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## Kasaya Pahud Sutta (45-46)
**(45)** The middle stage of the destruction of the *darshanamohaniya* karma is to be worshipped. The being who has attained the lowest stage of *tejo-leshya* in any of the three yogas is the one who destroys the *darshanamoha*. || 98 ||
**(46)** The *mithyatva-vedaniya* karma of the destroyer of *darshanamoha* should be known. After the destruction of the *upashanta* state, its arising is to be worshipped. || 99 ||
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कसाय पाहुड सुत्त
(४५) सागारे पट्टवगो विगो मज्झिमो य भजियव्वो । जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ॥९८॥ (४६) मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धव्वं । उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्व ॥ ९९ ॥
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[ १० सम्यक्त्व अर्थाधिकार
है । जयधवलाकारने ' अथवा ' कहकर गाथाके इस चतुर्थ चरणका यह भी अर्थ किया है कि दर्शनमोहनीयके क्षीण हो जानेपर अर्थात् क्षायिकसम्यक्त्वके उत्पन्न हो जानेपर जीव सासादनगुणस्थानको नही प्राप्त होता है ।
साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीयकर्म के उपशमनका प्रस्थापक होता है । किन्तु निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है । तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंशको प्राप्त जीव दर्शनमोहका उपशमन करता है ॥९८॥
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विशेषार्थ - दर्शनमोहका उपशम प्रारम्भ करनेवाला जीव अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रस्थापक कहलाता है । मति, श्रुत या विभंगमे से किसी एक ज्ञानोपयोग से उपयुक्त जीव ही दर्शनमोहके उपशमको प्रारम्भ कर सकता है, दर्शनोपयोगसे उपयुक्त जीव नही कर सकता। क्योंकि, अवीचारात्मक या निर्विकल्पक दर्शनोपयोग से दर्शन मोहके उपशमका होना संभव नहीं है । गाथाके इस प्रथम चरण से यह अर्थ ध्वनित किया गया कि जागृत-अवस्था परिणत जीव ही सम्यक्त्वोत्पत्ति के योग्य है, निर्विकल्प, सुत्त, यामत आदि नहीं | दर्शनमोहके उपशमनाकरणको सम्पन्न करनेवाला जीव निष्ठापक कहलाता है | दर्शनमोहका उपशामक जब सर्व प्रथमस्थितिको क्रमसे गलाकर अन्तर- प्रवेश के अभिमुख होता है, उस समय उसे निष्टापक कहते है | दर्शनमोहोपशमन के प्रस्थापन और निष्ठा - पन कालके मध्यवर्ती जीवको यहाँ मध्यम पदसे विवक्षित किया गया है । यह मध्यवर्ती और निष्ठापक जीव भजितव्य है, अर्थात् साकारोपयोगी भी हो सकता है और अनाकारोपयोगी भी | दर्शनमोहनीयके उपशमका प्रस्थापक चारो मनोयोगोमे से किसी एक मनोयोग में, चारो वचनयोगो में से किसी एक वचनयोगमें तथा औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोगमेसे किसी एक काययोगमें वर्तमान होना चाहिए । इसी प्रकार उसे जघन्य तेजोलेश्या से परिणत होना आवश्यक है । तेजोलेश्याका यह नियम मनुष्य तिर्यंचोंकी अपेक्षासे कहा गया जानना चाहिए । मनुष्य - तिर्यंचोमे कोई भी जीव कितनी ही मन्द विशुद्धिसे परिणत क्यो न हो, उसे कमसे कम तेजोलेश्याके जघन्य अंशसे युक्त हुए बिना सम्यक्त्वकी उत्पत्ति असंभव है । उक्त नियम देव और नारकियोंमें संभव इसलिए नहीं है कि देवोके सदा काल शुभ लेश्या और नारकियोंके अशुभ लेश्या ही पाई जाती है ।
उपशामकके मिथ्यात्ववेदनीयकर्मका उदय जानना चाहिए | किन्तु उपशान्त अवस्थाके विनाश होनेपर तदनन्तर उसका उदयं भजितव्य है || ९९ ॥