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## Kasaya Pahud Sutra
**Page 2, Verse 46:** When a living being becomes a human due to the arising of human-related karma, then that karma is called human-related *kṣaya* (passion).
**Verse 47:** When a living being becomes a Maya due to the arising of Maya-related karma, then that karma is called Maya-related *kṣaya*.
**Verse 48:** When a living being becomes a Loha (greedy) due to the arising of Loha-related karma, then that karma is called Loha-related *kṣaya*.
**Verse 49:** The same applies to the categories of *naigama*, *sangraha*, and *vyavahara*.
**Verse 50:** When a living being experiences the arising of anger, then that living being is called anger-related *kṣaya* according to the *ujjusutta* (straightforward) perspective.
**Verse 51:** The same applies to *mana* (pride), *maya*, and other *kṣayas*.
**Verse 52:** *Samuppatti-kṣaya* (arising *kṣaya*) is the term used when the *kṣaya* is either a living being or not a living being. This leads to eight different categories.
**Verse 53:** How can a living being be a *kṣaya*?
**Verse 54:** When anger arises due to a human, then that human is called anger-related *kṣaya* according to the *samuppatti-kṣaya* perspective.
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कसाय पाहुड सुत्त
[१ पेजदोसविही ४६. एवं माणवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो माणो होदि, तम्हा तं कम्म पञ्चयकसाएण माणो। ४७. मायावेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो माया होदि, तम्हा तं कम्मं पञ्चय कसाएण माया । ४८. लोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो लोहो होदि तम्हा तं कम्मं पच्चयकसाएण लोहो । ४९. एवं णेगम-संगहववहाराणं । ५०. उजुसुदस्स कोहोदयं पडुच जीवो कोहकसाओ । ५१. एवं माणादीणं वत्तव्यं । ५२. समुप्पत्तियकसाओ णाम कोहो सिया जीवो सिया णो जीवो। एवमट्ठ भंगा। ५३. कधं ताव जीवो?५४. मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो मणुस्सो कोहो ।
चूर्णिसू०-इसी प्रकार मानवेदनीयकर्मके उदयसे जीव मानस्वरूप होता है, इसलिए वह कर्म मानप्रत्ययकपाय है । मायावेदनीयकर्मके उदयसे जीव मायास्वरूप होता है, इसलिए वह कर्म मायाप्रत्ययकपाय है । लोभवेदनीयकर्मके उदयसे जीव लोभस्वरूप होता है, इसलिए वह कर्म लोभप्रत्ययकषाय कहलाता है ॥४६-४८॥
चूर्णिसू०-यह प्रत्ययकणय नैगम, संग्रह और व्यवहार, इन तीनो द्रव्यार्थिकनयोका विषय है। क्योकि, कार्यसे अभिन्न कारणके ही प्रत्ययपना माना गया है । क्रोधकपायके उदयकी अपेक्षा जीव क्रोधकपाय कहलाता है, इसलिए ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिसे जीव ही क्रोधकपाय है। इसी प्रकार मान, माया आदि कपायोका भी नय-विषयक व्यवहार करना चाहिए ।।४९-५१॥
अब समुत्पत्तिककपायका स्वरूप कहते है
चूर्णिसू०-समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्वचित् जीव क्रोध है, क्वचित् नोजीव (अजीव) क्रोध है । इस प्रकार आठ भंग होते हैं ॥५२॥
विशेषार्थ-जिस चेतन या अचेतन पदार्थके निमित्तसे क्रोधादि कपाय उत्पन्न होते हैं, वह पदार्थ समुत्पत्तिककषाय कहलाता है। किसी समय एक चेतन या अचेतन पदार्थके निमित्तसे क्रोधादिक उत्पन्न होते है और कभी अनेक चेतन और अचेतन पदार्थों के निमित्तसे क्रोधादिक उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए इन चारोकी अपेक्षा समुत्पत्तिककपायके आठ भंग हो जाते है। जो कि इस प्रकार है-१ एक जीवकषाय, २ एक नोजीवकपाय, ३ अनेक जीवकपाय, ४ अनेक नोजीवकपाय, ५ एक जीव, एक नोजीवकपाय, ६ एक जीव, अनेक नोजीवकपाय, ७ अनेक जीव, एक नोजीवकषाय, और ८ . अनेक जीव, अनेक नोजीव कषाय । इनका अर्थ चूर्णिसूत्रकार आगे स्वयं कहेगे।
अब आठो भंगोके उदाहरण प्ररूपण करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैशंकाचू०-समुत्पत्तिककपायकी अपेक्षाजीव क्रोध कैसे है ? ॥५३॥
समाधानचू०--जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है, वह मनुष्य समुत्पत्तिककपायकी अपेक्षा क्रोध है ॥५४॥
विशेषार्थ-किसी मनुष्यके आक्रोश--गालीगलौज-के सुननेसे कर्म-कलंकित