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15. In the first moment of apūrvakaraṇa, the minimum duration of the kāṇḍaka is a countable part of a palya, and the maximum duration is the measure of a sāgaropama. 16. The divisions of the anubhāgakāṇḍaka of inauspicious karmas are infinite. There is no division of the anubhāga of auspicious karmas. 17. And there is no guṇaśreṇī (gradation of spiritual qualities).
18. The duration of dvitīkabandha is less than a countable part of a palya. 19. When thousands of anubhāgakāṇḍakas have been exhausted, the time of the exhaustion of the kāṇḍaka, the time of the bandha, and the time of the exhaustion of the anubhāgakāṇḍaka, all three become simultaneous. 20. Then it produces another kāṇḍaka, which is a countable part of a palya, another bandha, and another anubhāgakāṇḍaka. 21. Thus, when thousands of dvitīkakāṇḍakas have been exhausted, the duration of apūrvakaraṇa is completed.
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गा: ११५ ]'- ' संयमासंयम-प्रस्थापक-निरूपण
१५. अपुवकरणस्स पडमसमए जहण्णय ठिदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सय ठिदिखंडयं सागरोवमपुधत्तं । १६. अणुभागखंडयमसुहाणं कम्माणमणुभागस्स अणंता भागा आगाइदा । सुभाणं कम्माणमणुभागपादो णत्थि ।१७. गुणसेढी च णत्थिं ।
१८. द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागेण* हीणो । १९. अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु हिदिखंडय-उकीरणकालो हिदिबंधकालो च अण्णो च अणुभागखंडयउक्कीरणकालो समगं समत्ता भवंति । २०. तदो अण्णं हिदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जभागिगं अण्णं हिदिवंधमण्णमणुभागखंडयं च पट्टवेइ । २१. एवं द्विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु अपुन्वकरणद्धा समत्ता भवदि ।
विशेषार्थ-जिस प्रकारसे दर्शनमोह-उपशामनाके प्रारम्भ करनेवाले जीवके विषयमें गाथासूत्राङ्क ९१ से लेकर ९४ तककी चार प्रस्थापक-गाथाओके द्वारा परिणाम, योग, कषाय, लेश्या आदिका, पूर्व-बद्ध और नवीन वंधनेवाले कर्मोका, तथा कर्मोंकी उदय अनुदय, बन्धअवन्ध और अन्तर, उपशम आदिका विस्तृत विवेचन किया गया है, उसी प्रकारसे यहॉपर भी अध:प्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें संयमासंयमलब्धिके प्रस्थापक जीवके परिणाम, योग, लेश्या आदिका विवेचन करनेकी चूर्णिकारने सूचना की है । दर्शनमोहोपशामना-प्रस्थापककी प्ररूपणासे संयमासंयमलब्धि-प्रस्थापककी इस प्ररूपणामें कोई विशेप भेद न होनेसे चूर्णिकारने उसे स्वयं नहीं कहा है । अतः विषयके स्पष्टीकरणार्थ यहाँ उसका प्ररूपण करना आवश्यक है।
चूर्णिमू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जघन्य स्थितिकांडक पल्योपमका संख्यातवॉ भाग है और उत्कृष्ट स्थितिकांडक सागरोपमपृथक्त्व-प्रमाण है । अनुभागकांडक अशुभ कर्मोंके अनुभागका अनन्त बहुभाग घात किया जाता है। शुभ कर्मोंका अनुभागघात नहीं होता है। यहॉपर गुणश्रेणीरूप निर्जरा भी नहीं होती है ॥१५-१७॥
विशेषार्थ-संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाली जीवके गुणश्रेणीरूप निर्जरा नहीं होती है। इसका कारण यह है कि वेदकसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाले जीवके गुणश्रेणी निर्जराका निषेध किया गया है। हॉ, उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाले जीवके गुणश्रेणी निर्जरा होती है, किन्तु यहॉपर चूर्णिकारने उसकी विवक्षा नहीं की है।
चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्तकरणकी अपेक्षा स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन होता है। सहस्रो अनुभागकांडकोके व्यतीत होनेपर अर्थात् घात कर दिये जानेपर स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल, स्थितिवन्धका काल और अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल, ये तीनों एक साथ समाप्त होते है। तत्पश्चात् पल्योपमके संख्यातवें भागवाला अन्य स्थितिकांडक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकांडकको एक साथ आरम्भ करता है । इस प्रकार सहस्रो स्थितिकांडकघातोके हो जानेपर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है ॥१८-२१॥
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पलिदोवमसंखेजभागेण' ऐसा पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १७८०)