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## Kasaya Pahud Sutta (Page 2, Verse 89-90)
**Verse 89:**
* **From the perspective of Vyavaharanaya (practical conduct),** anger is considered a cause of aversion, pride is considered a cause of aversion, and deceit is considered a cause of aversion. However, greed is considered a cause of attraction.
**Verse 90:**
* **From the perspective of the Riju Sutra (straight path),** anger is considered a cause of aversion, pride is neither a cause of aversion nor attraction, deceit is neither a cause of aversion nor attraction, and greed is considered a cause of attraction.
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कसाय पाहुड सुत्त
[ १ पेजदोसविहत्ती
८९. ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोस्रो, लोहो पेज्जं । ९०. उजुसुदस्त कोहो दोसो, माणो णो दोसो णो पेज्जं, माया णो दोसो णो पेज्जं, लोहो पेज्जं ।
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चूर्णिसृ० - व्यवहारनयकी अपेक्षा क्रोधकपाय द्वेप है, मानकषाय द्वेप है, मायाकपाय द्वेप है । किन्तु लोभकषाय प्रेय है || ८९ ॥
विशेषार्थ - क्रोध और मानकपायको द्वेप कहना तो उचित है, क्योंकि, लोकमे उन दोनो के भीतर द्वेष व्यवहार देखा जाता है । किन्तु मायाकपायमे तो द्वेपका व्यवहार नही पाया जाता है, अतः उसे द्वेष नही कहना चाहिए ? इस शंकाका समाधान यह है कि माया मे भी द्वेपका व्यवहार देखा जाता है । इसका कारण यह है कि माया करने से संसारमें अविश्वास उत्पन्न होता है, जिससे कोई उसका विश्वास नहीं करता । माया करने से लोक - निन्दा भी उत्पन्न होती है और लोक-निन्दित वस्तु प्रिय हो नही सकती है, क्योकि, लोक - निन्दासे सदा ही दुःख और अशान्ति उत्पन्न हुआ करती है । अतएव व्यवहारनयकी अपेक्षा मायाकपायको द्वेप कहना न्यायोचित है । इसी नयकी अपेक्षा लोभको प्रेय कहना भी उचित ही है, क्योकि, लोभसे संचित और रक्षित द्रव्यके द्वारा व्यवहारिक जगत्मे जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ देखा जाता है । इसी प्रकार व्यवहारकी स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी प्रेयरूप हैं, क्योकि, इनके निमित्तसे राग भावकी उत्पत्ति देखी जाती है । किन्तु शेष सात नोकपाय इस नयकी अपेक्षा द्वेपरूप है, क्योकि, व्यवहारमें शोक, अरति आदिसे द्वेपभाव उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है ।
चूर्णिसू० - ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिसे क्रोधकषाय द्वेप है, मानकपाय नोट्ठेप और नोप्रेय है, मायाकपाय नोद्वेष और नोप्रेय है, तथा लोभकपाय प्रेय है ॥ ९० ॥
करते हुए वर्तमानम
विशेषार्थ - ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा क्रोधकपायको द्वेप कहना उचित है, क्योकि, वह सकल अनर्थोंका मूल कारण है । लोभको प्रेय कहना उचित है, क्योकि, उससे हृदय आल्हादित होता है । किन्तु मान और मायाकपायको नोद्वेप और नोप्रेय कैसे कहा, क्योकि, राग और द्वेपसे रहित तो कोई कपाय पाया नही जाता ? इस शंकाका समाधान यह हैमान और मायाकपायको नोद्वेप कहनेका तो कारण यह है कि इनके अंग-संताप, चित्त-वैकल्य आदि नही उत्पन्न होते है । यदि कभी वहॉपर वह शुद्ध मानकपाय न समझकर क्रोध - मिश्रित मानकपाय प्रकार मान और मायाकषायको नोप्रेय कहना भी युक्ति-संगत है, अपेक्षा वर्तमानमें गर्व और छल-प्रपंच करते हुए आल्हादकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती । उक्त कथनसे यह सिद्ध हुआ कि मानकषाय और मायाकपाय न पूर्णरूपसे, प्रेयरूप ही हैं और न द्वेपस्वरूप ही । अतएव इन्हें नोप्रेय और नोद्वेष कहना सर्वप्रकारसे न्याय संगत है ।
कही होते भी है, तो समझना चाहिए । इसी
क्योकि, ऋजु सूत्रनयकी