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Kasaya Pahuda Sutta [5. Sankrama-arthadhikara] 511. Asankhejjaguna. 512. Bhujagara-sankamaya anantaguṇa. 513. Appayara-sankamaya sankhejjaguṇa. 514. Bhunsaya-veda, araha-sogana sarvatra avattavya-sankamaya. 515. Appayara-sankamaya anantaguṇa. 516. Bhujagara-sankamaya sankhejjaguṇa. 444 Bhujagara samatto. 517. Tato padanikkhevo. 518. Tattha imani tinnani anuyogaddharani. 519. Tam jaha - parupana, samittam, appa bahugam ca. 520. Parupana. 521. Savvasi padi mukassiya vaddhi hani avatthanam ca atthi. 522. Evam jahannayas-sa vi nedavvam. 523. Navari sammatta-sammamicchatta-itthiveda-navumsaya-veda-hasa-rati-araha-sogana-avatthanam natthi.
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________________ कसाय पाहुड सुत्त [ ५ संक्रम-अर्थाधिकार असंखेज्जगुणा' । ५१३. भुजगार संकामया अनंतगुणा । ५१४. अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा । ५१५. बुंसयवेद - अरह-सोगाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामया । ५१६. अप्पयरसंकामया अनंतगुणा । ५१७. भुजगारसंकामया संखेज्जगुण । ४४४ भुजगारो समत्तो । ५१८. तो पदणिक्खेवो । ५१९ तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि । ५२०. तं जहा - परूवणा सामित्तमप्पा बहुगं च । ५२१. परूवणा । ५२२. सव्वासि पडी मुकस्सिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च अस्थि । ५२३. एवं जहण्णयस्स वि णेदव्वं । ५२४. णवरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्त इत्थि - णवुंसयवेद-हस्स - रइ- अरह - सोगाणमवद्वाणं णत्थि । अवस्थितसंक्रामक असंख्यातगुणित हैं । अवस्थित संक्रामको से भुजाकारसंक्रामक अनन्तगुणित है । भुजाकारसंक्रामको से अल्पतरसंक्रामक संख्यातगुणित हैं ॥ ५११-५१४॥ चूर्णि सू० - नपुंसकवेद, अरति और शोकके अवक्तव्य संक्रामक सबसे कम है । अवक्तव्यसंक्रामकोंसे अल्पतरसंक्रामक अनन्तगुणित है । अल्पतरसंक्रामको से भुजाकार - संक्रामक संख्यातगुणित होते है ॥ ५१५-५१७॥ इस प्रकार भुजाकार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । चूर्णि सू ( ० - अब इससे आगे पदनिक्षेप कहते है । उसमे ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। वे इस प्रकार हैं- प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । इनमें से पहले प्ररूपणा कहते है- सर्वप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान होते है । इसीप्रकार जघन्य के भी जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका अवस्थान नहीं होता है ॥ ५१८-५२४॥ १ कुदो; पलिदोवमासखेजभागमेत्तसम्माइट्ठिजीवाणं पुरिसवेदावट्ठिदसकमपजाएण परिणदाणमुवलभादो | जयध० २ सगबधकालब्भतरसचिदेह दियरा सिस्स गहणादो । जयध० ३ पडिवक्खव धगद्धा गुणगारस्स तप्यमाणत्तोवलभादो | जयध० ४ सखेजोवसामयजीवविसयत्तादो । जयध० ५ किं कारण; अंतोमुहुत्तमेत्तपडिवक्खव धगद्धासचिदेइ दियरा सिस्स समवलंबणादो | जयध • ६ कुदो; एदेखि कम्माण पडिवक्खवधगद्धादो सगवधकालस्स सखेजगुणत्तोवलभादो | जयध० ७ को पदणिक्खेवो णाम ? पदाणं णिक्खेवो पदणिक्खेवो, जहष्णुक सवड्ढि हाणि अवट्टाणपदार्ण सामित्तादिणिसमुहेण णिच्छयकरण पदणिक्खेवोत्ति भण्णदे | जयध० ८ कुदो; सव्र्व्वेसिमेव कम्माण जहाणिद्दिट्ठविसए सभ्यु कस्स वड्ढि हाणि अवट्ठाण सरुवेण पदेससंकमपवृत्तीए बाहाणुवलभादो | जयध० ९ कुदो, सन्त्रकालमेदेसिं कम्माणमागमणिजराणं सरिसत्ताभावादो । जयध०
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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