स्थितियोसे उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ विशेष अधिक है ।।५१५।। विशेषार्थ-क्योकि, उदीयमाण सर्व स्थितियाँ तो उदयको प्राप्त होती ही है, किन्तु तत्काल वेद्यमान उदय-स्थिति भी इसमें सम्मिलित हो जाती है, अतः यहॉपर एक स्थितिमात्रसे अधिक विशेष जानना चाहिए। चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकी उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियोसे उसका सत्कर्म विशेष अधिक है ॥५१६॥ विशेषार्थ-क्योकि, सत्कर्मका प्रमाण पूरा सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । यहॉपर एक समय कम दो आवली प्रमाणकाल विशेष अधिक है। इसका कारण यह है कि वंधावलीके साथ समयोन उदयावलीका यहॉपर प्रवेश देखा जाता है। चूर्णिसू०-इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायोका भी अल्पबहुत्व जानना चाहिए ॥५१७।। विशेषार्थ-कषायोकी स्थिति-आदिका अल्पबहुत्व कहते समय सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमके स्थानपर चालीस कोडाकोड़ी सागरोपम कहना चाहिए। " चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कर्षसे जितनी स्थितियाँ संक्रमणको प्राप्त होती है और उदीरणाको प्राप्त होती है, वे परस्परमे समान होकर भी वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है ।।५१८॥ विशेषार्थ-क्योकि, उसका प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्त और आवलीसे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। १ कुदो एदासिं विसेसाहियत्त १ बंधावलियाए उदयावलियाए च ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो । जयध० २.त कथ ? उदीरिजमाणट्ठिदीओ सव्वाओ चेव उदिण्णाओ । पुणो तत्कालवेदिजमाणउदयट्टिदी वि उदिष्णा होइ, पत्तोदयकालत्तादो । तदो एगछिदिमेत्तण विसेसाहियत्तमेत्थ घेत्तव्य । ३ कुदो, सपुण्णसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो । केत्तियमेत्तो विसेसो १ समयूणदोआवलियमेत्तो, बधावलियाए सह समयूणुदयावलियाए एत्य पवेसुवलभादो । जयघ० Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक-अर्थाधिकार ताओ थोवाओ । ५१९. उदिण्णाओ विसेसाहियाओ । ५२०.संतकम्मं विसेसाहियं । ५२१. सम्मामिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ उदीरिज्जति ताओ थोवाओ। ५२२. उदिण्णाओ द्विदीओ विसेसाहियाओ। ५२३. संकामिज्जति द्विदीओ विसेसा चूर्णिस०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी संक्रमण और उदीरणाको प्राप्त होनेवाली स्थितियोसे उसीकी उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ कुछ विशेष अधिक हैं ॥५१९।। विशेषार्थ-यहाँ एक स्थितिसे अधिक विशेष जानना चाहिए । चूर्णिस०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियोंसे उसीका सत्कर्म विशेष अधिक है ॥५२०॥ विशेपार्थ-यह विशेषता सम्पूर्ण आवलीमात्रसे अधिक है। . चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वकी जितनी स्थितियाँ उदीरणाको प्राप्त होती हैं, वे वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सवसे कम हैं ॥५२१॥ विशेषार्थ-क्योकि, उनका प्रमाण दो अन्तर्मुहूर्त और एक उदयावलीसे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणाको प्राप्त होनेवाली स्थितियोसे उसीकी उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ कुछ विशेष अधिक हैं ॥५२२॥ विशेषार्थ-यह विशेषता एक स्थितिमात्र जानना चाहिए । चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वकी उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियोसे उसीकी संक्रमणको प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ कुछ विशेष अधिक है ।। ५२३॥ विशेपार्थ-यहाँ विशेष अधिकताका प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्तमात्र है । wwwwwwwwwwwwwww १ मिच्छत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिं वधिय अतोमुहुत्तपडिभागेण वेदगसम्मत्त पडिवण्णे सम्मत्तस्स उक्कस्सट्टिदिसतकम्ममतोमुहुत्त णसत्तरिसागरोवममेत्त होइ । पुणो त सतकम्म सम्माइटिठविदियसमए उदयावलियवाहिरादो ओकड्डियूण वेदयमाणस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा उक्कस्सट्ठिदिसंकमो च होदि । तेण कारणेणतोमुहुत्त णसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ आवलियूणाओ सम्मन्नस्स सकामिजमाणोदीरिजमाणट्टिदीओ होति त्ति थोवाओ जादाओ । जयध० ___२ केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगठिदिमेत्तो । किं कारण, तक्कालवेदिनमाणुदयट्ठिदीए वि एत्थ तम्भावदसणादो। जयध० ३ केत्तियमेत्तो विसेसो १ सपुण्णावलियमेत्तो । किं कारण, सम्माइपिढमसमए गलिदेगठ्ठिदीए सह समयू णुदयावलियाए एत्थ पवेसुवलभादो । जयघ० ४ किंपमाणाओ ताओ ? दोहि अतोमुहुत्तेहिं उदयावलियाए च ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोटिपमाणाओ। त कथ ? मिच्छत्तस्स उक्कसट्ठिदिं वधियूणतोमुहुत्तपडिभग्गो सव्वलहु सम्मत्त घेत्तण सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सटिदिसंतकम्ममुप्पाइय पुणो सव्वजहण्णेणतोमुहुत्तण सम्मामिच्छत्तमुवणमिय त सतकम्ममुदयावलियबाहिरमुदीरेदि त्ति एदेण कारणेणाणतरणिद्दिठ्ठपमाणाओ होदूण थोवाओ नादाओ। जयध° ५ केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगठिदिमेचो । कुदो, तालवेदिज्जमाणुदयहिदीए पि एत्थतन्भूदत्तादो । जयध Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] स्थित्यपेक्षया वन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण हियाओ'। ५२४. संतकम्मद्विदीओ विसेसाहियाओ । ५२५. णवणोकसायाणं जाओ द्विदीओ वझंति ताओ थोवाओ। ५२६. उदीरिज्जति संकामिज्जति य संखेज्जगुणाओ । ५२७. उदिण्णाओ विसेसाहियाओ । ५२८. संतकम्महिदीओ विसेसाहियाओ । चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वकी संक्रमणको प्राप्त होनेवाली स्थितियोसे उसीकी सत्कर्मस्थितियाँ कुछ विशेष अधिक है ॥५२४॥ विशेषार्थ-यह विशेष अधिकता सम्पूर्ण आवलीमात्र जानना चाहिए । चूर्णिस०-नव नोकषायोकी जो स्थितियाँ बन्धको प्राप्त होती है, वे सबसे कम हैं ॥५२५॥ विशेषार्थ-क्योकि, उनका प्रमाण आवाधाकालसे हीन अपना-अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है। चूर्णिसू०- नव नोकपायोकी बंधनेवाली स्थितियोसे उनकी उदीरणा और संक्रमणको प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ संख्यातगुणी है ॥५२६॥ विशेषार्थ-क्योकि, उनका प्रमाण बन्धावली, संक्रमणावली और उदयावलीसे हीन चालीस कोडाकोड़ी सागरोपम है। चूर्णिसू०-नव नोकषायोकी उदीरणा और संक्रमणको प्राप्त होनेवाली स्थितियोंसे उन्हींकी उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ कुछ विशेष अधिक हैं ॥५२७।। विशेषार्थ- यहाँ अधिकताका प्रमाण एक स्थितिमात्र है। चूर्णिस०-नव नोकषायोकी उदयको प्राप्त होनेवाली स्थितियोसे उन्हीकी सत्कर्मस्थितियाँ कुछ विशेष अधिक है ॥५२८।। विशेषार्थ- यहाँ अधिकताका प्रमाण एक समय कम दो आवलीमात्र है, क्योकि यहाँ पर समयोन उदयावली के साथ संक्रमणावलीका भी अन्तर्भाव हो जाता है। अब जघन्य स्थिति-सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं Annarma १ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अतोमुत्तमेत्तो । कुदो, मिच्छत्तु कस्सट्ठिदि बधियूण सम्मत्त पडिवण्णविदियसमए चेव सम्मामिच्छत्तस्सुक्कस्सट्ठिदिसकमावलबणादो । जयध० २ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सपुण्णावलियमेत्तो। कुदो, सम्माइपिढमसमए चेव उकस्सविदिसंकमावलबणादो । जयध० ३ कुदो, आबाहूणसग-सगुकत्सठिदिवधपमाणत्तादो । जयध० ४ कुदो, सव्वासिं बधसकमणावलियाहिं उदयावलियाए च परिहीणचत्तालीससागरोवमकोडाकोडीमेत्तठ्दिीण सकामिजमाणोदीरिजमाणाणमुवलभादो । जयध० ५ केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगठिदिमेत्तो । जयध० -६ केत्तियमेत्तो विसेसो ? समयूण-दो-आवलियमेत्तो । किं कारण; समयू णुदयावलियाए सह संकमणावलियाए तत्थ पवेसुवलंभादो । जयध० ६८ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक अर्थाधिकार ५२९. जहणेण मिच्छत्तस्स एगा हिंदी उदीरिज्जदि, उदयो संतकम्मं च श्रोणि । ५३०. जट्टिदि उदयो च तत्तियो चेव । ५३१. जडिदि संतकम्मं संखेज्ज - गुणं । ५३२. जडिदि उदीरणा असंखेज्जगुणा । ५३३. जण्णओ द्विदिसंत कम्मो असंखेज्जगुणो" । ५३४ जहण्णओ ट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । ε ५३८ चूर्णिसू० - जयन्यकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी एक स्थिति उदीरणाको प्राप्त होती है, स्थितिप्रमाण है । ( अतः ये तीनो एक सवसे कम है ।) मिध्यात्वका जघन्य जघन्य यत्स्थितिक उदयसे यत्स्थितिक उदय भी एक स्थितिप्रमाण है और सत्कर्म भी एक स्थितिमात्र होकरके भी वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा यत्स्थितिक उदय भी तत्प्रमाण ही है । मिध्यात्व के सत्कर्म संख्यातगुणा है ॥ ५२९-५३१ ॥ विशेषार्थ - मिथ्यात्व के जघन्य यत्स्थितिक - उदयसे यत्स्थितिक सत्कर्मके संख्यातगुणित कहनेका कारण यह है कि एक स्थितिकी अपेक्षा दो समय सम्बन्धी स्थिति दुगुनी होती है । विवक्षित प्रकृतिकी संक्रमणकालमे जो स्थिति होती है, उसे 'यत्स्थिति' कहते हैं । वह 'यत्स्थिति' जिसके पाई जावे, उसे 'यत्स्थितिक' कहते है । इस प्रकारके यत्स्थितिके उदयको 'यत्स्थितिक-उदय', उदीरणाको 'यत्स्थितिक - उदीरणा' और सत्कर्मको 'यत्स्थितिक सत्कर्म' कहते हैं । आगे भी सर्वत्र 'जट्ठिति' पढ़से 'यत्स्थिति' का ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए । चूर्णिसू०-मिथ्यात्वके यत्स्थितिक सत्कर्मसे उसीकी यत्स्थितिक उदीरणा असंख्यातगुणी है ॥ ५३२॥ 1 विशेषार्थ-क्योकि, उसका प्रमाण एक समय अधिक आवलीप्रमाण है । असंख्यात समयोकी एक आवली होती है, अतः इसके असंख्यातगुणित होना सिद्ध है । चूर्णिम० - मिध्यात्वकी यत्स्थितिक - उदीरणासे उसीका जघन्य स्थितिक-सत्कर्म असंख्यातगुणा है ।। ५३३॥ विशेषार्थ - क्योकि, इसका प्रभाग पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । | चूर्णिसू० - मिथ्यात्व के जघन्य स्थिति-सत्कर्मसे उसीका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यात - गुणा है ॥ ५३४ ॥ १ त जहा - उदीरणा ताव पढमसम्मत्ताभिमुहमिच्छाइट्ठिस्स समयाहियावलियमेत्तमिच्छत्तपढमट्ठिदीए सेसाए एगट्टिदिमेत्ता होवूण जहणिया होई । उदयो वि तस्सेवा वलियपविट्ठपढमट्ठदियत्स जहणओ होइ । सतक्रम्म पुण दंसणमोहक्खवगस्स एट्ठिदिदुसमयकालमेत्तमिच्छत्तट्ठिदिसतकम्म घेत्तू जहण्णयं होइ । तदो मिच्छत्तस्स जहण्णिया ठिदि उदीरणा उदयो सतकम्म च एर्गादिमेत्ताणि होण थोवाणि जादाणि । जयघ० २ किं कारण; मिच्छत्तपढमलिदीए आवलियपविट्ठाए आवलियमेत्तकाल जहणओ ट्रिट्ठदि-उदओ होइ । तत्थ जठिदि उदयो वि तत्तियो चेव, तम्हा जठिदि उदयो तत्तियो चेवेत्ति भणिद । जयघ० ३ किं कारण; एगट्ठदीदो दुसमयकालट्ठिदीए दुगुणत्तुवलभादो | जयध० ४ कुदो; समयाहियावलियपमाणत्तादो । जयध० ५ कुदो; पलिदोवमस्स असखेनदिभागपमाणत्तादो | जयध० ६ किं कारण, सव्वविसुद्ध बादरेइ दियपनत्तत्स पाल्दोवमासंखेजभागपरिक्षीणसागरोचममेत्तजद्दष्णटिदिनंघग्गणादो । जयध Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] स्थित्यपेक्षया बन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण ५३९ ५३५. सम्मत्तस्स जहण्णगं हिदिसंतकम्मं संकमो उदीरणा उदयो च एगा द्विदी' । ५३६ जट्ठिदिसंतकम्मं जट्ठिदि-उदयो च तत्तियो चेव । ५३७. सेसाणि जट्ठिदिगाणि असंखेज्जगुणाणि । ५३८. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं द्विदिसंतकस्म थोवं । ५३९. जट्ठिदि-. संतकम्म संखेज्जगुणं । ५४०. जहण्णओ हिदिसंकमो असंखेज्जगुणो । ५४१. जहणिया द्विदि-उदीग्णा असंखेज्जगुणा । ५४२. जहण्णओ हिदि-उदयो विसेसाहिओ। विशेषार्थ-क्योकि, सर्वविशुद्ध वादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन सागरोपमप्रमाण जघन्य स्थितिवन्ध माना गया है। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य स्थिति सत्कर्म, संक्रमण, उदीरणा और उदय एक स्थितिमात्र है। (अतः वक्ष्यमाण सर्वपदोकी अपेक्षा उनका प्रमाण सबसे कम है।) सम्यक्त्वप्रकृतिका जितना जघन्यस्थिति सत्कर्म है यस्थितिक-सत्कर्म और यस्थितिक-उदय भी उतना ही है । मम्यक्त्वप्रकृतिके यत्स्थितिक-उदयसे उसीके शेप यस्थितिक (उदीरणा आदि) असंख्यातगुणित होते है । क्योकि, उनका प्रमाण एक समयसे अधिक आवलीप्रमाण है ॥५३५-५३७॥ चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म वक्ष्यमाण सर्व पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । ( क्योंकि, उसका प्रमाण एक स्थितिमात्र । ) सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसत्कर्मसे उसीका यस्थितिक-सत्कर्म संख्यातगुणा है । ( क्योकि, उसका प्रमाण दो स्थितिप्रमाण है। ) सम्यग्मिथ्यात्वके यस्थितिकसत्कर्मसे उसीका जघन्य स्थिति-संक्रमण असंख्यातगुणा है । ( क्योकि, उसका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। ) सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थिति-संक्रमणसे उसीकी जघन्य स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। ( क्योकि, उसका प्रमाण कुछ कम सागरोपम है। ) सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणासे उसीका जघन्य स्थिति-उदय विशेष अधिक है । (यह विशेषता केवल एक स्थितिमात्र है। ) ॥५३८-५४२॥ १ त जहा-कदकरणिजचरिमसमये सम्मत्तस्स जहण्णट्ठिदिसतकम्ममेगठिदिमेत्तमवलन्भदे। जहण्णद्विदि-उदयो वि तत्थेव गहेयव्यो । अथवा कदकरणिजचरिमावलियाए सव्वत्थेव जहणट्ठिदि-उदयो व समुवलन्मदे; तेत्तियमेत्तकालमेकिस्सेव ठ्दिीए उदयदसणादो। पुणो क्दकरणिजस समयाहियावलियाए सम्वत्थेव जहण्णट्ठिदि उदीरणा जण्णिया होइ, एगठिदिविसयत्तादो। सकमो वि तत्थेव गहेयव्वो। एवमेदेसिमेगछिदिपमाणत्तादो थोवत्तमिदि सिद्धः । जयध० २ कुदो, कदकरणिजचरिमसमए तेसि पि एगछिदिपमाणत्तदसणादो । जयघ० ३ कुदो समयाडियावलियपमाणत्तादो । जयध० ४ कुदो, एगठिदिपमाणत्तादो। जयध० ५ कुदा, दुममयकालछिदिपमाणत्तादो । जयघ० ६ कुदो; पलिदोवमासखेज्जभागपमाणत्तादो । जयध० ७ कुदा, देसूणसागरावमपमाणत्तादो । जयध० ८ फेत्तियमेत्तो विसेसो १ एगछिदिमेत्तो ? किं कारण; उदयट्ठिदीए वि एत्य पवेसदसणादो । जयघ० Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक- अर्थाधिकार ५४३. वारसकसायाणं जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं थोवं । ५४४. जट्ठि दिसंतकम्मं संखेज्जगुणं' । ५४५. जहण्णगो द्विदिसंकमो असंखेज्जगुणो । ५४६. जहण्णगो बंधो असंखेज्जगुणो । ५४७. जहणिया डिदि उदीरणा विसेसाहियां । ५४८. जह- घणगो ठिदि उदयो विसेसाहियो । E · ५४० ५४९. तिन्हं संजलणाणं जहणिया ठिदि - उदीरणा थोवा । ५५०, जहण्णगो डिदि उदयो संखेज्जगुणो । ५५१ . जडिदि - उदयो जडिदि उदीरणा च असंखेज्जगुणो । ५५२. जहण्णगो ठिदिबंधो ठिदिसंकमो ठिदिसंतकम्मं च संखेज्जगुणाणि" । ५५३. चूर्णिम् ० - अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायोका जघन्य स्थिति - सत्कर्म वक्ष्यमाण सर्व पढ़ोंकी अपेक्षा सवसे कम है । वारह कषायोके जघन्य स्थितिसत्कर्म से उन्हीका यत्स्थितिक सत्कर्म संख्यातगुणा है । बारह कषायोंके यत्स्थितिक सत्कर्मसे उन्ही का जघन्य स्थितिसंक्रमण असंख्यातगुणा है । वारह कषायोके जघन्य स्थितिसंक्रमण से उन्हीं का जघन्य स्थिति - वन्ध असंख्यातगुणा है । बारह कपायोके जघन्य स्थितिबन्धसे उन्हींकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है । बारह कपायोकी जघन्य स्थिति - उदीरणासे उन्हींका जघन्य स्थिति- उदय विशेष अधिक है ।।५४३-५४८ ॥ चूर्णिसू० क्रोधादि तीनो संज्वलन कषायोकी जघन्य स्थिति - उदीरणा वक्ष्यमाण सर्व पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । ( क्योकि, वह एक स्थितिप्रमाण है । ) तीनो संज्वलनोकी जघन्य स्थिति-उदीरणासे उन्हीका जघन्य स्थिति - उदय संख्यातगुणा है । ( क्योकि, वह दो स्थितिप्रमाण है | ) तीनो संज्वलनोके जघन्य स्थिति - उदयसे उन्हीका यत्स्थितिक - उदय और यत्स्थितिक - उदीरणा असंख्यातगुणी है । ( क्योकि, उनका प्रमाण एक समय अधिक आवलीकाल है | ) तीनो संज्वलनकपायोके यत्स्थितिक - उदय और उदीरणासे उन्हीका जघन्य स्थितिवन्ध, जघन्य स्थितिसंक्रमण और जघन्य स्थितिसत्कर्म ये तीनो संख्यातगुणित हैं । ( क्योकि, १ कुदो, एगठिदिपमाणत्तादो । जयध० २ कुदो; दुसमयकालट्ठिदिपमाणत्तादो । जयध० ३ कुदो; पलिदोवमासंखेज भागपमाणत्तादो | जयध० ४किं कारणं; सव्वविसुद्धवादरेइ दियजहण्ण ठिदिवधस्स गहणादो । जयध० ५ कुदो; सच्वविसुद्ध वादरेइ दियस्स जहण्णट्ठिदि बधादो विसेसाहियहदसमुत्पत्तिय-जण ठिदिसतकम्मविसयत्तेण पडिलद्वजहण्णभावत्तादो । जयध० ६ केत्तियमेत्तो विमेसो ? एगटिट्ठदिमेत्तो । कुदो; उदयट्ठिदीए वि एत्यंत भावदसणादो | जय० ७ किं कारणं; एगट्ठदिपमाणत्तादो । जयध० ८ कुदो दोट्ठिदिपमाणत्तादो। णेदमसिद्धः तम्मि चैव विमए उदयदिदीए मह उदीरिजमाणट्रिट्ठदीए जहष्णोदयभावेण विवक्खियत्तादो । जयध० ९ कुदो; समयाहियावलियपमाणत्तादो । जयध० १० कुदो; आवाहूण-वेमास मास - पक्खमाणत्तादो । किममाबाहार ऊत्तमेत्थ कीरदे ? ण, जहणवंघ - सतकम्माण णिसेयपहाणत्तावलंवणादो | जयध० Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ६२ ] स्थित्यपेक्षया बन्धादि-पंचपद - अल्पबहुत्व-निरूपण ५४१ दिसंकमो विसेसाहिओ' । ५५४. जट्ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ५५५ जङ्किदिबंधो विसेसाहिओ । ५५६. लोहसंजलणस्स जहण्णडिदिसंकमो संतकम्पमुदयोदीरणा च तुल्ला थोवा । ५५७, जट्टिदि उदयो जट्टि दिसंतकम्मं च तत्तियं चेव । ५५८. जडिदि-उदी उनका प्रमाण क्रमशः आबाघाकाल से हीन दो मास, एक मास और एक पक्ष प्रमाण कहा गया है । ) तीनो संज्वलनोके जघन्य स्थितिबन्ध आदि पदोकी अपेक्षा उन्हीका यत्स्थितिकसंक्रमण विशेष अधिक है । ( यह विशेष अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, क्योकि यहॉपर समयोन दो आवलीसे हीन जघन्य आबाधाकालका प्रवेश देखा जाता है । ) तीनो संज्वलनोके यत्स्थितिक संक्रमणसे उन्हींका यत्स्थितिक-सत्कर्म विशेष अधिक है । ( यह विशेष एक स्थितिमात्र है | | ) तीनो संज्वलनोंके यत्स्थितिक सत्कर्म से उन्हींका यत्स्थितिक-बन्ध विशेष अधिक है । ( यह विशेष दो समय कम दो आवलीमात्र जानना चाहिए | क्योकि, सम्पूर्ण आबाधाकाल के साथ ही स्थितिबन्धके जघन्यपना माना गया है । ) ।।५४९-५५५ ।। I चूर्णिसू० - लोभसंज्वलनका जघन्य स्थितिसंक्रमण, जघन्य स्थितिसत्कर्म, जघन्य उदय और जघन्य उदीरणा ये चारो परस्परमें तुल्य हैं और वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम हैं । ( क्योकि, इन सबका प्रमाण एक स्थितिमात्र है । ) लोभसंज्वलनका जघन्य यत्स्थितिक-उदय और जघन्य यत्स्थितिक - सत्कर्म भी उतना ही अर्थात् एक स्थितिप्रमाण ही है । लोभसंज्वलन के जघन्य यत्स्थितिक उदय और जघन्य यत्स्थितिक-सत्कर्मसे उसीकी जधन्य यत्स्थितिक उदीरणा और जघन्य यत्स्थितिक संक्रमण असंख्यातगुणित है । ( क्योकि, उनका प्रमाण एक समय अधिक आवलीकाल है ।) लोभसंज्वलनके जघन्य यत्स्थितिक - उदीरणा और जघन्य संक्रमणसे उसीका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । ( क्योकि, अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अन्तिम समयमे होनेवाले आबाधा - विहीन अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण स्थितिबन्धको १ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अतोमुहुत्तमेत्तो । कुढो, समयूणदो आवलिया हिं परिहीण - जहण्णावाहाए एत्थ पवेदसणादो । जयध० २ केत्तियमेत्तो विसेसो ! एगट्ठदिमेत्तो । कि कारण, सकमणावलियाए चरिमसमयम्मि जट्ठिदिसकमो जहण्णो जादो । जट्ठिदिसतकम्म पुण तत्तो हेट्ठिमाणतरसमए वट्टमाणस्स जहण्ण होइ, तेण कारण सकमणावलियाए दुचरिमसमयप्पवेसेण विसेसा हियत्तमेत्थ गहेयत्व | जयघ० ३ केत्तियमेत्तो विसेसो १ दुसमयूणदोआवलियमेत्तो । किं कारण, सपुष्णावाहाए जट्ठिदिवधस्स जहणभावदसणादो | जयध० ४ कुदो, सव्वे सिमेट्ठिदिपमाणत्तादो । त कथ; सुहुमस पराइयस्स समयाहियावलियाए दिट्ठदिसकमो दिट्ठदि उदीरणा च जहणिया होइ । [ तस्सेव चरिमसमए ट्रिट्ठदिसतकम्ममुदयो च जहण्णभाव पडिवजदे। तदो सव्वे सिमेट्ठिदिपमाणत्तादो थोक्त्तमिदि सिद्ध । ५ किं कारणं, उद्दयत्थ जहण्णट्ठिदीदो जट्ठिदीए भेदाणुवलंभादो । जयध० Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुड सुत्त [६ वेदक अर्थाधिकार रणा संकमो च असंखेज्जगुणो'। ५५९. जहण्णगो द्विदिवंधो संखेज्जगुणों । ५६०. जढिदिवंधो विसेसाहियो । ५६१. इत्थि-णqसयवेदाणं जहण्णट्ठिदिसंतकम्ममुदयोदीरणा च थोवाणि । ५६२. जहिदिसंतकम्मं जट्टिदि-उदयो च तत्तियो चेव । ५६३. जहिदि-उदीरणा असंखेज्जगणा । ५६४. जहण्णगो हिदिसंकमो असंखेज्जगुणो । ५६५. जहण्णगो द्विदिबंधो असंखेज्जगुणों। ५६६. पुरिसवेदस्स जहण्णगो डिदि-उदयो द्विदि-उदीरणा च थोवा । ५६७. ग्रहण किया गया है । ) लोभसंज्वलनके जघन्य स्थितिवन्धसे उसीका यस्थितिक बन्ध विशेष अधिक है। (क्योकि, यहाँ पर उसमे जघन्य आबाधाकाल भी सम्मिलित हो जाता है।) ||५५६-५६०॥ चूर्णिस०-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थिति-सत्कर्म, जघन्य स्थिति-उदय और जघन्य स्थिति-उदीरणा ये तीनो परस्परमे समान हैं और वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। ( क्योकि, उनका प्रमाण एक स्थितिमात्र है । स्त्री और नपुंसक वेदका जघन्य यस्थितिकसत्कर्म और जघन्य यत्स्थितिक उदय भी उतना अर्थात् एक स्थितिप्रमाण ही है । स्त्री और नपुंसक वेदके जघन्य यस्थितिक-सत्कर्म और जघन्य यत्स्थितिक-उदयसे उन्हींकी जघन्य यस्थितिक-उदीरणा असंख्यातगुणी है । ( क्योकि, उसका प्रमाण एक समय अधिक आवलीकाल है । ) स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य यस्थितिक-उदीरणासे उसीका जघन्य स्थिति-संक्रमण असंख्यातगुणा है। ( क्योकि, उसका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवे भाग है । ) स्त्री और नपुंसकवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमणसे उन्हींका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । ( क्योकि, पल्योपमके असंख्यातवे भागसे हीन सागरोपमके दो वटे सात (३) भागप्रमाण एकेन्द्रियोके स्त्री और नपुंसकवेद-सम्बन्धी जघन्य स्थितिबंधको यहाँ ग्रहण किया गया है ।।५६१-५६५।। ___ चूर्णिस०-पुरुषवेदका जघन्य स्थिति-उदय और जघन्य स्थिति-उदीरणा सवसे कम हैं । ( क्योकि, वह एक स्थिति-प्रमाण है । ) पुरुषवेदका यत्स्थितिक-उदय भी उतना ही है, १ कुदो; समयाहियावलियपमाणत्तादो । जयध० २ किं कारण, अणियट्टिकरणचरिमटिदिबधस्स अतोमुहुत्तपमाणस्सावाहाए विणा गहिदत्तादो। जयध० ३ कुदो; जहण्णावाहाए वि एस्थतभावदसणादो । जयध० ४ कुदो एगठिदिपमाणत्तादो । जयघ० ५ किं कारण; एत्य जझिदीए जद्दण्णट्टिदीदो भेदाणुवलभादो । जयध० ६ कुदो; समयाहियावलियपमाणत्तादो । जयध० ७ कुदो पलिदोवमासंखेजदिमागमेत्तचरिमफालिविसयत्तादो। जयध० रइदियजा घस्स पल्टिोवमासंखेज्जभागपरिट्टीणसागरोवम-वे-सत्तमागपमाणस्स गद्दणादो । जयध ९ कुदो; एगद्विदिपमाणत्तादो । जयध० Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] स्थित्यपेक्षया-वन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण ५४३ जढिदि-उदयो तत्तियो चेव । ५६८. जडिदि-उदीरणा समयाहियावलिया सा असंखेज्जगुणा । ५६९. जहण्णगो हिदिबंधो द्विदिसंकमो हिदिसंतकम्मं च ताणि संखेज्जगुणाणि' । ५७०. जहिदिसंकमो विसेसाहियो । ५७१. जहिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ५७२. जद्विदिबंधो विसेसाहिओं। ५७३. छण्णोकसायाणं जहण्णगो डिदिसंकमो संतकम्मं च थोवं । ५७४. जहण्णगो द्विदिबंधो असंखेजगुणो । ५७५.जहणिया द्विदि-उदीरणा संखेज्जगुणा*। अर्थात् एक स्थितिप्रमाण है । पुरुषवेदफी यस्थितिक-उदीरणा एक समय अधिक आवलीप्रमाण है । वह पुरुषवेदके यस्थितिक-उदयसे असंख्यातगुणी है । पुरुषवेदकी यत्स्थितिक-उदीरणासे उसीका जघन्य स्थितिबन्ध, जघन्य स्थितिसंक्रम और जघन्य स्थितिसत्कर्म ये सब संख्यातगुणित हैं । ( क्योकि, यहॉपर अबाधाकालसे रहित आठ वर्षप्रमाण पुरुषवेदके चरम स्थितिवन्धको ग्रहण किया गया है । ) पुरुषवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमसे उसीका यत्स्थितिकसंक्रम विशेष अधिक है। (क्योकि, यहॉपर एक समय-हीन दो आवलीकालसे कम पुरुषवेदका जघन्य आबाधाकाल भी सम्मिलित हो जाता है।) पुरुपवेदके यत्स्थितिक-संक्रमसे उसीका यत्स्थितिकसत्कर्म (एक स्थितिसे) विशेष अधिक है। पुरुषवेदके यत्स्थितिक-सत्कर्मसे उसीका यत्स्थितिकबन्ध विशेष अधिक है ( यह विशेष दो समयसे कम दो आवलीप्रमाण अधिक जानना चाहिए । ) ॥५६६-५७२।। चूर्णिस० हास्यादि छह कषायोका जघन्य स्थितिसंक्रम और जघन्य स्थितिसत्कर्म वक्ष्यमाण सर्व पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । हास्यादिषट्कके जघन्य स्थितिसंक्रमसे उन्हींका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणित है। ( क्योकि, उसका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन दो वटे सात (3) सागरोपम है ।) हास्यादिषट्कके जघन्य स्थितिबन्धसे उन्हीकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है । ( क्योकि, उसका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें १ कुदो, पुरिसवेदचरिमठिदिबधस्स अट्ठवस्सपमाणस्स आबाहाए विणा गहणादो । जयध० २ कुदो; समयूण दो-आवलियाहि परिहीणजहण्णाबाहाए एत्थ पवेसदसणादो । जयध० ३ केत्तियमेत्तो विसेसो १ एगठिदिमेत्तो । जयध० ४ केत्तियमेत्तो विसेसो ? दुसमयूण-दो-आवलियमेत्तो । जयध० ५ कुदो खवगस्स चरिमछिदिखडयविसये पडिल्द्धजहण्णभावत्तादो | जयध० ६ किं कारण; एइ दियजहण्णठिदिबधस्स पलिदोवमासखेजभागपरिहीणसागरोवम-वे-सत्तभागपमाणस्स गहणादो । जयध० ७ किं कारण, पलिदोवमासखेजभागपरिहीणसागरोवमचदुसत्तभागमेत्तजण्णछिदिसतकम्मविसयत्तेण छिदिउदीरणाए जहण्णसामित्तपवुत्तिदसणादो । जयध० 9 ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'असंखेजगुणा' पाठ मुद्रित है (देखो पृ० १५९६ ) । पर टीकाके अनुसार 'संखेजगुणा' पाठ होना चाहिए। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ कलाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार ५७६. जहण्णओ हिदि-उदयो विसेसाहिओ'। ५७७. एत्तो अणुभागेहिं अप्पाबहुअं ५७८. उक्कस्सेण ताव । ५७९. मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायाणमुक्कस्स-अणुभागउदीरणा उदयो च थोवा । ५८०. उक्कस्सओ बंधो संकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि ।। ५८१. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्स-अणुभागउदओ उदीरणा च थोवाणि । ५८२. उक्कस्सओ अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । ५८३. एत्तो जहण्णयमप्पाबहुअं । ५८४. मिच्छत्त-बारसकसायाणं जहण्णगो भागसे हीन चार वटे सात (3) सागरोपम है । ) हास्यादिपटककी जघन्य स्थिति-उदीरणासे उन्हींका जघन्य स्थिति-उदय ( एक स्थितिसे ) विशेष अधिक है ।।५७३-५७६।। इस प्रकार जघन्य स्थिति-विपयक अल्पवहुत्व समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-अब इससे आगे अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहेगे। उसमे पहले उत्कृष्टकी अपेक्षा वर्णन करते हैं । मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा और उत्कृष्ट उदय वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। ( क्योकि, उत्कृष्ट अनुभाग वन्ध और उत्कृष्ट अनुभाग-सत्कर्मके अनन्तवे भागकी ही सर्वदा उदय और उदीरणारूप प्रवृत्ति देखी जाती है । ) मिथ्यात्वादिके उत्कृष्ट उदय और उदीरणासे उन्हीका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध, उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रम और उत्कृष्ट अनुभाग-सत्कर्म अनन्तगुणा है। ( क्योकि, यहॉपर मिथ्यादृष्टिके सर्वोत्कृष्ट संक्लेशसे बंधे हुए उत्कृष्ट अनुभागको निरवशेषरूपसे ग्रहण किया गया है । ) ॥५७७-५८०॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग-उदय और उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सवसे कम हैं । (क्योकि, इनके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके चरम स्पर्धकसे अनन्तगुणित हीन-स्वरूपसे ही सर्वकाल उदय और उदीरणाकी प्रवृत्ति देखी जाती है । ) सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग-उदय और उदीरणासे उन्हींका उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रम और उत्कृष्ट अनुभाग-सत्कर्म अनन्तगुणित है । ( क्योकि, विना किसी विघातके स्थित उत्कृष्ट अनुभागको यहाँ ग्रहण किया गया है ।) ।।५८१-५८२॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे अनुभाग-सम्बन्धी जघन्य अल्पबहुत्वको कहते हैंमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपायोका जघन्य अनुभागवन्ध वक्ष्यमाण पदोकी १ केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगहिदिमेत्तो । जयध० । २ कुदो; उक्कत्सागुभागबधसतकम्माणमण तिमभागे चेव सव्यकालमुदयोदीरणाणं पत्तिदसणादो । ३ कुदो; सण्णिपचिंदियमिच्छाइट्ठिस्स सबुक्कससकिलेसेण वधुकरसाणुभागत्स अणूणाहियस्स गहणादो । जयध० ४ कुदो; एदेसिमुक्कत्साणुभागसंतकम्मचरिमफद्द यादो अणतगुणहीणफद्द यसरूवेण मध्यसमुदयोदीर. णाण पत्तिदसणादो | जयध० ५ कृदो; किंचि वि घादमपावेदूण दिसगुणत्साणुभागसरुवेण पत्तुपरसभावत्तादो । नयधः जयघ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] अनुभागापेक्षया वन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण ५४५ अणुभागबंधो थोवो' । ५८५. जहण्णयो उदयो उदीरणा च अणंतगुणाणि । ५८६. जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । ५८७ सम्मत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्ममुदयो च थोवाणि । ५८८. जहणिया अणुभागुदीरणा अणंतगुणा । अपेक्षा सबसे कम है । ( क्योकि, यहॉपर संयमके ग्रहण करनेके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतके उत्कृष्ट विशुद्धिसे बद्ध जघन्य अनुभागका ग्रहण किया गया है । ) मिथ्यात्व और बारह कषायोंके जघन्य अनुभागबन्धसे उन्हींके जघन्य उदय और उदीरणा अनन्तगुणित है। ( क्योकि, यहॉपर संयमाभिमुख चरम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतके बद्ध नवीन जघन्य बन्धके समकाल ( साथ ) ही पुरातन बद्ध सत्कर्मोंका भी उदय और उदीरणा होनेसे अनन्तगुणितता देखी जाती है। ) मिथ्यात्व और बारह कषायोंके जघन्य अनुभाग-उदयसे उन्हीके जघन्य अनुभाग-संक्रम और जघन्य अनुभाग-सत्कर्म अनन्तगुणित हैं ॥५८३-५८६॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि मिथ्यात्व और अप्रत्याख्यानावरणादि आठ कपायोके सूक्ष्म एकेन्द्रिय-सम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक जघन्य अनुभागको विषय करनेसे, तथा अनन्तानुबन्धी कषायोके विसंयोजनापूर्वक संयोजनाके प्रथम समय होनेवाले जघन्य नवक वंधको विषय करनेसे उनके अनन्तगुणितपना देखा जाता है। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभाग सत्कर्म और जघन्य उदय वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है ॥५८७॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि यहॉपर प्रतिसमय अपवर्तनाघातसे सम्यक्त्वप्रकृतिका भलीभाँति घात करके स्थित कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके चरम समयमे होनेवाले उदय और सत्कर्मकी विवक्षा की गई है। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिके जघन्य अनुभाग सत्कर्म और उदयसे उसीकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा अनन्तगुणी है ।।५८८॥ १ कुदो; मिच्छत्ताणताणुबधीण सजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिणा सबुक्कस्सविसोहीए वद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो । अपञ्चक्खाण-पञ्चक्खाणकसायाण पि सजमाहिमुहचरिमसमयअसजदसम्माइटिठ-सजदासजदाणमुक्कस्स-विसोहिणिबधणाणुभागबधम्मि जहष्णसामित्तावलबणादो । जयघ० । २ किं कारण, सजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठि-असजद-सजदासजदेसु जहण्णवधेण समकालमेव पत्तजहण्णभावाण पि उदयोदीरणाण चिराणसतसरूवेण तत्तो अणतगुणत्तदसणादो । जयध० ३ किं कारण, मिच्छत्त-अठकसायाण सुहुमेइंदियहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागविसयत्तेण अणताणुवधीण पि विस जोयणापुव्वसजोगपढमसमयजहण्णणवकवधविसयत्तण सकमसतकम्माण जहण्णसामित्तावलंबणादो । जयघ० ४ कुदो, अणुसमयोवणाघादेण सुट्ठ घाद पावियूण दिठदकदकरणिज्जचरिमसमयजहण्णाणुभागसरूवत्तादो । जयव० ५ किं कारण; हेट्टा समयाहियावलियमेत्तमोसरिदूण पडिलद्धजहण्णभावत्तादो । जयध० Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदफ-अर्थाधिकार ५८९. जहण्णो अणुभागसंकमो अणंतगुणो'। ५९०. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च थोवाणि। ५९१. जहण्णगो अणुभाग-उदयो उदीरणा च अणंतगुणाणि । ५९२. कोहसंजलणस्स जहण्णगो अणुभागबंधो संकमो संतकम्मं च थोवाणि । ५९३. जहण्णाणुभाग-उदयो विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि कृतकृत्यवेदक होनेसे एक समय अधिक आवली काल पहले सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। चूर्णिस०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे उसीका जघन्य अनुभाग संक्रम अनन्तगुणा है ॥५८९।। विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि यद्यपि जघन्य उदीरणाके विषयमें ही अपवर्तनाके वशसे जघन्य अनुभागका संक्रम हुआ है, तथापि उस जघन्य अनुभाग-उदीरणासे यह जघन्य अनुभाग-संक्रम अनन्तगुणा है। क्योकि, अपकृष्यमाण अनुभागके अनन्तवें भागस्वरूपसे ही उदय और उदीरणाकी संक्रममे प्रवृत्ति देखी जाती है। चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम और जघन्य अनुभाग-सत्कर्म वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम हैं ॥५९०॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि दर्शनमोहका क्षपण करनेवाले जीवके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका भलीभॉति घात करके स्थित चरम अनुभागखंडको यहाँ ग्रहण किया गया है । ____चूर्णिम०-सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रम और जघन्य अनुभाग-सत्कर्मसे उसीके जघन्य अनुभाग उदय और जघन्य अनुभाग-उदीरणा अनन्तगणित है ॥५९१॥ विशेषार्थ-क्योकि, घातके विना सम्यक्त्वके अभिमुख चरम समयवर्ती सम्यग्मिथ्याष्टिक तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा उदीर्यमाण जघन्य अनुभागकी यहाँ विवक्षा की गई है। चूर्णिसू०-संज्वलनक्रोधका जघन्य अनुभागबन्ध, जघन्य संक्रम, और जघन्य सत्कर्म ये तीनो परस्परमे समान होकरके भी वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम हैं। १ जइ वि जहण्णोदीरणाविसये चेव ओकदुणावसेण जहण्णाणुभागसकमो जादो, तो वि तत्तो एसो अणतगुणो । किं कारण; ओकडिजमाणाणुभागस्स अणतभागसरुवेण उदयोदीरणाणं तत्य पवुत्तिदसणादो । जयध० २ कुदो; दसणमोहक्खवय-अपुवाणियट्टिकरणपरिणामेहि सुछ धादं पावेयूण ठ्ठिदचरिमाणुभागखंडयविसयत्त ण पडिलद्धजहण्णभावत्तादो । जयध० ३ कुदो; घादण विणा सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइटिस तप्पाओग्गुफात्सविसाहीए उदीरिजमाणजहण्णाणुभागविसयत्तण पयदहाणसामित्तावलंबणादो। जयध० ४ कुदा; कोधवेदगचरिमसमयजहष्णाणुभागबंधविसयतण तिण्हमेदेसि जहष्णसामित्तोवलमादो। जयध Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] अनुभागापेक्षया बन्धादि - पंचपद - अल्पबहुत्व-निरूपण उदीरणा च अनंतगुणाणि । ५९४. एवं माण - मायासं जलणाणं । ५९५ लाहसंजलणस्स जहण्णगो अणुभाग- उदयो संतकम्मं च थोवाणि' | ५९६. जहणिया अणुभाग- उदीरणा अनंतगुणा । ५९७. जहण्णगो अणुभागसंकमो अनंतगुणो' । ५९८. जहण्णगो अणुभागबंधो अनंतगुणा । ५ ५४७ संज्वलनक्रोधके जघन्य अनुभागबन्ध आदिसे उसीके जघन्य अनुभाग - उदय और जघन्य अनुभाग- उदीरणा अनन्तगुणित है ॥५९२ ५९३ ॥ विशेषार्थ - इ‍ - इसका कारण यह है कि संज्वलनक्रोध - वेदककी प्रथम स्थिति के एक समयाधिक आवलीप्रमाण शेष रह जानेपर जघन्य बन्धके समकालमे ही पुरातन सत्कर्मके उदय और उदीरणारूपसे परिणत हो जानेपर उनका परिमाण जघन्य अनुभागबन्ध आदिके परिमाणसे अनन्तगुणा हो जाता है । चूर्णिसू० - इसी प्रकार संज्वलन मान और मायाके अनुभागसम्बन्धी सर्व पदों का अल्पबहुत्व जानना चाहिए ||५९४ ॥ चूर्णिमू० – संज्वलनलोभका जघन्य अनुभाग- उदय और जघन्य अनुभाग-सत्कर्म वक्ष्यमाण सर्व पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । ( क्योकि ये दोनों सूक्ष्मसाम्परायिक अपकके अन्तिम समय में पाये जाते है । ) संज्वलनलोभके जवन्य अनुभाग- उदय और जघन्य अनुभाग-सत्कर्मसे उसीकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । ( क्योकि, यहाॅ सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयसे समयाधिक आवलीकाल पहले होनेवाले उदयस्वरूप से उदीर्यमाण अनुभागका ग्रहण किया गया है । ) लोभसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग- उदीरणासे उसीका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ॥५९५-५९७ ॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि लोभसंज्वलन के उदयसे बहुत नीचे हटकर पतित अनुभागको ग्रहण करनेकी अपेक्षा तो उदीरणा अनन्तगुणित हो जाती है, और उससे भी अनन्तगुणित अपकृष्यमाण अनुभागको ग्रहणकर होनेवाले संक्रमणकी अपेक्षा संज्वलन लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणित हो जाता है । चूर्णिसू० -संज्वलन-लोभके जघन्य अनुभाग-संक्रमसे उसीका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । ( क्योकि, यहॉपर अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में बादरकृष्टिस्वरूपसे वंधने - वाले अनुभागका ग्रहण किया गया है ॥ ५९८ ॥ १ त जहा - कोधवेदगपढमरिठदीए समयाहियावलियमेत्तरे साए जहण्णय घेण समकालमेव उदयोदीरणाण पि जहणसामित्त जादं । किंतु एसो चिराणसतकम्मसरूवो होदूणाणतगुणा जादा | जयघ० २ कुद्रो. सुहुमसा ग्राइयखवगचरिमसमयम्मि लद्धजहण्णभावनादो । जयध० ३ किं कारण, तत्तो समयाहियावलियमेत्त हेट्ठा ओसरिदूण तक्कालभाविउदयमरुवेणुदीरिजमाणाणुभागस्स गहणादो । जयध० ४ त कथ; उदीरणा णाम उदयसरूवेण सुठु ओहट्टिदूण पदिदाणुभाग घेण जहणा जादा | सकमो पुण तत्तो अणतगुणोकनमाणाणुभाग घेत्तू जहण्णा जादो । तेण कारणेाणतगुणत्त मेदस्सण विरुज्झद | जयध० ५ कुदो, बादर किट्टिसरूवेणाणियट्टिकरणच रिमसमये बज्झमाणजहण्णाणुभागव धस्स गहणादो | जयघ० Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक-अर्थाधिकार __५९९. इस्थि-णबुंसयवेदाणं जहण्णगो अणुभाग-उदयो संतकम्मं च थोवाणि । ६००. जहणिया अणुभाग-उदीरणा अणंतगुणा'। ६०१. जहण्णगो अणुभागवंधो अणंतगुणो । ६०२. जहण्णगो अणुभागसंकमो अणंतगुणों ।। ६०३. पुरिसवेदस्स जहण्णगो अणुभागवंधो संकमो संतकम्मं च थोवाणि । ६०४. जहण्णगो अणुभाग-उदयो अणंतगुणो । ६०५. जहणिया अणुभाग-उदीरणा अणंतगुणा। ६०६. हस्स-रदि-भय-दुगुछाणं जहण्णाणुभागवंधो थोवो । ६०७. जहण्णगो अणुभाग-उदयो उदीरणा च अणंतगुणो । ६०८. जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्म चूर्णिसू०-खी और नपुंसक वेदका जघन्य अनुभाग-उदय और जघन्य अनुभागसत्कर्म वक्ष्यमाण पदोंकी अपेक्षा सबसे कम है । स्त्री और नपुंसक वेदके जघन्य अनुभागउदयसे उन्हींकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा अनन्तगुणी है। स्त्री और नपुंसक वेदकी जघन्य अनुभाग-उदीरणासे उन्हीका जघन्य अनुभाग-बन्ध अनन्तगुणा है। स्त्री और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागबन्धसे उन्हींका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ॥५९९-६०२।। चूर्णिसू०-पुरुषवेदका जघन्य अनुभागबन्ध, जघन्य अनुभाग संक्रम और जघन्य अनुभाग-सत्कर्म वक्ष्यमाण पदोंकी अपेक्षा सबसे कम है। पुरुपवेदके जघन्य अनुभाग बन्ध आदिसे उसीका जघन्य अनुभाग-उदय अनन्तगुणा है। पुरुषवेदके जघन्य अनुभाग-उदयसे उसीकी जघन्य अनुभाग-उदीरणा अनन्तगुणी है ॥६०३-६०५॥ चूर्णिस०-हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य अनुभागवन्ध वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। उक्त प्रकृतियोके जघन्य अनुभागवन्धसे उन्हींका जघन्य अनुभागउदय और जघन्य अनुभागउदीरणा अनन्तगुणी है । उक्त प्रकृतियोके जघन्य अनुभाग-उदयसे १ कुदो; देसघादिएगछाणियसरूवत्तादो | जयध० २ एसा वि देसघादिएगट्ठाणियसरूवा चेय, किंतु हेट्ठा समयाहियावलियमेत्तो ओसरियूण जहण्णा जादा । तदो उवरिमावलियमेत्तकालमपत्तघादत्तादो एमा अणतगुणा त्ति सिद्ध । जयध° ३ किं कारण; विटाणियसरूवत्तादो । जयध० ४ जहण्णसकमो णाम अंतरकरणे कदे सुहुमेइ दियजहण्णाणुभागसतकम्मादो हेट्ठा अणतगुणहीणो होदूण पुणो वि सखेजसहस्साणुभागखडएसु घादिदेसु चरिमफालिसरूवेण जहण्णो जादो । एव विद्दघाद पत्तो वि चिराणसतकम्म होदूण पुन्बुत्तबधादो सकमाणुभागो अणतगुणो जादो । जयध० ५ कुदो; चरिमसमयसवेढजहण्णाणुभागवध देसघादिएयट्ठाणियसरुव घेत्तृण तिण्हमेदेमि जहष्णसामित्तावलंबणादो । जयध० ६ कुदो; देसघादिएवट छाणियत्ताविसेसे वि सपहि-बंधादो उदयो अणतगुणो ति णायमस्सियूण पुन्विल्लाणुभागादो एदत्स तहाभावसिद्धीए णिन्वाहमुवलभादो। जयघ० ७ एसा वि देसयादिएयट्ठाणियसरुवा चेय; किंतु समयाहियावलियमेत हेट्ठा ओमरियण जहण्णा जादा; तेण पुविल्लादो एदिस्से अणतगुणत्त ण विरुज्झदे । जयव० ८ कुदो अपुवकरणचरिमसमयणवकबधत्स देसघादिविट्ठाणियमस्वत्स गहणादो | जयध ९ कुदो एदेसि पि तत्थेव जहण्णसामिचे सते वि संपाहिबधादो मपहि-उदयम्माणतगुणत्तमस्सियूण तहाभावसिद्धीदो । जयघ० Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] प्रदेशापेक्षया बन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण ५४९ च अणंतगुणाणि। ६०९. अरदि-सोगाणं जहण्णगो अणुभाग-उदयो उदीरणा च थोवाणि । -६१०. जहण्णगो अणुभागवंधो अणंतगुणो। ६११. जहण्णाणुभागसंकमो संतकम्म च अणंतगुणाणि । अणुभागविसयमप्पाबहुअं समत्तं । ६१२. पदेसेहिं उक्कस्समुक्कस्सेण । ६१३. मिच्छत्त-चारसकसाय-छण्णोकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा थोवा । ६१४. उक्कस्सगो बंधो असंखेज्जगुणो । ६१५. उक्कस्सपदेसुदयो असंखेज्जगुणो । ६१६. उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । ६१७. उन्हींका जघन्य अनुभाग-संक्रम और जघन्य अनुभाग-सत्कर्म अनन्तगुणित है॥६०६-६०८॥ चूर्णिसू०-अरति और शोकका जघन्य अनुभाग-उदय और जघन्य अनुभागउदीरणा वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। उक्त प्रकृतियोके जघन्य अनुभाग-उदयसे उन्हींका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । अरति-शोकके जघन्य अनुभागबन्धसे उन्हीका जघन्य अनुभाग-संक्रम और जघन्य अनुभाग-सत्कर्म अनन्तगुणित है ॥६०९-६११॥ इस प्रकार अनुभाग-विषयक अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-अब प्रदेशोकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहेगे। उनमे पहले प्रदेशवन्धादि पाँचो पदोंके उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ कहते है-मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपाय 'और हास्यादि छह नोकषायोकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। मिथ्यात्वादि उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणासे उन्हींका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वादि सूत्रोक्त प्रकृतियोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धसे उन्हीका उत्कृष्ट प्रदेश‘उदय असंख्यातगुणा है । मिथ्यात्वादिके उत्कृष्ट प्रदेश-उदयसे उन्हीका उत्कृष्ट प्रदेश-संक्रम १ किं कारण, खवगसेढिम्मि चरिमाणुभागखडयचरिमफालीए सव्वघादि-विट्ठाणियसरूवाए पयदजहण्णसामिचोवलभादो । जयध० २ किं कारण; अपुवकरणचरिमसमयम्मि देसघादि-विठ्ठाणियसरूवेण तदुभयसामित्वावलंबणादों। जयव० ३ किं कारण, पमत्तसजदतप्पाओग्गविसोहीए बद्धदेसघादिविट्ठाणियमरूवणवकवधावलबणेण पयदजहण्णसामिचविहासणादो । जयध० ४ कुदो, सव्वघादिविट्ठाणियचरिमफालिविसयत्तण पडिलद्ध जहण्णभावत्तादो । जयध० ५ कुदो; अप्पप्पणो सामित्तविसये उक्कस्सविसोहीए उदीरिजमाणासखेजलोगपडिभागियदव्वस्स गहणादो । जयध० ६ कुदो, सण्णिपचिदियपजत्तणुक्कस्सजोगिणा बज्झमाणुक्कस्सस्स समयपबद्धस्स अणूणाहियस्स गहणादो । जयघ० ७ कुदो, असखेजसमयपबद्धपमाणत्तादो । जयध० .८ किं कारण, किचूणसग-सगुक्कस्सदव्वपमाणत्तादो । जयध० . Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० - कलाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६१८. सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो थोवो' । ६१९. उकस्सपदेसुदीग्णा असंखेज्जगुणा । ६२०. उक्कस्सपदेससंक्रमो असंखेज्जगुणो । ६२१. उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं"। ६२२. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरणा थोवा । ६२३. उक्कस्सपदेसुदयो असंखेज्जगुणो । ६२४. उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जाणो । ६२५. उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । असंख्यातगुणा है । मिथ्यात्वादिके उत्कृष्ट प्रदेश-संक्रमसे उन्हींका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ॥६१२-६१७॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमसे उसीकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा असंख्यातगुणी है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणासे उसीका उत्कृष्ट प्रदेश-उदय असंख्यातगुणा है। सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेश-उदयसे उसीका उत्कृष्ट प्रदेश-सत्कर्म विशेष अधिक है ॥६१८-६२१॥ चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा वक्ष्यमाण पदोंकी अपेक्षा सबसे कम है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणासे उसीका उत्कृष्ट प्रदेश-उदय असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश-उदयसे उसीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमसे उसीका उत्कृष्ट प्रदेश-सत्कर्म विशेप अधिक है ॥६२२-६२५॥ १ कुदो; गुणिदकम्मसियलक्खणेणुकस्ससंच कादूणावट्ठिद चरिमसमयणेरइयम्मि पयदुक्कस्ससामित्तविहाणादो । जयध० २ किं कारण, अधापवत्तसकमेण पडिलद्धक्कस्सभावत्तादो । जयध० ३ कुदो; दसणमोहक्खवयस्स समयाहियावलियमेतछिदिसतकम्मे सेसे उदीरिजमाणदव्वस्स किंचूणमिच्छत्तु कस्सदबमोक्डुणभागहारेण खडेयूण तत्थेयखडपमाणस्स गहणादो | जयध० ४ किं कारण; उदीरणा णाम गुण मेढिसीसयस असखेजदिभागो । उदयो पुण गुणसेढिसीसय सव्व चेव भवदि, तेणासंखेजगुणत्तमेदस्स ण विरुज्झदे । जयध० ५ केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेट्ठा दुचरिमादि-गुणसेढिगोबुच्छासु णट्ठदव्यमेत्तो । जयध० ६ कुदो; सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिणा तप्पाओग्गु कस्सविसोहीए उदीरिजमाणासखेजलोगपडिभागियवस्स गहणादो । जयध० ७ किं कारणं; असंखेजसमयपवद्धपमाणगुणसेढिगोबुच्छसरूवत्तादो । जयध० ८ कुदो, योवूणदिवडगुणहाणिमेत्त कत्ससमयपयद्धपमाणत्तादो । जयध० ९ केत्तियमेत्तो विसेसो ? मिच्छत्त सम्मामिच्छत्तम्मि पविखपिय पुणो सम्मामिछत्त खमाणो जाव चरिमफालिं ण पावेदि, ताव एदम्मि अतरे गुणसेढीए गुणसंकमेण च विणदव्यमेत्तो। जयध० Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] प्रदेशापेक्षया वन्धादि-पंचपद - अल्पबहुत्व-निरूपण ५५१ ર ६२६. तिसंजलण-तिवेदाण मुकस्सपदेसंबंधो थोवो' । ६२७ उकस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ६२८. उकस्सपदेसुदयो असंखेज्जगुणो । ६२९. उक्कस्तपदेस कमी असंखेज्जगुणो । ६३०. उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहिय" । 3 ६३१. लोभसंजलणस्स उक्कस्सपदेसबंधी थोवो | ६३२ उकस्सपदेस संकमो असंखेज्जगुणो । ६३३. उक्कस्सपदेसुदीरणा असंखेज्जगुण । ६३४. उकस्सपदेसुदयो असंखेज्जगुणो' । ६३५. उक्कस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । संज्वलन क्रोधादिके संज्वलन क्रोधादिके चूर्णिसू० - क्रोधादि तीन संज्वलन कपाय और तीनो वेदोका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। संज्वलन क्रोधादि उक्त प्रकृतियोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उन्हींकी उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणा असंख्यातगुणी है । संज्वलन क्रोधादि सूत्रोक्त प्रकृतियोकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे उन्हीं का उत्कृष्ट प्रदेश - उदय असंख्यातगुणा है । उत्कृष्ट प्रदेश - उदयसे उन्हींका उत्कृष्ट प्रदेश- संक्रम असंख्यातगुणा है । उत्कृष्ट प्रदेश-संक्रमसे उन्हींका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है || ६२६-६३०॥ चूर्णिसू० - लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । लोभसंज्वलनके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धसे उसीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । लोभसंज्वलनके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमसे उसीकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा असंख्यातगुणी है । लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणासे उसीका उत्कृष्ट प्रदेश-उदय असंख्यातगुणा है । लोभसंज्वलन के उत्कृष्ट प्रदेश - उदयसे उसीका उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म विशेष अधिक है ।। ६३१-६३५॥ १ किं कारणं, सपिचिदियपतत्तणुक स्सजोगेण बद्धसमयपद्धपमाणत्तादो | जयध० २ कुदो. खवगसेढीए अप्पप्पणी पढमट्ठिदीए समयाद्दियावलियमेत्तसे साए उदीरिज्जमाणाणमसखेज समयपचाणमिहग्गहणादो | जयध ३ को गुणगारो १ पलिदोवमस्स असखेजदिभागमेत्तो । जयध० ४ को गुणगारो ? असखेजाणि पलिदोवमपढभवग्गमूलाणि । किं कारण, अप्पप्पणो सव्वुक्कस्ससव्वस कमदव्वस्स गहणादो । जयध० ५ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अप्पप्पणी दव्वमुक्कस्स काढूण पुणो जाव सव्वसकमेण ण परिणमइ, ताव एम्म अतराले णट्ठासखेजभागमेत्तो । जयघ० ६ कुदो, अतरकरणकारयचरिमसमवम्मि अधापवत्तसकमेण सकमताणमसखेज्जाण समयपवद्धाणमे सामित्तविसाईक याणमुवलभादो । एत्थ गुणगारो असखेज्जाणि पल्दिोवमपढमवग्गमूलाणि । जयध० ७ किं कारण; उक्कस्ससकमो णाम अणियट्टिकरणम्मि अतर करेमाणो से काले लोभस्स असंकामगो होहिदि ति एत्थु से अधापवत्तसकमेण जादो । उदीरणा पुण सव्व मोहणीयदव्वं पडिच्छिय सुहुमसांपराइयखवगस्स पढमहिदीए समयाहियावलियमेत्तसेसाए उदीरिजमाणाए सखेनसमयपवद्धे घेत्तृणुकस्सा जादा, तेणासखेजगुणा भणिदा । अधापवत्तभागहार पेक्खियूणुदीरणा हेदुभूदोकड्डूणा भागहारस्सा सखेजगुणहीणत्तादो। जयध० ८ कुदो, सुहुमसाप इयखवगचरिमगुणसे ढिसीसयसव्वदव्वस्स गहणादो। एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असखेजदिभागमेत्तो । जयघ० ९ केत्तियमेत्तो विसेसो १ मायादव्व पडिच्छियूण जाव घरिमसमयसुहुमसापराइयो ण होइ, ताव एदम्मि अतराले णट्ठदव्वमेत्तो ।। जयध० Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ कसाय पाहुड सुत्त ६३६. जहण्णयं । ६३७. मिच्छत्त-अट्टकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा थोवा' । ६३८. उदयो असंखेज्जगुणो'। ६३९. संकमो असंखेज्जगुणो । ६४०. बंधो असंखेज्जगुणो । ६४१. संतकम्ममसंखेज्जगुण । '' ६४२. सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । ६४३. उदयो असंखेज्जगुणों । ६४४. संकमो असंखेज्जगुणो । ६४५. संतकम्ममसंखेज्जगुणं । ६४६. एवं सम्मामिच्छत्तस्स । चूर्णिसू०-अब प्रदेशोंकी अपेक्षा जघन्य अल्पवहुत्व कहते हैं-मिथ्यात्व और अप्रत्यख्यानावरणादि आठ करायोकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । मिथ्यात्वादि उक्त प्रकृतियोकी जघन्य प्रदेश-उदीरणासे उन्हींका जघन्य प्रदेश-उदय - असंख्यातगुणा है । मिथ्यात्वादि सूत्रोक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोदयसे उन्हींका जघन्य प्रदेश-संक्रम असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वादि पूर्वोक्त प्रकृतियोके जघन्य प्रदेश-संक्रमसे उन्हीका जघन्य वन्ध असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वादिके जघन्य वन्धसे उन्हीका जघन्य प्रदेश-सत्कर्म असंख्यातगुणा है ॥६३६-६४१॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम होती है । सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रदेश-उदीरणासे उसीका संक्रम असंख्यातगुणा होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रमसे उसीका सत्कर्म असंख्यातगुणा होता है । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसम्बन्धी जघन्य अल्पवहुत्व जानना चाहिए ॥६४२-६४६।। १ कुदो; मिच्छाइटिट्ठणा सबुक्कस्ससंकिलेसेणुदीरित्नमाणासखेजलोगपडिभागियदव्वरस सव्वत्थोवत्त पडि विरोहाभावादो । जयघ० " ' २ त जहा-मिच्छत्तस्स ताव उवसमसम्माइट्ठी सासणगुण पडिवजिय छावलियाओ अच्छियूण मिच्छत्त गदो । तस्स आवलियमिच्छाइट्ठिस्स असखेबलोगपडिभागेणोक्कडिय णिसित्तदव्वं घेत्तूण जहण्णोदयो जादो, जेण सस्थाणमिच्छाइट्टिसव्वुक्कस्ससंकिलेसादो एत्थतणसकिलेसो अणतगुणहीणो, तेणेद दव्य पुविल्लदव्वादो असखेजगुण जादं । अठकसायाण पुण उवसतकसायो काल कादण देवेसुववष्णो, तस्स असंखेनलोगपडिभागेणुदयावलियम्भतरे णिसित्तदबस्स चरिमणिसेय घेत्तृण जहण्णसामित्त जाद | एसो च असजदसम्माइट्टिविसोहिणिबंधणो उदीरणोदयो सत्थाण मिच्छाइटिस्स सबुक्कस्ससकिलेसेणुदीरिददव्वादो असखेजगुणो त्ति णस्थि संदेहो । जयध० , ३ पुव्युत्तुदयो णाम असखेजलोगमेत्तभागहारत्तेण जादो । इमो पुण अगुलस्सासखेजदिभागमेत्तभागहारेण जादो । तदो सिद्धमसखेनगुणत्तं । जयध० ४ किं कारण; सुहुमणिगोदजहण्णोववादनोगेण बढेगसमयपबद्धपमाणत्तादो । जयध० ५ कुदो; खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खवणाए एगठिदि दुसमयकालसेसे असखेजप चिदियसमयपबद्धसमुत्तगुणसेटिंगोवुच्छावलंबणेण जहण्णसामित्तगहणाटो । तदो सिद्ध मसखेजगुणत्त | जयध० ६ कुदो, मिच्छत्ताहिमुह-असंजदसम्माइट्ठिणा उफत्ससकिलेसेणुदीरिजमाणासखेजलोग परिभागिय दव्बस्स गणादो| जयघ० ७ किं कारणं, उवसमसम्मत्तपच्छायद वेदयसम्माइद्वित्स पढमावलियचरिमसमये उदीरणादयदव्य घेत्तण जद्दण्णसामित्तावलवणादो। जयध० ८ किं कारण; खविदकमांसियलक्खणेणागतृणुबेलेमाणन्स दुचरिमसहयचरिमफाली उबेल्लण भागहाण जहण्णसामित्तावलवणादोजियघ० Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] प्रदेशापेक्षया बन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण ५५३ ६४७. अणंताणुवंधीणं जहणिया पदेसुदीरणा थोवा' । ६४८. संकमो असंखेज्जगुणो । ६४९. उदयो असंखेज्जगुणो । ६५०. बंधो असंखेज्जगुणो । ६५१. संतकम्ममसंखेज्जगुणं । - ६५२. कोहसंजलणस्स जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । ६५३. उदयो असंखेज्जगणो । ६५४. बंधो असंखेज्जगुणो । ६५५. संकमो असंखेज्जगुणो । ६५६. संतकम्ममसंखेज्जगणं । ६५७. एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं वंजणदो च अत्थदो च कायव्वं । चूर्णिसू०-अनन्तानुबन्धी चारो कपायोकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा सबसे कम होती है । अनन्तानुवन्धीकी उदीरणासे उसीका संक्रम असंख्यातगुणा होता है। अनन्तानुबन्धीके संक्रमसे उसीका उद्य असंख्यातगुणा होता है। अनन्तानुबन्धीके उदयसे उसीका बन्ध असंख्यातगुणा होता है और अनन्तानुबन्धीके बन्धसे इन्ही चारो कषायोंका सत्कर्म असंख्यातगुणा होता है ।।६४७-६५१।। चूणिसू०-क्रोधसंज्वलनकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा सबसे कम होती है। क्रोधसंज्वलनकी प्रदेश-उदीरणासे उसीका उदय असंख्यातगुणा होता है। क्रोधसंज्वलनके उदयसे उसीका बन्ध असंख्यातगुणा होता है। क्रोधसंज्वलनके बन्धसे उसीका संक्रम असंख्यातगुणा होता है और क्रोधसंज्वलनके संक्रमसे क्रोधसंज्वलनका सत्कर्म असंख्यातगुणा होता है ॥६५१-६५६॥ चूणिसू०-इसीप्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका प्रदेशसम्बन्धी जघन्य अल्पवहुत्व व्यंजन अर्थात् शब्दोकी अपेक्षा और अर्थ अर्थात् भाव या तत्त्वकी अपेक्षा १ कुदो; सव्वसकिलिमिच्छाइट्ठिणा असखेबलोगपडिभागेणुदीरिजमाणदव्वस्स गहणादो । २ कुदो खविदकम्मसियलक्खणेणागतूण तसकाइएसुप्पजिय सव्वलहुमणताणुवधीण विसंजोयणापुन्वसजोगेणतोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तपडिवत्तिपुरस्सर वे छावठिसागरोवमकालम्मि असखेजगुणहाणीओ गालिय पुणो गलिदसेससतकम्मं विसजोएमाण-अवापवत्तकरणचरिमसमयम्मि अगुल्स्सासंखेजदिमागमेत्तविज्झादभागहारेण सकामिददव्वस्स पुग्विल्लासखेजलोगपडिभागियदव्वादो असखेजगुणत्त पडि विरोहाभावादो । जयध० ३ किं कारण, असंखेजपचिंदियसमयपबद्धसजुत्तगुणसेढिगोवुच्छसरूवत्तादो । जयध० ४ कुदो, मिच्छाइट्ठिणा सबुक्कस्ससकिलेसेणुदीरिजमाणासंखेजलोगपडिभागियदव्वस्स गहणादो। जयघ० ५कि कारण, उवसमसेढीए अतरकरण समाणिय काल कादूण देवेसुप्पण्णस्स असंखेज्जलोगपडिभागेणुदयावलियम्भतरे णिसित्तदव्वत्स चरिमणिसेयमस्सियूण पयदजहण्णसामित्तावलबणादो । जयध० ६ किं कारण, सुहुमेइदियउववादजोगेण बद्धसमयपबद्धस्स गहणादो। जयध० ७ किं कारण, अणियट्टिखवगम्मि कोधवेदगचरिमसमयघोलमाणजहण्णजोगेण बद्धणवकवधत्स असखेज्जे भागे घेत्तूण चरिमफालिविसए जहण्णसामित्तावलवणादो । जयघ० ८ तं पुण कथ कायवमिदि भणिदे 'वजणदो च अत्यदो च कादव' इति वुत्त । शब्दतश्चार्यतश्च कर्तव्यमित्यर्थः न शब्दंगतोऽर्थगतो वा कश्चिद्विशेषोऽस्तीत्यभिप्रायः । जयध० जयघ० ७० Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ कसाय पाहुड सुत्त [ ६ वेदक अर्थाधिकार ६५८ लोहसंजलस्म वि एसो चेव आलावो । णवरि अत्थेण णाणत्तं', वंजणदो ण किंचि जाणत्तमस्थि । ६५९ इत्थि-णQमयवेद अरइ सोगाणं जहणिया पदेसुदीरणा थोवा। ६६०. संकयो असंखेज्जगुणो । ६६१. बंधो असंखेज्जगुणो । ६६२. उदयो असंखेज्जगणो । ६६३ संतकम्ममसंखेज्जगुणं । व्याख्यान करना चाहिए । अर्थात् क्रोधसंज्वलनकी अपेक्षा मानसंज्वलनादि प्रकृतियोके अल्पवहुत्वमे शव्दगत या अर्थगत कोई भी भेद नहीं है । लोभसंचलनका भी यही आलाप है, अर्थात् प्रदेशसम्बन्धी अल्पवहुत्वका क्रम है, परन्तु उसमे अर्थकी अपेक्षा विभिन्नता है, व्यंजन ( शब्द ) की अपेक्षा कोई विभिन्नता नहीं है ॥६५७-६५८॥ विशेषार्थ-संज्वलन लोभकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा अल्प है, उससे उदय, संक्रम और सत्कर्म उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित हैं, इस प्रकारसे यद्यपि अल्पबहुत्वमे शब्दगत कोई विभिन्नता नहीं है, तथापि अर्थगत विभिन्नता है। और वह इस प्रकार है कि संक्रमगत द्रव्यसे यहॉपर क्षपितकौशिक लक्षणसे आकरके क्षपणाके लिए उद्यत हुए और अपूर्वकरणकी आवलीके चरम समयमे वर्तमान जीवके अधःप्रवृत्तसंक्रमगत जघन्य द्रव्यका ग्रहण करना चाहिए । यहॉपर गुणकारका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवॉ भाग या पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल है । लोभसंज्वलनके जघन्य संक्रमसे उसका सत्कर्म असंख्यातगुणित है । यहॉपर उसी उपयुक्त जीवके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे द्वयर्धगुणहानिप्रमित एकेन्द्रियके योग्य समयप्रवद्धोका ग्रहण करना चाहिए। यहॉपर गुणकारका प्रमाण अधःप्रवृत्तभागहार है । इस अर्थगत विशेषताका चूर्णिकारने उक्त सूत्रमे संकेत किया है। चूर्णिम०-स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोक, इन प्रकृतियोकी जघन्य प्रदेशउदीरणा वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम होती है। इनकी प्रदेश-उदीरणासे उनका संक्रम असंख्यातगुणा होता है । उनके संक्रमसे उनका वन्ध असंख्यातगुणा होता है । उनके वन्धसे उनका उदय असंख्यातगुणा होता है और उनके उदयसे उनका सत्कर्म असंख्यातगुणा होता है ॥६५९.६६३॥ १ को वुण सो अस्थगओ विसेमो चे? जहण्णसकम सतकम्मेसु दध्वगओ विसेसो त्ति भणामो | त जहा-लोहसजलण-जहण्णपदेसुदीरणा थोबा, उदयो असखेजगुणो। एत्थ पुव्व व गुणगारो वत्तव्बो विसेसा भावादो । सकमो असखेल गुणो | कुदो, खविदकम्मसियलक्खणेणागतूण खवणाए अन्भुहिदस्स अपुव्वकरणावलिय चरिमसमए वट्टमाणस्स अधापवत्तसकम-जहण्णदव्यग्रहणादो। को गुणगारो? पलिदोवमस्स असखेजदिभागो अमुखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमलाणि । सतकम्ममसखेजगुण | कुदो खविदकम्मसियलक्खणेणागतूण खवगसेढि चढणुम्मुहस्स अधापवनकरणचरिमसमर दिवडढगणहाणिमेत इदियसमयपबद्धे घेत्तण जहण्णसामित्तविहाणादो। एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारो। एवमेसो अत्यविसेसो एत्य जाणेयन्वो । जयघ० २ कि पमाणमेद दव्व ? असखेजलोगपडिभागिय-मिच्छाइट्ठि-उदीरिददव्यमेत । तदो सम्वत्योवत्तमेदस्सण विरुण्झदे। जयघ० ३ किं कारण; अप्पप्पणा पाओग्गखविदकम्मसियलक्खणोणागनूण खत्रणाए अन्मुट्टिदत्स अधा. पवत्तकरणचरिमसमये विझादमकमेण जहाणसामित्तपडिलमाटो| जयध० ४ किं कारण; सुहमणिगोटजहण्योववादनोगेण वदसम्यपवद्धपमाणत्तादो। जयध० Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] प्रदेशापेक्षया बन्धादि-पंचपद-अल्पबहुत्व-निरूपण ५५५ ६६४. हस्स-रदि-भय दुगुछाणं जहणिया पदेसुदीरणा थोवा' । ६६५. उदयो असंखेज्जगुणों । ६६६ बंधो असंखेज्जगुणों । ६६७. संकमो असंखेज्जगुणो । ६६८. संतकम्ममसंखेज्जगुणं । एवमप्पाबहुए समत्ते 'जो जं संकायेदि य एदिस्से चउत्थीए सुत्तगाहाए अत्थो समत्तो होइ। __ तदो वेदगे त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।। चूर्णिसू०-हास्य, रति, भय और जुगुप्सा, इन प्रकृतियोकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा सबसे कम है। इनकी उदीरणासे उनका उदय असंख्यातगुणा होता है। उनके उदयसे उनका बन्ध असंख्यातगुणा होता है। उनके बन्धसे उनका संक्रम असंख्यातगुणा होता है और उनके संक्रमसे उनका सत्कर्म असंख्यातगुणा होता है ॥६६४-६६८॥ इस प्रकार प्रदेशबन्ध-सम्बन्धी अल्पबहुत्वके समाप्त होनेके साथ ही 'जो जं संकामेदि य' इस चौथी सूत्रगाथाका अर्थ भी समाप्त होता है। इस प्रकार वेदक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ कुदो, सव्वुकस्मसकिलिट्रमिच्छाइद्रि-जहणोदीरणदव्वग्गहणादो । जयध० २ किं कारण , उवसामयपच्छायददेवस्स उदीरणोदयदव्व घेत्तूणावलियचरिमसमये जहण्णसामित्तावलबणादो । जयघ० ३ कुदोः सुहुमणिगोदुववादजोगेण बद्ध जहण्णसमयबद्धपमाणादो । जयध० ४ किं कारण; अपुवकरणावलियपविटठचरिमसमये अधापवत्तस मेण जहण्णभावावल बणादो । एत्थ गुणगागे अखेजाणि पलिद'वमपढमवग्गमूलाणि, जागगुणगारगुणिददिवडगुणहाणीए अधापत्तभागहारेणोवट्टिदाए परदगुणगारुप्पत्तिदसणादो | जयध० ५ को गुणगारा ? अधापवत्तभागहारो। किं कारणं, खदिकम्मसियल क्खणेणागदखवगचरिमफालीए ड्ढगुणहाणि मेत्तएइदियसमयपबद्ध पडिबडाए पयदजहष्णसामित्तावलबणादो। जयघ० Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ उवजोग-अत्थाहियारो १. उवजोगे त्ति अणियोगद्दारस्स सुत्तं । २. तं जहा । ___ (१०) केवचिरं उवजोगो कम्मि कसायम्मि को व केणहियो । को वा कम्मि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो ॥६॥ ७ उपयोग-अर्थाधिकार युगपद् उपयोगद्वयी जिनवरके नमि पाय । इस उपयोग-द्वारको भाषू अति उमगाय ।। चूर्णि सू०-अब कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकारोंमेंसे जो उपयोग नामका सातवाँ अनुयोगद्वार है, उसके आधार-स्वरूप गाथा-सूत्रोको कहते है। वे गाथासूत्र इस प्रकार किस कषायमें एक जीवका उपयोग कितने काल तक होता है ? कौन उपयोगकाल किससे अधिक है और कौन जीव किस कपायमें निरन्तर एक सदृश उपयोगसे उपयुक्त रहता है ? ॥६३॥ विशेषार्थ-यह गाथा तीन अर्थोका निरूपण करती है । (१) केवचिरं उवजोगो कम्मि कसायम्मि' अर्थात् किस कषायमे एक जीवका उपयोग कितने काल तक होता है ? क्या सागरोपम, पल्योपम, पल्योपमका असंख्यातवॉ भाग, आवली, आवलीका असंख्यातवॉ भाग, संख्यात समय, अथवा एक समय-प्रमाण काल तक वह उपयोग रहता है ? इस प्रकारकी यह प्रथम पृच्छा है । चूर्णिसूत्रकार आगे चलकर स्वयं इसका उत्तर देगे कि सभी कषायोका उपयोगकाल निर्व्याघात अवस्थामे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त-मात्र है। किन्तु व्याघातकी अपेक्षा एक समय-प्रमाण भी काल है। इस गाथा-द्वारा यह प्रथम अर्थ सूचित किया गया है । (२) 'को व केणहिओ' अर्थात् क्रोधादि कपायोका उपयोगकाल क्या परस्पर सदृश है, अथवा असदृश ? यह दूसरी पृच्छा है । इसके द्वारा कपायोके काल-सम्बन्धी अल्पघहुत्वकी सूचना की गई है । इसका निर्णय चूर्णिसूत्रकार आगे स्वयं करेंगे। (३) 'को वा कम्मि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' अर्थात् नरकगति आदि मार्गणाविशेपसे प्रतिवद्ध कौन जीव किस कषायमे निरन्तर एक सदृश उपयोगसे उपयुक्त रहता है ? यह तीसरी पृच्छा है। इसका अभिप्राय यह है कि नारकी आदि जीव अपनी भवस्थितिके भीतर क्या क्रोधोपयोगसे बहुत वार उपयुक्त होते हैं, अथवा मानोपयोगसे, मायोपयोगसे, अथवा लोभोपयोगसे ? * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'उवजोगे त्ति' इतना मात्र ही सूत्र मुद्रित है और आगेके अगको टीकाका अग बना दिया है (देखो पृ० १६१०)। पर टीकासे ही 'अणिोगहारस्ल सुत्तं' इस अशके सूत्रता सिद्ध है। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A गा० ६५] उपयोग-अनुयोगद्वार-गाथासूत्र-समुत्कीर्तना ५५७ (११) एक्कम्हि भवग्गहणे एक्ककसायम्हि कदि च उवजोगा। एकम्हि या उवजोगे एककसाए कदि भवा च ॥६४॥ (१२) उवजोगवग्गणाओ कम्मि कसायम्मि केतिया होति ? कदरिस्से च गदीए केवडिया वग्गणा होति ॥६५॥ इस प्रश्नका निर्णय भी आगे चूर्णिकार स्वयं करेंगे । इस प्रकार यह गाथा उक्त तीन अर्थोंका निरूपण करती है। एक भवके ग्रहण-कालमें और एक कषायमें कितने उपयोग होते हैं, तथा एक उपयोगमें और एक कपायमें कितने भव होते हैं ? ॥६४॥ विशेषार्थ-एक भवके ग्रहण-कालमे ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि नरक आदि चार गति-सम्बन्धी सवोमेसे किसी एक विवक्षित भवके ग्रहण करनेपर तत्सम्बन्धी स्थितिकालके भीतर क्रोधादिक कषायोमसे किसी एक कषाय-सम्बन्धी कालमें कितने उपयोग होते हैं ? क्या वे संख्यात होते हैं, अथवा असंख्यात ? जिस नरकादि विवक्षित भव-ग्रहणमे किसी एक विवक्षित कषायके उपयोग संख्यात अथवा असंख्यात होते हैं, वहॉपर शेष कषायोके उपयोग कितने होते है ? क्या तत्प्रमाण ही होते है, अथवा उससे हीनाधिक ? इस प्रकारका अर्थ इस गाथाके पूर्वार्धमे निबद्ध है। 'एक उपयोगमें और एक कषायमें कितने भव होते हैं,' इस पृच्छाका अभिप्राय यह है कि यहॉपर क्रोधादि कषाय-सम्बन्धी संख्यात, अथवा असंख्यात उपयोगोको आधार-स्वरूप मानकर पुनः उनमे अतीतकालिक भव कितने होते हैं ? इस प्रकारसे भवोको आधेयरूप मानकर उनके अल्पबहुत्व-सम्बन्धी अनुयोगद्वारकी सूचना की गई है । इसका निर्णय आगे चूर्णिसूत्रोके द्वारा किया जायगा । किस कषायमें उपयोग-सम्बन्धी वर्गणाएं कितनी होती हैं ? तथा किस गतिमें कितनी वर्गणाएं होती हैं ? ॥६५॥ विशेषार्थ-वर्गणा, विकल्प अथवा भेदको कहते है। वे वर्गणाएँ दो प्रकारकी होती हैं-कालोपयोग-वर्गणा और भावोपयोग-वर्गणा। इनमेंसे कालकी अपेक्षा कपायोके जघन्य उपयोगकालसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगकाल तक निरन्तर अवस्थित विकल्पोको कालोपयोगवर्गणा कहते हैं । भावकी अपेक्षा तीव्र, मन्द आदि भावोसे परिणत कपायोके उदयस्थानसम्बन्धी जघन्य भेदसे लेकर उत्कृष्ट भेद तक पड्वृद्धि-क्रमसे अवस्थित विकल्पोको भावोपयोगवर्गणा कहते हैं । इन दोनो प्रकारकी वर्गणाओंके निरूपण करनेके लिए प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार इस गाथा-द्वारा सूचित किये गये है। उनमेसे किस कषायमें कितनी उपयोगवर्गगाएँ होती है, इस पृच्छाके द्वारा दोनो प्रकारकी वर्गणाओके प्रमाण-अनुयोगद्वार-सम्बन्धी ओघ-प्ररूपणाकी सूचना की गई है । और, किस गतिमे Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ कसाय पाहुड सुत्त - [७ उपयोग-अर्थाधिकार (१३) एकम्हि य अणुभागे एक्ककसायम्मि एक्ककालेण । उवजुत्ता का च गदी विसरिसमुवजुजदे का च ॥६६॥ (१४) केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणा कमाएसु । केवडिया च कसाए के के च विसिस्सदे केण ॥६॥ कितनी वर्गणाएँ होती है, इस पृच्छाके द्वारा उक्त दोनो ही वर्गणाओके प्रमाणको आदेशप्ररूपणा सूचित की गई है। एक अनुभागमें और एक कपायमें एक कालकी अपेक्षा कौन सी गति सदृशरूपसे उपयुक्त होती है और कौन-सी गति विसदृशरूपसे उपयुक्त होती है ? ॥६६॥ विशेषार्थ-अनुभाग-संजावाले एक ही कपायमे एक ही समयकी अपेक्षा कौन गति होती है, अर्थात् किस गतिमे सभी जीव क्रोधादि कपायोमेसे किसी एक कषायमे एक समयकी अपेक्षा उपयुक्त पाये जाते है ? इसी प्रकार दो, तीन अथवा चार कपायोमें भी एक ही समयकी अपेक्षा कौन गति उपयुक्त अथवा अनुपयुक्त पाई जाती है। यह 'अप्रवाह्यमान'–परम्पराके अनुसार अर्थ है । 'प्रवाह्यमान'–परम्पराके उपदेशानुसार कपाय और अनुभाग इन दोनोमे भेद है । तदनुसार एक 'अनुभागमे' ऐसा कहने पर 'एक कपायउदयस्थानमे' यह अर्थ लेना चाहिए। तथा, 'एक कालसे' ऐसा कहने पर एक समयसम्बन्धी एक उपयोग-वर्गणाका ग्रहण करना चाहिए । अतएव यह अर्थ हुआ कि क्रोधादि कषायोंमेंसे एक-एक कपायके असंख्यात लोकमात्र कपाय-उदयस्थान होते है और संख्यात आवलीप्रमाण कपाय-उपयोगस्थान होते है। उनमेसे एक कपायका एक कपाय-उदयस्थानमे और एक कपाय-उपयोगस्थानमे, विवक्षित एक समयमे ही कौन गति उपयुक्त होती है ? अर्थात् क्या सभी जीवोके एक ही वार उक्त प्रकारके परिणाम सम्भव है, अथवा नहीं ? इस प्रकारकी पृच्छा की गई है । 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' ऐसा कहने पर दो कषायउदयस्थानोमे, तीन कपाय-उदयस्थानोमे अथवा चार कपाय-उदयस्थानोमे, इस प्रकार संख्यात और असंख्यात कषाय-उदयस्थानोमे एक ही कालकी अपेक्षा कौन गति उपयुक्त होती है ? उसी समय दो कालोपयोग-वर्गणाओसे, अथवा तीन कालोपयोग-वर्गणाओसे, इस प्रकार संख्यात और असंख्यात कालोपयोग-वर्गणाओंसे प्रतिबद्ध पूर्वोक्त कपाय उदयस्थानोकी अपेक्षा एक ही वार उपयुक्त कौन गति होती है ? इस प्रकार यह चौथी गाथा दो प्रकारके अर्थोंसे सम्बद्ध है । इन पृच्छाओंका समाधान आगे चूर्णिसूत्रोके द्वारा किया जायगा। सदृश कपाय-उपयोगवर्गणाओंमें कितने जीव उपयुक्त हैं, तथा चारों कपायोंसे उपर्युक्त सर्व जीवोंका कौन-सा भाग एक एक कपायमें उपयुक्त है और किस किस कपायसे उपयुक्त जीव कौन-कौनसी कपायोंसे उपयुक्त जीवराशिके साथ गुणकार और भागहारकी अपेक्षा हीन अथवा अधिक होते हैं ? ॥६७॥ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५९ गा० ६९] उपयोग-अनुयोगद्वार-गाथासूत्र-समुत्कीर्तना (१५) जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु सूदपुव्वा ते । होहिति च उवजुत्ता एवं सव्वत्थ बोद्धव्वा ॥६८॥ (१६) उवजोगवगणाहि च अविरहिदं काहि विरहिदं चावि । पढमसमयोवजुत्तेहि चरिममम ए च बोद्धव्वा (७) ॥६९॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा कपायोपयुक्त जीवोके विशेष परिज्ञानके लिए आठ अनुयोगद्वारोकी सूचना की गई है । 'केवडिया उवजुत्ता' इस पदके द्वारा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार सूचित किया गया है। तथा इसी पदके द्वारा सत्प्ररूपणाकी भी सूचना की गई है । क्योकि सत्प्ररूपणाके विना द्रव्यप्रमाणानुमगकी प्रवृत्ति नही हो सकती है। क्षेत्र-अनुयोगद्वार और स्पर्शन-अनुयोगद्वार भी इसी पदसे संगृहीत समझना चाहिए । क्योकि, उन दोनो अनुयोगद्वारोकी प्रवृत्ति द्रव्यप्रमाणानुगम-पूर्वक ही होती है। इस प्रकार गाथासूत्रके इस प्रथम अवयवमे चार अनुयोगद्वार अन्तर्निहित है। 'सरिसीसु च वग्गणाकसाएसु' इस द्वितीय सूत्रावयवके द्वारा नाना और एक जीव-सम्बन्धी कालानुगम अनुयोगद्वारकी सूचना की गई है । तथा यही पर अन्तरानुगम अनुयोगद्वारका भी अन्तर्भाव जानना चाहिए । क्योकि, काल और अन्तर ये दोनो अनुयोगद्वार परस्परमे सम्बद्ध ही देखे जाते हैं । 'केवडिया च कसाए' इस तृतीय सूत्रावयवसे भागाभागानुगम अनुयोगद्वार कहा गया है । 'के के च विसिस्सदे केण' इस चतुर्थ सूत्रावयवसे अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार सूचित किया गया है। इस गाथामे द्रव्यानुगम, कालानुगम, भागाभागानुगम और अल्पवहुत्वानुगम ये चार अनुयोगद्वार तो स्पष्ट कहे ही गये हैं, तथा शेष चार अनुयोगद्वारोकी सूचना की गई है । जो जो जीव वर्तमान समय में जिस क्रोधादि किसी एक कपायमें उपयुक्त दिखलाई देते हैं, वे सबके सब क्या अतीत कालमें उसी ही कषायके उपयोगसे उपयुक्त थे, अथवा वे सबके सब आगामी कालमें उसी ही कपायरूप उपयोगसे उपयुक्त होंगे ? इसी प्रकार सर्वत्र सर्व मार्गणाओंमें जानना चाहिए ॥६८॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा वर्तमान समयमे क्रोधादि कपायोसे उपयुक्त अनन्त जीवोकी अतीत और अनागत कालमे भी विवक्षित कपायोपयोगके परिणमन-सम्बन्धी सम्भव असम्भव भावोकी गवेपणा की गई है । गाथाके प्रथम तीन चरणोके द्वारा ओघप्रपरूणा और चतुर्थ चरणके द्वारा आदेशप्ररूपणा सूचित की गई है। इसका निर्णय आगे चूर्णिकार स्वयं करेंगे। कितनी उपयोग-वर्गणाओंके द्वारा कौन स्थान अविरहित पाया जाता है और कौन स्थान विरहित ? तथा प्रथम समयमें उपयुक्त जीवोंके द्वारा और इसी प्रकार अन्तिम समयमें उपयुक्त जीवोंके द्वारा स्थानोंको जानना चाहिये (७)॥६९॥ १ एत्थ गाहासुत्तपरिसमत्तीए सत्तण्हमकविण्णासो किमट्ट कदो ? एदाओ सत्त चेव गाहाओ उवजोगाणिओगद्दारे पडिबद्धाओ त्ति जाणावणट्ठ । जयध० Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ७ उपयोग अर्थाधिकार ३. एदाओ सत्त गाहाओ । ४. एदासिं विहासा' कायव्वा । ५. 'केवचिरं उवजोगो कम्हि कसायम्हि' ति एदस्स पदस्स अत्थो अद्धापरिमाणं । ६. तं जहा । ७. कोद्धा माणद्धा मायद्धा लोहद्धा जहण्णियाओ वि उक्कस्सियाओ वि अंतोमुहुतं । ५६० विशेषार्थ - उपयोग वर्गणाऍ दो प्रकारकी होती हैं- कपाय - उदयस्थानरूप और उपयोग- अध्वस्थानरूप । इन दोनोमे ही कितने कालोपयोग वर्गणावाले जीवोंसे और कितने भावोपयोगवर्गणावाले जीवोसे कौन स्थान अशून्य और कौन स्थान शून्य पाया जाता है, इस प्रकारके शून्य- अशून्य स्थानोंका ओघ और आदेशकी अपेक्षा निरूपण करनेकी सूचना गाथा के पूर्वार्धसे की गई है । तथा गाथाके उत्तरार्ध- द्वारा नरक आदि गतियोंका आश्रय करके क्रोधादि कषायोपयोगयुक्त जीवोके तीन प्रकारकी श्रेणियोके द्वारा अल्पबहुत्वकी सूचना की गई है, जिसका निर्णय चूर्णिसूत्रकार आगे स्वयं करेंगे । इस उपयोग अधिकारमे सात ही सूत्रगाथाएं निवद्ध है, यह सूचित करने के लिए चूर्णिकारने गाथाके अन्त में सातका अंक स्थापित किया है । चूर्णिसू० - ये सात सूत्र - गाथाऍ कसायपाहुडके उपयोग नामक सातवें अर्थाधिकारमें प्रतिबद्ध है । अब इन सातो गाथाओकी विभाषा करना चाहिए ॥ ३-४ ॥ विशेषार्थ - गाथा - सूत्रसे सूचित अर्थका नाना प्रकारसे व्याख्यान, विवरण या विवेचन करनेको विभाषा कहते है । चूर्णिकार अब इन गाथासूत्रोंकी विभापा करेंगे । चूर्णिसू० - ' किस कषाय में कितने काल उपयोग रहता है' इस पदका अर्थ अद्धापरिमाण है ॥५॥ विशेषार्थ - अद्धा नाम कालका है । कालके परिमाणको अद्धापरिमाण कहते हैं । जिसका अभिप्राय यह है कि एक जीवका किस कपायमे कितने काल तक उपयोग रहता है ? चूर्णिसू० - उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - क्रोधकपाथका काल, मानकपायका काल, मायाकपायका काल, और लोभकषायका काल जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६-७॥ विशेषार्थ - चारो ही कषायोका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही बतलाया गया है । इसका कारण यह है कि किसी भी कपायका एक सदृश उपयोग अन्तर्मुहूर्त से अधिक नही हो सकता है, क्योकि उसके बाद कषायोके उपयोग- परिवर्तनके विना अवस्थान असम्भव है । यद्यपि मरण और व्याघातकी अपेक्षा कपायोके उपयोगका जघन्यकाल 'जीवस्थान' आदि ग्रन्योमे एक समयमात्र भी कहा गया है, किन्तु चूर्णिसूत्रकारके अभिप्राय से वैसा होना सम्भव नहीं है | १ का विहासा णाम ? गाहासुत्तसूचिदस्य अत्थस्स विसेसियूण भासण विहासा विवरणमिदि वुत्त होइ | जयघ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायोपयोगकाल- अल्पबहुत्व-निरूपण ५६१ गा० ६९ ] ८. गदीसु क्खिमाण- पवेसणेण एगसमयो होज । ९. 'को व केणहिओ' त्ति एदस्य पदस्स अत्थो अद्धाणमप्पाचहुअं । १०. तं जहा । ११. ओघेण माणद्धा जहण्णिया थोवा' । १२. कोधद्धा जहणिया विसे चूर्णिम् ० – गतियो में निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा चारो कषायोका जघन्यकाल एक समय भी होता है ॥ ८॥ विशेषार्थ - निष्क्रमणकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा इस प्रकार जानना चाहिएकोई एक नारकी मानादि किसी एक कषायसे उपयुक्त होकर स्थित था, जब आयुका एक समय-मात्र शेष रहा, तब क्रोधोपयोगसे परिणत होकर एक समय नरकमे रहकर निकला और तिर्यंच या मनुष्य हो गया । इस प्रकार निष्क्रमणकी अपेक्षा क्रोधोपयोगका एक समय मात्र जघन्यकाल प्राप्त हुआ । अब प्रवेशकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करते हैं— कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य जीव क्रोधकपायसे उपयुक्त होकर स्थित था, जब क्रोधकषायके कालमे एक समय अवशिष्ट रहा, तब मरकर नारकियोमें उत्पन्न हो प्रथम समयमे क्रोधोपयोगके साथ दिखाई दिया और दूसरे ही समयमे अन्य कषायसे उपयुक्त हो गया । इस प्रकार यह प्रवेशकी अपेक्षा एक समय-प्रमाण क्रोधकषायका जघन्य - काल प्राप्त हुआ । इसी प्रकार से शेष कषायो तथा शेष गतियोमे भी निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए । चूर्णिसू० - ' किस कषायका उपयोगकाल किस कपायके उपयोगकालसे अधिक है' गाथाके इस द्वितीय पदका अर्थ कपायोके उपयोगकाल सम्बन्धी अल्पबहुत्व है । वह कपायोके उपयोगकाल-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका क्रम इस प्रकार है— ओधकी अपेक्षा मानकपायका जघन्यकाल सबसे कम है ॥ ९-११॥ विशेषार्थ - यद्यपि तिर्यंच और मनुष्यों के निर्व्याघातकी अपेक्षा मानकषायके उपयोगका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण ही है तथापि आगे बताए जानेवाले कपायोके उपयोगकालसे यह मानकषायका उपयोग- काल सबसे अल्प है, क्योकि वह संख्यात आवलीप्रमाण ही होता है । चूर्णिम् ० - क्रोधकषायका जघन्यकाल, मानकषायके जघन्यकाल से विशेष अधिक 0 ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'को व केणहिओ त्ति' इतना ही सूत्र मुद्रित है और आगे के अशको टीकामें सम्मिलित कर दिया है (देखो पृ० १६१६ ) | परन्तु टीकासे ही शेष इस अशके सूत्रता सिद्ध है. तथा सूत्र नं० ५ से भी । १ एत्थ 'माणद्धा जहणिया' त्ति वृत्त े तिरिक्ख मणुमाण णिव्वाघादेण माणोवजोगजहण्णकालो अतोमुहुत्तपमाणो घेत्तन्वो, अण्णत्थ घेपमाणे माणजहण्णद्वार सव्वत्थोवत्ताणुत्रवत्ती दो । तदो जहणिया माणद्वा सखेनावलियमेत्ता होदूण सव्वत्थोवा त्ति सिद्ध । जयघ० ७१ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ कसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार साहिया । १३. मायद्धा जहणिया विसेसाहिया । १४. लोभद्धा जहणिया विसेसाहिया । १५. माणद्धा उक्कस्सिया संखेजगुणा । १६. कोधद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया । १७. मायद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया । १८. लोभद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया १९. पवाइन्जंतेण उवदेसेण अद्धाणं विसेसो अंतोमुहत्तं । २०. तेणेव उवदेसेण चउगइसमासेण अप्पाबहुअं भणिहिदि । २१. चदुगदिसमासेण जहण्णुक्कस्सपदेसेण णिरयगदीए जहणिया लोभद्धा थोवा । २२. देवगदीए जहणिया कोधद्धा विसेहै । माया कषायका जघन्यकाल क्रोधकषायके जघन्यकालसे विशेष अधिक है। लोभकपायका जघन्यकाल मायाकषायके जघन्यकालसे विशेष अधिक है ॥१२-१४॥ चूर्णिसू०-मानकषायका उत्कृष्टकाल लोभकषायके जघन्यकालसे संख्यातगुणा है । क्रोधकषायका उत्कृष्टकाल मानकपायके उत्कृष्टकालसे विशेष अधिक है। मायाकपायका उत्कृष्टकाल क्रोधकघायके उत्कृष्टकालसे विशेष अधिक है। लोभकषायका उत्कृष्टकाल मायाकषायके उत्कृष्टकालसे विशेष अधिक है ॥१५-१८॥ ___ चूर्णिसू०-प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा क्रोधादि कपायोके कालकी विशेषता अन्तर्मुहूर्त है । ॥१९॥ विशेपार्थ-ऊपर जो ओघकी अपेक्षा कषायोका काल-सम्बन्धी अल्पवहुत्व बतलाया गया है, वह जिस जिस स्थानपर विशेष अधिक कहा गया है, वहाँ वहाँ पर विशेप अधिकसे अन्तर्मुहूर्तकालकी अधिकता समझना चाहिए। वह अन्तर्मुहूर्त यद्यपि अनेक भेदरूप है, कोई संख्यात आवलीप्रमाण, कोई आवलीके संख्यातवे भागप्रमाण और कोई आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण होता है। किन्तु यहाँ पर प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार आवलीके असंख्यातवे भागमात्र ही विशेष अधिक काल समझना चाहिए । जो उपदेश सर्व आचार्योंसे सम्मत है, चिरकालसे अविच्छिन्न सम्प्रदाय-द्वारा प्रवाहरूपसे आ रहा है, और गुरु-शिष्य-परम्पराके द्वारा प्ररूपित किया जाता है, वह प्रवाह्यमान उपदेश कहलाता है । इससे भिन्न जो सर्व आचार्य-सम्मत न हो और अविच्छिन्न गुरु-शिष्य-परम्परासे नहीं आ रहा हो, ऐसे उपदेशको अप्रवाह्यमान उपदेश कहते हैं। अथवा आर्यमंक्षु आचार्यके उपदेशको अप्रवाह्यमान और नागहस्ति क्षमाश्रमणके उपदेशको प्रवाह्यमान उपदेश समझना चाहिए। चूर्णिस०-उसी प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा अव चारो गतियोका समुच्चय आश्रय करके कपायोके काल-सम्बन्धी अल्पवहुत्वको कहते है-चतुर्गतिके समाससे जघन्य और उकृष्ट पदकी अपेक्षा नरकगतिमें लोभकपायका जघन्यकाल सबसे कम है । (क्योकि द्वेष-बहुल नारकियोमे जाति-विशेपसे ही प्रेयरूप लोभपरिणामका चिरकाल तक रहना अस १ को वुण पवाइजतोवएसो णाम वुत्तमेद १ सव्वाइरियसम्मदो चिरकाल्मव्वोच्छिण्णसग्दायकमेणागच्छमाणो नो सित्सपरपराए पवाइनदे पण्णविजदे सो पवाइजतावएसो ति भण्णदे । अथवा अज्जमखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइजमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइजतओ ति घेत्तव्यो । जयघ० Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९] कषायोपयोगकाल-अल्पबद्धत्व-निरूपण ५६३ साहिया । २३. देवगदीए जहणिया माणद्धा संखेज्जगुणा । २४ णिरयगदीए जहणिया मायद्धा विसेमाहिया । २५. णिरयगदीए जहणिया माणद्धा संखेज्जगुणा । २६. देवगदीए जहणिया मायद्धा विसेसाहिया । २७ मणुस-तिरिक्खजोणियाणं जहणिया माणद्धा संखेज्जगुणा । २८.मणुसतिरिक्खजोणियाणं जहणिया कोधद्धा विसेमाहिया । २९. मणुस-तिरिक्खजोणियाणं जहणिया मायद्धा विसेसाहि या । ३०, मणुस-तिरिक्खजोणियाणं जहणिया लोहद्धा विसेसाहिया । ३१. णिरयगदीए जहणिया कोधद्धा संखेजगुणा । ३२. देवगदीए जहणिया लोभद्धा विसेसाहिया । ३३.णिरयगदीए उक्कस्सिया लोभद्धा संखेज्जगुणा । ३४. देवगदीए उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ३५. देवगदीए उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ३६. णिरयगदीए उकस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ३७ णिरयगदीए उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ३८. देवगदीए उक्कस्सिया मायद्धा विसेसा हिया । ३९. मणुम-तिरिक्खजोणियाणमुक्कस्सिया माणद्धा सखेज्जगुणा । ४०. तेसिं म्भव है। देवगतिमे क्रोधका जघन्य काल नरकगतिके जघन्य लोभ-कालसे विशेष अधिक है। देवगतिमें मानका जघन्यकाल देवगतिके जघन्य क्रोधकालसे संख्यातगुणा है। नरकगतिमें मायाका जघन्यकाल देवगतिके जघन्य मानकालसे विशेष अधिक है। नरकगतिमें मानका जघन्यकाल नरकगतिके ही जघन्य मायाकालसे संख्यातगुणा है। देवगतिमें मायाका जघन्यकाल नरकगतिके जघन्य मानकालसे विशेष अधिक है ॥२०-२६॥ चूर्णिसू०-मनुष्य और तिर्यंच योनिवाले जीवोके मानका जघन्यकाल देवगतिके जघन्य मायाकालसे संख्यातगुणा है। उन ही मनुष्य और तिर्यंच योनियोके क्रोधका जघन्यकाल उन्हींके जघन्य मानकालसे विशेष अधिक है। मनुष्य और तिर्यंच योनियोके मायाका जघन्यकाल उन्हींके जघन्य क्रोधकालसे विशेष अधिक है। मनुष्य और तिर्यंच योनियोंके लोभका जघन्यकाल उन्हीके जघन्य मायाकालसे विशेष अधिक है ॥२७-३०॥ चूर्णिसू०-नरकगतिमे क्रोधका जघन्यकाल मनुष्य और तिर्यंचयोनियोके जघन्य लोभकालसे संख्यातगुणा है। देवगतिमें लोभका जघन्यकाल नरकगतिके जघन्य क्रोधकालसे विशेष अधिक है। नरकगतिमें लोभका उत्कृष्टकाल देवगतिके जघन्य लोभकालसे संख्यातगुणा है । देवगतिमे क्रोधका उत्कृष्टकाल नरकगतिके उत्कृष्ट लोभकालसे विशेष अधिक है। देवगतिमे मानका उत्कृष्ट काल देवगतिके ही उत्कृष्ट क्रोधकालसे संख्यातगुणा है। नरकगतिमे मायाका उत्कृष्टकाल देवगतिके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है। नरकगतिमें मानका उत्कृष्टकाल नरकगतिके ही उत्कृष्ट मायाकालसे संख्यातगुणा है। देवगतिमें मायाका उत्कृष्टकाल नरकगतिके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है ॥३१-३८॥ चूर्णिस०-मनुष्य और तिर्यंचयोनियोके मानका उत्कृष्टकाल देवगतिके उत्कृष्ट माया Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ५६४ फलाय पाहुड सुच्च [७ उपयोग-अर्थाधिकार चेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ४१. तेसिं चेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया ४२. तेसिं चेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ४३. णिरयगदीए उक्कस्सिया कोधद्धा संखेज्जगुणा । ४४. देवगदीए उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ४५. तेसिं चेव उवदेसेण चोदस-जीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि । ४६. चोदसण्हं जीवसमासाणं देव-णेरइयवज्जाणं जहणिया पाणद्धा तुल्ला थोवा । ४७.जहणिया कोधद्धा विसेसाहिया । ४८. जहणिया मायद्धा विसेसाहिया । ४९. जहणिया लोभद्धा विसे साहिया । ५०. सुहुमस्स अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ५१.उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। ५२. उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। ५३. उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया। कालसे संख्यातगुणा है। उन्हींके क्रोधका उत्कृष्टकाल उन्हींके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है। उन्हीं मनुष्य-तिर्यंचयोनियोके मायाका उत्कृष्टकाल उन्हींके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है। उन्हीं मनुष्य-तिर्यंचयोनियोके लोभका उत्कृष्टकाल उन्हींके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है। नरकगतिमें क्रोधका उत्कृष्टकाल मनुष्य-तिर्यंचयोनियोके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है। देवगतिमें लोभका उत्कृष्टकाल नरकगतिके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है ।।३९-४४॥ चूर्णिसू०-अव प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार चौदह जीवसमासोके द्वारा जघन्य और उत्कृष्ट पद-विशिष्ट कपायोके कालसम्वन्धी अल्पवहुत्व-दंडकको कहते हैं-देव और नारकियोसे रहित शेप चौदह जीवसमासोके मानका जघन्य काल परस्परमे समान होकरके भी वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। उन्ही देव-नारकी-रहित चौदह जीवसमासोंके क्रोधका जघन्यकाल उन्हींके जघन्य मानकालसे विशेप अधिक है। उन्हीं देव-नारकी-रहित चौदह जीवसमासोके मायाका जघन्यकाल उन्हीके जघन्य क्रोधकालसे विशेप अधिक है। उन्हीं देव-नारकी-रहित चौदह जीवसमासोके लोभका जघन्य काल उन्हीके जघन्य मायाकालसे विशेष अधिक है ॥४५-४९।। चूर्णिसू-सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्त निगोदियाके मानका उत्कृष्टकाल देव-नारकी-रहित चौदह जीवसमासोंके जघन्य लोभकालसे संख्यातगुणा है। सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्त निगोदियाके क्रोधका उत्कृष्टकाल उन्हीके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है । उन्हीं सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्त निगोदियाके मायाका उत्कृष्टकाल उन्हीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेप अधिक है । उन्हीं सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्त निगोदियाके लोभका उत्कृष्ट काल उन्हींके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेप अधिक है ॥५०-५३॥ १ तेसि चेव भयवताणमजमवु णागहत्थीण पवाइजतेणुवएसेण चोद्दसजीवसमासेसु जहणुक्कस्सपदविसेसिदो अन्याबहुअदडओ एत्तो भणिहिदि भणिज्यत इत्यर्थः । जयध० Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९] कषायोपयोगकाल-अल्पबहुत्व-निरूपण ५४. बादरेइ दिय-अपजत्तयस्स उकस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ५५.उकास्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ५६. उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ५७. उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ५८. सुहमपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ५९. उक्कस्सिया कोघद्धा विसेसाहिया । ६०. उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ६१. उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया। ६२. बादरेइ दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ६३. उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ६४. उक्कस्सिया मायद्धा विसे साहिया । ६५. उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ६६ बेइं दिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ६७. तेई दियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । ६८. चउरिदिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया।६९.वेइंदिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। चूर्णिसू०-बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल सूक्ष्मलध्यपर्याप्त निगोदिया जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है। उसी वादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है। उसी वादर एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥५४-५७॥ चूर्णिस०-सूक्ष्मपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवके मानका उत्कृष्टकाल बादर एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है। उसी सूक्ष्मपर्याप्त एकेन्द्रियके क्रोधका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है । उसी सूक्ष्मपर्याप्त एकेन्द्रियके मायाका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है। उसी सूक्ष्मपर्याप्त एकेन्द्रियके लोभका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥५८-६१॥ चूर्णिसू०-बादर एकन्द्रियपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल सूक्ष्मपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है। उसी वादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्ट काल उसीके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है । उसी वादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है । उसी वादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥६२-६५॥ चूर्णिसू०-द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है। त्रीन्द्रियलव्ध्यपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल श्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है। द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुस्त [७ उपयोग अर्थाधिकार ७०. तेइं दिय-अपज्जत्तयस्स उकस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ७१. चउरिदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ७२. बेइदिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ७३. तेइ दियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ७४. चउरिदिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया ।। ७५. वेइंदिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ७६. तेइ दियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ७७. चदुरिंदिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ७८. वेइं दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ७९ तेइ दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । ८०. चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । ८१. वेई दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ८२. तेइ दियमानकालसे विशेष अधिक है। त्रीन्द्रियलव्ध्यपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल त्रीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है ॥६६-७१॥ चूर्णिसू०-द्वीन्द्रियलव्ध्यपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल चतुरिन्द्रियलव्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है। त्रीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रियलव्ध्यपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल त्रीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥७२-७४॥ चूर्णिसू०-द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेप अधिक है। श्रीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रियलव्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल त्रीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे विशेष अधिक है ॥७५-७७॥ चूर्णिमू०-द्वीन्द्रियपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है। त्रीन्द्रियपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मानकालसे विशेप अधिक है । चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्टकाल त्रीन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मानकालसे विशेप अधिक है ॥७८-८०॥ चूर्णिसू०-द्वीन्द्रियपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मानकालसे विशेप अधिक है। त्रीन्द्रियपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रिय Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९] कषायोपयोगकाल-अल्पबहुत्व-निरूपण ५६७ पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ८३. चउ रिंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। ८४. बेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ८५. तेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ८६. चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। ८७. बेईदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ८८ तेइ दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ८९. चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ९०. असण्णि-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ९१. तस्सेव उस्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ९२. तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । ९३. तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।। ९४. असण्णिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ९५. तस्सेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । ९६. तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । पर्याप्त जीवके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल त्रीन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है ॥८१-८३॥ चूर्णिसू०-द्वीन्द्रियपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है। त्रीन्द्रियपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल त्रीन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ।।८४-८६॥ चूर्णिमू-द्वीन्द्रियपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्टकाल त्रीन्द्रियपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे विशेष अधिक है ॥८७-८९॥ चूर्णिम०--असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके मानका उत्कृष्ट काल चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है। उसी असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मानकालसे विशेष अधिक है। उसी असंज्ञी पंचेन्द्रियअपर्याप्त जीवके मायाका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है। उसी असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके लोभका उत्कृष्ट काल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥९०-९३॥ चूर्णिसू०-असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रियजीवके मानका उत्कृष्टकाल असंज्ञी अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है । उसी असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मानकालसे विशेप अधिक है। उसी असंज्ञी पर्याप्त Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ कसाय पाहुड सुत्त ९७. तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । ९८. सणिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ९९. तस्सेव उक्कस्सिया को धद्धा विसेसाहिया । १०० तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । १०१ तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । १०२. सण्णि-पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । १०३. तस्सेव उक्कस्सिया कोधा विसेसाहिया । १०४ तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । १०५. तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । [ ७ उपयोग-अर्थाधिकार तदो पमगाहाए पुग्वद्धस्स अत्थविहासा समत्ता | १०६. 'को वा कम्हि कसाए अभिक्खनजोगमुवजुत्तो" ति एत्थ अभिक्खमुवजोगपरूवणा कायव्वा । १०७. ओघेण ताव लोभो माया कोधो माणो ति पंचेन्द्रिय जीवके मायाका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेप अधिक है । उसी असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके लोभका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥९४-९७॥ चूर्णिम् ० - संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके मानका उत्कृष्टकाल असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है । उसी संज्ञी लब्ध्य पर्पाप्त पचेन्द्रिय जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है । उसी संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके मायाका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है । उसी संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके लोभका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥ ९८-१०१॥ चूर्णिसू० - संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके मानका उत्कृष्टकाल संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकाल से संख्यातगुणा है । इससे इसीका उत्कृष्ट क्रोधकाल विशेष अधिक है । इससे इसीका उत्कृष्ट मायाकाल विशेष अधिक है । इससे इसीका उत्कृष्ट लोभकाल विशेष अधिक है ॥१०२-१०५॥ इस प्रकार प्रथम गाथाके पूर्वार्ध के अर्थका विवरण समाप्त हुआ । चूर्णिसू० - 'कौन जीव किस कषाय मे निरन्तर एक सदृश उपयोगसे उपयुक्त रहता है' गाथाके इस उत्तरार्ध मे निरन्तर होनेवाले उपयोगोकी प्ररूपणा करना चाहिये । ( वह इस प्रकार है - ) ओकी अपेक्षा लोभ, माया, क्रोध और मान इस अवस्थित स्वरूप परिताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'को वा कहि' के स्थानपर 'को म्हि' पाठ मुद्रित है ( देखो पृ० १६२२ ) | पर वह अशुद्ध है, क्योंकि यह इसी अधिकारके प्रथम गाथाका उत्तरार्ध है, जिसमें कि 'को वाह' पाठ दिया हुआ है । १ अभीक्ष्णमुपयोगो मुहुर्मुहुरुपयोग इत्यर्थः । एकस्य जीवस्यैकस्मिन् कषाये पौनःपुन्येनोपयोग इति यावत् । जयघ● Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ गा०६९] कषाय-परिवर्तन-वार-निरूपण असंखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु सई लोभागरिसी अदिरेगा भवदि । १०८. असंखेज्जेसु लोभागरिसेसु अदिरेगेसु गदेसु कोधागरिसेहिं मायागृरिसा अदिरेगा होइ । १०९. पाटीसे असंख्यात अपकर्षो अर्थात् परिवर्तनवारोके व्यतीत हो जानेपर एक बार लोभकपायके परिवर्तनका वार अतिरिक्त अर्थात् अधिक होता है ॥१०६-१०७॥ विशेषार्थ-यहाँ पर यद्यपि सामान्यसे ही कषायोके उपयोग-परिवर्तनका क्रम बतलाया जा रहा है, तथापि वह तिर्यंच और मनुष्यगतिका ही प्रधानरूपसे कहा गया समझना चाहिए। कपायोके उपयोगका परिवर्तन इस क्रमसे होता है—मनुष्य-तिर्यंचोके पहले एक अन्तर्मुहूर्त तक लोभकषायरूप उपयोग होगा। पुनः उसके परिवर्तित हो जाने पर एक अन्तर्मुहूर्त तक मायाकपायरूप उपयोग होगा। पुनः उसका काल समाप्त हो जाने पर एक अन्तर्मुहूर्त तक क्रोधकषायरूप उपयोग होगा । पुनः इस उपयोग-कालके भी समाप्त हो जाने पर एक अन्तर्मुहूर्त तक मानकषायरूप उपयोग होगा। इस क्रमसे असंख्यात परिवर्तनवारोके व्यतीत हो जाने पर पीछे लोभ, माया, क्रोध और मानरूप होकर पुनः लोभकषायसे उपयुक्त होकर मायाकपायके उपयोगमें अवस्थित जीव उपर्युक्त परिपाटी-क्रमसे क्रोधरूप उपयुक्त नहीं होगा, किन्तु पुनः लौटकर लोभकषायरूप उपयोगके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर पुनः मायाकषायका उल्लंघन कर क्रोधकपायरूप उपयोगको प्राप्त होगा और तत्पश्चात् मानकषायको । इसी प्रकार पूर्वोक्त अवस्थित परिपाटी-क्रमसे चारो कषायोके असंख्यात उपयोग परिवर्तन-वार व्यतीत हो जाने पर पुनः एक वार लोभकषाय-सम्बन्धी परिवर्तन-वार अधिक होता है। चूर्णिसू०-उक्त प्रकारसे असंख्यात लोभकपायसम्बन्धी अपकर्षों अर्थात् परिवर्तनवारोके अतिरिक्त हो जाने पर क्रोधकषाय-सम्बन्धी परिवर्तन-वारसे मायाकपाय-सम्बन्धी उपयोगका परिवर्तन-बार अतिरिक्त होता है ॥१०८॥ विशेषार्थ-ऊपर जिस अवस्थित लोभ, माया, क्रोध और मानके परिवर्तन क्रमसे असंख्यात अपकर्ष व्यतीत होने पर एक बार लोभ-अपकर्ष अतिरिक्त होता है यह बतलाया गया, उसी प्रकार असंख्यात लोभ अपकर्पोके अधिक हो जाने पर मायाकपाय-सम्बन्धी अपकर्षे अधिक होगा । अर्थात् उक्त अवस्थित अपकर्ष-परिपाटी-क्रमसे लोभके पश्चात् माया और क्रोधके परिवर्तन हो जानेपर पुनः लौटकर मायाके उपयोगके साथ अन्तर्मुहूर्त तक रहकर तत्पश्चात् क्रोधका उल्लंघन कर मानको प्राप्त होगा । पुनः अवस्थित परिपाटीसे असंख्यात लोभापकर्षों के व्यतीत हो जाने पर फिर उसी क्रमसे एक वार मायाका अपकर्प अधिक होगा। इसी बातको बतलानेके लिए सूत्रकारने कहा है कि असंख्यात लोभ-अपकर्पोके अतिरिक्त हो जाने पर क्रोध-अपकर्पसे माया-अपकर्ष अतिरिक्त होता है । इस प्रकार मायापकर्पके असंख्यात अतिरिक्त वार होते है, तब वक्ष्यमाण अन्य क्रम प्रारम्भ होता है। १ एत्थागरिसा ति वुत्ते परियणवाराणि गहेयव्व । जयध. २ अदिरित्ता अहिया ( अधिकाः) इत्यर्थः । जयघ० ७२ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० फसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग अर्थाधिकार असंखेज्जेहि मायागरिसेहिं अदिरेगेहिं गदेहि माणागरिसेहि कोधागरिसा अदिग्गा होदि । ११०. एवमोघेण । १११. एवं तिरिक्खजोणिगदीए मणुमगदीए च । ११२. णिरयगईए कोहो माणो, कोहो माणो त्ति वारसहस्साणि परियत्तिदूण सई माया चूर्णिमू०-असंख्यात माया-अपकोंके अतिरिक्त हो जाने पर मान-अपकर्पकी अपेक्षा क्रोध-अपकर्प अतिरिक्त होता है ॥१०९॥ विशेपार्थ-ऊपर जिस क्रमसे लोभ और मायाकषाय-सम्बन्धी अतिरिक्त अपकर्पका निरूपण किया है, उसी क्रमसे असंख्यात माया-अपकोंके हो जानेपर एक वार क्रोध-अपकर्प अधिक होता है । अर्थात् अवस्थित परिपाटी-क्रमसे लोभ, माया और क्रोधसे उपयुक्त होनेके पश्चात् क्रम-प्राप्त मानकपायसे उपयुक्त न होगा, किन्तु पुनः लौटकर क्रोधकषायसे उपयुक्त होगा। इस प्रकार क्रोधकषायके अपकर्प भी असंख्यात होते हैं । विवक्षित मनुष्य या तिर्यचकी असंख्यात वर्षवाली आयुमे ये अतिरिक्त वार लोभकषायके सबसे अधिक होते है और माया, क्रोध और मानके उत्तरोत्तर कम होते हैं। चूर्णिसू०-इस प्रकार यह कपाय-सम्वन्धी उपयोग परिपाटी-क्रम ओघकी अपेक्षा कहा गया है । इसी प्रकार तिर्यंचयोनियोकी गतिमे और मनुष्यगतिमें जानना चाहिए ॥११०-१११॥ विशेषार्थ-यद्यपि यहाँ सामान्यसे ही तिर्यंच और मनुष्योका उल्लेख किया गया है, तथापि उक्त क्रम असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यंचोकी अपेक्षासे ही कहा गया जानना चाहिए। इसका कारण यह है कि लोभादि कपायोके असंख्यात वार सदृश होकर जब तक व्यतीत नहीं हो जाते हैं, तब तक उनके अतिरिक्त वार नहीं होते हैं । इस प्रकार सूत्रका वचन है। अतः यही निष्कर्ष निकलता है कि संख्यात-वर्षायुष्क मनुष्य और तिर्यचोमे कषायोके परिवर्तन-बार समान ही होते हैं। चूर्णिस०-नरकगतिमे क्रोध, मान, पुनः क्रोध और मान, इस क्रमसे सहतो परिवर्तन-वारोके परिवर्तित हो जाने पर एक वार मायाकपाय-सम्बन्धी उपयोग परिवर्तित होता है ॥११२॥ विशेपार्थ-जिस प्रकार ओघप्ररूपणामे लोभ, माया क्रोध और मान इस अवस्थित परिपाटीसे असंख्यात अपकर्षों के व्यतीत होनेपर पुनः अन्य प्रकारकी परिपाटी आरंभ होती है, वैसी परिपाटी यहाँ नरकगतिमें नहीं है । किन्तु यहॉपर क्रोधकपाय-सम्बन्धी उपयोगके परिवर्तित होनेपर मानकपायरूप उपयोग होता है। उसके पश्चात् पुनः क्रोध और मानकपायरूप उपयोग होता है । नारकियोका यही अवस्थित उपयोग-परिवर्तन क्रम है । इम १ एद सन्व पि असखेज्जवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्से अस्सियूण परूविद | सखेजवरसाउअतिरिक्ख. मणुसे अस्सियूण जइ वुच्चइ तो कोहमाणमायालोहाणमागरिसा अण्णोण्ण पेक्खियण सरिसा चंब हचति । कि कारणं, असंखेज्जपरिवत्तणवारा सरिसा होदूण जाव ण गदा ताव लोभादीणमागरिमा अहिया ण होति त्ति सुत्तवयणादा। जयध० Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९] कषाय-परिवर्तन-वार-निरूपण ५७१ परिवत्तदि । ११३. मायापरिवत्तेहिं संखेज्जेहिं गदेहिं सई लोहो परिवत्तदि । ११४. देवगदीए लोभो माया लोभो माया त्ति वारसहस्साणि गंदूण तदो सईमाणो परिवत्तदि । ११५. माणस्स संखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु तदो सईकोधो परिवत्तदि। अवस्थित-परिपाटी-क्रमसे सहस्रो परिवर्तन-वारोंके हो जानेपर तत्पश्चात् एक वार मायाकषायरूप उपयोग होता है। इसका कारण यह है कि अत्यन्त द्वेष-प्रचुर नारकियोंमे क्रोध और मानकषाय ही प्रचुरतासे पाये जाते हैं। चूर्णिसू०-संख्यात सहस्र मायाकषायसम्बन्धी उपयोग-परिवर्तनोके व्यतीत हो जानेपर तत्पश्चात् एक वार लोभकषायरूप उपयोग परिवर्तित होता है ॥११३॥ विशेषार्थ-ऊपर बतलाई गई नरकगति-सम्बन्धी अवस्थित परिपाटी मसे क्रोध और मानसम्बन्धी सहस्रों उपयोग-परिवर्तनोके हो जानेपर एक वार मायापरिवर्तन होता है। पुनः इस प्रकारके सहलो मायापरिवर्तनोके व्यतीत हो जानेपर एक वार लोभकषाय-सम्बन्धी उपयोगका परिवर्तन होता है । इसका कारण यह है कि अत्यन्त पाप-बहुल नरकगतिमें प्रेयस्वरूप लोभपरिणामका होना अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्रकारका यह क्रम नारकी जीवोंके अपनी आयुके अन्तिम समय तक होता रहता है। चूर्णिसू०-देवगतिमे लोभ, माया, पुनः लोभ और माया इस क्रमसे सहस्रो परि- . वर्तन-वारोके व्यतीत हो जानेपर तत्पश्चात् एक वार मानकषाय-सम्बन्धी उपयोगका परिवर्तन होता है ।।११४॥ विशेषार्थ-देवगतिमें नरकगतिसे विपरीत क्रम है। यहॉपर पहले लोभकषायरूप उपयोग होगा, पुनः मायाकषायरूप । पुनः लोभ और पुनः माया। इस अवस्थित परिपाटीक्रमसे इन दोनो कषाय-सम्बन्धी सहस्रों उपयोग-परिवर्तनोके हो जानेपर तत्पश्चात् एक वार मानकषाय परिवर्तित होती है। इसका कारण यह है कि देवगतिमें प्रेयस्वरूप लोभ और मायापरिणाम ही बहुलतासे पाये जाते हैं । अतएव लोभ और माया-सम्बन्धी संख्यात सहस्र परिवर्तन-वारोंके हो जानेपर पुनः लोभकषायरूप उपयोगसे परिणत होकर क्रम-प्राप्त माया कषायरूप उपयोगका उल्लंघन कर एक वार मानकपायरूप परिवर्तनसे परिणत होता है । चूर्णिस०-मानकषायके उपयोग-सम्बन्धी संख्यात सहस्र परिवर्तन-वारोंके व्यतीत हो जानेपर तत्पश्चात् एक वार क्रोधकषायरूप उपयोग परिवर्तित होता है ॥११५॥ विशेषार्थ-देवगति-सम्बन्धी कपायोके अवस्थित उपयोग परिपाटी-क्रमसे सहस्रों मानपरिवर्तन-बारोके व्यतीत हो जानेपर एक वार क्रोधकषायरूप उपयोग परिवर्तित होता १ किं कारण ?णेरइएसु अच्चतदोसबहुलेसु कोह-माणाणं चेय पउर सभवादो। २ कुदो एव चेव ? णिरयगदीए अच्चतपापबहुलाए पेजसरूवलोहपरिणामस्स सुटठु दुल्लहत्तादो । जयध० ३ कुदो एव, पेजसरूवाण लोभ-मायाण तत्थ बहुल सभवदंसणादो। जयघ० ४ देवगदीए अप्पसत्ययरकोहपरिणामस्स पाएण सभवाणुवलभादो । जयध० Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ फसाय पाहुड लुत्त [७ उपयोग अर्थाधिकार ११६. एदीए परूवणाए एक्कम्हि भवग्गहणे णिरयगदीए संखेज्जवासिगे वा असंखेज्जवासिगे वा भवे लोभागरिसा थोवा । ११७. मायागरिसा संखेज्जगुणा । ११८. माणागरिसा संखेज्जगुणा । ११९. कोहागरिसा विसेसाहिया । १२०. देवगदीए कोधागरिसा थोवा । १२१. माणागरिसा संखेज्जगुणा । है । क्योकि, देवगतिमें अप्रशस्त क्रोधपरिणाम प्रायः सम्भव नहीं है। इस प्रकारसे उक्त परिवर्तन-क्रम देवोके अपनी आयुके अन्तिम समय-पर्यन्त होता रहता है। चूर्णिसू०-इस उपयुक्त प्ररूपणाके अनुसार एक भवके ग्रहण करनेपर नरकगतिमें संख्यात वर्पवाले अथवा असंख्यात वर्षवाले भवमे लोभकषायके परिवर्तन-वार शेष कपायोके परिवर्तन-बारोकी अपेक्षा सबसे कम है ॥११६॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि नरकगतिमे लोभकषायके परिवर्तन-वार अत्यन्त कम पाये जाते है। ___ चूर्णिस०-मायाकषायसम्बन्धी परिवर्तन-वार, लोभकपायसम्बन्धी परिवर्तन-वारोसे संख्यातगुणित हैं ॥११७॥ विशेपार्थ- इसका कारण यह है कि एक-एक लोभपरिवर्तन-बारमे संख्यात सहस्र मायाकषायके परिवर्तन-वार पाये जाते हैं। चूर्णिस०-नरकगतिमे सानकषायसम्बन्धी परिवर्तन वार, मायाकपायसम्बन्धी परिवर्तन-वारोसे संख्यातगुणित है ॥११८॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि एक-एक मायापरिवर्तन-धारमें संख्यात सहरू मानकषायके परिवर्तन-वार पाये जाते हैं । चूर्णिसू०-नरकगतिमें क्रोधकपायसम्बन्धी परिवर्तन-वार, मानकषायसम्बन्धी परिवर्तन-वारोसे विशेष अधिक हैं ।। ११९॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि मानपरिवर्तन-वारोकी अपेक्षा लोभ और माया परिवर्तनोके प्रमाणसे क्रोधपरिवर्तनके वार विशेप अधिक पाये जाते हैं। चूर्णिसू०-देवगतिमे क्रोधकपाय-सम्बन्धी उपयोगपरिवर्तन-बार वहॉके शेप कपायोके परिवर्तन-वारोकी अपेक्षा सबसे कम है ॥१२०॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि देवगतिमें क्रोधकपायके परिवर्तन-बार अत्यन्त अल्प पाये जाते हैं। चूर्णिस०-देवगतिमे मानकपायसम्बन्धी परिवर्तन-बार, क्रोध-कपायसम्बन्धी परिवर्तन-बारोसे संख्यातगुणित हैं ॥१२१॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि एक-एक क्रोध-परिवर्तन-वारमें संख्यात सहन मानकपायके परिवर्तन-वार पाये जाते हैं । १ कुटो एदेसिं थोवत्तमिदिचे णिरयगदीए लोभपरियणवाराण सुटु विरलाणमुबलमादो । जयघ० Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ गा० ६९] कषाय-अपकर्ष-अल्पबष्टुत्व-निरूपण १२५. मायागरिसा संखेज्जगुणा । १२३. लोभागरिसा विसेसाहिया । १२४. तिरिक्ख-मणुसगदीए असंखेज्जवस्सिगे भवग्गहणे माणागरिसा थोवा । १२५. कोहागरिसा विसे साहिया । १२६ मायागरिसा विसेसाहिया । १२७. लोभागरिसा विसेसाहिया। १२८. एत्तो विदियगाहाए विभासा । १२९. तं जहा । १३०. 'एकम्मि भवग्गहणे एक्कसायम्मि कदि च उवजोगा' त्ति* । चूर्णिसू०-देवगतिमे मायाकपायसम्बन्धी परिवर्तन-वार, मानकपायसम्बन्धी परिवर्तन-वारोसे संख्यातगुणित हैं ॥१२२॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि एक एक मानपरिवर्तन-वारमें संख्यात सहस्र मायापरिवर्तन-वार पाये जाते है। चूर्णिस०-देवगतिमें लोभकपाय-सम्बन्धी परिवर्तन-वार, मायाकपायके परिवर्तनवारोंसे विशेष अधिक हैं ॥१२३॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि माया-परिवर्तन-वारोकी अपेक्षा क्रोध और मानपरिवर्तनोंके प्रमाणसे लोभपरिवर्तनके वार विशेष अधिक पाये जाते हैं । चूर्णिसू०-तिर्यंचगति और मनुष्यगतिमे असंख्यात वर्पवाले भव-ग्रहणके भीतर मानकषायके परिवर्तन-वार इन दोनों गति-सम्बन्धी शेष कपायोके परिवर्तन-वारोंकी अपेक्षा सबसे कम हैं । तिर्यंच और मनुष्यगतिमे असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर क्रोधकषायके परिवर्तन-वार, मानकपायके परिवर्तन-वारोंसे विशेष अधिक हैं ॥१२४-१२५॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि क्रोध और मानसम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनपरिपाटियोके अवस्थित-स्वरूपसे व्यतीत होनेपर तत्पश्चात् एक वार मानपरिवर्तनकी अपेक्षा क्रोधपरिवर्तनके अधिकता पाई जाती है। ___ चूर्णिसू०-तिर्यंच और मनुष्यगतिमें असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर मायाकषायके परिवर्तन-वार, क्रोधकषायके परिवर्तन-वारोसे विशेप अधिक होते हैं। तिर्यंच और मनुष्यगतिमे असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर लोभकपायके परिवर्तन-वार, मायाकपायके परिवर्तन-वारोंसे विशेष अधिक होते है ।।१२६-१२७॥ इस प्रकार प्रथम गाथाका अर्थ समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-प्रथम गाथाके व्याख्यान करनेके पश्चात् अब 'एकम्मि भवग्गहणे' इस द्वितीय गाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है-'एक भवके ग्रहण करनेपर और एक कषायमे कितने उपयोग होते है ? ॥१२८-१३०॥ विशेपार्थ-नरकादि गतियोंमे संख्यात वर्षवाले अथवा असंख्यात वर्षवाले भवको ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इस चूणिसूत्रको 'तं जहा' इस सूत्रको टीकाका अग बना दिया है । ( देखो पृ० १६२८ ) पर इसकी सूत्रता इस स्थल्की टीकासे स्वतः सिद्ध है । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फसाय पाहुड लुत्त [७ उपयोग अर्थाधिकार १३१. एक्कम्मि णेरइयभवग्गहणे कोहोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा । १३२. माणोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा । १३३. एवं सेसाणं पि । १३४. एवं सेसासु वि गदीसु । १३५. णित्यगदीए जम्हि कोहोवजोगा संखेजा, तम्हि माणोवजोगा णियमा संखेज्जा । १३६ एवं माया-लोभोवजोगा । १३७. जम्हि माणोवजोगा संखेज्जा, तम्हि कोहोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा । १३८. मायोवजोगा लोहोवजोगा णियमा आधार करके उस भवग्रणमें एक एक कषायके कितने उपयोग होते हैं, क्या उपयोगोके संख्यात वार होते हैं, अथवा असंख्यात ? इस प्रकारकी पृच्छा इस गाथासूत्रसे की गई है। __ अव चूर्णिकार उक्त पृच्छाका उत्तर देते हैं चूर्णिसू०-एक नारकीके भवग्रहणमे क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोगके वार संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते है ॥१३१॥ विशेपार्थ-दस हजार वर्पको आदि लेकर यथायोग्य संख्यात वर्षकी आयुवाले नारफीके भवमे क्रोधकपायके उपयोग-वार संख्यात पाये जाते है। इससे ऊपर उत्कृष्ट संख्यात वर्षवाले अथवा असंख्यात वर्पवाले भवमे क्रोधकपायके उपयोग-वार असंख्यात ही होते हैं । इसी व्यवस्थाको ध्यानमे रखकर सूत्रमे कहा गया है कि एक नारकीके भवग्रहणमें क्रोधकपायके उपयोग-बार संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते हैं । चूर्णिसू०-नारकीके एक भवमे मानकपायके उपयोग-वार संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी। इसी प्रकारसे नरकगतिमें शेष माया और लोभकषाय सम्बन्धी उपयोगोके वार भी जानना चाहिए । इसी प्रकार शेप गतियोमे भी चारो कपायोके उपयोग-बारोको जानना चाहिए ॥१३२-१३४॥ चूर्णिस०-नरकगतिके जिस भवग्रहणमे क्रोधकपायके उपयोग वार संख्यात होते हैं, उस भवग्रहणमे मानकपायके उपयोग-वार नियमसे संख्यात ही होते हैं । इसी प्रकारसे माया और लोभकपाय-सम्बन्धी उपयोग-वार भी जानना चाहिए । नरकगतिके जिस भवग्रहणमें मानकपायके उपयोग-बार संख्यात होते है, उस भवग्रहणमे क्रोधकपायके उपयोग-वार संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते हैं ॥१३५-१३७॥ विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट संख्यातमात्र मानकपायके उपयोग-वार होनेपर उससे विशेष अविक क्रोधकपायके उपयोग-वार असंख्यात ही होगे । किन्तु उत्कृष्ट संख्यातसे नीचे यथासम्भव संख्यात-प्रमाण मानकपायके उपयोग-वार होनेपर तो क्रोधकपायके उपयोग-वार संख्यात ही होगे। चूर्णिमू०-नरकगतिके जिस भवग्रहणमें मानकपायके उपयोग-वार संख्यात होते हैं, उस भवग्रहणमें मायाकपायके उपयोग-वार और लोभकपायके उपयोग-वार नियमसे संख्यात ही होते हैं । नरकगतिके जिस भवग्रहणमे मायाकयायके उपयोग-वार संख्यात होते हैं, उस Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९] कषायोपयोग-अल्पबहुत्व-निरूपण ५७५ संखेज्जा । १३९. जम्हि पायोवजोगा संखेज्जा तम्हि कोहोवजोगा माणोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा । १४०. लोभोवजोगा णियमा संखेजा । १४१. जत्थ लोभोवजोगा संखेज्जा तत्थ कोहोवजोगा माणोवजोगा मायोवजोगा भजियव्वा । १४२. जत्थ णिरयभवग्गहणे कोहावजोगा असंखेज्जा. तत्थ सेसा सिया संखेज्जा, सिया असंखेज्जा । १४३. जत्थ माणोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोहोवजोगा णियमा असंखेज्जा। १४४. सेसा भजियव्वा । १४५. जत्थ मायोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोहोबजोगा माणोवजोगा णियमा असंखेज्जा । १४६. लोभोवजोगा भजियव्या। १४७ जत्थ लोहोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोह-माण-मायोवजोगा णियमा असंखेज्जा । भवमे क्रोधकषायके उपयोग-वार और मानकषायके उपयोगवार संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते है ॥१३८-१३९ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि मायाकपायके उपयोग-बार उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण होनेपर तो क्रोध और मानकपायके उपयोग-बार असंख्यात ही पाये जावेंगे । किन्तु उससे संख्यात-गुणित-हीन मायाके उपयोग-वार होनेपर क्रोध और मानके उपयोग-वार संख्यात ही पाये जाते है। चूर्णिसू०-नरकगतिके जिस भवग्रहणमे मायाकषायके उपयोग-वार संख्यात होते है, उस भवमे लोभकषायके उपयोग-वार नियमसे संख्यात ही होते हैं। नारकीके जिस भवग्रहणमे लोभकषायके उपयोग-बार संख्यात होते है, उस भवमे क्रोधके उपयोग-वार, मानके उपयोगके वार और मायाके उपयोग-वार भाज्य हैं, अर्थात् संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते हैं । नारकीके जिस भवग्रहणमे क्रोधकपायके उपयोग-बार असंख्यात होते है, उस भवमें शेष कपायोंके उपयोग-वार संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते है । नारकीके जिस भवग्रहणमे मानकषायके उपयोग-वार असंख्यात होते हैं, उस भवमे क्रोधकषायके उपयोग-बार नियमसे असंख्यात होते है। नारकीके जिस भवग्रहणमें मानकपायके उपयोग-वार असंख्यात होते हैं, उस भवमे शेष अर्थात् माया और लोभकपायके उपयोग-बार भाज्य है, अर्थात् संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते हैं। नारकीके जिस भवग्रहणमें मायाकषायके उपयोग-वार असंख्यात होते है, उस भवमे क्रोधकपायके उपयोग-बार और मानकषायके उपयोग-वार नियमसे असंख्यात होते हैं । नारकीके जिस भवग्रहणमे मायाकषायके उपयोगवार असंख्यात होते है, उस भवमें लोभकपायके उपयोग-वार भाज्य है, अर्थात् संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी । नारकीके जिस भवग्रहणमे लोभकपायके उपयोग-वार असंख्यात होते हैं, उस भवमे क्रोध, मान और मायाकषायके उपयोग-वार नियमसे असंख्यात होते है ॥१४२-१४७॥ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार १४८. जहा णेरइयाणं कोहोवजोगाणं वियप्पा, तहा देवाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा । १४९. जहा णेरड्याणं माणोवजोगाणं वियप्पा, तहा देवाणं मायोवजोगाणं वियप्पा । १५०. जहा णेरइयाणं मायोवजोगाणं वियप्पा, तहा देवाणं माणोवजोगाणं वियप्पा । १५१ जहा रहयाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा, तहा देवाणं कोहोवजोगाणं वियप्पा । १५२ जेसु णेरड्यभवेसु असंखेज्जा कोहोवजोगा माण-माया-लोभोवजोगा वा जेसु वा संखेज्जा, एदेसिमट्ठण्हं पदाणमप्पाबहुअं । १५३. तत्थ उपसंदरिसणाए करणं । १५४. एक्कम्हि वस्से जत्तियाओ कोहोवजोगद्धाओ तत्तिएण जहण्णासंखेज्जयस्स भागो जं भागलद्धमेत्तियाणि वस्साणि जो भवो तम्हि असंखेज्जाओ कोहोबजोगद्धाओ । चूर्णिसू०-जिस प्रकारसे नारकी जीवोके क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोग-वारोके विकल्प कहे गये हैं, उसी प्रकारसे देवोके लोभकषायसम्बन्धी उपयोग-वारोके विकल्प जानना चाहिए। जिस प्रकारसे नारकियोके मानकषायसम्बन्धी उपयोगवारोके विकल्प कहे गये हैं, उसी प्रकारसे देवोके मायाकपायसम्बन्धी उपयोग-वारोके विकल्प जानना चाहिए । जिस प्रकार नारकियोके मायाकपायसम्बन्धी उपयोग-बारोके विकल्प कहे गये हैं, उसी प्रकारसे देवोके मानकषायसम्बन्धी उपयोग-वारोके विकल्प होते हैं। जिस प्रकारसे नारकियोके लोभकपायसम्बन्धी उपयोग-बारोके विकल्प कहे गये हैं, उसी प्रकारसे देवोके क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोग वारोके विकल्प होते हैं ॥१४८-१५१।। चूर्णिसू०-नारकी जीवीके जिन भवोमे क्रोध, मान, माया और लोभकपायसम्बन्धी उपयोगोके वार असंख्यात होते हैं, अथवा जिन भवोमे क्रोध, मान, माया और लोभकपायसम्बन्धी उपयोगोके वार संख्यात होते हैं, तत्सम्बन्धी इन आठो पदोका अल्पवहुत्व इस प्रकार है। उनमें से अब इन क्रोधादि कषायोके संख्यात अथवा असंख्यात उपयोग-वारवाले भवोंके विषय-विभाग बतलानेका निर्णय करते है-एक वर्षमें जितने क्रोधकपायके उपयोगकाल-वार होते हैं, उतनेसे जघन्य असंख्यातको भाग देवे। जो भाग लब्ध हो, उतने वर्प-प्रमाण जो भव हैं, उस भवमे क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोगकालकं वार असंख्यात होते है ।।१५२-१५४॥ विशेषार्थ-इस सूत्रके द्वारा क्रोधकषायसम्बन्धी संख्यात उपयोगकाल-बार अथवा असंख्यात उपयोगकालवारवाले भवग्रहणोका निर्णय किया गया है। वह इस प्रकार जानना चाहिए-एक अन्तर्मुहूर्त के भीतर यदि क्रोधकपायका एक उपयोगकाल-बार पाया जाता है तो एक वर्षके भीतर कितने क्रोधकपायके उपयोगकाल-वार प्राप्त होगे? इस प्रकार त्रैराशिक करनेसे एक वर्षके भीतर क्रोधके संख्यात सहस्र उपयोगकाल-बार प्राप्त होते है । पुनः इन एक वर्षसम्बन्धी क्रोधके उपयोगकाल-वारोंसे जघन्य असंख्यातका भाग करना चाहिए । अर्थात् यदि १ किमुवसंदरिसणाकरण णाम ? उवसंदरिसणाकरण णिदरिसणकरण णिण्णयकरणमिदि एवछो । जयघ01 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायोपयुक्त-भव-अल्पबहुत्व-निरूपण ५७७ १५५. एवं माण-माया-लोभोवजोगाणं । १५६. एदेण कारणेण जे असंखेज्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा थोवा । १५७ जे असंखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । १५८. जे असंखेज्जमाणोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । १५९. जे असंखेन्जकोहोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । १६०. जे संखेज्जकोहोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । १६१. जे संखेज्जमाणोजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । १६२. जे संखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । १६३. जे संखेज्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । संख्यात सहस्र उपयोगकाल-बार एक वर्पके भीतर प्राप्त होते है, तो जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगोके काल-वारके कितने वर्ष प्राप्त होगे ? इसप्रकार त्रैराशिक करनेसे जघन्यपरीतासंख्यातके संख्यातवे भागप्रमाण वर्ष प्राप्त होते हैं। पुनः इतने अर्थात् जघन्यपरीतासंख्यातके संख्यातवें भागप्रमाण वर्षोंका जो एक भव होगा, उसमे क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोगकाल-वार असंख्यात होते है। इसका कारण यह है कि यदि एक वर्षके भीतर संख्यात सहस्र क्रोधके उपयोगकाल-वार प्राप्त होते है, तो जघन्यपरीतासंख्यातके संख्यातवें भागप्रमाण वर्षों के भीतर कितने उपयोग-बार प्राप्त होगे ? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर जघन्यपरीतासंख्यात-प्रमाण क्रोधकपाय-सम्बन्धी उपयोगकाल-वार प्राप्त होते है। इस प्रकार इस सूत्रसे क्रोधक संख्यात और असंख्यात उपयोगवाले भवोका विषय-विभाग बतलाया । सूत्र-निर्दिष्ट कालसे ऊपरकी आयुवाले सब जीवोके असंख्यात ही उपयोगकाल-बार देखे जाते हैं । तथा इससे अधस्तन प्रसाणवाले वर्षोंके भवमे क्रोधकषायके उपयोगकाल-वार संख्यात ही होते हैं। ___चूर्णिसू०-इसीप्रकार मान, माया और लोभकषायसम्बन्धी संख्यात और असंख्यात उपयोगवाले भवोका विषय-विभाग जानना चाहिये । इसकारणसे जो असंख्यात लोभकषायसम्बन्धी उपयोग-वारवाले भव है, वे भव सबसे कम है। जो असंख्यात मायाकषायसम्बन्धी उपयोग-बारवाले भव हैं वे भव ऊपर बतलाये गये भवोसे असंख्यातगुणित हैं। जो असंख्यात मानकषायसम्बन्धी उपयोग-वारवाले भव है, वे भव ऊपर कहे गये भवोसे असंख्यातगुणित हैं। जो असंख्यात क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोग-वारवाले भव हैं, वे भव ऊपर बतलाए गये मानकषायसम्बन्धी भवोसे असंख्यातगुणित हैं । जो क्रोधकषायसम्बन्धी संख्यात उपयोग-वारवाले भव है, वे भव क्रोधके असंख्यात उपयोग-वारवाले भवोसे असंख्यातगुणित हैं । जो मानकषायसम्बन्धी संख्यात उपयोगवाले भव हैं, वे भव क्रोधके संख्यात उपयोगवाले भवोसे विशेष अधिक हैं । जो मायाकपायसम्बन्धी संख्यात उपयोगवाले भव हैं, वे भव मानके संख्यात उपयोगवाले भवोसे विशेप अधिक है। जो लोभकपायसम्बन्धी संख्यात उपयोगवाले भव हैं, वे भव मायाके संख्यात उपयोगवाले भवोसे विशेप अधिक है ॥१५५-१६३॥ ७३ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ कसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार १६४. जहा रइएम, तहा देवेसु । णवरि कोहादो आडवेयन्यो। १६५. तं जहा। १६६. जे असंखेज्जकोहोवांगिगा भवा- ते भवा थोवा । १६७. जे असंखेजमाणोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । १६८. जे असंखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगणा । १६९ जे असंखेज्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगणा | १७०. जे संखेज्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । १७१. जे संखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । १७२. जे संखेज्जमाणोवजोगिगा भवा ते अवा विसेसाहिया । १७३. जे संखेज्जकोहोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । १७४ विदियगाहाए अत्थविहासा समत्ता । १७५ 'उवजोगवग्गणाओ कम्हि कसायम्हि केत्तिया होति' त्ति एसा सव्वा विगाहा पुच्छासुत्तं' । १७६. तस्स विहासा । १७७. तं जहा । १७८. उवजोग - चूर्णिसू-जिस प्रकारसे नारकियोमे आठ पद-सम्बन्धी अल्पवहुत्वका कथन किया है, उसी प्रकारसे देवोम भी अल्पबहुत्वका कथन जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि देवोके अल्पवहुत्व कहते समय क्रोधकपायसे कथन प्रारम्भ करना चाहिए। वह इस प्रकार है-देवोमें जो असंख्यात क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोगवाले भव हैं, वे भव सबसे कम होते हैं। जो मानकपायसम्बन्धी उपयोगवाले असंख्यात भव हैं, वे भव क्रोधकपायके उपयोगवाले भवोंसे असंख्यातगुणित होते हैं। जो असंख्यात मायाकपाय-सम्बन्धी उपयोगवाले भव हैं, वे भव मानकपायके उपयोगवाले भवोसे असंख्यातगुणित हैं। जो असंख्यात लोभकषायसम्बन्धी उपयोगवाले भव हैं, वे भव मायाकपायके उपयोगवाले भवोसे असंख्यातगुणित हैं । जो संख्यात लोभकपायसम्बन्धी उपयोगवाले भव है, वे भव असंख्यात लोभकपायके उपयोगवाले भवोसे असंख्यातगुणित हैं। जो संख्यात मायाकपायसम्बन्धी उपयोगवाले भव हैं, वे भव संख्यात लोभकपायसम्बन्धी उपयोगवाले भवोसे विशेप अधिक हैं। जो संख्यात मानकपायसम्बन्धी उपयोगवाले भव है, वे भव संख्यात मायाकपायके उपयोगवाले भवोसे विशेए अधिक हैं। जो संख्यात क्रोधकपायसम्बन्धी उपयोगवाले भव हैं, वे भव संख्यात मानकपायके उपयोगवाले भवोसे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार द्वितीय गाथाकी अर्थविभापा समाप्त हुई ॥१६४-१७४॥ चूर्णिसू०-'उपयोग-वर्गणाएँ किस कषायमे कितनी होती हैं। यह समस्त गाथा पृच्छासूत्र है । अर्थात् इससे क्रोधादिकपाय-विपयक उपयोगवर्गणाओका ओघ और आदेशसे प्रमाण पूछा गया है। उसकी विभापा कहते हैं। वह इस प्रकार है-उपयोगवर्गणाएँ १ तत्थ गाहापुबद्धेण 'उवजोगवग्गणाओ कम्हि कसायम्हि केत्ता होति' ति ओघेण पुच्छाणिदेतो को । पच्छद्रेण वि 'कदरिस्मे च गदीए केवडिया वग्गणा होति' त्ति आदेमविसया पुच्छा णिद्दिट्टा त्ति दट्ठव्वा; गदिमग्गणाविसयत्सेदस्स पुच्छाणिद्दे सत्स सेसासेसमग्गणाण टेसामासयमावेणावट्ठाणदम णादो | जयघ० Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९ ] कषाय- उपयोगवर्गणा-निरूपण ५७९ araणाओ दुविहाओ कालोवजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाओ य' । १७९. कालोजोगवग्गणओ णाम कसायोवजोगडाणाणि । १८०. भावोव जोगवग्गणाओ णाम कसायोदयङ्काणाणि । १८१. एदानिं दुविहाणं पि वग्गणाणं परूवणा पमाणमप्पाबहुअं च वत्तव्यं । १८२. तदो तदियाए गाहाए विहासा समत्ता । दो प्रकारकी है -- कालोपयोगवर्गणाएँ और भावोपयोगवर्गणाएँ । कषायोके उपयोगसम्बन्धी कालके जघन्य उत्कृष्ट आदि स्थानोको कालोपयोगवर्गणाऍ कहते है ॥ १७५-१७९॥ विशेषार्थ - क्रोधादि कपायोंके साथ जीवके सम्प्रयोग होनेको उपयोग कहते है । कषायों के उपयोगको कषोयोपयोग कहते है । इसप्रकार के कषायोपयोगके कालको कपायोपयोगकाल कहते हैं । वर्गणा, विकल्प, स्थान और भेद ये सब एकार्थवाची नाम हैं । कषायके जघन्य उपयोगकालके स्थानसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगकालके स्थान तक निरन्तर अवस्थित भेदोको कालोपयोगवर्गणा कहते हैं । चूर्णिसू०-कषायोके उदयस्थानोको भावोपयोगवर्गणा कहते हैं ॥ १८० ॥ विशेषार्थ - भावकी अपेक्षा तीव्र - मन्द आदि भावोंसे परिणत कषायोंके जघन्य विकल्पसे लेकर उत्कृष्ट विकल्प तक षड्-वृद्धिक्रमसे अवस्थित उदयस्थानोको भावोपयोगवर्गणा कहते हैं । वे कषाय-उदयस्थान असंख्यात लोकोंके जितने प्रदेश हैं, तत्प्रमाण होते हैं । वे उदयस्थान मानकषायमे सबसे कम हैं, क्रोधकषायमे विशेष अधिक हैं, मायाकपायमे विशेष अधिक हैं और लोभकषायमे विशेष अधिक होते हैं । । चूर्णि सू० - [0- इन दोनो ही प्रकारकी वर्गणाओंकी प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पत्रहुत्व कहना चाहिए । इस प्रकार तीसरी गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई ।। १८१-१८२॥ १ उवजोगो णाम कोहादि - कसाएहि सह जीवस्स सपजोगो, तस्स वग्गणाओ वियप्पा भेदा ति एयट्ठो । जहण्णोवजोगट्ठाण पहुडि जाव उक्कस्सोवजोगट्ठाणे त्ति गिरतरमवट्ठिदाण तव्वियप्पाणमुवजोगवग्गणाववसोत्ति वृत्त होइ । सो च जहण्णुक्कस्तभावो दोहिं पयारेहिं संभवइ कालादो भावदो च । तत्थ कालदो जहणोवजोगकालप्पहुडि जावुक्कस्सोवजोगकालो त्तिणिरतरमर्वादाण वियप्पाण कालोव - जोगवग्गणा त्ति सण्णा; कालविसयादो उवजोगवग्गणाओ कालोवजोगवग्गणाओ त्ति गहणादो । भावदो तिव्व मदादिभावपरिणदक्षण कसायुदयठाणाण जहण्णवियप्प पहुडि जावुक्कस्सवियप्पो त्ति छवड्ढिकमेणावट्ठियाण भावोवजोगवग्गणा त्ति ववएसो, भावविसे सिदाओ उवजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाओ ति विवक्खियत्तादो । जयध० २ को हादिकसायोवजोगजहण्णकालमुक्कस्सकालादो सोहिय सुद्धसेसम्म एगरूवे पक्खित्ते कसायोवजोगट्ठाणाणि होति । जयध० ३ कोहादिकसायाणमेक्वेक्कस्स कसायस्स असखेजलोगमेत्ताणि उदयठाणाणि अस्थि । ताणि पुण माणे थोवाणि, कोहे विसेसाहियाणि, मायाए विसेसाहियाणि, लोभे विसेसाहियाणि । एदाणि सव्वाण समुदिदाणि सग-सगकसायपडिबद्धाणि भावोवजोगवग्गणाओ णाम; तिव्वमदादिभावणिबधणत्तादो न्ति । जयघ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० कसाय पाहुड सुत्त [ ७ उपयोग-अर्थाधिकार १८३. चउत्थीए गाहाए विहासा । एक दु अणुभागे एककसायम्मि एककालेण । उवजुत्ता का च गढ़ी विसरिसङ्घव जुजदे का च ॥ त्ति १८४. एदं सव्वं पुच्छासुतं । १८५ एत्थ विहासाए दोणि उवएसा । १८६. एक्केण उवएसेण' जो कसायो सो अणुभागो । १८७. कोधो कोधाणुभागो । १८८. एवं माण- माया लोभाणं । १८९. तदो का च गदी एगसमएण एगकसायोवजुत्ता वा दुकसायोवजुत्ता वा तिकसायोवजुत्ता वा चदुकसायो जुत्ता वा चि एदं पुच्छासुतं । १९० तदो दिरिसणं । १९१. तं जहा । १९२. णिरय- देवगदीणमेदे वियप्पा अस्थि, सेसाओ गदीओ णियमा चदुकसायोवजुत्ताओ । चूर्णिसू० ० - अब चौथी गाथाकी अर्थविभाषा की जाती है " एक कपाय- सम्बन्धी एक अनुभागमे और एक ही कालमे कौन गति उपयुक्त होती है, अथवा कौन गतिविसदृश अर्थात् विपरीत-क्रम से उपयुक्त होती है ।" यह समस्त गाथा पृच्छसूत्र है । इस गाथाकी अर्थविभाषामें दो उपदेश पाये जाते है । एक अर्थात् अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार जो कपाय है, वही अनुभाग है । अतएव जो क्रोधकषाय है वही क्रोधानुभाग है । इसी प्रकार से जो मानकपाय है, वही मानानुभाग है । जो मायाकपाय है, वही मायानुभाग है और जो लोभकषाय है, वही लोभानुभाग है । इसलिए कौन गति एक समयमे एक कषायसे उपयुक्त है, अथवा कौन गति एक समयमें दो कषायोसे उपयुक्त है, अथवा तीन कषायोसे उपयुक्त है, अथवा चार कषायोसे उपयुक्त है ? इस प्रकार यह सर्व पृच्छासूत्र है ॥१८३-१८९॥ विशेषार्थ - कौन गति एक समयमे एक कषायसे उपयुक्त है, यह प्रथम पृच्छा है और कौन गति दो, तीन अथवा चार कपायोसे उपयुक्त है, यह द्वितीय पृच्छा है । जो कि 'कौन गति विसदृश क्रमसे उपयुक्त होती है, इस अन्तिम चरण से उत्पन्न हुई है । चूर्णि सू० ० - अब इन दोनो पृच्छाओके अनन्तर उनका निदर्शन अर्थात् निर्णय करते है । वह इस प्रकार है- नरकगति और देवगतिमे ये उपर्युक्त विकल्प होते हैं । किन्तु शेप दोनों गतियाँ नियमसे चारो कपार्यो से उपयुक्त होती हैं ॥। १९०-१९२ ॥ विशेषार्थ -- - नरक और देवगतिमे एक कपायसे उपयुक्त, अथवा दो कपायसे उपयुक्त, अथवा तीन कषायसे उपयुक्त, अथवा चारो कपायोसे उपयुक्त जीव पाये जाते हैं । इसका कारण यह है कि नरकगतिमे क्रोधकपायसे उपयुक्त जीवराशि कालकी अधिकता से सबसे अधिक पाई जाती है । इसी प्रकार देवगतिमे भी लोभकपायसे उपयुक्त जीवरात्रि सबसे अधिक पाई जाती है । इसलिए इन दोनो गतियोंमें एक कपायसे उपयुक्त विकल्प पाया जाता है । I १ एक्केण उवएसेण अपवाइज तेणुवएसेणेत्ति वृत्त होइ । जयध० Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ गा०६९) गत्यपेक्षया कषायोपयोग-निरूपण १९३. णिरयगईए जइ एक्को कसायो, णियमा कोहो । १९४. जदि दुकसायो, कोहेण सह अण्णदरो दुसंजोगो । १९५. जदि तिकसायो, कोहेण सह अण्णदरो तिसंजोगो । १९६. जदि चउकसायो सव्वे चेव कसाया । १९७. जहा णिरयगदीए कोहेण, तहा देवगदीए लोभेण कायव्वा । १९८. एक्केण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहासा समत्ता भवदि। १९९. पवाइजतेण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहासा । २००. 'एक्कम्मि दु अणुभागे' त्ति, जं कसाय-उदयट्ठाणं सो अणुभागो णाय ? २०१. 'एगकालेणेत्ति' कसायोवजोगट्टाणेत्ति भणिदं होदि । २०२. एसा सण्णा । २०३. तदो पुच्छा। २०४. का च गदी एक्कम्हि कसाय-उदयट्ठाणे एक्कम्हि वा कसायुवजोगहाणे भवे ? तथा उस एक कषायके साथ यथासम्भव मान, माया आदि कषायोक पाये जानेसे दो, तीन और चारों कषायोंसे उपयुक्त जीव पाये जाते है । किन्तु शेष तिर्यंच और मनुष्यगतिमे चारो कपायोसे उपयुक्त ही जीवराशि ध्रुवरूपसे पाई जाती है, इसलिये उनमें शेष विकल्प सम्भव नहीं हैं। चूर्णिसू०-नरकगतिमे यदि एक कषाय हो, तो वह नियमसे क्रोधकपाय होती है। यदि दो कषाय हों, तो क्रोधके साथ शेष कपायोमेसे कोई एक कपाय संयुक्तरूपसे रहती है। जैसे-क्रोध और मान, क्रोध और माया, अथवा क्रोध और लोभ । यदि तीन कपाय हो, तो क्रोधके साथ शेप कषायोमेंसे कोई दो कपाय रहेगी । जैसे क्रोध-सान, माया, अथवा क्रोध, मान, लोभ, अथवा क्रोध माया और लोभ । यदि चारो कपाय हो, तो क्रोध, मान, माया और लोभ ये सभी कपाय रहेगी ॥१९४-१६४॥ चूर्णिसू०-जिस प्रकार नरकगतिमे क्रोधके साथ शेष विकल्पोका निर्णय किया है, उसी प्रकार देवगतिमें लोभकपायके साथ शेष विकल्पोका निर्णय करना चाहिए। इसप्रकार एक अर्थात् अप्रवाह्यमान उपदेशसे चौथी गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है ॥१९७-१९८॥ __चूर्णिसू०-अव प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार चौथी गाथाकी अर्थविभापा की जाती है 'एक अनुभागमें' ऐसा कहनेपर जो कपाय-उदयस्थान है, उसीका नाम अनुभाग है ॥२०॥ विशेषार्थ-अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार 'जो कषाय है, वही अनुभाग है' इस प्रकार व्याख्यान किया था। किन्तु प्रवाह्यमान उपदेशानुसार 'जो कपायोके उदयस्थान हैं, वह अनुभाग है, ऐसा अर्थ समझना चाहिए । । चूर्णिसू०-'एक कालसे' इस पदका अर्थ कपायोपयोग कालस्थान इतना लेना चाहिए। यह संज्ञा है। अर्थात् अनुभाग यह संज्ञा कषायोपयोगकालस्थानकी जानना चाहिए । इसलिए इस संज्ञा-विशेपका आलम्बन लेकर गाथासूत्रानुसार पृच्छा करना चाहिए ॥२०१-२०३॥ चूर्णिसू०-एक कषाय-उदयस्थानमे अथवा एक कषाययोगकालस्थानमे कौन गति Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार २०५. अधवा अणेगेसु कसाय-उदयहाणेसु अणेगेसु वा कसाय-उवजोगद्धट्ठाणेसु । २०६. एसा पुच्छा । २०७ अयं णिहसो। २०८. तसा एक्शेक्कम्मि कसायुदयट्ठाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागो । २०९. कसाय-उवजागट्ठाणेसु पुण उक्कस्सेण असंखेज्जाओ सेडीओ। २१०. एवं भणिदं होइ सब्बामओ गदीओ णियमा अणेगेसु कसायुदयहाणेसु अणेगेसु च कसायउवजोगद्धट्ठाणेसु त्ति । २११. तदो एवं परूवणं कादण णवहिं पदेहि अप्पाबहुअं । २१२. तं जहा । २१३. उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा थोवा । २१४. उपयुक्त होती है, अथवा अनेक कपाय-उदयस्थानामे और अनेक कपायोपयोगकालस्थानोमें कौन गति उपयुक्त होती है ? यह पृच्छा है। उसके निर्णय करनेके लिये अब यह निर्देश किया जाता है । वह इस प्रकार है-एक एक कपायके उदयस्थानमे त्रसकायिक जीव उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं ॥२०४-२०८॥ विशेषार्थ-यहॉपर 'एक कपाय-उदयस्थानमे कौन गति उपयुक्त है' इस पृच्छाका निर्णय त्रसजीवोके आश्रयसे किया जा रहा है । जिसका अभिप्राय यह है कि यदि आवलीके असंख्यात भागमात्र त्रसजीवोका एक कपाय-उदयस्थान पाया जाता है, तो जगत्प्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रसजीवराशिके भीतर कितने कषाय-उदय-स्थान प्राप्त होगे ? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर असंख्यात जगच्छणीप्रमाण कपाय-उदयस्थान उपलब्ध होते हैं । यद्यपि सभी कपायोदयस्थानोमे त्रसजीवोका अवस्थान सशरूपसे सम्भव नहीं है, तो भी समीकरण करनेके लिए इस प्रकारसे त्रैराशिक किया गया है। चूर्णिसू०-किन्तु एक एक कपायके उपयोगकाल स्थानमें उत्कर्पसे असंख्यात जगच्छणी प्रमाण सजीव रहते हैं । इस प्रकार उपयुक्त व्याख्यानसे यह अर्थ निकलता है कि सभी गतिवाले जीव नियमसे अनेक कषाय-उदयस्थानोमे और अनेक कपायोपयोग-कालस्थानोमें उपयुक्त रहते हैं ॥२०९-२१०॥ चूर्णिसू०-इस प्रकार गाथाके अर्थका प्ररूपण करके अब गाथासे सृचित अल्पबहुत्वको नौ पदोके द्वारा कहते हैं। वह अल्पवहुत्व इस प्रकार है-उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमें और उत्कृष्ट मानकपायोपयोगकालमे जीव सबसे कम होते हैं । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमें १ काणि ताणि णव पदाणि ? माणादीणमेक्केकरस कसायस्स जहण्णुक्कस्साजण्णाणुकस्सभेयभिष्णकसायुदयछाणपडिबद्धाण तिण्ह पदाण कसायोवजोगवाटाणेहि तहा चेव तिहाविहत्तहिं सजोगेण समुप्पप्णाणि णव पदाणि होति । जयध० २ उक्कत्सकसायोदयट्ठाण णाम उक्तस्साणुभागोदयजणिदो म्सायपरिणामो असंखेजलोयभेय भिण्णाणमझवसाणट्ठाणाणं चरिमझवसाणट्ठाणमिदि वुत्त होदि । उकस्मियाए माणीवजोगदाए त्ति वुत्ते माणकसायरस उकत्सकालोवजोगवग्गणाए गण कायव । तदो एदेहिं दोहि उत्सपदहि माण कसायपडिवहिं अण्णोष्णसजुत्तेहि परिणदा तसजीवा योवा ति उत्तत्यमव धो । वृदो?xx दोप्द पि उधारसमावेण परिणमताण लाणमुवएसादो | जयघ० Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५८३ गा० ६९ ] कषायोपयोग काल-अल्पबहुत्व-निरूपण जहण्णियाए माणोवजोगवाए जीवा असंखेज्जगुणा । २१५. अणुक्कस्समजहण्णासु माणोवजोगद्वासु जीवा असंखेज्जगुणा । २१६. जहण्णए कसायुदयट्टाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगवाए जीवा असंखेज्जगुणा । २१७. जहण्णियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेज्जगुणा । २१८. अणुक्कस्समजहण्णालु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेज्जगुणा । २१९. अणुक्क समजणेसु अणुभागट्ठाणेसु उक्कस्सियाए माणोवजोगाए जीवा असंखेज्जगुणा । २२०. जहणियाए माणोवजोगवाए जीवा असंखेज्जगुणा । २२१. अणुक्क समजण्णासु माणोवजोग द्धासु जीवा असंखेज्जगुणा । २२२. एवं सेसाणं कसायाणं। २२३. एत्तो छत्तीसपदेहि अप्पाबहुअं कायन्वं । और जघन्य मानकषायोपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे उत्कृष्ट कषायो - दयस्थानमें और अनुत्कृष्ट- अजघन्य मानकषायोपयोगकालमें जीव उपयुक्त पदसे असंख्यात - गुणित होते है । इससे जवन्य कषायोदयस्थानमे और उत्कृष्ट मानकषायोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे जघन्य कपायोदयस्थानमे और जघन्य मानकपायोपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे जघन्य कषायोदयस्थानमे और अनुत्कृष्ट- अजघन्य मानकषायोपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे अनुत्कृष्ट - अजघन्य अनुभागस्थानमें और उत्कृष्ट मानकषायोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे अनुत्कृष्टअजवन्य अनुभागस्थानमे और जघन्य मानकषायोपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते हैं । इससे अनुत्कृष्ट अजघन्य अनुभागस्थानमे और अनुत्कृष्ट- अजघन्य मानकषायोपयोगकालमें जीव असख्यातगुणित होते हैं ।। २११-२२१॥ 1 O चूर्णि सू० - जिस प्रकार से उपर्युक्त नौ पदोके द्वारा मानकषायोपयोगसे परिणत जीवों का निर्णय किया गया है, उसी प्रकारसे क्रोध माया और लोभ, इन शेप तीन कपायो - पयोगोसे परिणत जीवो के अल्पबहुत्वका भी निर्णय करना चाहिए ॥ २२२॥ चूर्णि स्०[0- अब इससे आगे इसी उपयुक्त स्वस्थानपदसम्बन्धी अल्पबहुत्वसे परस्थानपदसम्बन्धी अल्पबहुत्व भी छत्तीस पदोके द्वारा सिद्ध करना चाहिए ॥ २२३ ॥ विशेषार्थ - वह छत्तीस पदगत अल्पबहुत्व इसप्रकार है - उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमे और उत्कृष्ट मानोपयोगकालमे उपयुक्त जीव सबसे कम होते है । इससे उत्कृष्ट कपायो - दयस्थानमे और उत्कृष्ट क्रोधोपयोगकालसे परिणत जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे उत्कृष्ट कषायोदयस्थानमे उत्कृष्ट माया- कषायके उपयोगकालसे परिणत जीव विशेष अधिक होते है । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमें उत्कृष्ट लोभकषायके उपयोगकालसे परिणत जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे उत्कृष्ट कषायोदयस्थानमें जघन्य मानक पायके उपयोगकाल से परिणत जीव असंख्यातगुणित होते हैं । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमे जघन्य क्रोधो - पयोगकालसे परिणत जीव विशेष अधिक होते है । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थान में जघन्य मायाकपा के उपयोगकालसे परिणत जीव विशेष अधिक होते है । इससे उत्कृष्ट कपायोदय Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ उपयोग अर्थाधिकार स्थानमें जघन्य लोभकषायके उपयोगकालसे परिणत जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमें अजघन्य - अनुत्कृष्ट मानकषायके उपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थानम और अजघन्य- अनुत्कृष्ट क्रोधकषायके उपयोग कालमे जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमे और अजघन्य- अनुत्कृष्ट मायाकषायके उपयोग कालमे जीव विशेष अधिक होते है । इससे उत्कृष्ट कपायोदयस्थानमें और अजघन्य - अनुत्कृष्ट लोभकपायके उपयोगकालमे जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे जघन्य कपायोदयस्थानमे और उत्कृष्ट मानकषायके उपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते हैं । इससे, जघन्य कषायोदयस्थान में और उत्कृष्ट क्रोधकपायके उपयोगकालमे जीव विशेष अधिक होते है । इससे, जघन्य कपायोदयस्थानमें और उत्कृष्ट मायाकपाय के उपयोगकालमे जीव विशेष अधिक होते है । इससे जघन्य कपायोदयस्थान में और उत्कृष्ट लोभकपा के उपयोग कालमे जीव विशेष अधिक होते । इससे जघन्य कपायोदयस्थानमे और जघन्य मानकपायके उपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे जघन्य कषायोदयस्थानमे और जघन्य क्रोधकपायके उपयोगकाल में जीव विशेष अधिक होते हैं इससे जघन्य कषायोदयस्थानमें और जघन्य मायाकपायके उपयोगकाल में जीव विशेष अधिक होते है । इससे जघन्य कपायोदयस्थानमें और जघन्य लोभकपायके उपयोगकालमें जीव विशेष अधिक होते है । इससे जघन्य कपायोदयस्थानसे और अजघन्य - अनुत्कृष्ट मानकपायके उपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणित होते है । इससे जघन्य कपायोदयस्थान में और अजघन्य - अनुत्कृष्ट क्रोधकपायके उपयोगकालमे जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे जघन्य कपायोदयस्थानमें और अजवन्य- अनुत्कृष्ट मायाकपायके उपयोगकालमे जीव विशेष अधिक होते है । इससे जघन्य कषायोदयस्थानमे और अजघन्य - अनुत्कृष्ट लोभकपाय के उपयोगकालमें जीव विशेप अधिक होते हैं । इससे अजघन्य- अनुत्कृष्ट कपायोदयस्थान में और उत्कृष्ट मानकपायके उपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणित होते हैं । इससे अजघन्यअनुत्कृष्ट कषायोदयस्थानमे और उत्कृष्ट क्रोधकपायके उपयोगकालमें जीव विशेष अधिक होते है। इससे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कपायोदयस्थानमे और उत्कृष्ट मायाकपायके उपयोगकालमें जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे अजघन्य - अनुत्कृष्ट कपायोदयस्थान में और उत्कृष्ट लोभकपायके उपयोगकालमे जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे अजघन्य - अनुत्कृष्ट कपायो - दयस्थानमें और जघन्य मानकपायके उपयोगकालमे जीव असंख्यातगुणित होते हैं । इससे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषायोदयस्थान में और जघन्य क्रोधकषायके उपयोगकालमें जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे अजघन्य - अनुत्कृष्ट कपायोदयस्थानमें और जघन्य मायाकपा के उपयोगकालमें जीव विशेष अधिक होते हैं । इससे अजघन्य - अनुत्कृष्ट कपायोदयस्थान में और जघन्य लोभकपायके उपयोगकालमें जीव विशेष अधिक होते हैं। इससे अजघन्यअनुत्कृष्ट कपायोदयस्थानमे और अजघन्य- अनुत्कृष्ट मानकपास के उपयोगकालमें जीव असंख्यात ५८४ कसाय पाहुड सुत्त Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९] अष्ट-अनुयोगद्वारापेक्षया कषायोपयोग-निरूपण २२४. एवं चउत्थीए गाहाए विहासा समत्ता। २२५. 'केवडिगा उवजुत्तासरिसीसु च वग्गणाकसाएसु' चेति एदिस्से गाहाए अत्थविहासा । २२६. एसा गाहा सूचणासुत्तं । २२७. एदीए सूचिदाणि अट्ठ अणिओगद्दाराणि । २२८. तं जहा । २२९. संतपरूवणा, दव्वपमाणं खेत्तपमाणं फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुअं च । २३०. 'केवडिगा उवजुत्ता' त्ति दव्वपमाणाणुगमो । २३१. 'सरिसीसु च वग्गणाकसाएसु' त्ति कालाणुगमो । २३२. 'केवडिगा च कमाए' त्ति भागाभागो । २३३. के के च विसिस्सदे केणेत्ति' अप्पाबहुअं। २३४. एवमेदाणि चत्तारि अणिओगदाराणि सुत्तणिबद्धाणि । २३५. सेसाणि सूचणाणुमाणेण कायवाणि । गुणित होते है । इससे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषायोदयस्थानमे और अजघन्य-अनुत्कृष्ट क्रोधकषायके उपयोगकालमे जीव विशेष अधिक होते हैं। इससे अजवन्य-अनुत्कृष्ट कपायोदयस्थानमें और अजघन्य-अनुत्कृष्ट मायाकषायके उपयोगकालसे जीव विशेष अधिक होते है । इससे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषायोदयस्थानमे और अजघन्य-अनुत्कृष्ट लोसकपायके उपयोगकालमें जीव विशेष अधिक होते है। इस प्रकारसे ओघकी अपेक्षा परस्थानपद-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका निरूपण किया । चूर्णिसू०--इस प्रकार चौथी सूत्रगाथाकी अर्थविभापा समाप्त हुई ॥२२४॥ चूर्णिसू०-अब 'सदृश कषायोपयोग-वर्गणाओमे कितने जीव उपयुक्त है' इस पॉचवीं गाथाकी अर्थविभापा कहते हैं। यह गाथा सूचनासूत्र है, क्योकि, इस गाथासे आठ अनुयोगद्वार सूचित किये गये हैं । वे आठ अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं-सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणाणुगम, क्षेत्रप्रमाणाणुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । 'कितने जीव उपयुक्त हैं', गाथाके इस प्रथम चरणसे द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अनुयोगद्वार सूचित किया गया है। 'सदृश अर्थात् एक कपायसे प्रतिबद्ध कपायोपयोगवर्गणाओमें जीव कितने काल तक उपयुक्त रहते है' गाथाके इस द्वितीय चरणसे कालानुगम नामक अनुयोगद्वार सूचित किया गया है। 'किस कषायमें कषायोपयुक्त सर्व जीवोका कितनेवां भाग उपयुक्त है' गाथाके इस तृतीय चरणसे भागाभागानुगम नामक' अनुयोगद्वार सूचित किया गया है । 'किस-किस विवक्षित कपायसे उपयुक्त जीव किस अविवक्षित कषायसे उपयुक्त जीवोसे विशिष्ट अधिक होते हैं' गाथाके इस अन्तिम चरणसे अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार सूचित किया गया है। इसप्रकार द्रव्यप्रमाणानुगम, कालानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व, ये चार अनुयोगद्वार तो गाथासूत्रमें ही निबद्ध है । शेप अर्थात् सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम और अन्तरानुगम ये चार अनुयोगद्वार सूचनारूप अनुमानसे ग्रहण करना चाहिए ॥२२५-२३५॥ ७४ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुप्त [ ७ उपयोग अर्थाधिकार २३६. कमायो जुत्ते अट्ठहिं अणि ओगद्दारेहिं गदि -इ दिय-काय जोग - वेद-णाणसंजम दंसण लेस्म-भविय सम्मत्त-सण्णि आहारा त्ति एदेसु तेरससु अणुगमेषु मग्गियूण | २३७. महादंडयं च काढूण समत्ता पंचमी गाहा । ५८६ चूर्णि सू० - उक्त आठो अनुयोगद्वारोसे कषायोपयुक्त जीबोका गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार, इन तेरह मार्गणास्थानरूप अनुगमोके द्वारा अन्वेषण करके और पुनः चतुर्गति-सम्बन्धी अल्पबहुत्वविषयक महादंडकका निरूपण करनेपर पॉचवी गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है ।।२३६-२३७॥ विशेषार्थ उक्त समर्पणसूत्र से चूर्णिकारने प्रथम गति आदि सर्व मार्गणास्थानोमें सत्प्ररूपणा आदि आठो अनुयोगद्वारोसे क्रोधादि कपायोपयुक्त जीवोके अन्वेषण करनेकी सूचना की है । पुनः गति, इन्द्रिय आदि मार्गणा - विषयक कपायोपयुक्त जीवोके अल्पबहुत्व के निरूपणकी सूचना की है । इस अल्पबहुत्वदंडकको महादंडक कहनेका कारण यह है कि जिस प्रकार चारो कषायोसे उपयुक्त जीवोका गतिमार्गणा - सम्बन्धी एक अल्पबहुत्व-दंडक होगा, उसी प्रकार, इन्द्रियमार्गणा-सम्बन्धी भी दूसरा अल्पबहुत्व - दंडक होगा, काय मार्गगासम्बन्धी तीसरा अल्पबहुत्व - दंडक होगा । इस प्रकार सर्व मार्गणाओके अल्पबहुत्वदंडको के समुदायरूप इस अल्पबहुत्वदंडकको 'महादंडक' इस नामसे सूचित किया है । इस महादंडककी दिशा बतलानेके लिए यहॉपर गतिमार्गणा - सम्वन्धी अल्पबहुत्व - दंडक का निरूपण किया जाता है - मनुष्यगति में मानकपायसे उपयुक्त जीव सबसे कम हैं, क्रोधकषायसे उपयुक्त जीव विशेष अधिक है, मायाकषायसे उपयुक्त जीव विशेष अधिक है, और लोभकपायसे उपयुक्त जीव विशेष अधिक है | मनुष्यगतिके लोभकषायोपयुक्त जीवोसे नरकगतिमे लोभकषायोपयुक्त जीव असंख्यातगुणित है, मायाकपायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं, मानकपायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित है और क्रोधकषायोपयुक्त जीव संख्गतगुणित हैं । नरकगति के क्रोधकषायोपयुक्त जीवोसे देवगतिमें क्रोधकषायोपयुक्त जीव असंख्यातगुणित है, मानकषायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं, मायाकषायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं और लोभकपायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं । देवगति के लोभकषायोपयुक्त जीवोसे तिर्यग्गति के मानकपायोपयुक्त जीव अनन्तगुणित है । क्रोधकपायोपयुक्त जीव विशेष अधिक हैं, मायाकपायोपयुक्त जीव विशेष अधिक हैं और लोभकषायोपयुक्त जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार इन्द्रिय, काय, आदि शेष मार्गणाओकी अपेक्षा पृथक् पृथक् अल्पबहुत्व - दंडक के द्वारा चारों कपायोंसे उपयुक्त जीवोके अल्पबहुत्वका निर्णय करना चाहिए, ऐसा उक्त समर्पणसूत्रका अभिप्राय है । 1 ् ताम्रपत्रबाली प्रतिर्मे-‘एदेसु तेरससु अणुगमेसु मग्गियुग' इतने सूत्राशको टीकाम सम्मिलित कर दिया है ( देखो पृ० १६४९ ) । परन्तु इस सूत्र टीकासे ही उक्त अग्रके सुत्रता सिद्ध होती है । Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८७ गा० ६९] कषायोपयोग त्रिविध-काल-निरूपण २३८.'जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुब्बा ते' त्ति एदिस्से छट्ठीए गाहाए कालजोणी कायव्वा । २३९ तं जहा । २४०. जे अस्सि समए माणोवजुत्ता, तेसिं तीदे काले माणकालो णोमाणकालो मिस्सयकालो इदि एवं तिविहो कालो। २४१. कोहे च तिविहो कालो । २४२. मायाए तिविहो कालो । २४३. लोभे तिविहो कालो । २४४ एवमेसो कालो माणोवजुत्ताणं बारसविहो। चूर्णिसू०- 'जो जो जीव जिस कषायमें वर्तमानकालमें उपयुक्त हैं, क्या वे जीव अतीतकालमें उसी कषायसे उपयुक्त थे' इस छठी गाथाकी काल-योनि अर्थात् काल-मूलक प्ररूपणा करना चाहिए । वह काल-मूलक प्ररूपणा इस प्रकार है-जो जीव इस वर्तमान-समयमें मानकपायसे उपयुक्त हैं, उनका अतीतकालमें मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल, इस प्रकारसे तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ है ॥२३८-२४०॥ विशेपार्थ-जिस कालविशेषमे विवक्षित वर्तमानकालिक मानकषायोपयुक्त समस्त जीवराशि एकमात्र मानकषायोपयोगसे ही परिणत पाई जाती है, उस कालको 'मानकाल कहते हैं । इसी विवक्षित जीवराशिमेसे जिस काल विशेषमें एक भी जीव मानकपायमें उपयुक्त न होकर क्रोध, माया और लोभकषायोमें ही यथाविभाग परिणत हो, उस कालको 'नोमानकाल' कहते है । इसका कारण यह है कि विवक्षित मानकषायके अतिरिक्त शेष कषाय 'नोमान' इस नामसे व्यवहृत किये जाते है । पुनः इसी विवक्षित जीवराशिमेसे जिस कालमें थोड़ी जीवराशि मानकषायसे उपयुक्त हो और थोड़ी जीवराशि क्रोध, माया अथवा लोभकषायमें यथासंभव उपयुक्त होकर परिणत हो, उस कालको 'मिश्रकाल' कहते हैं। मानकषायसे उपयुक्त जीवोंका उक्त तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ है। चूर्णि सू०-क्रोधकपायमें तीन प्रकारका काल होता है । मायाकषायमें तीन प्रकारका काल होता है । लोभकषायमे तीन प्रकारका काल होता है । इस प्रकार मानकषायसे उपयुक्त जीवोका यह काल बारह प्रकारका है ।। २४१-२४४॥ विशेषार्थ-ऊपर जिस प्रकार वर्तमान समयमें मानकषायोपयुक्त जीवराशिका अतीतकालमें मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल, यह तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ बतलाया गया है, उसी प्रकारसे उसी मानकषायसे उपयुक्त जीवराशिका अतीत कालमे क्रोधकषायसम्बन्धी क्रोधकाल, नोक्रोधकाल और मिश्रकाल यह तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ १ कालो चेव जोणी आसयो पयदपरूवणाए कायन्वो त्ति वुत्त होइ । जयध० २ तत्थ जम्मि कालविसेसे एमो आदिट्ठो (विवक्खिदो ) वट्टमाणसमयमागोवजुत्तजीवरासी अणूणाहिओ होदूण माणोवजागेणेव परिणदो लन्मइ, सा माणकालो त्ति भण्णइ । एमा चेव गिरुद्ध जीवरामी जम्मि कालविससे एगो वि माणे अहोदूण कोह-माया लोभेसु चेव जहा पविभाग परिणादा सो ण माणकालो त्ति भण्णदे, माणवदिरित्तसकमायाण णोमाणववएसा रहतेणावलवणादो। पुणो हमो चेव णिरुद्धजीवरासी जम्मि काले थावो माणोवजुत्तो, थोवो कोह-माया लाभेसु जहासभवमुवजुत्तो होदूण परेणदो दिट्दो, सो मिस्सयकालो णाम | जयध० Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड खुत्त [ ७ उपयोग अर्थाधिकार २४५. असि समए कोहोबजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो णत्थि, गोमाणकालो मिस्सकालो य । २४६. अवसे साणं णवविहो कालो । २४७. एवं कोहोवजुत्ताकारसविहो कालो विदितो । २४८. जे अस्सि समए मायोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो दुविहो, कोहकालो दुविहो, मायाकालो तिविहो, लोभकालो तिविहो । ५८८ है । उसी मानकपायसे उपयुक्त जीवराशिका अतीतकाल में मायाकपाय- सम्बन्धी मायाकाल, नोमायाकाल और मिश्रकाल, तथा लोभकपाय -सम्बन्धी लोभकाल, नोलोभकाल और मिश्रकाल, इस प्रकार से तीन तीन प्रकारका और भी काल व्यतीत हुआ है । इस प्रकार से उपयुक्त चारो कषाय-सम्बन्धी तीनो कालोके भेद मिलाकर मानकपायसे उपयुक्त जीवोका यह काल बारह प्रकारका हो जाता है । चूर्णिम् ० - जो जीव इस वर्तमान समय में क्रोधकपायसे उपयुक्त हैं, उनका अतीत कालमें मानकाल नहीं है, किन्तु नोमानकाल और मिश्रकाल, ये दो ही प्रकार के काल होते हैं ।।२४५-२४६।। J विशेषार्थ - वर्तमान समय मे क्रोधकपायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालमें मानकाल न होने का कारण यह है कि कोवकपायका काल अधिक होनेसे क्रोधकपायसे उपयुक्त जीवरागि बहुत है, किन्तु मानकायका काल अल्प होनेसे मानकवायसे उपयुक्त जीवराशि कम है । इसलिए वर्तमान समय में क्रोधरूपायसे उपयुक्त होकर यदि कोई विवक्षित जीवराशि अवस्थित है, तो अतीतकालमे एक ही समय मे वही सबकी सब जीवराशि मानकपायसे उपयुक्त होकर नहीं रह सकती है । इसलिए यहॉपर 'मानकाल नहीं है' ऐसा कहा है । नोमानकाल और मिश्रकाल होते हैं । इसका कारण यह है कि विवक्षित जीवराशिका मानव्यतिरिक्त शेष कपायोंमें अवस्थान पाये जानेसे नोमानकाल वन जाता है, तथा मान तथा मानसे भिन्न माया और लोभादि कषायोमे यथासंभव अवस्थान पाये जाने से मिश्रकाल बन जाता है । चूर्णिसू० - उन्हीं वर्तमान समयमे क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीत कालमै मानकपायके अतिरिक्त अवशेप कषायोका नौ प्रकारका काल होता है । इस प्रकार क्रोधकपायसे उपयुक्त जीवो के अतीतकालसे ग्यारह प्रकारका काल व्यतीत हुआ है ॥२४६-२४७॥ विशेषार्थ - क्रोधकाल, नोक्रोधकाल, मिश्रकाल, इस प्रकारसे प्रत्येक कषायके तीनतीन प्रकारके काल होते हैं । अतएव चारो कषायो के कालसम्बन्धी वारह भेद होते हैं । इनमें से वर्तमान समयमें क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकाल में 'मानकाल' नही होता है, इसका कारण ऊपर वतला आये है । अतः उस एक भेदको छोड़कर शेष ग्यारह भेदरूप काल क्रोधकषायसे वर्तमान समयमे उपयुक्त जीवो के अतीतकालमें व्यतीत हुआ है, ऐसा कहा है । चूर्णिसू० - जो जीव वर्तमान समयमे मायाकपाय के उपयोग से उपयुक्त है, उनके अतीतकाल में दो प्रकारका मानकाल, दो प्रकारका क्रोधकाल, तीन प्रकारका माया और तीन प्रकारका लोभकाल व्यतीत हुआ है || २४८ ॥ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८९ गा० ६९] कषायोपयोग-त्रिविध-काल-निरूपण -२४९. एवं मायोवजुत्ताणं दसविहो कालो। २५०. जे अस्सि समए लोभोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो दुविहो, कोहकालो दुविहो, मायाकालो दुविहो, लोभकालो तिविहो । २५१. एवमेसो कालो लोहोवजुनाणं णवविहो । २५२ एवमेदाणि सव्वाणि पदाणि वादालीसं भवंति । २५३. एत्तो वारस मत्थाणपदाणि गहियाणि । २५४. कधं सत्थाणपदाणि भवंति ? २५५. माणोवजुत्ताणं माणकालो णोमाणकालो मिस्सयकालो । २५६ कोहोवजुत्ताणं कोहकालो णोकोहकालो मिस्सयकालो । २५७. एवं मायोवजुत्त-लोहोवजुत्ताणं पि।। विशेषार्थ-यहॉपर मान और क्रोधकषाय-सम्बन्धी दो दो प्रकारके ही काल बतलाये गये हैं, अर्थात् मानकाल और क्रोधकालको नहीं बतलाया गया है, इसका कारण यह है कि वर्तमान समयमें मायाकषायसे उपयुक्त जीवराशिका काल मान और क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवराशिके कालसे अधिक पाया जाता है। चूणिसू०-इस प्रकार वर्तमान समयमे मायाकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालमे चारो कषायसम्बन्धी दश प्रकारका काल पाया जाता है । जो जीव वर्तमानसमयमें लोभकपायके उपयोगसे उपयुक्त हैं, उनके अतीतकालमें मानकाल दो प्रकारका, क्रोधकाल दो प्रकारका, मायाकाल दो प्रकारका और लोभकाल तीन प्रकारका पाया जाता है ॥२४९ २५०॥ विशेपार्थ-ऊपर बतलाये गये चारो कपायोके काल-सम्बन्धी बारह भेदोमेसे मानकाल, क्रोधकाल और मायाकाल, ये तीन भेद नहीं होते हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमानसमयमें लोभकपायसे उपयुक्त जीवराशिका काल क्रोध, मान और मायाकषायके कालसे अधिक है। चूर्णिसू०-इस प्रकार वर्तमानसमयमें लोभकषायसे उपयुक्त जीवोंके अतीतकालमें चारों कषायसम्बन्धी यह उपयोगका काल नौ प्रकारका होता है। इस प्रकारसे ये ऊपर बतलाये गये चारो कपायोके कालसम्बन्धी पद व्यालीस होते है ॥२५१-२५२॥ . विशेपार्थ-ऊपर मानकषायके कालसम्बन्धी बारह भेद, क्रोधकपायके ग्यारह भेद, मायाकषायके दश भेद और लोभकषायके नौ भेद बतलाये गये हैं । उन सव भेदोको मिलानेसे ( १२+११+१०+९=४२ ) व्यालीस भेद हो जाते हैं । चूर्णिसू०-इन उक्त व्यालीस भेदोमेसे वारह स्वस्थानपदोको अल्पवहुत्वके कहनेके लिए ग्रहण करना चाहिए ॥२५३॥ शंका-वे बारह स्वस्थानपद कैसे होते हैं ? ॥२५४॥ समाधान-मानकपायसे उपयुक्त जीवोंका मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल, क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवोका क्रोधकाल, नोक्रोधकाल और मिश्रकाल, इसी प्रकार मायाकपायसे उपयुक्त जीवोंका मायाकाल, नोमायाकाल और मिश्रकाल, तथा लोभकषायसे उपयुक्त जीवोका लोभकाल, नोलोभकाल और मिश्रकाल, इस प्रकार ये बारह स्वस्थानपद होते हैं ॥२५५-२५७॥ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० __ कसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग अर्थाधिकार २५८. एदेसि वारसण्हं पदाणमप्पाबहुअं । २५९. तं जहा । २६०. लोभोवजुत्ताणं लोभकालो थोवो । २६१. मायोवजुत्ताणं मायकालो अणंतगुणो। २६२. कोहोवजुत्ताणं कोहकालो अणंतगुणो । २६३. माणोवजुत्ताणं माणकालो अणंतगुणो । २६४. लोभोवजुत्ताणं णोलोभकालो अणंतगुणो । २६५. मायोवजुत्ताणं णोपायकालो अणंतगुणो । २६६. कोहोवजुत्ताणं णोकोहकालो अणंतगुणो । २६७. माणोवजुत्ताणं णोमाकालो अणंतगुणो । २६८. माणोवजुत्ताणं मिस्सयकालो अणंतगुणो । २६९. कोहोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहिओ । २७०. मायोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहिओ। २७१. लोभोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहियो । - २७२. एत्तो वादालीसपदप्पाबहुअं कायव्यं । चूर्णिसू०-अव इन बारह स्वस्थानपदोका अल्पबहुत्व कहते हैं। वह अल्पवहुत्व इस प्रकार है वर्तमानसमयमें लोभकपायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी लोभका काल सवसे कम है। वर्तमानसमयमें मायाकपायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी मायाका काल उपर्युक्त लोभकालसे अनन्तगुणा है। वर्तमानसमयमें क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी क्रोधका काल उपर्युक्त मायाकालसे अनन्तगुणा है। वर्तमानसमयमें मानकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी मानका काल उपयुक्त क्रोधकालसे अनन्तगुणा है। वर्तमानसमयमें लोभकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी नोलोभकाल उपयुक्त मानकालसे अनन्तगुणा है। वर्तमानसमयमे मायाकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्वन्धी नोमायाकाल उपर्युक्त नोलोभकालसे अनन्तगुणा है। वर्तमानसमयमें क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी नोक्रोधकाल उपर्युक्त नोमायाकालसे अनन्तगुणा है । वर्तमानसमयमें मानकपायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी नोमानकाल उपयुक्त नोक्रोधकालसे अनन्तगुणा है। वर्तमानसमयमे मानकपायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी मिश्रकाल उपयुक्त नोमानकालसे अनन्तगुणा है । वर्तमानसमयमे क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी मिश्रकाल उपर्युक्त मिश्रकालसे विशेप अधिक है। वर्तमानसमयमें मायाकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी मिश्रकाल उपर्युक्त मिश्रकालसे विशेष अधिक है । वर्तमानसमयमे लोभकपायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालसम्बन्धी मिश्रकाल उपयुक्त मिश्रकालसे विशेष अधिक है ॥२५८-२७१॥ चूर्णिसू०-इस स्वस्थानपद-सम्बन्धी अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाके पश्चात् पूर्वमें बतलाये गये व्यालीस पदोके कालसम्बन्धी अल्पबहुत्वका प्ररूपण करना चाहिए ॥२७२॥ विशेपार्थ-इस सूत्रकी टीका करते हुए जयधवलाकार लिखते हैं कि आज वर्तमान १ एत्तो वादालीसपदणिबद्ध परत्थाणप्याबहुअ पि चिंतिय णेदव्वमिदि वुत्त होइ । त पुण वादालीसपदमप्पाबहुअ संपहियकाले विसिट्ठोवएसाभावादो ण सम्मवगम्मदि त्ति ण तविवरणं कीरदे । जयध° Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९] कषायोपयोग-वर्गणा-विरहिताविरहित-स्थान-निरूपण ५९१ २७३. तदो छट्ठी गाहा समत्ता भवदि । २७४. 'उचजोगवग्गणाहि य अविरहिदं काहि विरहियं वा वि' त्ति एदम्मि अद्धे एको अत्थो, विदिये अद्ध एको अत्थो, एवं दो अत्था । __२७५. पुरिमद्धस्स विहासा । २७६. एत्थ दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ कसायउदयट्ठाणाणि च उवजोगद्धट्ठाणाणि च । २७७. एदाणि दुविहाणि वि द्वाणाणि उवजोगवग्गणाओं त्ति वुचंति । २७८. उवजोगद्धट्ठाणेहि ताव केत्तिएहिं विरहिदं, केहि कालमे विशिष्ट उपदेशका अभाव होनेसे वह व्यालीस पद-सम्बन्धी अल्पबहुत्व सम्यक् ज्ञात नहीं है, इसीलिए उसका प्ररूपण नहीं किया गया है। चर्णिसू०-इस प्रकार छठी गाथाकी अर्थ विभापा समाप्त हुई ॥२७३॥ चूर्णिसू०-'कितनी उपयोग-वर्गणाओंसे कौन स्थान अविरहित पाया जाता है, और कौन स्थान विरहित' ? इस गाथाके पूर्वार्धमे एक अर्थ कहा गया है और गाथाके उत्तरार्धमे एक अर्थ । इस प्रकार इस गाथामे दो अर्थ सम्बद्ध है ॥२७४॥ विशेषार्थ-गाथाके पूर्वार्धमें दो प्रकारकी वर्गणाओको लेकर उनमे जीवोसे रहित अथवा भरित ( सहित ) स्थानोकी प्ररूपणा करनेवाला प्रथम अर्थ निवद्ध है । तथा गाथाके उत्तरार्धमें कषायोपयुक्त जीवोकी गतियोंका आश्रय लेकर तीन प्रकारकी श्रेणियोका अल्पबहुत्व सूचित किया गया है । यह दूसरा अर्थ है । इस प्रकारसे इस गाथामे दो अर्थ सम्बद्ध हैं, ऐसा कहा गया है। उपयोग-वर्गणास्थानोंका तथा तीनो प्रकारकी श्रेणियोका वर्णन आगे चूर्णिकार स्वयं करेंगे। चूर्णिसू०-अब इस गाथासूत्रके पूर्वार्धकी अर्थविभाषा की जाती है-इस गाथामें कही गई उपयोगवर्गणाएँ दो प्रकारकी होती हैं-कषायोदयस्थान रूप और उपयोगकाल-स्थान रूप ॥२७५.२७६॥ विशेषार्थ-क्रोधादि प्रत्येक कषायके जो असंख्यात लोकोके प्रदेश-प्रमाण उदयअनुभाग-सम्बन्धी विकल्प हैं, उन्हे कपायोदय-स्थान कहते हैं । क्रोधादि प्रत्येक कषायके जो जधन्य उपयोगकालसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगकाल तकके भेद हैं, उन्हे उपयोगकाल-स्थान कहते हैं। चूर्णिसू०-इन दोनो ही प्रकारके स्थानोको 'उपयोगवर्गणा' इस नामसे कहते हैं ॥२७॥ शंका-किन जीवोसे किस गतिमें अविच्छिन्नरूपसे उपयोगकालस्थानोंके द्वारा कौन स्थान विरहित अर्थात् शुन्य पाया जाता है, और कौन स्थान अविरहित अर्थात् परिपूर्ण पाया जाता है ? ॥२७८॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'उवजोगद्धवाणेहि' के स्थानपर 'उवजोगहाणणि' ऐसा पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १६५८) पर वह इसी सूत्रकी टीकाके अनुसार अशुद्ध है। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ कसाय पाछुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार कम्हि अविरहिदं ? २७९. एत्थ मग्गणा । २८०. णिरयगदीए एगस्स जीवस्स कोहोवजोगद्धहाणेसु णाणाजीवाणं जवमज्झं । २८१. तं जहा ठाणाणं संखेज्जदिभागे २८२. एगगुणवड्डि-हाणिहाणतरमावलियचग्गमूलस्स' असंखेज्जदिभागो । . २८३. हेटा जबमज्झस्स सव्वाणि गुणहाणि-हाणंतराणि आवुण्णाणि सदा । २८४. सव्व-अहाणाणं पुण असंखेज्ज भागा आवुण्णा । २८५. उवरिम-जवमज्झस्स जहण्णेण गुणहाणिहाणंतराणं संखेजदिभागो आयुण्णा । उक्करसेण सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आधुण्णाणि । २८६ जहण्णेण अट्ठाणाणं संखेज्जदिभागो आवुण्णो । उक्कस्सेण अद्धट्ठाणाणमसंखेज्जा भागा आउण्णा। २८७.एसो उपएमो पवाइज्जइ । २८८. अण्णो उवदंसो सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि अविरहियाणि जीवेहि उवजोगद्धट्ठाणाण __समाधान-इस शंका उत्तरस्वरूप आगे कहे जानेवाली मार्गणा की जाती है। नरकगतिमे एक जीवके क्रोधसम्बन्धी उपयोग-अद्धास्थानोमें नानाजीवोकी अपेक्षा यवमध्य होता है । वह यवमध्य सम्पूर्ण उपयोग-अद्धास्थानोके संख्यातवे भागमें होता है । यवमध्यके ऊपर और नीचे एक गुणवृद्धि और एक गुणहानिरूप स्थान आवलीके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। चूर्णिसू०-यवमध्यके अधस्तनवर्ती सर्व गुणहानिस्थानान्तर ( कषायोदय-स्थान ) आपूर्ण हैं, अर्थात् जीवोसे भरे हुए है । किन्तु सर्व-अद्धास्थानो अर्थात् उपयोगकाल स्थानोका असंख्यात बहुभाग ही आपूर्ण है । अर्थात् उपयोगकाल-स्थानोका असंख्यात एक भाग जीवोसे शून्य पाया जाता है। यवमध्यके ऊपरवाले गुणहानिस्थानान्तरोंका जघन्यसे संख्यातवॉ भाग जीवोसे परिपूर्ण है और उत्कर्षसे सर्वगुणहानिस्थानान्तर जीवोसे परिपूर्ण हैं । जघन्यसे यवमध्यके उपरिम उपयोगकालस्थानोका संख्यातवाँ भाग जीवोंसे परिपूर्ण है और उत्कर्षसे अद्धास्थानोका असंख्यात बहुभाग जीवोसे आपूर्ण है ॥२७९-२८६॥ . चूर्णिम् ०-यह उपयुक्त सर्व कथन प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा किया गया है । किन्तु अप्रवाह्यमान उपदेश तो यह है कि सभी यवमध्यके अर्थात् ऊपर और नीचेके सर्व गुणहानिस्थानान्तर सर्वकाल जीवोसे परिपूर्ण ही पाये जाते है। उपयोगकाल-स्थानोका असंख्यात बहुभाग तो जीवोसे परिपूर्ण रहता है, किन्तु शेष असंख्यात एक भाग जीवोंसे विरहित पाया जाता है। इन दोनो ही उपदेशोकी अपेक्षा त्रसजीवोके कषायोदयस्थान जानना चाहिए ॥२८७-२८८॥ विशेषार्थ-ऊपर जिस प्रकार नरकगतिकी अपेक्षा कषायोदयस्थानोका निरूपण किया है, उसी प्रकार अन्य मार्गणाओकी अपेक्षा त्रसजीवोके कपायोदयस्थानोका वर्णन जानना चाहिए । इस विषयमे दोनो उपदेशोंकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। १ आवलिया णाम पमाणविसेसो, तिस्से वगमूलमिदि वुत्ते तप्पढमवग्गमूलत्स गहणं कायव्वं । . जयध __ . . . . Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६९ ] कषायोदयस्थान- यवमध्य-निरूपण ५९३ मसंखेजा भागा अविरहिदा । २८९. एदेहि देहिं उवदेसेहिं कसाय-उदयङ्काणाणि वेदव्वाणि तसाणं । २९० तं जहा । २९१. कसायुदयडाणाणि असंखेज्जा लोगा' । २९२. तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि आण्णाणि । . २९३. कसायुदट्ठाणेसु जवमज्झेण जीवा रांति । २९४ . जहण्णए कसायुदाणे तसा थोबा' । २९५ विदिए वितत्तिया चैत्र । २९६. एवमसंखेज्जेसु लोगट्ठाणेसु तत्तिया चेव । २९७. तदो पुणो अण्णम्हि ढाणे एक्को जीवो अन्महिओ । २९८६ तदो पुण असखेज्जेसु लोगेसु द्वाणे तत्तिया चेव । २९९ तदो अण्णम्हि ट्ठाणे एको जीवो अन्महिओ । ३००. एवं गंतूण उक्कस्सेण जीवा एकहि कुाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागो । चूर्णिसू० 10- वह इस प्रकार है- कपायोके उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है । उनमें जितने त्रस जीब है, उतने कषायोदयस्थान त्रस जीवोसे आपूर्ण है ।। २९० २९२॥ विशेपार्थ - असंख्यात लोकोके जितने प्रदेश है उतने त्रसजीवोके कपायोदयस्थान होते है । उनमें से एक- एक कपायोदयस्थानपर एक-एक त्रसजीव रहता है, यह अवस्था किसी काल-विशेषमे ही संभव है, क्योकि उत्कर्षसे आवली के असंख्यातवे भागमात्र ही कषायोदयस्थान बस जीवोसे भरे हुए पाये जाते हैं, ऐसा उपदेश है, यह जयधवलाकार कहते है । अतः प्रस्तुत सूत्रका ऐसा अर्थ लेना चाहिए कि सान्तर या निरन्तर क्रमसे सजीवोका जितना प्रमाण है उतने कपायोदयस्थान त्रस जीवोंसे सदा भरे हुए पाये जाते हैं । यह कथन वर्तमान कालकी अपेक्षा जानना चाहिए । अब अतीत कालकी अपेक्षासे कषायोदयस्थानोपर जीवोके अवस्थान-क्रमको बतलाने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं - चूर्णि० - अतीतकालकी अपेक्षा कपायोदयस्थानोपर त्रस जीव यवमध्यके आकार से रहते हैं । उनमे जघन्य कपायोदयस्थानपर त्रस जीव सबसे कम रहते हैं । दूसरे कषायोदयस्थानपर भी त्रस जीव उतने ही रहते है । इस प्रकार लगातार असख्यात लोकमात्र स्थानोपर जीव उतने ही रहते हैं । तदनन्तर पुनः आगे आनेवाले स्थानपर एक जीव पूर्वोक्त प्रमाणसे अधिक रहता है । तदनन्तर पुनः असंख्यात लोकप्रमाण कपायोदय-स्थानोपर इतने ही जीव रहते है । तत्पश्चात् प्राप्त होनेवाले अन्य स्थानपर एक जीव अधिक रहता है । इस प्रकार एक-एक जीव बढ़ते हुए जानेपर उत्कर्षसे एक कषायोदयस्थानपर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रस जीव पाये जाते है ॥२९३-३००॥ १ असखेजाग लोगाण जत्तिया आगासपदेसा अस्थि, तत्तियमेत्ताणि चेव कसाबुदयट्ठाणाणि होति त्ति भणिद होइ । जयध० २ कुदो ? सव्वजहणस किलेसेण परिणममाणजीवाण बहूणमणुत्रलभादो | जयध० * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'जीवहिं उचजोगद्धड्डाणामसंखेज्जा भागा अविरहिदा' इतने सूत्रांशको टीकामें सम्मिलित कर दिया है ( देखो पृ० १६६१ ) । पर इस भशकी सूत्रता टीका से ही प्रमाणित होती है । ७५ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ७ उपयोग अर्थाधिकार ३०१. जत्तिया एकम्मि ट्ठाणे उक्कस्मेण जीवा तत्तिया चेव अण्णम्हि द्वाणे । एवमसंखेज्जलो गट्ठाणि । एदेसु असंखेज्जेसु लोगेसु हाणेसु जवमज्झं । ३०२. तदो अण्ण डाणमेकेण जीवेण हीणं । ३०३. एवमसंखेज्जलोगट्टाणाणि तुल्लजीवाणि । ३०४. एवं सेसेसु विट्ठाणेसु जीवा वेदव्वा । ३०५. जण्णए कसादयद्वाणे चत्तारि जीवा, उकस्सए कसायुदयहाणे दो जीवा' । ३०६. जवमज्झ जीवा आवलियाए असंखेज्जदिभागो । ३०७. जवमज्झजीवाणं जत्तियाणि अद्धच्छेदणाणि तेसिपसंखेज्जदिभागो हेडा जवमज्झस्स गुणहाणिट्ठाणंतराणि । तेसिमसंखेज्जभागमेत्ताणि उचरि जवमन्झस्स गुणहाणिट्ठाणंतराणि । ३०८. एवं पदुपण तसाणं जवमयं । ५९४ चूर्णिसू ० - एक कषायोदयस्थानपर उत्कर्षसे जितने जीव होते हैं, उतने ही जीव दूसरे अन्य स्थानपर भी पाये जाते हैं । इस प्रकार यह क्रम असंख्यात लोकप्रमाण कषायोदयस्थानो तक चला जाता है । इन असंख्यात लोकप्रमाण स्थानपर यवमध्य होता है । तदनन्तर अन्य स्थान एक जीवसे हीन उपलब्ध होता है । इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण कषायो - दयस्थान तुल्य जीववाले होते हैं । अर्थात् उन स्थानोपर समान जीव पाये जाते हैं । इसी प्रकार शेष स्थानोपर भी जीवोका अवस्थान ले जाना चाहिए । अर्थात् जघन्य स्थान से लेकर यवमध्यतक जिस क्रमसे वृद्धि होती है, उसी प्रकार यवमध्यसे ऊपर हानिका क्रम जानना चाहिए || ३०१-३०४ ॥ अब इसी अर्थ-विशेषको संदृष्टि द्वारा बतलानेके लिए चूर्णिवार उत्तर सूत्र कहते हैंचूर्णि ०. ० - जघन्य कषायोदयस्थानपर चार जीव हैं और उत्कृष्ट कषायोदयस्थानपर दो जीव हैं ॥ ३०५ ॥ भावार्थ - यद्यपि जघन्य भी कषायोदयस्थानपर वस्तुतः आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव हैं और उत्कृष्ट कषायोदयस्थानपर भी । पर यहाँ अंकसंदृष्टिमें उक्त अर्थंका बोध कराने के लिए चार और दोकी कल्पना की गई है । चूर्णिसू० - यवमध्यवर्ती जीव आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण है । यवमध्यवर्ती जीवोके जितने अर्धच्छेद होते हैं, उनके असंख्यातवें भागप्रमाण यवमध्य के अधस्तनवर्ती गुणहानिस्थानान्तर है और उन अर्धच्छेदोके असंख्यात बहुभागप्रमाण यवमध्यके ऊपर गुणहानि - स्थानान्तर होते हैं । इस प्रकार त्रसजीवोके कषायोदयस्थानसम्बन्धी यवमध्य निष्पन्न हो जाता है ॥ ३०६-३०८ ॥ १ जइ वि जहण्णए कसायुदयठाणे आवलियाए असखेज दिभागमेत्ता जीवा होंति; तो वि सदटूट्ठीए तेसिं पमाण चत्तारिरूवमेत्तमिदि घेत्तव्वं । उक्कस्साए वि कसागुदयट्ठाणे दो जीवा त्ति सदिट्ठीए गव्वा । जयघ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'उक्कस्सेण' के स्थानपर 'उक्कस्सिया' पाठ मुद्रित है। * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'असंखेजदिभागा' पाठ मुद्रित है । Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६९] कषाय-त्रिविध श्रेणी-निरूपण ५९५ । ३०९. एसा सुत्तविहासा । ३१०. सत्तमीए गाहाए पडमस्स अद्धस्स अत्थविहासा समत्ता भवदि। . . • ३११ एत्तो विदियद्धस्स अत्थविहासा कायव्वा । ३१२ तं जहा । ३१३. 'परमममयोवजुत्तेहिं चरिमसमए च बोद्धव्या' त्ति एत्थ तिष्णि सेडाओ। ३१४. तं जहा । ३१५. विदियादिया पडमादिया चरिमादिया (३)। विशेषार्थ-यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि त्रसजीवोंके समान स्थावरजीवोंमें भी यवमध्यरचना क्यो नहीं बतलाई ? इसका समाधान यह है कि स्थावरजीवोंके योग्य बताये गये कषायोदयस्थानोमेसे एक-एक कषायोदयस्थानपर अनन्त जीव पाये जाते है. इमलिए उनकी यवमध्यरचना अन्य प्रकारसे होती है। अतएव मूलगाथासूत्र में जो कषायोदयस्थानोके विरहित-अविरहितका वर्णन है, वह सजीवों की अपेक्षासे जानना चाहिए । चूर्णिम०-यह मूलगाथासूत्रकी विभाषा है इस प्रकार इस उपयोग अधिकारकी सातवीं गाथाके पूर्वार्धकी अर्थ-व्याख्या समाप्त होती है ॥३०९-३१०॥ ___ चूर्णिसू०-अब इससे आगे उक्त सातवीं गाथाके द्वितीय-अर्ध अर्थात् उत्तरार्धकी अर्थविभाषा करना चाहिए। वह इस प्रकार है ।-'प्रथम समयमे उपयुक्त जीवोके द्वारा और अन्तिम समयमे उपयुक्त जीवोके द्वारा स्थानोको जानना चाहिए' सातवीं गाथाके इस उत्तरार्धमे तीन श्रेणियाँ प्रतिपादन की गई हैं। वे इस प्रकार हैं द्वितीयादिका श्रेणी, प्रथमादिका श्रेणी और चरमादिका श्रेणी ॥३११-३१५॥ विशेषार्थ-श्रेणी नाम एक प्रकारकी पंक्ति या क्रम-परिपाटी का है। प्रकृतमें यहाँ श्रेणी पदसे अल्पबहुत्व पद्धतिका अर्थ ग्रहण किया गया है। जिस अल्पबहुत्व-परिपाटीमें मान संज्ञित दूसरी कषायसे उपयुक्त जीवोको आदि लेकर अल्पबहुत्वका वर्णन किया गया है, उसे द्वितीयादिका श्रेणी कहते हैं । यह मनुष्य और तिर्य बोकी अपेक्षा वर्णन की गई है, क्योकि इनमें ही मानकषायसे उपयुक्त जीव सबसे कम पाये जाते है । जिस अल्पबहुत्व परिपाटीमें क्रोधनामक प्रथम कपायसे उपयुक्त जीवोको आदि लेकर अल्पबहुत्वका वर्णन किया गया है, उसे प्रथमादिका श्रेणी कहते हैं । यह देवोंके ही सम्भव है, क्योकि, वहाँ ही क्रोधकषायसे उपयुक्त जीव सबसे कम पाये जाते हैं। तथा जिस अल्पवहुत्वश्रेणीका लोभनामक अन्तिम कषायसे प्रारम्भ किया गया है, उसे चरमादिका श्रेणी कहते है। यह नारकियोकी अपेक्षा जानना चाहिए, क्योकि नरकगतिमे ही लोभकषायसे उपयुक्त जीव सबसे कम पाये जाते हैं। इस प्रकार इन तीनो श्रेणियोका वर्णन इस सूत्र-गाथाके उत्तरार्धमें किया गया है । दो श्रेणियोका नामोल्लेख तो सूत्रमें किया ही गया है और गाथा पठित 'च' शब्दसे द्वितीयादिका श्रेणीकी सूचना की गई है, ऐसा अर्थ यहाँ समज्ञना चाहिए । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ फसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार ३१६. विदियादियाए साहणं । ३१७. माणोवजुत्ताणं पवेसणग' थोवं । ३१८. कोहोवजत्ताणं पवेसणगं विसेसाहियं । ३१९ [ एवं माया-लोभोवजुत्ताणं] । ३२०. एसो विसेसो एक्कण उबदसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि-भागपडिभागो। ३२१. पवाइज्जतेण उवदेसण आवलियाए असंखेजदिभागो । एवमुवजोगो त्ति समत्तमणिओगदारं । चूर्णिसु०-अव द्वितीयादिका श्रेणी-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका साधन करते हैं-मानकषायसे उपयुक्त जीवोंका प्रवेशन-काल सबसे कम है । क्रोधकपायसे उपयुक्त जीवोका प्रवेशनकाल विशेष अधिक है। इसीप्रकार मायाकपायसे उपयुक्त जीवोंका प्रवेशन-काल विशेष अधिक है और लोसकपायसे उपयुक्त जीवोका प्रवेशन-काल विशेष अधिक है ॥३१६-३१९॥ विशेपार्थ-यह द्वितीयादिका श्रेणी-सम्बन्धी अल्पबहुत्व मनुष्य-तिर्यंचोकी अपेक्षासे जानना चाहिए, क्योकि वह उन्हीमें संभव है। प्रथमादिका श्रेणीका अल्पवहुत्व इस प्रकार है-देवगतिमें क्रोधकपायसे उपयुक्त जीव सबसे कम हैं, मानकषायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं, मायाकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं और लोभकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर संख्यातगुणित होनेका कारण यह है कि उनका काल और प्रवेश उत्तरोत्तर संख्यातगुणित पाया जाता है । चरमादिका श्रेणी-सम्बन्धी अल्पवहत्व नारकी जीवोकी अपेक्षा जानना चाहिए । उसका क्रम इस प्रकार हैं-नारकियोंमे लोभकपायसे उपयुक्त जीव सबसे कम हैं। उनकी अपेक्षा मायाकषायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं। उनकी अपेक्षा सानकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं। उनकी अपेक्षा क्रोधकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित है । चूर्णिसू०-यह विशेष एक उपदेशकी अपेक्षा अर्थात् अप्रवाह्यमान उपदेशसे पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागरूप है। किन्तु प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण है ॥३२०-३२१॥ इस प्रकार उपयोग नासक सातवॉ अधिकार समाप्त हुआ। १ कथं पुनः प्रवेशनशब्देन प्रवेशकालो गृहीतु शक्यत इति नाशंकनीयम् ; प्रविशन्त्यस्मिन् काले इति प्रवेशनशब्दस्य व्युत्पादनात् । जयध० Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ चट्टान - अत्याहियारो १. चउट्ठाणेत्ति अणियोगद्दारे पुव्वं गमणिज्जं सुत्तं । २. तं जहा । (१७) कोहो वह वृत्तो माणो वि चउव्विहो भवे । माया चउव्विहा वृत्ता लोहो वि य चउव्विहो ॥७०॥ (१८) ग. पुढवि वालुगोदय राईसरिसो चउन्विहो कोहो । सेलवण - अट्ठि दारुअ लदासमाणो हवदि माणो ॥ ७१ ॥ ८ चतुःस्थान अर्थाधिकार चूर्णिसू० – कसायपाहुडके चतुःस्थान नामक अनुयोगद्वारमें पहले गाथा-सूत्र अन्वेषण करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं ॥ १-२ ॥ क्रांध चार प्रकारका कहा गया है। मान भी चार प्रकारका होता है । माया भी चार प्रकारकी कही गई है और लोभ भी चार प्रकारका है ॥ ७० ॥ विशेषार्थ - चतुःस्थान- अधिकार की गुणधराचार्य- मुखकमल-विनिर्गत यह प्रथम सूत्रगाथा है । इनमें क्रोधादि प्रत्येक कपायके चार-चार भेद होनेका निर्देश किया गया है । यहॉपर अनन्तानुबन्धी आदिकी अपेक्षासे क्रोधादिके चार-चार भेदोका वर्णन नहीं किया जा रहा है, क्योंकि उन भेदोका तो प्रकृतिविभक्ति आदिमें पहले ही निर्णय कर चुके है । अतएव इस चतुःस्थान अधिकारमे लता, दारु आदि अनुभाग की अपेक्षा वतलाये गये एक स्थान, द्विस्थान आदिकी अपेक्षासे कषायोके स्थानोका वर्णन किया जा रहा है । इस प्रकारका अर्थ ग्रहण करनेपर ही आगे कही जानेवाली गाथाओका अर्थ सुसंगत बैठता है, अन्यथा नहीं, क्योकि अनन्तानुबन्धी आदि तीन कषायोमें एक स्थानीयता सम्भव नहीं है । लता, दारु आदि चार प्रकारके स्थानोके समाहारको चतुःस्थान कहते हैं । इस प्रकारके चतुःस्थानके प्ररूपण करनेवाले अनुयोगद्वारको चतुःस्थान अनुयोगद्वार कहते है । अव क्रोधादिकषायोके उक्त चार-चार भेदोका गुणधराचार्य स्वयं गाथासूत्रीके द्वारा निरूपण कहते हैं क्रोध चार प्रकारका है - नगराजिसदृश, पृथिवीगजिसदृश, वालुकाराजिसदृश और उदकराजिसदृश | इसी प्रकार मानके भी चार भेद हैं- शैलधनसमान, अस्थिसमान, दारुसमान और लतासमान ॥ ७१ ॥ विशेषार्थ - इस गाथामें कालकी अपेक्षा क्रोधके और भावकी अपेक्षा मानके चार-चार Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५९८ कसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार प्रकार बतलाये गये हैं । उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जैसे किसी पर्वतके शिलाखंडमें किसी कारणसे यदि भेद हो जाय, तो वह कभी भी किसी भी प्रयोग आदिसे पुनः मिल नहीं सकता है, किन्तु तद्वस्थ ही बना रहता है । इसी प्रकार जो क्रोधपरिणाम किसी निमित्तविशेषसे किसी जीव-विशेपसे उत्पन्न हो जाय, तो वह किसी भी प्रकारसे उपशमको प्राप्त न होगा, किन्तु निष्प्रतीकार होकर उस भवमें ज्योका त्यो बना रहेगा । इतना ही नहीं, किन्तु जिसका संस्कार जन्म-जन्मान्तर तक चला जाय, इस प्रकारके दीर्घकालस्थायी क्रोधपरिणामको नगराजिसदृश क्रोध कहते हैं । पृथ्वीके रेखाके समान क्रोधको पृथ्वीराजिसदृश क्रोध कहते हैं । यह शैलरेखा-सदृश क्रोधकी अपेक्षा अल्पकालस्थायी है, अर्थात् चिरकालतक अवस्थित रहने के पश्चात् किसी-न-किसी प्रयोगसे शान्त हो जाता है । पृथ्वीकी रेखाका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ग्रीष्मकालमे गर्मीकी अधिकतासे पृथ्वीका रस सूख जानेके कारण पृथ्वीमे बड़ी-बड़ी दरारे हो जाती हैं, वे तबतक वरावर वनी रहती हैं जबतक कि वर्षाऋतुमे लगातार वर्षा होनेसे जलप्रवाह-द्वारा मिट्टी गीली होकर उनमे न भर जाय । गीली मिट्टीके भर जानेपर पृथ्वीकी वह रेखा मिट जाती है। इसी प्रकार जो क्रोध किसी कारण-विशेपसे उत्पन्न होकर बहुत दिनोतक बना भी रहे, पर समय आनेपर गुरुके उपदेश आदिका निमित्त मिलनेसे दूर हो जाय, उसे पृथ्वीराजिसदृश क्रोध कहते है । वालुकी रेखाके समान क्रोधको वालुराजिसदृश क्रोध कहते है। जिस प्रकार नदीके पुलिन ( वालुका मय ) प्रदेशमे किसी पुरुषके प्रयोगसे, जलके पूरसे या अन्य किसी कारण-विशेषसे कोई रेखा उत्पन्न हो जाय तो वह तव तक बनी रहती है जब तक कि पुनः जोरका जल प्रवाह न आवे । जोरके जलपूर आनेपर, या प्रचंड ऑधीके चलनेपर या इसी प्रकारके किसी कारण-विशेषके मिलनेपर वह वालुकी रेखा मिट जाती है । इसी प्रकार जो क्रोध-परिणाम गुरुके उपदेशरूप जलके पूरसे शीघ्र ही उपशान्त हो जाय, उसे वालुराजिसदृश क्रोध कहते हैं । यह पृथ्वीको रेखाकी अपेक्षा और भी अल्पकालस्थायी होता है। जलकी रेखाके समान और भी अल्प कालस्थायी क्रोधको उदकराजिसदृश क्रोध कहते हैं। यह पूर्वोक्त क्रोधकी अपेक्षा और भी कम कालतक रहता है। जैसे जलमें किसी निमित्त-विशेषसे एक ओर रेखा होती जाती है और दूसरी ओर तुरन्त मिटती -जाती है, इसी प्रकार जो कषाय अन्तर्मुहूर्तके भीतर ही तुरन्त उपशान्त हो जाती है, उसे जलराजिसमान क्रोध जानना चाहिए । मानकषायके चारो निदर्शनोका इसी प्रकारसे अर्थ करना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार शैलघनशिलास्तम्भ या पत्थरका खम्भा कभी भी किसी उपायसे कोमल नहीं हो सकता, इसी प्रकार जो मानकषाय कभी भी किसी गुरु आदिके उपदेश मिलनेपर भी दूर न हो सके, उसे शैलधन-सदृश मानकषाय जानना चाहिए। जैसे पापाणसे अस्थि ( हड्डी ) कुछ कोमल होती है, वैसे ही जो मानकषाय शैलसमान मानसे मन्द अनुभागवाली हो, उसे अस्थि के समान जानना चाहिए। जैसे अस्थिसे काष्ठ और भी मृदु होता है, इसी प्रकार जो मानकपाय Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ७३ ] कषाय-चतुःस्थान-निरूपण ५९९ (१९) वंसीजण्हगसरिसी मेंढविसाणसरिसी य गोमुत्ती। ___ अवलेहणीसमाणा माया वि चउव्विहा भणिदा ॥७२॥ (२०) किमिरागरत्तसमगो अक्खमलसमो य पंसुलेवसमो। हालिहवत्थसमगो लोभो वि चउविहो भणिदो ॥७३॥ अस्थिसे भी मन्द अनुभागवाली हो और प्रयत्नसे कोमल हो सके, उसे काष्ठके समान मान कहा है । जो मान लताके समान मृदु हो, अर्थात् शीघ्र दूर हो जाय, उसे लतासमान मान जानना चाहिए । इस प्रकार कालकी हीनाधिकताकी अपेक्षा क्रोध और परिणामोकी तीव्र-मन्दताकी अपेक्षा मानके चार-चार भेद कहे गये हैं। माया भी चार प्रकारकी कही गई है-वाँसकी जड़के सदृश, मेंढ़ेके सींगके सदृश, गोमूत्रके सदृश और अवलेखनीके समान ॥७२॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार वॉसके जड़की कुटिलता पानीमें गलाकर, मोड़कर या किसी भी अन्य उपायसे दूर नहीं की जा सकती है, इसी प्रकार जो मायारूप कुटिल परिणाम किसी भी प्रकारसे दूर न किये जा सकें, ऐसे अत्यन्त वक्र या कुटिलतम भावोकी परिणतिरूप मायाको वॉसकी जड़के समान कहा गया है। जो माया कपाय उपयुक्त मायासे तो मन्द अनुभागवाली हो, फिर भी अत्यन्त वक्रता या कुटिलता लिये हुए हो, उसे मेढ़ेके सीग सदृश कहा है । जैसे मेंढ़ेके सींग अत्यन्त कुटिलता लिये होते है, तथापि उन्हे अग्निके ताप आदि द्वारा सीधा किया जा सकता है । इसी प्रकार जो मायापरिणाम वर्तमानमें तो अत्यन्त कुटिल हो, किन्तु भविष्यमें गुरु आदिके उपदेश-द्वारा सरल बनाये जा सकते हो, उन्हे मेंढ़ेके सींग समान जानना चाहिए। जैसे चलते हुए मूतनेवाली गायकी मूत्र-रेखा वक्रता लिए हुए होती है उसी प्रकार जो मायापरिणाम मेढ़ेके सीगसे भी कम कुटिलता लिये हुये हो, उन्हे गोमूत्रके समान कहा गया है। जिन माया-परिणामोमे कुटिलता अपेक्षाकृत सबसे कम हो, उन्हे अवलेखनीके समान कहा गया है। अवलेखनी नाम दातुन या.जीभका मैल साफ करनेवाली जीभीका है, इसमे औरोकी अपेक्षा वक्रपना सबसे कम होता है और वह सरलतासे सीधी की जा सकती है। इसी प्रकार जिस मायाम कुटिलता सबसे कम हो और जो बहुत आसानीसे सरल की जा सकती हो, उसे अवलेखनीके समान जानना चाहिए । . लोभ भी चार प्रकारका कहा गया है-कृमिरागके समान, अक्षमलके समान, पांशुलेपके समान और हारिद्रवस्त्र के समान ॥७३॥ विशेषार्थ-कृमि नाम एक विशेष जातिके छोटेसे कीड़ेका है। उसका ऐसा स्वभाव है कि वह जिस रंगका आहार करता है, उसी रंगका अत्यन्त सूक्ष्म चिकना सूत्र ( डोरा) अपने मलद्वारसे बाहर निकालता है । उस सूत्रसे तन्तुवाय (जुलाहे या युनकर) नाना प्रकारके बहुमूल्य वन बनाते हैं । उन वस्रोका रंग प्राकृतिक होनेसे इतना पका होता है कि तीक्ष्णसे Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० कसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार (२१) एदेसि ठाणाणं चदुसु कसाएसु सोलसण्हं पि । कं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदेसग्गे ॥७४॥ तीक्ष्ण क्षार देकर भट्टीमे पकानेपर और वर्षांतक जलधारामें प्रक्षालन करनेपर भी वह नहीं दूर होता है, अर्थात् वह वस्त्र भले ही सड़-गलकर नष्ट हो जाय, पर उसका रंग कभी नहीं उतरता। यहॉतक कि उस वस्त्रको अग्निसे जला देनेपर भी उसकी भस्म ( राख ) भी उसी वस्रके ही. रंगकी बनी रहती है । इसी प्रकार जो जीवोका हृदयवर्ती लोभपरिणाम अत्यन्त तीव्रतम हो, किसी भी उपायसे छूट न सके, 'चमड़ी चली जाय, पर दमड़ी न जाय,' इस जातिका हो, उस लोभपरिणामको कृमिरागके समान कहा गया है। इससे मन्द अनुभागवाला लोभपरिणाम अक्षमलके समान बतलाया गया है । अक्षनाम रथ, शकट तांगा आदिके चक्र (चक्का, पहिया) का है, उसमे जो सरलतासे घूमनेके लिए काले रंगका गाढ़ा तेल ( ओगन ) लगाया जाता है, उसे अक्षमल कहते है। वह चक्रके परिभ्रमणका निमित्त पाकर और भी चिकना और गाढ़ा हो जाता है । वह यदि किसी वस्त्रके लग जाय, तो उसका दूर होना बड़ा कठिन होता है, अत्यन्त तीक्ष्ण क्षार आदिका निमित्त मिलनेपर ही बहुत दिनोमे वह दूर हो पाता है, इसी प्रकार जो लोभपरिणाम कृभिरागसे तो मन्द अनुभागवाला हो, पर फिर भी सरलतासे शुद्ध न हो सके, उसे अक्षमलके समान लोभ कहा गया है। पांशुनाम धूलिका है । जिस प्रकार पैरोमें लगी हुई धूलि तैल पसीना आदिका निमित्त पाकर यद्यपि जम जाती है, फिर भी वह गर्म जल आदिके द्वारा द्वारा सरलतासे दूर ही जाती है, इसी प्रकार जो लोभ-परिणाम सरलतासे दूर किये जा सके, उन्हे पांशु-लेपके समान कहा गया है । जो लोभ इससे भी मन्द अनुभागवाला होता है, उसे हारिद्र वस्त्रकी उपमा दी गई है । जैसे हरिद्रा ( हलदी ) से रंगा गया वस्त्र देखनेमे तो पीले रंगका मालूम होता है, पर पानीसे धोते ही उसका रंग बहुत शीघ्र सरलतासे छूट जाता है, या धूप आदिके निमित्तसे भी जल्दी उड़ जाता है । इसी प्रकार जो लोभ सरलतासे छूट जाय वहुत कालतक आत्मामे अवस्थित न रहे, अत्यन्त मन्द जातिका हो, उसे हारिद्रवत्रके समान कहा गया है । इस प्रकार अनुभागकी हीनाधिकताके तारतम्यसे लोभके चार भेद कहे गये हैं; ऐसा जानना चाहिए। ___ अब इन ऊपर कहे गये सोलह भेदरूप स्थानोंका अल्पवहुत्व निर्णय करनेके लिए गुणधराचार्य गाथासूत्र कहते हैं इन अनन्तर-निर्दिष्ट चारों कषायों सम्बन्धी सोलहों स्थानोंमें स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा कौन स्थान किस स्थानसे अधिक होता है, (और कौन किससे कम होता है ) १ ॥७४॥ विशेपार्थ-यह गाथा प्रश्नात्मक है और इसके द्वारा ग्रन्थकारने अल्पबहुत्वसम्बन्धी प्रश्न उठाकर वक्ष्यमाण क्रमसे समाधान करनेके लिए उपक्रम किया है । गाथामे यद्यपि स्थितिकी अपेक्षा भी अल्पवहुत्व करनेका निर्देश किया गया है, तथापि स्थितिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ७६ ] अनुभाग- प्रदेशापेक्षया चतुःस्थान अल्पबहुत्व निरूपण (२२) माणे लदासमाणे उकस्सा वग्गणा जहण्णादो । हीणा च पदेसग्गे गुणेण णियमा अनंतेण ॥ ७५ ॥ (२३) नियमा लदासमादो दारुसमाणो अनंतगुणहीणो । सेसा कमेण हीणा गुणेण णियमा अनंतेण ॥ ७६ ॥ ६०१ संभव नहीं है, क्योंकि कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिमे भी एक- स्थानीय अनुभाग पाया जाता है। और जघन्य स्थिति में भी चतुःस्थानीय अनुभाग पाया जाता है । गुणधराचार्यने आगे अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षासे ही सोलहस्थानोका अल्पबहुत्व कहा है, स्थितिकी अपेक्षा नही, इससे उक्त अर्थ फलित होता है । लता-समान मानमें उत्कृष्ट वर्गणा अर्थात् अन्तिम स्पर्धक अन्तिम वर्गणा, जघन्य वर्गणासे अर्थात् प्रथम स्पर्धककी पहली वर्गणासे प्रदेशों की अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणी हीन है | ( किन्तु अनुभागकी अपेक्षा जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा निश्चयसे अनन्तगुणी अधिक जानना चाहिए | ) ॥ ७५ ॥ विशेषार्थ - इस गाथा के द्वारा स्वस्थान- अल्पबहुत्वकी सूचना की गई है । इसलिए जिस प्रकार लतास्थानीय मानकी उत्कृष्ट और जघन्य वर्गणाओमें अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा अल्पबहुत्व बतलाया गया है, उसी प्रकारसे शेप पन्द्रह स्थानो में भी लगा लेना चाहिए । अब मानकपायके चारो स्थानोका परस्थान - सम्बन्धी अल्पबहुत्व कहनेके लिए उत्तर गाथासूत्र कहते हैं— लतासमान मानसे दारुसमान मान प्रदेशों की अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणित हीन है । इसी क्रमसे शेष अर्थात् दारुसमान मानसे अस्थिसमान मान और अस्थिसमान मानसे शैलसमान मान नियमसे अनन्तगुणित हीन है || ७६ ॥ विशेषार्थ - 'लतासमान मानसे दारु - समान मान अनन्तगुणित हीन हैं' इसका अभिप्राय यह है कि लतास्थानीय मानके सर्व प्रदेश पिंडसे दारुस्थानीय मानका सर्व प्रदेशपिंड अनन्तगुणा हीन होता है । इसका कारण यह है कि लतासमान मानकी जघन्य वर्गणासे दारुसमान मानकी जघन्य वर्गणा प्रदेशोकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन होती है। इसी प्रकार लतास्थानीय मानकी दूसरी वर्गणासे दारुस्थानीय मानकी दूसरी वर्गणा भी अनन्तगुणी हीन होती है । इसी क्रमसे आगे जाकर लतास्थानीय मानकी उत्कृष्ट वर्गणासे दारुस्थानीय मानकी उत्कृष्ट वर्गणा भी अनन्तगुणी हीन होती है, अतएव लतासमान मानके सर्व प्रदेश पिडसे दारुसमान मानका सर्व प्रदेश - पिंड अनन्तगुणित हीन स्वतः सिद्ध हो जाता है । इसी प्रकार दारुसमान मानके सर्व प्रदेश - पिंडसे अस्थिसमान मानका सर्व प्रदेशपिंड और अस्थिसमान मानसे शैलसमान मानका सर्व प्रदेशपिंड अनन्तगुणित हीन जानना चाहिए । 1 ७६ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ फसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार (२४) णियमा लदासमादो अणुभागग्गेण वग्गणग्गेण । सेसा कमेण अहिया गुणण णियमा अणंतेण ॥७७॥ (२५) संधीदा संधी पुण अहिया णियमा च होइ अणुभागे। हीणा व पदेसग्गे दो वि य णियमा विसेसेण ॥७८॥ उक्त प्रकारसे प्रदेशोकी अपेक्षा अल्पवहुत्व बता करके अब अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहनेके लिए आचार्य उत्तर गाथा-सूत्र कहते हैं लतासमान मानसे शेष स्थानीय मान अनुभागायकी अपेक्षा और वर्गणाग्रकी अपेक्षा क्रमशः नियमसे अनन्तगुणित अधिक होते हैं ॥७७॥ विशेषार्थ-यहाँ पर 'अग्र' शब्द समुदायवाचक है, अतः 'अनुभागाग्रसे' अभिप्राय अनुभागममुदायसे है और 'वर्गणान' से 'वर्गणासमूह' यह अर्थ लेना चाहिए । तदनुसार यह अर्थ होता है कि लतास्थानीय मानके अनुभाग-समुदायसे दारुस्थानीय मानका अनुभाग-समूह अनन्तगुणित है, दारुस्थानीय अनुभाग-समूहसे अस्थिस्थानीय अनुभाग-समूह अनन्तगुणित है और अस्थिस्थानीय अनुभाग-समूहसे शैलस्थानीय अनुभाग-समूह अनन्तगुणित है । अथवा अनुभाग ही अनुभागान है, इस अपेक्षा 'अ' शब्दका अविभागप्रतिच्छेद भी अर्थ होता है, इसलिए ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि लतास्थानीय मानके अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोके समुदायसे दारुस्थानीय मानके अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोका समूह अनन्तगुणित होता है; दारुस्थानीय मानके अविभागप्रतिच्छेदोसे अस्थिसम्बन्धी और अस्थिसे शैलसम्बन्धी अविभाग-प्रतिच्छेद अनन्तगुणित होते हैं । इसी प्रकार 'वर्गणान' के 'अग्र' शब्दका भी 'वर्गणासमूह अथवा वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंका समूह 'ऐसा अर्थ ग्रहण करके उपयुक्त विधिसे उनमे अनन्तगुणितता समझना चाहिए । - अब लतासमान चरम सन्धिसे दारुसमान प्रथम सन्धि अनुभाग या प्रदेशोकी अपेक्षाहीन या अधिक किस प्रकारकी होती है, इस शंकाके निवारण करनेके लिए आचार्य उत्तर गाथा सूत्र कहते हैं- विवक्षित सन्धिसे अग्रिम सन्धि अनुभागकी अपेक्षा नियमसे अनन्तभागरूप विशेपसे अधिक होती है और प्रदेशोंका अपेक्षा नियमसे अनन्तभागसे हीन होती है ।।७८॥ १ एत्य अग्गसद्दो समुदायस्थवाचओ, अणुभागसमूहो अणुभागग्ग; वग्गणासमूहो वग्गणग्गमिदि । अथवा अणुभागो चेव अणुभागग्गं, वग्गणाओ चेव वग्गणग्गमिदि घेत्तव्वं । जयध० २ एत्थ दोवार णियमसदुच्चारणं किं फलमिदि चे वुच्चदे-लदासमाणठाणादो सेसाणं जहाकममणुभाग-वग्गणग्गेहिं अहियत्तमेत्तावहारणफलो पढमो णियमसहो। विदियो तेसिमणतगुणत्महियत्तमेव, न विसेसाहियत्तं, णावि सखेनासखेन्गुणभहियत्तमिदि अवहारणफलो । जयध० ३ लदाममाणचरिमवग्गणा दारुअसमाणपढमवगाणा चदो वि संधि त्ति वुच्चति । एवं सेससधीण यत्थो वत्तन्वो| जयध० Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ८० ] चतुःस्थान-देश- सर्वघाति-विभाग-निरूपण (२६) सव्वावरणीयं पुण उकस्सं होइ दारुअम्माणे । ट्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिलं ॥७९॥ (२७) एसो कसो च माणे मायाए जियममा दु लोभे वि । सव्वं च काहकम्मं चदुसु ट्ठाणेसु बोद्धव्वं ॥ ८० ॥ ६०३ विशेषार्थ - विवक्षित कषायकी विवक्षित स्थानीय अन्तिम वर्गणा और तदग्रिम स्थानीय आदि वर्गणाको सन्धि कहते हैं, अर्थात्, जहाँपर विवक्षित लतादि स्थानीय अनुभागकी समाप्ति हो और दारु आदि स्थानवाले अनुभागका प्रारम्भ हो, उस स्थलको सन्धि कहते है । इस प्रकार लता, दारु, अस्थि आदि सभी स्थानोंकी अन्तिम वर्गणा और उससे आगे के स्थानाले अनुभागकी आदि वर्गणाको सन्धि जानना चाहिए । विवक्षित पूर्व सन्धिसे तदग्रिम सन्धि अनुभागकी अपेक्षा नियमसे अनन्तभागसे अधिक होती है और प्रदेशोकी अपेक्षा नियमसे अनन्तवे भागसे हीन होती है । जैसे मानकपाय के लतास्थानीय अन्तिम वर्गणारूप सन्धिसे दारुस्थानीय आदि वर्गणारूप सन्धि अनुभागकी अपेक्षा तो अनन्त' भागसे अधिक है और प्रदेशोकी अपेक्षा अनन्तवे भागसे हीन है । यही नियम चारो कषायोके सोलह स्थान सम्बन्धी प्रत्येक सन्धिपर लगाना चाहिए | अब लता आदि चारों स्थानोंमें देशघाती और सर्वघातीका विभाग बतलाने के लिए उत्तर गाथासूत्र कहते हैं दारुसमान स्थानमें जो उत्कृष्ट अनुभाग अंश है, वह सर्वावरणीय अर्थात् सर्वघाती है। उससे अधस्तन भाग देशघाती है और उपरितन भाग सर्वघाती है ॥ ७९ ॥ विशेषार्थ - लता, दारु, अस्थि और शैल इन चार स्थानोमेसे अस्थि और शैलस्थानीय अनुभाग तो सर्वधाती हैं ही । किन्तु दारुसमान अनुभाग में उत्कृष्ट अंश अर्थात् रपरितन अनन्त बहुभाग तो सर्वघाती है और अधस्तन एक अनन्तवां भाग देशघाती है । तथा लतासमान अनुभाग भी देशघाती है। अब यह उपयुक्त क्रम क्रोधादि चारो कषायोके चारो स्थानोमें समान है, यह . बतलाने के लिए उत्तर गाथासूत्र कहते है यही क्रम नियमसे मान, माया, लोभ और क्रोधकपायसम्बन्धी चारों स्थानोंमें निरवशेष रूप से जानना चाहिए ||८०|| विशेषार्थ - क्रोधादि चारो कपायोके नगराजि, पृथिवीराजि आदि चार-चार स्थानोका वर्णन पहले किया जा चुका है । उनमें से प्रत्येक कपायके द्वितीय स्थानसम्बन्धी अनुभागका उपरितन बहुभाग सर्वघातिरूप है और अधस्तन एक भाग देशघातिरूप है । तृतीय और चतुर्थ स्थानसम्बन्धी सर्व अनुभाग सर्वघाती ही है और प्रथमस्थानीय सर्व अनुभाग देश Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ कसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान अर्थाधिकार (२८) एदेसि टाणाणं कदमं ठाणं गदीए कदमिस्से । बद्ध च बज्झमाणं उवसंतं वा उदिण्णं वा ॥१॥ (२९) सण्णीसु असण्णीसु य पजते वा तहा अपजते । सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेय बोद्धव्वा ॥२॥ (३०) विरदीय अविरदीए विरदाविरदे तहा अणागारे । सागारे जोगम्हि य लेस्साए चेव बोद्धव्वा ॥८३॥ घाती ही है । यह व्यवस्था चारो कपायोके स्थानोंमें समान ही है, इसी बातके वतलानेके लिए इस गाथाकी स्वतंत्र रचना की गई है। गति आदि मार्गणाओमे इन उपर्युक्त स्थानोके वन्ध, सत्त्व आदिकी अपेक्षा विशेष निर्णयके लिए आचार्य आगेके गाथा-सूत्रोको कहते हैं इन उपर्युक्त स्थानों से कौन स्थान किस गतिमें बद्ध, वध्यमान, उपशान्त या उदीर्ण रूपसे पाया जाता है ? ॥८१॥ इस गाथामे उठाये गये सर्व प्रश्नोका समाधान आगे कही जानेवाली गाथाओके आधारपर किया जायगा। उपर्युक्त सोलह स्थान यथासंभव संज्ञियोंमें, असंज्ञियोंमें, पर्याप्तमें, अपर्याप्तमें सम्यक्त्वमें मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्वमें जानना चाहिए ॥८२॥ विशेषार्थ-उपर्युक्त सोलह स्थान संज्ञी आदि मार्गणाओमें पाये जाते हैं, यह वतलानेके लिए गाथापठित संजी आदि पदोके द्वारा कई मार्गणाओकी सूचना की गई है । जैसे संजी-असंज्ञी पदोसे संनिमार्गणाकी, पर्याप्त-अपर्याप्त पदोसे काय और इन्द्रियमार्गणाकी और सम्यक्त्व, मिथ्यात्व आदि पदोसे सम्यक्त्वमार्गणाको सूचना की गई है । शेष मार्गणाओकी सूचना आगेकी गाथामेकी गई है । तदनुसार यह अर्थ होता है कि वे सोलह स्थान यथासंभव गति आदि चौदह मार्गणाओमे पाये जाते हैं। वे ही सोलह स्थान अविरतिमें, विरतिमें, विरताविरतमें, अनाकार उपयोगर्म, साकार उपयोगमें, योगमें और लेश्यामें भी जानना चाहिए ।।८३॥ ___ विशेषार्थ-गाथा-पठित विरति आदि पदोसे संयममार्गणाकी, अनाकार पदसे दर्शनमार्गणाकी, साकार पदसे ज्ञानमार्गणाकी, योग पदसे योगमार्गणाकी और लेश्या पदसे लेण्या मार्गणाकी सूचना की गई है। इस प्रकार इन दोनो गाथाओसे उपर्युक्त नौ मार्गणाओंकी तो स्पष्टतः ही सूचना की गई है। शेष पॉच मार्गणाओका समुच्चय गाथा-पठित ,'च' या 'चैव' पदसे किया गया है। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ८५ ) . चतुःस्थान-वन्धक-वेदक-सन्निकर्ष-निरूपण (३१) कं ठाणं वेदंतो कस्स व ट्ठाणस्स बंधगो होइ।। कं ठाणमवेदंतो अबंधगा कस्स हाणस्स ।।८४॥ (३२) असण्णी खलु बंधइ लदासमाणं च दारुयसमगं च । सण्णी, चदुसु विभज्जो एवं सव्वस्थ कायव्वं (१६) ॥५॥ किस स्थानका वेदन करता हुआ कौन जीव किस स्थानका बंधक होता है और किस स्थानका अवेदन करता हुआ कौन जीव किस स्थानका अबंधक रहता है ? ॥८४॥ ___ इस गाथाके द्वारा ओघ और आदेशकी अपेक्षा चारो कषायोके सोलहो स्थानोका बन्ध और उदयके साथ सन्निकर्ष करनेकी सूचना की गई है। जिसका विशेष विवरण जयधवलासे जानना चाहिए। असंज्ञी जीव नियमसे लतासमान और दारुसमान अतुभागस्थानको बाँधता है । संज्ञी जीव चारों स्थानों में भजनीय है । इसी प्रकारसे सभी मार्गणाओंमें बन्ध और अबन्धका अनुगम करना चाहिए (१६) ॥८५॥ विशेषार्थ-इस गाथा-सूत्रके द्वारा देशामर्शकरूपसे उपर्युक्त सभी प्रश्नोका उत्तर दिया गया है। जिसका थोडासा वर्णन यहाँ जयधवलाके आधारपर किया जाता है'असंज्ञी जीव लता और दारुसमान अनुभाग-स्थानको बाँधता है', इस वाक्यसे यह भी अर्थ सूचित किया गया है कि अस्थि और शैल समान स्थानोका वन्ध नही करता है । इसका कारण यह है कि असंज्ञी जीवोमे अस्थि और शैलस्थानीय अनुभागको वॉधनेके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव है। यहाँ इतना विशेप जानना चाहिए कि असंजियोमे दोनो स्थानोका अविभक्तरूपसे ही बन्ध होता है, क्योंकि विभक्तरूपसे उनमें उक्त दोनो स्थानोका बन्ध असंभव है । संज्ञियोमे किस प्रकारसे उक्त स्थानोका बन्ध होता है, इस शंकाका समाधान यह है कि संज्ञी जीव चारो स्थानोमें भजनीय है' । अर्थात् स्यात् एकस्थानीय अनुभागका वंध करता है, स्यात् द्विस्थानीय अनुभागका बंध करता है, स्यात् त्रिस्थानीय अनुभागका और स्यात् चतुःस्थानीय अनुभागका वन्ध करता है। इसका कारण यह है कि संज्ञी जीवोमें चारो स्थानोके बन्धके कारणभूत संक्श और विशुद्धिकी हीनाधिकता पाई जाती है । जिस प्रकार संज्ञिमार्गणाका आश्रय लेकर बन्ध-विपयक प्रश्नका निर्णय किया गया है, उसी प्रकारसे उदय, उपशम और सत्त्वकी अपेक्षा भी उक्त स्थानोका निर्णय करना चाहिए । जैसे--असंज्ञी जीवोंमे उदय द्विस्थानीय ही होता है, क्योकि उनमे शेप स्थानीय अनुभागउदयके कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते हैं। असंज्ञियोमे उपशम एकस्थानीय, द्विस्थानीय, निस्थानीय और चतुःस्थानीय पाया जाता है । केवल इतना विशेप जानना चाहिए कि असं * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'सण्णीसु' पाठ मुद्रित है ( देखो पृ० १६८२ )। rwarwww Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ .फसाय पाहुड सुत्त . [ ८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार ३. एदं सुत्त । ४. एत्थ अत्थविहासा । ५. चउहाणेत्ति एक्कगणिक्खेवो च द्वाणणिक्खेवो' च । ६. एक्कगं पुच्चणिक्खित्त पुव्वपरूविदं च । जियोमें शुद्ध या विभक्त एकस्थानीय उपशम नहीं पाया जाता है । किन्तु संज्ञियोमे , उपशम, सत्त्व और उदयकी अपेक्षा सभी स्थान पाये जाते हैं। अब 'किस स्थानका वेदन करता हुआ जीव किस स्थानका वन्ध करता है' इस प्रश्नका संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा निर्णय किया जाता है-असंज्ञी जीव द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे द्विस्थानीय अनुभागको ही वॉधता है । किन्तु संज्ञी जीव एकस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे एकस्थानीय ही अनुभागको बॉधता है, शेष स्थानोको नहीं। द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला संज्ञी द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको बॉधता है । त्रिस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको वॉधता है। किन्तु चतुःस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला नियमसे चतुःस्थानीय अनुभागको ही बॉधता है, शेष स्थानोंका अवन्धक रहता है। इसी वर्णनसे 'किस स्थानका अवेदन करता हुआ किस रथानका अवन्धक रहता है । इस प्रश्नका भी समाधान किया गया समझना चाहिए । क्योकि, एकस्थानीय अनुभागका अवेदन करता हुआ जीव एकस्थानीय अनुभागका अवन्धक रहता है, इस प्रकार व्यतिरेक मुखसे उसका प्रतिपादन हो ही जाता है । जिस प्रकार संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा उक्त प्रश्नोंका समाधान किया गया है, उसी प्रकार गति आदि मार्गणाओकी अपेक्षा भी जानना चाहिए, ऐसी सूचनाके लिए ग्रन्थकारने गाथासूत्रमे 'एवं सव्वत्थ कायव्वं' पद दिया है । अर्थात् तिर्यग्गतिमे तो संज्ञी और असंज्ञी मार्गणाके समान अनुभाग स्थानोका बन्धायन्ध आदि जानना चाहिए । तथा नरक, देव और मनुष्य गतिमें संज्ञिमार्गणाके समान बन्धाबन्ध आदि जानना चाहिए। केवल इतना विशेप ध्यानमे रखना चाहिए कि मनुष्यगतिके सिवाय अन्य गतियोमे एकस्थानीय अनुभागके शुद्ध बन्ध और उदय संभव नहीं हैं । इसी प्रकारसे इन्द्रियमार्गणा आदिकी प्ररूपणा भी कर लेना चाहिए । चूर्णिस०-चतुःस्थान नामक अधिकारके ये सोलह गाथासूत्र है । अब इनकी अर्थविभाषा की जाती है । 'चतुःस्थान' इस अनुयोग द्वारके विपयमे एकैकनिक्षेप और स्थाननिक्षेप करना चाहिए । उनमेसे एकैकनिक्षेप पूर्व-निक्षिप्त है और पूर्व-प्ररूपित भी है ॥३-६।। विशेषार्थ-चतुःस्थान पदका क्या अर्थ है, यह जाननेके लिए निक्षेप करना आवश्यक है । इस विषयमें दो प्रकारसे निक्षेप किया जा सकता है-एकैकरूपसे और स्थानरूपसे । इनमेसे पहले एकैकनिक्षेपका अर्थ कहते हैं-चतुःशब्दके अर्थरूपसे विवक्षित लता, १ तत्य एकगणिक्खेवो णाम चदुसद्दस्स अत्यभावेण विवक्खियाण दासमाणादि ठाणाण कोहादिकसायाणं वा एकेक घेत्तण णाम इवणाभेदेण णिक्खेवपरूवणा । ट्ठाणणिक्खेवो णाम तेमि अब्बोगाढसरू वेण विवक्खियाणं वाचओ जो ठाणसद्दा, तस्स अत्थविसणिण्णयजणण? णाम-ट्ठवणादिभेदेण पावणा। जयघ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ८५ ] चतुःस्थान- निक्षेप - निरूपण ६०७ ७. द्वाणं णिक्खिविदव्वं । ८. तं जहा । ९. णामट्ठाणं टुवणट्ठाणं दव्वद्वाणं खेत्तट्ठाणं अडाणं पलिवीचिट्ठाणं उच्चद्वाणं संजमद्वाणं पयोगद्वाणं भावद्वाणं च । १०. णेगमो सव्वाणि ठाणाणि इच्छ । ११. संगह बवहारा पलिवीचिद्वाणं उच्चद्वाणं च अवर्णेति । दारु आदि स्थानोकी, अथवा क्रोधादि कषायोकी एक-एक करके नाम, स्थापना आदिके द्वारा प्ररूपणा करनेको एकैकनिक्षेप कहते है । तथा इन्ही लता, दारु आदि विभिन्न अनुभाग-शक्तियोके समुदायरूपसे वाचक 'स्थान' शब्दकी नाम, स्थापना आदिके द्वारा प्ररूपणा करनेको स्थाननिक्षेप कहते हैं । इनमेसे एकैकनिक्षेपका अर्थात् क्रोधादि कपायोका ग्रन्थ के आदिमे 'कसाय- पाहुड' या 'पेज्जदोस - पाहुड' का अर्थ- निरूपण करते समय पहले विस्तार से कई वार निक्षेपण और प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यहाँ पुनः नहीं कहते हैं । अब चूर्णिकार स्थाननिक्षेपका वर्णन करते है - चूर्णिसू० (० - स्थानका निक्षेप करना चाहिए । वह इस प्रकार है - नामस्थान, स्थापनास्थान, द्रव्यस्थान, क्षेत्रस्थान, अद्धास्थान, परिवीचिस्थान, उच्चस्थान, संयमस्थान, प्रयोगस्थान और भावस्थान ॥७-९॥ 1 विशेषार्थ-जीव, अजीव और तदुभय के संयोग से उत्पन्न हुए आठ' भंगोकी निमि'त्तान्तर- निरपेक्ष 'स्थान' ऐसी संज्ञा करनेको नामस्थान कहते हैं । यह स्थान है, इस प्रकार सद्भाव या असद्भावरूपसे जिस किसी पदार्थ में स्थापना करना स्थापनास्थान है । द्रव्यस्थान आगम और नोआगमके भेद से दो प्रकारका है । इनमे आगम द्रव्यस्थान, तथा नो आगमद्रव्यस्थानके ज्ञायकशरीर और भाविभेद पूर्वमे अनेक वार प्ररूपित होने से सुगम हैं भूमि आदिमें रखे हुये हिरण्य-सुवर्ण आदिके अवस्थानको नोआगम द्रव्यस्थान कहते हैं । ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक आदि के अपने-अपने अकृत्रिम संस्थानरूपसे अवस्थानको क्षेत्रस्थान कहते है । समय, आवली, मुहूर्त आदि कालके भेदोको अद्धास्थान कहते है । स्थितिबन्धके वीचारस्थान, सोपानस्थान या अध्यवसायस्थानोको पलिवीचिस्थान कहते है । पर्वत आदि के उच्चप्रदेशको या मान्य स्थानको उच्चस्थान कहते हैं । सामायिक, छेदोपस्थापना आदि संयम के लब्धिस्थानोको, अथवा संयमविशिष्ट प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानोको संयमस्थान कहते हैं । मन, वचन, कायकी चंचलतारूप योगोको प्रयोगस्थान कहते है । भावस्थान आगम नोआगमके भेद से दो प्रकारका है । आगमभावस्थानका अर्थ सुगम है । कषायोके लता, दारु आदि अनुभाग-जनित उदयस्थानोको, या औदयिक आदि भावोंको नो आगमभावस्थान कहते हैं। अब चूर्णिकार इन अनेक प्रकार के स्थाननिक्षेपोंका नय- विभागद्वारा वर्णन करते हैं I चूर्णिसू० - नैगमनय उपर्युक्त सभी स्थानोको स्वीकार करता है, क्योंकि वह सामान्य और विशेषरूप पदार्थको ग्रहण करता है । संग्रह और व्यवहारनय पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानका अपनयन करते है, अर्थात् शेष स्थानोको ग्रहण करते हैं ।। १०-११ ॥ १ वे आठ भग इस प्रकार हैं- एक जीव, एक अजीव, अनेक जीव, अनेक अजीव, एक जीवअनेक अजीव, अनेक जीव एक अजीव, एक जीव एक अजीव और अनेक जीव अनेक अजीव । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ८ चतुःस्थान अर्थाधिकार १२. उजुमुदो एदाणि च ठवणं च अद्धद्वाणं च अवणेइ । १३. सदणयो णामट्ठागां संजमट्ठाणं खेत्तट्ठाणं भावद्वाणं च इच्छदि । १४. एत्थ भावद्वाणे पयदं । १५. तो सुत्तविहासा । १६. तं जहा । १७. आदीदो चत्तारि सुत्तगाहाओ एदेसि सोलसह द्वाणाणं णिदरिसण-उवणये । १८. कोहडाणाणं चउन्हं पि कालेण णिदरिसण- उवणओ कओ । १९. सेसाणं कसायाणं बारसण्हं द्वाणाणं भावदो णिदरिसणउवणओ कओ | ६०८ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि संग्रहनय पदार्थ को संग्रहात्मक संक्षिप्त रूपसे ग्रहण करता है, अतः पलिवीचिस्थानका तो कपायपरिणामोके तारतम्यकी अपेक्षा अद्धास्थानमै अन्तर्भाव हो जाता है, अथवा सोपानस्थानकी अपेक्षा क्षेत्रस्थानमे प्रवेश हो जाता है । तथा उच्चस्थानका क्षेत्रस्थानमे अन्तर्भाव हो जाता है, अतः संग्रहनय पृथक् रूपसे इन दोनो स्थानोका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता है । व्यवहारनय तो संग्रहनयका ही अनुगामी है, संगृहीत अर्थको ही अपना विषय बनाता है, अतः वह भी पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानको ग्रहण नही करता है । चूर्णिसू० - ऋजुसूत्रनय पलिवीचिस्थान, उच्चस्थान, स्थापनास्थान और अद्धास्थानको छोड़कर शेष स्थानोको ग्रहण करता है । इसका कारण यह है कि ऋजुसूत्र नय एक समयस्थायी पदार्थको ग्रहण करता है और ये सब स्थान भूत और भविष्यत् कालके ग्रहण किये बिना संभव नहीं हैं । शब्दनय-नामस्थान, संयमस्थान क्षेत्रस्थान और भावस्थानको स्वीकार करता है । क्योकि, ये स्थान शब्दनयके विपयकी मर्यादामे आते है । पर शेष स्थान स्थूल अर्थात्मक या संग्रहात्मक होनेसे शब्दनयकी मर्यादासे वाहिर पड़ जाते हैं, अतः शब्दन उन्हें विषय नही करता है ।।१२-१३॥ ऊपर जिन अनेक प्रकार के स्थानोका वर्णन किया गया है, उनमे से यहाँ किससे प्रयोजन है, इस शंकाका समाधान करनेके लिए चूर्णिकार उत्तरसूत्र कहते हैचूर्णि सू० - यहॉपर भावस्थान से प्रयोजन है ॥ १४॥ विशेषार्थ-यद्यपि चूर्णिकारने सामान्यसे भावस्थानको प्रकृत कहा है, तथापि यहॉपर भावस्थानका दूसरा भेद जो नोआगम-भावस्थान है, उसीका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि लता दारु आदि अनुभागस्थानोका इसीमे ही अवस्थान माना गया है । चूर्णिसू ०. (० - अव गाथा सूत्रोंकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - आदिसे चार सूत्र-गाथाएँ इन उपर्युक्त सोलह स्थानोका निदर्शन ( दृष्टान्त ) पूर्वक अर्थ-साधन करती हैं । इनमेंसे क्रोध कषायके चारों स्थानोका निदर्शन कालकी अपेक्षा किया गया है और शेप तीन मानादि कषायोके बारह स्थानोका निदर्शन भावकी अपेक्षा किया गया है ॥१५- १९॥ *ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'पदेसिं सोलसण्हं द्वाणाणं णिरिसण- उचणये' इतने सूत्राको टीकाका अंग बना दिया है | तथा अग्रिम सूत्रकी उत्थानिका के अनन्तर 'पदेर्लि सोलसट्टाणाण णिइरिसगोवणये पडिवद्धाओ त्ति पढमगाहा' इस टीकाके अंशको सूत्र वना दिया गया है । (देखो पृ०१६८७) Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ८५ ] कषाय- वासना-काल-निरूपण ६०९ २०. जो अंतोहुत्तिगं निधाय कोहं वेदयदि सो उदयराइसमार्ण कोहं वेदयदि । २१. जो अंतोमुहुत्तादीदमंतो अद्धमासस्स कोधं वेदयदि सो बालुवराइसमार्ण कोहं वेदयदि । २२. जो अद्धमासादीदमंतो छहं मासाणं कोथं वेदयदि सो पुढविराइविशेषार्थ - क्रोधकषायके जो नगराजि, पृथ्वीराजि आदि चार स्थान ऊपर बतलाये गये हैं, वे कालकी अपेक्षा जानना चाहिए। जैसे नग (पापाण) की रेखा बहुत लम्बा काल व्यतीत हो जानेपर भी ज्यो की त्यो बनी रहती है, पृथ्वीकी रेखा उससे कम समय तक अवस्थित रहती है, इसी प्रकार क्रोधकषायके संस्कार या वासनारूप स्थान भी तरतमभावको लिये हुए अल्प या अधिक काल तक पाये जाते है इसलिए इन्हें कालकी अपेक्षा कहा गया है । मान आदि तीनो कषायोके स्थानोको जो लता, दारु, आदि रूप दृष्टान्त दिये गये है, उन्हे भावकी अपेक्षा जानना चाहिए । अर्थात् लताके समान कोमल या मृदु भाववाले स्थानको लतासमान कहा । इससे कठोर भाववाले स्थानको दारु ( काठ) के सदृश कहा और उससे भी कठोर भावोको अस्थि या शैलके समान कहा । मायाके चारो दृष्टान्त भी परिणामोकी सरलता या वक्रताकी हीनाधिकता से कहे गये है । लोभके चारो उदाहरण भी तृष्णाजनित कृपणभावकी अधिकता या हीनता की अपेक्षा कहे गये हैं । इस प्रकार चूर्णिकारने इन aat कषायके सभी स्थानोको भावकी अपेक्षा कहा है । अब चूर्णिकार कालकी अपेक्षा ऊपर बतलाये गये क्रोधकषायके चारो स्थानोका विशेष निरूपण करते है चूर्णिस० - जो जीव अन्तर्मुहूर्त तक रोषभावको धारण कर क्रोधका वेदन करता है, वह उदकराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२०॥ विशेषार्थ - जल- रेखा अन्तर्मुहूर्त से अधिक ठहर नही सकती है । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् जिस प्रकार जल - रेखाका अस्तित्व संभव नही है, उसी प्रकार जल - रेखाके सदृश क्रोध भी अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं ठहर सकता । यह जलरेखाके सदृश क्रोध संयमका घातक तो नहीं है, फिर भी संयममें मल, दोष या अतिचार अवश्य उत्पन्न करता है । चूर्णिसू० - जो अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अर्ध मास तक क्रोधका वेदन करता है, चह वालुकाराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२१॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार वालुमे उत्पन्न हुई रेखा एक पक्षसे अधिक नहीं ठहर सकती, उसी प्रकार जो कपायोदय-जनित कलुप परिणाम अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्ध मास तक आत्मामे शल्यरूपसे या बदला लेनेकी भावनासे अवस्थित रहता है, उसे वालुकाराजिके समान कहा गया है । यह वालुकाजि - सदृश कषायपरिणाम संयमका घातक है, अर्थात् इस जातिकी कपायके उदयमें जीव संयमको नहीं धारण कर सकता है, किन्तु संयमासंयमको ग्रहण भी कर सकता है और पालन भी । चूर्णिस० - जो अर्ध मास से लेकर छह मास तक क्रोधका वेदन करता है, वह पृथिवीराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२२॥ ভ७ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० कसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार समाणं कोहं वेदयदि । २३. जो सव्वेसि [ संखेज्जासंखेज्जाणंतेहि ] भवेहिं उत्सम ण गच्छइ, सो पव्वदराइसमाणं कोहं वेदयदि (४)। २४. एदाणुमाणियं सेसाणं पि कसायाणं कायव्वं । २५. एवं चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासिदाओ भवंति । एवं चउट्ठाणे त्ति समत्तमणिओगद्दारं । विशेषार्थ-जिस प्रकार हलके जोतनेसे या गर्मीकी अधिकतासे पृथिवीमे उत्पन्न हुई रेखा अधिकसे अधिक छह मास तक बनी रह सकती है, उसी प्रकार जो रोपपरिणाम प्रतिशोधकी भावनाको लिए हुए अर्ध माससे लेकर छह मास तक बना रहे, उसे पृथिवीकी रेखाके सदृश जानना चाहिए । इस जातिके कपायोदय-कालमें जीव संयमासंयमको भी नहीं धारण कर सकता है । हॉ, सम्यक्त्वको अवश्य धारण कर लेता है। चूर्णिसू०-जो जीव संख्यात, असंख्यात या अनन्त भवोके द्वारा भी उपशमको प्राप्त नहीं होता है, वह पर्वतराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२३॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार पर्वत-शिलामें उत्पन्न हुआ भेद कभी भी संधानको प्राप्त नहीं होता है, इसी प्रकार किसी कारणसे उत्पन्न होकर जो रोपपरिणाम किसी जीवमें अवस्थित रहता हुआ संख्यात, असंख्यात या अनन्त भव तक भी उपशान्त न हो, प्रत्युत इतने लम्बे कालके व्यतीत हो जानेपर भी अपने प्रतिपक्षी जीवको देखकर बदला लेनेके लिए उद्यत हो जाय, उसे पर्वतराजिसदृश कहा गया है। इस जातिकी कपायके उदय होनेपर जीव सम्यक्त्वको भी ग्रहण नहीं कर सकता है, किन्तु मिथ्यात्वमें ही पड़ा रहता है । यह क्रोध कषायका चौथा भेद है, यह बतलाने के लिए उक्त सूत्रके अन्तमे चूर्णिकारने (४) का अंक दिया है । ऊपर जो पृथिवीराजि आदिके सदृश क्रोधका पक्ष, छह मास आदि काल बतलाया गया है, और पहले उपयोग-अधिकारमे प्रत्येक कपायका अन्तर्मुहूर्त ही उत्कृष्ट काल बतलाया है, सो इसमे विरोध नहीं समझना चाहिए । वास्तवमे किसी भी कषायका उपयोग अन्तर्मुहुर्तसे अधिक नहीं रह सकता है। तथापि यहॉपर उक्त काल तक उन-उन कषायोंक अवस्थानका जो वर्णन किया गया है, वह प्रतिशोधकी भावनासे अवस्थित शल्य, वासना या संस्कारकी अपेक्षासे किया गया जानना चाहिए । चूर्णिसू०-इसी प्रकारके अनुमानका आश्रय लेकर शेष कषायोके स्थानोका भी उपनय अर्थात् दृष्टान्तपूर्वक अर्थका प्रतिपादन करना चाहिए। इस प्रकार चार सूत्रगाथाओकी विभाषा की गई है। इसी दिशासे शेष वारह गाथाओंकी भी विभाषा कर लेना चाहिए ॥२४-२५॥ इस प्रकार. चतुःस्थान नामक आठवॉ अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ वंजण-अस्थाहियारो १. वंजणे त्ति अणिओगद्दारस्स सुत्तं । २. तं जहा। (३३) कोहो य कोव रोसो य अक्खम संजलण-कलह-वड्डी य । झंझा दोस विवादो दस कोहेयटिया होति ॥८६॥ (३४) माण मद दप्प थंभो उकास पगास तथ समुकस्सो। अत्तुकरिसो परिभव उस्सिद दसलक्खणो माणो ॥८७॥ ९ व्यञ्जन-अर्थाधिकार चूर्णिसू०-अब व्यञ्जन नामक अनुयोगद्वारके गाथासूत्रोका व्याख्यान करते हैं । वह इस प्रकार है ॥१-२॥ क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, झंझा, द्वेष और विवाद, ये दश क्रोधके एकार्थक नाम हैं ॥८६॥ विशेषार्थ-गुस्सा करनेको क्रोध या कोप कहते हैं । क्रोधके आवेशको रोष कहते है । क्षमा या शान्तिके अभावको अक्षमा कहते है । जो स्व और पर दोनोको जलावे उसे संज्वलन कहते है । दूसरेसे लड़ने या दूसरेके लड़ानेको कलह कहते हैं । जिससे पाप, अपयश, कलह और वैर आदिक बढ़े उसे वृद्धि कहते है । अत्यन्त तीव्र संक्लेश परिणामको झंझा कहते है । आन्तरिक अप्रीति या कलुषताको द्वेप कहते है। विवाद नाम स्पर्धा या संघर्षका है । इस प्रकार ये दश नाम क्रोधके पर्याय-वाचक है । मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्प, आत्मोत्कर्प, परिभव और उसिक्त ये दश नाम मानकषायके हैं ॥८७॥ विशेषार्थ-जाति, कुल आदिकी अपेक्षा अपनेको वड़ा मानना मान कहलाता है । जाति-मदादिकसे युक्त होकर मदिरा-पानके समान मत्त होनेको मद कहते हैं। मदसे बढ़े हुए अहंकारके प्रकट करनेको दर्प कहते हैं । गर्वकी अधिकतासे सन्निपात-अवस्थाके समान अनगेल या यद्वा-तद्वा वचनालाप करनेको स्तम्भ कहते हैं। अपनी विद्वत्ता, विभूति या ख्याति आदिके आधिक्यको चाहना उत्कर्ष है । उत्कर्ष के प्रकट करने को प्रकर्प कहते हैं । उत्कर्ष और प्रकर्षके लिये महान् उद्योग करनेको समुत्कर्ष कहते है । मै ही जात्यादिकी अपेक्षा सबसे वड़ा हूँ, मेरेसे उत्कृष्ट और कोई नहीं है इस प्रकारके अव्यवसायको आत्मोत्कर्ष कहते हैं । दूसरेके तिरस्कार या अपमान करनेको परिभव कहते हैं। आत्मोत्कर्ष और पर-परिभवके Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ फसाय पाहुड सुत्त [९व्यञ्जन-अर्थाधिकार (३५) माया य सादिजोगो णियदी वि य वंचणा अणुज्जुगदा । गहणं मणुण्णमग्गण कक कुहक गृहणच्छण्णो ॥८॥ (३६) कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज दोसो य । __णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य॥८९॥ (३७) सासद पत्थण लालस अविरदि तण्हा य विजजिब्मा य। लोभस्स णामधेजा वीसं एगट्ठिया भणिदा ॥९०॥ एवं वंजणे त्ति समत्तमणिओगद्दारं । द्वारा उद्धत या गर्व-युक्त होनेको उसिक्त कहते हैं। ये सब ही नाम अहंकारके रूपान्तर होनेसे मानके पर्यायवाची कहे गये है। माया, सातियोग, निकृति, वंचना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, गूहन और छन्न ये ग्यारह नाम मायाकषायके हैं ॥८८॥ विशेषार्थ-कपटके प्रयोगको माया कहते है। सातियोग नाम कूटव्यवहारका है । दूसरेके ठगनेके अभिप्रायको निकृति कहते हैं। योग-वक्रता या मन, वचन, कायकी कुटिलताको अनृजुता कहते हैं। दूसरेके मनोज्ञ अर्थके ग्रहण करनेको ग्रहण कहते है । दूसरेके गुप्त अभिप्रायके जाननेका प्रयत्न करना मनोज्ञ-मार्गण है । अथवा मनोज पदार्थको दूसरेसे विनयादि मिथ्या-उपचारोके द्वारा लेनेका अभिप्राय करना मनोज्ञ-मार्गण है । दम्भ करनेको कल्क कहते हैं । असद्भूत मंत्र-तंत्र आदिके उपदेश-द्वारा लोगोको अनुरंजन करके आजीविका करनेको कुहक कहते है । अपने भीतरी खोटे अभिप्रायको बाहर नहीं प्रगट होने देना गृहन कहलाता है । गुप्त प्रयोगको या विश्वास-घात करनेको छन्न कहते हैं। ये सब नाम मायाप्रधान होनेके कारण मायाके पर्यायवाची कहे गये हैं। काम, राग, निदान, छन्द, स्वत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता या शास्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति तृष्णा, विद्या, और जिह्वा ये वीस लोभके एकार्थक नाम कहे गये हैं ॥८९-९०॥ विशेषार्थ-इष्ट पुत्र, स्त्री आदि परिग्रहकी अभिलाषाको काम कहते है । इष्ट विषयोमे आसक्तिको राग कहते हैं। जन्मान्तर-सम्बन्धी संकल्प करनेको निदान कहते हैं । मनोनुकूल वेष-भूषामें उपयोग रखना छन्द कहलाता है । विविध विषयोके अभिलापरूप कलुपित जलके द्वारा आत्म-सिंचनको स्वत कहते हैं। अथवा 'स्व' शब्द आत्मीय-वाचक भी है। स्व के भावको स्वत कहते हैं, तदनुसार स्वतका अर्थ ममता या ममकार होता है। प्रिय वस्तुके पानेके भावको प्रय कहते हैं। दूसरेके वैभव आदिको देखकर ईर्षालु हो उसके समान या उससे अधिक परिग्रह जोड़नेके भावको द्वेष या दोप कहते हैं। इष्ट वस्तुमें मनके Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ९०] कषाय-एकार्थक-नाम-निरूपण ६१३ राग-युक्त प्रणिधानको स्नेह कहते हैं । स्नेहके आधिक्यको अनुराग कहते हैं । अविद्यमान पदार्थकी आकांक्षा करनेको आशा कहते हैं। अथवा 'आश्यति' अर्थात् आत्माको जो कृश करे, उसे आशा कहते हैं । बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहकी अभिलापाको इच्छा कहते हैं । परिग्रह रखनेकी अत्यन्त तीव्र मनोवृत्ति (अभिध्वंग)को मूर्छा कहते है । इष्ट परिग्रहके निरन्तर वृद्धि या अतितृष्णा रखनेको गृद्धि कहते हैं । आशा-युक्त परिणाम या स्पृहाको साशता कहते है। अथवा शस्वत् (नित्य) के भावको शास्वत कहते है। अर्थात् जो लोभपरिणाम सदा काल बना रहे उसे शास्वत कहते हैं। लोभको शास्वत कहनेका कारण यह है कि परिग्रहकी प्राप्तिके पहिले और पीछे लोभपरिणाम सर्वकाल वीतराग होनेतक बराबर बना रहता है । धनप्राप्तिकी अत्यन्त इच्छाको प्रार्थना कहते हैं । परिग्रह-प्राप्तिकी आन्तरिक वृद्धिको लालसा कहते हैं । परिग्रहके त्यागके परिणाम न होनेको अविरति कहते हैं। अथवा अविरति नाम असंयमका भी है। लोभ ही सब प्रकारके असंयमका प्रधान कारण है, इसलिये अविरतिको भी लोभका पर्यायवाची कहा । विपय-पिपासाको तृष्णा कहते हैं। "वेद्यते वेदनं वा विद्या" अर्थात् जिसका निरन्तर पूर्वसंस्कार-वश वेदन या अनुभवन होता रहे, उसे विद्या कहते हैं। इस प्रकारके निरुक्त्यर्थकी अपेक्षा संसारी जीवोको परिग्रहके अर्जन, संरक्षण आदिकी अपेक्षा लोभकषायका निरन्तर संवेदन होता रहता है, इसलिये लोभकी विद्या यह संज्ञा सार्थक है। अथवा जो विद्याके समान दुराराध्य हो । जिसप्रकार विद्याकी प्राप्ति अत्यन्त कष्ट-साध्य हैं, उसी प्रकार धनकी प्राप्ति भी अत्यन्त परिश्रमसे होती है। जिह्वा भी लोभका पर्यायवाची नाम है । लोभको जिह्वा ऐसा नाम देनेका कारण यह है कि जिस प्रकार जिह्वा (जीभ) नाना प्रकारके सुन्दर और सुस्वादु व्यंजनोंको देखकर या नाम श्रवण कर उनके खानेके लिये लालायित रहती है, उसी प्रकार सांसारिक उत्तमोत्तम भोगोपभोग साधक वस्तुओको देखकर या उनकी कथा सुनकर जीवोंके उसकी प्राप्तिके लिए अत्यन्त लोलुपता बनी रहती है। इसप्रकार 'जिह्येव जिह्वा' उपमार्थके साधर्म्यकी अपेक्षा लोभको जिह्वा संज्ञा दी गई है। लोभके ये वीस नाम जानना चाहिये। इस प्रकार व्यंजन नामका नवॉ अर्थाधिकार समाप्त हुआ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सम्मत्त अत्याहियारो १. कसायपाहुडे सम्मत्ते त्ति अणि ओगद्दारे अधापवत्तकरणे हमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ परूवेयव्वाओ । २. तं जहा । (३८) दंसणमोह उवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे । जागे कसा उवजांगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥९१॥ (३९) काणि वा पुव्ववद्धाणि के वा अंसे णिबंधदि । कदि आवलियं पविसंति कदिहं वा पवेसगो ॥ ९२॥ १० सम्यक्त्व - अर्थाधिकार जिनवर गणधरको प्रणमि, समकित में मन लाय । इस सम्यक्त्व - द्वारको, भापूँ अति हर्षाय ॥ चूर्णिसू० - कसायपाहुडके इस सम्यक्त्वनामक अनुयोगद्वारमे अधःप्रवृत्तकरणके विषयमे ये वक्ष्यमाण चार सूत्र - गाथाएँ प्ररूपण करना चाहिए । वे इसप्रकार है ॥१-२॥ दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम कैसा होता है, किस योग, कपाय और उपयोग में वर्तमान, किस लेश्यासे युक्त और कौनसे वेदवाला जीव दर्शनमोहका उपशामक होता है ? ॥ ९१ ॥ इस गाथा के द्वारा उपशमसम्यक्त्वके उत्पन्न करनेवाले जीवके चौदह मार्गणा - स्थानोमें संभव भावोके अन्वेषणकी सूचना की गई है, जिसका निर्णय आगे चूर्णिसूत्रोके आधारपर किया जायगा । दर्शनमोहके उपशम करनेवाले जीवके पूर्व बद्ध कर्म कौन-कौनसे हैं और अब कौन-कौन से नवीन कर्माशोंको बाँधता है । उपशामकके कौन-कौन प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रवेश करती हैं और यह कौन - कौन प्रकृतियोंका प्रवेशक है, अर्थात् उदीरणारूपसे उदयावलीमें प्रवेश कराता है ? ||९२|| विशेषार्थ - इस गाथाके प्रथम चरणके द्वारा दर्शनमोहके उपशमसे पूर्ववर्ती प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसम्बन्धी सत्त्वकी पृच्छा की गई है, क्योंकि, पूर्ववद्ध कर्मको ही सत्त्व कहते है । गाथाके द्वितीय चरणसे नवीन वधनेवाले कर्मों के विषय में प्रश्न किया गया 1 है । तृतीय चरणसे उपशमन - कालमे उदयमें आनेवाले कमोंकी पृच्छा की गई है और अन्तिम 1 चरणसे उस समय किस-किस प्रकृतिको उदीरणा होती है, यह प्रश्न पूछा गया है । इन चारों पृच्छाओका निर्णय आगे चूर्णिसूत्रों द्वारा किया जायगा । Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उप गा० ९४] . उपशामक योग्यता-निरूपण ' (४०) के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा। ___ अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ॥१३॥ (४१) किं टिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टदूण सेसाणि कं ठाणं पडिवजदि ॥१४॥ ३. एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पडमसमए परूविदव्याओ। ४ तं जहा । ५. 'दंसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे' त्ति विहासा । ६. तं जहा । ७. परिणामो विसुद्धो। ८. पुव्वं पि अंतोप्नुहुत्तप्पहुडि अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो आगदो। ९. 'जोगे'त्ति विहासा । १०. अण्णदरमणजोगो वा अण्णदरवचिजोगो वा दर्शनमोहके उपशममकालसे पूर्व बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे काँश क्षीण होते हैं ? अन्तरको कहाँपर करता है और कहाँपर तथा किन कर्मोका यह उपशामक होता है ? ॥१३॥ दर्शनमोहका उपशम करनेवाला जीव किस-किस स्थिति-अनुभाग-विशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है और अवशिष्ट कर्म किस स्थिति और अनुभागको प्राप्त होते हैं । ॥१४॥ चूर्णिसू०-इन उपयुक्त चार सूत्र-गाथाओकी अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमे प्ररूपणा करना चाहिए। वह प्ररूपणा इस प्रकार है-'दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम कैसा होता है ?' प्रथम गाथाके इस पूर्व-अंशकी विभाषा इस प्रकार है-दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम अत्यन्त विशुद्ध होता है, क्योकि वह इसके अन्तर्मुहूर्त पूर्वसे ही अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ आरहा है ॥३-८॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उपशमन करनेके लिए उद्यत जीव अधःप्रवृत्तकरण करनेके अन्तमुहूर्त पूर्वसे ही अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा अन्तमुहूर्ततक निरन्तर वृद्धिगत विशुद्धिवाला होता है। इसका कारण यह है कि अति दुस्तर, मिथ्यात्व गतसे अपना उद्धार करनेके लिए उद्यत, अलब्ध-पूर्व सम्यक्त्व-रत्नकी प्राप्तिके लिए प्रतिक्षण प्रयत्नशील, क्षयोपशम, देशना आदि लब्धियोकी प्राप्तिके कारण महान् सामर्थ्य से समन्वित और प्रतिसमय संवेग-निर्वेदके द्वारा उपचीयमान हातिरेकसे संयुक्त सातिशय मिथ्यादृष्टिके अनन्तगुणी विशुद्धि अन्तर्मुहूर्त तक प्रतिक्षण होना स्वाभाविक ही है । इस प्रकार यह प्रथम सूत्रगाथाके पूर्वार्धका व्याख्यान है। ____ अब चूर्णिकार प्रथम गाथाके उत्तरार्धके प्रत्येक पदकी विभापा करते है चूर्णिसू०- 'जोग' इस पदकी विभाषा इस प्रकार है-अन्यतर मनोयोगी, अन्यतर वचनयोगी, औदारिककाययोगी या वैक्रियिककाययोगी जीव दर्शनमोहका उपशमन प्रारम्भ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१० सम्यक्त्व अर्थाधिकार ओरालियकायजोगो वा उब्धियकायजोगो वा । ११. 'कसाए'त्ति विहासा । १२. अण्णदरो कसायो । १३. किं सो वड्डमाणो हायमाणो त्ति ? णियमा हायमाणकसायो । १४. 'उवजोगे' त्ति विहासा । १५. णियमा सागारुवजोगो। १६. 'लेस्सा'त्ति विहासा। १७. तेउ-परम-सुक्कलेस्साणं णियमा वड्डमाणलेस्सा । १८. 'वेदो य को भवे'त्ति विहासा । १९. अण्णदरो वेदो। २०. 'काणि वा पुव्ववद्धाणि'त्ति विहासा । २१. एत्थ पयडिसंतकम्मं द्विदिसंतकम्ममणुभागसंतकम्मं पदेससंतकम्मं च मग्गियव्वं । २२. 'के वा असे णिवंधदित्ति विहासा । २३. एत्थ पयडिबंधो हिदिवंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो च मग्गियव्यो । २४. 'कदि आवलियं पविसंति'त्ति विहासा । २५. मूलपयडीओ सव्याओ पविसंति । २६. उत्तरपयडीओ वि जाओ अत्थि ताओ पविसंति । २७. णवरि जइ परभावियाउअमत्थि, तं ण पविसदि । करता है। 'कपाय' इस पदकी विभापा इस प्रकार है-चारों कपायोमेसे किसी एक कषायसे उपयुक्त जीव दर्शनमोहके उपशमका प्रारम्भ करता है ॥९-१२॥ शंका-क्या वह वर्धमान कपाय-युक्त होता है, या हीयमान ? समाधान-नियमसे हीयमान कपाय-युक्त होता है ॥१३॥ चूर्णिसू०-'उपयोग' इस पदकी विभापा इस प्रकार है-दर्शनमोहका उपशामक जीव नियमसे साकारोपयोगी होता है। 'लेश्या' इसकी विभापा इस प्रकार है-दर्शनमोहउपशामकके तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओमेसे नियमसे कोई एक वर्धमान लेश्या होती है । 'कौनसा वेद होता है' इस अन्तिम पदकी विभापा इस प्रकार है-तीनो वेदोमेसे कोई एक वेदवाला जीव दर्शनमोहका उपशामक होता है ॥१४-१९॥ इस प्रकार प्रथम गाथाकी अर्थ विभाषा समाप्त हुई। चूर्णिस०-अब दूसरी गाथाके 'काणि वा पुव्ववद्धाणि' इस प्रथम पदकी विभाषा करते हैं-यहॉपर प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मका अनुमार्गण करना चाहिए । अर्थात् उपशम-सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके सत्तायोग्य प्रकृतियोके संभवासंभवका विचार करना चाहिए ॥२०-२१॥ चूर्णिस०-'के वा अंसे णिबंधदि' इस दूसरे पदकी विभाषा करते हैं-इस विषयमें प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्धकी मार्गणा करना चाहिए ॥२२-२३॥ चर्णिस०-'कदि आवलियं पविसंति' इस तीसरे पदकी विभाषा इस प्रकार हैदर्शनमोहका उपशमन करनेवाले जीवके सभी मूल प्रकृतियाँ उदयावलीमे प्रवेश करती हैं । उत्तरप्रकृतियोंमेसे भी जो होती हैं, अर्थात् जिनका सत्त्व पाया जाता है, वे प्रवेश करती हैं, अन्य नहीं । विशेप इतना जानना कि यदि पर-भव-सम्बन्धी आयुका अस्तित्व हो, तो वह उदयावलीमें प्रवेश नहीं करती है ।।२४-२७॥ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० ९४ ] उपशामक - योग्यता -निरूपण ६१७ २८ 'कदिहं वा पवेसगो' त्ति विद्यासा' । २९. मूलपयडीणं सच्चासि पवेसगो । ३०. उत्तरपयडीणं पंच णाणावरणीय चदुदंसणावरणीय मिच्छत्त- पंचिदियजादि - तेनाकम्मइयसर र-वण्ण गंध-रस- फास - अगुरुगलहुग- उवघाद- परघादुस्सास-तस बादर-पज्जत्तपत्तंय सरीर थिराथिर - सुभासुभ- णिमिण-पंचंतराइयाणं णियमा पवेसगो । ३१. सादासादाणमण्णदरस्स पवेसगां । ३२. चटुहं कसायाणं तिण्हं वेदाणं दोन्हं जुगलाणमण्णदरस्स पवेसगो । ३३. भय-दुर्गुछाणं सिया पवेसगो । ३४. चउण्हमाउआणमण्णदरस्स पत्रे सगो । ३५. चदुण्हं गणामाणं दोपहं सरीराणं छण्हं संठाणाणं दोण्हमंगोवंगाणमण्णदरस्स पवेसगो । ३६. छण्हं संघडणाणं अण्णदरस्त सिया । ३७ उज्जोवस्स मिया | | ३८. दो विहाय गइ सुभग- दुभग-सुस्सर दुस्सर-आदेज्ज अणादेज्ज-जसगित्ति - अजसगित्ति- अण्णदरस पवेसगो । ३९. उच्चाणी चागोदाणमण्णदरस्स पवेसगो । ४०. ' के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदरण वा' त्तिविहासा । ४१. असादावेद · चूर्णिसू० - 'कदिहं वा पवेसगो' दूसरी गाथाके इस अन्तिम पदकी विभाषा इस प्रकार है- दर्शनमोहका उपशामक जीव सभी मूल प्रकृतियोकी उदीरणा करता है । उत्तर प्रकृतियों में से पाँचो ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रियजाति, तैजस-कार्मणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और अन्तरायकी पाँचो प्रकृतियोका उदगाद्वारा नियमसे उद्यावलीमे प्रवेश करता है । सातावेदनीय और असातावेदनीयमें से किसी एकका प्रवेश करता है । चारो कषायोमेसे किसी एक कषायका, तीनो वेदोमे से किसी एक वेदका और हास्यादि दो युगलोमेंसे किसी एक युगलका प्रवेश करता है । भय और जुगुप्साका स्यात् प्रवेश करता है । चारो आयुमे से किसी एकका प्रवेश करता है । चारो गतिनामोमेसे किसी एकका, औदारिक और वैक्रियिक इन दो शरीरोमेंसे किसी एकका, छहो संस्थानोमेसे किसी एकका, तथा औदारिकांगोपांग और वैक्रियिकांगोपांग से किसी एकका प्रवेश करता है । छहो संहननोमे से किसी एकका स्यात् प्रवेश करता है । उद्योतका स्यात् प्रवेश करता है । दोनो विहायोगति, सुभग- दुभंग, सुस्वर दुःस्वर, आदेय- अनादेय, यश कीर्ति और अयश कीर्त्ति इन युगलो में से किसी एक एकका प्रवेश करता है । उच्चगोत्र और नीचगोत्र मेसे किसी एकका प्रवेश करता है ॥२८-३९॥ चूर्णि सू०० - अब तीसरी गाथाके 'के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा' इस पूर्वार्धकी विभाषा करते हैं-दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाले जीवके असातावेदनीय, स्त्रीछ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह सूत्र इस प्रकारसे मुद्रित है - [सादासाद वेदणीयाणमण्णदरस्स पवेसगो] ( देखो पृ० १७०० ) | ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'सिया' पदको टीकामें सम्मिलित कर दिया है (देखो पृ० १७०१ ) । पर टीका के अनुसार इसे सूत्रका अश होना चाहिए । ७८ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ कसाय पाहुड सुत्त [१० सम्यक्त्व अर्थाधिकार णीय-इन्थि-णबुंसयवेद-अरदि-सोग-चदुआउ-णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठाण-पंचसंघडण - णिरयगइपाओग्गाणुपुग्वि-आदाव-अप्पसत्थविहायगइ-थावर सुहुम-अप्पज्जत्त - साहारणअथिर-असुभ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसमित्तिणामाणि एदाणि बंधेण वोच्छिण्णाणि। वेद, अरति, शोक, चारो आयु, नरकगति, पंचेन्द्रियजातिके विना चार जाति, प्रथम संस्थानके विना पॉच संस्थान, प्रथम संहननके विना पाँच संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त , साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति, ये प्रकृतियाँ बंधसे पहले ही व्युच्छिन्न हो जाती हैं ॥४०-४१॥ विशेपार्थ-दर्शनमोहके उपशम होनेसे पूर्व ही इन उपर्युक्त प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति इस क्रमसे होती है-दर्शनमोहके उपशमनके लिए उद्यत सातिशय मिथ्यादृष्टि जीवके अभव्योके बंधने योग्य अन्तकोड़ा कोड़ी-प्रसाण स्थितिवन्धकी अवस्था तक तो एक भी कर्म-प्रकृतिका बन्ध-विच्छेद नहीं होता है। इससे अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण स्थितिबन्धापसरण होनेपर अन्य स्थितिको बाँधनेके कालमे सबसे पहले नरकायुकी वन्ध व्युच्छिति होती है । इससे आगे सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धापसरण होनेपर तिर्यगायुकी वन्ध-व्युच्छित्ति होती है । इससे आगे सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर मनुष्यायुकी वन्ध-ज्युच्छित्ति होती है। इससे आगे सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर देवायुकी वन्ध-व्युच्छित्ति होती है। इससे आगे सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धापसरण होनेपर नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी का एक साथ बन्ध-व्युच्छेद होता है। इससे आगे सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर इन तीन अन्योन्यानुगत प्रकृतियोका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है। तत्पश्चात् सागरोपमशतपृथक्त्व स्थितिवन्धापसारण होनेपर सूक्ष्म, अपर्याप्त और प्रत्येकशरीर इन तीन अन्योन्यानुगत प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है। तत्पश्चात् सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होने पर वादर, अपर्याप्त और साधारणशरीर इन तीन अन्योन्यानुगत प्रकृतियोका एकसाथ वन्ध-विच्छेद होता है। तत्पश्चात् सागरोग. क्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर वादर, अपर्याप्त और प्रत्येकशरीर, इन तीन अन्योन्यानुगत प्रकृतियोका एक साथ बन्धविच्छेद होता है। पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धापसरण होनेपर द्वीन्द्रियजाति और अपर्याप्तनामका परस्पर-संयुक्त रूपसे बन्ध-विच्छेद होता है। पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धापसरण होनेपर त्रीन्द्रियजाति और अपर्याप्तनामका परस्पर-संयुक्तरूपसे बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धापसरण होनेपर चतुरिन्द्रियजाति और अपर्याप्तनामका परस्पर संयुक्तरूपसे वन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धापसरण होनेपर असंज्ञिपंचेन्द्रियजाति और अपर्याप्तनामका परस्पर-संयुक्तरूपसे वन्ध विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर संज्ञिपंचेन्द्रियजाति और अपर्याप्तनामका परस्पर-संयुक्तरूपसे बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धापसरण होनेपर Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ९४ ] उपशामक - योग्यता -निरूपण ६१९ सूक्ष्म, पर्याप्त और साधारणशरीर, इन तीनोंका परस्पर संयुक्तरूपसे बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर सूक्ष्म, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर, इन तीनोंका परस्पर-संयुक्तरूपसे बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर बादर, पर्याप्त और साधारणशरीर, इन तीनोका परस्पर संयुक्तरूपसे बन्धविच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, एकेन्द्रिय, आताप, और स्थावरनाम, इन छह प्रकृतियोका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर द्वीन्द्रियजाति और पर्याप्तनामका वन्ध विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिवन्धा पसरण होनेपर त्रीन्द्रियजाति और पर्याप्तनामका बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितित्रन्धापसरण होनेपर चतुरिन्द्रियजाति और पर्याप्तनामका वन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धा पसरण होनेपर असंज्ञिपंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्तनामका वन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत इन तीन प्रकृतियोंका एकसाथ बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर नीचगोत्रका बन्ध-विच्छेद होता है । यहाँ इतना विशेष जानना कि सातवी पृथिवीके नारकीकी अपेक्षा तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोका बन्ध-विच्छेद नहीं होता है, इसीलिए चूर्णिसूत्रमे इन प्रकृतियोके बन्ध-विच्छेदका निर्देश नहीं किया गया । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भाग, दुःस्वर और अनादेय, इन प्रकृतियोका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपसपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर हुंडकसंस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, इन दोनो प्रकृतियोका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धासरण होनेपर नपुंसक वेदका बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धासरण होनेपर वामनसंस्थान और कीलकसंहनन इन दोनो प्रकृतियोका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर कुब्जकसंस्थान और अर्धनाराचसंहनन इन दो प्रकृतियोका एक साथ बन्धव्युच्छेद होता है - पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर स्त्रीवेदका बन्ध विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर स्वातिसंस्थान और नाराचसंहनन इन दो प्रकृतियोका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसारण होनेपर न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान और वज्रनाराचसंहनन, इन दो प्रकृतियोका एक साथ बन्धविच्छेद होता है । पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभनाराचसंहनन, और मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्बी, इन पाँच प्रकृतियोका एक साथ बन्ध-विच्छेद होता है । यह सब बन्धविच्छेदका वर्णन तिर्यंच और मनुष्योकी अपेक्षासे किया है । क्योकि, देव और नारकियोमे इन प्रकृतियोको बन्ध Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० कसाय पाहुड सुत्त [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार ४५. पंचदंसणावरणीय-चदुजादिणामाणि चदुआणुपुषिणामाणि आदानथावर-सुहुम-अपज्जत्त साहारणसरीरणामाणि एदाणि उदएण वांच्छिणाणि । ४३. 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं' ति विहासा । ४४. ण ताव अंतरं, उवसामगो वा पुरदो होहिदि त्ति । एवं तदियगाहाए अत्थविहासा समत्ता। ४५. 'किं ठिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा। ओवट्टेयण सेसाणि कं । ठाणं पडिवज्जदि' त्ति विहासा । ४६. द्विदिघादो* संखेज्जा भागे घादेदण संखेज्जदिविच्छेद नहीं पाया जाता है, इसीलिए सूत्रमे इन उक्त प्रकृतियो के बन्ध-विच्छेदका निर्देश नहीं किया गया है । बन्ध-प्रकृतियोके विच्छेदका निर्देशक यह चूर्णिसूत्र चतुर्गति-सामान्यकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुआ है। पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर असाता. वेदनीय, अरति; शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःर्कार्ति, इन प्रकृतियोका एक साथ बन्धविच्छेद होता है । इस प्रकार चौंतीस बन्धापसरणोके द्वारा उपयुक्त प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, अर्थात् उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकतियोंका बन्ध नहीं करता है। इस प्रकार दर्शनमोहके उपशमनके पूर्व होनेवाले प्रकृतिवन्ध-व्युच्छेदको बतलाकर अब चूर्णिकार प्रकृति विषयक उदय-व्युच्छेदका निरूपण करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिस०-पाँच दर्शनावरणीय, एकेन्द्रियादि चार जातिनामकर्म, चारो आनुपूर्व्यनामकर्म, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरनामकर्म, इतनी प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥४२॥ विशेषार्थ-यहॉपर दर्शनावरणीयकी पॉच प्रकृतियोंमेसे पॉचो निद्राकर्मीका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि दर्शनमोहका उपशमन करनेवाले जीवके साकार-उपयोग और जागृतअवस्था बतलाई गई है, जो कि किसी भी प्रकारके निद्राकर्मके उदयमे संभव नहीं है। यही बात चार जाति आदि शेष प्रकृतियोके उदय विच्छेदके विषयमे जानना चाहिए। ___ चूर्णिस०-अव 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं' तीसरी गाथाके इस उत्तरार्धकी विभापा करते हैं-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमै न अन्तरकरण होता है और न यहाँ पर वह मोहकर्मका उपशामक ही होता है, किन्तु आगे जाकर अनिवृत्तिकरणके कालमें ये दोनों ही कार्य होगे ॥४३-४४॥ __ इस प्रकार तीसरी गाथाकी अर्थ-विभाषा समाप्त हुई। चूर्णिसू०-अब 'किं ठिदियाणि कम्माणि' इस चौथी गाथाकी विभाषा की जाती है। स्थितियात संख्यात बहुभागोका घात करके संख्यातवें भागको प्राप्त होता है । अनुभागघात अनन्त बहुभागोंका घात करके अनन्तवें भागको प्राप्त होता है। इसलिए इस अध: ७ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें विदिघादो' के स्थानपर 'ट्ठिदियादो' पाठ मुद्रित है (देखो पृ० १७०६)। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० ९४ ] उपशामक - योग्यता- निरूपण ६२१ भागं पडिवज्जइ । ४७. अणुभागवादो अर्णते भागे घादिदूण अनंतभागं पडिवज्जइ । ४८. तदो इस्स चरिमसमय अधापवत्तकरणे वट्टमाणस्स णत्थि द्विदिघादो वा, अणुभागादो वा । से काले दो वि घादा पत्तीहिंति । ४९. एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पडमममए परूविदाओ । ५०. दंसणमोह उवसामगस्स तिविहं करणं । ५१ तं जहा । ५२. अधापवत्तकरणमपुत्रकरणमपिट्टिकरणं च । ५३. चउत्थी उवसामणद्धा । प्रवृत्तकरणके चरम समयमे वर्तमान जीवके न तो स्थितिघात होता है और न अनुभागधात होता है । किन्तु तदनन्तर समयमें अर्थात् अपूर्वकरणके कालमें ये दोनो ही घात प्रारम्भ होगे ॥४५-४८ ॥ चूर्णिसू० - इस प्रकार उक्त चारों सूत्र -गाथाएँ अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें प्ररूपित की गईं । दर्शनमोहका उपशमन करनेवाले जीवके तीन प्रकारके करण अर्थात् परिणामविशेष होते हैं । वे इस प्रकार हैं- अधः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । उक्त जीवके चौथी उपशामनाद्धा भी होती है ।। ४९-५३॥ विशेषार्थ - जिन परिणामविशेषोके द्वारा मोहकर्मका उपशम, क्षय या क्षयोपशम किया जाता है उन्हें करण कहते हैं । वे परिणामविशेष तीन प्रकार के होते हैं - अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । चूर्णिकार आगे स्वयं ही तीनों करणोका विस्तृत विवेचन करेगे । यहाँ इनका इतना अभिप्राय समझ लेना चाहिए कि जिस भाव में वर्तमान जीवोके उपरितनसमयवर्ती परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवोके साथ संख्या और विशुद्धिकी अपेक्षा सदृश होते है, उन भावोके समुदायको अधः प्रवृत्तकरण कहते है । इस अधःप्रवृत्तकरणका काल अन्तर्मुहूर्त है । अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण अपूर्वकरणका काल है और अपूर्वकरण कालके संख्यातवें भागप्रमाण अनिवृत्तकरणका काल है । इन तीनो परिणामोका समुदायात्मक काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है । जिस कालमें प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिको लिए हुए अपूर्व - अपूर्व परिणाम होते हैं, उन परिणामोको अपूर्वकरण कहते हैं । अपूर्व - करण के विभिन्न समयो में वर्तमान जीवों के परिणाम सदृश नहीं होते, किन्तु विसदृश या असमान और अनन्तगुणी विशुद्धतासे युक्त पाये जाते हैं । अधःप्रवृत्तकरणके परिणाम असख्यात लोकप्रमाण हैं । यद्यपि अधःप्रवृत्तकरण के काल से अपूर्वकरणका काल अल्प है, तथापि परिणामोंके संख्या की अपेक्षा अधःप्रवृत्तकरणके परिणामोसे अपूर्वकरणके परिणाम असंख्यात लोकगुणित होते हैं । अनिवृत्तिकरणके परिणामोकी संख्या उसके कालके समयोके समान है । अर्थात् एक समयवर्ती जीवके एक ही परिणाम पाया जाता है और एक समयवर्ती अनेक जीवोके भी एक सदृश ही परिणाम पाये जाते हैं । एक कालवर्ती जीवोंके परिणामों में निवृत्ति, भेद या विसदृशता नहीं पाई जाती है, इसीलिए उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते हैं । चौथी उपशामनाद्धा होती है । अद्धा नाम कालका है, जिस कालविशेप में दर्शनमोहनीय कर्म I Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त | १० सम्यक्त्व अर्थाधिकार ५४. एसिं करणाणं लक्खणं । ५५. अधापवत्तकरण पढमसपए जहण्णिया विसोही थोवा । ५६. विदियसमए जहणिया विसोही अनंतगुणा । ५७. एवमं तोमुत्तं । ५८. तदो परमसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । ५९. जम्हि जहणिया विसोही गिट्टिदा, तदो उवरिमसपए जहण्णिया विसोही अनंतगुणा । ६० विदियसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । ६१. एवं णिव्वग्गणखंडयमंतो मुहुत्तद्धमेत्तं अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति । ६२. तदो अंतोहुत्तमोसरियूण जम्हि उक्कस्सिया विसोही गिट्टिदा, तत्तो | उवरिमसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । ६३. एवमुकस्सिया विसोही दव्या जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो ति । ६४. एदमधापवत्तकरणस्स लक्खणं । उपशम अवस्थाको प्राप्त होकर अवस्थित रहता है, उसे उपशामनाद्धा या उपगमकाल कहते है | ६२२ 1 चूर्णिसू०- - अब इन तीनो करणोका लक्षण कहते है - अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समयमे जघन्य विशुद्धि सबसे कम होती है। प्रथम समयसे द्वितीय समयमे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । ( द्वितीय समयसे तृतीय समयसे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है | ) इस प्रकार यह क्रम अन्तर्मुहूर्त तक चलता है । तत्पश्चात् प्रथम समयमे उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । जिस समयमे जघन्य विशुद्धि समाप्त हो जाती है, उससे उपरिम समयमें, अर्थात् प्रथम निर्वर्गणाकांडक के अन्तिम समय के आगे के समयमे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे द्वितीय समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । इस प्रकार यह क्रम निर्वर्गणाकांडकमात्र अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक चलता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल अपसरण करके जिस समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि समाप्त होती है, उससे अर्थात् द्विचरमनिर्वर्गणाकांडक के अन्तिम समयसे - उपरिम समयमे अर्थात् अन्तिम निर्वर्गणाकांडके प्रथम समयमे उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी “होती है । इस प्रकारसे उत्कृष्ट विशुद्धिका यह क्रम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए । यह अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण है ॥५४-६४॥ विशेषार्थ - अधःप्रवृत्त करणके स्वरूपको और ऊपर बतलाये गये अल्पबहुत्वको एक दृष्टान्त-द्वारा स्पष्ट करते हैं- दो जीव एक साथ अवःकरणपरिणामको प्राप्त हुए। उनमे एक तो सर्व-जघन्य विशुद्धिके साथ अधःप्रवृत्तकरणको प्राप्त हुआ और दूसरा सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके साथ । प्रथम जीवके प्रथम समयमे परिणामांकी विशुद्धि सबसे मन्द होती है । इसे दूसरे समयमे उसके जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इससे तीसरे समयमे उसके जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि अधःप्रवृत्त ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्रको ५३ न० के सूत्रकी टीकामे सम्मिलित कर दिया है (देखो पृ० १७०८ पक्ति पक्ति ) । पर ताड़पत्रीय प्रतिसे इसके सूत्रत्वकी पुष्टि हुई है । * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'तत्तो' के स्थानपर 'तटो' पाठ मुद्रित है (देखो पृ० १७१२ ) । Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હરડું गा० ९४] अपूर्वकरण-स्वरूप-निरूपण - ६५. अपुव्यकरणस्स पडमसमए जहणिया विसोही थोवा । ६६. तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा । ६७. विदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । ६८. तत्थेव उक्करिसया विसोही अणंतगुणा । ६९ समये समये असंखेज्जा लोगा परिणामट्ठाणाणि* ७०. एवं णिव्वग्गणा च । ७१. एदं अयुधकरणस्स लक्खणं ।। करणका संख्यातवा भाग अर्थात् निर्वर्गणाकांडकका अन्तिम समय न प्राप्त हो जाय । इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके संख्यातवे भागको प्राप्त प्रथम जीवके जो विशुद्धि होगी, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस दूसरे जीवके प्रथम समयमे होगी जो कि उत्कृष्ट विशुद्धिके साथ अधःकरणको प्राप्त हुआ था। इस दूसरे जीवके प्रथम समयमे जितनी विशुद्धि होती है, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस प्रथम जीवके होती है जो कि एक निर्वर्गणाकांडक या अधःप्रवृत्तकरणके संख्यातवे भागसे ऊपर जाकर दूसरे निर्वर्गणाकांडकके प्रथम समयमे जघन्य विशुद्धिसे वर्तमान है। इस प्रथस जीवके इस स्थानपर जितनी विशुद्धि है, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस दूसरे जीवके दूसरे समयमें होगी। इससे अनन्तगुणी विशुद्धि प्रथम जीवके एक समय ऊपर चढ़नेपर होगी। इस प्रकार इन दोनो जीवोको आश्रय करके यह अनन्तगुणित विशुद्धिका क्रम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय-सम्बन्धी जघन्य विशुद्धिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । उससे ऊपर उत्कृष्ट विशुद्धिके स्थान अनन्तगुणित क्रमसे होते हैं । इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणमे विद्यमान जीवके परिणामोकी विशुद्धि उत्तरोत्तर समयोमे अनन्तगुणित क्रमसे बढ़ती जाती है। अब अपूर्वकरणका लक्षण कहते हैं चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमे जघन्य विशुद्धि वक्ष्यमाण पदोंकी अपेक्षा सबसे कम होती है। इसी प्रथम समयमे जघन्य विशुद्धिसे उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धिसे द्वितीय समयकी ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। ( इसप्रकार यह क्रम अपूर्वकरण-कालके अन्तिम समय तक चलता है । ) अपूर्वकरणके कालमें समय-समय अर्थात् प्रतिसमय असंख्यात लोक-प्रमाण परिणामस्थान होते है। इस प्रकार वह क्रम निर्वर्गणाकांडक तक चलता है। यह अपूर्वकरणका लक्षण है ॥६५-७१॥ विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणके कालमे जिस प्रकार अनुकृष्टि रचना होती है उस ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इस सूत्रको सूत्र न० ६८ की टीकामें सम्मिलित कर दिया है ( देखो पृ० १७१३, पक्ति १४ ) । पर उक्त स्थलकी टोकासे तथा ताडपत्रीय प्रतिसे उसकी सूत्रता सिद्ध है। + ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह सूत्र इस प्रकार मुद्रित है-'एवंणिचगणाच जत्तियमद्धाणमुवरि गंतूण णिरुद्धसमयपरिणामाणमणुकट्टी वोच्छिज्जदि, तमेव णिव्वग्गणखंडयं णाम' । (देखो पृ० १७१३ ) पर 'जत्तिय' पदसे आगेका अश टीकाका अग है, जिसमें कि निवर्गणाकाडकका स्वरूप वतलाया गया है। Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ कसाय पाट जुत्त [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार ७२. अणियट्टिकरणे समए समए एकेक्कपरिणामट्ठाणाणि अणंतगुणाणि च । ७३. एदमणियट्टिकरणस्स लक्षणं । ७४. अणादियमिच्छादिहिस्स उवसामगस्स परूवणं वत्तइस्मामो। ७५. तं जहा । ७६. अधापवत्तकरणे हिदिखंडयं वा अणुभागखंडयं वा गुणसेही वा गुणसंकमो वा णत्थि, केवलमणंतगुणाए विसाहीए विसुज्झदि । ७७. अप्पसत्थसम्मंस जे बंधइ ते दुहाणिये अणंतगुणहीणे च । पसत्थकम्मसे जे बंधइ ते चउट्ठाणिए अणंतगुणे च समये समये । ७८. द्विदिवंधे पुण्णे पुण्णे अण्णं द्विदिबंध पलिदोवयस्म संखेज्जदिभागहीणं बंधदि । प्रकारसे अपूर्वकरणके कालमे अनुकृष्टिरचना नहीं होती है, क्योकि यहाँ प्रत्येक समयमें ही जघन्य विशुद्धिसे उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। फिर भी यह क्रम निर्वर्गणाकांडक तक चलता है, ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि यहॉपर प्रत्येक समयमे ही निर्वर्गणाकांडक जानना चाहिए। इसका कारण यह है कि विवक्षित किसी भी समयके परिणाम उपरितन किसी भी समयके साथ समान नहीं होते है, किन्तु असमान या अपूर्व ही अपूर्व होते हैं । निर्वर्गणाकांडक किसे कहते है ? इस शंकाका समाधान यह है कि जितने काल आगे जाकर निरुद्ध या विवक्षित समयके परिणामोकी अनुकृष्टि विच्छिन्न हो जाती है, उसे निर्वर्गणाकांडक कहते हैं। अब अनिवृत्तिकरणका लक्षण कहते हैं चूर्णिसू०-अनिवृत्तिकरणके कालमे समय-समयमे अर्थात् प्रत्येक समयमें एक-एक ही परिणामस्थान होते हैं अर्थात् अनिवृत्तिकरणकालके जितने समय हैं, उतने ही उसके परिणामोकी संख्या है। तथा वे उत्तरोत्तर अनन्तगुणित होते हैं। अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयके परिणामसे द्वितीय समयका परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिसे युक्त होता है । यह क्रम अन्तिम समय तक जानना चाहिए । यह अनिवृत्तिकरणका लक्षण है ।।७२-७३॥ चूर्णिस०-अत्र उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले अनादिमिथ्यादृष्टि जीवकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-अनादिमिथ्यादृष्टिके अधःप्रवृत्तकरणमे स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकयात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रम नहीं होता है। वह केवल प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ चला जाता है। यह जीव जिन अप्रशस्त कांशोको वॉधता है, उन्हे द्विस्थानीय अर्थात् निम्ब और कांजीररूप और समय-समय अनन्तगुणहीन अनुभागशक्तिसे युक्त ही वॉधता है। जिन प्रशस्त कर्मांशोको बॉधता है, उन्हे गुड़, खांड आदि चतुःस्थानीय और समय समय अनन्तगुणी अनुभागशक्तिसे युक्त वॉधता है। अधःप्रवृत्तकरणकालमे स्थितिवन्धका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक एक स्थितिबन्धकालके पूर्णपूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवे भागसे हीन अन्य स्थितिवन्धको वॉधता है । इस प्रकार 2 ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'समये समये' इतने सूत्राशको टीकामें सम्मिलित कर दिया है ( देखो पृ० १७१५ पंक्ति २)। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०९४] अपूर्वकरण-स्वरूप-निरूपण ६२५ ७९. अपुचकरणपढमसमये द्विदिखंडयं जहण्णगं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो उकस्सगं सागरोवमपुधत्तं ।. ८०. द्विदिबंधो अपुरो । ८१. अणुभागखंडयमप्पसत्थकम्मसाणमणता भागा । ८२. तस्स पदेसगुणहाणिहाणंतरफयाणि थोवाणि । ८३. अइच्छावणाफद्दयाणि अणंतगुणाणि । ८४. णिक्खेवफद्दयाणि अणंतगुणाणि । ८५. आगाइदफयाणि अणंतगुणाणि । ८६.. अपुव्वकरणस्स चेव पढमसमए आउगवज्जाणं कम्माणं गुणसे ढिणिक्खेवो अणियट्टिअद्धादो अपुव्वकरणद्धादो च विसेसाहिओ । ८७. तम्हि द्विदिखंडयद्धा ठिदिवंधगद्धा च तुल्ला । ८८. एक्कम्हि द्विदिखंडए अणुभागखंडयसहस्साणि घाददि । ८९. ठिदिखडगे समत्ते संख्यात सहस्र स्थितिबन्धापसरणोके होनेपर अधःप्रवृत्तकरणका काल समाप्त हो जाता है ॥७४-७८॥ चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमे जघन्य स्थितिखंड पल्योपमका संख्यातवाँ भाग है और उत्कृष्ट स्थितिखंड सागरोपमपृथक्त्व है। अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होनेवाले स्थितिवन्धसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन अपूर्व स्थितिवन्ध अपूर्वकरणके प्रथम समयमे होता है । अपूर्वकरणके प्रथम समयमे अनुभागकांडकघात अप्रशस्त प्रकृतियोका अनन्त बहुभाग होता है। विशुद्धिके बढ़नेसे प्रशस्त कोंके अनुभागकी वृद्धि तो होती है, पर अनुभागका घात नहीं होता है ॥७९-८१॥ . अब चूर्णिकार अनुभागकांडकघातका माहात्म्य बतलाने के लिए अल्पबहुत्व कहते हैं चूर्णिसू०-अनुभागके एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरमे जो अनुभागसम्बन्धी स्पर्धक हैं, वे वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है। उनसे अतिस्थापनाके स्पर्धक अनन्तगुणित होते हैं, ( क्योंकि जघन्य भी अतिस्थापनाके भीतर अनन्त गुणहानिस्थानान्तर पाये जाते हैं। ) अतिस्थापनाके स्पर्धकोसे निक्षेप सम्बन्धी स्पर्धक अनन्तगुणित होते है। निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धकोसे अनुभागकांडकरूपसे ग्रहण किये गये स्पर्धक अनन्तगुणित होते हैं, (क्योकि, यहॉपर संभव द्विस्थानीय अनुभागसत्त्वके अनन्तवें भागको छोड़कर शेष अनन्त बहुभागको कांडकस्वरूपसे ग्रहण किया गया है । ) अपूर्वकरणके ही प्रथम समयमे आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका गुणश्रेणीनिक्षेप अनिवृत्तिकरणके कालसे और अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक है। अपूर्वकरणमे स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिबंधका काल, ये दोनो तुल्य होते है । ( क्योकि इन दोनोंका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । इतना विशेष है कि प्रथम स्थितिकांडकके उत्कीरणकाल और स्थितिवन्धके काल यथाक्रमसे विशेष हीन होते जाते है । ) एक स्थितिकांडकके कालमें सहस्रो अनुभागकांडकोका घात करता है, (क्योकि, स्थितिकांडकके उत्कीरण-कालसे अनुभागकांडकका उत्कीरण-काल संख्यातगुणित हीन होता है। ) स्थितिकांडक-घातके समाप्त होनेपर अनुभागकांडक-घात और स्थितिवन्धकका काल ७२ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १० सम्यक्त्व अर्थाधिकार अणुभागखंडयं च द्विदिबंधगद्धा च समत्ताणि भवंति । ९०. एवं ठिदिखंडय सहस्से हिं बहुहिं गदेहिं अपुव्यकरणद्धा समत्ता भवदि । ९१. अपुव्यकरणस्स पढमसमए डिदि - संतकम्मादो चरिमसमए द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणहीणं । ९२. अणियसि पढमसमए अण्णं द्विदिखंडयं, अण्णो द्विदिबंधो, अण्णमणुभागखंडयं । ९३. एवं द्विदिखंडय सहस्सेहिं अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु अंतरं करेदि । ९४. जा तम्हि द्विदिबंधगद्धा तत्तिएण कालेण अंतरं करेमाणो गुणसमाप्त हो जाता है । इस प्रकार अनेक सहस्र स्थितिकांडक - घातो के व्यतीत हो जानेपर अपूर्वकरणका काल समाप्त हो जाता है। अपूर्वकरणके प्रथम समयमे होनेवाले स्थितिसत्त्वसे ( और स्थितिबन्धसे ) अपूर्वकरण के अन्तिम समयमे स्थितिसत्त्व ( और स्थितिबन्ध ) संख्यातगुणित हीन होता है । इस प्रकार अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है ।। ८२-९१। चूर्णिसू० – अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अन्य स्थितिखंड, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकांडक-घात प्रारम्भ होता है । ( किन्तु गुणश्रेणिनिक्षेप अपूर्वकरणके समान ही प्रतिसमय असंख्यातगुणित प्रदेशो के विन्यास से विशिष्ट और गलितावशेषरूप ही रहता है । ) इस प्रकार सहस्रो स्थितिकांडक - घातो के द्वारा अनिवृत्तिकरण- कालके संख्यात बहुभागोके व्यतीत होनेपर उक्त जीव मिथ्यात्वकर्मका अन्तर करता है ।। ९२-९३॥ ६२६ विशेषार्थ - विवक्षित कर्मोंकी अधस्तन और उपरिम स्थितियोंको छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियोके निषेकोंका परिणामविशेषसे अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं । जब अनादिमिध्यादृष्टि जीव क्रमशः अधःकरण और अपूर्वकरणका काल समाप्त करके अनिवृत्तिकरणकाल के भी संख्यात बहु भाग व्यतीत कर लेता है, उस समय मिथ्यात्व कर्मका अन्तर्मुहूर्त काल तक अन्तरकरण करता है । अर्थात् अन्तरकरण प्रारम्भ करने के समय से पूर्व उदयमे आनेवाले मिथ्यात्वकर्मकी अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण स्थितिके निषेकोका उत्कीरण कर कुछ कर्म-प्रदेशको प्रथमस्थितिमे क्षेपण करता है और कुछ को द्वितीयस्थितिमें । अन्तरकरणसे नीचेकी अन्तर्मुहूर्त - प्रमित स्थितिको प्रथमस्थिति कहते हैं और अन्तरकरण से ऊपर की स्थिति - को द्वितीयस्थिति कहते हैं । इस प्रकार प्रतिसमय अन्तरायाम-सम्बन्धी कर्म- प्रदेशोको ऊपरनीचे की स्थितियो में तब तक क्षेपण करता रहता है, जबतक कि अन्तरायाम-सम्बन्धी समस्त निषेकोका अभाव नहीं हो जाता है । यह क्रिया एक अन्तर्मुहूर्त काल तक जारी रहती है । इस प्रकार अन्तरायामके समस्त निषेकोके प्रथमस्थिति और द्वितीयस्थिति में देनेको अन्तरकरण कहते हैं । चूर्णिसू०(० - उस समय जितना स्थितिबन्धका काल है, उतने कालके द्वारा अन्तरको करता हुआ गुणश्रेणिनिक्षेपके अग्राप्रसे अर्थात् गुणश्रेणीशीर्षसे लेकर नीचे ) संख्यात १ किमंतरकरण णाम ? विवक्खियकम्माण हेट्टिमोवरिमठिदीओ मोत्तूण मज्झे अतोमुहुत्तमेत्ताणं ट्रिटदीण परिणाम विसेसेण णिसेगाणमभावीकरणम तरकरणमिदि भण्णदे । जयध० Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ९४ ] अनिवृत्तिकरण-स्वरूप निरूपण ६२७ सेढिणिक्खेवस अग्गग्गादो [ हेट्ठा ] संखेज्जदिभागं खंडेदि । ९५. तदो अंतरं कीरमाणं कदं । ९६. तदोपहुड उचसामगोत्ति भण्णइ | ९७. मदीदो वि विदियट्टिदीदो वि आगाल - पडिआगालो' तात्र, जाव आवलियपडिआवलियाओ' सेसाओ ति । ९८. आवलिय - पडिआवलियासु सेसासु तदोपहुडि मिच्छत्तस्स गुणसेडी णत्थि । ९९. सेसाणं क्रम्माणं गुणसेठी अस्थि । १००. भागप्रमाण प्रदेशाको खंडित करता है । ( गुणश्रेणीशीर्पसे ऊपर संख्यातगुणी उपरिम स्थितियोको खंडित करता है । तथा अन्तरके लिए वहॉपर उत्कीर्ण किये गये प्रदेशाग्रको उस समय बॅधनेवाले मिथ्यात्वकर्ममे उसकी आबाधाकालहीन द्वितीयस्थिति में स्थापित करता है और प्रथमस्थितिमें भी देता है, किन्तु अन्तरकाल - सम्बन्धी स्थितियों में नहीं देता है | ) इस प्रकार किया जानेवाला कार्य किया गया, अर्थात् अन्तरकरणका कार्य सम्पन्न हुआ । अन्तरकरण समाप्त होनेके समय से लेकर वह जीव 'उपशामक' कहलाता है ९४-९६ ॥ विशेषार्थ - यद्यपि अन्तरकरण समाप्त करनेसे पूर्व भी वह जीव 'उपशामक' ही था, किन्तु चूर्णिकारने यहाॅ यह पद मध्यदीपकन्यायसे दिया है, तदनुसार यह अर्थ होता है कि अधःप्रवृत्तकरण प्रारम्भ करनेके समय से लेकर अन्तरकरण करनेके समय तक भी वह उपशामक था और आगे भी मिथ्यात्वके तीन खंड करने तक उपशामक कहलायेगा । ॥ चूर्णिसू० - प्रथमस्थिति से भी और द्वितीयस्थिति से भी तत्र तक आगाल- प्रत्यागाल होते रहते हैं, जबतक कि आवली और प्रत्यावली शेष रहती हैं ॥९७॥ विशेषार्थ - प्रथम स्थिति और द्वितीयस्थितिका अर्थ पहले वतला आये हैं । अपकर्षण के निमित्तसे द्वितीयस्थितिके कर्म - प्रदेश के प्रथमस्थितिमें आनेको आगाल कहते है । तथा उत्कर्षण के निमित्तसे प्रथमस्थिति के कर्म-प्रदेशोके द्वितीयस्थितिमे जानेको प्रत्यागाल कहते हैं । सूत्रमें 'आवली' ऐसा सामान्य पद होनेपर भी प्रकरणवश उसका अर्थ 'उदयावली' करना चाहिए । उदयावलीसे ऊपर के आवलीप्रमाण कालको प्रत्यावली या द्वितीयावली कहते हैं । जब अन्तरकरण करनेके पश्चात् मिध्यात्वकी स्थिति आवलि - प्रत्यावलीमात्र रह जाती है, तब आगाल - प्रत्यागालरूप कार्य बन्द हो जाते हैं । चूर्णिसू० - आवली और प्रत्यावलीके शेष रह जानेपर उससे आगे मिध्यात्वकी गुणश्रेणी नही होती है, ( क्योकि उस समयमें उदयावलीसे वाहिर कर्म-प्रदेशोका निक्षेप नहीं होता है । ) किन्तु शेष कर्मोंकी गुणश्रेणी होती है । ( यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आयुकर्मकी भी उस समय गुणश्रेणी नहीं होती है ।) उस समय प्रत्यावलीसे १ आगालमागालो, विदियट्ठिदिपदेसाण पढमट्ठिदीए ओकड्डणावसेणागमण मिदि वृत्त होइ । प्रत्यागलन प्रत्यागालः, पढमठिदिपदेसाण विदियट्ठिदीए उक्कडणावसेण गमणमिदि भणिद होइ । तदो पढम विदियट्ठिदिपदेसाणमुक्कड्डुणोकडणावसेण परोप्परविसयस कमो आगाल पडिभागालो त्ति घेत्तव्यो । जयध० २ तत्थावलिया त्ति वुत्ते उदयावलिया घेत्तव्वा । पडिआवलिया त्ति एदेण वि उदयावलियादो उवरिमविदियावलिया गहेयव्वा । जयध० } Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ १० सम्यक्त्व अर्थाधिकार पडिआवलियादो चेव उदीरणा । १०१. आवलियाए सेसाए मिच्छत्तस्स घादो णत्थि । १०२. चरिमसमयमिच्छाड्डी से काले उवसंतदंसणमोहणीओ' । १०३. ताधे चैव तिण्णि कम्मंसी उप्पादिदौ । १०४. पडमसमय वसंतदंसणमोहणीओ मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि । सम्मत्ते असंखेज्जगुणहीणं पदेसग्गं देदि । १०५. विदियसमए सम्मत्ते असंखेज्जगुणं देदि । १०६. सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणं देदि । १०७. तदियसमए सम्मत्ते असंखेज्जगुणं देदि । १०८. सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणं देदि । १०९. एवमं तो मुहुत्तद्धं गुणसंकमो णाम । ११०. तत्तो परमंगुलस्स असंखेज्जदिही मिध्यात्कर्मी उदीरणा होती है । आवली अर्थात् उद्यावलीमात्र प्रथमस्थितिके शेष रह जानेपर मिध्यात्वकर्मके स्थिति अनुभागका उदीरणारूपसे बात नहीं होता है ।। ९८ - १०१ ॥ विशेषार्थ - मिध्यात्वका स्थितिकांडकघात और अनुभागकांडकघात तो प्रथमस्थितिके अन्तिम समय तक संभव है; क्योंकि, चरमस्थितिके वन्धके साथ ही उनकी समाप्ति देखी जाती हैं | इसलिए यहाँ उदीरणाघातका ही निषेध किया गया है, ऐसा जानना चाहिए । ૬૮ चूर्णिसू० - उपर्युक्त विधान से आवलीमात्र अवशिष्ट मिध्यात्वकी प्रथमस्थितिको क्रमसे वेदन करता हुआ उक्त जीव चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि होता है और तदनन्तर समयमें अर्थात् मिध्यात्वकी सर्व प्रथमस्थितिको गला देनेपर वह दर्शनमोहनीचकर्मका उपशम करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है । तभी ही वह अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्मका उपशमन करनेके प्रथम समय में ही, मिध्यात्वकर्मके मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति नामके तीन कमांश अर्थात् खंड उत्पन्न करता है । प्रथमसमयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मिध्यात्वसे प्रदेशाय अर्थात् उदीरणाको प्राप्त कर्म- प्रदेश को लेकर उनका वहु भाग सम्यग्मिध्यात्वमें देता है और उससे असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाय सम्यक्त्व प्रकृतिमें देता है । इससे द्वितीय समयमें सम्यक्त्वप्रकृतिने असंख्यातगुणित प्रदेशान देता है । इससे सम्यग्मिथ्यात्वमे असंख्यातगुणित प्रदेशात्र देता है । इससे तीसरे समयमै सम्यक्त्वप्रकृतिमें असंख्यातगुणित प्रदेशाम देता है और इससे भी असंख्यातगुणित प्रदेशाय सम्यग्मिध्यात्वमें देता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक गुणसंक्रमण होता है । अर्थात् गुणश्रेणीके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकर्मको गुणसंक्रमणके अन्तिम समय तक पूरि करता है | असंख्यातगुणित क्रमसे कर्म- प्रदेशों के संक्रमणको गुणसंक्रमण कहते हैं । इस १ को एत्य दक्षणमोहणीयत्स उवसमो णाम ! करणपरिणामेहिं णित्तत्तीकयत्स दसणमोहणीयत्स उदयपत्राएण विणा अवट्ठाणमुक्समो त्ति भण्णदे | जयघ २ मिच्छत्त-सभ्मत सम्मामिच्छतसप्णिटा | जयघ० ३ कुदो एवमेदेसिमुप्पत्ती चे ण, अणियट्टिकरणपरिणामेहिं पेरिमाणस्स दंसणमोहणीयत्स जवेण द लिज्जमाणकोद्दवराखित्तेव तिन्ह भेदाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । नवध० छ ताम्रपत्रबाली प्रतिमें 'पदेस नं' पाठ नहीं है । ( देखो पृ० १७२२ ) Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२९ गा० ९४ ] पच्चीस-पदिक- अल्पबहुत्व-निरूपण 'भागपडिभागेण संकमेदि, सो विज्झादसंकमो णाम । १११. जाव गुणसंकमो ताव मिच्छत्तवज्जाणं कम्माणं ठिदिघादो अणुभागघादो गुणसेढी च । ११२. एदिस्से परूवणाए णिट्ठिदाए इमो दंडओ पणुवीसपडिगो । ११३. सव्वत्थोवा उवसामगस्स जं चरिम- अणुभागखंडयं तस्स उक्कीरणद्धा । ११४. अपुव्चकरणस्स पढमस्स अणुभानखंडयस्स उक्कीरणकालो विसेसाहिओ । ११५. चरिट्ठदिखंडकरणकालो तह चेव द्विदिबंधकालो च दो वितुल्ला संखेज्जगुणा । ११६. अंतरकरणद्धा तम्हि चेव द्विदिबंधगद्धा च दो वि तुलाओ विसेसाहियाओ । ११७. अपुव्यकरणे ट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धा द्विदिबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ । ११८. उसामगो जाव गुणसंकमेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि पूरेदि सो कालो संखेज्जगुणो । ११९ पढमसमयउवसामगस्स गुणसे डिसीसयं संखेज्जगुणं । १२०. पढमट्टिदी संखेज्जगुणा । १२१. उवसामगद्धा विसेसाहिया । १२२. [विसेसो पुण] वे आवलियाओ समयूणाओ । १२३. अणियट्टि - अद्धा संखेज्जगुणा । १२४. अपुच्चकरणद्धा संखेज्जगुणा । गुणसंक्रमणके पश्चात् सूच्यंगुलके असंख्यातवे भागरूप प्रतिभाग के द्वारा संक्रमण करता है । इसीका नाम विध्यातसंक्रमण है । जब तक गुणसंक्रमण होता है, तब तक मिथ्यात्व ( और आयु) कर्मको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणीरूप कार्य होते रहते हैं ।। १०२-१११ ॥ 1 चूर्णिसू० - इस दर्शन मोहोपशामककी प्ररूपणा के समाप्त होनेपर यह पच्चीस पदिक अर्थात् पदोवाला अल्पबहुत्व - दंडक जानने योग्य है - दर्शनमोहनीयके उपशमन करनेवाले जीवके मिथ्यात्व कर्मका जो अन्तिम अनुभाग खंड है, उसके उत्कीरणका काल वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है ( १ ) । इससे अपूर्वकरणके प्रथम समय में होनेवाले अनुभाग खंडका उत्कीरण काल विशेष अधिक है (१) । इससे अनिवृत्तिकरण के अन्तिम स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और इसी समयमे संभव स्थितिबन्धका काल ये दोनो परस्परमें समान होते हुए भी संख्यातगुणित होते हैं ( ३- ४ ) । इससे अन्तरकरणका काल और वहीं पर संभव स्थितिबन्धका काल ये दोनो परस्पर तुल्य होते हुए भी विशेष अधिक हैं (५-६)। इससे अपूर्वकरण के प्रथम समय मे होनेवाले स्थितिखंडका उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका काल ये दोनों परस्पर समान होते हुए भी विशेष अधिक हैं ( ७-८ ) । इससे दर्शनमोहका उपशामक जीव जब तक गुणसंक्रमणसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वको पूरता है, वह काल संख्यातगुणा है ( ९ ) । इससे प्रथम समयवर्ती उपशामकका गुणश्रेणीशीर्पक संख्यातगुणा है ( १० ) । इससे मिथ्यात्वकी प्रथमस्थिति संख्यातगुणी है (११) । इससे उपशामकाद्धा अर्थात् दर्शनमोहके उपशमानेका काल विशेष अधिक है । (१२) वह विशेष एक समय कम दो आवलीप्रमाण है । इससे अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है (१३) । इससे अपूर्वकरणका काल संख्यात्तगुणा है (२४) । इससे गुण Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० कसाय पाहुड सुत्त [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार १२५. गुणसेढिणिक्खेबो विसेसाहिओ। १२६. उवसंतद्धा संखेज्जगुणा । १२७. अंतरं संखेज्जगुणं । १२८. जहणिया आवाहा संखेज्जगुणा । १२९. उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा । १३०. जहण्णयं द्विदिखंडयमसंखेज्जगुणं । १३१. उक्कस्सयं द्विदिखंडयं संखेज्जगुणं । १३२. जहण्णगो हिदिवंधो संखेन्जगुणो । १३३. उक्स्सगो हिदिवंधो संखेन्जगुणो । १३४. जहण्णयं द्विदिसंतकम्म संखेज्जगुणं । १३५. उक्कस्सयं हिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । १३६. एवं पणुवीसदिपडिगो दंडगो समत्तो । १३७. एत्तो सुत्तफासो काययो भवदि । (४२) दंसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्यो । पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पजत्तो ॥१५॥ (४३) सव्वणिरय-भवणेसु दीव-समुद्दे गह [गुह] जोदिसि-विमाणे। अभिजोग्ग-अणभिजोग्गा उवसामो होइ बोद्धव्वो ॥१६॥ श्रेणीका निक्षेप अर्थात् आयाम विशेष अधिक है (१५) । इससे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है (१६)। इससे अन्तर-सम्बन्धी आयाम संख्यातगुणा है (१७) । इससे जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है (१८) । इससे उत्कृष्ट आवाधा संख्यातगुणी है (१९) । इससे ( अपूर्वकरणके प्रथम समयमे संभव ) जघन्य स्थितिखंड असंख्यातगुणा है (२०)। इससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला उत्कृष्ट स्थितिखंड संख्यातगुणा है (२१)। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है (२२) । इससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमे संभव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (२३) । इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है (२४)। इससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है (२५)। यह जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व अपूर्वकरणके प्रथम समयमे ही जानना चाहिए । इस प्रकार यह पञ्चीस पदवाला अल्पवहुत्व-दंडक समाप्त हुआ ॥११२-१३६॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे गाथा सूत्रोका अर्थ प्रकट करने योग्य है ॥१३७॥ दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए । वह जीव नियमसे पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है ॥१५॥ उक्त गाथाके द्वारा सम्यग्दर्शनके उत्पन्न करनेकी योग्यतारूप प्रायोग्यलब्धिका निरूपण किया गया है। ग्रन्थकार उसीका और भी स्पष्टीकरण करनेके लिए उत्तरगाथासूत्र कहते हैं इन्द्रक, श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरकोंमें, सर्व प्रकारके भवनवासी देवोंमें, सर्व१ जम्मि काले मिच्छत्तमुवसतभावेणच्छदि सो उसमसम्मत्तकालो उवसतद्धा त्ति भण्णदे । जयध० & ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पंचिंदियसणी [पुण-]' ऐसा पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १७२८) ' ताम्रपत्रवाली प्रतिमें '-मणभिजोग्गो' पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १७२९) Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३१ गा० ९७] उपशामक-विशेष स्वरूप-निरूपण (४४) उवसामगो च सव्वो णिव्वापादो तहा णिरासाणो। उवसंते भजियव्वो णीरासाणो य खीणम्मि ॥१७॥ द्वीप और समुद्रोंमें, सर्व गुह्य अर्थात् व्यन्तर देवोंमें, समस्त ज्योतिष्क देवोंमें, सौधर्म कल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके सर्व विमानवासी देवोंमें, आभियोग्य अर्थात् वाहनादि कुत्सित कर्ममें नियुक्त वाहन देवोंमें, उनसे भिन्न किल्विषिक आदि अनुत्तम, तथा पारिषद आदि उत्तम देवोंमें दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम होता है ॥१६॥ विशेषार्थ-यहाँ यह शंका की जा सकती है कि अढाई द्वीप-समुद्रवर्ती संख्यात या असंख्यात वर्षायुष्क गर्भज मनुष्य-तिर्यंचोके तो प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनके उत्पन्न करनेकी योग्यता है । किन्तु अढ़ाई द्वीपसे परवर्ती जो असंख्यात द्वीप-समुद्र है और जिनमे कि त्रस जीवोका अभाव बतलाया गया है, वहॉपर भी दर्शनमोहके उपशम होनेका विधान इस गाथामें कैसे किया गया है ? इसका समाधान यह है कि जो अढ़ाई द्वीपवर्ती तिर्यंच यहॉपर - प्रथमोपशमसम्यक्त्वके उत्पन्न करनेके लिए प्रयत्न-शील थे, उन्हें यदि पूर्व भवका वैरी कोई देव उठाकर उन असंख्यात द्वीप या समुद्रोमें जहाँ कहीं भी फेंक आवे, तो उन जीवोको वहाँ पर प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। अतीत कालकी अपेक्षा ऐसा कोई द्वीप और समुद्र नहीं बचा है कि जहॉपर पूर्व-वैरी देवोके द्वारा अपहृत तिर्यंचोके दर्शनमोहका उपशम न हुआ हो । अतः सर्व द्वीप-समुद्रोमें अपहरणकी अपेक्षा दर्शनमोहके उपशमका विधान किया गया है। दर्शनमोहके उपशामक सर्व जीव निर्व्याघात तथा निरासान होते हैं। दर्शनमोहके उपशान्त होनेपर सासादनभाव भजितव्य है। किन्तु क्षीण होनेपर निरासान ही रहता है ॥१७॥ . विशेषार्थ-दर्शनमोहके उपशमन करनेवाले जीवके जिस समय 'उपशामक' संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उस समयके पश्चात् जब तक दर्शनमोहका उपशम नहीं हो जाता है, तब तक वह निर्व्याघात रहता है । अर्थात् सर्व प्रकारके उपद्रव, उपसर्ग या घोरसे घोर विघ्न-बाधाएँ आनेपर भी उसके दर्शनमोहका उपशम हो करके ही रहता है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोके प्रारंभ हो जानेके पश्चात् संसारकी कोई भी शक्ति उसके सम्यक्त्वोत्पत्तिमें व्याघात नहीं कर सकती है । न उसका उस अवस्थामें मरण ही होता है । दर्शनमोहके उपशासकको निरासान कहनेका अर्थ यह है कि दर्शनमोहनीयका उपशमन करते हुए वह सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता है। किन्तु दर्शनमोहके उपशान्त हो जानेपर भजितव्य है अर्थात् यदि उपशमसम्यक्त्वके कालमे कुछ समय शेप रहा है, तो वह सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है, अन्यथा नही । इसीको स्पष्ट करनेके लिए कहा गया है कि उपशमसम्यक्त्वका काल क्षीण अर्थात् समाप्त हो जानेपर निरासान अर्थात् सासादनगुण स्थानको नही प्राप्त होता Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त (४५) सागारे पट्टवगो विगो मज्झिमो य भजियव्वो । जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ॥९८॥ (४६) मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धव्वं । उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्व ॥ ९९ ॥ .६३२ [ १० सम्यक्त्व अर्थाधिकार है । जयधवलाकारने ' अथवा ' कहकर गाथाके इस चतुर्थ चरणका यह भी अर्थ किया है कि दर्शनमोहनीयके क्षीण हो जानेपर अर्थात् क्षायिकसम्यक्त्वके उत्पन्न हो जानेपर जीव सासादनगुणस्थानको नही प्राप्त होता है । साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीयकर्म के उपशमनका प्रस्थापक होता है । किन्तु निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है । तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंशको प्राप्त जीव दर्शनमोहका उपशमन करता है ॥९८॥ 1 विशेषार्थ - दर्शनमोहका उपशम प्रारम्भ करनेवाला जीव अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रस्थापक कहलाता है । मति, श्रुत या विभंगमे से किसी एक ज्ञानोपयोग से उपयुक्त जीव ही दर्शनमोहके उपशमको प्रारम्भ कर सकता है, दर्शनोपयोगसे उपयुक्त जीव नही कर सकता। क्योंकि, अवीचारात्मक या निर्विकल्पक दर्शनोपयोग से दर्शन मोहके उपशमका होना संभव नहीं है । गाथाके इस प्रथम चरण से यह अर्थ ध्वनित किया गया कि जागृत-अवस्था परिणत जीव ही सम्यक्त्वोत्पत्ति के योग्य है, निर्विकल्प, सुत्त, यामत आदि नहीं | दर्शनमोहके उपशमनाकरणको सम्पन्न करनेवाला जीव निष्ठापक कहलाता है | दर्शनमोहका उपशामक जब सर्व प्रथमस्थितिको क्रमसे गलाकर अन्तर- प्रवेश के अभिमुख होता है, उस समय उसे निष्टापक कहते है | दर्शनमोहोपशमन के प्रस्थापन और निष्ठा - पन कालके मध्यवर्ती जीवको यहाँ मध्यम पदसे विवक्षित किया गया है । यह मध्यवर्ती और निष्ठापक जीव भजितव्य है, अर्थात् साकारोपयोगी भी हो सकता है और अनाकारोपयोगी भी | दर्शनमोहनीयके उपशमका प्रस्थापक चारो मनोयोगोमे से किसी एक मनोयोग में, चारो वचनयोगो में से किसी एक वचनयोगमें तथा औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोगमेसे किसी एक काययोगमें वर्तमान होना चाहिए । इसी प्रकार उसे जघन्य तेजोलेश्या से परिणत होना आवश्यक है । तेजोलेश्याका यह नियम मनुष्य तिर्यंचोंकी अपेक्षासे कहा गया जानना चाहिए । मनुष्य - तिर्यंचोमे कोई भी जीव कितनी ही मन्द विशुद्धिसे परिणत क्यो न हो, उसे कमसे कम तेजोलेश्याके जघन्य अंशसे युक्त हुए बिना सम्यक्त्वकी उत्पत्ति असंभव है । उक्त नियम देव और नारकियोंमें संभव इसलिए नहीं है कि देवोके सदा काल शुभ लेश्या और नारकियोंके अशुभ लेश्या ही पाई जाती है । उपशामकके मिथ्यात्ववेदनीयकर्मका उदय जानना चाहिए | किन्तु उपशान्त अवस्थाके विनाश होनेपर तदनन्तर उसका उदयं भजितव्य है || ९९ ॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३३ गा० १०१] . उपशामक-विशेष स्वरूप-निरूपण (४७) सव्वेहि द्विदिविसेसेहिं उवसंता होंति तिण्णि कम्मंसा। एकम्हि य अणुभागे णियमा सव्वे हिदिविसेसा ॥१०॥ (४८) मिच्छत्तपच्चयो खलु बंधो उवसामगस्स बोद्धव्यो। उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियवो ॥१०॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयका उपशमन करनेवाला जीव जब तक अन्तर-प्रवेश नहीं करता है, तब तक उसके नियमसे मिथ्यात्वकर्मका उदय वना रहता है। किन्तु दर्शनमोहके उपशान्त हो जानेपर उपशमसम्यक्त्वके कालमे मिथ्यात्वका उदय नहीं होता है। जब उपशमसम्यक्त्वका काल नष्ट हो जाता है, तब उसके पश्चात् मिथ्यात्वका उदय भजनीय है, अर्थात् मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवके उसका उदय होता है, किन्तु सासादन, मिश्र या वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता है। जयधवलाकारने अथवा कह कर और ‘णत्थि' पदका अध्याहार करके गाथाके तृतीय चरणका यह अर्थ भी किया है कि उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर और सासादनकालके भीतर मिथ्यात्वका उदय नहीं होता है। दर्शनमोहके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीनों काश, दर्शनमोहकी उपशान्त अवस्थामें सर्वस्थितिविशेषोंके साथ उपशान्त रहते हैं, अर्थात् उस समय तीनों प्रकृतियों में से किसी एककी भी किसी स्थितिका उदय नहीं रहता है । तथा एक ही अनुभागमें उन तीनों कर्माशोंके सभी स्थितिविशेष नियमसे अवस्थित रहते हैं ॥१०॥ विशेषार्थ-यहाँ यद्यपि एक ही अनुभागमे सर्व स्थितिविशेष रहते हैं, अर्थात् अन्तरसे बाहिर अनन्तरवर्ती जघन्य स्थितिविशेषमें जो अनुभाग होता है, वहीं अनुभाग उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त उससे ऊपरके समस्त स्थितिविशेषोमें होता है, उससे भिन्न प्रकारका नहीं होता, ऐसा सामान्यसे कहा है, तथापि मिथ्यात्वके द्विस्थानीय सर्वघाती अनुभागसे सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणित हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागसे सम्यक्त्वप्रकृतिका देशघाती द्विस्थानीय अनुभाग अनन्तगुणित हीन होता है, इतना विशेष अर्थ जानना चाहिए। ___ उपशामकके मिथ्यात्वप्रत्ययक अर्थात् मिथ्यात्वके निमित्तसे मिथ्यात्वका और ज्ञानावरणादि कर्मोंका वन्ध जानना चाहिए | किन्तु दर्शनमोहनीयकी उपशान्त अवस्थामें मिथ्यात्व-प्रत्ययक वन्ध नहीं होता है। उपशान्त अवस्थाके समाप्त होनेपर उसके पश्चात् मिथ्यात्वनिमित्तक वन्ध भजनीय है ॥१०॥ विशेपार्थ-दर्शनमोहके उपशम करनेवाले जीवके अन्तरसे पूर्ववर्ती प्रथम स्थितिके अन्तिम समय तक मिथ्यात्व-निमित्तक बन्ध होता है, क्योंकि यहाँ तक वह मिथ्यादृष्टि है Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ फसाय पाहुडे सुत्त । [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार (४९) सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहस्सऽबंधगो होइ । __वेदयसम्माइट्ठी खीणो वि अबंधगो होइ ॥१०२॥ (५०) अंतोमुत्तमद्ध सव्वोवसमेण होइ उपसंतो। तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेकदरस्स कम्मरस ॥१०३॥ और उसके मिथ्यात्वका, तथा मिथ्यात्वके निमित्तसे बंधनेवाले अन्य कर्मोंका वन्ध होता रहता है । यद्यपि यहाँपर असंयम, कषाय आदि अन्य प्रत्ययोसे भी कर्मोंका वन्ध होता है, तथापि उनकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है, क्योकि जहॉपर मिथ्यात्वप्रत्यय विद्यमान है वहाँ पर असंयमादि शेष प्रत्ययोंका अस्तित्व स्वतः सिद्ध है । अन्तरमें प्रवेश करनेके प्रथम समयसे लेकर उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर मिथ्यात्वनिमित्तक वन्ध नहीं होता है। किन्तु जब उपशमसम्यक्त्वका काल समाप्त हो जाता है, तब मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवके तो होता है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयको प्राप्त होनेवाले जीवके नहीं होता है । जयधवलाकारने 'आसाणे' पदका अर्थ 'णत्थि' पदका अध्याहार करके यह किया है कि सासादनसम्यग्दृष्टिके भी मिथ्यात्व-निमित्तक वन्ध नहीं होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनयोहका अवन्धक होता है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, तथा 'अपि' शब्दसे सूचित उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव भी दर्शनमोहका अवन्धक होता है ।।१०२।। विशेषार्थ-जयधवलाकारने 'अथवा' कहकर इस गाथासूत्रके एक और भी अर्थविशेषको व्यक्त किया है। वह यह कि जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयसे मिध्यात्वकर्मका वन्ध करता है, उस प्रकार क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वके उदय होनेसे सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका और वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होनेसे सम्यक्त्वप्रकृतिका वन्ध करता है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि न तो सम्यग्मिथ्यात्वका वध करता है और न वेदकसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वप्रकृतिका वन्ध करता है । इसका कारण यह है कि इन दोनों प्रकृतियोंको कर्मसिद्धान्तमे बन्धप्रकृतियोंमे नहीं गिनाया गया है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि तो दर्शनमोहका अबंधक होता ही है, क्योकि वह तो तीनो ही प्रकृतियोंका क्षय कर चुका है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयकर्म अन्तर्मुहर्तकाल तक सर्वोपशमसे उपशान्त रहता है। इसके पश्चात् नियमसे उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन तीन कर्मोमेंसे किसी एक कर्मका उदय हो जाता है ।।१०३॥ विशेपार्थ-गाथासूत्रमें पठित्त 'अन्तर्मुहूर्तकाल' इस पदसे अन्तर-कालकी दीर्घताके संख्यातवें भागका ग्रहण करना चाहिए। सर्वोपशमका अभिप्राय यह है कि उपशमसम्यक्त्वके कालमें दर्शनमोहनीयकी तीनो प्रकृतियोंका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसम्बन्धी उदय सर्वथा नहीं पाया जाता है। उपशमसम्यक्त्वका काल समाप्त होनेपर तीनों Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ "1 ___ गा० १०५ ] . उपशासक-विशेषस्वरूप-निरूपण : (५१) सम्मत्तपढमलंभो सम्बोवसमेण तह वियटेण। .. {- भजियवों य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ॥१०४॥ . (५२) सम्भत्तपढमलंभस्सऽणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं । लंबस्स अपढमस्स दु भजियव्यो पच्छदो होदि ॥१०॥ . कर्मोंमेंसे किसी एक कर्मका नियमसे उदय हो जाता है । यदि सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होता है तो वह वेदकसम्यग्दृष्टि बन जाता है, यदि सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका उदय होता है तो सम्यग्मिथ्यादृष्टि बन जाता है और यदि मिथ्यात्वका उदय होता है तो मिथ्यादृष्टि बन जाता है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वका प्रथम वार लाम सर्वोपशमसे होता है । सादिमिथ्यादृष्टियों में जो विप्रकृष्ट जीव है, वह भी सर्वोपशमसे ही प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है। किन्तु जो अविप्रकृष्ट सादि मिथ्यादृष्टि है, और जो अभीक्ष्ण अर्थात् वार-वार सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, वह सर्वोपशम और देशोपशमसे 'भजनीय है, अर्थात् दोनों प्रकारसे प्रथमोपशमसम्यस्त्वको प्राप्त होता है ॥१०४॥ विशेपार्थ-दर्शनमोहकी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीनो ही प्रकृतियोका अधःकरणादि तीनो परिणाम-विशेपोके द्वारा उदयाभाव करनेको सर्वोपशम कहते हैं । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उदयाभावरूप उपशमके साथ सम्यक्त्वप्रकृतिसम्बन्धी देशघाती स्पर्धोंके उदयको देशोपशम कहते है । अनादिमिथ्याघष्टि जीव प्रथम वार जो उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है, वह नियमतः सर्वोपशमसे ही करता है। जो जीव एक वार भी सम्यक्त्वको पाकर पुनः मिथ्यादृष्टि होता है, उसे सादिमिथ्यादृष्टि कहते हैं । सादिमिथ्यादृष्टि भी दो प्रकारके होते हैं-विप्रकृष्ट सादिमिथ्यादृष्टि और अविप्रकृष्ट सादिमिथ्यादृष्टि । जो सम्यक्त्वसे गिरकर और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहॉपर सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृविकी उद्वेलना कर पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र कालतक, अथवा इससे भी ऊपर देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक संसारमे परिभ्रमण करते हैं, उन्हें - विप्रकृष्ट सादिमिथ्यादृष्टि कहते है। जो मिथ्यात्वमे पहुँचने के पश्चात् पल्योपमके असं ख्यातवे भागके भीतर ही भीतर सम्यक्त्व ग्रहण करनेके अभिमुख होते है, उन्हें अविप्रकृष्ट सादिमिथ्यादृष्टि कहते हैं। इनमें से विप्रकृष्ट सादिमिथ्यादृष्टि तो नियमसे सर्वोपशमके द्वारा ही प्रथमोपशमसम्यक्त्वका लास करता है। किन्तु अविप्रकृष्ट सादिमिथ्यादृष्टि सर्वोपशमसे भी और देशोपशमसे भी प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है । इसका कारण यह है कि जो सम्यक्त्वसे गिरकर पुनः पुनः अल्पकालके द्वारा वेदक-प्रायोग्यकालके भीतर ही सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख होता है, वह तो देशोपशमके द्वारा सम्यक्त्वका लाभ करता है, अन्यथा सर्वोपशमसे सम्यक्त्वका लाभ करता है। सम्यक्त्वकी प्रथम वार प्राप्तिके अनन्तर और पश्चात् मिथ्यात्वका उदय होता है। किन्तु अप्रथम वार सम्यक्त्वकी प्राप्तिके पश्चात् वह भजितव्य है ॥१०५॥ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ कसाय पाहुड सुत्त [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार (५३) कम्माणि जस्स तिण्णि दुणियमा सो संक्रमेण भजियव्यो । एवं जस्स दु कम्मं संकमणे सो ण भजियव्यो ॥१०६॥ , विशेषार्थ-अनादिमिथ्याष्टि जीवके जो सम्यक्त्वका प्रथम वार लाभ होता है, उसके पूर्व क्षणमे अर्थात् मिथ्यात्वके अन्तरके पूर्ववर्ती प्रथम-स्थितिके अन्तिम समयमें और उपशमकाल समाप्त होनेके पश्चात् मिथ्यात्वका उदय माना गया है। किन्तु अप्रथम अर्थात् दूसरी, तीसरी आदि वार जो सम्यक्त्वका लाभ होता है, उसके पश्चात् मिथ्यात्वका उदय भजितव्य है, अर्थात् वह कदाचित् मिथ्याष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व अथवा उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है और कदाचित् सम्यग्मिध्यावष्टि होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है। जिस जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीन कर्म सत्तामें होते हैं; अथवा गाथा-पठित 'तु' शब्दसे मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिके विना शेष दो कर्म सत्ता में होते हैं, वह नियमसे संक्रमणकी अपेक्षा भजितव्य है। जिस जीवके एक ही कर्म सत्तामें होता है, वह संक्रमणकी अपेक्षा भजितव्य नहीं है ।।१०६॥ विशेपार्थ-जिस मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवमे दर्शनमोहकी तीनो प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, उसके सम्यन्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यथाक्रमसे संक्रमण देखा जाता है । किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवमें उक्त तीनो प्रकृतियोंकी सत्ता होते हुए भी उसके दर्शनमोहकी किसी भी प्रकृतिका संक्रमण नहीं होता है, क्योकि दूसरे या तीसरे गुणस्थानवी जीवके दर्शनमोहके संक्रमण करनेकी शक्तिका अत्यन्त अभाव माना गया है । इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके जिस समय वह आवली-प्रविष्ट रहती है, उस समय उसके तीनकी सत्ता होकरके भी एक ही प्रकृतिका संक्रमण होता है । अथवा मिथ्यात्वका क्षपण करनेवाले सम्यदृष्टि जीवके जिस समय उदयावली वाह्य-स्थित सर्व द्रव्य क्षपण कर दिया जाता है, उस समय उसके तीनकी सत्ता होकरके भी एकका ही संक्रमण होता है। इसकारण दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव स्यात् दो प्रकृतियोका और स्यात् एक ही प्रकृतिका संक्रमण करनेवाला होता है और स्यात् किसीका भी संक्रमण नहीं करता है, इस प्रकार उसके भजनीयता सिद्ध हो जाती है। अव दर्शनमोहकी दो प्रकृतिकी सत्ता रखनेवाले जीवके संक्रमणकी अपेक्षा भजनीयताका निरूपण करते हैं-जिसने मिथ्यात्वका क्षपण कर दिया है, ऐसे वेदकसम्यग्दृष्टिमें, अथवा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके स्थित मिथ्याष्टिमे दो प्रकृतियोकी सत्ता होकरके भी एक ही प्रकृतिका तव तक संक्रमण होता है जब तक कि क्षय किया जाता हुआ, या उद्वेलना किया जाता हुआ सम्यग्मिथ्यात्व अनावली-प्रविष्ट रहता है । किन्तु जव वह सम्यग्मिथ्यात्व आवली-प्रविष्ट होता है, तब दो प्रकृतियोंकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० १०८ ] उपशामक - विशेषस्वरूप-निरूपण (५४) सम्माइट्ठी सहदि पवयणं णियमसा दु उवइटुं । सहदि सम्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥१०७॥ (५५) मिच्छाइट्टी णियमा उवइट्टं पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असम्भावं उवइटुं वा अणुवइटुं ॥ १०८ ॥ ६३७ या मिध्यादृष्टि जीवके एक भी प्रकृतिका संक्रमण नहीं होता है । इसलिए दो प्रकृतियो की सत्ता रखनेवाले जीवके भी भजनीयता सिद्ध हो जाती है । जिस सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृष्टि जीवके क्षपणा या उद्वेलनाके वशसे एक ही सम्यक्त्वप्रकृति या मिथ्यात्वप्रकृति अवशिष्ट रही है, वह संक्रमणकी अपेक्षा भजनीय नहीं है, क्योकि वहाँ संक्रमण - शक्तिका अत्यन्त अभाव माना गया है, इसलिए वह असंक्रामक ही होता है, ऐसा कहा गया है । सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो नियमसे श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित अज्ञानवश सद्भुत अर्थको स्वयं नहीं जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भूत अर्थका भी श्रद्धान करता है ॥ १०७॥ विशेषार्थ - प्रकर्ष या अतिशययुक्त वचनको प्रवचन कहते हैं । प्रवचन, सर्वज्ञो - पदेश, परमागम और सिद्धान्त, ये सब एकार्थक नाम हैं । सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञके उपदेशका तो श्रद्धान असंदिग्धरूप से करता ही है । किन्तु यदि किसी गहन एवं सूक्ष्म तत्त्वको स्वयं समझने में असमर्थ हो और परमागममें उसका स्पष्ट उल्लेख मिल नही रहा हो, तो वह गुरुके वचनोको ही प्रमाण मानकर गुरुके नियोगसे असत्यार्थ अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है, तथापि उसके सम्यग्दृष्टिपनेमे कोई दोष नहीं आता है, इसका कारण यह है कि उसकी दृष्टि इस स्थल पर परीक्षा-प्रधान न होकर आज्ञा - प्रधान है । किन्तु जब कोई अविसंवादी सूत्रान्तरसे उसे यथार्थं वस्तु-स्वरूप दिखा देता है और उसके देख लेनेपर भी यदि वह अपना दुराग्रह नहीं छोड़ता है, तो वह जीव उसी समयसे मिध्यादृष्टि माना जाता है । ऐसा परमागममें कहा गया है । अतएव सम्यग्दृष्टिको वस्तु स्वरूपका यथार्थ श्रद्धानी होना आवश्यक है । मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान नहीं करता है, किन्तु असर्वज्ञ पुरुषोंके द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका, अर्थात् पदार्थ के विपरीत स्वरूपका श्रद्धान करता है ॥ १०८॥ विशेषार्थ - मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहके उदय होनेके कारण वस्तु स्वरूपका विपरीत ही श्रद्धान करता है । उसका यह विपरीत श्रद्धान कदाचित् इसी भवका गृहीत होता है और कदाचित् पूर्वभवसे चला आया हुआ अर्थात् अगृहीत होता है, इन दोनो बातोंके बतलानेके लिए सूत्रमे ‘उपदिष्ट, और अनुपदिष्ट' ये दो पद दिये है । Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ कसाय पाहुड सुत्त , [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार (५६) सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो वा तहा अणागारो। अध वंजणोग्गहम्मि दु सागारो होइ बोद्धव्यो (१५)॥१०९॥ ___ १३८. एसो सुत्तप्फासो विहासिदो। १३९. तदो उत्सयसम्माइटि-वेदयसम्माइट्ठि-सम्मापिच्छाइट्टीहिं एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुअं चेदि । १४०. एदेसु अणियोगदारेसु वण्णिदेसु दंसणमोहउवसामणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव साकारोपयोगी भी होता है और अनाकारोपयोगी भी होता है। किन्तु व्यंजनावग्रहमें, अर्थात् विचारपूर्वक अर्थको ग्रहण करनेकी अवस्थामें साकारोपयोगी ही होता है, ऐसा जानना चाहिए ॥१०९॥ विशेषार्थ-जयधवलाकारने इस गाथाके पूर्वार्धके दो अर्थ किये हैं। प्रथम तो यह कि कोई भी जीव साकारोपयोगसे भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है और अनाकारोपयोगसे भी । इसके लिए दर्शनमोहके उपशमन करनेवाले जीवके समान साकारोपयोगी होनेका एकान्त नियम नहीं है। दूसरा अर्थ यह किया है कि सम्यग्मिथ्यात्व-गुणस्थानके कालके भीतर दोनो ही उपयोगोंका परावर्तन संभव है, जिससे एक यह अर्थ-विशेष सूचित होता है कि छद्मस्थके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके कालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका काल अधिक होता है । गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा इस वातको प्रकट किया गया है कि जब वही सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव विचार-पूर्वक तत्त्व-ग्रहण करनेके अभिमुख हो, तब उस अवस्थामें उसके साकारोपयोगका होना आवश्यक है, क्योकि पूर्वापर-परामर्शसे शून्य सामान्यमात्रके अवग्राहक दर्शनोपयोगसे तत्व-निश्चय नहीं हो सकता है। चूर्णिकारने इस अन्तिम गाथाके अन्तमे (१५) का अंक स्थापित किया है, जो यह प्रकट करता है कि सम्यक्त्वके इस दर्शनमोहोपशमना अर्थाधिकारमें पन्द्रह ही सूत्रगाथाएँ हैं, हीन या अधिक नहीं है। चूर्णिस०--इस प्रकार यह गाथासूत्रोका स्पर्श अर्थात् स्वरूप-निर्देश प्ररूपण किया । तदनन्तर उपशमसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टि विषयक एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व, इतने अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं। इन अनुयोगद्वारोके वर्णन कर दिये जानेपर 'दर्शनमोह-उपशामना' नामका अनुयोगद्वार समाप्त हो जाता है ॥१३८-१४०॥ भावार्थ-उपशमसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोका स्वामित्व, काल आदि सूत्र-प्रतिपादित अनुयोगद्वारोसे विशेप अनुगम करना आवश्यक है, तभी प्रकृत विषयका पूर्ण परिज्ञान हो सकेगा । अतएव विशेष जिज्ञासु जनोको परमागमके आधार. से उनका विशेप निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार सम्यक्त्व-अर्थाधिकारमे दर्शनमोह-उपशामना नामक दशवां अर्थाधिकार समाप्त हुआ। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ր ११ दंसणमोहक्खवणा- अत्थाहियारो १. दंसणमोहक्खवणाए पुव्वं गमणिजाओ पंच सुत्तगाहाओ । २. तं जहा । (५७) दंसणमोहक्खवणापट्टवगो कम्मभूमिजादो दु । णियमा मणुसगदीए पिट्टवगो चावि सव्वत्थ ॥ ११० ॥ ११ दर्शनमाहक्षपणा - अर्थाधिकार चूर्णिसू० - दर्शनमोहकी क्षपणके विषयमें पहले ये पॉच सूत्रगाथाएँ प्ररूपण करना चाहिए । वे इस प्रकार है ॥ १-२ ॥ 1 नियमसे कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ और मनुष्यगतिमें वर्तमान जीव ही दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक ( प्रारम्भ करनेवाला ) होता है । किन्तु उसका निष्ठापक ( पूर्ण करनेवाला ) चारों गतियोंमें होता है ॥ ११० विशेषार्थ - दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ कर्मभूभिज वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य ही कर सकता है, अन्य नही । क्योकि अन्य गतियोमे उत्पन्न हुए जीवोंके दर्शनमोहकी क्षपणा के योग्य परिणामोका होना असंभव है, इस बातको बतलाने के लिए ही गाथासूत्रमे 'नियमसे ' यह पद दिया गया है | वह कर्मभूमिज मनुष्य भी सुषम- दुषमा और दुषम-सुपमा-कालमे उत्पन्न होना चाहिए । वह भी तीर्थंकर - केवली, सामान्य- केवली या श्रुत- केवलीके पादमूलमें दर्शनमोहका क्षपण प्रारम्भ कर सकता है, अन्यत्र नही । इसका कारण यह है कि तीर्थंकरादिके माहात्म्य आदिके देखनेपर ही दर्शनमोहकी क्षपणाके योग्य विशुद्ध परिणामो होना संभव है । यद्यपि इस गाथामे केवली आदिके पादमूलका उल्लेख नहीं है, तथापि षट्खंडागमकी सम्यक्त्व - चूलिका में श्री भूतबलि आचार्य ने 'जम्हि जिणा केवली तित्थयरा तम्हि आढवेदि ' ऐसा स्पष्ट कथन किया है । इस प्रकार दर्शनमोहका क्षपण प्रारम्भ करनेवाला मनुष्य यदि बद्धायुष्क है, अर्थात् चारो गति - सम्बन्धी आयुमे से किसी भी एक आयुको वॉध चुका है, और दर्शनमोहका क्षपण प्रारम्भ करनेके पश्चात् कृतकृत्यवेदक कालके भीतर ही मरणको प्राप्त करता है, तो वह चारो ही गतियोंमें दर्शनमोहका क्षपण पूर्ण करता है। यहाॅ इतना विशेष जानना कि नरकोंमेंसे प्रथम नरकके भीतर, तिर्यंचोमेंसे भोगभूमिया पुरुषवेदी तिर्यचो में, मनुष्योमेसे भोगभूमियॉ पुरुषो में और देवोमेंसे सौधर्मादि कल्पवासी देवोमे ही उत्पन्न होकर दर्शनमोहकी क्षपणा पूर्ण करेगा, अन्यत्र नही । इस अर्थविशेषको बतलानेके लिए गाथासूत्र में 'निष्ठापक चारो गतियोमे होता है' ऐसा कहा है । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार (५८) मिच्छत्तवेदणीए कम्मे ओवट्टिदम्मि सम्मत्ते । खवणाए पट्ठवगो जहण्णगो तेउलेस्साए ॥१११॥ (५९) अंतोमुहुत्तमद्ध दंसणमोहस्स णियमसा खवगो । खीणे देव-मणुस्से सिया वि णामाउगो बंधो ॥११२॥ __ मिथ्यात्ववेदनीयकर्मके सम्यक्त्वप्रकृतिमें अपवर्तित अर्थात् संक्रमित कर देने पर जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है । दर्शनमोहकी क्षपणाके प्रस्थापकको जघन्य तेजोलेश्यामें वर्तमान होना चाहिए ॥१११॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहकी क्षपणा करनेको उद्यत हुए जीवके 'प्रस्थापक' संज्ञा कब प्राप्त होती है, इस बातके वतलानेके लिए इस गाथासूत्रका अवतार हुआ है । दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए उद्यत जीव जब मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्व द्रव्यको सम्यग्मिध्यात्वमे संक्रमण कर देता है और उसके पश्चात् जब सम्यग्मिथ्यात्वके सर्व द्रव्यको सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमण करता है, तब उसे 'प्रस्थापक' यह संज्ञा प्राप्त होती है । गाथासूत्रमें सम्यग्मिथ्यात्वके पृथक् उल्लेख न होनेका कारण यह है कि मिथ्यात्वके संक्रान्त द्रव्यको अपने भीतर धारण करनेवाले सम्यग्मिथ्यात्वको ही यहॉपर 'मिथ्यात्ववेदनीय' नामसे कहा गया है। यद्यपि अधःप्रवृत्त करणके प्रथम समयसे ही 'प्रस्थापक' संज्ञा प्रारंभ हो जाती है, तथापि यहाँ अन्तदीपककी अपेक्षा उक्त संज्ञाका निर्देश समझना चाहिए, अर्थात् यहॉतक वह प्रस्थापक कहलाता है। गाथाके चतुर्थ चरण-द्वारा लेश्याका विधान किया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि तीनों शुभ लेश्याओमे वर्तमान जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभ करते हैं। यदि कोई अत्यन्त मंद विशुद्धिवाला जीव भी दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ करे तो उसे भी कमसे कम तेजोलेश्याके जघन्य अंशमै तो वर्तमान होना ही चाहिए, क्योकि कृष्णादि अशुभ लेश्याओंमें क्षपणाका प्रारम्भ सर्वथा असंभव है। अन्तर्मुहर्तकाल तक दर्शनमोहका नियमसे क्षपण करता है । दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर देव और मनुष्यगति-सम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंका और आयुकर्मका स्यात् बन्ध करता है और स्यात् वन्ध नहीं भी करता है ॥११२॥ विशेषार्थ-इस गाथाके पूर्वाधसे यह सूचित किया गया है कि दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका काल अन्तर्मुहूर्त ही है, न इससे कम है और न अधिक है । गाथाके उत्तरार्धसे यह सूचित किया गया है कि दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर वह किन-किन कर्मप्रकृतियोंका वन्ध करता है। दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर यदि वह तिथंच या मनुष्यगतिमें वर्तमान है, तो देवगति-सम्बन्धी ही नामकर्मकी प्रकृतियोका तथा देवायुका वन्ध करता है । और यदि वह देव या नरकगतिमे वर्तमान है, तो मनुष्यगति-सम्बन्धी ही नामकर्मकी प्रकृतियोंका तथा मनुष्यायुका वन्ध करता है। गाथा-पठित 'स्यात्' पदसे यह सूचित किया गया है Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११४ ] दर्शनमोह-क्षपणाप्रस्थापक-स्वरूप-निरूपण ___ ६४१ (६०) स्ववणाए पट्ठवगो जम्हि भवे णियमसा तदो अण्णो । ___णाधिच्छदि तिण्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥११३॥. (६१) संखेजा च अणुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा । सेसासु खीणमोहा गदीसुणियमा असंखेजा (५) ॥११४॥ कि यदि वह मनुष्य चरम अवमे वर्तमान है, तो आयुकर्मका तो सर्वथा ही बन्ध नही करेगा। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोका स्व-प्रायोग्य गुणस्थानोमे बन्ध-व्युच्छित्ति हो जानेके पश्चात् बन्ध नहीं करेगा। दर्शनमोहका क्षपण प्रारम्भ करनेवाला जीव जिस भवमें क्षपणका प्रस्थापक होता है, उससे अन्य तीन भवोंको नियमसे उल्लंघन नहीं करता है । दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर तोल भवये नियमसे मुक्त हो जाता है ॥११३॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ करनेवाला जीव संसारमें अधिकसे अधिक कितने काल तक रहता है, यह बतलानेके लिए इस गाथाका अवतार हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव जिस भवमें दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ करता है, उस भवको छोड़कर वह तीन भव और संसारमे रह सकता है, तत्पश्चात् वह नियमसे सर्व कर्मोंका नाशकर सिद्धपदको प्राप्त करेगा। इसका खुलासा यह है कि दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ कर यदि वह जीव वद्धायुके क्शसे देव या नारकियोमे उत्पन्न हुआ, तो वहाँ दर्शनमोहके क्षपणकी पूर्ति करके वहाँसे आकर मनुष्य भवको धारण कर तीसरे ही भवमे सिद्ध पदको प्राप्त कर लेगा । यदि वह पूर्ववद्ध आयुके वशसे भोगभूमियाँ तिर्यंच या मनुष्योमे उत्पन्न होवे, तो वहाँसे मरण कर वह देवोमे उत्पन्न होगा, पुनः वहॉसे च्युत होकर मनुप्योमे उत्पन्न होकर सिद्ध पदको प्राप्त करेगा। इस जीवके क्षपण-प्रस्थापनके भवको छोड़कर तीन भव और भी संभव होते है, अतः गाथाकारने यह ठीक कहा है कि दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर प्रस्थापन-भवको छोड़ कर तीन भवसे अधिक संसारमें नहीं रहता है । मनुष्योमें क्षीणमोही अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि नियमसे संख्यात सहस्र होते हैं । शेष गतियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव नियमसे असंख्यात होते हैं ॥११४॥ विशेषार्थ-यद्यपि इस गाथामे प्रधानरूपसे चारो गति-सम्बन्धी क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंकी संख्या बतलाई गई है, तथापि देशामर्शक रूपसे क्षेत्र, स्पर्शन आदि आठो ही अनुरोगद्वारोकी सूचना की गई है, अतएव पखंडागममे वर्णित आठो प्ररूपणाओके द्वारा यहॉपर क्षायिकसम्यग्दृष्टियोका वर्णन करना चाहिए, तभी दर्शनमोह-क्षपणासम्बन्धी सर्व कथन पूर्ण होगा। .८१ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार ३. पच्छा सुत्तविहासा' । तत्थ ताव पुवं गमणिज्जा परिहासी । ४. तं जहा। ५. तिण्हं कम्माणं द्विदीओ ओट्टिदव्याओ । ६. अणुभागफद्दयाणि च ओट्टियव्याणि । ७. तदो अण्णमधापवत्तकरणं परमं, अपुव्यकरणं विदियं, अणियट्टिकरणं तदियं । ८. एदाणि ओट्टेदण अधापवत्तकरणस्स लक्षणं भाणियव्यं । ९. एवमपुव्यकरणस्स वि, अणियट्टिकरणस्स वि । १०. एदेसि लक्षणाणि जारिसाणि उवसामगस्स, तारिसाणि चेव । ११.अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ परूवेयवाओ। १२. तं जहा । १३. दंसणमोहक्खवगस्स०१ । १४. काणि वा पुव्यवद्धाणि०२ । १५. चूर्णिसू०-इस प्रकार गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तनाके पश्चात् सर्व-प्रथम सूत्रोकी विभाषा अर्थात् पदच्छेद आदिके द्वारा अर्थकी परीक्षा करना चाहिए। उसमें भी पहले परिभापा जानने योग्य है ॥३॥ विशेपार्थ-गाथासूत्रमे निवद्ध या अनिबद्ध प्रकृतोपयोगी समस्त अर्थ-समुदायको लेकर उसके विस्तारसे वर्णन करनेको परिभापा कहते हैं। . चूर्णिसू०-वह परिभाषा इस प्रकार है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीनों कर्मोंकी स्थितियाँ पृथक्-पृथक् स्थापित करना चाहिए। तथा उन्हीं तीनो कर्मोंके अनुभाग-स्पर्धक भी तिरछी रचनारूपसे स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात् प्रथम अधःप्रवृत्तकरण, द्वितीय अपूर्वकरण और तृतीय अनिवृत्तिकरण, इनके समयोकी क्रमशः रचना करना चाहिए। इन तीनोकी रचना करके सर्वप्रथम अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण कहना चाहिए । इसीप्रकार अपूर्वकरणका और अनिवृत्तिकरणका भी लक्षण कहना चाहिए। इन तीनो करणोके लक्षण जिस प्रकारसे दर्शनमोहके उपशामककी प्ररूपणामें कहे है, उसीप्रकारसे यहॉपर भी जानना चाहिए ॥४-१०॥ चूर्णिसू०-अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमे ये चार सूत्र-गाथाएँ प्ररूपण करना चाहिए। वे इस प्रकार है-"दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है, किस योग, कषाय और उपयोगमे वर्तमान, किस लेश्यासे युक्त और कौनसे वेदवाला जीव दर्शनमोहका क्षपण करता है ? (१) दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीवके पूर्व-बद्ध कर्म कौनकौनसे हैं और अब कौन-कौनसे नवीन कांशोको वॉधता है । दर्शनमोह-क्षपणके कौन-कौन प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रवेश करती हैं और कौन-कौन प्रकृतियोंकी वह उदीरणा करता है ? (२)। दर्शनमोहके क्षपण-कालसे पूर्व वन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे काश क्षीण होते हैं ? अन्तरको कहॉपर करता है और कहॉपर तथा किन कर्मोंका यह आपण १ का सुत्तविहासा णाम ? गाहासुत्ताणमुच्चारणं कादण तेसिं पदच्छेदाहिमुहेण जा अस्थपरिक्सा सा सुत्तविहासा त्ति भण्णदे । २ सुत्तपरिहासा पुण गाहासुत्तणिबद्धमणिबद्ध च पयदोवजोगि जमत्यजाद ते सव्व घेतण वित्थरदो अत्यपरूषणा । ३ हिदि पडि तिरिच्छेण विरचेयन्वाणि | जयध० Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा० ११४ ] दर्शन मोक्षपणा प्रस्थापक स्वरूप-निरूपण के अंसे झीयदे पुव्वं ० ३ । १६. किं ठिदियाणि कम्पाणि०४ । करता है ? · (३) दर्शनमोहका क्षपण करनेवाला जीव किस-किस स्थिति- अनुभागविशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है और अवशिष्ट कर्म किस स्थिति और अनुभागको प्राप्त होते हैं ? (४) " ॥११-१६॥ विशेषार्थ - यद्यपि ये चारो सूत्र -गाथाएँ पहले दर्शनमोहकी उपशमनाका वर्णन करते हुए कही गई हैं, तथापि ये चारो ही गाथाऍ साधारणरूपसे दर्शनमोहकी क्षपणा, तथा चारित्रमोहकी उपशमना और क्षपणाके समय भी व्याख्यान करने योग्य हैं, ऐसा चूर्णिकारका मत है । अतएव यहॉपर संक्षेपसे प्रकरण के अनुसार उनके अर्थका व्याख्यान किया जाता है - दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीवका परिणाम अन्तर्मुहूर्त पूर्व से ही विशुद्ध होता हुआ आरहा है । वह चारों मनोयोगोमेसे किसी एक मनोयोगसे, चारो वचनयोगों में से किसी एक वचनयोगसे और औदारिककाययोगसे युक्त होता है । चारो कपायोमेंसे किसी एक हीयमान कषाय से युक्त होता है । उपयोगकी अपेक्षा दो मत हैं - एक मतकी अपेक्षा नियमसे साकारोपयोगी ही होता है । दूसरे मतकी अपेक्षा मतिज्ञान या श्रुतज्ञानसे और चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शनसे उपयुक्त होता है । लेश्याकी अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ल, इन तीनोंमें से किसी एक वर्धमान लेश्यासे परिणत होना चाहिए । वेदकी अपेक्षा तीनो वेदोंमेंसे किसी एक वे से युक्त होता है । इस प्रकार प्रथम गाथाकी विभाषा समाप्त हुई । दर्शनमोहकी क्षपणा के सम्मुख हुए जीवके कौन-कौन कर्म पूर्वबद्ध हैं, इस पदकी विभाषा करते हुए प्रकृतिसत्त्व, स्थितिसत्त्व, अनुभागसत्त्व और प्रदेशसत्त्वका अनुमार्गण करना चाहिए । इसमें से प्रकृतिसत्त्व उपशामकके समान ही है, केवल विशेषता यह है कि दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले के अनन्तानुबन्धी-चतुष्कका सत्त्व नहीं होता है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका नियमसे सत्त्व होता है । भुज्यमान मनुष्य के साथ परभव-सम्बन्धी चारो ही आयुकमोंका सत्त्व भजनीय है । नामकर्मकी अपेक्षा उपशामकके समान ही सत्त्व जानना चाहिए। हॉ, तीर्थंकर और आहारकद्विक स्यात् संभव हैं । इसी प्रकार स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा सर्व प्रकृतियोका सत्त्व उपशामकके समान ही जानना चाहिए । केवल इतनी विशेषता है कि उपशामकके स्थितिसत्त्वसे क्षपकका स्थितिसत्त्व असंख्यात गुणित हीन होता है और उपशामकके अनुभागसत्त्वसे क्षपकका अनुभाग सत्त्व अनन्तगुणित हीन होता है । 'के वा अंसे णिबंधदि' इस दूसरे चरण की व्याख्या करते समय प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका अनुमार्गण करना चाहिए । यह दूसरी गाथाकी विभाषा है | दर्शनमोहकी क्षपणासे पूर्व बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन कौनसे कमांश क्षीण होते हैं, इसका निर्णय बंधने और उदयमें आनेवाली प्रकृतियों की अपेक्षा करना चाहिए । दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके अन्तरकरण नही होता है किन्तु दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोका आगे जाकर के क्षय होगा । यह तीसरी गाथाकी विभाषा है | दर्शनमोहका क्षपण करनेवाला जीव किस I ६४३ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ कसाय पाहुड सुत [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार १७. एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासियूण अपुवकरणपडमसमए आढवेयो । १८. अधापवत्तकरणे ताव णत्थि हिदिघादो वा, अणुभागधादो वा, गुणसेडी वा, गुणसंकमो वा । १९.णवरि विसोहीए अणंतगुणाए ववदि । सुहाणं कस्मैसाणमणंतगुणवड्डिबंधो, असुहाणं कम्माणमणंतगुणहाणिबंधो । बंधे पुण्णे पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण हायदि । २०. एसा अधापवत्तकरणे परूवणा । २१. अपुव्वकरणस्स पढमसमए दोण्हं जीवाणं हिदिसंतकस्मादो द्विदिसंतकम्म तुल्लं वा, विसेसाहियं वा, संखेज्जगुणं वा । द्विदिखंडयादो वि द्विदिखंडयं दोण्हं जीवाणं तुल्लं वा विसेसाहियं वा संखेज्जगुणं वा । २२. तं जहा । २३. दोण्हं जीवाणमेको कसाए उवसामेयूण खीणदसणमोहणीयो जादो । एक्को कसाए अणुरसामेण खीणदसणमोहणीओ जादो । जो अणुवसामेयूण खीणदसणमोहणीओ जादो तस्स डिदिसंतकम्म संखेज्जगुणं । २४ जो पुव्वं दंसणमोहणीयं खवेदूण पच्छा कसाए उनसामेदि वा, जो किस स्थिति-अनुभाग-विशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस-किस स्थानको प्राप्त करता है, तथा अवशिष्ट कर्म किस स्थिति और अनुसागको प्राप्त होते हैं, इन प्रश्नोका निर्णय भी उपशामकके समान ही करना चाहिए । यह चौथी गाथाकी विभाषा है । चूर्णिसू०-इन उपर्युक्त चारो सूत्रगाथाओंकी विभापा करके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्रकृत प्ररूपणा आरम्भ करना चाहिए। अधःप्रवृत्तकरणमे किसी भी कर्मका स्थिति. घात, अनुभागघात, गुणश्रेणी या गुणसंक्रमण नहीं होता है । वह केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे प्रतिसमय बढ़ता रहता है। उस समय वह शुभ कर्म-प्रकृतियोका अनन्तगुणित वृद्धिसे युक्त अनुभागको वॉधता है और अशुभ कर्म-प्रकृतियोके अनुभागको अनन्तगुणित हीन वॉधता है । अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण एक-एक स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर दूसरा-दूसरा स्थितिवन्ध पल्योपमके संख्यातवे भागसे हीन बॉधता है। यह सब प्ररूपणा अधःप्रवृत्तकरणके कालमे जानना चाहिए ।।१७-२०॥ अव अपूर्वकरणकी प्ररूपणा दो जीवोके एक साथ अपूर्वकरणमे प्रवेश करनेकी अपेक्षा की जाती है चूर्णिस०- अपूर्वकरणके प्रथम समयमें वर्तमान दो जीवोमेसे किसी एकके स्थितिसत्कर्मसे दूसरे जीवका स्थितिसत्कर्म तुल्य भी हो सकता है, विशेप अधिक भी हो सकता है और संख्यातगुणित भी हो सकता है। उन्हीं दोनो जीवोमे एकके स्थितिखंडसे दूसरे जीवका स्थितिखंड तुल्य भी हो सकता है, विशेष अधिक भी हो सकता है और संख्यातगुणित भी हो सकता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-उपयुक्त दोनो जीवोमेसे एक तो उपशमश्रेणीपर चढ़कर और कषायोका उपशमन करके दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए समुद्यत हुआ । दूसरा कषायोका उपशमन नहीं करके दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ । इनमेसे जो कषायोका उपशमन नहीं करके दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत हुआ है, Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४५ गा० ११४] दर्शमोहक्षपणा प्रस्थापक स्वरूप-निरूपण दसणमोहणीयमक्खवेदण कसाए उवसामेइ, तेसिं दोण्हं पि जीवाणं कसायेसु उवसंतेसु तुल्लकाले समधिच्छिदे तुल्लं ठिदिसंतकम्मं । २५. जो पुन्वं कसाए उवसामयूण पच्छा दसणमोहणीयं खवेइ, अण्णो पुव्वं दसणमोहणीयं खवेयूण पच्छा कसाए उवसामेइ, एदेसि दोण्हं पि खीणदंसणमोहणीयाणं खवणकरणेसु उवसमकरणेसु च णिट्ठिदेसु तुल्ले काले विदिक्कते जेण पच्छा दंसणमोहणीयं खचिदं तस्स द्विदिसंतकम्मं थोवं । जेण पुन्वं दंसणमोहणीयं खवेयूण पच्छा कसाया उवसामिदा, तस्स द्विदिसंतकम्मं संखेजगुणं । २६. अपुव्वकरणस्स परमसमए जहण्णगेण कम्मेण उवट्ठिदस्स हिदिखंडगं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो। [ उक्कस्सेण उवट्ठिदस्स सागरोवमपुधत्तं । ] २७. हिदिवंधादो जाओ ओसरिदाओ द्विदीओ ताओ पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । २८. अप्पसत्थाणं कम्माणमणुभागखंडयपमाणमणुभागफयाणमणता भागा आगाइदा । २९ गुणसेढी उदयावलियबाहिरा । ३०. विदियसमए तं चेव द्विदिखंडयं, तं चेव उसका स्थितिसत्कर्म प्रथम जीवकी अपेक्षा संख्यातगुणित अधिक है । जो जीव पहले दर्शनमोहनीयका क्षपण करके पीछे कषायोका उपशमन करता है, अथवा जो दर्शनमोहनीयका क्षपण नही करके कषायोका उपशमन करता है, इन दोनो ही जीवोके कपायोके उपशान्त होकर समान कालमें अवस्थित होनेपर दोनोका स्थितिसत्कर्म समान होता है। जो जीव पहले कषायोका उपशमन करके पीछे दर्शनमोहनीयका क्षय करता है, और दूसरा पहले दर्शनमोहनीयका क्षय करके पीछे कषायोका उपशमन करता है, इन दोनो ही दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीवोंके क्षपणा-सम्बन्धी कार्योंके और उपशमना-सम्बन्धी कार्योंके सम्पन्न होनेपर, तथा समान कालके व्यतीत होनेपर जिसने पीछे दर्शनमोहनीयकर्मका क्षय किया है, उसके स्थितिसत्कर्म अल्प होता है। किन्तु जिसने पहले दर्शनमोहनीयका क्षय करके पीछे कषायोका उपशमन किया है, उसके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणित होता है ॥२१-२५॥ चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमे जघन्य स्थितिसत्कर्मसे उपस्थित जीवका स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है। यह जघन्य सत्त्व पहले कपायोका उपशमन करके क्षपणाके लिए उद्यत जीवके होता है। [ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मसे उपस्थित जीवका स्थितिकांडक सागरोपमपृथक्त्व-प्रमाण होता है। यह उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कपायोका उपशमन न करके क्षपणाके लिए समुद्यत जीवके होता है। ] पूर्व स्थितिवन्धसे अर्थात् अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमे होनेवाले तत्प्रायोग्य अन्तःकोडाकोडीप्रमाण स्थितिबन्धसे जो स्थितियाँ इस समय अपसरण की गई हैं, वे पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण हैं। अप्रशस्त कर्मों के अनुभागकांडकका प्रमाण अनुभागसत्त्वके स्पर्धकोके अनन्त वहुभाग है, जो कि घातके लिए ग्रहण किये गये हैं। अपूर्वकरणके प्रथम समयमे ही गुणश्रेणी भी प्रारंभ हो जाती है, वह गुणश्रेणी उदयावलीसे वाह्य गलितशेप-प्रमाण है। अपूर्वकरणके द्वितीय समयमें वही स्थितिकांडक है, वही अनुभागकांडक है और वही Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ फसाय पाशुद्ध सुत्त [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार अणुभागखंडयं, सो चेव द्विदिवंधो । गुणसेही अण्णा । ३१. एवमंतोमुहत्तं जाव अणुभागखंडयं पुण्णं । ३२. एवमणुभागखंडयसहस्सेसु पुण्णेसु अण्णं ट्ठिदिखंडयं, हिदिबंधमणुभागखंडयं च पट्टवेइ । ३३. पहमं द्विदिखंडयं बहुअं, विदियं द्विदिखंडयं विसेसहीणं, तदियं द्विदिखंडयं विसेसहीणं । ३४.एवं पढमादो द्विदिखंडयादो अंतो अपुचकरणद्धाए संखेज्जगुणहीणं पि अस्थि । ३५. एदेण कमेण द्विदिखंडयसहस्सेहिं बहुपहिं गदेहि अपुब्धकरणद्धाए चरिमसमयं पत्तो। ३६. तत्थ अणुभागखंडयउकीरणकालो हिदिखंडयउक्कीरणकालो द्विदिवंधकालो च समगं समत्तो। ३७. चरिमसमय-अपुवकरणे हिदिसंतकम्म थोवं । ३८. पढमसमय-अपुत्रकरणे ट्ठिदिसंतकरम संखेज्जगुणं । ३९. द्विदिबंधो वि पढमसमयअपुन्चकरणे बहुगो, चरिमसमय-अपुवकरणे संखेज्जगुणहीणो । ४०. पहमसमय-अणियट्टिकरणपविट्ठस्स अपुव्वं द्विदिखंडयमपुव्यमणुभागखंडयमपुव्वो हिदिवंधो, तहा चेव गुणसेड़ी। ४१. अणियट्टिकरणस्स पडणसमये दंसणमोहणीयमप्पसत्थमुवसामणाएं अणुवसंतं, सेसाणि कम्माणि उपसंताणि च अणुवसंताणि च । स्थितिबन्ध है, किन्तु गुणश्रेणी अन्य होती है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक एक अनुभागकांडक पूर्ण होता है । इस क्रमसे सहस्रों अनुभागकांडकोके पूर्ण होनेपर अन्य स्थितिकांडकको, अन्य स्थितिवन्धको और अन्य अनुभागकांडकको प्रारम्भ करता है। प्रथम स्थितिकांडकका आयाम बहुत है, द्वितीय स्थितिकांडकका आयाम विशेष हीन है, तृतीय स्थितिकांडकका आयाम विशेष हीन है । इस प्रकार अपूर्वकरण-कालके भीतर प्रथम स्थितिकांडकसे संख्यातगुणित हीन भी स्थिति कांडक होता है ॥२६-३४॥ चूर्णिसू०-इसी क्रमसे अनेक सहस्र स्थितिकांडकघातोके व्यतीत होनेपर अपूर्वकरणके कालका अन्तिम समय प्राप्त हो जाता है। उस अन्तिम समयमें चरम अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल, स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका काल एक साथ समाप्त हो जाता है। अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थितिसत्त्व अल्प है। इससे इसी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है। स्थितिवन्ध भी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें बहुत है और उससे अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें संख्यातगुणित हीन है।। ३५-३९॥ इस प्रकार अपूर्वकरणकी प्ररूपणा समाप्त हुई। चूर्णिसू०-अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमे दर्शनमोहनीयकर्मका अपूर्व स्थितिकांडक होता है, अपूर्व अनुभागकांडक होता है और अपूर्व स्थितिवन्ध होता है । किन्तु गुणश्रेणी अपूर्वकरणके समान ही प्रतिसमय असंख्यातगुणी रहती है । अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें दर्शनमोहनीयकर्म अप्रशस्तोपशामनाके द्वारा अनुपशान्त रहता है। शेष फर्म उपशान्त भी रहते हैं और अनुपशान्त भी रहते हैं ॥४०-४१॥ १ का अप्पसत्थ-उवसामणा णाम? कम्मपरमाणूण वज्झतरगकारणवसेण कत्तियाण पि उदीरणावसेण उदयाणागमणपण्णा अप्पसत्थ-उवसामणा त्ति भण्णदे | जयघ० Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११४ ] . दर्शनमोहक्षपणा-प्रस्थापक स्वरूप-निरूपण ६४७ ४२. अणियट्टिकरणस्स पढमसमए दंसणमोहणीयस्स डिदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्सपुधत्तमंतो कोडीए*। सेसाणं कम्माणं हिदिसंतकम्मं कोडिसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडाकोडीए । ४३. तदो द्विदिखंडयसहस्सेहिं अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु असणिहिदिवंधेण दसणमोहणीयस्स द्विदिसंतकम्यं समगं । ४४.तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण चउरिदियबंधेण डिदिसंतकम्मं समगं । ४५. तदो हिदिखंडयपुधत्तेण तीह दियवंधेण डिदिसंतकम्मं समगं । ४६. लदो द्विदिखंडयपुधत्तेण बीदियवंधेण द्विदिसंतकम्म समगं । ४७. तदो डिदिखंडयपुधत्तेण एइंदियबंधेण हिदिसंतकम्मं समगं । ४८. तदो द्विदिखंडयषुधत्तेण पलिदोवपढिदिगं जादं दंसणमोहणीयडिदिसंतकम्यं । ४९. जाव पलिदोवमहिदिसंतकम्मं ताव पलिदोवमस संखेज्जदिभागो हिदिखंडयं, पलिदोवमे विशेषार्थ-कितने ही कर्म-परमाणुओका बाह्य और अन्तरंग कारणके वशसे, तथा कितने ही कर्म-परमाणुओका उदीरणाके वशसे उदयमें नहीं आनेको अप्रशस्तोपशामना कहते हैं । इसीको देशोपशामना तथा अगुणोपशामना भी कहते हैं । दर्शनमोहसम्बन्धी यह अप्रशस्तोपशामना अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक बराबर चली आ रही थी, किन्तु अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें ही वह नष्ट हो जाती है। पर शेष कर्मोंकी अप्रशस्तोपशामना यथासंभव होती भी है और नही भी होती है, उसके लिए कोई एकान्त नियम नहीं है । चूर्णिसू०-अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व अन्त:कोडी अर्थात् सागरोपमशतसहस्रपृथक्त्व, तथा शेष कर्मोंका स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी अर्थात् सागरोपमकोटिशतसहस्रपृथक्त्व होता है। इसके पश्चात् सहस्रो स्थितिकांडकघातोके द्वारा अनिवृत्तिकरण-कालके संख्यात भागोके व्यतीत होनेपर दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व असंज्ञी जीवोके स्थितिबन्धके सदृश अर्थात् सागरोपमसहस्रप्रमाण हो जाता है। पुनः स्थितिकांडकघातपृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व चतुरिन्द्रियजीवके स्थितिबन्धके सदृश अर्थात् सौ सागरोपमप्रमाण हो जाता है । पुनः स्थितिकांडकघातपृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व त्रीन्द्रियजीवके स्थितिवन्धके सदृश अर्थात् पचास सागरोपमप्रमाण हो जाता है। पुनः स्थितिकांडकघातपृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व द्वीन्द्रिय जीवके स्थितिबन्धके सदृश अर्थात् पच्चीस सागरोपमप्रमाण हो जाता है। पुनः स्थितिकांडकघातपृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व एकेन्द्रिय जीवके स्थितिबन्धके सदृश अर्थात् एक सागरोपमप्रमाण हो जाता है । पुनः स्थितिकांडकघातपृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व एक पल्योपम-प्रमाण स्थितिवाला हो जाता है। जब तक दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व एक पल्योपम-प्रमाण रहता है, तबतक स्थितिकांडकका आयाम पल्योपमका संख्यातवॉ भाग रहता है । पुनः दर्शन * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें :-मंतो कोडाकोडीए' ऐसा पाठ सूत्र और टीका दोनोंमें मुद्रित है। (देखो पृ० १७५०) । पर वह अशुद्ध है (देखो धवला भा० ६ पृ० २५४, पक्ति ८) Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार ओलुत्ते* तदो पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । ५०. तदो सेसस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । ५१. एवं द्विदिखंडयसहस्सेसुगदेसु दूरावकिट्टी पलिदोवमस्स संखेज्जे भागे द्विदिसंतकम्मे सेसे तदो सेसस्स असंखेज्जा भागा आगाइदा । मोहके स्थितिसत्त्वके पल्योपमप्रमाण अवशिष्ट रह जानेपर स्थितिकांडकके आयामका प्रमाण पल्योपमका संख्यात वहुभाग हो जाता है। तदनन्तर शेप स्थितिसत्त्वके संख्यात वहुभाग स्थितिकांडकघातके लिए ग्रहण करता है। इस प्रकार सहस्रो स्थितिकांडकोके व्यतीत होनेपर और पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र दर्शनमोहनीयकर्मके स्थितिसत्त्व शेष रह जानेपर दूरापकृष्टि नामकी स्थिति होती है । तत्पश्चात् शेप बचे हुए स्थितिसत्त्वके असंख्यात वहुभागोको स्थितिकांडकरूपसे घात करनेके लिए ग्रहण करता है ॥४१-५१॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहको क्षपणा करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणके कालमे दर्शनमोहनीयकर्मके स्थितिसत्त्वके चार पर्व या विभाग होते हैं, जिनमें क्रमशः स्थितिसत्त्व कमती होता हुआ चला जाता है। इनमेसे प्रथम पर्वमे दर्शनमोहका स्थितिसत्त्व सागरोपमलक्षपृथक्त्व रहता है। दूसरे पर्वमें घटकर पल्योपमप्रमाण रहता है। तीसरे पर्वमे दूरापकृष्टिप्रमाण अर्थात् पल्योपमके असंख्यात भागमात्र स्थितिसत्त्व रह जाता है और चौथे पर्वमे आवलीमात्र स्थितिसत्त्व अवशिष्ट रह जाता है। ऊपर बतलाये गये क्रमसे संख्यातसहस्र स्थितिकांडकघातोके होनेपर दूसरे पर्वमें पल्योपमप्रमाण दर्शनमोहका स्थितिसत्त्व वतला आये हैं । उसके पश्चात् पुनः अनेक सहस्र स्थितिकांडकघातोके होनेपर तीसरे पर्वमे दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिसत्त्व रह जाता है । दूरापकृष्टिका अर्थ यह है कि पल्यप्रमाण स्थितिसत्त्वसे अत्यन्त दूर तक अपकर्पणकर अर्थात् स्थितिको घटाते-घटाते जब वह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण रह जाय, ऐसे सवसे अन्तिम स्थितिसत्त्वको दूरापकृष्टि कहते हैं। दूरापकृष्टिका दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि इस स्थलसे आगे अवशिष्ट स्थितिसत्त्वके असंख्यातवहुभागोको ग्रहण करके एक-एक स्थितिकांडकघात होता है। यह दूरापकृष्टिरूप स्थितिकांडकघात एक-विकल्परूप है या अनेक-विकल्परूप है, इस प्रश्नका उत्तर कितने ही आचार्योंके मतसे एक-विकल्परूप दिया गया है, अर्थात् वे कहते हैं कि आगे आवलीप्रमाण स्थितिसत्त्व रहनेतक स्थितिकांडकघातका प्रमाण सर्वत्र समान ही रहता है। परन्तु जयधवलाकारने इस मतका खंडन करके यह सयुक्तिक सिद्ध किया है कि दूरापकृष्टि अनेक-विकल्परूप है। दूरापकृष्टिके पश्चात् पल्यको असंख्यात का भाग देनेपर बहुभागमात्र आयामवाले संख्यातसहस्र स्थितिकांडकघात होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके असंख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणा होती है । पुनः अनेको स्थितिकांडकघातोके होनेपर मिथ्यात्वके आवलीप्रमाण निपेक अवशिष्ट रहते हैं, शेप सर्व द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे परिणमित हो जाता है। इस अवशिष्ट आवलीप्रमाण सत्त्वको ही उच्छिष्टावली कहते हैं। * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'ओलुत्ते के स्थान पर सूत्र और टीका दोनों में ही 'ओसुलुत्त' पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १७५१) Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४९ गा० ११४] सम्यक्त्यप्रकृति-स्थितिगत-मतभेद-निरूपण ५२. एवं पलिदोवमस्स असंखेज्जभागिगेसु बहुएसु द्विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु तदो सम्मत्तस्स असंखेज्जाणं समयपवद्धाणमुदीरणा । ५३. तदो बहुसु हिदिखंडएसु गदेसु मिच्छत्तस्स आवलियबाहिरं सव्वमागाइदं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो सेसो । ५४. तदो द्विदिखंडए णिहायमाणे णिट्ठिदे मिच्छत्तस्स जहण्णओ हिदिसंकमो, उक्कस्सओ पदेससंकमो । ताधे सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सगं पदेससंतकम्मं । ५५. तदो आवलियाए दुसमयूणाए गदाए मिच्छत्तस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं । ५६. मिच्छत्ते परमसमयसंकंते सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखेज्जा भागा आगाइदा । ५७ एवं संखेज्जेहिं हिदिखंडएहिं गदेहिं सम्मामिच्छत्तमावलियबाहिरं सव्वमागाइदं। ५८. ताधे सम्मत्तस्स दोण्णि उवदेसा। के वि भणंति संखेज्जाणि वस्ससह चूर्णिस०-इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाणवाले अनेक सहस्र स्थितिकांडक-घातोंके व्यतीत होनेपर तत्पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृतिके असंख्यात समंयप्रबद्धोकी उदीरणा आरम्भ होती है । तदनन्तर बहुतसे स्थितिकांडक-धातोके व्यतीत हो जानेपर उदयावलीसे बाहिर स्थित मिथ्यात्वका स्थितिसत्त्वरूप सर्व द्रव्य घात करनेके लिए ग्रहण किया गया । ( तथा, सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके पल्योपमके असंख्यात बहुभागोको घात करनेके लिए ग्रहण करता है।) तब सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण शेष रहता है। तत्पश्चात् मिथ्यात्वके समाप्त होने योग्य अन्तिम स्थितिकांडकके क्रमसे समाप्त होनेपर उसी कालमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम और उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । तथा उसी समय सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व होता है। तत्पश्चात् दो समय कम आवली-प्रमाणकाल बीतनेपर मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है, अर्थात् जब वह दो समय कम आवली-प्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितियोको क्रमसे गलाकर जिस समय दो समय कालवाली एक स्थिति अवशिष्ट रह जाती है उस समय मिथ्यात्वकर्मका सर्व-जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। सर्वसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वके संक्रमण करनेपर प्रथम समयमे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यात बहुभागोको घात करनेके लिए ग्रहण करता है, अर्थात् मिथ्यात्वकर्मके द्रव्यका सर्वसंक्रमण हो जानेपर सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिकांडक-घात प्रारंभ करता है । इस प्रकार वह क्रमशः घात करता हुआ संख्यात स्थितिकांडकोके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके उदयावलीसे वाहिर स्थित सर्व द्रव्यको घात करनेके लिए ग्रहण करता है, अर्थात् उस समय सम्यग्मिथ्यात्वकी केवल एक उदयावली ही शेष रहती है ॥५२-५७॥ चूर्णिस०-उस समय अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वके एक आवलीप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रह जानेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके स्थितिसत्त्वके विषयमे दो प्रकारके उपदेश मिलते है । अप्रवाह्यमानपरम्पराके कितने ही आचार्य कहते हैं कि उस समय सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थिति संख्यातसहस्र ८ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोहक्षपणाधिकार स्साणि द्विदाणि त्ति । पवाइज्जतेण उवदेसेण अट्ट वस्साणि सम्मत्तस्स सेसाणि, सेसाओ द्विदीओ आगाइदाओ त्ति । ५९. एदम्मि डिदिखंडए णिहिदे ताधे जहण्णगो सम्मामिच्छत्तस्स डिदिसंकमो, उक्कस्सगो पदेससंकयो । सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्मं । ६०. अहवस्स-उवदेसेण परूविज्जिहिदि । ६१. तं जहा । ६२. अपुवकरणस्स पडमसमए पलिदोवमस्स संखेज्जभागिगं हिदिखंडयं ताव जाव पलिदोवमहिदिसंतकम्म जादं । पलिदोवये ओलुत्ते पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । तम्हि गदे सेसस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । एवं संखेज्जाणि द्विदिखंडयसहस्साणि गदाणि । तदो दूरावकिट्टी पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागे संतकम्मे सेसे तदो द्विदिखंडयं से सस्स असंखेज्जा भागा। एवं ताव सेसस्स असंखेज्जा भागा जाव मिच्छत्तं खविदं ति । सम्मामिच्छत्तं पि खतस्स सेसस्स असंखेज्जाभागा जाव सम्मामिच्छत्तं पि खविज्जमाणं खविदं, संछुब्भमाणं संछुद्ध। ताधे चेव सम्मत्तस्स संतकम्ममहवस्सहिदिगं जादं । ६३. ताधे चेव दंसणमोहणीयक्खवगो त्ति अण्णइ । वर्ष अवशिष्ट रहती है । किन्तु प्रवाह्यमान उपदेशसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थिति आठ वर्षप्रमाण शेष रहती है, शेष सर्व स्थितियाँ स्थितिकांडकघातोसे नष्ट हो जाती है। सम्यग्मिथ्यात्वके इस अन्तिम स्थितिकांडकघातके सम्पन्न होनेपर उस समय सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम, और उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। तथा उसी समय सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व होता है ।।५८-५९॥ चूर्णिस०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी आठ वर्षप्रमाण स्थितिका निरूपण करनेवाले प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार आगेकी प्ररूपणा की जायगी। वह इस प्रकार है-अपूर्वकरणके प्रथम समयमे आरम्भ होनेवाला, पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाणका धारक स्थितिकांडकघात मिथ्यात्वकर्मके पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्व होनेतक प्रारम्भ रहता है। पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्वके अवशिष्ट रह जानेपर पल्योपमके संख्यात वहुभाग स्थितिकांडकरूपसे घात करनेके लिए ग्रहण किये जाते है । उसके भी व्यतीत होनेपर पल्योपमके शेष रहे हुए एक भागके भी बहुभाग स्थितिकांडकरूपसे घात करनेके लिए ग्रहण किये जाते हैं। इस प्रकार संख्यातसहस्र स्थितिकांडक व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिके शेप रहनेपर दूरापकृष्टि नामक स्थिति आती है। तब स्थितिकांडकका प्रमाणपल्योपमके अवशिष्ट एक भागके असंख्यात बहुभाग-प्रमाण है । इस प्रकार स्थितिकांडकका यह पल्योपमके अवशिष्ट भागके असंख्यात वहुभागरूप प्रमाण मिथ्यात्वके क्षय होनेतक जारी रहता है । तत्पश्चात् सम्यग्मिध्यात्वको भी क्षय करते हुए अवशिष्ट स्थितिसत्त्वके असंख्यात बहुभाग स्थितिकांडकरूपसे घात करनेके लिए तब तक ग्रहण करता है, जब तक कि क्षपण किया जानेवाला सम्यग्मिथ्यात्व भी क्षय कर दिया जाता है और उदयावली को छोड़कर. संक्रम्यमाण द्रव्य सर्वसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रान्त किया जाता है। उस समय Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० ११४ ] दर्शनमोहनीय क्षपक- विशेषक्रिया निरूपण ६५१ ६४. एतो पाए तो मुहुत्तिगं द्विदिखंडयं । ६५. अपुव्यकरणस्स पढमसमयादो पाए जाव चरिमं पलिदोवमस्स असंखेज्जभागट्टि दिखंडयं ति एदम्मि काले जं पदेसग्गमोक माणो सन्वरहस्साए आवलियबाहिरद्विदीए पदेसग्गं देदि तं थोवं । समयुतराए द्विदीए जं पदेसग्गं देदि तमसंखेज्जगुणं । एवं जावं गुणसे डिसीसयं ताव असंखेज्जगुणं, तदो गुणसेडिसीसयादो उवरिमाणंतरद्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं, तदो विसेसहीणं । सेसासु वि द्विदीसु विसेसहीणं चेव, णत्थि गुणगारपरावती' । ६६. जाधे अट्ठवासट्ठिदिगं संतकम्मं सम्पत्तरस ताधे पाए सम्मत्तस्स अणुभागस्स अणुसमय ओवणा । एसो ताव एको किरियापरिवत्तो । ६७. अंतोमुहुत्तिगं चरिमट्ठिदिखंडयं । ६८. ताधे पाए ओवट्टिज्जमाणासु ट्ठिदीसु उदये थोवं पदेसगं दिजदे । ही सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व आठ वर्षप्रमाण होता है । इसी समय वह 'दर्शनमोहनीयक्षपक' कहलाता है || ६०-६३॥ चूर्णिसू० - इस पाये पर अर्थात् 'दर्शनमोहनीय-क्षपक' यह संज्ञा प्राप्त होनेपर अन्तमुहूर्तं प्रमाणवाला स्थितिकांडक आरम्भ होता है । अपूर्वकरणके प्रथम समय से लेकर पल्यो - पमके असंख्यातवे भागवाले स्थितिकांडक तक इस कालमें जिस प्रदेशाका अपकर्षण करता हुआ सबसे ह्रस्व उदद्यावलीसे बाहिरी स्थितिमे जो प्रदेशाग्र देता है, वह सबसे कम है । इससे एक समय अधिक स्थितिमें जिस प्रदेशाको देता है, वह असंख्यातगुणित है | इससे 'दो समय अधिक स्थिति में असंख्यातगुणित प्रदेशायको देता 1) इस प्रकार गुणश्रेणी शीर्ष तक असंख्यातगुणित प्रदेशाको देता है । तत्पश्चात् गुणश्रेणीशीर्षकसे उपरिम- अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाको देता है । तत्पश्चात् विशेष हीन प्रदेशात्रको देता है । इस प्रकार शेष सर्व स्थितियो में भी विशेष -हीन विशेष-हीन ही प्रदेशाय को देता है । यहॉपर कहीं भी गुणकारमें या किसी क्रियाविशेषसें कोई परिवर्तन नहीं होता है । जिस समय सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व आठ वर्षप्रमाण रह जाता है, उस समय सम्यक्त्व प्रकृति के अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना होती है । तब यह एक क्रियाविशेषरूप परिवर्तन होता है । इसी समय अन्तिम स्थितिकांडकका आयाम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है, अर्थात् जो पहलेसे दूरापकृष्टिसे लेकर इतनी दूर तक पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाणवाला स्थितिकांडक चला आ रहा था, वह स्थितिकांडक इस समय संख्यात आवली आयामवाले अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण हो जाता है । यह एक दूसरा क्रिया-परिवर्तन है । उस समय अपवर्तन की जाने - वाली स्थितियो में से उदय में अल्प प्रदेशायको देता है । उससे अनन्तर समय में असंख्यात - १ एदम्मि निरुद्धकाले दिजमाणस्स दिस्समाणस्स वा पदेसग्गस्स अणतरपरूविदो चैव गुणगारकमो, त्थितत्थ अण्णा रिपेण कमेण गुणगारपवृत्ति त्तिज वृत्त होइ । गुणगारो णाम किरियाभेदो, सो णत्थि त्ति वा जाणवणट्ठ 'णत्थि गुणगारपरवत्ती' इदि सुत्ते णिद्दिट्ठ | जयध० * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'किरियापरिवत्तो' इस पदसे आगे 'जं सम्मत्ताणुभागस्स पुच्वं विट्ठाणियसरूवस्स एहिमे गट्ठाणियस रूवेणाणुसमयोवट्टणा पारद्धा त्ति' इतना अश और भी सूत्र रूपसे मुद्रित है (देखो पृ० १७५८ ) । पर वस्तुतः यह टीकाका अश है, यह इसी स्थलकी टीकासे सिद्ध है । Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ कसाय पाहुड सुच [११ दर्शनमोहक्षपणाधिकार से काले असंखेज्जगुणं जाव गुणसेडिसीसयं ताव असंखेज्जगणं । तदो उपरिमाणंतरद्विदीए वि असंखेज्जगुणं देदि । तदो विसेसहीणं । ६९. एवं जाव दुचरिमडिदिखंडयं ति। ७०. सम्मत्तस्स चरिमट्ठिदिखंडए णिट्ठिदे जाओ द्विदीओ सम्मत्तस्स सेसाओ ताओ द्विदीओ थोवाओ। ७१. दुचरिमट्ठिदिखंडयं संखेज्जगुणं । ७२. चरिमद्विदिखंडयं संखेज्नगुणं । ७३. चरिमडिदिखंडयमागाएंतो गुणसेडीए संखेज्जे भागे आगाएदि, अपणाओ च उवरि संखेज्जगुणाओ द्विदीओ। ७४. सम्मत्तस्स चरिमविदिखंडए पहमसमयमागाइदे ओवट्टिन्जमाणासु द्विदीसु जं पदेसग्गमुदए दिज्जदि तं थोवं । से काले असंखेज्जगुणं ताव जाच ठिदिखंडयस्स जहणियाए द्विदीए चरिपसमय-अपत्तो त्ति । ७५. सा चेव द्विदी गुणसंहिसीसयं जादं । ७६. जमिदाणिं गुणसेडिसीसयं तदो उपरिमाणंतराए द्विदीए असंखेज्जगुणहीणं। तदो विसेसहीणं जाव पोराणगुणसेडिसीसयं ताव । तदो उपरिमाणंतरहिदीए गुणित प्रदेशाग्रको देता है । इस प्रकार गुणश्रेणीके शीर्प तक असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इससे ऊपरकी अनन्तर स्थितिमें भी असंख्यातगुणित प्रदेशापको देता है। तत्पश्चात् विशेष-हीन देता है । इस प्रकार यह क्रम द्विचरम स्थितिकांडकके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए ॥६४-६९॥ चूर्णिस०-सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिम स्थितिकांडकके समाप्त होनेपर जो स्थितियाँ सम्यक्त्वप्रकृतिकी शेष रही हैं, वे स्थितियाँ अल्प हैं। उनसे द्विचरम स्थितिकांडक संख्यातगुणित है । उससे अन्तिम स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिम स्थिति. कांडकको बात करनेके लिए ग्रहण करता हुआ इस समयमें पाये जानेवाले गुणश्रेणी आयामके संख्यात बहुभागो तथा संख्यातगुणित अन्य उपरिम स्थितियोको भी ग्रहण करता है ।। ७०-७३॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिम स्थितिकांडकके प्रथम समयमें घात करनेके लिए ग्रहण करनेपर अपवर्तन की जानेवाली स्थितियोमेंसे जो प्रदेशाग्र उदयमें दिया जाता है, वह अल्प है । अनन्तर समयमे असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इस क्रमसे तब तक असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है जब तक कि स्थितिकांडककी जघन्य अर्थात् आदि स्थितिका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है। वह स्थिति ही गुणश्रेणी-शीर्ष कहलाती है। जो इस समय गुणश्रेणी-शीर्प है उससे उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्रको देता है। इसके पश्चात् तब तक विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है जब तक कि पुरातन गुणश्रेणी-शीर्ष * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'ताच' पदके आगे 'असंखेजगुण' इतना अधिक पाठ और मुद्रित है । ( देखो पृ० १७६२) Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११४] दर्शनमोहनीयक्षपक-विशेषक्रिया-निरूपण ६५३ असंखेज्जगुणहीणं । तदो विसेसहीणं। सेसासु वि विसेसहीणं। ७७. विदियसमए जमुक्कीरदि पदेसग्गं तं पि एदेणेव कमेण दिज्जदि । एवं ताव, जाब डिदिखंडयउक्कीरणद्धाए दुचरिमसमयो त्ति । ७८. ठिदिखंडयस्त चरिमसमये ओकड्डमाणो उदये पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असंखेन्जगुणं देदि, एवं जाव गुणसेडिसीसयं ताव असंखेज्जगुणं । ७९ गुणगारो वि दुचरिमाए हिदीए पदेसग्गादो चरिमाए ठिदीए पदेमग्गस्स असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । ८० चरिमे हिदिखंडए णिट्ठिदे कदकरणिज्जो त्ति भण्णदे । ८१. ताधे मरणं पि होन्जन। ८२. लेस्सापरिणामं पि परिणामेज्ज । ८३. काउ-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणमण्णदरो । ८४. उदीरणा पुण संकिलिट्ठस्सदु वा विसुज्झदु वा तो वि असंखेज्जसमयपबद्धा असंखेजगुणाए सेडीए जाव समयाहिया आवलिया न प्राप्त हो जाय । उससे उपरिम-अनन्तर स्थितिमे असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्रको देता है और उससे ऊपर विशेप हीन प्रदेशाग्रको देता है । इसी प्रकार शेष भी स्थितियोमे विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है। द्वितीय समयमे जिस प्रदेशाग्रको उत्कीर्ण करता है, उसे भी इस ही क्रमसे देता है । इस प्रकार यह क्रम तब तक जारी रहता है, जब तक कि स्थितिकांडकके उत्कीरण-कालका द्विचरम समय प्राप्त होता है । स्थितिकांडकके अन्तिम समयमे अपकर्षण किये गये द्रव्यमेंसे उदयमें अल्प प्रदेशाग्रको देता है और उसके अनन्तर-कालमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है । इस प्रकार गुणोणी-शीर्ष प्राप्त होने तक असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है । द्विचरम स्थिति के प्रदेशाग्रसे चरिम स्थितिके प्रदेशाग्रका गुणकार भी पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । अन्तिम स्थितिकांडकके समाप्त होने पर वह 'कृतकृत्य वेदक' कहलाता है ॥७४-८०॥ विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृतिका अन्तिम स्थितिकांडक समाप्त होनेके समयसे लेकर जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिको अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण गुणश्रेणी-गोपुच्छाएँ क्रमसे गलाता है, तब तक उसकी 'कृतकृत्य वेदक' यह संज्ञा है, अर्थात् इसने दर्शनमोहनीयके क्षपण-सम्बन्धी सर्व कार्य कर लिए हैं, अब कोई काम करना उसे अवशिष्ट नहीं रहा है। चूर्णिस०-उस समय अर्थात् कृतकृत्यवेदक-कालके भीतर उसका मरण भी हो सकता है और लेश्या-परिणाम भी परिवर्तित हो सकता है, अर्थात् कणेत, तेज, पद्म और शुक्ललेश्यामेसे कोई एक लेश्यारूप परिणाम हो सकता है। वह कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव भले ही संक्लेशको प्राप्त हो, अथवा विशुद्धिको प्राप्त हो, तो भी उसके असंख्यातगुणश्रेणीके द्वारा जब तक एक समय अधिक आवलीकाल शेष रहता है, तबतक वरावर असं * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'होज' पदसे आगे 'तद्धाए पढससमयप्पहडि जाव चरिमसमयो त्ति' इतना अश और भी सूत्ररूपसे मुद्रित है ( देखो पृ० १७६६)। पर यह टीकाका अश है, जिसमें कि 'ताधे' पदका अर्थ ही स्पष्ट किया गया है। Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ कसाय पाहुड सुन्त सेसा ति । ८५. उदयस्स पुण असंखेज्जदिभागो उक्कस्सिया वि उदीरणा । ८६. पलिदोवमस्स असंखेज्जभागियमपच्छिमं ठिदिखंडयं तस्स ठिदिखंडयस्स चरिमसमए गुणगारपरावती तदो आढत्ता ताव गुणगारपरावती जाब चरिमस्स डिदि - खंडयस्स दुचरिमसमयो त्ति । सेसेसु समएसु णत्थि गुणगारपरावती । ८७. पढमसमयकदकर णिज्जो जदि मरदि देवेसु उववज्जदि णियमा । ८८. जड़ णेरइएस वा तिरिक्खजोगिएसु वा मणुसेसु वा उववज्जदि, णियमा अंतो मुहुत्त कदकरणिज्जो । ८९. जइ ते उ-पम्म सुके व अंतोमुहुत्तकदकरणिज्जो । [ ११ दर्शनमोक्षपणाधिकार ख्यात समयप्रबद्धो की उदीरणा होती रहती है । उत्कृष्ट भी उदीरणा उदयके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है ॥ ८१-८५॥ चूर्णिसू० - अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागवाले अन्तिम स्थितिकांड की द्विचरम फाली तक तो गुणकार - परावृत्ति या क्रियामे परिवर्तन नहीं है । किन्तु पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाणवाला जो अपश्चिम स्थितिकांडक है, उस स्थितिकांड के अन्तिम समय में गुणकार - परावृत्ति होती है । वहॉसे आरंभ कर यह गुणकारपरावृत्ति अन्तिमं स्थितिकांड के द्विचरम समय तक होती है । इसके अतिरिक्त शेष समयोमें गुणकार - परावृत्ति नहीं होती है ॥ ८६ ॥ चूर्णिसू० ० - प्रथम समयवर्ती कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि यदि मरता है, तो नियमसे देवोमें उत्पन्न होता है । ( क्योकि, अन्य गतियो मे उत्पत्तिकी कारणभूत लेश्याका परिवर्तन उस समय असंभव है । ) यदि वह नारकियोमें, अथवा तिर्यग्योनियोमे, अथवा मनुष्योमें उत्पन्न होता है, तो नियमसे अन्तर्मुहूर्त काल तक वह कृतकृत्यवेदक रह चुका है । ( क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त कालके विना उक्त गतियोमे उत्पत्तिके योग्य लेश्याका परिवर्तन उस समय सभव नहीं है | ) यदि वह तेज, पद्म और शुक्ललेश्यामे भी परिणमित होता है, तो भी वह अन्तर्मुहूर्त तक कृतकृत्यवेदक रहता है || ८७-८९ ॥ विशेषार्थ - दर्शनमोहके क्षपणके लिए समुद्यत जीवके अधःकरण प्रारंभ करते हुए तेज, पद्म और शुक्लमेंसे जो लेश्या थी, कृतकृत्यवेदक होने के समय उसी लेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है । क्योकि, उसके उत्तरोत्तर परिणामोंमें विशुद्धि के बढ़नेसे लेश्याका जघन्य अंशभी बढ़कर उत्कृष्ट अंशको प्राप्त हो जाता है । अतएव कृतकृत्यवेदक होनेपर यदि लेश्याका परिवर्तन होगा, तो भी पूर्व से चली आई हुई लेश्या में वह अन्तर्मुहूर्त तक रहेगा, तत्पश्चात् ही लेश्याका परिवर्तन हो सकेगा । कुछ आचार्य इस सूत्रका अन्य प्रकारसे अर्थ करते हैं । उनका कहना है कि यदि कोई जीव तेजोलेश्याके जघन्य अंशसे युक्त होकर भी दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ करता है, तो भी उसके कृतकृत्यवेदक होनेतक उत्तरोत्तर विशुद्धिकी वृद्धि के कारण शुक्ललेश्या नियमसे हो जाती है । अतएव यदि उसके कृतकृत्यवेदक होनेके पश्चात् लेश्याका परिवर्तन होगा, तो भी वह उक्त तीनों लेश्याओमे अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहेगा, Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११४ ] दर्शन मोहक्षपक-स्थित्यादि - अल्पबहुत्व-निरूपण ६५५ ९०. एवं परिभासा समत्ता । ९१. दंसणमोहणीयक्खवगस्स परमसमए अपुच्चकरणमादि काढूण जाव पढमसमयकद करणिज्जो त्ति एदम्हि अंतरे अणुभागखंडय -ट्ठिदिखंडय -उक्कीरणद्धाणं जहण्णुकस्सियाणं द्विदिखंड पट्ठिदिबंध -ट्ठिदिसंतकम्माणं जहण्णुक्कस्सयाणं आवाहाणं च जहण्णुक्कस्सियाणमण्णेसिं च पदाणमप्पा बहुअं वत्तहस्सामा । ९२. तं जहा । ९३. सव्वत्थोवा जहणिया अणुभागखंडय - उक्कीरणद्धा । ९४. उक्कस्सिया अणुभागखंड कीरणद्धा विसेसाहिया । ९५ हिदिखंडय - उकीरणद्धा ट्ठिदिबंधगद्धा च जहणियाओ दो वि तुलाओ संखेज्जगुणाओ । ९६. ताओ उक्कस्सियाओ दो वि तुलाओ विसेसाहियाओ । ९७. कदकरणिज्जस्स अद्धा संखेज्जगुणा । ९८. सम्मत्तक्खवणद्धा संखेज्जगुणा । ९९. अणिय डिअद्धा संखेज्जगुणा । १००. अपुव्वतत्पश्चात् ही लेश्याका परिवर्तन होगा, इसके पूर्व नहीं । शुभ लेश्याके परिवर्तित होनेके पश्चात् पूर्वबद्ध आयुके कारण वह यथायोग्य अशुभ लेश्यासे परिणत होकर यदि मरण कर मनुष्यगति में जायगा, तो नियमसे भोगभूमियाँ मनुष्योमे उत्पन्न होगा । यदि तिर्यग्गति में जायगा तो भोगभूमियाँ तिर्यंचोमें उत्पन्न होगा और यदि नरकगतिमे जायगा, तो प्रथम पृथिवीमें ही उत्पन्न होगा, अन्यत्र नही । चूर्णिसू० - इस प्रकार गाथासूत्रोंकी परिभाषा समाप्त हुई ॥९०॥ विशेषार्थ - सूत्र - द्वारा उक्त या सूचित अर्थके व्याख्यान करनेको विभाषा कहते हैं । तथा जो अर्थ सूत्रमे उक्त या अनुक्त हो, अथवा देशामर्शकरूपसे सूचित किया गया हो उसके व्याख्यान करनेको परिभाषा कहते हैं । दर्शनमोहक्षपणा - सम्बन्धी पाँचो गाथा- सूत्रोंमें जो अर्थ कहा गया है, अथवा नहीं कहा गया है, अथवा सूचित किया गया है, वह सब उपर्युक्त चूर्णिसूत्रों के द्वारा व्याख्यान कर दिया गया, ऐसा इस चूर्णिसूत्रका अभिप्राय जानना चाहिए । यहाॅ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि यहाँतक चार गायासूत्रोंकी परिभाषा की गई है, क्योकि पॉचवें गाथासूत्रकी परिभाषा चूर्णिकारने आगे की है । चूर्णिसू० - दर्शनमोहनीयक्षपकके प्रथम समयमे अपूर्वकरणको आदि करके जब तक प्रथम समयवर्ती कृतकृत्यवेदक होता है, तब तक इस अन्तराल मे अनुभागकांडक और स्थितिकांडक - उत्कीरण कालोके, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकांडक, स्थितिबन्ध और स्थिति सत्त्वोंके, जघन्य वा उत्कृष्ट आबाधाओके, तथा जघन्य और उत्कृष्ट अन्य भी पदो के अल्पबहुत्वको कहेगे । वह इस प्रकार है । जघन्य अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल सबसे कम है । इससे उत्कृष्ट अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है । इससे जघन्य स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और जघन्य स्थितिबन्धकाल, ये दोनो परस्पर तुल्य होते हुए भी संख्यातगुणित हैं । इनसे इन्हीं दोनोके उत्कृष्टकाल परस्पर तुल्य होते हुए भी विशेष अधिक है। इससे कृतकृत्यवेदकका काल संख्यातगुणित है । कृतकृत्यवेदकके कालसे सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षपणका काल संख्यातगुणित है । सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षपणके कालसे अनि Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोहक्षपणाधिकार करणद्धा संखेजगुणा । १०१. गुणसेडिणिक्खेवो विसेसाहिओ। १०२. सम्मत्तस्स दुचरिमट्ठिदिखंडयं संखेज्जगणं । १०३. तस्सेव चरिमट्टिदिखंडयं संखेजजगणं । १०४. अहवस्सहिदिगे संतकम्मे सेसे जं पढमं द्विदिखंडयं तं संखेज्जगुणं । १०५. जहणिया आवाहा संखेज्जगुणा । १०६. उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा । १०७. पढमसमयअणुभागं अणुसमयोवट्टमाणगस्स अट्ट वस्साणि हिदिसंतकम्मं संखेज्जगणं । १०८. सम्मत्तस्स असंखेज्जवस्सियं चरिमद्विदिखंडयं असंखेजगणं । १०९. सम्मामिच्छत्तस्स चरिममसंखेरजवस्सियं द्विदिखंडयं विसेसाहियं । ११०. मिच्छत्ते खविदे सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं पडमद्विदिखंडयमसंखेज्जगणं । १११. मिच्छत्तसंतकम्मियस्स सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चरिमद्विदिखंडयमसंखेज्जगुणं । ११२. मिच्छत्तस्स चरिमद्विदिखंडयं विसेसाहियं । ११३. असंखेज्जगणहाणिहिदिखंडयाणं पहमटिदिखंडयं मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमसंखेज्जगुणं । ११४. संखेज्जगुणहाणिद्विदिखंडयाणं चरिमडिदिखंडयं जं तं संखेज्जगुणं । ११५. पलिदोवमद्विदिसंतकम्मादो विदियं द्विदिखंडयं संखेजगुणं । वृत्ति करणका काल संख्यातगुणित है । अनिवृत्तिकरणके कालसे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणित है। अपूर्वकरणके कालसे गुणश्रेणीनिक्षेप विशेष अधिक है । गुणश्रेणीनिक्षेपसे सम्यक्त्वप्रकृतिका द्विचरम स्थितिकांडक संख्यातगुणित है । सम्यक्त्वप्रकृतिके द्विचरम स्थितिकांडकसे सम्यक्त्वप्रकृतिका ही अन्तिम स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिम स्थितिकांडकसे सम्यक्त्वप्रकृतिके आठ वर्पप्रमाण स्थितिसत्त्वके शेष रहनेपर जो प्रथम स्थितिकांडक होता है, वह संख्यातगुणित है। इससे कृतकृत्यवेदकके प्रथम समयमे संभव सर्व कर्म-सम्बन्धी जघन्य आवाधा संख्यातगुणित है । इस जघन्य आवाधासे अपूर्वकरणके प्रथम समयमे बंधनेवाले कोंकी उत्कृष्ट आवाधा संख्यातगुणित है। इस उत्कृष्ट आवाधासे अनुभागको प्रतिसमय अपवर्तन करनेवाले जीवके प्रथम समयमे होनेवाला आठ वर्षप्रमाण सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है। इस आठ वर्पप्रमाण सम्यक्त्वप्रकृतिके स्थितिसत्त्वसे सम्यक्त्वप्रकृतिका असंख्यात वर्षवाला अन्तिम स्थितिकांडक असंख्यातगुणा है। सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिम स्थितिकांड कसे सम्यग्मिथ्यात्वका असंख्यात वर्षवाला अन्तिम स्थितिकांडक विशेष अधिक है। ( यहाँ विशेष अधिकका प्रमाण एक आवलीसे कम आठ वर्षप्रमाण जानना चाहिए। ) सम्बग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाडकसे मिथ्यात्वके क्षपण करनेपर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका प्रथम स्थितिकांडक असंख्यातगुणा है। इससे मिथ्यात्वप्रकृतिकी सत्तावाले जीवके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-सम्बन्धी अन्तिम स्थितिकांडक असंख्यातगुणित है । इससे मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकांडक विशेष अधिक है । मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकांडकसे असंख्यात गुणहानिरूप स्थितिकांडकवाले, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिका प्रथम स्थितिकांडक असंख्यातगुणित है । इससे संख्यात गुणहानिरूप स्थितिकांड कवाले उपयुक्त तीनों कर्मोंका जो अन्तिम स्थितिकांडक है, यह संख्यातगुणित है। पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्वसे मिथ्यात्वादि तीनो कर्मोंका द्वितीय स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। इससे जिस Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ गा० ११५] दर्शनमोहक्षपक स्थित्यादि-अल्पबहुत्व-निरूपण ११६. जम्हि द्विदिखंडए अवगदे दंसणमोहणीयस्स पलिदोवममेत्तं डिदिसंतकम्मं होइ, तं द्विदिखंडयं संखेज्जगुणं । ११७. अपुचकरणे पडमडिदिखंडयं संखेज्जगुणं । ११८. पलिदोवममेत्ते द्विदिसंतकम्मे जादे तदो पढमं हिदिखंडयं संखेज्जगुणं । ११९. पलिदोवमहिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । १२०. अपुचकरणे पढमस्स उक्कस्सगढिदिखंडयस्स विसेसो संखेज्जगुणो । १२१. दंसणमोहणीयस्स अणियट्टिपहमसमयं पविट्ठस्स द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । १२२. दंसणमोहणीयवज्जाणं कम्माणं जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । १२३. तेसिं चेव उक्कस्सओ हिदिबंधो संखेजगुणो । १२४. दसणमोहणीयवज्जाणं जहण्णयं डिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । १२५. तेसिं चेव उक्स्सयं द्विदिसंतकम्म संखेज्जगुणं । १२६.एदम्हि दंडए समत्ते सुत्तगाहाओ अणुसंवण्णेदवाओ। १२७ संखेज्जा च मणुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा त्ति एदिस्से गाहाए अट्ठ अणियोगद्दाराणि । तं जहा-संतपरूवणा दव्वपमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुअं च । १२८. एदेसु अणिओगद्दारेसु वण्णिदेसु दंसणमोहक्खवणा त्ति समत्तमणिओगद्दारं । स्थितिकांडकके नष्ट होनेपर दर्शनमोहनीयकर्मका पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्व रहता है, वह स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। इससे अपूर्वकरणमे होनेवाला प्रथम स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। अपूर्वकरणमे होनेवाले प्रथम स्थितिकांडकसे पल्योपममात्र स्थितिसत्त्वके होनेपर तत्पश्चात् होनेवाला प्रथम स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। इससे पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्वसे अपूर्वकरणमे होनेवाले प्रथम उत्कृष्ट स्थितिकांडकका विशेष संख्यातगुणित है । ( क्योकि उसका प्रमाण सागरोपम-पृथक्त्व है।) इससे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे प्रविष्ट हुए जीवके दर्शनमोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है । ( क्योकि, उसका प्रमाण सागरोपमशतसहस्र-पृथक्त्व है। अनिवृत्तिकरणप्रविष्ट प्रथम-समयवर्ती जीवके दर्शनमोहनीयके स्थितिसत्त्वसे दर्शनमोहनीयको छोड़कर शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है । (क्योकि, कृतकृत्यवेदकका प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम माना गया है । ) इस जघन्य स्थितिबन्धसे उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है। उक्त कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे दर्शनमोहनीयके विना शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है । इस जघन्य स्थितिसत्त्वसे उन्हीं कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है ॥९१-१२५॥ ___ चूर्णिसू०-इस अल्पबहुत्व-दंडकके समाप्त होनेपर सूत्र-गाथाओका अवयवार्थपरामर्शपूर्वक सम्यक् प्रकारसे व्याख्यान करना चाहिए ॥१२६॥ चूर्णिसू०-'संखेज्जा च मणुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा' इस पॉचवी गाथामें आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । वे इस प्रकार हैं-सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व । इन अनुयोगद्वारोंके वर्णन करनेपर दर्शनमोहक्षपणा नामका अधिकार समाप्त होता है ॥१२७-१२८॥ ८३ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संजमा संजमलद्धि-अत्थाहियारो १. देसवर त अणि ओगद्दारे एया सुत्तगाहा । २. तं जहा । (६२) लगी य संजमासंजमस्स लद्धी तहा चरित्तस्स । वड्डावड्डी उवसामणा य तह पुव्ववद्वाणं ॥ ११५ ॥ १२ संयमासंयमलब्धि - अर्थाधिकार चूर्णि सू० – देशविरत नामक संयमासंयमलब्धि अनुयोगद्वारमें एक सूत्रगाथा है । वह इस प्रकार है ॥ १-२॥ संयमासंयम अर्थात् देशसंयमकी लब्धि, तथा चारित्र अर्थात् सकलसंयमकी लब्धि, परिणामोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि, और पूर्व बद्ध कर्मोंकी उपशामना इस अनुयोगद्वारमें वर्णन करने योग्य है ॥ ११५ ॥ विशेषार्थ - वास्तवमे यह गाथा संयमासंयमलब्धि और संयमलब्धि नामक दो अधिकारोंमे निबद्ध है, जैसा कि गाथासूत्रकार स्वयं ही ग्रन्थके प्रारम्भमे कह आये हैं । परन्तु यहॉपर संयमासंयमलब्धिके स्वतन्त्र अधिकार मे कहनेकी विवक्षासे चूर्णिकारने सामान्यसे ऐसा कह दिया है कि इस अनुयोगद्वार में एक गाथा प्रतिबद्ध है, क्योकि दोनो अनुयोगद्वारोंका एक साथ वर्णन किया नहीं जा सकता था । हिंसादि पापोके एक देश त्यागको संयमासंयम कहते हैं । संयमासंयमके घातक अप्रत्याख्यानावरण कपायके उदद्याभावसे प्राप्त होनेवाली परिणामोकी विशुद्धिको संयमासंयमलब्धि कहते हैं । हिंसादि सर्व पापोके सर्वथा त्यागको सकलसंयम कहते हैं । सकलसंयमके घातक प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयाभाव से उपलब्ध होनेवाली विशुद्धिको संयमलब्धि कहते है । इन दोनोमेंसे प्रकृत अनुयोगद्वारमे केवल संयमासंयमलब्धिका ही वर्णन किया जायगा | अलब्ध- पूर्व संयमासंयम या संयमलब्धिके प्राप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणित क्रमसे परिणामोकी विशुद्धि-वृद्धिको 'वड्डावड्डी' वृद्धापवृद्धि या 'बढ़ावढ़ी' कहते हैं । देशचारित्र या सकलचारित्रके प्रतिबन्धक, पूर्व-वद्ध कर्मोंके अनुदयरूप अभावको यहाँ 'उपशामना' नामसे ग्रहण किया गया है | इसके चार भेद हैं- प्रकृति - उपशामना, स्थिति - उपशामना, अनुभाग-उपशामना और प्रदेशोपशामना | देशसंयम और सकलसंयमके घात करनेवाली प्रकृतियोकी उपशामनाको प्रकृति-उपशामना कहते हैं । इन्ही प्रकृतियोंकी, अथवा सभी कर्मों की अन्त:कोड़ाकोड़ीसे ऊपरकी स्थितियोके उदद्याभावको स्थिति उपशामना कहते हैं । चारित्र के अवरोधक Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ । संयमासंयम प्रस्थापक योग्यता- निरूपण ६५९ 1 C ३. एदस्स अणिओगद्दारस्स पुव्वं गमणिज्जा परिभासा । ४. तं जहा । ५. एत्थ अधापवत्तकरणद्धा अपुव्वकरणद्धा च अत्थि, अणियट्टिकरणं णत्थि । ६. संजमा - संजममंतोमुहुत्तेण लभिहिदि ति तदोपहुडि सन्चो जीवो आउगवज्जाणं कम्माणं विदिबंधं द्विदिसंतकम्मं च अंतोकोडाकोडीए करेदि । सुभाणं कम्माणमणुभागबंधमणुभागसंतकम्मं च चदुट्टाणियं करेदि । असुभाणं कम्माणमणुभागबंध प्रणुभागसंतकम्मं च दुट्ठाणियं करेदि । ७. तदो अधापवत्तकरणं णाम अनंतगुणाए विमोहीए विसुज्झदि । पन्थि ट्ठिदिखंडयं वा अणुभागखंडयं वा । केवलं ट्ठिदिबंधे पुण्णे पलिदोवमम्स संखेज्जदिकषायोके द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागके उदद्याभावको, तथा उदयमें आनेवाले भी कषायोके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावको अनुभागोपशामना कहते हैं । अनुदय - प्राप्त कषायोंके प्रदेशों के उदयाभावको प्रदेशोपशामना कहते हैं । इन चारो प्रकारकी उपशामनाओंका इस अधिकारमे वर्णन किया जायगा । जयधवलाकारने संयमासंयमलब्धि और 'वड्डावड्डी' का एक और भी अर्थ किया है । वह यह कि लब्धिस्थान तीन प्रकारके होते हैं - प्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमानस्थान और अप्रतिपात - अप्रतिपद्यमानस्थान । इन तीनो प्रकारके स्थानोकी प्ररूपणा उक्त दोनों अनुयोगद्वारोमें निबद्ध समझना चाहिए । 'वड्डावड्डी' यह पद वृद्धि और अपवृद्धि के संयोगसे बना है, अतएव यहाँ वृद्धिपदसे संयमासंयम या संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके निरन्तर विशुद्धिरूपसे बढ़ते ही रहनेवाले एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंका ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार संक्लेशके वशसे प्रतिसमय अनन्तगुणी हानिके द्वारा संयमासंयम या संयमलब्धिके पतनशील परिणामोको 'अपवृद्धि' कहते हैं । इस प्रकारके वृद्धि-हानिरूप परिणामोका भी इस अधिकारमे वर्णन किया जायगा । इसी प्रकार 'उपशामना' पदसे भी यह सूचित किया गया है कि जिस प्रकार प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होने वाले जीवके दर्शनमोहकी उपशामनाका विधान किया गया है, उसी प्रकार से यहॉपर भी उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयम या संयमलब्धिको प्राप्त करनेवाले जीवके उपशामनाका निरूपण करना चाहिए। इस प्रकार उक्त सर्व 'अर्थोंका निरूपण इस अधिकारमे किया जायगा । चूर्णिसू०० - इस अनुयोगद्वार में पहले गाथासूत्रसे सूचित अर्थकी परिभाषा जानने योग्य है । उसे इस प्रकार जानना चाहिए - यहॉपर, अर्थात् संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टिके अथवा वेदक- प्रायोग्य मिध्यादृष्टिके अधःप्रवृत्तकरणकाल और अपूर्वकरणकाल होता है, अनिवृत्तिकरण नहीं होता है । ( क्योकि, कर्मोंकी सर्वोपशामना या क्षपणा करनेके लिए समुद्यत जीवके ही अनिवृत्तिकरण होता है । ) संयमासंयमको अन्तर्मुहूर्त कालसे प्राप्त करेगा, इस कारण वहाँसे लेकर सर्व जीव आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मों के स्थितिबन्ध - को और स्थितिसत्त्वको अन्तः :कोड़ाकोड़ी के प्रमाण करते हैं । शुभ कर्मोंके अनुभागबन्धको और अनुभागसत्त्वको चतुःस्थानीय करते हैं । तथा अशुभ कर्मोंके अनुभागबन्धको और Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० कसाय पाहुड सुत्त [१२ संयमासंयमलब्धि-अर्थाधिकार भागहीणेण हिदि बंधदि । जे सुभा कम्मंसा ते अणुभागेहि अणंतगुणेहिं बंधदि । जे असुहकम्मंसा, ते अणंतगुणहीणेहिं* बंधदि । ८. विसोहीए तिव्व-मंदं वत्तइस्सामो। ९. अधापवत्तकरणस्स जदोप्पहुडि विसुद्धो तस्स पडमसमए जहणिया विसोही थोवा । १०. विदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । ११. तदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । १२. एवमंतोमुहुत्तं जहणिया चेव विसोही अणंतगुणेण गच्छइ । १३. तदो पढमसमए उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा। १४ सेस-अधापवत्तकरणविसोही जहा दंसणमोह-उवसामगस्स अधापवत्तकरणविसोही तहा चेव कायव्वा । अनुभागसत्त्वको द्विस्थानीय करते हैं। तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरण नामकी अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता है । यहॉपर न स्थितिकांडकघात होता है और न अनुभागकांडकघात होता है । ( न गुणश्रेणी होती है । ) केवल स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन स्थितिबन्धके द्वारा नवीन कर्मोंकी स्थितिको बॉधता है । जो शुभ कर्मरूप प्रकृतियाँ हैं, उन्हें अनन्तगुणित अनुभागोके साथ वॉधता है और जो अशुभ कर्मरूप प्रकृतियाँ हैं, उन्हे अनन्तगुणित हीन अनुभागोके साथ बॉधता है ॥३-७॥ चूर्णिसू०-अव संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाले जीवके विशुद्धिकी तीव्र-मन्दता कहते हैं-अधःप्रवृत्तकरणके जिस समयसे विशुद्ध हुआ है, उसके प्रथम समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे कम है । उससे द्वितीय समयमे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है । उससे तृतीय समयमे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक जघन्य विशुद्धि ही अनन्तगुणित क्रमसे बढ़ती जाती है । इसके पश्चात् अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । शेष अधःप्रवृत्तकरण-सम्बन्धी विशुद्धियाँ, जिस प्रकार दर्शनमोहोपशामकके अधःप्रवृत्तकरणमे वतलाई गई हैं, उसी प्रकारसे यहॉपर भी उनका निरूपण करना चाहिए ।। ८-१४॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अणंतगुणहीणहि' इस पाठके स्थानपर 'अणंतगुणेहिं [ हीणा-] ऐसा पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ०.१७७८) ' ताम्रपत्रवाली प्रतिमें सूत्राक १४ के अनन्तर निम्नलिखित चार सूत्र और मुद्रित हैं'सनमासजम पडिवज्जमाणस्स परिणामो केरिसो भवे १ । [जोगे कसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को हवे ॥-] काणि वा पुव्ववद्धाणि० २ [ के वा अंसे णिवधदि । कदि आवलिय पविसति कदिण्ह वा पवेसगो 1-] के असे झीयदे पुव्व० ३ [वधेण उदएण वा । अंतरं वा कहिं किच्चा के के खवगो कहिं ||~] किं ठिदियाणि कम्माणि० ४ [अणुभागेसु केसु वा | ओवट्टिदूण सेसाणि कं ठाण पडिवजदि' |-] इस उद्धरणमें कोष्ठकान्तर्गत पाठको सम्पादकने अपनी ओरसे पूर्व-निर्दिष्ट गाथासूत्रोंके अनुसार जीडा है। शेष अंश टीकाका अंग है। जो कि प्रकृत स्थलपर उद्धरणके रूपसे निर्दिष्ट किया गया है। (देखो पृ० १७७९)। Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६१ गा: ११५ ]'- ' संयमासंयम-प्रस्थापक-निरूपण १५. अपुवकरणस्स पडमसमए जहण्णय ठिदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सय ठिदिखंडयं सागरोवमपुधत्तं । १६. अणुभागखंडयमसुहाणं कम्माणमणुभागस्स अणंता भागा आगाइदा । सुभाणं कम्माणमणुभागपादो णत्थि ।१७. गुणसेढी च णत्थिं । १८. द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागेण* हीणो । १९. अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु हिदिखंडय-उकीरणकालो हिदिबंधकालो च अण्णो च अणुभागखंडयउक्कीरणकालो समगं समत्ता भवंति । २०. तदो अण्णं हिदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जभागिगं अण्णं हिदिवंधमण्णमणुभागखंडयं च पट्टवेइ । २१. एवं द्विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु अपुन्वकरणद्धा समत्ता भवदि । विशेषार्थ-जिस प्रकारसे दर्शनमोह-उपशामनाके प्रारम्भ करनेवाले जीवके विषयमें गाथासूत्राङ्क ९१ से लेकर ९४ तककी चार प्रस्थापक-गाथाओके द्वारा परिणाम, योग, कषाय, लेश्या आदिका, पूर्व-बद्ध और नवीन वंधनेवाले कर्मोका, तथा कर्मोंकी उदय अनुदय, बन्धअवन्ध और अन्तर, उपशम आदिका विस्तृत विवेचन किया गया है, उसी प्रकारसे यहॉपर भी अध:प्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें संयमासंयमलब्धिके प्रस्थापक जीवके परिणाम, योग, लेश्या आदिका विवेचन करनेकी चूर्णिकारने सूचना की है । दर्शनमोहोपशामना-प्रस्थापककी प्ररूपणासे संयमासंयमलब्धि-प्रस्थापककी इस प्ररूपणामें कोई विशेप भेद न होनेसे चूर्णिकारने उसे स्वयं नहीं कहा है । अतः विषयके स्पष्टीकरणार्थ यहाँ उसका प्ररूपण करना आवश्यक है। चूर्णिमू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जघन्य स्थितिकांडक पल्योपमका संख्यातवॉ भाग है और उत्कृष्ट स्थितिकांडक सागरोपमपृथक्त्व-प्रमाण है । अनुभागकांडक अशुभ कर्मोंके अनुभागका अनन्त बहुभाग घात किया जाता है। शुभ कर्मोंका अनुभागघात नहीं होता है। यहॉपर गुणश्रेणीरूप निर्जरा भी नहीं होती है ॥१५-१७॥ विशेषार्थ-संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाली जीवके गुणश्रेणीरूप निर्जरा नहीं होती है। इसका कारण यह है कि वेदकसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाले जीवके गुणश्रेणी निर्जराका निषेध किया गया है। हॉ, उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाले जीवके गुणश्रेणी निर्जरा होती है, किन्तु यहॉपर चूर्णिकारने उसकी विवक्षा नहीं की है। चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्तकरणकी अपेक्षा स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन होता है। सहस्रो अनुभागकांडकोके व्यतीत होनेपर अर्थात् घात कर दिये जानेपर स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल, स्थितिवन्धका काल और अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल, ये तीनों एक साथ समाप्त होते है। तत्पश्चात् पल्योपमके संख्यातवें भागवाला अन्य स्थितिकांडक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकांडकको एक साथ आरम्भ करता है । इस प्रकार सहस्रो स्थितिकांडकघातोके हो जानेपर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है ॥१८-२१॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पलिदोवमसंखेजभागेण' ऐसा पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १७८०) Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ १२ संयमासंयमलब्धि- अर्थाधिकार - २२. तदो से काले पडमसमयसंजदासंजदो जादो । २३. ताधे अपुव्वं द्विदिखंडयमपुव्वमणुभागखंडयमपुव्वं द्विदिबंधं च पटुवेदि । २४. असंखेज्जे समयपबद्ध ओकड्डियूण गुणसेडीए उदयावलियबाहिरे रचेदि । २५. से काले तं चैव डिदिखंडयं, तं चैव अणुभागखेडयं सो चेव ट्ठिदिबंधो । गुणसेढी असंखेज्जगुणा । २६ गुणसेटि - णिक्खेवो अवदिगुणसेढी तत्तिगो चेव । २७. एवं ठिदिखंडएस बहुए गदेसु तदो अधापवत्तसंजदासंजदो' जायदे | ६६२ २८. अधापवत्तसंजदासंजदस्त ठिदिघादो वा अणुभागधादो वा णत्थि । २९. जदि संजमासजमादो परिणामपच्चएण णिग्गदो, पुणो वि परिणामपच्चएण अंतोमुहुत्तेण - चूर्णिसु० - तदनन्तर कालमे वह प्रथम समयवर्ती संयतासंयत हो जाता है । उस समय वह अपूर्व स्थितिकांडकघात, अपूर्व अनुभागकांडकघात और अपूर्व स्थितिबन्धको आरम्भ करता है । तथा असंख्यात समयप्रवद्धोका अपकर्षण कर उदद्यावली के बाहिर गुणश्रेणीको रचता है । उसके अनन्तर समयमे वही पूर्वोक्त स्थितिकांडकघात होता है, वही अनुभागकांडकघात होता है और वही स्थितिवन्ध होता है । केवल गुणश्रेणी असंख्यातगुणी होती है । गुणश्रेणीनिक्षेप और अवस्थित गुणश्रेणी उतनी ही अर्थात् पूर्व - प्रमाण ही रहती है । इस प्रकार बहुतसे स्थितिकांडकघातोंके व्यतीत होनेपर तत्पश्चात् उक्त जीव अधःप्रवृत्त संयतासंयत होता है ।। २२-२७॥ विशेषार्थ - संयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ, सहस्रो स्थितिकांडकघात, अनुभागक और स्थितिबन्धापसरणोको करता हुआ यह जीव एकान्तानुवृद्धिसे वृद्धिंगत संयतासंयत कहलाता है । क्योकि संयतासंयत होनेके प्रथम समयसे लेकर इस समय तक उसके एकान्तसे अर्थात् निश्चयतः अविच्छिन्नरूपसे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती रहती है । इस अन्तर्मुहूर्त - कालके पूरा होनेपर वह विशुद्धिताकी वृद्धिसे पतित हो आता है, अतः उसे अधःप्रवृत्त - संयतासंयत कहते हैं । इसीका दूसरा नाम स्वस्थान संयतासंयत भी है । अधःप्रवृत्तसंयतासंयतकी दशामें वह स्वस्थान- प्रायोग्य अर्थात् पंचम गुणस्थानके योग्य संक्लेश और विशुद्धिको भी प्राप्त करता है, ऐसा यहाॅ अभिप्राय जानना चाहिए | चूर्णिम् ० - अधःप्रवृत्त - संयतासंयतके स्थितिघात या अनुभागघात नहीं होता है । वह यदि संक्लेश परिणामोके योगसे संयमासंयमसे गिर जाय, अर्थात् असंयत हो जाय, १ एतदुक्त भवति स जमास जसग्गणपढमसमयप्प हुडि जाव अतोमुहुत्तचरिमसमयाति ताव पडिसमयमणतगुणाए विसोहीए ड्ढमाणो हिदि- अणुभागखड्य- द्विदिवधोसरणसहस्साणि कुणमाणो तदवत्थाए एतावदसजदासजदो त्ति भण्णदे । एहि पुण तक्कालपरिसमत्तीए सत्थाणविसोहीए पदिदो अधापवत्तसंजदासंजदन्रवएसारिहो जादोत्ति । अधापवत्तसंजदासजदो त्ति वा सत्थाणसजदासजदो त्ति वा एयो । तदो पत्तो पाए सत्याणपाओग्गाओ सकिलेस विसोहीओ समयाविरोहेण परावत्तेदुमेसो लहदि चि घेत्तव्वं । जयघ० Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११५] . अधःप्रवृत्तसंयत-स्वरूप-निरूपण आणीदो संजमासंजमं पडिवज्जइ, तस्स वि णत्थि द्विदिघादो वा अणुभागधादो वा । ३०. जाव संजदासंजदो ताव गुणसेहिं समए समए करेदि । ३१. विसुझंतो असंखेज्जगुणं वा संखेज्जगुणं वा संखेज्जभागुत्तरं असंखेज्जभागुत्तरं वा करेदि । संकिलिस्संतो एवं चेव गुणहीणं वा विसेसहीणं वा करेदि । ३२. जदि संजमासंजमादो पडिवदिदूण आगुंजाएं' मिच्छत्तं गंतूण तदो संजमासंजमं पडिवज्जइ, अंतोमुडुत्तेण वा, विपक?ण तो फिर भी वह विशुद्धिरूप परिणामोके योगसे लघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा वापिस आकर संयमासंयमको प्राप्त हो जाता है । उस समय भी उसके स्थितिघात या अनुभागघात नहीं होता है । (क्योकि, उस समय अधःप्रवृत्तादि करणोका अभाव रहता है । ) जब तक वह संयतासंयत है, तब तक समय-समय गुणश्रेणीको करता है । विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ वह असंख्यातगुणित, संख्यातगुणित, संख्यात भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक (द्रव्यको अपकर्षित कर अवस्थित गुणश्रेणीको ) करता है। संक्लेशको प्राप्त होता हुआ वह इस ही प्रकारसे असंख्यातगुणहीन, संख्यातगुणहीन अथवा विशेषहीन गुणश्रेणीको करता है ॥२८-३१॥ विशेषार्थ-स्वस्थानसंयतासंयतका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्वकोटी वर्ष है। यदि कोई जीव संयमासंयमको ग्रहण करनेके पश्चात् उत्कृष्ट काल तक संयतासंयत बना रहता है, तो भी उसके प्रति समय असंख्यातगुणी निर्जरा होती रहती है । हॉ, इतना भेद अवश्य हो जाता है कि जब वह उक्त समयके भीतर जितने काल तक जैसी हीनाधिक विशुद्धिको प्राप्त होगा, तब उतने समय तक उसके तदनुसार असंख्यातगुणित, संख्यातगुणित या विशेष अधिक कर्मनिर्जरा होगी। इसी प्रकार जब वह तीव्र या मन्द संक्लेशको प्राप्त होगा, तब उसके तदनुसार असंख्यातगुणहीन, संख्यातगुणहीन या विशेषहीन कर्म-निर्जरा होगी। परन्तु सम्पूर्ण संयतासंयत-कालमें ऐसा कोई समय नहीं है, जब कि उसके हीनाधिक रूपसे कर्मनिर्जरा न होती रहे । कहनेका सारांश यह है कि संयतासंयतके उस उत्कृष्ट या यथासंभव अनुत्कृष्ट कालके भीतर सर्वदा विशुद्धि या संक्लेशके निमित्तसे षड् गुणी हानि या वृद्धि होती रहती है। अतएव उसके अनुसार ही सूत्रोक्त चार प्रकारकी वृद्धि या हानिको लिए हुए कर्म-निर्जरा भी होती रहती है। संयतासंयतका कोई भी समय कर्म-निर्जरासे शून्य नही होता है। गुणश्रेणीका आयाम सर्वत्र अवस्थित एक सहश ही रहता है, इतना विशेष जानना चाहिए। चूर्णिसू०-यदि कोई जीव आगुञ्जासे अर्थात् अन्तरङ्गमे अति संक्लेशसे प्रेरित होनेके कारण संयमासंयमसे गिरकर और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहर्तकालसे * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'विसुझंतो वि' पाठ है । (देखो पृ० १७८३). १ आगुजनमागुजा, संक्लेशभरेणातराघूर्णनमित्यर्थः । जयध० Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ कसाय पाहुड सुत्त [१२ संयमासंयमलन्धि-अर्थाधिकार वा कालेण; तस्स वि संजमासंजमंपडियज्जमाणयस्स एदाणि चेव करणाणि कादब्वाणि । ३३. तदो एदिस्से परूवणाए समत्ताए संजमासंजमं पडिवज्जमाणगस्स पहमसमयअपुव्वकरणादो जाव संजदासंजदो एयंताणुवड्डीए चरित्ताचरित्तलद्धीए बड्डदि, एदम्हि काले द्विदिवंध-द्विदिसंतकम्म-द्विदिखंडयाणं जहण्णुकस्सयाणमायाहाणं जहण्णुकस्सियाणमुक्कीरणद्धाणं जहण्णुक्कस्सियाणं अण्णेसिं च पदाणमप्पायहुअं वत्तइस्सामो । ३४. तं जहा । ३५. सव्वत्थोवा जहणिया अणुभागखंडय-उक्कीरणद्धा । ३६. उक्कस्सिया अणुभागखंडय-उत्कीरणद्धा विसेसाहिया । ३७. जहणिया द्विदिखंडय उकीरणद्धा जहणिया द्विदिवंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ। ३८. उक्कस्सियाओ विसेसाहियाओ । ३९. पढयसमयसंजदासंजदप्पहुडि जं एगंताणुचड्डीए वड्ढदि चरित्ताचरित्तपज्जएहिं एसो बड्डिकालो संखेज्जगुणो । ४०. अपुचकरणद्धा संखेज्जगुणा । ४१. जहणिया संजमासंजमद्धा सम्पत्तद्धा मिच्छत्तद्धा संजमद्धा असंजमद्धा सम्मामिच्छत्तद्धा या ( अविनष्ट वेदक-प्रायोग्यरूप ) विप्रकृष्ट कालसे संयमासंयमको प्राप्त होता है, तो संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले उस जीवके अधःकरण और अपूर्वकरण ये दो ही करण होते हैं, ऐसा अर्थ करना चाहिए ॥३२॥ . चूर्णिसू०-इस उपर्युक्त प्ररूपणाके समाप्त होनेपर तत्पश्चात् संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवके अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर जब तक संयतासंयत एकान्तानुवृद्धि के द्वारा चारित्राचारित्र अर्थात् संयमासंयम लब्धिसे बढ़ता है, तब तक इस मध्यवर्ती कालमे जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, स्थितिसत्त्व, स्थितिकांडकका, तथा जघन्य और उत्कृष्ट आवाधाओका जघन्य और उत्कृष्ट उत्कीरणकालोंका, तथा अन्य भी पदोका अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इस प्रकार है-एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तमे संभव जघन्य अर्थात् अन्तिम अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल वक्ष्यमाण,पदोकी अपेक्षा सबसे अल्प है। इससे अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे संभव अनुभागकांडकका उत्कृष्टकाल विशेष अधिक है (२)। इससे एकान्तानुवृद्धिके अन्तमे संभव जघन्य स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और जघन्य स्थितिवन्धका काल, ये दोनो ही परस्पर तुल्य और संख्यातगुणित हैं (३)। इससे उपयुक्त दोनोके ही उत्कृष्टकाल अर्थात् अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिवन्धका काल, ये दोनो परस्पर तुल्य और विशेष अधिक हैं (४)। इससे प्रथमसमयवर्ती संयतासंयतसे लेकर जब तक एकान्तानुवृद्धिके द्वारा संयमासंयमरूप पर्यायसे बढ़ता है, तब तकका यह एकान्तानुवृद्धिरूप काल संख्यातगुणा है (५)। इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है (६)। अपूर्वकरणके कालसे जघन्य संयमासंयमका काल, जघन्य सम्यक्त्वप्रकृतिका उदयकाल, जघन्य मिथ्यात्वका उदय-काल, जघन्य संयम-काल, जघन्य असंयम-काल और जघन्य सम्यग्मिथ्या Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११५ ] संयमासंयमलन्धि-स्वामित्व-निरूपण ६६५ च एदाओ छप्पि अद्धाओ तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ । ४२. गुणसेही संखेज्जगणा । ४३. जहणिया आवाहा संखेज्जगुणा । ४४. उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा । ४५. जहण्णयं द्विदिखंडयमसंखेज्जगुणं। ४६. अपुवकरणस्स पहमं जहण्णयं डिदिखंडयं संखेज्जगणं । ४७. पलिदोवमं संखेज्जगुणं । ४८. उकस्सयं द्विदिखंडयं संखेज्जगणं । ४९. जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । ५०.उकस्सओ हिदिबंधो संखेजगुणो । ५१. जहण्णयं हिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ५२. उक्कस्सयं हिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । , ५३. संजदासंजदाणमट्ठ अणियोगद्दाराणि । तं जहा । संतपरूवणा दव्वपमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुअंच। ५४. एदेसु अणिओगद्दारेसु समत्तेसु तिव्व-मंददाए सामित्तमप्पाबहुअंच कायव्वं ।। ५५. सामित्तं । ५६. उक्कस्सिया लद्धी कस्स ? ५७. संजदस्त सव्वविसुद्धस्स से काले संजमग्गाहयस्स ।। त्वका उदयकाल ये छहो परस्पर तुल्य और संख्यातगुणित हैं (७)। इससे संयतासंयतसम्बन्धी गुणश्रेणी-आयाम संख्यातगुणित है (८)। इससे एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तिम समयमें होनेवाली चरम स्थितिबन्धकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणित है (९)। इससे अपूर्वकरणके प्रथम समय-सम्बन्धी स्थितिबन्धकी उत्कृष्ट आबाधा संख्यातगुणित है (१०) । इससे एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयका जघन्य स्थितिकांडक असंख्यातगुणित है । (क्योंकि, वह पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है ) (११) । इससे अपूर्वकरणका प्रथम जघन्य स्थितिकांडक संख्यातगुणित है (१२) । इससे पल्योपम संख्यातगुणित है (१३) । पल्योपमसे अपूर्वकरणका प्रथम उत्कृष्ट स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। (क्योकि वह सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण होता है) (१४) । इससे एकान्तानुवृद्धिके अन्तमें संभव जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है (१५)। इससे अपूर्वकरणके प्रथम समयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है (१६)। इससे एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयका जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है (१७) । इससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है (१८) (क्योकि उसका प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम माना गया है। ) ॥३३-५२॥ चूर्णिसू०-संयतासंयतोंके विशेष परिज्ञानार्थ आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। वे इस प्रकार हैं-सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभाग और अल्पबहुत्व । इन आठो अनुयोगद्वारोका निरूपण समाप्त होनेपर तीव्र-मन्दताके विशेष ज्ञानके लिए स्वामित्व और अल्पवहुत्व इन दो अनुयोगद्वारोका वर्णन करना चाहिए ॥५३-५४॥ चूर्णिसू०-उनमेंसे पहले स्वामित्व कहते हैं ॥५५॥ शंका-उत्कृष्ट संयमासंयमलब्धि किसके होती है ? ॥५६॥ समाधान-अनन्तर समयमें ही सकलसंयमको ग्रहण करनेवाले सर्व-विशुद्ध संयतासंयत मनुष्यके होती है ॥५७॥ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ । .. कसाय पाहुड सुत्त । १२ संयमासंयमलब्धि-अर्थाधिकार . ५८. जहणिया लद्धी कस्स १५९. तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स से काले मिच्छत्तं गाहिदि त्ति । ६०. अप्पाबहुअं । ६१. तं जहा । ६२, जहणिया संजमासंजमलद्धी थोवा । ६३. उक्कस्सिया संजयासंजमलद्धी अणंतगुणा । ६४. एत्तो संजदासंजदस्स लद्धिट्ठाणाणि वत्तइस्सामो । ६५. तं जहा । ६६. जहण्णयं लट्ठिाणमणंताणि फद्दयाणि । ६७. तदो विदियलद्धिाणमणंतभागुत्तरं । ६८. एवं छटाणपदिदलट्ठिाणाणि । ६९. असंखेज्जा लोगा। ७०. जहण्णए लद्धिट्ठाणे संजमासंजमं ण पडिवज्जदि । ७१. तदो असंखेज्जे लोगे अइच्छिदूण जहण्णयं पडिवज्जमाणस्स पाओग्गं लट्ठिाणमणंतगुणं । - ७२. तिव्य-मंददाए अप्पाबहुअं । ७३. सव्वमंदाणुभागं जहण्णगं संजयासंज मस्स लट्ठिाणं । ७४. मणुसस्स पडिवदमाणयस्स जहण्णयं लट्ठिाणं तत्तियं चेव । ७५. तिरिक्खजोणियस्स पडिवदमाणयस्स जहण्णयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । ७६. तिरि शंका-जघन्य संयमासयमलब्धि किसके होती है ? ॥५८॥ . , समाधान-जघन्य संयमासंयमलब्धिके योग्य संक्लेशको प्राप्त और अनन्तर समयमे मिथ्यात्वको ग्रहण करनेवाले संयतासंयतके जघन्य संयमासंयमलब्धि होती है ॥५९।। __ चूर्णिसू०-अव अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इस प्रकार है-जघन्य संयमासंयमलब्धि अल्प है और उससे उत्कृष्ट संयमासंयमलब्धि अनन्तगुणित है ॥६०-६३॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे संयतासंयतके लब्धि-स्थान कहेगे। वे इस प्रकार हैंजघन्य संयमासंयमलब्धिस्थान अनन्त स्पर्धकरूप है। इससे द्वितीय संयमासंयमलब्धिस्थान अनन्तवें भागसे अधिक है। इस प्रकार षट्स्थानपतित संयमासंयम-लब्धिस्थान होते हैं । उनका प्रमाण असंख्यात लोक है। जघन्य संयमासंयम लब्धिस्थानमे कोई भी तिर्यंच या मनुष्य संयमासंयमको नही प्राप्त करता है। ( क्योकि यह सर्व जघन्य स्थान ऊपरसे गिरनेवाले जीवके ही संभव है।)- इसके पश्चात् असंख्यात लोकप्रमाण संयमासंयम-लब्धिस्थानोको उल्लंघन करके प्रतिपद्यमान अर्थात् संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवके प्राप्त करनेके योग्य जघन्य लब्धिस्थान होता है ॥६४-७१।। चूर्णिसू०-अब इन लब्धिस्थानोकी तीव्र मन्दताका अल्पवहुत्व .. कहते है। वह इस प्रकार है-संयमासंयमका जघन्य लब्धिस्थान -सवसे सन्द अनुभागवाला है। (यह महान् संक्लेशको प्राप्त होकर मिथ्यात्वमें जानेवाले संयतासंयतके अन्तिम समयमे होता है । ) नीचे गिरनेवाले मनुष्यका जघन्य लब्धिस्थान उतना ही है। इससे नीचे गिरनेवाले तिर्यग्योनिक जीवका जघन्य लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे प्रतिपतमान तिर्यग्योनिकका * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अच्छिदूण' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १७९०)। पर वह अशुद्ध है, क्योकि यहॉपर 'उल्लंघन करके ऐसा अर्थ अपेक्षित है । 'रह करके' यह अर्थ नहीं। Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६७ गा० ११५ ] - संयमासंयमलब्धिस्थान-निरूपण क्खजोणियस्स पडिचदमाणयस्स उक्कस्सयं लट्ठिाणमणतगुणं । ७७. मणुससंजदासंजदस्स पडियदमाणगस्स उक्स्सयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । ७८. मणुसस्स पडि वज्जमाणगस्स जहण्णायं लट्ठिाणमणंतगुणं । ७९. तिरिक्खजोणियस्स पडिवज्जमाणगस्स जहण्णय लट्ठिाणमणंतगुणं । ८०. तिरिक्ख जोणियस्स पडिवडमाणयस्स उकस्सयं लद्धिट्ठाणमणतगुणं । ८१. मणुसस्स पडिवज्जमाणगस्स उक्कस्सयं लद्धिहाणपणंतगुणं । ८२. मणुसस्स अपडिवज्जमाणअपडि वदमाणयस्स जहण्णयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं.। ८३. तिरिक्खजोणियस्स अपडिवज्जमाण-अपडिवदमाणयस्स जहण्णयं लद्धिट्टाणमणंतगुणं । ८४. तिरिक्खजोणियस्स अपडिवजमाण-अपडिवदमाणयस्स उक्कस्सयं लट्ठिाणमणंतगुणं । ८५. मणुसस्स अपडिवजमाण-अपडिवदमाणयस्स उकस्सयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । ', . . ८६. संजदासंजदो अपञ्चक्खाण कसाए ण वेदयदि । ८७. पञ्चस्खाणावरणीया वि संजमासंजमस्स ण किंचि आवरेंति। ८८. सेसा चदुकसाया णवणोकसायवेदणीयाणि च उदिण्णाणि देमघादि करेंति संजमासंजमं । ८९ जइ पञ्चक्खाणावरणीयं वेदेंतो सेसाणि चरित्तमोहणीयाणि ण वेदेज्ज तदो संजमासंजमलद्धी खड्या होज १ ९०. एकेण वि उदिण्णेण खओवसमलद्धी भवदि । उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे प्रतिपतमान मनुष्य संयतासंयतका उत्कृष्ट लब्धिः स्थान अनन्तगुणित है। इससे प्रतिपद्यमान अर्थात् संयमासंयमको प्राप्त करनेवाले मनुष्यः का जघन्य लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे प्रतिपद्यमान तिर्यग्योनिक जीवका जघन्य लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे प्रतिपद्यमान तिर्यग्योनिक जीवका उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे प्रतिपद्यमान मनुष्यका उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे अप्रतिपद्यमान-अप्रतिपतमान मनुप्यका जघन्य लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे अप्रतिपद्यमान-अप्रतिपतमान तिर्यग्योनिक जीवका जघन्य लब्धिस्थान अनन्तगुणित है । इससे अप्रतिपद्यमान-अप्रतिपतमान तिर्यग्योनिक जीवका उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे अप्रतिपद्यमान-अप्रतिपतमान मनुष्यका उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित है ।।७२-८५॥ । चूर्णिसू०-संयतासंयत जीव अप्रत्याख्यानावरण कषायका वेदन नहीं करता है। प्रत्याख्यानावरणीय कषाय भी संयमासंयमका कुछ भी आवरण नहीं करती हैं। शेप चार संज्वलन कषाय और नव नोकषायवेदनीय, ये उदयको प्राप्त होकर संयमासंयमको देशघाती करती हैं । यदि प्रत्याख्यानावरणीय कषायको वेदन करता हुआ संयतासंयत शेष चारित्रमोहनीय-प्रकृतियोंका वेदन न करे, तो संयमासंयमलब्धि क्षायिक हो जाय । अतएव चार संज्वलन और नव नोकषाय, इनमेसे एक भी कपायके उदय होनेसे संयमासंयमलब्धि क्षायोपशमिक सिद्ध होती है । ( फिर जहाँ तेरह कषायोका उदय होवे, वहाँ तो नियमसे वह क्षायोपशमिक ही होगी। ) ॥८६-९०॥ ___ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'करेदि' पाठ मुद्रित है (देखो पृ० १७९४) । ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'तदा' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १९७४) Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुच [ १२ संयमासंयमलब्धि-क्षपणाधिकार लद्वी च संजमासंजमस्सेत्ति समचमणिओगद्दारं । विशेषार्थ - संयमासं यमलब्धि क्षायिकभाव है, क्षायोपशमिकभाव है, अथवा औद"यिक भाव है ? इस प्रकारकी शंकाका उपर्युक्त सूत्रोंसे ऊहापोह पूर्वक समाधान किया गया है । उसका खुलासा यह है कि संयतासंयतके अप्रत्याख्यानावरण कषायका तो उदय होता नहीं है, अतः संयमासंयमलब्धिको औदयिकभाव नहीं माना जा सकता है । यदि कहा जाय कि संयतासंयत के प्रत्याख्यानावरण कपायका उदय रहता है, अतः उसे औदयिक मान लेना चाहिए ? तो चूर्णिकार इस आशंकाका समाधान करते हैं कि प्रत्याख्यानावरण कपाय तो संयमासंयमका आवरण या घात आदि कुछ भी करनेमें असमर्थ है, क्योकि उसका कार्य संयमका घात करना है, न कि संयमासंयमका । इसलिए उसके उदय होनेपर भी संयमासंयमलब्धिको औदयिक नहीं माना जा सकता है । यहाँ अनन्तानुबन्धीके उदयकी तो संभावना ही नहीं है, क्योंकि उसका उदय दूसरे गुणस्थानमें ही विच्छिन्न हो चुका है । अतएव पारिशेषन्याय से संयतासंयत के चारो संज्वलनो और नवो नोकषायोका उदय रहता है । ये सभी कषाय देशघाती हैं, अतएव उनका उदय संयमासंयमलब्धिको भी देशघाती वना देता है । यहाँ देशघाती संज्वलनादि कषायोके उदयसे उत्पन्न होनेवाले संयमासंयम-लब्धिरूप कार्यमें संज्वलनादि कषायरूप कारणका उपचार करके उसे देशघाती कहा गया है । इस प्रकार चार संज्वलन और नव नोकषायोके सर्वधाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे, तथा इन्हींके देशघातिस्पर्धक के उदयसे संयमासंयम लब्धिको क्षायोपशमिक माना गया है । यदि संयतासंयत प्रत्याख्यानावरणकषायका वेदन करते हुए संन्वलनादि शेष कपायोका वेदन न करे, तो संयमासंयमलब्धिको क्षायिक मानना पड़ेगा ? ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि संयतासंयतके संयमासंयमको घात करनेवाले अप्रत्याख्यानावरण कषायका तो उदय है ही नहीं । और प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय है, सो वह संयमका भले ही घात करे, पर संयमासंयमका वह उपघात या अनुग्रह कुछ भी न करनेमें समर्थ नहीं है । अतः प्रत्याख्यानावरणकषायका वेदन करते हुए यदि संज्वलनादि कषायोका उदय न माना जाय, तो संयमासंयमलब्धि क्षायिक सिद्ध होती है । किन्तु आगममें उसे क्षायिक माना नहीं गया है, अतः असंदिग्धरूपसे वह क्षायोपशमिक ही सिद्ध होती है । इस प्रकार संयमासंयमलब्धि नामक बारहवाँ अर्थाधिकार समाप्त हुआ । ૬૮ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३-संजमलद्धि-अत्याहियारो १. लद्धी तहा चरित्तस्सेत्ति अणिओगद्दारे पुव्वं गमणिज्जं सुत्तं । २. तं । जहा । ३. जा चेव संजमासंजमे मणिदा गाहा सा चेव एत्थ वि कायव्वा । ४.चरिमसमयअधापवत्तकरणे चत्तारि गाहाओ । ५. तं जहा । ६. संजमं पडिवज्जमाणस्स परिणामो केरिसो भवे० (१)। ७. काणि वा पुत्ववद्धाणि (२)। ८. के अंसे झीयदे पुव्वं० ( ३.)। ९. किं डिदियाणि कम्माणि० ( ४ ) । १०. एदाओ सुत्तगाहाओ विहासियूण तदो सजमं पडिवज्जमाणगस्स उवक्कमविधिविहासा । १३ संयमलब्धि-अर्थाधिकार चूर्णिसू०-चारित्रकी लब्धि अर्थात् संयमलब्धि नामक अनुयोगद्वारमे पहले गाथारूप सूत्र ज्ञातव्य है । वह इस प्रकार है-जो गाथा पहले संयमासंयमलब्धि नामक अनुयोगद्वारमें कही गई है, वही यहाँ भी प्ररूपण करना चाहिए ॥१-३॥ विशेषार्थ-श्रीगुणधराचार्यने संयमासंयम और संयमलब्धि इन दोनो अनुयोगद्वारोंका वर्णन करनेवाली वह एक ही गाथा कही है। उस गाथामें संयमलब्धिकी सूचनामात्र देकर परिणामोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि और पूर्व बद्ध कर्मोंकी उपशामनाका उल्लेख कर उनकी प्ररूपणाका संकेत किया गया है। अतएव संयमासंयमलब्धिमें वर्णित प्रकारसे यहाँ भी उनका वर्णन करना चाहिए। यहॉपर केवल संयमासंयमलब्धिके स्थानपर संयमलब्धिके नामका उल्लेख करना आवश्यक है । __चूर्णिस०-संयमको ग्रहण करनेके लिए उद्यत जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें पूर्वोक्त चारो प्रस्थापन-गाथाएँ ज्ञातव्य हैं। वे इस प्रकार हैं संयमको प्राप्त करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है, उसके कौनसा योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेद होता है ? (१)। संयमको प्राप्त करनेवाले जीवके पूर्वबद्ध कर्म कौन-कौनसे हैं और कौन-कौनसे नवीन कर्म बॉधता है ? उसके कितने कर्म उदयमे आ रहे हैं और कितनोकी उदीरणा करता है ? (२)। कौन-कौन कर्म उसके बंध या उदयसे व्युच्छिन्न होते है और कब कहॉपर अन्तर करके वह संयमलब्धिको प्राप्त करता है ? (३)। उसके किस किस स्थितिवाले कर्म होते हैं और वह किस किस अनुभागमें किसका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है ? (४)। इन चारो सूत्र-गाथाओकी विभाषा करके तत्पश्चात संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके उपक्रमविधिकी विभाषा करना चाहिए ॥४-१०॥ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० कसाय पाहुड सुत्त [१३ संयमलब्धि-अर्थाधिकार ११. तं जहा । १२. जो संजमं पटमदाए पडिवज्जदि तस्स दुविहा अद्धा, अधापवत्तकरणद्धा च अपुव्वकरणद्धा च..... . १३. अधापवत्तकरण-अपुवकरणाणि जहा संजमासंजमं पडिवज्जमाणयस्स परू विदांणि तहा संजमं पडिवज्जमाणयस्स वि कायन्याणि । १४. तदो पढमसमए संजमप्पहुडि अंतोमुत्तमणंतगुणाए चरित्तलद्धीए वड्डदि । १५. जाव चरित्तलद्धीए एगंताणुवड्डीए वड्डदि ताव अपुव्यकरणसण्णिदो भवंदि । १६. एयंतरवड्डीदो से काले चरित्तलद्धीए सिया वड्डेज्ज वा, हाएज्ज वा, अवढाएज्ज वा । १७. संजमं पडिवज्जमाणयस्स वि पडमसमय-अपुवकरणमादि कादण जाव ताव अधापवत्तसंजदो त्ति एदम्हि काले इमेसिं पदाणमप्पाबहुओं कादव्वं । १८. तं जहा. । १९. अणुभागखंडय-उक्कीरणद्धाओ हिदिखंडयुक्कीरणद्धाओ जहण्णुक्क विशेषार्थ-उक्त चारो प्रस्थापन-गाथाओकी विभाषा संयमासंयमलब्धिके समान ही करना चाहिए । हाँ, यहॉपर संयमासंयमके स्थानपर संयम · कहना चाहिए। यतः संयमलब्धि मनुष्यके ही होती है, अत: वन्ध-उदय-सत्त्वसम्बन्धी प्रकृतियोको गिनाते हुए मनुष्यगतिमें संभव बन्धादिके योग्य प्रकृतियोकी परिगणना करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो और भी थोड़ा-बहुत भेद है, वह जयधवला टीकासे जानना चाहिए। चूर्णिसू०-वह विभाषा इस प्रकार है-जो संयमको प्रथमतासे अर्थात् बहुलतासे प्राप्त होता है, उसके अधःप्रवृत्तकरणकाल और अपूर्वकरणकाल, ये दो काल होते हैं ॥११-१२॥ विशेषार्थ-पुनः पुनः संयमको प्राप्त करनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि या वेदक-प्रायोग्य मिथ्यादृष्टिके अनिवृत्तिकरण नहीं होता है। अनादि-मिथ्यादृष्टिके उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमके प्राप्त होते समय यद्यपि तीनो करण होते है, परन्तु यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है, क्योकि, वह दर्शनमोहकी उपशमनाके ही अन्तर्गत आ जाता है । ___ चूर्णिस०-अधःप्रवृत्तकरण और अनिवृत्तिकरण जिस प्रकार संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवके प्ररूपण किये गये हैं, उसी प्रकार संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके भी प्ररूपण करना चाहिए । तत्पश्चात् प्रथम समयमें संयमके. ग्रहण करनेसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक वह जीव अनन्तगुणी चारित्रलब्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है। जब तक यह जीव एकान्तानुवृद्धिरूप चारित्रलब्धिसे बढ़ता रहता है, तब तक वह 'अपूर्वकरण' संज्ञावाला रहता है। एकान्तानुवृद्धिके पश्चात् अनन्तर कालमे वह चारित्रलब्धिसे कदाचित् वृद्धिको प्राप्त हो सकता है, कदाचित् हानिको प्राप्त हो सकता है और कदाचित् तदवस्थ भी रह सकता है ।।१३-१६॥ . चूर्णिसू०-संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके अपूर्वकरणके प्रथम समयसे. आदि करके जब तक वह अधःप्रवृत्तसंयत अर्थात् स्वस्थानसंयत रहता है, तब तक इस मध्यवर्ती कालमे वक्ष्यमाणः पदोंका अल्पवहुत्व करना चाहिए । वक्ष्यमाण पद इस प्रकार हैं-जघन्य अनुभागकांडक-उत्कीरणकाल,, उत्कृष्ट अनुभागकांडक-उत्कीरणकाल, उत्कृष्ट स्थितिकांडक-उत्कीरणकाल Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११५ । संयत- अनुभागकांडकादि - अल्पबहुत्व-निरूपण ६७१ स्सियाओ इच्चेवमादीणि पदाणि । २० सव्वत्थोवा जहण्णिया अणुभागखंड य-उक्कीरणद्धा । २१. सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । २२. जहण्णिया डिदिखंडय उक्कीरणद्धा ठिदिबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ । २३. तेसिं चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । २४. पडमसमयसंजदमादिं काढूण जं कालमेयंताणुवड्डीए वढदि, एसा अद्धा संखेज्जगुणा । २५. अपुव्यकरगद्धा संखेज्जगुणा । २६. जहणिया संजमद्धा संखेज्जगुणा । २७. गुणसेढिणिक्खेवो संखेज्जगुणो । २८. जहणिया आवाहा संखेज्जगुणा । २९. उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा । ३० जहण्णयं द्विदिखंडयम संखेज्जगुणं । ३१. अपुण्यकरणस्सं पढमसमए जहण्णडिदिखंडयं संखेज्जगुणं । ३२ पलिदोवमं संखेज्जगुणं । ३३. पढमस्स विदिखंडयस्स विसेसो सागरोवमपुधत्तं संखेज्जगुणं । ३४. जहण्णओ ट्ठिदिबंधों संखज्जगुणो । ३५. उकस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो ३६. जहणयं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ३७. उकस्सयं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ३८. संजमादो णिग्गदो असंजमं गंतूण जो द्विदिसंतकस्मेण अणवड्ढि देण 1 इत्यादि । अनुभागकांडकका जघन्य उत्कीरणकाल वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । इससे इसीका, अर्थात् अनुभागकांडकका उत्कृष्ट उत्कीरणकाल विशेष अधिक है । स्थिति - कांडकका जघन्य उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका जघन्य काल, ये दोनो परस्परमे तुल्य और पूर्वोक्त पद संख्यातगुणित हैं । इनसे इन्हीं दोनो के उत्कृष्टकाल विशेष अधिक हैं । इससे प्रथम समयवर्ती संयतको आदि लेकर जिस कालमें एकान्तानुवृद्धिसे बढ़ता है, वह काल संख्यातगुणित है । इससे अपूर्वकरणकाल संख्यातगुणित है । इससे जघन्य संयमकाल संख्यातगुणित है । इससे गुणश्रेणीनिक्षेप संख्यातगुणित है । इससे जघन्य आबाधा संख्यातगुणित है । इससे उत्कृष्ट आबाधा संख्यातगुणित है । इससे जघन्य स्थितिकांड क असंख्यातगुणित है । इससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमे संभव जघन्य स्थितिकांडक संख्यातगुणित है । इससे पल्योपम संख्यातगुणित है । इससे प्रथमस्थितिकांकका सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण विशेष संख्यातगुणित है । इससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है । इससे जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है और इससे उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है ॥ १७-३७॥ 1 चूर्णिस् ० - जो जीव संयमसे निकलकर और असंयमको प्राप्त होकर यदि अवस्थित या अवर्धित स्थितिसत्त्वके साथ पुनः संयमको प्राप्त होता है तो संयमको प्राप्त होनेवाले उस जीवके न अपूर्वकरण होता है, न स्थितिघात होता है और न अनुभागघात होता है । វ छताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अणुवढिदेण' पाठ मुद्रित है (देखो पृ० १८०० ) । पर अर्थकी दृष्टिसे वह अशुद्ध है । t Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭૨ फसाय पाहुड सुप्त [१३ संयमलन्धि-अर्थाधिकार पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवज्जमाणगस्स पत्थि अपुव्यकरणं, णत्थि द्विदिघादो, णत्थि अणुभागधादो। ३९. एत्तो चरित्तलद्धिगाणं जीवाणं अट्ठ अणिओगद्दाराणि । ४०. तं जहा । संतपरूवणा दव्वं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुअंच अणुगंतव्वं । ४१. लद्धीए तिव्य-मंददाए सामित्तमप्पावहु च । ४२. एत्तो जाणि हाणाणि ताणि तिविहाणि । तं जहा-पडिवादट्ठाणाणि उप्पादयट्ठाणाणि लद्धिट्ठाणाणि ३ । ४३. पडिवादहाणं णाम [ जहा ] जम्हि हाणे मिच्छत्तं वा असंजमसम्मत्तं वा संजमासंजमं वा गच्छइ तं पडिवादहाणं । ४४. उप्पादयट्ठाणं णाम जहा जम्हि हाणे संजमं पडिवज्जइ तमुप्पादयट्ठाणं णाम । ४५. सव्याणि चेव चरित्तट्ठाणाणि लट्ठिाणाणि । ( किन्तु जो जीव संयमसे निकलकर संक्लेशके भारसे मिथ्यात्वसे अनुविद्ध असंयतपरिणामको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्तसे या विप्रकृष्ट अन्तरकालसे पुनः संयमको प्राप्त होता है उसके पूर्वोक्त दोनों ही करण होते हैं और उसी प्रकार स्थितिघात और अनुभागघात होते हैं। ) ॥३८॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे चारित्रलब्धिको प्राप्त होने वाले जीवोंके सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, भागाभाग और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार अनुगन्तव्य अर्थात् जानने योग्य हैं। चारित्रलब्धिकी तीव्रता और मन्दताके परिज्ञानके लिए स्वामित्व और अल्पबहुत्व भी ज्ञातव्य हैं ॥३९-४१॥ विशेषार्थ-संयमलब्धि दो प्रकारकी होती है-उत्कृष्ट संयमलब्धि और जघन्य संयम'लब्धि । कषायोके तीव्र अनुभागके उदयसे उत्पन्न होनेवाली मंद विशुद्धिसे युक्त लब्धिको जघन्य संयमलब्धि कहते हैं । कषायोके मन्दतर अनुभागसे उत्पन्न हुई विपुलतर विशुद्धिसे युक्त लब्धिको उत्कृष्ट संयमलब्धि कहते हैं । इनमेसे जघन्य संयमलब्धि सर्व-संक्लिष्ट तथा अनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले अन्तिमसमयवर्ती संयतके होती है । उत्कृष्ट संयमलब्धि सर्व विशुद्ध स्वस्थानसंयतके होती है। किन्तु सर्वोत्कृष्ट संयमलब्धि तो उपशान्तमोही या क्षीणमोही जीवोके होती है । इस प्रकार तीव्र-मंद चारित्रलब्धिके स्वामित्वका वर्णन किया । अव उनका अल्पबहुत्व कहते हैं-जघन्य लब्धिस्थान सबसे कम हैं। इससे उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित हैं, क्योकि जघन्य लब्धिस्थानसे असंख्यात लोकमान षट्स्थानपतित लब्धिस्थान ऊपर जाकर उत्कृष्ट लब्धिस्थानकी उत्पत्ति होती है। चूर्णिसू०-इससे आगे जो संयम लब्धिस्थान हैं, वे तीन प्रकारके हैं-प्रतिपातस्थान, उत्पादकस्थान और लव्धिस्थान । ( ३ ) उनमेसे पहले प्रतिपातस्थानको कहते हैं-जिस लब्धिस्थानपर स्थित जीव मिथ्यात्वको, अथवा असंयमसम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको प्राप्त होता है, वह प्रतिपातस्थान है । अत्र उत्पादकस्थानका स्वरूप कहते हैं-जिस स्थानपर जीव संयमको प्राप्त होता है, वह उत्पादकस्थान है। इसीको प्रतिपद्यमानस्थान भी कहते हैं। सर्व ही चारित्रस्थानोंको लब्धिस्थान कहते हैं ॥४२-४५॥ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ११५] संयमलब्धिस्थान-अल्पबहुत्व-निरूपण ই ४६. एदेसिं लद्धिट्ठाणाणमप्याबहुअंक । ४७. तं जहा । ४८. सव्वत्थोवाणि पडिवादट्ठाणाणि । ४९. उप्पादयट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ५०. लट्ठिाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ५१. तिव्व-मंददाए सव्वमंदाणुभागं मिच्छत्तं गच्छमाणस्स जहण्णयं संजमट्ठाणं । ५२. तस्सेवुकस्सयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ५३. असंजदसम्मत्तं गच्छमाणस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ५४. तस्सेबुक्कस्सयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ५५. संजमासंजमं गच्छमाणस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ५६. तस्सेवुक्कस्सयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ५७. कम्मभूमियस्स पडिवज्जमाणयस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ५८. अकम्मभूमियस्स पडिवज्जमाणयस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । विशेषार्थ-यहॉ सर्व ही पदसे असंख्यात लोकप्रमाण भेदवाले सभी प्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमानस्थान और अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थानोका ग्रहण करना चाहिए । अथवा प्रतिपात और प्रतिपद्यमानस्थानोको छोड़कर शेष सर्व अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थानोंको लब्धिस्थान जानना चाहिए। चूर्णिसू०-अब इन लब्धिस्थानोका अल्पबहुत्व कहते है। वह इस प्रकार है-संयमलब्धिके प्रतिपातस्थान सबसे कम है। प्रतिपातस्थानोसे उत्पादकस्थान असंख्यातगुणित है और उत्पादकस्थानोंसे लब्धिस्थान असंख्यातगुणित है ॥४६-५०॥ - चूर्णिसू०-अब लब्धिस्थानोका तीव्र-मन्दता-विषयक अल्पबहुत्व कहते हैं-मिथ्यात्वको जानेवाले चरम समयवर्ती संयतके जघन्य संयमस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला होता है। इससे उसके ही, अर्थात् मिथ्यात्वको जानेवाले जीवके उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित है। इससे असंयतसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणित है। इससे उसका ही उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणित है । इससे संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणित है। इससे उसका ही उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणित है। इससे संयमको प्राप्त करनेवाले कर्ममूभिज मनुष्यका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणित है। इससे संयमको प्राप्त करनेवाले अकर्मभूभिज मनुष्यका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणित है ॥५१-५८॥ विशेषार्थ-ऊपर जो अकर्मभूभिज मनुष्यके संयमलब्धिस्थान बतलाये गये हैं, सो वहॉपर अकर्मभूभिजका अर्थ भोगभूमिज न करके म्लेच्छखंडज करना चाहिए, क्योकि म्लेच्छोंमें साधारणतः धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति न पाई जानेसे उन्हे अकर्मभूमिज कहा गया है। अतएव यहाँ भरत, ऐरावत या विदेहसम्बन्धी कर्मभूमिके मध्यवर्ती सर्व म्लेच्छखंडोका ग्रहण करना चाहिए। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि जब 'धर्म-कर्मबहिभूता इत्यमी *ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इससे आगे 'एत्थ दुविहमप्पाबहुअं लट्ठिाणसंखाविसयं तिव्वमंददाविसयं च । तत्थ तिव्व-मंददाए अप्पावहुअसुवरि कस्सामो' इतना टीकाका अश मी सूत्ररूपसे मुद्रित है । ( देखो पृ० १८०२-१८०३) Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ कसाय पाहुए सुत्त [१३ संयमलब्धि-अर्थाधिकार ५९. तस्सेबुक्स्सयं पडिवज्जमाणयस्स संजमट्ठाणमणंतगुणं । ६०.कम्मभूमियस्स पडिवज्जमाणयस्स उक्कस्सयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ६१. परिहारसुद्धिसंजदस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ६२. तस्सेव उक्कस्सयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ६३. सामाइयच्छेदोवट्ठावणियाणमुक्कस्सयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ६४. सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगणं । ६५. तस्सेवुकस्लयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । ६६. चीयरायस्स अजहण्णमणुक्कस्सयं चरित्तलद्धिट्ठाणमणंतगुणं । म्लेच्छका मताः। अन्यथाऽन्यैः समाचारैरार्यावर्तेन ते समाः ॥ ( आदिपु० पर्व ३१ श्लो० १४३) इस प्रमाणके आधारसे म्लेच्छोको धर्म-कर्म-परान्मुख माना गया है, तो उनके संयमका ग्रहण कैसे संभव हो सकता है ? इसका समाधान जयधवलाकारने यह किया है कि दिग्विजयके लिए गये हुए चक्रवर्तीके स्कन्धावार ( कटक-सेना ) के साथ जो म्लेच्छराजादिक आर्यखंडमें आजाते हैं और उनका जो यहाँवालोके साथ विवाहादि सम्बन्ध हो जाता है, उनके संयम ग्रहण करनेमे कोई विरोध नहीं है। अथवा दूसरा समाधान यह भी किया गया है कि चक्रवर्ती आदिको विवाही गई म्लेच्छ-कन्याओके गर्भसे उत्पन्न हुई सन्तानकी मातृपक्षकी अपेक्षा यहाँ 'अकर्मभूमिज' पदसे विवक्षा की गई है, क्योंकि इस प्रकारकी अकर्मभूमिज सन्तानको दीक्षा लेनेकी योग्यताका निषेध नहीं पाया जाता है। चूर्णिमू०-संयमको प्राप्त होनेवाले अकर्मभूमिजके जघन्य संयमस्थानसे संयमको प्राप्त होनेवाले उसका ही अर्थात् अकर्मभूमिज मनुष्यका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणित है । इससे संयमको प्राप्त करनेवाले कर्मभूमिजका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणित है । इससे परिहारविशुद्धि-संयतका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणित है। इससे उसका ही उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणित है। इससे सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धि-संयतोका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणित है । इससे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धि-संयतोका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणित है । इससे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धि -संयतोका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणित है । इससे वीतरागछद्मस्थ और केवलीका अजघन्य-अनुत्कृष्ट चारित्र लब्धिस्थान अनन्तगुणित है ॥५९-६६॥ विशेषार्थ-वहाँ यह शंका की जा सकती है कि वीतरागके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्रलब्धि क्यों नहीं बतलाई गई ? इसका समाधान यह है कि कपायोंके अभाव हो जानेसे उनकी चारित्र लब्धिमे जघन्यपना या उत्कृष्टपना संभव नही है। अतएव वीतरागके सर्वदा एक रूपसे अवस्थित ही चारित्रलब्धि पाई जाती है। यदि कहा जाय कि उपशान्तकपायवीतराग. छद्मस्थका पतन अवश्य ही होता है, अतएव पतनकालमें उसके यथाख्यातचारित्रलब्धिका जघन्य अंश क्यो न माना जाय ? और इसी प्रकारसे क्षीणकपाय या केवलीके ऊपर चढ़नेकी अवस्थामें चारित्रलब्धिका उत्कृष्ट अंश क्यों न माना जाय ? तो इसका समाधान यह है कि परिणामोकी तीव्रता-मन्दताका कारण कपायोका उदय है। उपशान्तकषाय, क्षीणकपाय और केवलीके कषायोका सर्वथा अभाव है, अतएव उनके परिणामों में तीव्रता या मन्दताका होना Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजघन्य-अनुत्कृष्ट-संयमलब्धिस्वरूप निरूपण ली तहा चरित्तस्से त्ति समत्तमणिओगद्दारं । संभव नहीं है । परिणामोकी तीव्रता - मन्दताके विना चारित्रलब्धिका जघन्य या उत्कृष्ट अंश होना संभव नहीं है । इसलिए भले ही एक समय पश्चात् उपशान्तकषायवीतरागसंयत नीचे गिर जाय, परन्तु अपने कालंके अन्तिम समय तक उसके परिणामोंकी विशुद्धिमें कोई कमी नहीं आती । अतः पतनावस्था में उनके यथाख्यातलव्धिका जघन्य अंश नहीं माना जा सकता । यही बात तेरहवें गुणस्थानके अभिमुख क्षीणकषायके या चौदहवें गुणस्थानके अभिमुख सयोगिकेवली के विपयमे है, अर्थात् उनकी लब्धिको भी उत्कृष्ट अंशरूप नहीं माना जा सकता । अतएव यह सिद्ध हुआ कि कपायके अभाव से सभी वीतरागोके यथाख्यातसंयमरूप लब्धि एकरूप होती है, उसमें कोई भेद नहीं होता । यही कारण है कि उनकी लब्धिको हॉपर अजघन्य - अनुत्कृष्ट अर्थात् जघन्यपना और उत्कृष्टपनासे रहित बतलाया गया है । इस प्रकार संयमलब्धि नामक तेरहवाँ अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । गा० ११५ ] ६७५ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ चरित्तमोहोवसामणा - अत्थाहियारो १. चरितमोहणीयस्स उवसामणाए पुव्वं गमणिज्ज' सुतं । २. तं जहा । (६३) उवसामणा कदिविधा उवसामो कस्स कस्स कम्मस्स । कं कम्म उवसंतं अणउवसंतं च कं कम्मं ॥ ११६ ॥ (६४) कदिभावसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च कदिभागो । कदिभागं वा बंधदि हिदि- अणुभागे पदेसग्गे ॥ ११७ ॥ (६५) के चिरमुवसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च केवचिरं । केवचिरं वसंतं अणउवसंतं च केवचिरं ॥ ११८ ॥ (६६) कं करणं वोच्छिज्जदि अव्वोच्छिष्णं च होड़ कं करणं । कं करणं उवसंतं अणउवसंतं च कं करणं ॥ ११९ ॥ १४ चारित्रमोहोपशामना - अर्थाधिकार चूर्णिसू० - चारित्रमोहनीयकी उपशामनामें पहले गाथासूत्र जानने योग्य है । वह इस प्रकार है ॥ १-२ ॥ उपशामना कितने प्रकारकी होती है ? उपशम किस-किस कर्मका होता है ? किस-किस अवस्था - विशेषमें कौन-कौन कर्म उपशान्त रहता है और कौन-कौन कर्म अनुपशान्त रहता है ? ॥ ११६ ॥ चारित्रमोहनीयकर्मकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्रोंका किस समय कितना भाग उपशमित करता है, कितना भाग संक्रमण और उदीरणा करता है, तथा कितना भाग बाँधता है ? ॥११७॥ चारित्र मोहनीयकर्मकी प्रकृतियों का कितने काल तक उपशमन करता है, संक्रमण और उदीरणा कितने काल तक होती है, तथा कौन कर्म कितने काल तक उपशान्त या अनुपशान्त रहता है ? ॥११८॥ किस अवस्थामें कौन करण व्युच्छिन्न हो जाता है और कौन करण अन्युच्छिन्न रहता है ? तथा किस अवस्था विशेषमें कौन करण उपशान्त या अनुपशान्त रहता है ? ।।११९ ।। Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्रमोह - उपशामना -स्वरूप-निरूपण ६७७ (६७) पडिवादो च कदिविधो हि कसायम्हि होइ पडिवदिदो । केसिं कम्मंसाणं पडिवदिदो बंधगो होइ ॥ १२० ॥ (६८) दुविहो खलु परिवादो भवक्खयादुवसमक्खयादो दु । सुहुमे च संपराए बादररागे च बोद्धव्वा ॥ १२१ ॥ (६९) उवसामणाखण दु पडिवदिदो होइ सुहुमरागम्हि । बादररागे णियमा भवक्खया होई परिवदिदो ॥ १२२ ॥ (७०) उवसामणाक्खण दु अंसे बंधदि जहाणुपुव्वीए । एमेव यवेदयदे जाणुपुव्वीय कम्मंसे ॥ १२३ ॥ ३. चरित्तमोहणीयस्स उवसामणाए पुव्वं गमणिज्जा उवक्कमपरिभासा । ४. चारित्रमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाले जीवका प्रतिपात कितने प्रकारका होता है, वह प्रतिपात सर्वप्रथम किस कषायमें होता है ? वह गिरते हुए किन-किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध करनेवाला होता है ? || १२० ॥ वह प्रतिपात दो प्रकारका होता है एक भवक्षयसे और दूसरा उपशमकाल के क्षयसे । तथा वह प्रतिपात सूक्ष्मसाम्परायनामक दशवें गुणस्थानमें और बादरराग नामक नर्वे गुणस्थान में होता है; ऐसा जानना चाहिए ॥ २२९ ॥ उपशमकालके क्षय होनेसे जो प्रतिपात होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में होता है । किन्तु भवक्षयसे जो प्रतिपात होता है, वह नियमसे बादरसाम्परायनामक नर्वे गुणस्थान में ही होता है ॥ १२२ ॥ उपशमकालके क्षय होने से गिरनेवाला जीव यथानुपूर्वीसे कर्म-प्रकृतियों को बाँधता है । तथा इसी प्रकार यथानुपूर्वीसे कर्म- प्रकृतियोंका वेदन भी करता है ( किन्तु भवक्षय से गिरनेवाले जीवके देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही सर्व करण प्रकट हो जाते हैं (८) ॥१२३॥ विशेषार्थ - उपशामना - अधिकार में उपयुक्त आठ गाथाऍ निबद्ध हैं । इनमें से प्रारम्भकी चार गाथाएँ तो चारित्रमोहनीय कर्मकी उपशमनावस्थाका क्रमशः वर्णन करनेके लिए पृच्छासूत्ररूप हैं, जिनका समाधान आगे चूर्णिसूत्रोके आधारपर विस्तारसे किया जायगा | अन्तिम चार गाथाएँ ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरनेवाले जीवकी अवस्थाका वर्णन करती हैं । उनमे से प्रथम गाथासे किये गये प्रश्नोका शेष तीन गाथाओंमें उत्तर दिया गया है । आठो गाथाओंसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा आगे चूर्णिकार स्वयं ही करेंगे । चूर्णिस० - चारित्रमोहनीयकी उपशामनामे पहले उपक्रम - परिभाषा जानने योग्य है । वह इस प्रकार है-वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुवन्धी कपायचतुष्कके विसंयोजन किये बिना Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुप्त [ १४ चारित्रमोह-उपशमनाधिकार वेदसम्माहट्टी अणंताणुबंधी अविसंजोएदूण कसाए उवसामेदु णो उबट्ठादि । ५. सो ताव पुत्रमेव अर्णताणुबंधी विसंजोएदि । ६. तदो अणंताणुवंधी विसंजोएंतस्स जाणि करणाणि ताणि सव्वाणि परुवेयव्वाणि । ७. तं जहा । ८. अधापवत्त करणमपुत्रकरणमणियद्विकरणं च । ९. अधापवत्तकरणे णत्थि विदिघादो [ अणुभागवादो ] वा गुणसेडी वा । [ गुणसंकमो वा ] १०. अपुव्यकरणे अत्थि विदिधादो अणुभागधादो गुणसेढी च गुणसंकमो वि । ११. अणियट्टिकरणे वि एदाणि चेव, अंतरकरणं णत्थि । १२. एसा ताव जो अतानुबंधी विसंजोएदि तस्स समासपरूवणा । १३. दो अनंताणुबंधी विसंजोइदे अंतोमुहुत्तमधापवत्तो जादो असाद- अरदिसोग - अजसगित्तियादीणि ताव कम्पाणि वंधदि । १४. तदो अंतोमुहुत्तेण दंसणमोहवसामेदि, तदो ( ताधे ) ण अंतरं । १५. तदो दंसणमोहणीयमुवसा में तस्स जाणि करणाणि पुव्यपरू विदाणि ताणि सव्वाणि इमस्स वि परुवेयवाणि । १६ तहा डिदिघादो अणुभाघादो गुणसेडी च अत्थि । ૬૮ शेष कषायोके उपशम करनेके लिए प्रवृत्त नहीं हो सकता है । अतः वह प्रथम ही अनन्तानुवन्धीकषायका विसंयोजना करता है । अतएव अनन्तानुवन्धी कषायका विसंयोजन करनेवाले जीव जो करण होते हैं, वे सर्व करण प्ररूपण करना चाहिए । वे इस प्रकार हैंअधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । अधःप्रवृत्तकरणमे स्थितिघात [ अनुभागघात ] गुणश्रेणी और [गुणसंक्रमण ] नहीं हैं, किन्तु अपूर्वकरणमें स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण होते हैं । ये ही कार्य अनिवृत्तिकरण में भी होते हैं, किन्तु यहॉपर अन्तरकरण नहीं होता है । जो अनन्तानुवन्धी कपायका विसंयोजन करता है, उसकी यह संक्षेपसे प्ररूपणा है ॥ ३-१२॥ तत्पश्चात् अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करनेपर अन्तर्मुहूर्तकाल तक अध:प्रवृत्तसंयत होता है, अर्थात्, संक्लेश और विशुद्धिके वशसे प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोमे सहस्रो परिवर्तन करता है । तभी प्रमत्तसंयतावस्था में वह असातावेदनीय, अरति, शोक, अयशःकीर्ति तथा आदि पदसे सूचित अस्थिर और अशुभ इन छह प्रकृतियोको बाँधता है । तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मको उपशमाता है । इस समय उसके अन्तरकरण नहीं होता है । तदनन्तर दर्शनसोहनीयकर्मका उपशमन करनेवाले जीवके जो जो करणरूप कार्य- विशेष पहले प्ररूपण किये गये हैं, वे सर्व कार्य इसके भी प्ररूपण करना चाहिए | दर्शनमोहके उपशमनाके समान ही स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणी भी होती है ॥ १३-१६ ॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'तदो ण अंतरं' इतने सूत्रांशको टीकामें सम्मिलित कर दिया गया है । ( देखो पृ० १८१२ ) । + ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पुव्वपरुविदाणि' पद सूत्र में नहीं है । किन्तु वह होना चाहिए; क्योंकि टीकासे उसकी पुष्टि प्रमाणित है । ( देखो पृ० १८१३) । Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३] चारित्रमोह-उपशामक स्वरूप-निरूपण ६७९ १७. अपुवकरणस्स जं पढमसमए हिदिसंतकम्मं तं चरिमसमए संखेज्जगुणहीणं । १८. दंसणमोहणीय उवसामणअणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु सम्मत्तस्स असंखेज्जाणं समयपवद्धाणमुदीरणा । १९. तदो अंतोमुहुत्तेण दसणमोहणीयस्स अंतरं करेदि । चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमे जो स्थितिसत्त्व होता है, वह अपूर्वकरणके अन्तिम समयमे उससे संख्यातगुणित हीन हो जाता है। ( इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें जो स्थितिसत्त्व होता है, उससे अन्तिम समयमे वह संख्यातगुणित हीन हो जाता है ।) दर्शनमोहनीयके उपशमन करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात भागोके व्यतीत होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके असंख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा होती है। तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है ॥१७-१९॥ विशेषार्थ-दर्शनमोहका अन्तरकरणको करनेवाला जीव सम्यक्त्वप्रकृतिकी अन्तमुहूर्तप्रमाण स्थितिको छोड़कर, तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उदयावलीको छोड़कर शेष स्थितिका अन्तर करता है। इस अन्तरकालीन स्थितियोके उत्कीरण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको बन्धका अभाव हो जानेसे द्वितीय स्थितिमें संक्रमण नहीं करता है, किन्तु सर्व द्रव्यको लाकर सभ्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिमे निक्षिप्त करता है। तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रका उत्कीरण कर अपनी प्रथमस्थितिमे गुणश्रेणीके रूपसे निक्षिप्त करता है । इसी प्रकार मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भी द्वितीयस्थितिके प्रदेशाग्रको उत्कीरण कर सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिमे देता है, तथा अनुत्कीर्यमाण स्थितियोमे भी देता है, किन्तु अपनी अन्तर-स्थितियोमें नहीं देता है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिके समान स्थितियोंमे स्थित मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोके उदयावलीके बाहिर स्थित प्रदेशाग्रको सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितियोमे संक्रमण करता है। इस प्रकारसे यह क्रम अन्तरकरणकी द्विचरम फालीके प्राप्त होने तक रहता है। पुनः अन्तिम फाल के निपतनकालमे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सव अन्तरस्थितियोके प्रदेशाग्रको सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें संक्रमण करता है । इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिके चरमफालिसम्बन्धी द्रव्यको अन्यत्र संक्रमित नहीं करता है, किन्तु अपनी प्रथमस्थितिमे ही संक्रमित करता है । द्वितीयस्थितिके प्रदेशाग्रको भी प्रथमस्थितिमें ही तब तक निक्षिप्त करता है, जब तक कि प्रथमस्थितिमें आवली और प्रत्यावली शेष रहती हैं। इसके पश्चात् आगाल और प्रत्यागालका कार्य समाप्त हो जाता है। इस समय गुणश्रेणीरूप विन्यास नहीं होता है, किन्तु प्रत्यावलीसे ही उदीरणा होती रहती है। एक समय-अधिक आवलीके शेष रह जानेपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। तत्पश्चात् प्रथमस्थितिके अन्तिम समयमें अनिवृत्तिकरणका काल समाप्त हो जाता है और तदनन्तर समयमें वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उस समय प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिके समान अन्तर्मुहूर्तकाल तक क्या भिथ्यात्वका गुणसंक्रमण यहाँ भी Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० कसाय पाहुड सुस्त [१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार २०. सम्मत्तस्स पढमद्विदीए झीणाए जं तं मिच्छत्तस्स पदेसग्गं सम्मत्तसम्मामिच्छत्ते सु गुणसंकमेण [ ण ] संकमदि । २१. परमदाए सम्मत्तमुप्पादयमाणस्स जो गुणसंकरण पूरणकालो तदो संखेज्जगुणं कालमिमो उवसंतदंसणमोहणीओ विसोहीए वड्वदि । २२. तेण परं हायदि वा वड्ढदि वा अवट्ठायदि वा । २३. तहा चेव ताव उवसंतदसणमोहणिज्जो असाद अरदि-सोग-अजसगित्ति-आदीसु बंधपरावत्तसहस्साणि कादण* तदो कसाए उवसायेदं कच्चे अधापवत्तकरणस्स परिणामं परिणमह । २४. जं अणंताणुवंधी विसंजोएंतेण हदं दसणमोहणीयं च उवसामेंतेण हदं कम्यं तमुवरिहदं । २५. इदाणिं कसाए उवसातस्स जमधापवत्तकरणं तम्हि णत्थि हिदिघादो अणुभागधादो गुणसेडी च । णवरि विसोहीए अणंतगुणाए वड्वदि । २६. तं चेव इमस्स होता है, अथवा उसमें कोई अन्य विशेषता है, इस शंकाका समाधान चूर्णिकारने वक्ष्यमाणसूत्रोसे किया है। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिके क्षीण होनेपर जो मिथ्यात्वका प्रदेशाग्र अवशिष्ट रहता है, वह सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वमे गुणसंक्रमणसे संक्रान्त नहीं करता है, अर्थात् जिस प्रकार प्रथम वार सम्यक्त्वके उत्पादन करनेवाले जीवके गुणसंक्रमण होता है, उस प्रकारसे यहॉपर गुणसंक्रमण नहीं होता है, किन्तु इसके केवल विध्यातसंक्रमण ही होता है। प्रथम वार सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका जो गुणसंक्रमणसे पूरणकाल है, उससे संख्यातगुणित काल तक यह उपशान्तदर्शनमोहनीय जीव विशुद्धिसे बढ़ता है। इसके पश्चात् वह ( संक्लेश और विशुद्धिरूप परिणामोके योगसे ) कभी विशुद्धिसे हीनताको प्राप्त होता है, कभी वृद्धिको प्राप्त होता है और कभी अवस्थित परिणामरूप रहता है। पुनः वही उपशान्तदर्शनमोहनीय जीव असाता, अरति, शोक, और अयशःकीर्ति आदि प्रकृतियोमे सहस्रों बन्ध-परावर्तन करके अर्थात् सहस्रो वार प्रमत्तसंयतसे अप्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतसे प्रमत्तसंयत हो करके, तत्पश्चात् कपायोके उपशमानेके लिए अधःप्रवृत्तकरणके परिणामसे परिणत होता है। जो कर्म अनन्तानुवन्धी कपायके विसंयोजन करनेवालेने नष्ट किया; वह 'हत' कहलाता है और जो कर्म दर्शनमोहनीयके उपशमन करनेवालेके द्वारा नष्ट किया जाता है, वह उपरि-हत कर्म कहलाता है ॥२०-२४॥ चूर्णिसू०-इस समय कपायोके उपशमन करनेवाले जीवके जो अधःप्रवृत्तकरण होता है, उसमे स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणी नहीं होती है । केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे प्रतिसमय बढ़ता रहता है। इस अधःप्रवृत्तकरणका भी वही लक्षण है, जो कि पहले दर्शनमोहकी उपशमनाके समय प्ररूपण कर आये हैं । तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमे ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'कादण' पदसे आगे 'जहा अणताणुबंधी विसंजोएद्रण सत्थाणे पदिदो असादादिवंधपाओग्गो होदि' इतना टोकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है। ( देखो पृ० १८१५ ) । + जयधवलाकारने अपनी व्याख्याकी सुविधार्थ इस सूत्रको दो भागोंमें विभक्त किया है, पर वस्तुतः यह एक ही सूत्र है। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्र मोह - उपशामक- विशेषक्रिया निरूपण ६८१ वि अधापवत्तकरणस्स लक्खणं जं पुव्वं परूविदं । २७ तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमये इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ । २८. तं जहा । २९. कसायउवसामणपटुवगस्स ० ( १ ) । ३०. काणि वा पुव्वबद्धाणि० ( २ ) । ३१. के अंसे झीयदे ० ( ३ ) | ३२. किं द्विदियाणि० (४) । ३३. एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासियण तदो अपुव्वकरणस्स पढमसमए [ इमाणि आवासयाणि ] परूवेदव्वाणि । ३४. जो खीणदंसणमोहणिज्जो कसाय-उवसामगो तस्स खीणदंसणमोहणिज्जस्स कसाय उचसामणाए अपुव्यकरणे पढमट्टि दिखंडयं णियमा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ३५. द्विदिबंघेण जमोसरदि सो विपलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ३६. असुभाणं कम्माणमणंता भागा अणुभागखंडयं । ३७. ट्ठिदिसंतकम्म मंतोकोडाकोडीए, ट्ठिदिबंधो वि अंतोकोडाकोडीए । ३८. गुणसेढी च अंतोमुहुत्तमेत्ता 1 ये चार सूत्रगाथाएँ प्ररूपण करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं- " कषायोका उपशम करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है ? किस योग, कषाय और उपयोग में वर्तमान, किस लेश्यासे युक्त और कौनसे वेदवाला जीव कषायोका उपशम करता है ( १ ) । कषायो के उपशमन करनेवाले जीवके पूर्व-बद्ध कर्म कौन - कौनसे है और अब कौन - कौनसे नवीन कर्माशोको बाँधता है । कषायोके उपशामकके कौन-कौन प्रकृतियाँ उदद्यावलीमे प्रवेश करती हैं और कौन-कौन प्रकृतियोकी वह उदीरणा करता है ? ( २ ) । कषायोके उपशमनकालसे पूर्व बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे कमांश क्षीण होते है ? अन्तरको कहॉपर करता है और कॉपर तथा किन कर्मोंका यह उपशम करता है ? (३) । कषायोका उपशमन करनेवाला जीव किसकिस स्थिति अनुभागविशिष्ट कौन - कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है और अवशिष्ट कर्म किस स्थिति और अनुभागको प्राप्त होते हैं ?" ( ४ ) । इन चारो सूत्रगाथाओकी पूर्वके समान ही यहॉपर सम्भव विशेषताओंके साथ विभाषा करके तत्पश्चात् अपूर्वकरण के प्रथम समयमे ये वक्ष्यमाण स्थितिकांडक आदि आवश्यक कार्य होते हैं । उनमेंसे पहले स्थितिकांडकका प्रमाण बतलाते हैं ॥ २५-३३॥ चूर्णिसू० - जो क्षीणदर्शनमोहनीय पुरुष कषायोका उपशामक होता है, उस क्षीणदर्शनमोहनीय पुरुष के कषाय-उपशामना के अपूर्वकरणकालमे प्रथम स्थितिकांडकका प्रमाण नियमसे पल्योपमका संख्यातवाँ भाग होता है । स्थितिबन्धके द्वारा जो अपसरण करता है, वह भी पल्योपमका संख्यातवा भाग होता है। अनुभागकांडकका प्रमाण अशुभ कर्मोंके अनन्त बहुभागप्रमाण है । उस समय स्थितिसत्त्व अन्तः कोडाकोडी सागरोपम है और स्थितिवन्ध भी अन्त:कोडाकोडी सागरोपम' है, तथा गुणश्रेणी अन्तर्मुहूर्तमात्र निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् अनुताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'मेत्तणिक्खित्ता' ऐसा पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १८२० ) f, ८६ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ कसाय पाछुड सुत्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार णिक्खित्ता । ३९. तदो अणुभागखंडयपुधत्ते गदे अण्णमणुभागवंडयं परमं हिदिखंडयं जो च अपुव्यकरणस्स पढमो हिदिवंधो एदाणि ममगं णिद्विदाणि । ४०. तदो ट्ठिदिखंडयपुधत्ते गदे णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदो। ४१. तदो अंतोमुहत्ते गदे पर भवियणामा-गोदाणं बंधवोच्छेदोछ । ४२. अपुवकरणपविट्ठस्स जम्हि णिहा-पयलाओ बोच्छिण्णाओ सो कालो थोवो । ४३. परमवियणामाणं वोच्छिण्णकालो संखेजगुणो । ४४. अपुचकरणद्धा विसेसाहिया । ४५. तदो अपुव्यकरणद्धाए चरिमसमए ठिदिखंडयमणुभागखंडयं ठिदिवंधो च समगं णिट्ठिदाणि । ४६. एदम्हि चेव समए हस्स-रह-भय-दुगुंछाणं बंधवोच्छेदो । ४७. हस्स-रइ-अरइ-सोग-भय-दुगुंछाणमेदेसिं छण्हं कम्माणमुदयवोच्छेदो च । ४८. तदो से काले पढमसमय-अणियट्टी जादो। ४९. पढमसमय-अणियट्टिकरणस्स ठिदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ५०. अपुन्यो ठिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण हीणो । ५१. अणुभागखंडयं सेसस्स अणंता भागा। ५२.गुणसेडी असंखेज्जगुणाए सेडीए भागकांडक-पृथक्त्वके व्यतीत होनेपर दूसरा अनुभागकांडक प्रथम स्थितिकांडक और अपूर्वकरणका प्रथम स्थितिबन्ध ये सब आवश्यक कार्य एक साथ ही निष्पन्न होते हैं । तत्पश्चात् स्थितिकांडकपृथक्त्वके व्यतीत होनेपर निद्रा और प्रचलाप्रकृतिका बन्ध-विच्छेद होता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होनेपर पर-भवसम्बन्धी नामकर्म संज्ञावाली प्रकृतियोका वन्धविच्छेद होता है ॥३४-४१॥ चूर्णिस०-अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रविष्ट संयत पुरुपके जिस भागमे निद्रा और प्रचलाप्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, वह काल सबसे कम है। इससे परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोके वन्धसे व्युच्छिन्न होनेका काल संख्यातगुणा है। इससे अपूर्वकरणका । काल विशेप अधिक है । तत्पश्चात् अपूर्वकरणकालके अन्तिम समयमे स्थितिकांडक, अनुभागकांडक और स्थितिवन्ध, ये सव एक साथ निष्पन्न होते है । इसी समयमे ही हास्य, रति, भय और जुगुप्सा, इन चार प्रकृतियोका बन्ध-विच्छेद होता है और वहाँ ही हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह कर्मोंका उदयसे विच्छेद होता है। इसके अनन्तर समयमें वह प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणसंयत हो जाता है। अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे स्थितिकांडक पल्योपमका संख्यातवॉ भागप्रमाण होता है। अपूर्व अर्थात् नवीन स्थितिबन्ध पल्यो * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इस सूत्रके अनन्तर 'एसो एत्थ सुत्तत्थसम्भावो' यह एक और भी सूत्र मुद्रित है ( देखो पृ० १८२१ )। पर वस्तुतः यह इसी सूत्रकी टीकाका उपसहारात्मक वाक्य है। क्योंकि, इससे भी आगे इसी सूत्राङ्ककी टीका पाई जाती है। + ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्रके अनन्तर 'एवमणियट्टिकरणं पविट्ठस्स' यह एक और मी सूत्र मुद्रित है ( देखो पृ० १८२२ ) | पर वस्तुतः यह सूत्र नहीं है, अपितु आगेके सूत्रकी उत्थानिकाका प्रारम्भिक अंग है, यह वात प्रकृत स्थलको टीकासे ही सिद्ध है। (देखो पृ० १८२२ की अन्तिम पंक्ति और पृ० १८२३ की प्रथम पक्ति) Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३] चारित्रमोह-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण ६३ सेसे सेसे णिक्खेवो । ५३. तिस्से चेव अणियट्टि-अद्धाए पडमसमए अप्पसत्थ-उवसामणाकरणं णिवत्तीकरणं णिकाचणाकरणं च बोच्छिण्णाणि । ५४. आउगवज्जाणं कम्माणं ठिदिसंतकम्ममंतोकोडाकोडीए। ५५. ठिदिबंधो अंतोकोडीए सदसहस्सपुधत्तं । ५६. तदो ठिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु ठिदिबंधो सहस्सपुत्त । ५७. तदो अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु असण्णिडिदिबंधेण समगो ठिदिबंधो । ५८. तदो ठिदिबंधपधत्ते गदे चदुरिंदियट्ठिदिवंधसमगो हिदिबंधो । पमके संख्यातवें भागसे हीन होता है । अनुभागकांडक अनुभागसत्त्वके अनन्त बहुभागप्रमाण है । गुणश्रेणी असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे होती है और शेष शेष द्रव्यमें निक्षेप होता है। अर्थात् जिस प्रकारसे अपूर्वकरणमें प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा उदयावलीके बाहिर गलित-शेषायामके रूपसे गुणश्रेणीकी रचना होती है, उसी प्रकार यहॉपर भी गुणश्रेणीकी रचना होती है । उसी अनिवृत्तिकरणकालके प्रथम समयमें अप्रशस्तोपशमनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण ये तीनो ही करण एक साथ व्युच्छिन्न हो जाते है ॥४२-५३॥ विशेषार्थ-जो कर्म उत्कर्षण, अपकर्पण और पर-प्रकृति-संक्रमणके योग्य होकरके भी उदयस्थितिमें अपकर्षित करनेके लिए शक्य न हो, अर्थात् जिसकी उदीरणा न की जा सके उसे अप्रशस्तोपशामनाकरण कहते हैं। जिस कर्मका उत्कर्षण और अपकर्पण तो किया जा सके, किन्तु उदीरणा अर्थात् उदयस्थितिमें अपकर्षण और पर प्रकृतिमे संक्रमण न किया जा सके, उसे निधत्तीकरण कहते हैं। जिस कर्मका उत्कर्षण, अपकर्पण, उदीरणा और परप्रकृति-संक्रमण ये चारो ही कार्य न किये जा सकें, किन्तु जिस रूपसे उसे बाँधा था, उसी रूपसे वह सत्तामें तदवस्थ रहे, उसे निकाचनाकरण कहते हैं । ये तीनो करण अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक होते रहते हैं, किन्तु अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे ये तीनो बन्द हो जाते हैं। ___ चूर्णिसू०-उस अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमै आयुकर्मको छोड़कर शेप सात कर्मोंका स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण और स्थितिबन्ध अन्त.कोड़ी अर्थात सागरोपमलक्षपृथक्त्व-प्रमाण होता है। तत्पश्चात् सहस्रो स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर स्थिति बन्ध सागरोपम सहस्रपृथक्त्व रह जाता है। तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात भागोके व्यतीत होनेपर असंज्ञी जीवोकी स्थितिके बन्धके समान सहस्र सागरोपमप्रमाण स्थितिवन्ध होता है। तत्पश्चात् स्थितिवन्धपृथक्त्वके बीत जानेपर चतुरिन्द्रिय जीवके स्थितिबन्धके १ तत्थ ज कम्ममोकड्डुक्कड्डण परपयडिसकमाण पाओग्ग होदूण पुणो णोसकमुदयटिदिमोकड्डिदु; उदीरणाविरुद्धसहावेण परिणदत्तादो । त तहाविहपइण्णाए पडिग्गहियमप्पसत्थ-उवसामणाए उवसतमिदि भण्णदे। तस्स सो पजायो अप्पसत्थ-उवसामणाकरणं णाम । एव ज कम्ममोकड्डुक्कड्डणासु अविरुद्धसचरणं होदूण पुणो उदय-परपयडि-सकमाणमणागमणपइण्णाए पडिग्गहिय तस्स सो अवस्थाविसेसो णिधत्तीकरण णाम | जयध० * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अंतो कोडाकोडीए' पाठ मुद्रित है ( देखो पृ० १८२४ )। पर वह अशुद्ध है । (देखो धवला भा० ६ पृ० २९५)। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ कसाय पाहुड सुस्त [१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार ५९. एवं तीइंदिय-बीइ दियद्विदिवंधसमगो ठिदिवंधो । ६०. एइंदियठिदिवंधसमगो ठिदिबंधो। ६१. तदो द्विदिवंधपुधत्तेण णामा-गोदाणं पलिदोवम-द्विदिगो द्विदिवंधो। ६२. णाणावरणीय-दसणवरणीय-वेदणीय-अंतराइयाणं च दिवड्डपलिदोवममेत्तहिदिगो बंधो। ६३. मोहणीयस्स वेपलिदोवमद्विदिगो वंधो । ६४. एदम्हि काले अदिच्छिदे* सबम्हि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ठिदिवंधेण ओसरदि । ६५. णामा-गोदाणं पलिदोवमद्विदिगादो बंधादो अण्णं जं द्विदिवंधं वंधहिदि सो हिदिवंधो संखेज्जगुणहीणो । ६६.सेसाणं कम्माणं द्विदिवंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागहीणो। ६७. तदोप्पहुडि णामा-गोदाणं द्विदिवंधे पुण्णे संखेज्जगुणहीणो द्विदिवंधो होइ । सेसाणं कम्माणं जान पलिदोवमद्विादिगं बंध ण पावदि ताव पुण्णे विदिबंधे पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागहीणो हिदिबंधो । ६८. एवं द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु णाणासदृश सौ सागरोपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। पुनः स्थितिवन्धपृथक्त्वके वीतनेपर त्रीन्द्रिय. जीवके स्थितिवन्धके सदृश पचास सागरोपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । पुनः स्थितिवन्धपृथक्त्वके वीतनेपर द्वीन्द्रियजीवके स्थितिवन्धके सदृश पच्चीस सागरप्रमाण स्थितिवन्ध होता है । पुनः स्थितिबन्धपृथक्त्वके बीतनेपर एकेन्द्रियजीवके स्थितिवन्धके सदृश एक सागरोपमप्रमाण स्थितिवन्ध होता है। तत्पश्चात् स्थितिवन्धपृथक्त्वके व्यतीत होनेपर नाम और गोत्रकर्मका पल्योपमस्थितिवाला वन्ध होता है। उस समय ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायका डेढ़ पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है और मोहनीयकर्मका दो पल्योपमकी स्थितिवाला बन्ध होता है । इस कालमें और इससे पूर्व अतिक्रान्त सर्व कालमे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्धसे अपसरण करता है, अर्थात् यहाँ तक सर्व कर्मों के स्थितवन्धापसरणका प्रमाण पल्योपमका संख्यातवॉ भाग है। पल्योपमकी स्थितिवाले बन्धसे जो नाम और गोत्र कर्मके अन्य बन्धको बॉधेगा, वह स्थितिबन्ध संख्यातगुणित हीन है । शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध पूर्व स्थितिवन्धसे पल्योपमका संख्यातवाँ भाग हीन है ॥५४-६६॥ विशेषार्थ-इस स्थल पर सर्व कर्मोंके स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व इस प्रकार जानना चाहिए-नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम है। इससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। __ चूर्णिसू०-यहॉसे लेकर नाम और गोत्रके स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर संख्यातगुणा हीन अन्य स्थितिबन्ध होता है। शेष कर्मोंका जब तक पल्योपमकी स्थितिवाला वन्ध नहीं प्राप्त होता है, तब तक एक स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर जो अन्य स्थितिवन्ध होता है, वह पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन है। इस प्रकार सहस्रों स्थितिवन्धोके बीतनेपर ज्ञानावरणीय, दर्शना 9 ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अहिच्छिदें पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १८२५) ध: ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इसके अनन्तर [ठिदिवंधो] इतना पाठ और भी मुद्रितहै । (देखो पृ० १८२५) Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्रमोह-उपशामक वन्ध-अल्पबहुत्व-निरूपण ६८५ वरणीय दंसणावरणीय-वेदणीय-अंतराइयाणं पलिदोवमट्ठिदिगो बंधो । ६९. मोहणीयस्स तिभागुत्तरं पलिदोवमट्ठिदिगो बंधो । ७०. तदो जो अण्णो णाणावरणादिचदुहं पिट्ठिदिबंधो सो संखेज्जगुणहीणो । ७१. मोहणीयस्स द्विदिबंधो विसेसहीणो । ७२. तदो ट्ठदिबंध धत्तेण गद्रेण मोहणीयस्स वि द्विदिबंधो पलिदोवमं । ७३. तदो जो अण्णो द्विदिबंधो सो आउगवज्जाणं कम्माणं द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ७४. तस्स अप्पा बहुअं । ७५ तं जहा । ७६. णामा - गोदाणं द्विदि बंधो थोवो । ७७. मोहणीयवज्जाणं कम्माणं द्विदिबंधो तुल्लो संखेज्जगुणो । ७८. मोहणीयस्स द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । ७९. एदेण अप्पाबहुअविहिणा द्विदिबंध सहस्राणि बहूणि गदाणि । ८०. तदो अण्णो द्विदिबंधो णामा-गोदाणं थोवो | ८१. इदरेसिं चउन्हं पितुल्लो असंखेज्जगुणो । ८२. मोहणीयस्स द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । ८३. एदेण अप्पा बहुअविहिणा ट्ठिदिबंध सहस्त्राणि बहूणि गदाणि । वरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इन कर्मोंका स्थितिबन्ध पल्योपमप्रमाण है । तथा मोहनीयकर्मका त्रिभाग-अधिक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध है । तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह पूर्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणित हीन है और मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष हीन होता है ।। ६७-७१।। विशेषार्थ - इस स्थलपर कर्मोंके स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व इस प्रकार है- नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम है। इससे चार कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है । इससे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है । चूर्णिसू०–तत्पश्चात् स्थितिबन्धपृथक्त्व के बीतने से मोहनीयकर्मका भी स्थितिवन्ध पल्योपमप्रमाण हो जाता है । तदनन्तर जो अन्य स्थितिबन्ध है, वह आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंका पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है । इस स्थल में सम्भव स्थितिबन्धका अल्पवहुत्व कहते हैं । वह इस प्रकार है - नाम और गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम है । इससे मोहनीयको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और संख्यातगुणा है । इससे मोहनीयका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इस अल्पबहुत्व - विधिसे बहुत से स्थितिबन्ध-सहस्र व्यतीत होते हैं । ( जबतक कि नाम और गोत्र कर्मका अपश्चिम और दूरापकृष्टि संज्ञावाला, पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होता है, तबतक यही उपर्युक्त अल्पबहुत्वका क्रम चला जाता है । ) तत्पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिबन्धसम्बन्धी अल्पबहुत्व प्रारम्भ होता है । वह इस प्रकार है- नाम और गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम है । इनसे इतर चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा है । इससे मोहनीयका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इस अल्पबहुत्वकी विधिसे अनेक सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते है ॥७२-८३॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'वेदणीय' के आगे 'मोहणीय' पद भी मुद्रित है । वह नहीं होना चाहिए; क्योंकि, आगे सूत्राङ्क ६९ में उसके स्थितिबन्धका स्पष्ट निर्देश किया गया है । ताम्रपत्रवाली प्रतिमें '[ अ ] संखेजगुणो' ऐसा पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १८२८ ) Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ कसाय पाहुड सुत [ १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार ८४. तदो अण्णो द्विदिबंधो णामा-गोदाणं थोवो । ८५. इदरेसिं चदुण्हं पि कम्माणं विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ८६. मोहणीयस्स विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ८७. देण कमेण द्विदिबंध सहस्त्राणि बहूणि गदाणि । ८८. तदो अण्णो द्विदिबंधो णामागोदाणं थोवो । ८९. मोहणीयस्स द्विधिबंधो असंखेज्जगुणो । ९० णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय - अंतराइयाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ९१. एकसराहेण मोहणीयस्स द्विदिबंधो णाणावरणादि- द्विदिवधादो हेडदो जादो असंखेज्जगुणहीणो च । णत्थि अण्णो वियप्पो । ९२. जाव मोहणीयस्स द्विदिबंधो उवरि आसी, ताव असंखेज्जगुणो आसी, असंखेज्जगुणादोक असंखेज्जगुणहीणो जादो । ९३. तदो जो एसो ट्ठिदिबंधो णामा-गोदाणं थोत्रो । ९४. मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । ९५. इदरेसिं चदुहं पि कम्पाणं द्विदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । ९६. एदेण अप्पाचहुअविहिणा विदिबंधसहस्साणि जाये वहूणि गदाणि । ९७. तो अण्णो द्विदिबंधो एकसराहेण मोहणीयस्स थोवो । ९८. णामा-गोदाणमसंतत्पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मोंका दूरापकृष्टिनामक स्थितिबन्ध प्राप्त होनेपर तदनन्तर उसके असंख्यात बहुभाग स्थितिबन्धरूपसे अपसरण करनेवाले जीवके उस समय में संभव अल्पबहुत्वको कहते हैं चूर्णिसू० - तदनन्तर अन्य प्रकारका स्थितिवन्ध होता है । नाम और गोत्रकर्मका सबसे कम स्थितिबन्ध होता है । इससे चारो ही कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे मोहनीयका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इस क्रमसे बहुतसे स्थितिबन्ध-सहस्र व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध होता है । यथा - नाम और गोत्र - कर्मका सबसे कम स्थितिबन्ध होता है । इससे मोहनीयक र्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुण होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । तत्पश्चात् एक शराघात से अर्थात् एक साथ मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध ज्ञानावरणादि कर्मों के स्थितिबन्धसे नीचे आजाता है और वह ज्ञानावरणादि कर्म चतुष्कके स्थितिवन्धसे असंख्यातगुणित हीन होता है, इसमें कोई अन्य विकल्प संभव नहीं है । जब तक मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध ज्ञानावरणादिके स्थितिबन्धसे ऊपर था, तब तक वह असंख्यात - गुणा था । इसलिए यहॉपर वह असंख्यात गुणित वृद्धिसे असंख्यातगुणित हीन हो गया है । तब यहाँ जो स्थितिबन्ध होता है, वह इस प्रकार है - नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सवसे कम है । इससे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे इतर शेष चारो ही कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा है ॥ ८४-९५॥ चूर्णिसू० ० - इस अल्पवहुत्व के क्रमसे जिस समय अनेको स्थितिवन्ध सहस्र व्यतीत होते हैं उसके पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है । वह इस प्रकार है - मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध एक शराघातसे अर्थात् एकदम सबसे कम हो जाता है । इससे * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे ‘असंखेज्जादो' पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १८२९) Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८७ गा० १२३ ] चारित्रमोह-उपशामक-बन्ध अल्पवहुत्व-निरूपण खेज्जगुणो । ९९. डदरेसिं चदुण्हं पि कम्माणं तुल्लो असंखेज्जगुणो । १००. एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्साणि वहूणि गदाणि । १०१. तदो अण्णो द्विदिबंधो । १०२. एकसराहेण मोहणीयस्स हिदिबंधो थोवो । १०३. णामा-गोदाणं पि कम्माणं ठिदिवंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । १०४. णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयाणं तिण्हं पि कम्माणं द्विदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । १०५. वेदणीयस्स हिदिबंधो असंखेज्जगुणो। १०६. तिण्हं पि कम्माणं णथि वियप्पो संखेज्जगुणहीणो वा विसेसहीणो वा, एकसराहेण असंखेज्जगुणहीणो १०७ एदेण अप्पाबहुअविहिणा संखेज्जाणि द्विदिबंध-सहस्साणि बहूणि गदाणि । १०८. तदो अण्णो डिदिबंधो । १०९ एक्कसराहेण मोहणीयस्स हिदिवंधो थोवो । ११०. णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयाणं तिहं पि कम्माणं द्विदिवंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । १११. णामा-गोदाणं हिदिबंधो असंखेज्जगुणो । ११२. वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ११३. एत्थ वि णत्थि वियप्पो, तिण्हं पि कम्माणं द्विदिवंधो णामा-गोदाणं द्विदिबंधादो हेडदो जायमाणो एकसराहेण असंखेज्जगुणहीणो नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है। इससे इतर ज्ञानावरणादि चारो ही कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है। इसी क्रमसे बहुतसे संख्यात-सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते है। तत्पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। वह इस प्रकार है-एक शराघातसे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम हो जाता है। इससे नाम और गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन तीनों ही कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है। इससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । वेदनीय कर्मके स्थितिबन्धसे अपसरण करनेवाले ज्ञानावरणादि तीनों ही कर्मोंके स्थितिबन्धके संख्यातगुणा हीन या विशेष-हीन रूप कोई अन्य विकल्प नही है, किन्तु एक शराघातसे ही असंख्यातगुणा हीन हो जाता है। इस अल्पबहुत्वके क्रमसे अनेक संख्यात-सहस्र स्थितिवन्ध व्यतीत होते हैं ॥९६-१०७॥ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध होता है, अर्थात् एक साथ ही मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध और भी कम हो जाता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अन्तराय, इन तीनो ही कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है। इससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है। इससे वेदनीय कर्मका स्थितिवन्ध विशेष अधिक होता है। यहाँ पर भी अन्य कोई विकल्प नहीं है । जब ज्ञानावरणादि तीनों ही कर्मोंका स्थितिबन्ध नाम-गोत्रकर्मों के स्थितिवन्धसे नीचे होता & ताम्रपत्रवाली प्रतिमें णत्थि [अण्णो-] ऐसा पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १८३१) Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ कसा पाहुड सुत [ १४ चारित्रमोह उपशामनाधिकार जादो वेदणीयस्स द्विदिवंधो ताधे चेव णामा-गोदाणं द्विदिबंधो विसेसाहिओ जादो । ११४. एदेण अप्पाचहुअविहिणा संखज्जाणि हिदिबंध सहस्त्राणि काढूण जाणि पुण कम्माणि वज्झति ताणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ११५. तदो असंखेज्जाणं समयबद्धाणमुदीरणा च । ११६ तदो संखेज्जेसु ठिदिबंध सहस्सेसु मणपज्जवणाणावरणीय - दाणंतराइयाणमणुभागो वंधेण देसघादी होइ । ११७. तदो संखेज्जेसुट्ठिदिबंधेसु गदेसु ओहिणाणावरणीयं ओहिंदंसणावरणीयं लाभंतराइयं च बंधेण देसघादि करेदि । ११८ तदो संखेज्जेसु ट्ठिदिबंधेसु गदेसु सुदणाणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च बंधेण देसघादिं करेदि । ११९. तदो संखेज्जे द्विदिवंधेसु गदेसु चक्खुदंसणावरणीयं बंधेण देसघादिं करेदि । १२०. तदो संखेज्जेसुट्ठिदिबंधेसु गदेसु आभिणिवोहियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च बंधेण देसघादि करेदि । १२१ तदो संखेज्जेसु ठिदिबंधेसु गदेसु वीरियंतराइयं बंधेण देसघादि करेदि । १२२. एदेसिं कम्माणमखवगो अणुवसामगो सन्चो सव्वधादि बंधदि । १२३. देसु कम्मे देसवादीसु जादेसु विट्ठिदिबंधो मोहणीये थोवो । १२४. णाणावरणदंसणावरण- अंतराइएस ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १२५ णामा- गोदेसु ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १२६. वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । हुआ एक साथ असंख्यातगुणित हीन हो जाता है, तभी नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध विशेष हीन हो जाता है । इस अल्पबहुत्व के क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोको करके पुनः जो कर्म वधते है, वे पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण होते हैं । तत्पश्चात् असंख्यात समय प्रबद्धोकी उदीरणा होती है । तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तराय कर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाती हो जाता है ॥१०८-११६॥ चूर्णि सू० - तत्पश्चात् संख्यात स्थितिबन्धोके बीतने पर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है । तत्पश्चात् संख्यात स्थितिबन्धोके बीतने पर श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय कर्मको वन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है । तत्पश्चात् संख्यात स्थितित्रन्धो के बीतने पर चक्षुदर्शनावरणीय कर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है । तत्पश्चात् संख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय कर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है । तत्पश्चात् संख्यात स्थितिबन्धोके बीतने पर वीर्यान्तराय कर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है । सर्व अक्षपक और अनुपशामक इन कमोंके सर्वघाती अनुभागको बाँधते हैं । इन कर्मोंके देशघाती हो जानेपर भी मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है । इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है ।। ११७-१२६॥ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्र मोह - उपशामक विशेषक्रिया - निरूपण ६८९ १२७. तदो देसघादिकरणादो संखेज्जेसु ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु अंतरकरणं करेदि । १२८. बारसहं कसायाणं णवहं णोकसायवेदणीयाणं च । णत्थि अण्णस्स कम्मस्स अंतरकरणं । १२९. जं संजलणं वेदयदि, जं च वेदं वेदयदि, एदेसिं दोन्ह कम्माणं पढमडिदीओ अंतो मुहुत्तिगाओ ठवेण अंतरकरणं करेदि । १३०. पढमट्ठिदीदो संखेज्जगुणाओ satओ आगाइदाओ अंतरद्वं । १३१. सेसाणमेक्कारसहं कसायाणमट्ठण्हं च णोकसायवेदणीयाणमुदयावलियं मोत्तूण अंतरं करेदि । १३२. उवरि समट्ठिदिअंतरं, हेडा विसमडिदि अंतरं । १३३. जाधे अंतरमुक्कीरदि ताधे अष्णो द्विदिबंधो पवद्धो, अण्णं द्विदिखंडय - मण्णमणुभागखंडयं च गेहदि । १३४. अणुभाग खंडय सहस्सेसु गदेसु अण्णमणुभागखंडयं, तं चैव द्विदिखंडयं, सो चेव द्विदिबंधो, अंतरस्स उक्कीरणद्धा च समगं पुष्णाणि । चूर्णिसू० - पुनः सर्वघाती प्रकृतियोको देशघाती करनेके पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत होने पर अन्तरकरण करता है । यह अन्तरकरण अप्रत्याख्यानादि बारह कषायोका और नवो नोकषायवेदनीयोका होता है । अन्य किसी भी कर्मका अन्तरकरण नहीं होता है । अन्तरकरण करनेके लिए उद्यत उपशामक जिस संज्वलनकषायका वेदन करता है और जिस वेदका वेदन करता है उन दोनो ही कर्मों की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थितियोको स्थापित करके अन्तरकरण करता है । प्रथम स्थिति से संख्यातगुणी स्थितियाँ अन्तरकरण करनेके लिए गुणश्रेणी शीर्षकके साथ ग्रहण की जाती हैं । शेप अनुदय-प्राप्त ग्यारह कषायोको और आठ नोकषाय- वेदनीयोकी उदयावलीको छोड़कर अन्तर करता है । ऊपर समस्थिति अन्तर है और नीचे विषमस्थिति अन्तर है ।। १२७-१३२॥ विशेषार्थ - उदय या अनुदयको प्राप्त सभी कषाय और नोकपायवेदनीय कर्म - प्रकृतियोकी अन्तरसे ऊपरकी स्थिति तो समान ही होती है, क्योकि द्वितीयस्थिति के प्रथम निषेकका सर्वत्र सदृशरूपसे अवस्थान देखा जाता है, इसलिए 'ऊपर समस्थिति अन्तर है, ' ऐसा कहा गया है । किन्तु अन्तरसे नीचेकी स्थिति विषम होती है, इसका कारण यह है कि अनुदयवती सभी प्रकृतियो के सदृश होनेपर भी उदयको प्राप्त किसी एक संज्वलन कषाय और किसी एक वेदको अन्तर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थिति से परे अन्तर की प्रथमस्थितिका ही अवस्थान देखा जाता है । इसलिए प्रथमस्थितिकी विसदृशता के आश्रय से 'नीचे विषमस्थिति अन्तर है' ऐसा कहा गया है । चूर्णि सू०- ० - जब अन्तर उत्कीर्ण करता है, अर्थात् जिस समय अन्तरकरण आरम्भ करता है, उसी समय में ही अन्य स्थितिबन्ध बाँधता है, तथा अन्य स्थितिकांडक और अन्य अनुभाग कांडकको ग्रहण करता है । इस प्रकार सहस्रो अनुभागकांडकोके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकांडक, तथा वही स्थितिकांडक, वही स्थितिबन्ध और अन्तरका उत्कीरणकाल, * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'दिट्ठदिबधपबधो' ऐसा पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १८३५ ) ८७ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० , कसाय पाहुड सुत्त [१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार १३५. अंतरं करमाणम्स जे कम्मंसा बझंति, वेदिज्जंति, तेसिं कम्माणमंतरविदीओ उक्कीरेंतो तासि हिदीणं पदेसग्गं बंधपयडीणं पढमहिदीए च देदि, विदियहिदीए च देदि। १३६. जे कम्मंसा ण बझंति, ण वेदिज्जंति, तेसिमुक्कीरमाणं पदेसग्गं सत्थाणे ण देदि वज्झमाणीणं पयडीणमणुकीरमाणीसु द्विदीसु देदि । १३७. जे कम्मंसा ण वझंति, वेदज्जति च; तेसिमुक्कीरमाणयं पदेसग्गं अप्पप्पणो पडपट्ठिदीए च देदि, बज्झमाणीणं पयडीणमणुकीरमाणीसु च हिदोसु देदि । १३८. जे कम्यंसा ण वमंति, ण वेदिज्जंति, तेसिमुक्कीरमाणं पदेसग्गं वज्झमाणीणं पयडीणमणुक्कीरमाणीसु द्विदीसु देदि । १३९. एदेण कमेण अंतरमुक्कीरमाणमुक्किण्णं । १४०. ताधे चेव मोहणीयस्स आणुपुव्धीसंकमो, लोभस्स असंकमो, मोहणीयस्स एगट्ठाणिओ बंधो, णqसय वेदस्स परमसमय-उवसामगो, छसु आवलियासु गदासु उदीरणा, मोहणीयस्स एगट्ठाणिओ उदयो, मोहणीयस्म संखेज्जवस्सद्विदिओ बंधो एदाणि सत्तविधाणि करणाणि अंतरकद पढमसमए होंति । ये सब एक साथ पूर्णताको प्राप्त होते हैं । अन्तरको करनेवाले जीवके जो कांश बँधते हैं और जो वेदन किये जाते हैं, उन कर्मोंकी अन्तर-सम्बन्धी स्थितियोको उत्कीरण करता हुआ उन स्थितियोके प्रदेशाग्रको बधनेवाली प्रकृतियोकी प्रथमस्थितिमें भी देता है और द्वितीय स्थितिमे भी देता है। जो कांश न बँधते हैं और न उदयको ही प्राप्त होते हैं, उनके उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको स्वस्थानमे नहीं देता है, किन्तु वध्यमान प्रकृतियोकी उत्कीरण की जानेवाली स्थितियोमे देता है। जो कांश वेधते नहीं हैं, किन्तु वेदन किये जाते है उनके उत्कीरण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको अपनी प्रथम स्थितिमें देता है और बध्यमान प्रकृतियोकी उत्कीरण न की जानेवाली स्थितियोमे देता है । जो कर्माश बँधते है, किन्तु वेदन नहीं किये जाते है उनके उत्कीरण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको बध्यमान प्रकृतियोकी नहीं उत्कीरण की जानेवाली स्थितियोमे देता है। इस क्रमसे उत्कीरण किया जानेवाला अन्तर उत्कीर्ण किया गया, अर्थात् चरम फालीके निरवशेषरूपसे उत्कीर्ण किये जानेपर अन्तरकरणका कार्य सम्पन्न हो जाता है । इस प्रकार अन्तरकी स्थितियोका सर्व द्रव्य प्रथम और द्वितीय स्थितिमे संक्रमित कर दिया गया ॥१३३-१३९॥ चूर्णिसू०-उसी समय अर्थात् अन्तरकरणके समकाल ही मोहनीयका आनुपूर्वीसंक्रमण (१) लोभका संक्रमण (२) मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध (३) नपुंसकवेदका प्रथम समय-उपशामक (४) छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा (५) मोहनीयका एकस्थानीय उदय (६) और मोहनीयका सख्यात वर्षकी स्थितिवाला वन्ध (७) ये सात प्रकारके करण अन्तर कर चुकनेके पश्चात् प्रथम समयमे प्रारम्भ होते हैं ॥१४०॥ विशेषार्थ-अन्तरकरणके अनन्तर प्रथम समयमे ये सात करण अर्थात् कार्यविशेष एक साथ प्रारम्भ होते हैं । इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मोहनीयकर्मके एक निश्चित Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] - चारित्रमोह-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण १४१. छसु आवलियासु गदासु उदीरणा णाम किं भणिदं होइ ? १४२. विहासा । १४३. जहा णाम समयपबद्धो बद्धो आवलियादिकंतो सक्को उदीरेदुमेवमंतरादो क्रमके अनुसार द्रव्यके संक्रमण करनेको आनुपूर्वी-संक्रम कहते है। पुरुषवेदके उदयसे चढ़ा हुआ जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके प्रदेशाग्रको नियमसे पुरुपवेदमे संक्रान्त करता है। इसी प्रकार क्रोधकषायके उदयसे चढ़ा हुआ जीव पुरुषवेद, छह नोकषाय, प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके प्रदेशाग्रको क्रोधसंज्वलनके ऊपर संक्रान्त करता है और कहीं नहीं । पुनः क्रोधसंज्वलन और दोनो मध्यम मानकषायके प्रदेशाग्रको नियमसे मानसंज्वलनमे संक्रान्त करता है, अन्यत्र कहीं नहीं। मानसंज्वलनको और द्विविध मध्यम मायाके प्रदेशाग्रको नियमसे मायासंज्वलनमे निक्षिप्त करता है । मायासंज्वलन और द्विविध मध्यम लोभके प्रदेशानको नियमसे लोभसंज्वलनमें संक्रान्त करता है । इस प्रकारके क्रमसे होनेवाले संक्रमणको आनुपूर्वी-संक्रमण कहते हैं। इस स्थलके पूर्व अनानुपूर्वीसे प्रवर्तमान चारित्रमोहनीयकी प्रकृतियोका संक्रमण इस समय इस उपर्युक्त प्रतिनियत आनुपूर्वीसे प्रवृत्त होता है, ऐसा यहाँ अभिप्राय जानना चाहिए (१)। 'लोभका असंक्रम' यह दूसरा करण है। सूत्रमें 'लोभ' ऐसा सामान्य निर्देश होनेपर भी यहाँ लोभसे संज्वलनलोभका ही ग्रहण करना चाहिए । लोभके असंक्रमणका अर्थ यह है कि इससे पूर्व अनानुपूर्वीसे लोभसंज्वलनका शेष संज्वलनकपायोमे और पुरुषवेदमें प्रवर्तमान संक्रमण इस समय बन्द हो जाता है (२) । 'मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध' यह तीसरा करण है, इसका अर्थ यह है कि इससे पूर्व मोहनीयकर्मका अनुभाग देशघाती द्विस्थानीयरूपसे बॅधता था, वह इस समय परिणामोंकी विशुद्धि के योगसे हट कर एकस्थानीय हो जाता है (३)। 'नपुंसकवेदका प्रथम समय-उपशामक' यह चतुर्थ करण है । इसका अभिप्राय यह है कि तीनो वेदोमेसे नपुंसकवेदकी ही सर्वप्रथम इस स्थलपर आयुक्तकरणके द्वारा उपशामन-क्रियामें प्रवृत्ति होती है (४)। 'छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा' यह पंचम करण है । इसका अर्थ आगे चूर्णिकार स्वयं ही करेंगे (५)। 'मोहनीयका एकस्थानीय उदय' यह षष्ट करण है। इसका अर्थ यह है कि इससे पूर्व लता और दारुरूप द्विस्थानीय देशघातिस्वरूपसे प्रवर्तमान अनुभागका उदय अन्तरकरणके अनन्तर ही एकस्थानीय लतारूपसे परिणत हो जाता है (६) । 'मोहनीयका संख्यातवर्षीय स्थितिबन्ध' यह सप्तम करण है। इसका अर्थ यह है कि इससे पूर्व मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वोका होता था। वह कषायोकी मन्दता या परिणामोकी विशुद्धिताके प्रभावसे एकदम घटकर संख्यात वर्षप्रमाण रह जाता है । किन्तु शेप कर्मोंकास्थितिवन्ध इस समय भी असंख्यात वर्षोंका ही होता है (७)। . शंका-छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है, इसका क्या अभिप्राय है ? ।।१४१॥ समाधान-छह आवलीकालके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है, इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार इससे पूर्व अधस्तन सर्वत्र संसारावस्थामे बँधा हुआ समयप्रबद्ध Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ फसाय पाहुड सुत्त [१४ चारित्रयोद-उपशामनाधिकार पढमसमयकदादो पाए जाणि कम्माणि बझंति मोहणीयं वा मोहणीयवन्जाणि वा, ताणि कम्माणि छसु आवलियासु गदासु सक्काणि उदीरेदूं ऊणिगासु छसु आवलियासु ण सक्काणि उदीरेदु। १४४. एसा छसु आचलियासु गदासु उदीरणा त्ति सण्णा । १४५. केण कारणेण छसु आवलियासु गदासु उदीरणा भवदि ? १४६. णिदरिसणं*। १४७. जहा णाम वारस किट्टीओ भवे पुरिसवेदं च बंधइ, तस्स जं पदेसग्गं पुरिसवेदे बर्द्ध ताव आवलियं अच्छदि'। १४८. आवलियादिकं कोहस्स पढमकिट्टीए विदियकिट्टीए च संकामिज्जदि। १४९. विदियकिट्टीदो तम्हि आवलियादिकंतं तं कोहस्स तदियकिट्टीए च माणस्स पढम-विदियकिट्टीसु च संकामिज्जदि । १५०. माणस्स विदियकिट्टीदो तम्हि आवलियादिकंतं माणस्स च तदियकिट्टीए मायाए आवलीप्रमाण कालके अतिक्रान्त होनेपर ही उदीरणा करनेके लिए शक्य है, उस प्रकार अन्तर करनेके प्रथम समयसे लेकर इस स्थल तक मोहनीय या मोहनीयके अतिरिक्त जो कर्म बंधते हैं, वे कर्म छह आवलीप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर ही उदीरणा करनेके लिए शक्य हैं, छह आवलियोमे कुछ न्यूनता होनेपर उदीरणाके लिए शक्य नहीं हैं। यह 'छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है' ऐसा कहनेका अभिप्राय है ॥१४२-१४४॥ शंका-किस कारणसे छह आवलियोके व्यतीत होनेपर ही उदीरणा होती है ? इसके पूर्व उदीरणा होना क्यो सम्भव नहीं है ? ॥१४५॥ समाधान-इस शंकाका समाधानात्मक निदर्शन इस प्रकार है-जिस वारह कृष्टिवाले भवमें जो पुरुपवेदको वॉधता है, उसके जो प्रदेशाग्र पुरुपवेदमे बद्ध हुआ है, वह एक आवलीकाल तक अचलरूपसे रहता है। अर्थात् यह एक आवली स्वस्थानमे ही उदीरणावस्थासे परान्मुख प्राप्त होती है। उक्त वन्धावलीकालके अतिक्रान्त होनेपर पुरुषवेदके बद्ध प्रदेशाग्रको संज्वलनक्रोधकी प्रथम कृष्टि और द्वितीय कृष्टिमें संक्रान्त करता है, अतएव वहॉपर वह कर्म-प्रदेशाय संक्रमणावलीमात्र काल तक अविचलितरूपसे अवस्थित रहता है, इसलिए यह दूसरी आवली उदीरणा-पर्यायसे विमुख उपलब्ध होती है। वह पुरुपवेदका संक्रान्त प्रदेशाग्र संज्वलनक्रोधकी प्रथम या द्वितीय कृष्टिमे एक आवली तक रहकर तत्पश्चात् द्वितीय कृष्टिसे क्रोधकी तृतीय कृष्टिमें और संज्वलनमानकी प्रथम और द्वितीय कृष्टिमें संक्रान्त किया जाता है, अतः यह संक्रमणरूप तीसरी आवली भी उदीरणाके अयोग्य है। पुरुपवेदका वह संक्रान्त प्रदेशाग्र एक आवली तक वहाँ रहकर पुनः मानकी द्वितीय कृष्टिसे मानकी तृतीय कृष्टिमें, तथा संज्वलन मायाकी प्रथम और द्वितीय कृष्टिमे संक्रान्त * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'छसु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति' इतना टीकाश भी सूत्ररूप से मुद्रित है। (देखो पृ० १८४०-४१) १ एसा ताव एका आवलिया उदीरणावत्यापरमुही समुवलम्भदे | जयध० २ तम्हा एसा विदिया आवलिया उदीरणपज्जायविमुही समुवलभदि । जयध० ३ एसो तदियावलियविसयो दट्ठव्यो । जयघ० Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३.] चारित्र मोह - उपशामक - विशेष क्रिया निरूपण ६९३ परम-विदियकिट्टीसु च संकामिज्जदे' । १५१. मायाए विदियकिट्टीदो तम्हि आवलि - यादितं माया तदिकिट्टीए लोभस्स च पढम - विदियकिडीसु संकामिज्जदि । १५२. लोभस विदिट्टीदो तम्हि आवलियादिकंतं लोभस्स तदियकिट्टीए संका मिज्जदि । १५३. एदेण कारणेण समयपबद्धो छसु आवलियासु गदासु उदीरिज्जदे | १५४. जहा एवं पुरिसवेदस्स समयपवद्धादो छसु आवलियासु गदासु उदीरणा ति कारणं निदरिसिद, वहा एवं सेसाणं कम्माणं जदि वि एसो विधी णत्थि, तहा वि अंतरादो परमसमयकदादा पाए जे कम्मंसा बज्झति तेर्सि कम्माणं छसु आवलियासु गदासु उदीरणा । १५५. एदं णिदरिसणमेत्तं तं प्रमाणं कादु णिच्छयदो गेण्हियव्वं । १५६. अंतरादो परमसमयकदादा पाए कुंसय वेदस्स आउत्तकरण उवसामगो किया जाता जाता है । वह कर्म - प्रदेशाम यहाँ पर भी इस संक्रमणावलीमात्र कालतक उदीरणाके अयोग्य है | अतः इस चौथी आवलीके भीतर भी उसकी उदीरणा नहीं हो सकती है । वही पूर्वोक्त पुरुषवेदका संक्रान्त कर्म - प्रदेशात्र उक्त कृष्टियोमे एक आवली तक रहकर पुनः मायाकी द्वितीय कृष्टिसे मायाकी तृतीय कृष्टिमें और संज्वलन लोभकी प्रथम द्वितीय कृष्टिमे संक्रान्त किया जाता है । उसकी यहाँ पर भी एक आवली कालतक उदीरणा नहीं हो सकती । यह पॉचवी आवली उदीरणाके अयोग्य है । पुरुष - वेदका वही संक्रान्त हुआ कर्म-प्रदेशाग्र उक्त कृष्टियोंमे एक आवली तक रहकर पुन: लोभ द्वितीय कृष्ट लोभकी तीसरी कृष्टिमे संक्रान्त किया जाता है । वह यहाँ पर भी एक आवली तक उदीरणाके योग्य नहीं होता । अतः यह छठी आवली भी उदीरणाके अयोग्य बतलाई गई है । इस कारण नवीन बँधा हुआ समयप्रबद्ध छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणाको प्राप्त किया जाता है । अतएव यह कहा गया है कि छह आवलियोके व्यतीत होनेपर ही उदीरणा होती है ।। १४५ - १५३ ॥ चूर्णिसू० - जिस प्रकार से पुरुपवेदकी नवीन बँधे हुए समयप्रबद्धसे छह आवलियोंके व्यतीत हो जानेपर उदीरणा होती है, इस विषयका सकारण निदर्शन किया, उस ही प्रकारसे यद्यपि शेप कर्मोंके संक्रमणादिकी यह विधि नहीं है, तथापि प्रथम समय किये गये अन्तरसे इस स्थलपर जो कर्म-प्रकृतियॉ बँधती हैं, उन कर्म-प्रकृतियोंकी उदीरणा छह आवलियोके व्यतीत होनेपर ही होती है, ऐसा नियम है । यह उपर्युक्त वर्णन निदर्शन अर्थात् दृष्टान्तमात्र है, सो उसे प्रमाण मानकर निश्चयसे यथार्थ रूपमे ग्रहण करना चाहिए । १५४ - १५५॥ चूर्णिसू० - अन्तरकरणके प्रथम समयसे लेकर इस स्थल तक अर्थात् अन्तर्मुहूर्त १ एसो चउत्थावलियविसयो । जयघ० २ किमा उत्तकरण णाम ? आउत्तकरणमुजत्तकरण पारभकरणमिदि एयट्ठो । तात्पर्येण नपु सकवेदमितः प्रभवत्युपशमयतीत्यर्थः । जयघ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'सिस्समइ वित्थारणङ्कं इतना टोकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । (देखो पृ० १८४२) Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ फसाय पादृढ सुत्त [१४ चारित्रमोह-उपशार्मनाधिकार सेसाणं कम्माणं ण किंचि उवसामेदि । १५७. जं पहमसमये पदेसग्गमुवसामदि, तं थोवं । जं विदियसमए उवसामेदि तमसंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए उवसामेदि जाव उवसंतं । १५८. ण,सयवेदस्स पढमसमय उवसामगस्स जस्स वा तस्स वा कम्मस्स पदेसग्गस्स उदीरणा थोवा । १५९. उदयो असंखेज्जगुणो। १६०. णबुंसयवेदस्स पदेसग्गमण्णपयडिसंकामिन्जयाणयमसंखेन्जगुणं । १६१. उवसामिज्जमाणयमसंखेज्जगुणं । १६२. एवं जाव चरिमसमय-उवसंते त्ति ।। १६३. जाधे पाए मोहणीयस्स बंधो संखेज्जवस्स-द्विदिगो जादो, ताथे पाए ठिदिवंधे पुण्णे पुण्णे अण्णो संखेज्जगुणहीणो हिदिबंधो* । १६४. मोहणीयवजाणं कम्माणं णबुंसयवेदमुवसातस्स हिदिबंधे पुण्णे पुण्णे अण्णो द्विदिबंधो असंखेज्जगुणहीणो। १६५. एवं संखेज्जेसु हिदिवंधसहस्सेसु गदेसु णबुंसयवेदो उवसामिज्जमाणो उवसंतो। १६६. णसयवेदे उपसंते से काले इत्थिवेदस्स उवसामगो। १६७. ताधे तक अनिवृत्तिकरणसंयत नपुंसकवेदका आयुक्तकरण उपशामक होता है, अर्थात् यहाँसे आगे नपुंसकवेदका उपशमन प्रारम्भ करता है । शेप कर्मोंका किचिन्मात्र भी उपशमन नहीं करता है । जिस प्रदेशाग्रको प्रथम समयमे उपशान्त करता है, वह अल्प है। जिसे द्वितीय समयमे उपशमित करता है, वह असंख्यातगुणा है। इस प्रकार असंख्यातगुणित श्रेणीसे नपुंसकवेदके उपशान्त होने तक उपशमाता है। प्रथमसमयवर्ती नपुंसकवेद-उपशामकके जिस किसी भी वेद्यमान कर्म-प्रकृति के प्रदेशाप्रकी उदीरणा उपरिम पदोंकी अपेक्षा थोड़ी होती है। उससे जिस किसी भी वेधमान कर्मका उदय असंख्यातगुणा होता है । इससे अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण किया जानेवाला नपुंसकवेदका प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इससे, उपशममान नपुंसकवेदका प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। इस प्रकार नपुंसकवेदके उपशान्त होनेके अन्तिम समय तक अल्पवहुत्वका यही क्रम जानना चाहिए ॥१५६-१६२॥ चूर्णिसू०-जिस स्थलपर मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध संख्यात वर्षकी स्थितिवाला होता है, वहाँसे लेकर प्रत्येक स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है । पुनः नपुंसकवेदका उपशमन करनेवाले जीवके मोहनीयके अतिरिक्त शेष कर्मों के प्रत्येक स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर अन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा हीन होता है । इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिवन्धोके व्यतीत होनेपर प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा उपशमन किया जानेवाला नपुंसकवेद उपशान्त हो जाता है ॥१६३-१६५॥ चर्णिम०-नपुंसकवेदके उपशान्त हो जानेपर तदनन्तरकालमें स्त्रीवेदका उपशामक होता है, अर्थात् स्त्रीवेदका उपशमन प्रारम्भ करता है। उस समयमे ही अपूर्व स्थितिकांडक ____* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'ट्ठिदिवंधे'के स्थानपर 'ढिदिवंधेण' और 'संखेजगुणहीणो' के स्थानपर 'असंखेजगुणहीणो' पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १८४४) Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्रमोह-उपशामक- विशेष क्रिया- निरूपण ६९५ चेव अपुवं द्विदिखंडयम पुव्यमणुभागखंडयं द्विदिबंधो च पत्थिदो । १६८. जहा 'सयवेदो उचसामिदो तेणेव कमेण इत्थिवेदं पि गुणसेडीए उवसामेदि । १६९. इत्थवेदस्स उवसामणद्धाए संखेज्जदिभागे। गदे तदो णाणावरणीय दंसणावरणीय-अंतराइयाणं संखेज्जवस्स-ट्ठिदिगो वंधो भवदि । १७०. जाधे संखेज्जवस्स - विदिओ वधो, तस्समए चेव एदासिं तिन्हं मूलपयडीणं केवलणाणावरण - केवलदंसणावरणवज्जाओ सेसाओ जाओ उत्तरपयडीओ तासिमेगट्ठाणिओ बंधो । १७१. जत्तो पाए णाणावरणदंसणावरण- अंतराइयाणं संखेज्जवस्सविदिओ बंधो तम्हि पुण्णे जो अण्णो द्विदिबंधो सो संखेज्जगुणहीणो । १७२. तम्हि समए सव्वकम्माणमप्पाबहुअं भवदि । १७३ तं जहा । १७४. मोहणीयस्स सव्वत्थोवो द्विदिबंधो । १७५. णाणावरण- दंसणावरण-अंतराइयाणं डिदिबंधो संखेज्जगुणो । १७६. गामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । १७७. वेदणीयस्स दिबंध विसेसाहिओ । १७८. एदेण कमेण संखेज्जेसु ट्ठिदिबंध सहस्सेसु गदे इत्थवेदो उवसामिज्जमाणो उवसामिदो । अपूर्व अनुभागकांडक और अपूर्व स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है । जिस क्रमसे नपुंसक वेदका उपशमन किया है, उसी क्रमसे गुणश्रेणीके द्वारा स्त्रीवेद को भी उपशमाता है । त्रीवेदके उपशमनकालके संख्यात भाग बीत जानेपर तत्पश्चात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका बन्ध संख्यात वर्षकी स्थितिवाला हो जाता है । अर्थात् इस स्थलपर उक्त कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्पसे घटकर संख्यात वर्प - प्रमाण रह जाता है । ( किन्तु शेष तीनो अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अब भी असंख्यात वर्षका होता है । ) जिस समय संख्यात वर्षकी स्थितिवाला बन्ध होता है, उसी समय ही इन तीनो घातिया मूल प्रकृतियोकी केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण प्रकृतियोको छोड़कर जो शेष उत्तर प्रकृतियाँ है, उनका एक स्थानीय अनुभाग बन्ध होने लगता है । जिस स्थलपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका संख्यात वर्षकी स्थितिवाला बन्ध है, उसके पूर्ण होनेपर जो अन्य बन्ध होता है, वह पूर्वसे संख्यातगुणित हीन होता है । ( किन्तु तीनो अघातिया कर्मोंका अभी भी असंख्यात वर्ष - प्रमाण ही स्थितिबन्ध होता है । ) उस समय सर्व कर्मोंके स्थितिबन्धका जो अल्पबहुत्व है, वह इस प्रकार है - मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम है। इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिबन्ध' संख्यातगुणा है । इससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके बीत जानेपर उपशम किया जानेवाला स्त्रीवेद उपशमित हो जाता है ॥१६६-१७८॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'जाधे इत्थिवेदमुवसामेदुमाढत्तो' इतना टोकान भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । (देखो पृ० १८४५ ) ·।' ताम्रपत्रवाली प्रतिमें ‘संखेज्जदिभागे' के स्थानपर 'संखेज्जे भागे' पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १८४६ ) Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ कलाय पाहुड सुक्ष [१५ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार १७९. इत्थिवेदे उवसंते [से] काले सत्तण्हं णोकसायाणं उवसामगो । १८०. ताधे चेव अण्णं द्विदिखंडयमण्णामणुभागवंडयंच आगाइदं । अण्णो च द्विदिबंधो पबद्धो । १८१. एवं संखेज्जेसु हिदिवंधसहस्सेसु गदेसु सत्तण्हं णोकसायाणमुवसामणद्धाए संखेज्जदिभागे* गदे तदो णामागोदवेदणीयाणं कम्माणं संखेज्जवस्स हिदिगो बंधो । १८२. ताधे द्विदिवंधस्स अप्पाबहुअं। १८३. तं जहा । १८४. सव्वत्थोवो मोहणीयस्स हिदिबंधो। १८५. णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणं हिदिवंधो संखेज्जगुणो । १८६. णामा-गोदाणं ठिदिवंधो संखेज्जगुणो । १८७. वेदणीयस्स द्विदिवंधो विसेसाहिओ। १८८. एदम्मि हिदिवंधो पुण्णो जो अण्णो हिदिबंधो सो सन्चकम्माणं पि अप्पप्पणो द्विदिवंधादो संखेजगुणहीणो । १८९. एदेण कमेण द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु सत्त णोकसाया उपसंता । १९०. णवरि पुरिसवेदस्स वे आवलिया बंधा समयूणा अणुवसंता । १९१. तस्समए पुरिसवेदस्स हिदिवंधो सोलस वस्साणि । १९२. संजलणाणं द्विदिवंधो बत्तीस वस्साणि । १९३. सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १९४. पुरिसवेदस्स पहमहिदीए जाधे वे आवलियाओ सेसाओ ताधे आगाल-पडिआगालो वोच्छिण्णो । चूर्णिस०-स्त्रीवेदके उपशम हो जानेपर तदनन्तरकालमें शेप सातो नोकषायोका उपशामक होता है, अर्थात् उनका उपशमन प्रारम्भ करता है। उसी समयमे ही अन्य स्थितिकांडक और अन्य अनुभागकांडक घातके लिए ग्रहण करता है, तथा अन्य स्थितिवन्धको वॉधता है। इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिवन्धोके बीतने पर और सातो नोकपायोके उपशमनकालका संख्यातवॉ भाग बीतने पर नाम, गोत्र और वेदनीय, इन तीनो अघातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात वर्षोंका होने लगता है । उस समय स्थितिवन्धका अल्पवहुत्व इस प्रकार है-मोहनीयका स्थितिवन्ध सबसे कम है। इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे नाम और गोत्रका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे वेदनीयका स्थितिवन्ध विशेष अधिक होता है ॥१७९-१८७|| चूर्णिसू०-इस स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर जो अन्य स्थितिबन्ध होता है, वह सभी कर्मोंका अपने-अपने पूर्व स्थितिवन्धसे संख्यातगुणा हीन होता है। इस क्रमसे सहस्रो स्थितिवन्धोके व्यतीत होनेपर ( उपशमन की जानेवाली ) सातो नोकषाय भी उपशान्त हो जाती हैं, अर्थात् उनका उपशम सम्पन्न हो जाता है। केवल पुरुषवेदके एक समय कम दो आवलीमात्र समयप्रवद्ध अभी अनुपशान्त रहते है। उस समयमे पुरुषवेदका स्थितिवन्ध सोलह वर्ष है, चारो संज्वलनकषायोका स्थितिवन्ध बत्तीस वर्ष है और शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्प है। पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिमे जव दो आवलियाँ शेष रहती हैं, तब आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं ॥१८८-१९४॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'संखेजदिभागे' के स्थानपर 'संखेज्जे भागे' ऐसा पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १८४७) Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V गा० १२३ ] चारित्र मोह उपशामक - विशेषक्रिया निरूपण ६९७ १९५. अंतरकदादो पाए छण्णोकसायाणं पदेसग्गं ण संछुहृदि पुरिसवेदे, कोहसंजलणे संहृदि । १९६. जो पढमसमय अवेदो तस्स पडमसमय- अवेदस्स संत पुरिसवेदस्स दो आवलियबंधा दुसमयूणा अणुवसंता । १९७. जे दो आवलियबंधा दुसमणा अणुवसंता तेसिं पदे सग्गमसंखेज्जगुणाए सेडीए उवसामिज्जदि । १९८. परपयडीए वुण अधापवत्तसंक्रमेण संकामिज्जदि । १९९. पढमसमय-अवेदस्स संका मिज्जदि बहुअं । से काले विसेसहीणं । २००. एस कमो एयसमयपबद्धस्स चेव । २०१. परमसमय अवेदस्स संजलणाणं ठिदिबंधो बत्तीस वस्त्राणि अंतोमुहुत्तूविशेषार्थ-द्वितीय स्थिति के प्रदेश का प्रथमस्थितिमे आना 'आगाल' कहलाता है और प्रथमस्थिति के प्रदेशाय के द्वितीयस्थितिमें जानेको प्रत्यागाल कहते हैं । इसप्रकार उत्कर्षणअपकर्षणके वसे प्रथम - द्वितीय स्थिति के प्रदेशायोका परस्पर विषय- संक्रमण होनेरूप आगाल -, प्रत्यागाल पुरुपवेदकी प्रथमस्थितिके समयाधिक दो आवलीकाल शेष रहने तक ही होते है । जब पूरा दो आवलीकाल पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिका अवशिष्ट रह जाता है, तब आगाल और प्रत्यागालका होना बन्द हो जाता है, ऐसा अभिप्राय यहाॅ जानना चाहिए । अथवा उत्पादानुच्छेदका आश्रय लेकर जयधवलाकार सूत्रानुसार ऐसा भी अर्थ करनेकी प्रेरणा करते हैं कि आवली-प्रत्यावली काल तक तो आगाल - प्रत्यागाल होते हैं, किन्तु तदनन्तर समयमें उनका विच्छेद हो जाता है । इसी स्थलपर पुरुषवेदकी गुणश्रेणीका होना भी बन्द हो जाता है । केवल प्रत्यावलीसे ही असंख्यात समयप्रबद्ध की प्रतिक्षण उदीरणा होती है । १० - अन्तर करने के चूर्णिसू० पश्चात् हास्यादि छह नोकपायोके प्रदेशात्र को पुरुषवेदमे संक्रमण नही करता है, किन्तु संज्वलनक्रोधमे संक्रमण करता है । ( क्योकि, यहाॅ आनुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है । ) जो प्रथम - समयवर्ती अपगतवेदवाला जीव है, उस प्रथम समयवाले अपगतवेदीके पुरुषवेदका नवक समयप्रबद्धरूप सत्त्व दो समय कम दो आवली - प्रमाण है, वह यहाँ अनुपशान्त रहता है । जो दो समय कम दो आवली -प्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहते हैं, उनके प्रदेशामको वह यहॉपर असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा उपशान्त करता है । अर्थात् बन्धावलीके अतिक्रांत होनेपर पुरुषवेदके नवीन बद्ध समयप्रबद्धो का उपशमन - काल आवलीमात्र है, ऐसा अभिप्राय यहाँ जानना चाहिए । वह उनके प्रदेशाको स्वस्थानमें ही उपशान्त नहीं करता है, किन्तु अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा पर - प्रकृति अर्थात् संज्वलनक्रोधमे संक्रमण करता है । ( क्योकि पुरुपवेदके द्रव्यका संक्रमण अन्यत्र हो ही नहीं सकता है । ) प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदी जीवके संक्रमण किया जानेवाला प्रदेशा बहुत है और तदनन्तरकालमें विशेष हीन है । यह क्रम एक समयप्रबद्धका ही है | ( क्योकि नाना समयप्रबद्धकी विवक्षामे वृद्धि हानिके योगसे चतुर्विध वृद्धि और चतुर्विध हानिरूप भी क्रम देखा जाता है | ) ॥१९५-२००॥ चूर्णिसू०--प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदीके चारो संज्वलन कपायोका - स्थितिबन्ध ८८ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ • कसाय पाहुड सुप्त [ १४ चारित्रमोह-उपशमनाधिकार णाणि । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २०२. पढमसमयअवेदो तिविहं कोहमुवसामेह । २०३ सा चेत्र पोराणिया पढमहिदी हवदि । २०४. द्विदिबंधे पुणे पुण्णे संजलणाणं ठिदिबंधो विसेसहीणो । २०५. सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखज्जगुणहीणो । २०६. एदेण कमेण जाधे आवलि-पडिआवलियाओ सेमाओ कोहसंजणस्स ताथे विदियट्ठिदीदो पढमट्टिदीदो आगाल-पडिआगालो वांच्छिण्णो । २०७. पडिआवलियादो चेत्र उदीरणा कोहसंजलणस्स । २०८. पडिआचलियाए एक्कम्हि समए सेसे कोहसं जलणस्स जहणिया ठिदि - उदीरणा । २०९. चदुण्हं संजलगाणं ठिदिबंधो चत्तारि मामा । २१०. सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्नाणि वस्ससहस्सा णि । २११. पडिआवलिया उदयावलियं पविसमाणा पविट्ठा' । २१२. ता चैत्र कोहसं जलणे दो आवलियबंधे दुसमपूणे मोत्तूण सेसा तिविहकोधपदेसा उवसामिजमाणा उवसंता । २१३. कोहसंजलणे दुविहो कोहा ताव सछुहदि जात्र कोहसंजलणस्स अन्तर्मुहूर्त क्रम बत्तीस वर्ष है। शेप कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है । प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदी जीव प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप तीन प्रकार क्रोधको उपशमाता है, अर्थात् यहॉपर तीनो क्रोधोंका उपशमन प्रारंभ करता है । वही पुरानी प्रथमस्थिति होती हैं, अर्थात् अन्तर प्रारम्भ करते हुए जो पहले क्रोधसंज्वलनकी प्रथमस्थिति थी, वही यहाँ पर अवस्थित रहती है, कोई अपूर्व स्थिति यहाॅ की जाती है । प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर संज्वलन - चतुष्कका अन्य स्थितिबन्ध विशेष हीन होता है और शेप कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणित हीन होता है । इस क्रमसे जब संज्वलनक्रोधकी आवली और प्रत्यावली ही शेष रहती है, तव द्वितीयस्थिति और प्रथमस्थितिसे आगाल - प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं । उस समय प्रत्यावलीसे अर्थात् उदयावली से बाहिरी दूसरी आवलीसे ही संज्वलनक्रोधकी उदीरणा होती है । प्रत्यावली में एक समय शेष रहने पर संज्वलनक्रोधकी जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है। इस समय चारो संज्वलनकपायोका स्थितिबन्ध चार मास है । तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है । इस समय प्रत्यावली उदयावली मे प्रवेश करती हुई प्रविष्ट हो चुकी । अर्थात् क्रोधसंज्वलनकी प्रथमस्थिति उदयावलीमात्र अवशिष्ट रह जाती है । इसे ही उच्छिष्टावली कहते हैं । उसी समय ही दो समय कम दो आवलीमात्र संज्वलनक्रोध के समयप्रबद्धों को छोड़कर प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा उपशान्त किये जानेवाले तीन प्रकारके क्रोध-प्रदेशाम प्रशस्तोपशामनासे उपशान्त होते हैं । संज्वलनक्रोध में प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणरूप दो प्रकारके क्रोधको तब तक संक्रमण करता है, जब तक कि संज्वलनको प्रथमस्थितिमे तीन आवलिया अवशिष्ट रहती हैं । एक समय कम तीन 1 १ णवार पडिआवलियाए उदयावलिय पविडाए आवलियमेत्ती च कोहस जलणस्स पढमट्ठिदी परिसिट्ठा 1 एसा च उच्छिट्ठावलिया णाम । जयध० Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३) चारित्रमोह-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण परमद्विदीए तिणि आवलियाओ सेसाओ त्ति । २१४ तिसु आवलियासु समयूणासु सेसासु तत्तो पाए दुविहो कोहो कोहसंजलणे* ण संछुभदि ।। २१५ जाधे कोहसंजलणस्स परमहिदीए समयूणावलिया सेसा, ताधे चेव कोहसंजलणस्स बंधोदया वोच्छिण्णा । २१६. माणसंजलणस्स पढमसमयवेदगो पहमद्विदिकारओ च । २१७. पहमट्ठिदि करेमाणो उदये पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असं खेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए जाव पडमद्विदिचरिमसमओ त्ति । २१८ विदियद्विदीए जा आदिद्विदी तिस्से असंखेज्जगुणहीणं तदो विसेसहीणं चेव । २१९. जाधे कोधस्स बंधोदया वोच्छिण्णा ताधे पाये माणस्स तिधिहस्स उवसामगो । २२०. ताधे संजलणाणं द्विदिवंधो चत्तारि मासा अंतीमुहुत्तेण ऊणया । सेसाणं कम्माणं हिदिवंधो संखेज्जाणि वस्स सहस्साणि । २२१. माणसंजलणस्स पढमट्टि दीए तिसु आवलियासु समयूणासु सेसासु दुविहो माणो माणसंजलणे ण संछुभदि । २२२. पडिआवलियाए सेसाए आगालआवलियोंके शेष रहने पर उस स्थल पर दो प्रकारके क्रोधको संज्वलनक्रोधमे संक्रान्त नहीं करता है । ( किन्तु संचलनमानमे संक्रान्त करता है।) ॥२००-२१४॥ चूर्णिसू०-जिस समय संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमे केवल एक समय कम आवलीकाल शेष रहता है, उस समय संज्वलनक्रोधका बन्ध और उदय व्युच्छिन्न हो जाता है। उसी समय वह संज्वलनमानका प्रथम समयवेदक और प्रथमस्थितिका कारक भी होता है। प्रथमस्थितिको करता हुआ वह उदयमें अल्प प्रदेशाग्रको देता है और तदनन्तर कालमै असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा प्रथमस्थितिके अन्तिम समय तक देता चला जाता है । द्वितीयस्थितिकी जो आदि स्थिति है उसमें असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्रको देता है । तदनन्तर विशेष हीन प्रदेशाग्र को देता है । ( यह क्रम चरम स्थितिमें अतिस्थापनावली कालके अवशिष्ट रहने तक जारी रहता है । ) जिस स्थलपर संज्वलनक्रोधके बन्ध और उदय व्युच्छिन्न होते हैं, उस स्थलपर ही वह तीनो प्रकारके मानका उपशामक होता है, अर्थात् उनका उपशमन प्रारम्भ करता है। उस समय चारो सज्वलनोका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्त कम चार मास है। शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण है ॥२१५-२२०॥ चूर्णिसू०-संज्वलनमानकी प्रथमस्थितिमे एक समय कम तीन आवलियोंके शेष रहनेपर दो प्रकारके मानको संज्वलनमानमें संक्रान्त नहीं करता है । ( किन्तु संज्वलनमायाकषायमे संक्रान्त करता है । यहॉपर भी प्रत्यावलीके शेष रह जानेपर आगाल और प्रत्यागाल ताम्रपत्रगली प्रतिमे 'दुबिहो कोहो काहसजलणे' के स्थ नपर 'दुविह कोह (हो) संजलणे' ऐसा पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १.५३) ॐ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'माणसंजलणे के स्थानपर केवल 'सजलणे' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ०१८५४) Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० कसाय पाटुड सुत्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार पडिआगालो वोच्छिण्णो । २२३. पडिआवलियाए एक्कम्हि समए सेसे माणसंजलणस्स दो आवलियसमयणबंधे मोत्तण सेसं तिविहस्स माणस्स पदेससंतकम्मं चरिमसमय. उवसंतं । २२४. ताधे माण-माया-लोभसंजलणाणं दुमासहिदिगो बंधो । २२५. सेसाणं कम्माणं डिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २२६. तदो से काले मायासंजलणयोकडियूण मायासंजलणस्स पढमहिदि करेदि । २२७. ताधे पाए तिविहाए मायाए उवसामगो। २२८. माया-लोभसंजलणाणं द्विदिवंधो दो मासा अंतोमुहुत्तेण ऊणया । २२९. सेसाणं कम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २३०. सेसाणं कम्माणं द्विदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागो । २३१. जं तं माणसंतकम्ममुदयावलियाए समय॒णाए तं मायाए त्थिबुक्कसंकमेण उदए विपचिहिदि । २३२. जे माणसंजलणस्स दोहमावलियाणं दुसमयूणाणं समयपवद्धा अणुवसंता ते गुणसेडीए उवसामिज्जमाणा दोहिं आवलियाहिं दुसमयूणाहिं उवसामिजिहिंति । व्युच्छिन्न हो जाते हैं । प्रत्यावलीमें एक समय शेष रहनेपर संज्वलनमानके एक समय कम दो आवलीप्रमाण समयप्रबद्धोको छोड़कर शेष तीन प्रकारके मानका प्रदेशसत्त्व अन्तिम समयमें उपशान्त हो जाता है। अर्थात् इस स्थलपर तीनो प्रकारके मानका स्थितिसत्त्व, अनुभागसन्नव और प्रदेशसत्त्व संज्वलनमानके नवकवद्ध उच्छिष्ठावलीको छोड़कर सर्वोपशमनाके द्वारा उपशमको प्राप्त हो जाता है। उस समय संज्वलनमान, माया और लोभकपायका स्थितिवन्ध दो मास है और शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है ॥२२१-२२५॥ चूर्णिस०-इसके एक समय पश्चात् संज्वलनमायाका अपकर्षण कर संज्वलनमायाकी प्रथमस्थितिको करता है, अर्थात् मायाकपायका वेदक हो जाता है। इस स्थल पर वह तीन प्रकारकी मायाका उपशामक होता है, अर्थात् मायाका उपशमन प्रारम्भ करता है। उस समय संज्वलनमाया और संज्वलनलोभका स्थितिवन्ध एक अन्तर्मुहूर्तसे कम दो मास है। शेप कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्प है। इसी समय शेष कर्मोंका स्थितिकांडक पल्योपमका संख्यातवॉ भाग है। चरमसमयवर्ती मानवेदकके द्वारा जो मानकषायका स्थितिसत्त्व एक समय कम उद्यावलीप्रमाण अवशिष्ट रहा था, वह स्तिबुकसंक्रमणके द्वारा मायाकषायके उदयमें विपार्कको प्राप्त होगा ॥२२६-२३१॥ - विशेषार्थ-विवक्षित प्रकृतिका उदयस्वरूपसे समान स्थितिवाली अन्य प्रकृति में जो संक्रमण होता है, उसे स्तिबुकसंक्रमण कहते हैं। __ चूर्णिसू०-संज्वलनमानके जो दो समय कम दो दो आवलीप्रमाण समयप्रवद्ध अनुपशान्त हैं, वे गुणश्रेणीके द्वारा उपशमको प्राप्त होते हुए दो समय कम दो आवलीप्रमाणकालसे उपशमको प्राप्त हो जावेंगे। जो कर्म-प्रदेशाग्र संज्वलन मायाकषायमें संक्रमण '१ को स्थिवुक्कसकमो णाम ? उदयसरूवेण समट्टिदीए जो संकमो सो त्थिवुक्कसकमो त्ति भण्णदे । - जयघ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गा० १२३ ] चारित्रमोह-उपशामक-विशेषक्रिया निरूपण ७०१ २३३. जं पदेसग्गं मायाए संकमदि तं विसेसहीणाए सेडीए संकमदि । २३४. एसा परूवणा मायाए पढमसमग-उवसामगस्स । २३५. एत्तो डिदिखंडयसहस्साणि बहूणि गदाणि । तदो मायाए पढमहिदीए तिसु आवलियासु समयूणासु सेसासु दुविहा माया मायासंजलणे ण संछुहदि, लोहसंजलणे च संछुहदि । २३६. पडिआवलियाए सेसाए आगाल-पडिआगालो वोच्छिण्णो । २३७. समयाहियाए आवलियाए सेसाए मायाए चरिमसमय-उवसामगो मोत्तण दो आवलियबंधे समयूणे । २३८. ताधे माया-लोभसंजलणाणं हि दिबंधो मासो। २३९. सेसाण कल्माणं हिदिवंधो संखेज्जाणि वस्साणि । २४०. तदो से काले मायासंजलणस्स बंधोदया वोच्छिण्णा । २४१. मायासंजलणस्स पढमहिदीए समयूणा आवलिया सेसा त्थिवुकसंकमेण लोभे विपच्चिहिदि । . २४२. ताधे चेव लोभसंजलणमोकड्डियूण लोभस्स पहमढिदि करेदि । २४३. एत्तो पाए जा लोभवेदगद्धा होदि, तिस्से लोभवेदगद्धाए वे-त्तिभागा एत्तियमेत्ती लोभस्स पडमहिदी कदा । २४४. ताधे लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो मासो अंतोमुहुत्तेण ऊणो । २४५ सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखज्जाणि वस्साणि २४६. तदो संखेज्जेहि करता है, वह विशेष हीन श्रेणीके द्वारा संक्रमण करता है । यह प्ररूपणा मायाकपायके प्रथमसमयवर्ती उपशामककी है। इसके पश्चात् अनेक सहस्र स्थितिकांडक व्यतीत होते हैं। तब मायासंज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समय कम तीन आवलियोके शेष रह जानेपर दो प्रकारकी मायाको संज्वलनमायामे संक्रान्त नहीं करता है, किन्तु संज्वलनलोभमें संक्रान्त करता है। यहाँ पर भी प्रत्यावलीके शेष रह जानेपर आगाल और प्रत्यागाल 'व्युच्छिन्न हो जाते हैं ॥२३२-२३६॥ - चूर्णिसू०-एक समय अधिक आंवलीके शेष रहनेपर, एक समय कम दो आवलीप्रमाण नवकबद्ध समयप्रबद्धोको छोड़कर शेप तीनो प्रकारकी मायाका चरमसमयवर्ती उपशामक होता है। उस समय संज्वलनमाया और लोभका स्थितिबन्ध एक मास है। शेष कोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्ष है। तदनन्तर समयमे संज्वलनमायाके बन्ध और उदय व्युच्छिन्न हो जाते है । संज्वलनमायाकी प्रथमस्थितिमे जो एक समय कम एक आवली शेष रही है, वह स्तिबुकसंक्रमणके द्वारा संज्वलनलोभमें विपाकको प्राप्त होगी ॥२३७-२४१॥ चूर्णिमु०-उसी समय संज्वलनलोभका अपकर्षण कर लोभकी प्रथम स्थितिको करता है, अर्थात् उसका वेदन करता है। इस स्थलपर जो लोभका वेदककाल है, उस लोभवेदक-कालके दो त्रिभाग ( 3 ) प्रमाण लोभकी प्रथमस्थिति की जाती है। अर्थात् लोभकी प्रथमस्थितिका प्रमाण लोभवेदककालके दो-बटे तीन भाग है। उस समय संज्वलनलोभका स्थितिवन्ध एक अन्तर्मुहूर्त कम एक मास है। शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात वर्ष है। तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिवन्धोके बीतनेपर उस लोभकी प्रथमस्थितिका अर्ध भाग Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ कसाव पाहुड सुत [ १४ चारित्र मोह-उपशामनाधिकार द्विदिवंघ सहस्सेहिं गदेहि तिस्से लोभस्स परमट्टिदीए अद्ध गदं । २४७. तदो अद्धस्स चरिमसमए लोहसंजलणस्स द्विदिबंधो दिवसपृधत्तं । २४८. सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो वस्ससहस्त्रपुधत्तं । २४९. ताथे पुण फद्दयगढ़ संतकम्मं । २५०. से काले विदिय-विभागस्स पढमसमए लोभसंजलणाणुभागसंतकम्मस्स जं जहण्णफद्दयं तस्स हेइदो अणुभागकिट्टीओ करेदि । २५१. तासिं पमाणमेवफ दयवग्गणाणमणंतभागो । २५२. पडमसमए बहुआओ किडीओ कदाओ से काले अपुन्याओ असंखेज्नगुणहोणाओ । एवं जाव विदियस्स विभागस्त चरिमसमओ चि असंखेज्जगुणहीणाओं । २५३. जं पदेसग्गं परमसमए किट्टीओ करेंतेण किट्टीसु णिक्खित्तं तं धांव से काले असंखेज्जगुणं । एवं जाब चरिमसमया त्ति असं सेजगुणं । २५४. पढमसमए जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं, विदियाए पदेसग्गं विसेसहीणं । एवं जाव चरिमाए किट्टीए पदेसग्गं तं विसेसहीणं । २५५ विदियसमए जहणियाए किट्टीए पढेसग्गमसखे जगुणं, विदियाए विसेसहीणं । एवं जाव अंधुक्कस्सियाए विसंस व्यतीत हो जाना है । उस अर्ध भागके अन्तिम समय में संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्व होता । तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध सहस्र वर्षथक्त्व होता है । उस समय अनुभागसम्बन्धी सत्त्व स्पर्धकगत है । इससे आगे कृष्टिगत सत्त्व होता है ।। २४२-१४९ ॥ चूर्णिम्०- (० - तदनन्तर कालसे द्वितीय त्रिभागके प्रथम समय में संज्वलनलोभके अनुभागसत्त्वका जो जवन्य स्पर्धक है, उसके नीचे अनन्तगुणहानिरूपसे अपवर्तित कर अनुभागसम्बन्धी सूक्ष्म कृष्टियोको करता है । ( क्योकि उपशमश्रेणीमे वादरकृष्टियाँ नहीं होती हैं । ) उन अनुभागकृष्टियोका प्रमाण एक स्पर्धककी वर्गणाओंका अनन्तवा भाग है । प्रथम समयमे बहुत अनुभागकृटियों की जाती हैं । दूसरे समय में होनेवाली अपूर्व कृष्टियॉ असंख्यातगुणित हीन हैं । इस प्रकार द्वितीय त्रिभागके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणी हीन होती जाती हैं । कृष्टियोको करते हुए प्रथम समय में जिस प्रदेशाग्रको कृष्टियों में निक्षिप्त करता है, वह सबसे कम है। इसके अनन्तरकालमें असंख्यातगुणित प्रदेशाय निक्षिप्त करता है । इस प्रकार से अन्तिम समय तक असंख्यातगुणित प्रदेशाको निक्षिप्त करता जाता है । प्रथम समयमें जघन्य कृष्टिमे बहुत प्रदेशायको देता है, उससे ऊपरकी द्वितीय कृष्टिमे विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है, इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है । द्वितीय समय में जघन्य कृष्टिमे प्रदेशाम ( प्रथम समय में की गई प्रथम कृष्टिके प्रदेशाय से ) असंख्यातगुणित देता है, द्वितीय कृष्टिमे विशेष हीन देता है । इस प्रकार द्वितीय समय सम्बन्धी समस् कृष्टियोमें ओघ - उत्कृष्ट वर्गणा तक विशेष हीन देता है । [ तदनन्तर जघन्य स्पर्धककी आदि * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'अभवसिद्धिएर्हितो अनंतगुणं सिद्धाणंतभागवग्गणाहि पगं फडुयं होदि' इतना टीकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । ( देखो पृ० १८५९ ) Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०३ गा० १२३ ] चारित्रमोह-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण हीणं । [ २५६. तदो जहण्णफयादिवग्गणाए अणंतगणहीणं, तत्तो विसेसहीणं । ] २५७. जहा विदियसमए तहा सेसेसु समए सु । २५८ तिव्य मंददाए जहणिया किट्टी थोवा । विदियकिट्टी अणंतगणा । तदिया किट्टी अणंतगुणा । एवमणंतगुणाए सेडीए गच्छदि जाव चरिमकिट्टि ति । २५९. एमो विदिय-तिभागो किट्टीकरणद्धा णाम । २६०. किट्टीकरणद्धासंखेज्जेसु भागेसु गदेसु लोभसंजलणस्स अंतोमुहुत्तहिदिगो बंधो । २६१. तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधा दिवसपुधत्तं । २६२. जाव किट्टीकरणद्धाए दुचरिमो ठिदिबंधो ताधे णामागोद-वेदणीयाणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ठिदिबंधो । २६३. किट्टीकरणद्धाए चरियो ठिदिबंधो लोहसंजलणस्स अंतोमुहुत्तिओ । २६४. णाणावरण-दंसणावरण-अंतरायाणमहोरत्तस्संतो । २६५. णामा-गोद-वेदणीयाणं वेण्हं वस्साणमंतो । २६६. तिस्से किट्टीकरणद्धाएं तिसु आवलियासु समयूणासु सेसासु दुविहो लोहो लोहसंजलणे ण संकामिजदि, सत्थागो चेव उवसामिज्जदि । २६७ किट्टीकरणद्धाए आवलिय-पडिआवलियाए सेसाए आगाल-पडिआगालो वोच्छिण्णो । २६८. पडि आवलियाए एक्कम्हि समए ऐसे लोहसंजलणस्स जहण्णिया द्विदि-उदीरणा । २६९. ताधे चेव जाओ दो आवलियाओ समयूणाओ एत्तियवर्गणामें अनन्तगुणित हीन देता है, तत्पश्चात् विशेष हीन देता है । ] जैसा क्रम द्वितीय समयमें है, वैसा ही क्रम शेप समयोमें भी जानना चाहिए ॥२५०-२५७॥ चूर्णिमू०-अब कृष्टियोकी तीव्रता-मन्दतासम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैं-जघन्य कृष्टि स्तोक है। द्वितीय कृष्टि अनन्तगुणी है। तृतीय कृष्टि अनन्तगुणी है। इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक अनन्तगुणित श्रेणीका यह क्रम चला जाता है । इस, द्वितीय विभागका नाम कृष्टिकरणकाल है। कृष्टिकरणकालके संख्यात भागोके बीत जानेपर संज्वलनलोभका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण होता है। तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्वप्रमाण होता है । कृष्टिकरणकालके द्विचरम स्थितिवन्ध तक नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष होता है। कृष्टिकरणकालके अन्तिम समयमे संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिबन्ध कुछ कम अहो-रात्रप्रमाण होता है। नाम, गोत्र और वेदनीयका स्थितिबन्ध कुछ कम दो वर्प-प्रमाण होता है। उस कृष्टिकरणके कालम एक समय कम तीन आवलियोंके शेष रहने पर दोनो मध्यम लोभ, संज्वलनलोभमे संक्रमण नही करते हैं, किन्तु स्वस्थानमें ही उपशमको प्राप्त होगे ॥२५८-२६६॥ चूर्णिसू०-कृष्टिकरणकालमे आवली और प्रत्यावलीके शेष रहने पर आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है । प्रत्यावलीमें एक समय शेष रहने पर संज्वलनलोभकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। उसी समयमे जो एक समय कम दो आवलियाँ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ कसाय पाहुड सुत [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार मेत्ता लोहसंजणस्स समयपवद्धा अणुवसंता किट्टीओ सव्वाओं चेव अणुवसंताओ । तन्वदिरित्तं लोहसंजलणस्स पदेसग्गं उवसंतं दुविहो लोहो सन्चो चैत्र उचसंतो वक्रबंधुच्छिडाबलियवज्जं २७० एसो चेव चरिमसमयवादरसां पराइयो । २७१. से काले समयमांपराइयो जादो । २७२. तेण पढमसमय'सुमसां पराइएण अण्णा पठमट्टिदी कढ़ा । २७३. जा पढमसमयलोभवेदास्स पढमट्ठिदी तिस्से पर दिए इमा सुमसां पराइयस्स पढमट्टिदी दुभागो श्रोतॄणओ || २७४. पढमसमय सुमसां पराइयो किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेद्यदि । २७५ जाओ अपनमअचरिमेसु समएतु अपुन्नाओ किडीओ बहाओ ताओ सव्वाओ पढमसमए उदिण्णाओं । २७६. जाओ परमसमए कदाओ किट्टीओ तासिमग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं मोत्तृण । २७७. जाओ चरिमसमए कदाओ किड्डीओ तासि च जण किट्टीप्पहूडि असंखेज्जदिभागं मोत्तूण सेसाओ सव्वाओं किड्डीओ उदिष्णाओ । २७८. ताधे चेत्र सच्चामु किड्डी पदेसग्गमुवसामेदि गुणसेटीए । हैं, एतावन्मात्र संज्वलनलोभ के समयबद्ध अनुपशान्त रहते हैं और कृष्टियाँ सर्वही अनुपशान्त रहती हैं । इनके अतिरिक्त नवकबद्ध और उच्छिष्टावलीको छोड़कर संज्वलन - लोका सर्व प्रदेश उपशान्त हो जाता है । प्रत्याख्यानावरणीय और अप्रत्याख्यानावरणीय दोनों प्रकारका सर्व लोभ उपशान्त हो जाता है । यह ही अन्तिमसमयवर्ती वादर साम्परायिक संयत है || २६७-२७०॥ चूर्णिसू० - इसके पश्चात् अनन्तर समय में वह प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संयत हो जाता है । उस प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत के द्वारा अन्य प्रथमस्थिति की जाती है । प्रथमसमयवर्ती लोभवेदकके जो समस्त लोभ वेदककालके दो त्रिभागसे कुछ अधिक प्रमाणवाली प्रथमस्थिति थी, उस प्रथमस्थितिके कुछ कम दो भाग प्रमाण यह प्रथम स्थिति सूक्ष्मसाम्परायिककी होती है । प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संयत कृष्टियोके असंख्यात बहु भागोका वेदन करता है । अप्रथम अचरिम समयोमै अर्थात् प्रथम और अन्तिम समयको छोड़कर शेष समयोंमें जो अपूर्व कृष्टियों की हैं, वे सब प्रथम समयमे उदीर्ण हो जाती है । जो कृष्टियाँ प्रथम समयमे की गई है उनके अनायसे अर्थात् ऊपरसे असंख्यातवे भाग को छोड़कर और जो कृष्टियाँ अन्तिम समयमे की गई हैं, उनके जघन्य कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष सब कृष्टियाँ उदीर्ण हो जाती हैं । उसी समयमें असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा सर्व कृष्टियोमे स्थित प्रदेशाको उपशान्त करता है । २७१-२७८ ॥ ताम्रपत्रवाली प्रतिमे किडीओ सव्चाओ' से लेकर आगेके समस्त तूत्राशको टीकामे सम्मिलित कर दिया गया है । ( देखो पृ० १८६४ ) + ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'थोवूणओ' पदसे आगे 'कोहोद एणुवट्टिदस्स पढस समय लोभवेद्गस्स वादरसांपराइयस्स' इतने टीकांशको भी सूत्रमे सम्मिलित कर दिया गया है । ( देखो पृ० १८६५ ) Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ । चारित्रमोह- उपशामक विशेष क्रिया निरूपण २७९. जे दो आवलियबंधा दुसमणा ते वि उवसामेदि । २८० . जा उदयावलिया छंडिदा सा थिबुकसंक्रमेण किट्टी विपच्चिहिदि । २८१ विदियसमए उदिणणं किट्टीणमग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं मुंचदि दो अपुव्यमसंखेज्जदि - पडिभागमाफुंददि' | एवं जाब चरिमसमय सुहुमसां पराइयो त्ति । २८२. चरिमसमयसुहुमसां पराइयस्स णाणावरण - दंसणावरण-अंतराइयाणमंतो मुहुत्तिओ ट्ठदिबंधो । २८३. णामागोदाणं द्विदिबंधो सोलस मुहुत्ता । २८४. वेदणीयस्स विदिबंधो चडवीस मुहुत्ता | २८५. से काले सव्वं मोहणीयमुवसंतं । ७०५ २८६. तदो पाए तो मुहुतमुवसंत कसायवीदरागो । २८७, सव्विस्से उवसंतद्धाए अवट्ठिदपरिणामो । २८८. गुणसेढिणिक्खेवो उवसंतद्धार संखेज्जदिभागो । २८९. सव्विस्से उवसंतद्धा गुणसेढिणिक्खेवेण वि पदेसग्गेण वि अवट्टिदा । २९०. परमे गुणसेडिसीस उणे उक्कस्सओ पदेसुदओ । २९१. केवलणाणावरण- केवलदंसणावर चूर्णिम् ० - असंख्यातगुणित श्रेणीमे जो दो समय कम दो आवलीप्रमाण समय प्रबद्ध थे, उन्हे भी उपशान्त करता है । जो स्पर्धकगत उच्छिष्टावली वादरसाम्परायिकके द्वारा पहले छोड़ दी गई थी, वह अब कृष्टिरूपसे परिणमित होकर स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा कृष्टियोमे विपाकको प्राप्त होगी । द्वितीय समयमे, वह प्रथम समयमे उदीर्ण कृष्टियोंके अग्राग्रसे, अर्थात् सर्वोपरि कृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भाग को छोड़ता है, अर्थात् उतनी कृष्टियाँ उदयको प्राप्त नहीं होती है, किन्तु अधस्तन बहुभागप्रमाण कृष्टियोका वेदन करता है । तथा अधस्तनवर्ती और प्रथम समयमे उदयको नही प्राप्त हुई कृष्टियोके असंख्यातवें प्रतिभागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोका सम्यक् प्रकारसे स्पर्श या वेदन करता है, अर्थात् उतनी कृष्टियाँ उदयको प्राप्त होती हैं । इस प्रकारसे यह क्रम चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संयत होनेतक जारी रहता है । चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र है । नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सोलह मुहूर्त है | वेदनीयका स्थितिबन्ध चौवीस मुहूर्त है । इसके एक समय पश्चात् सम्पूर्ण मोहनीय कर्म उपशान्त हो जाता है ।। २७९-२८५ ॥ चूर्णिसू० [० - उस समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक वह उपशान्तकपायवीतराग रहता है । तब समस्त उपशान्तकालमें अर्थात् ग्यारहवे गुणस्थानमे अवस्थित परिणाम होता है । उस समय ज्ञानावरणादि कर्मोंका गुणश्रेणीरूप निक्षेप उपशान्तकालके संख्यातवे भागप्रमित आयामवाला है । सम्पूर्ण उपशान्तकालमे किये जानेवाले गुणश्रेणीनिक्षेपरूप आयामसे और अपकर्षण किये जानेवाले प्रदेशाय से भी वह अवस्थित रहता है । प्रथम गुणश्रेणीशीपक के उदय होनेपर उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । सर्व उपशान्तकालमे केवलज्ञानावरण और केवल - १ आफुददि आस्पृशति वेदयत्यवष्टभ्य गृह्णातीत्यथः । जयध० ८९ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ कसाय पाहुद्ध सुत्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार णीयाणमणुभागुदएण सन्च-उपसंतद्धाए अवढिदवेदगो । २९२. णिहा-पयलाणं पि जाव वेदगो, ताव अवविदवेदगो। २९३. अंतराइयस्स अवद्विवेदंगो। २९४. सेसाणं लद्धिकम्मंसाणमणुभागुदयो बड्डी वा हाणी वा अवडाणं वा ।। २९५. णामाणि गोदाणि जाणि परिणामपञ्चयाणि तेसिमपट्टिदवेदगो अणुभादर्शनावरणका अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदक है । निद्रा और प्रचलाका भी जब तक वेदक है, तब तक अवस्थित वेदक ही है । अन्तराय कर्मका अवस्थित वेदक है । शेष लब्धिकमांशोका अर्थात भयोपशमको प्राप्त होनेवाली चार घानावरणीय और तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियोका अनुभागोदय वृद्धिरूप भी है, हानिरूप भी है और अवस्थितस्वरूप भी है ॥२८६-२९४॥ विशेषार्थ-सर्वोपशमनाके द्वारा समस्त कपायोके सम्पूर्ण रूपसे उपशान्त हो जानेपर उपशान्तकपायवीतरागके उपशमकाल पूरा होने तक परिणामोंकी विशुद्धि एक रूपसे अवस्थित रहती है, फिर भी जो यहाँपर जिन लब्धि-कांशोके अनुभागोदयको वृद्धि, हानि या अवस्थित रूप बतलाया, उसका कारण यह है कि मतिनानावरण अदि चार नानावरणीय प्रकृतियाँ और चक्षुदर्शनावरणादि तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियाँ, ये सात क्षायोपगमिक कांश कहलाते हैं, क्योकि ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयोपशमविशेपको लब्धि कहते हैं । उक्त सात प्रकृतियोका ही क्षयोपशम होता है, शेपका नहीं, क्योंकि केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के सर्वघाती होनेसे उनका क्षयोपशम नहीं, किन्तु क्षय ही होता है। उक्त सात लब्धि-कर्मों से एक अवधिज्ञानावरणीय कर्मको दृष्टान्तरूपसे लेकर वृद्धि, हानि और एक रूप अवस्थानका स्पष्टीकरण करते हैं-उपशान्तकपायवीतरागके यदि अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है, तो उसके अनुभागका अवस्थित उदय होता है, क्योकि वहाँ पर उसकी अनवस्थितताका कोई कारण नहीं पाया जाता है। यदि उपशान्तकपायवीतरागके अवधि. ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम है, तो वहॉपर छह प्रकार की वृद्धिरूप, या हानिरूप या अवस्थितरूप अनुभागका उदय पाया जायगा। इसका कारण यह है कि देशावधि और परमावधि ज्ञानवाले जीवोके अवधिज्ञानावरण कर्मका जो क्षयोपशम होता है, उसके असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं, अतएव वाह्य और अन्तरंग कारणोकी अपेक्षासे उनके परिणाम वृद्धि, हानि या अवस्थितरूप पाये जाते हैं। अर्थात् अवधिज्ञानावरणके सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशमसे परिणत सर्वावधिज्ञानीके अवधिज्ञानावरणका अवस्थित अनुभागोदय पाया जायगा। तथा देशावधि और परमावधि ज्ञानवालोके क्षयोपशमके प्रकर्षाप्रकर्पसे वृद्धि या हानिरूप अनुभागोदय पाया जायगा। जो, बात अवधिज्ञानावरणके विषयमे कही गई है, वही बात शेप लब्धिकर्मों के वृद्धि, हानि या अवस्थित अनुभागोदयके चिपयमे भी आगमाविरोधसे लगा लेना चाहिए ।, . चूर्णिसू०-जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिणाम-प्रत्यय हैं, उनका अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदक है ॥२९५।। Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ गा० १२३] उपशामना-भेद-निरूपण गोदएण । २९६. एवमुवसामगस्स परूवणा विहासा समत्ता । २९७. एत्तो सुत्तविहासा । २९८. तं जहा । २९९.'उवसामणा कदिविधा' त्ति ? उवसामणा दुविहा करणोवसामणा अकरणोवतामणा च । ३००. जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसायणा त्ति वि । ३०१. एसा कम्मपवादे । ३०२. जा सा करणोवसामणा सा दुविहा देसकरणोवसामणा' विशेषार्थ-जो प्रकृतियाँ शुभ-अशुभ परिणामोके द्वारा बन्ध या उदयको प्राप्त होती हैं, उन्हे परिणाम-प्रत्यय कहते हैं । इसीका दूसरा नाम गुण-प्रत्यय भी है। जो कर्मप्रकृतियाँ भवके निमित्तसे उदयमें आती है, उन्हें भव-प्रत्यय कहते हैं । सूत्रमे 'नाम' ऐसा सामान्यपद कहनेपर भी यहाँ उदयमे आनेवाली अर्थात वेदन की जानेवाली प्रकृतियोका ग्रहण करना चाहिए । उपशान्तकषायवीतरागके मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, औदारिकशरीर-आंगोपांग, आदिके तीन संहननोमेसे कोई एक संहनन, रूप, रस, गंध, वर्णमेंसे कोई एक-एक, अगुरुलघु, उपघात परघात, उच्छ्वास, दोनो विहायोगतियोंमेसे कोई एक, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और सुस्वर-दुःस्वर, इन तीन युगलोमेसे एक-एक, आदेय, यशःकीर्ति और निर्माण, इन प्रकृतियोका उदय रहता है । इनमे तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण, गंध, रस, शीत, उष्ण और स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग, आदेय, यश कीर्ति और निर्माण नामकर्म, इतनी प्रकृतियाँ परिणाम-प्रत्यय हैं। सूत्र-पठित 'गोत्र' पदसे यहाँ उच्चगोत्रका ग्रहण करना चाहिए। इन सब परिणाम-प्रत्ययवाली नामकर्म और गोत्रकर्मकी प्रकृतियोका अनुभागोदयकी अपेक्षा उपशान्तकषायवीतराग अवस्थित वेदक होता है । किन्तु जो सातावेदनीय आदि भवप्रत्ययवाली प्रकृतियाँ हैं, उसके अनुभागको यह उपशान्तकषायवीतराग षड्वृद्धि हानिके क्रमसे वेदन करता है, ऐसा अनुक्त अर्थ भी 'परि. णामप्रत्यय' पदसे सूचित किया गया है। चूर्णिसू०-इस प्रकार उपशामककी प्ररूपणा-विभाषा समाप्त हुई ॥२९६॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे गाथा-सूत्रोंकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है 'उपशामना कितने प्रकारकी है' ? उपशामना दो प्रकारकी है-एक करणोपशामना और दूसरी अकरणोपशामना । इनमें जो अकरणोपशामना है, उसके दो नाम हैं-अकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशामना । यह अकरणोपशामना कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्वमे विस्तारसे वर्णन की गई है । जो करणोपशामना है वह भी दो प्रकारकी है-देशकरणोपशामना और १ कम्मपवादो णाम अट्ठमो पुब्बाहियारो, जत्थ सव्वेसि कम्माण मूलुत्तरपयडिभेयभिण्णाण दव्व. खेत्त काल भावे समस्सियूण विवागपरिणामो अविवागपजाओ च बहुवित्थरो अणुवण्णिदो, तत्थ एसा अकरणोवसामणा दट्ठन्वा तत्थेदिस्से पबंवेण परूवणोवलभादो । जयध २ दसणमोहणीये उवसामिदे उदयादिकरणेसु काणि वि करणाणि उवसंताणि, काणि वि करणाणि अणुवसताणि तेणेसा देसकरणोवसामणा त्ति भण्णदे । जयध० mom Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ कसाय पाहुड सुत्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार ति वि सव्वकरणोवसामणा' त्तिवि । ३०३. देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणिदेसकरणोवसामणाति वि अप्पसत्य- उवसामणा त्तिवि । ३०४. एसा कम्मपयडीसु । २०५ जा सा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दवे णामाणि सव्वकरणोत्रसामणा चि विपसत्यकरणोवसामणा विवि । ३०६. एदाए एत्य पयदं । सर्वकरणोपशामना | देशकरणीपशामना के दो नाम है- देशकरगोपशामना और अमणस्तोपशामना । यह देशकरणोपशामना कम्मपयटी (कर्मप्रकृतिप्राभृत) नामक ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन की गई है । जो सर्वकरणोपशामना है, उसके भी दो नाम हैं- सर्वकरणोपशामना और प्रशस्तकरणोपशामना । ग्रहॉपर इस सर्वकरणोपशामनामे ही प्रयोजन है । ( इस प्रकार यह 'उपशामना कितने प्रकार की है। इस प्रथम पदकी विभाषा समाप्त हुई । ) ॥ २९७ - ३०६ ॥ विशेषार्थ - उदय, उदीरणा आदि परिणामोंके चिना कर्मों के उपज्ञान्तरूपसे अवस्थानको उपशामना कहते हैं। उसके करण और अकरणके भेदसे दो भेद हैं । प्रशस्त और अप्रस्त परिणाम द्वारा कर्मप्रदेशका उपशान्तभावमे रहना करणोपशामना है । अथवा करणीकी उपशामनाको करोपशामना कहते हैं । अर्थात निधत्ति, निकाचित आदि आठ करणोका प्रशस्त-उपशामनाके द्वारा उपशान्त करनेको करणोपशामना कहते हैं। इससे भिन्न लक्षण वाली अकरणोपशामना होती है । अर्थात् प्रशस्त अप्रशस्त परिणाम के विना ही अप्राप्तकालवाले कर्म- प्रदेशका रूप परिणामके विना अवस्थित करनेको अकरणोपशामना कहते हैं। इमीका दूसरा नाम अनुदीर्णोपशामना है । इसका स्पष्टीकरण यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका आश्रय लेकर कर्मोंके होनेवाले विपाक-परिणामको उदय कहते हैं । इस प्रकार के उदयसे परिणत कर्मको 'उदीर्ण' कहते हैं । इस उदीर्ण दगासे भिन्न अर्थात् उदयावस्थाको नहीं प्राप्त हुए कर्मको 'अनुदीर्ण' कहते हैं । इस प्रकारके अनुदीर्ण कर्मकी उपशामनाको अनुदीर्णोपशामना कहते हैं । इस अनुदीर्णोपशामनामे करण - परिणामोकी अपेक्षा नहीं होती है, इसलिए इसे अकरणोपशामना भी कहते हैं । इस अकरणोपशामनाका विस्तृत वर्णन कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्वमे किया गया है । करणोपशामनाके भी दो भेद हैं- देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । अप्रशस्तोपशामनादि करणोके द्वारा कर्मप्रदेशोके एक देश उपशान्त करनेको देश करणोपशामना कहते हैं । कुछ आचार्य इसका ऐसा भी अर्थ करते हैं कि दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमित हो जानेपर अप्रशस्तोपशामना, निधत्ति, निकाचित, बन्धन, उत्कर्षण, उदीरणा और उदय ये सात करण उपशान्त हो जाते हैं, तथा अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण I १ सव्वेसि करणाणमुवसामणा सव्वकरणोवसामणा । जयघ ० २ ससारपाओग्ग- अप्पसत्यपरिणामणिव घणत्तादो एसा अप्पसत्थोवसामणा त्ति भण्णदे । जयध० ३ कम्मपयडीओ णाम विदिय पुन्य पचमवत्थुपविद्धो चउत्थो पाहुडसण्णिदो अहियारो अस्थि, तत्येसा देसकरणोवसामणा दट्ठव्वा, सवित्थरमेदिस्से तत्थ पवंघेण परुविदत्तादो । कथमेत्थ एगस्स कम्मपयडिपा हुडस्स 'कम्मपयडीसु'त्ति बहुवयणणिद्देसो त्तिणासकणिज; एक्कस्स वि तस्स दि वेदणादि-भवंतरा हियारभेदावेक्खाए बहुवयणणिद्दे साविरोहादो | जयघ० Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ । उपशम-अनुपशमयोग्य-कर्म-निरूपण ७०९ ३०७, उवसामो कस्स कस्स कम्मस्सेत्ति विहासा । ३०८. तं जहा । ३०९. मोहणीयवज्जाणं कम्माणं णत्थि उवसामो । ३१०. दंसणमोहणीयस्स वि णत्थि उवसामो 1 ३११. अनंताणुबंधीणं पि णत्थि उवसामो । ३१२ बारसकसाय - णवणोकसायवेदणीयाणमुवसामो । ३१३. 'कं कम्मं उवसंत अणुवसंतं च कं कम्मं' त्तिविहासा । ३१४. तं जहा । ३१५. पुरिसवेदेण उवदिस्स पढमं ताव णवुंसयवेदो उवसमेदि । सेसाणि कम्माणि अणुवसंताणि । ३१६. तदो इत्थवेदो उवसमदि । ३१७. तदो सत्त णोकसाए उवये दो करण अनुपशान्त रहते है, इसलिए कुछ करणोके उपशम होनेसे और कुछ करणोके अनुपशम होनेसे इसे देशकरणोपशामना कहते हैं । अथवा इसका ऐसा भी अर्थ किया जाता है कि उपशमश्र ेणीपर चढ़नेवाले जीवके अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय मे अप्रशस्तोपशामना, निधत्ति और निकाचित ये तीन करण अपने-अपने स्वरूपसे विनष्ट हो जाते हैं और अपकर्षण आदि करण होते रहते है, इसलिए इसे देशकरणोपशामना कहते है । अथवा नपुंसकवेद प्रदेशायोका उपशमन करते हुए जब तक उसका सर्वोपशम नहीं हो जाता है, तब तक उसका नाम देशकरणोपशामना है । अथवा वह भी अर्थ किया गया है कि नपुंसकत्रेदके उपशान्त होने और शेष करणोके अनुपशान्त रहनेकी अवस्था - विशेषको देशकरणोपशामना कहते है | किन्तु जयधवलाकारका कहना है कि यहॉपर पूर्वोक्त अर्थ ही प्रधानरूपसे ग्रहण करना चाहिए । सर्व करणो के उपशमनको सर्वकरणोपशामना कहते है । अर्थात् उदीरणा, निधत्ति, निकाचित आदि आठो करणोका अपनी-अपनी क्रियाओको छोड़कर जो प्रशस्तोपशामना के द्वारा सर्वोपशम होता है, उसे सर्वकरणोपशामना कहते हैं । कपायोके उपशमनका प्रकरण होनेसे प्रकृतमें यही सर्वकरणोपशामना विवक्षित है । चूर्णिसू०- - अब 'किस किस कर्मका उपशम होता है' इस पदकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - मोहनीयको छोड़कर शेष सात कर्मों का उपशम नहीं होता है । दर्शनमोहनीयकर्मका भी उपशम नहीं होता है । ( क्योकि, वह उपशमश्र ेणीपर चढ़नेके पूर्व उपशान्त या क्षीण हो चुका है ।) अनन्तानुबन्धी कषायकी चारों प्रकृतियोका भी उपशम नहीं होता है । ( क्योंकि, उपशमश्रेणीपर चढ़ने से पहले ही उनका विसंयोजन किया जा चुका है । ) किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कपाय और हास्यादि नव नोकषाय वेदनीय, इन इक्कीस प्रकृतियोका उपशम होता है । ( क्योकि, चारित्रमोहोपशमनाधिकारमे इन्हीं के उपशमसे प्रयोजन है ।) ॥३०७ - ३१२॥ चूर्णि सू०. ० - अब 'कौन कर्म उपशान्त होता है और कौन कर्म अनुपशान्त रहता है, प्रथम गाथाके इस उत्तरार्धकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - पुरुषवेदके उदय के साथ उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके सबसे पहले नपुंसकवेद उपशमको प्राप्त होता है । * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अणुवसंताणि' के स्थानपर 'अणुवसमाणि' पाठ है । (देखो पृ० १८७६) Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० कसाय पाड सुत्त [ १४ चारित्रमोह - उपशामनाधिकार सामेदि । ३१८. तदो तिविदो कोहो उवसपदि । ३१९ तदो तिविहो माणो उवसपदि । ३२०. तढ़ी तिविहा माया उवसमदि । ३२१. तदो तिविहो लोहो उवसमदि किट्टीवज्जो । ३२२. किड्डीसु लोभसंजलणमुवसमदि । ३२३. तदा सव्वं मोहणीयमुवसंतं भवदि । ३२४. कदिभावमाविज्जदि संकमणमुदीरणा च कदिभागोत्ति विद्यासा । ३२५. तं जहा । ३२६. जं कम्पमुवसामिज्जदि तमंतोमुहुत्तेण उवसामिज्जदि । तस् जं पढमसमए उवसामिज्जदि पदेसग्गं तं थोवं । विदियसमए उवसामिज्जदि पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एवं गंतॄण चरिमसमए पदेसग्गस्त असंखेज्जा भागा उवसामिज्जति । ३२७. एवं सव्वकम्माणं । ३२८. द्विदीओ उदद्यावलियं बंधावलियं च मोत्तृण सेसाओ सव्वाओं समये समये उवसामिज्जति । ३२९. अणुभागाणं सव्वाणि फछ्याणि सव्वाओ वग्गणाओ उवसामिज्जति । ३३० ण सयवेदस्स पढपसमय उवसामगस्स जाओ द्विदीओ बज्झति ताओ थोवाओ । ३३१. जाओ संकामिज्जति ताओ असंखेज्जगुणाओ । ३३२. जाओ उस समय होप कर्म अनुपशान्त रहते हैं । नपुंसकवेदके उपशमके पश्चात् स्त्रीवेद उपशमको प्राप्त होता है | स्त्रीवेदके उपशमके पश्चात् सात नोकपाय उपशमको प्राप्त होते हैं । सात नोकपायोके उपशमके पश्चात् तीन प्रकारका क्रोध उपशमको प्राप्त होता है । तत्पश्चात् तीन प्रकारका मान उपशमको प्राप्त होता है । तदनन्तर तीन प्रकारकी माया उपशमको प्राप्त होती है । तदनन्तर कृष्टियोको छोड़कर तीन प्रकारका लोभ उपशमको प्राप्त होता है । पुनः कृष्टियों में प्राप्त संज्वलन लोभ उपामको प्राप्त होता है । तत्पश्चात् सर्व मोहनीय कर्म उपशान्त हो जाता है ।। ३१३-३२३॥ चूर्णिस० - ' चारित्रमोहनीय कर्मका कितना भाग उपशमको प्राप्त करता है, कितना भाग संक्रमण और उदीरणा करता है, इस द्वितीय गाथाकी विभापा की जाती है । वह इस प्रकार है- जो कर्म उपशमको प्राप्त कराया जाता है, वह अन्तर्मुहूर्त के द्वारा उपशान्त किया जाता है । उस कर्मका जो प्रदेशाय प्रथम समय में उपशमको प्राप्त कराया जाता है, वह सबसे कम है । द्वितीय समयमे जो उपशान्त किया जाता है, वह असंख्यातगुणा है । इस क्रमसे जाकर अन्तिम समय में कर्मप्रदेशाके असंख्यात बहुभाग उपशान्त किये जाते हैं । इस प्रकार सर्व कर्मोंका क्रम जानना चाहिए ॥ ३२४-३२७ ॥ 2 चूर्णिस० - उदयावली और बन्धावलीको छोड़कर शेष सर्व स्थितियाँ समय- समय, अर्थात् प्रतिसमय उपशान्त की जाती हैं। अनुभागोके सर्व स्पर्धक और सर्व वर्गणाएँ उपशान्त की जाती हैं । नपुंसकवेदका उपशमन करनेवाले प्रथमसमयवर्ती जीवके जो स्थितियाँ बॅधती हैं वे सबसे कम हैं। जो स्थितियाँ संक्रान्त की जाती हैं वे असंख्यातगुणी * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'तस्स' के स्थानपर 'जस्स' पाठ है। (देखो पृ० १८७७ ) Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] प्रदेशापेक्षया नपुंसकवेदादि-अल्पवहुत्व-निरूपण ७११ उदीरिज्जति ताओ तत्तियाओ चेव । ३३३. उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। ३३४. जट्ठिदि-उदयो उदीरणा संतकम्मं च विसेसाहियाओ। __३३५. अणुभागेण बंधो थोवो । ३३६. उदयो उदीरणा च अणंतरणा । ३३७. संकमो संतकम्मं च अणंतगुणं । ३३८. किट्टीओ वेदेंतस्स बंधो पत्थि । ३३९. उदयो उदीरणा च थोवा । ३४०. संकमो अणंतगुणो । ३४१. संतकस्ममणंतगुणं । ३४२ एत्तो पदेसेण णसयवेदस्स पदेसउदीरणा अणुक्कस्स-अजहण्णा थोवा । ३४३.जहण्णओ उदओ असंखेज्जगुणो । ३४४.उक्कस्सओ उदयो विसेसाहिओ । ३४५. जहण्णओ संकमो असंखेज्जगुणो। ३४६ जहण्णयं उवसामिज्जदि असंखेज्जगुणं । ३४७. जहण्णयं संतकम्ममसंखेज्जगणं । ३४८. उक्कस्सयं संकामिज्जदि असंखेज्जगुणं । ३४९ उक्कस्सगं उवसामिज्जदि असंखेज्जगुणं । ३५०. उक्कस्सयं संतकम्ममसंखेज्जगुणं । ३५१. एदं सव्वं अंतरदुसमयकदे णबुंसयवेदपदेसग्गस्स अप्पाबहुअं। ३५२. इत्थिवेदस्स वि णिरवयवमेदयप्पात्रहुअमणुगंतव्वं । ३५३. अट्ठकसायछण्णोकसायाणमुदयमुदीरणं च मोत्तूण एवं चेव वत्तव्यं । ३५४. पुरिसवेद-चदुसंजलणाणं च जाणिदूण णेदव्वं । ३५५. णवरि बंधपदस्स तत्थ सव्वत्थोवत्तं दहव्वं । हैं । जो स्थितियाँ उदीरणा की जाती हैं, वे उतनी ही हैं। उदीर्ण स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । यत्स्थितिक-उदय, उदीरणा और सत्कर्म विशेष अधिक है ॥३२८-३३४॥ चूर्णिसू०-अनुभागकी अपेक्षा बन्ध सबसे कम है। बन्धसे उदीरणा और उदय अनन्तगुणा है । उदयसे संक्रमण और सत्कर्म अनन्तगुणा है । कृष्टियोंको वेदन करनेवाले जीवके लोभकषायका बन्ध नही होता है । उसके उदय और उदीरणा सबसे कम होती है । इससे संक्रमण अनन्तगुणा होता है । संक्रमणसे सत्कर्म अनन्तगुणा होता है ॥३३५-२४१॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे प्रदेशकी अपेक्षा वर्णन करेंगे-नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्टअजघन्य प्रदेश-उदीरणा सबसे कम होती है। इससे जघन्य उदय असंख्यातगुणित है । इससे उत्कृष्ट उदय विशेष अधिक है। इससे जघन्य संक्रमण असंख्यातगुणित है। इससे उपशान्त किया जानेवाला जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणित है । इससे जघन्य सत्कर्म असंख्यातगुणित है । इससे संक्रान्त किया जानेवाला उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणित है। इससे उत्कृष्ट सत्कर्म असंख्यातगुणित है। यह सब अन्तरकरणके दो समय पश्चात् होनेवाले नपुंसकवेदके प्रदेशागका अल्पबहुत्व कहा ॥३४२-३५१॥ चूर्णिसू०-स्त्रीवेदका भी यही अल्पवहुत्व अविकलरूपसे जानना चाहिए । आठो मध्यम कपाय और हास्यादि छह नो कषायोका अल्पवहुत्व भी उदय और उदीरणाको छोड़फर इसी प्रकारसे कहना चाहिए । पुरुषवेद और चारो संज्वलन-कषायोका अल्पवहुत्व जान फरके लगाना चाहिए । उनके अल्पवहुत्वमे बन्धपद सबसे कम होता है, इतनी विशेषता जानना चाहिए ॥३५२-३५५।। Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ कसाय पाहुड सुत्त [१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार ३५६. 'कं करणं वोच्छिज्जदि अयोच्छिण्णं च होइ कं करणं' त्ति विहासा । ३५७. तं जहा । ३५८. अट्टविहं ताव करणं । जहा-अप्पसत्थउवसामणाकरणं णिधत्तीकरणं णिकाचणाकरणं बंधणकरणं उदीरणाकरणं ओकड्डणाकरणं उक्कड्डणाकरणं संकमणकरणं च । ८ । एवमट्ठविहं करणं *। ३५९. एदेसिं करणाणमणियट्टिपढमसमए सव्वकम्माणं पि अप्पसत्थउवसामणाकरणं विधत्ती करणं णिकाचणाकरणंच वोच्छिण्णाणि । ३६०. सेसाणि ताधे आउगवेदणीयवज्जाणं पंच वि करणाणि अत्थि । ३६१. आउगस्स ओवट्टणाकरणमत्थि, ___ अव क्रमप्राप्त 'केचिरमुवसामिज्जदि' इस तीसरी गाथाकी विभाषा छोड़कर 'कं करणं वोच्छिज्जदि' इस चौथी गाथाकी विभापा करनेके लिए चूर्णिकार प्रतिज्ञा करते हैं । ऐसा करनेका कारण यह है कि चौथी गाथाकी विभाषा कर देनेपर तीसरी गाथाके अर्थका व्याख्यान प्रायः हो ही जाता है। चूर्णिसू०- 'कहॉपर कौन करण व्युच्छिन्न हो जाता है और कहॉपर कौन करण अव्युच्छिन्न रहता है' इस चौथी गाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है-करण आठ प्रकारके हैं-अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तीकरण, निकाचनाकरण, बन्धनकरण, उदीरणाकरण, अपकर्षणाकरण ( अपवर्तनाकरण ), उत्कर्षणाकरण ( उद्वर्तनाकरण ) और संक्रमणकरण (८) । इस प्रकारसे आठ करण होते हैं ॥३५६-३५८॥ विशेषार्थ-इस सूत्र-द्वारा करणके आठ भेद बतलाये गये हैं। कर्मवन्धादिके कारणभूत जीवके शक्ति-विशेषरूप परिणामोको करण कहते है। उनमेसे अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचितकरणका स्वरूप पहले वतला आये है। शेष करणोका स्वरूप इस प्रकार है-मिथ्यात्वादि परिणामोसे पुद्गल द्रव्यको ज्ञानवरणादिरूप परिणमाकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूपसे बाँधनेको बन्धनकरण कहते है । उदयावलीसे बाहिर स्थित कर्मद्रव्यका अपकर्षण करके उदयावलीमे लानेको उदीरणाकरण कहते हैं। कर्मोंकी स्थिति और अनुभागके घटानेको अपकर्पणाकरण और उनके बढ़ानेको उत्कर्षणाकरण कहते है । विवक्षित कर्मके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका अन्य प्रकृतिरूपसे परिणमन करनेको संक्रमणकरण कहते हैं। चूर्णिसू०-इन आठो करणोमेसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे सभी कर्मोंके अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण व्युच्छिन्न हो जाते है । उस समय आयु और वेदनीकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंके अवशिष्ट पॉचो ही करण होते है । आयुकर्मका १ बंधण-सकमणुव्वणा य अववणा उदीरणया । उवसामणा निधत्ती निकाचणा च त्ति करणाइ ॥ २ ॥ कम्मपयडी * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'एवमट्टविहं करणं' इस सूत्राशको टोकामें सम्मिलित कर दिया है । (देखो पृ० १८८४) Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९३ गा० १२३ । चारित्र मोह - उपशामक विशेष क्रिया निरूपण साणि सत्त करणाणि णत्थि । ३६२. वेदणीयस्स बंधणाकरणमोवट्टणाकरणमुच्वट्टणाकरणं संक्रमणाकरणं एदाणि चत्तारि करणाणि अत्थि, सेसाणि चत्तारि करणाणि णत्थि । ३६३. मूलपयडीओ पडुच्च एस कमो ताव जाव चरिमसमयबादरसांपराइयो ति । ३६४. सुहुमसां पराइयस्स मोहणीयस्स दो करणाणि ओवट्टणाकरणमुदीरणा करणं च । सेसाणं कम्माणं ताणि चैव करणाणि । ३६५. उवसंतकसायवीयरायस्स मोहणीयस्स वित्किंचि विकरणं, मोत्तृण दंसणमोहणीयं । दंसणमोहणीयस्स विओवट्टणाकरणं संकमणाकरणं च अत्थि । ३६६. सेसाणं कम्माणं पि ओवट्टणाकरणमुदीरणा च अस्थि । वरि आउग - वेदणीयाणमोवट्टणा चेव । ३६७. कं करणं उवसंत अणुवसंतं च कं करणं त्ति एसा सव्वा विगाहा विहासिदा भवदि । ३६८. केच्चिरमुवसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च केवचिरं त्ति एदम्हि सुत्ते विहासिज्जमाणे एदाणि चेव अट्ठ करणाणि उत्तरपयडीणं पुध पुध विहासियव्वाणि । ३६९. केवचिरमुवसंतं' ति विहासा । ३७० तं जहा । ३७१. उवसंत णिव्वाघाण अंतोमुहुत्तं । 1 केवल उद्वर्तनाकरण (उत्कर्षणाकरण) होता है, शेष सात करण नही होते हैं । वेदनीयकर्मके बन्धनकरण, अपवर्तनाकरण, उद्वर्तनाकरण और संक्रमणकरण, ये चार करग होते है, शेष चाकरण नहीं होते हैं ।। ३५९-३६२॥ चूर्णिसू० - मूल प्रकृतियो की अपेक्षा यह क्रम बादरसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय तक जानना चाहिए । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में मोहनीयकर्मके अपवर्तनाकरण और उदीरणाकरण ये दो ही करण होते है । शेष कर्मोंके वे ही उपर्युक्त करण होते है । उपशान्तकषायवीतरागके मोहनीयकर्मका कोई भी करण नहीं होता है, केवल दर्शनमोहनीयको छोड़कर । क्योकि, उपशान्तकषायवीतरागके दर्शनमोहनीयकर्मके अपवर्तनाकरण और संकमणकरण होते है । उपशान्तकषायके शेष कर्मोंके भी अपवर्तनाकरण और उदीरणाकरण होते हैं । केवल आयु और वेदनीय कर्मका अपवर्तनाकरण ही होता है । इस प्रकार चौथी गाथाके पूर्वार्धकी विभापाके द्वारा ही 'कौन करण कहॉ उपशान्त रहता है और कौन करण कहाँ अनुपशान्त रहता है' इस उत्तरार्ध की भी विभाषा हो जाती है और इस प्रकार यह सर्व गाथा ही विभापित हो जाती है ॥ ३६३-३६७॥ चूर्णिसू० - ' चारित्रमोहकी विवक्षित प्रकृति कितने काल तक उपशान्त रहती है, तथा संक्रमण और उदीरणा कितने कालतक होती है' इस तीसरे गाथासूत्रके (पूर्वार्ध की ) विभाषा करनेपर उत्तर-प्रकृतियोंके ये उपर्युक्त आठो ही करण पृथक्-पृथक् रूपसे व्याख्यान करना चाहिए ॥ ३६८ ॥ 0 चूर्णिस्० - 'अब कौन कर्म कितनी देर तक उपशान्त रहता है' तीसरी गाथाके इस तीसरे चरणकी विभापा की जाती है । वह इस प्रकार है - निर्व्याघात अर्थात् मरण आदि व्याघातसे रहित अवस्थाकी अपेक्षा नपुंसकवेदादि मोहप्रकृतियाँ अन्तर्मुहूर्त तक उपशान्त ९० Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फसाय पाहुड सुत्त [ १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार ३७२ अणुवसंतं च केवचिरंति विहासा । ३७३. तं जहा । ३७४ अप्प - सत्थउवसामणाए अणुवसंताणि कम्पाणि णिव्याघादेण अंतोमुहुत्तं । ७१४ ३७५. एत्तो पडिवमाणगस्स विहासा । ३७६. परूवणा-विहासा ताव, पच्छा सुत्तविहासा' । ३७७. परूवणा - विहासा । ३७८. तं जहा । ३७९. दुविहो परिवादो भवक्खएण च उवसामणक्खणं च । ३८०. भवक्खएण पदिदस्स सव्वाणि करणाणि एगसमएण उग्वादिदाणि । ३८१. पढमसमए चेव जाणि उदीरिज्जति कम्पाणि ताणि उदयावलियं पवेसिदाणि, जाणि ण उदीरिज्जंति ताणि वि ओकड्डियूण आवलियबाहिरे गोबुच्छाए सेडीए णिक्खित्ताणि । रहती हैं । ( किन्तु व्याघातकी अपेक्षा एक समय भी पाया जाता है । ) ॥३६९-३७१॥ चूर्णिसू० - 'अब कौन कर्म कितनी देर तक अनुपशान्त रहता है' तीसरी गाथाके इस चौथे चरण की विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - अप्रशस्तोपशामना के द्वारा निर्व्याघातकी अपेक्षा कर्म अन्तर्मुहूर्त तक अनुपशान्त रहते हैं । ( किन्तु व्याघातकी अपेक्षा एक समय तक ही अनुपशान्त रहते है | ) || ३७२-३७४॥ चूर्णिसू० [0 - अव इससे आगे प्रतिपतमान अर्थात् उपशम श्रेणी से गिरनेवाले जीवकी विभाषा की जाती है । पहले प्ररूपणा - विभाषा करना चाहिए, पीछे सूत्र - विभाषा करना चाहिए ।। ३७५-३७६॥ प्ररूपणा - विभापा, दूसरी सूत्र विशेषार्थ - विभाषा दो प्रकारकी होती है- एक विभाषा । जो सूत्रके पदोका उच्चारण न करके सूत्र - द्वारा सूचित विस्तारसे प्ररूपणा की जाती है, उसे प्ररूपणा - विभापा कहते हैं किये गये समस्त अर्थकी । जो गाथा - सूत्रके अवयव - भूत पदो के अर्थका परामर्श करते हुए सूत्र - स्पर्श किया जाता है, उसे सूत्र- विभापा कहते हैं । चूर्णिसू० - यहाॅ पहले प्ररूपणा - विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - प्रतिपात दो प्रकार से होता है - भवक्षयसे और उपशमनकालके क्षयसे । भवक्षयसे गिरनेवाले जीवके सभी करण एक समय में ही उद्घाटित हो जाते हैं, अर्थात् अपने-अपने स्वरूपसे पुनः प्रवृत्त हो जाते हैं । प्रतिपातके प्रथम समयमे ही जो कर्म उदीरणाको प्राप्त किये जाते है, वे सब उद्यावलीमे प्रवेश कराये जाते हैं । जो कर्म उदीरणाको प्राप्त नही कराये जाते हैं, वे भी अपकर्षण करके उद्यावलीके बाहिर गोपुच्छारूप श्रेणीसे निक्षिप्त किये जाते हैं ॥ ३७७-३८१ ॥ १ विहासा दुविहा होदि परूवणविहासा सुत्तविहासा चेदि । तत्थ परूवणविहासा णाम मुत्तपदाणि अणुच्चारिय सुत्तसूचिदासेसत्थस्स वित्थरपरूवणा । सुत्तविहासा णाम गाहासुत्ताणमवयवत्थपरामरसमुहेण मुत्तफासो | जयध० २ तत्थ भवक्खयणिवघणो णाम उवसग सेढि सिहरमा रूढस्स तत्येव झीणाउअस्स काल काढूण क्साये पडिवादो | जो उण सते वि आउए उवसामगढाखएण कसाएस पडिवदिदो सो उवसामणक्खयणिवघणो णाम । नयध० ३ अप्पप्पणी सरूवेण पुणो वि पयदाणि त्ति भणिदं होइ । जयध० Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ गा० १२३] पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण ३८२. जो उवसामणक्खएण पडिचददि तस्स विहासा । ३८३. केण कारणेण पडिवददि अवहिदपरिणामो संतो। ३८४. सुणु कारणं जधा अद्धाक्खएण सो लोभे पडिवदिदो होइ । ३८५. तं परूवइस्सामो। ३८६. पडमसमयसुहुमसांपराइएण तिविहं लोभमोकड्डियूण संजलणस्स उदयादिगुणसेही कदा । ३८७. जा तस्स किट्टीलोमवेदगद्धा, तदो विसेसुत्तरकालो गुणसेटिणिस्खेवो । ३८८. दुविहस्स लोहस्थ तत्तिओ चेव णिक्खेवो । णवरि उदयावलियाए णत्थि । ३८९. सेसाणमाउगवजाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवो अणियट्टिकरणद्धादो अपुवकरणद्धादो च विसेसाहिओ । सेसे सेसे च णिक्खेवो । ३९०. तिविहस्स लोहस्स तत्तियो चेव णिक्खेवो । ३९१. ताधे चेव तिविहो लोभो एगसपएण पसत्थउवसामणाए अणुवसंतो । ३९२ ताधे तिण्हं घादिकल्माणमंतोमुत्तहिदिगो बंधो। ३९३. णामा-गोदाणं हिदिबंधो बत्तीस मुहुत्ता । ३९४ वेदणीयस्स द्विदिवंधो अडदालीस मुहुत्ता । ३७५. से काले गुणसेढी असंखेज्जगुणहीणा ।३९६.हिदिबंधो सो चेव । ३९७ अणुभागबंधो अप्पसत्थाणमणंतगुणो ।३९८.पसत्थाणं कम्मंसाणमणंतगुणहीणो । चूर्णिसू०-अब जो उपशमनकालके क्षय हो जानेसे गिरता है, उसकी विभाषा की जाती है ।।३८२॥ शंका-उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ जीव तो अवस्थित परिणामवाला होता है, फिर वह किस कारणसे गिरता है ? ॥३८३।।। समाधान-सुनो, उपशान्तकपायवीतरागके गिरनेका कारण उपशमन-कालका क्षय हो जाना है, अतएव वह सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें गिरता है ॥३८४।।। चूर्णिसू०-अब हम उसकी ( विस्तारसे ) प्ररूपणा करते हैं-प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण करके संज्वलनकी उदयादि गुणश्रेणी की गई । जो उसके कृष्टिगत लोभके वेदनका काल है, उससे विशेष अधिक कालवाला गुणश्रेणी निक्षेप है। दो प्रकार अर्थात् प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण लोभका भी उतना ही निक्षेप है। विशेष बात यह है कि उनका निक्षेप उदयावलीके भीतर नहीं, किन्तु बाहिर ही होता है। आयुको छोड़कर शेष कर्मों का गुणश्रेणीनिक्षेप अनिवृत्तिकरणके कालसे और अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक है। शेष-शेपमें निक्षेप है, अर्थात् इससे आगे उदयावलीके वाहिर ज्ञानावरणादि कर्मोंका गलित-शेषायामरूप गुणश्रेणीनिक्षेप प्रवृत्त होता है । तीन प्रकारके लोभका उतना उतना ही निक्षेप है। उसी समयमें ही तीन प्रकारका लोभ एक समयमें प्रशस्तोपशामनाके द्वारा अनुपशान्त हो जाता है । उस समय तीन घातिया कर्मोंका वन्ध अन्तर्मुहूर्त-स्थितिवाला है। नाम और गोत्रकका स्थितिवन्ध बत्तीस मुहूर्त है और वेदनीयका स्थितिबन्ध अड़तालीस मुहूर्त है । तदनन्तर कालमे गुणश्रेणी असंख्यातगुणी हीन होती है । स्थितिबन्ध वही होता है। अनुभागवन्ध अप्रशस्त कर्मोंका अनन्तगुणा और प्रशस्त कर्मोंका अनन्तगुणा हीन होता है। (इस प्रकार यह क्रम सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक प्रतिसमय ले जाना चाहिए । ) ॥३८५-३९८॥ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ कसाय पाहुड सुत्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार ३९९. लोभं वेदयमाणस्स इमाणि आवासयाणि । ४००. तं जहा। ४०१. लोभवेदगद्धाए पढमतिभागो किट्टीणमसंस्खेज्जा भागा उदिण्णा । ४०२. परमसमए उदिण्णाओ सिट्टीओ थोवाओ। ४०३. विदियसमए उदिण्णाओ किट्टीओ विसेसाहियाओ । ४०४. सबसुहुमसांपराइयद्धाए विसेसाहियवड्डीए किट्टीणसुदयो । ४०५. किट्टीवेदगद्धाए गदाए पडमसमयवादरसांपराइयो जादो । ४०६. ताहे चेव सत्रमोहणीयस्स अणाणुपुचिओ संकयो । ४०७. ताहे चेत्र दुविहो लोहो लोहसंजलणे संछुहदि । ४०८. ताहे चेव फद्दयगदं लोभं वेदेदि । ४०९. किट्टीओ सव्वाओ गट्ठाओ। ४१०. णवरि जाओ उदयावलियम्भंतराओ ताओ त्थिवुक्कसंकमेण फद्दएसु चिपचिहिति । ४११. पदमसमयबादरसांपराइयस्स लोभसंजलणस्स हिदिबंधो अंतोमुहुत्तो । ४१६. तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिबंधो दो अहोरत्ताणि देसणाणि । ४१३. वेदणीय-णामागोदाणं हिदिवंधो चत्तारि वस्साणि देसणाणि । ४१४. एदम्हि पुण्णे द्विदिबंधे जो अण्णो वेदणीय-णामा-गोदाणं हिदिबंधो सो संखेज्जवस्ससहस्साणि । ४९५. तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिवंधो अहोरत्तपुधत्तिगो। ४१६. लोभसंजलणस्स हिदिवंधो पुव्यबंधादो चूर्णिसू०-लोभको वेदन करनेवाले जीवके ये वक्ष्यमाण आवश्यक होते हैं। वे इस प्रकार हैं-लोभ-वेदककालका अर्थात् सूक्ष्म-बादरलोभके वेदन करनेके कालका जो प्रथम त्रिभाग है अर्थात् सूक्ष्मलोभके वेदनका काल है, उसमें कृष्टियोका असंख्यात बहुभाग उदयको प्राप्त होता है। प्रथम समयमै उदय-प्राप्त कृष्टियाँ स्तोक हैं। द्वितीय समयमे उदयप्राप्त कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सर्व सूक्ष्मसाम्परायिक-कालमे प्रतिसमय विशेपाधिक वृद्धिसे कृष्टियोका उदय होता है ।।३९९-४०४॥ चर्णिस०-कृष्टियोके वेदककालके व्यतीत होनेपर वह प्रथमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक हो जाता है। उस ही समयमें मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वी अर्थात् आनुपूर्वी-रहित संक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। उसी समयमे दो प्रकारका लोभ संचलनलोभमे संक्रमण करता है । उस ही समयमे स्पर्धकगत लोभका वेदन करता है। उस समय सब कृष्टियाँ नष्ट हो जाती है। विशेष वात इतनी है कि जो कृष्टियाँ उदयावलीके भीतर हैं, वे स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा स्पर्धकोंमें विपाकको प्राप्त होती हैं ।।४०५-४१०।। चूर्णिसू०-प्रथमसमयवर्ती वादरसाम्परायिकसंयतके संचलनलोभका स्थितिवन्ध अन्तमुहूर्तमात्र है। तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध देशोन दो अहोरात्र है । वेदनीय, नाम और गोत्र इन कर्मोंका स्थितिवन्ध देशोन चार वर्ष है। इस स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर जो वेदनीय, नाम, और गोत्रकर्मोंका अन्य स्थितिवन्ध होता है, वह संख्यात सहस्र वर्ष है । तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध अहोरात्र पृथक्त्वप्रमाण होता है । संज्वलन लोभका स्थितिबन्ध पूर्व बन्धसे विशेष अधिक होता है। लोभ-वेदककालके द्वितीय विभागके * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'सधसुहमसांपराइयद्धाए विसेसाहियवडढीए किट्टीणमुटयो' इस सूत्रको टीकामें सम्मिलित कर दिया है । ( देखो पृ० १८९५) Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] पतमान- उपशासक - विशेष क्रिया- निरुपण ७१७ विसेसाहिओ । ४१७. लोभवेदगद्वाए विदियस्स तिभागस्स संखेज्जदिभागं गंतूण मोहणीयस्स द्विदिबंधो मुहुत्तपुधत्तं । ४१८. णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्त्राणि । ४१९. तिन्हं वादिकम्माणं द्विदिबंधो अहोरतपुधत्तिगादो ङिदिववादो वस्ससहस्तपुत्तिगो द्विदिबंधो जादो । ४२० एवं द्विदिबंध सहस्सेसु गदेसु लोभवेदगद्धा पुण्णा | ४२१. से काले मायं तिविमोकड्डियूण मायासंजलणस्स उदयादि-गुणसेडी कदा | दुविहार माया आवलियबाहिरा गुणसेढी कदा । ४२२. पढमसमयमायावेदगस्स गुणसे डिणिक्खेव तिविहस्स लोहस्स तिविहाए मायाए च तुल्लो। मायावेदगद्वादो विसेसाहिओ । ४२३. सव्वमायावेदगद्धाए तत्तिओ तत्तिओ चेव णिक्खेवो । ४२४. सेसाणं कम्माणं जो वुण पुव्विल्लो णिक्खेवो तस्स सेसे सेले चेव णिक्खिवदि गुणसेटिं ४२५. मायावेदगस्स लोभो तिविहो, माया दुविहा, मायासंजलणे संकमदि । माया तिविहा लोभो च विहो । लोभसंजलणे संकमदि । ४२६. पढमसमयमायावेदगस्स दोन्ह संजलणाणं दुमासट्ठिदिगो बंधो । ४२७. सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जवस्ससहस्साणि । ४२८. पुणे पुणे ठिदिबंधे मोहणीयवज्जाणं कम्माणं संखेज्जगुणो विदिबंधो । ४२९. संख्यातवें भाग आगे जाकर मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध मुहूर्त पृथक्त्व होता है । नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष होता है । तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अहोरात्र - पृथक्त्वरूप स्थितिबन्धसे वर्षसहस्र पृथक्त्व-प्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है । इस प्रकार सहस्रो स्थितिबन्धो के व्यतीत होनेपर लोभका वेदककाल पूर्ण हो जाता है ।।४११-४२२।। चूर्णिसू० - तदनन्तर कालमें तीन प्रकारकी मायाका अपकर्षण करके संज्वलन मायाकी तो उदयादि गुणश्रेणी करता है तथा शेप दो प्रकारके मायाकी उदयावली के बाहिर गुण - श्रेणी करता है । प्रथम समयवर्ती मायावेदकके तीन प्रकारके लोभका और तीन प्रकारकी मायाका गुणश्रेणीनिक्षेप तुल्य है, तथा मायावेदक - कालसे विशेप अधिक है । सम्पूर्ण मायावेदककालमें उतना उतना ही निक्षेप होता है । पुनः शेष कर्मोंका जो पूर्वका निक्षेप है, उसके शेष शेषमें ही गुणश्र ेणीका निक्षेप करता है। मायावेदकके तीन प्रकारका लोभ और दो प्रकारकी माया संज्वलनमायामें संक्रमण करती है। तथा तीन प्रकारकी माया और दो प्रकारका लोभ संज्वलनलोभमे संक्रमण करता है । प्रथम समयवर्ती मायावेदकके दोनो संज्वलन कपायोंका दो मास की स्थितिवाला बन्ध होता है । शेप कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण होता है । प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर मोहनीयको छोड़कर * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'गुणसेटिं' इतना अग टीकाके प्रारम्भमें [ गुणसेढ ] इस प्रकार से मुद्रित है । (देखो पृ० १८९९ ) | ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'च दुविहो' इस पाठके स्थानपर 'चउव्विहो' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १८९९ ) Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुड सुप्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार मोहणीयस्स विदिबंधो विसेसाहिओ । ४३०. एदेण कमेण संखेज्जेसु हिदिबंध सहस्से सु गदे चरिमसमयमायावेदगो जादो । ४३१. ताथे दोन्हं संजलणाणं द्विदिवंधो चत्तारि मासा अंतत्तणा । ४३२ सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्त्राणि । ४३३. तदो से काले तिविहं माणमोकड्डियूण माणसंजलणस्स उदद्यादिगुणसेटिं करेदि । ४३४. दुविहस्स माणस्स आवलियबाहिरे गुणसेडिं करेदि । ४३५ णवचिहस्स वि कसायरस गुणसे डिणिक्खेवो । ४३६. जा तस्स पडिवदमाणगस्स माणवेदगद्धा, ततो विसेसाहिओ णिक्खेवो । ४३७. मोहणीयवज्जाणं कम्माणं जो पढमसमयसुहुमसांपराइएण णिकखेो णिक्खित्तो तस्स णिक्खेवस्स सेसे सेसे णिक्खिवदि । ४३८. पदमसमयमाणवेदगस्स नवविहो वि कसायो संकमदि । ४३९. ताचे तिन्हं संजलणाणं द्विदिवंधो चत्तारि मासा पडिवण्णा । ४४०. सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्त्राणि । ४४१. एवं डिदिबंध सहस्त्राणि बहूणि गंतूण माणस्स चरिमसमयवेदगस्स दिहं संजलणाणं द्विदिबंधो अटु मासा अंतोमुहुत्तूणा । ४४२. सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्त्राणि । ४४३. से काले तिविहं कोहमोकड्डियूण कोहसंजणस्स उदयादि-गुणसेडिं करेदि । दुविहस्स कोहस्स आवलियबाहिरे करेदि* । शेप कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है । मोहनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । इस क्रम संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके बीतने पर वह चरमसमयवर्ती मायावेदक होता है । उस समय दो संज्वलनोका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्तं कम चार मास होता है और शेप कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष होता है ॥४३१-४३२॥ चूर्णिम् ० - तत्पश्चात् अनन्तर समयमे तीन प्रकारके मानका अपकर्षण करके संज्वलनमानकी उदयादि गुणश्रेणी करता है। दो प्रकार के मानकी उदयावली के बाहिर गुण - श्रेणी करता है । अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनसम्बन्धी लोभ, माया और मानरूप नौ प्रकारकी कपायका गुणश्रेणीनिक्षेप होता है | श्रेणीसे नीचे गिरनेवाले उस जीवका जो मानवेदककाल है, उससे विशेष अधिक निक्षेप होता है । मोहनीयको छोड़कर शेप कर्मोंका जो निक्षेप प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा निक्षिप्त किया गया है, उसके शेप शेप निक्षेपण करता है । प्रथमसमयवर्ती मानवेदकके नवो प्रकारका कपाय संक्रमणको प्राप्त होता है । उस समय तीन संज्वलनोका स्थितिबन्ध पूरे चार मास होता है । शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण होता है । इस प्रकार बहुतसे स्थितिवन्ध - सहस्र व्यतीत होते हैं, तब अन्तिम समय में मानका वेदन करनेवाले जीवके तीन संज्वलनोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम आठ मास होता है और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण होता है । तदनन्तरकालमे तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण करके संचलनकोधकी उदयादि-गुणश्रेणी करता है । अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण, इन दोनो प्रकारके क्रोधी उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणी करता है ॥ ४३३-४४३॥ ७१८ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'दुविहस्ल कोहस्स आवलियवाहिरे करेद्रि' इतने सूत्राको टीकामें सम्मिलित कर दिया है । ( देखो पृ० १९०१ ) Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३] पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण ७१९ ४४४. एण्हि गुणसेहिणिक्खेवो केत्तियो कायव्यो ? ४४५. पडमसमयकोधवेदगस्स बारसण्हं पि कसायाणं गुणसेदिणिक्खेवोक सेसाणं कम्माणं गुणसेदिणिक्खेवेण सरिसो होदि । ४४६ जहा मोहणीयवज्जाणं कम्माणं सेसे सेसे गुणसेटिं णिक्खियदि तम्हा एत्तो पाए वारसण्हं कसायाणं सेसे सेसे गुणसेही णिक्विविदव्या । ४४७. पहमसमयकोहवेदगस्स बारसविहस्स वि कसायस्स संकमो होदि । ४४८. ताधे द्विदिवंधो चउण्हं संजलणाणमट्ठ मासा पडिवुण्णा । ४४९. सेसाणं कम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ४५०. एदेण कमेण संखेज्जेसु द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु मोहणीयस्स चरिमसमयचउविहबंधगो जादो । ४५१ ताधे मोहणीयस्स हिदिबंधो चदुसहिवस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि । ४५२. सेसाणं कम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ४५३. तदो से काले पुरिसवेदस्स बंधगो जादो । ४५४. ताधे चेव सत्तण्हं कम्माणं पदेसग्गं पसत्थ-उवसामणाए सव्चमणुवसंतं । ४५५. ताधे चेव सत्तकम्मसे ओकड्डियूण पुरिसवेदस्स उदयादिगुणसेहिं करेदि । ४५६ छण्हं कम्यंसाणमुदयावलियबाहिरे गुणसेहिं करेदि । ४५७. गुणसेडिणिक्खेवो वारसण्हं कसायाणं सत्तण्हं शंका-इस समय, अर्थात् क्रोधवेदकके प्रथम समयमें कितना गुण श्रणी-निक्षेप करने योग्य है ? ॥४४४॥ समाधान-प्रथमसमयवर्ती क्रोधवेदकके बारहो ही कषायोका गुणश्रोणीनिक्षेप शेष कर्मोंके गुणश्रेणीनिक्षेपके सदृश होता है ।।४४५॥ चूर्णिसू०-जिस प्रकार मोहनीयकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंकी गुणश्रेणीको शेप शेषमे निक्षेपण करता है उसी प्रकार यहाँसे लेकर बारह कषायोकी गुणश्रणी शेष शेपमे निक्षेपण करना चाहिए। प्रथमसमयवर्ती क्रोधवेदकके बारह प्रकारके कषायका संक्रमण होता है। उस समय चारो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध पूरे आठ मास है। शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्प है। इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोंके बीत जानेपर मोहनीयके चतुर्विध बन्धका अन्तिम समयवर्ती बन्धक होता है। उस समय मोहनीयका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्त कम चौसठ वर्ष है । शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है ॥४४६-४५२॥ चूर्णिसू०- तदनन्तर कालमें वह पुरुपवेदका वन्धक हो जाता है। उसी समयमे ही सात कोंका सर्व प्रदेशाग्र प्रशस्तोपशामनासे अनुपशान्त हो जाता है। उस समय हास्यादि सात कांशोका अपकर्पण करके पुरुषवेदकी उद्यादि-गुणश्रेणीको करता है और शेष छह कर्माशोंकी उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणी करता है। बारह कपाय और सात नोकपायवेदनीयोका गुणश्रेणीनिक्षेप आयुकर्मको छोड़कर शेप कर्मोंके गुणश्रोणी-निक्षेपके तुल्य ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इस पदके प्रारम्भमे 'जो' और अन्तमें 'सो' पद और भी मुद्रित है। (देखो पृ० १९०१) ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'उदयादिगुणसेढिं' के स्थानपर 'उदयादिगुणसेढिसीसयं' पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १९०३) Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० कसाय पाहुड सुत्त [१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार णोकसायवेदणीया उसेसाण च आउगवन्जाणं कम्माणं गुणसेडिणिक्खेवेण तुल्लो सेसे सेसे च णिक्खेवोछ । ४५८. ताधे चेव पुरिसवेदस्स हिदिबंधो बत्तीस वस्साणि पडिवुण्णाणि । ४५९. संजलणाणं द्विदिबंधो चदुसहिवस्साणि । ४६०. सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ४६१. पुरिसवेदे अणुवसंते जाव इत्थिवेदो उवसंतो एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णामा-गोद-वेदणीयाणमसंखेज्जवस्सियद्विदिगो वंधो। ४६२. ताधे अप्पाबहुअं कायव्वं । ४६३. सव्वत्थोवो मोहणीयस्स द्विदिवंधो। ४६४. तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिवंधो संखेज्जगुणो। ४६५. णामा-गोदाणं ठिदिवंधो असंखेज्जगुणो । ४६६. वेदणीयस्स द्विदिवंधो विसेसाहिओ। ४६७. एत्तो डिदिबंधसहस्सेसु गदेसु इत्थिवेदमेगसमएण अणुवसंतं करेदि । ४६८. ताधे चेव तमोकड्डियूण आवलियबाहिरे गुणसेहिं करेदि । ४६९. इदरेसिं कम्माणं जो गुणसेहिणिक्खेवो तत्तियो चेव इत्थिवेदस्स वि, सेसे सेसे च णिक्खिवदि । ४७०. इत्थिवेदे अणुवसंते जाव णसयवेदो उवसंतो एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमसंखेज्जवस्सियहिदिवंधोजादो । ४७१. ताधे मोहणीयस्त द्विदिबंधो थोवो । ४७२. तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिबंधो असंखेज्जहोता है । शेष शेपमें निक्षेप होता है। उसी समयमें पुरुषवेदका स्थितिवन्ध पूरे वत्तीस वर्ष होता है । संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध चौसठ वर्प होता है और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष होता है । पुरुषवेदके अनुपशान्त होनेपर जब तक स्त्रीवेद उपशान्त रहता है, तब तक इस मध्यवर्ती कालके संख्यात वहुभागोके बीत जानेपर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्पप्रमाण होता है ।।४५३-४६१।। चूर्णिसू०-उस समय इस प्रकार अल्पबहुत्व करना चाहिए-मोहनीयका स्थितिवन्ध सबसे कम होता है। तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है । नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है। इससे वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। इससे आगे सहस्रो स्थितिवन्धोंके व्यतीत होनेपर स्त्रीवेदको एक समयमे अनुपशान्त करता है। उसी समयमें ही स्त्रीवेदका अपकर्षण करके उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणी करता है । अन्य कर्मोंका जो गुणश्रेणीनिक्षेप है, उतना ही स्त्रीवेदका भी होता है । शेष शेषमें निक्षेप करता है ॥४६२-४६९॥ चूर्णिसू०-स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेपर जब तक नपुंसकवेद उपशान्त रहता है, तव तक इस मध्यवर्ती कालके संख्यात बहुभागोके बीतनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्पप्रमाण हो जाता है। उस समयमें मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध सबसे कम है । तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है। इससे नाम ७ ताम्रवाली प्रतिमे 'णिक्खेवो' के स्थानपर 'णिक्खिवदि पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १९०३) Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२१ गा० १२३] पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण गुणो । ४७३. णामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ४७४. वेदणीयस्स हिदिबंधो विसेसाहिओ । ४७५. जाधे घादिकम्माणमसंखेज्जवस्सद्विदिगो बंधो ताधे चेव एगसमएण णाणावरणीयं चउन्विहं दसणावरणीयं तिविहं पंचंतराइयाणि एदाणि दुहाणियाणि बंधेण जादाणि । ४७६. तदो संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु णबुंसयवेदमणुवसंतं करेदि । ४७७ ताधे चेव णqसयवेदमोकड्डियूण आवलियबाहिरे गुणसेहिं णिक्खिवदि । ४७८. इदरेसिं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवेण सरिसो गुणसेडिणिक्खेवो । सेसे सेसे च णिक्खेवो । ४७९. णसयवेदे अणुवसंते जाव अंतरकरणद्धाणं ण पावदि एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु मोहणीयस्स असंखेज्जवस्सिओ द्विदिबंधो जादो । ४८०. ताधे चेव दुहाणिया बंधोदया । ४८१. सव्वस्स पडिवदमाणगस्स छसु आवलियासु गदासु उदीरणा इदि णत्थि णियमो, आवलियादिकंतमुदीरिज्जति । और गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे वेदनीय कर्मका स्थितिवन्ध विशेप अधिक होता है । जिस समय तीन घातिया कर्मोंका असंख्यात वर्षकी स्थितिवाला वन्ध होता है, उस समय ही एक समयमे चार प्रकारका ज्ञानावरणीय, तीन प्रकारका दर्शनावरणीय और पॉचों अन्तराय कर्म, ये अनुभागबन्धकी अपेक्षा द्विस्थानीय अर्थात् लता और दारुरूप अनुभाग बन्धवाले हो जाते हैं । तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर नपुंसकवेदको अनुपशांत करता है । उसी समयमें नपुंसकवेदका अपकर्षण करके उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणी रूपसे निक्षिप्त करता है। यह गुणश्रेणीनिक्षेप अन्य कर्मोंके गुणश्रेणीनिक्षेपके सदृश होता है । शेप शेषमें गुणश्रेणी निक्षेप होता है ॥४७०-४७८॥ ___ चूर्णिमू०-नपुंसकवेदके अनुपशान्त होनेपर जब तक अन्तरकरण-कालको नही प्राप्त करता है, तब तक इस मध्यवर्ती कालके संख्यात बहुभागोके बीत जानेपर मोहनीय कर्मका स्थितिवन्ध असंख्यात वर्षप्रमाण होने लगता है। उसी समय ही मोहनीय कर्मका बन्ध और उदय अनुभागकी अपेक्षा द्विस्थानीय हो जाता है । ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरनेवाले सभी जीवोके छह आवलियोके वीत जानेपर ही उदीरणा हो, ऐसा नियम नहीं है, किन्तु बन्धावलीके व्यतीत होनेपर उदीरणा होने लगती है ॥४७९-४८१।। विशेषार्थ-उपशमश्रणी चढ़नेवाले जीवके लिए यह नियम बतलाया गया था कि नवीन बंधनेवाले कर्मोंकी उदीरणा वधावलीके छह आवलीकालके पश्चात् ही हो सकती है, उससे पूर्व नही। किन्तु श्रेणीसे उतरनेवालोके लिए यह नियम नहीं है। उनके बन्धावलीके पश्चात् ही बंधे हुए कर्मकी उदीरणा होने लगती है। कुछ आचार्य इस चूर्णिसूत्रका ऐसा व्याख्यान करते हैं कि ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरते समय भी जब तक मोहनीय कर्मका संख्यात वपंप्रमाण स्थितिवन्ध होता है, तब तक तो छह आवलियोके बीतनेपर ही उदीरणाका नियम रहता है। किन्तु जव मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्षप्रमाण होने लगता है। Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त | १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार ४८२. अणियद्विप्प हुडि मोहणीयस्स अणाणुपुव्विसंकमो, लोभस्स वि संकमो । ४८३. जाधे असंखेज्जवस्सिओ द्विदिबंधो मोहणीयस्स, ताधे मोहणीयस्स द्विदिबंधो थोवो । ४८४. घादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । ४८५. णामागोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ४८६. वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ४८७. एदेण कमेण संखेज्जेस द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु अणुभागबंधेण वीरियं तराइयं सव्वघादी जादं । ४८८ . तदो ठिदिबंधपुधत्तेण आभिणिवोधियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च सव्ववादीणि जादाणि । ४८९. तो ठिदिबंधपुधत्तेण चक्खुदंसणावरणीयं सव्वधादी जादं । ४९० . तदो ठिदिबंध पुधचेण सुदणाणावरणीयम चक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च सव्वधादीणि जादाणि । ४९१. तदो ठिदिबंधपुधत्तेण अधिणाणावरणीयं अधिदंसणावरणीयं लाभतराइयं च सव्वधादीणि जादाणि । ४९२. तदो डिदिबंधपुधतेण मणपज्जवणाणावरणीयं दाणत इयं च सव्ववादीणि जादाणि । ४९३. तदो द्विदिबंध सहस्सेसु गदेसु असंखेज्जाणं समयपवद्धाणमुदीरणा पडि ७२२ तब छह आवलीकालके पश्चात् उदीरणाका नियम नहीं रहता । इस पर जयधवलाकारका मत यह है कि यदि ऐसा माना जाय, तो 'सव्वस्स पडिवमाणगस्स' इस चूर्णि सूत्र में जो 'सर्व' पदका प्रयोग किया गया है, वह निष्फल हो जायगा । अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही प्रधानरूपसे मानना चाहिए । चूर्णिसू० – अनिवृत्तिकरणके काल से लेकर ( सर्व उतरनेवाले जीवोके ) मोहनीय - कर्मका अनानुपूर्वी-संक्रमण होने लगता है और लोभका भी संक्रमण प्रारम्भ हो जाता है । जब मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्षप्रमाण होता है, तब मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है और शेप घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। इस क्रम संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत हो जानेपर वीर्यान्तरायकर्म अनुभागबन्धकी अपेक्षा सर्वघाती हो जाता है । तत्पश्चात् स्थिति पृथक्त्वसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्व से चक्षुदर्शनावरणीयकर्म सर्वघाती हो जाता है । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्वसे श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्व से अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्वसे मन:पर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते है ॥४८२-४९२॥ चूर्णिसू० - तत्पश्चात् सहस्रो स्थितिबन्धोके बीत जानेपर असंख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा नष्ट हो जाती है और समयप्रवद्धके असंख्यात लोकभागी अर्थात् असंख्यात लोकसे Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२३ गा० १२३ । पतमान- उपशामक विशेषक्रिया निरूपण हम्मदि असंखेज्ज लोग भागो समयपबद्धस्स उदीरणा पवत्तदि । ४९४. जाधे असंखेज्जलोग डिभागो समयपचद्धस्स उदीरणा, ताधे मोहणीयस्स द्विदिबंधो थोवो । ४९५. घादिकम्माणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ४९६. णामा गोदाणं द्विदिवंधो असंखेज्जगुणो । ४९७ वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ४९८. एदेण कमेण द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु तो एकसराहेण मोहणीयस्स द्विदिबंधो थोवो | ४९९. णामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेखेज्जगुणो । ५००. घादिकम्माणं द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ५०१ वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ५०२. एवं संखेज्जाणि ठिदिबंध सहस्साणि काढूण तदो एकसराहेण मोहणीयस्स द्विविधो थोवो । ५०३ णामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ५०४. णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय अंतरायाणं द्विदिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ । ५०५. एवं संखेज्जाणि द्विदिबंध सहस्साणि गदाणि । ५०६. तदो अण्णो विदिबंधो एकसराहेण णामा-गोदाणं द्विदिबंधो थोवो । ५०७. मोहणीयस्स विदिबंधो विसेसाहिओ । ५०८. णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय अंतराइयाणं ट्ठि दिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ । ५०९. एदेण कमेण द्विदिबंधसहस्त्राणि बहूणि गदाणि । ५१०. तदो भाजित करनेपर एक भागमात्र उदीरणा प्रवृत्त होती है । जिस समय समयप्रवद्धकी असंख्यात लोक प्रतिभागी उदीरणा प्रवृत्त होती है उस समय मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम है । शेष घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी क्रमसे स्थितिबन्ध-सहस्रोंके वीत जानेपर एक साथ मोहनीयका स्थितिवन्ध सबसे कम होता है । नाम और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा हो जाता है । इससे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है और वेदनीयका स्थितिवन्ध विशेष अधिक होता है । इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध करके तत्पश्चात् एक साथ मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है । इससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुण होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मका स्थितिबन्ध परस्परमे समान होते हुए विशेष अधिक होता है ॥४९३-५०४ ॥ चूर्णिसू० ० - इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है और एक साथ नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम हो जाता है । इससे मोहनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इनका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और विशेष अधिक होता है । इस क्रमसे बहुतसे स्थितिबन्ध-सहस्र बीत जाते हैं । तत्पश्चात अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है और एक साथ नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध -: ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'असंखेज्जलोग भागो समयपवद्धस्स उदीरणा पवत्तदि' इतना अशको टीकामे सम्मिलित कर दिया है । ( देखो पृ० १९०८ ) Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ कसाय पाहुड सुत्त [१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार अण्णो हिदिबंधो एकसराहेण णामा-गोदाणं द्विदिवंधो थोवो । ५११. चदुण्डं कम्माणं हिदिवंधो तुल्लो विसेसाहिओ । ५१२. मोहणीयस्स द्विदिवंधो विसेसाहिओ । ५१३. जत्तो पाए असंखेज्जवस्सद्विदिबंधो, तत्तो पाए पुण्णे पुण्णे द्विदिवंधे अण्णं हिदिवंधमसंखेज्जगुणं बंधइ । ५१४. एदेण कमेण सत्तण्हं पि कम्माणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागियादो द्विदिवंधादो एक्कसराहेण सत्तण्हं पि कम्माणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागिओ द्विदिबंधो जादो* । ५१५. एत्तो पाए पुण्णे पुण्णे द्विदिवंधे अण्णं द्विदिबंधं संखेज्जगुणं बंधइ। ५१६. एवं संखेज्जाणं द्विदिवंधसहस्साणमपुव्या बड्डी पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ५१७. तदोमोहणीयस्स जाधे अण्णस्स द्विदिवंधस्स अपुव्वा वड्डी पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा । ५१८. ताधे चदुण्हं कम्माणं हिदिवंधस्स वड्डी पलिदोवमं चदुभागेण सादिरेगेण ऊणयं । ५१९. ताधे चेव णामा-गोदाणं ठिदिवंधपरिवड्डी अद्धपलिदोवमं संखेज्जदिभागूणं । ५२०. जाधे एसा परिवड्डी ताधे मोहणीयस्स जट्ठिदिगो बंधो पलिदोवमं । ५२१. चदुण्ह करमाणं जट्ठिदिगो बंधो पलिदोवमं चदुण्डं भागूणं । ५२२. णामा-गोदाणं जहिदिगो बंधो अद्धपलिदोवमं । ५२३. एत्तो पाए द्विदिबंधे पुण्णे पुण्णे सबसे कम होता है। इससे चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और विशेष अधिक होता है । इससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । जिस स्थलसे असंख्यात वर्षकी स्थितिवाला बन्ध होता है, उस स्थलसे प्रत्येक स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर असंख्यात. गुणित अन्य स्थितिबन्धको बॉधता है । इस क्रमसे सातो ही कर्मोंकी प्रकृतियोका पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित स्थितिबन्धसे एक साथ सातो ही कर्मों का पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिवन्ध होने लगता है। इस स्थलसे लेकर आगे प्रत्येक स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर अन्य संख्यातगुणित स्थितिबन्धको बाँधता है ॥५०५-५१५॥ चूर्णिसू०-इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोंकी अपूर्व वृद्धि पल्योपमके संख्यातवे भागमात्र होती है। तत्पश्चात् जिस समय मोहनीयकर्मके अन्य स्थितिवन्धकी अपूर्व वृद्धि पल्योपमके संख्यात वहुभाग-प्रमाण होती है, उस समय चार कर्मो के स्थितिबन्धकी वृद्धि सातिरेक चतुर्थ भागसे हीन पल्योपमप्रमाण होती है। उसी समयमै नाम और गोत्रकर्मके स्थितिवन्धकी परिवृद्धि संख्यातवें भागसे हीन अर्धपल्योपम होती है । जिस समय यह वृद्धि होती है, उस समय मोहनीयका यत्स्थितिकवन्ध पल्योपमप्रमाण है । चार कर्मों का यत्स्थितिकवन्ध चतुर्थभागसे हीन पल्योपमप्रमाण है । नाम और गोत्रका यत्स्थितिकवन्ध अर्धपल्योपमप्रमाण है। इस स्थलसे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर तब तक __* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्रके 'पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागियादो द्विदिवंधादो एकसराहेण सत्तण्हं पि कम्माणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागिओ हिदिवधो जादो' इतने अशको टीकामें सम्मिलित कर दिया है। तथा 'कम्माण के स्थानपर 'कम्मपयडीणं' पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १९१०) Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० १२३ ]. पतमान- उपशामक - विशेषक्रिया निरूपण ७२५ पलिदोवमस्त संखेज्जदिभागेण वढह जत्तिया अणियट्टिअद्धा सेसा, अपुव्वकरणद्धा सव्वा च तत्तियं । ५२४. एदेण कमेण पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागपरिवडीए ट्ठिदिबंधसहसेसु गदेसु अण्णो एइंदियट्ठिदिबंध समगो द्विदिबंधो जादो। ५२५. एवं बीई दियती ' दिय- चउरिंदि - असण्णिट्ठिदिबंधसमगो द्विदिबंधो। ५२६ तदो द्विदिबंध सहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअणियट्टी जादो । ५२७. चरिमसमयअणियट्टिस्स द्विदिबंधी सागरोवमसदसहस्त्रपुधत्तमं तो कोडीए । ५२८. से काले अपुव्वकरणं पट्टि । ५२९. ताधे चेव अप्पसत्थ-उवसामणाकरणं णित्तीकरणं णिकाचणाकरणं च उग्वादिदाणि । ५३० ताधे चेव मोहणीयस्स वविधगो जादो । ५३१ ताधे चेव इस्स- रदि-अरदि - सोगाणमेकदरस्स संघादयस्त उदीरगो, सिया भय- दुगुंछाणमुदीरगो । ५३२. तदो अपुव्यकरणद्वाए संखेज्जदिभागे गदे तदो परभवियणामाणं बंधगो जादो । ५३३. तदो डिदिबंधसहस्सेहिं गदेहिं अपुव्यकरणद्धार संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णिद्दा- पयलाओ बंध | ५३४. तदो संखेज्जेसु ट्ठिदिबंधसहस्से गदेसु चरिमसमयअपुव्यकरणं पत्तो । पल्योपमके संख्यातवे भागसे अधिक वृद्धि होती है जब तक कि जितना अनिवृत्तिकरणका काल शेष है और सर्व अपूर्वकरणका काल है । इस क्रमसे पल्योपम के संख्यातवे भागप्रमाण वृद्धि के साथ सहस्रो स्थितिबन्धोके बीत जानेपर अन्य स्थितिबन्ध एकेन्द्रिय जीवोंके स्थिति - बन्धके समान हो जाता है । इस प्रकार क्रमशः स्थितिबन्ध सहस्रो व्यतीत होनेपर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध हो जाता है । तत्पश्चात् स्थितिबन्ध - सहस्रो के बीतने पर यह चरमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणसंत होता है । चरमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणसंयतके स्थितिबन्ध अन्तःकोटी सागरोपम अर्थात् लक्षपृथक्त्व सागरप्रमाण होता है ।। ५१६-५२७॥ चूर्णिसू० - उसके अनन्तर समयमे वह अपूर्वकरण गुणस्थानमे प्रविष्ट होता है । उसी समय ही अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तिकरण, और निकाचनाकरण प्रगट हो जा है । उसी समयमे नौ प्रकारके मोहनीयकर्मका बन्धक होता है । उसी समय हास्य- रति और अरति-शोक, इन दोनोमेसे किसी एक युगलका उदीरक होता है । भय और जुगुप्सा युगलका उदीरक होता भी है और नही भी होता है । तत्पश्चात् अपूर्वकरणके कालका संख्यातवाँ भाग व्यतीत होनेपर तब वह परभव-सम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोका वन्धक होता है । तत्पश्चात् स्थितिबन्ध-सहस्रोके व्यतीत होनेपर और अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोके व्यतीत होनेपर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंको बाँधता है । तत्पश्चात् संख्यात् सहस्र स्थितिवन्धोके व्यतीत होनेपर अपूर्वकरणके अन्तिम समयको प्राप्त होता है ।। ५२८ ५३४॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'जत्तिया अणियट्टिअद्धा सेसा अपुव्वकरणडा सव्वा च तत्तियं' इतने सूत्राको टीकामें सम्मिलित कर दिया है । ( देखो पृ० १९१२ ) + ताम्रपत्रवाली प्रतिमें '- मंतोकोडीए' के स्थानपर 'मंतोकोडा कोडिीए' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १९४२) Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुप्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार ५३५. से काले पढमसमयअधापवत्तो जादो । ५३६. तदो पढमसमयअधापवत्तस्स अण्णो गुणसेढिणिक्खेवो पोराणगादो णिक्खेवादो संखेज्जगुणो । ५३७. जाव चरिमसमयअपुव्यकरणादो त्ति सेसे सेसे णिक्खेवो । ५३८. जो पढमसमयअधापवत्तकरणेणिक्खेवो सो अंतोमुहुत्तिओ तत्तिओ चेव । ५३९. तेण परं सिया बहूदि, सिया हायदि, सिया अवट्ठायदि । ५४० परमसमयअधापवत्तकरणे गुणसंकमो वोच्छिष्णो । सव्वकम्माणमधापवत्तसंकमो जादो। णवरि जेसिं विज्झादसंकमो अत्थि तेसिं विज्झादसंकमो चेव । ५४१. उवसामगस्स पढमसमयअपुव्वकरणप्पहुडि जाव पडिवदमाणगस्स चरिमसमयअपुण्यकरणोति तदो एतो संखेज्जगुणं कालं पडिणियत्तो अधापवत्त करणेण उवसमसम्मत्तद्धूमणुपालेदि । ५४२. एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भंतरदो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, दो वि गच्छेज्ज । ५४३. छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि ७२६ चूर्णिसू०- तदनन्तर समयमे वह प्रथमसमयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणसंयत अर्थात् अप्रमत्तसंयत हो जाता है । तब अधःप्रवृत्तकरणसंयतके प्रथम समयमें अन्य गुणश्रेणीनिक्षेप पुराने गुणश्रेणी - निक्षेप से संख्यातगुणा होता है । ( उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके प्रथम समयसे लेकर ) अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक शेष - शेषमे निक्षेप होता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय मे जो अन्तर्मुहूर्तमात्र निक्षेप होता है, उतना ही अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । उससे आगे कदाचित् बढ़ता है, कदाचित् हानिको प्राप्त होता है और कदाचित अवस्थित रहता है । अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में गुणसंक्रमण व्यच्छिन्न हो जाता है और सर्व कर्मोंका अधःप्रवृत्त संक्रमण प्रारम्भ होता है । विशेषता केवल यह है कि जिन कर्मोंका विध्यातसंक्रमण होता है उनका विध्यातसंक्रमण ही होता है । अर्थात् जिन प्रकृतियोका बन्ध होता है उनका तो अधःप्रवृत्तकरण होता है और जिन नपुंसकवेदादि अप्रशस्त प्रकृतियोका बन्ध नही होता है उनका विध्यातसंक्रमण होता है । उपशामकके श्रेणी चढ़ते समय अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर सर्वोपशम करके उतरते हुए अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक जो काल है, उससे संख्यातगुणित काल तक लौटता हुआ यह जीव अधःप्रवृत्तकरण के साथ उपशमसम्यक्त्वके कालको बिताता है । अर्थात् उपशमश्रेणीके चढ़ने के प्रथम समयसे लेकर लौटने के अपूर्वकरण- संयत के अंतिम समय के पश्चात् भी अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती अधःप्रवृत्तकरण संयत रहने तक द्वितीयोपशमसम्यक्त्वका काल है ॥ ५३५-५४१॥ चूर्णि सू० [० - इस उपशमसम्यक्त्वकालके भीतर वह असंयमको भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है और दोनोको भी प्राप्त हो सकता है । छह आवलियोके शेष रहनेपर सासादनसम्यक्त्वको भी प्राप्त हो सकता है । पुनः सासादनको प्राप्त होकर यदि * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस समस्त सूत्रको इसमे पूर्ववर्ती सूत्रकी टीकामें सम्मिलित कर दिया है । (देखो पृ० १९१५ पंक्ति ११-१२ ) । पर इसके सूत्रत्वकी पुष्टि ताडपत्रीय प्रतिसे हुई है । Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] पतमान- उपशामक - विशेष क्रिया- निरूपण गच्छेज्ज । ५४४. आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदिं तिरिकखगर्दि मणुसगदिं वा गंतु । णियमा देवगदिं गच्छदि । ५४५. हंदि तिसु आउएस एक्केण वि बज्रेण आउगेण ण सक्को कसा उवसामेढुं । ५४६. एदेण कारणेण निरयगादि - तिरिक्खजोणि- मणुस्सगदीओ ण गच्छदि । ७२७ ५४७. एसा सव्वा परूवणा पुरिसवेदस्स कोहेण उवदिस्स । ५४८. पुरिसवेदस्स चेव माणेण उवट्ठिदस्स णाणत्तं । ५८९. तं जहा । ५५०. जाव सत्तणोकसाया मुवसामणा ताव णत्थि णाणत्तं । ५५१. उवरि माणं वेदंतो कोहमुवसामेदि । ५५२. जही कोण उवदिस्त कोहस्स उवसामणद्धा तद्देही चेव माणेण वि उवदिस्त कोहस्स उवसामणद्धा । ५५३. कोधस्स पढमट्ठिदी णत्थि । ५५४. जद्देही कोहेण उवदिस्स कोधस्स च माणस्स च पडमट्ठिदी, तद्देही माणेण उवदिस्स माणस्स पढमट्ठिदी । ५५५. माणे वसंते पत्तो सेसस्स उवसामेयव्वस्स मायाए लोभस्स च जो कोहेण उवदिस्स उवसामणविधी सो चैव कायव्वो । ५५६ माणेण उवट्ठिदो उवसामेयूण तदो पडिव - मरता है, तो नरकगति, तिर्यंचगति अथवा मनुष्यगतिको नहीं जा सकता, किन्तु नियम से देवगतिको जाता है । क्योकि, ऐसा नियम है कि नरकायु, तिर्यगायु और मनुष्यायु इन तीनो आयुकर्मोंमे से एक भी आयुको बॉधनेवाला जीव कषायोका उपशम करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता । इस कारण से उपशमश्रेणी से उतरकर सासादन गुणस्थानको प्राप्त जीव नरकगति, तिर्यग्योनि और मनुष्यगतिको नही जाता है ॥५४२- ५४६॥ चूर्णिसू० ० - यह सब प्ररूपणा क्रोधकषायके उदयके साथ उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले पुरुषवेदी जीवकी है। मानकपायके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़नेवाले पुरुषवेदी जीवके कुछ विभिन्नता होती है, जो इस प्रकार है- जब तक सात नोकषायोकी उपशमना होती है, तब तक तो कोई विभिन्नता नहीं है । ऊपर विभिन्नता है जो इस प्रकार है - मानकषायका वेदन करनेवाला जीव पहले क्रोधकषायको उपशमाता है । क्रोधकषायके उदयसे श्र ेणी चढ़ने मानकपायके उदयसे श्रेणी चढ़ने वाले जीवके जितना क्रोधका उपशमनकाल है, उतना ही वाले जीवके क्रोधका उपशमनकाल है । इसके क्रोध की प्रथमस्थिति नही होती है । क्रोधकपाय के साथ चढ़नेवाले जीवके जितनी क्रोध और मानकी प्रथमस्थिति है, उतनी ही मानकषाय के साथ चढ़नेवाले जीवके मानकी प्रथमस्थिति होती है। मानकषायके उपशम हो जानेपर इससे अवशिष्ट बचे हुए उपशमनके योग्य माया और लोभकी जो उपमन क्रोधकषायके साथ चढ़नेवाले जीवकी है, वही यहाॅ भी प्ररूपणा करना चाहिए। मानकपायके साथ श्रेणी चढ़नेवाले जीवके कषायोंका उपशमन करके और वहाँ से गिरकर लोभकपायका -ः ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'कायव्वो' पदसे आगे 'माणेण उवदिस्स माणे उवसंते जादे' इतना टोकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । ( देखो पृ० १९१८ ) Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ कसाय पाहुड सुत्त ।[१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार दिदूण लोभं वेदयमाणस्स जो पुव्वपरूविदो विधी सो चेव विधी कायव्यो । ५५७.एवं सायं वेदेमाणस्स। ५५८. तदो माणं वेदयंतस्स णाणत्तं । ५५९. तं जहा । ५६०. गुणसेडिणिक्खेवो ताव णवण्हं कसायाणं सेसाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवेण तुल्लो । सेसे सेसे च णिक्खेवो । ५६१. कोहेण उवद्विदस्स उवसामगस्स पुणो पडिवदमाणगस्स जद्देही माणवेदगद्धा एत्तियमेत्तेणेव कालेण माणवेदगद्धाए अधिच्छिदाए ताधे चेव माणं वेदंतो एगसमएण तिविहं कोहमणुवसंतं करेदि । ५६२. ताधे चेव ओकड्डियूण कोहं तिविहं पि आवलियबाहिरे गुणसेडीए इदरेसिं कम्माणं गुणसेडिणिक्खेवेण सरिसीए गिक्खियदि, तदो सेसे संसे णिक्खिवदि । ५६३. एदं णाणत्तं माणेण उवद्विदस्स उवसामगस्स, तस्स चेव पडिवदमाणगस्स । ५६४. एदं ताव वियासेण णाणत्तं । एत्तो समासणाणत्तं वत्तइस्सामो । ५६५. तं जहा । ५६६. पुरिसवेदयस्स माणेण उवडिदस्स उवसामगस्स अधापवत्तकरणमादि कादण जाव चरिमसमयपुरिसवेदो त्ति णत्थि णाणत्तं । ५६७. पहमसमयअवेदगप्पहुडि जाव कोहस्स उवसामणद्धा ताव णाणत्तं । ५६८. माण-माया-लोभाणमुवसामणद्धाए णत्थि णाणत्तं । ५६९. उवसंतेदाणिं णत्थि चेव णाणत्तं । ५७०. तस्स चेव माणेण वेदन करते हुए जो विधि पूर्वमें प्ररूपित की गई है, वही विधि यहाँ भी प्ररूपण करना चाहिए । इसी प्रकार मायाकषायका वेदन करनेवालेके भी कहना चाहिए ॥५४७-५५७॥ चूर्णिसू०-इससे आगे मानकषायका वेदन करनेवाले जीवके विभन्नता होती है, जो कि इस प्रकार है-नवो कपायोका गुणश्रेणीनिक्षेप शेप कर्मोंके गुणश्रेणीनिक्षेपके तुल्य होता है और शेप शेषमे निक्षेप होता है। क्रोधके साथ चढ़े हुए उपशामकके पुनः गिरते हुए जितना मानवेदककाल है, उतनेमात्र कालसे मानवेदककालके अतिक्रमण करनेपर उसी समयमें ही मानका वेदन करता हुआ एक समयके द्वारा तीन प्रकारके क्रोधको अनुपशान्त करता है। उसी समयमें ही तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्पण करके उदयावलीके बाहिर इतर कर्मोंके गुणश्रेणीनिक्षेपके सदृश गुणश्रेणीमे निक्षेप करता है और शेप शेषमें निक्षिप्त करता है। मानकषायके साथ चढ़नेवाले उपशामकके और गिरनेवाले उसी पुरुषवेदीके यह उपयुक्त विभिन्नता है ॥५५८-५६३॥ चूर्णिसू०-ऊपर यह विभिन्नता विस्तारसे कही । अब इससे आगे संक्षेपसे विभिनता कहते हैं । वह इस प्रकार है-मानकषायके साथ श्रेणी चढ़नेवाले पुरुषवेदी उपशामकके अधःप्रवृत्तकरणको आदि लेकर पुरुषवेदके अन्तिम समय तक कोई भी विभिन्नता नहीं है । प्रथमसमयवर्ती अवेदकसे लेकर जब तक क्रोधका उपशमनकाल है, तब तक विभिन्नता है । मान,,माया और लोभके उपशमनकालमे कोई विभिन्नता नहीं है। कषायोके उपशान्त होनेके समयमे भी कोई विभिन्नता नहीं है। उसी जीवके मानकपायके साथ चढ़कर और Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२९ गा० १२३] पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण उवट्ठियूण तदो पडिवदिदूण लोभं वेदेंतस्स णत्थि णाणत्तं । ५७१. मायं वेदेंतस्स णत्थि णाणत्तं । ५७२. माणं वेदयमाणस्स ताव णाणत्तं-जाव कोहो ण ओकड्डिज्जदि, कोहे ओकड्डिदे कोधस्स उदयादिगुणसेही पत्थि, माणो चेव वेदिज्जदि* । ५७३. एदाणि दोण्णि णाणत्ताणि कोधादो ओकड्डिदादो पाए जाव अधापयत्तसंजदो जादो त्ति । ५७४. मायाए उवढिदस्स उवसामगस्स केद्देही मायाए पहमद्विदी ? ५७५. जाओ कोहेण उवद्विदस्स कोधस्स च चहमाणस्स च मायाए च पड़महिदीओ ताओ तिण्णि पहमद्विदीओ सपिंडिदाओ मायाए उवद्विदस्स यायाए पडमहिदी । ५७६. तदो मायं वेदेंतो कोहं च माणं च मायं च उवसामेदि । ५७७ तदो लोभमुवसागेतस्स णत्थि णाणत्तं । ५७८. मायाए उवहिदो उवसामेयूण पुणो पडिवदमाणगरस लोभ वेदयमाणस्स णत्थि णाणत्तं । ५७९. मायं वेदेंतस्स णाणत्तं । ५८०. तं जहा । ५८१. तिविहाए मायाए तिविहस्स लोहस्स च गुणसेडिणिक्खेवो इदरेहिं कस्मेहिं सरिसो, सेसे सेसे च णिक्खेयो। ५८२. सेसे च कसाए मायं वेदेंतो ओकड्डिहिदि । ५८३. तत्थ वहाँसे गिरकर लोभकपायका वेदन करनेवाले जीवके भी कोई विभिन्नता नही है । मायाको वेदन करनेवालेके भी विभिन्नता नही है । मानको वेदन करनेवालेके तब तक विभिन्नता है-जब तक क्रोधका अपकर्षण नही करता है। क्रोधके अपकर्षण करनेपर क्रोधकी उदयादि गुणश्रेणी नही होती है । वह मानको ही वेदन करता है। क्रोधक अपकर्षणसे लगाकर जब तक अधःप्रवृत्तसंयत होता है तब तक ये दो विभिन्नताएँ होती हैं ॥५६४-५७३॥ शंका-मायाकषायके साथ उपशमश्रेणी चढ़नेवाले उपशामकके मायाकी प्रथमस्थिति कितनी होती है ? ॥५७४॥ समाधान-क्रोधकपायके साथ उपशमश्रेणी चढ़नेवाले जीवके क्रोध, मान और मायाकी जितनी प्रथमस्थितियाँ है, वे तीनों प्रथमस्थितियाँ यदि सम्मिलित कर दी जाये, तो उतनी मायाकषायके साथ उपशमश्रेणी चढ़नेवाले जीवके मायाकपायकी प्रथमस्थिति होती है । अतएव मायाका वेदन करनेवाला क्रोध, मान और मायाको एक साथ उपशमाता है ॥५७५॥ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् लोभका उपशमन करनेवाले जीवके कोई विभिन्नता नही है । मायाकषायके साथ चढ़ा हुआ और कषायोका उपशम करके पुनः गिरता हुआ लोभकपायका वेदन करनेवाला जो जीव है, उसके कोई विभिन्नता नही है। तत्पश्चात् मायाका वेदन करनेवालेके विभिन्नता होती है जो कि इस प्रकार है-तीन प्रकारकी माया और तीन प्रकारके लोभका गुणश्रेणी-निक्षेप इतर कर्मोंके सहश है और शेष शेषमे निक्षेप होता है । मायाका * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'कोहे ओकडिदे कोधस्स उदयादि गुणसेढी णत्थि, माणो चेव वेदिज्जदि' इतने सूत्राशको टीकामे सम्मिलित कर दिया है । ( देखो पृ० १९२१) । ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'अंतरकोत्ते चेव मायाए पढमहिदिमेसो हवेदि' इतना टीकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । ( देखो पृ० १९२१) Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० गुणसे डिणिक्खेवविधि च इदरकम्पगुण से डिणिक्खेवेण सरिसं काहिदि । ५८४. लोभेण उवदिस्स उवसामगस्स गाणत्तं वत्तस्सायो । ५८५. तं जहा । ५८६. अंतरकदमेत्ते लोभस्स पढमडिदि करेदि । जदेही कोहेण उवदिस्त कोहस्स पढमट्ठिदी, माणस्स च परमट्ठिदी, मायाए च पढमडिदी, लोभस्स च सांपराइयपढमहिदी, तद्देही लोभस्स पडमट्टिदी । ५८७. सुमसांपराइयं पडिवण्णस्स णत्थि णाणतं । ५८८. तस्सेच पडिवदमाणगस्स हुमसां पराइयं वेदेंतस्स णत्थि णाणत्तं । कसाय पाहुड सुप्त [ १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार ५८९. पढमसमयवादरसांपराइयप्पहुडि णाणत्तं वत्तस्साम । ५९० तं जहा । ५९१. तिविहस्स लोभस्स गुणसेढिणिक्खेवो इदरेहिं कस्मेहिं सरिसो। ५९२. लोभ वेदेमाणो से सेकसा ओकड्डिहिदि । ५९३. गुणसेढिणिक्खेवो इदरेहिं कम्मेहिं गुणसेटिणिक्खेवेण सम्बेसि कम्माणं सरिसो, सेसे सेसे च णिक्खिवदि । ५९४. एदाणि णाणत्ताणि जो कोहेण उवसामेदुमुबट्ठादि तेण सह सण्णिकासिज्जमाणाणि । ५९५. ए. पुरिसवेण उवदिस्स वियप्पा । वेदन करनेवाला शेष कपायोका अपकर्पण करता है और वहॉपर गुणश्रेणी- निक्षेपको भी इतर कर्मों के गुणश्रेणी - निक्षेपके सदृश करेगा || ५७६-५८३॥ चूर्णिसू० - लोभकषायके साथ श्र ेणी चढ़नेवाले उपशामककी विभिन्नता कहते है । वह इस प्रकार है - अन्तरकरण करनेके प्रथम समयमे लोभकी प्रथमस्थितिको करता है । क्रोधके साथ श्रेणी चढ़नेवाले जीवके जितनी क्रोधकी प्रथमस्थिति है, जितनी मानकी प्रथम - स्थिति है, जितनी मायाकी प्रयमस्थिति है और जितनी वादरसाम्पराकिलोभकी प्रथम स्थिति है, उतनी सब मिलाकर लोभकी प्रथमस्थिति होती है । पुनः सूक्ष्मसाम्परायिकलोभको प्राप्त होनेवाले जीवके कोई विभिन्नता नहीं है । उसीके नीचे गिरते समय सूक्ष्मसाम्परायका वेदन करते हुए कोई विभिन्नता नही है ।। ५८४-५८८।। चूर्णिसू०10- अव प्रथमसमयवर्ती वादरसाम्परायिकसंयतसे लेकर आगे जो विभिन्नता है उसे कहते हैं । वह इस प्रकार है - तीन प्रकारके लोभका गुणश्रेणीनिक्षेप इतर कर्मो के सदृश है । लोभका वेदन करते हुए शेष कपायोका अपकर्षण करता है । सब कर्मोंका गुणश्र ेणीनिक्षेप इतर कर्मों के गुणश्रेणीनिक्षेपके सदृश है । शेष शेषमे निक्षेपण करता है । क्रोधकषायके उदयके साथ जो कपायोके उपशमन करनेके लिए संमुद्यत हुआ है, उसके ये उपर्युक्त विभिन्नताएँ होती हैं । अतः उसके साथ सन्निकर्प करके इन विभिन्नताओको जानना चाहिए । ( यहाॅ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जो जीव जिस कषायके उदयके साथ श्रेणी चढ़ता है, वह उसी कपायके अपकर्पण करनेपर अन्तरको पूर्ण करता है । ) ये पुरुपवेदके साथ श्रेणी चढ़नेवाले पुरुष के विभिन्नता - सम्बन्धी विकल्प जानना चाहिए ॥ ५८९-५९५ ॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'जद्देही कोहेण उवदिस्स' इसे आदि लेकर आगे के समस्त सूत्राशको टीकामे सम्मिलित कर दिया गया है । ( देखो पृ० १९२२-२३ ) ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'जो कोहेण उवसामेदुमुट्ठादि तेण सह सण्णिकासिजमाणाणि ' इतने सूत्राको टीकामें सम्मिलित कर दिया गया है । ( देखो पृ० १९२४ ) Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण ७३१ ५९६. इत्थिवेदेण उवढिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । ५९७. तं जहा । ५९८. अवेदो सत्तकम्मसे उवसामेदि । सत्तण्हं पि य उवसायणद्धा तुल्ला । ५९९. एदंणाणत्तं । सेसा सव्वे वियप्पा पुरिसवेदेण सह सरिसा ।। ६००. णवंसयवेदेणोवह्रिदस्स उवसामगल्स गाणत्तं वत्तइस्सामो । ६०१. तं जहा। ६०२. अंतरदुसमयकदे णबुसयवेदमुवसामेदि । जा पुरिसवेदेण उवट्टिदस्स णवुसयवेदस्स उवसामणद्धा तदेही अद्धा गदा ण ताव णसयवेदमुवसामेदि । तदो इत्थिवेदं उवसामेदि, णवुसयवेदं पि उवसामेदि चेव । तदो इत्थिवेदस्स उवसामणद्धाए पुण्णाए इत्थिवेदो च णवुसयवेदो च उवसामिदा भवंति । ताधे चेव चरिमसमए सवेदो भवदि । तदो अवेदो सत्त कम्पाणि उवसामेदि । तुल्ला च सत्तण्हं पि कम्माणमुवसामणा । ६०३. एदं णाणत्तं णबुसयवेदण उवद्विदस्स । सेसा वियप्पा ते चेत्र कायव्वा । ६०४. एत्तो पुरिसवेदेण सह कोहेण उवट्ठिदस्स उवसामगस्स पहमसमयअपुन्यकरणमादि कादण नाव पडिवदमाणगस्स चरिपसमयअपुव्व करणो त्ति एदिस्से अद्धाए जाणि कालसंजुत्ताणि पदाणि तेसिमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। ६०५. तं जहा । ६०६. चूर्णिस०-अब स्त्रीवेदसे श्रेणी चढ़नेवाले जीवकी विभिन्नता कहते हैं। वह इस प्रकार है-स्त्रीवेदके उदयके साथ श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव अपगतवेदी होकर सात कर्मप्रकृतियोंको उपशमाता है। सातोका ही उपशमनकाल तुल्य है । यहाँ इतनी ही विभिन्नता है, शेप सर्व विकल्प पुरुषवेदके सदृश है ॥५९६-५९९॥ चूर्णिसू०-अब नपुंसकवेदसे श्रेणी चढ़नेवाले उपशामककी विभिन्नता कहते हैं। वह इस प्रकार है-अन्तर करनेके पश्चात् दूसरे समयमें नपुंसकवेदको उपशमाता है। पुरुपवेदके उदयसे श्रेणी चढ़नेवाले जीवके जो नपुंसकवेदका उपशासनकाल है, उतना काल बीत जाता है, तब तक नपुंसकवेदको नहीं उपशमाता है। तत्पश्चात् स्त्रीवेदको उपशामता है और नपुंसकवेदको भी उपशमाता है। पुनः स्त्रीवेदके उपशामनकालके पूर्ण होनेपर स्त्रीवेद और नपुंसकवेद दोनो ही उपशान्त हो जाते हैं । तभी ही यह चरमसमयवर्ती सवेदी होता है । पुनः अपगतवेदी होकर सात कर्मों को उपशामता है । सातो कर्मों की उपशामना समान है। यह नपुंसकवेदसे श्रेणी चढ़नेवाले जीवकी विभिन्नता है। शेप विकल्प वे ही अर्थात् पुरुषवेदके सदृश ही निरूपण करना चाहिए ॥६००-६०३॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे पुरुषवेदके साथ क्रोधके उदयसे श्रेणी चढ़नेवाले उपशामकके अपूर्वकरणके प्रथम समयको आदि लेकर गिरते हुए अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक इस मध्यवर्ती कालमें जो कालसंयुक्त पद है उनके अल्पवहुत्वको कहते हैं । वह इस 8 ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इस सूत्रके 'सरिसा' पदके आगे 'एत्तियमेत्तो चेव एत्थतणो विसेसो' इतना टीकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । ( देखो पृ० १९२४) Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ कसाय पाष्टुड सुत्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार सव्वत्थोवा जहणिया अणुभागखंडय-उक्कीरणद्धा । ६०७. उक्कस्सिया अणुभागखंडयउकीरणद्धा विसेसाहिया । ६०८. जहणिया द्विदिवंधगद्धा ठिदिखंडय-उक्कीरणद्धा च तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ। ६०९. पडिवदमाणगस्स जहणिया द्विदिवंधगद्धा विसेसाहिया । ६१०. अंतरकरणद्धा विसेसाहिया । ६११. उक्कस्सिया हिदिवंधगद्धा हिदिखंडय-उक्कीरणद्धा च विसेसाहिया । ६१२. चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स गुणसेडिणिक्खेवो संखेज्जगुणो । ६१३. तं चेव गुणसेडिसीसयं ति भण्णदि । ६१४. उवसंतकसायस्स गुणसेडिणिक्खेवो संखेज्जगुणो । ६१५. पडिवदमाणयस्स सुहुमसपिराइयद्धा संखेज्जगुणा । ६१६. तस्सेव लोभस्स गुणसेढिणिक्खेवो विसेसाहिओ। ६१७. उवसामगस्स सुहुमसांपराइयद्धा किट्टीणमुवसामणद्धा सुहुमसांपराइयस्स पढमहिदी च तिण्णि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ । ६१८. उवसामगस्स किट्टीकरणद्धा विसेसाहिया । ६१९ पडिबदमाणगस्स बादरसांपराइयस्स लोभवेदगद्धा संखेज्जगणा। ६२०. तस्सेव लोहस्स तिविहस्स वि तुल्लो गुणसेडिणिखेवो विसेसाहिओ। ६२१. उयसामगस्स वादरसांपराइयस्स लोभवेदगद्धा विसेसाहिया । ६२२. तस्सेव पढमद्विदी विसेसाहिया । ६२३. पडिबदमाणयस्स लोभवेदगद्धा विसेसाहिया। ६२४. पडिवदमाणगस्स मायावेदगद्धा विसेसाहिया । ६२५. तस्सेव मायावेदगस्स छण्णं कम्माण गुणसेहिणिक्खेवो विसेसाहिओ। प्रकार है-अनुभागकांडकका जघन्य उत्कीरणकाल सबसे कम है ( १ )। अनुभागकांडकका उत्कृष्ट उत्कीरणकाल विशेष अधिक है (२) । जघन्य स्थितिबन्धकाल और स्थितिकांडकउत्कीरणकाल परस्पर तुल्य और संख्यातगुणित हैं (३)। गिरनेवालेका जघन्य स्थितिवन्धकाल विशेष अधिक है ( ४ ) । अन्तरकरणका काल विशेष अधिक है ( ५ ) । उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल और स्थितिकांडकोत्कीरणकाल विशेष अधिक है (६) । चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकका गुणश्रेणीनिक्षेप संख्यातगुणा है (७) । यही गुणश्रेणीनिक्षेप 'गुणश्रेणी शीर्पक' भी कहा जाता है । उपशान्तकषायका गुणश्रेणी निक्षेप संख्यातगुणा है (९)। उसी गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिकके लोभका गुणश्रेणी-निक्षेप विशेष अधिक है (१०) ।।६०४-६१६॥ चूर्णिसू०-लोभके गुणश्रेणीनिक्षेपसे उपशामकके सूक्ष्मसाम्परायका काल, कृष्टियोके उपशमानेका काल और सूक्ष्मसाम्परायिककी प्रथमस्थिति ये तीनो ही परस्पर तुल्य और विशेष अधिक है ( ११)। उपशामकका कृष्टिकरणकाल विशेष अधिक है ( १२ )। गिरनेवाले बादसाम्परायिकका लोभवेदककाल संख्यातगुणा है ( १३ )। उसके ही तीनो प्रकारके लोभका गुणश्रेणी-निक्षेप परस्पर तुल्य और विशेप अधिक है ( १४ ) । उपशामक वादरसाम्परायिकका लोभवेदककाल विशेप अधिक है (१५)। उसीके बादर लोभकी प्रथमस्थिति विशेप अविक है ( १६ ) । गिरनेवालेका लोभवेदककाल विशेष अधिक है (१७) । गिरनेवालेका मायावेदककाल विशेष अधिक है ( १८ ) । उसी मायावेदकके छह कर्मोका गुणश्रेणी-निक्षेप विशेप अधिक है ( १९) ॥६१७-६२५॥ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण ७३३ ६२६. पडिवदमाणगस्स पाणवेदगद्धा विसेसाहिया । ६२७. तस्सेव पडिवदमाणगस्स माणवेदगस्स णवण्हं कम्माणं गणसेडिणिस्खेबो विसेसाहिओ । ६२८. उवसामगस्स मायावेदगद्धा विसेसाहिया । ६२९. मायाए पडमद्विदी विसेसाहिया । ६३०. मायाए उवसामणद्धा विसेसाहिया । ६३१. उवसामगस्स माणवेदगद्धा विसेसाहिया । ६३२. माणस्स पढमहिदी विसेसाहिया । ६३३. माणस्स उवसायणद्धा विसेसाहिया । ६३४. कोहस्स उवसामणद्धा विसेसाहिया । ६३५ छण्णोकसायाणमुवसामणद्धा विसेसाहिया । ६३६. पुरिसवेदस्स उवसामणद्धा विसेसाहिया । ६३७. इस्थिवेदस्स उवसामणद्धा विसेसाहिया । ३६८. णवंसयवेदस्स उवसामणद्धा विसेसाहिया । ६३९. खुद्दाभवग्गहणं विसेसाहियं । ६४०. उवसंतद्धा दुगुणा । ६४१. पुरिसवेदस्स पढमहिदी विसेसाहिया । ६४२. कोहस्स पढमहिदी विसेसाहिया । ६४३. मोहणीयस्स उवसामणद्धा विसेसाहिया। ६४४. पडिवदमाणगस्स जाव असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा सो कालो संखेज्जगुणो । ६४५. उवसायगस्स असंखेज्जाणं समयपवद्धाणमुदीरणकालो विसेसाहिओ। ६४६. पडिवदमाणयस्स अणियट्टिअद्धा संखेज्जगुणा । ६४७. उवसामगस्स अणियट्टिअद्धा विसेसाहिया । ६४८. पडिवदमाणयस्स अपुव्वकरणद्धा संखेज्जगुणा । ६४९. उवसामगस्स अपुव्यकरणद्धा विसेसाहिया । ६५० पडिवदमाणगस्स उक्कस्सओ चूर्णिसू०-छह कर्मोंके गुणश्रेणी-निक्षेपसे गिरनेवालेके मानका वेदककाल विशेष अधिक है (२०)। उसी गिरनेवाले मानवेदकके नवो कर्मों का गुणश्रेणीनिक्षेप अधिक है (२१)। उपशामकका मायावेदककाल विशेष अधिक है (२२) । मायाकी प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (२३) । मायाका उपशामनकाल विशेष अधिक है (२४)। उपशामकका मानवेदककाल विशेष अधिक है (२५) । मानकी प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (२६) । मानका उपशामनकाल विशेष अधिक है (२७) । क्रोधका उपशामनकाल विशेप अधिक है (२८) । छह नोकषायोका उपशामनकाल विशेष अधिक है (२९) । पुरुषवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३०)। स्त्रीवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३१) । नपुंसकवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३२) । क्षुद्रभवग्रहण विशेष अधिक है (३३) ॥६२५-६३९॥ चूर्णिसू०-क्षुद्रभवके ग्रहणकालसे उपशान्तकाल दुगुना है (३४)। पुरुपवेदकी प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (३५)। क्रोधकी प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (३६) । मोहनीयका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३७) । गिरनेवालेके जब तक असंख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा होती है, तब तकका वह काल संख्यातगुणा है (३८)। उपशामकके असंख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणाका काल विशेप अधिक है (३९)। गिरनेवालेके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है (४०)। उपशामकके अनिवृत्तिकरणका काल विशेप अधिक है. (४१) गिरनेवालेके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है (४२) । उपशामकके Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ कसाय पाहुड सुत्त [ १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार गुणसेडणिक्खेवो विसेसाहिओ । ६५१. उबसामगस्स अपुव्वकरणस्स पढमसमयगुणसे डिणिक्खेवो विसेसाहिओ । ६५२. उसामगस्स कोधवेदगद्धा संखेज्जगुणा । ६५३. अधापवत्तसंजदस्त गुण सेडिणिक्खेवो संखेज्जगुणो । ६५४. दंसणमोहणीयस्स उवसंतद्धा संखेज्जगुणा । ६५५. चारित्तमोहणीयमुवसामगो अंतरं करेंतो जाओ द्विदीओ उक्कीरदि ताओ द्विदीओ संखेज्जगुणाओ । ६५६. दंसणमोहणीयस्स अंतरद्विदीओ संखेज्जगुणाओ । ६५७. जहणिया आचाहा संखेज्जगुणा । ६५८. उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा । ६५९. उवसामगस्स मोहणीयस्स जहण्णगो विदिबंधो संखेज्जगुणो । ६६०. पडिवदमाणयस्स मोहणीयस्स जहणओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । ६६१. उवसामगस्स णाणावरण- दंसणावरण-अंतराइयाणं जहण्णओ डिविंधो संखेज्जगुणो । ६६२. एदेसिं चेव कस्माणं पडिवमाणयस्स जहणो द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । ६६३. अंतोमुहृत्तो संखेज्जगुणो । ६६४. उवसामगस्स जहण्णगो गामा-गोदाणं ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । ६६५. वेदणीस जण्णगोट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ | ६६६. पडिवदमाणगस्त णामा-गोदाणं जहणो द्विविधो विसेसाहियो । ६६७. तस्सेव वेदणीयस्स जहण्णगो हिदिबंधो विसेसाहिओ । ६६८. उवसाययस्स मायासंजलणस्स जहण्णगो हिदिबंधो मासो । ६६९. अपूर्वकरणका काल विशेष अधिक है (४३) । गिरनेवालेके उत्कृष्ट गुणश्रेणीनिक्षेप विशेष अधिक है (४४) ||६४०-६५०॥ चूर्णिसू० - गिरनेवालेके गुणश्रेणीनिक्षेपसे उपशामक अपूर्वकरणके प्रथम समयका गुणश्रेणीनिक्षेप विशेप अधिक है (४५) । उपशामकका क्रोधवेदककाल संख्यातगुणा है (४६) । अधःप्रवृत्तसंयतका गुणश्रेणीनिक्षेप संख्यातगुणा है (४७) | दर्शनमोहनीयका उपशान्तकाल संख्यातगुणा है (४८) | चारित्रमोहनीयका उपशामक अन्तर करता हुआ जिन स्थितियोका उत्कीरण करता है वे स्थितियों संख्यातगुणी है (४९) । दर्शनमोहनीयकी अन्तरस्थितियाँ संख्यातगुणी हैं (५०) । जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है (५१) । उत्कृष्ट आवाधा संख्यातगुणी है (५२) । उपशामकसे मोहनीयका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है (५३) । गिरनेवालेके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (५४) । उपशामकके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है (५५) । गिरनेवालेके इन्ही कर्मों का जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है (५६) । इससे अन्तर्मुहूर्त संख्यातगुणा है (५७) ॥६५१-६३३॥ 0 चूर्णिम् ० - अन्तर्मुहूर्तसे उपशामकके नाम और गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ( ५८ ) । वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है (५९) । गिरने - वालेके नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ( ६० ) । उसीके वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है (६१) । उपशामकके संज्वलन मायाका जवन्य Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 गा० १२३ ] पतमान- उपशामक - विशेषक्रिया निरूपण ७३५ तस्सेव पडिवदमाणगस्स जहण्णओ द्विदिबंधो वे मासा । ६७०. उवसामगस्स माणसं - जणस्स जहण्णओ हिदिबंधो वे मासा । ६७१. पडिवदमाणगस्स तस्सेव जहण्णओ ट्ठिदिबंधो चत्तारि मासा । ६७२. उवसामगस्स कोहसंजलणस्स जहण्णगो द्विदिबंधो चत्तारि मासा । ६७३. पडिवदमाणयस्स तस्सेव जहण्णगो द्विदिबंधो अट्ठ मासा | ६७४. उवसामगस्स पुरिसवेदस्स जहम्णगो ट्ठिदिबंधो सोलस वस्साणि । ६७५. तस्समये चैव संजलणाणं द्विदिबंधो बत्तीस वस्त्राणि । ६७६. पडिवदमाणगस्स पुरिसवेदस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो बत्तीस वस्साणि । ६७७ तस्ममए चेव संजलणाणं ट्ठिदिबंधो चउसद्विवस्साणि । ६७८. उवसामगस्स पढमो संखेज्जवस्सट्ठि दिगो मोहणीयस्स द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । ६७९. पडिवमाणयस्स चरिमो संखेज्जवस्सविदिओ मोहणीयस्स विदिबंधो सखेज्जगुणो । ६८०. उवसामगस्स णाणावरण दंसणावरण- अंतरायाणं पढमो संखेज्जवस हिदिगो बंधो संखेज्जगुणो । ६८१. पडिवमाणयस्स तिन्हं घादिकम्माणं चरियो संखेज्जवस्सडिदिगो बंधो संखेज्जगुणो । ६८२, उवसामगस्स णामा- गोद-वेदणीयाणं पढमो संखेज्जवस्सट्टिदिगो बंधो संखेज्जगुणो । ६८३. पडिवमाणगस्स नामा- गोद-वेदणीयाणं चरिमो संखेज्जवस्सट्ठिदिओ बंधो संखेज्जगुणो । स्थितिबन्ध एक मास है ( ६२ ) गिरनेवालेके उसी संज्वलनमायाका जघन्य स्थितिबन्ध दो मास है ( ६३ ) । उपशामक के संज्वलनमानका जघन्य स्थितिबन्ध दो मास है ( ६४ ) । गिरनेवालेके उसी संज्वलनमानका जघन्य स्थितिबन्ध चार मास है ( ६५ ) । उपशामक के संज्वलन क्रोधका जघन्य स्थितिबन्ध चार मास है । ( ६६ ) । गिरनेवालेके उसी संज्वलन क्रोधका जघन्य स्थितित्रन्ध आठ मास है (६७) । उपशामक के पुरुषवेदका जघन्य स्थिति - बन्ध सोलह वर्ष है ( ६८ ) । उसी समय में ही उपशामकके वारो संज्वलनोका स्थितिबन्ध बत्तीस वर्ष है ( ६९ ) ॥६६४-६७५॥ चूर्णिस० - गिरनेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध बत्तीस वर्ष है ( ७० ) । उसी समयमे ही चारो संज्वलनोका स्थितिबन्ध चौंसठ वर्ष है (७१) । उपशामकके संख्यात वर्षकी स्थितिवाला मोहनीयका प्रथम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ( ७२ ) । गिरनेवाले के संख्यात वर्षकी स्थितिवाला मोहनीयका अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (७३) । उपशामक के ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका संख्यात वर्षकी स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (७४) । गिरनेवालेके तीन घातिया कर्मों का संख्यात वर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (७५) । उपशामकके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका संख्यात वर्षकी स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (७६) । गिरनेवालेके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका संख्यात वर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (७७) ।।६७६-६८३॥ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुड सुत [ १४ चारित्रमोह - उपशामनाधिकार ६८४, उवसामगस्स चरिमो असंखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो मोहणीयस्स असंखेज्जगुणो । ६८५. पडिवमाणगस्स पढमो असंखेज्जवस्सडिदिगो बंधो मोहणीयस्स असंखेज्जगुणो । ६८६. उवसामगस्स घादिकम्माणं चरिमो असंखेज्जवस्सट्ठि दिगो बंधो असंखेज्जगुणो । ६८७. पडिवमाणयस्स पढमो असंखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो घादिकम्माणमसंखेज्जगुणो । ६८८. उवसामगस्स णामा - गोद-वेदणीयाणं चरिमो असंखेज्जवस्सट्टि - दिगो बंधो असंखेज्जगुणो । ६८९. पडिवदमाणगस्स णामा - गोद-वेदणीयाणं परमो असंखेज्जवस्स द्विदिगो बंधो असंखेज्जगुणो । ६९०. उवसामगस्त णामा-गोदाणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागिओ पढमो द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ७३६ ६९१. णाणावरण- दंसणावरण-वेदणीय-अंतराज्ञ्याणं पलिदोवमस्त संखेज्जदिभागगो पढमोडिदिबंधो विसेसाहिओ । ६९२. मोहणीयस्स पलिदोवमस्स संखेज्जदि - भागिगो पढमो द्विविधो विसेसाहिओ । ६९३. चरिमडिदिखंडयं संखेज्जगुणं । ६९४. जाओ द्विदीओ परिहाइण पलिदोवमट्ठिदिगो बंधो जादो, ताओ द्विदीओ संखेज्जगुणाओ । ६९५ पलिदोवमं संखेज्जगुणं । ६९६. अणियट्टिस्स पढमसमये ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । ६९७. पडिवदमाणयस्स अणियट्टिस्स चरिमसमये द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । चूर्णिसू० –उपशामकके असंख्यात वर्षकी स्थितिवाला मोहनीयका अन्तिम स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है ( ७८ ) । गिरनेवालेके असंख्यात वर्षकी स्थितिवाला मोहनीयका प्रथम स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है (७९) । उपशामकके असंख्यात वर्षकी स्थितिवाला घातिया कर्मो का अन्तिम स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है (८०) । गिरनेवालेके असंख्यात वर्षकी स्थितिवाला घातिया कर्मो का प्रथम स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है (८१) उपशामक - के नाम, गोत्र और वेदनीयका असंख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध असंख्यात - गुणा है (८२) । गिरनेवालेके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका असंख्यात की स्थितिवाला प्रथम स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है (८३) । उपशामक के नाम और गोत्रकर्मका पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है (८४) ।।६८४-६९०॥ चूर्णिसू० [0 - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका पल्योपमका संख्यातवें भागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध विशेष अधिक है (८५) । मोहनीयका पल्योपम के संख्या - तवे भागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ( ८६ ) । सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमे होनेवाला ज्ञानावरणादि कर्मों का चरम स्थितिकांडक और मोहनीयका अन्तरकरणके समकालभावी चरम स्थितिकांडक संख्यातगुणा है ( ८७ ) । - जिन स्थितियोको कम करके पल्योपमकी स्थितिवाला बन्ध हुआ है, वे स्थितियाँ संख्यातगुणी है ( ८८ ) । पल्योपम संख्यातगुणा है (८९) । अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (९०) । गिरनेवालेके अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ( ९१ ) । अपूर्व - Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ गा० १२३] पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण ६९८. अपुरकरणस्स पढमसमए द्विदिवंधो संखेज्जगुणो। ६९९. पडिवदमाणयस्स अपुव्वकरणस्स चरिमसमए हिदिबंधो संखेज्जगुणो।। ७००. पडिवदमाणयस्स अपुचकरणस्स चरिमसमए ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ७०१. पडिवदमाणयस्स अपुचकरणस्स पडमसमये ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ७०२. पडिवदमाणयस्स अणियट्टिस्स चरिमसमये ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ७०३. उवसामगस्स अणियट्टिस्स परमसमये ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ७०४. उवसामगस्स अपुव्वकरणस्स चरिमसमए ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ७०५ उवसामगस्स अपुन्छकरणस्स परमसमए ठिदिसंतकर्म संखेज्जगुणं। ७०६. एत्तो पडिवदमाणयस्स चत्तारि सुत्तगाहाओ अणुभासियवाओ । तदो उवसामणा समत्ता भवदि । करणके प्रथम समयमे स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (९२) । गिरनेवालेके अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है ( ९३ ) ॥६९१-६९९॥ चूर्णिसू०-गिरनेवालेके अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ( ९४ ) । गिरनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथम समयमे स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है। (९५) । गिरनेवालेके अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है ( ९६)। उपशामकके अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ( ९७ ) । उपशासकके अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है ( ९८ ) । उपशामकके अपूर्व- - करणके प्रथम समयमे स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ( ९९ ) ॥७००-७०५॥ चूर्णिसू०-इस प्रकार उपशामक-सम्बन्धी अल्पबहुत्वके पश्चात् उपशान्तमोहसे गिरनेवाले जीवके 'पडिवादो कदिविधो' इत्यादि चार सूत्रगाथाओकी विभाषा करना चाहिए। उनकी विभाषा करनेपर उपशामना समाप्त होती है ॥७०६॥ इस प्रकार चारित्रमोह-उपशामना नामक चौदहवाँ अर्थाधिकार समाप्त हुआ। २३ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ चरितमोहक्खवणा- अत्थाहियारो १. चरित्तमोहणीयस्स खवणार अधापवत्तकरणद्धा अपुव्वकरणद्धा अणियडिकरणद्धा च एदाओ तिण्णि वि अद्धाओं एगसंबद्धाओ एगावलियाए ओट्टिदव्चाओ । २. तदो जाणि कम्पाणि अत्थि तेसिं ठिदीओ ओट्टिदव्बाओ । ३. तेसिं चेव अणुभागफक्ष्याणं जहणफद्दय पहुडि एगफद्दयआवलिया ओट्टिदव्या । ४. तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमये अप्पा इदि कट्टु इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासियव्वाओ । ५. तं जहा । ६. संकापणपट्टवगस्स परिणामो केरिसो भवदिति विहासा । ७. तं जहा । ८. परिणामो विसुद्धो पुव्वं पि अंतोमुहुत्तप्पहुडि विमुज्झमाणो आगो अनंतगुणाए विसोहीए । ९. जोगे त्तिविहासा । १०. अण्णदरो मणजोगी, अण्णदरो वचिजोगो, ओरालियकायजोगो वा । ११. कसाये त्तिविहासा । १५ चारित्रमोहक्षपणा - अर्थाधिकार कर्म-क्षय कर जो बने, शुद्ध बुद्ध अधिकार | भायूँ तिनको नमन कर, यह क्षपणा अधिकार ॥ चूर्णिसू० - चारित्रमोहनीयकी क्षपणा में अधःप्रवृत्तकरणकाल, अपूर्वकरणकाल और अनिवृत्तिकरणकाल, ये तीनो काल परस्पर सम्बद्ध और एकावली अर्थात् ऊर्ध्व एक श्रेणीके आकार से विरचित करना चाहिए । तदनन्तर जो कर्म सत्ता में विद्यमान हैं, उनकी स्थितियोंकी पृथक्-पृथक् रचना करना चाहिए । उन्हीं कर्मों के अनुभागसम्बन्धी स्पर्धको की जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक एक स्पर्धकावली रचना चाहिए || १-३॥ चूर्णिसू० - तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में 'आत्मा विशुद्धिके द्वारा बढ़ता है' इसे आदि करके इन वक्ष्यमाण प्रस्थापनासम्बन्धी चार सूत्र - गाथाओंकी विभाषा करना चाहिए । वह इस प्रकार है - 'संक्रामण- प्रस्थापकके अर्थात् कपायोका क्षपण प्रारम्भ करनेवाले के परिणाम किस प्रकारके होते हैं' इस प्रथम गाथाकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है परिणाम विशुद्ध होते हैं और कषायोंका क्षपण प्रारम्भ करने के भी अन्तर्मुहूर्त पूर्व से अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होते हुए आरहे हैं। 'योग' इस पदकी विभाषा की जाती हैकषायोंका क्षपण करनेवाला जीव चारों मनोयोगोमेंसे किसी एक मनोयोगवाला, चारों वचनयोगोंमे से किसी एक वचनयोगवाला और औदारिककाययोगी होता है । 'कषाय' इस पदकी विभाषा की जाती है - चारों कषायोंमेसे किसी एक कषायके उदयसे संयुक्त होता है । क्या * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अण्णदरो ओरालियकायजोगो वा' ऐसा पाठ है । (देखो पृ० १९४२) Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० १२३ ] चारित्रमोहक्षपणा प्रस्थापक स्वरूप-निरूपण ७३९ १२. अण्णदरो कसायो । १३. किं वडमाणो हायमाणो ? णियमा हायमाणो । १४. उवजोगेति विहासा । १५. एक्को उवएसो णियमा सुदोवजुत्तो होण खवगसेटिं चदिति । १६. एक्को उवदेसो सुदेण वा, मदीए वा, चक्खुदंसणेण वा, अचक्खुदंसणेण वा । १७. लेस्सा त्तिविहासा । १८. णियमा सुक्कलेस्सा । १९. णियमा वड्ढमाणलेस्सा | २०. वेदो व को भवेति विहासा । २१. अण्णदरो वेदो । २२. काणि वा पुचद्वाणि च विहासा । २३. एत्थ पय डिसंतकम्मं हिदिसंतकम्ममणुभागसंतकम्मं पदेस संतकम्मं च मग्गियन्वं । २४. के वा असे बिंदि विहासा | २५. एत्थ पयडिबंधो ठिदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो च मग्गियव्वो । २६. कदि आवलियं पविसंति त्तिविहासा । २७. मूलपयडीओ सव्वाओ पविसंति । उत्तरपयडीओ वि जाओ अस्थि, ताओ पविसंति । २८. कदिहं वा पवेसगोत्ति विहासा । २९. आउग वेदणीयवजाणं वेदिज्जमाणाणं क्रम्माणं पवेसगो । ३०. के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा त्तिविहासा । ३१. थी गिद्ध वर्धमान कषाय होती है, अथवा हीयमान ? नियमसे हीयमान कषाय होती है । 'उपयोग ' इस पदकी विभाषा की जाती है - इस विषयमें एक उपदेश तो यह है कि नियमसे श्रुतज्ञानरूप उपयोगसे उपयुक्त होकर ही क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है। एक दूसरा उपदेश यह है कि श्रुतज्ञानसे, अथवा मतिज्ञानसे, चक्षुदर्शनसे अथवा अचक्षुदर्शन से उपयुक्त होकर क्षपकश्रेणी - पर चढ़ता है । 'लेश्या' इस पदकी विभाषा की जाती है - चारित्रमोहकी क्षपणा प्रारम्भ करनेवालेके नियमसे शुकुलेश्या होती है । वह भी वर्धमान लेश्या होती है । 'कौन-सा वेद होता है' इस पदकी विभापा की जाती है - क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके तीनो वेदोमेसे कोई एक वेद होता है ॥४-२१॥ चूर्णिसू० - ' कौन कौन कर्म पूर्वबद्ध हैं' इस दूसरी प्रस्थापन - गाथा के प्रथम पदकी विभाषा की जाती है - यहाँपर अर्थात् क्षपणा प्रारम्भ करनेवाले के प्रकृतिसत्त्व, स्थितिसत्त्व, अनुभागसत्त्व और प्रदेशसत्त्वका अनुमार्गण करना चाहिए । 'कौन कौन कर्माशोको बाँध है' दूसरी गाथाके इस दूसरे पदकी विभाषा की जाती है - यहॉपर प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध का अनुमार्गण करना चाहिए । 'कितनी प्रकृतियाँ उदद्यावली में प्रवेश करती हैं' दूसरी गाथाके इस तीसरे पदकी विभापा की जाती है-क्षपणा प्रारम्भ करनेवाले जीवके उदद्यावलीमे मूलप्रकृतियाँ तो सभी प्रवेश करती हैं । उत्तरप्रकृतियाँ भी जो सत्ता में विद्यमान हैं, वे प्रवेश करती हैं । 'कितनी प्रकृतियोका उदद्यावलीमे प्रवेश करता है' इस चौथे पदकी विभाषा की जाती है - आयु और वेदनीय कर्मको छोड़कर वेदन किये जानेवाले सर्व कर्मोंको प्रवेश करता है ॥२२- २९॥ चूर्णिसू० - 'कौन कौन कर्माश बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा पहले निर्जीर्ण होते हैं' तीसरी गाथा के इस पूर्वार्धकी विभाषा की जाती है - स्त्यानगृद्धित्रिक, मिध्यात्व, बारह कपाय, Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार तियमसाद-मिच्छत्त-वारसकसाय अरदि-सोग-इत्यिवेद-णqसयवेद-सव्वाणि चेव आउआणि परियत्तमाणियाओ णामाओ असुहाओ सव्वाओ चेव मणुसगइ-ओरालियसरीरओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी आदावुज्जोवणामाओ च सुहाओ णीचागोदं च एदाणि कम्माणि बंधेण वोच्छिण्णाणि । ३२. थीणगिद्धितियं मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-वारसकसाय मणुसाउगवज्जाणि आउगाणि णिरयगइतिरिक्खगइ-देवगइपाओग्गणामाओ आहारदुगं च वज्जरिसहसंघडणवज्जाणि सेसाणि संघडणाणि मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी अपज्जत्तणामं असुहतियं तित्थयरणामं च सिया, णीचागोदं एदाणि कम्माणि उदएण वोच्छिण्णाणि | ३३. अंतरं वा कहिं किच्चा के के संकामगो कहिं त्ति विहासा । ३४. ण ताव अंतरं करेदि, पुरदो काहिदि त्ति अंतरं । ३५. किं द्विदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टेयूण सेसाणि के ठाणं पडिवज्जदि त्ति विहासा । ३६. एदीए गाहाए द्विदिघादो अणुभागघादो च सूचिदो भवदि । ३७. तदो इमस्स चरिमसमयअधापवत्त करणे वट्टमाणस्स पत्थि हिदिघादो अणुभागधादो वा । से काले दो वि घादा पवत्तिहिति । अरति, शोक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, सभी आयुकर्म, परिवर्तमान सभी अशुभ नाम-प्रकृतियाँ, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर-अंगोपॉग, वज्रवृषभनाराचसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, और उद्योत नामकर्म, ये शुभ प्रकृतियॉ, तथा नीचगोत्र, इतने कर्म क्षपणा प्रारम्भ करनेवालेके वन्धसे व्युच्छिन्न हो जाते हैं । त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, मनुष्यायुको छोड़कर शेष आयु, नरकगति, तिर्यचगति और देवगतिके प्रायोग्य नामकर्मकी प्रकृतियाँ, आहारद्विक, वज्रवृपभनाराचसंहननके अतिरिक्त शेष संहनन, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, अपर्याप्तनाम, अशुभत्रिक, कदाचित् तीर्थंकरनामकर्म और नीचगोत्र, इतने कर्म क्षपणा प्रारम्भ करनेवालेके उदयसे व्युच्छिन्न हो जाते हैं । 'कहॉपर अन्तर करके किन-किन कर्मोंको कहाँ संक्रमण करता है' तीसरी गाथाके इस उत्तरार्धकी विभाषा की जाती है-यह अधःप्रवृत्तकरणसंयत यहॉपर अन्तर नहीं करता है, किन्तु आगे अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर अन्तर करेगा ॥३०-३४॥ चूर्णिसू०-कपायोंकी क्षपणा करनेवाला जीव 'किस-किस स्थिति और अनुभागविशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस-किस स्थानको प्राप्त करता है और शेप कर्म किस स्थिति तथा अनुभागको प्राप्त होते हैं।' इस चौथी प्रस्थापन-गाथाकी विभापा की जाती है-इस गाथाके द्वारा स्थितिघात और अनुभागघात सूचित किया गया है। इसलिए अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे वर्तमान कर्म-क्षपणार्थ समुद्यत इस.जीवके न तो स्थितिघात होता है और न अनुभागघात होता है। किन्तु तदनन्तरकालमे ये दोनो ही घात प्रारम्भ होगे ॥३५-३७॥ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्रमोहक्षपणा-प्रस्थापक-स्वरूप-निरूपण - ३८. परमसमयअपुचकरणं पविटेण हिदिखंडयमागाइदं । ३९. अणुभागखंडयं च आगाइदं । ४०. तं पुण अप्पसत्थाणं कम्माणमणंता भागा । ४१. कसायक्खवगस्स अपुचकरणे पडमट्टि दिखंडयस्स पमाणाणुगमं वत्तइस्सामो । ४२. तं जहा । ४३. अपुग्धकरणे परमविदिखंडयं जहण्णयं थोवं । ४४. उक्कस्सयं संखेज्जगुणं । ४५. उकस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो। ४६. जहा दंसणमोहणीयस्स उवसामणाए च दंसणमोहणीयस्स खवणाए च कसायाणमुवसामणाए च एदेसि तिहमावासयाणं जाणि अपुव्वकरणाणि तेसु अपुव्वकरणेसु पडमट्टिदिखंडयं जहण्णयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सयं सागरोवमपुधत्तं । एत्थ पुण कसायाणं खवणाए जं अपुचकरणं तम्हि अपुचकरणे पडमद्विदिखंडयं जहण्णयं पि उक्कस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेन्जदिभागो।। ४७ दो कसायक्खवगा अपुवकरणं समगं पविट्ठा । एकस्स पुण द्विदिसंतकम्म संखेज्जगुणं, एक्कस्स डिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणहीणं । जस्स संखेज्जगुणहीणं ट्ठिदिसंतकम्म, तस्स द्विदिखंडयादो परमादो संखेज्जगुणहिदिसंतकम्मियस्स द्विदिखंडयं पढम संखेज्जगुणं । विदियादो विदियं संखेज्जगुणं । एवं तदियादो तदियं । एदेण कमेण सव्वम्हि चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमे प्रवेश करनेवाले क्षपकके द्वारा स्थितिकांडक घात करने के लिए ग्रहण किया गया और अनुभागकांडक भी घात करनेके लिए ग्रहण किया गया । यह अनुभागकांडक अप्रशस्त कर्मों के अनन्त बहुभागप्रमाण है। कपायोंका क्षपण करनेवाले जीवके अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रथम स्थितिकांडकके प्रमाणानुगमको कहते हैं। वह इस प्रकार है-अपूर्वकरणमे जघन्य प्रथम स्थितिकांडक सबसे कम है। उत्कृष्ट स्थितिकांडक संख्यातगुणा है । वह उत्कृष्ट भी पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है ।। ३८-४५॥ चूर्णिम०-जिस प्रकार दर्शनमोहनीयकी उपशामनामे, दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें और कषायोकी उपशामनामें इन तीनो आवश्यकोके जो अपूर्वकरण-काल है, उन अपूर्वकरणोमें जघन्य प्रथम स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट सागरोपम-पृथक्त्वप्रमाण है, उस प्रकार यहाँ नहीं है। किन्तु यहॉपर कपायोकी क्षपणामे जो अपूर्वकरण-काल है, उस अपूर्वकरणमें जघन्य और उत्कृष्ट दोनो ही प्रथम स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥४६॥ चूर्णिसू०-कपायोका क्षपण करनेके लिए समुद्यत दो क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानमे एक साथ प्रविष्ट हुए। इनमेसे एकका तो स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है और एकका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित हीन है। जिसका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा हीन है, उसके प्रथम स्थितिकांडकसे संख्यातगुणित स्थितिसत्त्ववाले आपकका प्रथम स्थितिकांडक संख्यातगुणा है। इसी प्रकार प्रथमके दूसरे स्थितिकांडकसे द्वितीयका दूसरा स्थितिकांडक संख्यातगुणा है । इसी प्रकार तीसरेसे तीसरा स्थितिकांडक संख्यातगुणा है। इस क्रमसे अपूर्वकरणके Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ कखाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार अपुन्यकरणे जाव चरिमादो ठिदिखंडयादो ति तदिमादो तदिम संखेज्जगुणं। ४८. एसा द्विदिखंडयपरूवणा अपुवकरणे । - ४९. अपुब्धकरणस्स परमसमये जाणि आवासयाणि ताणि वत्तइस्सामो । ५०. तं जहा । ५१. विदिखंडयमागाइदं पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागो अप्पसत्थाणं कम्माणमणंता आगा अणुभागखंडयमागाइदं । ५२. पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो हिदिवंधेण ओसरिदो । ५३. गुणसेही उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता अपुवकरणद्धादो अणियट्टिकरणद्धादो च बिसेसुत्तरकालो । ५४. जे अप्पसत्थकम्मंसा ण बन्झति, तेसि कम्माणं गुणसंकयो जादो। ५५ तदो द्विदिसंतकम्म हिदिवंधो च सागरोवमकोडिसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडाकोडीए । बंधादो पुण संतकम्मं संखेज्जगुणं । ५६. एसा अपुवकरणपडमसमए परूषणा । ५७. एत्तो विदियसमए णाणत्तं । ५८. तं जहा। ५९. गुणसेही असंखेज्जगुणा । सेसे च णिक्खेवो । विसोही च अणंतगुणा । सेसेसु आवासएसु णत्थि णाणत्तं । ६०. एवं जाब पढमाणुभागखंडयं समत्तं ति । ६१. से काले अण्णमणुभागखंडयमागाइदं सेसस्स अणंता भागा। ६२. एवं संखेज्जेसु अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णमणुसर्व कालमें अन्तिम स्थितिकांडक तक एकसे दूसरा संख्यातगुणित जानना चाहिए । इस प्रकार यह अपूर्वकरणमें स्थितिकांडककी प्ररूपणा की गई ॥४७-४८॥ चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जो आवश्यक होते हैं, उन्हे कहेगे। वे इस प्रकार हैं-आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मों के स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण ग्रहण करता है । अनुभागकांडक अप्रशस्त कर्मों के अनन्त बहुभागप्रमाण ग्रहण करता है । पल्योपसका संख्यातवाँ भाग स्थितिबन्धसे घटाता है। उदयावलीके बाहिर निक्षिप्त गुणश्रेणी अपूर्वकरणकाल और अनिवृत्तिकरणकालसे विशेष अधिक है । जो अप्रशस्त कर्म नहीं बँधते हैं, उस कर्मों का गुणसंक्रमण होता है । तदनन्तर स्थितिसत्त्व और स्थितिवन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी अर्थात् सागरोपमकोटिशतसहस्रप्रमाण होता है। किन्तु वन्धसे सत्त्व संख्यातगुणा होता है । यह अपूर्वकरणके प्रथम समयमे आवश्यकोंकी प्ररूपणा हुई ॥४९-५६॥ चूर्णिस०-अव इससे आगे द्वितीय समयमें जो विभिन्नता है, उसे कहते हैं । वह इस प्रकार है-यहाँ गुणश्रणी असंख्यातगुणी है। शेषमें निक्षेप करता है और विशुद्धि अनन्तगुणी है। शेप आवश्यकोमें कोई विभिन्नता नहीं है । यह क्रम प्रथम अनुभागकांडकके समाप्त होने तक जानना चाहिए। तदनन्तरकालमें अन्य अनुभागकांडकको ग्रहण करता है जो कि घात करनेसे शेप रहे अनुभागके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। इस प्रकार संख्यात सहस्र ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अपुवकरणद्धादो अणियट्टिकरणद्धादो च विसेसुत्तरकोलो' इतने सूत्रागको टीकाका अंग बना दिया गया है । (देखो पृ० १९५१) ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह पूरा सूत्र सूत्राङ्क ५३ की टीकाके अन्तर्गत मुद्रित है (देखो पृ० १९५१)। पर इस स्थलकी टीकासे ही उसकी सुचता सिद्ध है। Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्रमोहक्षपणा प्रस्थापक स्वरूप-निरूपण ७४.३ भागखंडयं परमट्ठिदिखंडयं च, जो च पढमसमए अपुव्वकरणे ट्ठिदिबंधो पवद्धो एदाणि तिणि विसमगं णिट्टिदाणि । ६३. एवं ट्ठिदिबंधसहस्सेहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिभागे गये तदो विद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदो । ६४. ताघे चेव ताणि गुणसंकमेण संकति । ६५ तदो द्विदिबंध सहस्सेसु गदेसु परभवियणामाणं बंधवोच्छेदो जादो । ६६ तदो हिदिबंध सहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअपुव्वकरणं पत्तो । ६७. से काले पढमसमयअणिट्टी जादो । ܐ ६८. पडमसमयअणियट्टिस्स आवासयाणि वत्तइस्लामो । ६९. तं जहा । ७०. परमसमयअणियट्टिस्स अण्णं द्विदिखंडयं पलिदोषमस्स संखेज्जदिभागो । ७१. अण्णमणुभागखंडयं सेसस्स अनंता भागा । ७२. अण्णो द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण होणो । ७३. पमट्ठिदिखंड यं विसमं जहण्णयादो उकस्सयं संखेज्जभागुत्तरं । ७४. पढमे ठिदिखंडये हदे सव्वस्त तुल्लकाले अणियविपविस्स डिदिसंतकम्पं तुल्लं द्विदिखंडयं पि सव्वस्स अणियपिस्सि विदियडिदिखंड यादी विदियडिदिखंड यं तुल्लं । तदोपहुडि तदियादो तदियं तुल्लं । ७५. द्विदिबंधी सागरोचय सहस्सअनुभागकांडकोंके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकांडक, प्रथम स्थितिकांडक और जो अपूर्वकरणके प्रथम समयमे स्थितिबन्ध बांधा था वह, ये तीनो ही एक साथ समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार स्थितिबन्ध - सहस्रो के द्वारा अपूर्वकरणके कालका संख्यातवा भाग व्यतीत होनेपर निद्रा और प्रचलाका बन्धव्युच्छेद हो जाता है । उसी समय में ही वे दोनों प्रकृतियॉ गुणसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतियोमे संक्रमण करती है । तदनन्तर स्थितिबन्ध - सहस्रो व्यतीत होनेपर पर-भवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्ध- व्युच्छित्ति हो जाती है । तदनन्तर स्थितिबन्धसहस्रोंके व्यतीत होनेपर अपूर्वकरणका चरम समय प्राप्त होता है । तदनन्तर कालमें वह प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरणसंयत हो जाता है ।।५७-६७ ।। चूर्णिसू०-प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणसंयत के जो आवश्यक होते हैं, उन्हें कहते हैं । वे इस प्रकार हैं- अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण अन्य स्थितिकांडक होता है, अन्य अनुभागकांडक होता है, जो कि घातसे शेप रहे अनुभगके अनन्त बहुभागप्रमाण है । पल्योपमके संख्यातवे भागसे हीन अन्य स्थितिबन्ध होता है । ( अनिवृत्तिकरण के प्रथमसमयवर्ती नानाजीवोके परिणाम सदृश होते हुए भी ) प्रथम स्थितिकांडक विषम ही होता है और जघन्य प्रथम स्थितिकांडकसे उत्कृष्ट प्रथम स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवे भागसे अधिक होता है ।। ६८-७३ ।। चूर्णिसू० - प्रथम स्थितिकांडक के नष्ट होनेपर अनिवृत्तिकरणमे समानकालमे वर्तमान सब जीवोका स्थितिसत्त्व और स्थितिकांडक भी समान होता है । अनिवृत्तिकरणमे प्रविष्ट हुए सब जीवोका द्वितीय स्थितिकांडकसे द्वितीय स्थितिकांडक समान होता है, और उससे आगे तृतीय स्थितिकांडकसे तृतीय स्थितिकांडक समान होता है । ( यही क्रम आगे Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार पुधत्तमंतो सदमहस्सस्स । ७६. हिदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडीए । ७७. गुणसेहिणिक्खेवो जो अपुव्वकरणे णिक्खेवो तस्स सेसे सेसे च भवदि । ७८, सव्वकम्माणं पि तिण्णि करणाणि वोच्छिण्णाणि । जहा-अप्पसत्थ उवसामणकरणं णिधत्तीकरणं णिकाचणाकरणं च । ७९. एदाणि सव्वाणि पढमसमयअणियट्टिस आवासयाणि परूविदाणि । ८०. से काले एदाणि चेव । णवरि गुणसेढी असंखेज्जगुणा । सेसे सेसे च णिक्खेवो । विसोही च अणंतगुणा । ८१. एवं संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु तदो अण्णो हिदिवंधो असण्णिहि दिवंधसमगो जादो । ८२ तदो संखेज्जेसु द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु चउरिदियहि दिबंधसमगो हिदिबंधो जादो। ८३. एवं तीइदियसमगो बीइंदियसमगो एइदियसमगो जादो । ८४. तदो एइंदिय-डिदिवंधसमगादो द्विदिवंधादो संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु णामा-गोदाणं पलिदोवमहिदिगो बंधो जादो । ८५. ताधे णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेदणीय-अंतराइयाणं दिवड्डपलिदोवमहिदिगो बंधो । ८६ मोहणीयस्स वेपलिदोवमट्ठिदिगो बंधो। ८७. ताधे द्विदिसंतकम्म सागरोवमसदसहस्सपुधत्तं । भी जानना चाहिए । ) अनिवृत्तिकरणमें स्थितिबन्ध सागरोपम-सहस्रपृथक्त्व अर्थात् लक्षसागरोपमके अन्तर्गत रहता है। स्थितिसत्त्व सागरोपम-शतसहस्रप्टथक्त्व अर्थात् अतःकोडी सागरोपम रहता है। गुणश्रेणीनिक्षेप, जो अपूर्वकरणमें निक्षेप था, उसके शेष शेषमें ही निक्षेप होता है । अनिवृत्तिकरणमे सभी कर्मोंके अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण, ये तीनों ही करण व्युच्छिन्न हो जाते है। ये सब प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणके आवश्यक कहे ॥७४-७९।। चूर्णिसू०-तदनन्तर कालमे ये उपयुक्त ही आवश्यक होते हैं, विशेषता केवल यह है कि यहाँ गुणश्रेणी असंख्यातगुणी होती है। शेष शेषमे निक्षेप होता है। विशुद्धि भी अनन्तगुणी होती है। इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर तव अन्य स्थितिबन्ध असंज्ञी जीवके स्थितिबन्धके सदृश होता है । पुनः संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर चतुरिन्द्रियके स्थितिवन्धके सदृश स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार क्रमशः त्रीन्द्रियके सदृश, द्वीन्द्रियके सदृश और एकेन्द्रियके सदृश स्थितिवन्ध होता है। तत्पश्चात् एकेन्द्रियके स्थितिवन्धके समान स्थितिवन्धसे संख्यात सहस्र स्थितिवन्धोके व्यतीत होनेपर नाम और गोत्र कर्मका पल्योपमकी स्थितिवाला बन्ध होता है। उसी समय ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका डेढ़ पल्योपमप्रमाण स्थितिवन्ध होता है । मोहनीयका दो पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । उस समयमें सर्व कर्मोंका स्थितिसत्त्व सागरोपमशतसहस्रपृथक्त्व है ॥८०-८७॥ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्रमोहक्षपक- विशेषक्रिया- निरूपण ७४५ - ८८. जाधे णामा-गोदाणं पलिदोवमट्ठिदिगो वंधो ताधे अप्पाबहुअं वत्तसामो । ८९. तं जहा । ९०. णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । ९१. णाणावरणीयदंसणावरणीय वेदणीय - अंतराइयाणं ठिदिबंधो विसेसाहिओ । ९२. मोहणीयस्स बंधो विसेसाहिओ । ९३. अदिकता सच्चे हिदिबंधा एदेण अप्पाबहु अविहिणा गदा | ९४. तो णामा-गोदाणं पलिदोवमट्ठिदिगे बंधे पुण्णे जो अण्णो ठिदिबंधो, सो संखेजगुणहीण । ९५. सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो विसेसहीणो । ९६. ताचे अप्पाबहुअं । गामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । ९७. चदुण्हं कम्माणं ठिदिबंधो तुल्लो संखे गुणो । ९८. मोहणीयस्स ठिदिबंधो विसेसाहिओ । ९९. एदेण कमेण संखेजाणि ट्ठिदिबंधसहस्त्राणि गदाणि । १०० तदो णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय-अंतराइयाणं पलिदोषमडिदिगो बंधो जादो । १०१. ताधे मोहणीयस्स विभागुत्तरपलिदोमट्टिदिगो बंध जादो । १०२. तदो अण्णो ठिदिबंधो चदुण्हं कम्माणं संखेज्जगुणहीणं । १०३. ताधे अप्पाबहुअं । णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । १०४. चदुण्हं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । १०५. मोहणीयस्स ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । १०६. एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्साणि गदाणि । चूर्णिसू० - जिस समय नाम और गोत्रका पल्योपमकी स्थितिवाला वन्ध होता है, उस समयका अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इस प्रकार है- नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । मोहनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । अतिक्रान्त अर्थात् इससे पूर्व में वर्णित सभी स्थितिबन्ध इसी अल्पबहुत्वविधान से व्यतीत हु है ।। ८८-९३॥ 1 1 चूर्णिसू० - पुनः नाम और गोत्रका पल्योपमकी स्थितिवाला बन्ध पूर्ण होनेपर जो अन्य स्थितिबन्ध होता है, वह संख्यातगुणा हीन होता है । शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष हीन होता है । उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है- - नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम है । ज्ञानावरगादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और संख्यातगुणा है । मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं । तब ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मका स्थितिबन्ध पल्योपमप्रमाण होता है । उसी समय मोहनीयका त्रिभागसे अधिक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका जो अन्य स्थितिबन्ध है वह संख्यातगुणाहीन है । उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है- नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम है । ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । मोहनीयका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इस क्रम संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं ।। ९४ - १०६॥ * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पलिदोवमट्ठिदिगो वंधो' ऐसा पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १९५७ ) ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'असंखेजगुणो' पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १९५८ ) ९४ यू Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १०७. तदो मोहणीयस्स पलिदोवमट्ठिदिगो वंधो। १०८. सेसाणं कम्माणं पलिदोवमस्स संखेजदिभागो ठिदिवंधो । १०९ एदम्हि ठिदिवंधे पुण्णे मोहणीयस्स ठिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो। ११० तदो सव्वेसिं कम्माणं ठिदिवंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो चेव । १११. ताधे वि अप्पाबहुअं । णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । ११२ णाणावरण-दसणावरण-वेदणीय-अंतराइयाणं ठिदिवंधो संखेज्जगुणो । ११३. मोहणीयस्स ठिदिबंधो संखेज्जगुणो। ११४. एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिवंधसहस्साणि गदाणि । ११५. तदो अण्णो ठिदिवंधो जाधे णामा-गोदाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ताधे सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ११६ ताधे अप्पाबहु णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । ११७. चदुहं कम्माणं ठिदिवंधो असंखेज्जगुणो । ११८. मोहणीयस्स ठिदिबंधो संखेज्जगुणो। ११९. तदो संखेज्जेसु ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु तिण्हं घादिकम्माणं वेदणीयस्स च पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिवंधो जादो। १२०. ताधे अप्पावहु णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । १२१. चदुहं कम्माणं ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १२२. मोहणीयस्स ठिदिवंधो असंखेजगुणो। ~~~~~~~~~~~~~~ ~~~~~~~~~~~ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् मोहनीयका स्थितिबन्ध पल्योपमप्रमाण होता है और शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है। इस स्थितिवन्धके पूर्ण होनेपर मोहनीयका स्थितिवन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है। तत्पश्चात् सब कर्मोंका स्थितिवन्ध पल्योपमके संख्यातवे भागमात्र ही होता है । उस समय भी अल्पबहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। मोहनीयका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते है ॥१०७-११४॥ चूर्णिस०-तत्पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिवन्ध होता है। जिस समय नाम और गोत्रकर्मका पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण स्थितिवन्ध होता है, उस समय शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण होता है। उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सवसे कम होता है। चार कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है और मोहनीयका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा होता है । तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिवन्धोंके व्यतीत होनेपर तीन घातिया कर्मोंका और वेदनीय कर्मका स्थितिवन्ध पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण हो जाता है। उस समय अल्पवहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है। ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । मोहनीय कर्मका स्थितिवन्ध असंख्यात गुणा होता है ॥११५-१२२॥ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्र मोहक्षपक- विशेष क्रिया निरूपण १२३. तदो संखेज्जेस ठिदिबंध सहस्सेसु गदेसु मोहणीयस्स वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिबंधो जादो । १२४ ताधे सव्वेसिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिबंधो जादो । १२५. ताथे ठिदिसंतकम्मं सागरोवमसहस्स प्रधत्त मंतोसद सहस्सस्स । १२६. जाधे परमदाए मोहणीयस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिबंधो जादो, ता अप्पा बहुअं । १२७. णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । १२८. चदुण्हं कम्माणं ठिदिबंध तु असंखेज्जगुणो । १२९. मोहणीयस्स ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १३० एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्साणि गदाणि । १३१. तदो जहि अण्णो ठिदिबंधो तम्हि एकसराहेण णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । १३२. मोहणीयस्स ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १३३. चउन्हं कम्माणं ठिदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । १३४. एदेग कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंध सहस्त्राणि गदाणि । तदो जम्हि to ठिदिबंध हि एकसराहेण मोहणीयस्स ठिदिबंधो थोवो । १३५. नामा- गोदाणं ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १३६. चउन्हें कम्माणं ठिदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । १३७. एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्त्राणि गदाणि । तदो जम्हि अण्णो ठिदिबंधो तम्हि एकसराहेण मोहणीयस्स ठिदिबंधो थोवो । १३८. णामा-गोदाणं चूर्णि सू० [o - तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर मोहनीयका भी पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है । उसी समय शेष सर्व कमका भी स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है । उस समय सर्व कर्मोंका स्थितिसत्त्व सागरोपम-सहस्रपृथक्त्व है, जो कि सागरोपम - लक्षके अन्तर्गत है । जिस समय प्रथम वार मोहनीयका स्थितिबन्ध पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है- नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम है। चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर समान और असंख्यातगुणा है । मोहनीय कर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है ॥१२३-१२९॥ ७४७ I चूर्णिसू० - इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते है । तत्पश्चात् जिस समयमें अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है, उस समय में एक साथ नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है । मोहनीयका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर समान और असंख्यातगुणा होता है । इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते है । तत्पश्चात् जिस समयमे अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है, उस समयमे एक साथ ही मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम हो जाता है । नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है और शेष चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है ॥१३०-१३६॥ चूर्णिसू० - इस उपयुक्त क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् जिस समयमे अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है, उस समय एक साथ मोहनीयका Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ठिदिवंधो असंखेजगुणो । १३९.तिण्हं धादिकम्माणं ठिदिबंधो असंखेजगुणो । १४०. वेदणीयस्स ठिदिवंधो असंखेज्जगुणो। १४१. एवं संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्साणि गदाणि । १४२. तदो अण्णो ठिदिबंधो एक्कसराहेण मोहणीयस्स ठिदिबंधो थोत्रो । १४३. तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १४४ णामा-गोदाणं ठिदिवंधो असंखेज्जगुणो। १४५. वेदणीयस्स ठिदिबंधो विसेसाहिओ । १४६. एदेणेव कमेण संखेन्जाणि ठिदिवंधसहस्साणि गदाणि । १४७. तदो ठिदिसंतकम्ममसण्णिठिदिवंधेण समगं जादं। १४८. तदो संखेज्जेसु ठिदिवंधसहस्सेसु गदेसु चउरिंदियठिदिवंधेण समगं जादं । १४९. एवं तीइदिय-बीइंदियठिदिवंधेण समगं जादं । १५०. तदो संखेज्जेसु ठिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु एइंदियठिदिवंधेण समगं ठिदिसंतकम्मं जादं । १५१. तदो संखेज्जेसु ठिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु णामा-गोदाणं पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्मं जादं । १५२. ताधे चदुण्हं कम्माणं दिवड्डपलिदोवमद्विदिसंतकम्मं । १५३. मोहणीयस्स वि वेपलिदोवमहिदिसंतकम्मं । १५४. एदम्मि ठिदिखंडए उक्किण्णे णामा-गोदाणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागियं ठिदिसंतकम्मं । १५५. ताधे अप्पाबहुअं । सव्वत्थोवं स्थितिबन्ध सवसे कम हो जाता है । नाम और गोत्रका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है । तीन घातिया काँका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है । वेदनीयका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है । इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिवन्ध व्यतीत होते हैं। तत्पश्चात् अन्य स्थितिवन्ध प्रारम्भ होता है। उस समय एक साथ मोहनीयका स्थितिवन्ध सबसे कम होता है। तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है। नाम और गोत्र कर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है। वेदनीयका स्थितिवन्ध विशेप अधिक होता है ॥१३७-१४५॥ चूर्णिसू०-इस ही क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिवन्ध व्यतीत होते हैं । तव सव कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवके स्थितिवन्धके समान हो जाता है। तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिवन्धोके वीत जानेपर चतुरिन्द्रियके स्थितिवन्धके समान स्थितिसत्त्व हो जाता है । इसी प्रकार क्रमशः त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रियके स्थितिवन्धके सदृश स्थितिसत्त्व होता है । पुनः संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर एकेन्द्रियके स्थितिघन्धके सदृश स्थितिसत्त्व हो जाता है। तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोके व्यतीत होनेपर नाम और गोत्र कर्मका स्थितिसत्त्व पल्योपमप्रमाण हो जाता है ।।१४६-१५१॥ चूर्णिसू०-उस समय ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिसत्त्व डेढ़ पल्योपम-प्रमाण है। मोहनीयका भी स्थितिसत्त्व दो पल्योपम-प्रमाण है। इस स्थितिकांडकके उत्कीर्ण होनेपर नाम और गोत्र कर्मका स्थितिसत्त्व पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है। उस समयमें अल्पवहुत्वं इस प्रकार है-नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व सबसे कम है । चार कर्मोका स्थिति Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] . चारित्रमोहक्षपक-विशेषक्रिया-निरूपण ७४९ णामा-गोदाणं ठिदिसंतकम्मं । १५६. चउण्हं कम्माणं ठिदिसंतकम्म तुल्लं संखेज्जगुणं । १५७ मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । १५८. एदेण कमेण ठिदिखंडयपुधत्ते गदे तदो चदुण्हं कम्माणं पलिदोवमद्विदिसंतकम्मं । १५९. ताधे मोहणीयस्स पलिदोवमं तिभागुत्तरं ठिदिसंतकम्मं । १६०. तदो द्विदिखंडए पुण्णे चतुण्डं कम्माणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो द्विदिसंतकम्मं । १६१. ताधे अप्पाबहुअं। सव्वत्थोवं णामा-गोदाणं द्विदिसंतकम्मं । १६२. चदुहं कम्माणं द्विदिसंतकम्मं तुल्लं संखेज्जगुणं । १६३. मोहणीयस्स हिदिसंतकम्म संखेज्जगुणं । १६४. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण मोहणीयस्स विदिसंतकम्मं पलिदोवमं जादं। १६५. तदो डिदिखंडए पुण्णे सत्तहं कम्माणं पलिदोवमस्स संखेन्जदिभागो द्विदिसंतकम्मं जादं । १६६. तदो संखेज्जेसु द्विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु णामा-गोदाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो हिदिसतकम्मं जादं । १६७. ताधे अप्पाबहुअं । सव्वत्थोवं णामा-गोदाणं हिदिसंतकम्मं । १६८. चउण्हं कम्माणं हिदिसंतकम्मं तुल्लमसंखेज्जगुणं । १६९. मोहणीयस्स हिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । १७०. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण च उण्हं कम्माणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो हिदिसंतकम्म जादं । १७१. ताधे अप्पाबहुअं । णामा-गोदाणं ट्ठिदिसंतकम्मं थोवं । १७२. चउण्हं कम्माणं ट्ठिदिसत्त्व परस्पर तुल्य और संख्यातगुणा है । मोहनीयका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है । इस क्रमसे स्थितिकांडकपृथक्त्वके व्यतीत होनेपर चार कर्मो का स्थितिसत्त्व पल्योपमप्रमाण होता है। उसी समय मोहनीयका स्थितिसत्त्व विभागसे अधिक पल्योपमप्रमाण होता है।। १५२-१५९।। चूर्णिसू०-तत्पश्चात् स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर चार कर्मोंका स्थितिसत्त्व पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है। उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व सबसे कम है। चार कर्मोंका स्थितिसत्त्व परस्पर समान और संख्यातगुणा है । मोहनीयका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है । तत्पश्चात् स्थितिकांडक-पृथक्त्वसे मोहनीयका स्थितिसत्त्व पल्योपमप्रमाण हो जाता है ॥१६०-१६४॥ चूर्णिसू०-तदनन्तर स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर सात फर्मोंका स्थितिसत्त्व पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है । पुनः संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है। उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व सबसे कम है । चार कर्मोंका स्थितिसत्त्व परस्पर समान । और असंख्यातगुणा है । मोहनीयका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है। पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके पश्चात् चार कर्मों का स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है। उस समय अल्पवहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व सबसे कम है। चार कर्मोंका स्थितिसत्त्व परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा है । Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० कसाय पाहुड सुस्त [१५ चारित्रमोह क्षपणाधिकार संतकम्मं तुल्लमसंखेज्जगुणं । १७३. मोहणीयस्स हिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । १७४. तदो हिदिखंडयपुधत्तेण मोहणीयस्स वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो डिदिसंतकम्म जादं । १७५. ताधे अप्पावहुअं। जधा-णामा-गोदाणं द्विदिसंतकम्मं थोवं । १७६. चदुण्हं कम्माणं ट्ठिदिसंतकम्म तुल्लमसंखेज्जगुणं । १७७ मोहणीयस्स हिदिसंतकम्म असंखेज्जगुणं । १७८. एदेण कमेण संखेज्जाणि द्विदिखंडयसहस्साणि गदाणि । १७९. तदो णामा-गोदाणं द्विदिसंतकम्मं थोवं । १८०. मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । १८१. चउण्हं कम्माण डिदिसंतकम्मं तुल्लमसंखेज्जगुणं । १८२. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण गदे एकसराहेण मोहणीयस्स हिदिसंतकम्मं थोवं । १८३. णामा-गोदाणं विदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । १८४. चउण्हं कम्माणं द्विदिसंतकम्मं तुल्लमसंखेज्जगुणं । १८५. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्मं थोवं । १८६. णामागोदाणं द्विदिसंतकम्मं असंखेज्जगुणं । १८७. तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । १८८. वेदणीयस्स हिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । १८९. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण मोहणीयस्स हिदिसंतकम्म थोत्रं । १९०. तिण्हं घादिकम्माणं हिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । १९१. णामा-गोदाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । १९२. वेदणीयस्स मोहनीयका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके पश्चात् मोहनीयका भी स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण हो जाता है। उस समय अल्पवहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्रकर्मका स्थितिसत्त्व सबसे कम है । चार कर्मों का स्थितिसत्त्व परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा है । मोहनीयका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा है ॥१६५-१७७॥ चूर्णिस०-इस क्रमसे संख्यातसहस्र स्थितिकांडक व्यतीत होते हैं। तब नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व सबसे कम होता है। मोहनीयका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा होता है। चार कर्मों का स्थितिसत्त्व परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है। तत्पश्चात् स्थितिकांडक पृथक्त्वके व्यतीत होनेपर एक साथ मोहनीयका स्थितिसत्त्व सबसे कम हो जाता है । नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा होता है। चार कर्मों का स्थितिसत्त्व परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है ।। १७८-१८४॥ चूर्णिस०-तदनन्तर स्थितिकांडक-पृथक्त्वके पश्चात् मोहनीयका स्थितिसत्त्व सबसे कम हो जाता है । नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा होता है । तीन घातिया कर्मो का स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा होता है। वेदनीयका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा होता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके पश्चात् मोहनीयका स्थितिसत्त्व सबसे कम होता है। तीन घातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा होता है। नाम और गोत्रकर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा होता है। वेदनीयका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक होता है। इस क्रमसे Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३ ] चारित्रमोहक्षपक-विशेषक्रिया-निरूपण ७५१ द्विदिसंतकम्मं विसेसाहियं । १९३.एदेण कमेण संखेज्जाणि द्विदिखंडयसहस्साणि गदाणि। १९४. तदो असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा । १९५. तदो संखेज्जेसु हिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु अट्टण्हं कसायाणं संकामगो। १९६. तदो अट्ठकसाया द्विदिखंडयपुधत्तेण संकामिज्जति । १९७. अट्ठण्हं कसायाणमपच्छिमट्ठिदिखंडए उकिण्णे तेसिं संतकम्ममावलियपविट्ठ सेसं । १९८ तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं णिरयगदि-तिरिक्खगदिपाओग्गणामाणं संतकम्मस्स संकामगो । १९९. तदो द्विदिखंड यपुधत्तेण अपच्छिमे द्विदिखंडए उक्किण्णे एदेसिं सोलसण्हं कम्माणं द्विदिसंतकम्ममावलियम्भंतरं सेसं। २००. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण मणपज्जवणाणावरणीय-दाणंतराइयाणं च अणुभागो बंधेण देसघादी जादो । २०१. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण ओहिणाणावरणीयओहिदसणावरणीय-लाहंतराइयाणमणुभागो वंधेण देसघादी जादो । २०२. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण सुदणाणावरणीय-अचक्खदंसणावरणीय-भोगंतराइयाणमणुभागो बंधेण देसघादी जादो । २०३. तदो द्विदिखंड यपुधत्तेण चक्खुदंसणावरणीय-अणुभागो वंधेण देसघादी जादो । २०४. तदो द्विदिखंड यपुधत्तेण आभिणिवोहियणाणावरणीय-परिभोसंख्यात सहस्र स्थितिकांडक व्यतीत होते है । तत्पश्चात् असंख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा होती है ॥१८५-१९४॥ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोके व्यतीत होनेपर आठ मध्यम कषायोका संक्रामक अर्थात् क्षपणाका प्रारम्भक होता है। तत्पश्चात् स्थितिकांडकपृथक्त्वसे आठ कषाय संक्रान्त की जाती हैं। आठ कषायोके अन्तिम स्थितिकांडकके उत्कीर्ण होनेपर उनका स्थितिसत्त्व आवली-प्रविष्ट शेष अर्थात् उदयावलीप्रमाण रहता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके पश्चात् निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि तथा नरकगति और तिर्यंचगतिके प्रायोग्य नामकर्मकी तेरह प्रकृतियोके स्थितिसत्त्वका संक्रामक होता है । ( वे तेरह प्रकृतियाँ ये हैं-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण । ) पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वसे अपश्चिम स्थितिकांडकके उत्कीर्ण होनेपर इन उपयुक्त सोलह कर्मो का स्थितिसत्त्व उदयावली-प्रविष्ट शेष रहता है ॥१९५-१९९॥ ___ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायकर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाती हो जाता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय फर्मका अनुभाग बंधकी अपेक्षा देशघाती हो जाता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय कर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाती हो जाता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा चक्षुदर्शनावरणीय कर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाती हो Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार गंतराइयाणमणुभागो बंधेण देसघादी जादो । २०५. तदो द्विदिखंड यपुधत्तेण वीरियंतराइयस्स अणुभागो बंधेण देसघादी जादो। २०६. तदो द्विदिखंड यसहस्सेसु गदेसु अण्णं द्विदिखंडयमण्णमणुभागखंड यमण्णो द्विदिवंधो अंतरद्विदीओ च उक्कीरिदुं चत्तारि वि एदाणि करणाणि समगमाहत्तो। २०७. चउण्हं संजलणाणं णवण्हं णोकसायवेदणीयाणमेदेसिं तेरसण्हं कम्माणमंतरं । २०८. सेसाणं कम्माणं णत्थि अंतरं । २०९. पुरिसवेदस्स च कोहसंजलणाणं च पडमद्विदिमंतोमुहुत्तमेत्तं मोत्तूणमंतरं करेदि । सेसाणं कम्माणमावलियं मोत्तण अंतरं करेदि । २१०. जाओ अंतरविदीओ उक्कीरंति तासिं पदेसग्गमुक्कीरमाणियासु द्विदीसु ण दिज्जदि । २११. जासिं पयडीणं पडमट्टिदी अस्थि तिस्से पढमहिदीए जाओ संपहि-द्विदीओ उक्कीरंति तमुक्कीरमाणगं पदेसग्गं संछुहदि । २१२. अध जाओ बझंति पयडीओ तासिमाबाहामधिच्छियूण जा जहणिया णिसेगठिदी तमादि कादूण बज्झमाणियासु हिदीसु उक्कड्डिज्जदे । २१३. संपहि अवद्विदअणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णमणुभागखंडयं जो च अंतरे जाता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय कर्मका अनुभाग वन्धकी अपेक्षा देशघाती हो जाता है। पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा वीर्यान्तरायकर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाती हो जाती है ॥२००-२०६॥ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् सहस्रों स्थितिकांडकोके बीत जानेपर अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकांडक, अन्य स्थितिबन्ध और उत्कीरण करनेके लिए अन्तर-स्थितियाँ, इन चारों करणोको एक साथ आरम्भ करता है। चारों संज्वलन और नवो नोकषाय वेदनीय, इन तेरह कर्मों का अन्तर करता है। शेष कर्मों का अन्तर नहीं होता है । पुरुषवेद और संज्वलनकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है। (क्योंकि यहाँ इनका उदय पाया जाता है । ) शेष कर्मों की आवलीप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है । ( क्योकि यहाँ उनका उदय नहीं है।) जिन अन्तरस्थितियोको उत्कीर्ण किया जाता है, उनके प्रदेशाग्रको उत्कीर्ण की जानेवाली स्थितियोमें नहीं देता है । किन्तु जिन उदयप्राप्त प्रकृतियोकी प्रथमस्थिति है, उस प्रथमस्थितिमे और जो इस समय स्थितियाँ उत्कीर्ण की जा रही हैं, उनमें उस उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको यथासंभव समस्थिति-संक्रमणके द्वारा संक्रान्त करता है । तथा जो प्रकृतियाँ बंधती हैं, उनकी आबाधाका अतिक्रमण कर जो जघन्य निषेकस्थिति है, उसे आदि करके वध्यमान स्थितियोमें अनन्तर-स्थितियोंमे उत्कीर्ण किये जानेवाले उस प्रदेशाग्रको उत्कर्षणके द्वारा संक्रान्त करता है। इस प्रकार अवस्थित रूपसे सहस्रो अनुभागकांडकोके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकांडक, अन्तरकरणमें स्थितियोके उत्कीर्ण करते समय जो स्थितिबन्ध बाँधा था, १ तत्थ किमंतरकरण णाम ? अतरं विरहो सुण्णभावो त्ति एयट्ठो। तस्स करणमतरकरणं, हेट्ठा उवरिं च केत्तियाओ ठ्ठिदोओ मोत्तूण मज्झिल्लाणं ट्ठिदीर्ण अंतोमुहुत्तपमाणाण णिसेगे सुण्णत्तसपादणमंतरकरणमिदि भणिदं होइ । जयध० - Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२३] चारित्रमोहक्षपक-विशेषक्रिया-निरूपण ७५३ उकीरिज्जमाणे द्विदिबंधो पबद्धो जं च ठिदिखंडयं जाव अंतरकरणद्धा एदाणि समगं णिढाणियमाणाणि णिद्विदाणि । २१४. से काले [अंतर-] परमसमय-दुसमयकदं । २१५. ताधे चेव णबुंसयवेदस्स आजुत्तकरणसंकामगो, मोहणीयस्स संखेज्जवस्सद्विदिगो बंधो, मोहणीयस्स एगट्ठाणिया बंधोदया, जाणि कम्माणि वझंति तेसिं छसु आवलियासु गदासु उदीरणा, मोहणीयस्स आणुपुव्वीसंकमो, लोहसंजलणस्स असंकमो एदाणि सत्त करणाणि अंतर-दुसमयकदे आरद्धाणि । २१६. तदो संखेज्जेसु द्विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु णबुंसमवेदो संकामिज्जमाणो संकामिदो।। २१७. तदो से काले इत्थिवेदस्स पडमसमयसंकामगो। २१८. ताधे अण्णं द्विदिखंडयमण्णमणुभागखंडयमण्णो द्विदिवंधो च आरद्धाणि । २१९. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण इत्थिवेदक्खवणद्धाए संखेज्जदिमागे गदे णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणं तिण्डं घादिकम्माणं संखेज्जवस्सहिदिगो बंधो । २२०. तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण इत्थिवेदस्स जं हिदिसंतकम्मं तं सचमागाइदं । २२१. सेसाणं कम्माणं द्विदिसंतकम्मस्स तत्सम्बन्धी स्थितिकांडक और अन्तरकरणकाल, समाप्त किये जानेवाले ये सब एक साथ समाप्त हो जाते है। तदनन्तर कालमें अन्तर-प्रथमसमयकृत और अन्तर-द्विसमयकृत होता है ॥२०७-२१४॥ विशेषार्थ-जिस समयमें अन्तरसम्बन्धी चरमफाली नष्ट होती है, उस समय उसे प्रथमसमयकृत-अन्तर कहते हैं और तदनन्तर समयमें उसे द्विसमयकृत-अन्तर कहते है । चूर्णिसू०-उसी समय ही अर्थात् अन्तरसम्बन्धी चरमफालीके पतन होनेपर नपुंसक वेदका आयुक्तकरण-संक्रामक होता है, अर्थात् नपुंसकवेदकी क्षपणामे प्रवृत्त होता है ( १ ) । उसी समय मोहनीयका संख्यात वर्पवाला स्थितिबन्ध (२), मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध और उदय ( ३-४ ), जो कर्म बंधते हैं, उनकी छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा ( ५ ), मोहनीयका आनुपूर्वी संक्रमण ( ६ ) और लोभके संक्रमणका अभाव (७), ये सात करण द्विसमयकृत-अन्तरमे एक साथ प्रारम्भ होते हैं। तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोके व्यतीत हो जानेपर संक्रमणको प्राप्त कराया जानेवाला नपुंसकवेद पुरुपवेदमे संक्रान्त हो जाता है ॥२१५-२१६॥ चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमे वह स्त्रीवेदका प्रथमसमयवर्ती संक्रामक होता है । उस समय अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकांडक और अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होते है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा स्त्रीवेदके क्षपणा-कालका संख्यातवॉ भाग व्यतीत होनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीन धातिया कर्मों का संख्यात वर्षकी स्थितिवाला वन्ध होता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा स्त्रीवेदका जो स्थितिसत्त्व है, वह सब क्षपण करनेके लिए ग्रहण कर लिया जाता है । तथा शेष कर्मों के स्थितिसत्त्वका असंख्यात वहुभाग भी क्षपणाके लिए ग्रहण कर लिया जाता है। उस स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर संक्रम्यमाण ९५ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार असंखेज्जा भागा आगाइदा । २२२. तम्हि द्विदिखंडए पुण्णे इत्थिवेदो संछुन्भमाणो संछुद्धो । २२३. ताधे चेव मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्साणि । २२४. से काले सत्तण्हं णोकसायाणं पढमसमयसंकामगो। २२५. सत्तण्हं णोकसायाणं पढमसमयसंकामगस्स द्विदिवंधो मोहणीयस्स थोवो । २२६. णाणावरणदसणावरण-अंतराइयाणं द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । २२७. णामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो। २२८. वेदणीयस्स हिदिबंधो विसेसाहिओ । २२९. ताधे द्विदिसंतकम्म मोहणीयस्स थोवं । २३०. तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २३१. णामा-गोदाणं डिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं । २३२.वेदणीयस्स हिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । २३३. पडमद्विदिखंडए पुणे मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणहीणं । २३४. सेसाणं द्विदिसंतकम्मं असंखेज्जगुणहीणं । २३५. द्विदिबंधो णामा-गोद-वेदणीयाणं असंखेज्जगुणहीणो । २३६. धादिकम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जगुणहीणो । २३७. तदो द्विदिखंडयपुधत्ते गदे सत्तण्हं णोकसायाणं खवणद्धाए संखेज्जदिभागे गदे णामा-गोद-वेदणीयाणं संखेज्जाणि वस्साणि द्विदिवंधो । २३८. तदो द्विदि खंड यपुधत्ते गदे सत्तण्हं णोकसायाणं खवणद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरणदसणावरण-अंतराइयाणं संखेज्जवस्सट्ठिदिसंतकम्मं जादं । २३९. तदो पाए [धादिस्त्रीवेद संक्रान्त हो जाता है। उसी समयमे मोहनीयका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्षप्रमाण हो जाता है ॥२१७-२२३॥ चूर्णिसू०-तदनन्तर कालमे वह सात नोकपायोका प्रथम समयवर्ती संक्रामक होता है। सात नोकषायोके प्रथम-समयवर्ती संक्रामकके मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा होता है। नाम और गोत्र कर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है और वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । उस समय मोहनीयका स्थितिसत्त्व सबसे कम है। तीन घातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा है। नाम और गोत्रका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा है । वेदनीयका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है । प्रथम . स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर मोहनीयका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा हीन हो जाता है । शेष कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा हीन होता है । तभी नाम, गोत्र और वेदनीयका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा हीन होता है और घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है ॥२२४-२३६॥ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् स्थितिकांडकपृथक्त्वके बीतनेपर सात नोकषायोके क्षपणकालके संख्यातवे भागके बीत जानेपर नाम, गोत्र और वेदनीयका स्थितिवन्ध संख्यात वर्षप्रमाण हो जाता है । तत्पश्चात् स्थितिकांडकपृथक्त्वके वीतनेपर और सात नोकषायोंके क्षपणाकालके संख्यात वहुभागोके व्यतीत होनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्षकी स्थितिवाला हो जाता है । इस स्थलसे लेकर घातिया कर्मोके प्रत्येक स्थितिवन्ध Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५५ मा० १२३] चारित्रमाहभपक-विशेषक्रिया-निरूपण कम्माणं] ठिदिबंधे ठिदिखंडए च पुण्णे पुण्णे ठिदिवंध-ठिदिसंतकम्माणि संखेज्जगुणहीणाणि । २४०. णामा-गोद-वेदणीयाणं पुण्णे ठिदिखंडए असंखेज्जगुणहीणं ठिदिसंतकम्मं । २४१. एदेसि चेव ठिदिवंधे पुण्णे अण्णो ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो । २४२ एदेण कमेण ताव जाव सत्तण्हं णोकसायाणं संकामयस्स चरिमद्विदिबंधो त्ति । २४३ सत्तण्हं णोकसायाणं संकांमयस्स चरिमो ठिदिवंधो पुरिसवेदस्स अट्ट वस्साणि । २४४ संजलणाणं सोलस वस्साणि । २४५ सेसाणं कम्माणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ठिदिबंधो। २४६. ठिदिसंतकम्मं पुण घादिकम्माणं चदुण्हं पि संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २४७. णामा-गोद-वेदणीयाणमसंखेज्जाणि वस्साणि । २४८. अंतरादो दुसमयकदादो पाए छण्णोकसाए कोधे संछुह दि, ण अण्णम्हि कम्हि वि । २४९.पुरिसवेदस्स दो आवलियासु पढमहिदीए सेसासु आगाल-पडि आगालोवोच्छिण्णो। पढमद्विदीदो चेव उदीरणा । २५० समयाहियाए आवलियाए सेसाए जहणिया ठिदि उदीरणा । २५१. तदो चरिमसमयसवेदो जादो । २५२. ताधे छण्णोकसाया संछुद्धा । २५३. पुरिसवेदस्स जाओ दो आवलियाओ समयूणाओ एत्तिगा समयपबद्धा विदियठिदीए अत्थि, उदयहिदी च अत्थि । सेसं पुरिसवेदस्स संतकम्मं सव्वं संछुद्धं । २५४. से काले अस्सकण्णकरणं* पवत्तिहिदि । और स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित हीन होते जाते हैं । स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर नाम, गोत्र और वेदनीयका अन्य स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा हीन हो जाता है। तथा इन्हीं कर्मोंके स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन हो जाता है । इस क्रमसे तव तक जाते हैं, जब तक कि सात नोकपायोके संक्रामकका अन्तिम स्थितिबन्ध प्राप्त होता-है ॥२३७.२४२॥ चर्णिस०-सात नोकषायोके संक्रामकके पुरुषवेदका अन्तिम स्थितिवन्ध आठ वर्ष है। संज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध सोलह वर्षप्रमाण है । शेप कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है । किन्तु चारो ही घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है। नाम, गोत्र और वेदनीयका असंख्यात वर्ष है। द्विसमयकृत अन्तरके स्थलसे आगे छह नोकषायोको क्रोधमें संक्रान्त करता है, अन्य किसी प्रकृतिमे नही। पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिमें दो आवलियोंके शेष रह जानेपर आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है। प्रथमस्थितिसे ही उदीरणा होती है। एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। तत्पश्चात् वह चरमसमयवर्ती सवेदी हो जाता है । उस समय छह नोकषाय संक्रान्त हो जाते हैं। पुरुषवेदकी एक समय कम दो आवलिया हैं, उतने मात्र समयप्रवद्ध द्वितीयस्थितिमें है और उदयस्थिति भी है, शेष सब पुरुषवेदका स्थितिसत्त्व संक्रान्त हो जाता है । तदनन्तरकालमे वह अश्वकर्णकरणमे प्रवृत्त होगा ।।२४३-२५४॥ * अश्वत्य कर्णः अश्वकर्णः, अश्वकर्णवत्करणमम्वकर्णकरणम् । ययाश्वकर्णः अग्रात्प्रभृत्यामूलात् Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसा पाहुडे सुत [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार २५५. अस्सकण्णकरणं ताव थवणिज्जं । इमो ताव सुत्तफासो । २५६. अंतरदुसमयकदमादि काढूण जाव छण्णोकसायाणं चरिमसमयसंकामगो त्ति एदिस्से अद्धाए अप्पा तिकट्टु सुतं । २५७. तत्थ सत्त मूलगाहाओं । ७५६ (७१) संकामयपट्टवगस्स किंट्ठिदियाणि पुव्ववद्धाणि । केसु व अणुभागे य संकेतं वा असंकेतं ॥ १२४ ॥ चूर्णिसू० - इस समय अश्वकर्णकरणको स्थगित रखना चाहिए और इस गाथासूत्र - का स्पर्श करना चाहिए । द्विसमयकृत - अन्तरको आदि करके जब तक छह नोकपायोका चरम - समयवर्ती संक्रामक है, इस मध्यवर्ती कालमें आत्मा विशुद्धिको प्राप्त होता है, इत्यादि गाथा - सूत्रको निरुद्ध करके वक्ष्यमाण गाथा- सूत्रोंका अनुमार्गण करना चाहिए इस विषय मे सात मूलगाथाएँ हैं ।। २५५-२५७॥ विशेषार्थ - जो प्रश्नमात्रके द्वारा अनेक अर्थोकी सूचना करती हैं, ऐसी सूत्रगाथा - मूलगाथा कहते हैं । ओंको संक्रमण प्रस्थापकके पूर्वबद्ध कर्म किस स्थितिवाले हैं ? वे किस अनुभागमें वर्तमान हैं और उस समय कौन कर्म संक्रान्त हैं और कौन कर्म असंक्रान्त हैं ॥ १२४ ॥ विशेषार्थ - अन्तरकरण समाप्त करके नोकषायोके क्षपणको प्रारम्भ करनेवाला जीव संक्रमण-प्रस्थापक कहलाता है । उसके पूर्वबद्ध कर्म किस स्थितिवाले है ? अर्थात् उनका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्प है या असंख्यात वर्षं है ? गाथाके इस पूर्वार्ध द्वारा संक्रमण - प्रस्थापकके स्थितिसत्त्व जानने की सूचना की गई है । उस संक्रमण - प्रस्थापकके शुभ-अशुभ कर्मोंका स्थितिसत्त्व किस-किस अनुभागमें वर्तमान है ? इस दूसरे पदके द्वारा उसके कर्मों के अनुभागकी सूचना की गई है। कौन कर्म संक्रान्त अर्थात् क्षय कर दिया गया है और कौन कर्म असंक्रान्त अर्थात् क्षय नहीं किया गया है ? इस तीसरे प्रश्नके द्वारा संक्रमणप्रस्थापकके क्षपित और अक्षपित कर्मों के जाननेकी सूचना की गई है। इन प्रश्नका उत्तर आगे भाष्यगाथाओं के द्वारा दिया जायगा । क्रमेण हीयमानस्वरूपो दृश्यते, तथेदमपि करणं क्रोधसज्वलनात्प्रभृत्या लोभसज्वलनाद्यथाक्रममनन्त गुणहीनानुभागस्पर्धकसस्थानव्यवस्थाकरणमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । सपदि आदोलन करणसण्णाए अत्थो वुच्चदे - आदोल णाम हिंदोलमादोलमिवकरणमा दोलकरणं । यथा हिंदोलत्थंभस्स वरत्ताए च अतराले तिकोण होण कण्णायारेण दीसइ, एवमेत्थ वि कोहादिसंजलणाणमनुभागसणिवेसो कमेण हीयमाणो दीसह त्ति एदेण कारणेण अस्सकण्णकरणस्स आदोलकरणसण्णा जादा । एवमोवट्टण उव्वण करणेत्ति एसो विपज्जायसद्दो अणुगयो दट्ठव्वो, कोहादिसजणाण मणुभागविण्णा सरस हाणिवड्ढिसरूवेणावट्ठाण पेक्खियूण तत्थ ओणुव्वणसण्णा पुव्वाइरिएहिं पयट्टिदत्तादो | जयध० १ मूलगाहाओ णाम सुत्तगाहाओ पुच्छामेत्तेण सूचिदाणे गत्थाओ । जयघ० Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२६] संक्रामक प्रस्थापक-विशेषक्रिया-निरूपण ७५७ २५८. एदिस्से पंच भासगाहाओ' । २५९. तं जहा । २६०. भासगाहाओ परूविज्जंतीओ चेव भणिदं होंति गंथगउरवपरिहरणटुं । २६१. मोहणीयस्स अंतरदुसमयकदे संकामगपट्ठवगो होदि । एत्थ सुत्तं । (७२) संकामगपट्रवगस्स मोहणीयस्स दो पुण ट्रिदीओ। किंचूणियं मुहत्तं णियमा से अंतरं होई ॥१२५॥ २६२.किंचूणगं मुहुत्तं ति अंतोमुहुत्तं ति णादव्वं । २६३. अंतरदुसमयकदादो आवलियं समयूणमधिच्छियूण इमा गाहा । २६४. यथा। (७३) झीणहिदिकम्मसे जे वेदयदे दु दोसु वि ट्ठिदीसु । जे चावि ण वेदयदे विदियाए ते दु बोद्धव्वा ॥१२६॥ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके अर्थको प्रकट करनेवाली पॉच भाष्यगाथाएँ हैं । वे इस प्रकार हैं-ग्रन्थ-गौरवके परिहार करनेके लिए पृथक्-पृथक् अर्थ प्ररूपण की गई भाष्यगाथाएँ ही मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करती हैं ॥२५८-२६०॥ विशेषार्थ-प्रश्नरूप अर्थका उत्तररूप अर्थ-व्याख्यान करनेवाली गाथाओको भाष्यगाथा कहते हैं । विभाषाके नियमसे पहले गाथाओकी समुत्कीर्तना करना चाहिए। पीछे उनके पदोंका आश्रय लेकर अर्थकी प्ररूपणा करना चाहिए। परन्तु ऐसा करनेसे ग्रन्थका विस्तार हो जाता है. अतः चर्णिकार उस नियमका उल्लंघन कर समुत्कीर्तना और अर्थविभाषाको एक साथ कहेगे, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। चूर्णिसू०-अन्तरकरणको समाप्त करके द्वितीय समयमें वर्तमान जीव मोहनीयका संक्रमण-प्रस्थापक होता है । इस विषयमें यह गाथासूत्र है ॥२६१॥ ___संक्रमण-प्रस्थापकके मोहनीय कर्मकी दो स्थितियाँ होती हैं-एक प्रथमस्थिति और दूसरी द्वितीयस्थिति । इन दोनों स्थितियोंका प्रमाण कुछ कम मुहूर्त है । तत्पश्चात् नियमसे अन्तर होता है ॥१२५॥ चूर्णिसू०- 'कुछ कम मुहूर्त' इसका अर्थ अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिए ॥२६२॥ चूर्णिसू०-द्विसमयकृत अन्तरसे लेकर एक समय कम आवली प्रमाण काल तक ठहर कर, अर्थात् अवेद्यमान ग्यारह प्रकृतियोंकी समयोन आवलीमात्र प्रथमस्थितिका पालन कर और वेद्यमान अन्यतर वेद और किसी एक संज्वलन प्रकृतिको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको करके अवस्थित जीवके उस अवस्थाविशेषमे यह दूसरी वक्ष्यमाण भाष्यगाथा जानने योग्य है । वह इस प्रकार है ॥२६३-२६४॥ . जो उदय या अनुदयरूप कर्म-प्रकृतियाँ परिक्षीण स्थितिवाली हैं, उन्हें उपयुक्त जीव दोनों ही स्थितियोंमें वेदन करता है। किन्तु वह जिन कर्माशोंको वेदन नहीं करता है, उन्हें तो द्वितीयस्थितिमें ही जानना चाहिए ॥१२६॥ १ भासगाहाओ त्ति वा, वक्खाणगाहाओ त्ति वा, विवरणगाहाओ त्ति वा एयट्ठो । जयध Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार २६५. एतो डि दिसंतकम्मे च अणुभागसंतकम्मे च तदियगाहा कायव्या । तं जहा (७४) संकामगपट्टवगस्स पुव्ववद्धाणि मज्झिमट्ठिदीसु । साद- सुहणाम - गोदा तहाणुभागेसुदुक्कस्सा ॥१२७॥ २६७. मज्झिमट्ठिदीसु त्ति अणुक्कस्स- अजहण्णट्ठिदीसु त्ति भणिदं होड़ । २६८. साद-सुमणाम-गोदा तहाणुभागे सुदुक्कस्सा त्तिण चेदे ओघुकस्सा, तस्समयपाओग्ग-उक्कस्सगा एदे अणुभागेण । ७५८ २६६. 1 विशेषार्थ - अन्तरकरणके दूसरे समय से लेकर एक समय कम आवली कालके भीतरी अवस्थित जीव जिन वेद्यमान या अवेद्यमान प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिको गलाता है, उनक सत्ता तो प्रथमस्थिति और द्वितीयस्थिति इन दोनोमें ही पाई जाती है । किन्तु वह नि कर्म - प्रकृतियोको नहीं गलाता है, उनकी सत्ता द्वितीयस्थितिमे पाई जाती है । जयधवलाकार 'झी ट्ठदिकम्मंसे' पदको, ' अथवा ' कहकर और उसे सप्तमी विभक्ति मानकर इस प्रकार भी अर्थ करते हैं कि वेद्यमान किसी एक वेद और किसी एक संज्वलनकषायके अतिरिक्त अवेद्यमान शेष ग्यारह प्रकृतियोके समयोन आवलीप्रमाण प्रथमस्थितिके क्षीण हो जानेपर जिन कर्मों का वेदन करता है, वे तो दोनो ही स्थितियोंमें पाये जाते हैं, किन्तु जिन्हे वेदन नहीं करता है वे उसकी द्वितीयस्थितिमे ही पाये जाते हैं । इस प्रकार ये दो भाष्यगाथाएँ मूलगाथा पूर्वार्ध का अर्थ- व्याख्यान करती हैं । अव मूलगाथाके उत्तरार्धका अर्थ कहने के लिए चूर्णिकार उत्तरसूत्र कहते हैंचूर्णिसू० - इससे आगे स्थितिसत्त्व और अनुभागसत्त्व के विषयमे तीसरी भाष्यगाथाको कहना चाहिए । वह इस प्रकार है || २६५-२६६॥ संक्रमण प्रस्थापक के पूर्व बद्ध कर्म मध्यम स्थितियोंमें पाये जाते हैं । तथा अनुभागों में सातावेदनीय, शुभ नामकर्म और उच्चगोत्र उत्कृष्ट रूप से पाये जाते हैं ॥ १२७॥ चूर्णिसू० - यहॉ 'मध्यम स्थितियो में' इस पदका अर्थ ' अनुत्कृष्ट- अजघन्य स्थितियो - में' ऐसा कहा गया समझना चाहिए । 'सातावेदनीय, शुभ नामकर्म प्रकृतियाँ और उच्चगोत्र कर्म, ये अनुभागोमे उत्कृष्ट पाये जाते हैं' गाथाके इस उत्तरार्धमें जो 'उत्कृष्ट' पद है, उससे ये सातावेदनीय आदि कर्म अनुभागकी अपेक्षा ओघरूपसे उत्कृष्ट नहीं ग्रहण करना चाहिए, किन्तु आदेशकी अपेक्षा तत्समय प्रायोग्य उत्कृष्ट ग्रहण करना चाहिए ।। २६७-२६८॥ विशेषार्थ - गाथामे सातावेदनीय आदि जिन पुण्य - प्रकृतियोके अनुभागको 'उत्कृष्ट ' बताया गया है, उसका स्पष्टीकरण इस चूर्णिसूत्रके द्वारा किया गया है । जिसका अभिप्राय यह है कि उत्कृष्ट अनुभाग दो प्रकारका होता है ओघ - उत्कृष्ट और आदेश उत्कृष्ट । यहाँ पर ओघ - उत्कृष्ट अनुभाग संभव नहीं है, क्योकि वह तो चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संत होता है, अतः यहॉपर अनिवृत्तिकरण- परिणामोंके द्वारा संभव ' तत्समय - प्रायोग्य' 1 Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १२९ ] संक्रामक स्थितिसत्त्व-निरूपण (७५) अथ थी गिद्ध कम्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य । तह णिरय - तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु ॥ १२८ ॥ २६९ दाणि कम्पाणि पुव्वमेव झीणाणि । एदेणेव सूचिदा अट्ठ वि कसाया पुव्वमेव खविदा ति । ७५९ (७६) संकंत म्हि य नियमा णामा-गोदाणि वेयणीयं च । वस्से असंखेज्जेस से सगा होंति संखेज्जे ॥ १२९॥ २७०. एसा गाहा छ कम्मेसु परमसमय संकंतेसु तहि समये द्विदिसंतकम्मपमाणं भणइ । अर्थात् अन्तरकरण के अनन्तर द्वितीय समय में उत्पन्न होनेवाली विशुद्धिसे जो अधिक से अधिक उत्कृष्ट अनुभाग हो सकता है, उसे ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त हो जाती है । अब मूलगाथाके 'संकतं वा असंकंतं' इस चतुर्थ चरणकी विशेष व्याख्या करनेके for ग्रन्थकार चौथी भाष्यगाथाका अवतार कहते हैं अथ अर्थात् आठ मध्यम कषायोंकी क्षपणाके पश्चात् स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला, तथा नरकगति और तिर्यग्गति-सम्बन्धी नामकर्मकी तेरह प्रकृतियॉ, इस प्रकार ये सोलह प्रकृतियाँ संक्रमण प्रस्थापकके द्वारा अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही सर्व - संक्रमण आदिमें क्षीण की जा चुकी हैं ॥ १२८ ॥ चूर्णिसू०--ये स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्म संक्रामकके द्वारा पहले ही नष्ट दिये गये है । गाथामे आये हुये 'अथ' इस पदके द्वारा सूचित आठ मध्यम कषाय भी पहले ही अर्थात् उक्त सोलह प्रकृतियो के क्षीण होनेके पूर्व ही क्षय कर दिये गये, ऐसा जानना चाहिए ॥ २६९॥ मूलगाथाके उक्त - चतुर्थ चरणका अवलम्बन करके इस समय होनेवाले स्थितिसत्त्वका प्रमाण-निर्धारण करनेके लिए पॉचवीं भाष्यगाथाका अवतार करते है - हास्यादि छह नोकषायके पुरुषवेदके चिरंतन सत्त्वके साथ संक्रामक होनेपर नियमसे नाम, गोत्र और वेदनीय ये तीनों ही अघातिया कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण अपने-अपने स्थितिसत्त्वमें प्रवृत्त होते हैं । शेष ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म संख्यातवर्षप्रमाण स्थिति सत्त्ववाले होते हैं ॥१२९॥ चूर्णिसू ं - यह गाथा हास्यादि छह कर्मों के प्रथम समय संक्रान्त होनेपर उस कालमे स्थितिसत्त्वके प्रमाणको कहती है, अर्थात् उस समय मोह विना तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष और घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्षप्रमाण होता है || २७०॥ १ सछोहणा नाम परपयडिसकमो सव्वसकमपज्जवसाणो । आदिसद्देणहिदि- अणुभागखडय-गुणसेटिणिजराण गहण कायव्व । जयघ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार २७१. एत्तो विदिया मूलगाहा । २७२. तं जहा । (७७) संकामगपट्रवगो के बंधदि के व वेदयदि अंसे । संकामेदि व के के केसु असंकामगो होइ ॥१३०॥ ___ २७३. एदिस्से तिण्णि अत्था । २७४. तं जहा । २७५. के बंधदि ति पढमो अत्थो । २७६. के व वेदयदि त्ति विदिओ अत्थो । २७७. पच्छिमद्धे तदिओ अत्थो । २७८. पडमे अत्थे तिण्णि भासगाहाओ। २७९. विदिये अत्थे वे भासगाहाओ । २८०. तदिये अत्थे छठभासगाहाओ । २८१. पहमस्स अत्थस्स तिण्हं भासगाहाणं समुक्त्तिणं' विहासणं च एकदो वत्तइस्सामो । २८२. तं जहा । (७८) वस्ससदसहस्साइटिदिसंखाए दु मोहणीयं तु । बंधदि च सदसहस्सेसु असंखेज्जेसु सेसाणि ॥१३१॥ २८३. एसा गाहा अंतर-दुसमयकदे हिदिवंधपमाणं भणइ । (७९) भय-सोगमरदि-रदिगं हस्त-दुगुछा-णव॑सगित्थीओ। असादं णीचागोदं अजसं सारीरगंणाम ॥१३२॥ इस प्रकार पहली मूलगाथाका पाँच भाष्यगाथाओके द्वारा अर्थ-व्याख्यान किया गया। चूर्णिसू०-अब दूसरी मूलगाथा कहते हैं । वह इस प्रकार है ॥२७१-२७२।। संक्रमण-प्रस्थापक जीव किन-किन कर्माशोंको बांधता है, किन-किन कर्माशोंका वेदन करता है और किन-किन कर्माशोंका असंक्रामक रहता है ॥१३०॥ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके तीन अर्थ है। वे इस प्रकार हैं-'किन कांशोको बाँधता है । यह बन्ध-विषयक प्रथम अर्थ है । 'किन कांशोका वेदन करता है। यह उदयसम्बन्धी द्वितीय अर्थ है और गाथाके पश्चिमार्धमें संक्रमण-असंक्रमण सम्बन्धी तृतीय अर्थ निहित है। इनमेसे प्रथम अर्थमे तीन भाष्यगाथाएँ प्रतिवद्ध हैं। द्वितीय अर्थमे दो भाष्यगाथाएँ और तृतीय अर्थमे छह भाष्यगाथाएँ निवद्ध है। प्रथम अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीनो भाष्यगाथाओकी समुत्कीर्तना और विभाषा एक साथ कहेगे । वह इस प्रकार है ॥२७३-२८२॥ . द्विसमयकृत-अन्तरावस्थामें वर्तमान संक्रमण-प्रस्थापकके मोहनीय कम तो वर्षशत-सहस्र स्थितिसंख्यारूप बंधता है और शेप कर्म असंख्यात शतसहस्र वर्षप्रमाण स्थितियों में बंधते हैं ॥१३१॥ ' चूर्णिस०-यह गाथा द्विसमयकृत अन्तरमे स्थितिवन्धके प्रमाणको कहती है । अर्थात् अन्तरकरणके दो समय पश्चात् संक्रामकके मोहनीय कर्मका स्थितिवन्ध संख्यात लाख वर्षप्रमाण और शेष कर्मोंका असंख्यात लाख वर्षप्रमाण होता है ॥२८३॥ • अव दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं भय, शोक, अरति, रति, हास्य, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, असातावेदनीय, नीचगोत्र, अयश-कीर्ति और शरीर नामकर्म ॥१३२।। १ समुकित्तण णाम उच्चारणविहासण णामविवरण । जयध० Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६१ गा० १३३ ] संक्रामक-वन्धावन्धप्रकृति-निरूपण २८४. एदाणि णियमा ण बंधइ । (८०) सव्वावरणीयाणं जेसिं ओवट्टणा दुणिदाए । पयलायुगस्स अ तहा अबंधगो बंधगो सेसे ॥१३३॥ २८५. जेसिमोवट्टणा त्ति का सण्णा ? २८६. जेसिं कम्माणं देसघादिफद्दयाणि अस्थि तेसिं कम्माणमोवट्टणा अत्थि त्ति सण्णा । २८७. एदीए सण्णाए सव्वावरणीयाणं जेसिमोवट्टणा दु त्ति एदस्स पदस्स विहासा । २८८. तं जहा । २८९. जेसिं कम्माणं देसघादिफद्दयाणि अत्थि, ताणि कम्माणि सव्यघादीणि ण बंधदिः देसघादीणि बंधदि । २९०. तं जहा । २९१. णाणावरणं चउन्विहं, दंसणावरणं तिविहं अंतराइयं पंचविहं, एदाणि कम्माणि देसवादीणि बंधदि । चूर्णिस०-इतने कर्मों को नियमसे नहीं बांधता है ॥२८४॥ विशेषार्थ-द्विसमयकृत अन्तरवाला संक्रमण-प्रस्थापक जीव पुरुषवेदको छोड़कर शेप आठ नोकषायोका नियमसे बन्ध नहीं करता है । इसी प्रकार असातावेदनीय, नीचगोत्र, अयशःकीर्ति और शरीर-नामकर्मको भी नहीं बांधता है। यहाँ गाथा-पठित 'अयशःकीर्ति' से सभी अशुभ नामकर्मकी प्रकृतियोका ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार 'शरीर-नामकर्मसे वैक्रियिकशरीरादि सभी शरीरनामकर्म और उनसे सम्बन्ध रखनेवाले आंगोपांग नामकर्म आदि तथा यशःकीर्तिके सिवाय सभी शुभनाम-प्रकृतियोका भी ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् द्विसमयकृत-अन्तरवर्ती संक्रामक एकमात्र यशःकीर्ति नामकर्मको छोड़कर शेप समस्त शुभाशुभ नामकर्मकी प्रकृतियोको नहीं बांधता है। इनके अतिरिक्त जिनकी अपवर्तना होती है, ऐसे सर्वघातिया कर्मोंका और निद्रा, प्रचला तथा आयुकर्मका भी वह वन्ध नहीं करता है, इनके सिवाय जो प्रकृतियाँ शेष रहती है, उनका बन्ध करता है। यह वात आगेकी गाथामे बतलाई गई है। जिन सर्वावरणीय अर्थात् सर्वघातिया कर्मोकी अपवर्तना होती है, उनका और निद्रा, प्रचला तथा आयुकर्मका भी अबन्धक रहता है। इनके अतिरिक्त शेष कर्मोंका वन्ध करता है ॥१३३।। ___ शंका-'जिनकी अपवर्तना होती है। इस वाक्य-द्वारा प्रगट की गई यह अपवर्तना संज्ञा किसकी है ? ॥२८५॥ समाधान-जिन कर्मों के देशघाती स्पर्धक होते हैं, उन कर्मो की 'अपवर्तना' यह संज्ञा है ॥२८६॥ चूर्णिसू०-इस संज्ञाके द्वारा जिन सर्वावरणीय अर्थात् सर्वघातिया ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्मोकी अपवर्तना होती है, इस पदकी विभापा की गई । वह इस प्रकार हैजिन कर्मोंके देशघाती स्पर्धक होते हैं, उन सर्वघातिया कर्मो को नहीं वॉधता है, किन्तु देशघातिया कर्मो को बॉधता है । जैसे-मतिज्ञानावरणादि चार ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरणादि चार दर्शनावरण और पॉच प्रकारका अन्तराय, इन देशघातिया कर्मो को वॉधता है।।२८७-२९१॥ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ • कसाय पाहुड सुत्त - [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार २९२. एत्तिगे मूलगाहाए पढमो अत्थो समत्तो भवदि । (८१) णिदा य णीचगोदं पचला णियमा अगि त्ति णामं च । छच्चेय णोकसाया अंसेसु अवेदगो होदि ॥१३४॥ चूर्णिसू०--इस प्रकार तीन भाष्यगाथाओंके द्वारा इतने अर्थक व्याख्यान करनेपर मूलगाथाका प्रथम अर्थ समाप्त होता है ॥२९२॥ मूलगाथाके द्वितीय अर्थमें प्रतिबद्ध दोनो भाष्यगाथाओंकी यथाक्रमसे व्याख्या करनेके लिए एक साथ समुत्कीर्तना और विभापा करते हैं निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नीचगोत्र, अयश कीर्ति और छह नोकपाय, इतने कर्मोका तो संक्रमण-प्रस्थापक नियमसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप सर्व अंशोंमें अवेदक रहता है ॥१३४॥ विशेषार्थ-यह मूलगाथाके 'के च वेदयदि अंसे' अर्थात् 'कितने कर्माशोंका वेदन करता हैं, इस द्वितीय अर्थका व्याख्यान करनेवाली प्रथम भाष्यगाथा है। वह संक्रमणप्रस्थापक संयत गाथामें कही गई उक्त प्रकृतियोका वेदन नहीं करता है, अर्थात् उसके उक्त प्रकृतियोंका उदय नहीं है। गाथामे यद्यपि 'निद्रा' ऐसा सामान्य ही पद है, पर उससे 'निद्रानिद्रा' का ग्रहण करना चाहिए; क्योकि नामके एक देशके निर्देशसे भी पूरे नामका बोध हो जाता है । इसी प्रकार 'प्रचला' इस पदसे प्रचलाप्रचलाका ग्रहण करना चाहिए । इन दोनों पदोंके वीचमें पठित 'च' शब्द अनुक्त-समुच्चयार्थक है, अतः उससे स्त्यानगृद्धिका ग्रहण किया गया है । 'अगि' यह संकेत 'अजसगित्ति' अर्थात् अयशःकार्तिका बोधक है । यहॉपर इस पदको उपलक्षण मानकर अवेद्यमान सभी प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियोका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति आदि तीस प्रकृतियोको छोड़कर शेषका यहां पर उदय नहीं पाया जाता। यहां यह शंका की जा सकती है कि जव गाथामे 'निद्रा और प्रचला' ये दो नाम ही स्पष्टरूपसे कहे गये हैं, तब निद्रासे निद्रानिद्राका और प्रचलासे प्रचलाप्रचलाका क्यो ग्रहण किया जाय ? इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि' यह नाम गाथामें कही दृष्टिगोचर भी नहीं होता, फिर क्यो 'च' पदसे उसका ग्रहण किया जाय ? इसका समाधान यह है, कि निद्रा और प्रचलाका उदय वारहवे गुणस्थानके द्विचरम समय तक पाया जाता है, अतः वैसा माननेमे आगमसे विरोध आता है । दूसरे, गाथामे इनके साथ जिन नीचगोत्र आदि प्रकृतियोंका उल्लेख किया गया है, उनमें से अयशः. कीर्तिका चौथे गुणस्थानमें, नीचगोत्रका पांचवें गुणस्थानमें, तथा निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका छठे गुणस्थानमें तथा हास्यादि छहका आठवें गुणस्थानमें ही उदयव्युच्छेद हो जाता है, जिससे उनका यहाँ उदय संभव ही नहीं है । अतः वही उक्त अर्थ आगम तथा युक्तिसे सुसंगत जानना चाहिए। इसी अभिप्रायको स्पष्ट करनेके लिए गाथामें Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रामक - विशेष क्रिया- निरूपण ૭૬૩ २९३. एदाणि कम्पाणि सव्वत्थ णियमा ण वेदेदि । २९४. एस अत्थो गा० १३५ ] J एदिस्से गाहाए । (८२) वेदे च वेदणीए सव्वावरणे तहा कसाए च । भयणिजो वेदंतो अभज्जगो सेसगो होदि ॥ १३५॥ २९५. विहासा । २९६. तं जहा । २९७. वेदे च ताव तिन्हं वेदाणमण्णदरं वेदेज्ज । २९८ वेदणीये सादं वा असादं वा । २९९. सव्वावरणे आभिणिबोहियणाणावरणादीणमणुभागं सव्वधादिं वा देसघादि वा । ३००. कसाये उन्हं कसायाणमण्णदरं । ३०१. एवं भजिदव्यो वेदे च वेदणीये सव्वावरणे कसाए 'णिमा' पद दिया गया है । यदि कहा जाय कि स्त्यानगृद्धिन्त्रिकका संक्रमणप्रस्थापन - अवस्थाके पूर्व ही सत्त्व-विच्छेद हो चुका है, तब फिर यहॉपर उनके उदय व्युच्छेदका निर्देश सार्थक नहीं माना जा सकता है ? दूसरे, गाथामें स्त्यानगृद्धि आदि तीनों पदोमेंसे किसी एकका भी निर्देश नहीं है, ऐसी दशामें 'णिद्दा' पदसे निद्राका, तथा 'पयला' पदसे प्रचलाका ही ग्रहण करना चाहिए ? और संक्रमण - प्रस्थापक इन दोनो ही प्रकृतियोका अवेदक रहता है, ऐसा ही गाथासूत्रका अर्थ करना चाहिए । अन्यथा बारहवें गुणस्थानके द्विचरम समय में निद्रा और प्रचलाका उदय व्युच्छेद कहना शक्य नहीं है ? तो इसका उत्तर यह है कि इस संक्रमण - प्रस्थापकदशाके पूर्व और उत्तरकालीन अवस्थामे अव्यक्तस्वरूपसे यद्यपि निद्रा और प्रचलाका उदय विद्यमान रहता है तथापि इस मध्यवर्ती अवस्थामें ध्यानके उपयोगविशेषसे उनकी शक्ति प्रतिहत होजानेके कारण उनका उद्याभाव मानने में कोई विरोध नहीं है । अथवा क्षपक श्रेणी में सर्वत्र निद्रा और प्रचलाका उदय नहीं होता है, ऐसा ही गाथासूत्रका अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योकि ध्यानकी उपयुक्त दशामें निद्रा और प्रचलाका उदय संभव नहीं है । चूर्णिसू० - इन गाथा - पठित कर्मों को संक्रमण - प्रस्थापक जीव अपनी सर्व अवस्थाओंमें नियमसे वेदन नही करता है । यह इस भाष्यगाथाका अर्थ है ॥२९३-२९४॥ अव दूसरी मूलगाथा के द्वितीय अर्थ - निबद्ध दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैंवह संक्रमण प्रस्थापक वेदोंको, वेदनीय कर्मको, सर्वघातिया प्रकृतियोंको, तथा कषायोंको वेदन करता हुआ भजनीय है । उक्त कर्म - प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष प्रकृतियोंका वेदन करता हुआ अभजनीय है || १३५ ॥ चूर्णिसू०- - इस गाथाकी विभाषा करते हैं । वह इस प्रकार है - वह संक्रमण प्रस्थापक तीनों वेदोंमेंसे किसी एक वेदका वेदन करता है, अर्थात् जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढ़ता है, उस वेदका ही वेदन करता है । सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दोनों में से किसी एकका वेदन करता है | आभिनिवोधिकज्ञानावरणीय आदि सर्व आवरणीय कर्मों के सर्वघाती या देशघाती अनुभागका वेदन करता है और चारो कपायोमेसे किसी एक कपायका अनुभव करता है । इस प्रकार वेद, वेदनीय, सर्व आवरण कर्म और कपायोकी अपेक्षा वह संकमण Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ कसाय पाछुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार च । ३०२. विदियाए मूलणाहाए विदियो अत्थो समत्तो भवदि । ३०३. तदिये अत्थे छठभासगाहाओ। (८३) सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुव्वीय संकमो होदि। लोभकसाये णियमा असंकमो होइ णायवो ॥१३६॥ ३०४. विहासा । ३०५. तं जहा । ३०६. अंतरदुसमयकदप्पहुडि मोहणीयस्स आणुपुब्बीसंकमो । ३०७. आणुपुव्वीसंकमो णाम किं ? ३०८. कोह-माण-माया-लोभा एसा परिवाडी आणुपुचीसंकमो णाम । ३०९. एस अत्थो चउत्थीए भासगाहाए भणिहिदि । ३१०. एत्तो विदियभासगाहा । (८४) संकामगो च कोधं माणं मायं तहेव लोभं च ।। सव्वं जहाणुपुवी वेदादी संछुहदि कम्मं ॥१३७॥ प्रस्थापक जीव भजितव्य है। इस प्रकार इस दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करनेपर दूसरी मूलगाथाका दूसरा अर्थ समाप्त होता है ।।२९५-३०२।। चूर्णिसू०-दूसरी मूलगाथाके तीसरे अर्थमे छह भाष्यगाथाएँ निवद्ध है ॥३०३॥ उनमेसे प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके लिए उसका अवतार किया जाता है मोहनीय कर्मकी सर्व प्रकृतियोंका आनुपूर्वीसे संक्रमण होता है, किन्तु लोभकपायका संक्रमण नहीं होता है, ऐसा नियमसे जानना चाहिए ॥१३६॥ चूर्णिसू०-अव उक्त गाथाकी विभाषा करते हैं। वह इस प्रकार है-संक्रमण-प्रस्थापकके अन्तरकरणके दूसरे समयसे लेकर आगे मोहकर्मका सर्वथा विनाश होने तक उसका आनुपूर्वीसंक्रमण होता है ॥३०४-३०६॥ शंका-आनुपूर्वीसंक्रमण नाम किसका है ? ॥३०७॥ समाधान-क्रोध, मान, माया और लोभ इस परिपाटीसे संक्रमण होना आनुपूर्वीसंक्रमण कहलाता है । आनुपूर्वीसंक्रमणका यह अर्थ चौथी भाष्यगाथामे कहंगे॥३०८-३०९।। . चूर्णिम् ०-अव इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं ॥३१०॥ नव नोकषाय और चार संज्वलन इन तेरह प्रकृतियोंका संक्रमण करनेवाला तपक नपुंसकवेदको आदि करके क्रोध, मान, माया और लोभ, इन सब कर्माको यथानुपूर्वीसे संक्रान्त करता है ॥१३७॥ विशेषार्थ-उक्त तेरह प्रकृतियोका संक्रम करनेवाला जीव सबसे सबसे पहले नपुं. सकवेद और स्त्रीवेदका पुरुपवेदमें संक्रमण करता है। पुनः पुरुषवेद और हास्यादि छहका क्रोधसंज्वलनमें संक्रमण करता है । तदनन्तर क्रोधसंज्वलनका मानसंज्वलनमें, मानसंज्वलनका मायासंज्वलनमें और मायासंज्वलनका लोभसंज्वलनमें संक्रमण करता है। यहाँ संक्रमणसे परप्रकृतिरूप संक्रमणका अभिप्राय है। Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गा० १४०] संक्रामक-विशेपक्रिया-निरूपण .. ३११. वेदादि त्ति विहासा । ३१२. णqसयवेदादी संछुहदि त्ति अत्थो । (८५) संहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णबुसयं चेव । सत्तेव णोकसाये णियमा कोहम्हि संछुहदि ॥१३८॥ ३१३. एदिस्से तदियाए गाहाए विहासा । ३१४. जहा । ३१५. इत्थीवेदं णqसयवेदं च पुरिसवेदे संछुहदि, ण अण्णत्थ । ३१६. सत्त णोकसाये कोधे संछुहदि, ण अण्णत्थ। (८६)कोहं च छुहइ माणे माणं मायाए णियमसा छुहइ । ___मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥१३९॥ ३१७. एदिस्से सुत्तपबंधो चेव विहासा । (८७) जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधसरिसम्हि संछुहइ । बंधण हीणदरगे अहिए वा संकमो णत्थि ॥१४०॥ चूर्णिसू०-उपर्युक्त गाथामे आये हुये 'वेदादि' इस पदकी विभाषा इस प्रकार है-नपुंसकवेदको आदि करके तेरह प्रकृतियाँको संक्रान्त करता है, अर्थात् पर-प्रकृतिरूपसे संक्रमण करता है ॥३११-३१२॥ अब उक्त अर्थको ही दो भाष्यगाथाओके द्वारा विशेष रूपसे स्पष्ट करते हैं स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका नियमसे पुरुषवेदमें संक्रमण करता है । पुरुषवेद और हास्यादि छह, इन सात नोकषायोंका नियमसे संज्वलनक्रोधमें संक्रमण करता है ॥१३८॥ चूर्णिसू०-इस तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदको पुरुषवेदमें ही संक्रान्त करता है, अन्यत्र नहीं । सात नोकषायोको संज्वलनक्रोधमे ही संक्रान्त करता है, अन्यत्र नहीं ॥३१३-३१६॥ संज्वलनक्रोधको नियमसे संज्वलनमानमें संक्रान्त करता है, संज्वलनमानको संज्वलनमायामें संक्रान्त करता है, संज्वलनमायाको संज्वलनलोभमें संक्रान्त करता है। इस प्रकार उक्त तेरह प्रकृतियोंका आनुपूर्वी-संक्रमण जानना चाहिए। इनका प्रतिलोम अर्थात् विपरीतक्रमसे अथवा यद्वा-तद्वा क्रमसे संक्रमण नहीं होता है।।१३९॥ ___ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा सूत्र-प्रबन्ध ही है, अर्थात् गाथासूत्र इतना सरल और स्पष्ट है कि उसके विषयमें अन्य कुछ वक्तव्य शेष नही है ॥३१७॥ ___ अव मूलगाथाके तीसरे अर्थक विषयमें ही कुछ अन्य विशेषताको बतलानेके लिए पांचवी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं जो जीव जिस वध्यमान प्रकृतिमें संक्रमण करता है, वह नियमसे वन्ध-सदृश प्रकृतिमें ही संक्रमण करता है; अथवा बन्धकी अपेक्षा हीनतर स्थितिवाली प्रकृतिमें संक्रमण करता है । किन्तु अधिक स्थितिवाली प्रकृतिमें संक्रमण नहीं होता ॥१४०॥ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ फसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३१८. विहासा । ३१९. तं जहा । ३२०. जो जं पयडिं संछुहदि णियमा वज्झमाणीए द्विदीसु संछुहदि । ३२१. एसा पुरिमद्धस्स विहासा । ३२२. पच्छिमद्धस्स विहासा । ३२३. जहा । ३२४. जं बंधदि द्विदि तिस्से वा तत्तो हीणाए वा संछुहदि । ३२५. अवज्झमाणासु हिदीसु ण उक्कड्डिज्जदि। ३२६. समद्विदिगं तु संकामेज्ज । चूर्णिस०-अव इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं, वह इस प्रकार है-जो जीव जिस प्रकृतिको संक्रमित करता है, वह नियमसे वध्यमान स्थितिमें संक्रान्त करता है। यह गाथाके पूर्वार्धकी विभापा है। पश्चिमाकी विभापा इस प्रकार है-जिस स्थितिको वॉधता है, उसमे, अथवा उससे हीन स्थितिमे संक्रान्त करता है। किन्तु अवध्यमान स्थितियोंमें उत्कीर्ण कर संक्रान्त नहीं करता है। हॉ, समान स्थितिमें संक्रान्त करता है ॥३१८-३२६॥ विशेषार्थ-यह पांचवीं भाष्यगाथा बध्यमान प्रकृतियोमे संक्रमण किये जानेवाली बध्यमान या अवध्यमान प्रकृतियोका किस प्रकारसे संक्रमण होता है, इस अर्थविशेषके बतलानेके लिए अवतीर्ण हुई है। इसके अर्थका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-झपकश्रेणीमें अथवा उससे पूर्व संसारावस्थामें वर्तमान जो जीव जिस विवक्षित प्रकृतिके कर्म-प्रदेशोंको उत्कीर्ण कर जिस प्रकृतिमे संक्रमण करता है, उसे क्या विना किसी विशेषताके सर्वस्थितियोंमे संक्रमण करता है, अथवा उसमे कोई विशेषता है, इस प्रकारकी शंकाके समाधानके लिए ग्रन्थकारने गाथाका यह द्वितीय चरण कहा कि 'नियमसे वन्ध-सदृशमे संक्रान्त करता है।' यहॉपर 'वन्ध' इस पदसे साम्प्रतिक बन्धकी अग्रस्थितिका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि स्थितिवन्धके प्रति उसकी ही प्रधानता है । अतएव यह अर्थ होता है कि इस समय बंधनेवाली प्रकृतिकी जो स्थिति हैं, उसमे उसके समान प्रमाणवाली विवक्षित संक्रम्यमाण प्रकृति के प्रदेशाग्रको उत्कीर्ण कर संक्रान्त करता है। यह कथन उत्कर्पणसंक्रमणकी प्रधानतासे किया गया है। 'वंधेण हीणदरगे' इस तीसरे चरणका अभिप्राय यह है कि बंधनेवाली अग्रस्थितिसे एक समय आदि फम अधस्तन वन्धस्थितियोमे भी-जो कि आवाधाकालसे बाहिर स्थित हैं-अधस्तन प्रदेशाग्रको स्वस्थान या परस्थानसे उत्कीर्ण कर संक्रमण करता है । किन्तु वर्तमानमे बंधनेवाली स्थितिसे उपरिम सत्त्व-स्थितियोंमें उत्कर्षणसंक्रमण नहीं होता है, यह 'अहिए वा संकमो णत्थि' इस चतुर्थ चरणका अर्थ है । यहॉपर पठित 'वा' शब्द समुञ्चयार्थक है, अतएव वन्धसे हीनतर किसी भी स्थितिविशेषमें उत्कर्षणसंक्रमण नहीं होता है, ऐसा अर्थ करना चाहिए, क्योंकि, आवाधाकालके भीतरकी स्थितियोंमें बद्ध प्रथम निपेकसे हीनतर स्थितियोमे उत्कर्षणसंक्रमणका सर्वथा अभाव माना गया है। अतएव आवाधाकालका उल्लंघन करके नवकवद्ध समयप्रवद्धके प्रथम निषेकको आदि लेकर नवकवद्ध समयप्रबद्धकी अन्तिम स्थिति तककी स्थितियोमें उत्कर्पणसंक्रमणका प्रतिपेध नहीं है, किन्तु इससे ऊपरकी स्थितियोर्मे और आवाधाकालकी भीतरी स्थितियोमें उत्कर्पणसंक्रमण नहीं होता है। परप्रकृतिरूप संक्रमण तो समस्थितिमें प्रवृत्त होता हुआ वध्यमान प्रकृतिके उदयावलीसे वाहिरी Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६७ गा० १४१] . . . . संक्रामक-विशेषफ्रिया निरूपण ७६७ (८८) संकामगपट्ठवगो माणकसायस्स वेदगो कोछ । संछुहदि अवेदेंतो माणकसाये कमो सेसे ॥१४१॥ ___३२७ विहासा । ३२८ जहा । ३२९. माणकसायस्स संकामगपट्टवगो माणं चेव वेदेंतो कोहस्स जे दो आवलियबंधा दुसमयूणा ते माणे संछुहदि । ३३०. विदियमूलगाहा त्ति विहासिदा समत्ता भवदि । स्थितिको आदि करके अंतिम स्थिति तक बंधकस्थितिसे उपरिम स्थितियोमे भी प्रतिषिद्ध नहीं है, यह अर्थ चतुर्थ चरणमे पठित 'वा' शब्दसे संगृहीत किया गया है। समस्थितिमे प्रवर्तमान पर-प्रकृतिरूप संक्रमण बंधकस्थितिसे अधस्तन-उपरितन समस्त स्थितियोमे किस प्रकार प्रवृत्त होता है, इसका उदाहरण इस प्रकार जानना चाहिए । जैसे सातावेदनीय आदि प्रकृतियोको बाँधते हुए किसी जीवके असातावेदनीय आदिका स्थितिसत्त्व अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे कुछ कम होता है। पुनः बध्यमान सातावेदनीयकी जो अन्तःकोड़ाकोड़ीसे लगाकर पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण तक की उत्कृष्ट स्थिति है, उसके ऊपर असातावेदनीयकी स्थितिको संक्रमण करता हुआ बन्धस्थितियोमें भी संक्रमण करता है और बन्धसे उपरिम स्थितियोंमें भी समयाविरोधसे संक्रमण करता है अन्यथा एक आवलीसे कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका होना असंभव हो जायगा । इस प्रकार यह सामान्यसे संसारावस्थामें विवक्षित प्रकृतिके स्थितिबन्धके ऊपर इतर प्रकृतिके संक्रमणका दृष्टान्त दिया । इसी प्रकार क्षपकश्रेणीमें भी बध्यमान और अबध्यमान प्रकृतियोंको यथासंभव संक्रमण करता हुआ बध्यमान प्रकृतियोके प्रत्यग्रबन्धस्थितिसे अधस्तन और उपरितन स्थितियोमेंसे समस्थितिमे संक्रमण करता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । मानकषायका वेदन करनेवाला वही संक्रमण-प्रस्थापक जीव क्रोधसंज्वलनको नहीं वेदन करते हुए ही उसे मानकषायमें संक्रान्त करता है । यही क्रम शेप कपायमें भी जानना चाहिए ॥१४१॥ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभापा इस प्रकार है-मानकपायका संक्रमण-प्रस्थापक मानको ही वेदन करता हुआ क्रोधसंज्वलनके जो दो समय कम दो आवलीप्रमाण नवकबद्ध समयप्रवद्ध हैं, उन्हे मानसंज्वलनमें संक्रान्त करता है । इस प्रकार दूसरी मूलगाथा और उससे सम्बद्ध भाष्यगाथाओकी विभाषा समाप्त होती है ॥३२७-३३०॥ विशेषार्थ-अन्तर-द्विसमयकृत अवस्थामें वर्तमान वही संक्रमण-प्रस्थापक जीव यथाक्रमसे नव नोकषायोका संक्रमण कर और तत्पश्चात् अश्वकर्णकरण आदि क्रियाओको यथावसर ही करके संज्वलनक्रोधके चिरन्तन सत्त्वको सर्वसंक्रमणके द्वारा संक्रान्त करके जिस समय मानकपायका संक्रमण-प्रस्थापक हुआ, उस समय संज्वलनक्रोधके जो दो समय कम दो आवलीप्रमाण नवकवद्ध समयप्रबद्ध हैं, उन्हे संज्वलनमानमे संक्रमण करता हुआ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३३१. एत्तो तदियमूलगाहा । ३३२. जहा। (८९) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस-अणुभागे। अधिगो समो व हीणो गुणेण किंवा विसेसेण ॥१४२॥ ३३३. एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ । ३३४. भासगाहा समुक्कित्तणा । समुक्कित्तिदाए व अत्थविभासं भणिस्सामो । ३३५. तं जहा । क्रोधको नही वेदन करते हुए और मानका वेदन करते हुए ही संक्रमण करता है । क्योंकि जब मानकषायके वेदनकालमे दो समय कम दो आवलीमात्र काल रह जाता है, उसके भीतर ऐसी ही प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसा यह क्रम मानकषायके संक्रमण-प्रस्थापककी सन्धिमें नवकबद्ध समयप्रवद्धोके संक्रमणका कहा है, वैसा ही क्रम शेष कषायोंके भी संक्रमणप्रस्थापकोकी सन्धिके समय प्ररूपण करना चाहिए । इस प्रकार यह अर्थ निकलता है कि मानका वेदन करता हुआ क्रोधसंज्वलनके दो समय कम दो आवलीमात्र नवकवन्धका संक्रमण करता है । मायाका वेदन करता हुआ मानसंज्वलनके नवकवन्धका संक्रमण करता है और लोभका वेदन करनेवाला मायासंज्वलनके नवकवन्धका संक्रमण करता है । इस प्रकार दूसरी मूलगाथाके तीनो अर्थोंमे प्रतिवद्ध ग्यारह भाष्यगाथाओकी विभाषा समाप्त होनेके साथ ही दूसरी मूलगाथाका अर्थ व्याख्यान भी सम्पन्न हो जाता है । चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी मूलगाथा अवतीर्ण होती है। वह इस प्रकार है ॥३३१-३३२॥ संक्रमण प्रस्थापकके अनुभाग और प्रदेश-सम्बन्धी वन्ध, उदय और संक्रमण परस्परमें क्या समान हैं, अथवा अधिक हैं, अथवा हीन हैं ? इसी प्रकार प्रदेशोंकी अपेक्षा वे संख्यात, असंख्यात या अनन्तगुणितरूप विशेपसे परस्पर हीन हैं, या अधिक हैं ? ॥१४३॥ विशेषार्थ-संक्रमण-प्रस्थापकके अनुभाग और प्रदेश-विषयक बन्ध, उदय और संक्रमण-सम्बन्धी अल्पवहुत्वका निरूपण करनेके लिए इस मूलगाथासूत्रका अवतार हुआ है। यह समस्त गाथा प्रश्नात्मक है । इसमे दो प्रकारकी पृच्छाएँ की गई हैं। प्रथम तो यह कि संक्रमण-प्रस्थापकके अनुभागसम्बन्धी वन्ध, उदय और संक्रमण परस्पर समान हैं, अथवा हीन या अधिक है। दूसरी पृच्छा प्रदेशवन्धके विषयमे की गई है कि उसी संक्रमण-प्रस्थापकके प्रदेशवन्ध-सम्बन्धी वन्ध, उद्य और संक्रमण परस्पर समान है या हीनाधिक ? तथा उनके प्रदेश भी परस्पर संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुणित रूपसे हीन हैं, अथवा अधिक, अथवा कुछ विशेप अधिक हैं ? इन दोनों पृच्छाओका समाधान आगे भाष्यगाथाओंके द्वारा किया जायगा । चूर्णिसू०-इस तीसरी मूलगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं। उन भाप्यगाथाओका उच्चारण करना ही समुत्कीर्तना है। इस प्रकार उनकी समुत्कीर्तना करनेपर अर्थ-विभापा कहेंगे । वह इस प्रकार है ।।३३३-३३५।। Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६९ 000 गा १४४] चारित्रमोहक्षपक-बन्धादि-अल्पबहुत्व निरूपण (९०) बंधेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ। गुणसेढि अणंतगुणा बोद्धव्वा होइ अणुमागे ॥१४३॥ ३३६. विहासा । ३३७. अणुभागेण बंधो थोवो । ३३८. उदओ अणंतगुणो । ३३९. संकमो अणंतगुणो । ३४०. विदियाए भासगाहाए समुकित्तणा। (९१) बंधेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ। - गुणसेढि असंखेजा च पदेसरगेण बोद्धव्वा ॥१४४॥ ३४१. विहासा । ३४२. जहा । ३४३. पदेसंग्गेण बंधो थोयो । ३४४. उदयो असंखेज्जगुणो । ३४५. संकमो असंखेज्जगुणो । बन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रमण अधिक होता है। इस प्रकार अनुभागके विषयमें गुणश्रेणी अनन्तगुणी जानना चाहिए ॥१४३॥ __ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-अनुभागकी अपेक्षा बन्ध अल्प है, ( क्योकि, यहॉपर तत्काल होनेवाले बन्धको ग्रहण किया गया है । ) बन्धसे उदय अनन्तगुणा है। ( क्योंकि, वह चिरंतन सत्त्वके अनुभागस्वरूप है। ) उदयसे संक्रमण अनन्तगुणा है। ( इसका कारण यह है कि अनुभागसत्त्व उदयमे तो अनन्तगुणा हीन होकरके आता है किन्तु चिरंतनसत्त्वका संक्रमण तदवस्थरूपसे ही परप्रकृतिमे संक्रमित होता है ॥३३६-३३९॥ चूर्णिसू०-अब दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते है ॥३४०॥ वन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रमण अधिक होता है। इस प्रकार प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गुणश्रेणी असंख्यातगुणी जानना चाहिए ॥१४४॥ चूर्णिस०-इस भाप्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-प्रदेशोकी अंपेक्षा वन्ध अल्प है । बन्धसे उदय असंख्यातगुणा है और उदयसे संक्रमण असंख्यातगुणा है ॥३४१-३४५॥ विशेपार्थ-इस दूसरी भाष्यगाथाके द्वारा प्रदेश-विषयक अल्पवहुत्व बतलाया गया है। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके उक्त स्थलपर पुरुषवेद आदि जिस किसी भी कर्मका नवकबन्ध होता है वह एक समयप्रबद्धमात्र होनेसे वक्ष्यमाण पदोसे प्रदेशोकी अपेक्षा सबसे कम है। इस बन्धसे उदय प्रदेशोकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है, क्योकि, आयुकर्मको छोड़कर वेद्यमान जिस किसी भी कर्मका उदय गुणश्रेणी-गोपुच्छाके माहात्म्यसे असंख्यातगुणा हो जाता है। उदयरूप प्रदेशोसे संक्रमणरूप प्रदेश भी असंख्यातगुणित होते हैं, इसका कारण यह है कि जिन कर्मोंका गुणसंक्रमण होता है, उन कर्मोंका गुणसंक्रमण-द्रव्य और जिनका अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है, उनका अधःप्रवृत्तसंक्रमण-द्रव्य असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण होनेसे उदयकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हो जाता है। ९७ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त - ३४६. तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (९२) उदओ च अनंतगुणो संपहि-बंधेण होइ अणुभागे । सेकाले उदयादो संपहि-बंधो अनंतगुणो ॥ १४५॥ ३४७. विहासा । ३४८. जहा । ३४९. से काले अणुभागबंधो थोवो । ३५०. से काले चेव उदओ अनंतगुणो । ३५१. अस्सि समए बंधो अनंतगुणो । ३५२. अस्सि चेत्र समए उदओ अनंतगुणो । ७७० [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३५३. चउत्थीए भासगाहाए समुत्तिणा । (९३) गुणसेढि अनंतगुणेणूणाए वेदगो दु अणुभागे । गणणादियंतसेढी पदेस - अग्गेण बोद्धव्वा ॥ १४६॥ ३५४. विहासा । ३५५. जहा । ३५६. अस्सि समए अणुभागुदयो बहुगो । सेकाले अनंतगुणहीणो । एवं सव्वत्थ । ३५७ पदेसुदयो अस्सि समये थोवो । से चूर्णिसू ० - अब तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥ ३४६ ॥ अनुभागकी अपेक्षा साम्प्रतिक बन्ध से साम्प्रतिक उदय अनन्तगुणा होता है । इसके अनन्तरकालमें होनेवाले उदयसे साम्प्रतिक-बन्ध अनन्तगुणा है ॥ १४५ ॥ चूर्णि सू० - इस गाथाकी विभाषा इस प्रकार है- विवक्षित समय के अनन्तरकालमें होनेवाला अनुभागबन्ध अल्प है । इस अनुभागबन्धसे तदनन्तरकालमे ही होनेवाला अनुभागउदय अनन्तगुणा है । अनन्तर समयभावी अनुभाग उदयसे इस समयमे होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है और इस समयमे होनेवाले अनुभागबन्धसे इसी समयमे ही होनेवाला अनुभाग- उदय अनन्तगुणा है || ३४७ - ३५२॥ विशेषार्थ - भाष्यगाथामें जो बात पूर्वानुपूर्वीके क्रमसे कही है, चूर्णिसूत्रोंमें वही बात पश्चादानुपूर्वीके क्रमसे कही है । अनन्तरकाल भावी उदयसे साम्प्रतिक-बन्धके अनन्तगुणित होनेका कारण यह है कि समय-समय बढ़नेवाली अनन्तगुणी विशुद्धि के माहात्म्यसे आगे आगे प्रतिक्षण अनुभागका उदय क्षीण होता हुआ चला जाता है । चूर्णिसू० ० - अव चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ।। ३५३ || यह संक्रामक संयत अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणित to गुणश्रेणीरूपसे वेदक होता है । किन्तु प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गणनातिक्रान्त अर्थात् असंख्यातगुणित श्रेणीरूपसे वेदक जानना चाहिए || १४६ ॥ चूर्णिसू ० - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है - इस वर्तमान समयमें अनुभागका उदय बहुत होता है । इसके अनन्तरकालमे अनुभागका उदय अनन्तगुणा हीन होता है । इस प्रकार सर्वत्र अर्थात् आगे आगेके समयोमे अनुभागका उदय अनन्तगुणा हीन जानना चाहिए । प्रदेशोदय इस वर्तमान समय में अल्प होता है । इसके अनन्तरकालमें Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहक्षपक खन्धादि - अल्पय हुत्व-निरूपण गा० १४७ ] काले असंखेज्जगुणो । एवं सव्वत्थ । ३५८. एत्तो चउत्थी मूलगाहा । ३५९. तं जहा । (९४) बंधो व संकमो वा उदओ वा किं सगे सगे ट्ठाणे | से काले से काले अधिओ हीणो समो वा पि ॥ १४७॥ ७७१ असंख्यातगुणा होता है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर समयो में सर्वत्र असंख्यातगुणा प्रदेशोदय जानना चाहिए || ३५४-३५७॥ चूर्णिसू० [0- अब इससे आगे चौथी मूलगाथाका अवतार किया जाता है । वह इस प्रकार है ।। ३५८-३५९॥ बन्ध, संक्रम और उदय स्वक स्वक स्थानपर तदनन्तर तदनन्तर कालकी अपेक्षा क्या अधिक हैं, हीन हैं, अथवा समान हैं ? || १४७ || विशेषार्थ - यह चौथी मूलगाथा अनुभाग और प्रदेशसम्बन्धी बन्ध, उदय और संक्रमण-विषयक स्वस्थान- अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । इसका स्पष्टी - करण इस प्रकार है - साम्प्रतिक या वर्तमान समय-सम्बन्धी बन्ध, उदय और संक्रमणसे तदनन्तर काल-सम्बन्धी बन्ध, उदय और संक्रमण अपने-अपने स्थानपर क्या अधिक होकर प्रवृत्त होते हैं, या हीन होकर प्रवृत्त होते हैं, अथवा समान होकर प्रवृत्त होते हैं ? इस प्रकारके प्रश्नो द्वारा यह गाथा बन्ध आदि पदोंका तदनन्तर काल के साथ भेद - आश्रय करके स्वस्थानअल्पबहुत्वका निरूपण करती है । यहॉपर पूर्व गाथासूत्रसे अनुभाग और प्रदेश पदकी, तथा 'गुणेण किं वा विसेसेण' इस पदकी अनुवृत्ति करना चाहिए | तदनुसार गाथाका अर्थ इस प्रकार करना चाहिए - अनुभाग-विषयक साम्प्रतिकबन्धसे तदनन्तर समयभावी बन्ध षड्गुणी वृद्धि और हानिकी अपेक्षा क्या अधिक है, हीन है या समान है ? साम्प्रतिक - उदयसे तदनन्तर समयसम्बन्धी उदय षड गुणी वृद्धि और हानिकी अपेक्षा क्या अधिक है, हीन है, या समान है ? तथा साम्प्रतिक संक्रमणसे तदनन्तरकाल-भावी संक्रमण पड्गुणी वृद्धि और हानिकी अपेक्षा सन्निकर्ष किये जानेपर क्या अधिक है, हीन है अथवा समान है ? इसी प्रकार प्रदेशोकी अपेक्षा भी साम्प्रतिक बन्ध, उदय और संक्रमणसे तदनन्तर-समय- सम्बन्धी बन्ध, उदय और संक्रमण अनन्तगुणी वृद्धि और हानिको छोड़कर शेष चतुःस्थान-पतित वृद्धि और हानिकी अपेक्षा अधिक हैं, हीन है या समान हैं ? प्रदेशों की अपेक्षा अनन्तगुणी वृद्धि और हानिको छोड़नेका यह अभिप्राय है कि विवक्षित समयसे तदनन्तर समय में कर्म - प्रदेशोकी अनन्तगुणी वृद्धि या हानि वन्ध, उदय या संक्रमणमें कहीं भी संभव नही है । इस मूल गाथा द्वारा उठाये गये प्रश्नोका उत्तर वक्ष्यमाण भाष्यगाथाओं द्वारा स्वयं ही ग्रन्थकारने दिया है । विवक्षित अर्थकी पृच्छाओंके द्वारा सूचना करना ही मूलगाथाका उद्देश्य होता है । Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .कलाय प्राहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३६०. एदिस्से गाहाए तिणि भासगाहाओ । ३६१ : तासि समुत्तिणा तहेव विहासा च । ३६२. जहा । (९५) वंधोदहिं णियमा अणुभागो होदि णंतगुणहीणो । से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥ १४८ ॥ ७७२ ३६३. विहासा । ३६४. जहा । ३६५. अस्सि समए अणुभागबंधो बहुओ । ३६६. से काले अनंतगुणहीणो । ३६७. एवं समए समए अनंतगुणहीणो । ३६८. एवमुदयो वि कायन्यो । ३६६. संकमो जाव अणुभागखंडयमुकीरेदि ताव तत्तिगो तत्तिगो अणुभागसंकमो । अण्णम्हि अणुभागखंडये आढते अनंतगुणहीणो अणुभागसंकमो | ३७०. एतो विदियाए गाहाए समुक्कित्तणा । (९६) गुणसेढि असंखेजा च पदेसग्गेण संकमो उदओ । से काले से काले भजो बंधी पदेसग्गे ॥ १४९ ॥ ३७१. विहासा । ३७२ पदेसुदयो अस्सि समए थोवो । से काले असंखेज्जगुण । एवं सन्वत्थ । ३७३. जहा उदयो तहा संकमो वि कायव्वो । ३७४ पदेस चूर्णिसू० - इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीन भाष्यगाथाएँ हैं । उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा इस प्रकार है ॥ ३६०-३६२॥ अनुभाग, बन्ध और उदयकी अपेक्षा तदनन्तर- काल तदनन्तर- कालमें नियमसे अनन्तगुणितहीन होता है । किन्तु संक्रमण भजनीय है || १४८ || चूर्णिसू० ० - उक्त गाथाकी विभाषा इस प्रकार है - इस वर्तमान समयमे अनुभागवन्ध बहुत होता है और तदनन्तर कालमे अनन्तगुणित हीन होता है । इस प्रकार समय-समय मे अनन्तगुणित हीन होता जाता है । इसी प्रकार अनुभाग- उदयकी भी प्ररूपणा करना चाहिए । अर्थात् वर्तमान क्षणमे अनुभागोदय बहुत होता है और तदुत्तर क्षणमें अनन्तगुणा हीन होता जाता है । संक्रमण जब तक एक अनुभागकांडकका उत्कीरण करता है, तब तक तो अनुभागसंक्रमण उतना उतना ही होता रहता है । परन्तु अन्य अनुभागकांडक के आरम्भ करनेपर उत्तरोत्तर क्षणोमें अनुभागसंक्रमण अनन्तगुणा हीन होता जाता है || ३६३-३६९॥ अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते है ॥ ३७० ॥ 1 प्रदेशाग्रकी अपेक्षा संक्रमण और उदय उत्तरोत्तर कालमें असंख्यातगुणित श्रेणिरूप होते हैं । किन्तु बन्ध प्रदेशाग्र में भजनीय है ॥ १४९ ॥ चूर्णिसू० - इस भाष्यगाथाकी विभापा इस प्रकार है - प्रदेशोदय इस समयमें अल्प होता है, तदनन्तर समयमे असंख्यातगुणित होता है । इसी प्रकार सर्वत्र अर्थात् आगे आगे के समयो में जानना चाहिए | जैसी उदयकी प्ररूपणा की है, वैसी ही संक्रमणकी भी Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७३ गा० १५१] चारित्रमोहक्षपक-उद्यादि-अल्पबहुत्व-निरूपण बंधो चउब्विहाए चड्डीए चउबिहाए हाणीए अवट्ठाणे च भजियव्यो । ३७५. एत्तो तदियाए गाहाए समुकित्तणा । (९७) गुणदो अणंतगुणहीणं वेदयदि णियमसा दु अणुभागे। अहिया च पदेसग्गे गुणेण गणणादियंतेण ॥१५०॥ ३७६. एदिस्से अत्थो पुव्यमणिदो। ३७७. एत्तोपंचमी मूलगाहा । ३७८. तिस्से समुक्त्तिणा । ३७९. जहा । (९८) किं अंतरं करेंतो वड्ढदि हायदि हिदी य अणुभागे। , णिरुवकमा च वही हाणी वा केचिरं कालं ॥१५१॥ करना चाहिए। अर्थात् प्रदेशोका संक्रमण वर्तमान कालमे कम होता है और तदुत्तर समयोमे असंख्यातगुणा होता जाता है। प्रदेशबन्ध चतुर्विध वृद्धि, चतुर्विध हानि और अवस्थानमें भजितव्य है अर्थात् वर्तमान समयके प्रदेशबन्धसे तदुत्तर समय-सम्बन्धी प्रदेशबन्ध कदाचित् चतुर्विध वृद्धिसे बढ़ भी सकता है, कदाचित् चतुर्विध हानिरूपसे घट भी सकता है और कदाचित् तदवस्थ भी रह सकता है। इसका कारण यह है कि आपकनेणी चढ़ते हुए भी योगो की वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनो ही संभव हैं ॥३७१-३७४॥ चूर्णिसू०-अब तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥३७५॥ अनुभागमें गुणश्रेणीकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणा हीन वेदन करता है । किन्तु प्रदेशाग्रमें गणनातिकान्त गुणितरूप श्रेणीके द्वारा अधिक है ॥१५०।। . चूर्णिसू०-इस गाथाका अर्थ पहले कहा जा चुका है। अर्थात् यह गाथा पूर्वोक्त अर्थका ही उपसंहार करती है ॥३७६॥ . विशेषार्थ-इस तीसरी भाष्यगाथाके चतुर्थ चरणमे पठित 'गणणादियंतेण' पदका गणनातिकान्त अर्थके अतिरिक्त 'एयादीया गणना वीयादीया हवेज संखेज्जा' के नियमसे एक और विशिष्ट अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है-गणना अर्थात् एक, सवा, डेढ़, आदिसे अतिक्रान्त अर्थात् रहित ऐसे दो, तीन आदि संख्यात और संख्यातीत असंख्यातरूप गुणश्रेणीके द्वारा प्रदेशबन्ध उत्तरोत्तर समयोमे वृद्धि और हानि अवस्थासे परिणत होता है, किन्तु अनुभाग उत्तरोत्तर क्षणोंमें अनन्तगुणित हीन होता जाता है। चूर्णिसू०-अब इससे आगे पाँचवीं मूलगाथा अवतीर्ण होती है, उसकी समुत्कीर्तना इस प्रकार है ।।३७७-३७९।। अन्तरको करता हुआ वह कर्मोंकी स्थिति और अनुभागको क्या बढ़ाता है, अथवा घटाता है ? तथा स्थिति और अनुभागको बढ़ाते और घटाते हुए निरुपक्रम अर्थात् अन्तर-रहित वृद्धि अथवा हानि कितने काल तक होती है ? ॥१५१॥ विशेषार्थ-प्रकृत गाथा संक्रमण-सम्बन्धी गाथाओमें तो पॉचवीं है और अप Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३८०. एत्थ तिण्णि भासगाहाओ। ३८१. तासि समुक्त्तिणं विहासणं च वत्तहस्सामो । ३८२. तं जहा । ३८३. परमाए गाहाए समुक्त्तिणा । (९९) ओवट्टणा जहण्णा आवलिया ऊणिया तिभागण । एसा द्विदीसु जहण्णा तहाणुभागे सणंतेसु ॥१५२॥ ३८४. विहासा । ३८५. जा समयाहिया आवलिया उदयादो एवमादिहिदी ओकड्डिज्जदि समयूणाए आवलियाए वे-त्तिभागे एत्तिगे अइच्छावेदूण णिक्खिवदि वर्तना-सम्बन्धी मूलगाथाओंमे पहली है । यह द्विसमयकृत-अन्तरावस्थाको आदि करके छह नोकपायोंके क्षपणाकालके अन्तिम समय तक इस मध्यवर्ती अवस्थामें वर्तमान क्षपकके स्थितिअनुभाग-विषयक उत्कर्पण-अपकर्षण-सम्बन्धी प्रवृत्तिके क्रमको बतलानेके लिए, तथा उन घटाये-बढ़ाये गये स्थिति, अनुभागयुक्त प्रदेशोके निरुपक्रमरूपसे अवस्थानकालका प्रमाण अवधारण करने के लिए अवतीर्ण हुई है। इस गाथासे यह भी ध्वनि निकलती है कि उत्कर्षित या अपकर्षित स्थिति-अनुभाग-सम्बन्धी इस प्रवृत्तिक्रमका विचार केवल क्षपकश्रेणीके प्रस्तुत स्थलपर ही नहीं करना चाहिए, किन्तु इसके पूर्व संसारावस्था में भी उसका विचार करना चाहिए । गाथामें यद्यपि शब्दतः वृद्धि और हानिरूप उत्कर्षण और अपकर्पणका ही उल्लेख है, तथापि अर्थतः पर-प्रकृति-संक्रमणको भी ग्रहण करना चाहिए और तदनुसार यह भी एक पृच्छा करना चाहिए कि पर-प्रकृतियोमे संक्रान्त हुआ प्रदेशाग्र कितने काल तक निरुपक्रमरूपसे अवस्थित रहता है। यहाँ ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए कि गाथामें अपठित यह अर्थ विशेष क्यों ग्रहण किया जाय ? क्योंकि प्रथम तो यह गाथासूत्र ही देशामर्शक है। दूसरे उत्तरार्धमे पठित 'च' शब्द अनुक्तका समुच्चय करता है। इस गाथाके द्वारा उठाई गई पृच्छाओका उत्तर आगे कही जानेवाली भाष्यगाथाओके द्वारा दिया जायगा । चूर्णिसू० -इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीन भाष्यगाथाएँ हैं, उनकी समुत्कीर्तना और विभापा एक साथ कहेंगे । वह इस प्रकार है। उनमें प्रथम भाष्यगाथा की यह समुत्कीर्तना है ॥३८०-३८३॥ जघन्य अपवर्तनाका प्रमाण विभागसे हीन आवली है । यह जघन्य अपवर्तना स्थितियोंके विषयमें ग्रहण करना चाहिए। किन्तु अनुभाग-विषयक जघन्य अपवर्तना अनन्त स्पर्धकोसे प्रतिवद्ध है । अर्थात् जब तक अनन्त स्पर्धक अतिस्थापनारूपसे निक्षिप्त नहीं हो जाते हैं, तब तक अनुभाग-विषयक-अपवर्तनाकी प्रवृत्ति नहीं होती है ॥१५२॥ चूर्णिसू०-इस गाथाकी विभापा कहते हैं-उदयसे अर्थात् उदयावलीसे लेकर एक समय अधिक आवली, दो समय-अधिक आवली आदिरूप जो स्थिति अपकृष्ट की जाती है, वह एक समय कम आवलीके दो विभाग इतने प्रमाणकालमें अतिस्थापना करके निक्षिप्त करता Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १५२ | क्षपक-अपकर्षण- निक्षेपादि-निरूपण णिक्खेवो समयूणाए आवलियाए तिभागो समयुत्तरो । ३८६. तदो जा अणंतरउमदी तस्से णिखेवो तत्तिगो चेव । अइच्छावणा समयाहिया । ३८७. एवं ताव अइच्छावणा वड्डदि जाव आवलिया अधिच्छावणा जादा त्ति । ३८८. ते परमधिच्छावणा आवलिया, णिक्खेवो वहृदि । ३८९ उक्कस्सओ णिक्खेवो कम्दी दोहिं आवलियाहिं समयाहियाहिं ऊणिगा । ३९०. जहण्णओ णिक्खेवो थोवो । ३९१. जहण्णिया अइच्छावणा समयूणाए आवलियाए वेत्तिभागा विसेसाहिया । ३९२. उक्कस्सिया अइच्छावणा विसेसाहिया । ३९३. उकस्सओ णिक्खेवो असंखेज्जगुणो । ७७५ है । उस निक्षेपका प्रमाण समयोन आवलीका समयाधिक त्रिभाग है । तत्पश्चात् जो अनन्तर- उपरिम स्थिति है, उसका निक्षेप तो उतना ही होता है, किन्तु अतिस्थापना क समय अधिक होती है। इस प्रकार तब तक अतिस्थापना बढ़ती जाती है, जब तक कि अतिस्थापना पूर्ण आवलीप्रमाण होती है। इससे परे अतिस्थापना तो आवलीप्रमाण ही रहती है, किन्तु निक्षेप बढ़ने लगता है । इस निक्षेपका उत्कृष्ट प्रमाण समयाधिक दो आवलियो से हीन कर्मस्थिति है । इस प्रकार जघन्य निक्षेप अल्प है । जघन्य अतिस्थापना समयोन आवली के विशेषाधिक दो विभागप्रमाण है । उत्कृष्ट अतिस्थापना विशेष अधिक है और उत्कृष्ट अतिस्थापनासे उत्कृष्ट निक्षेप असंख्यातगुणा है ॥३८४-३९३॥ - विशेषार्थ - अपवर्तन किया हुआ द्रव्य जिन निषेकोमे मिलाते हैं, वे निषेक निक्षेपरूप कहलाते हैं । उक्त द्रव्य जिन निषेकोमे नहीं मिलाया जाता है, वे निषेक अतिस्थापना - रूप कहलाते हैं । निक्षेप और अतिस्थापनाका क्रम यह है कि उदयावली- प्रमाण निपेकोमेंसे एक कम कर तीनका भाग दीजिए। इनमें एक रूप- सहित प्रथम त्रिभाग तो निक्षेपरूप है अर्थात् वह अपवर्तित द्रव्य एकरूप - सहित प्रथम त्रिभागमें मिलाया जाता है और अन्तिम दो भाग अतिस्थापनारूप हैं, अर्थात् उनमें वह अपवर्तित द्रव्य नहीं मिलाया जाता है । यह स्थूल कथन है । उक्त अर्थको सूक्ष्मरूपसे सरलता से समझने के लिए उदयावलीके सोलह (१६) निषेकोकी कल्पना कीजिए और तदनुसार सत्तरहसे लेकर बत्तीस तक के निषेक दूसरी आवली कल्पना कीजिए । इस कल्पनाके अनुसार दूसरी आवलीके सत्तरहवें निषेकका द्रव्य अपकर्षण करके नीचे उदद्यावलीमे देना है, तो उक्त क्रमके अनुसार १६ मेसे एक कम करनेपर १५ रहे, उसमें ३ का भाग देनेपर प्रथम त्रिभाग पाँच हुआ । उसमे एक के मिलाने पर ६ होते हैं । प्रारम्भके इन ६ निषेकोमें उस अपवर्तित द्रव्यका निक्षेप होगा, इसलिए वे निषेक निक्षेपरूप कहे जाते हैं। शेष ७ से लेकर १६ तकके जो प्रथमावलीके निपेक हैं, उनमे उक्त द्रव्यका निक्षेप नही होगा, अतएव वे अतिस्थापनारूप कहे जाते हैं । यह जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाका प्रमाण है । इससे ऊपर दूसरी आवलीके दूसरे निषेकका अपकर्षण किया, तब इसके नीचे एक समय अधिक आवलीमात्र सर्व निषेक हैं, 1 Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ केसीय पाहुंड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३९४. विदियोए गाहाए समुकित्तणा । ३९५. जहा । उनमें निक्षेप तो एक समय कम आवलीका एक अधिक त्रिभागमात्र ही रहेगा, किन्तु अतिस्थापनाका प्रमाण पहलेसे एक समय अधिक हो जायगा । पुनः उसी दूसरी आवलीके तीसरे निषेकको अपकर्षण कर नीचे दिया, तब भी निक्षेपका प्रमाण वही रहेगा, किन्तु अतिस्थापना एक समय और अधिक हो जावेगी। पुनः उसी दूसरी आवलीके चौथे निपेकका अपकर्पण कर नीचे देनेपर भी निक्षेपका तो प्रमाण पूर्वोक्त ही रहेगा, किन्तु अतिस्थापनाका प्रमाण एक समय अधिक हो जायगा। इस प्रकार ऊपर-ऊपरके निपेकोको अपकर्षण कर नीचे देनेपर निक्षेपका प्रमाण तब तक वही रहेगा, जब तक कि अतिस्थापनाका प्रमाण एकएक समय बढ़ते हुए पूरा एक आवलीप्रमाण काल न हो जाय । जव अतिस्थापना आवलीप्रमाण हो जाती है, तब उससे ऊपर निक्षेपका ही प्रमाण एक एक समयकी अधिकतासे तब तक बढ़ता जाता है, जब तक कि उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त न हो जावे । चूर्णिकारने उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण प्रकृत प्रकरणमें उत्कृष्ट अतिस्थापनासे असंख्यातगुणा ही सामान्यरूपसे कहां है, पर जयधवलाकारने उसका प्रमाण एक समय अधिक दो आवलीसे हीन उत्कृष्ट कम स्थितिप्रमाण बतलाया है। एक समय अधिक दो आवलीसे हीन करनेका कारण यह है कि विवक्षित कर्मका बन्ध होनेके पश्चात् एक आवली तक तो उसकी उदीरणा हो नहीं सकती है, अतः वह एक अचलावलीकाल तो आबाधाकालरूप रहा। और अन्तिम आवली अतिस्थापनारूप है, अतः उसका भी द्रव्य अपकर्षण नहीं किया जा सकता । तथा अन्तिम निपेकका द्रव्य अपकर्पण कर नीचे निक्षिप्त किया ही जा रहा है, अतः उसे ग्रहण नहीं किया । इस. प्रकार एक समय अधिक दो आवलीसे हीन शेष समस्त उत्कृष्ट कर्मस्थितिमात्र उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण जानना चाहिए । यहाँ उत्कृष्ट कर्मस्थितिसे सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपमका ग्रहण न करके चालीस कोडाकोड़ी सागरका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योकि चारित्रमोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति इतनी ही बतलाई गई है। और चारित्रमोहका क्षपण करनेवाला दर्शनमोहकी क्षपणा पूर्वमें ही कर चुका है, अतः उसके अपवर्तनाकी यहाँ संभावना ही नहीं है । जयधवलाकार कहते है कि यहाँ ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए कि - क्षपकश्रेणी-विषयक प्ररूपणा करते हुए संसारावस्थामें संभव यह उत्कृष्ट निक्षेपका प्ररूपण यहॉपर असंबद्ध है ? क्योंकि उत्कर्षणाके सम्बन्धसे उसका प्रसंगवश प्ररूपणा करनेमें कोई असंगति या दोप नहीं है । किन्तु यथार्थतः प्रस्तुत स्थलपर तो चारित्रमोहनीयकी अवशिष्ट प्रकृतियोकी नवक बन्धस्थिति तो अत्यन्त अल्प है ही, साथ ही सत्त्वस्थिति भी बहुत कम है। वह कितनी है, इसका प्रमाण यहाँ बतलाया नहीं गया है, तथापि प्रकृत प्रकरणके उक्त अल्पबहुत्वसे इतना स्पष्ट है कि उसकी प्रमाणं उत्कृष्ट अविस्थापनाकालसे जो कि पूर्ण आवलीप्रमाण है-असंख्यातगुणा है । चर्णिसू०-अव दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥३९४-३९५॥ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १५४] चारित्रमोहक्षपक-संक्रमणादिक्रिया-निरूपण ७७७ (१००) संकामेदुक्कड्डदि जे असे ते अवट्टिदा होति । आवलियं से काले तेण परं होति भजिदव्वा ॥१५३॥ ३९६. विहासा । ३९७. जं पदेसग्गं परपयडीए संकमिज्जदि ठिदीहिं वा अणुभागेहिं वा उक्कड्डिज्जदि तं पदेसग्गमावलियं ण सक्को ओकड्डिदुवा, उक्कड्डिदुवा, संकामेद्वा । ३९८. एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्तित्तणा।। (१०१) ओकड्डदि जे अंसे से काले ते च होंति अजियव्वा । वड्डीए अवट्ठाणे हाणीए संकमे उदए ॥१५४॥ ३९९. विहासा । ४००. ठिदीहिं वा अणुभागेहिं वा पदेसग्गमोकड्डिज्जदि, तं पदेसग्गं से काले चेव ओकड्डिज्जेज्ज वा, उक्कड्डिज्जेज्ज वा, संकामिज्जेज्ज वा, उदीरिउजेज्ज वा। ४०१. एत्तो छट्ठीए मूलगाहाए समुक्त्तिणा । ४०२ तं जहा । जो कर्मरूप अंश संक्रमित, अपकर्षित, या उत्कर्षित किये जाते हैं, वे आवलीप्रमित काल तक अवस्थित रहते हैं, अर्थात् उनमें हानि, वृद्धि आदि कोई क्रिया नहीं होती है। उसके पश्चात् तदनन्तर समयमें वे भजितव्य हैं । अर्थात् संक्रमणावलीके व्यतीत होनेपर उनमें वृद्धि, हानि आदि अवस्थाएँ कदाचित् हो भी सकती हैं और कदाचित् नहीं भी हो सकती हैं ॥१५३॥ चूर्णिमू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जो प्रदेशाग्र परप्रकृतिमे संकान्त किया जाता है, अथवा स्थिति या अनुभागके द्वारा अपवर्तित किया जाता है, वह प्रदेशाग्र एक आवलीकाल तक अपकर्पण करनेके लिए, उत्कर्षण करनेके लिए या संक्रमण करनेके लिए शक्य नहीं है ॥३९६-३९७॥ । चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है ॥३९८॥ जो कर्माश अपकर्षित किये जाते हैं वे अनन्तर कालमें स्थिति आदिकी वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रमण और उदय, इनकी अपेक्षा भजितव्य हैं । अर्थात् जिन कर्माशोंका अपकर्षण किया जाता है, उनके अपकर्पण किये जानेके दूसरे ही समयमें ही वृद्धि, हानि आदि अवस्थाओंका होना संभव है ॥१५४॥ चूर्णिसू०-उक्त गाथाकी विभापा इस प्रकार है जो कर्म-प्रदेशाग्र स्थिति अथवा अनुभागकी अपेक्षा अपकर्षित किया जाता है, वह कर्म-प्रदेशाग्र तदनन्तरकालमें ही अपकर्षणको भी प्राप्त किया जा सकता है, उत्कर्षणको भी प्राप्त किया जा सकता है, संक्रमणको भी प्राप्त किया जा सकता है और उदीरणाको भी प्राप्त किया जा सकता है।।३९९-४००॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे छठी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥४०१-४०२॥ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (१०२) एकं च द्विदिविसेसं तु द्विदिविसेसेसु कदिसु वढेदि । हरसेदि कदिसु एगं तहाणुभागेसु बोद्धव्वं ॥१५५॥ ४०३. एदिस्से एक्का भासगाहा । ४०४. तिस्से समुक्कित्तणा च विहासा च कायव्वा । ४०५. तं जहा। (१०३) एकं च द्विदिविसेसं तु असंखेजेसु द्विदिविसेसेसु । वड्ढदि हरस्सेदि च तहाणुभागे सणंतेसु ॥१५६॥ एक स्थितिविशेषको कितने स्थितिविशेषोंमें बढ़ाता है और एकस्थितिविशेषको कितने स्थितिविशेषोंमें घटाता है ? इसी प्रकारकी पृच्छाएँ अनुभागविशेषोंमें जानना चाहिए ॥१५५॥ विशेषार्थ-यह छठी मूलगाथा स्थिति-अनुभागविषयक उत्कर्षण-अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य-उत्कृष्ट निक्षेपके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । यह मूलगाथा होनेसे केवल पृच्छारूपसे ही वक्तव्य अर्थकी सूचना करती है । एक स्थितिविशेषको कितनी स्थितिविशेषोमें बढ़ाता है ? इसका अभिप्राय यह है कि किसी विवक्षित एक स्थितिका उत्कर्षण करता हुआ क्या एक स्थितिविशेषमे बढ़ाता है, अथवा दो स्थितिविशेषोमे बढ़ाता है, अथवा तीन स्थितिविशेषोमे बढ़ाता है, अथवा संख्यात स्थितिविशेषोमे बढ़ाता है, या असंख्यात स्थितिविशेषोमें बढ़ाता है, इस प्रकार गाथाके पूर्वार्ध-द्वारा स्थिति-उत्कर्षणके विषयमे जघन्य उत्कृष्ट निक्षेपके प्रमाणकी पृच्छा की गई है । इसी पूर्वार्ध-पठित 'च' और 'तु' शब्दके द्वारा उत्कर्षण-विषयक जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापनाके संग्रहकी भी सूचना की गई समझना चाहिए । 'हरसेदि कदिसु एगं' गाथाके उत्तरार्धके इस प्रथम अवयवके द्वारा अपकर्षणविषयक जघन्य-उत्कृष्ट निक्षेपके प्रमाणका निर्णय करनेके लिए पृच्छा की गई है । उत्तरार्धके अन्तिम अवयव-द्वारा अनुभाग-विषयक उत्कर्षण-अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेपके विषयमे तथा जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापनाके प्रमाण-सम्बन्धमे पृच्छा की गई समझना चाहिए । इस प्रकार इस मूलगाथाके द्वारा की गई पृच्छाओका उत्तर वक्ष्यमाण भाष्यगाथाओके द्वारा स्वयं ग्रन्थकार ही देंगे। __ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली एक भाष्यगाथा है । उसकी समुत्कीर्तना और विभाषा एक साथ करना चाहिए । वह इस प्रकार है ॥४०३-४०५॥ एक स्थितिविशेपको असंख्यात स्थितिविशेषोंमें बढ़ाता है और घटाता भी है। इसी प्रकार अनुभागविशेषको अनन्त अनुभागस्पर्धकोंमें बढ़ाता और घटाता है ॥१५६॥ विशेपार्थ-उपयुक्त मूलगाथामें जिन पृच्छाओका उद्भावन किया गया था, उनका Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७९ गा० १५६] चारित्रमोहक्षपक-उत्कर्पणादिक्रिया-निरूपण ४०६. विहासा । ४०७. जहा । ४०८ हिदिसंतकम्मस्स अग्गद्विदीदो समयुत्तरहिदि बंधमाणो तं द्विदिसंतकम्म-अग्गहिदि ण उक्कड्डदि । ४०९. दुसमयुत्तरहिदि बंधमाणो वि ण उक्कड्डदि । ४१०. एवं गंतूण आवलियुत्तरहिदि बंधमाणो ण उक्कड दि । ४११.जइ संतकम्म-अग्गहिदीदो बज्झमाणिया द्विदी अदिरित्ता आवलियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण च तदो सो संतकम्म-अग्गद्विदि सक्को उक्कड्डिदु। ४१२. तं पुण उक्कड्डियूण आवलियमधिच्छावेयूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे णिक्खिवदि । ४१३. णिक्खेवो आवलियाए असंखेज्जदिभागमादि कादण समयुत्तराए बड्डीए णिरंतरं जाव उत्तर इस भाष्यगाथाके द्वारा दिया गया है। मूलगाथाकी प्रथम पृच्छा यह थी कि एक स्थितिविशेषको कितने स्थितिविशेषोमें बढ़ाता अथवा घटाता है ? इसका उत्तर इस भाष्यगाथाके प्रथम तीन चरणोमे दिया गया है कि एक स्थितिविशेषका उत्कर्पण या अपकर्षण करनेवाला नियमसे उस स्थितिको असंख्यात स्थितिविशेषोमें बढ़ाता अथवा घटाता है। मूलगाथाके चतुर्थ चरण-द्वारा अनुभाग-विषयक उत्कर्षण और अपकर्षणके सम्बन्धमे प्रश्न किया गया था, उसका उत्तर इस भाष्यगाथाके चतुर्थ चरण-द्वारा दिया गया है कि एक अनुभागविशेषको अनन्त अनुभाग-स्पर्धको बढ़ाता अथवा घटाता है । मूलगाथा-पठित 'च' और 'तु' शब्दके द्वारा जिन और नवीन पृच्छाओकी सूचना की गई थी, उनका उत्तर भी इस भाष्यगाथा-पठित 'च और तु' शब्दके द्वारा ही दिया गया है, अर्थात् एक स्थितिका उत्कर्षण-विषयक जघन्य निक्षेप आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण और उत्कृष्ट निक्षेप एक समय-अधिक आवलीसे ऊन और चार हजार वर्षोंसे हीन चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है। अपकर्पण करनेमे जघन्य निक्षेपका प्रमाण एक समय कम आवलीके त्रिभागसे एक समय अधिक है। तथा उत्कृष्ट निक्षेप एक समय और दो आवली कम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनुभागसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप अनन्त स्पर्धक-प्रमाण है। चूर्णिस०-उक्त गाथाकी विभाषा इस प्रकार है-स्थिति-सत्कर्मकी अप्रस्थितिसे एक समय-अधिक स्थितिको वॉधता हुआ उस स्थिति-सत्कर्मकी अग्रस्थितिका उत्कर्पण नहीं करता है। दो समय-अधिक स्थितिको वॉधता हुआ भी स्थितिसत्त्वकी अग्रस्थितिका उत्कर्पण नहीं करता है। इस प्रकार तीन समय-अधिक, चार समय-अधिक आदिके क्रमसे जाकर एक आवली-अधिक स्थितिको वॉधता हुआ भी विवक्षित स्थितिसत्कर्मकी अग्रस्थितिका उत्कर्षण नहीं करता है। यदि स्थितिसत्त्वकी अग्रस्थितिसे वॉधी जानेवाली स्थिति आवलीसे और आवलीके असंख्यात भागसे अतिरिक्त ( अधिक ) हो तो वह उस स्थितिसत्त्वकी अग्रस्थितिका उत्कर्पण कर सकता है। क्योकि वह उस अग्रस्थितिका उत्कर्पण कर आवलीप्रमाण ( जघन्य ) अतिस्थापना करके आवलीके असंख्यातवे भागमे अर्थात् तत्प्रमाण जघन्य निक्षेपमें निक्षिप्त करता है। वह निक्षेप आवलीके असंख्यातवें भागको आदि करके एक समय अधिक वृद्धिसे निरन्तर उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होनेतक बढ़ता जाता है। अर्थात् जघन्य Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार उक्कस्सगो णिक्खेवो त्ति सव्वाणि हाणाणि अस्थि । ४१४. उकस्सओ पुण णिक्खेवो केत्तिओ ? ४१५. कसायाणं ताव उक्कड्डिज्जमाणियाए हिदीए उक्क स्सगं णिक्खेवं वत्तइस्सामो । ४१६. चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ चदुहि वस्ससहस्सेहिं आवलियाए समयुत्तराए च ऊणिगाओ, एसो उक्कस्सगो णिक्खेवो। ४१७. जाओ आचाहाए उवरि द्विदीओ तासिमुक्कड्डिज्जमाणीणमइच्छावणा सव्वस्थ आवलिया । ४१८. जाओ आवाहाए हेट्ठा संतकम्मद्विदीओ तासिमुक्कड्डिजमाणीणमइच्छावणा किस्से वि द्विदीए आवलिया, किस्से वि द्विदीए समयुत्तरा, किस्से वि द्विदीए दुसमयुत्तरा, किस्से वि द्विदीए तिसमयुत्तरा । एवं णिरंतरमइच्छावणाट्ठानिक्षेपसे लेकर उत्कृष्ट निक्षेप तक सर्व स्थान निक्षेपरूप हैं ॥४०६-४१३॥ शंका-उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण कितना है ? ॥४१४॥ समाधान-कषायोकी उत्कर्षण की जानेवाली स्थितिका उत्कृष्ट निक्षेप कहेगे । अर्थात् सर्व कर्मों के उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण तो भिन्न भिन्न है, अतः हम उदाहरणके रूपमे कषायोके उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण कहेंगे। एक समय अधिक आवली और चार हजार वर्षोंसे हीन चालीस कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण यह उत्कृष्ट निक्षेप होता है ॥४१५.४१६॥ विशेपार्थ-निक्षेपका यह प्रमाण इस प्रकार संभव है कि कोई जीव कपायोकी चालीस कोडाकोड़ी सागर-प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर और बन्धावली व्यतीत होनेके अनन्तरसमयमें ही उस प्रदेशाग्रको अपवर्तित कर नीचे निक्षिप्त करता है। इस प्रकारसे निक्षेप करनेवाला उदयावलीके बाहिर द्वितीय स्थितिमे निक्षिप्त प्रदेशाग्रको क्षपण करनेके लिए ग्रहण करता है । पुनः उस प्रदेशाग्रको तदनन्तर समयमे वन्ध होनेवाली चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके ऊपर उत्कर्पण करता हुआ चार हजार वर्पप्रमाण उत्कृष्ट आवाधाकालका उल्लंघन करके इससे उपरिम निषेकस्थितियोमे ही निक्षिप्त करता है । इस प्रकार उत्कृष्ट आवाधाकालसे हीन चारित्रमोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ही उत्कर्पणसम्बन्धी उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण होता है। हॉ, इतनी बात विशेप है कि एक समय अधिक बन्धावली कालसे उक्त कर्मस्थितिको कम करना चाहिए, क्योंकि निरुद्ध समयप्रबद्धकी सत्त्वस्थितिका समयाधिक वधावली-प्रमित काल नीचे ही गल चुका है। इस प्रकार समयाधिक आवली और चार हजार वर्षोंसे हीन चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण जानना चाहिए। चूर्णिसू०-आवाधाकालसे उपरिवर्ती जो स्थितियाँ हैं, उत्कर्पण की जानेवाली उन स्थितियोंकी अतिस्थापना सर्वत्र आवलीप्रमाण है । आवाधाकालसे अधस्तनवर्ती जो सत्कर्मस्थितियाँ हैं, उत्कर्पण की जानेवाली उन स्थितियोकी अतिस्थापना किसी स्थितिकी तो एक आवली, किसी स्थितिकी एक समय-अधिक आवली, किसी स्थितिकी दो समय अधिक Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १५६ ] चारित्र मोक्षपक उत्कर्षणादिक्रिया निरूपण ७८२ णाणि जाव उक्क सिगा अइच्छावणाति । ४१९. उक्कस्सिया पुण अइच्छावणा केत्तिगा ? ४२०. जा जस्स उक्कस्सिगा आवाहा सा उकस्सिया आवाहा समयाहियावलियूणाए उक्कस्सिया अइच्छावणा । ४२१. उक्कड्डिज्जमाणियाए हिदीए जहण्णगो णिखेवो थोवो । ४२२. ओकड्डिज्जमाणियाए ठिदीए जहण्णगो णिक्खेवो असंखेज्जगुणो । ४२३. ओकड्डिड्ज्जमाणियाए हिदीए जहणिया अधिच्छावणा थोवूणा दुगुणा । ४२४ ओकड्डिज्जमाणिया ट्ठिदीए उक्कस्सिया अइच्छावणा णिव्वाघादेण उक्कड्डिज्जमाणाए द्विदीए जहणिया अइच्छावणा च तुल्लाओ विसेसाहियाओ । ४२५. आवलिया तत्तिया चेव । ४२६. उक्कडगा उक्कस्सिया अधिच्छावणा संखेज्जगुणा । ४२७. ओकड्डणादो वाघादेण उक्कस्सिया अधिच्छावणा असंखेज्जगुणा । ४२८ उक्कड्डणादो उक्कस्सगो णिक्खेवो आवली, किसी स्थितिकी तीन समय अधिक आवली है । इस प्रकार निरन्तर एक-एक समय अधिक बढ़ते हुए उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण प्राप्त होनेतक सर्व अतिस्थापना स्थान जानना चाहिए ॥ ४१७-४१८॥ 1 ? ॥ ४१९ ॥ शंका- उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण कितना है समाधान - जिस कर्मकी जो उत्कृष्ट आबाधा है वह एक समय - अधिक आवलीसे eta आबाधा उस कर्मकी उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण है ॥ ४२० ॥ जिस प्रकार उत्कर्षण विषयक जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप और अतिस्थापनाका प्रमाण बतलाया है, उसी प्रकार अपकर्षण सम्बन्धी निक्षेप और अतिस्थापनाका भी जान लेना चाहिए | अब इन्हीं उत्कर्षण - अपकर्पण सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं चूर्णिसू० - उत्कर्षण की जानेवाली स्थितिका जघन्य निक्षेप सबसे कम है, ( क्योकि वह आवली के असंख्यातवे भागप्रमाण है ।) इससे अपकर्षण की जानेवाली स्थितिका जघन्य निक्षेप असंख्यातगुणा है, ( क्योंकि उसका प्रमाण एक समय अधिक आवलीका त्रिभाग है ।) इससे अपकर्पण की जानेवाली स्थितिकी जघन्य अतिस्थापना कुछ कम दुगुनी है । ( क्योंकि उसका प्रमाण आवलीके एक समय कम दो त्रिभाग प्रमाण है | ) अपकर्षण की जानेवाली स्थितिकी उत्कृष्ट अतिस्थापना और निर्व्याघातकी अपेक्षा उत्कर्पणकी जानेवाली स्थितिकी जघन्य अतिस्थापना ये दोनो परस्पर तुल्य और विशेष अधिक हैं । आवलीका प्रमाण उतना ही है । इससे उत्कर्षण सम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना संख्यातगुणी है । ( क्योकि उसका प्रमाण एक समय अधिक आवलीसे हीन उत्कृष्ट आबाधाकाल है | ) व्याघातकी अपेक्षा अपकर्पण सम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना असंख्यातगुणी है । ( क्योकि वह एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिकांडकप्रमाण है ।) उत्कर्पणविपयक उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है । ( यहाॅ विशेष अधिकका प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी जानना चाहिए, इसका कारण यह है Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार विसेसाहिओ। ४२९. ओकड्डणादो उक्कस्सगोणिक्खेवो विसेसाहिओ । ४३०. उक्कस्सयं हिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ४३१. दो आवलियाओ समयुत्तराओ विसेसो । ४३२. एत्तो सत्तमी मूलगाहा । ४३३. तं जहा । (१०४) द्विदि अणुभागे अंसे के के वड्ढदि के व हरस्सेदि । केसु अवधाणं वा गुणेण किं वा विसेसेण ॥१५७॥ ४३४. एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ । ४३५. तासि समुक्कित्तणा च विहासा च । ४३६. पढमभासगाहाए समुक्कित्तणा। (१०५) ओवट्टोदि द्विदिं पुण अधिगं हीणं च बंधसमगं वा । उक्कड्डदि बंधसमं हीणं अधिगं ण वड्ढदि ॥१५८॥ कि यहॉपर एक समय अधिक आवली-सहित उत्कृष्ट आवाधासे हीन चालीस कोडाकोड़ी सागरोपममात्र उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट निक्षेपरूपसे विवक्षित है। ) अपकर्पणविषयक उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है। ( यहॉपर विशेषका प्रमाण संख्यात आवली है, क्योकि यहॉपर एक आवलीसे हीन उत्कृष्ट आवाधाका प्रवेश सम्मिलित हो जाता है । ) उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। वह विशेष एक समय अधिक दो आवलीप्रमाण है । ( क्योकि यहॉपर समयाधिक अतिस्थापनावलीके साथ वन्धावली भी सम्मिलित हो जाती है ।)॥४२१-४३१॥ इस प्रकार अपवर्तना-सम्बन्धी मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। चूर्णिसू०-अब इससे आगे सातवीं मूलगाथा अवतरित होती है । वह इस प्रकार है ।।४३२-४३३॥ स्थिति और अनुभाग-सम्बन्धी कौन-कौन अंश अर्थात् कर्म-प्रदेशोंको बढ़ाता अथवा घटाता है ? अथवा किन-किन अंशोंमें अवस्थान करता है ? और यह वृद्धि, हानि और अवस्थान किस-किस गुणसे विशिष्ट होता है ? ॥१५७|| चूर्णिसू०-इस सातवीं मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली चार भाष्यगाथाएँ हैं। अव उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा की जाती है। उसमें प्रथम भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना इस प्रकार है ॥४३४-४३६॥ स्थितिका अपकर्षण करता हुआ कदाचित् अधिक स्थितिका भी अपकर्षण करता है, कदाचित् हीन स्थितिका भी, और कदाचित् बन्ध-समान स्थितिका भी । स्थितिका उत्कर्पण करता हुआ बन्ध-समान या बन्धसे अल्प स्थितिका ही उत्कर्षण करता है, किन्तु अधिक स्थितिको नहीं बढ़ाता है ॥१६८॥ १ का पुण ओवट्टणा णाम १ ट्ठिदि अणुमागदुवारण कम्मपदेसाणमोकड्हणा उकडणासहमाविणी ओवट्टणा त्ति भण्णदे । जयघ० Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १५९ ] चारित्रमोहक्षपक- उत्कर्षणादिक्रिया निरूपण ४३७. विहासा । ४३८. जा ट्ठिदी ओक्कड्डिज्जदि सा ट्ठिदी बज्झमाणियादो अधिगा वा हीणा वा तुल्ला वा । उक्कडिज्जमाणिया ट्ठिदी बज्झमाणिगादो ट्ठिदीदो तुल्ला हीणा वा, अहिया गत्थि । ४३९. तो विदियभासगाहा । ४४०. जहा | (१०६) सव्वे वि य अणुभागे ओकड्डदि जे ण आवलियपविट्टे । उकडूदि बंधसमं णिरुवक्कम होदि आवलिया ॥१५९॥ · ७८३ ४४१. विहासा । ४४२. एदिस्से गाहाए अण्णो बंधाणुलोमेण अत्थो अण्णो सम्भावदों' । ४४३. बंधाणुलोमं ताव वत्तइस्लामो । ४४४. उद्यावलियपविट्ठे अणुभागे मोत्तूण सेसे सव्वे चेव अणुभागे ओकड्डदि । एवं चेव उक्कड्डदि । चूर्णि सू० [0- इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है- जो स्थिति अपकर्षित की जाती है, वह स्थिति बध्यमान स्थिति से अधिक, हीन या तुल्य होती है । किन्तु उत्कर्षण की जानेवाली स्थिति बध्यमान स्थितिसे तुल्य या हीन होती है, अधिक नही [० - अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथा अवतरित होती है । वह इस प्रकार है ।। ४३९-४४०।। होती ॥४३७-४३८ ॥ चूर्णिसू० उदयावलीके बाहिर स्थित सभी अर्थात् बन्ध-सदृश या उससे अधिक अनुभागका अपकर्षण करता है । किन्तु जो अनुभाग आवली - प्रविष्ट हैं, अर्थात् उदद्यावलीके अन्तःस्थित है, वह अपकर्षित नहीं करता है । बन्धसदृश अनुभागका उत्कर्षण करता है, उससे अधिकका नहीं । आवली अर्थात् बन्धावली निरुपक्रम होती है, क्योंकि वह उत्कर्षण- अपकर्षणके विना निर्व्याघातरूपसे अवस्थित रहती है || १५९ ॥ चूर्णिसू० ( ० - इस गाथाका बन्धानुलोमसे अन्य अर्थ है और सद्भावकी अपेक्षा अन्य अर्थ है । इनमें से पहले बन्धानुलोम अर्थको कहेंगे ।।४४१-४४३ ।। विशेषार्थ - गाथासूत्रमे निबद्ध पदोके अनुसार जो अर्थ किया जाता है, उसे बन्धानुलोम अर्थात् स्थूल अर्थ कहते हैं और जो गाथाके सद्भाव अर्थात् अभिप्राय, आशय या तत्त्व-निचोड़की अपेक्षा अर्थ किया जाता है, उसे सद्भाव अर्थात् सूक्ष्म अर्थ कहते हैं । अथवा स्थितिकी अपेक्षा किये जानेवाले अर्थकी बन्धानुलोम और अनुभागकी अपेक्षा किये जानेवाले अर्थकी सद्भावसंज्ञा जानना चाहिए। चूर्णिकार इनमेसे पहले गाथाके बन्धानुलोम अर्थका व्याख्यान करेंगे । चूर्णिसू० - उदयावलीमे प्रविष्ट अनुभागोको छोड़कर शेष सर्व ही अनुभागोका अपकर्षण करता है और इसी प्रकार उत्कर्षण करता है ||४४४ ॥ ^ १ गाहासुत्तपबंधानुसारेण जहसुदत्थपरूवणा बधाणुलोम णाम । जयघ० Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ कसाय पाहुंड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ४४५. सम्भावसण्णं' वत्तइस्सामो। ४४६. तं जहा। ४४७. पढमफद्दयप्पहुडि अणंताणि फद्दयाणि ण ओकड्डिजंति । ४४८. ताणि केत्तियाणि १ ४४९. जत्तियाणि जहण्णअधिच्छावणफद्दयाणि जहण्णणिक्खेवफद्दयाणि च तत्तियाणि । ४५०. तदो एत्तियत्तियाणि फद्दयाणि अधिच्छिद्रण तं फद्दयमोकडिज्जदि । एवं जाव चरिमफद्दयं ति ओकड्डदि अणंताणि फद्दयाणि । ४५१. चरिमफद्दयं ण उक्कड्डदि । ४५२. एवमणंताणि फद्दयाणि चरिमफयादो ओसक्कियूण तं फद्दयमुक्कड्डदि । विशेपार्थ-उदयावलीसे बाहिरी समस्त स्थितियोमें स्थित सभी अनुभाग-स्पर्धकोका उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है, इस प्रकारका यह वन्धानुलोमी स्थूल अर्थ है, वास्तविक नहीं, क्योंकि, अनुभाग-विषयक उत्कर्षण-अपकर्षणकी प्रवृत्ति जघन्य अतिस्थापना-निक्षेपप्रमाण स्पर्धकोंको छोड़कर शेप स्पर्धकोकी ही होती है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि इस प्रकारका यह उपदेश गाथाकारने क्यो दिया ? इसका उत्तर यह है कि उनका यह उपदेश स्थितिकी अपेक्षा जानना चाहिए, क्योकि, उदयावलीसे लेकर सभी स्थितिविशेषोमें सभी अनुभागस्पर्धक पाये जाते हैं । इसलिए उन स्थितियोके अपकर्षण या उत्कर्षण किये जानेपर उनमे स्थित सभी अनुभाग-स्पर्धक भी अपकर्षित या उत्कर्षित होते हैं । दूसरे, स्थितियोमें अवस्थित परमाणुओसे पृथग्भूत अनुभागस्पर्धक नहीं पाये जाते हैं। इस अभिप्रायकी अपेक्षा उदयावलीमे प्रविष्ट अनुभागोको छोड़कर शेष सभी अनुभाग स्थितिकी अपेक्षा उत्कर्षित या अपकर्षित होते हैं, ऐसा ग्रन्थकारने कहा है। चूर्णिमू०-अब सद्भावसंज्ञक सूक्ष्म अर्थको कहेंगे । वह इस प्रकार है-प्रथम स्पर्धकसे लेकर अनन्त स्पर्धक अपकर्पित नहीं किये जाते हैं। वे स्पर्धक कितने हैं ? जितने जघन्य अतिस्थापना-स्पर्धक हैं और जितने जघन्य निक्षेप-स्पर्धक हैं, उतने हैं। इसलिए एतावन्मान अतिस्थापनारूप स्पर्धकोको छोड़कर तदुपरिम स्पर्धक अपकर्षित किया जाता है। इस प्रकार क्रमशः बढ़ते हुए अन्तिम स्पर्धक तक अनन्त स्पर्धक अपकर्पित किये जाते हैं। ( इस प्रकार अपकर्षण-सम्बन्धी सूक्ष्म अर्थ कहकर अव उत्कर्षण-सम्वन्धी सूक्ष्म अर्थ कहते हैं-) चरम स्पर्धक उत्कर्पित नहीं किया जाता है, उपचरिम स्पर्धक नहीं उत्कर्पित किया जा सकता है । इस प्रकार अन्तिम स्पर्धकसे नीचे अनन्त स्पर्धक उतरकर अर्थात् चरम स्पर्धकसे जघन्य अतिस्थापनानिक्षेपप्रमाण स्पर्धक छोड़कर जो स्पर्धक प्राप्त होता है, वह स्पर्धक उत्कर्पित किया जाता है और उसे आदि लेकर उससे नीचेके शेप सर्व स्पर्धक उत्कर्षित किये जाते हैं॥४४५-४५२॥ अव अनुभाग-सम्बन्धी उत्कर्पण-अपकर्पण-विपयक जघन्य, उत्कृष्ट अतिस्थापनानिक्षेप आदि पदोके अल्पवहुत्वको कहते हैं १ टिठदिविवक्खमकादण अणुभाग चेव पहाणभावेण घेत्तण तट्विसयाणमोकड्डुक्कट्टणाण पयुत्ति यूनि क्कमणिरूवण सम्भावसण्णा णाम | जयव० Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८५ गा० १६०] चारित्रमोहक्षपक-उत्कर्षणादिक्रिया-निरूपण ४५३. उक्कड्डणादो ओकड्डणादो चजहण्णगो णिक्खेवो थोवो । ४५४. जहणिया अधिच्छावणा ओकड्डणादो च उक्कड्डणादो च तुल्ला अणंतगुणा । ४५५. वाघादेण ओकड्डणादो उक्कस्सिया अधिच्छावणा अणंतगुणा । ४५६. अणुभागखंडयमेगाए बग्गणाए अदिरित्तं । ४५७. उक्स्सयमणुभागसंतकम्मं बंधो च विसेसाहिया । ४५८. एत्तो तदियभासगाहाए समुक्त्तिणा विहासा च । (१०७) वड्डीदु होदि हाणी अधिगा हाणीदु तह अवट्ठाणं । गुणसेढि असंखेजा च पदेसग्गेण बोद्धव्वा ॥१६०॥ ४५९. विहासा । ४६० जं पदेसग्गमुक्कड्डिज्जदि सा वड्डि त्ति सण्णा । ४६१. जमोकडिज्जदि सा हाणि त्ति सण्णा । ४६२. जण ओकड्डिज्जदि, ण उक्कड्डिज्जदि पदेसग्गं तमवट्ठाणं त्ति सण्णा । ४६३. एदीए सण्णाए एक्कं हिदि वा पडुच्च सव्वाओ वा द्विदीओ पडुच्च अप्पाबहुअं । ४६४. तं जहा । ४६५. वड्डी थोवा । ४६६. हाणी असंखेज्जगुणा । ४६७. अवट्ठाणमसंखेज्जगुणं । ४६८. अक्खवगाणुवसामगस्स पुण सव्वाओ द्विदीओ एगहिदि वा पडुच्च वड्डीदो हाणी तुल्ला वा, विसेसाहिया वा, विसेसहीणा वा । अवट्ठाणमसंखेज्जगुणं। चूर्णिमू०-उत्कर्षण और अपकर्षणकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप स्तोक है । इससे जघन्य अतिस्थापना अपकर्षण और उत्कर्षणकी अपेक्षा परस्पर समान होते हुए भी अनन्तगुणी है। व्याघातसे अपकर्षणकी अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापना अनन्तगुणी है । इससे अनुभाग-कांडक एक वर्गणासे अधिक है । उससे उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व और बन्ध विशेष अधिक हैं॥४५३-४५७॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना और विभाषा एक साथ करते हैं ॥४५८॥ वृद्धि अर्थात् उत्कर्षणसे हानि अर्थात् अपकर्षण अधिक होता है और हानिसे अवस्थान अधिक है। यह अधिकका प्रमाण प्रदेशाग्रकी अपेक्षा असंख्यातगुणित श्रेणीरूप जानना चाहिए ॥१६॥ चूर्णिसू०-उक्त गाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जो प्रदेशाग्र उत्कर्षित किये जाते हैं, उनकी वृद्धि' यह संज्ञा है । जो प्रदेशाम अपकर्षित किये जाते हैं, उनकी 'हानि' यह संज्ञा है। जो प्रदेशाग्र न अपकर्पित किये जाते हैं और न उत्कर्षित किये जाते हैं, उनकी 'अवस्थान' यह संज्ञा है। इस संज्ञाके अनुसार एक स्थितिकी अपेक्षा, अथवा सर्व स्थितियोकी अपेक्षा अल्पवहुत्व होता है। वह इस प्रकार है-वृद्धि अल्प होती है, उससे हानि असंख्यातगुणी होती है और उससे अवस्थान असंख्यातगुणा होता है । (यह उपयुक्त अल्पवहुत्व क्षपक और उपशामककी अपेक्षा जानना चाहिए । ) किन्तु अक्षपक और अनुपशामकके तो सभी स्थितियोकी अपेक्षा अथवा एक स्थितिकी अपेक्षा वृद्धिसे हानि तुल्य भी है, अथवा विशेष अधिक भी है, अथवा विशेष हीन भी है। किन्तु अवस्थान असंख्यातगुणा है।४५९-४६८॥ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ४६९. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा।। विशेषार्थ-उपयुक्त भाष्यगाथा उत्कर्पण-अपकर्षण-सम्बन्धी अल्पवहुत्वके प्रमाणका निर्देश करती है। इसका अभिप्राय यह है कि क्षपक या उपशामक जीवोंमें जिस किसी भी स्थितिविशेषका उत्कर्षण किया जानेवाला प्रदेशाग्र कम होता है और इससे अपकर्षण किया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा होता है, क्योकि स्थिति-अपकर्षणके समय विशुद्धि प्रधान है, अर्थात् उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। अपकर्षण किये जानेवाले प्रदेशाग्रसे अवस्थानरूप रहनेवाला अर्थात् उत्कर्पण-अपकर्षणके विना स्वस्थानमें ही अवस्थित प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा होता है। इसका कारण यह है कि जिस किसी एक स्थितिके या नाना स्थितियोंके प्रदेशाग्रमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर एक भागप्रमाण प्रदेशाग्र तो उत्कर्षणको प्राप्त होते हैं और शेष बहुभाग प्रदेशोका अपकर्षण किया जाता है, अतः उनका असंख्यातगुणा होना स्वाभाविक ही है। किन्तु जिन स्वस्थान-स्थित असंख्यात वहुभाग-प्रमाण प्रदेशोका उत्कर्षण-अपकर्षण ही नहीं होता है और इसीलिए जिनकी 'अवस्थान' यह संज्ञा है, वे प्रदेशाग्र अपकर्षण किये जानेवाले प्रदेशाग्रसे भी असंख्यातगुणित होते हैं, अतः उन्हे इस अल्पबहुत्वमें असंख्यातगुणा वतलाया गया है। यह अल्पवहुत्व उपशामक या क्षपककी अपेक्षा कहा गया है। इससे नीचे संसारावस्थाके अर्थात् सातवें गुणस्थान तकके जीवोके उत्कर्पण-अपकर्षणसम्वन्धी अल्पबहुत्वमें भेद है । जो कि इस प्रकार है-अक्षपक या अनुपशामक जीवोके वृद्धि या उत्कर्षणकी अपेक्षा हानि या अपकर्षण कदाचित् तुल्य भी होता है, कदाचित् विशेष अधिक भी होता है और कदाचित् विशेष हीन भी हो सकता है। किन्तु अवस्थान असंख्यातगुणित ही होता है । इसका अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सभी जीवोके एक या नाना स्थितिकी अपेक्षा प्रकृत अल्पबहुत्वके करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाग भागहारसे गृहीत प्रदेशाग्रका यदि संक्लेश-विशुद्धि-रहित मध्यम परिणाम कारण होता है तो नीचे या ऊपर निषिच्यमान उत्कर्षण-अपकर्षणरूप द्रव्य सदृश ही होता है, क्योकि उसमें विसशताका कोई कारण ही नहीं पाया जाता है। यदि परिणाम विशुद्ध होते हैं तो नीचे अपकर्षण किया जानेवाला द्रव्य अधिक होता है और ऊपर उत्कर्पण किया जानेवाला द्रव्य अल्प होता है। और यदि परिणाम संक्लिष्ट होते हैं, तो ऊपर निषिच्यमान द्रव्य बहुत होता है और नीचे अपकर्पण किये जानेवाला द्रव्य अल्प होता है। इसलिए यह कहा गया है कि वृद्धिसे हानि कदाचित् सहश भी पाई जाती है, कदाचित् विशेष अधिक और कदाचित् विशेष हीन भी। इसी प्रकारका क्रम हानिसे वृद्धिमें भी जानना चाहिए । यहॉपर वृद्धि या हानिके हीन या अधिकका प्रमाण असंख्यातभागमात्र ही जानना चाहिए । किन्तु अवस्थान नियमसे असंख्यातगुणा ही होता है; क्योकि, उसमें दूसरा प्रकार संभव ही नहीं है । हॉ, यहाँ इतना विशेष अवश्य है कि करण-परिणामोके अभिमुख जीवके अपकर्षणरूप किये जानेवाले द्रव्यसे उत्कर्पणरूप द्रव्य असंख्यातगुणा होता है । न चूर्णिस०-अव इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ।।४६९।। Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१] शंपक-अश्वकर्णकरणक्रिया-निरूपण ७८७ (१०८) ओवडणमुवट्टण किट्टीवज्जेसु होदि कम्मेसु । ओवट्टणा च णियमा किट्टीकरणम्हि बोद्धव्या ॥१६॥ ४७०. एदिस्से गाहाए अत्थविहासा कायया । ४७१. सत्तसु मूलगाहासु विहासिदासु तदोअस्सकण्णकरणस्स परूषणा । ४७२ अस्सकण्णकरणे त्ति वा आदोलकरणे त्ति ओवट्टण-उन्चट्टणकरणे त्ति वा तिणि णामाणि अस्सकण्णकरणस्स । ४७३. छसु कम्मेसु संछुद्ध सु से काले पडमसमयअवेदो । ताधे चेव पडमसमय अपवर्तन अर्थात् अपकर्षण और उद्वर्तन अर्थात् उत्कर्षण कृष्टि-वर्जित कर्मोंमें होता है । किन्तु अपवर्तना नियमसे कृष्टिकरणमें जानना चाहिए ॥१६१।। चूर्णिसू०-इस गाथाकी अर्थ-विभाषा करना चाहिए ॥४७०॥ विशेषार्थ- यह उपयुक्त गाथा उद्वर्तन और अपवर्तन इन दोनों करणोका विभाग प्रतिपादन करनेके लिए अवतरित हुई है। जिसका अभिप्राय यह है कि कृष्टिकरण-कालके पहले पहले तो दोनो ही करण होते हैं, किन्तु कृष्टिकरणके समय और उससे ऊपर सर्वत्र केवल अपवर्तनकरण ही होता है, उद्वर्तनकरण नहीं। यह व्यवस्था या विधान रूप उपदेश क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा जानना चाहिए। क्योंकि उपशमश्रेणीमें कुछ विशेषता है और वह यह कि उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय तक मोहनीय कर्मकी केवल अपवर्तना ही होती है । पुनः अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लगाकर नीचे सर्वत्र अपवर्तना और उद्वर्तना ये दोनो ही होती हैं। इस प्रकार इस भाष्यगाथाका अर्थ सरल समझ कर चूर्णिकारने उसपर चूर्णिसूत्रों-द्वारा विभाषा न करके केवल यह सूचना कर दी कि मन्दबुद्धि शिष्योके लिए व्याख्यानाचार्य इस गाथासे सम्बद्ध अर्थ-विशेषकी व्याख्या करें। चूर्णिस०-इस प्रकार संक्रमण-प्रस्थापक-सम्बन्धी सातों मूलगाथाओंकी विभाषा कर दिये जानेपर तत्पश्चात् अब अश्वकर्णकरणकी प्ररूपणा करना चाहिए । अश्वकर्णकरण, अथवा आदोलकरण, अथवा अपवर्तनोद्वर्तनकरण, ये अश्वकर्णकरणके तीन नाम हैं ॥४७१-४७२॥ विशेपार्थ-अश्वकर्णकरण, आदोलकरण और अपवर्तनोद्वर्तनाकरण, ये तीनो एकार्थक नाम हैं। अश्व अर्थात् घोड़ेके कानके समान जो करण-परिणाम क्रमसे हीयमान होते हुए चले जाते हैं, उन परिणामोको अश्वकर्णकरण कहते हैं। आदोल नाम हिंडोलाका है । जिस प्रकार हिंडोलेका स्तम्भ और रस्सीका अन्तरालमे त्रिकोण आकार घोड़ेके कान सरीखा दिखता है, इसी प्रकार यहॉपर भी क्रोधादि संज्वलनकपायके अनुभागका सन्निवेश भी क्रमसे घटता हुआ दिखता है, इसलिए इसे आदोलकरण भी कहते हैं। क्रोधादि कषायोका अनुभाग हानि-वृद्धि रूपसे दिखाई देनेके कारण इसको अपवर्तनोद्वर्तनाकरण भी कहते हैं। चूर्णिस०-हास्यादि छह कर्मोंके संक्रान्त होनेपर तदनन्तर समयमे उपयुक्त जीव प्रथमसमयवर्ती अवेदी होता है। उस ही समयमें प्रथमसमयवर्ती अश्वकर्णकरण-कारक Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाच पाहुड सुत [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार अस्सकण्णकरण कारगो । ४७४ ताथे ट्ठिदिसंतकम्मं संजलणाणं संखेज्जाणि वस्ससह - स्पाणि । ४७५. ठिदिबंधो सोलस वस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि । ४७६. अणुभागसंतकम्मं सह आगाइदेण माणे थोवं । ४७७ कोहे विसेसाहियं । ४७८. मायाए विसेसाहियं । ४७९. लोभे विसेसाहियं । ४८०, बंधो वि एवमेव । ४८१. अणुभागखंडयं पुण जमागाइदं तस्स अणुभागखंडयस्स फद्दयाणि कोधे थोवाणि । ४८२. माणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि । ४८३ मायाए फद्दयाणि विसेसाहियाणि । ४८४. लोभे फद्दयाणि विसेसाहियाणि । ४८५ आगाइदसेसाणि पुण फद्दयाणि लोभे थोवाणि । ४८६. मायाए अनंतगुणाणि । ४८७. माणे अनंतगुणाणि । ४८८. कोधे अनंतगुणाणि । ४८९. एसा परूवणा पढमसमय अस्सकण्णकरण कारयस्स | ७८८ होता है । अर्थात् अवेदी होनेके प्रथम समयमें ही अश्वकर्णकरण करता है । उस समय संज्वलन कषायोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष होता है और स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम सोलह वर्ष होता है ॥ ४७३-४७५॥ विशेषार्थ - यद्यपि सात नोकषायों के क्षपण - कालमें सर्वत्र संज्वलनकषायोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण ही था, किन्तु इस समय अर्थात् अश्वकर्णकरण करनेके प्रथम समयमें वह संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोसे संख्यातगुणित हानिके द्वारा पर्याप्तरूप से घटकर उससे संख्यातगुणित हीन जानना चाहिए । उक्त कपाय - चतुष्कका स्थितिबन्ध पहले पूरे सोलह वर्ष प्रमाण था, वह अब अन्तर्मुहूर्त कम सोलह वर्ष होता है । इस समय शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है । नाम, गोत्र और वेदनीयका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्प और स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्र वर्षप्रमाण होता है । इस प्रकार अश्वकर्णकरणकारकके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वका निर्णय करके अव उसीके अनुभागसत्त्वका निर्णय करते हैं चूर्णिसू० - अश्वकर्णकरणका आरम्भ करनेवाले जीवने अनुभागकांडकका घात करने के लिए जिस अनुभागसत्त्वको ग्रहण किया है वह मानसंज्वलनमे सबसे कम है, उससे क्रोधसंज्वलनमें विशेष अधिक है, उससे मायासंज्वलनमे विशेष अधिक है और उससे लोभसंज्वलनमें विशेष अधिक है । ( यहाँ सर्वत्र विशेप अधिकका प्रमाण अनन्त स्पर्धक है | ) अनुभागबन्ध-सम्वन्धी अल्पबहुत्व भी इसी प्रकार ही जानना चाहिए । किन्तु जो अनुभागकांडक ग्रहण किया है, उस अनुभागकांडक के स्पर्धक क्रोधमे सबसे कम हैं, इससे मान में विशेष अधिक स्पर्धक हैं, इससे मायामें विशेष अधिक स्पर्धक हैं और लोभमें विशेप अधिक स्पर्धक हैं । घात करनेके लिए ग्रहण किये गये स्पर्धकोसे अवशिष्ट अनुभाग-स्पर्धक लोभमे अल्प हैं, मायामें उससे अनन्तगुणित हैं, मानमें उससे अनन्तगुणित हैं और क्रोधमें उससे अणिनन्तगुत हैं । यह प्रथमसमयवर्ती अश्वकर्णकरणकारककी प्ररूपणा है ।। ४७६-४८९।। Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१] चारित्रमोहक्षपक-अश्वकर्णकरणक्रिया-निरूपण ४९०, तम्मि चेव परमसमए अपुच्चफद्दयाणि' णाम करेदि । ४९१. तेसिं परूवणं वत्तइस्सामो। ४९२. तं जहा । ४९३. सबस्स अक्खवगस्स सचकम्माणं देसघादिफयाणमादिवग्गणा तुल्ला । सव्वधादीणं पि मोत्तूण मिच्छत्तं सेसाणं कम्माणं सव्वधादीणमादिवग्गणा तुल्ला । एदाणि पुव्वफद्दयाणि णाम । ४९४. तदो चदुण्हं संजलणाणमपुवफद्दयाई णाम करेदि । ४९५. ताणि कधं करेदि ? ४९६. लोभस्स ताव लोहसंजलणस्स पुव्वफद्दएहितो पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागं घेत्तण परमस्स देसघादिरुद्दयस्स हेट्ठा अणंतभागे अण्णाणि अपुन्वफयाणि णिवत्तयदि । ४९७. ताणि पगणणादो अणंताणि पदेसगुणहाणिहाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो एत्तियमेत्ताणि ताणि अपुवफदयाणि । चूर्णिसू०-अश्वकर्णकरण करनेके उसी ही प्रथम समयमें चारो संज्वलन-कषायोंके अपूर्वस्पर्धक करता है ॥४९०॥ विशेषार्थ-जिन स्पर्धकोंको पहले कभी प्राप्त नहीं किया, किन्तु जो क्षपकश्रेणीमें ही अश्वकर्णकरणके कालमे प्राप्त होते है और जो संसारावस्थामे प्राप्त होनेवाले पूर्वस्पर्धकोंसे अनन्तगुणित हानिके द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाववाले हैं, उन्हे अपूर्व-स्पर्धक कहते हैं । चूर्णिसू०-अब उन अपूर्वस्पर्धकोकी प्ररूपणा कहेगे । वह इस प्रकार है-सर्व अक्षपक जीवोके सभी कर्मोंके देशघाती स्पर्धकोकी आदिवर्गणा तुल्य है। सर्वघातियोमे भी केवल मिथ्यात्वको छोड़कर शेप सर्वघाती कर्मोंकी आदि वर्गणा तुल्य है। इन्हींका नाम पूर्वस्पर्धक है । तत्पश्चात् वही प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव उन पूर्वस्पर्धकोसे चारो संज्वलनकषायोंके अपूर्वस्पर्धकोको करता है ॥४९१-४९४॥ शंका-उन अपूर्वस्पर्धकोको किस प्रकार करता है ? ॥४९५।। समाधान-यद्यपि यह प्रथमसमयवर्ती अवेदक क्षपक चारो ही कषायोके अपूर्वस्पर्धकोको एक साथ ही निवृत्त करता है, तथापि (सबका एक साथ कथन अशक्य है, अतः) पहले लोभके अपूर्वस्पर्धक करनेका विधान कहेगे-संज्वलनलोभके पूर्वस्पर्धकोसे प्रदेशाग्रके असंख्यातवे भागको ग्रहणकर प्रथम देशघाती स्पर्धकके नीचे अनन्तवें भागमे अन्य अपूर्वस्पर्धक निर्वृत्त करता है । वे यद्यपि गणनाकी अपेक्षा अनन्त हैं, तथापि प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकोके असंख्यातवें भागका जितना प्रमाण है, उतने प्रमाण वे अपूर्वस्पर्धक होते हैं ॥४९६-४९७।। १ काणि अपुवफद्दयाणि णाम १ ससारावस्थाए पुवमलद्ध पसरूवाणि खवगसेढीए चेव अस्सकष्णकरणद्धाए समुवल्ल्भमाणसरूवाणि पुवफद्दएहिंतो अण तगुणहाणीए ओवट्टिजमाणसहावाणि जाणि फद्दयाणि ताणि अपुवफद्दयाणि त्ति भण्ण ते । जयध । वर्धमान मत पूर्व हीयमानमपूर्वकम् । स्पर्धक द्विविधं जेय स्पर्धकक्रमकोविदैः॥ पचस० १,४६ ।। २ पुव्वफद्दयाणमादिवग्गणा एगेगवग्गणविसेसेण हीयमाणा जम्हि उद्देसे दुगुणहीणा होदि तमदाणमेगं गुणहाणिठ्ठाणतर णाम । जयध० Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार . ४९८. पढसमए जाणि अपुव्वफद्दयाणि तत्थ पढमस्स फहयरस आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं थोवं । ४९९ विदियस्स फद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गमणंतभागुत्तरं । ५०० एवमणंतराणंतरेण गंतूण दुचरिमस्स फद्दयस्स आदिवग्गपाए अविभागपडिच्छेदादो चरिमस्त अपुच्चफद्दयस्स आदिवग्गणा विसेसाहिया अणंतभागेण । ७९० विशेषार्थ - यहाँ यह शंका की गई है कि वह प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव पूर्वस्पर्धकोसे अपूर्वपर्धक कैसे बनाता है ? उसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि उस क्षपकके उस समय जो डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध हैं और जो कि पूर्वस्पर्धको में यथायोग्य विभाग के अनुसार अवस्थित हैं, उन्हें उत्कर्षणापकर्षण भागहारके प्रतिभाग द्वारा असंख्यातवें भागका अपकर्षण कर, अपूर्वस्पर्धक बनाने के लिए ग्रहण करता है । पुनः उन्हें अनन्त गुणहानिके द्वारा हीन शक्तिवाले करके पूर्वस्पर्धको के प्रथम देशघाती स्पर्धकोके नीचे उनके अनन्तवें भागमें अपूर्वस्पर्धक बनाता है । इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम देशघाती स्पर्धककी आदिवर्गणा में जितने अविभाग - प्रतिच्छेद होते हैं, उन अविभागप्रतिच्छेदोंके अनन्तवें भागमात्र ही अविभागप्रतिच्छेद सबसे अन्तिम अपूर्वस्पर्धककी अन्तिमवर्गणामें होते है । इस प्रकार से निर्वृत्त किये गये अपूर्वस्पर्धको का प्रमाण प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के भीतर जितने स्पर्धक होते हैं उनके असंख्यातवें भागमात्र वतलाया गया है । पूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणा एक एक वर्गणा-विशेषसे हीन होती हुई जिस स्थानपर दुगुण हीन होती है, उसे एक प्रदेशगुणहानि - स्थानान्तर कहते हैं अब उपयुक्त अर्थके ही विशेष निर्णय करनेके लिए अल्पबहुत्व कहते हैंचूर्णिसू० ० - प्रथम समयमें जो अपूर्वस्पर्धक निर्वृत्त किये गये हैं उनमें प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणामे अविभाग- प्रतिच्छेदाय अल्प हैं । द्वितीय स्पर्धककी आदि वर्गणामे अविभाग प्रतिच्छेदाग्र अनन्त बहुभागसे अधिक हैं । इस प्रकार अनन्तर अनन्तररूपसे जाकर द्विचरम स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोकी अपेक्षा चरम अपूर्वस्पर्धक की आदि वर्गणा अनन्त भागसे विशेष अधिक है ॥४९८-५०० ॥ विशेपार्थ- द्वितीय स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे तृतीय स्पर्धक - की आदि वर्गणा अविभाग- प्रतिच्छेद अनन्त बहुभागसे अधिक होते हुए भी कुछ कम द्वितीय भागसे अधिक हैं, तृतीय स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे चतुर्थ स्पर्धककी आदि वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम तृतीय भागसे अधिक हैं । इस प्रकार जब तक जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण स्पर्धकोकी अन्तिम स्पर्धकवर्गणा अपने अनन्तर नीचे स्पर्धक आदि वर्गणासे उत्कृष्ट संख्यातवें भागसे अधिक होकर संख्यात भागवृद्धिके अन्तको न प्राप्त हो जावे, तब तक इसी प्रकार चतुर्थ- पंचमादि भागाधिक क्रमसे से ले जाना चाहिए । इससे आगे जब तक आदिसे लेकर जघन्य परीतानन्तप्रमाण स्पर्धकों में अन्तिम Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१] चारित्रमोहलपक-अश्वकर्णकरणक्रिया-निरूपण ७९१ . ५०१ जाणि पढमसमये अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि तत्थ पढमस्स फद्दयस्स आदिवग्गणा थोवा । ५०२ चरिमस्स अपुव्वफद्दयस्स आदिवग्गणा अणंतगुणा । ५०३. पुव्व कद्दयस्सादिवग्गणा अणंतगुणा । ५०४. जहा लोभस्स अपुचफद्दयाणि परूविदाणि पढपसपये, तहा मायाए माणस्स कोधस्स परूवेयवाणि ।। ५०५. पहमसमए जाणि अपुन्वफयाणि णिव्यत्तिदाणि तत्थ कोधस्स थोबाणि। ५०६. माणस्स अपुन्नफद्दयाणि विसेसाहियाणि । ५०७. मायाए अपुषफयाणि विसेसाहियाणि । ५०८. लोभस्स अपुयफद्दयाणि विसेसाहियाणि । ५०९. विसेसो अणंतभागो। ५१०. तेसिं चेव परमसमए णिव्वत्तिदाणमपुव्वफयाणं लोभस्स आदिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदग्गं थोवं । ५११. मायाए आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । ५१२. माणस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । ५१३. कोहस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । ५१४. एवं चतुण्डं स्पर्धककी प्रथमवर्गणा अपने अनन्तर नीचेके स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातवें भागसे अधिक होकर असंख्यात भागवृद्धिके अन्तको न प्राप्त हो जावे, तब तक असंख्यात भागोत्तर वृद्धिका क्रम चालू रहता है । इसके आगे अन्तिम स्पर्धक तक अनन्त भागवृद्धिका क्रम जानना चाहिए। चूर्णिस०-प्रथम समयमे जो अपूर्वस्पर्धक निर्वर्तित किये गये, उनमे प्रथम स्पर्धक. की आदि वर्गणा अल्प है । इससे अन्तिम अपूर्वस्पर्धककी आदि वर्गणा अनन्तगुणी है । इससे पूर्वस्पर्धककी आदि वर्गणा अनन्तगुणी है। अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमें जिस प्रकार संज्वलन लोभके अपूर्वस्पर्धकोकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार संज्वलन माया, मान और क्रोधके अपूर्वस्पर्धकोकी भी प्ररूपणा करना चाहिए ॥५०१-५०४॥ अब प्रथम समयमें निर्वृत्त चारो संज्वलन-कषायोके अपूर्वस्पर्धक-सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं चूर्णिस०-प्रथम समयमे जो अपूर्वस्पर्धक निवृत्त किये है, उनमे क्रोधके अपूर्वस्पर्धक सबसे कम हैं। इससे मानके अपूर्व स्पर्धक विशेष अधिक है। इससे मायाके अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक है और लोभके अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक हैं। यहाँ सर्वत्र विशेषका प्रमाण अनन्तवॉ भाग है ॥५०५-५०९॥ चूर्णिसू०-प्रथम समयमें निर्वर्तित उन्हीं अपूर्वस्पर्धकोके लोभकी आदि वर्गणामे अविभागप्रतिच्छेदाग्र अल्प हैं। इससे मायाकी आदिवर्गणामे अविभागप्रतिच्छेदार विशेष अधिक हैं । इससे मानकी आदि वर्गणामे अविभागप्रतिच्छेदाय विशेष अधिक है और इससे क्रोधकी आदि वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदाम विशेष अधिक हैं। इस प्रकार पारो ही Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ कलाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार पि कसायाणं जाणि अपुन्वफद्दयाणि तत्थ चरिमस्स अपुचफद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं चदुहं पि कसायाणं तुल्लमणंतगुणं । ५१५. पडमसमयअस्सकपणकरणकारयस्स जंपदेसग्गमोकड्डिज्जदि तेण कम्मस्स अवहारकालो थोवो। ५१६. अपुन्वफद्दएहिं पदेसगुणहाणिहाणंतरस्स अवहारकालो असंखेज्जगुणो । ५१७. पलिदोवमवग्गमूलमसंखेज्जगुणं । ५१८. पडमसमये णिव्वत्तिज्जमाणगेसु अपुवफदएसु पुच्चफदएहितो ओकड्डियूण पदेसग्गमपुव्वफयाणमादिवग्गणाए बहुअं देदि । विदियाए वग्गणाए विसेसहीणं देदि । एवमणंतराणंतरेण गंतूण कषायोंके जो अपूर्वस्पर्धक हैं उनमे अन्तिम अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदान चारों ही कषायोंके परस्पर तुल्य और अनन्तगुणित हैं ।।५१०-५१४॥ विशेषार्थ-उक्त कथनको स्पष्टरूपसे समझनेके लिए चारो संज्वलन कषायोंकी जो आदि वर्गणाएँ हैं, उनका प्रमाण अंकसंदृष्टिमे १०५।८४१७०।६०। तथा क्रोध संज्वलनादिके अपूर्वस्पर्धकोकी शलाकाओंका प्रमाण क्रमशः १६।२०।२४।२८। यथाक्रमसे कल्पना करना चाहिये । आदिवर्गणाको अपनी अपनी अपूर्वस्पर्धक-शलाकाओसे गुणा करनेपर प्रत्येक कषायके अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोका प्रमाण आ जाता है, जो परस्परमें तुल्य होते हुए भी अपने आदिवर्गणाकी अपेक्षा अनन्तगुणित होता है । यथा ___ क्रोध मान माया लोभ आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद १०५ ८४ ७०६० अपूर्वस्पर्धकशलाका ४१६ ४२० ४२४ ४२८ अन्तिमस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद १६८० १६८० १६८० १६८० ___अब अपूर्वस्पर्धकोका प्रमाण निकालने के लिए एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर-स्थापित भागहारका प्रमाण जाननेके लिए उपरिम अल्पबहुत्व कहते हैं चूर्णिसू०-प्रथमसमयवर्ती अश्वकर्णकरण-कारकके जो प्रदेशाग्र अपकृष्ट किये जाते हैं उससे कर्मका अवहारकाल अल्प है। अपूर्वस्पर्धकोकी अपेक्षा प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका अवहारकाल असंख्यातगुणा है और इससे पल्योपमका वर्गमूल असंख्यातगुणा है ॥५१५-५१७॥ विशेषार्थ-उक्त अल्पबहुत्वका आशय यह है कि उत्कर्पण-अपकर्पण भागहारसे असंख्यातगुणित और पल्योपमके प्रथम वर्गमूलसे असंख्यातगुणित हीन पल्योपमके असंख्यातवें भागसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकोके अपवर्तित करनेपर जो भाग लब्ध हो, तावन्मान क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक होते हैं। अब पूर्व-अपूर्वस्पर्धकोंमे तत्काल अपकर्षित द्रव्यके निपेकविन्यासक्रमको बतलाते हैं चूर्णिसू०-प्रथम समयमे निर्वर्तित किये जानेवाले अपूर्वस्पर्धकोसे अपकर्पण करके अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणामे बहुत प्रदेशाग्रको देता है । द्वितीय वर्गणाम विशेप हीन देता है । इस प्रकार अनन्तर-अनन्तररूपसे जाकर अपूर्वस्पर्धककी अन्तिम वर्गणामें विशेष हीन देता है। Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१ ] चारित्रमोहक्षपक-अश्वकर्णकरणक्रिया-निरूपण ७९३ चरिमाए अपुव्यफद्दयवग्गणाए विसेसहीणं देदि । ५१९. तदो चरिमादो अपुयफद्दयवग्गणादो पहमस्स पुव्वफद्दयस्स आदिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणं देदि । तदो विदियाए पुचफद्दयवग्गणाए विसेसहीणं देदि । सेसासु सव्वासु पुवफद्दयवग्गणासु विसेसहीणं देदि । ५२०. तम्हि चेव पडमसमए जं दिस्सदि पदेसग्गं तमपुव्वफयाणं पहमाए वग्गणाए बहुरं । पुत्रफद्दयआदिवग्गणाए विसेसहीणं । ५२१. जहा लोहस्स, तहा मायाए माणस्स कोहस्स च । ५२२. उदयपरूवणा । ५२३. जहा । ५२४ पहमसमए चेव अपुव्वफद्दयाणि उदिण्णाणि च अणुदिण्णाणि च । अपुन्चफयाणं पि आदीदो अणंतभागो उदिण्णो च अणुदिपणो च । उवरि अणंता भागा अणुदिण्णा । उस अन्तिम अपूर्वस्पर्धक-वर्गणासे प्रथम पूर्वस्पर्धककी आदि वर्गणामे असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्र देता है, उससे द्वितीय पूर्वस्पर्धक-वर्गणाओमे विशेप हीन देता है। इस प्रकार शेष सब पूर्वस्पर्धक-वर्गणाओमें उत्तरोत्तर विशेष हीन देता है। उस ही प्रथम समयमे जो प्रदेशान दिखता है, वह अपूर्वस्पर्धकोकी प्रथम वर्गणामे बहुत और पूर्वस्पर्धकोकी आदि वर्गणामें विशेष हीन है। पूर्व और अपूर्वस्पर्धकोमे दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी यह प्ररूपणा जैसी संज्वलन लोभकी की गई है, उसी प्रकारसे संज्वलन माया, मान और क्रोधकी भी जानना चाहिए ॥५१८-५२१॥ चूर्णिस०-अब उसी अश्वकर्णकरणकालके प्रथम समयमे चारो संज्वलन कषायोके अनुभागोदयकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-प्रथम समयमे ही अपूर्वस्पर्धक उदीर्ण भी पाये जाते हैं और अनुदीर्ण भी पाये जाते है । इसी प्रकार पूर्वस्पर्धकोका भी आदिसे लेकर अनन्तवॉ भाग उदीर्ण और अनुदीर्ण पाया जाता है। तथा उपरिम अनन्त बहुभाग अनुदीण रहता है ॥५२२-५२४॥ विशेषार्थ-इस चूर्णिसूत्रके द्वारा यह विशेप बात सूचित की गई है कि अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमे लतासमान-अनन्तिम भाग प्रतिवद्ध पूर्वस्पर्धकरूपसे और उससे अधस्तन सर्व अपूर्वस्पर्धकस्वरूपसे संज्वलन कषायोके अनुभागकी उदय-प्रवृत्ति होती है, इससे उपरिम स्पर्धकोकी उदयरूपसे प्रवृत्ति नहीं होती है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि अपूर्वस्पर्धकस्वरूपसे तत्काल ही परिणमित होनेवाले अनुभागसत्त्वसे प्रदेशाग्रके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके उदीरणा करनेवाले जीवके उदयस्थितिके भीतर सभीका अपूर्वस्पर्धकोके स्वरूपसे अनुभागसत्त्व पाया जाता है । इस प्रकार पाये जानेवाले सभी अपूर्वस्पर्धक उदीर्ण कहे जाते है। किन्तु सभी अनुभागसत्त्व तो अपूर्वस्पर्धक-स्वरूपसे उदयमे आया नहीं है, अतः उनकी अपेक्षा वे अनुदीर्ण भी पाये जाते है। यही वात पूर्वस्पर्धकोके विपयमे भी जानना चाहिए। अव उसी अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमे चारो संज्वलनोका अनुभागवन्ध किस प्रकार होता है, यह बतलाते है १०० Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ कसाय पाटुड सुत्त । १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ५२५. बंधेण णिव्वत्तिज्जंति अपुचफयं पहममादि कादूण जाव लदासमाणफयाणमणंतमागोत्ति । ५२६. एसा सव्या परूवणा पढमसमयअस्सकण्णकरणकारयस्स । ५२७. एत्तो विदियसमए तं चेव द्विदिखंडयं, तं चेव अणुभागखंडयं, सो चेव हिदिवंधो । ५२८. अणुभागवंधो अणंतगुणहीणो | ५२९. शुणसेही असंखेज्जगुणा । ५३०. अपुव्वफदयाणि जाणि पढपसपए णिव्यत्तिदाणि विदियसमये ताणि च णिव्यत्तयदि अण्णाणि च अपुव्वाणि तदो असंखेज्जगुणहीणाणि । ५३१. विदियसमये अपुचफदएसु पदेसग्गरस दिज्जमाणयस्स सेढिपरूवणं वत्तइस्सामो । ५३२. तं जहा । ५३३. विदियसमए अपुव्वफयाणमादिवग्गणाए पदेसग्गं बहुअंदिज्जदि । विदियाए वग्गणाए विसेसहीणं । एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणं दिजदि ताव जाव जाणि विदियसमए अपुव्वाणि अपुवफयाणि कदाणि । ५३४. तदो चरिमादो वग्गणादो पहयसमए जाणि अपुव्वफयाणि कदाणि तेसिमादिवग्गणाए दिज्जदि पदेसग्गमसंखेन्जगुणहीणं । ५३५.तदो विदियाए वग्गणाए विसेसहीणं दिज्जदि । तत्तो पाए अणंतरोवणिधाए सव्वत्थ विसेसहीणं दिज्जदि । पुचफयाणयादिवग्गणाए विसेसहीणं दिज्जदि । सेसासु वि विसेसहीणं दिज्जदि । ५३६. विदि यसमये अपुव्वफदएसु वा चूर्णिसू०-वन्धकी अपेक्षा प्रथम अपूर्वस्पर्धकको आदि करके लता समान स्पर्धकोके अनन्तवें भागतक स्पर्धक निवृत्त होते है। (हॉ, इतना विशेप है कि उदय-स्पर्धकोकी अपेक्षा ये बन्ध-स्पर्धक अनन्तगुणित हीन अनुभाग शक्तिवाले होते है।) यह सब प्ररूपणा अश्वकर्णकरणके प्रथम समयकी है ॥५२५-५२६॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे अश्वकर्णकरणके दूसरे समयकी प्ररूपणा करते हैद्वितीय समयमे वही स्थितिकांडक होता है, वही अनुभागकांडक होता है और वही स्थितिवन्ध होता है। अनुभागवन्ध अनन्तगुणा हीन होता है और गुणश्रेणी असंख्यातगुणी होती है। जिन अपूर्वस्पर्धकोको प्रथम समयमे निवृत्त किया था, द्वितीय समयमे उन्हे भी निर्वृत्त करता है और उनसे असंख्यातगुणित हीन अन्य भी अपूर्वस्पर्धकोको निर्वृत्त करता है ॥५२७-५३०॥ चूर्णिसू०-अव द्वितीय समयमे अपूर्वस्पर्धकोमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणीप्ररूपणाको कहेगे। वह इस प्रकार है-द्वितीय समयमे अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणामे बहुत प्रदेशाग्र को देता है । द्वितीय वर्गणामे विशेप हीन प्रदेशाग्रको देता है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधारूप क्रमसे विशेष हीन प्रदेशाग्र तव तक दिया जाता है जब तक कि द्वितीय समयमे निवृत्त किये गये अपूर्वस्पर्धकोकी अन्तिम वर्गणा प्राप्त न हो जाय । पुनः उस अन्तिम वर्गणासे प्रथम समयमे जो अपूर्वस्पर्धक किये हैं उनकी आदिवर्गणामे असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्रको देता है । उससे द्वितीय वर्गणामें विशेप हीन प्रदेशाग्रको देता है। इस स्थलपर यहाँसे लेकर आगे सर्वत्र अनन्तरोपनिधासे सर्व वर्गणाओमे विशेप हीन प्रदेशाग्रको देता है। पूर्वस्पर्धकाकी आदिवर्गणामें विशेप हीन प्रदेशाग्र देता है और शेप वर्गणाओंमें भी विशेप हीन प्रदेशाग्र Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१ ] चारित्रमोहक्षपक अश्वकर्णकरणक्रिया-निरूपण ७९५ पुव्वफदएसु वा एककिस्से वग्गणाए जं दिस्सदि पदेसग्गं तमपुव्यफद्दय-आदिवग्गणाए बहुअं । सेसासु अणंतरोवणिधाए सव्यासु विसेसहीणं । - ५३७. तदियसमए वि एसेव कमो । णवरि अपुव्वफयाणि ताणि च अण्णाणि च णिव्यत्तयदि । ५३८. तस्स वि पदेसग्गस्स दिज्जमाणयस्स सेढिपरूवणं। ५३९. तदियसमए अपुव्याणमपुवफदयागयादिवग्गणाए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि । विदियाए वग्गणाए विसेसहीणं । एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणं ताव जाव जाणि य तदियसमये अपुवाणमपुजफयाणं चरिमादो वग्गणादो त्ति । तदो विदियसमए अपुचफयाणमादिवग्गणाए पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं । तत्तो पाए सव्वत्थ विसेसहीणं । ५४०. जं दिस्सदि पदेसग्गं तमादिवग्गणाए बहुअं । उवरिमणंतरोवणिधाए सव्यस्थ विसेसहीणं । ५४१. जहा तदियसमए एस कमो तार जाव पडममणुभागखंडयं चरिमसमयअणुकिण्णं ति । ५४२. तदो से काले अणुभागसंतकम्मे णाणत्तं । ५४३. तं जहा । ५४४. लोभे अणुभागसंतकम्म थोवं । ५४५. मायाए अणुभागसंतकम्यमणंतगुणं । ५४६. माणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । ५४७. कोहस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । ५४८. को देता है। द्वितीय समयमें अपूर्वस्पर्धकोमे अथवा पूर्वस्पर्धकोमे एक-एक वर्गणामे जो प्रदेशाग्र दिखता है वह अपूर्वस्पर्धककी आदि वर्गणामें बहुत है और शेप सर्व वर्गणाओमे अनन्तरोपनिधाके क्रमसे विशेप हीन है ॥५३१-५३६॥ चूर्णिसू०-तृतीय समयमें भी यही क्रम है। विशेषता केवल यह है कि उन्हीं अपूर्वस्पर्धकोंको तथा अन्य भी अपूर्वस्पर्धकोको निर्वृत्त करता है । अब उन अपूर्वस्पर्धकोको दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणीप्ररूपणा करते है-तृतीय समयमे अपूर्व अपूर्वस्पर्धकोकी आदि। वर्गणामे बहुत प्रदेशाग्र दिया जाता है। द्वितीय वर्गणामे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधासे विशेप हीन प्रदेशाग्र तब तक दिया जाता है, जब तक कि तृतीय समयमें निर्वृत्त अपूर्व अपूर्वस्पर्धकोकी अन्तिम वर्गणा नहीं प्राप्त हो जाती है । उससे द्वितीय समयमें निवृत्त अपूर्वस्पर्धकोकी आदि वर्गणामें असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। यहाँसे लेकर इस स्थलपर सर्वत्र द्वितीयादि वर्गणाओमें विशेष हीन ही ही प्रदेशाग्र दिया जाता है । जो प्रदेशाग्र दिखाई देता है वह प्रथम वर्गणामे बहुत है और इससे आगे अनन्तरोपनिधासे सर्वत्र विशेप हीन है। जिस प्रकार तृतीय समयमे यह क्रम निरूपण किया गया है, उसी प्रकार प्रथम अनुभागकांडकका अन्तिम समय जब तक उत्कीर्ण न हो जाय, तब तक यही क्रम जानना चाहिए ॥५२७-५४१॥ __ चूर्णिम् ०-अब इसके अनन्तरकालमै अनुभागसत्त्वमें जो विशेपता है, वह कहेगे । वह इस प्रकार है- संज्वलन लोभमें अनुभागसत्त्व सबसे कम है। इससे संज्वलन मायामे अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इससे संज्वलनमानमे अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है। इससे Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार तेण परं सव्वम्हि अस्सकण्णकरणे एस कमो । ५४९. पढमसमए अपुव्यफहयाणि णिव्यत्तिदाणि बहुआणि । ५५०. विदियसमए जाणि अपुव्वाणि अपुयफव्याणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । ५५१. तदियसमए अपुव्याणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । ५५२. एवं समए समए जाणि अपुव्याणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । ५५३. गुणगारो पलिदोयमवरगमूलस्स असंखेज्जदिभागो। ५५४. चरिमसमए लोभस्स अपुव्यमद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदग्गं थोवं । ५५५. विदियस्स अपुचफद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं दुगुणं । ५५६. तदियस्स अपुव्वफदयरस आदिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदग्गं तिगुणं । ५५७. एवं मायाए माणस्स कोहस्स च । ५५८. अस्सकण्णकरणस्स पढमे अणुभागखंडए हदे अणुभागस्स अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । ५५९. तं जहा । ५६०. सव्वत्थोवाणि कोहस्स अपुव्वफद्दयाणि । ५६१. माणस्स अपुजफद्दयाणि विसेसाहियाणि । ५६२.मायाए अपुवफद्दयाणि विसेसाहियाणि । ५६३. लोभस्स अपुव्वफयाणि विसेसाहियाणि । ५६४. एयपदेसगुणहाणिहाणंतरफदयाणि असंखेज्जगुणाणि । ५६५. एयफद्दयवग्गणाओ अणंतगुणाओ । ५६६. कोधस्स अपुव्यफद्दयवग्गणाओ अणंतगुणाओ । ५६७. पाणस्स अपुव्यफद्दयवग्गणाओ विसेसासंज्वलन क्रोधमें अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इससे आगे सम्पूर्ण अश्वकर्णकरणके कालमे भी यही क्रम है । अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमे निर्वर्तित अपूर्वस्पर्धक बहुत है। द्वितीय समयमे जिन अपूर्व अपूर्वस्पर्धकोको निर्वृत्त किया है, वे असंख्यातगुणित हीन है। तृतीय समयमे जो अपूर्व अपूर्वस्पर्धक निवृत्त किये हैं, वे असंख्यातगुणित हीन हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर समयोमें जो अपूर्व अपूर्वस्पर्धक निवृत्त किये है वे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित हीन हैं । यहॉपर गुणकार पल्योपमके वर्गमूलका असंख्यातवॉ भाग है ।।५४२-५५३॥ चूर्णिस०-अश्वकर्णकरणके अन्तिम समयमे लोभके अपूर्वस्पर्धकोकी आदि वर्गणामे अविभागप्रतिच्छेदाग्र अल्प हैं। इससे द्वितीय अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामे अविभागप्रतिच्छेदान दुगुने है। इससे तृतीय अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणामे अविभागप्रतिच्छेदाग्र तिगुने हैं । ( इस प्रकार चतुर्थ-पंचमादि अपूर्वस्पर्धकोके चौगुने पंचगुने आदि अविभागप्रतिच्छेदाग्र जानना चाहिए । ) इसी प्रकार माया, मान और क्रोधके अपूर्वस्पर्धको अविभागप्रतिच्छेदानसम्बन्धी अल्पबहुत्वको जानना चाहिए ॥५५४-५५७।। चूर्णिसू०-अव अञ्चकर्णकरणके प्रथम अनुभागकांडकके नष्ट होनेपर अनुभागका अल्पवहुत्व कहेगे। वह इस प्रकार है-क्रोधके अपूर्वस्पर्धक सबसे कम है। इससे मानके अपूर्वस्पर्धक विशेप अधिक हैं। इससे मायाके अपूर्वस्पर्धक विशेप अधिक हैं । इससे लोभके अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिफ हैं। इससे एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धक असंख्यातगुणित हैं। इससे एक स्पर्धककी वर्गणाएँ अनन्तगुणी है। इससे क्रोधी अपूर्व स्पर्धक-वर्गणाएँ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिकरणक्रिया-निरूपण ওৎও हियाओ। ५६८. मायाए अपुचफयवग्गणाओ विसेसाहियाओ। ५६९. लोभस्स अपुवफद्दयवग्गणाओ विसेसाहियाओ । ५७०. लोभस्स पुयफदयाणि अणंतगुणाणि । ५७१. तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ । ५७२. मायाए पुव्वफद्दयाणि अणंतगुणाणि । ५७३. तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ । ५७४. माणस्स पुचफयाणि अणंतगुणाणि । ५७५. तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ । ५७६ कोहस्स पुव्वफयाणि अणंतगुणाणि । ५७७. तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ । ५७८. एवमंतोमुहुत्तमस्सकण्णकरणं । ५७९. अस्सकण्णकरणस्स चरिमसमए संजलणाणं द्विदिवंधो अट्ठ वस्साणि । ५८०. सेसाणं कम्माणं द्विदिवंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि । ५८१. णामा-गोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । ५८२. चउण्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ५८३. एत्तो से कालप्पहुडि किट्टीकरणद्धा । ५८४ छसु कम्मेसु संछुद्धसु जो कोधवेदगद्धा तिस्से कोधवेदगद्धाए तिण्णि भागा। जो तत्थ पहमतिभागो अस्सकण्णकरणद्धा, विदियो तिभागो किट्टीकरणद्धा, तदियतिभागो किट्टीवेदगद्धा । ५८५. अस्सकण्णकरणे णिट्ठिदे तदो से काले अण्णो द्विदिबंधो । ५८६. अण्णमणुभागखंडयअनन्तगुणी हैं। इससे मानकी अपूर्वस्पर्धक वर्गणाएँ विशेप अधिक है। इससे मायाकी अपूर्वस्पर्धक-वर्गणाएँ विशेप अधिक है। इससे लोभकी अपूर्वस्पर्धक-वर्गणाएँ विशेष अधिक है ॥५५८-५६९॥ चूर्णिसू०-लोभकी अपूर्वस्पर्धक-वर्गणाओसे लोभके पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणित है। लोभके पूर्वस्पर्धकोसे उन्हीकी वर्गणाएँ अनन्तगुणी है । लोभके पूर्वस्पर्धकोकी वर्गणाओसे मायाके पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणित हैं । मायाके पूर्वस्पर्धकोसे उन्हीकी वर्गणाएँ अनन्तगुणित है । मायाके पूर्वस्पर्धकोकी वर्गणाओसे मानके पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणित हैं । मानके पूर्वस्पर्धको से उन्हींकी वर्गणाएँ अनन्तगुणी है। मानके पूर्वस्पर्धकोकी वर्गणाओसे क्रोधके पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणित है। क्रोधके पूवस्पर्धकोसे उन्हींकी वर्गणाएँ अनन्तगुणी हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकालतक अश्वकर्णकरण प्रवर्तमान रहता है ॥५७०.५७८॥ चूर्णिसू०-अश्वकर्णकरणके अन्तिम समयमे चारो संज्वलनोका स्थितिबन्ध आठ वर्प और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्प है । नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्प है और चागे घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्प है। इस प्रकार अश्वकर्णकरणका काल समाप्त होता है ॥५७९-५८२॥ चूर्णिस०-यहॉसे आगे अनन्तर समयसे लेकर कृष्टिकरणकाल है। हास्यादि छह कर्मोंके संक्रमणको प्राप्त होनेपर जो क्रोधवेदककाल है उस क्रोधवेदककालके तीन भाग हैं। उनमे जो प्रथम विभाग है, वह अश्वकर्णकरणकाल, द्वितीय विभाग कृष्टिकरणकाल और तृतीय विभाग कृष्टिवेदककाल है। अश्वकर्णकरणके समाप्त होनेपर तदनन्तरकालमे अन्य Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार मस्सकण्णकरणेणेव आगाइदं । ५८७. अण्णं डिदिखंडयं चतुण्डं घादिकम्माणं संखेजाणि वस्ससहस्साणि । ५८८. णामा-गोद-वेदणीयाणमसंखेज्जा भागा। ५८९. पढमसमयकिट्टीकारगो कोधादो पुवफदएहितो च अपुव्वफदएहिंतो च पदेसग्गयोकड्डियण कोहकिट्टीओ करेदि । माणादो ओकड्डियूण माणकिट्टीओ करेदि । मायादो ओकड्डियण मायाकिट्टीओ करेदि । लोभादो ओकड्डियूण लोभकिट्टीओ करेदि । ५९०. एदाओ सव्याओ वि चउबिहाओ किट्टीओ एयफदयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो। ५९१.पढमसमए णिव्यत्तिदाणं किट्टीणं तिव्य-मंददाए अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। ५९२. तं जहा । ५९३. लोभस्स जहणिया किट्टी थोवा । ५९४. विदिया किट्टी अणंतगुणा । ५९५. एवमणंतगुणाए सेढीए जाव पढमाए संगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । ५९६. तदो विदियाए संगहकिट्टीए जहणिया किट्टी अणंतगुणा । ५९७ एस गुणगारो वारसण्हं पि संगहकिट्टीणं सत्थाणगुणगारेहिं अणंतगुणो । ५९८. विदियाए संगहकिट्टीए सो चेव कमो जो पढमाए संगहकिट्टीए । ५९९. तदो पुण विदियाए च तदियाए च संगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव । ६००. एवमेदाओ लोभस्स तिणि संगहकिट्टीओ। स्थितिबन्ध होता है। ( यहाँपर चारों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष है और शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध पूर्वके स्थितिवन्धसे संख्यातगुणा हीन है । ) अन्य अनुभागकांडक अश्वकर्णकरणकारकके द्वारा ही ग्रहण किया गया है। उस समय अन्य स्थितिकांडक होता है जो कि चारो घातिया कर्मोंका संख्यात सहस्र वर्ष है और नाम, गोत्र तथा वेदनीयका असंख्यात बहुभाग है। प्रथमसमयवर्ती कृष्टिकारक क्रोधके पूर्वस्पर्धकोसे और अपूर्वस्पर्धकोसे प्रदेशाग्रका अपकर्पण कर क्रोध-कृष्टियोको करता है। मानसे प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर मान-कृष्टियोको करता है। मायासे प्रदेशाग्रका अपकर्षण कर माया-कृष्टियोको करता है और लोभसे प्रदेशाग्रका अपकर्पण कर लोभ-कृष्टियो को करता है। ये सब चारो ही प्रकारकी कृष्टियाँ गणनाकी अपेक्षा एक स्पर्धककी वर्गणाओके अनन्तवे भागप्रमाण हैं ॥५८३-५९०॥ चूर्णिसू०-अव प्रथम समयमें निवृत्त हुई कृष्टियोकी तीव्र-मन्दताके अल्पबहुत्वको कहेगे । वह इस प्रकार है-( यहॉपर संज्वलन क्रोधादि प्रत्येक कपायकी तीन-तीन कृष्टियोकी रचना करना चाहिए । इस प्रकार चारो कपायोकी बारह कृष्टियाँ होती हैं । ) लोभकी जघन्य कृष्टि वक्ष्यमाण कृष्टियोकी अपेक्षा सबसे अल्प है । द्वितीय कृष्टि अनन्तगुणी है । इस प्रकार अनन्तगुणित श्रेणीसे प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टि तक जानना चाहिए । पुनः उस प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे द्वितीय संग्रहकृष्टिकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है । यह गुणकार वारहो ही संग्रह-कृष्टियोके स्वस्थानगुणकारोसे अनन्तगुणा है। प्रथम संग्रहकृष्टिमें जो क्रम है वही क्रम द्वितीय संग्रहकृष्टिमें भी है । पुनः इससे आगे द्वितीय और तृतीय संग्रहकृष्टियोंका तादृश ही क्रम है अर्थात् प्रथम और द्वितीय संग्रहकृष्टियोके अन्तरके सदृश ही Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिकरणक्रिया-निरूपण ७९९ ६०१. लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमा किट्टी तदो मायाए जहण्णकिट्टी अणंतगुणा । ६०२. मायाए वि तेणेव कमेण तिष्णि संगहकिट्टीओ। ६०३. मायाए जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो माणस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा । ६०४. माणस्स वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ। ६०५. माणस्स जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो कोधस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा । ६०६. कोहस्स वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ । ६०७. कोधस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमकिट्टी तदो लोभस्स अपुयफयाणमादिवग्गणा अणंतगुणा । ६०८. किट्टीअंतराणयप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । ६०९. अप्पाबहुअस्स लहुआलाव-संखेवपदत्थसण्णाणिक्खेवो ताव कायव्यो । ६१०. तं जहा । ६११. एककिस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ। तासिं अंतराणि वि अणंताणि । तेसिमंतराणं सण्णा किट्टी-अंतराई णाम । संगहकिट्टीए च संगहकिट्टीए च अंतराणि एक्कारस । तेसिं सण्णा संगहकिट्टी-अंतराई णाम । ६१२. एदीए णामसण्णाए किट्टीअंतराणं संगहकिट्टीअंतराणं च अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। ६१३. तं जहा । ६१४. लोभस्स पहमाए संगहकिट्टीए जहण्णयं किट्टीअंतरं थोवं । ६१५. विदियं किट्टीअंतरमणंतगुणं । ६१६. एवमणंतराणंहै । इस प्रकार ये लोभकी तीन संग्रहकृष्टियाँ है । लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी जो अन्तिम कृष्टि है उससे मायाकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है । मायाकी भी उसी ही क्रमसे तीन संग्रहकृष्टियाँ होती हैं। मायाकी जो तृतीय संग्रहकृष्टि है उसकी अन्तिम कृष्टिसे मानकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होती है। मानकी भी उसी ही क्रमसे तीन संग्रह कृष्टियाँ होती है । मानकी जो तृतीय संग्रहकृष्टि है उसकी अन्तिम कृष्टिसे क्रोधकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होती है। क्रोधकी भी उसी क्रमसे तीन संग्रहकृष्टियाँ होती है। क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी जो अन्तिम कृष्टि है उससे लोभके अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणा अनन्तगुणी होती है ।।५९१-६०७॥ चूर्णिसू०-अब कृष्टियोके अन्तरोका अर्थात् कृष्टि-सम्बन्धी गुणकारीका अल्पवहुत्व कहेगे। प्रकृत अल्पवहुत्वके लघु-आलाप करनेके लिए संक्षेप पदोका अर्थ-संज्ञारूप निक्षेप पहले करना चाहिए । अर्थात् प्रस्तुत किये जानेवाले विस्तृत अल्पवहुत्वको संक्षेपमे कहनेके लिए पदोंकी संक्षेपरूपमे अर्थ-संज्ञा कर लेना चाहिए जिससे प्रकृत कथनका सुगमतासे बोध हो सके । वह संज्ञा इस प्रकार करना चाहिए-एक-एक संग्रहकृष्टिकी अनन्त कृष्टियाँ होती है और उनके अन्तर भी अनन्त होते हैं। उन अन्तरोकी 'कृष्टि-अन्तर' यह संज्ञा है । संग्रहकृष्टियोके और संग्रह-कृष्टियोके अधस्तन-उपरिम अन्तर ग्यारह होते है, उनकी संज्ञा 'संग्रहकृष्टि-अन्तर' ऐसी है। इस प्रकारसे की गई नामसंज्ञाके द्वारा कृष्टि-अन्तरोका और संग्रहकृष्टि-अन्तरोका अल्पबहुत्व कहेंगे । वह इस प्रकार है-लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिम जघन्य कृष्टि-अन्तर अर्थात् जिस गुणकारसे गुणित जघन्य कृष्टि अपने द्वितीय कृष्टिका प्रमाण प्राप्त करती है, वह गुणकार सवसे कम हैं। इससे द्वितीय कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। इस Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार तरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६१७. लोभस्स चेव विदियाए संगहकिट्टीए पडमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६१८. एवमणंतराणंतरेण जाव चरिमादो त्ति अणंतगुणं । ६१९. लोभस्स चेव तदियाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरयणंतगुणं । ६२०. एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६२१. एत्तो मायाए पढमसंगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं। ६२२. एवमणंतराणंतरेण मायाए वि तिण्हं संगहकिट्टीणं किट्टिअंतराणि जहाकमेण अणंतगुणाए सेढीए णेदव्याणि । ६२३. एत्तोमाणस्स पढमाए संगहकिट्टीए पहमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६२४. माणस्स वि तिण्हं संगहकिट्टीणमंतराणि जहाकमेण अणंतगुणाए सेढीए णेदव्याणि । ६२५. एत्तो कोधस्स पहमसंगहकिट्टीए पहमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६२६. कोहस्स वि तिण्ह संगहकिट्टीणमंतराणि जहाकमेण जाव चरिमादो अंतरादो त्ति अणंतगुणाए सेडीए णेदव्याणि । ६२७. तदो लोभस्स पहमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६२८. विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं। ६२९. तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३०. लोभस्स मायाए च अंतरमणंतगुणं । ६३१. मायाए पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३२. विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३३. तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३४. मायाए माणस्स प्रकार अनन्तर-अनन्तररूपसे जाकर अन्तिम कृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । लोभकी ही द्वितीय संग्रहकृष्टिमे प्रथम कृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । इस प्रकार अनन्तर-अनन्तररूपसे अन्तिम कृष्टि-अन्तर तक अनन्तगुणा अन्तर जानना चाहिए । पुनः लोभकी ही तृतीय संग्रहकृष्टिमे प्रथम कृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इस प्रकार अनन्तर-अनन्तर रूपसे जाकर अन्तिम कृष्टिअन्तर अनन्तगुणा है ॥६०८-६२०॥ चूर्णिसू०-यहाँसे आगे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रथम कृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । इस प्रकार अनन्तर-अनन्तररूपसे मायांकी भी तीनो संग्रह-कृष्टियोके कृष्टि-अन्तर यथाक्रमसे अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए । यहाँसे आगे मानकी प्रथम संग्रह-कृष्टिमे प्रथम कृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इस प्रकार मानकी भी तीनो संग्रहकृष्टियोके कृष्टि-अन्तर यथाक्रमसे अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए । यहाँसे आगे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रथम कृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इस प्रकार क्रोधकी भी तीनो संग्रहकृष्टियोंके अन्तर यथाक्रमसे अन्तिम अन्तर तक अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा' ले जाना चाहिए ॥६२१-६२६।। चूर्णिसू०-उससे, अर्थात् स्वस्थानगुणकारोके अन्तिम गुणकारसे लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है और इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। लोभका और मायाका अन्तर अनन्तगुणा है। मायाका प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। मायाका और मानका Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०१ गा० १६१ । चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिकरणक्रिया-निरूपण च अंतरमणंतगुणं । ६३५. माणस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३६. विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३७. तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३८. माणस्स कोहस्स च अंतरमणंतगुणं । ६३९. कोहस्स पहमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६४०. विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६४१. तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६४२ कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुचफद्दयाणमादिवग्गणाए अंतरमणंतगुणं । ६४३. पडमसमए किट्टीसु पदेसग्गस्स सेडिपरूवणं वत्तइस्सामो। ६४४. तं जहा । ६४५. लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं । ६४६. विदियाए किट्टीए विसेसहीणं । ६४७. एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण जाव कोहस्स चरिमकिट्टि त्ति । ६४८.परंपरोवणिधाए जहणियादो लोभकिट्टीदो उक्कस्सियाए कोधकिट्टीए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । ६४९. विदियसमए अण्णाओ अपुचाओ किट्टीओ करेदि पत्मसमये णिव्यत्तिदकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ । ६५०. एककिस्से संगहकिट्टीए हेट्ठा अपुवाओ किट्टीओ करेदि । ६५१. विदियसमए दिज्जमाणयस्स पदेसग्गस्स सेहिपरूवणं वत्तइस्सामो । ६५२. तं जहा । ६५३. लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि । ६५४. विदियाए किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण । ६५५. ताव अणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं अन्तर अनन्तगुणा है। मानका प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। मानका और क्रोधका अन्तर अनन्तगुणा है। क्रोधका प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। क्रोधकी अन्तिम कृष्टिसे लोभके अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है ॥६२७-६४२॥ चूर्णिसू०-अव प्रथम समयमें निवृत्त हुई कृष्टियोंमे दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणीप्ररूपणा कहेंगे । वह इस प्रकार है-लोभकी जघन्य कृष्टिमे प्रदेशात्र बहुत है। द्वितीय कृष्टिमें प्रदेशाग्र अनन्तवे भागसे विशेष हीन हैं । इस प्रकार अनन्तरोपनिधाके द्वारा अनन्तभागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र क्रोधकी अन्तिम कृष्टि तक जानना चाहिए। परंपरोपनिधाके द्वारा जघन्य लोभकृष्टिसे उत्कृष्ट लोभकृष्टिके प्रदेशाग्र अनन्तवें भागसे विशेप हीन हैं। द्वितीय समयमे, प्रथम समयमे निवृत्त कृष्टियोके असंख्यातवें भागमात्र अन्य अपूर्व कृष्टियोको करता है। एक-एक संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंको करता है ॥६४३-६५०॥ चूर्णिसू०-अब द्वितीय समयमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणीप्ररूपणा कहेगे । वह इस प्रकार है-लोभकी जघन्यकृष्टिमे प्रदेशाग्र बहुत दिया जाता है। द्वितीय कृष्टिमें विशेप हीन अर्थात् अनन्तवे भागसे हीन दिया जाता है। इस प्रकार तब तक अनन्तवे भागसे हीन दिया जाता है जब तक कि द्वितीय समयमे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे १०१ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार चरिमादो त्ति । ६५६. तदो पढमसमए णिबत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज्जदिमागेण । ६५७. तदो विदियाए अणंतभागहीणं तेण परं पडमसमयणिव्वत्तिदासु लोभस्स पडमसंगहकिट्टीए किट्टीसु अणंतराणंतरेण अणंतभागहीणं दिज्जमाणगं जाव पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि ति। ६५८. लोभस्स चेव विदियसमए विदियसंगहकिट्टीए तिस्से जहणियाए किट्टीए दिज्जमाणगं विसेसाहियमसंखेज्जदिमागेण । ६५९. तेण परमणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो त्ति । ६६०. तदो पहमसमयणिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज्जदिमागेण । ६६१. तेण परं विसेसहीणमणंतभागेण जाव विदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । ६६२. तदो जहा विदियसंगहकिट्टीए विधी तहा चेव तदियसंगहकिट्टीए विधी च । ६६३. तदो लोभस्स चरिमादो किट्टीदो मायाए जा विदियसमए जहणिया किट्टी तिस्से दिज्जदि पदेसग्गं विसेसाहियमसंखेज्जदिभागेण । ६६४ तदो पुण अणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो त्ति । ६६५. एवं जम्हि जम्हि अपुव्वाणं जहणिया किट्टी तम्हि तम्हि विसेसाहियमसंखेज्जदिभागेण अपुव्वाणं चरिमादो असंखेज्जदिभागनिर्वतमान अपूर्वकृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है। उससे प्रथम समयमे निवर्तित लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तर-कृष्टियोमेंसे जघन्य कृष्टि में विशेष हीन अर्थात् असंख्यातवें भागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उससे द्वितीय कृष्टिमे अनन्तभागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उसके आगे प्रथम समयमे निर्वर्तित लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंमें अनन्तर-अनन्तररूपसे प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टि तक अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उससे लोभकी ही द्वितीय समयमे निवर्तमान उस द्वितीय संग्रहकृष्टिकी जघन्य कृष्टिमें दीयमान प्रदेशाग्र असंख्यातवें भागसे विशेष अधिक है । उसके आगे द्वितीय संग्रहकृष्टि के नीचे निवर्तमान अपूर्व कृष्टियोकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उससे, प्रथम समयमें निर्वर्तित पूर्वकृष्टियोकी जघन्य कृष्टिमे असंख्यातभागप्रमाण विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इससे आगे द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है ॥६५१-६६१॥ चूर्णिसू०-तत्पश्चात् द्वितीय संग्रहकृष्टिमे जैसी विधि बतलाई गई है वैसी ही विधि तृतीय संग्रहकृष्टिमे भी जानना चाहिए । तदनन्तर लोभकी अन्तिम कृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीय समयमें निवर्तमान अपूर्वकृष्टियोमे जो जघन्य कृष्टि है उसमें असंख्यातवें भागसे विशेष अधिक प्रदेशाग्र दिया जाता है। पुनः इसके आगे अपूर्वकृष्टियोकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तभागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इस प्रकार उपयुक्त क्रमसे जहाँ जहाँ पर पूर्वकृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टि से अपूर्व कृष्टियोकी जघन्य कृष्टि कही गई है, वहाँ वहॉपर असंख्यातवें भागसे विशेष अधिक प्रदेशाग्र दिया जाता है और जहाँ जहॉपर अपूर्वकृष्टियोकी अन्तिम कृष्टिसे पूर्व कृष्टियोकी जघन्य कृष्टि कही गई है वहाँ वहॉपर असं Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६१ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिकरणक्रिया-निरूपण ८०३ हीणं । ६६६. एदेण कमेण विदियसमए णिक्खिवमाणगस्स पदेसम्गरस वारससु किट्टिहाणेसु असंखेज्जदिभागहीणं । एक्कारससु किट्टिहाणेसु असंखेज्जदिभागुत्तरं दिज्जमाणगस्स पदेसग्गरस । ६६७. सेसेसु किट्टिट्ठाणेसु अणंतभागहीणं दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स । ६६८. विदियसमए दिज्जयाणयस्स पदेसग्गस्स एसा उट्टकूटसेही । ६६९ जं पुण विदियसमए दीसदि किट्टिसु पदेसग्गं तं जहणियाए बहुअं, सेसासु सव्वासु अणंतरोवणिधाए अणंतभागहीणं । ६७०. जहा विदियसमए किट्टीसु पदेसग्गं तहा सविस्से किट्टीकरणद्धाए दिज्जमाणगस्स पदेसग्गरस तेवीसमुट्टकूटाणि । ६७१. दिस्सयाणयं सव्वम्हि अणंतभागहीणं । ६७२ अं पदेसग्गं सव्वसमासेण पढमसमए किट्टीसु दिज्जदि तं थोवं । विदियसमए असंखेजगुणं । तदियसमए असंखेज्जगुणं । एवं जाव चरिमादो त्ति असंखेज्जगुणं । ६७३. किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए संजलणाणं हिदिबंधो चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तब्भहिया । ६७४. सेसाणं कम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६७५. ख्यातवे भागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इस क्रमसे द्वितीय समयमे निक्षिप्यमान प्रदेशाग्रका बारह कृष्टि-स्थानोमे असंख्यातवें भागसे हीन और ग्यारह कृष्टिस्थानोमे दीयमान प्रदेशाग्रका असंख्यातवें भागसे अधिक अवस्थान है। शेष कृष्टिस्थानोमे दीयमान प्रदेशाग्रका अनन्तवें भागसे हीन अवस्थान है। द्वितीय समयमे दीयमान प्रदेशाग्रकी यह उष्ट्रकूटश्रेणी है ॥६६२-६६८॥ भावार्थ-जिस प्रकार ऊँटकी पीठ पिछले भागमें पहले ऊँची होती है पुनः मध्यमे नीची होती है, फिर आगे नीची ऊँची होती है, उसी प्रकार यहॉपर भी प्रदेशोका निषेक आदिमें बहुत होकर फिर थोड़ा रह जाता है । पुनः सन्धिविशेपोमे अधिक और हीन होता हुआ जाता है, इस कारणसे यहाँपर होनेवाली प्रदेशश्रेणीकी रचनाको उष्ट्रकूटश्रेणी कहा है। चूर्णिसू०-द्वितीय समयमें कृष्टियोमे जो प्रदेशाग्र दिखता है वह जघन्य कृष्टिमें बहुत है और शेष सर्व कृष्टियोंमें अनन्तरोपनिधासे अनन्तभाग हीन है। जिस प्रकार द्वितीय समयमे कृष्टियोमें दीयमान प्रदेशाग्रकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार सम्पूर्ण कृष्टिकरणकालमें दीयमान प्रदेशाग्रके तेईस उष्ट्रकूटोकी प्ररूपणा करना चाहिए। किन्तु दृश्यमान प्रदेशाग्र सर्वकालमे अनन्तभाग हीन जानना चाहिए । जो प्रदेशाग्र सर्वसमास अर्थात् सामस्त्यरूपसे प्रथम समयमे कृष्टियोंमें दिया जाता है वह सबसे कम है। द्वितीय समयमै दिया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । तृतीय समयमे दिया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। इस प्रकार ( कृष्टिकरण फालके ) अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है ॥६६९-६७२॥ चूर्णिसू०-कृष्टिकरणकालके अन्तिम समयमें चारो संज्वलनोका स्थितिवन्ध अन्तमुहूर्तसे अधिक चार मास है। शेप कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है। उसी Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार तह चेव किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्तसहस्वाणि हाइण अट्टवस्गिमं तो मुहुत्तम्भहियं जादं । ६७६. तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६७७ णामा- गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६७८ किट्टीओ करेंतो पुव्वफद्दयाणि अपव्यफद्दयाणि च वेदेदि, किड्डीओ वेददि । ६७९. किट्टीकरणद्धा मिट्ठायदि परमद्विदीए आवलियाए सेसाए । ६८०. से काले किट्टीओ पवेसेदि । ६८१. ताथे संजलणाणं द्विदिबंधो चत्तारि मासा | ६८२. द्विदिसंतकम्पमट्ट वस्साणि । ६८३. तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो द्विदिसंतकम्मं च संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६८४ [ वेदणीय-] णामा-गोदाणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६८५. ट्ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ८०४ ६८६. अणुभागसंतकम्मं कोहसंजलणस्स जं संतकम्पं समयुणाए उदयावलियाए च्छदिल्लिगाए तं सव्वधादी । ६८७. संजलणाणं जे दो आवलियबंधा दुसमयूणा ते देसवादी । तं पुण फयगढ़ । ६८८. सेसं किट्टीगदं । ६८९. तम्हि चेव पढमसमए कोहस्स पढमसंगह किट्टीदो पदेसग्ग मोकड्डियूण पडमट्ठिदिं करेदि । ६९०. ताहे कोहस्स पडमाए संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा उदिण्णा । ६९१. एदिस्से चेव कोहस्स पढमा संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा वज्झति । ६९२. सेसाओ दो संगह किट्टीओ ण कृष्टिकरणकालके अन्तिम समयमे मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्षों से घटकर अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आठ वर्षप्रमाण हो जाता है । शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है । तथा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्र वर्प है ॥६७३-६७७॥ चूर्णिसू० - कृष्टियोको करनेवाला पूर्व -स्पर्धको और अपूर्व - स्पर्धकोका वेदन करता है, किन्तु कृष्टियोका वेदन नहीं करता । संज्वलन क्रोधकी प्रथमस्थितिमे आवलीमात्र शेप रहने - पर कृष्टिकरणकाल समाप्त हो जाता है । कृष्टिकरणकालके समाप्त होनेपर अनन्तर समयमे कृष्टियोंको द्वितीय स्थिति से अपकर्पण कर उदद्यावली के भीतर प्रवेश करता है । उस समय में चारो संज्वलनोका स्थितिबन्ध चार मास है और स्थितिसत्त्व आठ वर्ष है । शेष तीन घातिया कर्मों का स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है | वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्ष और स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्र वर्ष है || ६७८-६८५॥ चूर्णिसू० - संज्वलनक्रोधका जो अनुभागसत्त्व समयोन उद्यावलीके भीतर उच्छिटावलीके रूपसे अवशिष्ट अवस्थित है वह सत्त्व सर्वघाती है। संज्वलन कपायोके जो दो समय कम दो आवली - प्रमाण नवक-बद्ध समयप्रबद्ध हैं, वे देशघाती हैं । उनका वह अनुभागसत्त्व स्पर्धकस्वरूप है । शेष सर्व अनुभागसत्त्व कृष्टिस्वरूप है । उसी कृष्टिवेदक - कालके प्रथम समयमे ही क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे प्रदेशायका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता । उस समय मे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके असंख्यात वहुभाग उदीर्ण अर्थात् उदयको प्राप्त होते हैं । तथा इसी क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुभाग बन्धको प्राप्त होते हैं । शेष Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०५ गा० १६२) चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिकरणक्रिया-निरूपण बझंति, ण वेदिज्जति । ६९३. पडमाएं संगहकिट्टीए हेह्रदो जाओ किट्टीओ ण वझंति, ण वेदिजंति, ताओ थोवाओ। ६९४. जाओ किट्टीओ वेदिज्जंति, ण बॉति ताओ विसेसाहियाओ। ६९५. तिस्से चेव पडमाए संगहकिट्टीए उवरि जाओ किट्टीओ ण बझंति, ण वेदिज्जति ताओ विसेसाहियाओ। ६९६. उवरि जाओ वेदिज्जति, ण बझंति ताओ विसेसाहियाओ। ६९७. मज्झे जाओ किट्टीओ वझंति च वेदिज्जति च ताओ असंखेज्जगुणाओ। ६९८. किट्टीवेदगद्धा ताव थवणिज्जा । ६९९. किट्टीकरणद्धाए ताव सुत्तफासो । ७००. तत्थ एक्कारस मूलगाहाओ । ७०१. पढमाए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । (१०९) केवदिया किट्टीओ कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ। किट्टीए किं करणं लक्खणमध किं च किट्टीए ॥१६२॥ ७०२. एदिस्से गाहाए चत्तारि अत्था । ७०३. तिण्णि भासगाहाओ । ७०४. पडमभासगाहा वेसु अत्थेसु णिवद्धा । तिस्से समुक्कित्तणा । दो संग्रहकृष्टियाँ न बंधती है और न उदयको प्राप्त होती हैं । प्रथम संग्रहकृष्टिकी अधस्तन जो कृष्टियाँ न बंधती है और न उदयको प्राप्त होती हैं, वे अल्प है। जो कृष्टियाँ उदयको प्राप्त होती हैं, किन्तु बंधती नही है, वे विशेष अधिक है । उस ही प्रथम संग्रहकृष्टिके ऊपर जो कृष्टियाँ न बंधती हैं और न उदयको प्राप्त होती है, वे विशेष अधिक हैं । इससे ऊपर जो उदयको प्राप्त होती हैं, परन्तु बंधती नहीं है, वे विशेष अधिक है। मध्यमें जो कृष्टियाँ बंधती हैं और उदयको प्राप्त होती है वे असंख्यातगुणी हैं ॥६८६-६९७॥ __ चूर्णिसू०-यहॉपर कृष्टिवेदक-कालको स्थगित रखना चाहिए । (क्योकि कृष्टिकरणकालसे प्रतिबद्ध गाथासूत्रोके अर्थका निरूपण किये विना उसका सम्यक् प्रकारसे विवेचन नही हो सकता ।) कृष्टिकरणकालमें पहले गाथा-सूत्रोके अर्थका स्पर्श करना चाहिए । इस विपयमे ग्यारह मूलगाथाएँ है । उनमेसे प्रथम मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥६९८-७०१॥ कृष्टियाँ कितनी होती हैं, और किस कपायमें कितनी कृष्टियाँ होती हैं ? कृष्टि करनेमें कौनसा करण होता है और कृष्टिका लक्षण क्या है ? ॥१६२॥ चूर्णिसू०-इस गाथाके चार अर्थ हैं ॥७०२॥ विशेषार्थ-चारो कषायोकी समुदायरूपसे सर्व कृष्टियाँ कितनी हैं, यह प्रथम अर्थ है । पृथक्-पृथक् एक-एक कपायमे कितनी कृष्टियाँ होती हैं, यह दूसरा अर्थ है । कृष्टिकालमें उत्कर्षण-अपकर्षण आदि कौनसा करण होता है, यह तीसरा अर्थ है और कृष्टिका क्या लक्षण है, यह चौथा अर्थ है ॥ चूर्णिसू०-उपयुक्त मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीन भाप्यगाथाएँ हैं। उनमे प्रथम भाष्यगाथा दो अर्थोंमे निवद्ध है । उसकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥७०३-७०४॥ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ कसाय पाहड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (११०) बारस णव छ तिणि य किट्टीओ होति अध व अणंताओ। एककम्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ ॥१६३॥ ७०५. विहासा । ७०६. जइ कोहेण उवट्ठायदि तदो बारस संगहकिट्टीओ होति । ७०७. माणेण उवढिदस्स णव संगहकिट्टीओ। ७०८. पायाए उवट्टिदस्स छ संगहकिट्टीओ । ७०९. लोभेण उवद्विदस्त तिणि संगहकिट्टीओ। ७१०. एवं वारस णव छ तिणि च । ७११. एक्ककिस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ त्ति एदेण कारणेण अधवा अणंताओ त्ति । ७१२. केवडियाओ किट्टीओ त्ति अत्थो सपत्तो । ७१३. कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ त्ति एवं सुत्तं । ७१४. एकेकम्हि कसाये तिण्णि तिणि संगहकिट्टीओ त्ति एवं तिग तिग । ७१५. एक्वेकिस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ त्ति एदेण अधवा अणंताओ जादा । ७१६. किट्टीए किं करणं ति एत्थ एका भासगाहा । ७१७.तिस्से समुक्त्तिणा । संज्वलनक्रोधादि कपायोंकी बारह, नौ, छह और तीन कृष्टियाँ होती हैं, अथवा अनन्त कृष्टियाँ होती हैं । एक एक कषायमें तीन तीन कृष्टियाँ होती हैं, अथवा अनन्त कृष्टियाँ होती हैं ॥१६३॥ । चूर्णिमू०--उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-यदि क्रोधकषायके उदयके साथ क्षपकश्रेणी चढ़ता है, तो उसके बारह संग्रहकृष्टियाँ होती हैं। मानकपायके उदयके साथ क्षपकश्रेणी चढ़नेवाले जीवके नौ संग्रहकृष्टियाँ होती है। मायाकपायके उदयके साथ उपस्थित होनेवाले जीवके छह संग्रहकृष्टियाँ होती हैं और लोभकषायके उदयके साथ उपस्थित होनेवाले जीवके तीन संग्रहकृष्टियाँ होती हैं। इस प्रकार यह भाष्यगाथाके प्रथम चरण 'बारह, नौ, छह, तीन' का अर्थ है। एक एक संग्रहकृष्टिकी अवयव या अन्तरकृष्टियाँ अनन्त होती है इस कारणसे गाथामें 'अथवा अनन्त होती है। ऐसा पद कहा है। इस प्रकार मूलगाथाके 'कृष्टियाँ कितनी होती है। इस प्रथम प्रश्नका अर्थ समाप्त हो जाता है । अव 'किस कषायमें कितनी कृष्टियाँ होती है' मूलगाथाके इस दूसरे पदका अर्थ करते हैंएक एक कषायमें तीन तीन संग्रहकृष्टियाँ होती हैं, अतएव भाष्यगाथामे 'तीन तीन' ऐसा पद कहा गया है। एक एक संग्रहकृष्टिकी अनन्त अवयवकृष्टियाँ होती हैं, इस कारणसे भाष्यगाथामें 'अथवा अनन्त होती हैं। ऐसा पद कहा है ।।७०५-७१५।। चूर्णिस०-कृष्टि करनेकी अवस्थामे कौनसा करण होता है, मूलगाथा द्वारा उठाए गये इस तीसरे प्रश्नरूप अर्थमें एक भाष्यगाथा निबद्ध है। उसकी समुत्कीर्तना की जाती है।॥७१६-७१७॥ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६५ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिकरणक्रिया निरूपण (१११) किट्टी करेदि णियमा ओवट्ट तो ठिदी य अणुभागे । व तो किट्टीए अकारगो होदि बोद्धव्व ॥ १६४ || ८०७ ७१८. विहासा । ७१९. जहा । ७२०. जो किट्टीकारगो सो पदेसग्गं ठिदीहिं वा अणुभागेहिं वा ओकड्डदि, ण उक्कडदि । ७२१. खवगो किट्टीकारगप्पहूडि जाव कमो ताव ओकड्डगो पदेसग्गस्स, ण उकडगो । ७२२. उवसामगो पुण पढमसमयकिट्टीका र गमादि काढूण जाव चरिमसमयसकसायो ताव ओकड्डगो, ण पुण उक्कडगो । ७२३. पडिवदमानगो पुण पढमसमय सकसायप्पहुडि ओकड्डगो वि, उक्कडगो वि । ७२४. लक्खणमध किं च किट्टीए त्ति एत्थ एका भागाहा । ७२५, तिस्से समुत्तिणा । (११२) गुणसेढि अनंतगुणा लोभादी कोधपच्छिमपदादो । कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए लक्खणं एदं ॥ १६५॥ चारों संज्वलनकषायकी स्थिति और अनुभागका नियमसे अपर्वतन करता हुआ ही कृष्टिको करता है । स्थिति और अनुभागका बढ़ानेवाला कृष्टिका अकारक होता है ऐसा नियम जानना चाहिए || १६४ ॥ चूर्णिसू० ० - इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । वह इस प्रकार है - जो जीव कृष्टियोंका करनेवाला है, वह प्रदेशाग्र को स्थिति अथवा अनुभागकी अपेक्षा अपवर्तन या अपकर्षण ही करता है; उद्वर्तन या उत्कर्षण नही करता । कृष्टियोको करनेवाला क्षपक संयत कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर जब तक चरमसमयवर्ती संक्रामक है, तब तक मोहनीयकर्म के प्रदेशाग्र का अपकर्षक ही है, उत्कर्षक नहीं । अर्थात् जब तक वह एक समयअधिक आवलीवाला सूक्ष्मसाम्परायिक संयत है, तब तक अपवर्तना करणमे प्रवृत्त रहता है । किन्तु कृष्टियोंका करनेवाला उपशामक संयत कृष्टिकारक के प्रथम समयको आदि करके जब चरमसमयवर्ती सकपाय रहता है, तब तक वह अपकर्षक रहता है, उत्कर्षक नहीं रहता । किन्तु उपशम श्रेणीसे गिरनेवाला जीव प्रथमसमयवर्ती से सकषाय अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायिक होनेके प्रथम समयसे लेकर नीचे सर्वत्र अपकर्षक भी है और उत्कर्पक भी ।। ७१८-७२३॥ भावार्थ - उपशमश्रेणी चढ़नेवाले जीवके कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक अपकर्षणकरण ही होता है, उत्कर्पणकरण नही होता । किन्तु गिरनेवाले जीवके सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम सममसे दोनो ही करण प्रवृत्त हो जाते हैं। चूर्णिसू० - 'कृष्टिका लक्षण क्या है' मूलगाथाके इस चौथे प्रश्नके अर्थरूपमे एक भाष्यगाथा निबद्ध है, अब यहॉपर उसकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ ७२४-७२५॥ लोभकषायकी जघन्य कृष्टिको आदि लेकर क्रोधकषायकी सर्व पश्चिम पद Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ७२६. विहासा । ७२७ लोभस्स जहणिया किट्टी अणुभागेहिं थोवा । ७२८. विदियकिट्टी अणुभागेहिं अणंतगुणा । ७२९. तदिया किट्टी अणुभागेहिं अणंतगुणा । ७३०. एवमणंतराणंतरेण सव्वत्थ अणंतगुणा जाव कोधस्स चरिमकिट्टि त्ति । ७३१. उक्कस्सिया वि किट्टी आदिफद्दय आदिवग्गणाए अणंतभागो । ७३२. एवं किट्टीसु थोवो अणुभागो । ७३३ किसं कम्मं कदं जम्हा, तम्हा किट्टी । ७३४. एदं लक्खणं । ___७३५. एत्तो विदियमूलगाहा । ७३६. तं जहा। (११३) कदिसु च अणुभागेसु च हिदीसु वा केत्तियासु का किट्टी । सव्वासु वा द्विदीसु च आहो सव्वासु पत्तेयं ॥१६६॥ अर्थात् अन्तिम उत्कृष्ट कृष्टि तक यथाक्रमसे अवस्थित चारों संज्वलन कपायरूप कर्मके अनुभागमें गुणश्रेणी अनन्तगुणित है, यह कृष्टि का लक्षण है ॥१६५॥ विशेषार्थ-गाथामे कृष्टिका लक्षण पश्चादानुपूर्वीसे कहा गया है । जिसके द्वारा संज्वलन कपायोका अनुभाग सत्त्व उत्तरोत्तर कृश अर्थात् अल्पतर किया जाय, उसे कृष्टि कहते है । पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा संज्वलन क्रोधकी उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर लोभकषायकी जघन्य कृष्टि तक कपायोका अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणित हानिरूपसे कृश होता जाता है, इस वातको गाथाकारने पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा कहा है कि लोभ कपायकी जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोधकपायकी उत्कृष्ट कृष्टि तक कषायोका अनुभाग अनन्तगुणित वृद्धिरूप है । इस प्रकार इस गाथाके द्वारा कृष्टिका लक्षण कहा गया है। चूर्णिसू०-अव उक्त भाष्यगाथाकी विभापा करते हैं-लोभकी जघन्य कृष्टि अनु. भागकी अपेक्षा सबसे कम है । द्वितीय कृष्टि अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी है। तीसरी कृष्टि अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी है । इस प्रकार अनन्तर-अनन्तर क्रमसे सर्वत्र तब तक कृष्टियोका अनुभाग अनन्तगुणित जानना चाहिए, जवतक कि क्रोधकी अन्तिम उत्कृष्ट कृष्टि प्राप्त हो । संज्वलन क्रोधकी उत्कृष्ट भी कृष्टि प्रथम अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणाके अनन्तवें भाग है। इस प्रकार कृष्टियोमें अनुभाग उत्तरोत्तर अल्प है । यतः जिसके द्वारा संज्वलन कपायरूप कर्म कृश किया जाता है, अतः उसकी कृष्टि यह संज्ञा सार्थक है। यह कृष्टिका लक्षण है ।।७२६-७३४॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे दूसरी मूलगाथा अवतरित होती है। वह इस प्रकार है ॥७३५-७३६॥ कितने अनुभागोंमें और कितनी स्थितियोंमें कौन कृष्टि वर्तमान है ? यदि प्रथम, द्वितीयादि सभी स्थितियों में सभी कृष्टियाँ संभव हैं, तो क्या उनकी सभी अवयवस्थितियोंमें भी अविशेषरूपसे सभी कृष्टियाँ संभव हैं, अथवा प्रत्येक स्थितिपर एक-एक कृष्टि संभव है ? ॥१६६॥ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १६७] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिगतविशेष-निरूपण ७३७. एदिस्से वे भासगाहाओ । ७३८. मूलगाहापुरिमद्ध एका भासगाहा । ७३९. तिस्से समुक्त्तिणा। (११४) किट्टी च द्विदिविसेसेसु असंखेजेसु णियमसा होदि । णियमा अणुभागेसु च होदि हु किट्टी अणंतेसु ॥१६७॥ ७४०. विहासा । ७४१. कोधस्स पडमसंगहकिट्टि वेदेंतस्स तिस्से संगहकिट्टीए एकेका किट्टी विदियट्टिदीसु सव्वासु पढमद्विदीसु च उदयवज्जासु एकेका किट्टी सव्वासु द्विदीसु । चूर्णिसू०-इस मूलगाथाका अर्थ-व्याख्यान करनेवाली दो भाष्यगाथाएँ हैं। उनमेंसे मूलगाथाके पूर्वार्धके अर्थ में एक भाष्यगाथा निबद्ध है। उसकी समुत्कीर्तना इस प्रकार है ॥७३७-७३९॥ सभी कृष्टियाँ सर्व असंख्यात स्थिति-विशेषोंपर नियमसे होती हैं। तथा प्रत्येक कृष्टि नियमसे अनन्त अनुभागोंमें होती है ॥१६७॥ विशेषार्थ-सभी कृष्टियाँ सर्व असंख्यात स्थितिविशेषोंपर नियमसे होती हैं, इसका अभिप्राय यह है कि चारो संज्वलनोकी द्वितीयस्थिति संख्यात आवलीप्रमाण होती है । उनमें एक-एक स्थितिपर सर्व संग्रहकृष्टियाँ और उनकी अवयवकृष्टियाँ पाई जाती हैं । यहाँ इतना विशेष और जानना चाहिए कि वेद्यमान संग्रहकृष्टि और उसकी अवयवकृष्टियाँ प्रथमस्थिति-सम्बन्धी सर्व स्थितियोमें भी संभव हैं । इसीप्रकार प्रत्येक संग्रहकृष्टि और उनकी अवयवकृष्टियाँ अनन्त अविभागप्रतिच्छेदवाले सर्व अनुभागोमे पाई जाती है, इसलिए जघन्य भी कृष्टि अविभाग-प्रतिच्छेदोके गणनाकी अपेक्षा अनन्त संख्यावाले अनुभागसे समन्वित होती है। इसी प्रकार शेष भी कृष्टियाँ अनन्त अविभागप्रतिच्छेद शक्ति-समन्वित अनुभागवाली जानना चाहिए। चूर्णिसू०- अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको वेदन करनेवाले जीवके उस संग्रहकृष्टिकी एक-एक अवयवकृष्टि द्वितीयस्थिति-सम्बन्धी सर्व अवयवस्थितियोंमें और प्रथमस्थिति-सम्बन्धी केवल एक उदयस्थितिको छोड़कर शेप सर्व स्थितियोमे पाई जाती हैं ॥७४०-७४१॥ विशेषार्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको वेदन करनेवाले जीवके उस अवस्थामे क्रोध संज्वलनकी प्रथमस्थिति और द्वितीय-स्थितिसंज्ञावाली दो स्थितियाँ होती है। उनमें द्वितीय स्थितिसम्बन्धी एक-एक समयरूप जितनी अवयवस्थितियाँ है, उन सबमे वेदनकी जानेवाली क्रोध-प्रथम संग्रहकृष्टिकी जितनी अवयव-कृष्टियाँ हैं, वे सब पाई जाती है। किन्तु प्रथमस्थितिसम्बन्धी जितनी अवान्तर-स्थितियाँ है, उनमे केवल एक उदयस्थितिको छोड़कर शेष सर्व अवान्तर-स्थितियोमे क्रोधकपायसम्बन्धी प्रथम संग्रहकृष्टिकी सर्व अवयवकृष्टिचॉ पाई जाती Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ७४२. उदयहिदीए पुण वेदिज्जमाणियाए संगहकिट्टीए जाओ किट्टीओ तासिमसंखेज्जा भागा। ७४३. सेसाणमवेदिज्जमाणिगाणं संगहकिट्टीणमेक्का किट्टी सव्वासु विदियहिदीसु पढमहिदीसुणन्थि । ७४४. एकेका किट्टी अणुभागेसु अणंतेसु । ७४५. जेसु पुण एका ण तेसु विदिया। ७४६. विदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । (११५) सव्वाओ किट्टीओ विदियद्विदीए दु होति सव्विस्से । जं किटिं वेदयदे तिस्से अंसो च पढमाए ॥१६८॥ ___७४७. एदिस्से विहासा वुत्ता चेव पडमभासगाहाए । हैं। सूत्रमे जो ‘एक-एक कृष्टि' ऐसा कहा है उसका अभिप्राय यह है कि क्रोध संज्वलनकी जघन्य कृष्टि इन विवक्षित स्थितियोमें होती है । इसी प्रकार द्वितीय कृष्टि, तृतीय कृष्टिको आदि देकर अन्तिम कृष्टि तक प्रथम संग्रहकृष्टिकी सर्व अवयवकृष्टियाँ उन स्थितिविशेषों में होती हैं, जिनकी कि संख्या असंख्यात है । अब ऊपर 'उदयस्थितिको छोड़कर' ऐसा जो कहा है, उसका चूर्णिकार स्वयं ही स्पष्टीकरण करते हैं चूर्णिम् ०-किन्तु उदयस्थितिमे वेद्यमान संग्रहकृष्टिकी जितनी अवयव-कृष्टियाँ हैं, उनका असंख्यात बहुभाग पाया जाता है । ( क्योकि, विवक्षित संग्रहकृष्टिके अधस्तनउपरिम असंख्यात एक भागप्रमाण अवयवकृष्टियोको छोड़कर मध्यवर्ती असंख्यात बहुभागप्रमाण कृष्टियोके रूपसे ही उदयानुभाग परिणमित होता है। ) शेप अवेद्यमान ग्यारहो संग्रहकृष्टियोकी एक-एक अवयवकृष्टि सर्व द्वितीयस्थितिसम्बन्धी अवान्तर-स्थितियोमे पाई जाती हैं, प्रथम स्थितिसम्बन्धी अवान्तर स्थितियोमे नही पाई जाती । ( इस प्रकार भाष्यगाथाके पूर्वार्धकी विभाषा करके अब उत्तरार्धकी विभाषा करते हैं- ) एक-एक संग्रहकृष्टि अथवा उनकी अवयवकृष्टि (नियमसे ) अनन्त अनुभागोमे रहती है । ( क्योकि, सर्व जघन्य भी कृष्टिमे सर्व जीवोसे अनन्तगुणित अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । ) जिन अनन्त अनुभागोमें एक विवक्षित कृष्टि वर्तमान है, उनमे दूसरी अन्य कृष्टि नहीं रहती है। ( किन्तु वह उनसे भिन्न स्वभाववाले अनुभागोमे ही रहती है । ) ॥७४२-७४५ ।। चूर्णिसू०-अब दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥७४६॥ सभी संग्रहकृष्टियाँ और उनकी अवयवकृष्टियाँ समस्त द्वितीयस्थितिमें होती हैं । किन्तु वह जिस कृष्टिका वेदन करता है, उसका अंश प्रथमस्थितिमें होता है । ( क्योंकि, अवेद्यमान कृष्टियोंका प्रथमस्थितिमे होना संभव नहीं है । ) ॥१६८॥ __ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए कही जा चुकी है। अर्थात् वेद्यमान संग्रहकृष्टिका अंश उदय-वयं सर्व स्थितियोमे अविशेषरूपसे पाया जा जाता है। किन्तु उदयस्थितिमें वेद्यमान कृष्टिके असंख्यात बहुभाग ही पाये जाते हैं ॥७४७॥ Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदम्मि पंच भार. काच कालेगा. पहले बासमास । मालगातापित गा० १७० ] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिगतविशेप-निरूपण ____ ८११ ७४८. एत्तो तदियाए मूलगाहाए समुक्त्तिणा । (११६) किट्टी च पदेसग्गेणणुभागग्गेण का च कालेण । अधिगा समा व हीणा गुणेण किं वा विसेसेण ॥१६९॥ __७४९. एदिस्से तिणि अत्था । ७५०. किट्टी च पदेसग्गेणेत्ति पडमो अत्थो । एदम्मि पंच भासगाहाओ । ७५१. अणुभागग्गेणेत्ति विदियो अत्थो। एत्थ एका भासगाहा । ७५२. का च कालेणेत्ति तदिओ अत्थो । एत्थ छन्भासगाहाओ । ७५३. तासि समुकित्तणं विहासणं च । ७५४. पढमे अत्थे भासगाहाणं समुक्तित्तणा । (११७) विदियादो पुण पढमा संखेजगुणा भवे पदेसग्गे। विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥१७०॥ ७५५. विहासा । ७५६. तं जहा । ७५७. कोहस्स विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं थोवं । ७५८. पडमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं तेरसगुणमेत्तं ।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है।।७४८॥ कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रदेशाप्रकी अपेक्षा, अनुभागाग्रकी अपेक्षा और कालकी अपेक्षा अधिक है, हीन है, अथवा समान है ? इस प्रकार गुणोंकी अपेक्षा एक कृष्टिसे दूसरी कृष्टि में क्या विशेषता है १ ॥१६९॥ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके तीन अर्थ है । 'कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रदेशाग्रकी अपेक्षा समान है, हीन है या अधिक है, यह प्रथम अर्थ है । इस प्रथम अर्थमें पॉच भाष्यगाथाएँ निबद्ध हैं। 'कौन कृष्टि किस कृष्टिसे अनुभागाग्रकी अपेक्षा समान है, हीन है या अधिक है,' यह द्वितीय अर्थ है। इस द्वितीय अर्थमें एक भाष्यगाथा निबद्ध है। 'कौन कृष्टि किस कृष्टिसे कालकी अपेक्षा समान है, हीन है या अधिक है' यह तृतीय अर्थ है। इस तृतीय अर्थमे छह भाष्यगाथाएँ निबद्ध हैं। 'गुणेण किं वा विसेसेण' यह पद प्रदेशादि तीनो अर्थोके विशेषणरूपसे निर्दिष्ट किया गया है ॥७४९-७५२॥ चूर्णिसू-अब उन भाष्यगाथाओकी समुत्कीर्तना और विभाषा एक साथ की जाती है। उनमेंसे पहले प्रथम अर्थमे निबद्ध भाष्यगाथाओंकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥७५३-७५४॥ क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे उसकी ही प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेशाग्रकी अपेक्षा संख्यातगुणी होती है। किन्तु द्वितीय संग्रहकृष्टिसे तृतीय संग्रह कृष्टि विशेप अधिक होती है। इस प्रकार यथाक्रमसे शेष अर्थात मान, माया और लोभसम्बन्धी तीनों तीनों संग्रह कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं ॥१७०॥ चूर्णिस० -अब उक्त भाष्यगाथाकी विभापा करते हैं । वह इस प्रकार है-क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे प्रदेशाग्र अल्प है। इससे प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रदेशाग्र संख्यातगुणित हैं, जिनका कि प्रमाण तेरहगुणा है ॥७५५-७५८॥ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [१५ चारित्र मोह-क्षपणाधिकार ७५९. माणस पडमाए संगह किट्टीए पदेसग्गं थोवं । ७६० विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६१. तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६२. विसेसो पलिदोवमरस असंखेज्जदिभागपडिभागो । ७६३. कोहस्स विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६४ तदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६५. मायाए पढमसंगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६६. विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६७. तदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६८. ८१२ विशेषार्थ - क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाग्र तेरहगुणा कैसे संभव है, इसका स्पष्टीकरण यह है कि मोहनीयकर्मका सर्वप्रदेशरूप द्रव्य अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा ४९ कल्पित कीजिए | इसके दो भागोसे से असंख्यातवें भागसे अधिक एक भाग (२५) तो कपायरूप द्रव्य है और असंख्यातवें भागसे हीन शेष दूसरा भाग (२४) नोकषायरूप द्रव्य है । अब यहॉपर कषायरूप द्रव्य क्रोधादि चार कषायोकी बारह संग्रहकृष्टियो में विभाग करनेपर क्रोध प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य २ अंकप्रमाण रहता है जो कि मोहनीयकर्म के सकल (४९) द्रव्यकी अपेक्षा कुछ अधिक चौवीसवाँ भागप्रमाण है । प्रकृत कृष्टिकरणकालमे नोकषायोका सर्व द्रव्य भी संज्वलनक्रोधमें संक्रमित हो जाता है जो कि सर्व ही द्रव्य कृष्टि करनेवाले क्रोधी प्रथम संग्रहकृष्टिस्वरूपसे ही परिणत होकर अवस्थित रहता है । इसका कारण यह है कि वेदन की जानेवाली प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे ही उसके परिणमनका नियम है । इस प्रकार क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि के प्रदेशाका स्वभाग ( २ ) इस नोकपायद्रव्य (२४) के साथ मिलकर ( २ + २४ = २६) क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिके दो अंकप्रमाण द्रव्यकी अपेक्षा तेरहगुणा ( २ x १३ = २६) सिद्ध हो जाता है । अतएव चूर्णिकारने उसे तेरहगुणा बतलाया है । इस प्रकार उपर्युक्त सूत्रसे सूचित स्वस्थान अल्पवहुत्व इस प्रकार जानना चाहिएक्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे प्रदेशाय सबसे कम है । तृतीय संग्रहकृष्टिमे विशेप अधिक हैं । क्रोधी तृतीय संग्रहकृष्टिसे ऊपर उसकी ही प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाग्र संख्यातगुणित हैं । मानका स्वस्थान- अल्पबहुत्व इस प्रकार है-मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय सबसे कम हैं । द्वितीय संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक हैं। तृतीय संग्रहकृष्टिमे विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार माया और लोभसम्बन्धी स्वस्थान - अल्पबहुत्व जानना चाहिए । अब परस्थान- अल्पवहुत्व कहते हैं चूर्णिसू० - मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय सबसे कम हैं । द्वितीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । तृतीय संग्रहकृष्टिमे प्रदेशात्र विशेष अधिक हैं । यहाँ सर्वत्र विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी है। मानकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे क्रोधी द्वितीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । इससे इसीकी तृतीय संग्रहकृप्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । द्वितीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । तृतीय संग्रहकृष्टि 1 Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १७१ ] चारित्र मोहक्षपक कृष्टिगतविशेष- निरूपण ८१३ लोभस पढमा संग किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६९ विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७७० तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७७१. कोहस्स पाए संगट्टिीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं । ७७२, विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ७७३. तं जहा । ( ११८) विदिया दो पुण पढमा संखेज्जगुणा दु वग्गणग्गेण । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेस हिया ॥ १७१ ॥ ७७४. विहासा । ७७५. जहा पदेसग्गेण विहासिदं तहा वग्गणग्गेण विहासिदव्वं । ७७६. एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ७७७. तं जहा । में प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । मायाकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । द्वितीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । तृतीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशा विशेष अधिक हैं । लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशा संख्यातगुणित हैं ।। ७५९-७७१ ॥ विशेषार्थ - यहाँ सर्वत्र स्वस्थानमे विशेष अधिकका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें ariat प्रतिभागी और परस्थानमें आवलीके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी जानना चाहिए । क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रदेशाग्र संख्यातगुणित बतलाया है, सो वहॉपर संख्यातगुणितका अभिप्राय तेरहगुणा लेना चाहिए, जैसा कि ऊपर बतला आये हैं । चूर्णि सू०- ० - अब दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥ ७७२-७७३। क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टि से प्रथम संग्रहकृष्टि वर्गणाओंके समूहकी अपेक्षा संख्यातगुणी है । किन्तु क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे तृतीय संग्रहकृष्टि विशेष अधिक । इसी क्रम से शेष अर्थात् मान, माया और लोभकी संग्रहकृष्टियाँ विशेष - विशेष अधिक जानना चाहिए ॥ १७१ ॥ चूर्णिसू० - अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा कहते हैं - जिस प्रकार प्रदेशा की अपेक्षा कृष्टियोके अल्पबहुत्व की प्रथम भाष्यगाथाके द्वारा विभाषा की गई है, उसी प्रकार aurant अपेक्षा इस भाष्यगाथाकी विभाषा करना चाहिए ॥ ७७४-७७५॥ विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि दोनो अपेक्षाओसे अल्पबहुत्वके निरूपण-क्रममें कोई भेद नहीं है । दूसरी बात यह है कि प्रदेशोकी हीनाधिकता के अनुसार ही वर्गणाओ में भी हीनाधिकता होती है । यहॉपर वर्गणा पदसे अनन्त परमाणुओके समुदायात्मक एक अन्तरकृष्टिका ग्रहण करना चाहिए । वर्गणाओंके समुदायको वर्गणाग्र कहते हैं । चूर्णिसू०० - अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । वह इस प्रकार है ।। ७७६-७७७॥ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (११९) जा हीणा अणुभागेणहिया सा वग्गणा पदेसग्गे । भागेणऽणंतिमण दु अधिगा हीणा च बोद्धव्वा ॥१७२॥ ७७८. विहासा । ७७९ तं जहा । ७८०. जहणियाए वग्गणाए पदेसग्गं बहुअं । ७८१. विदियाए वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । ७८२. एवमणंतराणंतरेण विसेसहीणं सव्वत्थ । ७८३. ए तो चउत्थी भासगाहा । (१२०) कोधादिवग्गणादो सुद्धकोधस्स उत्तरपदं तु । सेसो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥१७३॥ जो वर्गणा अनुभागकी अपेक्षा हीन है, वह प्रदेशाग्रकी अपेक्षा अधिक है । ये वर्गणाएँ अनन्तवें भागसे अधिक या हीन जानना चाहिए ॥१७२॥ विशेपार्थ-यह तीसरी भाष्यगाथा बारहो ही संग्रहकृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टि तक यथाक्रमसे अवस्थित अन्तर-कृष्टियोके प्रदेशाग्रकी हीनाधिकताको अनन्तरोपनिधाके द्वारा बतलानेके लिए अवतीर्ण हुई है। इसका अर्थ यह है कि जो वर्गणा अनुभागकी अपेक्षा अधिक अनुभाग-युक्त होती है उसमें प्रदेश कम पाये जाते है और जो प्रदेशोकी अपेक्षा अधिक प्रदेश-समन्वित होती है उसमें अनुभागशक्ति हीन पाई जाती है। यहाँ जघन्यकृष्टिगत सदृश-सघनतावाले सर्व परमाणुओके समूहकी 'एक वर्गणा' यह संज्ञा दी गई है। इस प्रकार जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टि तक क्रमसे अवस्थित कृष्टियोमे सर्व-अधस्तन वर्गणा अनुभागकी अपेक्षा हीन है और उपरिम-उपरिम वर्गणाएँ क्रमशः अनन्तगुणित वृद्धिरूपसे अधिक अनुभागसे युक्त हैं । जिस प्रकार उपरिम-उपरिम वर्गणाएँ अनुभागकी अपेक्षा अधिक हैं । उसी प्रकार वे प्रदेशोकी अपेक्षा ऊपर-ऊपर हीन है, क्योकि वर्गणाओका ऐसा ही स्वभाव है कि जिनमें अनुभाग अधिक होगा, उनमें प्रदेशाग्र कम होगा और जिनमें प्रदेश-समुदाय अधिक होगा, उनमे अनुभाग कम होगा। इस प्रकार यह गाथाके पूर्वार्धका अर्थ हुआ । गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा यह सूचित किया गया है कि यह उपयुक्त हीनाधिकता अनन्तवें भागप्रमाण जानना चाहिए । अर्थात् एक अन्तर-कृष्टिसे दूसरी अन्तर-कृष्टि अनुभाग या प्रदेशाग्रकी अपेक्षा एक वर्गणासे हीन या अधिक होती है। चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार हैजघन्य वर्गणामे प्रदेशाग्र बहुत है । द्वितीय वर्गणामें प्रदेशाग्र विशेप हीन अर्थात् अनन्तवें भागसे हीन होते हैं । इस प्रकार अनन्तर अनन्तर क्रमसे सर्वत्र विशेप हीन प्रदेशाग्र जानना चाहिए ॥७७८-७८१॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे चौथी भाण्यगाथा अवतरित होती है ॥७८३॥ __क्रोधकपायका उत्तरपद अर्थात् चरम कृष्टिका प्रदेशाग्र क्रोधकपायकी आदि अर्थात् जघन्य वर्गणामेंसे घटाना चाहिए। इस प्रकार घटानेपर जो शेष अनन्तवॉ भाग बचता है, वह नियमसे क्रोधकी जघन्य वर्गणाके प्रदेशाग्रमें अधिक है ॥१७३॥ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १७४ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिगतविशेप-निरूपण ८१५ ७८४. विहासा । ७८५.एदीए गाहाए परंपरोवणिधाए सेढीए भणिदं होदि । ७८६. कोहस्स जहणियादो वग्गणादो उक्कस्सियाए वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण ।. ७८७. एत्तो पंचमीए भासगाहाए सम्मुक्कित्तणा । ७८८. तं जहा । (१२१) एसो कमो च कोधे माणे णियमा च होदि मायाए । लोभम्हि च किट्टीए पत्तेगं होदि बोद्धव्वो ॥१७४॥ ७८९. विहासा । ७९०. जहा कोहे चउत्थीए गाहाए विहासा, तहा माणमाया-लोभाणं पि णेदव्या । ७९१. माणादिवग्गणादो सुद्ध माणस्स उत्तरपदं तु । सेसो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥ ७९२. एवं चेव मायादिवग्गणादो० । ७९३. लोभादिवग्गणादो० । ७९४. मूलगाहाए विदियपदमणुभागग्गेणेत्ति, एत्थ एका भासगाहा । ७९५. तं जहा। चूर्णिसू०-अब इस गाथाकी विभाषा की जाती है-इस गाथाके द्वारा परम्परोपनिधारूप श्रेणीकी अपेक्षा प्रदेशाग्र कहे गए हैं। क्रोधकी जघन्य वर्गणासे उसकी उत्कृष्ट वर्गणामे प्रदेशाग्र विशेष हीन अर्थात् अनन्तवें भागसे हीन है ॥७८४-७८६॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे पाँचवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥७८७-७८८॥ क्रोधसंज्वलनकी कृष्टिके विषयमें जो यह क्रम कहा गया है, वही क्रम नियमसे मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनकी कृष्टि में भी प्रत्येकका है, ऐसा जानना चाहिए ॥१७४॥ चूर्णिस०-अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनमे चौथी भाष्यगाथाकी विभाषा की है, उसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनमे भी करना चाहिए । वह इस प्रकार जानना चाहिए-मानकषायका उत्तरपद मानकपायकी आदिवर्गणामेसे घटाना चाहिए। जो शेष अनन्तवॉ भाग बचता है वह नियमसे मानकी जघन्य वर्गणाके प्रदेशाग्रमे अधिक है। इसी प्रकार मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका उत्तरपद उनकी आदिवर्गणामेसे घटाना चाहिए। जो शेप अनन्तवॉ भाग अवशिष्ट रहे, वह नियमसे उनकी जघन्य वर्गणाके प्रदेशाग्रमे अधिक है ॥७८९-७९३॥ इस प्रकार पॉच भाष्यगाथाओके द्वारा मूलगाथाके 'किट्टी च पदेसग्गेण' इस प्रथम पदका अर्थ समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-मूलगाथाके 'अणुभागग्गेण' इस द्वितीय पदके अर्थमे एक भाप्यगाथा है, वह इस प्रकार है ।।७९४-७९५॥ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (१२२) पढमा च अणंतगुणा विदियादो णियमसा दु अणुभागो। तदियादो पुण विदिया कमेण सेसा गुणेणहिया ॥१७५॥ ७९६. विहासा । ७९७. संगहकिट्टि पडुच्च कोहस्स तदियाए संगहकिट्टीए अणुभागो थोवो । ७९८. विदियाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो । ७९९. पडमाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो । ८००. एवं माण-माया-लोभाणं पि । ८०१. मूलगाहाए तदियपदं का च कालेणेत्ति एस्थ छ भासगाहाओ । ८०२. तासिं समुक्कित्तणा च विहासा च ।। (१२३) पढमसमयकिट्टीणं कालो वस्सं व दो व चत्तारि। अट्ट च वस्साणि हिदी विदियद्विदीए समा होदि ॥१७६॥ ८०३. विहासा । ८०४. जदि कोधेण उवहिदो किट्टीओ वेदेदि, तदो तस्स पढमसमए वेदगस्स मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्ममह वस्साणि । ८०५. माणेण उवद्विदस्स पडमसमयकिट्टीवेदगस्स हिदिसंतकम्मं चत्तारि वस्साणि । ८०६. मायाए उवढिदस्स क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टि द्वितीय संग्रहकृष्टि से अनुभागकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणी है । पुनः तृतीय संग्रहकृष्टि से द्वितीय संग्रहकृष्टि भी अनन्तगुणी है। इसी क्रमसे मान, माया और लोभ संज्वलन की तीनों तीनों संग्रहकृष्टियाँ तृतीयसे द्वितीय और द्वितीयसे प्रथम उत्तरोत्तर अनन्तगुणी जानना चाहिए ॥१७५॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-संग्रहकृष्टिकी अपेक्षा क्रोधसंज्वलनकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अनुभाग अल्प है। द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे अनुभाग अनन्तगुणा है । प्रथम संग्रहकृष्टिमे अनुभाग अनन्तगुणा है। इसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनकी तीनो संग्रहकृष्टियोंमे अनुभागका क्रम जानना चाहिए ॥७९६-८००॥ चूर्णिसू०-मूलगाथाका तृतीयपद 'का च कालेण' है, इसके अर्थमे छह भाष्यगाथाएँ हैं। उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा की जाती है ॥८०१-८०२॥ प्रथम समयमें कृष्टियोंका स्थितिकाल एक वर्प, दो वर्ष, चार वर्ष और आठ वर्ष है । द्वितीयस्थिति और अन्तर स्थितियोंके साथ प्रथमस्थितिका यह काल कहा गया है ॥१७६॥ चूर्णिसू०-अव इसकी विभाषा करते हैं-यदि क्रोधसंज्वलनके उदयके साथ उपस्थित हुआ कृष्टिओको वेदन करता है, तो उसके प्रथम समयमे कृष्टिवेदकके मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व आठ वर्ष है । मानसंज्वलनके उदयके साथ उपस्थित प्रथम समय कृष्टिवेदकके मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व चार वर्ष है । मायासंज्वलनके उदयके साथ उपस्थित प्रथम समय Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १७७] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८१७ पढमसमयकिट्टीवेदगस्स वे वस्साणि मोहणीयस्स हिदिसंतकम्मं । ८०७. लोभेण उवविदस्स पढमसमयकिट्टीवेदगस्स मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्ममेकं वस्सं । ८०८. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्त्तिणा । (१२४) जं किट्टि वेदयदे जवमझं सांतरं दुसु द्विदीसु । पढमा जं गुणसेढी उत्तरसेढी य विदिया दु॥१७७॥ ८०९. विहासा । ८१०. जहा । ८११. जं किट्टि वेदयदे तिस्से उदयहिदीए पदेसग्गं थोवं । ८१२ विदियाए द्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । ८१.३. एवमसंखेज्जगुणं जाव पढमहिदीए चरिमहिदि त्ति ।। ८१४. तदो विदियहिदीए जा आदिद्विदी तिस्से असंखेज्जगुणं । ८१५. तदो सव्वत्थ विसेसहीणं । ८१६. जवमज्झं पढमद्विदीए चरिमद्विदीए च, विदियट्ठिदीए आदिद्विदीए च । ८१७. एदं तं जवमझं सांतरं दुसु द्विदीसु । ८१८. एत्तो तदियाए भासग्राहाए समुक्त्तिणा । कृष्टिवेदकके मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व दो वर्ष है और लोभसंज्वलनके उदयके साथ उपस्थित प्रथम समय कृष्टिवेदकके मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व एक वर्ष है ।।८०३-८०७।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे द्वितीय भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥८०८।। जिस कृष्टिको चेदन करता है, उसमें प्रदेशाग्रका अवस्थान यवमध्यरूपसे होता है और वह यवमध्य प्रथम तथा द्वितीय इन दोनों स्थितियोंमें वर्तमान हो करके भी अन्तर-स्थितियोंसे अन्तरित होनेके कारण सान्तर है। जो ग्रंथमस्थिति है, वह गुणश्रेणीरूप है अर्थात् उत्तरोत्तर समयों में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित क्रमसे उसमें अवस्थित हैं और जो द्वितीयस्थिति है, वह उत्तर श्रेणीरूप है अर्थात् आदि समयमें स्थूलरूप होकर भी वह उत्तरोत्तर समयोंमें विशेष हीनरूपसे अवस्थित है ॥१७७॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-जिस कृष्टिको वेदन करता है, उसकी उदयस्थितिमे प्रदेशाग्र अल्प हैं । द्वितीय स्थितिमे प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित हैं। इस प्रकार असंख्यातगुणित क्रमसे प्रदेशाग्र प्रथम स्थितिके चरम समय तक बढ़ते हुए पाये जाते है । तदनन्तर द्वितीय स्थितिकी जो आदि स्थिति है, उसमे प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित है । तत्पश्चात् सर्वत्र अर्थात् उत्तरोत्तर सर्व स्थितियोमें विशेप हीन क्रमसे प्रदेशाग्र अवस्थित हैं। यह प्रदेशाग्रोके विन्यासरूप यवमध्य प्रथम स्थितिके चरम स्थितिमे द्वितीय स्थितिके आदि स्थितिमे पाया जाता है। वह यह यवमध्य दोनो स्थितियोके अन्तिम और आदिम समयोमे वर्तमान है, अतएव सान्तर है ।।८०९-८१८॥ - चूर्णिसू०-अब इससे आगे तृतीय भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ।।८१८॥ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (१२५) विदियट्ठिदि आदिपदा सुद्धपुण होदि उत्तरपदं तु । सेसो असंखेजदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ॥१७८॥ ८१९. विहासा । ८२०. विदियाए द्विदीए उक्कस्सियाए पदेसग्गं तिस्से चेव जहणियादो द्विदीदो सुद्ध सुद्धसेसं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागियं । ८२१. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा । ८२२. तं जहा । (१२६) उदयादि या द्विदीओ णिरंतरं तासु होइ गुणसेढी । उदयादि पदेसग्गं गुणेण गणणादियंतेण ॥१७९॥ ८२३. विहासा । ८२४. उदयट्ठिदिपदेसग्गं थोवं । ८२५. विदियाए हिदीसु पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । ८२६. एवं सविस्से पडमट्टिदीए ।। द्वितीय स्थितिके आदिपद अर्थात् प्रथम निषेकके प्रदेशाग्रमेंसे उसके उत्तर पद अर्थात् चरम निषेकके प्रदेशाग्रको घटाना चाहिए। इस प्रकार घटानेपर जो असंख्यातवाँ भाग शेष रहता है, वह उस प्रथम निपेकके प्रदेशाग्रमें अधिक है ॥१७८॥ चूर्णिस०-अब इस भाष्यगाथाकी विभापा की जाती है-द्वितीय स्थितिकी उत्कृष्ट अर्थात् चरम स्थितिमे प्रदेशाग्र उस ही द्वितीय स्थितिकी जघन्य अर्थात् आदि स्थितिमेसे शोधित करना चाहिए । वह शुद्ध शेष पल्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी है ।। ८१९-८२० विशेषार्थ-इस तीसरी भाष्यगाथामे द्वितीय स्थितिके उत्तरश्रेणी रूपसे अवस्थित प्रदेशाग्रका परम्परोपनिधारूपसे वर्णन किया गया है। जिसका अभिप्राय यह है कि द्वितीय स्थितिका आयाम यतः वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, अतः उसके चरम निषेकके प्रदेशाग्रसे प्रथम निषेकका प्रदेशपिंड संख्यातगुणा, असंख्यातगुणा या अन्य प्रकारका न होकर नियमसे असंख्यातवाँ भाग अधिक होता है । यह असंख्यातवॉ भाग पल्योपमके असंख्यातवें भागके बरावर जानना चाहिए। चर्णिसू०-अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥८२१-८२२॥ उदयकालसे आदि लेकर प्रथमस्थितिसम्बन्धी जितनी स्थितियाँ हैं, उनमें निरन्तर गुणश्रेणी होती है। उदयकालसे लेकर उत्तरोत्तर समयवर्ती स्थितियों में प्रदेशाग्र गणनाके अन्त अर्थात् असंख्यातगुणितरूपसे अवस्थित हैं ॥१७९॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-उदयस्थितिमे प्रदेशाग्र अल्प हैं । द्वितीय स्थितिमें प्रदेशाग्र असंख्यावगुणित हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रथमस्थितिमे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र जानना चाहिए ॥८२३-८२६॥ विशेषार्थ-चौथी भाष्यगाथाके द्वारा पूर्वोक्त यवमध्यका स्पष्टीकरण करते हुए प्रथमस्थितिके प्रदेशाग्रका अवस्थान-क्रम सूचित किया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १८१ ] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया निरूपण ८२७. तो पंचमीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ८२८. तं जहा । (१२७) उदयादिसु द्विदीसु य जं कम्मं नियमसा दु तं हरस्सं । पविसदि क्खिण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥ १८०॥ ८२९. विहासा । ८३०. तं जहा । ८३१. जं अस्सि समए उदिष्णं पदेसग्गं तं थोवं । ८३२. से काले ट्ठिदिक्खएण उदयं पविसदि पदेसग्गं तमसंखेज्जगुणं । ८३३. एवं सव्वत्थ । ८३४. एत्तो छडीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ८३५. तं जहा । (१२८) वेदकालो किट्टीय पच्छिमाए दु नियमसा हरस्सो । संखेज्जदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणऽधिगो ॥ १८९ ॥ ८३६. विहासा । ८३७. पच्छिमकिट्टिमंतोमुहुत्तं वेदयदि तिस्से वेदगकालो प्रथम स्थिति के प्रथम समय में उदयं आनेवाले प्रदेशाय सबसे कम हैं और आगे-आगेके समयोंमें उदय आनेवाले प्रदेशाय असंख्यातगुणित है । चूर्णि सू० ० - अब इससे आगे पॉचवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है || ८२७-८२८ ।। उदयको आदि लेकर यथाक्रमसे अवस्थित प्रथमस्थितिकी अवयवस्थितियों में जो कर्मरूप द्रव्य है, वह नियमसे आगे आगे हस्व अर्थात् कम कम है । उदयस्थितिसे ऊपर अनन्तर स्थितिमें जो प्रदेशाग्र स्थिति के क्षय से प्रवेश करते हैं, वे असंख्यातगुणित रूपसे प्रवेश करते हैं ॥ १८० ॥ चूर्णि सू० [0 - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है - जो प्रदेशाग्र इस वर्तमान समयमे उदयको प्राप्त होता है, वह सबसे कम है । जो प्रदेशाय स्थिति के क्षयसे अनन्तर समयमें उदयको प्राप्त होगा, वह असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार सर्वत्र अर्थात् कृष्टिवेदक-कालके सर्व समय में उदयको प्राप्त होनेवाले प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ॥ ८२९-८३३॥ चूर्णिसू०. ० - अब इससे आगे छठी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ।।८३४-८३५ ॥ ८१९ पश्चिम कृष्टि अर्थात संज्वलन लोभकी सूक्ष्मसाम्परायिक नामवाली अन्तिम बारहवीं कृष्टिका वेदककाल नियमसे अल्प है, अर्थात् सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानका जितना काल है, वही वारहवी कृष्टिके वेदनका काल है । पश्चादानुपूर्वीसे शेष ग्यारह कृष्टियोंका वेदनकाल क्रमशः संख्यातवें भागसे अधिक है || १८१ ॥ चूर्णिम् ०० - अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है - (यद्यपि ) पश्चिम अर्थात् अन्तिम बारहवी कृष्टिको अन्तर्मुहूर्त तक वेदन करता है, ( तथापि ) उसका वेदककाल सबसे Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार थोवो । ८३८. एकारसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८३९. दसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४०. णवमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४१. अट्ठमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४२. सत्तमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४३. छट्ठीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओं। ८४४. पंचमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४५. चउत्थीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४६. तदियाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४७. विदियाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४८. पढमाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४९. विसेसो संखेज्जदिभागो। ८५०. एत्तो चउत्थीए मूलगाहाए समुक्त्तिणा । ८५१. तं जहा । (१२९) कदिसु गदीसु भवेसु य द्विदि-अणुभागेसु वा कसाएसु । कम्माणि पुव्ववद्धाणि कदीसु किट्टीसु च द्विदीसु॥१८२॥ कम हैं । ग्यारहवी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। दशवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । नवमी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । आठवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । सातवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । छठी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। पांचवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । चौथी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । तीसरी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। दूसरी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। प्रथम कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। यहाँ सर्वत्र विशेषका प्रमाण ( स्वकृष्टि वेकककालके ) संख्यातवें भाग है, अर्थात् संख्यात आवली है ।। ८३६-८४९॥ विशेपार्थ-इन चूर्णिसूत्रोके द्वारा भाष्यगाथोक्त बारह कृष्टियोके वेदनकालका प्रमाण वताया गया है । गाथाके उत्तरार्धमें पठित 'तु' शब्दसे जयधवलाकारने अश्वकर्णकरणकाल, षण्णोकषायक्षपणकाल, स्त्रीवेदक्षपणकाल, नपुंसकवेदक्षपणकाल, अन्तरकरणकाल और अष्टकपायक्षपणकाल इनका भी अल्पवहुत्व बताया है । वह इस प्रकार है-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदककालसे कृष्टिकरणका काल संख्यातगुणा है अर्थात् साधिक तिगुना है । कृष्टिकरणकालसे अश्वकरणकाल आदि शेष सब काल विशेप-विशेष अधिक हैं। केवल अन्तरकरणकालसे अष्टकषायक्षपणकाल संख्यातगुणा है। ___ चूर्णिसू०-अब इससे आगे चौथी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥८५०-८५१॥ कितनी गतियोंमें, भवोंमें, स्थितियोंमें, अनुभागोंमें और कपायोंमें पूर्वबद्ध कर्म कितनी कृष्टियोंमें और उनकी कितनी स्थितियोंमें पाये जाते हैं ? ॥१८२॥ विशेषार्थ-इस और इससे आगे कही जानेवाली दो और मूलगाथाओके द्वारा कृष्टिवेदकके गति आदि मार्गणाओमें पूर्वबद्ध कर्मोंका भजनीय-अभजनीयरूपसे अस्तित्व Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२१ ८२१ गा० १८३] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक-निरूपण ८५२. एदिस्से तिणि भासगाहाओ । ८५३. तं जहा। (१३०) दोसु गदीसु अभजाणि दोसु भजाणि पुव्वबद्धाणि । एइंदिय कायेसु च पंचसु भजा ण च तसेसु ॥१८३॥ ८५४. विहासा । ८५५. एदस्स खवगस्स दुगदिसमज्जिदं कम्मं णियमा अस्थि । तं जहा-तिरिक्खगदिसमज्जिदं च मणुसगदिसमज्जिदं च । ८५६. देवगदिसमज्जिदं च णिरयगदिसमज्जिदं च भजियव्वं । ८५७. पुड चिकाइय-आउकाइय-तेउकाइयवाउकाइय-वणप्फदिकाइएसु एत्तो एकेकेण काएण समज्जिदं भजियव्वं । ८५८. तसकाइयं समज्जिदं णियमा अस्थि । अन्वेषण किया गया है। प्रस्तुत गाथामें गति, इन्द्रिय, काय और कषायमार्गणामे उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट स्थिति-अनुभाग-संयुक्त संचित पूर्वबद्ध कर्मोंके संभव-असंभवताका निर्णय करनेके लिए प्रश्न उपस्थित किये गये हैं, जिनका कि उत्तर आगे कही जानेवाली तीन भाष्यगाथाओके द्वारा दिया जायगा। गाथा-पठित 'गति' पदसे गतिमार्गणा ग्रहण की गई है। 'भव' पदसे इन्द्रिय और कायमार्गणा सूचित की गई है, क्योकि भव एकेन्द्रियादि जाति और स्थावरादिकायरूप ही होता है । 'कषाय' पदसे कषायमार्गणाका ग्रहण किया गया है। इस प्रकार समग्र गाथाका यह अर्थ निकलता है कि गति आदि मार्गणाओमें संचित पूर्वबद्ध कर्म किन-किन कृष्टियोंमे और उनकी किन-किन स्थितियोमे संभव है और किन-किनमे नहीं ? इसका स्पष्टीकरण आगे कही जानेवाली भाष्यगाथाओमें किया गया है । चूर्णिसू०-उपयुक्त मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीन भाष्यगाथाएँ हैं । वे इस प्रकार हैं ।।८५२-८५३॥ पूर्वबद्ध कर्म दो गतियोंमें अभजनीय है और दो गतियोंमें भजनीय हैं। तथा एक एकेन्द्रियजाति और पाँच स्थावरकायोंमें भजनीय हैं, शेष चार जातियोंमें और त्रसकायमें भजनीय नहीं हैं ॥१८३॥ चर्णिसू०-अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-इस कृष्टिवेदक क्षपकके दो गतियोमे समुपार्जित कर्म नियमसे होता है । वह इस प्रकार है-तिर्यग्गतिसमुपार्जित कर्म भी है और मनुष्यगति समुपार्जित कर्म भी है। देवगतिसमुपार्जित और नरकगतिसमुपानित कर्म भजितव्य है। पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन पाँचोमेंसे एक-एक कायके साथ समुपार्जित कर्म भजितव्य है। बसकायिक समुपार्जित कर्म नियमसे पाया जाता है ॥८५४-८५८॥ विशेषार्थ-कृष्टिवेदक क्षपकके पूर्व भवमे तिर्यग्गति और मनुष्यगतिमे उत्पन्न होकर मॉधे हुए कर्मोंका अस्तित्व नियमसे रहता है, अतएव उनके संचयको संभव या असंभव की Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार अपेक्षा गाथाकारने अभजितव्य कहा है । इसी वातको चूर्णिकारने 'नियम' पदसे द्योतित किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- जो जीव तिर्यग्गति से आकर और मनुष्योंमें ही उत्पन्न होकर क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है, उसके नियमसे तिर्यग्गतिमे वाँधे हुए कर्मोंका संचय पाया जाता है । किन्तु जो तिर्यग्गति से निकलकर और शेप नरक - देवादि गतियोमें सागरोपम-शतपृथक्त्वकाल तक परिभ्रमण कर क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है, उसके भी तिर्थ - ग्गतिमें संचय किया हुआ कर्म नियमसे पाया जाता है । इसका कारण यह है कि तिर्यग्गतिमें उपार्जित कर्मस्थितिप्रमाण संचयका सागरोपमशतपृथक्त्वकाल के भीतर सर्वथा निर्जीर्ण होना असंभव है । इस प्रकार जहाँ कहीं भी कर्मस्थिति -प्र - प्रमाणकाल तक रह कर आये हुए क्षपकके मनुष्यगति-उपार्जित पूर्वभव संचित कर्मका सद्भाव नियमसे पाया जाता है । इस कारण 'दो गतियोमें पूर्ववद्ध कर्म अभजितव्य' कहे गये हैं । किन्तु कृष्टिवेदक क्षपकके देवगति - उपार्जित और नरकगति - उपार्जित पूर्वबद्ध कर्मका संचय भजितव्य कहा गया है । इसका कारण यह है कि देव या नरकगतिसे आकर तिर्यंच या मनुष्योमे ही कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहकर तदनन्तर क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके देवगति - उपार्जित और नरकगति - उपार्जित कर्म नियम- ' से नहीं होता है । तथा जो देव - नारकियोंमे उत्पन्न होकर और वहॉ कितने ही काल तक रहकर तदनन्तर तियंचोमे उत्पन्न होकर वहाँ कर्मस्थिति - प्रमित या उससे अधिक काल तक रहकर और वहाँ नरक-देवगति - संचित कर्मपुंजको गलाकर तत्पश्चात् मनुष्यो में उत्पन्न होकर क्षपकश्र ेणीपर चढ़ता है, उसके भी नरक और देवगतिमे उपार्जित पूर्ववद्ध कर्मका एक भी परमाणु नही पाया जाता, क्योकि, कर्मस्थितिकाल व्यतीत हो जानेके पश्चात् उससे पहले बाँधे हुए कर्मके संचयका रहना असंभव है । किन्तु जो नरक और देवगतिमै प्रवेश करके वहाँ कुछ काल तक रहकर और फिर वहाँसे निकलकर कर्मस्थितिप्रमित कालके भीतर ही उस पूर्वोपार्जित कर्मसंचयके नष्ट हुए विना ही क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है, उसके नरकगति संचित और देवगतिसंचित कर्म नियमसे पाया जाता है, क्योकि वह पूर्व-: -भव-संचित कर्मके गलाये विना ही क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है । इस प्रकार देव और नरकगति-संचित पूर्ववद्ध कर्मकी भजनीयता सिद्ध हो जाती है । जिसप्रकार गतिमार्गणाकी अपेक्षासे पूर्वबद्ध कर्म-संचयके अस्तित्वनास्तित्वका विचार किया गया है, इसी प्रकार इन्द्रिय और कायमार्गणाका आश्रय लेकरके भी पूर्ववद्ध संचित कर्मकी भजनीयता - अभजनीयताका निर्णय कर लेना चाहिए | त्रसकायिको - मे इतनी बात विशेष जानना चाहिए कि संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवोमे समुपार्जित पूर्ववद्ध कर्म भजनीय नही है, किन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रियोमे तथा लब्ध्यपर्याप्तक-संज्ञिपंचेन्द्रियोंमें पूर्ववद्ध कर्म भजनीय ही हैं, ऐसा नयधवलाकारका कहना है । जहाँ जिन पूर्ववद्ध कर्मोंकी संभवता है, वहाँ उनके एक परमाणुको आदि लेकर अनन्तकर्म-परमाणुओ तकका अस्तित्व संभव है, और जहाँ जिनकी संभवता नही है, वहाँ उनके एक भी परमाणुका अस्तित्व शेष नहीं समझना चाहिए । I ८२२ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १८४] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदक-निरूपण ८५९. एत्तो एकेकाए गदीए काएहिं च समज्जिदल्लग्गस्स जहण्णुक्कस्सपदेस-' ग्गस्स पमाणाणुगमो च अप्पाबहुअंच कायव्वं । ____८६०. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१३१) एइ दियभवग्गहणेहिं असंखेज्जेहिं णियमसा बद्ध। एगादेगुचरियं संखेज्जेहि य तसभवेहिं ॥१८४॥ . चूर्णिसू०-अब इससे आगे एक-एक गति और एक-एक कायके साथ समुपार्जित पूर्वबद्ध कर्मके जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्वानुगम करना चाहिए ॥८५९॥ विशेषार्थ-उक्त चूर्णिसूत्रसे सूचित प्रमाणानुगमका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जिन गति और कायोंमे समुपार्जित कर्म भजनीय है, उनमे समुपार्जित प्रदेशपिंडका जघन्य प्रमाण एक परमाणु है, और उत्कृष्ट प्रमाण अनन्त कर्म-परमाणु हैं। किन्तु जिन गति और कायोमे संचित द्रव्य नियमसे पाया जाता है, उनमे जघन्य और उत्कृष्ट दोनोकी ही अपेक्षा समुपार्जित कर्मप्रदेशोका प्रमाण अनन्त होता है । अब अल्पबहुत्वका स्पष्टीकरण करते है-भजनीय पूर्वबद्ध संचित कर्मद्रव्यके जघन्य प्रदेशाग्र अल्प है । उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणित है। अभजनीय कर्मोंका जघन्य प्रदेशपिड अल्प है । उत्कृष्ट प्रदेशपिड असंख्यातगुणा है। किस कृष्टिनेदकके जघन्य और किसके उत्कृष्ट संचित द्रव्य पाया जाता है, इसका उत्तर यह हैजो जीव एकेन्द्रियोमें क्षपित-कोशिक होकर कर्मस्थिति कालतक रहा । पुनः वहाँसे निकलकर और शेष गतियोमे सागरोपम शतपृथक्त्व तक परिभ्रमण कर अन्तिम भवमे कर्म-क्षपणके लिए उद्यत होता हुआ श्रेणी चढ़ा, ऐसे कृष्टिवेदक क्षपकके वे तिर्यग्गति-संचित जघन्य कर्मद्रव्य पाया जाता है। किन्तु जो तिर्यंचोंमें गुणित-कांशिक होकर कर्मस्थिति कालतक रहा और वहॉसे निकलकर अन्य गतियोमे परिभ्रमण करके क्षपकश्रेणीपर चढ़ा, उसके तिर्यग्गतिसंचित उत्कृष्ट कर्मद्रव्य पाया जाता है। मनुष्यगति-समुपार्जित जघन्य कर्म-संचय उस जीवके पाया जाता है, जो कि अन्य गतिसे मनुष्योंमे आकर वर्ष-पृथक्त्वके पश्चात् अतिशीव्र क्षपकणीपर चढ़ता है। किन्तु जो अन्य गतिसे आकर मनुष्यगतिमे पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम-प्रमित भवस्थितिका प्रतिपालन कर समयाविरोधसे क्षपकणीपर चढ़ता है, उसके मनुष्यगति-समुपार्जित उत्कृष्ट संचित कर्मद्रव्य पाया जाता है। इसी प्रकार स्थावरकायसे आकर त्रसकायिकोंमे वर्षपृथक्त्व रहकर क्षपकणीपर चढ़नेवाले जीवके त्रसकायसंचित जघन्य कर्मद्रव्य पाया जाता है। किन्तु जो गुणितकांशिक होकर सकायस्थितिप्रमित काल तक सोमे परिभ्रमण कर क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है, उसके सकाय-समुपार्जित उत्कृष्ट कर्मेद्रव्य पाया जाता है। . चूर्णिसू०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥८६०॥ कृष्टिवेदक क्षपकके असंख्यात एकेन्द्रिय-भवग्रहणोंके द्वारा बद्ध कर्म नियमसे पाया जाता है । तथा एकको आदि लेकर दो, तीन आदि संख्यात भवोंके द्वारा संचित कर्म पाया जाता है ॥१८४॥ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ८६१. एदिस्से गाहाए विहासा चेव कायव्या । ८६२. एत्तो तदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । (१३२) उकस्सय अणुभागे द्विदि उकस्साणि पुव्वबद्धाणि । सजियव्वाणि अभजाणि होति णियमा कसाएसु ॥१८५॥ ४६३. विहासा । ८६४. उक्कस्सद्विदिवद्धाणि उक्कस्सअणुभागवद्धाणि च भजिदव्याणि । ८६५. कोह-माण-माया-लोभोवजुत्तेहिं बद्धाणि अभजियव्वाणि । ८६६. एत्तो पंचमीए मूलगाहाए समुकित्तणा । ८६७. तं जहा । चूर्णिसू०-इस गाथाकी विभाषा ही करना चाहिए । (गाथाके सुगम होनेसे चूर्णि- . कारने पृथक् विभाषा नहीं की है) ॥८६१॥ विशेषार्थ-इस भाष्यगाथाके द्वारा इन्द्रिय और कायमार्गणाकी अपेक्षा भव-संचित पूर्वबद्ध कर्मका निरूपण किया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि कृष्टिवेदक क्षपकके असंख्यात एकेन्द्रिय-भवोमे संचित कर्मोंका सद्भाव पाया जाता है। इसका कारण यह है कि कर्मस्थितिके भीतर कमसे कम पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एकेन्द्रियोंके भव ग्रहण पाये जाते हैं । तथा एक, दो को आदि लेकर संख्यात त्रस-भवोमें संचित कर्मोंका अस्तित्व पाया जाता है। ___ चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥८६२॥ उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट और उत्कृष्ट स्थितिविशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म भजितव्य हैं । कषायोंमें पूर्वबद्ध कर्म नियमसे अभाज्य हैं ॥१८५॥ . चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-कृष्टिवेदक क्षपकके उत्कृष्ट स्थितिवद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबद्ध कर्म भजितव्य हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोके उपयोगके साथ बद्ध कर्म अभजितव्य है ॥८६३-८६५।। विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थिति और अनुभागसंयुक्त बद्ध कर्म भजितव्य हैं अर्थात् स्यात् होते है और स्यात् नहीं भी होते हैं। इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागको वॉधकर कर्मस्थितिके भीतर ही क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके तो उत्कृष्ट स्थितिअनुभाग-विशिष्ट कर्मप्रदेशोका पाया जाना संभव है। किन्तु कर्मस्थितिके भीतर सर्वत्र ही अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर आये हुए क्षपकके उत्कृष्ट स्थिति-अनुभागविशिष्ट कर्मप्रदेशोका पाया जाना संभय नहीं है। कषायमार्गणाकी अपेक्षा चारो कषायोके उपयोगके साथ पूर्वमे वॉधे हुए कर्म नियमसे अभाज्य हैं, अर्थात् पाये ही जाते हैं । इसका कारण यह है कि चारो कषायरूप उपयोग अन्तर्मुहूर्तमे परिवर्तित होता रहता है, अतएव भननीयता संभव नहीं है। चूर्णिसू०-अब इससे आगे पाँचवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥८६६-८६७॥ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र मोहक्षपक कृष्टि वेदकक्रिया निरूपण (१३३) पज्जत्तापजत्तेण तथा त्थीपुण्णव सयमिस्सेण । सम्मत्ते मिच्छत्ते केण व जोगोवजोगेण ॥ १८६॥ ८६८. एत्थ चत्तारि भासगाहाओ । ८६९. तं जहा । (१३४) पजत्तापजत्ते मिच्छत्त व सए च सम्मत्ते । कम्माण अभाणि दुत्थी - पुरिसे मिस्सगे भज्जा ॥ १८७॥ ८७०. विहासा । ८७१. पज्जत्तेण अपज्जत्तेण मिच्छाइट्टिणा सम्माइट्टिणा कुंसयवेदेण च एवं भावभूदेण वद्धाणि णियमा अस्थि । ८७२ इत्थीए पुरिसेण सम्मामिच्छाइट्टिणा च एवंभावभूदेण वद्धाणि भज्जाणि गा० १८८ ] ' ८७३. तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ८७४. तं जहा । (१३५) ओरालिये सरीरे ओरालियमिस्सए च जोगे दु । ८२५ चदुविधमण- वचिजोगे च अभजा सेस भजा ॥ १८८ ॥ पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के साथ, तथा स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद के साथ, मिश्रप्रकृति, सम्यक्त्वप्रकृति और मिथ्यात्वप्रकृति के साथ, तथा किस योग और किस उपयोगके साथ पूर्व बद्ध कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके पाये जाते हैं ९ ॥१८६॥ भावार्थ - इस मूलगाथाके द्वारा पर्याप्त - अपर्याप्त अवस्थामे तथा वेद, सम्यक्त्व, योग और उपयोग रूप-ज्ञान और दर्शनमार्गणामे पूर्वबद्ध कर्मकी भजनीयता - अभजनीयता पृच्छारूपसे वर्णन की गई है, जिसका उत्तर आगे कही जानेवाली भाष्यगाथाओके द्वारा दिया जायगा । चूर्णिसू० - ० - उक्त मूलगाथाके अर्थ की विभाषा करनेवाली चार भाष्यगाथाएँ है | वे इस प्रकार हैं ॥। ८६८-८६९॥ पर्याप्त अपर्याप्त दशामें, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद और सम्यक्त्व अवस्था में बाँधे हुए कर्म अभाज्य हैं । तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और सम्यग्मिथ्यात्व अवस्थामे वॉधे हुए कर्म भाज्य हैं ॥ १८७॥ चूर्णिसू० - इसकी विभाषा इस प्रकार है - पर्याप्त, अपर्याप्त, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टिऔर नपुंसकवेदके भावरूपसे परिणत जीवके द्वारा बाँधे हुए कर्म नियमसे पाये जाते है, अतः अमान्य है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और देशा मर्शक रूप से सूचित सासादनसम्यग्दृष्टिके भावरूपसे परिणत जीवके द्वारा बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं, अर्थात् स्यात् पाये जाते हैं और स्यात् नहीं भी पाये जाते हैं ॥। ८७०-८७२॥ चूर्णिसू · · (० - अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥ ८७३-८७४॥ औदारिककाययोग, औदारिकमिश्र काययोग, चतुबिंध मनोयोग और चतुविध वचनयोगमें बाँधे हुए कर्म अभाज्य हैं। शेष योगोंमें बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं ॥ १८८ ॥ १०४ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ८७५. विहासा । ८७६. ओरालिएण ओरालियमिस्सएण चउविहेण मणजोगेण चउन्विहेण वचिजोगेण वद्धाणि अभज्जाणि । ८७७. सेसजोगेसु बद्धाणि भज्जाणि । ८७८. एत्तो तदियभासगाहा । ८७९. तं जहा । (१३६) अध सुद-मदिउवजोगे होति अभजाणि पुव्वबद्धाणि । भजाणि च पञ्चक्खसु दोसु छदुमत्थणाणसु ॥१८९॥ ८८०. विहासा । ८८१. सुदणाणे अण्णाणे, मदिणाणे अण्णाणे, एदेसु चदुसु उवजोगेसु पुव्वबद्धाणि णियमा अस्थि । ८८२. ओहिणाणे अण्णाणे मणपज्जवणाणे एदेसु तिसु उवजोगेसु पुव्ववद्धाणि भजियव्वाणि । ८८३. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा । (१३७) कम्माणि अभजाणि दु अणगार-अचक्खुदंसणुवजोगे। अध ओहिदंसणे पुण उवजोगे होति भजाणि ॥१९०॥ चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, चतुर्विध मनोयोग और चतुर्विध वचनयोगके साथ बाँधे हुए कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके अभाज्य हैं, अर्थात् नियमसे पाये जाते हैं। शेष अर्थात् वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग इन पाँच योगोंके साथ बॉधे हुए कर्म भजितव्य हैं, अर्थात् हो भी सकते हैं और नही भी हो सकते हैं ॥८७५-८७७॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथा कही जाती है। वह इस प्रकार है ॥८७८-८७९॥ मति और कुमतिरूप उपयोगमें तथा श्रुत और कुश्रुतरूप उपयोगमें पूर्व बद्ध कर्म अभाज्य हैं । किन्तु दोनों प्रत्यक्ष छद्मस्थ-ज्ञानों में पूर्व बद्ध कर्म भाज्य हैं ॥१८९॥ चूर्णिसू०-श्रुतज्ञान, कुश्रुतज्ञान, मतिज्ञान, कुमतिज्ञान, इन चारो ज्ञानोपयोगोमें पूर्वबद्ध कर्म क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं, अतः अभाज्य हैं । अवधिज्ञान विभंगावधि और मनःपर्ययज्ञान इन तीनो ज्ञानोपयोगोमें पूर्वबद्ध कर्म भजितव्य हैं, अर्थात् किसीके पाये जाते हैं और किसीके नहीं पाये जाते ।।८८०-८८२॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है।। ८८३॥ अनाकार अर्थात् चक्षुदर्शनोपयोग और अचक्षुदर्शनोपयोगमें पूर्ववद्ध कर्म अभाज्य हैं। किन्तु अवधिदर्शनोपयोगमें पूर्वबद्ध कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके भाज्य हैं ॥१९॥ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२७ गा० १९२] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८८४. विहासा एसा । ८८५. एत्तो छट्ठी मूलगाहा।। (१३८) किलेस्साए बद्धाणि केसु कम्मसु वट्टमाणेण । सादेण असादेण च लिंगेण च कम्हि खेत्तम्हि ॥१९१॥ ८८६. एदिस्से दो भासगाहाओ । ८८७. तासिं समुकित्तणा । (१३९) लेस्सा साद असादे च अभजा कम्म सिप्प-लिंगे च । खेत्तम्हि च भजाणि दु समाविभागे अभजाणि ॥१९२॥ ८८८ विहासा । ८८९. तं जहा । ८९०. छसु लेस्सासु सादेण असादेण च बद्धाणि अभज्जाणि । ८९१.कम्म-सिप्पेसु भज्जाणि । ८९२.कम्माणि जहा-अंगार कम्म वण्णकम्मं पव्यदकम्ममेदेसु कम्मेसु भज्जाणि । ८९३. सव्वलिंगेसु च भज्जाणि । ८९४. खेत्तम्हि सिया अधोलोगिगं, सिया उड्डलोगिगं; णियमा तिरियलोगिगं । ८९५. अधोलोगगुड्डलोगिगं च सुद्धणत्थि । ८९६. ओसप्पिणीए च उस्सप्पिणीए च सुद्धं णत्थि । चूर्णिमू०-इस गाथाकी यह समुत्कीर्तना ही उसकी विभाषा है। अर्थात् उक्त गाथाके अति सुबोध होनेसे उसकी विभाषा नहीं की गई है ।।८८४॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे छठी मूलगाथा अवतरित होती है ॥८८५॥ किस लेश्यामें, किन-किन कर्मोंमें तथा किस क्षेत्रमें (और किस कालमें ) वर्तमान जीवके द्वारा वाँधे हुए, तथा साता, असाता और किस लिगके द्वारा बाँधे हुए कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके पाये जाते हैं ॥१९१॥ __ चूर्णिस ०-इस मूलगाथाके अर्थको व्याख्यान करनेवाली दो भाष्यगाथाएँ हैं। उनकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥८८६-८८७॥ सर्व लेश्याओंमें, तथा साता और असातामें वर्तमान जीवके पूर्ववद्ध कर्म अभाज्य हैं। असि, मषि आदिक सभी कर्मोंमें, सभी शिल्पकार्योंमें, सभी पाखण्डी लिंगोंमें, और सर्व क्षेत्रमें बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं। समा अर्थात् उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीरूप कालके सर्व विभागोंमें पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं ॥१९२॥ चूर्णिसू०-उक्त गाथाकी विभाषा इस प्रकार है-छहो लेश्याओमे, तथा सातावेदनीय और असातावेदनीयके उदयमें वर्तमान जीवके द्वारा पूर्ववद्ध कर्म अभाज्य है, अर्थात् कृष्टिवेदक क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । सर्व कर्मोंमें और सर्व शिल्पोंमे पूर्ववद्ध कर्म भाज्य हैं। वे कर्म इस प्रकार है-अंगारकर्म, वर्णकर्म और पर्वतकर्म ( आदिक)। इन कोंमे बॉधे हुए कर्म भाज्य हैं। क्षेत्रमेसे अधोलोक और ऊर्ध्वलोकमें बॉधे हुए कर्म स्यात् पाये जाते हैं । किन्तु तिर्यग्लोकमें बद्ध कर्म नियमसे पाये जाते है। अधोलोक और ऊर्ध्वलोकमे संचित कर्म शुद्ध नहीं पाया जाता, किन्तु तिर्यग्लोकके संचयसे सम्मिश्रित ही पाया जाता है । पर तिर्यग्लोकका संचय शुद्ध भी पाया जाता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीमें संचित कर्म शुद्ध नहीं पाया जाता, किन्तु सम्मिश्रित पाया जाता है ।।८८८-८९६॥ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ८९७. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्त्तिणा। (१४०) एदाणि पुवबद्धाणि होति सव्वेसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु णियमसा सव्वकिट्टीसु ॥१९३॥ ८९८. विहासा । ८९९. जाणि अभज्जाणि पुव्ववद्धाणि ताणि णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु णियमा सव्वासु किट्टीसु । विशेषार्थ-छठी मूलगाथामें जितने प्रश्न उठाये गये थे, उन सबका उत्तर प्रस्तुत भाष्यगाथामें दिया गया है और उसीका स्पष्टीकरण प्रस्तुत चूर्णिसूत्रोंमें किया गया है । गाथापठित 'कर्म' शब्दसे अभिप्राय अंगारकर्म आदि पाप-प्रचुर आजीविकासे लिया गया है, अतएव चूर्णिकारने जिनका उल्लेख नहीं किया ऐसे असि मषि आदिका ग्रहण स्वतःसिद्ध है। अंगार-उत्पादनके लिए जो काप्ठ-दहनरूप कार्य किया जाता है उसे अंगारकर्म कहते है। कुछ आचार्य ऐसा भी अर्थ करते हैं कि अंगार अर्थात् कोयलाके द्वारा जो कार्य किया जाता है, वह सब अंगारकर्म कहलाता है। जैसे सुनार, लुहार आदिके कार्य । नाना प्रकारके रंग-विरंगे चित्र बनाना, विविध वर्णके वस्त्र रेंगना, दीवाल आदि पर कारीगरी करना, हरिताल, हिंगुल आदिके सम्मिश्रणसे विभिन्न प्रकारके रंग तैयार करना वर्णकर्स कहलाता है। पत्थरोको काटना, उनमें नाना प्रकारके चित्रोंको उकेरना, मूर्तियाँ बनाना, स्तम्भ, तोरण आदि बनाना पर्वतकर्म है। इन तीन प्रकारके कर्मोंका उल्लेख उपलक्षणमात्र है, अतएव साँचे ढालना, विविध प्रकारके यंत्र बनाना, इसी प्रकारसे नक्काशीके काम करना, कसीदा काढ़ना, लकड़ीके विविध प्रकारके आसन, शय्या बनाना इत्यादिक जिवने भी हस्तनैपुण्यके कार्य हैं, उन सबको शिल्प पदसे ग्रहण किया गया है। इन विविध शिल्प और कर्मरूप कार्य करते हुए जिन कर्मोंका बन्ध होता है, उनका अस्तित्व कृष्टिवेदकके स्यात् हो भी सकता है और स्यात् नहीं भी, अतएव उन्हे भाज्य कहा गया है। भाष्यगाथा और चूर्णिसूत्रमें यद्यपि सामान्यसे 'सर्व लिंगोमें पूर्वबद्ध कर्म भाज्य' बतलाये गये हैं, तथापि यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जिनवेषरूप निर्ग्रन्थलिंगकी दशामे वॉधे गये कर्मोंका सद्भाव तो कृष्टिवेदक क्षपकके नियमसे ही पाया जाता है, अतएव अन्य विकार-युक्त सर्व पाखंडी वेषोका ही यहाँ लिंग पदसे ग्रहण करना चाहिए। ऐसे पाखंडी लिंगोमें समुपार्जित कर्म भाज्य है, किसीके उनका अस्तित्व पाया जाता है और किसीके नहीं । चूर्णिस०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥८९७॥ ये पूर्ववद्ध (अभाज्य ) कर्म सर्व स्थितिविशेषोंमें, सर्व अनुभागोंमें और सर्व कृष्टियोंमें नियमसे होते हैं ॥१९३॥ चूर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभापा इस प्रकार है-जो अभाज्य पूर्वबद्ध कर्म हैं, वे नियमसे सर्व स्थितिविशेषोमें और नियमसे सर्वकृष्टियोंमें पाये जाते हैं ॥८९८-८९९।। Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १९५] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ९००. एत्तो सत्तमीए मूलगाहाए सम्मुकित्तणा। (१४१) एगसमयप्पबद्धा पुण अच्छुत्ता केतिगा कहिं हिदीसु । भवबद्धा अच्छुत्ता हिदीसु कहि केत्तिया होति ॥१९४॥ ९०१. एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ। ९०२. तासिं समुकित्तणा । (१४२) छण्हं आवलियाणं अच्छुत्ता णियमसा समयपबद्धा। सव्वेसु हिदिविसेसाणुभागेसु च चउण्हं पि ॥१९५॥ विशेषार्थ-ऊपर जो अभजनीय पूर्वबद्ध कर्म तीन मूलगाथाओंमें बताये गये हैं, वे नियमसे सर्वकर्मोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सर्वस्थितियोमे पाये जाते हैं । 'सर्व अनुभागोंमें' इस पदसे चारो संज्वलनकषायोकी सर्व सदृश सघन कृष्टियोका ग्रहण करना चाहिए । 'सर्वकृष्टियोमें' इस पदसे अभिप्राय समस्त संग्रहकृष्टियो और उनकी अवयवकृष्टियोकी एक ओली (पंक्ति या श्रेणी ) से है । अतएव संज्वलनक्रोधदिकी एक एक कृष्टिमें संभव अनन्त सदृश सघन कृष्टियोमें पूर्वबद्ध अभाज्य कर्म नियमसे पाये जाते हैं, ऐसा समझना चाहिए । इसी प्रकार भजनीय संभव कर्मोंका भी एकादि-उत्तरक्रमसे सर्वस्थिति. विशेषोमे, सर्व अनुभागोमें और सर्व कृष्टियोमें संभव अवस्थिति जान लेना चाहिए । चूर्णिस०-अब इससे आगे सातवी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥९००॥ एक समयमें बाँधे हुए कितने कर्मप्रदेश किन किन स्थितियों में अछूते अर्थात् उदयस्थितिको अप्राप्त रहते हैं। इसी प्रकार कितने भवबद्ध कर्म-प्रदेश किन-किन स्थितियोंमें असंक्षुब्ध रहते हैं ॥१९४॥ भावार्थ-इस मूलगाथामे अन्तरकरणके प्रथम समयसे लगाकर उपरिम अवस्थामें वर्तमान क्षपकके समयप्रबद्ध और भवबद्ध कर्म-प्रदेशोंकी उदय और अनुदयरूपताकी पृच्छा की गई है, जिसका उत्तर आगे कही जानेवाली भाष्यगाथाओके द्वारा दिया जायगा । एक समयमें बाँधे हुए कर्मपुंजको एक समयप्रबद्ध कहते हैं। अनेक भवोमे वॉधे हुए कर्मपुंजको भववद्ध कहते है । अछुत्तपदका अर्थ अस्पृष्ट अर्थात् उदयस्थितिको अप्राप्त अर्थ होता है । जयधवलाकारने अथवा कहकर असंक्षुब्ध अर्थ भी किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि जिनका संक्रमण संभव नहीं है, ऐसे कितने कर्म-प्रदेश किन-किन स्थितियोमे पाये जाते हैं । चूर्णिस०-इस भूलगाथाके अर्थको व्याख्यान करनेवाली चार भाष्यगाथाएँ हैं । उनकी क्रमशः समुत्कीर्तना की जाती है ॥९०१-९०२॥ ___अन्तरकरण करनेसे उपरिम अवस्थामें वर्तमान क्षपकके छह आवलियोंके भीतर बँधे हुए समयप्रबद्ध नियमसे अछूते हैं। (क्योंकि अन्तरकरणके पश्चात् छह आवलीके भीतर उदीरणा नहीं होती है । ) वे अछूते समयप्रवद्ध चारों ही संज्वलनकपायसम्बन्धी सभी स्थितिविशेषोंमें और सभी अनुभागोंमें अवस्थित रहते हैं !॥१९५।। Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्र मोह-क्षपणाधिकार " ९०३. विहासा । ९०४. जत्तो पाए अंतरं कदं तत्तो पाए समयपत्रद्धो छसु आवलियासु गदासु उदीरिज्जदि । ९०५. अंतरादो कदादो तत्तो छसु आवलियासु गदासु तेण परं छण्हमावलियाणं समयपवद्धा उदये अच्छुद्धा भवति । ९०६. भवबद्धा पुणणियमा सच्चे उदये संछुद्धा भवति । ९०७. तो विदियभासगाहा । ८३० । चूर्णिसू० - जिस पाये ( स्थल ) पर अन्तर किया है, उस पायेपर बॅधा हुआ समयप्रवद्ध छह ओवलियोंके व्यतीत होनेपर उदीरणाको प्राप्त होगा समाप्त करने के अनन्तर समयसे लेकर छह आवलियोके व्यतीत होनेपर आवलियोके समयप्रबद्ध उदयमे अछूते रहते हैं । किन्तु भववद्ध सभी उदयमे संक्षुब्ध रहते हैं ॥९०३-९०६॥ अतएव अन्तरकरण उससे परे सर्वत्र छह समय प्रबद्ध नियमसे विशेषार्थ - अन्तरकरण करनेके प्रथम समय में आवलीप्रमाण नवकवद्ध समयप्रबद्ध उदयमे अछूते रहते हैं । पुनः द्वितीय समय में भी इतने ही समयप्रबद्ध उदयमें अछूते रहते हैं । इस प्रकार अन्तरकरणके प्रथम समय से लेकर आवलीप्रमितकाल के चरम समय तक आवलीप्रमाण नवकवद्ध समयप्रबद्ध उदयमे अछूते रहते हैं । प्रथम आवलीके व्यतीत होने पर अनन्तर समयोमें एक-एक समयप्रबद्ध यथाक्रमसे तब तक अधिक होता जाता है जब तक कि अन्तरकरणसे लेकर दो आवलीप्रमाण फाल व्यतीत न हो जाय । दो आवलीकाल पूरा होनेपर दो आवलीप्रमित नबकबद्ध समयप्रबद्ध उदयमे अछूते रहते । तदनन्तर तीसरी आवलीके प्रथम समयसे लेकर उसके पूरे होने तक एक-एक समयप्रबद्ध अधिक होता हुआ चला जाता है और तीसरे आवलीके अन्तिम समयमे तीन आवलियोके नवकबद्ध समयप्रबद्ध अनुदीरित या उदयमें अछूते पाए जाते हैं । इसी प्रकार चौथी आवलीके प्रथम समय से लेकर उसके अन्तिम समय तक एक एक समय प्रबद्ध बढ़ता हुआ चला जाता है और चौथी आवलीके अन्तिम समयमे चार आवलियोंके समयप्रवद्ध अनुदीरित पाये जाते हैं । पुनः प्रतिसमय एक एक समयप्रबद्ध बढ़ता हुआ पॉचवीं आवलीके अन्तिम समय तक चला जाता है और इस प्रकार पॉचवी आवलीके अन्तिम समयमे पॉच आवलियोके नवकवद्ध समयप्रबद्ध उदीरणा-रहित पाये जाते हैं । पुनः उक्त क्रमसे एक-एक समयप्रबद्ध बढ़ता हुआ छठी आवलीके अन्तिम समय तक चला जाता है और छठी आवली पूर्ण होनेपर छह आवलियोके नवकवद्ध समयप्रबद्ध उदयमें अछूते अर्थात् उदीरणावस्थासे रहित पाये जाते हैं । इस कारण चूर्णिकारने ठीक ही कहा है कि अन्तरकरणसे लगाकर छह आवलीकालके बीतनेपर उससे परे छह आवलियोके नवकबद्ध सर्व समयप्रबद्ध उदयमे अछूते या अनुदीरित पाये जाते है । इसका अभिप्राय यह समझना चाहिए कि इन नवकवद्ध समयप्रबद्धोके अतिरिक्त शेष सर्व समयप्रबद्ध उदयमें संक्षुध्ध अर्थात् उदय या उदीरणा पर्यायसे परिणत पाये जाते हैं । परन्तु भववद्ध समस्त ही समयप्रबद्ध नियमसे उदयमे संक्षुब्ध पाये जाते हैं । 10- अब इससे आगे द्वितीय भाष्यगाथा अवतीर्ण होती है ॥ ९०७ ॥ चूर्णिसू० Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३१ गा० १९६] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण (१४३) जा चावि बज्झमाणी आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुवावलिया णियमा अणंतरा चदुस्सु किट्टीसु ॥१९६॥ ९०८. विहासा । ९०९. जं पदेसग्गं वज्झमाणयं कोधस्स तं पदेसग्गं सव्वं बंधावलियं कोहस्स परमसंगहकिट्टीए दिस्सइ । ९१०. तदो आवलियादिकंतं तिसु वि कोहकिट्टीसु दीसइ । ९११. एवं विदियावलिया चदुसु किट्टीसु दीसइ माणस्स च पहमकिट्टीए । ९१२. तदो जं पदेसग्गं कोहादो माणस्स पहमकिट्टीए गदं तं पदेसग्गं तदोआवलियाए पुण्णाए माणस्स विदिय-तदियासु मायाए च पहमसंगहकिट्टीए संकमदि । ९१३. एवं तदिया आवलिया सत्तसु किट्टीसु त्ति भण्णइ । ९१४. जं कोहपदेसग्गं संछुब्भमाणयं मायाए पडमकिट्टीए संपत्तं तं पदेसग्गं तत्तो आवलियादिकंतं मायाए विदिय-तदियासु च किट्टीसु लोभस्स च पढमकिट्टीए संकमदि । ९१५. एवं चउत्थी आवलिया दससु किट्टीसु त्ति भण्णइ । ९१६. जं कोहपदेसग्गं संछुब्भमाणं लोभस्स पहमकिट्टीए संपत्तं तदो आवलियादिक्कत लोभस्स विदियतदियासु किट्टीसु दीसह । ९१७. एवं पंचमी आवलिया सव्वासु किट्टीसु त्ति भण्णइ । जो वध्यमान आवली है, उसके कर्मप्रदेश क्रोधसंज्वलनकी प्रथम कृष्टि मे पाये जाते हैं । इस पूर्व आवलीके अनन्तर जो उपरिम अर्थात् द्वितीयावली है, उसके कर्मप्रदेश नियमसे क्रोधसंज्वलनकी तीन और मानसंज्वलनकी प्रथम, इन चार संग्रहकृष्टियोंमें पाये जाते हैं ॥१९६॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-संज्वलन क्रोधके जो वध्यमान प्रदेशाग्र हैं, वे सर्व बन्धावलीके प्रदेशाग्र कहलाते हैं और वे क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे दिखाई देते हैं। इसके पश्चात् एक आवली व्यतीत होनेपर वे कर्मप्रदेशाग्र क्रोधकी तीनो संग्रहकृष्टियोमे भी दिखाई देते हैं और मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे भी । इस प्रकार द्वितीय आवली चार कृष्टियोमें दिखाई देती है। तदनन्तर जो कर्मप्रदेशाग्र क्रोधसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें गया है, वह प्रदेशाग्र आवलीके पूर्ण हो जानेपर मानकी दूसरी और तीसरी तथा मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे संक्रमित होता है। इस प्रकार तृतीय आवली सात संग्रहकृष्टियोमें दिखाई देती है, ऐसा कहा जाता है ॥९०८-९१३॥ चर्णिसू०-जो संज्वलनक्रोधके प्रदेशाग्र संक्रमित होते हुए संज्वलनमायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त हुए हैं, वह प्रदेशाग्र उससे आगे एक आवली अतिक्रान्त होनेपर संज्वलनमायाकी द्वितीय और तृतीय संग्रहकृष्टिमें तथा संज्वलनलोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे संक्रान्त होता है। इस प्रकार चौथी आवली दश कृष्टियोमे दिखाई देती है, ऐसा कहा जाता है। जो संज्वलनक्रोधके प्रदेशाग्र संक्रमित होते हुए संज्वलनलोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको प्राप्त हुए हैं, वह प्रदेशाग्र उससे आगे एक आवली व्यतीत होनेपर संज्वलनलोभकी द्वितीय और सृतीय संग्रहकृष्टिमें दिखाई देते है। इस प्रकार पाँचवी आवली सर्व कृष्टियोमे दिखाई देती है, ऐसा कहा जाता है ॥९१४-९१७॥ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ९१८. तदिया विभासगाहाए अत्थो एत्थेव परूविदो । वरि समुत्तिणा कायव्वा । ९१९. तं जहा । (१४४) तदिया सत्तसु किट्टीस चउत्थी दससु होइ किट्टीसु । ते परं सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥ १९७॥ ९२०. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१४५) पदे समयपवद्धा अच्छुत्ता पियमसा इह भवहि । सेसा भवबद्धा खलु संछुद्धा होंति बोद्धव्या ॥१९८॥ ९२१. एदिस्से गाहाए अत्यो पढमभासगाहाए चेव परुविदो । ९२२. एत्तो अट्टमीए मूलगाहाए समुत्तिणा । (१४६) एगसमयपवद्धाणं सेसाणि च कदिसु द्विदिविसेसेसु । भवसेसगाणि कदिसु च कदि कदि वा एगसमएण ॥ १९९॥ ८३२ चूर्णि सू० - इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ भी इसी दूसरी भायगाथाकी विभाषामे कह दिया गया । अब केवल समुत्कीर्तना करना चाहिए । वह इस प्रकार है ।।९१८-९१९॥ तीसरी आवली सात कृष्टियोंमें, चौथी आवली दश कृष्टियों में और उससे आगेकी शेष सर्व आवलियाँ सर्व कृष्टियों में पाई जाती हैं ॥१९७॥ चूर्णिसू० - अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ ९२० ॥ ये ऊपर कहे गये छहों आवलियोंके इस वर्तमान भवमें ग्रहण किये गये समयप्रबद्ध नियमसे असंक्षुब्ध रहते हैं, अर्थात् उदय या उदीरणाको प्राप्त नहीं होते हैं । किन्तु शेष भवबद्ध अर्थात् कर्मस्थितिके भीतर होनेवाले भवोंमें बाँधे हुए सर्व समय प्रबद्ध उदयमें संक्षुब्ध होते हैं ॥ १९८ ॥ चूर्णि सू० [0- इस चौथी भाष्यगाथाका अर्थ पहली भाष्यगाथाकी विभापामें कहा जा चुका है ॥९२१|| चूर्णिसू० - अब इससे आगे आठवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ ९२२ ॥ एक समयमें बँधे हुए और नाना समयों में बँधे हुए समयप्रवद्धों के शेप कितने कर्म- प्रदेश कितने स्थितिविशेपोंमें और अनुभागविशेपोंमें पाये जाते हैं ? इसी प्रकार एक भव और नाना भवोंमें बँधे हुए कितने कर्मप्रदेश कितने स्थितिविशेषोंमें और अनुभागविशेषोंमें पाये जाते हैं ! तथा एक समयरूप एक स्थितिविशेषमें वर्तमान कितने कर्मप्रदेश एक-अनेक समयप्रबद्ध और भववद्धों के शेष पाये जाते हैं १ ॥ १९९ ॥ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०० ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ९२३. एत्थ चत्तारि भासगाहाओ । ९२४. तासि समुचित्तणा । (१४७) एकम्मि द्विदिविसेसे भवसेसगसमयपबद्धसेसाणि । णियमा अणुभागेसु य भवंति सेसा अणंतेसु ॥२००॥ ९२५. विहासा । ९२६. समयपवद्धसेसयं णाम किं १ ९२७. जं समयपबद्धस्स वेदिदसेसग्गं पदेसग्गं दिस्सइ, तम्मि अपरिसेसिदस्मि एगसमएण उदयमागदम्मि तस्स समयपवद्धस्स अण्णो कम्मपदेसो वा णत्थि तं समयपवद्धसेसगं णाम । ९२८. एवं चेव भवबद्धसेसयं । ९२९, एदीए सण्णापरूवणाए पठमाए भासगाहाए विहासा । ९३०. तं जहा । ९३१. एकम्हि हिदिविसेसे कदिहं समयपबद्धाणं सेसाणि होज्जासु ? ९३२. एक्कस्स वा समयपबद्धस्स दोण्हं वा तिहं वा, एवं गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं । चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके अर्थकी विभाषा करनेवाली चार भाष्यगाथाएँ हैं। उनकी समुत्कीर्तना इस प्रकार हैं ॥९२३-९२४॥ एक स्थितिविशेषमें नियमसे एक-अनेक भवबद्धोंके समयबद्ध-शेष और एकअनेक समयोंमें बँधे हुए कर्मोके समयप्रबद्ध-शेष असंख्यात होते हैं । और वे समयप्रवद्ध-शेष नियमसे अनन्त अनुभागोंमें वर्तमान होते हैं ॥२०॥ चूर्णिसू० अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है ॥९२५॥ शंका-समयप्रबद्ध-शेष नाम किसका है ? ॥९२६॥ समाधान-समयप्रबद्धका वेदन करनेसे अवशिष्ट जो प्रदेशाग्र दिखाई देता है उसके अपरिशेषित अर्थात् सामस्त्यरूपसे एक समयमे उदय आनेपर उस समयप्रबद्धका फिर कोई अन्य कर्मप्रदेश अवशिष्ट नहीं रहता है, उसे समयप्रबद्ध-शेष कहते है ॥९२७॥ चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे भवबद्ध शेष भी जानना चाहिए ॥९२८॥ विशेषार्थ-समयप्रबद्ध-शेषमे तो एक समयप्रबद्धके कर्मपरमाणुओको ही ग्रहण किया जाता है । किन्तु भवबद्ध-शेषमे कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र एक भव-बद्ध समयप्रबद्धोके कर्मपरमाणु ग्रहण किये जाते हैं । यह समयप्रबद्ध-शेष और भवबद्ध-शेपमे अन्तर जानना चाहिए । चूर्णिसू०-इस संज्ञाप्ररूपणाके द्वारा प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है ॥९२९-९३०॥ शंका-एक स्थितिविशेषमे कितने समयप्रबद्धोके शेष बचे हुए कर्म-परमाणु होते हैं ? ॥९३१॥ समाधान-एक स्थितिविशेपमे एक समयप्रबद्धके शेप कर्मपरमाणु रहते हैं, दो समयप्रबद्धोके भी शेष रहते हैं, तीन समयप्रबद्धोके भी शेष रहते हैं, इस प्रकार एक-एक समयप्रबद्धके बढ़ते हुए क्रमसे अधिकसे अधिक पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र समयप्रबद्धोके कर्म-परमाणु शेष रहते हैं ॥९३२॥ १०५ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ९३३. भववद्धसेसयाणि वि एक्कम्मि द्विदिविसेसे एक्कस्स वा भववद्धस्स दोण्हं वा तिण्हं वा एवं गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्ताणं भववद्धाणं । ९३४. णियमा अणतेसु अणुभागेसु भवबद्धसेसगं वा समयपवद्धसेसगं वा । ९३५. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्त्तिणा । ९३६. तं जहा । (१४८) डिदि-उत्तरसेढीए भवसेस-समयपवद्धसेसाणि । एगुत्तरसेगादी उत्तरसेढी असंखेज्जा ॥२०१॥ ९३७ चिहासा । ९३८. तं जहा । ९३९. समयपवद्धसेसयमेक्कम्मि हिदिविसेसे दोसु वा तीसु वा एगादिएगुत्तरमुक्कस्सेण विदियहिदीए सव्वासु हिदीसु पढयहिदीए च समयाहियउदयावलियं मोत्तृण सेसासु सव्यासु ठिदीसु णाणासमयपवद्धसेसाणं णाणेगभवनद्धसेसयाणं च । ९४० एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा। (१४९) एक्कम्मि द्विदिविसेसे सेसाणि ण जत्थ होति सामण्णा । आवलिगासंखेज्जदिमागो तहिं तारिसो समयो ॥२०२॥ चूर्णिसू०--इसी प्रकार भवबद्ध-शेष भी जानना चाहिए । अर्थात् एक स्थितिविशेपमे एक भववद्धके, दो भववद्धके, तीन भववद्धके इस प्रकार बढ़ते हुए उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र भवबद्धोंके शेष कर्मपरमाणु पाये जाते है। वह पबद्ध-शेष या समयप्रबद्ध-शेष कर्म-परमाणु नियमसे अनन्त अविभागप्रतिच्छेदरूप अनुभागोमें वर्तमान रहता है ।।९३३.९३४॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥९३५-९३६॥ __ एकको आदि लेकर एक-एक बढ़ाते हुए जो स्थितियोंकी वृद्धि होती है, उसे स्थिति-उत्तरश्रेणी कहते हैं। इस प्रकारकी स्थिति-उत्तरश्रेणीमे भववद्ध-शेष और समयप्रवद्ध-शेप असंख्यात होते हैं ॥२०१॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभापा की जाती है। वह इस प्रकार हैसमयप्रवद्धशेष एक स्थितिविशेपमे पाया जाता है, दो स्थितिविशेषोमे भी पाया जाता है, तीन स्थितिविशेपोंमे भी पाया जाता है। इस प्रकार एकको आदि लेकर एकोत्तर वृद्धिके क्रमसे उत्कर्षसे द्वितीयस्थितिकी सर्व स्थितियोमे पाया जाता है और प्रथमस्थितिकी समयाधिक उदयावलीको छोड़कर शेष सर्व स्थितियोमे पाया जाता है। इसी प्रकार नाना समयप्रवद्ध-शेषोकी तथा नाना और एक भवबद्ध-शेषोकी प्ररूपणा करना चाहिए ।।९३७-९३९॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥९४०॥ जिस किसी एक स्थितिविशेषमें समयप्रबद्ध-शेप और भववद्ध-शेप सम्भव हैं, वह सामान्यस्थिति और जिसमें वे सम्भव नहीं वह असामान्यस्थिति कहलाती है । उस क्षपकके वर्पपृथक्त्वमात्र स्थितिविशेपमें तादृश अर्थात् भववद्ध और समयप्रबद्ध Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०२ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया निरूपण ८३५ ९४२१. विहासा । ९४२. सामण्णसण्णा ताव । ९४३. एक्कम्हि ठिदिवि से से जहि समयबद्धसेसमत्थि सा हिदी सामण्णा त्तिणादव्वा । ९४४. जम्मि णत्थि सा ट्ठी असामण्णा त्तिणादव्वा । ९४५ एवमसामण्णाओ हिदीओ एक्का वा दो वा उक्कस्सेण अणुवद्धाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ | ९४६. एक्केक्केण असामण्णाओ थोवाओ । ९४७. दुरोण विसेसाहियाओ ९४८. तिगेण विसेसाहियाओ । आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणाओ | शेषसे विरहित असामान्य स्थितियाँ अधिक से अधिक आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती हैं || २०२ || चूर्णि सू०. ० - अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है । उसमे सबसे पहले सामान्यसंज्ञाका अर्थ करते हैं - जिस एक स्थितिविशेषमे समयप्रबद्ध-शेष ( और भववद्धशेष ) पाये जाते है, वह स्थिति 'सामान्य' संज्ञावाली जानना चाहिए । जिस स्थितिविशेषमे समयप्रबद्ध - शेष ( और भवबद्ध - शेप ) नही पाये जाते है, वह 'असामान्य' संज्ञावाली जानना चाहिए । इस प्रकार असामान्यस्थितियाँ एक, दोको आदि लेकर अधिकसे अधिक अनुवद्ध अर्थात् निरन्तररूपसे आवलीके असंख्यातवे भागमात्र पाई जाती हैं ।। ९४१-९४५। अब इन्ही असामान्य स्थितियोके जघन्य और उत्कृष्ट करते हैं प्रमाणका निर्देश चूर्णि सू० [0- एक -एक रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियों थोड़ी है । द्विक अर्थात् दो-दो रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक है । त्रिक अर्थात् तीन-तीन रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियॉ विशेष अधिक है । इस प्रकार विशेष अधिक रूप यह क्रम आवलीके असंख्यातवें भागपर दुगुना हो जाता है ।। ९४६-९४८।। विशेषार्थ - इस उपयुक्त अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए उस कृष्टिवेदक क्षपकके किसी एक संज्वलनप्रकृतिकी वर्ष पृथक्त्वप्रमाण स्थितिकी काल्पनिक रचना कीजिए । पुनः उस स्थिति के भीतर सान्तर या निरन्तररूपसे अवस्थित सर्व असामान्य स्थितियोको बुद्धि पृथक् करके क्रमशः स्थापित कीजिए । इस प्रकार क्रमसे स्थापित की गई इन असामान्य स्थितियो पर दृष्टिपात कीजिए, तब ज्ञात होगा कि उस वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्यतर संज्वलनकी स्थिति मे एक-एक रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियॉ सबसे कम है । द्विकरूपसे पाई जानेवाली विशेष अधिक हैं, त्रिकरूपसे पाई जानेवाली विशेष अधिक है, चतुष्क रूपसे पाई जानेवाली विशेष अधिक हैं । इस प्रकार यह क्रम आवलीके असंख्यातवें भाग तक चला जाता है । आवली के असंख्यातवें भागपर पाई जानेवाली असामान्यस्थितियोका प्रमाण, प्रारम्भके प्रमाणसे दुगुना हो जाता है । यहाँ जो एक एकरूपसे, द्विक या त्रिक आदिके रूपसे वर्तमान असामान्य स्थितियोका उल्लेख किया गया है, उसके विषयमें जयधवलाकारने दो प्रकारका अर्थ किया है । उनमे प्रथम अर्थ के अनुसार - ' एक - एक रूपसे अर्थात् सामान्य स्थितियो से Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ९४९. आवलियाए असंखेज्जदिमागे जवमझं । ९५०. समयपवद्धस्स एक्के क्स्स सेसगमेक्किस्से हिदीए ते समयपवद्धा थोवा । ९५१. जे दोसु हिदीसु ते समयपबद्धा विसेसाहिया । ९५२. आवलियाए असंखेज्जदिमागे दुगुणा । ९५३. आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमझं । ९५४. तदो हायमाणहाणाणि वासपुधत्तं । ९५५. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा। (१५०) एदेण अंतरेण दु अपच्छिमाए दु पच्छिमे समए । अव-समयसेसगाणि दुणियमा तम्हि उत्तरपदाणि ॥२०३॥ अन्तरित जो एक-एक असामान्य स्थिति पाई जाती है, उसका ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार 'द्विकरूप' का अर्थ सामान्यस्थितियोसे अन्तरित लगातार दो-दोके रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियोको ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार त्रिक आदिका भी अर्थ जानना । द्वितीय अर्थके अनुसार-एक-एक रूपसे' अर्थात् एक-एक सामान्य स्थितिसे अन्तरित असामान्य स्थितियाँ सबसे कम हैं । द्विक अर्थात् दो-दो सामान्य स्थितियोसे अन्तरित असामान्यस्थितियाँ विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार त्रिक, चतुष्क आदिका अर्थ तीन-तीन या चार-चार आदि सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियोका ग्रहण करना चाहिए । चूर्णिस०-आवलीके असंख्यातवें भागमें यवमध्य होता है ॥९४९॥ विशेषार्थ-ऊपर बतलाये हुए क्रमसे दुगुण दुगुण वृद्धिरूप आवलीके असंख्यातवें भागप्रमित स्थानोके व्यतीत होनेपर इस वृद्धिरूप रचनाका यवमध्य प्राप्त होता है । इस यवमध्यके ऊपर जिस क्रमसे पहले वृद्धि हुई थी, उसी क्रमसे हानि होती हुई तव तक चली जाती है, जब तक कि यवरचनाके प्रथम विकल्पके समान प्रमाणवाला अन्तिम विकल्प उपलब्ध न हो जाय । यहाँ इतना और विशेष ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार चूर्णिकारने असामान्य स्थितियोकी यह यवमध्यरचना वताई है, उसी प्रकार सामान्य स्थितियोकी भी यवमध्यप्ररूपणा करना चाहिए । चूर्णिसू०-जिन एक-एक समयप्रवद्ध का शेष एक-एक स्थितिमे पाया जाता है, वे समयप्रबद्ध अल्प हैं। जिन समयप्रबद्धोके शेप दो स्थितियोमें पाये जाते हैं, वे समयप्रबद्ध विशेष अधिक हैं । ( जिन समयप्रबद्धोके शेष तीन स्थितियोंमें पाये जाते हैं, वे समयप्रवद्ध विशेष अधिक हैं। ) इस प्रकारसे बढ़ता हुआ यह क्रम आवलीके असंख्यातवें भाग पर दुगुना हो जाता है । ( यह एक दुगुणवृद्धिस्थान है । ) इस प्रकारके आवलीके असंख्यातवे भागप्रमित दुगुण वृद्धिस्थानोके होनेपर यवमध्य प्राप्त होता है। तदनन्तर हायमान स्थान वर्पपृथक्त्वप्रमाण हैं । (तव घटते हुए क्रमका अन्तिम विकल्प प्राप्त होता है) ॥९५०-९५४॥ चूर्णिमू०-अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥९५५ । इस अनन्तर-प्ररूपित आवलीके असंख्यातवें भागप्रमित उत्कृष्ट अन्तरसे उपलब्ध होनेवाली अपश्चिम (अन्तिम) असामान्य स्थितिके समयमें अर्थात् तदनन्तर समयमें पाई जानेवाली उपरिम स्थितिमें भववद्ध-शेप और समयप्रबद्ध-शेप नियमसे Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०३] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८३७ ९५६. विहासा । ९५७. समयपवद्धसेसयं जिस्से हिदीए णस्थि तदो विदियाए द्विदीए ण होज्ज, तदियाए हिदीए ण होज्ज, तदो चउत्थीए ण होज्ज । एवमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीसु द्विदीसु ण होज्ज समयपबद्धसेसयं । ९५८. आवलियाए असंखेज्जदिभागं गंतूण णियमा समयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ द्विदीओ। ९५९. जाओ ताओ अविरहिदहिदीओ ताओ एगसमयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ थोवाओ। ९६०. अणेगाणं समयपबद्धाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जगुणाओ । ९६१. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जा भागा। पाये जाते हैं और उसमें अर्थात् उस क्षपककी अष्टवर्षप्रमित स्थितिके भीतर उत्तरपद होते हैं ॥२०॥ विशेषार्थ-तीसरी भाष्यगाथामे सामान्यस्थितियोके अन्तर्गत असामान्य स्थितियाँ प्रधानरूपसे कही गई थी। इस चौथी गाथामे असामान्य स्थितियोमेसे अन्तरित सामान्य स्थितियोका निरूपण किया गया है। इस गाथाका अभिप्राय यह है कि सामान्य स्थितियोके अन्तररूपसे असामान्य स्थितियाँ पाई जाती हैं। वे कमसे कम एकले लगाकर दो, तीन आदिके क्रमसे बढ़ते हुए अधिक से अधिक आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण निरन्तररूपसे पाई जाती हैं, यह बात पहले बतलाई जा चुकी है। इस प्रकारसे पाई जानेवाली उन असामान्य स्थितियोकी चरिमस्थितिसे ऊपर जो अनन्तर समयवर्ती स्थिति पाई जाती है, उसमे भी नियमसे समयप्रबद्ध-शेष और भवबद्ध-शेष पाये जाते है। ये भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष कितने और किस रूपसे पाये जाते हैं, इस बातके बतलानेके लिए गाथा-सूत्रकारने 'उत्तरपदाणि' यह पद दिया है, जिसका भाव यह है कि वे भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष एक, दो आदिके क्रमसे बढ़ते हुए अधिकसे अधिक पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पाये जाते हैं। यहाँ इतना और विशेप जानना चाहिए कि ये पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष उस एक अनन्तर-उपरिम स्थितिमे ही नहीं पाये जाते हैं, अपि तु एक आदिके क्रमसे बढ़ते हुए उत्कृष्टतः वर्षपृथक्त्वप्रमाणवाली स्थितियोंमे सर्वत्र क्रमशः अवस्थित रूपसे पाये जाते हैं। चूर्णिसू०-अब इस चौथी भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-समयप्रवद्धशेप जिस स्थितिमें नहीं है, उससे उपरिम द्वितीय स्थितिमे न हो, तृतीय स्थितिमे न हो, उससे आगे चतुर्थ स्थितिमे न हो, इस प्रकार उत्कर्पसे आवलीके असंख्यातवे भागमात्र स्थितियोमे भी समयप्रबद्धशेष नही पाये जा सकते हैं। किन्तु आवलीके असंख्यातवे भागकाल आगे जाकर नियमसे समयप्रबद्धशेषसे अविरहित ( संयुक्त ) स्थितियाँ प्राप्त होगी। जो वे समयप्रवद्धशेपसे अविरहित स्थितियाँ पाई जाती हैं, उनमे एक समयप्रवद्ध-शेषसे अविरहित स्थितियाँ थोड़ी है। अनेक समयप्रवद्धोके शेषसे अविरहित स्थितियाँ असंख्यातगुणी हैं। पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र समयप्रबद्धोके शेषसे अविरहित स्थितियाँ असंख्यात बहुभाग प्रमाण है ॥९५६-९६१॥ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ९६२. एसा सव्वा चदुहिं गाहाहि खवगस्स परूवणा कदा । ९६३. एदाओ चेव चत्तारि चि गाहाओ अभवसिद्धियपाओग्गे णेदवाओ। ९६४. तत्थ पुत्वं गमणिज्जा पिल्लेवणहाणाणसुवदेसपरूवणा । ९६४. एत्थ दुविहो उवएसो । ९६६. एक्केण उवदेसेण कम्महिदीए असंखेज्जा भागा णिल्लेवणहाणाणि । ९६७. एक्केण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ९६८. जो पवाइज्जइ उवएसो तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेन्जाणि वग्गमूलाणि णिल्लेवणहाणाणि । चूर्णिस०-इन उपर्युक्त चार भाष्यगाथाओके द्वारा यह सव कृष्टिवेदक क्षपककी प्ररूपणा की गई। अब ये चारो ही भाष्यगाथाएँ अभव्यसिद्धिक जीवकी योग्यतारूपसे भी विभाषा या व्याख्या करनेके योग्य हैं ।।९६२-९६३।। विशेषार्थ-अभव्य जीवोके कर्म-वन्धके योग्य परिणामोंको अभव्यसिद्धिक-प्रायोग्य परिणाम कहते है । अर्थात् जिस स्थानपर भव्य जीव और अभव्य जीवोके स्थिति-अनुभागवन्धादिके परिणाम सदशरूपसे प्रवृत्त होते है, या एकसे रहते हैं, उन्हे अभव्यसिद्धिकप्रायोग्य जानना चाहिए । ऊपर जिस प्रकारसे चार भाष्यगाथाओके द्वारा कृष्टिवेदक क्षपकके भवबद्धशेप और समयप्रवद्धशेषकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे अभव्यसिद्धिकोके कर्मों के बँधने योग्य स्थलपर भी भववद्धशेप और समयप्रवद्धशेष की प्ररूपणा करना चाहिए। वह किस प्रकार करना चाहिए, यह चूर्णिकार आगे स्वयं कहेगे। चूर्णिसू०-इस विषयमे सर्वप्रथम निर्लेपनस्थानोके उपदेशकी प्ररूपणा जाननेके योग्य है । इस विषयमे दो प्रकारके उपदेश पाये जाते है । एक उपदेशके अनुसार तो निर्लेपनस्थान कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण होते है। एक उपदेशसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। अर्थात् जो उपदेश प्रवाहरूपसे चल रहा है, उस उपदेशके अनुसार निर्लेपनस्थान पल्योपमके असंख्यातवे भाग हैं, जिनका कि प्रमाण पल्योपमके असंख्यात वर्गमूलप्रमाण है ॥९६४-९६८॥ विशेषार्थ-कर्म-लेपके दूर होनेके स्थानको निर्लेपनस्थान कहते हैं । अर्थात् एक समयमें वॅधे हुए कर्म-परमाणु वन्धावलीके पश्चात् क्रमशः उदयमें प्रविष्ट होकर और सान्तर या निरन्तररूपसे अपना फल देते हुए जिस समयमें सभी निःशेपरूपसे निर्माण होते हैं, उसे निर्लेपनस्थान कहते हैं । विभिन्न समयोमे बंधे हुए कर्म विभिन्न समयोमें ही निःशेषरूपसे निर्लेपको प्राप्त होते है, अतः उनकी संख्या बहुत होती है। उन निर्लेपनस्थानोंकी संख्या कितनी होती है, इस विषयमे दो प्रकारके उपदेश पाये जाते हैं-एक प्रवाह्यमान उपदेश और १ को अभवसिद्धियपाओग्गविसयो णाम ? भवसिद्धियाणमभवसिद्धियाण च जत्थ ठिदि-अणुभागबधादिपरिणामा सरिसा होदूण पयति, सो अभवसिद्धियपाओग्गविसयो ति भण्णदे । जयध २ तत्थ किं णिल्लेवणट्ठाण णाम ? एगसमये बद्धकम्मपरमाणवो बधावलियमेत्तकाले वोलिदे पच्छा उदय पविसमाणा केत्तिय पि कालं सातरणिरतरसरूवेणुदयमागतूण जम्हि समयम्हि सत्वे चेव णिस्सेसमुदय कादण गच्छंति तेसि णिरुद्धभवसमयपबद्धपदेसाणं तण्णिल्लेवणटठाणमिदि भण्णदे । Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०३ ] चारित्रमोहक्षपक-कृटिवेदकक्रिया निरूपण ९६९. अदीदे काले एगजीवस्स जहण्णए णिल्लेवणड्डाणे पिल्लेविदव्वाणं समयबद्धाणमेसो कालो थोवो । ९७०. समयुत्तरे विसेसाहिओ । ९७१. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते दुगुणो । ९७२. ठाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमज्यं । ९७३. णाणादु गुणहाणिट्ठाणंतराणि पलिदोवमच्छेदणाणमसंखेज्जदिभागो । ९७४ णाणागुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । ९७५. एयगुणहाणिहाणंतरमसंखेजगुणं । ९७६. एक म्हि ट्ठिदिविसेसे एकस्स वा समयबद्धस्स सेसयं दोन्हं वा तिन्ह वा, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं । ९७७ एवं चेव दूसरा अप्रवाह्यमान उपदेश । प्रवाद्यमान उपदेश के अनुसार निर्लेपनस्थानोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । किन्तु अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार निर्लेपनस्थानोकी संख्या कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण है । अब प्रवाद्यमान उपदेशका अवलम्बन करके प्रत्येक जीवने अतीतकालमे जघन्य निर्लेपनस्थान से लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान तक एक-एक स्थान पर जो अनन्तानन्त वार किये हैं, उनमे प्रत्येक स्थानका अतीतकालसम्बन्धी समुदित निर्लेपनकाल यद्यपि अनन्तसमयप्रमाण है, तथापि उनमे परस्पर जो हीनाधिकता है, उसके बतलानेके लिए निर्लेपन किये गए समयप्रबद्धोके समुच्चयकालका अल्पबहुत्व कहते हैं चूर्णिस० - अतीतकालमे एक जीवके जघन्य निर्लेपनस्थानपर अवस्थित होकर निर्लेपित पूर्व अर्थात् पहले निर्लेपन किये गये समयप्रबद्धोका जो समुदित काल है, वह अनन्तप्रमाण होकरके भी वक्ष्यमाण कालोकी अपेक्षा सबसे कम है । समयोत्तर अर्थात् अनन्तरसमयवर्ती दूसरे निर्लेपनस्थानपर निर्लेपितपूर्व समयप्रवद्धोका समुदित काल विशेष अधिक है । ( तीसरे निर्लेपनस्थानपर विशेष अधिक है । इस प्रकार विशेष अधिकके क्रमसे बढ़ता हुआ वह समुदित काल ) पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित निर्लेपनस्थानोके व्यतीत होनेपर दुगुना हो जाता है । उक्त क्रमसे निर्लेपनस्थानोके असंख्यातवे भागपर कालसम्बन्धी यवमध्य प्राप्त होता है ।। ९६९ ९७२ ॥ अब इस यवमध्यसे अधस्तन और उपरितन नानागुणहानिशलाका आदिका प्रमाण कहते हैं ८३९ चूर्णिसू०[० - नाना दुगुण- हानिस्थानान्तर पल्योपमके अर्धच्छेदोके असंख्यातवे भाग । नाना गुणहानिस्थानान्तर अल्प हैं । एक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणित ॥९७३-९७५॥ अब अभव्यसिद्धो की अपेक्षा उपर्युक्त चार भाष्यगाथा ओमेसे प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं चूर्णि सू० [0- एक स्थितिविशेषमें एक समयप्रबद्धका शेप होता है, दो समय प्रवद्धोके भी शेप होते हैं, तीन समयप्रवद्धोके भी शेष होते हैं, इस प्रकार बढ़ते हुए उत्कर्पसे पल्यो - पमके असंख्यातवे भाग- प्रमित समयप्रवद्धोके शेष होते है । इस ही प्रकार भववद्धोके भी Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार अववद्धसेसाणि । ९७८. पडमाए गाहाए अत्थो समत्तो भवदि । ९७९. जवमझ कायव्वं, विस्सरिदं लिहिदु। शेप जानना चाहिए। इस प्रकार प्रथम भाप्यगाथाका अर्थ समाप्त हो जाता है । यहॉपर यवमध्यकी प्ररूपणा करना चाहिए । ( पहले क्षपकप्रायोग्यप्ररूपणाके अवसरमें ) हम लिखना भूल गये ॥९७६-९७९॥ विशेपार्थ-अभव्यसिद्धोंके योग्य की जानेवाली इस प्ररूपणामें प्रथम भाष्यगाथाकी विभापा करते हुए यवमध्यकी प्ररूपणा करना आवश्यक है। क्षपक-प्रायोग्यप्ररूपणामे भी इस यवमध्यप्ररूपणाका किया जाना आवश्यक था, पर चूर्णिकार कहते हैं, कि वहॉपर हम लिखना भूल गये, इसलिए यहॉपर उसकी सूचना कर रहे हैं। वह इस प्रकार जानना चाहिए-अतीतकालकी अपेक्षा एक जीवके एक स्थितिविशेषमे एक-एक रूपसे रहकर उदयको प्राप्त होकर निर्लेपित हुए जो समयप्रवद्ध-शेप है, ये अनन्त होकर भी वक्ष्यमाण समयप्रवद्धोकी अपेक्षा सबसे कम है। पुनः दो दोके रूपमें रहकर उदयको प्राप्त होकर निर्लेपित हुए जो समयप्रबद्ध-शेप है, वे विशेप अधिक है। तीन-तीनके रूपमे रहकर उदयको प्राप्त होकर निर्लेपित हुए जो समयप्रबद्ध-शेष हैं, वे विशेप अधिक हैं। इस प्रकार चार, पॉच आदिके क्रमसे बढ़कर पल्योपमका असंख्यातवॉ भाग प्राप्त होने तक एक स्थितिविशेषमें रहकर और उदयको प्राप्त होकर निर्लेपित हुए समयप्रबद्ध-शेष दुगुने होते हैं। पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित विशेष अधिक स्थान जानेपर उदयको प्राप्त होकर निर्लेपित होनेवाले समयप्रबद्धशेष दुगुने प्राप्त होते हैं। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित दुगुण वृद्धियोंके व्यतीत होनेपर समयप्रबद्ध-शेपोकी वृद्धिका यवमध्य प्राप्त होता है । उस यवमध्यसे ऊपर सर्वत्र विशेपहीनके क्रमसे स्थान प्राप्त होते हैं। समयप्रवद्ध-शेपोके ये विशेषहीन स्थान तब तक प्राप्त होते हुए चले जाते हैं, जब तक कि पल्योपमका उत्कृष्ट असंख्यातवॉ भाग न प्राप्त हो जाय । समयप्रवद्ध-शेपोकी यवमध्यप्ररूपणाके समान भववद्ध-शेपोकी भी यवमध्यप्ररूपणा करना चाहिए। कितने ही आचार्य इस यवमध्यप्ररूपणाका नाना स्थितिविशेषोको आश्रय लेकरके व्याख्यान करते है। उनका कहना है कि एक स्थितिविशेपमे शेषरूपसे रहकर अपवर्तनाके द्वारा उदयको प्राप्त होकर निर्लेपनभावको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्ध थोड़े है। दो स्थितिविशेषोमे शेषरूपसे रहकर अपवर्तनाके वशसे उदयको प्राप्त होकर निर्लेपित होनेवाले समयप्रवद्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेष अधिकके क्रमसे तीन, चार आदिको लेकर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित स्थितिविशेषोमें शेषरूपसे रहकर अपवर्तनाके वशसे उदयको प्राप्त कर निर्लेपनपर्यायको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धोकी शलाकाएँ दुगुनी होती हैं । इस प्रकार दुगुणवृद्धिरूप पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित स्थान जानेपर यवमध्य प्राप्त होता है। पुनः विशेष हानिका क्रम अन्तिम विकल्प प्राप्त होने तक चलता है। पर जयधवलाकार इस व्याख्यानको असमीचीन ठहराते है । उनका कहना है कि प्रथम भाष्यगाथा एकस्थितिविशेष-विषयक है, उस समय नानास्थिति-विषयक समयप्रबद्धशेषोकी प्ररूपणा Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०३ | चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८४१ ९८०. विदियाए भासगाहाए अत्थो जहावसरपत्तो। ९८१. तं जहा । ९८२. समयपबद्धसेसयमेक्किस्से द्विदीए होज्ज, दोसु तीसु वा, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जभागेसु । ९८३. णिल्लेवणहाणाणमसंखेज्जदिमागे समयपबद्धसेसयाणि । ९८४. समयपबद्धसेसयाणि एक्कम्मि द्विदिविसेसे जाणि ताणि थोवाणि । ९८५. दोसु हिदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । ९८६. तिसु द्विदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । ९८७. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे जवमझ । ९८८. णाणंतराणि थोवाणि । ९८९. एगंतरमसंखेजगुणं । करना असंगत है। हॉ, यह नानास्थितिविशेष-विषयक प्ररूपणा द्वितीय भाष्यगाथामें निबद्ध दृष्टिगोचर होती है, अतः वहॉपर की जा सकती है । इसलिए यहॉपर तो हमारे द्वारा कही गई एकस्थितिविशेष-विषयक यवमध्यप्ररूपणा ही करना चाहिए। चूर्णिसू०-अब अभव्यसिद्धोंकी अपेक्षा दूसरी भाष्यगाथाके अर्थका अवसर प्राप्त हुआ है। वह इस प्रकार है-समयप्रबद्ध-शेष एक स्थितिविशेषमे हो सकता है, दो स्थितिविशेषोंमें भी हो सकता है, तीन स्थितिविशेषोमे भी हो सकता है, इस प्रकार एकएकके क्रमसे बढ़ते हुए उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यात भागप्रमित स्थितिविशेषोमें हो सकता है ॥९८०-९८२॥ विशेषार्थ-यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि भव्यसिद्धोंके उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्वप्रमित स्थितियोमें समयप्रबद्ध-शेष पाये जाते हैं और अभव्यसिद्धोके उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित स्थितियोंमे समयप्रबद्ध-शेष पाये जाते हैं। एक वात यह भी जानने योग्य है कि यह सूत्र एकसमयप्रबद्ध-शेषकी प्रधानतासे कहा गया है, क्योकि नानासमयप्रबद्ध-शेषोकी प्रधानता करनेपर तो जघन्यतः एक स्थितिमें उनका रहना असंभव है। ___ अब इन पल्योपमके असंख्यात-भागप्रमित स्थितिविशेषोका निर्लेपनस्थानोकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहते है चूर्णिसू०-निर्लेपनस्थानोका जितना प्रमाण है, उनके असंख्यातवे भागमे समयप्रबद्ध-शेष पाये जाते हैं। (इसका अभिप्राय यह है कि नाना समयप्रबद्ध-शेष और एक समयप्रवद्ध-शेषसे अविरहित सर्व स्थितिविशेषोका प्रमाण निर्लेपनस्थानोके असंख्यातवे भागप्रमाण है, इससे अधिक नही है। ) जो समयप्रबद्ध-शेष एक स्थितिविशेषमे पाये जाते हैं, वे सबसे कम हैं। दो स्थितिविशेषोमे पाये जानेवाले समयप्रबद्ध-शेष विशेष अधिक हैं । तीन स्थितिविशेषोंमें पाये जानेवाले समयप्रबद्ध-शेष विशेष अधिक हैं । इस प्रकार विशेष अधिकके क्रमसे बढ़ते हुए पल्योपमके असंख्यातवे भागमे समयप्रवद्ध-शेपोंका यवमध्य प्राप्त होता है। यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम भागमे नाना गुणहानिस्थानान्तर अल्प हैं । ( क्योकि, उनका प्रमाण पल्योपमके अर्धच्छेदोके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणित हैं । (क्योकि, उनका प्रमाण असंख्यात पल्योपमोके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। ) इस समय १०६ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ९९०. एवं भवबद्धसेसयाणि । ९९१ विदियाए गाहाए अत्थो समत्तो भवदि । ९९२. तदिया गाहाए अत्थो । ९९३ . असामण्णाओ द्विदीओ एक्का वा, दोवा, तिष्णि वा; एवमणुवद्धाओ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ९९४. एवं तदिया गाहाए अत्थो समत्तो । ९९५ एत्तो चउत्थीए गाहाए अत्थो । ९९६. सामण्णद्विदीओ एकंत रिदाओ थोवाओ । ९९७ दुअंतरिदा विसेसाहिया । ९९८ एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे [ जवम ] | ९९९ णाणागुणहाणि सलागाणि थोवाणि । १०००, एक्कंवरमसंखेज्जगुणं । प्रबद्ध-शेपकी प्ररूपणाके समान भवबद्ध-शेपोकी प्ररूपणा भी करना चाहिए । इस प्रकार दूसरी भायगाथाका अर्थ समाप्त होता है || ९८३-९९१॥ चूर्णिस् ० ० - अब तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ अभव्यसिद्धकी अपेक्षासे करते हैं । असामान्य स्थितियाँ एक, दो, तीन आदिके अनुक्रमसे बढ़ती हुई अनुबद्ध-परम्परारूपमे उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवे भाग होती है । इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त होता है ।। ९९२-९९४ विशेषार्थ - अ - असामान्य स्थिति और सामान्य स्थितिका स्वरूप पहले बताया जा चुका है । उनमे से इस गाथामे असामान्य स्थितियो के प्रमाणको बतलाया गया है । उसे इस प्रकार जानना चाहिए - समयप्रवद्ध और भववद्ध-शेपकी अपेक्षा जघन्यसे सामान्यस्थितियोंसे निरुद्ध एक भी असामान्य स्थिति पाई जाती है, दो भी पाई जाती है, तीन भी पाई जाती है । इस प्रकार एक-एकके क्रमसे निरन्तर बढ़ते हुए उत्कर्ष से पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र असामान्य स्थितियाँ अभव्यसिद्ध जीवोके सामान्य स्थितियो से परस्परमे सम्बद्ध पाई जाती है । तथा जिस प्रकार क्षपक- प्रायोग्यप्ररूपणामे असामान्यस्थितियोका अल्पबहुत्व यवमध्य-प्ररूपणा ग -गर्भित बतलाया गया है, उसी प्रकार यहाँ अभव्यसिद्धिक जीवोकी अपेक्षासे भी उसका प्ररूपण करना चाहिए । केवल इतनी घात विशेष ज्ञातव्य है कि यहॉपर पल्यो - पमके असंख्यातवे भागमात्र असामान्यस्थितिकी शलाकाओसे दुगुण वृद्धि होती है और क्षपक-प्रायोग्यप्ररूपणामे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अध्वान आगे जाकर दुगुण वृद्धि होती है । वहॉपर यवमध्यसे अधस्तन और उपरितन अध्वानका प्रमाण आवलीके असंख्यातवे भागमात्र है, किन्तु यहॉपर उसका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवे भागमित है । चूर्णि सू० ० - अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाका अर्थ कहते हैं । यवमध्यके उभयपार्श्वमे एकान्तरित सामान्य स्थितियों अल्प हैं । दो- अन्तरित सामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । इस क्रमसे बढ़ते हुए जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागपर यवमध्य प्राप्त होता है । यहाँपर नाना गुणहानिशलाकाऍ अल्प हैं और एकान्तर असंख्यात - गुणित है ॥ ९९५-१०००॥ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०३ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया-निरूपण ८४३ १००१. एदमक्खवगस्स णादव्वं । १००२. खवगस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागो अंतरं । १००३. इमस्स पुण. सामण्णाणं द्विदीणमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । विशेषार्थ - इस चौथी भाष्यगाथामे असामान्यस्थितियों से अन्तरित सामान्यस्थितियोंकी संख्याका निर्णय किया गया है । यवमध्यके दोनो ओर एक-एक असामान्य स्थिति से अन्तरित अर्थात् अन्तर या विभागको प्राप्त होनेवाली जितनी सामान्यस्थितियाँ पाई जाती हैं, उन सबके समुदायको एक शलाका जानना चाहिए । पुनरपि इसी प्रकार दोनो ही पार्श्वभागोमे एक-एक असामान्य स्थिति से अन्तरित जितनी सामान्यस्थितियाँ पाई नावें, उनकी दूसरी शलाका ग्रहण करना चाहिए । पुनरपि उभय पार्श्वमे एक - एक असामान्यस्थितिसे अन्तरित जितनी सामान्यस्थितियाँ पाई जावे, उन सबके समूहकी तीसरी शलाका ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार दोनो ओर आगे-आगे बढ़ने पर एक-एक असामान्यस्थिति से अन्तरित सामान्यस्थितियोकी समस्त शलाकाऍ यद्यपि पत्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण होती है, तथापि वे उपरि-वक्ष्यमाण विकल्पोकी अपेक्षा सबसे कम होती हैं । 'दो - अन्तरित सामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक हैं, ' इसका अभिप्राय यह है कि यवमध्यके उभय पार्श्व - भागों में दो-दो असामान्य स्थितियो से अन्तरको प्राप्त होकर पाई जानेवाली सामान्यस्थितियोकी शलाकाऍ भी यद्यपि पल्योपमके असंख्यातवें भाग है, तथापि एकान्तरित शलाकाओकी अपेक्षा विशेष अधिक है । यहाँ विशेषका प्रमाण पत्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित एक भागप्रमाण जानना चाहिए । पुनः तीन-तीन असामान्यस्थितियो से अन्तरित सामान्य स्थितिशलाकाओका प्रमाण विशेष अधिक है । पुनः चार-चार असामान्यस्थितियोसे अन्तरित सामान्य स्थितिशलाकाओका प्रमाण विशेष अधिक है । इस प्रकार विशेष अधिक के क्रमसे बढ़ती हुई पाँच-पाँच, छह-छह आदि असामान्यस्थितियो से अन्तरित सामान्य स्थितिशलाकाओका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भाग आगे जानेपर दुगुना हो जाता है । तदनन्तर इसी क्रमसे असंख्यात दुगुण- वृद्धियोके व्यतीत होनेपर यवमध्य उत्पन्न होता है । इस यवमध्य से ऊपर और नीचे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही नाना गुणवृद्धि-हानिरूप शलाकाएँ पाई जाती हैं और इनसे एक गुणवृद्धि-हानिरूप स्थानान्तर असंख्यातगुणित होता है । जयधवलाकार इसी प्रकारसे सामान्यस्थितियोसे अन्तरित असामान्य स्थितियोंकी यवमध्यपप्ररूपणाका भी संकेत इसी गाथाके द्वारा कर रहे है । चूर्णिसू० - यह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सामान्य स्थितियोका उत्कृष्ट अन्तर अभव्यसिद्धो के योग्य स्थिति में वर्तमान भव्य अक्षपक जीवका जानना चाहिए । क्षपकके सामान्यस्थितियोका उत्कृष्ट अन्तर आवली के असंख्यातवें भागप्रमाण है । किन्तु इस उपर्युक्त अक्षपकके सामान्य स्थितियोका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥१००१-१००३॥ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुन्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १००४. जहा समयबद्ध सेसयाणि, तहा भवबद्धसेसाणि कादव्वाणि । १००५. एवं चउत्थीए गाहाए अत्थो समत्तो भवदि । १००६. अट्ठमीए मूलगाहाए विहासा समत्ता भवदि । १००७. इमा अण्णा अभवसिद्धियपाओग्गे परूवणा । १००८. तं जहा । १००९. भववद्धाणं णिल्लेवणङ्काणं जहण्णगं समयपत्रद्धस्स पिल्लेवणडाणाणं जहण्णयादो असंखेज्जाओ द्विदीओ अब्भुस्सरिदूण | ૮૩૩ चूर्णिसू० - जिस प्रकार से समयप्रबद्ध-शेपोकी यह प्ररूपणा की है, इसी प्रकार से भववद्धशेषोंकी भी सामान्य असामान्य स्थितियोंके अन्तर आदिकी प्ररूपणा करनी चाहिए । इस प्रकार चौथी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त होता है। और उसके साथ ही आठवीं मूलगाथा - की विभाषा भी समाप्त होती है ॥१००४ -१००६॥ है चूर्णिसू ० - अव अभव्यसिद्ध जीवोंके योग्य विपयमे यह अन्य प्ररूपणा की जाती । वह इस प्रकार है- भववद्ध समयप्रवद्धों का जघन्य निर्लेपनस्थान प्रथम समय-वद्ध समयप्रवद्धके जघन्य निर्लेपनस्थान से असंख्यात स्थितियाँ आगे जाकर प्राप्त होता है ॥१००७ - १००९ ॥ विशेपार्थ- पहले यह बताया जा चुका है कि अभव्यसिद्ध जीवोके योग्य निर्लेपनस्थानोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । अब यह बताया जाता है कि जिस समय समयप्रवद्धका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है, उस समय भवबद्धका भी जघन्य निर्लेपनस्थान नही होता है किन्तु उससे असंख्यात स्थितियाँ आगे जाकर होता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है— अन्तर्मुहूर्तकी आयुवाले किसी सम्मूच्छिम मनुष्य या तियंचके उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक प्रति समय वॅधनेवाले समयप्रबद्धोके समुदायको भववद्ध समयप्रबद्ध कहते हैं । इन भवबद्ध समयप्रवद्धोका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, तत्प्रमाण है । उक्त जीवके उस भवमें जन्म लेनेके प्रथम समयमे जो सर्वजघन्य कर्म- प्रदेशपिंड वंधा, वह क्रमशः कर्मस्थितिके असंख्यात भागों में आगमाविरोधसे निजीर्ण होता हुआ जिस समयमें निःशेषरूपसे गलित होता है, वह प्रथम समय-वद्ध समयप्रबद्धका जघन्य निर्लेपनस्थान कहलाता है । उस समय भववद्ध समयप्रवद्धोका प्रमाण एक समय प्रवद्ध कम अन्तर्मुहूर्त प्रमित भवबद्ध समयप्रवद्ध प्रमाण है । तदनन्तर प्रथम समयमे बँधे हुए समयप्रवद्धके निर्लेपित होनेपर पुनः शेष समयोन अन्तर्मुहूर्तमात्र समयप्रबंद्ध जिस समय में निःशेषरूपसे गलकर निर्लेपित हो जायेंगे, उस समयमे भववद्धका जघन्य निर्लेपनस्थान होगा । अतएव दोनोके जघन्य निर्लेपनस्थान एक साथ नहीं होते हैं । इसलिए यह निष्कर्ष निकला १ तिरिक्खस्स मणुस्सस्स वा अतोमुहुत्ता उगभवे उप्पजिदूण बंधमाणस्स जाव तमाउअं समप्पइ ताव तम्मि भवम्मि बद्धसमयपत्रद्धा अतोमृहुत्तमेत्ता भवति । तदो एत्तियमेत्तसमयपवद्वाण समूहमेकदो कादून गहिदे एग भववइयं णाम भण्णदे | जयध० Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०३] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८४५ १०१०. तदो जवमझं कायव्यं । १०११. जम्हि चेव समयपबद्धणिल्लेवणट्ठाणाणं जवमझ, तम्हि चेव भवबद्धणिल्लेवणहाणाणं जवमझ । १०१२. अदीदे काले जे समयपबद्धा एक्केण पदेसग्गेण णिल्लेविदा ते थोवा । १०१३. वेहिं पदेसेहिं विसेसाहिया । १०१४. एवमणतरोवणिधाए अणंताणि हाणाणि विसेसाहियाणि । १०१५. ठाणाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागे जबमझ । १०१६. गाणंतरं थोवं । १०१७. एगंतरमणंतगुणं । १०१८. अंतराणि अंतरद्वदाए कि समयप्रबद्धके जघन्य निर्लेपनस्थानसे ऊपर नियमतः अन्तर्मुहूर्तमान स्थितियोके जानेपर भवबद्धका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है, ऐसा निश्चय करना चाहिए । चूर्णिसू०-तदनन्तर यवमध्यप्ररूपणा करना चाहिए । जिस ही समयमे समयप्रबद्धके निर्लेपनस्थानोंका यवमध्य प्राप्त होता है, उस ही समयमे भववद्धके निर्लेपनस्थानोका यवमध्य प्राप्त होता है ।।१०१०-१०११॥ विशेषार्थ-इस यवमध्यप्ररूपणाको इस प्रकार जानना चाहिए- जघन्य निर्लेपनस्थानसे लगाकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान तक निर्लेपित हुए समयप्रबद्ध और भवबद्धोकी अतीत काल-विषयक शलाकाओंको ग्रहण करके यह यवमध्यप्ररूपणा की गई है। उसका स्पष्टीकरण यह है कि जघन्य निर्लेपनस्थान पर पूर्वमे निर्लेपित हुए समयप्रबद्ध और भवबद्ध सबसे कम हैं । समयोत्तर निर्लेपनस्थानपर विशेष अधिक हैं। द्विसमयोत्तर निर्लेपनस्थानपर विशेष अधिक हैं । इस प्रकार निरन्तर समय-समय प्रति विशेष अधिकके क्रमसे बढ़ते हुए पल्योपमके असंख्यातवें भाग आगे जानेपर दुगुनी वृद्धि हो जाती है। इन दुगुण वृद्धिरूप भी स्थानोंके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित आगे जाकर निर्लेपनस्थानोके असंख्यातवें भागके प्राप्त होनेपर यवमध्य प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विशेष हीन क्रमसे उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानके प्राप्त होने तक इसी प्रकारकी प्ररूपणा करना चाहिए । यहाँ इतना विशेप जानना चाहिए कि सर्व निर्लेपनस्थानोंपर पूर्वमे निर्लेपित हुए समयप्रबद्ध और भववद्धोका प्रमाण अनन्त है; क्योंकि अतीतकालकी अपेक्षा उनका अनन्त होना स्वाभाविक ही है । __चूर्णिसू०-अतीतकालमें जो समयप्रबद्ध एक-एक प्रदेशाग्ररूपसे निर्लेपित हुए हैं, वे सबसे कम हैं। जो समयप्रबद्ध दो-दो प्रदेशाग्ररूपसे निर्लेपित हुए हैं, वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार अनन्तरोपनिधारूप श्रेणीकी अपेक्षा अनन्त स्थान विशेष-विशेष अधिक होते हैं। इन समयप्रबद्धशेषस्थानोके पल्योपमके असंख्यातवे भागके प्रतिभागमे यवमध्यस्थान प्राप्त होता है। यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम नानान्तर अर्थात् समस्त नानागुणहानिशलाकाएँ अल्प है। एकान्तर अर्थात् एकगुणहानिस्थानकी शलाकाएँ अनन्तगुणित हैं । क्योकि अन्तरके लिए अर्थात् एक-एक गुणहानिस्थानका अन्तर निकालने के लिए अवस्थापित अन्तर अर्थात् नानागुणहानिशलाकाओका प्रमाण पल्योपमके अर्धच्छेदोके भी असंख्यातवें Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिभागो । १०१९. णाणंतराणि थोवाणि । १०२०. एक्कंतरमणंतगुणं । ८४६ १०२१. खवगस्स वा अक्खवगस्स वा समयपवद्धाणं वा भववद्धाणं वा अणुसमयणिल्लेवण कालो' एगसमइओ बहुगो । १०२२. दुसमइओ विसेसहीणो । १०२३. एवं गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणहीणो । १०२४. उक्कस्सओ वि अणुसमयणिल्लेवणकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागां । १०२५. अक्खवगस्स एगसमइएण अंतरेण पिल्लेविदा समयपवद्धा वा भवबद्धा वा थोथा । १०२६. दुसमएण अंतरेण णिल्लेविदा विसेसाहिया । १०२७ एवं गंतूण पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागे दुगुणा । १०२८. डाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमन्यं । १०२९. उक्कस्सयं पि पिल्लेवणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । १०३०. एक्केण समरण पिल्लेविज्जति समयपवद्धा वा भववद्धा वा एक्को भाग है । अतएव नानागुणहानिस्थानान्तर अल्प हैं और एकगुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणित हैं । ( इसी प्रकार से भववद्धशेपोंकी भी यवमध्यप्ररूपणा जानना चाहिए | ) ||१०१२-१०२० ॥ अव भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीवोके योग्य जो समान प्ररूपणा है, निरूपण करते है उसका चूर्णिसू० - क्षपकके अथवा अक्षपकके समयप्रवद्धोंका अथवा भववद्धोका एकसमयिक अनुसमयनिर्लेपनकाल बहुत है । द्विसमयिक अनुसमयनिर्लेपनकाल विशेष हीन है । इस प्रकार विशेष हीन क्रमसे जाकर अनुसमयनिर्लेपनकाल आवलीके असंख्यातवें भागपर दुगुण हीन है । उत्कृष्ट भी अनुसमयनिर्लेपनकाल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ॥ १०२१-१०२४॥ ra एकको आदि लेकर एकोत्तरके क्रमसे परिवर्धित अनिर्लेपित स्थितियोके द्वारा अन्तरित निर्लेपनस्थितियोका उदयकी अपेक्षा निर्लेपित - पूर्व भववद्ध और समयप्रबद्धोंका अतीतकालविषयक अल्पवहुत्व अक्षपककी दृष्टिसे कहते हैं चूर्णिसू० - अक्षपकके एकसमयिक अन्तरसे निर्लेपित समयप्रबद्ध और भववद्ध अल्प हैं । द्विसमयिक अन्तरसे निर्लेपित समयप्रवद्ध और भववद्ध विशेष अधिक हैं । इस प्रकार विशेष अधिकके क्रमसे आगे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागपर उनका प्रमाण दुगुना होता है । दुगुणवृद्धिरूप स्थानोंको पल्योपमके असंख्यातवे भागपर यवमध्य प्राप्त होता है । उत्कृष्ट भी निर्लेपन - अन्तर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है ।। १०२५ - १०२९॥ अव आचार्य एक समय में निर्लेप्यमान समयबद्ध और भवबद्धोका प्रमाण बतलानेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिसू ० - एक समयके द्वारा जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध निर्लेपित किये जाते हैं, १ अणुसमयणिल्लेवणकालो णाम समयपबद्धाण वा भवपवद्वाण वा अणु संततं णिल्लेवणकालो । जयघ० Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०३] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८४७ वा दो वा तिणि वा, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । १०३१. एदेण वि जवमझं । १०३२ एक्कक्केण णिल्लेविज्जति ते थोवा । १०३३. दोणि णिल्लेविज्जति विसेसाहिया । १०३४ तिण्णि णिल्लेविज्जति विसेसाहिया । १०३५. एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागे दुगुणा । १०३६.णाणंतराणि थोवाणि । १०३७, एक्कंतरछेदणाणि वि असंखेजगुणाणि । १०३८. अप्पाबहुअं। सव्वत्थोवमणुसमयणिल्लेवणकंडयमुक्कस्सयं । १०३९. जे एगसमएण णिल्लेविजंति भवबद्धा ते असंखेज्जगुणा । १०४०. समयपवद्धा एगसमएण णिल्लेविज्जंति असंखेज्जगुणा । १०४१. समयपबद्धसेसएण विरहिदाओ णिरंवे एक भी होते हैं, दो भी होते हैं, तीन भी होते है । (इस प्रकार एक-एक कर बढ़ते हुए) उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक होते हैं। ( यह प्ररूपणा क्षपक और अक्षपक . दोनोके लिए समान जानना चाहिए।) इस प्ररूपणामे भी यवमध्यरचना होती है । ( वह इस प्रकार है-) जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध एक-एकके रूपसे निर्लेपित किये गये है, वे सबसे कम है। जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध दो-दोके रूपसे निर्लेपित किये गए है, वे विशेष अधिक है। जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध तीन-तीनके रूपसे निर्लेपित किये गये है, वे विशेष अधिक हैं । इस प्रकार विशेष अधिककी वृद्धिसे निर्लेपित किये गये समयप्रवद्धो या भववद्धोका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित काल आगे जानेपर दुगुना हो जाता है ॥१०३०-१०३५॥ विशेषार्थ-इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित दुगुण-वृद्धिरूप स्थानोंके व्यतीत होनेपर यवमध्य प्राप्त होता है। उससे ऊपर विशेष हीनके क्रमसे असंख्यात गुणहानिरूप स्थान जानेपर प्रकृत यवमध्यप्ररूपणाका चरम विकल्प प्राप्त होता है। यवमध्यके अधस्तन सकल अध्वानोसे उपरिम सकल अध्वान असंख्यातगुणित होते है। तथा अधस्तन दुगुणवृद्धिशलाकाओसे उपरिम दुगुणवृद्धिशलाकाएँ भी असंख्यातगुणी होती है, इतना विशेष जानना चाहिए। ___ अब इस यवमध्यप्ररूपणा-सम्बन्धी नानागुणहानिशलाकाओका और एकगुणहानिस्थानान्तरका प्रमाण बतलाते हैं चूर्णिसू०-नानान्तर अर्थात् नानागुणहानिशलाकाएँ (पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमित होकरके भी वक्ष्यमाणपदकी अपेक्षा ) अल्प हैं। इनसे एकान्तरच्छेद अर्थात् एक गुणहानिस्थानान्तरकी अर्धच्छेद-शलाकाएँ असंख्यातगुणित है ॥१०३६-१०३७।। ___चूर्णिस०-अब उपर्युक्त समस्त पदोका अल्पबहुत्व कहते है-उत्कृष्ट अनुसमय निर्लेपनकाण्डक अर्थात् प्रतिसमय निर्लेपित होनेवाले समयप्रवद्धो या भवबद्धोका उत्कृष्ट निर्लेपनकाल ( आवलीके असंख्यातवें भागप्रमित होकरके भी वक्ष्यमाण पदोंकी अपेक्षा ) सबसे कम है । जो भववद्ध एक समयके द्वारा निर्लेपित किये जाते हैं वे असंख्यातगुणित Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार तराओ द्विदीओ असंखेज्जगुणाओ। १०४२. पलिदोवमवग्गमूलपसंखेज्जगुणं । १०४३. णिसे गगुणहाणिहाणंतरमसंखेज्जगुणं । १०४४. भववद्धाणं पिल्लेवणहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । १०४५. समयपबद्धाणं णिल्लेवणहाणाणि विसेसाहियाणि । १०४६. समयपवद्धस्स कम्मद्विदीए अंतो अणुसमय-अवेदगकालो असंखेज्जगुणो। १०४७. समयपवद्धस्स कम्महिदीए अंतो अणुसमयवेदगकालो असंखेज्जगुणो । १०४८. सब्बो अवेदगकालो असंखेज्जगुणो । १०४९ सयो वेदगकालो असंखेज्जगुणो । १०५०. कम्महिदी विसेसाहिया। १०५१. णवमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । (१५१) किट्टीकदम्मि कम्मे द्विदि-अणुभागेसु केलु सेसाणि । कम्माणि घुव्यबद्धाणि बज्झमाणाणुदिण्णाणि ॥२०४॥ १०५२. एदिस्से दो भासगाहाओ । १०५३. तासि समुक्त्तिणा । है । (क्योकि उनका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । ) जो समयप्रवद्ध एक समयके द्वारा निर्लेपित किये जाते हैं, वे असंख्यातगुणित हैं। समयप्रबद्ध-शेषसे विरहित ( उपलब्ध होनेवाली ) निरन्तर स्थितियाँ असंख्यातगुणित हैं। पल्योपमका प्रथम वर्गमूल असंख्यातगुणित है। निषेकोंका गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणित है। (क्योकि, वह असंख्यात पल्योपम-प्रथमवर्गमूल प्रमाण है । ) भववद्धोके निर्लेपनस्थान असंख्यातगुणित हैं। समयप्रबद्धोंके निर्लेपनस्थान विशेप अधिक है। (इस विशेप अधिकका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है, क्योकि समयप्रबद्धोके जघन्य निर्लेपनस्थानसे ऊपर अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थितियोके पश्चात ही भववद्धोका जघन्य निर्लपनस्थान प्राप्त होता है। समयप्रबद्धकी कर्मस्थितिके भीतर अनुसमय अवेदककाल असंख्यातगुणित है। समयप्रवद्धकी कर्मस्थितिके भीतर अनुसमय वेदककाल असंख्यातगुणित है। सर्व अवेदककाल असंख्यातगुणित है। इससे सर्व वेदककाल असंख्यातगुणित है । ( क्योकि वह कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण है।) सर्ववेदककालसे कर्मस्थिति असंख्यातगुणित है ।।१०३८-१०५०॥ चूर्णिसू०-अब नवमी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१०५१॥ मोहनीय कर्मके निरवशेष अनुभागसत्कर्मके कृष्टिकरण करनेपर अर्थात् अकृष्टिरूपसे अवस्थित अनुभागको कृष्टिरूपसे परिणमित कर देने पर कृष्टिवेदनके प्रथम समयमें वर्तमान जीवके पूर्व बद्ध ज्ञानावरणीयादि कर्म किन स्थितियोंमें और किन अनुभागोंमें शेष अर्थात् अवशिष्ट रूपसे पाये जाते हैं ? तथा वध्यमान अर्थात् वर्तमान समयमें बँधनेवाले और उदीर्ण अर्थात् वर्तमानमें उदय आनेवाले कर्म किन-किन स्थितियों और अनुभागोंमें पाये जाते हैं ? ॥२०४॥ चूर्णिसू०-इस प्रश्नात्मक मूलगाथाके अर्थकी विभाषा करनेवाली दो भाष्यगाथाएँ हैं। अव उनकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१०५२-१०५३॥ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण (१५२) किट्टीकदम्मि कम्मे णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वस्सेसु असंखेज्जेसु सेसगा होति संखेजा ॥२०५।। । १०५४. विहासा । १०५५. किट्टीकरणे णिट्ठिदे किट्टीणं पडमसमयवेदगस्स णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । १०५६. मोहणीयस्स डिदिसंतकम्ममट्ट वस्साणि । १०५७. तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १०५८. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१५३) किट्टीकदमि कम्म सादं सुहणाममुचगोदं च । बंधदि च सदसहस्से द्विदिमणुभागेसुदुकस्सं ॥२०६॥ १०५९. विहासा । १०६०. किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । १०६१. णाया-गोद-वेदणीयाणं तिण्हं चेव घादिकम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १०६२. णामा-गोद-वेदणीयाणमणुभागबंधो तस्समयउक्कस्सगो। मोहनीयकर्मके कृष्टिकरण कर देने पर नाम, गोत्र और वेदनीय ये तीन कर्म असंख्यात वर्षावाले स्थितिसत्त्वोंमें पाये जाते हैं। शेष चार घातिया कर्म संख्यात वर्षप्रमित स्थितिसत्त्वरूप पाये जाते हैं ॥२०५॥ चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-कृष्टिकरणके निष्पन्न होनेपर प्रथम समयमें कृष्टियोका वेदन करनेवाले जीवके नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण है । मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व आठ वर्षप्रमाण है । शेप तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण है ॥१०५४-१०५७॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है।।१०५८॥ मोहनीयकर्मके कृष्टिकरण कर देनेपर वह कृप्टिवेदक क्षपक सातावेदनीय, यशःकीर्तिनामक शुभनायकर्म और उच्चगोत्र ये तीन अवातिया कर्म संख्यात शतसहस्र वर्पप्रमाणमें स्थितिको बाँधता है। तथा वह कृष्टिवेदक इन तीनों कर्मोंके स्वयोग्य उत्कृष्ट अनुभागको वाँधता है ।।२०६॥ चूर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभापा इस प्रकार है-कृष्टियोके प्रथम समयमें वेदन करनेवाले क्षपकके चारो संज्वलनकपायोका स्थितिवन्ध चार मास है। नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोंका तथा शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है । नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनो अघातिया कर्मोंका अनुभागबन्ध तत्समय-उत्कृष्ट है, अर्थात् उस प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदक क्षपकके यथायोग्य जितना उत्कृष्ट अनुभागवन्ध होना चाहिए, उतना होता है ॥१०५९-१०६२॥ १०७ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १०६३. एत्तो ताब दो मूलगाहाओ थवणिज्जाओ । १०६४. किट्टीवेद गस्स ताव परूवणा कायव्वा । १०६५ तं जहा । १०६६. किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं द्विदिसंतकम्ममट्ठे वस्साणि । १०६७. तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १०६८. णामा- गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १०६९. संजलणाणं द्विदिबंधो चत्तारि मासा | १०७०. सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि | १०७१. किट्टीणं पढमसमयवेदगप्पहूडि मोहणीयस्स अणुभागाणमणुसमयोवट्टणा । १०७२. पढमसमय किट्टी वेगस्स कोह किट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी । १०७३. बंधे उक्कस्सिया अनंतगुणहीणा । १०७४ विदियसमये उदये उक्कस्सिया अनंतचूर्णिसू० ० - अब इससे आगे अर्थात् नवमी मूलगाथाके पश्चात् क्रमागत एवं कथन करने योग्य दो मूलगाथाएँ स्थापनीय हैं, अर्थात् उनकी समुत्कीर्तना स्थगित की जाती है । ( क्योंकि, उनका अर्थ सरलता से समझने के लिए कुछ अन्य कथन आवश्यक है | ) अतएव पहले कृष्टिवेदककी प्ररूपणा करनी चाहिए । वह इस प्रकार है - कृष्टियोके प्रथम समयमें वेदन करनेवाले क्षपकके चारों संज्वलन कपायोंका स्थितिसत्त्व आठ वर्प है । शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातसहस्र वर्ष है । नाम, गोत्र और वेदनीय, इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्र वर्ष है । चारों संज्वलनोका स्थितिबन्ध चार मास है । शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है ॥ १०६३- १०७०॥ 1 चूर्णिसू० - कृष्टियों के प्रथमसमयवर्ती वेदक होनेके कालसे लेकर कृष्टिवेदक क्षपकके मोहनीय कर्मके अनुभागोकी प्रतिसमय अपवर्तना होती है ॥ १०७१ ॥ विशेषार्थ - इससे पूर्व अर्थात् अश्वकर्णकरणकालमें और कृष्टिकरणकालमें अन्तमुहूर्तमात्र उत्कीर्णनाकालप्रतिबद्ध अनुभागघात संज्वलनप्रकृतियोका अश्वकर्णकरण के आकार से हो रहा था, किन्तु वह इस समय अर्थात् कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर आगे प्रति समय अनन्तगुणहानिरूपसे प्रवृत्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि कृष्टिकरणकालमें मोहनीय के चारों संज्वलनकषायोंका जो अनुभाग संग्रहकृष्टिके रूपसे बारह भेदोमें विभक्त किया था, उसकी एक-एक संग्रह-कृष्टिके अग्रकृष्टिसे लगाकर असंख्यातवें भाग समयप्रबद्धो के अनुभागको छोड़कर शेष अनुभागकी समय-समय में अनन्तगुणहानिके रूपमे अपवर्तना होने लगती है । किन्तु ज्ञानावरणादि शेष कर्मोंका पूर्वोक्त क्रमसे ही अन्तर्मुहूर्त प्रमित अनुभागघात होता है । तथा उसी पूर्वोक्त क्रमसे ही सभी कर्मोंका स्थितिघात जारी रहता है, उसमें कोई भेद नहीं पड़ता है । चूर्णिसू० - प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदकके अनन्त मध्यम कृष्टियोमेंसे जो क्रोधकृष्टि उदय में उत्कृष्ट अर्थात् सर्वोपरिमरूपसे प्रवेश कर रही है वह तीव्र अनुभागवाली है । परन्तु बन्धको प्राप्त होनेवाली उत्कृष्ट क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है । द्वितीय समयमें उदयमें प्रवेश करनेवाली उत्कृष्ट क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है, तथा बन्धको प्राप्त ८५० Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६ ] चारित्रमोहक्षपक - कृष्टिवेदकक्रिया निरूपण ८५१ गुणहीणा । १०७५. बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा । १०७६. एवं सव्विस्से किट्टवेगा । १०७७, परमसमये बंधे जहणिया किट्टी तिव्वाणुभागा । १०७८. उदये जहणिया किट्टी अनंतगुणहीणा । १०७९. विदियसमये बंधा जहण्णिया किट्टी अणंतगुणहीणा । १०८०. उदये जहण्णिया अनंतगुणहीणा । १०८१. एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । १०८२. समये समये णिव्वग्गणाओ जहण्णियाओ चिय । १०८३. एसा कोही परूवणा । १०८४. किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स माणस्स पडमाए संगहकिट्टीए किट्टीणमसंखेज्जा भागा वज्यंति । १०८५. सेसाओ संगह किट्टीओ ण बज्झति । १०८६. एवं मायाए । १०८७. एवं लोभस्स वि । होनेवाली उत्कृष्ट क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है । इसी प्रकार अर्थात् जिस प्रकारसे प्रथम और द्वितीय समय में बन्ध और उदयकी अपेक्षा क्रोधकृष्टिका अल्पबहुत्वरूपसे अनुभाग कहा है, उसी प्रकार सर्वं कृष्टि वेदककालमें कृष्टियोंके अनुभागका हीनाधिक क्रम जानना चाहिए || १०७२-१०७६॥ अब बध्यमान तथा उदयको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोका अनुभागसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैं— चूर्णिसू० -- प्रथम समय में बन्धमे अर्थात् बध्यमानकालमे बॅधनेवाली जघन्य क्रोधकृष्टि तीव्र अनुभागवाली है और उदयमें प्रवेश करनेवाली जघन्य क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है । द्वितीय समय में बध्यमान जघन्य क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है और उदयमे प्रवेश करनेवाली जघन्य क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है । इसी प्रकार सम्पूर्ण कृष्टिवेदककालमें बन्ध और उदयकी अपेक्षा जघन्य कृष्टियोका अनुभागसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए । समय- समयमे अर्थात् कृष्टिवेदनकालमें प्रतिसमय जघन्य भी निर्वर्गणाएँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली होती हैं । ( बध्यमान और उदीयमान कृष्टियोंके अनन्तगुणित हानिके रूपसे प्राप्त होनेवाले अपसरण विकल्पोंको निर्वर्गणा कहते हैं ।) यह सब संज्वलनक्रोधसम्बन्धी प्रथम संग्रहकृष्टिकी जघन्य-उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा प्ररूपणा की गई है ॥ १०७७-१०८३॥ चूर्णिसू० - कृष्टियोका प्रथम समयमें वेदन करनेवाले क्षपकके संज्वलनमानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें कृष्टियोंके असंख्यात बहुभाग बँधते हैं। शेष संग्रहकृष्टियाँ नहीं बँधती हैं । इसी प्रकार संज्वलनमाया और संज्वलनलोभकी भी अर्थात् प्रथम संग्रहकृष्टिमें कृष्टियोके असंख्यात बहुभाग बँधते हैं नहीं बँधती हैं ।। १०८४-१०८७॥ प्ररूपणा जानना चाहिए, और शेष संग्रहकृष्टियाँ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ कलाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार . १०८८. किट्टीणं परमसमयवेदगो बारसण्हं पि संगहकिट्टीणमग्गकिट्टियादि कादृण एक्कक्किस्से संगहकिट्टीए असंखेज्जदिभागं विणासेदि । १०८९. कोहस्स पडमसंगहकिट्टि मोत्तूण सेसाणमेक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं अण्णाओ अपुवाओ किट्टीओ णिव्चत्तेदि । १०९०. ताओ अपुव्याओ किट्टीओ कदयादो पदेसग्गादो णिव्बत्तेदि ? १०९१. वज्झमाणयादो च संकामिज्जमाणयादो च पदेसग्गादो णिवत्तेदि । १०९२. वज्झमाणयादो थोवाओ णिवत्तेदि । संकामिज्जमाणयादो असंखेज. गुणाओ । १०९३. जाओ ताओ उज्झमाणयादो पदेसग्गादो णिवत्तिजंति ताओ चदुसु परमसंगहकिट्टीसु । १०९४. ताओ कदमम्मि ओगासे ? १०९५. एक्कक्किस्से संगहकिट्टीए किट्टीअंतरेसु । १०९६. किं सब्बेसु किट्टीअंतरेसु, आहो ण सव्वेसु ? १०९७. . ण सव्वेसु । १०९८. जइ ण सव्वेसु, कदमेसु अंतरेसु अपुब्बाओ णिव्यत्तयदि ? १०९९. . चूर्णिसू ०-कृष्टियोंका प्रथम समयवेदक वारहो ही संग्रहकृष्टियोके अग्रकृष्टिको आदि करके एक-एक संग्रहकृष्टि के असंख्यातवें भागको विनाश करता है, अर्थात् उतनी कृष्टियोंकी शक्तियोको अपवर्तनाघातसे प्रतिसमय अपवर्तन करके अधस्तन कृष्टिरूपसे स्थापित करता है । ( इसी प्रकार द्वितीयादि समयोमें भी अपवर्तनाघात जानना चाहिए। केवल इतना भेद है कि प्रथम समयमे विनाश की गई कृष्टियोसे द्वितीयादि समयमें विनाश की जानेवाली कृष्टियाँ उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित हीन होती हैं । ) ॥१०८८॥ __ चूर्णिसू०-संज्वलनकोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको छोड़कर शेप ग्यारह संग्रहकृष्टियोके नीचे और अन्तरालमे अन्य अपूर्व कृष्टियोको बनाता है ॥१०८९॥ शंका-उन अपूर्व कृष्टियोको किस प्रदेशाग्रसे बनाता है ? ॥१०९०॥ समाधान-वध्यमान और संक्रम्यमाण प्रदेशाप्रसे उन अपूर्व कृष्टियोंको बनाता है ॥१०९१॥ - चूर्णिसू०-बध्यमान प्रदेशाग्रसे थोड़ी अपूर्व कृष्टियोको बनाता है । किन्तु संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणी अपूर्व कृष्टियोको बनाता है। वे जो अपूर्व कृष्टियाँ वध्यमान प्रदेशाग्रसे निर्वर्तित की जाती हैं, चारो ही प्रथम संग्रहकृष्टियोमेसे निर्वर्तित की जाती हैं ।।१०९२-१०९३॥ शंका-उन अपूर्व कृष्टियोको किस अवकाशमे अर्थात् किस अन्तरालमें निवृत्त करता है ? ॥१०९४॥ समाधान-उन अपूर्व कृष्टियोको एक-एक संग्रहकृष्टिकी अवयवकृष्टियोके अन्तरालोमें निवृत्त करता है ॥१०९५॥ . शंका-क्या सव कृष्टि-अन्तरालोमें उन अपूर्व कृष्टियोको रचता है ? अथवा सव कृष्टि-अन्तरालोमे नहीं रचता है ? ॥१०९६॥ समाधान-सव कृष्टि-अन्तरालोंमे अपूर्व कृष्टियोंको नहीं रचता है ॥१०९७।। । शंका-यदि सब कृष्टि-अन्तरालोंमें अपूर्व कृष्टियोंको नही रचता है, तो फिर किन अन्तरालोमे उन अपूर्वकृष्टियोको रचता है ? ॥१०९८॥ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५३ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण उवसंदरिसणा' । ११००. बज्झमाणियाणं जं पढम किट्टीअंतरं, तत्थ णत्थि । ११०१. एवमसंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि अधिच्छिदूण । ११०२. किट्टीअंतराणि अंतरद्वदाए असंखेज्जाणि पलिदोवमपडमवग्गमूलाणि । ११०३. एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्वत्तिज्जदि । ११०४. पुणो वि एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्वत्तिज्जदि । ११०५. बज्झमाणयस्स पदेसग्गस्स णिसेगसेढिपरूवणं, वत्तइस्सामो। ११०६. तत्थ जहण्णियाए किट्टीए बज्झमाणियाए बहुअं। ११०७. विदियाए किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण । ११०८. तदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । ११०९. चउत्थीए विसेसहीणं। १११०. एवमणंतरोवणिधाए ताव विसेसहीणं जाव अपुवकिट्टिमपत्तो त्ति । ११११. अपुवाए किट्टीए अणंतगुणं । १११२. अपुव्वादो किट्टीदो जा अणंतरकिट्टी, तत्थ अणंतगुणहीणं । १११३, तदो पुणो अणंतभागहीणं । १११४. एवं सेसासु सव्वासु । समाधान-उक्त शंकाका स्पष्टीकरण यह है-बध्यमान संग्रहकृष्टियोका जो प्रथम कृष्टि-अन्तर है, वहॉपर अपूर्वकृष्टियोंको नहीं रचता है। इस प्रकार असंख्यात कृष्टि-अन्तरालोंको लॉघकर आगे अभीष्ट कृष्टि-अन्तरालमे अपूर्व कृष्टियोको रचता है। अन्तररूपसे प्रवृत्त ये कृष्टि-अन्तराल असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । इतने कृष्टि-अन्तरालोंको लॉधकर अपूर्व कृष्टि रची जाती है । पुन: इतने ही अर्थात् असंख्यात कृष्टि-अन्तरालोको उल्लंघन कर दूसरी अपूर्वकृष्टि रची जाती है। ( इस प्रकार असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण असंख्यात कृष्टि-अन्तरालोको छोड़-छोड़कर तृतीय-चतुर्थ आदि अपूर्व कृष्टिकी रचना होती है। और यह क्रम तव तक चला जाता है जब तक कि अन्तिम अपूर्वकृष्टि निष्पन्न होती है ॥१०९९-११०४॥ चूर्णिसू०-अव बध्यमान प्रदेशाग्रके निषेकोकी श्रेणिप्ररूपणाको कहेगे। उनमेसे बध्यमान जघन्य कृष्टिमे बहुत प्रदेशाग्र देता है । द्वितीय कृष्टिमे अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र देता है। तृतीय कृष्टिमे अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र देता है। चतुर्थ कृष्टिमे अनन्तवे भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र देता है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधारूप श्रेणीके क्रमसे विशेष हीन, विशेष हीन प्रदेशाग्र अपूर्वकृष्टिके प्राप्त होने तक दिया जाता है । पुनः अपूर्वकृष्टिमे अनन्तगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है । अपूर्वकृष्टिसे जो अनन्तरकृष्टि है, उसमे अनन्तगुणा हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। तदनन्तर प्राप्त होनेवाली कृष्टिमे अनन्त भागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इसी प्रकार शेष सर्वकृष्टियोमें जानना चाहिए ॥११०५-१११४॥ चूर्णिसू०-जो संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टियॉ रची जाती है, वे दो अवकाशो अर्थात् स्थलोपर रची जाती हैं। यथा-कृष्टि-अन्तरालोंमे भी और संग्रहकृष्टि-अन्तरालोमे भी १ एत्तियाणि किटी अतराणि उल्लघियूण पुणो एत्तियमेत्तेसु किट्टी अतरेसु तासि णिवत्ती होटि त्ति एदस्स अत्यविसेसस्स फुडीकरणमुवसंदरिसणा णाम | जयध० Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १११५. जाओ संकामिज्जपाणियादो पदेसग्गादो अपुव्वाओ किट्टीओ णिन्चत्तिज्जति ताओ दुसु ओगासेसु । १११६. जं जहा । १११७. किट्टीअंतरेसु च, संगहकिट्टी अंतरेसु' च । १११८. जाओ संगह किट्टी अंतरेसु ताओ थोवाओ । १११९. जाओ किट्टी अंतरेसु ताओ असंखेज्जगुणाओ । ११२०. जाओ संगह किट्टीअंतरेलु तासि जहा किट्टीकरणे अपुव्वाणं णिव्वत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा कायव्वो । ११२१. जाओ किड्डीअंतरेसु तासं जहा वज्झमाणएण पदेसग्गेण अपुव्वाणं णिव्यत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा कायव्वो । ११२२. वरि थोवदरगाणि किट्टीअंतराणि गंतूण संकुग्भमाणपदेसग्गेण अपुव्वा किट्टी निव्वत्तिज्जमाणिगा दिस्सदि । ११२३. ताणि किड्डीअंतराणि पगणणादो पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो । ११२४. परमसमय किट्टीवेदगस्स जा कोहपढमसंगह किट्टी तिस्से असंखेज्जदिभागो विणासिज्जदि । ११२५. किट्टीओ जाओ पढमसमये विणासिज्जति ताओ बहुगीओ । ११२६. जाओ विदियसमये विणासिज्जंति ताओ असंखेज्जगुणहीणाओ । ११२७. एवं रची जाती हैं । जो अपूर्वकृष्टियों संग्रहकृष्टि- अन्तरालोंमें रची जाती हैं, वे अल्प हैं और जो कृष्टि- अन्तरालोमें रची जाती हैं वे असंख्यातगुणी हैं । जो अपूर्वकृष्टियों संग्रहकृष्टि - अन्तरालोमें रची जाती हैं, उनका जैसा विधान कृष्टिकरणमें निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टियोंका किया गया है वैसा ही प्ररूपण यहहाॅ करना चाहिए । और जो अपूर्वकृष्टियाँ कृष्टि-अन्तरालोंमें रची जाती हैं, उनका जैसा विधान बध्यमान प्रदेशासे निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टियोंका किया गया है, वैसा ही विधान यहाॅ करना चाहिए | केवल इतनी विशेषता है कि यहॉपर स्तोकतर कृष्टि-अन्तरोको लॉघकर संक्रम्यमाण प्रदेशाग्र से निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टि दृष्टिगोचर होती है । वे कृष्टि-अन्तर प्रगणनासे अर्थात् संख्या की अपेक्षा पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । ( इस प्रकार कृष्टिवेदकके प्रथम समयकी यह सब प्ररूपणा द्वितीयादिक समय में भी जानना चाहिए । ) ।। १११५-११२३॥ ८५४ अब कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर प्रति समय विनाश की जानेवाली कृष्टियोका अल्पवहुत्व कहते हैं चूर्णिसू० ० - प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके जो क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि है, उसका असंख्यातवाँ भाग प्रतिसमय अपवर्तनाघात से विनाश किया जाता है । जो कृष्टियॉ प्रथम समयमें विनाश की जाती हैं, वे बहुत हैं । जो कृष्टियाँ द्वितीय समय में विनाश की जाती हैं, वे असंख्यातगुणी हीन हैं । इस प्रकार यह क्रम अपने विनाशकालके द्विचरम समय में अनिष्ट क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि तक चला जाता है ।। ११२४-११२७॥ I १ कोहपढमसगहकिट्टिं मोत्तूण सेसाणमेक्कारसहं संगह किट्टीणं हेट्ठा तासिमसंखेज्जदिभागपमाणेण जाओ णिव्वत्तिज्जति अपुव्वकिट्टीओ, ताओ सगह किट्टीअतरेसु त्ति भण्णंति | तासिं चेव एक्कारसहं संगहकिट्टी किट्टी अतरेसु पलिदोवमस्सा संखेज्जदिभागमेत्तद्वाणं गतूण अंतरंतरे जाओ अपुव्वकिट्टीओ णिव्वत्तिबंति ताओ किट्टी अंतरेसु त्ति वुच्चति । जयघ० Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५५ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक-निरूपण ताच दुचरिमसमयअविणट्ठकोहपटमसंगहकिट्टि त्ति । ११२८. एदेण सव्वेण तिचरिमसमयमेत्तीओ सवकिट्टीसु पढम-विदियसमयवेदगस्स कोधस्स पहमकिट्टीए अवज्झमाणियाणं किट्टीणमसंखेज्जदिभागो। ११२९. कोहस्स पडमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पहमट्ठिदी तिस्से पढमहिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए एदम्हि समये जो विही, तं विहिं वत्तहस्सामो । ११३०. तं जहा । ११३१. ताधे चेव कोहस्स जहण्णगो डिदिउदीरगो [१] । ११३२. कोहपडमकिट्टीए चरिमसमयवेदगो जादो [२] । ११३३. जा पुचपवत्ता संजलणाणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयमोवट्टणा सा तहा चेव [३] । ११३४. चदुसंजलणाणं डिदिबंधो वे मासा चत्तालीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तणा [४] । ११३५. संजलणाणं द्विदिसंतकम्मं छ वस्साणि अट्ठ च मासा अंतोमुहुत्तूणा [५] । ११३६ तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिवंधो दस वस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि [६] ११३७. धादिकम्माणं डिदिसंतकम्मं संखेन्जाणि वस्साणि [७] । ११३८. सेसाणं कम्माणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि [८] । ११३९. से काले कोहस्स विदियकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण कोहस्स पहमद्विदि ___अब कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लगाकर निरुद्ध प्रथम संग्रहकृष्टिके विनाश करनेके कालके द्विचरम समय तक विनष्ट की गई समस्त कृष्टियोका प्रमाण बतलाते हैं चूर्णिसू०- इस सर्व कालके द्वारा जो त्रिचरम समयमात्र कृष्टियाँ (विनष्ट की जाती) हैं, वे सर्व कृष्टियोमें प्रथम और द्वितीय समयवेदकके क्रोधकी प्रथम कृष्टिकी अबध्यमान कृष्टियोके असंख्यातवें भागमात्र है ॥११२८॥ विशेषार्थ-प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके ऊपर और नीचे अवस्थित कृष्टियाँ अबध्यमान कृष्टियाँ कहलाती हैं। चूर्णिसू०-क्रोधकी प्रथमकृष्टिका वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है, उस प्रथमस्थितिमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इस समयमे जो विधि होती है, उस विधिको कहेंगे। वह इस प्रकार है-उस ही समयमे क्रोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है (१) और क्रोधकी प्रथम कृष्टिका चरम समयवेदक होता है (२)। संज्वलनचतुष्कके अनुभागसत्त्वकी जो पूर्व-प्रवृत्त अनुसमय अपवर्तना है, वह उसी प्रकारसे होती रहती है (३) । चारो संज्वलनोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम दो मास और चालीस दिवसप्रमाण होता है (४)। चारों संज्वलनोका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त कम छह वर्ष और आठ मासप्रमाण होता है (५) । शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्त कम दश वर्षप्रमाण होता है (६)। घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्षप्रमाण होता है (७)। शेष कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है (८) ॥११२९-११३८॥ चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमे क्रोधकी द्वितीय कृष्टिके प्रदेशाग्रको अपकर्पणकर क्रोधकी प्रथमस्थितिको करता है । उस समय क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे सत्त्वरूप जो दो समय कम दो Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार करेदि । ११४०. ताधे कोधस्स पडमसंगहकिट्टीए संतकम्मं दो आवलियवंधा दुसमयणा सेसा, जं च उदयावलियं पविटं तं च सेसं पढमकिट्टीए । ११४१. ताधे कोहस्स विदियकिट्टीवेदगो। ११४२. जो कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स विधी सो चेव कोहस्स विदियकिटिं वेदयमाणस्स विधी कायव्यो । ११४३. तं जहा । ११४४. उदिण्णाणं किट्टीणं बज्झमाणीणं किट्टीणं, विणासिज्जमाणीणं अपुव्वाणं णिव्यत्तिज्जमाणियाणं बझमाणेण च पदेसग्गेण संछुन्भमाणेण च पदेसग्गेण णिव्यत्तिज्जमाणियाणं । ११४५. एत्थ संकममाणयस्स पदेसग्गस्स विधिं वत्तहस्सायो । ११४६. तं जहा । ११४७ कोधविदियकिट्टीदो पदेसग्गं कोहतदियं च माणपहमं च गच्छदि । ११४८. कोहस्स तदियादो किट्टीदो माणस्स परमं चेव गच्छदि । ११४९ माणस्स पडमादो किट्टीदो माणस्स विदियं तदियं, मायाए पडमं च गच्छदि । ११५०. माणस्स विदियकिट्टीदो माणस्स तदियं च मायाए पहमं च गच्छदि । ११५१. माणस्स तदियकिट्टीदो मायाए पढमं गच्छदि । ११५२. मायाए परमादो पदेसग्गं मायाए विदियं तदियं च, लोभस्स पढमकिट्टि च गच्छदि । ११५३. मायाए विदियादो किट्टीदो पदेसग्गं मायाए तदियं लोभस्स पडमं च गच्छदि । ११५४. मायाए तदियादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स पढमं गच्छदि । ११५५. लोमस्स परमादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स विदियं च तदियं च गच्छदि । ११५६. लोभस्स विदियादो पदेसग्गं लोभस्स तदियं गच्छदि। आवलीप्रमित नवकवद्ध प्रदेशाग्र शेप हैं, वे और उद्यावलीमे प्रविष्ट जो प्रदेशाग्र हैं वे प्रथम कृष्टिमें शेष रहते हैं। उस समय क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका प्रथम समयवेदक होता है। क्रोधकी प्रथम कृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो विधि कही गई है, वही विधि क्रोधकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी भी कहना चाहिए । वह इस प्रकार है-उदीर्ण कृष्टियोकी, बध्यमान कृष्टियोकी, विनाशकी जानेवाली कृष्टियोकी, बध्यमान प्रदेशाग्रसे निर्वत्यमान अपूर्वकृष्टियोकी तथा संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे भी निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टियोकी विधि प्रथम संग्रहकृष्टिकी प्ररूपणाके समान कहना चाहिए ।।११३९-११४४॥ ___चूर्णिमू०-अव यहॉपर संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रकी विधिको कहेगे। वह विधि इस प्रकार है-क्रोधकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र क्रोधकी तृतीय और मानकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है । क्रोधकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र मानकी प्रथम कृष्टिको ही प्राप्त होता है। मानकी प्रथम कृष्टिसे प्रदेशाग्र मानकी द्वितीय और तृतीय तथा मायाकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है। मानकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र मानकी तृतीय और मायाकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है । मानकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र मायाकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है। मायाकी प्रथम कृष्टिसे प्रदेशाग्र मायाकी द्वितीय और तृतीय तथा लोभकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है। मायाकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र मायाकी तृतीय और लोभकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है । मायाकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र लोभकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है। लोभकी प्रथम कृष्टिसे प्रदेशाग्र Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६ ] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८५७ ११५७. जहा कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणो चदुहं कसायाणं पढमकिट्टीओ बंधदि किमेवं चेव कोधस्स विदियकिट्टि वेदेमाणो चदुण्हं कसायाणं विदियकिट्टीओ बंधदि, आहो ण, वत्तव्वं ? ११५८. किथ खु। ११५९. समासलक्षणं भणिस्सामो। ११६०. जस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स कसायस्स तं किट्टि बंधदि, सेसाणं कसायाणं परमकिट्टीओ बंधदि । ११६१. कोधविदियकिट्टीए पढमसमए वेदगस्स एक्कारससु संगहकिट्टीसु अंतरकिट्टीणमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। ११६२. तं जहा । ११६३. सव्वत्थोवाओ माणस्स पडमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ। ११६४. विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। ११६५ तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११६६. कोहस्स तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। ११६७. मायाए पडमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। ११६८. विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११६९. तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसा. हियाओ। ११७०. लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११७१. विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११७२. तदियाए लोभकी द्वितीय और तृतीय कृष्टिको प्राप्त होता है । लोभकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र लोभकी तृतीय कृष्टिको ही प्राप्त होता है ।।११४५-११५६।। शंका-जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाला चारो कपायोकी प्रथम कृष्टियोको बाँधता है, उसी प्रकार क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका वेदन करनेवाला क्या चारो ही कषायोकी द्वितीय कृष्टियोको बाँधता है, अथवा नही बॉधता है ? इसका उत्तर क्या है, कहिए १ ॥११५७-११५८॥ समाधान-उक्त आशंकाका संक्षेप समाधान कहेगे-जिस कषायकी जिस कृष्टिका वेदन करता है उस कषायकी उस कृष्टिको बाँधता है । तथा शेप कषायोकी प्रथम कृष्टियोको बॉधता है ।।११५९-११६०॥ चर्णिस०-अब क्रोधकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवाले क्षपकके प्रथम समयमे दिखाई देनेवाली ग्यारह संग्रहकृष्टियोमे अन्तरकृष्टियोके अल्पबहुत्वको कहेगे। वह इस प्रकार है-मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ सबसे कम हैं। इससे मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक है। इससे मानकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक है । इससे क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । इससे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि में अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे मायाकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे मायाकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेप अधिक हैं । इससे लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे १ कथ खलु स्यात् , कोन्वत्र निर्णय इति १ जयध० १०८ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ . कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११७३. कोहस्स विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ संखेज्जगुणाओ । ११७४. पदेसग्गस्स वि एवं चेव अप्पाबहुअं । ११७५. कोहस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पहमट्टिदीए आवलिय-पडिआवलियाए सेसाए आगालपडिआगालो वोच्छिण्णो । ११७६. तिस्से चेव पढमहिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए ताहे कोहस्स विदियकिट्टीए चरिमसमयवेदगो। ११७७. ताधे संजलणाणं द्विदिबंधो वे मासा वीसं च दिवसा देसूणा । ११७८. तिण्हं धादिकस्माणं द्विदिवंधो वासपुधत्तं । ११७९: सेसाणं कम्माणं ठिदिवंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ११८०. संजलणाणं हिदिसंतकम्मं पंच वस्साणि चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तूणा । ११८१. तिण्डं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ११८२, णामा-गोद-वेदणीयाणं ठिदिसंतकस्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । ११८३. तदो से काले कोहस्स तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियण पढमहिदि करेदि । ११८४. ताधे कोहस्स तदियसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । ११८५. तासिं चेव असंखेज्जा भांगा वज्झंति । ११८६. जो विदियकिहि वेदयमाणस्स विधी सो चेव विधी तदियकिट्टि वेदयमाणस्स वि कायव्यो । लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक है। इससे क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमें अन्तरकृष्टियाँ संख्यातगुणी हैं। इन अन्तरकृष्टियोके प्रदेशाग्रका भी अल्पवहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए ॥११६१-११७४।। चूर्णिसू०-क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकके जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथम स्थितिमे आवली और प्रत्यावलीकालके शेष रह जानेपर आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है। उस ही प्रथमस्थितिमे एक समय अधिक आवलीके शेप रहनेपर उस समय क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है। उस समयमे चारो संज्वलन कषायोका स्थितिवन्ध दो मास और कुछ कम बीस दिवसप्रमाण है । शेप तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण है। उस समय चारो संचलनोंका स्थितिसत्त्व पॉच वर्प और अन्तर्मुहूर्त कम चार मासप्रमाण है। शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण है । नाम, गोत्र और बेदनीय कर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्पप्रमाण है ॥११७५-११८२॥ चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमे क्रोधकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है। उस समयमे क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोके असंख्यात वहुभाग उदीर्ण होते हैं और उन्हींके असंख्यात बहुभाग बॅधते है । ( इतना विशेष है कि उदीर्ण होनेवाली अन्तरकृष्टियोसे बँधनेवाली अन्तरकृष्टियोंका परिमाण विशेष हीन होता है।) नो विधि द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी कही गई है, वही विधि तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी भी प्ररूपणा करना चाहिए ॥११८३-११८६॥ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८५९ ११८७. तदियकिट्टि वेदेमाणस्स जा पडमहिदी तिस्से पढमहिदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए चरिमसमयकोधवेदगो । ११८८. जहण्णगो ठिदिउदीरगो । ११८९. ताधे द्विदिबंधो संजलणाणं दो मासा पडिवुण्णा । ११९०. संतकम्मं चत्तारि वस्साणि पुण्णाणि । ११९१. से काले माणस्स पहमकिट्टिमोकड्डियूण पढमद्विदिं करेदि । ११९२. जा एस्थ सव्वगाणवेदगद्धा तिस्से वेदगद्धाए तिभागमेत्ता पहमट्ठिदी। ११९३ तदो माणस्स पढमकिट्टि वेदेमाणो तिस्से पहमकिट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदयदि । ११९४. तदो उदिण्णाहितो विसेसहीणाओ बंधदि । ११९५. सेसाणं कसायाणं पढमसंगहकिट्टीओ बंधदि। ११९६. जेणेव विहिणा कोधस्स पढमकिट्टी वेदिदा, तेणेव विधिणा माणस्स पढमकिट्टि वेदयदि । ११९७. किट्टीविणासणे बज्झमाणएण संकामिज्जमाणए ण च पदेसग्गेण अपुव्वाणं किट्टीणं करणे किट्टीणं बंधोदयणिव्वग्गणकरणे एदेसु करणेसु णत्थि. णाणत्तं, अण्णेसु च अभणिदेसु । ११९८. एदेण कमेण माणपडमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पड महिदीए जाधे समयाहियावलियसेसा ताधे तिण्हं संजलणाणं ठिदिवंधो मासो वीसं च दिवसा अंतोसुहुत्तूणा । ११९९. संतकम्म तिण्णि वस्साणि चत्तारि मासा च अंतोमुहुत्तणा । चूर्णिसू०-तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक आवलीके शेष रह जानेपर चरमसमयवर्ती क्रोधवेदक होता है और उसी समयमें ही संज्वलनक्रोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। उस समय चारो संज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध परिपूर्ण दो मास है और स्थितिसत्त्व परिपूर्ण चार वर्षप्रमाण है ॥११८७-११९०॥ चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमें मानकी प्रथम कृष्टिका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है। यहॉपर जो संज्वलनमानका सर्ववेदककाल है, उस वेदककालके त्रिभागमात्र प्रथमस्थिति है । तव मानकी प्रथम कृष्टिको वेदन करनेवाला उस प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंके असंख्यात बहुभाग वेदन करता है और तभी उन उदीर्ण हुईं कृष्टियोंसे विशेप हीन कृष्टियोंको बॉधता है। तथा शेष कषायोकी प्रथम संग्रहकृष्टियोको ही बॉधता है। जिस विधिसे क्रोधकी प्रथम कृष्टिका वेदन किया है उस ही विधिसे मानकी प्रथम कृष्टिका वेदन करता है । कृष्टियोके विनाश करनेमे, बध्यमान और संक्रम्यमाण प्रदेशाप्रसे अपूर्वकृष्टियोके करनेमें, तथा कृष्टियोके बन्ध और उदयसम्बन्धी निर्वर्गणाकरणमे अर्थात् अनन्त गुणहानिरूप अपसरणोंके करनेमे, इतने करणोमे तथा अन्य नही कहे गये करणोम कोई विभिन्नता नहीं है । इस क्रमसे मानकी प्रथम कृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथम स्थितिमें जब एक समय अधिक आवली शेप रहती है, तब तीनो संज्वलन कपायोका स्थितिबन्ध एक मास और अन्तर्मुहूर्त कम वीस दिवस है, तथा स्थितिसत्त्व तीन वर्प और अन्तर्मुहूर्त कम चार मास है ॥११९१-११९९॥ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १२००. से काले माणस्स विदियकिट्टीदो पदेसग्गयोकड्डियण पढमट्टिदिं करेदि । १२०१. तेणेव विहिणा संपत्तो माणस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पहमट्ठिदी तिस्से समयाहियावलियसेसा त्ति । १२०२. ताधे संजलणाणं द्विदिवंधो मासो दस च दिवसा देसूणा । १२०३. संतकम्मं दो वस्साणि अट्ठ च मासा देसूणा । १२०४. से काले माणतदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पडयहिदि करेदि । १२०५. तेणेव विहिणा संपत्तो माणस्स तदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमद्विदी तिस्से आवलिया समयाहियमेत्ती सेसा त्ति । १२०६. ताधे माणस्स चरिमसमयवेदगो ।' १२०७. ताधे तिण्हं संजलणाणं द्विदिबंधो मासो पडिचुण्णो । १२०८. संतकम्मं वे वस्साणि पडिवुण्णाणि । १२०९. तदो से काले मायाए पढमकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण पढमहिदि करेदि । १२१०. तेणेव विहिणा संपत्तो मायापहमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पहमट्ठिदी तिस्से समयाहियावलिया सेसा त्ति । १२११. ताधे ठिदिबंधो दोण्हं संजलणाणं पणुवीसं • दिवसा देसणा । १२१२. हिदिसंतकम्मं वस्सम च मासा देसूणा। १२१३. से काले मायाए विदियकिट्टीदो पदेसगमोकड्डियूण पहमट्ठिदि करेदि चूर्णिसू०-तदनन्तर कालमे मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्पण करके प्रथम स्थितिको करता है और उसी ही विधिसे, मानकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथम स्थिति है, उसमे एक समय अधिक आवली शेष रहने तक संप्राप्त होता है, अर्थात् पूर्वोक्त विधिसे सर्व कार्य करता हुआ चला जाता है। उस समय तीनो संज्वलनोंका स्थितिवन्ध एक मास और कुछ कम दश दिवस है। तथा स्थितिसत्त्व दो वर्ष और कुछ कम आठ सास है ।।१२००-१२०३॥ चूर्णिस०-तदनन्तर कालमे मानकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्पण करके प्रथमस्थितिको करता है। और उसी ही विधिसे मानकी तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है, उसमे एक समय अधिक आवली शेष रहने तक सर्व कार्य करता हुआ चला जाता है। उस समय वह मानका चरमसमयवेदक होता है। तब तीनो संज्वलनोका स्थितिवन्ध परिपूर्ण एक मास है और स्थितिसत्त्व परिपूर्ण दो वर्ष है ॥१२०४-१२०८॥ __ चूर्णिसू०-तदनन्तर कालमे मायाकी प्रथम कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण कर प्रथमस्थितिको करता है और उसी ही विधिसे, मायाकी प्रथमकृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है, उसमें एक समय अधिक आवली शेष रहने तक सर्व कार्य करता हुआ चला जाता है । उस समय दोनो संज्वलनोका स्थितिबन्ध कुछ कम पच्चीस दिवस है । तथा स्थितिसत्त्व एक वर्प और कुछ कम आठ मास है ॥१२०९-१२१२॥ चर्णिसू०-तदनन्तर कालमें मायाकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है । वह मायाकी द्वितीय कृष्टिका वेदक भी उसी ही विधिसे मायाकी .... २ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८६१ १२१४. सो वि मायाए विदियकिट्टिवेदगो तेणेव विहिणा संपत्तो मायाए विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पहमट्टिदी तिस्से पढमहिदीए आवलिया समयाहिया सेसा त्ति । १२१५.ताधे द्विदिबंधोवीसं दिवसा देरणा । १२१६.हिदिसंतकम्मं सोलस मासा देसूणा। १२१७. से काले मायाए तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पहमट्ठिदि करेदि। १२१८. तेणेव विहिणा संपत्तो मायाए तदियकिट्टि वेदगरस पहमद्विदीए समयाहियावलिया सेसा त्ति । १२१९. ताधे मायाए चरिमसमयवेदगो । १२२०. ताधे दोण्हं संजलणाणं द्विदिवंधो अद्धमासो पडिवुण्णो । १२२१. द्विदिसंतकम्ममेकं वस्सं पडिवुण्णं । १२२२. तिण्हं धादिकम्माणं ठिदिबंधो मासपुधत्तं । १२२३. तिण्हं घादिकम्माणं डिदिसंतकम्मं संखेजाणि वस्ससहस्साणि । १२२४. इदरेसि कम्माणं [द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्साणि] हिदिसंतकम्मं असंखेज्जाणि वस्साणि । १२२५. तदो से काले लोभस्स पढमकिट्टीदो पदेसग्गयोकड्डियूण पढमहिदि करेदि । १२२६. तेणेव विहिणा संपत्तो लोभस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स पढमद्विदीए समयाहियावलिया सेसा ति । १२२७. ताधे लोभसंजलणस्स हिदिबंधो अंतोमुहुत्तं १२२८. हिदिसंतकम्मं पि अंतोमुहुत्तं । १२२९. तिण्हं घादिकम्माणं हिदिबंधो दिवसपुधत्तं । १२३०. सेसाणं कम्माणं वासपुधत्तं । १२३१. धादिकम्माणं द्विदिसंतकम्म द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिमे एक समय अधिक आवली शेष रहने तक सर्व कार्य करता हुआ चला जाता है। उस समय दोनो संज्वलनोका स्थितिवन्ध कुछ कम बीस दिवसप्रमाण है। तथा स्थितिसत्त्व कुछ कम सोलह मास है ॥१२१३-१२१६॥ चूर्णिस०-तदनन्तर कालमे मायाकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। और उसी ही विधिसे मायाकी तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी प्रथमस्थितिके एक समय अधिक आवली शेप रहने तक सर्व कार्य करता हुआ चला जाता है। तब वह मायाका चरमसमयवेदक होता है। उस समयमें दोनो संज्वलनोका स्थितिबन्ध परिपूर्ण अर्ध मास है। स्थितिसत्त्व परिपूर्ण एक वर्प है। शेष तीनो धातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध मासपृथक्त्व तथा स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है। इतर अर्थात् आयुके विना शेप तीन अघातिया कर्मोंका ( स्थितिवन्ध संख्यात वर्प है और ) स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष है ॥१२१७-१२२४॥ __चूर्णिसू०-तदनन्तर कालमे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्पण करके प्रथम स्थितिको करता है और उसी ही विधिसे लोभकी प्रथम कृष्टिको वेदन करनेवालेकी प्रथम स्थितिके एक समय अधिक आवली शेप रहने तक सर्व कार्य करता हुआ चला जाता है । उस समय संज्वलन लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है। तथा स्थितिसत्त्व भी अन्तर्मुहूर्त है। तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध दिवसपृथक्त्व है। शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्र मोह-क्षपणाधिकार संखेज्जाणि वस्ससहसाणि । १२३२. सेसाणं कम्पाणं असंखेज्जाणि वस्त्राणि । १२३३. तत्तो से काले लोभस्स विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमद्विदिं करेदि । १३३४. ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसांपराइयकिट्टीओ' णाम करेदि । १२३५. तासि सुहुमसांपराइयकिट्टीणं कम्हि द्वाणं ११२३६. तासि द्वाणं लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए हेइदो । १२३७. जारिसी कोहस्स पढमसंगह किट्टी, तारिसी एसा सुहुमसां पराइय किट्टी । है । घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है । शेष कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष है ।। १२२५- १२३२॥ चूर्णिस् ० - तत्पश्चात् अनन्तरकालमे लोभकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाप्रका अपकर्पण करके प्रथम स्थितिको करता है । उस ही समय में लोभकी द्वितीय कृष्टिसे और तृतीय कृष्टि से भी प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिक नामवाली कृष्टियोंको करता है ।।१२३३-१२३४॥ शंका-उन सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका अवस्थान कहाँ है ? || १२३५ ॥ समाधान- उनका अवस्थान लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टि के नीचे है | १२३६॥ विशेषार्थ -संज्वलन लोभकपायके अनुभागको बादरसाम्परायिक कृष्टियोंसे भी अनन्तगुणित हानिके रूपसे परिणसित कर अत्यन्त सूक्ष्म या मन्द अनुभागरूपसे अवस्थित करनेको सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकरण कहते हैं । सर्व- जघन्य बादरकृष्टिसे सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिका भी अनुभाग अनन्तगुणित हीन होता है । इसी बात को चूर्णिकारने उक्त शंका-समाधानसे स्पष्ट किया है कि सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोका स्थान लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टि के नीचे है । इन सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोकी रचना संब्वलन - लोभकी द्वितीय और तृतीय कृष्टि के प्रदेशाको लेकर होती है । लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाला उस कृष्टि वेदनके प्रथम समयमें ही सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोकी रचना करना प्रारंभ करता है । यदि संज्वलनलोभके द्वितीय त्रिभागमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोकी रचना प्रारम्भ न करे, तो तृतीय त्रिभागमे सूक्ष्मकृष्टिके वेदकरूपसे परिणमन नही हो सकता है । अब चूर्णिकार सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोके आयाम विशेषको वतलाते हुए उसका और भी स्पष्टीकरण करते हैं चूर्णिसू० - जैसी संज्वलन क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि है, वैसी ही यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी है ॥। १२३७॥ विशेषार्थ - इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि शेष संग्रहकृष्टियोके आयामको देखते हुए अपने आयामसे द्रव्यमाहात्म्यकी अपेक्षा संख्यातगुणी थी, उसी प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि भी क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको छोड़कर १ सुहुमसापराइयकिट्टीण किं लक्खणमिदि चे बादरसापराइयकिट्टीहिंतो अनंतगुणहाणीए परिणमिय लोभसजलणाणुभागस्सावट्ठाणं सुहुमसापराइयकिट्टीणं लक्खणमवहारेयव्वं । जयध० Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६३ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण १२३८. कोहस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ थोवाओ । १२३९. कोहे संछुद्ध माणस्स पहमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। १२४०. माणे संछुद्धे मायाए पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । १२४१. मायाए संछुद्धाए लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। १२४२. सुहुपसांपराइयकिट्टीओ जाओ पहमसमये कदाओ ताओ विसेसाहियाओ। १२४३. एसो विसेसो अणंतराणंतरेण संखेज्जदिभागो । शेष सर्व संग्रहकृष्टियोके कृष्टिकरणकालमें समुपलब्ध आयामसे संख्यातगुणित आयामवाली जानना चाहिए । इसका कारण यह है कि मोहनीयकर्मका सर्व द्रव्य इसके आधाररूपसे ही परिणमन करनेवाला है। अथवा जैसे लक्षणवाली क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि अपूर्व स्पर्धकोके अधस्तनभागमे अनन्तगुणित हीन की गई थी, उसी प्रकारके लक्षणवाली यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी लोभकी तृतीय बादरसाम्परायिक कृष्टिके अधस्तनभागमे अनन्तगुणित हीन की जाती है । अथवा जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि जघन्य कृष्टिसे लगाकर उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणी होती गई थी, उसी प्रकारसे यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी अपनी जघन्यकृष्टिसे लगाकर उत्कृष्ट कृष्टि तक अनन्तगुणित होती जाती है। यहाँ चूर्णिकारने जिस किसी भी कृष्टिके साथ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकी समानता न बताकर क्रोधकी प्रथम कृष्टिके साथ बतलाई, उसका कारण सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका आयाम विशेष-बतलाना है । अब चूर्णिकार इसी सूक्ष्मसाम्परायिक-कृष्टिके आयामविशेष-जनित माहात्म्यको वतलानेके लिए अल्पबहुत्वका कथन करते है चूर्णिसू०-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियाँ सबसे कम है। (क्योंकि, उनके आयामका प्रमाण तेरह-वटे चौवीस (३३) है ।) क्रोधके संक्रमित होनेपर अर्थात् क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिको मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रक्षिप्त करनेपर मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । (क्योंकि, उनका प्रमाण सोलह घटे चौबीस (३१ ) है।) मानके संक्रमित होनेपर मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ विशेप अधिक है । (उनका प्रमाण उन्नीस बटे चौवीस (३४) है ।) मायाके संक्रमित होनेपर लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक है । ( क्योकि उनका प्रमाण वाईस बटे चौबीस (३४) है।) जो सूक्ष्मसाम्परायिक-कृष्टियाँ प्रथम समयमे की गई है वे विशेप अधिक हैं। (क्योकि उनके आयामका प्रमाण चौवीस वटे चौवीस (३४) है । ) यह विशेष अनन्तर अनन्तररूपसे संख्यातवें भाग है ॥१२३८-१२४३॥ विशेषार्थ-इस उपयुक्त अल्पबहुत्वमे क्रोधादि कपायोकी प्रथम संग्रहकृष्टि-सम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंकी हीनाधिकता बतलाने के लिए जो अंक संख्या दी गई है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रदेशवन्धकी अपेक्षा आये हुए समयप्रवद्धके द्रव्यका जो पृथक्-पृथक् कर्मोंमे विभाग होता है, उसके अनुसार मोहनीय कर्मके हिस्सेमें जो भाग आता है, उसका भी Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १२४४. सुहुपसांपराइय किड्डीओ जाओ पढमसमए कदाओ ताओ बहुगाओ । १२४५. विदियसमए अपुन्याओ कीरंति असंखेज्जगुणहीणाओ । १२४६. अनंतरोवणिदर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय आदि अवान्तर प्रकृतियो में विभाग होता है, तदनुसार मोहनीय कर्मको प्राप्त द्रव्यका आठवाँ भाग संज्वलनक्रोधको मिलता है । पुनः संज्वलनक्रोधका यह आठवा भाग भी उसकी तीनो संग्रहकृष्टियों में विभक्त होता है, अतएव क्रोध की प्रथम - संग्रहकृष्टिका द्रव्य मोहनीय कर्मके सकल द्रव्यकी अपेक्षा चौबीसवाँ भाग पड़ता है । नोकपायका सवरूपसे अवस्थित सर्व द्रव्य भी क्रोधकी इस प्रथम संग्रहकृष्टिमें ही पाया जाता है । उसके साथ इसका द्रव्य मिलानेपर तेरह-बटे चौवीस भाग (३३) हो जाते हैं, अतः क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके अन्तर्गत रहनेवाली अन्तरकृष्टियोका प्रमाण भी उतना ही सिद्ध हुआ | तेरह-बटे चौवीस भाग प्रमाणवाली क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि जिस समय क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमें संक्रमित की, उस समय उसकी अन्तरकृष्टिका प्रमाण चौदह - बटे चौबीस (४) होता है । पुनः क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिको तृतीय संग्रहकृष्टिमे संक्रान्त करनेपर उसका प्रमाण पन्द्रह-बटे चौवीस (२४) होता है । पुनः क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिको मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे संक्रान्त करनेपर उसका प्रमाण सोलह-वढे चौबीस ( ) हो जाता है । इस प्रकार तेरह-वटे चौबीस (३३) भागप्रमाणवाली क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अपेक्षा सोलह-वटे चौबीस (३३) भागप्रमाणवाली मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका प्रमाण विशेष अधिक सिद्ध हो जाता है, क्योकि इसमे उसकी अपेक्षा तीन वटे चौबीस (३४) और अधिक मिल गये है । मानके मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिसं संक्रान्त होनेपर उसकी अन्तरकृष्टियोका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् उन्नीस वटे चौवीस ( 28 ) हो जाता है, क्योकि मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अपेक्षा मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे मानकी द्वितीय, तृतीय संग्रहकृष्टिका एकएक भाग, तथा अपना एक भाग इस प्रकार तीन वटे चौबीस (२) भाग और उसमे मिल जाते है, इस कारण से मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियोका प्रमाण विशेष अधिक सिद्ध हो जाता है । मायाके संक्रान्त होनेपर लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टियोका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् वाईस वटे चौबीस (३) भाग हो जाता है, क्योकि उसमे मायाकी द्वितीय, तृतीय संग्रहकृष्टिका एक-एक भाग, तथा अपना एक भाग, ऐसे तीन भाग और उसमे अधिक बढ़ जाते हैं । जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियॉ प्रथम समयमे की जाती हैं, उनका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् चौवीस- बटे चौवीस (३४) भागप्रमाण हो जाता है, क्योकि उनमे लोभकी द्वितीय और तृतीय संग्रहकृष्टिसम्बन्धी दो भाग और मिल जाते हैं । इस प्रकार से उत्तरोत्तर अधिक होनेवाले इस विशेषका प्रमाण अपने पूर्ववर्ती प्रमाणके संख्यावें भागप्रमित सिद्ध हो जाता है । ८६४ हैं 1 चूर्णिसू०० - प्रथम समयमे जो सूक्ष्मसाम्पायिक कृष्टियों की जाती है, वे बहुत द्वितीय समयमे जो अपूर्वकृष्टियों की जाती हैं, वे असंख्यातगुणी हीन होती है । इस प्रकार Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टि वेदकक्रिया -निरूपण ८६५ थाए सव्विस्से सुहुमसां पराइय किट्टीकरणद्धाए अपुव्वाओ सुहुमसांपराइयकिडीओ असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए की रंति । १२४७ सुहुमसांपराइय किट्टीसु जं परमसमये पदेसग्गं दिज्जदि तं थवं । १२४८ विदियसमये असंखेज्जगुणं । १२४९ एवं जाव चरिमसमयादोत्ति असंखेज्जगुणं । 1 १२५०. सुहुमसां पराइय किट्टीसु पढमसमये दिज्जमाणगस्त पदेसग्गस्स सेटिपरूवणं वत्तइस्लामो । १२५१ तं जहा । १२५२. जहणियाए किट्टीए पदेस बहुअं । विदिया विसेसहीणमणंतभागेण । तदियाए विसेसहीणं । एवमणंतरोवणिधाए गंतूण चरिमाए हुमसां पराइयकिट्टीए पदेसग्गं विसेसहीणं । १२५३ चरिमादो सुमसांपराइयकिट्टीदो जहणियाए बादरसांपराइयकिट्टीए दिज्जमाणगं पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं । १२५४. तदो विसेसहीणं । १२५५. सुहुमसांपराइय किट्टीकारगो विदियसमये अपुव्बाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाओ । १२५६ ताओ दोसुट्ठाणेसु करेदि । १२५७. तं जहा । १२५८. पढमसमये कदाणं हेट्ठा च अंतरे च । १२५९ हेट्ठा थोवाओ । १२६०. अंतरेस असंखेज्जगुणाओ । १२६१ विदियसमये दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणा । १२६२. अनन्तरोपनिधारूप श्रेणीकी अपेक्षा सम्पूर्ण सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकरण के काल मे अपूर्वं सूक्ष्मसाम्पायिक कृष्टियॉ असंख्यातगुणित हीन श्र ेणीके क्रमसे की जाती है । प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोके भीतर जो प्रदेशाग्र दिया जाता है, वह स्तोक है । द्वितीय समयमे दिया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकरणकालके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणा प्रदेशाय दिया जाता है || १२४४-१२४९॥ चूर्णिसू०- 2- अब सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमे प्रथम समय मे दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणीप्ररूपणा करेंगे । वह इस प्रकार है - जघन्य कृष्टिमे प्रदेशाय बहुत दिया जाता है । द्वितीय कृष्टिमे अनन्तवे भागसे विशेष हीन प्रदेशाय दिया जाता है । तृतीय कृष्टिमे अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाय दिया जाता है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधारूप श्रेणी के क्रमसे लगाकर अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि तक प्रदेशाय विशेष-हीन विशेष - हीन दिया जाता है । अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिसे जघन्य वादरसाम्परायिक कृष्टिमे दिया जानेवाला प्रदेशा असंख्यातगुणित हीन है । पुनः इसके आगे अन्तिम वादरसाम्परायिक कृष्टि तक सर्वत्र अनन्तवे भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि- कारक द्वितीय समयमें असंख्यातगुणित हीन अपूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों को करता है । उन कृष्टियों को वह दो स्थानोमे करता है । यथा - प्रथम समयमे की गई कृष्टियोके नीचे और अन्तरालमे भी । कृष्टियोके नीचे की जानेवाली कृष्टियाँ थोड़ी होती हैं और अन्तरालोमे की जानेवाली कृष्टिया असंख्यातगुणी होती हैं ।। १२५०-१२६०॥ चूर्णिसू ● (० - अब द्वितीय समयमे दिये जानेवाले प्रदेशायकी श्रेणीप्ररूपणा करते हैं १०९ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्र मोह-क्षपणाधिकार जा विदियसमये जहणिया सुमसांपराइय किट्टी तिस्से पदेसग्गं दिज्जदि बहुअं । १२६३. विदयाए किट्टीए अनंतभागहीणं । १२६४. एवं गंतूण पढमसमये जा जहणिया सुमसांप इय किट्टी तत्थ असंखेज्जदिभागहीणं । १२६५. तत्तो अनंतभागहीणं जाव अपुच्वं णिव्वत्तिज्जमाणगं ण पावदि । १२६६. अपुच्चाए णिव्यत्तिज्ज - माणिगाए किट्टीए असंखेज्जदिभागुत्तरं । १२६७ पुव्यणिव्यत्तिदं पडिवज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागहीणं । १२६८ परं परं पडिवज्जमाणगस्स अनंतभागहीणं । १२६९. जो विदियसमए दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स विधी सो चेव विधी सेसेसु विसमएसु जाव चग्मिसमयवादरमांपराइयो त्ति । १२७०. सुहुमसां पराइयकिट्टीकारगस्स किट्टीसु दिस्समाणपदेसग्गस्स सेटपरूवणं । १२७१. तं जहा । १२७२. जहणियाए सुहुमसां पराध्य किट्टीए पदेसग्गं बहुगं । तत्तो अनंतभागहीणं जाव चरिमसुहुमसांपराइयकिट्टि ति । १२७३ तदो जहणियाए बादरसां पराध्यकिट्टीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । १२७४ एसा सेढिपरूवणा जाव चरिमसमयवादरसांपराओ ति । १२७५. परमसमयसु हुमसांप राइयस्स वि किट्टी दिस्समाणपदेसग्गस्स सा चेव सेढिपरूवणा । १२७६. णवरि सेचीयादो' जदि द्वितीय समयमे जो जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है, उसमे बहुत प्रदेशाग्र दिया जाता है । द्वितीय कृष्टिमे अनन्तवे भागसे हीन दिया जाता है । इस क्रमसे जाकर प्रथम समय में जो जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है, उसमे असंख्यातवें भागसे हीन प्रदेशाय दिया जाता है । और इसके आगे निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टि जव तक प्राप्त नहीं होती है, तब तक अनन्तवे भागसे हीन प्रदेशाम दिया जाता है । अपूर्व निर्वर्त्यमान कृष्टिमें असंख्यातवें भाग अधिक प्रदेशा दिया जाता है । पूर्व निर्वर्तित कृष्टिको प्रतिपद्यमान प्रदेशाप्रका असंख्यातवाँ भाग हीन दिया जाता है । इससे आगे उत्तरोत्तर प्रतिपद्यमान प्रदेशाग्रका अनन्तवा भाग हीन दिया जाता है । द्वितीय समयमे दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी जो विधि पहले कही गई है, वही विधि शेष समयोमे भी जानना चाहिए। और यह क्रम बादरसाम्परायिकके चरम समय तक ले जाना चाहिए ।। १२६१-१२६९।। 1 चूर्णिसू (० - अब सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि-कारककी कृष्टियोमे दृश्यमान ( दिखाई देने वाले) प्रदेशाकी श्रेणीप्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है - जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें दृश्यमान प्रदेशा बहुत है । इससे आगे चरम सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि तक वह दृश्यमान प्रदेशा अनन्तवें भागसे हीन है । तदनन्तर जघन्य बादरसाम्परायिक कृष्टिमें प्रदेशाय असंख्यातगुणा है । यह श्रेणी प्ररूपणा ( सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि- कारक के प्रथम समयसे लगाकर ) चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिक तक करना चाहिए ॥१२७०-१२७४॥ चूर्णिसू०10- प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिककी भी कृष्टियो में दृश्यमान प्रदेशाग्रकी १ सेचीयादो सेचीयसंभवमस्सियूण, सभवसच्चमस्तियूण | जयध० Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८६७ बादरसांपराइयकिट्टीओ धरेदि तत्थ पदेसग्गं विसेसहीणं होन्ज । १२७७. सुहुमसांपराइयकिट्टीसु कीरमाणीसु लोभस्स चरिमादो बादरसांपगइयकिट्टीदो सुहुमसांपराइयकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । १२७८. लोभस्स विदियकिट्टीदो चरिमवादरसांपराइयकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । १२७९. लोभस्स विदियकिट्टीदो सुहुमसांपराइयकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । १२८०. पढमसमय किट्टीवेदगस्स कोहस्स विदियकिट्टीदो माणस्स पडमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । १२८१. कोहस्स तदियकिट्टीदो माणस्स पडमाए संगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२८२. माणस्स पढमादो [ संगह-] किट्टीदो मायाए पढमकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२८३. माणस्स विदियादो संगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२८४. माणस्स तदियादो संगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२८५. मायाए परमसंगहकिट्टीदो लोभस्स पहमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२८६. मायाए विदियादो संगहकिट्टीदो लोभस्स पहमाए [संगहकिट्टीए ] संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२८७. मायाए तदियादो संगहकिट्टीदो लोभस्स पडमाए संगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । यह उपयुक्त ही श्रेणीप्ररूपणा है। केवल इतनी विशेषता है कि यदि वह सेचीयसे अर्थात् संभावना-सत्यसे बादरसाम्परायिक-कृष्टियोको धारण करता है, तो वहॉपर प्रदेशाग्र विशेष हीन होगा। की जानेवाली सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें लोभकी चरम वादरसाम्परायिक कृष्टिसे सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिमें अल्प प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। लोभकी द्वितीय कृष्टिसे चरम बादरसाम्परायिक कृष्टिमे संख्यातगुणित प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। ( इसका कारण यह है कि लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्रसे द्वितीय संग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्र संख्यातगुणित हैं। ) लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें सख्यातगुणित प्रदेशाग्र संक्रमण करता है ॥१२७५-१२७९॥ __ चूर्णिसू०-प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके अर्थात् कृष्टिकरणकालके समाप्त होनेपर अनन्तर कालमे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अपकर्षण कर उसका वेदन करनेवालेके क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें अल्प प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि से मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि में विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। मानकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशान संक्रमण करता है। मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। मायाकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें विशेष Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ कसाय पाहुडे सुत्त [ १५ चारित्र मोह-क्षपणाधिकार १२८८. लोभस्स पढमकिट्टीदो लोभस्स चेव विदियसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२८९. लोभस्स चेव परमसंगह किट्टीदो तस्स चेव तदियसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२९०. कोहस्स पढमसंगह किट्टीदो माणस्स परमसंग किट्टी संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । १२९१. कोहस्स चेव पढमसंगह किट्टीदो कोहस्स चैव तदियसंगह किट्टीए संकपदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १२९२. कोहस्स परम [ संगह- ] किट्टीदो कोहरस चेव विदियसंगह किट्टीए संक्रमदि पदेराग्यं संखेजगुणं । १२९३. एसो पदेससंकमो अडकतो वि उक्खेदिदो सुहुमसां पराइय किड्डीसु करमाणी आसओ त्ति काढूण | १२९४. सुहुमसां पराज्य किट्टीस पडमसमये दिज्जदि पदेसग्गं थोवं । विदियसमये असंखेज्जगुणं जाब चरिमसमयादोत्ति ताव असंखेज्जगुणं । १२९५. एदेण कमेण लोभस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से पढमट्ठिदीए आवलिया समयाहिया सेसा ति तम्हि समये चरिमसमयवादरसांपराओ । १२९६. तम्हि चेव समये लोभस्स चरिमवादरसांपराइय किट्टी संकुम्भमाणा संछुद्धा । १२९७ लोभस्स अधिक प्रदेशाय संक्रमण करता है । मायाकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे विशेष अधिक प्रदेशाय संक्रमण करता है । लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे लोभको ही द्वितीय संग्रहकृष्टिमे विशेष अधिक प्रदेशाय संक्रमण करता है । लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे उसकी ही तृतीय संग्रहकृष्टि विशेष अधिक प्रदेशाय संक्रमण करता है । क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि से मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संख्यातगुणित प्रदेशाय संक्रमण करता है । क्रोधकी ही प्रथम संग्रहकृष्टिसे कोकी ही तृतीय संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशाय संक्रमण करता है । क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे क्रोधकी ही द्वितीय संग्रहकृष्टिमे संख्यातगुणित प्रदेशाय संक्रमण करता है । यह बादरकृष्टि सम्बन्धी प्रदेशाग्र- संक्रमण यद्यपि अतिक्रान्त हो चुका है, तथापि की जानेवाली सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमें आश्रयभूत मान करके पुनः कहा गया है ॥१२८०-१२९३॥ चूर्णिसू०-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियो में प्रथम समयमें अल्प प्रदेशाग्र दिया जाता है । द्वितीय समयमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र दिया जाता है। इस प्रकार वादरसाम्परायिक के अन्तिम समय तक असंख्यातगुणित प्रदेशाय दिया जाता है । इस क्रमसे लोभकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिमें जिस समय एक समय अधिक आवली शेप रहती है, उस समय में वह चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिक होता है । उस ही समयमे अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अन्तिम समय में लोभकी संक्रम्यमाण चरम वादरसाम्परायिककृष्टि सामस्त्यरूपसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियो में संक्रान्त हो जाती है । लोभकी १ पुणरुक्खिविदू भणिदो । पुणरुच्चाइदूण भणिदो त्ति वृत्तं होइ । जयध० Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २०६ ] चारित्र मोहक्षपक- कृष्टिवेदक क्रिया- निरूपण ८६९ विट्टी व दो आवलियबंधे समयूणे मोत्तण उदयावलियपविद्धं च मोत्तूण सेसाओ विदियकट्टीए अंतर किट्टीओ संछुग्भमाणीओ संछुद्धाओ । १२९८ तम्हि चेव लोभसंजणस्स द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तं । १२९९. तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो अहोरत्तस्स अंतो । १३०० णामा- गोद-वेदणीयाणं बादरसांपराइयस्स जो चरिमो द्विदिबंधो सो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहिं हाइदुण वस्सस्स अंतो जादो । १३०१ चरिमसमयवादर सांपराइयस्स मोहणीयस्स द्विदिसंत कम्ममंतोमुहूतं । १३०२. तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १३०३. णामा- गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्पमसंखेज्जाणि वस्त्राणि । १३०४. से काले पढमसमयसुहुमसांपराइयो जादो । १३०५ ताधे चेव सुहुमसांप इयकिट्टीणं जाओ द्विदीओ तदो ट्ठिदिखंडयमा गाइदं । १३०६. तदो पदेसग्गमोकड्डियूण उदये थोवं दिण्णं । १३०७. अंतोमुहुत्तद्धमेत्तमसंखेज्जगुणाए सेडीए [ देदि ] । १३०८. गुणसेढिणिक्खेवो सुहुमसांपराइयद्वादो विसेयुत्तरो । १३०९. गुणसे डिसीस गादो जा अणंतरद्विदी तत्थ असंखेज्जगुणं । १३१० तत्तो विसेसहीणं ताव जाव पुव्वसमये अंतरमासी, तस्स अंतरस्स चरिमादो अंतरद्विदीदो त्ति । १३११द्वितीय कृष्टि भी एक समय कम दो आवलीप्रमित नवकबद्ध समयप्रबद्धोको छोड़कर, तथा उदयावली - प्रविष्ट द्रव्यको छोड़कर शेप द्वितीयकृष्टिकी संक्रम्यमाण अन्तरकृष्टिया सक्षुब्ध अर्थात् संक्रमणको प्राप्त हो जाती हैं ।। १२९४-१२९७॥ चूर्णिसू० 0 - उस ही समय मे संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है । शेप तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तः अहोरात्र अर्थात् कुछ कम एक दिन-रात प्रमाण होता है । नाम, गोत्र और वेदनीय, इन तीन कर्मोंका बादरसाम्परायिकके जो चरम स्थितिबन्ध था, वह संख्यात वर्षसहस्रो से घटकर अन्तः वर्ष अर्थात् कुछ कम एक वर्षमात्र रह जाता है । चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिकके मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त है । शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है । नाम, गोत्र और वेदनी इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष है ।। १२९८-१३०३॥ चूर्णि सू० - तदनन्तर कालमे वह प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकसंगत हो जाता है । उस ही समयमे सूक्ष्मसाम्परायिककी जो अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितियाँ हैं, उनसे स्थितिकांडकरूपसे घात करनेके लिए ग्रहण करता है, अर्थात् उन स्थितियो के संख्यातवें भागको ग्रहण करके स्थितिकांडकघात प्रारम्भ करता है । तदनन्तर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोकी उत्कीर्यमाण और अनुत्कीर्यमाण स्थितियोसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण कर उदयमे अल्प प्रदेशाको देता है । पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल तक असंख्यातगुणित श्रेणीसे देता है । गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम सूक्ष्मसाम्परायककालसे विशेष अधिक है । गुणश्रेणिशीर्पसे जो अनन्तर स्थिति है उसमें असंख्यात - गुणित प्रदेशाको देता है । इससे आगे अन्तरस्थितियों में उत्तरोत्तर विशेष - हीन क्रमसे प्रदेशाय तब तक देता चला जाता है, जब तक कि पूर्व समयमे जो अन्तर था उस अन्तरकी Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार चरिमादो अंतरविदीदो पुव्चसमये जा विदियट्टिदी तिस्से आदिद्विदीए दिज्जमाणगं पदेसग्गं संखेज्जगुणहीणं १३१२. तत्तो विसेसहीणं । १३१३. पडमसमयसुहुमसांपराइयस्स जमोकड्डिजदि पदेसग्गं तमेदीए सेडीए णिक्खिवदि । १३१४. विदियसमए वि एवं चेव, तदियसमए वि एवं चेव । एस कमो ओकड्डिदण णिसिंचमाणगस्स पदेसग्गस्स ताव जाव सुहुमसांपराइयस्स पढमद्विदिखंडयं णिल्लेविदं ति । १३१५. विदियादो ठिदिखंडयादो ओकड्डियूण [जं] पदेसग्गमुदये दिज्जदि तं थोवं । १३१६. तदो दिज्जदि असंखेज्जगुणाए सेढीए ताव जाव गुणसेढिसीसयादो उपरिमाणंतरा एक्का हिदि त्ति। १३१७ तदो विसेसहीणं । १३१८. एत्तो पाए सुहुमसांपराइयस्स जाव मोहणीयस्स हिदिघादो ताव एस कमो । १३१९. पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स जं दिस्सदि पदेसग्गं तस्स सेढिपरूवणं वत्तहस्सामो । १३२०. तं जहा । १३२१. पढमसमयसुहुयसांपराइयस्स उदये दिस्मदि पदेसग्गं थोवं । विदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणं दीसदि । (एवं) ताव जाव (गुणसेढिसीसयं ति । ) गुणसेढिमीसयादो अण्णा च एका हिदि त्ति । १३२२ तत्तो विसेसहीणं ताव जाव चरिमअंतरहिदि त्ति । १३२३ तत्तो असंखेज्जगुणं । १३२४. तत्तो अन्तिम स्थिति नहीं प्राप्त हो जाती है । चरम अन्तरस्थितिसे पूर्व समयमें जो द्वितीय स्थिति है, उसकी प्रथम स्थितिमे दीयमान प्रदेशाग्र संख्यातगुणित हीन है। इससे आगे उपरिम स्थितिमे दीयमान प्रदेशाग्र विशेप हीन है ॥१३०४-१३१२॥ चूर्णिसू०-प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जिस प्रदेशाप्रका अपकर्षण करता है, उसे इसी श्रेणीके क्रमसे देता है। द्वितीय समयमे भी इसी क्रमसे देता है और तृतीय समयमें भी इसी क्रमसे देता है। इस प्रकार अपकर्षण करके निपिच्यमान प्रदेशाग्रका यह क्रम तव तक जारी रहता है, जब तक कि सूक्ष्मसाम्परायिकका प्रथम स्थितिकांडक निर्लेपित ( समाप्त ) होता है। द्वितीय स्थितिकांडकसे अपकर्षण कर जो प्रदेशाग्र उदयमें दिया जाता है, वह अल्प है। इससे आगे असंख्यातगुणित श्रेणी के क्रमसे तव तक प्रदेशाग्र दिया जाता है, जब तक कि गुणश्रेणीशीर्षसे उपरिम एक अनन्तर स्थिति प्राप्त होती है। इससे आगे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इस स्थलसे लगाकर सूक्ष्मसाम्परायिकके जब तक मोहनीयकर्मका स्थितिघात होता है. तब तक यह क्रम जारी रहता है ॥१३१३-१३१८॥ चूर्णिसू०-प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके जो प्रदेशाग्र दिखाई देता है, उसकी श्रेणीप्ररूपणाको कहेगे। वह इस प्रकार है-प्रथम समयमे सूक्ष्मसाम्परायिकके उदयमे अल्प प्रदेशाग्र दिखाई देता है। द्वितीय स्थितिमे असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र दखाई देता है। इस प्रकार यह क्रम गुणश्रेणीशीर्ष तक जारी रहता है। तथा गुणश्रेणीशीर्षसे आगे अन्य एक स्थिति तक जारी रहता है। इससे आगे चरम अन्तर-स्थिति तक विशेष हीन प्रदेशाग्र दिखाई देता है। तदनन्तर असंख्यातगुणित प्रदेशान दिखाई देता है। तत्पश्चात विशेष हीन प्रदे Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७१ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण विसेसहीणं । १३२५ एस कमो ताव जाव सुहुमसांपराइयस्स पहमद्विदिखंडयं चरिमसमयअणिल्लेविदं ति । १३२६. पढमे द्विदिखंडए णिल्लेविदे [ जं] उदये पदेसग्गं दिस्सदि तं थोवं । विदियाए हिदीए असंखेज्जगुणं । एवं ताव जाव गुणसेडिसीसयं । गुणसेडिसीसयादो अण्णा च एका हिदि त्ति असंखेज्जगुणं दिस्सदि। १३२७. तत्तो विसेसहीणं जाव उक्कस्सिया मोहणीयस्स हिदि त्ति । १३२८ सुहुमसांपराइयस्स पढमद्विदिखंडए पढमसमयणिल्लेविदे गुणसेडिं मोत्तूण केण कारणेण सेसिगासु द्विदीसु एयगोवुच्छा सेढी जादा त्ति ? एदस्स साहणमिमाणि अप्पाबहुअपदाणि । १३२९. तं जहा । १३३०. सव्वत्थोवा सुहुमसांपराइयद्धा । १३३१. पडमसमयसुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स गुणसेडिणिक्खेवो विसेसाहिओ । १३३२. अंतरविदीओ संखेज्जगुणाओ। १३३३. सुहुमसांपराइयस्स परमद्विदिखंडयं मोहणीये संखेज्जगुणं । १३३४. पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्म संखेज्जगुणं । १३३५. लोभस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पढमद्विदीए जाव तिण्णि आवलियाओ सेसाओ ताव लोभस्स विदियकिट्टीदो लोभस्स तदियकिट्टीए संछुभदि पदेसग्गं, तेण परंण संछुब्भदिः सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संछुब्भदि । १३३६. लोभस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पहमशान दिखाई देता है । यह क्रम तब तक जारी रहता है, जब तक कि सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम स्थितिकांडकके समाप्त होनेका चरम समय नहीं प्राप्त होता है। प्रथम स्थितिकांडकके निर्लेपित होनेपर जो प्रदेशाग्र उदयमें दिखाई देता है, वह अल्प है। द्वितीय स्थितिमे जो प्रदेशाग्र दिखाई देता है, वह असंख्यातगुणित है। इस प्रकार यह क्रम तव तक जारी रहता है, जब तक कि गुणश्रेणीशीर्ष प्राप्त होता है। गुणश्रेणीशीर्षसे आगे एक अन्य स्थिति प्राप्त होने तक असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र दिखाई देता है। तत्पश्चात् मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थितितक विशेष हीन प्रदेशाग्र दिखाई देता है ।। १३१९-१३२७॥ चूर्णिसू०-सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम स्थितिकांडकके उत्कीर्ण होनेके पश्चात् प्रथम समयमें गुणश्रेणीको छोड़कर शेष स्थितियोमे किस कारणसे एक गोपुच्छारूप श्रेणी हुई है, इस बातके साधनार्थ ये वक्ष्यमाण अल्पबहुत्व-पद जानने योग्य हैं। वे इस प्रकार है-सूक्ष्मसाम्परायिकका काल सबसे कम है। प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके मोहनीयका गुणश्रेणीनिक्षेप विशेष अधिक है। अन्तरस्थितियाँ संख्यातगुणी है। सूक्ष्मसाम्परायिकके मोहनीयका प्रथम स्थितिकांडक संख्यातगुणा है। प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके मोहनीयका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ॥१३२८.१३३४॥ चूर्णिसू०-लोभकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथम स्थितिकी जव तक तीन आवलियाँ शेष हैं, तब तक लोभकी द्वितीय कृष्टिसे लोभकी तृतीय कृष्टिमे प्रदेशाग्रको संक्रमित करता है। उसके पश्चात् तृतीय कृष्टिमे संक्रमित नहीं Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार हिदी तिस्से पढमद्विदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए ताधे जा लोभस्स तदियकिट्टी सा सव्वा णिरवयवा सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकंता । १३३७ जा विदियकिट्टी तिस्से दो आवलिया मोत्तूण समयूणे उदयावलियपविटुं च सेसं सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकंतं । १३३८ ताधे चरिमसमयवादरसांपराइओ मोहणीयस्स चरिमसमयबंधगो। १३३९. से काले पडमसमयसुहुमसांपराइओ । १३४०. ताधे सुहमसांपराइयकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । १३४१. हेट्ठा अणुदिण्णाओ थोवाओ। १३४२. उवरि अणुदिण्णाओ विसेसाहियाओ । १३४३. मज्झे उदिण्णाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ असंखेजगुणाओ १३४४. सुहुमसांपराइयस्स संखेज्जेसु हिदिखंड यसहस्सेसु गदेसु जमपच्छिमं हिदिखंडयं मोहणीयस्स तम्हि द्विदिखंडए उक्कीरमाणे जो मोहणीयस्स गुणसे दिणिक्रयेवो तस्स गुणसेडिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेन्जदिभागो आगाइदो । १३४५. तम्हि द्विदिखंडए उक्किण्णे तदोप्पहुडि मोहणीयस्स णत्थि हिदिघादो। १३४६. जत्तियं सुहुमसांपराइयद्धाए सेसं तत्तियं मोहणीयस्स हिदिसंतसम्म ससं १३४७ एत्तिगे। करता, किन्तु सर्व प्रदेशाग्रको सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमे संक्रमित करता है । लोभकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालके जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथम स्थितिमे एक समय अधिक आवलीके शेप रहने पर उस समय जो लोभकी तृतीय कृष्टि है वह सब निरवयव रूपसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमे संक्रान्त होती है। जो द्वितीय कृष्टि है, उसके एक समय कम दो आवलीप्रमित नवकवद्ध समयप्रबद्धको छोड़कर, और उदयावलीप्रविष्ट द्रव्यको भी छोड़कर शेष सर्वप्रदेशाग्र सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमे संक्रान्त हो जाता है। उस समय यह क्षपक चरम समयवर्ती वादरसाम्परायिक और मोहनीयकर्मका चरमसमयवर्ती वन्धक होता है।।१३३५-१३३८॥ चर्णिस०-तदनन्तरकालमें वह क्षपक प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता है । उस समयमे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोके असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होते हैं। अधस्तनभागमें जो कृष्टियाँ अनुदीर्ण हैं, वे अल्प हैं । उपरिम भागमे जो कृष्टियाँ अनुदीर्ण है, वे विशेष अधिक है। मध्यमे जो उदीर्ण सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियाँ है, वे असंख्यातगुणित है। सूक्ष्मसाम्परायिकके संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोके व्यतीत हो जानेपर जो मोहनीयकर्मका अन्तिम स्थितिकांडक है, उस स्थितिकांडकके उत्कीर्ण किये जानेपर जो मोहनीयकर्मका गुणश्रेणीनिक्षेप है, उस गुणश्रेणीनिक्षेपके उत्तरोत्तर अग्र-अग्र प्रदेशाग्रसे संख्यातवे भाग घात करनेके लिए ग्रहण करता है। उस स्थितिकांडकके उत्कीर्ण हो जानेपर आगे मोहनीयका स्थितिघात नहीं होता है । ( केवल अधःस्थितिके द्वारा ही अवशिष्ट रही अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थितियाँ निर्जीर्ण होती है। किन्तु ज्ञानावरणादिकर्मों के अनुभागधात इससे ऊपर भी होते रहते है । ) सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके कालमै जितना समय शेष है, उतना ही मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व शेप है। ( और उस स्थितिसत्त्वको अधःस्थितिके द्वारा निर्जीर्ण करता है । ) इतनी प्ररूपणा करनेपर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपककी प्ररूपणा समाप्त हो जाती है ॥१३३९-१३४७॥ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र मोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया- निरूपण ८७३ १३४८. इदार्णि सेसाणं गाहाणं सुत्तफासो' कायथ्यो । १३४९. तत्थ ताव गा० २०८ । दसमी मूलगाहा । ( १५४) किट्टीकदम्मि कम्मे के बंधदि के व वेदयदि अंसे । संकामेदि च के के केसु असंकामगो होदि ॥ २०७॥ १३५०. एदिस्से पंच भासगाहाओ । १३५१. तासि समुक्कित्तणा । (१५५) दससु च वस्सस्संतो बंधदि णियमा द सेस अंसे । दु देसावरणीयाई जेसिं ओवट्टणा अस्थि ॥ २०८ ॥ १३५२. एदिस्से गाहाए विहासा । १३५३. एदीए गाहाए तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो च अणुभागबंधो च णिद्दिट्ठो | १३५४. तं जहा । १३५५. कोहस्स चूर्णिसू० [० - अब शेष गाथाओं का सूत्रस्पर्श करना चाहिए | १३४८ ॥ विशेषार्थ - पूर्व में अर्थरूपसे विभाषित गाथासूत्रोका उच्चारण करके गाथाके पदरूप अवयवोंका शब्दार्थ कर लेनेको सूत्रस्पर्श कहते है । वह सूत्रस्पर्श इस समय करना आवश्यक है । इसका अभिप्राय यह है कि कृष्टि सम्बन्धी जो ग्यारह मूलगाथाएँ हैं - उनमे से प्रारम्भकी नौ गाथाओकी तो विभाषा की जा चुकी है । अन्तिम दो गाथाओकी विभाषा स्थगित कर दी गई थी, सो वह अब की जाती है । चूर्णिसू० - उनमें से यह दशवीं मूलगाया है ॥ १३४९॥ मोहनीय कर्म कृष्टि रूपसे परिणमा देनेपर कौन-कौन कर्मको बाँधता है और कौन-कौन कर्मो के अंशोंका वेदन करता है ? किन किन कर्मोंका संक्रमण करता है और किन किन कर्मोंमें असंक्रामक रहता है, अर्थात् संक्रमण नहीं करता है ? ॥२०७॥ इस मूल गाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली पॉच भाष्य-गाथाएँ हैं । उनकी समुत्कीर्तना इस प्रकार है ।। १३५०-१३५१। क्रोध-प्रथम कृष्टिवेदकके चरम समयमे शेप कर्माशोंकी अर्थात् मोहनीयको छोड़कर शेष तीन घातिया कर्मोकी नियमसे अन्तर्मुहूर्त कम दश वर्षप्रमाण स्थितिका बन्ध करता है । घातिया कर्मोंमें जिन-जिन कर्मोकी अपवर्तना संभव है, उनका देशघातिरूप से ही बन्ध करता है । ( तथा जिनकी अपवर्तना संभव नही है, उनका सर्वघातिरूपसे ही बन्ध करता है | ) || २०८ || चूर्णि सू० - अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है - इस गाथा के द्वारा मोहनीयकर्मको छोड़कर शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध निर्दिष्ट किया १ को सुत्तफासो णाम १ सूत्रस्य स्पर्शः सूत्रस्वर्गः, पुव्वमत्थमुहेण विहासिदाणं गाहासुत्तागमेण्टिमुच्चारणपुरस्सरमवयवत्थपरामरसो सुत्तफासो त्ति भणिद होइ । जयध० ११० " Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ ८७४ फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार पढमकिट्टिचरिमसमयवेदगस्स तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहि परिहाइदूण दसण्हं वस्साणमंतो जादो । १३५६. अथाणुभागबंधो-तिहं घादिकम्माणं किं सव्वघादी देसघादि त्ति ? १३५७. एदेसि घादिकम्माण जेसिमोवट्टणा अत्थि ताणि देसघादीणि बंधदि, जेसिमोबट्टणा णत्थि, ताणि सव्वघादीणि बंधदि । १३५८. ओवट्टणा सण्णा पुव्वं परूविदा। १३५९. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । १३६०. तं जहा । (१५६) चरिमो बादररागो णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य ज सेसं ॥२०९॥ १३६१. विहासा । १३६२. जहा । १३६३. चरिमसमय-बादरसांपराइयस्स णामा-गोद-वेदणीयाणं हिदिबंधो वासं देसूणं । १३६४. तिण्डं घादिकम्माणं मुहुत्तपुधत्तो द्विदिवंधो। १३६५. एत्तो तदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । १३६६. तं जहा । गया है । वह इस प्रकार है-क्रोधकी प्रथम कृष्टिके चरमसमवर्ती वेदकके शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात-सहस्र वर्षों से घटकर दश वर्षों के अन्तर्वर्ती हो जाता है, अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कम दश वर्षप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है ॥१३५२-१३५५॥ शंका-तीनों घातिया कर्मोंका अनुभागवन्ध क्या सर्वघाती होता है, अथवा देशघाती होता है ? ॥१३५६॥ समाधान-इन घातिया कर्मोमेसे जिनकी अपवर्तना संभव है, उनका देशघाती अनुभागबन्ध करता है और जिनकी अपवर्तना संभव नहीं है, उनको सर्वघातिरूपसे बॉधता है । अपवर्तना संज्ञाका अर्थ पहले प्ररूपण किया जा चुका है ॥१३५७-१३५८॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥१३५९-१३६०॥ चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिक क्षपक नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मको वर्षके अन्तर्गत बाँधता है। तथा शेष जो तीन घातिया कर्म हैं, उन्हें एक दिवसके अन्तर्गत वाँधता है ॥२०९॥ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिकके नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध कुछ कम एक वर्षप्रमाण होता है। शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण होता है ॥१३६१-१३६४॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥१३६५-१३६६॥ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २११ ] चारित्र मोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया- निरूपण (१५७) चरिमो य सुहुमरागो णामा - गोदाणि वेदणीयं च । दिवस संतो बंधदि भिण्णमुहुत्तं तु जं सेसं ॥ २९० ॥ ८७५ १३६७. विहासा । १३६८. चरिमसमय सुहुमसांपराइयस्स णामा - गोदाणं दिबंधो अंतमुत्तं (अट्ठ मुहुत्ता) । १३६९. वेदणीयस्स द्विदिबंधो वारस मुहुत्ता । १३७०, तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तो । १३७१. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१५८) अध सुदमदि- आवरणे च अंतराइए च देसमावरणं । लडी यं वेदयदे सव्वावरणं अलद्धी य ॥ २१९ ॥ १३७२. लद्धीए विहासा । १३७३ जदि सच्चेसिमक्खराणं खओवसमो गदो तदो सुदाचरणं मदिआवरणं च देसघादिं वेदयदि । १३७४ अध एकस्स वि अक्खरस्स दो खओवसमो तदो सुद-मदि -आवरणाणि सव्वधादीणि वेदयदि । १३७५. एवमेदसिं तिन्हं घादिकम्माणं जासि पयडीणं खओवसमो गदो तासि पयडीणं देसघादि चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मको एक दिवसके अन्तर्गत बाँधता है । शेष जो घातिया कर्म हैं, उन्हें भिन्नमुहूर्त -प्रमाण बाँधता है ॥२१०॥ चूर्णिसू० [0 - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है - चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके नाम और गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध आठ मुहूर्तप्रमाण होता है | वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध वारह मुहूर्तप्रमाण होता है । शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण होता है | ॥ १३६७-१३७०॥ चूर्णिसू०[० - अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ १३७१ ॥ मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्ममें जिनकी लब्धि अर्थात् क्षयोपशमविशेषको वेदन करता है, उनके देशघाति-आवरणरूप अनुभागका वेदन करता है । जिनकी अलब्धि है, अर्थात् क्षयोपशम विशेष सम्पन्न नहीं हुआ है उनके सर्वघाति आवरणरूप अनुभागका वेदन करता है । अन्तराय कर्मका देशघाति - अनुभाग वेदन करता है || २११॥ चूर्णिसू० - 'लब्धि' इस पदकी विभाषा की जाती है - यदि सर्व अक्षरोका क्षयोपशम प्राप्त हुआ है, तो वह श्रुतज्ञानावरण और मतिज्ञानावरणको देशघातिरूपसे वेदन करता है । यदि एक भी अक्षरका क्षयोपशम नही हुआ अर्थात् अवशिष्ट रह गया, तो मति श्रुतज्ञानावरण कर्मोंको सर्वधातिरूपसे वेदन करता है । इसी प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिया कर्मों की जिन प्रकृतियोंका क्षयोपशम प्राप्त हुआ है, उन Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार उदयो । जासिं पयडीणं खओवसमो ण गदो, तासि पयडीणं सव्वधादि-उदयो । प्रकृतियोंका देशघाति-अनुभागोदय होता है। तथा जिन प्रकृतियोका क्षयोपशम प्राप्त नहीं हुआ है, उन प्रकृतियोका सर्वघाति-अनुभागोदय होता है ॥ १३७२-१३७५॥ विशेषार्थ-मतिज्ञानावरणीय आदि कर्मोंके क्षयोपशमविशेषको लब्धि कहते है । क्षयोपशमशक्तिके प्राप्त न होनेको अलब्धि कहते है । क्षपकश्रेणीपर चढ़ने के समय जिसके मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकर्मका सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशम प्राप्त है, अर्थात् जो चौदह पूर्वरूप श्रुतज्ञानका धारक है, और कोष्ठबुद्धि, बीजवुद्धि, संभिन्नसंश्रोतृबुद्धि और पदानुसारित्व इन चार मतिज्ञानावरणकर्मोंके क्षयोपशमविशेपसे उत्पन्न होनेवाली ऋद्धि या लब्धियोसे सम्पन्न है, वह नियमसे इन प्रकृतियोंके देशवातिरूप अनुभागका वेदन करता है। किन्तु जिसके कोप्टवुद्धि आदि चार मतिज्ञान-लब्धियाँ प्राप्त नहीं हुई है, और जिसके द्वादशांग श्रुतके अक्षरोमेंसे एक भी अक्षरका क्षयोपशमका होना शेष है, वह इन प्रकृतियोके सर्वघातिरूप अनुभागका वेदन करता है। क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीव दोनो प्रकारके देखे जाते हैं, अतः उनके तदनुसार ही देशघाति-अनुभागका उदय सूत्रकारने 'लब्धि' पदसे और सर्वघाति-अनुभागका उदय 'अलब्धि' पदसे सूचित किया है । इस विवेचनसे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि दशवें गुणस्थानके पूर्व मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मका सम्पूर्ण या सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशम हो भी सकता है और नहीं भी। किन्तु इसके अनन्तर नियमसे दोनों कर्मोंका सम्पूर्ण क्षयोपशम प्राप्त हो जाता है, और तव वह क्षपक चतुरमलवुद्धि-ऋद्धिधारी एवं पूर्ण द्वादशांग श्रुतज्ञानका पारगामी बन जाता है । यहाँ इतना और विशेष जानना चाहिए कि श्रेणीपर चढ़ते समय मति-श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम जितना होता है, उससे आगे-आगेके गुणस्थानोंमे उसका क्षयोपशम उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और इसी कारण उसका मतिज्ञान वा श्रुतज्ञान उत्तरोत्तर विस्तृत एवं विशुद्ध होता जाता है। किन्तु यदि कोई क्षपक एक अक्षरके क्षयोपशमसे हीन सकल श्रुतका धारक होकरके भी क्षपकश्रेणीपर चढ़ना प्रारंभ करता है, तो भी उसके उक्त दोनो कर्मोंके सर्वघाति आवरणरूप अनुभागका उदय दशवें गुणस्थानके अन्त तक पाया जाता है। इसी प्रकार क्षपकश्रेणीपर चढ़ते समय जिनके अवधिज्ञानावरण आदि कर्मोंका क्षयोपशम होगा उनके उसका देशघाति-अनुभागोदय पाया जायगा, अन्यथा सर्वघाति-अनुभागोदय पाया जायगा। दर्शनावरणीयकर्मकी चक्षुदर्शनावरणीय आदि उत्तर प्रकृतियोके क्षयोपशमकी संभवता-असंभवतामें भी यही क्रम जानना चाहिए। क्योकि सभी जीवोमे इन सभी प्रकृतियों के समान क्षयोपशमका नियम नही देखा जाता है। इसी प्रकार अन्तरायकर्मके विपयमें भी जानना चाहिए। अर्थात् जिसके श्रेणी चढ़ते समय अन्त. रायकर्मका सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशम हो गया है, और जो उत्कृष्ट मनोवललब्धिसे सम्पन्न है, वह अन्तरायकर्मके देशघाति-अनुभागको वेदन करता है। किन्तु जिसके पूर्ण क्षयोपशम नहीं प्राप्त हुआ है, तो वह उसके सर्वघाति-अनुभागको ही वेदन करता है। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१२ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया- निरूपण १३७६. एतो पंचमीए भासगाहाए समुत्तिणा । (१५९) जसणा मयुच्च गोदं वेदयदि नियमसा अनंतगुणं । गुणहीणमंतराय से काले से सगा भज्जा ॥ २१२ ॥ ८ভ १३७७. विहासा । १३७८. जसणाममुच्चा गोदं च अनंतगुणाए सेटीए वेदयदि । १३७९. सेसाओ णामाओ कथं वेदयदि १ १३८०, जसणामं परिणामपच्चइयं मणुस - तिरिक्खजोणियाणं । १३८१. जाओ असुभाओ परिणामपचगाओ ताओ अनंतगुणहीणाए सेडीए वेदयदिति । १३८२. अंतराइयं सव्यमणंतगुणहीणं वेदयदि । १३८३. भवोपग्गहियाओ णामाओ छबिहाए वड्डीए छव्विहाए हाणीए भजिदव्वाओ । १३८४. केवलणाणावर - णीयं केवलदसणावरणीयं च अनंतगुणहीणं वेदयदि । १३८५. सेसं चउन्विहं णाणावरणीयं जदि सव्वधादिं वेदयदि णियमा अनंतगुणहीणं वेदयदि । १३८६. अध देस चूर्णिसू०- (० - अब इससे आगे पॉचवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ १३७६ ॥ कृष्टिवेदक क्षपक यशःकीर्ति नामकर्म और उच्चगोत्र कर्म इन दोनों कमोंके अनन्तगुणित वृद्धि रूप अनुभागका नियमसे वेदन करता है । अन्तराय कर्मके अनन्तगणित हानिरूप अनुभागका वेदन करता है । अनन्तर समय में शेष कर्मोंके अनुभाग भजनीय हैं ||२१२॥ चूर्णि सू० - [0 - उक्त भाष्यगाथाकी विभापा इस प्रकार है - यशः कीर्ति नामकर्म और उच्चगोत्रकर्मको अनन्तगुणित श्रेणीसे वेदन करता है । ( सातावेदनीयको भी अनन्तगुणितश्रेणी वेदन करता है । ) ।। १३७७-१३७८ ॥ शंका - नामकर्मकी शेप प्रकृतियोको किस प्रकार वेदन करता है ? ॥१३७९ ॥ समाधान - मनुष्य और तिर्यग्योनिवाले जीवोके यश: कीर्ति नामकर्म परिणाम - प्रत्ययिक है । ( अतएव जितनी परिणाम विपाकी सुभग, आदेय आदि शुभ नामकर्म-प्रकृतियाँ हैं उन सबको अनन्तगुणित श्रेणी के रूपसे वेदन करता है । ) जो दुभंग, अनादेय आदि अशुभ परिणाम-प्रत्ययिक प्रकृतियाँ है उन्हें अनन्तगुणित हीन श्रेणीके द्वारा वेदन करता है ॥१३८०-१३८१॥ चूर्णिसू०-अन्तरायकर्मकी सर्व प्रकृतियोको अनन्तगुणित हीन श्रेणी के रूपसे वेदन 1 करता है । भवोपग्रहिक अर्थात् भवविपाकी नामकर्मकी प्रकृतियोका छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानिके द्वारा अनुभागोदय भजितव्य है । केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्मको अनन्तगुणित हीन श्रेणीके रूपसे वेदन करता है । शेष चार प्रकारका ज्ञानावरणीय कर्म यदि सर्वघातिरूपसे वेदन करता है, तो नियमसे अनन्तगुणित हीन वेदन करता है । यदि देशवातिरूपसे वेदन करता है, तो यहॉपर उनका अनुभागोदय छह प्रकारकी वृद्धि Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७८ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार घादिं वेदयदि, एत्थ छव्विहाए वडीए छन्विहाए हाणीए भजिदव्वं । १३८७, एवं चेव दंसणावरणीयस्स जं सव्वधादिं वेदयदि तं णियमा अनंतगुणहीणं । १३८८. जं देसघादिं वेदयदि तं छव्विहाए वड्डीए छव्विहाए हाणीए भजियव्वं । १३८९. एवमेसा दसमी मूलगाहा किट्टीसु विहासिदा समत्ता | १३९०. एत्तो एक्कारसमी मूलगाहा । (१६०) किट्टीकदम्मि कम्मे के वीचारा दु मोहणीयस्स । सेसाणं कम्माणं तहेव के के दु वीचारा ||२१३|| १३९१. एदिस्से भासगाहा णत्थि । १३९२. विहासा । १३९३. ऐसा गाहा पुच्छासुतं । १३९४. तदो मोहणीयस्स पुव्वभणिदं । १३९५ तदो वि पुण इमिस्से गाहाए फस्सकण्णकरणमणु संवण्णेयव्वं । १३९६. ठिदिवाण १ डिदिसंतकम्मेण २ उदएण ३ उदीरणाए ४ ट्ठिदिखंडगेण ५ अणुभागघादेण ६ ट्ठिदिसंतकम्मेण । ७ अणुभागसंतकम्मेण ८ वंघेण ९ बंधपरिहाणीए १० । और छह प्रकारकी हानिके रूपसे भजितव्य है । इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियोंको यदि सर्वधातिरूपसे वेदन करता है, सो नियमसे अनन्तगुणित हीन रूपसे वेदन करता है । और यदि देशघातिरूपसे वेदन करता है तो दर्शनावरणीय कर्मका अनुभागोदय छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानिसे भजितव्य है ।। १३८२-१३८८।। चूर्णिसू०[0- इस प्रकार यह दशमी मूलगाथा कृष्टियोके विषयमे विभाषिता की गई ।। १३८९॥ चूर्णिसू • (० - अब इससे आगे ग्यारहवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१३९०॥ संज्चलनकपायरूप कर्मके कृष्टिरूपसे परिणत हो जाने पर मोहनीय कर्म के कौन-कौन वीचार अर्थात् स्थितिघातादि लक्षणवाले क्रियाविशेष होते हैं ? इसी प्रकार ज्ञानावरणादि शेष कर्मों के भी कौन कौन वीचार होते हैं ? ॥ २१३ ॥ चूर्णिसू० - ( सुगम होनेसे ) इस मूलगाथाकी भाष्यगाथा नही है । उक्त मूलगाथा की विभाषा इस प्रकार है - यह मूलगाथा पृच्छासूत्ररूप है । अतएव यद्यपि मोहनीय कर्म - का स्थिति - अनुभागघातादि विषयक सर्व वक्तव्य पहले कहा जा चुका है, तथापि पुनः इस गाथाके अर्थव्याख्यान के अवसर में उक्त विधानोका स्पर्शकर्णकरण अर्थात् कुछ संक्षेप प्ररूपण कर लेना आवश्यक है । यहॉपर ये दश वीचार ज्ञातव्य हैं - १ स्थितिघात, २ स्थितिसत्त्व, ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ स्थितिकांडक, ६ अनुभागघात, ७ स्थितिसत्कर्म या स्थितिसंक्रमण ८ अनुभागसत्कर्म, ९ वन्ध और १० वन्धपरिहाणि ॥१३९१-१३९६ ॥ विशेषार्थ-स्थितिघात यह पहला वीचार है, इसमे अन्तर्मुहूर्तप्रमित एक स्थितिकांडकघातकालके द्वारा स्थितिके घातका विचार किया जाता है । स्थितिसत्त्व यह दूसरा वीचार है, इसके द्वारा स्थितियोके सत्त्वका अवधारण किया जाता है । उदय नामका १ वीचारा किरिया वियप्पा ट्रिट्ठदिघादादिलक्खणा | जयघ० Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१४] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिक्षपकक्रिया-निरूपण ८७९ १३९७. सेसाणि कम्माणि एदेहिं वीचारेहिं अणुमग्गिययाणि । १३९८. अणुमग्गिदे समत्ता एक्कारसमी मूलगाहा भवदि । १३९९. एकारस होति किट्टीए त्ति पदं समत्तं । १४००. एत्तो चत्तारि क्खवणाए त्ति । १४०१. तत्थ पहममूलगाहा । (१६१) किं वेदेतो किट्टि खवेदि किं चावि संछुहंतो वा । संछोहणमुदएण च अणुपुव्वं अणणुपुव्वं वा ॥२१४॥ १४०२ एदिस्से एका भासगाहा । १४०३. तं जहा। तीसरा वीचार है, इसके द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणित हानिके रूपसे कृष्टियोके उदयकी प्ररूपणा की जाती है। उदीरणा यह चौथा वीचार है, इसके द्वारा प्रयोगसे बलात् अपकर्षण कर उदीयमाण स्थिति और अनुभागका विचार किया जाता है। स्थितिकांडक यह पाँचवाँ वीचार है, इसके द्वारा स्थितिकांडकघातके आयामके प्रमाणका विचार किया जाता है । अनुभागघात यह छठा वीचार है, इसके द्वारा कृष्टिगत अनुभागके प्रतिसमय अपवर्तनाका विचार किया जाता है। स्थितिसत्कर्म यह सातवाँ वीचार है, इसके द्वारा कृष्टिवेदकके सर्व संधियोमें घातसे अवशिष्ट स्थितिके सत्त्वका प्रमाण अन्वेषण किया जाता है। अथवा इसके द्वारा स्थितिके संक्रमणका विचार किये जानेसे इसे स्थितिसंक्रमण-वीचार भी कहते हैं। अनुभागसत्कर्म नामक आठवें वीचारमे चारों संज्वलन कषायोके अनुभागसत्त्वका निर्देश किया गया है। बन्ध नामक नवमें वीचारमें कृष्टिवेदकके सर्व सन्धिगत स्थितिवन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणका विचार किया गया है । बन्ध-परिहाणि नामक दशवें वीचारके द्वारा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी क्रमशः परिहाणिका विचार किया जाता है। इस प्रकार उक्त दश वीचारोसे मोहनीय कर्मकी प्ररूपणाका निर्देश सूत्रकारने इस मूलगाथामें पृच्छारूपसे किया है सो आगमानुसार इनका यहाँ विचार करना चाहिए। चर्णिसू०-शेष कर्म भी इन वीचारोके द्वारा अन्वेषणीय हैं। उनके अनुमार्गण कर चकने पर ग्यारहवीं मूलगाथाकी विभाषा समाप्त हो जाती है। इस प्रकार कृष्टियोके विषयमे ग्यारह मूलगाथाएँ हैं, इस पदका अर्थ समाप्त हुआ ॥१३९७-१३९९।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे क्षपणामें प्रतिबद्ध चार मूलगाथाओकी समुत्कीर्तना की जाती है । उनमे यह प्रथम मूलगाथा है ।।१४००-१४०१॥ क्या यह क्षपक कृष्टियोंको वेदन करता हुआ क्षय करता है ? अथवा वेदन न कर संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है ? अथवा वेदन और संक्रमण दोनोंको करता हुआ क्षय करता है, कृष्टियोंको क्या आनुपूर्वीसे क्षय करता है, अथवा अनानुपूर्वीसे क्षय करता है ? ॥२१४॥ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाकी एक भाष्यगाथा है । वह इस प्रकार है॥१४०२-१४०३॥ Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (१६२) पढमं विदियं तदियं वेदेतो वावि संछहलो वा । चरिमं वेदयमाणो खवेदि उभएण सेसाओ ॥२१५॥ १४०४. विहासा । १४०५. तं जहा । १४०६. पढमं कोहस्स किट्टि वेदेतो वा खवेदि, अधवा अवेदेंतो संछुहंतो । १४०७ जे दो आवलियबंधा दुसमयूणा तें अवेदेंतो खवेदि, केवलं संछुहंतो चेव । १४०८. पढमसमयवेदगप्पहुडि जाव तिस्से किट्टीए चरिमसमयवेदगो त्ति ताव एदं किट्टि वेदेंतो खवेदि । १४०९. एवमेदं पि पडमकिट्टि दोहिं पयारेहिं खवेदि किंचि कालं वेदेतो, किंचि कालमवेदेंतो संछुहंतो । १४१०. जहा परमकिट्टि खवेदि तहा विदियं तदियं चउत्थं जाव एक्कारसमि त्ति । १४११ वारसमीए वादरसांपराइयकिट्टीए अव्ववहारो । १४१२. चरिमं वेदेमाणो त्ति अहिप्पायो-जा सुहुमसांपराइयकिट्टी सा चरिमा, तदो तं चरिमकिट्टि वेदेंतो खवेदि, ण संछुहतो । १४१३. सेसाणं दो दो आवलियबंधे दुसमयूणे चरिमे संछुहंतो चेव खवेदि, ण वेदेंतो । १४१४. चरिमकिट्टि वज्ज दो आवलिय-दुसमयूणवंधे च - क्रोधकी प्रथम कृष्टि, द्वितीय कृष्टि और तृतीय कृष्टिको वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ भी क्षय करता है। चरम अर्थात् अन्तिम बारहवीं सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको वेदन करता हुआ ही क्षय करता है। शेष कृष्टियोंको दोनों प्रकारसे क्षय करता है ॥२१५।। चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी 'विभाषा इस प्रकार है-क्रोधकी प्रथम कृष्टिको वेदन करता हुआ भी क्षय करता है, अथवा अवेदन करता हुआ भी क्षय करता है, अथवा संक्रमण करता हुआ भी क्षय करता है । जो दो समय कम दो आवलि-बद्ध ( नवक-बद्ध ) कृष्टियाँ है, उन्हे वेदन न करके केवल संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है। क्रोधकी प्रथमकृष्टिके वेदन करनेके प्रथम समयसे लेकर जबतक उस कृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक रहता है, तब तक इस कृष्टिको वेदन करता हुआ ही क्षय करता है। इस प्रकार इस प्रथम कृष्टिको दोनो प्रकारोसे क्षय करता है, कुछ काल तक वेदन करते हुए, और कुछ काल तक वेदन न कर संक्रमण करते हुए क्षय करता है । जिस प्रकार प्रथम कृष्टिका क्षय करता है, उसी प्रकार द्वितीय, तृतीय, चतुर्थको आदि लेकर ग्यारहवीं कृष्टि तक सब कृष्टियोका दोनो विधियोसे क्षय करता है ॥१४०४-१४१०॥ चूर्णिसू०-बारहवीं बादरसाम्परायिक कृष्टिमें उक्त व्यवहार नही है । ( क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणत होकरके ही उसका क्षय देखा जाता है। 'चरम कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है' इस पदका अभिप्राय यह है कि जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है वह चरमकृष्टि कहलाती है, अतएव उस चरम कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है, संक्रमण करता हुआ नहीं । शेष कृष्टियोके दो समय-कम दो आवलीमात्र नवकबद्ध कृष्टियोको चरम कृष्टिमें संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ नहीं । इस प्रकार Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २१७ ] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिक्षपणक्रिया-निरूपण ८८१ वज्ज जं सेसकिट्टींणं तमुभएण खवेदि । १४१५. किं उभएणेत्ति ? १४१६. वेतो च संछुहंतो च एदमुभयं। १४१७. एत्तो विदियभूलगाहा । (१६३) जं वेदेंतो किट्टि खवेदि किं चावि बंधगो तिस्से । जं चावि संछुहंतो तिस्से किं बंधगो होदि ॥२१६॥ १४१८. एदिस्से गाहाए एक्का भासगाहा । १४१९. जहा । (१६४) जं चावि संछुहंतो खवेदि किट्टि अबंधगो तिस्से । सुहमम्हि संपराए अबंधगो बंधगिदरासिं ॥२१७॥ १४२०. विहासा । १४२१. जं जं खवेदि किट्टि णियमा तिस्से बंधगो, मोत्तण दो दो आवलियबंधे दुसमयूणे सुहुमसांपराइयकिट्टीओ च । १४२२. एत्तो तदिया मूलगाहा । १४२३. तं जहा । अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर, तथा दो समय-कम दो आवली-बद्ध कृष्टियोको छोड़कर शेष कृष्टियोको उभय प्रकारसे क्षय करता है ॥१४११-१४१४॥ शंका-'उभय प्रकारसे' इसका क्या अर्थ है ? ॥१४१५॥ समाधान-वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, यह 'उभय प्रकारसे, इस पदका अर्थ है ॥१४१६॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे क्षपणासम्बन्धी दूसरी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४१७॥ कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है, क्या उसका बन्धक भी होता है ? तथा जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, उसका भी वह क्या बन्ध करता है ? ॥२१६|| चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली एक भाष्यगाथा है । वह इस प्रकार है ॥१४१८-१४१९॥ । जिस कृष्टिको भी संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, उसका वह बन्ध नहीं करता है। सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिके वेदनकालमें वह उसका अबन्धक रहता है। किन्तु इतर कृष्टियोंके वेदन या क्षपणकालमें वह उनका वन्धक रहता है ॥२१७॥ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जिस जिस कृष्टिका क्षय करता है, नियमसे उसका बन्ध करता है। केवल दो समय-कम दो-दो आवलि-बद्ध कृष्टियोको और सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर । अर्थात् इनके क्षपण-कालमे उनका वन्ध नहीं करता है ॥१४२०-१४२१॥ - चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती हैं। वह इस प्रकार है ॥१४२२-१४२३॥ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ कलाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (१६५) जं जं खवेदि किट्टि टिदि-अणुभागेसु केसुदीरेदि । संछहदि अण्णकिमि से काले तासु अण्णासु ॥२१८॥ १४२४. एदिस्से दस भासगाहाओ । १४२५. तत्थ पढमाए भासगाहाए समुकित्तणा। (१६६) बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु संकमो मज्झिमो उदओ ॥२१९॥ १४२६. 'बंधो व संकमो वा णियमा सव्येसु द्विदिविसेसेसु त्ति एदं णज्जदि वागरणसुत्तं त्ति एदं पुण पुच्छासुत्तं ? १४२७. तं जहा । १४२८. बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु द्विदिविसेसेसु त्ति एदं णव्वदि णिदिति । एदं पुण पुच्छिदं किं सव्वेसु हिदिविसेसेसु, आहो ण सव्वेसु ? १४२९. तदो वत्तव्यं ण सव्वेसु त्ति । १४३०. किट्टीवेदगे पगदं ति चत्तारि मासा एत्तिगाओ द्विदीओ वज्झति आवलिय जिस-जिस कृष्टिका क्षय करता है, उस-उस कृष्टिको किस-किस प्रकार के स्थिति और अनुभागोंमें उदीरणा करता है ? विवक्षित कृष्टिको अन्य कृष्टि में संक्रमण करता हुआ किस-किस प्रकारके स्थिति और अनुभागोंसे युक्त कृष्टि में संक्रमण करता है ? तथा विवक्षित समयमें जिस स्थिति और अनुभागयुक्त कृष्टियोंमें उदीरणा, संक्रमणादि किये हैं, अनन्तर समयमें क्या उन्हीं कृष्टियोंमे उदीरणा-संक्रमणादि करता है, अथवा अन्य कृष्टियोंमें करता है ? ॥२१८॥ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली दश भाष्यगाथाएँ हैं। उनमेसे प्रथम भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४२४.१४२५॥ विवक्षित कृष्टिका वन्ध अथवा संक्रमण नियमसे क्या सभी स्थितिविशेषों में होता है ? विवक्षित कृष्टिका जिस कृष्टिमें संक्रमण किया जाता है, उसके सर्व अनुभागविशेषोंमें संक्रमण होता है। किन्तु उदय मध्यम कृष्टिरूपसे जानना चाहिए ॥२१९॥ चूर्णिसू०-'बंधो व संकमो वा' इत्यादि यह गाथाका पूर्वार्ध व्याकरणसूत्र नहीं है, किन्तु यह पृच्छासूत्र है । वह इस प्रकार है-'बन्ध और संक्रमण नियमसे सर्व स्थितिविशेपोमे होते हैं, इस वाक्यके द्वारा यह निर्दिष्ट किया गया है, अर्थात् यह पूछा गया है कि क्या बन्ध और संक्रमण सर्व स्थितिविशेषोमे होता है, अथवा सर्व स्थितिविशेषोमे नहीं होता है ? अतएव इस प्रकारकी पृच्छा होनेपर यह उत्तर कहना चाहिए कि बन्ध और संक्रमण सर्व स्थितिविशेषोमें नहीं होता है । इसका कारण यह है कि यहॉपर कृष्टिवेदकका प्रकरण है और उसके 'चार मास' इतने काल प्रमाणवाली ही संज्वलनकषायकी स्थितियाँ बंधती हैं और उदयावली-प्रविष्ट स्थितियोको छोड़कर शेष स्थितियाँ संक्रमणको प्राप्त होती हैं । १ वागरणसुत्तं ति व्याख्यानसूत्रमिति व्याक्रियतेऽनेनेति व्याकरण प्रतिवचनमित्यर्थः । जयध० Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२१ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिक्षपकक्रिया निरूपण ૮૮૩ पविट्ठाओ मोत्तूर्ण सेसाओ संकामिज्जति । १४३१. सव्वेसु चाणुभागेसु संकमो मज्झिमो उदयो ति एवं सव्वं वागरणसुतं । १४३२. सव्वाओ किट्टीओ संकर्मति । १४३३. जं किट्टि वेदयदि तिस्से मज्झिमकिड्डीओ उदिण्णाओ । १४३४. तो विदियाए भासगाहाए समुत्तिष्णा १४३५ जहा | (१६७) संकामेदि उदीरेदि चावि सव्वेहिं द्विदिविसेसेहिं । किट्टीए अणुभागे वेदेंतो मज्झिमो नियमा ॥ २२० ॥ १४३६. विहासा । १४३७. एसा विगाहा पुच्छासुतं । १४३८. किं सव्वे द्विदिविसेसे कामेदि उदीरेदि वा, आहो ण १ वत्तव्यं । १४३९. आवलियपविठ्ठे मोत्तूण साओ सव्वाओ द्विदीओ संकामेदि उदीरेदि च । १४४०. जं किट्टि वेदेदि तिस्से मज्झिमकिट्टीओ उदीरेदि । १४४१. एत्तो तदियाए आसगाहाए समुत्तिणा । १४४२. जहा । (१६८ ) ओकड्डदि जे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि । ओकड्डिदे च पव्वं सरिसम सरिसे पवसेदि ॥ २२६ ॥ 'सव्वेसु चाणुभागेसु' इत्यादि यह सर्व गाथाका उत्तरार्ध व्याकरणसूत्र है, अतएव यह अर्थ करना चाहिए कि वेद्यमान और अवेद्यमान सभी कृष्टियों संक्रमणको प्राप्त होती हैं । तथा जिस कृष्टिको वेदन करता है, उसकी मध्यम कृष्टियाँ उदीर्ण होती हैं । ( इसका कारण यह है कि वेद्यमान संग्रह कृष्टिके नीचे और ऊपर की कितनी ही कृष्टियोको छोड़ करके मध्यवर्ती कृष्टियाँ ही उदय या उदीरणा रूपसे प्रवृत्त होती है ।। १४२६-१४३३॥ चूर्णिसू (० - अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥ १४३४-१४३५॥ सर्व स्थितिविशेषोंके द्वारा क्या यह क्षपक संक्रमण और उदीरणा करता है ? कृष्टि अनुभागोंको वेदन करता हुआ नियमसे मध्यम अर्थात् मध्यवर्ती अनुभागोंको ही वेदन करता है || २२०॥ चूर्णिसू०(० - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है - यह गाथा भी पृच्छासूत्ररूप है । क्या यह कृष्टिवेदक क्षपक सर्व स्थितिविशेषोमे संक्रमण और उदीरणा करता है, अथवा नहीं ? इस प्रश्नका उत्तर कहना चाहिए ? उदयावलीमें प्रविष्ट स्थितिको छोड़कर शेष सर्व स्थितियाँ संक्रमणको भी प्राप्त होती है और उदीरणाको भी प्राप्त होती हैं । तथा जिस कृष्टिको वेदन करता है, उसकी मध्यमकृष्टियोंकी उदीरणा करता है ।। १४३६-१४४०॥ चूर्णिसू० (० - अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है || १४४१-१४४२॥ 1 जिन कर्माशोंका अपकर्षण करता है उनका अनन्तर समयमें क्या उदीरणामें प्रवेश करता है ? पूर्व समय में अपकर्षण किये गये कर्माश अनन्तर समय में उदीरणा करता हुआ सशको प्रविष्ट करता है, अथवा असदृशको प्रविष्ट करता है १ ॥ २२९ ॥ Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८४ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १४४३. विहासा । १४४४. एसा वि गाहा पुच्छासुत्तं । १४४५. ओकड्डदि जे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि, आहो ण ? वत्तव्वं । १४४६. पवेसेदि ओकड्डिदे च पुव्वयणंतरपुव्वगेण । १४४७. सरिसमसरिसे त्ति णाम का सण्णा ? १४४८. जदि जे अणुभागे उदीरेदि एक्किस्से वग्गणाए सव्चे ते सरिसा णाम । अध जे उदीरेदि अणेगासु वग्गणासु, ते असरिसा णाम । १४४९. एदीए सण्णाए से काले जे पवेसेदि ते असरिसे पवेसेदि । १४५०. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा । १४५१. तं जहा । (१६९) उकड्डदि जे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि । उक्कड्डिदे च पुव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥२२२॥ चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-यह गाथा भी पृच्छासूत्ररूप है। जिन अंशोंको अपकर्षण करता है, अनन्तर समयमें क्या उन्हें उदीरणामें प्रविष्ट करता है, अथवा नहीं ? उत्तर कहना चाहिए १ पूर्वमे अर्थात् अनन्तर पूर्ववर्ती समयमे अपकर्षण किये गये कर्म-प्रदेश तदनन्तर समयमे उदीरणाके भीतर प्रवेश करनेके योग्य हैं ।।१४४३-१४४६॥ शंका-सदृश और असहश इस नामकी संज्ञाका क्या अर्थ है ? ॥१४४७॥ समाधान-जितने अनुभागोको एक वर्गणाके रूपसे उदीर्ण करता है, उन सब अनुभागोंकी सदृशसंज्ञा है। और जिन अनुभागोको अनेक वर्गणाओंके रूपमे उदीर्ण करता है, उनकी असशसंज्ञा है ॥१४४८॥ भावार्थ-उद्यमे आनेवाली यदि सभी कृष्टियाँ एक कृष्टिस्वरूपसे परिणत होकर उदयमे आती हैं, तो उनकी सदृशसंज्ञा होती है और यदि उदयमे आनेवाली कृष्टियाँ अनेक वर्गणाओ या कृष्टियोके स्वरूपसे परिणमित होकर उद्यमे आती हैं तो वे असदृश संज्ञासे कही जाती हैं। चूर्णिसू०-इस प्रकारको संज्ञाकी अपेक्षा अनन्तर समयमे जिन अनुभागोको उदयमें प्रविष्ट करता है, उन्हें असदृश ही प्रविष्ट करता है। अर्थात् उदयमे आनेवाली कृष्टियाँ अनेक वर्गणाओके रूपसे परिणमित हो करके ही उदयमें आती हैं ॥१४४९।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी ससुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥१४५०-१४५१॥ जिन कर्माशोंका उत्कर्षण करता है, उनको अनन्तर समयमें क्या उदीरणामें प्रवेश करता है ? पूर्व समयमें उत्कर्पण किये गये कर्माश अनन्तर समयमें उदीरणा करता हुआ सदृशरूपसे प्रविष्ट करता है, अथवा असदृशरूपसे प्रविष्ट करता है ॥२२२॥ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२४] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिक्षपकक्रिया-निरूपण १४५२. एदं पुच्छासुत्तं । १४५३. एदिस्से गाहाए किट्टीकारगप्पहुडि णत्थि अत्थो । १४५४. हंदि किट्टीकारगो किट्टीवेदगो वा ठिदि-अणुभागे ण उक्कड्डदि त्ति । १४५५. जो किट्टीकम्मंसिगवदिरित्तो जीवो तस्स एसो अत्थो पुव्वपरूविदो । १४५६. एत्तो पंचमी भासगाहा । (१७०) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस-अणुभागे । बहुगत्ते थोवत्ते जहेव पुव्वं तहेवेहि ॥२२३॥ १४५७. विहासा । १४५८. तं जहा । १४५९ संकामगे च चत्तारि मूलगाहाओ, तत्थ जा चउत्थी मूलगाहा तिस्से तिण्णि भासगाहाओ। तासिं जो अत्थो सो इमिस्से विं पंचमीए गाहाए अत्थो कायरो । - १४६०. एत्तो छट्ठी भासगाहा । (१७१) जो कम्मंसो पविसदि पओगसा तेण णियषसा अहिओ। पविसदि ठिदिक्खएण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥२२४॥ चूर्णिसू०-यह सम्पूर्णगाथा पृच्छासूत्ररूप है। इस गाथाका कृष्टिकारकसे लेकर आगे अर्थका कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि कृष्टिकारक या कृष्टिवेदक क्षपक कृष्टिगत स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण नहीं करता है। ( केवल अपकर्षण कर उदीरणा करता हुआ ही चला जाता है ।) किन्तु जो कृष्टि-कर्माशिक-व्यतिरिक्त जीव है, अर्थात् कृष्टिकरणरूप क्रियासे रहित क्षपक है, उसके विपयमें यह अर्थ पूर्वमे ही अपवर्तना-प्रकरणमे प्ररूपण किया जा चुका है ॥१४५२-१४५५॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे पाँचवी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४५६॥ कृष्टिकारकके प्रदेश और अनुभाग-विषयक बन्ध, संक्रमण और उदय ( किस प्रकार प्रवृत्त होते हैं ? इस विषयका ) बहुत्व या स्तोकत्वकी अपेक्षा जिस प्रकार पहले निर्णय किया गया है, उसी प्रकार यहाँपर भी निर्णय करना चाहिए ॥२२३॥ चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है-संक्रामकके विषयमें पहले चार मूलगाथाएँ कही गई हैं। उनमें जो चौथी मूलगाथा है, उसकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं। उनका जो अर्थ वहाँ पर किया गया है, वही अर्थ इस पॉचवीं भाष्यगाथाका भी करना चाहिए ॥१४५७-१४५९॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे छठी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ।। १४६०॥ जो कर्माश प्रयोगके द्वारा उदयावलीमें प्रविष्ट किया जाता है, उसकी अपेक्षा स्थितिक्षयसे जो कर्माश उदयावली में प्रविष्ट होता है, वह नियमसे गणनातीत गुणसे अर्थात् असंख्यातगुणितरूपसे अधिक होता है ॥२२४॥ १ हदि वियाण निश्चिनु । जयघ० Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १४६१. विहासा । १४६२. जत्तो पाए असंखेज्जाणं समयपवद्धाणमुदीरगो तत्तो पाए जमुदीरिज्जदि पदेसग्गं तं थोवं । १४६३. जमधहिदिगं पविसदि तमसंखेज्जगुणं। १४६४. असंखेज्जलोगभागे उदीरणा अणुत्तसिद्धी । १४६५. एत्तो सत्तमी भासगाहा । १४६६. तं जहा । (१७२) आवलियं च पविष्टुं पओगसा णियमसा च उदयादी। उदयादिपदेसग्गं गुणेण गणणादियंतेण ॥२२५॥ १४६७ विहासा । १४६८. तं जहा । १४६९. जमावलियपविट्ठ पदेसग्गं तमुदए थोवं । विदियहिदीए असंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए जाव सव्विस्से आवलिगाए। १४७०. एत्तो अट्ठमी भासगाहा । १४७१. तं जहा । (१७३) जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संक्रमदि एका । पुवपविट्ठा णियमा एकिस्से होति व अणंता ॥२२६॥ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जिस पाये (स्थल ) पर असंख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणा करता है, उस पाये पर जो प्रदेशाग्र उदीरित करता है, वह अल्प है । जो अधःस्थितिगलनकी अपेक्षा प्रदेशाग्र उदयावलीमे प्रविष्ट करता है, वह असंख्यातगुणित होता है। इससे आगे अधस्तन भागमें सर्वत्र असंख्यात लोकप्रतिभागकी अपेक्षा उदीरणा अनुक्त-सिद्ध है। अर्थात् आगे आगेके समयोमे उदीर्यमाण द्रव्यकी अपेक्षा कर्मोदयसे प्रविश्यमान द्रव्य असंख्यातगुणित अधिक होता है और उदीर्यमाण द्रव्य उसके असंख्यातवें भाग होता है ॥१४६१-१४६४॥ चूर्णिसू० -अब इससे आगे सातवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥१४६५-१४६६॥ ‘कृष्टिवेदक क्षपकके प्रयोगके द्वारा उदय है आदिमें जिसके ऐसी आवलीमें अर्थात् उदयावलीमें प्रविष्ट प्रदेशाग्र नियमसे उदयसे लगाकर आगे आवलीकाल-पर्यन्त असंख्यातगुणित श्रेणीरूपसे पाया जाता है ॥२२५॥ . चूर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-कृष्टिवेदक क्षपकके उदयावलीमें प्रविष्ट जो प्रदेशाग्र पाया जाता है, वह उदयमे अर्थात् उदयकालके प्रथम समयमें सबसे कम पाया जाता है। द्वितीय स्थितिमें असंख्यातगुणित पाया जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण आवलीके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणितश्रेणीरूपसे वृद्धिगत प्रदेशाग्र पाये जाते हैं ॥१४६७-१४६९॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे आठवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥१४७०-१४७१॥ जिन अनन्त वर्गणाओंको उदीर्ण करता है, उनमें एक-एक अनुदीर्यमाण कृष्टि संक्रमण करती है। तथा जो पूर्व-प्रविष्ट अर्थात् उदयावलीमें प्रविष्ट अनन्त Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० चारिखमोन चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिक्षपकक्रिया-निरूपण १४७२. विहासा । १४७३. तं जहा । १४७४. जा संगहकिट्टी उद्दिण्णा तिस्से उवरि असंखेज्जदिभागो, हेट्ठा वि असंखेज्जदिभागो किट्टीणमणुदिण्णो । १४७५. मज्झागारे असंखेज्जा भागा किट्टीणमुदिण्णा । १४७६. तत्थ जाओ अणुदिण्णाओ किट्टीओ तदो एकेका किट्टी सव्वासु उदिण्णासु किट्टीसु संकमेदि । १४७७. एदेण कारणेण जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकयदि एक्का ति भण्णदि । १४७८. एकिस्से वि उदिण्णाए किडीए क्षेत्तियाओ किट्टीओ संकमंति ? १४७९. जाओ आवलिय-पुचपविट्ठाओ उदएण अधढिदिगं विपचंति ताओ सव्वाओ एकिस्से उदिण्णाए किट्टीए संकमंति । १४८०. एदेण कारणेण पुन्बपविट्ठा एकिस्से अणेता त्ति अण्णंति । __ १४८१. एत्तो णवमी भासगाहा । (१७४) जे चावि य अणुभागा उदीरिदा णियमसा पओगेण । तेयप्पा अणुभागा पुवपविट्ठा परिणमति ॥२२७॥ अवेद्यमान वर्गणाएँ ( कृष्टियाँ ) हैं, वे एक-एक वेद्यमान मध्यम कृष्टिके रवरूपसे नियमतः परिणत होती हैं ॥२२६॥ चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जो संग्रहकृष्टि उदीर्ण हुई है, उसके ऊपर भी कृष्टियोका असंख्यातवॉ भाग और नीचे भी कृष्टियोका असंख्यातवॉ भाग अनुदीर्ण रहता है। अर्थात् विवक्षित वेद्यमान संग्रहकृष्टिके उपरितन-अधस्तन असंख्यात. भाग कृष्टियाँ अपने रूपसे सर्वत्र उदयमें प्रवेश नहीं करती है। मध्य आकारमे अर्थात् विवक्षित संग्रहकृष्टिके मध्यम भागमे कृष्टियोका असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होता है, अर्थात् अपने रूपसे ही उदयमे प्रवेश करता है। उनमें जो अनुदीर्ण कृष्टियाँ हैं, उनमेसे एक-एक कृष्टि सर्व उदीर्ण कृष्टियोपर संक्रमण करती है। इस कारणसे गाथाके पूर्वार्धमे ऐसा कहा गया है कि 'जिन अनन्त वर्गणाओको उदीर्ण करता है, उनपर एक-एक वर्गणा संक्रमण करती है - १४७२-१४७७॥ शंका-एक-एक भी उदीर्ण कृष्टिपर कितनी कृष्टियाँ संक्रमण करती हैं ? ॥१४७८॥ समाधान-जितनी कृष्टियाँ उदयावलीमे प्रविष्ट होकर उदयसे अधःस्थिति-गलनरूप विपाकको प्राप्त होती है, वे सब एक-एक उदीर्ण कृष्टिपर संक्रमण करती हैं। इस कारणसे गाथाके उत्तरार्धमे ऐसा कहा गया है कि 'उदयावलीमे प्रविष्ट अनन्त वर्गणाएँ एक एक कृष्टिपर संक्रमण करती हैं। ॥१४७९-१४८०॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे नवमी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४८१॥ - जितनी भी अनुभागकृष्टियाँ प्रयोगकी अपेक्षा नियमसे उदीर्ण की जाती हैं, उतनी ही पूर्व-प्रविष्ट अर्थात् उदयावली-प्रविष्ट अनुभागकृष्टियाँ परिणत होती हैं।।२२७॥ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૮૮ ૮૮ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १४८२. विहासा । १४८३. जाओ किट्टीओ उदिण्णाओ ताओ पडुच्च अणुदीरिज्जमाणिगाओ वि किट्टीओ जाओ अधहिदिगमुदयं पविसंति ताओ उदीरिज्जमाणियाणं किट्टीणं सरिसाओ भवंति । १४८४. एत्तो दसमी भासगाहा । (१७५) पच्छिम-आवलियाए समयूणाए दुजे य अणुभागा। उकस्स-हेट्ठिमा मज्झिमासु णियमा परिणमंति ॥२२८॥ १४८५. विहासा । १४८६. पच्छिम-आवलिया त्ति का सण्णा ? १४८७. जा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया । १४८८. तदो तिस्से उदयावलियाए उदयसमयं मोत्तूण सेसेसु समएसु जा संगहकिट्टी वेदिज्जमाणिगा, तिस्से अंतरकिट्टीओ सव्वाओ ताव धरिज्जति जाव ण उदयं पविट्ठाओ त्ति । १४८९. उदयं जाधे पविट्ठाओ ताधे चेव तिस्से संगहकिट्टीए अग्गकिट्टिमादि कादण उवरि असंखेज्जदिभागो जहणियं किट्टिमादि कादूण हेहा असंखेजदिभागो च मज्झिमकिट्टीसु परिणमदि । १४९०. खवणाए चउत्थीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है जो कृष्टियाँ उदीर्ण हुई हैं, उनकी अपेक्षा अनुदीर्यमाण भी कृष्टियाँ जो अधःस्थितिगलनरूपसे उदयमें प्रवेश करती हैं, वे उदीयमाण कृष्टियोके सहश होती हैं ॥१४८२-१४८३॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे दशमी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४८४॥ एक समय कम पश्चिम आवलीमें जो उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग-स्वरूप कृष्टियाँ हैं, वे मध्यवर्ती बहुभाग कृष्टियोंमें नियमसे परिणमित होती हैं ॥२२८॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भाज्यगाथाकी विभाषा की जाती है ।।१४८५।। शंका-पश्चिम-आवली इस संज्ञाका क्या अर्थ है ? ॥१४८६॥ समाधान-जो उदयावली है, उसे ही पश्चिम-आवली कहते हैं ॥१४८७।। चूर्णिस०-इसलिए उस उदयावलीमें उदयरूप समयको छोड़कर शेष समयोमें जो वेद्यमान संग्रहकृष्टि है, उसकी सर्व अन्तरकृष्टियाँ तब तक धारण की जाती हैं, जब तक कि वे उदयमे प्रविष्ट नहीं हो जाती है। जिस समय वे उदयमे प्रविष्ट होती हैं, उस समयमे ही उस संग्रहकृष्टिकी अग्रकृष्टिको आदि करके उपरितन असंख्यातवाँ भाग और जघन्यकृष्टिको आदि करके अधस्तन असंख्यातवॉ भाग मध्यम कृष्टियोंमे परिणमित होता है ॥१४८८-१४८९॥ चूर्णिसू०-अव क्षपणा-सम्बन्धी चौथी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ।।१४९०॥ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २३१ ] चारित्रमोहक्षपक- कृष्टिक्षपणक्रिया निरूपण (१७६) किट्टीदो किट्टि पुण संकमदि खरण किं प्रयोगेण । किं सहि किट्टीय संकमो होदि अणिरसे ॥ २२९॥ १४९१. एदिस्से वे भासगाहाओ । (१७७) किट्टीदो किट्टि पुण संकमदे नियमसा पओगेण । किट्टीए सेसगं पुण दो आवलियासु जं बद्ध ॥ २३०॥ १४९२. विहासा । १४९३. जं संगहकिट्टि वेण तदो से काले अण्णं संगहकिट्टि पवेदयदि, तदो तिस्से पुव्वसमयवेदिदाए संगह किट्टीए जे दो आवलियबंधा दुसमणा आवलियपविट्ठा च अस्सि समए वेदिज्जमाणिगाए संगह किट्टीए पओगसा संकर्मति । १४९४. एसो पढमभासगाहाए अत्थो । १४९५. एत्तो विदियभासगाहाए समुत्तिणा । ( १७८ ) समयणा च पविट्ठा आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुण्णा जं वेदयदे एवं दो संकमे होंति ॥२३१॥ ८८९ एक कृष्टिसे दूसरी कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षपक पूर्व-वेदित कृष्टिके शेष अंशको क्या क्षय अर्थात् उदयसे संक्रमण करता है, अथवा प्रयोगसे संक्रमण करता है ? तथा पूर्ववेदित कृष्टिके कितने अंशके शेष रहनेपर अन्य कृष्टिमें संक्रमण होता है ? ॥२२९॥ 1 चूर्णिसू० - इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली दो भाष्यगाथाएँ है उनमें यह प्रथम भाष्यगाथा है ॥१४९१॥ ! एक कृष्टि के वेदित-शेष प्रदेशाग्रको अन्य कृष्टिमें संक्रमण करता हुआ नियमसे प्रयोग के द्वारा संक्रमण (क्षय) करता है । दो समय कम दो आवलियों में बँधा हुआ जो द्रव्य है, वह कृष्टि के वेदित - शेष प्रदेशका प्रमाण है || २३० ॥ चूर्णिसू० ० - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है - जिस संग्रहकृष्टिको वेदन करके उससे अनन्तर समयमै अन्य संग्रहकृष्टिको प्रवेदन करता है, तब उस पूर्व समयमे वेदित संग्रहकृष्टिके जो दो समय कम दो आवली-बद्ध नवक समयप्रवद्ध हैं वे और उदयावलीप्रविष्ट जो प्रदेशाग्र है, वे इस वर्तमान समयमे वेदन की जानेवाली संग्रहकृष्टि प्रयोगसे संक्रमित होते हैं । यह प्रथम भाष्यगाथाका अर्थ है ।। १४९२ - १४९४ ॥ चूर्णिसू०(० - अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ १४९५ ॥ एक समय कम आवली उदयावलीके भीतर प्रविष्ट होती है और जिस संग्रहकृष्टिका अपकर्षणकर इस समय वेदन करता है, उस प्रथम कृष्टिकी सम्पूर्ण आवली प्रविष्ट होती है, इस प्रकार दो आवलियाँ संक्रमणमें होती हैं ||२३१|| ११२ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १४९६. विहासा । १४९७. तं जहा । १४९८. अण्णं किट्टि संकममाणस्स पुचवेदिदाए समयूणा उदयावलिया वेदिज्जमाणिगाए किट्टीए पडिवुण्णा उदयावलिया एवं किट्टीवेदगरस उक्कस्सेण दो आवलियाओ । १४९९. ताओ वि किट्टीदो किट्टि संकममाणस्स से काले एक्का उदयावलिया भवदि । १५००. चउत्थी मूलगाहा खवणाए समत्ता । १५०१. एसा परूवणा पुरिसवेदगस्स कोहेण उवट्ठिदस्स । १५०२. पुरिसवेदयस्स चेव माणेण उपट्ठिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । १५०३. तं जहा । १५०४. अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं । १५०५. अंतरे कदे णाणत्तं । १५०६. अंतरे कदे कोहस्स पहमद्विदी णत्थि, माणस्स अस्थि । १५०७. सा केम्महंती' ? १५०८. जद्देही कोहेण उवविदस्स कोहस्स पडमट्टिदी कोहस्स चेव खवणद्धा तद्देही चेव एम्महंती माणेण उवढिदस्स माणस्स पडयहिदी। चर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है, वह इस प्रकार है-अन्य कृष्टिको संक्रमण करनेवाले क्षपकके पूर्व वेदित कृष्टिकी एक समय कम उदयावली और वेद्यमान कृष्टिकी परिपूर्ण उदयावली इस प्रकार कृष्टिवेदकके उत्कर्पसे दो आवलियाँ पाई जाती है। वे दोनो आवलियाँ भी एक कृष्टि से दूसरी कृष्टिको संक्रमण करनेवाले क्षपकके तदनन्तर समयमें एक उदयावलीरूप रह जाती है । ( क्योकि एक समय कम आवलीमात्र गोपुच्छाओंके स्तिवुकसंक्रमणसे वेद्यमान कृष्टिके ऊपर संक्रमित करनेपर तदनन्तर समयमें एक उदयावली ही पाई जाती है । ) ॥१४९६-१४९९॥ चूर्णिसं०-इस प्रकार क्षपणामे प्रतिवद्ध चौथी मूलगाथाकी भाष्यगाथाओका अर्थ समाप्त हुआ ॥१५००॥ चूर्णिस०-यह सव उपर्युक्त प्ररूपणा क्रोधके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए पुरुपवेदी क्षपककी जानना चाहिए । अव मानके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले पुरुपवेदी क्षपकके जो विभिन्नता है, उसे कहेंगे । वह इस प्रकार है-अन्तरकरणके नहीं करने तक कोई विभिन्नता नहीं है। अन्तरकरणके करनेपर विभिन्नता है। ( उसे कहते हैं) अन्तरकरणके करनेपर क्रोधकी प्रथम स्थिति नहीं होती है, किन्तु मानकी होती है ।।१५०१-१५०६॥ शंका-वह मानकी प्रथमस्थिति कितनी बड़ी है ? ॥१५०७॥ समाधान-क्रोधके उदयसे श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके जितनी घड़ी क्रोधकी प्रथमस्थिति है और जितना बड़ा क्रोधका ही क्षपणाकाल है, उतनी ही बड़ी मानकें उदयसे श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके मानकी प्रथम स्थिति है ॥१५०८॥ १ कियन्महती किंप्रमाणेति प्रश्नः कृतो भवति । जयध० Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २३१ ] चारित्रमोहक्षपक- कृष्टिक्षपण क्रिया- निरूपण ८९१ १५०९. जम्हि कोण उवद्विदो अस्सकण्णकरणं करेदि, माणेण उवट्टिदो तम्हि काले कोहं खवेदि । १५१०. कोहेण उवदिस्त जा किट्टीकरणद्धा माणेण उवदिस्स तहि काले अस्सकण्णकरणद्धा । १५११. कोहेण उवदिस्स जा कोहस्स खवणद्धा माणेण उवदिस्स तहि काले किट्टीकरणद्धा । १५१२. कोहेण उवट्ठिदस्स जा माणस खवणद्धा, माणेण उवदिस्स तम्हि चेव काले माणस्स खवणद्धा । १५१३. एत्तो पाए जहा कोण उवदिस्स विही, तहा माणेण उवट्ठिदस्स । १५१४. पुरिसवेदस्स मायाए उवदिस्स णाणत्तं वत्तस्साम । १५१५. तं जहा । १५१६. कोहेण उवट्ठिदस्स जम्महंती कोहस्स पढमट्ठिदी कोहस्स चेव खवद्धा माणस च खवणद्धा मायाए उवदिस्स एम्महंती मायाए पढमट्टिदी | १५१७. कोण उवो जहि अस्सकण्णकरणं करेदि, मायाए उवट्ठिदो तम्हि कोहं खवेदि । १५१८. कोण उवट्टिदो जम्हि किट्टीओ करेदि, मायाए उवडिदो तम्हि माणं खवेदि । १५१९. कोहेण उवट्ठिदो जम्हि कोथं खवेदि, मायाए उवट्टिदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि । १५२०.कोहेण उवद्विदो जम्हि माणं खवेदि, मायाए उचट्ठिदो तम्हि किट्टीओ करेदि । १५२१. कोहेण उचट्ठिदो जम्हि मायं खवेदि, तम्हि चेत्र मायाए उवट्टिदो चूर्णिसू० - जिस समयमे क्रोधके साथ श्रेणी चढ़नेवाला क्षपक अश्वकर्णकरणको 0 करता है, उस समय में मानके साथ श्रेणी चढ़नेवाला क्षपक क्रोधका क्षय करता है । क्रोधके साथ चढ़े हुए जीवका जो कृष्टिकरण काल है, मानके साथ चढ़े हुए जीवका उस समय मे वर्ण करणकाल होता है । क्रोधके साथ चढ़े हुए जीवके जो क्रोधका क्षपणकाल है, मानके साथ चढ़े हुए जीवका उस समय में कृष्टिकरणकाल होता है । क्रोधके साथ श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके मानका जो क्षपणकाल है, मानके साथ चढ़नेवाले जीवके उसी समयमे मानका क्षपणकाल होता है । इस स्थलसे लेकर आगे जैसी क्रोधके उदयसे श्रेणी चढ़नेवाले जीवके क्षपणाविधि कही गई है, वैसी ही विधि मानके उदयसे श्रेणी चढ़नेवाले जीवक जानना चाहिए ।। १५०९-१५१३॥ चूर्णिस् ( ० - अब मायाके उदय के साथ श्रेणी चढ़नेवाले पुरुपवेदीकी विभिन्नताको कहेंगे । वह इस प्रकार है— क्रोधके उदयके साथ श्र ेणी चढ़े हुए क्षपककी जितनी बड़ी क्रोधकी प्रथम स्थिति, क्रोधका ही क्षपणकाल और मायाका क्षपणकाल है, उतनी बड़ी मायाके साथ श्र ेणी चढ़नेवाले क्षपकके मायाकी प्रथम स्थिति है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समयमें अश्वकर्णकरण करता है, मायासे उपस्थित हुआ उस समय में क्रोधका क्षय करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समयमें कृष्टियोको करता है, मायासे उपस्थित हुआ उस समय में मानका क्षय करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समयमे क्रोधका क्षय करता है, मायासे उपस्थित हुआ उस समयमे अश्वकर्णकरण करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समय मानका क्षय करता है, मायासे उपस्थित हुआ उस समय मे कृष्टियोको करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समयमे मायाका क्षय करता है, मायासे उपस्थित 1 Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुच [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ८९२ मायं खवेदि । १५२२. एत्तो पाए लोभं खवेमाणस्स णत्थि णाणत्तं । १५२३. पुरिसवेदयस्स लोभेण उवदिस्स णाणत्तं वत्तइस्लामो । १५२४. जाव अंतरं ण करेदि, ताव णत्थि णाणत्तं । १५२५, अंतरं करेमाणो लोभस्त पढमडिदि ठवेदि । १५२६. सा केम्महंती १ १५२७. जद्देही कोहेण उवदिस्स कोहस्स परमदी कोहस्स माणस्स मायाए च खवणद्धा तद्देही लोभेण उवदिस्स पढमट्टिदी | १५२८. कोहेण उबट्टिदो जम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि, लोभेण उचट्टिदो तहि कोहं खवेदि । १५२९. कोहेण उवट्टिदो जम्हि किट्टीओ करेदि, लोभेण उवट्टिदो तहि माणं खवेदि । १५३०. कोहेण उवट्टिदो जम्हि कोहं खवेदि, लोभेण वो हि माणं खवेदि । १५३१. कोहेण उवद्विदो जम्हि माणं खवेदि, लोभेण उट्टिदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि । १५३२. कोहेण उवट्टिदो जम्हि मायं खवेदि, लोभेण उवट्टिदो तहि किट्टीओ करेदि । १५३३. कोहेण उवट्ठिदो जम्हि लोभ खवेदि, तहि चेव लोभेण उवट्ठिदो लोभं खवेदि । १५३४. एसा सव्वा सण्णिकासणा पुरिसवेदेण उवदिस्स | हुआ उस ही समय मायाका क्षय करता है । इस स्थल पर लोभको क्षपण करनेवाले जीवके कोई विभिन्नता नहीं है ॥ १५१४-१५२२ ॥ चूर्णिसू०० - अब लोभकषाय के साथ श्रेणी चढ़नेवाले पुरुषवेदीकी विभिन्नताको कहेंगे । जब तक अन्तर नहीं करता है, तब तक कोई विशेषता नहीं है । अन्तरको करता हुआ वह लोभकी प्रथम स्थितिको स्थापित करता है ॥१५२३-१५२४॥ शंका- वह लोभकी प्रथम स्थिति कितनी बड़ी है ? ॥। १९२६ ॥ समाधान - क्रोध के उदयसे चढ़े हुए क्षपककी जितनी क्रोधकी प्रथम स्थिति है, तथा क्रोध, मान और मायाका क्षपणकाल है, उतनी बड़ी लोभके साथ उपस्थित क्षपकके लोभकी प्रथम स्थिति है ।। १५२७॥ चूर्णि सू० - क्रोध से उपस्थित हुआ जिस समय में अश्वकर्णकरणको करता है, लोभसे उपस्थित हुआ उस समय मे क्रोधका क्षय करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समयमें कृष्टियोको करता है, लोभसे उपस्थित हुआ उस समयमे मानका क्षय करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समय में क्रोधका क्षय करता है, लोभसे उपस्थित हुआ उस समय में मायाका क्षय करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समय में मानका क्षय करता है, लोभसे उपस्थित हुआ उस समय में अश्वकर्णकरण करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समय मे मायाका क्षय करता है, लोभसे उपस्थित हुआ उस समय मे कृष्टियोको करता है । क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस समय में लोभका क्षय करता है, लोभसे उपस्थित हुआ उस ही समय में लोभका क्षय करता है । यह सब सन्निकर्षप्ररूपणा पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपककी कही गई है । १५२८ - १५३४॥ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २३१ ] चारित्रमोहक्षपक-वेद्गत विभिन्नता निरूपण ८९३ १५३५. इत्थवेदेण उवदिस्स खवगस्स णाणत्तं वत्तहस्सामा । १५३६. तं जहा । १५३७. जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणत्तं । १५३८. अंतरं करेमाणो इत्थवेदस्स पढमट्ठिदि ठवेदि । १५३९. जही पुरिसवेदेण उवदिस्स इत्थवेद खवणद्धा तद्देही इत्थीवेदेण उवदिस्स इत्थवेदस्स पढमीि । १५४०. णवुंसयवेदं खवेमाणस्स णत्थि णाणत्तं । १५४१. बुंसयवेदे खीणे इत्थीवेद खवे । १५४२. जम्महंती पुरिसवेदेण उवदिस्स इत्थीवेदक्खवणद्धा तम्महंती इत्थीवेण उवदिस्स इत्थीवेदस्स खवणद्धा । १५४३. तदो अवगद वेदो सत्त कम्मंसे खवेदि । १५४४. सत्तण्हं पि कम्माणं तुल्ला खवणद्धा । १५४५. सेसेसु पदेसु णत्थि णाणत्तं । १५४६. एतो बुंसयवेदेण उचट्ठिदस्स खवगस्स णाणत्तं वत्तइस्लामो । १५४७, जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणत्तं । १५४८. अंतरं करेमाणो णवुंसयवेदस्स पढमट्ठिदि वेदि । १५४९. जम्महंती इत्थवेदेण उचट्ठिदस्स इत्थीवेदस्स परमट्ठिदी तम्महंती णवुंसयवेदेण उवदिस्स णवुंसय वेदस्स पढमट्टिदी | १५५०. तदो अंतरदुसमयकदे णवंसयवेदं खवेदुमाढत्तो । १५५१. जद्द ही पुरिसवेदेण उवदिस्स सवेदस्त खवणद्धा तद्देही णवुंसयवेदेण उवदिस्स वुंसयवेदस्स खचणद्धा गदा चूर्णिसू० - अब स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपककी विभिन्नताको कहेंगे । वह इस प्रकार है— जब तक अन्तर नहीं करता है, तब तक कोई विभिन्नता नही है । अन्तरको करता हुआ क्षपक स्त्रीवेदक प्रथमस्थितिको स्थापित करता है । पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपकके जितना स्त्रीवेदके क्षपणका काल है, उतनी ही स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपक के स्त्रीवेदी प्रथमस्थिति है | नपुंसकवेदका क्षय करनेवाले क्षपककी प्ररूपणामे कोई विभिन्नता नहीं है । नपुंसक वेद के क्षय करने पर स्त्रीवेदका क्षय करता है । पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपकके जितना बड़ा स्त्रीवेदका क्षपणकाल है, उतना ही बड़ा स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपकके स्त्रीवेदका क्षपणकाल है । तत्पश्चात् अर्थात् स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति के क्षीण होनेपर अपगतवेदी होकर हास्यादि छह नोकपाय और पुरुषवेद इन सात कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है । सातो ही कर्मोंका क्षपणकाल है । शेष पदोंमें कोई विभिन्नता नही है । १५३५-१५४५॥ चूर्णि सू० - [0- अब इससे आगे नपुंसक वेदसे उपस्थित क्षपककी विभिन्नता कहेंगे । जब तक अन्तरको नहीं करता है, तब तक कोई विभिन्नता नही है । अन्तरको करता हुआ नपुंसकवेदकी प्रथमस्थितिको स्थापित करता है । स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपकसे जितनी बड़ी स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति है, उतनी ही बड़ी नपुंसकवेदसे उपस्थित क्षपकके नपुंसक - वेदी प्रथमस्थिति है । पुनः अन्तर करनेके दूसरे समय में नपुंसक वेदका क्षय करना प्रारम्भ करता है । पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपकके जितना नपुंसकवेदका क्षपणाकाल है, उतना नपुंसकवेदसे उपस्थित क्षपकके नपुंसकवेदका क्षपणाकाल बीत जाता है, तो भी तब तक नपुं Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ण ताव णवूसयवेदो खीयदि । १५५२. तदो से काले इत्थीवेदं खवेदुमाहत्तो णवंसयवेदं पि खवेदि । १५५३. पुरिसवेदेण उवडिदस्स जम्हि इत्थिवेदो खीणो तम्हि चेव णवंसयवेदेण उवविदस्स इस्थिवेद-णसयवेदा च दो वि सह खिज्जति । १५५४ तदो अवगदवेदो सत्त कम्यंसे खवेदि । १५५५. सत्तण्हं कम्माणं तुल्ला खवणद्धा । १५५६. सेसेसु पदेसु जधा पुरिसवेदेण उवहिदस्स अहीणमदिरित्तं तत्थ णाणत्तं । १५५७. जाधे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो ताधे णामा-गोदाणं द्विदिवंधो अट्ट महत्ता। १५५८. वेदणीयस्त हिदिबंधो चारस मुहुत्ता। १५५९. तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहत्तं । तिण्डं घादिकम्माणं हिदिसंतकम्मं अंतोमुहुत्तं । १५६०. णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेन्जाणि वस्साणि । १५६१. मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्यं णस्सदि। १५६२. तदो से काले पढमसमयखीणकसायो जादो। १५६३. ताधे चेव द्विदिअणुभाग-पदेसस्स अबंधगो। १५६४. एवं जाव चरिमसमयाहियावलियछदुमत्थो ताव तिण्हं धादिकम्माणमुदीरगो । १५६५. तदो दुचरिमसमये णिद्दा-पयलाणमुदयसंतवोच्छेदो। १५६६. तदो णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमेगसमएण संतोदयवोच्छेदो । सकवेद क्षीण नही होता है । पश्चात् अनन्तर समयमे स्त्रीवेदका क्षपण प्रारम्भ करता हुआ नपुंसकवेदका भी क्षय करता है । पुरुपवेदसे उपस्थित क्षपकका जिस समयमे स्त्रीवेद क्षीण होता है उस ही समयमै नपुंसकवेदसे उपस्थित क्षपकके वीवेद और नपुंसकवेद दोनो ही एक साथ क्षयको प्राप्त होते हैं । पुनः अपगतवेदी होकर सात नोकपायरूप कांशोका क्षय करता है । सातो ही नोकपायोका क्षपणाकाल समान है। शेष पदोमे जैसी विधि पुरुषवेदसे उपस्थित आपककी कही गई है, वैसी ही विधि हीनता और अधिकतासे रहित यहाँ भी कहना चाहिए ॥१५४६-१५५६॥ चूर्णिसू०-जिस कालमे चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता है, उस कालमे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध आठ मुहूर्त-प्रमाण है । वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध वारह मुहूर्तप्रमाण है । शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । तीनो घातिया कोंका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष है । यहॉपर मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व नाशको प्राप्त हो जाता है॥१५५७-१५६१॥ चूर्णिस०-तदनन्तर कालमें वह प्रथमसमयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है। उस ही समयमे वह सव कर्मोंकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका अवन्धक हो जाता है । इस प्रकार वह एक समय अधिक आवलीमात्र छद्मस्थकालके शेष रहने तक तीनो घातिया कर्मोंकी उदीरणा करता रहता है। तत्पश्चात् क्षीणकषायके द्विचरम समयमें निद्रा और प्रचलाके उद्य और सत्त्वका एक साथ व्युच्छेद हो जाता है। तदनन्तर एक समयमे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनो घातिया कोंके उदय तथा सत्त्वका एक साथ व्युच्छेद हो जाता है ॥१५६२-१५६६॥ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २३३ ] चारित्रमोहक्षपक-क्षीणकषायत्व-निरूपण १५६७. [ एत्थुद्देसे खीणमोहद्धाए पडिबद्धा एक्का मूलगाहा । ] १५६८. तिस्से समुकित्तणा। (१७९) खीणेसु कसाएसु य सेसाणं के व होति वीचारा । खवणा व अखवणा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥२३२॥ १५६९. [ संपहि एत्थेवुद्देसे एका संगहमूलगाही विहासियन्वा । ] १५७०. तिस्से समुकित्तणा। (१८०) संकामणमोवट्टण-किट्टीखवणाए खीणमोहंते। खवणा य आणुपुवी बोद्धव्या मोहणीयस्स ॥२३३॥ अब क्षीणमोह-कालसे प्रतिबद्ध जो एक मूलगाथा है, उसकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१५६७-१५६८॥ ____कषायोंके क्षीण हो जानेपर शेप ज्ञानावरणादि कर्मोंके कौन-कौन क्रिया विशेषरूप वीचार होते हैं ? तथा क्षपणा, अक्षपणा, बन्ध उदय और निर्जरा किन-किन कर्मोकी कैसी होती है ? ॥२३२॥ विशेषार्थ-इस मूलगाथाका अर्थ कृष्टि-सम्बन्धी ग्यारह गाथाओके समान ही जानना चाहिए। केवल यहॉपर १ स्थितिघात, २ स्थितिसत्त्व, ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ स्थितिकांडकघात और ६ अनुभागकांडकघात ये छह क्रियाविशेष ही कहना चाहिए । क्षपणापद कषायोंके क्षीण हो जानेपर शेष तीन घातिया कर्मोंकी क्षपणाविधिका निर्देश करता है । अक्षपणापद बारहवें गुणस्थानमे चारो अघातिया कर्मोंके क्षयके अभावको सूचित करता है । बन्धपद कर्मोंके स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्धके अभावको सूचित करता है। उदयपद प्रकृतिबन्धके उदय और उदीरणाकी सूचना करता है। निर्जरापद क्षीणकपायवीतरागके गुणश्रेणी निर्जराका विधान करता है। इस प्रकार इस मूलगाथामे इतने अर्थो का विचार करना चाहिए। अब क्षपणासम्बन्धी अट्ठाईसवी जो एक संग्रहणी मूलगाथा हैं, वह विभाषा करनेके योग्य है । उसकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१५६९-१५७०॥ ___इस प्रकार मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षीण होने तक संक्रमणाविधि, अपवर्तनाविधि और कृष्टिक्षपणाविधि इतनी ये क्षपणाविधियाँ मोहनीय कर्मकी आनुपूर्वीसे जानना चाहिए ॥२३३॥ विशेषार्थ-इस संग्रहणी-गाथाके द्वारा चारित्रमोहनीयकर्मकी प्रकृतियोके क्षपणाका विधान क्रमशः आनुपूर्वीसे किया गया है, अतएव इसे संग्रहणी-गाथा कहा गया है। १ को सगहो णाम ? चरित्तमोहणीयस्स वित्थरेण पुव्वं परूविदखवणाए दवट्ठियसिस्सजणाणुग्गहट्ट सखेवेण परूवणा संगहो णाम । तदो पुवुत्तासेसत्योवसंहारमूलगाहा संगहणमूलगाहा त्ति भण्णदे । जयध० Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १५७१. तदो अणंतकेवलणाण-दसण-वीरियजुत्तो जिणो केवली सव्वण्हू सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो त्ति भण्णइ । १५७२. असंखेज्जगुणाए सेढीए पदेसग्गं णिज्जरेमाणो विहरदि त्ति । चरित्तमोहक्खवणा-अत्याहियारो समत्तो । अन्तरकरणको करके जब तक छह नोकषायोका क्षय करता है, तब तक उस अवस्थाकी संक्रमण संज्ञा है, क्योकि यहाँ पर नपुंसकवेदादि नोकषार्थीका संक्रमण देखा जाता है । अपवर्तनापदसे अश्वकर्णकरणकाल और कृष्टिकरणकालका ग्रहण करना चाहिए। क्योकि, यहॉपर संज्वलन कषायोकी अश्वकर्णके आकारसे ही अपवर्तना देखी जाती है । कृष्टिक्षपणपदसे कृष्टिवेदनकालका ग्रहण करना चाहिए। इसके भीतर दशवें गुणस्थानके अन्तिम समय तककी सर्व प्ररूपणा आ जाती है, क्योंकि यहाँ पर ही सूक्ष्म लोभकृष्टिका क्षय होता है । 'क्षीणमोहान्त' इस पदके द्वारा सूत्रकारने यह भाव व्यक्त किया है कि क्षीणकषाय गुणस्थानके नीचे ही चारित्रमोहनीयकी क्षपणा होती है, इसके ऊपर नहीं होती। इस प्रकार उक्त क्रिया-विशेषोंकी आनुपूर्वी मोहनीयकर्मकी क्षपणामे जानना चाहिए । चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमें अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यसे युक्त होकर वह क्षपक जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है। तभी वह सयोगी जिन कहलाता है । वे सयोगिकेवली जिन प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणीसे कर्म-प्रदेशाग्रकी निर्जरा करते हुए (धर्मरूप तीर्थप्रवर्तनके लिए यथोचित धर्मक्षेत्रमे महाविभूतिके साथ ) विहार करते हैं ॥१५७१-१५७२॥ इस प्रकार चारित्रमोहक्षपणा नामक पन्द्रहवाँ अर्थाधिकार समाप्त हुआ । Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवणाहियार-चूलिया अण मिच्छ मिस्स सम्मं अट्ठ णबुंसित्थिवेदछक्कं च । पुंवेदं च खवेदि हु कोहादीए च संजलणे ॥१॥ अध थीणगिद्धिकम्मं णिहाणिहा य पयलपयला य । अध णिस्य-तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु॥२॥ सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुव्वीय संक्रमो होई । लोभकसाए णियमा असंक्रमो होइ बोद्धव्वी ॥३॥ क्षपणाधिकार-चूलिका अब क्षपणाधिकारकी चूलिकाके प्ररूपण करनेके लिए ये वक्ष्यमाण सूत्र-गाथाएँ ज्ञातव्य हैं अनन्तानुबन्धी-चतुष्क, मिथ्यात्य, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, इन सात प्रकृतियोंको क्षपकश्रेणी चढ़नेसे पूर्व ही क्षपण करता है। पुनः क्षपकश्रेणी चढ़ते हुए अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें अन्तरकरणसे पूर्व ही आठ मध्यम कपायोंका क्षय करता है। पुनः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह नोकपाय और पुरुपवेदका क्षय करता है । तदनन्तर संज्वलनक्रोध आदिका क्षय करता है ॥१॥ मध्यम आठ कपायोंके क्षय करनेके अनन्तर स्त्यानगृद्धि कर्म, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला इन तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियोंको, तथा नरकगति और तिर्यग्गतिसम्बन्धी नामकर्मकी तेरह प्रकृतियोंको संक्रमण आदि करते समय क्षीण करता है।।२।। विशेषार्थ-वे तेरह प्रकृतियाँ ये हैं-१ नरकगति, २ नरकगत्यानुपूर्वी, ३ तिर्यग्गति, ४ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, ५ द्वीन्द्रियजाति, ६ त्रीन्द्रियजाति, ७ चतुरिन्द्रियजाति, ८ उद्योत, ९ आतप, १० एकेन्द्रियजाति, ११ साधारण, १२ सूक्ष्म और १३ स्थावरनामकर्म । भूतबलि-पुष्पदन्त आचार्यके मतानुसार पहले इन उपर्युक्त सोलह प्रकृतियोका क्षय करके पीछे आठ मध्यम कपायोका क्षय करता है। किन्तु गुणधर और यतिवृषभ आचार्यके मतानुसार पहले आठ मध्यम कपायोका क्षय करके पुनः सोलह प्रकृतियोका क्षय करता है, ऐसा सिद्धान्त-भेद जानना चाहिए। मोहनीयकर्मकी सम्पूर्ण प्रकृतियोंका आनुपूर्वीसे संक्रमण होता है। किन्तु लोभकपायका संक्रमण नही होता है, ऐसा नियमसे जानना चाहिए ॥३॥ १ कसायपाहुडगाथाङ्क १२८ । २ कसाय० गा० १३६ । ११३ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९८ कसाय पाहुड सुत्त [क्षपणाधिकार-चूलिका संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णवुसयं वेव। सत्तेव णोकसाए णियमा कोधम्हि संछुहदि ॥ ४ ॥ कोहं च छुहइ मागे माणं मायाए णियमसा छुहइ । मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो त्थिं ॥ ५ ॥ जो जम्हि संछुहतो णियमा बंधम्हि होइ संछुहणा। बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो णथि ॥६॥ बंधेण होइ उदयो अहिओ उदएड संकमो अहिओ। गुणसेढि अणंतगुणा बोद्धव्या होइ अणुभागे ॥ ७ ॥ बंधेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ। गुणढि असंखेजा च पदेसग्गेण बोद्धव्वा ॥ ८॥ स्त्रीवेद और नपुसकवेदका पुरुपवेदमें संक्रमण करता है। पुरुपवेद तथा हास्यादि छह इन सात नोकपायोंका नियमसे संज्वलनक्रोधमें संक्रमण करता है ॥४॥ संज्वलनक्रोधको संज्वलनमानमें, संज्वलनमानको संज्वलनमायामें, संज्वलनमायाको संज्वलन लोभमें नियमसे संक्रमण करता है । इस प्रकार इन सब मोहप्रकृतियोंका अनुलोम ही संक्रमण होता है, प्रतिलोम संक्रमण नहीं होता ॥५॥ जो जीव जिस बंधनेवाली प्रकृतिमें संक्रमण करता है वह नियमसे बन्धसदृश ही प्रकृतिमें संक्रमण करता है; अथवा बन्धकी अपेक्षा हीनतर स्थितिवाली प्रकृतिमें संक्रमण करता है । किन्तु बन्धसे अधिक स्थितिवाली प्रकृतिमें संक्रमण नहीं होता। ॥६॥ वन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रमण अधिक होता है । इस प्रकार ।। अनुभागके विषयमें गुणश्रेणी अनन्तगुणी जानना चाहिए ॥७॥ भावार्थ-विवक्षित एक समयमे अनुभागके वन्धकी अपेक्षा अनुभागका उदय अनन्तगुणा होता है और अनुभागके उदयसे अनुभागका संक्रमण अनन्तगुणा होता है। वन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रमण अधिक होता है। इस प्रकार प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गुणश्रेणी असंख्यातगुणी जानना चाहिए ॥८॥ भावार्थ-विवक्षित एक समयमें किसी एक विवक्षित प्रकृतिके प्रदेशवन्धसे उसके प्रदेशोंका उदय असंख्यातगुणा अधिक होता है और प्रदेशोके उद्यकी अपेक्षा प्रदेशोंका संक्रमण और भी असंख्यातगुणा अधिक होता है । १ कसाय० गा० १३८ । २ कसाय० गा० १३९ । ३ कसाय० गा० १४०। ४ कसाव० गा० १४३। ५ कसाय० गा० १४४॥ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप० गा० १२ ] चारित्रमोहक्षपणा-उपसंहार-निरुपण उदयो च अणंतगुणो संपहि-बंधेण होइ अणुभागे। से काले उदयादो संपहि-बंधो अणंतगुणों ॥९॥ चरिम बादराये णामा-गोदाणि वेदीयं च । वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य ज सेसं ॥१०॥ जं चावि संछुहंतो खवेइ किट्टि अबंधगो तिस्से । सुहमम्हि संपराए अबंधगो बंधगियराणं ॥११॥ जाव ण छदुमत्थादो तिण्हं घादीण वेदगो होइ । अधऽणंतरेण वइया सव्वा सव्वदरिसी य ॥१२॥ चरित्तमोहक्खवणा त्ति समत्ता। एवं कसायपाहुडसुत्ताणि सपरिमासाणि समत्ताणि सव्वसमासेण वेसद-तेत्तीसाणि । एवं कसायपाहुडं समत्तं । __ अनुभागकी अपेक्षा साम्प्रतिक-बन्धसे साप्रतिक-उदय अनन्तगुणा होता है । इसके अनन्तरकालमें होनेवाले उदयसे साम्प्रतिक बन्ध अनन्तगुणा होता है ॥९॥ चरमसमयवती वादरसाम्परायिक क्षपक नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मको वर्षके अन्तर्गत बांधता है। तथा शेष जो तीन घातिया कर्म हैं उन्हें एक दिवसके अन्तर्गत बांधता है ॥१०॥ जिस कृष्टिको भी संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, उसका वह बन्ध नहीं करता । सूक्ष्मसापरायिक कृष्टिके वेदनकालमें वह उसका अवन्धक रहता है। किन्तु इतर कृष्टियोंके वेदन वा क्षपणकालमें वह उनका बन्ध करता है ॥११॥ जब तक वह क्षीणकपायवीतरागसंयत छमस्थ अवस्थासे नहीं निकलता है, तब तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिया कोका वेदक रहता है । इसके पश्चात् अनन्तर समयमें तीनों घातिया काँक्षा क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है ॥१२॥ इस प्रकार चारित्रमोहक्षपणाधिकारकी चूलिका समाप्त हुई । इस प्रकार परिभापा-सहित दो सौ तेतीस गाथासूत्रात्मक कसायपाहुड समाप्त हुआ। १ कसाय० गा० १४५ । २ कसाय० गा० २०९ । ३ कसाय० गा० २१७ । Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिमक्खधो अत्याहियारो १. पच्छिमक्खंधे त्ति अणियोगद्दारे तम्हि इमा मग्गणा । २. अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्धादं करेदि । ३. पढमसमये दंडं करेदि । पश्चिमस्कन्ध-अर्थाधिकार चूर्णिस०-अब इस पश्चिमस्कन्ध नामक अनुयोगद्वारमें यह वक्ष्यमाण प्ररूपणा मार्गणा करनेके योग्य है ॥१॥ विशेपार्थ-चूर्णिकारने इस अधिकारका नाम पश्चिमस्कन्ध कहा है । इसे जयधवलाकारने समस्त श्रुतस्कन्धकी चूलिका कहा है । इस कसायपाहुडकी समाप्ति होनेपर जो कथन अवशेष रहा है, वह चूर्णिकारने चूलिकारूपसे इसमे निवद्ध किया है । महाकम्मपयडिपाहुडके चौवीस अनुयोगद्वारोंमे भी पश्चिमस्कन्ध नामका अन्तिम अनुयोगद्वार है और वहॉपर भी वही अर्थ कहा गया है, जो कि यहॉपर चूर्णिकारने कहा है । दोनो सिद्धान्त-ग्रन्थोकी एकरूपता या एक-उद्देश्यता बताना ही संभवतः चूर्णिकारको अभीष्ट रहा है । घातिया कर्माके क्षय हो जानेपर सयोगिकेवली भगवान्के जो अन्तम अघातिया काँका स्कन्धरूप कर्म-समुदाय पाया जाता है, उसे पश्चिमस्कन्ध कहते हैं । अथवा पश्चिम अर्थात् अन्तिम औदारिकशरीरके, तैजस और कार्मणशरीररूप नोकर्मस्कन्धयुक्त जो कर्मस्कन्ध है, उसे पश्चिमस्कन्ध जानना चाहिए। क्योकि इस अधिकारमे केवलीकी समुद्धात-गत क्रियाओका वर्णन करते हुए औदारिकशरीरसम्बन्धी मन, वचन, कायरूप योगनिरोध आदिका विस्तारसे वर्णन किया गया है । पन्द्रह महाधिकारोके द्वारा कसायपाहुडका वर्णन कर देनेके पश्चात् भी इस अधिकारके निरूपण करनेकी आवश्यकता इसलिए पड़ी कि चारित्रमोह-क्षपणाके पश्चात् यद्यपि शेष तीन घातिया कर्मोंके अभावका वर्णन कर दिया गया है, तथापि अभी अघातिया कर्म सयोगी जिनके अवशिष्ट है, उनके क्षपणका वर्णन किये विना प्रतिपाद्य विषयकी अपूर्णता रह जाती है, उसकी पूर्तिके लिए ही इस अधिकारका निरूपण चूर्णिकारने युक्ति-युक्त समझा और परिशिष्टरूप इस निरूपणको पश्चिमस्कन्ध संज्ञा दी। चूर्णिसू०-सयोगि-जिन आयुकर्मके अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रह जानेपर पहले आवर्जितकरण करते हैं और तदनन्तर केवलिसमुद्धात करते हैं ॥२॥ विशेषार्थ-केवलिसमुद्भातके अभिमुख होनेको आवर्जितकरण कहते हैं, अर्थात् केवलिसमुद्घात करनेके लिए जो आवश्यक तैयारी की जाती है, उसे शास्त्रकारोने 'आवर्जितकरण' संज्ञा दी है। इसके किये विना केवलिसमुद्घातका होना संभव नहीं है, अतः पहले अन्तमुहूर्त तक केवली आवर्जितकरण करते हैं। आवर्जितकरण करनेके पश्चात् केवली भगवान् Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०१ सू० ८] केवलिसमुद्धात-निरूपण ४. तम्हि द्विदीए असंखेज्जे भागे हणइ । ५. सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंता भागे हणदि । ६. तदो विदियसमए कवाडं करेदि । ७. तम्हि सेसिगाए द्विदीए असंखेज्जे भागे हणइ । ८. सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणइ । अघातिया कर्मोंकी हीनाधिक स्थितिके समीकरणके लिए जो समुद्धात करते हैं अर्थात् अपने आत्मप्रदेशोंको ऊपर, नीचे और तिर्यक् रूपसे विस्तृत करते हैं, उसे केवलिसमुद्धात कहते है। इस समुद्धातकी दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण-रूप चार अवस्थाएँ होती हैं । इनका वर्णन आगे चूर्णिकार स्वयं कर रहे हैं । चर्णिसू०-सयोगिकेवली जिन प्रथम समयमें दंडसमुद्घात करते हैं। उसमें कर्मोंकी स्थितिके असंख्यात बहुभागोका घात करते हैं । कोंके अवशिष्ट अनुभागके अप्रशस्त अनुभागसम्बन्धी अनन्त बहुभागोंका घात करते हैं ॥३-५॥ विशेषार्थ-सयोगिकेवली जिन पद्मासन या खगासन दोनो ही आसनोसे पूर्वाभिमुख या उत्तरदिशाभिमुख होकरके समुद्धात करते हैं। इनमेसे केवलीके खड्गासनसे इंडसमुद्धात करनेपर आत्मप्रदेश मूलशरीर-प्रमाण विस्तृत और वातवलयसे कम चौदह राजुप्रमाण आयत दंडके आकाररूप फैलते हैं, इसलिए इसे दंडसमुद्बात कहते हैं । यदि सयोगी जिन पद्मासनसे समुद्धात करते हैं, तो दंडाकार प्रदेशोका बाहुल्य मूलशरीरके वाहुल्यसे तिगुना रहता है । दंडसमुद्धातमें पूर्व या उत्तर दिशाकी ओर मुख करनेकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं पड़ता है। हॉ, आगेके समुद्धातोमें अवश्य भेद होता है, सो वह आगे बताया जायगा। इस दंडसमुद्धातमें अघातिया कोंकी जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग स्थिति थी, उसके बहुभागोका घात करता है । तथा बारहवें गुणस्थानके अन्तमे घात करनेसे जो अनुभाग बचा था, उसमेंसे अप्रशस्त अनुभागके भी बहुभागका घात करता है। इस प्रकार इतने कार्य दंडसमुद्धातमें होते हैं । इस समुद्धातमे औदारिककाययोग ही होता है। चूर्णिसू०-तदनन्तर द्वितीय समयमें कपाटसमुद्धात करते हैं । उसमें अघातिया कर्मोंकी शेष स्थितिके भी असंख्यात बहुभागोका घात करते हैं और अवशिष्ट अनुभागसम्बन्धी अप्रशस्त अनुभागके अनन्त बहुभागोका घात करते है ॥६-८॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार कपाट (किवाड़ ) बाहुल्यकी अपेक्षा अल्प परिमाण ही रहता है, परन्तु विष्कम्भ और आयामकी अपेक्षा विस्तृत होता है, इसी प्रकार कपाटसमुद्धातमे केवली जिनके आत्मप्रदेश वातवलयसे कम चौदह राजु लम्बे और सात राजु चौड़े हो जाते हैं । बाहुल्य खड्गासन केवलीके मूल शरीरप्रमाण और पद्मासनके उससे तिगुना जानना चाहिए । इस समुद्धातमे पूर्व या उत्तरदिशाकी ओर मुख करनेसे विस्तारमें अन्तर पड़ जाता है । अर्थात् जिनका मुख पूर्वकी ओर होता है, उनका विस्तार उत्तर और दक्षिण दिशामें सात राजु रहता है। किन्तु जिनका मुख समुद्धात करते समय उत्तर दिशाकी ओर रहता है, उनका विस्तार पूर्व और पश्चिम दिशामे लोकके विस्तारके समान हीनाधिक रहता है। इस समुद्धातमे केवली भगवान्के औदारिकमिश्रकाययोग होता है। Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०२ कसाय पाहुड सुत्त [पश्चिमस्कन्ध-अर्थाधिकार । ९. तदो तदियसमये मंथे करेदि । १०. हिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि । १९. तदो चउत्थसमये लोगं पूरेदि । १२. लोगे पुण्णे एका वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्ति णायव्यो । १३. लोगे पुण्णे अंतोप्नुहुत्तं द्विदि ठवेदि । १४. संखेज्जगुणमाउआदो । चूर्णिस०-तत्पश्चात् तृतीय समयसे मन्थसमुद्घात करते हैं । इसमे अघातिया कोंकी स्थिति और अनुभागकी कपाटसमुद्धातके समान ही निर्जरा करते हैं ॥९-१०॥ विशेपार्थ-जिस अवस्था-विशेपके द्वारा अघातिया कर्मोंकी स्थिति और अनुभागका सन्थन किया जाय, उसे मन्थसमुद्धात कहते हैं। इसे प्रतरसमुद्धात और रुजकसमुद्धात भी कहते हैं। इस समुद्वातमे आत्मप्रदेश प्रतराकारसे चारों ही ओर फैल जाते हैं अर्थात् वातवलय-रुद्ध क्षेत्रको छोड़कर समस्त लोकमें विस्तृत हो जाते हैं। इस समुद्धातमे पूर्व या उत्तर मुख होनेकी अपेक्षा कोई भेद नहीं पड़ता है । इस अवस्थामें सयोगी जिन कार्मणकाययोगी और अनाहारी हो जाते हैं, अर्थात् मूल शरीरके अवष्टम्भके निमित्तसे आत्मप्रदेशोके परिस्पन्दका अभाव हो जाता है और औदारिकशरीरकी स्थितिके योग्य नोकर्म-पुद्गलपिंडका भी ग्रहण नहीं होता है। चूर्णिसू०-तदनन्तर चतुर्थ समयमें लोकको पूरित करते है । लोकके आत्म-प्रदेशोंसे पूरित करनेपर योगकी एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्थाको ही 'समयोग' जानना चाहिए ॥११-१२॥ विशेपार्थ-चौथे समयमें केवली भगवान्के आत्मप्रदेश वातवलयरुद्ध क्षेत्रमें भी व्याप्त हो जाते हैं, अतएव इसे लोकपूरणसमुद्धात कहते हैं । इस समुद्धातकी अपेक्षा ही जीवके प्रदेशोका परिमाण लोकाकाशके प्रदेशोके समान कहा गया है। इस अवस्थामें जीवके नाभिके नीचेके आठ मध्यम प्रदेश सुमेरुके मूलगत आठ मध्यम प्रदेशोंके साथ एकत्र होकर अवस्थित रहते हैं । इसी अवस्थामें केवली भगवान् सर्वगत या सर्वव्यापी कहे जाते हैं । इस समुद्बातमें भी कार्मणकाययोग होता है और अनाहारक दशा रहती है । इस अवस्थामें वर्तमान केवलीके समस्त जीवप्रदेश योगसम्बन्धी अविभाग-प्रतिच्छेदोकी वृद्धि-हानिसे रहित होकर सदृश हो जाते हैं, अतएव सर्व जीव-प्रदेशोके परस्परमे सहश योगे हो जानेसे उन्हें 'समयोग' कहा जाता है और इसी कारण उनकी एक वर्गणा कही जाती है। यह समयोगपरिणाम सक्ष्मनिगोदिया जीवकी जघन्य वर्गणासे असंख्यातगुणित तत्प्रायोग्य मध्यमवर्गणा-स्वरूप जानना चाहिए। चूर्णिसू०-लोकके पूर्ण होनेपर अर्थात् लोकपूरण-समुद्धात करनेपर अघातिया कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है । यह अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थिति आयुकर्मकी स्थितिसे संख्यातगुणी है ॥१३-१४॥ विशेषार्थ-लोकपूरणसमुद्धातके करनेपर यद्यपि अघातिया कर्मोकी स्थिति अन्तर्मु१ एदस्स चेव पदरसण्णा रुजगसण्णा च आगमरूढिवलेण दट्टब्वा । जयध० Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०३ सू० १९] केवलिसमुद्धात-निरूपण - १५. एदेसु चदुसु समएसु अप्पसत्थकस्मंसाणमणुभागस्स अणुसमयओवट्टणा । १६. एगसमइओ हिदिखंडयस्स घादो। १७. एत्तो सेसिगाए द्विदीए संखेज्जे भागे हणइ । १८. सेसस्स च अणुभागस्स अणते भागे हणइ । १९. एत्तो पाए डिदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स च अंतोमुहुत्तिया उक्कीरणद्धा । हूर्त प्रमाण हो जाती है, पर वह सयोगी जिनके आयुकर्मकी स्थितिसे संख्यातगुणी अधिक होती है, ऐसा चूर्णिकारका मत है, क्योंकि उसके संख्यातगुणित अधिक हुए विना आगे जो योग-निरोध-सम्बन्धी कार्य-विशेष बतलाये गये हैं, उनका होना अशक्य है। पर कुछ आचार्य कहते है कि इस विषयमे दो उपदेश पाये जाते है-महावाचक आर्यमंक्षुक्षपणके उपदेशानुसार तो लोकपूरणसमुद्धातके होनेपर आयुकर्मके समान ही शेप सव कर्मोंकी स्थिति हो जाती है। किन्तु महावाचक नागहस्तिक्षपणके उपदेशानुसार शेष कर्मों की स्थिति अन्तमुहूर्त-प्रमित होते हुए भी आयुकर्मकी स्थितिसे संख्यातगुणित अधिक होती है । चूर्णिकारने इसी दूसरे मतका अनुसरण किया है। चूर्णिसू०-केवलिसमुद्धातके समयोमें अप्रशस्त काशोके अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना होती है। एक समयवाले स्थितिकांडकका घात होता है, अर्थात् एक-एक स्थितिकांडकका घात करता है । इससे आगे अर्थात् लोकपूरणसमुद्धातके पश्चात् आत्मप्रदेश संकोचनेके प्रथम समयसे लेकर आगेके समयोमे शेष रही हुई अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थितिके संख्यात भागोका घात करता है । तथा शेष रहे अनुभागके अनन्त बहुभाग अनुभागका भी नाश करता है । इस स्थलपर स्थितिकांडक और अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥१५-१९॥ विशेषार्थ-ऊपर चार समयोमे क्रमशः दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण अवस्थाका वर्णन किया जा चुका है। पॉचवें समयमे सयोगिजिन आत्मप्रदेशोका संकोच करते हुए प्रतर-अवस्थाको प्राप्त होते हैं। इस समयमे समयोगपना नष्ट हो जाता है और सभी पूर्वस्पर्धक उघड़ आते हैं। छठे समयमे प्रदेशोका और भी संकोच होकर कपाट-दशा प्रगट होती है। तीसरे, चौथे और पॉचवें समयमें कार्मणकाययोग रहता है। परन्तु छठे समयमे औदारिकमिश्रकाययोग हो जाता है। सातवें समयमे कपाटरूप अवस्थाका भी संकोच होकर दंडसमुद्धातरूप अवस्था होती है। इसमें औदारिककाययोग प्रगट हो जाता है। तदनन्तर समममें दंड-अवस्थाका संकोच हो जाता है और केवली भगवान् स्वस्थानभावसे अवस्थित हो जाते हैं । कितने ही आचार्य इस अन्तिम समयको नही गिनकर समुद्धात-संकोचके तीन ही समय कहते हैं और कितने ही आचार्य उसे गिनकर चार समय ही लोकपूरणसमुद्धातके संकोचके मानते हैं। उनके अभिप्रायसे जिस समयमें अवस्थित होकर दंडका उपसंहार करते हैं वह समय भी समुद्धात-दशाके ही अन्तर्गत है। समुद्बात-संकोचके इन चार समयोमे प्रतिसमय कर्मोंकी स्थितिका घात होता है और अप्रशस्त अनुभागका भी घात होता है। किन्तु Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०४ कसाय पाहुड सुत्त [पश्चिमस्कन्ध-अर्थाधिकार २०. एत्तो अंतोमुहुत्तं गंतूण चादरकायजोगेण वादरपणजोगं णिसंभइ । २१. तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरुंभइ । २२. तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादर-उस्सास-णिस्सासं णिरंभइ । २३. तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण तमेव वादरकायजोगं णिरंभइ । २४. तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरुंभइ । २५. तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमवचिजोगं णिरुंभइ । २६. तदो अंतोमुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमउस्सासं णिरंभइ । २७. तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरुंभमाणो इमाणि करणाणि करेदि । २८. पढमसमये अपुचफयाणि करेदि पुव्वफयाणं हेह्रदो। २९. आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डुदि । ३०. जीवपदेसाणं च असंखेज्जदिभागमोकड्डदि । ३१. एवमंतोमुहुत्तमपुव्वफहयाणि करेदि । ३२. असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए जीवपदेसाणं च असंखेज्जगुणाए सेडीए । ३३. अपुव्वसमुद्धात-क्रियाके समाप्त हो जानेपर प्रतिसमय स्थिति और अनुभागका घात नहीं होता, केवल अन्तर्मुहूर्तकाल तक स्थितिकांडक और अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल प्रवर्तमान रहता है । केवलीके स्वस्थान-समवस्थित हो जानेपर वे अन्तर्मुहूर्त तक योग-निरोधकी तैयारी करते हैं । इस समय अनेक स्थितिकांडक-घात और अनुभागकांडक-घात व्यतीत होते हैं । योगनिरोधमें क्या-क्या कार्य किस क्रमसे होते है, यह चूर्णिकार आगे स्वयं बतायेगे । चूर्णिसू०-इससे अन्तर्मुहूर्त आगे जाकर अर्थात् समुद्धातदशाके उपसंहारके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् वे सयोगिजिन बादरकाययोगके द्वारा वादरमनोयोगका निरोध करते हैं । तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्तके द्वारा बादरकाययोगसे बादरवचनयोगका निरोध करते है । पुनः एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा बादरकाययोगसे वादर उच्छ्वास-निःश्वासका निरोध करते है । पुनः एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा बादरकाययोगसे उसी बादरकाययोगका निरोध करते है। पुनः एक अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् सूक्ष्मकाययोगसे सूक्ष्ममनोयोगका निरोध करते हैं। पुनः एक अन्तमुहूर्त के द्वारा सूक्ष्मवचनयोगका निरोध करते हैं। पुनः एक अन्तर्मुहूर्तके द्वारा सूक्ष्मकाययोगसे सूक्ष्म उच्छ्वास-निःश्वासका निरोध करते हैं ।।२०-२६॥ चूर्णिसू०-पुनः एक अन्तर्मुहूर्त आगे जाकर सूक्ष्मकाययोगसे सूक्ष्मकाययोगका निरोध करते हुए इन करणोको करते हैं-प्रथम समयमे पूर्वस्पर्धकोके नीचे अपूर्वस्पर्धकोंको करते हैं। पूर्वस्पर्धकोसे जीवप्रदेशोका अपकर्षण करके अपूर्वस्पर्धकोको करते हुए पूर्वस्पर्धकोकी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करते हैं । जीवप्रदेशोंके भी असंख्यातवे भागका अपकर्षण करते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक अपूर्वस्पर्धकोकी रचना करते हैं। इन अपूर्वस्पर्धकोंको प्रतिसमय असंख्यातगुणित हीन श्रेणीके क्रमसे निवृत्त करते हैं। किन्तु जीव-प्रदेशोका अपकर्षण असंख्यातगुणित वृद्धि रूप श्रेणीके क्रमसे करते हैं। ये सब अपूर्वस्पर्धक जगच्छ्रणीके असंख्यातवे भाग हैं । Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ४९ ] केवलिसमुद्धात गत-विशेषक्रिया निरूपण ९०५ फद्दयाणि सेटीए असंखेज्जदिभागो । ३४. सेडिबग्गमूलस्स वि असंखेज्जदिभागो । ३५. पुव्चकद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो सव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि । ३६. तो अंतमुत्तं किडीओ करेदि । ३७. अपुण्यफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभाग पडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभाग मोकडदि । ३८. जीवपदेसाणमसंखेज्जदिभागमोदि । ३९. एत्थ अंतोमुहुत्तं करेदि किडीओ असंखेज्जगु [णही ]णाए सेडीए । ४०. जीवपदेसाणमसंखेज्जगुणाए सेढीए । ४१. किट्टी गुणगारो पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागो । ४२. किट्टीओ सेढीए असंखेज्जदिभागो । ४३. अपुव्वफक्ष्याणं पि असंखेज्जदिभागो । ४४. किट्टीकरणद्धे गिट्टिदे से काले पुन्वफद्दयाणि अपुञ्चफद्दयाणि चणासेदि । ४५ अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि । ४६. सुहुम किरिय [म] पडिवादिझाणं झादि । ४७. किट्टीणं चरिमसमये असंखेज्जे भागे णादि । ४८. जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्पाणि होंति । ४९. तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसिं' य पडिवज्जदि । जगच्छेणी वर्गमूलके भी असंख्यातवें भाग है और पूर्व स्पर्ध कोके भी असंख्यातवे भाग हैं ॥। २७-३५॥ चूर्णिसू० - इससे आगे अर्थात् अपूर्वस्पर्धकोकी रचना करनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक कृष्टियोको करते है । अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणासम्बन्धी अविभाग - प्रतिच्छेदोके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करते हैं । तथा जीवप्रदेशो के असंख्यातवे भागका अपकर्षण करते हैं। यहाॅ पर अन्तमुहूर्त तक असंख्यातगुणित हीन श्रेणीके द्वारा कृष्टियोको करते हैं । जीवप्रदेशोका अपकर्पण असंख्यातगुणित श्रेणीसे करते हैं । यहाँ पर कृष्टियोका गुणकार पल्योपमका असंख्यातवा भाग है । ये कृष्टियों जगच्छ्र ेणीके असंख्यातवे भाग हैं और अपूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवे भाग हैं । कृष्टिकरण के निष्पन्न होने पर उसके अनन्तर समयमें पूर्व-स्पर्धको और अपूर्व- स्पर्धको का नाश करते हैं । उस समय सयोगिकेवली जिन अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टिगतयोगवाले होते है ॥ ३६-४५॥ चूर्णिसू० - उसी समय सयोगिकेवली जिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तृतीय शुकुध्यानको याते हैं और तेरहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमे कृष्टियोके असंख्यात वहुभागका नाश करते हैं । इस प्रकार योगका निरोध हो जानेपर आयुकी स्थिति के समान स्थितिवाले तीनो अघातिया कर्म हो जाते हैं । तत्पश्चात् वे भगवान् अयोगिकेवली वनकर अन्तर्मुहूर्त - काल तक शैलेश्य अवस्थाको प्राप्त होते हैं ॥ ४६-४९॥ विशेषार्थ - योगनिरोध करनेके अनन्तर वे सयोगिकेवली भगवान् शैलेशी अवस्थाको १ किं पुनरिद शैलेश्य नाम ? शीलानामीशः शीलेग, तस्य भावः शैलेय्य सकलगुणगीलानामेकाधिपत्यप्रतिलम्भनमित्यर्थः । शीलेशः सर्वसवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था । शैलेगो वा मेदस्तस्यैव यावस्था स्थिरता साधर्म्यात् सा शैलेशी । सा च सर्वथा योगनिरोधे पचहत्वाअरोच्चारखाल्माना । व्याख्याप्रशति. १,८,७२ अभयदेवीया वृत्तिः । १९४ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०६ कसाय पाहुड सुत्त [ पश्चिमस्कन्ध-अर्थाधिकार ५०. समुच्छिण्णकिरियमणियट्टिसुक्कझाणं झायदि । ५१. सेलेसिं अद्धाए झीणाए सव्यकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं गच्छई । ५२. खवणदंडओ समत्तो । पच्छिमक्खंधो अत्थाहियारो समत्तो । प्राप्त होते हैं, अर्थात् चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थानमे प्रवेश करते है । उस समय उनके अठारह हजार शीलके भेद और चौरासी लाख उत्तर गुण परिपूर्णताको प्राप्त हो जाते हैं । यद्यपि उक्त शील और उत्तर गुणोकी पूर्णता सयोगिजिनके भी मानी जाती है, पर योगके सान्निध्यसे वहाँ पूर्ण संवर नहीं है, अतः परमोपेक्षालक्ष्ण यथाख्यात-विहारशुद्धि संयमकी चरम सीमा योगनिरोध होनेपर ही संभव है । 'सेलेसिं' इस प्राकृतपदका 'शैलेशी' ऐसा संस्कृतरूप मानकर कुछ आचार्य इसका यह भी अर्थ करते हैं कि शैल अर्थात् पर्वतोका ईश सुमेरु जैसे सर्वदा अचल, अकंप रहता है, उसी प्रकार योगका अभाव हो जानेसे अयोगिजिनकी अवस्था एकदम शान्त, स्थिर और अकंप हो जाती है । इस शैलेशी अवस्थाका काल पंच ह्रस्व अक्षरोके उच्चारणकाल-प्रमाण है । चूर्णिसू०-उस समय शैलेश्य अवस्थाको प्राप्त अयोगिकेवली जिन समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं। शैलेश्यकालके क्षीण हो जाने पर सर्व कर्मोंसे विप्रमुक्त होकर एक समयमे सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं ।।५०-५१॥ चूर्णिस०-इस प्रकार क्षपणाधिकारके चूलिकास्वरूप इस पश्चिमस्कन्धमें अघातिया कर्मोंके क्षपणका विधान करनेवाला यह क्षपण-दण्डक समाप्त हुआ ।५२।। इस प्रकार पश्चिमस्कन्ध नामक अर्थाधिकार समाप्त हुआ १ अयोगिकेवलिगुणावस्थानकाला शैलेश्यद्धा नाम । सा पुनः पचह्रस्वाक्षरोच्चारणकालावच्छिन्नपरिमाणेत्यागमविदां निश्चयः। तस्यां यथाक्रममधःस्थितिगलनेन क्षीणाया सर्वमलकलकविप्रमुक्तः खात्मोपलब्धिलक्षणां सिद्धिं सकलपुरुषार्थसिद्धः परमकाष्ठानिष्ठमेकसमयेनैवोपगच्छतिः कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षानन्तरमेव मोक्षपर्यायाविर्भावोपपत्तेः । जयध० Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ कसायपाहुड- सुत्त गाहा २ ॥ पुव्वपि पंचमम्मि दुदसमे वत्थुम पाहुडे तदिए । पेज्जं ति पाहुडम्पि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ॥ १ ॥ गाहास असीदे अत्थे पण्णरसधा वित्तम्मि | वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ॥ पेज-दोसविहत्ती द्विदि अणुभागे च बंधगे चेव । तिण्णेदा गाहाओ पंचसु अत्थेसु णादव्वा ॥ ३ ॥ चार वेदम्म दु उवजोगे सत्त होंति गाहाओ । सोलय य चउट्ठाणे वियंजणे पंच गाहाओ ॥ ४ ॥ दंसणमोहस्सुवसापणार पण्णारस होति गाहाओ । पंचेव सुतगाहा दंसणमोहस्स खवणाए ॥ ५ ॥ ली य संजमा संजमस्स लगी तहा चरितस्स । दो वि एका गाहा अट्ठेबुवसामणद्धम् ॥ ६ ॥ चत्तारि य पट्टचए गाहा संकामए वि चत्तारि । ओट्टणाए तिणि दु एक्कारस होंति किट्टीए ॥ ७ ॥ चत्तारि य खवणाए एक्का पुण होदि खीणमोहस्स । एका संगणी अट्ठावीसं समासेण ॥ ८ ॥ किट्टी कवीचारे संगहणी खीणमोहपट्टचए । सदा गाहाओ अण्णाओ सभासगाहाओ ॥ ९॥ संकामण ओट्टण किट्टी खवणाए एकवीसं तु । दाओ सुत्तगाहाओ सुण अण्णा भासगाहाओ ॥ १० ॥ पंच यतिणि य दो छक्क चउक्क तिण्णि तिण्णि एक्का य । चत्तारि यतिणि उभे पंच य एक तह य छक्कं ॥ ११ ॥ तिण्णि य चउरो तह दुग चत्तारि य होंति तह चउक्कं च । दो पंचैव य एका अण्णा एक्का य दस दो य ॥ १२ ॥ ( १ ) पेज्ज दोस विहत्ती द्विदि अणुभागे च बंधगे चेय । वेदग उवजोगे विय चउट्ठाण वियंजणे चेय ॥ १३ ॥ ( २ ) सम्पत्त देस विरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दंसण-चरित्त मोहे अद्धापरिमाणणिसो || १४ || Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड सुत्त आवलिय अणायारे चक्खिदिय-सोद-घाण-जिव्भाए। मण-वयण-काय पासे अवाय-ईहा सुदुस्सासे ॥ १५ ॥ केवलदसण-णाणे कसाय सुक्केक्कए पुधत्ते य । पडिवादुवसातय खतए संपराए य ॥ १६ ॥ माणद्धा कोहद्धा मायद्धा तहय चेव लोहद्धा । खुद्धभवग्गहणं पुण किट्टीकरणं च बोद्धव्वा ॥ १७ ॥ संकामण-ओवट्टण-उवसंत कसाय-खीणमोहद्धा । उवसातय-अद्धा खत-अद्धा य बोद्धव्या ॥ १८ ॥ णिव्याघादेणेदा होति जहण्णाओ आणुपुबीए । एत्तो अणाणुपुची उकस्सा होंति भजियव्या ॥ १९ ॥ चक्खू सुदं पुधत्तं माणोवाओ तहेव उवसंते । उवसातय-अद्धा दुगुणा सेसा हु सविसेसा ॥ २० ॥ १-३ पेज-दोस-विहत्ति-अस्थाहियारा (३) पेज वा दोसो वा कम्मि कसायम्मि कस्स व णयस्स । दुट्ठो व कम्मि दव्वे पियायदे को कहि वा वि ॥ २१ ।। (४) पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती तह हिदीए अणुभागे । उकस्समणुक्कस्सं झीणमझीणं च ठिदियं वा ।। २२ ।। ४-५ वंध-संकम-अस्थाहियारा (५) कदि पयडीओ बंधदि हिदि-अणुभागे जहण्णमुक्कस्सं । संकामेइ कदि वा गुणहीणं वा गुणविसिटुं ।। २३ ॥ संकम उवक्कमविही पंचविहो चउन्विहो य णिक्खेवो । णयविहिपयदं पयदे च णिग्गमो होइ अकृविहो ।। २४ ॥ एकेकाए संकमो दुविहो संकमविही य पयडीए । संकमपडिग्गहविही पडिग्गहो उत्तम-जहण्णो ॥ २५ ॥ पयडि-पयडिहाणेसु संकमो असंकमो तहा दुविहो । दुविहो पडिग्गहविही दुविहो अपडिग्गहविही य ॥ २६ ॥ अट्ठावीस चउचीस सत्तरस सोलसेव पण्णरसा । एदे खलु मोत्तणं सेसाणं संकमो होइ ॥ २७ ॥ सोलसग वारसदृग वीसं वीसं तिगादिगधिगा य । एदे खलु मोत्तूणं सेसाणि पडिग्गहा होति ॥ २८ ॥ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०९ कसायपाहुड सुत्तगाहा छब्बीस सत्तवीसा य संक्रमो णियम चदुसु हाणेसु । वावीस पण्णरसगे एकारस ऊणवीसाए ॥ २९ ॥ सत्तारसेगवीसासु संकयो णियम पंचवीसाए । णियमा चदुसु गदीसु य णियमा दिट्ठीगए तिविहे ॥ ३० ॥ वावीस पण्णरसगे सत्तग एकारसूणवीसाए । तेवीस संकमो पुण पंचसु पंचिंदिएसु हवे ॥ ३१ ॥ चोदसग दसग सत्तग अट्ठारसगे च णियम वावीसा । णियमा मणुसमईए विरदे मिस्से अविरदे य ॥ ३२ ॥ तेरसय णवय सत्तय सत्तारस पणय एकवीसाए । एगाधिगाए वीसाए संकमो छप्पि सम्पत्ते ॥ ३३ ॥ एत्तो अवसेसा संजमम्हि उवसामगे च खवगे च । वीसा य संकम दुगे छक्के पणगे च बोद्धव्या ॥ ३४ ॥ पंचसु च उणवीसा अट्ठारस चदुसु होंति बोद्धव्या । चोद्दस छसु पयडीसु य तेरसय छक्क-पणगम्हि ॥ ३५ ॥ पंच चउक्के वारस एक्कारस पंचगे तिग च उक्के । दसगं चउक्क-पणगे णवगं च तिगरिम बोद्धव्वा ।। ३६ ॥ अट्ठ दुग तिग चदुक्के सत्त चदुक्के तिगे च बोद्धव्या । छक्कं दुगम्हि णियमा पंच तिगे एक्कग दुगे वा ॥ ३७॥ चत्तारि तिग चदुक्के तिणि तिगे एक्कगे च वोद्धव्वा । दो दुसु एगाए वा एगा एगाए बोद्धव्वा ॥ ३८ ॥ अणुपुव्यमणणुपुव्वं झीणमझीणं च दंसणे मोहे ।। उवसामगे च खवगे च संकमे मग्गणोवाया ॥ ३९ ॥ एक्केक्कम्हि य हाणे पडिग्गहे संकमे तदुभए च । भविया वाऽभविया वा जीवा वा केसु ठाणेसु ॥ ४० ॥ कदि कम्हि होति ठाणा पंचविहे भावविधिविसेसम्हि । संकमपडिग्गहो वा समाणणा वाऽध केवचिरं ॥ ४१ ॥ णिरयगइ-अमर-पंचिदिए सु पंचेव संकमट्ठाणा । सच्चे मणुसगइए सेसेसु तिगं असण्णीसु ॥ ४२ ॥ चदुर दुगं तेवीसा मिच्छत्ते मिस्सगे य सम्मत्ते । वावीस पणय छक्कं विरदे मिस्से अविरदे य ॥ ४३ ॥ तेवीस सुक्कलेस्से छक्कं पुण तेउ पम्मलेस्सासु । पणयं पुण काऊए णीलाए किण्हलेस्साए ॥ ४४ ॥ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुड सुत्त अवगयवेद-णवंसय-इत्थी-पुरिसेसु चाणुपुब्बीए । अट्ठारसयं णवयं एक्कारसयं च तेरसया ॥ ४५ ॥ कोहादी उवजोगे चदुसु कसाएसु चाणुपुव्वीए । सोलस य ऊणवीसा तेवीसा चेव तेवीसा ॥ ४६॥ णाणाम्हि य तेवीसा तिविहे एककम्हि एककवीसा य । अण्णाणम्हि य तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा ॥ ४७ ॥ आहारय-भविएसु य तेवीसं होति संक्रमडाणा । अणाहारएसु पंच य एक्कं ठाणं अभरिएसु ॥ ४८ ॥ छब्बीस सत्तवीसा तेवीसा पंचवीस बावीसा । एदे सुण्णहाणा अवगदवेदस्स जीवस ॥ ४९ ॥ उगुवीसहारसयं चोद्दस एक्कारसादिया सेसा । एदे सुण्णहाणा ण_सए चोदसा होति ।। ५० ।। अट्ठारस चोदसयं हाणा सेसा य दसगयादीया । एदे सुण्णहाणा बारस इत्थीसु बोद्धव्वा ॥ ५१ ॥ चोदसणणवगमादी हवंति उवसामगे च खवगे च । एदे सुण्णट्ठाणा दस वि य पुरिसेसु बोद्धव्या ।। ५२ ।। णव अ सत्त छकं पणग दुगं एक्कयं च बोद्धव्वा । एदे सुण्णहाणा पढमकसायोवजुत्तेसु ।। ५३ ।। सत्त य छक्कं पणगं च एकयं चेव आणुपुवीए । एदे सुण्णट्ठाणा विदियकसाओवजुत्तेसु ॥ ५४ ॥ दिढे सुण्णासुण्णे वेद-कसाएसु चेव द्वाणेसु । मग्मणगणेसणाए दु संकमो आणुपुबीए ॥ ५५ ॥ कम्मंसियहाणेसु य बंधट्ठाणेसु संकयहाणे । एकेकेण समाणय बंधेण य संक्रमट्ठाणे ॥ ५६ ।। सादि य जहण्ण संक्रय कदिखुत्तो होइ ताच एकेके । अविरहिद सांतरं केवचिरं कदिभाग परिमाणं ।। ५७ ॥ एवं दव्वे खेत्ते काले भावे य सण्णिवाद य । संकमणयं णयविद् णेया सुददेसिदमुदारं ॥ ५८ ॥ ६ वेदग-अत्थाहियारो (६) कदि आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्संति कस्स आवलियं । खेत्त-भव काल पोग्गल-हिदिवियागोदयखयो दु ॥ ५९ ॥ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड- सुत्तगाहा ( ७ ) को कदमाए हिदीए पवेसगो को व के य अणुभागे । सांतर निरंतरं वा कदि वा समया दु बोद्धव्या ॥ ६० ॥ (८) बहुदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदरगं वा । अणुसमयमुदीरें तो कदि वा समयं उदीरेदि ॥ ६१ ॥ ( ९ ) जो जं संकामेदि य जं बंधदिजं च जो उदीरेदि । तं hr sis अहियं द्विदि अणुभागे पदेसग्गे (४) ॥ ६२ ॥ f ७ उवजोग - अत्याहियारो (१०) केवचिरं उवजोगे कस्मि कसायम्मि को व केणहियो । को कम का अभिवमुवजोगसुवजुत्तो ॥ ६३ ॥ ( ११ ) एकहि भवग्गणे एक्ककसायम्हि कदि च उवजोगा । एकहि य उवजोगे एक्ककसाए कदि भवा च ॥ ६४ ॥ (१२) उवजोगवग्गणाओ कस्मि कसायम्पि केत्तिया होंति । करिस्से च गदीए केवडिया वग्गणा होति ॥ ६५ ॥ (१३) एकहि य अणुभागे एककसायम्मि एककाले । उवजुत्ता का च गदी विसरिसमुवजुज्जदे का च ॥ ६६ ॥ (१४) केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणा- कसाए । केवडिया च कसाए के के च विसिल्सदे केण ॥ ६७ ॥ (१५) जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुव्वा ते । होंहिंति च उवजुत्ता एवं सव्वत्थ बोद्धव्वा ॥ ६८ ॥ (१६) उवजोगवग्गणाहि च अविरहिदं काहि विरहिदं चावि । पढमसमयोवजुत्तेहिं चरिमसमए च वोद्धव्वा (७) ॥ ६९ ॥ ८ चउट्ठाण अत्याहियारो ( १७ ) कोहो चउव्विहो बुत्तो माणो वि चउव्विहो भवे । माया चउव्विहा वृत्ता लोहो विय चउव्विहो ॥ ७० ॥ (१८) णग - पुढवि वालुगोदयराईसरिसो चडव्विहो कोहो । सेलघण-अट्ठि दारुअ-लदासमाणो हवदि माणो ॥ ७१ ॥ (१९) वंसीजण्डुगसरिसी मेंढविसाणसरिसी य गोमुत्ती । अवलेहिणीसमाणा माया वि चउव्विहा भणिदा ॥ ७२ ॥ ( २० ) किमिरागरत्त समगो अक्खमलसमो य पंसुलेवसमो । हालवत्थसमगो लोभो वि चउन्विहो भणिदो ||७३ || ९११ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१२ कसाय पाहुड सुत्त (२१) एदेसि हाणाणं चदुसु कसाएसु सोलसण्हं पि । कं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदेसग्गे ।।७४।। ( २२) माणे लदासमाणे उक्कस्सा वग्गणा जहण्णादो । हीणा च पदेसग्गे गुणेण णियमा अणतेण ॥७५॥ ( २३) णियमा लदासमादो दारुसमाणो अणंतशुणहीणो । सेसा कमेण हीणा गुणेण णियमा अणंतेण ॥७६॥ ( २४ ) णियमा लदासमादो अणुभागग्गेण वग्गणग्गेण । । सेसा कमेण अहिया गुणेण णियमा अणंतेण ॥७७॥ ( २५) संधीदो संधी पुण अहिया णियमा च होई अणुभागे । हीणा च पदेसम्म दो वि य णियमा विसेसेण ॥७८॥ (२६) सव्वावरणीयं पुण उक्करस होइ दारुअसमाणे । हेट्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिल्लं ॥७९॥ (२७) एसो कमो च माणे मायाए णियमसा दु लोभे वि । सव्वं च कोहकम्मं चदुसु हाणेसु बोद्धव्वं ।।८०॥ (२८) एदेसि हाणाणं कदमं ठाणं गदीए कदमिस्से । बद्धं च वज्झमाणं उपसंतं वा उदिण्णं वा ।।८।। (२९) सण्णीसु असण्णीसु य पज्जत्ते वा तहा अपज्जत्ते । सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेय बोद्धव्या ।।८२।। (३०) विरदीय अविरदीए विरदाविरदे तहा अणागारे । सागारे जोगम्हि य लेस्साए चेव बोद्धव्या ॥८३॥ (३१) कं ठाणं वेदंतो कस्स व हाणस्स बंधगो होइ । कं ठाणं वेदंतो अवंधगो कस्स हाणस्प्त ॥८४॥ (३२) असण्णी खलु बंधइ लदासमाणं च दारुयसमगं च । सण्णी चदुसु विभज्जो एवं सव्वत्थ कायव्वं (१६) ।।८५|| ९ वंजण-अत्थाहियारो (३३) कोहो य कोव रोसो य अक्खम संजलण-कलह वड्डी य । झंझा दोस विवादो दस कोहेयट्ठिया हॉति ॥८६॥ (३४) माण मद दप्प थंभो उक्कास पगास तधसमुक्कस्सो । अत्तुक्करिसो परिभव उस्सिद दसलक्खणो माणो ॥८७॥ (३५) माया य सादिजोगे णियदी विय वंचणा अणुज्जुगदा । गहणं मणुण्णमग्गण कक्क कुहक गृहणच्छण्णो ।।८८। Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुड-सुत्तगाहा (३६) कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज्ज दोसो य । णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य ॥८९।। (३७) सासद पत्थण लालस अविरदि तण्हा य विज्ज जिब्भा । लोभस्स णामधेज्जा वीसं एगडिया भणिदा (५) ॥९०॥ १० सम्मत्त-अत्थाहियारो (३८) दसणमोह-उवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे । जोगे कसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥९१॥ (३९) काणि वा पुव्यवद्धाणि के वा असे णिवंधदि । कदि आवलियं पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥१२॥ (४०) के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा । अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ।।९३।। (४१) किंहिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टेण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥९४।। (४२) दसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्यो । पंचिंदिओ य सपणी णियमा सो होइ पज्जत्तो ॥९५॥ (४३) सव्वणिरय-भवणेसु दीव-समुद्दे गुह-जोदिसि-विमाणे । अभिजोग्ग-अणभिजोग्गे उवसामो होइ बोद्धब्बो ॥९६।। (४४) उवसामगो च सव्वो णिव्याघादो तहा णिरासाणो । उवसंते भजियव्यो णीरासाणो य खीणम्मि ॥९७॥ (४५) सागारे पट्ठवगो णिहवगो मज्झिमो य भजियव्यो । जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ।।९८।। (४६) मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धव्यं । उवसंते आसाणे तेण पर होइ भजियव्यो ।।९९।। (४७) सव्बेहि द्विदिविसेसेहिं उवसंता होति तिणि कम्मंसा । एकम्हि य अणुभागे णियमा सव्वे डिदिविसेसा ॥१०॥ (४८) मिच्छत्तपञ्चयो खलु वंधो उवसामगस्स बोद्धव्यो । उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियवो ॥१०१॥ (४९) सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहस्सऽबंधगो होइ। वेदयसम्माइट्ठी खीणो वि अबंधगो होइ ।।१०२॥ (५०) अंतोमुहुत्तमद्धं सबोवसमेण होइ उवसंतो । तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेकदरस्स कम्मस्स ।।१०३।। Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१४ कसाय पाहुड सुत्त (५१) सम्मत्तपढमलंभो सबोरसमेण तह वियद्वेण । भजियव्यो य अभिस्खं सचोवसमेण देसेण ।।१०४।। (५२) सम्मत्तपटमलंभस्सऽणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं । लंभस्स अपढमस्स दु भजियच्चो पच्छदो होदि ।।१०५।। (५३) कम्माणि जस्स तिणि दुणियमा सो संकयेण भजियव्यो । एयं जस्स दु कम्मं संकमणे सो ण भजियव्यो ॥१०६॥ (५४) सम्माइट्ठी सदहदि पवयणं णियमसा दु उवढे । सद्दहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥१०७॥ (५५) मिच्छाइट्ठी णियमा उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि । सदहदि असम्भावं उवह वा अणुवइट्ट ।।१०८॥ (५६) सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो वा तहा अणागारो। अध वंजणोग्गहम्हि दु सागारो होइ बोद्धव्यो (१५) ॥१०९॥ ११ दंसणमोहक्खवणा-अत्याहियारो (५७) दसणयोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु । णियमा मणुसगदीए णिहवगो चाचि सव्वत्थ ।।११०॥ (५८) मिच्छत्तवेदणीए कम्मे ओवट्टिदम्मि सम्मत्ते । खवणाए पट्टगो जहण्णगो तेउलेस्साए ।।१११।। (५९) अंतोमुहुत्तमद्ध देसणमोहस्स णियमसा खवगो । खीणे देव-मणुस्से सिया वि णामाउगो वंधो ॥११२।। (६०) खवणाए पट्ठवगो जम्हि भवे णियमसा तदो अण्णो । णाधिच्छदि तिणि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥११३।। (६१ ) संखेजा च मणुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा । सेसासु खीणमोहा गदीसु णियमा असंखेज्जा (५) ॥११४॥ १२.१३ संजमासंजमलद्धि-संजमलद्धि-अस्थाहियारो (६२) लद्धी य संजमासंजमस्स लद्धी तहा चरित्तस्स । वड्ढावड्डी उवसामणा य तह पुव्यवद्धाणं ।।११५॥ १४ चरित्तमोहोवसामणा-अस्थाहियारो (६३) उवसायणा दिविधा उवसामो कस्स कस्स कम्मस्म । कं कम्मं उवसंतं अणउवसंतं च कं कम्म ॥११६॥ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ कसायपाहुड सुत्तगाहा (६४) कदिमागुवसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च कदिभागो । कदिभागं वा बंधदि हिदि-अणुभागे पदेसग्गे ॥११७।। (६५) केचिरमुवसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च केवचिरं । केवचिरं उवसंतं अणउवसंतं च केवचिरं ।।११८॥ (६६) कं करणं वोच्छिज्जदि अब्बोच्छिण्णं च होइ कं करणं । कं करणं उवसंतं अणउवसंतं च कं करणं ।।११९।। (६७) पडिवादो च कदिविधो कम्हि कसायम्हि होइ पडिवदिदो। केसि कम्मंसाणं पडिवदिदो वंधगो होइ ।।१२०॥ (६८) दुविहो खलु पडिवादो भवक्खयादुवसमक्खयादो दु । सुहुमे च संपराए बादररागे च बोद्धव्या ॥१२१।। (६९) उवसामणारखएण दु पडिवदिदो होइ सुहुमरागम्हि । बादररागे णियमा भवक्खया होइ परिवदिदो ॥१२२।। (७०) उवसामणाक्खएण दु अंसे बंधदि जहाणुपुच्चीए । एमेव य वेदयदे जहाणुपुबीय कम्मंसे (८) ॥१२३।। १५ चरित्तमोहक्खवणा-अत्थाहियारो १ मूलगाहा(७१) संकामयपट्ठवगस्स किंद्विदियाणि पुत्ववद्धाणि । केसु व अणुभागेसु य संकंतं वा असंकंतं ॥१२४।। भासगाहा- . (७२) १. संकामगपट्ठवगस्स मोहणीयस्स दो पुण द्विदीओ। किंचूणियं मुहुत्तं णियमा से अंतरं होइ ।।१२५।। (७३) २. झीणट्ठिदिकम्मसे जे वेदयदे दु दोसु वि द्विदीसु । जे चावि ण वेदयदे विदियाए ते दु बोद्धव्वा ॥१२६॥ (७४) ३. संकामगपट्टवगस्स पुबबद्धाणि मझिमहिदीसु । साद-सुहणाम-गोदा तहाणुभागेसुदुक्कस्सा ।।१२७।। (७५) ४. अथ थीणगिद्धिकस्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य । तह णिरय-तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु ॥१२८॥ (७६) ५. संकेतम्हि य णियमा णामा-गोदाणि वेयणीयं च । वस्सेसु असंखेज्जेसु सेसगा होंति संखेज्जे ॥१२९॥ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१६ कसाय पाहुड सुत्त २ मूलगाहा(७७) संकामग-पट्ठवगो के बंधदि के व वेदयदि अंसे । संकामेदि व के के केसु असंकामगो होइ ॥१३०॥ भालगाहा(७८) १. वस्ससदसहस्साई हिदिसंखाए दु मोहणीयं तु । वंधदि च सदसहस्सेसु असंखेज्जेसु सेसाणि ॥१३१॥ (७९) २. भयसोगमरदिरदिगं हस्स दुगुंछा णवंसगित्थी अ । असादं णीचागोदं अजसं सारीरगं णाम ॥१३२॥ (८०) ३. सव्यावरणीयाणं जेसि ओवट्टणा दु णिद्दाए । पयलायुगस्स अ तहा अबंधगो बंधगो सेसे ॥१३३॥ (८१) १. णिदा च णीचगोदं पचला णियमा अगि त्ति णामं च । छच्चेय णोकसाया अंसेसु अवेदगो होदि ॥१३४॥ (८२) २. वेदे च वेदणीए सव्वावरणे तहा कसाए च । भयणिज्जो वेदंतो अभजगो सेसगो होदि ॥१३५॥ (८३) १. सव्यस्स मोहणीयस्स आणुपुत्वीय संकयो होदि । लोभकसाये णियमा असंक्रमो होइ णायव्यो ॥१३६॥ (८४) २. संकामगो च कोधं माणं यायं तहेव लोभं च । सव्वं जहाणुपुत्री वेदादी संछुहदि कम्मं ॥१३७।। (८५) ३. संहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं ण,सयं चेव । सत्तेव णोकसाए णियमा कोहम्हि संछुहदि ॥१३८।। (८६) ४. कोहं च छुहइ माणे माणं मायाए णियमसा छुहइ । मायं च छुहह लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥१३९।। (८७) ५. जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधसरिसम्हि संछुहइ । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो णत्थि ॥१४०॥ (८८) ६. संकामगपट्ठवगो माणकसायरस वेदगो कोधं । संछुहदि अवेदेंतो माणकसाये कमो सेसे ॥१४१॥ ३ मूलगाहा(८९) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस-अणुभागे । अधिगो समो व हीणो गुणेण किं वा विसेसेण ॥१४२।। Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुड-सुत्तगाहा भासगाहा (९०) १. बंधेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ । गुणसे अतगुणा बोद्धव्वा होइ अणुभागे ॥ १४३ ॥ (९१) २. बंधेण होइ उदओ अहिओ उदरण संकमो अहिओ । गुणसे असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्या ॥ १४४॥ (९२) ३. उदओ च अनंतगुणो संपहि-बंधेण होइ अणुभागे । सेकाले उदयादो संपहिबंधो अनंतगुणो ॥ १४५ ॥ (९३) ४. गुण सेढिअनंतगुणेणूणाए वेदगो दु अणुभागे । गणणा दियंत सेठी पदेस - अग्गेण बोद्धव्या ॥ १४६॥ ४ मूलगाहा (९४) बंधो व संकमो वा उदओ वा किं सगे सगे ट्ठाणे | से काले से काले अधिओ हीणो समो वा पि ॥ १४७॥ भासगाहा (९५) १. बंधोदएहिं णियमा अणुभागो होदि पंतगुणहीणो । से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥ १४८ ॥ (९६) २. गुणसेटि असंखेज्जा च पदेसग्गेण संकमो उदओ । से काले से काले भज्जो बंध पदेसग्गे ॥ १४९ ॥ (९७) ३. गुणदो अनंतगुणहीणं वेदयदि नियमसा दु अणुभागे । अहिया च पदेगग्गे गुणेण गणणादियंतेण ॥ १५०॥ ५ मूलगाहा ( ९८ ) किं अंतरं करेंतो वढदि हायदि हिदी य अणुभागे । णिरुवकमा च वड्डी हाणी वा केच्चिरं कालं ॥ १५१ ॥ भासगाहा ( ९९ ) १. ओवट्टणा जहण्णा आवलिया ऊणिया विभागेण । एसा ट्ठदी जहण्णा तहाणुभागे सणंतेसु ॥ १५२॥ (१००) २. संकामेदुवडुदि जे अंसे ते अवट्टिदा होंति । आवलियं से काले तेण परं होंति भजिदव्वा ॥ १५३ ॥ (१०१) ३. ओकड्डदि जे अंसे से काले ते च होंति भजियन्त्रा । वढी अट्ठाणे हाणी संकमे उदए || १५४ || ९१७ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाय पाहुड सुन्त ६मूलगाहा(१०२) एकं च द्विदिविसेसं तु द्विदिविसेसेतु कदिसु वड्डेदि । हरसेदि कदिसु एगं तहाणुभागेसु बोद्धव्यं ॥१५५।। मालगाहा(१०३) १. एकं च द्विदिविसेसं तु असंखेज्जेसु द्विदिविसेसेसु । वड्वेदि हरस्सेदि च तहाणुभागे अणतेसु ॥१५६।। ७ लूलगाहा(१०४) द्विदि-अणुभागे अंसे के के वड्ढदि के व हरस्सेदि । केसु अवठ्ठाणं वा गुणेण किं वा विसेसेण ॥१५७।। भारलगाहा(१०५) १. ओवढेदि द्विदि पुण अधिगं हीणं च बंधसमगं वा । उक्कडदि वंधसमं हीणं अधिगं ण वड्वेदि ॥१५८॥ (१०६) २. सन्ने वि य अणुभागे ओकडदि जे ण आवलियपविढे । उकड्डदि बंधसमं णिरुषकम होदि आवलिया ॥१५९॥ (१०७) ३. वड्डीदु होदि हाणी अधिगा हाणीदु तह अवट्ठाणं । गुणसेडि असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्वा ॥१६॥ (१०८) ४. ओवडणप्लुब्बट्टण किट्टीवज्जेसु होदि कम्मेसु । ओवट्टणा च णियमा किट्टीकरणम्हि योद्धव्वा ॥१६१॥ १लगाहा. (१०९) केवदिया किट्टीओ कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ। किट्टीए किं करणं लक्षणमध किं च किट्टीए ॥१६२॥ भालगाहा(११०) १. वारस णव छ तिण्णि य किट्टीओ होंसि अध व अणंताओ । . . एकेकम्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ ॥१६३॥ (१११) २. किट्टी करेदि णियमा ओवट्टतो ठिदी य अणुभागे । वड्तो किट्टीए अकारगो होदि बोद्धव्यो ॥१६४॥ (११२) ३. गुणसेहि अणंतगुणा लोभादी कोध पच्छिमपदादो । कम्मरस य अणुभागे किट्टीए लक्खणं एवं ॥१६५॥ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुड-सुत्तगाहा २ मूलगाहा(११३) कदिसु च अणुभागेसु च हिंदीसु वा केत्तियासु का किट्टी । सव्वासु वा द्विदीसु च आहो सब्बासु पत्तेयं ॥१६६॥ भालगाहा(११४) १. किट्टी च द्विदिविसेसेसु असंखेज्जेसु णियमसा होदि । णियमा अणुभागेसु च होदि हु किट्टी अणंतेसु ॥१६७॥ (११५) २. सव्वाओ किट्टीओ विदियहिदीए दु होंति सन्धिस्से । जं किट्टि चेदयदे तिस्से अंसो च पढमाए ॥१६८॥ ३मूलगाहा(११६) किट्टी च पदेसग्गेणणुभागग्गेण का च कालेण । अधिगा समा व हीणा गुणेण किं वा विसेसेण ॥१६९।। भालगाहा(११७) १. विदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा भवे पदेसग्गे । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥१७०॥ (११८) २. विदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा दु वग्गणग्गेण । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥१७१॥ (११९) ३. जा हीणा अणुभागेणहिया सा वग्गणा पदेसग्गे । भागेणऽणंतिमेण दु अधिगा हीणा च बोद्धव्या ॥१७२॥ (१२०) ४. कोधादिवग्गणादो सुद्धं कोधस्स उत्तरपदं तु । सेसो अणंतभागो णियया तिस्से पदेसग्गे ॥१७३॥ (१२१) ५. एसो कयो च कोधे माणे णियमा च होदि मायाए । लोभम्हि च किट्टीए पत्तेगं होदि वोद्धब्बो ॥१७४॥ (१२२) १. पडमा च अणंतगुणा विदियादो णियमसा दु अणुभागो । तदियादो पुण विदिया कमेण सेसा गुणेणऽहिया ॥१७५॥ (१२३) १. पहमसमयकिट्टीणं कालो वस्सं व दो व चत्तारि । अट्ठ च बस्साणि हिदी विदियहिदीए समा होदि ॥१७६॥ (१२४) २. जं किट्टि वेदयदे जवमझं सांतरं दुसु हिदीसु । पढमा जं गुणसेही उत्तरसेही य विदिया दु ॥१७७॥ (१२५) ३. विदियहिदि आदिपदा सुद्ध' पुण होदि उत्तरपदं तु । सेसो असंखेजदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ॥१७८॥ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२० कसाय पाहुड सुत्त (१२६) ४. उदयादि या द्विदीओ णिरंतरं तासु होइ गुणसेढी । उदयादि पदेसग्गं गुणेण गणणादियंते ॥ १७९ ॥ (१२७) ५. उदद्यादिसु द्विदीसु य जं कम्मं नियमसादु तं हरस्सं । पविसदि ट्ठिदिक्खण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥ १८० ॥ (१९२८) ६. वेदगकालो किट्टीय पच्छिमाए दु पियमसा हरस्सो । संखेज्जदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणऽधिगो || १८१ ।। ४ सूलगाहा (१२९) कदि गदी भवेसु य हिदि-अणुभागेसु वा कसाए । कम्माणि पुव्ववद्धाणि कदीसु किट्टीसु च ट्ठिदीसु ॥ १८२ ॥ भासणाहा (१३०) १. दो गदीसु अभाणि दोसु भज्जाणि पुव्ववद्वाणि । एइंदिय कायेसु च पंचसु भज्जा ण च तसेसु || १८३ || (१३१) २. एइ दियभवग्गहणेहिं असंखेज्जेहिं णियमसा बद्ध । एगादेगुत्तरियं संखेज्जेहिं य तसभवेहिं ॥ १८४ ॥ (१३२) ३. उक्कस्य अणुभागे विदि उकस्साणि पुव्ववद्वाणि । भजियव्वाणि अभज्जाणि होंति णियमा कसासु ॥ १८५ ॥ ५ मूलगाहा (१३३) पज्जत्तापज्जत्तेण तथा त्थी पुण्णवुंसयमिस्सेण । सम्मत्ते मिच्छत्ते केण व जोगोवजोगेण ॥ १८६॥ भासगाहा (१३४) १. पज्जत्तापज्जत्ते मिच्छत्त णवुंसए च सम्मत्ते | कम्माणि अभज्जाणि दुत्थी - पुरिसे मिस्सगे भज्जा ॥ १८७॥ (१३५) २. ओरालिए सरीरे ओरालियमिस्सए च जोगे दु । चदुविधमण- वचिजोगे च अभज्जा सेस भज्जा ॥ १८८ ॥ (१३६) ३. अध सुद-मदि उवजोगे होंति अभज्जाणि पुव्ववद्धाणि । भज्जाणि च पच्चक्खेसु दोसु छदुमत्थणाणेसु ॥ १८९ ॥ (१३७ ) ४. कम्माणि अभज्जाणि दु अणगार अचक्खुदंसणुवजोगे । अध ओहिदंसणे पुण उवजोगे होंति भज्जाणि ॥ १९०॥ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुड-सुत्तगाहा ६ मूलगाहा - (१३८) किलेस्साए बद्धाणि केसु कस्मेसु वट्टमाणेण । सादेण असादेण च लिगेण च कम्हि खेत्तम्मि ॥१९१॥ भासगाहा (१३९) १. लेस्सा साद असादे च अभज्जा कम्म- सिप्प - लिंगे च । खेत्तम्हि च भज्जाणि दु समाविभागे अभज्जाणि ॥ १९२॥ (१४०) २. दाणि पुव्ववद्धाणि होति सव्वेसुट्ठिदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु णियमसा सव्वकिट्टी ॥ १९३॥ ७ मूलगाहा (१४१) एगसमय पबद्धा पुण अच्छुत्ता केत्तिगा कहिं ट्ठिदी । भववद्धा अच्छुत्ताहिदी कहिं केत्तिया होंति ॥ १९४ ॥ भासगाहा (१४२) १. छहं आवलियाणं अच्छुत्ता नियमसा समयपवद्धा । सव्वे द्विदिविसेसाणुभागेसु च चउन्हं पि ॥ १९५ ॥ (१४३) २. जा चावि बज्झमाणी आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुव्वावलियाणियमा अनंतरा चदुसु किट्टीसु ॥१९६॥ (१४४) ३. तदिया सत्तसु किट्टीस चउत्थी दससु होइ किट्टीसु । ते परं सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥१९७॥ (१४५) ४. ए समयपवद्धा अच्छुत्ता णियमसा इह भवम् । सेसा भववद्धा खलु संक्रुद्धा होति बोद्धव्या ॥ १९८॥ ८ मूलगाहा (१४६) एगसमयपत्रद्धाणं सेसाणि च कदिसु विदिविसेसेसु । भवसे सगाणि कदिसु च कदि कदि वा एगसमएण ॥ १९९ ॥ भासगाहा (१४७) १. एकम्पिट्ठिदिविसेसे भवसेसग-समयपवद्धसेसाणि । णियमा अणुभागेषु य भवंति सेसा अनंतेसु || २००॥ (१४८) २. दिउत्तरसेढीए भवसेस - समयपवद्धसे साणि । गुत्तरमेगादी उत्तरसेढी असंखेज्जा ॥ २०१ || ५२१ ११६ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ कसाय पाहुड मुत्त (१४९) ३. एक्कम्मि द्विदिविसेसे सेसाणि ण जत्थ होंति सामण्णा । आवलिगा संखेज्जदिभागो तहिं तारिसो समयो ।।२०२॥ (१५०) ४. एदेण अंतरेण दु अपच्छिमाए दु पच्छिमे समए । भव-समयसेसगाणि तु णियमा तम्हि उत्तरपदाणि ॥२०३।। ९ मूलगाहा(१५१) किट्टीकदम्मि कम्मे द्विदि-अणुभागेसु केसु सेसाणि । कम्माणि पुव्यवद्धाणि वज्झमाणाणुदिण्णाणि ॥२०४॥ भासगाहा(१५२) १. किट्टीकदम्मि कम्मे णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वस्सेसु असंखेज्जेसु सेसग्गा होंति संखेज्जा ॥२०५॥ (१५३) २. किट्टीकदम्मि कम्ये सादं सुहणाममुच्चगोदं च । बंधदि च सदसहस्से हिदिमणुभागेसुदुक्कस्सं ॥२०६॥ १० भूलगाहा(१५४) किट्टीकदम्मि कम्मे के बंधदि के व वेदयदि अंसे । संकामेदि च के के केसु असंकामगो होदि ॥२०७॥ 'भासगाहा(१५५) १. दससु च वस्सस्संतो वंधदि णियमा दु सेसमे असे । देसावरणीयाई जेसिं ओवणा अस्थि ।।२०८।। (१५६) २. चरिमो बादररागो णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य ज सेसं ॥२०९॥ . (१५७) ३. चरिमो य सुहमसगो णामा-गोदाणि वेदणीयं च । दिवस्संतो बंधदि भिण्णमुहत्तं तु जं सेसं ॥२१०॥ (१५८) ४. अध सुद-मदिआवरणे च अंतराइए च देसमावरणं । लद्धी यं वेदयदे सव्वावरणं अलद्धी य ॥२११॥ (१५९) ५. जसणाममुच्चगोदं वेदयदि णियमसा अणंतगुणं । गुणहीणमंतरायं से काले सेसगा भज्जा ॥२१२॥ ११मूलगाहा(१६०) किट्टीकदम्मि कम्मे के वीचारो दु मोहणीयस्स । सेसाणं कम्माणं तहेव के के दु वीचारा ॥२१३।। Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाय पाहुड-सुत्तगाहा १ मूलगाहा (१६१) किं वेदेतो किडिं खवेदि किं चावि कुतो वा । संछोहणमुदएण च अणुपुव्वमणणुपुव्वं वा ॥ २१४॥ भासगाहा (१६२) १. पढमं विदियं तदियं वेदेंतो वा वि संछुहंतो वा । चरमं वेदयमाणो खवेदि उभरण सेसाओ || २१५॥ २ मूलगाहा (१६३) जं वेदेतो किट्टि खवेदि किं चावि बंधगो तिस्से । जं चावि संछुहंतो तिस्से किं बंधगो होदि ॥ २१६ ॥ भासगाहा (१६४) १. जं चावि संछुहंतो खवेदि किट्टि अधगो तिस्से । महि संपरा अधगो बंधगिदरासि ॥ २१७ || ३ मूलगाहा (१६५) जं जं खवेदि किट्टि द्विदि- अणुभागेस के सुदीरेदि । हद असे काले तासु अण्णासु ॥२१८॥ भासगाहा (१६६) १. बंधो व संकमो वा णियमा सव्र्व्वसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागे संकमो मज्झिमो उदओ ॥ २१९ ॥ (१६७) २. संकामेदि उदीरेदि चावि सव्वेहिं ट्ठिदिविसेसेहिं । किट्टी अणुभागे वेदें तो मज्झिमो नियमो ॥ २२०॥ (१६८) ३. ओकड्डदि जे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि । ओकड्डिदे च पुण्यं सरिसमस रिसे पवेसेदि || २२१ ॥ (१६९) ४. उक्कड्डदि जे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि । उक्कड्डिदे च एव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि || २२२ ॥ (१७०) ५. बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस - अणुभागे । बहुगत्ते थोवत्ते जहेव पुण्यं तवेहिं ॥ २२३ ॥ (१७१) ६. जो कम्मंसो पविसदि पओगसा तेण नियमसा अहिओ । पविसद डिक्खिण दु गुणेण गणणा दियंतेण ॥ २२४॥ ९२३ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२४ कसाय पाहुड सुत्त (१७२) ७. आवलियं च पविटुं पयोगसा णियमसा च उदयादी । उदयादि पदेसग्गं गुणेण गणणादियंतेण ॥२२५।। (१७३) ८. जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकमदि एक्का । पुचपविट्ठा णियमा एकिस्से होति च अणंता ॥२२६॥ (१७४) ९. जे चावि य अणुभागा उदीरिदा णियमसा पओगेण । तेयप्पा अणुभागा पुचपचिट्ठा परिणमंति ॥२२७॥ (१७५)१०.पच्छिम-आवलियाए समयूणाए दुजे य अणुभागा । उक्कस्स हेट्ठिमा मज्झिमासु णियमा परिणमंति ॥२२८॥ ४ मूलगाहा(१७६) किट्टीदो किहिं पुण संकमदि खएण किं पयोगेण । कि सेसगम्हि किट्टी य संक्रमो होदि अण्णिस्से ॥२२९॥ भासगाहा(१७७) १. किट्टीदो किट्टि पुण संक्रमदे णियमसा पओगेण । किट्टीए सेसगं पुण दो आवलियासु जं बद्धं ॥२३०॥ (१७८) २. समयूणा च पविट्ठा आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुण्णा जं चेदयदे एवं दो संकमे होति ॥२३१॥ १ खीणलोहपडियद्धा सूलगाहा(१७९) खीणेसु कसाएसु य सेसाणं के व होति वीचारा । खवणा व अखवणा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥२३२॥ १ संगहणी मूलगाहा(१८०) संकामणमोचट्टण किट्टीखवणाए खीणयोहंते । स्रवणा य आणुपुची बोद्धव्वा मोहणीयस्स ॥२३३।। एवं कसायपाहुडं समत्तं Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवणाहियार - चूलिया अणमिच्छ मिस्स सम्मं अट्ठ णबुंसित्थिवेदछकं च । पुंवेदं च खवेदि हु कोहादीए च संजलणे ॥ १॥ अथ थी गिद्धकम्मं णिद्दाणिद्दा य पयल-पयला य । अथ णिरय - तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु ॥ २ ॥ सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुव्वी य संकमो होइ । लोकसाए पियमा असंकमो होइ वोद्धव्वो ॥ ३॥ संदिपुरिसवे इत्थीवेदं णकुंसयं चेव । सत्तेव णोकसाए णियमा कोहि संहदि ॥ ४ ॥ कोहं च छुहइ माणे माणं मायाए पियमसा छुहद्द | मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥ ५॥ जो जहि संतोणियमा बंधहि हो संछुहणा । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो णत्थि ॥ ६॥ होइ उदओ अहिओ उदरण संकमो अहिओ । गुणसे अनंतगुणा बोद्धव्वा होइ अणुभागे ॥ ७ ॥ बंधे हो उदओ अहिओ उदरण संकमो अहिओ । गुणसेढि असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्या ॥ ८ ॥ उदयो च अनंतगुणो संपहिबंधेण होड़ अणुभागे । सेकाले उदयादो संपहिबंधो अनंतगुणो ॥ ९॥ चरि बादररागे णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वसंत बंदि दिवस संतो य जं सेसं ॥१०॥ जं चावि संछुतो खवे कि अबंधगो तिस्से | सुमम्हि संपराए अबंधगो बंधगियराणं ॥ ११ ॥ जाव ण छदुमत्यादो तिहं घादीण वेदगो हो । अधणंतरेण खइया सव्वण्हू सव्वदरिसी य ॥ १२॥ सचूलियं कसायपाहुडं समत्तं Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा चरण अदुगतिगचदुक्के अट्ठारस चोदसर्य अट्ठावीस चवीस अण मिच्छ मिस्स सम्मं अणुपुच्वमणणुपुच्च अध थी गिद्ध कम्मं अध थी गिद्ध कम्मं अध सुदमदि -आवरणे अध सुदमदि उवजोगे अवयवेद सय असण्णी खलु वंधइ आवलिय अणायारे आवलियं च पवि आहारय भविषसु य उदि जे असे उक्कस्य अणुभागे उगुवीसारसयं उदय च अनंतगुणो उदयादि या द्विदीओ उदयादिसु द्विदीय उवजोगवग्गणाओ उवजोगवग्गणाहि च उवसामगो च सवो उवसामणा कदिविधा उवसामणाखरण दु उवसामणाक्खएण दु एइंदियभवग्गहणेहिं एक्कं च ट्ठिदिविसेसं एकं चट्ठिदिविसेसं तु एक्कम्मि ट्ठिदिविसेसे एक्कम्मिट्ठदिविसेसे २ गाथानुक्रमणिका गाथाङ्क पृष्ट ३७ ५१ २७ २६० | एक्कहि भवग्गहणे ८९७ एक्केक्काए संकमो २७१ | एगसमय पचद्वाणं १ ३९ गाथा चरण २६८ | एक्कम्हि य अणुभागे २७८ | एक्केकहि याणे १९८९ ४५ १२८ २ २११ ८७५ एवाणि पुव्ववद्धाणि ८२६ | एदेण अंतरेण दु २७४ | एदे समयपवद्धा ७५९ एगसमयष्पवद्धा ८९७ | एत्तो अवसेला संजम म्हि ८५ ६०५ १५ २२५ ४८ २२२ ૮૮૪ १८५ ८२४ ५० २७८ २९ ८८६ २७७ एदेर्सि द्वाणाणं कदमं एदेसिं झणाणं चदुसु एवं दव्वे खेत्ते काले ओदि जे अं ओकडूदि जे असे ओरालिए सरीरे १४५ {७७९ ओट्टणमुव्वट्टण १७९ ८१८ १८० ८१९ एसो कमोच को एसो कमो चमाणे ६५ ५५७ ६९ ५५९ ९७ ६३१ ओवा जहणा ओदि हिदि विदि अंतमुत्तमर्द्ध अंतो मुहुत्तमर्द्ध दंसणकदि आवलियं पवेसेइ कदि कहि हाँति ठाणा ११६ ६७६ |कदि भागुवसामिजदि १२२ ६७७ | कदि पयडीयो वंधदि कदिसु च अणुभागेसु १८४ ८२३ | कम्मं सियट्ठाणेसु य १२३ 55 कम्माणि अभजाणि दु कम्माणि जस्स तिष्णि दु १५५ ७७८ 35 १५६ २०० ८३३ | काणि वा पुव्वचद्धाणि २०२ ८३४ | कामो राग णिदाणो गाथाङ्क पृष्ठ ६६ ५५८ ४० २७२ ६४ ५५७ २५ २५२ १९९ ८३२ १९४ ८२९ ३४ २६६ १९३ ८२८ २०३ ८३६ १९८ ८३२ ८१ ६०४ ७४ ६०० ५८ २८७ १७४ ८१५ ८० ६०३ १५४ ७७७ २२१ ८८३ १८८ ८२५ १६१ ७८७ १५२ Gee १५८७८२ १०३ ६३४ ११२ ६४० ५९ ४६३ ૪૬ ૨૨ ११७ ६७६ २३ २४८ १६६ ८०८ ५६ २८० १९० ८२६ १०६ ६३६ ९२ ६१४ ८९ ६१२ Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका ९२७ ৰাথায়ু বৃg ३८ २६९ २०६ ८४९ , ४३ २७३ २४४ ८९९ २०९ ८७४ २१० ८७५ ५२ २७८ ३२ २६५ १९५ ८२९ ८७८ गाथा-चरण किं अंतरं करतो किंठिदियाणि कम्माणि किलेस्साए बद्धाणि किं वेदेतो किर्टि किट्टीकदम्मि कम्मे किट्टीकदम्मि कम्मे किट्टीकदम्मि कम्से किट्टीकदम्मि कम्मे किट्टीकदम्मि कम्मे किट्टीकयवीचारे किट्टी करेदि णियमा किट्टी च द्विदिविसेसेसु किट्टी च पदेसरगण किट्टीदो किट्टि पुण किट्टीदो किट्टि पुण किमिरागरत्तसमगो के अंसे झीयदे पुत्वं केचिरमुवसामिजदि केवचिरं उवजोगो केवडिया उवजुत्ता केवदिया किट्टीओ केवलदसण-णाणे को कमाए हिदीए कोधादिवग्गणादो कोहादी उवजोगे कोहो चउविहो वुत्तो कोहो य कोव रोसो य कोहं च छुहइ माणे २३० , गाथाङ्क पृष्ठ । गाथा-चरण १५१ ७७३ | चत्तारि तिग चदुक्के ___९४ ६१५ | चत्तारि य खवणाए एक्का १९१ ८२७ चत्तारि य पठ्ठवए चत्तारि वेदयम्मि दु ८४८ चदुर दुगं तेवीसा चरिमे वादररागे चरिमो वादरागो २०७ ८७३ चरिमो य सुहुसरागो चोदसग णवगमादी चोद्दलग दसग सत्तग १६४ ८०७ छण्हं आवलियाणं १६७ ८०९ छन्वीस सत्तवीसा य १६९ ८११ छवीस सत्तवीसा तेवीसा २२९ ८८९ जसणाममुच्चगोदं जा चावि वज्झमाणी ७३ ५९९ जा वग्गणा उदीरेदि ९३ ६१५ जाव ण छदुमत्थादो ११८ ६७६ जा हीणा अणुभागेण जे चावि य अणुभागा जे जे जम्हि कसाए जो कम्मंसो पविसदि जो जम्हि संछुहंतो १७३ ८१४ जो जं संकामेदि य ६४ २७६ जं किहि वेदयदे जं चावि संछुहंतो ज चावि संहतो १८९८ जं जं खवेदि किहि ११९ ६७६ जं वेदेतो किहि । ६०५ झीणठिदिकम्मसे ११३ ६४१ द्विदि-अणुभागे अंसे २३२ ८९५ दिदि उत्तरसेढीए णग-पुढवि-चालुगोदय १५० ७७३ णव अट्ठ सत्त छक १६५ ८०७ णाणम्हि य तेवीसा १४६ ७७० णिहा य णीचगोदं १४९ ७७२ णियमा लदासमादो २० ३२ ! णियमा लदासमादो ४९ २७७ २१२ ८७७ ११६ ८३१ २२६ ८८६ ८९९ १७२ ८१४ २२७ ८८७ ६८ ५५९ २२४ ८८५ ६२ ८ १४० १७६१ TO ६२ ४६६ १७७ ८१७ ५९७ २१७१८९९ कं करणं वोच्छिजदि कं ठाणं वेदंतो खवणाए पट्ठवगो जम्हि खीणेसु कसाएसु य गाहासदे असीदे गुणदो अणंतगुणहीणं गुणसेढि अणंतगुणा गुणसेढि अणंतगुणेगुणसेढि असंखेजा च चक्खू सुदं पुधत्तं २१८ ८८२ २१६ ७८१ १२६ ७५७ १५७ ७८२ २०१ ८३४ ७१ ५९७ ५३ २७८ ક૭ ૨૭૭ १३४ ७६२ ७६ ६०१ ७६ ६०२ Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२८ कसाय पाहुड सुत्त गाथाङ्क पृष्ठ २२३ ८८५ १३१ ७६० ८७ ६११ ७५ ६०१ ८८ ६१२ १०१ ६३३ १११ ६४० १०८ ६३७ ९१ ११५ ६५८ ८२७ ९५ ६३० ६७७ गाथा-चरण णिरयगइ-अमर-पंचिदिएसु णिव्वाघादेणेदा होति तदिया सत्तसु किट्टीसु तिण्णि य चउरो तह दुग तेरसय णव य सत्त य तेवीस सुक्कलेस्से छकं दससु च वस्सस्संतो दिट्टे सुण्णासुण्णे दुविहो खलु पडिवादो दोसु गदीसु अभजाणि दंसणमोहउवसासगस्स दसणमोहक्खवणापट्ठवगो दसणमोहस्सुवसामणाए दसणमोहस्सुवस्सामगो पच्छिम-आवलियाए पज्जत्तापज्जत्तेण पज्जत्तापज्जत्ते मिच्छत्त पडिवादो च कदिविधो पढमसमयकिट्टीणं पढमा च अणंतगुणा पढमं विदियं तदियं पयडि-पयडिट्ठाणेसु पयडीए मोहणिज्जा पुष्वम्मि पंचमम्मि दु पेज-दोसचिहत्ती पेज-दोसविहत्ती पेज्जं वा दोसो वा पंच चउक्के वारस पंच य तिण्णि य दो पंचसु च ऊणवीसा बहुगदरं वहुगदरं से काले वारस णव छ तिण्णि य वंधण होइ उदयो वधेण होइ उदओ वंधोदएहि णियमा वंधो व संकमो वा वंधो व संकमो वा चंधो व संकमो वा गाथाङ्क पृष्ठ गाथा-चरण ४२ २७३/ वंधो व संकमो वा १९ ३२ | भय सोगमरदि-रदिगं १९७ ८३२ | साणद्धा कोहद्धा १२ १० माण मद दप्प थंभो ३३ २६५ |माणे लदाससाणे ४४ २७४ | माया य सादिजोगो २०८ ८७३ मिच्छत्तपञ्चयो खलु ५५ २७९ मिच्छत्त वेदणीयं कम्म १२१ ६७७ मिच्छत्तवेदणीये कम्मे ८२१ मिच्छाइट्ठी णियमा लद्धी य संजमासंजसस्स ११० ६३९ लद्धी व संजमासंजमस्त लेस्सा साद असादे च बड्डीदु होदि हाणी २२८ ૮૮૮ वस्ससदसहस्साई १८६ ८२५ वावीस पण्णरसगे ८२५ विदियट्ठिदि आदिपदा विदियादो पुण पढमा ८१६ विदियादो पुण पढमा ८१६ विरदीय अविरदीए २१५ ८८० वेदगकालो किट्टीय वेदे च वेदणीए सव्वावरणे वंसी जण्हुगलरिसी सणीसुअसणीसु य सत्तय छकं पणगं सत्तारसेगवीसासु संकामो समयूणा च पविट्ठा ३६ २ सम्मत्त देसविरयी संजम ११ १० सम्मत्तपढमलंभो ३५ २६७ सम्मत्तपढमलंभस्सऽणंतरं ६१ ४६६ सम्मामिच्छाइट्ठी १६३ ८०६. सम्माइट्टी सद्दहदि १४३ ७६९ सम्मामिच्छाइट्ठी सम्वणिरय-श्रवणेसु य सबस्स मोहणीयस्स १४८ ७७२ सव्वस्स मोहणीयस्स १४२ ७६८ सवाओ किट्टीओ १४७ ७७१ सव्वावरणीयं पुण । २१९ ८८२ सव्वावरणीयाणं जेसि २६ १६० ७८५ १३१ ७६० ३१ २६४ १७८ ८१८ १७० ८११ १७१ ८१३ ८३ ६०४ १८१ ८१९ १३५ ७६३ ७२ ५८९ ८२ ६०४ ५४ २७८ ३० २६३ २३१ ८८९ १४ १०४ ६३५ ६३५ १०२ ६३४ ६३७ १०९ ६३८ ९६ ६३० १४४६ ७६९ १३६ ७६४ ३ १६८ ८१० ७९ ६०३ १३३ ७६१ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ विशिष्ट-प्रकरण-उल्लेख ९२९ गाथा-चरण माथाङ्क पृष्ट गाथा-चरण गाथाङ्क पृष्ठ सव्वे वि य अणुभागे १५९ ७८३ | संकामण ओवट्टण सव्वेहि द्विदिविसेसेहि १०० ६३३ / संकामण ओवट्टण सागारे पट्ठवगो णिढवगो ९८ ६३२ | संकामणमोचट्टण २३३ ८९५ सादि जहण्णसंकम | संकामयपट्ठवगस्स १२४ ७५६ सासद पत्थण लालस | संकामेदि उदीरेदि २२० ८८३ सोलसग बारसट्ठग वीसं २६१ संकामेढुक्कड्डदि जे असे १५३ ७७७ संकम उवक्कमविही २४ २५२ संतम्हि य णियमा १२९ - ७५९ संकामगपट्टवगस्त १२५ ७६७ संकामगपट्टवगस्स १२७ ७५८ संखेजा च मणुस्सेतु ११४ ६४१ संकामगपट्टवगो १४१ ७६७ | संछुहदि पुरिसवेदे १३८६४६ संकामगपट्टवगो के १३० ७६० संकामगोच कोधं माणं १३७ ७६४ | संधीदो संधी पुण ૭૮ ૬૦૨ ३ चूर्णि-उधृत-गाथा-सूची ४ ग्रन्थनामोल्लेख एक्कग छक्के कारस ४७३ / कर्मप्रवाद पंचादि-अणिहणा , कर्मप्रकृति ७०८ सत्तादि-दसुक्कस्सा ७०८ ५ विशिष्ट-प्रकरण-उल्लेख (१) पृ० १०१, सू० ६२-सेसं जहा उदीरणाए तहा कायव्वं । (२) पृ० १११, सू० १४०-सेसाणि जहा उदीरणा तहा णेव्वाणि । (३) पृ० १७१, सू० १४८-अप्पाबहुअमुक्कस्सयं जहा उक्कस्सबंधे तहा। (४) पृ० १७४, सू० १८४-सेसाणि जधा सम्मादिट्ठीए बंधे तधा णेवाणि । (५) पृ० २४९, सू० ११-सो पुण पयडि-टिदि-अणुभाग-पदेसवंधो बहसोपरूविदो। (६) पृ० ३१८, सू० ४१ -एत्तो अद्धाछेदो । जहा उक्वस्सियाए हिदीए उदीरणा तहा उक्कस्सओ हिदिसंकमो। (७) पृ० ३१९, सू० ५२-उक्स्सटिदिसंकामयस्स सामित्तं जहा उक्कस्सियाए. द्विदीए उदीरणा तहा णेदव्वं । (८) पृ० ३२२, सू०७६-जहा उक्कस्सिया द्विदि-उदीरणा तहा उक्कस्सओ हिदिसंकमो। (९) पृ० ३२३, सू० ८९-तेसिमट्ठपदं काऊण उकस्सो जहा उक्कस्सटिदि-उदीरणा तहा कायव्वा। (१०) पृ० ३६८, सू० २२८-जहा उकस्साणुभागविहत्ती तहा उक्कस्साणुभागसंकमो। (११) पृ० ३७३, सू० २९०-सेसाणं जहा सम्माइद्विबंधे तहा कायवो । (१२) पृ० ३९४, सू० ५४०-अप्पावहु जहा सम्माइडिगे बंधे तहा। Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ विशिष्ट-समर्पण-सूत्र-सूची (जिनके आधार पर अधिकांश उच्चारणा-वृत्तिका निर्माण हुआ है । ) (१) पृ० २६, सू० ७२७८-एत्थ छ अणियोगद्दाराणि । किं कसाओ ? कस्ल कलाओ? केण कसाओ ? कम्हि कसाओ ? केवचिरं कसाओ ? कइविहो कसाओ? (२) पृ० ४१, सू० ११२-एवं सवाणियोगहाराणि अणुगंतव्वाणि । (३) पृ० ५०, सू० ३४-३५-मूलपयडिविहत्तीए इमाणि अट्ठ अणियोगहाराणि । तं जहा-सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुगे त्ति। एदेसु अणियोगद्दारेसु परूविदेसु मूलपयडिविहत्ती समत्ता होदि । (४) पृ० ५१, सू० ३७-३८-तदो उत्तरपयडिविहत्ती दुविहा-एगेगउत्तरपयडिविहत्ती चेव पयडिठ्ठाणउत्तरपयडिविहत्ती चेव। तत्थ एगेगउत्तरपडिविहत्तीए इमाणि अणियोगबाराणि । तं जहा-एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं जाणाजीचेहि भंगविचयाणुगमो परिमाणाणुगको खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो लणियासो अप्पावहुए त्ति । एदेसु अणियोगदारेसु परूविदेस तदो एगेगउत्तरपयडिचिहत्ती समत्ता । - (५) पृ० ७९, सू. १२९. एवं सम्वाणि अणिओगद्दाराणि णेदव्याणि । १३०. पदणिखेचे वड्डीए च अणुमग्गिदाए लमत्ता पयडिविहत्ती। (६) पृ० ९१, सू० ५. पदाणि चेव उत्तरपयडिहिदिविहन्तीए काव्वाणि । (७) पृ० १४७, सू०२, एत्तो मूलपयडिअणुभागविहत्ती माणिदव्या । (८) पृ० १७७, सू० २. तत्थ मूलपयडिपदेसविहत्तीए गराए । (९) पृ० १९९, सू० ११०. एवं सेसाणं कम्माणं जेद्ध्वं । ११२. अंतरं जहण्णयं जाणिदूण णेदव्वं । ११३..णाणाजीवेहि भंगविचयो दुविहो जहणुकस्ससेदेहि । अट्ठपदं कादूण लव्धकम्माणं णेदव्वो । ११४. सव्वकस्माणं णाणाजीचेहि कालो कायव्वो। (१०) पृ० २११, सू० २९१. एत्तो भुजगारं पदणिक्खेच चड्डीओ च कायवाओ। (११) पृ० ३४८, सू० २९. पदेण अट्टपदेण मूलपयडिअणुभागसंकमो। ३०, तत्थ च तेवीसमणियोगद्दाराणि सण्णा जाव अप्पावहुए ति। ३१. सुजगारो पदशिक्खेवो वढि त्ति आणिचो। (१२) पृ० ३६१, सू० १५२. एवं सेलाणं कम्माणं णादूण णेदव्वं । (१३) पृ० ३६४. सू० १७३, एवं सेसाणं करमाणं । १७४. णवरि सस्सत्त-सम्मामिच्छत्ताणं संकामगा-पुव्वं ति भाणिव्वं ।। (१४) पृ० ४११, सू० ७७, सेसाणं कम्माणं जाणिऊण णेदव्वं । (१५) पृ० ४३२, सू० ३६५. एवं चदुसु गदी ओघेण साधेदूण णेदवो। (१६) पृ० ४३८, सू० ४४२ गदीसु च साहेयव्वं । (१७) पृ० ४४०, सू०४६६. जाणाजीचेहि कालो पदाणुमाणिय णेदव्यो । (२८) पृ० ४५६, सू० ६३२. साभित्ते अप्पायहुए च विहालिदे वट्ठी लमत्ता भवदि। (१९) पृ० ४६७, सू० ९. एदाणि वेवि पत्तेगं चउवीसमणिओगद्दारेहि मरिगऊण । १०. तदो पयडिट्ठाणउदीरणा कायव्वा । (२०) पृ० ४८२, सू० १०८. णाणाजीचेहि मंगविचयादि-अणियोगदाराणि अप्पा. बहुअवजाणि कायव्वाणि । ११४. पदणिक्खेव-वडीओ कादब्बाओ। (२१) पृ० ४९१, सू० १६३. एवमणुमाणिय सामित्तं णेदव्वं । Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट-समर्पण-सूत्र-सूची ९३१ (२२) पृ० ४९५, सू० १९२. अंतरमणुचिंतिऊण णेदव्वं । (२३) पृ० ४९६, सू० १९६. णाणाजीवेहि कालो अंतरं च अणुचितिऊण णेदवं । (२४) पृ० ४९८, सू० २१६. भुजगारो कायव्यो । २१७. पदणिस्खेवो काययो । २१८. बड्डी वि कायव्वा । . (२५) पृ० ५००, सू० २३४. एत्थ सूलपयडि-अणुभागउदीरणा भाणियव्वा । (२६) पृ० ५१२, सू० ३२८, णणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाणं खेतं फोलणं कालो अंतरं सणियासो च एदाणि कादवाणि । (२७) पृ० ५१९, सू० ३८४. मूलपयडिपदेसुदीरणं मग्गियूण । ३८५. तदो उत्तर पयडिपदेसुदीरणा च समुकित्तणादिअप्पाबहुअंतेहि अणिओगदारेहि मग्गियव्वा ।। (२८) पृ० ५२४, सू० ४४०. एवं सेसासु गदीसु उदीरगो साहेयव्यो। (९९) पृ० ५५६, सू० ४५५. सेसेहिं कम्महि अणुमग्गियूण णेदव्यं । ४५६. णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं च एदाणि भाणिव्वाणि । (३०) पृ० ५५३, सू० ६५७. एवं माण-सायासंजलण-पुरिसवेदाणं वंजणदो च अत्थदो च कायव्वं । (३१) पृ० ५८३, सू० २२३. एत्तो छत्तीसपदेहि अप्पावहुअंकायव्वं । (३२) पृ० ५८५, सू० २३५. सेसाणि सूचणाणुमाणेण कायव्वाणि । (३३) पृ० ५८६, सू० २३६, कसायोवजुत्ते अट्टहिं अणिओगद्दारोहिं गदि-इदिय-कायजोग-वेद-णाण-संजम-दसण-लेस्स-भविय-सम्मत्त-सण्णि-आहारा न्ति एदेसु तेरससु अणुगमेतु मग्गियूण । २३७ महादंडयं च कादूण समत्ता पंचमी गाहा । (३४) पृ० ५९०, सू० २७२. एत्तो वादालीलपदप्यावहुअं कायध्वं । (३५) पृ० ६१०, सू० २४ एदाणुमाणियं सेसाणं पि कसायाणं कायव्वं । (३६) पृ० ६१६, सू० २१. एत्थ पयडिसंतकम्मं टिदिसंतकस्यमणुभागसंतकम्म पदेससंतकम्मं च मग्गियव्वं । (३७) पृ० ६१६, सू २३. एत्थ पयडिवंधो द्विदिवंधो अणुभागवंधो पदेसवंधो च मग्गियच्चो। (३८) पृ० ६३८, सू० १३९,तदो उवलससम्माइटि-वेदय-सस्पाइटि-सम्मामिच्छाइट्टीहिं एयजीवेण सामित्तं कालो अतरं णाणाजीवेहिं संगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुरं चेदि । १४०. एदेतु अणियोगद्दारेसु चण्णिदेसु दंसणमोहउवलामणे ति समत्तमणियोगद्दारं । (३९) पृ० ६४२, सू० ८. एदाणि ओदूण अधापवत्तकरणस्त लक्खणं नाणियच्वं । (४०) पृ० ६५७, सू० १२६. एम्हि दंडए समत्त सुत्तगाहाओ अणुसंवण्णेदवाओ। (४१) पृ० ६५७, सू० १२७. संखेजा च मणुस्सेसु खीणसोहा सहरलसो णियमा त्ति पदिस्से गाहाए अट्ट अणियोगद्दाराणि । तं जहा-संतपसवणा दवपयाणं खेन्तं फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पावहुअंच । १२८. एदेसु अणिओगद्दारेषु वणिदेनु दसणसोहमखवणा त्ति समत्तमणिभोगहारं । (४२) पृ० ६६५, सू० ५३. संजदासंजदाणभट्ठ अणिओगवाराणि । तं जहा-संकपरवणा व्यपगाणं खेतं फोलणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पावहुरं च । ५४ एनेतु अणिओगद्दारेसु लमतेलु तिवाददाए सासित्तसप्पावहुरं च कायव्वं । (४३) पृ० ६७२, सू० ३९. एत्तो चरित्तलद्धिगाणं जीवाणं अट्ठ अणिओगद्दाराणि । ४० तं जहा संतपरूवणा दव्वं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पानहुअं च अणुगंतव्वं । Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ कसाय पाहुड सुत्त (४४) पृ० ६७८, सू० १५. तदो दंसणमोहणीममुवसामेस्स जाणि करणाणि पुटवपरूविदाणि ताणि सव्वाणि इमस्स वि परवेयव्वाणि । (४५) पृ० ७११, सु. ३५२. इत्थिवेदस्स वि णिरवयवमेमप्पोबहुअमणुगंतव्वं । ३५३. अटुकसाय-छण्णोकसायाणमुदयमुदीरणं च मोत्तूण एवं चेव वत्तव्यं । ३५४. पुरिसवेद-चदुसंजलणाणं च जाणिदूण णेदव्वं । ३५५. णवरि बंधपदस्स तत्थ सव्वत्थोवत्तं च ।। (४६) पृ० ७१३, सू० ३६८. कोच्चिरसुवसामिजदि संकमणमुदीरणा च केचिरं ति एदम्हि सुन्ते विहासिज्जमाणे एदाणि चेव अट्टकरणाणि उत्तरपयडीणं पुध पुध विहासियवाणि । (४७) पृ० ७३९, सू० २३. एत्थ (चरित्तमोहक्खवणापट्रवगविसये) पयडिसंतकम्म हिदिसंतकम्ममणुभागसंतकम्मं पदेससंतकम्मं च मग्गियध्वं । २५. एत्थ पयडिबंधो द्विदिवंधो अणुभागवंधो पदेसवंधो च मग्गियव्वो। (४८) पृ० ८२३. सू० ८५९. एत्तो एकोकाए गदीए काएहिं च समजिदल्लग्गस्स पदेसग्गस्स पमाणाणुगमो च अप्पावहुरं च कायव्वं । ७ पवाइज्जंत-अपवाइज्जंत-उपदेशोल्लेख (१) पृ० ५६२, सू० १९. पवाइज्जतेण उवदेसेण अद्धाणं विसेसो अंतोमुहत्तं । २०. तेणेव उवदेसेण चउगइसमासेण अप्पाबहुअं अणिहिदि । (२) पृ० ५६४, सू० ४५. तेसिं चेव उवदेसेण चोइसजीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि। (३) पृ० ५८०, सू० १८५. एत्थ विहासाए दोण्णि उवएसा । १८६. एक्केण उवएलेण जो कसायो सो अणुभागो। (४) पृ० ५८१, सू० १९८. एक्केण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहाला समत्ता अवदि । १९९. पवाइज्जतेण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहासा।। (५) पृ० ५९६, सू० ३२०. एसो विसेसो एक्केण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंख्नेजदिभागपडिभागो । ३२१ पवाइज्जंतेण उवदेसेण आवलियाए असंखेजदिभागो। (६) पृ० ६४९. सू० ५८. ताधे सम्मत्तस्स दोण्णि उवदेसा । के वि भणंति संखेजाणि वरससहस्साणि द्विदाणि त्ति । पवाइज्जतेण उवदेसेण अटुवस्साणि सम्मत्तस्स सेसाणि । xxx ६०. अट्टवस्सउवदेसेण परूविजिहिदि । (७) पृ० ७३९, सू १५. एक्को उवएसो णियमा सुदोवजुत्तो होदण खवगसदि चढदि त्ति । १६. एको उवदेसो सुदेण वा, मदीए वा, चक्खुदलणेण वा अचक्खुदंसणेण वा । । (८) पृ० ८३८, सू० ९६५. एत्थ दुविहो उवएसो। ९६६. एक्कण उवदेसेण कम्मट्टि दीए असंखेजा भागा णिल्लेवणटाणाणि । ९६७. एक्केण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। ९६८. जो पवाइजइ उवएसो तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, असंखेजाणि चग्गसूलाणि णिल्लेवणट्ठाणाणि । Page #1041 --------------------------------------------------------------------------  Page #1042 --------------------------------------------------------------------------  Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- _